________________
टिप्पणियाँ
-
-
-
-
-
-
I
--
W
-
-
३. धर्मध्यान-देखो पेज ६३६ से ६७२ । धर्मध्यानके चार लक्षण हैं-जिनोपदेशमें रुचि; स्वभावसे ही तत्वमें रुचि, शाखाभ्याससे तत्लमें रुचि और बारह अंग-ग्रंथोंके सविस्तर अवगाहनकी कवि। धर्मध्यानके चार आलंबन है- वाचना (अध्ययन); प्रतिप्रच्छना; पुनरावर्तन और धर्मकथा। धर्मध्यानकी चार भावनाएँ हैं-एकत्व भावना; अनित्य भावना; अशरण भावना और संसार भावना। . . १. शुक्लध्यान-इसके चार भेद है-- . (क) पृथक्त्व वितर्क सविचार-पृथक्त्व-विविध पर्यायें। वितक-अंगशास्त्र या तज्ञान । विचार-संक्रमण । सविचारसंक्रमण सहित ] इसमें श्रुतज्ञानका अवलंबन लेकर किसी भी एक द्रव्यमें उसके पर्यायोंका विविध दृष्टियोंसे चिंतन किया जाता है; श्रुतज्ञानके सहारे ही एक अर्थ परसे दूसरे अर्थ पर,
अर्थ परसे शब्द पर, शब्द परसे अर्थ पर तथा एक योग परसे , दूसरे योग पर वार बार संचार करना पड़ता है। , (ख) एकत्व वितर्क अविचार-[अविचार-संक्रमण रहित] इसमें श्रुतज्ञानका अवलंयन होनेपर भी द्रव्यकी एकही पर्याय पर स्थिर हुआ जाता है; तथा शब्द अर्थके चिंतनका या मनवाणी-कायाके व्यापारोंमें कोई परिवर्तन नहीं किया जाता।
[क, और ख, में से 'क' भेदप्रधान है और 'ख' अभेद-- प्रधान । 'क' का अभ्यास होने परही 'ख' की योग्यता प्राप्त होती है। 'ख' में मनकी चंचलता जाती रहती है, और अंतमें ज्ञानके सकल आवरण हट जानेसे केवलज्ञान की प्रप्ति होती है । केवलज्ञान प्राप्त आत्मा 'सर्वज्ञ' कहलाता है। ]