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सागरचंद्रका वृत्तांत [२०३ उन पाँच शिल्पोंके (कुम्हारके, चित्रकारके, राजके, जुलाहेके
और नापितके )-प्रत्येक बीस बीस भेद हुए। इससे वे शिल्प सरिताके प्रवाहकी तरह सौ तरह फैले। यानी शिल्प सौ तरहके हुए। लोगोंकी जीविकाके लिए प्रभुने, घसियारेका, लकड़ी वेचनेवालेका,खेतीका और व्यापारका काम भी लोगोंको बताया। और साम, दाम, दंड व भेदकी नीति चलाई। यह चार तरहकी नीति मानों जगतकी व्यवस्थारूपी नगरीके चतुष्पथ (चार मार्ग) थे। (६४७-६५६)
ज्येष्ठ पुत्रको ब्रह्म (मूल मंत्र ) कहना चाहिए, इस न्यायसेही हो वैसे प्रभुने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरतको वहत्तर कलाएँ सिखाई। भरतने भी वे कलाएँ अपने भाइयोंको और पुत्रोंको अच्छी तरहसे सिखलाई । कारण,
"सम्यगध्यापयत्पात्रे विद्या हि शतशाखिका ।"
[पात्रको-योग्य मनुष्यको सिखाई हुई विद्या सौ शाखाओवाली होती है। ] प्रभुने बाहुबलीको हाथियों, घोड़ों, स्त्रियों और पुरुपोंके अनेक भेदोंवाले लक्षणोंका ज्ञान दिया; ब्राह्मीको दाहिने हाथसे अठारह लिपियाँ सिखाई और सुन्दरीको बाएँ हाथसे गणित विद्या बताई। वस्तुओंका मान (माप ) उन्मान (तोला, माशा आदि वजन ) अवमान (गज, फुट, इंच आदि माप) प्रतिमान (पाव, सेर, ढाई सेर आदि वजन ) बताए और मणि इत्यादि पिरोनेकी कला भी सिखलाई । (६६०-६६४)
वादी और प्रतिवादीका व्यवहार राजा अध्यक्ष और कुलगुरुकी साक्षीसे होने लगा। हस्ति आदिकी पूजा धनुर्वेद (तीर