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भ० ऋपभनाथका वृत्तांत
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वृद्धि होती है वैसेही इनकी सेवा करनेसे इंद्रकी संपत्तियों मिलती है। मुक्तिकी छोटी बहिनसी दुर्लभ अहमिंद्रकी लक्ष्मीभी इनके सेयकको तत्कालही मिलती है । इन जगत्पतिफी सेवा करनेवाला प्राणी जन्म-मरण रहित सदा आनंदमय पद (मोक्ष) भी पाता है। अधिक क्या कहें ? इनकी सेवा करनेसे प्राणी इनकी तरहही इस लोकमें तीन भुवनका मालिक और परलोकमें सिद्धरूप होता है । मैं इन प्रभुका दास हूँ और तुम भी इन्हींके किंकर हो, इससे तुमको इनकी सेवाके फलरूप विद्याधरोंका ऐश्वर्य देता हूँ। यह समझना कि यह राज्य तुमको प्रभुकी सेवा करने से ही मिला है। (अर्थात स्वामीनेही यह राज्य तुमको दिया है।) पृथ्वीपर श्रमणका उदय सूर्यसेही होता है ।" इसके बाद इसने उनको, गौरी, प्रज्ञप्ति वगैरा अड़तालीसहजार विद्याएँ जो पाठ करनेहीसे सिद्धि देती है, दी और कहा, "तुम वैतादर पर्वतपर जाओ, वहाँ दोनों तरफ नगरकी स्थापना कर अक्षय राज्य करो।" (१५७-१७१)
तब वे भगवानको नमस्कार कर (विद्यायलसे ) पुष्पफ नामका विमान बना, उसमें सवार हो, पन्नगपति( नागराज ) के साथही वहाँसे रवाना हुए । पहले वे अपने पिता कच्छ, महाकच्छके पास गए और उनको स्वामीकी सेवारूपी वृक्षके फलरूपी उस नवीन संपत्ति प्राप्तिकी बात कही। फिर उन्होंने अयोध्याके पति भरतके पास जाकर उसे अपनी प्रसिका हाल बनाया । कारण,"मानिनां मानसिद्धिहि सफला स्थानदर्शिनाम् ।" [मानी पुरोको मानकी सिन्दि अपना स्थान बतानेदीसे