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... . . : चौथा भव-धनसेठ .
निवेदन है कि आप धर्ममें लगिए । मैंने असमयमें धर्माचरणकी बात क्यों कही, इसका कारण भी सुनिए । श्रान नंदनवनमें मैंने दो चारणमुनियोंको देखा था। वे दोनों मुनि जगतको प्रकाशित करनेवाले और महामोहरूपी अंधकारका नाश करनेवाले चाँद और सूरजके समान लगते थे। अपूर्व ज्ञानधारी वे महात्मा धर्मदेशना देते थे। उस समय मैंने उनसे आपकी उम्रका प्रमाण पूछा था। उन्होंने बताया था कि आपकी उम्र अव केवल एक महीना रही है। इसलिए हे महामति, मैं आपसे शीघ्रही धर्मकाममें लगनेकी विनती कर रहा हूँ।" (४३२-४४६)
महावल राजा बोला, "हे स्वयंयुद्ध ! हे बुद्धिके समुद्र ! मेरे बंधु तो तुम्ही एक हो । तुम्हीं मेरे हितकी चिंतामें सदा रहते हो। विषयों में फंसे हुए और मोहनिद्रामें पड़े हुए मुझको तुमने जगाया यह बहुत अच्छा किया। अब मुझे बताओ कि मैं किस तरह धर्मका साधन करूँ ? आयु कम है, अब इतनेसे समयमें कितनी धर्मसाधना कर सकूँगा ? आग लगनेके बाद कुँश्रा खोदकर आग बुझाना कैसे हो सकता है ?" (४४७-४४६) . स्वयंवुद्धने कहा, "महाराज अफसोस न कीजिए ! वह बनिए। आप परलोकके लिए मित्रके समान यतिधर्मका आसरा लीजिए। एक दिनकी भी दीक्षा. पालनेवाला मनुष्य मोत पासकता है तो स्वर्गकी तो बातही क्या है ?" (४५०-४५१ )
महावल राजाने दीक्षा लेना स्वीकारकर अपने पुत्रको इसी तरह अपनी राज्यगद्दीपर बिठाया जिस तरह मंदिरमें प्रतिमा स्थापित की जाती है। फिर दीन और अनाथ लोगोंको उसने इस तरहसे और इतना अनुकंपादान दिया कि इस नगरमें एक