Book Title: Pravachan Saroddhar Uttararddh
Author(s): Nemichandrasuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठि- देवचन्द्र- लालभाई - जैनपुस्तकोद्धारे - ग्रन्थाङ्कः - ६४. स्वपरसमयज्ञाननिधिश्रीसिद्धसेन सूरिशेखररचितवृत्त्यलङ्कृतः अवधृतसिद्धान्तहृदयश्रीमन्नेमिचन्द्रसूरिप्रवरनिर्मितः श्रीप्रवचनसारोद्धारः ( उत्तरभागः ) (समूलो विविधानुक्रमयुतः) मुद्रणकारिका-श्रेष्ठि- देवचन्द्र- लालभाई - जैनपुस्तकोद्धारसंस्था । प्रसिद्धिकारकः - जीवनचन्द्र साकरचंन्द्र जहेरी, अस्याः कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं मोहमय्यां जीवनचंद साकरचंद झहेरी इत्यनेन निर्णयसागरयन्त्रणालये कोलभाटवीध्यां २६-२८ तमे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । प्रति १०००] वीरसंवत् २४५२. विक्रम संवत् १९८२. - पण्यं चत्वारो रूप्यकाः काईष्टस्य १९२६. † Rs. 4-0-0 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ All rights reserved by the Trustees of the Fund. ] Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya-sagar Press, No. 26-28, Kolbhat Laue, Bombay Published by Shah Jivanchand Sakerchand Javeri, for Seth Devchand Lalbhai Jain Pustakoddhâra Fund, No 114, 116 Javeri Bazar, Bombay. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठी देवचन्द लालभाई जव्हेरी. जन्म १९०९ वैक्रमादे कार्तिकशुक्लैकादश्यां सूर्यपुरे The Late Seth Devchand Lalbhai Javeri. Born 1853 A. D. Surat. निर्याणम् १९६२ वैक्रमाब्दे पौषकृष्ण तृतीयायाम्, मुम्बय्याम् or Private & Personal Use Onl The Lakshmi Art Printing Works, Byculla. Died 1906 A. D. Bombay. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठि देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे अद्यावधि मुद्रितग्रन्थानां सूचिः । मूलकत्तो टीकाको रचनाकाल मुद्रण मूल.टीका. स्थानं पण्यं । अंकः ग्रन्थनाम. लोक. पत्र. विशेषः विषयः " कालच मू. टीका. प्रति. १ वीतरागस्तोत्रं श्रीहेमचंद्रसूरिः प्रभानन्दसूरिः मू. *२०० प.८९ वीतरागकी स्तुति (अभय०जिनव टी.२१०० लभ. अभय. देव प्रमशिष्यः) " पञ्जिका श्रीसोमसुन्दर- १५१२ नि.सा.प्रे. ॥) टी. ६२५ प्र.५०० प्रथमादर्शः हर्षचन्द्रीयः शिष्यः विशालराजः . १९११ * यह संख्या अनुमानसें हे. For Private Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ ॥ १॥ अंकः ग्रन्धनाम. मूलकती टीकाकर्त्ता २ श्रवणप्रतिक्रमणं गणधरः ३ स्याद्वादभाषा शुभविजयगणि: शुभविजयगणि: ( प्रमाणनयत प्रकाशिका ) ( हीरसूरिशिष्यः ) ४ पाक्षिकसूत्रवृत्ति: गणधरः यह संख्या अनुमानसें है. रचनाकाल मूल. टीका. मुद्रण. स्थान पण्यं कालश्व गुजराती- ") प्रे. मुंबई १९११ गुजराती प्रेस मुंबई. १९११ पत्र. लोक. मू. टीका. प्रति प. १५ प्र. ५०० विशेषः वीरगणिश्रीचन्द्र ११८० नि. सा. प्र. 17) मू. * ३०० प. ७८ अणहिलपाटन यशोदेवः टी. २७०० प्र. ५०० मुंबई १९११ विषयः साधुव्रतोंके अतिचारका प्रतिक्रमण प. १४ श्रीविजयसेन सूरिनिर्दे- तत्त्रप्रमाणनयविचार प्र. ५०० शात् साधुमहाव्रत ओर श्रुतकीर्तन सूची. ॥ १ ॥ jainelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S दिगम्बरखण्डन - ५ अध्यात्ममतप- (हीरसूरि विजयसेनरीक्षा (पृथग् बिजयदेव०विजयसिंहमूलम्) काले (कल्याण. लाभ. जीत. नयविजयशिष्यः) श्रीयशोविजयमहोपाध्यायः नि.सा.प्रे. 1) गाथा १८४ प.११४ मुंबई प्र. ५०० ११११ ६ षोडशकं (पृथक्-मूल) श्रीहरिभद्रसूरिः यशोभद्रः श्रीयशो विजयमहोपाध्यायश्च नि.सा.प्रे. 1 मुंबई १९११ धर्मपरीक्षा वगेरे CONOTESCARROCESSES मू. २५. प. १०६ प्र. ५०० ७ कल्पसूत्रवृत्तिः भद्रबाहुसुबोधिका आचार्या I RISIREASAIRASARA*** जैनप्रेस सुरत. १९११ ) मू.१२१६ प.६०० प्र. ५०० Tibt जिनचरित्र, स्थविरावली, सामाचारी विनयविजयउपाध्यायः (हीरसूरि, विजयसेन, विजय. तिलक, विजयानन्दकाले) ८ वन्दाल्वृत्तिः गणधरः (श्रावकानुष्ठानविधिः) श्रावक के छ आवश्यक श्रीदेवेन्द्रसूरि (तपा० श्रीजगचन्द्र शिष्यः) नि.सा.प्रे. मुंबई १९१२ टी.२७२० प. ९६ प्र. ५०० Jan Education For Private Personel Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ सूची. 26-ON अंकः ग्रन्थनाम. मूलकत्ता विशेष: मुद्रणटीकाकर्ता रचनाकाल मूल टीका स्थान स्थान पण्यं काल - मूल टीका प्रति विषयः ॥ २ ॥ १९१२ प्र. ५०० ९ दानकल्पद्रुम. देवसुन्दर-सोमसुन्दरशिष्यः जिनकीर्तिः १० योगफिलॉसॉफी. भगुभाइ (कारभारी) थामसन, पृष्ठ. २६४ प्र.१००० एण्डको, मदास. १९१२ धनाजीका जीवन वृत्तान्त अंग्रेजी, अमेरिका चिकागोमें दियाहुना १८९३ में वीरचंद राघवजी गांधीका भाषण। देवसूरिशिष्य माणिक्यसूरि ओर शंकराचार्यका कर्तृत्वादि वादविवाद। नि.सा.प्रे. ११ जल्पकल्पलता. सोमसुन्दर-मुनिसुन्दर-जयचंद्र-रन शेखरशिष्य रखमण्डनःरतशेखर काले नंदिरनशिष्य, प्र. २३ SCAMC-SC-CGT | १२ योगदृष्टिसमु- स्वोपज्ञः हरिभद्रसूरिकृतः चयः मैत्रीआदि आठ दृष्टि, २ ॥ अहमदा-9) टी. २२६ पृष्ट. ९० बाद सिटि प्र.४७५ प्रेस १९१२ -34 For Private & Personel Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ कर्म्मफिलॉ. भगुभाइ कारभारी सॉफी १४ आनन्दकाव्यमहोदधिः मौक्तिकं १ Jain Education anal 33 " कुसुम श्रीरास लावण्य विजय शिष्यनीति विजयशिष्यगंग विजयः 33 शालिभद्ररास, जिनहं सशिष्यः मतिसारः " अशोकचंदरोहिणी. आनन्दविमल० घरमसिंह० जय० कीर्ति० विनय० धीरविमलशिष्यनयविमलजी. ૧૬: १७७० जैन प्रेस- 1) सुरत १९२३ १७७२ ब्रह्मवादिन 1-) मद्रास १९१३ प्रेमलालच्छी विजयानन्द० मुनिविजय० शिष्यः १६८९ दर्शनविजय रास. पृष्ठ. १६६ प्र. १००० प. ४६२ प्र. १००० अंग्रेजी, अमेरिका चिकागो में दिया हुआ १८९३ में वीरचंद राघवजी गांधीका भाषण विजयदेव०प्रभ० रख० क्षमा०काले, मातर नगरे विजय प्रभु सम्मति से ज्ञानविमल आचार्यने सुरतबंदर सैतपुर (सुखसागरने ) लिखा अबरहानपुरका दलपुरमें. %%%% Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ ॥३॥ अंकः ग्रन्थनाम मूलकर्त्ता टीकाकर्त्ता १५ धर्मपरीक्षा. १६ शास्त्रवासी श्रीहरिभद्रसूरिः श्रीयशोविजयोसमुच्चयवृत्ति. पाध्यायः १७ कर्म्म प्रकृतिः शिवशम्मैसूरः मलयगिरिः १८ कल्पसूत्रमूलं श्रीभद्रबाहुभाचार्याः कालिकाचार्य कथा च पद्मसागरगणि: ( धर्म्मसागर चि- १६४५ नि. सा. प्रे. 1) मू. १४८४ प. ५८ मलसागरशिष्यः ). मुंबई. प्र. ५०० १९१३ रचनाकाल मूल टीका यह संख्या अनुमानसें है. मुद्रणस्थान पण्यं काल पत्र लोक मूल टीका प्रति धम्र्म्माभ्यु० २) *मू. ७०० प. ४३१ टी. प्र. ५०० * १२००० बनारस. १९१४ . नि. सा. प्रे. १४ मू. ४७५ मुंबई. १९१३ नि. सा. प्रे..-८-.. मुंबई. १९१४ - मू. १२०० ६५ काव्य प. २२० प्र. ५५० प. ६९५ प्र.१००० विशेषः विषयः पुराणों विगेरह की परीक्षा नास्तिकादि दर्शनोकी परीक्षा बन्धनादिक अष्ट करण जिनचरित्रादि ओर कालिकाचार्य वृत्तान्त सूची. ॥ ३ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ पञ्चप्रतिक्रमणानि गणधरादि " ०-४-० रामचरित्र. २० भानन्दकाव्य- विजयक्राषि, धर्ममुनि, क्षेमसागर, १५८३ जैन प्रेस -10-. महोदधि मौक्ति- पद्ममुनि, गुणसागर, केशराज सुरत. कं रामयशो १९१४ रसायनरास प.३७० प्र.१००० २१ आनन्दकाव्य महोदधि ३ १६७४ , भरत रास ऋषभदास, सागणपुत्र. ,, जयानन्दकेबली वाणाकवि विजयानन्दराज्ये रास. १६८६ , बच्छराजदेव- लावण्यसमय (लक्ष्मीसागरराज्ये) राजरास मुनिसुन्दरसूरिका ८००० बाला चरित्रपरसें, कथपुर, - Jain Education Intematiana For Private & Personel Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ ॥ ४ ॥ मूल कर्त्ता ,, सुरसुन्दरीरास. नय सुन्दरजी. अंकः ग्रन्थनाम. २२ उपदेशरखा करः मुनिसुन्दर सूरिः " नलदमयन्ती- मेघराज पार्श्वचन्द, समरचंद्र, रामचंद्र रास ,, हरिबलमच्छी- जिन हर्ष ( जिनचंद्रराज्ये ) रास. रचनाकाल टीकाकती मूल टीका मुद्रणस्थान काल १६६४ १६४६ अहमदा ॥5) बाद डायमंड जुबिली. १९१४ १७४६ पण्यं नि.सा. प्र. 11) मुंबई. १९१४ श्लोक पत्र मूल टीका प्रति ७७५ प. ४३९ प्र.१००० प. २३१ प्र. ५०० विशेषः विषयः देव, गुरु, धर्म, ओर श्रावकादिका स्वरूप. सूची. ॥ ४ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ चतुर्विंशतिजि- श्रीविजयसेनकाले आनन्दविजयदला नानन्दस्तुतिः शिष्यः निर्मल प्रि. अहमदाबाद. १९१४ ६६ प.३० प्र. ५०० चौबीस तीर्थकरकी स्तुति C२४ षट्पुरुषचरित्रं देवसुन्दर शिष्यः क्षेमकरः उत्तमोत्तमादि छह पुरुष लुहानाप्रे. भ बडोदा १९१५ प्र. ५०० ASUS XHAUSSOSHA २५ स्थूलभद्चरित्रं जयानन्दसूरिः ६९० . .. १९१५ शीलकी महत्तामें प.४४ प्र.७५० AIRES RESSORASARASAAC २६ धर्मसंग्रहः विजयानन्द, शान्तिविजयशिष्यः पूर्वार्द्धः स्वोपज्ञः मानविजयोपाध्यायः नि.सा.प्रे.) मुंबई. १९१५ ९४२३ प. २५९ प्र. ५०० सामान्य ओर विशेष गृहस्थका धर्म *२७ संग्रहणी (पृथक अभयदेव हेम. श्रीचन्द्रशिध्यः श्रीचंद्र देवभद्रा " १९१५ ) गाथा२७३ प. १३८ ३५०० प्र. ५०० देव, नारक, स्थिति भव भवगाहना वगेरह For Private Personal Use Only an Education internationa Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ सूची. अंकः अन्धनाम. मूलककर्ता विशेषः विषयः टीकाकर्ता रचनाकाल रचनाकाल मुद्रणमली स्थान पर्यश्लोक पत्र - मूलटीका प्रति काल १७९३ २८ उपदेशशतकं विबुधविमलः सम्यक्त्वपरीक्षा च GAISMASRAXASA मद्रास ) प. १४ आनन्द विमल-विजय- सम्यक्त्व परीक्षा तथा ब्रह्मवादी पृ. १९ दान-हीरसूरि-सेन- १२ भावना १९१६ प्र. ५०० सूरि विजयदेव-विजय प्रभ-राज्ये ज्ञानविमलऋद्धि विमल, कीर्तिविमलशिष्य विबुध विमलः नौरंगाबाद नि. सा.प्रे. ॥) मू. १५४५ प.११८ नमुत्धुणं विगेरः चैत्य वमुंबई. पंजि. प्र. ५०० न्दनं १९१५ २१५५ **GARAGARRAGAMA ४२९ ललितविस्तरा हरिभद्रसूरिः पंजिका-मुनिचंद्रः ) ॥ G३० आनन्दकाव्य महोदधि मौ.३ शत्रुजय रास. जिनचंद्र-सोमग- १७५५ सुरत जै. णि-शान्तिहर्षशिष्यः जिनहर्षः प.६८० प्र.१००० Jan Education International For Private Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Inter ३१ अनुयोगद्वाराणि गणधरः (पूर्वार्द्ध) ३२ आनन्दकाव्य महोदधिमी ५ हीरसूरिरास वीरदेव अभय देव- हेमचंद्रः ३४ मलयासुन्दरी जयतिलकसूरिः चरित्रं ऋषभदास कवि ( सांगणपुत्र ) विजयानंदसूरिराज्ये. ३३ उत्तराध्ययनानि जिन प्रत्येकबुद्ध-वादिबेतालपहिला भाग. ऋषि - गणधर शान्तिसूरि. वगेरह नि. सा. प्र. 1) मू. २२८५ प. २७१ हर्षपुरीये प्रश्नवाहने, उपक्रम, निक्षेप, मुंबई. डी. ५९०० प्र. ५०० १९१५ १६८५ अहमदा-15) बाद सिटी प्रेस. १९१६ नि. सा. प्र. मुंबई. 33 पृ. ४०० खंभात, खुरम पातिशाह प्र.१००० ) मू. २०७ प. २२८ निं. १२७ प्र. ५०० गुजराती (5) मू. २४२४ प. ९७ प्रेस. प्र. ५०० मुंबई. 33 विनयपरीषहजय वगेरे jainelibrary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ ॥ ६ ॥ अंकः ग्रन्थनाम मूलकर्त्ता ३५ सम्यक्त्वसप्ततिः हरिभद्रसूरिः (?) ( तवकौमुदी ) पृथक मूलं ३६ उत्तराध्ययन- जिन गणधर सूत्रे भा. २ प्रत्येकबुद्ध बगेर: टीकाकर्त्ता वादिवेतालशान्तिसूरिः मुद्रण पण्यं स्थान टीका काल रचनाकाल मूल पत्र श्लोक मूल टीका प्रति १४२२ नि.सा. प्रे. १) टी. ७११ १९१३ नि. सा. प्र. १ ।। 1) मू. २०८ - प. २१९ मुंबई. ९२० -५१२ नि. १२८- प्र. ५०० ४५७ विशेषः प. २३८ अभयदेवजिनवल्लभका श्रद्धादि प्र. ५०० जिनशेखरपद्मचंद्रविनयचंद्र अभयदेवदेवभद्र प्रभानन्द-श्रीचंद्र (विमलचंद्र ) गुणशेखरशिष्यः संघ तिलकः, सोमतिलकाचार्या नुजदेवचंद्रवचनात् जिनप्रभ० दिल्यां, महम्मदशाह, सोमकलशयशः कलशी विषयः अकामकाममरणादि, *6* सूची. ॥६॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B १६९ देखो नं ३ ३. अनुयोगद्वार- देखो नं ३३ सूर्य उत्तरार्द्ध हेमचन्द्र सूरिः देखो नि.सा.प्रे.) नं.३१ मुंबई १९१६ ३८ गुणस्थानक्रमा- रतशेखरसूरिः स्वोपज्ञः लुहाना प्रे. बडोदा १९१६ मू.१३५ पृ.७० बज्रसेनसूरि हेमतिलक- चउद गुणस्थानोंका प्र.७५० सूरिपट्टप्रतिष्ठितः रख- स्वरूप. शेखरसूरिः ASHARACTERISASSASSA | ३९ धर्मसंग्रहणीपू. हरिभद्सूरिः मलयगिरिः नि.सा.प्रे. १) मू. ५४५ प.२१० मुंबई प्र. ५०० १९१६ ज्ञान दर्शन, चारित्र धर्म निरूपणं ) गुज.प्रे. मुंबई १९१७ प.२१७ प्र. ५०० ४. धर्मकल्पद्रुमः मुनिसिंह-शील रख-आनन्दप्रभभानन्दरनकाले मुनिसागरशिष्यः उदयधम्मः दान, शील, तप भाव का स्वरूप प्र. सा. सूची. २ For Private Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ अंकः ग्रन्थनाम मूलका टीकाकर्ता रचना- मुद्रणकालः मूल स्थान पण्यं । श्लोक पत्र टीका काल मूलटीका प्रति विशेषः विषयः सूची. ला. उत्तराध्ययनसू-जिन, गणधर, प्र-बादिवेतालशा- नि.सा.प्रे. नि. ४५८ प. ५१३ धारापद्गच्छ. अष्ट प्रवचन माता, यज्ञ, त्रे भा.३ त्येक बुद्ध विगैरः न्तिसूरिः मुंबई ५६२ से.७१४ सामाचारी विगैरः १९१७ मू. ९२१ प्र.५.. १६४० सूत्र. ८ C२ धर्मसंग्रहणी उ-हरिभद्रसूरिः मलयगिरिः नि. सा.प्रे. १) ५४६ से. प. २११ ज्ञान, दर्शन, चारित्र त्तराई मुंबई १३९६ से. ४५१ धम्में निरूपण १९१८ प्र. ५०० ४३ आनन्दकाव्यम भानुमेरुशिष्य न-मू. १६३७ अहमदा- ) प. ४४९ चैत्रगच्छादि पट्टावलि। दहोदधिःमौक्तिक यसुंदर बाद डाय प्र.१००० रूपचंद. रास नल मंड जुबिली दमयंती रास शत्रु १९१८ अय रास REGIMSTECHSROSOCTER ॥ ७ ॥ JainEducation irat For Private Personal Use Only Nw.jainelibrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X४ पिंडनियुक्तिः श्रीभद्रबाहुः मलयगिरिः गु.प्रे. मुंबई १९१८ १॥) नि. ६७२ प.१७९ भा.३७ प्र.१००० टी.७००० उद्गमादि आहारदोषोंका निरूपण नि.सा.प्रे. ११) C५ धर्मसंग्रह विजयानन्द-शाउत्तरार्द्धन्तिविजयशिष्य मानविजयोपाध्याय. मू. १५१ प. १८९ टी. प्र. ५०० १६६०२ स्थविरकल्प और जिनक ल अधिकार. ६ उपमितिभवप्र- सिद्धर्षिः | पंचा कथा पूर्वार्द्ध मू. १६२ नि. सा.प्रे. ) प. ४६८ आश्रवकषायविपाकादि प्र.५०० NERCISCIRCLASSESH KARANASIKARAN A७ दशवकालिकं शय्यभवः हरिभद्रसूरिः नि० भद्रबाहु नि. सा.प्रे. २॥) नि. ३०३ प. २८६ मुंबई. गाथा सूत्र. प्र.१००० १९१८ सूत्र. २१ आहारशुद्धि, साधुपना बिगैरः श्रावकब्रतोंका अतिचार ४८ अर्थदीपिका सोमसुंदर-भुवन (श्राद्धप्रतिक्रम-सुंदर-शिष्यः रखणसूत्रवृत्तिः) शेखरः मू. १४९६ नि. सा.प्रे. २) टी. ६६४४ प. २०४ प्र.1००० १९१९ मुंबई. Jan Education For Private Personal Use Only R Aw.jainelibrary.org Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .96 ग्रन्थ अंकः ग्रन्थनाम मूलका रचना- मुद्गणटीकाकर्ता कालः मूल स्थान पायं के श्लोक पत्र टीका काल मूल टीका प्रति विशेषः विषयः ४९ उपमितिभव- देल्लमहत्तरगर्गपि प्रपंचकथा उत्त, सिद्धर्षि, सिद्धर्षिः नि.सा.प्रे. २) संपूर्ण प.४६९ नितिकुले भष्टदेशे मुंबई १६००० से.४७६ भिल्लमाले १९२० प्र. ५०० इन्द्रियकषायविपाकादि, ५. जीवा जीवाभि- स्थविराः गमः मलयगिरिः जीवाजीव विगैरः नि.सा.प्रे. ३० मू. सू. प. ४६७ मुंबई ४५० टी. प्र. १००० १९१९ १४००० ५. सेनप्रश्न हीरसूरि-विजय(प्रश्नरत्नाकर.) सेनराज्ये शुभ विजयः मुं. वैभव ) प्रेस. साधु वगेरेहके प्रश्नोत्तर प. १२४ प्र.१००० १९१९ ) ५२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः स्थविराः पूर्वार्द्ध (प्रमेयरत्रमंजूषा.) नि. सा.प्रे. मुंबई १९२० प.३८२ प्र.१००० विजयदानहीर सूरिराज्ये, सकलचंद्रशिष्यः शान्तिचन्द्रः जम्बूद्वीप ओर ज्योतिषका अधिकार ॥८॥ For Private & Personel Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ आवश्यक टि अभयदेव शिष्यः प्पनं हेमचंद्रः ५४ जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिः स्थविरा: उत्तरार्द्ध ५५ देवसीराइ ५६ श्रीपालचरित्रं ज्ञान विमलसूरि, अपरनाम नय विमल. ५७ सूक्तमुक्तावली प्राचीन 35 १९२० १। ४६०० प. ११८ प्र. १००० नि. सा. प्र. २) मुंबई १९२० जैन विजय ) सु. १९२१ प. ३८३ पट्टावलिका विस्तार से. ५४६ प्र.१००० नि. सा. प्र. २) मुंबई १९२२ प्र. १००० सू. १७४५ मुंबई 11) मू. १८००प. ४४ वैभवप्रेस प्र.१००० १९२१ प. १२६ प्र. १००० आवश्यक हरिभद्रसूरिजीकी टीकापर खुलासा जम्बूवृक्ष ओर ज्योतिपका अधिकार विजयप्रभ, विजयरत वि. नवपद आराधनका नयविमल, धीरविमल, फलमें नयविमल, उन्नतनगरे धर्मोपदेश वगैरः १२७ विषयें Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ विशेषः विषयः रचना मुद्रणअंकः अन्धनाम मूलकर्ता टीकाकर्ता कालः मूल स्थान पण्यं . श्लोक पत्र ५ मूल टीका प्रति टीका काल ५८ प्रवचनसारो- नेमिचंद्र (आन देवभशिष्यः नि.सा.प्रे. ३) मू.२०००प. २२४ द्धारपूर्वार्द्ध, देव शिष्य, वि- सिद्धसेनः मुंबईटी . प्र.१००० (तत्वज्ञानवि. जयसेनयशो १९२२ १६००० काशिनी) देवयोर्मध्यमः) १०३ द्वा. चैत्यवन्दन, गुरुवन्दन, • पचक्खाण विगैरः २७६ विषयें. द्वाराणि १७) सूत्र. १९ प. ५७ गाथा१३९प्र.१००० दशदशा विगैरः ५९ तन्दुलयेयालियं वीरहस्तदीक्षितः विजयदानान न्दविमलशिष्यः विजयविमल: , चउसरणं वीरभद्रः SECRECORK ६३ गाथा.प.५८-७८ प्र.१००० ) मू.२०००प. ९५ वीरमपुर प्र.७९० ६. विंशतिस्थान- जयचंद्रसूरिशि कचरितं. प्यः जिनहर्षः अरिहंत, सिद्ध आदिका वर्णन अरिहंतादिक वीशस्थानकोंका आराधनके फलकी कथायें. ॥९॥ मू.१५०२ बहादुर सिंहप्रेस पालीटाना.१९२३ For Private Personel Use Only ww.jainelibrary.org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक ७ मुजब ६. कल्पसूत्र सुबो धिका (आवृत्ति दुसरी) नि.सा.प्रे. २) मुंबई १९२३ 5६२ सुबोधा सामा- शीलभद्-धनेश्वरचारी. श्रीचंद्रः सम्यक्त्व व्रतारोपणादिक २६ विषयें. अहंदादि नवपद आरा ROSSASSIXXSAX ३ सिरिसिरिवाल- बज्रसेन-हेमतिकहा सटीकं. लकशिष्यः रख शेखरः धना मुं.वैभव प. ५० प्रेस मुंबई प्र.१००० १९२४ मू.१४२८ भावनगर १) मू. १३४२ प. १५१ आनन्द गा. प्र.१००० प्रिं. प्रेस १९२३ नि.सा.प्रेस ४) १०८ सें प. मुंबई २७६ द्वारों प्र. १९२६ चैत्यवन्दन, गुरुवन्दन, पञ्चक्खाण विगैरः२१६ विषयो. ६४ प्रवचनसारो. नेमिचंद्र (आम्र- देवभगशिष्यः द्वारः उत्तरभागः देवशिष्यः वि- सिद्धसेनः पृथग मूलादि जयसेनयशोदे वयोर्मध्यमः) ६५ लोकप्रकाशः प्र- श्रीविनयविजय थमभागे द्रव्य- गणिः लोकः नि.सा.प्रे. २) मुंबई १९२६ रज पल्योपम जीवाजीवनिरूपण. For Private & Personel Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ ॥ १० ॥ Jain Education Inte अंक अन्थनाम मूलकर्त्ता ६६ आनंदकाव्य महोदधि मौक्तिकं ७ " ढोलामारवणी रास माधवाबळ धवळ रास शकुनचोपाई स्तंभन पार्श्व. स्तवन. चार प्रत्येक बुद्ध चोपाई. ६७ तार्थाधिगम सूत्रम् ५अध्यायी प्रथमो भागः (पूर्वार्द्ध) टीकाकर्त्ता श्री कुशललाभ, समयसुन्दरजी. रचनाकाल मूल टीका श्रीमदुमा खा. तिजी. श्रीदेवगुप्तः श्री सिद्धसेन सूरिः मुद्रण स्थान पण्य काल जशवंतसिंह प्रेस लिंबडी १९२६ कर्नाटक प्रे. मुंबई १९२६ लोक मूल टीका पत्र प्रति प. प्र. १००० प. प्र. विशेष विषय सूची. ॥ १० ॥ jainelibrary.org Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसारोद्धारस्य उपोद्घातः । उपादीयतां शेमुषीधना ! प्रन्थोऽयं यथार्थामिधानः प्रवचनसारोद्धाराख्यः, यद्यपि वृत्तिकारैः 'प्रवचनसारस्य वृत्तिमहमित्युक्त्वा नामा-8 न्तरं प्रोक्तं, पर वस्तुतस्तन्न नामान्तरं, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारस्य प्रसिद्धत्वात् , तैरपि प्रवचनसारोद्धार इत्येवामिप्रेतममिधानं, तत | एवैमिः प्रशस्तौ प्रत्यपादि 'प्रवचनसारोद्धारस्य वृत्तिमकरोदतिस्पष्टाम्' तथा च तैः प्रवचनसारोद्धार इत्येव नामोदितं, श्रीमद्भिर्नेमिचन्द्रसूरिमिर्मूलवद्भिस्तु आदौ 'पवयणसारुद्धारं' इति 'पवयणसारुद्धारों इति उपान्त्यान्यगाथयोः स्पष्टमेव प्रोक्तमिदमेव नामेति न किमपि वाच्यमत्र । न च वाच्यं विचारसारः श्रीमत्प्रद्युम्नसूरिशेखरसूत्रितो यः समित्या मुद्रितपूर्वः सोऽभूत् केषांचिदुपयोगिनां पदा र्थानां सारग्राहकः ततः कथमिव नैष उपेक्षणीयः इति !, द्वयोरेतयोर्यद्यपि बहुषु स्थानेष्वैक्यता तथापि बहुषु तेषु पार्थक्यमप्यस्ति, तथा च 8||नैकेन केनापि कस्यापि गतार्थता, विचारसारे तावदधिका एते विषयाः___ अवसर्पिण्या नराणां देहायुःपृष्ठकरण्डकापत्यपालनाहाराः । आरकमानम् । वर्तमानजिनपूर्वभवाः । (६३ पुरुषाः) यतश्युताः । जिनजन्मनगर्यः । जिनगोत्राणि । स्वप्नचतुर्दशकम् । षट्पञ्चाशदिक्कुमार्यः । नात्रमहोत्सवः । जिनजन्मनक्षत्राणि । जिनजन्मराशयः । जिनकुमारराज्यकालः । वरवरिकादानम् । जिनानां दीक्षालिङ्गम् दीक्षाशिबिकाः दीक्षाव्यवस्था दीक्षाकालः प्रतस्थानम् पारणाकारकनामानि छास्थकालः ज्ञानोत्पत्तेः कालः ज्ञानोत्पत्तेः तरुः। समवसरणम् । पारितोषिकदानम् । सर्वसाधुसाध्वीसमा । साध्वतिचारगाथा । पाण्मासिकतपश्चिन्ता । पात्रबन्धाधुपकरणमानम्। आचरणाहेतुः। (आचीर्णाः अर्थाः) युगप्रधानसंख्या। द्रव्याचार्यसङ्ख्या । गच्छरीतिः।। वा Jan Education intenta For Private Personel Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PU प्रवचन | सारणादिलक्षणम् । आचार्यातिदेशाः । तीर्थतपः । शय्यादानगुणाः । पादोनप्रहरादिमानम् । चरणसप्ततिकरणसप्तत्योर्गाथाः । प्रमार्जना-1 उपोद्घात: सिद्धसेनीया साया। पात्रलक्षणम् । ४५ आगमसङ्ख्या । श्रावकयोम्यसूत्राौँ । संस्तारविधिः । निशि जागरणविधिः । जिनानां प्रथमश्रावकनामानि । श्रावकधर्मः । सूत्रकुशलत्वादयः षट् । आक्काणामाधिक्यम् । साधर्मिकवात्सल्यम्। जिनसिद्धिगमनवेला । जिनकल्याणकनक्षत्राणि । वीरतपः । ११ रुद्राः । वीरबद्धतीर्थाः । वीरस्खलनाः । वीरोपसर्गजपन्यादि । दश परमश्राद्धाः । चेटकपुत्र्यः । गौतमकेवलादि । चरमसमवसरणम् । कटभेदचिरसंसृष्टत्वादि गौतमसुधर्मजम्बूकेवलित्वानि । अन्तकद्भूमिः । कलिकालः । शककालः । विक्रमकालः । दिगम्बरोत्पत्तिः । स्थूलिभद्रभगिन्यः । स्थूलिभद्रप्रमत्तानि । स्थूलिभद्रे व्युच्छिन्नानि । श्रीवके व्युच्छिन्नानि । आर्याकालानुज्ञाव्युच्छेदः । आर्यास्वपक्षप्रव्रज्यानिषेधः । ५.० तमेवर्षे सिद्धसेनदिवाकरः । ६२० आर्यरक्षितः । ९९० कालकाचार्यः । ५८५ (वि.) हरिभद्रः (सूरिः) । १३०० (वि.) बप्पभट्टिः । केशवबलम् । कोटीशिलोत्पाटनम् । पूज्यप्रतिमालक्षणम् । शाश्वतजिननामानि । जिनस्थापना तद्विरहे । जिनमन्दिरविधिः । जिनगृहगमनम् । पूजाः । अष्टप्रकारा पूजा । देवद्रव्यम् । चैत्यवन्दने ५८ भेदाः । चैत्यवन्दने १९८ स्थानकानि । चैत्यवन्दनभेदाः । चैत्यवन्दनसङ्ख्याः । तिथ्यधिकारः । प्रत्याख्यानग्रहणविधिः । उग्गए सूरे, सूरे उग्गए । मितदेशे | सिद्धावगाहना । संसारानुच्छेदः । श्रावकाराधनाविधिः । (सम्यक्त्वं द्वादश व्रतानि क्षमणं) संगव्युत्सर्गः । आज्ञावर्तनम् । आचरणा। धर्मगुरुस्वरूपम् । प्रस्तुतेऽपि ग्रन्थरने अनेके अधिका विषयाः यथा__ जिनजन्मसङ्ख्या १४ जिनवैक्रियसाधु० १८ जिनवादि० १९ अवधि० २० केवलिसङ्ख्या २१ मनःपर्यायादिसं० २२ चतुर्दशपूविसं० २३ श्रावक २४ श्राविका०२५ १०८४ आशातनाः ३७-३८ भाविजिनजीवाः ४६ ऊधिःतिर्यसिद्ध० ४७ एकसमय RANAGAGANAGAR ॥ १ ॥ Jan Education Inter For Private Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध०४८ सिद्धावगाहनारीतिः ५० गृह्यन्यलिङ्गसिद्ध० ५१ निरन्तरसिद्ध० ५२ सिध्यमानसङ्ख्या ५३ सिद्धसंस्थानम् ५४ सिद्धावगाहनाः ५६-५७१५८ जवाविद्याचारणाः ६८ परिहारविशुद्धिः ६९ यथालन्दः ७० निर्यामकसङ्ख्या ७१ शुभभावनाः ७२ अशु-1 भभावनाः ७३ क्षेत्रेषु चारित्राणि ७६ स्थितास्थितकल्पः ७७ अस्थितकल्पः ७८ पुस्तकपञ्चकम् ८० । इत्यादयः, एवं च स्पष्ट एव उभयोरपि प्रन्थयोरुपयोगः। किं च-विचारसारः क्रियाप्राधान्येन विचारेण प्रणीतो, यतस्तस्मिन् तत्सूचकानि वांसि लभ्यन्ते, तद्यथापृ. ५७ साहुसाहुणीभणणप्पसंगा पाभाइयकिच्चं । ___ यथा चोपर्युक्तवाक्यवृन्दैः साधुक्रियालक्ष्येण तत्प्रकरणकृतिः ५८ तओ उवहिं पडिलेहेइ । तथैव श्रावकक्रियालक्ष्येणापि, यतः तत्रावाचि वन्दनाधिकारे६२ उवहिं पडिलेहिऊण साहुकिरियं सिक्खेइ पउणपहरं । पृ. १३७ जइ गुरुणो तत्थलमागया हवंति तया गुरुसमीवे .७० पउणपहरे पत्ताइयपडिलेहणं विहेऊण । वंदणं देह, अह वसहीए तो तत्थ गंतूण देइ, जओ सव्वाणुहाण , तओ भोयणवेलाए पत्ताए विहरणाय वयइ । गुरुणो समीवे हवइ। ,, भोयणाणंतरं सिक्खइ, अण्णेसिं वा परूवइ । १४१ तओ पञ्चक्खाणं करेइ, परमुदयतिहीसुत्ति ८३ तओ अद्धबिंबे निमजमाणे देवसियं पडिकमणं । १४५ तओ पञ्चक्खाणं काऊण जीवाइपयत्थे सुणेइ । ८४ पसंगतो पक्खियपडिकमणविहित्ति । ४८ तओ सज्झायं विहिय सुयणवेलाए संथारए ठाऊण इमं भणइ। तथा च तस्य रचना प्रति दिनोपयोगिक्रियापेक्षयेति सूक्तमेव, प्रस्तुतस्य तु 'भब्वाण जाणणवा' इत्यस्मादादिवाक्यात् 'सपरावबो For Private Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सिद्धसेनीय ॥ २ ॥ हकमि' 'ता नन्द बहु पढिज्ांतों' इति प्रान्त्यवाक्यद्वयाश्च प्रवचनसारभूतानां पदार्थानां ज्ञानमेव मुख्यं प्रयोजनमिति, एवं चानुमीयते प्राक् तावत् विचारसारस्य प्रादुर्भावः, दृष्ट्वा च तल्लाभं प्रस्तुतप्रकरणस्य श्रीमद्भिर्विहितः प्रादुर्भावः । किंचान्यत्-प्रद्युम्नसूरयो विचारसारस्य विधातारो यथभविष्यन् विक्रमशताब्याः त्रयोदश्याः परतस्तदा श्रीवासिद्धसेनदिवाकरार्थरक्षित हरिभद्रवप्पभट्टीनां सूरिपुरन्दराणां सत्ताकालमिव श्रीमतां कलिकालसर्वज्ञानां हेमचन्द्रसूरीणां निरदेश्यन्नेव सत्ताकालं यत् श्रीमन्तो हेमचन्द्रसूरयश्च स्वजीवनकाल एवैतिहासिक पुरुषतामधिगताः, यतः श्रीमन्महिमानमाविर्भावयितुं विहितं तत्कालवर्त्तिभिरेव श्रीमद्भिः सोमप्रभसूरिभिः कुमारपालप्रतिबोधकाव्यं, त्रयोदश विक्रमशताब्दीसंभूतैः श्रीमलयगिरिभिरावश्यकवृत्तौ श्रीदेवेन्द्रसूरिभिः कर्मग्रन्थवृत्तौ श्रीचन्द्रसेनसूरिभिरुत्पादसिद्धौ साक्षितया स्तुत्यतया च ते निर्दिष्टाः, तथा कल्किकालो यो भविष्यत्तयोक्तः त्रयोविंशत्यधिकत्रयोदशशताब्दीरूपस्तं नाकथयिष्यन् । अन्यच्च - साक्षिस्थानेषु अनेकत्र ग्रन्थोद्देशे न कापि श्रीमन्मलयगिर्यादिकृतानां वृत्तीनामुल्लेखः । एवं सत्यपि प्राक्तनप्रन्थेषु तथोल्लेखाभावात् तस्य न निश्शङ्कं भणितुं शक्यते श्रीधर्मघोषसूरयः प्रद्युम्न्नगुरवः १२९४ हायनसत्ताका इति । पश्चादेत इति उल्लेखस्तु विचारसारस्य साक्ष्यं श्राद्धविधिविरचनाकालात् प्राक् न कुत्रापि दृष्टश्चरमितिहेतोः, प्रस्तुतस्यापि मन्थरत्नस्य सवृ|त्तिकस्यापि ततः प्राक् न क्वापि अस्त्युलेखः, परमस्य वृत्तेः सद्भावात् तत्र च स्पष्टतयैव 'करिसागर रविसंख्ये' इत्यनेन अष्टसप्तत्यधिकद्वादशशताब्द्या विक्रमस्योल्लेखात् प्रस्तुतं प्रन्थरत्नमन्ततो द्वादश्यां त्रयोदश्यां वा शताब्द्यामेव जातमिति निश्चीयते । श्रीमतां नेमिचन्द्राचार्याणां मूलकाराणां वृद्धगुरुभ्रातरो विजयसेनाः लघुगुरुभ्रातरस्तु यशोदेवाभिधानाः, गुरुवर्या आम्रदेवाः, गुरुगुरवस्तु जिनचन्द्राहा इति पारम्पर्यादि तैः साक्षादुन्नीतं प्रन्थप्रान्तभागे, तद्यथा Xxxx उपोद्घातः ॥ २ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - धम्मधराधरणमहावराहजिणचन्दसूरिसिस्साणं । सिरिअम्मएवसूरीण पाकपंकयपराएहिं ॥ १५९५ ॥ सिरिविजयसेणगणहरकणिट्ठसिरि जसदेवसूरिजिडेहिं । सिरिनेमिचंदसूरिहिं सविणयं सिस्सभणिएहिं ॥ १५९६ ॥ त्रिष्वपि एतेषु आचार्यपदप्रतिष्ठा यद्यपि तथापि मुख्याचार्या विजयसेना एवेत्यपि प्रस्तुतगाथापाठादवगम्यते । अस्मिंश्च प्रन्थे श्रीमद्भिः प्राक् स्वयं विहितं जीवकुलकं न्यवेशि तत्तस्य पृथग्भूतस्य लघुतया विनाशो मा भूदिति, यतस्तत् जीवभेदाख्यानं मुख्यद्वारतयोपादाय तन्निरूपणे तन्निरदेशि, यद्यपि सूरीश्वरैर्न हायननिर्देशो व्यधायि परं पूज्यपादविहितानामपरेषां ग्रन्थानामवलोकने तदवगमः सुसाध एव, पूज्यपादविहिताश्च एते ग्रन्था उपलभ्यन्ते१ उत्तराध्ययनस्य सुखबोधाख्या वृत्तिः, यतस्तत्र स्पष्ट उल्लेखोऽयं विश्रुतस्य महीपीठे, बृहद्गच्छस्य मण्डनम् । श्रीमान् विहारुकप्रष्ठः, सूरिरुद्योतनाभिधः ॥ १ ॥ तस्य शिष्योऽम्रदेवोऽभूदुपाध्यायः सतां मतः । यत्रैकान्तगुणापूर्णे, दोषैलेंभे पदं नतु ॥ २॥ देवेन्द्रगणिश्चेमामुद्धृतवान् वृत्तिका तद्विनेयः । गुरुसौदर्यश्रीमन्मुनिचन्द्राचार्यवचनेन ॥ ३ ॥ शोधयतु बृहदनुग्रहबुद्धि(मुरुं)मयि विधाय विज्ञजनः । तत्र मिथ्या दुष्कृतमस्तु कृतमसंगतं यदिह ।। ४ ।। अणहिलपाटकनगरे दोहटिश्रेष्ठिसत्कवसतौ च । संतिष्ठता कृतेयं नवकरहरवत्सरे चैव ॥ ५॥ (११२९) अनेनोल्लेखेन स्पष्टैव सत्ता श्रीमतां नेमिचन्द्राणां साधैंकादशशतकादक्तिना प्रतीयते, पूज्याश्च प्राचुर्येण अणहिल्लपत्तने दोहट्टिश्रेष्टि 64544SANSAR For Private & Personel Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोदयावा वसतौ अस्थुरित्यपि, यतो यथा वृत्तिरेषा तत्रस्थैः कृता तथैव श्रीमहावीरचरित्रमपि प्राकृतपद्यमयं तत्रैव कृतं, परमेकचत्वारिंश एकाद- प्रवचन सिद्धसेनीय शशत शशतके वैक्रमीये, तथा च श्रीमहावीरचरित्रप्रशस्ति:__ २ श्रीमहावीरचरित्रम्-अणहिलवाडपुरम्मी सिरिकण्णनराहिवंमि विजयन्ते । दोहट्टिकारियाए वसहीए संठिएणं च ॥ ८४ ॥ वाससयाणं एक्कारसण्ह विक्कमनिवस्स विगयाणं । अगुयालीसे संवच्छरंमि एवं निबद्धंति ॥ ८५ ॥ एतेन श्रीवीरचरित्रप्रशस्तिलेखेन निश्चीयते एतत् यदुतैतदपि विहृत्य पुनरागत्यापि तत्र स्थितैरेव सूरिमिय॑धायि, परं श्रीउत्तराध्य| यनवृत्तेरनु द्वादशवर्ध्यनन्तरं, यतः सा एकोनत्रिंशदधिके एकादशशतके, इदं तु एकचत्वारिंशदधिके इति, प्रस्तुतं ग्रन्थरत्नमपि द्वाद| श्यामेव शताब्द्यां व्यधायीति निर्विवाद, कर्णराजराज्यकालोऽपि तदनुकूल एव । आम्रदेवदेवसूरिशिष्यत्वं स्खेषां स्वयमेवाचख्यौ, यतो|ऽत्रैव प्रान्त्यभागे, चतुर्दशाधिकद्विशतद्वारे जीवसंख्याकुलकाहे च ।। सिरिआमदेवसूरीण पायपंकयपराएहिं ॥ १५९५ ॥ सिरिअम्मएवमुणिवइविणेयसिरिणेमिचंदसूरीहिं ॥ १२४७ ॥ आम्रदेव-अम्रदेवशब्दयोर्भेदस्तु 'अम्मदे' इत्यपभ्रंशशब्दप्रभवत्वादनयोरकिश्चित्करः, यद्यपि स्वयमुत्तराध्ययनवृत्तौ अम्रदेव इत्युलिखितं तथापि वृत्तिगतं "श्रीआम्रदेवसूरिशिष्यैः श्रीनेमिचन्द्रसूरिमिः-इदं कुलकं-गाथासमुदायात्मकं रचित"मिति वचनमाश्रित्याकास्माभिराम्रदेवा इत्युक्ताः । इदं प्रन्धरत्नं तु श्रीवीरचरित्रादपि पश्चादेवारचितं, यतः उत्तराध्ययनवृत्तावासूदेवानामुपाध्यायपदं प्रोक्तं, श्रीवीरचरित्रेऽपि 'उज्जोयणसूरिस्स य सीसो अह अम्बदेवउज्झाओ' इत्युदितं, पर जीवसंख्याकुलके 'सिरिअम्मएवमुणिवईति वाक्यात् | ॥ ॥ .96 For Private Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POSSIGNORASHARERASAN "सिरिअम्मएवसूरीण'त्ति प्रस्तुतप्रन्थस्य प्रान्त्यभागस्य वाक्याचाम्रदेवानामाचार्यताऽत्र प्रकटिता, ततोऽविहत एष निर्णयो यदुत प्राक्तनप्रन्थद्वयात् पश्चादेवास्य रचना, स्वर्गकालानुपलम्भाच्चैतेषां नापरा मर्यादोनेतुं पार्यते, परं द्वादशशताब्द्या ऊर्श्वभाग एवं श्रीमतां निर्वाणमिति त्वव्याबाधमिति । ___ यद्यप्यत्राद्ययोर्द्वयोर्मन्थयोराम्रदेवानां गुरव उद्योतनाचार्या निर्दिष्टा अत्र तु जिनचन्द्रा इति, परं स्यात् तन्नामान्तरमेव, यथा उत्तराध्ययनवृत्तौ स्वेषां देवेन्द्रगणीत्यभिधा निरदेशि, श्रीवीरचरित्रे तु 'सूरिणा मिचंदेणे ति (८१) वाक्यावयवेन श्रीनेमिचन्द्र इत्यमिधा|ऽऽख्याता, यदि च मिन्ना एवोद्योतना जिनचन्द्राश्च सूरयः परस्परं तदा नैते त्रयो ग्रन्था एककर्तृका इति स्पष्टमेव, अभेदे भेदे च श्रीमतां पारंपर्यादि एवं । श्रीउद्योतनसूरयः (अभेदे) (भेदे) श्रीजिनचन्द्राः श्रीआम्रदेवाः श्रीमुनिचन्द्राः श्रीविजयसेनाः । श्रीयशोदेवाः श्रीनेमिचन्द्राः श्रीविजयसेनाः | श्रीयशोदेवाः श्रीनेमिचन्द्राः For Private Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सिद्धसेनीय ॥ ४ ॥ श्रीमतां मुनिचन्द्राचार्याणां पितृव्यगुरुत्वं 'गुरुसौदर्य श्रीमन्मुनिचन्द्राचार्यवचनेने 'त्युक्तेः, श्रीविजय सेनाचार्याणां वृहद्गुरुभ्रातृता श्रीयशोदेवाचार्याणां च लघुगुरुभ्रातृता च स्वयमेवात्र 'सिरिविजय सेणगणधर कणिट्ठसिरिजसोदेवसू रिजिट्ठेहिं' ति स्पष्टैवोक्ता । यद्यपि श्रीम तामभयदेवाचार्याणां नवाङ्गीवृत्तिसौधसूत्रधाराणां वृहद्गुरुभ्रातरः श्रीमतां सुविहितधुरन्धराणां जिनेश्वबुद्धिसागराचार्याणां शिष्याः 'श्रीजिनचन्द्राः ' तदैवैकादशे शतकेऽष्टाविंशत्यधिके सत्तावन्त इति भगवतीवृत्तिप्रशस्तेरवसीयते, परं नैते ते, एते तु ततः प्राचीना एव जिनचन्द्राः, अन्ये तु जिनचन्द्रामिधाना अनेके खरतरपट्टावल्यां दृश्यन्ते परं ते सर्वेऽपि त्रयोदशशतान्याः परत एव जाताः । श्रीचन्द्रसूरयः । पूज्यैः सप्तमद्वारे भारतीयानां त्रिकालजिनानां ऐरावतीयानां च वर्त्तमानभविष्यज्जिनानां च नामकीर्त्तनावसरे श्रीमतां श्रीचन्द्राचार्याणां स्तोत्रमेव यथास्थितं निवेदितं, ततो विचारणीयमेतत् यदुत कदैते पावयांचक्रुर्भूमण्डलमिदं, श्रीचन्द्राभिधानाश्च त्रयः सूरिवराः, आद्यास्तावत् द्वादशशताब्द्यां सत्तावन्तः प्रचुरप्रन्थकाराश्च यतस्तन्निर्मिता एते ग्रंथाः । १ न्यायप्रवेशटिप्पनं रचनासंवत् १९६८ २ मुनिसुव्रतस्वामिचरित्रं रचनासंवत् १९९८ (९३) ३ संग्रहणीसूत्रं (नमिऊणरिहंताई ) ४ क्षेत्रसमासः (नमित्तुं वीरं ) ५ निरयावलिकावृत्तिः ६ नन्दी (हा-) इत्यायाः टीप्पनम् ৬ उपोद्घातः ॥ ४ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SURROUSSUSHISAIAS ६ तदेवं प्रचुरग्रन्थनिर्माणनिपुणा ये तैः कृतमेव कुलकमत्र निरदेशीति ज्ञायते, अपरे तु श्रीचन्द्राः श्रीशीलभद्रशिष्यधनेश्वरशिष्याः | श्रीचन्द्रा यैः सुबोधा सामाचारी एकविंशे द्वादशशतके कृता श्रीचैत्यवन्दनलघुवृत्तिश्च, श्रीसनत्कुमारचरित्रं तु चतुर्दशाधिकद्वादशताब्दीमितेऽब्दे श्रीचन्द्रामिधानसूरिसंहब्धमस्ति, परं तत् कैय॑धायीति संदिग्धमेव, लघुप्रवचनसारोद्धारकारकास्तु श्रीचन्द्राः एनं प्रन्थमवलोक्य लघुप्रवचनकारकतया अर्वाचीना अन्ये एवेति । श्रीसिद्धसेनसूरीश्वराः । व्याख्यातारोऽस्य श्रीमन्तः सिद्धसेनसूरीश्वराः, ते च त्रयोदशशताब्द्यां जाता इति प्रस्तुतवृत्तिगतान्त्यलेखेन निःसंदिग्धमेव, यतोऽवाचि तत्र 'करिसागररविसंख्ये श्रीविक्रमनृपतिवत्सरे चैत्रे । पुष्यार्क दिने शुक्लाष्टम्यां वृत्तिः समाप्ताऽसौ ॥ १८ ॥ ___व्याख्या चासौ ग्रन्थरत्नस्य विशेषेणैव तत्त्वं विकाशयतीति व्याख्यातृमिनिर्मिताऽस्याभिधा तत्त्वप्रकाशिनीति, अत एवोक्तं प्रशस्ती 'तत्त्वज्ञानविकाशिनीमह मिमा वृत्तिं सुबोधां व्यधा'मिति । परे यद्यपि सिद्धसेनाभिधाः सूरिपुरन्दराः पंच इत्याख्यान्ति, तन्न चारु, सिद्धर्षिसिद्धसूर्योः तथाभिधानाभावादेव, किंच-तत्त्वार्थ-IN टीकाकाराः सिद्धसेनाचार्या आचार्यभास्वामिशिष्याः सन्ति, परं ते श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणेभ्यः प्राचीना इति कश्चित् तन्नावितथं, यतः तद्वृत्तावेव उपयोगविचारे आकाशान्तानां निष्क्रियत्वविचारे च स्पष्टतया क्षमाश्रमणानां नामोल्लेखात् , त्रिषु सिद्धसेनाभिधेषु सूरिपुरन्दरेषु अन्त्या एवैते, यतः श्रीसिद्धसेनदिवाकराणां सत्ता विक्रमसमकालीना, तत्त्वार्थवृत्तिकारा अपि एभ्यः प्रत्ना एव, यतः३८-३३७ SCREEKRISARGAA%EX Jain Educat MAH International For Private & Personel Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः प्रवचन तमपत्रयोः तत्त्वार्थमूलटीका साक्षितया ददुरेतेऽत्र, ७७-१७९-१९५ तमपत्रेषु च तत्त्वार्थटीका तामेव सस्मरुः, तथा च निर्विवा- सिद्धसेनीय तदमेवैतेऽन्य एव ताभ्यामिति । ___ सूरिमिश्चैतैः रचिता ग्रन्थाः १ सामाचारी २ श्रीपद्मप्रभचरित्रं ३ स्तुतिग्रन्थश्च, यद्यपि प्रस्तुतवृत्तौ ग्रन्थत्रयमेतत् ४४३ तमपत्रे अस्मदुपज्ञा सामाचारी निरीक्षणीया इति वाक्येन ४४० तमपत्रे 'आचक्ष्महि पद्मप्रभचरित्रे' इत्यवतरणेन १८७ तमपत्रे "तथा चावो. |चाम स्तुतिषु"-"जंमि सिरिपासपडिमं संतिकए कीरइ पडिगिह्दुवारे । अज्जवि जणो पुरितं महुरमधन्ना न पेच्छंति ॥ १॥” इति तत्रस्थगाथानिर्देशेन स्वकृततया निरणायि तथापि कालस्य दुष्षमत्वात् भाण्डागारीयाणां च साधुश्रावकाणां मूढतागर्भममत्वबाहुल्याच नैतत् कापि सत्तया श्रूयते, तद्वदेव तत्पूर्वजैः देवप्रभमुनीन्द्रैः कृतः प्रमाणप्रकाशः श्रीमद्भिरभयदेवसूरिभिश्च 'वादमहार्णवो' यो निर्मितः इति अत्रत्यप्रशस्त्या स्पष्टतया ज्ञाती नामशेषतामेवागातामिति । . ARXASANAISAKAUSAK ॥५ ॥ Jain Eduetan Misww.jainelibrary.org Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमतां पारम्पर्य चैवंश्रीअभयदेवसूरयः श्रीधनेश्वराः श्रीअजितसिंहाः श्रीवर्धमानसूरयः श्रीदेवचन्द्राः श्रीचन्द्रप्रभाः श्रीभद्रेश्वराः श्रीअजितसिंहाः श्रीदेवप्रभाः श्रीसिद्धसेनाः ग्रन्थविषयादि । प्रन्येऽत्र विषयाः षट्सप्तत्यधिकशतद्वयमिताः विचारिताः, तदनुक्रमस्तु तैरेव प्रन्थस्यादौ त्रिषष्ट्या द्वारगाथामिर्दर्शितः, प्रतिद्वारं गाथामानं पत्रमानं चात्र मुद्रिताया अनुक्रमणिकायाः सुखावसेयतायै मुद्रितमस्ति तत्तत एवावधारणीय, सिद्धान्तोदधिसारभूता विषया अत्र तथा निर्दिष्टा यथा पाठेनैतस्य न कोऽपि मुख्यो विषयः अज्ञाततयाऽवशिष्यतेति प्रवाचकानामव श्यमेवावभासिष्यतेऽस्य प्रवचनसारोद्धारेत्यभिधाऽवितथा, व्याख्यातृभिरपि सूरिवरैर्यथायथं प्रयत्य व्याख्या कतास्ति तेन सत्यमेवेदं। प्रन्थरत्नमिति ज्ञास्यन्ति सर्वेऽपि प्रवाचकश्रावकाः, नम्रनिवेदनम् । यद्यपि प्रन्थरत्नस्य प्राक् मुद्रणमकारि जामनगरवास्तव्यैहीरालालामिधैः पावकः, पर महाधतर त्रुटितपाठमेकत्राल्पप्रचारं चेति मत्वा यतितमत्र मुद्रापणे श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाइ-जैनपुस्तकोद्धार इत्यमिधायाः संस्थायाः कार्यवाहकैः, प्रयत्नतः शोधितेऽप्यत्र स्खलनागः क्षन्तव्यं । विशेषेण निरीक्षणीय चात्र मुद्रितं साक्षिणां स्थलानां निर्दिष्टप्रन्थानां सूर्यादिविशेषामिधानां चाकाराविक्रमादि इत्यर्थयन्ते आनन्दसागराः १९८१ आश्विनकृष्णद्वादशी सोमवासर अजीमगंज (बंगाल)। %3D Jan Education Interational For Private Personel Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education साम्प्रतं 'अपडिबद्ध विहारो' त्ति चतुरुत्तरशतमं द्वारमाह अपबद्ध असा गुरूवएसेण सङ्घभावेसुं । मासाइविहारेण विहरेज जहोचियं नियमा ॥ ७७२ ॥ मुत्तूण मासकप्पं अन्नो सुत्तंमि नत्थि उ विहारो । ता कहमाइग्गहणं कज्जे ऊणादभावेणं ॥ ७७३ ॥ कालाइदोसओ जइ न दवओ एस कीरए नियमा । भावेण तहवि कीरह संथारगवच्चयाईहिं ॥ ७७४ ॥ काऊण (कम्हिपि ) मासकष्पं तत्थेव ठियाण तीस मग्गसिरे । सालंबणाण जिट्टोग्गहो य छम्मासिओ होइ ॥ ७७५ ॥ अह अत्थि पयवियारो चउपाडिवयंमि होइ निग्गमणं । अहवावि अनिंतस्स आरोवण सुत्तनिहिं ॥ ७७६ ॥ एगक्खेत्तनिवासी कालाइकंतचारिणो जवि । तहवि हु विसुद्धचरणा विसुद्धआलंबणा जेण ॥ ७७७ ॥ सालंबणो पडतो अत्ताणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इय सालंबणसेवी धारेइ जई असदभावं ॥ ७७८ ॥ काहं अछित्तिं अदुवा अहिस्सं, तवोवहाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं व नीइसु य सारइस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं ॥ ७७९ ॥ 'अप्पडिबद्धो’इत्यादि गाथाऽष्टकं अप्रतिबद्धश्च सदा-सर्वकालमभिष्वङ्गरहित इत्यर्थः गुरूपदेशेन हेतुभूतेन, केत्याह- सर्वभावेषु - द्रव्यादिषु तत्र द्रव्ये - श्रावकादौ क्षेत्रे - निर्वातवसत्यादौ काले- शरदादौ भावे-शरीरोपचयादौ अप्रतिबद्धः किमित्याह - मासादिविहारेण सिद्धान्तप्रसिद्धेन विहरेत्-विहारं कुर्यात्, यथोचितं - संहननाद्यौचित्येन नियमाद् - अवश्यंभावत इति एतदुक्तं भवति - द्रव्यादिप्र • Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 SHA प्रव० सा-15| तिबद्धः सुखलिप्सुतया तावदेकत्र न तिष्ठेत् , किं तर्हि ?, पुष्टालम्बनेन, मासकल्पादिना विहारोऽपि च द्रव्याद्यप्रतिबद्धस्यैव सफलः, १०४ अ रोद्धारे यदि पुनरमुकं नगरादिकं गत्वा तत्र महर्द्धिकान् बहून् वा श्रावकानुपार्जयामि तथा च करोमि यथा मां विहायापरस्य ते भक्ता न 18 प्रतिबद्धतत्त्वज्ञा- भवन्तीत्यादिद्रव्यप्रतिबन्धेन तथा निर्वातवसत्यादिजनितरत्युत्पादकममुकं क्षेत्रं इदं तु न तथाविधमित्यादिक्षेत्रप्रतिबन्धेन तथा परिपक्क- विहारः नवि० | सुरमिशाल्यादिशस्यदर्शनादिरमणीयोऽयं विहरतां शरत्कालादिरित्यादिकालप्रतिबन्धेन तथा स्निग्धमधुराद्याहारादिलाभेन तत्र गतस्य मम गा.७७२ शरीरपुष्ट्यादि सुखं भविष्यति अत्र तु न तत्सम्पद्यते अपरं चैवमुद्यतविहारेण विहरन्तं मामेवोद्यतं लोका भणिष्यन्ति अमुकं तु ॥२२५॥ शिथिलमित्यादिभावप्रतिबन्धेन च मासकल्पादिना विहरति तदाऽसौ विहारोऽपि कार्यासाधक एत्र, तस्मादवस्थानं विहारो वा द्रव्याद्यप्रतिबद्धस्यैव साधक इति ॥ ७७२ ॥ अथ पराभिप्रायमाशङ्कय परिहारमाह-मुत्तूणे त्यादि, मुक्तवा-विहाय मासकल्पं-मासविहा| रमन्यः सूत्रे-मूलागमे तुशब्दस्य एवकारार्थत्वान्नास्त्येव विहारस्तथाऽश्रवणात् , तत् कथं-कस्मादादिग्रहणमनन्तरगाथायां ?, तत्राह| 'कज्जे'त्ति कार्ये तथाविधे सति न्यूनादिभावेन-न्यूनाधिकभावात्कारणादादिग्रहणं, अयमाशयः-साधुमिस्तावन्मासकल्पेनैव मुख्यतो |विहारः कार्यः, कारणवशतः पुनः कदाचिदपूर्णेऽपि मासे विहारः क्रियते कदाचित्त्वाधिक्येनापि क्रियते इत्येतदर्थमादिग्रहणं कृतं ॥ ७७३ ॥ एतदेव प्रकटीकुर्वन्नाह–'कालाई'त्यादि, कालादिदोषतः क्रियते-कालक्षेत्रद्रव्यभावदोषानाश्रित्य, तत्र कालदोषो-दुर्मिशक्षादिः क्षेत्रदोषः-संयमाननुगुणत्वादिः द्रव्यदोपो-भक्तपानादीनां शरीराननुकूलता भावदोषो-ग्लानत्वज्ञानादिहान्यादिः, यद्यपि 'न' ४||नेव 'द्रव्यतो बहिर्वृत्त्या 'एष' मासकल्पः क्रियते' विधीयते, तथापि 'नियमाद' अवश्यतया 'भावेन' भावतः क्रियते एकस्थान- ॥२२५॥ |स्थितैरपि यतिभिः, कथमिति चेत्तत्राह-'संथारगवच्चयाईहिं' संस्तारकव्यत्ययादिभिः-शयनभूमिपरावर्तनप्रभृतिभिः, आदिशब्दाद RecensiesSex SSC Jain Education intDIL A w .jainelibrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतिपाटकादिपरिग्रहः, अयमाशयः-एकस्यामपि वसतौ यस्यां दिशि संस्तारको मासं यावदास्तीर्णस्तां दिशं मासे पूर्णे परित्यज्यापरस्या दिशि संस्तारक आस्तरणीयः, एवमपरवसतिसद्भावे मासादनन्तरमपरवसतौ सङ्क्रमः करणीयः, एवं च कुर्वतां मासकल्पविहाराभावेऽपि यतित्वमविरुद्धमेव, यदवाचि-"पंचसमिया तिगुत्ता उजुत्ता संजमे तवे चरणे । वाससयंपि वसंता मुणिणो आराहगा भणिया ॥१॥” इत्यादि । ७७४ ।। अथैकस्मिन् क्षेत्रे उत्कृष्टमवस्थानकालमानमाह-'कम्हिंपी'त्यादि, कस्मिंश्चित् क्षेत्रे कृत्वाविधाय आषाढमासे मासकल्पं 'तत्रैव' तस्मिन्नेव क्षेत्रे 'स्थितानां कृतवर्षाकालानां यावन्मार्गशीर्षे-मार्गशीर्षविषयाणि त्रिंशदिनानि एष 'सालम्बनानां' पुष्टकारणसेविनां ज्येष्ठ-उत्कृष्टोऽवग्रहः-एकत्रावस्थानलक्षणः पाण्मासिकः-षण्मासप्रमाणो भवति, इदमुक्तं भवति |-यत्र उष्णकालस्य चरमो मासकल्पः कृतस्तत्र तथाविधान्यक्षेत्राभावतो वर्षाकालं यदि तिष्ठन्ति वर्षाकाले च व्यतिक्रान्ते यदि मेघो वर्षति ततोऽन्यद्दिवसदशकं तत्र तिष्ठन्ति तस्मिन्नपि समाप्तिमुपगते यदि पुनर्वर्षति ततो द्वितीयं दिवसदशकं तिष्ठन्ति तस्मिन्नप्यतीते | पुनर्वृष्टस्तदा तृतीयमपि दिवसदशकं तत्र तिष्ठन्ति, एवमुत्कर्षतस्त्रीणि दिवसदशकानि वृष्ट्याद्यालम्बनमाश्रित्य स्थितानां षण्मासप्रमाण | उत्कृष्टोऽवग्रहो भवति, तद्यथा-एको ग्रीष्मचरममासः चत्वारो वर्षाकालमासाः षष्ठो मार्गशीर्षों दिवसदशकत्रयलक्षण इति ॥ ७७५ ।। | अथ मार्गशीर्षे न वर्षति मार्गाश्च हरितकर्दमाद्यनाकुलास्तत्र किं कर्तव्यमित्याह-'अहे'त्यादि, अथास्ति पादाना-चरणानां विचारो| गमनानुकूलता, तत इति शेषः, 'चउपाडिवयंमि'त्ति चतसृणां प्रतिपदां समाहारश्चतुःप्रतिपत्, अत्र च प्रतिपदो मासान्तवर्तिन्यो विवक्षिताः, ततः कार्तिकानन्तरं भवति निर्गमन-विहार इत्यर्थः, अथ विहारयोग्येऽपि समये न निर्गच्छति तदा तस्य साधोरनिर्ग|च्छतस्ततः स्थानादारोपणं-प्रायश्चित्तं सूत्रनिर्दि-सूत्रकथितं भवतीति ॥ ७७६ ।। नन्वेकत्र क्षेत्रे स्थितानां यतनापराणामपि यतीनां चत्वारो बाध्यमित्याह हारतुःप्रतिन निर्ग in Education Internano For Private & Personel Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *4- 5 प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १०४ अप्रतिबद्धविहारः |गा.७७२ ॥२२६॥ .- 30 कुलप्रतिबन्धादयो बहवो दोषा एव भवन्ति ततः कथमिदं युक्तमित्याह-एगे'त्यादि, एकस्मिन् क्षेत्रे निवास एकक्षेत्रनिवासः तस्मिन् | सति यद्यपि 'कालातिक्रान्तचारिणः' समयभणितकालातिक्रमचारिणो यतयस्तथापि 'हुः स्फुटं 'विशुद्धचरणा' निरतिचारचारित्रास्ते 'येन' यतः कारणात् 'विशुद्धालम्बना' विशुद्धं-शाठ्येनादूषितं वार्धकजङ्घाबलपरिक्षीणताविहारायोग्यक्षेत्रादिकमालम्बनं-कारणं येषां ते विशुद्धालम्बना इति ॥ ७७७ ॥ अथ कस्मादालम्बनमन्वेषणीयमित्याह-'सालंबे'त्यादि, आलम्ब्यते-पतद्भिराश्रीयते इत्यालम्बनं, तच्च द्विविध-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र गर्तादौ प्रपतद्भिर्यद् द्रव्यमालब्यते तद् द्रव्यालम्बनं, तदपि द्रव्यं द्विविधं-पुष्टमपुष्टं च, तत्रापुष्टदुर्बलं कुशवल्वजादि पुष्टं तु दृढं कठोरवल्ल्यादि, भावालम्बनमपि पुष्टापुष्टभेदाद् द्विधा, तत्र पुष्टं वक्ष्यमाणं तीर्थाव्यवच्छित्त्यादि, शठतया स्वमतिमात्रोत्प्रेक्षितं त्वपुष्टं, ततश्च सह आलम्बनेन वर्तत इति सालम्बनः, असौ पतन्नप्यात्मानं दुर्गमेऽपि-गर्तादौ पुष्टालम्बनावष्टम्भतो धारयति, 'इति' एवमेव सह आलम्बनेन वर्तत इति सालम्बनः एवम्भूतः सन् किमपि नित्यवासादिकं सेवते-भजते इति | सालम्बनसेवी 'यतिः' साधुः संसारगर्तायां पतन्तमात्मानमशठभावं-मातृस्थानरहितं धारयतीत्येष आलम्बनान्वेषणे गुणः ॥ ७७८ ॥ कानि पुनस्तान्यालम्बनानीत्याह-काह'मित्यादि, यः कश्चिदेवं चिन्तयति यथा करिष्याम्यहमत्र स्थितोऽच्छित्ति-अव्यवच्छित्तिं जिनधर्मस्येति शेषः, राजादेर्जिनशासनावतारणादिमिः, 'अदुवे'ति अथवा अहमध्येष्ये सूत्रतोऽर्थतश्च द्वादशाङ्गं दर्शनप्रभावकाणि वा शास्त्राणि, यदिवा तपोलब्धिसमन्वितत्वात्तपोविधानेषु नानाप्रकारेषु तपस्सु 'उज्जमिस्सं'ति उद्यस्यामि उद्यमं करिष्यामि, 'गणं वा' गच्छं वा 'नीइसु यत्ति सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वान्नीतिमिः सूत्रोक्ताभिः सारयिष्यामि-गुणैः प्रवृद्धं करिष्यामि, स एवं सालम्बनसेवीएतैरनन्तरोदितैरालम्बनैर्यतनया नित्यवासमपि प्रतिसेवमानो जिनाज्ञानुल्लङ्घनात्समुपैति-प्राप्नोति 'मोक्षं सिद्धिं, तस्मात्तीर्थाव्यवच्छेदा RASNASAX For Private Personel Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 4G दिकमेव यथोक्तं ज्ञानदर्शनचारित्राणां समुदितानामन्यतरस्य वा यद् वृद्धिजनकं तदालम्बनं जिनाज्ञावशादुपादेयं, नान्यत् , अन्यथा * हि-"आलंबणाण भरिओ लोओ जीवस्स अजउकामस्स । जं जं पिच्छइ लोए तं तं आलंबणं कुणइ ॥१॥” इति [अयतितुकामस्य है जीवस्य लोक आलम्बनैर्भूतः । यत् यत् प्रेक्षते लोके तत्तद् आलम्बनं करोति ॥ १॥] १०४ ॥ ७७९ ॥ इदानीं 'जायाजायकप्पत्ति पश्चोत्तरशततमं द्वारमाह जाओ य अजाओ य दुविहो कप्पो य होइ नायबो। एक्ककोऽवि य दुविहो समत्तकप्पो य असमत्तो॥ ७८० ॥ गीयत्व जायकप्पो अगीयओ खलु भवे अजाओ य । पणगं समत्तकप्पो तदूणगो होइ असमत्तो ॥७८१॥ उउबद्धे वासासुं सत्त समत्तो तदूणगो इयरो। असमत्ताजायाणं ओहेण न किंचि आहवं ॥ ७८२ ॥ 'जाओ'इत्यादि गाथात्रयं, द्विविधः खलु कल्पः-समाचारो भवति ज्ञातव्यस्तद्यथा-जातोऽजातच, तत्र जाता-निष्पन्नाः श्रुतसम्पदुपेततया लब्धात्मलाभाः साधवः तदव्यतिरेकात्कल्पोऽपि जात उच्यते, एतद्विपरीतः पुनरजातः, एकैकोऽपि च द्विधा-समाप्तकल्पोऽसमाप्तकल्पश्च, समाप्तकल्पो नाम परिपूर्णसहायः तद्विपरीतोऽसमाप्तकल्पः ॥ ७८० ।। एतानेव चतुरो जातादीन व्याख्यानयति| गीयत्थ' इत्यादिगाथाद्वयं, गीतार्थसाधुसम्बन्धित्वाद्गीतार्थो यो विहारः स जातकल्पोऽभिधीयते 'अगीतः खलु' अगीतार्थसाधुसम्बन्धी पुनर्भवेदजात:-अजातकल्पः, तथा द्वितीयगाथावर्तिनः 'उउबद्धे' इत्यस्य पदस्येह सम्बन्धात् 'ऋतुबद्धे' अवर्षासु 'पणगं'ति साधुपञ्चकपरिमाणः समाप्तकल्पो नाम विहारो भवति, 'तदूनकः' तस्मात्पञ्चकात् हीनतरो द्वित्रिचतुराणां साधूनामित्यर्थः कल्पो भवत्यस Join Education For Private & Personel Use Only Maw.jainelibrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- ७ माप्तोऽपरिपूर्णसहायत्वात्, वर्षासु - वर्षाकाले पुनः साधुसप्तकपरिमाणः समाप्तकल्पः, तदूनकः - तस्मात्सप्तकान्न्यूनतर इतर:- असमाप्तरो कल्पः, यञ्च वर्षासु सप्तानां विहारकरणं तत् किल वर्षासु तेषां ग्लानत्वादिसम्भवे सहायस्यान्यत आगमनासम्भवादल्पसहायता मा भूदिति हेतोः, ततश्चासमाप्ताजातानां - असमाप्तकल्पाजात कल्पवतां साधूनामोघेन - उत्सर्गेण न किञ्चित्क्षेत्रतद्द्वतशिष्य भक्तपानवस्त्रपात्रादिकमागमप्रसिद्धमाभाव्यमिति १०५ ।। ७८१ ।। ७८२ ॥ इदानीं 'परिट्ठवणुच्चार करणदिसि'त्ति पडुत्तरशततमं द्वारमाह ॥ २२७ ॥ दिसा अवरदक्खिणा १ दक्खिणा य २ अवरा य ३ दक्खिणापुवा ४ । अवरुत्तरा य ५ पुवा ६ उत्तर ७ पुव्युत्तरा ८ चेव ।। ७८३ ।। पउरन्नपाण पढमा बीयाए भत्तपाण न लहंति । तइयाए उवहिमाई नत्थि उत्थीऍ सज्झाओ ॥ ७८४ ॥ पंचमियाए असंखडी छुट्टीए गणस्स भेयणं जाण । सत्तमिया गेलन्नं मरणं पुण अट्टमे बिंति ॥ ७८५ ।। दिसिपवणगामसूरियच्छायाए पमजिऊण तिक्खुत्तो । जस्सोग्गहोति काऊण वोसिरे आयमेजा वा ।। ७८६ ।। उत्तरपुवा पुज्जा जम्माऍ निसायरा अहिपडंति । घाणारिसा य पवणे सूरियगामे अवन्नो उ ॥ ७८७ ॥ संसत्तगहणी पुण छायाए निग्गयाऍ वोसिरह । छायासह उण्हंमिवि वोसिरिय मुहुत्तयं चिट्ठे ॥ ७८८ ॥ उवगरणं वामगजाणुगंमि मत्तो य दाहिणे हत्थे । तत्थऽन्नत्थ व पुंछे तिआयमणं अदूरंमि ।। ७८९ ।। 'दिसे त्यादिगाथासप्तकं, अचित्तसंयत परिष्ठापनाय दिक् प्रथमतोऽपरदक्षिणा - नैर्ऋती निरीक्षणीया तस्या अभावे दक्षिणा तस्या १०५ जा ताजात विहारः गा. ७८० २ ॥ २२७ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभावे अपरा-पश्चिमेत्यर्थः तस्या अप्यभावे दक्षिणपूर्वा-आग्नेयीत्यर्थः तस्या अप्यभावेऽपरोत्तरा-वायवीति भावः तस्या अप्यभावे पूर्वा | तस्या अप्यलाभे उत्तरा तस्या अप्यलाभे पूर्वोत्तरा ऐशानीत्यर्थः, इह च यत्र प्रामादौ मासकल्पं वर्षावासं वा गीतार्थाः साधवः |संवसन्ति तत्र प्रथममेव पूर्वोक्तासु दिक्षु परिष्ठापने मृतोज्झननिमित्तं त्रीणि महास्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षन्ते-आसन्ने मध्ये दूरे च, किं कारणमिति चेत्तत्र ब्रूमः-प्रथमस्थण्डिले कदाचिद्व्याघातो भवेत् , तथाहि-क्षेत्रं तत्र केनापि कृष्टं उदकेन वा तत् प्लावितं हरितकायो वा तत्राजनि कीटिकादिमिर्वा तत्संसक्तं जातं ग्रामो वा तत्र निविष्टः सार्थो वा कश्चित्तत्रावासित इत्यतो द्वितीये स्थण्डिले परिष्ठापनं विधेयं, तस्याप्येतैरेव हेतुभिर्व्याघाते तृतीये स्थण्डिले परिष्ठापनं कार्यमिति ।। ७८३ ॥ सम्प्रति प्रथमायां दिशि सत्यां शेषदिक्षु परिष्ठापने दोषमाह-'पउरे'त्यादिगाथाद्वयं, 'पउरन्नपाण पढमा' इत्यत्र प्राकृतत्वात्सप्तम्या लोपः, ततः प्रथमायाम्-अपरदक्षिणायां परिष्ठापने प्रचुरानपानवस्त्रपात्रादिलाभतः समाधिरुपजायते, तस्यां सत्यां द्वितीयस्यां दक्षिणायां परिष्ठापने भक्तपाने न लभन्ते, तृतीयस्यां-पश्चिमायामुपध्यादि न लभन्ते, चतुर्थ्या-दक्षिणपूर्वस्यां नास्ति स्वाध्यायः स्वाध्यायाभाव इत्यर्थः ॥ ७८४ ।। पञ्चम्याम्अपरोत्तरस्यां 'असंखडित्ति कलहः संयतगृहस्थान्यतीथिकादिभिः सह, षष्ठयां-पूर्वस्यां गणस्य-च्छस्य भेदनं-भेदं जानीहि, गच्छभेदो भवतीत्यर्थः, सप्तम्याम्-उत्तरस्यां ग्लानत्वं-रोगोत्पत्तिः, अष्टमीति प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपे अष्टम्यां-पूर्वोत्तरस्यां दिशि मृतद कपरिष्ठापने मरणं पुनर्बुवते, अन्यः कश्चित्संयतो म्रियते इत्यर्थः, इह च पानीयस्तेनभयादिव्याघातसद्भावतः पूर्वपूर्वदिगलाभे उत्तरो त्तरस्यामपि दिशि मृतकपरिष्ठापने प्रचुरानपानलाभलक्षणः प्रथमदिक्प्रतिपादित एव गुणोऽवसेयः, यदा पुनः पूर्वपूर्वदिक्सद्भावे उत्तरो४त्तरस्यां दिशि परिष्ठापयन्ति तदा पाश्चात्या एव दोषा भवन्तीति ।। ७८५ ।। उक्ता अचित्तसंयतपरिष्ठापनदिक्, इदानीमुच्चारकरणदिगमि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २२८ ॥ धीयते - 'दिसीत्यादि, साधुना संज्ञां व्युत्सृजता 'दिसि' त्ति पूर्वस्यामुत्तरस्यां च दिशि पृष्टं न दातव्यं, तथा पवनग्रामसूर्याणां च पृष्ठं न दातव्यं, तथा छायायां निर्गतायां व्युत्सृजेत् तथा त्रिकृत्वः - त्रीन् वारान् प्रमार्ण्य उपलक्षणमेतत् प्रत्युपेक्ष्य च स्थण्डिलमिति गम्यते व्युत्सृजेत्, तत्र चायं विधिः - अयुगलिता अत्वरमाणा विकथारहिताश्च पुरीषव्युत्सर्जनाय व्रजन्ति, तत उपविश्य पुतनिर्लेपनाय इष्टकादिखण्डरूपाणि डगलकानि गृह्णन्ति, पिपीलिकादिरक्षणार्थं च तेषां प्रस्फोटनं कुर्वन्ति, तदनन्तरमुत्थाय निर्दोषं स्थण्डिलं गत्वा ऊर्द्धमधस्तिर्यक् चावलोकनं कुर्वन्ति, तत्रोद्धुं वृक्षस्थपर्वतस्थादिदर्शनार्थं अधो गर्तादर्यायुपलब्धये तिर्यक् व्रजद्विश्राम्यदादिनिरीक्षणार्थ| मिति, ततः सागारिकाभावे संदशकान् सम्प्रमार्ण्य प्रेक्षिते प्रमार्जिते च स्थण्डिले पुरीषं व्युत्सृजन्तीति, तथा यस्यायमवग्रहः सोऽनुजानीयादित्यनुज्ञां कृत्वा व्युत्सृजेत् आचमेद्वा ॥ ७८६ ॥ सम्प्रत्येनामेव गाथां विवरीतुकाम आह— 'उत्तरे' त्यादि, उत्तरदिक्पूर्वदिक लोके पूज्येते ततस्तस्याः पृष्ठदाने लोकमध्येऽवर्णवादो भवति, वानमन्तरं वा कश्चित् कोपयेत् तथा च सति जीवितव्यस्य विनाशः, तस्मादिवा रात्रौ च पूर्वस्यामुत्तरस्यां च पृष्ठं वर्जयेत्, तथा याम्या - दक्षिणा दिक् तस्याः सकाशाद्रात्रौ निशाचराः - पिशाचादयो देवा अभिपतन्ति - उत्तराभिमुखाः समागच्छन्ति, ततस्तस्यां रात्रौ पृष्ठं न दद्यात् उक्तं च- “उभे मूत्रपुरीषे च दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । रात्रौ दक्षिणतश्चैव तथा चायुर्न हीयते ॥ १ ॥ ।” तथा यतः पवनस्ततः पृष्ठदाने अशुभगन्धाघ्राणं नासिकायां च अर्शास्युपजायन्ते, चशब्दालोकोपहासश्च यथा आघ्रन्त्येतदेते इति, तस्मात्पवनस्यापि पृष्ठं न कर्तव्यं, तथा सूर्यस्य ग्रामस्य च पृष्ठकरणेऽवर्णो- लोकमध्येऽश्लाघा, यथा न किञ्चिज्जानन्त्येते यल्लोकोद्योतकरस्यापि सूर्यस्य यस्मिन् ग्रामे स्थीयते तस्यापि च पृष्ठं ददति, ततस्तयोरपि न दातव्यं पृष्ठमिति ।। ७८७ || 'छाया' इति व्याख्यानार्थमाह - 'संसत्ते' त्यादि, संसक्ता द्वीन्द्रियैर्महणिः - कुक्षिर्यस्यासौ संसक्तप्रहणिः, स द्वीन्द्रियरक्ष | १०६ परिष्ठापनदिग् गा. ७८३९ ॥ २२८ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणार्थ छायायां पुष्पफलप्रदवृक्षादिसम्बन्धिन्यां निर्गतायां व्युत्सृजति, अथ छायाऽद्यापि न निर्गच्छति मध्याह्ने एव संज्ञाप्रवृत्तेः ततश्छा & याया असति-अभावे उष्णेऽपि स्वशरीरच्छायां पुरीषस्य कृत्वा व्युत्सृजति, व्युत्सृज्य च मुहूर्तक-अल्पं मुहूर्त तथैव तिष्ठति येन एता वता कालेन स्वयोगतस्ते परिणमन्ति, अन्यथोष्णेन महती परितापना स्यात् ॥ ७८८ ॥ अथ व्युत्सृजन खोपैकरणं कथं धरतीत्याह'उ'त्यादि, उपकरणं-दण्डकं रजोहरणं च वामे ऊरौ स्थापयति, मात्रकं च दक्षिणे हस्ते क्रियते, डगलानि च वामहस्तेन धरणीयानि, ततः संज्ञा व्युत्सृज्य तत्रान्यत्र वा प्रदेशे डगलकैः पुतं पुंसयति-रूक्षयति, पुंसयित्वा त्रिभि वापूरकैः चुलुफैरित्यर्थः आचमनंनिर्लेपनं करोति, उक्तं च-तिहिं नावापूरएहिं आयामइ-निल्लेवेइ, नावा-पसई' इति, तदपि चाचमनमदूरे करोति, यदि पुनर्दूरे आचमति तत उडाहो यथा कश्चिद् दृष्ट्वा चिन्तयेत्-अनिर्लिप्तपुतो गत एष इति ॥ १०६॥ ७८९ ॥ इदानीं 'अट्ठारस पुरिसेसु'त्ति सप्तोत्तरशततमं द्वारमाह बाले १ बुढे २ नपुंसे य ३, कीवे ४ जड़े य ५ वाहिए ६। तेणे ७ रायावगारी य ८, उम्मत्ते य ९ अदंसणे १०॥७९॥ दासे ११ दुढे य १२ मूढे य १३, अणत्ते १४ जंगिए इय १५ । ओबद्धए य १६ भयए १७, सेहनिप्फेडिया इय १८ ॥७९१ ॥ 'बाले'त्यादि श्लोकद्वयं, जन्मत आरभ्य अष्टौ वर्षाणि यावद्वालोऽत्राभिधीयते, स किल गर्भस्थो नव मासान् सातिरेकान् गमयति जातोsप्यष्टौ वर्षाणि यावद्दीक्षान प्रतिपद्यते, वर्षाष्टकाधो वर्तमानस्य सर्वस्यापि तथास्वाभाव्यादेशतः सर्वतो वा विरतिप्रतिपत्तेरभावात् , उक्तं च"एएसि वयपमाणं अट्ठ समाउत्ति वीयराएहिं । भणि जहन्नगं खलु" इति [एतेषां वयःप्रमाणमष्ट समा इति वीतरागैर्भणितं जघन्यकं खलु]] प्र.सा.३९ Jain Education a l l Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . " ESH प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १०७ दीक्षानहाँ पुरुषाः गा.७९०० ७९१ ॥२२९॥ अन्ये तु गर्भाष्टमवर्षस्यापि दीक्षा मन्यन्ते, यदुक्तं निशीथचूर्णी-आदेसेण वा गभट्ठमस्स दिक्ख"त्ति [आदेशेन वा गर्भाष्टमस्य दीक्षेति ] भगवद्वत्रस्वामिना व्यभिचार इति चेत् , तथाहि-भगवान् वनस्वामी पाण्मासिकोऽपि भावतः प्रतिपन्नसर्वसावद्यविरतिः श्रूयते, तथा च सूत्रं-'छम्मासियं छसु जयं माऊए समन्नियं वंदे [पाण्मासिकं षट्सु यतं मात्रा समन्वितं वन्दे] सत्यमेतत् , किन्त्वियं शैशवेऽपि भगवद्वनस्वामिनो भावतश्चरणप्रतिपत्तिराश्चर्यभूता कादाचित्कीति न तया व्यभिचारः, उक्तं च पञ्चवस्तुके-"तधो परि- हवखेत्तं न चरणभावोऽवि पायमेएसि । आहच्चभावकहगं सुत्तं पुण होइ नायव्वं ॥१॥" अस्या व्याख्या-तेषामष्टानामधो वर्तमाना मनुष्याः परिभवक्षेत्रं भवन्ति, येन तेन वाऽतिशिशुत्वात्परिभूयन्ते, तथा चरणभावोऽपि-चरणपरिणामोऽपि प्राय एतेषां-वर्षाष्टकाधो-18 वर्तमानानां न भवति, यत्पुनः सूत्रं 'छम्मासियं छसु जयं माऊए समन्नियं वंदे' इत्येवंरूपं तत् 'आहच्चभावकहगं' कादाचित्कभावकथक, ततो वर्षाष्टकाद्धः परिभवक्षेत्रत्वाच्चरणपरिणामाभावाच्च न दीक्ष्यन्ते इति, अन्यच्च बालदीक्षणायां संयमविराधनादयो दोषाः, स | हि अयोगोलकसमानो यतो यतः स्पन्दते ततस्ततोऽज्ञानित्वात् षड्जीवनिकायवधाय भवति, तथा निरनुकम्पा अमी श्रमणाः यदेवं बालानपि बलाद्दीक्षाकारागारे प्रक्षिप्य स्वच्छन्दतामुच्छिदन्तीति जननिन्दा, तत्परिचेष्टायां च मातृजनोचितायां क्रियमाणायां स्वाध्यायपलिमन्थः स्यादिति १ । तथा सप्ततिवर्षेभ्यः परतो वृद्धो भण्यते, अपरे त्वाहुः-अर्वागपीन्द्रियादिहानिदर्शनात् षष्टिवर्षेभ्य उपरि वृद्धो| ऽभिधीयते, तस्यापि च समाधानादि कर्तु दुःशकं, यदुक्तम्-"उच्चासणं समीहइ विणयं न करेइ गब्वमुब्वइ । वुडो न दिक्खियव्वो जइ जाओ वासुदेवेणं ॥ १॥" [उच्चासनं समीहते विनयं न करोति गर्वमुद्वहति । वृद्धो न दीक्षितव्यो यदि जातो वासुदेवेन ॥१॥] ६ इत्यादि, इदं च वर्षशतायुष्कं प्रति द्रष्टव्यं, अन्यथा यद् यस्मिन् काले उत्कृष्टमायुस्तद्दशधा विभज्याष्टमनवमदशमभागेषु वर्तमानस्य वृद्ध 9-96496 २२९॥ Jain Education in L For Private Personal Use Only ww.jainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Int | त्वमवसेयं २ । तथा स्त्रीपुंसोभयाभिलाषी पुरुषाकृतिः पुरुषनपुंसकः, सोऽपि बहुदोपकारित्वाद्दीक्षितुमनुचितः 'वाले बुड्ढे य थेरे य' | इति पाठस्तु निशीथादिष्वदर्शनादुपेक्षितः ३ । तथा स्त्रीमिभोगैर्निमन्त्रितोऽसंवृताया वा स्त्रियोऽङ्गोपाङ्गानि दृष्ट्वा शब्दं वा मन्मथोल्लापादिकं तासां श्रुत्वा समुद्भूतकामाभिलापोऽधिसोढुं यो न शक्नोति स पुरुषाकृतिः पुरुषक्कीबः, सोऽप्युत्कटवेदतया पुरुषवेदोदयाद् बलात्कारेणाङ्गनालिङ्गनादि कुर्यात् तत उड्डाहादिकारित्वाद्दीक्षाया अनर्ह एव ४ । तथा जडस्त्रिविधो - भाषया शरीरेण करणेन च, भाषाजडुः पुनरपि त्रिविधो - जलमूको मन्मनमूक एलकमूकश्च तत्र जलमग्न इव बुडबुडायमानो यो वक्ति स जलमूकः, यस्य तु वदतः खयमानमिव वचनं स्खलति स मन्मनमूकः, यश्चैलक इवाव्यक्तं मूकतया शब्दमात्रमेव करोति स एलकमूकः, तथा यः पथि मिक्षा - टने वन्दनादिषु वाऽतीव स्थूलतया अशक्तो भवति स शरीरजडः, करणं-क्रिया तस्यां जडुः करणजडुः, समितिगुप्तिप्रतिक्रमणप्रत्युपेक्ष| णसंयमपालनादिक्रियां पुनः पुनरुपदिश्यमानामप्यतीव जडुतया यो ग्रहीतुं न शक्नोति स करणजडु इत्यर्थः, तत्र भाषाजस्त्रिविधोऽपि ज्ञानग्रहणेऽसमर्थत्वान्न दीक्ष्यते, शरीरजस्तु मार्गगमनभक्तपानाद्यानयनादिषु असमर्थो भवति, तथा अतिजडुस्य प्रस्वेदेन कक्षादिषु कुथितत्वं भवति, तेषां जलेन क्षालनादिषु क्रियमाणेषु कीटिकादीनां प्राणिनां प्लावना सम्पद्यते ततः संयमविराधना, तथा लोको निन्दां करोति - अहोऽसौ बहुभक्षकः, कथमन्यथा एवंविधं स्थूलत्वमेतस्य मुण्डितकस्य, न हि गलचौर इति, तथा तस्योर्द्धश्वासो भवति, अपरिक्रमश्च सर्पजलज्वलनादिषु समीपमागच्छत्सु स भवति, ततोऽसौ न दीक्षणीयः, तथा करणजड्डोऽपि समितिगुयादीनां शिक्ष्यमाणोऽप्यग्राहकत्वान्न दीक्षणीय इति ५ । तथा 'वाहिए' त्ति भगन्दरातिसार कुष्ठप्लीहका कासज्वरादिरोगैर्प्रस्तो व्याधितः सोऽपि न दीक्षार्हः, तस्य चिकित्सने षट्कायविराधना स्वाध्यायादिहानिश्च ६ । तथा क्षत्रखननमार्गपातनादिचौर्यनिरतः स्तेनः सोऽपि गच्छस्य वधबन्ध w.jainelibrary.org Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २३० ॥ नताडनादिनानाविधानर्थनिबन्धनतया दीक्षानई एव ७ । तथा श्रीगृहान्तःपुरनृपतिशरीरतत्पुत्रादि द्रोह विधायको राजापकारी, चः समुचये, तद्दीक्षणे रुष्टराजकृता मारणदेशनिःसारणादयो दोषा भवन्ति ८ । तथा यक्षादिभिः प्रबलमोहोदयेन वा परवशतां नीत उन्मत्तः, | सोऽपि न दीक्षाई:, यक्षादिभ्यः प्रत्यवायसम्भवात् स्वाध्यायध्यान संयमादिहानिप्रसङ्गाच्च ९ । तथां न विद्यते दर्शनं -दृष्टिरस्येत्यदर्शनः - अन्धः, स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयवानप्यत्र द्रष्टव्यः न विद्यते दर्शनं सम्यक्त्वमस्येति व्युत्पत्तेः, अयं च दीक्षितः सन् दृग्विकलतया यत्र तत्र वा सारन् पट् कायान् विराधयेत् विषमकीलकण्टकादिषु च प्रपतेत्, स्त्यानर्द्धिस्तु प्रद्विष्टो गृहिणां साधूनां च मारणादि कुर्यात् १० । ॥ ७९० ॥ तथा गृहदास्याः सञ्जातो दुर्भिक्षादिष्वर्थादिना वा क्रीतः ऋणादिव्यतिकरे वाऽवरुद्धो दास उच्यते तस्यापि दीक्षादाने तत्स्वामिकृता उत्प्रवाजनादयो दोषाः ११ । तथा दुष्टो द्विधा - कषायदुष्टो विषयदुष्टश्च तत्र गुरुगृहीतसर्षपभर्जिकाव्यतिकरामिनिविष्टसाध्वादिवदुत्कटकषायः कषायदुष्टः, अतीव परयोषिदादिषु गृद्धो विषयदुष्टः सोऽपि दीक्षानर्होऽतिसंक्लिष्टाध्यवसायत्वात् १२ । तथा स्नेहादज्ञानादिपरतत्रतया यथावस्थितवस्त्वधिगमशून्यमानसो मूढः सोऽपि ज्ञानविवेकमूलायामाईतदीक्षायां नाधिक्रियते, अज्ञानत्वात्कृत्याकृत्यादि विवेक विकलत्वाञ्च १३ । तथा यो राजव्यवहारिकादीनां हिरण्यादिकं धारयति स ऋणार्त्तः तस्य दीक्षादाने राजादिकृता ग्रहणाकर्षणकदर्शनादयो दोषाः १४ । तथा जातिकर्मशरीरादिभिर्दूषितो जुङ्गितः, तत्र मातङ्गकोलिकबरुडसूचिकछिम्पादयोऽस्पृश्या जातिजुङ्गिताः, स्पृश्या अपि स्त्रीमयूरकुर्कुटशुकादिपोषका वंशवरत्रारोहणनखप्रक्षालनसौ करिकत्ववागुरिकत्वादिनिन्दितकर्मकारिणः कर्मजुङ्गिताः, करचरणकर्णादिवर्जिताः पङ्गुकुब्जवामनककाणकप्रभृतयः शरीरजुङ्गिताः, तेऽपि न दीक्षार्हाः, लोकेऽवर्णवादसम्भवात् १५ । तथा अर्थप्रहणपूर्वकं विद्यादिग्रहणनिमित्तं वा एतावन्ति दिनानि त्वदीयोऽहमित्येवं येनात्मनः परायत्तता कृता भवति सोऽवबद्धः स १०७ दीक्षानर्हाः पुरुषाः गा. ७९०७९१ ॥ २३० ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवावबद्धकः, सोऽपि न दीक्षाहः कलहादिदोषसम्भवात् १६ । तथा रूप्यकादिमात्रया वृत्त्या धनिनां गृहे दिनपाटिकादिमात्रेण तदादेशकरणाय प्रवृत्तो यः स भृतकः, सोऽपि न दीक्षोचितः, यस्यासौ वृत्तिं गृह्णाति स दीक्ष्यमाणे तस्मिन् महतीमप्रीतिमादधाति १७॥ तथा शैक्षस्य-दीक्षितुमिष्टस्य निस्फेटिका-अपहरणं शैक्षनिस्फेटिका तद्योगाद् यो मातापित्रादिमिरमुत्कलितोऽपहृत्य दीक्षितुमिष्यते सोऽपि न दीक्षोचितः, मातापित्रादीनां कर्मबन्धसम्भवात् अदत्तादानादिदोषप्रसङ्गाच्च १८ । इत्येतेऽष्टादश पुरुषस्य-पुरुषाकारवतो दीक्षानही भेदा इति १०७ ॥ ७९१ ॥ इदानीं 'वीसं इत्थीसुन्ति अष्टोत्तरशततमं द्वारमाह जे अट्ठारस भेया पुरिसस्स तहित्थियाएँ ते चेव । गुविणी १ सवालवच्छा २ दुन्नि इमे इंति अन्नेवि ॥ ७९२॥ येऽष्टादश भेदाः पुरुषेष्वदीक्षणा उक्तास्तथा तेनैव प्रकारेण स्त्रियोऽपि त एव भेदा अष्टादश विज्ञेयाः, अयमर्थः-यथा पुरुषाकारवतस्तथा स्त्रीजनाकारवतोऽपि बतायोग्या बालादयोऽष्टादश भेदास्तावन्त एव, अन्यावपि द्वाविमौ भवतः, यथा गुर्विणी-सगर्भा सह बालेन-स्तनपायिना वत्सेन वर्तते सा सबालवत्सा, एते सर्वेऽपि विंशतिः स्त्रीभेदा व्रतायोग्याः, दोषा अप्यत्र पूर्ववद्वाच्याः १०८॥ ७९२ ॥ इदानीं 'दस नपुंसेसु' इति नवोत्तरशततमं द्वारमाह पंडए १ वाइए २ कीवे ३, कुंभी ४ ईसालुयत्ति य ५। सउणी ६ तक्कमसेवी ७ य, पक्खियापक्खिए ८ इय ॥ ७९३ ॥ सोगंधिए य ९ आसत्ते १०, दस एते नपुंसगा। संकिलिहित्ति साहूणं, पवावे अकप्पिया ॥७९४ ॥ For Private Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० 'पंडए' इत्यादिश्लोकद्वयं, पण्डको वातिकः डीवः कुंभी ईर्ष्यालुः शकुनिस्तत्कर्मसेवी पाक्षिकापाक्षिकः सौगन्धिक आसक्तश्च दश एते नपुंसकाः सष्टिचित्ता इति साधूनां प्रव्राजयितुमकल्प्या व्रतायोग्या इत्यर्थः, सङ्कुिष्टत्वं चैषां सर्वेषामप्यविशेषतो नगरमहादाहसमानका माध्यवसायसम्पन्नत्वेन स्त्रीपुरुषसेवामाश्रित्य विज्ञेयं, उभयसेविनो होते इति ॥ ७९३ ॥ ७९४ ॥ - ॥ २३१ ॥ तत्र पण्डकस्य लक्षणं–महिलासहावो सरवन्नभेओ, मिंढं महंतं मया य वाणी । ससद्दयं मुत्तमफेणयं च, एयाणि छप्पंडगलक्खणाणि ४ ॥ १ ॥ इति वृत्तादवसेयं, अस्य व्याख्या - पुरुषाकारधारिणोऽपि महिलास्वभावत्वं पण्डकस्यैकं लक्षणं, तथाहि - गतिस्त्रस्तपदाकुला मन्दा च भवति सशङ्कं च पृष्ठतोऽवलोकमानो गच्छति शरीरं च शीतलं मृदु च भवति योषिदिवानवरतं हत्थोल्लकान् प्रयच्छन् उदरोपरि तिर्यव्यवस्थापितवामकरतलस्योपरिष्टादक्षिणकर कूर्परं विन्यस्य दक्षिणकरतले च मुखं कृत्वा बाहू च विक्षिपन् भाषते अभीक्ष्णं च कटिहस्तकं ददाति प्रावरणाभावे स्त्रीवद् बाहुभ्यां हृदयमाच्छादयति भाषमाणश्च पुनः पुनः सविभ्रमं भ्रूयुग्ममुत्क्षिपति केशबन्धनप्रावरणादिकं च स्त्रीवत्करोति योषिदाभरणादिपरिधानं च बहुमन्यते स्नानादिकं च प्रच्छन्ने समाचरति पुरुषसमाजमध्ये च सभयः शङ्कितस्तिष्ठति स्त्रीसमाजे तु निःशङ्कः प्रमदाजनोचितं च रन्धनकण्डनपेषणादिकं कर्म विदधाति इत्यादिमहिलास्वभावत्वं पण्डकलक्षणं १ तथा 'स्वरवर्ण| भेदः स्वरः - शब्दो वर्णः - शरीरसम्बन्धी उपलक्षणत्वाद्गन्धरसस्पर्शाच स्त्रीपुरुषापेक्षया विलक्षणास्तस्य भवन्तीत्यर्थः २-३ मेहनंपुरुषचिह्नं महद्भवति ४ मृद्वी च वाणी ललनाया इव जायते ५ तथा स्त्रिया इव सशब्दं मूत्रं जायते फेनरहितं च तद्भवति ६ एतानि षट् पण्डकलक्षणानि १ । तथा वातोऽस्यास्तीति वातिकः यः स्वनिमित्ततोऽन्यथा वा मेहने स्तब्धे सति स्त्रीसेवायामकृतायां वेदं धारयितुं न शक्नोति २ तथा क्लीब:- असमर्थः, स चतुर्धा दृष्टिशब्दाश्लिष्टनिमन्त्रणालीबभेदात्, तत्र यो विवस्त्राद्यवस्थं विपक्षं वीक्ष्य । Jain Education १०८ दीक्षानर्हाः स्त्रियः १०९ नपुं सकाः गा. ७९२ ७९४ ॥ २३१ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुभ्यति स दृष्टिक्लीवः, यस्तु युवतिशब्दं श्रुत्वा क्षुभ्यति स शब्दलीबः, यः पुनः पुरन्धीभिरुपगूढो निमश्रितश्च व्रतं विधातुं न शक्नोति स यथाक्रममाश्लिष्टक्लीवो निमश्रितक्लीवश्च विज्ञेयः ३ । यस्य तु मोहोत्कटतया सागारिकं वृषणौ वा कुम्भवदुत्सूनौ भवतः स कुम्भी ४। तथा यस्य प्रतिसेव्यमानां वनितां विलोक्य प्रकाममीळ समुत्पद्यते स ईर्ष्यालुः ५ । तथा चटकवदुत्कटवेदतयाऽभीक्ष्णं प्रतिसेवनाप्रसक्तः शकुनिः ६। तथा मैथुनमासेव्य बीजनिसर्गे सति यः श्वान इव वेदोत्कटतया जिह्वालेहनादिनिन्द्यकर्मणा सुखमात्मनो मन्यते स तत्कर्मसेवी ७ । तथा यस्य पक्षे-शुक्लपक्षेऽतीव मोहोद्भवो भवति अपक्षे च-कृष्णपक्षे खल्पः स पाक्षिकापाक्षिकः ८। तथा यः शुभगन्धं मन्वानः स्वकीयं लिङ्गं जिघ्रति स सौगन्धिकः ९ । तथा यो वीर्यपातेऽपि कामिनीमालिन्य तदनेषु कक्षोपस्थादिष्वनुप्रविश्यैव तिष्ठति स आसक्तः १० । पण्डकादीनां च परिज्ञानं तेषां तन्मित्रादेर्वा कथनादेरिति । ननु पुरुषमध्येऽपि नपुंसका उक्ता |इहापि चेति तत्क एतेषां परस्परं प्रतिविशेषः ?, सत्यं, किन्तु तत्र पुरुषाकृतीनां ग्रहणं इह तु नपुंसकाकृतीनामिति, उक्तं च निशीथ चूर्णौ-इयाणिं नपुंसया दस, ते पुरिसेसु चेव वुत्ता नपुंसदारे, जइ जे पुरिसेसु वुत्ता ते चेव इहंपि किंकओ भेदो ?, भन्नइ, तर्हि | पुरिसाकिई इह गहणा सेसयाण भवेत्ति, एवं स्त्रीष्वपि वाच्यं । ननु नपुंसकाः षोडशविधाः श्रुते श्रूयन्ते तत्कथमत्र दशैवोक्ताः ?, सत्यं, दशैव तद्भेदाः प्रव्रज्याया अयोग्याः ततस्त एवोक्ताः, शेषाः पुनः षट् दीक्षायोग्या एव, तथा चोक्तम्-'वद्धिए चिप्पिए चेव, || मंतोसहिउवहए । इसिसत्ते देवसत्ते य, पवावेज्जा नपुंसए ॥१॥ अस्यार्थः-आयत्यां राजान्तःपुरमहलकपद्प्राप्त्यादिनिमित्तं यस्य बालत्वेऽपि छेदं दत्त्वा वृषणौ गालितौ भवतः स वर्द्धितकः, यस्य तु जातमात्रस्याङ्गुष्ठाङ्गुलीमिर्दयित्वा वृषणौ द्राव्येते स चिप्पितः, एतयोश्चैवं कृते सति किल नपुंसकवेदोदयः सम्पद्यते, तथा कस्यचिन्मत्रसामर्थ्यादन्यस्य तु तथाविधौषधीप्रभावात् पुरुषवेदे खीवेदे वा JainEducation For Private Personel Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २३२ ॥ Jain Education I समुपहते सति नपुंसक वेदः समुदेति, तथा कस्यचिन्मदीयतपःप्रभावान्नपुंसको भवत्वयमिति ऋषिशापात् तथा कस्यचिद्देवशापात्तदुदयो जायते इत्येतान् षट् नपुंसकान् निशीथोक्तविशेषलक्षणसम्भवे सति प्रत्राजयेदिति १०९ ॥ इदानीं 'विगलंग'चि द्वारं दशो त्तरशततममाह हत्थे पाए कन्ने नासा उट्टे विवज्जिए चैव । वामणगवड भखुज्जा पंगुलहुंटा य काणा य ॥ ७९५ ॥ पच्छावि होंति वियला आयरियतं न कप्पए तेसिं । सीसो ठावेयधो काणगमहिसोव निम्मंमि ॥ ७९६ ॥ 'हत्थे 'त्यादिगाथाद्वयं, इह सर्वत्र तृतीयार्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थ:-हस्तेन उपलक्षणत्वात् हस्ताभ्यां वा पादेन पादाभ्यां वा कर्णेन कर्णाभ्यां वा नासया ओष्ठेन वा विवर्जिता - रहिताः तथा वामनका - दीनहस्तपादाद्यवयवाः पृष्ठतोऽप्रतो वा निर्गतशरीरा वडभाः एकपार्श्वहीनाः कुब्जाः पाद्गमनशक्तिविकलाः पङ्गुला : विकलपाणयः टुण्टाः काणा - एकाक्षाः एते सर्वेऽपि प्रत्राजनानर्हाः, प्रवचननिन्दादिदोषसम्भवादिति ॥ ७९६ ॥ अथ गृहीते व्रते ये विकलाङ्गा भवन्ति तेषां का वार्ता ?, तत्राह - पश्चादपि श्रामण्यस्थिता येऽक्षिग| लनादिना विकला - विकलाङ्गा भवन्ति तेषामप्याचार्यगुणैर्युक्तानामप्याचार्यत्वं न कल्पते, प्रवचनहीलनाप्रसक्तेः, येऽप्याचार्यपदोपविष्टाः | सन्तः पश्चाद्विकलाङ्गा जायन्ते तेषामपि न कल्पते धारयितुमाचार्यत्वं किन्तु तैस्तथा विकलाङ्गैः सद्भिरात्मनः पदे कोऽव्याकृतिमस्त्वादिगुणगणप्रशस्यः शिष्यः स्थापयितव्यः, आत्मा त्वप्रकाशे स्थाने स्थापयितव्यः, क इवेत्यत्राह - ' काणकमहिष इव निने' इयमत्र भावना - काणको नाम चोरित उच्यते, यथा चोरितमहिषो मा कोऽप्येनं द्राक्षीदिति हेतोर्ग्रामस्य नगरस्य वा बहिर्गतरूपे निने प्रदेशे ११० व्यङ्गसाध्वा दिविधिः गा. ७९५. । ७९६ ॥ २३२ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलक्षणमेतदतिगुपिले वा वनगहने स्थाप्यते, एवमेषोऽपि, अन्यथा प्रवचनहीलनाप्रसक्तिः आज्ञादिभङ्गदोषप्रसङ्गश्च, केवलमस्यापि | ४. यत्कृत्यं तत्सर्वमपि स्थविराः कुर्वन्तीति ११० ॥ ७९७ ।। इदानीं 'जंमुलं जइकप्पं वत्थंति एकादशोत्तरशततमं द्वारमाह मुल्लजुयं पुण तिविहं जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं । जहन्नेणऽट्ठारसगं सयसाहस्सं च उक्कोसं ॥७९७॥ दो साभरगा दीविचगा उ सो उत्तरावहो एको। दो उत्तरावहा पुण पाडलिपुत्तो हवइ एक्को ॥ ७९८ ॥ दो दक्षिणावहा वा कंचीए नेलओ स दुगुणाओ। एक्को कुसुमनगरओ तेण पमाणं इमं होइ ॥ ७९९ ॥ 'मुल्ले'त्यादि गाथात्रयं, मूल्ययुक्तं पुनर्वस्त्रं त्रिविधं भवति-जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च, तत्र जघन्येन-जघन्यतोऽष्टादशकं यस्याष्टादश रूपका नाणकविशेषा मूल्यं तज्जघन्यं वस्त्रमित्यर्थः, शतसाहस्रं च-रूपकलक्षमूल्यमुत्कृष्टं, शेषं तु मध्यममिति, तत्रेह त्रिविधमपि मूल्ययुक्तं वस्त्रं साधूनां ग्रहीतुं न कल्पते, किन्त्वेतस्मादृष्टादशरूपकलक्षणान्मूल्याद्यन्यूनमूल्यं तदेव कल्पते, उक्तं च पञ्चकल्पबृहभाष्ये-ऊणगअट्ठारसगं वत्थं पुण साहुणो अणुन्नायं । एत्तो वइरित्तं पुण नाणुन्नायं भवे वत्थं ॥ १॥" [ऊनाष्टादशकं वस्त्रं पुनः साधूनामनुज्ञातं । इतो व्यतिरिक्तं पुनर्नानुज्ञातं भवेद्वस्त्रम् ॥१॥] ॥ ७९७ ।। नन्विदं केन रूपकेण प्रमाणमित्याह-'साभरे'त्यादि, साभरको नाम रूपकः, ततो द्वीपस्थानसत्काभ्यां द्वाभ्यां साभरकाभ्यामुत्तरापथे एकः स साभरको भवति, द्वीपश्च यः सुराष्ट्रामण्डले | दक्षिणस्यां दिशि योजनमात्रं समुद्रमवगाह्य तिष्ठति सोऽत्र गृह्यते, द्वाभ्यां च उत्तरापथाभ्यां-उत्तरापथसम्बन्धिभ्यां साभरकाभ्यां पाटलीपुत्रनगरसत्क एक: साभरक इति, अनेन रूपकेण वस्त्रप्रमाणमत्र कर्तव्यं ॥ ७९८ ॥ अथ प्रकारान्तरेण रूपकस्वरूपमाह Jain Education Interational For Private Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १११ वस्त्रमूल्यं ११२ शय्यातरपिंडः गा.७९७ ॥२३३॥ 'दक्खिणे'त्यादि, वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतने द्वौ दक्षिणापथसत्कौ रूपको काञ्चीनगर्याः सम्बन्धी नेलको रूपक इत्यर्थः, स च नेलको द्विगुणः सन् एकः कुसुमनगरजः-पाटलीपुत्रसम्बन्धी रूपकः तेन रूपकेणेदमष्टादशकादि प्रमाणं भवतीति ॥ १११ ।। ।। ७९९ ॥ इदानीं 'सेजयरपिंडो'त्ति द्वादशोत्तरशततमं द्वारमाह सेज्जायरो पहू वा पहुसंदिहो य होइ कायवो । एगो णेगे य पहू पहुसंदिटेवि एमेव ॥ ८००॥ सागारियसंदिढे एगमणेगे चउक्कभयणा उ । एगमणेगा वजा गेसु य ठावए एगं ॥ ८०१॥ अन्नत्थ वसेऊणं आवस्सग चरिममन्नहिं तु करे । दोन्निवि तरा भवंती सत्थाइसु अन्नहा भयणा ॥८०२॥ जइ जग्गंति सुविहिया करेंति आवस्सयं तु अन्नत्थ । सिजायरो न होई सुत्ते व कए व सो होई ॥ ८०३ ॥ दाऊण गेहं तु सपुत्तदारो, वाणिजमाईहि उ कारणेहिं । तं चेव अन्नं व वएज देसं, सेज्जायरो तत्थ स एव होई ॥ ८०४॥ लिंगत्थस्सवि वजो तं परिहरओ व मुंजओ वावि । जुत्तस्स अजुत्तस्स व रसावणे तत्थ दिळंतो॥ ८०५॥ तित्थंकरपडिकुट्ठो अन्नायं उग्गमोवि य न सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवया दुल्लहसेज्जा उ वोच्छेओ ॥ ८०६॥ पुरपच्छिमवजहिं अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं । भुत्तं विदेहएहि य न य सागरिअस्स पिंडो उ ॥८०७॥ बाहुल्ला गच्छस्स उ पढमालियपाणगाइकजेसु । सज्झायकरणआउहिया करे उग्गमेगयरं ॥ ८०८॥ 'सेजे'त्यादिगाथानवकं, शय्यया-साधुसमर्पितगृहलक्षणया संसारसागरं दुस्तरमपि तरतीति शय्यातरः, स द्विधा भवति कर्तव्यः प्रभुर्वा ॥२३३॥ Jain Education ineali For Private & Personel Use Only M ww.jainelibrary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education यतिप्रदत्तोपाश्रयस्वामी प्रभुसन्दिष्टो वा तेनैव प्रभुणा यत्कृतप्रमाणतया निर्दिष्टः, तत्र यः प्रभुः स एको वा भवेदनेको वा, प्रभुसन्दिष्टोऽप्येवमेव वाच्यः कोऽर्थः ? - प्रभुसन्दिष्टोऽप्येको वाऽनेको वा भवतीति ।। ८०० ।। अमुमेवार्थ विशेषत आह— 'सागारिये 'त्यादि, सागारिकःसाधूपाश्रयस्वामी सन्दिष्टच - प्रभुसन्दिष्टः प्रत्येकमेको वाऽनेके वा भवन्ति, ततश्चतुष्कभजना - चतुर्भङ्गी ज्ञातव्या, तद्यथा - एकः प्रभुरेकः प्रभुसन्दिष्ट इति प्रथमो भङ्गः एकः प्रभुरनेके प्रभुसन्दिष्टा इति द्वितीयः अनेके प्रभव एकः प्रभुसन्दिष्ट इति तृतीयः, अनेके प्रभवोऽनेके च प्रभुसन्दिष्टा इति चतुर्थो भङ्गः, ते च शय्यातरा एको वाऽनेके वा वर्जनीयाः, अत्रैवापवादमाह - ' अणेगेसु य ठावए एगंति अनेकेषु बहुषु शय्यातरेषु सत्सु एकं कमप्यपवादपदेन शय्यातरं स्थापयेत् इयमत्र भावना - बहुजनसाधारणा वसतिः कापि लब्धा, तत्र च साधुसामाचारीकुशलाः श्रावका यद्येवं वदन्ति एकं कमपि शय्यातरं स्थापयत मा सर्वानपि परिहरतेति तदा एकं शय्यातरं स्थापयित्वा शेषगृहेषु भिक्षां गृह्णन्ति, यद्वा बहवस्तत्र साधवस्ततो यदि सर्वेऽपि संस्तरन्ति तदा सर्वानपि शय्यातरान् कुर्वन्ति, असंस्तरणे तु एकं शय्यातरमिति, ग्रहणविधिश्वायं द्वयोः शय्यातरयोरेकान्तरेण भिक्षाग्रहणवारको भवति त्रिषु शय्यातरेषु तृतीयदिने चतुर्षु चतुर्थदिने एवं वारकेण मिक्षां गृहन्तीति ।। ८०१ ।। अथायं शय्यातरः कदा भवति ?, तत्राह - 'अन्नत्थे'त्यादि, अन्यत्र-अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् सार्थे ग्रामादौ वा उषित्वा सुध्वेत्यर्थः चरमं प्राभातिकमावश्यकं - प्रतिक्रमणमन्यत्र - स्थानान्तरे गत्वा यदि कुर्वन्ति तदा द्वावपि 'तर'त्ति एकदेशेन समुदायोपचारात् शय्यातरौ भवतः यस्यावग्रहे रात्रौ सुप्तो यदवप्रहे च प्राभातिक प्रतिक्रमणं कृतं तौ द्वावपि शय्यातरौ भवत इति भावः, इदं च प्रायशः सार्थादिषु सम्भवति आदिशब्दाच्च चौरावस्कन्दभयादिपरिग्रहः, अन्यथा तु- प्रकारान्तरसद्भावे भजना - शय्यातरस्य विकल्पना, यस्य गृहे स्थिताः स वाऽन्यो वा शय्यातरो भवतीत्यर्थः ॥ ८०२ ॥ तामेव भजनामाह •ww.jainelibrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'रोद्धारे प्रव० सा-12-'जई'त्यादि, यदीत्यभ्युपगमे रात्रेश्चतुरोऽपि प्रहरान जाग्रति शोभनं विहितं-अनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः साधव इत्यर्थः भादश्चकं ||११२ श तु-प्राभातिकप्रतिक्रमणं पुनरन्यत्र गत्वा कुर्वन्ति तदा मूलोपाश्रयस्वामी शय्यातरो न भवति, किन्तु सुप्ते वा-शयने वा कृते सति कृते वा व्यातरतत्त्वज्ञा- प्राभातिकप्रतिक्रमणे शय्यातरो भवति, अयमत्र तात्पर्यार्थ:-शय्यातरगृहे सकलां रात्रि जागरित्वा प्राभातिकप्रतिक्रमणं यद्यन्यत्र कुर्वन्ति पिंडः नवि० तदा मौलः शय्यातरो न भवति किन्तु यद्गृहे प्रतिक्रमणं कृतं स एव, अथ शय्यातरगृहे रात्रौ सुप्त्वा जागरित्वा वा प्राभातिकप्रतिक्र |मणं कुर्वन्ति तदा स एव शय्यातर इति, यदा तु वसतिसङ्कीर्णतादिकारणादनेकोपाश्रयेषु साधवस्तिष्ठन्ति तदा यत्राचार्यः स्थितः स एव ॥२३४॥ शय्यातरो नान्य इति ॥ ८०३ ॥ ननु साधूनां गृहमर्पयित्वा गृहस्वामी यदा देशान्तरं व्रजति तदा शय्यातरो भवति वा न वा?, तत्राह-'दाऊणे'त्यादि वृत्तं, कश्चिद् गृहस्थः साधूनां गृहं दत्त्वा 'सपुत्रदार' पुत्रकलत्रादिसकलनिजलोकपरिवृतो वणिज्यादिभिः कारणैस्तमेव देशमन्यं वा व्रजेत् , तत्रापि च स्थितो यदि तस्य गृहस्य स्वामी तदा स एव शय्यातरो भवति, न पुनर्दूरदेशान्तरस्थितत्वात्तस्य शय्यातरत्वं न भवतीति ।८०४ ॥ अथायं शय्यातरः कस्य सम्बन्धी परिहरणीयस्तत्राह-लिंगत्थे'त्यादि, लिङ्गस्थस्यापिलिङ्गमात्रधारिणोऽपि साधुगुणविरहितस्यापीत्यर्थः सम्बन्धी शय्यातरो वर्जनीयः आस्तां तावदितरस्य चारित्रिण इति, स च साधुस्तं शय्यातरपिण्डं परिहरतु वा भुतां वा तथापि वयः, अथ साधुगुणैर्वियुक्तस्य शय्यातरः कस्मात्परिहियते ?, उच्यते, साधुगुणैर्युक्तस्यायुक्तस्य वा शय्यातरः सर्वथा परिहर्तव्यः, अत्र च 'रसापणो' मद्यापणो दृष्टान्तः, तथाहि-महाराष्ट्राख्ये देशे सर्वेष्वपि मद्यहट्टेषु मद्यं भवतु वा मा वा तथापि तत्परिज्ञापनार्थं ध्वजो बध्यते, तं च दृष्ट्वा सर्वेऽपि भिक्षाचरादयोऽभोज्यमितिकृत्वा परिहरन्ति, एवम|सावपि साधुगुणैर्युक्तो वा भवतु अयुक्तो वा तथाप्यस्य रजोहरणध्वजो दृश्यत इतिकृत्वा शय्यातरः परिहियत इति ।। ८०५ ॥ अथ SAXERCISM ॥२३४॥ Jan Educaton Internationa For Private & Personel Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 545-45 OCRATES %A4 शय्यातरपिण्डग्रहणे दोषानाह-तित्थंकरे'त्यादि, तीर्थकरैः सर्वैरपि प्रतिकुष्टो-निषिद्धः शय्यातरपिण्डः, तं च गृह्णता तीर्थकराज्ञा न कृता स्यात् , तथा अज्ञातस्य-अविदितस्य राजादिप्रत्रजितत्वेन उब्छवृत्त्या यद्भक्षं तदज्ञातमुच्यते तदेव प्रायः साधुना ग्राह्यं 'अन्नायउञ्छं चरई विसुद्धं' इति वचनात् , तच्चासन्ननिवासादतिपरिचयेन ज्ञातस्वरूपतया शय्यातरगृहे पिण्डं गृहन्न शुद्ध्यतीति योगः, तथा शय्यातरपिण्डग्रहणे सति 'उद्गमः' कल्पनीयभक्तादिभवनमपि 'न शुद्ध्यति' न शुद्धो भवति, निकटादिभावेन पुनः पुनस्तत्रैव भैक्षपानकादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमदोषाः स्युरित्यर्थः, तथा स्वाध्यायश्रवणादिभ्यः प्रीतः शय्यातरः क्षीरादि स्निग्धद्रव्यं ददाति तच्च गृह्णता विमुक्तिः-गााभावो न कृतः स्यात् , तथा अविद्यमानं लाघवं-लघुता यस्य स तथा तद्भावोऽलाघवता, तत्र विशिष्टाहारलाभेनोपचितत्वाच्छरीरालाघवं शय्यातरात्तत्परिजनाञ्चोपधेर्लाभादुपधेरनल्पतया तदलाघवमिति, तथा दुर्लभा-असुलभा शय्या च-वसतिः कृता भवति, येन किल शय्या देया तेनाहाराद्यपि देयमित्येवं गृहिणां भयोत्पादनात् , तथा व्यवच्छेदो-विनाशो दानभयाच्छय्यायाः शय्यातरेण क्रियते, वसत्यभावाद्वा भक्तपानशय्यादिव्यवच्छेदः स्यादिति ॥ ८०६ ॥ तथा-'पुरे'त्यादि, पूर्वः-ऋषभस्वामी पश्चिमो-वर्धमानस्वामी एतौ द्वावपि मुक्त्वा शेषैर्जिनवरैः-द्वाविंशतिसबैमध्यमतीर्थकृद्भिविदेहजैश्च-महाविदेहक्षेत्रसमुत्पन्नैः सर्वैरपि तीर्थकरैः 'अवि कम्मति अपिः-सम्भावने कर्म-आधाकर्म 'लेशेन' एकदेशेन भुक्तं, 'न च' नैव 'सागारिकस्य' शय्यातरस्य पिण्डः, मध्यमविदेहतीर्थकराणां । हि यस्यैव योग्यमाधाकर्म कृतं तस्यैव तन्न कल्पते शेषाणां तु कल्पते इति तैराधाकर्मभोजनमपि कथञ्चिद्नुमतं, सागारिकपिण्डः पुनः सर्वथापि प्रतिषिद्ध एवेति, अयं च सागारिकपिण्डो द्वादशधा अशनपानखादिमस्वादिम ४ रजोहरणवस्त्रपात्रकम्बल ४ सूचीपिष्पलककर्णशोधननखरदनिका ४ भेदात् , उक्तं च-"असणाईया चउरो ४ पाउञ्छण ५ वत्थ ६ पत्त ७ कंबलयं ८ । सूई ९ छुर १० %945 REESORN- Jain Education For Private & Personel Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा न रोद्धारे ११२ शय्यातरपिंड तत्त्वज्ञानवि० ANORMCA ॥२३५॥ MORMEROSAROSAGAROORKS कन्नसोहण ११ नहरणिया १२ सागरियपिंडो ॥१॥” तृणडगलकादिस्त्वपिण्डः, उक्तं च-"तणडगलछारमल्लगसेज्जासंथारपीढलेवाई । सेज्जायरपिंडो सो न होइ सेहो य सोवहिओ ॥१॥” अत्र 'सेहो य सोवहिओ'त्ति यदि शय्यातरस्य पुत्रः पुत्री वा वस्त्रपात्रा| दिसहिता प्रव्रजेत्तदा स शय्यातरपिण्डो न भवतीति ॥ ८०७ ॥ तथा—'बाहुल्ले'त्यादि, गच्छस्य-साधुसमूहस्य बाहुल्यात्-प्राचुर्याखेतोः प्रथमालिकापानकाद्यर्थं शय्यातरगृहे पुनः पुनः प्रविशत्सु साधुषु शय्यातर उद्गमदोषं-आधाकर्मादीनामन्यतरं कमपि कुर्यात्, तत्र प्रथमालिका क्षुल्लकग्लानादीनां प्रथमत एव भोजनं, पानकं च प्रतीतं, तथा निरन्तरस्वाध्यायविधानेन करणेन च-चारित्रेण 'आउट्टिय'त्ति |आवर्जिता उपेत्य उद्गमदोषान् कुर्युरिति, अयं च अहोरात्रात्परतोऽशय्यातरो भवति, यदुक्तं—'वुत्थे वजेजऽहोरत्त' ( उपिते वर्जयेद-15 होरात्रं ) इदमत्र हृदयं यत्रोषितास्ततः स्थानाद्यस्यां वेलायां विनिर्गता द्वितीयदिने तावत्या वेलायाः परतोऽशय्यातरो भवति, तथा अपवादतो ग्लानत्वादिकारणे शय्यातरपिण्डोऽपि ग्रहीतुं कल्पते, यदुक्तं-'दुविहे गेलन्नंमी निमंतणे दव्वदुल्लहे असिवे । ओमोयरियपओसे |भए य गहणं अणुन्नायं ॥ १॥ अस्या व्याख्या-आगाढानागाढे-गाढतरागाढतरे द्विविधे ग्लानत्वे शय्यातरपिण्डोऽपि ग्राह्यः, इदमुक्तं | भवति-अनागाढे ग्लानत्वे त्रीन् वारानाहिण्ड्यते यदि न लब्धं ग्लानप्रायोग्यं तदा शय्यातरपिण्डोऽपि गृझते, आगाढे पुनः शीघ्रमेव शय्यातरपिण्डग्रहणं क्रियते, निमन्त्रणे च-शय्यातरनिर्बन्धे सकृत् तं गृहीत्वा पुनः प्रसङ्गो निवारणीयः, दुर्लभे च क्षीरादिद्रव्ये आचायादीनां प्रायोग्ये अन्यत्रालभ्यमाने तत्रैव गृह्णन्ति, अशिवे-दुष्टव्यन्तरोपद्रवादिके अवमौदर्ये च-दुर्भिक्षे अन्यत्र मिक्षायामलभ्यमानायां | शय्यातरगृहेऽपि भिक्षां गृहन्ति, 'पओसेत्ति राज्ञा प्रद्विष्टेन सर्वत्र भैक्षे निवारिते प्रच्छन्नं तद्गृहेऽपि गृहन्ति, अन्यत्र च तस्कारादिभये तत्रापि गृहन्ति भिक्षादिकमिति ११२ ॥ ८०८ ॥ इदानीं 'जत्तिय सुत्ते सम्मति त्रयोदशोत्तरशततमं द्वारमाह REERASACRE ॥२३५॥ in duent an inte For Private & Personel Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 चउदस दस य अभिन्ने नियमा सम्मं तु सेसए भयणा । महओहिविवज्जासे होइ हु मिच्छं न सेसेसु ॥ ८०९ ॥ यस्य साधोश्चतुर्दश पूर्वाणि यावद्दश च पूर्वाणि अभिन्नानि - परिपूर्णानि सन्ति तस्मिन्नियमात् - निश्चयेन सम्यक्त्वं भवति, शेषे -किविदूनदशपूर्वधरादौ भजना - विकल्पना, सम्यक्त्वं वा स्यान्मिथ्यात्वं वेत्यर्थः, तथा मतेरवधेश्च विपर्यासे-मत्यज्ञाने विभङ्गज्ञाने च सति हु-निश्चयेन मिथ्यात्वं भवति, मिथ्यात्ववशादेव हि मतिज्ञानावधिज्ञानयोर्विपर्याससद्भावः, श्रुतज्ञानस्य तु विपर्यासो दर्शित एव, 'सेसए भयण'त्ति वचनात् शेषयोस्तु मनः पर्यवज्ञानकेवलज्ञानयोर्मिथ्यात्वं न भवत्येवेति ११३ ।। ८०९ ।। इदानीं 'जे निग्गंथावि चउगइय'त्ति चतुर्दशोत्तरशततमं द्वारमाह चउदस ओहि आहारगावि मणनाणि वीयरागावि । हुंति पमायपरवसा तयणंतरमेव चउगइया ॥। ८१० ।। सर्वत्र सूचामात्रत्वात्सूत्रस्य 'चउदस' त्ति चतुर्दशपूर्वधरा अपि तथा अवधिज्ञानिनोऽपि तथा आहारका अपि - आहारकलब्धिमन्तोऽपि, चतुर्दशपूर्विणोऽपि केचिदाहारकलब्धिमन्तो न भवन्तीत्याहारकग्रहणं, तथा मनः पर्यवज्ञानिनोऽपि तथा वीतरागा अपि-उपशान्तमोहा अपि, क्षीणमोहानां त्वप्रतिपातित्वान्न ग्रहणं, 'प्रमादपरवशाः' विषयकषायादिकलुषीकृतचेतसः सन्तस्तदनन्तरमेव-तद्भवानन्तरमेव चतुर्गतिका - नारक तिर्यग्मनुष्यदेवलक्षणगतिचतुष्टयभाजो भवन्तीति ११४ ॥ ८१० ।। इदानीं 'खेत्ताईयं' ति पञ्चदशोत्तरशततमं द्वारमाहजमणुग्गए रविंमि अतावखेत्तंमि गहियमसणाइ । कप्पइ न तमुवभोत्तुं खेत्ताईयत्ति समउत्ती Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ८११॥ असणाईयं कप्पह कोसदुगन्भंतराउ आणे। परओ आणिजंतं मग्गाईयंति तमकप्पं प्रव० सारोद्धारे १८१२॥ पढमप्पहराणीयं असणाइ जईण कप्पए भोत्तुं । जाव तिजामे उहुं तमकप्पं कालइकंतं ॥८१३॥ कुकडिअंडयमाणा कवला बत्तीस साहुआहारे । अहवा निययाहारो कीरड बत्तीसतत्त्वज्ञा भाएहिं॥८१४॥ होइ पमाणाईयं तदहियकवलाण भोयणे जइणो । एगकवलाइऊणे ऊणोयनवि० रिया तवो संति (तमि) ॥८१५॥ 'जमे'त्यादिगाथाषटं, यदनुद्गते रवावतापक्षेत्रे रात्रावित्यर्थः गृहीतमशनादि-अशनं पानं खादिमं स्वादिमं च न तदुपभोक्तुं कल्पते यतीनां, यतः क्षेत्रातीतं तदिति समयोक्ति:-सिद्धान्तभणितिरिति ११५ ॥ ८११ ॥ इदानीं 'मार्गातीत'मिति षोडशोत्तरशततमं द्वारमामाह-'असे'त्यादि, अशना दिकं क्रोशद्वयाभ्यन्तराद्-गव्यूतद्वयमध्यादानेतुं कल्पते यतीनां, परतस्तु-क्रोशद्वयात्परत आनीयमानं तदश नादि मार्गातीतमितिकृत्वाऽकल्पनीयमेवेति ११६ ॥ ८१२ ॥ इदानीं 'कालातीत मिति सप्तदशोत्तरशततमं द्वारमाह-पढे'त्यादि, Mा दिनप्रथमप्रहरानीतमशनादि कल्पते यतीनां भोक्तुं यावत् त्रयाणां यामानां समाहारस्त्रियाम-प्रहरत्रयमित्यर्थः, ऊर्द्ध तु-प्रहरत्रयादुपरि चतुर्थप्रहरे तदकल्प्यं-अकल्पनीयं कालातिकान्तं, सिद्धान्ते निषिद्ध मितिकृत्वेति ॥ ११७॥ ८१३ ॥ इदानीं 'प्रमाणातिक्रान्त'मित्यबादशोत्तरशततमं द्वारमाह-'कुक्क' इत्यादिगाथाद्वयं,कुकुंटी-पक्षिणी तस्या यदण्डकं तन्माना:-तत्प्रमाणाः कवला द्वात्रिंशत्साधूनां-य तीनामाहारे भवन्ति, प्रकारान्तरेण कवलमानमाह-अथवा साधोरुदरं यावन्मात्रेणाहारेण न न्यूनं नाप्यत्यानातं भवति तावन्मात्री निजकाहारो द्वात्रिंशद्भागैः क्रियते, द्वात्रिंशत्तमश्च भागः कवल इति, एतस्माच्च द्वात्रिंशकवलमानाधिककवल भोजने यतेः प्रमाणातीतं R- 50 ११३श्रुतेसम्यक्त्वं ११४ चतु गंतिकाः ११५-१८ क्षेत्रातीतादीति गा.८०९८१५ ॥२३६॥ For Private & Personel Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education 1 भोजनं भवति, तथा एतस्माद् द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणाहारादेकेन द्वाभ्यां त्रिमिचतुर्भिः पञ्चादिभिर्वा कवलैन्यूने सति तस्मिन्नाहारे ऊनोदरिकाभिधस्तपोविशेषो भवतीति ११८ ॥ ८१४-८१५ ॥ इदानीं 'दुहसेज्जचउक्कं 'ति एकोनविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह पवयणअसद्दहाणं १ परलाभेहा य २ कामआसंसा ३ । पहाणाइपत्थणं ४ इय चत्तारिऽवि दुक्खसेज्जाओ ॥ ८१६ ॥ सुहसेज्जाओऽवि चउरो जइणो धम्माणुरायरत्तस्स । विवरीयायरणाओ सुहसेजाउत्ति भन्नंति ॥ ८१७ ॥ 'पवे 'त्यादिगाथाद्वयं शेरते आस्थिति शय्याः दुःखदाः शय्या दुःखशय्याः, ताश्च द्वेधा- द्रव्यतो भावतश्च वत्र द्रव्यतोऽमनोज्ञखद्वादिरूपाः, भावतो दुःस्थितचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावास्ताश्चतस्रः, तत्र प्रवचनस्य - जिनशासनस्याश्रद्धानं - एवमेवेदमिति प्रतिपत्यभाव इति प्रथमा दुःखशय्या, तथा परेषां - अन्येषां लाभस्य वस्त्राद्यवाप्तेरीहा - प्रार्थनेति द्वितीया, चः समुच्चये, तथा कामानां - मनोज्ञशब्दरूपादीनामाशंसनं-अभिलषणमिति तृतीया, तथा स्नानादीनां यात्राभ्यङ्गमर्द्दनप्रक्षालनादीनां प्रार्थनं -आकाङ्क्षणमिति चतुर्थी, | आसु हि किष्टभावस्वभावासु श्रामण्यशय्यासु स्थितो जीवः कदाचिदपि श्रामण्यस्य न सुखमासादयतीति चतस्रो दुःखशय्याः ११९ ॥ ८१६ ॥ इदानीं विंशत्युत्तरशततमं 'सुहसेज्जचउक्कं 'ति द्वारमाह-- 'सुहे'त्यादि, 'यतेः' साधोः 'धर्मानुरागर कस्य' धर्मे - जिनधर्मे | अनुरागेण - गाढतराभिलाषरूपेण रक्तस्य - आसक्तस्य सुखशय्या एवं चतस्रोऽपि 'विपरीताचरणात् ' पूर्वोक्तप्रवचनाश्रद्धानादिदुःखशय्यावैपरीत्यकरणतः सुखशय्या इति भण्यन्ते, अयं भावः - प्रवचनश्रद्धानं परलाभानीहनं कामादीनामनाशंसनं स्नानादीनामप्रार्थनं यतेः Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० सुखशय्याः, तत्र हि स्थितः परमसन्तोषपीयूषमनमानसतया निरन्तरतपोऽनुष्ठानादिक्रियाकलापव्यापृततया च सुखमेव यतिः समासादयतीति १२० ।। ८१७ ॥ इदानीं 'तेरस किरियाठाणाईति एकविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह अट्ठा १ णट्ठा २ हिंसा ३ ऽकम्हा ४ दिट्ठी य ५ मोस ६ ऽदिन्ने ७ य । अज्झप्प ८ माण ९ मित्ते १० माया ११ लोभे १२ रियावहिया १३॥८१८॥ तसथावरभूएहिं जो दंडं निसरई उ कजेणं । आयपरस्स व अट्ठा अट्ठादंडं तयं चिंति १॥८१९॥ जो पुण सरडाइयं थावरकायं च वणलयाईयं । मारेइ छिदिऊण व छड्डेई सो अणहाए २॥८२०॥ अहिमाइवयरियस्स व हिंसिंसुं हिंसई व हिंसेही । जो दंडं आरभई हिंसादंडो हवइ एसो ३॥ ८२१ ॥ अन्नहाए निसिरइ कंडाई अन्नमाहणे जो उ । जो व निअंतो सस्सं छिदिजा सालिमाईयं ।। ८२२ ॥ एस अकम्हादंडो ४ दिहिविवज्जासओ इमो होइ । जो मित्तममित्तंति काउं घाएज अहवावि ॥ ८२३ ।। गामाई घाएज व अतेण तेणत्ति वावि घाएजा । दिद्विविवजासेसो किरियाठाणं तु पंचमयं ५॥ ८२४ ॥ अत्तहुनायगाईण वावि अट्ठाइ जो मुसं वयइ । सो मोसप्पच्चइओ दंडो छट्ठो हवइ एसो ६॥ ८२५॥ एमेव आयनायगअट्ठा जो गिण्हई अदिन्नं तु । एसो अदिनवित्ती७ अज्झत्थीओ इमो होइ ॥ ८२६ ॥ नवि कोइ य किंचि भणइ तहवि हु हियएण दुम्मणो किंचि । तस्सऽज्झत्थी सीसइ चउरो ठाणा इमे तस्स ॥ ८२७ ॥ कोहो माणो माया लोभो अज्झथिकिरियए चेव ८। जो पुण |११९-२० दुःखसुख शय्या: |१२१ क्रियास्थानानि गा.८१६८३५ ॥२३७॥ ॥२३७॥ Jain Education For Private Personal Use Only ww.jainelibrary.org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाइमाई अट्ठविणं तु माणेणं ॥ ८२८ ॥ मत्तो हीलेइ परं खिंसह परिभवइ माणवचेया ९ । माइपिइनायगाईण जो पुण अप्पेवि अवराहे ॥ ८२९ ॥ तिघं दंडं कुणई दहणंकणबंधताडणाइयं । तम्मित्तदोसवित्ती किरियाठाणं भवे दसमं १० ॥ ८३० ॥ एगारसमं माया अन्नं हिययंमि अन्न वायाए । अन्नं आयरई वा सकम्मणा गूढसामत्थो । ८३१ ॥ मायावती एसा ११ एतो पुण लोहवत्तिया इणमो । सावज्जारंभपरिग्गहेसु सत्तो महंतेसु ॥ ८३२ ॥ तह इत्थीकामेसुं गिद्धो अपाणयं च रक्खंतो । अन्नेसिं सत्ताणं वहबंधणमारणे कुणइ ॥ ८३३ ॥ एसेह लोहबत्ती १२ इरियावहिअं अओ पवक्खामि । इह खलु अणगारस्सा समिईगुत्तीसुगुत्तस्स ||८३४|| सयतं अप्पमतस्स भगवओ जाव चक्खुपम्हंपि । निवयइ ता सुहमा हू इरियावहिया किरिय एसा १३ ॥ ८३५ ॥ ‘अट्ठे’त्यादिगाथाऽष्टादशकं, करणं क्रिया-कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टा तस्याः स्थानानि - भेदाः क्रियास्थानानि तानि च त्रयोदश, तत्र 'अट्ठाऽणट्ठा हिंस' त्ति अत्र त्रिषु पदेषु प्राकृतलक्षणेन चतुर्थ्येकवचनस्य लोपो दृश्यः, ततोऽर्थाय खपरप्रयोजनाय क्रिया अर्थक्रिया, अनर्थाय - स्वपरप्रयोजनाभावेन क्रियाऽनर्थक्रिया, हिंसायै क्रिया हिंसाक्रिया, अथवाऽर्थो विद्यते यस्यां साऽर्थक्रिया अनर्थ:-स्वप्रयोजनाभावो विद्यते यस्यां साऽनर्था, हिंसा विद्यते यस्यां सा हिंसाक्रिया, अर्शादेराकृतिगणत्वादुच्प्रत्ययः, तथाऽकस्माद् - अनभिसन्धिना क्रियाऽकस्मात्क्रिया, तथा 'दिट्ठी य'त्ति दृष्टिविपर्यासक्रिया सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा, तथा मृषाक्रिया तथाऽदत्तादानक्रिया तथाऽध्यात्मक्रिया तथा मानक्रिया तथाऽमित्रक्रिया तथा मायाक्रिया तथा लोभक्रिया तथा ईर्यापथक्रियेति ।। ८१८ ।। अथैतानि क्रमेण Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5645 प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १२१क्रियास्थानानि ॥ २३८॥ 94155575% व्याचिख्यासुः प्रथमं क्रियास्थानं व्याचष्टे-'तसे'त्यादि, अत्र तृतीयायाः सप्तम्यर्थत्वात् त्रसेपु-द्वीन्द्रियादिषु स्थावरेषु-पृथिव्यादिषु भूतेषु-प्राणिषु यः कश्चिद्दण्डं-दण्ड्यते आत्माऽन्यो वा प्राणी येन स दण्डो-हिंसा, तं निसृजति-करोति कार्येण-प्रयोजनेन, तदेवाह-'आयपरस्स व अट्ठ'त्ति आत्मनः-स्वशरीरादेः परस्य वा-बन्धुवर्गादेराय-उपकाराय तं क्रियाक्रियावतोरभेदोपचारादर्थदण्डं-अर्थक्रियां ब्रुवते तीर्थकरगणधरा इति १॥ ८१९ ।। अथ द्वितीयं क्रियास्थानमाह-'जो पुणे'त्यादि, यः पुनः कश्चित्सरटादिकंकृकलासमूषिकादिकं त्रसकार्य स्थावरकायं च-वनलतादिकं प्रयोजनव्यतिरेकेणैव यथाक्रमं मारयित्वा छित्त्वा च त्यजति स धर्मधर्मिणोरभेदोपचारादनाय क्रियेति २॥ ८२० ॥ तृतीयं क्रियास्थानमाह-'अही'त्यादि, अयं सर्पादिरी वाऽस्मान् हिंसितवान् हिनस्ति हिंसिष्यति वा इत्यभिसंधिना अह्यादेः-सादेः मकारोऽलाक्षणिकः वैरिणो वा यो दण्डमारभते-वधं विधत्ते स हिंसादण्डः धर्मधर्मिणोरभेदोपचाराद्भवत्येष इति ३ ॥ ८२१ ॥ चतुर्थ क्रियास्थानमाह-'अन्नडे'त्यादि, अन्यार्थ-अन्येषां मृगपक्षिसरीसृपप्रभृतीनां वधनिमित्तं 'निसृजति' क्षिपति 'काण्डादिक' शरलेष्टुप्रभृतिकं अन्य पुनराहन्यात् य एषोऽकस्माद्-अनभिसन्धिना अन्यवधार्थप्रवृत्त्या दण्ड:-अन्यस्य विनाशोऽकस्माद्दण्डः, यो वा 'नियंतो'त्ति अवलोकयन् छेदनबुद्ध्या तृणादिकं अन्यत् शाल्यादिक शस्यमनाभोगेन छिंद्यादिति, अयमर्थः-अन्यस्मिन् शाल्यादिमध्यव्यवस्थिते तृणादिके छेत्तुमुपक्रान्ते अनाभोगतोऽन्यच्छाल्यादिकं छिंद्यात् एष वाऽकस्माद्दण्डः ४ ॥ ८२२ ॥ पञ्चमं क्रियास्थानमाह-'दिट्ठी'त्यादि, दृष्टे:-बुद्धेविपर्यासो-विपर्ययो मतिविभ्रम इत्यर्थः तस्मादयं-वक्ष्यमाणो दण्डो भवति, अमुमेवाह-यो मित्रमपि सदमित्रमितिकृत्वा घातयेत् , यो मित्रस्याप्यमित्रोऽयमिति बुद्ध्या वधः स दृष्टिविपर्यासदण्ड इति भावः, अथवाऽपीति प्रकारान्तरद्योतने, प्रामादीन् घातयेत् , अयमर्थः-प्राममध्यवर्तिना केनचित्कस्मि ॥२३८॥ Jan Education inte For Private Personel Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिदपराधे कृते समप्रमपि ग्रामं यन्मारयति एष वा दृष्टिविपर्यासदण्ड इति, यद्वा अस्तेनमपि स्तेनोऽयमितिकृत्वा हन्यादित्येष || दृष्टिविपर्यासः पञ्चमं क्रियास्थानमिति ५ ॥ ८२३ ॥ ८२४ ॥ अथ षष्ठं क्रियास्थानमाह-'अत्तट्टे'त्यादि, आत्मार्थ परेषां वानायकादीनामय यो मृषा वदति स एष मृषाप्रत्ययिको-मृषाकारणिको दण्डः षष्ठो भवति ६ ॥ ८२५ ॥ सप्तमं क्रियास्थानमाह-एमेवे'त्यादि, 'एवमेव' मृषावाददण्डवदात्मनायकार्थ-आत्मनः परेषां वा नायकादीनां निमित्तं 'नाइग'त्ति पाठे तु ज्ञात्यर्थ-वजनार्थ यो गृहात्यदत्त-अन्येनावितीर्णमेषोऽदत्तवर्ती अदत्तदण्डक्रियावानित्यर्थः ७ ॥ ८२६ ॥ अयं पुनर्वक्ष्यमाणो भवति आध्यात्मिको दण्डः, अध्यात्म-मनस्तत्र भवो बाह्यनिमित्तानपेक्षः शोकोऽभिभव इति भावः, तमेवाह-नवी'त्यादि, यस्य सम्मुखं न कोऽपि किञ्चिदप्यनिष्टं जल्पति, तथापि हृदयेन-मनसा कृत्वा किञ्चिदतिशयेन दुर्मना:-कालुष्यभाग्भवति तस्याध्यात्मिकी क्रिया 'सीसइत्ति कथ्यते, | तस्य चाध्यात्मिकक्रियास्थानस्य इमानि वक्ष्यमाणानि चत्वारि 'स्थानानि' कारणानि भवन्ति, तान्येवाह-'कोहो' इत्यादि, क्रोधो है मानो माया लोभश्चेत्येतानि चत्वारि कारणान्यध्यात्मक्रियायां भवन्तीति, बाह्यनिमित्तानपेक्षमाभ्यन्तरनिष्कारणक्रोधादिसमुद्भूतं दौर्मनस्यDIमाध्यात्मिकक्रियेति तात्पर्यार्थः ८ ॥ ८२७ ॥ नवमं क्रियास्थानमाह-'जो पुणे त्यादि, यः पुनर्जातिमदादिना-जातिकुलरूपबलश्रुततदापोलाभैश्वर्यमदलक्षणेनाष्टविधेन मानेन मत्तः सन् परं आत्मव्यतिरिक्तं हीलयति-जात्यादिभिर्निन्दति निकृष्टोऽयमित्यादिवचनैः परिभवत्य नेकाभिः कदर्थनाभिर्मानप्रत्यया एषा क्रियेति ९॥ ८२८-८२९ ॥ दशमं क्रियास्थानमाह-माई'त्यादि, यः पुनर्मातापितृस्वजनादीनामल्पेऽप्यपराधे तीनं दण्डं कुरुते दहनाङ्कनबन्धताडनादिकं तन्मित्रद्वेषवर्तिक्रियास्थानं, अमित्रक्रियेत्यर्थः, भवेदशमं क्रियास्थानमिति, तत्र दहनं-उल्मुकादिमिर्दम्भनं अङ्कनं-ललाटादिषु चिह्नकरणं बन्धो-रज्ज्वादिभिर्नियत्रणं ताडनं-कशादिभिराहननं, आदिशब्दादनपान Jain Education in TWIdww.jainelibrary.org Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा० | निषेधादिपरिग्रहः १० ॥ ८३० ॥ एकादशमं क्रियास्थानमाह-'एगारे'त्यादि, एकादशं माया-मायाक्रियास्थानं यथा हृदये-मनसि ||१२१ किरोद्धारे अन्यत्-वचःक्रियाविलक्षणं वाचि-वचसि अन्यत्-मनःक्रियाविलक्षणं अन्यच्च वाड्मानसविसंवादि आचरति-करोति, कथम्भूतः सन् ?तत्त्वज्ञा यास्थानवि० नानि Pl'गूढसामर्थ्यः' गूढे-गोपने सामर्थ्य-शक्तिविशेषो यस्य स तथा, केन कृत्वा ?–स्वकर्मणा' निजचेष्टितेनाकारेजितादिना, मायाप्र त्यया एषा क्रियेति ११ ॥ ८३१॥ द्वादशं क्रियास्थानमाह-'एत्तो' इत्यादि, इत:-ऊर्द्ध पुनर्लोभप्रत्यया क्रिया इयं-वक्ष्यमाणा, यथा ॥२३९॥ सावद्यारम्भाः-प्राण्युपमर्दादिना सपापव्यापारा ये परिग्रहा-धनधान्यादिरूपास्तेषु महत्सु-गुरुषु सक्तो-गाढतराकाङ्क्षायुक्तः, तथा स्त्रीषु -युवतिषु कामेषु च-मनोज्ञरूपरसगन्धस्पर्शशब्दस्वरूपेषु गृद्धः-अत्यन्तमभिसक्तः, तथाऽऽत्मानमपायेभ्यो गाढादरेण रक्षन् अन्येषां सत्त्वानां-प्राणिनां वधबन्धनमारणानि-लगुडादिहननरज्ज्वादिसंयमनप्राणव्यपरोपणलक्षणानि करोति एषा इह-सिद्धान्ते लोभप्रत्ययालोभनिबन्धना क्रियेति ॥ १२ ॥ ८३२-८३३ ॥ त्रयोदशं क्रियास्थानमाह-अतो-लोभक्रियानन्तरमैर्यापथिकी क्रियां प्रवक्ष्यामि, तत्र ईरणमीर्या-गमनं तद्विशिष्टः पन्था ईर्यापथस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी, व्युत्पत्तिमात्रमिदं प्रवृत्तिनिमित्तं तु यः केवलयोगप्रत्यय उपशान्तमो. हादित्रयस्य सातवेदनीयकर्मबन्धः सा ऐर्यापथिकी, इह खल्वनगारस्य साधोः समितिषु-ईर्यासमित्यादिषु गुप्तिषु-मनोगुप्त्यादिषुसु गुप्तस्यसुसंवृतस्य सततमेवाप्रमत्तस्योपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगकेवलिलक्षणगुणस्थानकत्रयवर्तिनः, अन्येषां तु अप्रमत्तानामपि कषायप्रत्ययकर्मबन्धसद्भावेन केवलयोगनिमित्तकर्मबन्धासम्भवान्नाप्रमत्तशब्देनात्र ग्रहणं, भगवतः-पूज्यस्य यावच्चक्षुःपक्ष्मापि निपतति-स्पन्दते, इदं च |॥ २३९॥ योगस्योपलक्षणं, ततोऽयमर्थः-यावच्चक्षुर्निमेषोन्मेषमात्रोऽपि योगः सम्भवति तावत्सूक्ष्मा-एकसामयिकबन्धत्वेनात्यल्पा सातबन्धनल USARACTEXASISAMACHCOMS For Private & Personel Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SALORE CACACCHENGAROO क्षणा क्रिया भवति, एषा हुः-स्फुटमैर्यापथिकी क्रिया त्रयोदशीति १२१ ।। ८३४ ।। ८३५ ॥ इदानीं 'आगरिसा सामाईए चउविहेवि एगभवे' इति द्वाविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह सामाइयं चउद्धा सुय १ दंसण २ देस ३ सब ४ भेएहिं । ताण इमे आगरिसा एगभवं पप्प भणियवा ॥ ८३६ ॥ तिण्ह सहस्स पुहुत्तं च सयपुहुत्तं च होइ विरईए । एगभवे आगरिसा एवइया हुंति नायवा ॥ ८३७॥ 'सामे'त्यादि गाथाद्वयं, समो-रागद्वेषयोरपान्तरालवर्ती मध्यस्थः, 'इण् गतौ' अयनं अयो गमनमित्यर्थः समस्य अयः समायः-समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनि प्रवृत्तिः, समाय एव सामायिकं, विनयादेराकृतिगणत्वात् स्वार्थिक इकणप्रत्ययः, एकान्तोपशान्तगमनमिति भावः, द तच्चतुर्धा-चतुर्भेदं श्रुतदर्शनदेशसर्वलक्षणैर्भेदैः, श्रुतसामायिकं सम्यक्त्वसामायिकं देशविरतिसामायिकं सर्वविरतिसामायिकं चेत्यर्थः, तेषांटू च चतुर्णामप्येते-वक्ष्यमाणा आकर्षा एकं भवं उपलक्षणत्वान्नानाभवांश्च प्राप्य-आश्रित्य भणितव्याः, तत्र आकर्षणमाकर्षः-प्रथमतयां मुक्तस्य वा ग्रहणमित्यर्थः, ते च द्विधा-एकभविका नानाभविकाश्च ।। ८३६ ।। तत्र प्रथमत एकभविकानाह-'तिण्हे'त्यादि, त्रयाणांसम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकदेशविरतिसामायिकानामेकभवे सहस्रपृथक्त्वमाकर्षाणामुत्कर्षतो भवति, विरते:-सर्वविरतेस्त्वेकभवे शतपृथक्त्वमाकर्षाणामुत्कर्षतः, पृथक्त्वमिति द्विप्रभृतिरानवभ्यः, एवमेतावन्त उत्कर्षत एकभवे आकर्षा भवन्ति ज्ञातव्याः, परतस्तु प्रतिपातोऽलाभो वा, जघन्यतः पुनश्चतुर्णामपि सामायिकानामेक एवाकर्ष एकस्मिन् भवे भवति, उक्तं चावश्यकचूर्णी-सुयसामाइयं एग SALMASACRECAUSERCANEM. For Private & Personel Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ २४० ॥ भवे जहन्त्रेणं एगम्मि आगरिसे उक्कोसेणं सहस्त्रपुहुत्तंवारा, एवं सम्मत्तस्सवि, देसविरईए य सव्वविरईए य पुण जहन्त्रेण एकम्मि, उक्कोसेणं सयपुहुत्तंवारा" इति ॥ ८३७ ॥ अथ नानाभवगतान् प्रतिपादयति — तिण्ह असंखसहस्सा सहसपुहुत्तं च होइ विरईए । नाणभवे आगरिसा एवइया हुंति नायव ॥ ८३८ ॥ 'ति०हं' इत्यादि, त्रयाणां - सम्यत्त्वश्रुतदेशविरति सामायिकानां नानाभवेष्वाकर्षाणामुत्कर्षतो भवन्त्यसङ्ख्येयानि सहस्राणि यतस्त्रयाणामप्येकस्मिन् भवे सहस्र पृथक्त्वमाकर्षाणामुक्तं, भवाश्च क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागगतनभः प्रदेशतुल्याः 'संमत्तेदसविरया पलियस्सासंखभागमेत्ता उ ।' [ सम्यक्त्व देशविरताः पल्यस्यासंखभागमात्रा एव ] इति वचनात् ततः सहस्रपृथक्त्वं तैर्गुणितमसङ्ख्येयानि सहस्राणि भवन्ति, सहस्रपृथक्त्वं च नानाभवेष्वाकर्षाणामुत्कर्षतो भवति विरते:- सर्वविरतेः, तस्या हि खल्वेकभवे शतपृथक्त्वमाकर्षाणामुक्तं भवाचाष्टौ ततः शतपृथक्त्वमष्टभिर्गुणितं सहस्रपृथक्त्वं भवति, एतावन्तो नानाभवेष्वाकर्षा भवन्ति ज्ञातव्याः, अन्ये पठति — 'दोह सहस्समसंखा' इति, तत्रापि श्रुतसामायिकं सम्यक्त्वसामायिकानन्तरीयकत्वादनुक्तमपि प्रतिपत्तव्यं, सामान्यश्रुतस्य त्वक्षरात्मकस्य नानाभवेष्वाकर्षा अनन्तगुणा इति १२२ ।। ८३८ ।। इदानीं 'सीलिंगद्वारससहस्स' त्ति त्रयोविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह— सीलिंगाण सहस्सा अट्ठारस एत्थ हुंति नियमेणं । भावेणं समणाणं अक्खंडचरित्तजुत्ताणं ॥ ८३९ ॥ जोए ३ करणे ३ सन्ना ४ इंदिय ५ भोमाइ १० समणधम्मे य १० । सीलिंगसहस्साणं अट्ठारगस्स निष्पत्ती ॥ ८४० ॥ करणाइँ तिन्नि जोगा मणमाईणि हवंति करणाई | आहाराई 1-৬6--06 १२२ आ कर्षाः १२३ शीलांगानि गा. ८३६__८४६ ॥ २४० ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्ना चउ सोयाइंदिया पंच ॥ ८४१॥ भोमाई नव जीवा अजीवकाओ य समणधम्मो य। खंताइदसपयारो एवं ठिय भावणा एसा ॥ ८४२॥ न करइ मणेण आहारसन्नविप्पजढगो उ नियमेण । सोइंदियसंवरणो पुढविजिए खंतिसंजुत्तो॥ ८४३ ॥ इय मद्दवाइजोगा पुढवीकाए हवंति दस भेया । आउकायाईसुवि इअ एए पिंडिअंतु सयं ॥ ८४४ ॥ सोइंदिएण एवं सेसेहिवि जं इमं तओ पंच । आहारसन्नजोगा इय सेसाहिं सहस्सदुगं ॥ ८४५॥ एवं मणेण वयमाइएसु एवं तु छस्सहस्साई । न करे सेसेहिपि य एए सब्वेवि अट्ठारा ॥ ८४६ ॥ शीलाङ्गानां-चारित्रांशानां तत्कारणानां वा सहस्राण्यष्टादश 'अत्र' यतिधर्मे शासने वा भवन्ति-स्युनियमेन-अवश्यम्भावेन न न्यूनान्यधिकानि वेति भावः, कथमित्याह-भावेन' विशुद्धपरिणामेन, बहिर्वृत्त्या तु कल्पप्रतिसेवया न्यूनान्यपि स्युरिति भावः, केषामित्याह-श्रमणानां-साधूनां, न पुनः श्रावकाणां, सर्वविरतावेव तेषामुक्तसङ्ख्याकानां सम्भवात् , अथवा भावेन श्रमणानां न तु द्रव्यश्रमणानां, तेषामपि किंविधानामित्याह-'अखण्डचरित्रयुक्तानां' समप्रचरणप्रतिपन्नानां न तु दर्पप्रतिषेवया खण्डितचारित्रांशानां, नन्वखण्डचारित्रा एव सर्वविरता भवन्ति तत्खण्डने असर्वविरतत्वप्रसक्तेः, तथाहि-पडिवज अइकम्मे पंच' इत्यागमप्रामाण्यात् सर्वविरतः पञ्चापि महाब्रतानि प्रतिपद्यते अतिक्रामति च पञ्चाप्येव नैकादिकमिति कथं सर्वविरतेदेशखण्डनमिति ?, अत्रोच्यते, सत्यमे| तत् , किन्तु प्रतिपत्त्यपेक्षं सर्वविरतत्वं, परिपालनापेक्षया त्वन्यथाऽपि सस्खलनकषायोदयात्स्यात् , अत एवोक्तम्-"सब्वेवि य अइयारा संजलणाणं तु उदयओ होंती"ति [सर्वेऽप्यतिचाराश्च संज्वलनानामेवोयतो भवन्ति ] अतिचारा हि चारित्रदेशखण्डनरूपा एव, Join Education Internet For Private & Personal use only jainelibrary.org Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % % प्रवासा रोदारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥२४१॥ तथैकवतातिक्रमे सर्वव्रतातिक्रम इति यदुक्तं तदपि विवक्षया, सा चेयं-"छेयस्स जाव दाणं ताव अइक्कमइ नेव एगपि । एगं अइ-1 १२३ शीकमंतो अइकम्मे पंच मूलेणं ॥१॥" [छेदस्य यावदानं तावदतिक्राम्यति नैवैकमपि । एकमतिकाम्यन अतिक्राम्यति पञ्च (शोधिश्च ) लाङ्गसहमूलेन ॥ १॥] एवमेव हि दशविधप्रायश्चित्तविधानं सफलं स्यात् , अन्यथा मूलायेव तत्स्यात् , व्यवहारनयतश्चातिचारसम्भवः निश्च ४स्राणि १८ यतस्त्वसर्वविरततया भङ्ग एवेति पर्याप्तं प्रपञ्चेनेति ॥ ८३९ ॥ कथं पुनरेकविधस्य शीलस्याङ्गानामष्टादश सहस्राणि भवन्तीत्याह गा.८३९. 'जोए' इत्यादि, योगे-करणादिव्यापारे विषयभूते करणे-योगस्यैव साधकतमे मनःप्रभृतिके, संज्ञादीनि चत्वारि पदानि द्वन्द्वैकत्ववन्ति, तत्र संज्ञासु-चेतनाविशेषरूपासु आहारादिषु इन्द्रियेषु-अक्षेषु श्रोत्रादिषु भूम्यादिषु-पृथिव्यादिजीवकायेष्वजीवकाये च श्रमणधर्मे चक्षान्त्यादौ शीलाङ्गसहस्राणां प्रस्तुतानामष्टादश परिमाणमस्य वृन्दस्येत्यष्टादशकं तस्य निष्पत्तिः-सिद्धिर्भवति ॥ ८४० ॥ योगादीनेव व्याख्यातुमाह-करणाईति विभक्तिलोपात्करणादयः-करणकारणानुमतयस्त्रयो योगा भवन्ति, तथा मनआदीनि तु-मनोवचनकायरूपाणि पुनर्भवन्ति-स्युः करणानि त्रीण्येव, तथा आहारादयः-आहारभयमैथुनपरिग्रहविषया वेदनीयभयमोहनीयवेदमोहनीयलोभकषायोदयसम्पाद्या अध्यवसायविशेषरूपाः, 'चउ'त्ति चतस्रः संज्ञा भवन्ति, तथा श्रोत्रादीनि-पश्चानुपूर्व्या श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनानीन्द्रियाणि पश्च भवन्ति, उत्तरोत्तरगुणावाप्तिसाध्यानि शीलागानीति ज्ञापनार्थमिन्द्रियेषु पश्चानुपूर्वीति, तथा भूम्यादयः-पृथिव्यप्तेजोवायुव|नस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया नव जीवा-जीवकायाः, अजीवकायस्तु-अजीवकायः पुनर्दशमो यः परिहार्यतयोक्तः स च महामूल्यवस्त्रपात्रसुवर्णरजतादिरूपो दुष्प्रत्युपेक्षिताप्रत्युपेक्षितदूष्यपुसकचर्मणपञ्चकादिरूपश्च, तथा श्रमणधर्मस्तु-यतिधर्मः पुनः क्षान्त्यादि:-क्षा ॥२४१॥ न्तिमार्दवार्जवमुक्तितपःसंयमसत्यशौचाकिञ्चन्यब्रह्मचर्यरूपो दशविध इति, 'एवं'ति एवमुक्तन्यायेन 'स्थिते' औत्तराधर्येण पट्टकादौ AMARRA Jain Education Inter n a For Private & Personel Use Only Himww.jainelibrary.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kickcX1960%" व्यवस्थिते त्रिचतुःपञ्चदशदशसङ्ख्ये मूलपदकलापे । भावना' भङ्गप्रकाशना 'एषा' अनन्तरवक्ष्यमाणलक्षणा शीलाङ्गनिष्पत्तिविषयेति ॥८४१ ॥ ८४२ ॥ तामेवाह न करेई'त्यादि, न करोतीति करणलक्षणः प्रथमयोग उपात्तः, मनसेति प्रथमं करणं, "आहारसन्नविप्पजढगो'त्ति आहारसंज्ञाविहीणः सन् , अनेन च प्रथमसंज्ञा तथा नियमेन अवश्यन्तया श्रोत्रेन्द्रियसंवरणो-निरुद्धरागादिमच्छ्रोत्रेन्द्रियप्रवृत्तिः, अनेन च प्रथमेन्द्रियं, एवंविधः सन् किं न करोतीत्याह-पृथिवीजीवान् आरम्भविषयानिति शेषः, पृथिवीजीवारम्भं न | करोतीति तात्पर्यार्थः, अनेन च प्रथमजीवस्थानं, क्षान्तिसंयुक्त:-क्षान्तिसम्पन्नः, अनेन च प्रथमश्रमणधर्मभेद उक्त इति ॥८४३॥ तदेवमेकं शीलाङ्गमाविर्भावितमिति, अथ शेषाण्यपि तान्यतिदेशतो दर्शयन्नाह–इये'त्यादि, 'इति' अनेनैव पूर्वोक्तामिलापेन मार्दवादियोगात्-मार्दवार्जवादिपदसंयोगेन 'पृथिवीकाये' पृथिवीकायमाश्रित्य पृथिवीकायारम्भमित्यमिलापेनेत्यर्थः सम्भवन्ति-स्युर्दश भेदा-दश शीलविकल्पाः, अप्कायादिष्वपि नवसु स्थानेषु, अपिशब्दो दशेत्यस्येह सम्बन्धनार्थः, इत्यनेन क्रमेण एते सर्वेऽपि भेदाः 'पिंडियं तु'त्ति प्राकृतत्वात् पिण्डिताः पुनः सन्तः अथवा पिण्डितं-पिण्डमाश्रित्य शत-शतसङ्ख्याः स्युरिति, श्रोत्रेन्द्रियेणैतत् शतं लब्धं, शेषैरपि चक्षुरादिभिर्यद्-यस्मादिदं शतं प्रत्येकं लभ्यते, ततो मिलितानि पञ्च शतानि स्युः, पञ्चत्वादिन्द्रियाणां, एतानि चाहारसंज्ञायोगलब्धानि इति, एवं शेषाभिरपि भयसंज्ञादिभिस्तिसृभिः पञ्च पञ्च शतानि स्युः, सर्वमीलने च सहस्रद्वयं स्यात् , यतश्चतस्रः संज्ञा इति, एतत्स-| हस्रद्वितयं मनोयोगेन लब्धं, 'वयमाइएसुत्ति वागाद्योः-वचनकाययोः प्रत्येकमेतत्सहस्रद्वयं, इत्येवं षट् सहस्राणि, त्रिसङ्घयत्वात् मनोवचनकाययोगानां, एतानि न करोतीत्यनेन लब्धानि, शेषयोरपि च कारणानुमत्योः षट् षट् सहस्राणि स्युः, एते अनन्तरोक्ताः सर्वेऽपि शीलभेदाः पिण्डिताः सन्तोऽष्टादश सहस्राणि भवन्तीति । आलापकगाथाश्चैवमत्र करणीयाः-'न करेमि मणसाऽऽहारसन्नविरओ उ सोय For Private & Personel Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १२३ शीलाङ्गसहस्राणि १८ गा.८३९४६ ॥२४२॥ संगुत्तो । पुढवीकायारंभं खंतिगुणे वट्टमाणोऽहं ॥ १ ॥ एवं महवगुणे वट्टमाणोऽहं २ । अजवगुणे वट्टमाणोऽहं ३ । यावर्द्धभगुणे वट्टमाणो- | ऽहं १० । एवमकायादिष्वपि गाथा भणनीयाः । तथा कारेमि न मणसाहारसन्नविरओ उ सोयसंगुत्तो । पुढवीकायारंभं खंतिगुणे वट्टमाणोऽहं ॥ १ ॥' इत्यादि तथा-'नऽणुमन्ने मणसाहारसन्नविरओ उ सोयसंगुत्तो । पुढवीकायारंभं खंतिगुणे वट्टमाणोऽहं ॥ १॥ इत्यादि । नन्वेककयोगे एवाष्टादश सहस्राणि स्युर्यदा तु ब्यादिसंयोगजन्या भङ्गका इह गृह्यन्ते तदा बहुतराः स्युः, तथाहि-एकट्यादिसंयोगेन योगेषु सप्त विकल्पाः, एवं करणेष्वपि, संज्ञासु पञ्चदश, इन्द्रियेष्वेकत्रिंशत् , भूम्यादिषु त्रयोविंशत्यधिकं सहस्रं, एवं क्षमादिष्वपीति, एषां च राशीनां परस्परगुणने द्वे कोटीसहस्रे त्रीणि कोटीशतानि चतुरशीतिः कोटयः एकपञ्चाशल्लक्षाणि त्रीणि षष्टिः सहस्राणि द्वे शते पञ्चषष्टिश्चेति (२३८४५१६३२६५) ततः किमित्यष्टादशैव सहस्राण्युक्तानि ?, उच्यते, यदि श्रावकधर्मवदन्यतरभङ्गकेन सर्वविरतिप्रतिपत्तिः स्यात्तदा युज्येत तद्भणनं, न चैवमेकतरस्यापि शीलाङ्गभङ्गकस्य शेषसद्भाव एव भावादन्यथा सर्वविरतिरेव न स्यादिति, उक्तं च -"इत्थ इमं विन्नेयं अइदंपजं तु बुद्धिमंतेहिं । एक्कंपि सुपरिसुद्धं सीलंग सेससब्भावे ॥ १॥ अस्या व्याख्या-अत्र-शीलाङ्गाधिकारे इदं विज्ञेयमैदम्पर्य-तत्त्वं बुद्धिमद्भिः पुरुषः, यदुत-एकमपि सुपरिशुद्धं शीलानं शेषसद्भावे-तदपरशीलाङ्गसत्तायामेव, तदेवं समुदितान्येवैतानि भवन्तीति न ब्यादिसंयोगभङ्गकोपादानं अपि तु सर्वपदान्त्यभङ्गस्येयमष्टादशसहस्रांशतोक्ता, यथा त्रिविधं त्रिविधेनेत्यस्य नवांशतेति, अत एव श्रावकाणामेतानि न भवन्येव, किन्तु मनःस्थैर्यसम्पादनार्थ तेऽप्यनुमतिप्रधानेन स्वामिलापेन गाथोच्चारणमात्रमासूत्रयन्ति, अभिलापश्चायं-न करेंती मणसाहारसन्नविरया उ सोयसंगुत्ता । पुढवीकायारंभं धन्ना जे खंतिगुणजुत्ता १॥१॥ एवं धन्ना ॥२४२॥ For Private 3 Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे मद्दवुजुत्ता २, धन्ना जे अजवुजुत्ता ३, एवं यावद्धन्ना जे बंभगुणजुत्ता', इत्यादि ।। ८४४ ॥ ८४५ ॥ ८४६ ॥ १२३ । इदानीं 'नयसत्तगं'ति चतुर्विशत्युत्तरशततमं द्वारमाह नेगम १ संगह २ ववहार ३ रिज्जुसुए ४ चेव होइ बोवे । सद्दे ५ य समभिरूढे ६ एवंभूए ७ य मूलनया ॥ ८४७ ॥ एक्केको य सयविहो सत्त नयसया हवंति एवं तु । बीओवि य आएसो पं चेव सया नयाणं तु ॥ ८४८॥ अनेकधर्मकं वस्त्वनवधारणपूर्वकमेकेन नित्यत्वाद्यन्यतमेन धर्मेण प्रतिपाद्य स्वबुद्धिं नीयते-प्राप्यते येनाभिप्रायविशेषेण स ज्ञातुरभिप्रायविशेषो नयः, अयमत्र तात्पर्यार्थः-इह यो नाम नयो नयान्तरसापेक्षतया स्याद्वादलान्छितं वस्तु प्रतिपद्यते स परमार्थतः परिपूर्ण | वस्तु गृह्णातीति प्रमाण एवान्तर्भवति, यस्तु नयवादान्तरनिरपेक्षतया स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेणानवधारणपूर्वकं वस्तु परिच्छेत्तुमभिप्रेति स वस्त्वे कदेशपरिग्राहकत्वान्नय इत्युच्यते, स च नियमान्मिथ्यादृष्टिरेव, अयथावस्थितार्थवस्तुपरिप्राहकत्वात् , अत एवोक्तमन्यत्र 'सब्वे नया | मिच्छावाइणो'त्ति [सर्वे नया मिथ्यावादिनः] यत एव च नयवादो मिथ्यावादः तत एव च जिनप्रवचनवेदिनो मिथ्यावादित्वपरिजिहीर्षिया सर्वमपि स्यात्कारपुरस्सरं भाषन्ते न तु जातुचिदपि स्यात्कारविरहितं, यद्यपि च लोकव्यवहारपथमवतीर्णा न सर्वत्र सर्वदा साक्षा स्यात्पदं प्रयुजते तथापि तत्राप्रयुक्तोऽपि सामर्थ्यात् स्याच्छब्दो द्रष्टव्यः, प्रयोजकस्य कुशलत्वात् , उक्तं च-अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते । विधौ निषेधेऽन्यत्रापि, कुशलश्चेत्प्रयोजकः॥१॥” अत्र 'अन्यत्रापी'ति अनुवादातिदेशादिवाक्येषु । ते च नया मूलभेदापेक्षया सप्त, तथा चाह-नेगमे त्यादि नैगमः संग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रश्चैव भवति बोद्धव्यः शब्दश्च समभिरूढ एवंभूतश्चेति मूल नया 462525A425A4-%%* Jain Educhlar RIMI Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २४३ ॥ Jain Education Inte इति गाथासङ्क्षेपार्थः । तत्र न एकं नैकं नार्य नव् किन्तु न इति 'अन् खरे' इति न भवति, प्रभूतानीत्यर्थः, ततो नैकैः --प्रभूतसङ्ख्याकैर्मानैः - महासामान्यावान्तरसामान्यविशेषादिविषयैः प्रमाणैर्मिमीते - परिच्छिनत्ति वस्तुजातमिति नैगमः, पृषोदरादित्वादिष्टरूपसिद्धि:, यद्वा निश्चितो गमो नैगमः परस्परविविक्तसामान्यादिवस्तुग्रहणं स एव प्रज्ञादेराकृतिगणतया स्वार्थिकाण्प्रत्ययविधानान्नैगमः, अथवा गमाःपन्थानो नैके गमा यस्य स नैगमः, पृषोदरादित्वात्ककारस्य लोपः, बहुविधवस्त्वभ्युपगमपर इत्यर्थः तथाहि - एष सत्तालक्षणं महासामान्यमवान्तरसामान्यानि च द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादीनि तथा अन्त्यान् विशेषान् सकलासाधारणरूपान् अवान्तरविशेषांश्च- पररूपव्यावर्तनक्षमान् सामान्यादत्यन्तविनिर्लुठितस्वरूपान् प्रतिपद्यते, यतोऽसावेवमाह - संविन्निविष्टाः किल पदार्थव्यवस्थितयः, तत्र सर्वेष्वपि पदार्थेषु द्रव्यादिरूपेषु सत् सदित्यविशेषेण प्रत्यय उपजायते वचनं च, न चैते तथारूपे प्रत्ययवचने द्रव्यादिमात्रनिबन्धने, द्रव्यादीनामसर्वव्यापकत्वात्, तथाहि--यदि द्रव्यमात्रनिबन्धनः सदिति प्रत्ययस्तर्हि स गुणादिषु न भवेत्, तत्र द्रव्यत्वाभावात्, गुणमात्रनिबन्धनत्वे द्रव्यादिषु न स्यात्, तत्र गुणत्वाभावात् एवं सर्वत्रापि भावनीयं ततोऽस्ति द्रव्यादिभ्यो व्यतिरिक्तं महासत्ताख्यं नाम सामान्यं यद्वशादविशेषेण सर्वत्र सदिति प्रत्यय इति । तथा नवसु द्रव्येषु द्रव्यं द्रव्यमित्यनुगताकारप्रत्ययदर्शनात् द्रव्यत्वं नामावान्तरसामान्यं प्रतिपत्तव्यं, एवं गुणत्वकर्मत्वगोत्वाश्वत्वादीन्यपि, अमूनि चावान्तरसामान्यानि सामान्यविशेषा इत्युच्यन्ते, यत एतानि स्वस्वाधारविशेघेषु अनुगताकारप्रत्ययवचनहेतुत्वात् सामान्यानि विजातीयेभ्यो व्यावर्तमानत्वाय विशेषा इति सामान्यविशेषाः, तथा तुल्यजातिगुणक्रियाधाराणां नित्यद्रव्याणां परमाण्वाकाशदिगादीनामत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वादन्त्या विशेषाः ते च योगिनामेव प्रत्यक्षाः अस्मदादीनां त्वनुमेयाः, तथाहि - तुल्यजातिगुणक्रियाधाराः परमाणवो व्यावर्तकधर्मसम्बन्धिनो व्यावृत्तिप्रत्ययविषयत्वात्, मुक्ताफलराश्यन्तर्गतसचि - १२४ नयभेदाः गा. ८४७-८ ॥ २४३ ॥ w.jainelibrary.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ME%%AMAMROSAROKAR मुक्ताफलवत् , ये चावान्तरविशेषा घटपटादीनामितरेतरव्यावर्तनक्षमास्ते आबालगोपालाङ्गनादिजनानामपि प्रत्यक्षाः, एते च महासामान्यावान्तरसामान्यांत्यविशेषावान्तरविशेषाः परस्परविसकलितस्वरूपास्तथैव प्रतिभासमानत्वात् , तथाहि-न सामान्यपाहिणि विज्ञाने विशेषावभासः नापि विशेषग्राहिणि सामान्यावभासः, ततः परस्परविनिटुंठितस्वरूपाः, तथा चात्र प्रयोग:-यद्यथाऽवभासते तत्तथाऽभ्युपगन्तव्यं, यथा नीलं नीलतया, अवभासन्ते च ते परस्परविसकलितस्वरूपा इति नैगमः। नन्वेष यदि सामान्यविशेषाभ्युपगमपरस्तर्हि | यत्सामान्यं तद् द्रव्यं ये तु विशेषास्ते पर्याया इति परमार्थतो द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयमतावलम्बित्वात् सम्यग्दृष्टिरेव प्रतिपन्नजिनमतत्वात्तथाविधसम्यग्जैनसाधुवत् ततः कथं मिथ्यादृष्टिः?, तदेतद्युक्तं, प्रतिपन्नजिनमतत्वासिद्धेः, परस्परविसंकलितसामान्यविशेषाभ्युपगमाव , तथाहि-एष परस्परमेकान्ततो विभिन्नावेव सामान्यविशेषाविच्छति, गुणगुणिनामवयवावयविनां क्रियाकारकाणां चात्य|न्तभेदं, न पुन नसाधुरिव सर्वत्रापि भेदाभेदावतो मिथ्यादृष्टिः कणादवत्, कणादेनापि हि सकलमप्यात्मीयं शास्त्रं द्वाभ्यामपि द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयाभ्यां समर्थितं तथापि तन्मिध्यात्वं, स्वविषयप्रधानतया परस्परमनपेक्षयोः सामान्वविशेषयोरभ्युपगमात् , उक्तं च-"जं सामनविसेसे परोप्परं वत्थुतो य से मिन्ने । (ग्रन्थानं १००००) मन्नइ अञ्चंतमतो मिच्छादिट्ठी कणादोव्व ।। १॥ दोहिवि नएहिं नीयं सत्यमुलूगेण तहवि मिच्छत्तं । जं सविसयप्पहाणतणेण अन्नोन्ननिरवेक्खा ॥ २॥” [यत् सामान्यविशेषौ परस्परं वस्तुतश्च तौ मिन्नौ । मन्यते अत्यन्तं अतः कणाद इव मिथ्यादृष्टिः ॥१॥ द्वाभ्यामपि नयाभ्यामुलूकेन शास्त्रं नीतं तथापि मिथ्यात्वं । यत् स्वविषयप्रधानत्वात् अन्योऽन्यनिरपेक्षौ (इति वदति) ॥२॥] १। तथा सङ्गृह्णाति-अशेषविशेषातिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया |समस्तं जगदादत्ते इति सङ्ग्रह,, तथाहि-अयमेवं मन्यते-सामान्यमेवैकं तात्त्विकं न विशेषाः, ते हि भावलक्षणसामान्याव्यतिरिक्ता वा For Private Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १२४ नयभेदाःगा. ८४७-८ ॥२४४॥ भवेयुरव्यतिरिक्ता वा? गत्यन्तराभावात् , प्रथमपक्षे न सन्त्येव विशेषाः, भावाव्यतिरिक्तत्वादाकाशकुशेशयवत् , अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि विशेषा अपि भावमात्रमेव, तथाहि-भावमात्रं विशेषास्तव्यतिरिक्तत्वात् , इह यद्यस्माव्यतिरिक्तं तत्तदेव, यथा भावस्य स्वरूपं, अव्य तिरेकिणश्च भावाद्विशेषा इति, किं च-विशेषाग्रहो विशेषेण त्याज्यो विशेषव्यवस्थापकप्रमाणाभावात् , तथाहि-भेदरूपा विशेषाः, न च & किञ्चन प्रमाणं भेदमवगाहते, प्रत्यक्षं हि भावसम्पादितसत्ताकं अतस्तमेव साक्षात्कर्तुमलं नाभावं, अभावस्य सकलशक्तिविरहरूपतया तदुत्पादने व्यापाराभावात् , अनुत्पादकस्य च साक्षात्करणे सर्वसाक्षात्करणप्रसङ्गः, तथा च सति विशेषाभावात्सर्वोऽपि द्रष्टा सर्वदर्शी स्यात् , अनिष्टं चैतत् , तस्माद्भावग्राहकमेव प्रत्यक्षमेष्टव्यं, स च भावः सर्वत्राविशिष्टस्तथैव तेन ग्राह्य इति न प्रत्यक्षाद् विशेषावगतिः, नाप्यनुमानादेः, प्रत्यक्षपूर्वकत्वाच्छेषप्रमाणपटलस्य, ततः सामान्यमेव परमार्थतः सत् न विशेषा इति सङ्ग्रहः २ । तथा व्यवहरणं व्यवहारः, यदिवा विशेषतोऽवहियते-निराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहारः, विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनय इत्यर्थः, स ह्येवं विचारयति-यदि सदित्युक्ते घटपटाद्यन्यतमो विशेष एव कोऽप्यनिर्दिष्टस्वरूपः प्रतीयते न सङ्घहनयसम्मतं सामान्यं तस्यार्थक्रियासामर्थ्य विकलतया | सकललोकव्यवहारपथातीतत्वात् ततो विशेष एवास्ति न सामान्यं, इतश्च न सामान्यमुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तस्यानुपलब्धेः, इह यदु । पलब्धिलक्षणप्राप्तं सन्नोपलभ्यते तदसदिति व्यवहर्तव्यं, यथा क्वचित्केवलभूतलप्रदेशे घटो,. नोपलभ्यते चोपलब्धिलक्षणप्राप्तं सत् सङ्कहनयसम्मतं सामान्यमिति स्वभावानुपलब्धिः, अपि च-सामान्यं विशेषभ्यो व्यतिरिक्तं स्यादव्यतिरिक्तं वा ? स्यात्, यद्याद्यः | पक्षस्तर्हि सामान्यस्याभाव एव, विशेषव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्थासम्भवात् , न हि मुकुलितार्धमुकुलितादिविशेषविकलं किमप्याकाशकुसुममस्तीति परिभावनीयमेतत् , अथाव्यतिरिक्तं ततो विशेषा एव न सामान्यं तद्व्यतिरिक्तत्वात्तत्स्वरूपवत् , यदपि चोक्तं 'प्रत्यक्षं ॥२४४॥ Jan Education Internal For Private Personel Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावसम्पादितसकलसत्ताकं अतस्तमेव साक्षात्कर्तुमल मित्यादि, तदपि बालप्रलपितं, प्रत्यक्षं हि नाम तेन सम्पादितसत्ताकमुच्यते यदुत्पन्नं सत्प्रत्यक्षं साक्षात् करोति, कुरुते च प्रत्यक्षं साक्षात् घटपटादिरूपं विशेषं न सङ्ग्रहनयसम्मतं सामान्यं, न च विशेषो घटपटादिरूपोऽभावो भावात्मकत्वात्, ततो नार्थक्रियाशक्ति विकल इत्यदोषः, ततो विशेष एव प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धो न सामान्यमिति सामान्यामह एव त्याज्यो न विशेषाग्रहः, किश्व-यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत्, न च सामान्यं दोहादिक्रियासूपयुज्यते किन्तु | विशेषा एव गवादय: ततस्त एव तात्त्विकाः न सामान्यमिति, एष च व्यवहारनयो लोकसंव्यवहारपरः ततो यदेव लोकोऽभिमन्यते तदेवैषोऽपि न शेषं सन्तमपि, लोकश्च भ्रमरादौ परमार्थतः पञ्चवर्णाद्युपेतेऽपि कृष्णवर्णादित्वमेव प्रतिपन्नः, तस्य स्पष्टतयोपलभ्यमानत्वात्, तत एषोऽपि तदनुयायितया तदेवेच्छति न शेषान् सतोऽपि शुकादीन् वर्णानिति ३ । तथा ऋजु - प्रगुणमकुटिलमतीतानागतपरकीयवक्रपरित्यागाद्वर्तमानक्षणविवर्ति स्वकीयं च सूत्रयति - निष्टङ्कितं दर्शयतीति ऋजुसूत्रः, यदिवा ऋजुश्रुत इति शब्दसंस्कारः, तत्र ऋजु :पूर्वोक्तवक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुतं - ज्ञानमस्येति ऋजुश्रुतः, शेषज्ञानानभ्युपगमात्, तथाहि अयं मन्यते यदतीतमनागतं वा तद्यथाक्रमं विनष्टत्वात् अलब्धात्मलाभाच्च नार्थक्रियासमर्थं नापि प्रमाणगोचरोऽथ चार्थक्रियासमर्थ प्रत्यक्षादिप्रमाणपथमवतीर्णं वस्तु न शेषं, अन्यथा शशशृङ्गादेरपि वस्तुत्वप्रसक्तेः, ततोऽर्थक्रियासामर्थ्यविकलत्वात् प्रमाणपथातीतत्वाच्च नातीतमनागतं वा वस्तु, यदपि च परकीयं वस्तु तदपि परमार्थतोऽसत् निष्प्रयोजनत्वात् परधनवत् एष च ऋजुसूत्रो वार्तमानिकं वस्तु प्रतिपद्यमानो लिङ्गवचनभिन्नमप्येकं प्रतिपद्यते, | तत्रैकमपि त्रिलिङ्गं यथा तटस्तटी तटं तथैकमपि एकवचन द्विवचन बहुवचन वाच्यं यथा गुरुर्गुरू गुरवः गोदौ ग्रामः आपो जलं दाराः कलत्रमित्यादि, निक्षेपचिन्तायां च नामस्थापनाद्रव्यभावरूपांश्चतुरोऽप्यसौ निक्षेपान भिमन्यते ४ । तथा शब्यते - प्रतिपाद्यते वस्त्वेनेनेति Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % % १२४ नय. भेदाः गा. ८४७-८ - 9-7 प्रव० सा० शब्दः, शब्दस्य यो वाच्योऽर्थः स एवं येन नयेन तश्यतो गम्यते न शेषः स नय उपचारात् शब्द इत्युच्यते, अस्य च द्वितीयं नाम रोद्धारे साम्प्रत इति, साम्प्रतवस्त्वाश्रयणात् साम्प्रतः, तथाहि-एषोऽपि ऋजुसूत्रनय इव साम्प्रतमेव वस्त्वभ्युपगच्छति नातीतमनागतं वा, तत्त्वज्ञा. नापि वर्तमानमपि परकीयं, अपि च-निक्षेपचिन्तायां भावनिक्षेपमेव केवलमेष मन्यते न नामादीन निक्षेपान , तथा च नामादिनिक्षेपनवि० | निराकरणाय प्रमाणमाह-नामस्थापनाद्रव्यरूपा घटा न घटाः घटकार्यकारित्वाभावात् यद् घटकार्यकारि न भवति तन्न घटो यथा पट स्तथा चामी घटा घटकार्यकारिणो न भवन्ति तस्मान्न घटा इति नामादिघटानां घटत्वाभावः, इतश्च घटत्वाभावस्तल्लिङ्गादर्शनात् , न खलु ॥२४५॥ नामादिघटेषु घटलिङ्गं पृथुबुनोदराद्याकाररूपं जलधारणरूपं वा किमप्युपलभामहे, अनुपलभमानाश्च तेषु कथं घटव्यपदेशप्रवृत्तिमिच्छामः ?, अपि च-नामादीन घटान घटत्वेन व्यपदिशत ऋजुसूत्रस्य प्रत्यक्षविरोधः, अघटरूपतया पटादीनामिव तेषां प्रत्यक्षत उपलभ्यमानत्वात् । अन्यच्च एष लिङ्गवचनभेदाद्वस्तुनो भेदं प्रतिपद्यते, यथा अन्य एव तटीशब्दस्य वाच्योऽर्थः अन्य एव तटशब्दस्य पुल्लिंगस्य, अपर एव च नपुंसकलिङ्गस्य, तथा अन्य एव गुरुरित्येकवचनवाच्योऽर्थः अन्य एव च गुरव इति बहुवचनवाच्यः, ततो न बहुवचनवाच्योऽर्थ एकवचनेन वक्तुं शक्यते, नाप्येकवचनवाच्यो बहुवचनेन, तथा न पुंल्लिङ्गार्थो नपुंसकलिङ्गेन वक्तुं शक्यः नापि स्त्रीलिङ्गेन नापि नपुंसकः पुंलिङ्गेन स्त्रीलिङ्गेन वा नापि स्त्रीलिङ्गः पुंल्लिङ्गेन नपुंसकलिङ्गेन वा, अर्थाननुयायितया तेषामर्थतो भिन्नत्वात् , तथा चात्र प्रयोग:-ये पर स्परमर्थतोऽननुयायिनस्ते भिन्नार्था इति व्यवहर्तव्याः यथा घटपटादिशब्दाः, परस्परमर्थतोऽननुयायिनश्च लिङ्गवचनभेदभिन्नाः शब्दा ४ इति, ये विन्द्रशक्रपुरन्दरादयः शब्दाः सुरपतिप्रभृतिलक्षणमेकमभिन्नलिङ्गवचनमधिकृत्यामिन्नलिङ्गवचनास्तेषाममिन्नोऽर्थ इत्येकार्थता ५ तथा सम्-एकीभावेन अमिरोहति-व्युत्पत्तिनिमित्तमास्कन्दति शब्दप्रवृत्तौ यः स सममिरूढः, एष हि पर्यायशब्दानामपि प्रविभक्तमे 145441764 ॥२४५॥ For Private Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAROKAR.KOMर वार्थममिमन्यते, यथा घटनाद् घटः, विशिष्टा काचनापि या चेष्टा युवतिमस्तकाद्यारोहणादिलक्षणा सा परमार्थतो घटशब्दवाच्या, तद्वत्यर्थे पुनर्घटशब्दः प्रवर्तते उपचारात्, एवं 'कुट कौटिल्ये' कुटनात् कुटः, अत्र पृथुबुनोदरकम्बुप्रीवाद्याकारकौटिल्यं कुटशब्दवाच्यं, तथा 'उभ उंभ पूरणं' कु:-पृथिवी तस्यां स्थितस्य उम्भनात्-पूरणात्कुम्भः, अत्र यत् पृथिव्यां स्थितस्य पूरणं तत्कुम्भशब्दवाच्यं, एवं सर्वेषामपि पर्यायशब्दानां नानात्वं प्रतिपद्यते, वदति च-न शब्दान्तराभिधेयं वस्तु द्रव्यं पर्यायो वा तदन्यशब्दवाच्यवस्तुरूपता सङ्क्रामति, न खलु पटशब्दवाच्योऽर्थो जातुचिदपि घटशब्दवाच्यवस्तुरूपतामास्कन्दति तथाऽनुपलम्भात् आस्कन्दने वा वस्तुसाकर्यापत्तिः, तथा च सति सकललोकप्रसिद्धप्रतिनियतविषयप्रवृत्तिनिवृत्त्यादिव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः, ततो घटादिशब्दवाच्यानामर्थानां कुटादिशब्दवाच्यार्थरूपताऽना-18 स्कन्दनान्न कुटादयः शब्दा घटाद्यर्थवाचका इति विमिन्नार्थाः पर्यायशब्दाः, प्रमाणयति च-इह ये ये प्रविभक्तव्युत्पत्तिनिमित्तकाः शब्दास्ते ते विभिन्नार्थाः यथा घटपटशकटादिशब्दाः, मिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तकाश्च पर्यायशब्दा इति, यत्पुनरविचारितप्रतीतिबलादेकार्थाभिधायकत्वं पर्यायशब्दानां प्रतिपाद्यते, तदसमीचीनमतिप्रसङ्गात् , तथाहि-यदि युक्तिरिक्ताऽपि प्रतीतिः शरणीक्रियते तर्हि मन्दमन्दप्रकाशे |दवीयसि देशे संनिविष्टमूर्तयो विभिन्ना अपि निम्बकदम्बाश्वत्थकपित्थादय एकताकारतामाबिभ्राणाः प्रतीतिपथमवतरन्तीत्येकतयैव तेs| भ्युपगन्तव्याः, न चैतदस्ति, विविक्ततत्स्वरूपग्राहिप्रत्यनीकप्रत्ययोपनिपातबाधितत्वेन पूर्वप्रतीतेर्विविक्तानामेवैतेषामभ्युपगमात् , एवमन्यत्रापि भावनीयं, अन्यच्च-शब्दनय! यदि त्वया परस्परमर्थतो भिन्नत्वाल्लिङ्गवचनभिन्नानां शब्दानां भिन्नार्थता व्यवहियते ततः पर्या-18 यशब्दानामपि किं न विभिन्नार्थताव्यवहारः क्रियते ?, तेषामपि परस्परमर्थतो भिन्नत्वात्तस्मान्नैकार्थवाचिनः पर्यायध्वनय इति ६ । तथा |एवंशब्दः प्रकारवचनः एवं-यथा व्युत्पादितस्तं प्रकारं भूतः-प्राप्त एवम्भूतः शब्दः तत्समर्थनप्रधानो नयोऽप्येवम्भूतः उपचारात्, Jain Education Inter For Private Personal Use Only Surjainelibrary.org Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २४६ ॥ अयं हि शब्दमर्थेन विशेषयति, अर्थवान्नैयत्ये व्यवस्थापयतीति भावः, यथा स एव तत्त्वतो घटशब्दो यश्चेष्टावन्तमर्थं प्रतिपादयति न शेषः, तथा अर्थ शब्देन विशेषयति, शब्दवशात्तच्छब्दवाच्यमर्थं प्रतिनियतं व्यवस्थापयतीति भावः, यथा या घटशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धा चेष्टा सा घटनात् घट इति व्युत्पत्त्यर्थपरिभावनाबलात् योषिदादिमस्तकारूढस्य घटस्य जलाहरणादिक्रियारूपा द्रष्टव्या न तु स्थानभर - णक्रियारूपा, ततश्च यस्मिन्नर्थे शब्दो व्युत्पाद्यते स व्युत्पत्तिनिमित्तमर्थो यदैव स्वरूपतो वर्तते तदैव तं शब्दं प्रवर्तमानमभिप्रैति न शेषकालं, यथोदकाद्याहरणवेलायां योषिदादिमस्तकारूढो विशिष्टचेष्टावान् घटो घटशब्दवाच्यो न शेषो घटशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तशून्यत्वात् पटादिवत्, तथा घटशब्दोऽपि तत्त्वतः स एव द्रष्टव्यो यश्चेष्टावन्तमर्थं प्रतिपादयति न शेषः, शेषस्य स्वाभिधेयार्थशून्यत्वात् एवं चैष व्युत्पत्तिनिमित्तार्थास्तित्वभूषितमेव तात्त्विकं शब्दमभिलपति य एव पञ्चेन्द्रियत्रिविधबलादिरूपान् दशविधान् प्राणान् धारयति स एव नारकादिरूपः सांसारिकः प्राणी जीवशब्दवाच्यो न सिद्धः, सूत्रोक्तस्वरूपप्राणधारणलक्षणव्युत्पत्तिनिमित्तासम्भवात्, सिद्धस्त्वात्मादिशब्दवाच्यः, अतति - सातत्येन गच्छति तांस्तान् ज्ञानदर्शनसुखादिपर्यायानित्याद्यात्मादिशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तसम्भवादिति ७ ||८४७ || सम्प्रत्येतेषामेव नयानां प्रभेदसङ्ख्यादर्शनार्थमाह-'एक्केके 'त्यादि, नया मूलभेदापेक्षया यथोक्तरूपा नैगमादयः सप्त, एकैकश्च प्रभेदतः शतविधः, ततः सर्वभेद्गणनया सप्त नयशतानि भवन्ति, अन्योऽपि चादेशो - मतान्तरं पश्चैव शतानि नयानां भवन्तीति, तथाहि - शब्दसमभिरूढैवम्भूतानां त्रयाणामपि नयानां शब्दपरत्वेनैकत्वविवक्षणात् पञ्चैव मूलनयाः, प्रत्येकं च शतप्रभेदत्वे पञ्च शतानीति, अपिशब्दात् षट् चत्वारि शतानि द्वे वा शते, तत्र षट् शतान्येवं - नैगमः सामान्यप्राही सङ्घदे प्रविष्टो विशेषग्राही तु व्यवहारे, ततः षडेव मूलनयाः, एकैकश्च प्रभेदतः शतभेद इति षट् शतानि तथा सङ्ग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दा इति चत्वार एव मूलनयाः एकैकश्च शतविध इति चत्वारि शतानि शतद्वयं तु १२४ नयभेदाः गा. ८४७-८ ॥ २४६ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैगमादीनां ऋजुसूत्रपर्यन्तानां चतुर्णा द्रव्यास्तिकत्वात् शब्दादीनां तु त्रयाणां पर्यायास्तिकत्वात्तयोश्च प्रत्येकं शतभेदत्वात् , अथवा यावन्तो वचनपथास्तावन्तो नया इत्यसङ्ख्याताः प्रतिपत्तव्याः १२४॥८४८॥ इदानीं 'वत्थग्गहणविहाणं'ति पञ्चविंशत्युत्तरं शततमं द्वारमाह जन्न तयट्ठा कीयं नेव वुयं जन गहियमन्नेसिं । आहडपामिचं चिय कप्पए साहुणो वत्थं ॥८४९॥ अंजणखंजणकद्दमलित्ते, मूसगभक्खियअग्गिविदडे । उन्निय कुट्टिय पज्जवलीढे, होइ विवागो सुह असुहो वा ॥८५०॥ नवभागकए वत्थे चउरो कोणा य दुन्नि अंता य । दो कन्नावद्दीउ मज्झे वत्थस्स एकं तु ॥८५१॥ चत्तारि देवया भागा, दुवे भागा य माणुसा । आसुरा य दुवे भागा, एगो पुण जाण रक्खसो॥८५२॥ देवेसु उत्तमो लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो। आसुरेसु य गेलनं, मरणं जाण रक्खसे ॥ ८५३ ॥ इह तावद्वस्त्रमेकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियावयवनिष्पत्तिभेदात् त्रिधा भवति, तत्र एकेन्द्रियावयवनिष्पन्नं कार्पासिकादि, विकलेन्द्रिया|वयवनिष्पन्नं कौशेयकादि एतच्च कारण एव गृह्यते, पञ्चेन्द्रियावयवनिष्पन्नं और्णिकादि, पुनरेकैकं त्रिधा-यथाकृताल्पपरिकर्मबहुपरिकर्म| भेदात्, तत्र यानि परिकर्मरहितान्येव तथास्वरूपाणि लभ्यन्ते तानि यथाकृतानि, यानि चैकवारं खण्डित्वा सीवितानि तान्यल्पपरिक माणि, यानि पुनर्बहुधा खण्डित्वा सीवितानि तानि बहुपरिकर्माणि, इह च यान्यल्पपरिकर्माणि वस्त्राणि तानि बहुपरिकर्मवस्त्रापेक्षया सस्तोकसंयमव्याघातकारीणीत्यतस्तदपेक्षया शुद्धानि, तेभ्योऽपि यथाकृतान्यतिशुद्धानि, मनागपि पलिमन्थादिदोषकारित्वाभावात् , ततो गृहद्भिः पूर्व यथाकृतानि प्रामाणि तदलामे चाल्पपरिकर्माणि तेषामप्यभावे बहुपरिकर्माण्यपि वस्त्राणि प्राह्याणीति, एतच्च सर्वमपि ववं T.४२।। Jin Education International Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्वारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ २४७ ॥ गच्छवासिभिः कल्पनीयमेव ग्राह्यम्, तचैवं यद्वस्त्रं न तदर्थ-व्रतिनिमित्तं क्रीतं यथ नैव प्रतिनिमित्तं 'वयं'ति अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् वायितं यच्च नैव गृहीतमन्येषां सम्बन्धि, अनिच्छतोऽपि पुत्रादेः सकाशात् साधुदानाय बलाद्यन्न गृहीतमिति भावः एवंविधं वस्त्रं, तथा अभ्याहृतमपमित्यकं च त्यक्त्वा शेषं साधोः कल्पत इति, तत्र अभ्याहृतं द्वेधा - परप्रामाभ्याहृतं स्वप्रामाभ्याहृतं च परमामाभ्याहृतं यदन्यस्माद् ग्रामादेः साधुनिमित्तमानीतं स्वमामाभ्याहृतं हट्टादिभ्यो यद् व्रतिमिरदृष्टं यतिनिमित्तमेव गृहे समानीतं, प्रतिदृष्टं तु हट्टादि - भ्योऽप्यानीतं गृहादिषु यतीनां ग्रहीतुं कल्पत इति, तथा अपमित्यकं - उद्धारकेणान्यस्माद् गृहीत्वा यद्ददाति, दोषाश्चात्रापि पिण्डवद्वाच्या इति, अपरं च - अत्राप्यविशोधिकोटिविशोधिकोटिद्वयं ज्ञातव्यं, तत्र मूलतो यत्यर्थं वायनादिकं वस्त्रस्याविशोधिकोटि : प्रक्षालनादिकं च यत्यर्थं क्रियमाणं विशोधिकोटिः, इदं च वस्त्रं यदा कल्पनीयमित्यवसितं भवति तदा द्वयोरप्यन्तयोर्गृहीत्वा सर्वतो निरीक्षणीयं, मा तत्र गृहिणां मणिर्वा सुवर्ण वा अन्यद्वा रूपकादिद्रव्यं निबद्धं स्यात्, ततः सोऽपि गृहस्थो भण्यते - निरीक्षस्व एतद्वत्रं सर्वतः, एवं च यदि तेन मण्यादि दृष्टं ततो गृहीतं, अथ न दृष्टं ततः साधुरेव दर्शयति एनमपनयेति, आह-गृहिणः कथिते कथमधिकरणं न भवति ?, उच्यते, कथिते स्तोकतर एव दोषः, अकथिते तु महानुड्डाहादिः स्यादिति ॥ अथ यादृशे वस्त्रे लब्धे शुभं भवति यादृशे चाशुभं भवतीत्येतदाह'अंजणे' त्यादि, अञ्जनं-सौवीरा जनप्रभृतिकं तैलकज्जलाञ्जनप्रभृति वा खजनं - दीपमलः कर्दमः - पङ्कस्तैर्लिप्ते - खरण्टिते वस्त्रे, तथा मूष| कैरुपलक्षणत्वात्कंसारिकादिभिश्च भक्षिते तथाऽग्निना विशेषेण दग्धे तथा तुण्णिते तुन्नकारेण स्वकलाकौशलतः पूरितच्छिद्रे तथा कुट्टितेरजककुट्टनेन पतितच्छिद्रे तथा पर्यवै:- पुराणादिभिः पर्यायैर्लोढे-युक्ते, अतिजीर्णतया कुत्सितवर्णान्तरादिसंयुक्ते इत्यर्थः एवंविधे वस्त्रे गृहीते सति भवति विपाकः - परिणामः शुभोऽशुभो वा, इयमत्र भावना - गृहीतस्य वस्त्रस्य नव भागाः कल्प्यन्ते, तत्र च केषुचिद्भागेषु १२५ व स्त्रग्रहण विधिः गा. ८४९ ५३ ॥ २४७ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दा अजनखजनादिके सति शुभं फलमुपजायते केषुचित्पुनरशुभमिति । अथ तानेव भागानाह-कल्पनया नवभिर्भागैः कृते वस्त्रे एते नव। भाभागा विज्ञेयाः, यथा-चत्वारः कोणकास्तथा द्वावन्तौ ययोर्दशिका भवन्ति तथा द्वे कर्णपट्टिके, मध्ये च वस्त्रस्यैको भागः॥ सम्प्रत्येतेषामेव विभागानां क्रमेण स्वामिन आह-चत्वारः कोणकरूपा भागा दैव्या-देवसम्बन्धिनः, द्वावन्यौ दशिकासम्बद्धौ भागौ मानुषौ-मनुष्यदास्वामिकौ, द्वौ च विभागौ-कर्णपट्टिकालक्षणौ आसुरौ-असुरसम्बन्धिनौ सर्वमध्यगतः पुनरेको भागो राक्षसो-राक्षससम्बन्धीत्येवं क्रमेण 8/ नवानामपि विभागानां स्वामिनो जानीहीति ॥ अथैतेषु भागेषु अखनादिसद्भावे प्रशस्ताप्रशस्तं फलमाह-दैव्येषु भागेषु यद्यजनादिभिर्दूषितं || वत्रं भवेत्तदा तस्मिन् गृहीते यतिजनस्य उत्तमो लाभो भवेद्वस्त्रपात्रादीनां, तथा मानुषभागयोरखनादिमिः दूषिते वस्त्रे मुनीनां मध्यमो ||* लाभः सम्पद्यते, तथा आसुरभागयोर जनादिभिः दूषिते वस्त्रे गृह्यमाणे ग्लानत्वं व्रतिनां जायते, राक्षसभागे पुनर जनादिदूषिते जानीहि यतीनां मरणमिति १२५ ।। ८५३ ॥ साम्प्रतं 'ववहारा पंचेव'त्ति षड्विंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह आगम १ सुय २ आणा ३ धारणा ४ य जीए ५ य पंच ववहारा । केवल १ मणो २ हि३ चउदस ४ दस ५ नवपुवाइ ६ पढमोऽत्थ ।। ८५४ ॥ कहेहि सवं जो वुत्तो, जाणमाणोऽवि गृहइ । न तस्स दिति पच्छित्तं, विंति अन्नत्थ सोहय ॥८५५॥ न संभरे य जे दोसे, सम्भावा न य मायओ। पञ्चक्खी साहए ते उ, माइणो उ न साहए १॥८५६॥ आयारपकप्पाई सेसं सवं सुयं विणिदिढ२। देसंतरहियाणं गूढपयालोयणा आणा ३ ॥८५७॥ गीयत्थेणं दिन्नं सुद्धिं अवहारिऊण तह चेव । दि For Private & Personel Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥२४८॥ तस्स धारणा तह उद्धियपयधरणरूवा वा ४॥८५८॥ दवाइ चिंतिऊणं संघयणाईण हाणिमा- १२६ व्यसज्ज । पायच्छित्तं जीयं रूढं वा जं जहिं गच्छे ५॥८५९॥ वहारपञ्च'आग'त्यादि व्यवहियन्ते जीवादयोऽनेनेति व्यवहारः अथवा व्यवहरणं व्यवहारो-मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः तत्कारणत्वाद् ज्ञानविशेषा कम् अपि व्यवहारः, स च पञ्चप्रकारस्तद्यथा-आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते पदार्था अनेनेत्यागमः १ श्रवणं श्रूयते इति वा श्रुतं २ आज्ञाप्यते- जागा.