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सागरचंद्रका वृत्तांत
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धान्यसे परिपूर्ण किया। उस नगरीमें हीरों, इंद्रनीलमणियों
और वैडूर्यमणियोंसे बनी हुई बड़ी बड़ी हवेलियाँ, अपनी कर्बुर (स्वर्ण) किरणें आकाशमें, दीवारके न होनेपर भी विचित्र चित्रकी क्रियाएँ रचती थीं, और मेरुपर्वतके शिखरके समान ऊँची स्वर्णकी हवेलियाँ ध्वजाके बहाने चारों तरफ पत्रालंबनकी लीलाका विस्तार करती थीं। वे उनके चारों तरफ पत्ते फैले हुए हों ऐसीमालूम होती थीं यानी हवेलियाँ वृक्षसी और ध्वजाएँ फैले हुए पत्तोंसी जान पड़ती थीं । उस नगरीके किलेपर माणिक्यके कंगूरोंकी श्रेणियाँ थीं; विद्याधरोंकी सुंदरियोंके लिए विना प्रयत्न केही दर्पणका काम देती थीं । उस नगरीके घरोंके आँगनों में मोतियोंके साथिए पूरे हुए थे, इसलिए लड़कियां उन मोतियोंसे कर्करिक क्रीड़ा (कंकरोंसे-चपेटा खेलनेका खेल) करती थीं । उस नगरीके वागोंके अंदरके ऊँचे ऊँचे वृक्षोंसे रात-दिन टकराते हुए खेचरियोंके विमान कुछ देरके लिए पक्षियोंके घोंसलोंका दृश्य दिखाते थे। अटारियोंमें और हवेलियोंमें पड़े हुए रत्नोंके ढेरोंको देखकर, वैसे शिखरोंवाले रोहणाचलकी शंका होती थी। गृहवापिकाएँ, जलक्रीड़ाएँ करती हुई सुंदरियोंके मोतियों के हारोंके टूटनेसे, ताम्रपरणी सरिताकी शोभाको धारण करती थीं। वहाँके व्यापारी इतने धनवान थे कि किसी व्यापारीके लड़केको देखकर यह मालूम होता था कि धनद (कुबेर) खुद यहाँ व्यापार करने आया है। रातके समय चंद्रकांतमणियोंकी दीवारोंसे भरते हुए जलसे वहाँकी रज स्थिर हो जाती थी। अयोध्या नगरी अमृतके समान जलवाले लाखों फुओं, वावड़ियों और सरोवरोंसे नवीन अमृतके कुंडवाले नाग-लोकोके समान शोभती थी। (६१२-६२३)