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श्री अजितनाथ-चरित्र
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सर्ग दूसरा तीसरा भव-तीर्थकर पर्याय इसी जंबूद्वीपके भरत क्षेत्रमें, मानो पृथ्वीकी सिरमौर ' हो ऐसी विनीता (अयोध्या ) नामकी नगरी थी। उसमें तीन
जगतके स्वामी आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजीके मोक्षकालके बाद, उनके इक्ष्वाकुवंशमें असंख्य राजा हुए। वे अपने शुभ भावों द्वारा सिद्धिपदको पाए या सर्वार्थसिद्धि विमानमें गए। उनके बाद जितशत्रु नामका राजा हुआ । इक्ष्वाकुवंशमें फैलाए हुए छत्रके समान वह राजा विश्वके संतापको हरनेवाला था। फैले हुए उज्ज्वल यशसे, उसके उत्साहादि गुण, चंद्रसे नक्षत्रोंकी तरह, सनाथता पाए थे। वह समुद्रकी तरह गंभीर, चंद्रकी तरह सुखकारी, शरणार्थीके लिए वनके घरके समान, और लक्ष्मीरूपी लताका मंडप था। सभी मनुष्यों और देवोंके दिलोंमें जगह बनानेवाला वह राजा, समुद्र में चंद्रमाकी तरह, एक होते हुए भी अनेकके समान मालूम होता था। दिशाओंके चक्रको आक्रांत करनेवाले (घेरनेवाले ) अपने दुःसह तेजसे वह मध्याह्नके सूर्यकी तरह सारे जगतके ऊपर तप रहा था । पृथ्वीपर राज्य करनेवाले उस राजाके शासनको, सभी राजा मुकुटकी तरह मस्तकपर धारण करते थे। मेघ जैसे पृथ्वीपरसे (समुद्रमेंसे) जल ग्रहण करके वापस पृथ्वीको देता है वैसेही वह पृथ्वी. मेंसे द्रव्य ग्रहण करके दुनियाकी भलाई के लिए वापस दे देता था। नित्य वह धर्मका विचार करता था, धर्मके लिए वोलता था और धर्मके लिए ही कार्य करता था। इस तरह मन, वचन