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चौथा भव-धनसेठ
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गींदड़ कहींसे मांसका टुकड़ा लेकर नदी किनारे आया। उसने पानीमें तैरती हुई मछलियाँ देखीं। वह मांसका टुकड़ा छोड़कर, मछली पकड़ने दौड़ा। मछली गहरे पानीमें चली गई। गीदड़ने लौटकर देखा कि उसका लाया हुआ मांसका टुकड़ा भी गीध लेकर उड़ गया। (वह खड़ा पछताने लगा।) इसी तरह जो मिले हुए दुनियवी सुखोंको छोड़कर परलोकके (सुखोंके ) लिए दौड़ते हैं, वे दोनों तरफसे भ्रष्ट होकर अपने
आत्माको ठगते हैं। पाखंडी लोगोंके बुरे उपदेश सुनकर लोग नरकसे डरते हैं और मोहमें पड़कर व्रत वगैरा करके अपने शरीरको सताते हैं। उनका नरकमें गिरनेके डरसे तप करना ऐसाही है, जैसे लावक (लवा) पक्षीका पृथ्वी गिर जानेके डरसे एक पैर पर नाचना।" (३८४-३८६) .
स्वयंवुद्धने कहा, "यदि वस्तु सत्य न हो तो हरेक अपने अपने कर्मका करनेवाला खुदही कैसे होता है ? यदि सब मायाही हो तो सपनेमें मिला हुआ हाथी (प्रत्यक्षकी तरह) काम क्यों नहीं करता ? यदि तुम पदार्थों के कार्य-कारणभावको सच नहीं मानते हो तो, गिरनेवाले वजसे क्यों डरते हो ? यदि कुछ न हो तो तुम और मैं-वाच्य (कहने योग्य ) और वाचक (कहनेवाला) ऐसा भेद भी नहीं रहता है और व्यवहार चलानेवाली, इष्टकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? हे राजन् ! वितंडावादक पंडित, अच्छे परिणामोंसे विमुख और विपयकी इच्छा रखनेवाले इन लोंगोंके फेरमें न पडिए; विवेकसे विचारकर विषयोंका दूरहीसे त्याग कीजिए और इस लोक व परलोकमें सुख देनेवाले धर्मका आसरा लीजिए।" (३६०-३६४)