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श्री अजितनाथ-चरित्र
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वहाँसे चक्ररत्नके मार्गसे वे पृथ्वीपति सेनाको रजसे सूरजको ढकते हुए पश्चिम दिशाकी तरफ चले । गरुड़ जैसे दूसरे देशके पक्षियोंको उड़ाता है वैसेही वे द्राविड देशके राजाओंको भगाते, सूर्य जैसे उल्लु ओंको अंधा बनाता है वैसेही वे आंध्रके राजाओंको अंधा बनाते, तीन तरहके चिह्नोंसे ( यानी बात, पित्त और कफके विकारसे ) जैसे प्राण नष्ट होते हैं वैसेही, वे कलिंग देशके राजाओंके राजचिह्नोंको छुड़ाते, दर्भके विस्लरमें रहे हों वैसे, विदर्भदेशके राजाओंको निःसत्व बनाते, कपड़ेवाला जैसे स्वदेशका त्याग करता है वैसेही, महाराष्ट्र देशके राजाओंसे उनके देशका त्याग कराते, वाणोंसे जैसे घोड़े अंकित किए जाते हैं वैसेही, अपने वाणोंसे कोकण देशके राजाओंको अंकित करते, तपस्वियोंकी तरह लाट देशके राजाओंको ललाटपर अंजलि रखनेवाला वनाते, बड़े कछुओंकी तरह कच्छ देशके सभी राजाओंको चारों तरफसे संकोच कराते और कर सोरठ देशके राजाओंको, देशकी तरह अपने वशमें करते, वे क्रमसे पश्चिम समुद्रके किनारेपर आए । ( १०६-११४)
वहाँ छावनी डाल प्रभास तीर्थ के अधिष्ठायक देवको हृदयमें धारण कर, अष्टम तप कर, उन्होंने पौपधशालामें पौषध ग्रहण किया। अष्टमके अंतमें सूर्यकी तरह बड़े रथपर सवार हो, चक्रीने रथकी नाभि तक समुद्र में प्रवेश किया। फिर उसने चिल्ला चढ़ाकर वाणके-- प्रयाणके कल्याणकारी, जयवाजिनके शब्दके जैसी, धनुपकी टंकार की और प्रभास तीर्थके देवके निवासस्थानकी तरफ, संदेश पहुँचानेवाले दूतके जैसा अपने नागसे अंकित बागा चलाया। पक्षी जैसे पीपल पर गिरता है