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__सर्ग दूसरा
१. सागरचंद्रका वृत्तांत इस जवूद्वीपके पश्चिम महाविदेहमें, शत्रुओंसे जो कभी पराजित नहीं हुई-धारी नहीं, ऐसी अपराजिता नामकी नगरी थी। उस नगरी में ईशानचंद्र नामका राजा था। उसने अपने चलसे जगतको हराया था और लक्ष्मीसे वह ईशानंद्रके समान मालूम होता था। (१-२)
उसी शहरमें चंदनदास नामका सेठ रहना था। उसके पास बहुत धन था। वह धमात्मा पुरुषों में मुख्य और दुनिया. फो मुख पहुँगाने चंदनके समान था। (३)
उसके सागरचंद नामका पुत्र था। उससे दुनिगाकी प्रोन्न टंडी होनी थीं। समुह जैसे चंद्रमाको आनंदित करना सही या पिनाको प्रानंदित करना था । स्वभाव सही या मरल, धार्मिक और विवेकी था। इससे मारे नगरका बा, गुवमंटन (निलफ) हो गया था (१-५)
एक दिन मागरचंद राजयनग-दरबार में गगा । यहाँ राजा ( सिंहासन पर बैठा भा) और उममें मुजरा करने और अपनी सेवा करने लिए गए माना गारो नरपेट । गजाने मागका उममे पिनाही ही मरद, समन, गांगुनदान (पान-बाना ना ) यग में नमार फिया लार पड़ा . मायामा । ६)