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४८०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ६.
"जीवाः क्षाम्यंतु सर्वे मे तेषां च क्षांतवानहम् ।। मंत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचित् ॥" .
[मुझे सभी जीव क्षमा करें; में सबको क्षमा करता हूँ। मेरी सभी जीवोंसे मित्रता है। मेरा किसीसे वैर नहीं है।] इस तरह कहकर श्रागार (ट) रहित और दुष्कर ऐसा भवचरिम (इस जीवनका अंतिम ) अनशन व्रत, उन्होंने सब अमगांके साथ ग्रहण किया। ज्ञपक श्रेणी में चढ़े हुए उन पराक्रमी पुंडरीक गणधरकं सभी याति कर्म, जीर्ण डोरीकी तरह चारों तरफसे क्षय हो गए। दूसरे, कोटि साधुओंके कर्म भी तत्कालही तय हो गए । कारण
१६. सर्वसाधारणं तपः1" [तप सबके लिए साधारण होता है। एक महीनेकी संनेखना अंतमें चैत्र महीने की पूर्णिमाके दिन प्रथम पुंडरीक गणघरको केवलज्ञान हुआ । और फिर दूसरे सभी साधुओंको भी केवलनान हुवा। शुक्लव्यानके चौथे पाएमें स्थित उन अयोगी केवलियोंने बाकी बचे हुए अयाति काँका नाश कर, मोक्षपद . पाया । उस समय स्वर्गसे पाकर देवताओंन मनदेवी माताकी नरह भक्ति सहित उन सबकं मोक्ष नानेका उत्सव किया। भगवान ऋषभदेव जैसे प्रथम तीर्थकर हुए उसी तरह यह पर्वत मी उसी समय से प्रथम तीर्थरूप हुश्रा । जहाँ एक साधु सिद्ध होते हैं वह स्थान भी जब पवित्र तीर्थ माना जाता है तब जहाँ (कोटिं) मुनि सिद्ध हुए है वहाँकी पवित्रताकी उत्कृष्टताके संबंध-' में नो ऋहनाही क्या है ? (४३३-१४७)