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पाँचवाँ भव-धनसेठ
अपनी प्रियाके साथ रवाना हुआ कि सौभाग्यसे स्वामीकी आज्ञा भी समयके अनुसारही मिली है। (६२१)
नंदीश्वर द्वीपमें जाकर उसने शाश्वती अर्हत्प्रतिमाकी पूजा की । और पूजासे पैदा हुए आनंदमें वह अपने च्यवनकालको भी भूल गया । निर्मल मनवाला वह देव जब दूसरे तीर्थोकी तरफ जा रहा था तब उसकी आयु समाप्त हो गई और वह थोड़े तेलवाले दीपककी तरह रस्ते ही समाप्त हो गया-देवयोनिसे निकल गया। (६२२-६२३)
पाँचवाँ भव जबूद्वीपमें, सागरके समीप पूर्व विदेह क्षेत्र है। उसमें सीता नामकी महानदीके उत्तरतटकी तरफ पुष्कलावती नामका विजय (प्रांत ) है। उसमें लोहार्गल नामका वड़ा शहर है। उसका राजा स्वर्णजंघ था। उसकी पत्नी लक्ष्मीके गर्भसे ललि. तांग नामका देव पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ। आनंदसे फले हुए माता-पिताने खुश होकर उसका नाम वनजंघ रखा। (६२४.६२६)
स्वयंप्रभादेवी भी, ललितांगदेवके वियोगसे दुखी होकर धर्मकार्यमें दिन विताती हुई, कुछ कालके बाद वहाँसे च्यवी
और उसी विजयमें पुंडरी किनी नगरीके राजा वनसेनकी पत्नी गुणवतीकी कोखसे न्यारुपमें जन्मी। यह बहुतही शोभावाली (सुदरी) थी, इसलिए मातापिताने उसका नाम श्रीमती रखा। वह दाइयों द्वारा पाली जाकर इस तरह प्रमशः बढ़ रही थी जिस तरह मालिनों द्वारा पाली जाफर लताएं बढ़ती है।