८५४. आदिश्यते इत्याज्ञा ३ धरणं-धारणा ४ जीयत इति जीतं ५, तत्र प्रथम:-आगमव्यवहारः षड्विधः, कस्क इत्याह-केवलज्ञानं 'मणोहित्ति 'पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्' मनःपर्यायज्ञानं अवधिज्ञानं 'चउदस दस नव पुवाईति पूर्वशब्दः प्रत्येकममिसम्बध्यते चतुर्दश पूर्वाणि दश पूर्वाणि नव पूर्वाणि च एष सर्वोऽप्यागमव्यवहार उच्यते इति, इह च यदि केवली प्राप्यते तदा तस्यैवालोचना दीयते तदभावे मन:पर्यायज्ञानिनः तस्याप्यभावेऽवधिज्ञानिनः इत्यादि यथाक्रमं वाच्यं ॥ ८५४ ॥ तत्र केवल्यादिरागमव्यवहारी स्वयमपि तावत्सर्व जानात्येव ततोऽतिचारजातं शिष्यस्य स्वयमपि प्रकटीकृत्य प्रायश्चित्तं ददाति अन्यथा वेत्याशय प्रासङ्गिकं तावदाह-कहेही त्यादि कथय सर्व दोषजातमिति आगमव्यवहारिणा प्रोक्तो यः शिष्यो जानानोऽपि स्वदोषान् मायावितया गृहति-गोपायति न तस्मै-मायाविने प्रायश्चित्तं ददति आगमव्यवहारिणः, किन्तु ब्रुवते–'अन्यत्र' अन्यस्य समीपे गत्वा शोधय-शोधि गृहाण, यस्तु सद्भावत एव दोषान् कांश्चिन्न स्मरति | न पुनर्मायया तस्य तान् दोषान् प्रत्यक्षी-प्रत्यक्षज्ञानी आगमव्यवहारीत्यर्थः ‘साहए'त्ति कथयति, मायाविनस्तु न कथयतीति, एतदुक्तं भवति-आगमव्यवहारी यदि केवलज्ञानादिबलेनैतज्जानाति यथैष भणितः सन् शुद्धभावत्वात् सम्यक्प्रतिपत्स्यते इति तदा स्मारयति यथाऽमुकं तवालोचनीय विस्मृतं ततस्तदुप्यालोचयेति, यदि पुनरेतद्वगच्छति यथेष भणितोऽपि सन् मायावितया न सम्यक्प्रतिपत्स्यते For Private & Personel Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति तदा तमप्रतिपत्स्यमानं नैव स्मारयति निष्फलत्वात्, अमूढलक्षो हि भगवानागमव्यवहारी, अत एव दत्तायामप्यालोचनायां यद्यालोचकः सम्यगावृत्तो ज्ञातस्ततस्तस्मै प्रायश्चित्तं प्रयच्छति, अथ न प्रत्यावृत्तस्ततो न प्रयच्छतीति ननु चतुर्दशपूर्वधरादेः कथं प्रत्यक्षज्ञानित्वं ?, तस्य श्रुतज्ञानित्वेन परोक्षज्ञानित्वात् उच्यते, चतुर्दशादि पूर्वबलसमुत्थस्यापि ज्ञानस्य प्रत्यक्षतुल्यत्वात्, तथाहि -येन यथा योऽतिचारः कृतस्तं तथा सर्वमेते जानन्तीति, अथ यदि आगमव्यवहारिणः सर्वभावविषयं परिज्ञानं ततः कस्मात्तस्य पुरत आलोच्यते ?, किन्तु तस्य समीपमुपगम्य वक्तव्यमपराधं मे भवन्तो जानते तस्य शोधिं प्रयच्छतेति, उच्यते, भालोचिते बहुगुणसम्भवतः सम्यगाराधना भवति, तथाहि - आलोचनाऽऽचार्येण स आलोचकः प्रोत्साह्यते, यथा वत्स ! त्वं भाग्यवान् यदेवं मानं निहत्यात्महितार्थतया स्वरहस्यानि प्रकटयसि, महादुष्करमेतत् एवं स प्रोत्साहितः सन् प्रवर्धमानपरिणामः सम्यग् निःशल्यो भूत्वा यथावस्थितमालोचयति शोधिं च सम्यक्प्रतिपद्यते ततः पर्यन्ते आराधना स्तोककालेन च मोक्षगमनमिति ।। ८५५ ।। ८५६ ।। अथ श्रुतव्यवहारमाह - 'आयारे'त्यादि, आचारप्रकल्पो निशीथस्तदादिकं कल्पव्यवहारदशाश्रुतस्कन्धप्रभृतिकं, एकादशाङ्गावशेषपूर्वप्रमुखं च शेषं श्रुतं - सर्वमपि श्रुतव्यवहारः, नवादिपूर्वाणां श्रुतत्वाविशेषेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वात् केवलादिवदागमत्वेनैव व्यपदेशः, एते च श्रुत व्यवहारिणः स्फुटतरोपलब्धिनिमित्तं त्रीन् वारानालोचनाईमालोचापयन्ति, ते ह्येकं द्वौ वा वारावालोचिते अनेन सम्यगालोचितमसम्यग्वेति विशेषं नावगच्छन्तीति, कथमालोचापयन्तीति चेदुच्यते प्रथमवेलायां निद्रायमाण इव शृणोति ततो ब्रूते-निद्राप्रमादं गत| वानहमिति न किमप्यश्रौषमतो भूयोऽप्यालोचय, द्वितीयवारमालोचिते भणति -न सुष्ठु मयाऽधुनाऽवधारितमनुपयोगभावादतः पुनरप्यालोचय, एवं त्रिष्वपि वारेषु यदि सदृशार्थमालोचितं ततो ज्ञातव्यमेषोऽमायावी, अथ विसदृशं तर्हि ज्ञातव्यमेष परिणामतः कुटिल इति, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २४९ ॥ एवं च सति तस्यापि प्रत्यय उपजायते यथाऽहं विसदृशभणनेन मायावी लक्षित इति, ततो मायानिष्पन्नं प्रायश्चित्तं पूर्वं दातव्यं तदनन्तरमपराधनिमित्तमिति ॥ अथ आज्ञाव्यवहारमाह - 'देसंते' त्यादि, देशान्तरस्थितयोर्द्वयोर्गीतार्थयोर्गूढपदैरालोचना - निजातिचारनिवेदनमाज्ञाव्यवहारः, एतदुक्तं भवति - यदा द्वावप्याचार्यावासेवितसूत्रार्थतया गीतार्थौ क्षीणजङ्घाबलौ विहारक्रमानुरोधतो दूरतरदेशान्तव्यवस्थितौ अत एव परस्परस्य समीपं गन्तुमसमर्थावभूतां, तदाऽन्यतरः प्रायश्चित्ते समापतिते सति तथाविधयोग्यगीतार्थशिष्याभावे सति मतिधारणाकुशलमगीतार्थमपि शिष्यं समयभाषया गूढार्थान्यतीचारासेवनपदानि कथयित्वा प्रेषयति, तेन च गत्वा गूढपदेषु कथितेषु स आचार्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावसंहननधृतिवलादिकं परिभाव्य स्वयं वा तत्र गमनं करोति शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थं प्रज्ञाप्य प्रेषयति तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थामतिचारशुद्धिं कथयतीति ।। ८५७ ॥ अथ धारणाव्यवहारमाह —' गीयत्थे 'त्यादि, इह गीतार्थेन संविग्नाचार्येण कस्यापि शिष्यस्य कचिदपराधे द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषान् प्रतिसेवनाश्यावलोक्य या शुद्धिः प्रदत्ता तां शुद्धिं तथैवावधार्य सोऽपि शिष्यो यदाऽन्यत्रापि तादृश एवापराधे तेष्वेव द्रव्यादिषु तथैव प्रायश्चित्तं ददाति तदाऽसौ धारणानाम चतुर्थो व्यवहारः, उद्धृतपदधारणरूपा वा धारणा, इदमुक्तं भवति - वैयावृत्त्यकरणादिना कश्चिद्गच्छोपकारी साधुरद्याप्यशेषच्छेदश्रुतयोग्यो न भवति ततस्तस्यानुग्रहं कृत्वा यदा गुरुरुद्धृतान्येव कानिचित्प्रायश्चित्तपदानि कथयति तदा तस्य तेषां पदानां धरणं धारणाऽभिधीयते इति ॥ ८५८ ॥ अथ | जीतव्यवहारमाह - 'दव्वाई'त्यादि, येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपः प्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वप्यपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननधृतिबलादीनां च हानिमासाद्य समुचितेन केनचित्तपः प्रकारेण यां गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत्समयपरिभाषया जीतमुध्यते, अथवा यत्प्रायश्चित्तं यस्याचार्यस्य गच्छे सूत्रातिरिक्तं कारणतः प्रवर्तितं अन्यैश्च बहुभिरनुवर्तितं तत्तत्र रूढं जीतमुच्यते, तदेवमेतेषां १२६ व्यवहारपश्चकम् गा. ८५४ ५९ ॥ २४९ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चानां व्यवहाराणामन्यतरेणापि व्यवहारेण युक्त एव प्रायश्चित्तप्रदाने गीतार्थों गुरुरधिक्रियते न त्वगीतार्थः, अनेकदोषसम्भवात् उक्तं च-'अग्गीओ न वियाणइ सोहिं चरणस्स देइ ऊणऽहियं । तो अप्पाणं आलोयगं च पाडेइ संसारे ॥ १ ॥' इति अगीतार्थो न विजानीते चरणस्य शोधि ददात्यूनामधिकां वा । तत आत्मानमालोचकं च पातयति संसारे ॥१॥] १२६ ॥ ८५९॥ इदानीं 'पंच अहाजाय'त्ति सप्तविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह पंच अहाजायाई चोलगपट्टो १ तहेव रयहरणं २। उन्निय ३ खोमिय ४ निस्सेजजुयलयं तह य मुहपोत्ती ५॥८६०॥ चोलपट्टस्तथा रजोहरणं तथा और्णिकक्षौमनिषद्यायुगलकं तथा मुखपोतिका एतानि पञ्च यथाजातानि, यथाजातं-जन्म तच्च श्रमणत्वमाश्रित्य द्रष्टव्यं, चोलपट्टादिमात्रोपकरणयुक्त एव हि श्रमणो जायते अतस्तद्योगादेतान्यपि यथाजातान्युच्यन्ते, तत्र चोलपट्टः प्रतीत एव, बाह्याभ्यन्तरनिषद्याद्वयरहितमेकनिषद्यं सदशं रजोहरणं, इह किल सम्प्रति दशिकामिः सह या दण्डिका क्रियते सा सूत्रनीत्या केवलैव भवति न सदशिका, तस्याश्च निषद्यात्रयं, तत्र या दण्डिकाया उपरि तिर्यग्वेष्टकत्रयप्रमाणपृथुत्वा एकहस्तायामा कम्बलीखण्डरूपा सा आद्या निषद्या, तस्याश्वाने हस्तत्रिभागायामा दशिकाः सम्बद्ध्यन्ते, एषा च निषद्या दशिकाकलिताऽत्र रजोहरणशब्देन गृह्यते उक्तं च-"एगनिसेज्जं च रयहरण"मिति [ एकनिषद्यावच्च रजोहरणं ॥] द्वितीया त्वेनामेव निषद्यां तिर्यग्बहुभिर्वेष्टकैरावेष्टयन्ती किश्चिदधिकहस्तप्रमाणायामा हस्तप्रमाणमात्र पृथुत्वा वस्त्रमयी निषद्या सा अभ्यन्तरनिषद्या, इयं च क्षौमिकनिषद्याग्रहणेनेह गृह्यते, तृतीया तु तस्या एवाभ्यन्तरनिषद्यायाः तिर्यग्वेष्टकान् बहून् कुर्वन्ती चतुरङ्गुलाधिकैकहस्तमाना चतुरस्रा कम्बलमयी भवति, सा चोपवेशनोप ACCCCCCCAS बद्ध्यन्ते, एषा च व निषद्यां तियेग्बा गृह्यते, तृतीया Jain Educatu For Private & Personel Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COME भव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० AC १२७पञ्चयथाजा तानि १२८ रात्रिजागरणविधिः १२९ आ ॥२५॥ &ाकारित्वादधुना पादप्रोन्छनकमिति रूढा, इयं बाह्या निषद्येत्यभिधीयते, अस्यास्त्विह और्णिकनिषद्याग्रहणेन ग्रहणमिति, तथा मुखपिधानाय पोतं-वस्त्रं मुखपोतं, मुखपोतमेव इस्खं चतुरनुलाधिकवितस्तिमानप्रमाणत्वान्मुखपोतिका मुखवत्रिकेत्यर्थः, 'अतिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृति लिङ्गवचनानीति वचनाच प्रथमतो नपुंसकत्वेऽपि कप्रत्यये समानीते स्त्रीत्वमिति १२७ ।। ८६०॥ इदानीं 'निसिजागरणविहि'त्ति | अष्टाविंशत्युत्तरशततमं द्वारमाह- . सवेऽवि पढमयामे दोन्नि य वसहाण आइमा जामा । तइओ होइ गुरूणं चउत्थ सवे गुरू | सुयह ॥८६१॥ al सर्वेऽपि साधवः प्रथमयामे-रात्रेः प्रथमं प्रहरं यावत् स्वाध्यायाध्ययनादि कुर्वाणा जाग्रति, द्वौ च आयौ यामौ वृषभाणां, वृषभा इव वृषभा-गीतार्थाः साधवस्तेषां, अयमर्थः-द्वितीये यामे ये सूत्रवन्तः साधवस्ते स्वपन्ति वृषभास्तु जाप्रति, ते च जाग्रतः प्रज्ञापना|दिसूत्रार्थ परावर्तयन्ति, तृतीयः प्रहरो भवति गुरूणां, कोऽर्थ: ?-प्रहरद्वयानन्तरं वृषभाः स्वपन्ति गुरवस्तूस्थिताः प्रज्ञापनादि गुणयन्ति चतुर्थ प्रहरं यावत् , चतुर्थे च प्रहरे सर्वेऽपि साधवः समुत्थाय वैरात्रिकं कालं गृहीत्वा कालिकश्रुतं परावर्तयन्ति, गुरुः पुनः स्वपिति, अन्यथा प्रातर्निद्राघूर्णमानलोचनास्तद्वशादेव च भज्यमानपृष्ठका व्याख्यानभव्यजनोपदेशादिकं कर्तुं ते सोद्यमाः सन्तो न शक्नुवन्तीति १२८ ॥ ८६१ ॥ इदानीं 'आलोयणदायगन्नेस'त्येकोनत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह सल्लुद्धरणनिमित्तं गीयस्सऽन्नेसणा उ उक्कोसा । जोयणसयाई सत्त उ बारस वासाई कायवा ॥८६२॥ लोचकै षणा गा.८६० ॥२५॥ For Private & Personel Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REG 'शल्योद्धरणनिमित्तं' आलोचनार्थ 'गीतस्य' गीतार्थस्य गुरोरन्वेषणा तुः पुनरर्थे उत्कृष्टा क्षेत्रतः सप्तैव योजनशतानि यावत्क-151 | तव्या कालतस्तु द्वादश वर्षाणि यावदिति, अयमर्थः-संनिहित एव गीतार्थों यदि न लभ्यते तदा योजनशतसप्तप्रमाणक्षेत्रेऽसावुत्कृष्टतोऽन्वेषणीयः कालतस्तु द्वादश वर्षाणि यावत्समागच्छन् प्रतीक्षणीय इति, नन्वेतावति क्षेत्रे तदन्वेषणार्थ पर्यटन्नेतावन्तं च कालं तमागच्छन्तं प्रतीक्षमाणः स यदि अन्तरालेऽप्रदत्तालोचनोऽपि म्रियते तदा किमयमाराधको न वेति ?, उच्यते, आलोचनां दातुं सम्यक्प| रिणतोऽन्तराऽपि म्रियमाणोऽयमाराधक एव, विशुद्धाध्यवसायसम्पन्नत्वात् , उक्तं च-"आलोयणापरिणओ सम्म संपढिओ गुरुसयासे । जइ अंतरावि कालं करेज आराहओ तहवि ॥ १॥" [आलोचनापरिणतः सम्यक् संप्रस्थितो गुरुसकाशे । यद्यन्तराऽपि कालं कुर्यात् तथाप्याराधकः ॥ १॥] अथैवमन्वेषणेऽपि सकलोक्तगुणगुरुर्गुरुर्न प्राप्यते तदा संविग्नगीतार्थमात्रस्याप्यालोचना दातव्या, यतः श्रूयते -अपवादतो गीतार्थसंविनपाक्षिकसिद्धपुत्रप्रवचनदेवतानामलाभे सिद्धानामप्यालोचना देया, सशल्यमरणस्य संसारकारणत्वात् इति, आह च-'संविग्गे गीयत्थे असई पासस्थमाइसारूवी" [संविग्ने गीतार्थे असति पार्श्वस्थादयः सरूप्यन्ताः इति] १२९ ॥ ८६२ ॥ सम्प्रति 'गुरुपमुहाणं कीरइ असुद्धसुद्धहिँ जत्तियं कालं।' इति त्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह जावजीवं गुरुणो असुद्धसुद्धेहि वावि कायई । वसहे वारस वासा अट्ठारस भिक्खुणो मासा ॥८६३॥ यावज्जीवमाजन्मापीत्यर्थः गुरोः-आचार्यस्य शुद्धैः-आधाकर्मादिदोषादूषितैरशुद्धैर्वाऽपि-आधाकर्मादिदोषयुक्तैर्वाऽपि अशनपानभैषजादिमिः कर्तव्यं प्रतिजागरणमिति शेषः, अयमर्थ:-शुद्धैरशुद्धैश्च ते यावज्जीवमपि प्रतिजागरणीयाः साधुश्रावकलोकेन, सर्वस्यापि च ग. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा० रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १३० प्रतिजारणकाल: गा.८६३ ॥२५ ॥ च्छस्य तदधीनत्वात् यथाशक्ति निरन्तरं सूत्रार्थनिर्णयप्रवृत्तेश्च, तथा वृषभे-उपाध्यायादिके द्वादश वर्षाणि यावत् प्रतिजागरणा शुद्धैरशुद्धैर्वस्तुभिश्च विधेया, ततः परं शक्तौ भक्तविवेकः, एतावता कालेनान्यस्यापि समस्तगच्छभारोद्वहनसमर्थस्य वृषभस्य उत्थानात् , तथा अष्टादश मासान् यावद्भिक्षो:-सामान्यसाधोः शुद्धैरशुद्धैः प्रतिजागरणा विधेया, तत: परमसाध्यतया शक्तौ सत्यां भक्तविवेकस्यैव कर्तुमुचितत्वात् , इदं च शुद्धाशुद्धाशनादिभिराचार्यादीनां परिपालनं रोगाद्यभिभूतवपुषां क्षेत्रकालादेः परिहाणिवशतो भक्ताद्यलाभवतां च विधेया (य) न पुनरेवमेव सुस्थावस्थायामिति, व्यवहारभाष्ये तु सर्वसामान्यग्लानप्रक्रियाव्यवस्थार्थमियं गाथा लिखिताऽस्ति, यथा"छम्मासे आयरिओ कुलं तु संवच्छराइँ तिन्नि भवे । संवच्छरं गणो खलु जावजीवं भवे संघो ॥ १॥" अस्या व्याख्या-प्रथमत आचार्यः षड् मासान यावञ्चिकित्सां ग्लानस्य कारयति, तथाप्यप्रगुणीभूतं तं कुलस्य समर्पयति, ततः कुलं त्रीन संवत्सरान यावचिकित्सक भवति, तथाप्यप्रगुणीभवने कुलं गणस्य तं समर्पयति, तदनन्तरं संवत्सरं यावद्गणः खलु चिकित्सां कारयति, तथाप्यनिवर्तितरोगे तं गणः सङ्घस्य समर्पयति, ततः सङ्घो यावज्जीव-प्रासुकप्रत्यवतारेण तद्भावे चाप्रासुकेनापि यावज्जीवं चिकित्सको भवति, एतच्चोक्तं भक्तविवेकं कर्तुमशक्कुवतः, यः पुनर्भक्तविवेकं कर्तुं शक्नोति तेन प्रथमतोऽष्टादश मासान् चिकित्सा कारयितव्या, विरतिसहितस्य जीवितस्य पुनः संसारे दुष्प्रापत्वात् , तदनन्तरं चेत्प्रगुणीभवति ततः सुन्दरं, अथ न भवति तर्हि भक्तविवेकः कर्तव्य इति १३० ॥ ८६३॥ इदानीं "उवहिधोयणकालो'त्ति एकत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह अप्पत्ते चिय वासे सवं उवहिं धुवंति जयणाए । असईए उदगस्स उ जहन्नओ पायनिजोगो * ॥२५१॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ८६४ ॥ आयरियगिलाणाणं महला मइला पुणोवि धोइज्जा । मा हु गुरूण अवण्णो लोगम्मि अजीरणं इअरे || ८६५ ॥ अप्राप्त एव-अनायाते एव वर्षे वर्षाकाले वर्षाकालान्मनागर्वाक्तने काले इत्यर्थः, जलादिसामग्र्यां सत्यामुत्कर्षतः सर्वमुपधिं - उपकरणं यतनया यतयः प्रक्षालयन्ति, उदकस्य जलस्य पुनरसति अभावे जघन्यतोऽपि पात्रनिर्योगोऽवश्यं प्रक्षालनीयः, इद्द निस्पूर्वी युजिरुपकारे वर्तते, उक्तं च पाठोदूखले 'निज्जोगो उवयारो' इति, तत्र निर्युज्यते - उपक्रियतेऽनेनेति निर्योगः - उपकरणं पात्रस्य निर्योगः पात्रनिर्योगः - पात्रोपकरणं पात्रकबन्धादिः, उक्तं च-- "पत्तं पत्ताबंधी पायट्टवणं च पायकेसरिया । पडलाई रयत्ताणा गोच्छओ पायनिजोगो ॥ १ ॥” इति आह - किं सर्वेषामेव वस्त्राणि वर्षाकालादर्वागेव प्रक्षाल्यन्ते ? किं वाऽस्ति केषाञ्चिद्विशेषः ?, अस्तीति ब्रूमः, || ८६४ ॥ केषामिति चेत आह- 'आयरिये 'त्यादि, आचार्या:- प्रवचनार्थव्याख्याधिकारिणः सद्धर्मदेशनादिगुणग्रामभूरयः सूरयः, आचार्यग्रहणमुपलक्षणं तेनोपाध्यायादीनां प्रभूणां परिग्रहः, तेषां तथा ग्लाना - मन्दास्तेषां च पुनः पुनर्मलिनानि २ वस्त्राणि प्रक्षाल - येत्, प्राकृतत्वाच्च मलिनानीत्यत्र सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः, प्रस्तुतेऽर्थे कारणमाह-'मा हु' इत्यादि, मा भवतु हु:- निश्चितं गुरूणां मलिनवस्त्रपरिधाने लोकेऽवर्णः - अश्लाघा, यथा निराकृतयोऽमी मलदुरभिगन्धोपलिप्तदेहाः ततः किमेतेषामुपकण्ठं गतैरस्माभिरिति, तथा इतरस्मिन् ग्लाने मा भवत्वजीर्णमिति, मलक्किन्नवस्त्रप्रावरणे हि शीतलमारुतादिसम्पर्कतः शैत्यसम्भवेन भुक्ताहारस्यापरिणतौ ग्लानस्य विशेपतो मान्द्यमुज्जृम्भते इति, इह वर्षाकालप्रत्यासन्नं कालमपहाय शेपे ऋतुबद्धे काले चीवरप्रक्षालनं यतीनां न कल्पते, प्राण्युपमर्दोपकरणबकुशत्वाद्यनेकदोषसम्भवात् नन्वेते दोषा वर्षाकालादर्वागपि वस्त्रप्रक्षालने सम्भवन्ति ततस्तदानीमपि न चीवराणि प्रक्षालनीयानि, तन्न, 3 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ।। २५२ ॥ *%%%%% तदानीं चीवरप्रक्षालनस्य सूत्रोक्तनीत्या बहुगुणत्वात्, येऽपि च प्राण्युपमर्दादयो दोषास्तेऽपि यतनया प्रवर्तमानस्य न सम्भवन्ति, यो हि सूत्राज्ञामनुसृत्य यतनया सम्यक्प्रवर्तते स यद्यपि कथञ्चित्प्राण्युपमर्दकारी तथापि नासौ पापभाग्भवति नापि तीव्रप्रायश्चित्तभागी, सूत्रबहुमानतो यतनया प्रवर्तमानत्वात्, अत एवोक्तम्- 'धुवंति जयणाए' इति १३१ ॥ ८६५ ॥ इदानीं 'भोयणभाय'त्ति द्वात्रिंशदुतरशततनं द्वारं व्याचिख्यासुः प्रथमतः कवलमानमाह बत्तीस किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे क वला ॥। ८६६ ।। अद्धमसणस्स सर्वजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । वायपवियारणट्ठा छन्भागं ऊणयं कुज्जा ॥ ८६७ ॥ सीओ उसिणो साहारणो य कालो तिहा मुणेयो । साहारणंमि काले तत्थाहारे हमा मत्ता || ८६८ || सीए दवस्स एगो भत्ते चत्तारि अहव दो पाणे । उसिणे दवस्स दुन्नी तिन्निविसेसा उ भत्तस्स ॥। ८६९ ।। एगो दवस्स भागो अवडिओ भोयणस्स दो भागा । वहंति व हायंति व दो दो भागा उ एक्केके ॥ ८७० ॥ पुरुषस्य कुक्षिपूरक आहारो मध्यमप्रमाणो द्वात्रिंशत्कवलाः, किलेत्याहारस्य मध्यमप्रमाणतायाः संसूचकं, महेलायाः कुक्षिपूरक आहारो मध्यमप्रमाणोऽष्टाविंशतिः कवला इति ॥ ८६६ ॥ अथ भोजनभागप्रतिपादनार्थमेवाह (प्रन्थानं ९००० ) - ' अद्धे' त्यादि, इह किल सर्वमुदरं पनिर्भागैर्विभज्यते, तत्रार्ध - त्रीन् भागानशनस्य-कूरमुद्गमोदकादेः सव्यञ्जनस्य-तक्रतीमनभर्जिकासहितस्य योग्यं कुर्यात् विदध्यात्, तथा द्रवस्य - पानीयस्य योग्यौ द्वौ भागौ कुर्यात्, षष्ठं तु भागं वातप्रविचारणार्थं - वायुसभ्वलनार्थमूनकं कुर्यात्, अन्यथा हि वायुविष्कम्भतः १३१ उपधिधावनं १३२ आहारमानम् गा. ८६५ ७० ॥ २५२ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरे रोगादिसम्भव इति । ८६७ ।। इह कालापेक्षया तथा तथा भवति आहारस्य प्रमाणं, कालश्व त्रिधा, तथा चाह - 'सीओ' इत्यादि, त्रिधा कालो ज्ञातव्यः, तद्यथा-शीत उष्णः साधारणश्च, 'तत्र' तेषु कालेषु मध्ये साधारणे काले आहारे आहारविषये इयं - अनन्तरोक्ता मात्रा - प्रमाणं । ८६८ ।। 'सीए' इत्यादि, शीते - अतिशयेन शीतकाले द्रवस्य - पानीयस्य एको भागः कल्पनीयः चत्वारो भक्त-भक्तस्य, मध्यमे तु शीतकाले द्वौ भागौ पानीयस्य कल्पनीयौ त्रयस्तु भागा भक्तस्य, अथवेतिशब्दो मध्यमशीतकालसंसूचनार्थः, तथा उष्णे-मध्यमोष्णकाले द्वौ भागौ द्रवस्य - पानीयस्य कल्पनीयौ शेषास्तु त्रयो भागा भक्तस्य, अत्युष्णे च काले त्रयो भागा द्रवस्य शेषौ तु द्वौ भागौ भक्तस्य, वाशब्दोऽत्रात्युष्णकालसंसूचनार्थः, सर्वत्र च षष्ठो भागो वायुप्रविचारणार्थं मुत्कलो मोक्तव्यः ॥ ८६९ ॥ सम्प्रति भागानां चरस्थिर विभागप्रदर्शनार्थमाह- 'एगो' इत्यादि, एको द्रवस्य भागोऽवस्थितो, न कदाचिदपि न भवतीति भावः, द्वौ च भागौ भोजनस्य, शेषौ तु द्वौ द्वौ भागौ एकैकस्मिन् भक्त पाने चेत्यर्थः, वर्धेते वा हीयेते वा, वृद्धिं वा व्रजतो हानिं वा व्रजत इत्यर्थः तथाहि - अतिशीतकाले द्वौ भागौ भोजनस्य वर्धेते अत्युष्णकाले च पानीयस्य, अत्युष्णकाले च द्वौ भागौ भोजनस्य हीयेते अतिशीतकाले च पानीयस्येति । ८७० ।। १३२ ।। साम्प्रतं 'वसहिसुद्धि'त्ति त्रयस्त्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह सो दो धारणा चत्तारि मूलवेलीओ । मूलगुणेहिं विसुद्धा एसा हु अहागडा वसही ॥ ८७१ ॥ बंसगकडणोक्कंचण छायण लेवण दुवारभूमी य । परिकम्मविष्यमुक्का एसा मूलुत्तरसु ।। ८७२ ॥ दूमिय धूविय वासिय उज्जोइय बलिकडा अवन्त्ता य । सित्ता संमट्ठावि य विसो म Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K A १३३ वसति प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० शुद्धिः गा.८७१ ७४ ॥२५३॥ *** भाषाकर्मिकीत्यर्थः साधुसङ्कल्पेन निष्पासम्भवात् , एते च वसा हिकोडिं गया वसही॥ ८७३ ॥ मूलुत्तरगुणसुद्धं थीपसुपंडगविवज्जियं वसहिं । सेविज सबकालं विवज्जए हुंति दोसा उ ॥८७४ ॥ । उपरितनस्तिर्यक्पाती पृष्ठवंशो गृहसम्बन्धी मध्यवलक इत्यर्थः द्वौ मूलधारिण्यौ-बृहद्वल्यौ ययोरुपरि पृष्ठवंशस्तिर्यक् स्थाप्यते, चतस्रो मूलवेलयश्चतुर्पु गृहपार्श्वेषु, उभयोर्धारणयोरुभयतो द्विद्विवेलिसम्भवात् , एते च वसतेः सप्त मूलगुणाः, एतैर्मूलगुणैः सप्तभिरात्मार्थ कृतैः | सद्भिर्वसतिर्विशुद्धा भवति, या पुनः साधुसङ्कल्पेन निष्पादितैर्मूलगुणैर्युक्ता एषा हु:-स्फुटं आधाकृता भवति-साधूनाधाय-सम्प्रधार्य कृता आधाकृता आधाकर्मिकीत्यर्थः, उक्ता मूलगुणविशुद्धा वसतिः, अथोत्तरगुणविशुद्धाऽभिधीयते, ते चोत्तरगुणा द्विविधाः-मूलो*त्तरगुणा उत्तरोत्तरगुणाश्च, तत्र प्रथमं तावन्मूलोत्तरगुणानाह-'वंसगे'त्यादि, वंशका ये मूलवेलीनामुपरि स्थाप्यन्ते, पृष्ठवंशस्यो परि तिर्यक कटनं-कटादिभिः समन्ततः पार्थाणामाच्छादनं उत्कम्बन-उपरि कम्बिकानां बन्धनं छादनं-दर्भादिमिराच्छादनं लेपनं-कुड्यानां कर्दमेन गोमयेन च लेपप्रदानं 'दुवार'त्ति संयतनिमित्तमन्यतो वसतेारकरणं बृहदल्पद्वारकरणं वा 'भूमि'त्ति विषमाया भूमेः समीकरणं, एते सप्त मूलभूता उत्तरगुणा मूलोत्तरगुणाः, उत्तरगुणेषु एते मूलगुणा इत्यर्थः, एतद्रूपं यत्परिकमें-साध्वथे| मेतेषां निष्पादनं तेन विप्रमुक्ता-विरहिता या वसतिरेषा मूलोत्तरगुणेषु विशुद्धा, एतानि सप्त साध्वर्थ यत्र न कृतानि सा मूलोत्तरगुण| विशुद्धा वसतिरिति भावः, एते च पृष्ठवंशादयश्चतुर्दशाप्यविशोधिकोटिः, उत्तरोत्तरगुणास्तु विशोधिकोटिः, ते चामी-'दूमियेत्यादि, दूमिया नाम-सुकुमारलेपनेन कोमलीकृतकुड्या खटिकया धवलीकृतकुड्या च धूपिता-दुर्गन्धेतिकृत्वाऽगुरुधूपादिभिः सुगन्धीकृता वासिता-पटवासपुष्पादिमिरपनीतदौर्गन्ध्या उद्योतिता-रत्नप्रदीपादिभिरन्धकारे प्रकाशिता बलीकृता-कृतापूपकूरादिबलि विधाना अवत्ता-छगण ** CHECACC ॥२५ ॥ ** HTw w.jainelibrary.org Jain Education I ndia For Private Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्तिकाभ्यां जलेन चोपलिप्तभूमितला सिक्ता - केवलोदकेन आर्द्रीकृता सम्मृष्टा सम्मार्जिन्या प्रमार्जिता, एतैरुत्तरोत्तरगुणैः संयत निमित्तं कृतैर्विशोधिकोटिं गता वसतिः, अविशोधिकोटौ न भवतीत्यर्थः, यत्र तु साध्वर्थमेते न निष्पादिताः सा वसतिर्विशुद्धैवेति । तथा चाह - 'मूलुत्ते 'त्यादि, मूलोत्तरगुणपरिशुद्धां तथा स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितां वसतिं सेवेत सर्वकालं विपर्यये-अशुद्धायां ख्यादिसंसक्तायां च वसतौ भवन्ति दोषा इति एतदनुसारतस्तु चतुःशालादिष्वपि मूलोत्तरगुणविभागो विज्ञेयः, यत्पुनरिह सूत्रे चतुःशालाद्यपेक्षया मूलोत्तरगुणविभागः साक्षान्नोक्तस्तत्रेदं कारणं यथा विहरतां साधूनां श्रुताध्ययनादिव्याक्षेपपरिहारार्थं प्रायो प्रामादिष्वेव वासः सम्भवति, तत्र च वसतिः पृष्ठवंशादियुक्तैव भवति, ततस्तासामेव वसतीनां साक्षाद्भणनमिति, उक्तं च - "चाउस्सालाईए विनेओ एवमेव उवि - भागो । इह मूलाइगुणाणं सक्खा पुण सुण न जं भणिओ ॥ १ ॥ विहरंताणं पायं समत्तकज्जाण जेण गामेसु । वासो तेसु य वसही पट्टाइजुया अओ तासिं ॥ २ ॥ ॥ ८७४ ॥ १३३ ॥ साम्प्रतं 'संलेहणा दुवालस वरिसे'त्ति चतुस्त्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह चत्तारि विचित्ता ४ विगईनिज्जूहियाइं चत्तारि ४ । संवच्छरे य दोन्नि उ एगंतरियं च आयामं १० ।। ८७५ ॥ नाइविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं । अवरेऽवि य छम्मासे होइ विहिं तवोकम्मं ११ ॥ ८७६ ॥ वासं कोडीसहियं १२ आयामं कट्टु आणुपुवीए । गिरिकंदरं व गंतुं पाओवगमं पवज्जेइ ॥ ८७७ ॥ संलेखनं संलेखना - आगमोक्तेन विधिना शरीराद्यपकर्षणं, सा च त्रिविधा - जघन्या षाण्मासिकी मध्यमा संवत्सरप्रमाणा उत्कृष्टा तु द्वादश वर्षाणि तत्र उत्कृष्टा तावदेवं प्रथमं चत्वारि वर्षाणि 'विचित्राणि' विचित्रतपांसि करोति, किमुक्तं भवति ? - चत्वारि वर्षाणि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥२५४॥ यावत्कदाचिञ्चतुर्थ कदाचित् षष्ठं कदाचिदष्टमं एवं दशमद्वादशादीन्यपि करोति, पारणकं च सर्वकामगुणितेनोद्गमादिशुद्धनाहारेण विधत्ते, १३४ संततः परमन्यानि चत्वारि वर्षाणि उक्तप्रकारेण विचित्रतपांसि करोति विकृतिनियूहितानि-विकृतिरहितानि, किमुक्तं भवति ?-विचित्रं लेखना | तपः कृत्वा पारणके निर्विकृतिकं भुङ्क्ते उत्कृष्टरसवर्ज च, ततः परतोऽन्ये द्वे च वर्षे एकान्तरितमाचाम्लं करोति, एकान्तरं चतुर्थ कृत्वा होगा.८७५. आचाम्लेन पारयतीत्यर्थः, एवमेतानि दश वर्षाणि गतानि, एकादशस्य तु वर्षस्याद्यान् षण्मासान् 'नातिविकृष्टं' नातिगाढं तपः क ा ७७ रोति, नातिविकृष्टं नाम तपश्चतुर्थ षष्ठं वाऽवसेयं नाष्टमादिकं, पारणके तु परिमितं-किश्चिदूनोदरतासम्पन्नमाचाम्लं करोति, ततः पर| मपरान् पण्मासान् विकृष्ट-अष्टमदशमद्वादशादिकं तपःकर्म भवति, पारणके तु मा शीघ्रमेव मरणं यासिषमितिकृत्वा परिपूर्णधाण्या | आचाम्लं करोति, न पुनरूनोदरतयेति, द्वादशं तु वर्ष कोटीसहितं निरन्तरमाचाम्लं करोतीत्यर्थः । उक्तं च निशीथचूौं-"दुवाल| समं वरिसं निरंतर हायमाणं उसिणोदएण आयंबिलं करेइ, त कोडिसहियं भवइ, जेणायंबिलस्स कोडी कोडीए मिलई"त्ति । चतुर्थ |कृत्वा आचाम्लेन पारयति, पुनश्चतुर्थ विधायाचाम्लेनैव पारयतीत्यादीन्यपि बहूनि मतान्तराणि द्वादशस्य वर्षस्य विषये वीक्ष्यन्ते, परं ग्रन्थगौरवभयानात्र लिखितानीति । इह च द्वादशे वर्षे भोजनं कुर्वन् प्रतिदिनमेकैककवलहान्या तावदूनोदरतां करोति यावदेकं कवल-| माहारयति, ततः शेषेषु दिनेषु क्रमश एकेन सिक्थेनोनमेकं कवलमाहारयति द्वाभ्यां सिक्थाभ्यां त्रिभिः सिक्थैरेवं यावदन्ते एकमेव सिक्थं भुङ्क्ते, यथा दीपे समकालं तैलवर्तिक्षयो भवति तथा शरीरायुषोरपि समकं क्षयः स्यादिति हेतोः, अपरं चेह द्वादशस्य वर्षस्य पर्यन्तवर्तिनश्चतुरो मासान् यावदेकान्तरितं तैलगण्डूषं चिरकालमसौ मुखे धारयति, ततः खेलमल्लके भस्ममध्ये प्रक्षिप्य मुखमुष्णोदकेन | ॥२५४॥ शोधयति, यदि पुनस्तैलगण्डूषविधानं न कार्यते तदा रूक्षत्वात्तेन मुखयत्रमीलनसम्भवे पर्यतसमये नमस्कारमुच्चारयितुं न शक्नोतीति, Jan Education International For Private Personel Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवमनयाऽऽनुपूर्व्या-क्रमेण द्वादशवार्षिकीमुत्कृष्टां संलेखनां कृत्वा गिरिकन्दरां च गत्वा उपलक्षणमेतत् अन्यदपि षटकायोपमर्दरहितं विविक्तं स्थानं गत्वा पादपोपगमनं, वाशब्दाद्भक्तपरिज्ञामिगिनीमरणं वा प्रपद्यते, मध्यमा तु संलेखना पूर्वोक्तप्रकारेण द्वादशभिर्मासैः जघन्या च द्वादशमिः पक्षैः परिभावनीया, वर्षस्थाने मासान् पक्षांश्च स्थापयित्वा तपोविधिः प्रागिव निरवशेष उभयत्रापि भावनीय इति भावः ॥ ८७५ ॥ ८७६ ॥ ८७७ ॥ १३४ ॥ इदानीं 'वसहेण वसहिगहणं'ति पंचत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह नयराइएसु घेप्पद वसही पुत्वामुहं ठविय वसहं । वामकडीह निविटुं दीहीकअग्गिमेकपयं ॥ ८७८॥ सिंगक्खोडे कलहो ठाणं पुण नेव होइ चलणेसु । अहिठाणे पोरोगो पुच्छंमि य फेडणं जाण ॥ ८७९ ।। मुहमूलंमि य चारी सिरे य कउहे य पूयसकारो । खंधे पट्टीय भरो पु इंमि य धायओ वसहो ॥ ८८०॥ ___ नगरप्रामादिषु पूर्वाभिमुखं वामकट्या-वामपार्श्वेण निविष्टं-उपविष्टं दीर्घाकृताग्रिमैकपाद-आयतीकृताग्रतनैकतरचरणं वृषभं-बलीबर्द स्थापयित्वा-निवेश्य वसतिर्गृह्यते, अयमर्थः-यावन्मानं क्षेत्रं वसिमाक्रान्तं भवति तावत्सर्वमपि वामपार्बोपविष्टपूर्वाभिमुखवृषभरूपं बुझ्या परिकलय प्रशस्तेषु प्रदेशेषु साधुभिर्वसतियेति ॥ ८७८ ॥ इत्थं च क्षेत्रे वृषभरूपे कल्पिते कुत्रावयवे वसतिः क्रियमाणा किम्फला भवति ?, तत्राह-'सिंगे'त्यादि, शृङ्गप्रदेशे यदि वसतिं करोति तदा निरन्तरं वतिनां कलहो भवति, तथा स्थानं-अवस्थितिः 'पुनसानैव भवति चरणेषु-पादप्रदेशेषु क्रियमाणायां वसतौ, तथाऽधिष्ठाने-अपानप्रदेशे वसतो क्रियमाणायां मुनीनां उदररोगो भवति, तथा Mपुच्छे-पुच्छप्रदेशे क्रियमाणायां वसतौ स्फेटनं-अपनयनं वसतेर्जानीहि, तथा मुखमूले वसतौ क्रियमाणायां 'चारित्ति भोजनसम्पत्तिः Jan Education Intentional For Private Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० SAS S १३५ वसतेवृषभकल्पना गा.८७८| ८८० १३६ जलस्याचित्तता गा.८८१ ॥२५५॥ साधूनां भव्या भवति, तथा शिरसि-शृङ्गयोर्मध्ये ककुदे वा-अंशकूटप्रदेशे वसतिकरणे पूजा-प्रवरवस्त्रपात्रादिप्रदानलक्षणा सत्कारश्च-अभ्युत्थानादिरूपो तिनां भवति, तथा स्कन्धप्रदेशे पृष्ठप्रदेशे च वसतौ सत्यां भरो भवति-साधुभिरितस्तत आगच्छद्भिर्वसतिराकुला भवति, तथा 'पोट्टमि यत्ति उदरदेशे वसतौ विधीयमानायां ध्रातः-तृप्तो भवति वृषभो-वृषभकल्पो भवति गृहीतवसतिनिवासी यतिजन इति ॥ ८७९ ॥ ८८० ॥ १३५ ॥ इदानीं 'उसिणस्स फासुयस्सवि जलस्स सञ्चित्तया कालो' इति षट्त्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह उसिणोदगं तिदंडुक्कलियं फासुयजलंति जइकप्पं । नवरि गिलाणाइकए पहरतिगोवरिवि धरियवं ॥ ८८१॥ जायइ सचित्तया से गिम्हमि पहरपंचगस्सुवरि । चउपहरोवरि सिसिरे वासासु पुणो तिपहरुवरि ॥८८२॥ त्रिभिर्दण्डैः-उत्कालैरुत्कालितं-आवृत्तं यदुष्णोदकं तथा यत्प्रासुकं-खकायपरकायशस्त्रोपहतत्वेनाचित्तीभूतं जलं तदेव यतीनां कलप्यं-ग्रहीतुमुचितं, इह किल प्रथमे दण्डे जायमाने कश्चित्परिणमति कश्चिन्नेति मिश्रः द्वितीये प्रभूतः परिणमति स्तोकोऽवतिष्ठते ततीये तु सर्वोऽप्यप्कायोऽचित्तो भवतीति त्रिदण्डाहणं, इदं च सर्वमपि प्रहरत्रयमध्य एवोपभोक्तव्यं, प्रहरत्रयादूर्द्ध पुनः कालातिक्रान्तदोपसम्भवेनोपभोगानहत्वान्न धारणीयं, नवरं-केवलं ग्लानादिकृते-लानवृद्धादीनामर्थाय प्रहरत्रिकादप्यू धर्तव्यमिति ॥ ८८१ ॥ 'जाये'त्यादि, जायते-भवति सचित्तता 'से'त्ति तस्य उष्णोदकस्य प्रासुकजलस्य वा ग्लानाद्यर्थ धृतस्य 'ग्रीष्मे' उष्णकाले प्रहरपञ्चकस्योपरि४ प्रहरपञ्चकादूर्द्ध, कालस्यातिरूक्षत्वाच्चिरेणैव जीवसंसक्तिसद्भावात् , तथा शिशिरे-शीतकाले कालस्य स्निग्धत्वात्प्रहरचतुष्टयादूर्द्ध सचित्तता TAROSES%* ५५॥ Jain Education T ww.jainelibrary.org Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति, वर्षासु-वर्षाकाले पुनः कालस्यातिस्निग्धत्वात्प्रासुकीभूतमपि जलं भूयः प्रहरत्रयादूई सचित्तीभवति, तदूर्द्धमपि यदि ध्रियते तदा क्षारः प्रक्षेपणीयो येन भूयः सचित्तं न भवतीति ॥ ८८२ ॥१३६॥ इदानीं 'तेरिच्छिमाणवीओ देवीओ तिरियमणुयदेवाणं । जग्गुणाओ जत्तियमेत्ताहिगाउ'त्ति सप्तत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयत्वा । सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तयहिया चेव ॥ ८८३ ॥ बत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहिया य तह य देवाणं । देवीओ पन्नत्ता जिणेहिं जियराग दोसेहिं ॥ ८८४ ॥ त्रिगुणास्त्रिभी रूपैरधिकाश्च तिरश्चां पुदिनां स्त्रियो ज्ञातव्याः, कोऽर्थः ?-असत्कल्पनया सर्वेभ्यस्तिर्यग्योनिकपुरुषेभ्यः प्रत्येकं तिस्रस्तिस्रस्तिर्यकत्रियो दीयन्ते तिस्रश्च तिर्यत्रिय उद्धरन्ति ततो न तद्योग्यस्तिर्यग्योनिकः पुमान् प्राप्यत इति, एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या, तथा मनुष्याणां स्त्रियो मनुष्यपुरुषेभ्यः सप्तविंशतिगुणाः तदधिकाश्व-सप्तविंशतिरूपाधिकाः, तथा देवपुरुषेभ्यो देवत्रियो द्वात्रिंशद्गणा द्वात्रिंशद्रूपाधिकाश्च प्रज्ञप्ता:-कथिता जिनैर्जितरागद्वेषैरिति ।। ८८३ ॥ ८८४ ॥१३७ ।। इदानीं 'अच्छेरयाण दसगं'ति अष्टत्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह उवसग्ग १ गम्भहरणं २ इत्थीतित्थं ३ अभाविया परिसा ४ । कण्हस्स अवरकंका ५ अवयरणं चंदसूराणं ६॥८८५॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती ७ चमरुप्पाओ८ य अहसयसिद्धा ९। अस्संजयाण पूया १० दसवि अणंतेण कालेणं ॥ ८८६ ॥ सिरिरिसहसीयलेसु एकेक मल्लिनेमिनाहे य । वीर CA4%AAAAACAR Jan Education Intematon For Private Personel Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १३७ दे| वादिस्त्री मानं १३८ आश्चर्यदशकं गा.८८३ ॥२५६॥ जिणिंदे पंच उ एगं सवेसु पाएणं ॥८८७॥ रिसहे अहियसयं सिद्धं सीयलजिणंमि हरिवंसो।। नेमिजिणेऽवरकंकागमणं कण्हस्स संपन्नं ॥ ८८८ ॥ इत्थीतित्थं मल्ली पूया असंजयाण नवमजिणे। अवसेसा अच्छेरा वीरजिणिंदस्स तित्थंमि ॥ ८८९॥ | आ-विस्मयतश्चर्यन्ते-अवगम्यन्ते जनैरित्याश्चर्याणि-अद्भुतानि, तानि च उपसर्गादीनि दश, तत्रोपसृज्यते-क्षिप्यते बाध्यते प्राणी धर्मादिभिरित्युपसर्गाः-सुरनरादिकृतोपद्रवाः, ते च योजनशतमिते क्षेत्रे प्रशमितदुर्वारवैरमारिविड्वरदुर्भिक्षाद्युपद्रवोद्रेकस्यापि वरेण्यपुण्यापणस्यापि तीर्थकरस्यापि भगवतः श्रीमहावीरस्य छद्मस्थकाले केवलिकाले च नरामरतिर्यकृताः समभवन् , इदं च किल न जातुचिद जातपूर्व, तीर्थकरा हि निखिलनरामरतिरश्चां सत्कारस्थानमेव, नोपसर्गभाजनं, अनन्तकालभाव्ययमों लोकेऽद्भुतभूत इति १ । तथा गर्भस्य-स्त्रीकुक्षिसमुद्भूतसत्त्वस्य संहरणं-अन्यत्रीकुक्षौ सङ्क्रामणं गर्भसंहरणं, एतच्च तीर्थङ्करमुद्दिश्याभूतपूर्वमस्यामवसर्पिण्यां भगवतः श्रीमहावीरस्य जातं, तथाहि-श्रीमहावीरजीवो मरीचिभवे समुपार्जितनीचैर्गोत्रकर्मा प्राणतकल्पपुष्पोत्तरविमानाच्युत्वा ब्राह्मणकुण्डप्रामे ऋषभदत्तापरनामधेयसोमिलद्विजदयिताया देवानन्दायाः कुक्षावाषाढशुक्लषष्ठयामवातरत् , इतश्च व्यशीति दिनेषु समतिक्रान्तेषु सौधर्माधिपतिरुपयुक्तावधिर्न तीर्थकृतः कदाचनापि नीचैःकुलेषु जायन्ते इति विमृश्य भुवनगुरुभक्तिभरभावितमनाः पदात्यनीकाधिपति हरिणेगमेषिमादिक्षत्-यथैष भरतक्षेत्रे चरमतीर्थकृत् प्रागुपात्तकर्मशेषपरिणतिवशतस्तुच्छकुले जातः तयमितः संहृत्य क्षत्रियकुण्डग्रामे प्रसिद्धसिद्धार्थपार्थिवपन्यास्त्रिशलादेव्याः कुक्षौ स्थाप्यतामिति, ततः स हरिणेगमेषिस्तथेति प्रतिपद्याश्वयुकृष्णत्रयोदशीदिवसे रात्रौ प्रथ-| मप्रहरद्वयमध्ये देवानन्दाभिधानब्राह्मण्युदरात् त्रिशलादेव्याः कुक्षौ भगवन्तं संहृतवान् , एतदप्यनन्तकालभावित्वादाश्चर्यमेवेति २ । ॥२५६॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intern तथा स्त्री - योषित्तस्यास्तीर्थङ्करत्वेनोत्पन्नायास्तीर्थ-द्वादशाङ्गं सङ्घो वा स्त्रीतीर्थ, तीर्थं हि त्रिभुवनातिशायिनिरुपमानमहिमानः पुरुषा एव प्रवर्तयन्ति, इह त्ववसर्पिण्यां कुम्भक नृपतिपुत्र्या मध्यभिधानया एकोनविंशतितमतीर्थ करत्वेनोत्पन्नया तीर्थं प्रवर्तितं तथाहि इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपेऽपरविदेहे सलिलावतीविजये वीतशोकायां नगर्यां महाबलो नाम भूपतिरभूत्, स च सुचिरपरिपालितराज्य: षद्भिर्बालमित्रैः सममार्हतं धर्ममाकर्ण्य वरधर्ममुनीन्द्रसमीपे प्रवत्राज, तैश्च सप्तभिरपि यदेकस्तपः करिष्यति तदन्यैरपि कर्तव्यमिति प्रतिज्ञाय समं चतुर्थादितपञ्चक्रे, अन्यदा च महाबलमुनिस्तेभ्यो विशिष्टतरफलेप्सया पारणकदिने पादोऽद्य मे दुष्यति शिरोऽय मे दुष्यति दुष्यत्युदरमद्य मे नास्ति मेऽद्य क्षुदित्यादिव्यपदेशेन मायया तान् वञ्चयित्वा तपश्चक्रे, तेन च मायामिश्रेण तपसा स्त्रीवेदकर्म अर्हद्वात्सल्यादिभिः विंशतिस्थानैस्तीर्थकृन्नामकर्म च बद्धा पर्यन्तसमये समयोक्ताराधनया विपद्य वैजयन्त विमानेषु सुरः समुत्पेदे, ततश्युत्वा च मिथिलानगर्यां कुम्भाभिधवसुधाधिपतेः पत्न्याः प्रभावत्याः प्राग्जन्मकृतमायासमुपार्जित स्त्रीवेदकर्मवशतो मह्यभिधाना पुत्री समभवत् क्रमेण च प्राप्तयौवना यथाविधि प्रव्रज्यां प्रतिपद्य केवलज्ञानमुपागमत्, अष्टमहाप्रातिहार्यप्रभृतितीर्थकर समृद्धिसंशोभिता च तीर्थं प्रवर्तयामासेति, अस्यापि भावस्यानन्त कालजातत्वादाश्चर्यतेति ३ । तथा अभव्या-अयोग्या चारित्रधर्मस्य पर्षत् तीर्थकरसमवसरणस्थितश्रोतृलोकाः, श्रूयते हि भगवतः श्रीवर्धमानस्वामिनो जृम्भिकप्रामाद्बहिः समुत्पन्ननिः सपत्नकेवलालोकस्य तत्कालसमायातसङ्ख्यातीतसुरविसरविरचितसुचारुसमवसरणस्य भूरिभक्तिकुतूहला कुलित मिलितापरिमितामरनरतिरश्चां स्वस्वभाषानुसारिणा सजलजलधरध्वानानुकारिणाऽतिमनोहारिणा महाध्वनिना धर्मकथां कुर्वाणस्यापि न केनचिद्विरतिः प्रतिपन्ना, केवलं प्रथमसमवसरणेऽवश्यमेव तीर्थकृद्भिः कर्तव्या धर्मदेशनेति स्थितिपरिपालनायैव धर्मकथा बभूव, न चैतत्तीर्थकरस्य कस्यापि भूतपूर्वमित्याश्चर्यं ४ । तथा कृष्णस्य – नवमवासुदेवस्यापरकङ्कामिधाना नगरी jainelibrary.org Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा० रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २५७ ॥ Jain Education Int गमनगोचरोऽभूदित्यभूतपूर्वत्वादाश्चर्य, इह किल श्रूयते हस्तिनागपुरे युधिष्ठिरप्रष्ठाः पञ्चापि पाण्डवाः काम्पिल्यपुराधिपद्रुपदनृपपुत्र्या द्रौपद्या सह सहर्ष वारकेण विषयसुखमुपभुञ्जानाः परमप्रमोदेन दिनान्यतिवाहयन्ति स्म, अन्येद्युर्नारदनामा मुनिर्मनःसमीहितान् देशान् परिभ्राम्यन् द्रौपदीमन्दिरमाययौ, द्रौपद्या चाविरतोऽयमिति मत्वा नमस्कृतिमात्रेणापि न तस्य प्रतिपत्तिः कृता, ततोऽसौ क्रोधाध्मातमना नारदः कथमियं महादुःखभाग्भविष्यतीति चिन्तयंस्तन्निकेतनान्निर्गत्य भरतक्षेत्रे च कृष्णभयात्तस्याः कुतोऽप्यपायमपश्यन् धातकीखण्डसम्बन्धिभरतक्षेत्रे चम्पाधिपतिकपिलाख्यकेशव सेवकस्य ललनालम्पटस्य पद्मनाभनृपस्य पुरीमपरकङ्कामिधामभ्यगात्, सोऽपि नृपः ससम्भ्रममुत्थाय प्रतिपत्तिपुरस्सरमन्तःपुरे नीत्वा निखिला अपि निजप्रेयसीः प्रदर्शयन् भगवन्! अनवरतं सर्वत्राप्यस्खलि तप्रचारेण भवता विलोकिताः काप्येवंविधाः पुरन्ध्रय इति नारदं निजगाद, नारदोऽपि सेत्स्यत्यनेन मम प्रयोजनमिति मनसि निश्चित्य प्रत्यवादीत् - राजन् ! कूपमण्डूक इव किमेताभिः स्वान्तः पुरीभिः प्रमोदमानमानसो भवान् ?, यज्जम्बूद्वीपभरतभूषणायमाने हस्तिनागपुरे पाण्डवानां प्रेयस्या द्रौपद्याः पुरस्तादेताः सर्वा अपि दासीदेश्या एवेत्यभिधाय नारदमुनिरुत्पपात, अथ पद्मनाभो द्रौपदीप्राप्तिपर्याकुलः पातालनिवासिनं पूर्वसङ्गतिकं सुरं तपसा समाराध्य प्रत्यक्षीभूतं किं करोमीतिवादिनं पाण्डवप्रणयिनीं द्रौपदीमिहानीय मम समर्पयेत्यवादीत्, देवोऽपि महाराज ! द्रौपदी हि महासती पाण्डवव्यतिरेकेण नान्यं मनसाऽपि पतिमभिलषति तथाऽपि त्वन्निर्बन्धादत्रानयामीत्युक्त्वा हस्तिनागपुरादवस्वापिनीदानेन निशि प्रसुप्तां द्रौपदीमपहृत्य तस्मै समर्पयामास, पद्मनाभोऽपि प्रमुदितमनाः प्रबुद्धां निजयिताद्यनवलोकनेन विह्वलितहृदयां द्रौपदीमभाषत - मा भैषीर्मृगाक्षि ! मयैवेह त्वमानायिताऽसि, अहं हि धातकीखण्डभरतक्षेत्रे अपरकङ्कापुरीपतिः पद्मनाभनामा नृपस्त्वां प्रेयसीं प्रार्थये, ततो मया सह स्वेच्छयाऽतुच्छान् भोगान् भुङ्क्ष्वेति द्रौपद्यपि च तद्वचः श्रुत्वा तत्काल आश्चर्यदशकम् ॥ २५७ ॥ w.jainelibrary.org Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRIAXXMARAL समत्पन्नमतिः षण्मासमध्ये यदि मदीयः कोऽपि इह नागमिष्यति तदा त्वदीयं समीहितं करिष्यामीत्यवोचत, राज्ञाऽपि जम्बूद्वीपजुषां पुरुषाणामत्रागमनमसंभवीति विमृश्य तद्वचः प्रत्यप्रद्यत, इतश्च पाण्डवाः प्रभाते द्रौपदीमपश्यन्तः सादरं सर्वत्रान्वेषणेऽपि तद्वार्तामप्यलभमानाः समप्रमपि वृत्तान्तं वासुदेवाय न्यवेदयन् , वासुदेवोऽपि किंकर्तव्यतामूढो यावदास्ते तावदकस्मानारदमुनिस्तत्र स्वयंकृतमनर्थमवलोकयितुमाजगाम, सर्वत्राप्यस्खलितप्रचारं सञ्चरता भवता किं वापि द्रौपदी दृष्टेति कृष्णेनानुयुक्तः स उक्तवान्-धातकीखण्डेऽमरकङ्कायां नगर्या गतेन मया पद्मनाभनृपस्य सद्मनि द्रौपदी दृष्टेत्यभिधाय सोऽन्यतोऽगमत् , ततः कृष्णः पद्मनृपतिना द्रौपदी हृता एषोऽहं तामिहानेष्यामीति मा मनागपि खेदं विदध्वमिति पाण्डवान् समाश्वास्य महापृतनापरिवृतः पाण्डवैः सह दक्षिणाम्भोनिधितटनिकटमभ्यगात्, पाण्डवा अप्यत्यन्तभीषणमपारं पारावारमवलोक्य स्वामिन्नयं मनसाऽप्यलयः कथं लङ्घनीय इति विष्णुं व्यजिज्ञपन् , विष्णुरपि न काचिचिन्ता भवद्भिर्विधेयेति तानुक्त्वाऽष्टमतपसा सुस्थितनामानं लवणसमुद्रस्वामिनममरमाराधयामास, अथाविर्भूय देवेन किं करोमीत्युक्ते विष्णुरवदत्-सुरश्रेष्ठ! पद्मनाभनृपत्यपहृता धातकीखण्डद्वीपाद् द्रौपदी द्रुतमेव यथा समानीयते तथा कुर्विति, देवोऽपि यथा पद्मनाभपार्थिवस्य पूर्वसङ्गतसुरेणापहृत्य समर्पिता तथा तवाप्यहमर्पयामि यद्वा तं सबलवाहनमम्भोनिधिमध्ये क्षिप्त्वा तामानयामीत्यादि |बहु जल्पितवान् , कृष्णोऽप्यभाषत-नायं यशस्करः पन्थाः, ततः पाण्डवानां ममापि च षण्णां रथानामम्भोधिमध्येन मार्गमव्याहतं कुरु येन स्वयमेव तत्र गत्वा तं च युधि विनिर्जित्य द्रुपदतनयामानयाम इति, सुस्थितेन च तथैव कृते श्रीपतिः पञ्चभिः पाण्डवैः सह द्विलक्षयोजनप्रमाणमपि जलधि स्थलमिवोलकथापरकङ्कापुरीपरिसरोद्याने च स्थित्वा प्रथमं दारुकाख्यदूतप्रेषणेन द्रौपदीमयाचत, पद्मोऽपि स तत्रैव वासुदेवः इह त्वात्मषष्ठोऽप्यसौ मम न किश्चित् ततो गत्वा युद्धाय स्वस्वामिनं सज्जयेति सगर्वमभिधाय युयुत्सुः ससैन्यः सन्ना Jain Educationala For Private & Personel Use Only M w w.jainelibrary.org Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा तदेवोद्यानमागमत् विष्णुरपि दारुकवचनश्रवणाद् द्विगुणीभूतरोषस्तं ससैन्यमापतन्तमालोक्य शङ्खमापूर्य तद्धनिना सेनात्रिभागमनारोद्धारे शयत् ततः शार्ङ्गस्फालनजनितध्वनिनाऽपि सैन्यत्रिभागे नाशिते पद्मनाभनृपोऽवतिष्ठमानतृतीयांशवलो रणाङ्गणान्नंष्ट्वा निजपुरीमध्ये | प्रविश्य गोपुराणि पिहितवान्, कृष्णोऽपि सक्रोधं रथादवतीर्य नृसिंहरूपधारी नितान्तं गर्जन्निजपाददर्दरैः पुरमपातयत् ततः पद्मनाभो भयव्याकुलितः क्षम्यतां २ देवि! रक्ष २ मामस्मात्कुद्वात्कृष्णादिति वदन् द्रौपदीं शरणमगमत् तयाऽपि मां पुरस्कृत्य विधाय च स्त्रीवेषं शार्ङ्गिणमेव शरणं व्रजेत्युक्तः स तथा कृतवान्, कृष्णोऽपि द्रौपदीं पाण्डवानामर्पयित्वा तेनैव पथा रथारूढः प्रतिनिवृत्तः, तदानीं च तत्र चम्पायां पुर्यामुद्याने समवसृतं मुनिसुव्रतजिनं कपिलनामा वासुदेवस्तत्समीपमासीनः स्वामिन्! कस्यायं ममेव शङ्खस्वनः श्रूयते ? इति पप्रच्छ भगवानपि समयं द्रौपदीवृत्तान्तमाख्यत्, ततः कपिलो जम्बूद्वीपभरतार्थाधिपतेरभ्यागतस्य स्वागतिको भवामीति भगवन्तमपृच्छत्, ततो भगवता यथैकत्र द्वितीयोऽर्हन्न चक्रभृन्न तथा विष्णुरपि न भवति तथा कारणादागतोऽपि नान्येन मिलतीत्युक्तोऽपि कपिल: कौतुकात् कृष्णदिदृक्षया जलधितटे जगाम, दृष्टवांश्चाम्भोधिमध्येन व्रजतो विष्णो रथध्वजान् ततः कपिलनामा वासुदेवस्त्वां द्रष्टुमुत्कण्ठितोऽहमिहागतस्तद्बलखेति स्पष्टाक्षरं शङ्खमवादयत्, कृष्णोऽपि वयमतिदूरं गतास्ततस्त्वया न किञ्चिद्वाच्यमिति व्यक्ताक्षरं शङ्खध्वनिना तं प्रतिबोध्य क्रमेण स्वस्थानं प्राप्त इति ५ । तथा कौशाम्ब्यां नगर्यां समवसृतस्य भगवतः श्रीवर्धमानविभोर्वन्दनार्थं पश्चिमपौरुष्यामवतरणं - आकाशात्समवसरणभुवि समागमनं युगपच्चन्द्रसूर्ययोः शाश्वतविमानस्थितयोर्बभूव इदमप्याश्चर्यमेव, अअन्यदा हि उत्तरवैक्रिय विमानेनैवावतरत इति ६ । तथा हरे: - पुरुषविशेषस्य वंश: - पुत्रपौत्रादिपरम्परा हरिवंश: तलक्षणं यत्कुलं तस्योत्पतिर्हरिवंशकुलोत्पत्तिः, कुलं ह्यनेकधा ततो हरिवंशेन विशेष्यते, एतदपि च पूर्वमभूतत्वादाश्चर्यमेवेति श्रूयते हि इहैव जम्बूद्वीपभरतक्षेत्रे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २५८ ॥ आश्चर्यदशकम् ।। २५८ ।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौशाम्ब्यां नगर्या सुमुखो नाम भूपतिरभूत , एकदा च विचित्रविलासवसतौ वसन्तसमये समागते मतङ्गजारूढः स राजा रन्तुकाम: पुरपरिसरोद्यानं गच्छन् मार्गे वीरकाहयस्य कुविन्दस्य दयितां वनमालाभिधानामसमानलावण्यपुण्यदेहावयवामवलोकितवान् , साऽपि प्रणयस्पृशा दृशा वारं वारं साकासमुदैक्षत, राजा च तां निर्निमेषचक्षुषा सस्पृहं पश्यन् स्मरविधुरस्तत्रैव गजं भ्रमयन् कमपि प्रतीक्ष|माण इव नापतो जगाम, अथ सुमतिनामा सचिवस्तद्धावं जिज्ञासुः स्वामिन् ! सर्वमपि सैन्यमिह प्राप्तं ततः किमद्यापि विलम्ब्यते ? इति राजानं व्यजिज्ञपत् , राजापि सचिववचसा चेतः कथमपि संस्थाप्य लीलोद्यानमगमत् , तत्र च शून्यहृदयो हृद्येऽप्युद्याने न कापि | रतिं प्राप, अथ तमुद्विग्नमानसममात्यः सुमतिरवादीत्-देव! किमद्य शून्यहृदय इव त्वं लक्ष्यसे ?, यद्यगोप्योऽयं मनोविकारस्तत्कथ्यतामिति, राजापि त्वमेव मम मनोविकारप्रतीकारप्रवणः ततस्तव गोप्यं न किञ्चिदस्तीत्यभिधाय स्वस्वरूपं न्यरूपयत् , अथ देव! त्वत्समीहितं शीघ्रमेव सम्पादयिष्यामि ब्रजतु स्वामी स्वस्थः स्वावासमित्यमात्येनोक्तः क्षितिपतिः स्वावासमयासीत् , ततो मत्री विचित्रोपायपण्डितामात्रेयिकां नाम परिव्राजिका वनमालायाः पार्श्वे प्राहिणोत् , साऽपि तत्र गत्वा तद्विरहविह्वलां वनमालामवोचत्-वत्से! किमद्य विच्छाया वीक्ष्यसे?, निवेदय स्वदुःखमिति, साऽपि निःश्वस्य दुष्प्रापप्रार्थकतामात्मीयामकथयत्, आत्रेयिकापि मदीयमत्रतत्राणां न | किश्चिदसाध्यमस्ति ततः प्रातः पृथ्वीपतिना सह सङ्गमं तव करिष्यामीति तामाश्वास्य गत्वा च सचिवसविधं तत् नृपप्रयोजनं निष्पन्नप्रायं न्यवेदयत् , सचिवोऽपि तवृत्तान्तनिवेदनेन नृपराजमरचयत् , ततः प्रभाते परिब्राजिका वनमालामादाय नृपमन्दिरमगमत् , | राजाऽप्यनुरागवशतस्तामन्तःपुरे निक्षिप्य तया सममसमं संसारसुखमन्वभूत् , इतश्च वीरककुविन्दोऽपि वनमालामनत्रलोकमानो हा प्रिये वनमाले! क गताऽसीत्यायनेकप्रकारं प्रलपनुन्मत्त इव च त्रिकचत्वरादिषु परिभ्रमन्नेकदा नृपतिनिकेतनान्तिकमभ्यगात् , भूपालो For Private & Personel Use Only ow.jainelibrary.org Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा १३८ द्वारे 'रोद्वारे आश्चर्य तत्त्वज्ञानवि० दशकम्. परस्नेदवशात् सुचाक्ये तीये क्षेत्रमा निन्दतोस्तयोः सहस होऽस्मामिरुभवलोकारक ॥२५९॥ CRACKROACTERS |ऽपि वनमालासहितस्तथाविकृताकारं शून्यमानसं हा वनमाले इत्यादिप्रलापिनं तमवेक्ष्य व्यचिन्तयत्-अहोऽस्मामिरुभयलोकविरुद्धमति-| निर्पणं कर्म समाचरितं सर्वथाऽप्यस्माकं नरकेऽप्यवस्थानं नास्तीत्यादि बह्वात्मानं निन्दतोस्तयोः सहसैवाकाशात्तडित्पतित्वा प्राणान् जहार, मृत्वा च तौ परस्परस्नेहवशात् शुभध्यानाच हरिवर्षास्ये तृतीये क्षेत्रे मिथुनरूपिणी हरिहरिणीनामकावुत्पन्नौ, तत्र च कल्पपादपसम्पादितसमीहितौ सततमवियुक्तौ परस्परस्नेहवशात् सुचिरं विलसन्तौ तस्थतुः, वीरकुविन्दोऽपि तयोर्मृत्युमवगत्य त्यक्तग्रहिलभावो दुस्तपमज्ञानतपः किमपि कृत्वा मृत्वा च सौधर्मकल्पे किल्विषिकसुरः समुत्पेदे, अवधिना च निजं पूर्वभवं हरिहरिणीनामकौ च पूर्वभववैरिणी विलोक्य तत्कालोत्पन्नरोषारुणेक्षणः क्षणमचिन्तयत्-इह हरिवर्षक्षेत्रे क्षेत्रानुभावादेव ताववध्यौ मृतौ चावश्यमेव देवलोकं व्रजिष्यतस्ततो दुर्गतिनिबन्धने अकालेऽपि मरणप्रदे नयाभ्यन्यत्र स्थानान्तरे इति विनिश्चित्य तावुभावपि कल्पतरुभिः सह ततः क्षेत्रादपहृत्य भरतक्षेत्रे | चम्पापुर्यामानैषीत् , तस्यां च पुरि तदानीमिक्ष्वाकुवंशजश्चन्द्रकीर्तिनामा नृपोऽपुत्रः पञ्चत्वमगमत् , ततस्तस्य प्रकृतयो राज्याहमपरं | पुरुषमन्वेष्टुं सर्वतोऽपि प्रवर्तमानास्तेन देवेनाकाशस्थितेन स्वसमृद्धिवशतः सर्वस्यापि जनस्य विस्मयमुपजनयता सादरममिहिताः-भो भो राज्यचिन्तकाः! भवत्पुण्यप्रेरितेनेव मया हरिवर्षात् हरिण्याख्यनिजपल्या समन्वितो हरिनामा राज्याहः पुमान युग्मरूपोऽनयोरेवाहारयोग्यैः कल्पद्रुमैः सममिहानीतः तदयमस्तु भवतां राजा, एतयोश्च कल्पपादपफलमिदं पशुपक्षिमांसं मद्यं चाहारो देय इति, प्रकृतयोऽप्येवमस्त्विति भणित्वा हरिं राज्ये स्थापयामासुः, सोऽपि सुरः स्वशक्त्या तयोरायुःस्थिति इखां तनुं च धनु शतमानां कृत्वा तिरोदधे, हरिरपि पयोधिपर्यन्तां वसुधां साधयित्वा सुचिरं राज्यमकरोत् , ततः प्रभृति च पृथिव्यां तन्नाम्ना हरिवंशो बभूवेति ७ । तथा चमरस्य -असुरकुमारेन्द्रस्योत्पात:-ऊर्द्धगमनं सोऽप्याकस्मिकत्वादाश्चर्यमिति, श्रूयते हि इहैव भरतक्षेत्रे विभेले सन्निवेशे पूरणो नाम धनाढ्यो ॥२५९॥ Jain Education For Private Personel Use Only Livw.jainelibrary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARCASEARNAGAR है गृहपतिरभूत् , स चान्यदा निशीथे चिन्तयामास-नूनं प्राग्भवाचीर्णविस्तीर्णतपःप्रभावतःप्राप्ता तावदियं लक्ष्मीः मान्यता च, ततः पुनरजाप्येष्यद्भवे विशिष्टफलप्राप्तये गृहवासं परित्यज्य किमपि दुस्तपं तपः करोमीयेवं विचिन्त्य प्रातः सर्वानपि स्वजनानापृच्छय तनयं च | निजपदे निवेश्य प्राणामनामकं तापसव्रतमग्रहीत् , तद्दिनादारभ्य च यावज्जीवं षष्ठं तपश्चकार, पारणकदिने च दारुमयं चतुष्पुटं मिक्षापात्रमादाय मध्याह्नक्षणे मिक्षां भ्राम्यति स्म, तत्र प्रथमपुटपतितां भिक्षां पान्थादिभ्यः द्वितीयपुटपतितां मिक्षा काकादिभ्यः तृतीयपुटमिक्षा च मत्स्यादिजलचारिभ्यो दत्त्वा रागद्वेषादिरहितश्चतुर्थपुटभिक्षा स्वयमभुत, एवं द्वादश वर्षाणि बालतपः कृत्वा पर्यन्तसमये मासमेकमनशनमादाय मृत्वा च चमरचञ्चायां चमरेन्द्रो बभूव, उत्पन्नश्च तत्रावधिज्ञानेनेतस्ततः पश्यन्नूर्द्ध सौधर्मावतंसके विमाने सौधर्मेन्द्रं दृष्ट्वा क्रुद्धः सुरानवोचत्-अरे कोऽयं दुरात्माऽप्रार्थितप्रार्थितो मम शिरः स्थित एवं विलसतीति ?, तेऽप्यूचुः-अयं हि पूर्वभवार्जितैः पुण्यैः सर्वातिशायिसमृद्धिपराक्रमः सौधर्माधिपः शक्र इति, एतच्च श्रुत्वाऽधिकतरं क्रुद्धः स्वपरिवारनिवारितोऽपि युयुत्सुः शिक्षयाम्येनमवज्ञाकारिणमिति वदन परिघमादाय स हि शक्तः श्रूयते ततः कथमपि तत्पराजितोऽहं कं शरणं प्रपत्स्ये ? इति विचिन्त्य स सुसुमारपुरे प्रतिमास्थितस्य श्रीमहावीरस्य समीपमागमत् , तत्र च प्रणामपूर्वकं भगवस्तव प्रभावेण वत्रिणं जेष्यामीति विभुं विज्ञप्य लक्षयोजनमानमतिविकृतं निजवपुर्विधाय परिघप्रहरणं परितो भ्रमयन् गर्जन्नास्फोटयन् त्रिदशान त्रासयन् दर्पान्धः सौधर्मेन्द्र प्रति समुदपतत् , तत एकं पादं सौधर्मावतंसकविमानवेदिकायामपरं च सुधर्मायां निधाय परिघेनेन्द्रकीलं त्रिस्ताडयित्वाऽनेकशः शक्रमाक्रोशयामास, शक्रोऽप्यवधितस्तं विदित्वा कोपाज्जाज्वल्यमानः स्फारस्फुरत्स्फुलिङ्गशतसमाकुलं कुलिशं तं प्रति मुमोच, चमरोऽपि पृष्ठतो दम्भोलिमायान्तमवलोकयितुमध्यक्षमः श्रीमहावीरं शरणं प्रपित्सुर्वपुर्विस्तरमुपसंहृत्य त्वरिततरं पलायिष्ट, समासन्नीभूतकुलिशश्च शरणं शरणमिति ब्रुवाणः For Private & Personel Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रच.सा-olोनारामा दशकम् से सूक्ष्मीभूय स्वामिपादयोरन्तरे प्राविशत्, शक्रोऽप्यस्दादि निश्रामन्तरेण नासुराणामिहागन्तुं स्वतः शक्तिः सम्भवतीति विचिन्त्यावधिज्ञानारोद्धारे वगततयतिकरस्तीर्थकराशातनाभयात्त्वरितमागत्य स्वामिपादयोश्चतुरङ्गुलमप्राप्तं वनमुपसंजहार, स्वामिनं च क्षमयित्वा चमरमवोचत्तत्त्वज्ञा IXIमुक्तोऽस्यहो भगवतः प्रसादानास्ति ते भयमिति, एवं चमरमाश्वास्य भूयोऽपि भगवन्तं नत्वा शक्रः स्वस्थानमगमत् , चमरोऽप्यमरेन्द्र गते नवि० प्रभुपादद्वयान्तरान्निर्गत्य प्रणम्य च प्रभुं प्रास्तावीत् , यथा-श्रीमद्वीरजिनेन्द्र ! भद्रमतुलं तुभ्यं भवत्वन्वहं, यस्यानन्यसमानदिव्यमहि |मव्यामिश्रया निश्रया । किश्चित्कर्म मनीषितं तनुमतां व्यातन्वतां सम्मुखीभूताप्याशु विपत्तिरेति निधनं सम्पत्तिरुज्जम्भते ॥१॥' एवं ॥२६ ॥ |च स्तुत्वा स चमरचञ्चापुरीमयासीत् ८ । तथाऽष्टभिरधिकं शतमष्टशतं ते सिद्धाः-निवृता अष्टशतसिद्धाः एकसमयेनेति शेषः, तथा |चास्मिन् भरतक्षेत्रे अस्यामवसर्पिण्यां भगवतः श्रीनाभेयस्य निर्वाणसमये श्रूयते अष्टोत्तरं शतमेकसमयेन सिद्धं, तथा चोक्तं सङ्घदासग|णिना वसुदेवचरिते-"भयवं उसमसामी जयगुरू पुव्वसयसहस्सं वाससहस्सूणयं विहरिऊण केवली अट्ठावयपव्वए सह दसहि समणसहस्सेहिं परिनिब्बाणमुवगओ चउद्दसमेणं भत्तेणं माघबहुले पक्खे तेरसीए अभीइणा नक्खत्तेणं एगूणपुत्तसएणं अट्ठहि य नत्तुएहिं सह एकसमएणं निब्बुओ, सेसाणवि अणगाराणं दस सहस्साणि अट्ठसयऊणगाणि सिद्धाणि तंमि चेव रिक्खे समयंतरेसु बहुसु' इति, इदमप्यनन्तकालजातमित्याश्चर्य, एतदाश्चर्यमुत्कृष्टावगाहनायामेव ज्ञातव्यं, मध्यमावगाहनायां तु अनेकशोऽपि अष्टोत्तरशतं सिध्यतीति नाश्चर्यम् ९ । तथा असंयता-असंयमवन्तः आरम्भपरिग्रहप्रसक्ता अब्रह्मचारिणस्तेषु पूजासत्कारः, सर्वदा हि किल संयता एव पूजाहाः, अस्यां त्ववसर्पिण्यां विपरीतं जातमित्याश्चर्य, तथा च श्रूयते श्रीसुविधिस्वामिनिर्वाणात्कियत्यपि काले गते हुंडावसर्पिणीदोषात्साधूनामुच्छेदः समपद्यत, ततः स्थविरश्रावकान् धर्ममार्गानभिज्ञा जना धर्म पप्रच्छुः, अथात्मपरिज्ञानानुसारतः किञ्चिद्धर्म कथयतां तेषां स्थवि ॥२६ ॥ SCORRECT Jain Education Interational For Private Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 तोऽपि तदानी तथा फलान्याचख्युः, महालया शास्त्राणि 5 -45% रश्रावकाणां ते जनाः श्रावकजनयोग्यां धनवसनादिकां पूजां प्रचक्रिरे, तेऽपि तत्पूजया समुत्पन्नगस्तित्कालं स्वबुद्ध्या शास्त्राणि समासूध्य महीमन्दिरशय्यास्वर्णरूप्यलोहतिलकर्पासगोकन्यागजाश्वादेर्दानानि इहामुत्र च महाफलान्याचख्युः, महागृङ्ख्या च वयमेव दानायोचितं पात्रं अपरं सर्वमपात्रमित्याधुपदेशतः सर्वतो जनं विप्रतारयन्तोऽपि तदानीं तथाविधगुर्वभावाल्लोकानां गुरुतां गताः, एवमस्मिन् क्षेत्रे समन्ततस्तीर्थसमुच्छेदे सजाते श्रीशीतलस्वामितीर्थ यावदसंयतानामपि तेषां धिग्वर्णानां प्रथीयसी पूजा समजायतेति १० । एतानि च दशाप्याश्चर्याण्यनन्तेन कालेन-अनन्तकालादस्यामवसर्पिण्यां संवृत्तानीति । उपलक्षणं चैतान्याश्चर्याणि, अतोऽन्येऽप्येवमादयो । भावा अनन्तकालभाविन आश्चर्यरूपा द्रष्टव्याः, यदुक्तं पञ्चवस्तुके-'उवळक्खणं तु एयाईति ।। ८८५ ॥ ८८६ ॥ अथ कस्य तीर्थकृतः काले कियन्त्याश्चर्याणि जातानीत्येतदाह-'सिरी'त्यावि, श्रीऋषभनाथशीतलस्वामिनोस्तीर्ये एकैकमाश्चर्यमभूत् , तत्र श्रीऋषभनाथतीर्थे | एकसमयेनाष्टोत्तरशतसिद्धिः, शीतलस्वामितीर्थे च हरिवंशोत्पत्तिः, तथा मल्लिजिननेमिनाथयोरप्येकैकं, तत्र स्त्रीतीर्थ मल्लिजिनेनैव प्रवतितं, नेमिनाथतीर्थे च कृष्णस्यापरकंकागमनं संवृत्तं, तथा वीरजिनेन्द्रे गर्भहरणोपसर्गचमरोत्पाताभव्यपर्षच्चन्द्रसूर्यावतरणलक्षणानि पञ्चैवाश्वर्याणि क्रमेण जातानि, तथा एकमसंयतपूजालक्षणमाश्चर्य प्रायेण-बाहुल्येन सर्वेष्वपि तीर्थकरेषु सम्पन्नमिति ॥ ८८७ ॥ एतदेव स्पष्टतरं प्रतिपादयन्नाह–'रिसहे'गाहा 'इत्थी'गाहा, व्याख्यातार्थ चैतत् , नवरं 'पूया अस्संजयाण नवमजिणे' इति यदुक्तं तत्सर्वथा तीर्थोच्छेदजनितासंयतपूजाप्रारम्भमाश्रित्य द्रष्टव्यं, सुविधिस्वामिप्रभृतीनां शान्तिनाथपर्यन्तानामष्टानां तीर्थकृतामन्तरेषु सप्तसु तीर्थोच्छेदजावाया असंयतपूजायाः सद्भावात् , यत्पुनः श्रीऋषभनाथादिकाले मरीचिकपिलादीनामसंयतानां पूजा श्रूयते तत्तीर्थे प्रवर्तमान + 5 % Jain Education ateration % For Private Personal use only Law.jainelibrary.org Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २६१ ॥ Jain Education In एवेति, अत एव प्रागुक्तं 'एगं सव्वेसु पाएणे' ति १३८ ।। ८८८ ।। ८८९ ॥ इदानीं 'चउरो भासाउ'त्ति एकोनचत्वारिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह पढमा भासा सच्चा १ बीया उ मुसा विवज्जिया तासिं । सच्चामुसा ३ असच्चामुसा ४ पुणो तह उत्थीति ॥ ८९० ॥ जणवय १ संमय २ ठवणा ३ नामे ४ रूवे ५ पडुच्चसचे य ६ । ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ दसमे ओवम्मसच्चे य १० ॥। ८९१ ॥ कोहे १ माणे २ माया ३ लोभे ४ पेज्जे ५ तव दोसे ६ य । हास ७ भए ८ अक्खाइय ९ उवधाए १० निस्सिया दसहा ।। ८९२ ॥ उप्पन्न १ विगय २ मीसग ३ जीव ४ अजीवे ५ य जीव अज्जीवे ६ । तह मीसगा अनंता ७ परित ८ अद्धा ९ य अद्धद्धा १० ॥। ८९३ ॥ आमंतणि १ आणमणी २ जायणि ३ तह पुच्छणी य ४ पनवणी ५ । पञ्चक्खाणी भासा ६ भासा इच्छानुलोमा य ७ ॥ ८९४ ॥ अणभिग्गहिया ८ भासा भासा य अभिग्गमि ९ बोद्धवा । संसयकरणी १० भासा वोयड ११ अधोयडा १२ चेव ॥८९५ ॥ भाष्यते इति भाषा, सा चतुर्विधा, तत्र प्रथमा भाषा सत्या, सन्तो-मूलोत्तरगुणास्तेषामेव जगति मुक्तिपदप्रदायकतया परमशोभनत्वात् अथवा सन्तो- विद्यमानास्ते च भगवदुपदिष्टा एव जीवादयः पदार्था अन्येषां कल्पनामात्ररचितसत्ताकतया तस्वतोऽसत्त्वात् तेभ्यो हिता सत्या, सत्याविपरीतस्वरूपा मृषा द्वितीया, उभयस्वभावा सत्यामृषा तासां चतसृणां भाषाणां मध्ये तृतीया, या पुनस्तिसृष्वपि भाषास्वनाधिकृता- तल्लक्षणायोगतस्तत्रानन्तर्भाविटी सा आम ब्रणाज्ञापनादिविषया असत्या मृषा तासां भाषाणां मध्ये चतुर्थीति ॥ ८९० ॥ १३९ द्वारे भाषाच तुष्कम्.गा. ८९०-९५ ॥ २६१ ॥ ww.jainelibrary.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CACACACANCARRIA साम्प्रतमेतासामेव भाषाणां भेदानमिधित्सुः प्रथमं सत्यभाषाया भेदानाह-'जणवये'त्यादि, सत्या भाषा तावद्दशप्रकारा भवति जनपदसत्यादिभेदात् , तत्र जनपदेषु-देशेषु या यदर्थवाचकतया रूढा देशान्तरेऽपि सा तदर्थवाचकतया प्रयुज्यमाना सत्या-अवितथेति जनपदसत्या, यथा कोकणादिषु पयः पिचं नीरमुदकमित्यादि, सत्यता चास्या अदुष्टविवक्षाहेतुत्वान्नानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाद्यवहारप्रवृत्तेः, एवं शेषेष्वपि भावना कार्या १, तथा सकललोकसाम्मत्येन सत्यतया प्रसिद्धा सम्मतसत्या, यथा कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समानेऽपि पङ्कसम्भवे गोपालादीनां सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजं न शेषमित्यरविन्दे संमततया पङ्कजशब्दः सत्यः, कुवलयादावसत्यो|ऽसम्मतत्वादिति २, तथा स्थापनासत्या या तथाविधमकृविन्यासं मुद्राविन्यासं चोपलभ्य प्रयुज्यते यथा एककं पुरतो बिन्दुद्वयसहितमुपलभ्य शतमिदमिति बिन्दुत्रयसहितं सहस्रमिदमिति, तथा तथाविधं मुद्राविन्यासमुपलभ्य मृत्तिकादिषु मासोऽयं कार्षापणोऽयमिति, यद्वा यल्लेप्यादिकर्म अर्हदादिविकल्पेन स्थाप्यते सा स्थापना तद्विषये सत्या स्थापनासत्या, यथाऽजिनोऽपि जिनोऽयं अनाचार्योऽप्याचायोऽयमिति ३, तथा नामतः-अभिधानमात्रेण सत्या नामसत्या, यथा कुलमवर्धयन्नपि कुलवर्धनः धनमवर्धयन्नपि धनवर्धनः अयक्षश्च | यक्ष इति ४, तथा रूपतो-रूपापेक्षया सत्या रूपसत्या, यथा दम्भतो गृहीतप्रत्रजितरूपः प्रव्रजितोऽयमिति ५, तथा प्रतीत्य-आश्रिय वस्त्वन्तरं सत्या प्रतीत्यसत्या, यथा अनामिकायाः कनिष्ठामधिकृत्य दीर्घत्वं मध्यमामधिकृत्य इखत्वं, न च वाच्यं कथमेकस्या इस्वत्वं दीर्घत्वं च तात्त्विकं परस्परविरोधादिति, भिन्ननिमित्तत्वे परस्परविरोधासम्भवात् , तथाहि-तामेव यदि कनिष्ठां मध्यमा वा एकामङ्गुलिमङ्गीकृत्य इस्वत्वं दीर्घत्वं च प्रतिपाद्येत ततो विरोधः सम्भवेत् , एकनिमित्तत्वे परस्परविरुद्धकार्यद्वयासम्भवात् , यदा त्वेकामधिकृत्य इस्खत्वं अपरामाघिकृय दीर्घत्वं तदा सत्त्वासत्त्वयोरिव भिन्ननिमित्तत्वान्न परस्पर विरोधः, अथ यदि तात्त्विके इखत्वदीर्घत्वे तत Jain Education Intemat Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २६२ ॥ ऋजुत्ववक्रत्वे इव कस्मात्ते परनिरपेक्षे न प्रतिभासेते ?, तस्मात्परोपाधिकत्वात्काल्पनिके इमे इति, तदयुक्तं, द्विविधा हि वस्तुनो धर्माःसहकारिव्यङ्ग्यरूपा इतरे च तत्र ये सहकारिव्यङ्ग्यरूपास्ते सहकारिसम्पर्कवशात्प्रतीतिपथमायान्ति यथा पृथिव्या जलसम्पर्कतो गन्धः, इतरे त्वेवमेवापि यथा कर्पूरादिगन्धः खत्वदीर्घत्वे अपि सहकारिव्यङ्ग्यरूपे, ततस्ते तं तं सहकारिणमासाद्याभिव्यक्तिमायात इत्यदोषः ६, तथा व्यवहारतो -लोकविवक्षातः सत्या व्यवहारसत्या, यथा गिरिर्दह्यते गलति भाजनं अनुद्रा कन्या अलोमिका एडका, लोको हि गिरिगततृणादिदा तृणादिना सह गिरेरभेदं विवक्षित्वा गिरिर्दह्यते इति ब्रूते, भाजनादुदके श्रवति उदकभाजनयोरभेदं विवक्षित्वा गलति भाजनमिति, सम्भोगजबीजप्रभवोद्राभावेऽनुदति लवनयोग्यलोमाभावेऽलोमिकेति ततो लोकव्यवहारमपेक्ष्य साधोरपि तथा श्रुवतो व्यवहारसत्या भाषा भवति ७, तथा भावतो वर्णादिखरूपा सत्या भावसत्या, किमुक्तं भवति ? - यो भावो वर्णादिर्यस्मिन्नुत्कटो भवति तेन या सत्या भाषा सा भावसत्या, यथा सत्यपि पञ्चवर्णसम्भवे शुक्लस्यैव वर्णस्योत्कटत्वाद्वलाका शुक्केति ८, तथा योगः-सम्बन्धस्तस्मात्सत्या योगसत्या, यथा छत्रयोगाद्विवक्षितशब्दप्रयोगकाले छत्राभावेऽपि छत्रयोगस्य सम्भवात् छत्री, एवं दण्डयोगाद्दण्डी ९, तथा उपमैव औपम्यं तेन सत्या औपम्यसत्या, यथा समुद्रवत्तडागमिति १० ॥ ८९१ ।। अथ द्वितीयभाषाया मृषालक्षणाया भेदानाह — 'कोहे' | इत्यादि, क्रोधनिःसृतादिभेदान्मृषाभाषा दशविधा भवति, सप्तम्याः पञ्चम्यर्थत्वान्निःसृतशब्दस्य च प्रत्येकमभिसम्बन्धात्क्रोधान्निःसृता क्रोधाद्विनिर्गतेत्यर्थः, एवमन्यत्रापि, तत्र क्रोधाभिभूतो विसंवादनबुद्ध्या परं प्रत्याययन् यत्सत्यमसत्यं वा भाषते तत्सर्वं मृषा, तस्य हि आशयोऽतीव दुष्टः, ततो यदपि घुणाक्षरन्यायेन सत्यमापतति शाठ्यबुद्ध्या वोपेत्य सत्यं भाषते तदप्याशयदोषदुष्टमिति मृषा, यथा वा क्रोधाभिभूतः पिता पुत्रमाह-न त्वं मम पुत्र इति अदासं वा दासमभिधत्ते इति १ तथा मानान्निःसृता यत्पूर्वमननुभूतमप्यैश्वर्यमात्मो १३९ द्वारे भाषाचतुष्कम्. ॥ २६२ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्कर्षख्यापनायानुभूतमस्मामिस्तदानीमेवमैश्वर्यमित्यादि वदति २ तथा मायाया निःमृता यत्परवञ्चनामिप्रायेण सत्यमसत्यं वा भाषते ३ || तथा लोभान्निःसृता वणिकप्रभृतीनामन्यथा क्रीतमेवेत्थं क्रीतमित्यादि ४ तथा प्रेम्णो निःसृता, यदतिप्रेमवशादासोऽहं तवेत्यादि वदति WI५ तथा द्वेषान्निःसृता मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि ६ तथा हास्यान्निःमृता यथा कान्दर्पिकाणां कस्मिंश्चित्कस्यचित् सम्ब|न्धिनि गृहीतेऽपि पृष्टानां केलिवशतो न दृष्टमित्यादि ७ तथा भयान्निःसृता तस्करादिभयेनासमञ्जसभाषणं ८ तथा आख्यायिकानि:मृता, यथा कथास्वसंभव्यमिधानं ९ तथा उपघातान्निसृता चौरस्त्वमित्याद्यसदभ्याख्यानमिति १०॥८९२॥ अथ तृतीयभाषायाः सत्यामृषाया भेदानाह–'उप्पन्ने त्यादि, उत्पन्नमिश्रितादिभेदात्सत्यामृषा भाषा दशधा भवति, इह च मध्यस्थितस्य 'मीसय'त्ति पदस्य सर्वत्रापि सम्बधादुत्पन्नमिश्रिता विगतमिश्रितेत्यादि द्रष्टव्यं, ततश्च उत्पन्न मिश्रिता अनुत्पन्नैः सह सङ्ख्यापूरणार्थ या सा उत्पन्नमिश्रिता, एवमन्यत्रापि यथायोगं भावनीयं, तत्रोत्पन्नमिश्रिता यथा कस्मिंश्चिद् प्रामे नगरे वा न्यूनेष्वधिकेषु वा दारकेषु जातेषु दश दारका अस्मिनद्य जाता इत्यादि, व्यवहारतः सत्यामृषात्वाद् अस्याः, श्वस्ते शतं दास्यामीत्युक्त्वा पञ्चाशत्यपि दत्तायां लोके मृषात्वादर्शनादनुत्पन्नेवेवादत्तेष्वेव च मृषात्वव्यवहारात् १ तथा एवमेव मरणकथने विगतमिश्रिता, यथा अस्मिन्नद्य दश वृद्धा विगता इत्यादि २ तथा जन्मनो मरणस्य च कृतपरिमाणस्यामिधाने विसंवादने च मिश्रकमिश्रिता उत्पन्न विगतमिश्रितेत्यर्थः, यथाऽस्मिन्नद्य दश दारका जाता दश च वृद्धा विपन्ना इति ३ तथा प्रभूतानां जीवतां स्तोकानां च मृतानां शङ्खशङ्खनकादीनामेकत्र राशौ दृष्टे यदा कश्चिदेवं वदति-अहो महान् जीवराशिरयमिति तदा सा जीवमिश्रिता, सत्यामृषात्वं चास्या जीवत्सु सत्यत्वान्मृतेषु मृषात्वात् ४ तथा यदा प्रभूतेषु मृतेषु |स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शङ्खादिष्वेवं वदति-अहो महानयं मृतो जीवराशिरिति तदा सा अजीवमिश्रिता, अस्या अपि सत्याम Jain Education related For Private & Personel Use Only Yiw.jainelibrary.org Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CO प्रव० सा० रोद्धार तत्त्वज्ञानवि० ॥२६३॥ R-CHAMROSAGAOSS पात्वं मृतेषु सत्यत्वात् जीवत्सु च मृषात्वात् ५ तथा तस्मिन्नेव राशौ एतावन्तोऽत्र जीवन्ति एतावन्तोऽत्र मृता इति नियमेनावधारयतो १३९द्वारे विसंवादे जीवाजीवमिश्रिता ६ तथा मूलकादिकमनन्तकायं तस्यैव सत्कैः परिपाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचित्प्रत्येकवनस्पतिना मिश्रमव- भाषाचलोक्य सर्वोऽप्येषोऽनन्तकायिक इति वदतोऽनन्तमिश्रिता ७ तथा प्रत्येकवनस्पतिसङ्घातमनन्तकायिकेन सह राशीकृतमवलोक्य प्रत्येक- तुष्कम् वनस्पतिरयं सर्वोऽपीति वदतः प्रत्येकमिश्रिता ८ तथा अद्धा-कालः, स चेह प्रस्तावाद्दिवसो रात्रिर्वा परिगृह्यते, स मिश्रितो यया सा अद्धामिश्रिता, यथा कश्चित्कञ्चन त्वरयन् दिवसे वर्तमान एव वदति- उत्तिष्ठ २ रात्रिर्जातेति, रात्रौ वा वर्तमानायामुत्तिष्ठ २ दिवसो| जात इति ९ तथा दिवसस्य रात्रेर्वा एकदेशोऽद्धाद्धा, सा मिश्रिता यया सा अद्धाद्धामिश्रिता, यथा प्रथमपौरुष्यामेव वर्तमानायां क|श्चित् कञ्चन त्वरयन्नेवं वदति-चल चल मध्याह्नो जात इति १० ।। ८९३ ॥ अथ चतुर्थभाषाया असत्यामृषाया भेदानाह-'आमंत्रणी'त्यादि, आमश्रण्यादिभेदादसत्यामृषा भाषा द्वादशभेदा भवति, तत्र आमन्त्रणी हे देवदत्त ! इत्यादि, एषा हि प्रागुक्तसत्यादिभाषाप्रयलक्षणविकलत्वान्न सत्या न मृषा नापि सत्यामृपा, केवलं व्यवहारमात्रप्रवृत्तिहेतुरित्यसत्यामृषा १ एवं सर्वत्रापि भावना कार्या, आज्ञापनी-कार्ये परस्य प्रवर्तन, यथेदं कुर्विति २ याचनी कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीति मार्गणं ३ प्रच्छनी अविज्ञातस्य सन्दिग्धस्य वा कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्श्वे कथमेतदिति प्रच्छनं ४ प्रज्ञापनी विनेयजनस्योपदेशदानं, यथा प्राणिवधानिवृत्ता भवन्ति भवान्तरे प्राणिनो दीर्घायुष इत्यादि ५ प्रत्याख्यानी-याचमानस्य प्रतिषेधवचनं ६ इच्छानुलोमा नाम यथा कश्चित् किश्चन कार्यमारभमाणः कश्चन पृच्छति, स प्राह-करोतु भवान् ममाप्येतदभिप्रेतमिति ७ अनभिगृहीता-यत्र न प्रतिनियतार्थावधारणं, यथा बहुषु का-18|| येषूपस्थितेषु कश्चित् कश्चन पृच्छति-किमिदानीं करोमि?, स प्राह-यत्प्रतिभासते तत्कुर्विति ८ अमिगृहीता-प्रतिनियतार्थावधारणं, in Education International For Private Personel Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा इदमिदानीं कर्तव्यमिदं नेति यद्वा अनभिगृहीता याऽर्थमनमिगृह्योच्यते डित्थादिवत्, अभिगृहीता स्वर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत् ९ संशयकरणी या एकका वागनेकार्थामिधायितया परस्परं संशयमुत्पाद्यति, यथा सैन्धवमानीयतामित्यत्र सैन्धवशब्दो लवणवस्त्रपुरुषवाजिषु १० व्याकृता या प्रकटार्था ११ अव्याकृता अतिगभीरशब्दार्था अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता बा, अविभावितार्थत्वादिति १२ १३९ ॥ ८९४ ॥ ८९५ ।। इदानीं 'वयणसोलसगं' ति चत्वारिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह कालतियं ३ वयणतियं ६ लिंगतियं ९ तह परोक्ख १० पञ्चक्खं ११ । उवणयऽवणयचउक्कं १५ अज्झत्थं चैव सोलसमं ॥ ८९६ ॥ कालत्रिकं तथा वचनत्रिकं तथा लिङ्गत्रिकं परोक्षमत्र प्रथमैकवचनस्य लोपः तथा प्रत्यक्षं तथोपनयापनयचतुष्कं तथाऽध्यात्मं चैव षोडशमिति गाथावयवार्थः । तत्राकरोत्करोति करिष्यतीत्यतीतादिकालनिर्देश प्रधानं वचनजातं कालत्रिकवचनमित्यर्थः, तथा एको द्वौ बहव इत्येकत्वाद्यभिधायकः शब्दसन्दर्भे वचनत्रिकमिति, तथेयं स्त्री अयं पुरुषः इदं कुलमिति त्रीणि लिङ्गप्रधानानि वचनानीति लिङ्गत्रिकं तथा स इति परोक्षनिर्देशः परोक्षवचनं अयमिति प्रत्यक्ष निर्देशः प्रत्यक्षवचनं तथोपनयापनयवचनं चतुर्धा भवति, तथथा - उपनयापनयवचनं तथा उपनयोपनयवचनं तथा अपनयोपनयवचनं तथा अपनयापनयवचनमिति, तत्रोपनयो-गुणोक्तिः अपनथो-दोषभवनं तत्र सुरूपेयं रामा परं दुःशीला इत्युपनयापनयवचनं तथा सुरूपेयं स्त्री सुशीलेत्युपनयोपनयवचनं तथा कुरूपा स्त्रीयं परं सुशीलेत्यपनयोपनयवचनं कुरूपेयं कुशीला चेत्यपनयापनयवचनमिति, तथा अन्यश्चेतसि निधाय विप्रतारकबुद्ध्याऽन्यद्विभणिपुरपि सहसा यश्चेतसि तदेव वक्ति यत्तत् षोडशमध्यात्मवचनम् १४० ॥ ८९६ ॥ इदानीं 'मासाण पंचभेय'त्ति एकचत्वारिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०वचनषोडश कमू १४१ नक्ष-. त्रादिमासपञ्चकम्. गा.८९६ प्रव० सान मासा य पंच सुत्ते नक्खत्तो१चंदिओं २ य रिउमासो ३ । आइचोविय अवरो ४ऽभिवडिओ रोद्धारे तह य पंचमओ ५ ॥८९७॥ अहरत्त सत्तवीसं तिसत्तसत्तहिभाग नक्खत्तो २७ ।। तत्त्वज्ञा चंदो उणत्तीसं विसडिभाया य बत्तीसं २९ ॥ ३३ ॥ ८९८ ॥ उउमासो तीसदिणो ३० आनवि० इचो तीस होइ अद्धं च ३०।३। अभिवडिओ य मासो चउवीससएण छेएणं ॥ ८९९ ॥ भागाणिगवीससयं तीसा एगाहिया दिणाणं तु ३१ ।२। एए जह निप्फत्तिं लहंति ॥२६४॥ समयाउ तह नेयं ॥ ९००॥ मासा नक्षत्रादयः पञ्च 'सूत्रे' पारमेश्वरे प्रवचने प्रतिपादिता इति शेषः, तत्र नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः, किमुक्तं भवति ?-चन्द्रश्चारं चरन् यावता कालेनाभिजित आरभ्योत्तराषाढानक्षत्रपर्यन्तं गच्छति तत्कालप्रमाणो नाक्षत्रो मासः, यदिवा चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डले परिवर्तयतो निष्पन्न इत्युपचारान्मासोऽपि नक्षत्रं, तथा चन्द्रे भवश्चान्द्रः युगादौ श्रावणे मासे बहुलपक्षप्रतिपद आरभ्य यावत्पूर्णिमासीपरिसमाप्तिस्तावत्कालप्रमाणश्चान्द्रो मासः, एकपौर्णमासीपरावर्तश्चान्द्रो मास इतियावत् , अथवा चन्द्रचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽपि चान्द्रः, चः समुचये, तथा ऋतुमासः, इह किल ऋतुर्लोकरूढ्या षष्टाहोरात्रप्रमाणो मासद्वयात्मकः तस्यार्धमपि मासोऽवयवे समुदायोपचारात् ऋतुः स चार्थात्परिपूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः, एष एव च ऋतुमासः कर्ममास इति वा सावनमास इति वा व्यवहियते, उक्तञ्च-एस लाचेव उउमासो कम्ममासो सावणो मासो भन्नइ" इति, तथा आदित्यस्यायमादित्यः, स च एकस्य दक्षिणायनस्योत्तरायणस्य वा व्यशीत्य धिकदिनशतप्रमाणस्य षष्ठभागमानः यदिवा आदित्यचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽप्यादित्यः, तथा पञ्चमो मासोऽभिवर्धितः, अभिव ॥२६४॥ For Private 3 Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4554-% EHARHARA [र्धितो नाम मुख्यतस्त्रयोदशचन्द्रमासप्रमाणः संवत्सरः, द्वादशचन्द्रमासप्रमाणात्संवत्सरादेकेन मासेनामिवर्धितत्वात् , परं तद्द्वादशभागप्रमाणो मासोऽप्यवयवे समुदायोपचारादभिवर्धितः, तदेवमुक्ता नामतो नक्षत्रादयः पञ्चापि मासाः, ॥ ८९७ ॥ साम्प्रतमेतेषामेव मासानां दिनपरिमाणमाह-'अहरत्ते'गाहा 'उउगाहा 'भागा'गाहा, नाक्षत्रो-नक्षत्रसम्बन्धी मासः सप्तविंशतिरहोरात्राः एकस्य चाहोरात्रस्य सप्तषष्टि गास्त्रिः सप्त-त्रयो वाराः सप्त, एकविंशतिरित्यर्थः, तथा चान्द्र:-चन्द्रमासः एकोनत्रिंशदोरात्रा द्वापष्टिभागाश्च अहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् , तथा ऋतुमासः परिपूर्णानि त्रिंशदिनानि, तथा आदित्यः-आदित्यमासो भवति त्रिंशदहोरात्रा अर्ध चाहोरात्रस्य, तथा अमिवर्धितमासो दिनानामेकेनाधिका त्रिंशत् , एकत्रिंशदहोरात्रा इत्यर्थः, एकस्य चाहोरात्रस्य चतुर्विशत्युत्तरशतरूपेण छेदेन-भागेन विभक्तस्य एकविंशत्यधिक शत भागानां भवतीति, एते पञ्चापि मासा यथा निष्पत्तिं लभन्ते तथा 'समयात्' सिद्धान्ताद् 'ज्ञेयं ज्ञातव्यमिति । स च निष्पत्तिप्रकारः सिद्धान्तानुसारेण विनेयजनानुग्रहाय किञ्चिद्दयते-इह किल चन्द्रचन्द्राभिवर्धितचन्द्रामिवर्धितलक्षणसंवत्सरपञ्चकप्रमाणे युगे अहोरात्रराशिस्विंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो १८३० भवति, कथमेतदवसीयते ? इति चेदुच्यतेइह सूर्यस्य दक्षिणमुत्तरं वा अयनं यशीतिअधिकदिनशतात्मकं युगे च पञ्च दक्षिणायनानि पश्चोत्तरायणानीति सर्वसङ्ख्यया दशायनानि ततख्यशीत्यधिक दिनशतं दशकेन गुण्यते इत्यागच्छति यथोक्तो दिनराशिः, एवंप्रमाणं दिनराशि स्थापयित्वा नक्षत्रचन्द्रऋत्वा| दित्यमासानां दिनमानानयनाय यथाक्रमं सप्तषष्टिद्वाषष्ट्येकषष्टिषष्टिलक्षणैर्भागहारैर्भागं हरेत् ततो यथोक्तं नक्षत्रादिमासगतदिनपरिमाण मागच्छति, तथाहि-युगदिनराशिस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो ध्रियते, तस्य सप्तपष्टियुगे नक्षत्रमासा इति सप्तषष्ट्या भागो हियते लब्धाः • सप्तविंशतिरहोरात्राः एकविंशतिरहोरात्रस्य सप्तषष्टिभागाः एष नक्षत्रमासः, तथा तस्यैव युगदिनराशेविंशदधिकाष्टादशशतमानस्य युगे For Private Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथ० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २६५ ॥ ४४ चन्द्रमासा द्वाषष्टिरिति द्वाषष्ट्या भागे हृते यल्लभ्यते तच्चन्द्रमासमानं, तथाऽस्यैव युगदिनराशेरेकषष्टिर्युगे ऋतुमासा: इत्येकषष्ट्या भागहरणे लब्धं यथोक्तमृतुमासमानं, तथा युगे सूर्यमासाः षष्टिरिति षष्ट्या ध्रुवराशेर्भागहारे यल्लब्धमेतत्सूर्यमासपरिमाणं, उक्तं च-- 'रिक्खा - ईमासाणं करणमिणमं तु आणणोवाओ। जुगदिणरासिं ठाविय अट्ठार सयाई तीसाई ॥ १ ॥ ताहे हराहि भागं रिक्खाईयाण दिणकरंताणं । सन्तट्ठीबावट्ठी एगट्ठीसट्टिभागेहिं ॥ २ ॥” [ ऋक्षादिमासानां करणमिदं त्वानयनोपायः युगदिनराशि स्थापयित्वाऽष्टादश शतानि त्रिंशानि ॥ १ ॥ ततो हर भागमृक्षादीनां दिनकरान्तानां सप्तषष्टिद्वाषष्टिएकषष्टिषष्टिभागैः ॥ २ ॥] तथा तस्मिन् वर्षे अभिवर्धितरूपे तृतीये पञ्चमे वा त्रयोदश शशिमासा भवन्ति तद्वर्ष द्वादशभागीक्रियते तत एकैको भागोऽभिवर्धितमास इत्युच्यते, इह किलाभिवर्धितसंवत्सरस्य त्रयोदशचन्द्रमासमानस्य दिनपरिमाणं व्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य ३८३६३ तथाहि - एकस्मिन् चन्द्रमासे एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच द्वाषष्टिभागाः, मासाश्च त्रयोदश इति तानि दिनानि तदंशाचं त्रयोदशभिर्गुण्यन्ते जातानि सप्तसप्तत्युत्तराणि दिनानां त्रीणि शतानि, अंशानां च षोडशाधिकानि चत्वारिं शतानि ते चं दिनस्य द्वापष्टिभागाः ततो दिनानयनाय द्वाषष्ट्या भागो हियते लब्धानि षट् दिनानि तानि च पूर्वोक्त दिनेषु मील्यन्ते, ततो जातानि त्रीणि शतानि त्र्यशीत्यधिकानि दिनानां चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः, ततो वर्षे मासा द्वादश इति मासानयनाय द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्त्यहोरात्रा एकादश, ते चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थं चतुर्विंशत्युत्तरशतेन गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि चतुष्षष्ट्यधिकानि, येऽपि च उपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागास्तेऽपि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थं द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता अष्टाशीतिः, साइनन्तरभागराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि च चतुर्दश शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धमेकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विंश १४१ चान्द्रादिमा सपञ्चकम् गा. ८९८ ९०० ॥ २६५ ॥ w Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्युत्तरशतभागानां एतावदभिवर्धितमासप्रमाणं, उक्तं च - "जंमि वरिसंमि तेरस ससिणो मासा हवंति सो वरिसो । बारसभाए कज्जइ अभिबडियमास सो भागो ॥ १ ॥” [ यस्मिन् वर्षे त्रयोदश शशिनो मासा भवन्ति तत् वर्षं । द्वादशभागीक्रियते स भागोऽमि - वर्धितमासः ॥ १ ॥ ] इति १४१ ।। ८९८ ॥ ८९९ ॥ ९०० ॥ सम्प्रति 'वरिसाण पंच भेय'त्ति द्विचत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह--- संवच्छरा उ पंच उ चंदे १ चंदे २ ऽभिवडिए ३ चेव । चंदे ४ ऽभिवडिए ५ तह बिसट्ठिमासेहिं जुगमाणं ॥ ९०९ ॥ चान्द्रश्चान्द्रोऽमिवर्धितः चान्द्रोऽभिवर्धितश्चेत्येवं क्रमेण पञ्च संवत्सरा भवन्ति, एते च पञ्चाप्यनेन क्रमेण भवन्तो मिलित्वा एकं युगं निष्पादयन्तीति युगसंवत्सरा इत्युच्यन्ते, तत्र पूर्वोक्तस्वरूपचन्द्रमासनिष्पन्नत्वात्संवत्सरोऽपि चान्द्रः, तस्य च प्रमाणं त्रीणि शतानि चतुपश्वाशदुत्तराणि दिनानां द्वादश च द्वाषष्टिभागाः ३५४६३ तथाहि - एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वाषष्टिभागीकृतस्याहोरात्रस्य च द्वात्रिंशदंशाश्चन्द्रमास: २९३३ स च द्वादशभिर्गुण्यते ततो यथोक्तं चन्द्रसंवत्सरप्रमाणं भवति, एवं द्वितीयचतुर्थावपि संवत्सराविति, तथा चन्द्रसंवत्सरादेकेन मासेनाभिवर्धितत्वादभिवर्धितसंवत्सरः, तस्य च प्रमाणं त्रीणि शतानि अह्नां त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच द्वाषष्टिभागाः ३८२६३ तथाहि एकत्रिंशदहोरात्राश्चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानां चैकविंशं शतमभिवर्धितमा सप्रमाणं तत्रैकत्रिंशद्दिनानि द्वादशभिर्गुण्यन्ते जातानि द्वासप्तत्युत्तराणि त्रीणि शतानि यच्चैकविंशत्यधिकं भागशतं तदपि द्वादशभिर्गुण्यते जातानि द्विपञ्चाशदधिकानि चतुर्दश शतानि तेषां च चतुर्विंशत्यधिकशतेन भागहरणे लब्धान्येकादश दिनानि तानि च पूर्वोक्तदिनेषु प्रक्षिप्यन्ते, भवन्ति च त्रीणि शतानि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० व्यशीत्यधिकानि, शेषस्य चाष्टाशीतिरूपभाज्यराशेश्चतुर्विशत्युत्तरशतरूपभाजकराशेश्च यथोक्तभागानयनाय द्विकेनापवर्तना क्रियते, लब्धा|श्चतुश्चत्वारिंशत् द्वापष्टिभागाः एषोऽभिवर्धितसंवत्सरः, एवं पञ्चमोऽपि, एमिश्चान्द्रादिभिः पञ्चभिः संवत्सरैरेकं युगं भवति, तश्च द्विषाष्टिचन्द्रमासप्रमाणं, तथाहि-युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सराः एकैकस्मिंश्च चन्द्रसंवत्सरे द्वादश चन्द्रमासाः ततस्त्रयो द्वादशभिर्गुण्यन्ते जाताः। पट्त्रिंशत् , अभिवर्धितसंवत्सरौ च युगे द्वावेव एकैकस्मिंश्चाभिवर्धितसंवत्सरे त्रयोदश चन्द्रमासाः, अधिकमासकस्य तत्र सद्भावात् , ततो | द्वौ त्रयोदशभिर्गुण्येते जाताः षड्विंशतिः, उभयमीलने च द्वापष्टिश्चन्द्रमासा इति १४२ ॥९०१ ॥ इदानी 'लोगस्सरूवं'ति त्रिचत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह माघवईएँ तलाओ ईसिंपन्भारउवरिमतलं जा । चउदसरजू लोगो तस्साहो वित्थरे सत्त ॥९०२॥ उवरि पएसहाणी ता नेया जाव भूतले एगा। तयणुप्पएसवुड्डी पंचमकप्पंमि जा पंच ॥९०३ ॥ पुणरवि पएसहाणी जा सिद्धसिलाएँ एक्कगा रजू । घम्माए लोगमज्झो जोयणअस्संखकोडीहिं ॥ ९०४ ॥ हेट्टाहोमुहमल्लगतुल्लो उवरिं तु संपुडठियाणं । अणुसरइ मल्लगाणं लोगो पंचत्थिकायमओ॥९०५॥ तिरियं सत्तावन्ना उर्ल्ड पंचेव हुँति रेहाओ । पाएसु चउसु रज्जू चउदस रजू य तसनाडी॥९०६॥ तिरियं चउरो दोसुंछ होसुं अह दस य इकिक्के । बारस दोसुं सोलस दोसुं वीसा य चउसुंपि ॥९०७॥ पुणरवि सोलस दोसुं बारस दोसुपि हुंति नायबा। तिसु दस तिसु अट्ट च्छा य दोसु दोसुंपि चत्तारि ॥९०८॥ ओयरिय लोयमज्झा चउरो चउरो १४२ चान्द्रादिव र्षाणि १४३ लोकखण्डुकादि गा.१०१९१७ ॥२६६॥ दस य इकिक्के । पुणरवि सोलस 1॥ ईच्छा य दोसु दो For Private Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educatio य सवहिं नेया । तिग तिग दुग दुग एक्किक्कगो य जा सत्तमी पुढवी ॥ ९०९ ॥ अडवीसा छater aratसा वीस सोल दस चउरो । सत्तासुवि पुढवीसुं तिरियं खण्डुयगपरिमाणं ॥ ९९० ॥ पंच सय बारमुत्तर हेट्ठा तिसया उ चउर अब्भहिया । अह उहुं अट्ठ सया सोलहिया खंडया सवे ॥ ९९९ ॥ बत्तीसं रज्जुओ हेट्ठा रुयगस्स हुंति नायवा । एगोणवीसमुवरिं इगवन्ना सङ्घपिंडेणं ॥ ९१२ ॥ दाहिणपास दुखंडा वामे संधिज विहियविवरीयं । नाडीजया तिरज्जू उहाहो सत्त तो जाया ॥ ९९३ ॥ हेट्ठाओ वामखंडं दाहिणपासंमि ठवसु विवरीयं । उवरिम तिरज्जु खंडं वामे ठाणंमि संधिज्ञा ॥ ९९४ ॥ तिन्नि सया तेयाला रज्जूणं हुंति सङ्घलोगम्मि । चउरंसं होइ जयं सत्तण्ह घणेणिमा संखा ॥ ९९५ ॥ छसु खंडगेसु य दुगं चउसु दुर्ग दस हुंति चतारि । च चकं गेवेजणुत्तराई चउकमि ॥ ९९६ ॥ सयंभुपुरिमंताओ अवरंतो जाव रज्जुमाणं तु । एण रज्जुमाणेण लोगो चउदसरजुओ ॥ ९९७ ॥ माघवत्याः - तमस्तमप्रभापराभिधानायाः सप्तमनरक पृथिव्यास्तलाद्- अलोकसंस्पर्शिनः सर्वाधस्तनभागादारभ्य ईषत्प्राग्भारायाः - सिद्धशिलायाः सर्वोपरितनतलं लोकान्तलक्षणं यावदूर्द्धाधोभागेन चतुर्दशरज्जूप्रमाणो लोको भवति, तस्य च लोकस्याधस्तात् - सप्तमष्टथिव्या | अधोभागे विस्तरतो देशोनाः सप्त रज्जवः, सूत्रकारेण स्वल्पत्वाद्देशोनत्वं न विवक्षितं, ततोऽधोलोकान्तादुपरि प्रदेशहानि: - तिर्यगङ्गुलासयेयभागद्दा निस्तावद् ज्ञातव्या यावद् भूतले तिर्यग्लोकमध्यवर्तिसमभूमिभागे विस्तरत एका रज्जूः, तदनु- समभूमिभागादुपरिमुखं Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० CACAKCCESSNESSION ९१७ ॥२६७॥ प्रदेशवृद्धिः-तिर्यगङ्गुलासङ्ख्येयभागवृद्धिस्तावद् द्रष्टव्या यावदूर्द्धलोकमध्ये पञ्चमे ब्रह्मलोकाभिधे कल्पे विस्तरतः पञ्च रजवः, ततः१४३ लोपुनरप्यूर्ट्स प्रदेशहानिस्तावदवसेया यावत्सिद्धशिलाया उपरिष्टाल्लोकान्ते विस्तरत एकैव रज्जूः, घायां च-रत्नप्रभापराभिधानायां प्रथ- कखण्डमपृथिव्यां योजनानामसङ्ख्याताभिः कोटिभिर्बहुसमभूभिभागादतिक्रान्ताभिर्लोकमध्यं, इयमन्त्र भावना-इह सामस्त्येन चतुर्दशरज्ज्वात्मको कादि लोकः, स च त्रिधा भिद्यते, तद्यथा-ऊर्द्ध लोकस्तिर्यग्लोकोऽधोलोकश्च, तत्र तिर्यग्लोकस्य ऊधोऽपेक्षया अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य गा.९०२. मध्यभागे जम्बूद्वीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुबहुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकः, तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाः प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः, एष एव रुचकः सर्वासां दिशा विदिशां च प्रवर्तकः, एतस्माच्च रुचकादूर्वाधस्तिर्यग्लोकविभागाः, तथाहि-रुचकस्याधस्तादुपरिष्ठाच नव नव योजनशतानि तिर्यग्लोकः तस्य च तिर्यग्लोकस्याधस्तादधोलोकः उपरिष्टादूर्द्ध लोकः, देशोनसप्तरज्जूप्रमाण ऊर्द्धलोकः समधिकसप्तरज्जूप्रमाणोऽधोलोकः मध्येऽष्टादशयोजनशतोच्छ्रयस्तिर्यग्लोकः, ततो-रुचकसमभूतलभागादधोमुखमसङ्ख्याता योजनकोटीर्गत्वा रत्नप्रभायां चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य मध्यभागः परिपूर्णसप्तरज्जूप्रमाणो भवतीति ॥९०२॥९०३॥९०४॥ सम्प्रति लोकस्य संस्थानमाह-'हेटे'त्यादि, अधस्ताद्-अधोभागे अधोमुखमल्लकतुल्य:-अधोमुखीकृतसरावसहक्षाकारः, उपरि पुनः सम्पुटस्थित| योर्मल्लकयोः-शरावयोराकारमनुसरति लोकः, अयमर्थः-प्रथमं तावदेकं शरावमधोमुखमवस्थाप्यते सतलसोपरि द्वितीवमुपरिमुखं| तस्याप्युपरि तृतीयमधोमुखमित्येवं व्यवस्थितशरावत्रयसदृशाकारः सकलोऽपि लोको भवतीति, स च पश्चास्तिकायमयो-धर्माधर्माकाश-| जीवपुरललक्षणैः पञ्चभिरस्तिकायाप्तः ॥ ९०५॥ अथ चतुर्दशरज्ज्वात्मकमपि लोकमसत्कल्पनया खण्डकप्रविभागेन दिदर्शयिषुः | |२६७॥ खण्डकनिष्पादनाय तावदाह-'तिरिय'मित्यादि, तिर्यक-तिरश्चीनाः सप्तपञ्चाशत्सङ्ख्या रेखाः पट्टिकादौ स्थाप्यन्ते, ऊर्द्ध-उपर्यधोभा Jan Education in For Private Personel Use Only Law.jainelibrary.org Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेन पुनः पञ्चैव रेखाः स्थाप्या भवन्ति, तथा 'पाएसु चउसु'त्ति सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वाञ्चतुर्भिः पादैः-खण्डकैरेका रज्जूभवति, इह चतुर्भिः खण्डकैरेका रज्जूः परिकल्पिता ततो रज्जूचतुर्थभागत्वात् खण्डकं पाद इत्यमिहितं, चतुर्दशरज्जूश्च-ऊधिोभावेन चतुर्दशरज्जूप्रमाणा त्रसनाडी, इयमत्र भावना-तिर्यग्व्यवस्थापितसप्तपञ्चाशद्रेखाभिरूधिोभावेन षट्पञ्चाशत्खण्डकानि जायन्ते, चतुर्भिश्च खण्डकैरेका रज्जूरिति षट्पञ्चाशतश्चतुर्भिर्भागहारे ऊर्ध्वाधश्चतुर्दश रजवो लभ्यन्ते इति, तिर्यक्रसनाडीमध्ये सर्वत्र एकैव रज्जूरुपर्यघोभावविनिवेशितरेखापञ्चकेन खण्डकचतुष्कस्यैव निष्पन्नत्वात् , एवं तावत् त्रसनाडीमध्ये अधिोभावेन खण्डकान्युक्तानि ॥ ९०६ ॥ अथ सकलस्यापि लोकस्य तिर्यग्वर्तीनि खण्डकान्यभिधातुकामः प्रथमं तावदूर्द्धलोके रुचकादारभ्य लोकान्तं यावत्तिर्यकखण्डान्याह'तिरिय मित्यादि, रुचकसमाद् भूभागादूर्द्ध द्वयोः पङ्क्तयोरेकोनत्रिंशत्तमरेखोपरिवर्तिन्योस्तिर्यक्-तिरश्चीनानि चत्वारि चत्वारि खण्ड | कानि त्रसनाडीमध्यगतान्येव भवन्ति, सनाड्या बहिस्तत्र खण्डकानामभावात् , तत उपरितन्योर्द्वयोः पतयोः षट् खण्डकानि, तत्र तिचत्वारि त्रसनाडीमध्यवर्तीन्येव एकैकं तु त्रसनाड्या बहिः प्रत्येकमुभयपार्श्वयोरिति, तत एकैकस्यां पतौ क्रमेणाष्टौ दश च खण्डकानि, तथाहि-एकस्यां पङ्को नाडीमध्ये चत्वारि बहिश्चैकपार्श्वे द्वयं द्वितीयपार्श्वेऽपि द्वयमित्यष्टौ, अपरस्यां च पक्तौ चत्वारि मध्ये बहिश्च उभयतः प्रत्येकं त्रितयं त्रितयमिति दश, ततोऽपि द्वयोः पङ्क्तयोः प्रत्येकं द्वादश द्वादश खण्डकानि चत्वारि मध्ये बहिश्चत्वारि चत्वारीति, तदन|न्तरं द्वयोः पतयोः प्रत्येकं षोडश षोडश खण्डकानि चत्वारि मध्ये पार्श्वयोश्च षट् षडिति, तत उपरितनीषु चतसृषु पतिषु प्रत्येकं विं शतिः खण्डकानि चत्वारि मध्ये बहिश्चैकपार्श्वेऽष्टावपरपार्श्वेऽप्यष्टाविति, तदेवमूर्द्धलोके चतुर्दशसु पनिषु यथासम्भवं खण्डकानां वृद्धिरुक्ता ४॥९०७॥ अथ चतुर्दशस्वेव पतिषु हानिमाह-(प्रन्था. १०००० 'पुणरवी'त्यादि, पुनरप्युपरितनपक्लिह्वये षोडश खण्डकानि, भावना च For Private Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45645 प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥२६८॥ सर्वत्र प्राग्वदवसेया, तत ऊर्द्ध द्वयोः पतयोर्द्वादश द्वादश खण्डकानि, ततोऽपि तिसृषु पङ्क्तिषु दश दश खण्डकानि, ततोऽपि तिसपु पनिषु। १४३ लोअष्टावष्टौ खण्डकानि, तदनु द्वयोः पतयोः षद् षट् खण्डकानि ततोऽपि सर्वोपरिवर्तिन्योर्द्वयोः पतयोर्नाडीमध्यगतान्येव चत्वारि चत्वारि खण्डकानि भवन्तीति, इत्थं तावन्निजगुरुप्रदर्शितस्थापनानुसारतो रुचकादारभ्य लोकान्तं यावत् 'तिरियं चउरो दोसं' इत्यादिगाथाद्वयं कखण्डव्याख्यातं, अपरे तु वैपरीयेन पट्टेषु स्थापना पश्यन्त एतद्गाथाद्वयं लोकान्तादारभ्य लोकमध्यं यावद्व्याख्यानयन्तीति ।। ९०८ ॥ अथा कादि धोलोके सप्तस्वपि पृथिवीषु ऊ धोभावेन खण्डकान्याह-'ओयरियेत्यादि, अवतीर्य लोकान्ताल्लोकमध्यं समागत्य ततो लोकमध्याद् गा.९०२ -रुचकलक्षणादारभ्य सर्वत्र-सर्वासु पृथिवीषु त्रसनाडीमध्ये ऊर्ध्वाधोभावेन चत्वारि चत्वारि खण्डकानि ज्ञातव्यानि, त्रसनाड्यास्तु बहि ९१७ र्द्वितीयाद्यासु पृथिवीषु यथाक्रम खण्डकानां त्रिकं त्रिकं द्विकं द्विकमेकैकं च खण्डकं तावद् विज्ञेयं यावत् सप्तमी पृथ्वी, इयमत्र भावनारत्नप्रभायां तावत् सनाड्याः बहिः खण्डकानामभाव एव, ततः शर्कराप्रभाया उपरितनतलादारभ्य दक्षिणवामभागयोः प्रतिपति तिरश्चीनानि त्रीणि त्रीणि खण्डकानि तावदूधिोभावेन ज्ञेयानि यावत्सप्तमपृथिव्या अधस्तनो भागः, ततो वालुकाप्रभाया उपरितलादारभ्य उभयपार्श्वयोः खण्डकत्रयात्पुरतः पुनरपि त्रीणि त्रीणि खण्डकानि तावदवसेयानि यावत्सप्तमी पृथिवी, ततः पङ्कप्रभाया उपरि| तलादारभ्य द्वयोः पार्श्वयोः पूर्वोक्तखण्डकेभ्यः परतो द्वे द्वे खण्डके तावद्वगन्तव्ये यावत्सप्तमी पृथिवी, ततः पुनरपि धूमप्रभाया आ|रभ्य पार्श्वद्वयेऽपि द्वे द्वे खण्डके तावद्भवतो यावत्सप्तमी पृथिवी, ततो भूयोऽपि तमःप्रभाया आरभ्य पार्श्वद्वयोस्तावदेकैकं खण्डकं स्थापनीयं यावत् सप्तमी पृथिवी, ततः सप्तम्यामपि पृथिव्यां पूर्वोक्तखण्डकेभ्यः परत उभयपार्श्वयोरेकैकं खण्डकं प्रतिपति तावद्भवति ना॥२६८॥ यावत्सर्वाधस्तनी पङ्किरिति, तदेवमधोलोके ऊर्ध्वाधोभावेन खण्डकान्युक्तानि ।। ९०९ ॥ अथ तमस्तमःप्रभाया आरभ्य रत्नप्रभा याव For Private Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपृथिवि तिर्यक्खण्डकप्रमाणमाह-'अट्ठावीसे'त्यादि, सप्तम्यां-तमस्तमःप्रभायां नरकपृथिव्यामष्टाविंशतिः खण्डकानि तिर्यग्भवन्ति,8 तत्र त्रसनाड्या बहिरेकपार्श्वे द्वादश द्वितीयपार्श्वेऽपि द्वादश त्रसनाडीमध्ये च चत्वारीति, तमःप्रभायां षड्विंशतिः खण्डकानि चत्वारि मध्ये है बहिर्भागयोश्चैकादशैकादशेति, धूमप्रभायां चतुर्विंशतिः चत्वारि मध्ये उभयपार्श्वयोश्च दश दशेति, पङ्कप्रभायां विंशतिः मध्ये चत्वारि बहिर्भागयोश्चाष्टाष्टाविति,वालुकाप्रभायां षोडश मध्ये चत्वारि उभयपार्श्वयोश्च षट्पडिति, शर्कराप्रभायां तिर्यग्दश खण्डकानि चत्वारि मध्ये दक्षिणवामभागयोश्च त्रीणि त्रीणीति, रत्नप्रभायां च त्रसनाडीमध्यगतान्येव चत्वारि तिर्यक्खण्डकानीत्येवं सप्तस्वपि तमस्तमःप्रभाद्यासु पृथिवीपु तियक्तिरश्वीनखण्डकानां-कल्पितचतुरस्राकारनभोभागरूपाणां परिमाणं-सङ्ख्यानं समवसेयमिति ।। ९१०॥अथ सकलस्यापि लोकस्य खण्डकसर्वसङ्ख्यामाह-'पञ्चे'त्यादि, पञ्च शतानि द्वादशोत्तराणि-द्वादशाधिकानि खण्डकानां 'हे'त्ति अधोलोके भवन्ति, तथाहि-'अडवीसा' इ. त्यादिगाथोक्तान अष्टाविंशत्याद्यङ्कान मीलयित्वा प्रतिपृथिवि अष्टाविंशतिषड्विंशत्यादिखण्डकसलयोपेतपतिचतुष्टयसद्भावाच्चतुर्भिर्गुणयेत् , ततो जायन्ते पञ्च शतानि द्वादशोत्तराणीति, 'अह उडे'ति अथ-अधोलोकादनन्तरमूर्द्ध-ऊर्द्धलोके त्रीणि शतानि चतुर्भिरभ्यधिकानि खण्डकानां भवन्ति, 'तिरियं चउरो दोसु' इत्यादिगाथाद्वितयोदितखण्डकमीलने यथोक्तसङ्ख्यासद्भावात् , सर्वाणि चाधोलोकोद्धलोकसम्बन्धीनि खण्डकानि मिलितानि अष्टौ शतानि षोडशाधिकानि भवन्तीति ।।९११॥ अथ सर्वस्मिन्नपि लोके यावत्यो यावत्यो रज्जवो भवन्ति तावतीदर्शयितुमाङ्-'बत्तीसं'इत्यादि, रुचकस्य-पूर्वोक्तस्वरूपस्याधस्तादधोलोके इत्यर्थः द्वात्रिंशद्रजवो भवन्ति ज्ञातव्याः, इह किल त्रिधा रज्जःसूचीरज्जूः प्रतररज्जूर्घनरज्जूश्च, तत्रायामतः खण्डकचतुष्टयप्रमाणा बाहल्यतः पुनरेकखण्डप्रमिता खण्डकश्रेणिः सूच्याकारव्यवस्थापितखण्डकचतुष्टयनिष्पन्नत्वात्सूचीरज्जूः, तथा एषैव प्राक्प्रदर्शिता खण्डकचतुष्कात्मिका सूचिस्तयैव गुण्यते अतः प्रत्येक खण्डकचतुष्टयनि Jain Educational For Private Personal use only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २६९ ॥ Jain Education Int ष्पन्नसूचीचतुष्टयात्मिका उपरितनाधस्तनखण्डकरहिता षोडशखण्डकसङ्ख्या प्रतररज्जुः सम्पद्यते, तथा प्रतर एव सूच्या गुणितो दैर्येण विष्कम्भतः पिण्डतञ्च समसङ्ख्यखण्डकोपेता सर्वतश्चतुरस्रा घनरज्जूः, दैर्घ्यादिषु त्रिष्वपि स्थानेषु समतालक्षणस्यैव घनस्येह रूढत्वात्, प्रतररज्जुश्च दीर्घविष्कम्भाभ्यामेव समानपिण्डस्तस्यैकखण्डकमात्रत्वादिति भावः, एषा च घनरज्जूचतुःषष्टिखण्डकात्मिका, पूर्वोक्तसूच्याऽ| नन्तरोदितषोडशखण्डकप्रमिते प्रत्तरे गुणिते एतावतामेव खण्डकानां भावात्, स्थापना च- प्रागुक्तषोडशखण्डकात्मकप्रतरस्योपरि त्रीन् वारान् षोडश षोडश खण्डकानि दत्त्वा भावनीया, तथा च दैर्घ्यविष्कम्भपिण्डैस्तुल्योऽयमापद्यत इति उक्तं च - " सूई रज्जू चउहिं उ खंडगेहिं सोलसहिं पयररज्जू य । चउसद्विखंडगेहिं घणरज्जू होइ विन्नेया ॥ १ ॥” ततो द्वादशोत्तरपञ्चशतरूपस्याधोलोकखण्डकराशेः प्रतररज्ज्वानयनाय षोडशभिर्भागे हृते द्वात्रिंशत्प्रतररज्जवो भवन्ति, तथा उपरि-ऊर्द्धलोके एकोनविंशतिः प्रतररज्जवः, चतुरुत्तरशतत्रयस्य षोडशभिर्भागहारे एकोनविंशतेरेव लभ्यमानत्वात् तथा सर्वपिण्डेन - अधोलोकोर्द्धलोक सम्बन्धिसर्वरज्जूमीलनेन एकपश्वाशत्प्रतररज्जवो भवन्तीति ॥ ९९२ ॥ साम्प्रतं घनरज्जूसङ्ख्यां प्रतिपिपादयिषुः प्रथमं तावल्लोकघनीकरणमाह- 'दाहिण' गाहा 'हेट्ठाओ' गाहा, ऊर्द्धलोके त्रसनाड्या दक्षिणपार्श्ववर्तिनी ये द्वे खण्डे - ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनं च खण्डं ते परिगृह्य विपरीते च विधाय-अधस्तनभागमुपरितनं उपरितनं च चाधः कृत्वेत्यर्थः वामपार्श्वे सन्दध्यात् - संयोजयेत्, ततस्ते द्वे खण्डे रज्जूविस्तृतया त्रस - नाड्या युते सर्वत्र विस्तरतस्तिलो रज्जवो जाताः ऊर्द्धाधोच्छ्रयेण सप्त रज्जवः इत्यूर्द्धलोकसंवर्त्तनं, 'हेट्ठाउ'ति अधस्ताद्-अधोलोके पुनस्त्रसनाडीतो वामभागवर्ति खण्डं बुद्ध्या गृहीत्वा दक्षिणपार्श्वे विपरीतं कृत्वा स्थापयेत्, तत उपरितन संवर्तितोर्द्ध लोकरूपं खण्डं त्रिरज्जूविस्तीर्ण संवर्तिताधोलोकखण्डस्य वामे स्थाने - वामपार्श्वे सङ्घातयेत् इयमत्र भावना - इह स्वरूपतस्तावल्लोक ऊर्द्धाधश्चतुर्दशरज्जूप्रमाणः १४३ लो कखण्डकादि गा. ९०२ ९१७ ॥ २६९ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अधस्ताद्विस्तरतो देशोनसप्तरज्जूप्रमाणः तिर्यग्लोकमध्यभागे एकरज्जूः ब्रह्मलोकमध्ये पश्चरज्जूः उपरि च लोकान्ते एकरज्जूः शेषस्थानेषु पुनरनियतविस्तरः, एवंप्रमाणस्य लोकस्य वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारस्य घनीकरणाय प्रथममुपरितनलोकार्ध संवर्त्यते, तथाहि-सर्वत्रैकरज्जूविस्तीर्णायास्त्रसनाड्या दक्षिणभागवर्तिनी ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनं च ये द्वे खण्डे कूर्पराकारसंस्थिते ब्रह्मलोकमध्ये प्रत्येकं द्विरज्जूविस्तीर्णे देशोनार्धचतुष्टयरज्जूच्छ्रये ते बुद्धिकल्पनया समादाय त्रसनाड्या एवोत्तरपार्श्वे वैपरीत्येन सङ्घात्येते, एवं चोपरितनं लोकार्ध त्रिरज्जूविस्तार देशोनसप्तरज्जूच्छ्रयं, बाहल्यतस्तु ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जूप्रमाणमन्यत्र त्वनियतबाहल्यं जायते, ततोऽधोलोके च त्रसनाड्या दक्षिणभागवबंधोलोकखण्डमधोभागे देशोनत्रिरज्जूविस्तारं क्रमेण हीयमानविस्तरं तावद्यावदुपरिष्टाद्रज्वसङ्ख्येयभागविष्कम्भं समधिकसप्तरज्जूच्छ्रयं बुद्ध्या परिगृह्य त्रसनाड्या एवोत्तरपार्श्वे ऊर्धाधोभागविपर्यासेन संयोजयेत् , एवं च कृतेऽधस्तनं लोकार्ध देशोनचतूरज्जूविस्तारं सातिरेकसप्तरज्जूच्छ्रयं बाहल्यतोऽप्यधः क्वचित्किञ्चिदूनसप्तरज्जूमानं अन्यत्र त्वनियतवाहल्यं जयाते, तत उपरितनमधू बुद्ध्या गृहीत्वाऽधस्तनस्यार्धस्योत्तरपार्श्वे सङ्घात्यते, तथा च सति कचित्सातिरेकसप्तरज्जूच्छ्रयः कचिच्च देशोनसप्तरज्जूच्छ्र यः विस्तरतस्तु देशोनसप्तरज्जूप्रमाणो घनो जातः, ततः सप्तरज्जूनामुपरि यदधिकं तत्परिगृह्य उत्तरपार्श्वे ऊधि आयतं सङ्घा त्यते, ततो विस्तरतोऽपि परिपूर्णाः सप्त रज्जवो भवन्ति, 'तथा सङ्घातितोपरितनखण्डस्य बाहल्यं कचित्पञ्च रजवः अधस्तनखण्डस्य तु दि बाहल्यं अधस्ताद्यथासम्भवं देशोनाः सप्त रजवः, तत उपरितनखण्डबाहल्याद्देशोनरज्जूद्वयमत्रातिरिच्यते इत्यस्मादतिरिच्यमानबाहल्या दर्धं गृहीत्वा उपरितनखण्डबाहल्ये संयोज्यते, एवं च कृते बाहल्यतस्तावत् कियत्यपि प्रदेशे किञ्चिदूनाः षट् रजवो भवन्ति, व्यवहारतस्तु सर्वमप्येतच्चतुरस्रीकृतनभःखण्डं सप्तरज्जूप्रमाणमुच्यते, व्यवहारनयो हि किञ्चिन्यूनसप्तहस्तादिप्रमाणमपि पटादिवस्तु परिपूर्णस KASAMAC44LMOS - - - Jain Education international For Private & Personel Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥२७ ॥ तहस्तादिमानं व्यपदिशति, देशतोऽपि च दृष्टं दाहल्यादिधर्म परिपूर्णेऽपि वस्तुनि व्यवस्थति स्थूलदृष्टित्वादिति भावः, अत एव तन्मते- १४३लो. नैवात्र सप्तरज्जूबाहल्यता सर्वगताऽवगन्तव्या, आयामविष्कम्भाभ्यामपि यत्र देशोनसप्तरज्जूप्रमाणमिदं व्यवहारतस्तत्रापि प्रत्येकं सप्तर कखण्ड| उजूप्रमाणता दृश्या, तदेवं व्यवहारनयमतेनायामविष्कम्भबाहल्यैः प्रत्येकं सप्तरज्जूप्रमाणो घनो जायते, एतच्च पट्टिकादौ लिखित्वा भा-५ कादि वनीयमिति ॥ ९१३ ॥९१४ ॥ इदानीं घनीकृतस्य लोकस्य रज्जूसङ्ख्यां प्रतिपादयितुमाह-'तिण्णि' इत्यादि, सर्वस्मिन्नपि चतुर्दश-* सवालनाप चतुदश- गा.९०२रज्ज्वात्मके लोके घनीकृते त्रिचत्वारिंशदुत्तराणि त्रीणि शतानि रज्जूनां भवन्ति, अथ घनीकरणे कीहक्संस्थानो लोकः सम्पद्यते?, त ९१७ त्राह-'चउरंस होइ जयं' चतुरनं-सर्वतः समचतुरस्रं जगत्-लोको भवति, संवर्तितं सदिति शेषः, इयं च त्रिचत्वारिंशदुत्तरशतत्रयलक्षणा रज्जूसङ्ख्या सप्तानां घनेन 'समत्रिराशिहतिर्घन' इतिवचनादन्योऽन्यं त्रिस्ताडनेन जायते, एतदुक्तं भवति-संवर्तितस्य लोकस्यायामविष्कम्भबाहल्यानां प्रत्येकं सप्तरज्जूमानत्वात् सप्त सप्तकेन गुण्यन्ते जाता एकोनपञ्चाशत् साऽपि पुनः सप्तकेन गुण्यते जातानि त्रीणि शतानि त्रिचत्वारिंशानीति, एतच्च व्यवहारमाश्रित्योक्तं, निश्चयतस्तु एकोनचत्वारिंशदधिकशतद्वयसङ्ख्यानामेव घनरज्जूनां सम्भवात् , तथाहि-पट्पञ्चाशत्सङ्ख्यास्वपि पतिषु 'तिरियं चउरो दोसुं' इत्यादिगाथाकथितानि चतुरादीनि प्रतरखण्डकानि एकैकपतिगतानि पृथक्पृथग्वर्यन्ते, 'सदृशद्विराशिघातो वर्ग इतिवचनात् चतुष्कादयोऽकाश्चतुष्कादिभिरेव गुण्यन्ते इत्यर्थः, जाताः षोडशादयोऽङ्काः, तेषां च सर्वमीलने पञ्चदशसहस्राः षण्णवत्यधिके च द्वे शते खण्डकानां भवन्ति, अस्य च राशेर्पनरज्जूसमानयनाय चतुःषष्ट्या भागो हियते, ततो जायते एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशतसङ्ख्या एव धनरज्जव इति, उक्तं च-'अह उवरिं छप्पन्ना पयरपञ्च ॥२७०॥ क्खदिदृखंडागं । वग्गं कुणह पिहु पिहु संजोगे तिजयगणियपयं ॥१॥ सहसेगारस दुसया बत्तीसहिया अहमि खंडाणं । समदीह Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 964-%A 4 -% % % पिहुव्वेहाण रज्जुचउरंसमाणेण ॥ २॥ चत्तारि सहस्साई चउसटिजुआई उड़लोगम्मि । पनरससहस्स दुसयं छण्णउयं जायमुभएसि ॥ ३ ॥ चउसट्ठीऍ विहत्तं उणयाला दो सया हविजेवं । लोए धणरज्जूणं तिरियं चउरोति गाहत्थो ॥४॥” अथोर्द्धलोके यावत्सु खण्डकेषु यावन्तो देवलोका भवन्तीत्येतदाह-'छसु' इत्यादि, रुचकसमाद् भूभागादुपरिमुखेषु षट्सु खण्डकेयु, सार्धरज्जूप्रमाणे क्षेत्रे इत्यर्थः, द्विकं-सौधर्मेशानलक्षणं देवलोकद्वयं भवति, ततोऽप्युपरितनेषु चतुर्यु खण्डकेषु-रज्जूमाने क्षेत्रे सनत्कुमारमाहेन्द्ररूपं देवलोक* द्विकं भवति, ततोऽप्युपरि दशसु खण्डकेषु-अर्धतृतीयरज्जूप्रमिते क्षेत्रे भवन्ति ब्रह्मलोकलान्तकशुक्रसहस्रारस्वरूपाश्चत्वारो देवलोकाः, तदनु चतुर्यु खण्डकेषु-रज्जूपरिच्छिन्ने क्षेत्रे आनतप्राणतारणाच्युतनामकानां देवलोकानां चतुष्कं भवति, ततः सर्वोपरिवर्तिनि खण्डक|चतुष्टये-अन्तिमरज्जो नवप्रवेयकविजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धाख्यानि पञ्चानुत्तरविमानानि सिद्धिक्षेत्रं च भवंतीति ॥९१६॥ सम्प्रति रज्जूवरूपमाह-'सयंभु' इत्यादि, सकलद्वीपपयोधिपर्यन्तवर्तिनः स्वयम्भूरमणाभिधानजलनिषेः “पुरिम'त्ति पूर्ववेदिकान्तादा-12 रभ्य यावत्तस्यैव तोयधेरपरवेदिकान्तः एतावत्प्रमाणा उजूरदराजव्या, अनेन च रज्जूमानेनोच्छ्रयतो लोकश्चतुर्दशरज्जूप्रमाणो भवतीति | १४३ ॥ ९१७ ॥ इदानीं 'सज्ञाओ तिन्नित्ति चतुश्चत्वारिंशं शततमं द्वारमार सन्नाउ तिनि पढमेऽस्थ दीहकालोपएसिया नाम । तह हेउवायदिट्ठीवाउवएसा तदियराओ ॥ ९१८ ॥ एयं करेभि एवं कयं भए शमहं करिस्तानि । खो दीहकालसभी जो इय तिकालसन्नधरो ॥ ९१९ ॥ जे उण संचिंतेउं इहाणिद्वेसु विसयवत्थुसुं । वत्तंति नियत्तंति य सदेहपरिपालगाहे ॥ ९२०॥ पापण संपधिप काउनियापि दीहकालंनि ।ते हेउवायसन्नी निच्चेट्ठा हुति .. सा.४६ Jain Education Intema For Private Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ९२२ ॥२७१॥ हु असन्नी ॥९२१ ॥ सम्मद्दिवी सन्नी संते नाणे खओवसमिए यः। अस्सन्नी मिच्छमि दिहिवा १४४ संओवएसेणं ॥ ९२२॥ ज्ञाद्वार संज्ञानं संज्ञा ज्ञानमित्यर्थः, सा त्रिभेदा 'पढमेत्थ'त्ति प्रथमा-आद्या अत्र-एतासु 'तिसृषु संज्ञासु मध्ये दीर्घकालोपदेशिकी नाम, 5 गा. ९१८दीर्घकालमतीतानागतवस्तुविषयत्वेनोपदेशः-कथनं यस्याः सा दीर्घकालोपदेशी सैव दीर्घकालोपदेशिका, तथा तदितरे-द्वितीयतृतीये हेतु-IN वाददृष्टिवादोपदेशे, उपदेशशब्दस्य प्रत्येकममिसम्बन्धात् हेतुवादोपदेशा द्वितीया सञ्ज्ञा दृष्टिवादोपदेशा च तृतीयेत्यर्थः, तत्र हेतुः | कारणं निमित्तमित्यनन्तरं तस्य वदनं वादस्तद्विषय उपदेशः-प्ररूपणा यस्यां सा हेतुवादोपदेशा, तथा दृष्टिः-दर्शनं सम्यक्त्वं तस्य | | वदनं-वादो दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः तद्विषय उपदेश:-प्ररूपणं यस्यां सा दृष्टिवादोपदेशेति ।। ९१८ ॥ अथ दीर्घकालोपदेशसंज्ञायाः | स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुस्तया संज्ञिनमेवाह-'एयं' इत्यादि, एतत्करोम्यहं एतत्कृतं मया एतत्करिष्याम्यहं इत्येवं यस्त्रिकालविषयां वर्तमानातीतानागतकालत्रयवर्तिवस्तुविषयां संज्ञा-मनोविज्ञानं धारयति स दीर्घकालसंझी, दीर्घकाला-दीर्घकालोपदेशा संज्ञाऽस्यास्तीतिकृत्वा, स च गर्भजस्तिर्यक् मनुष्यो वा देवो नारकश्च मनःपर्याप्तियुक्तो विज्ञेयः, तस्यैव त्रिकालविषयविमर्शादिसम्भवात् , एष च प्रायः सर्व| मप्यर्थ स्फुटरूपमुपलभते, तथाहि-यथा चक्षुष्मान प्रदीपादिप्रकाशेन स्फुटमर्थमुपलभते तथैषोऽपि मनोलब्धिसम्पन्नो मनोद्रव्यावष्टम्भ| समुत्थविमर्शवशतः पूर्वापरानुसन्धानेन यथावस्थितं स्फुटमर्थमुपलभते, यस्य पुनर्नास्ति तथाविधखिकालविषयो विमर्शः सोऽसंज्ञीति | सामर्थ्याल्लभ्यते, स च सम्मूछिमपञ्चेन्द्रियविकलेन्द्रियादिविज्ञेयः, स हि स्वल्पस्वल्पतरमनोलब्धिसम्पन्नत्वादस्फुटमस्फुटतरमर्थ जा ॥२७१॥ नाति, तथाहि-संज्ञिपञ्चेन्द्रियापेक्षया सम्मूच्छिमपञ्चेन्द्रियोऽस्फुटमर्थ जानाति, ततोऽप्यस्फुटं चतुरिन्द्रियः ततोऽप्यस्फुटतरं त्रीन्द्रियः ततो + न्द्रयालिपलभते, यस्य पुलभते त्यैपोऽपि मनात Jain Educationtine For Private Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KISSAAN | ऽप्यस्फुटतमं द्वीन्द्रियः ततोऽप्यत्यस्फुटतममेकेन्द्रियः तस्य प्रायो मनोद्रव्यासम्भवात् , केवलमव्यक्तमेव किञ्चिदतीवाल्पतरं मनो द्रष्टव्यं | यद्वशादाहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपाः प्रादुष्यन्तीति १ ॥ ९१९ ॥ साम्प्रतं हेतुवादोपदेशसंज्ञया संज्ञिनमसंज्ञिनं चाह-'जे उण' गाहा, 'पाएण' गाहा, ये पुनः सञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्येष्टानिष्टेषु-छायातपाहारादिषु विषयवस्तुषु मध्ये स्वदेहपरिपालनाहेतोरिष्टेषु वर्तन्ते अनिष्टेभ्यस्तु तेभ्य एव निवर्तन्ते, प्रायेण च साम्प्रतकाल एव, न चापि-नैव दीर्घकाले-अतीतानागतलक्षणे, प्रायोग्रहणात् केचिदतीतानागतकालावलम्बिनोऽपि नातिदीर्घकालानुसारिणः ते द्वीन्द्रियादयो हेतुवादोपदेशसंज्ञया संझिनो विज्ञेयाः, अत्र च निश्चेष्टा:-धर्माद्यमितापेऽपि तन्निराकरणाय प्रवृत्तिनिवृत्तिविरहिताः पृथिव्यादय एवासंज्ञिनो भवन्ति, इदमुक्तं भवति-यो बुद्धिपूर्वकं वदेहपरिपालनार्थमिष्टेष्वाहारादिषु वस्तुषु प्रवर्तते अनिष्टेभ्यश्च निवर्तते स हेतूपदेशसंज्ञी, स च द्वीन्द्रियादिरपि वेदितव्यः, तथाहि-इष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिसञ्चिन्तन न मनोव्यापारमन्तरेण सम्भवति, मनसा च पर्यालोचनं संज्ञा, सा च द्वीन्द्रियादेरपि विद्यते, तस्यापि प्रतिनियतेष्टानिष्टविषयप्रवृत्ति|| निवृत्तिदर्शनात् , ततो द्वीन्द्रियादिरपि हेतूपदेशसंज्ञया संज्ञी लभ्यते, नवरमस्य सञ्चिन्तनं प्रायो वर्तमानकालविषयं, न भूतभविष्यद्वि-| षयमिति नाय दीर्घकालोपदेशेन संज्ञी, यस्य पुनर्नास्त्यभिसन्धारणपूर्विका प्रवृत्तिनिवृत्तिशक्तिः स प्राणी हेतुवादोपदेशेनाप्यसंज्ञी लभ्यते, | स च पृथिव्यादिरेकेन्द्रियो वेदितव्यः, तस्याभिसन्धिपूर्वकमिष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्त्यसम्भवात् , या अपि च आहारादिका दश संज्ञाः | पृथिव्यादीनामप्यत्र वक्ष्यन्ते प्रज्ञापनायामपि च प्रतिपादितास्ता अप्यत्यन्तमव्यक्तरूपा मोहोदयजन्यत्वादशोभनाश्चेति न तदपेक्षयाऽपि तेषां संज्ञित्वव्यपदेशः, न हि लोकेऽपि कार्षापणमात्रास्तित्वेन धनवानुच्यते न चाविशिष्टेन मूर्तिमात्रेण रूपवानिति, अन्यत्रापि हेतुवादोपदेशसंज्ञित्वमाश्रित्योक्तं-"कृमिकीटपतङ्गाद्याः 'समनस्का जङ्गमाश्चतुर्भेदाः । अमनस्काः पञ्चविधाः पृथिवीकायादयो जीवाः॥१॥" UA**** Join Education International For Private Personal use only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ संज्ञाद्वार ९१८ चमि ९२२ प्रव० सा-ल २ ॥९२०॥९२१॥ अथ दृष्टिवादोपदेशसंज्ञया संज्ञिनमसंज्ञिनं चाह-'सम्मे'त्यादि, दृष्टिवादोपदेशेन क्षायोपशमिके ज्ञाने वर्तमानः सम्य. रोद्धारे ग्दृष्टिरेव संज्ञी, संज्ञानं संज्ञा-सम्यग्ज्ञानं तद्युक्तत्वात् , मिथ्यादृष्टिः पुनरसंज्ञी विपर्ययत्वेन वस्तुतः सम्यग्ज्ञानरूपसंज्ञारहितत्वात् , यद्यपि तत्त्वज्ञा- च मिथ्यादृष्टिरपि सम्यग्दृष्टिरिव घटादिकं जानीते व्यवहरति च तथापि तस्य सम्बन्धि व्यवहारमात्रेण ज्ञानमपि निश्चयतोऽज्ञानमेवो नवि० दच्यते, स्याद्वादाश्रयणेन ज्ञाननिबन्धनस्य भुवनगुरुनिर्णीतयथावस्थितवस्त्वभ्युपगमस्य कदाचिदप्यभावात् , आह-यदि विशिष्टसंज्ञायुक्त॥२७२॥ वात् सम्यग्दृष्टिः संज्ञीष्यते तर्हि किमिति क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तोऽसौ गृह्यते ?, क्षायिकज्ञाने हि विशिष्टतरा सा प्राप्यते, ततस्तवृत्तिरसाप्यसौ किं नाङ्गीक्रियते ?, उच्यते, यतोऽतीतस्यार्थस्य स्मरणमनागतस्य च चिन्ता संज्ञाऽभिधीयते, सा च केवलिनि नास्ति, सर्वदा सर्वार्था |वभासकत्वेन केवलिनां स्मरणचिन्ताद्यतीतत्वात् इति क्षायोपशमिकज्ञान्येव सम्यग्दृष्टिः संज्ञीति । ननु प्रथमं हेतुवादोपदेशेन संज्ञी वक्तुं से युज्यते, हेतुवादोपदेशेनाल्पमनोलब्धिसम्पन्नस्यापि द्वीन्द्रियादेः संज्ञित्वेनाभ्युपगमात् तस्य चाविशुद्धतरत्वात् , ततो दीर्घकालोपदेशेन, हेतूपदेशसंश्यपेक्षया दीर्घकालोपदेशसंझिनो मनःपर्याप्तियुक्ततया विशुद्धत्वात् , तत्किमर्थमुत्क्रमोपन्यासः१, उच्यते, इह सर्वत्र सूत्रे यत्र | कचित्संज्ञी असंज्ञी वा परिगृह्यते तत्र सर्वत्रापि प्रायो दीर्घकालोपदेशेन गृह्यते न हेतुवादोपदेशेन नापि दृष्टिवादोपदेशेन, तत एतत्संप्रत्ययार्थ प्रथमं दीर्घकालोपदेशेन संज्ञिनो ग्रहण, उक्तं च-"सन्नित्ति असन्नित्ति य सवसुए कालिओवएसेणं । पायं संववहारो कीरइ तेणाइओ स कओ ॥१॥" ततोऽनन्तरमप्रधानत्वात् हेतूपदेशेन संझिनो ग्रहणं, ततः सर्वप्रधानत्वादन्ते दृष्टिवादोपदेशेनेति१४४॥९२२॥ इदानीं 'सन्नाओ चउरो'त्ति पञ्चचत्वारिंशदुत्तरशततमं द्वारमाह ॥ २७२॥ For Private Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55-45- 45555 आहार १ भय २ परिग्गह ३ मेहुण ४ रूवाओ हुँति चत्तारि। सत्ताणं सन्नाओ आसंसारं समग्गाणं ॥९२३ ॥ संज्ञानं संज्ञा-आभोगः, सा द्विधा-क्षायोपशमिकी औदयिकी च, तत्राद्या ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यमतिभेदरूपा, सा चानन्तरमेवोक्ता, द्वितीया पुनः सामान्येन चतुर्विधाऽऽहारसंज्ञादिलक्षणा, तत्र क्षुद्वेदनीयोदयाद् या कवलाद्याहाराद्यर्थ तथाविधपुद्गलोपादानक्रिया | सा आहारसंज्ञा, तस्या आभोगात्मिकत्वात् , सा पुनश्चतुर्भिः कारणैः समुत्पद्यते, यदुक्तं स्थानाङ्गे-"चउहिं ठाणेहिं आहारसन्ना | समुप्पज्जइ, तंजहा-ओमकुट्टयाए छुहावेयणिजस्स कम्मस्सुदएणं मईए तदट्ठोवओगेणं"ति, तत्र अवमकोष्ठतया-रिक्तोदरतया क्षुद्वेदनी| यस्य कर्मण उदयेन मत्या-आहारकथाश्रवणादिजनितबुद्ध्या तदर्थोपयोगेन-सततमाहारचिन्तयेति १ तथा भयमोहनीयोदयाद्भयोद्धान्तस्य | दृष्टिवदनविकाररोमाञ्चोढ़ेदादि क्रिया भयसंज्ञा, इयमपि चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते, यदुक्तं-"हीणसत्तयाए भयवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं मईए तदट्ठोवओगेणं"ति, तत्र हीनसत्त्वतया-सत्त्वाभावेन भयवेदनीयस्य कर्मण उदयेन मत्या-भयवार्ताश्रवणभीषणदर्शनादिजनितया बुद्ध्या | तदर्थोपयोगेन-इहलोकादिसप्तभयलक्षणार्थपर्यालोचनेनेति २ तथा लोभोदयात्प्रधानसंसारकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रिया परिप्रहसंज्ञा, एषापि चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते, यदुक्तम्-"अविमुत्तयाए लोभवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं मईए तदट्ठोवओगेणं"ति, तत्र अविमुक्ततया-सपरिग्रहतया लोभवेदनीयकर्मण उदयेन मत्या-सचेतनादिपरिग्रहदर्शनादिजनितबुद्ध्या तदर्थोपयोगेन-परिग्रहानुचिन्तनेनेति ३ तथा पुंवेदोदयान्मैथुनाय ख्यालोकनप्रसन्नवदनसंस्तंभितोरुवेपथुप्रभृतिलक्षणा क्रिया मैथुनसंज्ञा, असावपि चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते, यदुक्तम्-'चियमंससोणियाए मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मईए तदट्टोवओगेणं'ति, तत्र चिते-उपचिते मांसशोणिते यस्य स in Educatan For Private & Personel Use Only Miw.jainelibrary.org Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २७३ ॥ Jain Education तथा तद्भावस्तत्ता तया चितमांसशोणिततया मोहनीयस्य कर्मण उदयेन मत्या- सुरतकथाश्रवणादिजनितबुद्ध्या तदर्थोपयोगेन -मैथुनलक्षणार्थचिन्तनेनेति ४, एताश्चतस्रः संज्ञाः समग्राणामेकेन्द्रियादीनां पञ्चेन्द्रियपर्यवसानानां सत्त्वानां जीवानामासंसारं - संसारवासं यावद्भवन्ति, तथा च केषाञ्चिदेकेन्द्रियाणामप्येताः स्पष्टमेवोपलभ्यन्ते, तथाहि - जलाद्याहारोपजीवनाद्वनस्पत्यादीनामाहारसंज्ञा सङ्कोचनीवहयादीनां तु हस्तस्पर्शादिभीत्या अवयवसङ्कोचनादिभ्यो भयसंज्ञा बिल्वपलाशादीनां तु निधानीकृतद्रविणोपरि पादमोचनादिभ्यः परिप्र हसंज्ञा कुरुवकाशोकतिलकादीनां तु कमनीयकामिनीभुजलतावगूहनपाणिप्रहारकटाक्ष विक्षेपादिभ्यः प्रसूनपल्लवादिप्रसवप्रदर्शनान्मैथुनसं| ज्ञेति १४५ ॥ ९२३ ॥ इदानीं 'सन्नाओ दस'त्ति षट्चत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह आहार १ भय २ परिग्गह ३ मेहुण ४ तह कोह ५ माण ६ माया ७ य । लोभो ८ ह ९ लोग १० सन्ना दसवेया सवजीवाणं ।। ९२४ ॥ संज्ञायतेऽनयाऽयं जीव इति संज्ञा - वेदनीय मोहोदयाश्रिता ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रिता च विचित्राहारादिप्राप्तिक्रिया, सा चोपाधिभेदाद्दशविधा, तत्राहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञा अनन्तरमेव व्याख्याताः, तथा क्रोधवेदनीयोदयात्तदावेशगर्भा परुषमुखनयनदन्तच्छदस्फुरणादिचेष्टा क्रोधसंज्ञा मानोदयादहङ्कारात्मिका उत्सेकादिपरिणतिर्मानसंज्ञा मायावेदनीयेनाशुभसङ्केशादनृतसम्भाषणादिक्रिया मायासंज्ञा लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थना लोभसंज्ञा, तथा मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमात् शब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रिया ओघसंज्ञा तद्विशेषावबोधक्रिया लोकसंज्ञा, एवं चेदमापतितं - दर्शनोपयोग ओघसंज्ञा ज्ञानोपयोगो लोकसंज्ञा, एष स्थानाङ्गटीकाभिप्रायः, आचाराङ्गटीकायां पुनरभिहितं-ओघसंज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा वल्लीवितानारोहणादिसंज्ञा लोकसंज्ञा तु १४६ संज्ञाद्वार गा. ९२४ ॥ २७३ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MC-OCOCC-964 है स्वच्छंदघटितविकल्परूपा लौकिकाचरिता, यथा-'न सन्त्यनपत्यस्य लोकाः श्वानो यक्षाः विप्रा देवाः काकाः पितामहाः बहिणां पक्ष वातेन गर्भ इत्यादिका' इति, अपरे तु ज्ञानोपयोग ओघसंज्ञा दर्शनोपयोगो लोकसंज्ञेत्येवमाहुः, एते दशापि 'अयं जीव इति संज्ञानहेतुत्वात् संज्ञाः सर्वेषां संसारिजीवानां ज्ञेयाः, सुखप्रतिपत्तये च स्पष्टरूपाः पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य व्याख्याताः, एकेन्द्रियादीनां त्वेता अव्यक्त| रूपा अवगन्तव्या इति १४६ ॥ ९२४ ।। इदानीं 'सन्नाओ पन्नरसे'ति सप्तचत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह आहार १ भय २ परिग्गह ३ मेहुण ४ सुह ५ दुक्ख ६ मोह ७ वितिगिच्छा ८ । तह कोह ९ माण १० माया ११ लोहे १२ लोगे य १३ धम्मो १४ घे १५॥ ९२५ ॥ प्रक्रमायातस्य संज्ञाशब्दस्य प्रत्येकममिसम्बन्धादाहारसंज्ञादय ओघसंज्ञापर्यन्ताः पञ्चदश संज्ञा भवन्ति, तत्र दश पूर्वोक्तस्वरूपा एव, सुखदुःखसंज्ञे-सातासातानुभवरूपे मोहसंज्ञा-मिथ्यादर्शनरूपा विचिकित्सासंज्ञा-चित्तविप्लुतिलक्षणा धर्मसंज्ञा-क्षमाद्यासेवनस्वरूपा, एताश्च विशेषानुपादानाद्यथासम्भवं सर्वजीवानामवसेयाः, इह कचिद् अन्थे चतुर्विधाः संज्ञाः उक्ताः कचिद्दशविधाः कचित् तु पञ्चदशविधाः ततः कासाच्चित्पुनर्भणनेऽपि न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयं, तथा आचाराने विप्रलापवैमनस्यरूपां शोकसंज्ञा प्रक्षिप्य षोडश संज्ञाः प्रतिपादिता इति १४७ ।। ९२५ ॥ इदानीं 'सत्तसट्ठिलक्खणभेयविसुद्धं सम्मत्तंति अष्टचत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह चउसद्दहण ४ तिलिंगं ३ दसविणय १०तिसुद्धि ३ पंचगयदोसं ५। अट्ठपभावण ८ भूसण ५लक्खण ५ पंचविहसंजुत्तं ॥ ९२६ ॥ छबिहजयणा ६ ऽऽगारं ६ छन्भावण ६ भावियं च छट्ठाणं ६। इय सत्तयसट्टिलक्खणभेयविसुद्धं च सम्मत्तं॥९२७॥ परमत्थसंथवो वा १ सुदिपरमत्थसे Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० SA १४८संज्ञाद्वार गा. ९२६९४१ ॥२७४॥ - --15 ॐ वणा वावि २। वावन्नई कुदंसणवजणा य ४ सम्मत्तसद्दहणा ॥९२८॥ सुस्सूस १ धम्मराओ २ गुरुदेवाणं जहासमाहीए । वेयावच्चे नियमो ३ सम्मदिहिस्स लिंगाई ॥९२९॥ अरहंत १ सिद्ध २चेइय ३ सुए य ४ धम्मे य ५ साहुवग्गे य ६। आयरिय ७ उवज्झाएसु८ य पवयणे ९ दंसणे १० यावि॥९३०॥ भत्ती पूया वन्नजलणं वजणमवन्नवायस्स। आसायणपरिहारो दंसणविणओ समासेणं ॥ ९३१॥ मोत्तूण जिणं १ मोत्तूण जिणमयं २ जिणमयट्ठिए मोत्तुं ३ । संसारकच्चवारं चिंतिजंतं जगं सेसं ॥९३२॥ संका १ कंख २ विगिच्छा ३ पसंस ४ तह संथवो कुलिंगीसु ५। सम्मत्तस्सइयारा परिहरियवा पयत्तेणं ॥९३३ ॥ पावयणी १ धम्मकही २ वाई ३ नेमित्तिओ ४ तवस्सी ५ य । विज्जा ६ सिद्धो य ७ कवी ८ अद्वेव पभावगा भणिया॥९३४॥ जिणसासणे कुसलया १ पभावणा २ऽऽययणसेवणा ३ थिरया ४। भत्तीय ५ गुणा सम्मत्तदीवया उत्तमा पंच ॥ ९३५ ॥ उवसम १ संवेगोवि य २ निवेओ ३ तह य होइ अणुकंपा ४। अथिक चिय ५ एए संमत्ते लक्खणा पंच ॥९३६॥ नोअन्नतिथिए अन्नतिथिदेवे य तह सदेवेऽवि। गहिए कुतित्थिएहिं बंदामि न वा नमसामि॥९३७॥ नेव अणालत्तो आलवेमि नो संलवेमि तह तेसिं । देमि न असणाईयं पेसेमि न गंधपुप्फाइ ॥ ९३८ ॥ रायाभिओगो य १ गणाभिओगो २, बलाभिओगो य ३ सुराभिओगो४ । कंतारवित्ती ५ गुरुनिग्गहो य ६, छ छिडिआओ जिणसा ॥ २७४॥ ॐ Join Education International For Private Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणम्मि ॥ ९३९ । मूलं १ दारं २ पइहाणं ३, आहारो ४ भायणं ५ निही ६ । दुच्छकस्सावि धम्मस्स, सम्मत्तं परिकित्तियं ॥९४०॥ अस्थि य १ निचो २ कुणई ३ कयं च वेएइ ४ अस्थि निवाणं ५। अस्थि य मोक्खावाओ ६ छस्सम्मत्तस्स ठाणाई ॥९४१ ॥ चत्वारि श्रद्धानानि यत्र तञ्चतुःश्रद्धानं, श्रद्धानचतुष्टयान्वितं सम्यक्त्वं भवतीति भावः, प्राकृतत्वाच्च प्रथमैकवचनलोपः, एवमग्रेऽपि | यथासम्भवं समासो विभक्तिलोपश्च द्रष्टव्यः, 'त्रिलिङ्ग मिति लिङ्गत्रययुक्तं दशविनयं-दशविधविनयोपेतं त्रिशुद्ध-शुद्धित्रयसमन्वितं 'पंचगयदोस'ति गताः पञ्च दोषा यस्मात्तद्गतपञ्चदोष, दोषपञ्चकपरिवर्जितमित्यर्थः, छन्दोभङ्गभयाच क्तान्तस्य परनिपातः, अष्टप्रभावनंअष्टविधप्रभावनापरिगतं भूसणलक्षणपंचविहसंजुत्तंति पञ्चविधेन भूषणेन पञ्चविधेन च लक्षणेन संयुक्तं, अत्रापि पञ्चविधशब्दस्य परनिपातस्तथैव, तथा षड्विधौ यतनाकारौ यस्य तत् षड्विधयतनाकारं, षड्भियतनाभिः षड्भिश्चाकारैः परिकलितमित्यर्थः, षड्भावनाभावितं-पभिर्भावनाभिर्निरन्तरं परिशीलितं, षट्स्थान-स्थानषटकयुक्तं, इत्येवं सप्तषष्ट्या 'लक्षणभेदैः' लक्ष्यते-निश्चीयते सम्यत्वमेभिरिति लक्षणानि-श्रद्धानादीनि तेषां भेदाः -प्रकाराः परमार्थसंस्तवादयस्तैर्विशुद्धं चस्यैवकारार्थत्वादेतैः सप्तषष्ट्या लक्षणभेदैविशुद्धमेव परमार्थतः सम्यक्त्वं भवति, सम्यक्शब्दः प्रशंसार्थोऽविरोधार्थो वा, सम्यग्-जीवस्तस्य भावः सम्यक्त्वं, प्रशस्तो मोक्षाविरोधी वा जीवस्य स्वभावविशेष इतियावत् ॥ ९२७ ॥ अथैतानेव लक्षणभेदान प्रत्येकं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमं 'चउसद्दहणं ति व्याख्यातुमाह -'परमे'त्यादि, परमाश्च-तात्त्विकाश्च तेऽर्थाश्व-जीवाजीवादयस्तेषु संस्तवः-परिचयस्तात्पर्येण बहुमानपुरस्सरं जीवादिपदार्थावगमा|भ्यास इतियावत् वाशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये इति प्रथमं श्रद्धानं, तथा सुष्टु-सम्यग्नीत्या दृष्टा-उपलब्धाः परमार्था-जीवादयो यैस्ते सु Jain Education For Private & Personel Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २७५ ॥ दृष्टपरमार्था:- आचार्यादयस्तेषां सेवनं - पर्युपास्तिः सुदृष्टपरमार्थसेवनं, स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् वाशब्दोऽनुक्तसमुच्चये; ततो यथाशक्ति तद्वैयावृत्तिप्रवृत्तिश्च, अपि समुच्चये, इति द्वितीयं श्रद्धानं, तथा 'वावन्नकुदंसण'त्ति दर्शनशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते व्यापन्नं - विपन्नं विनष्टं दर्शनं येषां ते व्यापन्नदर्शना - निह्नवादयः तथा कुत्सितं दर्शनं येषां ते कुदर्शनाः - शाक्यादयस्तेषां वर्जनं परिहारो व्यापन्नकुदर्शनवर्जनं, मा भूदेतदपरिहारतः सम्यक्त्वमालिन्यमिति, अत्रापि स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् इति तृतीयचतुर्थे श्रद्धाने, 'सम्मत्तसद्दहणा' इति सम्यत्तवं श्रद्धीयते-अस्तीति प्रतिपद्यतेऽनेनेति सम्यत्तत्वश्रद्धानं, प्रत्येकं च परमार्थसंस्तवादिभिरस्य सम्भवादेकवचनं, न चाङ्गारमर्दकादेरपि परमार्थसंस्तवादीनां सम्भवाद्व्यभिचारता, तात्विकानामेवैषामिहाधिकृतत्वात् तस्य च तथाविधानामेषामसम्भवादिति ॥ ९२८ ॥ 'तिलिं - गं'ति व्याख्यातुमाह – 'सुस्सूसे' त्यादि, श्रोतुमिच्छा-शुश्रूषा, हस्वत्वं तु प्राकृतशैल्या, सद्बोधावंध्यनिबन्धनधर्मशास्त्रश्रवणवान्छेत्यर्थः, सा च वैदग्ध्यादिगुणोत्तरतरुणनरकिन्नर गानश्रवणरागादप्यधिकतमा सम्यक्त्वे सति भवति, तथा धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणः, तत्र श्रुतधर्मरागस्य शुश्रूषापदेनैव प्रतिपादितत्वादिह धर्मरागश्चारित्रधर्मरागोऽभिप्रेतः, स च तथाविधकर्मदोषतस्तदकरणेन कान्तारागत दुर्गतबुभुक्षाक्षामत्राह्मणघृतपूर्ण भोजनामिलाषादप्यतिरिक्तोऽत्र भवति, तथा गुरवो - धर्मोपदेशका आचार्यादयः देवाश्च -आराध्यतमा अर्हन्तो गुरुदेवाः तेषां, इह च गुरुपदस्य पूर्वनिपातो विवक्षया गुरूणां पूज्यतरत्वख्यापनार्थः, न हि गुरूपदेशमन्तरेण सर्वविदेवाभिगम इति भाव:, यथासमाधि - समाधानानतिक्रमेण, अत्र चाव्ययीभावसमासादपि तृतीयाया अलोपः प्राकृतत्वात्, वैयावृत्त्ये- तत्प्रतिपत्तिविश्रामणाभ्यर्चनादौ नियमः - अवश्यङ्कर्तव्यतयाऽङ्गीकारः, स च सम्यक्त्तत्वे सति भवतीत्येतानि सम्यग्दृष्टेः- धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् सम्यवस्य लिङ्गानि, एतैः शुश्रूषादिभिस्त्रिभिर्लिङ्गैः सम्यक्त्वमुत्पन्नमस्तीति निश्चीयत इति भाव:, यद्यपि च शुश्रूषादय उपशान्तमोहादीनां १४८ सं. ज्ञाद्वार गा. ९२६९४१ ।। २७५ ।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAGAURACC- साक्षान्न भवन्ति कृतकृत्यत्वात् तथापि फलतो भवन्ति तद्भावस्य तत्फलत्वादिति ॥ ९२९ । 'दसविणय'त्ति व्याख्यानयन्नाह-'अरिहंत'गाहा 'भत्ती'गाहा, अर्हन्त:-तीर्थकराः सिद्धा:-क्षीणाष्टकर्ममलपटलाः चैत्यानि-जैनेन्द्रप्रतिमाः श्रुतं-आचाराद्यागमः धर्म:क्षान्त्यादिरूपः साधुवर्ग:-श्रमणसमूहः आचार्योपाध्यायौ-प्रतीतौ प्रवक्ति जीवादितत्त्वमिति प्रवचनं-सङ्घः दर्शनं-सम्यक्त्वं तदभेदोपचारात्तद्वानपि दर्शनमुच्यते, एवं प्रागपि यथासम्भवं वाच्यं । एतेषु अहंदादिषु दशसु स्थानेषु विषयेषु किमित्याह-'भत्ती'त्यादि, भक्ति:-अभिमुखगमनासनप्रदानपर्युपास्त्यजलिबन्धानुव्रजनादिलक्षणा पूजा-गन्धमाल्यवस्त्रपात्रानपानप्रदानादिसत्काररूपा वर्णनं वर्ण:|श्लाघनं तेन ज्वलनं-ज्ञानादिगुणोद्भासनं वर्गज्वलनं तथा वर्जन-परिहरणमवर्णवादस्य-अलाघायाः आशातना-मनोवाकायैः प्रतीपवर्तनं तस्याः परिहार:-प्रतिषेधः आशातनापरिहारः, एष दशस्थानविषयत्वादशविधो दर्शनविनयः, सम्यक्त्वे सति अस्य भावात्सम्यक्त्वविEMनयः 'समासेन' सङ्केपेण द्रष्टव्यः, विस्तरतस्तु शास्त्रान्तरादवसेय इति ॥ ९३१ ॥ 'तिसुद्धि'त्ति व्याचिख्यासुराह-'मोत्तूणे'त्यादि, 'मुक्त्वा' विमुख्य 'जिन' वीतरागं मुक्त्वा च 'जिनमरी' स्यात्पदलान्छिततया तीर्थकृङ्गिः प्रणीतं यथावस्थितं जीवाजीवादितत्त्वं तथा जिनमतस्थितांश्न-प्रतिपन्नपारमेश्वरप्रवचनान् साध्वादीन मुक्त्वा शेषमेकान्तग्रहप्रस्तं जगञ्चिन्त्यमानं-परिभाव्यमानं 'संसारकच्चवारं'ति संसारमध्ये कचवरनिकरप्रायमसारमित्यर्थः, जिनादि त्रितयमेव सारं शेष तु सर्वमप्यसारमिति चिन्तया सम्यक्त्वस्य विशोध्यमानत्वादेता-15 दस्तित्रः शुद्धय इति ।।९३२॥ 'पंचगयदोसं'ति प्रकटयन्नाह-संके'त्यादि, शङ्का-सर्वज्ञोक्तवचसि संशयः काला-अन्यान्यदर्शनाभिलाषः विचिकित्सा-सदाचारसाध्वादिनिन्दा तथा कुत्सितं लिङ्ग-दर्शनं येषां ते कुलिङ्गिन:-कुतीथिकाः तेषु विषये प्रशंसा-ग्लाघा तथा तद्विषय | एत संस्तदः- पापणादिना परिचयः, एते पश्चापि शङ्कादयः सम्यक्त्वस्य मालिन्यहेतुत्वादतीचारा-दोषाः सम्यग्दृष्टिना प्रयत्नेन परि-1 -icof . 6- S For Private & Personel Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवासालाहर्तव्या-वर्जनीयाः, विशेषतस्त्वेतेषां स्वरूपं पठे आवकप्रतिक्रमणातिचारद्वारे प्रतिपादितमिति ॥ ९३३ ॥ अपभावणेति विवरी-IChri रोद्धारे पुराह-'पावयणी'त्यादि, प्रवचनं-द्वादशाङ्गं तदस्यास्यतिशयवदिति प्रावचनी-युगप्रधानागमः, धर्मकथा प्रशस्याऽस्यास्तीति धर्मकथी, तत्त्वज्ञा- कायः क्षीराश्रवादिलब्धिसम्पन्नः सजलजलधरध्वानानुकारिणा नादेनाक्षेपणीविक्षेपणीसंवेजनीनिर्वेदिनीलक्षणां चतुर्विधां जानितजनमनःप्रमोद-18 नवि० लाप्रथां धर्मकथां कथयति, वादिप्रतिवादिराभ्यसभापतिरूपायां चदुरजायां परिषदि प्रतिपक्षप्रतिक्षेपपूर्वकं खपक्षस्थापनार्थमवश्यं वदतीति ९४१ वादी, निरुपभवादलब्धिसम्पन्नत्वेन वावदूकवादिवृन्दारकवृन्दैरप्यमन्दीकृतवाग्विभव इति भावः, निमित्तं-त्रैकालिकलाभालाभप्रतिपादक ॥२७६॥ काशास्त्रं तद्वेत्त्यधीते वा स नैमित्तिकः सुनिश्चितातीतादिनिमित्तवेदीत्यर्थः, विप्रकृष्ट-अष्टमगधृतिकं दुस्तपं सपोऽसास्तीति तपस्वी 'वि जत्ति मतुब्लोपाद्विद्यावान् विद्याः-प्रज्ञत्यादयः शासनदेवताः ताः सहायके यस स विद्यावान् वज्रस्वामिवत् , अजनवादलेपतिलकगुटिकासकलभूताकर्षणवैक्रियत्वप्रभृतयः सिद्धयः ताभिः सिद्धयति स्मेति सिद्धः, कवते-नवनवभशीवदयादिग्धैः पाकातिरेकरसनीयरसरस्यास्वादमेदुरितसहृदयहृदयानन्दैनिःशेषभाषावैदग्ध्ययहयर्गद्यपद्यप्रबन्धैर्वर्णनं करोतीति कविः, एते प्रावचन्यादयोऽष्टौ प्रभावयन्ति-स्वतः प्रकाशकखभावमेव देशकालाद्यौचित्येन सहायकरणात्प्रवचनं प्रकाशयन्तीति प्रभावकाः कथिताः, तेषां च कर्म प्रभावना, |सा च सम्यक्त्वं निर्मलीकरोतीति, अन्यत्र पुनरन्यथाऽष्टौ प्रभावका उक्तास्तथाहि-"अइसेसइडि १ धम्मकहि २ वाई ३ आयरिय ४ ४खवग ५ नेमित्ती ६ । विज्जा ७ रायागणसंमया ८ य तित्थं पभावंति ॥१॥” [अतिशेषर्धयो धर्मकथको वादी आचार्यः आपकः नैमित्तिकः विद्यासिद्धः राजगणसंमतश्च तीर्थ प्रभावयन्ति ॥ १ ॥] तत्र अतिशेषा-अवधिमनःपर्ययज्ञानामाँषध्यादयोऽतिशयास्ते तैर्वा |॥२७६ ऋद्धिर्यस्य सोऽतिशेषद्धिः, राजसम्मता-नृपवल्लभाः गणसम्मता-महाजनादिबहुमता इति ॥ ९३४ ॥ भूसण'त्ति व्याचिख्यासुराह For Private Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *% % % -CASSTORIES % जिनशासने-अर्हद्दर्शनविषये एतच्च सर्वत्र सम्बध्यते कुशलता-नैपुण्यं, तद्वशेन हि नानाप्रकारैरुपायैः सुखेनैव परं प्रतिबोधयतीति, तथा प्रभवति जैनेन्द्र शासनं तस्य प्रभवतः प्रयोजकत्वं च प्रभावना, सा चाष्टधा प्रभावकभेदेन प्रागेवोक्ता, यत्पुनरिहोपादानं तदस्याः स्वपरोपकारित्वेन तीर्थकरनामकर्मनिबन्धनत्वेन च प्राधान्यख्यापनार्थ, तथा आयतनं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो जिनगृहादि भावतस्तु ज्ञानदर्शनचारित्राधाराः साध्वादयः तस्यासेवनं-पर्युपास्तिः, स्त्रीत्वं च प्राकृतत्वादिति, तथा स्थिरता-जिनधर्म प्रति चलितचित्तस्य परस्य स्थिरत्वापादनं स्वस्य वा परतीर्थिकसमृद्धिदर्शनेऽपि जिनप्रवचनं प्रति निष्पकम्पता, तथा भक्तिः-प्रवचने विनयवैयावृत्त्यरूपा प्रतिपत्तिः, एते सम्यक्त्वस्य दीपका:-प्रभासका उत्तमाः-प्रधाना गुणा-भूषणानि, एतैर्गुणैः सम्यक्त्वमलकियत इति भावः ॥९३५॥ 'लक्खणपंचविहसंजुत्तति विवृण्वन्नाह-'उवसमे'त्यादि, अपराधविधायिन्यपि कोपपरिवर्जनमुपशमः, स च कस्यचित्कषायपरिणतेः कटुकफलावलोकनाद्भवति कस्यचित्पुनः प्रकृत्यैवेति, तथा नरामरसुखपरिहारेण मुक्तिसुखाभिलाषः संवेगः, सम्यग्दृष्टिर्हि नरेन्द्रसुरेन्द्राणां विषयसुखानि दुःखानुषङ्गाद् दुःखतया मन्यमानो मोक्षसुखमेव सुखत्वेन मन्यतेऽभिलषति चेति, तथा नारकतिर्यगादिसांसारिकदु:4 खेभ्यो निर्विष्णता निर्वेदः, सम्यग्दर्शनी हि दुःखातिगहने संसारकारागारे गुरुतरकर्मदण्डपाशिकैस्तथा तथा कदर्थ्यमानः प्रतिकर्तुम& क्षमो ममत्वरहितश्च दुःखेन निर्विष्णो भवति, अन्ये तु संवेगो भवविरागः निर्वेदो मोक्षामिलाष इत्यनयोरर्थव्यत्ययमाहुः, तथा दुःखि तेषु प्राणिष्वपक्षपातेन दुःखप्रहाणेच्छा दया अनुकम्पा, पक्षपातेन तु करुणा स्वपुत्रादौ व्याघ्रादीनामप्यस्त्येव, सा चानुकम्पा द्रव्यतो भावतश्च भवति, द्रव्यतः सत्यां शक्तौ दुःखप्रतिकारेण भावत आर्द्रहृदयत्वेनेति, तथा अस्तीति मतिरस्वेत्यास्तिकः तस्य भावः कर्म वा आस्तिक्यं, तत्त्वान्तरश्रवणेऽपि जिनगदिततत्त्वविषये निराकाङ्क्षा प्रतिपत्तिः, एतान्युपशमादीनि पञ्च सम्यक्त्वे-सम्यक्त्वविषयाणि लक्षणानि, % % A-व Jain Education Interfation For Private Personal use only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ९४१ ॥२७७॥ एतैः परस्थं परोक्षमपि सम्यक्त्वं सम्यगुपलक्ष्यत इति ॥ ९३६ ॥ 'छव्विहजयण'त्ति व्याख्यानयन्नाह-'नो अन्ने'यादि, 'नेवेत्यादि, १४८ संअन्यतीथिकान्-परदर्शनिनः परिव्राजकभिक्षुभौतिकादीन् अन्यतीर्थिकदेवांश्च-रुद्र विष्णुसुगतादीन् तथा स्वदेवानपि-अर्हत्प्रतिमालक्षणान् ज्ञाद्वार कुतीर्थिकैः-दिगम्बरादिमिर्गृहीतान्-खीकृतान् भौतिकादिभिर्वा परिगृहीतान् महाकालादीन् 'नो' नैव वन्दे वा न च 'नमस्यामि' गा. ९२६नमस्करोमि, तद्भक्तानां मिथ्यात्वादिस्थिरीकरणात् , तत्र वन्दनं-शीर्षाभिवादनं नमस्करणं-प्रणामपूर्वकं प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोत्कीर्तनं, तथा * अन्यतीर्थिकैः पूर्वमनालप्तः सन् तान्नैवालपामि नापि संलपामि, तत्र आङ ईषदर्थत्वाद् ईषद्भाषणमालापनं पुनः पुनः सम्भाषणं संल-18 पनं, तत्सम्भाषणे हि तैः सह परिचयप्राप्त्या तत्प्रक्रियाश्रवणदर्शनादिमिर्मिध्यात्वोदयोऽपि स्यात्, प्रथमालप्तेन त्वसम्भ्रमं लोकापवादभयात् किञ्चित्स्वल्पं वाच्यमपीति, तथा तेषां-अन्यतीथिकानां ददामि नाशनादिकं-अशनपानखादिमस्वादिमवस्त्रपात्रादिकं, तहाने ह्या| त्मनोऽन्येषां च पश्यतां तेषु बहुमानसद्भावात्तदैव मिथ्यात्वगमनं, इह च परतीथिकानामशनादिदानमनुकम्पां विहाय प्रतिषिद्धं, अनुकम्पागोचरापन्नं तु तेषामपि दानं दातव्यं, यत उक्तम्- सव्वेहिंपि जिणेहिं दुजयजियरागदोसमोहेहिं । सत्ताणुकंपणहा दाणं न कहिंपि पडिसिद्धं ॥ १॥"[सर्वैरपि जिनैर्जितदुर्जयरागद्वेषमोहैः । सत्त्वानुकम्पायै दानं न कुत्रापि प्रतिषिद्धं ॥१॥] तथा तेषामेव -परतीर्थिकदेवानां तत्परिगृहीतजिनप्रतिमानां च पूजादिनिमित्तं न प्रेषयामि गन्धपुष्पादिकं आदिशब्दाद्विनयवैयावृत्त्ययात्रास्नात्रादिकं च तेषां न करोमीति, एतत्करणे हि लोकानां मिथ्यात्वं स्थिरीकृतं स्यात् , एताभिः परतीर्थिकादिवन्दननमस्करणालपनसंलपनाशनादिदा ॥२७७॥ नगन्धपुष्पादिप्रेषणलक्षणाभिः षड्वियतनाभिर्यतमानः सम्यक्त्वं नातिक्रमतीति ।। ९३७-९३८॥'छागार'ति वितन्वन्नाह-रायाभिओगो' इत्यादि, तत्राभियोजनं-अनिच्छतोऽपि व्यापारणमभियोगः राज्ञो-नृपतेरभियोगो राजाभियोगः, गण:-खजनादिसमुदायस्तस्या ARREARSAARCARECHECK Jan Education International For Private Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भियोगो गणाभियोगः, बलं बलवतो हठप्रयोगस्तेनाभियोगो बलाभियोगः, सुरस्य - कुलदेवतादेरभियोगः सुराभियोगः, कान्तारं - अरण्यं तत्र वृत्ति:- वर्तनं निर्वाहः कान्तारवृत्तिः यद्वा कान्तारमपि बाधाहेतुत्वादिह बाधात्वेन विवक्षितं ततः कान्तारेण बाधया वृत्तिः - प्राणवर्त्तनरूपा कान्तारवृत्तिः, कष्टेन निर्वाह इतियावत्, गुरवो - मातृपितृप्रभृतयः, यदुक्तं ' माता पिता कलाचार्या, एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सतां मतः ॥ १ ॥ तेषां निग्रहो - निर्बन्धः, तदेताः षट् छिण्डिका-अपवादा जिनशासने भवन्ति इदमत्र तात्पर्यम् - प्रतिपन्नसम्यक्त्वस्य परतीर्थिक वन्दनादिकं यत्प्रतिषिद्धं तद्राजामियोगादिभिरेतैः षङ्गिः कारणैर्भक्तिवियुक्तं द्रव्यतः समाचरन्नपि | सम्यत्वं नातिचरतीति ॥ ९३९ ॥ ' छन्भावणभावियं' ति व्याख्यातुमाह- 'मूलं दार 'मित्यादि, द्विषट्कस्यापि - द्वादशभेदस्यापि पञ्चाणुव्रतत्रिगुणव्रतचतुः शिक्षात्रतरूपस्य चारित्रधर्मस्य इदं सम्यक्त्वं मूलं कारणमित्यर्थः परिकीर्तितं कथितं, तीर्थकरादिभिरिति सर्वत्र सम्बन्धः, यथा हि मूलविरहितः पादपः प्रचण्डपवनप्रकम्पितस्तत्क्षणादेव निपतति, एवं धर्मतरुरपि सुदृढसम्यक्त्वमूलविहीनः कुतीर्थिकमतमारुतान्दोलितः स्थैर्यं नासादयेदिति, 'दारं'ति द्वारमित्र द्वारं प्रवेशमुखमिति भावः, यथा हि अकृतद्वारं नगरं समन्ततः प्राकारवलयवेष्टितमप्यनगरमेव भवति जनप्रवेशनिर्गमाभावात् एवं धर्ममहापुरमपि सम्यक्त्वद्वारशून्यमशक्याधिगमं स्यादिति, 'पइट्ठाणं' ति प्रतिष्ठते प्रासादोऽस्मिन्निति प्रतिष्ठानं पीठं, ततः प्रतिष्ठानमिव प्रतिष्ठानं यथा हि पयः पर्यन्तपृथ्वीतलगतगर्तापूरकरहितः प्रासादः सुदृढो न भवति तथा धर्मदेवस्य हर्म्यमपि सम्यक्त्वरूपप्रतिष्ठानपरित्यक्तं निश्चलं न भवेदिति, 'आहारो'त्ति आधार इव आधार आश्रय इतियावत् यथा हि धरातलमन्तरेण निरालम्बं जगदिदं न तिष्ठति, एवं धर्मजगदपि सम्यक्त्वलक्षणाधारव्यतिरेकेण नावतिष्ठति, 'भायणं'ति भाजनमिव भाजनं पात्रमित्यर्थः, यथा हि कुण्डादिभाजनविशेषविवर्जितं क्षीरादिवस्तुनिकुरम्बं विनश्यति एवं धर्मवस्तुनिवहो ऽपि सम्य Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि. ॥२७८॥ * क्त्वभाजनं विना विनाशमासादयेदिति, 'निहि'त्ति निधिरिव निधिः, यथा हि निरवधिनिधिव्यतिरेकेण महाहमणिमौक्तिककनकादिद्रव्यं न प्राप्यते तथा सम्यक्त्वमहानिधानानभिगतौ चारित्रधर्मवित्तमपि निरुपमसुखसम्पादकं न प्राप्यते इति, इत्येताभिः पडिर्भावनाभिर्भा १४८संव्यमानमिदं सम्यक्त्वमविलम्बमसममोक्षसुखसाधकं भवतीति ।। ९४०॥ 'छट्ठाणं'ति प्रपञ्चयितुमाह-'अत्थी'त्यादि, अस्ति-विद्यते 3 ज्ञाद्वार गा. ९२६चशब्दस्यावधारणार्थत्वादस्त्येव जीव इति गम्यते, प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणप्रसिद्धचैतन्यान्यथानुपपत्तेः, तथाहि-न चैतन्यमिदं भूतानां ९४१ ला धर्मः, तद्धर्मत्वे सति पृथिव्याः काठिन्यस्येव तस्य सर्वत्र सर्वदा चोपलम्भप्रसङ्गात् , न च सर्वत्र सर्वदा चोपलभ्यते, लोष्ठादौ मृताव-18 स्थायां चानुपलम्भात् , नापि चैतन्यमिदं भूतानां कार्य, अत्यन्तवैलक्षण्यादेव कार्यकारणभावस्याप्यनुपपत्तेः, तथाहि-प्रत्यक्षत एव काठिन्यादिखभावानि भूतानि प्रतीयन्ते, चैतन्यं च तद्विलक्षणं, ततः कथमनयोः कार्यकारणभावः ?, तन्न भूतधर्मो भूतकार्य वा चैतन्यं, अथ चास्ति प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धं, अतो यस्येदं स जीव इति, अनेन च नास्तिकमतमपहस्तितं १ । 'निच्चो त्ति स च | जीवो नित्यः-उत्पत्तिविनाशविरहितः, तदुत्पादककारणाभावात् सतः सर्वथा विनाशायोगाच, अनित्यत्वे हि जीवस्य बन्धमोक्षाद्यकाधिकरणत्वाभावप्रसक्तेः, तथाहि-यद्यात्मा नित्यो नाभ्युपगम्यते, किन्तु पूर्वापरक्षणत्रुटितानुसन्धाना ज्ञानक्षणा एव, तथा सत्यन्यस्य बन्धोऽन्यस्य मुक्तिः अन्यस्य क्षुदन्यस्य तृप्तिः अन्योऽनुभविताऽन्यः स्मर्ता अन्यश्चिकित्सादुःखमनुभवति अन्यो व्याधिरहितो जायते अन्यस्तपःक्लेशमधिसहतेऽपरः स्वर्गसुखमनुभवति अपरः शास्त्रमभ्यसितुमारभतेऽन्योऽधिगतशास्त्रार्थों भवति, न चैतद्युक्तं, अतिप्रसङ्गादिति, LI॥२७८॥ एतेन शौद्धोदनिसिद्धान्तध्वान्तमपध्वस्तं २ । 'कुणइत्ति स च जीवः करोति मिथ्यात्वाविरतिकषायादिबन्धहेतुयुक्ततया तत्तत्कर्माणि निवर्तयति, प्रतिप्राणिप्रतीतविचित्रसुखदुःखाद्यनुभवान्यथानुपपत्तेः, तथाहि लोके सुखं दुःखं वा चित्रमनुभूयते, न चैष चित्रसुख Join Education International For Private Personel Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःखानुभवो निहेतुकः, सर्वदा सद्भावाभावप्रसङ्गात् , 'नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहे तोरन्यानपेक्षणात्' । इति न्यायात् , तस्मादस्य सुखदुःखानुभवस्य स्वकृतमेव कर्म हेतुरिति सिद्धो जीवः कर्मणां कर्तेति कापिलप्रतिकल्पनाप्रतिक्षेपः, नन्वयं जीवः सुखाभिलाषी-न कदाचनाप्यात्मनो दुःखमाशास्ते ततो यदि स्वकर्मणामेष कर्ता ततः कथं दुःखफलं कर्म करोति ?, उच्यते, यथा हि रोगी रोगनिवृत्तिमिच्छन्नपि रोगाभिभूतत्वाद् अपथ्यक्रियानिबन्धनं भाविनमपायं जानन्नपि चापथ्यक्रियामासेवते तद्वदेषोऽपि जीवो मिथ्यात्वाद्यभिभूतत्वात् कथंचित् जानन्नपि दुःखफलं कर्म करोतीति ३ । 'कयं च वेएइ'त्ति स च जीवः कृतं-स्वयमभिनिर्वर्तितं शुभाशुभं कर्म वेदयते-खयमेवोपभुङ्क्ते अनुभवलोकागमप्रमाणतस्तथैवोपपद्यमानत्वात् , तथाहि-यदि स्वयंकृतकर्मफलभोक्तृत्वं जीवस्य नाभ्युपगम्यते ततः सुखदुःखानुभवो मुक्ताकाशयोरिव तस्य न स्यात् , सुखदुःखानुभवकारणसातासातवेदनीयकर्मोपभोगाभावात् , अस्ति चायं सुखदुःखानुभवः प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धत्वात् , लोकेऽप्येष जीवः प्रायो भोक्ता सिद्धः, तथाहि-सुखिनं कञ्चन पुरुषं दृष्ट्वा लोके वक्तारो भवन्ति-पुण्यवानेष यदित्थं सुखमनुभवतीति, तथा आगमेषु च जैनेतरेषु भोक्ता सिद्धः 'सव्वं च पएसतया मुंजइ कम्ममणुभावओ भइयं' [ सर्व च प्रदेशतया भुज्यते कर्म, अनुभावतो भाज्यं । ] तथा 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कोटिकल्पशतैरपि । इत्यादिवचनात् , न चैवं लोकप्रतीतावागमेषु वा वर्तमानेषु कस्यचिद्विवेकचक्षुषो विप्रतिपत्तिरस्ति, कृतवैफल्यप्रसङ्गात्, न चैतद्युज्यते, वणिक्कृषीवलादीनां स्वकृतशुभाशुभकर्मफलभोगस्य साक्षादेव दर्शनात् , तथा च सति सिद्ध एष जीवः स्वकृतकर्मणां भोक्तेति, अनेन चाभोक्तजीववादी दुर्नयो निराकृतः ४ । 'अस्थि निवाणं ति अस्य जीवस्यास्ति-विद्यते निर्वाणं-मोक्षः, सत एव जीवस्य रागद्वेषमदमोह जन्मजरारोगादिदुःखक्षयरूपोऽवस्थाविशेष इतियावत् , एतेन प्रदीपनिर्वाणकल्पमभावरूपं निर्वाणमित्याद्यसङ्गतं सङ्गिरन्तः सौगतविशेषा व्युदस्ताः, For Private & Personel Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ २७९ ॥ ते हि प्रदीपस्येवास्य जीवस्य सर्वथा ध्वंस एव निर्वाणमाहुः, तथा च तद्वचः – “दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काश्चित्, स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥ १ ॥ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित् केशश्यात्केवलमेति शान्तिम् ॥ २ ॥ एतच्चायुक्तं, दीक्षादिप्रयासवैयर्थ्यात् प्रदीपदृष्टान्तस्याप्यसिद्धत्वात्, तथाहि--न प्रदीपानलस्य सर्वथा विनाशः, किन्तु तथाविधपुद्गलपरिणामवैचित्र्यात्त एव पावकपुद्गला भास्वरं रूपं परित्यज्य तामसं रूपान्तरमाप्नुवन्ति, तथा च विध्याते प्रदीपेऽनन्तरमेव तामसपुद्गलरूपो विकारः समुपलभ्यते, चिरं चासौ पुरस्ताद्यन्नोपलभ्यते तत्सूक्ष्मसूक्ष्मतर परिणामसद्भावादजनरजोवत्, अञ्जनस्य हि पवनेनापहियमाणस्य यत्कृष्णरज उड्डीयते तदपि परिणामसौक्ष्म्यानोपलभ्यते न पुनरसन्त्वादिति, ततो यथाऽनन्तरोक्तस्वरूपं परिणामान्तरं प्राप्तः प्रदीपो निर्वाण इत्युच्यते तथा जीवोऽपि कर्मविरहितः केवलामूर्तजीवस्वरूपलक्षणं परिणामान्तरं प्राप्तो निर्वाणमुच्यते, तस्मात् दुःखादिक्षयरूपा सतोऽवस्था निर्वाणमिति स्थितं ५ । 'अत्थि य मोक्खोवाओ'त्ति अस्ति च मोक्षस्य - निर्वृत्तेरुपायः - सम्यक्साधनं, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां मुक्तिसाधकतया घटमानकत्वात्, तथाहि सकलमपि कर्मजालं मिध्यात्वाज्ञानप्राणिहिंसादिहेतुकं ततस्तत्प्रतिपक्षतया सम्यग्दर्शनाद्यभ्यासः सकलकर्मनिर्मूलनाय प्रभविष्णुरेव न चैवं मिध्यादृष्टिप्रणीतोऽप्युपायो मुक्तिसाधको भविष्यतीति वाच्यं तस्य हिंसादिदोषकलुषितत्वेन संसारकारण- 8 त्वात् अनेनापि मोक्षोपायाभावप्रतिपादक दुर्नयन्यक्कारः कृतः ६ । एतान्यात्मास्तित्वादीनि षट् सम्यक्त्वस्थानानि सम्यक्त्वमेषु सत्स्वेव भवतीति भावः, अत्र च प्रतिस्थानकमात्मादिसिद्धये बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते प्रन्थगहनताप्रसङ्गादिति १४८ ।। ९४१ ॥ इदानीं 'एग विहाइ दसविहं सम्मत्तं' ये कोनपश्चाशदधिकशततमं द्वारमाह ॥ २७९ ॥ सम्यक्तव स्यैकादि भेदाः गा. ९४२९६२ Inelibrary.org Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगविह १ दुहि २ तिविहं ३ चउहा ४ पंचविह ५ दसविहं ६ सम्मं । दद्दाइ कारगाई उवसमभेएहि वा सम्मं ॥ ९४२ ॥ एगविहं सम्मरुई १ निसग्गऽभिगमेहि २ तं भवेदुविहं । तिविहं तं खाई ३ अहवावि हु कारगाईहिं ॥ ९४३ ॥ सम्मत्तमीस मिच्छत्तकम्मक्खयओ भांति तं खइयं । मिच्छत्तखओवसमा खाओवसमं ववइसंति ॥ ९४४ ॥ मिच्छत्तस्स उवसमा उवसमयं तं भांति समयन्नू । तं उवसमसेढीए आइमसम्मत्तलाभे वा ॥ ९४५ ॥ विहिआणुट्ठाणं पुण कारगहि रोगं तु सद्दहणं । मिच्छद्द्द्दिट्ठी दीवइ जं तत्ते दीवगं तं तु ॥ ९४६ ॥ खइयाई सासायणसहियं तं चविहं तु विन्नेयं । तं सम्मत्त भंसे मिच्छत्ताऽऽपत्तिरूवं तु ॥ ९४७ ॥ वेययसंजुत्तं पुण एवं चिय पंचहा विणिद्दिद्वं । सम्मत्तचरिमपोग्गलवेयणकाले तयं होइ ॥ ९४८ ॥ एवं चिय पंचविहं निसग्गाभिगमभेयओ दसहा । अहवा निसग्गरुई इच्चाइ जमागमे भणिअं ॥ ९४९ ॥ निस्सग्गु १ वएसई २ आणरुई ३ सुत्त ४ बीय ५ रुईमेव । अहिगम ६ वित्थाररुई ७ किरिया ८ संखेव ९ धम्मरुई १० ॥ ९५० ॥ जो जिणदिट्ठे भावे चविहे सहहेइ सयमेव । एमेव नन्नहत्ति य निसग्गरुत्ति नायो ।। ९५१ ॥ एए चेव उ भावे उवइट्ठे जो परेण सद्दहइ । छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइत्ति नायो ।। ९५२ ॥ रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई नाम ॥ ९५३ ॥ जो सुत्तमहितो सुएणमोगाहई उ सम्मत्तं । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि. सम्यक्त्वस्यैकादि भेदाः गा. ९४२९६२ . अंगेण बाहिरेण य (उ) सो सुत्तरुइत्ति नायबो ॥ ९५४ ॥ एगपएऽणेगाइं पयाई जो पसरई उ सम्मत्ते । उदएव तिल्लबिंदू सो बीयरुइत्ति नायवो ॥ ९५५ ॥ सो होइ अहिगमरुई सुयनाणं जस्स अत्थओ दिढे । एक्कारस अंगाई पइन्नगा दिहिवाओ य ॥९५६ ॥ दवाण सवभावा सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा । सबाहिं नयविहीहिं वित्थाररुई मुणेयवो ॥ ९५७ ॥ नाणे दंसणचरणे तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई नाम ॥ ९५८ ॥ अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइत्ति होइ नायवो । अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसुं ॥९५९ ॥ जो अत्थिकायधम्म सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च । सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइत्ति नायवो ॥ ९६०॥ आईपुढवीसु तिसु खय १ उवसम २ वेयगं ३ च सम्मत्तं । वेमाणियदेवाणं पणिदितिरियाण एमेव ॥९६१॥ सेसाण नारयाणं तिरियत्थीणं च तिविहदेवाणं । नत्थि हु खइयं सम्म अन्नेसिं चेव जीवाणं ॥ ९६२॥ एकविधं द्विविधं त्रिविधं चतुर्धा पञ्चविधं दशविधं सम्यक्त्वं भवतीति शेषः, तत्र एकविधं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यक्त्वं, एतच्चानुक्तमप्यविवक्षितोपाधिभेदत्वेन सामान्यरूपत्वादवसीयते इत्यस्यां गाथायां न विवृत्तं, द्विविधादि तु न ज्ञायते इत्युल्लेखमाह-'दबाई' इत्यादि, द्विविधं द्रव्यादिभेदतः, तत्र च 'दबत्ति सूचामात्रत्वाद् द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो विशोधिविशेषेण विशुद्धिकृता मिथ्यात्वपुद्गला एव, भावतस्तु तदुपष्टम्भोपजनितो जीवस्य जिनोक्ततत्त्वरुचिपरिणामः, आदिशब्दः प्रकारान्तरैरपि द्विविधत्वदर्शनार्थः, तेन नैश्च ॥२८ ॥ For Private Personel Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यिकव्यावहारिकभेदतः पौगालिकापौद्गलिकभेदतो नैसर्गिकाधिगमिकभेदतोऽपि च द्विविधमिति, तत्र यद्देशकालसंहननानुरूपं यथाशक्ति || यथावत्संयमानुष्ठानरूपं मौनं-अविकलं मुनिवृत्तं तन्नैश्चयिकं सम्यक्त्वं, व्यावहारिकं तु सम्यक्त्वं न केवलमुपशमादिलिङ्गगम्यः शुभा|त्मपरिणामः किंतु सम्यक्त्वहेतुरपि अर्हच्छासनप्रीत्यादिः कारणे कार्योपचारात्सम्यक्त्वं, तदपि हि पारम्पर्येण शुद्धचेतसामपवर्गप्राप्तिहेतुर्भवतीति, उक्तं च 'जं मोणं तं सम्मं जं सम्म तमिह होइ मोणं तु । निच्छयओ इयरस्स उ सम्म सम्मत्तहेऊवि ॥१॥यन्मौनं तत्सम्यक्त्वं यत्सम्यक्त्वं तदिह भवति मौनमेव । निश्चयस्य इतरस्य तु सम्यक्त्वहेतुरपि सम्यक्त्वं ॥ १॥] व्यवहारनयमतमपि च प्रमाणं, तबलेनैव तीर्थप्रवृत्तेः, अन्यथा तदुच्छेदप्रसङ्गात् , तदुक्तं-'जइ जिणमयं पवजह ता मा ववहारनिच्छयं मुयह । ववहार-| | नओच्छेए तित्थुच्छेओ जओऽवस्सं ॥१॥" [यदि जिनमतं प्रतिपद्यसे तर्हि व्यवहारनिश्चयौ मा मुञ्च । व्यवहारनयोच्छेदे तीर्थोच्छेदो || यतोऽवश्यं ।। १॥] इति, तथा अपनीतमिथ्यास्वभावसम्यक्त्वपुजगतपुद्गलवेदनस्वरूपं क्षायोपशमिकं पौद्गलिकं, सर्वथा मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वपुजपुद्गलानां क्षयादुपशमाञ्च जातं केवलजीवपरिणामरूपं क्षायिकमापशमिकं चापौद्गलिकं, नैसर्गिकाधिगमिके पुनरप्रे वक्ष्येते, तथा 'त्रिविधं कारकादि' कारकरोचकदीपकभेदतः, 'उवसमभेएहिं वत्ति वाशब्दः त्रैविध्यस्यैव प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः, बहुवचनं च |गणार्थ, ततत्रिविधं चतुर्विधं पञ्चविधं दशविधं च सम्यक्त्वमुपशमादिभिर्भेदैर्भवतीति, इदमुक्तं भवति-औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमि कभेदात् त्रिविधं, औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकसास्वादनभेदाच्चतुर्विधं, औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकसास्वादनवेदकभेदात्पञ्चविधं, | एतदेव प्रत्येक निसर्गाधिगमभेदाद्दशविधमिति, कथं पुनर्द्विविधादिभेदं सम्यक्त्वमित्याह-सम्यग्-अवैपरीत्येन आगमोक्तप्रकारेण, न तु |स्वमतिपरिकल्पितभेदैरिति भावः ॥ ९४२ ॥ अथैनामेव गार्था स्फुटतरं व्याख्यानयन्नाह-एकविधं-एकप्रकारमुपाधिभेदाविवक्षया निर्भ Jain Education Lerriatore For Private & Personel Use Only Sawwiljainelibrary.org Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 सम्यक्त्व स्यैकादि भेदाः गा.९४२. ९६२ प्रव० सा- दमित्यर्थः, 'सम्यग् रुचिः' सम्यग्-अज्ञानसंशयविपर्यासनिरासेन इदमेव तत्त्वमिति निश्चयपूर्विका जिनोदितजीवादिपदार्थेष्वभिप्रीतिः, रोद्धारे जिनोक्तानुसारितया तत्त्वार्थश्रद्धानरूपमेकविधं सम्यक्त्वमिति भावः, तथा निसर्गाधिगमाभ्यां तत्-सम्यक्त्वं भवेद् द्विविधं, तत्र नितत्त्वज्ञा- | सर्गः-खभावो गुरूपदेशादिनिरपेक्षस्तस्मात्सम्यक्त्वं भवति, यथा नारकादीनां, अधिगमो-गुरूपदेशादिस्तस्मात्सम्यक्त्वं भवतीति प्रतीनवि० तमेव, अयमभिप्रायः-तीर्थकरागुपदेशदानमन्तरेण स्वत एव जन्तोर्यत्कोपशमादिभ्यो जायते तन्निसर्गसम्यक्त्वं, यत्पुनस्तीर्थकरायुप देशजिनप्रतिमादर्शनादिबाह्यनिमित्तोपष्टम्भतः कर्मोपशमादिना प्रादुर्भवति तदधिगमसम्यक्त्वमिति, तथा त्रिविधं तत्-सम्यक्त्वं क्षायि॥२८१॥ कादि, अथवा त्रिविधं कारकादि ।। ९४३ ॥ तत्र क्षायिकक्षायोपशमिके व्याख्यातुमाह-सम्यक्त्वमिश्रमिथ्यात्वकर्मक्षयाणन्ति तीर्थकरगणधराः क्षायिक सम्यक्त्वं, त्रिविधस्यापि दर्शनमोहनीयस्य क्षयेण-निर्मूलोच्छेदेन निर्वृत्तं क्षायिकं, असमर्थः-अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयक्षयानन्तरं मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वपुजलक्षणे त्रिविधेऽपि दर्शनमोहनीयकर्मणि सर्वथा क्षीणे क्षायिक सम्यक्त्वं भवतीति, तथा मिथ्यात्वस्य-मिथ्यात्वमोहनीयकर्मण उदीर्णस्य क्ष्यादनुदीर्णस्य चोपशमात्सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणाद्विष्कम्भितोदयस्वरूपाच्च क्षायोपश|मिकं सम्यक्त्वं व्यपदिशन्ति-कथयन्ति, इदमुक्तं भवति-यदुदीर्ण-उदयमागतं मिध्यात्वं तद्विपाकोदयेन वेदितत्वात् क्षीण-निर्जीर्ण, हायच शेषं सत्तायामनुदयागतं वर्तते तदुपशान्तं, उपशान्तं नाम विष्कम्भितोदयमपनीतमिथ्यास्वभावं च, मिथ्यात्वमिश्रपुजावानित्य [विष्कम्भितोदयं शुद्धपुजमाश्रित्य पुनरपनीतमिथ्यात्वस्वभावमित्यर्थः, तदेवमुदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य श्रयेण अनुदीर्णस्य चोपशमेन निर्वृत्तत्वात् त्रुटितरसं शुद्धपुजलक्षणं मिथ्यात्वमपि क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते, शोधिता हि मिथ्यात्वपुद्गला अतिस्वच्छवस्त्रमिव दृष्टेर्यथाऽवस्थिततत्त्वरुच्यध्यवसायरूपस्य सम्यक्त्वस्यावारका न भवन्ति, अतस्तेऽप्युपचारतः सम्यक्त्वमुच्यन्ते इति ॥ ९४४ ॥ अथौपश ॥२८१॥ Jain Education mammonal For Private Personal Use Only T w w.jainelibrary.org Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAROKAROCRORSCRATEGIRECACOCK मिकं सम्यक्त्वमाह-मिथ्यात्वस्य-मिथ्यात्वमोहनीयस्य कर्मणो य उपशमो-विपाकप्रदेशरूपतया द्विविधस्याप्युद्यस्य भस्मच्छन्नवह्निवद्विष्कम्भणं तस्मात् 'उबसमयंति प्राकृतशैल्या औपशमिकं तत्सम्यक्त्वं भणन्ति समयज्ञाः-सिद्धान्तवेदिनः, तत्पुनरुपशमश्रेण्यामौपपशमिकी श्रेणिमनुप्रविष्टस्य सतो जन्तोरनन्तानुबन्धिषु दर्शनत्रिके चोपशमं नीते भवति, किमुपशमश्रेणिगतस्यैवैतद्भवति ?, नेत्याह 'आइमे'त्यादि, आदिमः-प्रथमोऽनादिमिथ्यादृष्टेः सतो जीवस्य योऽसौ सम्यक्त्वलाभस्तस्मिन् वा औपशमिकं सम्यक्त्वं भवति । इह 5 खवनादिमिथ्यादृष्टिः कश्चिदायुर्वर्जसप्तकर्मप्रकृतिध्वनाभोगनिर्वर्तितेन यथाप्रवृत्तिकरणेन क्षपयित्वा प्रत्येक पल्योपमासङ्ख्येयभागन्यूनसा-5 गरोपमकोटीकोटिप्रमाणतां नीतासु अपूर्वकरणेन 'भन्नइ करणं तु परिणामों' इतिवचनाद्ध्यवसायविशेषरूपेणातिप्रकृष्टधनरागद्वेषपरिणामजनितस्य बनाश्मवद् दुर्भेद्यस्य कर्मग्रन्थेर्मेदं विधायानिवृत्तिकरणं प्रविशति, तत्र च प्रतिसमयं विशुद्ध्यमानस्तान्येव कर्माणि निरन्तरं क्षपयन् उदीर्ण मिथ्यात्वं वेदयन् अनुदीर्णस्य तु तस्योपशमलक्षणमन्तर्मुहूर्त्तकालमानमन्तरकरणं प्रविशति, तस्य चायं विधिःयदुत अन्तरकरणस्थितेमध्याद्दलिकं गृहीत्वा प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति, एवं च प्रतिसमयं तावत्प्रक्षिपति यावदन्तरकरणदलिकं सकलमपि क्षीयते, अन्तर्मुहूर्तेन च कालेन सकलदलिकक्षयः, ततस्तस्मिन्ननिवृत्तिकरणेऽवसिते उदीर्णे च मिथ्यात्वेऽनुभवतः क्षीणे अनुदीर्णे च परिणामविशुद्धिविशेषतो विष्कम्भितोदये ऊपरदेशकल्पं मिथ्यात्वविवरमासाद्य औपशमिकं सम्यक्त्वमधिगच्छति, तस्मिंश्च | स्थितः सत्तायां वर्तमानं मिथ्यात्वं विशोध्य पुजत्रयरूपेणावश्यं व्यवस्थापयति, यथा हि कश्चिन्मदनकोद्रवानौषधवशेन शोधयति, ते च शोध्यमानाः केचिच्छुद्ध्यन्ति केचिदर्घशुद्धा एव भवन्ति केचित्तेष्वपि सर्वथैव न शुद्ध्यन्ति, एवं जीवोऽप्यध्यवसायविशेषतो जिनवचनरुचिप्रतिबन्धकदुष्टरसोच्छेदकरणेन मिथ्यात्वं शोधयति, तदपि शोध्यमानं शुद्धमर्घशुद्धमशुद्धं च त्रिधा जायते, तत्र शुद्धपुखः सर्वज्ञधर्मे Jan Education in For Private Personal use only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २८२ ॥ सम्यक्प्रतिपन्यप्रतिबन्धकत्वेनोपचारात् सम्यक्त्त्रपुञ्ज उच्यते, द्वितीयस्तु अर्धशुद्ध इति मिश्रपुञ्ज उच्यते, तदुदये तु जिनधर्मे औदासीन्यमेव भवति, अशुद्धस्त्वर्हदादिषु मिथ्याप्रतिपत्तिजनकत्वान्मिथ्यात्वपुजोऽभिधीयते, तदेवमन्तरकरणेन अन्तर्मुहूर्तकालमौपशमिक सम्यक्त्वेऽनुभूते तदनन्तरं नियमादसौ क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिर्मिश्री मिध्यादृष्टिर्वा भवतीत्येष कार्मग्रन्थिकाभिप्रायः, सैद्धान्तिकाः पुनरयमनादिमिध्यादृष्टिः कोऽपि ग्रन्थिभेदं विधाय तथाविधतीत्रपरिणामोपेतत्वेनापूर्वकरणमुपारूढः सन्मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकरोति 'अपुब्वेण तिपुंजं मिच्छत्तं कुणइ कोहवोवमया ।' इति वचनात् ; ततोऽनिवृत्तिकरणसामर्थ्याच्छुद्धपुजपुद्गलान् वेदयन्नोपशमिकं सम्यक्त्वमलब्ध्यैव प्रथमत एव क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिर्भवति, अन्यस्तु यथाप्रवृत्त्यादिकरणत्रयक्रमेणान्तरकरणे औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते, पुंजत्रयं त्वसौ न करोत्येव, ततश्चौपशमिकसम्यक्त्वाच्युतोऽवश्यं मिथ्यात्वमेव गच्छतीति । नन्वौपशमिकसम्यक्त्वस्य क्षायोपशमिकसम्यक्त्वात्को विशेष: ?, उभयत्रापि ह्यविशेषेणोदितं मिध्यात्वं क्षीणं अनुदितं चोपशान्तमिति, उच्यते, अस्ति विशेषः, क्षायोपशमिके हि सम्यक्त्वे मिध्यात्वस्य प्रदेशानुभवोऽस्ति, न त्वौपशमिके सम्यक्त्वे इति, अन्ये तु व्याचक्षते - श्रेणिमध्यवर्तिन्येवौपशमिके सम्यक्त्वे प्रदेशानुभवो नास्ति, न तु द्वितीये, तथापि तत्र सम्यक्त्वाण्वनुभवाभाव एव विशेष इति ॥ ९४५ ॥ इदानीं कारकरोचकदीपकसम्यक्त्वानि क्रमे गाह-विहितस्य- आगमोक्तस्य यदनुष्ठानं करणं तदिह - सम्यक्त्वविचारे कारकं सम्यक्त्वं, अयमर्थः - यदनुष्ठानं यथा सूत्रे भणितं तद् यस्मिन् सम्यक्त्वे परमविशुद्धिरूपे सति देशकाल संहननानुरूपशक्त्यनिगूहनेन तथैव करोति तत् सदनुष्ठानं कारयतीति कारकमुच्यते, एतच साधूनां द्रष्टव्यं तथा श्रद्धानमात्रं रोचकं सम्यक्त्वं, इदमुक्तं भवति - यत्सम्यक्त्वं सदनुष्ठानं रोचयत्येव केवलं न पुनः कारयति तद्रोचयति तथा विश्वविशुद्धिभावाद्विहितानुष्ठानं इति रोचकं, यथा श्रेणिकादीनां तथा यः स्वयमिह मिथ्यादृष्टिरभव्यो वा कश्चिदङ्गार सम्यक्त्व स्यैकादि भेदाः गा. ९४२. ९६२ ॥ २८२ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ. सा. ४८ मर्दकादिवत् अथ च धर्मकथया मातृस्थानानुष्ठानेनातिशयेन वा केनचित्तत्त्वानि जिनोक्तानि दीपयति- परस्य प्रकाशयति यस्मात्तस्मा - तत्सम्यक्त्वं दीपकमुच्यते, ननु स्वयं मिथ्यादृष्टिरथ च तस्य सम्यक्त्वमिति कथमुच्यते ? विरोधात् उच्यते, मिध्यादृष्टेरपि सतस्तस्य यः | परिणामविशेषः स खलु प्रतिपत्तॄणां सम्यक्त्वस्य कारणं, ततः कारणे कार्योपचारात् सम्यक्त्वमित्युच्यते, यथाऽऽयुर्धृतमित्यदोषः ॥ ९४६ ॥ अथ चतुर्विधं सम्यक्त्वमाह - 'खइये 'त्यादि, तदेव क्षायिकादित्रिविधं सम्यक्त्वं सास्वादनसहितं चतुर्विधं विज्ञेयं, तत्पुनः साखादनमनन्तानुबन्धिकषायोदयेन सम्यक्त्वस्योपशमिकाख्यस्य भ्रंशे - हासे मिथ्यात्वाप्राप्तिरूपमवसेयं, इयमत्र भावना - इहान्तरकरणे औपशमिकसम्यक्त्वा - द्धायां जघन्यतः समयशेषायामुत्कृष्टतस्तु पडावलिकाशेषायां वर्तमानस्य कस्यचिदनन्तानुबन्धिकषायोदयः सम्पद्यते, ततस्तेन कषायोदयेनौपशमिकसम्यक्त्वा श्यवमानस्य मिथ्यात्वमद्याप्यप्राप्नुवतोऽत्रान्तरे जघन्यतः समयमुत्कृष्टतस्तु षडावलिकाः सास्वादनसम्यक्त्वं भवति, | परतस्त्वसौ नियमेन मिध्यात्वोदयान्मिथ्यादृष्टिर्भवतीति ॥ ९४७ ॥ सम्प्रति पञ्चविधं सम्यक्त्वमाह - 'वेयये' त्यादि, एतदेव पूर्वोक्तं चतुर्विधं सम्यक्त्वं वेदकसम्यक्त्वसंयुक्तं पुनः पञ्चधा - पञ्चविधं विनिर्दिष्टं - विशेषतः कथितं वीतरागैः, तञ्च वेदकसम्यक्त्वं सम्यक्त्वपुञ्जस्य बहुत| रक्षपितस्य चरमपुद्गलानां वेदनकाले - प्राससमये भवति, वेदयति-अनुभवति सम्यक्त्वपुद्गलान् इति वेदक:- अनुभविता, तदनर्थान्तरभूतत्वात् सम्यक्त्वमपि वेदकं यथा आहियत इत्याहारकं तथा वेद्यत इति वेदकं, इदमत्र तात्पर्यम् - क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्यानन्तानुबन्धि| कषायचतुष्टयमपि क्षपयित्वा मिध्यात्वमिश्रपुजेषु सर्वथा क्षपितेषु सम्यक्त्वपु जमप्युदीयदीर्यानुभवेन निर्जरयतो निष्ठितोदीरणीयस्य चरमप्रासेऽवतिष्ठमानेऽद्यापि सम्यक्त्वपुञ्जपुद्गलानां कियतामपि वेद्यमानत्वाद्वेदकं सम्यक्त्वमुपजायते इति । अत्राह - नन्वेवं सति क्षायो: | पशमिकेन सहास्य को विशेष: ?, सम्यक्त्वपु अपुद्गलानुभवस्योभयत्रापि समानत्वात् सत्यं किन्त्वेतदशेषोदितपुद्गलानुभूतिमतः प्रोक्तं, 2 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥२८३॥ | इतरत्तूक्त्तिानुदितपुद्गलस्यैतन्मात्रकृतो विशेषः, परमार्थतस्तु क्षायोपशमिकमेवेदं, चरमग्रासशेषाणां पुद्गलानां क्षयाचरमग्रासवर्तिनां तु मिथ्या- सस्यत्वस्वभावापगमलक्षणस्योपशमस्व सद्भावादिति ॥९४८॥ अथ दशविधं सम्यक्त्वमाह-'एय'मित्यादि, एतदेवानन्तरोदितं पञ्चविधं सम्यक्त्वं स्यैकादि| निसर्गाधिगमभेदाभ्यां दशधा भवति, क्षायिकक्षायोपशमिकऔपशमिकसास्वादनवेदकानां प्रत्येकं निसर्गतोऽधिगमतश्च जायमानत्वादश विध- 8 भेदाः त्वमित्यर्थः, अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शनार्थः निसर्गरुचिरुपदेशरुचिरित्यादिरूपतया यदागमे-प्रज्ञापनादौ प्रतिपादितं तेन च दशविधत्व- गा.९४२. मवगन्तव्यम् ॥९४९॥ तदेवाह-'निसरगु'इत्यादि, अत्र रुचिशब्दः प्रत्येक योज्यते ततो निसर्गरुचिरुपदेशरुचिरिति द्रष्टव्यम् , अत्र निसर्ग:- ॥९६२ स्वभावस्तेन रुचिः-जिनप्रणीततत्त्वामिलाषरूपा यस्य स निसर्गरुचिः १ उपदेशो-गुर्वादिमिर्वस्तुतत्त्वकथनं तेन रुचि:-उक्तस्वरूपा यस्य स उपदेशरुचिः २ आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तस्यां रुचि:-अभिलाषो यस्य स आज्ञारुचिः ३ 'सुत्तबीयरुइमेव'त्ति अत्रापि रुचिशब्दः प्रत्येकममिसम्बध्यते, सूत्र-आचारायणप्रविष्टं अङ्गबाह्यं चावश्यकदशवैकालिकादि तेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः ४ बीजमिव बीजं यदे| कमप्यनेकार्थप्रबोधोत्पादकं वचः तेन रुचिर्यस्य स बीजरुचिः ५, अनयोश्च पदयोः समाहारद्वन्द्वः तेन नपुंसकनिर्देशः, एवेति समुच्चये, 'अहिगमवित्थाररुइ'त्ति अत्रापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः, ततोऽधिगमरुचिर्विस्ताररुचिश्च, तत्राधिगमो-विशिष्टं परिज्ञानं तेन रुचिर्यस्यासावधिगमरुचिः६ विस्तारो-व्यासः सकलद्वादशाङ्गस्य नयैः पर्यालोचनमिति भावः तेनोपबृंहिता रुचिर्यस्य स विस्ताररुचिः ७ 'किरियासंखेवधम्मरुइ'त्ति रुचिशब्दस्यात्रापि प्रत्येकममिसम्बन्धात् क्रियारुचिः सङ्केपरुचिधर्मरुचिरिति द्रष्टव्यं, तत्र क्रिया-सम्य क्संयमानुष्ठानं तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारुचिः ८ सङ्केपः-सङ्ग्रहस्तत्र रुचिर्यस्य विस्तरार्थापरिज्ञानात् स सद्धेपरुचिः ९ धर्मे-अस्तिकायधर्मे १ श्रुतधर्मादौ वा रुचिर्यस्य स धर्मरुचिः, यह सम्यक्त्वस्य जीवानन्यत्वेनाभिधानं तद्गुणगुणिनोः कश्चिदनन्यत्वख्यापनार्थमिति गाथा X ८२॥ Jan Education te For Private Personal use only X w .jainelibrary.org Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAE+% सङ्केपार्थः॥९५०॥ व्यासार्थ तु स्वत एव सूत्रकृदाह-'जो'इत्यादि, यो जिनदृष्टान्-तीर्थकरोपलब्धान् भावान-जीवादिपदार्थाश्चतुर्विधान-४ द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतो नामस्थापनाद्रव्यभावभेदतो वा चतुष्पकारान् स्वयमेव-परोपदेशनिरपेक्षं जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया स्वमत्यैव श्रद्दधाति, केनोल्लेखेन श्रद्दधाति ? तत आह-एवमेवैतत् जीवादि यथा जिनैदृष्टं नान्यथेति, चः समुच्चये, एष निसर्गरुचितिव्यः ॥९५१ उपदेशरुचिमाह-एए'इत्यादि, एतांश्चैव अनन्तरोक्तान तुः पूरणे भावान्-जीवादीनुपदिष्टान्-कथितान् परेण-अन्येन श्रद्दधाति-तथेति 8 प्रतिपद्यते, कीदृशेन परेण ?-छादयतीति छद्म-घातिकर्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थ:-अनुत्पन्नकेवलस्तेन जयति रागादीनिति जिनस्तेन च-उत्पन्नकेवलज्ञानेन तीर्थकृदादिना, छद्मस्थस्य तु प्रागुपन्यासस्तत्पूर्वकत्वाजिनस्य प्राचुर्येण वा तथाविधोपदेष्टुणां, स ईदृक्किमित्याह-उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः॥९५२॥ आज्ञारुचिमाह-रागो'इत्यादि, राग:-अभिष्वङ्गो द्वेषः-अप्रीतिः मोहः-शेषमोहनीयप्रकृतयः अज्ञानमिथ्याज्ञानरूपं यस्यापगतं-नष्टं भवति, सर्वथा चास्यैतदपगमासम्भवाद्देशत इति गम्यते, अपगतशब्दस्य लिङ्गविपरिणामतो रागादिभिः प्रत्येकममिसम्बन्धः, एतदपगमाच 'आणाए'त्ति अवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य आज्ञयैव केवलया तीर्थकरादिसम्बन्धिन्या रोचमानः-कचिदपि कुग्रहाभावात् प्रवचनोक्तमर्थजातं तथेति प्रतिपद्यमानो माषतुषादिवत् स खलु-निश्वितमाज्ञारुचिः नामेत्यभ्युपगमे ततश्चाज्ञारुचिरित्यभ्युपगन्तव्यः॥९५३॥ सूत्ररुचिमाह-'जोसुत्ते'इत्यादि, यः सूत्रं आगममधीयानः पठन् श्रुतेनेति-सूत्रेण तेनैवाधीयमानेन अङ्गेन-अङ्गप्रविष्टेनाचारादिना बाह्येन च-अङ्गवाह्येन आवश्यकादिना सम्यक्त्वमवगाहते-प्राप्नोति तुशब्दस्याधिकार्थसूचकत्वात्प्रसन्नप्रसन्नतराध्यवसायश्च भवति स गोविन्दवाचकवत् सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः।।९५४॥ बीजरुचिमाह-एगे'त्यादि,एकेन पदेन प्रक्रमाजीवादिना अवगतेन अनेकानि पदानि प्राकृतत्वेन विभक्तिव्यत्ययादनेकेषु-बहुषु पदेषु-जीवादिषु यः प्रसरति-व्यापितया गच्छति सम्यक्त्वमित्यनेन रुचिरत्रोपलक्षिता EXAMACROSAROKAR Jan Education Intematon For Private Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M भेदाः प्रव० सा || ततो धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् आत्मा सम्यक्त्ववान् सन् प्रसरति रुचिरूपेण प्रसरतीत्यर्थः, यदा तु “पयरई उ सम्मत्ते' इति पाठस्तदा। सम्यक्त्वरोद्धारे एकपदविषये सम्यक्त्वे-रुचौ सति अनेकेषु पदेषु प्रचरति-प्रकर्षेण व्यापितया गच्छति रुच्यात्मकत्वेनैवेत्यक्षरार्थः, भावार्थस्तु स एवेति, स्यैकादितत्त्वज्ञा तुशब्दोऽवधारणे, प्रसरत्येव, कथमित्याह-उदक इव तैलबिन्दुः, किमुक्तं भवति ?-यथा उदकैकदेशगतोऽपि तैलबिन्दुः समस्तमुदकमाक्रामति नवि० तथा तत्त्वैकदेशोत्पन्नरुचिरप्यात्मा तथाविधक्षयोपशमवशादशेषेषु तत्त्वेषु रुचिमान् भवति, स एवंविधो बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः, यथा हि कागा. ९४२ बीजं क्रमेणानेकबीजानां जनकं एवमस्यापि रुचिविषयो भेदतो भिन्नानां रुच्यन्तराणामिति ॥९५५।। अधिगमरुचिमाह-'सो'इत्यादि, यस्य ९६२ ॥२८४॥ श्रुतज्ञानमर्थतो दृष्टं, किमुक्तं भवति ?-येन श्रुतज्ञानस्यार्थोऽधिगतो भवति, किं पुनस्तत् श्रुतज्ञानमित्याह-एकादशाङ्गानि-आचारादीनि प्रकीर्णकानि-उत्तराध्ययननन्द्यध्ययनादीनि दृष्टिवादः-परिकर्मसूत्रादिः, अङ्गत्वेऽपि पृथगुपादानमस्स प्राधान्यख्यापनार्थ, चशब्दादुपाङ्गानि चौपपातिकादीनि, स भवत्यधिगमरुचिः ॥ ९५६ ॥ विस्ताररुचिमाह-'दवाण'मित्यादि, द्रव्याणां-धर्मास्तिकायादीनामशेषाणामपि सर्वे भावाः-पर्यायाः सर्वप्रमाणैः-अशेषैः प्रत्यक्षादिभिर्यस्योपलब्धाः-यस्य प्रमाणस्य यत्र व्यापारस्तेनैव प्रमाणेन प्रतीताः 'सबाहिं'ति सर्वैश्च नयविधिभिः-नैगमादिनयप्रकारैः, अमुं भावमयं अमुं चायं नयभेदमि(द इ)च्छतीति स विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः, सर्ववस्तुपर्यायप्रपञ्चा| वगमेन तस्य रुचेरतिविमलरूपतया भावात्॥९५७॥ क्रियारुचिमाह-'नाणे' इत्यादि, ज्ञाने तथा दर्शनं च चारित्रं च दर्शनचारित्रं समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् तथा तपसि विनये च, तथा सर्वासु समितिपु-ईर्यासमित्यादिषु सर्वासु च गुप्तिषु-मनोगुप्तिप्रभृतिषु 'सच्च'त्ति पाठे तु सत्या-निरुपचरितास्ताश्च ताः समितिगुप्तयश्च, यदिवा सत्यं च-अविसंवादनयोगाद्यात्मकं समितिगुप्तयश्च सत्यसमितिगुप्तयस्तासु यः क्रिया- ॥२८४॥ भावरुचिः, किमुक्तं भवति ?-यस्य भावतो ज्ञानाद्याचारानुष्ठाने रुचिरस्ति स खलु क्रियारुचिर्नाम, इह च चारित्रान्तर्गतत्वेऽपि तपः %ॐॐॐ45455 For Private Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभृतीनां पुनरुपादानं विशेषत एषां मुक्त्यङ्गत्वख्यापनार्थ ॥ ९५८ ॥ सङ्केपरुचिमाह-'अणे'त्यादि, अनभिगृहीता-अनङ्गीकृता कुत्सिता दृष्टिः-सौगतादिदर्शनं येन स तथा, अविशारदः-अकुशलः प्रवचने-जिनप्रणीते शेषेषु च-कपिलादिप्रणीतेषु प्रवचनेषु अनमिगृहीतो-न | विद्यतेऽभीत्याभिमुख्येनोपादेयतया गृहीतं-ग्रणं ज्ञानमस्येत्यनभिगृहीतः, पूर्वमनमिगृहीतकुदृष्टिरित्यनेन दर्शनान्तरपरिग्रहः प्रतिषिद्धः अनेन तु परदर्शनपरिज्ञानमात्रमपि निषिद्धमिति विशेषः, इदमत्र तात्पर्य-उक्तविशेषणो यः सङ्केपेणैव चिलातीपुत्रवदुपशमादिपदत्रयेण तत्त्व| रुचिमवाप्नोति स सङ्केपरुचिरुच्यते इति ।। ९५९ ॥ धर्मरुचिमाह-'जो'इत्यादि, यः खलु जीवोऽस्तिकायानां-धर्मास्तिकायादीनां धर्मगत्युपष्टम्भकत्वादिरूपं स्वभावं श्रुतधर्मम्-अङ्गप्रविष्टाद्यागमस्वरूपं चारित्रधर्म च-सामायिकादिकं जिनाभिहितं-तीर्थकदुक्तं श्रद्दधातितथेति प्रतिपद्यते स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः, इह च शिष्यमतिव्युत्पादनार्थमित्थमुपाधिभेदेन सम्यक्त्वभेदाभिधानं, अन्यथा हि निसर्गोपदेशयोरधिगमादौ वा फचित्केषाश्चिदन्तर्भावोऽस्त्येवेति ।। ९६० ॥ अथ पूर्वोक्तान्येव क्षायिकादीनि त्रीणि सम्यक्त्वानि प्रसङ्गतो नारकादिजीवेषु चिन्तयन्नाह-'आई'त्यादिगाथाद्वयं, आद्यासु तिसृषु पृथिवीषु-रत्नप्रभाशर्कराप्रभावालुकाप्रभासु 'खयोवसमवेयगं'ति सूचकत्वात् सूत्रस्य क्षायिकमौपशमिकं वेदकं च सम्यक्त्वं भवति, इह च वेद्यन्ते-अनुभूयन्ते शुद्धसम्यक्त्वपुजपुद्गला अस्मिन्निति वेदकंक्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते, औपशमिकक्षायिकसम्यक्त्वयोः पुद्गलवेदनस्य सर्वथैवाभावात् , यत्पुनः क्षप्यमाणसम्यक्त्वपुखपुद्गलचरमग्रासलक्षणं वेदकसम्यक्त्वं पूर्वमुक्तं तदिह पृथग् न विवक्षितं, पुद्गलवेदनस्य समानत्वेन क्षायोपशमिकसम्यक्त्व एव तस्यान्तर्भावात् , || ततोऽयमर्थः-आद्यनरकपृथिवीत्रयवर्तिनारकाणां क्षायिकौपशमिकक्षायोपशमिकानि त्रीण्यपि सम्यक्त्वानि सम्भवन्तीति, तथाहि-योऽ-| Mनादिमिथ्यादृष्टिारकः प्रथमं सम्यक्त्वमवाप्नोति तस्यान्तरकरणकालेऽन्तर्मुहूर्तमौपशमिकं सम्यक्त्वं भवति, औपशमिकसम्यक्त्वाच्चानन्तरं For Private & Personel Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ९६२ ॥२८५॥ PCOCARRICS शुद्धसम्यक्त्वपुजपुद्गलान् वेदयतस्तस्यापि क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्यते, मनुष्यतिर्यग्भ्यो वा यः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि रकेषुत्पद्यते || सम्यत्तवतस्यैतत्पारभविकं लभ्यते, विराधितसम्यक्त्वो हि षष्ठीपृथिवीं यावत् गृहीतेनापि सम्यक्त्वेन सैद्धान्तिकमतेन कश्चिदुत्पद्यते, कार्मग्र-IDII स्यैकादिन्थिकमतेन तु वैमानिकदेवेभ्योऽन्यत्र तिर्यमनुष्यो वा वान्तेनैव क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेनोत्पद्यते न गृहीतेनेति, यदा पुनः कश्चिन्मनुष्यो भेदाः नारकयोग्यमायुर्बन्धं विधाय पश्चात्क्षपकश्रेणिमारभते बद्धायुष्कत्वाच्च तां न समापयति केवलं दर्शनसप्तकं क्षपयित्वा क्षायिकं सम्यक्त्व- गा.९४२ मवाप्नोति, ततश्च मनुष्यायुस्त्रुटिसमये मृत्वा नारकेपूत्पद्यते तदा आद्यपृथिवीत्रयनारकाणां पारभविकं क्षायिकं सम्यक्त्वमवाप्यते, न तु| ताविकं, मनुष्यस्यैव तद्भवे क्षायिकसम्यक्त्वारम्भकत्वादिति, तथा वैमानिकदेवानां पणिदितिरियाण'त्ति व्याख्यानतो विशेषावगतौ पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां तिरश्वां वा सङ्ख्येयवर्षायुषामेवमेव-पूर्वोक्तमेव, त्रीण्यपि सम्यक्त्वानि भवन्तीत्यर्थः ॥ तत्र वैमानिकदेवानामौपशमिकं क्षायिकं च नारकवदेव, क्षायोपशमिकं त्वौपशमिकसम्यक्त्वानन्तरकालभावि तादविक, तिर्य मनुष्यो वा यः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिः सन् वैमानिकेषूत्पद्यते तस्यैतत्पारभविकं च लभ्यते, मनुष्यास्तु द्विविधाः सङ्ख्येयवर्षायुषोऽसहयेयवर्षायुषश्च, तत्र सयेयवर्षायुषां मनु-I घ्याणामापशमिकं सम्यक्त्वमनन्तरोक्तन्यायेन प्रथमसम्यक्त्वलाभकाले भवत्युपशमश्रेण्या वा, तदनन्तरकालादिभावि तु क्षायोपशमिकं ताद्भविकं, देवादीनां तु क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीनां मनुष्येपूत्पत्तौ पारभविकं क्षायोपशमिकं, क्षायिकं तु क्षपकश्रेण्यां ताविक, नारकदेवानां क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां मनुष्येषत्पत्तो पारभविकं तथैव, असयेयवर्षायुषां पुनर्मनुष्याणामौपशमिकं क्षायिकं च नारकवदेव वाच्यं, क्षायोपशमिकं तु तदनन्तरकालादिभावि ताद्भविक तथैव, तिर्यमनुष्यास्तु क्षायोपशमिकसम्यक्त्वयुक्ता वैमानिकेष्वेव जायन्ते | | |२८५॥ नान्यत्र, ये तु मिथ्यादृष्ट्यवस्थायां बद्धायुष्कत्वादेपूत्पद्यन्ते ते अवश्यं मरणसमये मिथ्यात्वं गत्वैवोत्पद्यन्ते इति पारभविकं क्षायोपश in Education For Private Personel Use Only Sw.jainelibrary.org Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MESSACROSRUSSSS | मिकं सम्यक्त्वमेषां न लभ्यते इति कार्मप्रन्थिकाः, सैद्धान्तिकास्तु मन्यन्ते-क्षायोपशमिकसम्यक्त्वसंयुक्ता अपि बद्धायुष्का अमी केचिदेतेपूत्पद्यन्ते इति पारभविकमपि क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वममीपां लभ्यते, असङ्ख्येयवर्षायुष्कतिरश्चां पुनस्त्रीण्यपि सम्यक्त्वान्यसङ्ख्येयवर्षायुष्कमनुष्यवद्वाच्यानि, शेषाणामाद्यपृथिवीत्रयव्यतिरिक्तानां नारकाणां पङ्कप्रभाद्यधस्तनपृथिवीचतुष्टयनारकाणामित्यर्थः 'तिरियत्थीणं च'त्ति असङ्ख्येयवर्षायुष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिरश्च तत् स्त्रीणां च, तथा त्रिविधदेवानां-भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कलक्षणानां नास्त्येव | क्षायिकं सम्यक्त्वं, क्षायिकं हि सम्यक्त्वमेतेषु ताद्भविकं तावन्न भवति, सङ्ख्येयवर्षायुष्कमनुष्यस्यैव क्षायिकसम्यक्त्वारम्भकत्वात् , पारभविकमपि न भवति क्षायिकसम्यग्दृष्टेरेतेष्वनुत्पत्तेः, औपशमिकक्षायोपशमिके तु भवत इति, 'सम्म अन्नेसिं चेव जीवाणं'ति | अन्येषां पुनर्जीवानां सम्यक्त्वमेव नास्ति चः पुनरर्थे, एवोऽवधारणे भिन्नक्रमः स च योजित एव, एतदुक्तं भवति-एकद्वित्रिचतुरिन्द्रि| यासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां तद्भवं परभवं वा अपेक्ष्य प्रस्तुतसम्यक्त्वत्रयमध्य एकमपि न सम्भवति, सास्वादनसम्यक्त्वं पुनर्बादरपृथिव्यम्बु| वनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेष्वपर्याप्तावस्थायां पारभविकं, पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु तु ताद्भविकमवाप्यते, सूक्ष्मैकेन्द्रियबादरतेजोवायुषु पुनः सम्यक्त्वलेशवतामप्युत्पादाभावात् सास्वादनं नास्तीत्येष कार्मप्रन्थिकामिप्रायः, सूत्राभिप्रायेण तु पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां सास्वादनसम्यक्त्वं नास्ति, यदुक्तं प्रज्ञापनायां-"पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! पुढविकाइया नो सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्टी नो सम्मामिच्छदिट्ठी, एवं जाव वणप्फइकाइया” इति ॥ ९६१ ॥ ९६२ ॥ १४९ ॥ इदानीं 'कुलकोडीणं संखा जीवाणं'ति पश्चाशदधिकशततमं द्वारमाह बारस सत्त य तिन्नि य सत्त य कुलकोडिसयसहस्साई । नेया पुढविदगागणिवाऊणं चेव परि in Education International For Private Personal use only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रध० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा कुलकोटीसंख्या गा.९६३९६७ नवि० ॥२८६॥ - संखा ॥९६३ ॥ कुलकोडिसयसहस्सा सत्तट्ट य नव य अहवीसं च । बेइंदियतेइंदियचउरिंदियहरियकायाणं ॥ ९६४ ॥ अद्धत्तेरस बारस दस दस नव चेव सयसहस्साई । जलयरपक्खिचउप्पयउरभुयसप्पाण कुलसंखा ॥ ९६५॥ छच्चीसा पणवीसा सुरनेरइयाण सयसहस्साई । बारस य सयसहस्सा कुलकोडीणं मणुस्साणं ॥९६६ ॥ एगा कोडाकोडी सत्ताणउई भवे सयसहस्सा। पन्नासं च सहस्सा कुलकोडीणं मुणेयवा ॥ ९६७॥ 'बारसे'त्यादिगाथापञ्चकम् , पृथिव्युदकाग्निवायूनामेव कुलान्याश्रित्य परिसङ्ख्या यथाक्रमं ज्ञेया, तद्यथा-द्वादश कुलकोटिशतसहस्राणिलक्षाः पृथिवीकायिकानां सप्त उदकजीवानां त्रीण्यग्निकायिकानां वायूनां पुनः सप्तैव कुलकोटिशतसहस्राणि ॥९६३।। 'कुले'त्यादि, अत्रापि | यथासयेन योजना, द्वीन्द्रियाणां सप्त कुलकोटिशतसहस्राणि अष्टौ त्रीन्द्रियाणां नव चतुरिन्द्रियाणां अष्टाविंशतिहरितकायिकानां-समस्तवनस्पतिकायिकानाम् ॥९६४॥ 'अद्धे'त्यादि, अत्रापि यथाक्रमं पद्घटना, तत्र जले चरन्ति-पर्यटन्तीति जलचरा:-मत्स्यमकरादयः तेषामर्धत्रयोदश कुलकोटिशतसहस्राणि, सार्धा द्वादश कुलकोटिलक्षा इत्यर्थः, पक्षिणां-केकिकाकादीनां द्वादश चतुष्पदानां-गजगर्दभादीनां दश उरःपरिसर्पाणां-भुजगादीनां दश भुजपरिसणां-गोधानकुलादीनां नव कुलकोटिलक्षाणि भवन्ति ॥९६५।। 'छवीसे'त्यादि, सर्वेषां भवनपत्यादिसुराणां षड्विंशतिः कुलकोटिलक्षाणि नारकाणां तु पञ्चविंशतिः मनुष्याणां पुनर्द्वादश कुलकोटीनां शतसहस्राणि भवन्तीति | ॥९६६॥ अथ पूर्वोक्तानामेव कुलानां सर्वसङ्ख्यामाह-एगे'त्यादि, सर्वसङ्ख्यया एका कुलकोटीकोटिः सप्तनवतिः कुलकोटीनां शतसहस्राणि पञ्चाशच सहस्राः कुलकोटीनां ज्ञातव्याः ॥९६७॥१५०॥ इदानीं 'जोणिलक्ख चुलसी'त्येकपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह - | ॥२८ ॥ Jain Educatio n al For Private Personal Use Only ww.jainelibrary.org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढविदगअगणिमारुय एकेके सत्त जोणिलक्खाओ। वणपत्तेयअणंते दस चउदस जोणिलक्खाओ॥९६८॥ विगलिंदिएसु दो दो चउरो चउरो य नारयसुरेसुं। तिरिएसु होति चउरो चउदस लक्खा उ मणुएसु ॥९६९ ॥ समवन्नाइसमेया बहवोऽवि हु जोणिलक्खभेयाओ। सा मन्ना घिप्पंतिह एक्कगजोणीइ गहणेणं ॥९७०॥ 'यु मिश्रणे' इत्यस्य धातोर्युवन्ति-भवान्तरसङ्क्रमणकाले तैजसकामणशरीरवन्तः सन्तो जीवा औदारिकादिशरीरप्रायोग्यपुद्गलस्कन्धैर्मिश्रीभवन्त्यस्यामिति औणादिके निप्रत्यये योनिः जीवानामुत्पत्तिस्थानमित्यर्थः, तत्र पृथिव्युदकाग्निमरुतां सम्बन्धिन्येकैकस्मिन् समूहे सप्त सप्त योनिलक्षा भवन्ति, तद्यथा-सप्त पृथिवीनिकाये सप्तोदकनिकाये सप्ताग्निनिकाये सप्त वायुनिकाये, वनस्पतिनिकायो द्विविधस्तद्यथा-प्रत्येकोऽनन्तकायश्च, तत्र प्रत्येकवनस्पतिनिकाये दश योनिलक्षाः, अनन्तवनस्पतिनिकाये चतुर्दश लक्षाः, विकलेन्द्रियेषु-द्वीन्द्रियादिषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियरूपेषु प्रत्येकं द्वे द्वे योनिलक्षे, तद्यथा-वे योनिलक्षे द्वीन्द्रियेषु द्वे त्रीन्द्रियेषु द्वे चतुरिन्द्रियेषु, तथा चतस्रो योनिलक्षा नारकाणां, चतस्रो देवानां, तथा तिर्यक्षु पञ्चेन्द्रियेषु चतस्रो योनिलक्षाः, चतुर्दश योनिलक्षा मनुष्येषु, सर्वसङ्ख्यायाश्च | मीलने चतुरशीतिर्योनिलक्षा भवन्तीति । न च वक्तव्यमनन्तानां जीवानामुत्पत्तिस्थानान्यप्यनन्तानि प्राप्नुवन्ति, यतो जीवानां सामान्याधारभूतो लोकोऽप्यसङ्ख्येयप्रदेशात्मक एव, विशेषाधाररूपाण्यपि नरकनिष्कुटदेवशयनीयप्रत्येकसाधारणजन्तुशरीराण्यसङ्ख्येयान्येव, ततो जीवानामानन्त्येऽपि कथमुत्पत्तिस्थानानामानन्त्यं?, भवन्तु तीसङ्ख्येयानीति चेन्नैवं, यतो बहून्यपि तानि केवलिदृष्टेन केनचिद्वर्णादिना धर्मेण सदृशान्येकैव योनिरिष्यते, ततोऽनन्तानामपि जन्तूनां केवलि विवक्षितवर्णादिसादृश्यतः परस्परान्तर्भावचिन्तया चतुरशी Jain Education internal For Private Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥२८७॥ तिलक्षसङ्ख्या एव योनयो भवन्ति, न हीनाधिकाः ॥ ९६८ ॥ ९६९ ॥ एतदेवाह-'समें'त्यादि, समैः-सदृशैर्वर्णादिभि:-वर्णगन्ध- ८४ यो रसस्प ः समेता-युक्ताः समानवर्णगन्धरसस्पर्शा इत्यर्थः, बहवोऽपि-प्रभूता अपि योनिभेदलक्षा हु:-निश्चितमिह एकयोनिजातिग्रहणेन || निलक्षा गृह्यन्ते, कुतः?-सामान्यात्-व्यक्तिभेदतः प्राभूत्येऽपि समानवर्णगन्धरसस्पर्शसद्भावेन सादृश्यादिति । ननु योनिकुलयोः कः प्रतिवि- गा.९९८शेषः ?, उच्यते, योनिर्जीवानामुत्पत्तिस्थानं, यथा वृश्चिकादेर्गोमयादि, कुलानि तु योनिप्रभवानि, तथाहि-एकस्यामेव योनावनेकानि |कुलानि भवन्ति, यथा छगणयोनौ कृमिकुलं कीटकुलं वृश्चिककुलमित्यादि, यदिवा तस्यैव वृश्चिकादेोमयाघेकयोन्युत्पन्नस्यापि कपिलर|क्तादिवर्णभेदादनेकविधानि कुलानीति । अथ प्रज्ञापनाद्यनुसारेण योनिविषयोऽपरोऽपि विशेषः कश्चिदुपदर्श्यते-यथा शीतोष्णमिश्रभेदात् त्रिधा योनिः, तत्र नारकाणां शीता उष्णा च, आद्यासु तिसृषूष्णवेदनासु पृथिवीषु शीता, चतुर्ध्या बहुषूपरितनेषु उष्णवेदनेषु नरकावासेषु शीता अधः स्तोकेषु शीतवेदनेषु उष्णा, पञ्चम्यां बहुषु शीतवेदनेषु उष्णा स्तोकेषु उष्णवेदनेषु शीता, षष्ठीसप्तम्योश्च शीत| वेदनयो रकाणां योनिरुष्णैव, शीतयोनिकानां हि उष्णवेदनाऽभ्यधिका भवति उष्णयोनिकानां तु शीतवेदना, नारकाणां च यथा वेद-1 नाप्राचुर्यमापद्यते प्रायः सर्व तथैव परिणमति, ततो वेदनाक्रमप्रातिकूल्येन योनिक्रमसम्भवः, सुराणां गर्भजतिर्यकराणां च शीतोष्णरूपोभयस्वभावा योनिः, नैकान्तेन शीतं नाप्युष्णं किन्त्वनुष्णाशीतं तदुपपातक्षेत्रमिति भावः, पृथिव्यम्बुवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रिय-Ix | सम्मूछिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रियसम्मूछिममनुष्याणामुपपातस्थानानि शीतस्पर्शान्युष्णस्पर्शान्युभयस्पर्शान्यपि भवन्तीति तेषां त्रिधा योनिः, केषाश्चिच्छीता केषाश्चिदुष्णा केषाञ्चिन्मिश्रेति, तेजस्कायिकानामुष्णैव योनिः, उष्णस्पर्शपरिणत एव क्षेत्रे तेषामुत्पत्तेः । तथा सचित्ता IDI||२८७॥ चित्तमिश्रभेदादपि त्रिधा योनिः, तत्र नारकाणां देवानां चाचित्ता, तदुपपातक्षेत्रस्य केनापि जन्तुनाऽपरिगृहीतत्वेनाचेतनत्वात् , यद्यपि For Private & Personel Use Only Www.jainelibrary.org Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च सूक्ष्मैकेन्द्रियाः सकललोकव्यापिनस्तथापि न तत्प्रदेशैरुपपातस्थानपुद्गला अन्योऽन्यानुगमेन सम्बद्धा इत्यचित्तैव तेषां योनिः, एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियसम्मूछिमतिर्यग्नराणां त्रिविधाऽपि योनिः, जीवति गवादावुत्पद्यमानानां कृम्यादीनां सचित्ता अचित्ते काष्ठे समुत्पद्यमानानां घुणादीनामचित्ता सचित्ताचित्तेषु काष्ठगोक्षतादिषु घुणकृम्यादीनामेव मिश्रा, गर्भजतिर्यग्नराणां पुनर्मिश्रा, ये हि शुक्रमिश्राः शोणितपुद्गला योन्याऽऽत्मसात्कृतास्ते सचित्ताः, अन्ये त्वचित्ता इति । तथा संवृतविवृतोभयभेदादपि त्रिधा योनिः, तत्र नारकदेवैकेन्द्रियाणां संवृता योनिः, नारकोत्पत्तिस्थानानां निष्कुटानां संवृतगवाक्षकल्पत्वात् देवानां तु देवशयनीयेषु देवदूष्याभ्यन्तरे संबृतस्वरूपे समुत्पादात् एकेन्द्रियाणां तु योनेः स्पष्टमनुपलक्ष्यमाणत्वात् , द्वित्रिचतुरिन्द्रियसम्मूछिमतिर्यग्नराणां विवृता योनिः, तेषामुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयादेः स्पष्टमुपलक्ष्यमाणत्वात् , गर्भजतिर्यनराणां तूभयरूपा योनिः, गर्भस्य संवृतविवृतरूपत्वात् , गर्भो झन्तः स्वरूपतो नोपलभ्यते बहिः पुनरुदरवृद्ध्यादिना समुपलक्ष्यते इति । अथ मनुष्ययोनिगतो विशेषः प्रतिपाद्यते-यथा मनुष्याणां योनिस्त्रिधा कूर्मोन्नता शङ्खावर्ता वंशीपत्रा च, कूर्मपृष्ठमिवोन्नता कूर्मोन्नता शङ्खस्येवावर्तो यस्यां सा शङ्कावर्ता संयुक्तवंशीपत्रद्वयाकारा वंशीपत्रा, तत्र कूर्मोन्नतायां | योनौ तीर्थकृच्चक्रवर्तिवासुदेवबलदेवा उत्पद्यन्ते, वंशीपत्रायां सामान्यमनुष्या जायन्ते, शङ्खावर्ता तु खीरत्नस्यैव भवति, तस्यां च गर्भ उत्पन्नोऽपि न निष्पत्तिं याति, प्रबलतमकामाग्निपरितापतो ध्वंसगमनादिति वृद्धप्रवादः ॥ ९७०॥१५१ ॥ सम्प्रति 'तिक्कालाई वि तत्थ विवरण ति द्विपचाशदधिकशततमं द्वारमाह त्रैकाल्यं ३ द्रव्यषट्कं ६ नवपदसहितं जीवषट्कायलेश्याः ६, पञ्चान्ये चास्तिकाया ५ व्रत ५ स. मिति ५ गति ५ ज्ञान ५ चारित्र ५ भेदाः । इत्येते मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमहद्भिरीशैः, For Private Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० %A5%EC त्रैकाल्यवृत्तवि: वृतिः ॥२८ ॥ प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः॥९७१॥ एयस्स विवरणमिणं तिछालमईयवहमाणेहिं । होइ भविस्सजुएहिं दवच्छकं पुणो एयं ॥ ९७२ ॥ धम्मस्थिकायदवं १ दवमहम्मत्थिकायनाम २च । आगास ३ काल ४ पोग्गल ५ जीवदयस्सरुवं च ६॥९७३ ॥ जीवा १ जीवा २ पुन्नं ३ पावा ४ऽऽलव ५ संवरो य ६ निज़रणा ७।बंधो ८ मोक्खो ९ य इमाई नव पयाइं जिणमयम्मि ॥९७४ ॥ जीवं छा इग १ वि २ ति ३ चउ ४ पणिदिय ५ अणिदियसरूवं ६ । छक्काया पुढवि १ जला २ चल ३ वाउ ४ वणस्सइ ५ तसेहिं ६॥९७५॥ छल्लेसाओ कण्हा १ नीला २ काऊ य ३ तेउ ४ पउम५सिया ६ । कालविहीणं दवच्छक्कं इह अस्थिकायाओ ॥९७६ ॥ पाणिवह १ मुसावाए २ अदत्त ३ मेहुण ४ परिग्गहेहि ५ इहं । पंच वयाई भणियाई पंच समिईओ साहेमि ॥९७७॥ इरिया १ भासा २ एसण ३ गहण ४ परिट्ठवण ५ नामिया ताओ । पंच गईओ नारय १ तिरि २ नर ३ सुर ४ सिद्ध ५ नामाओ॥९७८॥ नाणाई पंच मइ १ सुय २ ओहि ३ मण ४ केवलेहि ५ भणियाई । सामाइय १ छेय २ परिहार ३ सुहम ४ अहक्खाय ५ चरणाई ॥९७९॥ त्रयः कालाः समाहृतात्रिकालं त्रिकालमेव त्रैकाल्यमतीतादिकालत्रिकमित्यर्थः, द्रव्यषट्कं-धर्मास्तिकायादिभेदात् , नवमिः पदैःजीवादिभिस्तत्त्वैः सहितं-युक्तं द्रव्यषट्कमेव ज्ञातव्यं, तथा षट्शब्दस्य डमरुकमणिन्यायेनोभयत्र सम्बन्धात् षट् जीवा-एकेन्द्रिया %254 ॥२८॥ 4 5 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादयः षट् कायाः-पृथिवीकायादयः, षट् च लेश्या:-कृष्णादयः, अपरे च पञ्चास्तिकाया-धर्मास्तिकायादयः, तथा पञ्चशब्दस्य प्रत्येक मत्रापि योजनात्पञ्च व्रतभेदाः-प्राणिवधविरमणादयः, पञ्च समितिभेदा-ईर्यासमित्यादयः, पञ्च गतिभेदा-नरकगत्यादयः, पञ्च ज्ञानभेदाः-मतिज्ञानादयः, पञ्च चारित्रभेदाः-सामायिकादयः, इत्येते पूर्वोक्ताः सर्वेऽपि पदार्थास्त्रिभुवनमहितैः-त्रिलोकार्चितैरर्हद्भिः-तीर्थकरैरीशैः स्वाभाविककर्मक्षयजन्यसुरविरचितचतुस्त्रिंशदतिशयस्वरूपपरमैश्वर्योपशोमितैर्मोक्षमूलं-निर्वाणकारणं प्रोक्तं-उपदिष्टं, अतो यः । पुमान् मतिमान्-अवेकविवेककलित एतान् प्रत्येति-स्वरूपतोऽवगच्छति श्रद्दधाति-इदमेव तत्त्वमित्यात्मनो रोचयति स्पृशति च-यथा| यथं सम्यगासेवते स वै स्फुटं 'शुद्धदृष्टिः' शुद्धा-मिथ्यात्वमलानाविला दृष्टिः-सम्यक्त्वं यस्य स शुद्धदृष्टिरिति ॥ ९७१ ॥ अथैनं वृत्तं व्याचिख्यासुः कालत्रिकं प्रतिपादयन्नाह–'एये'त्यादि, एतस्य-पूर्वोक्तस्य त्रैकाल्यमित्यादेः स्रग्धरावृत्तस्येदं-वक्ष्यमाणं विवरणंव्याख्यानं विज्ञेयमिति शेषः, तत्र त्रैकाल्यमतीतवर्तमानाभ्यां भविष्यधुक्ताभ्यां भवति, अतीतवर्तमानभविष्यल्लक्षणास्त्रयः काला इत्यर्थः, तत्रातिशयेन इतो-गतोऽतीतो, वर्तमानत्वमतिक्रान्त इत्यर्थः, वर्तत इति वर्तमानः-साम्प्रतमुत्पन्नः सर्वसूक्ष्मनिरंशसमयमात्रमान इति भावः, भविष्यतीति भविष्यन्-वर्तमानत्वं न प्राप्तोऽनागत इति हृदयं, द्रव्यषट्कं पुनरिद-वक्ष्यमाणं ॥ ९७२ ॥ तदेवाह-'धम्मेत्यादि, धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायाकाशास्तिकायकालपुद्गलास्तिकायजीवास्तिकायस्वरूपाणि षड् द्रव्याणि, तत्र जीवानां पुद्गलानां च खत एव गतिक्रियापरिणतानां तत्स्वभावधरणात्-तत्स्वभावपोषणाद्धर्मः अस्तयश्चेह प्रदेशास्तेषां कायः-सङ्घातोऽस्तिकायः, ततो धर्मश्चासावस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः, सकललोकव्यापी असंख्येयप्रदेशात्मकोऽमूर्तो द्रव्यविशेष इत्यर्थः । जीवपुद्गलानामेव तथैव गतिपरिणतानां तत्स्वभावेऽधरणादधर्मः स चासावस्तिकायश्चाधर्मास्तिकायः, किमुक्तं भवति ?-जीवपुद्गलानां स्थितिपरिणामपरिणतानां तत्परि-| Jan Education Intematon For Private Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० त्रैकाल्यवृत्तविवृत्तिः पाना ॥२८९॥ जाणामोपष्टम्भकोऽमूर्तो लोकव्यापी असंख्येयप्रदेशात्मकोऽधर्मास्तिकायः, लोकमात्रत्वं चानयोरेतदवष्टम्भकाकाशदेशस्यैव लोकत्वात् , अलो कव्यापित्वे त्वनयोर्जीवपुद्गलानामपि तत्र प्रचारप्रसङ्गेन तस्यापि लोकत्वप्राप्तेरिति । तथा आङिति मर्यादया तत्संयोगेऽपि स्वकीयस्खकीयखरूपेऽवस्थानतः सर्वथा तत्स्वरूपाप्राप्तिलक्षणया काशन्ते-स्वभावलाभेनावस्थितिकरणेन च दीप्यन्ते पदार्थसार्था यत्र तदाकाशं यदा त्वमिविधावाङ् तदाऽऽङिति सर्वभावाभिव्याप्त्या काशते-प्रतिभासते इत्याकाशं तच्च तदस्तिकायश्चाकाशास्तिकायो, लोकालोकव्यापी अन|न्तप्रदेशात्मको द्रव्यविशेष इत्यर्थः। तथा कलन-समस्तवस्तुस्तोमस्य सङ्ख्यानमिति कालः, अथवा कलयन्ति-समयोऽस्यानेन रूपेणोत्पन्न| स्यावलिका मुहूर्तादि वा इत्यादिप्रकारेण सर्वमपि सचेतनाचेतनं वस्त्ववगच्छन्ति केवल्यादयोऽनेनेति काल:-समयावलिकारूपो द्रव्यविशेषः । तथा पूरणगलनधर्माणः पुद्गला:-परमाण्वादयोऽनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्ताः, एते हि कुतश्चिद् द्रव्याद्गलन्ति-वियुज्यन्ते किञ्चित्तु द्रव्यं स्वसंयोगतः पूरयन्ति-पुष्टं कुर्वन्ति, पुद्गलाश्च तेऽस्तिकायश्च पुद्गलास्तिकायः। तथा जीवन्ति जीविष्यन्ति जीवितवन्त इति जीवास्ते च तेऽस्तिकायश्च जीवास्तिकायः, प्रत्येकमसङ्खयेयप्रदेशात्मकसकललोकभाविनानाजीवद्रव्यसमूह इत्यर्थः, अत्र च जीवपुद्गलानां गत्यन्यथानुपपत्तेधर्मास्तिकायस्य तेषामेव स्थित्यन्यथानुपपत्तेरधर्मास्तिकायस्य जीवादिपदार्थानामाधारान्यथानुपपत्तेराकाशास्तिकायस्य बकुला| शोकचम्पकादिपुष्पफलप्रदाननैयत्यान्यथाऽनुपपत्तेः कालस्य घटादिकार्यान्यथानुपपत्तेः पुद्गलास्तिकायस्य प्रतिप्राणि स्वसंवेदनसिद्धचैतन्यान्य| थानुपपत्तेश्च जीवास्तिकायस्य सत्त्वं समवसेयमिति ॥९७३ ॥ अथ नव पदान्याह-'जीवे'त्यादि, जीवाः-सुखदुःखोपयोगलक्षणाः अ|जीवा:-तद्विपरीता धर्मास्तिकायादयः पुण्यं-शुभप्रकृतिरूपं कर्म पापं-तद्विपरीतं कर्मैव आश्रवति-आगच्छति कर्मानेनेत्याश्रवः शुभाशु| भकर्मोपादानहेतुः हिंसादिः संवरणं संवरो-गुप्त्यादिभिराश्रवनिरोधः निर्जरणं निर्जरा-विपाकाचपसो वा कर्मणां देशतः क्षपणं बन्धो ॥२८९॥ For Private & Personel Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवकर्मणोरत्यन्तसंश्लेषः मोक्ष:-कृत्स्नकर्मक्षयादात्मनः स्वात्मन्यवस्थानं, इत्येतानि नवसङ्ख्यानि पदानि-तत्त्वानि जिनमते-अर्हत्प्रवचने विज्ञेयानीति, इह च आश्रवबन्धपुण्यपापानि मुख्य संसारकारणमिति हेयानि, संवरनिर्जरे मुख्यं मोक्षकारणं, मोक्षस्तु मुख्यं साध्यमित्येतानि त्रीण्यप्युपादेयानीत्येवं शिष्यस्य हेयोपादेयतापरिज्ञानार्थ मध्यमप्रस्थानापेक्षया नवेत्युक्तं, अन्यथा सङ्केपापेक्षया जीवाजीवयोरेव पुण्यपापादीनामन्तर्भावसंभवाद् द्वित्वसङ्ख्ययैवाभिधेयं स्यात् , तथा चोक्तं स्थानाङ्गे-'जदयि च णं लोए तं सव्वं दुपडोयारं, |तंजहा-जीवा चेव अजीवा चेव'त्ति, विस्तरतस्तु तदुत्तरोत्तरभेदविवक्षयाऽऽनन्त्यमेव स्यात् , अथ कथं जीवाजीवयोरेव पुण्यपापादीनामन्तर्भावसम्भव इति चेदुच्यते-पुण्यपापे कर्मणी बन्धोऽपि तदात्मक एव कर्म च पुद्गलपरिणामः पुद्गलाश्चाजीवा इति, आश्रवस्तु मिध्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य, स चात्मानं पुद्गलांश्च मुक्त्वा कोऽन्यः ?, संवरोऽप्याश्रवनिरोधलक्षणो देशसर्वभेद आत्मनः परि|णामो निवृत्तिरूपः, निर्जरा तु कर्मपरिशाटो जीवः कर्मणां यत्पार्थक्यमापादयति स्वशक्त्या, मोक्षोऽपि सकलकर्मविरहित आत्मैवेति, अन्यत्र |पुनः पुण्यपापयोर्बन्धेऽन्तर्भावात् सप्तैव तत्त्वान्युक्तानि ॥ ९७४ ॥ अथ जीवषटकायषट्के प्राह-'इगेंत्यादि, इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियानिन्द्रियस्वरूपं जीवषटकं, तत्र एक-स्पर्शनलक्षणमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः-पृथि-5 व्यम्बुतेजोवायुवनस्पतयः द्वे स्पर्शनरसनलक्षणे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः-शङ्खशुक्तिकाचन्दनककपर्दकजल्काकृमिगण्डोलकपूतरकादयः |त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः-यूकामत्कुणगर्दभकेन्द्रगोपककुन्थुमकोटपिपीलिकोपदेहिकाकार्पासास्थित्रपुसबीजकतुम्बरकादयः चत्वारि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्लक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः-भ्रमरमक्षिकादंशमशकवृश्चिककीटपतङ्गादयः पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः-करिमकरमयूरमनुजादयः निखिलकर्मनिर्मु CHAKRA-%ARCASSACRO R IST For Private Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० PRECRELATE त्रैकाल्यवृत्तवि वृत्तिः ॥२९॥ |क्तत्वेन शरीरविरहितत्वान्न विद्यते इन्द्रियं-स्पर्शनादि येषां ते अनिन्द्रियाः-सिद्धाः । तथा षट् कायाः पृथ्वीजलानलवायुवनस्पतिसभेदात् , पृथ्वीकायजलकायानलकायवायुकायवनस्पतिकायत्रसकायलक्षणाः षट् काया इत्यर्थः, तत्र पृथिवी-काठिन्यादिलक्षणा सैव कायः-शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः जलं-पानीयं तदेव कायः-शरीरं येषां ते जलकायाः, अनलो-वह्निः स एव कायः-शरीरं येषां तेऽनलकायाः, वायु:-पवनः स एव काय:-शरीरं येषां ते वायुकायाः, वनस्पतिः-लतादिरूपः स एव काय:-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, त्रसनशीलालसाः-चलनधर्माणः कायाः-शरीराणि येषां ते त्रसकायाः॥९७५॥ अथ लेश्याषट्कमस्तिकायपञ्चकं चाह'छल्लेसे'त्यादि, लिश्यते-श्लिष्यते कर्मणा सह जीवो यकाभिस्ता लेश्याः-कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्लवर्णद्रव्यसाहाय्याज्जीवस्याशुभाः शुभाश्च परिणामविशेषाः, उक्तं च-'कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ १॥ कृष्णादिद्रव्याणि च केचिद् ‘योगपरिणामो लेश्या' इतिवचनाद्योगान्तर्गतद्रव्याण्याहुः, अन्ये तु 'सकलकर्मप्रकृतिनिःस्यन्दरूपाणि अपरे पुनः 'कार्मणशरीरवत्पृथगेव कर्माष्टकात्कार्मणवर्गणानिष्पन्नानि कृष्णादिद्रव्याणी'ति प्रतिपादयन्ति, तत्त्वं तु तीर्थकृतो विदन्तीति, एताश्च परिणामविशेषात्मिका लेश्याः षड् भवन्ति, तद्यथा-कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या 'सिय'त्ति सितलेश्या शुक्ललेश्येत्यर्थः, तत्र कृष्णद्रव्यात्मिका कृष्णद्रव्यजनिता वा लेश्या कृष्णलेश्येत्यर्थः, एवं नीललेश्येत्यादिपदेष्वपि भावनीयं, तासु चाद्यास्तिस्रोऽशुभाः अपरास्तु तिस्रः शुभाः, एतासां च विशेषतः स्वरूपनिरूपणार्थ जम्बूखादकषट्पुरुषीदृष्टान्तो ग्रामघातकदृष्टान्तश्चोच्यते, तथाहि-केचित् कस्मिंश्चित्कानने क्षुत्क्षामकुक्षयः षट् पुरुषाः सुपरिपक्कसरसफलभरावनमितसकलशाख कल्पशाखिसदृक्षमेकं जम्बूवृक्षमद्राक्षुः, ततः सर्वैरपि प्रमुदितैः प्रोक्तं-अहोऽवसरप्राप्तमस्य दर्शनं अपनयामो बुभुक्षा भक्षयामः स्वेच्छयाऽतुच्छान्यस्य ॥२२ ९०॥ For Private Personel Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व ठिष्टपरिणामेनैकेनोलं-युक्तमिदं नैव सकलानि फलान्यव्यवहमस्यः शास्वामेवैको कर्तयित्वा % % % % % खादुफलानीत्यैकमत्ये सति तन्मध्ये क्लिष्टपरिणामेनैकेनोक्तं-युक्तमिदं केवलमस्मिन्ननोकहे दुरारोहे समारोहतां जीवितव्यस्यापि संशयः, | तस्मात्तीक्ष्णधारैः कुठारैरभुं मूलत एव कर्तयित्वा तिर्यक्प्रपात्य सुखेनैव सकलानि फलान्यभ्यवहरामः, एष एवंजातीयः कृष्णलेश्यापरिणाम:, द्वितीयेन तु किञ्चित्सशूकेनोक्तं-किमस्माकमेतेनातिमहता पादपेन छिन्नेन ?, महीयसीमस्य शाखामेवैकां कर्तयित्वा फलान्याखादयामः, एवंप्रकारो नीललेझ्यापरिणामः, तृतीयः पुनः प्राह-किमेतया महाशाखया छिन्नया?, तदेकदेशभूताः प्रशाखा एव कर्तयानः, इत्येवंविधः कापोतलेश्यापरिणामः, चतुर्थश्चोवाच-किमाभिरपि वराकीभिः कर्तिताभिः ?, तत्पर्यन्तवर्तिनः कांश्चिद्गुच्छानेव छिंग्रः, एष तैजसलेश्यापरिणामः, पञ्चमः पुनः प्रोवाच-गुच्छैरपि किं नश्छिन्नैः ?, तन्मध्यात्सुपक्कानि भक्षणोचितानि कानिचित्फलाशान्येव गृहीम इत्यसौ पद्मलेश्यापरिणामः, षष्ठस्तु बभाषे-किं तैरपि त्रोटितैः ?, यावत्प्रमाणैः प्रयोजनमस्माकं तावत्प्रमाणानि फला न्यधस्तादपि पतितान्यस्य विटपिनः प्राप्यन्ते, तद्वयममीभिरेव प्राणवृत्ति विध्मः किमुन्मूलनादिनाऽस्य शाखिनः खेदेन ? इत्ययं शुक्ललेश्यापरिणाम इति ॥ प्रामघातकदृष्टान्तस्तु कस्मिंश्चिद् ग्रामे धनधान्यादिलुब्धैः षनिस्तस्करस्वामिभिर्मिलित्वा धाटी प्रक्षिप्ता, तत्रैके| नोक्तं यत्किमपि द्विपदचतुष्पदपुरुषस्त्रीबालवृद्धादिकं पश्यथ तत्सर्व मारयत ?, इत्येवंजातीयः कृष्णलेश्यापरिणामः, द्वितीयस्तु नीलले श्यापरिणामवर्ती बभाषे-मानुषाण्येव मारयत किं तिर्यग्भिरिति, तृतीयः पुनः कापोतलेश्यायुक्तो जगाद-पुरुषानेव व्यापादयत ?, | किं स्त्रीभिरिति, चतुर्थस्तु तैजसलेश्यापरिणामान्वितः प्राह-पुरुषेष्वपि सप्रहरणानेव निशुम्भत, किं निष्प्रहरणैरपि ?, पञ्चमः पुनः पद्मलेश्यापरिणामसम्पन्नः प्रोवाच-सायुधेष्वपि युध्यमानानेव विनाशयत किमन्यैर्निरपराधैरिति, षष्ठस्तु शुक्ललेश्यापरिणामपरिगतः प्रतिपादयति स्म-अहो महदसमजसं यदेकं तावद् द्रव्यमपहरथ अपरं च वराकमेनं जनं विनाशयथ, तस्माद्यद्यपि द्रव्यमपहरथ तथापि % 82%2.2 iww.jainelibrary.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C प्रव० सा-1 रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० त्रैकाल्यवृत्तवि वृत्तिः ॥२९ ॥ प्राणांस्तावत्सर्वस्यापि लोकस्य रक्षतेति ॥ तथा कालविहीन-काललक्षणद्रव्यरहितं पूर्वोक्तं द्रव्यषट्कमेवास्तिकायाः-धर्मास्तिकायाधर्मा- स्तिकायाकाशास्तिकायपुद्गलास्तिकायजीवास्तिकायलक्षणाः प्रागुक्तस्वरूपाः पञ्चास्तिकाया इत्यर्थः, अथ यथा धर्मास्तिकाय इत्युक्तं तथा कालास्तिकाय इति कस्मान्नोच्यते ? इति चेत् , नैवं, प्रदेशबहुत्व एवास्तिकायत्वोपपत्तेः, अत्र च तन्नास्ति, अतीतानागतसमया(अन्थाग्रं१२०००)नां विनष्टानुत्पन्नत्वेन प्रज्ञापकप्ररूपणाकाले वर्तमानसमयरूपस्यैकस्यैव कालप्रदेशस्य सद्भावादिति, यद्येवमावलिकामुहूर्तदिवसादिप्ररूपणाया अप्यभावप्रसङ्गः प्राप्नोति, आवलिकादीनामप्यसङ्ख्येयसमयाद्यात्मकत्वेन प्रदेशबहुत्व एवोपपत्तेः, सत्यमेतत् , केवलं स्थिरस्थूलकायत्रयवर्तिवस्त्वभ्युपगमपरव्यवहारनयमतमवलम्ब्याऽऽवलिकादिकालप्ररूपणा, निश्चयनयमतेन तु तदभाव एवेति न कालेऽस्तिकायता ॥ ९७६ ।। पञ्च व्रतान्याह-'पाणिवहे'त्यादि, व्रतं-शास्त्रविहितो नियमः तस्य च प्रत्येकमभिसम्बन्धात्प्राणिवधव्रतमूषावादब्रतादत्तादानव्रतमैथुनव्रतपरिग्रहवतैरिह-जिनसिद्धान्ते पञ्च व्रतानि भणितानि । इतः पञ्च समिती: 'साहेमित्ति कथयामि, ॥९७७॥ |ता एवाह-'इरिये'त्यादि पूर्वार्ध, र्यासमिति षासमितिरेषणासमितिम्रहणसमितिः आदाननिक्षेपसमितिरित्यर्थः परिष्ठापनासमितिश्चेत्येताः पञ्च समितयः । व्रतसमितिस्वरूपं च षट्पष्टे सप्तषष्टे च द्वारे विस्तरेणोक्तमिति । अथ पञ्च गतीराह-पंचे'त्यादि उत्तराध, नारकगतितिर्यग्गतिनरगतिसुरगतिसिद्धगतिनामिकाः पञ्च गतयः, तत्र गम्यते-प्राप्यते स्वकर्मरज्जूसमाकृष्टैर्जन्तुभिरिति गतिः नारकाणां गति रकगतिः, तिरश्चा-एकेन्द्रियादीनां गति स्तिर्यग्गतिः, नराणां-मनुष्याणां गतिर्नरगतिः, सुराणां-देवानां गतिः सुरगतिः, सिद्धगतिस्तु कर्मजन्या शास्त्रपरिभाषिता न भवति केवलं गम्यत इति गतिरिति व्युत्पत्तिसाम्यमात्रादिहोपात्तेति ॥ ९७८ ॥ अथ पञ्च ज्ञानानि चारित्राणि |चाह-नाणाई' इत्यादि, मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवललक्षणैर्भेदैः पञ्च ज्ञानानि, एतानि चाने व्याख्यास्यन्ते, तथा चर्यते-गम्यते ATE ॥२९१॥ in Education Intema For Private Personel Use Only w.jainelibrary.org Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4S4%A4%AA-34 प्राप्यते भवोदधेः परकूलमेमिरिति चरणानि-चारित्राणि, तानि च पञ्च सामायिक पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचारात् छेदोपस्थापनिक परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातं चेति, तत्र समो-रागद्वेषरहितत्वाद् अयो-गमनं समायः, एष चान्यासामपि साधुक्रियाणामुपलक्षणं, सर्वासामपि साधुक्रियाणां रागद्वेषरहितत्वात् , समायेन निर्वृत्तं समाये वा भवं सामायिकं, यद्वा समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामायो-लाभः समायः समाय एव सामायिक, विनयादेराकृतिगणतया स्वार्थे इकण् , तच्च सर्वसावद्यविरतिरूपं, यद्यपि च सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिकं तथापि छेदादिविशेषैर्विशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, प्रथमं पुनरविशेषणात्सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकमिति, तच्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च, तत्र स्वल्पकालभावि इत्वरं, इदं च भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपितमहाव्रतस्य शैक्षस्य विज्ञेयं, अत्र जन्मनि यावजीवितकथाऽस्त्यात्मनस्तावत्कालभावि यावत्कथं तदेव यावत्क|थिकं आभववर्तीत्यर्थः, एतच्च भरतैरावतभाविमध्यमद्वाविंशतितीर्थकरतीर्थेषु विदेहतीर्थकरतीर्थेषु च मुनीनामवसेयं, तेषामुपस्थापनाया | अभावात् , ननु चेत्वरमपि सामायिकं करोमि भदंत! सामायिकं यावज्जीव' इत्येवं व्रतग्रहणकाले यावदायुरागृहीतं तत उपस्थापनाकाले | तत्परित्यजतः कथं न प्रतिज्ञाभङ्गः?, उच्यते, ननु प्रागेवोक्तं सर्वमेवेदं चारित्रमविशेषतः सामायिक, सर्वत्रापि सावद्ययोगविरतिसद्भा| वात् , केवलं छेदादिविशुद्धिविशेषैर्विशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, ततो यथा यावत्कथिक सामायिकं छेदोपस्थापनं वा परमविशुद्धिविशेषरूपसूक्ष्मसम्परायादिचारित्रावाप्तौ न भङ्गमङ्गीकरोति तथा इत्वरमपि सामायिक विशुद्धिरूपच्छेदोपस्थापनावाप्तौ, | यदि हि प्रव्रज्या परित्यज्यते तर्हि तद्भङ्ग आपद्यते न तु तस्यैव विशुद्धिविशेषावाप्ताविति, तथा छेदः पूर्वपर्यायस्य उपस्थापना च महाव्रतेषु यस्मिन् चारित्रे तच्छेदोपस्थापनं तदेव छेदोपस्थापनिकं तदेव वा विद्यते यत्र तच्छेदोपस्थापनिकं, तञ्च द्विधा-सातिचारं निरति Jain Education remona For Private 3 Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २९२ ॥ द्धप्रतिमाः गा. ९८०० ९९४ चारं च तत्र निरतिचारं यदित्वरसामायिकवत: शैक्षस्यारोप्यते, तीर्थान्तरसङ्क्रान्तौ वा यथा पार्श्वनाथतीर्थाद्वर्धमानस्वामितीर्थ संक्रा- * १५३ श्रामतः पञ्चयामधर्मप्रतिपत्तौ, सातिचारं यन्मूलगुणघातिनः पुनर्व्रतारोपणं, तथा परिहरणं परिहारः- तपोविशेषस्तेन विशुद्धिः - कर्मनिर्जरारूपा यस्मिन् चारित्रे तत्परिहारविशुद्धिकं तच्च द्विधा - निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च तत्र निर्विशमानका - विवक्षितचारित्रासेवकाः निर्विष्टकायिका - आसेवितविवक्षितचारित्रकाः तदव्यतिरेकाच्चारित्रमप्येवमुच्यते, इह नवको गणञ्चत्वारो निर्विशमानकाश्चत्वारश्चानुचारिणः एकः कल्पस्थितो वाचनाचार्यः, एतत्स्वरूपं च सविस्तरमेकोनसप्ततिद्वारे प्रत्यपादि, तथा सम्पर्येति पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः -- कषायोदयः सूक्ष्मो-लोभांशावशेषः सम्परायो यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायं तच्च द्विधा विशुद्ध्यमानकं संलिश्यमानकं च, तत्र विशुद्धयमानकं क्षपकश्रेणिमुपशमश्रेणिं वा समारोहतः, सङ्श्यिमानं तूपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्य, तथा अथशब्दो - याथातथ्यार्थे आ अभिविधौ यथातथ्येन अभिविधिना वा यत् ख्यातं कथितं अकषायचारित्रमिति तत् अथाख्यातं यथाख्यातमिति द्वितीयं नाम, तस्याय| मन्वर्थः यथा सर्वस्मिन् जीवलोके ख्यातं - प्रसिद्धमकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यत्तत् यथाख्यातं इदं च द्विधा- छाद्मस्थिकं केवलिकं च, तत्र छास्थिकमुपशान्तमोहगुणस्थानके क्षीणमोहगुणस्थानके वा, केवलिकं सयोगिकेवलिभवमयोगिकेवलिभवं चेति १५२ ॥ ९७९ ॥ इदानीं 'सहुपडिमाओ' ति त्रिपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह दंसण १ वय २ सामाइय ३ पोसह ४ पडिमा ५ अबंभ ६ सच्चित्ते ७ । आरंभ ८ पेस ९ उद्दि १० वज्जए समणभूए ११ य ॥ ९८० ॥ जस्संखा जा पडिमा तस्संखा तीऍ हुंति मासावि । कीरंतीसुवि कज्जाउ तासु पुत्तकिरिया उ ॥ ९८९ ॥ पसमाइगुणविसिहं कुग्गहसंकाइसल्लपरिहीणं । %%% ॥ २९२ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औ%**** सम्मदंसणमणहं दंसणपडिमा हवइ पढमा १ ॥ ९८२ ॥ बीयाणुवयधारी २ सामाइको य होइ तइयाए ३ । होइ चउत्थी चउद्दसीअट्टममाईसु दिवसे ॥ ९८३ ॥ पोसह चउविहंपिय पडणं सम्म सो उ अणुपाले । बंधाई अइयारे पयत्तओ वजईमासु ॥ ९८४ ॥ सम्ममन्वयगुवयसिक्खावयवं थिरो य नाणी य । अट्ठमीचउदसीसुं पडिमं ठाएगराईयं ॥ ९८५ ॥ असिture विडभोई मउलियडो दिवसबंभयारी य । रतिं परिमाणकडो पडिमावज्जेसु दिवसेसुं ॥ ९८६ ॥ झायइ पडिमाऍ ठिओ तिलोयपुज्जे जिणे जियकसाए । नियदोसपञ्चणीयं अन्नं वा पंचजा मासा ॥ ९८७ ॥ सिंगारकहविभूसुक्करिसं इत्थीकहं च वर्जितो । वज्जइ अवंभमेगंतओ य छट्टाइ छम्मासे ॥ ९८८ ।। सत्तमि सत्त उ मासे नवि आहारइ सचित्तमाहारं । जं जं हेहिलाणं तं तं चरिमाण सङ्घपि ॥ ९८९ ॥ आरंभसयंकरणं अट्ठमिया अट्ठ मास वज्जेइ । नवमा नव मासे पुर्ण पेसारं भेऽवि वज्जेइ ॥ ९९० ॥ दसमा दस मासे पुण उद्दिकपि भत्त नवि भुंजे । सो होइ उ छुरमुंडो सिहलिं वा धारए कोई ॥ ९९९ ॥ जं निहियमत्थजायं पुच्छंत सुयाण नवरि सो तत्थ । जइ जाणइ तो साहइ अह नवि तो बेइ नवि याणे ॥ ९९२ ॥ खुरमुंडो लोएण व रयहरणं पडिग्गहं च गिन्हित्ता । समणो हूओ विहरइ मासा एक्कारकोसं ॥ ९९३ ॥ ममकारेऽवोच्छिन्ने वच्चइ सन्नायपल्लि दहुं जे । तत्थवि साहुव जहा गिन्हइ फासुं तु आहारं ॥ ९९४ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ २९३ ॥ Jain Education In दर्शनं च - सम्यक्त्वं व्रतानि च - अणुव्रतादीनि सामायिकं च - सावद्यानवद्ययोगपरिवर्जनासेवनस्वरूपं पौषधं च - अष्टमीचतुर्दश्यादि| पर्वदिनानुष्ठेयोऽनुष्ठानविशेषः प्रतिमा च- कायोत्सर्गः अब्रह्म च - अब्रह्मचर्यं सचित्तं च-सचेतनद्रव्यं इति समाहारद्वन्द्वः तत एतस्मिन् विषये प्रतिमेति प्रस्तावादव सेयं, अत्र च दर्शनादिषु पञ्चसु विधिद्वारेण प्रतिमाभिग्रहः अब्रह्मसचित्तयोस्तु प्रतिषेधमुखेनेति, तथा आरम्भश्च - स्वयं कृष्यादिकरणं प्रेषश्च-प्रेषणं परेषां पापकर्मसु व्यापारणं उद्दिष्टं च तमेव श्रावकमुद्दिश्य सचेतनं सदचेतनीकृतं पक्कं वा यो वर्जयति परिहरति स आरम्भप्रैषोद्दिष्टवर्जकः, प्रतिमेति प्रकृतमेव, इह च प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमाप्रतिभावतोरभेदोपचाराप्रतिमावतो निर्देशः कृतः, एवमुत्तरत्रापि, तथा श्रमणः - साधुः स इव यः स श्रमणभूतः, भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात्, चः समुच्चये, आसां च दर्शनप्रतिमा व्रतप्रतिमेत्यादिरूपोऽभिलापः कार्यः, एता एकादश श्राद्धानां - उपासकानां प्रतिमाः - प्रतिज्ञा अभिग्रहाः श्राद्धप्रतिमा इति ॥ ९८० ॥ अथैतासामेव प्रतिमाणां प्रत्येकं स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमं तावत् कालमानं सामान्यस्वरूपं चाह - 'जस्संखे' त्यादि, यत्सङ्ख्या - यावत्सङ्ख्यामाना प्रथमद्वितीयादिकेत्यर्थः प्रतिमा तस्यां मासा अपि तत्सङ्ख्या:- तावत्प्रमाणा भवन्ति, अयमर्थ:- प्रथमायां प्रतिमायामेको मासः कालमानं द्वितीयायां द्वौ मासौ तृतीयायां त्रयो मासा यावदेकादश्यां प्रतिमायामेकादश मासा इति एतच कालमानं यद्यपि दशाश्रुतस्कन्धादिषु साक्षान्नोपलभ्यते तथाऽप्युपासकदशासु प्रतिमाकारिणामानन्दादिश्रमणोपासकानां सार्धवर्षप चकलक्षणं प्रतिमैकादशप्रमाणं प्रतिपादितमस्ति तच्च पूर्वोक्तयैव एकादिकयैकोत्तरया वृद्ध्या सङ्गच्छत इति, तथा उत्तरोत्तरास्वपि तासु प्रतिमासु क्रियमाणासु पूर्वपूर्वप्रतिमाप्रतिपादिताः सर्वा अपि क्रिया-अनुष्ठानविशेषरूपाः कर्तव्या एव, तुशब्द एवकारार्थः, इदमत्र तात्पर्यम् - द्वितीयायां प्रतिमायां प्रथमप्रतिमोक्तमनुष्ठानं निरवशेषमपि कर्तव्यं, तृतीयायां तु प्रतिमायां प्रथमद्वितीयप्रतिमाद्वयोक्तमप्यनु *%%%%% १५३ श्राद्धप्रतिमाः गा. ९८०९९४ ॥ २९३ ॥ Bod Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्ठानं विधेयं, एवं यावदेकादश्यां प्रतिमायां पूर्वप्रतिमादशकोक्तं सर्वमप्यनुष्ठानं कार्यमिति ॥ ९८१ ॥ अथ दर्शनप्रतिमास्वरूपनिरूपणायाह – 'पसमेत्यादि, सम्यग्दर्शनं सम्यक्त्वं प्रथमा दर्शनप्रतिमा भवतीति सम्बन्धः, कथम्भूतं सम्यग्दर्शनमित्याह - प्रशमादिगुणविशिष्टं - प्रशमसंवेग निर्वेदानुकम्पास्तिक्यलक्षणैः पञ्चभिर्गुणैर्विशिष्टं - अन्वितं तथा कुप्रहश्च तत्त्वं प्रति शास्त्रबाधितत्वेन कुत्सितोऽभिनिवेशः शङ्कादयश्च शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामिध्यादृष्टिप्रशंसा तत्संस्तवरूपाः पञ्च सम्यक्त्वातीचाराः कुग्रहशङ्कादयस्त एव शल्यते-अनेकार्थत्वाद्वाध्यते जन्तुरेभिरिति शल्यानि तैः परिहीनं-रहितं, अत एव अनघं - निर्दोषं, अयमत्र भावार्थ:- सम्यग्दर्शनस्य कुमहशङ्कादिशल्यरहितस्याणुत्रतादिगुणविकलस्य योऽभ्युपगमः सा दर्शनप्रतिमेति, सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिश्च तस्य पूर्वमप्यासीत् केवलमिह शङ्कादिदोषराजाभियोगाद्याकारषट्कवर्जितत्वेन यथावत्सम्यग्दर्शनाचारविशेषपरिपालनाभ्युपगमेन च प्रतिमात्वं सम्भाव्यते, कथमन्यथा उपासकदशासु एकमासं प्रथमायाः प्रतिमायाः पालनेन द्वौ मासौ द्वितीयायाः प्रतिमायाः पालनेन एवं यावदेकादश मासानेकादश्याः पालनेन पञ्च साधनि वर्षाण्यर्थतः प्रतिपादितानीति, न चायमर्थो दशाश्रुतस्कन्धादावुपलभ्यते, श्रद्धामात्ररूपायास्तत्र तस्याः प्रतिपादनात् * एवं दर्शन (व्रत) प्रतिमादिष्वपि यथायोगं भावना कार्या ॥ ९८२ ॥ अथ गाथाद्वयेन व्रतसामायिक पौषधप्रतिमात्रयमाह - 'बीये' त्यादि, अणुव्रतानि - स्थूलप्राणातिपात विरमणादीनि उपलक्षणत्वाद् गुणव्रतानि शिक्षाव्रतानि च वधबन्धाद्यतिचाररहितानि निरपवादानि च धारयतः सम्यक्परिपालयतो द्वितीया व्रतप्रतिमा भवति, सूत्रे च प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदोपचारादित्थं निर्देशः, तथा तृतीयायां - सामायिकप्रतिमायां सामायिकं - सावद्ययोगपरिवर्जन निरवद्ययोगा सेवनस्वभावं कृतं विहितं देशतो येन स सामायिककृतः, आहिताम्यादिदर्शनात् कान्तस्योतरपदत्वं, इदमुक्तं भवति - अप्रतिपन्नपौषधस्य दर्शनत्रतोपेतस्य प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं सामायिककरणं तृतीया प्रतिमेति, तथा चतुर्थी *36*9 के Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १५३ श्रा प्रतिमाः गा.९८०९९४ ॥२९४॥ पोषधप्रतिमा यस्यां चतुर्दश्यष्टम्यादिषु दिवसेषु-चतुर्दश्यष्टम्यमावास्यापौर्णमासीषु पर्वतिथिषु चतुर्विधमन्याहारशरीरसत्काराब्रह्मचर्यव्यापापरिवर्जनरूपं पौषधं परिपूर्ण, न पुनरन्यतरेणापि प्रकारेण परिहीनं सम्यग् आगमोक्तविधिना स-प्रतिमाप्रतिपत्ता तुशब्दस्यावधारणार्थत्वादनुपालयत्येव-आसेवत एव, एतासु चतसृष्वपि व्रतादिषु प्रतिमासु बन्धादीन-बन्धवधच्छविच्छेदप्रभृतीन् षष्टिसंख्यान अतिचारान् जा द्वादशव्रतविषयान् प्रयत्नतो-महता यत्नेन वर्जयति-परिहरतीति ॥ ९८३ ॥ ९८४ ॥ अथ प्रतिमाप्रतिमास्वरूपमाह-'सम्मेत्यादि, 'सम्म'त्ति सम्यक्त्वं मकारोऽलाक्षणिकः अणुव्रतगुणवतशिक्षाव्रतानि च यस्य विद्यन्ते स तद्वान् , पूर्वोक्तप्रतिमाचतुष्टयान्वित इत्यर्थः, स्थिर:-अविचलसत्त्वः इतरो हि तद्विराधको भवति, यतोऽस्यां प्रतिमायां निशि चतुष्पथादौ कायोत्सर्गः क्रियते तत्र चोपसर्गाः प्रभूताः सम्भवन्तीति, ज्ञानी च-प्रतिमाकल्पादिपरिज्ञानप्रवणः, अजानानो हि सर्वत्राप्ययोग्यः किं पुनरेतत्प्रतिमाप्रतिपत्ताविति, अष्टमीचतुर्दश्योरुपलक्षणत्वादष्टमीचतुर्दश्यमावास्यापौर्णमासीरूपेषु पौषधदिनेष्वपि द्रष्टव्यं 'प्रतिमा' कायोत्सर्ग 'ठाइ'त्ति तिष्ठति धातूनामनेकार्थत्वात्करोतीत्यर्थः, किम्प्रमाणामित्याह-एका रात्रिः परिमाणमस्या इत्येकरात्रिकी-सार्वरात्रिकी तां यस्तस्य प्रतिमा भवतीति शेषः ॥९८५॥ शेषदिनेषु यादृशोऽसौ भवति तद्दर्शयितुमाह-'असिणाणे'त्यादि, अस्नानः-स्नानपरिवर्जकः विकटे-प्रकटे प्रकाशे दिवा न रात्रावित्यर्थः दिवापि वा प्रकाशदेशे भुङ्क्ते-अशनाद्यभ्यवहरतीति विकटभोजी, पूर्व किल रात्रिभोजनेऽनियम आसीत् तदर्थमिदमुक्तं, 'मउलियडोति अबद्धपरिधानकच्छ इत्यर्थः, तथा दिवसे-दिवा ब्रह्म चरतीत्येवंशीलो दिवसब्रह्मचारी, रितिंति रात्रौ किमत आह-परिमाणंस्त्रीणां तद्दोगानां वा प्रमाणं कृतं येन स परिमाणकृतः, कदत्याह-प्रतिमावर्जेषु-कायोत्सर्गरहितेष्वपर्वस्त्वित्यर्थः दिवसेषु-दिनेष्विति M॥९८६ ॥ अथ कायोत्सर्गस्थितो यच्चिन्तयति तदाह-'झायई'त्यादि, ध्यायति-चिन्तयति प्रतिमायां कायोत्सर्गस्थितः-अवस्थितस्त्रि ॥२९४॥ Jain Education Intem For Private & Personel Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | लोकपूज्यान - त्रिभुवनाभ्यर्चनीयान् जिनान् तीर्थकृतो जितकषायान्-निरस्तसमस्तद्वेषादिदोषान् अन्यद्वा जिनापेक्षया निजदोषप्रत्यनीकं - स्वकीय कामक्रोधप्रमुखदूषणप्रतिपक्षभूतं कामनिन्दाक्षान्तिप्रभृतिकं ध्यायति, कियत्प्रमाणेयं पञ्चमी प्रतिमेत्याह-पश्च मासान् यावदिति ॥ ९८७ ॥ अथ षष्ठीं प्रतिमामाह - 'सिंगारे 'त्यादि, शृङ्गारकथा - कामकथा तथा विभूषायाः - स्नानविलेपनधूपप्रभृतिकाया उत्कर्ष:प्रकर्षः ततः समाहारद्वन्द्वः तद्वर्जयन् परिहरन्, उत्कर्षग्रहणाच्छरीरमात्रानुगां विभूषां विदधात्यपीति, तथा स्त्रिया - योषिता सह रहसि कथां-प्रणयवार्ता वर्जयन्, किमित्याह-वर्जयति अब्रह्म-मैथुनमेकं 'तओ य'त्ति तक:- असौ प्रतिमाप्रतिपत्ता षष्ठयां - अब्रह्मवर्जनप्रतिमायां षण्मासान् यावत् पूर्वस्यां हि प्रतिमायां दिवस एव मैथुनं प्रतिषिद्धं, रात्रौ पुनरप्रतिषिद्धमासीत्, अस्यां तु दिवापि रजन्यामपि च सर्वथापि मैथुनप्रतिषेधः, अत एवात्र चित्तविलुतिविधायिनां कामकथादीनामपि प्रतिषेधः कृत इति ॥ ९८८ ॥ अथ सप्तमीं प्रतिमामाह - 'सत्तमी' त्यादि, सप्तम्यां सचित्ताहारवर्जनप्रतिमायां सप्त मासान् यावत् सचित्तं - सचेतन माहारं - अशनपानखादिमखादिम| स्वरूपं नैवाहारयति - अभ्यवहरति, तथा यद्यदधस्तनीनां - प्राक्तनीनां प्रतिमानामनुष्ठानं तत्तत्सर्वमपि - निरवशेषमुपरितनीनां - अप्रेतनप्रतिमानामवसेयं, एतच्च प्रागुक्तमपि विस्मरणशीलविनेयजनानुग्रहाय पुनरुपन्यस्तम्, एवमन्यत्रापि ॥ ९८९ ॥ अथाष्टमीनवम्यो प्रतिमे प्रतिपादयितुमाह - 'आरंभ' त्यादि, अष्टमी-स्वयमारम्भवर्जनप्रतिमा भवति यस्यामष्टौ मासान् यावदारम्भस्य - पृथिव्याद्युपमर्दनलक्षणस्य स्वयं - आत्मना करणं - विधानं वर्जयति परिहरति, खयमिति वचनाच्चै तदापन्नं - वृत्तिनिमित्तमारम्भेषु तथाविधतीत्रपरिणामरहितः परैः कर्मकरादिभिः सावयमपि व्यापारं कारयतीति, ननु स्वयमप्रवर्तमानस्याप्यारम्भेषु प्रेष्यान् व्यापारयतः प्राणिहिंसा तदवस्यैव, सत्यं, किन्तु या सर्वथैव स्वयमारम्भाणां करणतः परैश्च कारणत उभयजन्या हिंसा सा स्वयमकरणतस्तावत्परिहृतैव यतः स्वल्पोऽपि प्रारम्भः परि क Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २९५ ॥ Jain Education हियमाण: प्रोज्जृम्भमाणमहाव्याधेः स्तोकतरस्तोकतमक्षय इव हित एव भवति, एषा पुनर्नवमी - प्रेष्यारम्भवर्जनप्रतिमा भवति, यस्यां नव मासान् यावत् पुत्रभ्रातृ प्रभृतिषु न्यस्तसमस्त कुटुम्बादिकार्यभारतया धनधान्यादिपरिग्रहेष्वल्पाभिष्वङ्गतया च प्रेष्यैरपि कर्मकरादिमिरपि आस्तां स्वयं आरम्भान् - सपापव्यापारान् महतः कृष्यादीनिति भावः आसनदापना दिव्यापाराणां पुनरतिलघूनामनिषेध एव, तथाविधकर्मबन्धहेतुत्वाभावेनारम्भत्वानुपपत्तेः ॥ ९९० ॥ अथ दशमीं प्रतिमामाह - 'दसमेत्यादि, दशमी पुनरुद्दिष्टभक्तवर्जनप्रतिमा दश मासान् यावद्भवति, यस्यामुद्दिष्टं - उद्देशस्तेन कृतं विहितमुद्दिष्टकृतं तमेव श्रावकमुद्दिश्य संस्कृतमित्यर्थः एवंस्वरूपं भक्तमपि - ओदनादिकं नैव भुञ्जीत आस्तां तावदितरसावद्यव्यापारकरणमित्यपिशब्दार्थः, 'सो होइ'ति स पुनर्दशमप्रतिमाप्रतिपत्ता कश्चित् क्षुरमुण्ड:- क्षुरमुण्डितमस्तको भवति 'सिहिलिं'ति शिखां वा शिरसि कोऽपि धारयतीति ॥ ९९९ ॥ तथा - 'ज' मित्यादि, नवरं - केवलं स श्रावकस्तत्र तस्यां दशमप्रतिमायां स्थितो यन्निहितं भूम्यादौ निक्षिप्तमर्थजातं - द्रव्यं सुवर्णादिकं तत्पृच्छतां सुतानां पुत्राणां उपलक्षणत्वाद्धात्रादीनां च यदि जानाति ततः कथयति, अकथने वृत्तिच्छेदप्राप्तेः, अथ नैव जानाति ततो ब्रूते नैवाहं किमपि जानामि - स्मरामीति, एतावन्मुक्त्वा नान्यत्किमपि तस्य गृहकृत्यं कर्तुं कल्पत इति तात्पर्यम् ॥ ९९२ ॥ अथैकादशीं प्रतिमामाह - 'खुरे' त्यादि, क्षुरेण मुण्डो- मुण्डितः क्षुरमुण्डो लोचेन वा - हस्तलुवनेन मुण्डः सन् रजोहरणं पतद्रहं च उपलक्षणमेतत् सर्वमपि साधूपकरणं गृहीत्वा 'समणहूओ'ति श्रमणो-निर्ग्रन्थस्तद्वद् यस्तदनुष्ठानकरणात्स श्रमणभूतः साधुकल्प इत्यर्थः विहरेत्-गृहान्निर्गत्य निखिलसाधुसामाचारीसमाचरणचतुरः समितिगुध्यादिकं सम्यगनुपालयन् मिक्षार्थं गृहिकुलप्रवेशे सति श्रमणोपासकाय प्रतिमाप्रतिपन्नाय मिक्षां दत्तेति भाषमाणः, कस्त्वमिति कस्मिंश्चित्पृच्छति प्रतिमाप्रतिपन्नः श्रमणोपासकोऽहमिति ब्रुवाणो ग्रामनगरादिष्वनगार इव मासकल्पा १५३ श्रा द्धप्रतिमाः गा. ९८०९९४ ॥ २९५ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. दिना विचरेदेकादश मासान् यावदिति । एतच्चोत्कृष्टतः कालमानमुक्तं, जघन्यतः पुनरेकादशापि प्रतिमाः प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तादिमाना एव, तञ्च मरणे वा प्रव्रजितत्वे वा सम्भवति, नान्यथेति ॥ ९९३ ॥ तथा—'ममें'त्यादि, ममेयस्य करणं ममकारस्तस्मिन्नव्यवच्छिन्ने-अनपगते सति, अनेन वजनदर्शनार्थित्वकारणमुक्तं, संज्ञाता:-स्वजनास्तेषां पल्ली-सन्निवेशस्ता संज्ञातपल्लीं ब्रजति-च्छति द्रष्टुं-विलोकयितुं संज्ञातानिति गम्यते, जे इति पादपूरणे, तत्रापि-संज्ञातपयामपि, आस्तामन्यत्र, साधुरिव-संयत इव वर्तते, न पुनः स्वजनोपरोधेन गृहचिन्तादिकं कुर्यात् , यथा च साधुः प्रासुकमेषणीयं च गृहाति तथा सोऽपि श्रमणभूतप्रतिमाप्रतिपन्नः प्रासुकमेव-प्रगतासुकमेवाचेतनमेवोपलक्षणत्वादस्वैषणीयं चाहारं-अशनादिकं गृहातीति, ज्ञातयो हि स्नेहादनेषणीयं भक्तादि कुर्वन्ति आग्रहेण च तद् प्राहयितुमिच्छंति अनुवर्तनीयाश्च ते प्रायो भवन्तीति तद्ब्रहणं सम्भाव्यते तथापि तदसौ न गृह्णातीति भावः ॥ इह चोत्तरासु सप्तसु प्रतिमास्वावश्यकचूया प्रकारान्तरमपि दृश्यते, तथाहि-"राईभत्तपरिन्नाएत्ति पञ्चमी, सचित्ताहारपरिन्नाएत्ति षष्ठी, दिया ब्रह्मचारी, राओ परिमाणकडेत्ति सप्तमी, दियावि राओवि बंभयारी असिणाणए वोसट्ठकेसमंसुरोमनहेत्ति अष्टमी, सारंभपरिन्नाएत्ति नवमी, पेसारंभपरिनाएत्ति दशमी, उद्दिद्वन्नविवजए समणभूएत्ति एकादशी"ति १५३ ॥९९४ ।। इदानीं 'धन्नाणमबीयत्त'ति चतुष्पञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह जव १ जवजव २ गोहुम ३ सालि ४ वीहि ५ धन्नाण कोट्टयाईसुं। खिविऊणं पिहियाणं लित्ताणं मुद्दियाणं च ॥ ९९५ ॥ उक्कोसेणं ठिइ होइ तिन्नि वरिसाणि तयणु एएसिं । विद्धंसिज्जइ जोणी तत्तो जायइ अबीयत्तं ॥९९६॥ तिल १ मुग्ग २ मसुर ३ कलाय ४ मास ५ चवलय ६ कुलत्थ RECENGA%ERCA + + tee For Private Personal use only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २९६ ॥ ७ तुवरीणं ८ । तह कसिणचणय ९ वल्लाण १० कोट्याईसु खिविकणं ॥ ९९७ ॥ ओलिताणं पिहियाण लंछियाणं च मुद्दियाणं च । उक्किहठिई वरिसाण पंचगं तो अबीयत्तं ॥ ९९८ ॥ अयसी १ हा २ कंगू ३ कोडूसग ४ सण ५ वरह ६ सिद्धत्था ७ । कोद्दव ८ रालग ९ मूलग बयाणं १० कोट्टईयासु ॥ ९९९ ॥ निक्खित्ताणं एयाणुक्कोसठिईऍ सत्त वरिसाई । होइ जह ण पुणो अंतमुत्तं समग्गाणं ॥ १००० ॥ 'यवे'त्यादि, यवा गोधूमाश्च प्रतीताः यवयवा - यवविशेषाः शालयः - कलमादिविशेषाः श्रीहयः - सामान्यतः, एतेषां धान्यानां कोष्ठकादिपु - कुशूलपल्यप्रभृतिषु क्षित्वा-प्रक्षिप्य पिहितानां - तथाविधपिधानकेन स्थगितानां लिप्तानां द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना ! सर्वतोऽवलिप्तानां मुद्रितानां च मृत्तिकादिमुद्रावतामुत्कर्षतस्त्रीणि वर्षाणि यावत् स्थिति:- अविनष्टयोनिकत्वेन अवस्थानं भवतीति, तदनु - ततः परमेतेषां - यवादीनां पञ्चानां धान्यानां योनि :- अङ्कुरोत्पत्तिहेतुर्विध्वस्यते - क्षीयते, ततो-योनिविध्वंसे सति जायतेऽबीजत्वंतद्वीजमबीजं भवति, उप्तमपि नाङ्कुरमुत्पादयतीति भावः ।। ९९५ ॥ ९९६ ॥ तथा - 'तिले 'त्यादि, तिलमुद्गभाषचवलकाः प्रतीताः मसूरो- वृत्ताकारो धान्यविशेषः ( प्रन्था० ७००) चनकिका इत्यन्ये कलाय :- त्रिपुटाख्यो धान्यविशेषः कुलत्था:- चवलकाकाराश्चि| पिटिका भवन्ति तुवर्य:- आढक्यः, वृत्तचणकाः- शिखारहिता वृत्ताकाराश्चणकविशेषाः वल्ला-निष्पावाः, एतेषां दशानां धान्यानां कोष्ठकादिषु क्षित्वा पिहितानां ततोऽवलिप्तानां ततो लान्छितानां-रेखादिभिः कृंतलान्छनानां मुद्रितानां चोत्कृष्टा स्थितिर्वर्षपञ्चकं यावद्भवति, ततोऽबीजत्वं जायते, छन्दोऽनुरोधाच पिहितावलिप्तयोर्व्यतिक्रमनिर्देशः ॥ ९९७ ॥ ९९८ ॥ 'अयसी' व्यादि, अतसी-क्षुमा लट्टा १५४ धान्याबीज त्वम् गा. ९९५१००० ॥ २९६ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसुंभं कङ्क:-पीततण्डुलाः 'कोड्सग'त्ति कोरदूषका:-कोद्रवविशेषाः शर्ण-त्वप्रधानो धान्यविशेषः, 'बरठ'त्ति धान्यविशेषः, स| बरठीति सपादलक्षादिषु प्रसिद्धः सिद्धार्था:-सर्षपाः कोद्रवाः प्रतीता एव रालक:-कविशेषः मूलक-शाकविशेषस्तस्य बीजानि मूलकबीजानि एतेषां दशानामपि धान्यानां कोष्ठकादिषु निक्षिप्तानां उपलक्षणमेतत् पिहितानामवलिप्तानां लाञ्छितानां मुद्रितानां चोत्कृष्टायां स्थितौ सप्त वर्षाणि भवन्ति, जघन्येन पुनः समग्राणां सर्वेषामपि पूर्वोक्तानां धान्यानामन्तर्मुहूर्त स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहूर्ताच्च परतः स्वायुःक्षयादेवाचित्तता जायते, सा च परमार्थतोऽतिशयज्ञानेनैव सम्यक्परिज्ञायते न छाद्मस्थिकज्ञानेनेति न व्यवहारपथमवतरति, अत| | एव च पिपासापीडितानामपि साधूनां स्वभावतः स्वायुःक्षयेणाचित्तीभूतमपि तडागोदकं पानाय वर्धमानस्वामी भगवान् नानुज्ञातवान् , इत्थंभूतस्याचित्तीभवनस्य छद्मस्थानां दुर्लक्षत्वेन मा भूत्सर्वत्रापि तडागोदके सचित्तेऽपि पाश्चात्यसाधूनां प्रवृत्तिप्रसङ्ग इति कृत्वा १५४ ॥ ९९९ ॥ १०.०॥ इदानीं 'खेत्ताइयाणऽचित्तंति पञ्चपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह जोयणसयं तु गंता अणहारेणं तु भंडसंकंती। वायागणिधुमेहि य विद्धत्थं होइ लोणाई॥१००१॥ हरियालो मणसिल पिप्पली उ खज्जूर मुद्दिया अभया। आइन्नमणाइन्ना तेऽवि हु एमेव नायव्वा ॥२॥ आरुहणे ओरहणे निसियण गोणाइणं च गाउम्हा । भोम्माहारच्छेओ उवक्कमेणं तु परि णामो॥३॥ एक योजनशतं गत्वा-अतिक्रम्य लवणादि विध्वस्तम्-अचित्तं भवति, केनेत्याह-अनाहारेण-खदेशजसाधारणाहाराभावेन, अयमर्थः&ाविवक्षितक्षेत्रादन्यत्र क्षेत्रे लवणादिकं यदा नीयते तदा तत्प्रतिदिनं विध्वस्यमानं २ तावद्गच्छति यावद्योजनशतं, योजनशतादूई पुन Jain Education Internatif For Private Personal use only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्वज्ञानवि० ॥ २९७ ॥ Jain Education र्भिन्नाहारत्वेन शीतादिसम्पर्कतञ्चावश्यमचित्तीभवति, केचित्तु योजनशतस्थाने गव्यूतशतं पठन्ति, यदुक्तं निशीथ चूर्णो – 'केई पठंति गाउयसयगाहा' इति, तथा 'भंड संकंती 'ति प्राकृतत्वेन विभक्तिव्यत्ययात् भाण्डसङ्क्रान्त्या - पूर्वभाजनादपरभाजनप्रक्षेपणेन पूर्वभाण्डशालाया वाऽन्यभाण्डशालासंचारणेन वाताग्निधूमैश्च योजनशतमगतमपि स्वस्थानेऽन्तरे वा वर्तमानं लवणादिकमचित्तं भवतीति । इत्थं च क्षेत्रादिक्रमेणाचित्तीभवनं पृथिवीकायिकानां वनस्पतिपर्यन्तानां सर्वेषामपि प्रतिपत्तव्यम् ।। १००१ ।। अत एवाह - 'हरियाले 'त्यादि, हरितालादयः प्रतीता एव, नवरं मुद्रिका - द्राक्षा अभया-हरितकी, एतेऽप्येवमेव ज्ञातव्याः, योजनशतात्परतः पूर्वोक्तैरेव हे तुमि र चित्तीभवन्तीति भावः, 'आइन्नमणाइन्न'त्ति योजनशतादागता अपि केचिदाचीर्णाः केचित्पुनरनाचीर्णाः, तत्र पिप्पलीहरितक्यादय आचीर्णा अतो गृह्यन्ते खर्जूरद्राक्षादयः पुनरनाचीर्णास्ततोऽचित्ता अपि न गृह्यन्ते इति ॥ २ ॥ अथ लवणादीनामेवाचित्तताकारणाभिव्यञ्जनायाह - 'आरुहणे' इत्यादि, तेषां लवणादीनामारोहणे - शकटगवादिपृष्ठादिष्वधिरोपणे सति तथा अवरोहणे - शकटादिभ्य एवावतारणे तथा निषीदन्तीति नन्द्यादेराकृतिगणत्वाद्युप्रत्यये निषदना - लवणाद्युपरि निविष्टपुरुषाः तेषां गवादीनां च गात्रोष्मणा, तथा यो यस्य लवणादेराहारो भौमादिः - पार्थिवादिस्तस्य व्यवच्छेदे च-अभावे सति, तथा उपक्रम्यते - बहुकालवेद्यमप्यायुः स्तोकेनैव कालेन निष्ठां नीयते अनेनेत्युपक्रमः - स्वकायशस्त्रादिः, तथाहि - किञ्चित्कस्यचित् स्वकायशस्त्रं यथा क्षारोदकं मधुरोदकस्य किच्चित्परकायशस्त्रं यथा ज्वलनो वनस्पतेः किञ्चित्तूभयशस्त्रं यथा मृत्तिकामिश्रमुदकं शुद्धोदकस्य, तेन च परिणामः - अचित्तता भवति, सचित्तमप्येभिः कारणैरचित्ततारूपेण परिणमतीत्यर्थः १५५ ॥ ३ ॥ इदानीं च 'धन्नाई चउवीसं ति षट्पञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाहधन्ना चवीसं जव १ गोहुम २ सालि ३ वीहि ४ सट्ठी ५ य । कोद्दव ६ अणुया ७ कंगू ८ १५५ योजनशतेनाचित्तता गा. १००११००३ ।। २९७ ॥ ww.jainelibrary.org Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARENSANSAACHECRORSC3%AC रालय ९ तिल १० मुग्ग ११ मासा १२ य ॥ ४ ॥ अयसि १३ हरिमंथ १४ तिउगड १५ निप्फाव १६ सिलिंद १७ रायमासा १८ य।इक्खू १९ मसूर २० तुवरी २१ कुलत्थ २२ तह धन्नय २३ कलाया २४ ॥५॥ धान्यानि चतुर्विशतिर्भवन्ति, यथा-यवाः १ गोधूमाः २ शालयो ३ ब्रीहयः ४ षष्ठिकाः ५ कोद्रवा ६ अणुकाः ७ कंगुः८ रालकः ९ तिला १० मुद्गा ११ माषाश्च १२ तथा अतसी १३ हरिमन्थाः १४ त्रिपुटिकाः १५ निष्पावाः १६ शिलिन्दा १७ राजमाषा १८ इक्षवः १९ मसूराः २० तुवर्यः २१ कुलत्था २२ स्तथा धान्यकं २३ कलायाः २४ इत्येतानि च प्रायेण लोकप्रसिद्धानि | प्रागुक्तान्येव, नवरं षष्टिकाः-शालिभेदः ये षष्टिरात्रेण पच्यन्ते, अणुका-युगन्धरी, बृहच्छिरा कङ्गुः अल्पतरशिरो रालकः, हरिमन्था:-कृष्णचणकाः शिलिन्दा-मकुष्टाः राजमाषा:-चवलकाः धान्यकं-कुसुम्भरी कलाया-अत्र वृत्तचणका इति १५६ ॥ ४ ॥५॥ अधुना 'मरणं सत्तरसभेयं ति सप्तपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह आवीइ १ ओहि २ अंतिय ३ वलायमरणं ४ वसहमरणं च ५ । अंतोसल्लं ६ तम्भव ७ बालं ८ तह पंडियं ९ मीसं १०॥६॥छउमत्थमरण ११ केवलि १२ वेहायस १३ गिद्धपिट्टमरणं १४ च । मरणं भत्तपरिन्ना १५ इंगिणि १६ पाओवगमणं च १७॥७॥ अणुसमयनिरंतरमाविइसनियं तं भणंति पंचविहं । दवे खेत्ते काले भवे य भावे य संसारे ॥८॥ एमेव ओहिमरणं जाणि मओ ताणि चेव मरइ पुणो । एमेव आइअंतियमरणं नवि मरइ ताणि पुणो ॥९॥ संज COACANASAOTOCACASSACARAL For Private Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ २९८ ॥ मजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । इंदियविसयवसगया मरंति जे तं वसहं तु ॥ १० ॥ गारवपंकनिबुड्डा अइयारं जे परस्स न कहति । दंसणनाणचरिते ससल्लमरणं हवइ तेसिं ॥ ११ ॥ मोत्तुं अकम्मभूमिय नरतिरिए सुरगणे य नेरइए। सेसाणं जीवाणं तग्भवमरणं च केसिंचि ॥१२॥ तूण ओहिमरणं आवी (ई) यंतियंतियं चेव । सेसा मरणा सवे तब्भवमरणेण नायवा ॥ १३॥ अविरयमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं विंति । जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ॥ १४॥ मणपज्जवोहिनाणी सुयमइनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं केवलिमरणं तु केवलिणो ॥ १५ ॥ गिद्धाइभक्खणं गिद्धपिट्ट उब्बंधणाइ बेहासं । एए दोन्निवि मरणा कारणजाए अणुनाया ॥ १६ ॥ मरणं भत्तपरिन्ना इंगिणि पायवगमणं च तिन्नि मरणारं । कन्नसमज्झिमजेट्ठा धिसंघयणेण उ विसिट्ठा ॥ १७ ॥ 'आवीई' त्यादि, मरणशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादावीचिमरणं अवधिमरणं 'अंतियं'ति आत्यन्तिकमरणं आर्षत्वाच्चेत्थं निर्देशः एवमुतरत्रापि, 'वलायमरणं' ति वलन्मरणं वशार्त्तमरणं च अन्तःशल्यमरणं तद्भवमरणं बालमरणं तथा पण्डितमरणं मिश्रमरणं छद्मस्थमरणं केवलिमरणं 'वेहायसं 'ति वैहायसमरणं गृध्रपृष्ठं च मरणं 'भत्तपरिन्न'त्ति भक्तपरिज्ञामरणं इंगिनीमरणं पादपोपगमनमरणं चेति || ६ ||७|| एतानि क्रमशः स्वयमेव विवरीपुरावीचिमरणं तावदाह - ' अणुसमय' मित्यादि, अनुसमय - समयमाश्रित्य इदं च व्यवहितसमयाश्रयणतोऽपि भवतीति मा भूद्धान्तिरत आह-निरन्तरं - असान्तरमन्तरालाभावात् किं तदेवंविधं ? - 'आवीचिसंज्ञितं' आ - समन्तात् वीचय १५६ धान्यानि २४ १५७ मरणानि १७ गा. १००४ १७ ॥ २९८ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इव वीचय:- प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपरापरायुर्दुलि कोदयात्पूर्वपूर्वायुर्दलिक विच्युतिलक्षणा अवस्था यस्मिन् मरणे तदावीचि, तत आवी -- || चीति संज्ञा सञ्जाता यस्मिन् तदावीचिसंज्ञितं, तारकादित्वादितचि रूपमिदं, अथवा वीचि:- विच्छेदस्तदभावोऽवीचिः, दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात् उभयत्र प्रक्रमान्मरणं, तदेवम्भूतं प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणमात्रीचिमरणं पञ्चविधं भणन्ति तीर्थकरगणधरादयो ऽस्मिन् संसारे जगति, पञ्चविधत्वमेवाह - द्रव्ये क्षेत्रे काले भवे भावे च द्रव्याऽऽवीचिमरणं क्षेत्राऽऽवीचिमरणं कालाssवीचिमरणं |भवाऽऽवीचिमरणं भावाऽऽवीचिमरणं चेत्यर्थः, तत्र द्रव्याऽऽवीचिमरणं नाम यन्नारकतिर्यग्नरामराणामुत्पत्तिसमयात्प्रभृति निजनिजायु:| कर्म दलिकानामनुसमयमनुभवनाद्विचटनं, तश्च नारकादिभेदाच्चतुर्विधं, एवं नारका दिगतिचातुर्विध्यापेक्षया तद्विषयं क्षेत्रमपि चतुर्विधं । ततस्तत्प्राधान्यापेक्षया क्षेत्रावीचिमरणमपि चतुर्वैव, काल इति यथायुष्ककालो गृह्यते, न तु अद्धाकालस्तस्य देवादिष्वसम्भवात्, सच | देवायुष्ककालादिभेदाचतुर्विधः, अतस्तत्प्राधान्यापेक्षया कालावीचिमरणमपि चतुर्विधमेव नारकादिचतुर्विधभवापेक्षया भवावीचिमरणमपि चतुर्थैव तेषामेव च नारकादीनां चतुर्विधायुःक्षयलक्षणभावप्राधान्यापेक्षया भावावीचिमरणमपि चतुर्वैवेति ॥ ८ ॥ अथावधि - मरणमाह - 'एवमेवे 'त्यादि, एवमेव यथाssवीचिमरणं द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदतः पञ्चविधं तथेदमवधिमरणमपीत्यर्थः, तत्स्वरूप - | माह - यानि मृतः सम्प्रतीति शेषः तानि चैव 'मरइ पुण'त्ति तियत्ययेन मरिष्यति पुनः किमुक्तं भवति ? - अवधि:- मर्यादा ततश्च | यानि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुः कर्म दलिकान्यनुभूय म्रियते पुनर्यदि तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा द्रव्यावधिमरणं, तद्रव्यापेक्षया पुनस्तद्वद्दणावधेर्यावज्जीवस्य मृतत्वात्, सम्भवति हि गृहीतोज्झितानामपि कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणं परिणामवैचित्र्यादिति, एवं | क्षेत्रकालादिष्वपि भावना कार्या । आत्यन्तिकमरणमाह – 'एमेवे 'त्यादि, एवमेव - अवधिमरणवदात्यन्तिकमरणमपि द्रव्यादिभेदतः पञ्च 6-%%* jainelibrary.org Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणानि प्रव० सा रोद्धार तत्त्वज्ञानवि० ॥२९९॥ विधं, विशेषः पुनरयं-'नवि मरइ ताणि पुणो'त्ति अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैव तानि-द्रव्यादीनि पुनर्मियते, अयमर्थः-यानि नर- काद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीत्येवं यन्मरणं तद् द्रव्यापेक्षयाऽत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति, एवं क्षेत्रादिष्वपि वाच्यम् ॥ ९॥ वलन्मरणमाह-'संजमें'त्यादि, संयमयोगा:-संयमव्यापारास्तैस्तेषु वा विषण्णाः संयमयोगविषण्णा:-अतिदुश्वरं तपश्चरणमाचरितुमक्षमाः व्रतं च कुलादिलजया मोक्तुमशक्नुवन्तः कथञ्चिदस्माकमितः कष्टानुष्ठानान्मुक्तिर्भवत्विति विचिन्तयन्तो म्रियन्ते यच्च तद्बलता-संयमानुष्ठानान्निवर्तमानानां मरणं वलन्मरणं, तुशब्दो विशेषणार्थो भग्नव्रतपरिणतीनां वतिनामेवैतदिति विशेषयति, अन्येषां हि संयमयोगानामेवासम्भवात् कथं तद्विषादः ? तदभावे च कथं तदिति ॥ वशार्त्तमरणमाह -'इंदिये'त्यादि, इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां विषया-मनोज्ञरूपादय इन्द्रियविषयाः तद्वशं गताः-प्राप्ता इन्द्रियविषयवशगताः स्निग्धदीपकलिकावलोकनाकुलशलभवन्म्रियन्ते तद्वशार्तमरणं, वशेन-इन्द्रियविषयपारतव्येण ऋता:-पीडिता वार्ताः तेषां मरणमप्युपचाराद्वशार्त्तमुच्यते इति ॥ १०॥ अन्तःशल्यमरणमाह-'गारवे'त्यादि, गौरवं-सातर्द्धिरसगौरवात्मकं तदेव कालुष्यहेतुतया पङ्कःकर्दमः तस्मिन्निमग्नाः तत्क्रोडीकृततया अतिचार-अपराधं ये परस्य-आलोचनार्हस्याचार्यादेर्न कथयन्ति, मा भूदस्माकमालोचनाईमा|चार्यादिकमुपसर्पतां तद्वन्दनादितदुक्ततपोऽनुष्ठानासेवनेन ऋद्धिरससाताभावसम्भव इति, उपलक्षणं चैतत् , ततो बहुश्रुतोऽहं तत्कथमल्पश्रुतोऽयं मम शल्यमुद्धरिष्यति ? कथं चाहमस्मै वन्दनादिकं दास्यामि ? अयं च ज्ञानहीनोऽयं वा मम सम इत्यभिमानेन लजया वा-अनुचितानुष्ठानसंवरणस्वरूपया येऽतिचारं न कथयन्तीति, किंविषयमित्याह-दर्शनज्ञानचारित्रे-दर्शनज्ञानचारित्रविषयं, तत्र दर्शनविषयं शङ्कादि ज्ञानविषयं कालातिक्रमादि चारित्रविषय समित्यननुपालनादि, शल्यमिव शल्यं कालान्तरेऽप्यनिष्टफलविधानं प्रत्यवन्ध्य Jan Educat an inte For Private & Personal use only How.iainelibrary.org Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तया सह तेन सशल्यं तच्च तन्मरणं च सशल्यमरणम् - अन्तःशल्यमरणं भवति तेषां गौरवपङ्कनिमग्नानामिति ॥ ११ ॥ तद्भवमरणमाह - 'मोतुं' इत्यादि, मुक्त्वा - अपहाय, कान् ? - अकर्मभूमिजाश्च ते देवकुरूत्तरकुर्वादिपूत्पन्नतया नरतिर्यश्वश्चाकर्मभूमिजनरतिर्यश्चस्तान् तेषां हि तद्भवानन्तरं देवेष्वेवोत्पादः, तथा सुरगणांश्च-सुरनिकायान् किमुक्तं भवति ? - चतुर्निकायवर्तिनोऽपि देवान् तथा निरयो - नरकस्तस्मिन् भवा नैरयिकास्तांश्च मुक्त्वेति सम्बन्धः, तेषां देवानां च तद्भवानन्तरं तिर्यग्मनुष्येष्वेवोत्पत्तेः शेषाणां - एतदुद्धरितानां कर्मभूमिजनरविरखां जीवानां प्राणिनां तद्भवमरणं, तेषामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेः, तद् विद्यते यस्मिन् भवे - तिर्यग्मनुष्यलक्षणे वर्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बद्धा पुनस्तत्क्षयेण म्रियमाणस्य भवति, तुशब्दस्तेषामपि सयवर्षायुषामेवेति विशेषख्यापकः, असयवर्षायुषां हि युगलधार्मिकत्वादकर्मभूमिजानामिव देवेष्वेवोत्पाद:, तेषामपि न सर्वेषां, किन्तु केषाञ्चित्तद्भवोपादानरूपमेवायुः कर्मोपचिन्वतामिति ॥ १२ ॥ अत्रान्तरे-आबीई इति गाथा सूत्रे दृश्यते न चास्या भावार्थ: सम्यगवगम्यते नाप्यसावुत्तराध्ययनचूर्ण्यादिषु व्याख्यातेत्युपेक्ष्यते ॥ १३ ॥ सम्प्रति बालपण्डित मिश्रमरणान्याह - 'अविरये 'त्यादि, विरमणं विरतं-हिंसानृतादेरुपरमणं न विद्यते तद्येषां तेऽविरतास्तेषां - मृतिसमयेऽपि देशविरतिमप्यप्रतिपद्यमानानां मिध्यादृशां सम्यग्दृशां वा मरणमविरतमरणं तद् बाला इव बालाः - अविरतास्तेषां | मरणं बालमरणमिति ब्रुवते इति सम्बन्धः, तथा विरतानां - सर्वसावद्यनिवृत्तिमभ्युपगतानां मरणं पण्डितमरणं ब्रुवते तीर्थकरगणधरादय इति, तथा जानीहि बालपण्डितमरणं - मिश्रमरणं, पुनः शब्दः पूर्वापेक्षया विशेषद्योतनार्थः, देशात्सर्वविरतविषयापेक्षया स्थूलप्राणिव्यपरोपणादेर्विरता देशविरतास्तेषां देशविरतानां ॥ १४ ॥ एवं चरणद्वारेण बालादिमरणत्रयमभिधाय ज्ञानद्वारेण छद्मस्थमरणकेवलिमरणे प्राह- 'मणपज्जवो' इत्यादि, मनः पर्यायज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनो मतिज्ञानिनश्च त्रियन्ते ये श्रमणाः -- तपस्विनः छादय Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३०० ॥ न्तीति छद्मानि - ज्ञानावरणादीनि कर्माणि तेषु तिष्ठन्तीति छद्मस्थास्तेषां मरणं छद्मस्थमरणमेतत् इह च प्रथमतो मनःपर्यायनिर्देशाद्वि| शुद्धिकृतप्राधान्याङ्गीकारेण चारित्रिण एतदुपजायते इति स्वामिकृतप्राधान्यापेक्षया द्रष्टव्यं एवमवध्यादिष्वपि यथायोगं स्वधियैव हेतुर्वाच्य इति, तथा केवलमरणं केवलिनः - उत्पन्नकेवलज्ञानस्य सकलकर्मपुद्गलशाटनतो म्रियमाणस्य भवतीति ॥ १४ ॥ साम्प्रतं वैहाय| सगृध्रपृष्ठमरणे अभिधातुमाह - 'गिद्धा ईत्यादि, गृध्राः - प्रतीताः ते आदिर्येषां शकुनिका शिवादीनां तैर्भक्षणं गम्यमानत्वादात्मनस्तदनिवारणादिना तद्भक्ष्यकरिकरभादिशरीरानुप्रवेशेन च गृध्रादिभक्षणं, तत्किमुच्यते ? इत्याह- 'गिद्धपिट्ठ' त्ति गृधैः स्पृष्टं - स्पर्शनं यस्मिन् तद् गृध्रस्पृष्टं यदिवा गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च मर्तुर्यस्मिन् तद् गृधपृष्ठं, स ालक्तकपूणिकापुट प्रदानेनात्मानं गृधादिभिः पृष्ठादौ भक्षयतीति, पञ्चान्निर्दिष्टस्यापि तस्य प्रथमतः प्रतिपादनमत्यन्तमहासस्वविषयतया कर्मनिर्जरां प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम्, 'उब्बंधणाइ वेहास' मिति उद्- ऊर्द्ध वृक्षशाखादौ बन्धनमुबन्धनं तदादिर्यस्य वरुगिरिभृगुप्रपातादेरात्मनैव जनितस्य मरणस्य तदुबन्धनादि, 'वेहास' मिति प्राकृतत्वाद्यलोपे विहायसि - व्योमनि भवं वैहायसं उद्बद्धस्य हि विहायस्येव भवनमिति तत्प्राधान्यविवक्षयेत्थमुक्तमिति, नन्वेवं गृध्रपृष्टस्याप्यात्मघातरूपत्वाद्वैहायस एवान्तर्भावः, सत्यमेतत् केवलमस्याल्पसत्त्वैर्विधातुमशक्यत्वख्यापनार्थ भेदोपन्यासः, ननु — 'भावियजिणवयणाणं ममत्तरहियाण नत्थि हु विसेसो । अप्पाणंमि परम्मि य तो वज्जे पीडमुभओऽवि ॥ १ ॥ भावितजिनवचनानां ममत्वरहितानां नास्त्येव विशेषः । आत्मनि च परस्मिंश्च ततो वर्जयेत् पीडामुभयोरपि ॥ १ ॥ ] इत्यागमः, एते चानन्तरोक्ते मरणे अत्यन्तमात्मपीडाकारिणी इति कथं नागमविरोधः ?, अत एव च भक्तपरिज्ञानादिषु पीडापरिहाराय 'बत्तारि विचित्ताई । विगईनिज्जूहियाई चत्तारि ॥' [ चत्वारि ( वर्षाणि ) विचित्राणि विकृतिनिर्यूढानि चत्वारि ] इत्यादिसंलेखनाविधिः पान मरणानि १७ ॥ ३०० ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ &ा कादिविधिश्च तत्राभिहितः, दर्शनमालिन्यं चोभयत्रेत्याशंक्याह-एते-अनंतरोक्ते द्वे अपि-गृध्रपृष्ठवैहायसाख्ये मरणे 'कारण'त्ति प्राकृ तत्वेन सप्तमीलोपात् कारणे-दर्शनमालिन्यपरिहारादिके जाते-समुत्पन्ने यद्वा कारणजाते-कारणप्रकारे सति उदायिनृपानुमृततथाविधगीतार्थाचार्यवदनुज्ञाते इत्यदोषः॥ १६ ॥ सम्प्रति अन्त्यमरणत्रयमाह-'मरण'मित्यादि, भक्तं-भोजनं तस्य परिज्ञानं परिज्ञा, सा द्विधा-ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा च, ज्ञपरिज्ञयाऽनेकविधमस्माभिर्भुक्तपूर्वमेतद्धेतुकं च सर्वमवद्यमिति परिज्ञानं, प्रत्याख्यानपरिज्ञया Pl-"सव्वं च असणपाणं चउन्विहं जो य बाहिरो उवही । अन्भिन्तरं चउविहं जावजीवं च वोसिरइ ॥ १॥" [ सर्व चाशनपानं चतुर्विधं यश्च बाह्य उपधिः । अभ्यन्तरं चतुर्विधं यावज्जीवं च व्युत्सृजति ॥ १॥] इत्यागमवचनाच्चतुर्विधाहारस्य त्रिविधाहारस्य वा | यावज्जीवमपि परित्यागात्मकं प्रत्याख्यानं भक्तपरिज्ञोच्यते, तथा इयते-प्रतिनियतदेश एव चेष्ट्यतेऽस्यामनशनक्रियायामितीङ्गिनी, भक्तपरिज्ञायां हि त्रिविधं चतुर्विधं वाऽऽहारं प्रत्याचष्टे शरीरपरिकर्म च स्वतः करोति परतश्च कारयति, इङ्गिन्यां तु नियमाञ्चतुर्विधाहारविरतिः परपरिकर्मविवर्जनं च भवति, स्वयं पुनरिङ्गितदेशाभ्यन्तरे उद्वर्तनादिचेष्टात्मकं परिकर्म यथासमाधि विधात्यपीति विशेषः, तथा पादैः-अधःप्रसर्पिमूलात्मकैः पिबतीति पादपो-वृक्षः, उपशब्दश्चौपम्ये उपमेयेऽपि सादृश्येऽपि च दृश्यते, ततश्च पादपमुपगच्छतिसादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमनं, किमुक्तं भवति ?-यथैव पादपः क्वचित्कथञ्चिनिपतितः सममसमं वा अविभावयन् निश्चल एवास्ते तथा अयमपि भगवान् यद्यथा समविषमदेशेष्वङ्गमुपाङ्गं वा प्रथमतः पतितं न तत्ततश्चलयतीति, इह चैवंविधानशनोपलक्षितानि मर-15 णान्यप्येवमुक्तानि, अत एवाह-त्रीणि मरणानि, अर्थतेषामेव त्रयाणां मरणानां किञ्चित् स्वरूपमाह-कन्नस'त्ति सूत्रत्वात् कनिष्ठंलघु जघन्यमितियावत् मध्यम-लघुज्येष्ठयोर्मध्यभावि ज्येष्ठं-अतिशयवृद्धमुत्कृष्टमित्यर्थः तत एतेषां द्वन्द्वे कनिष्ठमध्यमज्येष्ठानि यथास For Private & Personel Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३०१ ॥ Jain Education Intern येन त्रीण्यपि मरणान्यवसेयानि, तथा 'धिइ'त्ति धृतिः - संयमं प्रति चित्तस्वास्थ्यं संहननं - शरीरसामर्थ्यहेतुर्ब्रऋषभ नाराचादि ततः समाहारद्वन्द्वे धृतिसंहननं तेन विशिष्टान्येतानि, इदमुक्तं भवति - यद्यपि त्रितयमप्येतत् 'धीरेणवि मरियव्वं कापुरिसेणावि अवस्स मरियव्वं । तम्हा अवस्समरणे वरं खु धीरतणे मरिडं ॥ १ ॥ [ धीरेणापि मर्त्तव्यं कापुरुषेणाप्यवश्यं मर्त्तव्यं तस्मादवश्यमरणे धीरत्वेनैव मर्त्तु वरं ॥ १ ॥ ] इत्यादिभावनातः शुभाशयवानेव प्रतिपद्यते फलमपि च वैमानिकता मुक्तिलक्षणं च त्रयस्यापि समानं, तथा चोक्तम् — “एयं पञ्चक्खाणं अणुपालेऊण सुविहिओ सम्मं । वेमाणिओ व देवो हविज्ज अहवावि सिज्झिज्जा ॥ १ ॥” [ एतत् प्रत्याख्यानमनुपालय सुविहितः सम्यक् वैमानिको देवो वा भवेत् अथवापि सिध्येत् ॥ १ ॥ ] तथापि विशिष्टविशिष्टतरविशिष्टतमधृतिमतामेव च तत्प्राप्तिरिति ज्येष्ठत्वादिस्तद्विशेष उच्यते, तथाहि - भक्तपरिज्ञामरणमार्थिकादीनामप्यस्ति यत उक्तम् - " सव्वावि य अज्जाओ सव्वेवि य पढमसंघयणवजा । सव्वेवि देसविरया पश्ञ्चक्खाणेण उ मरंति ।। १ ।।" [ सर्वा अप्यार्याः सर्वेऽपि च प्रथमसंहननवर्जा: । सर्वेऽपि च देशविरताः प्रत्याख्यानेनैव म्रियन्ते ॥ १ ॥ ] अत्र च प्रत्याख्यानशब्देन भक्तपरिचैव भणिता, तत्र प्राक् पादपोपगमादेरन्यथा भणनात्, इङ्गिनीमरणं तु विशिष्टतरधृतिसंहननवतामेव भवतीत्यार्यिका दिनिषेधत एवावसीयते, पादपोपगमनं तु नात्रैव विशिष्टतमधृतिमतां वज्रर्षभनाराचसंहननिनामेव च भवति, उक्तं च – “पढमंमि य संघयणे वट्टते सेलकुडसामाणा । तेसिपि य वोच्छेओ चोइसपुवीण वोच्छे ॥ १ ॥ [ प्रथमे च संहनने वर्त्तमाने शैलकुड्यसमानाः । तेषामपि च व्युच्छेदञ्चतुर्दशपूर्विणां व्युच्छेदे ॥ १ ॥ ] इति, तीर्थ| करसेवितत्वाच्च पादपोपगमनस्य ज्येष्ठत्वं, इतरयोश्च विशिष्टसाधुसेवितत्वादन्यथात्वं यतोऽभ्यधायि - " सव्वे सव्वद्धाए सम्बन्नू सञ्चकम्मभूमीसु । सव्वगुरु सव्वमहिया सव्वे मेरुम्मि अभिसित्ता ॥ १ ॥ सव्वाहिं लद्धीहिं सब्बेऽवि परिसहे पराजित्ता । सब्वेवि य ४ ॥ ३०१ ॥ मरणानि १७ Quininelibrary.org Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %ACOCOCCESCRIO तित्थयरा पाओवगया उ सिद्धिगया ॥२ ॥ अवसेसा अणगारा तीयपडुप्पन्नऽणागया सब्वे । केई पाओवगया पञ्चक्खाणिगिणी केई ॥ ३॥" [सर्वे सर्वाद्धायां एते सर्वज्ञाः सर्वकर्मभूमिषु सर्वगुरवः सर्वमहिताः सर्वे मेरौ अभिषिक्ताः ॥ १॥ सर्वामिर्लब्धिभिर्युक्ताः सर्वेऽपि च परिषहान् पराजित्य । सर्वेऽपि च तीर्थकराः पादपोपगताः सिद्धिगताः ॥ २॥ अवशेषा अनगाराः अतीतप्रत्युत्पन्नानागताः | सर्वे । केचित् पादपोपगताः प्रत्याख्यानिन इङ्गिनश्च केचित् ॥ ३॥] इति, तस्माद्भक्तपरिज्ञानं कनिष्ठं इङ्गिनीमरणं मध्यमं पादपोपगमनं तु ज्येष्ठमिति १५७ ॥ १७ ॥ इदानीं 'पलिओवमं' इत्यष्टपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाह पलिओवमं च तिविहं उद्धारऽद्धं च खेत्तपलियं च । एक्केकं पुण दुविहं बायर सुहुमं च नायवं ॥१८॥ ज जोयणविच्छिन्नं तं तिउणं परिरएण सविसेसं । तावइयं उबिद्धं पल्लं पलिओवर्म नाम ॥ १९॥ एगाहियबेहियतेहियाण उक्कोस सत्तरत्ताणं । सम्म8 संनिचियं भरियं वालग्गकोडीहिं ॥ २०॥ तत्तो समए समए इक्किक्के अवहियंमि जो कालो । संखिज्जा खलु समया बायरउद्धारपल्लंमि ॥ २१ ॥ एकेक्कमओ लोमं कट्टमसंखिज्जखंडमदिस्सं । समछेयाणंतपएसियाण पल्लं भरिजाहि ॥ २२ ॥ तत्तो समए समए एक्कक्के अवहियंमि जो कालो । संखिन्ज वासकोडी सुहुमे उद्धारपल्लंमि ॥ २३ ॥ वाससए वाससए एक्कक्के बायरे अवहियंमि । बायरअद्धापलियं संखेजा वासकोडीओ ॥ २४ ॥ वाससए वाससए एक्कक्के अवहियम्मि सुहुमंमि । मुहुर्म अडा + Jain Education intama For Private Personal Use Only w.jainelibrary.org Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३०२ ॥ *% *%*** Jain Education Intele पलियं हवंति वासा असंखिज्जा || २५ || बायरसुहुमायासे खेत्तपसाणुसमयमवहारे । बायरसुमं खेत्तं उस्सप्पिणीओ असंखेज्जा ॥ २६ ॥ 'पलिओ मे 'त्यादिगाथानवकम्, पल्यो - वर्तुलाकृतिर्धान्याधारविशेष: पल्यवत्पल्य: - पुरस्ताद्वक्ष्यमाणस्वरूपः तेनोपमा यत्र कालप्रमाणे तत्पस्योपमं तच्च त्रिधा-उद्धारपल्योपमं अद्धापल्योपमं क्षेत्रपल्योपमं च तत्र वक्ष्यमाणस्वरूपवालाग्राणां तत्खण्डानां चोद्धारेण द्वीपसमुद्राणां वा प्रतिसमयमुद्धरणम् - अपहरणमुद्धारः तद्विषयं तत्प्रधानं वा पल्योपममुद्धारपल्योपमं, तथा अद्धा - कालः स चेह प्रक्रमाद्वक्ष्यमाणवालाप्राणां तत्खण्डानां वा प्रत्येकं वर्षशतलक्षण उद्धारकालो गृह्यते, अथवा प्रस्तुताद्धापल्योपमपरिच्छेद्यो नारकाद्यायुष्कलक्षणः कालोऽद्धा तत्प्रधानं तद्विषयं वा पल्योपममद्धापल्योपमं, तथा क्षेत्रं विवक्षिताकाशप्रदेशस्वरूपं तदुद्धारप्रधानं पल्योपमं क्षेत्रपल्योपमं एतेषां च मध्ये पुनरेकैकं द्विभेदं ज्ञातव्यं - बादरं सूक्ष्मं च तत्र वालाप्राणां सूक्ष्मखण्डाकरणतो यथावस्थितानां स्थूलानां ग्रहणाद्वादरं तेषामेवास|यसूक्ष्मखण्डकरणतः सूक्ष्ममिति ॥ १८ ॥ कः पुनरसौ पल्यो येन पल्योपमे उपमा विधीयते ? इत्याह- 'ज' मित्यादि, नाम इति शिष्यस्य कोमलामन्त्रणे 'पलिओवमं' इत्यत्र प्राकृतत्वेन विभक्तिव्यत्ययात् सप्तमी 'पले' इत्यादावपि लिङ्गव्यत्ययात् पुंस्त्वं, ततश्च पल्यो|पमे - पल्योपमविषये धान्यपत्यवत्पल्यः प्रागुदिष्टः स विज्ञेयो, यः किमित्याह-यो विस्तीर्णः, कियदित्याह-योजनमुत्सेधाङ्गुलक्रमनिष्पन्नं, वृत्ताकारत्वाद्दैर्येणापि योजनमिति द्रष्टव्यं तच्च योजनं त्रिगुणं सविशेषं परिरयेण, भ्रमितिमङ्गीकृत्य सर्वस्यापि वृत्तपरिधेः किच्चिन्यून| षङ्गागाधिकत्रिगुणत्वादस्यापि पत्यस्य किश्चिन्यूनषा ( ० ९००) गाधिकानि त्रीणि योजनानि परिधिर्भवतीत्यर्थः, 'उषिद्धं' उच्चोऽपि तावदेव योजनमेवेत्यर्थः, आयामविष्कम्भाभ्यां प्रत्येकमेकयोजनमानः उच्चत्वेनापि योजनप्रमाणः परिधिना तु किश्चिन्यूनषङ्गागाधिक १५८ प ल्योपमस्वरूपं० गा. १०१८ २६ ॥ ३०२ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education योजनत्रयमानो यः पल्यः स इह पल्योपमं विज्ञेय इति तात्पर्यं ॥ १९ ॥ अथ अयमेव पल्यो यत्स्वरूपैर्वालायैः पूर्यते तदेतन्निरूपयितुमाह - 'एगाहिये' त्यादि, एकेनाह्रा निर्वृत्ता एकाहिक्यः द्वाभ्यां त्रिभिश्चाहोभिर्निष्पन्ना द्व्याहिक्यख्याहिक्यश्च तासामेकाहिकीद्वयाहिकीत्र्याहिकीनामेवं चतुराहिकीनां यावदुत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढानां वालानामेवातिसूक्ष्मत्वादप्रकोटयो वालाप्रकोटयस्तासां भृतोऽसौ पल्यो - ऽत्राधिक्रियते, तत्र मुण्डिते शिरस्येकेनाहा यावत्प्रमाणा वालाग्रकोटय उत्तिष्ठन्ति ता एकाहिक्यः द्वाभ्यां तु या उत्तिष्ठन्ति ता ट्र्या| हिक्यः त्रिभिस्तु त्र्याहिक्यः एवं यावत्सप्तरात्रप्ररूढाः सप्तरात्रिक्य इति, कथं पुनस्तासां वालाप्रकोटीनां भृत इत्याह-संमृष्ट:- आकर्णं पूरितः संनिचितः - प्रचय विशेषान्निबिडीकृतः, किं बहुना ?, तथा कथभ्वनापि भृतोऽसौ पल्यो यथा तानि वालाग्राणि न वायुरपहरति नापि वह्निर्दहति न च तेषु सलिलं प्रविश्य कोथमापादयति, तदुक्तम् - "ते णं वालग्गा नो अग्गी डहेजा नो वाऊ हरेज्या नो सलिलं कुत्थेजा” [ तान् वालाग्रान् नाग्निर्दहेत् न वायुर्हरेत् न सलिलं कोथयेत् ] इत्यादि ॥ २० ॥ ततः किमित्याह - ' तत्तो' इत्यादि, ततो-यथोक्तवालाप्रभृतपल्यात् समये समये - प्रतिसमय मे कैकस्मिन् वालाग्रेऽपह्रियमाणे यावान् कालो लगति प्रतिसमयं वालाग्राकर्ष|णाद्यावता कालेन सकलोऽपि स पल्यः सर्वात्मना निर्लेपो भवतीत्यर्थः, तावान् कालो बादरमुद्धारपल्योपमं इत्यावृत्त्या प्रथमान्ततयाऽप्यत्र सम्बद्ध्यते, क्रियान् पुनरसौ काल इति कथ्यतामित्याह - खल्ववधारणे सङ्ख्येया एव समया अस्मिन् बादरे उद्धारपल्योपमे भवन्ति नासङ्ख्येयाः, वालाग्राणामप्यत्र सङ्ख्यातत्वात् तेषां च प्रतिसमय मे कैकापहारे सङ्ख्येयस्यैव समयराशेः सद्भावादिति ॥ २१ ॥ उक्तं बादरमुद्धारपल्योपमं अथ क्रमप्राप्तमेव सूक्ष्ममुद्धारपल्योपममभिधित्सुराह — 'एक्केक्के'त्यादि, अतः - सहजवालाप्रभृतपल्यादेकैकं लोम-पूर्वोक्तवालाग्रलक्षणं असङ्ख्येयानि खण्डानि यत्र तदसङ्ख्येयखण्डमदृश्यं कृत्वा, एतदुक्तं भवति - पूर्व वालाग्राणि सहजान्येव गृही ww.jainelibrary.org Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३०३ ॥ Jain Education तानि अत्र तु तान्येव वालाग्राणि प्रत्येकं तावदसत्कल्पनया खण्ड्यन्ते यावददृश्यतास्वरूपास येयखण्डरूपतामेकैकं वालानं भजत इति, तत्पुनरेकैकं वालाप्रखण्डं द्रव्यतोऽत्यन्तविशुद्धलोचनश्छद्मस्थः पुरुषो यदतीव सूक्ष्मं पुद्गलद्रव्यं चक्षुषा पश्यति तदसत्येय भागमात्रं, क्षेत्रतस्तु सूक्ष्मपनकशरीरं यावति क्षेत्रेऽवगाहते तदसङ्ख्येयगुणक्षेत्रावगाहि द्रव्यप्रमाणं, तथा चानुयोगद्वारसूत्रम् - "तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई किज्जइ, ते णं वालग्गा दिट्ठीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्तातो सुहुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाउ असंखेज्जगुणा” [ तत्रैकैकस्य वालाप्रस्यासंख्येयानि खण्डानि क्रियते तानि वालाग्राणि दृष्ट्यवगाहनातोऽसंख्येयभागमात्राणि सूक्ष्मस्य पन| कजीवस्य शरीरावगाहनाया असंख्येयगुणानि ] इति, वृद्धास्तु व्याचक्षते - बादरपर्याप्तपृथिवी काय शरीर तुल्यमिति, तथा चानुयोगद्वारमूलटीकाकृदाह हरिभद्रसूरिः - "बादरपृथिवीकायिकपर्याप्तशरीरतुल्यान्यसङ्ख्येयखण्डानी" ति वृद्धवादः, एवं कृत्वा ततः किं विधेयमित्यत्रोच्यते - ततोऽमीषां सर्वेषामपि समच्छेदानां परस्परं तुल्यखण्डीकृतानां प्रत्येकं चाद्याप्यनन्तप्रादेशिकानामनन्तपरमाण्वात्मकानां तमेव पूर्वोक्तं पल्यं बिभृया - बुद्ध्या परिपूर्ण विध्यास्त्वमिति ॥ २२ ॥ एवं च तस्मिन् भृते यत्कर्तव्यं तदाह - 'तत्तो' इत्यादि, ततः -सूक्ष्मखण्डीकृतवालाप्रभृतपल्यात्प्रति समयमेकैकस्मिन् सूक्ष्मवालाप्रखण्डेऽपहियमाणे यावान् कालो लगति तावत्प्रमाणं सूक्ष्ममुद्धारपल्योपमं भवतीति प्राग्वदत्रापि सम्बन्धः, कियान् पुनरसौ कालो भवतीत्याह-सङ्ख्येया वर्षकोट्यः सूक्ष्मे उद्धारपत्योपमे भवन्तीति ज्ञातव्यं, वालाप्राणामिह प्रत्येकमसङ्ख्ये यखण्डात्मकत्वादेकैकस्यापि वालाग्रस्य सम्बन्धिनां खण्डानामपहारेऽसङ्ख्येयसमयराशिप्राप्तेः सर्ववालाग्रखण्डात्मकापहारे भवन्त्येव सङ्ख्याता वर्षकोट्यः ॥ २३ ॥ अथ बादरमद्धापल्योपमं प्रतिपादयितुमाह - 'वासे' त्यादि, तस्मिन्नेवोत्सेधाङ्गुलप्रमितयोजनप्रमाणायामविष्कम्भोद्वेधे पल्ये पूर्वोक्तसहजबादरवालाप्रैर्निभृतं भृते सति प्रति वर्षशतमेकैकं वालाग्रमप १५८ पल्योपमस्ख रूपं० गा. १०१८२६ 112021 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हियते यावता कालेन स पल्यो निर्लेपीक्रियते तावान् कालो बादरमद्धापल्योपमं विज्ञेयं, तत्र बादरेऽद्धापल्योपमे सोया वर्षकोट्यो भवन्तीति ॥ २४ ॥ अथ सूक्ष्ममद्धापल्योपममाह - 'वाससे' त्यादि, स एव पल्यः प्राग्वदसोयखण्डीकृतसूक्ष्मवालाप्रैराकर्ण परिपूर्णः क्रियते, ततो वर्षशते वर्षशतेऽतिक्रान्ते सत्येकैकसूक्ष्मवालाप्रापहारतो यावता कालेन स पल्यः सर्वात्मना रिक्तो भवति तावान् कालः सूक्ष्ममद्धापल्योपमं अवबोद्धव्यं, तत्र च सूक्ष्मेऽद्धापल्योपमे भवन्त्यसङ्ख्येयानि वर्षाणि, असङ्ख्या वर्षकोटयो भवन्तीत्यर्थः ॥ २५ ॥ सम्प्रति बादरं सूक्ष्मं च क्षेत्रपल्योपममाह - 'बायरे' त्यादि, बादराणि च सूक्ष्माणि च बादरसूक्ष्माणि पूर्वोक्तपल्यगतानि | सहजान्यसङ्ख्येयखण्डीकृतानि च यानि वालाप्राणीत्यर्थः तेषामवगाढत्वसम्बन्धेन सम्बन्धि यदाकाशं तत्र ये क्षेत्रप्रदेशा- निरंशनभो | विभागस्वरूपास्तेषामनु समयं - प्रति समयमेकैकापहारे क्रियमाणे यावान् कालो लगति तदात्मकं यथाक्रममेव बादरं सूक्ष्मं च क्षेत्रं - क्षेत्रपल्योपमं भवति, इयमत्र भावना - स एवोत्सेधाङ्गुलप्रमितयोजनप्रमाणविष्कम्भायामावगाढः पल्यः पूर्ववदेकाहोरात्रयावत्सप्ताहोरात्रप्ररूढैर्वाला मैराकर्ण निचितो भ्रियते, ततस्तैर्वालाप्रैर्ये नमः प्रदेशाः स्पृष्टास्ते समये समये एकैकनभः प्रदेशप्रति समयापहारेण यावता कालेन | सर्वात्मना निष्ठामुपयाति तावान् कालविशेषो बादरं क्षेत्रपल्योपमं एतच्चासये योत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानं, यतः क्षेत्रस्यातिसूक्ष्मत्वेनैकैकवालाप्रावगाढक्षेत्र प्रदेशानामपि प्रतिसमयमेकैकापहारे 'अंगुल असंखभागे ओसप्पिणीओ असंखेज्जा' [ अङ्गुलासंख्येयभागे अवसपिंण्योऽसंख्येयाः ] इति वचनात् असङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो लगन्ति, किं पुनः सर्ववालाप्रावगाढक्षेत्र प्रदेशापहार इति । तथा स एव पूर्वोक्तः पल्यः पूर्ववदेकैकं वालाप्रमसङ्ख्येयखण्डं कृत्वा तैराकर्ण भृतो निचितश्च तथा क्रियते यथा मनागपि न तत्राम्यादिकमात्रामति, एवं भृते तस्मिन् पल्ये ये आकाशप्रदेशास्तैर्वालायैः स्पृष्टा ये च न स्पृष्टास्ते सर्वेऽप्येकैकस्मिन् समये एकैकाकाशप्रदेशापहारेण Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K | १५८पल्योपमस्वरूपं० गा. १०१८ २६ प्रव० सा- समुद्भियमाणा यावता कालेन सर्वात्मना निष्ठामुपयान्ति तावान् कालविशेषः सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपमं, इदमप्यसयेयोत्सर्पिण्यवसर्पिणी रोद्धारे मानमेव केवलं पूर्वस्मादसमायेयगुणं, वालाग्रस्पृष्टनभःप्रदेशेभ्योऽस्पृष्टानामसंख्यातगुणत्वादिति । ननु यैर्वालाप्रैरेकान्ततो निचितमापूरिते तत्वज्ञा-जासति तस्मिन् पल्ये वह्नयादिकमपि सर्वथा नाकामति तत्र कथं तैर्वालाप्रैः अस्पृष्टा नभःप्रदेशाः सम्भाव्यन्ते ? येनोच्यते तैर्वालाप्रैनवि० रस्पृष्टा इति, अत्रोच्यते, वालाप्रेभ्योऽसङ्ख्येयखण्डीकृतेभ्योऽपि नभःप्रदेशानामत्यन्तसूक्ष्मत्वात् , तथा चात्रार्थे प्रअनिर्वचनरूप कामनयोगद्वारसूत्रं-"तत्थ णं चोयगे पण्णवगमेवं वयासी-अस्थि णं तस्स पल्लस्सागासप्पएसा जे णं तेहिं वालग्गेहिं अफुन्ना ?, हता| ॥३०४॥ अत्थि, जहा को दिहतो, से जहानामए एगे पल्ले सिया से णं कोहंडाणं भरिए तत्थ माउलिंगा पक्खित्ता तेवि माया तत्थ णं बिल्ला पक्खित्ता तेवि माया तत्थ णं आमलगा पक्खित्ता तेवि माया तत्थ णं बदरा पक्खित्ता तेवि माया तत्थ णं चणगा पक्खित्ता तेवि माया, एवमेएणं दिढतेणं अत्थि णं तस्स पल्लस्स आगासप्पएसा जेणं तेहिं वालग्गेहिं अणुप्फुन्ना" इति, [तत्र चोदकः प्रज्ञापकमेवमवादीत् |-सन्ति तस्य पल्यस्याकाशप्रदेशा ये तैर्वालाप्रैरस्पृष्टाः ?, हन्त सन्ति, यथा को दृष्टान्तः ?, तद्यथा नाम एकः पल्यः स्यात् स कूष्माण्डैभृतः तत्र मातृलिङ्गानि प्रक्षिप्तानि तानि मातानि तत्र बिल्वानि प्रक्षिप्तानि तान्यपि मातानि तत्रामलकानि प्रक्षिप्तानि तान्यपि मातानि तत्र बदराणि प्रक्षिप्तानि तान्यपि मातानि तत्र चणकाः प्रक्षिप्तास्तेऽपि माताः एवमनेन दृष्टान्तेन सन्ति तस्य पल्यस्याकाशप्रदेशा ये तैर्वालाप्रैन स्पृष्टाः ] तदेवमर्वाग्दृष्टयो यद्यपि यथोक्तपल्ये शुषिराभावतोऽस्पृष्टनभःप्रदेशान्न सम्भावयन्ति तथापि सूक्ष्माणामपि वाला प्राणां बादरत्वादाकाशप्रदेशानां पुनरतिसूक्ष्मत्वात्सन्त्येवासङ्ख्याता अस्पृष्टा नभःप्रदेशाः, दृश्यन्ते च निबिडतया सम्भाव्यमानेऽपि स्त-| सम्भादौ आस्फालितानां कीलिकानां प्रभूतानां तदन्तः प्रवेशः न चासौ शुषिरमन्तरेण भवतीति । ननु यद्याकाशप्रदेशा वालाप्रैः स्पृष्टा ॥३०४॥ Jan Education Intematon For Private Personel Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्पृष्टाश्च परिगृह्यन्ते ततः किं वालाप्रैः प्रयोजनं ?, एवं प्ररूपणा क्रियतां-उत्सेधाङ्गुलप्रमितयोजनायामविष्कम्भावगाढे पल्ये यावन्तो नभःप्रदेशा इति, सत्यमेतत् , केवलमनेन सूक्ष्मपल्योपमेन दृष्टिवादे स्पृष्टास्पृष्टभेदेन द्रव्यप्रमाणं क्रियते, यथा यैर्वालाप्रैः स्पृष्टा नभःप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकनभःप्रदेशापहारेण यत् बादरक्षेत्रपल्योपमं तत्प्रमाणान्येतानि द्रव्याणि, ये तु वालाप्रैः स्पृष्टा अस्पृष्टा वा नभःप्रदेशास्तेषां प्रतिसमयमेकैकनभःप्रदेशापहारेण यत् सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमं तावत्प्रमाणान्येतानि द्रव्याणि, ततो दृष्टिवादे वालाप्रैः प्रयोजनमिति तत्प्ररूपणा क्रियते इति १५८ ॥ २६ ॥ इदानीं 'अयरत्त्येकोनषष्ट्यधिकशततमं द्वारमाह उद्धारपल्लगाणं कोडाकोडी भवेज दसगुणिया। तं सागरोवमस्स उ एक्कस्स भवे परीमाणं ॥२७॥ जावइओ उद्धारो अड्डाइजाण सागराण भवे । तावइआ खलु लोए हवंति दीवा समुद्दा य ॥ २८॥ तह अडापल्लाणं कोडाकोडी भवेज दसगुणिया। तं सागरोवमस्स उ परिमाणं हवइ एगस्स ॥ २९ ॥ सुहुमेण उ अद्धासागरस्स माणेण सबजीवाणं । कम्मठिई कायठिई भवहिई होइ नायवा ॥ ३० ॥ इह खेत्तपल्लगाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ एकस्स भवे परीमाणं ॥ ३१॥ एएण खेत्तसागरउवमाणेणं हविज नायत्वं । पुढविदगअगणिमारु यहरियतसाणं च परिमाणं ॥ ३२ ॥ 'उद्धारे'त्यादिगाथाषटुं, अतिमहत्त्वसाम्यात्सागरेण-समुद्रेणोपमा यस्य तत्सागरोपमं, तदपि त्रिधा-उद्धाराद्धाक्षेत्रसागरोपमभेदात् , लापुनरेकैकं द्विधा-बार सूक्ष्मं च, तत्र उद्धारपल्ययोः पूर्वोक्तस्वरूपयोर्बादरसूक्ष्मभेदमिन्नयोर्या प्रत्येक कोटीकोटिर्दशमिर्गुणिता दश कोटीकोटय For Private Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ITI नवि० प्रव० सा-18| इत्यर्थः तदेतत्प्रत्येकमेकस्य बादरोद्धारसागरोपमस्य सूक्ष्मोद्धारसागरोपमस्य च परिमाणं भवेदिति, दशभिर्बादरोद्धारपस्योपमकोटिकोटि- १५९साग रोद्धारे | भिरेकं बादरोद्धारसागरोपमं भवति, दशभिश्च सूक्ष्मोद्धारपल्योपमकोटिकोटिभिरेकं सूक्ष्मोद्धारसागरोपमं भवतीत्यर्थः ॥ २७ ॥ अथरोपमस्वरूतत्त्वज्ञा- सूक्ष्मोद्धारसागरोपमस्य प्रयोजनमाह-'जावइओ' इत्यादि, अर्धतृतीयप्रमाणानां व्याख्यानात् सूक्ष्मोद्धारसागरोपमाणां पञ्चविंशतिपल्य | पम् गा. | कोटिकोटिष्वित्यर्थः सूक्ष्मवालाग्रोद्धारोपलक्षितः समयराशिरित्यर्थः भवेत्-जायेत तावन्त एव लोके द्वीपाः समुद्राश्च भवन्ति, एतदुक्तं भवति १०२७-३२ -सार्धे सूक्ष्मोद्धारसागरोपमद्वये सूक्ष्मोद्धारपल्योपमानां पञ्चविंशतिकोटिकोटिवित्यर्थः यावन्तो वालाग्रोद्धारविषयाः समया भवन्ति ॥३०५॥ तावत्सङ्ख्यास्तिर्यग्लोके द्वीपसमुद्रा अपि सर्वे सम्भवन्तीत्यर्थः, इह च यद्यपि सूत्रे सामान्येनैवोक्तं तथापि सूक्ष्मोद्धारसागरोपमस्यैवेदं द्वीपसमुद्रसङ्ख्यानयनलक्षणं प्रयोजनमवसेयं, 'एएहिं सुहुमेहिं उद्धारपलिओवमसागरोवमेहिं दीवसमुदाणं उद्धारो पिप्पई' [एताभ्यां सूक्ष्मोद्धारपल्योपमसागरोपमाभ्यां द्वीपसमुद्राणामुद्धारो गृह्यते ] इति वचनात् , बादरोद्धारसागरोपमेण तु न किमपि प्रयोजनं, केवलं बादरे प्ररूपिते सूक्ष्मप्ररूपणा क्रमनिष्पन्नत्वात् सुखकर्तव्या सुखावसेया च भवतीत्यतस्तत्प्ररूपणामात्रं कृतं, एवं बादराद्धाक्षेत्रसागरोपमयोर्बादरपल्योपमत्रये च वाच्यमिति ॥ २८ ॥ अथ बादरं सूक्ष्मं चाद्धासागरोपममाह-'तहे'त्यादि, तथेति समुच्चये अद्धापल्योपमयो दरसूक्ष्मभेदभिन्नयोर्या प्रत्येकं कोटिकोटिर्दशमिर्गुणिता दश कोटिकोटय इत्यर्थः तदेतत्प्रत्येकमेकस्य बादराद्धासागरोपमस्य सूक्ष्माद्धासागरोपमस्य च प्रमाणं भवेत् , भावार्थस्तु उद्धारसागरोपमवदिति ॥ २९॥ अथ सूक्ष्माद्धासागरोपमप्रयोजनमाह-'सुहमे'त्यादि, सूक्ष्मेणा द्धासागरोपमस्य मानेन-प्रमाणेन सर्वेषां-नारकतिर्यगादिजीवानां कर्मस्थितिकायस्थितिभवस्थितयो भवन्ति ज्ञातव्याः, तत्र कर्मणांहै ज्ञानावरणादीनां स्थिति:-अवस्थानकालस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यादिरूपः कर्मस्थितिः, कायः-पृथिव्यादिकायोऽत्राभिप्रेतः, ततश्चैकस्मिन् ॥३०५॥ Jain Education in de Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काये पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्त्या स्थितिः असङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिण्यात्मिका कायस्थितिः भवो-नारकायेकजीवस्य विवक्षितमेकमेव जन्म तत्र स्थिति:-आयुःकर्मानुभवनपरिणतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमादिरूपा भवस्थितिः, एताः कर्मकायभवस्थितयः सूक्ष्माद्धासागरोपमेण प्रमीयन्ते इति भावः ॥ ३०॥ अथ बादरं सूक्ष्मं च क्षेत्रसागरोपममाह-'इहे'त्यादि, इह-अस्मिन् प्रक्रमे बादरक्षेत्रपल्योपमानां दशभिः कोटिकोटिभिर्बादरं क्षेत्रसागरोपमं सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमानां तु दशभिः कोटिकोटिमिः सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपममिति तात्पर्यार्थः, अक्षरार्थस्तु पूर्ववदिति॥३१॥सूक्ष्मक्षेत्रसागरोपमस्य प्रयोजनमाह-एतेणे'त्यादि,एतेन-सूक्ष्मक्षेत्रसागरोपमस्यैव मानेन-प्रमाणेन ज्ञातव्यं, किमित्याहपरिमाणं-सङ्ख्यानं, केषां ?-पृथिव्युदकाग्निवायुवनस्पतित्रसजीवानां, एतच्च प्राचुर्येण दृष्टिवादे प्रतिपादितं सकृदेवान्यत्र सूक्ष्मोद्धाराद्धाक्षेत्रपल्योपमानामप्येतान्येव प्रयोजनानि द्रष्टव्यानीति १५९ ॥ ३२ ॥ इदानीं 'ओसप्पिणि'त्ति षष्ट्यधिकशततमं द्वारमाह दस कोडाकोडीओ अद्धाअयराण हुँति पुन्नाओ । अवसप्पिणीऍ तीए भाया छच्चेव कालस्स ॥ ३३ ॥ सुसमसुसमा य १ सुसमा २ तइया पुण सुसमदुस्समा ३ होइ। दूसमसुसम चउत्थी ४ दूसम ५ अइदूसमा छट्ठी ६॥ ३४ ॥ सुसमसुसमाएँ कालो चत्तारि हवंति कोडिकोडीओ। तिनि सुसमाएँ कालो दुन्नि भवे सुसमदुसमाए ॥ ३५ ॥ एक्का कोडाकोडी बायालीसाऍ जा सहस्सेहिं । वासाण होइ ऊणा दूसमसुसमाइ सो कालो ॥३६॥ अह दूसमाएँ कालो वासस हस्साई एकवीसं तु । तावइओ चेव भवे कालो अइदूसमाएवि ॥३७॥ 'दसे त्यादिगाथापञ्चकं, अवसर्पति हीयमानारकतया अवसर्पयति वाऽऽयुष्कशरीरादिभावान् हापयतीत्यवसर्पिणी तस्यां, तरीतुमशक्यानि 9AALAKAASARAMCCPR) For Private & Personel Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३०६ ॥ 1296219 ৬ प्रभूतकालतरणीयत्वादतराणि - सागरोपमाणीत्यर्थः सूक्ष्माद्धासागरोपमाणां सम्पूर्णा दश कोटी कोट्यो भवन्ति, सूक्ष्माद्धासागरोपमाणां दशभिः कोटीकोटीभिर्निष्पन्नोऽवसर्पिणीलक्षणः काल बिशेषोऽवगन्तव्य इति तात्पर्यार्थः, तस्यां चावसर्पिण्यां कालस्य भागा- विच्छेदाः सुषमसुपमादयः षडेव भवन्ति ।। ३३ ।। तानेवाह - 'सुसमेत्यादि, शोभनाः समाः - वर्षाण्यस्यामिति सुषमा अत्यन्तं सुषमा सुषमासुषमा, सर्वथा दुष्षमानुभावरहित एकान्तसुषमारूपोऽवसर्पिण्या: प्रथमो भागः, द्वितीया सुषमा तृतीया पुनः सुषमदुष्षमा भवति, दुष्टाः समा अस्यां सा दुष्षमा सुषमा चासौ दुष्पमा च सुषमदुष्षमा, सुषमानुभावबहुला अल्पदुष्षमानुभावेत्यर्थः, चतुर्थी दुष्षमसुषमा, दुष्षमा चासौ सुषमा च दुष्षमसुषमा, दुष्षमानुभावबहुला अल्पसुषमानुभावेत्यर्थः, पञ्चमी दुष्षमा, षष्ठी त्वतिशयेन दुष्षमा अतिदुष्षमा, सर्वथा सुषमानुभावरहिता दुष्षमदुष्षमेत्यर्थः ॥ ३४ ॥ अथैतेषामेव सुषमसुषमादीनां षण्णामरकाणां प्रमाणमाह - 'सुसमसुसेत्यादि, सुषमसुषमायां काल:- कालप्रमाणं सागरोपमाणां चतस्रः कोटिकोटयो भवन्ति, सुषमायां तिस्रः सागरोपमकोटिकोटयः, सुषमदुष्षमायां द्वे सागरोपमकोटिकोट्यौ, एका-एकसङ्ख्या सागरोपमकोटिकोटिर्द्विचत्वारिंशता वर्षाणां सहसैर्या न्यूना भवति स दुष्षमसुषमायाः कालो, द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनैकसागरोपमकोटिकोटिप्रमाणा दुष्षमसुषमेत्यर्थः, अथ दुष्षमायां कालप्रमाणमेकविंशतिवर्षसहस्राणि तावानेव च दुष्पमाप्रमाण एव भवेत् कालः अतिदुष्षमायामपि, एकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणा दुष्षमदुष्षमापि भवतीति भाव:, अस्यां चावसर्पिण्यां शरीरोच्छ्रयायुष्क कल्पवृक्षादिशुभभावानां परतोऽनन्तगुणा परिहानिः तथाहि - सुषमसुषमायां मनुष्याणां गव्यूतत्रितयं शरीरोच्छ्रयः त्रीणि च पल्योपमान्यायुः शुभपरिणामोऽपि कल्पवृक्षादिरनेकः, सुषमायां द्वे गव्यूते द्वे च पल्योपमे कल्पपादपादिपरिणामश्च शुभो हीनतरः, सुषमदुष्षमायामेकं गव्यूतं एकं पल्योपमं हीनतमश्च कल्पवृक्षादिपरिणामः, दुष्षमसुषमायां पञ्च | १६० अवसर्पिणीस्वरूपम् गा. १०३३-७ ॥ ३०६ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनुःशतप्रभृति सप्तहस्तान्तं तनुमानमायुरपि पूर्वकोटिप्रमाणं परिहीनश्च कल्पवृक्षादिपरिणामः, दुष्षमायामनियतं देहमानमायुरप्यनियतं वर्षशतादर्वाक् पर्यन्ते विंशतिवर्षाणि परमायुः शरीरोच्छ्रयो हस्तद्वयं औषधिवीर्यपरिहाणिश्चानन्तगुणा, अतिदुष्षमायामप्यनियतं शरीरोच्छ्रयादि सर्व पर्यन्ते तु हस्तप्रमाणं वपुः षोडश वर्षाणि परमायुर्निरवशेषौषधिपरिहानिश्चेति, एवमन्यदप्येतत्स्वरूपं समयात् समवसेयमिति १६० ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ इदानीं 'उस्सप्पिणि'त्ति एकषष्ट्यधिकशततमं द्वारमाह अवसप्पिणीव भागा हवंति उस्सप्पिणीइवि छ एए । पडिलोमा परिवाडी नवरि विभाएसु नायवा ।। ३८ । 'अवसप्पिणी'त्यादि, उत्सर्पति-वर्धतेऽरकापेक्षया उत्सर्पयति वा भावानायुष्कादीन् वर्धयतीत्युत्सर्पिणी, अस्यामध्येत एवावसर्पिण्या: सम्बन्धिनः सुषमसुषमादयो षट् कालविभागा भवन्ति, नवरं - केवलं विभागेषु - अरकेषु प्रतिलोमा - विपरीता परिपाटी - आनुपूर्वी ज्ञातव्या, अयमर्थ:-अवसर्पिण्यां सुषमसुषमाद्या दुष्षमदुष्पमान्ताः षढरका उक्ताः उत्सर्पिण्यां तु दुष्षमदुष्षमाद्याः सुषमसुषमापर्यन्ताः षडरका भवन्तीति, तदेवं विंशतिसूक्ष्माद्धासागरोपमकोटी कोटी प्रमाणद्वादशा रकमेतदव सर्पिण्युत्सर्पिण्योः कालचक्रं पञ्चसु भरतेस्वैरवतेषु च पञ्चखनाद्यन्तं परिवर्तते, यथाऽहोरात्रे वासरो रजनी वा न शक्यते निरूपयितुमादित्वेनान्तत्वेन वा अनादित्वादहोरात्रचक्रप्रवृत्तेस्तथेदमपीति १६१ ॥ ३८ ॥ इदानीं 'दधे खेत्ते काले । भावे पोग्गलपरियट्टो'त्ति द्विषष्ट्यधिकशततमं द्वारमाहओसपिणी अनंता पोग्गल परियहओ मुणेयवो । तेऽणंता तीयद्धा अणागयद्धा अनंतगुणा ॥ ३९ ॥ पोग्गल परियहो इह दवाइचउधिहो मुणेयधो । थूलेयरभेएहिं जह होइ तहा निसामेह %% % Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३०७ ॥ ॥ ४० ॥ ओरालविउवातेयकम्मभासाणपाणमणएहिं । फासेवि सङ्घपोग्गल मुक्का अह बायरपरो ॥ ४१ ॥ अहव इमो दवाई ओरालविङ्घतेयकम्मेहिं । नीसेसदवगहणंमि बायरो होइ परि यो ॥ ४२ ॥ दवे सुहुमपरट्टो जाहे एगेण अंह सरीरेणं । फासेवि सङ्घपोग्गल अणुक्रमेणं व गणिजा ॥ ४३ ॥ लोगागासपएसा जया मरंतेण एत्थ जीवेणं । पुट्ठा कमुक्कमेणं खेत्तपरो भवे थूलो ॥ ४४ ॥ जीवो जइया एगे खेत्तपएसंमि अहिगए मरइ । पुणरवि तस्साणंतरि बीयसंमि जइ मरए ॥ ४५ ॥ एवं तरतमजोगेण सङ्घखेत्तंमि जह मओ होइ । सुमो खेत्तपरहो अणुकमेणं नणु गणेज्जा ॥ ४६ ॥ ओसप्पिणीऍ समया जावइया ते य निययमरणेणं । पुट्ठा कमकमेणं कालपरहो भवे थलो ॥ ४७ ॥ सुहुमो पुण ओसपिणी पढमे समयंमि जइ मओ होइ । पुणरवि तस्सानंतरबीए समयंमि जइ मरइ ॥ ४८ ॥ एवं तरतमजोएण सङ्घसमएस चेव एएसुं । जइ कुणइ पाणचार्य अणुक्रमेणं नणु गणिजा ॥ ४९ ॥ एगसमयंमि लोए सुहृमागणिजिया उ जे उपविसंति । ते ऽसंखलोयप्पएसतुल्ला असंखेजा ॥ ५० ॥ तत्तो असंखगुणिया अगणिकाया उ तेसि कायठिई । तत्तो संजमअणुभागबंधठाणाणिऽसंखाणि ॥ ५१ ॥ ताणि मरंतेण जया पुट्ठाणि कमुकमेण सङ्घाणि । भावंमि बायरो सो सुमो य कमेण बोद्धवो ॥ ५२ ॥ 'ओसप्पी' त्यादि गाथाचतुर्दशकं, अवसर्पिणीग्रहणेनोत्सर्पिण्यप्युपलक्ष्यते, ततोऽयमर्थः - अत्रसर्पिण्युत्सर्पिण्योऽनन्ता मिलिताः समु १६१ उत्सर्पिणी गा. १०३८ १६२ पुगलपरावर्त्तः गा. १०३९ ५२. ॥ ३०७ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिताः पुद्गलपरावर्तो ज्ञातव्यः, ते च पुद्गलपरावर्ता अनन्ता अतीताद्धा, अनन्तपुद्गलपरावर्तात्मकोऽतीतः काल इत्यर्थः, अतीताद्धापेक्षया चानन्तगुणोऽनागताद्धा भविष्यत्काल इत्यर्थः, ननु भगवत्यां 'अणागयद्धा णं तीयद्धाओ समयाहिय'त्ति सूत्रेऽनागतकालोऽतीतकालात्समयाधिक उक्तः, तथाहि-"अतीतानागतौ कालावनादित्वानन्तत्वाभ्यां तुल्यौ, तयोश्च मध्ये भगवतः प्रश्नसमयो वर्तते, स चाविनष्टत्वेनातीते न प्रविशतीयविनष्टसाधादनागते क्षिप्तः, ततोऽतीतकालादनागताद्धा समयाधिको भवती"ति, इह पुनरतीताद्धातोऽनागताद्धाऽनन्तगुणाऽमिहिता तत्कथं न विरोधः?, अत्रोच्यते, यथा अनागताद्धाया अन्तो नास्ति एवमतीताद्धाया आदिरित्युभयोरप्यन्ताभावमात्रेण तत्र तुल्यत्वं विवक्षितमिति न दोषः, यदि च अतीतानागताद्धे वर्तमानसमये समे स्यातां ततः समयातिक्रमेऽनागताद्धा समयेनोना स्यात् ततो व्यादिभिः समयैः, एवं च समत्वं नास्ति, तस्मादतीताद्धायाः सकाशादनागताद्धाऽनन्तगुणेति स्थितं, अत एवानन्तेनापि कालेन गतेन नासौ क्षीयत इति, वर्तमानैकसमयरूपा वर्तमानाद्धाऽप्यस्ति, सा च सूक्ष्मत्वान्नेह पृथक्प्रतिपादितेति ॥ ३९ ॥ पुद्गलपरावर्तभेदानभिधातुमाह-पोग्गले'त्यादि, इह-अस्मिन् पारमेश्वरप्रवचने पुद्गलपरावों द्रव्यादितो-द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतश्चतुर्विधः-1 चतुष्प्रकारो ज्ञातव्यः, तद्यथा-द्रव्यपुद्गलपरावर्तः क्षेत्रपुद्गलपरावर्तः कालपुद्गलपरावतों भावपुद्गलपरावर्तश्च, पुनरप्येकैकः पुद्गलपरावर्तः स्थूलेतरभेदाभ्यां-बादरसूक्ष्मत्वभेदेन द्विधा-बादरः सूक्ष्मश्च, स च यथा भवति तथा निशमयत-शृणुतेति ॥ ४० ॥ तत्र बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्तमाह-ओराले'त्यादि, एकेन जन्तुना विकटां भवाटवीं पर्यटता अनन्तेषु भवेषु औदारिकवैक्रियतैजसकामजभाषाऽऽनप्राणमनोलक्षणपदार्थसप्तकरूपतया चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकवर्तिनः सर्वेऽपि पुद्गलाः स्पृष्ट्वा-परिभुज्य यावता कालेन मुक्ता भवन्ति एष बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्तः, किमुक्तं भवति ?-यावता कालेनैकेन जीवेन सर्वेऽपि जगद्वर्तिनः परमाणवो यथायोगमौ Jain Education X For Private Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ ३०८ ॥ दारिकादिसप्तकस्वभावत्वेन परिभुज्य २ परित्यक्तास्तावान् कालविशेषो बादरद्रव्यपुद्गलपरावर्तः, आहारकशरीरं चोत्कृष्टतोऽप्येकजीवस्य वारचतुष्टयमेव सम्भवति ततस्तस्य पुद्गलपरावर्त प्रत्यनुपयोगान्न ग्रहणं कृतमिति ॥ ४१ ॥ अथ मतान्तरेण द्रव्यपुद्गलपरावर्तमाह'अहवे' त्यादि, अथवा - अन्येषामाचार्याणां मतेनौदारिकवैक्रिय तैजस कार्मणशरीरचतुष्टयरूपतया निःशेषद्रव्यग्रहणे- एकजीवेन सर्वलो - कपुद्गलानां परिभुज्य २ परित्यजनेऽयं बादर:- स्थूलः पुद्गलपरावर्तो भवति, किंविशिष्टः ? - द्रव्यादिः, द्रव्यशब्द आदिर्यस्य पुद्गलपरावर्तस्य स द्रव्यादिः, द्रव्यपुद्गलपरावर्त इत्यर्थः ॥ ४२ ॥ सूक्ष्मं द्रव्यपुद्गलपरावर्तमाह – 'दधे' इत्यादि, अथ द्रव्ये - द्रव्यविषयः सूक्ष्मः पुद्गलपरावर्तो भवति यथा औदारिकादिशरीराणामेकेन - अन्यतमेन शरीरेण एको जीवः संसारे परिभ्रमन् सर्वानपि पुद्गलान् स्पृष्ट्वा - परिभुज्य २ मुच्चति, इयमत्र भावना - यावता कालेन सर्वेऽपि लोकाकाशभाविनः परमाणव औदारिकाद्यन्यतमैक विवक्षितशरीररूपतया परिभुज्य २ निष्ठां नीयन्ते तावान् कालविशेषः सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्तः, पुद्गलानां - परमाणूनामौदारिकादिरूपतया विवक्षितैकशरीररूपतया वा सामस्त्येन परावर्तः - परिणमनं यावति काले स तावान् काल: पुद्गलपरावर्त्तः, इदं च शब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं, अनेन च व्युत्प | त्तिनिमित्तेन स्वैकार्थसमवायिप्रवृत्तिनिमित्तमनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानस्वरूपं लक्ष्यते, तेन क्षेत्रपुद्गलपरावर्त्तादौ पुद्गलपरावर्तनाभावेऽपि प्रवृत्तिनिमित्तस्यानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानस्वरूपस्य विद्यमानत्वात्पुद्गलपरावर्त्तशब्दः प्रवर्तमानो न विरुद्ध्यते, यथा गोशब्दः पूर्वं गमने व्युत्पादितः, तेन च गमनेन व्युत्पत्तिनिमित्तेन स्वैकार्थसमवायिखुरककुदलाङ्गूलसास्नादिमत्त्वरूपं प्रवृत्तिनिमित्तमुपलक्ष्यते, ततो गमनरहितेऽपि गोपिण्डे प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावाद्गोशब्दः प्रवर्तते इति, 'अणुक्कमेणं नणु गणेज'त्ति एतांश्च पुद्गलान् | अनुक्रमेण - विवक्षितैकशरीरस्पृष्टतारूपया परिपाट्या ननु निश्चितं गणयेत् इदमत्र तात्पर्य - एतस्मिन् सूक्ष्मे द्रव्यपुद्गलपरावर्ते १६२ पुत्रलपरावर्त्तः ॥ ३०८ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 विवक्षितैकशरीर व्यतिरेकेणान्यशरीरतया ये परिभुज्य २ परित्यज्यन्ते ते न गण्यन्ते, किन्तु प्रभूतेऽपि काले गते सति ये च विवक्षितैकशरीररूपतया परिणम्यन्ते त एव परमाणवो गण्यन्त इति, प्रथमपक्षाभिप्रायेण तु औदारिकादिसप्तकमध्यादन्यतमेनैकेन केनचित्पूर्वोक्तरीत्या सर्वपुद्गलस्पर्शने सूक्ष्मपुद्गलपरावर्ती भवतीति ॥ ४३ ॥ अथ बादरक्षेत्र पुद्गलपरावर्तमाह – 'लोगे' त्यादि, लोकस्य - चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्याकाशप्रदेशा- निर्विभागा नभोभागा यदा त्रियमाणेनात्र-जगति जीवेन स्पृष्टा व्याप्ताः क्रमेण तदनन्तरभावलक्षणेनोत्कमेण वा - अर्दवितर्दमरणाक्रान्तक्षेत्र प्रदेशरूपेण तदा क्षेत्र पुद्गलपरावर्तो भवेत् स्थूलो बादरः, किमुक्तं भवति ? - यावता कालेनैकेन जीवेन क्रमेण उत्क्रमेण वा यत्र तत्र म्रियमाणेन सर्वेऽपि लोकाकाशप्रदेशा मरणे संस्पृष्टाः क्रियन्ते स तावान् कालविशेषो बादरः क्षेत्रपुद्गलपरावर्तः ॥ ४४ ॥ सम्प्रति सूक्ष्मक्षेत्र पुद्गल परावर्तमाह - ' जीवो' इत्यादिगाथाद्वयं एकः कश्चिज्जन्तुरनन्तभवभ्रमणपरो यदा एकस्मिन् क्षेत्रप्रदेशेऽधिगते- प्राप्ते सति, तत्र स्थित इत्यर्थः, कल्पनया न परमार्थेन, असङ्ख्यातप्रदेशावगाढत्वाज्जीवस्य, म्रियते प्राणान् परित्यजति | पुनरपि तस्य- प्रथममरणस्पृष्टप्रदेशस्यानन्तरे - अव्यवहिते द्वितीये प्रदेशे यदि म्रियते पुनरप्यनन्तरे तृतीये प्रदेशे यदि म्रियते, एवं तर, तमयोगेन - अनन्तरानन्तरप्रदेशमरण लाभ लक्षणेन सर्वस्मिन्नपि क्षेत्रे - लोकाकाशे मृतो भवति तदा सूक्ष्मः क्षेत्रपुद्गलपरावर्तो ज्ञेयः अत्र च क्षेत्रप्रदेशान् अनुक्रमेणैव - प्रथमप्रदेशानुबद्धप्रदेशपरम्परापरिपाट्चैव गणयेत् न पुनः पूर्वस्पृष्टान् व्यवहितान् वा प्रदेशान् गणयेत्, इयमत्र भावना - यद्यपि जीवस्यावगाहना जघन्याऽप्यसङ्ख्येयप्रदेशात्मिका भवति तथापि विवक्षिते कस्मिंश्चिदेशे त्रियमाणस्य विवक्षितः कश्चिदेकः प्रदेशोऽवधिभूतो विवक्ष्यते, ततस्तस्मात्प्रदेशादन्यत्र प्रदेशान्तरे ये नभः प्रदेशा मरणेन व्याप्यन्ते ते न गण्यन्ते, किन्त्वनन्ते|ऽपि काले गते सति विवक्षितात्प्रदेशादनन्तरो यः प्रदेशो मरणेन व्याप्तो भवति स गण्यते, तस्मादप्यनन्तरो यः प्रदेशो मरणे व्याप्तः Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३०९ ॥ Jain Education स गण्यते, एवमानन्तर्यपरम्परया यावता कालेन सर्वलोकाकाशप्रदेशा मरणेन स्पृष्टा भवन्ति तावान् कालविशेषः सूक्ष्मक्षेत्रपुद्गलपरावर्तः, अन्ये तु व्याचक्षते - येष्वा काशप्रदेशेष्ववगाढो जीवो मृतस्ते सर्वेऽप्याकाशप्रदेशा गण्यन्ते, न पुनस्तन्मध्यवर्ती विवक्षितः कश्चिदेक एवाकाशप्रदेश इति ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ अथ बादरं कालपुद्गलपरावर्तमाह – 'ओसप्पी' त्यादि, अवसर्पिण्या उपलक्षणत्वादुत्सर्पिण्याश्च यावन्तः समयाः - परमसूक्ष्माः कालविभागास्ते यदा एकजीवेन निजमरणेन क्रमेणोत्क्रमेण वा स्पृष्टा भवन्ति तदा कालपुद्गलपरावर्ती भवेत् स्थूलः, अयमर्थः- यावता कालेनैको जीवः सर्वानप्यवसर्पिण्युत्सर्पिणीसमयान् क्रमेणोत्क्रमेण वा मरणेन व्याप्तान् करोति तावान् कालविशेषो बादरः कालपुद्गलपरावर्तः || ४७ || सूक्ष्मं कालपुद्गलपरावर्तमाह – 'सुहमो' इत्यादिगाथाद्वयं, सूक्ष्मः पुनः कालपुद्गलपरावर्तो भवति, तद्यथा - एकः कश्चिज्जीवोऽवसर्पिण्या: प्रथमे समये यदि मृतो भवति पुनरपि तस्यावसर्पिणीप्रथमसमयस्यानन्तरे द्वितीये समये यदि म्रियते, एवं तरतमयोगेन - अनन्तरानन्तरसमयमरणलाभलक्षणेन एतेषु सर्वेष्वप्यवसर्पिण्युत्सर्पिणीसम्बन्धिषु सम| येषु यदि प्राणपरित्यागं करोति तदा सूक्ष्मः कालपुद्गलपरावर्तो भवति, इहापि समयान् अनुक्रमेणैव - प्रथमसमयानुगतसमयपरम्परापरिपाट्यैव गणयेत्, न पुमः पूर्वस्पृष्टान् व्यवहितान् वा समयान् गणयेदिति, अत्रापीयं भावना - इहावसर्पिणीप्रथमसमये कश्चिज्जीवो मृत्युमुपगतः, ततो यदि समयोनविंशतिसागरोपमकोटीकोटीभिरतिक्रान्ताभिर्भूयोऽपि स जन्तुरवसर्पिणीद्वितीयसमये म्रियते तदा स द्वितीयः समयो मरणस्पृष्टो गण्यते, शेषास्तु समया मरणस्पृष्टा अपि सन्तो न गण्यन्ते, यदि पुनस्तस्मिन्नवसर्पिणीद्वितीयसमये न म्रियते किन्तु समयान्तरे तदा सोऽपि न गृह्यते, किन्त्वनन्तास्ववसर्पिण्युत्सर्पिणीषु गतासु यदाऽवसर्पिणीद्वितीयासमये एव मरिष्यति तदा स समयो गण्यते, एवमानन्तर्य प्रकारेण यावता कालेन सर्वेऽप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमया मरणव्याप्ता भवन्ति तावान् कालविशेषः पुगलपुरावर्त्तः ॥ ३०९ ॥ Www.jainelibrary.org Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मः कालपुद्गलपरावर्तः ॥ ४८॥ ४९ ॥ साम्प्रतं द्विविधमपि भावपुद्गलपरावर्त विवक्षुः प्रथमं तावदनुभागबन्धस्थानपरिमाणमाह -'एगसमयमी'त्यादिगाथाद्वयं, लोके इह-जगति एकस्मिन् समये ये पृथिवीकायिकादयो जीवाः 'सुहुमागणिजिया उ'त्ति सप्तम्यर्थत्वात्प्रथमायाः सूक्ष्माग्निजीवेषु-सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिषु तेजस्कायिकजीवेषु प्रविशन्ति-उत्पद्यन्ते ते भवन्त्यसोयाः, असङ्ख्येयत्वमेवाह-असङ्ख्येयलोकप्रदेशतुल्या:-असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः, इह च विजातीयजीवानां जात्यन्तरतयोत्पत्तिः प्रवेश उच्यते, इत्थमेव प्रज्ञप्तौ प्रवेशनकशब्दार्थस्य व्याख्यातत्वात् , ततस्ते जीवाः पृथिव्यादिभ्योऽन्यकायेभ्यो बादरतेजस्कायेभ्यश्च सूक्ष्मतेजस्कायतयोत्पद्यन्ते ते इह गृह्यन्ते, ये पुनः पूर्वमुत्पन्नाः(सूक्ष्म)स्तेजस्कायिकाः पुनर्मृत्वा तेनैव पर्यायेणोत्पद्यन्ते ते न गृह्यते, तेषां पूर्वमेव प्रविष्टत्वात् , ततः सर्वस्तोका एकसमयसमुत्पन्नसूक्ष्मानिकायिकाः, 'तत्तो'त्ति ततः-तेभ्यः एकसमयोत्पन्नसूक्ष्माग्निकायिकेभ्योऽसङ्ख्यगुणिता-असङ्ख्येयगुणा अग्निकायाः पूर्वोत्पन्नाः सर्वेऽपि सूक्ष्माग्निकायिकजीवाः, कथमिति चेदुच्यते-एकः सूक्ष्माग्निकायिको जीवः समुत्पन्नोऽन्तर्मुहूर्त | जीवति, एतावन्मात्रायुष्कत्वात्तेषां, तस्मिंश्चान्तर्मुहूर्ते ये समयास्तेषु प्रत्येकमसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः सूक्ष्माग्निकायिकाः समुत्प-8 द्यन्ते, अतः सिद्धमेकसमयोत्पन्नसूक्ष्माग्निकायिकेभ्यः सर्वेषां पूर्वोत्पन्नसूक्ष्माग्निकायिकानामसङ्ख्येयगुणत्वं, तेभ्योऽपि सर्वसूक्ष्माग्निकायिकेभ्यस्तेषामेव प्रत्येकं कायस्थितिः-पुनः पुनस्तत्रैव काये समुत्पत्तिलक्षणाऽसङ्ख्यातगुणा, एकैकस्यापि सूक्ष्माग्निकायिकस्यासयेयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणायाः कायस्थितेरुत्कर्षतः प्रतिपादितत्वादिति, तस्या अपि कायस्थितेः सकाशात्संयमस्थानान्यनुभागबन्धस्थानानि च प्रत्येकमसोयगुणानि, कायस्थिताव सङ्ख्येयगुणानां स्थितिबन्धानां भावात् , एकैकस्मिंश्च स्थितिबन्धेऽसङ्ख्येयानामनुभागबन्धस्थानानां सद्भावादिति, संयमस्थानान्यप्यनुभागबन्धस्थानैस्तुल्यान्येवेति तेषामुपादानं, तत्स्वरूपं चाप्रे वक्ष्यामः । अथानुभागबन्धस्थानानीति कः| Jain Educational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D 1 मा. रोद्धारे पुद्रलपरा वत्तः नवि० A *- शब्दार्थः ?, उच्यते, तिष्ठत्यस्मिन् जीव इति स्थानं, अनुभागबन्धस्य स्थानमनुभागबन्धस्थानं, एकेन काषायिकेणाध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विवक्षितैकसमयबद्धरससमुदायपरिमाणमित्यर्थः, तानि चानुभागबन्धस्थानान्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, तेषां माचानुभागबन्धस्थानानां निष्पादका ये कपायोदयरूपा अध्यवसायविशेषास्तेऽप्यनुभागबन्धस्थानानीत्युच्यन्ते, कारणे कार्योपचारात् , तेऽपि चानुभागबन्धाध्यवसाया असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा इति ॥ ५० ॥ ५१ ॥ अथ बादरं सूक्ष्मं च भावपुद्गलपरावर्तमाह 'ताणी'त्यादि, वानि-अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि सर्वाण्यप्यसयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि म्रियमाणेन यदा जीवेनैकेन क्रमेण४ आनन्तर्येणोत्क्रमेण च-पारम्पर्येण स्पृष्टानि भवन्ति एष बादरभावपुद्गलपरावर्तः, किमुक्तं भवति ?-यावता कालेन क्रमेणोत्क्रमेण वा सर्वेष्वप्यनुभागबन्धाध्यवसायेषु वर्तमानो मृतो भवति तावान् कालो बादरभावपुद्गलपरावर्तः, सूक्ष्मः पुनः भावपुद्गलपरावर्तो बोद्धव्यो यदा क्रमेण-परिपाट्या सर्वाण्यप्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि स्पृष्टानि भवन्ति, इयमत्र भावना-कश्चिजन्तुः सर्वजघन्ये कषायोदयरूपेऽध्यवसाये वर्तमानो मृतस्ततो यदि स एव जन्तुरनन्तेऽपि काले गते सति प्रथमादनन्तरे द्वितीयेऽध्यवसायस्थाने वर्तमानो म्रियते तदा तन्मरणं गण्यते न शेषाण्युत्क्रमभावीन्यनन्तान्यपि मरणानि, ततः कालान्तरे भूयोऽपि यदि द्वितीयस्मादनन्तरे तृतीयेऽध्यवसायस्थाने वर्तमानो म्रियते तदा तृतीयं मरणं गण्यते न शेषाण्यपान्तरालभावीन्यनन्तान्यपि मरणानि, एवं क्रमेण सर्वाण्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि यावता कालेन मरणेन स्पृष्टानि भवन्ति तावान् कालविशेषः सूक्ष्मभावपुद्गलपरावर्तः । इह च बादरे प्ररूपिते सति सूक्ष्मः सुखेनैव शिष्यैः समधिगम्यते इति बादरपुद्गलपरावर्तप्ररूपणा क्रियते, न पुनः कोऽपि बादरपुद्गलपरावर्तः कचिदपि सिद्धान्तप्रदेशे प्रयोजनवानुपलभ्यत इति, तथा सूक्ष्माणामपि चतुर्णा पुद्गलपरावर्तानां मध्ये जीवाभिगमादौ पुद्गलपरावर्तः क्षेत्रतो बाहुल्येन %A4% * -* %E0 Jain Education in For Private Personal Use Only niw.jainelibrary.org Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहीतः, क्षेत्रतो मार्गणायां तस्योपादानात् तथा च तत्सूत्रं - 'जे से साइए सपज्जवसिए मिच्छादिट्ठी से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं अनंतं कालं, अनंताओ उसप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवडूं पोग्गलपरियहं देसूण मित्यादि [ यः स सादिसपर्यवसितो | मिध्यादृष्टिः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कष्टेनानन्तं कालं, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽपार्थ पुद्गलपरावर्त्त देशोनं ] ततोऽन्यत्रापि यत्र विशेषनिर्देशो नास्ति तत्र पुद्गलपरावर्तग्रहणे क्षेत्रपुद्गलपरावर्ती गृह्यते इति सम्भाव्यते, तत्त्वं तु बहुश्रुता एव विदन्तीति १६२ ।। ५२ ।। इदानीं 'पन्नरस कम्मभूमी 'त्ति त्रिषष्ट्यधिकशततमं द्वारमाह भरहाइ ५ विदेहाई ५ एरवयाई च ५ पंच पत्तेयं । भन्नंति कम्मभूमी धम्मजोग्गा उ पन्नरस ॥५३॥ भरतानि 'विदेहाई' ति महाविदेहा ऐरवतानि च प्रत्येकं पञ्च पञ्च भण्यन्ते पञ्चदश कर्मभूमयः, एतासामेव स्वरूपमाह - धर्मस्य - श्रुतचारित्ररूपस्य योग्या - उचितास्तदनुष्ठानस्य तत्रैव सम्भवात्, अयमर्थः - कर्म - कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठानं वा तत्प्रधाना भूमयः कर्मभूमयः ताश्च पञ्चदश भवन्ति, तद्यथा - एकं भरतक्षेत्रं जम्बूद्वीपे द्वे धातकीखण्डे द्वे च पुष्करवरद्वीपार्धे एवं भरतानि पञ्च, एवं महाविदेहा ऐरवतानि च प्रत्येकं पञ्च पश्चेति १६३ ॥ ५३ ॥ इदानीं 'अकम्मभूमीओ तीस'त्ति चतुःषष्ट्यधिकशततमं द्वारमाह-हेमवयं १ हरिवास २ देवकुरू ३ तह य उत्तरकुरूवि ४ । रम्मय ५ एरन्नवयं ६ इय छन्भूमी उ पंचगुणा ॥ ५४ ॥ एया अकम्मभूमीउ तीस सया जुअलधम्मजणठाणं । दसविहकप्पम हद्दुमसमुत्थभोगा पसिद्धाओ ॥ ५५ ॥ 'हेमवय' मित्यादिगाथाद्वयं, हैमवतं हरिवर्ष देवकुरवस्तथा उत्तरकुरवो रम्यकमैरण्यवतं चेत्येताः षडूमयः पञ्चभिर्गुणिताचिंशदुक Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा-15 णो-यथोक्तकर्मविकला भूमयोऽकर्मभूमयो भवन्ति, षण्णां पञ्चानां त्रिंशत्सङ्ख्यात्मकत्वात् , एताश्च सर्वा अपि सदा-सर्वकालं युगल- १६३ कमरोद्धारे धार्मिकजनानां स्थानं-आश्रयः, युगलधार्मिका एव नरतिर्यश्चस्तत्र वसन्तीति भावः, तथा दशविधा ये कल्पमहाद्रुमा वक्ष्यमाणस्वरूपा- | भूमयः तत्त्वज्ञा- स्तत्समुत्थेन-तदुत्पन्नेन भोगेन-अन्नपानवसनालङ्कारादिना प्रसिद्धा:-प्रख्याता इति १६४॥ ५४ ॥ ५५ ॥ साम्प्रतं 'अट्ट मय'त्ति पञ्च- १६४ अक नवि० षष्ट्यधिकशततमं द्वारमाह मभूमयः जाइ १ कुल २रूव ३ बल ४ सुय५ तव ६लाभि ७ स्सरिय ८ अट्ठ मयमत्तो। एयाई चिय बंधइ १६५मदा ॥३११॥ असुहाई बहुं च संसारे ॥५६॥ १६६ हिंजातिकुलरूपबलश्रुततपोलाभैश्वर्यस्वरूपैरष्टमिर्मदै:-अभिमानैमत्तः-परवशः प्राणी एतान्येव-जात्यादीन्यशुभानि-हीनानि बध्नाति-15 जाति- सामेदाः अर्जयति बहुं च-प्रभूतं कालं यावदस्मिन् संसारे परिभ्रमतीति शेषः, अयमर्थः-जातिमदं विदधानो जन्तुरन्यजन्मनि तामेव जाति | दागा.१०५३हीनां लभते विकटां च भवाटवी पर्यटतीति, एवमप्रेऽपि भावना कार्या, तत्र जाति:-मातृकी विप्रादिका वा कुलं-पैतृकमुमादिकं वा || रूपं-शरीरसौन्दर्य बलं-सामर्थ्य श्रुतं-अनेकशास्त्रावबोधः तपः-अनशनादि लाभ:-अभिलषितवस्तुप्राप्तिः ऐश्वर्य च-प्रभुत्वमिति, १६५ ॥ ५६ ॥ इदानीं 'दुन्नि सया तेयाला भेया पाणाइवायस्स ॥' इति षट्पष्ट्यधिकशततमं द्वारमाह भू १ जल २ जलणा ३ निल ४ वण ५ बि ६ति ७ चउ ८ पर्चिदिएहिं ९ नव जीवा । मणवयणकाय ३ गुणिया हवंति ते सत्तवीसंति ॥५७॥ एक्कासीई सा करणकारणाणुमइताडिया होइ। सधिय तिकालगुणिया दुन्नि सया होंति तेयाला (२४३) ॥ ५८॥ Jan Education Intematon For Private Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भू:- पृथ्वी जलं - आपः ज्वलन:-अभिः अनिलो वायुः वनस्पतयः - प्रतीताः द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाश्चेत्येतैर्भेदैर्नविविधा जीवाः, ते च मनोवचनकाय लक्षणैस्त्रिभिः करणैर्गुणिताः सप्तविंशतिर्भवन्ति, तथा सा - सप्तविंशतिः करणकारणानुमतिभिस्ताडिता-गुणिता एकाशीतिर्भवति, सैवैकाशीतिरती तवर्तमानभविष्यलक्षणैस्त्रिभिः कालैर्गुणिता द्वे शते त्रिचत्वारिंशदधिके भवतः, अयमत्र भावार्थ:- पृथिव्यादीनां नवानामपि जीवानां मनसा वचनेन कायेन च प्रत्येकं वधस्य सम्भवात् सप्तविंशतिर्भेदाः, तत्रापि पृथि व्यादिवधं मनः प्रभृतीभिः कश्चित्स्वयं करोति कचिदन्येन कारयति कश्चित्पुनरन्यं कुर्वन्तमनुमन्यते इति प्रत्येकं करणकारणानुमतिसम्भवेनैकाशीतिर्भेदाः, ते च प्रत्येकं कालत्रयेऽपि सम्भवन्तीति द्वे शते त्रिचत्वारिंशदधिके प्राणातिपातभेदा इति १६६ ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ | सम्प्रति 'परिणामाणं अद्भुत्तरसयं' ति सप्तषष्ट्यधिकशततमं द्वारमाह संकष्पाइतिएण ३ मणमाईहिं ३ तहेव करणेहिं ३ । कोहाइच उक्केणं ४ परिणामेऽट्ठोत्तरसयं च ॥५९॥ inप्पो संरंभ १ परितावकरो भवे समारंभो २ । आरंभ ३ उद्दवओ सुनयाणं च सधेसिं ॥ ६० ॥ इह सङ्कल्पशब्देन संरम्भ उपलक्ष्यते पर्यायत्वात्, आदिशब्दात्समारम्भारम्भपरिग्रहः, ततो वक्ष्यमाणस्वरूपाः संरम्भसमारम्भारम्भास्त्रयो मनोवचनकायैर्गुण्यन्ते जाता नव, तथा 'करणेहिं' ति बहुवचननिर्देशात्कारणानुमतिपरिग्रहः, ततः पूर्वोक्ता नव करणकारणानुमतित्रिकेण गुण्यन्ते जाताः सप्तविंशतिः, साऽपि क्रोधादिचतुष्केण - क्रोधमानमायालो भलक्षणैश्चतुर्भिः कषायैर्गुण्यते जातं 'परिणामे' पष्ठी सप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदात् परिणामानां चित्तादिपरिणतिविशेषाणामष्टोत्तरं शतमिति, इदमत्र तात्पर्य - उद्भूत क्रोधपरिणाम आत्मा करोति स्वयं कायेन संरम्भमित्येको विकल्पः, तथा आविर्भूतमानपरिणाम आत्मा स्वयं करोति कायेन संरम्भमिति द्वितीयः, तथा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥१२॥ समुपजातमायापरिणतिरात्मा स्वयं करोति कायेन संरम्भमिति तृतीयः, तथा लोभकषायग्रस्त आत्मा करोति स्वयं कायेन संरम्भमिति १६७ परिचतुर्थः, एवं कृतेन चत्वारो विकल्पाः कारितेन चत्वारः अनुमत्याऽपि चत्वारः एते द्वादश कायेन लब्धाः, तथा वचसा द्वादश मन दश मनःणाममेदाः साऽपि द्वादश, एते षट्त्रिंशत्संरम्भेण लब्धाः तथा समारम्भेणापि षट्त्रिंशत् तथा आरम्भेणापि षट्त्रिंशदित्येवमष्टोत्तरं परिणामशतं गा.१०५९भवतीति ।। ५९ ॥ अथ सङ्कल्पादीनामेव स्वरूपमाह प्राणातिपातं करोमीति यः सङ्कल्पः-अध्यवसायः स संरम्भः, यः पुनः परस्य परितापकर:-पीडाविधायी व्यापारः स समारम्भः, अपद्रावयतो-जीवितात्परं व्यपरोपयतो व्यापार आरम्भः, एतच्च संरम्भादित्रितयं सर्वेषामपि शुद्धनयानां सम्मतं, अयमर्थः-इह नैगमससहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतलक्षणाः सप्त नयाः, तत्र शुद्धेरन्तर्भूतकारितार्थत्वात् शोधयंति कर्ममलिनं जीवमिति शुद्धाःनैगमसङ्घहव्यवहाररूपास्त्रयः, ते हि अनुयायिद्रव्याभ्युपगमपराः, ततो भवान्तरेऽपि कृतकर्मफलोपभोगोपपत्तेः सद्धर्मदेशनादौ प्रवृत्तियोगतो भवति तात्त्विकी शुद्धिस्तस्मात्त एव शुद्धाः, ऋजुसूत्रशब्दसममिरूद्वैवंभूतस्वरूपास्तु चत्वारो नया अशुद्धाः, ते हि पर्यायमात्रमभ्युपगच्छन्ति पर्यायाणां परस्परमात्यन्तिकं भेदं च, एवं च सति कृतविप्रणाशादिदोषप्रसङ्गः, तथाहि-मनुष्येण कृतं कर्म किल देवो भुके, मनुष्यावस्थातश्च देवावस्था मिन्ना, ततो मनुष्यकृतकर्मविप्रणाशो, मनुष्येण सता तस्योपभोगाभावात् , देवस्य च फलोपभोगोऽकुताभ्यागमः, देवेन सता तस्य कर्मणोऽकरणात् , कृतप्रणाशादिदोषपरिज्ञाने च न कोऽपि धर्मश्रवणेऽनुष्ठाने वा प्रवर्तते इति मिथ्यात्वशुद्ध्यभावः, तदभावाच्च न ते शुद्धा इति, अथवा शुद्धनयानां चेत्यत्र प्राकृतत्वात्पूर्वस्याकारस्य लोपो द्रष्टव्यः, ततः सर्वेषामप्यशुद्ध ॥१२॥ नयानामेतत्संरम्भादित्रितयं सम्मतं न तु शुद्धानामिति, तत्र नैगमसङ्ग्रव्यवहाररूपा आद्यास्त्रयो नया अशुद्धा व्यवहाराभ्युपगमपर 2-%C4%A4%ERA For Private Personel Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वात् , उपरितनास्तु चत्वारः शुद्धा नैश्चयिकत्वादिति, तदिदमत्र तात्पर्य-संरम्भसमारम्भारम्भलक्षणं त्रितयं नैगमादीनामेव त्रयाणां सम्मतं, व्यवहारपरतया तेषां मतेन त्रितयस्यापि सम्भवात् , ऋजुसूत्रादयस्तु हिंसाविचारप्रक्रमे न बाह्यवस्तुगतां हिंसामनुमन्यन्ते, यतस्तन्मतेनात्मैव तथाऽध्यवसायपरिकलितो हिंसा न बाह्यमनुष्यादिपर्यायविनाशनं, 'आया चेव उ हिंसा' इति वचनात् , ततः संरम्भ एव हिंसा, न समारम्भो नाप्यारम्भः, ऋजुसूत्रादीनां मतेनेति १६७ ॥६०॥ सम्प्रति 'बंभमट्टदसभेयं ति अष्टषश्यधिकशसतमं द्वारमाह| दिवा कामरइसुहा तिविहं तिविहेण नवविहा विरई । ओरालियाउवि तहा तं बंभं अट्ठदस भेयं ॥ ६१॥ दिवि भवं दिव्यं तच वैक्रियशरीरसम्भवं काम्यन्त इति कामा-विषयास्तेषु रतिः-अभिष्वङ्गस्तस्मात्सुखं कामरतिसुखं सुरतसुखमिति भावः तस्माद्दिव्यात्कामरतिसुखात् त्रिविधं यथा भवति कृतकारितानुमतिमिरित्यर्थः त्रिविधेन-मनोवाकायलक्षणेन करणेन नवविधा विरतिः, एवमौदारिकादपि तिर्यमनुष्यसम्भवात् तथा-त्रिविधंत्रिविधेन नवविधा विरतिः, इत्येवं तद्-ब्रह्मचर्यमष्टादशभेदं भवति, इयमत्र भावना-मनसाऽब्रह्म न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमपि परं नानुमन्ये एवं वचसा कायेन चेति दिव्ये ब्रह्मणि नव भेदाः, एवमौदारिकेऽपीत्यष्टादशेति १६८ ॥ ६१ ॥ सम्प्रति 'कामाण चउबीसं'त्येकोनसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह कामो चउवीसविहो संपत्तो खलु तहा असंपत्तो। चउदसहा संपत्तो दसहा पुण होअसंपत्तो ॥६२॥ तत्थ असंपत्तेऽत्था १ चिंता २ तह सद्ध ३ संभरण ४ मेव । विक्कवय ५ लज्जनासो ६ hkkkkk माको Jain Education mana For Private & Personel Use Only Erww.jainelibrary.org Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३१३॥ -ROLOGANS ISRO पमाय ७ उम्माय ८ तब्भावो ९॥६३॥ मरणं च होइ दसमे १० संपत्तंपि य समासओ वोच्छं। १६८ ब्रह्मदिट्ठीए संपाओ १ दिट्ठीसेवा २ य संभासो ३ ॥ ६४॥ हसिय ४ ललिओ५ वाहिय ६ दंत ७ भेदाः१६९ नहनिवाय ८ चुंवणं ९चेव । आलिंगण १० मादाणं ११ कर १२ सेवण १३ ऽणंगकीडा १४ कामभेदाः य॥६५॥ गा. कामश्चतुर्विंशतिविधः-चतुर्विंशतिभेदो भवति, तत्र प्रथमं तावत्सामान्येन द्विधा-सम्प्राप्त:-कामिनामन्योऽन्यं सङ्गमसमुत्थः, तथा ४१०६१-६५ द असम्प्राप्तश्च-विप्रलम्भस्वरूपः, तत्र सम्प्राप्तश्चतुर्दशधा-चतुर्दशप्रकारः दशधा पुनः-दशप्रकारो भवत्यसम्प्राप्त इति ।। ६२ ॥ तत्राल्पतर वक्तव्यत्वादसम्प्राप्तं तावदाह-'तत्थे'त्यादि, तत्र-द्वयोः सम्प्राप्तासम्प्राप्तयोर्मध्ये असम्प्राप्तोऽयं-अत्थे'ति अर्थनमर्थः-अदृष्टेऽपि रमण्यादौ श्रुत्वा तदभिलाषमात्रं १ चिन्ता-अहो रूपादयस्तस्या गुणा इत्यनुरागेण चिन्तनं २ तथा श्रद्धा-तत्सङ्गमामिलापः ३ तथा संस्मरणं-सङ्कल्पिततद्रूपस्यालेख्यादिदर्शनेनात्मनो विनोदनं ४ तथा विक्कुवता-तद्विरहदुःखातिरेकेणाहारादिष्वपि निरपेक्षता ५ तथा लज्जानाशो-गुर्वादिसमक्षमपि तद्गुणोत्कीर्तनं ६ तथा प्रमादः-तदर्थमेव सर्वारम्भेषु प्रवर्तनं ७ तथोन्मादो-नष्टचित्ततया आलजालजल्पनं ८ तथा तद्भावना-स्तम्भादीनामपि तद्रुद्ध्याऽऽलिङ्गनादिचेष्टा ९ मरणं च भवति दशमोऽसम्प्राप्तकामभेदः १०, इदं च सर्वथा प्राणपरित्यागलक्षणं न ज्ञातव्यं, शृङ्गाररसभङ्गप्रसङ्गात् , किन्तु मरणमिव मरणं-निश्चेष्टावस्था मूर्छाप्राया काचिदित्यर्थः, इत्थमेवाभिनवगुप्तेन भरतवृत्तिकृताऽपि व्याख्यातत्वादिति । अथ संप्राप्तं काममाह-संपत्तंपी'त्यादि, संप्राप्तमपि कामं समासत:-सद्धेपेण वक्ष्ये, तदेवाह-दृष्टेः सम्पातः स्त्रीणां कुचाद्यवलोकनं १ तथा दृष्टिसेवा-हावभावसारं तद्दष्टेदृष्टिमीलनं २ तथा सम्भाषण-उचितकाले SAMOSARKARIOMAL " For Private Personal Use Only Jan Education Interational Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मरकथामिजल्पः ३ ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ हसितं च-वक्रोक्तिगर्भ हसनं ४ ललितं-पासकादिक्रीडा ५ उपगूढं-गाढतरपरिष्वक्तं ६ दन्तपातो-दशनच्छेदविधिः ७ नखनिपात:-कररुहविपाटनप्रकारः ८ चुम्बन-वक्रसंयोगः ९ आलिङ्गन-ईषत्स्पर्शनं १० आदानं-कुचादिग्रहणं ११ 'करसेवर्ण'ति प्राकृतशैल्या करणासेवने, तत्र करणं-सुरतारम्भयत्रं चतुरशीतिभेदं वात्स्यायनप्रसिद्धं १२ आसेवनं| मैथुनक्रिया १३ अनङ्गक्रीडा च-आस्यादावर्थक्रियेति १४ ॥ १६९ ॥ ६५ ॥ इदानीं 'दस पाण'त्ति सप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह इंदिय ५ बल ३ ऊसासा १ उ १ पाण चउ छक्क सत्त अटेव । इगि विगल असन्नी सन्नी नव दस पाणा य बोद्धवा ॥६६॥ __इन्द्रियबलोच्छ्वासायूंषि प्राणा इत्यभिधीयन्ते, ते च दश, तत्रेन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि पञ्च, बलं कायवाङ्मनोभेदात् त्रिधा, उच्छासशब्देनाविनाभावित्वान्निःश्वासो गृह्यते तत उच्छासनिःश्वासरूप एको भेदः, आयुश्च दशममिति । सम्प्रति येषां जीवानां यावन्तः प्राणाः सम्भवन्तीत्येतदाह-'चउछक्के'त्यादि, इह सूचकत्वात्सूत्रस्य 'इगि'त्ति एकेन्द्रियाः 'विकल'त्ति विकलेन्द्रियाः द्वित्रिचतुरिन्द्रिया इत्यर्थः, तत एकेन्द्रियाणां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां च यथासङ्ख्यं चत्वारः षट् सप्त अष्टौ च प्राणा भवन्ति, इयमत्र भावना-स्पर्शनेन्द्रियकायबलोच्छासायुर्लक्षणाश्चत्वारः प्राणा एकेन्द्रियाणां पृथिव्यादीनां, स्पर्शनेन्द्रियरसनेन्द्रियकायबलवाग्बलोच्छासायुःस्वरूपाः षट् । प्राणा द्वीन्द्रियाणां, त एव घ्राणेन्द्रियसहिताः सप्त प्राणास्त्रीन्द्रियाणां, त एव सप्त चक्षुरिन्द्रियसहिता अष्टौ प्राणाश्चतुरिन्द्रियाणां, तथा असंज्ञिनां संज्ञिनां च नव दश प्राणा बोद्धव्याः, अत्राप्ययमर्थः-इन्द्रियपञ्चककायवाग्बलोच्छासनिःश्वासायुर्लक्षणा नव प्राणा असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां तु पूर्वोक्ता दशापि प्राणा भवन्तीति १७०॥६६॥ सम्प्रति 'दस कप्पदुम'त्येकसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह CHARACAKACES Jain Education Interational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे बत्त्वज्ञानवि० । ॥३१४॥ मत्तंगया य १ भिंगा २ तुडियंगा ३ दीव ४ जोइ ५ चित्तंगा ६ । चित्तरसा ७ मणियंगा ८ १७०प्राणगेहागारा ९ अणियणा य १०॥ ६७॥ मत्तंगएसु मज्जं सुहपेज्नं १ भायणा य भिंगेसु २। तुडि दशकम् यंगेसु य संगयतुडियाई बहुप्पगाराई ३॥ ६८ ॥ दीवसिहा ४ जोइसनामगा य एए करेंति १७१कल्पउज्जोयं ५। चित्तंगेसु य मलं ६ चित्तरसा भोयणढाए ७॥ ६९॥ मणियंगेसु य भूसणवराई ८ प्रदुदशकम् भवणाइ भवणरुक्खेसु ९ तह अणियणेसु धणियं वत्थाई बहुप्पयाराई १०॥ ७० ॥ गा. इह मत्-मदस्तस्याङ्ग-कारणं मदिरास्तद्ददतीति मत्ताङ्गदाः यद्वा मत्तस्य-मदस्याङ्ग-कारणं मदिरारूपं येषु ते मत्ताङ्गास्त एव मत्ता- १०६७-७० काः १ 'भिंग'त्ति भृतं-भरणं पूरणं तत्राङ्गानि-कारणानि भृताङ्गानि-भाजनानि, न हि भरणक्रिया भरणीयं भाजनं विना भवतीति तत्सम्पादकत्वाद् वृक्षा अपि भृताङ्गाः प्राकृतत्वाच भिंगा उच्यन्ते २ तथा त्रुटितानि-तूर्याणि तत्कारणत्वात् त्रुटिताङ्गाः ३ 'दीवजोइचितंग'त्ति इहाङ्गशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततो दीप:-प्रकाशकं वस्तु तत्कारणत्वाद्दीपाङ्गाः ४ ज्योतिः-अग्निस्तत्र च सुषमसुषमायामग्नेरभावात् ज्योतिरिव यद्वस्तु सोष्मप्रकाशकमिति भावः तत्कारणत्वाज्ज्योतिरङ्गाः ४ तथा चित्रस्य-अनेकप्रकारस्य विवक्षाप्राधान्यात् माल्यस्य कारणत्वाच्चित्राङ्गाः ६ तथा चित्रा-विविधा मनोज्ञा रसा-मधुरादयो येभ्यस्ते चित्ररसाः ७ तथा मणीनां-मणिप्रधानाभरणानां कारणत्वान्मण्यङ्गाः ८ तथा गेहं-गृहं तदाकारो येषां ते गृहाकाराः ९ 'अणियण'त्ति विचित्रवनदायित्वान्न विद्यन्ते नग्नास्तनिवासिनो जना येभ्यस्तेऽनग्नाः १० इत्येते दश कल्पद्रुमा भवन्तीति ।। ६७ ॥ अथैतेषां मध्ये येषु यद्भवति तदाह-मत्ताङ्गकेषु कल्प- ॥३१४॥ मेषु सुखपेयं परमातिशयसंपन्नवर्णादिविशिष्टत्वेन पातुममिलषणीयं सुपक्केक्षुद्राक्षादिरसनिष्पन्नं मद्यं भवति, कोऽर्थः ? तेषां फलानि h Jain Education !! For Private & Personel Use Only B b w.jainelibrary.org Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टबलवीर्यकान्तिहेतुविश्रसापरिणत सरस सुगन्धिविविधपरिपाकागतहृद्यमद्यपरिपूर्णानि स्फुटित्वा स्फुटित्वा मद्यं मुञ्चन्तीति १ तथा भृताङ्गेषु भाजनानि - स्थालप्रभृतीनि भवन्ति, अयमर्थ: - यथा इह मणिकनकरजतादिमयविचित्रभाजनानि स्थालप्रभृतीनि दृश्यन्ते तथैव विश्रसापरिणतैरपरिमितैः स्थालकञ्चोलक कलशकरकादिभिर्भाजनैः फलैरिवोपशोभमानाः प्रेक्ष्यन्ते २ तथा त्रुटिताङ्गेषु सङ्गतानि सम्यग्यथोक्तरीत्या सम्बद्धानि त्रुटितानि - आतोद्यानि बहुप्रकाराणि - ततविततघनशुषिरभेदभिन्नानि फलानीव भवन्ति, तत्र 'ततं - वीणादिकं ज्ञेयं, विततं - पटहादिकम् । घनं तु- कांस्यतालादि, शुषिरं - काहलादिक ।। १ ।।' मिति ३ तथा दीपशिखा ज्योतिषिकनामकाच एते कल्पतरव उद्योतं - प्रकाशं कुर्वन्ति, इदमुक्तं भवति-यथेह स्निग्धं प्रज्ज्वलन्त्यः काञ्चनमणिमय्यो दीपिका उद्योतं कुर्वाणा दृश्यन्ते तद्वद्विश्रसापरिणताः (दीपशिखा कल्पवृक्षाः ) प्रकृष्टोद्योतेन सर्वमुद्योतयन्तो वर्तन्ते ज्योतिषिकास्तु सूर्यमण्डलमिव स्वतेजसा सर्वमप्यवभासयन्तः सन्तीति ४-५ तथा चित्राङ्गेषु माल्यम् - अनेकप्रकारसरससुर मिनानावर्णकुसुमदामरूपं भवति ६ तथा चित्ररसा भोजनार्थाय - युगलधार्मिकाणां भोजननिमित्तं भवन्ति, एतदुक्तं भवति - इहत्यविशिष्टदालि कलमशालिशालनकपकान्नप्रभृतिभ्योऽतीवापरिमितस्वादुतादिगुणोपेतेन्द्रियवलपुष्टिहेतुहृद्यखाद्यभोज्यपदार्थपरिपूर्णैः फलमध्यैर्विराजमानाश्चिरसाः संतिष्ठन्ति ७ तथा मण्यङ्गेषु वराणि श्रेष्ठानि भूषणानि विश्र| सापरिणतानि कटककुण्डलकेयूरादीन्याभरणानि भवन्ति ८ तथा भवनवृक्षेषु गेहाकारनामकेषु कल्पद्रुमेषु भवनानि - विश्रसापरिणामत एव प्रांसुप्राकारोपगूढसुखारोहसोपानपङ्किविचित्रचित्रशाला विततवातायनानेकगुप्तप्रकटापवरककुट्टिमतलाद्यलङ्कृतानि नानाविधानि निकेतनानि भवन्ति ९ तथा अननेषु कल्पपादपेषु धणियं-अत्यर्थ बहुप्रकाराणि विचित्राणि वस्त्राणि विश्रसावशत एवातिसूक्ष्मसुकुमारदेवदूष्यानुकारीणि मनोहारीणि निर्मलभांसि वासांसि समुपजायन्त इति १० । १७१ ।। ६८ । ६९ ॥ ७० ॥ इदानीं 'नरय'त्ति द्विसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १७२ नरकनामगोत्राणि१७३ नरकावा| साः गा. १०७१-७३ ॥३१५॥ 4%AMSANERUSA घम्मा १ वंसा २ सेला ३ अंजण ४ रिहा ५ मघा ६ य माघवई ७ । नरयपुढवीण नामाई हुंति रयणाई गोसाई॥७१ ॥ रयणप्पह १ सकरपह २ वालुयपह ३ पंकपहभिहाणाओ४। धूमपह ५ तमपहाओ ६ तह महातमपहा ७ पुढवी ॥७२॥ इह यदनादिकालप्रसिद्धमन्वर्थरहितमभिधानं तत्सर्वकालं यथाकथञ्चिदन्वर्थनिरपेक्षतया नमनात्-प्रवर्तनान्नामेत्युच्यते, यत्पुनः सान्वर्थ तद्गोः-स्वामिधायकवचनस्य त्राणाद्-यथार्थत्वसम्पादनेन पालनाद्गोत्रमिति, तत्र धर्मा वंशा शैला अखना रिष्ठा मघा माधवती चेत्येतानि नरकपृथिवीनां सप्तानां यथाक्रमं नामानि भवन्ति, तथा 'रयण'त्ति एकदेशेन समुदायोपचाराद्रत्नप्रभादीनि गोत्राणि भवन्ति, तत्र प्रभाशब्दो बाहुल्यवाची, ततो रत्नानां-कर्केतनादीनां प्रभा-बाहुल्यं यस्यां सा रत्नप्रभा रत्नबहुलेति भावः, एवं शर्कराणामुपलखण्डानां प्रभा यस्यां सा शर्कराप्रभा, वालुकायाः परुषांसूत्कररूपायाः प्रभा यस्यां सा वालुकाप्रभा, पङ्कस्य प्रभा यस्यां सा पङ्कप्रभा, कर्दमाभद्रव्योपलक्षितेत्यर्थः, धूमस्य प्रभा यस्यां सा धूमप्रभा, धूमाभद्रव्योपलक्षितेति भावः, तमसः प्रभा-बाहुल्यं यत्र सा तमःप्रभा, तथा महातमस:-अतिशायितमसः प्रभा-बाहुल्यं यत्र सा महातमःप्रभा, अपरे तु तमस्तमस्य-प्रकृष्टतमसस्तमस्तमसो वा-अत्यन्ततमसः | प्रभा-बाहुल्यं यस्यां सा तमस्तमःप्रभेति वा मन्यन्त इति १७२ ।। ७१ ॥ ७२ ।। सम्प्रति 'नेरइयाणं आवास'त्ति त्रिसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह तीसा य १ पन्नवीसा २ पन्नरस ३ दस ४ चेव तिन्नि ५ य हवंति । पंचूण सयसहस्सं ६ पंचेव ७ अणुत्तरा नरया ॥ ७३ ॥ ॥३१५॥ Jain Education HIM For Private Personal use only ww.jainelibrary.org Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकाणामावासाः क्रमशः सप्तस्वपि पृथिवीषु त्रिशल्लक्षादयो भवन्ति, तथाहि - प्रथमायां पृथिव्यां त्रिंशच्छतसहस्रा लक्षा इत्यर्थः, एवं द्वितीयस्यां पञ्चविंशतिः तृतीयस्यां पञ्चदश चतुर्थ्यां दश पञ्चम्यां त्रीणि षष्ठयां पञ्चभिरूनं शतसहस्रं लक्षमित्यर्थः सप्तम्यां पञ्चैवानुत्तराः - सर्वाधोवर्तिनो नारकावासाः, ते चैवं पूर्वस्यां दिशि कालनामा नरकावासः अपरस्यां दिशि महाकाल: दक्षिणस्यां रोरुकः उत्तरस्यां महारोरुकः मध्येऽप्रतिष्ठानकः, मिलिताचैते चतुरशी तिर्लक्षाः १७३ ॥ ७३ ॥ सम्प्रति 'वेयण'त्ति चतुःसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाहसत्तसु खेत्तसहावा अन्नोऽन्नुद्दीरिया य जा छट्ठी । तिसु आइमासु वियणा परमाहम्मियसुरकया य ॥ ७४ ॥ क्षेत्रस्वभावा— क्षेत्रस्वभावसमुद्भूता दुःखवेदना तावद्विशेषेण सप्तस्वपि नरकपृथिवीषु भवति, 'अन्नोऽन्नुद्दीरिया य जा छठ्ठी'ति याव च्छन्दोऽयमव्ययत्वेनानेकार्थत्वादिह मर्यादावाची, ततोऽन्योऽन्योदीरिता-नारकैरेव परस्परमुपजनिता वेदना षष्ठीं पृथिवीं यावत्-षष्ठया अर्वाक्पञ्चमीमभिव्याप्य भवतीति इदमुक्तं भवति-अन्योऽन्योदीरिता वेदना द्विधा - प्रहरणकृता शरीरकृता च, तत्र प्रहरणकृता आद्यास्वेव पञ्चसु पृथिवीषु भवति, शरीरकृता तु सामान्येन सप्तस्वपि पृथिवीषु न चैतदनार्ष, तथा चोक्तं जीवाभिगमोपांगे – “इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया जाव एगत्तंपि पहू विउब्वित्तए पुहुत्तंपि पहू विउब्वित्तए', एगत्तं विउव्वमाणा एगं महं मुग्गररूवं वा मुसुंढीरूवं वा एवं करवत्तअसिसत्तिह लगया मुसलचकनारायकुंत तोमरसूललगुडजाव भिंडिमालरूवं वा, पुहुत्तं विउब्वेमाणा मुग्गररुवाणि वा जाव भिंडमालरूवाणि वा, ताई संखेज्जाइं नो असंखेज्जाई संबद्धाई नो असंबद्धाई सरिसाई नो असरिसाई विउव्वंति, विउब्वित्ता अन्नमन्नस्स कार्य अभिभवमाणा वेयणं उदीरयन्ति, एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए, छट्ठसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १७४ नारकवेदना गा.१०७४ % C % A लोहियकुंथुरूवाई वइरामयतुंडाई गोमयकीडसमाणाई विउब्विचा अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमाणा २ खाएमाणा २ सयपोराकिमिया इव चालेमाणा चालेमाणा अन्तो अन्तो अणुप्पविसमाणा वेयणमुदीरयन्ति"ति [ अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका यावद् एकत्वमपि प्रभुर्विकुर्वितुं पृथक्त्वमपि प्रभुर्विकुर्वितुं, एकत्वं विकुर्वन्त एकं महत् मुद्गररूपं वा मुषण्डीरूपं वा एवं करपत्रासिशक्तिहलगदामुशल- चक्रनाराचकुन्ततोमरशूललकुटयावमिण्डिमालरूपं वा, पृथक्त्वं विकुर्वन्तो मुद्गररूपाणि वा यावद् मिण्डिमालरूपाणि वा, तानि सङ्ख्येयानि नासङ्ख्येयानि सम्बद्धानि नासम्बद्धानि सदृशानि नासदृशानि विकुर्वन्ति, विकुळ अन्योऽन्यस्य कायममिभवन्तो वेदनामुदीरयन्ते, एवं यावद् धूमप्रभायां पृथ्व्यां, षष्ठीसप्तम्योः पृथ्व्यो रयिका लौहिककुन्थुरूपाणि वनमयतुण्डानि गोमृतककीटसमानानि विकुर्व्य अन्योऽन्यस्य कार्य समतुरङ्गायमाणाः २ खादन्तः २ शतपर्वकृमय इव चालयन्तः २ अन्तरन्तरनुप्रविशन्तो वेदनामुदीरयन्ते ] । अत्र पृथक्त्वशब्दो बहुत्ववाची, ततः पृथक्त्वं-प्रभूतानि मुद्रादीनि भिण्डिमालपर्यन्तानि प्रहरणानि विकुर्वन्तः परिमितानि स्वशरीरसंलग्नानि समानरूपाणि च विकुर्वन्ति, असङ्ख्यातानां खशरीरपृथग्भूतानां विसदृशानां च प्रहरणानां विकुर्वणे तथाभवस्वाभाव्येन सामर्थ्याभावात् , 'समतुरङ्गेमाणा समतुरङ्गेमाणा' इति समतुरङ्गा इवाचरन्तः समतुरङ्गायमाणाः, अश्वा इवान्योऽन्यमारोहन्त इत्यर्थः, शतपर्वकमय इव-इक्षुकमय इव 'चालेमाणा चालेमाणा' शरीरमध्येन सञ्चरन्तः सचरन्त इति ॥ तथा तिसृष्वाद्यासु पृथिवीपु परमाधार्मिकसुरकृताऽपि वेदना भवति, तत्र क्षेत्रस्वभावजा (प्रन्थानं १३०००) रत्नप्रभाशर्कराप्रभावालुकाप्रभासूष्णा, एतन्नारकाणां हि शीतयोनिकत्वेन केवलं हिमप्रतिमशीतप्रदेशात्मकत्वात् योनिस्थानादन्यत्र च सर्वस्यापि भूम्यादेः खदिराङ्गारेभ्योऽप्यत्यन्तप्रतप्तत्वाद्गाढतर उष्णवेदनानुभवः, एवमन्यास्वपि वाच्यं, पङ्कप्रभायां बहुषूपरितनेषु नरकावासेपूष्णा अधस्तनेषु स्तोकेषु च शीता, धूमप्रभायां % % C ॥३ ॥ Jan Education Internatione For Private Personel Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुषु शीता स्तोकेषूष्णा, षष्ठयां सप्तम्यां च पृथिव्यां केवला शीता वेदनैव, इयं च वेदना सर्वाऽप्यधोऽधोऽनन्तगुणतया तीव्रा तीव्रतरा तीव्रतमा चावसेया, उष्णवेदनायाः शीतवेदनायाश्च स्वरूपं पुनरित्थं प्रदर्शयन्ति प्रवचनवेदिन:-यथा निदाघचरमसमयमध्याहे नभो-/ 1 मध्यमधिरूढे प्रौढे चण्डरोचिषि सर्वथाऽपि जलदपटलविकले गगनतले मनागप्यस्फुरति मारुति प्रभूतपित्तकोपामिभूतस्य कृतातपवार णनिवारणस्य सर्वतः प्रज्वलज्ज्वलनज्वालाकरालितकलेवरस्य कस्यचित्पुंसः किल वाक्पथातीतसंवेदना यादृगुष्णवेदना प्रादुर्भवति ततोऽप्युष्णवेदनेषु नरकेषु नारकाणामनन्तगुणा, अपिच-यदि नारका उष्णवेदनेभ्यो नरकेभ्य उत्पाट्य धमनीमुखोमायमानखादिराङ्गारराशिशय्याशायिनः क्रियन्ते तदा सुधारससेकातिरेकनिर्वाप्यमाणा इवात्यन्तसुखास्वादमेदुरमनसो निद्रामपि लभेरन् । तथा पौषे माघे वा निशीथे सर्वथाऽप्यभ्रविभ्रमविरहितेऽपि वियति सर्वतोऽपि वपुःप्रकम्पकृति प्रवाति वाते तुषारशिखरिशिखरकृतस्थितेस्तुहिनकणगणसम्पर्किणो निरग्नेनिराश्रयस्य निरावरणस्य पुंसो या शीतवेदना ततो भवति शीतवेदनेषु नारकाणामनन्तगुणा, किश्च-यदि ते नारकाः शीतवेदनेभ्यो नरकेभ्य उत्पाट्य यथोक्तपुरुषस्थाने स्थाप्यन्ते तदा ते प्राप्तात्यन्तनिर्वातस्थाना इव निरुपमसुखसम्पत्तेर्निद्रामप्यासादयेयुरिति । तथा क्षुत्पिपासाकण्डूपारवश्यज्वरदाभयशोकादिकाऽन्याऽपि नारकाणां वेदना श्रुते श्रूयते, तथाहि-ते नारकाः सर्वदेवाक्षयक्षुदग्निदह्यमानशरीराः सकलजगद्गतसुस्निग्धघृतादिपुद्गलाहारेणापि न तृप्यन्ति, पिपासाऽपि तेषां शश्वत्कण्ठोष्ठतालुजिह्वादिशोषकृन्निखिलपयोधिपयःपानेऽपि नोपशाम्यति, कंडूः पुनः कण्डूयमाना क्षुरिकादिमिरप्यनुच्छेद्या, पारवश्यज्वरदाहभयशोकादयोऽप्यत्रत्येभ्योऽनन्तगुणाः, यदपि च नारकाणामवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानं वा तदपि तेषां दुःखकारणं, ते हि दूरत एव तिर्यगूर्द्धमधश्च निरन्तरं दुःखहेतुमापतन्तमालोकयन्ति, आलोक्य च भयेन कम्पमानकायाः सोद्वेगमवतिष्ठन्ते । इयं सर्वाऽपि क्षेत्रस्वभावजा दुःखवेदना, अथ परस्परो Jain Education literation For Private & Personel Use Only Anw.jainelibrary.org Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ ३१७ ॥ Jain Education In दीरिता प्रतिपाद्यते इह द्विविधा नारकाः - सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च तत्र ये मिध्यादृष्टयस्ते मिथ्याज्ञानावलिप्तचेतसः परमार्थमजानानाः परस्परमुदीरयन्ति दुःखानि ये तु सम्यग्दृष्टयस्ते तु नूनमस्माभिः कृतं जन्मान्तरेऽपि तत्किमपि पापं प्राणिहिंसादिरूपं येन निमग्ना वयं परमदुःखाम्भोधाविति परिभावयन्तः सहन्ते सम्यक्परोदीरितानि दुःखानि न पुनरन्येषामुत्पादयन्ति दृष्टनिजकर्मविपाकत्वात्, अत एव च ते मिध्यादृष्टिभ्योऽधिकतरदुःखाः प्रवचने प्रतिपाद्यन्ते, भूयिष्ठतया मानसिकदुःखसम्भवात्, येऽपि च मिथ्यादृष्टयः परस्परमुदीरयन्ति दुःखानि तेऽप्येवं यथेह जगत्यपूर्वाद् ग्रामान्तरादागच्छतः शुनो दृष्ट्वा तद्वामवास्तव्याः श्वानो निर्दयं क्रुद्धयन्ति परस्परं प्रहरन्ति च तथा नारका अपि विभङ्गज्ञानबलेन दूरत एवान्योऽन्यमालोक्य क्रोधान्धा वैक्रियं भयानकं रूपमाधाय तेष्वेव स्वस्वनरकावासेषु क्षेत्रानुभावजनितानि पृथिवीपरिणामरूपाणि शूलशिलामुद्गर कुन्त तोमरखड्गयष्टिपरशुप्रभृतीनि प्रहरणानि वैक्रियाणि वाऽऽदाय तैः करचरणदशनैश्च परस्परमभिन्नन्ति ततः परस्परामिघाततो विकृताङ्गा निस्वनन्तो गाढवेदनाः सूनान्तः प्रविष्टमहिषादय इव रुधिरकर्दमे विचेष्टन्ते, एवमादिकाः परस्परोदीरिता दुःखवेदनाः, परमाधार्मिककृतास्तु तप्तत्रपुपान तप्तायोमयस्त्री समालिङ्गनकूटशाल्मल्यप्रारोपणअयोघनाघातवास्यादितक्षणक्षतक्षारोष्णतै लक्षेपणकुन्तादिप्रोत नभ्राष्ट्रभर्जनयत्र पीलनकरपत्रपाटनवैक्रियानेककाकोलूकसिंहादिकदर्थनतप्तवालुकावतारणअसिपत्रत्रनप्रवेशन वैतरणीतरङ्गिणीप्लावनपरस्परायोधनादिजनिता अपरिमिताः समयसमुद्रादवगन्तव्याः किञ्च - कुम्भीषु पच्यमानास्तीत्रतापात्ते नारका उत्कर्षतः पञ्च योजनशतान्यूर्द्धमुच्छलन्ति, तथा चोक्तं जीवाभिगमे - 'नेरइयाणुप्पाओ उक्कोसं पंच जोयणसयाई । दुक्खेणऽभिदुयाणं वेयणसयसंपगाढाणं ॥ १ ॥ [ नैरयिकाणामुत्पात उत्कृष्टतः पथ्य योजनशतानि । दुःखे नारकाण वेदना | ॥ ३१७ ॥ w.jainelibrary.org Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEA नाभिद्रुतानां वेदनाशतसंप्रगाढानां ॥ १॥] पतन्तश्च विकुर्वितैर्वज्रतुण्डैरण्डजैरन्तराले नोटिभिस्रोट्यन्ते किञ्चिच्छेषास्तु भूमिपतिता| व्याघ्रादिभिर्विलुप्यन्त इति १७४ ॥ ७४ ॥ इदानीं 'आउ'त्ति पञ्चसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह सागरमेगं१तिय २ सत्त ३ दस ४ य सत्तरस ५ तह य बावीसा ६ । तेत्तीसं ७ जाव ठिई सत्तसु पुढवीसु उक्कोसा ॥७५ ॥ जा पढमाए जेट्ठा सा बीयाए कणिट्ठिया भणिया । तरतमजोगो एसो दसवाससहस्स रयणाए ॥७६॥ सप्तस्वपि नरकपृथिवीध्वियं यथासङ्ख्यमुत्कृष्टा स्थितिः, तद्यथा-रत्नप्रभायां पृथिव्यां सागरोपममेकमुत्कृष्टा स्थितिः शर्कराप्रभायां त्रीणि सागरोपमाणि वालुकाप्रभायां सप्त पङ्कप्रभायां दश धूमप्रभायां सप्तदश तमःप्रभायां द्वाविंशतिः तमस्तमःप्रभायां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा स्थितिरिति ॥ ७५ ॥ सम्प्रति सप्तस्वपि पृथिवीषु जघन्यां स्थितिमाह-'जे'त्यादि, या प्रथमायां-रत्नप्रभायां ज्येष्ठाउत्कृष्टा स्थितिरेकसागरोपमलक्षणा सा द्वितीयायां पृथिव्यां शर्कराप्रभामिधानायां कनिष्ठा-जघन्या भणिता, एष तरतमयोगो-जघन्योस्कृष्टस्थितियोगः सर्वास्वपि पृथिवीषु भावनीयः, तद्यथा-या द्वितीयायामुत्कृष्टा सा तृतीयायां जघन्या या तृतीयायामुत्कृष्टा सा चतुर्थ्या जघन्या एवं या षष्ठयामुत्कृष्टा सा सप्तम्यां जघन्या, रत्नप्रभायां प्रथमपृथिव्यां जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणीति, अयमभिप्राय:प्रथमपृथिव्यां रत्नप्रभायां जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि शर्कराप्रभागामेकं सागरोपमं वालुकाप्रभायां त्रीणि सागरोपमाणि पङ्कप्रभायां सप्त धूमप्रभायां दशतमःप्रभांया सप्तदश तमस्तमःप्रभायां कालादिषु चतुर्यु नरकावासेषु द्वाविंशतिसागरोपमाणि जघन्या स्थितिः जघन्योस्कृष्टान्तरालवर्तिनी तु स्थितिः सर्वत्र मध्यमा बोद्धव्या १७५ । ७५ ॥ ७६ ॥ इदानीं 'तणुमाणं'ति षट्सप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह +CAS-460ACASSACCOR-C CHECARAM For Private & Personel Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३१८॥ ECECARRA%A9- Noilet पढमाए पुढवीए नेरइयाणं तु होइ उच्चत्तं । सत्त धणु तिन्नि रयणी छञ्चेव य अंगुला पुण्णा १७५ नार॥७७॥ सत्तमपुढवीऍ पुणो पंचेव धणुस्सयाई तणुमाणं । मज्झिमपुढवीसु पुणो अणेगहा म कायुः झिम नेयं ॥ ७८ ॥ जा जम्मि होइ भवधारणिज अवगाहणा य नरएसु । सा दुगुणा बोडबा १७६ नारउत्तरवेउवि उक्कोसा ॥७९॥ भवधारणिजरूवा उत्तरविउविया य नरएसु । ओगाहणा जहन्ना कतनुः गा. अंगुलअस्संखभागो उ ॥८॥ १०७५-८० अवगाहते-अवतिष्ठते जीवोऽस्यामित्यवगाहना-तनुः शरीरमित्येकोऽर्थः, सा द्विधा-भवधारणीया उत्तरवैक्रिया च, भवे-नारकादावायुःसमाप्तिं यावदनवरतं धार्यतेऽसाविति भवधारणीया, स्वाभाविकं शरीरमित्यर्थः, सहजशरीरग्रहणोत्तरं-उत्तरकालं कार्यविशेषमाश्रित्य विविधा क्रियत इत्युत्तरवैक्रिया, एकैकाऽपि च द्विधा-जघन्या उत्कृष्टा च, तत्र प्रथमं तावत् प्रतिपृथिवि उत्कृष्टा भवधारणीया| ऽवगाहना प्रोच्यते-प्रथमायां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नारकाणामुत्कर्षतो भवधारणीयावगाहनोश्चत्वं सप्त धनूंषि तिस्रो रत्नयः-त्रयो हस्ता इत्यर्थः, षडेव चाङ्गुलानि पूर्णानि, उत्सेधाङ्गुलेन सपादैकत्रिंशद्धस्ता इति भावः, सप्तमपृथिव्यां पुनः पञ्चैव धनुःशतान्युत्कर्षतो नारकाणां तनुमान-शरीरोच्छ्रयः, मध्यमपृथिवीपु-शर्कराप्रभाद्यासु तमःप्रभापर्यन्तासु पुनर्मध्यम-प्रथमसप्तमपृथिवीनारकतनुमानयोर्मध्यवर्ति | अनेकधा, पूर्वपूर्वपृथिवीत उत्तरोत्तरपृथिवीषु द्विगुणद्विगुणं तनुमानमुत्कर्षतो ज्ञातव्यं, तथाहि-रत्नप्रभानारकतनुमानाद् द्विगुणं शर्करा-3 प्रभायां-पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादश चालानि देहमानं, एवं वालुकाप्रभायामेकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः पङ्कप्रभायां द्वाषष्टिर्धषि ॥१८॥ द्वौ हस्तौ धूमप्रभायां पञ्चविंशं धनुःशतं तमःप्रभायां सार्धे द्वे धनुःशते तमस्तमःप्रभायां पञ्चैव धनुःशतानीति ।। ७७ ॥ सम्प्रति महणोर च, तत्र प्रथम काणामुत्कर्षतो म त्सेधाङ्गुलेन D Jan Education Internationa For Private Personel Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ % % % प्रतिपृथिव्युत्कर्षत उत्तरवैक्रियामवगाहनामाह-'जा जम्मी'यादि, सप्तसु नरकेषु-नरकपृथिवीषु मध्ये यस्मिन्नरके-नरकपृथिव्यामुत्कृष्टा भवधारणीया याऽवगाहना उक्ता सा द्विगुणा सती यावत्प्रमाणा भवति तावती तस्यां नरकपृथिव्यामुत्कृष्टा उत्तरवैक्रियरूपा अवगाहना बोद्धव्या, तद्यथा-रत्नप्रभायामुत्कृष्टा उत्तरवैक्रियावगाहना पञ्चदश धनूंषि द्वौ च साधौँ हस्तौ शर्कराप्रभायामेकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः सवालुकाप्रभायां द्वाषष्टिर्धनूंषि द्वौ च हस्तौ पङ्कप्रभायां पञ्चविंशं धनुःशतं धूपप्रभायां सार्धे द्वे शते तमःप्रभायां पञ्च धनुःशतानि तमस्तमः प्रभायां धनुःसहस्रमिति ॥७९॥ सम्प्रति भवधारणीयामुत्तरवैक्रियां च जघन्यामाह- भवेत्यादि, नरकेषु-सर्वासु नरकपृथिवीषु नारकाणां जघन्या भवधारणीया अङ्गुलस्यासङ्ख्येयो भागः, सा चोत्पत्तिसमये द्रष्टव्या, न त्वन्यदा, उत्तरवैक्रियरूपा पुनरवगाहना जघन्याऽङ्गुलसध्येयभागमात्रा, साऽपि च प्रारम्भकाले द्रष्टव्या, केवलं सा प्रथमसमयेऽपि तथाविधप्रयत्नाभावादङ्गुलसक्येयभागमात्रैव भवति न त्वसषेयभागमात्रा, केचिञ्च 'अंगुलअसंखभागो उ' इति पठन्तो जघन्यामुत्तरवैक्रियामप्यङ्गलासयातभागप्रमाणामाहुः, तदसङ्गतमेव समयविरोधात् , तथा च प्रज्ञापनासूत्रम्-"तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजइभागं उकोसेणं धणुसहस्स"मिति, तथा अनुयोगद्वारटीकायां हरिभद्रसूरिरप्याह-"उत्तरवैक्रिया तु तथाविधप्रयत्नाभावादाद्यसमयेऽप्यङ्गुलसङ्ख्येयभागमा| वे"ति १७६ ॥ ८० ॥ इदानीं 'उप्पत्तिनासविरहो'त्ति सप्तसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह चउवीसई मुहुत्ता १ सत्त अहोरत्त २ तह य पन्नरस शमासो य ४ दो य ५ चउरो ६ छम्मासा ७विरहकालो उ॥८१॥ उकोसो रयणाइसु सबासु जहन्नओ भवे समयो । एमेव य उच्चणसंखा पुण सुरवरुतुल्ला (राण समा)॥ ८२॥ . %-91-87-%-ब प्र.सा.५४ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० AS: AM ॥३१९॥ X *** इह नरकगतौ तिर्यमनुष्यगतिका जीवास्तावदनवरतं सदैवोत्पद्यन्ते कदाचित्त्वन्तरमपि भवति, तच्च सामान्येन सर्वामपि नरकगतिमाश्रित्य जघन्येनैकः समयः उत्कृष्टतस्तु द्वादश मुहूर्ताः, एतावन्तं कालमन्यत आगत्यैकोऽपि जन्तुर्नरकगतौ नोत्पद्यते इति भावः, निनादाइदं च सूत्रेऽनुक्तमपि स्वयमेव द्रष्टव्यं, यदुक्तम्-"निरइगई णं भन्ते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता?, गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं बारस मुहुत्त"त्ति, प्रतिपृथिवीषू(वितू )त्पादान्तरमुत्कृष्टतो रत्नप्रभायां चतुर्विशतिर्मुहूर्ताः शर्कराप्रभायां सप्ताहोरात्राः वालुकाप्रभायां पञ्चदश पङ्कप्रभायामेको मासः धूमप्रभायां द्वौ मासौ तमःप्रभायां चत्वारो मासाः तमस्तमःप्रभायां षण्मासा विरहकाल:-अन्तरकाल उत्कृष्टतः, जघन्यतः पुनः सर्वास्वपि रत्नप्रभादिकासु पृथिवीषु प्रत्येकं भवत्येकः समयो विरहकालः, 'एवमेव य उबट्टण'त्ति यथोपपातविरहकाल उक्तः एवमेव उद्वर्तनविरहकालोऽपि जघन्यत उत्कर्षतश्च वाच्यः, किमुक्तं भवति ?-नरकेभ्यो नारकाः प्रायः सततं च्यवन्ते कदाचिदेव त्वन्तरं, तञ्च सामान्येन नरकगतिमाश्रित्य जघन्यत एकः समयः, उत्कृष्टतस्तु द्वादश मुहूर्ताः । विशेपचिन्तायां तु जघन्यतः सर्वास्वपि पृथिवीषु उद्वर्तनाविरहकाल एकः समयः, उत्कर्षतो रत्नप्रभायां चतुर्विशतिर्मुहूर्ताः शर्कराप्रभायां सप्त दिना वालुकाप्रभायां पक्षः पङ्कप्रभायां मासः धूमप्रभायां द्वौ मासौ तमःप्रभायां चत्वारो मासाः तमस्तमःप्रभायां पण्मासाः, एकस्मिन्नारके उद्धृत्ते पुनरियता कालेनान्यो नारक उद्वर्तत इति भावः । 'संखा पुण सुरवरतुल्ल'त्ति उपपातोद्वर्तनयोः सङ्ख्या पुनरेक|स्मिन् समये कियन्तो नारका उत्पद्यन्ते च्यवन्ते चेत्येवंलक्षणा सुरवरैस्तुल्या यथा सुराणां वक्ष्यते तथैव द्रष्टव्या, तद्यथा-एकस्मिन् |समये नारका उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्षतस्तु सहयाता असङ्ख्याता वेति १७७ ॥ ८१ ॥ ८२ ॥ सम्प्रति ॥३१९॥ ॥'लेसाउ'त्ति अष्टसप्तत्यधिकशततमं द्वारमाह S AROKAMN064 * 1 Jain Education Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काऊ १ का २ तह काऊनील ३ नीला ४ य नीलकिण्हा ५ य । किण्हा ६ किव्हा ७ य तहा सत्तसु पुढवीसु लेसाओ ॥ ८३ ॥ इह सामान्येन तावन्नारकाणां लेश्याषट्कमध्यादायाः कृष्णनीलकापोत्याख्यास्तिस्र एव लेश्या भवन्ति, ताश्च प्रतिपृथिवि प्रतिपायन्ते, तत्र कापोतादयो लेश्याः सप्तस्वपि पृथिवीषु यथासङ्ख्येन भवन्ति, तथाहि - रत्नप्रभायामेका कापोतलेश्यैव भवति, शर्कराप्रभायामपि कापोतलेश्यैव, केवलं किष्टतरा वेदितव्या, एवं सर्वत्र सजातीया विजातीया च लेश्याऽघोऽधः डिष्टतरा क्लिष्टतमा वाच्या, वालुकाप्रभायां कापोतनीला च लेश्या भवति, केषुचिदुपरितनेषु प्रस्तटेषु कापोतलेश्या केषुचिदधस्तनेषु नीललेश्येति भावः पङ्कप्रभायां केवला नीललेश्यैव, धूमप्रभायां नीललेश्या कृष्णलेश्या च केषुचिदुपरितनप्रस्तटेषु नीललेश्या शेषेष्वधस्तनप्रस्तटेषु कृष्णलेश्या भवतीत्यर्थः, तमः प्रभायामेकैव कृष्णलेश्या, तमस्तमः प्रभायामप्यतिसङ्किष्टतमा कृष्णलेश्यैवेति, इह च केचिदाचक्षते - यथैता नारकाणां वक्ष्यमाणाश्च देवानां बाह्यवर्णरूपाः किल द्रव्यलेश्या अवगन्तव्याः, अन्यथा सप्तमपृथिवीनारकाणां या सम्यक्त्वप्राप्तिः श्रुतेऽभिधीयते सा न युज्यते, तैजस्यादिलेश्यात्रय एव तदवाप्तेरुक्तत्वात्, यदुक्तमावश्यके – “सम्मत्तस्स य तिसु उवरिमासु पडिवज्जमाणओ होइ । पुव्वपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए ॥ १ ॥ [ सम्यक्त्वस्य च तिसृपूपरितनीषु प्रतिपद्यमानको भवति । पूर्वप्रतिपन्नकोऽन्यतरस्यां पुनर्लेश्यायां ।। १ ।। ] उपरितन्यश्च तिस्रो लेश्यास्तेषां न सन्ति सप्तमपृथिव्यां कृष्णलेश्याया एवोक्तत्वात्, तथा सौधर्मे तेजोलेश्यैव केवला वक्ष्यते, अस्याश्च प्रशस्तपरिणामहेतुत्वेन सङ्गमकादीनां भुवनगुरौ रौद्रोपसर्गकर्तृत्वानुपपत्तिः, तथा — 'काऊ नीला कण्हा लेसाओ तिन्नि होंति नरएसु ।' [ कापोती नीला कृष्णा लेश्यास्तिस्रो भवन्ति नरकेषु ] इत्यादिरूपो नियमोऽपि विरुध्यते 'देवाण नारयाण य दव्व Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ते १७८ नारलेश्या गा. १०८३ ॥३२॥ लेसा हवंति एयाओ । भावपरावत्तिइ पुण सुरनेरइयाण छल्लेसा ॥ १॥ [देवानां नारकाणां च द्रव्यलेश्या भवन्त्येताः। भावपरावृत्ती पुनः सुरनैरयिकाणां षट् लेश्याः ॥ १॥] इति वचनात् , तस्मादेता नारकाणां वक्ष्यमाणाश्च सुराणां बाह्यवर्णरूपा एवेति, तदेतदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानात् , लेश्याशब्दो हि शुभाशुभे परिणामविशेष व्याख्यातः, तस्य च परिणाम विशेषस्योत्पादकानि कृष्णादिरूपाणि द्रव्याणि जन्तूनां सदा संनिहितानि सन्ति, एतैश्च कृष्णादिद्रव्यैर्जीवस्य ये परिणामविशेषा जन्यन्ते मुख्यतया त एव लेश्याशब्देनोच्यन्ते, गौणवृत्त्या पुनः कारणे कार्योपचारलक्षणया एतान्यपि कृष्णादिरूपाणि द्रव्याणि लेश्याशब्देन व्यपदिश्यन्ते, ततश्च नारकाणां देवानां च या लेश्यास्ता द्रव्यलेश्या द्रष्टव्याः, तत्तल्लेश्याद्रव्याणि तस्य तस्य नारकस्य देवस्य वा सर्वदैवावस्थितोदयानि द्रष्टव्यानीति तात्पर्य, न पुनर्बाह्यवर्णरूपाः, तानि च लेश्याद्रव्याणि तिर्यड्मनुष्याणामन्यलेश्याद्रव्योपधाने विशुद्धवस्त्रमिव मन्जिष्ठादिरागयोगे सर्वथा स्वरूपत्यागात्तद्रूपेणैव परिणमन्ते, अन्यथैतल्लेश्यायाः पल्योपमत्रयस्थितेरपि सम्भवादुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमागमोक्तं विरुध्येत, नारकदेवलेण्याद्रव्याणां तु तदन्यलेश्याद्रव्यसम्पर्के तदाकारमानं तत्प्रतिबिम्बमात्र वा जायते, न पुनः स्वस्वरूपपरिहारेण तद्रूपता, तथाहि-यथा वैडूर्यादिमणेः प्रोतकृष्णादिसूत्रसम्पर्कादस्पष्टं किश्चित्तदाकारभावमात्रं भवति स्फटिकोपलस्य वा जपाकुसुमादिसन्निधानतः स्पष्टं तत्ततिबिम्बमात्र, न तूभयत्रापि तद्रूपतापत्तिः, तथा कृष्णादिलेश्याद्रव्याण्यपि नीलादिलेश्याद्रव्यौघं प्राप्य कदाचिदस्पष्टं तदाकारभावमात्रं कदाचित्स्पष्टं तत्प्रतिबिम्बमात्रं प्रतिपद्यन्ते, न पुनस्तद्वर्णगन्धरसस्पर्शतया परिणम्य नीलादिलेश्याद्रव्यरूपाण्येव भवन्ति, न चैतन्निजमनीपाविजृम्भितं, प्रज्ञापनायां लेश्यापदे इत्थमेव प्रतिपादितत्वात् , तत्सूत्रं च विस्तरभयान्न लिखितमिति । एवं च सप्तमपृथिव्यामपि यदा कृष्णलेश्या तेजोलेश्यादिद्रव्याणि प्राप्य तदाकारमात्रेण तत्प्रतिबिम्बमात्रेण वाऽन्विता भवन्ति तदा सदावस्थितकृष्णलेश्याद्रव्ययोगेऽपि ।। ३२०॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षात्तेजोलेश्यादिद्रव्यसाचिव्ये इव शुभः परिणामो नारकस्य जायते जपोपरक्तस्फटिकसन्निधाने स्फटिकस्य रक्ततावत् , तत्परिणामे चास्य सम्यक्त्वावाप्तिरविरुद्धेति, न चैवमपि तेजोलेश्यादिसद्भावे सप्तमपृथिव्यां केवलकृष्णलेश्याभिधायिनः सूत्रस्य व्याघातः, यत&स्तस्यां कृष्णव सदावस्थायिनी तैजस्यादिका त्वाकारमात्रादिना कदाचिदेव जायते, न च जातापि चिरमवतिष्ठते, न चावस्थितायामपि तस्यां कृष्णलेश्यादिद्रव्याणि सर्वथा स्वस्वरूपं त्यजन्ति, ततोऽधिकृतसूत्रे कृष्णैव सप्तम्यामुक्तेत्येवं सर्वत्र भावनीयं, अत एव सङ्गमकादीनामप्याकारमात्रादिना कृष्णलेश्यासम्भवादुपपद्यते त्रिभुवनगुरावुपसर्गविधातृत्वं, या अपि भावपरावृत्त्या सुरनारकाणां षडपि लेश्या उक्तास्ता अपि प्रागुक्तेनैवाकारभावमात्रादिना प्रकारेण घटन्ते नान्यथा, लेश्यात्रयनियमस्तु सदावस्थितोदयलेश्याद्रव्यापेक्षत्वादविरुद्ध इति, किंच-आसां बाह्यवर्णरूपत्वे प्रज्ञत्यादिषु–'नेरइया णं भंते ! सव्वे समवन्ना ?, गोयमा ! नो इणद्वे समहे, से केणटेणं भंते ! एवं बुञ्चइ ?, गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पुब्बोववनगा य पच्छोववन्नगा य, तत्थ णं जे ते पुब्वोववन्नगा ते णं विसुद्धवन्नत|रागा, जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धवन्नतरागा, से एणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-नो नेरइया सब्वे समवन्ना" इति वर्णमुक्त्वा "नेरइया णं भंते ! सब्वे समलेसा ?, गोयमा! नो इणढे समढे, से केणढेणं भंते! एवं वुच्चइ ?, गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, जहा-पुब्बोववन्नगा पच्छोववन्नगा य, तत्थ णं जे ते पुव्वोववन्नगा ते णं विसुद्धलेसतरागा, जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धलेसतरागा, से एएणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-नो नेरइया सम्बे समलेस्सा" इति लेश्योक्तिरतिरिच्येत, वर्णानामेव लेश्यात्वाभ्युपगमात्, तेषां च पूर्वसूत्रेणैव प्रतिपादितत्वादिति १७८ ॥ ८३ ॥ सम्प्रति ‘अवहित्ति एकोनाशीत्यधिकशततमं द्वारमाह For Private Personel Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३२१॥ R- चत्तारि गाउयाई १ अदुहाई २ तिगाउयं चेव ३। अड्डाइजा ४ दोन्नि य ५ दिवङ ६ मेगं च ७ १७९ नारनरयोही ॥ ८४॥ 8|| कावधिः इह रत्नप्रभायां नरकावासेषु नारकाणां चत्वारि गव्यूतान्यवधिः-उत्कृष्टमवधिक्षेत्रप्रमाणं भवति, शर्कराप्रभायां तु अर्ध चतुर्थस्य येषु गा.१०८४ तान्यर्धचतुर्थानि गव्यूतानि, सार्धं गव्यूतत्रयमित्यर्थः, वालुकाप्रभायां गव्यूतत्रयं, पङ्कप्रभायामधं तृतीयस्य येषु तान्यर्धतृतीयानि गव्यू- १८. परतानि, धूमप्रभायां द्वे गव्यूते, तमायां द्वितीयस्यार्ध यत्र तद् व्यर्थ गव्यूतं, सप्तमपृथिव्यां पुनरेकं गब्यूतमुत्कृष्टमवधिप्रमाणं, तथा सप्त माधार्मिस्वपि पृथिवीषु प्रत्येकमुत्कृष्टावधिक्षेत्रप्रमाणादर्धगव्यूते व्यपनीते जघन्यमवधिक्षेत्रप्रमाणं भवति, तथाहि-प्रथमायां पृथिव्यां सार्धानि काः गा. त्रीणि गव्यूतानि द्वितीयायां त्रीणि गव्यूतानि तृतीयायामर्धतृतीयानि गव्यूतानि चतुर्था द्वे गव्यूते पञ्चम्यां साधं गव्यूतं षष्ठयामेकं १०८५-८६ गव्यूतं सप्तम्यामधंगव्यूतमिति, उक्तं च-“अद्भुटुगाउयाई जहन्नयं अद्धगाउयंता" [अध्युष्ठगव्यूतादिको जघन्योऽर्धगव्यूतान्तः] इति १७९ ॥ ८४ ॥ सम्प्रति 'परमाहम्मिय'त्यशीत्यधिकशततमं द्वारमाह अंबे १ अंबरिसी २ चेव, सामे य ३ सबलेइ य ४। रुद्दो ५ वरुद्द ६ काले य ७, महाकालित्ति ८ आवरे ॥ ८५ ॥ असिपत्ते ९ धणू १० कुंभे ११, वालू १२ वेयरणी इय १३ । खरस्सरे १४ महाघोसे १५, पन्नरस परमाहम्मिया ॥८६॥ परमाश्च ते अधार्मिकाश्च सक्रुिष्परिणामत्वात् परमाधार्मिका-असुरविशेषाः, ते च व्यापारभेदेन पञ्चदश भवन्ति, तत्र यः परमा- ॥३२१॥ धार्मिको देवो नारकानम्बरतले नीत्वा निःश विमुञ्चति सोऽम्ब इत्यभिधीयते १ यस्तु नारकान्निहतान् कल्पनिकाभिः खण्डशः CARLSECONCES 9545054Cle% Privaaw.jainelibrary.org Jain Education in Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCIENCESSOORSASCASSURESSROCKG कृत्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोतीत्यसावम्बरीषस्य-भ्राष्ट्रस्य सम्बन्धादम्बरीष इति २ यस्तु रज्जुपाणिप्रहारादिना शातनपातनादिकं करोति वर्णतश्च श्यामः स श्याम इति ३ यश्चात्रवसाहृदयकालेज्यकादीन्युत्पाटयति वर्णतश्च शबल:-कर्बुरः स शबल इति ४ यः शक्तिकुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्रः ५ यस्तु तेषामङ्गोपाङ्गानि भनक्ति सोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्रः ६ यः पुनः कण्डादिषु पचति वर्णतश्च कालः स कालः ७ महाकाल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः, स च श्लक्ष्णमांसानि खण्डयित्वा खादयति वर्णतश्च महाकाल इति ८ असिः-खड्गस्तदाकारपत्रवद्वनं विकुळ यस्तत्समाश्रितान्नारकानसिपत्रपातनेन तिलशश्छिनत्ति सोऽसिपत्रः ९ यो धनुविमुक्तार्धचन्द्रादिमिर्वाणैः कर्णादीनां छेदनभेदनानि करोति स धनुः १० भगवत्यां तु महाकालानन्तरमसिस्ततोऽसिपत्रस्ततः कुम्भ इति पठ्यते, तत्र योऽसिना नारकांश्छिनत्ति सोऽसिः शेषं तथैव, यः कुम्भ्यादिषु तान् पचति स कुम्भः ११ यः कदम्बपुष्पाकारासु वनाकारासु वा वैक्रियासु वालुकासु तप्तासु चनकानिव तान् पचति स वालुकः १२ विरूपं तरणं प्रयोजनमस्या इति वैतरणीति यथार्था पूर्यरुधिरत्रपुताम्रादिभिरतितापात्कलकलायमानभृतां नदी विकुर्वित्वा तत्तारणेन नारकान् यः कदर्थयति स वैतरणीति १३ यो वज्रकण्टकाकुलशाल्मलीवृक्षे नारकमारोप्य खरं स्वरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कर्षति स खरस्वरः १४ यस्तु भीतान् प्रपलायमानान्नारकान् पशूनिव वाटकेषु महाघोषं कुर्वतो निरुणद्धि स महाघोष इति १५ । एवमेते पञ्चदश परमाधार्मिकाः प्राग्जन्मनि सकृिष्टक्रूरक्रियाः पापाभिरताः पञ्चाग्यादिरूपं मिथ्याकष्टतपः कृत्वा रौद्रीमासुरी गतिमनुप्राप्ताः सन्तस्ताच्छील्यान्नारकाणामाद्यासु तिसृषु पृथिवीषु विविधवेदनाः समुदीरयन्ति तथा कदर्यमानांश्च नारकान् दृष्ट्वा इहत्यमेषमहिषकुर्कुटादियुद्धप्रेक्षकनरा इव हृष्यन्ति, हृष्टाश्चाट्टाट्टहासं चेलोत्क्षेप 25 1-964-9649 Jan Education Inteman For Private Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १८१ नरकोद्वृत्तानां लन्धिःगा१०८१-९० ॥३२२॥ त्रिपद्यास्फालनादि च कुर्वन्ति, किंबहुना?, यथैषामित्थं प्रीतिर्न तथा नितान्तकान्ते प्रेक्षणकादाविति १८७ ॥ ८५ ॥ ८६ ॥ सम्प्रति 'नरयुषट्टाण लद्धिसंभवो'त्येकाशीत्यधिकशततमं द्वारमाह तिसु तित्थ चउत्थीए केवलं पंचमीइ सामन्नं । छट्ठीऍ विरइविरई सत्तमपुढवीइ सम्मत्तं ॥८७॥ पढमाओ चक्कवट्टी बीयाओ रामकेसवा हुंति । तच्चाओ अरहंता तहतकिरिया चउत्थीओ॥८॥ उच्चट्टिया उ संता नेरइया तमतमाओ पुढवीओं। न लहंति माणुसत्तं तिरिक्खजोणिं उवणमंति ॥८९ ।। छट्ठीओ पुढवीओ उचहा इह अणंतरभवंमि । भजा मणुस्सजम्मे संजमलंभेण उ विहीणा ॥९॥ इह 'तिसु'त्ति सप्तम्याः प्राकृतत्वेन पञ्चम्यर्थत्वादाद्याभ्यस्तिसृभ्य एव पृथिवीभ्य उद्वृत्ता अनन्तरभवे तीर्थकृतो भवन्ति, न शेषपृथिवीभ्यः, सम्भवमात्रं चेदं, न नियमः, तेन ये पूर्वनिबद्धनरकायुषः सन्तः स्वहेतूपात्ततीर्थकृन्नामगोत्राः श्रेणिकादय इव नरकेषु गच्छन्ति त एव तत उद्वृत्ता अनन्तरभवे तीर्थकृतो, न शेषाः, चतुर्थ्याः पृथव्या उद्वृत्ताः केचित् केवलं केवलज्ञानं सामान्येन प्राप्नुवन्ति, तीर्थकृतस्तु नियमेन न भवन्ति, पञ्चम्या उद्वृत्ताः श्रामण्यं-सर्वविरतिरूपं लभन्ते न तु केवलज्ञानं, षष्ठया उद्वृत्ता विरत्यविरतिं-देशविरतिं लभन्ते न तु श्रामण्यं, सप्तम्या उद्वृत्ताः सम्यक्त्वं-सम्यग्दर्शनरूपं, न देशविरत्यादिकमिति, अयमत्र भावार्थ:-आद्याभ्यस्तिसृभ्य उद्धृत्तास्तीर्थकृतो भवन्ति चतसृभ्य उद्वृत्ताः केवलज्ञानिनः पञ्चम्या उद्वृत्ताः संयमिनः षष्ठया उद्वृत्ता देशविरताः सप्तम्या उद्वृत्ताः सम्यग्दृष्टय इति ॥८७॥ पुनरपि लब्धिविशेषसम्भवं दर्शयन्नाह-पढमे'त्यादि, प्रथमायाः-रत्नप्रभाया एवोद्धृताश्चक्रवर्तिनो भवन्ति न शेषपृथिवीभ्यः, द्विती २२. For Private Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 2 DPRESCR5-% % % यायाः-द्वितीयां मर्यादीकृत्य नरकेभ्य उद्धृता रामकेशवा-बलदेववासुदेवा भवन्ति, एवं सर्वत्र मर्यादा भावनीया, तृतीयाया उद्धृता ४. अर्हन्तो भवन्ति, चतुर्थ्या उद्धृता 'अंतकिरिय'त्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् अन्तक्रियासाधकाः, मुक्तिगामिनो भवन्तीत्यर्थः, तथा तमस्तमाभिधानायाः सप्तम्याः पृथिव्या उद्धृताः सन्तो नारका नियमान्मानुषत्वं न लभन्ते, किन्तु तिर्यग्योनिमुपनमन्ति-धातूनामनेकार्थत्वेन प्राप्नुवन्ति, तथा षष्ठया:-तमःप्रभाभिधानायाः पृथिव्या उद्धृताः सन्तो नारका इहानन्तरभवे मनुष्यजन्मनि भाज्या:-केचिन्मनुष्या भवन्ति केचित्तु नेति भावः, येऽपि च मनुष्या भवन्ति तेऽपि नियमतः संयमलाभेन-सर्वविरतिलाभेन विहीना भवन्ति, न तु कदाचनापि तद्युक्ताः १८१ ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ ९॥ इदानीं 'तेसु जेसिमुववाओ' इति व्यशीत्यधिकशततमं द्वारमाह अस्सन्नी खलु पढमं दोचं च सरिसिवा तइय पक्खी। सीहा जति चउत्थि उरगा पुण पंचमि पुढविं ॥ ९१॥ छद्धिं च इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि पुढविं। एसो परमुववाओ बोद्धबो नरयपुढवीसु ॥१२॥ वालेसु य दाढीसु य पक्खीसु य जलयरेसु उववन्ना । संखिज्जाउठिईया पुणोऽवि नरयाउया हुंति ॥१३॥ असंज्ञिनः-सम्मूछिमाः पञ्चेन्द्रियाः खलु प्रथमां नरकपृथिवीं गच्छन्ति, खलुशब्दोऽवधारणे, तच्चावधारणमेवं-असंज्ञिनः प्रथमा| मेव पृथिवीं यावद्गच्छन्ति, न परत इति, न तु त एव प्रथमां गच्छन्ति, गर्भजसरीसृपादीनामपि उत्तरपृथिवीषटकगामिनां तत्र गमनभावात् , एवमुत्तरत्राप्यवधारणं भावनीयं, असंज्ञिनश्चात्र तिर्यञ्चो ज्ञेयाः, संमूछिममनुष्याणामपर्याप्तानामेव कालकरणतो नरकगतेरभावात् , तत्रापि पल्योपमासङ्ख्येयभागायुष्केष्वेव, उक्तं च-"असन्नी णं नेरइयाउ पकरेमाणा जहन्नेणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं पलि % % % र For Private & Personel Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३२३ ॥ ओवमस्स असंखेज्जइभागं पकरिंति” त्ति [असंज्ञिनो नैरयिकायुः प्रकुर्वन्तो जघन्येन दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टतः पत्योपमस्यासंख्येयभागं प्रकुर्वन्ति ] तथा द्वितीयामेव पृथिवीं यावद्गच्छन्ति सरीसृपा - भुजपरिसर्पा गोधानकुलादयो गर्भव्युत्क्रान्ता न ततः परतः, एवं तृतीयामेव गर्भजाः पक्षिणो-गृध्रादयः, चतुर्थीमेव सिंहा:- सिंहोपलक्षिताश्चतुष्पदा गर्भजाः, पञ्चमीमेव गर्भजा उरगाः - उरः परिसर्पाः सर्पादयः, षष्ठीमेव स्त्रियः - स्त्रीरत्नाद्या महारम्भादियुक्ताः, सप्तमीं यावद्गर्भजा मत्स्या - जलचरा मनुजाश्च अतिक्रूराध्यवसायिनो महापापकारिणः, एष जीवविशेषभेदेन परमः - उत्कृष्ट उपपातो बोद्धव्यो नरकपृथिवीषु जघन्यतस्तु सर्वेषामपि रत्नप्रभायाः प्रथमे प्रस्तटे मध्यमतः पुनर्जघन्यात्परतः स्वस्वोत्कृष्टोपपातादर्वागिति ।। ९१ ॥ ९२ ॥ सम्प्रति केषाञ्चित्तिर्यग्योनिजानां बाहुल्यकृतं विशेषमाह - 'वालेसु' इत्यादि, नरकेभ्य उद्धृता व्यालेषु सर्पादिषु दंष्ट्रिषु - व्याघ्रसिंहादिषु पक्षिषु - गृद्धादिषु जलचरेषु मत्स्यजातिषु सङ्ख्यातायुः स्थितय उत्पन्नाः सन्तो भूयः क्रूराध्यवसायवशगाः पञ्चेन्द्रियवधादीन् विधाय नरकायुषो भवन्ति, एतच्च बाहुल्येनोच्यते न तु नियमः, यतो नारकेभ्योऽपि केचिदुद्धृत्य सम्यक्त्वादिप्राप्तिवशाच्छुभां गतिमासादयन्तीति ९३ ।। १८२ ॥ सम्प्रति 'संखा उप्पज्जंताण'त्ति त्र्यशीत्यधिकशततमद्वारस्य 'तह य उवट्टमाणाणं' ति चतुरशीत्यधिकशततमद्वारस्य चावसरो विवरणाय, परमुत्पत्तिनाशविरकालद्वारे 'संखा पुण सुरवरतुल्ल'त्ति गाथादलेन तद्द्वारद्वयमपि व्यक्तं प्राग्व्याख्यातमिति नेदानीं तद्विवृतमिति १८३ - १८४ ॥ सम्प्रति 'एगिंदिय विगलिंदिय सन्नीजीवाण कायठिइओ'त्ति पश्चाशीत्यधिकशततमं द्वारमाह— अस्संखोसप्पिणिसप्पिणीउ एगिंदियाण (उ) चउन्हं । ता चेव ऊ अनंता वणस्सइए उ बोद्धवा १८२ उप पातो नर केषु गा. १०९१-९३ १८३-१८४ अतिदेशः ॥ ३२३ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९४ ॥ वाससहस्सासंखा विगलाणं ठिइउ होइ बोद्धव्वा । सत्तट्ठभवा उ भवे पणिदितिरिम णुय उक्कोसा ॥९५॥ एकेन्द्रियाणां चतुर्णा-पृथिव्यप्तेजोवायुरूपाणां प्रत्येकमुत्कृष्टा कायस्थितिः-मृत्वा मृत्वा तत्रैव कायेऽवस्थानमसयेया उत्सर्पिण्यवसपिण्यः, एतच्च कायस्थितिमानं कालतः, क्षेत्रतस्वसङ्ख्येया लोकाः, इदमुक्तं भवति-असङ्ख्येयेषु लोकाकाशेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे सर्वप्रदेशापहारेण यावत्योऽसङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो भवन्ति तावत्य इति, ता एव-उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योऽनन्ता वनस्पतिकायिकस्योत्कृष्टा कायस्थितिः बोद्धव्या, इयमपि कालतः, क्षेत्रतस्तु पूर्वोक्तप्रकारेण अनन्ता लोकाः, असङ्ख्ययाः पुद्गलपरावर्ताः, ते च आवलिकाया असङ्खयेयतमे भागे यावन्तः समयाः तत्तुल्या, इयं च कायस्थितिः सांव्यवहारिकानाश्रित्य द्रष्टव्या, असांव्यवहारिकजीवानां त्वनादिरवसेया, ततो न मरुदेव्यादिभिर्व्यभिचारः, तथा च क्षमाश्रमणाः-तह कायठिइकालादओ विसेसे पडुश्च किर जीवे । नाणाइवणस्सइणो जे संववहारबाहिरिया ॥१॥" [तथा कायस्थितिकालादयो विशेषान् जीवान् किल प्रतीत्य । नानादिवनस्पतीन् ये M|संव्यवहारबाह्याः॥ १॥] यापि चासांव्यवहारिकजीवानामनादिः कायस्थितिः साऽपि केषाश्चिदनादिरपर्यवसाना, ये जातुचिदप्य। सांव्यवहारिकराशेरुद्धृत्य सांव्यवहारिकराशौ न निपतिष्यन्ति, केषाञ्चिदनादिः सपर्यवसाना, येऽसांव्यवहारिकराशेरुद्धृत्य सांव्यवहादरिकराशौ निपतन्ति । अथ किमसांव्यवहारिकराशेर्विनिर्गस्य सांव्यवहारिकराशावागच्छन्ति ?, उच्यते, आगच्छन्ति, तथा चोक्तं विशेष णवत्यां-"सिझंति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासीओ । इन्ति अणाइवणस्सइरासीओ तत्तिया तंमि ॥१॥" [सिध्यन्ति यावन्तः किलेह संव्यवहारजीवराशेः । आयान्ति अनादिवनस्पतिराशेस्तावन्तस्तस्मिन् ॥ १॥] तत्र येऽनादिसूक्ष्मनिगोदेभ्य उद्धृत्य शेषजीवे. RAGAOSTANACEAE. CO Jan Education International For Private Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- पुत्पद्यन्ते ते पृथिव्यादिविविधव्यवहारयोगात् सांव्यवहारिकाः, ये पुनरनादिकालादारभ्य सूक्ष्मनिगोदेष्वेवावतिष्ठन्ते ते तु तथाविधव्य रोद्धारे वहारातीतत्वादसांव्यवहारिकाः, तत्र सांव्यवहारिकाः सूक्ष्मनिगोदेभ्य उद्धृत्य शेषजीवेपूत्पद्यन्ते, तेभ्योऽप्युद्धृत्य केचिद् भूयोऽपि तेष्वेव तत्त्वज्ञा- | निगोदेषु गच्छन्ति, परं तत्रापि सांव्यवहारिका एव ते, व्यवहारे पतितत्वात् , तत्र च सूत्रोक्तमुत्कर्षतोऽवस्थानकालमानं, असांव्यवहानवि० दि| रिकास्तु सदा निगोदेष्वेवोत्पत्तिमरणभाजो, न कदाचनापि त्रसादिभावं लब्धवन्त इति । तथा विकलानां-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं | कायस्थितिस्तु सङ्ख्याता वर्षसहस्राः 'विगलाण य वाससहस्सं संखेजत्ति पञ्चसङ्ग्रहवचनात् , पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च संज्ञिप॥३२४॥ याप्तानामुत्कृष्टा कायस्थितिः सप्ताष्टौ वा भवा भवेत् , तत्र सप्त भवाः सङ्ख्येयवर्षायुषः अष्टमस्त्वसङ्ख्येयवर्षायुष एव, तथाहि-पर्याप्तमनुष्याः पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो वा निरन्तरं यथासङ्ख्यं सप्त नरभवांस्तिर्यग्भवान् वाऽनुभूय यद्यष्टमे भवे भूयस्तेष्वेवोत्पद्यन्ते तदा नियमादसङ्ख्यायुष्केष्वेव नेतरेषु, असङ्ख्यायुश्च मृत्वा सुरेष्वेवोत्पद्यन्ते ततो नवमोऽपि नरभवस्तिर्यग्भवो वा निरन्तरं न लभ्यते, अष्टसु च भवेषत्कर्षतः कालमानं त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाधिकानि, जघन्या तु सर्वत्रापि कायस्थितिरन्तर्मुहूर्तमिति १८५ ॥९४॥ ॥ ९५ ॥ सम्प्रति 'एगिदियविगलसन्निजीवाणं भवटिइत्ति षडशीत्यधिकशततमं द्वारमाह बावीसई सहस्सा सत्तेव सहस्स तिनिहोरत्ता । वाए तिनि सहस्सा दसवाससहस्सिया रुक्खा ॥९६॥ संवच्छराइं बारस राइंदिय हुंति अउणपन्नासं । छम्मास तिन्नि पलिया पुढवाईणं ठिउकोसा ॥९७ ॥ सण्हा य १ सुद्ध २ वालुय ३ मणोसिला ४ सक्करा य ५ खरपुढवी ६ । एकं १ बारस २ चउदस ३ सोलस ४ अट्ठार ५ बावीसा ६॥९८॥ १८५ एकेन्द्रियादीनां कायस्थितिः १८६ भकस्थितिःगा. १०९४-९८ ॥३२४॥ Jain Education international For Private & Personel Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39-434645 - 5 पृथिव्यादीनां मनुष्यपर्यन्तानां स्थिति:-आयुःप्रमाणरूपा एषा उत्कृष्टा, यथा-पृथिवीकायिकानां द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि अप्कायिकानां सप्त वर्षसहस्राणि तेजस्कायिकानां त्रीणि रात्रिन्दिवानि वाते-वातकाये त्रीणि वर्षसहस्राणि वृक्षा-वनस्पतयो दशवर्षसाहस्रिकाः, किमुक्तं भवति ?-वनस्पतिकायिकानामुत्कर्षतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणीति, तथा द्वीन्द्रियाणामुत्कर्षत आयुःस्थितिादश वर्षाणि त्रीन्द्रिया-12 णामेकोनपञ्चाशद्रात्रिन्दिवानि चतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः पञ्चेन्द्रियाणां तिर्यग्मनुष्याणां त्रीणि पल्योपमानि, एषा चोत्कृष्टा स्थितिः प्रायो | निरुपद्रवस्थाने द्रष्टव्या, एवमग्रेऽपि ज्ञेयं ॥ ९६ ॥९७॥ एवं सामान्येन पृथिव्यादीनामुत्कृष्टां स्थितिमभिधाय पृथिवीभेदेषु विशेषेणाह|'सण्हे'त्यादि, इह पूर्वार्धपदानामुत्तरार्धपदानां च यथाक्रमं योजना, सा चैव-लक्ष्णा-मरुस्थल्यादिगता पृथिवी तस्या एक वर्षसहस्रमुत्कष्टमायुः शुद्धा-कुमारमृत्तिका तस्या द्वादश वर्षसहस्राणि वालुका-सिकता तस्याश्चतुर्दश वर्षसहस्राणि मनःशिला प्रतीता तस्याः षोडश शर्करा-दृषत्कर्करिका तस्या अष्टादश खरपृथिवी-शिलापाषाणरूपा तस्या द्वाविंशतिवर्षसहस्राण्युत्कृष्टमायुः, जघन्यं तु सर्वत्राप्यन्तर्मुहूर्तमिति १८६ ॥ ९८ ॥ सम्प्रति 'एएसिं तणुमाण ति सप्ताशीत्यधिकशततमं द्वारमाह जोयणसहस्समहियं ओहपएगिदिए तरुगणेसु । मच्छजुयले सहस्सं उरगेसु य गन्भजाईसु ॥१०९९ ॥ उस्सेहंगुलगुणियं जलासयं जमिह जोयणसहस्सं । तत्थुप्पन्नं नलिणं विन्नेयं भणियमाणंति॥११००॥ जं पुण जलहिदहेसुं पमाणजोयणसहस्समाणेसुं। उप्पज्जइ वरपउमं तं जाणसु भूवियारंति ॥ ११०१॥ वणऽणंतसरीराणं एगमनिलसरीरगं पमाणेणं । अनलोदगपुढवीणं असंखगुणिया भवे वुड्डी ॥२॥ विगलिंदियाण बारस जोयणा तिन्नि चउर कोसा य । सेसाणोगा 1 For Private & Personal use only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ एके प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३२५॥ -k%*-*A*SHUSHUS हणया अंगुलभागो असंखिज्जो ॥३॥ गन्भचउप्पय छग्गाउयाई भुयगेसु गाउयपुहुत्तं। पक्खीसु धणुपुहुत्तं मणुएसु य गाउया तिन्नि ॥४॥ न्द्रियादीओघपदे-सामान्यचिन्तायामेकेन्द्रिये पृथिव्यादिविशेषानाकाङ्कितानामेकेन्द्रियाणामित्यर्थः, विशेषचिन्तायां तरुगणेषु-प्रत्येकवनस्पती- नांतनुमानं | नामित्यर्थः उत्कर्षतः सातिरेक योजनसहस्रं शरीरप्रमाणमवसेयं, एतच्च समुद्रे गोतीर्थादिगतलतानलिननालाद्यधिकृत्य वेदितव्यं, अन्य लगा.१०९९ त्रैतावदौदारिकशरीरस्यासम्भवात् , तथा पञ्चेन्द्रियतियंञ्चत्रिविधाः-जलचराः स्थलचराः खेचराश्च, जलचराः सम्मूर्छजा गर्भजाश्च पुनः 2-११०४ प्रत्येकमपर्याप्ताः पर्याप्ताश्चेत्येवं चतुर्विधाः, स्थलचरास्तु द्विविधा:-चतुष्पदाः परिसपश्चि, चतुष्पदाः पुनरपि सम्मूर्छजा गर्भजाश्च पुनः प्रत्येकमपर्याप्ताः पर्याप्ताश्वेत्येवं चतुर्विधाः, परिसास्तु द्विविधाः-उरःपरिसर्पा भुजपरिसश्चि, उभये अपि प्रत्येकं चतुष्पदवचतुर्विधाः, इत्येवं स्थलचराः सर्वेऽपि द्वादश विधाः, खेचरास्तु जलचरवञ्चतुर्विधाः, तदेवं विंशतिभेदानां तिरश्चां तनुमानचिन्तायां मत्स्यानां-जलचराणां | युगले-सम्मूर्छजगर्भजलक्षणे उरगेषु च-उरःपरिसपेंषु सर्पादिषु गर्भजेषु प्रत्येक परिपूर्ण योजनसहस्रमिति ॥ ९९ ।। ननु तनुप्रमाणमुत्सेधाङ्गुलेन 'उस्सेहपमाणओ मिणसु देह' इति वचनात् , समुद्रपाइदादीनां तु प्रमाणं प्रमाणाङ्गग्लेन, ततः समुद्रादीनां योजनसहस्रावगाह| नत्वात्तद्गतपद्मनालादीनामुत्सेधाङ्गलापेक्षयाऽत्यंतदैर्घ्य प्राप्नोतीत्यत आह-'उस्सेह'मित्यादि, 'ज'मित्यादि, उत्सेधाङ्गुलेन 'परमाणू रहरेणू | इत्यादिक्रमनिष्पन्नेन गुणित:-प्रमितः सन् योऽसौ जलाशयः-समुद्रगोतीर्थादिरिह-मनुष्यलोके योजनसहस्रप्रमाणो भवति, तत्र समुत्पन्न नलिन-पर्दा भणितमानं-पूर्वोक्तकिश्चित्समधिकयोजनसहस्रप्रमाणं विज्ञेयं, यत् पुनः प्रमाणाङ्गलानां योजनसहस्रमानेषु जलधिहदादिषु ॥३२५ | वरं-प्रधान पद्ममुत्पद्यते तज्जानीहि भूविकारं-पृथिवीविकारमिति । इदमुक्तं भवति-इह समुद्रमध्ये प्रमाणाखुलतो योजनसहस्रावगाहे *** * Jain Education Inte Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHAR यानि पद्मानि तानि पृथिवीपरिणामरूपाण्येव, यथा श्रीदेवतायाः पद्महदे पद्मं, यानि पुनः शेषेषु गोतीर्थादिषु स्थानेषु पद्मानि तानि वनस्पतिपरिणामरूपाण्यपि भवन्ति, तानि च शेषेषु जलाशयेषु, वल्ल्यादयश्चोत्कर्षतो यथोक्तमाना भवन्ति, तथा चोक्तं विशेषणवत्याम्"पुढवीपरिणामाई ताई किर सिरिनिवासपउमं व । गोतित्थेसु वणस्सइपरिणामाइं तु होजाहि ॥१॥जत्थुस्सेहंगुलओ सहस्समवसेसएसु यजलेसुं। वल्लीलयादओऽवि य सहस्समायामओ होंति ॥२॥" [तानि किल पृथ्वीपरिणामानि श्रीनिवासपद्ममिव । गोतीर्थेषु वनस्पतिपरिणामानि तु भवेयुः॥१।यत्रोत्सेधांगुलतः सहस्रं अवशेषेषु च जलेषु । वल्लीलतादयोऽपि च सहस्रमायामतो भवन्ति ।।२]॥११००-११०१॥ तथा प्रत्येकवनस्पतिवर्जितानां पंचानामपि पृथिव्यादीनामङ्गुलासङ्ख्येयभागमानाऽवगाहना वक्ष्यते, ततस्तत्र विशेषमाह-वणे'त्यादि, 'विगले'त्यादि, 'गब्भे'त्यादि, 'वण'त्ति वनस्पतीनां 'अणंत'त्ति अनन्तकायिकानां सूक्ष्माणां यान्यसङ्ख्ययानि शरीराणि तेषां 8 प्रमाणेन-मानेनैकमनिलशरीरकं वायुशरीरं, किमुक्तं भवति ?-सूक्ष्मसाधारणवनस्पतीनामसङ्ख्यातैः शरीरैस्तुल्यमेकं सूक्ष्मं वायुशरीरमिति, उक्तं च प्रज्ञप्तौ-'अणंताणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमवाउसरीरे"त्ति, अनन्तकायिकानां यावन्ति शरीराणि तदेकं सूक्ष्मं वायुशरीरं, तावत्शरीरप्रमाणमित्यर्थः, यावग्रहणाचासङ्ख्यातानि शरीराणि ग्राह्याणि, अनन्तानामपि वनस्पतीनामेकाद्यसङ्ख्येयान्तशरीरत्वेनानन्तानां शरीराणामभावात् , ततो वायुकायिकशरीरादनलोदकपृथिवीना-अग्निजलपृथिवीकायिकशरीराणां सूक्ष्माणां बादराणां च यथाक्रममसङ्ख्यगुणा भवति वृद्धिः, इयमत्र भावना-यावत्प्रमाणमेकं सूक्ष्मवायुकायिकशरीरं ततोऽप्यसङ्ख्यातगुणमेकं सूक्ष्मतेजस्कायिकशरीरं ततोऽसङ्ख्यातगुणमेकं सूक्ष्माप्कायिकशरीरं ततोऽप्यसङ्ख्यातगुणमेकं सूक्ष्मपृथिवीकायिकशरीरं ततोऽप्यसङ्ख्यातगुणमेकं वादरवायुशरीरं ततोऽसङ्ख्यातगुणमेकं बादराग्निशरीरं ततोऽप्यसङ्ख्यातगुणमेकं बादराप्कायिकशरीरं ततोऽप्यसङ्ख्यातगुणमेकं For Private & Personel Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८३ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० न्द्रियाणां स्वरूपवि| पयौ गा.११०५ ॥३२६॥ -११०९ & बादरपृथिवीशरीरं तस्मादप्यसङ्ख्यातगुणमेकं बादरनिगोदशरीरमिति, एतच्च सर्वमपि भगवत्येकोनविंशतितमशतकतृतीयोद्देशकानुसारेणोक्तं न तु निजमनीषिकयेति, इह च पृथिव्यादीनामङ्गुलासवेयभागमात्रावगाहनात्वेऽप्यसोयभेदत्वादङ्गलासङ्ख्येयभागस्येतरेतरापेक्षया|ऽसोयगुणत्वं न विरुद्ध्यते ॥ २॥ अथ द्वीन्द्रियादीनामवगाहनामाह-विकलेन्द्रियाणां-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां यथाक्रमं शरीरमानं द्वादश योजनानि त्रयः क्रोशाः चत्वारः क्रोशाः, इयमत्र भावना-द्वीन्द्रियाणां शङ्खादीनामुत्कर्षतो देहमानं द्वादश योजनानि त्रीन्द्रियाणां कर्णशृगालीमकोटकादीनां त्रीणि गव्यूतानि चतुरिन्द्रियाणां भ्रमरादीनामेकं योजनं शेषाणां पृथिव्यप्तेजोवायूनां साधारणवनस्पतीनां संमूर्छिममनुष्याणां सर्वेषामपि चापर्याप्तजीवानामुत्कर्षतोऽवगाहना-देहमानमङ्गुलासयेयो भागः ॥ ३ ॥ अथ तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां च देहमानमाह-गर्भजचतुष्पदाना-हस्त्यादीनामुत्कृष्टं देहमानं षड्गव्यूतानि भुजगेषु गर्भजेषु-गोधानकुलादिषु गव्यूतपृथक्त्वं, पृथक्त्वं च द्विप्रभृत्यानवभ्यः, पक्षिषु-गृध्रादिषु 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेः' गर्भजेषु संमूर्छिमेषु च धनुःपृथक्त्वं, मनुष्येषु च गर्भजेषु त्रीणि गव्यूतानि, 'मणुएसु यत्ति चकारोऽनुक्तसमुच्चये, ततः संमूर्छिमचतुष्पदानां गवादीनामुत्कर्षतो देहमानं गव्यूतपृथक्त्वम् , संमूर्छिमभुजगानां धनुष्पृथक्त्वं, संमूर्छिमोरगाणां च योजनपृथक्त्वं, एतच्च प्रज्ञापनावगाहनासंस्थानपदोक्तानुसारेणास्माभिरभिहितमिति, इदं चोत्कर्षतः सर्वमपि देहमानं, जघन्यतस्तु सर्वेषामपि जीवानामङ्गुलस्यासङ्ख्याततमो भागः, स चोपपातसमये बोद्धव्यः १८७ ॥४॥ सम्प्रति 'इंदियसरूवविसओ य एएसिति अष्टाशीत्यधिकशततमं द्वारमाह कायंबपुप्फगोलय १ मसूर २ अइमुत्तयस्स कुसुमं च ३ । सोयं १ चक्खू २ घाणं ३ खुरप्पपरिसंठि रसणं ४ ॥५॥ नाणागारं फासिंदियं तु बाहल्लओ य सवाई । अंगुलअसंखभागं ॥३२६॥ For Private 3 Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %% एमेव पुत्तओ नवरं ॥ ६ ॥ अंगुलपुहुत्त रसणं फरिसं तु सरीरवित्थडं भणियं । बारसहिं जोहिं सोयं परिहिए सद्दं ॥ ७ ॥ रूवं गिण्हह चक्खू जोयणलक्खाओं साइरेगाओ। गंध रसं च फासं जोयणनवगाउ सेसाणि ॥ ८ ॥ अंगुल असंखभागा मुणंति विसयं जहन्नओ मोतुं । चक्खुं तं पुण जाणइ अंगुलसंखिज्जभागाओ ॥ ९ ॥ इन्दनादिन्द्रः - आत्मा सर्वद्रव्योपलब्धिरूपपरमैश्वर्ययोगात् तस्य लिङ्गं - चिह्नमविनाभावि इन्द्रियं तद् द्विधा - द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च, तत्र द्रव्येन्द्रियं द्विधा - निर्वृत्तिरूपमुपकरणरूपं च निर्वृत्तिर्नाम प्रतिविशिष्ट संस्थानविशेषः, साऽपि द्विधा - बाह्या आभ्यन्तरा च तत्र बाह्या कर्णकर्पटिकादिरूपा, सा च विचित्रा न प्रतिनियतरूपतया व्यपदेष्टुं शक्यते, तथाहि - मनुष्यस्य श्रोत्रे नेत्रयोरुभयपार्श्वतो भाविनी भ्रुवां चोपरितने श्रवणबन्धापेक्षया समे वाजिनो नेत्रयोरुपरि तीक्ष्णे चाप्रभागे इत्यादिजातिभेदान्नानाविधा, आभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः सर्वेषामपि जन्तूनां समाना, तामेव चाधिकृत्य प्रस्तुतसूत्रोक्तं संस्थानमवसेयं, केवलं स्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तेः प्रायो न बाह्याभ्यन्तरभेदः, तत्त्वार्थमूलटीकायां तथाऽभिधानात् उपकरणं-खड्गस्थानीयाया बाह्यनिर्वृत्तेर्या खड्गधारासमाना स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिकाऽभ्यन्तरा निर्वृत्तिः तस्याः शक्तिविशेषः, इदं चोपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमन्तर्निर्वृत्तेः कथञ्चिदर्थान्तरं, शक्तिशक्तिमतोः कथञ्चिद्भेदात् कथञ्चिद्भेदश्च सत्यामपि तस्यामन्तर्निवृत्तौ द्रव्यादिनोपकरणस्य विघातसम्भवात् तथाहि - सत्यामपि कदम्बपुष्पाद्याकृतिरूपायामन्तर्निर्वृत्तावतिकठोरतरघनगर्जितादिना शक्त्युपघाते सति न परिच्छेत्तुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति भावेन्द्रियमपि द्विधा - लब्धिरुपयोगश्च तत्र लब्धिःश्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदावरणकर्मक्षयोपशमः, उपयोगः- स्वस्वविषये लब्धिरूपेन्द्रियानुसारेणात्मनो व्यापारप्रणिधान Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० न्द्रियाणां ॥३२७॥ मिति, तच्च पञ्चधा-श्रोत्रादिभेदात् , तत्र श्रोत्रमाभ्यन्तरी निर्वृत्तिमधिकृत्य कदम्बपुष्पाकारं मांसगोलकरूपं चक्षुः किश्चित्समुन्नतमध्य- १८८इपरिमण्डलाकारमसूराख्यधान्यविशेषसदृशं ब्राणमतिमुक्तककुसुमदलचन्द्रकवत् किञ्चिद् वृत्ताकारमध्यविततं प्रदीर्घत्र्यससंस्थितं कर्णाटकायुधं क्षुरप्रस्तत्परिसंस्थितं-तदाकारं रसनेन्द्रियमिति ॥ ५॥ तथा-नाणे'त्यादि, स्पर्शनेन्द्रियं पुनर्नानाकार-अनेकसंस्थानसंस्थितं, स्वरूपविशरीरस्यासङ्ख्येयभेदत्वात् , तथा बाहल्यतः सर्वाण्यपीन्द्रियाण्यङ्गुलस्यासङ्ख्येयो भागः । ननु यदि स्पर्शनेन्द्रियस्याप्यनुलासङ्ख्येयभागो Pषयौ बाहल्यं ततः कथं खड्गाद्यमिघाते अन्तः शरीरस्य वेदनानुभवः ?, तद्युक्तं, वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , त्वगिन्द्रियस्य हि विषयः शीतादयः गा.११०५ | स्पर्शाः, यथा चक्षुषो रूपं, न च खड्गाद्यभिघाते अन्तः शरीरस्य शीतादिस्पर्शने वेदनमस्तीति, किन्तु केवलं दुःखवेदनं, तच्चात्मा सकले -११०९ नापि शरीरेणानुभवति, न केवलेन त्वगिन्द्रियेण, ज्वरादिवेदनावत् , ततो न कश्चिद्दोषः, अथ शीतलपानकादिपाने अन्तः शीतस्पर्शवेदनाऽप्यनुभूयते, ततः कथं सा घटते ?, उच्यते, इह त्वगिन्द्रियं सर्वत्रापि प्रदेशपर्यन्तवति विद्यते, तथा पूर्वसूरिभिर्व्याख्यानात् , तथा च प्रज्ञापनामूलटीका-"सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्तित्वात्त्वचोऽभ्यन्तरतोऽपि शुषिरस्योपरि त्वगस्त्येवे"ति, ततोऽभ्यन्तरतोऽपि शुषिर| स्योपरि त्वगिन्द्रियस्य भावादुपपद्यते अन्तरपि शीतस्पर्शवेदनानुभवः, तथा एवमेव-अङ्गलासयेयभागप्रमाणान्येव पृथुत्वतो-विस्तरतोऽपीन्द्रियाणि भवन्ति ॥ ६ ॥ नवरं रसनस्पर्शनयोर्विशेषः, तमेवाह-'अंगुले त्यादि गाथापूर्वार्ध, अङ्गुलपृथक्त्वविस्तारं रसनेन्द्रिय, स्पर्शनं पुनः शरीरविस्तृतं भणितं, यस्य जीवस्य यावन्मानं शरीरं स्पर्शनमपि तस्य विस्तरतस्तावत्प्रमाणमित्यर्थः । अथेन्द्रियविषयमान माह-'बारे'यादि सार्धा गाथा, द्वादशभ्यो योजनेभ्य आगतं धनगर्जितादिशब्दमुत्कृष्टतो गृह्णाति श्रोत्रं, न परतः, परत आगताः दाखलु ते शब्दपुद्गलास्तथास्वाभाव्यान्मन्दपरिणामास्तथोपजायन्ते येन स्वविषयं श्रोत्रविज्ञानं नोत्पादयितुमीशाः, श्रोत्रेन्द्रियस्य च तथाविध AAAAAAAER-53 Jain Education Intel For Private Personel Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RUAROKARORAKAR मत्यद्भुतं बलं न विद्यते येन परतोऽप्यागतं शब्दं शृणुयादिति, तथा चक्षुरिन्द्रियमुत्कर्षतः सातिरेकाद्योजनलक्षादारभ्य कटकुट्यादिमिरव्यवहितं रूपं गृह्णाति-परिच्छिनत्ति, परतोऽव्यवहितस्यापि परिच्छेदे चक्षुपः शक्त्यभावात् , एतच्चाभासुरद्रव्यमधिकृत्योच्यते, भासुरं तु द्रव्यमधिकृत्य प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नेभ्य एकविंशतियोजनलक्षेभ्योऽपि परतः पश्यन्ति, यथा पुष्करवरद्वीपार्धे मानुषोत्तरनगनिकटवतिनो नराः कर्कसंक्रान्तौ सूर्यबिम्ब, उक्तं च "इगवीसं खलु लक्खा चउतीसं चेव तह सहस्साई । तह पंच सया भणिया सत्ततीसाएँ अइरित्ता ॥ १॥ इइ नयणविसयमाणं पुक्खरदीवड़वासिमणुयाणं । पुब्वेण य अवरेण य पिहं पिहं होइ नायव्वं ॥ २॥” तथा शेषाणि-घाणरसनस्पर्शनेन्द्रियाणि क्रमेण गन्धं रसं स्पर्श च प्रत्येकमुत्कर्षतो नवभ्यो योजनेभ्य आगतं गृह्णन्ति, न परतः, परत आगतानां मन्दपरिणामत्वभावात् घाणादीन्द्रियाणां च तथारूपाणामपि तेषां परिच्छेदं कर्तुमशक्तत्वात् ॥ ७॥ ८॥ अथ जघन्यं विषयमानमाह-'अंगुले'त्यादि, चक्षुरिन्द्रियं मुक्त्वा शेषाणि चत्वारि श्रोत्रादीनि जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयभागादागतं स्वस्वविषयं शब्दादिकं जानन्ति, प्राप्तार्थपरिच्छेदकत्वात् , चक्षुः पुनरप्राप्तकारित्वाजघन्यतोऽङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्रव्यवस्थितं पश्यति, न तु ततोऽप्यक्तिरमिति, प्रतिप्राणि प्रतीतश्चायमर्थः, तथा च नातिसन्निकृष्टमसनरजोमलादिकं चक्षुः पश्यतीति, इह च पृथुत्वपरिमाणं स्पर्शनेन्द्रियव्यतिरेकेण शेषाणां चतुर्णामिन्द्रियाणामात्माङ्गुलेन प्रतिपत्तव्यं, स्पर्शनेन्द्रियस्य तूत्सेधाङ्गुलेन, विषयपरिमाणं पुनः सर्वेषामप्यात्माङ्गुलेनैव, अत्र चोभयत्राप्युपपत्तिः सविस्तरतरा भाष्यादवसातव्या १८८ ॥ ९ ॥ इदानीं 'लेसाउ'त्ति एकोननवत्यधिकशततमं द्वारमाह___ पुढवीआउवणस्सइवायरपत्तेसु लेस चत्तारि । गम्भे तिरियनरेसुंछल्लेसा तिन्नि सेसाणं ॥१०॥ बादरशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, प्रत्येकवनस्पतीनां च स्वरूपोपदर्शनार्थमेव व्यभिचाराभावात् , पर्याप्त इति विशेषणं च सामर्थ्याद् SARASWARAN Jan Education Intematon For Private Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३२८ ॥ व्यादीनां द्रष्टव्यं, अन्यथा तेजोलेश्याया अयोगात्, ततो बादरपर्याप्तेषु पृथिवीकायिकेष्वष्कायिकेषु प्रत्येक वनस्पतिषु चायाश्चतस्रः कृष्णनीलका- ४ १८९ पृपोवतेजोरूपा लेश्या भवन्ति, तेजोलेश्या कथमवाप्यते इति चेद्, उच्यते, ईशानान्तदेवानामेतेषूत्पादात्कियन्तमपि कालं तेजोलेश्यापि सम्भवति, यल्लेश्या हि जन्तवो म्रियन्ते परभवेऽपि तल्लेश्या एवोत्पद्यन्ते, न पुनः पाश्चात्यभवान्त्यसमयेऽन्यो लेश्यापरिणामोऽन्यश्चागामिकभवाद्यसमये, यदागमः “जल्ले साई दुब्वाई आइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइत्ति, [ यल्लेश्यानि द्रव्याणि आदाय कालं करोति तल्लेश्येषूत्पद्यते ] केवलं तिर्यङ्नरा आगामिभवसम्बन्धिलेश्याया अन्तर्मुहूर्तेऽतिक्रान्ते सुरनारकास्तु स्वस्वभव सम्बन्धिलेश्याया अन्तर्मूहूर्ते शेषे सति परभवमासादयन्ति, गर्भजतिर्यङ्मनुष्येषु षडपि लेश्याः तेषामनवस्थितलेश्याकत्वात् तथाहि - तिरयां पृथिवीकायिकादीनां नराणां सम्मूर्छिमगर्भजानां शुकुलेश्यावर्जा याः काश्चिल्लेश्याः सम्भवन्ति ताः प्रत्येकं जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तस्थितयः, शुकुलेश्या तु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तावस्थाना उत्कर्षतः किश्चिन्यूननववर्षोनर्पूवकोटिप्रमाणेति, इयं चोत्कृष्टा स्थितिः पूर्वकोटेरुर्द्ध संयमावाप्तेरभावात् पूर्व कोट्यायुषः किञ्चित्समधिकवर्षाष्ट कादूर्द्धमुत्पादित केवलज्ञानस्य केवलिनोऽवसेया, अन्येषां तूत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्वावस्थानैवेति शेषाणां - तेजोवायूनां सूक्ष्मपृथिव्य म्बूवनस्पतीनां साधारणानामपर्याप्तबादर पृथिव्यम्बुप्रत्येक वनस्पतीनां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां सम्मूर्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यनराणां च तिस्रः- कृष्णनीलकापोतनामानो लेश्या भवन्तीति १८९ ।। १० ।। इदानीं 'एयाण जत्थ गइ'त्ति नवत्यधिकशततमं द्वारमाह एगेंदियजीवा जंति नरतिरिच्छेसु जुयलवज्जेसुं । अमणतिरियावि एवं नरयंमिवि जंति ते पढमे ॥ ११ ॥ तह संमुच्छिमतिरिया भवणाहिववंतरेसु गच्छति । जं तेसिं उववाओ पलियासंखेजआऊ ॥ १२ ॥ पंचिंदियतिरियाणं उववाक्कोसओ सहस्सारे । नरएसु समग्गेसुवि वियला लेश्या १९० एकेन्द्रिया दीनां गतिः गा. १११० -११२० ॥ ३२८ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE0% अजुयलतिरिनरेसु॥१३॥ नरतिरिअसंखजीवी जोइसवजेसु जंति देवेसु । नियआउयसमहीणाउएसु ईसाणअंतेसु ॥ १४ ॥ उववाओ तावसाणं उक्कोसेणं तु जाव जोइसिया । जावंति बंभलोगो चरगपरिवायउववाओ॥ १५ ॥ जिणवयउक्किट्ठतवकिरियाहिं अभवभवजीवाणं । गेविजेसुक्कोसा गई जहन्ना भवणवईसु ॥१६॥ छउमत्थसंजयाणं उववाउकोसओ अ सबढे। उववाओ सावयाणं उक्कोसेणऽचुओ जाव ॥१७॥ उववाओ लंतगंमि चउदसपुचिस्स होइ उ जहन्नो । उक्कोसो सबढे सिद्धिगमो वा अकम्मस्स ॥१८॥ अविराहियसामन्नस्स साहुणो सावयस्सऽवि जहन्नो। सोहम्मे उववाओ वयभंगे वणयराईसुं॥ १९॥ सेसाण तावसाईण जहन्नओ वंतरेसु उववाओ। भणिओ जिणेहिं सो पुण नियकिरियठियाण विन्नेओ ॥२०॥ इह 'एगेंदियजीव'त्ति सामान्योक्तावपि न तेजोवायवो गृह्यन्ते, तेषां मनुष्येष्वेवानुत्पादात् , उक्तं च–'सत्तममहिनेरइया तेऊ वाऊ || अणंतरुव्वट्टा । नवि पावे माणुस्सं तहा असंखाउया सव्वे ॥१॥' [सप्तममहीनैरयिकास्तेजोवायू अनन्तरोद्वृत्ताः। नैव प्राप्नुवन्ति मानुष्यं |तथाऽसंख्यायुषः सर्वे ॥ १॥] तत एकेन्द्रियजीवा:-पृथिव्यम्बुवनस्पतयो युगलवर्जेषु-युगलधार्मिकवर्जितेषु सङ्ख्यातायुष्केष्वित्यर्थः | नरेषु तिर्यक्षु च यान्ति-उत्पद्यन्ते, न देवनारकासङ्ख्येयवर्षायुस्तिर्यग्नरेष्विति भावः, तथाऽमनस्कतिर्यञ्चोऽपि-असंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो|ऽप्येवं-पूर्ववत् , सङ्ख्येयायुष्केषु नरतिर्यक्षु समुत्पद्यन्त इति भावः, नरकेऽपि च प्रथमे ते गच्छन्ति, इदमुक्तं भवति-असंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यचश्च चतसृष्वपि गतिषूत्पद्यन्ते, केवलं नरकदेवगत्योरुत्पद्यमानानाममीषां विशेषः, तत्र नरकगतौ प्रथमपृथिव्यामेव, न शेषासु, तत्रा A5%80 Jain Education cernational For Private & Personel Use Only RIww.jainelibrary.org Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ प्रव० सा- प्युत्कृष्टतोऽपि पल्योपमासङ्ख्येयभागायुष्केष्वेव जायन्ते, नाधिकायुष्केष्विति ॥ ११॥ देवगतो पुनरुत्पद्यमानानां विशेषमाह-'तहे'- १९० एकेरोद्धारे पद त्यादिगाथानवकं, तथा संमूर्छिमतिर्यञ्चो देवेषूत्पद्यमाना भवनपतिव्यन्तरेष्वेव जायन्ते, न ज्योतिष्कादिषु, यस्मात्तेषां-सम्मूर्छिमतिरश्चांन्द्रियादीतत्त्वज्ञा- देवेषु पल्योपमासङ्ग्यातभागमात्रायुष्केष्वेवोपपातो, नाधिकस्थितिष्विति ॥ १२ ॥ पञ्चेन्द्रियतिरश्चामुत्कर्षत उपपातः सहस्रारं यावद- नां गतिः नवि० 18 वति, नरकेष्वपि समप्रेषु-सर्वास्वपि नरकपृथिवीषु, इदमत्र तात्पर्य-सङ्ख्यातायुष्कसंज्ञितिर्यक्पञ्चेन्द्रियाश्चतसृष्वपि गतिषूत्पद्यन्ते, केवलं | है देवगतौ सहस्रारकल्पमेव यावदुत्पद्यन्ते, न तु परत आनतादिषु, तथाविधयोग्यताऽभावादिति, तथा विकला-द्वित्रिचतुरिन्द्रिया युगल॥३२९॥ वर्जेषु तिर्यक्षु मनुष्येषु चोत्पद्यन्ते, न देवनारकेषु ॥ १३ ॥ असङ्ख्यजीविन:-असङ्ख्यवर्षायुषो नरास्तिर्यञ्चश्च ज्योतिष्कवर्जितेषु देवेषु ६ यान्ति, देवगतिं विमुच्य शेषे गतित्रये मोक्षे च नैव ते गच्छन्तीत्यर्थः, इह च यद्यपि सामान्येनासङ्ख्येयवर्षायुष्का नरतिर्यञ्चो भणितास्तथापि 'सूचकत्वात् सूत्रस्य' विशिष्टा एव खेचरतिर्यक्पञ्चेन्द्रिया अन्तरद्वीपजतिर्यग्नराश्च वेदितव्याः, तथाहि-असङ्ख्येयवर्षायुषो देवे त्पद्यमाना निजायुषः समस्थितिषु हीनस्थितिषु चोत्पद्यन्ते, नाधिकस्थितिषु, ततः पल्योपमासश्येयभागमात्रेणासङ्ख्येयवर्षायुषः खेचर|| तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया अन्तरद्वीपजतिर्यग्नराश्च ज्योतिष्कवर्जेषु, उपलक्षणमेतत् , ज्योतिष्कसौधर्मेशानवर्जेपूत्पद्यन्ते, न ज्योतिष्कादिष्वपि, अधिकस्थितिषूत्पादाभावात् , ज्योतिष्केषु हि जघन्यतोऽपि पल्योपमाष्टमभागः सौधर्मेशानयोश्च पल्योपमं स्थितिरिति, शेषास्त्वसङ्ख्येयवर्षायुषो हैमवतादिक्षेत्रभाविनस्तथा सुषमसुषमादिषु त्रिष्वरकेषु भरतैरवतभाविनश्च तिर्यग्मनुष्या निजायुषः समहीनायुष्केषु सर्वेष्वपीशानान्तेषु गच्छन्ति, तत ऊर्द्ध तु सर्वथा निषेधः, यत ईशानादूर्द्ध सनत्कुमारादिषु जघन्यतोऽपि सागरोपमद्वयादिकैव स्थितिः, अस- 18॥ ३२९॥ यातवर्षायुषां तिर्यमनुष्याणां पुनरुत्कर्षतोऽपि त्रीण्येव पल्योपमानीति ॥ १४ ॥ तापसा-वनवासिनो मूलकन्दफलाहारा बालतप For Private & Personel Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खिनः तेषामुपपात उत्कर्षतो भवति यावज्ज्योतिष्काः, तत ऊर्द्ध नोत्पद्यन्त इति भावः, तथा चरकपरिव्राजका-धाटिभैक्षोपजीविनखिदण्डिनः अथवा चरका:-कच्छोटकादयः परिव्राजकाः-कपिलमुनिसूनवः चरकाश्च परिव्राजकाच तेषामुत्कर्षत उपपातो यावद्ब्रह्मलोकः ॥ १५ ॥ जिनोक्तानि यानि ब्रतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि यच्चोत्कृष्ट-विशिष्टमष्टमादितपो याश्च क्रिया:-प्रतिदिनानुष्ठेयप्रत्युपेक्षणादिकाः एतैः सर्वैरपि भव्यानामभव्यानां च मिथ्यादृशां जीवानां देवेषूत्पद्यमानानामुत्कृष्टा गतिवेयकेषु, इयमत्र भावना-ये किल भव्या अभव्या वा सम्यक्त्वविकलाः सन्तः श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिङ्गधारिणश्च तेऽपि केवलक्रियाकलापप्रभावत उपरितनप्रैवेयकान् यावदुत्पद्यन्ते एव, असंयताश्चैते, सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वादिति, जघन्या तु गतिभवनपतिषु, एतञ्च देवेषत्पादापेक्षया द्रष्टव्यं, (प्रन्थाग्रं ८००) अन्यथा देवत्वादन्यत्रापि यथाध्यवसायमुत्पादो भवतीति ॥ १६ ॥ छाद्यते-आत्रियते यथाऽवस्थितमात्मनः स्वरूपं येन तच्छद्म-ज्ञानावरणीयादिकर्म तस्मिन् तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः ते च ते संयताश्च छद्मदि स्थसंयताः तेषामुत्कर्षत उपपातः सर्वार्थसिद्धे महाविमाने, श्रावकाणां-देशविरतिमनुष्याणां पुनरुपपात उत्कर्षतोऽच्युतं-द्वादशदेवलोकं यावदिति ॥ १७ ॥ उपपातो लान्तके-षष्ठदेवलोके चतुर्दशपूर्वधरस्य जघन्यतो भवति, उत्कृष्टतस्तु सर्वार्थसिद्धे, अकर्मकस्य-क्षीणाष्टकर्मणः पुनश्चतुर्दशपूर्विणः उपलक्षणत्वादन्येषां मनुष्याणां क्षीणकर्मणां सिद्धिगमो-मोक्षावाप्तिर्भवतीति ॥ १८ ॥ साधोः प्रव्रज्याकालादारभ्याविराधितश्रामण्यस्थ-अखण्डितसर्वविरतिरूपचारित्रस्य, श्रावकस्य चाविराधितश्रामण्यस्य-अखण्डितयथागृहीतदेशचारित्रस्य जघ न्यत उपपातः सौधर्म-प्रथमदेवलोके, केवलं तत्रापि साधोर्जघन्या स्थितिः पल्योपमपृथक्त्वं श्रावकस्य तु पल्योपममिति, तथा साधूनां 8| श्रावकाणां च निजनिजब्रतभङ्गे जघन्यत उपपातो वनचरादिषु, वनचरा-व्यन्तरास्तेषामादयः-प्रथमाः, भवनपतिव्यन्तरादिक्रमेणागमे BLOGGER BLOG Jain Education Interational For Private Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ ३३० ॥ देवानां प्रसिद्धत्वात् भवनपतय इत्यर्थः तेषु तथा चोकं प्रज्ञापनायां " विराहियसंजमाणं जहनेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे” तथा “विराहियसंजमासंजमाणं जहन्त्रेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं जोइसिएसु"त्ति अत्र च 'विराधितसंयमानां विराधित:सर्वात्मना खण्डितो न पुनः प्रायश्चित्तप्रतिपस्या भूयः संधितः संयमः संयमासंयमश्च यैस्ते तथा तेषां ॥ १९ ॥ शेषाणां तापसादीनां - तापसचरकपरिव्राजकादीनां जघन्यत उपपातो जिनैः - तीर्थकरैर्भणितो व्यन्तरेषु प्रज्ञापनायां तु तापसादीनां 'जहत्रेणं भवणवासीसु' इत्युक्तं, स पुनरुपपातविधिर्निज क्रियास्थितानां - निज निजागमोक्तानुष्ठाननिरतानां न स्वाचारहीनानामिति १९० ॥ २० ॥ इदानीं 'एएसिं जत्तो आगइ'त्ति एकनवत्यधिकशततमं द्वारमाह नेरहयजुयलवज्जा एगिंदिसु इंति अवरगइजीवा । विगलत्तेणं पुण ते हवंति अनिरय अमरजुयला ॥ २१ ॥ हुंति हु अमणतिरिच्छा नरतिरिया जयलधम्मिए मोतुं । गन्भचउप्पयभावं पावंति अजुयलच उगइया ।। २२ ।। नेरइया अमरावि य तेरिच्छा माणवा य जायंति । मणुयत्तेणं वज्जित्तु जुयलधम्मियनरतिरिच्छे ॥ २३ ॥ 'नेरइये' त्या दिगाथात्रयं, नैरयिकयुगलधार्मिकवर्जिता अपरगतिजीवाः सङ्ख्यातवर्षायुषः एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्नराः सनत्कुमारादिदेवानामेकेन्द्रियेष्वनुत्पादात् भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवाच एकेन्द्रियेषु - पृथिव्यादिष्वागच्छन्ति, केवलं तथाभवस्खाभाव्याद्देवास्तेजोवायुवर्जितेषु पर्याप्तबादरेषु समायान्तीत्यवसेयं, तथा नैरयिकदेवयुगलधार्मिकवर्जितास्ते - तिर्यङ्नरजीवा विकलेन्द्रियत्वेन - द्वित्रिचतुरिन्द्रियत्वेन भवन्ति, द्वित्रिचतुरिन्द्रियेष्वागच्छन्तीति भावः ॥ २१ ॥ युगलधार्मिकांस्तिरश्च नरांश्च वर्जयित्वा शेषा नरा १९१ एकेन्द्रियादी४ नामागतिः गा. ११२१ -११२३ ॥ ३३० ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तियश्चश्च भवन्त्यमनस्कतिर्यञ्चः, उपलक्षणत्वादमनस्का मनुजाच, इदमुक्तं भवति-सत्यतिवर्षायुष्कनरतिर्यञ्च एवासंक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यनरेपूत्पद्यन्ते, न देवनारका इति, तथा युगलधार्मिकनरतिर्यग्वर्जिताश्चतुर्गतिका अपि जीवा गर्भजचतुष्पदभावं प्राप्नुवन्ति, केवलं देवाः सहस्रारादर्वाग् द्रष्टव्याः, आनतादिदेवानां मनुष्येष्वेवोत्पादात् , एवं शेषाणामपि गर्भजतिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां द्रष्टव्यं, जीवामिगमादौ | चतुर्गतिकजीवानां जलचरादिषूत्पादस्योक्तत्वात् ॥ २२ ॥ नैरयिका अमराश्च तथा युगलधार्मिकनरतिर्यग्वर्जितास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च मनुजत्वेन-गर्भजमनुष्यत्वेनोत्पद्यन्ते १९१ ॥ २३ ॥ सम्प्रति 'उप्पत्तिमरणविरहो जायंतमरंतसंखा उत्ति द्विनवतित्रिनवत्यधिकशततमं द्वारयुग्ममाह भिन्नमुहुत्तो विगलेंदियाण संमुच्छिमाण य तहेव । बारस मुहुत्त गम्भे सवेसु जहन्नओ समओ ॥ २४ ॥ उच्चद्दणावि एवं संखा समएण सुरवरु तुल्ला । नरतिरियसंख सवेसु जति सुरनारया गन्भे ॥ २५॥ वारस मुहुत्त गम्भे मुहुत्त सम्मुच्छिमेसु चउवीसं । उक्कोसविरहकालो दोसुवि य जहनओ समओ॥ २६॥ एमेव य उबद्दणसंखा समएण सुरवरतुल्ला । मणुएK उववज्जेऽसंखाउय मोत्तु सेसाओ॥२७॥ 'भिन्ने'त्यादिगाथाचतुष्कं, विकलेन्द्रियाणां-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां सम्मूर्छिमाणां च-असंक्षिपञ्चेन्द्रियाणां तिरश्चां प्रत्येकं भिन्नःखण्डो मुहूर्तोऽन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः, उत्कृष्ट उपपातविरहकालः, तथा 'गब्भे'त्ति गर्भजपञ्चेन्द्रियतिरश्चामुत्कृष्ट उपपातविरहकालो द्वादश मुहूर्ताः, जघन्यतः पुनः सर्वेष्वपि विकलेन्द्रियादिषूपपातविरहकाल एकसमयः ॥ २४ ॥ विकलेन्द्रियाणां सम्मूर्छ जानां गर्भव्यु - in Education Eternatidal For Private & Personal use only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- -koLACK १९२-१९३ उत्पत्तिमर णविरहा जातमृतसंख्या च गा. ११२४-७ प्रव. सा-1 कान्तानां च पञ्चेन्द्रियतिरश्चा उपपातविरहकालसमतया उद्वर्तनापि-उद्वर्तनाविरहकालोऽपि वक्तव्यः, तथा एतेषामेव द्वीन्द्रियादीनामेकेन रोद्धारे ४ समयेन-एकस्मिन् समये उपपाते उद्वर्तनायां च सङ्ख्या सुरवरैस्तुल्या भणनीया, सा चैवं-'एगो व दो व तिन्नि व संखमसंखा य तत्त्वज्ञा- द एगसमएणं । उववज्जन्तेवइया उब्वटुंतावि एमेव ॥ १॥ तथा नरास्तिर्यञ्चश्च सङ्ख्यातवर्षायुषः सर्वेष्वपि स्थानेषु यान्ति, चतसृष्वपि नवि० | गति घूत्पद्यन्ते इति भावः, 'सुरनारया गम्भे'त्ति सूत्रस्य सूचामात्रपरत्वात् सुरा नारकाश्च गर्भजपर्याप्तसङ्ख्यातवर्षायुष्कतिर्यमनुष्येषु गच्छन्ति, नान्यत्र, नवरं सुरा एकेन्द्रियेष्वपि, उक्तं च-'बायरपज्जत्तेसुं सुराण भूदगवणेसु उप्पत्ती । ईसाणताणं चिय तत्थवि न उ ॥३३१॥ उडगाणंपि ॥ १॥॥२५॥ उक्तस्तिरश्चामुपपातच्यवनयोविरहकाल एकसमयसङ्ख्या च प्रसङ्गतः सामान्येन गतिद्वारं च, अथ मनुप्याणामेतदेवाह-'बारसे'त्यादि, गर्भजेषु मनुष्येषु उत्कर्षत उपपातविरहकालो द्वादश मुहूर्ताः, संमूछिममनुष्येषु चतुर्विंशतिर्मुहूर्ताः, जघन्यतस्तूभयत्राप्येकः समयः, तथा उद्वर्त्तनाऽपि-उद्वर्तनाविरहकालोऽप्येवमेव-उपपातविरहकालवद्वेदितव्यः, सङ्ख्या पुनरेकस्मिन् समये उत्पद्यमानानामुद्वर्तमानानां च नराणां सुरवरैस्तुल्या, सा चैवं-'एगो व दो व तिन्नि व संखमसंखा उ एगसमएणं । उववजंतेवइया | उव्वदृतावि एमेव ॥ १॥ इति, नवरमसङ्ख्यातत्वं सामान्यतो गर्भजसम्मूर्छिमसङ्ग्रहापेक्षया द्रष्टव्यं, तथा असङ्ख्यातवर्षायुषो नरतिरश्चः | उपलक्षणत्वात् सप्तमपृथिवीनारकतेजोवायूंश्च मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि सुरनरतिर्यनारका मनुष्येपूत्पद्यत इति । १९२-१९३ ॥ २६ ॥ ॥ २७ ॥ सम्प्रति 'भवणवइवाणमन्तरजोइसियविमाणवासिदेवाण ठिइ'त्ति चतुर्नवत्यधिकशततमं द्वारमाह भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिणो देवा । दस १ अट्ट २ पंच ३ छच्चीस ४ संखजुत्ता कमेण इमे ॥२८॥ असुरा १ नागा २ विजू ३ सुवन्न ४ अग्गी ५ य वाल ६ थणिया ७ य । उदही ANSLAMSARAM RERNAGALLERAL ॥३३१॥ For Private & Personel Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ दीव ९ दिसाविय १० दस भेया भवणवासीणं ॥ २९ ॥ पिसाय १ भूया २ जक्खा ३ य रक्खसा ४ किन्नरा ५ य किंपुरिसा ६। महोरगा ७ य गंधवा ८ अट्ठविहा वाणमंतरिया ॥३०॥ अणपन्निय १ पणपन्निय २ इसिवाइय ३ भूयवाइए ४ चेव । कंदिय ५ तह महकंदिय ६ कोहंडे ७ चेव पयगे ८ य ॥३१॥ इय पढमजोयणसए रयणाए अट्ठ वंतरा अवरे । तेसु इह सोलसिंदा रुयगअहो दाहिणुत्तरओ ॥ ३२॥ चंदा १ सूरा २ य गहा ३ नक्खत्ता ४ तारया ५ य पंच इमे । एगे चलजोइसिया घंटायारा थिरा अवरे ॥ ३३ ॥ सोहंमी १ साण २ सणंकुमार ३ माहिंद ४ बंभलोयभिहा ५। लंतय ६ सुक्क ७ सहस्सार ८ आणय ९प्पाणया १० कप्पा ॥ ३४ ॥ तह आरण ११ अचुया १२ विहु इम्हि गेविज्जवरविमाणाई। पढमं सुदरिसणं १३ तह बिईयं सुप्पबुद्धति १४ ॥ ३५॥ तइयं मणोरम १५ तह विसालनामं १६ च सवओभई १७ । सोमणसं १८ सोमाणस १९ महपीइकरं च २० आइचं २१ ॥ ३६॥ विजयं च २२ वेजयंतं २३ जयंत २४ मपराजियं २५ च सवढे २६ । एयमणुत्तरपणगं एएसिं चउधिहसुराणं ॥ ३७॥ चमरबलि सारमहियं सेसाण सुराण आउयं वोच्छं । दाहिणदिवड्डपलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं ॥ ३८॥ अछुट्ट अद्धपंचमपलिओवम असुरजुयलदेवीणं । सेसवणदेवयाण य देसूणद्धपलियमुक्कोसं ॥ ३९ ॥ दस भवणवणयराणं वाससहस्सा ठिई जहणणं । पलिओवममुक्कोसं वंतरियाणं वियाणिज्जा ॥४०॥ Jan Education Interational For Private Personel Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे नवि० ॥३३२॥ AGRA% A5%ARA पलियं सवरिसलक्खं ससीण पलियं रवीण सयंसहस्सं। गहणक्खत्तताराण पलियमद्धं च १९४ भवउन्भागो ॥४१॥ तद्देवीणवि तहिइअद्धं अहियं तमंतदेविदुगे। पाओ जहन्नमवसु तारयतारी- नपत्यादीणमटुंसो॥४२॥ दो साहि सत्त साहिय दस चउदस सत्तरेव अयराई । सोहम्मा जासुको नास्थितिः तदुवरि एककमारोवे ॥४३॥ तेत्तीसऽयरुकोसा विजयाइसु ठिइ जहन्न इगतीसं । अजहन्नमणु गा. कोसा सबढे अयर तेत्तीसं ॥४४॥पलियं अहियं सोहंमीसाणेसुं तओहकप्पठिई। उवरिलंमि ११२८-४६ जहन्ना कमेण जावेक्तीसऽयरा ॥४५॥ सपरिग्गहेयराणं सोहमीसाण पलियसाहीयं । उक्कोस सत्त वन्ना नव पणपन्ना य देवीणं ॥४६॥ 'भवणे'त्यादिगाथा एकोनविंशतिः, दीव्यन्तीति देवाः-प्राग्भवोपात्तपुण्यप्राग्भारोपनतविशिष्टभोगसुखाः प्राणिविशेषाः, ते च मूलभे-13 दतस्तावञ्चतुर्विधाः, तद्यथा-भवनपतयो व्यन्तरा ज्योतिष्का विमानवासिनश्च, तत्र भवनानां पतयः-तन्निवासित्वात्स्वामिनो भवनपतयः, तन्निवासित्वं च बाहुल्यतो नागकुमाराद्यपेक्ष्या द्रष्टव्यं, ते हि प्रायो भवनेषु वसन्ति कदाचिदावासेषु, असुरकुमारास्तु प्राचुर्येणावासेषु कदाचिद्भवनेषु, भवनानामावासानां चायं विशेष:-भवनानि बहिर्वृत्तान्यन्तः समचतुरस्राणि अधःकर्णिकासंस्थानानि, आवासास्तु कायमानस्थानीया महामण्डपा विचित्रमणिरत्नप्रभाभासितसकलदिकका इति । तथा विविधमन्तरं-शैलान्तरं कन्दरान्तरं बनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते वनान्तराः, यदिवा विगतमन्तरं-विशेषो मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः, तथाहि-मनुष्यानपि चक्रवर्तिवासुदेवप्रभृ- ॥३३२॥ तीन् भृत्यवदुपचरन्ति केचिद्व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यो विगतान्तराः, प्राकृतत्वाच सूत्रे 'वाणमंतरा' इति पाठः, यद्वा 'वानमन्तरा' इति For Private Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदसंस्कारः, तत्रापि वनानामन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः, पृषोदरादित्वादुभयपदान्तरालपी मागमः, इदं तु व्युत्पत्तिनिमित्तं प्रवृत्तिनिमित्तं तु सर्वत्रापि जातिभेद एवानुसर्तव्यः । तथा द्योतयन्ति-प्रकाशयन्ति जगदिति ज्योतींषि-विमानानि तेषु भवा ज्योतिष्काः । तथा विविधं मान्यन्ते-उपभुज्यन्ते पुण्यवद्भिर्जीवैरिति विमानानि तेषु वसन्ती येवंशीला विमानवासिनः । एते च भवनपत्यादयो देवाः 'क्रमेण यथासङ्ख्यं दशाष्टपञ्चषडिंशतिसर्भेदैर्युक्ता भवन्ति ॥ २८ ॥ सम्प्रयेतानेव क्रमेण भेदाननिधित्सुः प्रथमं तावद्भवनपतिभेदानाह–'असुरे'त्यादि, भवनवासिनां अवान्तरजातिभेदमधिकृत्य दश भेदा भवन्ति, तद्यथा-'असुरा' इति पदैकदेशे | पदसमुदायोपचारादसुरकुमाराः एवं नागकुमारा इत्याद्यपि परिभावनीयं, अथ कस्मादेते कुमारा इति व्यपदिश्यन्ते ?, उच्यते, कुमार४ वच्चेष्टनात् , तथाहि-सर्व एवैते कुमारा इव शृङ्गाराभिप्रायकृतविशिष्टोत्तरोत्तररूपक्रियासमुद्धतरूपवेषभाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहना | अत्युल्बणरागाः क्रीडनपराश्व, ततः कुमारा इव कुमारा इति, गाथानुबन्धानुलोम्यादिकारणाच कुतश्चिदेते एवं पठिताः, प्रज्ञापनादौ त्वमुनैव क्रमेण पठ्यन्ते, तथाहि-"असुरा नाग सुवन्ना विजू अग्गी य दीव उदही य । दिसिपवणथणियनामा दसहा एए भवण४वासी ॥१॥" ॥ २९ ॥ व्यन्तरभेदानाह-'पिसाये'त्यादि, सुगमा ॥ ३० ।। इहापरेऽप्यष्टौ व्यन्तरभेदाः सन्तीत्यतस्तानप्याह 'अणे'त्यादिगाथाद्वयं, अप्रज्ञप्तिकाः पञ्चप्रज्ञप्तिकाः ऋषिवादिताः भूतवादिताः क्रन्दिताः महाक्रन्दिताः कूष्माण्डाः पतङ्गाश्चेत्येवमपरेपिशाचादिव्यतिरिक्ता अष्टौ व्यन्तरनिकायाः, रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमे-उपरितने योजनश ते भवन्ति, एतदुक्तं भवति-रत्नप्रभाया उपरितने रत्नकाण्डरूपे योजनसहस्रे अध उपरि च प्रत्येकं योजनशतरहिते पिशाचादयोऽष्टी व्यन्तरनिकायाः सन्ति, तत्र च यदुपरि योजनशतं मुक्तं तत्राध उपरि च दशयोजनरहि तेऽप्रज्ञप्तिकादयोऽष्टाविति, तेषु च-अप्रज्ञप्तिकादिष्वष्टसु व्यन्तरनिकायेषु रुचकस्याधस्ता Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ &AC प्रव० सारोद्धारे तत्वज्ञानवि० १९४ भवनपत्यादीनांस्थितिः गा. ११२८-४६ ॥३३३॥ SONUSANSARKARISMALAM दक्षिणत उत्तरतश्च द्वयोर्द्वयोरिन्द्रयोर्मावात् षोडश इन्द्रा भवन्ति, एवं पिशाचादिष्वप्यष्टसु षोडश भवनपतिषु च दशसु विंशतिः, अत एव विंशतिर्भवनपतीन्द्राणां द्वात्रिंशतो व्यन्तरेन्द्राणां असङ्ख्यातत्वेऽपि चन्द्रार्काणां जातिमात्राश्रयणाद् द्वयोश्चन्द्रसूर्ययोज्योतिष्केन्द्रयोः दशानां च सौधर्मादिकल्पेन्द्राणां मीलने चतुःषष्टिरिन्द्रा इति ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ ज्योतिष्कभेदानाह-चंदे'त्यादि, चन्द्राः सूर्याः प्रहाः | नक्षत्राणि तारकाश्चेत्येवं पञ्च ज्योतिष्कभेदा भवन्ति, तत्र चैके-मनुष्यक्षेत्रवर्तिनो ज्योतिष्काश्चला-मेरोः प्रादक्षिण्येन सर्वकालं भ्रमण शीलाः अपरे पुनर्ये मानुषोत्तरपर्वतात्परेण स्वयंभूरमणसमुद्रं यावद्वर्तन्ते ते सर्वेऽपि स्थिराः-सदावस्थानस्वभावाः, अत एव घण्टाकारा | अचलनधर्मकत्वेन घण्टावत् स्थानस्था एव तिष्ठन्तीत्यर्थः ॥ ३३ ॥ वैमानिकभेदानाह-'सोहंमी'त्यादिगाथाचतुष्कं, इह वैमानिका | द्विविधा:-कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च, तत्र कल्पः-आचारः, स चात्र इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिव्यवस्थारूपः तं प्रतिपन्नाः कल्पोपपन्नाः, ते च द्वादश, तद्यथा-सौधर्मदेवलोकनिवासिनः सौधर्माः ईशानदेवलोकनिवासिन ईशानाः एवं सर्वत्रापि मावनीयं, भवति च 'तालथ्यात्तव्यपदेशो' यथा पश्चालदेशनिवासिनः पाञ्चाला इति, यथोक्तरूपं कल्पमतीता:-अतिक्रान्ताः कल्पातीताः-ौवेयका अनुत्तरविमानवासिनः, सर्वेषामपि तेषामहमिन्द्रत्वात् , तत्र लोकपुरुषस्य श्रीवाप्रदेशे भवानि विमानानि अवेयकानि, तानि च नव, तद्यथा-सुदर्शनं |१ सुप्रबुद्धं २ मनोरम ३ विशालं ४ सर्वतोभद्रं ५ सुमनः ६ सौमनसं ७प्रीतिकरं ८ आदित्यं ९ चेति, तथा न विद्यन्ते उत्तराणिप्रधानानि विमानानि येभ्यस्तान्यनुत्तराणि तानि च पञ्च, तद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तं अपराजितं सर्वार्थसिद्धं च, एतन्निवासिनो देवा एतन्नामानो द्रष्टव्याः, मिलिताश्च वैमानिकाः पर्डिशतिः । एतेषां मूलभेदापेक्षया चतुर्विधानां भवनपत्यादिदेवानां 'ठिइति स्थिति| रायुष्कलक्षणा प्रतिपाद्यते ॥ ३४ ॥ ३५॥ ३६॥ ३७॥ तामेवाह-चमरेत्यादि, इहासुरकुमारादयो दश भवनपतिनिकायाः, For Private & Personel Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education एकैके च द्विधा - मेरोर्दक्षिणदिग्भागवर्तिनो मेरोरेवोत्तर दिग्भागवर्तिनश्च तत्रासुरकुमाराणां दक्षिणदिग्भाविनामिन्द्रश्चमरः उत्तरदिग्भा विनां च बलिः, तत्र 'चमरबलि सारमहियं 'ति पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचारात् 'सार' मिति सागरोपमं द्रष्टव्यं प्राकृतत्वाश्ञ्चमरबलिशब्दाभ्यां परतः षष्ठीविभक्तेर्लोपः, ततोऽयमर्थः - चमरबल्योः क्रमेण सागरोपममधिकं चोत्कृष्टमायुः, किमुक्तं भवति ? - चमरस्यासुरेन्द्रस्य दक्षिणदिग्वर्तिन उत्कृष्टमायुरेकं परिपूर्ण सागरोपमं, बलेरसुरेन्द्रस्य उत्तरदिग्वर्तिनः सागरोपमं किञ्चित्समधिकमिति, सम्प्रति | शेषाणां चमरबलिव्यतिरिक्तानां सुराणां देवानां नागकुमाराद्यधिपतीनामित्यर्थः आयुर्वक्ष्ये, तदेव कथयति - ' दाहिणदिवडपलियं दो |देसूणुत्तरिल्लाणं' इत्यादि, दाक्षिणात्यानां नागकुमाराद्यधिपतीनां - धरणप्रमुखानां नवानामिन्द्राणामुत्कृष्टमायुः द्वितीयमर्ध यस्य तद् द्वष पल्योपमं, सार्धं पल्योपममित्यर्थः, 'उत्तरिल्लाणं'ति उत्तराहाणां - उत्तर दिग्भाविनां नागकुमारादीन्द्राणां भूतानन्दप्रभृतीनां नवानां देशोने - किञ्चिदूने द्वे पल्योपमे, उत्तरदिग्वर्तिनो होते स्वभावादेव शुभाश्विरायुषश्च भवन्ति, दक्षिणदिग्वर्तिनस्तु तद्विपरीता इति ॥ ३८ ॥ इत्युक्तं भवनवासिनां देवानां उत्कृष्टमायुः, सम्प्रति भवनवासिव्यन्तरदेवीनामाह - 'अजुट्ठे 'त्यादि, असुरयोः - असुरेन्द्रयोश्चमरवलिनाम्नोयुगलं असुरयुगलं तस्य देवीनां यथाक्रममुत्कृष्टमायुरर्धचतुर्थानि अर्धपञ्चमानि च पल्योपमानि चमरेन्द्रदेवीनां सार्धानि त्रीणि बलीन्द्रदेवीनां तु साधनि चत्वारि पल्योपमानीत्यर्थः, शेषाणां नागकुमाराद्यधिपतीनां तूत्तरदिग्वर्तिनां तथा 'वण'न्ति वनचराणां - व्यन्तराणामुत्तरदक्षिणदिग्वर्तिनां चशब्दात् दक्षिणदिग्भावि नागकुमाराद्यधिपतीनां च सम्बन्धिनीनां देवीनां यथाक्रममुत्कृष्टमायुर्देशोनं पस्यो - पममर्धपल्योपमं च इयमत्र भावना - उत्तरदिग्भाविनागकुमाराद्यधिपतिदेवीनामुत्कृष्टमायुर्देशोनं पल्योपमं दक्षिणदिग्भाविनागकुमाराद्यधिपतिदेवीनां दक्षिणोत्तरदिग्भाविव्यन्तरराधिपतिदेवीनां चोत्कृष्टमायुरर्ध पस्योपममिति, केचिद्व्यन्तरीणां पस्योपममुत्कृष्टमायुराहुः 444 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १९४ भवनपत्यादीनांस्थितिः ११२८-४६ ॥३४॥ 7-% "श्रीहीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योमस्थितय" इति वचनश्रवणात् , तच्च तेषामागमानवगमविजृम्भितं, यदुक्तं प्रज्ञापनायाम्"वाणमंतरीणं भंते! केवइकालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा! जहन्नेणं दस बाससहस्साई उकोसेणं अपलि भोवम"मिति, श्रीप्रभृतयस्तु भवनपतिदेव्यः, तथा च सङ्ग्रहणीटीकायां हरिभद्रसूरि:-"तासां भवनपति ने कायान्तर्गतत्वादिति ॥ ३९ ॥ अब भवनपतिज्यन्तरदेवदेवीनां जघन्यां व्यन्तरदेवानामुत्कष्टां च स्थितिमाह-दसे त्यादि, सूचकत्वात्सूत्रस्य 'भवण'त्ति भवनपतिदेवानां, उपलझणत्वात्तद्देवीनां च वनचराणां-व्यन्तरदेवानां तदेवीनां च जघन्येन स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि, जघनं-अधस्तानिकृष्टो भागः तत्र भवं जघन्यंरोममलादि तच्च किल स्तोकं ततोऽन्यदपि स्तोकं लक्षणया जघन्य मित्युच्यते, केवलं भावप्रधानत्वानिर्देशस्य जघन्येन-जपन्यतया सर्वस्तोकतयेत्यर्थः, तथा व्यन्तराणां-व्यन्तरदेवानामुत्कृष्टां स्थिति विजानीयात् पल्योपमप्रमाणां, तदेवीनां तु पल्योपमार्धमुत्कृष्टा स्थितिः प्रागेवोक्तेति ।। ४० ॥ सम्प्रति ज्योतिष्कदेवदेवीनामुत्कृष्टां जघन्यां च स्थितिमाह-'पलिये'त्यादिगाथाद्वयं, ज्योतिष्कदेवास्तावञ्चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकभेदात्पञ्चविधाः तदेव्योऽपि पञ्चविधा इति सर्वेऽपि दशविधाः, तत्र शशिनां-असायद्वीपसमुद्रवर्तिचन्द्रविमानवासि देवानां सवर्षलक्षं-वर्षाणां लक्षेणाधिकं पल्योपममुत्कृष्टमायु:, एवं रवीणां-आदित्यानामशेषाणां ससहस्र-वर्षाणां सहस्रेणाधिकं पस्योप|ममुत्कृष्टमायुः, तथा ग्रहनक्षत्रताराणां पल्योपमं पल्योपमा पल्योपमचतुर्भागश्च यथाक्रममुत्कृष्टमायुः, इयमत्र भावना-पहाणां-भौमबुधादीनां परिपूर्ण पल्योपमं नक्षत्राणां-अश्विन्यादीनां पल्योपमा तारकदेवानां च पल्योपमस्य चतुर्थो भाग उत्कृष्टमायुरिति, तथा तेषां -चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकदेवानां सम्बन्धिन्याः स्थितेरध-समप्रतिभागरूपं तेषामेव सम्बन्धिनीनां देवीनां क्रमेणोत्कृष्टमायु:, केवलमन्यदेवीद्विके-नक्षत्रतारकदेवीद्वये तदेवार्धमधिकं-विशेषाधिकमवसेयं, इदमुक्तं भवति-चन्द्रविमानवासिनीनां देवीनां पस्योपमा पश्चा A 4 % % * Jain Education Interational For Private Personel Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शवर्षसहस्राधिकं सूर्यदेवीनां पल्योपमा पञ्चवर्षशताधिकं प्रहदेवीनां च पूर्ण फ्ल्योगमार्धमुत्कृष्टमायुः, तथा नक्षत्रदेवीनां पल्योपमस्य 51 चतुर्थों भागो विशेषाधिकमुत्कृष्टमायुः, तारकदेवीनां पल्योपमस्याष्टमो भागः किश्चिदधिकमुत्कृष्टमायुरिति , तथा तारकदेवदेव्योः पृथगमिधानात् शेषेष्वष्टसु-चन्द्रादित्यप्रहनक्षत्रदेवतद्देवीरूपेषु भेदेषु पादः-पल्योपमस्य चतुर्थो भागो जघन्यमायुः, तथा तारकदेवानां तारकदेवीनां |च पल्योपमस्याष्टांश:-अष्टमो भाग इति ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ अथ वैमानिकदेवानामुत्कृष्टां स्थितिमाह-दो साही'यादि, सौधर्मात्सौधर्मकल्पाद्यावत् शुक्रो-महाशुक्रकल्पस्तावदनन क्रमेणोत्कृष्टा स्थितिः प्रतिपत्तव्या, तथाहि-सौधर्मे कल्पे देवानामुत्कृष्टा स्थितिढ़ें अतरे, तरीतुमशक्यं प्रभूतकालतरणीयत्वादतरं सागरोपमं, द्वे सागरोपमे इत्यर्थः, ईशाने ते एव द्वे सागरोपमे साधिकेकिश्चित्समधिके, सनत्कुमारे सप्त सागरोपमाणि, माहेन्द्रे तान्येव सप्त सागरोपमाणि साधिकानि, ब्रह्मलोके दश सागरोपमाणि लान्तके चतुर्दश महाशुक्रे सप्तदश, 'तदुवरि एकेकमारोवे' इति तस्य-महाशुक्रस्य कल्पस्योपरि सहस्रारादिषु प्रतिकल्पं प्रतिवेयकं च पूर्वस्मात् पूर्वस्मादधिकमेकैकं सागरोपमं उत्कृष्टायुश्चिन्तायामारोपयेत् , तद्यथा-सहस्रारेऽष्टादश सागरोपमाण्युत्कृष्टा स्थितिः आनते | एकोनविंशतिः प्राणते विंशतिः आरणे एकविंशतिः अच्युते द्वाविंशतिः अधस्तनाधस्तनौवेयके त्रयोविंशतिः अघस्तनमध्यमे चतुविंशतिः अधस्तनोपरितने पञ्चविंशतिः मध्यमाधस्तने षडिंशतिः मध्यममध्यमे सप्तविंशतिः मध्यमोपरितनेऽष्टाविंशतिः उपरितनाधस्तने एकोनत्रिंशत् उपरितनमध्यमे त्रिंशत् उपरितनोपरितनप्रैवेयके एकत्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा खितिः ॥ ४३ ॥ एकैकवृद्ध्या च एकत्रिंशतोऽनन्तरमनुत्तरेषु द्वात्रिंशदेव स्यात् अतस्तेषु पृथगाह-'तेत्तीसे'त्यादि, विजयादिषु-विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु चतुर्षु अनुत्तरविमानेषु त्रयस्त्रिंशदुतराणि-सागरोपमाण्युत्कृष्टा स्थितिः, जघन्या पुनरेतेषु विजयादिषु चतुर्पु एक Jan Education remation For Private Personal use only "www.gainelibrary.org Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३३५ ॥ Jain Education In त्रिंशत्सागरोपमाणि, तथा सर्वार्थसिद्धे त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यजघन्योत्कृष्टा स्थितिरिति ॥ ४४ ॥ अथ वैमानिकदेवानामेव जघन्यां स्थितिमाह - 'पलिय 'मित्यादि, इह यथाक्रमं पदसम्बन्धात् सौधर्मे कल्पे एकं पल्योपमं ईशाने तदेव किश्वित्समधिकं जघन्या स्थितिः, तत ऊर्द्ध सनत्कुमारादिषु चैवेयकानुत्तर विमानावसानेषु अधः कल्पस्थितिः - अधोवर्त्तिनः कल्पस्य वा उत्कृष्टा स्थिति: उपर्युपरिवर्त्तिमि सैव जघन्या स्थितिः, अनेन च क्रमेण तावत्प्रतिपत्तव्यं यावदेकत्रिंशदतराणि, तथाहि - यैव सौधर्मे सागरोपमद्वयरूपा उत्कृष्टा स्थितिः सैव तदुपरिवर्तिनि सनत्कुमारे जघन्या, यैव चेशाने सातिरेकसागरोपमद्वयस्वरूपा उत्कृष्टा स्थितिः सैव तदुपरिवर्तिनि माहेन्द्रे जघन्या, सनकुमारोत्कृष्टस्थितिस्तु सागरोपम सप्तकलक्षणा तदुपरिवर्तिनि ब्रह्मलोके जघन्या, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम् — 'बंभलोए कप्पे देवाणं केवइयकालं ठिई पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं सत्त सागरोवमाई” ति, तत्त्वार्थभाष्ये तु या माहेन्द्रे परा स्थितिर्विशेषाधिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवतीत्युक्तं, ब्रह्मलोकोत्कृष्टस्थितिस्तु दशसागरोपमात्मिका लान्तके जघन्या, लान्तकोत्कृष्टस्थितिरपि चतु| देशसागरोपमरूपा महाशुक्रे जघन्या, तदुत्कृष्टस्थितिस्तु सप्तदशसागरोपमस्वरूपा सहस्रारे जघन्या, तदुत्कृष्टस्थितिः पुनरष्टादशसागरोपमलक्षणा आनते जघन्या, तदुत्कृष्टस्थितिस्त्वेकोनविंशतिसागरोपमस्वरूपा प्राणते जघन्या, तदुत्कृष्टस्थितिरपि विंशतिसागरोपमात्मिका आरणे जघन्या, तदुत्कृष्टस्थितिस्त्वेकविंशतिसागरोपमस्वरूपा अच्युते जघन्या, तदुत्कृष्टस्थितिस्तु द्वाविंशतिसागरोपमरूपा अधस्तनाधस्तनग्रैवेयके जघन्या, एवमेकैकं सागरोपमं वर्धयता तावन्नेयं यावदनुत्तरचतुष्के - विजयवैजयन्तजयन्तापराजितरूपे एकत्रिंशत्सागरोपमाणि जघन्या, स्थितिः, सर्वार्थसिद्धे पुनर्जघन्या स्थितिर्नास्ति, अजघन्योत्कृष्टायास्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमरूपाया एव स्थितेस्तत्राभिधानादिति ॥४५॥ सम्प्रति वैमानिकदेवीनां जघन्यामुत्कृष्टां च स्थितिमाह - 'सपरी' त्यादि, इह वैमानिकदेवीनामुत्पत्तिः सौधर्मेशानयोरेव ताश्च द्विधा १९४ भवनपत्यादी नांस्थितिः गा. ११२८-४६ ॥ ३३५ ॥ w.jainelibrary.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिगृहीताः कुलाङ्गना इव अपरिगृहीताश्च वेश्या इव, तत्र सपरिग्रहाणां परिगृहीतानामितरासां च- अपरिगृहीतानां जघन्या स्थितिः सौधर्मे ईशाने च यथासङ्ख्यं पत्यं - पत्योपमं साधिकं च, किमुक्तं भवति ? - सौधर्मे परिगृहीतानां देवीनामपरिगृहीतानां च देवीनां जघन्यायुः पल्योपमं ईशाने परिगृहीतानामपरिगृहीतानां च देवीनां साधिकं पल्योपममिति, तथा सौधर्मे परिगृहीतानामपरिगृहीतानां ( प्रन्थानं १४००० ) चोत्कृष्टमायुर्यथाक्रमं सप्त पञ्चाशच पल्योपमानि ईशाने नव पञ्चपञ्चाशच, इयमत्र भावना - सौधर्मे परिगृहीतानामुत्कृष्टमायुः सप्त पल्योपमानि अपरिगृहीतानां पञ्चाशत्, ईशाने परिगृहीतानामुत्कृष्टमायुर्नव पल्योपमानि अपरिगृहीतानां च पञ्चपञ्चाशदिति १९४ ॥ ४६ ॥ सम्प्रति 'भवण'त्ति पञ्चनवत्यधिकशततमं द्वारमाह सत्तेव य कोडीओ हवंति बावत्तरी सयसहस्सा । एसो भवणसमासो भवणवईणं वियाणिज्जा ॥ ४७ ॥ चउसट्ठी असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीई । बावन्तरि कणगाणं वा कुमाराण छन्नउई ॥ ४८ ॥ दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिंदथणियअग्गीणं । छण्हंपि जुयलाणं वाषत्तरिमो सयसहस्सा ॥ ४९ ॥ इह संति वणयराणं रम्मा भोमनयरा असंखिज्जा । तत्तो संखिज्जगुणा जोइसियाणं विमाणाओ ॥ ५० ॥ बत्तीसऽट्ठावीसा बारस अट्ठ य चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोया विमाणसंखा भवे एसा ॥ ५१ ॥ पंचास चत्त छच्चेव सहस्सा लंत सुक्क सहस्सारे । सय चउरो आणयपाणएसु तिन्नारणचुयए ॥ ५२ ॥ एक्कारसुत्तरं हेडिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३३६ ॥ यमेगं वरिम | पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥ ५३ ॥ चुलसीई सयसहस्सा सत्ताणउई भवे सहस्साइं । तेवीसं च विमाणा विमाणसंखा भवे एसा ॥ ५४ ॥ भवनवासिनां देवानां दशत्वपि निकायेषु सम्पिण्ड्य चिन्त्यमानानि सर्वाण्यपि भवनानि सप्त कोटयो द्वासप्ततिश्च शतसहस्राणि - लक्षाः भवन्ति ७७२००००० एष भवनपतीनां भवनसमासो - भवनसर्वसङ्ख्या इति विजानीयात्, एतानि च अशीतिसहस्राधिकलक्षयोजनबाहल्याया रत्नप्रभाया अध उपरि च प्रत्येकं योजनसहस्रमेकं मुक्त्वा शेषेऽष्टसप्तति सहस्राधिक लक्ष योजनमाने मध्यभागेऽवगन्तव्यानि, अन्ये त्वाहु:-नवतेयोजन सहस्राणामधस्ताद्भू वनानि, अन्यत्र चोपरितन मधस्तनं च योजन सहस्रं मुक्त्वा सर्वत्रापि यथासम्भवमावासा इति ॥ ४७ ॥ सम्प्रति भवनवासिनामेव प्रतिनिकायं भवनसङ्ख्यामाह – 'च' इत्यादि, असुराणां - असुरकुमाराणां दक्षिणोत्तरदिग्भाविनां सर्वसङ्ख्यया भवनानि चतुःषष्टिः शतसहस्राणि - उक्षा भवन्ति, एवं नागकुमाराणां चतुरशीतिर्लक्षाः कनकानां - सुवर्ण| कुमाराणां द्विसप्ततिर्लक्षाः वायुकुमाराणां षण्णवतिलक्षाः द्वीपकुमार दिकुमारोदधिकुमार विद्युत्कुमारस्त नितकुमाराग्निकुमाराणां षण्णामपि | दक्षिणोत्तरदिग्वर्तिलक्षणयुग्मरूपाणां प्रत्येकं षट्सप्तति: षट्सप्ततिर्लक्षा भवन्ति भवनानां एषां च सर्वेषामप्येकत्र मीलने प्रागुक्ताः सङ्ख्या भवन्ति ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ सम्प्रति व्यन्तरनगरव कव्यतामाह – 'इहेत्यादि, इह - तिर्यग्लोके रत्नप्रभायाः प्रथमे योजनसहस्रे रत्नकाण्डरूपे अध उपरि च प्रत्येकं योजनशतविरहिते वनचराणां त्र्यन्तराणां रम्याणि - रमणीयानि भूमौ भवानि भौमानि - भूम्यन्तर्वर्ती नि नगराण्य सङ्ख्यातानि सन्ति, रम्यता चैतेषु नित्यमुदितैर्व्यन्तरैर्गतस्यापि कालस्यावेदनात्, यदाह - " तर्हि देवा वंतरिया वरतरुणीगीयवाइयरवेणं । निचं सुहिया पमुइया गयंपि कालं न याणंति ॥ १ ॥” [ तत्र देवा व्यन्तरा वरतरुणीगीतवादित्ररवेण । नित्यं सुखितप्र १९५ भव नपत्यादीनां भवना नि गा. ११४७-५४ ॥ ३३६ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदिता गतमपि कालं न जानन्ति ॥ १ ॥ ] यास्तु मनुष्यक्षेत्राद्वहिद्वपेषु समुद्रेषु च व्यन्तराणां नगर्यस्ता जीवाभिगमादिशास्त्रेभ्योऽवसेयाः, तेभ्योऽपि व्यन्तरनगरेभ्यः सङ्ख्येयगुणानि ज्योतिष्काणां ज्योतिष्कदेवानां विमानानि ॥ ५० ॥ सम्प्रति वैमानिकदेव विमानानां सङ्ख्यामाह - 'बत्तीसे' त्यादि गाथाचतुष्कं ब्रह्मलोकाद्- ब्रह्मलोकचरमपर्यन्तादारत:- अर्वाक् किमुक्तं भवति ? - त्रह्मलोकमभिव्याप्य एषा विमानसा भवति, तद्यथा - सौधर्मे कल्पे द्वात्रिंशद्विमानानां शतसहस्राणि ईशानेऽष्टाविंशतिः सनत्कुमारे द्वादश माहेन्द्रेऽष्टौ ब्रह्मलोके चत्वारि ॥ ५१ ॥ तथा - 'पंचासेत्यादि, अत्रापि पूर्वार्धे कल्पक्रमेण सङ्ख्यापदयोजना, लान्तके पश्चाशद्विमानानां सहस्राणि महाशुक्रे चत्वारिंशत् सहस्रारे षट् सहस्राः, तथा आनतप्राणतयोर्द्वयोः समुदितयोश्चत्वारि विमानशतानि तथा आरणाच्युतयोर्द्वयोः समुदितयोस्त्रीणि विमानशतानि ॥५२॥ तथा - ' एगारे 'त्यादि, अधस्तनेषु त्रिषु ग्रैवेयकेषु समुदितेषु विमानानामेकादशोत्तरं शतं मध्यमे मैवेयकत्रिके समुदिते सप्तोत्तरं शतं उपरितनयैवेयकत्रिके समुदिते शतमेकं, सर्वान्तिमप्रतरे तु विजयादीनि पश्चैवानुत्तरविमानानि ॥ ५३ ॥ अथ विमानानां सर्वसङ्ख्यामाह - 'चुलसीई 'त्यादि, अनन्तरगाथात्रयाभिहितानां विमानानामेषा सर्वसङ्ख्या- चतुरशीतिः शतसहस्राणि सप्तनवतिः सहस्राणि त्रयोविंशतिश्च विमानानीति ( ८४९७०२३ ) १९५ ॥ ५४ ॥ सम्प्रति 'देहमाणं'ति षण्णवत्यधिकशततमं द्वारमाह भवणवण जोइसोहम्मीसाणे सत्त हुंति रयणीओ । एक्केक्कहाणि सेसे दुदुगे य दुगे चउक्के य ॥५५॥ गेविजे दोन य एगा रयणी अणुत्तरेसु भवे । भवधारणिज एसा उक्कोसा होइ नायवा ॥ ५६ ॥ सवेसुक्कोसा जोयणाण वेडविया सयसहस्सं । गेविज्जणुत्तरेसुं उत्तरवेउचिया नत्थि ॥ ५७ ॥ अंगुअसंखभागो जहन्न भवधारणिज्ज पारंभे । संखेज्जा अवगाहण उत्तरवेउधिया सावि ॥ ५८ ॥ ww.jainelibrary.org Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ 'भवणे' त्या दिगाथाचतुष्टयं, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानेषु देवानामुत्सेधाङ्गुलेन देहमानमुत्कर्षतः सप्त रत्नयो - हस्ता भवन्ति, | शेषे द्विके द्विके द्विके चतुष्के च एकैकहानिः - एकैकहस्तविषया हानिर्वक्तव्या, तद्यथा - सनत्कुमारमाहेन्द्रयोरुत्कर्षतः षट् हस्ताः शरीरप्रमाणं ब्रह्मलोकलान्तकयोः पञ्च शुक्रसहस्रारयोश्चत्वारः आनतप्राणतारणाच्युतेषु त्रय इति, तथा ग्रैवेयकेषूत्कर्षतः शरीरप्रमाणं द्वौ ★ रत्नी एकश्च रत्निरनुत्तरेषु भवेत्, एषा च सप्तहस्तप्रमाणादिका उत्कृष्टावगाहना भवधारणीया वेदितव्या ।। ५५ ।। ५६ ।। साम्प्रतमुत्त४ वैक्रिय रूपावगाहनामानमाह - 'सबैसु' इत्यादि, भवनपत्यादिषु अच्युतदेवलोकपर्यन्तेषु सर्वेषामपि देवानामुत्तरवैक्रिया तनुरुत्कर्षतो ॥ ३३७ ॥ हे योजनानां शतसहस्रं, योजनलक्षप्रमाणा भवतीत्यर्थः, प्रैवेयकेषु अनुत्तरेषु च देवानामुत्तरवैक्रिया तनुर्नास्ति, सत्यामपि शक्तौ प्रयोजना प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० भावतस्तदकरणात्, उत्तरवैक्रियं ह्यत्र गमनागमननिमित्तं परिचारणानिमित्तं वा क्रियते, न चैतेषामेतदस्तीति ॥ ५७ ॥ सम्प्रति जबन्यतो भवधारणीयामुत्तरवैक्रियां चाह - 'अंगुले 'त्यादि, सर्वेषामपि भवनपत्यादीनां भवधारणीया - स्वाभाविक्यवगाहना जघन्याऽङ्गुलस्यासङ्ख्येयो भागः, सा च प्रारम्भे उत्पत्तिप्रथमसमये समवसेया, उत्तरवैक्रिया पुनरवगाहना जघन्याऽङ्गुलस्य सङ्ख्येयो भागः, पर्याप्तत्वेन तस्य तथाविधजीवप्रदेशसङ्कोचाभावात्, साऽपि प्रारम्भे उत्तरवैक्रियशरीरनिर्माणप्रथमसमये द्रष्टव्या १९६ ॥ ५८ ॥ साम्प्रतं 'लेसाउ' ति सप्तनवत्यधिकशततमं द्वारमाह fever नीला काऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहंमीसाण तेऊलेसा मुणेयवा ॥ ५९ ॥ कप्पे सणकुमारे माहिंदे चेव बंभलोए य । एएसु पम्हलेसा तेण परं सुक्कलेसाओ ॥ ६० ॥ भवनपतयो व्यन्तराश्च कृष्णनीलकापोततेजोलेश्याकाः, कृष्णा नीला कापोती तैजसी चैषां लेश्या भवन्तीत्यर्थः, तत्रापि परमाधा १९६ देव देहमानं १९७ देवा नां लेश्या गा. १०५५-६० ॥ ३३७ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिकाः कृष्णलेश्याः, तथा ज्योतिष्केषु सौधर्मेशानयोश्च देवास्तेजोलेश्याका ज्ञातव्याः, तथा सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकाख्येषु त्रिषु कल्पेषु देवाः पद्मलेश्याकाः, ततो-ब्रह्मलोकात्परं-ऊर्द्ध लान्तकादिषु अनुत्तरविमानान्तेषु देवाः शुक्ललेश्या ज्ञातव्याः, सर्वा अपि लेश्या यथोत्तरस्थानं विशुद्धविशुद्धतरा बोद्धव्याः, एताश्च भावलेश्याहे तवो भवस्थिताः कृष्णादिद्रव्यरूपा द्रव्यलेश्या एवेह प्रतिपत्तव्याः न |भावलेश्याः, तासामनवस्थितत्वात् , नापि बाह्यवर्णरूपा, बाह्यवर्णस्य देवानां प्रज्ञापनादौ पार्थक्येनोक्तत्वात् , एतच्च नारकलेश्याद्वारे प्रागेवोक्तं, भावलेश्यास्तु देवानां प्रतिनिकायं यथासम्भवं षडपि भवन्ति, तथा च तत्त्वार्थमूलटीकायां हरिभद्रसूरि:-"भावलेश्याः। षडपीष्यन्ते देवानां प्रतिनिकाय"मिति १९७ ॥ ५९॥ ६० ॥ इदानीं 'ओहिनाणं'त्यष्टनवत्यधिकशततमं द्वारमाह सक्कीसाणा पढमं दोचं च सणंकुमारमाहिंदा । तच्चं च बंभलंतग सुकसहस्सारय चउत्थि ॥१॥ आणयपाणयकप्पे देवा पासंति पंचमी पुढवीं । तं चेव आरणचुय ओहिणाणेण पासंति ॥ २॥ छलुि हिटिममज्झिमगेविजा सत्तमि च उवरिल्ला । संभिन्नलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा ॥६३ ॥ एएसिमसंखेजा तिरियं दीवा य सागरा चेव । बहुययरं उवरिमया उहुंच सकप्पथूभाई ॥ ६४ ॥ संखेज्जजोयणाई देवाणं अद्धसागरे ऊणे । तेण परमसंखेजा जहन्नयं पन्नवीसं तु ॥६५॥ भवणवइवणयराणं उर्दु बहुओ अहो य सेसाणं । जोइसिनेरइयाणं तिरियं ओरालिओ चित्तो॥६६॥ 'सक्की'त्यादिगाथाषटुं, शक्रेशानौ-सौधर्मेशानकल्पेन्द्रौ उपलक्षणमेतत् इन्द्रसामानिकादयश्वोत्कृष्टायुषः, एवमन्यत्राप्युपलक्षणव्याख्यानं SANEL- RECAUTARIES Jain Education Intematika For Private & Personel Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " X - प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १९८ देवा| नामवधिः 5 - 6 I १०६१-६६ 4 ॥३३८॥ द्रष्टव्यं, प्रथमां-रत्नप्रभाख्यां पृथिवीं यावत्, रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सर्वाधस्तनं भाग यावदुत्कृष्टतोऽवधिना पश्यतः, सनत्कुमारमाहेन्द्राविन्द्रौ द्वितीयां-शर्कराप्रभां पृथिवीं यावत् , शर्कराप्रभायाः पृथिव्या अधस्तनं सर्वान्तिमं चरमं भागं यावदित्यर्थः, एवमुत्तरत्रापि भावनीयं, ब्रह्मलोकलान्तकौ तृतीयां-वालुकाप्रभा यावत् , शुक्रसहस्रारौ चतुर्थी पङ्कप्रभा यावत् , तथा आनतप्राणतकल्पयोर्देवाः-इन्द्रतत्सामानिकादयः पञ्चमी पृथिवीं-धूमप्रभा याववधिना पश्यन्ति, आरणाच्युतदेवा अपि तामेव पञ्चमी पृथ्वीं यावत् , तथा आनतप्राणतदेवेभ्य आरणाच्युतदेवास्तामेव विशुद्धतरां बहुपर्यायां च, तत्राप्यानतदेवेभ्यः प्राणतदेवाः आरणदेवेभ्यश्चाच्युतदेवाः सविशेषां | पश्यन्ति, उत्तरोत्तरदेवानां विमलविमलतरावधिज्ञानसद्भावात् , एवं प्रागुत्तरत्र च सर्वत्र भावनीयं, तथा अधस्तनमध्यमवेयकाः 'आधेये आधारोपचारात्' तन्निवासिनो देवाः षष्ठीं-तमःप्रभां पृथिवीं यावत्पश्यन्ति, उपरितनप्रैवेयकवासिनो देवाः सप्तमी पृथिवीं यावत् , अनुत्तरविमानवासिनस्तु देवाः सम्भिन्नां-परिपूर्णा लोकनाडी-लोकमध्यवर्तिनी सनाडीमधस्तादवधिना पश्यन्ति, उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये-"अनुत्तरविमानवासिनस्तु कृत्स्ना लोकनालिं पश्यन्ती"ति, अन्ये तु स्वविमानध्वजादूर्द्धमदर्शनात् किञ्चिदूनां लोकनाडी पश्यन्तीत्याहुः, तदेवमधस्तादवधिविषयभूतं क्षेत्रमुक्तं ।। ६१ ।। ६२ ।। ६३ ।। सम्प्रति तदेव तिर्यगूई चाह 'एएसिमित्यादि, एतेषांशक्रेशानादिदेवानां तिर्यक्-तिरश्चीनमवधिविषयं क्षेत्रमसङ्ख्येया द्वीपाः सागराश्च, असङ्ख्यातान् द्वीपानसङ्ख्यातांश्च समुद्रानवधिना तिर्यक्पश्यन्तीत्यर्थः, केवलमेतदेव द्वीपसमुद्रासङ्ख्येयकं 'उवरिमया' इति उपर्युपरिवर्तिकल्पवासिनो देवा बहुकतरं, उपलक्षणमेतत् बहुकतम |च तिर्यगवधिना पश्यन्ति, उपर्युपरिदेवलोकनिवासिनां विशुद्धविशुद्धतरावधिज्ञानसद्भावात् , ऊर्द्ध पुनः सर्वेऽपि शक्रादयो देवाः स्वकल्पस्तूपादीन्-स्वखविमानचूलाध्वजादिकं यावत्पश्यन्ति न परतः, तथा भवस्खाभाव्यात् , जघन्यतः पुनरमी सर्वेऽपि सौधर्मादयोऽनुत्तरवि k% C BUR For Private & Personel Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न मानवासिपर्यन्ता अङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रं क्षेत्रं पश्यन्ति, तथा चावश्यकचूर्णि:-"वेमाणिया सोहम्माओ आरम्भ जाव सव्वट्ठसिद्धगा देवा ताव जहन्नण अंगुलस्स असंखेजइभागं ओहिणा जाणंति पासंति,” नन्वङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रक्षेत्रप्रमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति, सर्वजघन्यश्चावधिस्तिर्यग्मनुष्येष्वेव न शेषेषु, यदुक्तं-उक्कोसो मणुएसु मणुस्सतेरिच्छएसु य जहन्नो।' इति [ उत्कृष्टो मनु४ाव्येषु मनुष्यतिर्यक्षु च जघन्यः ] तत्कथमिह वैमानिकानां सर्वजघन्य उक्तः ?, उच्यते, सौधर्मादिदेवानां पारभविकोऽप्युपपातकालेऽ वधिः सम्भवति, स च सर्वजघन्योऽपि कदाचिदवाप्यते, उपपातानन्तरं तु देवभवप्रत्ययजः, ततो न कदाचिद्दोषः, यदाह जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः-"वेमाणियाणमंगुलभागमसंखं जहन्नओ होइ । उववाओ परभविओ तब्भवजो होइ तो पच्छा ॥ १॥ [वैमानिकानामङ्गुलासंख्यभागो जघन्यतो भवति । औपपातिकः ( उपपाते) पारभविकः तद्भवजो भवति तत् पश्चात् ॥ १॥] पारभविकत्वाचायं सूत्रकृता नोक्त इति ॥ ६४ ॥ उक्तं वैमानिकानामधस्तिर्यगूर्द्ध चावधिक्षेत्रं, अथ सामान्यतः शेषदेवानामाह-'संखेजे'|त्यादि, देवानां-भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्काणामर्धसागरोपमप्रमाणे किञ्चिदूनायुषि सति संख्येयान्येव योजनानि अवधिपरिच्छेद्यक्षेत्र, ततः परं संपूर्णार्धसागरोपमादिके आयुषि सति पुनः असङ्ख्येयानि योजनानि, केवलमायुर्वृद्ध्या योजनासङ्ख्यातकस्यापि वृद्धिर्वाच्या, जघन्यं तु पुनरवधिक्षेत्रं पञ्चविंशतियोजनानि, तानि च येषां सर्वजघन्यं-दशवर्षसहस्रप्रमाणं आयुस्तेषामेव भवनपतिव्यन्तराणां द्रष्टव्यानि न शेषाणां, आह च भाष्यकृत्-"पणवीसजोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जेसि'मिति [पञ्चविंशतिर्योजनानि दशवर्षसाहस्रिका स्थितिर्येषां ] ज्योतिष्काः पुनरसङ्ख्येयस्थितिकत्वाजघन्यतोऽपि सङ्ख्येययोजनप्रमितान् सङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानवधिज्ञानतः पश्य|न्ति, उत्कर्षतोऽपि तानेव, केवलमधिकतरान् , उक्तं च प्रज्ञापनायाम्-"जोइसिया णं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, Jan Education International For Private Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० १९९देवानामुत्पत्तिविरहः गा. १०६७-७१ ॥३३९॥ | गोयमा! जहन्नेणवि संखेजे दीवसमुद्दे उक्कोसेणवि संखेजे दीवसमुद्दे' इति ॥ ६५॥ अथ नारकतिर्यङ्नरामराणां मध्ये कस्य कस्यां | दिशि प्रभूतोऽवधिरिति प्रतिपादयन्नाह-'भवणे'त्यादि, भवनपतीनां व्यन्तराणां चावधिरूद्ध बहुकः-प्रभूतः, शेषासु च दिक्षु खल्प| विषय एवावधिः, एवमग्रेऽपि भावनीयं, शेषाणां तु वैमानिकदेवानां पुनरधः प्रभूतोऽवधिः ज्योतिष्कनारकाणां तिर्यक्प्रभूतः, तथा तिर्य ग्मनुष्याणां सम्बंध्यवधिरौदारिकावधिरुच्यते अयं तु चित्रो-नानाप्रकारः, केषाञ्चिदूर्द्ध बहुः अन्येषां त्वधः परेषां तु तिर्यक् केषाञ्चित् |तुल्य इति भावः १५८ ॥ ६६ ॥ सम्प्रति 'उप्पत्तीए विरहो'त्ति नवनवत्यधिशततमं द्वारमाह भवणवणजोइसोहमीसाण चउवीसई मुहुत्ता उ । उक्कोस विरहकालो सबेसु जहन्नओ समओ ॥ ६७ ॥ नव दिण वीस मुहुत्ता बारस दस चेव दिण मुहुत्ता उ । बावीसा अद्धं चिय पणयाल असीद दिवससयं ॥ ६८॥ संखिज्ज मास आणयपाणय तह आरणचुए वासा । संखेजा विनेया गेविजेसुं अओ वोच्छं ॥ ६९॥ हिडिमे वाससयाई मज्झिम सहसाई उवरिमे लक्खा । संखिजा विन्नेया जहसंखेणं तु तीसुंपि ॥ ७० ॥ पलिया असंखभागा उक्कोसो होइ विरहकालो उ । विजयाइसु निद्दिट्टो सब्वेसु जहन्नओ समओ ॥ ७१॥ 'भवणे'त्यादिगाथाचतुष्कं, इह भवनपत्यादिषु देवाः प्रायः सततमुत्पद्यन्ते कदाचिदेव त्वन्तरं, तच्च सामान्येन चतुर्विधेष्वपि समुदितेषु देवेषु द्वादश मुहूर्ताः, तदनन्तरमवश्यमन्यतमस्मिन् कश्चिद्देव उत्पद्यते एव, उक्तं च-गब्भयतिरिनरसुरनारयाण विरहो मुहुत्व बारसग" [गर्भजतिर्यङ्नरसुरनारकाणां विरहो मुहूर्तानां द्वादशकं ] मिति, विशेषतस्तु भवनवासिषु व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु सौधर्मे CARNATAKAAR ९॥ HainEducation For Private Personal use only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J OSHOROSCARRORSCREENCoat ईशाने च प्रत्येकमुत्कर्षत उपपातविरहकालश्चतुर्विंशतिर्मुहूर्ताः, इयमत्र भावना-भवनवास्यादिषु मध्ये प्रत्येकमेकस्मिन् बहुषु वा देवेषूत्पनेषु सत्सु अन्य उत्कृष्टमन्तरं चतुर्विशतिं मुहूर्त्तान् कृत्वा नियमतः समुत्पद्यते इति, जघन्यत उपपातविरहकालः सर्वेष्वपि भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानरूपेषु एकः समयः, किमुक्तं भवति ?-एतेषु पञ्चस्वपि स्थानेषु प्रत्येकमेकस्मिन् बहुषु वा समुत्पन्नेष्वन्यः समयमेकमन्तरं कृत्वा समुत्पद्यत इति, शेषः सर्वोऽप्युपपातविरहकालो मध्यमो वेदितव्य इति ॥ ६७ ॥ सनत्कुमारे कल्पे देवानामुत्कर्षत | उपपातविरहकालो नव दिनानि-रात्रिन्दिवानि विंशतिश्च मुहूर्ताः माहेन्द्रे द्वादश दिनानि दश च मुहूर्ताः ब्रह्मलोके सार्धानि द्वाविंशतिदिनानि लान्तके पञ्चचत्वारिंशद्दिनानि महाशुक्रेऽशीतिदिनानि सहस्रारे दिवसशतं-अहोरात्रशतं ॥ ६८ ॥ आनते प्राणते च प्रत्येकमुत्कर्षत उपपातविरहकालः सयेया मासाः, केवलमानतापेक्षया प्राणते प्रभूता वेदितव्याः, ते च वर्षादागेव, तथा आरणे अच्युते च प्रत्येक सङ्ख्येयानि वर्षाणि, नवरमत्राप्यारणापेक्षयाऽच्युते प्रभूतानि, तानि च वर्षशतादागेव, अतः परं अवेयकेपूत्कर्षत उपपातविरहकालं वक्ष्ये ॥ ६९ ॥ प्रतिज्ञातमेवाह-'हिडिमे'त्यादि, त्रिष्वपि अधस्तनमध्यमोपरितनप्रैवेयकत्रिकेषु यथासयेन सङ्ग्येयानि वर्षशतानि वर्षसहस्राणि वर्षलक्षाणि च विज्ञेयानि, तथाहि-अधस्तनौवेयकत्रिके उत्कृष्ट उपपातविरहकालः सयेयानि वर्षशतानि, तानि च वर्षसहस्रादारतः, मध्यमवेयकत्रिके सोयानि वर्षसहस्राणि, तानि च वर्षलक्षादर्वाक् , उपरितनप्रैवेयकत्रिके सत्येयानि वर्षलक्षाणि, तानि च वर्षकोट्या आरतो द्रष्टव्यानि, अन्यथा कोटीग्रहणमेव कुर्यादित्येवं सर्वत्र भावनीयं, इयं च व्याख्या हरिभद्रसूरिकृतसङ्ग्रहणीटीकानुसारतः, अन्ये तु सामान्येनैव व्याचक्षत इति ॥ ७० ॥ साम्प्रतमनुत्तरविमानेषु उपपातविरहकालमानमाह-'पलिये'त्यादि, विजयादिषुविजयवैजयन्तजयन्तापराजितरूपेषु चतुर्पु विमानेषूत्कृष्ट उपपातविरहकालोऽद्धापल्योपमासयेयभागः, तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात्स EKA4AAAAAAACAX En d an teman For Private Personel Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० २०० देवोइतनावि| रहः गा. १०७२ २०१संख्या गा. १०७३ ॥३४॥ र्वार्थसिद्धे पल्योपमस्य सङ्ख्येयो भागः, तथा च प्रज्ञापना-सव्वट्ठसिद्धदेवा णं भंते ! केवइकालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं पलिओवमस्स संखेजइभाग"मिति, जघन्यतः पुनः सर्वेष्वपि-सनत्कुमारादिष्वनुत्तरान्तेषु उपपातविरहकाल एकः समय इति १९९ ॥ ७१ ॥ सम्प्रति 'उबट्टणाए विरहो'त्ति द्विशततमं द्वारमाह___ उववायविरहकालो एसो जह वण्णिओ य देवेसु । उचटणावि एवं सवेसि होइ विनेया॥७२॥ उपपतनमुपपातः-तदन्यगतिकानां सत्त्वानां देवत्वेनोत्पादः तस्य विरहकाल:-अन्तरकालः एष:-चतुर्विंशतिमुहूर्तादिक उत्कृष्टो जघन्यतश्च यथा देवेषु प्रागुपवर्णितः एवं-अनेनैव प्रकारेण सर्वेषां देवानामुद्वर्तनाऽपि विज्ञेया, तद्यथा-भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानामुत्कृष्ट उद्वर्तनाविरहकालश्चतुर्विशतिर्मुहूर्ताः, सनत्कुमारे नव दिनानि विंशतिश्च मुहूर्ताः माहेन्द्रे द्वादश दिनानि दश च मुहूर्ताः ब्रह्मलोके सार्धा द्वाविंशतिर्दिनाः लान्तके पञ्चचत्वारिंशद्दिनाः शुक्रे अशीतिर्दिनाः सहस्रारे दिनशतं आनतप्राणतयोः सङ्ख्येया| मासाः आरणाच्युतयोः सङ्ख्येयानि वर्षाणि अधस्तनेषु त्रिषु अवेयकेषु सङ्ख्ययानि वर्षशतानि मध्यमेषु त्रिषु सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि उपरितनेषु त्रिषु सङ्ख्येयानि वर्षलक्षाणि विजयादिषु चतुर्पु पल्योपमासङ्ख्येयभागः सर्वार्थसिद्धे च पुनः पल्योपमसङ्ख्येयभागः, जघन्यतः पुनः सर्वेषामप्युद्वर्तनाविरहकाल एकः समय इति २०० ॥ ७२ ॥ इदानीं 'इमाण संख'त्येकोत्तरद्विशततमं द्वारमाह___एको व दो व तिन्नि व संखमसंखा य एगसमएणं । उववजंतेवइया उच्चतावि एमेव ॥७३॥ भवनवास्यादिषु प्रत्येकमेकस्मिन् समये जघन्यतः एको द्वौ वा त्रयो वा उत्पद्यन्ते, उत्कर्षतः सङ्ख्याता असङ्ख्याता वा, केवलं सहसारादूर्द्ध सर्वत्रोत्कर्षतः सङ्ख्याता एव वक्तव्याः नासङ्ख्यावाः, यतो मनुष्या एव सहस्रारादूई गच्छन्ति न तिर्यचो, मनुष्याश्च ॥४०॥ Jan Education in For Private Personel Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education सङ्ख्याता एव, 'उट्टंतावि एमेव' त्ति उद्वर्तमाना अपि सन्तो भवनपतिव्यन्तरादिभ्य इत्थमेवोद्वर्तन्ते, ते च जघन्यत एको द्वौ वा | त्रयो वा उत्कर्षतः सङ्ख्याता असङ्ख्याता वा यावत्सहस्रारकल्पः, सहस्रारकल्पादूर्द्धमुत्कर्षतः सङ्ख्याता एव च्यवन्ते, आनतादिच्युता हि | मनुष्येष्वेवागच्छन्ति, न तिर्यक्षु, मनुष्याश्च सङ्ख्याता एवेति २०१ ॥७३॥ इदानीं 'जम्मि एयाण गइति द्व्युत्तरद्विशततमं द्वारमाहपुढवी आउवणस्स गन्भे पज्जत्तसंखजीवीसुं । सग्गच्चुयाण वासो सेसा पडिसेहिया ठाणा ॥७४॥ बायरपज्जत्तेसुं सुराण भूदगवणेसु उप्पत्ती । ईसाणंताणं चिय तत्थवि न उबट्टगाणंपि ॥ ७५ ॥ आणयपभिर्हितो जाणुत्तरवासिणो चवेऊणं । मणुएसुं चिय जायइ नियमा संखिलजीविसुं ॥७६॥ स्वर्गात् - देवोत्पादस्थानाच्युतानां सामान्येन भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां देवानां वासो वसनमुत्पत्तिरित्यर्थः पृथिवीकाये | अष्काये वनस्पतिकाये तथा गर्भजेषु पर्याप्तेषु सङ्ख्यातवर्षजीविषु तिर्यग्मनुष्येषु भवति, शेषाणि पुनः स्थानानि - तेजस्कायवायुकायद्वित्रिचतुरिन्द्रियास यातायुष्कसम्मूर्छिमा पर्याप्ततिर्थ नरदेवनारकरूपाणि प्रतिषिद्धानि तीर्थकरगणधरैः ॥ ७४ ॥ अत्रैव विशेषमाह - 'बायरे'त्यादिगाथाद्वयं पृथिव्युदकप्रत्येक वनस्पतिष्वपि बादरपर्याप्तेष्वेव सुराणां देवानामुत्पत्तिः, न पुनः सूक्ष्मपृथिव्यप्कायिकेषु साधारणवनस्पतिषु अपर्याप्तेषु बादरपृथिव्यप्प्रत्येक वनस्पतिष्वेवेति, तत्रापीशानान्तानामेव देवानामेकेन्द्रियेषूत्पत्तिः न तूर्द्धगानां सनत्कुमारादीनां, ते हि पञ्चेन्द्रिय तिर्यङ्मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते, तथा आनतप्रभृतिभ्यः - आनतकल्पदेवानारभ्य यावदनुत्तरवासिनो देवा: स्वस्थानाच्युत्वा नियमतः सङ्ख्यातवर्षायुष्केषु मनुष्येष्वेव जायन्ते, नैकेन्द्रियेषु नापि तिर्यक्ष्विति भावः २०२ ॥ ७५ ॥ ७६ ॥ इदानीं ' जत्तो आगई एसिं' वि त्र्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३४१॥ NROSAROKAR 'परिणामविसुद्धीए देवाउयकम्मबंधजोगाए । पंचिंदियाउ गच्छे नरतिरिया सेसपडिसेहो ॥७॥ २०२गतिः आईसाणा कप्पा उववाओ होइ देवदेवीणं । तत्तो परंतु नियमा देवीणं नत्थि उववाओ ॥७८॥ २०३ आपरिणमनं परिणामो-मानसिको व्यापारविशेषः, स च द्विधा-विशुद्धोऽविशुद्धश्च, तत्र यो विशुद्धः स देवगतिकारणमिति तत्प्रति- गतिः गा. पादनार्थ विशुद्धिग्रहणं, परिणामस्य विशुद्धिः परिणामविशुद्धिः तया, प्रशस्तेन मानसव्यापारणेत्यर्थः, एतेन शुभाशुभगत्यवाप्तौ मनो- हा१०७४-७८ व्यापारस्यैव प्राधान्यमाह, सापि च परिणामविशुद्धिः काऽप्युत्कर्ष प्राप्ता मुक्तिपदस्यैव प्रापिका, अतस्तन्निवृत्त्यर्थमाह-देवायुःकर्मबन्ध-14 नयोग्यया हेतुभूतया पञ्चेन्द्रियाः, तुशब्द एवकारार्थः पञ्चेन्द्रिया एव नैकेन्द्रियद्वीन्द्रियादय इत्यर्थः, नरा-मनुष्यास्तिर्यच्चश्व देवेषु मध्ये गच्छन्ति, शेषाणां तु सुरनारकाणां देवगतिगमने प्रतिषेधो ज्ञातव्यः, न खलु देवा नारका वा स्वायुःक्षयेऽनन्तरं देवत्वेनोत्पद्यन्त इति ॥ ७७ ॥ सम्प्रति प्रसंगतो देवदेवीनामुत्पत्तिस्थानमाह-'आईसाणे'त्यादि, आ ईशानात्-ईशानकल्पभमिव्याप्य, किमुक्तं भवति ?-भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवेषु देवानां देवीनां चोपपातो-जन्म भवति, ततः-ईशानात्परमूर्द्ध सनत्कुमारादिषु |देवीनामुपपातो नास्ति, किन्तु देवानामेव केवलानां, केवलं सनत्कुमारादिदेवानां रताभिलाषे सति देव्यः खल्वपरिगृहीताः सौधर्मादीशानाच्च सहस्रारं यावद्गच्छन्ति न परत इति, तथा अच्युतात्परतः सुराणामपि गमागमौ न स्तः, तत्राधस्तनानामूर्द्ध शक्त्यभावात् , उपरितनानां विहागमने प्रयोजनाभावात् , अवेयकानुत्तरसुरा हि जिनजन्ममहिमादिष्वपि नात्रागच्छन्ति, किन्तु स्वस्थानस्था एव भक्तिमातन्वते, संशयप्रने चावधिज्ञानतो भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि साक्षादवेत्य तदाकारान्यथानुपपत्त्या जिज्ञासितमर्थ निश्चिन्वन्ति, ॥३४१॥ न चान्यत्प्रयोजनं, तन्न तेषामिहागम इति २०३ ॥ ७८ ॥ सम्प्रति 'विरहो सिद्धिगईए'त्ति चतुरुत्तरद्विशततमं द्वारमाह %E3%ASAHASRAEAct Jain Education a l For Private & Personel Use Only w ww.jainelibrary.org Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 96*%*% एकसमओ जहन्नो उक्कोसेणं तु जाव छम्मासा । विरहो सिद्धिगईए उङ्घट्टणवज्जिया नियमा ॥७९॥ एकः समयो जघन्यतः सिद्धिगतौ विरहः - अन्तरं भवति, उत्कर्षतस्तु यावत् षण्मासाः सा च सिद्धिगतिर्नियमात् - निश्चयेनोद्वर्तनवर्जिता, न खलु सिद्धास्ततः कदाचनाप्युद्वर्तन्ते, तद्धेतूनां कर्मणां निर्मूलमुन्मूलितत्वात् उक्तं च- "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ॥ १ ॥ २०४ ॥ ७९ ॥ सम्प्रति 'जीवाणाहारगहणऊसास'त्ति पथ्वोत्तरद्विशततमं द्वारमाह सरिरेणोयाहारो तयाय फासेण रोमआहारो । पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायवो ॥८०॥ ओयाहारा जीवा वे अपजत्तगा मुणेयवा । पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे हुंति भइया ॥ ८१ ॥ रोमाहारा एगिंदिया य नेरइयसुरगणा चेव । सेसाणं आहारो रोमे पक्खेवओ चेव ॥ ८२॥ ओयाहारा भक्खिणो य सवेऽवि सुरगणा होंति । सेसा हवंति जीवा लोमाहारा मुणेयवा ॥ ८३ ॥ अपज्जत्ताण सुराणऽणाभोगनिवत्तिओ य आहारो । पज्जन्ताणं मणभक्खणेण आभोगनिम्माओ ॥ ८४ ॥ जस्स जइ सागराई ठिइ तस्स य तेत्तिएहिं पक्खेहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो ॥ ८५ ॥ दसवाससहस्साइं जहन्नमाऊ धरंति जे देवा । तेसि चउत्थाहारो सतहिं थोवेहिं ऊसासो ॥ ८६ ॥ दसवास सहस्साई समयाई जाव सागरं ऊणं । दिवसमुहुत्तपुहुत्ता आहारूसास सेसाणं ॥ ८७ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . A प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० H २०४ सि|द्धिविरहः २०५ जीवाहार गा. १०७९-८७ ॥३४२॥ सरीरे त्यादिगाथाष्टकं, शरीरेणैव केवलेन य आहारः स ओजाहारः, एतदुक्तं भवति-यद्यप्यौदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणभेदतः शरीरं पञ्चधा तथाऽपीह तेजसेन तत्सहचारिणा कार्मणेन च शरीरेण पूर्वशरीरत्यागे विग्रहेणाविग्रहेण चोत्पत्तिदेशं | प्राप्तः सन् जन्तुर्यत्प्रथममौदारिकादिशरीरयोग्यान् पुद्गलानाहारयति यच्च द्वितीयादिसमयेष्वप्यौदारिकादिमिश्रेणाहारयति यावच्छरीरनिप्पत्तिः एष सर्वोऽप्योजआहारः, ओजसा-तैजसशरीरेणाहार ओजआहारः, सकारवर्णलोपादोजाहारो वा, यद्वा ओजः-स्वजन्मस्थानोचितः शुक्रानुविद्धशोणितादिपुद्गलसङ्घातस्तस्याहार ओजाहारः, तथा त्वचा-त्वगिन्द्रियेण यः स्पर्शस्तेन य आहारः शरीरोपष्टम्भकानां शिशिरप्रावृट्कालादिभाविनां शीतजलादिपुद्गलानां ग्रहणं स लोमभिः-लोमरन्धेराहारः प्रचुरतरमूत्राघभिव्यङ्गयो लोमाहारः, यः पुनराहारः कावलिकः-कवलैर्निष्पन्नो भवति स प्रक्षेपाहारो ज्ञातव्यः, प्रक्षेपणं-मुखे प्रवेशनं प्रक्षेपः तेनौदनादेराहारः प्रक्षेपाहारः, अथवा प्रक्षिप्यत इति प्रक्षेपः-ओदनकवलादिस्तस्याहारः प्रक्षेपाहारः ॥ ८० ॥ अथ यस्यामवस्थायां जीवानां य आहारस्तदाह-'ओयाहारे'त्यादि, ओजः-उत्पत्तिदेशे स्वशरीरयोग्यः पुद्गलसमूहस्तदाहारयन्तीयोजआहाराः यद्वा ओजः-तैजसशरीरं तेनाहारो येषां ते ओजआहारा जीवाः सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियान्ता अपर्याप्ता मन्तव्याः, अपर्याप्तत्वं च शरीरपर्याप्तिमपेक्ष्य नाहारपर्याप्ति, तदपर्याप्तानामनाहारकत्वात् , सर्वामिः स्खयोग्यपर्याप्तिभिरपर्याप्ता ओजआहारा इत्यन्ये, तथा पर्याप्ताः-शरीरपर्याप्त्या पर्याप्ताः मतान्तरेण सर्वामिः स्वयोग्यपर्याप्तिभिः पर्याप्ताः सर्वे जीवा लोनि-लोमाहारे नियमतो भवन्ति, पर्याप्तानां सर्वेषामपि जीवानां सर्वदापि लोमाहारो भवत्येवेति भावः, तथा च धर्माद्यमितप्ताश्छायया शीतलानिलसलिलस्पर्शनेन वा प्रीयन्ते प्राणिनः, प्रक्षेपे-प्रक्षेपाहारे भवन्ति भजनीयाः-यदैव कवलप्रक्षेपं कुर्वन्ति तदैव प्रक्षेपाहारो नान्यदा, लोमाहारता तु पवनादिस्पर्शनात् सदैवेति ॥ ८१ ॥ अथैकेन्द्रियादीनां पृथगाहारनैय 545454 डा॥३४२॥ Jan Education Intemanona For Private Personel Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % त्यमाह-'रोमे'त्यादि, शरीरपर्याप्त्या पर्याप्ताः मतान्तरेण सर्वस्खयोग्यपर्याप्तिपर्याप्ता एकेन्द्रिया नैरयिकाः सुरगणाश्च सर्वे लोमाहारा एव ज्ञातव्याः, न पुनः प्रक्षेपाहाराः, तत्र एकेन्द्रियाणां प्रक्षेपाहाराभावो मुखाभावात् , नैरयिकदेवानां तु वैक्रियशरीरतया तथास्वभावात् , उक्तं च-"एगिदियदेवाणं नेरइयाणं च नत्थि पक्खेवो । सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण पक्खेवो ॥१॥" [ एकेन्द्रियदेवानां नैरयिकाणां च नास्ति प्रक्षेपः । शेषाणां जीवानां संसारस्थानां प्रक्षेपः ॥ १ ॥] शेषाणां-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां चाहारो लोनि-लोमविषयः प्रक्षेपतश्च भवति, उभयरूपस्याप्याहारस्य तेषां सम्भवात् ।। ८२ ॥ अथ देवानामाहारविषयं विशेषमाह-'ओयेत्यादि, सर्वेऽपि भवनपत्यादयः सुरगणा अपर्याप्तावस्थायामोजआहाराः, पर्याप्तावस्थायां मनोभक्षिणो-मनसा चिन्तितोपनतान् सकलेन्द्रियावादकमनोज्ञपुद्गलान् भक्षयन्तीव भक्षयन्ति-वैक्रियशरीरेणात्मसात्कुर्वतीत्येवंशीला मनोभक्षिणः, इयमत्र भावना-यथा शीतपुद्गलाः शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्पन्ते उष्णाः पुद्गला वा उष्णयोनिकस्य तथा देवैरपि मनसाऽभ्यव| हियमाणाः पुद्गलास्तेषां तृप्तये परमसन्तोषाय चोपकल्पन्ते, तत आहारविषयाभिलाषनिवृत्तिर्भवतीति, शेषाः-सुरव्यतिरिक्ता जीवा नैरयिकादयोऽपर्याप्तावस्थायामोजआहाराः, पर्याप्तास्तु लोमाहारा ज्ञातव्याः, न पुनर्मनोभक्षिणः, मनोभक्षणलक्षणो ह्याहारः स उच्यते ये तथाविधशक्तिवशान्मनसा स्वशरीरपुष्टिजनकाः पुद्गला अभ्यवह्रियन्ते यदभ्यवहरणानन्तरं च तृप्तिपूर्वः परमसन्तोष उपजायते, न चैतन्नैरयिकादीनामस्ति प्रतिकूलकर्मोदयवशतस्तेषां तथारूपशक्त्यभावात् ।। ८३ ॥ पुनरत्रैव विशेषमाह-'अपजेत्यादि, आभोगनमा भोगः-आलोचनमभिसन्धिरित्यर्थः आभोगेन निर्वर्तितः-उत्पादित आभोगनिवर्तितः आहारयामीतीच्छापूर्व निर्मापित इतियावत् , तद्विलापरीतोऽनाभोगनिर्वर्तितः, आहारयामीति विशिष्टेच्छामन्तरेण निष्पाद्यते यः प्रावृट्काले प्रचुरतरमूत्राद्यभिव्यङ्ग्यशीतपुद्गलाद्याहारवत् सोऽ %A4-%-5555 For Private Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३४३॥ नाभोगनिर्वर्तित इति भावः, अत्रापर्याप्तकानां सुराणामोजआहारोऽनाभोगनिर्वर्जितः-अनाभोगसम्पादितो भवति, मनःपर्याप्तेरभावात् | M२०४ सिआभोगासम्भवात् , पर्याप्तानां पुनयों मनोभक्षणेन-मनसा सञ्चिन्त्य विशिष्टपुद्गलाभ्यवहरणेनाहारः स भाभोगनिर्मित:-आभोगसम्पा- |द्धिविरहः | दितो भवति ॥ ८४ ॥ सम्प्रति सागरोपमसङ्ख्यया आहारोच्छ्रासयोः कालमानमाह-'जस्से'त्यादि, देवानां मध्ये यस्य देवस्य यावन्ति 5/२०५ जीसागरोपमाणि स्थितिस्तस्य तावद्भिः पक्षैरुक्छासः-शरीरान्तर्गतप्राणपवनोत्सर्पणं प्रवर्तते, तावद्भिश्च वर्षसहस्रैराहारः-आहारामिलाषः, आहारामिलापवाहार गा. | यथा-यस्य देवस्यैकं सागरोपमं स्थितिस्तस्यैकस्मिन् पक्षेऽतिक्रान्ते उच्छासः एकस्मिन् वर्षसहस्रे आहारः, यस्य द्वे सागरोपमे तस्य पक्ष- १०७९-८७ द्वये उच्छासो वर्षसहस्रद्वये आहारः, यावत् त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यस्य स्थितिस्तस्य त्रयस्त्रिंशत्पक्षातिक्रमे उच्छासः त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहसातिक्रमे आहारः, देवेषु हि यो यथा महायुः स तथा सुखी, सुखितानां च यथोत्तरं महानुच्छासनिःश्वासक्रियाविरहकालः, दुःखरूपत्वादुच्छ्रासनिःश्वासक्रियायाः, ततो यथा यथाऽऽयुषः सागरोपमवृद्धिस्तथा तथोच्छासक्रियाविरहप्रमाणस्यापि पक्षवृद्धिः, आहारक्रिया| यास्तु ततोऽप्यतिदुःखरूपत्वाद्वर्षसहस्रवृद्धिः ।। ८५ ॥ अथ जघन्यायुषामाहारोच्छासयोः कालमानमाह-'दसे'त्यादि, ये देवा-भवनपतयो व्यन्तराश्च जघन्यं दशवर्षसहस्राण्यायुर्धरन्ति तेषामाहारः-आहाराभिलाषश्चतुर्थाद्-अहोरात्रादुत्पद्यते, सति चाहाराभिलाषे मनसा परिकल्पिताः शुभाः पुद्गलाः सर्वेणैव कायेनाहारतया परिणमन्ति, तथा तेषामेव-दशवर्षसहस्रधारिणां देवानां सप्तमिः स्तोकैःआधिव्याधिरहितमनुष्यसत्कोच्छासनिःश्वाससप्तकप्रमाणैः कालविशेषैरुच्छ्रासः, सप्तसप्तस्तोकातिक्रमे एवोच्छुसन्ति, शेषकालं च तदाबाधया रहिताः स्तिमिता एव तिष्ठन्तीत्यर्थः ॥ ८६ ॥ अथ वर्षसहस्रदशकस्थितेरूद्धं यावत्सागरोपमं पूर्णमेतावत्यन्तराले आहारोच्छास- ॥३४३ ॥ कालमानमाह-दसवे'त्यादि येषामुक्तेभ्यः शेषाणां देवानां दशवर्षसहस्राणि समयादीनि-समयावलिकामुहूर्तदिवसमाससंवत्सरयुगाद्य Jan Education For Private Personel Use Only Anjainelibrary.org Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | धिकानि यावत्किञ्चिदूनं सागरोपममायुःस्थितिः तेषां दिवस पृथक्त्वादाहारो मुहूर्त पृथक्त्वादुच्छ्रासञ्च, सूत्रे च - 'पुहुत्ते 'ति एकवचननिर्देशो जात्यपेक्षः, ततोऽयं भावार्थ:- दशवर्षसहस्रेभ्य ऊर्द्ध समयादिवृद्धौ यथाक्रममाहारोच्छ्रासयोदिवसमुहूर्त पृथक्त्वानि तावद्वर्धनीयानि यावत्परिपूर्ण सागरोपमायुषां पक्षादुच्छ्रासो वर्षसहस्रादाहार इति, तथा एकेन्द्रियाणामाहाराभिलाषः सततं, विकलेन्द्रियनारकाणामुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तात् पञ्चेन्द्रियतिरश्चामहोरात्रद्वयातिक्रमात् मनुष्याणां चाहोरात्रत्रयातिक्रमादिति, उच्छ्वासोऽपि नारकाणां निरन्तरं एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्नराणां पुनरनियतमात्रः २०५ ॥ ८७ ॥ सम्प्रति 'तिन्नि सया तेवट्ठा पासंडीणं'ति षडुत्तरद्विशततमं द्वारमाह असीइसयं किरियाणं १८० अकिरियवाईण होइ चुलसीई ८४ । अन्नाणि सत्तट्ठी ६७ वेणइयाणं च बत्तीसं ३२ ॥ ८८ ॥ जीवाइनवपयाणं अहो ठविज्जंति सयपरयसदा । तेसिंपि अहो निच्चानिचा सहा ठविज्जन्ति ॥ ८९ ॥ काल १ स्सहाव २ नियई ३ ईसर ४ अप्पत्ति ५ पंचवि पयाई | निच्चानिच्चाणमहो अणुक्कमेणं ठविनंति ॥ ९० ॥ जीवो इह अस्थि सओ निच्चो कालाउ इ पढमभंगो । बीओ य अस्थि जीवो सओ अनिच्चो य कालाओ ॥ ९१ ॥ एवं परओऽवि हु दोन्नि भंगया पुवदुगजुया चउरो । लद्धा कालेणेवं सहावपमुहावि पार्वति ॥ ९२ ॥ पंचहिवि hi पत्ता जीवेण वसई भंगा । एवमजीबाईहिवि य किरियाबाई असिइसयं ॥ ९३ ॥ इह जीवाइपाई पुनं पावं विणा ठविज्जन्ति । तेसिमहोभायम्मि ठविज्जए सपरसद्ददुगं ॥ ९४ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ ३४४ ॥ तस्सव अहो लिहिज्ज काल १ जहिच्छा य २ पयदुगसमेयं । नियइ १ स्सहाव २ ईसर ३ अम्पत्ति ४ इमं पक्कं ॥ ९५ ॥ पढमे भंगे जीवो नत्थि सओ कालओ तयणु बीए । परओऽवि नत्थि जीवो काला इय भंगगा दोनि ॥ ९६ ॥ एव जइच्छाईहिवि परहिं भंगदुगं दुर्ग पत्तं । मिलियावि ते दुबास संपत्ता जीवतत्तेणं ॥ ९७ ॥ एवमजीवाईहिवि पत्ता जाया तओ उ चुलसीई । भेया अकिरियवाईण हुंति इमे सङ्घसंखाए ॥ ९८ ॥ संत १ मसंतं २ संतासंत ३ मवन्त्तव ४ सय अवत्तवं ५ । अस्य अवत्तवं ६ सयवत्तवं ७ (सयसयवत्तवं च सत्त पया ॥ ९९ ॥ जीवाइनवपयाणं अहोकमेणं इमाई ठेविऊणं । जह कीरइ अहिलावो तह साहिज्जर निसामेह ॥ १२०० ॥ संतो जीवो को जाणइ ? अहवा किं व तेण नाएणं ? । सेसपएहिवि भंगा इय जाया सत्त जीवस्स ॥१॥ एवमजीवाईणऽवि पत्तेयं सत्त मिलिय तेसट्ठी । तह अन्नेऽवि हु भंगा चत्तारि इमे उ इह हुंति ॥ २ ॥ संती भावुप्पत्ती को जाणइ किंच तीऍ नायाए ? । एवमसंती भावुप्पत्ती सदसत्तिया चेव ॥ ३ ॥ तह अवत्तवावि हु भावुप्पत्ती इमेहिं मिलिएहिं । भंगाण सत्तसट्ठी जाया अन्नाणि इ ॥ ४ ॥ सुर १ निवइ २ जइ ३ न्नाई ४ थविरा ५ वम ६ माइ ७ पिइसु ८ एएसि । मण १ व २ का ३ दाणेहिं ४ चउविहो कीरए विणओ ॥ ५ ॥ अट्ठवि चउक्कगुणिया बत्तीस हवंति वेणइयभेया । सवेहिं पिंडिएहिं तिन्नि सया हुंति तेसट्ठा ॥ ६ ॥ त्रिषष्ट्यधिकशतत्रयी पाषण्डि नाम् गा. ११८८० १२०६ ॥ ३४४ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4% %A5 % ___ 'असीई'त्यादिगाथा एकोनविंशतिः, न कर्तारमन्तरेण क्रिया-पुण्यबन्धादिलक्षणा सम्भवति, तत एवं परिज्ञाय तां क्रियामात्मसम वायिनीं वदन्ति तच्छीलाश्च ये ते क्रियावादिन:-आत्माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः तेषामशीत्यधिकं शतं भवति, वक्ष्यमाणप्रकारेण अशी* त्यधिकशतसङ्ख्यास्ते इति भावः, तथा न कस्यचित्प्रतिक्षणमवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया सम्भवति उत्पत्त्यनन्तरमेव विनाशादित्येवं ये बदशान्ति तेऽक्रियावादिनः-आत्मादिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः, तथा चाहुः-"क्षणिकाः सर्वसंस्कारा, अस्थिराणां कुतः क्रिया । भूतिषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते ॥ १॥” तेषां चतुरशीतिर्भवति, तथा कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्ति तेन वा चरन्तीत्यज्ञानिकाः★ असंचिन्त्यकृतबन्धवैफल्यादिप्रतिपादनपराः, तथाहि ते एवमाहुः-न ज्ञानं श्रेयः तस्मिन् सति परस्परं विवादयोगेन चित्तकालुष्यादि भावतो दीर्घतरसंसारप्रवृत्तेः, तथाहि-केनचित्पुरुषेणान्यथा देशिते वस्तुनि विवक्षितो ज्ञानी ज्ञानगर्वाध्मातमानसस्तस्योपरि कलुषचित्तः तेन सह विवादमारभते, विवादे च क्रियमाणे तीव्रतीव्रतरचित्तकालुष्यभावतोऽहकारतश्च प्रभूतप्रभूततराशुभकर्मबन्धसम्भवः, तस्माच्च दीर्घ दीर्घतरसंसारः, तथा चोक्तम्-'अन्नेण अन्नहा देसियंमि भावंमि नाणगब्वेणं । कुणइ विवायं कलुसियचित्तो तत्तो य से बंधो ॥१॥" [अन्येनान्यथा देशिते भावे ज्ञानगर्वेण । करोति विवादं कलुषितचित्तस्ततश्च तस्य बन्धः ॥ १॥] यदा पुनरज्ञानमाश्रीयते तदा नाहकारसम्भवो नापि परस्योपरि चित्तकालुष्यभावः ततो न कर्मबन्धसम्भवः, अपिच-यः सञ्चिन्त्य क्रियते कर्मबन्धः स दारुणविपाकः अत एवावश्यंवेद्यः, तस्य तीब्राध्यवसायतो निष्पन्नत्वात् , यस्तु मनोव्यापारमन्तरेण कायवचनकर्मवृत्तिमात्रतो विधीयते न तत्र मनसोऽभिनिवेशः ततो नासाववश्यवेद्यो नापि तस्य दारुणो विपाकः, केवलं अतिशुष्कसुधापङ्कधवलितभित्तिगतरजोराजिरिव स कर्मसङ्गः स्वत एव शुभाध्यवसायपवनविक्षोमितोऽपयाति, मनसोऽभिनिवेशाभावश्चाज्ञानाभ्युपगमे समुपजायते, ज्ञाने सत्य भिनिवेशसम्भवात् , तस्मादज्ञानमेव %25A 5 in Educh an inte For Private & Personal use only Bhiw.jainelibrary.org Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा-10मुमुक्षुणा-मुक्तिमार्गप्रवृत्तेनाभ्युपगन्तव्यं [ग्रन्थानं ३००] न ज्ञानमिति, किञ्च-भवेयुक्तो ज्ञानस्याभ्युपगमो यदि ज्ञानस्य निश्चयः कर्तु त्रिषष्ट्यधिरोद्धारे पार्यते, परं यावता स एव न पार्यते, तथाहि-सर्वेऽपि दर्शनिनः परस्परं मिन्नमेव ज्ञानं प्रतिपन्नाः, ततो न निश्चयः कर्तुं शक्यते-किमिदं | कशतत्रयीतत्त्वज्ञा ज्ञानं सम्यगुत नेदमिति, यदुक्तम्-'सव्वे य मिहो मिन्नं नाणं इह नाणिणो जओ बिति । तीरइ तओ न काउं विणिच्छओ एवमेयन्ति पापण्डिनवि० ॥१॥" [ सर्वे च मिथो भिन्नं ज्ञानं इह ज्ञानिनो यतो ब्रुवते, शक्यते ततो न कर्तु विनिश्चय एवमेतदिति ॥१॥] तेषामज्ञानिकानां | नाम् सप्तषष्टि दाः, तथा विनयेन चरन्तीति वैनयिकाः-एते चानवधृतलिङ्गाचारशास्त्राः केवलं विनयप्रतिपत्तिप्रधानाः, एषां च द्वात्रिंशद्भेदा 15गा.११८८. ॥३४५॥ इति ॥ ८८ ॥ अथ 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् क्रियावादिनामशीत्युत्तरशतसङ्ख्याभङ्गानयनोपायमाह-'जीवे'त्यादिगाथाद्वयं, १२०६ जीवादीनि नव पदानि-जीवअजीवआश्रवबन्धसंवरनिर्जरापुण्यपापमोक्षलक्षणान्नव पदार्थान् परिपाट्या पट्टिकादौ विरचय्य तेषामधः प्रत्येकं स्वतः परत इति शब्दौ स्थाप्येते, तयोरपि-स्वतः परत इति शब्दयोरधः प्रत्येक नित्यानित्यशब्दौ स्थाप्येते, ततोऽपि-नित्यानित्य| शब्दयोरधस्तादनुक्रमेण-परिपाट्या कालस्वभावनियतीश्वरात्मस्वरूपाणि पञ्च पदानि स्थाप्यन्ते ।। ८९ ।। ९० ॥ अथैतेषामेव भेदानामभिलापमाह-'जीवो' इत्यादिगाथात्रयं, इह अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः प्रथमो भङ्गो-विकल्पः, अस्य च विकल्पस्यायमर्थःइह-अस्मिन् जगति अस्ति-विद्यते खल्वयं जीव:-आत्मा स्वतः-स्वेन रूपेण, न तु परोपाध्यपेक्षया, हस्खत्वदीर्घत्वे इव, नित्यः-शाश्वतो, न क्षणिकः, पूर्वोत्तरकालयोरवस्थितत्वात् , कालवादिनो मतेन, कालवादिनश्च ते मन्तव्या ये कालकृतमेव सर्व जगन्मन्यन्ते, तथा च ते एवमाहुः-न कालमन्तरेण सहकारचम्पकाशोकादिकुसुमोद्गमफलानुबन्धादयो हिमकणानुषक्तशीतप्रपातनक्षत्रगर्भाधानवर्षादयो वा ॥३४५॥ ऋतुविभागसम्पादिता बालकुमारयौवनवलिपलितागमादयो वा अवस्थाविशेषा घटन्ते, प्रतिनियतकालविभाग एव तेषामुपलभ्यमान STAR+-+C Jan Education For Private Personel Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वात्, अन्यथा सर्वमव्यवस्थया भवेत् न चैतद् दृष्टमिष्टं वा, अपिच मुद्गादिपक्तिरपि न कालमन्तरेण लोके भवन्ती दृश्यते, किन्तु कालक्रमेण, अन्यथा स्थालीन्धनादिसामग्रीसम्पर्कसम्भवे प्रथमसमयेऽपि मुद्रादिपतेर्भावप्रसङ्गः, न च तद्भवति, तस्माद्यत्कृतकं तत्सर्वं कालकृतमिति, यदाहुः -- 'न कालव्यतिरेकेण, गर्भबाल शुभादिकम् । यत्किचिज्जायते लोके, तदसौ कारणं किल ॥ १ ॥ किंच कालाहते नैव, मुद्रपक्तिरपीक्ष्यते । स्थाल्यादिसंनिधानेऽपि ततः कालादसौ मता ॥ २ ॥ " द्वितीयश्च भङ्गोऽयं अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः, एवमुक्तप्रकारेण परतोऽपि द्वौ भङ्गौ कर्तव्यो यथा - अस्ति जीवः परतो नित्यः कालतः, अस्ति जीवः परतोऽनित्यः कालतः, सर्वेषामपि हि पदार्थानां परपदार्थस्वरूपापेक्षया स्वस्वरूपपरिच्छेदः, यथा दीर्घत्वापेक्षया ह्रस्वत्वस्य ह्रस्वत्वापेक्षया च दीर्घत्वस्य इत्येवमेवात्मनः स्तम्भकुम्भादीन् समीक्ष्य तद्व्यतिरिक्ते वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्तत इति, अतो यदात्मनः स्वरूपं तत्परत एवावधार्यते न स्वतः पूर्वेण च स्वत एव इति पदलब्धेन भङ्गद्विकेन युक्तावेतौ भङ्गौ चत्वारो भवन्ति, ते च कालपदेन लब्धाः, एवमनेन प्रकारेण स्वभावप्रमुखा अपि-स्वभावनियतीश्वरात्मपदान्यपि प्रत्येकं चतुरचतुरो विकल्पान् प्राप्नुवन्ति, तथाहि - अस्ति जीवः स्वतो नित्यः स्वभावतः १ अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः स्वभावतः २ अस्ति जीवः परतो नित्यः स्वभावतः ३ अस्ति जीवः परतोऽनित्यः स्वभावतः ४, ते हि स्वभाववादिन एवमाहुः - इह सर्वे भावाः स्वभाववशादुपजायन्ते, तथाहि - मृदः कुम्भो भवति न पटादिः तन्तुभ्योऽपि पट उत्पद्यते न कुम्भादिः, एतच्च प्रतिनियतं भवनं तथास्वभावतामन्तरेण न घटते, तस्मात्सकलमिदं स्वभावकृतमवसेयं, अन्यच्च - आस्तामन्यत्कार्यजातं, इह मुद्गादिपक्तिरपि न स्वभावमन्तरेण भवितुमर्हति तथाहि - स्थालीन्धनकालादिसमग्रसामग्रीसम्भवेऽपि न काकटुकमुद्गानां पक्तिरुपलभ्यते, तस्माद्यद्यद्भावे भवति यदभावे च न भवति तत्तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्कृतमिति Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥३४६॥ त्रिषष्ट्याधिकशतत्रयीपापण्डि नाम् गा.११८८१२०६ 10 -*- स्वभावकृता मुद्गपक्तिरप्येष्टव्या, ततः सकलमेवेदं वस्तुजातं स्वभावहेतुकमवसेयमिति । तथा अस्ति जीवः स्वतो नित्यो नियतितः १ तथाऽस्ति जीवः स्वतोऽनित्यो नियतितः २ अस्ति जीवः परतो नित्यो नियतितः ३ अस्ति जीवः परतोऽनित्यो नियतितः४, नियतिवादिनो ह्येवमाहुः-नियति म तत्त्वान्तरमस्ति यदशादेते भावाः सर्वेऽपि नियतेनैव रूपेण प्रादुर्भवन्ति, नान्यथा, तथाहि-यद्यदा यतो | भवति तत्तदा तत एव नियतेनैव रूपेण भवदुपलभ्यते, अन्यथा कार्यकारणभावव्यवस्था प्रतिनियतरूपव्यवस्था च न भवेत् , नियामका भावात् , तत एवं कार्यनयत्यतः प्रतीयमानामेनां नियति को नाम निराकर्तुमलं ?, तथा चोक्तम्-"नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा | भवन्ति यत् । ततो नियतिजा ोते, तत्स्वरूपानुभेदतः ॥ १॥ यद्यदैव यतो यावत् , तत्तदैव ततस्तथा । नियतं जायते न्यायात् , क | एनां बाधितुं क्षमः ॥२॥" तथा अस्ति जीवः स्वतो नित्य ईश्वरतः १ अस्ति जीवः स्वतोऽनित्य ईश्वरतः २ अस्ति जीवः परतो नित्य ईश्वरतः ३ अस्ति जीवः परतोऽनित्य ईश्वरतः ४, ईश्वरवादिनो हि सर्व जगदीश्वरकृतं मन्यन्ते, ईश्वरं च सहजसिद्धज्ञानवैराग्यधमैंश्वर्यरूपचतुष्टयं प्राणिनां च स्वर्गापवर्गयोः प्रेरकमिति, तदुक्तम्-"ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः। ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सह| सिद्धं चतुष्टयम् ॥ १॥ अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् , स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ २॥" इत्यादि । तथा अस्ति जीवः स्वतो नित्य आत्मनः १ अस्ति जीवः स्वतोऽनित्य आत्मनः २ अस्ति जीवः परतो नित्य आत्मनः ३ अस्ति जीवः परतोऽनित्य आत्मनः ४, आत्मवेदिनो हि विश्वपरिणतिरूपमात्मानमेवैकं प्रतिपन्नाः, यत उक्तम्-'एक एव हि भूतात्मा, देहे देहे व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १॥ तथा “पुरुष एवेदं सर्व, यद् भूतं यच भाव्य"मित्यादि, तदेवं पञ्चभिरपि चतुष्ककैर्मिलितविंशतिर्भङ्गा जाताः, एते च जीवपदेन प्राप्ताः, एवमजीवादिमिरप्यष्टभिः पदैः प्रत्येकं विंशतिर्विकल्पाः प्राप्यन्ते, * ॥३४६॥ -%-5 * en Education Interna For Private sPersonal use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा अस्त्यजीवः स्वतो नित्यः कालत इत्यादि सर्व भावनीयं, इत्यतो विंशतिर्नवभिर्गुणिता शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनां भवति ॥ ९१ ॥ | ।। ९२ ।। ९३ ।। इदानीमक्रियावादिनां चतुरशीतिसङ्ख्यभङ्गानयनोपायमाह – 'इहे 'त्यादिगाथाद्वयं, इह अक्रियावादिभेदानयनप्रक्रमे जीवादीनि पूर्वोक्तानि पुण्यपापवर्जितानि सप्त पदानि परिपाट्या पट्टिकादौ स्थाप्यन्ते तेषां च जीवादिपदानामधोभागे प्रत्येकं स्वपरशब्दद्विकं स्थाप्यते, स्वतः परत इति द्वे पदे न्यस्येते इत्यर्थः, असत्त्वादात्मनो नित्यानित्यविकल्पौ न स्तः, तद्धर्मिसिद्ध्यापत्तेः, तस्यापि च स्वपर - शब्दद्विकस्याधस्तात्कालयदृच्छारूपपदद्वयसमेतमेतन्नियतिस्वभावेश्वरात्मलक्षणं पदचतुष्कं लिख्यते, कालयदृच्छानियतिस्वभावेश्वरात्मस्वरूपाणि पट् पदानि स्थाप्यन्त इत्यर्थः, इह यदृच्छावादिनः सर्वेऽप्यक्रियावादिन एव, न केचिदपि क्रियावादिनः, ततः प्राग्यदृच्छा नोपन्यस्ता ।। ९४ ।। ९५ ।। अथ विकल्पाभिलापमाह - ' पढमे 'त्यादिगाथात्रयं नास्ति जीवः स्वतः कालत इति प्रथमो भङ्गः, तदनु नास्ति जीवः परतः कालत इति द्वितीयो भङ्गः, एतौ द्वौ च भङ्गौ कालेन लब्धौ एवं यदृच्छादिभिरपि पश्चभिः पदैः प्रत्येकं द्वौ द्वौ विकल्पौ प्राप्येते, सर्वेऽपि मिलिता द्वादश, अमीषां च विकल्पानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः, नवरं यदृच्छात इति - यदृच्छावादिनां मते, अथ के ते यदृच्छावादिनः ?, उच्यते, इह ये भावानां संतानापेक्षया न प्रतिनियतं कार्यकारणभावमिच्छन्ति किंतु यदृच्छया ते यह |च्छावादिनः तथा च एत एवमाहुः - न खलु प्रतिनियतो वस्तूनां कार्यकारणभावः तथाप्रमाणेनाग्रहणात् तथाहि - शालूकादपि शालूको जायते गोमयादपि, अग्नेरप्यग्निर्जायते अरणिकाष्ठादपि जायते धूमादपि धूमोऽग्नीन्धनसंपर्कादपि कन्दादपि जायते कदली बीजादपि वटादयोऽपि बीजादुपजायन्ते शाखैकदेशादपि, ततो न प्रतिनियतः कचिदपि कार्यकारणभाव इति यदृच्छातः कचिदपि किंचिद्भवतीति प्रतिपत्तव्यं, न खल्वन्यथा वस्तुसद्भावं पश्यन्तोऽन्यथाऽऽत्मानं प्रेक्षावन्तः परिवेशयन्ति, एते च द्वादश विकल्पा जीव Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा-5 तत्त्वेन-जीवपदेन संप्राप्ता-लब्धाः, एवमजीवादिभिरपि षभिः पदैः प्रत्येकं द्वादश द्वादश विकल्पाः प्राप्ताः, ततो द्वादशभिः सप्तत्रिषष्ट्यधिरोद्धारे गुणिता जाताश्चतुरशीतिः, सर्वसङ्ख्यया चाक्रियावादिनामेते भेदा भवंतीति ॥ ९६ ॥ ९७ ॥ ९८ ॥ इदानीमज्ञानिकानां सप्तषष्टिसङ्ख्य- कशतत्रयीतत्त्वज्ञा- भेदानयनोपायमाह-संते'त्यादिगाथाद्वयं, सत्त्वं १ असत्त्वं २ सदसत्त्वं ३ अवक्तव्यत्वं ४ सवक्तव्यत्वं ५ असवक्तव्यत्वं ६ सद- पाषण्डिनवि० सवक्तव्यत्वं ७ चेति सप्त पदानि-सप्त भङ्गाः, तत्र सत्त्वं-खरूपेण विद्यमानत्वं, असत्त्वं-पररूपेणाविद्यमानत्वं, सदसत्त्वं-खपररूपाभ्यां नाम् विद्यमानत्वाविद्यमानत्वं, तत्र यद्यपि सर्व वस्तु स्वपररूपाभ्यां सर्वदैव स्वभावत एव सदसत् तथापि कचित किञ्चित्कदाचिदुद्भूतं प्रमात्रा गा.११८८॥३४७॥ विवक्ष्यते तत एवं त्रयो विकल्पा भवन्ति, तथा तदेव सत्त्वमसत्त्वं च यदा युगपदेकेन शब्देन वक्तुमिष्यते तदा तद्बाचकः शब्दः कोऽपि १२०६ न विद्यते इति अवक्तव्यत्वं, यदा त्वेको भागः सन्नपरश्चावक्तव्यो युगपद्विवक्ष्यते तदा सवक्तव्यत्वं, यदा त्वेको भागोऽसन्नपरश्चावक्तव्यो युगपद्विवक्ष्यते तदाऽसदवक्तव्यत्वं, यदा त्वेको भागः सन्नपरश्चासन अपरश्चावक्तव्यस्तदा सदसवक्तव्यत्वमिति। न चैतेभ्यः सप्तविकल्पेभ्योऽन्यो विकल्पः संभवति, सर्वस्यैतेष्वेव मध्येऽन्तर्भावात् , इह च घटमाश्रित्य किश्चिद्भावना प्रदर्श्यते, तथाहि-ओष्ठग्रीवाकपालकुक्षिबुध्नादिमिः स्वपर्यायैः सद्भावेन विशेषितः कुम्भः कुम्भो भण्यते, सन् घट इति प्रथमो भङ्गो भवतीत्यर्थः १ तथा पटादिगतैस्त्वक्राणा-|| दिभिः परपर्यायैरसद्भावेन विशेषितोऽकुम्भो भवति, सर्वस्यापि घटस्य परपर्यायैरसत्त्वविवक्षायामसन् घट इति द्वितीयो भङ्गो भवतीत्यर्थः २ तथा एकस्मिन् देशे स्वपर्यायसत्त्वेन अन्यत्र तु देशे परपर्यायासत्त्वेन विवक्षितो घटः संश्चासंश्च भवति, घटोऽघटश्च भवतीत्यर्थः ३ ४ तथा सर्वोऽपि घटः स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां विशेषितो युगपद्वक्तुमिष्टोऽवक्तव्यो भवति, स्वपरपर्यायसत्त्वासत्त्वाभ्यामेकेन ॥॥३४७॥ केनाप्यसांकेतिकेन शब्देन सर्वस्यापि तस्य युगपद्वक्तुमशक्यत्वात् ४ तथा एकस्मिन् देशे स्वपर्यायैः सत्त्वेन विशेषितोऽन्यत्र तु देशे स्वप Jain Education in For Private Personel Use Only Haw.jainelibrary.org Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASTERRACTECARRORSAM% रोभयपर्यायैः सत्त्वासत्त्वाभ्यां युगपदसांकेतिकेनैकेन शब्देन वक्तुं विवक्षितः कुम्भः संश्वावक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः, देशे तस्य घटत्वाद्देशे चावक्तव्यत्वादिति ५ तथा एकदेशे परपर्यायैरसत्त्वेन विशेषितोऽन्यस्मिंस्तु देशे स्वपरपर्यायैः सत्त्वासत्त्वाभ्यां युगपदसांकेतिकेनैकेन शब्देन वक्तुं विवक्षितः कुम्भोऽसन्नवक्तव्यश्च भवति, अकुम्भोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः, देशे तस्याकुम्भत्वात् देशे चावक्तव्यत्वादिति ६ तथा एकदेशे स्वपर्यायैः सत्त्वेन विशेषितः एकस्मिंस्तु देशे परपर्यायैरसत्त्वेन विशेषितोऽन्यस्मिंस्तु देशे स्वपरोभयपर्यायैः सत्त्वासत्त्वाभ्यां युगपदेकेन शब्देन वक्तुं विवक्षितः कुम्भः संश्चासंश्चावक्तव्यश्च भवति, घटोऽघटोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः, देशे तस्य घटत्वाद्देशेऽघटत्वाद्देशेऽवक्तव्यत्वादिति ७, एवं सप्तभेदो घटः, एवं पटादिरपि द्रष्टव्य एवेति, एतानि च सप्त पदानि जीवादीनां नवानां पदानां परिपाट्या पट्टिकादौ विन्यस्तानामधस्तात्क्रमेण प्रत्येकं स्थापयित्वा यथा-येन प्रकारेण क्रियतेऽमिलापस्तथा साहिष्यत इति कथ्यते निशम| यत-शृणुत, एतच्च शिष्याणामवहितत्वोत्पादनार्थमुक्तमिति ॥ ९९ ॥ १२०० ॥ तमेवामिलापमाह-संतो' इत्यादिगाथाद्वयं, सन् जीव इति को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेनेति प्रथमो भङ्गः, अस्य चायमर्थः-न कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानमस्ति योऽतीन्द्रियमात्मानमवभोत्स्यते, न च तेन ज्ञातेनापि किञ्चित्फलमस्ति, तथाहि-यदि नित्यः सर्वगतोऽमूर्तो ज्ञानादिगुणोपेत एतद्गुणव्यतिरिक्तो वाऽऽत्मा ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति, तस्मादज्ञानमेव श्रेयः, एवं शेषैरप्यसदादिभिः षभिः पदैर्जीवभङ्गा भवन्ति, असन् जीवः को वेति ? किं वा तेन ज्ञातेनेत्यादि, इति जाता जीवपदस्य सप्त भङ्गाः, एवमजीवादीनामप्यष्टानां पदानां प्रत्येकं सप्त सप्त भङ्गा भवन्ति, सर्वेऽपि मिलितास्त्रिषष्टिः, तथाऽन्येऽपि-अमी वक्ष्यमाणाः हुशब्दस्यावधारणार्थत्वाच्चत्वार एव भङ्गा इह-अज्ञानिकप्ररूपणप्रक्रमे भवन्ति ॥१॥ ४॥२॥ तानेवाह-संती'त्यादिगाथाद्वयं, सती भावोत्पत्तिः को जानाति ? किं वाऽनया ज्ञातया ? १ एवमसती भावोत्पत्तिः को RSACAREERICA Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३४८ ॥ वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातया ? २ सदसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातया ? ३ अवक्तव्या भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातया ? ४ एतेषां च भङ्गानामयं तात्पर्यार्थः - इह पदार्थस्योत्पत्तिः किं सतोऽसतः सदसतोऽवाच्यस्य वेति को जानाति ? ज्ञातेन वा न किञ्चिदपि प्रयोजनमिति, शेषविकल्पत्रयं तु उत्पत्त्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमतोऽत्र न संभवतीति नोक्तम्, एतैश्चतुर्भिभङ्गैर्मिलितैः त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्तैर्जाता एषा भङ्गकानां सप्तषष्टिरज्ञानिकानामिति ॥ ३ ॥ ४ ॥ इदानीं वैनयिकानां द्वात्रिंशद्भेदानाह'सुरे' त्यादिगाथाद्वयं, सुरा - देवाः नृपतयो - राजानः यतयो - मुनयः ज्ञातयः - स्वजनाः स्थविरा - वृद्धाः अवमा-अनुकम्पनीयाः कार्पेटिकादयः मातापितरौ प्रतीतौ एतेषामष्टानां प्रत्येकं मनोवचन कायदानैश्चतुर्विधो विनयः क्रियते, तद्यथा-सुराणां विनयं करोति मनसा | तथा वाचा तथा कायेन तथा देशकालोपपन्नदानेन इत्यादि, एते च विनयादेव केवलात्स्वर्गापवर्गमार्गमभ्युपगच्छन्ति, विनयश्च नीचैर्वृत्यनुत्सेकलक्षणः, सर्वत्र चैवंविधेन विनयेन देवादिषूपतिष्ठन् स्वर्गापवर्गभाग्भवतीति, तदेवमेतेऽष्टावपि भङ्गा चतुष्केण गुणिता द्वात्रिं| शद्वैनयिकभेदा भवन्तीति । सर्वैरप्येतैः पूर्वोक्तैः क्रियाऽक्रियाऽज्ञानवैनयिकवादिभेदैः पिंडितैः - एकीकृतैत्रीणि त्रिषष्ट्यधिकानि पाखण्डिनां शतानि भवन्तीति । एतेषां च प्रतिक्षेपः सूत्रकृताङ्गादिभ्यः समवसेयः २०६ || ५ || ६ || सम्प्रति 'अट्टहा पमाय'त्ति सप्तोत्तर - द्विशततमं द्वारमाह पद्माओ य मुणिंदेहिं, भणिओ अट्टभेयओ । अन्नाणं १ संसओ २ चेव, मिच्छानाणं ३ तहेव य ॥ ७ ॥ रागो ४ दोसो ५ मइन्भंसो ६, धम्मंमि य अणायरो ७ । जोगाणं दुप्पणिहाणं ८, अट्टहा वज्जियवओ ॥ ८ ॥ प्रमादभेदाः गा. १२०७-८ ॥ ३४८ ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. सा. ५९ प्रमाद्यति - मोक्षमार्ग प्रति शिथिलोद्यमो भवत्यनेन प्राणीति प्रमादः, स च मुनीन्द्रैः - तीर्थकृद्भिर्भणितः - प्रतिपादितो भवति, अष्टभेद:अष्टप्रकारः, तद्यथा - अज्ञानं मूढता संशयः - किमेतदेवं स्यादुतान्यथेति संदेह: मिथ्याज्ञानं विपर्यस्ता प्रतिपत्तिः रागः- अभिष्वङ्गः द्वेषः -अप्रीतिः स्मृतिभ्रंशो-विस्मरणशीलता धर्मे चात्प्रणीतेऽनादरः - अनुद्यमः योगानां - मनोवाक्कायानां दुष्प्रणिधानं दुष्टताकरणं, अयं | चाष्टविधोऽपि प्रमादः कर्मबन्धहेतुत्वाद्वर्जयितव्यः - परिहर्तव्य इति २०७ ॥ ७ ॥ ८ ॥ सम्प्रति 'भरहाहिव 'त्ति अष्टोत्तरद्विशततमं द्वारमाह - भरहो १ सगरो २ मघवं ३ सणकुमारो य रायसद्दूलो ४ । संती ५ कुंथू ६ य अरो ७ हवह सुभूमो ८ कोरो ॥ ९ ॥ नवमो य महापउमो ९ हरिसेणो १० चेव रायसद्दूलो । जयनामो ११ य नरवई बारसमो बंभदत्तो य १२ ॥ १० ॥ भरतः प्रथमञ्चक्रवर्ती द्वितीयः सगरः - सगरनामा तृतीयो मघवान् चतुर्थः सनत्कुमारो राजशार्दूलः, शार्दूलशब्दः सिंहपर्यायः राज्ञां शार्दूल इव राजसु वा शार्दूलश्चक्रवर्तीत्यर्थः, पञ्चमः शान्तिनाथः षष्ठः कुन्थुनाथः सप्तमोऽरस्वामी अष्टमः सुभूमो भवति कौरव्यः --कौरव्यगोत्रः नवमो महापद्मः दशमो हरिषेणो राजशार्दूल :- चक्रवर्ती एकादशो जयनामा नरपतिः द्वादशो ब्रह्मदत्तः २०८ ॥ ९ ॥ १० ॥ इदानीं 'हलधर' त्ति नवोत्तरद्विशततमं द्वारमाह अपले १ विजये २ भद्दे ३, सुप्पभे य ४ सुदंसणे ५ । आनंदे ३ नंदणे ७ पउमे ८, रामे यावि ९ अपच्छिमे ॥ ११ ॥ प्रथमो बलदेवोऽचलः द्वितीयो विजयः तृतीयो भद्रः चतुर्थः सुप्रभः पञ्चमः सुदर्शनः षष्ठ आनन्दः सप्तमो नन्दनः अष्टमः पद्मः 1-4-% Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३४९ ॥ Jain Education सीताभर्ता राम इत्यर्थः नवमो रामः कृष्णसहचरः अपश्चिमः - सर्वान्तिमो, न विद्यते पश्चिमो यस्मादिति व्युत्पत्तेः २०९ ॥ ११ ॥ सम्प्रति 'हरिणो' त्ति दशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह तिविट्ठू य १ दुवि य २ सयंभु ३ पुरिसुत्तमे ४ पुरिससीहे ५ । तह पुरिसपुंडरीए ६ दत्ते ७ नारायणे ८ कण्हे ९ ॥ १२॥ त्रिपृष्ठः प्रथमो वासुदेवः प्राकृतत्वादार्षत्वाच्च सूत्रे 'तिविहूत्ति निर्देशः, द्वितीयो द्विपृष्ठः तृतीयः स्वयम्भूः चतुर्थ: पुरुषोत्तमः पञ्चमः पुरुषसिंहः षष्ठः पुरुषपुण्डरीकः सप्तमो दत्तः अष्टमो नारायणो रामभ्राता लक्ष्मण इत्यर्थः, नवमः कृष्णः २१० ॥ १२ ॥ इदानीं 'पडिवासुदेव' स्येकादशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह आसग्गीवे १ तारय २ मेरए ३ मधुकेढवे ४ निसुंभे ५ य । बलि ६ पहराए ७ तह रावणे य ८ नवमे जरासिंधू ९ ॥ १३॥ अश्वमीवः प्रथमः प्रतिवासुदेवः तारको द्वितीय: मेरकस्तृतीयः मधुकैटभश्चतुर्थः, अस्य च मधुरित्येव नाम केवलं कैटभामिव भ्रातृसंबन्धान्मधुकैटभ इत्युच्यते, निशुम्भः पञ्चमः बलिः षष्ठः प्रभाराजः प्रह्लादो वा सप्तमः रावणोऽष्टमः जरासन्धो नवमः, एते सर्वेऽपि त्रिपृष्ठादीनां नवानामपि वासुदेवानां यथाक्रमं प्रतिशत्रवः, तथा सर्वेऽपि चक्रयोधिनः सर्वेऽपि च हताः स्वचत्रैः, यतस्तान्येव प्रतिवासुदेवचक्राणि प्रतिवासुदेवैर्वासुदेवव्यापत्तये क्षिप्तानि पुण्योदयवशाद्वासुदेवान् प्रणम्य वासुदेवहस्ते चटितानि तैः क्षिप्तानि तान्येव प्रतिवासुदेवान् व्यापादयन्ति २११ ॥ १३ ॥ सम्प्रति 'रयणाई चउदसति द्वादशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह २०८-९१०-११चक्रिबलवा सुदेवप्रति वासुदेवाः गा. १२१०-१३ ॥ ३४९ ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेणावर १ गाहावर २ पुरोहिय ३ तुरय ४ गय ५ वहुई ६ इत्थी ७ । चक्कं ८ छतं ९ चम्मं १० मणि ११ कागिणि १२ खग्ग १३ दंडो १४ य ॥ १४ ॥ चक्कं १ खग्गं २ च धणू ३ मणी ४ य माला ५ तहा गया ६ संखो ७ । एए सत्त उ रयणा सवेसिं वासुदेवाणं ॥ १५ ॥ चक्कं छतं दंडं तिनिवि एयाई वाममित्तानं । चम्मं दुहत्थदीहं बत्तीसं अंगुलाई असी ॥ १६ ॥ चउरंगुलो मणी पुण तस्सद्धं चैव होइ विच्छिन्नो । चउरंगुलप्पमाणा सुवन्नवरकागिणी नेया ॥ १७ ॥ सेनापतिः १ गृहपतिः २ पुरोहितः ३ तुरगः ४ गजः ५ वर्धकिः ६ स्त्री ७ चक्रं ८ छत्रं ९ चर्म १० मणिः ११ काकिनी १२ खड्गो १३ दण्ड १४ श्वेत्येतानि चतुर्दशापि रत्नानि निगन्द्यते, 'रत्नं निगद्यते तज्जातौ जातौ यदुत्कुष्ट' मिति वचनात् सेनापत्यादिजातिषु वीर्यत उत्कृष्टत्वेन रत्नानीत्युच्यन्ते, तत्र सेनापतिः - दलनायको गङ्गासिन्धुपरपारविजये बलिष्टः १ गृहपतिः - चक्रवर्तिगृहसमुचितेतिकर्तव्यतापरः शाल्यादिसर्वधान्यानां समस्तखादु सहकारादिफलानां सकलशाकविशेषाणां निष्पादकञ्च २ पुरोहितः - शान्तिकर्मादिकृत् ३ तुरङ्गमगजी प्रकृष्टवेगमहापराक्रमादिगुणसमन्वितौ ४-५ वर्धकिः - गृहनिवेशादिसूत्रणाकारी, यस्तमिस्रगुहायां खण्डप्रपातगुहायां चोन्मन्नजला निमनजलयोर्नद्योश्चक्रवर्त्तिसैन्योत्तरणाय काष्ठमयं सेतुबन्धं करोति ६ स्त्रीरत्नमत्यद्भुतकामसुखनिधानं ७ चक्रं समस्तायुधातिशायि दुर्दमरिपुजयकरं ८ छत्रं चक्रवर्तिहस्त संस्पर्श प्रभावसंजातद्वादशयोजनायामविस्तारं सत् वैताढ्य नगोत्तरविभागवर्तिम्लेच्छानुरोधिमेघकुमावृष्टाम्बुभरनिरसनसमर्थं नवनवतिसहस्रकाञ्चनशलाकापरिमण्डितं निर्वणसुप्रशस्तकाञ्चनमयोद्दण्डदण्डं वस्तिप्रदेशे पञ्जरविराजितं राजलक्ष्मीचिह्नमर्जुनाभिधानपाण्डुरस्वर्ण प्रत्यवस्तृतपृष्ठदेशं शारदसंपूर्ण पूर्णिमामृगाङ्कमण्डलमनोहरं तपनातपवातवृष्टिप्रभृतिदोषक्षयकारकं ९ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- चर्मरत्नं छत्रस्याधस्ताच्चक्रवर्तिहस्तस्पर्शप्रभावसंजातद्वादशयोजनायामविस्तारं प्रातरुप्तापराहसंपन्नोपभोग्यशाल्यादिसम्पत्तिकरं १० मणिरत्नं २१२चक्रिरोद्धारे ४ वैडूर्यमय व्यत्रं षडंशं यथाक्रममूर्द्धाधःस्थितयोश्छत्रचर्मरत्नयोरपान्तराले छत्रतुम्बे न्यस्तं सद् द्वादशयोजनविस्तारिणः समस्तस्यापि चक्र- वासुदेवरतत्त्वज्ञा- लावर्तिकटकस्य निरुपमप्रकाशकारि तमिस्रगुहायां खण्डप्रपातगुहायां च प्रविशतश्चक्रवर्तिनो हस्तिरत्नदक्षिणशिरसि निबद्धं च द्वादश योज- लानि गा. नवि० |नानि यावत्पूर्वापरपुरतोरूपासु तिसृषु दिक्षु निबिडतममपि तमःस्तोममपहरति, यस्य च हस्ते शिरसि वा बद्ध्यते तस्य दिव्यतिर्यग्मनु- १२१३-१७ प्यकृतसमस्तोपद्रवसमस्तरोगापहारं करोति, एतच्च मूर्ध्यन्यत्र वाऽङ्गे व्यवस्थाप्य संग्रामे प्रविष्टः सन् शस्त्रैरवध्यो भवति सर्वभयविमुक्त|श्वोपजायते, अन्यच्च-तस्मिन् मणिरत्ने सदा मणिबन्धादौ व्यवस्थितेऽवस्थितयौवनोऽवस्थितकेशनखश्चोपजायते. पुमान् ११ काकिणीरत्नमष्टसौवर्णिकं समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितं विषापहारसमर्थ यत्र चन्द्रप्रभा सूर्यप्रभा वहिदीप्तिर्वा न तमःस्तोममपहर्तुमलं भवति तत्र तमिस्रगुहायामतिनिबिडतिमिरतिरस्करणदक्षं, यस्य दिव्यप्रभावकलिततया द्वादश योजनानि यावत्तमिस्रविसरविनाशिका गभस्तयो विवधन्ते, यच्च सर्वकालं चक्रवर्ती निजस्कन्धावारे रात्रौ स्थापयति, तद्धि दिवसालोकभूतं प्रकाशं रजन्यामादधाति, यस्य च प्रभावेण चक्रवर्ती द्वितीयमधभरतममिजेतुं सकलसैन्यसमेतस्तमिस्र गुहायां प्रविशति, तथा च तत्र प्रविष्टः सन् स पूर्वमित्तितटे पश्चिममित्तितटे च प्रत्येक योजनान्तरितानि पञ्चधनुःशतायामविष्कम्भान्युभयपार्श्वयोर्योजनोद्योतकराणि चक्रनेमिसंस्थानानि चन्द्रमण्डलप्रतिनिभानि वृत्तहिरण्यरेखारूपाणि गोमूत्रिकान्यानेनैकस्यां मित्तौ पञ्चविंशतिरपरस्यां तु चतुर्विशतिरित्येकोनपञ्चाशतं मण्डलान्यालिखन् ब्रजति, || तानि च मण्डलानि यावच्चक्रवर्ती चक्रवर्तिपदं परिपालयति तावदवतिष्ठन्ते, गुहाऽपि तथैवोद्घाटिता तिष्ठति, उपरते तु चक्रिणि तत्स-115॥३५॥ मुपरमते १२ खड्गरत्न-संग्रामभूमावप्रतिहतशक्तिः १३ दण्डरनं रत्नमयपश्चलताकं वज्रसारमयं सर्वशत्रुसैन्यविनाशकारक, चक्रवर्तिनः For Private & Personel Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education | स्कन्धावारे विषमोन्नतविभागेषु समत्वकारि शान्तिकरं चक्रवर्तिनो हितेप्सितमनोरथपूरकं दिव्यमप्रतिहतं प्रयत्नविशेषतश्च व्यापार्यमाणं योजनसहस्रमप्यधः प्रविशति १४ । एतानि चतुर्दश रत्नानि प्रत्येकं यक्षसहस्राधिष्ठितानि भवन्ति तथैतानि सेनापत्यादीनि सप्त पञ्चेन्द्रियाणि चक्रादीनि सप्त एकेन्द्रियाणि पृथिवीपरिणामरूपाणि प्रत्येकं जम्बूद्वीपे जघन्यपदेऽष्टाविंशतिरेककालं प्राप्यन्ते, जघन्यतोऽपि चक्रवर्तिचतुष्टयसद्भावात्, उत्कृष्टतस्तु दशोत्तरद्विशतसङ्ख्यानि, चक्रवर्तिनो ह्येककालं त्रिंशद्भवन्ति, यथा अष्टाविंशतिर्विदेहे एकैको भरतै - रखतयोः, सप्तानां च त्रिंशता गुणने द्वे शते दशोत्तरे भवत इति ॥ १४ ॥ अथ रत्नप्रस्तावाद्वासुदेवस्यापि रत्नान्याह — 'चक्क 'मित्यादि, चक्रखङ्गधनुर्मणयः प्रतीताः माला सदैव चाम्लाना देवार्पिता गदा - कौमोदकी नाम प्रहरणविशेषः शङ्खः - पाञ्चजन्यो द्वादशयोजनविस्तारिध्वानः, एतानि सप्त रत्नानि सर्वेषामपि वासुदेवानां भवन्ति ॥ १५ ॥ अथ सप्तानामप्येकेन्द्रियरत्नानां प्रमाणमाह – 'चक्क 'मित्यादि गाथाद्वयं, चक्रं छत्रं दण्डमित्येतानि त्रीण्यपि रत्नानि व्यामप्रमाणानि, व्यामो नाम प्रसारितोभयबाहोः पुंसस्तिर्यग्हस्तद्वयाङ्गुलयोरन्तरालं, चर्मरत्नं द्विहस्तदैर्ध्य, द्वात्रिंशदङ्गुलदीर्घोऽसि:-खड्गरत्नं, तथा दैर्घ्यमधिकृत्य मणिः पुनश्चतुरङ्गुलप्रमाणः, तस्य - दैर्घ्यस्यार्ध द्वे अङ्गुले इत्यर्थः विस्तीर्णो- विस्तृतः, तथा चतुरङ्गुलप्रमाणा सुवर्णवरकाकिनी - जात्यसुवर्णमयी काकिनीनाम रत्नं ज्ञेया, एतानि सप्ताध्ये - केन्द्रियरत्नानि सर्वचक्रवर्तिनामात्माङ्गुलेन ज्ञेयानि शेषाणि तु सप्त पञ्चेन्द्रियरत्नानि तत्तत्कालीन पुरुषोचितमानानीति २१२ ॥ १६ ॥ ॥ १७ ॥ सम्प्रति 'नव निहिओ'त्ति त्रयोदशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह सप्पे १ पंडुयए २ पिंगलए ३ सवरयण ४ महप मे ५ । काले य ६ महाकाले ७ माणवग ८ महानिही संखे ९ ॥ १८ ॥ नेसप्पंमि निवेसा गामागरनगरपट्टणाणं च । दोणमुहमडवाणं खंधा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३५१ ॥ Jain Educatio राणं गाणं च ॥ १९ ॥ गणियस्स य गीयाणं माणुम्माणस्स जं पमाणं च । धन्नस्स य बीयाणं उप्पत्ती पंडुए भणिया ॥ २० ॥ सङ्घा आहरणविही पुरिसाणं जा य जा य महिलाणं । आसाण य हत्थीण य पिंगलगनिहिम्मि सा भणिया ॥ २१ ॥ रयणारं सवरयणे चउदस पवराई चक्कवहीणं । उप्पज्जंति एगिंदियाई पंचिंदियाई च ॥ २२ ॥ वत्थाण य उत्पत्ती निष्पत्ती चेव सबभत्तीणं । रंगाण य धाऊण य सङ्घा एसा महापउमे ॥ २३ ॥ काले कालन्नाणं भव पुराणं च तिसुवि वंसेसु । सिप्पसयं कम्माणि य तिन्नि पयाए हियकराई ॥ २४ ॥ लोहस्स य उप्पत्ती होइ महाकाल आगराणं च । रूप्पस्स सुवण्णस्स य मणिमोन्तियसिलपवालाणं ॥ २५ ॥ जोहाण य उपपत्ती आवरणाणं च पहरणाणं च । सङ्घा य जुद्धनीई माणवगे दंडनीई य ॥ २६ ॥ नवविही aisant nara विहस्स निष्पत्ती । संखे महानिहिम्मि उ तुडियंगाणं च सर्व्वसिं ॥ २७ ॥ चक्कपट्ठाणा अडस्सेहा य नव य विक्खंभे । बारस दीहा मंजूससंठिया जण्हवीऍ मुहे ॥ २८ ॥ वेरुलियमणिकवाडा कणयमया विविहरयणपडिपुन्ना । ससिसूरचक्कलक्खण अणुसमवयणोववत्तीया ॥ २९ ॥ पलिओवमट्ठिईया निहिसरिनामा य तत्थ खलु देवा । जेसिं ते आवासा अकेला आहिवच्चाय ॥ ३० ॥ एए ते नव निहिणो पभूयधणरयणसंचयसमिद्धा । जे वसमुवगच्छंति सधेसि चक्कवहीणं ॥ ३१ ॥ २१३ नवनिधिस्वरू पम् गा. १२१८-३१ ॥ ३५१ ॥ w.jainelibrary.org Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैसर्पः पाण्डुकः पिङ्गलकः सर्वरत्नः महापद्मः कालः महाकालः माणवकः महानिधिः शङ्खश्च, एते नव निधयः, एतेषु च निधिषु कल्पपुस्तकानि शाश्वतानि वर्तन्ते, तेषु च विश्वस्थितिराख्यायते ॥ १८॥ तत्र यस्मिन्निधौ यदाख्यायते तदाह-'नेसप्पंमी'त्यादिगाथा एकादश, नैसर्प-नैसमिधे निधौ प्रामाकरनगरपत्तनानां द्रोणमुखमडम्बानां स्कन्धावाराणां गृहाणां चशब्दादापणानां च निवेशा:स्थापनान्याख्यायन्ते, तत्र ग्रामो-वृत्त्यावृतः आकरो-यत्र सन्निवेशे लवणाधुत्पद्यते नगर-राजधानी पत्तनं-जलस्थलनिर्गमप्रवेशं द्रोणमुखं-जलनिर्गमप्रवेशं अर्धतृतीयगव्यूतान्तीमान्तररहितं मडम्बं स्कन्धावार:-कटकनिवेशः गृह-भवनं आपणो-हट्ट इति ॥ १९॥ गणितस्य-दीनारादिपूगफलादिलक्षणस्य तथा गीतानां-खरकरणपाटकरणधूपकागारुकटिकिकाप्रभृतीनां प्रवन्धानां, तथा मान-सेतिकादि तद्विषयं यत्तदपि मानमेव धान्यादि मेयमिति भावः तथा उन्मानं-तुलाकर्षादि तद्विषयं यत्तदप्युन्मानं, खण्डगुडादि धरिममित्यर्थः, ततः समाहारद्वन्द्वः ततस्तस्य यत्प्रमाणं, तथा धान्यबीजानां च-शाल्यादीनां देशकालौचित्येनोत्पत्तिः-निष्पत्तिः पाण्डुकनिधौ भणिताव्यावर्णिता ॥ २०॥ सर्वोऽप्याभरणविधिर्यः पुरुषाणां यश्च महिलानां तथा अश्वानां हस्तिनां च स ययौचित्येन पिङ्गलनामके महानिधौ भणितः ॥ २१ ॥ इह चक्रवर्तिनश्चतुर्दश रत्नानि सर्वोत्तमानि भवन्ति, तद्यथा-चक्रप्रमुखाणि सप्त एकेन्द्रियाणि सेनापतिप्रमुखाणि सप्त पञ्चेन्द्रियाणि, तानि चतुर्दशापि सर्वरनास्ये महानिधौ उत्पद्यन्ते, तदुत्पत्तिस्तत्र व्यावर्णितेत्यर्थः, अन्ये त्वेवमाहुः-उत्पद्यन्ते एतत्प्रभावात् स्फीतिमन्ति च भवन्तीत्यर्थः ॥ २२ ॥ सर्वेषामपि वस्त्राणां या उत्पत्तिः तथा सर्वेषामपि वस्त्रादिगतानां भक्तिविशेषाणां सर्वेषामपि च रङ्गाणां-मजिष्ठाकृमिरागकुसुम्भादीनां धातूनां च-लोहताम्रादीनां 'धोबाण यत्ति पाठे तु सर्वेषां वस्त्रादिप्रक्षालनविधीनां |या निष्पत्तिः सर्वा चैषा महापद्मे निधावभिधीयते ॥ २३ ॥ काले-कालनामनि निधी कालज्ञान-समस्तज्योतिःशास्त्रानुगतं ज्ञानमिति CASCCSAARCCCCCCES Jan Education Intemanona Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6-26 प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३५२॥ 1-3-34- 3 भावः, तथा जगति त्रयो वंशाः, वंशः प्रवाह आवलिकेत्यनान्तरं, तद्यथा-तीर्थकरवंशश्चक्रवर्तिवंशो बलदेववासुदेववंशश्च, तेषु त्रिष्वपि 3.२१३ नववंशेषु यद्भव्यं-भावि यच्च पुराणं-अतीतं, उपलक्षणमेतत् वर्तमानं च, 'तिसुवि वासेसुत्तिपाठे तु अनागतवस्तुविषयमतीतवस्तुविषयं निधिस्वरूच कालज्ञानं क्रमेणानागतातीतवर्षत्रयगोचरमिति, क्वचिद् 'भवपुराणं च तिसुवि कालेसु'त्ति पाठः, तत्र च त्रिष्वपि कालेषु-वर्तमा | पम् गा. नातीतानागतेषु भव्य-शुभं पुराणं च-अशुभं कालज्ञानमिति, तथा यत् शिल्पशत-घटलोहचित्रवस्त्रनापितशिल्पानां पञ्चानामपि प्रत्येक १२१८-३१ विंशतिभेदत्वात् यानि च कृषिवाणिज्यादीनि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदमिन्नानि त्रीणि कर्माणि प्रजाया हितकराणि तदेतत्सर्वमभिधीयते ॥ २४ ॥ महाकाले निधौ लोहस्य नानाभेदमिन्नस्योत्पत्तिराख्यायते, रूप्यसुवर्णमणिमुक्ताशिलाप्रवालानां संबन्धिनामाकराणां च, तत्र | रूप्यसुवर्णे प्रतीते मणय:-चन्द्रकान्तादयः मुक्ता-मौक्तिकानि शिला:-स्फाटिकादिका प्रवालानि-विट्ठमाणीति ॥ २५ ॥ माणवके निधौ योधाना-शूरपुरुषाणामावरणाना-खेटकादीनां प्रहरणानां-खड्गादीनां च यत्र यथा वा उत्पत्तिर्भवति तथाऽभिधीयते, तथा सर्वाऽपि युद्धनीतिः-व्यूहरचनादिलक्षणा, सर्वाऽपि च दण्डनीतिः-सामादिचतुर्विधाऽऽख्यायते ॥ २६ ॥ शशामिधाने पुनर्महानिधौ सर्वोऽपि नर्तनविधि:-नृत्यकरणप्रकारः सर्वोऽपि च नाटकविधि:-अभिनेयप्रबन्धप्रपञ्चनप्रकारः, तथा धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थप्रतिबद्धस्य यद्वा संस्कृतप्राकृतापभ्रंशसंकीर्णभाषानिबद्धस्य गद्यपद्यगेयचौर्णपदबद्धस्य वा चतुर्विधस्यापि काव्यस्य तथा सर्वेषां त्रुटिताङ्गानामातोद्यापरपर्यायाणामुत्पत्तिराख्यायते । अन्ये त्वेते पूर्वोक्ताः पदार्थाः सर्वेऽपि नवसु निधिषु साक्षादेव समुत्पद्यन्ते इति व्याख्यानयन्ति ॥२७॥ अथ नवाना-| मपि निधीनां साधारणं स्वरूपमाह-'चक्कठपई'त्यादि, प्रत्येकमष्टसु चक्रेषु प्रतिष्ठानं-अवस्थानं येषां ते अष्टचक्रप्रतिष्ठानाः, प्राकृतत्वादष्टशब्दस्य ॥३५२॥ परनिपातः, अष्टौ योजनानि उत्सेधः-उच्चैस्त्वं येषां ते तथा, नव च योजनानि विष्कम्भेण नवयोजनविस्तारा इत्यर्थः, द्वादशयोजनदीर्घाः, 0- Jan Education Intematon For Private Personel Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मञ्जूषासंस्थानसंस्थिताः सदैव जाहव्या-गंगाया मुखेऽवस्थिताः चक्रवर्तिन उत्पत्तिकाले च भरतविजयानन्तरं चक्रवर्तिना सह पातालेन चक्रवर्तिपुरमनुगताः ॥ २८ ॥ वैडूर्यमणिमयानि कपाटानि येषां ते तथा, मयट्प्रत्ययस्य वृत्त्या उक्तार्थता, कनकमयाः-सौवर्णाः विविधरत्नपरिपूर्णाः, शशिसूरचक्राकाराणि लक्षणानि-चिह्नानि येषां ते तथा, प्राकृतत्वात्प्रथमाबहुवचनस्य लोपः, 'अणुसमवयणोववत्तीयत्ति अनुरूपा समा-अविषमा वदनोपपत्ति:-द्वारघटना येषां ते तथा, 'अणुवमत्तिपाठे तु न विद्यते उपमावचनस्योपपत्तिः-घटना | येषां स्वरूपव्यावर्णने ते अनुपमवचनोपपत्तिकाः-उपमया प्रतिपादयितुमशक्याः , उपमाया एवाभावादिति भावः, कचित् 'अणुसमय|चयणोववत्तीय'त्तिपाठः, तत्र अनुसमयं-प्रतिसमयं पुद्गलानां च्यवनमुपपत्तिश्च येषां ते तथा, यावन्तस्तेभ्यः पुद्गला गलन्ति तावन्त एवानुसमयं लगन्तीत्यर्थः, स्थानाङ्गे तु 'अणुसमजुगबाहुवयणा यत्ति पठ्यते, तत्र चायमर्थः-अनुसमा-अनुरूपा अविषमा जुगत्ति-यूपस्तदाकारा वृत्तत्वादीर्घत्वाच्च बाहवो-द्वारशाखा वदनेषु-मुखेषु येषां ते तथा ॥ २९ ॥ तेषु च निधिषु पल्योपमस्थितिका निधिसदृशनामानस्ते देवा भवन्ति येषां देवानां त एव निधय आवासा-आश्रयाः आधिपत्याय-आधिपत्यनिमित्तमक्रेयाः, न तेषामाधिपत्यं क्रयेण लभ्यमिति भावः ॥ ३० ॥ एते ते नव निधयः प्रभूतधनरत्नसंचयसमृद्धाः ये सर्वेषामपि भरतक्षेत्राधिपचक्रवर्तिनां वशमुपयान्तीति २१३ ।। ३१ ॥ इदानीं 'जीवसंखा उत्ति चतुर्दशोत्तरद्विशततमं द्वारं बिभणिषुः स्वकृतमेव जीवसङ्ख्याप्रतिपादकं कुलकमत्र ग्रन्थे निक्षिप्तवान् ग्रन्थकारः, तत्र चेयमादिगाथा नमिउं नेमि एगाइजीवसंखं भणामि समयाओ। चेयणजुत्ता एगे १ भवत्यसिद्धा दुहा जीवा २॥३२॥ तस थावरा य दुविहा २ तिविहा थीपुंनपुंसगविभेया ३ । नारयतिरियनरामरगइभे For Private Personel Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ ३५३ ॥ याओ चउन्भेया ४ ॥ ३३ ॥ अहव तिवेयअवेयगसरूवओ वा हवंति चत्तारि ४ । एगबितिचउपणिदियरूवा पंचप्पयारा ते ॥ ३४ ॥ एए चिय छ अनिंदियजुत्ता ६ अहवा छ भूजलग्गिनिला । वणतससहिया ६ छप्पिय ते सत्त अकायसंवलिया ॥ ३५ ॥ अंडय १ रसय २ जराउय ३ संसेयय ४ पोयया ५ समुच्छिमया ६ । उब्भिय ७ तहोववाइय ८ भेएणं अट्ठहा जीवा ॥ ३६ ॥ पुढवाह पंच वितिचउपणिदि ४ जुत्ता य नवविहा ९ हुंति । नारयनपुंस तिरिनरतिवेय सुरथीपुमेवं वा ॥ ९ ॥ ३७ ॥ पुढवाइ अट्ठ असन्नि सन्नि दस ते ससिद्ध इगदसउ ११ । पुढवाइया तसंता अपज्जपज्जत्त बारसहा ॥ ३८ ॥ बारसवि अतणुजुत्ता तेरस मुहुमियरेगिंदिबेदी । तिय च असन्नि सन्नी अपज्जपजत्त चउदसहा ॥ ३९ ॥ चउदसवि अमलकलिया पनरस तह अंडगाइ जे अट्ठ । ते अपजत्तगपजत्तभेयओ सोलस हवंति ॥ ४० ॥ सोलसवि अकायजुया सतरस नपुमाइ नव अपजत्ता । पजत्ता अट्ठारस अकम्मजुअ ते इगुणवीसं ॥ ४१ ॥ पुढवाइ दस अपज्जा पज्जन्त्ता हुंति वीस संखाए । असरीरजुएहिं तेहिं वीसई होइ एगहिया ॥ ४२ ॥ सुहुमियरभूजलानलवाडवणाणंत दस सपत्तेआ । वितिचउअसन्निसन्नी अपज्जपज्जन्त बत्तीसं ॥ ४३ ॥ तह नरयभवणवणजोइक प्प गेवेजऽणुत्तरुपपन्ना । सन्तदसऽडपणबारस नवपणछप्पन्नवेउवा ॥ ४४ ॥ हुति अडवन्नसंखा ते नरतेरिच्छसंगया सवे । अपजत्तपजत्तेहिं सोलसुत्तरसयं तेहिं ॥ ४५ ॥ सन्नि २१४ जीवसंख्याकुलकम् गा. १२३२-४८ ॥ ३५३ ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुगहीण बत्तीससंगयं तं सयं छयत्तालं। तं भवाभवगदूरभव आसन्नभवंच॥४६॥ संसारनिवासीणं जीवाण सयं इमं छयत्तालं । अप्पं व पालियचं सिवसुहकंखीहिं जीवहिं॥४७॥ सिरि अम्मएवमुणिवइविणेयसिरिनेमिचंदसूरीहिं। सपरहियत्थं रइयं कुलयमिणं जीवसंखाए॥४८॥ नत्वा-प्रणम्य नेमि-द्वाविंशतीर्थकरं एकादिकां-एकद्विव्यादिका जीवसङ्ख्या भणामि-कथयामि समयात्-सिद्धान्तात् , न पुनः स्खमनीषिकयेति । तत्र चेतनायुक्ताः-चैतन्योपेता जीवा एके-एकविधाः, उपयोगलक्षणत्वाजीवानां, सिद्धसंसार्यवस्थाद्वयेऽप्युपयोगभावेन सततावबोधभावात् , सततावबोधाभावे चाजीवत्वप्रसङ्गात् , तथा भवस्थसिद्धभेदेन द्विधा जीवाः, तत्र भवस्था:-संसारवर्तिनः सिद्धा-18 मुक्तिपदप्राप्ताः ॥ ३२ ॥ अथवा त्रसस्थावरभेदेन द्विधा जीवाः, तत्र त्रसा-द्वीन्द्रियादयः स्थावरा:-पृथिव्यादय एकेन्द्रियाः, तथा | त्रिविधाः स्त्रीपुंनपुंसकभेदतः, इह ख्यादयः ख्यादिवेदोदयात् योन्यादिसंगता गृह्यन्ते, तथा चोक्तम्-"योनिर्मुदुत्वमस्थैर्य, मुग्धताऽबलता स्तनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥ १॥ मेहनं खरता दाळ, शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता । स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥ २ ॥ स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ ३॥” तथा नारकतिर्य| परामरगतिभेदतश्चतुर्भेदा जीवाः ॥ ३३ ॥ अथवा त्रिवेदावेदस्वरूपतो भवन्ति चतुर्विधा जीवाः, वाशब्दः समुच्चये, तत्र त्रिवेदात्रयः -पुरुषाः स्त्रियो नपुंसकाच, न विद्यते वेद उपशमितत्वात् क्षपितत्वाद्वा येषां ते अवेदा:-अनिवृत्तिबादरादयो भवस्थाः सिद्धाश्च । तथा एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदतः पञ्चप्रकारास्ते जीवाः ॥ ३४ ॥ एत एव एकेन्द्रियादयः पञ्चप्रकारा जीवा अनिन्द्रिययुक्ताः षड्डिधा भवन्ति, न विद्यन्ते इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि येषां तेऽनिन्द्रिया:-सिद्धाः, अथवा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदतः पड्डिधा जीवाः, Jan Education International For Private Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा २१४ जीवसंख्याकुलकम् गा. १२३२-४८ नवि० ॥३५४॥ तथा पूर्वोक्ता एव पृथिव्यादयः षड़िधा जीवा अकायसहिताः सप्तविधा भवन्ति, न विद्यते काय:-पञ्चप्रकारमपि शरीरं येषां तेऽकायाः -सिद्धाः ॥ ३५ ॥ अण्डजादिभेदतोऽष्टविधा जीवा भवन्ति, तत्र अण्डाज्जाता अण्डजाः-पक्षिगृहकोकिलामत्स्यसादयः रसाजाता रसजा:-तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा जीवविशेषाः, जरायो:-गर्भवेष्टनाजातास्तद्वेष्टिता इत्यर्थः जरायुजा-मनुध्यगोमहिष्यादयः, संखेदाज्जाताः संस्खेदजा-मत्कुणयूकाशतपदिकादयः, पोतं-वस्त्रं तद्वज्जाताः पोतादिव बोहिस्थाज्जाता अजरायुवेष्टिता इत्यर्थः पोतजा-हस्तिवल्गुलीचर्मजलूकाप्रभृतयः, संमूर्छन निवृत्ता: संमूर्छिमाः-कृमिपिपीलिकामक्षिकाशालिकादयः, उद्देदाद्-भूमिभेदाजाता उद्भेदजाः-पतङ्गखजनकादयः, उपपाते-देवशयनीयादी भवा औपपातिका:-देवा नारकाश्चेति ॥ ३६ ।। पृथिव्यादयः-पृथिव्यजोवायुवनस्पतयः पञ्च द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिययुक्ता नवविधा जीवा भवन्ति, अथवा नारका नपुंसकत्वेनेकविधाः तिर्यञ्चो नराश्च त्रिवेदत्वेन-स्त्रीनपुंसकवेदत्वेन प्रत्येकं त्रिभेदाः सुराश्च स्त्रीपुरुषभेदत्वेन द्विविधाः इत्येवं नवविधा जीवाः ॥ ३७ ॥ पृथिव्यादयः-पृथिव्यजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियलक्षणा अष्टौ जीवाः असंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेण सहिता दशविधा भवन्ति, तथा त एव दशविधा जीवाः | ससिद्धाः-सिद्धसहिता एकादशविधा भवन्ति, तथा पृथिव्यादयस्त्रसान्ताः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसा इत्यर्थः, प्रत्येकमपर्याप्तपर्याप्तभेदतो द्वादशविधा भवन्ति ॥ ३८ ॥ ते द्वादशापि अतनुयुक्तास्त्रयोदश भवन्ति, न विद्यते तनु:-शरीरं येषां तेऽतनवः-सिद्धाः, तथा एकेन्द्रिया द्विधा-सूक्ष्मा बादराश्च, तथा द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियास्तु द्विविधाः-असंज्ञिनः संज्ञिनश्च, एते सप्तापि प्रत्येकमपर्याप्ताः पर्याप्ताश्चेति चतुर्दशविधा जीवाः ॥ ३९ ॥ एत एव चतुर्दश अमलसहिताः पञ्चदशविधाः, न विद्यते मल इव मलोनिसर्गनिर्मलजीवमालिन्यापादनहेतुत्वादष्टप्रकारं कर्म येषां तेऽमला:-सिद्धाः, तथा येऽण्डजरसजादयः पूर्वमष्टौ जीवभेदा भणितास्तेऽप ॥३५४॥ - - Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education र्याप्तपर्याप्तभेदतः पोडश भवन्ति ॥ ४० ॥ एत एव षोडश अकायेन - सिद्धेन युक्ताः सप्तदशविधाः । तथा पूर्वोक्ता नपुंसकादिभेदा -नार कनपुंसक स्त्रीपुंनपुंसक तिर्यक्स्त्रीपुंनपुंसक मानव स्त्रीपुंवेददेवलक्षणा नवविधा अपि जीवाः प्रत्येकमपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च सन्तोऽष्टादशभेदाः । तथा ते एव चाष्टादश अकर्मभिः - सिद्धैर्युक्ता एकोनविंशतिः ॥ ४१ ॥ पूर्व ये पृथिव्यादयो दशविधा जीवा भणिताः त एवापर्याप्तपर्याप्तभेदाभ्यां विंशतिसङ्ख्या भवन्ति, तथा तैरेव पृथिव्यादिभिर्विशति सङ्ख्यै में देरशरीरयुतैः - सिद्धसहितैः सद्भिरेकविंशतिर्जीवभेदा भवन्ति ॥ ४२ ॥ पृथिव्यप्तेजोवाय्वनन्तवनस्पतयः पञ्च प्रत्येकं सूक्ष्मवादरभेदतो दश भवन्ति, ते च सप्रत्येकाः - प्रत्येकवनस्पतिसहिता एकादश, द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपश्चेन्द्रियाञ्च पञ्च मिलिताः षोडश, एते च प्रत्येकमपर्याप्तपर्याप्तभेदभिन्ना द्वात्रिंशद्भवन्ति, इयमत्र भावना - पृथि वीकायो द्विधा-सूक्ष्मो बादरच, पुनरेकैको द्विधा - अपर्याप्तः पर्याप्तश्चेति चतुर्विधः पृथ्वीकायः, एवं जलानलवायवोऽपि, वनस्पतिर्द्विधा - साधारणः प्रत्येकच, तत्र साधारणो द्विधा - सूक्ष्मो बादरश्च पुनरेकैको द्विधा - अपर्याप्तः पर्याप्तश्च प्रत्येकस्तु बादर एव स चापर्याप्तपर्याप्तभेदेन द्विविध इति पोढा वनस्पतिकायः, द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपश्चेन्द्रियाः पुनः प्रत्येकमपर्याप्तपर्याप्तभेदतो द्विधा, मिलिताञ्च द्वात्रिं| शदिति ॥ ४३ ॥ नारकभवनपतिवनचरज्योतिष्ककल्पमैवेयकानुत्तर विमानोत्पन्ना जीवा यथाक्रमं सप्तदशअष्टपश्चद्वादशनवपञ्चभेदा भवन्ति, एवं च वैक्रियशरीरिणः षट्पञ्चाशद्भेदाः, एतदुक्तं भवति-रत्नप्रभादिपृथिवी सप्तकनिवासित्वेन नारकाः सप्तविधाः भवनपतयोऽसुरकुमारादिभेदतो दशविधाः व्यन्तराः पिशाचादिभेदादष्टविधाः ज्योतिष्काश्चन्द्रादिभेदेन पञ्चविधाः कल्पोपपन्नाः सौधर्मादिद्वाद| शदेवलोकोत्पन्नत्वेन द्वादशविधाः मैवेयकोत्पन्ना अधस्तनाधस्तनादिमैवेयकनवकनिवासित्वेन नवविधाः अनुत्तरविमानोत्पन्नास्तु विजयादिविमानपञ्चकोत्पन्नत्वेन पञ्चविधाः, सर्वमीलने च पट्पञ्चाशदिति ॥ ४४ ॥ ते सर्वेऽपि वैक्रियशरीरिणो नरतिर्यक्संगताः सन्तोऽष्टप Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- ञ्चाशत्सङ्ख्या भवन्ति, तथा तैरेवाष्टपञ्चाशत्सयैः प्रत्येकमपर्याप्तपर्याप्तभेदमिन्नैः षोडशोत्तरशतं भवन्ति ॥ ४५ ॥ संज्ञिद्विकं-पर्याप्ताप- २१४ जीव रोद्धारे र्याप्तसंज्ञिरूपं तेन हीना-रहिता पूर्वोक्ता या द्वात्रिंशत् तया संगतं-मिलितमेतदेव षोडशोत्तर शतं षट्चत्वारिंशं शतं भवति, संज्ञिद्वि- संख्याकुलतत्त्वज्ञा- कस्य तु षोडशोत्तरशतग्रहणेनैव ग्रहणाद्वर्जनमिति । तच्च षट्चत्वारिंशं शतं भव्याभव्यदूरभव्यासन्नभव्यलक्षणैश्चतुर्भिर्भेदैः संगृह्यते, इदमत्र दकम् गा. नवि० ॥ तात्पर्य-पूर्वोक्तस्य षट्चत्वारिंशदुत्तरशतस्य मध्ये केचिजीवा भव्याः केचिदभव्याः केचिद् दूरभव्याः केचिदासन्नभव्या इति, तत्र १२३२-४८ मुक्तिपर्यायेण भविष्यन्तीति भव्याः-सिद्धिगमनयोग्याः, न पुनरवश्यं सिद्धिगामिन एव, भव्यानामपि केषाञ्चित्सिद्धिगमनासंभवात् , ॥३५५॥ | उक्तं च "भव्वावि न सिज्झिस्संति केई" इत्यादि, भव्यविपरीता अभव्याः, तथा च ते न कदाचिदपि संसाराकूपारस्य पारं प्राप्नुवन्तः प्राप्नुवन्ति प्राप्स्यन्ति चेति, इदं च भव्यानां भव्यत्वमनादिकालसिद्धं शाश्वतमेव, न पुनः सामग्र्यन्तरेण पश्चाद्भवत्यपगच्छति वा, अभव्यत्वमप्यभव्यानामित्थमेव द्रष्टव्यं, यद्यपि च भव्यत्वाभव्यत्वाभ्यामेव सर्वेऽप्यमी जीवभेदाः संगृहीतास्तथापि भव्यविशेषत्वादेतौ दूरभव्यासन्नभव्यलक्षणौ भेदौ पृथगुपात्तौ, तत्र दूरेण-दीर्घतरेण कालेन भव्या-मुक्तिगामिनो दूरभव्याः-ये गोशालकवच्चिरान्मोक्षं | यास्यन्ति, ये पुनस्तेनैव भवेन द्विव्यादिभिर्वा भवैमोक्षं यास्यन्ति ते आसन्नभव्याः। इह च भव्यत्वाभव्यत्वलक्षणमेवमाचक्षते वृद्धाःदयः संसारविपक्षभूतं मोक्षं मन्यते तदवाप्त्यभिलाषं च सस्पृहं वहति किमहं भव्योऽभव्यो वा ? यदि भव्यस्तदा शोभनं अथाभव्यस्तदा | धिमामित्यादिचिन्तां च कदाचिदपि करोति स इत्यादिप्रकारेण चिह्वेन ज्ञायते भव्य इति, यस्य तु जातुचिदपि नेयं चिन्ता समुत्पन्ना समुत्पद्यते समुत्पत्स्यते वा स ज्ञायतेऽभव्य इति, उक्तं चाचाराङ्गटीकायां-"अभव्यस्य हि भव्याभव्यशंकाया अभावादि"त्यादि |॥४६॥ संसारनिवासिना-भववर्तिनां जीवाना-प्राणिनामेतत् षट्चत्वारिंशदुत्तरं शतमात्मवत् पालनीयं-रक्षणीयं शिवसुखकाङ्किमिः AEGLASSES SAMAULICHAECSC For Private & Personel Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षसुखाभिलाषुकैर्जीवैरिति ॥ ४७ ॥ श्रीआखदेवसूरिशिष्यैः श्रीनेमिचंद्रसूरिभिः स्वपरहिताय, आत्मनोऽविस्मृतये परेषां चावबोधाय इत्यर्थः, जीवसङ्ख्यायाः प्रतिपादकमिदं कुलकं-गाथासमुदायात्मकं रचितं - कृतमिति २१४ ॥ ४८ ॥ इदानीं 'कम्माई अट्ठति पञ्चदशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह पढमं नाणावरणं १ बीयं पुण दंसणस्स आवरणं २ । तइयं च वेयणीयं ३ तहा चउत्थं च मोहणीयं ४ ॥ ४९ ॥ पंचममाउं ५ गोयं ६ छहं सत्तमगमंतरायमिह ७ । बहुतमपयडित्तेणं भणामि अट्टमपए नाम ८ ॥ ५० ॥ प्रथमं-आद्यं ज्ञानावरणं द्वितीयं पुनर्दर्शनावरणं तृतीयं च वेदनीयं तथा चतुर्थं च मोहनीयं पश्चममायुः गोत्रं षष्ठं सप्तमं चान्तरायं इह च बहुतमोत्तरप्रकृतित्वेन बहुवक्तव्यत्वात् भणामि अष्टमपदे अष्टमपदस्थाने वा नामकर्मेति, ग्रन्थान्तरे हि आयुर्नाम गोत्रमन्तरायं चेत्यनेन क्रमेण पठ्यते, इह तु बहूत्तरप्रकृतितया पर्यन्ते नामकर्मेति । तत्र ज्ञायते - परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं - सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोधः आत्रियते- आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणं - मिध्यात्वादिसचिवजीवव्यापाराहतकर्म वर्गणान्तःपाती विशिष्टपुद्ग| लसमूहः ज्ञानस्य-मत्यादेरावरणं ज्ञानावरणं १ तथा दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं - सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधः तस्यावरणं दर्शनावरणं २ तथा वेद्यते - आह्रादादिरूपेणानुभूयते यत्तद्वेदनीयं, यद्यपि सर्वं कर्म वेद्यते तथापि पङ्कजादिशब्दवद्वेदनीयश|ब्दस्य रूढिविषयत्वात् सातासातमेव कर्म वेदनीयमित्युच्यते, न शेषं ३ तथा मोहयति - सदसद्विवेक विकलं करोत्यात्मानमिति मोहनीयं ४ तथा एति - आगच्छति प्रतिबन्धकतां स्वकृतकर्मा वाप्तनरकादिकुगतेर्निष्क्रमितुमनसो जन्तोरित्यायुः अथवा आ-समन्तादेति - गच्छति Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३५६॥ भवाद्भवान्तरसंक्रान्तौ जन्तूनां विपाकोदयमित्यायुः ५ तथा गूयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैर्यत्तद्गोत्रं-उच्चनीचकुलोत्पत्तिलक्षणः पर्याय- २१५ कर्मविशेषः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रं, कारणे कार्योपचारात् ६ तथा अन्तरा-दातृप्रतिग्राहकयोरन्तर्विघ्नहेतुतया अयते-च्छतीत्यन्तराय, णो मूलयजीवस्य दानादिकं कर्तुं न ददातीत्यर्थः ७ तथा नामयति-गत्यादि विविधभावानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम ८। एताला भेदाः अष्टौ मूलप्रकृतयः २१५ ॥ ५० ॥ साम्प्रतं 'तेसिं उत्तरपयडीण अट्ठवन्नसयंति षोडशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह २१६ उत्तर पंचविहनाणवरणं नव भेया दंसणस्स दो वेए । अट्ठावीसं मोहे चत्तारि य आउए हुंति ॥५१॥ भेदाःगा. गोयम्मि दोन्नि पंचतराइए तिगहियं सयं नामे । उत्तरपयडीणेवं अट्ठावन्नं सयं होइ ॥५२॥ १२४९-७५ मइ १ सुय २ ओही ३ मण ४ केवलाणि जीवस्स आवरिति । जस्स पभावओ तं नाणावरणं भवे कम्मं ॥५३॥ नयणे१यरोरहि केवल४दसणआवरणयं भवे चउहा । निद्दा ५ पयलाहि छहा ६ निदाइदुरुत्त ७-८ थीणद्धी ९॥५४॥ एवमिह दंसणावरणमेयमावरइ दरिसणं जीवे । सायमसायं च दुहा वेयणियं सुहदुहनिमित्तं ॥ ५५॥ कोहो माणो माया लोभोऽणंताणुबंधिणो चउरो । एवमपञ्चक्खाणा पञ्चक्खाणा य संजलणा ॥५६॥ सोलस इमे कसाया एसो नवनोकसायसंदोहो । इत्थीपुरिसनपुंसकरूवं वेयत्तयं तंमि ॥ ५७॥ हासरईअरईभयसोगदुगुंछत्ति हासछक्कमिमं । दरिसणतिगं तु मिच्छत्तमीससम्मत्तजोएणं ॥५८॥ इय मोह अट्ठवीसा नारय ॥३५६॥ तिरिनरसुराउय चउकं । गोयं नीयं उच्चं च अंतरायं तु पंचविहं ॥ ५९॥ दाउं न लहइ लाहो For Private & Personel Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न होइ पावइ न भोगपरिभोगं । निरुओऽवि असत्तो होइ अंतरायप्पभावेणं ॥ ६०॥ नामे वायालीसा भेयाणं अहव होइ सत्तट्ठी । अहवावि हु तेणउई तिग अहियसयं हवइ अहवा ॥११॥ पढमा यायालीसा ४२ गइ १ जाइ २ सरीर ३ अंगुवंगे ४ य । बंधण ५ संघायण ६ संघयण ७ संठाण ८ नामं च ॥ ६२ ॥ तह वन्न ९ गंध १० रस ११ फास १२ नाम अगुरुलहुयं च १३ बो छ । उवधाय १४ पराघाया १५ णुपुवि १६ ऊसासनामं च १७॥ ६३ ॥ आयावु १८ जोय १९ विहायगई २० तस २१ थावराभिहाणं च २२। बायर २३ सुहुमं २४ पज्जत्ता २५ पज्जत्तं च २६ नायचं ॥ ६४॥ पत्तेयं २७ साहारण २८ थिर २९ मथिर ३० सुभा ३१ सुभं ३२ च नायवं । सूभग ३३ दूभग ३४ नाम सूसर ३५ तह दूसरं ३६ चेव ॥६५॥ आएज्ज ३७ मणाएज्जं ३८ जसकित्तीनाम ३९ अजसकित्ती ४० य । निम्माणं ४१ तित्थयरं ४२ भेयाणवि हुँतिमे भेया ॥६६॥ गइ होइ चउप्पयारा जाईवि य पंचहा मुणेयवा। पंच य हुँति सरीरा अंगोवंगाई तिन्नेव ॥६७॥ छस्संघयणा ६ जाणसु संठाणावि य हवंति छच्चेव ६। वनाईण चउक्कं ४ अगुरुलहु १ वघाय १ परघायं १॥ ६८ ॥ अणुपुब्बी चउभेया ४ उस्सासं १ आयवं १ च उज्जोयं १। सुहअसुहा विहयगई २ तसाइवीसं च २० निम्माणं ॥ ६९॥ तित्थयरेणं सहिया १ सत्तट्ठी एव हुँति पयडीओ ६७। संमामीसेहि विणा तेवन्ना सेसकम्माणं ॥७०॥ एवं वीसुत्तरसयं १२० बंधे पयडीण होइ For Private Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञा २१६ उत्तरप्रकृतयः मा. १२५१-७५ . नवि० ॥३५७॥ नायवं । बंधणसंघायावि य सरीरगहणेण इह गहिया ॥ ७१॥ बंधणभेया पंच उ संघायावि य हवंति पंचेव । पण वन्ना दो गंधा पंच रसा अह फासा य ॥७२॥ दस सोलस छच्चीसा एया मेलिवि सत्तसहीए । तेणउई होइ तओ बंधणभेया उ पन्नरस ॥७३॥ वेउवाहारोरालियाण सगतेयकम्मजुत्ताणं । नव बंधणाणि इयरदुसहियाणं तिन्नि तेसिपि ॥७४॥ सबेहिवि छूढेहिं तिग अहिय सयं तु होइ नामस्स । इय उत्तरपयडीणं कम्मट्ठग अहवन्नसयं ॥ ७९ ॥ पञ्चविधं ज्ञानावरणं नव भेदा दर्शनस्य-दर्शनावरणस्य द्वौ वेदनीये अष्टाविंशतिर्मोहनीये चत्वारश्च आयुषि भवन्ति गोत्रे द्वौ पञ्च | अन्तरायके त्रिभिरधिकं शतं नामकर्मणि, उत्तरप्रकृतीनामेवं सर्वमीलनेऽष्टपञ्चाशदधिकं शतं भवतीति ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ तत्र यथास्वं तानेव भेदान् क्रमेण नामग्राहमाह-'मईत्यादिगाथास्त्रयोविंशतिः, तत्र मतिश्रुतावधिमनःपर्यवकेवलानि जीवस्याब्रियन्ते-आच्छाद्यन्ते | यत्प्रभावतस्तद् ज्ञानावरणं भवेत्कर्म, किमुक्तं भवति ?-ज्ञानावरणं पञ्चप्रकार, तद्यथा-मतिज्ञानावरणं श्रुतज्ञानावरणं अवधिज्ञानावरणं | मनःपर्यवज्ञानावरणं केवलज्ञानावरणं चेति । तथा दर्शनावरणं बन्धे उदये सत्तायां च त्रिधा प्राप्यते, तद्यथा-कदाचिच्चतुओं कदाचित् षोढा कदाचिच्च नवधा, तत्र कथं चतुर्धा ? कथं पोढा ? कथं वा नवधेति त्रीनपि प्रकारान् दर्शयन् प्रथमतश्चतुर्धा दर्शयति-दर्शनावरणं चतुर्धा-चतुष्प्रकारं भवति, कथमित्याह-नयनेतरावधिकेवलेषु-नयनेतरावधिकेवल विषयं तत् , सूत्रे तु सप्तम्या अदर्शनं लोपात् , लोपश्च प्राकृतत्वात् , एष चात्र भावार्थ:-दर्शनावरणं यदा चतुर्धा बन्धे उदये सत्तायां वा विवक्ष्यते तदैवंरूपं तदवगन्तव्यं, यथा नयन- ॥ दर्शनावरणमितरदर्शनावरणमचक्षुर्दर्शनावरणमित्यर्थः अवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणं चेति, तदेव दर्शनावरणचतुष्टयं निद्राप्रचलाभ्यां ॥३५७ For Private & Personel Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । SROSOSORRECAUSE OR पोढा भवति, दर्शनावरणषट्कग्रहणे च सर्वत्रापीदमेव दर्शनावरणषट्वं ग्राह्यं, एतदेव दर्शनावरणषट्कं निद्रादिद्विरुक्तप्रकृतिस्त्यानर्षिभिः सहितं नवधा द्रष्टव्यमिति शेषः, सूत्रे च विभक्तिलोप आर्षत्वात् , निद्रादीनि निद्राप्रचलाशब्दौ द्विरुक्तौ वाचकत्वेन ययोस्ते निद्रादिद्विरुक्ते निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला चेत्यर्थः, एतदिह शास्त्रे नवविधं दर्शनावरणमुक्तं, एतच्च जीव-जीवस्य दर्शनं-सामान्योपयोगरूपमावृणोति-आच्छादयति, केवलं निद्रापञ्चकं प्राप्ताया दर्शनलब्धेरुपघातकृत् , दर्शनावरणचतुष्टयं तु मूलत एव दर्शनलब्धिमुपहन्ति, आह |च गन्धहस्ती-"निद्रादयः समधिगताया एव दर्शनलब्धरुपघाते वर्तन्ते, दर्शनावरणचतुष्टयं तूद्गमोच्छेदित्वात् समूलघातं हन्ति दर्शनलब्धि"मिति, वेदनीयं द्विधा-सातवेदनीयमसातवेदनीयं च, एतच्च क्रमेण सुखदुःखनिमित्तं-सुखनिमित्तं सातवेदनीयं दुःखनिमि| तमसातवेदनीयमित्यर्थः, तथा मोहनीयं द्विधा-दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चेति, दर्शनं-सम्यक्त्वं तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयं, चारित्रं-सावद्येतरयोगनिवृत्तिप्रवृत्तिलिङ्गमात्मपरिणामरूपं तन्मोहयतीति चारित्रमोहनीयं, तत्र बहुतरवक्तव्यत्वात् प्रथमतश्चारित्रमोहनीयं निर्दिशति, तच्च द्विधा-कषायनोकषायभेदात् , तत्र क्रोधो मानो माया लोभश्चेत्यनन्तानुबन्धिनश्चत्वारः कषायाः, एवमेत एव क्रोधादयश्चत्वारः प्रत्येकमप्रत्याख्यानावरणाः प्रत्याख्यानावरणाः संज्वलनाश्च मिलिताः षोडश, तथा एप वक्ष्यमाणो नवानां नोकषायाणां संदोहः-समूहः, तत्र स्त्रीपुरुषनपुंसकवरूपं वेदत्रयं हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सालक्षणं इदं हास्यपटकं च, दर्शनमोहनीयं तु मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वानां योगेन-मीलनेन त्रिधा इति मोहस्य-मोहनीयकर्मणोऽष्टाविंशतिभेदाः। तथा आयुषश्चतस्रः प्रकृतयः, तद्यथा -नारकायुस्तिर्यगायुर्नरायुः सुरायुश्च, गोत्रं तु द्विधा-उच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रं च, अन्तरायं तु पुनः पञ्चविधं, तद्यथा-दानान्तरायं लाभान्त४ रायं भोगान्तरायं परिभोगान्तरायं वीर्यान्तरायं च, एतांश्च भेदान सुखावबोधार्थमर्थकथनद्वारेणैव सूत्रकृन्निर्दिशति-यस्यान्तरायस्य प्रभा RANGACARRIA Join Education International For Private Personel Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DI प्रवासा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० २१६ उत्तरप्रकृतयः गा१२५१-७५ ॥३५८॥ वतो दातुं न लभते जीवस्तहानान्तरायं, एवं यत्प्रभावतो जीवस्य लाभो न भवति तल्लाभान्तरायं, यत्प्रभावतो भोगान् परिभोगांश्च न प्राप्नोति तत्क्रमेण भोगान्तरायं परिभोगान्तरायं च, यत्प्रभावतश्च नीरुजोऽपि-नीरोगोऽपि जीवोऽशक्त:-असमर्थो भवति तद्वीर्यान्तराय, || इयमत्र भावना-यदुदयवशात् सति विभवे समागते च गुणवति पाने दत्तमस्मै महाफलमिति जानन्नपि दातुं नोत्सहते तदानान्तरायं, तथा यदुदयवशाहानगुणेन प्रसिद्धादपि दातुर्गृहे विद्यमानमपि देयमर्थजातं याच्चाकुशलोऽपि गुणवानपि याचको न लभते तल्लाभान्तरायं, तथा यदुदयवशात् सत्यामपि विशिष्टाहारादिप्राप्तावसति च प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा केवलं कार्पण्यानोत्सहते भोक्तुं तद्भोगा|न्तरायं, एवं परिभोगान्तरायमपि भावनीयं, नवरं भोगपरिभोगयोरयं विशेष:-सकृद्भुज्यते इति भोग:-आहारमाल्यादिः, पुनः पुनः परिभुज्यते इति परिभोगो-भवनवनितादिः, तथा यदुदयवशात्सत्यपि नीरुजि शरीरे यौवनिकायामपि वर्तमानोऽल्पप्राणो भवति यदा बलवत्यपि शरीरे साध्येऽपि प्रयोजने हीनसत्त्वतया न प्रवर्तते तद्वीर्यान्तरायमिति, तथा विवक्षान्तरतः कारणान्तरतश्च नामकर्म नाना|प्रकार, तद्यथा-द्विचत्वारिंशद्भेदं सप्तषष्टिभेदं त्रिनवतिभेदं व्युत्तरशतभेदं च ॥ ५३ ॥ ५४॥ ५५ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ ५९॥ ॥६०॥ ६१ ॥ तत्र तावद् द्विचत्वारिंशद्भेदानाह–'पढमें'त्यादिगाथानवकं, प्रथमा द्विचत्वारिंशदियं द्रष्टव्या, तद्यथा-गतिनाम जातिनाम शरीरनाम अङ्गोपाङ्गनाम बन्धननाम संघातनाम संहनननाम संस्थाननाम वर्णनाम गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाम अगुरुलघुनाम उपघातनाम पराघातनाम आनुपूर्वीनाम उच्छासनाम आतपनाम उद्योतनाम विहायोगतिनाम वसनाम स्थावरनाम बादरनाम सूक्ष्मनाम पर्याप्तनाम अपर्याप्तनाम प्रत्येकनाम साधारणनाम स्थिरनाम अस्थिरनाम शुभनाम अशुभनाम सुभगनाम दुर्भगनाम सुस्वरनाम दुःस्वरनाम आदेयनाम अनादेयनाम यश कीर्तिनाम अयशःकीर्तिनाम निर्माणनाम तीर्थकरनाम चेति । तथा एतेषामेव गत्यादीनां For Private & Personel Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेदानां यदा नारकगत्यादयः प्रतिभेदा विवक्षिता भवन्ति तदा सप्तषष्टिः।। ६२ ।। ६३ ।। ६४ ॥६५॥ ६६ ॥ तामेव सप्तषष्टिमाह'गई'त्यादिगाथापञ्चकं, गतिनाम चतुर्धा-नरकगतितिर्यग्गतिमनुष्यगतिदेवगतिभेदात् , जातिनाम पञ्चधा एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियजातिभेदात् , शरीरनाम पञ्चधा औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणशरीरभेदात् , अङ्गोपाङ्गनाम त्रिधा औदारिकवैक्रियाहारकाङ्गोपाङ्गभेदात् , संहनननाम पोढा-वनऋषभनाराचऋषभनाराचनाराचअर्धनाराचकीलिकासेकासिंहननभेदात्, संस्थाननाम पोढा समचतुरस्रन्यग्रोधपरिमण्डलसादिवामनकुब्जहुंडसंस्थानभेदात् , वर्णादिचतुष्क-वर्णगंधरसस्पर्शलक्षणं, तथा अगुरुलघूपघातपराघातं च, आनुपूर्वीनाम चतुर्धा नारकतिर्यग्मनुष्यदेवानुपूर्वीभेदात् , तथा उच्छासं आतपं उद्योतं, विहायोगतिर्द्विधा-शुभाशुभविहायोगतिभेदात्, त्रसादिविंशतिः-त्रसस्थावरादिका यशःकीर्तिअयशःकीर्तिपर्यन्ता, निर्माणं च, एताः प्रकृतयस्तीर्थकरनाम्ना सहिताः सप्तषष्टिर्भवन्ति, एता एव च बन्धमुदयं चाश्रित्य नामकर्मण उत्तरप्रकृतयः परिगृह्यन्ते, शेषाणां च कर्मणां सम्यक्त्वमित्रैविना त्रिपञ्चाशत् , बन्धचिंतायां हि दर्शनमोहनीयोत्तरप्रकृती सम्यक्त्वमिश्रे न गृह्येते, तयोर्बन्धासंभवात् , मिथ्यात्वपुद्गला एव हि तथाविधविशोधिवशात् सम्यक्त्वरूपतया | मिश्ररूपतया च परिणमन्तीति । एवं च सप्तषष्टेर्नामकर्मभेदानां त्रिपञ्चाशतश्च शेषकर्मभेदानां मीलने बन्धे विंशत्युत्तरं प्रकृतीनां शतं भवति | ज्ञातव्यं । ननु पूर्वोक्तद्विचत्वारिंशदुत्तरप्रकृतिमध्ये ये बन्धनसंघातनाम्नी प्रतिपादिते ते सप्तषष्टिमध्ये कथं न गण्यते ? इत्याह-'बंधणेत्यादि, बन्धनसंघातौ शरीरग्रहणेन शरीरनामकर्मान्तर्भूतत्वेनेह-सप्तषष्टिभेदचिंतायां गृहीताविति पृथग्न विवक्षिती, तथा सत्तायां चिन्त्यमानायां नामकर्मप्रकृतयत्रिनवतिसङ्ख्या मतान्तरेण व्युत्तरशतसङ्ख्याश्चाधिक्रियन्ते ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ ६९ ॥ ७० ॥ ७१॥ ततः क्रमेण त्रिनवति व्युत्तरशतं चाह-'बंधणे त्यादिगाथाचतुष्कं, औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणबन्धनभेदान्धननाम पञ्चधा, संघातनामापि For Private Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३५९ ॥ औदारिकवैक्रियाहार कतैजसकार्मणसंघातभेदात् पञ्चधा, एवमेता दश, तथा वर्णनाम कृष्णनीललोहितहारिद्रसितभेदात् पञ्चधा, गन्धनाम सुरभिदुरभिगन्धभेदाद् द्विधा, रसनाम तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदात् पञ्चधा, स्पर्शनाम कर्कशमृदुलघुगुरुशीतोष्णस्निग्धरूक्षभेदादष्टधा, एवमेता विंशतिः प्रकृतयः, एतासां मध्याद्वर्णगन्धरसस्पर्शानां सामान्यतश्चतुर्णा सप्तषष्टिपक्षेऽपि गृहीतत्वात्तदपगमे शेषाः पोडश बन्धनसंघातदशकेन सह पडिशतिः प्रकृतयो भवन्ति, एताश्च अनन्तरोक्तसप्तषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, ततो नामप्रकृतीनां त्रिनवतिर्भवतीति । तथा प्रकारान्तरेण बन्धनस्य पञ्चदश भेदाः, के ते इत्याह- 'वेडवे' त्यादि, वैक्रियाहारकौदारिकाणां प्रत्येकं स्वकतैजसकार्मणयुक्तानां स्वकं आत्मीयं किमात्मीयमिति चेदुच्यते वैक्रियस्य वैक्रियं आहारकस्याहारकं औदारिकस्यौदारिकं तेन स्वकेन तैजसेन कार्मणेन च प्रत्येकं सहितानां बन्धनानि चिन्त्यमानानि नवनवसङ्ख्यानि भवन्ति, तद्यथा - वैक्रियवैक्रियबन्धनं वैक्रियतैजसवन्धनं वैक्रियकार्मणबन्धनं आहारकाहारकबन्धनं आहार कतैजसबन्धनं आहारककार्मणबन्धनं औदारिकौदारिकबन्धनं औदारिकतैजसबन्धनं औदारिककार्मणबन्धनमिति, तत्र पूर्वगृहीतवैक्रियपुद्गलानां स्वैरेव वैक्रियपुद्गलैर्गृह्यमाणैः सह संबन्धो वैक्रियवैक्रियबन्धनं तेषामेव वैक्रियपुङ्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च तैजसपुद्गलैर्गृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्धो वैक्रियतैजसबन्धनं, तथा तेषामेव वैक्रियपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च कार्मणपुद्गलैर्गृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्धो वैक्रियकार्मणबन्धनं, तथा पूर्वगृहीतानामाहारकपुद्गलानां स्वैरेवाहारकपुद्गलैर्गृह्यमाणैः सह यः संबन्धः स आहारकाहारकबन्धनं तथा तेषामेवाहारकपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च तैजसपुद्गलैर्गृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संवन्ध आहारकतैजसबन्धनं, तथा तेषामेवाहारकपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च कार्मणपुद्गलैर्गृा| माणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्ध आहारककार्मणबन्धनं, तथा पूर्वगृहीतानामौदारिकपुद्गलानां स्वैरेवैौदारिकपुद्गलैर्गृह्यमाणैः सह यः संबन्धः २१६ उत्तरप्रकृतयः गा. १२५१-७५ ॥ ३५९ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स औदारिकौदारिकबन्धनं, तेषामेवौदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च तेजसपुद्गलैर्गृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्ध औदारिकतैजसबन्धनं, तथा तेषामेवौदारिकपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च कार्मणपुद्गलैगुह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्ध औदारिक| कार्मणबन्धनं, तथा 'इयरदुसहियाणं तिन्नित्ति इतराभ्यां-तैजसकार्मणाभ्यां द्वाभ्यां समुदिताभ्यां सहितानां वैक्रियाहारकौदारिकाणां त्रीणि बन्धनानि भवन्ति, तद्यथा-वैक्रियतैजसकामणबन्धनं आहारकतैजसकार्मणबन्धनं औदारिकतैजसकार्मणबन्धनं च, तत्र वैक्रियपुद्गलानां तैजसपुद्गलानां कार्मणपुद्गलानां च पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां वा यः परस्परं संबन्धस्तद्वैक्रियतैजसकामणबन्धनं, एवमाहारकतैजसकार्मणबन्धनौदारिकतैजसकार्मणबन्धनयोरपि भावनाऽनुसतव्या, अनेन च बन्धनत्रिकेण सह पूर्वोक्तानि नव बन्धनानि द्वादश भवन्ति, तथा 'तेसिं च'त्ति तयोश्च-तैजसकार्मणयोः स्वस्थाने परस्परं बन्धनचिंतायां त्रीणि बन्धनानि भवन्ति, तद्यथा-तैजसतैजसबन्धनं तैजसकार्मणबन्धनं कार्मणकार्मणबन्धनं चेति, तत्र तैजसपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां खैरेव तैजसपुद्गलैर्गृह्यमाणैः सह यः परस्पर संबन्धस्तत्तैजसतैजसबन्धनं, तेषामेव तैजसपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च कार्मणपुद्गलैगृह्यमाणैः पूर्वगृहीतैश्च सह संबन्धस्तैजसकार्मणबन्धनं, कार्मणपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां स्वैरेव कार्मणपुद्गलैगृह्यमाणैः सह संबन्धः कार्मणकार्मणबन्धनं, एतैश्च त्रिभिर्बन्धनैः सहितानि पूर्वोक्तानि द्वादश बन्धनानि पञ्चदश भवन्ति, एतन्निमित्तभूतानि च यानि बन्धननामकर्माणि तान्यपि पञ्चदश, एतैश्च सर्वैरपि बन्धनभेदैर्वन्धनपञ्चकरहितपूर्वोक्तत्रिनवतिमध्ये प्रक्षिप्तैर्नामकर्मण उत्तरप्रकृतीनां ध्युत्तरं शतं भवति । इत्येवं सर्वसङ्ख्यया अष्टानामपि | कर्मणामुत्तरप्रकृतीनामष्टपञ्चाशदधिकं शतं भवतीति । तदेवमुक्ताः सर्वा अपि नामत उत्तरप्रकृतयः, साम्प्रतमेतासामेवार्थः कथ्यते, तत्र मन ज्ञाने' मननं मतिः यद्वा मन्यते-इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः-योग्यदेशावस्थितवस्तुविषय इन्द्रियमनो KASCAKRA . Jan Education Intemanona For Private Personal use only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा प्रव० सा- लानिमित्तोऽवगमविशेषः मतिश्चासौ ज्ञानं च मतिज्ञानं, तच्च द्विविध-श्रुतनिश्रितमश्रुतनिश्रितं च, तत्र प्रायः श्रुताभ्यासमन्तरेणापि यत्सह- २१६ उत्तरोद्धारे जविशिष्टक्षयोपशमवशादुत्पद्यते तदश्रुतनिश्रितं-औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयं, यत्तु पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेर्व्यवहारकाले तु अश्रुतानुसारि रप्रकृतयः तत्त्वज्ञा-जातया समुत्पद्यते तत् श्रुतनिश्रितं, तच्चतुर्धा, तद्यथा-अवग्रहः ईहा अवायः धारणा चेति, पुनरवग्रहो द्विधा-व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च, नवि० तत्र व्यज्यते-प्रकटीक्रियते शब्दादिरर्थोऽनेनेति व्यजन-उपकरणेन्द्रियस्य कदम्बपुष्पाद्याकृतेः श्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनलक्षणस्य शब्दगन्ध- १२५१-७५ रसस्पर्शपरिणतद्रव्याणां च यः परस्परं संबन्धः प्रथममुपश्लेषमात्रं, अपरं च-इन्द्रियेणाप्यर्थस्य व्यख्यमानत्वादिन्द्रियमपि व्यजनमु च्यते, ततश्च व्यञ्जनेन-इन्द्रियलक्षणेन व्यञ्जनस्य-विषयसंबन्धलक्षणस्यावग्रहणं-परिच्छेदनमेकस्य व्यञ्जनशब्दस्य लोपात् व्यजनावलाग्रहः, किमपीदमिति अव्यक्तज्ञानरूपार्थावग्रहादधोऽव्यक्ततरं ज्ञानमात्रमित्यर्थः, अयं च नयनमनोवर्जेन्द्रियचतुष्टयभेदाच्चतुर्धा, नयनमन सोरप्राप्यकारित्वेन विषयसंबन्धाभावाद्, अस्य चेन्द्रियविषययोः संबन्धग्राहकत्वादिति भावः, अर्थ्यत इत्यर्थः तस्य शब्दरूपादिभेदानामन्यतरेणापि भेदेनानिर्धारितस्य सामान्यरूपस्यावग्रहणमर्थावग्रहः, किमपीदमित्यव्यक्तज्ञानमित्यर्थः, स च मनःसहितेन्द्रियपञ्चकजन्यत्वात् षोढा । अवगृहीतस्यैव वस्तुनोऽपि किमयं भवेत् स्थाणुरेव न तु पुरुष इत्यादि वस्तुधर्मान्वेषणात्मकं ज्ञानचेष्टनमीहा, ईहनं ईहेतिकृत्वा, 'अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतो, न चाधुना संभवतीह मानवः । प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा, भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना ॥१॥' इत्याद्यन्वयधर्मघटनव्यतिरेकधर्मनिराकरणाभिमुखताऽऽलिङ्गितो ज्ञान विशेष ईहा इति हृदयं, साऽपि भनःसहितेन्द्रियपञ्चकजन्यत्वात् षोढैव । ईहितस्यैव वस्तुनः स्थाणुरेवायमित्यादिनिश्चयात्मको बोधविशेषोऽवायः, अयमपि पूर्ववत् षोढा । तथा निश्चितस्यैवाविच्युतिस्मृ-3॥३६०॥ तिवासनारूपं धरणं धारणा, साऽपि पूर्ववत् षोदैव । तदेवमर्थावग्रहादीनां चतुर्णा प्रत्येकं षड्विधत्वाव्यजनावग्रहभेदचतुष्टयेन सह श्रुत FOC054-%% %9 For Private & Personel Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्रितं मतिज्ञानमष्टाविंशतिविधं, अश्रुतनिश्रितेन चौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयेन सह द्वात्रिंशद्विधं भवति, जातिस्मरणमपि समतिक्रान्तसयातभवावगमस्वरूपं मतिज्ञानभेद एव, तथा चाचाराङ्गटीका - " जातिस्मरणं त्वामि निबोधकविशेष" इति एतावद्भेदभिन्नस्यास्य एतावद्भेदमेव यदावरणस्वभावं कर्म तन्मतिज्ञानावरणमेकग्रहणेन गृह्यते । तथा श्रवणं श्रुतं वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंसृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु घटशब्दवाच्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारीन्द्रियमनोनिमित्तो ज्ञानविशेष इत्यर्थः श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानं, तद्भेदाश्च नन्द्यादिभ्योऽवसेयाः, तस्य सभेदस्याप्यावरणस्वभावं कर्म श्रुतज्ञानावरणं । तथा अवशब्दोऽधः शब्दार्थः, अव - अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते - परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः | यद्वाऽवधि:-मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः अवधिश्चासौ ज्ञानं च अवधिज्ञानं, तच्चानन्तद्रव्यभावविषयत्वात्तत्तारतम्यविवक्षयाऽनन्तभेदं असङ्ख्येयक्षेत्रकालविषयत्वात्तु तत्तारतम्यविवक्षयाऽसङ्ख्येयभेदं प्रकारान्तरविवक्षया त्वनुगामिकादिभेदत आवश्यका दिभ्योऽनुसरणीयं तस्यैतावद्भेदभिन्नस्यावरणस्वरूपं कर्म अवधिज्ञानावरणं । तथा संज्ञिभिर्जीवैः काययोगेन मनोवर्गणाभ्यो गृहीतानि मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमय्यालम्व्यमानानि द्रव्याणि मनांसीत्युच्यन्ते तेषां पर्यायाः - चिन्तानुगुणाः परिणामास्तेषु ज्ञानं मनः पर्यायज्ञानं, इदं चार्धतृतीयसमुद्रान्तर्वर्विसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनं तच्च द्वेधा - ऋजुमति विपुलमति च एतत्स्वरूपं च लब्धद्वारे वक्ष्यते, तस्यैवं भेद मिन्नस्यावरणस्वभावं कर्म मनःपर्यायज्ञानावरणं तथा केवलं एकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्धं वा केवलं तदावरणमलकलङ्कविगमात् सकलं वा केवलं प्रथमत एवाशेषतदावरणविगमतः संपूर्णोत्पत्तेः असाधारणं वा केवलमनन्यसदृशत्वात् अनंतं वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वात् केवलं च तद् ज्ञानं च केवलज्ञानं तस्यावरणं केवलज्ञानावरणं । अत्र चाद्यानि चत्वार्यावरणानि Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३६१H देशघातीनि केवलज्ञानावरणोद्धरितज्ञानदेशघातित्वात्, केवलज्ञानावरणं तु सर्वघाति, एतानि मतिज्ञानावरणादीनि पश्चोत्तरप्रकृतयः, तन्निष्पन्नं तु सामान्येन ज्ञानावरणं मूलप्रकृति:, यथाऽङ्गुलीपभ्वकनिष्पन्नो मुष्टिः घृतगुडकणिकादिभिर्निष्पन्नो वा मोदक इत्यादि, एवमप्रेतनेष्वपि भावना कार्या । तथा नयनाभ्यां दर्शनं - सामान्यावबोधरूपं नयनदर्शनं तस्यावरणं नयनदर्शनावरणं चक्षुर्दर्शनावरणमित्यर्थः, इतरै:- चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनमितरदर्शनं तस्यावरण मितरदर्शनावरणं, अचक्षुर्दर्शनावरणमित्यर्थः, अवधिरेव दर्शनमवधिदर्शनं तस्यावरणमवधिदर्शनावरणं, केवलमेव दर्शनं केवलदर्शनं तस्यावरणं केवलदर्शनावरणं, तथा 'द्रा कुत्सायां गतौ' नियतं द्राति-कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्रा-नखच्छोटिकादिमात्रेणैव सुखावबोधा स्वापावस्थेत्यर्थः, कारणे कार्योपचारात् तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरति निद्रेत्युच्यते, तथोपविष्ट ऊर्द्धस्थितो वा प्रचलति - विघूर्णयत्यस्यां स्वापावस्थायामिति प्रचला, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचला, तथा निद्रातोऽतिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रेति मध्यपदलोपी समासः, दुःखप्रबोधा स्वापावस्येत्यर्थः, तस्यां हि चैतन्यस्यात्यन्तमस्फुटतरीभूतत्वाद्बहुमिर्घोलनाप्रकारैः प्रबोधो भवति, अतः सुखप्रबोधनिद्रातोऽस्या अतिशायिनीत्वं, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रानिद्रा, तथा प्रचलातोऽतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला, सा हि चङ्क्रमणादिकमपि कुर्वतः स्वप्नुर्भवतीति स्थानस्थितस्वप्तृभवां प्रचलामपेक्ष्यास्या अतिशायिनीत्वं, तथा स्त्याना - बहुत्वेन संघातमापन्ना गृद्धिः - अभिकाङ्क्षा जाप्रदवस्थाऽध्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः, तस्यां हि जाग्रदवस्थाऽध्यवसितमर्थमुत्थाय साधयति, स्त्याना वा-पिण्डीभूता ऋद्धिः - आत्मशक्तिरूपाऽस्यामिति स्त्यानर्द्धिरित्यप्युच्यते, तद्भावे हि उत्कर्षतः प्रथमसंहननस्य केशवार्धवलसदृशी शक्तिरुपजायते, तथा च प्रवचने श्रूयते - कचित्प्रदेशे कोऽपि क्षुल्लको विपाकप्राप्तस्त्यानर्द्धिनिद्रासहितो द्विरदेन दिवा खलीकृतः, ततस्तस्मिन् द्विरदे बद्धाभिनिवेशो निशि स्त्यानद्बुदये वर्तमानः समुत्थाय तद्द २१६ उत्तरप्रकृतयः गा. १२५१-७५ ॥ ३६१. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REC% न न्तयुगलमुत्पाट्य स्वोपाश्रयद्वारि च प्रक्षिप्य पुनः प्रसुप्तवान् इत्यादि, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि स्त्यानगृद्धिः स्त्यानद्धिर्वोच्यते । तथा ४ | वेदनीयं कर्म, वेद्यते-सुखं दुःखं वा आत्मना ज्ञायते तद्वदनीयं, तच्च द्विधा-सातमसातं च, यदुदयवशादारोग्यविषयोपभोगादिजनित-द माहादरूपं सात-सुखं वेद्यते तत्सातवेदनीयं, यदुदयवशाद्रोगादिजनितं परितापरूपमसातं-दुःखमनुभूयते तदसातवेदनीयं । तथा कष्य-1 न्ते-हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः-संसारः कषमयन्ते-गच्छन्त्येमिर्जन्तव इति कषायाः-क्रोधमानमायालोमाः, तत्र क्रोधः IPL-अक्षान्तिपरिणतिरूपः मानो-गर्यो जात्याद्युद्भवममार्दवं माया-वञ्चनाद्यात्मिका जीवपरिणतिः लोभः-असंतोषात्मको जीवपरिणामः, ते च प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदाच्चतुर्धा, ततः षोडश, तत्र पारम्पर्येणानन्तं भवमनुबन्धन्ति-अनुसंद धतीत्येवंशीला अनन्तानुबन्धिनः, यद्यप्येतेषामन्यकषायोदयरहितानामुदयो नास्ति तथाऽप्यवश्यमनन्तभवभ्रमणमूलकारणमिथ्यात्वोदयापेPiक्षकत्वादेतेषामेवैतनाम, न पुनः सहजोदयानामन्यकषायाणामपि, तेषामवश्यं मिथ्यात्वोदयापेक्षकत्वाभावात् , नमोऽल्पार्थत्वादल्पं प्रत्या ख्यानमप्रत्याख्यानं-देशविरतिरूपं तदप्यावृण्वन्तीत्यप्रत्याख्यानावरणाः, प्रत्याख्यानं-सर्वविरतिरूपमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः, परीपहोपसर्गादिसंपाते सति चारित्रिणमपि सं-ईषत् ज्वलयन्तीति संज्वलनाः, तथा नोशब्दः साहचर्ये, ततः कषायैः सहचारिणः-सहवतिनो ये ते नोकषायाः, कैः कषायैः सहचारिण इति चेद्, उच्यते, आद्यैादशमिः, तथाहि-नायेषु द्वादशसु कषायेषु क्षीणेषु नोकषायाणा-| मवस्थानसंभवः, तदनन्तरमेव तेषामपि क्षपणाय क्षपकस्य प्रवृत्तिः, अथवा एते प्रादुर्भवन्तोऽवश्यं कषायानुद्दीपयन्ति, ततः कपायसहचारिणः, ते च नोकषाया नव, तत्र यदुदये स्त्रियाः पित्तोदये मधुरद्रव्यामिलाषवत् पुंस्यमिलापः समुत्पद्यते स कुकूलाग्निसमानः स्त्रीवेदः, यदुदये पुंसः नियाममिलापो भवति श्लेष्मोदयेऽम्लामिलाषवत् स तृणाग्निज्वालासमानः पुंवेदः, यदुदये पण्डकस्य पित्तश्लेष्मोदये क्ल मामचारिण इतिपकस प्रवृत्तिः द्रव्यामिलापवावालासमानः क ते च नोकषायामेव तेषामपि क्षपणाय वेद, उच्यते, आदि तथा नोशब्दः सा For Private Personel Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ उक्त प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० रप्रकृतयः प. १२५१-७५ ॥३६२॥ मार्जिकाऽमिलापवदुभयोरपि स्त्रीपुरुषयोरमिलाषः समुदेति स नगरमहादाहसमानो नपुंसकवेदः, तथा यदुदये सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तत् हास्यमोहनीयं, यदुदयाद्वाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रीतिरुपजायते तद्रतिमोहनीयं, एतेष्वेव यदुदयादप्रीतिरुपजायते तदरतिमोहनीयं, यदुदयात्सनिमित्तमनिमित्तं वा तथारूपस्वसंकल्पतो बिभेति तद्भयमोहनीयं, यदुदयात्प्रियविप्रयोगादौ स्वोरस्ताडमाक्रन्दति परिदेवते भूपीठे च लुठति दीर्घ निःश्वसिति तच्छोकमोहनीयं, यदुदयवशात्पुनः पुरीषादिबीभत्सपदार्थेषु जुगुप्सावान् भवति तजुगुप्सामोहनीयं, तथा यदुदयाज्जिनप्रणीततत्त्वार्थानामश्रद्धानं विपरीतश्रद्धानं वा तन्मिथ्यात्वं, यदुदयात्पुनर्जिनप्रणीतं तत्त्वं न सम्यक् श्रद्धत्ते नापि निन्दति तन्मिश्र, सम्यग्मिथ्यात्वमित्यर्थः, यदुदयवशात्पुनर्जिनप्रणीतं तत्त्वं सम्यक् श्रद्धत्ते तत्सम्यक्त्वमिति । तथा नारकस्य सतो वेद्यमानमायुष्कं नारकायुष्कं तिरश्चां तिर्यगायुष्कं मनुष्याणां नरायुष्कं देवानां सुरायुष्कमिति । तथा यदुदयवशादुत्तमजातिकुलतपोरूपैश्वर्यश्रुतसत्काराभ्युत्थानासनप्रदाना जलिप्रग्रहादिसंभवस्तदुच्चैर्गोत्रं, यदुदयवशात्पुनर्ज्ञानादिसंपन्नोऽपि निन्दा लभते हीनजात्यादिसंभवं च तन्नीचैर्गोत्रं । अन्तरायभेदाश्च नामोत्कीर्तनावसरे सूत्रकृतैव व्याख्याता इति । तथा गम्यते-तथाविधकर्मसचिवै वैः प्राप्यत इति गतिः-नारकत्वादिपर्यायपरिणतिः तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरप्युपचाराद्गतिः सैव नाम गतिनाम, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, ततश्च नरकविषये गतिनाम नरकगतिनाम, नारकशब्दव्यपदेश्यपर्यायनिबन्धनं नरकगतिनामेति तात्पर्य, एवं तिर्यग्मनुष्यदेवगतिनामापि वाच्यमिति । तथा एकेन्द्रियादीनां एकेन्द्रियत्वादिरूपसमानपरिणामलक्षणमेकेन्द्रियादिव्यपदेशभाग यत्सामान्यं सा जातिः, इदमत्र तात्पर्य-द्रव्यरूप मिन्द्रियं अङ्गोपाङ्गनामेन्द्रियपर्याप्तिनामसामर्थ्यात् सिद्धं, भावरूपं तु स्पर्शनादीन्द्रियावरणक्षयोपशमसामर्थ्यात् , 'क्षायोपशमिकानीसन्द्रियाणी ति वचनात् , यत्पुनरेकेन्द्रियादिशब्दप्रवृत्तिनिबन्धनं तथारूपसमानपरिणतिलक्षणं सामान्यं तदनन्यसाध्यत्वाज्जातिनामनिबन्ध ॐॐॐॐ ॥३६२. Jan Education Internal For Private Personel Use Only www.ainelibrary.org Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 5+ SHRA नमिति, उक्तं च-'अव्यभिचारिणा सादृश्यनैकीकृतोऽर्थोऽसौ जाति"रिति, तन्निमित्तं जातिनाम, तत्र एकस्य स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्यावरणक्षयोपशमात्तदेकविज्ञानभाज एकेन्द्रियाः, एवं यस्य यावन्तीन्द्रियाणि तस्य तान्याश्रित्यानेनामिलापेन तावन्नेयं यावत्पञ्चानां स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रज्ञानानामावरणक्षयोपशमात् पञ्चविज्ञानभाजः पञ्चेन्द्रियाः, तेषामेकेन्द्रियाणां जातिनाम एकेन्द्रियजातिनाम एवं यावत् पञ्चेन्द्रियजातिनाम । शीर्यत इति शरीरं-प्रतिक्षणं प्रागवस्थातश्चयापचयाभ्यां विनश्यतीत्यर्थः, तत्र यस्य कर्मण उदयादौदारिकवर्गणापु-||2 द्गलान् गृहीत्वा औदारिकशरीरत्वेन परिणमयति तदौदारिकशरीरनाम, एवं वैक्रियाहारकतैजसकार्मणशरीरनामस्खपि वाच्यं, यावद् यस्य कर्मण उदयात्कार्मणवर्गणापुद्गलान् गृहीत्वा कार्मणशरीरत्वेन परिणमयति तत्कार्मणशरीरनाम, इदं च सत्यपि समानवर्गणापुद्गलमयत्वे खकार्यभूतात्कार्मणशरीरादन्यदेव, इयं हि कार्मणशरीरस्य कारणभूता नामकर्मण उत्तरप्रकृतिः, कार्मणशरीरं तु पुनरेतदुदयसभ वित्वादेतत्कार्य निःशेषकर्मणां प्ररोहभूमिराधारो वा संसार्यात्मनां च गत्यन्तरसंक्रमणे साधकतमं कारणमित्यन्यदेव खकार्यात्कार्मणशरीरात्कारणभूतं प्रस्तुतं कार्मणशरीरनामकर्मेति । तथा अङ्गानि-शिरउरउदरपृष्ठबाहूरुसंज्ञितान्यष्टौ तद्वयवभूतानि त्वङ्गुल्यादीन्युपाङ्गानि शेषाणि तु तत्प्रत्यवयवभूतान्यङ्गुलिपर्वरेखादीन्यङ्गोपाङ्गानि, अङ्गानि च उपाङ्गानि च अङ्गोपाङ्गानि चेति द्वन्द्वे एकपदशेषे अङ्गोपाङ्गानि , तानि | च यस्य कर्मण उदयाद् येषु त्रिषु शरीरेषु भवन्ति तत् त्रिविधं अङ्गोपाङ्गनाम, तत्र यदुदयादौदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गो-* पाङ्गविभागेन परिणतिर्भवति तदौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम, एवं वैक्रियाहारकाङ्गोपाङ्गनानोरपि वाच्यं, तैजसकार्मणयोस्तु जीवप्रदेशसंस्थानानुरोधित्वान्नास्त्यङ्गोपाङ्गसंभव इति । तथा बध्यतेऽनेनेति बन्धनं-औदारिकादिपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परसंश्लेषकारि, तच्च शरीरपञ्चकभेदात् पञ्चधा, तत्र पूर्वगृहीतैरौदारिकपुद्गलैः सह गृह्यमाणानौदारिकपुद्गलानुदितेन येन कर्मणा बन्नात्यात्मा Jan Education Intemanong For Private Personel Use Only www.jainelorary.org Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३६३॥ RASAARISAJAMHUGA परस्परसंसक्तान् करोति तदौदारिकबन्धननाम, दारुपाषाणादीनां जतुरालाप्रभृतिश्लेषद्रव्यवत्, एवं वैक्रियादिबन्धनचतुष्केऽपि वाच्य, २१६ उत्तअथवा औदारिकौदारिकबन्धननामभेदादि पञ्चदशधा, तच्च प्रागेव व्याख्यातं, यदि त्विदं शरीरपुद्गलानामन्योऽन्यसंश्लेषकारि बन्धननाम नारप्रकृतयः स्यात् तत्तेषां शरीरपरिणत्या संहितानामप्यसंबद्धत्वात्पवनापहृतकुण्डस्थितसंहतास्तिमितसक्तूनामिव एकत्र स्थैर्य न स्यादिति । तथा संघा- गा. त्यन्ते-पिण्डीक्रियन्ते औदारिकादिपुद्गला येन तत्संघातनं, तदपि च शरीरपञ्चभेदत्वात्पञ्चधा, तत्र यस्य कर्मण उदयादौदारिकशरीरत्वपरि- १२५१-७५ णतान् पुद्गलानात्मा संघातयति-पिण्डयत्यन्योऽन्यसंनिधानेन व्यवस्थापयति तदौदारिकसंघातनाम, इत्येवं वैक्रियादिशरीरचतुष्टयेऽपि वाच्यं, यदि च पुगलसंहतिमात्रनिमित्तं संघातनाम न स्याचदा बन्धोऽपि न भवेत्, 'नासंहतस्य बंधन मिति न्यायात् । तथा संहन्य-1 |मानशरीरपुद्गलानां लोहपट्टादिवत् उपकारि संहननं-अस्थिरचनाविशेषः, तत्पुनरौदारिकशरीर एव नान्येषु, अस्थ्यादिरहितत्वात्तेषां, तच्च घोढा-वनऋषभनाराचादि, तत्र वर्ज़-कीलिका ऋषभः-परिवेष्टनपट्टः नाराच:-उभयतो मर्कटबन्धः, ततश्च द्वयोरस्भोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्था परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकाकारं बनमामकमस्थि भवति यत्र तद्वनऋषभनाराचं प्रथम, बजवर्ज ऋषभनाराचं द्वितीयं, ऋषभवर्ज वननाराचमित्यन्ये, वनऋषभवर्ज नाराचं तृतीयं, एकतो मर्कटबन्धं द्वितीयपार्श्वे कीलिकाविद्धमर्धनाराचं चतुर्थ, ऋषभनाराचवर्ज कीलिकाविद्धास्थिद्वयसंचितं कीलिकाख्यं पञ्चम, यत्र पुनः परस्परं पर्यन्तमात्रसंस्पर्शलक्षणां सेवां ऋतानिआगतान्यस्थीनि भवन्ति नित्यमेव च स्नेहाभ्यङ्गादिरूपां परिशीलनामाकाङ्कति तत्सेवात षष्ठं संहननमिति । तथा संस्थान-अवयवरचनात्मिका शरीराकृतिः, तदपि षोढा-समचतुरनादि, तत्र समाः-शरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणलक्षणाविसंवा(ग्रन्थानं १५०००)दिन्यश्चत-२॥३६३॥ स्रोऽस्रयः-चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यस्य तत्समचतुरस्रं, समासान्तोऽत्प्रत्ययः, न्यग्रोधवत्परिमण्डलं न्यग्रोधपरिमण्डलं, -%C4 For Private Personel Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा न्यग्रोध उपरि संपूर्णावयवोऽधस्तु हीनस्तदमपि नाभेरुपरि विस्तारबहुलं संपूर्णलक्षणादिभाग अधस्तु न तथेति, तथा आदि:इहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते, ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्तत इति सादि, यद्यपि च सर्वमपि शरीरमादिना सह वर्तते तथापि सादित्वविशेषणान्यथानुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपन्न आदिरिह लक्ष्यते, तत उक्तंयथोक्तप्रमाणलक्षणेनेति, इदमुक्तं भवति-यत्संस्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपन्नमुपरि च हीनं तत्सादि इति, अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र साचीति प्रवचनवेदिनः शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानं तत्साचि, यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धकाण्डमतिपुष्टमुपरि च न तदनुरूपा महाविशालता तद्वदस्यापि संस्थानस्याधो भागः परिपूर्णो भवति उपरितनभागस्तु नेति भावः, तथा वामनं मडहकोष्ट पाणिपादशिरोपीवं यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं शेषं तूरउदरादिरूपं कोष्ठं शरीरमध्यं मडहं-लक्षणरहितं तद् यत्र तद्वामनमित्यर्थः, अधस्तनकायमडहं कुब्जं पाणिपादशिरोनीवालक्षणोऽधस्तनकायो मडहो-लक्षणविसंवादी यत्र शेषं तु मध्यकोष्ठं यथोक्तलक्षणयुक्तं तत्कुब्ज, वाममविपरीतमित्यर्थः, अन्ये तु दर्शितलक्षणव्यत्ययेन प्रथमं कुब्जं ततो वामनं पठन्तीति, हुण्डं तु सर्वावयवेषु प्रायो लक्षणविनिर्मुक्तं, यस्यैकोऽप्यवयवः प्रायो न लक्षणयुक्तो भवति तत्सर्वत्रासंस्थितं हुण्डमित्यर्थः । तथा वर्ण्यते-अलक्रियते गुणवक्रियते शरीराद्यनेनेति वर्ण:-कृष्णादिः पञ्चधा, तत्र कृष्णः कज्जलादाविव नीलः प्रियङ्गुपर्णादाविव लोहितो हिङ्गुलकादाविव हारिद्रो हरिद्रादाविव शुक्लः | खटिकादाविव । तथा गन्ध्यते आघायत इति गन्धः, स द्विधा-सुरभिः श्रीखण्डादाविव दुरमिर्लसुनादाविव । तथा रस्यते-आस्वाद्यत इति रसः तिक्तादिः पञ्चधा, तत्र तिक्तः कोशातक्यादाविव कटुः शुण्ठ्यादाविव, शास्त्रे हि यत्परिणाममङ्गीकृत्यातिदारुणं तत्कटुकमुच्यते, यच्च परिणामेऽतिशीतलं तन्निम्बादिकं लोके कटुकमपि शास्त्रे तिक्तमिति व्यपदिश्यते, कषायोऽपक्ककपित्थादाविव अम्ल आम्लवे C44 For Private Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३६४ ॥ तसादाविव मधुरः शर्करादाविव । तथा स्पृश्यत इति स्पर्शः - कर्कशा दिरष्टधा, तत्र कर्कशः पाषाणादाविव मृदुसरुतादाविव लघुरर्क-| तूलादाविव गुरुर्ब्रादाविव शीतो मृणालादाविव उष्णो वह्नथादाविव स्निग्धो घृतादाविव रूक्षो भस्मादाविव, एवमेते वर्णादयो यदुद| यवशाज्जन्तुशरीरेषु भवन्ति तान्यपि कर्माण्येतन्नामकानि वाच्यानीति । तथा सर्वप्राणिनां शरीराणि यदुदयवशादात्मीयात्मीयापेक्षया नैकान्तेन लघूनि नापि गुरूणि किंतु अगुरुलघुपरिणामपरिणतानि भवन्ति तदगुरुलघुनाम, एकान्तगुरुत्वे हि वोढुमशक्यानि स्युः एकान्तलघुत्वे तु वायुना विक्षिप्यमाणानि धारयितुं न पारयेरन्निति । तथा स्वशरीरावयवैरेव प्रतिजिह्नागलवृन्दलम्ब कचौरदन्तादि मिः शरीरा|न्तर्वर्धमानैर्यदुदयादुपहन्यते - पीड्यते जन्तुस्तदुपघातनाम, तथा यदुदयादोजखी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा नृपसभामपि गतः सभ्यानामपि क्षोभमापादयति प्रतिपक्षप्रतिघातं च विधत्ते तत्पराघातनाम, तथा कूर्परलाङ्गलगोमूत्रिकाकाररूपेण यथाक्रमं द्वित्रिचतुःसमयप्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाटी इहाऽऽनुपूर्वी, तत्र नरकगत्या सहचरिताऽऽनुपूर्वी नरकगत्यानुपूर्वी, तत्समयं च वेद्यमानत्वात्सहचारित्वं, एवं तिर्यग्मनुष्यदेवानुपूर्योऽपि वाच्याः । तथा यदुदयादुच्छ्रासनिःश्वासलब्धिरात्मनो भवति तदुच्छ्रासनाम, सर्वलब्धीनां क्षायोपशमिकत्वा दौदयिकी लब्धिर्न संभवतीति चेत्, नैतदस्ति, वैक्रियाहारकादिलब्धीनां औदयिकीनामपि संभवाद्, वीर्यान्तरायक्षयोपशमोऽपि च तत्र निमित्ती भवतीति सत्यप्यौदयिकत्वे क्षायोपशमिकश्यपदेशोऽपि न विरुध्यते । ननु यदि उच्छासनामकर्मोदयादुच्छा सनिःश्वासौ तदा उच्छासपर्याप्तिनाम्नः कोपयोगः ?, उच्यते, उच्छ्रासनाम्न उच्छास| निःश्वासग्रहणमोक्षविषया लब्धि रुपजायते, सा च लब्धिर्नोच्छ्रासपर्याप्तिमन्तरेण स्वफलं साधयति, न खस्विषुक्षेपणशक्तिमानपि धनुर्प्रहणशक्तिमन्तरेणेषु क्षेप्तुमलं, तत उच्छ्रासलब्धिनिर्वर्तनार्थमुच्छ्रासपर्याप्तिनाम्न उपयोगः, एवमन्यत्रापि भिन्नविषयता यथायोगं सूक्ष्म २१६ उत्तरप्रकृतयः गा. १२५१-७५ ॥ ३६४ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % धिया भावनीया । तथा यदुदयाज्जन्तुशरीराणि स्वरूपेणानुष्णान्यपि उष्णप्रकाशलक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातपनाम, तद्विपाकश्च भानुमण्ड| लादिगतेषु पृथिवीकायेष्वेव, न वह्रौ, प्रवचने प्रतिषेधात् , तत्रोष्णत्वमुष्णस्पर्शनामोदयात् उत्कटलोहितवर्णनामोदयाच्च प्रकाशकत्वमिति। टा TA तथा यदुदयाज्जन्तुशरीराणि स्वरूपेणानुष्णान्यनुष्णप्रकाशात्मकमुद्योतमातन्वन्ति यथा यतिदेवोत्तरवैक्रियचन्द्रग्रहनक्षत्रताराविमानरत्नौ षधयस्तदुद्योतनाम, तथा विहायसा-नभसा गतिः-प्रवृत्तिर्विहायोगतिः, ननु सर्वगतत्वाद्विहायसस्ततोऽन्यत्र गतिर्न संभवतीति किमर्थ ||२|| विहायसा विशेषणं ?, व्यवच्छेद्याभावात् , सत्यमेतत् , किंतु यदि गतिरित्येवोच्यते ततो नाम्नः प्रथमप्रकृतिरपि गतिरस्तीति पौनरुक्त्याशङ्का स्यात् , अतस्तद्व्यवच्छित्तये विहायसा विशेषणं, विहायसा गतिर्न तु नारकत्वादिपर्यायपरिणतिरूपति विहायोगतिः, सा च द्वेधा-1 प्रशस्ता अप्रशस्ता च, तत्र प्रशस्ता हंसहस्तिवृषभादीनां, अप्रशस्ता तु खरोष्ट्रमहिषादीनामिति । तथा त्रस्यन्ति-उष्णाद्यमितप्ताः सन्तो| विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति त्रसा-द्वीन्द्रियादयः तत्पर्यायविपाकवेद्यं कर्मापि प्रसनाम, तथा तिष्ठन्तीत्येवंशीला उष्णायभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः स्थावरा:-पृथिव्यादय एकेन्द्रियादयः तत्पर्यायविपाकवेद्यं कर्मापि स्थावरनाम, तेजोवायूनां तु स्थावरनामोदयेऽपि चलनं स्वाभाविकमेव, न तूष्णाद्यमितापेन द्वीन्द्रियादीनामिव विशिष्टमिति । तथा यदुदयाजीवा बादरा भवन्ति तद्बादरनाम, बादरत्वं चात्र परिणामविशेषः, यदशात्पृथिव्यादेरेकैकस्य जन्तुशरीरस्य चक्षुर्माह्यत्वाभावेऽपि बहूनां समु दाये चक्षुषा प्रहणं भवति, तद्विपरीतं सूक्ष्मनाम, यदुदयाहूनामपि समुदितानां जन्तुशरीराणां चक्षु यत्वं न भवति, तथा यदुदयाशत्खयोग्यपर्याप्तिनिवर्तनसमर्थो भवति तत्पर्याप्तकनाम, यदुदयाच वयोग्यपर्याप्तिपरिमाप्तिसमर्थो न भवति तदपर्याप्तकनाम, पर्याप्तिख रूपं तु द्वाविंशत्यधिकद्विशततमद्वारे विशेषेण वक्ष्यते, तथा यदुदयात् जीवं जीवं प्रति मिन्नं शरीरमुपजायते तत्प्रत्येकनाम, तस्योदयः % % in Education International For Private Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३६५ ॥ प्रत्येकशरीरिणां, प्रत्येकशरीरिणश्च नारकामरमनुष्यद्वीन्द्रियादयः पृथिव्यादयः कपित्थादितरवश्च ननु यदि प्रत्येकनाम्न उदयः कपित्थादिपादपादीनामिष्यते तर्हि तेषां जीवं जीवं प्रति मिन्नं शरीरं भवेत्, तच्च न भवति, यतः कपित्थाश्वत्थपीलुशेल्वादीनां मूलस्कन्धत्वक्शाखादयः प्रत्येकमसङ्ख्येयजीवा उच्यन्ते, यत उक्तं प्रज्ञापनायां एकास्थिकबहुबीजवृक्षप्ररूपणावसरे – “एएसि मूला असंखेज्जजीविया कंदावि खंधावि तयावि सालावि पवालावि, पत्ता पत्तेयजीविया” इत्यादि, मूलादयश्च फलपर्यन्ताः सर्वेऽप्येकशरीराकारा उपलभ्यन्ते, देवदत्तशरीरवत्, यथा हि देवदत्तशरीरमखण्डमेकरूपमुपलभ्यते तद्वन्मूलादयोऽपि तत एकशरीरात्मकाः कपित्थादयस्ते चासपेयजीवाः ततः कथं ते प्रत्येकशरीरिणः ?, उच्यते, प्रत्येकशरीरिण एव तेषां मूलादिष्वसेयानामपि जीवानां भिन्नभिन्नशरीरसंभवात्, केवलं श्लेषद्रव्यविमिश्रितसकलसर्षपवर्तिरिव प्रबलरागद्वेषोपचिततथारूपप्रत्येकनामकर्मपुद्गलोयतस्ते तथा परस्परविमिश्रशरीरा जायन्ते, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायामेव - "जह सगलसरिसवाणं सिलेस मिस्साण वट्टिया वट्टी । पत्तेयसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया ॥ १ ॥ जह वा तिलपप्पाडिया बहुएहिं तिलेहिं मीसिया संती । पत्तेयसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया ॥ २ ॥” गाथाद्वयस्याप्ययमक्षरार्थः - यथा सकलसर्षपाणां लेषद्रव्येण मिश्रीकृतानां वर्तिता - वलिता वर्तिः यथा च बहुभिस्तिलैर्विमिश्रिता सती तिलपर्पटिका भवति तथा प्रत्येकशरीरिणां शरीरसङ्घाताः, इयमत्र भावना-यथा तस्यां वर्ती सकलसर्षपाः परस्परं भिन्ना नान्योऽन्यानुवेधभाजस्तथा अदर्शनातू अत एव सकलग्रहणं येन स्पष्टमेव अन्योऽन्यानुवेधाभावः प्रतीयते, एवं वृक्षादावपि मूलादिषु प्रत्येकमसङ्ख्येया अपि जीवाः परस्परं विभिन्नशरीराः, यथा च ते सर्षपाः श्लेषद्रव्यसंपर्कमाहाम्यात् परस्परं विमिश्रा जातास्तथा प्रत्येकशरीरिणोऽपि ते तथारूपप्रत्येकनामकर्मपुद्गलोदयात्परस्परं संहता जाता इति । तथा यदुदयवशादनन्तानां जीवानामेकं शरीरं भवति तत्साधारणनाम, ननु कथमन २१६ उत्त रप्रकृतयः गा. १२५१-७५ ॥ ३३५ ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्तानां जीवानामेकं शरीरमुपजायते ?, तथाहि-य एव प्रथममुत्पत्तिदेशमागतस्तेन तच्छरीरं निष्पादितं, अन्योऽन्यानुगमनेन च सर्वात्मना क्रोडीकृतं, ततः कथं तत्रान्येषां जीवानामवकाशः १, न खलु देवदत्तशरीरे देवदत्तेनान्योऽन्यानुवेधेन क्रोडीकृते देवदत्त इव | सकलशरीरेण सहान्योऽन्यानुगमपुरस्सरमन्येऽपि जीवाः प्रादुष्पन्ति, तथाऽदर्शनात् अपि च- सत्यप्यवकाशे येनैव तच्छरीरं निष्पाद्यान्योऽन्यानुगमेन क्रोडीकृतं स एव तत्र प्रधान इति, तस्यैव पर्याप्तापर्याप्तव्यवस्था प्राणापानादियोग्यपुद्गलोपादानं च भवेत्, न शेषाणामिति, तदेतद्सम्यक् सम्यग्जिनवचनपरिज्ञानाभावात्, ते ह्यनन्ता अपि जीवास्तथाविधकर्मोदयसामर्थ्यतः समकमेवोत्पत्तिदेशमधितिष्ठन्ति समकमेव च तच्छरीराश्रिताः पर्याप्तीर्निर्वर्तयितुमारभन्ते समकमेव च पर्याप्ता भवन्ति, समकालमेव च प्राणापानादियोग्यान् पुनलानाददते, यचैकस्य पुत्रलाभ्यवहरणं तदन्येषामनन्तानामपि साधारणं, यश्चानन्तानां तद्विवक्षितस्यापि जीवस्य ततो न कदाचिदनुपपत्तिरिति, उक्तं च प्रज्ञापनायाम् — “समयं वकंताणं समयं तेसिं सरीरनिप्फत्ती । समयं आणुग्गहणं समयं उस्सासनिस्सासा ॥ १ ॥ एगस्स उ जं गहणं बहूण साहारणाण तं चैव । जं बहुयाणं गहणं समासओ तंपि एगस्स ॥ २ ॥ साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एयं ॥ ३ ॥” इति [ समकं व्युत्क्रान्तानां समकं तेषां शरीरनिष्पत्तिः । समकमानापानग्रहणं समकमुच्छ्रासनिःश्वासौ ॥ १ ॥ एकस्य तु यद्ग्रहणं बहूनां साधारणानां तदेव । यद् बहूनां ग्रहणं समासतस्तदपि एकस्य ॥ २ ॥ साधारण आहारः साधारणमानापानग्रहणं च । साधारणजीवानां साधारणलक्षणमेतत् ॥ ३ ॥ ] तथा यदुदयात् शरीरावयवानां शिरोऽस्थिदन्तानां स्थिरता भवति तत् स्थिरनाम, तथा बदुयवशाज्जिह्वादीनां शरीरावयवानामस्थिरता भवति तदस्थिरनाम, तथा यदुदयान्नाभेरुपरितनाः शिरःप्रभृतयोऽवयवाः शुभा भवन्ति तच्छुभनाम, शिरः प्रभृतिनिर्हि स्पृष्टः परो हृष्यतीति तेषां शुभत्वं, तथा यस्योदया भ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० मा यदुदयादुपकार भवति तद् दुःखासदनादेयनाम, तथा वा प्र ॥३६६॥ नाभेरधस्तनाः पादादयोऽवयवा अशुभा भवन्ति तदशुभनाम, तैः स्पृष्टः परो रुष्यतीति तेषामशुभत्वं, कामिन्याः पादेनापि स्पृष्टस्तु २१६ उक्त | ब्यति ततो व्यभिचार इति चेत्, न, तत्तोषस्य मोहनीयनिबन्धनत्वात् , वस्तुस्थितिश्चेह चिन्त्यते, ततो न दोषः, तथा यदुदयाद्नुप रप्रकृतयः कार्यपि सर्वस्य मनःप्रहादकारी भवति तत्सुभगनाम, तथा यदुदयादुपकारकृदपि जनद्वेष्यो भवति तद् दुर्भगनाम, तथा यदुदयान्म-18 गा. धुरगम्भीरोदारस्वरो भवति तत्सुस्वरनाम, तथा यदुदयात्खरमिन्नदीनहीनखरो भवति तद् दुःखरनाम, तथा यदुदयेन यत्किश्चिदपि १२५१-७५ ब्रुवाणः सर्वस्योपादेयवचनो भवति तदादेयनाम, तथा यदुदयाद् युक्तमपि ब्रुवाणः परिहार्यवचनस्तदनादेयनाम, तथा तपःशौर्यत्यागादिना समुपार्जितेन यशसा कीर्तनं-संशब्दनं श्लाघनं यशःकीर्तिः, अथवा यश:-सामान्येन ख्यातिः कीर्तिः-गुणोत्कीर्तनरूपा प्रशंसा यदा सर्वदिग्गामिनी पराक्रमकृता वा सर्वजनोत्कीर्तनीयगुणता यशः एकदिग्गामिनी दानपुण्यकृता वा कीर्तिः, यशश्च कीर्तिश्च यशःकीर्ती ते यदुदयाद्भवतस्ततो यशःकीर्तिनाम, ननु च कथमेते यशःकीर्ती तन्नामोदयनिबन्धने ?, तद्भावेऽपि कचित्तयोरभावात् , तदुक्तम्-"तस्सेव केइ जसकितिकित्तया अजसकित्ता अन्ने । पायाराई जं बेंति अइसए इंदयालत्तं ॥१॥" [तस्यैव केचित् यशःकीर्तिकीर्तकाः अयशःकीर्तिकीर्तका अन्ये । यस्मात् प्राकारादीनतिशयानां इन्द्रजालत्वं ब्रुवते ॥ १॥] नैष दोषः, सद्गुणमध्यस्थपुरुषापेक्षयैव यशःकीर्तिनामोदयस्याभ्युपगतत्वात् , उक्तं च-"जइ कहवि धाउवेसम्मयाए दुद्धपि जायए कडुयं । निंबो महुरो कस्सई न पमाणं तहवि तं होइ ॥ १॥" [यदि कथमपि धातुवैषम्येण दुग्धमपि भवति कटुकं । निम्बश्च कस्यचिन्मधुरो न तथापि तत्प्रमाणं भवति ॥१॥]] M| अपि तु-"विवरीयदव्वगुणभासयाए अपमाणता उ तस्सेव । सग्गुणविसयं तम्हा जाणह जसकित्तिनामं तु ॥ १॥” [ द्रव्यगुणवि-IMIRE परीतभासकतया तस्यैवाप्रमाणता। तस्मात् सद्गुणविषयं यशःकीर्तिनाम जानीहि ॥१॥] तद्विपरीतमयशःकीर्तिनाम यदुदयवशान्म IHIV Jan Education Intematon For Private Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यस्थस्यापि जनस्याप्रशस्यो भवति, तथा यदुदयवशाजन्तुशरीरेषु स्वस्खजात्यनुसारेणाङ्गप्रत्यङ्गानां प्रतिनियतस्थानवर्तिता भवति तन्निर्माणनाम, तच्च सूत्रधारकल्पं, तदभावे हि तभृतककल्पैरङ्गोपाङ्गनामादिभिर्निर्वतितानामपि शिरउदरादीनां स्थानवृत्तेरनियमो भवेत् , तथा यदुदयवशादष्टमहाप्रातिहार्यप्रमुखाश्चतुस्त्रिंशदतिशयाः प्रादुष्षन्ति तत्तीर्थकरनामेति ॥ ७५ ।। २१६ ॥ इदानीं 'बंधोदयोदीरणसत्ताणं किंचि सरूवंति सप्तदशोत्तरद्विशततमं द्वारमाह सत्तट्ठछेगबंधा संतुदया अट्ट सत्त चत्तारि । सत्तट्ठछ पंचदुगं उदीरणाठाणसंखेयं ॥ ७६ ॥ बंधेष्ट सत्तऽणाउग छविहममोहाउ इगविहं सायं । संतोदएसु अट्ठ उ सत्त अमोहा चउ अघाई ॥७७ ॥ अट्ट उदीरइ सत्त उ अणाउ छविहमवेयणीआऊ । पण अवियणमोहाउग अकसाई नाम गोत्तदुर्ग ॥७८॥ बंधे वीसुत्तरसय १२० सयबावीसं तु होइ उदयंमि १२२ । उदीरणाएँ एवं १२२ अडयालसयं तु सन्तंमि १४८॥७९॥ 'सत्ते'यादिगाथापञ्चकं, मिथ्यात्वादिभिर्बन्धहेतुभिरजनचूर्णपूर्णसमुद्रकवनिरन्तरं पुद्गलनिचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलैरात्मनो लावषयस्पिण्डवदन्योऽन्यानुगमलक्षणः संबन्धो बन्धः, तस्य चत्वारि स्थानानि, तद्यथा-सप्त भष्टौ षट् एकमिति, तथा तेषामेव कर्म पुद्गलानां बन्धसंक्रमाभ्यां लब्धात्मलाभानां निर्जरणसंक्रमकृतखरूपप्रच्युत्यभावेऽपि सति सद्भावः सत्ता, तस्या अपि त्रीणि स्थानानि, सातद्यथा-अष्टौ सप्त चत्वारि, तथा तेषामेव कर्मपुद्गलानां यथास्वस्थितिबद्धानामपवर्तनादिकरणविशेषतः स्वभावतो वा उदयसमयप्राप्तानां लाविपाकवेदनमुदयः, तस्यापि त्रीणि स्थानानि, तद्यथा-अष्टौ सप्त चत्वारि, तथा उदयावलिकातो बहिर्वविनीनां खितीनां दलिकं कपायैः Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा मासहितेन असहितेन वा योगसंज्ञकेन वीर्य विशेषेण समाकृष्योदयावलिकायां प्रवेशनमुदीरणा, तस्याः पुनः पञ्च स्थानानि, तद्यथा-सप्त | २१७ रोद्धारे अष्टौ षट् पञ्च द्वे, इत्येषां बन्धादीनां स्थानसङ्ख्या ॥ ७६ ॥ साम्प्रतमेतेषां बन्धादिस्थानानामेव स्वरूपमाह-'बंधे'त्यादिगाथा- बन्धादितत्त्वज्ञा- द्वयं, आयुर्बन्धकाले ज्ञानावरणादिका अष्टौ प्रकृतयो बन्धे प्राप्यन्ते, शेषकालं त्वनायुष्काः-आयुर्बन्धविवर्जिताः सप्त, 'अमोहाउत्ति स्वरूपम् नवि० मोहायुर्वर्जाः षट् प्रकृतीबंध्नतः षड्डिधो बन्धः, ज्ञानदर्शनावरणान्तरायनामगोत्रबन्धव्यवच्छेदे एकमेव सातं बध्नत एकविधो बन्धः। गा. तथा सत्तायामुदये च सर्वप्रकृतिसमुदाये अष्टौ प्राप्यन्ते, मोहनीयस्य उदयसत्ताव्यवच्छेदे सप्त, घातिकर्मणां-ज्ञानदर्शनावरणान्तराया- 5१२७६-७९ ॥३६७॥ |णामुदयसत्ताव्यवच्छेदे चतस्रः । तथा सर्वप्रकृतिसमुदायेऽष्टौ प्रकृतीरुदीरयति, आयुष उदीरणायामपगतायामायुर्वर्जाः सप्त, वेदनीयायुपोरदीरणायामपगतायां षड्डिधं कर्मोदीरयति, वेदनीयमोहायुषामुदीरणाऽपगमे पञ्च प्रकृतीरुदीरयति, अकषायी-केवली नामगोत्रलक्षणे द्वे कर्मणी उदीरयति । अथैतान्येव बन्धादिस्थानानि विनेयव्युत्पत्तये गुणस्थानकयोजनया विभाव्यन्ते-मिथ्यादृष्ट्यादयो मिश्रवर्जिता अप्रमत्तान्ता अष्ट सप्त वा कर्माणि बध्नन्ति, आयुः कदाचिदेव बद्ध्यते इत्यायुर्बन्धकाले अष्ट आयुर्वन्धाभावे तु सप्तव, मिश्रापूर्वकरणानिवृत्तिबादरास्तु सप्तैव बध्नन्ति, तेषामायुर्बन्धाभावात् , तत्र मिश्रस्य तथास्वाभाव्यात् इतरयोः पुनरतिविशुद्धत्वात् आयुर्वन्धस्य च घो|लनापरिणामहेतुत्वात् , तथा सूक्ष्मसंपरायो मोहनीयायुर्वर्जानि षट् कर्माणि बध्नाति, मोहनीयबन्धस्य बादरकषायोदयहेतुत्वात् तस्य च | तदभावात् आयुर्बन्धाभावस्त्वतिविशुद्धतरत्वादवसेयः, तथा उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिन एकविधं सातवेदनीयं कर्म बनन्ति, न शेषाणि, तद्वन्धहेत्वभावात् , अयोगिकेवली तु योगस्यापि बन्धहेतोरभावाबन्धकः । तथा मिध्यादृष्टिगुणस्थानकादारभ्य यावत्सू + ॥३६७॥ दक्ष्मसंपरायगुणस्थानं तावदष्टावपि कर्मप्रकृतय उदये सत्तायां च प्राप्यन्ते, सर्वत्रापि मोहनीयोदयसत्तयोः प्राप्यमाणत्वात् , उपशान्तमोहे || RC444 For Private & Personel Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदये सप्त प्राप्यन्ते, मोहनीयस्योपशान्तत्वेनोदयाभावात् , सत्तायां त्वष्टौ, मोहनीयस्य विद्यमानत्वात् , क्षीणमोहे सत्तायामुदये च सप्त, मोहनीयस्य क्षीणत्वेनोदयसत्तयोरभावात् , सयोग्ययोगिकेवलिनोस्तु चत्वार्यघातिकर्माणि उदये सत्तायां च प्राप्यन्ते, न शेषाणि, तेषां | दिक्षीणत्वात् , तथा मिथ्यादृष्टेरारभ्य यावत्प्रमत्तसंयतगुणस्थानं तावज्जीवो निरन्तरमष्टानामपि कर्मणामुदीरकः, केवलमनुभूयमानभवायु कावलिकावशेषे सत्यायुष आवलिकाप्रविष्टत्वेनोदीरणाया अभावात् सप्तानामुदीरकः, सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके तु वर्तमानः सर्वदैवाष्टानामुदीरकः, आयुष आवलिकावशेषत्वे मिश्रगुणस्थानकस्यासंभवात् , तथाहि-अन्तर्मुहूर्तावशेष एवायुषि मिश्रगुणस्थानकात्प्रतिपत्य सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा जीवो गच्छतीति, अप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरा वेदनीयायुर्वर्जाणां शेषाणां षण्णां कर्मणामुदीरकाः, न तु वेदनीयायुषोः, अतिविशुद्धतया तदुदीरणायोग्याध्यवसायस्थानाभावात् , सूक्ष्मसंपरायस्तु षण्णां पञ्चानां वा उदीरकः, तत्र यावन्मोहनीयमावलिकावशेषं न भवति तावत्पूर्वोक्तानामेव षण्णामुदीरकः, आवलिकावशेषे च मोहनीये तस्याप्युदीरणाया अभावात्पञ्चानामुदीरकः, उपशान्तमोहोऽपि वेदनीयायुर्मोहनीयवर्जानां पञ्चानामुदीरकः, तत्र वेदनीयायुषोः कारणं प्रागेवोक्तं, मोहनीयं तूदयाभावान्नोदीर्यते, 'वेद्यमानमेवोदीर्यत' इति वचनात् , क्षीणमोहोऽप्यनन्तरोक्तानां पञ्चानां कर्मणामुदीरकः, तानि च तावदुदीरयति यावद् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणि आवलिकाप्रविष्टानि न भवन्ति, आवलिकामात्रप्रविष्टेषु तेषु तेषामप्युदीरणाया अभावात् द्वे एव नामगोत्रलक्षणे कर्मणी उदीरयतीति, सयोगिकेवली पुनर्नामगोत्रे उदीरयति, न शेषाणि, घातिकर्मचतुष्टयस्य निर्मूलत एव क्षीणत्वात् , वेदनीयायुषोस्तु पूर्वोक्तकारणानोदीरणेति, अयोगिकेवली त्वनुदीरकः, योगसव्यपेक्षत्वात् उदीरणायास्तस्य च योगाभावादिति ॥ ७७ ।। ७८ ॥ अथ बन्धादिषु सर्वसङ्ख्यया यावत्य उत्तरप्रकृतयो भवन्ति तावतीदर्शयितुमाह-'बन्धे'इत्यादि, बन्धे-बन्धचिन्तायां विंशत्युत्तरं प्रकृतीनां शतं भवतीति, *SC4044LCDC15454 For Private & Personel Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३६८॥ ॐA5%2-52- 534 उदये च द्वाविंशत्युत्तरं शतं भवतीति, उदीरणायामप्येवं, द्वाविंशत्युत्तरमेव शतमित्यर्थः, सत्तायां पुनरष्टचत्वारिंशदधिकं शतं भवति, इयमत्र २१८ भावना-बन्धे उदये च चिन्त्यमाने बन्धननामानि संघातननामानि च स्वस्वशरीरान्तर्गतान्येव विवक्ष्यन्ते, तथा ये वर्णगन्धरसस्पर्शा- साबाधानामुत्तरभेदा यथाक्रम पञ्चद्विपञ्चाष्ट सङ्ख्याः तेऽपि बन्धे उदये च न विवक्ष्यन्ते, किंतु वर्णादय एव चत्वारः, तथा बन्धे चिन्त्यमाने कर्मस्थितिः सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वे न गृह्येते, मिथ्यात्वपुद्गलानामेव तथापरिणतेः, तथा च सति बन्धचिन्तायां बन्धनपञ्चकं संघातनपञ्चकं गा. वर्णादिषोडशकं च नाम्नस्त्रिनवतेरपनीयते शेषाः सप्तषष्टिः परिगृह्यन्ते, मोहनीयप्रकृतयश्च सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वहीनाः शेषाः षडिंशतिः, मा१२८०-८३ ततः सर्वप्रकृतिसङ्ख्यामीलने बन्धे विंशत्युत्तरं प्रकृतिशतं भवति, उद्ये च चिन्त्यमाने सम्यक्त्वमिश्रे अप्युदयमायात इति ते अपि परिगृ| ह्येते, तत उदये द्वाविंशं प्रकृतिशतं, उदये सत्येवोदीरणा भवतीत्यत उदीरणायामपि द्वाविंशं शतं, सत्तायां तु चिन्त्यमानायां बन्धनपञ्चक संघातनपञ्चकं वर्णादिषोडशकं च पूर्वापनीतं परिगृह्यते, ततः सर्वसङ्ख्यया प्रकृतीनामष्टचत्वारिंशं शतं भवति, उक्तं च कर्मस्तवे"अडयालं पयडिसयं खविय जिणं निव्वुयं वंदे" [ अष्टचत्वारिंशं प्रकृतीनां शतं क्षपयित्वा निवृतं जिनं वन्दे ] ॥ यदा पुनर्गर्गर्षिशिवशर्मप्रभृत्याचार्याणां मतेनाष्टपञ्चाशदधिकं प्रकृतिशतं सत्तायामधि क्रियते तदा बन्धनानि पञ्चदश विवक्ष्यन्ते ततोऽष्टचत्वारिंशदधिकस्य प्रकृतिशतस्य पूर्वोक्तस्योपरि बन्धनगता दश प्रकृतयोऽधिकाः प्राप्यन्ते इति भवत्यष्टपञ्चाशदधिकं प्रकृतिशतमिति ॥ ७९ ॥ २१७ ॥ इदानीं 'कम्मढिई साबाह'त्ति अष्टादशोत्तरद्विशततमं द्वारमाहमोहे कोडाकोडीउ सत्तरी वीस नामगोयाणं । तीसियराण चउण्हं तेत्तीसऽयराइं आउस्स ॥३६८॥ ॥८॥ एसा उक्कोसठिई इयरा वेयणिय बारस मुहुत्ता। अट नामगोत्तेसु सेसएसु मुहु Jan Education Intemanong For Private Personel Use Only www.jainelorary.org Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयोग्या पुनरबाधाकालाच, तत्र कर्मरूपतावस्थान स्थितिः संतो॥८१॥ जस्स जइ कोडकोडीउ तस्स तेत्तियसयाई वरिसाणं। होइ अवाहाकालो आउम्मि पुणो भवतिभागो ॥ ८२॥ मोहे-मोहनीये षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदात् मोहनीयस्य कर्मण उत्कृष्टा स्थितिः सप्ततिसागरोपमकोटीकोट्यः, इह द्विधा स्थितिः, तद्यथा-कर्मरूपतावस्थानलक्षणा अनुभवयोग्या च, तत्र कर्मरूपतावस्थानलक्षणामेव स्थितिमधिकृत्योत्कृष्टं जघन्यं वा प्रमाणमभिधातुमि|ष्टमवगन्तव्यं, अनुभवयोग्या पुनरबाधाकालहीना, येषां च कर्मणां यावत्यः सागरोपमकोटीकोट्यः तेषां तावन्ति वर्षशतान्यबाधाकालः, तेन मोहनीयस्योत्कृष्टा स्थितिः सप्ततिसागरोपमकोटीकोट्य इति तस्य सप्ततिवर्षशतान्यबाधाकालः, तथाहि-तन्मोहनीयमुत्कृष्टस्थितिक कबद्धं सत् सप्ततिवर्षशतानि यावन्न काश्चिदपि स्वोदयतो जीवस्याबाधामुत्पादयति, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः, किमुक्तं भवति ?-सप्ततिवर्षशतप्रमाणेषु समयेषु मध्ये न वेद्यदलिकनिक्षेपं करोति, किंतु तत ऊर्दू मिति, तथा नामगोत्रयोरुत्कृष्टा थितिविंशति* सागरोपमकोटीकोट्यो, द्वे वर्षसहस्र अबाधा, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः, तथा इतरेषां चतुर्णा-ज्ञानावरणदर्शनावरणवेद नीयान्तरायाणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, त्रीणि वर्षसहस्राण्यबाधा अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः, आयुष | उत्कृष्टा स्थितित्रयस्त्रिंशदतराणि-सागरोपमाणि पूर्व कोटित्रिभागोऽबाधा अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः, सूत्रकृता त्वसौ पूर्वकोटित्रिभागोऽवाधारूपतयैवापयाति न पुनरुदयमायाति अतो यावती स्थितिरायुषो वेद्यते तावत्येवाबाधारहितोपात्तेति ॥ ८०॥ अथ उत्कृष्टस्थितिनिगमनपूर्व जघन्यां स्थितिमाह-'एसे'त्यादि, एषा-पूर्वोक्ता उत्कृष्टा स्थितिः, इतरा-जघन्या पुनर्वेदनीये-वेदनीयस्य द्वादश मुहूर्ताः, इह द्विधा वेदनीयस्य जघन्या स्थितिः प्राप्यते-सकषायानकषायांश्च प्रतीत्य, तत्राकषायाणां वेदनीयस्थितिर्द्विसमयस्थितिका, कर For Private & Personel Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३६९ ॥ यतस्तत्कर्म प्रथमसमये बद्धं द्वितीयसमये वेदितं तृतीयसमयेऽकर्मतामनुभवति, अकषायाणां कषायरहितत्वेन बहुतरस्थितिबन्धासंभवात्, सकषायाणां तु सूत्रोपात्ता द्वादशमुहूर्ता जघन्या स्थितिः, अन्तर्मुहूर्तमबाधा अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः, तथा नामगोत्रयोः प्रत्येकमष्टौ अष्टौ मुहूर्त्ता जघन्या स्थितिः अन्तर्मुहूर्त्तमबाधा अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः, तथा शेषाणां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायमोहनीयायुषां जघन्या स्थितिर्मुहूर्तान्तः - अन्तर्मुहूर्त, अत्राप्यन्तर्मुहूर्तमबाधा, नवरं तल्लघुतरमवसेयं, अबाधाकालहीनश्च कर्मदुलि - कनिषेकः, तदेवमुक्ता मूलप्रकृतीनामुत्कृष्टा जघन्या च स्थितिः, उत्तर प्रकृतीनां तु कर्मप्रकृत्या दिग्रन्थेभ्योऽवसेया ॥ ८१ ॥ साम्प्र| तमेतेषामेव कर्मणामुत्कृष्टस्थित्यबाधाकालपरिमाणमाह – 'जस्से' त्यादि, यस्य कर्मणो यावत्यः सागरोपमकोटी कोट्य उत्कृष्टा स्थितिः प्रतिपादिता तस्य कर्मणस्तावन्मात्राणि वर्षशतानि भवत्युत्कृष्टोऽबाधाकालः, यथा मोहनीयस्य सप्ततिसागरोपमकोटी कोट्य उत्कृष्टा स्थितिः ततस्तस्य सप्ततिवर्षशतान्यवाधा, एवं सर्वत्रापि भावनीयं, आयुषि पुनरुत्कृष्टोऽबाधाकालो भवत्रिभागः - पूर्वकोटित्रिभागलक्षणः, पूर्वकोटित्रिभागमध्ये बध्यमानायुर्दलिकनिषेकं न विदधातीत्यर्थः, वेद्यमानस्य ह्यायुषो द्वयोनिभागयोरतिक्रान्तयोस्तृतीये भागेऽवशिष्टे परभवायुषो बन्धः ततः पूर्वकोटित्रिभागो लभ्यते, जघन्या त्वबाधा सर्वेषामपि कर्मणामन्तर्मुहूर्तप्रमाणेति ।। ८२ ।। २१८ ॥ इदानीं 'बायालीसा य पुन्नपयडीओ'त्ति एकोनविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह सायं १ उच्चागोयं २ नरतिरिदेवाङ ५ नाम एयाओ । मणुयदुगं ७ देवदुगं ९ पंचिंदियजाइ १० पण १५ ॥ ८३ ॥ अंगोवंगतिगंपि य १८ संघयणं वज्जरिसहनारायं १९ । पढमं चिय संठाणं २० वन्नाइचक्क सुपसत्थं २४ ॥ ८४ ॥ अगुरुलहु २५ पराघायें २६ उस्सासं २७ आयवं च २८ २१९ पुण्यप्रकृतयः गा. १२८३-८६ ॥ ३६९ ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जयं २९ । सुपसत्था विहगगई ३० तसाइदसगं च ४० निम्माणं ४१ ॥ ८५ ॥ तित्थयरेणं सहिया पुन्नप्पयडीओ हुंति बायाला ४२ । सिवसिरिकडक्खियाणं सयावि सत्ताणमेयाउ ॥ ८६ ॥ सातं—सातवेदनीयं तथा उच्चैर्गोत्रं तथा नरायुस्तिर्यगायुर्देवायुश्च तथा एताश्च नामकर्मप्रकृतयस्तद्यथा - मनुष्यद्विकं - मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीलक्षणं देवद्विकं देवगतिदेवानुपूर्वीलक्षणं पञ्चेन्द्रियजातिः तनुपञ्चकं औदारिक वैक्रियाहारकतैजसकार्मणलक्षणं अङ्गोपाङ्गत्रिकंऔदारिकवैक्रियाहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणं, संहननं वर्षभनाराचाख्यं प्रथमं चैव संस्थानं समचतुरस्राख्यं, तथा वर्णादिचतुष्कं - वर्णगन्धरसस्पर्शस्वरूपं सुप्रशस्तं - शुभं, तत्र वर्णाः शुकुपीतरक्ताः गन्धः सुरभिः रसा मधुराम्लकषायाः स्पर्शा मृदुलघुस्निग्धोष्णा इति, अगुरुलघु पराघातं उच्छ्रासं आतपं उद्योतं सुप्रशस्ता विद्दायोगतिः त्रसादिदशकं च- त्रस बादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिर शुभसुभगसुखरादेययशः कीर्तिलक्षणं निर्माणं च एता एव तीर्थकरनाम्ना सहिता द्विचत्वारिंशत्पुण्यप्रकृतयः शुभसंज्ञिकाः प्रकृतयो भवन्ति एताश्च शिवश्रीकटाक्षितानां सत्त्वानां सदैव प्राप्यन्त इति ॥ ८३ ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ ८६ ॥ २१९॥ इदानीं 'वासीई पावपयडीओ 'त्ति विंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह नाणंतरायदसगं १० दंसण ११ मोहपयइ छबीसा २६ । अस्सायं निरयाउँ नीयागोएण अडयाला ॥ ८७ ॥ नरयदुगं २ तिरियदुगं ४ जाइचक्कं ८ च पंच संघयणा १३ । संठाणावि य पंच उ १८ वन्नाइचउक्कमपसत्थं २२ ॥ ८८ ॥ उवधाय २३ कुविहायगई २४ थावरदसगेण होंति चोत्तीसा ३४ । सङ्घाओं मीलियाओ बासीई पावपयडीओ ८२ ॥ ८९ ॥ ज्ञानावरणपञ्चकं अन्तरायपञ्चकं दर्शनावरणनवकं सम्यक्त्वमिश्रे उदद्यमेव केवलमाश्रित्याशुभे, न बन्धमपि तयोर्बन्धासंभवात्, अतस्त Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पापप्रकृतयः गा. १२८७-८९ Pा २२१ भावपटूम् गा. प्रव० सा-दा दर्जा मोहनीयस्य पविंशतिः प्रकृतयः, असातं नरकायुष्कं नीचेर्गोत्रं चेत्येता अष्टचत्वारिंशत्प्रकृतयः, नरकद्विकं-नरकगतिनरकानुपूर्वीस्वरूपं रोद्धारे तिर्यग्द्विक-तिर्यग्गति तिर्यगानुपूर्वीलक्षणं, जातिचतुष्क-एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिलक्षणं, पञ्च संहननानि प्रथमवर्जीनि तत्त्वज्ञा संस्थानान्यपि आद्यवर्जानि पञ्च, वर्णादिचतुष्कमप्रशस्तं, तत्र वर्णी नीलकृष्णौ गन्धो दुरभिः रसौ तिक्तकटुको स्पर्शाश्व गुरुखररून शीतरूपा नवि० इति, उपघातं कुत्सिता च-अप्रशस्ता विहायोगतिः, स्थावर दशकं च-स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणास्थिराशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशःकीर्ति. लक्षणं एताश्चतुत्रिंशन्नामकर्मप्रकृतयः, मिलिताश्च सर्वा व्यशीतिः पापप्रकृतयः-अशुभसंज्ञाः प्रकृतय इत्यर्थः, वर्णादिचतुष्कं हि शुभप्रकृ. ॥ ७ ॥ तिसङ्ख्यायामशुभप्रकृतिसङ्ख्यायां च परिगृह्यते, तस्य द्विधा संभवात् , अतो बन्धोक्ताया विशयुतरश उलझ गसपाया न व्याघात इति ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ ८९ ।। २२८ ॥ इदानीं 'भावच्छ कं सपडिभेयं येकविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह भावा छच्चोवसमिय १ खइय २ खओवसम ३ उदय ४ परिणामा ५। दु२ नव ९हारि १८गवीसा २१ तिग ३ भेया सन्निवाओ य॥९॥ सम्मचरणाणि पढमे दंसणनाणाई दाणलाभा य। उवभोगभोगवीरिय सम्मचरित्ताणि य बिइए ॥९१ ॥ चउनाणमणाणतिगं देसणति. ग पंच दाणलद्धीओ । सम्मत्तं चारित्तं च संजमासंजमो तइए ॥९२॥ चउगइ चउकसाया लिंगतिगं लेसछक्कमन्नाणं । मिच्छत्तमसिद्धत्तं असंजमो तह च उत्थम्मि ॥९३ ॥ पंचमगंमि य भावे जीवाभवत्तभवया चेव । पंचण्हवि भावाणं भेया एमेव तेवन्ना ॥१२९४ ॥ ओदयियखओवसमियपरिणामेहिं चउरो गहचउक्के । खइयजुएहिं चउरो तदभावे उवसमजुएहिं ॥९५॥ मा १२९०-९८ Jan Education International www.ainelibrary.org Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्केको उवसमसेढीसिद्धकेवलिसु एवमविरुद्धा । पन्नरस सन्निवाइयभेया वीसं असंभविणो ॥९६ ॥ दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तियजोगो । चउजोगजुरं चउमुवि गईसु मणुयाण पणजोगो॥९७ ॥ मोहस्सेवोवसमो खाओवसमो चउण्ह घाईणं । उदयक्खयपरि णामा अट्टण्हवि हुंति कम्माणं ॥९८॥ विशिष्टहेतुभिः स्वभावतो वा जीवानां तेन तेन रूपेण भवनानि भावाः-वस्तुपरिणामविशेषाः, अथवा भवन्त्येमिरुपशमादिभिः पर्यायैरिति भावाः, 'छच्चे'ति चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् षडेव-षट्सङ्ख्या एव, तद्यथा-औपशमि कः क्षायिकः क्षायोपशमिकः औदयिकः पारिणामिकः सान्निपातिकश्च, तत्रोपशमो-भस्मच्छन्नाग्नेरिवानुद्रेकावस्था प्रदेशतोऽप्युदयाभाव इतियावत् , इत्थंभूतश्चोपशमः सर्वोपशम | उच्यते, स च मोहनीयस्यैव कर्मणो न शेषस्य, "सखुवसमो मोहस्सेव उ' इति वचनात् , तत्र चैवं शब्दव्युत्पत्तिः-उपशम एवौपश|मिक: स्वार्थिक इकणप्रत्ययः यद्वा उपशमेन निवृत्त औपशमिक:-क्रोधाद्युदयाभावफलरूपो जीवस्य परमशान्तावस्थालक्षणः परिणामविशेषः, क्षयः-कर्मणामत्यन्तोच्छेदः क्षय एव क्षायिकः क्षयेण वा निर्वृत्तः क्षायिकः-तत्कर्माभावफलरूपो विचित्रो जीवस्य परिणतिविशेषः, उदीर्णस्यांशस्य क्षयः अनुदीर्णस्य चांशस्य विपाकमधिकृत्योपशमः क्षयोपशमः स एव क्षायोपशमिकः तेन वा निवृत्तो घातिक| मैक्षयोपशमसंपाद्यो मतिज्ञानादिलब्धिरूप आत्मनः परिणामविशेषः क्षायोपशमिकः, अष्टानां कर्मणां यथास्वमुदयसमयप्राप्तानामात्मीयात्मीयस्वरूपेणानुभवनमुदयः उदय एवौदायिकः यद्वा उदयेन निवृत्त औदायिको भावो-नारकत्वादिपर्यायपरिणतिरूपः, परिणमनं परिणामः-कथञ्चिदवस्थितस्य वस्तुनः पूर्वावस्थापरित्यागेनोत्तरावस्थागमनं स एव तेन वा निवृत्तः पारिणामिकः । एषामेव यथाक्रमं भेदानाह || 4%9494- 95*94%85 For Private & Personel Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥३७१॥ 81-'दुनवे'त्यादि, द्वौ नव अष्टादश एकविंशतिस्त्रयश्च यथाक्रमेण भेदा येषां ते तथा, सान्निपातिकश्च षष्ठो भावः, सनिपतनं सन्नि-1 २२० पाप पातो-मिलनं स एव तेन वा निवृत्तः सान्निपातिकः, औदयिकादिभावद्यादिसंयोगनिष्पाद्योऽवस्थाविशेष इत्यर्थः ॥ ९० ॥ सांप्र- प्रकृतयः | तमौपशमिकक्षायिकभेदान् द्विनवसङ्ख्यान व्याख्यातुमाह-'सम्मेत्यादि, सम्यक्त्वं चारित्रं चौपशमिकं, प्रथमे औपशमिके भावे वर्तते, * गा. औपशमिकं हि सम्यक्त्वं दर्शनसप्तके चारित्रं तु चारित्रमोहनीये उपशान्ते संभवति, अत औपशमिकभाववर्तित्वमनयोरिति, तथा 'दंस-1|१२६८-८९ णनाणाईति 'सूचकत्वात् सूत्रस्य' केवलदर्शनं केवलज्ञानं दानलाभोपभोगपरिभोगवीर्यलब्धयः क्षायिकसम्यक्त्वं क्षायिकचारित्रं च द्वितीये २२१ क्षायिके भावे भवन्ति, तथाहि-केवलदर्शनं केवलज्ञानं च निजनिजावरणक्षय एवोपजायते, क्षायिकदानादिलब्धयस्तु पश्चापि पचवि- भावपङ्कम् धान्तरायक्षय एव, क्षायिकसम्यक्त्वमपि दर्शनमोहसप्तकक्षये, क्षायिकचारित्रं पुनश्चारित्रमोहनीयक्षये इति ॥ ९१ ॥ अधुना क्षायोपश- गा. | मिकभावभेदानष्टादशसङ्ख्यानाह-'चउ'इत्यादि, चत्वारि ज्ञानानि-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायरूपाणि अज्ञानत्रिक-मतिश्रुताज्ञानविभङ्गरूपं, दा१२९०-९८ दर्शनत्रिकं-चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनस्वभावं पंचेति सङ्ख्या दानेनोपलक्षिता लब्धयो दानलब्धयः, दानलाभोपभोगपरिभोगवीर्यलब्धयः, सम्य४ क्त्वं-सम्यग्दर्शनं, चारित्रं च-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपरायलक्षणं, संयमासंयमो-देशविरतिरूप इत्येतेऽष्टादश | भेदास्तृतीये क्षायोपशमिके भावे भवन्ति, तथाहि-ज्ञानचतुष्कमज्ञानत्रिकं च यथाखमावारकस्य मतिज्ञानावरणादिकर्मणः क्षयोपशम एव भवति, दर्शनत्रिकं तु चक्षुर्दर्शनावरणादिक्षयोपशमे, दानादिकाः पुनः पञ्च लब्धयोऽन्तरायकर्मक्षयोपशमे भवन्ति । ननु दानादिलब्धयः पूर्व क्षायिकभाववर्तिन्य उक्ताः इह तु क्षायोपशमिक इति कथं न विरोधः १, नैतदेवं, अभिप्रायापरिज्ञानात् , दानादिलब्धयो हि द्विधाता ॥३७१॥ भवन्ति-अन्तरायकर्मणः क्षयसंभविन्यः क्षयोपशमसंभविन्यश्च, तत्र याः क्षायिक्यः पूर्वमुक्तास्ताः क्षयसंभूतत्वेन केवलिन एव भवन्ति, in Education Intemanal For Private Personal use only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यास्त्विह क्षायोपशमिक्य उच्यन्ते ताः क्षयोपशमसंभूताः छद्मस्थानामेवेति, सम्यक्त्वमपि क्षायोपशमिकं दर्शनसप्तकक्षयोपशमे, चारित्रचतुष्कं तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमे, संयमासंयमश्चाप्रत्याख्यानावरणकषायमोहनीयक्षयोपशमे इति ॥ ९२ ॥ सांप्रतमेकविंशतिमौदयिकभावभेदानाह-'चउगई'त्यादि, एते सर्वेऽपि गत्यादयो भावाश्चतुर्थे औदयिके भावे भवन्ति, तथाहि-चतस्रो नरकादिगतयो नरकगत्यादिनामकर्मोदयादेव जीवे प्रादुष्षन्ति, कषाया अपि क्रोधादयश्चत्वारः कषायमोहनीयकर्मोदयात् , लिङ्गत्रिकमपि-स्त्रीवेदादिरूपं स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदमोहनीयकर्मोदयात् , लेश्याषट्कं तु योगपरिणामो लेश्या' इत्याश्रयणेन योगत्रिकजनककर्मोदयात् , येषां तु मते कषायनिस्स्पंदो लेश्यास्तदभिप्रायेण कषायमोहनीयकर्मोदयात् , येषां तु कर्मनिस्स्यंदो लेश्यास्तन्मतेन तु संसारित्वासिद्धत्ववदष्टप्रकारकर्मो दयादिति, अज्ञानमपि-विपर्यस्तबोधरूपं मत्यज्ञानादिकं ज्ञानावरणमिथ्यात्वमोहनीयोदयात् , यत्तु पूर्वमस्यैव मत्याद्यज्ञानस्य क्षायोपश|| मिकत्वमुक्तं तद्वस्त्ववबोधमात्रापेक्षया, सर्वमपि हि वस्त्ववबोधमात्रं विपर्यस्तमविपर्यस्तं च ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशम एव भवति, यत्पु-1 नस्तस्यैव विपर्यासलक्षणमज्ञानत्वं तद् ज्ञानावरणमिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदय एव संपद्यते, इत्येकस्यैवाज्ञानस्य क्षायोपशमिकत्वमौदयिकत्वं चन विरुध्यते, इत्येवमन्यत्रापि विरोधपरिहारः कर्तव्य इति, मिथ्यात्वं मिथ्यात्वमोहनीयोदयात् , असिद्धत्वं-कर्माष्टकोदयात् , असं|| यमः-अविरतत्वं तदप्यप्रत्याख्यानावरणकषायोदयादुपजायत इति । ननु निद्रापञ्चकासातादिवेदनाहास्यरत्यरतिप्रभृतयः प्रभूततरभावा | अन्येऽपि कर्मोदयजन्याः सन्ति तत् किमित्येतावन्त एवैते निर्दिष्टाः ?, सत्यं, उपलक्षणमात्रत्वादमीषां संभविनोऽन्येऽपि द्रष्टव्या इति ॥ ९३ ॥ अथ पारिणामिकभेदांत्रीनाह-पंचे'त्यादि, पञ्चमके च-पारिणामिकत्वलक्षणे भावे जीवत्वाभव्यत्वभव्यत्वानि वर्तन्ते, जीव| त्वमभव्यत्वं भव्यत्वं चानादिपारिणामिको भाव इत्यर्थः, उपलक्षणं चैतत् , तेन ये गुडघृततण्डुलासवघटादीनां नवपुराणत्वादयोऽवस्थावि ALS For Private & Personel Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३७२॥ गा. शेषाः ये च वर्षधरपर्वतभवनविमानकूटरत्नप्रभादीनां पुद्गल विचटनचटनसंपाद्या अवस्थाविशेषाः यानि च गंधर्वनगराणि यच्च कपिडसि-ल २२० पापतमुल्कापातो गर्जितं महिका दिग्दाहो विद्युत् चन्द्रपरिवेषः सूर्यपरिवेषश्चन्द्रसूर्यग्रहणमिन्द्रधनुरित्यादिः सर्वः सादिपारिणामिको भावः, प्रकृतयः लोकस्थितिरलोकस्थितिधर्मास्तिकायत्वमित्यादिरूपस्त्वनादिपारिणामिक इति । उक्ताः प्रत्येकं भावभेदाः, सम्प्रत्येतेषामेव भेदानां सर्वस-1 गायामाह-'पंचण्हवी'त्यादि, पञ्चानामप्यौपशमिकादीनां भावानां भेदाः समुदिताः सन्त एवमेव-पूर्वोक्तप्रकारेण त्रिपञ्चाशत्सल्या २ ९ भवन्ति, द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयाणां मीलनेनैतत्सङ्ख्यायाः सद्भावादिति । षष्ठस्तु सान्निपातिको भाव एतेषामेव द्वयादि संयोगनिष्पाद्यः, २२१ तत्र चागमोक्तक्रमेण औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकरूपाणां पञ्चानां पदानां सामान्यतः षड्विंशतिर्भङ्गा उत्पद्यन्ते, माभावपटूम् तद्यथा-दश द्विकसंयोगे दश त्रिकसंयोगे पञ्च चतुष्कसंयोगे एकः पञ्चकसंयोगे इति, तत्र द्विकसंयोो दश-औदयिक औपशमिक इयेको भङ्गः औदयिकः क्षायिक इति द्वितीयः औदयिकः क्षायोपशमिक इति तृतीयः औदयिकः पारिगामिक इति चतुर्थः औपश- १२९०-९८ मिकः क्षायिक इति पञ्चमः औपशमिकः क्षायोपशमिक इति षष्ठः औपशमिकः पारिणामिक इति सप्तमः क्षायिकः क्षायोपश मिक इत्यष्टमः क्षायिकः पारिणामिक इति नवमः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति दशमः, तथा दश त्रिकसंयोगे-औदयिक औपशमिकः क्षायिक इत्येको भङ्गः औदयिक औपशमिकः क्षायोपशमिक इति द्वितीयः औदयिक औपशमिकः पारिगामिक इति तृतीयः औदयिकः क्षायिकः क्षायोपशमिक इति चतुर्थः औदायिकः क्षायिकः पारिणामिक इति पञ्चमः औदयिकः क्षायोपशमिकः पारिगामिकः इति षष्ठः औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिक इति सप्तमः औपशमिकः क्षायिकः पारिणामिक इत्य टमः औपशमिकः क्षायोपशमिकः पारिणा- ॥३७२॥ |मिक इति नवमः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति दशमः, तथा चतुष्कसंयो-औदयिक औपशमिकः क्षायिकः क्षायोग ESSAY A For Private & Personel Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ शमिक इत्येको भङ्गः औदयिक औपशमिकः क्षायिकः पारिणामिक इति द्वितीयः औदयिकः औपशमिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति तृतीयः औदयिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति चतुर्थः औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इति पञ्चमः, पर्विंशतितमस्तु भङ्गः पंचकसंयोगे जायमानः सुप्रतीत एव, एते च षड्विंशतिर्भङ्गा भङ्गरचनामात्रमधिकृत्य दर्शिता वेदितव्याः, संभविनः पुनरेतेषु मध्ये परमार्थतः षडेव, तद्यथा - एको द्विकसंयोगे ९ द्वौ त्रिकसंयोगे ५-६ द्वौ चतुष्कसंयोगे ३-४ एकः पञ्चकसंयोगे ॥ ९४ ॥ एते चावान्तरभेदतः पंचदश भवन्त्यतस्तान् सूत्रदाह —- 'ओदई 'यादिगाथाद्वयं, औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकैर्भावैर्निष्पन्नस्य सान्निपातिकस्य नारकतिर्यग्नरसुरखरूपगतिचतुष्कविषयतया चिन्त्यमानस्य चत्वारो भेदा भवन्ति, इदमुक्तं |भवति-औदयिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इत्ययं त्रिकसंयोगनिष्पन्नो भङ्गो गतिभेदाचतुर्धा भिद्यते, तद्यथा-निरयगतावौदयिकं नैरयिकत्वं क्षायोपशमिकमिन्द्रियादि पारिणामिकं जीवत्वादि, तिर्यग्गतावौदयिकं तिर्यग्योनित्वं क्षायोपशमिकमिन्द्रियादि पारिणामिकं जीवत्यादि, एवं नरसुरगत्योरपि भावना कार्या, तथा एतैरेवौदयिकादिभिस्त्रिभिः क्षायिकसहितैर्निष्पन्नस्य सान्निपातिकस्य भावस्य चत्वारो भेदा भवन्ति, अयमर्थः - अमीषामेव त्रयाणां भावानां मध्ये यदा क्षायिको भावश्चतुर्थः प्रक्षिप्यते तदा चतुष्कसंयोगो भवति, | एवं चाभिलपनीयः - औयिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिकः, एषोऽपि गतिभेदाच्चतुर्धा, तद्यथा - औदयिकी नरकगतिः | क्षायिकं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकमिन्द्रियादि पारिणामिकं जीवत्वादि, एवं तिर्यग्नरसुरगतिध्वपि भावनीयं प्रकारान्तरेण चतु:संयोगे एव चतुर्भेदानाह - तदभावे - अनन्तरप्रक्षिप्तक्षायिकभावाभावे औपशमिकभावयुक्तैरौदयिकादिभिरेव चत्वारो भेदा भवन्ति एतदुक्तं | भवति - यदा क्षायिकभावस्थाने औपशमिको भावः प्रक्षिप्यते तदापि चतुष्कसंयोगो भवति, एवं चाभिलापः - औदयिक औपशमिकः Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. वत्वादि, सिदेपुनतथाहि-औदायक पारिणामिक प्रव० सा-नाक्षायोपशमिकः पारिणामिका, एषोऽपि गतिभेदात्नागिव चतुर्धा भावनीयः, नवरमौपशमिकं सम्यक्त्वमवगन्तव्यं, तथा एककः-एक- २२० पापरोद्धारे सङ्ख्यः सान्निपातिको भेद उपशमश्रेणिसिद्धकेवलिषु भवति, तत्र औदायिक औपशमिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इत्येवं- प्रकृतयः तत्त्वज्ञा | रूप एकः पञ्चकसंयोगो यः क्षायिकः सम्यग्दृष्टिः सन्नुपशमश्रेणि प्रतिपद्यते तस्य संभवति, तथाहि-औदयिक मनुष्यत्वादि औपशनवि० | मिकं चारित्रं क्षायिक सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकमिन्द्रियादि पारिणामिकं जीवत्वादि, सिद्धेषु पुनरेको द्विकसंयोगलक्षणः सान्निपातिकभेदः, १२८७-८९. तद्यथा-क्षायिकः पारिणामिक इति, तत्र क्षायिकं सम्यक्त्वकेवलज्ञानादि पारिणामिकं जीवत्वं, केवलिनां त्वेकत्रिकसंयोगलक्षणः २२१ . ॥३७३॥ | सान्निपातिकभेदः, तद्यथा-औदायिकः क्षायिकः पारिणामिकः, तत्रौदयिकं मनुष्यत्वादि क्षायिक केवलज्ञानादि पारिणामिके जीवत्वभ- भावषदम् | व्यत्वे, एवमनेन गत्यादिषु संयोगषट्कचिन्तनप्रकारेणाविरुद्धाः परस्परविरोधाभावेन संभविनः पञ्चदश सान्निपातिकभेदाः षट्कभा- गा. |वविकल्पा भवन्ति, विंशतिसङ्ख्याः पुनर्भङ्गा असंभविनः संयोगोत्थानमात्रतयैव संभवंति न पुनर्जीवेषु कदाचिदपि प्राप्यन्ते इति १२९०-९८ द॥९५॥ ९६ ॥ अथैत एव संभविनः षड् भङ्गा येषु जीवेषु संभवन्ति तानाह-'दुगे'त्यादि, दशसु द्विकसंयोगेषु मध्ये क्षायिक|पारिणामिकभावद्वयनिष्पन्नो नवमो द्विकसंयोगः सिद्धानां संभवति, शेषास्तु नव प्ररूपणामात्रं, अन्येषां तु जीवानामौदयिकी गतिः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं तु जीवत्वमित्येतद्भावत्रयं जघन्यतोऽपि लभ्यत इति, तथा केवलिनां संसारिणां च त्रिकसं| योगः, तत्र दशसु त्रिकसंयोगेषु मध्ये केवलिनां औदयिकक्षायिकपारिणामिकभावत्रयनिष्पन्नः पञ्चमो भङ्गः संभवति, औपशमिकस्य | मोहनीयाश्रितत्वेन तत्क्षयवता केवलिनामसंभवात् , क्षायोपशमिकस्यापि इन्द्रियाद्यभावतोऽसंभवाद् 'अतीन्द्रियाः केवलिन' इति वच- ॥३७३॥ || नात्, संसारिणां तु चतुर्गतिकजीवानामौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावत्रयनिष्पन्नः षष्ठस्त्रिकसंयोगः संभवति, शेषास्त्वष्टौ प्ररूप-18॥ Jan Education International For Private Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X % प्रणामात्र, काप्यसंभवादिति, तथा पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु मध्ये चतुर्योगयुग-चतुःसंयोगभङ्गद्वयं चतसृष्वपि गतिषु संभवति, तथाहि- औपशमिकसम्यग्दृष्टेरौदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावचतुष्टयनिष्पन्नस्तृतीयो भङ्गः, क्षायिकसम्यग्दृष्टेस्तु औदयिकः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिक इत्येवंरूपश्चतुर्थो भङ्गश्चतसृष्वपि गतिषु प्राप्यत इति, तथा मनुष्याणां पञ्चकयोगः-पूर्वोक्तभावपञ्चकसंयोगः संभवति, केवलं क्षायिकसम्यग्दृष्टयः सन्तो ये उपशमश्रेणि प्रतिपद्यन्ते तेषामेव न पुनरन्येषां, समुदितभावपञ्चकस्य तेषामेव भावादिति ॥ ९७ ॥ उक्ता जीवानधिकृत्य सर्वेऽपि भावाः, इदानी को भावः कस्मिन् कर्मणि भवतीत्येतन्निरूपयितुमाह'मोहस्सेवे'त्यादि, अष्टानां कर्मणां मध्ये मोहनीयस्यैवोपशमो-विपाकप्रदेशरूपतया द्विविधस्याप्युदयस्य विष्कम्भणं नान्येषां, उपशमस्त्विह सर्वोपशमो विवक्षितो न देशोपशमः, तस्य सर्वेषामपि कर्मणां संभवात् , तथा उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य क्षयेणानुदयावलिकाप्रविष्टस्योपशमेन-विपाकोदयनिरोधलक्षणेन निवृत्तः क्षायोपशमिकः, स चतुर्णामेव घातिकर्मणां-ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायरूपाणां भवति न शेषकर्मणां, चतुर्णामपि च केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणरहितानां, तयोर्विपाकोदयविष्कम्भाभावतः क्षयोपशमासंभवात् , उदयक्षयपरिणामा अष्टानामपि कर्मणां भवन्ति, तत्र उदयो-विपाकानुभवनं, तस्य सर्वेषामपि संसारिजीवानामष्टानामपि कर्मणां दर्शनात् , क्षयः-आत्यन्तिकोच्छेदः, स च मोहनीयस्य सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकस्य चरमसमये, शेषाणां तु त्रयाणां घातिकर्मणां क्षीणकपायगुणस्थानकस्य, अघातिकर्मणामयोगिकेवलिनः, तथा परिणमनं परिणामः-जीवप्रदेशैः सह संलुलिततया मिश्रीभवनं यद्वा तत्तद्द्रव्यक्षेत्रकालाध्यवसायापेक्षया तथातथासंक्रमादिरूपतया यत्परिणमनं स परिणामः, एष चात्र तात्पर्यार्थ:-मोहनीयस्य औपशमिकक्षा Jan Education Intemanon For Private Personel Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० गुणस्थानकेषु भावाः गा.१२९९ ॥३७४॥ यिकक्षायोपशमिकौयिकपारिणामिकलक्षणाः पञ्चापि भावाः संभवन्ति, ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामौपशमिकवर्जाः शेषाश्चत्वारः, नामगोत्रवेदनीयायुषां क्षायिकौदयिकपारिणामिकलक्षणास्त्रय इति ॥ ९८ ॥ अथ गुणस्थानकेषु भावपञ्चकं चिन्तयन्नाह सम्माइच उसु तिग चउ भावा चउ पणुवसामगुवसंते । चउ खीणऽपुष्वे तिन्नि सेसगुणठाणगेग जिए॥१९॥ - 'सम्माई'त्यादि, सम्यग्दृष्ट्यादिषु चतुर्यु-अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतलक्षणेषु गुणस्थानकेषु त्रयश्चत्वारो वा भावाः | प्राप्यन्त इति शेषः, तत्र क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टेश्चतुर्वपि गुणस्थानकेषु त्रयो भावा लभ्यन्ते, तद्यथा-यथासंभवमौदयिकी गतिः क्षायोपशमिकमिन्द्रियसम्यक्त्वादि पारिणामिकं जीवत्वमिति, क्षायिकसम्यग्दृष्टेरौपशमिकसम्यग्दृष्टश्च चत्वारो भावा लभ्यन्ते, त्रयस्तावत्पूर्वोक्ता एव चतुर्थस्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टेः क्षायिकसम्यक्त्वलक्षणः औपशमिकसम्यग्दृष्टेस्त्वौपशमिकसम्यक्त्वलक्षण इति, तथा चत्वारः पञ्च वा भावा द्वयोरप्युपशमकोपशान्तयोर्भवन्ति, किमुक्तं भवति ?-अनिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायलक्षणगुणस्थानकद्वयवर्ती जन्तुरुपशमकः उपशान्तमोहगुणस्थानकवर्ती चोपशान्तः, तत्रानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपराययोश्चत्वारः पूर्ववदेव, उपशान्तमोहे तु चतुर्थ औपशमिकसम्यक्त्वचारित्ररूपः, पञ्चमः पुनस्त्रयाणामपि दर्शनसप्तकक्षये उपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानानां, तथाहि-क्षाशिकसम्यक्त्वस्य औपशमिकचारित्रस्य च सद्भावादिति, तथा चत्वारो भावाः क्षीणापूर्वयोः-क्षीणमोहगुणस्थानके अपूर्वकरणगुणस्थामके च, तत्र त्रयः पूर्ववदेव चतुर्थस्तु क्षीणमोहे क्षायिकसम्यक्त्वचारित्ररूपः, अपूर्वकरणे तु क्षायिकसम्यक्त्वरूप औपशमिकसम्यक्त्वरूपो वेति, 'तिन्नि सेसगुणठाणगे'ति त्रयः-त्रिसङ्ख्या भावा भवन्ति, केष्वित्याह-विभक्तेलापात् शेषगुणस्थानकेषु-मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्मिथ्यादृष्टिसयोगिकेवल्ययोगि ३७४॥ For Private & Personal use only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * केवलिलक्षणेषु, तत्र मिथ्यादृष्ट्यादीनां त्रयाणामौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकलक्षणात्रयः सयोग्ययोगिकेवलिनोस्स्वौदयिकक्षायिकपा-४ | रिणामिकरूपा इति । नन्वमी त्रिप्रभृतयो भावा गुणस्थानकेषु चिन्त्यमानाः किं सर्वजीवाधारतया चिन्त्यन्ते ? आहोश्चियेकजीवाधारतयेत्याह-एगजिए'त्ति एकजीवे-एकजीवाधारतयेत्थं भावचिन्ता मन्तव्या, नानाजीवापेक्षया तु संभविनः सर्वेऽपि भावा भवन्तीति | २२१ ॥ ९९ ।। इदानीं 'जीवचउदसगो'त्ति द्वाविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह इह सुहुमबायरेगिदियबितिचउ असन्नि सन्नि पंचिंदी । पज्जत्तापज्जत्ता कमेण चउदस जियट्ठाणा ** *** ____ इह-जगति प्रवचने वा अनेन क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि भवन्ति, तिष्ठन्ति जीवास्तत्तत्कर्मपारतण्यादेविति स्थानानि-सूक्ष्मपर्या केन्द्रियत्वादयोऽवान्तरविशेषाः जीवानां स्थानानि जीवस्थानानि, केन क्रमेणेत्याह-सूक्ष्मबादरभेदाद् द्विविधा एकेन्द्रियाः तथा द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्चासंज्ञिसंज्ञिभेदतो द्विधा मिलिताश्च सप्त, एते च सूक्ष्मैकेन्द्रियादयः प्रत्येकं द्विविधाः-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्चेति, तथा विशेषश्चात्र-अपर्याप्तका द्विधा-लब्ध्या करणेन च, तत्र ये अपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते न पुनः स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, ये पुनः स्वयोग्यकरणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तावत् निर्वर्तयन्ति अथ चावश्यं पुरस्ताभिर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः, इह चैवमागमः-लब्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते | नार्वाक् , यस्मादागामिकभवायुर्बद्धा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्तानामेव बध्यत इति २२२ ॥ १३०० ॥ इदानीं 'अजीव चउदसगो'त्ति त्रयोविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह * For Private Personal use only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३७५ ॥ धम्मा १ धम्मा २ssगासा ३ तियतियभेया तहेव अद्धा य १० । खंधा ११ देस १२ पएसा १३ परमाणु ९४ अजीव चउदसहा ॥ १ ॥ इह अजीवा द्विविधाः - रूपिणोऽरूपिणञ्च, रूपमेषामस्तीति रूपिणः, रूपग्रहणं गन्धादीनामुपलक्षणं, तद्व्यतिरेकेण तस्यासंभवात्, अथवा रूपं नाम स्पर्शरूपादिसंमूर्च्छनात्मिका मूर्त्तिः तदेषामस्तीति रूपिणः - पुद्गलाः, तेषामेव रूपादिमत्त्वात्, रूपव्यतिरेकिणोऽरूपिणो - धर्मास्तिकायादयः, तत्र रूपिणचतुर्धा अरूपणिश्च दशधा, बहुवक्तव्यत्वाच्च प्रथममरूपिण आह-धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायाकाशास्तिकायाः- पूर्वोक्तस्वरूपात्रयोऽपि प्रत्येकं त्रिभेदाः, तद्यथा-धर्मास्तिकायद्रव्यं धर्मास्तिकायदेशाः धर्मास्तिकाय प्रदेशाः, तत्र धर्मास्तिकायद्रव्यरूपं सकलदेशप्रदेशात्मकाविभागधर्मानुगतसमानपरिणामवत् अवयविद्रव्यं धर्मास्तिकायद्रव्यं, तथा तस्यैव धर्मास्तिकायद्रव्यस्य देशा:- बुद्धिपरिकल्पिता द्व्यादिप्रदेशात्मका विभागा धर्मास्तिकायदेशाः, तथा धर्मास्तिकायस्य प्रकृष्टा देशा- निर्विभागा भागा धर्मास्तिकायप्रदेशाः, ते चासयेया लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्तेषां एवमधर्मास्तिकायाकाशास्तिकाययोरपि प्रत्येकं त्रिभेदता वाच्या, नवरमाका| शास्तिकायप्रदेशा अनन्ता द्रष्टव्याः, अलोकस्यानन्तत्वात्, दशमश्च अद्धाकालः अस्य च वर्तमानसमयरूपस्यैव परमार्थसत्त्वाद्देशकल्प| नाविरहः । तथा स्कन्धा देशाः प्रदेशाः परमाणवचेति चतुर्विधा रूप्यजीवाः, तत्र स्कन्दन्ति - शुष्यन्ति धीयन्ते च - पुष्यन्ति विचनेन संघातेन चेति स्कन्धाः - अनन्तानन्तपरमाणुप्रचयरूपा मांसचक्षुर्ब्राह्याः कुम्भस्तम्भादयः तद्ग्राह्या अचित्तमहास्कन्धादयोऽपि पृषोदरादित्वाच्च रूपनिष्पत्तिः, अत्र बहुवचनं पुद्गलस्कन्धानामानन्त्यख्यापनार्थं, देशाः स्कन्धानामेव स्कन्धत्वपरिणाममजहतां बुद्धिपरिकल्पिता द्व्यादिप्रदेशात्मका विभागाः, अन्त्रापि बहुवचनमनन्तप्रादेशिकेषु तथाविधेषु स्कन्धेषु देशानन्तत्वसंभावनार्थ, प्रदेशास्तु स्कन्धानां - स्क २२२ जीवभेदाः २२३ अ जीवभेदाः गा. १३००-१ ॥ ३७५ ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROCTORSCACROSSOSOR: न्धत्वपरिणामपरिणतानां बुद्धिपरिकल्पिताः प्रकृष्टा देशा निर्विभागा भागा इत्यर्थः, अत्रापि बहुवचनं प्रदेशानन्तत्वसंभावनार्थ, परमाश्च ते अणवश्व परमाणवो-निर्विभागद्रव्यरूपाः । ननु प्रदेशपरमाण्वोः कः प्रतिविशेषः ?, उभयोरपि निर्विभागरूपत्वात् , उच्यते, स्कन्धप्रतिबद्धा निर्विभागाः प्रदेशाः, ये तु स्कन्धत्वपरिणामरहिता विशकलिता एकाकिन एवास्मिन् लोके वर्तन्ते ते परमाणवः, तदेवमजीवाःजीवव्यतिरिक्ताश्चतुर्दशविधा भवन्ति २२३ ॥ १॥ इदानीं 'गुण चउदसगु'त्ति चतुर्विशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह मिच्छे १ सासण २ मिस्से ३ अविरय ४ देसे ५ पमत्त ६ अपमत्ते ७ । नियहि ८ अनियहि ९ सुहमु १. वसम ११ खीण १२ सजोगि १३ अजोगि १४ गुणा ॥२॥ 'सूचनात् सूत्र'मिति न्यायात् 'पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचाराद्वा' इहैवं गुणस्थानकनिर्देशो द्रष्टव्यः, तद्यथा-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानं अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं देशविरतिगुणस्थानं प्रमत्तसंयतगुणस्थानं अप्रमत्तसंयतगुणस्थानं अपूर्वकरणगुणस्थानं अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानं सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानं उपशान्तकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानं क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानं सयोगिकेवलिगुणस्थानं अयोगिकेवलिगुणस्थानं इत्येतानि चतुर्दश गुणस्थानानि भवन्ति । तत्र मिथ्याविपर्यस्ता दृष्टिः-अर्हत्प्रणीततत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य भक्षितधत्तूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् स मिथ्यादृष्टिः, गुणा-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः, तिष्ठन्ति गुणा अस्मिन्निति स्थानं-ज्ञानादिगुणानामेव शुद्ध्यशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः, गुणानां स्थानं गुणस्थानं, मिथ्यादृष्टेर्गुणस्थानं-सासादनाथपेक्षया ज्ञानादिगुणानां शुद्ध्यपकर्षकृतः स्वरूपभेदो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं । ननु यदि मिथ्यादृष्टि-| रसौ कथं तस्य गुणस्थानसंभवः ?, गुणा हि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाः, तत्कथं ते दृष्टौ ज्ञानादिविपर्यस्तायां भवेयुः ?, उच्यते, इह यद्यपि For Private Personal Use Only Jain Education Interational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा २२४ गुणस्थानकानि गा.१३०२ नवि० तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणात्मगुणसर्वघातिप्रबलमिथ्यात्वमोहनीयविपाकोदयवशाद्वस्तुप्रतिपत्तिरूपा दृष्टिरसुमतो विपर्यस्ता भवति तथापि काचिन्मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्तिरन्ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिरविपर्यस्ताऽपि भवति, यथाऽतिबहलघनपटलसमाच्छादितायामपि चन्द्रार्कप्रभायां काचित्प्रभा, तथाहि-समुन्नतनूतनघनाघनघनपटलेन रविरजनिकरकरनिकरतिरस्कारेऽपि नैकान्तेन तत्प्रभाविनाशः संपद्यते, प्रतिप्राणिप्रसिद्धदिनरजनिविभागाभावप्रसङ्गात् , उक्तं च-"सुट्ठवि मेहसमुदए होइ पहा चंदसूराण"मिति, [सुष्ठपि मेघसमुदये भवति प्रभा चन्द्रसूर्ययोः] एवमिहापि प्रबलमिथ्यात्वोदयेऽपि काचिदविपर्यस्तापि दृष्टिर्भवतीति तदपेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि गुणस्थानसंभवः, यद्येवं ततः कथमसौ मिथ्यादृष्टिरेव मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्त्यपेक्षया अन्ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूजाताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्त्यपेक्षया वा सम्यग्दृष्टित्वादपि ?, नैष दोषः, यतो भगवदहत्प्रणीतं सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गतमेकमप्यक्षरं न रोचयति तदानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययनाशात् , उक्तं च-"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥ १॥" किं पुनः शेषो भगवदर्हदमिहितयथावजीवाजीवादिवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिविकलः ?, ननु सकलप्रवचनार्थाभिरोचनात्तद्गतकतिपयार्थानां चारोचनादेष न्यायतः सम्यग्मिध्याहष्टिरेव भवितुमर्हति, कस्मान्मिथ्यादृष्टिः ?, तदसत् , वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , इह यदा सकलं वस्तु जिनप्रणीततया सम्यक् श्रद्धत्ते तदानीमसौ सम्यग्दृष्टिः, यदा त्वेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा मतिदौर्बल्यादिना एकान्तेन सम्यकपरिज्ञानमिथ्यापरिज्ञानाभावतो न सम्यक् श्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः तदा सम्यग्मिथ्यादृष्टिः, उक्तं च शतकबृहचूर्णी-"जहा नालिकेरदीववासिस्स खुहाइय-| स्सवि इत्थ समागयस्स पुरिसस्स ओयणाइए अणेगविहे ढोइए तस्स आहारस्सोवरिं न रुई न य निंदा, जेण तेण सो ओयणाइओ ॥७६॥ For Private Personel Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारो न कयावि दिहो नावि सुओ, एवं सम्मामिच्छादिहिस्सवि जीवाइपयत्थाणं उवरि न य रुई नावि निंद"त्ति, यदा पुनरेकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा एकान्ततो विप्रतिपत्तिं प्रतिपद्यते तदा मिथ्यादृष्टिरेवेत्यदोषः १ । तथा आयं-औपशमिकसम्यक्त्वलाभलक्षणं सादयति-अपनयतीति नैरुक्ते यशब्दलोपे आसादनं-अनन्तानुबंधिकषायवेदनं, सति ह्यस्मिन् परमानन्दसुखफलदो निःश्रेयसतरुबीजशाभूत औपशमिकसम्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयमात्रेण उत्कृष्टतः षड्भिरावलिकाभिरपगच्छतीति, सह आसादनेन वर्तत इति सासादनः | सम्यग्-अविपर्यस्ता दृष्टिः-जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः सासादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च सासादनसम्यग्दृष्टिः तस्य गुणस्थानं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं, अथवा सह आसातनया-अनन्तानुबन्ध्युदयलक्षणया वर्तत इति सासातनः स चासौ सम्यग्दृष्टिश्च २ तस्य गुणस्थानं सासातनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं, सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमिति वा पाठः, तत्र सह सम्यक्त्वलक्षणरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनः, यथा हि भुक्तक्षीरान्नविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरान्नरसमास्वादयति तथैषोऽपि मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुद्वमन् तद्रसमाखादयति ततः स चासौ सम्यग्दृष्टिश्च २ तस्य गुणस्थानं, एतचैवं भवति-इहापारसंसारपारावारान्तर्वर्ती जन्तुर्मिथ्यादर्शनमोहनीयादिप्रत्ययमनन्तपुद्गलपरावर्तान् यावदनेकशारीरिकमानसिकदुःखलक्षाण्यनुभूय कथमपि तथाभव्यत्वपरिपाकवशतो गुरुतरगिरिसरित्प्रवाहवाह्यमानोपलघोलनाकल्पेनाध्यवसायविशेषरूपेणानाभोगनिर्वर्तितेन यथाप्रवृत्तिकरणेनाऽऽ| युर्वर्जानि ज्ञानावरणादिकर्माणि सर्वाण्यपि पृथक्पल्योपमसङ्ख्येयभागन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानि करोति, अत्र चान्तरे कर्कश कर्मपटलापहस्तितवीर्यविशेषाणामसुमतामतिकठोरतरनिबिडचिरप्ररूढगहनतरुप्रन्थिवद् दुर्भेदः कर्मपरिणामजनितो जीवस्य धनरागद्वेषप|रिणामरूपोऽभिन्नरूपो प्रन्धिर्भवति, इमं च प्रन्थि यावभव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म क्षपयित्वाऽनन्तशः समागच्छन्ति, ततो For Private & Personel Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ रोद्धारे प्रव० सा-18|| ग्रन्थिभेदं कर्तुमसमर्थाः पुनरपि व्यावृत्त्य संक्लेशवशादुत्कृष्टस्थितीनि कर्माणि कुर्वन्ति, कश्चित्पुनर्महात्मा समासन्नपरमनिर्वृतिसुखः||२२४ गुण समुल्लसितप्रभूतदुर्निर्वार्यवीर्यप्रसरो निसिताकुण्ठकुठारधारयेवापूर्वकरणरूपया परमविशुद्ध्या यथोक्तस्वरूपस्य अन्र्भेदं विधाय मिथ्या- स्थानकानि तत्त्वज्ञा- त्वमोहनीयकर्मस्थितेरन्तर्मुहूर्तमुदयक्षणादुपरि गत्वा अनिवृत्तिकरणसंज्ञितेनान्तर्मुहूर्तकालमानं तत्प्रदेशवेद्यदलिकामावरूपमन्तरकरणं *गा.१३०२ नवि० करोति, अत्र च यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणानामयं क्रमो, यथा-"जा गंठी ता पढमं गठिं समइच्छओ भवे बीयं । अनियट्टीकरणं ॥३७७॥ पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ॥ १॥" [यावत् प्रन्थिस्तावद् प्रथमं प्रन्थि समतिकामतो भवेद् द्वितीयं । अनिर्वृत्तिकरणं पुनः पुरस्कृतसम्यक्त्वे जीवे ॥ १॥] 'गंठिं समइच्छओ'त्ति ग्रन्थि समतिकामतो मिन्दानस्येतियावत् , 'सम्मत्तपुरक्खडे'त्ति सम्यक्त्वं पुरस्कृतं येन स तथा तस्मिन् , आसन्नसम्यक्त्वे जीवे अनिवृत्तिकरणं भवतीत्यर्थः । एतस्मिंश्चान्तरकरणे कृते तस्य कर्मणः स्थितिद्वयं भवति, अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमा स्थितिरन्तर्मुहूर्तमाना, तस्मादेव चान्तरकरणादुपरितनी द्वितीया, स्थापना चेयं : , तत्र प्रथमस्थिती मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्यादृष्टिरेव, अन्तर्मुहूर्तेन पुनस्तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवौपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्नोति, | मिथ्यात्वदलिकवेदनाऽभावात् , यथा हि वनवानलः पूर्वदग्धेन्धनमूषरं वा देशमवाप्य विध्यायति तथा मिथ्यात्ववेदनवनवोऽप्यन्तरकरणमवाप्य विध्यायति, तथा च सति तस्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभः, तस्यां चान्तमाँहूर्तिक्यामुपशान्ताद्धायां परमनिधिलाभकल्पायां जघन्येन समयशेषायां उत्कृष्टतः पडावलिकाशेषायां कस्यचिन्महाविभीषिकोत्थानकल्पस्तथाविधं किंचिनिमित्तमाश्रित्यानन्तानुबन्ध्युदयो भवति, तदुदये चासौ सासादनसग्दृष्टिगुणस्थाने वर्तते, उपशमश्रेणिप्रतिपतितो वा कश्चित्सासादनत्वं यातीति कार्मग्रन्थिमतं, सिद्धान्तमते ॥३७७॥ तु श्रेण्याः समाप्तौ प्रतिपतितः प्रमत्तगुणस्थानेऽप्रमत्तगुणस्थाने वा-तिष्ठते, कालगतस्तु देवेष्वविरतो भवतीति, सासादनोत्तरकालं चावश्यं Jan Education Intemanong For Private Personel Use Only www.jainelorary.org Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मिथ्यात्वोदयादयं मिथ्यादृष्टिर्भवतीति २ । तथा सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिः तस्य गुणस्थानं सम्यग्मिध्याहष्टिगुणस्थानं, इहानन्तरोक्तविधिना लब्धेनौपशमिकसम्यक्त्वेनौषधविशेषकल्पेन मदनकोद्रवस्थानीयं मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म शोधयित्वा त्रिधा करोति, तद्यथा-शुद्धमर्धविशुद्धमविशुद्धं चेति, स्थापना..., तत्र त्रयाणां पुजानां मध्ये यदा अर्धविशुद्धपुल उदेति तदा तदुदयवशाजीवस्यार्धविशुद्धमर्हदभिहिततत्त्वश्रद्धानं भवति, तेन तदासौ सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानमन्तर्मुहूर्तकालं स्पृशति, तत ऊर्द्धमवश्यं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा गच्छतीति ३ । तथा विरमति स्म-सावद्ययोगेभ्यो निवर्तते स्मेति विरतः न विरतोऽविरतः अथवा विरमणं विरतंसावद्ययोगप्रत्याख्यानं नास्य विरतमस्तीत्यविरतः स चासौ सम्यग्दृष्टिश्चेत्यविरतसम्यग्दृष्टिः, इदमुक्तं भवति-यः पूर्ववर्णितौपशमिकसम्यग्दृष्टिः शुद्धदर्शनमोहपुखोदयवर्ती वा क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिः क्षीणदर्शनसप्तको वा क्षायिकसम्यग्दृष्टिरविरतप्रत्ययं दुरन्तनरकादिदुःखफलकर्मबन्धं सावद्ययोगविरतिं च परममुनिप्रणीतसिद्धिसौधाध्यारोहणनिःश्रेणिकल्पां जानन्नपि न विरतिमभ्युपगच्छति न च तत्पालनाय | यतते, अप्रत्याख्यानावरणोदयविग्नितत्वात् , ते हि अल्पमपि प्रत्याख्यानमावृण्वन्ति, स इहाविरतसम्यग्दृष्टिरुच्यते ४ । तथा सर्वसावद्ययोगस्य देशे-एकव्रतविषयस्थूलसावद्ययोगादौ सर्वव्रतविषयानुमतिवर्जसावद्ययोगान्ते विरतं-विरतिर्यस्यासौ देशविरतिः, सर्वसावद्ययोगविरतिस्त्वस्य नास्ति, प्रत्याख्यानावरणकषायोदयात् , सर्वविरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणा उच्यन्ते इति, देशविरतस्य गुणस्थानं देशविरतगुणस्थानं ५ । तथा संयच्छति स्म-सर्वसावद्ययोगेभ्यः सम्यगुपरमति स्मेति संयतः प्रमाद्यति स्म-मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः संज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदति स्मेति प्रमत्तः स चासौ संयतश्च प्रमत्तसंयतः तस्य गुणस्थानं प्रमत्तसंयतगुणस्थानं-विशुद्ध्यविशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपभेदः, तथाहि-देशविरतगुणापेक्षया एतद्गुणानां विशुद्धिप्रकर्षोऽ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३७८॥ शुद्ध्यपकर्षश्च, अप्रमत्तसंयतगुणापेक्षया तु विपर्ययः, एवमन्येष्वपि गुणस्थानकेषु पूर्वोत्तरगुणापेक्षया विशुद्ध्यविशुद्धिप्रकर्षापकर्षयोजना लागण द्रष्टव्या ६। तथा न प्रमत्तोऽप्रमत्तो-निद्रादिप्रमादरहितः स चासौ संयतश्चाप्रमत्तसंयतस्तस्य गुणस्थानमप्रमत्तसंयतगुणस्थानं ७ । तथा स्थानकानि अपूर्वमभिनवमनन्यसदृशमितियावत् करणं-स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमस्थितिबन्धानां पञ्चानां पदार्थानां निवर्तनं यस्यासाव- उगा.१३०२ पूर्वकरणः, तथाहि-बृहत्प्रमाणाया ज्ञानावरणादिकर्मस्थितेरपवर्तनाकरणेन खण्डनं-अल्पीकरणं स्थितिघातः, रसस्यापि-कर्मपरमाणुगतस्निग्धलक्षणस्य प्रचुरीभूतस्य सतोऽपवर्तनाकरणेन खण्डनं रसघातः, एतौ च द्वावपि पूर्वगुणस्थानकेषु विशुद्धेरल्पत्वादल्पावेव कृतवान् । |अत्र पुनर्विशुद्धेः प्रकृष्टतरत्वाद् बृहत्प्रमाणतयाऽपूर्वाविमौ करोति, तथा उपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तर्मुहूर्त यावदुदयक्षणादुपरि क्षिप्रतरक्षपणाय प्रतिक्षणमसङ्ख्येयगुणवृद्ध्या यद्विरचनं सा गुणश्रेणिः, स्थापना 1 एतां च | पूर्वगुणस्थानेष्वविशुद्धतरत्वात् कालतो द्राधीयसी दलिकविरचनामाश्रित्याप्रथीयसी च दलिकस्याल्पस्यापवर्तनाद्विरचितवान् , इह तु तामेव विशुद्धत्वादपूर्वा कालतो ह्रस्वतरां दलिकविरचनामाश्रित्य पुनः पृथुतरां बहुतरदलिकस्यापवर्तनाद्विरचयतीति, तथा बध्यमानशुभाशुभप्रकृतिषु अबध्यमानशुभाशुभप्रकृतिदलिकस्य प्रतिक्षणमसङ्ख्येयगुणवृद्ध्या विशुद्धिवशान्नयनं गुणसंक्रमः, तमप्यसाविह अपूर्व करोति, तथा स्थितिं च कर्मणामशुद्धत्वात् प्राग्द्राधीयसीं बद्धवान् , इह तु तामपूर्वा पल्योपमासङ्ख्येयभागेन हीनां हीनतरां हीनतमां च विशुद्धिवशानाति, अयं चापूर्वकरणो द्विधा-क्षपक उपशमकश्च, क्षपणोपशमनाहत्वाच्चैवमुच्यते राज्याईकुमारराजवत् , न पुनरसौ क्षपयत्युपशमयति वा किमपि सर्वात्मना कर्म, तस्य गुणस्थानमपूर्वकरणगुणस्थानं, अस्मिंश्च गुणस्थानके कालत्रयवर्तिनो नानाजीवानानित्य प्रतिसमयं यथोत्तरमधिकवृद्ध्या असाहयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति, तथाहि-येऽस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणस्य ।।३७८॥ Jan Education International Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानस्य प्रथमसमयं प्रतिपन्नाः प्रतिपद्यन्ते प्रतिपत्स्यन्ते च तान् सर्वानपेक्ष्य जघन्यादीन्युत्कृष्टान्तान्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमा-IX णान्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, कचित्कदाचित्केषाश्चित्प्रथमसमयवर्तिनां परस्परमध्यवसायस्थाने नानात्वस्यापि भावात् , तस्य च नानात्वस्यैतावत एव केवलज्ञानेनोपलब्धत्वात् , अत एव चेदमपि न वाच्यं कालत्रयवर्तिनामेतद्गुणस्थानकप्रथमसमयप्रतिपत्तणामानत्यात्परस्परमध्यवसायस्थानानां नानात्वाच्चानन्तान्यध्यवसायस्थानानि प्राप्नुवन्ति, बहूनां प्राय एकाध्यवसायस्थानवर्तित्वात् , ततो द्वितीयसमये तदन्यान्यधिकतराण्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते तृतीयसमये तदन्यान्यधिकतराणि चतुर्थसमये तदन्यान्यधिकतराणीत्येवं यावञ्चरमसमयः, एतानि च स्थाप्यमानानि विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति, स्थापना : ननु द्वितीयादिसमयेष्वध्यवसायस्थानानां वृद्धौ किं कारणं?, उच्यते, स्वभावविशेषः, एतद्गुणस्थानकप्रतिपत्तारो हि प्रतिसमयं विशुद्धिप्रकर्षमासादयन्तः खलु स्वभावत एवं बहवो विमिन्नेषु विभिन्नेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तन्त इति, अत्र च प्रथमसमयजघन्याध्यवसायस्थानात् प्रथमसमयोत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धं प्रथमसमयोत्कृष्टाचाध्यवसायस्थानाद् द्वितीयसमयजघन्याध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धं तस्मात्तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धं इत्येवं यावद् द्विचरमसमयोत्कृष्टाध्यवसायस्थानाचरमसमयजघन्याध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धं तस्मादपि तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमिति, एकसमयगतानि चामून्यध्यवसायस्थानानि परस्परं षट्थाननिपतितानि, युगपदेतद्गुणस्थानकप्रविष्टानां च परस्परमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिलक्षणा निवृत्तिरप्यस्ति, यथोक्तमनन्तरमितिकृत्वा निवृत्तिगुणस्थानकमप्येतदुच्यते ८। तथा युगपद्गुणस्थानकं प्रतिपनानां बहूनामपि जीवानामन्योऽन्यमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिः-निवृत्तिः सा नास्ति अस्येत्यनिवृत्तिः, समकालमेतद्गुणस्थानकमासढस्यापरस्य यस्मिन् समये यद्ध्यवसायस्थानमन्योऽपि विवक्षितः पुरुषस्तस्मिन् समये तदेवाध्यवसायस्थानं समनुवर्तते इत्यर्थः, संपरैति-पर्य RECXIkk FERS For Private Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे - तत्त्वज्ञा नवि० ॥३७९॥ टति संसारमनेनेति संपरायः-कषायोदयः बादर:-सूक्ष्मकिट्टीकृतसंपरायापेक्षया स्थूरः संपरायो यस्य स बादरसंपरायः अनिवृत्ति-४२२४ गुणश्वासा बादरसंपरायश्च २ तस्य गुणस्थानमनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानं, तस्यां चानिवृत्तिवादरगुणस्थानकाद्धायामान्तमौहूर्तिक्यां प्रथ- स्थानकाान मसमयादारभ्य प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धं यथोत्तरमध्यवसायस्थानं भवति, यावन्तश्चान्तर्मुहूर्ते समयास्तावन्त्येवाध्यवसायस्थानानि तत्प्र- गा. विष्टानां भवन्ति नाधिकानि, एकसमयप्रविष्टानां सर्वेषामप्येकाध्यवसायस्थानत्वात् , स चानिवृत्तिबादरो द्वेधा-क्षपक उपशमकश्च,* क्षपयति उपशमयति वा कषायाष्टकादिकमितिकृत्वा ९। तथा सूक्ष्मः-किट्टीकृतः संपरायो-लोभकषायोदयरूपो यस्य स सूक्ष्मसंपरायः, स द्विधा-क्षपक उपशमकश्च, क्षपयति उपशमयति वा अनिवृत्तिबादरेण किट्टीकृतं लोभमेकमितिकृत्वा, तस्य गुणस्थानं सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानं १० । तथा छादयति ज्ञानादिकं गुणमात्मन इति छद्म-ज्ञानावरणीयादिघातिकर्मोदयः छद्मनि तिष्ठतीति छद्मस्थः, स च सरागोऽपि भवतीति तव्यवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणं, वीतो-विगतो रागो-मायालोभकषायोदयरूपः उपलक्षणत्वादस्य द्वेषोऽपि-क्रोध-15 मानोदयरूपो यस्य स वीतरागः स चासौ छद्मस्थश्च वीतरागच्छद्मस्थः, स च क्षीणकषायोऽपि भवति तस्यापि यथोक्तरागापगमात् ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमुपशान्तकषायग्रहणं, उपशान्ताः-उपशमिता विद्यमाना एव सन्तः संक्रमणोद्वर्तनापवर्तनादिकरणैर्विपाकोदयप्रदेशोदया-1 योग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कषाया येन स उपशान्तकषायः स चासो वीतरागच्छद्मस्थश्च २ तस्य गुणस्थानमुपशान्तकपायवातरा अस्थगुणस्थानं ११ । तथा क्षीणा-अभावमापन्नाः कषाया यस्य स क्षीणकषायः, तत्रान्येष्वपि गुणस्थानकेषु क्षपकणिद्वारोक्तयुक्त्या कापि कियतामपि कषायाणां क्षीणत्वसंभवात् क्षीणकपायव्यपदेशः संभवति ततस्तव्यवस्छेदार्थ वीतरागप्रहर्ण, क्षीणकषायवीतरागत्वं च केवलिनामप्यस्तीति तद्व्यवच्छेदार्थ छद्मस्थग्रहणं, यद्वा छनस्थः सरागोऽपि भवतीति तदपनोदार्थ वीतरागग्रहणं, वीतरागश्वासों छद्मस्थश्च ARCHASAACARAN ३७९॥ in Educh an intemeia Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागच्छास्थः, स चोपशान्तकषायोऽप्यस्तीति तद्व्यवच्छेदार्थ क्षीणकषायग्रहणं, क्षीणकषायश्चासौ वीतरागच्छद्मस्थश्च २ तस्य गुणस्थान क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानं १२। तथा योजनं योगो-व्यापारः, उक्तं च-"कायवाङ्मनःकर्म योगः” (तत्त्व०६-१) सह योगेन ४ वर्तन्ते ये ते सयोगा-मनोवाकायाः ते यस्य विद्यन्ते स सयोगी, तत्र भगवतः काययोगश्चक्रमणनिमेषोन्मेषादिः वाग्यागो देशनादिः मनोयोदगो मनःपर्यायज्ञानिमिरनुत्तरसुरादिभिर्वा मनसा पृष्टस्य मनसैव देशना, ते हि भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि मनःपर्यायज्ञानेनावधिज्ञानेन | च पश्यन्ति, दृष्ट्वा च ते हि विवक्षितवस्त्वालोचनाऽऽकारार्थानुपपत्त्या अलोकस्वरूपादिकमपि बाह्यमर्थ पृष्टमवगच्छंति, केवलं ज्ञानं दर्शनं च विद्यते यस्य स केवली सयोगी चासौ केवली च सयोगिकेवली तस्य गुणस्थानं सयोगिकेवलिगुणस्थानं १३ । तथा योगः-पूर्वोक्तो विद्यते यस्यासौ योगी न योगी अयोगी स चासौ केवली च अयोगिकेवली तस्य गुणस्थानमयोगिकेवलिगुणस्थानं, अयोगित्वं पुनरेवंइह त्रिविधोऽपि योगः प्रत्येक द्विधा-सूक्ष्मो बादरश्च, तत्र केवलोत्पत्तेरनन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो देशोनां पूर्वकोटी विहृत्या-1 न्तर्मुहूर्तावशेषायुष्कः सयोगिकेवली शैलेशी प्रतिपित्सुः पूर्व बादरकाययोगेन बादरवाग्योगं निरुणद्धि ततो बादरमनोयोगं ततः सूक्ष्म| काययोगेन बादरकाययोगं, सति तस्मिन् सूक्ष्मयोगस्य निरोद्धुमशक्यत्वात् , ततस्तेनैव सूक्ष्मवाग्योगं ततः सूक्ष्ममनोयोगं ततः सूक्ष्मक्रियम| निवृत्ति शुक्लध्यानं ध्यायन सूक्ष्मकाययोगं स्वात्मनैव निरुणद्धि, अन्यस्यावष्टम्भनीययोगान्तरस्य तदाऽसत्त्वात् , तन्निरोधानन्तरं समुच्छिनक्रियमप्रतिपाति शुकुध्यानं ध्यायन इस्वपञ्चाक्षरोच्चारणमात्रकालं शैलेशीकरणं प्रविष्टो भवति, शीलस्य-योगलेश्याकलङ्कविप्रमुक्तयथाख्यातचारित्रलक्षणस्य य ईशः स शीलेशस्तस्येयं शैलेशी, त्रिभागोनस्वदेहावगाहनायामुदरादिरन्ध्रपूरणवशात् संकोचितवप्रदेशस्य शैलेशस्यात्मनोऽत्यन्तस्थिरावस्थितिरित्यर्थः तस्यां करणं-पूर्वरचितशैलेशीसमयसमानगुणभेणिकस्य वेदनीयनामगोत्राख्यस्याघातिकर्मत्रित Jan Education International For Private Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ ३८० ॥ यस्यासत्येयगुणया श्रेण्या आयुःशेषस्य तु यथास्वरूपस्थितया श्रेण्या निर्जरणं शैलेशीकरणं, तत्रासौ प्रविष्टोऽयोगिकेवली भवति, अयं च भवस्थः, ततः शैलेशीकरणचरम समयानन्तरं कोशबन्धविमोक्षलक्षणसहकारिसमुत्थस्वभावविशेषादेरण्डफलमिव भगवानपि कर्मसम्बन्धविमोक्षलक्षणसहकारिसमुत्थस्वभावविशेषादूर्द्ध गच्छति, स चोद्धुं गच्छन् ऋजुश्रेण्यां यावत्स्वाकाशप्रदेशेषु इहावगाढस्तावत एव प्रदेशानूर्द्धमप्यवगाहमानो विवक्षित समयाच्चान्यत्समयान्तरमस्पृशन् लोकान्ते गच्छति, न परतोऽपि गत्युपष्टम्भक धर्मास्तिकायाभावात्, तत्र च गतः सन् शाश्वतं कालमवतिष्ठते १४।२२४ ॥ २ ॥ इदानीं 'मग्गणचउदसगो'त्ति पश्चविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह-गइ १ इंदिए य २ काये ३ जोए ४ वेए ५ कसाय ६ नाणेसुं ७ । संजम ८ दंसण ९ लेसा १० भव ११ सम्म १२ सन्नि १३ आहारे १४ ॥ ३ ॥ गतिः इन्द्रियाणि कायाः योगाः वेदाः कषायाः ज्ञानानि संयमः दर्शनानि लेश्याः भव्याः सम्यक्त्वं संज्ञी आहारक इति मूलभेदापेक्षया चतुर्दश मार्गणास्थानानि, मार्गणं-जीवादीनां पदार्थानामन्वेषणं मार्गणा तस्याः स्थानानि - आश्रया मार्गणास्थानानि, उत्तरभेदापेक्षया तु द्वाषष्टिः, तथाहि - सुरनर तिर्यभारकगतिभेदाद् गतिश्चतुर्धा, स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्रेन्द्रियभेदात् पञ्च इंद्रियाणि, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायभेदात् कायः षोढा, मनोवचनकायाख्या योगास्त्रयः, स्त्रीपुंनपुंसकस्वरूपा वेदास्त्रयः क्रोधमानमायालोभलक्षणाः कषायाश्चत्वारः, मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवलभेदात् पञ्च ज्ञानानि ज्ञानग्रहणेन चाज्ञानमपि तत्प्रतिपक्षभूतमुपलक्ष्यते तच्च त्रिधा -मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानभेदात् एवमष्टौ सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्म संपराययथाख्यातभेदात् संयमः पञ्चधा, तत्प्रतिपक्षत्वाश्च देशसंयमोऽसंयमश्च गृह्यते, एवं सप्त चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदाचत्वारि दर्शनानि, कृष्णा नीला कापोती २२५ मा. गणाः गा. १३०३ ॥ ३८० ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैजसी पद्मा शुक्ला चेति षट् लेश्याः, भव्यस्तत्प्रतिपक्षत्वेन चाभव्य इति द्वयं, क्षायोपशमिकक्षायिकौपशमिकभेदात् सम्यक्त्वं त्रिधा, सम्यक्त्वग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतानि मिश्रसासादनमिथ्यात्वान्यपि गृह्यन्ते एवं षट् , संज्ञी तत्प्रतिपक्षश्चासंज्ञीति द्वयं, आहारकस्तप्रतिपक्षोऽनाहारक इति द्वयं, सर्वमीलने च द्वाषष्टिरिति २२५ ॥३॥ इदानीं 'उवओग बारस'त्ति पड्विंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह मइ १ सुय २ ओही ३ मण ४ केवलाणि ५ मइ ६ सुयअन्नाण ७विन्भंगा ८। अचक्खु ९च क्खु १० अवही ११ केवलचउदंसणु १२ वउगा ॥४॥ उपयुज्यते-वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीव एभिरित्युपयोगा:-बोधरूपा जीवस्य स्वतत्त्वभूता व्यापाराः, ते च द्विधा-साकारा अनाकाराश्च, तत्र आकार:-प्रतिवस्तु प्रतिनियतो ग्रहण नामरूपो विशेषः 'आगारो उ विसेसो' इति वचनात् सह आकारेण वर्तन्ते इति साकाराः, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषांशप्राहिण इत्यर्थः, तद्विपरीतास्त्वनाकाराः, सामान्यांशमाहिण इत्यर्थः, तत्र मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलाख्यानि पञ्च ज्ञानानि, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपाणि त्रीणि चाज्ञानानि इत्यष्टौ साकाराः, अचक्षुश्चक्षुरवधिकेवलाख्यानि चत्वारि दर्शनान्यनाकाराः, तदेवं मिलिता द्वादश उपयोगाः, तत्र ज्ञानानि दर्शनानि च प्रागेवोक्तानि, तथा मतिश्रुतावविज्ञानान्येव नबः कुत्सार्थत्वान्मिथ्यात्वकलुषिततया यदा कुत्सितानि भवन्ति तदा यथाक्रमं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गाव्यपदेशभाजि भवन्ति, 'विभंग'त्ति विपरीतो भङ्ग:-परिच्छित्तिप्रकारो यस्मिन् तद्विभङ्गमिति २२६ ॥ ४॥ इदानीं 'योगा पन्नरस'त्ति सप्तविंशत्युतरं द्विशततमं द्वारमाह Jain Education Interational For Private Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० २२७ ॥३८१॥ .CCCCCCCCESSLC64 सचं १ मोसं २ मीसं ३ असच्चमोसं ४मणो तह वई य ४। उरल १ विउवा २ हारा ३ मीस ३ कम्मयग १ मिय जोगा ॥५॥ नि उपयोगा यद्यपि मनोवाकायावष्टम्भसमुत्थो जीवस्य परिस्पन्द एव योग उच्यते तथाऽपीह योगशब्देन कारणे कार्योपचारात्तत्सहकारिभूतं | मनःप्रभृत्येव विवक्षितमिति तैः सह योगस्य सामानाधिकरण्यं, तत्र मनश्चतुर्धा, तद्यथा-सत्यं मृषा मिश्रमसत्यामृषा च, तत्र सन्तो- योगा:गा. मुनयः पदार्था वा जीवादयस्तेषु यथासङ्ख्यं मुक्तिप्रापकत्वेन यथावस्थितवस्तुस्वरूपचिन्तनेन च साधु सत्यं, यथा-अस्ति जीवः सदस- १३०४-५ पो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुविकल्पनचिन्तनपरं, सत्यविपरीतमसत्य, यथा-नास्ति जीव एकान्तसद्पो वेत्यादि | | अयथावस्थितवस्तुप्रतिभासनपरं, सत्यं च मृषा चेति मिश्र यथा धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेष्वशोकवनमेवेदमिति विक ल्पनपरं, अत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावात् सत्यता अन्येषामपि धवादीनां सद्भावादसत्यता, व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते, | परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव, यथाविकल्पितार्थायोगात् , तथा यन्न सत्यं नापि मृषा नापि सत्यमृषा तदसत्यामृषा, इह विप्रतिपत्तौ सत्यां यद्वस्तु प्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्प्यते यथा अस्ति जीवः सदसद्रूप इति तत्किल सत्यं परिभाषितं आराधकत्वात् , यत्पुनर्विप्रतिपत्तौ3 | सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतोत्तीर्ण विकल्प्यते यथा नास्ति जीव एकान्तनित्यो वेति तदसत्यं विराधकत्वात् , यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठाशामन्तरेण स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरं यथा हे देवदत्त ! घटमानय गां देहि मह्यमित्यादि चिन्तनं तदसत्यामृपा, इदं हि स्वरूपमात्रपोलोच. | नपरत्वान्न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृषेति, इदमपि व्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यं, निश्चयनयमतेन तु विप्रतारणादिबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्त:वति अन्यथा तु सत्ये इति । यथा मनः सत्यादिभेदाच्चतुर्धा तथा वागपि सत्यादिभेदाच्चतुर्धा । तथौदारिकवैक्रियाहारकाणि शरीराणि, RECARRAGAR Jan Education Intemann For Private Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र उदारं-प्रधान, प्राधान्यं च तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया द्रष्टव्यं, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्याप्यनन्तगुणहीनरूपत्वात् , अथवा उदारं-सातिरेकयोजनशतसहस्रमानत्वाच्छेषशरीरेभ्यो बृहत्प्रमाणं, बृहत्ता चास्य वैक्रियमाश्रित्य भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथोत्तरवैक्रिय योजनलक्षमानमपि लभ्यते इति, उदारमेवौदारिकं, तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रिय, तथाहि-तदेकं भूत्वाऽनेकं भवति अनेकं च भूत्वा एकं तथा अणु भूत्वा मद्भवति महद् भूत्वा अणु इत्यादि, तथा चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधकार्योत्पत्तौ विशिष्टलब्धिवशादाहियते- नियंत इत्याहारकं, तथा मिश्रशब्दः प्रत्येकं संबध्यते, औदारिकमिश्र वैक्रियमिश्रमाहारकमिश्रं च, तत्रौदारिकमिकं कार्मणेन, तच्चापर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्घातावस्थायां वा, उत्पत्तिदेशे हि पूर्वभवादनन्तरागतो जीव आद्यसमये कार्मणेनैव केवलेनाहारयति, ततः परमौदारिकस्याप्यारब्धत्वादौदारिकेण कार्मणमिश्रेण यावच्छरीरस्य । निष्पत्तिः, केवलिसमुद्घातावस्थायां तु द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु कार्मणेन मिश्रमौदारिकं प्रतीतमेव, तथा वैक्रियमिश्रं कार्मणेनौदारिकेण | वा, तत्र कार्मणेन मिश्रं देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायामाद्यसमयानन्तरं द्रष्टव्यं, बादरपर्याप्तकवायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां च वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियारम्भकाले वैक्रियपरित्यागकाले वा औदारिकेण मिश्र, तथा सिद्धप्रयोजनस्य चतुर्दशपूर्वविद आहारकं त्यजत औदा| रिकं गृहत आहारकं वा प्रारभमाणस्याहारकमिश्रमौदारिकेण ज्ञेयं, तथा 'कम्मयगं'ति कर्मजकं कर्मणो जातं कर्मजं कर्मात्मकमित्यर्थः | | तदेव कर्मजकं, किमुक्तं भवति ?-कर्मपरमाणव एवात्मप्रदेशैः सह क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगताः सन्तः शरीररूपतया परिणताः कर्मज शरीरमिति, अत एव तदन्यत्र कार्मणमित्युक्तं, कर्मणो विकारः कार्मणमिति, तथा चोक्तम्-"कम्मविवागो कम्मणमट्टविहविचित्तकसम्मनिष्फन्नं । सव्वेसिं सरीराणं कारणभूयं मुणेयव्वं ॥ १॥" [कर्मविपाकः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नं । सर्वेषां शरीराणां कार-15 AAAAAACAR Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतं ज्ञातव्यं ॥ १ ॥ ] अत्र 'सधेसिं' इति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं - बीजभूतं कार्मणं शरीरमिति, न खल्वामू- २२८ परलसमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चप्ररोहबीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावः, इदं च कर्मजं शरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसंक्रान्तौ साधकतमं कारणं, तथाहि — कर्मजेनैव वपुषा परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमभिसर्पति, ननु यदि कार्मणवपुः परिकरितो गत्यन्तरं संक्रामति तर्हि स गच्छन्नागच्छन् वा कस्मान्न दृश्यते ?, उच्यते, कर्मपुद्गलानामतिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात्, तथा च परतीर्थिकैरत्युक्तम् — “अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्क्रामन्वा प्रविशन्वा, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥ १ ॥” तदेवं चतुर्धा मनो॥ ३८२ ॥ २ योगचतुर्धा वाग्योगः सप्तधा च काययोगः इति पञ्चदश योगाः । ननु तैजसमपि शरीरं विद्यते यद् भुक्ताहारपरिणमनहेतुः यद्वशाच्च | विशिष्टतपोविशेषसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः तत्किमिह नोक्तमिति ?, उच्यते, सदा कार्मणेन सहाव्यभिचारितया तस्य तद्ग्रहणेनैव गृहीतत्वादिति २२७ ॥ ५ ॥ इदानीं 'परलोयगई गुणठाणएसु'त्ति अष्टाविंशत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह मिच्छे सासाणे वा अविरयभावंमि अहिगए अहवा । जंति जिया परलोयं सेसेक्कारसगुणे मोतुं ॥ ६ ॥ मिथ्यात्वे सासादनत्वे वा अथवा अविरतभावे - अविरत सम्यग्दृष्टित्वेऽधिगते- प्राप्ते सति, मिथ्यात्वादिना गृहीतेनेत्यर्थः, परलोकं - भवान्तरं जीवा व्रजन्ति, शेषांस्तु मिश्र देशविरत्यादीनेकादश गुणस्थानकान् मुक्त्वा - इह भव एव सर्वथा परित्यज्य जीवाः परलोकं यान्ति, | इयमत्र भावना - मिध्यात्वेन गृहीतेन भवान्तरगमनं प्रतीतमेव, तस्य च सर्वत्रापि संभवात् एवं सासादनभावेऽपि 'अणुबंधोदयमा उगबन्धं कालं च सासणो कुणइ ।' [ सास्वादनोऽनन्तानुबन्धिबन्धोदयमायुर्बन्धं कालं च करोति ] इति वचनात् तथा गृहीतसम्य अव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० भवगुणाः गा. १३०६ ।। १८२ ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्त्वस्यापि देवादिषूत्पादादविरतसम्यग्दृष्टित्वेऽपि परलोकगमनं, तथा गृहीतमिश्रभावो न भवान्तरं गच्छति, 'न सम्ममिच्छो कुणइ ४. कालं' [न सम्यग्मिध्यादृष्टिः कालं करोति ] इति वचनात् , देशविरत्यादिगुणस्थानकानां तु विरतिसद्भाव एव भावात् , विरतिश्च याव-! जीवितावधिकत्वान्न तेषु परलोकसंभव इति २२८ ॥ ६ ॥ इदानीं 'गुणठाणयकालमाणं'त्येकोनत्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह मिच्छत्तमभवाणं अणाइयमणंतयं च विनेयं । भवाणं तु अणाई सपजवसियं च सम्मत्ते ॥७॥ [मीसाखीणसजोगे न मरंतिकारसेसु अ मरंति । तेसुवि तिसु गहिएK परलोअगमोन अढेसु ॥८॥] छावलियं सासाणं समहियतेत्तीससायर चउत्थं । देसूणपुवकोडी पंचमग तेरसं च पुढो ॥८॥ लहुपंचक्खर चरिमं तइयं छहाइ बारसं जाव । इह अह गुणहाणा अंतमुहुत्ता पमाणेणं॥९॥ इह च मिथ्यात्वकालचिन्तायां चतुर्भङ्गी, तद्यथा-अनाद्यनन्तः १ अनादिसान्तः २ साद्यनन्तः ३ सादिसान्तश्च ४, तत्र मिथ्यात्वं-विपरीतरुचिरूपमभव्यानामनाद्यनन्तं च विज्ञेयं, अनादिकालात्तेषु तत्सद्भावात् आगामिकालेऽपि च तदभावासंभवादिति | भावः, भव्यानां पुनर्मिथ्यात्वमनादि सपर्यवसितं, चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् सादिसपर्यवसितं च विज्ञेयं, सपर्यवसितत्वं च | सम्यक्त्वे-सम्यक्त्वावाप्तौ सत्यां, इदमुक्तं भवति-योऽनादिमिथ्यादृष्टिः सन् भव्यजीवः सम्यक्त्वं लप्स्यते तस्य मिथ्यात्वमनादिसान्त, | अनादिकालात्तेषु तस्य सद्भावात् आगामिकाले तु भव्यत्वान्यथानुपपत्तेरवश्यं सम्यक्त्वावाप्तौ पर्यवसानाच, यस्त्वनादिमिथ्यादृष्टिः | सम्यक्त्वं लब्ध्वा केनापि कारणेन पुनर्मिथ्यात्वं याति तस्य तत्सादि, सम्यक्त्वलाभादनन्तरं तत्प्राप्तेः सादित्वात् , मिथ्यात्वे च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कृष्टतस्त्वहदाशातनादिपापबहुलतयाऽपार्धपुद्गलपरावर्त यावत् स्थित्वा यदा पुनरपि सम्यक्त्वं लभते तदा तत्सान्तं, Jan Education International For Private Personel Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३८३॥ साधनंतमितितृतीयभङ्गास्तु शून्य एव, प्रतिपतितसम्यग्दृष्टीनामेव हि मिथ्यात्वं सादि, तेषां चावश्यं सम्यक्त्वभावतो मिथ्यात्वस्यानन्तत्वासंभवादिति, तथा सासादनगुणस्थानकं उत्कर्षतः षडावलिकाप्रमाणं, तत ऊर्द्धमवश्यं मिथ्यात्वोपगमात्, आवलिका चासङ्ख्या- गुणस्थानतसमयसमुदायरूपा, चतुर्थ-अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि साधिकानि, तथाहि-कश्चिदितः स्थानादुत्कृष्टस्थिति- काल: गा. ध्वनुत्तरविमानेषुत्पन्नः तत्र चाविरतसम्यग्दृष्टित्वेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितः ततश्चयुत्वाऽत्राप्यायातो यावदद्यापि विरतिं न लभते १३०७-९ | तावत्तद्भावेनैव स्थित इत्यतो मनुष्यभवसंबद्धकतिपयवर्षाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमसंभवः, पञ्चम-देशविरतिगुणस्थानकं त्रयोदशं-सयो| गिगुणस्थानकं, एते द्वे अपि पृथक् प्रत्येकं किञ्चिदूनपूर्वकोटिप्रमाणे, गर्भस्थो हि किल सातिरेकानव मासान् गमयति, जातोऽपि चाष्टौ । वर्षाणि यावद्विरत्यनों भवति, तत ऊर्द्ध देशविरतिं प्रतिपत्त्य सर्वविरतिप्रतिपत्त्या केवलज्ञानं वोत्पाद्य यौ देशविरतिसयोगिकेवलिनी प्रत्येकं पूर्वकोटिं जीवतस्तयोः किञ्चिदूनवर्षनवकलक्षणेन देशेन न्यूना पूर्वकोटिरिति, तथा चरमं-अयोगिकेवलिगुणस्थानं लघुपञ्चाक्षरं,8| द किमुक्तं भवति ?-नातिद्रुतं नातिविलम्बितं च किंतु मध्यमेन प्रकारेण यावता कालेन अणनम इत्येवंरूपाणि पञ्चाक्षराण्युच्चार्यन्ते तावत्कालमानमिति, तत ऊर्द्ध मुक्त्यवाप्तः, तृतीयं-सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं, तथा षष्ठादि द्वादशं यावत्प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहक्षीणमोहरूपाणीत्यर्थः इत्येतान्यष्टौ गुणस्थानानि प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणानि, परतो गुणस्थानकान्त-| रगमनात् कालकरणाद्वेति, एतच्चोत्कृष्टतः कालप्रमाणमुक्तं, जघन्यतस्तु सासादनप्रमत्ताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहानामेक; समयः, तदूर्द्ध मरणभावेनान्यत्रोपगमात् , मिथ्यादृष्टिमिश्राविरतदेशविरतक्षीणमोहसयोगिकेवलिनां चान्तर्मुहूर्त, ॥॥३८३॥ For Private Personel Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोगिकेवलिनस्तु जघन्योत्कृष्टतः पूर्वोक्तमेवेति २२९ ।। ७ ।। ८ ।। ८ ।। ९ ।। इदानीं 'निरयतिरिनरसुराणं उक्कोस विजवणाकालो 'ति त्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह— अंतमुत्तं नरए हुंति चत्तारि तिरियमणुएसुं । देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउवणाकालो ॥ १० ॥ अन्तर्मुहूर्त नरकेषूत्कर्षतो विकुर्वणावस्थानकालः, तिर्यक्षु मनुष्येषु च चत्वार्यन्तर्मुहूर्तानि, देवेषु - भवनपत्यादिषु अर्धमासः - पञ्चदशदि - नान्युत्कृष्टतो विकुर्वणाकाल इति २३० ॥ १० ॥ इदानीं 'सत्त समुग्धाय' त्येकत्रिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह वेयण १ कसाय २ मरणे ३ वेउब्विय ४ तेयए य ५ आहारे ६ । केवलियसमुग्धाए ७ सत्त इमे हुति मणुयाणं ॥ ११ ॥ एगिंदीणं केवलिआहारगवज्जिया इमे पंच । पंचावि अवेउवा विगलास - नीण चत्तारि ॥ १२ ॥ केवलियसमुग्धाओ पढमे समयंमि विरयए दंड । बीए पुणो कवाडं मंधाणं कुणइ तइयंमि ॥ १३ ॥ लोयं भरइ चउत्थे पंचमए अंतराई संहरइ । छट्ठे पुण मंधाणं हरइ कवाडंपि सत्तमए ॥ १४ ॥ अट्ठमए दंडपि हु उरलंगो पढमचरमसमए । सत्तमछबिइज्जेस होइ ओरालमिस्सेसो ॥ १५ ॥ कम्मणसरीरजोई चउत्थए पंचमे तइज्जे य । जं होइ अणाहारो सो तंमि तिगेऽवि समयाणं ॥ १६ ॥ समित्येकीभावे उत् प्राबल्येन हननं - वेदनीयादिकर्मप्रदेशानां निर्जरणं घातः, एकीभावेन प्राबल्येन घातः समुद्घातः, केन सहैकीभावगमनमिति चेद्, उच्यते, अर्थाद्वेदनादिभिः, तथाहि - यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घातं गतस्तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवति नान्यज्ञानप Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३८४ ॥ रिणत इति वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहैकत्वापत्तिर्जीवस्यावगन्तव्या, प्राबल्येन घातः कथमिति चेद्, उच्यते, इह वेदनादिसमुद्घातपरिणतो जन्तुर्बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय च निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः सह संश्लिष्टान् शातयतीति भावः, स च सप्तधा, तद्यथा-वेदनासमुद्घातः कषायसमुद्घातः मारणान्तिकसमुद्घातः वैक्रियसमुद्घातः | तैजससमुद्घातः आहारकसमुद्घातः केवलिसमुद्घातश्चेति, तत्र वेदनया - असद्वेदनोदयजनितया पीडया हेतुभूतया समुद्घातो वेदनासमुद्घातः, स चासतवेदनीय कर्माश्रयः, तथाहि-- वेदनाकरालितो जीवः स्वप्रदेशान् अनन्तानन्तकर्मस्कन्धानुविद्धान् शरीराद्वहिरपि विक्षिपति, तैश्च वदनजठरादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च शरीरमात्रं क्षेत्रममिव्याप्यान्तर्मुहूर्त यावतिष्ठति तस्मिंश्चान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासात वेदनीयकर्मपुद्गल परिशाटं करोति, ततः समुद्घातान्निवृत्त्य स्वरूपस्थो भवति १, कपायैः क्रोधादिभिर्हेतुभूतैः समुद्घातः कषायसमुद्घातः, स च कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः, तथाहि - तीव्रकषायोदयाकुलो जीवः स्वप्रदेशान् बहिर्विक्षिप्य तैः प्रदेशैर्वदनोदरादिरन्धाणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च देहमात्रं क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते, तथाभूतश्च प्रभूतान् कषायकर्मपुद्गलान् परिशातयति २, मरणमेव प्राणिनामन्तकारित्वादन्तो मरणान्तस्तत्र भवो मारणान्तिकः स चासौ समुद्रघातश्च मारणान्तिकसमुद्घातः, स चान्तर्मुहूर्तशेषायुःकर्माश्रयः, तथाहि - कश्चिज्जीवोऽन्तर्मुहूर्तशेषे स्वायुषि वहिः स्वदेशान् विक्षिप्य तैर्वदनोदरादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्य विष्कम्भबाहल्याभ्यां खशरीरप्रमाणमायामतः स्वशरीरातिरेकतो जघन्येनाङ्गुलासङ्ख्येयभागमुत्कर्षतोऽसङ्ख्येयानि योजनान्येकदिशि क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते, तथाभूतश्च प्रभूतान युःकर्मपुद्गलान् परिशातयति ३, वैक्रिये प्रारभ्यमाणे समुद्घातो वैक्रियसमुद्घातः, स च वैक्रियशरीरनामकर्मविषयः, तथाहि - वैक्रियलब्धिमान् जीवो वैक्रियकरणकाले स्वप्रदेशान् शरीरा २३० वैक्रियाव स्थानं २३१ समुद्घा - ताः गा. १३११-६ ॥ ३८४ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहिर्निष्कास्य विष्कम्भवाहल्याभ्यां शरीरप्रमाणं आयामतः सङ्ख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयति, यत उक्तम्-"वेउब्वियसमुग्घायेणं समोहणइ समोहणित्ता संखेजाई जोयणाई दंड निसिरइ निसिरिता अहाबायरे पुग्गले परिसाडेति' ४, तेजसि विषये भवस्तैजसः, स चासो समुद्घातश्च तैजससमुद्घातः, स च तेजोलेश्याविनिर्गमकालभावी तैजसशरीरनामकर्माश्रयः, तथाहि-तेजोनिसर्गलब्धिमान् क्रुद्धः साध्वादिः सप्ताष्टौ पदानि अवष्वक्य विष्कम्भबाहल्याभ्यां शरीरमानं आयामतस्तु सङ्ख्येययोजनप्रमाणं जीवप्रदेशदण्डं शरीराबहिः प्रक्षिप्य क्रोधविषयीकृतं मनुष्यादि निर्दहति, तत्र च प्रभूतांस्तैजसशरीरनामकर्मपुद्गलान् शातयति ५, आहारकशरीरे प्रारभ्यमाणे समुद्घात आहारकसमुद्घातः, स चाहारकशशारीरनामकर्मविषयः, तथाहि-आहारकशरीरलब्धिमानाहारकशरीरं चिकीर्षुर्विष्कम्भवाहल्याभ्यां देहमान आयामतः सङ्ख्येययोजनप्रमाणे : शरीराबहिः स्वप्रदेशदण्डं निसृज्य यथास्थूलान् प्रभूतानाहारकशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान शातयतीति ६, एते च षडपि समुद्घाताः ॥ प्रत्येकमान्तर्मुहूर्तिकाः, तथा केवलिन्यन्तर्मुहूर्तभाविपरमपदे भवः कैवलिकः स चासो समुद्घातश्च केवलिकसमुद्घातः, स च सदसद्वेद्यशुभाशुभनामोच्चनीचैर्गोत्रकर्माश्रयः, अमुं च सूत्रकारः स्वयमेव पुरस्तात्प्रपञ्चयिष्यतीति । अथैतानेव समुद्घातान् जीवेषु चिंतयति -'सत्त इमे हुँति मणुयाणं ति सप्ताप्येते पूर्वोक्ताः समुद्घाता मनुष्याणां भवन्ति, मनुष्येषु सर्वभावसंभवात् । 'एगेंदी'त्यादि, एकेन्द्रियाणां-पृथिव्यादीनां कैवलिकाहारकसमुद्घातवर्जिता इमे आद्याः पञ्च समुद्घाता भवन्ति, पश्चापि चैते वैक्रियवर्जिताश्चत्वारः समुद्घाता विकलेन्द्रियाणामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च भवन्ति, इयं च गाथा प्रज्ञापनापंचसंग्रहजीवसमासादिभिः शास्त्रान्तरैः सह विसंवदति, वेष्वेकेन्द्रियादीनां तैजससमुद्घातस्य प्रतिषिद्धत्वात् , तथा च चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण प्रज्ञापनासूत्रं-"नेरइयाणं भंते ! कइ समु १५ For Private Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० वैक्रियावस्थान २३१ समुद्राताः गा. १३११-६ % प्रव० सा- ग्घाया पन्नत्ता?, गोयमा! चत्तारि समुग्धाया पन्नता, तंजहा-वेयणासमुग्याए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए वेउब्वियसमुग्याए । रोद्धारे असुरकुमाराणं भंते ! कइ समुग्घाया पन्नत्ता?, गोयमा! पंच समुग्घाया पन्नत्ता, तंजहा-वेयणासमुग्घाए तेयसमुग्घाए कसायसमुग्घाए तत्त्वज्ञा- मारणंतियसमुग्घाए वेउब्वियसमुग्याए, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं भंते ! कइ समुग्घाया पन्नत्ता ?, गोयमा ! तिन्नि नवि० समुग्घाया पन्नत्ता, तंजहा-वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए, एवं जाव चरिंदियाणं, नवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्घाया पन्नत्ता, तंजहा-वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए वेउब्वियसमुग्घाए, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव ॥३८५॥ माणियाणं भंते ! कइ समुग्घाया पन्नत्ता?, गोयमा! पंच समुग्धाया पन्नत्ता, तंजहा-वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए तेयसमुग्धाए मारणं| तियसमुग्घाए वेउब्वियसमुग्याए, नवरं मणुस्साणं सत्तविहा समुग्घाया पन्नत्ता, तंजहा-वेयणासमुग्घाए जाव केवलिसमुग्धाए” इति, एतच्च सुखार्थ किंचिद्व्याख्यायते-नैरपिकाणामाद्याश्चत्वारः समुद्घाताः, तेषां भवप्रत्ययेन तेजोलेश्यालब्ध्याहारकलब्धिकेवलित्वाभावतः शेषसमुद्घातत्रयासंभवात् , असुरकुमारादीनां दशानामपि भवनपतीनां तेजोलब्धेरपि भावादाद्याः पञ्च, पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिद्वित्रिच| तुरिन्द्रियाणामाद्यास्त्रयः, तेषां वैक्रियलब्धेरप्यसंभवात् , वायूनामाद्याश्चत्वारस्तेषां बादरपर्याप्तानां वैक्रियलब्धिसंभवाद्वैक्रियसमुद्घातस्थापि संभवात् , पञ्चेन्द्रियतिरश्चामाद्याः पञ्च, केषांचित्तेषां वैक्रियतेजोलेश्यालब्धेरपि संभवात् , मनुष्याणां सप्तापि, व्यन्तरज्योति कवैमानिकानां त्वाद्याः पञ्चेति ॥ १२ ॥ अथ केवलिसमुद्घातं सूत्रकृदेव व्याचष्टे-'केवली'त्यादिगाथाचतुष्क, केवलिसमुद्घातः [४ प्रतिपाद्यत इति शेषः, तत्रान्तर्मुहूर्तावशेषायुः केवली कश्चित्कर्मणां समीकरणार्थ समुद्घातं करोति यस्य वेदनीयादिकमायुषः सका | शादधिकतरं भवति, अन्यस्तु न करोत्येव, तं च कुर्वन् प्रथमसमये बाहल्यतः स्वशरीरप्रमाणं ऊर्द्धमधश्च लोकान्तपर्यन्तमात्मप्रदेशानां A8%E4 For Private Personal Use Only Jan Education Interational Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डाकारत्वेन विस्तारणाद्दण्डं विरचयति, द्वितीये पुनः समये तमेव दण्डं पूर्वापरं दक्षिणोत्तरं वाऽत्मप्रदेशानां प्रसारणात्पार्श्वतो लोकान्तगामि कपाटमिव कपाटं करोति, तृतीयसमये तमेव कपाटं दक्षिणोत्तरं पूर्वापरं वा दिग्द्वयप्रसारणान्मथिसदृशं मन्थानं लोकान्तप्रा| पिणमारचयति, एवं च लोकस्य प्रायो बहु पूरितं भवति मध्यन्तराणि त्वपूरितानि जीवप्रदेशानामनुश्रेणि गमनात्, चतुर्थ समये तान्यपि मध्यन्तराणि सह लोकनिष्कुटैः पूरयति, तथा च समस्तोऽपि लोकः पूरितो भवति, तदनन्तरं च पञ्चमे समये यथोक्तप्रक्रमात् प्रतिलोम मध्यन्तराणि संहरति, प्रसृतान् जीवप्रदेशान् सकर्मकान् मध्यन्तर्गतान् संकोचयतीत्यर्थः, षष्ठे पुनः समये मन्थानमुपसंहरति, घनतरसंकोचात्, सप्तमे समये कपाटमपि संहरति, दण्डात्मनि संकोचात्, अष्टमे तु समये दण्डमपि संहृत्य स्वशरीरस्थ एव भवति, तदेवमष्टसामयिकः कैवलिकः समुद्घातः, एतेषु चाष्टस्वपि समयेषु केवली प्रभूतान् वेदनीयनामगोत्रकर्मपुद्गलान् शातयति । सम्प्रति समुद्घातगतस्य योगव्यापारश्चिन्त्यते - योगाश्च - मनोवाक्कायाः तत्र समुद्घातगतस्य काययोग एव केवलो व्याप्रियते, न मनोवाग्योगौ, प्रयोजनाभावात्, तत्र प्रथमचरमसमययोरौदारिकाङ्गो भवति, औदारिककायव्यापारप्राधान्यादौदारिकयोगयुक्त एवे- ४ त्यर्थः, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु औदारिकमिश्रः, समुद्घातमापन्न औदारिके तस्माच्च बहिः कार्मणवीर्यपरिस्पन्दादौदारिककार्मणमिश्र काययोगयुक्त इत्यर्थः, चतुर्थपथ्यमतृतीयसमयेषु पुनर्बहिरेवौदारिकाद्बहुतरप्रदेशव्यापारसद्भावात् कार्मणशरीरयोगयुक्त एव, तन्मात्रचेष्टनात् अत्रैव हेतुमाह - 'जं होइ अणाहारो सो तंमि तिगेवि समयाणं' ति यद् - यस्मात्कारणात् स तस्मिन् समयत्रिकेऽप्यनाहारको भवति, यश्चानाहारकः स नियमादेव केवलकार्मणशरीरयोगीति २३१ ॥ १३ ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ इदानीं 'छप्पजत्तीओ'त्ति द्वात्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० २३२ पर्यातयः गा. १३१७-८ ॥३८६॥ आहार १ सरीरिं २ दिय ३ पज्जत्ती ४ आणपाण ४ भास ५ मणे ६ । चत्तारि पंच छप्पिय एगिदियविगलसन्नीणं ॥१७॥ पढमा समयपमाणा सेसा अंतोमुहुत्तिया य कमा । समगंपि हुँति नवरं पंचम छट्ठा य अमराणं ॥१८॥ पर्याप्ति म आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, सा च पुद्गलोपचयादुपजायते, किमुक्तं भवति ?-उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथम ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथा अन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्संपर्कतस्तद्रूपतया जातानां यः शक्तिविशेष:-आहारादिपुद्गलखलरसादिरूपतापादनहेतुः यथोदरान्तर्गतानां पुद्गल विशेषाणामाहारपुद्गलखलरसरूपतापरिणमनहेतुः शक्तिविशेषः सा पर्याप्तिः, सा च षोढा, तद्यथा-आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः प्राणापानपर्याप्ति षापर्याप्तिर्मनःपर्याप्तिश्च, तत्र यया शक्त्या करणभूतया जन्तुर्बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः, यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः, यया तु धातुरूपतया परिणमितादाहारादेकस्य द्वयोस्त्रयाणां चतुर्णा पञ्चानां वा इन्द्रियाणां प्रायोग्यानि द्रव्याण्युपादाय एकद्विश्यादीन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः, यया पुनरु|च्छासयोग्यवर्गणादलिकमादाय उच्छासरूपतया परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा प्राणापानपर्याप्तिः, यया तु भाषाप्रायोग्यदलिकमा|दाय भाषात्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिः, यया पुनर्मनोयोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः, आह-किं सर्वेषामपि जीवानां सर्वा अप्येताः पर्याप्तयः प्राप्यन्ते ?, नेत्याह-'चत्तारी'त्यादि, इह यथासयेन संबन्धः, तद्यथा-आद्याश्चतस्र एवैकेन्द्रियाणां, भाषामनसोस्तेष्वभावात्, विकलशब्देन चात्र मनोविकला गृह्यन्ते, ते च पारिशे ॥३८६॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 645484 प्याद् द्वित्रिचतुरिन्द्रिया असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाश्च लभ्यन्ते, तेषामाद्याः पञ्चैव पर्याप्तयो न तु मनःपर्याप्तिः मनसस्तेष्वभावादिति, संज्ञिप- Bा चेन्द्रियाणां पुनः षडपि पर्याप्तयः प्राप्यन्ते, मनसोऽपि तेषां सद्भावादिति, एतामिश्च स्वस्वयोग्यपर्याप्तिमिरपर्याप्ता एव ये कालं कुर्वन्ति तेऽप्याद्यपर्याप्तित्रयं समाप्य ततोऽन्तर्मुहूर्तेनायुर्बद्धा तदनन्तरमबाधाकालरूपमन्तर्मुहूर्त जीवित्वैव च म्रियन्ते इति ॥ १७॥ अथासां निष्प-P त्तिकालमानमाह-'पढमे'यादि, प्रथमा-आहारपर्याप्तिः समयप्रमाणा, शेषाः-शरीरपर्यात्यादयः पञ्च पर्याप्तयः क्रमेण प्रत्येकमान्तमौहूर्तिक्यः, इदमुक्तं भवति-एताः पर्याप्तयः सर्वा अप्युत्पत्तिप्रथमसमये एव यथावं युगपजन्तुना निष्पादयितुमारभ्यन्ते, क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति, तद्यथा-प्रथममाहारपर्याप्तिः ततः शरीरपर्याप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिरित्यादि, आस्वाहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमय एव निष्पाद्यते, शेषास्तु | पञ्चापि प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेन, अथ आहारपर्याप्तिः प्रथमसमय एव निष्पद्यते इति कथमवसीयते ?, उच्यते, इह भगवता भार्यश्यामेन प्रज्ञापनायामाहारपदे द्वितीयोद्देशके सूत्रमिदमपाठि-"आहारपज्जत्तीए अपजत्तए णं भंते ! किं आहारए अणाहारए?, गोयमा! नो आहारए अणाहारए” इति, तत आहारपर्याप्त्या अपर्याप्तो विग्रहगतावेवोपपद्यते नोपपातक्षेत्रसमागतोऽपि, उपपातक्षेत्रसमागतस्य प्रथमसमय एवाहारकत्वात् , तत एकसामयिकी आहारपर्याप्तिनिर्वृत्तिः, यदि पुनरुपपातक्षेत्रमागतोऽपि आहारपर्याप्त्या अपर्याप्तः स्यात्तत एवं व्याकरणसूत्रं पठेत्-'सिय आहारए सिय अणाहारए' यथा शरीरादिषु पर्याप्तिषु 'सिय आहारए सिय अणाहारए' इति, सर्वासामपि च पर्याप्तीनां परिसमाप्तिकालोऽन्तर्महूर्तप्रमाणः, एतच्च सूत्रे यद्यपि सामान्येनोक्तं तथाप्यौदारिकशरीरिणामेव | द्रष्टव्यं, वैक्रियाहारकशरीरिणां त्वाहारेन्द्रियानप्राणभाषामनःपर्याप्तयः पञ्चाप्येकेनैव समयेन समाप्यन्ते, शरीरपर्याप्तिः पुनरन्तर्मुहूर्तेन, उक्तं च-"वेउब्वाहाराणं सरीर अन्नाउ पण इगिगसमया । पिङ पण अंतमुहुत्ता उराल आहार इगसमया ॥१॥" [वैक्रियाहारक % *******%2-% % % For Private Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३८७ ॥ योः शरीरमन्याः पञ्चैकैकसामयिकाः । पृथक् पञ्च आन्तर्मुहूर्तिका औदारिके आहारपर्याप्तिरेकसामयिकी ॥ १ ॥ ] अथ देवानां विशेमाह - 'समगंपि हुंति नवरं पंचम छट्ठा य अमराणंति' नवरं केवलं पञ्चमी - भाषापर्याप्तिः षष्ठी च-मनः पर्याप्तिः एते द्वे अपि | पर्याप्ती अमराणां देवानां समकमपि - युगपदपि भवतः, केनाप्यभिप्रायेण व्याख्याप्रज्ञत्यादिषु देवानामनयोः पर्यात्योरेकत्वप्रतिपादनात्, तथा च व्याख्याप्रज्ञप्तिटीका – “पंचविहाए पज्जत्तीए त्ति पर्याप्तिः- आहारशरीरादीनामभिनिर्वृत्तिः, सा चान्यत्र षोढा उक्ता इह तु पश्चधा, भाषामनः पर्यायोर्बहुश्रुतामिमतेन केनापि कारणेन एकत्वविवक्षणादि" ति २३२ ॥ १७ ॥ १८ ॥ इदानी' 'अणाहारया चउरो' त्ति त्रयत्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह विग्गहगहमावन्ना केवलिणो समोहया अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ।। १९ ।। विप्रहगतिः - भवात् भवान्तरे विश्रेण्या गमनं तामापन्नाः - प्राप्ताः सर्वेऽपि जीवाः तथा केवलिनः समुद्धताः - कृतसमुद्घाताः तथा अयोगिनः - शैलेश्यवस्थाः तथा सिद्धाः - क्षीणकर्माष्टकाः सर्वेऽप्येते ऽनाहाराः, एतद्व्यतिरिक्ताः शेषाः सर्वेऽप्याहारकाः, इह परभवं गच्छतां जीवानां गतिर्द्विधा - ऋजुगतिर्विग्रहगतिश्व तत्र यदा जीवस्य मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानं समश्रेण्यां प्राञ्जलमेव भवति तदा ऋजुगतिः, सा चैकसमया, समश्रेणिव्यवस्थितत्वेनोत्पत्तिदेशस्याद्यसमय एव प्राप्तेः, नियमादाहारकश्चास्यां, हेयग्राह्यशरीरमोक्षग्रहणान्तरालाभावेनाद्दारा व्यवच्छेदात् यदा तु मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानं वक्रं भवति तदा विग्रहगतिः, वक्रश्रेण्या अन्तरालरूपेण विप्रद्देणोपलक्षिता गतिर्विग्रहगतिरितिकृत्वा, तत्र विग्रहगत्योत्पन्ना उत्कर्षतस्त्रीन् समयान् यावदनाहारकाः, तथाहि - अस्यां वक्रगतौ स्थितो जन्तुरेकेन २३२ अनाहारकाः गा. १३१९ ॥ ३८७ ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CALCANARA द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वा वक्ररुत्पत्तिदेशमायाति, तत्रैकवक्रायां द्वौ समयौ, तयोश्च नियमादाहारकः, तथाहि-आद्यसमये पूर्वशरीरमोक्षः तस्मिश्च समये तच्छरीरयोग्याः केचित्पुद्गला जीवयोगालोमाहारतः संबन्धमायान्ति, औदारिकवैक्रियाहारकपुद्गलादानं चाहारः, तत आयसमये आहारका, द्वितीये च समये उत्पत्तिदेशे तद्भवयोग्यशरीरपुद्गलादानादाहारकः, द्विवकायां गतौ त्रयः समयाः, तत्राये अन्त्ये च प्राग्वदाहारको मध्यमे त्वनाहारकः, त्रिवक्रायां चत्वारः समयाः, ते चैवं-त्रसनाड्या बहिरधस्तनभागादूर्द्धमुपरितनभागा-| दधो वा जायमानो जन्तुर्विदिशो दिशि दिशो वा विदिशि यदोत्पद्यते तदैकेन समयेन विदिशो दिशि याति द्वितीयेन त्रसनाडी प्रविशति तृतीयेनोपर्यधो वा याति चतुर्थेन बहिरुत्पद्यते, दिशो विदिशि उत्पादे त्वाद्ये समये चसनाडी प्रविशति द्वितीये उपर्यधो वा याति तृतीये बहिर्गच्छति चतुर्थे विदिश्युत्पद्यते, अत्राद्यन्तयोः प्राग्वदाहारकः मध्यमयो त्वनाहारकः, चतुर्वक्रायां पञ्च समयाः, ते च त्रसनाड्या बहिरेव विदिशो विदिश्युत्पादे प्राग्वद्भावनीयाः, अत्राप्याद्यन्तयोराहारकः त्रिषु वनाहारकः, तथा केवलिनः समुद्घातेऽष्टसामयिके तृतीयचतुर्थपञ्चमरूपान् केवलकार्मणयोगयुतांस्त्रीन समयान् , अयोगिनः शैलेश्यवस्थायां इखपञ्चाक्षरोच्चारणमात्रं, सिद्धास्तु सादिमपर्यवसितं कालमनाहारका इति २३३ ॥ १९ ॥ इदानीं 'सत्त भयहाणाईति चतुस्त्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह इह १ परलोया २ऽऽयाणा ३ मकम्ह ४ आजीव ५ मरण ६ मसिलोए ७ । सत्त भयहाणाई इमाई सिद्धंतभणियाई ॥२०॥ भयं-भयमोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामः तस्य स्थानानि-आश्रया भयस्थानानि, तत्र मनुष्यादिकस्य सजातीयादन्यस्मान्म-| नुष्यादेरेव सकाशाद्यद्भयं तदिहलोकभयं, इहाधिकृतभीतिमतो जन्तोर्जातौ यो लोकस्ततो भयमिति व्युत्पत्तेः, तथा परस्मात्-विजा NAGAR+CHAR Jan Education Intematonal For Private Personal use only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्वज्ञा नवि० ॥३८८॥ 345513- 573 तीयात्तिर्यग्देवादेः सकाशान्मनुष्यादीनां यद्भयं तत्परलोकभयं, तथा आदीयते इत्यादानं तदर्थ मम सकाशादयमिदमादास्यतीति यच्ची-I||२३४भागरादिभ्यो भयं तदादानभयं, तथा अकस्मादेव-बाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहादिष्वेव स्थितस्य रात्र्यादौ भयमकस्माद्भयं, तथा धनधान्यादिही-|| स्थानानि नोऽहं दुष्काले कथं जीविष्यामीति दुष्काळपतनाद्याकर्णनाद्भयमाजी विकाभयं, नैमित्तिकादिना मरिष्यसि त्वमधुनेत्यादिकथिते भयं || ||२३५ अप्रमरणभयं, अकार्यकरणोन्मुखस्य विवेचनायां जनापवादमुत्प्रेक्ष्य भयमश्लोकभयमिति, इमानि सप्त भयस्थानानि सिद्धांते भणितानि शस्तभाषा: |२३४ ॥ २० ॥ इदानीं 'छब्भासाओ अप्पसत्थाओ'त्ति पंचत्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाह २३६श्रावहीलिय १ खिंसिय २ फरुसा ३ अलिआ४ तह गारहस्थिया भासा ५। छट्ठी पुण उवसंताहि- ४ कब्रतभंगा गरणउल्लाससंजणणी ६ ॥ २१ ॥ भाष्यन्ते-प्रोच्यन्ते भाषा-वचनानि ताश्च अप्रशस्ता-गुरुकर्मबन्धहेतुत्वादशोभना हीलितादिभेदतः षड् भवन्ति, तत्र हीलिता १३२०-४९ सासूयमवगणयन् वाचक! ज्येष्ठार्येत्यादि जल्पनं १ खिसिता जन्मकर्माद्युद्घाटनं २ परुषा दुष्टशैक्षेत्यादि कर्कशवचनं ३ अलीका किं दिवा प्रचलयसीत्यादिप्रने न प्रचलयामीत्यादि भणनं ४ (ग्रन्थानं १५०००) तथा गृहस्थानामियं भाषा गार्हस्थी सा च पुत्र मामक भागिनेयेत्यादिरूपा ५ षष्ठी पुनर्भाषा 'उपशान्ताधिकरणोल्लाससंजननी' उपशान्तस्य-उपशमं नीतस्याधिकरणस्य-कलहस्य य उल्लासः -प्रकामं प्रवर्तनं तस्य संजननी-समुत्पादयित्रीत्यर्थः २३५ ॥२१॥ इदानीं 'भंगा अणुवयाणं ति षट्त्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाहदुविहा २ अट्ठविहा वा ८ बत्तीसविहा य ३२ सत्तपणतीसा ७३५ । सोलस य सहस्स भवे MI॥२८८ अट्ट सयट्ठोत्तरा १६८०८ वइणो॥२२॥ दुविहाविरयाविरया दुविहंतिविहाइणढहा हुँति । वय %2-%A4%92% For Private Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेगेगं छविहगुणियं दुगमिलिय बत्तीसं ॥ २३ ॥ तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिनिकेका य हुंति जोएसु। ति दु एकं ति दु एवं ति दु एकं चेव करणाई ॥ २४ ॥ मणवयकाइयजोगे करणे कारावणे अणुमईए । एकगदुगतिगजोगे सत्ता सत्तेव गुणवन्ना ॥ २५॥ पढमेको तिन्नि तिया दोन्नि नवा तिन्नि दो नवा चेव । कालतिगेण य गुणिया सीयालं होइ भंगसयं ॥ २६॥ पंचाणुव्वयगुणियं सीयालसयं तु नवरि जाणाहि । सत्त सया पणतीसा सावयवयगहणकालंमि ॥ २७ ॥ सीयालं भंगसयं जस्स विसुद्धीऍ होइ उवलद्धं । सो खलु पच्चक्खाणे कुसलो सेसा अकुसला उ ॥२८॥ दुविहतिविहाइ छविह तेसिं भेया कमेणिमे हुंति । पढमेक्को दुन्नि तिया दुगेग दो छक्क इगवीसं ॥ २९॥ एगवए छन्भंगा निद्दिट्ठा सावयाण जे सुत्ते । ते चिय पयवुड्डीए सत्तगुणा छज्जुया कमसो॥ ३० ॥ इगवीसं खलु भंगा निद्दिद्या सावयाण जे सुत्ते । ते च्चिय बावीसगुणा इगवीसं पक्खिवेयवा ॥ ३१॥ एगवए नव भंगा निहिट्ठा सावयाण जे सुत्ते । ते चिय दसगुण काउं नव पक्खेवंमि कायवा ॥ ३२॥ इगवन्नं खलु भंगा निहिट्ठा सावयाण जे सुत्ते । ते चिय पन्नासगुणा गुणवन्नं पक्खिवेयवा ॥ ३३ ॥ एगाई एगुत्तरपत्तेयपयंमि उवरि पक्खयो। एक्ककहाणिअवसाणसंखया हुंति संयोगा ॥३४॥ अहवा पयाणि ठविउं अक्खे चित्तूण चारणं कुज्जा । एक्कगदुगाइजोगा भंगाणं संख कायचा ॥ ३५॥ बारस १ छावट्ठीवि य २ वीसहिया दो For Private & Personel Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव०सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० २३६ श्रावकत्रत भङ्गाः ॥३८९॥ य ३ पंच नव चउरो ४। दो नव सत्त य५ चउ दोन्नि नव य ६ दो नव य सत्तेव ७॥३६॥ पण नव चउरो ८ वीसा य दोन्नि ९ छावहि १० बारसे ११ को १२ य । सावयभंगाणमिमे सबाणवि हुंति गुणकारा ॥ ३७॥ छच्चेव य १ छत्तीसा २ सोल दुगं चेव ३ छ नव दुगमिकं ४। छ सत्त सत्त सत्त य ५ छप्पन्न छसहि चउ छठे ६॥ ३८॥ छत्तीसा नवनउई सत्तावीसा य ७ सोल छन्नउई। सत्त य सोलस भंगा अट्ठमठाणे वियाणाहि ८॥ ३९॥ छन्नउई छावत्तरि सत्त दु सुन्नेक हुंति नवमम्मि ९ । छाहत्तरि इगसट्ठी छायाला सुन्न छच्चेव १०॥४०॥ छप्पन्न सुन्न सत्त य नव सत्तावीस तह य छत्तीसा ११॥ छत्तीसा तेवीसा अडहत्तरि छहत्तरीगवीसा १२ ॥४१॥ दुविहतिविहेण पढमो दुविहं दुविहेण बीयओ होइ । दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥४२॥ एगविहं दुविहेणं एक्कक्कविहेण छट्ठओ होइ । उत्तरगुण सत्तमओ अविरयओ अट्ठमो होइ ॥४३॥ पंचण्हमणुवयाणं एक्कगदुगतिगचउक्कपणगेहिं । पंचगदसदसपणएक्कगो य संजोय नायवा ॥४४॥ छच्चेव य छत्तीसा सोल दुगं चेव छ नव दुग एवं । छस्सत्त सत्त सत्त य पंचण्ह वयाण गुणणपयं ॥४५॥ वयएक्कगसंजोगाण हंति पंचण्ह तीसई भंगा । गुणसंजोग दसण्हपि तिन्नि सट्टा सया हंति ॥४६॥ तिगसंजोग दसण्हं भंगसया एक्कवीसइ सट्ठा । चउ. संजोगप्पणगे चउसहि सयाण असियाणि ॥४७॥ सत्तत्तरी सयाई छहत्तराई तु पंचमे हुंति । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरगुण अविरयमेलियाण जाणाहि सङ्घग्गं ॥ ४८ ॥ सोलस चेव सहस्सा अट्ठ सया चेव हुंति अहिया । एसो वयपिंडत्थो दंसणमाई उ पडिमाओ ॥ ४९ ॥ व्रतं-नियमविशेषस्तद्विद्यते येषां ते व्रतिनः श्रावका इत्यर्थः, ते द्विधा-वक्ष्यमाणयुक्त्या द्विप्रकाराः, अथवा अष्टविधाः, अथवा द्वात्रिंशद्धे| दाः, अथवा सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि, अथवा षोडश सहस्रा अष्टौ शतान्यष्टोत्तराणि व्रतिनो भवन्ति । अत्र च व्रतिन इत्युक्ते सामान्येन श्रावका गृह्यन्ते नतु देशविरता एव, अविरतसम्यग्दृष्टीनामपि सम्यक्त्वप्रतिपत्तिलक्षणस्य नियमस्य सद्भावात् ॥ २२ ॥ अथैतानेव भेदान् प्रत्येकं व्याचिख्यासुराद्यं भेदत्रयमाह - 'दुविहे 'त्यादि, द्विविधाः श्रावकाः - विरता अविरताश्च तत्र विरताः - प्रतिपन्नदेशविरतयः अविरता:- अभ्युपेतक्षायिक (कादि) सम्यक्त्वाः सत्य किश्रेणिक कृष्णादय इव, 'दुविहं तिविहाइणट्ठहा होंति'ति द्विविधः - कृतकारितरूपः त्रिवि - धो- मनोवाक्कायभेदेन यत्र स द्विविधत्रिविध एको भङ्गः स आदिर्यस्य द्विविधत्रिविधादेर्भङ्गजालस्य तेन द्विविधत्रिविधादिना भङ्गजालेनाष्टविधाः श्रावका भवन्ति, यद्वक्ष्यति – “दुविहति विद्देण पढमो दुविहं दुविद्देण बीयओ होइ । दुविहं एगविद्देणं एगविहं चेव तिविद्देणं ॥ १ ॥ एगविहं दुविद्देणं एकेक विहेण छट्ठओ होइ । उत्तरगुण सत्तमओ अविरयओ अट्ठमो होइ ॥ २ ॥” अनयोश्च सोपयोगत्वादत्रैव व्याख्या क्रियते इह व्रतं प्रतिपित्सुः कोऽपि किञ्चित्प्रतिपद्यते, श्रावकत्रतप्रतिपत्तेर्वहुभङ्गत्वात्, तत्र द्विविधं कृतकारितभेदं त्रिविधेन मनसा वचसा कायेनेति प्रथमो भङ्गः एवं च भावना - स्थूलहिंसादिकं न करोत्यात्मना न कारयत्यन्येन मनसा वचसा कायेन चेति, अस्य चानुमतिरप्रतिषिद्धा, आपत्यादिपरिग्रहसद्भावात्तै हिंसादिकरणे च तस्यानुमतिप्राप्तेः, अन्यथा परिग्रहापरिग्रहयोरविशेषेण प्रत्रजिताप्रव्रजितयोरभेदापत्तेः, यत्पुनर्व्याख्याप्रज्ञयादौ त्रिविधं त्रिविधेनेत्यपि प्रत्याख्यानमुक्तमगारिणस्तद्विशेषविषयं विज्ञेयं, तथाहि यः किल प्रवित्रजिषुरेव पुत्रादि Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥३९॥ २३६ श्रावकव्रतभङ्गाः | संततिपालनाय विलम्बमानः प्रतिमाः प्रतिपद्यते यो वा विशेष स्वयम्भूरमणादिगतं मत्स्यमांसदन्तिदन्तचित्रकचर्मादिकं स्थूल हिंसादि वा कचिवस्थाविशेषेण प्रत्याख्याति स एव त्रिविधं त्रिविधेनेति करोति इत्यल्पविषयत्वादत्र न विवक्षितमिति, द्विविधं द्विविधेनेति द्वितीयो भङ्गः, अत्र चोत्तरभङ्गास्त्रयः, तत्र द्विविधमिति-स्थूलहिंसादिकं न करोति न कारयति, द्विविधेनेति मनसा वचसा १ यद्वा मनसा कायेनेति २ यद्वा वाचा कायेनेति ३, तत्र यदा मनसा वाचा न करोति न कारयति तदा मनसाऽभिसन्धिरहित एव वाचाऽपि हिंसादिकमअवन्नेव कायेनैव दुश्चेष्टितादिना असंज्ञिकवत्करोति, यदा तु मनसा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसाऽभिसन्धिरहित एव कायेन दुश्चेष्टितादि परिहरनेवानाभोगाद्वाचैव हन्मि घातयामि चेति ब्रूते, यदा तु वाचा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसैवामिसन्धिमधिकृत्य करोति कारयति च, अनुमतिस्तु त्रिभिरपि सर्वत्रैवास्ति, एवं शेषविकल्पा अपि भावनीयाः, द्विविधमेकविधेनेति तृतीयः, अत्राप्युत्तरभङ्गात्रयः, द्विविधं करणं कारणं च एकविधेन मनसा १ यद्वा वचसा २ यद्वा कायेन ३, एकविधं त्रिविधेनेति चतुर्थः, अत्र च द्वौ प्रतिभङ्गो, एकविधं करणं मनसा वाचा कायेन च, अथवा एकविधं कारणं मनसा वाचा कायेन, एकविधं द्विविधेनेति पञ्चमः, अत्र चोत्तरभेदाः षट् , एकविधं करणं द्विविधेन मनसा वाचा १ यद्वा मनसा कायेन २ यद्वा वाचा कायेन ३, अथवा एकविधं कारणं द्विविधेन मनसा वाचा ४ यद्वा मनसा कायेन ५ यद्वा वाचा कायेन ६, एकविधमेकविधेनेति षष्ठो मूलभङ्गः, अत्राप्युत्तरभङ्गाः षट् , एकविधं करणं एकविधेन मनसा १ यद्वा बाचा २ यद्वा कायेन ३ अथवा एकविधं कारणं एकविधेन मनसा ४ यद्वा वाचा ५ यद्वा कायेनेति |६, तदेवं मूलभङ्गाः षट्, षण्णामपि च मूलभङ्गानामुत्तरभङ्गाः सर्वसङ्ख्ययैकविंशतिः, तथा च वक्ष्यति-"दुविहति विहा य छच्चिय तेसिं भेया कमेणिमे होति । पढमेको दोन्नि तिया दुगेग दो छच्च इगवीसं ॥१॥" एषाऽपि प्रक्रमादिहेव व्याख्यायते-अनन्तरोक्ता एव . ॥३९ ॥ For Private Personal use only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विविधत्रिविधादयः षड्नङ्गाः स्थाप्यन्ते, तेषां षण्णां भङ्गानां क्रमेणैते वक्ष्यमाणा भेदा-उत्तरविकल्पा भवन्ति, तथाहि-प्रथममेकः स्थाप्यते, तदनन्तरं क्रमेण द्वौ त्रिको तत एको द्विकः तदनु क्रमेण द्वौ षट्को, इयमत्र भावना-प्रागुक्तायाः षड्नङ्ग्याः प्रथमे भङ्गे एक एव भेदः, द्वितीयभङ्गे उत्तरभेदात्रयः, तृतीयेऽपि त्रयः, चतुर्थे द्वौ, पञ्चमे षट् , षष्ठेऽपि मूलभङ्गे उत्तरभङ्गाः षडियेवं षड्जन्यामुत्तरभङ्गका मिलिता एकविंशतिरिति, स्थापना चेयं PRADDD योगाः । इति करणकारणमनोवाकायैरुत्तरभेदाः, 'उत्तरगुण सत्तमओ'त्ति प्रतिपन्नोत्तरगुणः सप्तमो भेदः, श्राव-३२३२ करणानि काणां हि द्विधा नियमो-मूलगुणविषय उत्तरगुणविषयश्च, तत्र मूलभूता गुणा मूलगुणाः-पञ्चा- 12/३/३/२/६६] भङ्गाः । णुव्रतानि उत्तरभूता गुणा उत्तरगुणा:-त्रीणि अणुव्रतानि चत्वारि च शिक्षाव्रतानि, इह च संपूर्णासंपूर्णोत्तरगुणभेदमनादृत्य सामान्येनैक एव भेदो विवक्षितः, 'अविरयओ अट्ठमो होइ'त्ति अविरत:-अविरतसम्यग्दृष्टिरष्टमो भेदः, तदेवमुक्ता अष्टविधाः श्रावकाः । अथ द्वात्रिंशद्विधानाह-'वयमेगेगं' इत्यादि, एकैकं स्थूलप्राणातिपातविरमणादिकं व्रतं पनिर्विधामिः-भेदैर्गुणितं-ताडितं द्विविधत्रिविधादिकया पूर्वोक्तया षड्नग्या गुणितमित्यथेः, प्रतिपन्नोत्तरगुणाविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणभेदद्विकमिलितं द्वात्रिंशद्भवन्ति, तथाहि-स्थूलप्राणातिपातविरतिं षड्भङ्गीमध्यात्कश्चिदाद्येन भङ्गेन गृहाति कश्चिद् द्वितीयेन कश्चित् तृतीयेन कश्चिच्चतुर्थेन कश्चित्पञ्चमेन कश्चित् षष्ठेनेति प्राणातिपातविरतेः षड् भङ्गाः, एवं मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि प्रत्येकं षड् भङ्गा वाच्याः मिलिताश्च त्रिंशत् । आवश्यके पुनरेवं त्रिंशद्भङ्गा:-यथा कश्चित्पञ्चाप्यणुप्रतानि समुदितान्येव गृह्णाति, तत्र च द्विविधत्रिविधादयः षङ्गेदाः, अन्यो व्रतचतुष्टयं गृह्णाति तत्रापि षट् , अपरो व्रतत्रयं तत्रापि लाषट्, भन्यो प्रतद्वयं तत्रापि षट् , अन्यस्त्वेकमेवाणुव्रतं गृह्णाति तत्रापि षडेव भङ्गाः, एवमेते पञ्च षटकाविंशवन्ति, उत्तरगुणा For Private & Personel Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३९१ ॥ विरतसहितास्तु द्वात्रिंशत् ॥ २३ ॥ एवं तावदावश्यकनिर्युक्तत्यभिप्रायेण कृता भङ्गप्ररूपणा, सांप्रतं पञ्चत्रिंशदुत्तर सप्तशतसम् श्रावकभेदान् प्रतिपिपादयिषुर्भगवत्यभिप्रायेण नवभङ्गीमाह - 'तिन्नी' त्यादि, योगेषु-करणकारणानुमतिरूपेषु त्रयत्रिकाः त्रयो द्विकाः त्रय एककाञ्च भवन्ति क्रमेण स्थाप्या इति शेषः, तदधस्ताच क्रमेण त्रीणि द्वे एकं त्रीणि द्वे एकं त्रीणि द्वे एकं चैव करणानि-मनोवाक्काय लक्षणानि स्थाप्यानि भवन्तीति पद्घटना, भावार्थ: पुनरयं त्रिविधं त्रिविधेनेति प्रथमो भङ्गः कश्चिद् गृही सावधं योगं न करोति न कारयति नान्यं समनुजानीते मनसा वचसा कायेन चेत्येको भङ्ग इति भावः, त्रिविधं द्विविधेनेति द्वितीयो मूलभङ्गः, अत्रोत्तरभङ्गास्त्रयः, तथाहि न करोति न कारयति नानुजानीते मनसा वाचा १ यद्वा मनसा कायेन २ यद्वा वचसा कायेन ३, त्रिविधमेकविधेनेति तृतीयो भङ्गः, अत्राप्युत्तरभङ्गास्त्रयस्तथाहि न करोति न कारयति नानुजानीते मनसा १ यद्वा वचसा २ या कायेन ३, द्विविधं त्रिविधेनेति चतुर्थो भङ्गः, अत्राप्युत्तरभङ्गास्त्रयः, तथाहि न करोति न कारयति मनसा वचसा कायेन १ यद्वा न करोति नानुजानीते त्रिभिरपि करणैः २, यद्वा न कारयति नानुजानीते त्रिभिरपि करणैः ३, द्विविधं द्विविधेनेति पञ्चमो भङ्गः, अत्र चोत्तरभेदा नव, तथाहि न करोति न कारयति मनसा वचसा १ यद्वा मनसा कायेन २ यद्वा वचसा कायेन ३ अथवा न करोति नानुजानीते मनसा वचसा ४ यद्वा मनसा कायेन ५ यद्वा वचसा कायेन ६ अथवा न कारयति नानुजानीते मनसा वचसा ७ यद्वा मनसा कायेन ८ यद्वा वचसा कायेन ९, द्विविधमेकविधेनेति षष्ठो भङ्गः, अत्राप्युत्तरभेदा नव, तथाहि न करोति न कारयति मनसा १ यद्वा वचसा २ यद्वा कायेन ३ अथवा न करोति नानुजानीते मनसा ४ यद्वा वचसा ५ यद्वा कायेन ६ अथवा न कारयति नानुजानीते मनसा ७ यद्वा वचसा ८ यद्वा कायेन ९, एकविधं त्रिविधेनेति सप्तमो भङ्गः, अत्र चोत्तरभङ्गास्त्रयः, तथाहि २३६ श्रावकमत भङ्गाः ॥ ३९१ ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | न करोति मनसा वचसा कायेन १ यद्वा न कारयति त्रिभिरपि करणैः २ यद्वा नानुजानीते त्रिभिरपि करणैः ३, एकविधं द्विविधेनेत्यष्टमो भङ्गः, अत्र चोत्तर विकल्पा नव, तथाहि न करोति मनसा वचसा १ यद्वा मनसा कायेन २ यद्वा वचसा कायेन ३ अथवा न कारयति मनसा वचसा ४ यद्वा मनसा कायेन ५ यद्वा वचसा कायेन ६, अथवा नानुजानीते मनसा वचसा ७ यद्वा मनसा कायेन ८ यद्वा वचसा कायेन ९, एकविधं एकविधेनेति नवमो मूलभङ्गः, अत्राप्युत्तरविकल्पा नव, तथाहि-न करोति मनसा १ यद्वा वचसा २ यद्वा कायेन ३ अथवा न कारयति मनसा ४ यद्वा वचसा ५ यद्वा कायेन ६ अथवा नानुजानीते मनसा ७ यद्वा वचसा ८ यद्वा कायेनेति ९ । तदेवं मूलभङ्गा नव उत्तरभङ्गास्तु मीलिताः सर्वसङ्ख्यया एकोनपञ्चाशत् उक्तं च — "तिविहंतिविद्देण पढमो तिविहं दुविहेण बीयओ होइ । तिविहं एगविहेणं दुविद्दं तिविद्देण ति चउत्थो || १ || दुविहदुविण पंचम दुविदेकविण टुओ होइ । एक्कविहं तिविहेणं दुविहेण य सत्तमट्टमओ ॥ २ ॥ एक्कविक्कविद्देणं नवमो पढमंमि एकभङ्गो उ । सेसेसु तिन्नि तिन्नि य तिन्नि य नव नव य तह तिन्नि ॥ ३ ॥ नव नव य होंति कमसो एए सब्वेवि इगुणवन्नासं ॥” स्थापना इति करणकारणानुमतिमनोवाक्कायाः, ननु च वाक्कायाभ्यां तावत्प्रत्यक्षादिप्रमाणत एव करणकारणानुमतयो दृश्यन्ते, मनसस्तु ताः कथं प्रत्येतव्या: ?, अन्तर्व्यापारत्वेन परैरनुपलक्ष्यमाणत्वात्, उच्यते, निर्व्यापारकायवचनो यदा सावद्ययोगकरणादि मनसा विकल्पयति तदा मुख्यतया कायवचनवन्मनस्यपि करणादीनि संभवन्ति, तथाहि - सावद्ययोगमेनमहं करोमीत्येवं यदा मनसा चिन्तयति तदा करणं, यदा तु मनसा चिन्तयति करोत्वेष सावद्यं असावपि चेङ्गितज्ञोऽभिप्रायादेव प्रवर्तते तदा कारणं, यदा पुनः सावद्यव्यापारं विधाय मनसा चिन्तयति - सुष्ठु कृत ३ ३ ३ २ २ २ १ ३ २ १ ३ २ १ ३ १ ३ ३ ३ ९ ९ ३ ९ ९ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० श्रावकत्रतभङ्गा ॥३९२॥ मिदं मया तदा मानसी अनुमति रिति, तदेवं सूत्रकृन्निगदितां नवभङ्गी विवृण्वद्भिरस्माभिः प्रसङ्गादेकोनपश्चाशद्धमयपि प्रदकार्शिता ॥ २४॥ संप्रति प्रकारांतरेण सूत्रकार एवेनां प्रतिपादयितुमाह-'मणे'त्यादि, इह च प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययोऽवग न्तव्यः, ततः करणस्य कारणस्थानुमतेश्च मनोवाकायलक्षणः त्रिभिः करणः सह योगे-संबन्धे सति एकदिकत्रिकयोगे-प्रत्येकमेVIसंयोगद्विकसंयोगत्रिकसंयोगचिन्तया सप्त सप्तका भवन्ति, तथाहि-स्थूलहिंसादिकं न करोति मनसा १ वाचा २ कायेन च ३ मनसा वाचा ४ मनसा कायेन ५ वाचा कायेन ६ मनसा वाचा कायेन च ७, एते करणेन सप्त भङ्गाः, एवं कारणेन सप्त, अनुमत्या सप्त, तथा स्थूलहिंसादिकं न करोति न कारयति च मनसा १ वाचा २ कायेन ३ मनसा वाचा ४ मनसा कायेन ५ वाचा कायेन ६ मनसा वाचा कायेन ७, एते करणकारणाभ्यां सप्त भङ्गाः, एवं कारणानुमतिभ्यामपि सप्त, करणानुमतिभ्यां सप्त, करणकारणानुमतिभिरपि सप्त, एवं सप्त सप्तका मीलिता एकोनपञ्चाशद्भवन्ति ।। २५ ॥ अत्र सूत्रकारः पूर्वोक्ताया एव नवभङ्मया उत्तरभङ्गप्रतिपादनपूर्व सप्तचत्वारिंशदुत्तरशतसयान भङ्गकानाह-'पढमें' इत्यादि, 'तिन्नि तियेत्यादिगाथोक्तानां नवभङ्गीप्रतिपादकानामङ्कानामधस्तात्प्रथमे स्थाने एककः स्थाप्यते, ततः क्रमेण त्रयस्त्रिकाः, ततो द्वौ नवको, तत एकत्रिकः, पुनरपि द्वौ नवको, अयमत्र तात्प-1 यार्थः-त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्र प्रथमभङ्गे एक एव विकल्पः, सर्वप्रकारैः प्रत्याख्यातत्वाद्विकल्पान्तराभाव इति भावः, तदन्येषु पुनर्विती| यतृतीयचतुर्थेषु त्रयस्त्रयः पञ्चमषष्ठयोर्नव नव सप्तमे त्रयः अष्टमनषमयोर्नव नवेत्येवं सर्वेऽप्येकोनपञ्चाशत् , एते च त्रिकालविषयत्वाप्रत्याख्यानस्य कालत्रिकेण-अतीतानागतवर्तमानलक्षणेन गुणिताः सप्तचत्वारिंशं शतं भङ्गानां भवन्ति, त्रिकालविषयता चातीतस्य निन्द्या साम्प्रतिकस्य संवरणेन अनागतस्य च प्रत्याख्यानेनेति, यदाह-'अईयं निंदामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं च पञ्चक्खा Jain Education Intematon For Private Personel Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मि"त्ति ॥ २६ ॥ साम्प्रतं पञ्चत्रिंशदुत्तरसप्तशतसयान् श्रावकभेदानाह-पंचे'त्यादि, इह नवरिशब्द आनन्तर्यार्थः, 'आनन्तर्ये जाणवरीति प्राकृतलक्षणवचनात् , आनन्तर्य च पूर्वोक्तापेक्षया, ततोऽयमर्थः-एतदेव सप्तचत्वारिंशं शतं पञ्चस्वप्यणुव्रतेषु प्रत्येकं सप्तच त्वारिंशदधिकस्य भङ्गशतस्य भावात्पञ्चभिरणुव्रतैर्गुणितं सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि जानीहि-बुध्यस्व श्रावकव्रतग्रहणकाले-श्रावकाणां पञ्चाणुव्रतप्रतिपत्तिप्रस्तावे इति ॥ २७ ॥ एते च भङ्गा यस्यार्थतोऽवगताः स एव प्रत्याख्यानप्रवीण इति दर्शयन्नाह-'सीया-18 ल'मित्यादि, विशुद्धिर्नाम जीवस्य विशुद्धिकारित्वात्प्रत्याख्यानमुच्यते तद्विषयं 'सीयालं'ति सप्तचत्वारिंशदुत्तरभङ्गानां-ग्रहणप्रकाररू|पाणां शतं यस्योपलब्ध-अर्थतः सम्यक्परिज्ञातं भवति स खलु-स एव प्रत्याख्याने-नियमविशेषप्रतिपत्तिरूपे कुशलो-निष्णातः, शेषा-एतद्व्यतिरिक्ताः पुनरकुशला-अनभिज्ञाः । इह च यद्यप्यनन्तरं पश्चत्रिंशदुत्तराणि सप्त शतान्यभिहितानि तथापि सप्तचत्वारिंश|च्छतमूलत्वात्तेषां मुख्यतया सूत्रे सप्तचत्वारिंशच्छतमेवमुक्तमिति ॥ २८॥ अथ षड्भझ्या एवोत्तरभङ्गरूपामेकविंशतिभङ्गीमाह'दविहे'त्यादि, इयं च प्राग्व्याख्यातैव, इह च द्विविधत्रिविधादिना पूर्वभणितेन भङ्गकनिकुरम्बेन श्रावकाहपश्चाणुव्रतादिव्रतसंहतिभङ्गकदेवकुलिकाः सूचिताः, ताश्च एकैकव्रतं प्रत्य भिहितया षङ्गङ्ग्या तथा एकविंशतिभङ्गया तथा नवभङ्गया तथा एकोनपञ्चाशनझ्या च | निष्पद्यन्ते । अथ देवकुलिका इति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, एकादित्रतप्रतिबद्धभङ्गककदम्बकप्रतिपादका अङ्काः पट्टादिषु न्यस्ता देव| कुलिकाकारत्वेन प्रतिभासनादेवकुलिका इति व्यपदिश्यन्ते, सर्वास्वपि च देवकुलिकासु प्रत्येकं त्रयस्त्रयो राशयो भवन्ति, तद्यथा| आदौ गुण्यराशिः मध्ये गुणकारकराशिः अन्ते चागतराशिरिति ॥ २९ ॥ तत्र प्रथमं तावदेतासामेव देवकुलिकानां षड्नङ्ग्यादिक्रमेण विवक्षितत्रतभङ्गकसर्वसङ्ख्यारूपानेवंकारकराशीनाह-एगे'त्यादिगाथाचतुष्कं, एकस्मिन् व्रते-स्थूलप्राणातिपातविरमणादिके ये द्विवि Jan Education Intemanon For Private Personel Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ प्रव० सा-1 रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥३९३॥ त्रिविधादयः षड्भङ्गाः सूत्रे-आवश्यकनियुक्त्यादौ श्रावकाणां निर्दिष्टा:-कथितास्त एव पनगाः सप्तगुणा:-सप्तमिस्ताडिताः षड्युताश्च क्रमेण सर्वभङ्गकसङ्ख्याराशिं जनयन्तीति शेषः, कथं पुनः षड्नङ्गाः सप्तभिर्गुण्यन्ते ? इत्याह-पदवृद्ध्या-मृषावादाचेकैकवतवृद्धया, श्रावकवतयावन्ति व्रतानि विवक्ष्यन्ते तावतीर्वारा गुण्यन्ते इति तात्पर्य, स्थूलं च न्यायमाश्रित्यैवमुच्यते यावता एकत्रतभङ्गकराशेरवधौ व्यव भङ्गा स्थापितत्वाद्विवक्षितव्रतेभ्य एकेन हीना वारा गुण्यन्ते इति, इयमत्र भावना-एकवते तावत् षड्नङ्गाः, ते च सप्तमिर्गुणिता जाता द्विच-12 त्वारिंशत् तत्र षट् क्षिप्यन्ते जाता अष्टचत्वारिंशत् एषाऽपि सप्तभिर्गुण्यते षट् च क्षिप्यन्ते जातं ३४२ अत्रापि सप्तमिर्गुणिते षट्सु प्रक्षितेषु जातं २४०० पुनः सप्तमिर्गुणिते षट्यक्षेपे च जातं १६८०६, एवं सप्तगुणनषट्प्रक्षेपक्रमेण तावद्गन्तव्यं यावदेकादश्यां वेलायामागतं १३८४१२८७२०२, एते चाष्टचत्वारिंशदादयो द्वादशाप्यागतराशय उपर्यधोभावेन व्यवस्थाप्यमाना अर्द्धदेवकुलिकाकारां भूमिकामास्तृण्वन्तीति खण्डदेवकुलिकेत्युच्यते, तदेवमुक्ता षङ्गङ्गीप्रतिबद्धा खण्डदेवकुलिका ॥ एकविंशतिभङ्ग्यादिखण्डदेवकुलिका अप्येवमेव भावनीयाः, केवलमेकविंशतिभङ्गीपक्षे एकविंशतिरवधौ व्यवस्थाप्य वारंवार द्वाविंशत्या गुण्यन्ते एकविंशतिस्तु प्रक्षिप्यते | यावदेकादशवेलायां द्वादशवतभङ्गसर्वसङ्ख्यायामागतं १२८५५००२६३१०४९२१५ । नवभङ्गीपक्षेऽप्येवं, नवरमवधौ नव, ते च वारंवारं दशभिर्गुण्यन्ते नव च प्रक्षिप्यन्ते यावदेकादश्यां वारायां सर्वव्रतभङ्गसर्वसङ्यायामागतं ९९९९९९९९९९९९ । एकोनप|श्चाशद्भङ्गीपक्षे पुनरवधावेकोनपञ्चाशत् , सा च वारंवारं पञ्चाशता गुण्यते एकोनपञ्चाशच प्रक्षिप्यन्ते यावदेकादश्यां वारायां सर्वव्रतभङ्गकसङ्ख्यायामागतं २४४१४०६२४९९९९९९९९९९९९ । अक्षरार्थस्तु सुगम एवेति, तथा सप्तचत्वारिंशच्छतभङ्गपक्षेऽप्येवं, III३९३॥ नवरं तत्र सप्तचत्वारिंशच्छतमवधी व्यवस्थाप्यते, वारंवारमष्टचत्वारिंशच्छतेन गुण्यते, सप्तचत्वारिंशच्छतं च प्रक्षिप्यते यावदेकादश्यां| Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेलायामागतं ११०४४३६०७७१९६११५३३३५६९५७६९५, उक्तं च-- "सीयालं भङ्गसयं वयवुड्डड्डयालसथगुणं काउं । सीयालसएण जुयं सव्वग्गं जाण भङ्गाणं ॥ १ ॥ " [ सप्तचत्वारिंशं भङ्गशतं व्रतवृद्धाष्टचत्वारिंशच्छतगुणं कृत्वा । सप्तचत्वारिंशच्छतेन युतं सर्वामं जानीहि भङ्गानां ॥ १ ॥ ] तदेवं प्रतिपादिताः पञ्चापि खण्डदेवकुलिकाः । साम्प्रतं संपूर्णदेवकुलिकानामवसरः, तत्र च प्रतित्र - तमेकैकदेवकुलिका सद्भावेन षङ्ग्यादिषु प्रत्येकं द्वादश द्वादश देवकुलिकाः प्रादुर्भवन्ति ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ तासु च सर्वास्वप्युच्यमानासु महान् प्रन्थविस्तरो भवतीत्यतो दिग्मात्रप्रदर्शनाय षङ्ग्यामेव द्वादशीं देवकुलिकामभिधित्सुरेककद्विकादिसंयोगसूचकगुणकारकराशिसमानयनोपायमाह - 'एगाई'त्यादि, 'एगाई एगुत्तर'ति यावत्प्रमाणानां पदानामेककद्विकादिसंयोगाः समानेतुमिष्यन्ते तावत्प्रमाणा एव एकादय एकोत्तरया वृद्ध्या उपर्युपरि क्रमेण स्थाप्यन्ते, इह च द्वादशानां व्रतानां संयोगाः समानेतव्याः तत एकादयो द्वादश यावत्र्यसनीयाः, स्थापना तत: 'पत्तेयपयंमि'त्ति प्रत्येकं एकैकस्मिन् पदे 'उवरि 'त्ति प्रक्षेपाङ्कोपरिस्थिते कार्य:, अधस्तनाङ्कस्तु तथैव ध्रियते, कथं प्रक्षेपः कार्यः ? इत्याह- 'एक्केकहाणि' त्ति एकैकस्योपरितनाङ्कस्य हानि: - वर्जनं यथा भवति तथा, क्षेपे २ उपरितनोऽङ्कोऽधस्तनाङ्कक्षेपरहितः कार्य इति भावः, 'अव साणसंख्या हुंति संयोग'त्ति अवसानक्रमेण सर्वाङ्कप्रक्षेपपरिसमाप्तिरूपे ये अङ्काः क्रमशस्तत्सङ्ख्याः- तत्प्रमाणाः संयोगा - एकद्विश्यादिपदमीलनरूपा भवन्ति, इयमन्त्र भावना - प्रथममेकादिद्वादशान्ता ऊर्द्धायता पङ्किः स्थाप्या, तत एकको द्विके क्षिप्यते जातास्त्रयः, ते च त्रिषु क्षिप्यन्ते जाताः षट्, ते च चतुष्के क्षिप्यन्ते जाता दश, ते च पञ्चके क्षिप्यन्ते जाता पञ्चदश, ते च षट्के जाता एकविंशतिः, सा च सप्तके जाता अष्टाविंशतिः सा चाष्टके जाता षट् ·|- |~|~|~|~|| 'पक्खेवो'ति अधस्तनाङ्कस्य प्रक्षेपः 191 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० श्रावकव्रत प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥९४॥ CCCCCXHORS त्रिंशत् सा च नवके जाता पञ्चचत्वारिंशत् सा च दशके जाता पञ्चपञ्चाशत् सा च एकादशे क्षिप्यते जाता षट्षष्टिः, एषा च नोपरिस्थे द्वादशके क्षिप्यते, किंतु द्वादशकस्तदवस्थ एव ध्रियते, 'एकेकहाणि'त्ति वचनात् , इति प्रथमप्रक्षेपः । पुनश्चैककस्त्रिके क्षिप्यते जाताश्चत्वारः, ते च षट्के क्षिप्यन्ते, जाता दश, ते च दशके जाता विंशतिः, सा च पञ्चदशके जाता पञ्चत्रिंशत् , सा चैकविंशतौ जाता षट्पञ्चाशत् , सा चाष्टाविंशतौ जाता चतुरशीतिः, सा च षड्विंशतौ जातं विंशत्युत्तरं शतं, तच्च पञ्चचत्वारिंशति जातं पञ्चषष्ट्यधिकं शतं, तदपि पञ्चपञ्चाशति प्रक्षिप्यते, जातं विंशत्युत्तरं शतद्वयं, एतच्चोपरिस्थितषट्पष्टौ न क्षिप्यते, 'एक्केकहाणि'त्ति वचनात् , इति द्वितीयः क्षेपः । एवं च वारंवारं चरममकं वर्जयित्वोपर्युपरि तावदकाः प्रक्षेप्तव्या यावदेकादशः क्षेपः, एककस्त्वन्त्यत्वान्न कुत्रापि क्षिप्यते इति द्वादशस्य क्षेपस्यासंभवः । स्थापना तदेवं एककसंयोगा द्वादश द्विकसंयोगाः षट्षष्टिः त्रिकसं| योगा द्वे शते विंशत्युत्तरे चतुष्कसंयोगाश्चत्वारि शतानि ९४५ १६५ ४९५ ८३६ १२० ३३०७९२ पञ्चनवत्यधिकानि पञ्चकसंयोगाः सप्त शतानि द्विनवत्य| धिकानि षट्कसंयोगा नव शतानि चतुर्विशत्यधिकानि सप्त| कसंयोगाः सप्त शतानि द्विनवत्यधिकानि अष्टकसंयोगाश्चत्वारि शतानि पञ्चनवत्युत्तराणि नवकसंयोगा द्वे शते विंशत्युत्तरे दशकसंयोगाः षट्षष्टिः एकादशसंयोगा द्वादश द्वाद -Mess... ।।३९४॥ - Join Education International For Private Personel Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकसंयोगः पुनरेक एवेति ॥ ३४ ॥ अथवा प्रकारान्तरेण संयोगसयापरिज्ञानोपायमाह - ' अहवे' त्यादि, अथवा पदानि - विवक्षितव्रतलक्षणानि पट्टिकादौ स्थापयित्वा अक्षान् गृहीत्वा क्रमेण चारणां कुर्यात्, तत एकद्विकादिसंयोगविषये भङ्गाः समुत्पद्यन्ते, तेषां सङ्ख्या कर्तव्या, इह च यद्यपि द्वादशी देवकुलिका वक्तुमुपक्रान्ता तथापि लाघवार्थ पञ्चाणुत्रतान्येवाश्रित्य भावनाऽभिधीयते, तत्र पञ्चानां पदानामेकसंयोगे एकैकचारणया पञ्च भङ्गाः, द्विकसंयोगे दश, ते चैवं - प्रथमद्वितीयप्रथमतृतीयप्रथमचतुर्थप्रथमपञ्चमचारणया चत्वारः, द्वितीयतृतीयद्वितीयचतुर्थद्वितीयपञ्चमचारणया त्रयः तृतीयचतुर्थतृतीयपञ्च मचारणया द्वौ चतुर्थपञ्च मचारणया त्वेकः सर्वे दश, तथा त्रिकयोगेऽपि दश, ते चैवं प्रथमद्वितीयतृतीय- प्रथमद्वितीयचतुर्थ- प्रथमद्वितीयपञ्चम- प्रथमतृतीयचतुर्थ - प्रथमतृतीयपश्चम- प्रथमचतुर्थपञ्च मचारणया पटू, द्वितीयतृतीयचतुर्थ-द्वितीयतृतीयपञ्चम-द्वितीयचतुर्थपञ्च मचारणया त्रयः, तृतीयचतुर्थपश्चमचारणया त्वेकः सर्वे दश, चतुःसंयोगे पश्च ते चैवं प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थचारणया एकः प्रथमद्वितीयतृतीयपश्चमचारणया द्वितीयः प्रथमद्वितीयचतुर्थपश्च मचारणया तृतीयः प्रथमतृतीयचतुर्थपश्च मचारणया चतुर्थः द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमचारणया तु पञ्चमः, पञ्चकयोगे पुनश्चारणाया असंभवादेक एव भङ्ग इति ॥ ३५ ॥ एवं सर्वत्रापि चारणा करणीया, अथ सूत्रकारः साक्षादेव द्वादश्या देवकुलिकायाः क्रमेण गुणकारकराशीनाह - 'बारसे' त्यादि गाथाद्वयं द्वादश षट्षष्टिविंशत्यधिके द्वे शते 'पंच नव चउरोति पञ्च नव चत्वारश्च गणितव्यवस्थावशतो व्युत्क्रमेण स्थाप्यन्ते, ततो भवन्ति पञ्चनवत्युत्तराणि चत्वारि शतानि, एवमग्रेऽपि, 'दो नव सत्त य'त्ति द्विनवत्यधिकानि सप्त शतानि, 'चउ दोन्नि नव य'त्ति चतुर्विंशत्युत्तराणि नव शतानि, 'दो नव य सत्तेव'त्ति द्विनवत्यधिकानि सप्त शतानि, 'पण नव चउरो' त्ति पञ्चनवत्युत्तराणि चत्वारि शतानि विंशत्युत्तरे द्वे शते पट्षष्टिर्द्वादश Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० श्रावकव्रतभङ्गा ॥३९५॥ ROCOMGAOCOCk एकश्चेत्येते राशयः सर्वेषामपि श्रावकभङ्गानां षट्पट्त्रिंशदादिरूपाणां गुण्यराशीनां यथाक्रमं गुणकारा भवन्ति, सर्वग्रहणं चेदं ज्ञापयति-न षड्नङ्ग्यामेव केवलायामेते गुणकाराः किंत्वेकविंशतिभङ्गवादिष्वपि, गुणकारकराशीनां सर्वत्राप्येकखरूपत्वात् ।। ३६॥ P॥ ३७ ॥ इदानी द्वादश्या एव देवकुलिकायाः क्रमेण गुण्यराशीनाह–'छच्चेव ये'त्यादिगाथाचतुष्कं, षडेव षट्त्रिंशत् 'सोल दुगं * चेवत्ति द्वे शते षोडशोत्तरे २१६ 'छन्नव दुगेकंति एकसहस्रं षण्णवत्यधिके च द्वे शते १२९६ 'छ सत्त सत्त सत्त य'त्ति सप्त सहस्राः सप्त शतानि षट्सप्तत्यधिकानि ७७७६ 'छपन्नछछट्ठिछचउत्ति षट्चत्वारिंशत्सहस्राणि षट् शतानि षट्पञ्चाशदधिकानि |४६६५६ 'छडे'त्ति आद्यषटकापेक्षया षष्ठे स्थाने इत्यर्थः 'छत्तीसा नवनउई सत्तावीसा यत्ति द्वे लक्षे एकोनाशीतिः सहस्रा नव | शतानि षट्त्रिंशच्चेति २७९९३६ 'सोलस छन्नउई सत्त य सोलस भंग'त्ति सोलत्ति-षोडश लक्षाः एकोनाशीतिः सहस्राणि षट् शतानि षोडश भङ्गानष्टमस्थाने विजानीहि-अवबुध्यस्व १६७९६१६ 'छन्नउई छावत्तरि सत्त दुसुन्नेके'त्ति एका कोटिः सप्तसप्ततिः सहस्राः षट् शतानि षण्णवतिश्च भवन्ति नवमे स्थाने १००७७६९६ 'छाहत्तरि इगसठ्ठी छायाला सुन्न छच्चेव'त्ति षट् कोट्यश्चतस्रो लक्षाः षट्षष्टिः सहस्राः शतमेकं षट्सप्ततिश्चेति ६०४६६१७६ 'छप्पन्न सुन्न सत्त य नव सत्तावीस तहय छत्तीस'त्ति षट्त्रिंश-15 |त्कोटयः सप्तविंशतिर्लक्षाः सप्तनवतिः सहस्राः षट्पञ्चाशच्चेति, ३६२७९७०५६ 'छत्तीसा तेवीसा अट्ठहत्तरी छहत्तरीगवीस'त्ति द्वे कोटीशते सप्तदश कोटयः सप्तपष्टिलक्षाः यशीतिः सहस्रास्त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि २१७६७८२३३६ एतेषां च राशी-1 नामानयनोपायो यथा-आद्याः षट्पनिर्गुण्यन्ते जाताः षट्त्रिंशत् , सापि षनिर्गुण्यते जाते द्वे शते पोडशोत्तरे, एवं वारंवारं तावत् षनिर्गुणनं विधेयं यावद् द्वादशापि गुण्यराशयः संपूर्णाः संपद्यन्ते इति, एत एव पड़ देवकुलिकाः पत्रिंशदादयो द्वादश गुण्यराशयः ACANCE ॥३९५॥ Jan Education Intemani For Private Personel Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमशो द्वादशषट्पष्टिप्रभृतिभिर्द्वादशभिर्गुणकारकराशिमिर्गुणिता आगतराशयो भवन्ति, उक्तं च-"पढमवए छन्भंगा छहि छहि गुणिया य बारसवि ठाणा । संजोगेहि य गुणिया सावयवयभंगया हुंति ॥ १॥" इह च सूत्रकारेणागतराशयो विस्तरभयानोक्ताः, वयं तु विनेयानुग्रहाय गाथाभिरुपदर्शयामः-बाहत्तरि १ छाहत्तरि तेवीसा २ सुन्न दु पण सीयाला ३ । वीसा पनरस चउसहि ४ दु नव पणसीइ पनर छ य ५॥१॥ चोयालसयं दस एकतीस चउ ६ बार ति नव सयरी य । इग दु दु ७ वीसा नव नव चालीसा | एग तेयासी ८॥२॥ वीस इगतीस नव सयरि एग बावीस ९ सोल छस्सत्त । छस्सत्त सुन्न नव नव तिन्नि य १० दसमंमि ठाणंमि ॥ ३ ॥ बाहत्तरि छायाला छप्पन्न तिपन्न ति चउ ११ छत्तीसा । तेवीसा अडहत्तरि छहत्तरि एकवीसा य १२ ॥ ४ ॥ गाथाचतुष्टयस्याप्यर्थः प्राग्वदवसेयः, तदेवमुक्ता गुण्यगुणकारकागतराशित्रयप्रदर्शनेन द्वादशी देवकुलिका, एतदनुसारेणाप्रोक्ता अन्या अप्येकादश देवकुलिकाः स्वयमभ्युह्याः, यथा च षड्नझ्या द्वादश देवकुलिकाः एवमेकविंशतिनवैकोनपञ्चाशत्सप्तचत्वारिंशशतभङ्गपक्षेऽप्यनया दिशा प्रत्येकं द्वादश द्वादश देवकुलिकाः समवसेयाः, सर्वसंख्यया च षष्टिदेवकुलिका भवन्तीति, सर्वासामप्यासां देवकुलिकानां स्थापना बहुश्रुतसूरिसूत्रितेभ्यः पटेभ्यः प्रतिपत्तव्याः, भावार्थस्तु पुरस्ताद्व्यक्तीकरिष्यते ॥ ३८ ॥ ३९ ॥४०॥४१॥ अथ 'दुविहं तिविहा४|| इणऽट्ठहा होंति'त्ति यत्पूर्वमुक्तं तद्विवृण्वन्नाह–'दुविहे'त्यादिगाथाद्वयं, एतच्च प्रागेव व्याख्यातं ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ इदानीमष्टोत्तरशताधि-15 कषोडशसहस्रसंख्यान् श्रावकभेदानमिधित्सुः पञ्चाणुव्रतदेवकुलिकाप्रतिपादनाय प्रथममेकादिसंयोगपरिमाणप्रदर्शनपरान् गुणकारकराशीनाह-'पंचण्ह' मित्यादि, पञ्चानामणुव्रतानामेककद्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकैश्चिन्त्यमानानां यथासंख्येन पञ्च दश दश पञ्चैकश्वेत्येवं । संयोगा ज्ञातव्याः, अयमर्थः-पञ्चानामणुव्रतानामेककसंयोगाः पञ्च द्विकसंयोगा दश त्रिकसंयोगा अपि दश चतुष्कसंयोगाः पञ्च ALSANSARSONACHAR Jan Education International For Private Personel Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ३९६ ॥ पथ्थक संयोगस्त्वेक एवेति एते च संयोगा 'एगाई एगुत्तरे' त्यादिना करणेनाक्षसंचारणया वा समानेतव्याः, भावना तु प्रागेव प्रदर्शिता | ॥ ४४ ॥ अथ पञ्चमदेवकुलिकाया गुण्यराशीनाह - 'छच्चेवे' त्यादि, आदौ षडेव ततः षत्रिंशत् 'सोलदुगं चेव'ति द्वे शते षोडशोत्तरे, 'नव दुग एक' मिति द्वादश शतानि पण्णवत्यधिकानि 'छ सत्त सत्त सत्त य'त्ति सप्तसहस्राः सप्त शतानि षट्सप्तत्युत्तराणि, | पञ्चानामपि व्रतानामेतद्गुणनस्य-ताडनस्य पदं स्थानं, गुण्यराशयः इत्यर्थः ॥ ४५ ॥ अथ पञ्चमदेवकुलिकाया एवागतराशीनाह'वये 'त्यादिगाथात्रयं, व्रतसंबन्धिनामेककसंयोगानां पञ्चानां त्रिंशद्भङ्गा भवन्ति, द्विकसंयोगानां दशानामपि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि भवन्ति, त्रिकसंयोगानां दशानामेकविंशतिर्भङ्गशतानि षष्ट्यधिकानि - पष्ट्यधिकशतोत्तरे द्वे सहस्रे इत्यर्थः, चतुःसंयोगपञ्चके पञ्चानां चतुकसंयोगानां चतुःषष्टिः शतान्यशीत्युत्तराणि भवन्ति, पञ्चके - पञ्चकसंयोगे पुनः सप्तसप्ततिः शतानि षट्सप्तत्युत्तराणि भङ्गानां भवन्ति । | इयमत्र भावना - कश्चित्स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि पश्चाणुत्रतानि प्रतिपद्यते, तत्र किल पञ्चैककसंयोगाः, एकैकस्मिंश्च एककसंयोगे द्विविधत्रिविधादयः षट् पङ्गङ्गा भवन्ति, ततः षट् पञ्चभिर्गुण्यन्ते जातास्त्रिंशत्, एतावन्तः पञ्चानां व्रतानामेककसंयोगे भङ्गाः, तथा एकैकस्मिन् द्विकसंयोगे पत्रिंशत् पत्रिंशद्भङ्गाः, तथाहि - प्राणातिपातत्रतसंबन्धी द्विविधत्रिविधलक्षणः प्रथमो भङ्गकोऽवस्थितो मृषावादसत्कान् पङ्गङ्गान् लभते, एवं प्राणातिपातत्रतसंबन्धी द्विविधद्विविधलक्षणो द्वितीयोऽपि भङ्गकोऽवस्थितो मृषावादसत्कान् पङ्गङ्गान् लभते, एवं प्राणातिपातत्रतसंबन्धी द्विविधैकविधलक्षणस्तृतीयोऽपि भङ्गकः एकविधत्रिविधलक्षणः चतुर्थोऽपि एकविधद्विविधलक्षणः पञ्चमोऽपि एकविधैकविधलक्षणः षष्ठोऽपि भङ्गकोऽवस्थितः एवं मृषावादसत्कान् षट्षङ्गङ्गान् प्रत्येकं लभते, ततश्च पद् पनिगुणिताः पत्रिंशत्, दश चात्र द्विकसंयोगा भवन्तीत्यतः पटूत्रिंशद्दशभिर्गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि, एतावन्तः २३६ श्रावकत्रतभङ्गाः ॥ ३९६ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C ESCORN ACCCCC पञ्चानां व्रतानां द्विकसंयोगे भङ्गाः, भङ्गामिलापश्चैवं-स्थूलप्राणातिपातं प्रत्याख्याति द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमृषावादमपि द्विविधं त्रिवि-12 धेन १ स्थूलप्राणातिपातं द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमृषावादं तु द्विविधं द्विविधेन २ स्थूलप्राणातिपातं द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमृषावादं तु द्विविधमेकविधेन ३ स्थूलप्राणातिपातं द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमृषावादं त्वेकविधं त्रिविधेन ४ स्थूलप्राणातिपातं द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमृषावादं त्वेकविधं द्विविधेन ५ स्थूलप्राणातिपातं द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमृषावादं पुनरेकविधमेकविधेन ६, एवं स्थूलादत्तादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि प्रत्येकं षट् षड्भङ्गाः, सर्वेऽपि मिलिताश्चतुर्विंशतिः, एते च द्विविधत्रिविधलक्षणं प्राणातिपातप्रथमभङ्गममुञ्चता लब्धाः, | एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठेष्वपि प्राणातिपातभङ्गेषु चतुर्विंशतिश्चतुर्विशतिर्भङ्गा भवन्ति, एते सर्वेऽपि चतुश्चत्वारिंशदुत्तरं शतं, तथा स्थूलमृषावादं प्रत्याख्याति द्विविधं त्रिविधेन स्थूलादत्तादानमपि द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलमृषावादं द्विविधं त्रिविधेन स्थूलादत्तादानं तु द्विविधं द्विविधेन, एवं पूर्वक्रमेण षड्भङ्गा ज्ञेयाः, एवं मैथुनपरग्रहेष्वपि प्रत्येकं पट् षड्भङ्गाः, सर्वेऽप्यष्टादश, एते च मृषावादप्रथमभङ्गममुञ्चता लब्धाः, एवं द्वितीयादिष्वप्यष्टादश २ भवन्ति, मिलिताश्चाष्टोत्तरं शतं, तथा स्थूलादत्तादानं स्थूलमैथुनं च प्रत्याख्याति द्विविधं त्रिविधेन, स्थूलादत्तादानं द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमैथुनं तु द्विविधं द्विविधेन, एवं पूर्वक्रमेण षड् भङ्गा ज्ञेयाः, एवं मैथुनपरिग्रहेष्वपि षड् भङ्गाः, सर्वेऽपि द्वादश, एते च स्थूलादत्तादानप्रथमभङ्गकममुञ्चता लब्धाः, एवं द्वितीयादिष्वपि द्वादश द्वादश भवन्ति, मिलिताश्च द्वासप्ततिः, तथा स्थूलमैथुनं स्थूलपरिग्रहं च प्रत्याख्याति द्विविधं त्रिविधेन स्थूलमैथुनं द्विविधं त्रिविधेन स्थूलपरिग्रहं तु द्विविधं द्विविधेन, एवं पूर्वक्रमेण षड् भङ्गाः, एते च स्थूलमैथुनप्रथमभङ्गकममुञ्चता लब्धाः, एवं द्वितीयादिष्वपि प्रत्येकं षट् षड्भवन्ति, मिलिताश्च षट्लात्रिंशत् , एते च मूलादारभ्य सर्वेऽपि चतुश्चत्वारिंशं शतं अष्टोत्तरं शतं द्वासप्ततिः षट्त्रिंशच मिलितास्त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि भवन्तीति, For Private & Personel Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- एवं त्रिकसंयोगादिष्वपि भङ्गामिलापः कार्यः, विस्तरभयाच नेह प्रदर्श्यते । तथा एकैकस्मिंत्रिकसंयोगे षोडशोत्तरं शतद्वयं प्रत्येकं ते २३६ - रोद्धारे भङ्गानां भवन्ति, तथाहि-मृषावादसंबन्धी प्रथमो भङ्गोऽवस्थितोऽदत्तादानसत्कान् पशङ्गान् लभते, एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठा श्रावकव्रत तत्त्वज्ञा-ता अपि पशङ्गान् लभन्ते, ततोऽत्रापि षट्त्रिंशद् भङ्गाः, ते च प्राणातिपातप्रथमभङ्गकेन लब्धाः, एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठैरपि भङ्गाः . नवि० प्राणातिपातसंबन्धिभिर्भङ्गैः षट्त्रिंशत् षट्त्रिंशल्लब्धाः, षट्त्रिंशतश्च षनिर्गुणने द्वे शते षोडशोत्तरे, अत्र च त्रिकसंयोगा दश भवन्ति, ॥३९७॥ ततो द्वे शते षोडशोत्तरे दशभिर्गुण्येते जातान्येकविंशतिः शतानि षट्यधिकानि, एतावन्तः पञ्चानां व्रतानां त्रिकसंयोगे भङ्गाः, तथा एकैकस्मिन् चतुष्कसंयोगे द्वादश शतानि षण्णवत्यधिकानि प्रत्येकं भङ्गानां भवन्ति, तथाहि-अदत्तादानसंबन्धी प्रथमो भङ्गोऽवस्थितो मैथुनव्रतसत्कान् षड्भङ्गान् लभते, एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठा अपि षड् भङ्गान् लभन्ते, जाताः षट्त्रिंशद् भङ्गाः, ते च मृषावादप्रथमभङ्गकेन लब्धाः, एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठैरपि मृषावादभङ्गैः षट्त्रिंशत् षट्त्रिंशल्लब्धाः, जाते द्वे शते षोडशोत्तरे, एते |च प्राणातिपातभङ्गकैः षड्भिरपि प्रत्येकं प्राप्यन्ते, जातानि १२९६, चतुष्कसंयोगाश्चात्र पञ्च, ततो द्वादश शतानि षण्णवत्यधिकानि पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जातानि चतुःषष्टिशतान्यशीत्यधिकानि, एतावन्तः पञ्चानां व्रतानां चतुष्कसंयोगे भङ्गाः, तथा पञ्चकसंयोगे मैथुनव्रतसंबन्धिनः प्रथमाद्याः षडपि भङ्गाः प्रत्येकं परिग्रहसत्कान् षट् षड्नङ्गान् लभन्ते, जातं ३६, सा च षट्त्रिंशत् अदत्तादानभङ्गैः पनिरपि प्रत्येकं प्राप्यते, जातं २१६, एते च द्वे शते षोडशोत्तरे मृषावादभङ्गैः पतिरपि प्रत्येक प्राप्यते, जातं १२९६, एतानि च द्वादश शतानि षण्णवत्यधिकानि प्राणातिपातव्रतसंबन्धिभिः षभिरपि भङ्गैः प्रत्येकं प्राप्यन्ते, जातानि ७७७६, एक एव चात्र पश्च ॥३९७॥ कसंयोगः, ततः सप्तसप्ततिशतानि षट्सप्तत्युत्तराणि एकेन गुण्यन्ते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवतीति गुण्यराशे—व्यभावात्सप्तसप्तति RECEAMCOMSEKAS NAGALANCE For Private Personal use only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ३० ३६० १० २१६० ६४८० २७७७६ मै प २३ २३ २२ २२ २१ २१ ६ ३६ २१६ १२९६ २७७७६ १ ат २३ २३ २३ २२ २२ २१ | २१ | २१ १३ | १३ | १३ १२ १२ 23 ११ ११ शतानि षट्सप्तत्यधिकानीत्यवस्थितैव सङ्ख्या जाता, एतावन्तः पञ्चानां व्रतानां पञ्चकसंयोगे भङ्गाः, व्रतयत्रकस्थापना चेयं तदेवं गुणकारकगुण्यागतराशित्रिकेण निष्पन्ना परिपूर्णा पश्चमी देवकुलिका, एतदनुसारेण सर्वासामपि देवकुलिकानां निष्पत्तिर्निपुणत्वेन स्वयमवसेया, 'उत्तरगुणअविरयमेलियाण जाणाहि सघग्गं' ति प्रतिपन्नोत्तरगुणाविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणभेदद्वयीमिलितानामनन्तरोक्तानां त्रिंशत्प्रभृतीनां भङ्गानां सर्वानं सर्व • जानीहि ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ एतदेवाह - 'सोलसे' त्यादि षोडश सहस्रा अष्टौ शतान्यष्टाधि - कानि भवन्ति, एषः - पूर्वोक्तो व्रतानां पञ्चसङ्ख्यानां पिंडार्थ:- सर्व समुदायसङ्ख्यास्वरूपः । दर्शनादयस्तु प्रतिमा-अभिग्रह विशेषाः, न पुनर्ब्रतानि, ताभ्यो ब्रतानां विभिन्नस्वरूपत्वादिति भावः, एते च श्रावकाणां भेदाः पञ्चैवाणुत्रतान्याश्रित्योक्ताः, द्वादशव्रतविवक्षया तु भूयस्तरा अपि भेदा भवन्ति ॥ ४९ ॥ तथा चाह तेरसकोडिसयाइं चुलसीइजुयाई बारस य लक्खा । सत्तासीई सहस्सा दो य सया तहं दुरुत्ता य ॥ ५० ॥ १३ १२ १२ १२ 'तेरसे' त्यादि, त्रयोदश कोटिशतानि चतुरशीतिकोटयो द्वादश लक्षाः सप्ताशीतिसहस्राणि द्वे शते द्व्युत्तरे १३८४१२८७२०२, | एतच षङ्गीप्रतिबद्धाया द्वादश्या देवकुलिकायाः समागतसर्वराशिसंपिण्डनेन उत्तरगुणाविरतरूपभेदद्वयप्रक्षेपेण च भवतीति । एते च सर्वेऽपि श्रावकाणामेव व्रतभङ्गा इह प्रतिपादिताः साधूनां पुनः सप्तविंशतिरेव भङ्गा भवन्ति, तथाहि यन्न करोति तन्मनसा वचसा कायेन, एवं न कारयत्यपि मनसा वाचा कायेन, एवं न समनुजानीते मनसा वचसा कायेनेत्येवं वर्तमाने काले नव Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० व्रतमा सर्वान २३७ | पापस्थानानि गा. १३५०-३ -पुल5 ॥३९८॥ भङ्गाः, एवमतीतेऽपि नव, भविष्यत्यपि नवेत्येवं सप्तविंशतिः, आह च भाष्यकृत्-“करणतिगेणेकेकं कालतिए तिघणसंखियमि- मासीणं । सबंति जओ गहियं सीयालसयं पुण गिहीणं ॥ १॥ [किरणत्रिकेणैकैकं (योगं) कालत्रिकेण त्रिघनसङ्ख्यमृषीणां ।। सर्वमिति यतो गृहीतं सप्तचत्वारिंशं शतं पुनर्गृहिणां ॥ १ ॥ ३४३४३२७] अत्र न करोमि न कारयामीत्यादिकमेकैकं योगं मन:प्रभृतिना करणत्रयेण सह कालत्रिके चारयेत् , ततश्च त्रयाणां यो धनः-सप्तविंशतिलक्षणस्तत्सययैव-भङ्गकसङ्ख्यामाश्रित्य तत्सङ्ख्याप्रमाणमृषीणां-साधूनामवबुध्येतेति शेषः । कस्मादित्याह-यतः सर्वसावद्ययोग प्रत्याख्यामीति साधुभिः प्रत्याख्यानं गृहीतं, ततस्तत्तत्याख्यानभङ्गकानामेतत्सङ्ख्याप्रमाणता, असर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यायिनां पुनर्गृहिणां प्रत्याख्यानस्य सप्तचत्वारिंशदुत्तरं भङ्गकशतं विज्ञेयमिति २३६ ॥ ५० ॥ अधुना 'अट्ठारस पावठाणगाइ'न्ति सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह सचं पाणइवायं १ अलिय २ मदतं ३ च मेहुणं सवं ४ । सवं परिग्गहं ५ तह राईभत्तं ६च वोसरिमो॥५१॥ सघं कोहं ७ माणं ८ मायं ९ लोहं १० च राग ११ दोसे १२ य । कलहं १३ अब्भक्खाणं १४ पेसुन्नं १५ परपरीवायं १६॥५२॥ मायामोसं १७ मिच्छादसणसल्लं १८ त. हेव वोसरिमो। अंतिमऊसासंमि देहपि जिणाइपञ्चक्खं ॥५३॥ सर्व-सप्रभेदं प्राणातिपातं १ तथा सर्वमलीकं-मृषावादं २ तथा सर्वमदत्तं-अदत्तादानं ३ तथा सर्व मैथुनं ४ तथा सर्व परिग्रह ४५ तथा सर्व रात्रिभक्तं च-रजनिभोजनं ६ व्युत्सृजामः-परिहरामः, तथा सर्व क्रोधं ७ मानं ८ मायां ९ लोभं च १० रागद्वेषौ च ११-१२ तथा कलह १३ अभ्याख्यानं १४ पैशून्यं १५ परपरिवादं १६ मायामृषा १७ मिथ्यात्वदर्शनशल्यं च १८ तथैव-सप्रभेदं %-50-52- ॥३९८॥ 3 For Private Personel Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |व्युत्सृजामः, एतान्यष्टादश पापहेतूनि स्थानकानि पापस्थानकानि, न केवलमेतान्येव, किंतु अन्तिमे उच्छासे, परलोकगमनसमये इत्यर्थः, देहमपि निजं शरीरमिति व्युत्सृजामः, तत्रापि ममत्वमोचनात् जिनादिप्रत्यक्षं-तीर्थकरसिद्धादीनां समक्षमिति, तत्र प्राणातिपात मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहरात्रिभक्तक्रोधमानमायालोभाः प्रतीताः, तथा राग:-अनमिव्यक्तमायालोभलक्षणस्वभावभेदममिध्वङ्गमात्र, P'दोसो'त्ति द्वेषणं द्वेषः दूषणं वा दोषः, स चानमिव्यक्तक्रोधमानलक्षणभेदस्वभावोऽप्रीतिमात्रं, कलहो-राटी अभ्याख्यान-प्रकटमसहो-| पारोपणं पैशून्य-पिशुनकर्म प्रच्छन्नं सदसदोषाविर्भावनं, तथा परेषां परिवादः परपरिवादो-विकत्थनमित्यर्थः, तथा माया च निकृतिः मृषा च-मृषावादः मायया वा सह मृषा मायामृषा प्राकृतत्वान्मायामोसं मायामुसं वा दोषद्वययोगं, इदं च मानमृषादिदोकापसंयोगोपलक्षणं, वेशान्तरकरणेन लोकप्रतारणमित्यन्ये, तथा मिथ्यादर्शनं-विपर्यस्ता दृष्टिः तदेव तोमरादिशल्यमिव शल्यं दुःखहे. तुत्वान्मिध्यादर्शनशल्यमिति, स्थानाङ्गे च रात्रिभोजनं पापस्थानमध्ये न पठितं किंतु परपरिवादाग्रतोऽरतिरतिः, तस्य चायमर्थः-अरतिश्च-तन्मोहनीयोदयजश्चित्तविकार उद्वेगलक्षणः रतिश्च-तथाविधानन्दरूपा अरतिरतिरित्येकमेव विवक्षितं, यतः कचन विषये या |रतिस्तामेव विषयान्तरापेक्षयाऽरति व्यपदिशन्ति, एवमरतिमेव रतिमित्यौपचारिकमेकत्वमनयोरस्तीति, तथा रागपदस्थाने पिज्जपदं च* |पठन्ति, तत्र च प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेम, अर्थस्तु रागपवाच्य एवेति, २३७ ॥५१॥ ५२ ॥ ५३ ॥ इदानीं 'मुणिगुण सत्तावीसं'त्यष्टत्रिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह__ छच्चय छकायरक्खा पंचिंदियलोहनिग्गहो खंती । भावविसुद्धी पडिलेहणाइकरणे विसुद्धी य For Private & Personel Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे २३८श्रमणगुणाः गा. १३५४-५ नवि० MOROGORO ** ॥३९९॥ | ॥५४॥ संजमजोए जुत्सय अकुसलमणवयणकायसंरोहो । सीयाइपीडसहणं मरणंउ(तु वसग्ग सहणं च ॥५५॥ षट् ब्रतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि रजनिभोजनपर्यवसानानि षण्णां कायानां-पृथिव्यादित्रसान्तानां रक्षा-संघपरितापार्दिषरिहारेण सम्यगनुपालन पञ्चानामिन्द्रियाणां-श्रोत्रादीनां निग्रहो-नियत्रणं, इष्टेतरेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरणमित्यर्थः,लोभस्य च निग्रहो -विरागता झान्ति:-क्रोधनिग्रहः भावविशुद्धिः-अकलुषान्तरात्मता प्रतिलेखनादिकरणे च विशुद्धिः, शुद्धेनाध्यवसायेन सम्यगुपयुक्ततया प्रत्युपेक्षणादि क्रियाकरणमित्यर्थः, तथा संयमोपष्टम्भको योऽसौ योगो-व्यापारस्तत्र युक्तता-तत्परता अकुशलाना-अप्रशस्तानां मनोवचःकायानां संरोधो-निषेधः, प्रशस्तानामेव तेषां करणमिति तात्पर्य, शीतवातातपादिजनितायाः पीडायाः-वेदनायाः सहनं-सम्यग्मर्षणं, 'मरणान्तोपसर्गसहनं च' मरणमन्ते येषां ते मरणान्ता-मरणहेतव इत्यर्थः ते च ते उपसर्गाश्च मरणान्तोपसर्गास्तेषां सहनं कल्याणमित्रबुद्ध्या सम्यक्तितिक्षणं, एते सप्तविंशतिर्मुनीना-अनगाराणां गुणाः-चारित्रविशेषा भवन्ति । अन्यत्र पुनरित्थमनगारगुणा उक्ताः-महाव्रतानि पञ्च ५ इन्द्रियनिग्रहाश्च पञ्च १० क्रोधादि विवेकाश्चत्वारः १४ सत्यानि त्रीणि, तत्र-भावसत्यं-शुद्धान्तरात्मता करणसत्यंयथोक्तप्रतिलेखनादि क्रियाकरणं योगसत्यं-मनःप्रभृतीनामवितथत्वं १७ क्षमा-अनमिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपस्य द्वेषसंज्ञितस्याप्रीतिमात्रस्याभावः, अथवा क्रोधमानयोरुदयनिरोधः, क्रोधमानशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयोनिरोधः प्रागमिहित इति न पौनरुक्त्यं १८ विरागताअभिष्वङ्गमात्रस्याभावः, यद्वा मायालोभयोरनुदयो, मायालोमविवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्त्योस्तयोनिरोधः प्रागमिहित इतीहापि न पुनरु SARAARAKACAR र For Private & Personel Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्तता १९ मनःप्रभृतिनिरोधाः २२ ज्ञानादिसंपन्नतास्तिस्रः २५ वेदनाघिसहनता २६ मरणान्तोपसर्गसहनं च २७ ॥ २३८ ॥ ५४ ॥ ॥ ५५ ॥ इदानीं 'इगवीसा सावयगुणाणं त्येकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह धम्मरयणस्स जोगो अक्खुदो १ रूववं २ पगइसोमो ३ । लोयपिओ ४ अकूरो ५ भीरू ६ असठो दखिन्न ८ ॥ ५६ ॥ लज्जालुओ ९ दयालू १० मज्झत्थो ११ सोमदिट्ठि १२ गुणरागी १३ । सक्कहसु पक्खजुत्तो १४ सुदीहदसी १५ विसेसन्नू १६ ॥ ५७ ॥ बुट्टाणुको १७ विणीओ १८ कय ओ १९ परहित्थकारी य २० । तह चैव लद्धलक्खो २१ इगवीसगुणो हवइ सहो ॥ ५८ ॥ परतीर्थिकप्रणीतानां सर्वेषामपि धर्माणां मध्ये प्रधानत्वेन यो रत्नमिव वर्तते स धर्मरत्नं- जिनोदितो देशषिरत्यादिरूपः समाचारः तस्य योग्य: - उचित ईदृक्स्वरूप एव श्रावको भवति, तद्यथा--अक्षुद्र इत्यादि, तत्र यद्यपि क्षुद्रः - तुच्छः क्षुद्रः क्रूरः क्षुद्रो दरिद्रः क्षुद्रो-लघुरित्यनेकार्थः क्षुद्रशब्दः तथाऽपीह तुच्छार्थो गृह्यते तस्यैव प्रस्तुतोपयोगित्वात्, ततः क्षुद्रः- तुच्छोऽगम्भीर इत्यर्थः तद्विपरीतोऽक्षुद्रः स च सूक्ष्ममतित्वात् सुखेनैव धर्ममवबुध्यते १ रूपवान् - संपूर्णाङ्गोपाङ्गतया मनोहराकारः, स च तथारूपसंपन्नः सदाचारप्रवृत्त्या भविकलोकानां धर्मे गौरवमुत्पादयन् प्रभावको भवति, ननु नन्दिषेणहरिकेशबलप्रभृतीनां कुरूपाणामपि धर्मप्रतिपत्तिः श्रूयते, अतः कथं रूपवानेव धर्मेऽधिक्रियते ?, सत्यं, इह द्विविधं रूपं - सामान्यमतिशायि च तत्र सामान्यं संपूर्णाङ्गत्वादि, तच्च नन्दिषेणादीनामप्यासीदेवेति न विरोधः, प्रायिकं चैतच्छेषगुणसद्भावे कुरूपत्वस्याप्यदुच्चत्वात्, एवमग्रेऽपि, अतिशायि पुनर्थद्यपि | तीर्थकरादीनामेव संभवति तथापि येन क्वचिदेशे काले वयसि वा वर्तमानो रूपवानमिति जनानां प्रतीतिमुपजनयति तदेवेहाधिकृतं Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४०० ॥ मन्तव्यं २ प्रकृत्या - स्वभावेन सौम्यः - अभीषणाकृतिर्विश्वसनीयरूप इत्यर्थः एवंविधश्च प्रायेण न पापव्यापारे व्याप्रियते सुखाश्रयणीयश्च भवति ३ लोकस्य - सर्वजनस्य इहपरलोकविरुद्धवर्जनेन दानशीलादिगुणैश्च प्रियो - वल्लभो लोकप्रियः, सोऽपि सर्वेषां धर्मे बहुमानं जनयति ४, अक्रूर:- अक्लिष्टाध्यवसायः क्रूरो हि परच्छिद्रान्वेषणलम्पटः कलुषमनाः स्वानुष्ठानं कुर्वन्नपि न फलभाग्भवतीति ५ | भीरुः - ऐहिकामुष्मिकापायेभ्यस्त्रसनशीलः, स हि कारणेऽपि सति न निःशङ्कमधर्मे प्रवर्तते ६ अशठ: -अच्छद्मानुष्ठाननिष्ठः, शठो हि वञ्चनप्रपञ्चचतुरतया सर्वस्याप्य विश्वसनीयो भवति ७ सदाक्षिण्यः - स्वकार्यपरिहारेण परकार्यकरणैकरसिकान्तःकरणः, स च कस्य नाम नानुवर्तनीयो भवति ? ८ 'लज्जालु य'त्ति प्राकृतशैल्या लज्जावान् स खल्वकृत्यासेवनवार्तयाऽपि व्रीडते, स्वयमङ्गीकृतमनुष्ठानं च परित्यक्तुं न शक्नोति ९ दयालुः - दयावान्, दुःखितजन्तुजातन्त्राणाभिलाषुक इत्यर्थः, 'धर्मस्य हि दया मूलमिति प्रतीतमेव १० मध्यस्थो - रागद्वेषत्यक्तधीः, स हि सर्वत्रारक्तद्विष्टतया विश्वस्यापि वल्लभो भवति ११ सौम्यदृष्टिः - कस्याप्यनुद्वेजकः, स हि दर्शनमा - त्रेणापि प्राणिनां प्रीतिं पल्लवयति १२ गुणेषु - गाम्भीर्यस्थैर्य प्रमुखेषु रज्यतीत्येवंशीलो गुणरागी, स हि गुणपक्षपातित्वादेव सद्गुणान् बहु मन्यते निर्गुणांश्चोपेक्षते १३ सत्कथाः - सदाचारचारित्वात्सुचरित्रचर्या कथनरुचयो न तु दुश्चारित्रचर्याकथनरुचयो ये सपक्षाः| सहाया जनास्तैर्युक्तः - अन्वितो, धर्माविबन्धकपरिवार इति भावः एवंविधश्च न केनचिदुन्मार्ग नेतुं शक्यते १४ अन्ये तु सत्कथः सुपक्षयुक्तश्चेति पृथग्गुणद्वयं मन्यन्ते, मध्यस्थः सोमदृष्टिश्चेति द्वाभ्यामप्येकमेवेति, तथा सुदीर्घदर्शी - सुपर्यालोचितपरिणामपेशलकार्य| कारी, स किल पारिणामिक्या बुद्ध्या सुन्दरपरिणाम मैहिकमपि कार्यमारभते १५ विशेषज्ञः - सारेतरवस्तुविभागवेदी, अविशेषज्ञस्तु दोषानपि गुणत्वेन गुणानपि दोषत्वेनाध्यवस्यति १६ वृद्धान् - परिणतमतीननुगच्छति - गुणार्जनबुद्ध्या सेवत इति वृद्धानुगः, वृद्धजना २३९ श्रा वकगुणाः गा. १३५६-८ ॥ ४०० ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5555 नुगत्या हि प्रवर्तमानः पुमान् न जातुचिदपि विपदः पदं भवति १७ विनीतो-गुरुजनगौरवकृत, विनयवति हि सपदि संपदः प्रादु-15 भवन्ति १८ स्वल्पमप्युपकारमैहिकं पारत्रिकं वा परेण कृतं जानाति न निहते इति कृतज्ञः, कृतघ्नो हि सर्वत्राप्यमन्दा निन्दा समा-1 |सादयति १९ परेषां-अन्येषां हितान-पथ्यानर्थान्-प्रयोजनानि कर्तुं शीलं यस्य स परहितार्थकारी, सदाक्षिण्योऽभ्यर्थित एव करोति अयं पुनः स्वत एव परहिताय प्रवर्तते इत्यनयोर्भेदः, यश्च प्रकृत्यैव परहितकरणे नितरां निरतो भवति स निरीहचित्ततयाऽन्यानपि सद्धर्मे स्थापयति २० तथा लब्धमिव लब्धं लक्षं-शिक्षणीयानुष्ठानं येन स लब्धलक्षः, पूर्वभवाभ्यस्तमिव सर्वमपि धर्मकृत्यं झटित्येवाधिगच्छतीति भावः, ईदृशो हि वन्दनप्रत्युपेक्षणादिकं धर्मकर्म सुखेनैव शिक्षयितुं शक्यते २१, तदेवमेकविंशतिगुणसंपन्नः श्राद्धः -श्रावको भवतीति २३९ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ इदानीं 'तेरिच्छीणुक्किट्ठ गन्भट्ठिइ'त्ति चत्वारिंशदधिकशततमं द्वारमाह उक्किट्ठा गब्भठिई तिरियाणं होइ अट्ठ वरिसाई। माणुस्सीणुकिट्ठ इत्तो गम्भट्टि वुच्छं ॥५९॥ .. उत्कृष्टा गर्भस्थिति:-गर्भावस्थानं तिरश्चीनां-तिर्यग्योषितां भवत्यष्टौ वर्षाणि, ततः परं गर्भस्य विपत्तिः प्रसवो वेति २४०॥ इदानीं 'माणुसीणुक्किट्ठा गभठिइ'त्ति तथा 'तग्गब्भस्स कायडिईत्त्येकचत्वारिंशदधिकद्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमे द्वारे आह गब्भट्ठिइ मणुस्सीणुक्किट्ठा होइ वरिसबारसगं । गभस्स य कायठिई नराण चउवीस वरि साई॥६॥ मानुषीणां-मनुष्यत्रीणामुत्कृष्टा गर्भस्थितिर्भवति वर्षद्वादशकं-द्वादशवर्षप्रमाणा, अयमर्थ:-कश्चिजन्तुराविभूतप्रभूतपापामिभूतवपुर्वा४ तपित्तादिदूषिते देवादिस्तम्भिते वा गर्भे द्वादश वर्षाणि निरन्तरं तिष्ठतीति, इयं च भवस्थितिरुक्का, कायस्थितिः पुनर्नराणां गर्भस्य For Private & Personel Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रव० सालाचतुविशातवाणि, ३५० चतुर्विशतिर्वर्षाणि, इदमुक्तं भवति-कश्चिजीवो द्वादश वर्षाणि जीवित्वा तदन्ते च मृत्वा तथाविधकर्मवशात्तत्रैव गर्भसिते कलेवरे8/ २४०-१रोद्धारे समुत्पद्य पुनर्वादश वर्षाणि जीवतीत्येवं चतुर्विशतिर्वर्षाण्युत्कृष्टतो गर्भ जन्तुस्तिष्ठतीति २४१, २४२ ॥६०॥ इदानीं 'गभडिय- २-३-४ तत्त्वज्ञा- जीवआहारो'त्ति त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह तिर्यग्नरग- नवि० पढमे समये जीवा उप्पन्ना गम्भवासमझमि । ओयं आहारती सबप्पणयाइ पूयब ॥ १॥ र्भकाय भोयाहारा जीवा सो अपजत्तया मुणेयधा । पजत्ता उण लोमे पक्खेचे हुंति भइयवा ॥१२॥ स्थित्याहा॥४०१॥ प्रथमे समये जीवा उत्पन्ना गर्भवासमध्ये ओज आहारयन्ति-ओजआहारं कुर्वन्ति, 'सबप्पयणयाए'सि सर्वात्मना, सर्वैरप्यात्मप्र- रागर्भका| देशैरित्यर्थः, किंवदित्याह-अपूपा इव, यथा हि तैलभृततप्ततापिकायां प्रथमसमय एवापूपाः सकलमपि तैलमापिबन्ति, एवं जीवा अपि | लः गा. गर्भोत्पत्तिप्रथमसमये ओज आहारयन्ति, पितुः संबन्धि शुक्रं मातुः संवन्धि शोणितमेतद्वयमप्येकत्र मिलितं ओज इत्युच्यते, अथ १३५९-६३ कस्यामवस्थायां जीवस्याहारः क इत्येतत्प्रसङ्गतः प्राह-'ओये'त्यादि, इयं च प्रागेव पञ्चोत्तरद्विशततमद्वारे व्याख्याता २४३ ॥ ११ ॥ ॥ ६२ ॥ इदानीं 'रिउरुहिरसुक्कजोए जेत्तियकालेण गम्भसंभूइत्ति चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह रिउसमयण्हायनारी नरोवभोगेण गन्भसंभूई।बारसमुहुत्त मज्झे जायइ उवरिं पुणो नेय ॥६॥ मासावसाने त्रीणि दिनानि यावद्युवतीनां यदजसमस्र श्रवति तदृतुरित्युच्यते, तत्र ऋतुसमये स्नातायाख्यहादूर्द्ध शुद्धिहेतोः कस-| सानायाः नार्याः स्त्रियो नरोपभोगेन-पुरुषसंभोगेन गर्भसंभूतिर्भवति, सा च द्वादशानामेव मुहूर्तानां मध्ये जायते, चतुर्विशतिघटि- ॥४०१॥ कानां मध्ये इत्यर्थः, ऊर्द्ध पुन व गर्भसंभूतिः, द्वादश मुहूर्तानि यावच्छुकशोणिते अविध्वस्सयोनिके भवतः, तत ऊर्द्ध ध्वंसमुपगच्छत SSSSC Jan Education International For Private Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति भावः २४४ ॥ ६३ ॥ इदानीं 'जत्तिय पुत्ता गन्भे'ति तथा 'जत्तिय पियरो य पुत्तस्स'ति पञ्चचत्वारिंशदधिकषट्चत्वा रिंशदधिके च द्विशततमे द्वारे प्राह सुलक्खपुत्तं होइ एगनरभुत्तनारिगन्भंमि । उक्कोसेणं नवसयनरभुत्तत्थीइ एगसुओ ॥ ६४ ॥ सुतलक्षपृथक्त्वं भवत्येक पुरुषमुक्ताया नार्या गर्भे, पृथक्त्वं चेह द्विप्रभृतिरानवभ्य इति समयोक्तं ज्ञेयं, अयमर्थः - एकस्याः स्त्रियः पुरुषेणोपभुक्ताया गर्भे जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा यावत् उत्कृष्टतस्तु नव लक्षाणि जीवानामुत्पद्यन्ते, निष्पत्तिं तु प्राय एको वा द्वौ वा गच्छतः शेषास्तु स्वल्पकालं जीवित्वा तत एव म्रियन्ते इति, तथोत्कृष्टतो नवशतसङ्ख्यैर्नरैरुपभुक्तायाः स्त्रियो गर्भे एकः सुतो भवति, कोऽर्थः १ - काचिद् दृढसंहनना कामातुरा च तरुणी यदा द्वादशमुहूर्तमध्ये उत्कर्षतो नवभिर्नरशतैः संभुज्यते तदा तद्वीजे यः पुत्रो जायते स नवानां पितृशतानां पुत्रो भवतीति २४५ - २४६ ॥ ६४ ॥ इदानीं 'महिलाण गब्भअभवणकालो पुरिस अबीयकालो 'त्ति सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह— पणपन्नाऍ परेण जोणी पमिलायए महिलियाणं । पणहतरीऍ परओ होइ अबीयओ नरो पायं ॥ ६५ ॥ वाससघाउयमेयं परेण जा होइ पुचकोडीओ । तस्सद्धे अमिलाया सवाउयवीसभाये य ॥ ६६ ॥ बीयं सुकं तह सोणियं च ठाणं तु जणणिगर्भमि । ओयं तु उवद्वंभस्स कारणं तस्सरूवं तु ॥ ६७ ॥ अट्ठारसपिट्ठकरंडयस्स संघीउ हुति देहमि । बारस पंसुलियकरंडया इहं तह च्छ पंसुलिए । ६८ ।। होइ कडाहे ससंगुलाई जीहा पलाइ पुण चउरो। अच्छी दो पलाई सिरं Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे २४५-६ पितृपुत्रसंख्यावी|जकालच तत्त्वज्ञा नवि० ॥४०२॥ १३६४-८३ तु भणियं चउकवालं ॥ ६९ ॥ अछुट्टपलं हिययं बत्तीसं दसण अच्छिखंडाइं । कालेजयं तु समए पणवीस पलाइ निद्दिढ ॥ ७० ॥ अंताई दोन्नि इहयं पत्तेयं पंच पंच वामाओ । सहिसयं संधीणं मम्माण सयं तु सत्तहियं ॥ ७१ ॥ सढिसयं तु सिराणं नाभिप्पभवाण सिरमुवगयाणं । रसहरणिनामधेज्जाण जाणऽणुग्गहविघाएसु ॥७२॥ सुइचक्खुघाणजीहाणणुग्गहो होइ तह विघाओ य । सहसयं अन्नाणवि सिराणऽहोगामिणीण तहा ॥७३ ॥ पायतलमुवगयाणं जंघाबलकारिणीणऽणुवघाए । उवघाए सिरवियणं कुणंति अंधत्तणं च तहा ॥ ७४ ॥ अवराण गुदपविट्ठाण होइ सह सयं तह सिराणं । जाण बलेण पवत्तइ वाऊ मुत्तं पुरीसं च ॥७५॥ अरिसा उ पांडुरोगो वेगनिरोहो य ताण य विघाए । तिरियगमाण सिराणं सहसयं होइ अवराणं ।। ७६॥ बाहुबलकारिणीओ उवघाए कुच्छिउयरवियणाओ। कुवंति तहऽन्नाओ पणवीसं सिंभधरणीओ ॥ ७७॥ तह पित्तधारिणीओ पणवीसं दस य सुक्कधरणीओ । इय सत्त सिरसयाई नाभिप्पभवाइं पुरिसस्स ॥७८॥ तीसूणाई इत्थीण वीसहीणाई हुंति संढस्स । नव पहारूण सयाई नव धमणीओ य देहमि ॥७९॥ तह चेव सचदेहे नवनउई लक्ख रोमकूवाणं । अछुट्टा कोडीओ समं पुणो केसमंसूहिं॥८०॥ मुत्तस्स सोणियस्स य पत्तेयं आढयं वसाए उ। अद्धाढयं भणंति य पत्थं मत्थुलुयवत्थुस्स ॥ ८१॥ असुइमल पत्थछक्कं कुलओ कुलओ य पित्तसिंभाणं । ॥४०॥ For Private & Personel Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुफस्स अद्धकुलओ बुद्धं हीणाहियं होजा ॥ ८२ ॥ एक्कारस इस्थीप नय सोयाइं तु हुंति पुरिसस्स । इप किं सुइत्तणं अट्टिमंसमलरूहिरसंघाए १ ॥ ८३ ॥ वर्षाणां पञ्चपञ्चाशतः परत आर्तवाभावान्महिलानां योवि: प्रम्लायति - गर्भोत्पत्तिकारणतां न प्रतिपद्यते, भावार्थस्तु निशीथचूर्ण्यक्षरैरुपदश्यते— “इत्थीए जाव पणपन वासा न पूरंति ताव अमिलिया (लाणा) जोणी, आर्तवं भवति गर्भ च गृह्णातीत्यर्थः, पणपन्नवासाए पुण कस्सइ अन्तवं भवति न पुण गब्भं गिण्हइ, पणपन्नाए परओ नो अत्तवं नो गब्भं गिन्हइ"न्ति, तथा वर्षाणां पश्चसप्ततेः परतः प्रायेण नरः- पुमान् भवत्यबीजो - गर्भाधानयोग्य वीर्यचिवर्जितः ॥ ६५ ॥ कियत्प्रमाणायुषां पुनरेतन्मानं द्रष्टव्यमित्याह - 'वासे' त्यादि, वर्षशतायुषामैदंयुगीनानामेवैतद्-गर्भधारणादिकालमानमुक्तं द्रष्टव्यं परेण तर्हि का वार्ता ? इत्याह- 'परेण जा होइ पुबकोडीओ' इत्यादि, वर्षशतात्परतो वर्षशतद्वयं त्रयं चतुष्टयं चेत्यादि यावन्महाविदेहादिमनुष्याणां या पूर्वकोटिः सर्वायुष्के भवति तस्य सर्वायुषोऽर्ध तदर्ध यावदम्लाना - गर्भधारणक्षमा युवतीनां योनिर्द्रष्टव्या, ततः परतः सकृत्प्रसवधर्मिणोऽम्लानयोनयश्चावस्थितयौवनत्वात्, पुरुषाणां तु सर्वस्यापि | पूर्वकोटिपर्यन्तस्य स्वायुषोऽन्त्यो विंशतितमो भागोऽबीजो भवति २४७ ॥ ६६ ॥ इदानीं 'सुक्काईण पमाणं' त्यष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमं द्वारमाह-'बीय' मित्यादि, बीजं-कारणं तच शरीरस्य शुक्रं तथा शोणितं च पितुः शुकं मातुः शोणितं एतद् द्वयमपि शरीरस्य कारणमित्यर्थः, स्थानं तु तस्यादौ जननीगर्भे-मातुरुदरमध्यभागे, शुक्रशोणितसमुदाय ओज इत्युच्यते, शरीरोपष्टम्भस्यापि प्रथमतस्तदेव हेतुः कारणमित्यर्थः, तस्य शरीरस्य स्वरूपं तु 'अट्ठारसपिट्ठकरंडयस्स' इत्यायनन्तरवक्ष्यमाणलक्षणमिति शेषः ॥ ६७ ॥ | तदेवाह --- 'अट्टे' व्यादिगाथाद्वयं देहे - मनुष्यशरीरे पृष्ठकरण्डकस्य - पृष्ठवंशस्याष्टादश प्रन्थिरूपाः संघयो भवन्ति, यथा वंशस्य पर्वाणि, Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. प्रव० सा- तेषु चाष्टादशसु सन्धिषु मध्ये द्वादशभ्यः सन्धिभ्यो द्वादश पंशुलिका निर्गत्योभयपावावृत्त्य वक्षःस्थलमध्योर्द्धवर्त्यस्थि लगित्वा पल्ल- २४५-६ रोद्धारे काकारतया परिणमन्ति, अत आह-इह शरीरे द्वादश पंशुलिकारूपाः करण्डका-वंशका भवन्ति, 'तह छपुंसुलिए होइ कडाहे'त्ति | पितृपुत्रतत्त्वज्ञा-दतथा तस्मिन्नेव पृष्ठवंशे शेषषट्संधिभ्यः षट् पाशुलिका निर्गत्य पार्श्वद्वयं चावृत्त्य हृदयस्योभयतो वक्षःपजरादधस्ताद् शिथिलकुक्षितस्तू- संख्याबीनवि० परिष्टात्परस्परासंमिलितास्तिष्ठन्ति, अयं च कटाह इत्युच्यते, जिला-मुखाभ्यन्तर्वर्तिमांसखण्डरूपा दैयेणात्माकुलतः सप्ताङ्गुलप्रमाणा जकालश्च भवति, तौल्ये तु मगधदेशप्रसिद्धेन पलेन चत्वारि पलानि भवन्ति, अक्षिमांसगोलको तु द्वे पले, शिरस्तु अस्थिखण्डरूपैश्चतुर्भिः कपा॥४०३॥ | लैर्निष्पद्यते इति ।। ६८ ॥ ६९ ॥ तथा 'अडडे'त्यादि, हृदयान्तर्वर्तिमांसखण्डं सार्धपलत्रयं भवति, द्वात्रिंशच मुखे दन्ता-अस्थिख १३६४-८३ Pण्डरूपाः प्रायः प्राप्यन्ते, कालेयजं तु-वक्षोऽन्तYढमांसविशेषरूपं पञ्चविंशतिपलान्यागमे निर्दिष्टं ॥ ७० ॥ तथा-'अंताई' इत्यादि, इह शरीरे द्वे अत्रे भवतः, प्रत्येकं पञ्चपञ्चवामप्रमाणे, तथा संधयः-अङ्गल्याद्यस्थिखण्डमेलापकस्थानानि तेषां षष्ट्याधिक शतं भवन्ति, दामाणि-सङ्घाणिकाविरकादीनि, तेषां तु सप्ताधिकं शतं भवति ॥ ७१ ॥ अथ पुरुषशरीरे शिरासङ्ख्यामाह-'सविसय'मित्यादिगाथा सप्तकं, इह पुरुषस्य शरीरे नामिप्रभवाणि शिराणां-खसानां सप्त शतानि भवन्ति, तत्र षष्ट्यधिकं शतं शिराणां नाभेः शिरसि ४ गच्छति, ताश्च रसहरणीनामधेयाः, रसो हियते-विकीर्यते यकाभिरितिकृत्वा, यासां चानुप्रहविघातयोः सतोर्यथासङ्ख्यं श्रोत्रचक्षुर्घाण-| जिह्वानामनुग्रहो विघातश्च भवति, तथा अन्यासामप्यधोगामिनीनां पादतलमुपगतानामनुपघाते जवाबलकारिणीनां नसानां षष्ट्यधिकं | |शतं भवति, उपघाते तु ता एव शिरोवेदनाऽन्धत्वादीनि कुर्वन्ति, तथाऽपरासां गुदप्रविष्टानां शिराणां षष्ट्यधिकं शतं भवति, यासां | ॥४०३॥ || बलेन वायुमूत्रं पुरीषं च प्राणिनां प्रवर्तते, एतासां च विघातेऽर्शासि पाण्डुरोगो वेगनिरोधश्च भवति, तथा अपरासां तिर्यग्गामिनीनां 81 -RREARSAGARANAS Jan Education Intemanong For Private Personel Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SR CANCCCCCASC-1945 शिराणां षष्ट्यधिकं शतं भवति, ताः पुनर्बाहुबलकारिण्यः, उपघाते च सति कुक्षिउदरवेदनाः कुर्वन्ति, तथाऽन्याः पञ्चविंशतिः शिराः श्लेष्मधारिण्यो भवन्ति, तथा पित्तधारिण्योऽपि पञ्चविंशतिः शिराः, दश च शिराः शुक्राख्यसप्तमधातुधारिण्यः, इत्येवं नामिप्रभवाणि 8. सप्तशिराशतानि पुरुषस्य शरीरे भवन्ति ।। ७२ ॥ ७३ ॥ ७४ ॥ ७५ ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ ७८ ॥ अथ स्त्रीनपुंसकयोः कियन्त्य एता भवन्तीत्याशयाह-तीसूणाई' इत्यादिगाथाचतुष्कं, त्रिंशता न्यूनानि स्त्रीणां सप्त शिराशतानि भवन्ति, विंशत्या च हीनानि सप्त शतानि | शिराणां भवन्ति षण्ढस्य-नपुंसकस्य, तथा स्नायूनाम्-अस्थिबन्धनशिराणां शतानि नव च धमन्यो रसवहा-नाड्यो देहे ॥ ७९ ॥ तथा सर्वस्मिन्नपि देहे नवनवतिर्लक्षा रोमकूपाणां भवन्ति, रोम्णां-तनूरुहाणां कूपा इव कूपा रोमकूपा-रोमरन्ध्राणीत्यर्थः, एतच्च संख्यानं श्मश्रुकेशैविनाऽवसेयं, तैस्तु सह सार्धास्तिस्रः कोट्यो रोमकूपानां जायन्ते, तन श्मश्रूणि-कूर्चकचाः, केशास्तु-शिरोरुहा इति ॥८॥ शरीरे सर्वदैव मूत्रस्य शोणितस्य च प्रत्येकमवस्थितमाढकं मगधदेशप्रसिद्धमानविशेषरूपं भणन्ति, उक्तं च-"दो असईओ पसई, दो पसइओ सेइया, चत्तारि सेइयाउ कुलओ, चत्तारि कुडवा पत्थो, चत्तारि पत्था आढयं, चत्तारि आढया दोणो” इत्यादि, धान्यभृतोऽवाङ्मुखीकृतो हस्तोऽसतीत्युच्यते, वसायास्त्वर्धाढकं भणन्ति, मस्तकभेजको मस्तुलुङ्कवस्तु, अन्ये त्वाहुः-मेदपिप्पिसादि मस्तु-| लुङ्गं, तस्यापि प्रस्थं यथोक्तरूपं वदन्ति ॥ ८१ ॥ अशुचिरूपो योऽसौ मलस्तस्य प्रस्थषट्कं भवति, पित्तश्लेष्मणोः प्रत्येकं यथानिर्दिष्टस्वरूपः कुलवो भवति, शुक्रस्त्वर्धकुलवः, एतच्चाढकप्रस्थादिकं मानं बालकुमारतरुणादीनां 'दो असइओ पसईत्यादिक्रमेणात्मीयात्मीयहस्तेनानेतव्यं, उक्तमानाञ्च शुक्रशोणितादेयंत्र हीनाधिक्यं भवति तत्र वातादिदूषितत्वेनेति ज्ञेयं ।। ८१॥ अथ श्रोत्राणि शरीरे यावन्ति भवन्ति तावत्युपदश्र्योपसंहरति-'एक्कारसे'त्यादि, द्वौ कौँ द्वे चक्षुषी द्वे घ्राणे मुखं स्तनौ पायुरुपस्थश्चेत्येवमेकादश श्रोत्राणि CISERSACCU For Private & Personel Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४०४ ॥ त्रियो भवन्ति, स्तनवजणि शेषाणि नत्र पुरुषस्य, एतच मनुजगतिमाश्रित्य प्रोक्तं, तिर्यग्गतौ तु अजादीनां द्विस्तनीनामेकादश श्रोत्राणि, | गवादीनां चतुःस्तनीनां त्रयोदश, सूकर्यादीनामष्टस्तनीनां सप्तदश, निर्व्याघाते एवं व्याघाते पुनरेकस्तन्या अजाया दश, त्रिस्तन्याश्च गोर्द्वादशेति, इत्येवमस्थ्यादिसंघातरूपे शरीरे किं नाम स्वरूपतः शुचित्वं ? न किञ्चिदित्यर्थः ॥ २४८ ॥ ८३ ॥ इदानीं 'सम्म साईणुत्तमगुणाण लाहंतरं तु उक्कोसं' इत्येकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह- सम्मत्तंमि य ल पलियपुहुत्तेण सावओ होइ । चरणोवसमखयाणं सायरसंखंतरा हुंति ॥ ८४ ॥ यावत्यां कर्मस्थितौ सम्यक्त्वं लब्धं तन्मध्यात्पल्योपमपृथक्त्वलक्षणे स्थितिखण्डे क्षपिते श्रावको देशविरतो भवेत्, ततञ्चरणोपशमक्षयाणामन्तरा संख्यातानि सागरोपमाणि भवन्ति, इयमत्र भावना देशविरतिप्राप्त्यनन्तरं संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षपितेषु चारित्रमवाप्नोति, ततोऽपि संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षपितेषूपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते, ततोऽपि संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षपितेषु क्षपकश्रेणिर्भवति, ततस्तद्भवे मोक्ष इति एवमप्रतिपतितसम्यक्त्वस्य देवमनुष्यजन्मसु संसरणं कुर्वतोऽन्योऽन्यमनुष्यभवे देशविरयादिलाभो भवति, यदिवा तीव्र शुभ परिणामवशात्क्षपित बहुकर्मस्थितेरेकस्मिन्नपि भवेऽन्यतरश्रेणिवर्ज्यान्येतानि सर्वाण्यपि भवन्ति, श्रेणिद्वयं त्वेकस्मिन् भवे सैद्धान्तिकाभिप्रायेण न भवत्येव, किंत्वेकैवोपशमश्रेणिः क्षपकश्रेणिर्वा भवतीति, उक्तं च "एवं अप्परिवड़िए सम्मचे देवमणुयजम्मेसु । अन्नयरसेढिवज्जं एगभवेणं च सब्वाई ॥ १ ॥” [ एवमप्रतिपत्तिते सम्यक्त्वे देवमनुजजन्मसु अन्यतरश्रेणिवर्जानि एकभवेनैव सर्वाणि ॥ १ ॥ ] ॥ २४९ ॥ ८४ ॥ इदानीं 'न लहंति माणुसत्तं सत्ता जेऽणंतरुवट्ट'ति पञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह--- सत्तममहिनेरइया तेऊ वाऊ अनंतरुबट्टा । न लहंति माणुसरां तहा असंखाच्या सवे ॥ ८५ ॥ २४९ स म्यक्त्वदे शिविरत्यादिलाभा न्तरं २५० नरत्वेऽना गमकाः गा. १३८४-५ ॥ ४०४ ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमपृथिवीनैरयिकास्तैजसकायिका वायुकायिकास्तथा असङ्ख्यातवर्षायुषः सर्वे तिर्यमनुष्याश्चानन्तरमुद्धृता मानुष्यं न लभन्ते, है मृत्वाऽनन्तरभवे मनुजेषु नोत्पद्यन्ते इत्यर्थः, शेषास्तु सुरनरतिर्यनारका नरेषूत्पद्यन्ते ॥ २५० ॥ ८५ ॥ इदानीं 'पुवंगपरिमाण'ति एकपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह वरिसाणं लक्खेहिं चुलसीसंखेहिं होइ पुवंगं । एयं चिय एयगुणं जायइ पुर्व तयं तु इमं ॥८६॥ वर्षाणां लश्चतुरशीतिसर्भबति पूर्वानं-पूर्वाख्यस्य सक्क्याविशेषस्य कारणं, अनेनैवैतद्गुणेन तस्य जायमानत्वात् , तथा चाह'एयं चिय' इत्यावि, एतदेव-पूर्वाङ्गं चतुरशीतिवर्षलक्षलक्षणं एतद्गुणं-चतुरशीतिलक्षैर्गुणितं सजायते पूर्व, तत्पुनरिद-अनन्तरद्वारे वक्ष्यमाणखरूपमिति ॥ २५१॥८६॥ साम्प्रतं 'माणं पुवस्स'त्ति द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह पुषस्स उ परिमाणंसयरिंखलुवासकोडिलक्खाओ। छप्पमं च सहस्सा बोद्धपावासकोडीणं ॥१॥ ८७॥ पूर्वाभिधान सङ्ख्याविशेषस्य परिमाणं वर्षकोतीनां/ सप्ततिः कोटिर्लक्षाः षट्पञ्चाशत् सहस्राणि, ७०५६०००००००००० । द॥ २५२ ॥ ८७ ॥ इदानीं 'लवणसिहमाण'ति निपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाहदसजोषणाण सहसा लवणसिहा चकवालो रंदा। सोलससहस्स उच्चा सहस्समेगं तु ओगाढा ॥२॥८८॥ लवणसमुद्र शेजनलक्षद्वयविष्कम्भे मध्यमेषु दशसु योजनसहनेषु नगरप्राकार इव जलमूर्ध्व गतं, तस्योत्सेधवृद्धिः शिखेव शिखा, ततो लवणस्य शिया बणशिखा, सा दशयोजनानां सहस्राणि चक्रबालतो कन्द्रा-रथचक्रवद्विस्तीर्णा, भूतलसमजलपट्टादूर्ध्व षोडशयोजनसबनाफ्युचा एकं तु सहस्रमधोऽजगाढा, इयमन भावना-लवणसमुद्रे जम्बूद्वीपाद्धातकीखण्डद्वीपाच प्रत्येकं पञ्चनवतिपञ्चनवतियोजनसह AGA%ACACAC%+ Jan Education International Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४०५ ॥ स्राणि गोतीर्थ, गोतीर्थं नाम तडागादिष्विव प्रवेशमार्गरूपो नीचो नीचतरो भूप्रदेशो, गोतीर्थमिव गोतीर्थमिति व्युत्पत्तेः, मध्यभागावगाहस्तु दशयोजनसहस्रप्रमाणविस्तारः, गोतीर्थं च जम्बूद्वीपवेदिकान्तसमीपे धातकीखण्डवेदिकान्तसमीपे चाङ्गुलायेयभागः, ततः परं समतलाइ भूभागादारभ्य क्रमेण प्रदेशहान्या तावन्नीचत्वं नीचतरत्वं परिभावनीयं यावत्पश्वनवतियोजनसहस्राणि पञ्चनवतियोजनसइस्रपर्यन्ते च समतल भूभागमपेक्ष्य उण्डत्वं योजनसहस्रमेकं तथा जम्बूद्वीपवेदिकातो धातकीखण्डद्वीपवेदिकातञ्च समतले भूभागे प्रथमतो वृद्धिरङ्गलसोयभागः, ततः समतलभूभागमेवाधिकृत्य प्रदेशवृद्ध्या जलराशिः क्रमेण परिवर्धमानः परिवर्धमानः तावत्प|रिभावनीय यावदुभयतोऽपि पञ्चनवतियोजनसहस्राणि पञ्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्ते चोभयतोऽपि समभूभागमपेक्ष्य जलवृद्धिः सप्त योजनशतानि, किमुक्तं भवति ? तत्र प्रदेशे समभूभागमपेक्ष्यावगाहो योजनसहस्रं तदुपरि जलवृद्धिः सप्त योजनशतानीति, ततः परं मध्ये भूभागे दशयोजनसहस्रविस्तारेऽवगाहो योजनसहस्रं जलवृद्धिः षोडश योजनसहस्राणि, पातालकलशगतवायुक्षोभे च तेषामुपरि अहोरात्रमध्ये द्वौ वारौ किञ्चिन्न्यूने द्वे गव्यूते उदकमतिरेकेण परिवर्धते पातालकलशगत वायुपशान्तौ च हीयते ॥ २५३ ॥ ८८ ॥ इदानीं 'उस्सेहंगुल आयंगुलपमाणंगुलपमाणं ति चतुःपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह उस्सेहंगुल १ मायंगुलं च २ तइयं पमाणनामं च ३ । इय तिन्नि अंगुलाई वावारिजंति समयंमि ॥ ८९ ॥ सत्थेण सुतिक्खेणवि छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सका । तं परमाणुं सिद्धा वयंति आई पमाणानं ॥ ९० ॥ परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं च वालस्स । लिक्खा ज्या य जवो अट्ठगुणविवढिया कमसो ॥ ९१ ॥ वीसंपरमाणुलक्खा सत्तानउई भवे सहस्साईं । सयमेगं ४ २५१ पूर्वागमानं २५२ पूर्वमानं २५३ लवणशिखा २५४ अंगुलस्वरूपं ॥ ४०५ ॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन्नं एगंमि उ अंगुले हुंति ॥ ९२॥ परमाणू इच्चाइक्कमेण उस्सेहअंगुलं भणियं । जं पुण आयंगुलमेरिसेण तं भासियं विहिणा ॥ ९३ ॥ जे जंमि जुगे पुरिसा अट्ठसयंगुलसमूसिया हुँति । तेसिं जं नियमंगुलमायंगुलमेत्थ तं होई ॥ ९४ ॥ जे पुण एयपमाणा ऊणा अहिगा व तेसिमेयं तु । आयंगुलं न भन्नइ किंतु तदाभासमेवत्ति ॥ ९५॥ उस्सेहंगुलमेगं हवह पमाणंगुलं सहस्सगुणं । उस्सेहंगुलदुगुणं वीरस्सायंगुलं भणियं ॥ ९६॥ आयंगुलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ मिणसु देहं । नगपुढविविमाणाइं मिणसु पमाणंगुलेणं तु ॥९७॥ अगि रगीत्यादिदण्डके अगिर्गत्यर्थो धातुः, गत्यर्थाश्च ज्ञानार्था अपि भवन्त्यतोऽग्यन्ते-प्रमाणतो ज्ञायन्ते पदार्था अनेनेत्यङ्गुलं-मानविशेषः, तच्च त्रिविधं, तद्यथा-आद्यमुत्सेधाङ्गुलं द्वितीयमात्माङ्गुलं तृतीयं च प्रमाणाङ्गुलनामकं, इत्येतानि त्रीण्यङ्गलानि समयेसिद्धान्ते तत्तद्वस्तुमानविषयतया व्यापार्यन्ते, तानि च वस्तूनि यथायथमेभिर्मीयन्ते इत्यर्थः ॥ ८९ ॥ नन्वमीषामङ्गुलानां मध्ये उत्सेधाकुलं तावत् किंप्रमाणं भवतीत्याशङ्कय तत्प्रमाणनिष्पत्तिक्रमनिरूपणार्थमाह-'सत्थेणे'त्यादि, शस्त्रेण-खजादिना सुतीक्ष्णेनापि छेत्तुं| द्विधाकर्तुं भेत्तुं वा-खंडशो विदारयितुं सच्छिद्रं वा कर्तु यं पुद्गल विशेषं न शक्ताः पुमांसस्तं परमाणु घटाद्यपेक्षयाऽतिसूक्ष्मं सिद्धाः-सैद्धा|न्तिकतया प्रसिद्धा यद्वा ज्ञानप्रसिद्धाः केवलिनः, न तु मुक्तिप्राप्ताः, तेषां शरीराद्यभावेन वचनस्यासंभवात् , वदन्ति-ब्रुवते प्रमाणानांअङ्गुलहस्तादीनामादि-मूलं, किलशब्देन चेदं सूच्यते-लक्षणमेवेदं परमाणोः, न पुनस्तं छेत्तुं भेत्तुं वा कोऽप्यारभते, अतिश्लक्ष्णत्वेन छेदनभेदनाविषयत्वात्प्रयोजनाभावाचेति, अयं चेह व्यवहारनयमतेनैव परमाणुत्वेनोच्यते, यावताऽनन्ताणुकस्कन्ध एवासौ, केवलं सूक्ष्मप REAKARSAGARAAT For Private & Personel Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४०६ ॥ रिणामापन्नत्वेन चक्षुर्ब्रहणच्छेदन भेदनाद्यविषयत्वादमुमपि व्यवहारनयः परमाणुं मन्यत इतीह परमाणुत्वेनोपन्यस्त इति ॥ ९१ ॥ उतं परमाणुस्वरूपं, इदानीं तदुपरिवर्तिनः शेषानुत्सेधाङ्गुलनिष्पत्तिकारणभूतानन्यानपि परिमाणविशेषानाह – 'परमाणू' इत्यादि, इह परमाणोरनन्तरं उपलक्षणस्य व्याख्यानादुच्छ्रलक्ष्णलक्ष्णिकादीनि त्रीणि पदानि गाथायामनुक्तान्यपि द्रष्टव्यानि, अनुयोगद्वारादिषु तथैवाभिधानायुक्तिसंगतत्वाच ततश्चानन्तैः परमाणुभिरेकस्या उच्छ्लक्ष्णऋणिकाया आगमेऽभिधानात्परमाणुं वर्जयित्वा सर्वेऽप्येते उच्छ लक्ष्णलक्षिणकाश्लक्ष्णलक्षिण कोर्ध्वरेणुत्रसरेणुरथरेण्वादयो यवपर्यन्ताः परिमाणविशेषा यथोत्तरमष्टगुणाः क्रमेण कर्तव्याः, तत उत्सेधाङ्गुलं निष्पद्यते, इयमत्र भावना - पूर्वोक्तव्यावहारिक परमाणवोऽनन्ता मिलिताः सन्त एका उच्छूलक्ष्णलक्ष्णिका भवति, अतिशयेन ऋक्ष्णाऋणऋण सैव क्ष्णलक्षिणका उत्तरप्रमाणापेक्षया उत्-प्राबल्येन श्रक्ष्णलक्ष्णिका उच्छ्लक्ष्णलक्ष्णिका, अष्टाभिरुच्छ्लक्ष्णणिकामिरेका लक्ष्णलक्ष्णिका, प्राक्तनप्रमाणापेक्षयाऽष्टगुणत्वात् ऊर्ध्वरेण्यपेक्षया चाष्टमभागवर्तित्वात्, अष्टाभिः श्लक्ष्णलक्षिणकामिरेक ऊर्ध्वरेणुः, जालप्रभाऽभिव्यङ्ग्यः स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाधस्तिर्यकूचलनधर्मा रेणुरूर्ध्वरेणुः, अष्टभिरूर्ध्वरेणुभिरेकस्त्रसरेणुः, त्रस्यति - पूर्वादिवातप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणुः, अष्टमित्रसरेणुमिरेको रथरेणुः, भ्रमद्रथचक्रोत्खातो रेणू रथरेणुः, पूर्वः पौरस्त्यादिवातेषु चलति अयं तु तत्सद्भावेऽपि रथचक्राद्युत्खननमन्तरेण न चलतीत्यस्मात्पूर्वोऽल्पप्रमाणः, इह च बहुषु सूत्रादर्शेषु 'परमाणू रहरेणू तस| रेणू' इत्यादिरेव पाठो दृश्यते स चासङ्गत एव लक्ष्यते, रथरेणुमाश्रित्य त्रसरेणोरष्टगुणत्वानुपपत्तेः, उक्तन्यायेन विपर्ययस्यैव घटनादिति, यदपि संग्रहिण्यां 'परमाणू रहरेणू तसरेणू' इत्यादिरेत्र पाठो दृष्ट इत्युच्यते तत्रापि समानः पन्थाः, तस्यापि घटमानकत्वस्य चिन्त्यत्वादागमेन सह विरोधाद्युक्त्य संगतत्वाचेति, अष्टभी रथरेणुभिर्देवकुरूत्तरकुरु मनुष्याणां संबंधि एकं वालायं भवति, तैरष्टभिर्हरिव अंगुल - स्वरूपं ॥ ४०६ ॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | रम्यकमनुष्यवाला भवति तैरष्टभिर्हेमवतैरण्यवतमनुष्यवालामं तैरष्टभिः पूर्वविदेहापर विदेहमनुष्यवाला तैरष्टभिर्भरतैरवत मनुष्यवालामं, इद्द चैवं बालाप्राणां भेदे सत्यपि वालाग्रजातिसामान्यविवक्षया वालाप्रमिति सामान्येनैकमेव सूत्रे निर्दिष्टमिति, अष्टभिर्भरतैरवतमनुष्यवालामैरेका प्रतीतस्वरूपैव लिक्षा जायते, ताभिरष्टाभिरेका यूका, ताभिरव्यष्टाभिर्यवशब्दसूचितमेकं यवमध्यं, अष्टभिर्यवमध्यैरेकमुत्सेधाङ्गुलं निष्पद्यत इति इत ऊर्ध्व सूत्रानुक्तमप्युपयोगित्वादुच्यते-- एतानि षडङ्गुलान्यङ्गुलषट्कविस्तीर्णः पादस्य मध्यतलप्रदेश: पादैकदेशत्वात्पादो भवति, द्वौ च युग्मीकृतावेतौ पादौ द्वादशाङ्गुलप्रमाणा वितस्तिः, द्वे वितस्ती हस्तः, चत्वारो हस्ता धनुः, द्वौ धनुःसहस्रौ गब्यूतं चत्वारि गंव्यूतानि योजनमिति, उक्तं च- "अट्ठेव य जबमज्झाणि अंगुलं छच्च अंगुला पाओ । पाया य दो विहत्थी दो य विद्दत्थी भने हत्थो || १ || चउद्दत्थं पुण धणुहं दुन्नि सहस्साई गाउयं तेसिं । चत्तारि गाडया पुण जोयणमेगं मुणेयव्वं ॥ २ ॥” ॥ ९१ ॥ अथैकस्मिन्नुत्सेधाकुले कियन्तः परमाणवो भवन्तीत्येतदाशङ्कयाह -- ' वीसे' त्यादि, विंशतिर्लक्षाः परमाणूनां सप्तनवतिसहस्राणि शतं चैकं द्विपञ्चाशदधिकं एकस्मिन्नुत्सेधाङ्गुले एतावन्तः परमाणवो भवन्ति, इयं च संख्या 'परमाणू तसरेणू' इत्यादिगाथायां | साक्षादुपात्तानेव परमाणुविशेषानाश्रित्य द्रष्टव्या, उपलक्षणव्याख्यानलब्धोच्छ्लक्ष्णलक्ष्णिकादित्रयापेक्षया पुनरतिभूयसी परमाणु संख्या संपद्यत इति ॥ ९२ ॥ अथोत्सेधाङ्गुलोपसंहारपूर्वमात्माङ्गुलं संबन्धयन्नाह - 'परमाणु' इत्यादि, परमाण्वादिक्रमेण भणितं प्रथममुत्सेधाङ्गुलं, उत्सेधो- देवादिशरीराणामुञ्चत्वं तन्निर्णयकर्तृकत्वेन तद्विषयमङ्गुलमुत्सेधाङ्गुलं, यद्वा उत्सेधो 'अनंताणं सुदुमपरमाणुपुग्गकाणं समुदयसमिइसमागमेणं एगे बवहारपरमाणु' इत्यादिक्रमेणोच्छ्रयो - वृद्धिस्तस्माज्जातमङ्गुलमुत्सेधाङ्गुलं, यत्पुनरात्माङ्गुलं पूर्वमुद्दिष्टं वीरशेन वक्ष्यमाणस्वरूपेण विधिना प्रकारेण भाषितं - प्रतिपादितं तीर्थकुद्गणधरैः ॥ ९३ ॥ तमेव विधिमाह - 'जे जंमी' त्यादि, बे Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा-8 पुरुषा:-चक्रवर्तिवासुदेवादयो यस्मिन् युगे-सुषमदुष्षमादिकाले निजाङ्गुलेनैवाष्टोत्तरं शतमङ्गुलानामुच्छ्रिता-उच्चा भवन्ति तेषां च स्वकी-|| । रोद्धारे याङ्गुलेनाष्टोत्तराङ्गुलशतोचानां पुरुषाणां यन्निज-आत्मीयमङ्गुलं तत्पुनरात्माङ्गुलं भवति, इह च ये यस्मिन् काले प्रमाणयुक्ताः पुरुषा तत्त्वज्ञा- भवन्ति तेषां संबन्धी आत्मा गृह्यते तत आत्मनोऽङ्गुलमात्माङ्गुलं ॥९४|| इदं च पुरुषाणां कालादिभेदेनानवस्थितमानत्वादनियतप्रमाणं नवि० 1 द्रष्टव्यं । 'जे पुणे त्यादि, ये पुनः पुरुषा एतस्मादष्टोत्तराङ्गुलशतलक्षणात्प्रमाणान्यूनाः समधिका वा तेषां संबन्धि यद्गुलमेतदात्माङ्गुलं न भण्यते, किंतु तदाभासमेव-आत्माङ्गुलाभासमेव, परमार्थत आत्माङ्गुलं तन्न भवतीत्यर्थः, लक्षणशास्त्रोक्तस्वरादिशेषलक्षणवैकल्यसहायं ॥४०७॥ च यथोक्तप्रमाणाद्धीनाधिक्यमिह प्रतिषिद्धं न केवलमिति संभाव्यते, भरतचक्रवादीनां स्वाकुलतो विंशत्यधिकाङ्गुलशतमानानामप्यत्र निर्णीतत्वान्महावीरादीनां च केषाश्चिन्मतेन चतुरशीत्याद्यङ्गुलप्रमाणत्वादिति ॥ ९५ ॥ साम्प्रतं क्रमसंप्राप्तं प्रमाणाङ्गुलमाह'उस्सेहंगुले' त्यावि, उत्सेधाङ्गुलं-अनन्तरोक्तस्वरूपं सहस्रगुणं सदेकं प्रमाणाङ्गुलं भवति, परम-प्रकर्षरूपं प्रमाणं प्राप्तमङ्गुलं प्रमाणामुलं, नातः परं बृहत्तरमङ्गुलमस्तीति भावः, यदिवा समस्तलोकव्यवहारराज्यादि स्थितिप्रथमप्रणेतृत्वेन प्रमाणभूतोऽस्मिन्नवसर्पिणीकाले तावद्युगादिदेवो भरतचक्रवर्ती वा तस्य प्रमाणभूतपुरुषस्याङ्गुलं प्रमाणाडलं, तच्च भरतचक्रवर्तिन आत्मांगुलं, तदा आत्माङ्गुलस्य प्रमाणाङ्गुलस्य च तुल्यत्वात् , ननु यदि भरतचक्रिणः संबन्ध्यङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलमित्युच्यते एवं सत्युत्सेधाडलात्प्रमाणाङ्गुलं चतुःशतगुणमेव | स्यात्, न सहस्रगुणं, तथाहि-भरतचक्रवर्ती आत्मीयागुलेन किल विंशं शतमङ्गलानामनुयोगद्वारचण्योदिषु निर्णीतः, उत्सेधाङ्गुलेन तु पञ्चधनुःशतमानत्वात् प्रतिधनुश्च षष्णवत्यङ्गुलसद्भावादष्टचत्वारिंशत्सहस्राण्यङ्गुलानामसौ संपद्यते, एवं च सत्येकस्मिन् प्रमाणाङ्गुले उत्सेधाङ्गुलानां चत्वार्येव शतानि भवन्ति, विंशत्यधिकशतेन प्रमाणाङ्गुलानामष्टचत्वारिंशत्सहस्रसंख्यस्योत्सेधाङ्गुलराशेर्भागापहारे एता Jain Education Interational For Private Personel Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत एव लाभात्, ततश्चैवं भरतसंबन्ध्यडललक्षणं प्रमाणाङ्गुलमुत्सेधाजुलाच्चतुःशतगुणमेव स्यात् न सहस्रगुणमिति, सत्यमुक्तं, किंतु प्रमाणाङ्गुलस्यार्धतृतीयोत्सेधाङ्गुलरूपं पृथुत्वमस्ति, ततो यदा स्वकीयपृथुत्वेन युक्तं यथावस्थितमेवेदं चिन्त्यते तदोत्सेधाङ्गलात्प्रमाणा-18 कुलं चतुःशतगुणमेव भवति, यदा त्वर्धतृतीयोत्सेधाङ्गुललक्षणेन विष्कम्भेण शतचतुष्टयलक्षणं प्रमाणाङ्गुलदैर्ध्य गुण्यते तदोत्नाङ्गुलविष्कम्भा सहस्राङ्गुलदीर्घा च प्रमाणाङ्गुलसूचिर्जायते, इदमुक्तं भवति-अर्धतृतीयोत्सेधाङ्गुलविष्कम्भे प्रमाणाङ्गुले तिस्रः श्रेणयः | कल्प्यन्ते, प्रथमा उत्सेधाङ्गुलेनैकाङ्गुलविष्कम्भा शतचतुष्टयदीर्घा द्वितीयापि तावन्मानैव तृतीयापि दैर्येण चतुःशतमानैव विष्कम्भ-18 ततस्त्वर्धाङ्गुलप्रमाणा, ततश्चैतस्या दैाच्छतद्वयं गृहीत्वा विष्कम्भोऽङ्गुलप्रमाणः संपाद्यते, तथा च सत्यङ्गुलशतद्वयदीर्घा अङ्गुलविष्कम्भा इयमपि सिद्धा, ततस्तिमृणामप्येतासामुपर्युपरि व्यवस्थापने उत्सेधाङ्गुलेनाङ्गुलसहस्रदीर्घा अङ्गुलविष्कम्भा प्रमाणाङ्गुलस्य सूचिः सिद्धा भवति, तत इमां सूचिमधिकृत्य उत्सेधाङ्गुलात्प्रमाणाङ्गुलं सहस्रगुणदीर्घमुक्त, वस्तुतस्तु चतुःशतगुणदीर्घमेव, अत एव पृथ्वीपर्वतद्वी-8 पपयोराशिविमानादिमानान्यनेनैव चतुःशतगुणेनार्धतृतीयाङ्गुललक्षणखविष्कम्भान्वितेनानीयन्ते न तु सहस्रगुणया अङ्गुलविष्कम्भया सूच्या इति तावद् वृद्धसम्प्रदायादवगतं, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तीति । तथा तदेवोत्सेधाङ्गुल द्विगुणं सद् वीरस्य भगवतोऽपश्चिमतीर्थ-1 कृत एकमात्माङ्गुलं भणितं पूर्वाचा:, वर्धमानस्वामी हि भगवान् आदेशान्तरादात्माङ्गलेन चतुरशीतिरङ्गुलानि, उत्सेधाङ्गुलतस्तु सप्तहस्तमानत्वादष्टषष्ट्यधिकं शतं, तथा चानुयोगद्वारचूर्णिः-"वीरो आएसंतरओ आयंगुलेण चुलसीइअंगुलमुव्विद्धो उत्सेहंगुलओ सयमट्ट-1 सर्ल्ड हवई” इति, ततो द्वे उत्सेधाङ्गुले वीरस्यैकमात्माङ्गुलं भवति, अत्र च मतान्तराण्यधिकृत्य बहु वक्तव्यं तच्च नोच्यते ग्रन्थगौरवभयात् । इदं च त्रिविधमप्यङ्गुलं पुनः प्रत्येकं त्रिधा भवति, तद्यथा-सूच्यङ्गुलं प्रतराजुलं घनाङ्गुलं च, तत्र देयेणाङ्गुलायता बाहल्य For Private Personel Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० 11802 11 तस्त्वेकप्रादेशिकी नभः प्रदेशश्रेणिः सूच्यङ्गुलमुच्यते, एतच सद्भाषतोऽसंख्येयप्रदेशमध्य सत्कल्पनया सूच्याकारव्यवस्थापितप्रदेशत्रय निष्पन्नं द्रष्टव्यं स्थापना चेयं ०००, सूची सूच्यैव गुणिता प्रतराङ्गुलं, इदमपि परमार्थतोऽसंख्येयप्रदेशात्मकं असद्भावतस्त्वषैवानन्तरदर्शिता त्रिप्रदेशात्मिका सूचिः तयैव गुण्यते, अतः प्रत्येकं प्रदेशत्रयनिष्पन्नसूचीत्रयात्मकं नवप्रदेश संख्यं संपद्यते, स्थापना चेयं , प्रतरश्च सूच्या गुणितो दैर्घ्यविष्कम्भबाहल्येषु समसंख्यं घनाङ्गुलं भवति, दैर्घ्यादिषु त्रिष्वपि स्थानेषु समतालक्षणस्यैव समयचर्यया घनस्येह रूढत्वात्, प्रतराङ्गुलं तु दैर्घ्यविष्कम्भाभ्यामेव प्रदेशैः समं पिण्डतस्तस्य तत्रैकप्रदेशमात्रत्वादिति भावः, इदमपि सद्भावतो दैर्ध्य विष्कम्भ| बाहल्येषु प्रत्येकम संख्येयमानमसत्प्ररूपणया तु सप्तविंशति प्रदेशात्मकं, पूर्वोक्तत्रिपदेशात्मक सूच्याऽनन्तरप्रदर्शिते नवप्रदेशात्मके तेरे गुणिते एतावतामेव प्रदेशानां भावात् एषां च स्थापनानन्तरनिर्दिष्टनवप्रदेशात्मकप्रतरस्याध उपरि च नव नव प्रदेशान् दत्त्वा भावनीया, तथा च | सत्यायामविष्कम्भपिण्डैस्तुल्यविषयमापद्यत इति ॥ ९६ ॥ अथ येनाङ्गुलेन यन्मीयते तदाह - 'आय' मित्यादि, आत्माङ्गुलेन वास्तु | मिमीष्व, तच वास्तु त्रिधा - खातमुच्छ्रितमुभुयं च तत्र खातं - कूपभूमिगृहतडागादि उच्छ्रितं - धवलगृहादि उभयं - भूमिगृहादियुक्तं धवलगृहादि, तथा देहं देवादीनां शरीरमुत्सेधप्रमाणतः — उत्सेधाङ्गुलेन मिमीष्व, प्रमाणाङ्गुलेन पुनर्नगपृथ्वीविमानादीनि मिमीष्व, तन्त्र नगा - मेर्वायाः पृथिव्यो - धर्माद्याः विमानानि - सौधर्मावतंसकादीनि, आदिशब्दाद्भवननरकावासद्वीपसमुद्राद्यपि प्रमाणाङ्गुलेन मिमीष्वेति २५४ ॥ ९७ ॥ इदानीं 'तमकायसरूवं' ति पश्चपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह जंबूदीबाड असंखेजइमा अरुणवरसमुद्दाओ । बायालीससहस्से जगईंड जलं विलंघेउं ॥ ९८ ॥ समसेणीए सतरस एकवीसाई जोपणसयाई । उल्लसिओ तमरूवो वलयागारो अक्काओ २५५ तम स्कायस्वरूपं गा. १३९८१४०३ ॥ ४०८ ॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 ॥ ९९ ॥ तिरिय पवित्थरमाणो आवरयंतो सुरालयचउक्कं । पंचमकप्पे रिट्ठमि पत्थडे चउदिसिं मिलिओ ॥। १४०० ॥ हेट्ठा मल्लयमूलट्ठिइडिओ उवरि बंभलोयं जा । कुक्कुडपंजरगागारसंठिओ सो तमक्काओ ॥ १ ॥ दुविहो से विकखंभो संखेज्जो अत्थि तह असंखेज्जो । पढमंमिवि विकखंभो संखेज्जा जोयणसहस्सा ॥ २ ॥ परिहीऍ ते असंखा बीए विक्खंभपरिहिजोएहिं । हुंति असंखसहस्सा नवरमिमं होइ वित्थारो ॥ ३ ॥ जम्बूद्वीपादसङ्खयेयतमो योऽसावरुणवरसमुद्रस्तमाश्रित्य द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि जगत्या जलं विलङ्घय समश्रेण्या - सममित्तितया एकविंशत्यधिकानि सप्तदश योजनशतानि यावद्वलयाकारस्तमोरूपो देवानामपि तत्रोद्योताभावेन महान्धकारात्मकत्वादुष्काय उल्लसितः, अयमर्थ: - एतस्माज्जम्बूद्वीपात्तिर्यगसङ्ख्यातद्वीपसमुद्रान् व्यतिक्रम्यारुणवरनामा द्वीपः समस्ति तद्वेदिकापर्यन्ताद् द्विचत्वारिंशयोजनसहस्राण्यरुणवरं समुद्रमवगाह्यात्रान्तरे जलोपरितनतलादूर्ध्वमेकविंशत्युत्तराणि सप्तदश योजनशतानि यावत्सममिन्याकारतया गत्वा वलयाकृतिरप्कायमयो महान्धकाररूपस्तमस्कायः समुल्लसित इति, अयं च तिर्यक्प्रविस्तरन् सुरालयचतुष्कं - सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्ररूपं देवलोकचतुष्टयमावृण्वन् - आच्छादयन्नूर्ध्व तावद्गतो यावत् पञ्चमे ब्रह्मलोकनामके कल्पे तृतीयेऽरिष्ठ विमानप्रस्तटे चतसृष्वपि | दिक्षु मिलित इति ॥ ९८ ।। ९९ ।। १०० ।। अथ तमस्कायस्य संस्थानमाह - 'हेट्ठे' त्यादि, अधस्ताद् - अधोभागे मल्लकमूलस्थितिस्थितो - मलकं-शरावं तस्य मूलं - बुधं तस्य स्थितिः - संस्थानं तया स्थितो- व्यवस्थितः, शरावबुध्राकार इति भावः, उपरिष्टाच ब्रह्मलोकं याक्त् कुर्कुटपखरकाकारसंस्थितः सः - पूर्वोक्तस्वरूपस्तमस्कायो भवति, तमसां - तमिस्रपुद्गलानां कायो - राशिस्तमस्काय इति ॥ १ ॥ अथास्य Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवक-सा %*% रोद्धारे तत्वज्ञा-दाभवान्त नवि० **%* ॥४०९॥ * तमस्कायस्य विष्कम्भं परिधिं च प्राह-'दुविहो' इत्यादिगाथाद्वयं, द्विविधो-द्विप्रकारः 'से'त्ति तस्य तमस्कायस्य विष्कम्भो-विस्तारो २५५ तमभवति-सङ्ख्यातस्तथा असङ्ख्यातश्च, तत्र प्रथमे विष्कम्भे आदित आरभ्य ऊर्ध्व सङ्ख्येययोजनानि यावत्सल्येया योजनसहस्राः प्रमाणतो स्कायस्वभवन्ति, परिधौ-परिक्षेपे पुनस्त एव योजनसहस्रा असङ्ख्याताः, अधस्तमस्कायस्य सङ्ख्यातयोजनविस्तृतत्वेऽप्यसङ्ख्याततमद्वीपपरिक्षेपतो रूपं गा. बृहत्तरत्वात्तत्परिक्षेपस्यासङ्ख्यातयोजनसहस्रप्रमाणत्वमविरुद्धं, आन्तरबहिःपरिक्षेपविभागस्तु नोक्तः, उभयस्याप्यसङ्ख्याततया तुल्यत्वादिति। १३९८| तथा द्वितीये विष्कम्भे विष्कम्भपरिधियोगाभ्या-विष्कम्भेन परिधिना च प्रत्येकमसङ्ख्याता योजनसहस्रा भवन्ति, नवरं-केवलमिदम- १४०३ त्रासङ्ख्यातयोजनसहस्ररूपं प्रमाणं विस्तारे भवति, वलयाकारादूर्ध्व यदाऽसौ तमस्कायः क्रमेण विस्तरति तदानीमिदं प्रमाणमवसेयमिति 18/२५६ अन|भावः, अस्य च तमस्कायस्य महत्त्वमित्थमागमविदः प्रवेदयन्ति, यथा-यो देवो महर्द्धिको यया गत्या तिसृभिश्चपुटिकाभिरेकविंशतिवा न्तषट्कं रान् सकलं जम्बूद्वीपमनुपरिवृत्त्यागच्छेत् स एव देवस्तयैव गत्या षनिरपि मासैः सङ्ख्यातयोजनविस्तारमेव तमस्कायं व्यतित्रजेत् नेतर| मिति, यदा च कश्चिद्देवः परदेव्यासेवाहेवाकपररत्नापहारादिभिरपराधमाधत्ते तदा बलबद्देवभयात् प्रपलाय्य देवानामपि भूरिभयाविर्भावकत्वेन गमनविघातहेतौ तस्मिंस्तमस्काये निलीयत इति ॥२५५॥२॥३॥ सम्प्रति 'अणंतछक्कं'ति षट्पञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह सिद्धा १ निगोयजीवा २ वणस्सई ३ काल ४ पोग्गला ५ चेव । सबमलोगागासं ६ छप्पेएऽणं तया नेया ॥४॥ सर्व एव सिद्धाः-अपगतसकलकर्मकलंकाः तथा सर्वेऽपि सूक्ष्मबादरभेदभिन्ना निगोदजीवा-अनन्तकायिकजन्तवः तथा सर्वे वनस्प- ॥४०९॥ तयः-प्रत्येकानन्तवनस्पतिजीवाः काल इति-सर्वेऽतीतानागतवर्तमानसमयाः सर्वे पुद्गलाः-समस्तपुद्गलास्तिकायगताः परमाणवः तथा * ***** NCRECTOR Jain Education Interational For Private Personel Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ USACR सर्व-समस्तमलोकाकाशं, अयं च सर्वशब्दः प्रत्येकं लिङ्गवचनपरिणामेन सर्वत्र संबन्धनीयः, स च तथैव संबन्धितः, एते-प्रदर्शितस्वरूपाः प्रषडपि राशयोऽनन्तका ज्ञेयाः ॥ २५६ ॥४॥ इदानीं 'अडंगनिमित्ताण'ति सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह अंगं १ सुविणं २ च सरं ३ उपायं ४ अंतरिक्ख ५ भोमं च ६। वंजण ७ लक्खण ८ मेव य अकृपयारं इह निमित्तं ॥५॥ अंगप्फुरणाईहिं सुहासुहं जमिह भन्नइ तमंग १ तह सुसुमिणयदुस्सुमिणएहिं जं सुमिणयंति तयं २॥६॥ इमणिहूं जं सरविसेसओ तं सरंति विन्नेयं । रुहिरवरिसाइ जंमिं जायइ भन्नइ तमुप्पायं ४ ॥७॥ गहवेहभूयअट्टहासपमुहं जमंतरिक्खं तं ५। भोमं च भूमिकंपाइएहिं नज्जइ वियारेहिं ६॥८॥ इह वंजणं मसाई ७ लंछणपमुहं तु लक्खणं भणियं ८।सुहअसुहसूयगाई अंगाईयाइं अट्ठावि ॥९॥ अङ्गं स्वप्नः स्वर उत्पात आन्तरिक्षं भौमं व्यञ्जनं लक्षणं चेत्येवमष्टप्रकार-अष्टविधमिह-शास्त्रे निमित्तं भवति, अतीतानागतवर्तमानानामतीन्द्रियभावानामधिगमे निमित्तं हेतुर्यद्वस्तुजातं तन्निमित्तं, सूत्रे स्वप्नादिपदेषु प्राकृतत्वान्नपुंसकत्वमिति ॥ ५॥ साम्प्रतमष्टप्रकारमपि निमित्तं क्रमेण व्याख्यातुमाह-'अंगे'त्यादिगाथाचतुष्कं, अङ्गस्फुरणादिभिः-शरीरावयवस्पन्दप्रमाणादिभिर्यदिह वर्तमानमतीतमनागतं वा शुभं वा-प्रशस्तमशुभं वा-अप्रशस्तं अन्यस्मै कथ्यते तद्भण्यतेऽङ्गायं निमित्तं, यथा-"दक्षिणपार्श्वे स्पन्दनमभिधास्ये तत्फलं स्त्रिया वामे । पृथिवीलाभः शिरसि स्थानविवृद्धिर्ललाटे स्यात् ॥ १॥” इत्यादि, १ तथा सुस्वप्नदुःस्वप्नाभ्यां यत्कथ्यते शुभाशुभं तत्स्वमाख्यं निमित्तं, यथा-"देवेज्यात्मजबान्धवोत्सवगुरुच्छत्राम्बुजप्रेक्षणं, प्राकारद्विरदाम्बुदद्रुमगिरिप्रासादसंरोहणम् । अम्भोधेस्तरणं सुरा EACOCCASS For Private & Personel Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ ४१० ॥ मृतपयोदनां च पानं तथा, चन्द्रार्कप्रसनं स्थितं शिवपदे स्वापे प्रशस्तं नृणाम् ॥ १ ॥" इत्यादि २, इष्टमनिष्टं च यत्स्वरविशेषतः षड्डादिस्वरसप्तकविभागतः शकुनरुतरूपाद्वा परस्मै कथ्यते तत् स्वरनामकं निमित्तं यथा - " सज्जेण लब्भए वित्ति, कयं च न विण| सइ । गावो मित्ताय पुत्ता य, नारीणं चेव वल्लहो ॥ १ ॥।” इत्यादि, यद्वा - 'चिलिचिलिसहो पुन्नो सामाए सूलिसूलि धन्नो उ । | चेरी चेरी दित्तो चिकुत्ती लाभहेउति ||१||' इत्यादि ३, सहजरुधिरवृष्ट्यादि यस्मिन् जायते ( भण्यते) तदुत्पाताभिधं निमित्तं, आदिशब्दादस्थिवृष्ट्यादिपरिग्रहः, यथा - "मज्जानि रुधिरास्थीनि, धान्याङ्गारान् वसां तथा । मघवा वर्षते यन्त्र, भयं विद्याच्चतुर्विधम् ॥ १ ॥ |” इत्यादि ४, प्रहवेधभूताट्टहास प्रमुखमान्तरिक्षं निमित्तं, तत्र प्रहवेधो - प्रहस्य ग्रहमध्येन निर्गमः, भूताट्टहासः - अतिमहानाकाशे आकस्मिकः किलकिलारावः, यथा - " भिनत्ति सोमं मध्येन, ग्रहेष्वन्यतमो यदा । तदा राजभयं विद्यात् प्रजाक्षोभं च दारुणम् ॥ १ ॥ इत्यादि, प्रमुख प्रहणाद्गन्धर्वनगरादिपरिग्रहः, यथा - " कपिलं शस्यघाताय, माजिष्ठं हरणं गवाम् । अव्यक्तवर्ण कुरुते, बलक्षोभं न | संशयः ॥ १ ॥ गंधर्वनगरं स्निग्धं, सप्राकारं सतोरणम् । सौम्यां दिशं समाश्रित्य राज्ञस्तद्विजयङ्करम् ॥ २ ॥" इत्यादि ५, भूमिकसम्पादिभिर्विकारैः शुभाशुभं यद् ज्ञायते तद्भौमं निमित्तं यथा - "शब्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते । सेनापतिरमात्यश्च राजा राष्ट्रं च पीड्यते ॥ १” ६, इह-अस्मिन् शास्त्रे व्यञ्जनं-मषादि, लाञ्छनप्रमुखं तु लक्षणं भणितं यथा - " नाभ्यधस्ताद्भवेद्यस्या, | लाञ्छनं मशकोऽपि वा । कुङ्कुमोदकसङ्काशं, सा प्रशस्ता निगद्यते || १ ||" इत्यादि, निशीथग्रन्थे पुनरित्थमुक्तं - "माणाइगं लक्खणं मसाइगं वंजणं, अहवा जं सरीरेण सह समुप्पन्नं तं लक्खणं पच्छा उप्पन्नं वंजण" मिति, तदेवं शुभाशुभसूचकान्यङ्गादीन्यष्टावपि प्रतिपादितानीति, लक्षणानि च पुरुषविभागेनेत्थं निशीथे प्रोक्तानि - " पागयमणुवाणं बत्तीसं अठ्ठसयं बलदेववासुदेवाणं अट्ठसहस्सं चक्कव २५७ अ-. ष्टांगनिमि तंगा. १४-५-९ ॥ ४१० ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RASADHAAGRAMSACE%AR 8 द्वितित्थगराणं, जे फुडा हत्थपायाइसु लक्खिजति तेसिं पमाणं भणिय, जे पुण अंतो स्वभावसत्त्वादयः तेहिं सह बहुतरा भवंती'त्यादि, २५७, ॥६॥७॥८॥९॥ संप्रति 'माणुम्माणपमाणं ति अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह जलदोणमद्धभारं समुहाई समूसिओ उ जो नव उ । माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं नेयं ॥१०॥ मानं-जलद्रोणप्रमाणता, उन्मानं-तुलारोपितस्यार्धभारप्रमाणता, यस्य स्वमुखानि नवैव समुच्छ्रितः स पुमान् प्रमाणोपेतो भवति, अयमर्थः-पानीयपरिपूर्णायां पुरुषप्रमाणादीषदतिरिक्तायां महत्यां कुण्डिकायां प्रवेशितो यः पुरुषो जलस्य द्रोणं-सर्वार्धघटिकाघटस्वरूपं |निष्कासयति द्रोणेन जलस्योनां वा तां पूरयति स पुरुषो मानयुक्तो भवति, तथा सारपुद्गलोपचितत्वात् तुलायामारोपितः समर्धभारं | यः पुरुषस्तुलयति स उन्मानयुक्तो भवति, तथा यद्यस्यात्मीयमहुलं तेनात्मनोऽङ्गलेन द्वादशाङ्गुलानि मुखं प्रमाणयुक्तं भवति, अनेन च मुखप्रमाणेन नव मुखानि सर्वोऽपि पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवति, प्रत्येक द्वादशाङ्गलैनवभिर्मुखैरष्टोत्तरं शतमङ्गलानां संपद्यते, ततश्चैतावदुच्छ्रयः पुमान् प्रमाणयुक्तो भवतीति, तदेवं मानोन्मानप्रमाणरूपमेतत् त्रिविधं लक्षणमुत्तमपुरुषाणां खलु निश्चयेन ज्ञेयमिति, २५८ ॥ १०॥ इदानीं 'अट्ठारस भक्खभोजाई'त्येकोनषष्ट्यधिकद्विशततमं द्वारमाह सूओ१ यणो २ जवन्नं ३ तिन्नि य मंसाई ६ गोरसो ७ जूसो ८। भक्खा ९ गुललावणिया १० मूलफला ११ हरियगं १२ डागो १३ ॥ ११॥ होइ रसालू य १४ तहा पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं १७ चेव । अट्ठारसमो सागो १८ निरुवहओ लोइओ पिण्डो॥१२॥ जलथलखहयर Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव०सारोद्धारे A- ACA%A तस्वस नवि० ॥४११॥ मंसाई तिन्नि जूसो उ जीरयाइजुओ। मुग्गरसो भक्खाणि य खंडखज्जयपमोक्खाणि ॥१३॥ २५८ मागुललावणिया गुडप्पपडीउ गुलहाणियाउ वा भणिया । मूलफलंतिपयं हरिययमिह जीरया- नोन्मानईयं ॥ १४ ॥ डाओ वत्थुलराईण भजिया हिंगुजीरयाइजुया । सा य रसालू जा मज्जियत्ति प्रमाणानि तल्लकखणं चेयं ॥१५॥ दो घयपला महु पलं दहियस्सऽद्धाढयं मिरिय वीसा । दस खंडगुलपलाई २५९ अएस रसालू निवइजोगो॥ १६ ॥ पाणं सुराइयं पाणियं जलं पाणगं पुणो एत्थ । दक्खावा साष्टादशभोणियपमुहं सागो सो तक्कसिद्धं जं ॥१७॥ ज्यानि गा. सूपः ओदनः यवान्नं त्रीणि मांसानि गोरसो यूषः भक्ष्याणि गुडलावणिका मूल फलानि हरितकं डाकः, तथा भवति रसाला, आर्षत्वाच्च रसालू इति निर्देशः, तथा पानं पानीयं पानकं अष्टादशश्च शाकः, एषोऽष्टादशविधो निरुपहतो-निर्गत उपहतः-दोषो यस्मादसौ निरुपहतो-निर्दोष इत्यर्थः, लौकिको-निर्विवेकलोकप्रतीतः पिण्ड:-आहार इति ॥ ११ ॥ १२ ॥ तत्र सूपो-दालिः ओदन:-कूरः, | यवान्नं-यवनिष्पन्नं परमानं, गोरसो-दुग्धदधिघृतप्रभृतिकः, शेषं च सूत्रकृदेव क्रमेण विवृणोति-'जले त्यादिकं गाथापञ्चकं, जलचरस्थलचरखचरजीवसंबन्धीनि त्रीणि मांसानि, तत्र जलचरा-मत्स्यादयः स्थलचरा-हरिणादयः खचरा-लावकादयः, तथा जूषो-जीरककटुभाण्डादिभिर्युतः सुसंभृतो मुद्गरसः, तथा भक्ष्याणि-खण्डखाद्यकप्रमुखाणि, खाद्यकं-खज्जकं, तच्च खण्डेन खरण्टितं, तत्प्रमुखाणि, तथा गुललावणिका-गुडपर्पटिका, पूर्वदेशीयप्रधानगुडकृता या पर्पटिकेत्यर्थः, अथवा गुडमिश्रा धाना गुडधाना भणिता गुललावणि-1 DI||४११॥ | केति, 'मूलकफल'मिति वेकमेव पदं ग्राह्यं, नतु द्वयं, तत्र मूलानि अश्वगन्धादीनां फलानि सहकारादीनां, तथा हरितकमिह जीर CA AR For Private & Personel Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । वस्तुलराजिकादीनामयपले त्यादि, देपला निष्पद्यते, कादिपत्रनिर्मितं, तथा डाको वस्तुलराजिकादीनां भर्जिकाहिङ्गुजीरकादिभिर्युता सुसंस्कृता, सा च रसाला ज्ञेया या मार्जितेति लोके प्रसिद्धा, तस्याश्चेदं-वक्ष्यमाणं स्वरूपं । तदेवाह-दो घयपले' त्यादि, द्वे पले घृतस्य एकं पलं मधुनः अर्धाढको दनः विंशतिर्मरिचानि वर्तितानि दश च पलानि खण्डस्य गुडस्य वा, एतैः पदार्थमिलितै रसाला निष्पद्यते, एषा च नृपतीना-राज्ञामुपलक्षणत्वादीश्वरलोकस्य योग्या-उचितेति, तथा पानं-सुरादि, आदिशब्दात्सर्वमद्यभेदपरिग्रहः, तथा पानीयं-सुशीतलं सुस्वादु च जलं, पानकं पुनरत्रद्राक्षाखर्जूरादिकृतं पानकप्रमुखं, तथा शाकः स उच्यते यत्तक्रेण सिद्धं-निष्पन्नं वटकादीति, २५९॥ १३ ॥ १४ ॥१५॥ १६ ॥१७॥ सम्प्रति 'छट्ठाणबुड्डिहाणि'त्ति षष्ट्यधिकद्विशततमं द्वारमाह वुड्डी वा हाणीवा अणंत १ अस्संख २ संखभागेहिं ३ । वत्थूण संख ४ अस्संख ५ णंत ६ गुणणेण य विहेया ॥१८॥ अनन्ताऽसङ्ख्यातसङ्ख्यातभागैः सङ्ख्यातासङ्ख्यातानन्तगुणेन च वस्तूनां-पदार्थानां वृद्धिर्वा हानिर्वा विधेया, इह षट्स्थानके त्रीणि स्थानानि भागेन-भागहारेण वृद्धानि हीनानि वा भवन्ति, त्रीणि च स्थानानि गुणनेन-गुणकारेण, 'भागो तिसु गुणणा तिसु' इति वचनात् , तत्र भागहारेऽनन्तासङ्ख्यातसङ्ख्यात लक्षणः क्रमः, गुणकारे च सङ्ख्यातासङ्ख्यातानन्तलक्षण इति, अययर्थः-सर्वविरतिविशुद्धिस्थानादीनां वस्तूनां वृद्धिा हानिर्वा चिन्त्यमाना षट्स्थानगता प्राप्यते, तद्यथा-अनन्तभागवृद्धिः असङ्ख्यातभागवृद्धिः सङ्ख्यातभागवृद्धिः सङ्ख्यातगुणवृद्धिः असङ्ख्यातगुणवृद्धिः अनन्तगुणवृद्धिश्च, एवं हानिरपि, तत्र किश्चित्सुगमत्वात्सर्वविरतिविशुद्धिस्थानान्येवाश्रित्य लेशतो भाव्यते-इह हि सर्वोत्कृष्टादपि देशविरतिविशुद्धिस्थानात् सर्वजघन्यमपि सर्वविरति विशुद्धिस्थानमनन्तगुणं, CACASEARCH For Private & Personel Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा अनन्तगुणता च सर्वत्रापि षट्स्थानकचिन्तायां सर्वजीवानन्तकप्रमाणेन गुणकारेण द्रष्टव्या इयमत्र भावना सर्वजघन्यमपि रोद्धारे सर्वविरति विशुद्धिस्थानं केवलिप्रज्ञाच्छेदन केन विच्छिद्यते, छित्त्वा च निर्विभागा भागाः पृथक् क्रियन्ते, ते च निर्विभागा भागाः सर्व| संकलनया विभाव्यमाना यावन्तः सर्वोत्कृष्टदेशविरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागाः भागाः सर्वजीवानन्तकरूपेण गुणकारेण गुण्यमाना जायन्ते तावत्प्रमाणाः प्राप्यन्ते, अत्राप्ययं भावार्थ:-- इह किलासत्कल्पनया सर्वोत्कृष्टस्य देशविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विभागा भागा दश सहस्राणि सर्वजीवानन्तकप्रमाणश्च राशिः शतं, ततस्तेन शतसङ्ख्येन सर्वजीवानन्तकमानेन राशिना दशसहस्रसङ्ख्या: सर्वोत्कृष्ट देश विरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागा गुण्यन्ते, जाता दश लक्षाः, एतावन्तः किल सर्वजघन्यस्यापि सर्वविरतिविशुद्विस्थानस्य निर्विभागा भागा भवन्ति, एते च सर्वजघन्यचारित्रसत्कविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागाः समुदिताः सन्तः सर्वजघन्यं संयमस्थानं भण्यते, तस्मादनन्तरं यद् द्वितीयं संयमस्थानं तत् पूर्वस्मादनन्तभागवृद्धं किमुक्तं भवति ? - प्रथमसंयमस्थानगतनिविभागभागापेक्षया द्वितीयसंयमस्थाने निर्विभागा भागा अनन्ततमेन भागेनाधिका भवन्तीति, तस्मादपि यदनन्तरं तृतीयं तत्ततोऽनन्तभागवृद्धं एवं पूर्वस्मात् पूर्वस्मादुत्तरोत्तराणि निरन्तरमनन्तभागवृद्धानि संयमस्थानानि अङ्गुलमात्रक्षेत्रासङ्ख्ये य भागगतप्रदेशर शिप्रमाणानि वाच्यानि, एतानि च समुदितानि संयमस्थानान्येकं कण्डकं भवति, कण्डकं नाम समयपरिभाषया अङ्गुलमात्रक्षेत्रासयेयभागगतप्र| देशराशिप्रमाणा सङ्ख्याऽभिधीयते, उक्तं च- “कण्डेति एत्थ भन्नइ अंगुलभागो असंखेज्जो” [कण्डकमिति भण्यतेऽङ्गुलभागोऽसत्येयः ] तस्माच्च कण्डकात् परतो यदन्यदनंतरं संयमस्थानं तत् पूर्वस्मादसङ्ख्येयभागाधिकं एतदुक्तं भवति — पाश्चात्यकण्डकसत्कचरमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया कण्डकानन्तरे संयमस्थाने निर्विभागभागगतप्रदेशा असङ्ख्येयतमेन भागेनाधिकाः प्राप्यन्ते, ततः पराणि तत्वज्ञा नवि० ॥ ४१२ ॥ २६० षड्वृद्धि हानी गा. १४१८ ॥ ४१२ ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्यान्यन्यानि संयमस्थानानि अङ्गुलमात्रक्षेत्रासयेयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि तानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धान्यवसेयानि, एतानि च समुदितानि द्वितीयं कण्डकं, तस्य च द्वितीयकण्डकस्योपरि यदन्यत् संयमस्थानं तत्पुनरपि द्वितीयकण्डकसत्कचरमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षयाऽसयभागवृद्धं ततो भूयोऽपि ततः पराणि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि भवन्ति, ततः पुनरप्येकम सङ्ख्येयभागवृद्धं संयमस्थानं, एवमनन्तभागाधिकैः कण्डकप्रमाणैः संयमस्थानैर्व्यवहितान्यसङ्ख्येयभागाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्तान्यपि कण्डकमात्राणि भवन्ति, चरमादसत्येयभागाधिकसंयमस्थानात् पराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि वाक्यानि ततः परमेकं सयभागाधिकं संयमस्थानं, ततो मूलादारभ्य यावन्ति स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तेनैव क्रमेणाभिधाय पुनरप्येकं सङ्ख्येयभागाधिकं संयमस्थानं वाच्यं इदं च द्वितीयं सत्येयभागाधिकं स्थानं, ततोऽनेनैव क्रमेण तृतीयं वाच्यं, अमूनि चैवं सत्येयभागाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, तत उक्तक्रमेण भूयो - ऽपि सङ्ख्येयभागाधिकस्थानप्रसंगे सत्येयगुणाधिकमेकं स्थानं वक्तव्यं, ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्राग्व्यतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तथैव वाच्यानि, ततः पुनरप्येकं सत्येयगुणाधिकं स्थानं वाच्यं ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वाच्यानि, ततः पुनरप्येकं सत्येयगुणाधिकं स्थानं, अमून्यप्येवं सत्येयगुणाधिकानि स्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततस्तेनैव क्रमेण पुनः सङ्ख्येयगुणाधिकस्थानप्रसंगेऽसङ्ख्येयगुणाधिकं स्थानं वाच्यं ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तथैव भूयोऽपि वाच्यानि ततः पुनरप्येकमसङ्ख्येयगुणाधिकं संयमस्थानं वाच्यं ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वाच्यानि, ततः पुनरप्येकमसङ्ख्येयगुणाधिकं, अमूनि चैवमसङ्ख्येयगुणाधिकानि संयमस्था Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥४१३॥ २६० षड्वृद्धिहानी गा.१४१८ ROCKSMSA006 नानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि, ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसङ्ख्येयगुणाधिकस्थानप्रसङ्गेऽनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वाच्यं, ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागुक्तानि भवन्ति तावन्ति तथैव वाच्यानि, ततो भूयोऽप्येकमनन्तगुणाधिक स्थानं, ततः पुनरपि मूलादारभ्य तावन्ति स्थानानि तथैव वाच्यानि, ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं स्थानं, एवमनन्तगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततो भूयोऽपि तेषामुपरि पञ्चवृद्ध्यात्मकानि संयमस्थानानि मूलादारभ्य तथैव वाच्यानि, यत्पुनरनन्तगुणवृद्धिस्थानं तन्न प्राप्यते, षट्स्थानकस्य परिसमाप्तत्वात् , इत्थंभूतान्यसलयेयानि कण्डकानि समुदितानि एकं पदस्थानकं भवति, अस्माच षटस्थानकादूर्ध्वमुक्तक्रमेणैव द्वितीयं षट्स्थानकमुत्तिष्ठति, एवमेव च तृतीयं, एवं षट्स्थानकान्यपि तावद्वाच्यानि यावदसायलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भवन्ति, उक्तं च-"छठ्ठाणगअवसाणे अन्नं छहाणयं पुणो अन्नं । एवमसंखा लोगा छठ्ठाणाणं मुणेयव्वा ।। १॥" अस्मिंश्च षट्स्थानके यादृशोऽनन्ततमो भागोऽसहयेयतमः समययतमो वा गृह्यते यादृशस्तु सङ्ख्येयोऽसङ्ख्येयोऽनन्तो वा गुणकारः स निरूप्यते-तत्र यदपेक्षयाऽनन्तगुणवृद्धता तस्य सर्वजीवसल्याप्रमाणेन राशिना भागो हियते हृते च भागे यल्लब्धं सोऽनन्ततमो भागः तेनाधिकमुत्तरं संयमस्थानं, किमुक्तं भवति-प्रथमस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागा|स्तेषां सर्वजीवसख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति ये लभ्यन्ते तावत्प्रमाणैर्निविभागैर्भागैर्द्वितीयसंयमस्थाने निर्विभागा भागा अधिकाः प्राप्यन्ते, द्वितीयसंयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागास्तेषां सर्वजीवसङ्ख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यावन्तो लभ्यन्ते तावत्प्रमाणेनिर्विभागै गैरधिकास्तृतीये संयमस्थाने निर्विभागा भागाः प्राप्यन्ते, एवं यद्यसंयमस्थानमनन्तभागवृद्धमुपलभ्यते तत्तलाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य सर्वजीवसङ्ख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते तावत्प्रमाणेनानन्ततमेन भागेनाधिक्यमवगन्तव्यं । असोयभा ४१२॥ Jan Education Intemanong For Private Personel Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A SSIREC%% गाधिकानि पुनरप्येवं-पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य सत्कानां निर्विभागभागानामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते सोऽसङ्ख्येयतमो भागः, ततस्तेनासयेयतमेन भागेनाधिकान्यसङ्ख्येयभागाधिकानि स्थानानि वेदितव्यानि, सङ्ख्येयभागाधिकानि त्वेवं-पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्योत्कृष्टेन सयेयेन भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते स सङ्ख्येयतमो भागः, ततस्तेन सषेयत| मेन भागेनाधिकानि स्थानानि वेदितव्यानि, सङ्ख्येयगुणवृद्धानि पुनरेवं-पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य ये ये निर्विभागा भागास्ते ते उत्कृष्टेन सङ्ख्येयकमानेन राशिना गुण्यन्ते गुणिते च सति यावन्तो यावन्तो भवन्ति तावत्तावत्प्रमाणानि सङ्ख्येयगुणाधिकानि स्थानानि द्रष्टव्यानि, एवमसङ्ख्येयगुणवृद्धान्यनन्तगुणवृद्धानि च भावनीयानि, नवरमसयेयगुणवृद्धौ पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य निर्विभागा भागा असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणेनासङ्ख्येयेन गुण्यन्ते, अनन्तगुणवृद्धौ तु सर्वजीवप्रमाणेनानन्तेनेति । अयं च षट्स्थानकविचारः स्थापनां विना मन्दबुद्धिभिः सम्यगवबोध्धुं न शक्यते, सा च स्थापना कर्मप्रकृतिपटेभ्यः प्रतिपत्तव्या, विस्तरभयात्तु नेह प्रद. श्यते, केवलं कियन्तमपि स्थानाशून्यार्थ स्थापनाप्रकारं प्रकाशयामः, तथाहि-प्रथमं तावत्तिर्यक्पङ्को चत्वारो बिन्दवः स्थाप्यन्ते, तेषां च कण्डकमिति संज्ञा, सर्वेषामपि चैतेषामन्योऽन्यमनन्तभागवृद्ध्या वृद्धिरवसेया, ततस्तेषामग्रतोऽसङ्ख्यातभागवृद्धिसंज्ञक एककः स्थाप्यते, ततो भूयोऽपि चत्वारो बिन्दवः, तत एकक इत्यादि तावदवसेयं यावद्विंशति बिन्दुवश्चत्वारश्चैकका जाता:, तदनु सङ्ख्यातभागवृद्धिसंज्ञको द्विकः स्थाप्यते, ततः पुनरपि विंशतिबिन्दवश्चत्वारश्चैककाः, ततो द्वितीयो द्विकः, एवं विंशतेविंशतेर्बिन्दूनामन्तराऽन्तरा चतुर्णा चतुर्णामेककानामवसाने तृतीयचतुर्थावपि द्विको क्रमेण स्थाप्यौ, तदनु भूयोऽपि चतुर्थद्विकस्याने विंशतिबिन्दवश्चत्वारश्चैककाः, एवं च जातं बिन्दूनां शतं, एककानां विंशतिश्चत्वारश्च द्विकाः, अत्रान्तरे चतुर्णा बिन्दूनामप्रतः सङ्ख्यातगुणवृद्धिसंज्ञकः प्रथमस्त्रिकः 4%AAAAAAAA EX. For Private & Personel Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४१४ ॥ संस्थाप्यते, ततः पुनरपि बिन्दूनां शतादेककानां विंशतेर्द्विकानां चतुष्टयाश्च परतो द्वितीयस्त्रिकः स्थाप्यते, एवं बिन्दूनां शते एककानां विंशतौ द्विकानां च चतुष्टये चतुष्टयेऽतिक्रान्ते तृतीयश्चतुर्थावपि त्रिकौ स्थाप्यौ, तद्नु चतुर्थत्रिकस्याप्यत्रे बिन्दूनां शतमेककानां विंशतिर्द्विकानां चतुष्टयं च स्थाप्यते, ततो जातानि पश्च शतानि बिन्दूनां शतमेककानां विंशतिर्द्विकानां चत्वारश्च त्रिकाः, अत्रान्तरे चतुर्णा बिन्दूनामप्रतोऽसङ्ख्यातगुणवृद्धिसंज्ञकः प्रथमचतुष्कः स्थाप्यते, ततो भूयोऽपि पश्च शतानि बिन्दूनां शतमेककानां विंशतिद्विकानां चत्वारश्च त्रिकाः प्रागिव स्थाप्यन्ते ततो द्वितीयचतुष्कः स्थाप्यः, एवं बिन्दूनां शतपञ्चके एककानां शते द्विकानां विंशतौ त्रिकाणां चतुष्टये चतुष्टये चातिक्रान्ते तृतीयचतुर्थावपि चतुष्कौ क्रमेण स्थाप्यौ, ततश्चतुर्थचतुष्कस्याप्रे पश्चमचतुष्कयोग्यं दलिकं | स्थापयित्वा अनन्तगुणवृद्धिसंज्ञकः प्रथमः पञ्चको न्यस्यते, एवमनेनैवानन्तरोक्तेन क्रमेण द्वितीयतृतीयचतुर्था अपि पञ्चका न्यसनीयाः, ततश्चतुर्थपञ्चकस्याप्य पञ्चमपञ्चकोचितं दलिकं लिख्यते, न च पञ्चकः स्थाप्यते, तत आद्यन्तयोः प्रत्येकं बिन्दुचतुष्टयेन प्रथमं षट्स्थानं समाप्यते, यदा पुनः प्रथमानन्तरं द्वितीयं षट्स्थानकं स्थापयितुमिष्यते तदा तदपेक्षया प्रथमं पृथक्चत्वारो विन्दवः स्थाप्यन्ते, तदनन्तरमेककादिः सर्वोऽपि पूर्वोक्तविधिः क्रमेण कर्तव्य इति, साम्प्रतमङ्कानां बिन्दूनां च सर्वसङ्ख्या कथ्यते तत्रैकस्मिन् षट्स्थानके चत्वारः पथ्वका भवन्ति, ततः पञ्चभिर्वा गुणयेदिति करणवशाश्चतुर्णा पञ्चकानां पञ्चभिर्गुणने लब्धा विंशतिचतुष्काः, एतेषामपि पञ्चभिर्गुणने लब्धं शतं त्रिकाणां तेषामपि पश्चभिर्गुणने लब्धानि पञ्च शतानि द्विकानां तेषामपि च पश्चभिर्गुणने लब्धे द्वे सहस्रे सार्धे एककानां तेषामपि च पञ्चभिर्गुणने लब्धानि द्वादश सहस्राणि सार्धानि बिन्दूनां १२५००, इयमेकस्मिन् पट्स्थाने सर्वसङ्ख्या, एवं शेषेष्वपि षट्स्थानकेषु प्रतिपत्तव्यमिति, २६०॥१८॥ इदानीं 'अवहरिडं जाई नेव तीरंति' स्ये कषष्ट्यधिकद्विशततमं द्वारमाह २६० षड्वृद्धिहानी गा. १४१८ ॥ ४१४ ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCCCCAECO- समणी १ मवगयवेयं २ परिहार ३ पुलाय ४ मप्पमत्तं ५ च । चउदसपुत्विं ६ आहारगं च ७ न य कोइ संहरइ ॥१९॥ श्रमणी-अजिह्मब्रह्मचरणशरणां साध्वीं अपगतवेदं-क्षपितवेदं 'परिहार'त्ति प्रतिपन्नपारिहारिकतपश्चरण पुलाकं-लब्धिपुलाकं अप्रम-अप्रमत्तसंयतं चतुर्दशपूर्विणं-चतुर्दशपूर्वधरं आहारकं च-आहारकशरीरिणं नैव कोऽपि-विद्याधरदेवादिः (ग्रन्थानं १७०००) संहरति-प्रत्यनीकतयाऽनुकम्पया अनुरागेण वोरिक्षप्यान्यत्र क्षिपति, इह च न सर्वोऽपि चतुर्दशपूर्वधर आहारकलब्धिमान् भवति, किंतु कश्चिदेवेति ज्ञापनार्थमाहारकग्रहणं ॥ २६१ ॥ १९ ॥ इदानीं 'अंतरदीव'त्ति द्विषष्ट्यधिकं द्विशततमं द्वारमाह चुल्लहिमवंतपुवावरेण विदिसासु सायरं तिसए । गंतूणंतरदीवा तिन्नि सए हुंति विच्छिन्ना ॥२०॥ अउणावन्ननवसए किंचूणे परिहि तेसिमे नामा । एगोरुअ १ आभासिय २ वेसाणी चेव ३ नंगूली ४॥२१॥ एएसिं दीवाणं परओ चत्तारि जोयणसयाणि । ओगाहिऊण लवणं सपडिदिसिं चउसयपमाणा ॥ २२॥ चत्तारंतरदीवा हय ५ गय ६ गोकन्न ७ संकुलीकन्ना ८। एवं पंचसयाई छस्सय सत्तट्ट नव चेव ॥ २३ ॥ ओगाहिऊण लवणं विक्खंभोगाहसरिसया भणिया । चउरो चउरो दीवा इमेहिं नामेहिं नायवा ॥ २४ ॥ आयंसमिंढगमुहा अयोमुहा गोमुहा य चउरोए १२ । अस्समुहा हस्थिमुहा सीहमुहा चेव वाघमुहा १६॥ २५॥ तत्तो य आसकन्ना हरिकन्न अकन्न कनपावरणा २० । उक्कमुहा मेहमुहा विजमुहा विजुदंताय २४ ॥ २६ ॥ For Private & Personel Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9STR- रोद्धारे २६१ असंहरणीयाः २६२ अम्तरद्वीपाः गा. १४१९-३१ नवि० ॥४१५॥ घणदंत लट्ठदंता य गूढदंताय सुद्धदेता य २८। वासहरे सिहरिमि य एवं चिय अट्टवीसावि ॥ २७॥ तिन्नेव हुंति आई एगुत्तरवाड्डिया नवसयाओ । ओगाहिऊण लवणं तावइयं चेवविच्छिन्ना ॥२८॥ इह जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां लवणार्णवजलसंस्पर्शी महाहिमवदपेक्षया क्षुल्लो-लघुहि- मवन्नामा पर्वतः समस्ति, तस्य लवणार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि प्रत्येकं द्वे द्वे गजदन्ताकारे दंष्ट्र विनिर्गते, तत्र ईशान्यां दिशि या निर्गता दंष्ट्रा तस्यां हिमवतः पर्यन्तादारभ्य त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रं गत्वा-अवगाह्य अत्रान्तरे योजनशतत्रयायामविष्कम्भः किश्चिन्यूनकोनपञ्चाशदधिकनवयोजनशतपरिरय एकोरुकनामा द्वीपो वर्तते, अयं च पञ्चधनुःशतप्रमाणविकम्भया गव्यूतद्वयोच्छ्रितया पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च सर्वतः परिमण्डितः, एवं सर्वेऽप्यन्तरद्वीपाः प्रत्येकं पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च परिक्षिप्तपरिसराः समवसेयाः, एवं तस्यैव हिमवतः पर्वतस्य पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाझ द्वितीय दंष्ट्राया उपरि एकोरुकबीपप्रमाण आभासिकनामा द्वीपो वर्तते, तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादा. रभ्य दक्षिणपश्चिमायां दिशि नैर्ऋतकोणे इत्यर्थः त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य दंष्ट्राया उपरि यथोक्तप्रमाणो वैषाणिकनामा द्वीपः, तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायामेव दिशि पर्यन्तादारभ्य पश्चिमोत्तरस्यां दिशि वायव्यकोणे इत्यर्थः त्रीणि योजनशतानि लवण|समुद्रमध्ये चतुर्थी दंष्ट्रामतिक्रम्यात्रान्तरे पूर्वप्रमाणो नाङ्गोलिकनामा द्वीपः, एवमेते हिमवतश्चतसृष्वपि विदिक्षु तुल्यप्रमाणाश्चत्वारोन्तरे-लवणसमुद्रमध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपा अवतिष्ठन्ते, तत एतेषामेकोरुकादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतः 'सपडिदिसं'ति प्रत्येकं पूर्वो OSAXSASA ॥४१५॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तरादिविदिक्षु चतसृष्वपि चत्वारि चत्वारि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपवेदिकातश्चतुर्योज| नशतप्रमाणान्तरा हयकर्णगजकर्णगोकर्णशष्कुलीकर्णनामानश्चत्वारोऽन्तरद्वीपाः, तद्यथा - एकोरुकस्य परतो ह्यकर्ण: आभासिकस्य परतो । गजकर्णः वैषाणिकस्य परतो गोकर्णः नङ्गोलिकस्य परतः शष्कुलीकर्ण इति, एवमग्रेऽपि भावना कार्या, तत एतेषामपि हयकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतः पुनरपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं पञ्च पञ्च योजनशतानि व्यतिक्रम्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपवेदिकातः पञ्च योजनशतप्रमाणान्तरा आदर्शमुखमेण्ढमुखायोमुखगोमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः, एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुर्णा | द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं षट् षट् योजनशतानि व्यतिक्रम्य षट्षड्योजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपबेदिकातः षड्योजनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुख व्याप्रमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः, एतेषामप्यश्वमुखादीनां चतुर्णां द्वीपानां परतो भूयो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिषु विदिक्षु प्रत्येकं सप्तयोजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपवेदिकातः सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकहरिकर्णाकर्ण कर्णप्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपाः, एतेषामप्यश्वकर्णादीनां चतुर्णां द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टावष्टौ योजनशतान्यतिक्रम्याष्ट्रयोजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपवेदिकातोऽष्टयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्कामुखमेघमुखविद्युन्मुखविद्युद्दन्तामिधानाश्चत्वारो द्वीपाः, ततोऽमीषामप्युल्कामुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं नवनवयोजनशतान्यतिक्रम्य नवयोजनशतायामविष्कम्भा जम्बूद्वीपवेदिकातो नवयोजनशतप्रमाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगूढदन्तशुद्धदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपाः, एवमेते हिमवति पर्वते चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिताः सर्वसंख्यया अष्टाविंशतिः, एवं शिखरिण्यपि वर्षघरे - पर्वते लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिता एकोरुकादिनामानोऽष्टाविंशतिसङ्ख्या द्वीपा वक्तव्याः, ततः सर्वस Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० न्तरद्वीपा । ॥४१६॥ यया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपा भवन्तीति ॥ २० ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४॥ २५ ॥ २६ ॥ २७॥ २८॥ अथैतेषु वर्तमा- |२६२ अनानां मनुष्याणां स्वरूपमाह-'संती' त्यादिगाथात्रयं, संति इमेसु नरा बजरिसहनारायसंहणणजुत्ता। समचउरंसगसंठाणसंठिया देवसमरूवा ॥२९॥ अट्टधणुस्सयदेहा किंचूणाओ नराण इत्थीओ। पलियअसंखिजइभागआऊया लक्खणोवेया ॥३०॥ दसविहकप्पदुमपत्तवंछिया तह न तेसु दीवेसु । ससिसूरगहणमक्कूणयामसगाइया हुँति ॥ ३१॥ एतेषु सर्वेष्वप्यन्तरद्वीपेषु नरा:-पुरुषाः सन्ति-सदैव परिवसन्ति, ते च वर्षभनाराचसंहननिनः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिता देवलोकानुकारिरूपलावण्याकारशोभितविग्रहा अष्टधनुःशतप्रमाणशरीरोच्छ्रयाः, स्त्रीणां त्विदमेव प्रमाणं किञ्चिन्यूनं द्रष्टव्यं, तथा पल्यो-|| पमासङ्ख्येयभागप्रमाणायुषः समग्रशुभलक्षणतिलकमषाद्युपेताः स्त्रीपुरुषयुगलव्यवस्थिता दशविधकल्पपादपावाप्तवाञ्छितोपभोगसम्पदः प्रकृत्यैव प्रतनुक्रोधमानमायालोभाः संतोषिणो निरौत्सुक्या मार्दवार्जवसंपन्नाः सत्यपि मनोहारिणि मणिकनकमौक्तिकादिके ममत्वकारणे ममत्वामिनिवेशरहिताः सर्वथाऽपगतवैरानुबन्धाः परस्परप्रेष्यप्रेषकभावरहितत्वादहमिन्द्राः हस्त्यश्वकरभगोमहिष्यादिसद्भावेऽपि तत्परिभोगपराङ्मुखाः पादविहारचारिणो ज्वरादिरोगभूतपिशाचादिग्रहव्यसनविरहिताः, चतुर्थाचाहारमेते गृहन्ति, आहारश्च शाल्या दिधान्यसद्भावेऽपि न तन्निष्पन्नः, किंतु शर्करातोऽप्यनन्तगुणमाधुर्या मृत्तिका चक्रवर्तिभोजनादप्यधिकमधुराणि कल्पद्रुमपुष्पफलानि चेति, चतु:षष्टिश्च पृष्ठकरण्डकास्तेषां, षण्मासावशेषायुषश्वामी स्त्रीपुरुषयुगलं प्रसुवते, एकोनाशीतिदिनानि च तत्परिपालयन्ति, स्तोकस्नेहकषाय ACSCAX ॥४१६॥ For Private & Personel Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %AAAAAKA4%A तया च ते मृत्वा दिवं ब्रजन्ति, मरणं च तेषां जृम्भाकासक्षुतादिमात्रपुरस्सरं न शरीरपीडयेति, तथा तेषु द्वीपेष्वनिष्टसूचकाश्चन्द्रसू-18 योपरागादयः शरीरोपद्रवकारिणश्च मत्कूणयूकामशकमक्षिकादयो न भवन्ति, येऽपि च जायन्ते भुजगव्याघ्रसिंहादयस्तेऽपि मनुष्याणां न बाधितुमलं, नाप्यन्योऽन्यं हिंस्यहिंसकभावे वर्तन्ते, क्षेत्रानुभावतो रौद्रभावरहितत्वात् , अत एव तेऽपि मृत्वा दिवमेव ब्रजन्ति, भूमिरपि तत्र रेणुपङ्ककण्टकादिरहिता सकलदोषपरित्यक्ता सर्वत्र समतला रमणीया च वर्तत इति, यच्चात्र सूत्रातिरिक्तमुक्तं तत्सर्वमुपलक्ष-1 णत्वाद् द्रष्टव्यं २६२ ॥ २९ ॥ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ इदानीं 'जीवाजीवाणं अप्पबहुयंति त्रिषष्ट्यधिकद्विशततमं द्वारमाह नर १ नेरइया २ देवा ३ सिद्धा ४ तिरिया ५ कमेण इह हुँति । थोव १ असंख २ असंखा ३ अणंतगुणिया ४ अनंतगुणा ५ ॥ ३२॥ नारी १ नर २ नेरइया ३ तिरिच्छि ४ सुर ५ देवि ६ सिद्ध ७ तिरिया ८ य । थोव असंखगुणा चउ संखगुणाऽणतगुण दोन्नि ॥ ३३ ॥ तस तेउ पुढवि जल वाउकाय अकाय वणस्सइ सकाया । थोव असंखगुणाहिय तिन्नि दोऽणंतगुणअहिया ॥ ३४ ॥ पण चउ ति दु य अणिदिय एगिदि सइंदिया कमा हुंति। थोवा तिन्नि य अहिया दोऽणंतगुणा विसेसहिया ॥ ३५ ॥ जीवा पोग्गल समया दव पएसा य पज्जवा चेव । थोवाणंताणता विसेसअहिआ दुवेऽणंता ॥ ३६ ॥ इह सर्वत्र यथासयेन पदयोजना, तत्र सर्वस्तोकास्तावन्नरा-मनुष्याः सहधेयकोटीकोटीमात्रप्रमाणत्वात, तेभ्यो नैरयिका असयगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमवर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनी-|| Jain Education Interational For Private Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्वज्ञा नवि० ॥४१७॥ कृतस्य लोकस्यैकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् , तेभ्यो देवा असोयगुणाः, व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां च |||२६३ जीप्रत्येक प्रतरासङ्ख्येयभागवर्तिश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः, कालस्यानन्तत्वात् षण्मासान्ते च कस्य-18 वाजीवाचिदवश्यं सिद्धिगमनात् तत्प्राप्तस्य च पुनरावृत्त्यभावात् , तेभ्योऽपि तिर्यच्चोऽनन्तगुणाः, अनन्तेनापि कालेनैकनिगोदानन्तभाग-1 त्पबहुत्वं वर्तिजीवराशेः सिद्धत्वात् तिर्यग्गतौ त्वसङ्ख्येयनिगोदसद्भावात् प्रतिनिगोदं च सिद्धानन्तगुणजीवराशिभावात् ॥ ३२ ॥ उक्तं नैर- गा. यिकतिर्यग्योनिकमनुष्यदेवसिद्धरूपाणां पञ्चानामल्पबहुत्वं, इदानीं नैरयिकतिर्यग्योनिकतिर्यग्योनिकीमनुष्यमानुषीदेवदेवीसिद्धलक्षणा- १४३२-६ A नामष्टानामल्पबहुत्वमाह-'नारी'त्यादि, सर्वस्तोका नार्यो-मनुष्यस्त्रियः, सङ्ख्येयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , ताभ्यो नरा-मनुष्या अस येयगुणाः, इह नरा इति संमूछिमजा अपि मनुष्या गृह्यन्ते, वेदस्याविवक्षणात् , ते च संमूछिमजा वान्तादिषु नगरनिर्धमनान्तेषु जायमाना असङ्ख्येयाः प्राप्यन्ते, तेभ्यो नैरयिका असङ्ख्येयगुणाः, मनुष्या ह्युत्कृष्टपदेऽपि श्रेण्यसयेयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा लभ्यन्ते, नैरयिकास्त्वङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसत्कतृतीयवर्गमूलगुणितप्रथमवर्गमूलप्रमाणश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः, ततो भवन्त्यसख्येयगुणाः, तेभ्यस्तिर्यग्योनिकाः स्त्रियोऽसयेयगुणाः, प्रतरासङ्ख्येयभागवय॑सङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , ताभ्योऽपि देवा असोयगुणाः, असोयगुणप्रतरासङ्ख्येयभागव_सङ्ख्येयश्रेणिगतप्रदेशराशिमानत्वात् , तेभ्योऽपि देव्यः सोयगुणाः, द्वात्रिंश| गुणत्वात् , ताभ्योऽपि सिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, अत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता ।। ३३ ॥ अथ सामान्येनैव जन्तूना कायविशेषणविशेषितानामल्पबहुत्वमाह-'तसे'त्यादि, सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव त्रसकायत्वात् , तेषां ॥४१७॥ च शेषकायापेक्षयाऽत्यल्पत्वात् , तेभ्यस्तैजसकायिका असङ्ख्येयगुणाः, असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्यः पृथिवीकायिका 44-ACCAAAAAG For Private & Personel Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषाधिकाः, प्रभूतासङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशमानत्वात् , तेभ्योऽकायिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्यो वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यः सकाया विशेषाधिकाः, पृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ ३४ ॥ साम्प्रतमेकेन्द्रियत्वादिविशेषणविशिष्टानां जन्तूनामल्पबहुत्वमाह-'पणे त्यादि, सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियाः, सङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणविष्कम्भसूचीप्रमितप्रतरासङ्ख्येयभागव_सङ्ख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशे-18 पाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूतसङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततरसोययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततमसयेययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽनिन्द्रिया अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽप्येकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योsप्यनन्तगुणत्वात् , तेभ्योऽपि सेन्द्रिया विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ ३५ ॥ अथ जीवपुद्गलादीनामल्पबहुत्वमाह| 'जीवे'त्यादि, वक्ष्यमाणापेक्षया सर्वस्तोका जीवाः, तेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणाः, इह हि परमाणुद्विप्रदेशिकादीनि पृथक्पृथग्द्रव्याणि, तानि च सामान्यतनिधा-प्रयोगपरिणतानि मिश्रपरिणतानि विस्रसापरिणतानि च, तत्र प्रयोगपरिणतान्यपि तावज्जीवेभ्योऽनन्तगुणानि, एकैकस्य जीवस्यानन्तैः प्रत्येकं ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलस्कन्धरावेष्टितत्वात् , किं पुनः शेषाणि ?, यतः प्रयोगपरिणतेभ्यो मिश्रपरिणतान्यनन्तगुणानि तेभ्योऽपि विस्रसापरिणतान्यनन्तगुणानि ततो युक्तं जीवेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणाः, तेभ्योऽद्धासमया अनन्तगुणाः, यत | एकस्यापि परमाणोर्द्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषसम्बन्धवशादनन्ता भावसमया उपलब्धाः, यथैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां | For Private Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा- १ नवि० ★ ४१८ ॥ च प्रत्येकं द्विप्रदेशिकादीनां स्कन्धानामेव मन्यान्यद्रव्यक्षेत्रकालभावसम्बन्धिनामनन्ताः समया अतीता अनागता अपीति सिद्धं पुद्गलेभ्यः समयानाम नन्तगुणत्वं, तेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि कथमिति चेद् उच्यते इह ये अनन्तरमद्धासमयाः पुद्गलेभ्योऽनन्तगुणा उक्तास्ते प्रत्येकं द्रव्याणि ततो द्रव्यचिन्तायां तेऽपि गृह्यन्ते तेषु मध्ये सर्वजीवद्रव्याणि सर्वपुद्गलद्रव्याणि धर्माधर्माकाशास्तिकायद्रव्याणि च प्रक्षिप्यन्ते तानि च समुदितान्यप्यद्धासमयानामनन्तभागकल्पानीति तेषु प्रक्षिप्तेष्वपि मनागधिकत्वं जातमित्यद्धासमयेभ्यः सर्वद्रव्याणि विशेषाधिकानि, तेभ्यः सर्वप्रदेशा अनन्तगुणाः, एकस्याप्यलोकाकाशद्रव्यस्य सर्वद्रव्यानन्तगुणप्रदेशत्वात्, तेभ्यः सर्वपर्यवा अनन्तगुणाः, एकैकस्मिन्ना काशप्रदेशेऽनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां सद्भावादिति ॥ २६३ ॥ ३६ ॥ इदानीं 'जुगप्पहाणसूरिसंख'त्ति चतुःषष्ट्यधिकद्विशततमं द्वारमाह— जादुपसह सूरी होहिंति जुगप्पहाण आयरिया । अज्जहुम्मप्पभिई चउरहिया दुनिय सहस्सा ॥ ३७ ॥ इहावसर्पिण्यां दुष्षमावसानसमये द्विहस्तोच्छ्रितवपुर्विंशतिवर्षायुष्कः पुष्कलतपःक्षपितकर्मतया समासन्नसिद्धिसौधः शुद्धान्तरात्मा दशवैकालिकमात्रसूत्रधरोऽपि चतुर्दशपूर्वधर इव शक्रपूज्यो दुप्रसभनामा सर्वान्तिमः सूरिर्भविष्यति, ततस्तं दुष्प्रसभं यावत्तमभिव्याप्यैवेत्यर्थः, आर्यसुधर्मप्रभृतयः आरात् सर्वद्देयधर्मेभ्योऽर्वाग्यातः आर्यः स चासौ सुधर्मस्तत्प्रभृतयः, प्रभृतिप्रहणाञ्च जम्बूस्वामिप्रभव| शय्यम्भवाद्या गणधरपरम्परा गृह्यते, युगप्रधानाः- तत्कालप्रचरत्पारमेश्वरप्रवचनोपनिषद्वेदित्वेन विशिष्टतरमूलगुणोत्तरगुणसंपन्नत्वेन च तत्कालापेक्षया भरतक्षेत्रमध्ये प्रधाना आचार्याः - सूरयश्चतुरधिकसहस्रद्वयप्रमाणा भविष्यन्ति, अन्ये तु चतूरहितसहस्रद्वयप्रमाणा इत्याहुः, २६४ युग प्रधानाः १४३७ ॥ ४१८ ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वं तु सर्वविदो विदन्ति, यच्च महानिशीथग्रन्थे जग्रन्थ ग्रन्थकार:-इत्थं चायरियाणं पणपन्ना होंति कोडिलक्खाओ । कोडिसहस्से कोडीसए य तह इत्तिए चेवत्ति ॥ १॥" [इत्थं चाचार्याणां पञ्चपञ्चाशत्कोटीलक्षाः कोटीसहस्रा कोटीशतं तथैतावन्त एवेति ॥१॥] (५५५५१५५ कोट्यः) तत्सामान्यमुनिपत्यपेक्षया द्रष्टव्यं, तथा च तत्रैवोक्तम्-"एएसि मज्झाओ एगे निब्बडइ गुणगणा| इन्ने । सव्वुत्तमभंगेणं तित्थयरस्साणुसरिस गुरू ॥१॥" [एतेषां मध्यात् एके निपतन्ति गुणगणाकीर्णाः सर्वोत्तमभङ्गे तीर्थकरानुसदृशा गुरवः ॥ १॥] २६४ ॥ ३७ ॥ इदानीं 'उस्सप्पिणिअंतिमजिणतित्थप्पमाणं'ति पश्चषष्ट्यधिकद्विशततमं द्वारमाह ओसप्पिणअंतिमजिण तित्थं सिरिरिसहनाणपज्जाया । संखेजा जावइया तावयमाणं धुवं . भविही ॥ ३८॥ इह श्रीऋषभस्वामिनः केवलज्ञानपर्यायो वर्षसहस्रोन एकः पूर्वलक्षः, तत एवंखरूपा ज्ञानपर्यायाः सङ्ख्यया यावन्तो भवन्ति तावत्प्रमाणमुत्सर्पिण्यामन्तिमजिनस्य चतुर्विशतितमस्य भद्रकृन्नाम्नस्तीर्थकृतस्तीर्थ ध्रुव-निश्चितं भविष्यति, सयेयपूर्वलक्षमानं तत्तीर्थमित्यर्थः, २६५ ॥ ३८ ॥ इदानीं 'देवाण पवियारोत्ति षषष्ट्यधिकद्विशततमं द्वारमाह-.. दो कायप्पवियारा कप्पा फरिसेण दोन्नि दो रूवे । सद्दे दो चउर मणे नस्थि वियारो उवरि यत्थी ॥ ३९ ॥ गेविजणुत्तरेसुं अप्पवियारा हवंति सबसुरा । सप्पवियारठिईणं अणंतगुणसो क्खसंजुत्ता ॥४०॥ द्वौ कल्पाविति मर्यादायां कल्पशब्देन च तास्थ्यात् कल्पस्था देवाः, ततोऽयमर्थः-भवनपत्यादय ईशानान्ता देवाः क्लिष्टोदकपुंवेदा FORCECA-NCCIRC Join Education Intematonal For Private Personel Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४१९ ॥ नुभावान्मनुष्यवन्मैथुने निमज्जन्तः सर्वाङ्गीणं कायक्लेशजं स्पर्शानन्दमासाद्य तृप्यन्ति नान्यथेति, कार्यन - शरीरेण मनुष्यस्त्रीपुंसानामिव प्रवीचारो - मैथुनोपसेवनं ययोस्ती कायप्रवीचारौ, तथा स्पर्शेन द्वौ सनत्कुमारमाहेन्द्रौ सप्रवीचारौ, तद्देवा हि मैथुनाभिलाषिणो देवीनां स्तनाद्यवयवस्पर्शलीलयैव कायप्रवीचार देवेभ्योऽनन्तसुखमवाप्नुवन्ति तृप्ताश्च जायन्ते, देवीनामपि देवैः स्पर्शे कृते सति दिव्यप्रभावतः शुक्रपुद्गलसंचारेणानन्तगुणं सुखमुत्पद्यते, एवमग्रेऽपि भावना कार्या, तथा द्वौ ब्रह्मलोकलान्तकौ रूपदर्शने सप्रवीचारौ, देवीनां दिव्योन्मादजनकरूपावलोकनेनैव तत्र सुराः सुरतसुखजुषो जायन्त इत्यर्थः तथा द्वौ शुक्रसहस्रारौ देवीशब्दे श्रुते सति सप्रवीचारौ, सुरसुन्दरीणां सविलासगी तहसितभाषितभूषणादिध्वनि माहादकमाकर्ण्य उपशांतवेदास्तत्र देवा भवन्तीत्यर्थः तथा चत्वारः - आनतप्राणतारणाच्युताभिधानदेवलोक देवा मनसा सप्रवीचारा भवन्ति, ते हि यदा प्रवीचारचिकीर्षया देवीश्वित्तस्य गोचरीकुर्वन्ति तदैव तास्तत्संकल्पाज्ञानेऽपि तथाविधस्वभावतः कृताद्भुतशृङ्गाराः स्वस्थानस्थिता एव उच्चावचानि मनांसि दधाना मनसैव भोगायोपतिष्ठन्ते, तत इत्थमन्योऽन्यं मनःसङ्कल्पे दिव्यप्रभावादेव देवीषु शुक्रपुद्गलसंक्रमत उभयेषां कायप्रवीचारादनन्तगुणं सुखं संपद्यते तृप्तिश्वोल्लसतीति, उपरि च - मैवेयकादिषु स्त्रीप्रवीचारः - स्त्रीसेवा सर्वथा नास्तीति ॥ ३९ ॥ अत एवाह – 'गेवेज्जे' त्यादि, मैवेयकेषु नवसु अनुत्तरविमानेषु पञ्चसु अप्रवीचारा - मैथुन सेवाविरहिता भवन्ति सर्वेऽपि सुरा देवाः, नन्वेवं तेषामप्रवीचाराणां सुखं किंचिन्न भविष्यतीत्याह-सप्रवीचार स्थितिभ्यो देवेभ्यः सकाशादनन्तगुण सौख्य संयुक्तास्ते ग्रैवेयका अनुत्तरसुराश्च भवन्ति, प्रतनुमोहोदयतया प्रशमसुखान्तर्लीनत्वात् ते च तथाभवस्वभावत्वेन चारित्रपरिणामाभावान्न ब्रह्मचारिण इति २६६ ॥ ४० ॥ संप्रति 'कण्हराईण सरूवं ति सप्तषष्ट्य |धिकदिशततमं दारमाह २६५ भवु कृतीर्थं २६६ देवप्रविचारः गा. १४३८-४० ॥ ४१९ ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHORESEARCHES पंचमकप्पे रिहमि पत्थडे अट्ठ कण्हराईओ। समचउरंसक्खोडयठिइओ दो दोदिसिचउक्के ॥४॥ पुत्वावरउत्तरदाहिणाहि मज्झिल्लियाहि पुट्ठाओ । दाहिणउत्तरपुवा अवरा बहिकण्हराईओ॥४२॥ पुवावरा छलंसा तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा । अब्भंतरचउरंसा सवावि य कण्हराईओ॥४३॥ आयामपरिक्खेवेहिं ताण अस्संखजोयणसहस्सा । संखेजसहस्सा पुण विक्खंभे कण्हराईणं ॥४४॥ ईसाणदिसाईसुं एयाणं अंतरेसु अट्ठसुवि । अह विमाणाई तहा तम्मज्झे एक्कगविमाणं ॥४५॥ अचिं१ तहऽचिमालि २ वइरोयण ३ पभंकरे य ४ चंदाभं ५। सूराभं ६ सुक्कामं । सुपइहाभं च ८रिहाभ ९॥४६॥ अहायरहिया वसंति लोगंतिया सुरा तेसुं। सत्तट्ठभवभवंता गिजंति इमेहिं नामेहिं ॥४७॥ सारस्सय १ माइचा २ वण्ही ३ वरुणा य४ गहतोया ५य। तुसिया ६ अवाबाहा ७ अग्गिचा ८ चेव रिहा य ९॥४८॥ पढमजुयलंमि सत्त उ सयाणि बीयंमि चउदस सहस्सा । तइए सत्त सहस्सा नव चेव सयाणि सेसेसु॥४९॥ पञ्चमे ब्रह्मलोकनामके कल्पे तृतीये रिष्ठप्रस्तटे अष्टौ कृष्णराज्यो भवन्ति, कृष्णाः सचित्ताचित्तपृथिवीपरिणामरूपा राज्यो-मित्त्याकारव्यवस्थिताः पतयः कृष्णराज्यः, कथंभूतास्ता इत्याह-'समचतुरस्राः' समाः-सर्वास्वपि दिक्षु तुल्याः चतुरस्राः चतुष्कोणाः अत एवाखाटकस्थितयः, इहाखाटकाः प्रेक्षास्थाने आसनविशेषलक्षणाः, प्रज्ञप्तिटीकायां तथा व्याख्यानात् , तत्स्थितयः-तत्सदृशाकाराः, यथा चैता व्यवस्थितास्तथा दर्शयति-'दो दो दिसिचउक्के'त्ति दिक्चतुष्के-चतसृष्वपि पूर्वादिषु दिक्षु द्वे द्वे कृष्णराज्यौ व्यवस्थिते,31 **%%%%ारक कृष्णराज्यो म चेव सपाणि पदमजुयलमि गहतोया भवन KAIN For Private & Personel Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४९ ॥ अथ ताज्या स्पृष्टाः, अयमर्थः-पौरस्त्यान्यावाद्यामिति ॥४२॥ स्थापना चेयं । कोणाव ॥४२०॥ CCOACToCc-MOR तथाहि-पूर्वस्या दक्षिणोत्तरायते तिर्यग्विस्तीर्णे द्वे कृष्णराज्यौ, एवं दक्षिणस्यां पूर्वापरायते अपरस्यां दक्षिणोत्तरायते उत्तरस्यां पूर्वापरायते 8|२६७ - इति ॥ ४१ ।। अथ तासामेव पुनः स्वरूपमाह-'पु'त्यादि, पूर्वीपरोत्तरदक्षिणाभिर्मध्यवर्तिनीभिः कृष्णराजीमिः क्रमेण दक्षिणोत्तर-12 ष्णराजीपूर्वापराबहिर्वर्तिन्यः कृष्णराज्यः स्पृष्टाः, अयमर्थः-पौरस्त्याभ्यन्तरा कृष्णराजी दक्षिणबाह्यां कृष्णराजी स्पृशति, एवं दक्षिणाभ्यन्तरालोकान्तिपश्चिमबाह्यां पश्चिमाऽभ्यन्तरा उत्तरबाह्यां उत्तराभ्यन्तरा च पूर्वबाह्यामिति ॥४२॥ स्थापना चेयं । कोणविभागस्त्वेवं-'पवावरे'त्यादि, काधि गा. पौरस्त्यपाश्चात्ये द्वे बाह्ये कृष्णराज्यौ षडने-षट्कोटिके, उत्तरादाक्षिणाये पुनर्बाह्ये द्वे कृष्णराज्यौ त्र्यले अभ्यन्तराः सर्वा अपि-चत- १४४१-९ स्रोऽपि कृष्णराज्यश्चतुरस्राः ॥ ४३ ॥ साम्प्रतमेतासामेव प्रमाणमाह-'आयामे'त्यादि, आयामपरिक्षेपाभ्यां-दैर्घ्यपरिधिभ्या तासांकृष्णराजीनामसख्याता योजनसहस्रा भवन्ति, विष्कम्भे-विस्तारे पुनः कृष्णराजीनां सङ्ख्याता योजनसहस्रा इति ॥ ४४ ॥ अथैतासां मध्ये विमानसंयोजनामाह-'ईसाणे'त्यादि, एतासामष्टानां कृष्णराजीनामीशानदिगादिष्वष्टस्वप्यन्तरेषु-राजीद्वयमध्यलक्षणेष्ववकाशान्तरेध्वष्टौ विमानानि भवन्ति, तथा तन्मध्ये-तासां बहुमध्यभागे एकं विमानं ॥ ४५ ॥ तान्येव विमानानि नामतः प्राह-'अच्ची'त्यादि, अयमर्थः-अभ्यन्तरोत्तरपूर्वयोः कृष्णराज्योरन्तरे अर्चिर्विमानं १ एवं पूर्वयोरर्चिालिः २ अभ्यन्तरपूर्वदक्षिणयोवैरोचनं ३ दक्षिणयोः प्रभङ्करं ४ अभ्यन्तरदक्षिणपश्चिमयोश्चन्द्राभं ५ पश्चिमयोः सूराभं ६ अभ्यन्तरपश्चिमोत्तरयोः शुक्राभं ७ उत्तरयोः सुप्रतिष्ठाभ ८ सर्वकृष्णराजीमध्यभागे तु रिष्ठाभमिति ९॥ ४६ ॥ अथैतन्निवासिनो देवानाह-'अट्ठाये'त्यादि, तेष्वेवाकाशान्तरवर्तिध्वष्टासु अर्चिःप्रभृ-18 |तिषु विमानेषु 'लोकान्तिकाः' लोकस्य-ब्रह्मलोकस्यान्ते-समीपे भवाः सुरा-देवाः परिवसन्ति, कथंभूता इत्याह-'अष्टातरस्थितयः' ॥४२०॥ अष्टावतराणि-सागरोपमाणि स्थितिर्येषां ते तथा, तथा सप्तमिरष्टभिर्वा भवैर्भवान्तो मुक्तिर्येषां ते सप्ताष्टभवभवान्ताः एतैश्च-वक्ष्यमा For Private Personal use only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गैर्नामभिरमी गीयन्ते-कथ्यन्ते ॥ ४७ ॥ तान्येव नामानि विमानक्रमेणाह-'सारे'त्यादि, सारस्वताः १ मकारोऽलाक्षणिकः आदि- II त्याः २ वह्वयः ३ वरुणाः ४ गर्दतोयाः ५ तुषिताः ६ अव्याबाधाः ७ आग्नेयाः ८ एते संज्ञान्तरतो मरुतोप्यभिधीयन्ते, रिष्ठाश्चेति तास्थ्यात्तद्व्यपदेश' इति रिष्ठविमानाधारा रिष्ठाः ९, एते च सारस्वतादयो लोकान्तिकसुराः प्रव्रज्यासमयात्संवत्सरेणाागेव स्वयंसम्बुद्धमपि जिनेन्द्रं कल्प इतिकृत्वा भगवन् ! सर्वजनजीवहितं तीर्थ प्रवर्तयेति बोधयन्ति ॥४८॥ अथैतेषां देवानां परिवारमाह पढमे त्यादि, अयमत्राभिप्रायः-सारस्वतादित्ययोः समुदितयोः सप्त देवाः सप्त च देवशतानि परिवारः, एवं वह्रिवरुणयोश्चतुर्दश देवा|श्चतुर्दश च देवसहस्राः, गर्दतोयतुषितयोः सप्त देवाः सप्त च देवसहस्राः, शेषेषु त्वव्यावाधाग्नेयरिष्ठेषु नव देवा नव च देवशतानीति, ।। २६७ ।। ४९ ॥ इदानीं 'सज्झायस्स अकरणं' त्यष्टषष्ट्यधिकद्विशततमं द्वारमाह संजमघा १ उप्पाये २ सादिवे ३ वुग्गहे य ४ सारीरे ५। महिया १ सञ्चित्तरओ २ वासम्मि य ३ संजमे तिविहं ॥५०॥ महिया उगम्भमासे सचित्तरओ य ईसिआयंबे । वासे तिन्नि पगारा बुब्बुय तव्वज फुसिए य॥५१॥ दवे तं चिय दवं खेत्ते जहियं तु जचिरं कालं । ठाणाइभास भावे मोत्तुं उस्सासउम्मेसे ॥५२॥ पंसू य मंसरुहिरे केससिलावुट्टि तह रयुग्घाए । मंसरुहिरे अहरत्तं अवसेसे जचिरं सुत्तं ॥५३॥ पंसू अच्चित्तरओ रयस्सलाओ दिसा रउग्घाओ। तत्थ सवाए निवायए य सुत्तं परिहरंति ॥५४॥ गंधवदिसा विजुक्क गजिए जूव जक्खालित्ते । एक्कक्पोरिसिं गज्जियं तु दो पोरिसी हणइ ॥५५॥ दिसिदाहो छिन्नमूलो उक्क सरेहा पगाससंजुत्ता। Jan Education International For Private Personal use only www.ainelibrary.org Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMIL % प्रव०.सारोद्धारे २- X २६८ अस्वाध्यायस्वरूपं गा. १४५०-७१ * तत्त्वज्ञा नवि० ॥४२१॥ ALENDAGANESCREENAM संझाछेयावरणो उ जूवओ सुकि दिण तिन्नि ॥५६॥ चंदिमसूरुवरागे निग्याए गुंजिए अहोरत्तं । संझाचउ पडिवए जं जहि सुगिम्हए नियमा ॥ ५७॥ आसाढी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोद्धये । एए महामहा खलु एएसिं जाव पाडिवया ॥५८॥ उक्कोसेण दुवालस चंदो जहन्नेण पोरिसी अट्ट । सूरो जहन्न बारस पोरिसि उक्कोस दो अट्ठ ॥ ५९॥ सग्गह निवुड एवं सूराई जेण हुंतिऽहोरत्ता । आइन्नं दिणमुक्के सोचिय दिवसो य राई य॥६०॥ बुग्गहदंडियमाई संखोभे दंडिए व कालगए। अणरायए य सभए जच्चिरनिद्दोच्चऽहोरत्तं ॥ ६१॥ तदिवसभोइआइ अंतो सत्तण्ह जाव सज्झाओ। अणहस्स य हत्थसयं दिहिविवित्तंमि सुद्धं तु ॥६२॥ मयहर पगए बहुपक्खिए य सत्तघर अंतर मयंमि । निहुक्खत्तिय गरिहा न पढंति सणियगं वावि ॥ ६३ ॥ तिरिपंचिंदिय दवे खेत्ते सहिहत्थ पोग्गलाइन्नं । तिकुरत्थ महंतेगा नगरे बाहिं तु गामस्स ॥६४॥ काले तिपोरिसि अट्ट व भावे सुत्तं तु नंदिमाईयं । सोणिय मंसं चम्मं अट्ठीवि य अहव चत्तारि ॥६५॥ अंतो बहिं व धोयं सही हत्थाउ पोरिसी तिन्नि । महकाइ अहोरत्तं रत्ते बूढे य सुद्धं तु ॥६६॥ अंडगमुज्झिय कप्पे न य भूमि खणंति इयरहा तिन्नि । असझाइयप्पमाणं मच्छियपाया जहिं बुड्डे ॥ ६७ ॥ अजराउ तिनि पोरिसि जराउयाणं जरे पडे तिन्नि । रायपहबिदुपडिए कप्पे बूढे पुणो नत्थि ॥ ६८॥ माणुस्सयं चउद्धा अलि मोत्तूण सयमहोरत्तं । परि SASLCASE ॥४२१॥ For Private & Personel Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावन्नविवन्ने सेसे तिय सत्त अढेव ॥ ६९॥ रत्तुक्कडा उ इत्थी अट्ठ दिणे तेण सत्त सुक्कहिए। तिण्ह दिणाण परेणं अणोउगं तं महारत्तं ॥ ७० ॥ दंते दिढे विगिंचण सेसहि बारसेव वरि साई। दट्ठीसु न चेव य कीरइ सज्झायपरिहारो॥७१॥ आ-मर्यादया सिद्धान्तोक्तन्यायेन अध्ययनं-पठनं आध्यायः सुष्ठ-शोभन आध्यायः स्वाध्यायः स एव स्वाध्यायिकं यत्र नास्ति तदस्खाध्यायिक-रुधिरादि, तन्मूलभेदापेक्षया द्विधा-आत्मसमुत्थं परसमुत्थं च, आत्मन:-स्वाध्याय चिकीर्षोः समुद्भूतमात्मस मुत्थं, परस्मात्-खाध्यायकर्तुरन्यस्मात्समुद्भूतं परसमुत्थं, तत्र बहुवक्तव्यत्वात्प्रथमतः परसमुत्थमेव प्रतिपाद्यते, तच्च पञ्चविधं, तिद्यथा-संयमघाति-संयमौपघातिकं १ औत्पातिकं-उत्पातनिमित्तं २ सदैवं-देवताप्रयुक्तं ३ युग्रहः-संग्रामः ४ शारीरं च शरीरसंभवं ५, एतेषु च पञ्चस्वप्यस्वाध्यायिकेषु स्वाध्यायं विदधतः साधोस्तीर्थकदाज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । तत्र संयमे संयमोपघातविषयमस्वाध्यायिक त्रिविध-महिका सचित्तरजो वर्ष चेति । त्रीनपि भेदान् क्रमेण व्याख्यानयति-'मही'त्यादि, महिका &| गर्भमासे पतन्ती धूमरी प्रतीता, गर्भमासो नाम कार्तिकादिर्यावन्माघमासः, सा च पतनसमकालमेव सर्वमकायभावित करोति, सचित्तरजो नाम व्यवहारसचित्ता अरण्यवातोद्भूता श्लक्ष्णा धूलिः, तच्च सचित्तरजो वर्णत ईषदातानं दिगन्तरेषु दृश्यते, गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् , तदपि निरन्तरपातेन त्रयाणां दिनानां परतः सर्व पृथ्वीकायभावितं करोति, वर्षस्य पुनस्रयः प्रकारा भवन्ति, तानेवाह-'बुब्बुय'त्ति यत्र वर्षे निपतति पानीयमध्ये बुबुदाः-तोयशलाकारूपा उत्तिष्ठन्ति तद्वर्षमप्युपचाराद् बुद्बुदमित्युच्यते, तद्वर्ज-तैर्बुबुदैवर्जितं द्वितीयं वर्ष, तृतीयं 'फुसिअय'त्ति जलस्पर्शिका निपतन्त्यः, तत्र बुबुदे Jan Education Intemanon For Private Personel Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पसमा-HIवर्षे निपतति यामाष्टकावं, अन्ये तु व्याचक्षते-त्रयाणां दिनानां परतः, तद्वर्जे पञ्चानां दिनानां परतः, जलस्पर्शिकारूपे २६८ अ. रोद्धारे सप्तानां दिनाना परतः सर्वमकायस्पृष्टं भवति । अथ संयमघातिभेदानां सर्वेषामपि चतुर्विधं परिहारमाह-'दबे' इत्यादि, द्रव्ये-द्रव्यतस्तदे स्वाध्यायतत्त्वज्ञा- वास्वाध्यायिक महिका सचित्तरजो वर्ष वा वय॑न्ते, क्षेत्रे यावति क्षेत्रे महिकादि पतति तावत्क्षेत्रं, कालतो 'जच्चिर' यावन्तं कालं पतति स्वरूपं गा. नवि० तावन्तं कालं, भाव-भावतो मुक्त्वा उच्छ्वासमुन्मेषं च, तद्वर्जने जीवितव्यव्याघातसंभवात् , शेष-स्थानादिकं आदिशब्दाद्गमनाग- १४५०-७१ मनप्रतिलेखनादिपरिप्रहः कायिकी चेष्टां भाषां च वर्जयन्ति, इह च न निष्कारणेन कामपि लेशतोऽपि चेष्टां कुर्वन्ति, ग्लानादिकारणे ॥४२२॥ तु समापतिते यतनया हस्तसंज्ञया अक्षिसंज्ञया अडालीसंज्ञया वा व्यवहरन्ति पोतावरिता वा भाषन्ते वर्षाकल्पावृताश्च गच्छन्तीति । गतं संयमोपघात्यस्खाध्यायिक इदानीमौत्पातिकमाह-पंसू ये'त्यादि, अत्र वृष्टिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, पांशुवृष्टौ मांसवृष्टौ रुधि|वृष्टौ केशवृष्टौ शिलावृष्टौ च, तत्र पांशुवृष्टिर्नाम यदचित्तं रजो निपतति, मांसवृष्टिर्मासखण्डानि पतन्ति, रुधिरवृष्टिर्यत्र रुधिरबिन्दवः ।। पतन्ति, केशवृष्टिर्यदुपरिभागाकेशाः पतन्ति, शिलावृष्टिः-पाषाणनिपतनं करकादिशिलावर्षमित्यर्थः, तथा रजउद्घाते-रजस्खलासु दिक्षु सूत्रं न पठ्यते, शेषाः सर्वा अपि चेष्टाः क्रियन्ते, तत्र मांसे रुधिरे च पतति एकमहोरात्रं वय॑ते, अवशेषे-पांशुवृष्ट्यादी यावचिरं-या४ वन्तं कालं पाशुप्रभृति पतति तावन्तं कालं सूत्रं-नन्द्यादि न पठ्यते, शेषकालं तु पठ्यते । सम्प्रति पांशुरजउद्घातयोर्व्याख्यानमाह 'पंसू'इत्यादि, पांशवो नाम धूमाकारमापाण्डुरमचित्तरजः, रजउद्घातो रजस्खला दिशो यासु सतीषु समन्ततोऽन्धकारमिव दृश्यते, तत्र पांशुवृष्टौ रजउद्घाते वा सवाते निर्वाते च पतति यावत्पतनं तावत्सूत्रं परिहरन्ति । ॥ ५४॥ गतमौत्पातिकं, इदानीं सदेव ॥४२२॥ BI माह-गंध'त्यादि, गन्धर्वनगरं नाम यञ्चक्रवा दिनगरस्योत्पातसूचनाय संध्यासमये तस्य नगरस्योपरि द्वितीयं नगरं प्राकाराट्टा बटन --4+%-240 For Private Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CACACC लकादिसंस्थितं दृश्यते, "दिसत्ति दिग्दाहः, विद्युत्-तडित् उल्का-सरेखा प्रकाशयुक्ता वा गर्जितं-जीमूतध्वनिः यूपको-वक्ष्यमाणलक्षणः यक्षादीप्तं नाम-एकस्यां दिशि अन्तराऽन्तरा यद् दृश्यते विद्युत्सदृशः प्रकाशः, एतेषु मध्ये गन्धर्वनगरादिकमेकैकां पौरुषीं हन्ति, एकैकं प्रहरं यावत्स्वाध्यायो न विधीयते इति भावः, गर्जितं पुनः द्विपौरुषी हन्ति, इह च गन्धर्वनगरं नियमात् सदेवम् , अन्यथा तस्याभावात् , शेषकाणि तु दिग्दाहादीनि भाज्यानि-कदाचित्स्वाभाविकानि भवन्ति कदाचिद्देवकृतानि, तत्र स्वाभाविकेषु स्वाध्यायो न परिहियते, किंतु देवकृतेषु, परं येन कारणेन स्फुटं वैविक्त्ये न तानि न ज्ञायन्ते तेन तेषामविशेषेण परिहारः, उक्तं च-"गंधव्वनगर नियमा सादिव्वं सेसगाणि भइयाणि । जेण न ननंति फुडं तेण उ तेसिं तु परिहारो॥१॥" [गान्धर्वनगरं नियमात् सदैवं शेष-1 काणि भक्तानि । येन न ज्ञायन्ते स्फुटं तेन तु तेषां परिहार एव ॥१॥ अथ दिग्दाहादिव्याख्यानमाह-'दिसी'त्यादि, दिशि-पूर्वादिकायां छिन्नमूलो दाहः-प्रज्वलनं दिग्दाहः, किमुक्तं भवति ?-अन्यतमस्यां दिशि महानगरं प्रदीप्तमिवोपरि प्रकाशोऽधस्तादन्धकार | इति दिग्दाहः, उल्का पृष्ठतः सरेखा प्रकाशयुक्ता वा तारकस्येव पातः, यूपको नाम शुक्लपक्षे त्रीणि दिनानि यावद्, द्वितीयस्यां तृती| यस्यां चतुर्ध्या चेत्यर्थः, सन्ध्याछेदः-सन्ध्याविभागः स आत्रियते येन स सन्ध्याच्छेदावरणश्चन्द्रः, इयमत्र भावना-शुक्लपक्षे द्वितीयातृतीयाचतुर्थीरूपेषु त्रिषु दिनेषु सन्ध्यागतश्चन्द्र इतिकृत्वा सन्ध्या न विभाव्यते ततस्तानि शुक्लपक्षे त्रीणि दिनानि यावञ्चन्द्रः सन्ध्याच्छेदा-14 वरणः स यूपक इति, एतेषु त्रिषु दिनेषु प्रादोषिकं कालं न गृह्णन्ति प्रादोषिकी च सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति, सन्ध्याच्छेदाविभावनेन कालवेलापरिज्ञानाभावादिति, न केवलं अमूनि सदेवानि, किंत्वन्यान्यपि, तान्येवाह-'चंदी'त्यादि, चन्द्रस्य-चन्द्रविमानस्योपरागो-राहुविमानतेजसोपरजनं चन्द्रोपरागो ग्रहणमित्यर्थः, एवं सूर्योपरागोऽपि, ततश्चन्द्रोपरागे सूर्योपरागे च तद्दिनेऽपगते इति वाक्यशेषः, तथा साभ्रे निरभ्रे वा CREAMGAM For Private & Personel Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANSAROSE प्रव० सा निभसि व्यन्तरकृतो महापर्जितसमो ध्वनिर्निर्घातः, गर्जितस्येव विकारो गुजावद्गुञ्जमानो महाध्वनिर्गुजितं, तस्मिन्निर्घाते गुचितेच प्रत्ये-IN||२६८ अरोद्धारे कमहोरात्रं यावत्स्वाध्यायपरिहारः, अयं चात्र विशेषः यस्यां वेलायां निर्घातो गुजितं वाऽधिकृते दिनेऽभवत् द्वितीयेऽपि दिने यावत्सैव | स्वाध्यायतत्त्वज्ञा- बेला प्राप्ता भवति तावदस्वाध्याय एव, उक्तं च-"निग्घायगुजिएसुं विसेसो-बिइयदिणे जाव सा वेला अहोरत्तच्छेएण ण छिज्जइ, स्वरूपं गा. नवि० जहा अन्नेसु भसम्झाइएम" इति । 'संझाचउ'त्ति चतस्रः संध्यास्तिस्रो रात्रौ, तद्यथा-प्रस्थिते सूर्ये अर्धरात्रे प्रभाते च, चतुर्थी दिनस्य १४५०-७१ मध्यभागे, एतासु चतसृष्वपि सन्ध्यासु स्वाध्यायो न विधीयते, शेषक्रियाणां तु प्रतिलेखनादीनां तु न प्रतिषेधः, 'पाडिवए'त्ति प्रतिप-13 ॥४२३॥ I||ग्रहणेन प्रतिपत्पर्यन्ताश्चत्वारो महामहाः सूचिताः, ततश्चतुर्णा महामहानां चतसृषु प्रतिपत्सु तथैव स्वाध्याय एव न क्रियते, न शेष-16) क्रियाणां प्रतिषेधः 'जं जहिं सुगिम्हए नियम'त्ति, एवमन्योऽपि य उत्सवः पशुवधादिबहुलो यस्मिन् ग्रामनगरादौ यावन्तं कालं प्रवर्तते स तत्र तावन्तं कालं वर्जनीया, सुप्रीष्मकः-चैत्रमासभावी पुनर्महामहः सर्वेषु देशेषु शुक्लपक्षप्रतिपद आरभ्य चैत्रपौर्णमासीप्रतिपत्प-||3| यन्तो नियमात् प्रसिद्ध इति । के पुनस्ते चत्वारो महामहाः, तत्र सूत्रकृदाह-'आसाढी'त्यादि, आषाढी-आषाढपौर्णमासीमह इन्द्रमहःअश्वयुपौर्णमासी कात्तिकी-कार्तिकपौर्णमासी सुप्रीष्मकः-चैत्रपौर्णमासी, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वादेत एव चत्वारो महान्तः-सर्वातिशायिनो महा-उत्सवा महामहा बोद्धव्याः, एतेषां च चतुर्णा महामहानां मध्ये यो महामहो यस्मिन् देशे यतो दिवसादारभ्य यावन्तं कालं प्रवर्तते तस्मिन् देशे ततो दिवसादारभ्य तावन्तं कालं न स्वाध्यायं कुर्वन्ति, इह च यद्यपि सर्वेऽपि महामहाः पौर्णमासीपर्यंता एव प्रसिद्धास्तथापि क्षणानुवृत्तिसंभवेन प्रतिपदोऽप्यवश्यं वर्जनीयाः, अत एवाह-'जाव पाडिवई'त्ति गतार्थ । सम्प्रति जघन्यत उत्कर्षतश्च ॥४२३॥ चन्द्रोपरागं सूर्योपरागं चाधिकृत्य स्वाध्यायविघातकालमानमाह-'उक्कोसेणे'त्यादिगाथाद्वयं, चन्द्र उत्कर्षतो द्वादशपौरुषी हन्ति जघ-18 Jan Education Internal For Private Personel Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यतस्त्वष्टौ कथमिति चेदुच्यते-उद्गच्छंश्चन्द्रमा राहुणा गृहीतः, ततश्चतस्रः पौरुषी रात्रेर्हन्ति चतस्र आगामिनो दिवसस्य एवमष्टौ द्वादश पुनरेवं- प्रभातकाले चन्द्रमाः सग्रहण एवास्तमुपगतः ततश्चतस्रः पौरुषीदिवसस्य हन्ति चतस्र आगामिन्या राश्चतस्रो द्वितीयस्य दिवसस्य, अथवा औत्पातिकग्रहणेन सर्वरात्रिकं ग्रहणं सञ्जातं सग्रह एव निमग्नः, तत्र संदूषितरात्रेश्चतस्रः पौरुषीरन्यश्चाहोरात्रं, अथवा अभ्रच्छन्नतया विशेषपरिज्ञानाभावाच्च न ज्ञातं कस्यां वेलायां ग्रहणं ? प्रभाते च सग्रहो निमज्जन् दृष्टस्ततः समग्रा रात्रिः परिहृता अन्यश्चाहोरात्रमिति द्वादश । तथा सूर्यो जघन्येन द्वादश पौरुषीर्हन्ति उत्कर्षतो द्वावष्टौ - पोडश पौरुषीरित्यर्थः, कथमिति चेदुच्यते - सूर्यः सग्रह एवास्तमुपयातः, ततञ्चतस्रः पौरुषी रात्रेर्हन्ति चतस्र आगामिनो दिवसस्य चतस्रस्ततः परस्या रात्रेरेवं द्वादश, षोडश पुनरेवं-सूर्य उगच्छन् राहुणा गृहीतः सकलं च दिवसमुत्पातवशात्सग्रहः स्थित्वा सग्रह एवास्तं गतः, ततश्चतस्रः पौरुषीदिवसस्य हन्ति चतस्र आगामिन्या राश्चतस्रोऽपरदिवसस्य ततोऽपि चतस्रोऽपरस्या रात्रेः एवं षोडश पौरुषीर्हन्ति सग्रह उद्गतः सग्रह एवास्तमितः, तथा चोक्तम्" एयं उग्गच्छंत गहिए सग्गहनिवुड्डे दट्ठव्व” मिति, कथमिति चेदुच्यते - 'सूराई जेण होंतऽहोरत्त' त्ति सूर्यादयो येनाहोरात्राः, यतः सूर्यादिरहोरात्रस्ततो दिनमुक्ते सूर्ये स एव दिवसः सैव च रात्रिरस्वाध्यायिकतया परिहियन्ते, चन्द्रे तु तस्यामेव रात्रौ मुक्ते यावदपरचन्द्रो नोदेति तावदस्वाध्याय इति सैव रात्रिरपरं च दिनमित्येवमहोरात्रमस्वाध्यायः, अन्ये पुनराहुः आचीर्णमिदं - चन्द्रो रात्रौ गृहीतो रात्रावेव मुक्तस्तस्या एव रात्रेः शेषं वर्जनीयं यस्मादागामिसूर्योदये समाप्तिरहोरात्रस्य जाता, सूर्योऽपि यदि दिवा गृहीतो दिवैव च मुक्तस्ततस्तस्यैव दिवसस्य शेषं रात्रिश्च वर्जनीयेति । गतं सदैवमस्वाध्यायिकं, इदानीं व्युद्ग्रहजमाह — 'वुग्गहे 'त्यादि गाथाद्वयं, व्युहे - परस्परविग्रहे दण्डिकादीनां, आदिशब्दात्सेनापत्यादीनां च परस्परं विग्रहेऽस्वाध्यायः, इयमत्र भावना - द्वौ दण्डिको सस्क Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥४२४॥ धावारी परस्परं संग्रामं कर्तुकामौ यावन्नोपशाम्यतस्तावत्स्वाध्यायं कर्तुं न कल्पते, एवं द्वयोः सेनाधिपत्योर्द्वयोर्वा तथाविधप्रसिद्धिपा २६८ अत्रयोः स्त्रियोः परस्परं व्युग्रहे वर्तमाने अथवा मल्लयुद्धे तथा द्वयोामयोः परस्परं कलहभावे बहवस्तरुणाः परस्परं लोष्टैर्युध्यन्ति यदिवा स्वाध्यायबाहुयुद्धादिभिः स्वतो लोष्टादिभिर्वा परस्परं कलहे देशप्रसिद्धे रजःपर्वणि वा यावन्नोपशमो भवति सेनाधिपादिव्युग्रहस्य तावदस्वा स्वरूपं गा. ध्यायः, किं कारणमिति चेदुच्यते तत्र वानमन्तराः कौतुकेन स्वस्वपक्षेण समागच्छन्ति ते छलयेयुः, भूयसां च लोकानामप्रीतियथा १४५०-७१ वयमेवं भीता वर्तामहे कामप्यापदं प्राप्स्यामः एते च श्रमणका निर्दु:खाः सुखं पठन्ति, तथा दण्डिके कालगते 'अणरायए यत्ति यावदन्यो राजा नामिषिक्तो भवति तावत्प्रजानां महान् संक्षोभो भवति तस्मिन् संक्षोभे सति स्वाध्यायो न कल्पते, सभयं-म्लेच्छादिव भयाकुलं तस्मिन्नपि स्वाध्यायो न कर्तव्यः, एतेषु सर्वेषु व्युद्ग्रहादिष्वस्वाध्यायविधिमाह-'जच्चिरऽनिद्दोच्चऽहोरत्त'ति व्युग्रहादिषु है। यचिरं-यावन्तं कालं 'अनिदोच्चं' इत्यनिर्भयमस्वास्थ्यमित्यर्थः, तावन्तं कालमस्वाध्यायः, स्वस्थीभवनानन्तरमप्येकमहोरात्रं परिहृत्य स्वाध्यायः कर्तव्यः, उक्तं च-"निद्दोच्चीभूएवि अहोरत्तमेगं परिहरित्ता सज्झाओ कीरइ" इति । इह 'संखोभे दंडिए य कालगए' | इत्यनेनान्यदपि सूचितमस्ति ततस्तदनिधित्सुराह-'तद्दिवसे'त्यादि, भोजिके-ग्रामस्वामिनि आदिशब्दावक्ष्यमाणमहत्तरादिपरिग्रहःसप्तानां गृहाणामन्तः-मध्ये कालगते सति तद्दिवसमहोरात्रं यावदस्वाध्यायः-खाध्यायपरिहारः, प्रसङ्गादन्यदपि प्रतिपादयति-'अणा-1 हस्स' इत्यादि, कोऽप्यनाथो हस्त शताभ्यन्तरे मृतः तस्मिन्ननाथे हस्तशताभ्यन्तरे कालगते स्वाध्यायो न क्रियते, तत्रेयं यतना-शय्यातरस्यान्यस्य वा तथाविधस्य श्रावकस्य यथा वार्ता कथ्यते स्वाध्यायान्तरायमस्माकमनाथमृतकेन कृतमस्ति, ततः सुन्दरं भवति यदीदं छर्यते, एवमभ्यर्थितो यदि शय्यातरादिः परिष्ठापयेत्ततः शुभं भवतीति स्वाध्यायः कार्यः, अथवा (च) शय्यातरादिर्न कोऽपि परिष्ठापयि 444%AA-% CESS Jan Education International For Private Personel Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CSCRCHCROCESSOCTOCHE तुमिच्छति तदाऽन्यस्यां वसतौ व्रजन्ति, यद्यन्या वसतिर्नास्ति तदा रात्रौ सागारिकासंलोके वृषभास्तद्नाथमृतकमन्यत्र प्रक्षिपन्ति, अथ तत्कलेवरं श्वशृगालादिमिः समन्ततो विकीर्ण ततः समन्ततो निभालयन्ति यद् दृष्टं तत्सर्वमपि त्यजन्ति इतरस्मिंस्तु प्रयत्ने कृतेऽप्यदृष्टे अशठा इतिकृत्वा शुद्धाः, स्वाध्यायं कुर्वन्ति, अपि न प्रायश्चित्तभाज इति भावः । संप्रति 'तदिवसभोइयाई' इत्यत्रोक्तमादिशब्द व्याख्यानयति-'मयहरे'यादि, महत्तरके-प्रामप्रधाने प्रकृते-प्रामाधिकारनियुक्ते बहुपाक्षिके-बहुस्खजने, चकारात् शय्यातरे, अन्य-15 स्मिन् वा प्राकृते मनुष्ये स्ववसत्यपेक्षया सप्तगृहाभ्यन्तरे मृते तद्दिवसं-एकमहोरात्रमस्वाध्यायः, किं कारणमत आह-निर्दुःखा अमी इत्यप्रीत्या गर्हासंभवात् , ततो न पठन्ति, (शनैर्वा पठन्ति ) यथा न कोऽपि शृणोतीति, महिलारुदितशब्दोऽपि यावत् श्रूयते तावन्न | पठन्ति । गतं व्युद्ग्रहजं, इदानीं शारीरिकस्यावसरः, तच्च द्विविधं-मानुषं तैरश्चं च, 'तत्र तैरश्चं त्रिधा-जलजं-मत्स्यादितिर्य| ग्भवं एवं गवादीनां स्थलजं मयूरादीनां च खजं, पुनर्जलजादिकं प्रत्येक द्रव्यादिभेदतश्चतुर्विधं, तानेव द्रव्यादीन् चतुरो भेदानाह'तिरी'त्यादि, द्रव्ये-द्रव्यतस्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां जलजादीनां रुधिरादिद्रव्यमस्वाध्यायिक, न विकलेन्द्रियाणां, क्षेत्रे-क्षेत्रतः षष्टिहस्ताभ्यन्तरे परिहरणीयं, न परतः, अथ तत्स्थानं तैरश्चेन पौद्गलेन-मांसेन समन्ततः काककुक्कुरादिभिर्विक्षिप्तेनाकीर्ण-व्याप्तं तदा यदि स ग्राम| स्तर्हि तस्मिन् तिसृभिः कुरथ्याभिरन्तरिते विकीर्णे पौद्गले स्वाध्यायः क्रियते, अथ नगरं तदा तत्र यस्यां राजा सबलवाहनो गच्छति | देवयानो रथो वा विविधानि वा वाहनानि गच्छन्ति तया महत्याऽप्येकया रथ्यया अन्तरिते स्वाध्यायः कार्यः, अथ स प्रामः सम|स्तोऽपि विकीर्णेन पौद्गलेनाकीर्णो विद्यते न तिमृभिः कुरध्यामिरन्तरितं तत्पौद्गलमवाप्यते तदा ग्रामस्य बहिः स्वाध्यायो विधेयः । गता | क्षेत्रतो मार्गणा, सम्प्रति कालतो भावतश्च तामाह-काले'त्यादि, काले-कालतस्तजलजादिगतं रुधिरादि संभवकालादारभ्य तिस्रः RECARSAARCRAC For Private Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥४२५॥ पौरुषीर्हन्ति, 'अढेवेति यत्र महाकायपञ्चेन्द्रियस्य मूषकादेर्मार्जारादिना मारणं तत्राष्टौ पौरुषीर्यावदस्वाध्यायः, गता कालतोऽपि मार्ग- २६८ अणा, भावत आह-भावे-भावतो नन्द्यादिकं सूत्रं न पठन्ति । अथवा जलजादिकं प्रत्येकं रुधिरादिभेदतश्चतुर्विधं, तद्यथा-शोणितं मांसं स्वाध्यायचर्म अस्थि चेति, चत्वार्यप्येतानि प्रतीतानि । अत्रैव विशेषमाह-'अंतो'इत्यादि, यदि षष्टेहस्तानां अन्तः-मध्ये मांसं धौत-प्रक्षा- स्वरूपं गा. |लितं तदा तस्मिन् बहिनीतेऽपि यतस्ततस्तत्र नियमात् केचिदवयवाः पतिता भवन्ति ततस्तिस्रः पौरुषीः परिहर्तव्यः स्वाध्यायः, एवं १४५०.७६ पाकेऽप्यवसेयं, षष्टिहस्तेभ्यो बहिः-परतः पुनः प्रक्षालिते पक्वे वा पिशिते स्वाध्यायः कर्तव्यः, न कश्चिद्दोषः, 'अठेवेति प्राग्यदुक्तं तदिदानीं भावयति-'महकाए अहोरत्तंति एतच्च प्रागेव व्याख्यातं, अत्रैके प्राहुः-यदि मार्जारादिना मूषकादिरविभिन्न एव सन् मारितो मारयित्वा च गृहीत्वा अथवा गिलित्वा यदि ततः स्थानात्पलायते तदा पठन्ति साधवः सूत्रं, न कश्चिद्दोषः, अन्ये नेच्छंति यतः कस्तं जानाति अविभिन्नो भिन्नो वा मारित इति, अपरे पुनरेवमाहुः-यत्र मार्जारादिः स्वयं मृतोऽन्येन वा केनाप्यविभिन्न एव | सन्मारितस्तत्र यावत्चत्कलेवरं म भिद्यते तावन्नास्वाध्यायिकं, विभिन्ने त्वस्वाध्यायिकमिति, तदेतदसमीचीनं, यतश्चर्मा दिभेदतश्चतुर्विधमस्वाध्यायिकं तस्मादविभिन्नेऽप्यस्वाध्याय एव, 'रत्ते बूढे य सुद्धंति यत्तत्र पष्टिहस्ताभ्यन्तरे पतितं रक्त-रुधिरं तेनावकाशेन पानीयप्रवाह आगतस्तेन व्यूढं तदा पौरुषीत्रयमध्येऽपि शुद्धमखाध्यायिकमिति स्वाध्यायः कार्यः । तैरश्चाखाध्यायिकप्रस्तावादन्यदप्याह'अण्डगे'त्यादि, पष्टिहस्ताभ्यन्तरे अण्डके पतिते यदि तदण्डकमभिन्नमद्याप्यस्ति तदा तस्मिनुज्झिते स्वाध्यायः कल्पते, अथ पतितं सत्तदण्डकं मिन्नं तस्य च कललबिन्दुर्भूमौ पतितस्तदा न कल्पते, न च भूमि खनन्ति, इतरथा-भूमिखनने यदि तदस्खाध्या-ID॥४२५॥ यिकमपनयन्ति तथापि तिस्रः पौरुषीर्यावदस्वाध्यायः, अथ कल्पे पतितं सत्तदण्डकं भिन्नं कललबिन्दुर्वा तत्र लग्नस्तदा तस्मिन् पष्टिह C+ कमभिन्नमद्याप्यति तदा ताल, इतरथा-भूमिखनने यदि मिन् पष्टिह + Jain Education Interational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तेभ्यः परतो बहित्विा धौते कल्पते, अण्डकबिन्दोरमृग्विन्दोऽऽस्वाध्यायिकस्य प्रमाणं यत्र मक्षिकापादा निमजन्ति, किमुक्तं भवति ?यावन्मात्रे मक्षिकापादो निमज्जति तावन्मात्रेऽप्यण्डकबिन्दौ रुधिरबिन्दौ वा भूमौ पतितेऽस्वाध्यायः । किंच-"अजराउ" इत्यादि, अजरायुः-जरायुरहिता हस्तिन्यादिका प्रसूता तिस्रः पौरुषीः स्वाध्यायं हन्ति, अहोरात्रं छेदं मुक्त्वा-अहोरात्रे तु छिन्ने आसन्नायामपि प्रसूतायां कल्पते स्वाध्यायः, जरायुजादीनां पुनर्गवादीनां यावज्जरायुलम्बते तावदस्वाध्यायः, जरायो पतितेऽपि सति तदनन्तरं तिस्रः पौरुषीर्यावदस्वाध्यायः, तथा राजपथे यद्यस्वाध्यायिकबिन्दवः पतितास्तदा कल्पते खाध्यायः, किं कारणमिति चेदुच्यते | यत्तत्वयोगत आगच्छतां गच्छतां च मनुष्यतिरश्चा पदनिपातैरेवोरिक्षप्तं भवति, जिनाज्ञा चात्र प्रमाणमतो न कश्चित् दोषः, अथ पुनस्तदस्वाध्यायिकं तैरवं राजपथादन्यत्र पष्टिहस्ताभ्यन्तरे पतितं तदा तस्मिन् व्यूढे वर्षोदकेन उपलक्षणमेतत् दग्धे वा प्रदीपनकेन शुद्ध्यति स्वाध्यायः । गतं तैरश्चमधुना मानुषमाह-'माणुस्से'त्यादि, मानुषमस्वाध्यायिक चतुर्धा-चर्म रुधिरं मांसं अस्थि च, एतेध्वस्थि मुक्त्वा शेषेषु सत्सु क्षेत्रतो हस्तशताभ्यन्तरे न कल्पते स्वाध्यायः कालतोऽहोरात्रं, 'परियावन्नविवन्ने ति मानुषं तैरश्चं वा यट्ठधिरं तद्यदि पर्यापन्नत्वेन-परिणामान्तरापन्नत्वेन स्वभावाद्वर्णाद्विवर्णीभूतं भवति खदिरकल्कसदृशं तदा तदस्खाध्यायिकं न भवतीति क्रियते तस्मिन् पतितेऽपि स्वाध्यायः, 'सेस'त्ति पर्यापन्नं विवर्ण मुक्त्वा शेषमस्वाध्यायिक भवति, 'तिग'त्ति यदविरताया मासे २ आर्तद वमस्वाध्यायिकमागच्छति तत्स्वभावतस्त्रीणि दिनानि गलति, ततस्तानि त्रीणि दिनानि यावदस्वाध्यायः, त्रयाणां दिवसानां परतोऽपि कस्याश्चिद्गलति परं न तदातवं भवति किंतु तन्महारक्तं नियमात् पर्यापन्नं विवर्ण भवतीति नास्वाध्यायिकं गण्यते, तथा यदि प्रसूताया 15 दारको जातस्तदा सप्त दिनान्यस्वाध्यायिकं अष्टमे दिवसे कर्तव्यः स्वाध्यायः, अथ दारिका जाता तर्हि सा रक्तोत्कटेति तस्यां जाता CONSEXSTORIES AAAAAAAAAAAACHE स्वाध्यायिकं भवति, 'तिगतला वभावतस्त्रीणि दिनानि गलति, गश्चिद्गलति पर न Jan Education International For Private Personel Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा-यामष्टौ दिनान्यस्वाध्यायः, नवमे दिने स्वाध्यायः कल्पते । एनमेव गाथावयवं व्याचिख्यासुराह - 'रत्तु' इत्यादि, निषेककाले यदि रोद्धारे रक्तोत्कटता तदा स्त्री इति तस्यां जातायां दिनान्यष्टावस्वाध्यायः, दारकः शुक्राधिकस्ततस्तस्मिन् जाते सप्त दिनान्यस्वाध्यायः, तथा स्त्रीणां त्रयाणां दिनानां परतस्तन्महारक्तमनार्तवं भवति ततो न गणनीयं । अस्थि मुक्त्वेति यत्पूर्वमुक्तं तस्येदानीं विधिमाह - 'देते' इत्यादि, यत्र हस्तशताभ्यन्तरे दारकादीनां दन्तः पतितो भवति तत्र प्रयत्नतो निभालनीयः, यदि दृश्यते तदा परिष्ठाप्यः, अथ सम्यमृग्यमाणैरपि न दृष्टस्तदा शुद्धमिति कल्पते स्वाध्यायः, अन्ये तु ब्रुवते - तस्यावहेठनार्थं कायोत्सर्गः करणीयः, दन्तं मुक्त्वा शेषे अङ्गोपाङ्गसम्बन्धिन्यस्थिनि हस्तशताभ्यन्तरे पतिते द्वादश वर्षाणि न कल्पते स्वाध्यायः, अथास्थीन्यग्निना दग्धानि तदा हस्तशताभ्यन्तरे स्थितेष्वपि तेषु नैव क्रियते स्वाध्यायस्य - वाचनादेः परिहारः, अनुप्रेक्षा तु न कदाचनापि प्रतिषिद्ध्यते इति २६८ ॥ ५० ॥ ५१ ॥ ॥ ५२ ॥ ५३ ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ ५६ ।। ५७ ।। ५८ ।। ५९ ।। ६० ।। ६१ ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ ।। ६९ ।। ७० ।। ७१ ॥ इदानीं 'नंदीसरदीवट्ठिय' इत्येकोनसप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह विक्खंभो कोडिसयं तिसट्ठिकोडी उ लक्खतचुलसीई । नंदीसरो पमाणंगुलेण इय जोयणपमाणो ॥ ७२ ॥ एयंतो अंजणरयणसामकरपसरपूरि ओवंता । बालतमालवणावलिजुयव घणपडलकलियह ॥ ७३ ॥ चउरो अंजणगिरिणो पुवाइदिसासु ताणमेकेको । चुलसीसहस्उच्च ओगाढो जो यणसहस्सं ॥७४॥ जुम्मं । मूले सहस्सदसगं विक्खंभे तस्स उवरि सयदसगं । तेसु घणमणिमयाई सिद्धाययणाणि चत्तारि ॥ ७५ ॥ जोयणसयदीहाई बावन्तरि ऊसियाई रम्माई | पन्नास वित्थ तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४२६ ॥ २६९ नन्दीश्वरद्वीपस्वरूपं गा. १४७२-९१ ॥ ४२६॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाई चउदुवाराई सधयाई ॥७६ ॥ पइदारं मणितोरणपेच्छामंडवविरायमाणाई। पञ्चधणुस्सयऊसियअवत्तरसयजिणजुयाई ॥७७॥ मणिपेढिया महिंदज्झया य पोक्खरिणिया य पासेसुं। ककेल्लिसत्तवन्नयचंपयचूयावणजुयाओ॥ ७८ ॥ नंदुत्तरा य नंदा आणंदा नंदिवद्धणा नाम । पुक्खरिणीओ चउरो पुवंजणचउदिसिं संति ॥७९॥ विक्खंभायामेहिं जोयणलक्खप्पमाणजुताओ। दसजोयसियाओ चउदिसितोरणवणजुयाओ॥ ८०॥ तासिं मज्झे दहिमुह महीहरा दुइदहियसियवन्ना । पोक्खरिणीकल्लोलाहणणोन्भवफेणपिण्डुछ ॥ ८१॥ चउसहिसहस्सुच्चा दसजोयणसहस्सवित्थडा सवे । सहसमहो उवगाढा उवरि अहो पल्लयागारा ॥ ८२॥ अंजणगिरिसिहरेसु व तेसुवि जिणमंदिराइं रुंदाई।वावीणमंतरालेसु पञ्चयदुर्ग दुगं अस्थि ॥८३॥ते रइकराभिहाणा विदिसिठिया अट्ट पउमरायाभा। उवरिट्टियजिणिंदसिणाणघुसिणरससंगपिंगुत्व ॥४४॥ अचंतमसिणफासा अमरेसरविंदविहियावासा । दसजोयणसहसुच्चा उविद्धा गाउयसहस्सं ॥८६॥ झल्लरिसंठाणठिया उच्चत्तसमाणवित्थडा सत्वे । तेसुवि जिणभवणाई नेयाई जहुत्तमाणाई ॥८६॥ दाहिणदिसाएँ भद्दा विसालवावी य कुमुयपुक्खरिणी। तह पुंडरीगिणी मणितोरणआरामरमणीया ॥ ८७॥ पुक्खरिणी नंदिसेणा तहा अमोहा य वावि गोथूभा। तह य सुदंसणवाची पच्छिमअंजणचउदिसासु ॥८॥ विजया यवेजयंती जयंति अपराजिया उधावी Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञा नवि० ॥ ४२७ ॥ ओ । उत्तरदिसाऍ पुत्तवावीमाणा उ बारसवि ॥ ८९ ॥ सताओ वावीओ दहिमुहसेलाण ठापभूयाओ | अंजणगिरिपमुहं गिरितेरसगं विज्जइ चउदिसिंपि ॥ ९० ॥ इय बावन्नगिरी सरसिहरgratefaणं । पूयणकए चउचिहदेवनिकाओ समेइ सया ॥ ९१ ॥ इतो जम्बूद्वीपादष्टमो वलयाकारः कामं कमनीयतया सकलसुर विसरानन्दी नन्दीश्वरो नाम द्वीपोऽस्ति, नन्द्या - अत्युदारजिनमन्दिरोधान पुष्करिणीपर्वतप्रभृतिप्रभूतपदार्थसार्थसमुद्भूतयाऽत्यद्भूतया समृद्ध्या ईश्वरः - स्फातिमान्नन्दीश्वरः, स च विष्कम्भे-चक्रवालविष्कम्भतः एकं कोटिशतं त्रिषष्टिः कोट्यश्चतुरशीतिर्लक्षाः १६३८४००००० इत्येतावद्योजनप्रमाणः, योजनानि चात्र प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नान्यवसेयानि । अथाञ्जनशैला दिवक्तव्यतामाह - 'एयन्तो' इत्यादि गाथात्रिकं एतस्य नन्दीश्वरस्य द्वीपस्यान्तः - मध्यभागे पूर्वादिषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारः सर्वात्मनाऽञ्जनरत्नमया अञ्जनगिरयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- पूर्वस्यां दिशि देवरमणः दक्षिणस्यां नित्योद्योतः पश्चिमायां स्वयंप्रभः उत्तरस्यां रमणीयः, उक्तं च — “पुव्वदिसि देवरमणो निचुज्जोओ य दाहिणदिसाए । अवरदिसाऍ सयंपभ | रमणिज्जो उत्तरे पासे ॥ १ ॥ " कथंभूतास्ते इत्याह-अजनरत्नानां - कृष्णरत्न विशेषाणां ये श्यामाः करप्रसराः - प्रभापटलानि तैः पूरिताः - परिपूर्णतां नीता उपान्ताः - पर्यन्तभागा येषां ते तथा, एवंविधाश्चोत्प्रेक्ष्यन्ते - बालतमालवनावलीयुता इव - तरुणतरतमालतरुवनमण्डली| वलयिता इव, तथा घनपटलकलिता इव प्रावृषेण्यपयोदपङ्कियुक्ता इव, धाराधरा हि विविधोद्यानहृद्याः सजल नलदजालमालिनो हि भवन्तीति, तथा तेषामञ्जनकपर्वतानामेकैकोऽञ्जनकः पर्वतः प्रत्येकं चतुरशीतियोजनसहस्राणि उच्च :- उच्छ्रितः एकं योजनसहस्रमवगाढोभूमिप्रविष्टः, तथा तस्यैकैकस्याञ्जनगिरेर्मूले - घरणितले सहस्रदशकं - दश योजन सहस्राणि भवन्ति विष्कम्भे- विस्तरतः, तदनन्तरं च २६९ न न्दीश्वरद्वीपस्वरूपं गा. १४७२-९१ ॥ ४२७ ॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्रया मात्रया परिहीयमानस्य तस्य उपरि-पर्यन्तभागे शतदशकं-योजनसहस्रं विष्कम्भेन, एवं चैते चत्वारोऽप्यञ्जनगिरयो मूले विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता उपरि च तनुकाः संवृत्ताः, तेषु चाखनगिरिषु घनमणिमयानि-नानाविधनिःसपनरत्ननिर्मितानि एकैकस्मिन्नेकैकसद्भावाच्चत्वारि सिद्धायतनानि-शाश्वतानि सिद्धानां वा-शाश्वतीनामहत्प्रतिमानामायतनानि सिद्धायतनानि भवन्ति । अथैतेषामेव प्रमाणादिप्रतिपादनायाह-'जोयणे'त्यादि गाथात्रयं, तानि सिद्धायतनानि योजनशतमेकं दीर्घाणि-पूर्वपश्चिमतः द्वासप्ततिर्योजनान्युच्छ्रितानि रम्याणि-रमणीयानि पञ्चाशद्योजनानि विस्तृतानि-विस्तीर्णानि दक्षिणोत्तरतः, तथा एकैकस्यां दिशि एकैकसद्भावेन चत्वारि द्वाराणि येषु तानि चतुभराणि, सध्वजानि-सपताकानि, तथा प्रतिद्वारमेकैकस्मिन् द्वारे मणयः-चन्द्रकान्तादिरत्नविशेषास्तनिष्पन्नस्तोरणैः, प्रेक्षा-प्रेक्षणकं तदर्थ मण्डपा:-प्रेक्षामण्डपास्तैश्च प्रसिद्धस्वरूपैर्विशेषेण राजमानानि-शोभमानानि, तथा पञ्चधनुःशवसमुच्छ्रितैरष्टोत्तरशतसङ्ख्यैः ऋषभवर्धमानचन्द्राननवारिषेणाख्यैर्जिनैः शाश्वतप्रतिमामिर्युतानि-संयुक्तानि । तेषां सिद्धायतनानां मध्ये मणिमय्यः-सर्वास्मना रनमय्यः पीठिका-वेदिकाः प्रज्ञप्ताः, तासामुपरि महेन्द्रध्वजाः, महेन्द्रा इत्यतिमहान्तः समयभाषया ते च ते ध्वजाश्चेति, अथवा महेन्द्रस्यैव-शक्रादेर्ध्वजा महेन्द्रध्वजाः, तेषां च पुरतः प्रत्येक योजनशतायामाः पञ्चाशद्योजनविष्कम्भा दशयोजनोद्वेषाः पुष्करिण्योवाप्यः प्रज्ञप्ताः, ताश्च पार्थेषु चतसृषु दिक्षु ककेल्लिसप्तपर्णचम्पकचूतवनयुक्ताः, तत्र पूर्वस्यां दिशि अशोकवनं दक्षिणस्यां सप्तच्छदवनं पश्चिमायां चम्पकवनं उत्तरस्यां च सहकारवनमिति । उक्ता अजनगिरिवक्तव्यता, अथ पुष्करिणीवक्तव्यतामाह-'नन्दु'इत्यादि गाथाद्वयं, तेषु चतुर्यु अजनगिरिषु मध्ये योऽसौ पूर्व:-पूर्व दिग्भावी अजनगिरिस्तस्य चतुर्दिशि-चतसृषु दिक्षु लक्षमेकं गत्वा चतस्रः पुष्करिण्यः सन्ति, तद्यथा-पूर्वस्यां नन्दोत्तरा दक्षिणस्यां नन्दा अपरस्यां आनन्दा उत्तरस्यां नन्दिवर्धना च, ताश्च विष्कम्भायामाभ्यां योजन Jan Education International For Private Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे नवि० ॥४२८॥ लक्षप्रमाणयक्ता दश योजनान्युरिछ्रता-उद्विद्धाः, तथा चतसृषु दिक्षु नानामणिमयस्तम्भसंनिविष्टैरुतुजैस्तोरणैः पूर्वादिदिक्क्रमेणाशो- २६९नकसप्तच्छदचम्पकचतवनैश्च युक्ताः-परिक्षिप्ताः । एवं शेषाजनगिरिसम्बन्धिनीनामपि पुष्करिणीनां वाच्यं । तासां मध्ये-बहमध्यदे- 1न्दीश्वरदीकसतच्छापकपूर भाने सर्वात्मना स्फटिकमया दधिमुखनामानो महीधरा:-पर्वताः सन्ति, ते च दुग्धदधिवत् सित:-श्वेतो वर्ण:-कान्तिर्येषां ते तथा, पस्वरूपं अतश्चोत्प्रेक्ष्यन्ते-पुष्करिणीनां-बापीनां ये कल्लोला:-समुल्लसन्तस्तरङ्गास्तेषां यदाहननं-परस्परं प्रतिस्फालनं तत्समुद्भूताः फेनपिण्डा इव । एते दधिमुखपर्वताः सर्वेऽपि चतुःषष्टियोजनसहस्राण्युच्छ्रिता दश योजनसहस्राणि विस्तीर्णाः एक योजनसहनमधोऽवगाढाः उपर्यधश्च ४१४७२-९१ सर्वत्र समाः अत एव पल्यङ्कसंस्थानसंस्थिताः । तेष्वपि दधिमुखपर्वतेषु रुन्द्राणि-विशालानि जिनमन्दिराणि-सिद्धायतनानि वक्तव्यानि, यथाऽजनगिरिशिखरेषु अजनपर्वतोपरिवर्तिसिद्धायतमवक्तव्यतात्रापि वक्तव्येति भावः, तथैतासामेव वापीनामपान्तरालेषु द्वौ द्वौ पर्वतौ | स्तः । तत्स्वरूपमाह-'ते'इत्यादि गाथात्रयं, पूर्वाजनगिरेविदिक्षु व्यवस्थिता द्वयोर्द्वयोर्वाप्योरन्तराले बहिःकोणयोः प्रत्यासत्तौ प्रत्येक पर्वतद्वितयभावादष्टौ रतिकरनामानः पर्वताः सन्ति, ते च 'पद्मरागाभा' पद्मराग:-शोणमणिविशेषस्तद्वदाभा-प्रभा येषां ते तथा, अत | उत्प्रेक्ष्यन्ते-उपरिस्थिता:-तदुपरि वर्तमाना ये जिनेन्द्रा:-शाश्वतप्रतिमास्तेषां यत् स्नानं-फुङमजलं तत्संपर्कतः पाटला इव, सर्वेऽपि चैते रतिकराः प्रकामकोमलस्पर्शाः तथा सुरपतिसमूहकृतावासाः दश योजनसहस्राण्युच्छ्रिता गव्यूतसहस्र-सार्धयोजनशतद्वयमुद्विद्धाः उच्चत्वसमानविस्तरा दशयोजनसहस्रविस्तीर्णा इत्यर्थः सर्वत: समा झल्लरीसंस्थानसंस्थिता इति, तेष्वपि रतिकरेषु यथोक्तमानानि पूर्वोक्तप्रमाणानि जिनभवनानि ज्ञेयानि, तदेवमुक्ता पूर्वानगिरिवक्तव्यता, एतद्नुसारेण च शेषदिगजनगिरीणामपि सर्व वाच्यं, नवरं पुष्करिणीनां ॥४२८॥ नामसु विशेषः, तमेवाह-दाहिणे'त्यादि गाथाचतुष्कं, दक्षिणस्यां दिशि दक्षिणाने इत्यर्थः पूर्वस्यां दिशि भद्रा वापी दक्षिणस्यां Jan Education Internal For Private Personel Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LOCMCAEBALASAHERA | दिशि विशाला अपरस्यां दिशि कुमुदा उत्तरस्यां पुण्डरीकिणी, एताश्च सर्वा अपि मणिमयतोरणारामरमणीयाः । तथा पश्चिमा जनगिरी पूर्वस्यां दिशि नन्दिषेणा वापी दक्षिणस्याममोघा अपरस्यां गोस्तूभा उत्तरस्यां सुदर्शना तथोत्तराजनगिरौ पूर्वस्यां दिशि विजया दक्षिणस्यां वैजयन्ती अपरस्यां जयन्ती उत्तरस्यामपराजिता, द्वादशानामप्यमूषां वापीनां प्रमाणादिकं सर्व पूर्वानगिरिवापीवद् वक्तव्यं, सर्वा अपि षोडशाप्येता वाप्यो दधिमुखशैलानां स्थानभूताः-आधारभूता एव, एतासु वापीषु मध्यभागे दधिमुखशैला व्यवस्थिता इत्यर्थः, तदेवं दानन्दीश्वरद्वीपे चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकमजनगिरिप्रमुखं गिरित्रयोदशकं विद्यते, तथाहि-एकैकस्यां दिशि एकैकोऽनगिरिश्चत्वारो दधि मुखाः अष्टौ रतिकराः मिलिताश्च त्रयोदश, ते च चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकमेतावतामद्रीणां सद्भावाच्चतुर्भिर्गुण्यन्ते, जाता द्विपञ्चाशनिरयः । साम्प्रतं सर्वोपसंहारमाह-'इये'त्यादि, इति-प्रागुक्तप्रकारेण द्विपञ्चाशत्सङ्ख्यगिरीश्वरशिखरेषु स्थितानां वीतरागबिम्बानां पूजाकृते चतुर्विधो-भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकलक्षणो देवनिकाय:-सुरसमूहः सदा-सर्वकालं समेति, इह च नन्दीश्वरवक्तव्यतायां बहु | वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थगौरवभयात्, विशेषार्थिना च जीवाभिगमादिशास्त्राणि परिभावनीयानि, यच्चात्र जीवामिगमद्वीपसागरप्रज्ञप्तिसंग्रहिण्यादिभ्यः किञ्चिदन्यथात्वं दृश्यते तन्मतान्तरमवसेयमिति २६९ ॥ ७२ ॥ ७३ ॥ ७४ ॥ ७५॥ ७६॥ ७७ ॥ [॥ ७८ ॥ ७९ ॥ ८० ॥ ८१ ॥ ८२ ।। ८३ ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ ८६ ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ ९०॥९१ ॥ इदानीं 'लद्धीओ'त्ति | | सप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह आमोसहि १ विप्पोसहि २ खेलोसहि ३ जल्लओसही ४ चेव । सबोसहि ५ संभिन्ने ६ ओही ७ रिउ ८ विउलमइलद्धी ९॥९२॥ चारण १० आसीविस ११ केवलिय १२ गणहारिणो य १३ Jan Education Intemanona For Private Personal use only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० २७० ल|ब्धिस्वरूपं गा.१४९२ P -१५०८ ॥४२९॥ पुषधरा १४ । अरहंत १५ चक्कवट्टी १६ बलदेवा १७ वासुदेवा १८ य ॥९३ ॥ खीरमहुसप्पिआसव १९ कोट्टयबुद्धी २० पयाणुसारी २१ य । तह बीयबुद्धि २२ तेयग २३ आहारग २४ सीयलेसा २५ य॥९४॥ वेउविदेहलद्धी २६ अक्खीणमहाणसी २७ पुलाया २८ य । परिणामतववसेणं एमाई हुंति लद्धीओ ॥ ९५॥ संफरिसणमामोसो मुत्तपुरीसाण विप्पुसो वावि (वयवा)। अन्ने विडित्ति विट्ठा भासंति पइत्ति पासवणं ॥ ९६ ॥ एए अन्ने य बहू जेसिं सवेवि सुरहिणोऽवयवा । रोगोवसमसमत्था ते हुंति तओसहिं पत्ता ॥९७ ॥ जो सुणइ सबओ मुणइ सबविसए उ सबसोएहिं । सुणइ बहुएवि सद्दे भिन्ने संभिन्नसोओ सो॥९८॥ रिउ सामन्नं तम्मत्तगाहिणी रिउमई मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं घडमेत्तं चिंतियं मुणइ ॥ ९९ ॥ विउलं वत्थुविसेसण नाणं तग्गाहिणी मई विउला । चिंतियमणुसरह घडं पसंगओ पज्जवसएहिं ॥ १५०० ॥ आसी दाढा तग्गय महाविसाऽऽसीविसा दुविहभेया। ते कम्मजाइभेएण गहा चउविहविकप्पा ॥१॥ खीरमहुसप्पिसाओवमाणवयणा तयासवा हुंति । कोट्टयधन्नसुनिग्गलसुत्तत्था कोहबुद्धीया ॥२॥ जो सुत्तपएण बहुं सुयमणुधावइ पयाणुसारी सो । जो अत्थपएणऽत्थं अणुसरइ स बीयबुद्धीओ ॥३॥ अक्खीणमहाणसिया भिक्खं जेणाणियं पुणो तेणं । परिभुतं चिय खिजइ बहुएहिवि न उण अन्नेहिं ॥४॥ भवसिद्धियपुरिसाणं एयाओ हुँति भणियलद्धीओ। भवसिद्धियम ॥४२९॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिलाणवि जत्तिय जायंति तं वोच्छं ॥५॥ अरहंतचक्किकेसवबलसंभिन्ने य चारणे पुवा । गणहरपुलायआहारगं च न हु भवियमहिलाणं ॥ ६ ॥ अभवियपुरिसाणं पुण दस पुचिल्लाउ केवलितं च । उज्जुमई विउलमई तेरस एयाउ न हु हुंति ॥७॥ अभवियमहिलाणंपि हु एयाओ हुंति भणियलद्धीओ । महुखीरासवलद्धीवि नेय सेसा उ अविरुहा ॥८॥ लब्धिशब्दस्य प्रत्येकममिसम्बन्धात् आमौंषधिलब्धिः विघुडौषधिलब्धिः खेलौषधिलब्धिः जल्लौषधिलब्धिः सौंषधिलब्धिः सम्भिन्नेति || 'सूचकत्वात्सूत्रस्य' सम्भिन्नश्रोतोलब्धिः अवधिलब्धिः ऋजुमतिलब्धिः विपुलमतिलब्धिः चारणलब्धिः आशीविषलब्धिः केवलिलब्धिः गणधरलब्धिः पूर्वधरलब्धिः अहल्लब्धिः चक्रवर्तिलब्धिः बलदेवलब्धिः वासुदेवलब्धिः क्षीरमधुसर्पिराश्रवलब्धिः कोष्ठकबुद्धिलब्धिः पदानुसारिलब्धिः तथा बीजबुद्धिलब्धिः तेजोलेश्यालब्धिः आहारकलब्धिः शीतलेश्यालब्धिः वैकुर्विकदेहलब्धिः अक्षीणमहानसीलब्धिः पुलाकलब्धिः, | एवमेता अष्टाविंशतिसङ्ख्या आदिशब्दादन्याश्च जीवानां शुभशुभतरशुभतमपरिणामवशादसाधारणतपःप्रभावाच्च नानाविधलब्धयः ऋद्धिविशेषा भवन्ति । अथैताः क्रमेण व्याचिख्यासुः पूर्व तावदामशौंषध्यादिलब्धिपञ्चकं प्रपञ्चयितुमाह-संफरिसे'त्यादि गाथाद्वयं, संस्पर्शनमामर्शः स एवौषधिर्यस्यासावामशौषधिः-करादिसंस्पर्शमात्रादेव विविधव्याधिव्यपनयनसमर्थों लब्धिलब्धिमतोरभेदोपचारात् साधुरेवामशौषधिरित्यर्थः, इदमत्र तात्पर्य यत्प्रभावात् स्वहस्तपादाद्यवयवपरामर्शमात्रेणैवात्मनः परस्य वा सर्वेऽपि रोगाः प्रणश्यन्ति सा आमशीषधिः, 'मुत्तपुरीसाण विप्पुसो वावि (ऽवयवा)त्तिमूत्रपुरीषयोर्विष:-अवयवाः इह विप्रुडुच्यते, 'विप्पुसो वाऽवि'त्ति पाठस्तु ग्रन्थान्तरे-16 ध्वदृष्टत्वादुपेक्षितः, अथचावश्यमेतद्व्याख्यानेन प्रयोजनं तदेत्थं व्याख्येयं-वाशब्दः समुच्चये अपिशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमश्व, ततो| For Private & Personel Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० २७० ल ब्धिस्वरूप द गा.१४९२ ४ -१५०८ ॥४३०॥ मूत्रपुरीषयोरेवावयवा इह विगुडुच्यते इति, अन्ये तु भाषन्ते-विडिति विष्ठा पत्ति प्रश्रवणं मूत्रं, 'सूचकत्वात् सूत्रस्येति, तत 'एए'त्ति एतौ विप्रण्मत्रावयवौ 'अन्ने यत्ति अन्ये च खेलजल्लकेशनखादयो बहवः सर्वे च समुदिता अवयवा येषां साधूनां सुरभयो रोगोपशमसमर्थाश्च ते साधवो भवन्ति, कथंभूता इत्याह-'तओसहिं पत्ति'त्ति ते च ते औषधयश्च तदोषधयो-विण्मूत्रखेलजल्लकेशनखाद्यौषधयः सर्वोषधयश्च ताः प्राप्तास्तदौषधिप्राप्ताः, विण्मूत्राद्यौषधयः सर्वोषधयश्च साधवो भवन्तीत्यर्थः, एतदुक्तं भवति-यन्माहात्म्यान्मूत्रपुरीषाव| यवमात्रमपि रोगराशिप्रणाशाय संपद्यते सुरमि च सा विगुडौषधिः, तथा खेल:-श्लेष्मा जल्लो-मलः कर्णवदननाशिकानयनजिह्वासमुद्भवः शरीरसम्भवश्च तो खेलजल्लौ यत्प्रभावतः सर्वरोगापहारको सुरभी च भवतः सा क्रमेण खेलौषधिजल्लौषधिश्च, तथा यन्माहाम्यतो विण्मूत्रकेशनखादयश्च सर्वेऽप्यवयवाः समुदिताः सर्वत्र भेषजीभावं सौरभं च भजते सा सर्वोपधिरिति । सम्प्रति सम्भिन्नश्रोतोलब्धिमाह-'जो'इत्यादि, यः सर्वतः-सर्वैरपि शरीरदेशैः शृणोति स सम्भिन्नश्रोताः, अथवा यः सर्वानपि शब्दादीन् विषयान् सर्वैरपि श्रोतोभिः-इन्द्रियैर्जानाति, एकतरेणापीन्द्रियेण समस्तापरेन्द्रियगम्यान् विषयान् योऽवगच्छतीत्यर्थः, स सम्भिन्नश्रोतोलब्धिमान् , अथवा द्वादशयोजनविस्तृतस्य चक्रवर्तिकटकस्य युगपद्भुवाणस्य तत्तूर्यसङ्घातस्य वा समकालमास्फाल्यमानस्य सम्भिन्नान्-लक्षणतो विधानतश्च परस्परं विमिन्नान् जननिवहसमुत्थान् शङ्खकालाभेरीभाणकढक्कादितूर्यसमुत्थान् वा युगपदेव च सुबहून् शब्दान् यः शृणोति स संभिन्नश्रोताः सम्भिन्नश्रोतोलब्धिरिति । अथ ऋजुमतिलब्धि विपुलमतिलब्धिं चाह-'रिउ'इत्यादि गाथाद्वयं, ऋजु-सामान्य वस्तुमात्र तग्राहिणी मति:-संवेदनं ऋजुमति मनोज्ञान-मनःपर्यायज्ञानमेव, सा च प्रायो-बाहुल्येन विशेषविमुख-देशकालाधनेकपर्यायपरित्यक्तं घटमात्र परेण चिन्तितं जानाति, तथा विपुलं वस्तुनो घटादेर्विशेषाणां देशक्षेत्रकालादीनां मान-सङ्ख्यास्वरूपं तग्राहिणी मतिर्विपुला, सा ॥४३०॥ Jain Education Intematon For Private Personel Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INR Nilच परेण चिन्तितं घटं प्रसङ्गतः पर्यवशतैरुपेतमनुसरति-सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानपवरकस्थित इत्याद्यपि प्रभूतविशेषैर्विशिष्टंग ६ घटं परेण चिन्तितमवगच्छतीत्यर्थः, इदमत्र तात्पर्य-मनःपर्यायज्ञानं द्वेधा-ऋजुमतिर्विपुलमतिश्च, तत्र सामान्यघटादिवस्तुमात्रचिन्तनप्र-॥ वृत्तमनःपरिणामग्राहि किञ्चिदविशुद्धतरमर्धतृतीयाङ्गुलहीनमनुष्यक्षेत्रविषयं ज्ञानं ऋजुमतिलब्धिः, पर्यायशतोपेतघटादिवस्तुविशेषचिन्तनप्रवृत्तमनोद्रव्यग्राहि स्फुटतरं संपूर्णमनुष्यक्षेत्रविषयं ज्ञानं विपुलमतिलब्धिः। सम्प्रत्याशीविषलब्धिमाह-'आसी'त्यादि, आश्यो-दंष्ट्रास्तासु गतं-स्थितं महद्विषं येषां भवति ते आशीविषाः, ते च द्विभेदाः-कर्मभेदेन जातिभेदेन च, तत्र कर्मभेदेन पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनयो मनुष्या देवाश्च सहस्रारान्ता इत्यनेकविधाः, एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणत आशीविषवृश्चिकभुजङ्गादिसाध्या क्रियां कुर्वन्ति, शापप्र दानादिना परं व्यापादयन्तीति भावः, देवास्त्वपर्याप्तावस्थायां तच्छक्तिमन्तो मन्तव्याः, ते हि पूर्व मनुष्यभवे समुपार्जिताशीविषलब्धयः ६ सहस्रारान्तदेवेष्वभिनवोत्पन्ना अपर्याप्तावस्थायां प्राग्भविकाशीविषलब्धिसंस्कारादाशीविषलब्धिमन्तो व्यवहियन्ते, ततः परं तु पर्याप्तावस्थायां संस्कारस्यापि निवृत्तिरिति न तद्व्यपदेशभाजः, यद्यपि च नाम पर्याप्ता अपि देवाः शापादिना परं व्यापादयन्ति तथापि न लब्धिव्यपदेशः, भवप्रत्ययतस्तथारूपसामर्थ्यस्य सर्वसाधारणत्वात् , गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्य विशेषो लब्धिरिति प्रसिद्धेः, जातिभेदेन च वृश्चिकमण्डूकसर्पमनुष्यभेदाच्चतुर्विधाः क्रमेण वहुबहुतरबहुतमातिबहुतमविषाः, वृश्चिकविषं द्युत्कृष्टतोऽर्धभरतक्षेत्रप्रमाणं वपुर्व्याप्नोति मण्डूकविष भरतक्षेत्रप्रमाणं भुजङ्गविषं जम्बूद्वीपप्रमाणं मनुष्यविषं तु समयक्षेत्रप्रमाणमिति । अथ क्षीरमधुसर्पिराश्रवलब्धिं कोष्ठकबुद्धिलब्धि चाह-खीरे'त्यादि, क्षीरं-दुग्धं मधु-मधुरद्रव्यं सर्पिः-घृतं एतत्स्वादोपमानं वचनं वैरस्वाम्यादिवत्तदाश्रवाः-क्षीरमधुसर्पिराश्रवा भवन्ति, इयमत्र भावना-पुण्डेक्षुचारिणीनां गवां लक्षस्य क्षीरमर्धार्धक्रमेण दीयते यावदेकस्याः पीतगोक्षीरायाः क्षीरं, तकिल चातुरि HARDCORESCALCCACANCIEOCACANCE For Private & Personel Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० क्यमित्यागमे गीयते, तद्यथोपभुज्यमानमतीव मनःशरीरप्रसादहेतुरुपजायते तथा यद्वचनमाकर्ण्यमानं मनःशरीरसुखोत्पादनाय प्रभवति ते| |२७० लश्रीराश्रवाः, क्षीरमिव वचनमा-समन्तात् श्रवन्तीति व्युत्पत्तेः, एवं मध्वपि किमप्यतिशायिशर्करादिमधुरद्रव्यं द्रष्टव्यं, घृतमपि पुण्ड्रे- ब्धिस्वरूपं क्षुचारिगोक्षीरसमुत्थं मन्दाग्निकथितं विशिष्टवर्णाद्युपेतं, मध्विव वचनमाश्रवन्तीति मध्वाश्रवाः, घृतमिव वचनमाश्रवन्तीति घृताश्रवाः, गा.१४९२ उपलक्षणत्वाच्च अमृताश्रविण ईक्षुरसाश्रविण इत्यादयोऽप्येवमवसेयाः, अथवा येषां पात्रपतितं कदन्नमपि क्षीरमधुसर्पिरादिरसवीर्यविपाकं -१५०८ जायते ते क्रमेण क्षीराश्रविणो मध्वाश्रविणः सर्पिराश्रविण इत्यादि । तथा कोष्ठकनिक्षिप्तधान्यानीव सुनिर्गला-अविस्मृतत्वाचिरस्थायिनः सूत्रार्थी येषां ते कोष्ठकधान्यसुनिर्गलसूत्रार्थाः कोष्ठबुद्धयः, कोष्ठे इव धान्यं या बुद्धिराचार्यमुखाद्विनिर्गतौ तदवस्थावेव सूत्रार्थों धारयति न किमपि तयोः सूत्रार्थयोः कालान्तरेऽपि गलति सा कोष्ठबुद्धिलब्धिरिति भावः । अथ पदानुसारिलब्धिं बीजबुद्धिलब्धिं चाह-'जो' इत्यादि, योऽध्यापकादेः केनापि सूत्रपदेनाधीयते (ऽनुधावति-अधीते) बह्वपि सूत्रं स्वप्रज्ञयाऽभ्युह्य तदवस्थमेव गृह्णाति स पदानुसारलब्धिमान् , तथा उत्पादव्ययघ्रौव्ययुक्तं सदित्यादिवदर्थप्रधानं पदमर्थपदं तेनैकेनापि बीजभूतेनाधिगतेन योऽन्यमश्रुतमपि यथावस्थित प्रभूतमर्थमवगाहते स बीजबुद्धिलब्धिमान् , इयं च बीजबुद्धिलब्धिः सर्वोत्तमप्रकर्षप्राप्ता गणभृतां भगवतां, ते हि उत्पादादिपत्रयमवधार्य सकलमपि द्वादशाअयात्मकं प्रवचनमभिसूत्रयन्तीति । इदानीमक्षीणमहानसीलब्धिमाह-'अक्खीणे'त्यादि, येनानीतं भैक्षं बहुमिरपि-लक्षसधैरप्यन्यैस्तृप्तितोऽपि भुक्तं न क्षीयते यावदात्मना भुते, किंतु तेनैव भुक्तं निष्ठां याति तस्याक्षीणमहानसीलब्धिः, अत्र चावधिचारणकेवलिगणधारिपूर्वधरअर्हच्चक्रवर्तिबलदेववासुदेवतेजोलेश्याऽऽहारकशीतलेश्यावैक्रियपुलाकलब्धयः प्रायेण प्रागेव परमा- ४ ॥४३१॥ है र्थतः प्रतिपादितत्वात्प्रतीतत्वाच्च सूत्रकृता न विवृता इति, तेजोलेश्याशीतलेश्यालब्धी च स्थानाशुन्यार्थ किश्चिद्व्याख्यायेते-तत्र तेजोले LCSHESAEX ॥४३१॥ Jan Education Intemanong For Private Personal use only www.jainelorary.org Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यालब्धिः क्रोधाधिक्यात्प्रतिपन्धिनं प्रति मुखेनानेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनदक्षतीव्रतरतेजोनिसर्जनशक्तिः, शीतलेश्यालब्धिस्त्वगण्यकारुण्यवशादनुग्राह्यं प्रति तेजोलेश्याप्रशमनप्रत्यलशीतलतेजोविशेषविमोचनसामर्थ्य, पुरा किल गोशालकः कूर्मग्रामे करुणारसिकान्तःकरणतया स्नानाभावाविर्भूतयूकासन्ततितायिनं वैशिकायिनं बालतपस्विनमकारणकलहकलनतया 'अरे यूकाशय्यातर' इत्याद्ययुक्तोक्तिभिः कोपाटोपाध्मायमानमानसमकरोत् , तदनु वैशिकायिनस्तस्य दुरात्मनो दाहाय वरदहनदेश्यां तेजोलेश्यां विससर्ज, तत्कालमेव च भगवान् वर्धमानस्वामी प्रगुणितकरुणस्तत्प्राणत्राणाय प्रचुरपरितापोच्छेदच्छेकां शीतलेश्याममुञ्चदिति, इह च यः खलुनियमात् निरन्तरं षष्ठं तपः करोति पारणकदिने च सनखकुल्माषमुष्ट्या जलचुलुकेन चैकेनात्मानं यापयति तस्य षण्मासान्ते तेजोलेश्यालब्धिरियमुत्पद्यते, तथा 'एमाई हुंति लद्धीओ' इत्यत्रादिशब्दादन्या अप्यणुत्वमहत्त्वलघुत्वगुरुत्वप्राप्तिप्राकाम्येशित्ववशित्वाप्रतिघातित्वान्तर्धानकामरूपित्वादिका लब्धयो बोद्धव्याः, तत्राणुत्वं-अणुशरीरता येन बिशच्छिद्रमपि प्रविशति तत्र च चक्रवर्तिभोगानपि|8| भुङ्क्ते, महत्त्वं मेरोरपि महत्तरशरीरकरणसामर्थ्य, लघुत्वं-वायोरपि लघुतरशरीरता, गुरुत्वं-वनादपि गुरुतरशरीरतया इन्द्रादिमि रपि प्रकृष्टबलैर्दुःसहता, प्राप्तिः-भूमिस्थस्य अङ्गुल्यप्रेण मेरुपर्वताग्रप्रभाकरादेः स्पर्शसामर्थ्य, प्राकाम्यम्-अप्सु भूमाविव प्रविशतो गमन४ शक्तिः, तथाऽप्स्विव भूमावुन्मजननिमजने, ईशित्वं त्रैलोक्यस्य प्रभुता तीर्थकरत्रिदशेश्वरऋद्धिविकरणं, वशित्वं-सर्वजीववशीकरणदलब्धिः, अप्रतिघातित्वम्-अद्रिमध्येऽपि निःसङ्गगमनं, अन्तर्धानम्-अदृश्यरूपता, कामरूपित्वं-युगपदेव नानाकाररूपतया विकुर्वणशक्ति रिति । अथ भव्यत्वाभव्यत्वविशिष्टानां पुरुषाणां महिलानां च यावत्यो लब्धयो भवन्ति तत् प्रतिपादयति-भवेत्यादि गाथाचतुष्कं, भवा-भाविनी सिद्धिः-मुक्तिपदं येषां ते भवसिद्धिका भव्या इत्यर्थः ते च ते पुरुषाश्च ते तथा तेषामेता:-पूर्वोक्ताः सर्वा अपि SCOTESCROSAGACASSA KASA Jain Education Interational For Private Personal use only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- लब्धयो भवन्ति, तथा भवसिद्धिकमहिलानामपि यावत्यो लब्धयो न जायन्ते तद्वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति–'अरिहंते'त्यादि, अहंच-15२७०विधिरोद्धारे क्रवर्तिवासुदेवबलदेवसम्भिन्नश्रोतश्चारणपूर्वधरगणधरपुलाकाहारकलब्धिलक्षणा एता दश लब्धयो भव्यमहिलानां-भव्यस्त्रीणां न ह' नैव धतपांसि तत्त्वज्ञा- 15|| भवन्ति, शेषास्त्वष्टादश लब्धयो भव्यत्रीणां भवन्तीति सामर्थ्याद्गम्यते, यञ्च मल्लिस्वामिनः स्त्रीत्वेऽपि यत्तीर्थकरत्वमभूत्तदाश्चर्यभू- भवन्ति, शेषास्त्वष्टादश लब्धयो भव्यत्रोणा भव गा.१५०१ नवि० दि तत्वान्न गण्यते, तथा अनन्तरमुक्तास्तावद्दश लब्धयः केवलित्वं च-केवलिलब्धिरन्यच्च ऋजुमतिविपुलमतिलक्षणं लब्धिद्वयमित्येतात्र योदश लब्धयः पुरुषाणामप्यभव्यानां नैव कदाचनापि भवन्ति, शेषाः पुनः पञ्चदश भवन्तीति भावः, अभव्यमहिलानामप्येताः पूर्व॥४३२॥ || भणितास्त्रयोदश लब्धयो न भवन्ति, चतुर्दशी मधुक्षीराश्रवलब्धिरपि नैव तासां भवति, शेषास्त्वेतद्व्यतिरिक्ताश्चतुर्दशलब्धयोऽविरुद्धाः, भवन्तीत्यर्थः, ॥ २७० ॥ ९२ ॥ ९३ ॥ ९४ ॥९५ ॥ ९६ ॥ ९७ ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ १५०० ।। १ ॥ २ ॥ ३ ॥४॥५॥ ॥ ६॥ ७ ॥ ८ ॥ इदानीं 'तव'त्येकसप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह पुरिमढेकासणनिविगइयआयंबिलोववासेहिं । एगलया इय पंचहिं होइ तवो इंदियजउत्ति ॥९॥ निविगइयमायामं उववासो इय लयाहिं तिहिं भणिओ। नामेण जोगसुद्धी नवदिणमाणो तवो एसो॥१०॥ नाणंमि दंसणंमि य चरणमि य तिन्नि तिन्नि पत्तेयं । उववासो तप्पूयापुवं तन्नामगतमि ॥११॥ एक्कासणगं तह निविगइयमायंबिलं अभत्तहो । इय होइ लयचउक्कं कसायविजए तवचरणे ॥१२॥ खमणं एक्कासणगं एक्कगसित्थं च एगठाणं च । एकगदत्तं नीषियमायंबिलमट्ठ ॥४३२॥ कवलं च ॥ १३॥ एसा एगा लइया अहहिं लइयाहिं दिवस चउसही। इय अट्टकम्मसूडणतवंमि SEARCCESSAROOROSCHECK ROSAROSAGACARAMCHAMASAN For Private & Personel Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NROSAROOCHECAURAT भणिया जिणिंदेहिं ॥ १४ ॥ इग दुग इग तिग दुग चउ तिग पण चउ छक्क पंच सत्त छगं । अठ्ठग सत्तग नवगं अट्ठग नव सत्त अद्वेव ॥१५॥ छग सत्तग पण छकं चउ पण तिग चउर दुग तिगं एगं । दुग एकग उववासा लहुसिहनिक्कीलियतवंमि ॥१६॥ चउपन्नं खमणसयं दिणाण तह पारणाणि तेत्तीसं । इह परिवाडिचउक्के वरिसदुर्ग दिवस अडवीसा ॥ १७॥ विगईओ निविगइयं तहा अलेवाडयं च आयामं। परिवाडिचउक्कमि य पारणएसुं विहेयवं ॥१८॥ इग दुग इग तिग दुग चउ तिग पण चउ छक्क पंच सत्त छगं । अड सत्त नवऽड दस नव एक्कारस दस य बारसगं ॥१९॥ एक्कार तेर बारस चउदस तेरस य पनर चउदसगं । सोलस पनरस सोला होइ विवरीयमेक्कतं ॥ २०॥ एए उ अभत्तट्ठा इगसट्ठी पारणाणमिह होइ। एसा एगा लइया चउग्गुणाए पुण इमाए ॥ २१॥ वरिसछगं मासद्गं दिवसाई तहेव बारस हवंति । एत्य महासीहनिकीलियंमि तिचे तवचरणे ॥ २२॥ एक्को दुगाइ एक्कग अंतरिया जाव सोलस हवंति । पुण सोलस एगंता एक्कंतरिया अभत्तट्ठा ॥ २३ ॥ पारणयाणं सही परिवाडिचउक्कगंमि चत्तारि । वरिसाणि हुंति मुत्तावलीतवे दिवससंखाए ॥ २४ ॥ इग दुति काहलियासुं दाडिमपुप्फेसु हुंति अट्ट तिगा। एगाइसोलसंता सरियाजुयलंमि उववासा ॥ २५॥ अंतंमि तस्स पयगं तत्थंकट्ठाणमेक्कमह पंच सत्त यसत्त य पण पण तिन्निक्कतेसुतिगरयणा ॥२६॥ पारणयदिणट्ठासी परिवाडि रगुणाति तवचर अभत्तहा ॥ १४॥ इग मालस एगंता पत्तावलीतवे दिवानुपलंमि उववार Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घंव० सारोद्धारे तत्वज्ञानवि० २७१ विविधाः तपोभेदाः गा. ॥४३३॥ १५०९-७० चउक्कगे वरिसपणगं । नव मासा अट्ठारस दिणाणि रयणावलितवंमि ॥ २७ ॥ रयणावलीकमेणं कीरइ कणगावली तवो नवरं । कुज्जा दुगा तिगपए दाडिमपुप्फेसु पयगे य ॥२८॥ परिवाडिचउक्के वरिसपंचगं दिणदुगूणमासतिगं । पढमतवुत्तो कजो पारणयविही तवप्पणगे ॥ २९ ॥ भद्दाइतवेसु तहाऽऽइया लया इग दु तिन्नि चउ पंच । तह ति चउ पंच इग दु तह पणग इग दोन्नि ति चउक्कं ॥ ३०॥ तह दुति चउ पणगेगं तह चउ पणगेग दोन्नि तिन्नेव । पणहत्तरि उववासा पारणयाणं तु पणवीसा ॥ ३१॥ पभणामि महाभई इग दुग तिग चउ पणच्छ सत्तेव । तह चउ पण छग सत्तग इग दु ति तह सत्त एक्कं दो ॥ ३२ ॥ तिन्नि चउ पंच छक्कं तह तिग चउ पण छ सत्तगेगं दो।तह छग सत्तग इग दो तिगचउ पण तह दुगंति चउ ॥३॥ पण छग सत्तेक तह पण छग सत्तेक दोन्नि तिय चउरो। पारणयाण गुवन्ना छण्णउयसयं चउत्थाणं ॥ ३४ ॥भद्दोत्तरपडिमाए पण छग सत्तट्ट नव तहा सत्त। अड नव पंचच्छ तहा नव पण छग सत्त अट्ठेव ॥३॥ तह छग सत्तट्ट नव पण तहह नव पण सत्तऽभत्तट्ठा । पणहत्तरसयसंखा पारणगाणं तु पणवीसा ॥३६॥ पडिमाऍ सघभदाए पण छ सत्तट्ट नव दसेकारा। तह अड नव दस एकार पण छ सत्त य तहेक्कारा ॥३७॥ पण छग सत्तग अड नव दस तह सत्तट्ट नव दसेक्कारा । पण छ तहा दस एक्कार पण छ सत्तट्ट नव य तहा ॥ ३८॥ छग सत्तड नव दसगं एक्कारस पंच तह नवग 1 ॥४३॥ in Educat an International Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसगं । एक्कारस पण छक्कं सत्तट्ठ य इह तवे होंति ॥ ३९ ॥ तिन्नि सया बाणउया इत्थुववासाण होंति संखाए । पारणया गुणवन्ना भद्दाइतवा इमे भणिया ॥ ४० ॥ पडिवइया एक्कचिय दुर्ग दुइज्जाण जाव पन्नरस । खमणेह मावसाओ होइ तवो सङ्घसंपत्ती ॥ ४१ ॥ रोहिणिरिक्खदिणे रोहिणीतवो सत्त मासवरिसाई । सिरिवासुपुजपूयापुत्रं कीरइ अभत्तट्ठो ॥ ४२ ॥ एक्कारस सुयदेवीतमि एक्कारसीओं मोणेणं । कीरंति चउत्थेहिं सुयदेवीपूयणापुषं ॥ ४३ ॥ सबंगसुंदरतवे कुणंति जिणपूयखं तिनियमपरा । अड्डववासे एगंतरंबिले धवल पक्खमि ॥ ४४ ॥ एवं निरुजसि - होवि हु नवरं सो होइ सामले पक्खे | तंमि य अहिओ कीरइ गिलाणपडिजागरणनियमो ॥ ४५ ॥ सो परमभूसणो होइ जंमि आयंबिलाणि बत्तीसं । अंतरपारणयाइं भूसणदाणं च देवस्स ॥ ४६ ॥ आयइजणगोऽवेवं नवरं सव्वासु धम्मकिरियासुं । अणिमूहियबलविरियप्पवित्तितेहिं सो को ॥ ४७ ॥ एगंतरोववासा सबरसं पारणं च चेत्तंभि । सोहग्गकप्परुक्खो होइ तहा दिजए दाणं ॥ ४८ ॥ तवचरणसमत्तीए कप्पतरू जिणपुरो ससत्तीए । कायवो नाणाविहफलविलसिरसाहियासहिओ ॥ ४९ ॥ तित्थयरजणणिपूयापुढं एक्कासणाई सत्तेव । तित्थयरजणिनागतमि कीरंति भद्दवए ॥ ५० ॥ एक्कासणाइएहिं भद्दवयचउक्कगंमि सोलसहिं । होइ समोसरणतवो तप्पूयापुवविहिएहिं ॥ ५१ ॥ नंदीसरपडपूया निययसामत्थसरिसतवचरणा । **** +++ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० RECARLOCALCAN विविधाः तपोमेदार गा. १५०९-७० ॥४३४॥ होइ अमावस्सतवो अमावसावासरुद्दिट्टो ॥५२॥ सिरिपुंडरीयनामगतवंमि एगासणाइ कायवं । चेत्तस्स पन्निमाए पूएयचा य तप्पडिमा ॥५३॥ देवग्गठवियकलसो जा पुन्नो अक्खयाण मुट्ठीए। जो तत्थ सत्तिसरिसो तवो तमक्खयनिहिं बिंति ॥५४॥ वड्डइ जहा कलाए एकेकाएऽणुवासरं चंदो। संपुन्नो संपज्जइ जा सयलकलाहिं पबंमि ॥ ५५॥ तह पडिवयाए एको कवलो बीयाइ पुन्निमा जाव । एकेककवलवुड्डी जा तेर्सि होइ पन्नरसगं ॥५६॥ एक्केक्कं किण्हंमि य पकखंमि कलं जहा ससी मुयइ । कवलोवि तहा मुच्चइ जाऽमावासाइ सो एक्को ॥५७॥ एसा चंदप्पडिमा जवमज्झा मासमित्तपरिमाणा। इण्हिं तु वजमज्झं मासप्पडिमं पवक्खामि ॥५८॥ पन्नरस पडिवयाए एक्कगहाणीऍ जावsमावस्सा । एक्केणं कवलेणं जाया तह पडिवईऽवि सिआ॥५९॥ बीयाइयासु इक्कगवुड्डीजा पुन्निमाऍ पन्नरस । जवमज्झवजमझाओ दोवि पडिमाओं भणियाओ ॥६०॥ दिवसे दिवसे एगा दत्ती पढमंमि सत्तगे गिज्झा । वहुइ दत्ती सह सत्तगेण जा सत्त सत्तमए ॥ ६१॥ इगुवन्नवासरेहिं होइ इमा सत्तसत्तमी पडिमा। अहमिया नवनवमिया य दसदसमिया चेव ॥ ६२॥ नवरं वडइ दत्ती सह अठ्ठगनवगदसगवुड्डीहिं। चउसट्ठी एक्कासी सयं च दिवसाणिमासु कमा ॥६३ ॥ एगाइयाणि आयंबिलाणि एकेकवुड्डिमंताणि। पजंतअभत्तहाणि जाव पुत्रं सयं तेसिं ॥६४॥ एवं आयंबिलवद्धमाणनामं महातवचरणं । वरिसाणि ORAN ॥४३४॥ For Private & Personel Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत्थ चउदस मासतिगं वीस दिवसाणि ॥६५॥ गुणरयणवच्छरंमी सोलस मासा हवंति तवचरणे । एगंतरोववासा पढमे मासंमि कायवा ॥ ६६ ॥ ठायब उकुडुआसणेण दिवसे निसाएँ पुण निछ । वीरासणिएण तहा होयवमवाउडेणं च ॥६७॥ बीयाइसु मासेसुं कुन्जा एगुत्तराए बुड्डीए। जा सोलसमे सोलस उववासा हुंति मासंमि ॥ ६८॥ जं पढमगंमि मासे तमणुट्ठाणं समग्गमा. सेसु । पंच सयाई दिणाणं वीसूणाई इममि तवे ॥६९॥ तह अंगोवंगाणं चिइवंदणपंचमंगलाईणं। उवहाणाइ जहाविहि हवंति नेयाई तह समया ॥७॥ तपति-निर्दहति दुष्कर्माणीति तपः, तच्च नानाविधोपाधिनिबन्धनत्वादनेकप्रकार, तत्रेन्द्रियजयमूलत्वाजिनधर्मस्य प्रथममिन्द्रियजयाह्वयं तपः प्राह-प्रथमदिने पूर्वार्ध द्वितीयदिने एकाशनकं तृतीय दिने निर्विकृतिकं चतुर्थदिने आचामाम्लं पञ्चमदिने उपवासः इत्येवं पञ्चमिस्तपोदिनैरेका लता, लता श्रेणिः परिपाटी चेत्येकार्थाः, एकैकं चेन्द्रियमाश्रित्यैवस्वरूपा एकैका लता क्रियते, ततः पञ्चभिलतामिः पञ्च|विंशत्या दिवसैरिन्द्रियजयाख्यस्तपोविशेषो भवति, इन्द्रियाणां-स्पर्शनादीनां पञ्चानामपि जयो-दमनं यस्मादसाविन्द्रियजयः, इन्द्रियजयहेतुत्वाद्वा इन्द्रियजयः, यद्यपि सर्वाण्यपि तपांसीन्द्रियजये प्रभविष्णूनि तथापीन्द्रियजयमालम्ब्य क्रियमाणत्वादस्यैव तपसस्तद्धेतुत्वं पूर्वसूरिभिरभिहितं, एवमुत्तरत्रापि वाच्यं ॥ ९॥ योगशुद्धितपः प्राह-निविगइये त्यादि, निर्विकृतिकं आचामाम्लं उपवासश्च इत्येका | लता, एकैकं च योगमाश्रित्यैवंविधा एकैका लता क्रियते, ततस्तिमृमिलताभियोगशुद्धिनामक दिननवकप्रमाणमेतत्तपो भणितं पूर्वर्षिभिः, || सूत्रे च पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् , योगाना-मनोवाकायव्यापाराणां शुद्धिः-अनवद्यता यस्मात्तत्तपो योगशुद्धिः ॥१०॥ ज्ञानदर्शनचारित्रतपांसि For Private Personal use only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्वज्ञानवि० ॥४३५॥ प्राह-नाणंमी'त्यादि, ज्ञाने-ज्ञानशुद्धिनिमित्तं दर्शने-दर्शनशुद्धिनिमित्तं चरणे-चारित्रशुद्धिनिमित्तं तत्पूजापूर्व-ज्ञानादिपूजापुरस्सरं २७१ |तन्नामके-ज्ञानादिनामके तपसि प्रत्येकं त्रयस्त्रय उपवासा भवन्ति, इदमुक्तं भवति-ज्ञानस्य सिद्धिहेतोनिभिरुपवासैः कृतैर्ज्ञानतपो विविधाः भवति, तत्र च यथाशक्ति ज्ञानस्य-सिद्धान्तादेः पुस्तकन्यस्तस्य सुप्रशस्तपरिधांपनिकादिकरणं ज्ञानवतां च पुरुषाणामेषणीयवस्नान- तपोमेदाः पानप्रदानादिरूपा पूजा कर्तव्या, एवं त्रिभिरुपवासैदर्शनतपो भवति, नवरं तत्र दर्शनप्रभावकाणां सम्मत्यादिप्रन्थानां सद्गुरूणां च पूजा विधेया, तथा त्रिमिरुपवासैश्चारित्रतपो भवति, तत्रापि चारित्रिणां पूजा करणीयेति ॥ ११॥ कषायविजयतपः प्राह- ४|१५०९-७० 'एके'त्यादि, एकाशनकं निर्विकृतिकं आचाम्लं अभक्तार्थश्च-उपवासः इत्येका लता, प्रतिकषायं चैकैका लता क्रियते तत्कषाय४|| विजयं तपश्चरणं, कषायाणां-क्रोधमानमायालोभलक्षणानां चतुर्णा विशेषेण जयः-अभिभवनं यस्मादितिकृत्वा, अस्मिंश्च तपसि | चतस्रो लताः षोडश दिवसानि ॥ १२ ॥ अष्टकर्मसूदनं तपः प्राह-'खमण'मित्यादिगाथाद्वयं, क्षमणम्-उपवासः १ एकाशनं २ एकसिक्थकं ३ एकस्थानकं ३ एका दत्तिः ५ निर्विकृतिकं ६ आचाम्लं ७ अष्टकवलं च ८ एषा एका लता, एकैकं च कर्माश्रित्यैवंरूपा| एकैका लता क्रियते, ततोऽष्टामिलताभिर्दिवसानां चतुःषष्टिर्भणिता जिनेन्द्र्रष्टकर्मसूदनतपसि, अष्टानां कर्मणां-ज्ञानावरणादीनां सूदनंविनाशनं यस्मात्तदृष्टकर्मसूदनं तपः, एतत्समाप्तौ च जिनपतीनां स्नपनविलेपनपूजनपरिधापनिकादि विधेयं, पुरतो विशिष्टबलिमध्ये कनक-| मयी कर्मतरुदारिका कुठारिका च ढौकनीया ॥ १२॥ लघुसिंह निष्क्रीडितं तपः प्रतिपादयितुमाह-'इगे'त्यादिगाथाद्वयं, अनन्तरवक्ष्यमाणमहासिंह निष्कीडितापेक्षया लघु-इखं सिंहस्य निष्क्रीडितं-गमनमित्यर्थः सिंहनिष्क्रीडितं तदिव यत्तपस्तत्सिहनिष्क्रीडितमिति, सिंहो ॥४३५॥ हि गच्छन् गत्वाऽतिक्रान्तं देशमवलोकयति एवं यत्र तपस्यतिक्रान्ततपोविशेष पुनरासेव्यातनं तं प्रकरोति तत् सिंहनिष्क्रीडितमिति, Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतस्य चैवं रचना - एकादयो नवान्ताः क्रमेण स्थाप्यन्ते, पुनरपि प्रत्यागत्या नवादय एकान्ताः, ततश्च द्वयादीनां नवान्तानामप्रे प्रत्येकमेकादयोऽष्टान्ताः स्थाप्यन्ते, ततो नवाद्येकान्तप्रत्यागतपङ्कावष्टादीनां द्व्यन्तानामादौ सप्तादय एकान्ताः स्थाप्यन्ते इति, स्थापना चेयं, अय | 1 | मर्थः - प्रथममेक उपवासः क्रियते ततः पारणकं एवमन्तरा सर्वत्र पारणकं ज्ञेयं, ततो द्वौ तत एकः ततस्त्रय उपवासा ततो द्वौ ततश्चत्वारः ततस्त्रयः ततः पञ्च ततश्चत्वारः ततः षट् ततः पश्च ततः सप्त ततः षट् ततोऽष्टौ ततः सप्त ३ २ २ ३ ततो नव ततोऽष्टौ ततो नव ततः सप्त ततोऽष्टौ ततः षट् ततः सप्त ततः पश्च ततः षट् ततश्चत्वारः ततः पञ्च ततस्त्रयः ५ ४ ४ ५ ततश्चत्वारः ततो द्वौ ततस्त्रयः तत एकः ततो द्वौ तत एक इति, एते लघुसिंहनिष्क्रीडिते तपस्युपवासाः ॥ १३ ॥ अथो६ ५ ५ ६ पवासदिवसानां पारणकदिनानां च सङ्ख्यामाह - 'चउ' इत्यादि, लघुसिंहनिष्क्रीडिते तपसि क्षमणदिनानां - उपवास ९ ७ दिवसानां शतमेकं चतुष्पञ्चाशदधिकं तथाहि - द्वे नवसङ्कलने तत एका ४५, पुनः ४५, अष्टसङ्कलना चैका ३६ • सप्तसङ्कलनाप्येकैव २८, सर्वमीलने च यथोक्ता सङ्ख्या भवति १५४, तथा पारणकानि त्रयस्त्रिंशत्, तदेवं सर्वदिनसङ्ख्या १८७, ते च षण्मासाः सप्तदिनाधिका भवन्ति, एतच तपः परिपाटीचतुष्टयेन क्रियते, तत एतेषु चतुर्गुणितेषु द्वे वर्षे अष्टाविं शतिदिनाधिके भवतः ॥ १४ ॥ अथ परिपाटीचतुष्टयेऽपि प्रत्येकं पारणस्वरूपं निरूपयति – 'विगईत्यादि, प्रथमपरिपाट्यां पारणकेषु विकृतयो भवन्ति, सर्वरसोपेतं पारणकमिति भावः, द्वितीयपरिपाट्यां निर्विकृतिकं- विकृतिविरहः, तृतीयपरिपाट्यामलेपकारि-वल्लचणकादि, चतुर्थपरिपाट्यामाचाम्लं परिमितभैक्ष्यमिति, एवमस्य तपसः पारणकभेदेन चतस्रः परिपाट्यो विधेयाः ॥ १५ ॥ महासिंहनि १ ८७ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० विविधाः तपोभेदाः गा. १५०९-७० ॥४३६॥ क्रीडितं तप आह-'इगे'त्यादि गाथाद्वयं, इह एकादयः षोडशान्ताः षोडशादयश्चैकान्ताः स्थाप्यन्ते, ततश्च यादीनां षोडशान्तानामग्रे प्रत्येकमेकादयः पञ्चदशान्ताः षोडशादिषु वेकान्तेषु पञ्चदशादीनां व्यन्तानामादौ प्रत्येकं चतुर्दशादयः एकान्ताः स्थाप्यन्ते, स्थापना चेयं, MaraP A PA अयमर्थः-प्रथममेक उमहासिंहनिष्क्रीडितं तपः पवासः ततो द्वौ तत | Garamanraora0000BBBARHAAR एकः ततस्त्रयः ततो द्वौ ततश्चत्वारः ततस्त्रयः ततः पञ्च ततश्चत्वारः ततः षट् ततः पञ्च ततः सप्त ततः षट् ततोऽष्टौ ततः सप्त ततो नव ततोऽष्टौ ततो दश ततो | नव तत एकादश ततो दश ततो द्वादश तत एकादश ततस्त्रयोदश ततो द्वादश ततश्चतुर्दश ततस्त्रयोदश ततः पञ्चदश ततश्चतुर्दश | ततः षोडश ततः पञ्चदशोपवासा इति, एवं प्रत्यागत्याऽपि षोडशोपवासाः ततश्चतुर्दशेत्यादि तावदवसेयं यावत्पर्यत एक उपवास इति ॥ १६ ॥ अथोक्तशेष दिनसर्वसङ्ख्यां चाह-एए'इत्यादि गाथाद्वयं, अस्मिन्महासिंहनिष्क्रीडिते तीब्रे-अतिदुश्चरे तपश्चरणे एतेपूर्वोक्तपतिद्वितयोदिता अभक्तार्था-उपवासा भवन्ति, ते च सर्वसङ्ख्यया चत्वारि शतानि सप्तनवत्युत्तराणि, तथाहि-अत्र द्वे षोडशसङ्कलने |१३६-१३६ एका पञ्चदशसङ्कलने (ना) १२० एकैव चतुर्दशसङ्कलने (ना) १०५, तथा एकषष्टिः पारणकानि भवन्ति, ततः सर्वैकत्वे वर्षमेकं षण्मासा अष्टादश च दिनानीत्येषा परिपाटी, एतदपि च तपः पूर्ववत्पारणकभेदेन चतसृभिः परिपाटीभिः परिसमाप्यते, ततोऽस्य राशेश्चतुर्भिर्गुणने वर्षाणि षट् मासौ द्वौ दिनानि च द्वादश भवन्तीति ॥ १७ ॥ मुक्तावलीतपः प्राह-'एको'इत्यादि गाथा ॥४३६॥ Jain Education Interational Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वयं, मुक्तावली - मौक्तिकहार स्तदाकारस्थापनया यत्तपस्तन्मुक्तावलीत्युच्यते, तत्रादौ तावदेककः स्थाप्यते ततो द्विकत्रिका एककान्तरिता भवन्ति यावत् पर्यन्ते षोडश, ततः पुनः प्रत्यागत्या षोडशादय एककपर्यन्ता एककान्तरिताः स्थाप्यन्ते, स्थापना चेयं, अयमर्थः -पूर्व तावदेक उपवासः ततो द्वौ ततः पुनरेकः ततस्त्रयः तत एकः ततञ्चत्वारः तत एकः ततः पच तत एकः ततः षट् तत एकः ततः सप्त तत एकः ततोऽष्टौ तत एकः ततो नव तत एकः ततो दश तत एकः तत एकादश तत एकः ततो द्वादश तत एकः ततस्त्रयोदश तत एकः ततश्चतुर्दश तत एकः ततः पथ्यदश तत एकः ततः षोडशोपवासाः, एवमर्ध मुक्तावल्या निष्पन्नं, द्वितीयमप्यर्धमेवं द्रष्टव्यं, केवलमन्त्र प्रतिलोमगत्या उपवासान् करोति, तद्यथा — षोडशोपवासान् कृत्वा एकमुपवासं करोति, ततः पञ्चदश तत एकमित्येवमेकोपवासान्तरितमेकोत्तरहान्या तावन्नेयं यावत्पर्यन्ते द्वावुपवासौ कृत्वा एकमुपवासं करोतीति, एतेऽभक्तार्था - उपवासाः सर्वाग्रेण त्रीणि शतानि, तथाहि - द्वे षोडशसङ्कलने १३६ - १३६ अष्टाविंशतिश्च चतुर्थानि तथा षष्टिः पारणकानि ततो जातं वर्षमेकं एतदपि तपः प्राग्वञ्चतसृभिः परिपाटीभिः समाप्यते, ततो भवन्ति मुक्तावलीतपसि दिवससङ्ख्यया चत्वारि वर्षाणीति, अंतकृद्दशासु पुनर्य एव प्रथमपङ्क्तिपर्यन्तवर्तिनः षोडश द्वितीयपङ्किप्रारम्भेऽपि त एव एक एव षोडशक इति तात्पर्यं ॥ १८ ॥ रत्नावलीतपः प्राह — 'इगे'त्यादि गाथात्रयं, रत्नावली - आभरणविशेषः रत्नावलीव रत्नावली, यथा हि रत्नावली उभयत आदिसूक्ष्मस्थूलस्थूलतरविभागकाह लिकाख्य सौवर्णावयवद्वययुक्ता तदनु दाडिमपुष्पोभयोपशोभिता ततोऽपि सरलसरिकायुगलशालिनी पुनर्मध्यदेशे सुलिष्टपदकसमलङ्कृता च भवति, एवं यत्तपः पट्टादावुपदर्श्यमानमिममाकारं Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० विविधा | तपोभेदार गा. १५०९-७० ॥४३७॥ धारयति तनावलीत्युच्यते, तत्रैककद्विकत्रिका उत्तराधर्यक्रमेण काहलिकयोः स्थाप्या भवन्ति, तद्नु द्वयोरपि दाडिमपुष्पयोः प्रत्येकमष्टौ त्रिकाः, ते चोभयतो रेखाचतुष्टयेन नव कोष्ठकान् विधाय मध्ये च शून्यं कृत्वा स्थाप्यन्ते, ततश्चाधोऽधः सरिकायुगले एकादयः षोडशान्ताः स्थाप्याः, तस्य च सरिकायुगलस्यान्ते-पर्यन्ते पदकं-पतयष्टकेन चतुस्त्रिंशदकस्थानानि, कोष्ठकाः इत्यर्थः, तत्र प्रथमायां पनावेmmm कमङ्कस्थानं द्वितीयस्यां पञ्च तृतीयस्यां सप्त चतुर्थ्यामपि सप्त पञ्चम्यां पञ्च षष्ठयामपि पञ्च सप्तम्यां त्रीणि अष्टम्यां त्वेकमेवाकस्थानं, तेषु चतुर्विंशत्यपि कोष्ठकेषु त्रिकरचना, त्रिकाः स्थाप्यन्ते इति भावः, स्थापना चेयं, इदमत्र तात्पर्य-रत्नावलीतपसि प्रथममेकमुपवासं करोति ततो द्वौ ततस्त्रीन् इत्येका काहलिका, अंतरा च सर्वत्र ३|३|३|३३ ३ ३ ३ ३ ३] ३ ॥४३७॥ Jan Education Intematonal For Private sPersonal use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARSAECTECA पारणकं वाच्यं, ततोऽष्टावष्टमानि-उपवासत्रिकात्मकानि करोति, एतैः किल काहलिकाया अधस्ताद्दाडिमपुष्पं निष्पद्यते, ततश्चैकमुपवासं करोति ततोऽपि द्वौ ततस्त्रीन् ततोऽपि चतुर इत्येवं पञ्च षट् सप्ताष्टौ नव दशैकादश द्वादश त्रयोदश चतुर्दश पञ्चदश षोडशोपवासान् करोति, एषा हि दाडिमपुष्पस्याधस्तादेका सरिका, ततश्चतुस्त्रिंशदष्टमानि करोति, एतैः किल पदकं संपद्यते, ततः पोडशोपवासान् करोति ततः पञ्चदश ततश्चतुर्दश इत्येवमेकैकहान्या तावन्नेयं यावदेक उपवासः, एषा द्वितीया सरिका भवति, ततश्चाष्टावटमानि करोति, एतैरपि द्वितीयं दाडिमपुष्पं निष्पद्यते, ततस्त्रीनुपवासान् करोति ततो द्वौ तत एकमुपवासं करोति, एतैर्द्वितीया काहलिका निष्पद्यते, एवं सति परिपूर्णा रत्नावली सिद्धा भवति, अस्मिंश्च रत्नावलीतपसि काहलिकायास्तपोदिनानि १२ दाडिमपुष्पयोः षोडशभिरष्टमैर्दिनानि ४८ सरिकायुगले द्वाभ्यां षोडशसंकलनाभ्यां दिनानि २७२ पदके चतुस्त्रिंशताऽष्टमैर्दिनानि १०२, सर्वैकत्वे चत्वारि शतानि चतुस्त्रिंशदुत्तराणि, अष्टाशीतिश्च पारणकदिनानि, उभयमीलने पञ्च शतानि द्वाविंशत्युत्तराणि, पिण्डितास्तु वर्षमेकं मासाः दि पञ्च दिनानि च द्वादश, इदमपि च तपः पूर्ववञ्चतसृभिः परिपाटीमिः समर्थ्यते, ततश्चतुर्भिर्गुणने वर्षाणि पश्च मासा नव अष्टादश *च दिनानीति ॥ १९॥२०॥ २१॥ कनकावलीतपः प्राह-रयणे'त्यादि गाथाद्वयं, कनकमयमणिकनिष्पन्नो भूषणविशेषः कन कावली तदाकारं स्थापनया यत्तपस्तत्कनकावलीत्युच्यते, एतच्च कनकावलीतपो रत्नावलीतपःक्रमेणैव क्रियते, नवरं-केवलं दाडिमतपुष्पयोः पदके च त्रिकपदे-त्रिकाणां स्थाने उपवासद्वयसूचका द्विकाः कर्तव्याः, शेषं पुनः सर्वमपि तथैवेति, अस्मिंश्च तपसि काह लिकयोस्तपोदिनानि द्वादश दाडिमपुष्पयोर्द्वात्रिंशत् सरिकायुगले द्वे शते द्वासप्तत्युत्तरे पदके चाष्टषष्टिः, सर्वसङ्ख्यया त्रीणि शतानि चतुरशीत्यधिकानि, अष्टाशीतिश्च पारणकदिवसाः, तत्प्रक्षेपाच्चत्वारि दिनशतानि द्वासप्तत्युत्तराणि, सर्वानपिण्डस्तु वर्षमेकं त्रयो मासा द्वाविं R Join Education International Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा शतिर्दिवसाः, अत्रापि पूर्ववचतुर्भिर्गुणने वर्षाणि पथ्च मासौ द्वौ दिनानि चाष्टाविंशतिरिति, अन्तकृद्दशादिषु तु कनकावल्यां पदके रोद्धारे दाडिमद्वये च द्विकस्थाने त्रिका उक्ताः रत्नावल्यां च द्विका इति । तथा प्रथमतपसि लघुसिंहनिष्क्रीडिते यः सर्वरसाहारादिकः पारणकविधिरुक्तः स तपः पञ्चकेऽपि - लघुवृहत्सिंहनिष्क्रीडितमुक्तावलीरत्नावली कनकावलीलक्षणे कर्तव्यः, एतच सर्व यथायथं भावितमेवेति ॥ २२ ॥ अथ भद्रतपः प्राह - 'भद्दे' त्यादि गाथाद्वयं, भद्रादिषु भद्रमहाभद्र भद्रोत्तर सर्वतोभद्रेषु तपस्सु मध्ये पूर्व भद्रतपः प्रतिपादयामि तद्यथा-आदौ भवेदेक उपवासः ततो द्वौ ततस्त्रयः ततश्चत्वारः ततः पश्च इत्येका लता एवं त्रयश्चत्वारः पश्व एको द्वौ इति द्वितीया पथ्व एको द्वौ त्रयश्चत्वार इति तृतीया द्वौ त्रयश्चत्वारः पञ्च एक इति चतुर्थी चत्वारः पञ्च एको द्वौ त्रय इति पञ्चमी, इह पञ्चमिलताभिः पञ्चसप्ततिरुपवासाः पञ्चविंशतिश्च पारणकानि, उभयमीलने च शतमेकं दिनानामिति ॥ २३ ॥ स्थापना चेयं । महाभद्रं तपः प्राह - ' पभणामी त्यादि गाथात्रयं प्रकर्षेण भणामि - प्रतिपादयामि महाभद्रनामकं तपः, तद्यथा - पूर्वमेक उपवासः ततो द्वौ त्रयश्चत्वारः पञ्च षट् सप्तेत्येका लता, चत्वारः पञ्च षट् सप्त एको द्वौ त्रय इति द्वितीया, ५ १ २ ३ ४ सप्त एको द्वौ त्रयश्चत्वारः पञ्च पडिति तृतीया, त्रयश्चत्वारः पञ्च पटू सप्त एको द्वाविति चतुर्थी, पटू सप्तैको २ ३ ४ ५ १ द्वौ त्रयश्चत्वारः पच्चेति पञ्चमी, द्वौ त्रयश्चत्वारः पञ्च षट् सप्त एक इति षष्ठी, पव पट् सप्त एको द्वौ त्रयश्च| ४ ५ १ २ ३ त्वार इति सप्तमी, इहैकोनपञ्चाशत्पारणकानि, षण्णवत्यधिकं शतं चतुर्थानां - उपवासानामित्यर्थः, एवं चास्मिन्महाभद्रे तपसि द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदुत्तरे दिनानां भवत इति । स्थापना चेयं (४२) ||२४|| साम्प्रतं भद्रोत्तरं तपः प्राह - 'भद्दो' इत्यादि गाथाद्वयं, प्रतिमा नाम प्रतिज्ञाविशेषः, ततो भद्रोत्तरप्रतिमायां - भद्रोत्तरतपसि पश्च षट् सप्ताष्टौ नवेत्याद्या लता, सप्ताष्टौ नव पञ्च पडिति १२ ३ ४ ५२ तत्त्वज्ञा नवि० ॥ ४३८ ॥ २७१ विविधाः तपोमेदाः गा. १५०९-७० ॥ ४३८ ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ६ ACHCRECEDESCREE द्वितीया, नव पञ्च षट् सप्ताष्टाविति तृतीया, षट् सप्ताष्टौ नव पञ्चेति चतुर्थी, अष्टौ नव पञ्च षट् सप्तेति पञ्चमी, इह पञ्चसप्तत्युत्तरं शतमभक्तार्थानां-उपवासानां पञ्चविंशतिस्तु पारणकानां, एवं च भद्रोत्तरतपसि | शतद्वयं दिनानां भवति, स्थापना चेयं ॥ साम्प्रतं सर्वतोभद्रतपः प्राह-'पडिमे'त्यादि गाथा-[पवन चतुष्कं, प्रतिमायां सर्वभद्रायां सर्वतोभद्रतपसीत्यर्थः, पञ्च षट् सप्त अष्टौ नव दश एकादश | उपवासा इति प्रथमा लता, अष्टौ नव दश एकादश पञ्च षट् सप्तेति द्वितीया, एकादश ५६२३ पञ्च षट् सप्ताष्टौ नव दशेति तृतीया, सप्त अष्टौ नव दश एकादश पञ्च षडिति चतुर्थी, दश एकादश पञ्च षट् सप्त अष्ट नवेति पञ्चमी, षट् सप्त अष्टौ नव दश एकादश पञ्चेति षष्ठी, नव दश एकादश पञ्च षट् सप्त अष्टा-18 विति सप्तमी, स्थापना चेयं, अत्र च सर्वसङ्ख्यया त्रीणि शतानि द्विनवत्युत्तराणि उपवासानां भवन्ति, एकोनपञ्चाशच्च पारणकानां, उभयमीलने चत्वारि शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि दिनानां भवन्तीति । तदेवमेतानि भद्रादीनि-भद्रमहाभद्रभद्रोत्तरसर्वतोभद्ररूपाणि चत्वारि तपांसि भणितानि, ग्रंथान्तरे पुनरमून्यन्यथाऽपि दृश्यन्ते, एतेष्वपि चतुर्षु तपस्सु प्राग्वत्पारणकभेदतः प्रत्येकं चातुर्विध्यं च द्रष्टव्यं, दिनसङ्ख्या च यथायथमानेतव्येति ॥ २५ ॥ अथ सर्वसौख्यसम्पत्तितपः प्राह-'पडिवे'त्यादि, प्रतिपदेकैव द्विकं द्वितीययोः एवं यावत्पञ्चदश अमावास्याः क्षमणैः-उपवासैर्यत्र भवन्ति, अयमर्थः-एका प्रतिपद् द्वे द्वितीये तिस्रस्तृतीयाः चत REAC+COCCA4 For Private & Personel Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- सश्चतुर्थ्यः एवं यावत्पञ्चदश पञ्चदृश्यः कृतोपवासा यत्र भवन्ति तत्तपः सर्वसंपत्तिः 'सूचकत्वात्सूत्रस्य' सर्वसौख्यसंपत्तिस्तपो भवति, २७१ रोद्धारे | सर्वेषां सौख्यानां संपत्तिः-प्राप्तिर्यस्मादितिकृत्वा, यद्वा सर्वसंपत्तिरित्येव नाम, तथाहि-तत्किमपि वस्तु नास्ति भुवस्तले यदस्य सम्य- विविधाः तत्त्वज्ञा-ICI गासेवितस्य तपसः प्रभावतः प्रायेण प्राणिनां न संपद्यते इति । इह चामावास्याशब्दश्रवणादन्यत्र च 'इय जाव पन्नरस पुन्निमासु तपोभेदाः नवि० कीरति जत्थ उववासा' इत्यादिवचनाकर्णनादवसीयते इह च यथेदं तपः कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे वा प्रारभ्यते न कश्चिद्दोषः, अत्र च विंश- गा. त्युत्तरं शतमुपवासानां भवति १५ ॥४१॥ रोहिणीतपः प्राह-रोहिणी'त्यादि, रोहिणी-देवताविशेषः तदाराधनार्थ तपो रोहिणी- १५०९-७० ॥४३९॥ तपः तस्मिन् रोहिणीतपसि सप्तमासाधिकसप्तवर्षाणि यावद्रोहिणीनक्षत्रोपलक्षिते दिने उपवासः क्रियते, इह च वासुपूज्यजिनप्रतिमायाः प्रतिष्ठा पूजा च विधेया १६ ॥ ४२ ॥ श्रुतदेवतातपः प्राह–'एक्के'त्यादि, श्रुतदेवताराधनार्थ तपः श्रुतदेवीतपः तस्मिन् श्रुतदेवीतप-| |स्येकादश एकादश्यः श्रुतदेवतापूजापुरस्सरमुपवासा मौनव्रतेन विधीयन्ते, उपलक्षणं चैतत् , ततोऽम्बातपोऽप्यत्र द्रष्टव्यं, तच्च पञ्चसुर पञ्चमीषु नेमिजिनाम्बिकापूजापूर्वमेकाशनादिना भवति १७ ॥ ४३ ॥ सर्वाङ्गसुन्दरतपः प्राह-'सबंगे'यादि, सर्वाङ्गानि सुन्दराणि-सौं-18 | दोपेतानि भवन्ति यस्मात्तत्सर्वाङ्गसुन्दरं तपः तस्मिन् सर्वाङ्गसुन्दरे तपसि क्षान्तिमार्दवार्जवाद्यमिग्रहकृताग्रहास्तीर्थकृत्पूजामुनिदीनादि| दाननिरताश्चाष्टावुपवासान् एकान्तरितानाचाम्लेन कृतपारणकान् धवलपक्षे कुर्वन्ति, अस्य च तपसः सर्वाङ्गसुन्दरत्वमानुषङ्गिकमेव फलं, मुख्यं तु सर्वज्ञाज्ञया क्रियमाणानां सर्वेषामेव तपसां मोक्षावाप्तिरेव फलमिति भावनीयं, एवं सर्वत्रापि १८॥४४॥ निरुजशिखतपः प्राह-'एव'मित्यादि, रुजाना-रोगाणामभावो निरुजं तदेव प्रधानफलविवक्षया शिखेव शिखा-चूला यत्रासौ निरुजशिखस्तपोविशेषः ॥४३९॥ | सोऽप्येवमेव-सर्वाङ्गसुन्दरतपोवदुष्टभिरुपवासैराचाम्लपारणकैर्द्रष्टव्यः, नवरं-केवलं स-निरुजशिखस्तपोविशेष: श्यामले-कृष्णपक्षे SHISAIGRAOSASS For Private & Personel Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ भवति, अधिकश्च तत्र क्रियते ग्लानप्रतिजागरणनियमो-ग्लानो मया पथ्यादिदानतः प्रतिचरणीयः इत्येवंरूपप्रतिज्ञाग्रहणमित्यर्थः, शेषं . सेतु जिनपूजादिकं तथैवेति १९ ॥ ४५ ॥ परमभूषणतपः प्राह-'सो' इत्यादि, परमाणि-शक्रचक्रवर्त्याधुचितानि प्रकृष्टानि हारकेयूरof कुण्डलादीनि भूषणानि-आभरणानि यस्मादसौ परमभूषणः, तस्मिन् द्वात्रिंशदाचाम्लानि पारणकान्तरितानि शक्तिसद्भावे निरन्तराणि वा करोति, तत्समाप्तौ च देवस्य मुकुटतिलकाद्याभरणवितरणं यथाशक्ति यतिदानादिकं च कर्तव्यमिति २० ॥ ४६ ॥ आयतिजनक तपः प्राह-'आयई'त्यादि, आयति-आगामिकालेऽभीष्टफलं जनयति-करोति योऽसावायतिजनकस्तपोविशेषः सोऽप्येवं-परमभूषणतपोवद् द्वात्रिंशताऽऽचाम्लैर्द्रष्टव्यः, नवरं-केवलं सर्वासु धर्मक्रियासु-वन्दनकप्रतिक्रमणस्वाध्यायसाधुसाध्वीवैयावृत्त्यादिषु सर्वधर्मकृत्येध्वनिगृहितबलवीर्यप्रवृत्तियुक्तैः-अगोपायितशरीरप्राणचित्तोत्साहप्रवर्तनप्रधानैः स:-आयतिजनकः कार्यः २१ ॥४७॥ सौभाग्यकल्प| वृक्षमाह-एगंते'त्यादिगाथाद्वयं, कल्पवृक्ष इव कल्पवृक्षः सौभाग्यफलदाने कल्पवृक्षः सौभाग्यकल्पवृक्षः, तत्र सौभाग्यकल्पवृक्षतपसि | चैत्रमासे एकान्तरा-एकदिनव्यवहिता उपवासाः समग्रमपि मासं भवन्ति, पारणकं च सर्वरसं-सविकृतिकमित्यर्थः, तथाऽत्र यथाशक्ति साध्वादिभ्यो दानं दीयते, अस्य च तपश्चरणस्य समाप्तौ शक्त्यनुसारतो जिनपतेः पुरतः पूजाकरणादिपूर्व विशालस्थालावलिमध्ये महारजतमयः सरलतण्डुलमयो वा विविधफलपटलविलसदसंख्यशाखाशिखः कल्पशाखी कर्तव्य इति २२ ।। ४८॥ ४९ ॥ तीर्थकरमा-| तृतप आह–'तित्थे'यादि, तीर्थकरजननीपूजापूर्वमेकाशनानि-एकभक्तानि सप्तैव तीर्थकरजननीनामके तपसि क्रियन्ते, अस्य च तपसो भाद्रपदे मासि शुक्सप्तम्यामारम्भः त्रयोदश्यां च समाप्तिः, वर्षत्रयं च यावदिदं तपः क्रियते २३ ॥ ५० ॥ समवसरणतप आह–'एक्कासे'त्यादि, भाद्रपदमासि कृष्णप्रतिपद आरभ्य तत्पूजापूर्व-समवसरणप्रतिमापूजनपुरस्सरं स्वशक्त्यनुसारेणैकाशननिर्विक सनCOCC For Private & Personel Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥४४०॥ तिकाचाम्लोपवास: पोडशभिर्भाद्रपदचतुष्के-चतुर्पु भाद्रपदेषु प्रत्येकं विहितैः समवसरणतपो भवति, अत्र च चतर्ष भाद्रपदेषु चतु:-II २७१ पष्टिस्तपोदिनानि स्युः, अयं भावः-समवसरणस्यैकैकं द्वारमाश्रित्य प्रत्येक दिनचतुष्टयं क्रियते, तत एवास्य द्वारिकेति प्रसिद्धिः २४ |विविधाः ॥५१॥ अमावास्यातपः प्राह-'नन्दी'त्यादि, पटलिखितनन्दीश्वरसुरभुवनजिनार्चनान्वितं निजसामर्थ्यसदृशेन-खशक्यनुरूपेणोप तपोभेदाः वासादीनामन्यतमेन तपश्चरणेन भवत्यमावास्यातपोऽमावास्यावासरोद्दिष्टं, अमावास्यादिवस इत्यर्थः, इदं च तपो दीपोत्सवामावास्यायामा गा. रभ्यते वर्षसप्तकेन च समाप्यत इति २५ ॥ ५२ ॥ पुण्डरीकतप आह-'सिरी'त्यादि, श्रीपुण्डरीकनामके तपसि चैत्रमासस्य पूर्णि १५०९-७० मायाः प्रारभ्य द्वादश पूर्णिमासीः मतान्तरेण सप्त वर्षाणि यावदेकाशनादि तपः स्वशक्त्या कर्तव्यं, पूजनीया च तत्प्रतिमा-नाभेयजिनप्रथमगणधरस्य पुण्डरीकस्य प्रतिकृतिरिति, इह च चैत्रमासपूर्णिमास्यामस्य तपसः प्रारम्भे पुण्डरीककेवलोत्पत्तिरेव कारणं, पुण्डरी. कस्य हि भगवतश्चैत्रपूर्णिमायामुदपादि केवलज्ञानं, तथा चाचक्ष्महि श्रीपद्मप्रभचरित्रे पुण्डरीकगणधरवक्तव्यताया-"घणघाइकम्मकलुसं पक्खालिय सुकमाणसलिलेणं । चेत्तस्स पुन्निमाए संपत्तो केवलालोयं ॥ १॥" [घनघातिकर्मकलुषं प्रक्षाल्य शुक्लध्यानसलिलेन । चैत्रस्य पूर्णिमायां संप्राप्तः केवलालोकं ॥ १॥] इति, एवमन्यत्रापि उपयुज्य कारणं वाच्यं २६ ॥५३॥ अक्षयनिधिमाह-'देवे'त्या दि, देवाग्रे-सर्वज्ञप्रतिमायाः पुरतः स्थापितः कलश: प्रतिदिनं क्षिप्यमाणयाऽक्षतमुष्ट्या यावद्भिर्दिनैः पूर्यते तावन्ति दिनानि स्वशत्यनुरूपं यत्तप एकाशनाद्यन्यतरं तद् बुधा ब्रुवते अक्षयनिधि, अक्षयः-सदैव परिपूर्णो निधि:-निधानं यस्मादितिकृत्वा २७ ॥५४॥ साम्प्रतं यवमध्यां चन्द्रप्रतिमामाह-'वहुई'त्यादिगाथाचतुष्कं, चन्द्र इव कलावृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा-चन्द्रायणाख्यं ॥४४०॥ ४ तप इति, सा द्विधा-यवमध्या वनमध्या च, यवस्येव मध्ये स्थूलस्य पर्यन्तभागयोस्तु तनुकस्य मध्यं यस्याः सा यवमध्या, वनस्येव -SAROKA4%AMGAO-934 Jain Education Interational For Private Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्ये तनुकस्य पर्यतयोस्तु स्थूलस्य मध्यं यस्याः सा वनमध्या, तत्रादौ यवमध्यां व्याख्यानयति-यथा शुक्लपक्षे प्रतिपदः प्रारभ्यानुवासरं-प्रतिदिवसमेकैकया कलया चन्द्रो वर्धते यावत्पर्वणि-पूर्णिमायां सकलाभिरपि कलामिः संपूर्णः संपद्यते, तथा-तेनैव प्रकारेण प्रतिपदि एकः कवलः, उपलक्षणमेतत् , ततो भिक्षा दत्तिर्वा एकैव गृह्यते, द्वितीयायां द्वौ कवलौ तृतीयायां त्रयः कवलाः एवमेकैककवलवृद्ध्या यावत्पूर्णिमायां तेषां कवलानां पञ्चदशकं भवति, पञ्चदश कवला अभ्यवहियन्ते इत्यर्थः, कृष्णे पक्षे च यथा प्रतिदिनमेकैका कलां शशी मुञ्चति तथा कवलोऽपि मुच्यते यावदमावास्यायां 'सो'त्ति स कवल एको भवति, कोऽर्थः ?-कृष्णपक्षप्रतिपदि पञ्चदश कवला गृह्यन्ते द्वितीयायां चतुर्दश तृतीयायां त्रयोदश इत्येवं यावदमावास्यायामेक एव कवल इति, एषा यवमध्या चन्द्रप्रतिमा मासमात्रप्रमाणा | भणिता २८ ॥ इदानीं पुनर्मासप्रमिता-मासप्रमाणां वनमध्यां चन्द्रप्रतिमा प्रकर्षेण वक्ष्यामि ॥ ५५ ॥ ५६॥ ५७ ॥ ५८॥ तामेवाह-पन्नरे'यादिगाथाद्वयं, कृष्णपक्षप्रतिपदि पञ्चदश कवला गृह्यन्ते, तत एकैकहान्या तावन्नीयते यावदमावास्यायामेकेन कवलेन जाता, अमावास्यायामेक एव कवलो गृह्यते इति भावः, तथा प्रतिपदपि सिता-शुक्ला एकेन कवलेन जाता, कोऽर्थः ?,-शुक्लप्रतिपद्यप्येक एव कवलो गृह्यते, ततो द्वितीयाया आरभ्यैकोत्तरवृद्ध्या तावन्नेयं यावत्पूर्णिमास्यां पञ्चदश कवला दत्तयो वा गृह्यन्ते इति, तदेव| मिमे यवमध्यवनमध्ये द्वे अपि.प्रतिमे भणिते इति, एष च पञ्चाशकादिग्रन्थाभिप्रायः, व्यवहारचूर्ण्यभिप्रायः पुनरयं-शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रविमानस्य दृश्यस्य पञ्चदशभागीकृतस्य एका कला दृश्यते चतुर्दश कला न दृश्यन्ते द्वितीयस्यां द्वे कले तृतीयस्यां तिस्रः कलाः एवं यावत्पञ्चदश्यां परिपूर्णायां पञ्चदश कलाः, ततो बहुलपक्षस्य प्रतिपदि एकया कलया ऊनो दृश्यते चतुर्दश कला दृश्यन्ते | द्वितीयस्यां त्रयोदश तृतीयायां द्वादश यावदमावास्यायामेकापि न दृश्यते, तदेवमयं मास आदावूनो मध्ये संपूर्णोऽन्ते पुनरपि परिहीनो, NAC10-6-CA CCC For Private & Personal use only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४४१ ॥ यवोऽप्यादावन्ते च तनुको मध्ये विपुलः, एवं साधुरपि मिक्षां गृह्णाति शुक्रपक्षस्य प्रतिपद्येकां द्वितीयस्यां द्वे तृतीयस्यां तिस्रो यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदश ततो बहुलपक्षस्य प्रतिपदि पुनश्चतुर्दश द्वितीयायां त्रयोदश यावच्चतुर्दश्यामेकां अमावास्यामुपोषितः, ततश्चन्द्राकारतया चन्द्रप्रतिमा आदावन्ते च भिक्षायास्तनुत्वान्मध्ये विपुलत्वाद्यवमध्योपमितमध्यभागा, तथा चामुमेव यवमध्यां चन्द्रप्रतिमामधिकृत्यान्यत्रोक्तं "एकैकां वर्धयेद्विक्षां, शुक्रे कृष्णे च हापयेत् । भुञ्जीत नामावास्यायामेष चान्द्रायणो विधिः ॥ १ ॥” वज्रमध्यायां चन्द्रप्रतिमायां बहुलपक्ष आदौ क्रियते, तत एवं भावना - बहुलपक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रविमानस्य चतुर्दश कला दृश्यन्ते द्वितीयस्यां त्रयोदश तृतीयस्यां द्वादश यावच्चतुर्दश्यामेका अमावास्यायामेकापि न ततः पुनरपि शुकुपक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रविमानस्य एका कला दृश्यते द्वितीयायां द्वे यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदशापि, तदयं मास आदावन्ते च पृथुलो मध्ये तनुको वज्रमप्यादावन्ते च विपुलं मध्ये तनुकमेवं साधुरपि मिक्षां गृह्णाति बहुलपक्षस्य प्रतिपदि चतुर्दश द्वितीयस्यां त्रयोदश यावच्चतुर्दश्यामेकाममावास्यायां चोपवासयति ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य प्रतिपद्येकां भिक्षां गृह्णाति द्वितीयस्यां द्वे यावत्पश्चदश्यां पञ्चदशेति, तत एषापि चन्द्राकारतया चन्द्रप्रतिमा आदावन्ते च विपुलतया मध्ये च तनुकतया वज्रमध्योपमितमध्यभागा वज्रमध्येति २९ ।। ५९ ।। ६० ।। साम्प्रतं सप्तसप्तमिकाद्याश्चतस्रः प्रतिमाः प्रतिपादयति- 'दिवसे' इत्यादिगाथात्रयं प्रथमे सप्तके दिवसे २ एका दत्तिर्ब्राह्मा ततः सप्तकेन सह दत्तिर्वर्धते यावत्सप्तमे सप्तके प्रतिदिनं सप्त दत्तयो भवन्ति, इयमत्र भावना - सप्तसप्तमिकायां प्रतिमायां सप्तसप्तका दिनानां भवन्ति, तत्र प्रथमे सप्तके प्रतिदिवसमेकैकां दतिं गृह्णाति द्वितीये सप्तके प्रतिदिवसं द्वे द्वे दत्ती एवं तृतीये सप्तके तिस्रः २ चतुर्थे चतस्रः २ पञ्चमे पञ्च २ षष्ठे षट् २ सप्तमे सप्त सप्तेति एताश्च भोजनविषया एव दत्तय उक्ताः एवमेतत्सङ्ख्या एव पानकविषया अपि प्रतिपत्तव्याः, तथा २७१ | विविधाः तपोभेदाः गा. १५०९-७० ॥ ४४१ ॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाष्टमागसूत्रम्-"पढमे सत्तए एकेकं भोयणस्स दत्तिं पडिगाहेइ, एकेकं पाणयस्स, एवं जाव सत्तमे सत्त दत्तीउ भोयणस्स पडिगाहेइ, सत्त पाणयस्से"त्यादि, अन्ये पुनरन्यथा प्रतिपादयन्ति-प्रथमे सप्तके प्रथमदिवसे एकां दत्तिं गृह्णाति द्वितीये द्वे तृतीये तिस्रः चतुर्थे चतस्रः पञ्चमे पञ्च षष्ठे षट् सप्तमे सप्त, एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पञ्चमे षष्ठे सप्तमे च सप्तके द्रष्टव्यं, उक्तं च व्यवहारभाष्ये-"अहवा एकेक्कियं दत्तिं जा सत्तेकेकस्स सत्तए। आएसो अस्थि एसोऽवि"त्ति, तदेवमेकोनपञ्चाशता वासरियं सप्तसप्तकिका प्रतिमा भवति, सप्त सप्तका दिनानां यस्यां सा सप्तसप्तकिका, सप्तशब्दककारस्य मकारः प्राकृतत्वात् , अथवा सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका, यस्यां हि सप्त दिनसप्तकानि भवन्ति तस्यां सप्त सप्तमानि दिनानि भवन्त्येवेति । तथा अष्टाष्टमिका नवनवमिका दशदशमिका च प्रतिमा एवं-प्रागुक्तप्रकारेणैव द्रष्टव्या, नवरं-केवलमयं विशेष:-अष्टकनवकदशकवृद्धिभिः सह प्रत्येकं दत्तिर्वर्धते, इदमुक्तं भवति-अष्टाष्टमिकायां प्रतिमायामष्टावष्टकानि भवन्ति, तत्र प्रथमेऽष्टके प्रतिदिनमेकैका दत्तिर्गृह्यते, द्वितीयेऽष्टके प्रतिदिनं द्वे दत्ती एवं तृतीये तिनः चतुर्थे चतस्रः एवमेकैकदत्तिवृद्ध्या तावद्वगन्तव्यं यावदष्टमेऽष्टके प्रतिदिनमष्टावष्टौ द. दत्तयो गृह्यन्ते, अस्यां हि चतुःषष्टिर्दिनानि भवन्ति । तथा नवनवमिकायां प्रतिमायां नव नवकानि भवन्ति, तत्र प्रथमे नवके प्रति दिनमेकैका दत्तिः द्वितीये नवके प्रतिदिनं दत्तिद्वयं तृतीये नवके प्रतिदिनं दत्तित्रयं एवमेकैकदत्तिवृद्ध्या तावदवसेयं यावन्नवमे नवके प्रतिदिनं नव नव दत्तयः, अत्र चैकाशीतिर्दिनानि । तथा दशदशमिकायां प्रतिमायां दश दशकानि भवन्ति, तत्र प्रथमे दशके प्रति दिनमेका दत्तिर्गृह्यते, द्वितीये दशके प्रतिदिनं दत्तिद्वयं, एवमेकैकदत्तिवृद्ध्या तावन्नेतव्यं यावद्दशमे दशके प्रतिदिनं दश दश दत्तयः, अत्र || दिनानां शतमेकं । तदेवं नवभिर्मासैश्चतुर्विशत्या दिनैश्चतस्रोऽप्येताः प्रतिमाः समाप्यन्ते, इह च सप्तसप्तमिकायां प्रतिमायां दत्तिपरि Jan Education Internal For Private Personel Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥ ४४२ ॥ माणं पण्णवत्यधिकं शतं, अष्टाष्टमिकायामष्टाशीत्युत्तरे द्वे शते दत्तीनां नवनवमिकायां पश्चोत्तराणि चत्वारि शतानि दशदशमिकायां पञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि दत्तीनामिति ३० ।। ६१ ।। ६२ ।। ६३ ।। इदानीमाचाम्लवर्धमानं तपः प्राह - 'एगे' त्यादिगाथाद्वयं, एकादिकान्येकैकवृद्धिमन्ति पर्यन्ताभक्तार्थान्याचाम्लानि क्रियन्ते यावत्तेषामाचाम्लानां शतं परिपूर्ण भवति, एतदाचाम्लवर्धमाननामकं महातपश्चरणं, आचाम्लं वर्धमानं यत्र तपश्चरणे तदाचाम्लवर्धमानं, अयमर्थ:- प्रथमं तावदाचाम्लं क्रियते तत उपवासः ततश्च द्वे | आचाम्ले पुनरुपवासः त्रीण्याचाम्लानि पुनरुपवासः चत्वार्याचाम्लानि पुनरुपवासः पञ्च आचाम्लानि पुनरुपवासः एवमुपवासान्तरि| तान्येकोत्तरवृद्धया तावदाचाम्लानि वर्धनीयानि यावत्पर्यन्ते शतमाचाम्लानां कृत्वा एकमुपवासं करोतीति, इह च शतं चतुर्थानां तथा पञ्चाशदधिकानि पञ्च सहस्राण्याचाम्लानां भवन्ति, उभयमीलने वर्षाणि चतुर्दश मासास्त्रयो दिनानि च विंशतिरिति ३१ ॥ ६४ ॥ ।। ६५ ।। अथ गुणरत्नवत्सरं तपः प्राह - 'गुणे'त्यादिगाथाचतुष्टयं, गुणानां - निर्जरादी (मेला) नां निर्जराविशेषाणां रचनं करणं वत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तपसि तद्गुणरचनवत्सरं अथवा गुणा एव रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नो वत्सरो यत्र तद्गुणरत्नवत्सरं तपः एतस्मिन् गुणरत्नवत्सरे तपश्चरणे षोडश मासा भवन्ति, तत्र प्रथमे मासे एकान्तरा उपवासाः कर्तव्याः, तथा दिवसे निरन्तरमुत्कटुकासनेन स्थातव्यं निशायां पुनर्नित्यमेव वीरासनकेन - वीरासनोपविष्टेन तथा निशि भवितव्यमप्रावृतेन - निरावरणेनेत्यर्थः, एवं द्वितीयादिष्वपि मानेष्वेकोत्तरया वृद्ध्या तावदुपवासाः कर्तव्या यावत्षोडशे मासे षोडशोपवासा भवन्ति, अयमर्थ:- प्रथमे मासे पारणकदिनान्तरित एकैक उपवासः कर्तव्यः द्वितीये मासे द्वौ द्वावुपवासौ तृतीये मासे त्रयस्त्रय उपवासाः चतुर्थे चत्वारो यावत् षोडशमासे पोडश षोडश उपवासा भवन्ति, अत्र च त्रयोदश मासाः सप्तदश दिनाधिकास्तपः कालः त्रिसप्ततिश्च दिनानि पारणककालः एवं चायं - 'पन्नरस २७१ विविधाः तपोभेदाः गा. १५०९-७० ।। ४४२ ।। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CREATMELA वीसं चउवीस चेव चउवीस पन्नवीसा य । चउवीस एकवीसा चउवीसा सत्तवीसा य ॥ १॥ तीसा तेत्तीसाविय चउवीस छवीस अट्ठबीसा य । तीसा बत्तीसावि य सोलसमासेसु तवदिवसा ॥२॥ पन्नरस दसऽट छप्पञ्च चउर पञ्चसु य तिन्नि तिन्नित्ति । पञ्चसु दो दो य तहा सोलसमासेसु पारणगा ॥ ३॥ इह च यत्र मासेऽष्टमादितपसो यावन्ति दिनानि न पूर्यन्ते तावन्त्यप्रेतनमासादाकृष्य पूरणीयानि अधिकानि चाप्रेतनमासे क्षेप्तव्यानि, तथा यत्प्रथमेत्यादिगाथायामुत्कटुकासनाद्यनुष्ठानं पूर्वमुक्तं तत्समग्रेष्वपि मासेसु करणीयं, सर्वसङ्ख्यया चास्मिंस्तपसि विंशत्यूनानि पञ्च शतानि दिनानां भवन्तीति, तदेवमपारः प्रवचनपारावारः तत्प्रतिपादिततपसां च प्रभूताः कर्तार इत्यतोऽनेकानि स्कन्दकप्रमुखपुरुषविशेषैराचीर्णानि तपांसि श्रूयन्ते ॥६६॥ ६७ ॥ ६८॥ ६९॥ कियन्तीह वैविक्त्येन वक्तुं शक्यन्ते ?, दिड्यानं च किञ्चिदेतदुपदर्शितं ततः शेषाणां तपोविशेषाणामतिदेशमाह-तहे'त्यादि, तथाशब्दः प्रागुक्तापेक्षया समुचये, अङ्गाना-आचारादीनां उपाङ्गाना-औपपातिकादीनां चैत्यवन्दनाया-ऐर्यापथिकीशकस्तवस्थापनार्हत्स्तवनामस्तवश्रुतस्तवसिद्धस्तवखरूपायाः पंचमङ्गलमहाश्रुतस्कन्धस्य आदिशब्दात्प्रकीर्णकानां च देवेन्द्रस्तवादीनामुपधानानि-तपोविशेषरूपाणि येन विधिना भणितानि तथैव समयात्-सिद्धान्ताद् भवन्ति ज्ञेयानि, इह च साम्प्रतं मुग्धलोकहिताय बहुश्रुतसूरिपरम्पराप्रवर्तितान्यपराण्यपरिमितानि तपांसि प्रचरन्ति दृश्यन्ते, परं नेह तानि प्रतन्यन्ते, ग्रन्थप्रपञ्चप्रसङ्गात् , तदर्थिना चास्मदुपरचिता सामाचारी निरीक्षणीया २७१ ॥ ७॥ इदानीं 'पायालकलस'त्ति द्विसप्तत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह पणनउइ सहस्साई ओगाहित्ता चउद्दिसिं लवणं । चउरोलिंजरसंठाणसंठिया होति पायाला ॥७१ ॥ वलयामुह केयूरे जुयगे तह ईसरे य बोद्धव्वे । सबवइरामयाणं कुड्डा एएसि दससइया Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ प्रव० सारोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० USARGA पातालकलशस्वरूपं गा. १५७१-९ ॥४४३॥ ॥७२॥ जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिंच होति विच्छिन्ना । मज्झे य सयसहस्सं तत्तियमित्तं च ओगाढा ॥७३ ॥ पलिओवमहिईया एएसिं अहिवई सुरा इणमो । काले य महाकाले वेलंब पभंजणे चेव ॥७४॥ अन्नेवि य पायाला खुड्डालिंजरगसंठिया लवणे । अह सया चुलसीया सत्त सहस्सा य सबेसि ॥७५ ॥ जोयणसयविच्छिन्ना मूलुवरिं दस सयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्सं दसजोयणिया य सिं कुडा॥७६॥ पायालाण विभागा सवाणवि तिन्नि तिन्नि बो. व्वा । हिडिमभागे वाऊ मज्झे वाऊ य उद्गं च ॥ ७७॥ उवरिं उदगं भणियं पढमगबीएसु वाउसंखुभिओ । उहुं वामे उद्गं परिवड्डइ जलनिही खुभिओ ॥ ७८ ॥ परिसंठिअंमि पवणे पुणरवि उदगं तमेव संठाणं । वहुइ तेण उदही परिहायइऽणुक्कमेणेव ॥७९॥ जम्बूद्वीपमध्यमध्यासीनस्य मन्दराचलस्य चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु प्रत्येकं पञ्चनवतियोजनसहस्राणि लवणार्णवमवगाह्य अत्रान्तरे चतसृषु दिक्षु प्रत्येकमेकैकभावेन चत्वारः पाताला:-'पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्' पातालकलशाः, ते च किंसंस्थाना इत्याह-अलिजरं || |-महापिहिडं तत्संस्थानसंस्थितास्तदाकारा इत्यर्थः ॥ ७१ ॥ अथ तेषां नामादिकमाह-'वलये'त्यादिगाथात्रयं, मेरोः पूर्वस्यां दिशि | पातालकलशो वडवामुखो-वडवामुखनामा वलयामुखो वा, दक्षिणस्यां केयूपः केयूरो वा, समवायाङ्गटीकायां तु केतुकः, अपरस्यां तु | यूपः उत्तरस्यामीश्वरः, एते चत्वारोऽपि सर्ववषमया:-सर्वात्मना वनमयाः, तेषां च-सर्ववत्रमयानां कुड्यानि-ठिकरिकाः सर्वत्र बाहदाल्यमधिकृत्य दश शतकानि, दश योजनशतप्रमाणानि ।। ७२ ॥ चत्वारोऽपि ते महापातालकलशा मूले-बुने उपरि-मुखे च प्रत्येकं योज ॥४४३॥ For Private & Personel Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नसहस्रदशकं - दश योजनसहस्राणि विस्तीर्णा भवन्ति, मध्ये - उदरप्रदेशे पुनः शतसहस्रं - योजनलक्षं विस्तीर्णाः, तथा तावन्मात्रं - योज - नलक्षमात्रमवगाढा - भूमौ प्रविष्टाः, इदमुक्तं भवति - चत्वारोऽप्येते पातालकलशा एकैकं योजनलक्षमुद्वेधेन, तथा मूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन, तत ऊर्द्धमेकप्रादेशिक्याः श्रेण्या विष्कम्भतः प्रवर्धमानाः २ मध्ये एकैकं योजनलक्षं विष्कम्भेन, तत ऊर्द्ध भूयोऽप्येकप्रादेशिक्या श्रेण्या विष्कम्भतो हीयमाना हीयमाना उपरि-मुखमूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भत इति ॥ ७३ ॥ साम्प्रतमेतेषां पातालकलशानामधिपतीन् देवानाह-एतेषां पातालकलशानामधिपतयः सुराः पल्योपमस्थितयो महर्धिका इमे - एवंनामानः, तद्यथावडवामुखे कालः केयूरे महाकालः यूपे वेलम्बः ईश्वरे प्रभञ्जन इति ॥ ७४ ॥ सम्प्रति लघुपातालकलशवक्तव्यतामाह - 'अन्नेऽवी' - त्यादिगाथाद्वयं, लवणे - लवणसमुद्रे तेषां पातालकलशानामन्तरेषु तत्र तत्र प्रदेशेषु बहवोऽन्येऽपि क्षुल्ला - लघवः पातालाः - पातालकलशाः, क्षुलालिञ्जरसंस्थिता - लघुपिहडक संस्थानसंस्थिताः सन्ति, तत्र सर्वेषामपि सर्वसङ्ख्या सप्त सहस्राण्यष्टौ शतानि चतुरशीत्युत्तराणि, एकैकस्य महापातालकलशस्य परिवारे एकसप्तत्यधिकैकोनविंशतिशतसङ्ख्यानां लघुपातालकलशानां भावादिति ॥ ७५ ॥ एते च लघुपातालकलशाः प्रत्येकमर्धपल्योपमस्थितिकैर्देवैः परिगृहीताः । सम्प्रत्येतेषां प्रमाणमाह - सर्वेऽपि लघुपातालकलशा मूले- बुने उपरि-मुखे प्रत्येकं योजनशतं विस्तीर्णाः, मध्ये - मध्यभागे जठरप्रदेशे दश शतानि-दश योजनशतानि विस्तीर्णाः, तथाऽवगाढा - भूमौ प्रविष्टाः सहस्रं - योजन सहस्रं, तथा 'सिं'ति एतेषां लघुपातालकलशानां कुड्यानि - ठिकरिका बाहल्यमधिकृत्य दशयोजनकानि-दशयोजनप्रमाणानि ॥ ७६ ॥ सम्प्रति गुरूणां लघूनां च पातालकलशानां वाय्वादिविभागमाह — 'पायालाणे' त्या दिगाथात्रयं सर्वेषामपि गुरूणां लघूनां च पातालकलशानां त्रयस्त्रयो विभागा भवन्ति, तद्यथा - अधस्तनो मध्यम उपरितनञ्च तत्र महापातालकलशानामेकैकस्त्रिभागस्त्रयस्त्रिंश Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥४४४॥ गा. SESAMACHAR योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रिभागश्च योजनस्य, लघुपातालकलशानां तु त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशद-11। २७३ धिकानि त्रिभागश्च योजनस्य, एतेषु च सर्वेषु महापातालकलशेषु लघुपातालकलशेषु च मध्ये प्रत्येकमधस्तने त्रिभागे वायुः मध्यमे त्रिभागे आहार वायुरुदकं च उपरितने त्रिभागे उदकं भणितं तीर्थकरगणधरैः, तत्र तथाजगत्स्वाभाव्यादेव समकालं प्रतिनियते कालविभागे सर्वेष्वपिाख्यान्तरप्र. पातालकलशेष प्रत्येकं प्रथमे द्वितीये च त्रिभागे बहवोऽन्येऽन्ये उदारा वायवः संमूच्र्छन्ति, तदनन्तरं शुभ्यन्ते, जातमहाद्भुतशक्तिकादायोजनानि संत ऊर्द्ध मितस्ततो विप्रसरन्तीत्यर्थः, क्षणेन च तथा परिणमन्ति यथा तेरुदकमतितरामूर्द्धमुच्छाल्यते, ततः प्रथमद्वितीयेषु त्रिभागेषु वायुः संक्षुब्धः सन्नूर्द्धमुदकं वमयति-निःसारयति, तेन चोर्द्ध निःसार्यमाणेन जलनिधिः क्षुमितः सन् परिवर्धते, परिसंस्थिते-उपशमं 8 १५८०-२ गते पुनः पवने पुनरप्युदकं तदेव संस्थानमाश्रयति, भूयोऽपि कलशेषु मध्ये प्रविशतीति भावः, तेन कारणेनानुक्रमेणैव परिहीयते, अहोरात्रमध्ये च द्विकृत्वः प्रतिनियते कालविभागे-पक्षमध्ये चतुर्दश्यादिषु तिथिष्वतिरेकेण ते वायवः क्षुभ्यन्ते, तेन प्रत्यहोरात्रं द्वौ 8|| वारौ पक्षमध्ये चतुर्दश्यादिषु तिथिषु वार्धिर्वर्धते हीयते चेति, एते च सर्वेऽपि गुरवो लघवश्च पातालकलशा लवणवारिनिधावेवर त विद्यन्ते, न पुनः शेषसमुद्रेष्विति २७२ ॥ ७७ ॥ ७८ ॥ ७९ ॥ इदानीं 'आहारगस्सरूवंति त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह समओ जहन्नमंतरमुक्कोसेणं तु जाव छम्मासा। आहारसरीराणं उक्कोसेणं नव सहस्सा ॥८॥ चत्तारि य वाराओ चउदसपुची करेइ आहारं । संसारम्मि वसंतो एगभवे दोन्नि वाराओ॥१॥ तित्थयररिद्धिसंदंसणथमत्थोवगहणहेउं वा । संसयवुच्छेयत्थं वा गमणं जिणपायमूलंमि ॥२॥ ॥४४४॥ चतुर्दशपूर्वधरैस्तथाविधप्रयोजनप्रसाधनाय विशिष्टलब्धिवशादाहियन्ते-निर्वयन्ते इत्याहारकाणि शरीराणि, 'कृद्वहुल'मिति वचना For Private Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 灿 त्कर्मणि वुन्, यथा पादहारक इत्यत्र, तानि च वैक्रियशरीरापेक्षयाऽत्यन्तशुभानि स्वच्छस्फटिकशिलाश कलवदतिशुभ्र पुद्गलसमूहघटनात्मकानि पर्वतादिभिरप्यप्रतिहतानि तत्रैतानि कदाचिल्लोके सर्वथा न भवन्त्येव, ततोऽभवनलक्षणमन्तरमेषाम् - आहारकशरीराणां जघन्यत एकः समयः उत्कर्षतः षण्मासाः उक्तं च – “आहारगाई लोए छम्मासा जा न होंतिवि कथाई । उक्कोसेणं नियमा एकं समयं जहनेणं ॥ १ ॥" [ आहारकशरीराणि लोके षण्मासान् यावन्न भवन्त्यपि कदाचित् । उत्कर्षेण नियमात् एकं समयं जघन्येन ॥ १ ॥ ] यत्पुनर्जीवसमासादिषु -- ' आहारमिस्साजोगे वासपुहुत्तं' इत्यादिवचनत आहारकमिश्रस्य वर्षपृथक्त्वमन्तरमुक्तं तन्मतान्तरं संभाव्यते इति यदापि भवन्ति तदापि जघन्यत एकं द्वे त्रीणि वा उत्कर्षतः सहस्रनवकं अवगाहना चाहारकशरीरस्य जघन्यतो देशोना किश्चिदूना रत्नि:-हस्तः, तथाविधप्रयत्नभावतस्तथाऽऽरम्भकद्रव्य विशेषतश्च प्रारम्भसमयेऽपि तस्या एतावत्या एव भावात् न ह्यौदारिकादेरिवाकुलासङ्ख्येयभागमात्रता प्रारम्भकाले इति भावः, उत्कर्षतः पुनः परिपूर्णा रत्निः, उक्तं च समवायाङ्गे– “आहारगसरीरस्स जहन्नेणं देसूणा रयणी, उक्कोसेणं पडिपुण्णा रयणी" ति ॥ ८० ॥ साम्प्रतमेकजीवस्य सर्वभवेष्वेकभवे च कियन्त्याहारकशरीराणि भवन्तीत्येतत्प्रतिपादनायाह - ' चत्तारी'त्यादि, चतुर्दशपूर्वधरः संसारे निवसन्नुत्कर्षतोऽपि वारचतुष्टयमेवाहारकशरीरं करोति, चतुर्थवेलायां कृते तद्भव एव मुक्तत्यवाप्तेरिति भावः, एकस्मिंस्तु भवे वारद्वयमेवेति ॥ ८१ ॥ अथ चतुर्दशपूर्वधरोऽपि किमर्थमाहारकशरीरमारचयति ?, उच्यते, तीर्थकरपादपीठोपकण्ठगमनाय तदपि किंनिमित्तमित्यत आह- 'तित्थयरे' त्यादि, तीर्थकरर्द्धिसंदर्शनार्थं अर्थावग्रहणहेतोर्वा यद्वा संशयव्यवच्छेदार्थ जिनपादमूले चतुर्दश पूर्वविदो गमनं भवति, इदभैदम्पर्यमत्र-सकलत्रैलोक्यातिशायिनीमष्टमहाप्रा तिहार्यादिकामनुपमामाईतीं समृद्धिमखिलामा लोकयितुमुत्पन्न कुतूहलस्तथाविधान् वा नवनवार्थसार्थान् जिघृक्षुः अथवा कस्मिंश्चिदर्थेऽत्यन्तगहने संदि Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञा- नवि० ॥४४५॥ २७४ अनार्यदेशा गा. १५८३-६ - BREASURESAMEEDS हानस्तदर्थविनिश्चितये कश्चिचतुर्वशपूर्वविद्विदेहादिक्षेत्रवर्तिवीतरागचरणकमलमूलमाहारकशरीरेण समुत्सर्पति, न खल्वौदारिकेण वपुषा शक्यते तत्र गन्तुं, तत्र च भगवन्तमालोकितसमस्तलोकालोकमालोक्य परिनिष्ठितप्रयोजनः पुनरागत्य तमेव देशं यत्र प्रागच्छतौदा- रिकमनाबाधबुझा न्यासकवन्निक्षिप्तं स्वप्रदेशजालावबद्धं तदवस्थमास्ते ततो याचितोपकरणवद्विमुच्याहारकमुपसंहृत्यात्मप्रदेशजालं द्रागौ-1 दारिकमेबानुप्रविशति, एष च प्रारम्भात्प्रभृति विमोचनावसानः सर्वोऽप्यन्तर्मुहूर्तपरिमाणः कालो भवतीति २७३ ॥ ८२ ।। साम्प्रतं 'देसा अथारिय'त्ति चतुःसप्तत्युत्तरद्विशततमं द्वारमाह सग जवण सवर बब्बर काय मुरुंडोड.गोण पक्कणया । अरयाग होण रोमय पारस खस खासिया चेव ॥ ८३ ॥ दुषिलय लउस बोकस भिल्लंध पुलिंद कुंच भमररुआ। कोवाय चीण चंचुय मालव दमिला कुलग्घा या ॥८४॥ केकय किराय हयमुह खरमुह गयतुरयमिंढयमुहा य । हयकन्ना गयकन्ना अन्नेवि अणारिया बहवे ॥८५॥ पावा य चंडकम्मा अणारिया निग्घिणा निरणुताबी । धम्मोत्ति अक्खराइं सुमिणेऽविन नज्जए जाणं ॥८६॥ शकाः यवनाः शबराः बर्बराः कायाः मुरुण्डाः उड्डाः गौड्डाः पक्कणगाः अरबागाः हूणाः रोमकाः पारसाः खसाः खासिकाः | दुम्बिलकाः लकुशाः बोकशाः मिल्लाः अन्धाः पुलिन्द्राः कुञ्चाः भ्रमररुचाः कोर्पकाः चीनाः चक्षुकाः मालवाः द्रविडाः कुलार्चाः केकयाः | किराताः यमुखाः खरमुखाः गजमुखाः तुरजमुखाः मिण्ढकमुखाः हयकर्णाः गजकर्णाश्वेत्येते देशा अनार्याः, आराद्-दूरेण हेयधर्मेभ्यो याता:-प्राप्ता उपादेयधमैरित्यार्याः, 'पृषोदरादय' इति रूपनिष्पत्तिः, तद्विपरीता अनार्याः, शिष्टासंमतनिखिलव्यवहारा इत्यर्थः, न केव-1* - - ॥४४५॥ Jan Education Intemani For Private Personel Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S Shलमेत एव, किंत्वपरेऽप्येवंप्रकारा बहवोऽनार्या देशाः प्रश्नव्याकरणादिप्रन्थोक्ता विज्ञेयाः॥ ८३ ॥ ८४ ।। ८५ ॥ अथ सामान्यतोS-11 लानार्यदेशस्वरूपमाह-'पावे'त्यादि, एते सर्वेऽप्यनार्यदेशाः 'पापा' पापं-अपुण्यप्रकृतिरूपं तद्बन्धनिबन्धनत्वात्पापाः, तथा चण्डं-कीपो त्कटतया रौद्राभिधानरसविशेषप्रवर्तितत्वादतिरौद्रं कर्म-समाचरणं येषां ते चण्डकर्माणः, तथा न विद्यते घृणा-पापजुगुप्सालक्षणा येषां ते निघृणाः, तथा निरनुतापिनः-समासेवितेऽप्यकृत्ये मनागपि न पश्चात्तापभाज इति भावः, किंच-येषु धर्म इत्यक्षराणि स्वप्नेऽपि सर्वथा न ज्ञायन्ते, केवलमपेयपानाभक्ष्यभक्षणागम्यगमनादिनिरताः शास्त्राद्यप्रतीतवेषभाषादिसमाचाराः सर्वेऽप्यमी अनार्यदेशा इति २७४ ॥ ८६ ॥ सम्प्रति 'आयरियदेस'त्ति पञ्चसप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह रायगिह मगह १ चंपा अंगा २ तह तामलित्ति वंगा य ३। कंचणपुरं कलिंगा ४ वणारसी चेव कासी य ५॥ ८७॥ साकेयं कोसला ६ गयपुरं च कुरु ७ सोरियं कुसहा य ८। कंपिल्लं पंचाला ९ अहिछत्ता जंगला चेव १०॥८८॥ बारवई य सुरट्ठा ११ मिहिल विदेहा य१२ वत्थ कोसंबी १३ । नंदिपुरं संडिल्ला १४ भहिलपुरमेव मलया य १५॥ ८९॥ वइराड मच्छ १६ वरुणा अच्छा १७ तह मत्तियावह दसन्ना १८ । सोत्तीमई य चेई १९ वीयभयं सिंधुसोवीरा २०॥९॥ महुरा य सूरसेणा २१ पावा भंगी य २२ मासपुरी वट्टा २३ । सावत्थी य कुणाला २४ कोडीवरिसं च लाढा य २५ ॥ ११॥ सेयवियाविय नयरी केयइअद्धं २५ ॥ च आरियं भणियं । जत्थुप्पत्ति जिणाणं चक्कीणं रामकण्हाणं ॥९२॥ -NCRECCANCSC ACARSANC4564%% -CROCC Join Education International Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +5%25% राजगृहं नगरं मगधो देशः चम्पानगरी अङ्गदेशः तथा तामलिप्ती नगरी वङ्गा जनपदः काञ्चनपुरं नगरं कलिङ्गदेशः वाणारसी प्रव० सदनगरी काशयो देशाः साकेतं नगरं कोशला जनपदः गजपुरं नगरं कुरवो देश: सौरिकं नगरं कुशा? देशः काम्पिल्यं नगरं पाञ्चालो * २७५ रोद्धारे देशः अहिच्छत्रा नगरी जङ्गलो देशः द्वारवती नगरी सुराष्ट्रो देशः मिथिला नगरी विदेहा जनपदः वत्सा देशः कौशाम्बी नगरी नन्दिपुरं आर्यदेशाः तत्त्वज्ञा नगरं शण्डिल्यो शाण्डिल्या वा देशः भद्दिलपुरं नगरं मलयादेशः वैराटो देशो वत्सा राजधानी, अन्ये तु वत्सा देशो वैराटं पुरं नगरमिनवि० |१५८७-९२ त्याहुः, वरुणानगरं अच्छादेशः, अन्ये तु वरुणेषु अच्छपुरीत्याहुः, तथा मृत्तिकावती नगरी दशाों देशः शुक्तिमती नगरी चेदयो देशः ॥४४६॥ वीतभयं नगरं सिन्धुसौवीरा जनपदः मथुरा नगरी सूरसेनाख्यो देशः पापा नगरी भङ्गयो देशः मासपुरी नगरी वर्तों देशः, अन्ये त्वाहु: चेदिषु सौक्तिकावती वीतभयं सिन्धुषु सौवीरेषु मथुरा सूरसेनेषु पापाः भङ्गिषु मासपुरीवट्टेति, तदतिव्यवहृतं, परं बहुश्रुतसंप्रदायः प्रमाणं, 3|| |तथा श्रावस्ती नगरी कुणालादेशः कोटीवर्ष नगरं लाढादेशः श्वेतम्बिका नगरी केकयजनपदस्याध, एतावदर्धषड्विंशतिजनपदात्मकं क्षेत्र मार्य भणितं, कुत इत्याह-'जत्थुप्पत्ती'त्यादि, यस्मादत्र एतेष्वर्धषड्विंशतिसङ्ख्येषु जनपदेपूत्पत्तिर्जिनानां-तीर्थकराणां चक्रिणां-चक्र४ वर्तिनां रामाणां-बलदेवानां कृष्णानां-वासुदेवानां च तत आर्य, एतेन क्षेत्रस्यार्यानार्यव्यवस्था दर्शिता-यत्र तीर्थकरादीनामुत्पत्तिस्तदार्य शेषमनार्यमिति, आवश्यकचूर्णी पुनरित्थमार्यानार्यव्यवस्था उक्ता-"जेसु केसुवि पएसेसु मिहुणगादिपइट्ठिएसु हक्काराइया नीई परूढा| ते आरिया, सेसा अणायरिया" इति, एते च प्रत्यासत्त्या भरतक्षेत्रवर्तिन एवार्या उक्ताः, उपलक्षणत्वाषामन्येऽपि महाविदेहान्तर्वर्तिविजयमध्यमखण्डादिष्वमी बहवो द्रष्टव्या इति २७५ ॥ ८७ ।। ८८ ॥ ८९ ॥ ९० ॥ ९१ ॥ ९२ ॥ इदानीं 'सिद्धेगत्तीसगुण'त्ति | ॥४४६॥ षट्सप्तत्यधिकद्विशततमं द्वारमाह- . CHEC4449STROR ८ Join Education International For Private Personel Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव दरिसणंमि ९चत्तारि आउए ४ पंच आइमे अंते ५। सेसे दो दो भेया ८ खीणभिलावेण इगतीसं ॥९३ ॥ पडिसेहण संठाणे य वन्नगंधरसफासवेए य । पण ५ पण ५ दु२ पण ५१ ८तिहा एगतीसमकाय १ऽसंग २ रुहा ३ ॥१४॥ दर्शने-दर्शनावरणीये कर्मणि चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनावरणनिद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानर्धिलक्षणा नव भेदाः तथाऽऽयुषि नारकतिर्यग्नरामरायुलक्षणाश्चत्वारः तथाऽऽदिमे-ज्ञानावरणीये मतिश्रुतावधिमनःपर्यवकेवलज्ञानावरणीयस्वरूपाः पञ्च अन्येऽप्यन्तरायाख्ये कर्मणि दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायरूपाः पञ्चैव भेदाः, शेषे च कर्मचतुष्के प्रत्येकं द्वौ द्वौ भेदौ, तत्र वेदनीये सातासातात्मको मोहनीये दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयलक्षणी नामकर्मणि शुभनामाशुभनामको गोत्रे चोचैर्गोत्रनीचैर्गोत्राभिधौ भेदो भवत इति, तदेवमेते सर्वेऽपि भेदाः क्षीणामिलापेन-क्षीणशब्दविशेषितत्वेन प्रोचार्यमाणा एकत्रिंशत्सङ्ख्याः सिद्धानां गुणा भवन्ति, क्षीणचक्षुदर्शनावरण इत्यादिकश्चामिलापः कार्य: ।। ९३ ॥ अथवा प्रकारान्तरेणैकत्रिंशत्सिद्धगुणानाह-'पडिसेहे'त्यादि, प्रतिषधननिषेधेन संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शवेदानां क्रमेण पञ्चपञ्चद्विपश्चाष्टत्रिभेदानां तथा अकायासङ्गारुहपत्रिवयेन चैकत्रिंशत्सिद्धगुणा भवन्ति, तत्र संतिष्ठन्ते एभिरिति संस्थानानि-आकाराः, तानि च पञ्च परिमण्डलवृत्तव्यस्रचतुरस्रायतभेदात्, तत्र परिमण्डलं संस्थान बहिवृत्ततावस्थितप्रदेशजनितमन्तःशुषिरं यथा वलयस्य, तदेवान्तः पूर्ण वृत्तं यथा दर्पणस्य, व्यत्रं-त्रिकोणं यथा शृङ्गाटकस्य, चतुरस्रंचतुष्कोणं यथा स्तम्भाधारकुम्भिकायाः, आयतं-दीर्घ यथा दण्डस्य, घनप्रतरादिप्रतिभेदव्याख्या च बृहदुत्तराध्ययनटीकादिभ्योऽवसेया, तथा वर्णाः पञ्च श्वेतपीतरक्तनीलकालभेदात् , गन्धो द्विधा-सुरभीतरभेदात् , रसाः पञ्च तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदात् , For Private Personel Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा- रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥४४७॥ स्पर्शा अष्टौ गुरुलघुमृदुकर्कशशीतोष्णस्निग्धरूक्षभेदात् , बेदास्त्रयः स्त्रीपुंनपुंसकभेदात् , तथा सिद्धा अकाया-औदारिकादिकायपश्चक-16 २७६ | विप्रमुक्ताः तेषां सिद्धत्वप्रथमसमय एव सर्वात्मना व्यक्तत्वात् , तथा असङ्गा-बाह्याभ्यन्तरसङ्गरहितत्वात् , तथा अरुहा-- रोहन्ति सिद्धगुणाः भूयः संसारे समुत्पद्यन्ते इत्यरुहाः, संसारकारणानां कर्मणां निर्मूलकापंकषितत्वात् , उक्तं च-"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति गा. | नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥१॥" तदेवमष्टाविंशतिसङ्ख्यानां संस्थानादीनां निषेधादकायत्वासङ्गत्वारुहत्ववि- १५९३-४ |धानाच सिद्धानामेकत्रिंशद्गुणा भवन्ति । संस्थानाद्यभावाकायत्वादिसद्भावौ च सिद्धानां सुप्रसिद्धावेव, तथा चाचाराने-"से न दीहे न वट्टे न तसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिहे न सुकिले न सुब्भिगंधे न दुभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न कक्खड़े न मउए न गरुए न लहुए न सीए न उण्हे न निद्धे न लुक्खे न काए न संगे न रुहे न | इत्थीए न पुरिसे न नपुंसे" इत्यादि, एतच्च सिद्धगुणप्रतिपादकद्वार प्रकृष्टमङ्गलभूतं शास्त्रस्य शिष्यप्रशिष्यादिवंशगतत्वेनाव्यवच्छित्तिर्भूयादिति अन्तमङ्गलत्वेन पर्यन्ते सूत्रकारेणोपन्यस्तमिति २७६ ॥ ९३ ॥ ९४ ॥ तदेवं व्याख्यातानि षट्सप्तत्यधिकद्विशतसङ्ख्यानि द्वाराणि, तद्व्याख्यानाच समर्थितः समनोऽप्ययं प्रन्थः ॥ सांप्रतं प्रस्तुतप्रकरणकर्ता निजान्वयप्रकटनपूर्वकं खकीयं नाम प्रदर्शयन्नेतत्प्रकरणे कारणमात्मनोऽनुद्धतत्वं च प्रतिपादयितुमाह धम्मधुरधरणमहावराहजिणचंदसूरिसिस्साणं । सिरिअम्मएवसरीण पायपंकयपराएहिं ॥९५॥ सिरिविजयसेणगणहरकणिट्ठजसदेवसूरिजिडेहिं । सूरिनेमिचंदमूरिहिं सविणयं सिस्समणिएहिं ॥९॥ समयरयणायराओ रयणाणं पिव समत्थदाराई। निउणनिहालणपुवं गहि संजसि AAAAAAAA HI॥४४७॥ For Private & Personel Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COMICROADC एहिं व ॥ ९७ ॥ पवयणसारुद्वारो रइओ सपरावबोहकजंमि । जंकिंचि इह अजुत्तं बहुस्सुआतं विसोहंतु ॥९८ ॥ जुम्म। धर्म:-सर्वक्षप्रणीतः स एव जीवा दिपदार्थाधारत्वेन धरा-पृथिवी तस्या यदुद्धरणं-स्वरूपभ्रंशरक्षणाद्यथावस्थितत्वेनावस्थापन तद्विषये महावराहा-आदिवराहा ये श्रीजिनचन्द्रसूरयस्तच्छिष्याणां श्रीआयदेवसूरीणां पादपङ्कजपरागैः-क्रमकमलकिञ्जल्कभूतैः श्रीमद्विजयसेनगणधरकनिष्ठैर्यशोदेवसूरीणां च ज्येष्ठैः श्रीनेमिचन्द्र सूरिभिः सविनयं शिष्यभणितैः सांयात्रिकैरिव-प्रावह णिकैरिव समयरत्नाक-15 रात्-सिद्धान्तसमुद्राद्रनानीव सदानि-शोभनाभिधेयानि षट्सप्तत्युत्तरद्विशतसङ्ख्यानि द्वाराणि निपुणनिभालनपूर्व गृहीत्वा प्रवचन-1 सारोद्धारो नाम ग्रन्थः स्वपरावबोधकार्यनिमित्तं रचितो-निर्मितः, यच्चेह किञ्चिदयुक्तमुक्तं तद्बहुश्रुता विशोधयन्तु ॥ इह यद्यपि यद्भवितव्यं तदेव भवति तथापि शुभाशयफलत्वाच्छोभनार्थेष्वाशंसा विधेयेति दर्शनार्थमाशंसां कुर्वन्नाह जा विजयइ भुवणत्तयमेयं रविससिसुमेरुगिरिजुत्तं । पवयणसारुद्धारो ता नंदउ बहु पढिजतो यावदेतद्विजयते भुवनत्रयं-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं रविशशिसुमेरुगिरियुक्तं-दिनकरतुहिनकरसुरगिरिपरिगतं तावदयं प्रवचनसारोद्धारपन्थो बुधैः-तत्त्वावबोधबन्धुरखुद्धिभिः पठ्यमानो नन्दतु-शिष्यप्रशिष्यपरम्पराप्रचारितरूपां समृद्धिमासादयतु ॥ १५९९ ॥ (ग्रन्थानं १८०००) इति श्रीसिद्धसेनसूरिविरचिता प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः समाप्ता ॥ For Private & Personel Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव० सा रोद्धारे तत्त्वज्ञानवि० ॥४४८॥ सिद्धान्तादिविचित्रशास्त्रनिकरव्यालोकनेन कचित् , काप्यात्मीयगुरूपदेशवशतः खप्रज्ञया च कचित् । अन्धेऽस्मिन् गहनेऽपि शिष्यनि मूलकारवहैरत्यर्थमभ्यर्थितस्तत्त्वज्ञानविकाशिनीमह मिमा वृत्तिं सुबोधां व्यधाम् ॥१॥ मेधामन्दतया चलाचलतया चित्तस्य शिष्यावलीशास्त्रार्थ प्रशस्तिः प्रतिपादनादिविषयव्याक्षेपभूयस्तया । यत्सिद्धान्तविरुद्धमत्र किमपि ग्रन्थे निबद्धं मया, तद् भूतावहितैः प्रपञ्चितहितैः शोध्यं सुधीभिः आशीः स्वयम् ॥ २॥ श्रीचन्द्रगच्छगगने प्रकटितमुनिमण्डलप्रभाविभवः । उद्गान्नवीनमहिमा श्रीमदभयदेवसूरिरविः ॥ ३ ॥ तार्किकागस्त्य टीकाविस्तारिसत्प्रज्ञाचुलुकैश्विरम् । वर्धते पीयमानोऽपि, येषां वादमहार्णवः ॥ ४ ॥ तदनु धनेश्वरसूरिर्जज्ञे यः प्राप पुण्डरीकाख्यः । प्रशस्तिः निर्मथ्य वादजलधि जयश्रियं मुञ्जनृपपुरतः ॥ ५॥ भास्वानभून्नवीनः श्रीमदजितसिंहसूरिरथ यस्य । तपसोल्लासितमहिमा ज्ञानोद्योतः कन स्फुरितः ॥ ६॥ श्रीवर्धमानसूरिस्ततः परं गुणनिधानमजनिष्ट । अतनिष्ट सोममूर्तेरपि यस्य सदा कलाविभवः ॥ ७॥ अथ देवचन्द्रसूरिः श्रीमान् गोभिर्जगजन धिन्वन् । रजनीजानिरिवाजनि नास्पृश्यत यः परं तमसा ॥ ८॥ श्रीचन्द्रप्रभमुनिपतिरवति स्म 8 ततः स्वगच्छमच्छमनाः । अचलेन येन महता सुचिरं चक्रे क्षमोद्धरणम् ॥ ९॥ अथ भद्रभुवोऽभूवन , श्रीभद्रेश्वरसूरयः । ये दधुर्विधुतारीणि, तपांसि ज यशांसि च ॥ १०॥ शिष्यास्तेषामभवन् श्रीमदजितसिंहसूरयः शमिनः । भ्रमरहितैः कुसुमैरिव शिरसि सदा यैः स्थितं गुणिनाम् ॥ ११ ॥ श्रीदेवप्रभसूरिप्रभवोऽभूवन्नथोन्मथितमोहाः । सूरिषु रेखा येषामाद्यैव बभूव भूवलये ॥ १२ ॥ अप्रमेयप्रमेयोमिनिर्माणेऽर्णवसन्निभाः। यैः प्रमाणप्रकाशोऽयं, मथ्यते विबुधैर्ननु ॥ १३ ॥ श्रीश्रेयांसचरित्रादिप्रबन्धाङ्गनसङ्गिनी । यद्वाणी लास्यमुल्लास्य, कस्य नो मुदमादधे ॥ १४ ॥ प्रज्ञावैभवजूंभणादहरहर्देवेज्यसब्रह्मभिर्वागब्रह्म विनेयवृन्दहृदयक्षेत्रान्तरुप्तं तथा । ॥४४८॥ नित्याभ्यासघनाम्बुवृष्टिघटनादकरितं पूर्णतामायातं फलति स्म वादिविजयैर्दत्तप्रमोदं यथा ॥ १५ ॥ नाप्लाव्यंत कति स्मयोद्धरधियो Jan Education Intematon For Private Personel Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्गद्यगुम्फोर्मिभिः, यद्वाग्वैभवभङ्गिमिः कति नहि प्राप्यन्त हर्ष नृपाः । यत्तीव्रतमुद्रया कति न चानीयन्त चित्रं जना, यद्वा किं बहु जल्पितेन निखिलं यत्कृत्यमत्यद्भुतम् ॥ १६ ॥ तेषां गुणिषु गुरूणां शिष्यः श्रीसिद्धसेनसूरिरिमाम् । प्रवचनसारोद्धारस्य वृत्तिमकरोदतिस्पष्टाम् ॥ १७ ॥ करिसागररविसङ्ख्ये १२४८ श्रीविक्रमनृपतिवत्सरे चैत्रे । पुष्यार्कदिने शुक्लाष्टम्यां वृत्तिः समाप्ताऽसौ ॥ १८ ॥ तारकमुक्तोचूले शशिकलशे गगनमरकतच्छत्रे । दण्ड इव भवति यावत् कनकगिरिर्जयतु तावदियम् ॥ १९ ॥ इति श्रीमद्विद्वद्धुरन्धरनेमिचन्द्राचार्यकृतमूलः श्रीमत्सिद्धसेनसूरिपुरन्दरसूत्रितवृत्तियुतः श्रीमान् प्रवचनसारोद्धारः समाप्तिमगमत् श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ६४ यायावसायायायायायायचाचा For Private & Personel Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० ॥ ४४९ ॥ Jain Education द्वाराङ्कः विषयः १०४ अप्रतिबद्ध विहार: १०८, स्त्रियः १०९, नपुंसकाः विषयानुक्रमणिका. १०५ जाताजातकल्पः १०६ परिष्ठापनोच्चारदिक् १०७ दीक्षायामयोग्या नराः ७९१ २३१ ११७ कालातीतम् ११० विकलाङ्गः १११ यतिवस्त्रमूल्यम् ११२ शय्यातरपिण्डः ११३ सम्यक्त्वश्रुतम् गाथाङ्कः पत्राङ्कः द्वाराङ्कः विषयः ७७९ २२७ ११४ चतुर्गातिका निर्मन्थाः ७८२ २२७ ११५ क्षेत्रातीतम् ७८९ २२९ ११६ मार्गातीतम् गाथाङ्कः पत्राङ्कः | द्वाराङ्कः विषयः ८१० २३६ १२४ नयसप्तकम् ८१५ २३७ १२५ वस्त्रग्रहणविधिः १२६ व्यवहारपञ्चकम् गाथाङ्कः पत्राङ्कः ८४८ २४७ ८५३ २४८ ८५९ २५० १२७ यथाजातपञ्चकम् ८६० २५० १२८ निशि जागरणविधिः ८६१ २५० "" 77 ८१७ २३७ १२९ आलोचनादायकान्वेषणा८६२ २५१ १३० आचार्यादिप्रतिजागरणं ८६३ २५१ 33 35 23 25 33 35 ७९२ २३२ ११८ प्रमाणातिक्रान्तम् ७९४ २३२ ११९ दुःशय्याचतुष्कम् ७९६ २३३ | १२० सुखशय्याचतुष्कम् ७९९ २३३ १२१ क्रियास्थानानि ८३५ २४० १३१ उपधिक्षालनकाल: ८०८ २३५ १२२ सामायिक स्याकर्षाः ८३८ २४० | १३२ भोजनभागाः ८०९ २३६ १२३ (१८) शीलाङ्गसहस्राणि ८४६ २४३ १३३ वसतिदोषशुद्धिः 96* % % % द्वाराण्यनुक्रमणिका ८६५ २५२ ८७० २५३ ४ ॥ ४४९ ॥ ८७४ २५४ xxxx w.jainelibrary.org Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RecorticositeROADCARE द्वाराङ्कः विषयः गाथाङ्कः पत्राङ्कः द्वाराङ्कः विषयः गाथाङ्क: पत्राङ्कः द्वाराङ्कः विषयः गाथाङ्कः पत्राङ्कः ११३४ संलेखनाविधिः ८७७ २५५/१४७ , ,, पञ्चदश ९२५ २७४ १६० उत्सर्पिणीस्वरूपम् १०३७ ३०७ १३५ वसतिग्रहणविधिः ८८० २५५ १४८ सम्यक्त्वस्य भेदाः(६७)९४१ २१६ १६१ अवसर्पिणीस्वरूपम् १०३८ ३०७ १३६ उष्णोदककालः ८८२ २५६/१४९ , भेदाः (१-१०) ९६२ २८६१६२ पुद्गलपरावर्तस्वरूपम् १०५२ ३१ १३७ देवनरतिर्यक्तत्त्रीमानं ८८४ २५६ १५० कुलकोटीसंख्या ९६७ २८६ १६३ कर्मभूमयः (१५) १०५३ ३११ १३८ आश्चर्यदशकम् ८८९ २६१ १५१ योनिसंख्या ९७० २८७ १६४ अकर्मभूमयः १०५५ ३११ १३९ भाषाचतुष्कम् ८९५ २६४/१५२ त्रैकाल्यवृत्तविवृतिः ९७९ २९२ १६५ मदाः अष्ट १०५६ ३११ १४० वचनषोडशकम् ८९६ २६४ १५३ श्राद्धप्रतिमाः ९९४ २९६ १६६ प्रणातिपातभेदाः १०५८ ३१२ |१४१ मासभेदाः ९०० २६६ १५४ धान्यानामबीजत्वम् ११०० २९७ १६७ परिणामाः (१०८) १०६० ३२३ १४२ वर्षभेदाः ९०१ २६६ १५५ क्षेत्रातीताचित्तत्वम् १००३ २९७ १६८ ब्रह्माष्टादशकम् १०६१ ३१३ |१४३ लोकरजखण्डानि ९१६ २७१/१५६ धान्यानि चतुर्विंशतिः १००५ २९८ १६९ कामाश्चतुर्विशतिः १०६५ ३१४ द १४४ कालिक्यादिकाः संज्ञाः ९२२ २७२ १५७ मरणानि सप्तदश १०१७ ३०२ १७० प्राणाः (१०) १०६६ ३१४ ॥ १४५ आहारादिकाः . ९२३ २७३ १५८ पल्योपमस्वरूपम् १०२६ ३०५ १७१ कल्पद्रुमाः (१०) १०७० ३१५ ४|१४६ ॥ , दश ९२४ २७४/१५९ सागरोपमस्वरूपम् १०३२ ३०६/१७२ नरकस्वरूपम् १०७२ ३१५ KARNAGACASSACROR-Gr For Private 3 Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० ॥ ४५० ॥ द्वाराङ्कः विषयः गाथाङ्कः पत्राङ्कः द्वाराङ्कः | १७३ नारकावाससंख्या १७४ नारक पृथ्वीवेदना १७५ नारकाणामायुः 22 विषयः विषयः गाथाङ्कः पत्राङ्कः द्वाराङ्कः गाथाङ्कः पत्राङ्कः १०७३ ३१६ १८५ एकेन्द्रियादिकायस्थिति १०९५ ३२४ १९९६ भवनेशादितनुमानम् ११५८ ३३७ १०७४ ३१६ १८६ एकेन्द्रियादीनां भव० १०९८ ३२५ १९७ भवनपत्यादीनां लेश्या ११६० ३३८ नामवधि: ११६६ ३३९ १०७६ ३१८ १८७ एकेन्द्रियादीनां तनु० ११०४ ३२६ १९८ ,, नामुत्पादविरहः ११७१ ३४० १७६ नारकाणां तनुमानम् १०८० ३१९ १८८ इन्द्रियाणां स्वरूपं वि० ११०९ ३२८ १९९ ,, नामुद्वर्त्तनाविरहः ११७२ ३४० १११० ३२८ २०० १७७ नरक उत्पत्तिमृतिविरहः १०८२३१९ १८९ जीवानां लेश्याः १९० एकेन्द्रियादीनां गतिः ११२० ३३० २०१०मुपपातोद्वर्त्तनसंख्या ११७३ ३४१ २०२ ०नां गतिः ११७६ ३४१ ( तापसादियुतानां ) २०३ ० नामागतिः ११७७ ३४१ १९१ एकेन्द्रियादीनामागति: ११२३ २०४ सिद्धिगतेर्विरहः ११७९ ३४२ | १९२, नां जन्ममरणवि२०५ आहारभेदास्तस्योच्छ्वास१९३ रहस्तत्संख्या च ११२७ ३३१ - १०९३ ३२३ १९४ देवानां भेदास्तत्स्थितिश्च ११४६ ३३६ १७८ नारकाणां लेश्या १०८३ ३२१ १७९ नारकावधिमानम् १०८४ ३२१ 23 ३३१ १८० परमधार्मिकाः (१५) १०८६ ३२२ १८१ नरकोद्वृत्तलब्धिः १०९० ३२२ १८२ १८३ तत्संख्या च १८४ स्य च कालमानम् ११८३ ३४४ २०६ त्रिषष्टित्रिशतपाखण्डिनः १२०६ ३४८ १९५ भवनेशादिविमान संख्या ११५४३३७ २०७ प्रमादानामष्टकम् १२०८ ३४९ | नरकोत्पादे योग्याः ور द्वाराण्यनुक्रमणिका ।। ४५० ।। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AC C CALCCACARALA द्वाराङ्कः विषयः पूर्णगाथाङ्कः पत्राङ्क द्वाराङ्कः विषयः पूर्णगाथाङ्कः पत्राङ्कः द्वाराङ्कः विषयः पूर्णगाथाङ्कः पत्राङ्कः २०८ भरताधिपाः १२१० ३४९/२२१ भावषटुं सप्रभेदम् १२९९ ३७९,२३४ भयस्थानानि १३२० ३८८ २०९ हलधराः १२११ ३४९२२२ जीवचतुर्दशकं १३०० ३७९२३५ अप्रशस्तभाषाषटुम् १३२१ ३८८ २१० हरयः १२१२ ३४९/२२३ अजीवचतुर्दशकम् १३०१ ३८०/२३६ अणुव्रतानां भङ्गाः १३५० ३९८ २११ प्रतिवासुदेवाः १२१३ ३४९/२२४ गुणस्थानानि १३०२ ३८०/२३७ पापस्थानाष्टादशकम् १३५३ ३९९ २१२ रबचतुर्दशकम् १२१७ ३५०/२२५ मार्गणास्थानानि १३०३ ३८१/२३८ मुनिगुणाः सप्तविंशतिः १३५५ ४०० २१३ निधिनवकम् १२३१ ३५३/२२६ उपयोगद्वादशकम् १३०४ ३८१/२३९ श्रावकगुणाः (२१) १३५८ ४०१ २१४ जीवसंख्याकुलकम् १२४८ ३५६ २२७ योगाः पञ्चदश १३०५३८२ २४० तिरश्चां गर्भस्थितिः १३५९ ४०१ २१५ कर्मणां मूलप्रकृतयः १२५० ३५६ २२८ परलोकगुणस्थानानि १३०६ ३८२/२४१मनुष्याणां गर्भस्थितिः १३६०४०१ २१६ , उत्तरप्रकृतयः १२७५ ३६७ २२९ गुणस्थानकालमानम् १३०९ ३८४ २४२, कायस्थितिः २१७ बन्धोदयोदीरणासत्ता०१२७९ ३६८ २३० नारकादिविकुर्वण. १३१०३८४/२४३ गर्भस्थितस्याहारः १३६२ ४०१ २१८ साबाधा कर्मस्थितिः १२८२ -३६९२३१ समुद्घाताः सप्त १३१६ ३८६ २४४ गर्भसंभूतिकालः १३६३ ४०२ २१९ पुण्यप्रकृतयः (४२) १२८६ ३७० २३२ पर्याप्तिषटुस्वरूपम् १३१८ ३८७२४५. पुत्रसंख्या पितृसंख्या १३६४ ४०२ (२२० पापप्रकृतयः (८२) १२८९ ३७०२३३ अनाहारकचतुष्कम् १३१९ ३८८ २४६ - ब-ब- EX Jain Education Interational For Private Personal use only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रवचन० ॥ ४५१ ॥ द्वाराङ्कः विषयः पूर्णगाथाङ्कः पत्राङ्कः "द्वाराङ्कः २४७) स्त्रिया गर्भाभवनस्य पुंसोऽबीजस्य च कालः विषयः पूर्णगाथाङ्कः पत्राङ्कः द्वाराङ्कः विषयः पूर्णगाथाङ्कः पत्राङ्कः २५७ अष्टाङ्गनिमित्तम् १४०९४११ २६८ अस्वाध्यायिकम् १३८३ ४०४ २५८ मानोन्मानप्रमाणानि १४१० ४११ २६९ नन्दीश्वरस्वरूपम् २४८ गर्भस्वरूपं 33 | २५९ भक्ष्यभोज्याष्टादशकं १४१७४१२ २७० लब्धिभेदाः २४९ सम्यक्त्वादीनामन्तरम् १३८४४०४ २६० षट्स्थानवृद्धिहानी १४१८ ४१४ २५० मनुष्यभवायोग्याः १३८५४०५ २६१ संहरणेऽयोग्याः २७१ तपोभेदाः १४१९४१५ | २७२ पातालकलशाः १४३१ ४१७ २७३ आहारकस्वरूपम् १४७१ ४२६ १४९१४२९ १५०८ ४३१ १५७० ४४३ ४१८ | २७४ अनार्यदेशाः १४३७ २५१ पूर्वाङ्गमानम् १३८६४०७ २६२ अन्तरद्वीपाः (२८) २५२ पूर्वपरिमाणम् १३८७ ४०७ २६३ जीवाजीवाल्पबहुत्वम् १४३६ २५३ लवणशिखामानम् १३८८ ४०७ २६४ युगप्रधान संख्या २५४ उस्सेधात्मप्रमाणांगुला : १३९७४०८ २६५ उत्सर्पिण्यन्त्यजिनतीर्थं १४३८ ४१९ २५५ तमस्कायस्वरूपम् १४०३४०९ २६६ देवप्रवीचारः १४४० ४१९ २५६ अनन्तषटुम् १४०४ ४१० | २६७ कृष्णराजीस्वरूपम् १४४९ ४२१ ४१९ | १५७९ ४४४ १५८२ ४४५ १५८६ ४४६ १५९२ ४४६ १५९४ ४४७ प्रशस्तिः आशीर्वादश्व १५९९ ४४८ | २७५ आर्यदेशाः २७६ सिद्धगुणा: (३१) ***%% द्वाराण्यनुक्रमणिका ॥ ४५१ ॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षिगाथाद्यकाराद्यनुक्रमः। पत्राङ्क: आधभागः पत्राङ्क: आद्यभागः पत्राङ्क: आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः अटुसट्ठिअक्खरपरिमाणु १६ अतीतानागतौ काला० ३०८ अप्पबहुत्तालोयण अइबहुअं अइबहुसो २१४ अहेव य जवमज्झाणि ४०७ अद्भुट्ठगाउयाई ३२१ अप्पाहार अवडा अइयं निंदामि ३९२ अडयालं पयडिसय ३६८ | अनित्यताशब्दमुदाहरन्ति १८१ अप्पुव्वेण तिपुंज अइसेस इडिधम्म० २७६ अणंतरागया० नेर०एगस० ११५ अनिरिक्खियापमज्जिय० ७८ अप्पोलं मिउ पम्हं अईयं पडिकमामि ३९ अणंताणं सुहुमवणस्सइ० ३२६ अनुत्तरविमानवासि० ३३८ अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र अगणिओ छिदिज व ६० अणागयद्बा णं तीयद्धा० ३०८ अन्तरा भवदेहोऽपि ३८२ अब्भासऽच्छणछंदाणु० अग्गीओ न वियाणइ २५० अणुबंधोदयमाउग० ३८२ अन्नण अन्नहा दे० ३४५ अभितरसंबुक्का २१ & अजवगुणे वट्टमाणे २४२ | अणुवकयपराणुग्गह० अन्ने भणंति इक्का० १६६ अभव्यस्य हि भव्या० ३५५ अज्ञो जन्तुरनीशोऽय० ३४६ अणुवट्ठियस्स धर्म ५४ अपउलिओसहिभक्ख. ___७६ अरण्यमेतत् सविताऽस्त. | अट्ट उ गोयरभूमी ६६ अण्हाणमाइएहिं २१० अपसस्थाण निरोहो ६७ अवसेसा अणगारा ३०२ अट्ठपव्वा असंपत्ती १९० अतिवर्तन्ते स्वार्थे ___ २५० अपुव्वं नाहीजइ १७१ अवहट्टु रायककुहाई For Private & Personel Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन अकाराधनुक्रमः। ॥४५२॥ आद्यभागः पत्राङ्क: आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः आधभागः पत्राङ्कः अविमुत्तयाए लोभ० २७३ | अहवा फोडीकम्मं ६२ आयरिए सुत्तपोरुसिं १७४ आहारगाई लोए ४४५ अविसहणऽतुरियगई १८१ अहो जिणेहिं असावजा २२३ आया चेव उ हिंसा . ३१३ आहारपज्जत्तीए अप० ३८७ अव्यभिचारिणा साह० ३६३ अहो विहितसंमर्दा १४ आरामुज्जाणाइसु ६७ आहारमिस्सजोगे अष्टाभिः प्रातिहार्यैः १५ अंगारविक्कयं इट्टयाण ६२ आलंबणाण भरिओ २२७ आहासुहुमो य एएसुं २१० असढेहिं समाइन्नं १२१ अंगुलअसंखभागे १९-३०४ आलोगो मणुएK २०५ इकार. असणाईया चउरो २३५ अंतिमचूलाइ तियं १६ आलोयणपडिक्कमणे ६७ इइ नयणविसयमाणं | असन्नीणं नेरइयाउ ३२३ अंतोमुहुत्तमेतं ६८ आलोयणापरिणओ २५१ इगवीसं खलु लक्खा । असुरानागसुवन्ना आ. आयननिव्विगइयस्स ५६ इत्तरियथेरकप्पे असोगवरपायवं १ ०७ आक्रुष्टेन मतिमता १९३ आवायदोस तइए २०५ इत्तरियाणुवसग्गा अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे २७/ आगारो उ विसेसो१३१-३८१ आशंसया विनिर्मुक्तः ६१ इत्थ इमं विनेयं अस्सि खलु पडिग्गहियंसि २१६ आचेलकुदसिय १८४ आहाकम्मनिमंतण ७५ इत्थं चायरियाणं अह उवरि छप्पन्ना २७० आणंदमंसुपायं १२७ आहारउवहिसेज्जासु १८२ इत्थीए जाव पणपन्न । | अहवा एकेक्कियं ४४२ आदेसेण वा गम्भहमस्स २२९ आहारगसरीरस्सा ४४५ इत्थीए मलियसयणा० K4%9C%ACAN ४४५ rror 00 V०० mur ॥४५२॥ Join Education International For Private & Personal use only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SACROSSACARGASAROKAR आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्क: आद्यभागः पत्राङ्क: आद्यभागः इदितो नुम् (पा.७.१-५०)१३७ उड़े जाव सरो चेव १९२ . ऊकार. एक्कारसमो दंडो | इन्द्रियाणां जये यस्माद् १६५ उत्तरवैक्रिया तु तथा ३१९ ऊणग अट्ठारसगं २३३ एकेक पंच दिणे | इमीसे णं भंते! रयण० ३१६ उत्तिष्ठन्त्या रतान्ते १४ एकार. एगनिसेजं च रयहरण. इयरे पुण आयरियं ३९ उदयस्सेव निरोहो ६६ एएसि वयपमाणं २२९ एगपव्वं पसंसंति इयाणिं नपुंसया दस २३२ उद्देसियम्मि नवर्ग १५५ एएसि मज्झाओ ४१९ एगयरसमुप्पाए इंतस्सऽणुगच्छणया ६७ उभयमुहं रासिदुर्ग २०६ एएसि मूला असंखेज० ३६५ एगराइयं च णं भिक्खु० १६५ इंदियकसायजोए ६६ उभे मूत्रपुरीषे च २२८ एएहिं सुहुमेहिं ३०५ एगराइया चउहिं उकार. उम्मायं व लभेजा १६५ एक एव हि भूतात्मा ३४६ एगविहं दुविहेणं | उक्कोसो मणुएसु ३३९ उवगरणं सुद्धेसण० १६३ एकस्मिन्नप्यर्थे ७० एगस्स उ जं गहणं उक्खित्तमाइचरगा ६६ उवलक्खणं तु एयाई २६१ एकाङ्गः शिरसो नामे २० एगिदियदेवाणं | उच्चालियम्मि पाए १५६ उवसामगो य खवगो २११ एकैकां वर्धयेद् भिक्षा ४४१ एगो जइ निजवगो उच्चासणं समीहइ २२९ उवहिम्मि पञ्चूसे १६६ एक्कविहेकविहेणं ३९२ एगो व दो व तिन्नि व ३३१ | उजुगंतुं पञ्चा. ६६ उसभस्स तिन्नि गाउय० १०६ एक्काए वसहीए १२८ एयस्स एस नेओ १६५ or ur 04 Mr 9 , Jain Education RA For Private Personal use only ww.jainelibrary.org Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन०आद्यभागः एयं उग्गच्छंतगहिए ॥४५३॥ एयं पञ्चक्खाणं एयंमि गोयराई एयाओ विसेसेण एयाणि गारवट्ठा एवं अप्परिवडिए एवं जहन्नेणं एवं जहन्नेणं० पंच वा | एवं धन्ना जे मद्दवु० र एवं मद्दवगुणे वट्ट. |एस चेव उऊमासो | ओकार.. ओगाहणा जहण्णा पत्राङ्क: आद्यभागः . पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः अकारा४२४ ओमो समराइणिओ १२७ कंडंति एत्थ भन्नइ ४१२ किं मे कडं किं च मे २५ द्यनुक्रमः। ३०१ ओवायं विसमं खाj १५६ काऊण तक्खणं चिय ७८ केई पढंति गाउयसय० २९७ १७२ ओसवणमहिसकण ६६ काऊ नीला कण्हा ३२० कोहाईणमणुदिणं १८३ ओस प्पिणी उस्सप्पि० ११५ कायवाड्मनः (तत्त्व०६-१)३८० कृत्यल्युटो बहुलमिति ५० १८२ ओसप्पिणीए दोसुं १७० कायब्वा पुण भत्ती ६७ कृत्वा हाटककोटिभिर्जग० १४ ४०४ ककार. काया वया य तेच्चिय १८१ कृमिकीटपतङ्गाद्या २७२ ४३ कडसामइओ पुन्धि ७८ कारेमि न मणसा २४२ कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् २९ ४३ कत्थइ मइदुब्बल्लेण . ६९ कालम्मि कीरमाणं ६४ कृष्णा भ्रंशयते वर्ण १४५ २४२ कपिलं शस्यघाताय १८६ क्षणिकाः सर्वसंस्काराः ३४५ २४२ कम्मविवागो कम्मण० ३८२ कालाध्वनो० ४७ क्षायोपशमिकाद्भावात् ३९ २६१ करणतिगेणेकेक ३९८ कालापेक्षाव्यतिक्रान्ते ६७ क्षुत् पिपासा च शीतोष्णे १९५ कवलस्स य परिमाणं ६५ काले अभिग्गहो पुण ६६ खकार. ॥४५३॥ ११३ कहकहकहस्स हसणं १८० किंच कालादृते नैव ३४६ खद्धाइयणत्ति सेहे ३३४॥ RECCCCCAAAA-NCROSE in Education Internal For Private Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *%* आद्यभागः खंती मुत्ती अज्जव० खामेइ तओ संघ खेत्ते भर हेरवसु गव्भयतिरिनरसुर० गमणागमणवियारे गिहिपरियाए गुणसुट्ठियस्स वयणं पत्राङ्कः आद्यभागः १३५ गूहइ आयसभावं गकार. चकार. गणओ तिन्नेव गणा १७१ गणिमं जाई फलफोफलाइ ७५ चउसठ्ठीऍ बित्तं गन्धर्वनगरं स्निग्धं गन्धवरधूवसवो ० गन्धव्व नगरनियमा १६३ १७० | घणघाइकम्मकलुसं घयबुडुमंडगाई घकार. ४१० चत्थं पुण धणुहं १३ चउहिं ठाणेहिं आहार ४२३ चतुर्णां करयोर्जान्वोः ३३९ चत्तारि उडूलोए २१९ चत्तारि विचित्ताई १७१ चत्तारि सहस्साई १३२ | चकमणाइ सत्तो पत्राङ्कः आद्यभागः १८१|चाउस्सालाईए चियमंससोणियाए ४४० चिलिचिलिसद्दो पुन्नो ५६ चोयालसयं दस एक० छकार. पत्राङ्कः आद्यभागः २५४ ३६६ जकार. २७३ जइ कहवि धाडवेस ० ४१० इ किंचि पाएणं ३९६ जइ जिणमयं पवज्जह० १२७ २८१ १८१ ३२६ जओ जओऽवियणं अरि० १०८ ४८-१५३ जच्चाईहि अवणं ४१३ जत्थुस्सेहंगुलओ १७४ जदत्थि च णं लोए २२९ जम्मेण तीसवरिसो २५१ जय त्रिजगतीपते ! ६२ जल्लेसाइं दव्वाइं २१४ जव चणया गोहुममुग्ग २४१ जह वा तिलपप्पडिया २७१ छक्कायदयातोऽवि ४०७ छट्टा अवसा २७३ छन्भागे गामो कीरइ २० छम्मासि छ जयं ११२ छम्मासे आयरिओ ३०० | छिन्नाच्छिन्नवनपत्र ० २७१ छुहासमा वेयणा नत्थि १८२ छेयस्स जाव दाणं पत्राङ्कः २९० १७१ १५ ३२८ ६२ ३६५ ***% *%**** Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन पत्राङ्क: ४५४॥ आद्यभागः पत्राङ्क: आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः ' पत्राङ्कः आद्यभागः अकाराजह सगलसरिसवाणं ३६५ जायण पुच्छाऽनुण्णवण १६४ जो पुण तदेव मग्गं १८३ ततं वीणादिकं ज्ञेयं द्यनुक्रमः। जहा नालिकेरदीव० ३७६ जावंतियमुद्देसं १३८ जो पुण मोहेइ परं १८३ तत्थ आसायणा २२०८ जं किंचि पमाएणं १६३ जियदु व मरदु व जीवो १५६ जो पुण विगइञ्चार्य ५६ तत्थ णं एगमेगे जंघाबलम्मि खीणे १७२ जियपरिसो जियनिहो १३१ जो संजओवि एयासु १७९ तत्थ णं चोयगे पन्नवर्ग ३०४ जंमि वरिसम्मि २६५ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्यु० २७९ ज्ञानमप्रतिघं यस्य । ३४६ तत्थ णं जा सा उत्तरवेउ० ३१९ जंमि सिरिपासपडिमं १८७ जे अन्ने एवमाइ भेया १९१ ज्योत्स्नादिभ्योऽण् १६८ तत्थावायं दुविहं २०४ जं मोणं तं सम्म २८१ जेणेगेणं तवओ ५ ५ ठकार. तदधो परिहवखेतं २२९ जं वट्टइ उवगारे ६५ जे य वडअच्छरग(नि०चू०)१९१ ठस्येकः ६ तदहतीति (पा०५.१-६३) २१८ जं सामन्नविसेसे २४४ जेसु केसुवि पएसेसु ४४६ ठिय अडियो य कप्पो १८४ तवसंजमजोगेसुं . २४ जाए उचिए य तयं १६३ जे से साइए सपज्जवसिए ३०९ तकार. तवेण सत्तेण सुत्तेण१२६-१६२ जाड्यं भवति स्थूलाया १४५ जोइसियाणं भंते! ३३९ तइयाए पोरसीए १७२ तस्येदं जाणगो जाणगसगासे ४३ जो उ परं कंपंतं १८२ तज्जम्मे केवलपडि० १२८ तस्सेव केइ जसकित्ति० ३६६ ॥४५४॥ जातिस्मरणं त्वाभिनिबोध० ३६१ जो पुण उवहयमइओ १८३ तणडगलछारमलग० २३५ तह कायठिइकालादओ ३२४|४| Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C १८९ Y आद्यभागः पशङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः | तह तह उवयमइओ १८३ तिविहं तिविहेण ३९२ दकार. दीसंति य केइ इहं ५६ तह देसकालजाणण६८ तिविहं होइ निमित्तं १८२ दक्षिणपाधैं स्पन्दन० ४१० दीहो बाहल्लपुहु० तहारूवं णं भंते! समणं० २३ तिहि नावापूरएहिं २२९ दग्धे बीजे यथाऽत्य०३४२.४४७ दुवालसमं वरिसं २५४ | तहिं दुरालोइय २२३ तच्छत्तणेण गव्यो १८५ दब्वाइअभिग्गह विचित्त० १७२ दुविह तिविहा य छच्चिय ३९० ताह दवा वेतरिया ३३६ तुच्छा गारवकलिया २०९ दशसूनासमश्चक्री ६३ दुविहतिविहेण पढमो ३९० |तं च कहं वेइज्जइ ८४ तुरगैरिव तरलतरैः १६५ दस एको य कमेणं १६५ २०७ दुविहदुविहेण पंचम तासां भवनपतिनिकाय० ३३४ तेणं वालगा नो अगी ३०३ दस पणयाल विसोत्तर २०७, दुविहे गेलन्नंमी ताहे हराहि भाग २६५ तेन चरति दंडओ इक्कारसमो ६ देवाण नारयाण य तिण्णि सया तेत्तीसा ११६ स्वगाधिरमांसद १९३ दाणं न होइ अफलं १४७ देवा देवीं नरा नारी १०८ तित्थयरधम्मआयरिय० ६७ त्रिविधं त्रिविधेनेत्यपि ३९० दावानलमज्झगओ ६ देवेज्यात्मजबान्धव० ४१०॥ तित्थेत्ति नियमओच्चिय १७० दित्तमदित्ता तिरिया २०४ देसकुलजाईलवे १३१| तिलमोयगतिलवट्टि ५६ थकारः. दितगपडिच्छगाणं ६६ देहम्मि असंलिहिए २१५ तिविह निमित्तं एकेक १८२ थिरकरणा पुण थेरो २४ दीपो यथा निर्वृति० २७९ दो असइओ पसइ १२२-४०४ OLORCAMANCARS For Private Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % अकारा-- धनुक्रमः my 30 % - mer प्रवचन आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः दिदोण्ह सहस्समसंखा २४० नऽणुमन्ने मणसाहार० २४२ नाणाइ तिहा मग्गं १८२ निप्पडिकम्मसरीरो ॥४५५॥ दोसासइ मज्झिमगा १८६ न मारयामीति कृत. ७२ नाणे दसणचरणे ६७ नियएणुवगरणेणं दोहिवि नएहिं २४४ न य तंपि इह पमाणं ५६ नानन्दोदकलेशलम्पट० १४ नियतेनैव रूपेण द्रवमूर्तिस्पर्शयोः नव नव य होंति कमसो ३९२ नाभुक्तं क्षीयते कर्म । निरइगई णं भंते ! (पा-६-१-२४) १९३ नवरं इह परिभोगो ५६ नाभ्यधस्ताद्भवे यस्या० । निष्ठीवनं जुगुप्स० धकार. नवि किंचि अणुनायं १३३ नाशावेधोऽङ्कनं मुष्क० निष्ठीवनं वपुःस्पर्श |धर्मध्याननिबद्धबुद्धि० १४ न सन्त्यनपत्यस्य २७४ नाश्रुत्वा विपरीतं वा । निस्संगया य पच्छा धर्मसाधननिमित्तयुक्त० १३४ न सम्ममिच्छो कुणइ कालं३८३ निग्धायगुञ्जिएसुं निःस्थामा स्थविरां धात्री १४५ धीरेणवि मरियव्वं ३०१ न सरइ पमायजुत्तो , ७८ निचं वुग्गहसीलो नेरइयाणं भंते ! नहदंतचमरवासा ३८५ नकार. ६२ निज्जोगो उवयारो न करेमि मणसाऽऽहार० २४२ न हु तस्स तन्निमित्तो १५६ निद्दामत्तो न सरह नेरइयाणं भंते ! सब्वे ३२१ ||न करेंती मणसाहार० २४२ नंदणवणि चत्तारि ११५ निदोच्चीभूएवि ४२४ नेरइयाणं भंते ! सव्वे सम.३२१ न कालव्यतिरेकेण ३४६ नाणाइ अदूसेंतो १८२ निद्रोदयसमधिगताया० ३५८ नेरइयाणुप्पाओ % Smo Am2 CAREER-CROSOCIES rur A5 -% For Private & Personel Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-9696 vie आद्यभागः पकार. पट्टवणओ य दिवसो पडिबंधो लहुयत्तं पडिमा कप्पियतुल्लो पडणं कु पडिवज्ज अइक्कमे पडिवज्जमाणगा पुण | पडिवज्जमाण भयणाए पढमवए छन्भंगा पढमे सत्तए पढमम्मि य संघयणे पढमम्मि सव्वजीवा पढमा उवस्तयम्मि य पत्राङ्कः आद्यभागः पणवीस जोयणाई ४५ पण्हो य होइ पसिणो १८६ पत्तं पत्ताबंधो १६२ | परदारवज्जिणो पंच दुविहं १५६ | परपक्खेऽवि २४१ परियट्टिए अभिहडे १७६ | पवरेहि साहणेहिं १७१ पव्वावेई न एसो (II) ३९६ पसिणापसिणं सुमिणे ४४२ पश्चाद्याद्यताप्रादिमः ३०१ पंचपब्वाय जा लट्ठी १३४ | पंचविहार पज्जत्तीए १२६ | पंचविहायारविसुद्धि. पत्राङ्कः आद्यभागः ३३९| पंचवि आयारे १८१ पंचसमिया तिगुत्ता २५२ | पंचसु सक्ताः पंच विनष्टाः ७३ पागयमणुयाणं बत्तीस २०४ पाणा सीयल कुंथाइया १५५ पापनिवेदनगर्भैः १३ पायपमज्जण हेडं १७२ | पायाई सागरिए १८२ पायान्नेमिजिनः स यस्य ६ पार्थिकयेनोक्तत्वात् १९० पालेजसु गणमेयं ३८७ पासत्थो अच्छ ३९) पिण्डक्रियागुणगतैः पत्राङ्कः आद्यभागः १३१ पिता रक्षति कौमारे २२६ पीढफलगाइगहणे १६५ पुढविकाइयाणं पुच्छा ४१० पुढवी आउक्काए १३० | पुढवी परिणामाई १४ पुरओ जुगमायाए १२० पुरिसावार्य तिविहं १३५ पुरुष एवेदं सर्व २० पुलागस्स णं भंते ! ३३८ पुव्वदिसि देवरमणो १२७ पुञ्चपवण्णं विणयं २७ पुब्वपुरिसा जहोदिय १४ पुग्वाहिचं सुयं से पत्राङ्कः ७४ १३० २८६ १५६ ३२६ १५६ २०४ ३४६ | २१२ ४२७ १२७ ७० १७१ * * * * Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० ॥ ४५६ ॥ %% % आद्यभागः पुव्वाहीयं तु तयं प्रति प्रति प्रवर्त्तनं वा प्रतिसेवना पश्वानां प्रयोजनमनुद्दिश्य प्रवरैः साधनैः प्रायो पृथक्त्वशब्दो बहुत्ववाची बकार. बत्तीसं कवला पुरि० बत्तीसं किर कवला बत्तीसं धणुयाई बलावरोधि निर्दिष्टं बहुं परघरे अस्थि बंध वह छविच्छेयं पत्राङ्कः | आद्यभागः १२४ बंभलोए कप्पे देवाणं ३९ बादरपृथिवीकायिक० २१२ बायरपज्जत्तेसुं १ बाहत्तरि छायाला १४ बाहत्तर छात्तरि १९३ बिटट्ठाई सुरभि भकार. २१४ | भक्ती तह बहुमाणो ४५-६५ | भयवं उसभसामी पत्राङ्कः | आद्यभागः ३३५ भास दुयं दुयं गच्छ० ३०३ भिनत्ति सोमं मध्येन ३३१ | भिन्नंपि माकप्पं ३९६ भुमनयणदसणच्छद ० ३९६ भूईए मट्टियाइ व १०७ भूतस्य भाविनो वा भेषजादित्वात् मकार. ६७ २६० | मज्जानि रुधिरास्थिीनि ३५५ मज्जारमोरमक्कड ३३८ मज्झे तिपासियं कुज्जा ४५-५० मणवयकाइयविणओ १०७ भव्वावि न सिज्झिस्संति २१५ भावलेश्याः षडपीष्यन्ते १९४ भावादिमप् ७१ भावियजिवणा २१४-३०० मणुयाणं तिरियाणं पत्राङ्कः आद्यभागः १८० मनसि जरसाभिभूता ४१० मरुदेवीवि आएसंतरेण १८७ महावीरस्य भगवतः १८० महिलासहावो सरवन्न० १८१ महुमज्जमंसमक्खण १८ माणाइगं लक्खणं २२० माता पिता कलाचार्य ० मिच्छत्तपडिकमणं ४१० मुत्तूण माकप्पं ६३ मूसगरयउक्रे १२१ मेहनं खरता दाढ ६७ मोतुं जिणाणमाणं ६३ | मोहोपशम एकस्मिन् पत्राङ्कः १२९ ११३ १०८ २३१ ६२ ४१० २७८ ३९ १८६ १२१ ३५४ ५६ २०२ अकारा धनुक्रमः । ॥ ४५६ ॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्राः आद्यभागः २२० आद्यभागः . पत्राङ्कः आद्यभागः मृत्योरभावान्नियमोऽस्ति ७२ राईभत्तपरिन्नाए मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय ७० रागाद्युत्कटशत्रुसंहृति० यकार. राजप्रतिग्रहदग्धानां यद्यदैव यतो यावत् ३४६ राजा बाहुबलिः सूर्य० यस्य ज्ञानमनन्तमप्रति० १४ रिक्खाईमासाणं यस्य हलः लकार. यस्येति २२० लक्खा धायइ गुलिया दिया माहेन्द्र परा स्थितिः ३३५ लेवडमलेवडं वा येन संयमयोगानां ४१ लौकिकव्यवहारोऽपि योनिर्मुदुत्वमस्थैर्य ३५४ वकार. रकार. वणवदाणमरणे रयणिममिसारियाओ २२ वत्थगंधमलङ्कार रयमाइरक्खणट्ठा १२० वद्धिए चिप्पिए चेव १४ वाणमंतरीणं भंते ! १८६ वायाकुकुइओ पुण ८५ विगई परिणइधम्मो २६५/ विगई विगईभीओ विगलाण य वास० ६२ विण्हवणहोमसिर० ६६ विरलिमाई भूरिभेआ २ विराहियसंजमाणं . विवरीयदव्वगुण ६३ विसवाणिज्ज भण्णइ ११६ विस्फूर्जन्मदवारि० २३२ विहरंताणं पायं पत्राङ्कः आद्यभागः पत्राङ्कः १४ वीरासण उकुडुगास ३३४ वीरासणाइसु गुणा १८० वीरो आएसंतरओ ४०८ ५६ वीस इगतीस नव ३९६ ५६ वुत्थे वजेजऽहोरत्तं २३५ ३२४ वेउव्वाहाराणं १८१ वेउब्वियसमुग्धाएणं १९१ वेदो पवित्तिकाले ३३० वेमाणियाणमंगुल ३६६ वेमाणिया सोहम्माओ ३३९|| ६२ वेयावच्चं वावडभावो ६ १४ वेसवयणेहि हास २५४ ब्रीहिर्यवो मसूरो . ३८५ १७१ 9mm ur v 0 0 ०७ For Private Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ० ॥ ४५७ ॥ पत्राङ्कः] आद्यभागः शकटानां तदङ्गानां शब्देन महता भूमिः शम्बूकावर्त्ता सज्जेण लब्भए वित्तिं ६२ सत्तममहिनेरइया ४९० सत्तावीस जना २१७ सदारसंतोसिस्स १४ सय भद्दयावएसुं शान्त्यै वोऽस्तु कपाल० श्योऽस्पर्शे ( पा०८-२-४७) १९३ सन्नित्ति असन्नित्ति य सपडिकमणो धम्मो षकार. विदुगौरादिभ्यः २२० | समपि हुंति नवरं समतुरंगेमाणा ० ६७ समयं वकंताणं सकारब्भुट्ठाणं सच्चित्ताणं दव्वाणं० सक्तः शब्दे हरिणः सचित्ताणं दव्वाणं १३ समिओ नियमा गुत्तो १६५ सम्मत्त देसविरया १३ | सम्मत्तनाणसंजम ० आद्यभागः शकार. सकार. पत्राङ्कः आद्यभागः ४१० सम्म यतिसु ३२९| सम्यग्भावपरिज्ञानात् १७१ | सरदद्दतलाय सोसो ७३ | सर्वज्ञोपदेशेन ६६ सर्वप्रदेशपर्यन्त ० २७२ सर्वे धातवः करो० ३९ | सव्वसिद्धदेवाणं ३८७ सव्वं च असणपाणं ३१६ सव्वं च परसतया ३६६ सव्वाए इड्डीए सव्वाए १६७ सव्वावि य अजाओ २४० सव्वाहि लद्धीहिं २४ सवसमो पत्राङ्कः पत्राङ्कः आद्यभागः ३२० सव्वे य मिहो भिन्नं ३४५ २ सव्वे नया मिच्छ्वाइणो २४३ ६३ सव्वेवि य अइयारा २४१ २ सव्वै सव्वद्धाए ३०१ २७७ १३१ २७० ३२७ सव्वेहिंपि जिणेहिं ४७ ससमयपर समयविऊ ३३९ सहसेगारस दुसया ३०१ | संकप्पो संरंभो २७९ संकमणाए दंसगं १३ संगहगाहाए जो न ३०१ संघट्टत्ता पाएणं ३०१ संघयणं संठाणं ३७१ संघाइयाण कज्जे १३५ ११५ ३३ ३४ ११३ - १९६ २१० अकारा द्यनुक्रमः । ॥ ४५७ ॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यभागः पत्राङ्कः। आधभागः पत्राङ्कः। आद्यभागः पत्राङ्क: आद्यभागः संफासनमणे एग | सिझंति जत्तिया किर ३२४ सुस्सूसणा अणासा०६७ स्वस्थानाद् यत् परस्थानं संभोइयमनसंगो ३९ सिद्धत्थयदहिअक्खय १३ सुहुमा पाहुडियावि य १५५ श्रीमद्वीरजिनेन्द्र० व संविग्गमसंविग्गे २०४ सिय आहारए सिय अणा०३८७ सूई रज्जू चाहिं २६९ श्रीमहावीरतीर्थे संविग्गे गीयत्थे २५१ सिलउक्खलमुसल० ६३| सूत्रोक्तस्यैकस्याप्य० ६९-३७६/श्रीहीधृतिकीर्तिबुद्धि० |संसहमसंसट्ठा १२७-१६३ सीयलेणं सुहफासेणं १०९ से न दीहे न वट्टे ४४७ श्रुत्वाभिधेयं शास्त्रादौ संसारमारवपथे १४ सीयालं भंगसयं ३९४ सेसा उ अट्ठ भंगा ११५ सामाइयं तु काउं ७८ सुच्चा जाणइ कल्लाणं ५४ सेसाण गईण दस दसगं ११५ हकार. सामाइयाइचरणस्स ६७ सुहुवि मेहसमुदए ३७६ सो उवसंतकसाओ २११ हलच० सामीजीवादत्तं ७३ सुयसामाइयं एगभवे २४० सो उस्सग्गो दुविहो ५९ हीणसत्तत्ताए भयवेयणि० २७३ साहारणमाहारो ३६६ सुरजालमाइएहिं १८० स्तनादिश्मश्रुकेशादि ३५४ हेऊदाहरणासम्भवे SECRECXI4 Jain Education Interational For Private & Personel Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विशेषना 00-000 मानि ४४८ . 1 प्रवचन विशेषनामानि. ॥ ४५८॥ विशेषनाम । विशेषनाम विशेषनाम विशेषनाम अङ्गारर्मदक: २७५-२८३ आर्यवनस्वामी -६४ गणभृतः (आवश्यकनियु०) ४५ जिनचन्द्रः . अजितसिंहसूरिः ४४८ आर्यश्यामः ३८७ गन्धड्स्ती . . ३५८ जिनभद्रः अभयदेवसूरिः १११-३०१ गुणसुन्दरसूरिः - -२९ त्रिशला ६ अभयसेनः . १८८ उमाखातिः ३ गोविन्दवाचक: २८४ दारुका दि अभिनवगुप्तः (भरतवृत्ति०) ३१३ ऋषभस्वामी २३५-२६१ गोशालकः . ३५५-४३२ दुष्पसभः अमर: . १११ कपिलः. २५७-२६१ चन्द्रकीर्तिः । २५९ देवकी अम्बडः १११ कीर्तिः १११ चन्द्रप्रभः ४४८ देवचन्द्रसूरिः . आत्रेयिका २५९ कुम्भकः २५७ चिलातीपुत्रः २८५ देवप्रभसूरिः आनन्दः १११-२९३ कूर्मपुत्रः ११७ चेटकमहाराजः ७४ देवानन्दा आम्रदेवसूरिः . ३५६ कृष्णः ३०-७४-१११ जमालि: १८३ दृढायुः टाम्रदेवः ४४७-४४८ क्षमाश्रमणः २५८-२६१-३२४ जम्बूस्वामी ३-१९६ द्रुपदः । LATEST cWS or ur V०.०VVur 200 ५८॥ २५७ Jain Education Intematon For Private Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ ४३१ ६४-२२९/ EXCLOCIRCMC co विशेषनाम द्रौपदी द्वीपायन: धनेश्वरसूरिः धर्मघोषः नन्दिषेणः नारदः | नेमिचन्द्रसूरिः नेमिजिनः नेमिनाथः पद्मनाभः | विशेषनाम विशेषनाम २५७ पूरणः २५९ मल्लिः १११ पूर्वगणभृतः (हरिभद्राः) १३ महाकालम् ४४८ पोट्टिलकः १११ महागिरिः २९-१८८ प्रभवः ३ महाबलः ४०० प्रभावती २५६ महावीरः १११-२५७ प्रसन्नचन्द्रः १७८ माषतुषः ३५६-४४८ बलदेवः १११ मुजमृपः ३० भद्रबाहुः ३ मुनिसुव्रतः २६१ भद्रेश्वरः ४४८ यशोदेवः २५७ भाष्यकारः (पातञ्जलिः)४७ यशोभद्रः २७८ भाष्यकृत् ३३९-३९८ युधिष्ठिरः २५७ मरीचिः २५६-२६१ रेवती । ३१ मरुदेवी ११२-११३-११७ रैवतकः . विशेषनाम २५७-२६१ रोहिणी २७७-३२२ वहरस्वामी ३ वजस्वामी २५६ वनमाला २५६ वरधर्मः ३२८४ वर्धमानसूरिः ४४८ वर्धमानस्वामी २५८ वात्स्यायनः ४४८ वारत्रका ३ वासुदेवः २५७ विक्रमसिंहः १११ विजयसेनः ३१ वीरकः WWCOM our10४ ३१४१ ३१-१११ पद्मः पाण्डवः पालका '४४८ ३०-२५९ For Private & Personel Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ॥४५९॥ मानि १११ खातिबुद्धः विशेषनाम विशेषनाम विशेषनाम वैशिकायी ४३२ श्रीचन्द्रप्रभमुनिः ४४९ सिद्धसेनसूरिः १११ श्रीचन्द्रसूरिः ११२ सुनन्दः शतक: १११ श्रीभद्रेश्वरसूरिः ४४९ सुपार्श्वः शय्यम्भव: ३ श्रेणिकः १११-२८३-३१२ सुस्थितः शाम्बः ३१-२६०-२६१ सहदासः २६०-२६१ सुमतिः | शीतला २९-२६१ सतालि: १११ सुमुखः शुक्रारमखरी २९ सत्यकी १११ सुलसा श्यामार्यः ३ समयवादिनः (हरिभद्राः) ४१ सुविधिः श्रीकान्तः ३० सम्भूतविजयः । ३ सुहस्ती विशेषनाम विशेषना४४९ स्कन्दक: ४४३ १११ स्थूलभद्रः ३-१९६ १११ २५९ हरिणेगमैषी हरिकेशबलः ४००४ २५ हरिभद्रसूरिः ३८-४०-७३ १११ ३०३-३१९-३३४ २६० हरिः ३ हेमसूरिः २५८ हरिणी २५६ SARALA २५९ ॥४५९॥ For Private & Personel Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रनाम अपरकङ्का अपर विदेहाः अपापापुरी अवन्तिः अष्टापदः उज्जयन्तगिरिः उत्तरापथः काथ्वी काम्पिल्यपुरं कुसुम नगरं क्षेत्रनाम २५७ कूर्मप्रामः २५७ कौशाम्बी ३-९७ क्षत्रियकुण्डग्रामः २९ चमरचंचा ९७ चम्पापुरी ९७-१४७ २३३ जम्बूद्वीपः २३३ दक्षिणपथः २५७ द्वारमती २३३ द्वीपः क्षेत्रनामानि क्षेत्रनाम ४३२ | धातकीखण्ड: २५८- २५९ पाटलीपुत्रं २५६ ब्राह्मणकुण्डग्रामः २६० बिभेलः ९७- २५७-२५८ भरतक्षेत्रं २५९ मथुरा २५७ मिथिला २३३ लवणसमुद्रः ३० वारत्तकं २३३ वीतशोका क्षेत्रनाम २५७ सम्मेतशैलः २३३-४३१ | सलिलावती विजयः २५६ सिणवली २५९ सुसुमारपुरं २५७ श्रीपुरं १८७ श्रीरेवतकः २५७ २५८ स्वयम्भूरमणः १८८ हरिवर्षम् २५७ हस्तिनागपुरं ९७ २५७ ४५ २६० २९ ३१ २७१ २५९ २५७ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %-- प्रवचन अथ शास्त्रनामानि. शास्त्रनामानि ॥४६०॥ -- - - -- .शास्त्रनाम शास्रनाम शास्त्रनाम शाननाम | अनुयोगद्वारचूर्णिः ८-४०७ आचाराङ्गम् २१६-४४७ उपासकदशाः २९३ कल्पव्यवहारः २४९ | ', टीका ३१९ आवश्यकचूर्णिः ४३-५६-७१ ओघनियुक्तिः १६६-१९० छेदग्रन्थः २१९ अनुयोगद्वारमूलटीका० ३०३ ४४६-१०७-२४० २२०-२२३ जीतकल्पः १३०-२१९-२२१ | अनुयोगद्वारसूत्रम् ४-३०३ २९६-३३९ औपपातिकम् १७ जीवसमासः ३८५-४४५ अनुयोगद्वाराणि ८५ आवश्यकटिप्पनकं ९७ कर्मप्रकृतिपटः ४१४ जीवाभिगमः १६-१७-३१ अन्तकृद्दशाः ४३७-४३८ आवश्यकनियुक्तिः ९१-३६९ कर्मप्रकृतिः१९७-२०१-३६९ ३ ७-३१०-४२९ अष्टमाङ्गम् -४४२ आवश्यकम् ९२-१९४-३२० कर्मस्तवः ३६८ तन्दुलवैचारिक' '२१४ आचारप्रकल्पः २४९ ३६१-३९१ कल्पः २४० तत्त्वार्थभाष्यम् २१२-३३५ आचाराङ्गटीका ६१-२७३ आवश्यकवृत्तिः ३६ कल्पचूर्णिः १६६-१७४-१७६ ३३८ ३५५ आवश्यकसूत्रम् ७६ . १९२ तत्त्वार्थमूलटीका ३८-३२७ आचाराङ्गनियुक्तिः २०८ उत्तराध्ययनचूर्णिः ३०० कल्पभाष्यम् १७१-१७३ तत्त्वार्थः ७७-१७९-१९५ - - - Jan Education Intematon For Private Personel Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रनाम शास्त्रनाम शास्त्रनाम | शास्रनाम त्रिषष्टिचरितम् ८५ निशीथम् २६-२२१-२३०-पाठोदूखलः २५२ वृहदुत्तराध्ययनवृत्तिः ४४७ दशवैकालिकम् २२३ २३२-२४९-४१० पज्ञप्तिटीका ४२० भगवती १३-३०८-३२२४ दशाभुतस्कन्धः ३३-२४९- पञ्चकल्पचूर्णिः १७४ प्रज्ञप्तिः ३१०-३२१-३२६ ३२६ २९३ पञ्चकल्पवृहद्भाष्य २३३ प्रज्ञापना ११५-२५०-२७२ भरत (सूत्र) वृत्तिः देवेन्द्रस्तवः ४४३ पञ्चवस्तु २२३-२२९-२६१ २८६-२८७-३२०-३१९ महानिशीथं ४१९ [ द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसङ्ग्रहणी ४२९ पञ्चवस्तुकम् १६६-१७१- ३२०-३२६-३३०-३३३ योगशास्त्रम् नन्दिः ४२२/ ...... २२४ ३३४-३३५-३३८-३३९ योनिप्राभृतम्:... ..१ नमस्कारवलयका १६ पश्चसवहः ३२४-३८५ ३४०-३६५-३६६-३८५- ललितविस्तरा,. . | निर्वाणकलिका ९५ पश्चाशकम् .. ४४१ . ३८७ वसुदेवचरितं निसीय 185128. पञ्चाशकवृत्तिः २१७ प्रज्ञापनामूलटीका ३२७-३३० वादमहार्णवः १७-४४८ १९१-२२९-२३२-२५४- प्रद्मप्रभचरित्रम् ४४० प्रमाणप्रकाशः१७-४४८ विपाकसूत्रं २०८ २९७-४०३ पाक्षिकवृत्तिः ४३ प्रश्नव्याकरणम् ४४६ विशेषणवती ३२४-३२६ CASCCESSEMINE Jan Education Intemani For Private Personel Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन शास्त्रनामानि ॥४६१॥ शास्त्रनाम | शासनाम शास्त्रनाम शास्त्रनाम व्यवहारचूर्णिः ४४१ सङ्ग्रहणी ४०६ सम्मतिसूत्रम् २२२-४३५ ११५ व्यवहारभाष्यम् २५१-४४२ सङ्ग्रहणीटीका ४०-३३४ सामाचारी ४४३ सूत्रकृताङ्गम् २०८-३४८ व्याख्याप्रज्ञप्तिः २१२-३८७- समवायाङ्गम् ८१-१०७- सिद्धप्राभृतम् ११२-११३ सूर्यप्रज्ञप्तिः १८०॥ ३९० १०९-१७९-४४५ ११५ स्थानाङ्गटीका ९६-१०८-२७३ | व्याख्याप्रज्ञप्तिटीका ३८७ समवायाङ्गटीका १०७-१०८- सिद्धप्रामृतटीका० ११३-११५ स्थानाङ्गम् २०८-२७३-२९० शत्रपरिज्ञा १०८-१०९-४४३ सिद्धप्राभृतटीका ११२-११३- श्रेयांसचरित्रम् १८० ४४८ ॥४६१॥ For Private & Personel Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीजिनाय नमः॥ श्रीमन्नेमिचन्द्रसूरिप्रवरनिर्मितः प्रवचनसारोद्धारः । नामिण जुगाइजिणं वोच्छं भवाणाससमहियसयं गिहिपडिक्कमाधानाणदाणं आइमगणहरपवितणमएऽवि संखा नमिऊण जुगाइजिणं वोच्छं भवाण जाणणनिमित्तं । पवयणसारुद्धारं गुरूवएसा समासेणं ॥१॥चिइवंदण वंदे-/ प्रणय पडिकमैणं पञ्चांणमुस्सग्गो । चउवीससमहियसयं गिहिपडिक्कमाइयाराणं ॥ २॥ भरहमि भूयसंपइभविस्सतित्थंक राण नामाई । एरवयंमिवि ताई जिणाण संपइभविस्साणं ॥३॥ उसहाइजिणिंदाणं आइमगणहरपवित्तिणीनामा । अरिहंतऽज्जणठीणा जिणजणणीजणयनाम गैई ॥ ४ ॥ उक्किट्ठजहण्णेहिं संखा विहरंततित्थनाहाणं । जम्मसमएऽवि संखा उक्ट्ठिजहणिया तेसिं ॥५॥ जिणगणहेर मुर्णि समैणी वेउबिय वौइ अवहि केवैलिणो । मणनीणि चउदसपुचि सैंड द सड्डीण संखा उ ॥ ६ ॥ जिणजखा देवीओ त]माणं लंछणाणि वन्ना य । वयपरिवारो सबाउँयं च सिवगमणपरिवारो। ॥७॥ निवाणगमणठाणं जिणंतरौई च तित्थर्बुच्छेओ । दसै चुलसी वा औंसायणाउ तह पौडिहेराई ॥८॥ चउतीसाइसैंयाणं दोसा अट्ठारसारिहर्चउक्कं । निक्रमणे णिमि य निवाणमि य जिणाणे तवो ॥९॥ भाविजिणेसरँजीवा संखा Jan Edan in For Private Personel Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रे OCARECHNO प्रवचन । उहाहतिरियसिद्धाणं । तह एक्कसमयसिद्धाण ते य पन्नरसभेएहिं ॥ १०॥ अवगाहणाय सिद्धा उक्किट्ठजहन्नमज्झिमाए द्वारगाथाः य। गिहिलिंगअन्नलिंगस्सलिंगसिद्धाणे संखा उ ॥ ११॥ बत्तीसाई सिझंति अविरयं जाव अट्ठअहियसयं । अट्ठसमएहिं । द एक्केणं जावेकसमयंतं ॥ १२॥ थीवेए पुंवेए नपुंसए सिझमाणपरिसंखा । सिद्धाणं संठीणं अवठिइठाणं च सिद्धाणं ॥४६२॥ ॥१३॥ अवगाहणा य तेसि उक्कोसे मज्झिमा जहन्नी य । नामाइ चउण्हपि हु सासयजिणाहपडिमाणं ॥ १४॥ उव-1 गरणाणं संखा जिणांण थविराण साहुणीणं च । जिणकप्पियाण संखा उक्किट्ठा एगवसहीए ॥ १५ ॥ छत्तीसं सूरिगुणा विणओ बावन्नभेयपंडिभिन्नो।चरणं करणं जंघाविजाचारणगमणसत्ती ॥ १६ ॥ परिहारविसुद्धि अहाँलंदा निजामयाण| अडयाला । पणवीस भावणाओ सुहाँउ असुहाउँ पणवीसं ॥ १७ ॥ संखा महङ्घयाणं किइकम्माण य दिणे तहा खित्ते ।। चारितणं संखा ठियकैप्पो अठियकैप्पो य ॥ १८ ॥ चेइये पुत्थय दंडय तणं चम्मै दुसाइ पंच पत्तेयं । पंच अवग्गहभेया परीसहा मंडली सत्त ॥ १९ ॥ दैसठाणववच्छेओ खंगस्सेढी य उँवसमस्सेढी । थंडिल्लाण सहस्सो अहिओ चैउसहिय वीसाए ॥ २०॥ पुवाणं नामाई पयसंखासंजुयाई उदसवि । निग्गंथा सैमणावि य पत्तेयं पंचं पंचेव ॥ २१॥ गासेसप्रणोण पणगं पिंडे पाणे य एसौँ सत्त । भिक्खारिया वीहीणमट्ठगं पायछित्ताणं ॥ २२॥ सोमायारी ओहंमि पयविभी गंमि तह य देसहा उ (चक्कवालंमि)। निग्गंधत्तं जीवस्स पंचवाराओ भंववासे ॥ २३ ॥ साहुविहारसरूवं अप्पडिबद्धो य सो विहेयव्यो । जायाअंजायकप्पो परिठवणुच्चारकरणदिसा ॥ २४ ॥ अट्ठारस पुरिसेसुं वीसं इत्थीसु दस 'नपुंसेसुं । ॥४६२॥ पवावणाअणरिहा तह वियलंगसरूंवा य ॥ २५ ॥ जंमुल्लं जईकप्पं वत्थं सेजायरेस्स पिंडो य । जत्तिय सुत्ते सम्म जह OGORicon.de Jan Education Internal For Private Personel Use Only www.ainelibrary.org Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गंथावि चैउगइया ॥ २६ ॥ खित्ते मैंगे काले तहा पैमाणे अईयमकप्पं । दुहेमुंहंसेज्जचक्क तेरस किरियाण ठणाई ॥ २७ ॥ एगंमि बहुभवेसु य आगरिसा चउबिहेऽवि सोमइए । सीलिंगाणऽडारस हँस्स नयसत्तगं चैव ॥ २८ ॥ वेत्थ गहणविहाणं हारा पंच तह अहाजायं । निसिजागरणमि विही आलोयणदाययऽन्नेसा ॥ २९ ॥ गुरुपमुहाणं कीरइ असुद्धसुद्धेहिं जत्तियं कालं । उवहीधोयणकालो भोयणभाया वैसहिसुद्धी ॥ ३० ॥ संलेहणा दुबलस वरिसे वसहेण वसहिसंग्रहणं । उसिणस्स फाँसुयस्सवि जलस्स सच्चित्तयाकालो ॥ ३१ ॥ तिरिइत्थीओ तिरियाण माणवीओ नराण देवीओ | देवाण जग्गुणाओ जत्तियमेत्तेण अहियाओ ॥ ३२ ॥ अच्छेयाण दसगं चउरो भासा उवयंणसोलसगं । मीसाण पंच भेया भेया वरिसाण पंचेव ॥ ३३ ॥ लोगसरूवं सन्नाओ तिन्नि चेंडेरो व देस व पॅनॅरस । तह सत्तसट्ठिलक्खणभे अविसुद्धं च सम्मत्तं ॥ ३४ ॥ एगविह दुविह तिविहं चउहा पंचविह दसविहं सम्मं । दबाइकारगाईज्वसमभेएहिं वा सम्मं ॥ ३५ ॥ कुलकोडीणं संखा जीवाणं जोणिलक्ख चुलसीई । तेक्कालाई वित्तत्थविवरण सङ्कुपडिमाउ ॥ ३६ ॥ धन्नाणमबीयत्तं खेत्ताईयाण तह अचित्तत्तं । धन्नाई चडवीसं मरणं सत्तरसमेयं च ॥ ३७ ॥ पलिओम अयरऽवसंप्पिणीण उस्सप्पिणीणवि संवं । दबे खेत्ते काले भावे पोलपरावो ॥ ३८ ॥ पन्नरस कम्मभूमी अकम्मभूमीउ तीस | अट्ठ मैया । दोन्नि सया तेयाला भेया पमिइवायस्स ॥ ३९ ॥ परिणामाणं अट्ठोरेंसयं बंभमट्ठदसभेयं । कामाण - बीसा दस पणा दस य कॅप्पदुमा ॥ ४० ॥ नरया नेरइयाणं वासा वेयाऽऽणुर्माणं । उप्पत्तिनासविरहो लेसाऽवहि * परमहम्मा य ॥ ४१ ॥ नरयुबट्टाणं लद्धिसंभवो तेसु जेसि उवाओं । संखा उपजंताण तह य उद्यमाणाणं ॥ ४२ ॥ 4xxxy Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥४६ ॥ COACHAR कायठिई भवठिइओ एगिदियविगलसन्निजीवाणं । तेणुमाणमेसि इंदियसरूवविसया य लेसाओ ॥४३॥ ऐयाणं जत्थद्वारगाथाः गई जत्तो ठाणेहि ऑगई एसिं। उप्पत्तिमरणविरहो जायंतमरंतसंखा य ॥४४॥ भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणवासिदेवाणं । ठिई भवेण देहाणं लेसोओ ओहिनाणं च ॥ ४५ ॥ उप्पत्तीए तहुवट्टणाय विरहो इमाण संखी य । जम्मि य एयाण गई जत्तो वा आगई एसिं ॥ ४६॥ विरहो सिद्धिगईए जीवाणाहारगहणऊसासा । तिन्नि सया तेसट्ठा सिंडीणऽट य माँया ॥४७॥ भैरहाहिवा हेलेहरा "हरिणो पडिवासुदेवरायाणो । रयणाइ चेउद्दस नव निही तह जीवसंखाँओ॥४८॥ कम्माई अद्वै तेसिं उत्तरपयडीण अट्ठवन्नसयं । बंधोदयाणुदीरणसत्ताण य किंपि हु सरूवं ॥४९॥ कम्मडिइ साबाहा बायालीसा उ पुण्णपयडीओ । बासी य पविपयडीओं भीवछक्कं सपडिभेयं ॥ ५० ॥ जीवाण अजीवाण य गुणाण तह मग्गणाण पत्तेयं । चउदसगं उर्वओगा बारस जोगा य पण्णरस ॥५१॥ परलोगगई गुणठाणएसु तह | ताण कालपरिमाणं । नरयतिरिनरसुराणं उक्कोसविउवणाकालो ॥५२॥ सत्तेव समुग्धाया छप्पजत्तीऽणहारया चउरो। सत्त भट्ठाणाई छब्भासा अप्पसत्थाओ॥ ५३॥ भंगा गिहिवयाणं अट्ठारस पावठाणगाइपि । मुणिगुण सत्ताबीसा इगवीसा सावयगुणाणं ॥ ५४ ॥ तेरिच्छीणुक्किट्ठा गभठिई तह य सा मणुस्सीणं । गब्भस्स य कायठिई गब्भट्ठियजीवआहारो ॥ ५५॥ रिउरुहिरसुक्कजोए जत्तियकालेण गेभसंभूई। जत्तिय पुत्ता गम्भे जत्तिय पियरो य पुतस्स ॥ ५६ ॥ महिला गम्भअजोगा जेत्तियकालेणऽबीयओ पुरिसो । सुक्काईण सरीरट्ठियाण सबाण परिमाणं ॥ ५७ ॥ सम्मत्ताईणुत्तमगुणाण लाइंतरं जमुक्कोसं । न लहंति माणुसत्तं सत्ता जेऽणंतरुबट्टों ॥ ५८ ॥ पुवंगपरीमाणं माणं पुस्स लवणसि ॥४६३ Jan Education Intematonal For Private sPersonal use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECC+ व पायालकलस 1 हमाणं । उस्सेहआयअंगुलपमाणअंगुलपोणाई ॥ ५९॥ तमकायेसरूवमणतर्छक्कगं अट्ठगं निमित्ताणं । माणुम्मणपमाणं अट्ठारस भक्खभोजाई ॥ ६०॥ छट्ठाणबुडिहाणी अवहरिउं जाइ नेव तीरंति । अंतरदीवा जीवाजीवाणं अप्पबहुयं च || in ६१ ॥ संखा निस्सेसजुगप्पहाणसूरीण वीरजिणतित्थे । ओसप्पिणिअन्तिमजिणतित्थअविच्छेयमाणं च ॥ १२॥ देवाणं पवियारो सरूवमट्ठण्ह कण्हराईणं । सज्झायस्स अकरणं नंदीसरदीवठिइभणणं ॥ ६३ ॥ लद्धीओ तव पायालकलस आहारगरसरूवं च । देसा अारिया ऑरिया य सिद्धेगतीसगुणा ॥ ६४॥ तेसट्ठीदारगाहाओ ॥ समयसमुद्धरियाणं आसत्थसमत्तिमेसि दाराणं । नामुक्कित्तणपुवा तबिसयवियारणा नेया॥६५॥ [सोलस पुण आगारा दोसा एगूणवीस उस्सग्गे। छच्चिय निमित्त हुंति य पंचेव य हेयवो भणिया ॥१॥ |अहिगारा पुण बारस दंडा पंचेव होंति नायबा। तिन्नेव वंदणिजा थुइओ पुण होंति चत्तारि ॥२॥ तिन्निनिसीहीएमाइ तीस तह संपयाओं सत्तणऊ । चियवंदणंमि नेयं सत्तणऊसयं तु ठाणाणं ॥३॥ अगणीओ छिंदिज व बोहीखोहाइ दीहडक्को वा । इय एवमाइएहिं अब्भग्गो होज उस्सग्गो ॥४॥] तिन्नि निसीहिय तिन्नि य पयाहिणा तिन्नि चेव य पणामा । तिविहा पूँया य तहा अवत्थतियभावणं चेव ॥६६॥ तिदिसिनिरिखणविरई तिविहं भूमीपमजणं चेव । वनाइतियं मुद्दो|तियं च तिविहं च पणिहाणं ॥६७॥ इय दहतियसंजुत्तं वंदणयं जो जिणाण तिक्कालं । कुणइ नरो उवउत्तो सो पावइ निजरं | विउलं ॥६८॥ घरजिणहरजिणपूयावावारच्चायओ निसीहितिगं । पुष्फक्खयत्थुईहिं तिविहा पूया मुणेयवा ॥६९॥ होइ छउम (१) अव्याख्याता अननुमताः सोपयोगाश्च गाथा एताः लिखितेष्वादशेष्वदृष्टा अपि मुद्रिते दृष्टा इत्यत्र न्यस्ताः. 445CARROCE%AC% गरा दोसा एगणवा तविसयवियारणा नेया॥६॥ तेसट्ठीदारगाहाओ CCC Jan Education Intematonal For Private Personel Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १चैत्यवन्दनम् सूत्रे प्रवचन थकेवैलिसिद्धत्तेहिं जिणे अवत्थतिगं। वेण्णत्थाऽऽलंबणओ वण्णाइतियं वियाणिज्जा ॥७॥ जिणमुद्दा जोगमुद्दा मुत्तासुत्ती उ तिन्नि मुद्दाओ । कायमणोवयणनिरोहणं च तिविहं च पणिहाणं ॥७१॥ पंचंगो पणिवाओ थयपाढो होइ जोगमुद्दाए। वंदण जिणमुद्दाए पणिहाणं मुत्तसुत्तीए ॥७२॥ दो जाणू दुन्नि करा पंचमग होइ उत्तमंगं तु । संमं संपणिवाओ नेओ पंच॥४६४॥ गपणिवाओ॥७३॥ अन्नोऽनंतरअंगुलि कोसागारेहिं दोहिं हत्थेहिं । पेट्टोवरिकुप्परसंठिएहिं तह जोगमुद्दत्ति ॥७४॥ चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाई जत्थ पच्छिमओ। पायाणं उस्सग्गे एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥७५॥ मुत्तासुत्तीमुद्दा समा जहिं दोवि गम्भिया हत्था । ते पुण निलाडदेसे लग्गा अण्णे अलग्गत्ति॥७६॥ दाहिणवामंगठिओ नरनारिगणोऽभिवंदए देवे । उकिट्ठ सद्विहत्थुग्गहे जहन्नेण करनवगे ॥ ७७ ॥ अट्ठट्टनवट्ठ य अट्टवीस सोलस य वीस वीसामा। मंगलइरियावहिया सक्कत्थयपमुहदंडेसु ॥ ७७ ॥ पंचपरमेट्ठिमंते पए पए सत्त संपया कमसो। पजन्तसत्तरक्खरपरिमाणा अट्ठमी भणिआ॥७९॥ इच्छ १ गम २ पाण३ ओसा ४ जे मे ५ एगिदि ६ अभिहया ७ तस्स ८ । इरियाविस्सामेसुं पढमपया हुंति दट्टवा ॥८॥ अरिहं १ आइग २ पुरिसो ३ लोगोऽ ४ भय ५ धम्म ६ अप्प ७ जिण ८ सवा ९ । सक्कथयसंपयाणं पढमुलिंगणपया नेया ॥८१॥ अरिहं १ वंदण २ सद्धा ३ अण्णत्थू ४ सुहुम ५ एव ६ जा ७ ताव ८ । अरिहंतचेइयथए विस्सामाणं दापया पढमा ॥ ८२॥ अट्ठावीसा सोलस वीसा य जहक्कमेण निहिट्ठा । नामजिणट्ठवणाइसु वीसामा पायमाणेणं ॥ ८३ ॥ दुण्णेगं दुण्णि ढुंगं पंचेवे कमेण हुँति अहिगारा । सक्कत्थयाइसु इहं थोयबविसेसविसया उ ॥ ८४॥ पढमं नमोऽत्थु १ जे अइयसिद्ध २ अरहंतचेइयाणंति ३ । लोगस्स ४ सबलोए ५ पुक्खर ६ तमतिमिर ७ सिद्धाणं ८॥८५॥ SHRSCIRCRACTERGAMANNAROO ॥४६४॥ For Private & Personel Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो देवाणवि ९ उजिंतसेल १० चत्तारि अट्ठ दस दो य ११ । वेयावच्चगराण य १२ अहिगारुलिंगणपयाई ॥८६॥ | पढमे छडे नवमे दसमे एक्कारसे य भावजिणे । तइयंमि पंचमंमि य ठवणजिणे सत्तमे नाणं ॥ ८७॥ अट्ठमबीयचउत्थेसु सिद्धदबारिहंतनामजिणे । वेयावच्चगरसुरे सरेमि बारसमअहिगारे ॥ ८८॥ साहूण सत्त वारा होइ अहोरत्तमज्झयारंमि । गिहिणो पुण चिइवंदण तिय पंच य सत्त वा वारा ॥८९॥ पडिकमणे चेइहरे भोयणसमयंमि तह य संवरणे । पडिकमणे सुर्यण पडिवोहंकालियं सत्तहा जइणो ॥ ९॥ पडिकमओ गिहिणोवि हु सत्तविहं पंचहा उ इयरस्स । होइ जहण्णेण पुणो तीसुवि संझासु इय तिविहं ॥९१॥ नवकारेण जहन्ना दंडकथुइजुयल मज्झिमा नेया। उक्कोसा विहिपुवगसक्कथय|पंचनिम्माया ॥९२॥१द्वारम् ॥ मुहणतयदेहीऽऽवस्सएसु पणवीस हंति पत्तेयं । छट्ठाणा छच्च गुणा छच्चेव हवंति गुरुवर्यणा ॥ ९३ ॥ अहिगारिणो |य पंच य इयरे पंचेवे पंच पडिसेहो। एकोऽवग्गह पंचाभिहाणे पंचेव आहरणा ॥ ९४ ॥ आसायण तेत्तीसं दोसी बत्तीस कारणा अट्ठ । बाणउयसयं ठाणाण वंदणे होइ नायचं ॥ ९५॥ दिद्विपडिलेहणेगा नव अक्खोडा नवेव पक्खोडा। पुरिमिल्ला छच्च भवे मुहपुत्ती होइ पणवीसा ॥ ९६ ॥ बाहूसिरमुहहियये पाएसु अ हुंति तिन्नि पत्तेयं । पिट्ठीइ हुंति चउरो . | एसा पुण देहपणवीसा ॥१७॥दुओणयं अहाजायं, किइकम्मं बारसावयं। चउँस्सिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥९॥ इच्छा य अणुण्णवणा अबाबाहं च जत्त जवणा य । अवराहखामणावि य छट्ठाणा हुंति वंदणए ॥ ९९ ॥ विणओवयार माणस्स भंजणा पूअणा गुरुजणस्स । तित्थयराण य आणा सुयधम्मोराहणाऽकिरिया ॥१०॥ छंदेणऽणुजाणामि तहत्ति मनकामना पंचाभिहाणे पंचव पडिलेहणेगा नव अक्षय । पिट्टीइ हुंति चाहा For Private & Personel Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे २ वन्दनकम् ॥४६५॥ तुभपि वट्टए ऐवं । अहमवि खामेमि तुमे वयणाई वंदणरिहस्स ॥१०१॥ आयरिय उवज्झाए पवत्ति थेरे तहेव रायणिऍ। एएसि किइकम्मं कायचं निजरट्ठाए ॥ १०२॥ पासत्थो १ ओसन्नो २ होइ कुसीलो ३ तहेव संसत्तो ४ । | अहछंदोवि अ एए अवंदणिज्जा जिणमयंमि ॥ १०३ ॥ सो पासत्थो दुविहो सके देसे य होइ नायबो। सर्वमि नाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ॥१०४॥ देसंमि य पासत्थो सेजायरऽभिहडरायपिण्डं च । नीयं च अग्गपिण्डं भुंजइ निक्कारणे चेव ॥१०५॥ ओसन्नोवि य दुविहो सके देसे य तत्थ सर्वमि । अवबद्धपीढफलगो ठवियगभोई य नायवो ॥ १०६॥8 | आवस्सयसज्झाए पडिलेहणभिक्खझाणभत्तट्टे । आगमणे निग्गमणे ठाणे य निसीयणतुयट्टे ॥ १०७॥ आवस्सयाइयाई न करेइ अहवा बिहीणमहियाई । गुरुवयणवला य तहा भणिओ देसावसन्नोत्ति ॥ १०८॥ तिविहो होइ कुसीलो नाणे तह दसणे चरित्ते य । एसो अवंदणिज्जो पन्नत्तो वीयरागेहिं ॥ १०९॥ नाणे नाणायारं जो उ विराहेइ कालमाईयं ।। दसण दंसणयारं चरणकुसीलो इमो होइ ॥११०॥ कोउय भूईकम्मे पसिणापैसिणे निमित्तमाजीवी । कक्ककरुयाई लक्षण उवजीवइ विज्जमंताई ॥१११॥ सोहग्गाइनिमित्तं परेसि ण्हवणाइ कोउयं भणियं । जरियाइभूइदाणं भूईकम्मं विणिद्दिढं ॥ ११२ ॥ सुविणगविजाकहियं आईखणघंटियाइकहणं वा । सासइ अन्नेसिं पसिणापसिणं हवइ एयं ॥ ११३॥ तीयाइभावकहणं होइ निमित्तं इमं तु आजीवं । जाइकुलसिप्पकम्मे तवगणसुत्ताइ सत्तविहं ॥ ११४ ॥ कक्ककुरुया य माया नियडीए डंभणंति जं भणियं । थीलक्खणाइ लक्खण विजामताइया पयडा ॥ ११५ ॥ संसत्तो उ इयाणि सो पुण गोभत्तलंदए चेव । उच्छिट्ठमणुच्छिद्रं जं किंचिच्छुब्भए सबं ॥११६॥ एमेव य मूलुत्तरदोसा य गुणा य जत्तिया केई।18 ॥४६५॥ Jan Education International For Private Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए तम्हा ॥११७॥ सातो जो खलु तिहि गतिहिं तारिस ते तंमी(मिय) सन्निहिया संसत्तो भण्णए तम्हा ॥११७॥ सो दुविगप्पो भणिओ जिणेहिँ जियरागदोसमोहेहिं । एगोउ संकिलिट्ठो असंकिलिट्ठो तहा अन्नो ॥ ११८ ॥ पंचासवप्पसत्तो जो खलु तिहिं गारवेहिं पडिबद्धो । इस्थिगिहिसंकिलिट्ठो संसत्तो संकिलिट्ठो उ ॥ ११९॥ पासत्थाईएसुं संविग्गेसुं च जत्थ मिलई उ । तहिं तारिसओ होई पियधम्मो अहव | इयरो उ ॥ १२०॥ उस्सुत्तमायरंतो उस्सुत्तं चेव पन्नवेमाणो। एसो उ अहाछंदो इच्छाछंदोत्ति एगट्ठा ॥ १२१॥ | उस्सुत्तमणुवइटुं सच्छंदविगप्पियं अणणुवाई । परतत्तिपवत्ती तितिणो य इणमो अहाच्छंदो ॥१२२॥ सच्छंदमइविगप्पिय किंची सुहसायविगइपडिबद्धो । तिहिं गारवेहिं मजइ तं जाणाही अहाछंदं ॥ १२३ ॥ वक्खित्तपराहुत्ते पैमत्ते मा कयाइ8 वंदिज्जा । आहारं व करिते नीहारं वा जइ करेइ ॥ १२४ ॥ पसंते आसणत्थे य, उवसंते उवट्ठिए । अणुन्नवित्तु मेहावी, | किइकम्म पउंजए ॥१२५॥ आयप्पमाणमित्तो चउदिसिं होइ उग्गहो गुरुणो । अणणुन्नायस्स सया न कप्पए तत्थ पविसेउं ॥ १२६ ॥ वंदणचिइंकिइकम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । वंदणयस्स इमाई हवंति नामाई पंचेव ॥ १२७॥ सीयले १ खुड्डए २ कण्हे ३, सेवए ४ पालए ५ तहा । पंचेए दिटुंता, किइकम्मे हुंति नायबा ॥ १२८ ॥ पुरओ, पक्खासन्ने गंताचिगुणनिसीयणायमणे । आलोयणऽपडिसुणणे पुवालवणे य आलोए ॥ १२९ ॥ तह उवदंस निमंतण खद्धाइयणे तहा अपडिसुणणे। खद्धत्ति य तत्थगए कि तुम ताय नोसुमणे ॥१३० ॥ नो सरंसि हंक छित्तों परिसं भित्ता अणुट्टियाइ कहे । संथारपायर्घट्टण चिट्ठोच्चसमासणे यावि ॥१३१॥ पुरओ अग्गपएसे पक्खे पासंमि पच्छ आसन्ने । गमणेण तिन्नि ठाणेण तिन्नि तिण्णि य निसीयणए ॥१३२॥ विणयभंसाइगदूसणाउ आसायणाओ Jan Education International Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ४६६ ॥ नव एया। सेहस्स वियारगमे रायणिय पुवमायमणे ॥ १३३ ॥ पुढं गमणागमणालोए सेहस्स आगयस्स तओ । राओ सुत्तेसु जागरस्स गुरुभणियऽपडिसुणणा ॥ १३४ ॥ आलवणाए अरिहं पुत्रं सेहस्स आलवेंतस्स । रायणियाओ एसा तेरसमाssसायणा होइ ॥ १३५ ॥ असणाईयं लद्धं पुषिं सेहे तओ य रायणिए । आलोए चउदसमी एवं उवदंसणे नवरं ॥ १३६ ॥ एवं निमंतणेऽवि य लद्धुं रयणाहिगेण तह सद्धिं । असणाइ अपुच्छाए खर्द्धति बहुं द ंतस्स ॥ १३७ ॥ संगहगाहाए जो न खद्धसद्दो निरूविओ वीसुं । तं खद्धाइयणपए खद्धत्ति विभज्ज जोएज्जा ॥ १३८ ॥ एवं खद्धाइयणे खद्धं बहुयंति अयणमसणंति । आईसद्दा डायं होइ पुणो दत्तसागं तं ॥ १३९ ॥ वन्नाइजुयं उसढं रसियं पुण दाडिमंबगाईयं । मणईङ्कं तु मणुण्णं मन्नइ मणसा मणामं तं ॥ १४० ॥ निद्धं नेहवगाढं रुक्खं पुण नेहवज्जियं जाण । एवं अप्पडिसुणणे |नवरिमिणं दिवसविसयंमि ॥ १४१ ॥ खर्द्धति बहु भणते खरकक्कसगुरुसरेण रायणियं । आसायणा उ सेहे तत्थ गए होइमा चण्णा ॥ १४२ ॥ सेहो गुरुणा भणिओ तत्थ गओ सुणइ देइ उल्लावं । एवं किंति च भणई न मत्थएणं तु | वंदामि ॥ १४३ ॥ एवं तुमंति भणई कोऽसि तुमं मज्झ चोयणाए उ ? । एवं तज्जाएणं पडिभणणाऽऽसायणा सेहे ॥ १४४ ॥ अज्जो ! किं न गिलाणं पडिजग्गसि पडिभणाइ किं न तुमं ? । रायणिए य कहते कहं च एवं असुमणत्ते ॥ १४५ ॥ एवं नो सरसि तुमं एसो अत्थो न होइ एवंति । एवं कहमच्छिंदिय सयमेव कहेउमारभइ ॥ १४६ ॥ तह परिसं चिय भिंदइ तह किंची भणइ जह न सा मिलइ । ताए अणुट्टियाए गुरुभणिअ सवित्थरं भणइ ॥ १४७ ॥ सेज्जं संथारं वा गुरुणो संघट्टिऊण पाएहिं । खामेइ न जो सेहो एसा आसायणा तस्स ॥ १४८ ॥ गुरुसेज्जासंथारगचिट्ठणनिसियणतुयट्टणेऽहऽवरा । २ वन्दन कम् ॥ ४६६ ॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥४६८॥ हि व घरेहि भिक्खाहिं अहव दबेहिं । जो भत्तपरिच्चायं करेइ परिमाणकडॅमेयं ॥ १९७॥ सर्व असणं सबं च पाणगंटा ४ प्रत्याखाइमंपि सबंपि । वोसिरइ साइमंपि हु सब जं निरवसेसं तं ॥१९८॥ केयं गिहंति सह तेण जे उ तेसिं इमं तु साकेयं ।। ख्यानं अहवा केयं चिंधं सकेयमेवाहु साकेयं ॥१९९ ॥ अंगुट्ठी गठि मुट्ठी घरसेयुस्सासथिबुगजोइक्खे । पञ्चक्खाणविचाले |किच्चमिणमभिग्गहेसुवि य ॥२०॥ अद्धा कालो तस्स य पमाणमद्धं तु जं भवे तमिह । अद्धापच्चक्खाणं दसमं तं पण इमं भणियं ॥ २०१॥ नवकारपोरिसीए पुरिमड्ढेकासणेगठाणे य । आयंबिलऽभत्तढे चरिमे य अभिग्गेहे विगई॥२०२॥17 दो चेव नमोक्कारे आगारा छच्च पोरसीए उ । सत्तेव य पुरिमड्डे एक्कासणगंमि अद्वैव ॥ २०३ ॥ सत्तेगट्ठाणस्स उ अद्वेव |य अंबिलंमि आगारा । पंचेव अब्भत्तढे छप्पाणे चरिम चत्तारि ॥२०४॥ पंच चउरो अभिग्गहि निविइए अढ नव या आगारा । अप्पाउरणे पंच उ हवंति सेसेसु चत्तारि ॥ २०५॥ नवणीओगाहिमगे अद्दवदहि पिसियघयगुडे चेव । नव आगारा एसि सेसदवाणं च अद्वेव ॥ २०६ ॥ असणं ओयण सत्थुगमुग्गजगाराइ खज्जगविही य । खीराइ सुरणाई मंडगपभिई य विन्नेयं ॥ २९७ ॥ पाणं सोवीरजवोदगाइ चित्तं सुराइयं चेव । आउकाओ सबो कक्कडगजलाइयं च तहा ॥२०८ ॥ भत्तोसं दंताई खज्जूरगनालिकेरदक्खाई । कक्कडिअंबगफणसाइ बहुविहं खाइम नेयं ॥ २०९॥ दंतवणं तंबोल चित्तं तुलसीकुहेडगाईयं । महुपिप्पलिसुंठाई अणेगहा साइमं नेयं ॥ २१० ॥ पाणंमि सरयविगई खाइम पक्कन्नअंसओ भणिओ। साइमि गुलमहुविगई सेसाओ सत्त असणंमि ॥२११॥ फासियं पालियं चेव, सोहियं तीरियं तहा । कित्ति- ॥४६८॥ येमाराहियं चेव, जएज्जा एरिसम्मि उ ॥ २१२ ॥ उचिए काले विहिणा पत्तं जं फासियं तयं भणियं । तह पालियं च Jan Education International For Private Personel Use Only www.ainelibrary.org Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :- Settiti-2 वंदणयसुत्तं च ॥ १८१॥ सुत्तं अब्भुट्ठाणं उस्सग्गो पुत्तिवंदणं तह य । पजंते खामणयं एस विही पक्खिपडिकमणे ॥ १८२॥ चत्तारि दो दुवालस वीसं चत्ती य हुंति उज्जोया । देसिय राइय पक्खिये चाउम्मासे य वरिसे य ॥ १८३ ॥ पणवीस २५ अद्धतेरस १२३ सलोग पन्नत्तरी ७५ य बोद्धबा । सयमेगं पणवीसं १२५ वे बावण्णा य २५२ वरिसंमि ॥ १८४ ॥ सय सयं गोसद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खंमि । पंच य चाउम्मासे वरिसे अट्ठोत्तरसहस्सा ॥ १८५ ॥ देवसियचाउमासियसंवच्छरिएसु पडिक्कमणमझे । मुणिणो खामिजंति तिन्नि तहा पंच सत्त कमा ॥ १८६ ॥ ३ द्वारम् ॥ भावि अईयं कोडीसहियं च नियंटियं च सौगारं। विगयागारं परिमाणवं निरवसेसमट्ठमयं ॥ १८७॥ साकेयं च तहऽद्धा, पच्चक्खाणं च दसमयं । संकेयं अट्ठहा होइ, अद्धायं दसहा भवे ॥ १८८ ॥ होही पज्जोसवणा तत्थ य न तवो हवेज काउं मे । गुरुगणगिलाणसिक्खगतवस्सिकज्जाउलत्तेण ॥ १८९॥ इअ चिंतिअ पुषं जो कुणइ तवं तं अणागयं विति । तमइक्वंतं तेणेव हेउणा तवइ जं उडे ॥ १९० ॥ गोसे अब्भत्तटुं जो काउं तं कुणइ बीयगोसेऽवि । इय कोडी दुगमिलणे कोडीसहियं तु नामेणं ॥ १९१॥ हटेण गिलाणेण व अमुगतवो अमुगदिणंमि नियमेणं । कायबोत्ति नियं|टियपच्चखाणं जिणा बिंति ॥ १९२॥ चउदसपुविसु जिणकप्पिएसु पढमंमि चेव संघयणे । एयं वोच्छिन्नं चिय थेरावि तया करेसी य ॥१९३॥ महतरयागाराईआगारेहिं जुयं तु सागारं । आगारविरहियं पुण भणियमणागीरनामेति ॥१९४॥ किंतु अणाभोगो इह सहसागारो अ दुन्नि भणिअबा । जेण तिणाइ खिविजा मुहंमि निवडिज वा वाहवि ॥ १९५॥ | इय कयआगारदुगंपि सेसआगाररहिअमणगारं । दुन्भिक्खवित्तिकंतारगाढरोगाइए कुजा ॥ १९६ ॥ दत्तीहि व कवले-|| - %eo Jan Education Intematonal For Private sPersonal use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ACHECK मणम ॥४६७॥ एयं । सीसंगुलिमाईहि य तजेइ गुरुं पणिवेयंतो ॥१६६ ॥ वीसंभट्ठाणमिणं सब्भावजढे सढं भवइ एयं । कवडंति कइ- ३ प्रतिक्रयवंति य सढयावि य हुंति एगछौं ॥ १६७ ॥ गणिवायगजिठजत्ति हीलिउं किं तुमे पणमिऊण ? । दरवंदियंमिवि कह। करेइ पलिउंचियं एयं ॥ १६८॥ अंतरिओ तमसे वा न वंदई वंदई उ दीसंतो। एयं दिट्ठमंदिट्ठ सिंगं पुण मुद्धपांसेहिं | ॥१६९ ॥ करमिव मन्नइ दिंतो वंदणयं आरहंतियकरोत्ति । लोइयकराउ मुक्का न मुच्चिमो वंदणकरस्स ॥१७०॥ आलि-16 द्धमणालिद्धं रयहरणसिरेहिं होइ चउँभंगो । वयणक्खरेहिं ऊणं जहन्नकालेवि सेसेहिं ॥ १७१ ॥ दाऊण बंदणं मत्थएण वंदामि चूलिया एसौ । मूयब सदरहिओ जं वंदइ मूयगं तं तु ॥ १७२ ॥ ढड्डरसरेण जो पुण सुत्तं घोसेइ ढड्डरं तमिह ।। चुडलिं व गिण्हिऊणं रयहरणं होइ चुंडलिं तु ॥ १७३ ॥ पडिकमणे सज्झाए काउस्सग्गेऽवराहपाहुणए । आलोयणसंवरणे उत्तमढे य वंदणयं ॥ १७४ ॥२ द्वारम् ॥ चिइवंदण उस्सग्गो पोत्तियपडिलेह वंदणालोए। सुत्तं वंदण खामण वंदणय चरित्तउस्सग्गो ॥१७५॥ दसणनागुस्सग्गो सुयदेवयखेत्तदेवयाणं च । पुत्तियवंदण थुइतिय सक्कथय थोत्त देवसियं ॥ १७६ ॥ मिच्छादुक्कड पणिवापदंडयं काउसग्गतियकरणं । पुत्तिय वंदण आलोय सुत्त बंदणय खामणयं ॥ १७७॥ वंदणयं गाहातियपाढो छम्मासियस्स | उस्सग्गो। पुत्तिय वंदण नियमो थुइतिय चिइवंदणा राओ॥ १७८ ॥ णवरं पढमो चरणे दंसणसुद्धीय बीय उस्सग्गो। | सुअनाणस्स तईओ नवरं चिंतेइ तत्थ इमं ॥१७९॥ (सयणा०) तइए निसाइयारं चिंतइ चरिमंमि किं तवं काहं ? । छम्मासा ॥४६७॥ एगदिणाइ हाणि जा पोरिसि नमो वा ॥ १८०॥ मुहपोत्तीवंदणयं संबुद्धाखामणं तहालोए। वंदण पत्तेयं खामणाणि A SEX. in Education Intemanal For Private Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMECHAALIK गुरुउच्चसमासणचिट्ठणाइकरणेण दो चरिमा ॥ १४९ ॥ अाढियं च थेद्धं च, पविद्धं परिपिंडियं । टोलगेइ अंकुसं चेव, || तहा कच्छवरिंगियं ॥१५०॥ मच्छुबत्तं मणसा पढें तह य वेइयांबद्धं । भयसा चेव भयंतं मित्ती गौरव कारणों ॥१५॥ तेणियं पडिणीयं च, सुटुं तजियमेव य । सहूं च हीलियं चेव, तहा विपलिउंचियं ॥ १५२ ॥ दिट्ठमदिटुं च तहा, सिंग |च कर मोर्यणं । आलिट्ठमणालिटुं, ॐणं उत्तरचूंलियं ॥ १५३ ॥ यं च ढड्डरं चेव, चुड्डुलियं च अपच्छिमं । बत्तीसदोसपरिसुद्धं, किइकम्मं पउंजए ॥ १५४ ॥ आयरकरणं आढा तविवरीयं अणाढियं होई । दवे भावे थद्धो चउभंगो दबओ भईओ ॥१५५॥ पविद्धमणुवयारं जं अप्पिंतो णिजंतिओ होइ । जत्थ व तत्थ व उज्झइ कियकिच्चोवक्खरं चेव ॥१५६॥ | संपिडिए व वंदइ परिपिंडियवयणकरणओ वावि। टोलोब उप्फिडतो ओसक्कहिसक्कणे कुणई ॥ १५७॥ उवगरणे हत्थंमि | व घेत्तु निवेसेइ अंकुसं बिति । ठिउविट्ठरिंगणं जं तं कच्छवरिंगियं जाण ॥ १५८ ॥ उढितनिवेसिंतो उच्चत्तइ मच्छउव | जलमज्झे । वंदिउकामो वऽन्नं झसो व परियत्तएँ तुरियं ॥ १५९ ॥ अप्पपरपत्तिएणं मणप्पेओसो य वेड्यापर्णगं । तं पुण | जाणूवरि १ जाणुहिट्ठाओ २ जाणुबाहिं ३ वा ॥ १६० ॥ कुणइ करे जाणुं वा एगयरं ठवइ करजुयलमज्झे ४ । उच्छंगे| करइ करे ५ भयं तु नितहणाईयं ॥१६॥ भयइ व भयिस्सइत्ति य इअ वंदइ होरयं निवेसंतो। एमेव य मित्तीएं गारव से सिखाविणीओऽहं ॥१६२॥ नाणाइतिगं मोत्तुं कारणमिहलोयसाहयं होइ । पूयागारवहेऊं नाणग्गहणेवि एमेव ॥१६३॥ हाउं परस्स दिष्टुिं बंदंते तेणियं हवइ एयं । तेणोविव अप्पाणं गृहइ ओभावणा माँ मे ॥१६४॥ आहारस्स उ काले नीहारस्सावि होइ पडिणीयं । रोसेण धमधमंतो जं वंदइ दुमयं तु ॥१६५॥ नवि कुप्पसि न पसीयसि कट्ठसिवो चेव तज्जियं AACAMAR For Private & Personel Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असई सम्मं उवओगपडियरियं ॥ २१३ ॥ गुरुदत्तसेसभोयणसेवणयाए य सोहियं जाण । पुण्णेवि थेवकालावत्थाणा तीरियं होइ ॥ २१४ ॥ भोयणकाले अमुगं पच्चक्खायंन्ति भुंज कित्तीयं । आराहियं पयारेहिं सम्ममेएहिं निट्ठवियं ॥ २१५ ॥ वयभंगे गुरुदोसो थेवस्सवि पालणा गुणकरी उ । गुरुलाघवं च नेयं धम्मंमि अओ उ आगारा ॥ २१६ ॥ दुद्धं देहि | नवणीयं धेयं तहा तेल्लैमेव गुड मैज्जं । महु मंसं चैव तहा ओगाहिमंगं च विगईओ ॥ २१७ ॥ गोमहिसुट्टीपसूणं एलग खीराणि पंच चत्तारि । दहिमाइयाई जम्हा उट्टीणं ताणि नो हुंति ॥ २९८ ॥ चत्तारि हुंति तेल्ला तिल अयसि कुसुंभ सरिसवाणं च । विगईओ सेसाणं डोलाईणं न विगईओ ॥ २१९ ॥ दवगुडपिंडगुडों दो मज्जं पुण कट्ठपिट्ठनिप्फन्नं । मच्छिय कुत्तियभामरभेयं च महुं तिहा होई ॥ २२० ॥ जलथलखहयरमंसं चम्मं वस सोणियं तिभेयं च । आइल्ल तिण्णि चलचल ओगाहिमगं च विगईओ ॥ २२१ ॥ खीरदहीवियडाणं चत्तारि उ अंगुलाणि संसङ्कं । फाणियतिल्लघयाणं अंगुउमेगं तु संसङ्कं ॥ २२२ ॥ महुपुग्गलरसयाणं अद्धङ्गुलयं तु होइ संसङ्कं । गुलपुग्गलनवणीए अद्दामलयं तु संसङ्कं ॥ २२३ ॥ विर्गई विगइगयांणि य अनंतकायाणि वज्जवत्थूणि । दस तीस बत्तीसं बॉबीसं सुणह वन्नेमि ॥ २२४ ॥ दुद्धे देहि तिलै नर्वेणीय घये गुर्डे महुँ मंस मज्जे पंक च । पेण च च च च दुर्गतिगँ तिर्ग दुर्ग एपडिभिन्नं ॥ २२५ ॥ दवहया विगइगयं विगई पुण तेण तं हयं दवं । उद्धरिए तत्तंमि य उक्किट्ठदवं इमं अन्ने ॥ २२६ ॥ अह पेया दुद्धेट्टी दुद्धर्वलेही य दुद्धसाडी य । पंच य विगइगयाई दुर्द्धमि य खीरिसेहियाई ॥ २२७ ॥ अंबिलजुयंमि दुद्धे दुद्धट्ठी दक्खमीसरर्द्धमि । पय| साडी तह तंडुलचुण्णयसिद्धमि अवलेही || २२८ ॥ दहिए विगइगयाई घोलवडां घोल सिहरिणि करंबो । लवणकणद Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥४६९॥ हियमहियं संगरिगाइमि अप्पडिए ॥ २२९ ॥ पक्कघयं घयकिट्टी पक्कोसहि उवरि तरिय सप्पि च । निन्भंजणवीसंदणगाई ४ प्रत्याघयविगइविगइगया ॥२३०॥ तेल्लमली तिलकुट्टी देद्धं तेलं तहोसहोबरियं । लक्खाइदवपक्कं तेलं तेल्लंमि पंचेव ॥२३॥ ख्यानं अद्धकड्डिइक्खुरसो गुलपाणीयं च सक्करा खंडं । पायगुलं च गुलविगई विगइगयाइं च पंचेव ॥ २३२ ॥ एगं एगस्सुवरि तिन्नोवरि बीयगं च जं पक्कं । तुप्पेणं तेणं चिय तइयं गुलहाणियापभिई ॥ २३३ ॥ चउत्थं जलेण सिद्धा लप्पसिया |पंचमं तु पूयलिया। चोप्पडियतावियाए परिपक्कं तीस मीलिएसु ॥२३४॥ आवस्सयचुण्णीए परिभणियं एत्थ वणियं कहियं । कहियवं कुसलाणं परंजियवं तु कारणिए ॥ २३५ ॥ सवा हु कंदजाई सूरणकंदो य वजकंदो य । अल्लहलिद्दा |य तहा अई तह अल्लकचूरो ॥ २३६ ॥ सत्तावरी बिराली कुमारि तह थोहरी गलोई य । ल्हसणं वसँगरिल्ला गजर तह लोणओ'लोढो ॥ २३७ ॥ गिरिकन्नि किसलपत्ता खरिसुया थेग अल्लमुत्था य । तह लोणरुक्खंछल्ली खेल्लुड्डो अमयवल्ली य ॥ २३८ ॥ मूली तह भूमिरुहाँ विरूह तह ढक्कवत्थुलो पढमो । सूयरवेल्लो य तहा पल्लंको कोमलंबिलिया ॥ २३९ ॥ आलू तह पिंडालू हवंति एए अणंतनामेहिं । अण्णमणंतं नेयं लक्खणजुत्तीइ समयाओ॥२४०॥ घोसाडकरीरंकुरतिदुयअइकोमलंबगाईणि । वरुणवडनिंबगाईण अंकुराई अणंताई ॥२४१॥ गूढसिरसंधिपबं समभंगमहीरुगं च छिन्नरुहं । |साहारणं सरीरं तबिवरीयं च पत्तेयं ॥ २४२ ॥ चक्कं व भजमाणस्स जस्स गंठी हवेज चुन्नघणो। तं पुढविसरिसभेयं In४६९॥ अणंतजीवं वियाणाहि ॥ २४३ ॥ गूढसिरागं पत्तं सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं । जंपि य पयावसंधि अणंतजीवं विया-14 Rottosto For Private & Personel Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल SAUR ड काउस्सग्गे लयच लणाहि ॥२४४॥ पंचुम्बरि चउविगैई हिम विस करगे य सबमट्टी य । रयणीभोयणेगं चिय बहुबीय अणंतसंधाणं ॥२४५।। राघोलवडा वायंगणे अमुणिअनामाणि फुल्लफलयाणि । तुच्छफैलं चलियरसं वजह वजाणि बावीसं ॥ २४६॥ ४ द्वारम् ॥ - घोडगं लया य खम्भे कुड्ढे माले य सबैरि वहुनियेले । लंबुत्तर थण उड्डी संजय खंलिणे य वायस कविद्वे १४ ॥२४७॥ सीसोकंपिय मुंई अंगुलिभमुहाँ य वारुणी पेही । एए काउस्सग्गे हवंति दोसा इगुणवीसं ॥ २४८॥ आसोब विसमपायं आउंटावित्तु ठाइ उस्सग्गे । कंपइ काउस्सग्गे लयच खरपवणसंगेणं ॥ २४९ ॥ खंभे वा कुड्डे वा अवठंभिय कुणइ काउसग्गं तु । माले य उत्तमंग अवठंभिय कुणइ उस्सग्गं ॥ २५० ॥ सबरी वसणविरहिया करेहि सागारिअं जह ठएइ । ठइऊण गुज्झदेसं करेहि इअ कुणइ उस्सग्गं ॥ २५१ ॥ अवणामिउत्तमंगो काउस्सग्गं जहा कुलवहुब । नियलियआ विव चरणे वित्थारिय अहव मेलॅविउं ॥ २५२ ॥ काऊण चोलपट्टे अविहीए नाहिमंडलस्सुवरि । हेट्ठा य जाणुमेत्तं चिट्ठ लंबुत्तरुस्सग्गं ॥ २५३ ॥ पच्छाइऊण य थणे चोलगपट्टेण ठाइ उस्सग्गं । साइरक्खणट्ठा अहवाऽणाभोगदोसेणं ॥२५४॥ मेलित्तु पण्हियाओ चलणे वित्थारिऊण बाहिरओ । काउस्सग्गं एसो बाहिरउड्डी मुणेयबो ॥ २५५ ॥ अंगुट्टे मेलविलं वित्थारिय पण्हिआउ बाहिति । काउस्सग्गं एसो भणिओ अभितरुद्धित्ति ॥ २५६ ॥ कप्पं वा पट्ट वा पाउणि संजइब उस्सग्गं । ठाइ य खलिणं व जहा रयहरणं अग्गओ काउं ॥ २५७ ॥ भामेइ तह य दिढि चलचित्तो वायसोब उस्संग्गे। छप्पइयाण भएणं कुणइ य पढें कविठं ॥२५८॥ सीसं पकंपमाणो जक्खाइट्ठोब कुणइ उस्सँग्गं । मूउब हुयंतो तहेव छिजतमाईसु ॥ २५९ ॥ अंगुलिभमुहाओऽवि अ चालितो कुणइ तह य उस्सग्गं । आलाषगगणणटुं संठवणत्थं चली २५० ॥ सबरी वसणजहा कुलवह For Private & Personel Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे त्सर्गः ॥४७०॥ जोगाणं ॥ २६० ॥ काउस्सग्गमि ठिओ सुरा जहा बुडबुडेइ अंवत्तं । अणुपेहंतो तह वानरोब चालेइ ओट्ठपुडे ॥२६१॥ कायो एए काउस्सग्गं कुणमाणेण विबुहेण दोसा उ । सम्मं परिहरियवा जिणपडिसिद्धत्तिकाऊणं ॥२६२॥ ५ द्वारम् ॥ पण संलेहण पन्नरस कम्म नाणाइ अट्ठ पत्तेयं । बारस तव विरियतिगं पण सम्म वैयाई पत्तेयं ॥ २६३ ॥ इहपरलो-1|| गृह्यतियासंसप्पओग मरणं च जीविआसंसा । कामे भोगे व तहा मरणंते पंच अइआरा ॥ २६४ ॥ भाडी फोडी साडी वेणअं चाराः गारस्सरूवकम्माइं । वाणिज्जाणि अविसलक्खदंतरसकेसविर्सयाणि ॥ २६५ ॥ दवदाण जंतवाहण निलंछण असइपोससहियाणि । सजलासयसोसाणि अ कम्माइँ हवंति पन्नरस ॥ २६६ ॥ काले विणए बहुमाणे उहाणे तहा अनिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभए अट्ठविहो नाणमायारो॥२६७ ॥ निस्संकिय निकंखियं निवितिगिच्छा अमूदिट्ठी य । उवह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥२६८ ॥ पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तीहिं । चरणायारो विवरीययाई तिण्हंपि अइयारा ॥२६९ ॥ अणसणमूणोअरिआ वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ॥ २७० ॥ पायच्छित्तं विणओ वेयांवच्चं तहेव संज्झाओ । झाणं उस्सग्गोऽवि य अभितरओ तवो होइ ॥ २७१॥ सम्ममकरणे बारस तवाइयारा तिगं तु विरिअस्स । मणवयकाया पावपउत्ता विरियतिगअइयारा ॥ २७२ ॥ संका कंखा य तहा वितिगिच्छा अन्नतित्थियपसंसा । परतिथिओवसेवणमइयारा पंच सम्मत्ते ॥ २७३ ॥ पढमवये अइआरा नरतिरिआणअन्नपाणवोच्छेओ । बंधो वहो य अइभाररोवणं तह छविच्छेओ॥२७४ ॥ सहसा कलंकणं १ रहसदूसणं २ ॥४७०॥ दारमंतभेयं च ३। तह कूडलेहकरणं ४ मुसोवएसो ५ मुसे दोसा ॥ २७५ ॥ चोराणीयं १ चोरप्पयोगजं २ कूडमाणतु अर For Private & Personel Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORGANOSISek लकरणं ३ । रिउरजबवहारो ४ सरिसजुई ५ तइयवयदोसा ॥ २७६ ॥ भुंजइ इतरपरिग्गह १ मपरिग्गहियं थियं २ चउत्थवए । कामे तिषहिलासो ३ अणंगकीला ४ परविवाहो ५॥ २७७ ॥ जोएइ खेत्तवत्थूणि १ रुप्पकणयाइ देइ सयणाणं २। धणधन्नाइ परघरे बंधइ जा नियमपर्जतो ३ ॥ २७८ ॥ दुपयाइँ चउप्पयाइँ गन्भं गाहेइ ४ कुप्पसंखं च । अप्पधणं बहुमोल्लं ५ करेइ पंचमवए दोसा ॥ २७९ ॥ तिरियं अहो य उडे दिसिवयसंखाअइक्कमे तिन्नि । दिसिवयदोसा तह सइविम्हरणं खित्तवुड्डी य ॥ २८० ॥ अप्पक्कं दुप्पक्कं सञ्चित्तं तह सचित्तपडिबद्धं । तुच्छोसहिभक्खणयं दोसा उवभोगपरिभोगे ॥ २८१॥ कुक्कुइयं मोहरियं भोगुवभोगाइरेग कंदप्पा । जुत्ताहिगरणमेए अइयाराऽणत्थदंडवए ॥ २८२॥ काय १ मणो २ वयणाणं ३ दुप्पणिहाणं सईअकरणं च ४ । अणवट्ठियकरणं ५ चिय सामइए पंच अइयारा ॥ २८३ ॥ आणयणं १ पेसवणं २ सद्दणुवाओ य ३ रूवअणुवाओ ४ । बहिपोग्गलपक्खेवो ५ दोसा देसावगासस्स ॥२८४॥ अप्पडिलेहिय अपमज्जियं च सेज्जा ३ ह थंडिलाणि ४ तहा । संमं च अणणुपालण ५ मइयारा पोसहे पंच ॥ २८५॥ सच्चित्ते निक्खिवणं १ सचित्तपिहणं च २ अन्नववएसो ३ । मच्छरइयं च ४ कालाईयं ५ दोसाऽतिहिविभाए ॥२८६॥ ६द्वारम् ॥ __ भरहेऽतीए संपइ भाविजिणे वंदिमो चउधीसं । एरवयंमिवि संपइभाविजिणे नामओ वंदे ॥ २८७ ॥ केवलनाणी १ निवाणी २ सायरो ३ जिणमहायसो ४ विमलो ५। सबाणुभूइ (नाहसुतेया)६ सिरिहर ७ दत्तो ८ दामोयर ९ सुतेओ १०॥२८८ ॥ सामिजिणो य ११ सिवासी १२ सुमई १३ सिवगइ १४ जिणो य अत्थाहो १५ (अबाहो) । नाहनमी|सर १६ अनिलो १७ जसोहरो १८ जिणकयग्यो य १९ ॥ २८९ ॥ धम्मीसर २० सुद्धमई २१ सिवकरजिण २२ संदणो Jan Education International For Private Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAIA जिनाः प्रवचन 13 य २३ संपइ य २४ । तीउस्सप्पिणि भरहे जिणेसरे नामओ वंदे ॥ २९० ॥ उसभं १ अजियं २ संभव ३ मभिणंदण | ४ सुमइ ५ पउमप्पह ६ सुपासं ७ । चंदप्पह ८ सुविहि ९ सीअल १० सेजंसं ११ वासुपुजं च १२ ॥२९१॥ विमल तीतादि |१३ मणंतं १४ धम्म १५ संतिं १६ कुंथु १७ अरं च १८ मल्लिं च १९ । मुणिसुबय २० नमि २१ नेमी २२ पासं २३ ॥४७१॥ 18 वीरं २४ च पणमामि ॥ २९२ ॥ जिणपउमनाह १ सिरिसुरदेव २ सुपासं ३ सिरिसयंपभयं ४ । सबाणुभूइ ५ देवसुय 8 |६ उदय ७ पेढाल ८ मभिवंदे ॥ २९३ ॥ पोट्टिल ९ सयकित्तिजिणं १० मुणिसुबय ११ अमम १२ निक्कसायं च १३ ।। |जिणनिप्पुलाय १४ सिरिनिममत्तं १५ जिणचित्तगुत्तं १६ च ॥ २९४ ॥ पणमामि समाहिजिणं १७ संवरय १८ जसोहरं ||१९ विजय २० मलिं २१ । देवजिण २२ ऽणंतविरियं २३ भद्दजिणं २४ भाविभरहंमि ॥ २९५ ॥ बालचंदं १ सिरिसि चयं २ अग्गिसेणं ३ च नंदिसेणं ४ च । सिरिदत्तं ५ च वयधरं ६ सोमचंद ७ जिणदीहसेणं च ८॥२९६॥ वंदे सयाउ |९ सच्चइ १० जुत्तिस्सेणं ११ जिणं च सेयंसं १२ । सीहसेणं १३ सयंजल १४ उवसंतं १५ देवसेणं १६ च ॥ २९७॥ महविरिय १७ पास १८ मरुदेव १९ सिरिहरं २० सामिकुटु २१ मभिवंदे । अग्गिसेणं २२ जिणमग्गदत्तं २३ सिरिवाटारिसेणं २४ च ॥ २९८ ॥ इय संपइजिणनाहा एरवए कित्तिया सणामेहिं । अहुणा भाविजिणिंदे नियणामेहिं पकित्तेमि| ॥ २९९ ॥ सिद्धत्थं १ पुन्नघोसं २ जमघोसं ३ सायरं ४ सुमंगलयं ५। सबट्ठसिद्ध ६ निवाणसामि ७ वंदामि धम्मधयं ८॥३०॥ तह सिद्धसेण ९ महसेण नाह १० रविमित्त ११ सबसेणजिणे १२ । सिरिचंदं १३ दढकेउं १४ महिंदयं 8 ॥४७१॥ १५ दीहपासं १६ च ॥ ३०१॥ सुबय १७ सुपासनाहं १८ सुकोसले १९ जिणवरं अणंतत्थं २० । विमलं २१ उत्तर *CREAMERERROREA For Private & Personel Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ महरिद्धि २३ देवयाणंदयं २४ वंदे ॥३०२॥ निच्छीण्णभवसमुद्दे वीसाहियसयजिणे सुहसमिद्धे । सिरिचंदमुणिवइनए |सासयसुहदायए नमह ।। ३०३ ॥७द्वारम् ॥ सिरिउसभसेण १ पहु सीहसेण २ चारु ३ वजनाहक्खा ४ । चमरो ५ पजोय ६ वियम्भ ७ दिण्णपहवो ८ वराहो ९ य ॥ ३०४ ॥ पहुनंद १० कोत्थुहावि ११ य सुभोम १२ मंदर १३ जसा १४ अरिट्ठो १५ य । चक्काउह १६ संबा |१७ कुंभ १८ भिसय १९ मल्ली २० य सुंभो २१ य ॥ ३०५ ॥ वरदत्त २२ अजदिन्ना २३ तहिंदभूई २४ गणहरा पढमा । सिस्सा रिसहाईणं हरंतु पावाई पणयाणं ॥ ३०६॥८द्वारम् ॥ __बंभी १ फग्गू २ सामा ३ अजिया ४ तह कासवी ५ रई ६ सोमा ७॥ सुमणा ८ वारुणि ९सुजसा १० धारिणि ११ धरिणी १२ धरा १३ पउमा १४ ॥ ३०७ ॥ अजा सिवा १५ सुहा १६ दामणी १७ य रक्खी १८ य बंधुमइनामा द| १९ । पुप्फवई २० अनिला २१ जक्खदिन्न २२ तह पुप्फचूला २३ य ॥ ३०८ ॥ चंदण २४ सहिया उ पवत्तिणीओं चउवीसजिणवरिंदाणं । दुरियाई हरंतु सया सत्ताणं भत्तिजुत्ताणं ॥ ३०९॥९ द्वारम् ॥ ___ अरिहंत १ सिद्ध २ पवयण ३ गुरु ४ थेर ५ बहुस्सुए ६ तवस्सी ७ य । वच्छल्लया य एसिं अभिक्खनाणोवओगो ८य ॥ ३१ ॥दसण ९ विणए १० आवस्सए य ११ सीलवए १२-१३ निरइयारो । खणलव १४ तव १५ चियाए १६ वेयावच्चे समाही १७ य ॥ ३११ ॥ अप्पुवनाणगहणे १८ सुयभत्ती १९ पवयणे पभावणया २०। एएहिं कारणेहिं तित्थरत्तं लहइ जीवो ॥ ३१२॥ संघो पवयणमित्थं गुरुणो धम्मोवएसयाईया । सुत्तत्थोभयधारी बहुस्सुया होति For Private & Personel Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ० सूत्रे ॥ ४७२ ॥ विक्खाया ॥ ३१३ ॥ जाईसुयपरियाए पडुच्च थेरो तिहा जहकमेणं । सट्ठीवरिसो समवायधारओ वीसवरिसो य ॥ ३१४ ॥ भत्ती पूया वन्नप्पयडण वज्जणमवन्नवायस्स । आसायणपरिहारो अरिहंताईण वच्छलं ॥ ३१५ ॥ नाणुवओगोऽभिक्खं दंसणसुद्धी य विणयसुद्धी य । आवस्सयजोए सीलवएसुं निरइयारो ॥ ३१६ || संवेगभावणा झाणसेवणं खणलवाइकालेसु । तवकरणं जइजणसंविभागकरणे जहसमाही ॥ ३१७ ॥ वेयावच्चं दसहा गुरुमाईणं समाहिजणणं च । किरियादारेण तहा अपुवनाणस्स गहणं तु ॥ ३१८ || आगमबहुमाणो चिय तित्थस्स पभावणं जहासत्ती । एएहिं कारणेहिं तित्थयरतं समजिणइ ॥ ३१९ ॥ १० द्वारम् ॥ मरुदेवी १ विजय २ सेणा ३ सिद्धत्था ४ मंगला ५ सुसीमा ६ य । पुहवी ७ लक्खण ८ रामा ९ नंदा १० विण्हू ११ जया १२ सामा १३ ॥ ३२० ॥ सुजसा १४ सुबय १५ अइरा १६ सिरी १७ देवी १८ पभावई य १९ । पउमावई २० वप्पा २१ सिव २२ वम्मा २३ तिसला २४ इय ॥ ३२१ ॥ नाभी १ जियसत्तू या २, जियारि ३ संवरे ४ इय । मेहे ५ घरे ६ पट्टे ७ य, महसेणे य खत्तिए ८ ॥ ३२२ ॥ सुग्गीवे ९ दढरहे १० विण्हू ११, वसुपुज्जे १२ य खत्तिए । कयवम्मा १३ सीहसेणे १४ य, भाणू १५ विस्ससेणे इय १६ ॥ ३२३ ॥ सूरे १७ सुदंसणे १८ कुंभे १९, सुमित २० | विजए २१ समुदविजए २२ य । राया य अस्ससेणे २३ सिद्धत्थे २४ ऽविय खत्तिए ॥ ३२४ ॥ ११ द्वारम् ॥ अट्टण्हं जणणीओ तित्थयराणं तु हुंति सिद्धाओ । अट्ठ य सणकुमारे माहिंदे अट्ठ बोद्धवा ॥ ३२५ ॥ नागेसुं उसहपिया सेसाणं सत्त हुंति ईसाणे । अट्ठ य सणकुमारे माहिंदे अट्ठ बोद्धबा ॥ ३२६ ॥ १२ द्वारम् ॥ ८-९-१०११-१२ आद्यगण धरनामा दीनि ॥ ४७२ ॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरिसयमुक्कोसं जहन्न बीसा य दस य विहरंति । जम्मं पइ उक्कोसं वीसं दस हुंति उ जहन्ना ॥३२७॥ १३ द्वारम् ॥5॥ चुलसीइ १ पंचनवई २ बिउत्तरं ३ सोलसोत्तरं ४ च सयं ५ । सत्तुत्तर ६ पणनउई ७ तेणउई ८ अट्ठसीई य ९|| ॥ ३२८ ॥ एकासीई १० छावत्तरी ११ य छावढि १२ सत्तवन्ना १३ य । पन्ना १४ तेयालीसा १५ छत्तीसा १६ चेव पणतीसा १७ ॥ ३२९ ॥ तेत्तीस १८ अट्ठवीसा १९ अट्ठारस २० चेव तह य सत्तरस २१ । एक्कारस २२ दस २३ एक्कारसेव २४ इय गणहरपमाणं ॥ ३३० ॥१४ द्वारम् ॥ चुलसीइ सहस्सा १ एगलक्ख २ दो ३ तिन्नि ४ तिन्नि लक्खा य । वीसहिया ५ तीसहिया ६ तिन्नि य ७ अट्ठाइय ८ दु ९ एकं १० ॥ ३३१ ॥ चउरासीइ सहस्सा ११ बिसत्तरी १२ अट्ठसट्ठि १३ छावट्ठी १४ । चउसट्ठी १५ वासट्ठी |१६ सट्ठी १७ पन्नास १८ चालीसा १९॥ ३३२ ॥ तीसा २० वीसा २१ अट्ठारसेव २२ सोलस २३ य चउद्दस सहस्सा २४ । एवं साहुपमाणं चउवीसाए जिणवराणं ॥३३३॥ अट्ठावीसं लक्खा अडयालीसं तह सहस्साई। सबेसिपि जिणाणं जईण माणं विणिद्दिढें ॥ ३३४ ॥१५ द्वारम् ॥ तिन्नि य १ तिन्नि य २ तिन्नि य ३ छ ४ पंच ५ चउरो ६ चउ ७ तिगे ८के ९ का १० । लक्खा उसहं मोत्तुं तदुवरि सहसाणिमा संखा ॥ ३३५॥ तीसा २ छत्तीसा ३ तीस ४ तीस ५ वीसा ६ य तीस ७ असीई ८ य । वीसा ९ |दसमजिणिंदे लक्खोवरि अज्जिया छक्कं ॥ ३३६ ॥ लक्खो तिन्नि सहस्सा ११ लक्खो १२ लक्खो य अट्ठसयअहिओ 18 १३ । बासट्ठी १४ पुण बासट्ठी १५ सहसा अहिया चउसएहिं ॥ ३३७ ॥ छसयाहिय इगसट्ठी १६ सट्ठी छसयाई १७ ASSESSCASES ॐ***** Jan Education International For Private Personal Use Only www.ainelibrary.org Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे १३-१९ उत्कृष्टजिनसंख्यादीनि ॥४७३॥ सट्ठी १८ पणपन्ना १९ । पन्ने २० गचत्त २१ चत्ता २२ अडतिस २३ छत्तीस सहसा य २४ ॥ ३३८॥ चोयालीसं हालक्खा छायालसहस्स चउसयसमग्गा । अज्जाछक्कं एसो अजाणं संगहो सबो ॥ ३३९ ॥ १६ द्वारम् ॥ __ वेउबियलद्धीणं वीससहस्सा सयच्छगन्भहिया १ । वीससहस्सा चउसय २ इगुणीससहस्स अट्ठसया ३॥ ३४०॥ द्र अगुणीससहस्स ४ अट्ठार चउसया ५ सोलसहस्स अट्ठसयं ६ । सतिसय पनरस ७ चउदस ८ तेरस ९ वारस सहस |दसमे १०॥ ३४१॥ एकारस ११ दस १२ नव १३ अट्ठ १४ सत्त १५ छसहस्स १६ एगवन्नसया १७ । सत्तसहस्स सतिसया १८ दोन्नि सहस्सा नव सयाई १९॥ ३४२॥ दुन्नि सहस्सा २० पंचसय सहस्स २१ पन्नरससयाई नेमिंमि |२२ । एक्कारस सय पासे २३ सयाई सत्तेव वीरजिणे २४ ॥ ३४३ ॥ १७ द्वारम् ॥ सडछसया दुवालस सहस्स १ बारस य चउसयब्भहिया २। बारे ३ कारस सहसा ४ दससहसा छसयपन्नासा ५ ॥ ३४४ ॥ छन्नई ६ चुलसीई ७ छहत्तरी ८ सट्ठि ९ अट्ठवन्ना य १० । पन्नासाइ सयाणं ११ सयसीयालाऽहव बयाला |१२॥ ३४५॥ छत्तीसा १३ बत्तीसा १४ अट्ठावीसा.१५ सयाण चउबीसा १६ । विसहस्स १७ सोलससया १८ चउदस १९ बारस २० दससयाई २१॥३४६॥ अट्ठसया २२ छच्च सया २३ चत्तारि सयाई २४ हुंति वीरम्मि । वाइमुणीण |पमाणं चउवीसाए जिणवराणं ॥ ३४७॥१८ द्वारम् ॥ ओहीनाणिमुणीणं नउई १ चउनवइ २ छण्णवइसयाणि ३ । अट्ठानवइसयाई ४ एक्कारस ५ दस ६ नवसहस्सा ७ ॥३४८ ॥ असीई ८ चुलसी ९ बहत्तरी १० सट्ठी ११ चउप्पण १२ अट्ठचत्ताला १३ । तेयाला १४ छत्तीसा १५ तीसा SHARES ASSASSINS ॥४७३॥ Jan Education Intemann For Private Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पणवीस १७ छबीसा १८ ॥ ३४९ ॥ बावीसा १९ अट्ठारस २० सोलस २१ पनरस २२ चउदस सयाणि २३ । तेरस २४ साहूण सयाई ओहिनाणीण वीरस्स ॥ ३५०॥ १९ द्वारम् ॥ वीससहस्सा उसहे १ वीसं बावीस अहव अजियस्स २ । पन्नरस ३ चउदस ४ तेरस ५ बारस ६ एकारस ७ दसेव 1८॥ ३५१॥ अद्धट्ठम ९ सत्तेव य १० छस्सड्डा ११ छच्च १२ पंच सडा य १३ । पंचेव १४ अद्धपंचम १५ चउसहस्सा तिन्नि य सया य १६॥ ३५२ ॥ बत्तीससया अहवा बावीस सया व हुंति कुंथुस्स १७ । अट्ठावीसं १८ बावीस १९ हातहय अट्ठारस सयाई २०॥ ३५३ ॥ सोलस २१ पनरस २२ दससय २३ सत्तेव सया हवंति वीरस्स २४ । एयं केवलिमाणं मणपजविमाणमिहिं तु ॥ ३५४ ॥ २० द्वारम् ।। बारससहस्स तिण्हं सय सड्डा सत्त १पंच य २ दिवढे ३ । एगदस सडछस्सय ४ दससहसा चउसया सड्डा ५॥३५५॥ दससहसा तिण्णि सया ६ नव दिवङसया य ७ अट्ठ सहसा य ८। पंचसय सत्तसहसा ९ सुविहिजिणे सीयले १० चेव ॥ ३५६ ॥ छसहस्स दोण्हमित्तो ११-१२ पंच सहस्साई पंच य सयाई १३ । पंच सहस्सा चउरो १४ सहस्स सयपंचअब्भहिया १५॥ ३५७ ॥ चउरो सहस्स तिन्नि य १६ तिण्णेव सया हवंति चालीसा १७ । सहसदुगं पंचसया इगवन्ना अरजिणिंदस्स १८॥ ३५८ ॥ सत्तरससया सपन्ना १९ पंचदससया य २० बारसय सड्डा २१ । सहसो २२ सय अद्धहम २३ पंचेव सया उ वीरस्स २४ ॥ ३५९ ॥ २१ द्वारम् ॥ चउद्दसपुवि सहस्सा चउरो अद्धट्ठमाणि य सयाणि १। वीसहिय सत्ततीसा २ इगवीस सया य पन्नासा ३ ॥ ३६०॥ For Private Personel Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ३४७४॥ पनरस ४ चउवीस सया ५ तेवीस सया ६ य वीससय तीसा ७॥दो सहस ८ पनरस सया ९ सयचउदस १० तेरस २०-२४ सयाई ११ ॥ ३६१॥ सय बारस १२ एक्कारस १३ दस १४ नव १५ अद्वेव १६ छच्च सय सयरा १७ । दसहिय छच्चेव केवल्यादि|सया १८ पंचसया अट्टसद्दिहिया १९ ॥३६२॥ सय पंच २० अद्धपंचम २१ चउरो २२ अछुट्ठ २३ तिन्नि य सयाई २४॥ संख्या: | उसहाइजिर्णिदाणं चउदसपुवीण परिमाणं ॥ ३६३ ॥ २२ द्वारम् ॥ | पढमस्स तिन्नि लक्खा पंच सहस्सा दुलक्ख जा संती । लक्खोवरि अडनउई २ तेणउई ३ अट्ठसीई य ४ ॥३६४॥ एगसीई ५ छावत्तरि ६ सत्तावण्णा ७ य तह य पन्नासा ८ गुणतीस ९ नवासीई १० अ गुणासी ११ पनरस १२ अद्वैव १३ ॥ ३६५ ॥ छच्चिय सहस्स १४ चउरो सहस्स १५ नउई सहस्स संतिस्स १६ । तत्तो एगो लक्खो उवरिं गुणसीय १७ चुलसी १८ य ॥ ३६६ ॥ तेयासी १९ बावत्तरि २० सत्तरि २१ इगुहत्तरी २२ य चउसट्ठी २३ । एगुणसहित सहस्सा २४ सावगमाणं जिणवराणं ॥ ३६७ ॥ २३ द्वारम् ॥ पढमस्स पंच लक्खा चउपन्न सहस्स १ तयणु पण लक्खा ।पणयालीससहस्सा २ छलक्ख छत्तीस सहसा य ३॥३६८॥ | सत्तावीससहस्साहियलक्खा पंच ४ पंच लक्खा य । सोलससहस्सअहिया ५ पणलक्खा पंच उ सहस्सा ६ ॥३६९॥ उवरिं चउरो लक्खा धम्मो जा उवरि सहस तेणउई ७ । इगनउई ८ इगहत्तरि ९ अडवन्न १० ऽडयाल ११ छत्तीसा १२ ॥४७४॥ ॥ ३७॥ चउवीसा १३ चउदस १४ तेरसेव १५ तत्तो तिलक्ख जा वीरो। तदुवरि तिनवइ १६ इगासी १७ बिसत्तरी *SUSIAURASAASAAR For Private Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सयरि १९ पन्नासा २० ।। ३७१ || अडयाला २१ छत्तीसा २२ इगुचत्त २३ ऽट्ठारसेव य सहस्सा २४ । सड्डीण माणमेयं चवीसाए जिणवराणं ।। ३७२ ।। २५ द्वारम् ॥ जक्खा गोमुह १ महजक्ख २ तिमुह ३ ईसर ४ तुंबुरू ५ कुसुमो ६ । मायंगो ७ विजया ८ जिय ९ भो १० मणुओ ११ य सुरकुमरो १२ ॥ ३७३ ॥ छम्मुह १३ पयाल १४ किन्नर १५ गरुडो १६ गंधव १७ तह य जक्खिदो १८ । कूबर १९ वरुणो २० भिउडी २१ गोमेहो २२ वामण २३ मयंगो २४ ॥ ३७४ ॥ २६ द्वारम् ॥ देवीओ चकेसरि १ अजिया २ दुरियारि ३ कालि ४ महकाली ५ । अच्चुय ६ संता ७ जाला ८ सुतारया ९ सोय | १० सिरिवच्छा ११ ॥ ३७५ ॥ पवर १२ विजयं १३ कुसा १४ पण्णत्ती १५ निवाणि १६ अच्चुया १७ धरणी १८ । वइरोह १९ छुत २० गंधारि २१ अंब २२ पउमावई २३ सिद्धा २४ ॥ ३७६ ॥ २७ द्वारम् ॥ पंचसय पढमो कमेण पण्णासहीण जा सुविही १०० । दसहीण जा अणंतो ५० पंचूणा जाव जिणनेमी १० | ॥ ३७७ ॥ नवहत्थपमाणो पाससामिओ सत्तहत्थ जिणवीरो । उस्सेहअंगुलेणं सरीरमाणं जिणवराणं ॥ ३७८ ॥ ॥ २८ द्वारम् ॥ सह १ ग २ तुरय ३ वानर ४ कूंचो ५ कमलं च ६ सत्धिओ ७ चंदो ८ । मयर ९ सिरिवच्छ १० गंडय ११ | महिस १२ वराहो १३ य सेणो १४ य ॥ ३७९ ॥ वज्रं १५ हरिणो १६ छगलो १७ नंदावतो १८ य कलस १९ कुम्मो २० य । नीलुप्पल २१ संख २२ फणी २३ सीहो २४ य जिणाण चिन्धाई ॥ ३८० ॥ २९ द्वारम् ॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० ॥ ४७५ ॥ पउमाभवासुपूज्जा रत्ता ससिपुप्फदंत ससिगोरा । सुबयनेमी काला पासो मल्ली पिगंगाभा ॥ ३८१ ॥ वरतवियकणयगोरा सोलस तित्थंकरा मुणेयबा । एसो वन्नविभागो चवीसाए जिनिंदाणं ॥ ३८२ ॥ ३० द्वारम् ॥ एगो भगवं वीरो पासो मल्ली य तिहि तिहि सएहिं । भगवंपि वासुपुज्जो छहिँ पुरिससएहिं निक्खंतो ॥ ३८३ ॥ उग्गाणं भोगाणं रायण्णाणं च खत्तियाणं च । चउहिँ सहस्सेहिँ उसहो सेसा उ १९ सहस्सपरिवारा ॥ ३८४ ॥ ३१ द्वारम् ॥ चउरासी १ बिसत्तरि २ सट्ठी ३ पन्नास ४ मेव लक्खाई । चत्ता ५ तीसा ६ वीसा ७ दस ८ दो ९ एगं १० च पुवाणं ॥ ३८५ ॥ चउरासी ११ बावत्तरी १२ य सट्ठी १३ य होइ वासाणं । तीसा १४ य दस १५ य एगं १६ एवं एए सयसहस्सा ॥ ३८६ ॥ पंचाणउइ सहस्सा १७ चउरासीई १८ य पंचवन्ना १९ य । तीसा २० य दस २१ य एवं २२ सय २३ व बावत्तरी २४ चैव ॥ ३८७ ॥ ३२ द्वारम् ॥ एगो भगवं वीरो तेत्तीसाऍ सह निबुओ पासो । छत्तीसेहिं पंचहि सएहिं नेमी उसिद्धिगओ ॥ ३८८ ॥ पंचहिं समणसएहिं मल्ली संती उ नवसएहिं तु । अट्ठसएणं धम्मो सएहिं छहिं वासुपुज्जजिणो ॥ ३८९ ॥ सत्तसहस्साणंतइजिणस्स विमलस्स छस्सहस्साइं । पंच सयाई सुपासे पउमाभे तिण्णि अट्ठसया ॥ ३९० ॥ दसहिँ सहस्सेहिं उसहो सेसा उ सहस्सपरिवुडा सिद्धा । तित्थयरा उ दुवालस परिनिट्ठियअट्ठकम्मभरा ॥ ३९९ ॥ ३३ द्वारम् ॥ अट्ठावय चंपुज्जिं तपावासम्मेयसेलसिहरेसुं । उसभवसुपुज्जनेमी वीरो सेसा य सिद्धिगया ॥ ३९२ ॥ ३४ द्वारम् ॥ ४ ॥ ४७५ ॥ तो जिणंतराई वोच्छं किल उसभसामिणो अजिओ । पण्णासकोडिलक्खेहिं सायराणं समुप्पण्णो ॥ ३९३ ॥ तीसाए जिनयक्षा दीनि २५-३४ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिहि तशी पुरो अंतरसुतिर इमेण कालेण ॥ ३९ो समय ॥ ३९६ ॥ सीयलाभ। संभवजिणो दसहि उ अभिनंदणो जिणवरिंदो । नवहि उ सुमइजिणिंदो उप्पण्णो कोडिलक्खेहिं ॥ ३९४ ॥ नउईइ सहस्सेहिं कोडीणं वोलियाण पउमाभो । नवहि सहस्सेहिं तओ सुपासनामो समुप्पण्णो ॥ ३९५ ॥ कोडिसएहिं नवहि उ जाओ चंदप्पहो जणाणंदो । नउईए कोडीहिं सुविहिजिणो देसिओ समए ॥ ३९६ ॥ सीयलजिणो महप्पा तत्तो कोडीहि नवहिं निद्दिट्ठो । कोडीए सेयंसो ऊणाइ इमेण कालेण ॥ ३९७ ॥ सागरसएण एगेण तह य छावद्विवरिसलक्खेहिं । छवीसाइ सहस्सेहिं तओ पुरो अंतरेसुत्ति ॥ ३९८ ॥ चउपण्णा अयरेहिं वसुपुजजिणो जगुत्तमो जाओ। विमलो विमसालगुणोहो तीसहि अयरेहि रयरहिओ॥३९९॥ नवहिं अयरेहिणतो चउहि उ धम्मो उ धम्मधुरधवलो । तिहि ऊणेहिं3 संती तिहि चउभागेहिं पलियस्स ॥४००॥ भागेहि दोहिं कुंथू पलियस्स अरो उ एगभागेणं । कोडिसहस्सोणेणं वासाण जिणेसरो भणिओ ॥ ४०१॥ मल्ली तिसल्लरहिओ जाओ वासाण कोडिसहसेण । चउपण्णवासलक्खेहिं सुबओ सुचओ सिद्धो॥४०२॥ जाओ छहि नमिनाहो पंचहि लक्खेहिं जिणवरो नेमी । पासो अद्धट्ठमसय समहियतेसीइसहसेहिं +॥४०३ ॥ अड्डाइजसएहिं गएहिं वीरो जिणेसरो जाओ। दूसमअइदूसमाणं दोहंपि दुचत्तसहसेहिं ॥ ४०४ ॥ पुज्जइ कोडाकोडी उसहजिणाओ इमेण कालेण । भणियं अंतरदारं एवं समयाणुसारेणं ॥ ४०५ ॥ बत्तीसं घरयाई काउं तिरियाअयाहि रेहाहिं । उड्डाअयाहिं काउं पंच घराई तओ पढमे ॥ ४०६ ॥ पन्नरस जिण निरंतर सुन्नदुर्ग तिजिण 16 सुन्नतियगं च । दो जिण सुन्न जिणिंदो सुन्न जिणो सुन्न दोन्नि जिणा ॥ ४०७ ॥ बिईयपंतिठवणा-दो चक्कि सुन्नत तेरस पण चक्की सुण्ण चक्कि दो सुण्णा । चक्की सुन्न दुचक्की सुण्णं चक्की दुसुण्णं च ॥ ४०८॥ तईयपतिठवणा SACSISRUSAISROSROSCOR ४०२॥ जाओ छहि नामजणेसरो जाओ। दूसममयाणुसारेणं ॥ ४०५ मन्नदुर्ग तिजिण Jan Education International For Private Personal use only www.ainelibrary.org Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दससुण्ण पंच केसव पणसुण्णं केसि सुण्ण केसी य । दो सुण्ण केसवोऽवि य सुण्णदुर्ग केसव तिसुण्णं ॥ ४०९॥ जिनान्तसूत्रे चउत्थपंतिठवणा-उसहभरहाण दोण्हवि उच्चत्तं पंचधणुसए हुंति । अजियसगराण दोण्हवि उच्चत्तं चारि अद्धं च राणि ३५ ॥ ४१० ॥ पन्नासं पन्नासं धणुपरिहाणी जिणाण तेण परं । ता जाव पुप्फदंतो धणुसयमेगं भवे उच्चो ॥४११॥ नउइ ॥४७६॥ धणू सीयलस्स सेजंसतिविहुमाइणं पुरओ। जा धम्मपुरिससीहो उच्चत्तं तेसिमं होइ ॥ ४१२॥ कमसो असीइ सत्तरि सट्ठी पण्णास तह य पणयाला । एए हवंति धणुया बायालद्धं च मघवस्स ॥४१३ ॥ इगयालं धणु सद्धं च सणंकुमारस्स |चक्कवट्टिस्स । संतिस्स य चत्ताला कुंथुजिणिदस्स पणतीसा ॥४१४॥ तीस धणूणि अरस्स उ इगुतीसं पुरिसपुंडरीयस्स। अट्ठावीस सुभूमे छबीस धणूणि दत्तस्स ॥ ४१५ ॥ मल्लिस्स य पणुवीसा वीसं च धणूणि सुबए पउमे । नारायणस्स सोलस पनरस नमिनाहहरिसेणे ॥ ४१६ ॥ बारस जयनामस्स य नेमीकण्हाण दसधणुच्चत्तं । सत्तधणु बंभदत्तो नव हरयणीओ य पासस्स ॥ ४१७ ॥ वीरस्स सत्त रयणी उच्चत्तं भणियमाउअं अहुणा । पंचमघरयनिविटुं कमेण सबेसि वोच्छामि ॥ ४१८ ॥ उसहभरहाण दोण्हवि चुलसीई पुबसयसहस्साई । अजियसागराण दोण्हवि बावत्तरि सयसहस्साई ॥ ४१९॥ पुरओ जहक्कमेणं सट्ठी पण्णास चत्त तीसा य । वीसा दस दो चेव य लक्खेगो चेव पुवाणं ॥ ४२० ॥ सेजंसतिविद्वर्ण चुलसीई वाससयसहस्साई । पुरओ जिणकेसीणं धम्मो ता जाव तुल्लमिणं ॥ ४२१ ॥ कमसो बावत्तरि सट्ठि तीस दस चेव सयसहस्साई । मघवस्स चक्किणो पुण पंचेव य वासलक्खाई॥ ४२२ ॥ तिन्नि य सणकुमारे संतिस्स य ॥४७६॥ 18 वासलक्खमेगं तु । पंचाणउइ सहस्सा कुंथुस्सवि आउयं भणियं ॥ ४२३ ॥ चुलसीइ सहस्साई तु आउयं होइ अरजिणि-18 CAUSARSMSSESAME SIRSAGAR For Private Personel Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस्स । पणसट्ठिसहस्साइं आऊ सिरिपुंडरीयस्स ॥ ४२४ ॥ सहिसहस्स सुभूमे छप्पन्न सहस्स हुति दत्तस्स । पणपण्णसहस्साई मल्लिस्सवि आउयं भणियं ॥ ४२५ ॥ सुबयमहपउमाणं तीस सहस्साइं आउयं भणियं । बारस वाससहस्सा आऊ नारायणस्स भवे ॥ ४२६ ॥ दस वाससहस्साई नमिहरिसेणाण हुंति दुण्हंपि । तिण्णेव सहस्साई आऊ जयनामचक्किस्स ॥ ४२७ ॥ वाससहस्सा आऊ नेमीकण्हाण होइ दोहंपि । सत्त य वाससयाई चक्कीसरबंभदत्तस्स ॥ ४२८ ॥ वाससयं पासस्स य वासा बावत्तरिं च वीरस्स । इय बत्तीस घराई समयविहाणेण भणियाई ॥ ४२९ ॥ ३५ द्वारम् ॥ पुरिमंतिम अट्ठद्वंतरेसु तित्थस्स नत्थि वोच्छेओ । मझिल्लएसु सत्तसु एत्तियकालं तु वुच्छेओ ॥ ४३० ॥ चभागं चउभागो तिन्नि य चउभाग पलियचउभागो । तिण्णेव य चउभागा चउत्थभागो य च भागो ।। ४३१ ॥ ३६ द्वारम् ॥ तंबोल १ पाण २ भोयण ३ पाणह ४ थी भोग ५ सुयण ६ निट्टवणे ७ । मुत्तु ८ चारं ९ जूयं १० वज्जे जिणमंदिरसंतो ॥ ४३२ ॥ ३७ द्वारम् ॥ खेलं १ केलि २ कलिं ३ कला ४ कुललयं ५ तंबोल ६ मुग्गालयं ७, गाली ८ कंगुलिया ९ सरीरधुवणं १० केसे ११ नहे १२ लोहियं १३ । भत्तोस १४ तय १५ पित्त १६ वंत १७ दसणे १८ विस्सामणं १९ दामणं २०, दंत २१ त्थी २२ नह २३ गंड २४ नासिय २५ सिरो २६ सोत २७ च्छवीणं मलं २८ ॥ ४३३ ॥ मंतु २९ म्मीलण ३० लेक्खयं | ३१ विभजणं ३२ भंडार ३३ दुट्ठासणं ३४, छाणी ३५ कप्पड ३६ दालि ३७ पप्पड ३८ वडी ३९ विस्सारणं नासणं ४० । अक्कंदं ४१ विकहं ४२ सरच्छघडणं ४३ तेरिच्छसंठावणं ४४, अग्गीसेवण ४५ रंधणं ४६ परिखणं ४७ निस्सीहि Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थवि प्रवचन सूत्रे ॥४७७॥ याभंजणं ४८॥ ४३४ ॥ छत्तो ४९ वाणह ५० सत्थ ५१ चामर ५२ मणोऽणेगत्त ५३ मभंगणं, ५४ सच्चित्ताणमचाय ५५ चायणऽजिए ५६ दिट्ठीअ नो अंजली ५७ । साडेगुत्तरसंगभंग ५८ मउड ५९ मउलिं ६० सिरोसेहरं ६१, हुड्डा ६२ च्छेदआजिंडुहगिड्डियाइरमणं ६३ जोहार ६४ भंडक्कियं ६५॥ ४३५ ॥ रेकारं ६६ धरणं ६७ रणं ६८ विवरणं वालाण ६९ ज्ञातनादि० पल्हत्थियं ७०, पाओ ७१ पायपसारणं ७२ पुडपुडी ७३ पंक ७४ रओ ७५ मेहुणं ७६ । जूया ७७ जेमण ७८ जुज्झ ७९ विज ८० वणिज ८१ सेजं ८२ जलं ८३ मजणं ८४, एमाईयमवज्जकजमुजुओ वजे जिणिंदालए ॥ ४३६ ॥ आसायणा उ भवभमणकारणं इय विभाविउं जइणो । मलमलिणत्ति न जिणमंदिरंमि निवसंति इय समओ॥ ४३७ ॥ दुन्भि गंधमलस्सावि, तणुरप्पेस हाणिया। दुहा वायवहो वावि, तेणं ठंति न चेइए ॥ ४३८ ॥ तिन्नि वा कड्डई जाव, थुइओ दातिसिलोइया । ताव तत्थ अणुन्नायं, कारणेण परेण उ॥४३९ ॥ ३८ द्वारम् ॥ | कंकिल्लि १ कुसुमवुट्ठी २ देवज्झुणि ३ चामरा ४ ऽऽसणाई ५ च । भावलय ६ भेरि ७ छत्तं ८ जयंति जिणपाडि हेराई॥४४०॥ ३९द्वारम् ॥ व रयरोयसेयरहिओ देहो १ धवलाई मंसरुहिराई २ । आहारानीहारा अहिस्सा ३ सुरहिणो सासा ४॥४४१॥ जम्माउ4 इमे चउरो एकारस कम्मखयभवा इण्हिं । खेत्ते जोयणमेत्ते तिजयजणो माइ बहुओऽवि ५॥ ४४२॥ नियभासाए नरतिरिसुराण धम्मावबोहया वाणी ६ । पुषभवा रोगा उवसमंति ७ न य हुँति वेराई ८॥४४३ ॥ दुभिक्ख ९ डमर १० दुम्मारि ११ ईई १२ अइबुट्ठि १३ अणमिवुट्ठीओ १४ । हुंति न, जियबहुतरणी पसरइ भामंडलुजोओ १५॥ ४४४ ॥ SANGRECASEKASAR ॥४७७॥ For Private Personal use only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुररइयाणिगुवीसा मणिमयसीहासणं सपयवीढं १६ । छत्तत्तय १७ इंदद्धय १८ सियचामर १९ धम्मचक्काई २० || ४४५ ॥ सह जगगुरुणा गयणट्ठियाई पंचवि इमाई वियरंति । पाउब्भवइ असोओ २१ चिट्ठइ जत्थप्पह तत्थ ॥ ४४६ ॥ चउमुहमुत्तिचकं २२ मणिकंचणताररइयसालतिगं २३ । नवकणयपंकयाई २४ अहोमुहा कंटया हुति २५ ॥ ४४७ ॥ निच्चमवट्ठियमित्ता पहुणो चिट्ठेति केसरोमनहा २६ । इंदिय अत्था पंचवि मणोरमा २७ हुंति छप्पि रिक २८ ॥ ४४८ ॥ गंधोदयस्स बुट्ठी २९ बुट्ठी कुसुमाण पंचवन्नाणं ३० । दिंति पयाहिण सउणा ३१ पहुणो पवणोऽवि अणुकूलो ३२ ॥ ४४९ ॥ पणमंति दुमा ३३ वज्र्जति दुंदुहीओ गहीरघोसाओ ३४ । चउतीसाइसयाणं सबजिणिंदाण हुंति इमा ॥ ४५० ॥ ४० द्वारम् ॥ अन्ना १ कोह २ मय ३ माण ४ लोह ५ माया ६ रई ७ य अरई ८ य । निद्दा ९ सोय १० अलियवयण ११ चोरिया १२ मच्छर १३ भया १४ य ॥ ४५१ ॥ पाणिवह १५ पेम १६ कीलापसंग १७ हासा १८ य जस्स इय दोसा । अट्ठारसवि पणट्ठा नमामि देवाहिदेवं तं ॥ ४५२ ॥ ४१ द्वारम् ॥ जिणनामा नामजिणा केवलिणो सिवगया य भावजिणा । ठवणजिणा पडिमाओ दबजिणा भाविजिणजीवा ॥ ४५३ ॥ ॥ ४२ द्वारम् ॥ सुमइत्थ निश्चभत्तेण निग्गओ वासुपूज्ज [जिणो] चउत्थेण । पासो मल्लीवि य अट्ठमेण सेसा उ छट्ठेणं ॥ ४५४ || ४३ द्वारम् ॥ अट्ठमभन्त्तवसाणे पासोसहमल्लिरिट्ठनेमीणं । वसुपुज्जस्स चउत्थेण छट्ठब्भत्तेण सेसाणं ॥ ४५५ ॥ ४४ द्वारम् ॥ निवाणं संपत्तो चउदसभत्तेण पढमजिणचन्दो । सेसा उ मासिएणं वीरजिणिंदो य छट्ठेणं ॥ ४५६ ॥ ४५ द्वारम् ॥ 146 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ४७८ ॥ वीरवरस्स भगवओ वोलिय चुलसीइवरिससहसेहिं । पउमाईचउवीसं जह हुंति जिणा तहा थुणिमो ॥ ४५७ ॥ पढमं च पउमनाहं सेणियजीवं जिणेसरं नमिमो । बीयं च सूरदेवं वंदे जीवं सुपासस्स || ४५८ ॥ तइयं सुपासनामं उदायिजीवं पणट्ठभववासं । वंदे सयंपभजिणं पुट्टिल्लजीवं चउत्थमहं ॥ ४५९ ॥ सखाणुभूइनामं दढाउजीवं च पंचमं वंदे । छ देवसुयजिणं वंदे जीवं च कित्तिस्स ॥ ४६० ॥ सत्तमयं उदयजिणं वंदे जीवं च संखनामस्स । पेढालं अट्ठमयं आणंदजियं नम॑सामि ॥ ४६१ ॥ पोट्टिलजिणं च नवमं सुरकयसेवं सुनंदजीवस्स । सयकित्तिजिणं दसमं वंदे सयगस्स जीवंति ॥ ४६२ ॥ एगारसमं मुणिसुबयं च वंदामि देवईजीयं । बारसमं अममजिणं सच्चइजीवं जयपईवं ॥ ४६३ ॥ निकसायं तेरसमं वंदे जीवं च वासुदेवस्स । बलदेवजियं वंदे चउदसमं निप्पुलायजिणं ॥ ४६४ ॥ सुलसाजीवं वंदे पन्नरसमं निम्म - मत्तजिणनामं । रोहिणिजीवं नमिमो सोलसमं चित्तगुत्तेति ॥ ४६५ ॥ सत्तरसमं च वंदे रेवइजीवं समाहिनामाणं । संवरमट्ठारसमं सयालिजीवं पणिवयामि ॥ ४६६ ॥ दीवायणस्स जीवं जसोहरं वंदिमो इगुणवीसं । कण्हजियं गयतण्हं वीसइमं विजयमभिवंदे ॥ ४६७ ॥ वंदे इगवीसइमं नारयजीवं च मल्लनामाणं । देवजिणं बावीसं अंबड जीवस्स वंदेऽहं ॥ ४६८ ॥ अमरजियं तेवीसं अणंतविरियामिहं जिणं वंदे । तह साइबुद्धजीवं चउवीसं भद्दजिणनामं ॥ ४६९ ।। उस्सप्पिणिइ चउ| वीस जिणवरा कित्तिया सनामेहिं । सिरिचंदसूरिनामेहिं सुहयरा हुंतु सयकालं ॥ ४७० ॥ ४६ द्वारम् ॥ चत्तारि उडलो दुवे समुद्दे तओ जले चेव । बावीसमहोलोए तिरिए अट्टुत्तरस्यं तु ॥ ४७१ ॥ ४७ द्वारम् ॥ इको व दो व तिन व अट्ठसयं जाव एकसमयम्मि । मणुयगईए सिज्झइ संखाउयवीयरागा उ || ४७२ ॥ ४८ द्वारम् ॥ प्रातिज्ञार्थातिशयदोषादीनि ४०-४८ ॥ ४७८ ॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थयर १ अतित्थयरा २ तित्थ ३ सलिंग ४ ऽन्नलिंग ५ थी ६ पुरिसा ७ । गिहिलिंग ८ नपुंसक ९ अतिसिद्धत्थ! १० पत्तेयबुद्धा ११ य ॥ ४७३ ॥ एग १२ अणेग १३ सयंबुद्ध १४ बुद्धबोहिय १५ पभेयओ भणिया । सिद्धते सिद्धाणं है। भेया पन्नरससंखत्ति ॥ ४७४ ॥ ४९ द्वारम् ॥ दो चेवुक्कोसाए चउर जहन्नाए मज्झिमाए उ । अट्ठाहियं सयं खलु सिज्झइ ओगाहणाइ तहा ॥ ४७५ ॥ ५० द्वारम् ॥ इह चउरो गिहिलिंगे दसऽन्नलिंगे सयं च अट्ठहियं । विन्नेयं च सलिंगे समएणं सिज्झमाणाणं ॥४७६॥ ५१ द्वारम् ॥ बत्तीसाई सिज्झति अविरयं जाव अट्ठअहियसयं । अट्ठसमएहिं एक्केणं जावेक्कसमयंमि ॥ ४७७ ॥ बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोद्धया । चुलसीई छन्नउई दुरहियमहोत्तरसयं च ॥ ४७८ ॥ ५२ द्वारम् ॥ वीसित्थीगाउ पुरिसाण अद्वसयं एगसमयओ सिझे । दस चेव नपुंसा तह उवरिं समएण पडिसेहो ॥ ४७९ ॥ वीस नरकप्पजोइस पंच य भवणवण दस य तिरियाणं । इत्थीओ पुरिसा पुण दस दस सबेऽवि कप्पविणा ॥ ४८०॥ कप्पदुसयं पुहवी आऊ पंकप्पभाउ चत्तारि । रयणाइसु तिसु दस दस छ तरूणमणंतरं सिझे ॥ ४८१॥५३॥ द्वारम् ॥ । दीहं वा इस्सं वा जं संठाणं तु आसि पुबभवे । तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥ ४८२ ॥ जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयंमि । आसीय पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥४८३ ॥ उत्ताणओ य पासिल्लओ य ठियओ निसन्नओ चेव । जो जह करेइ कालं सो तह उववज्जए सिद्धो॥ ४८४ ॥ ५४ द्वारम् ॥ Jan Education Intemani For Private Personel Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥४७९॥ । COMSEX ईसिप्पन्भाराए उवरिं खलु जोयणस्स जो कोसो। कोसस्स य छन्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥४८५॥ अलोए सिद्धभेदापडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया । इह बोंदि चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ ॥ ४८६ ॥ ५५ द्वारम् ॥ दीनि तिण्णि सया तेत्तीसा धणुत्तिभागो य होइ बोद्धबो । एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया ॥४८७॥ ५६ द्वारम् ॥ ४९-६० चत्तारि य रयणीओ रयणि तिभागूणिया य बोद्धबा । एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया ॥४८८॥ ५७ द्वारम् एगा य होइ रयणी अद्वेव य अंगुलाइ साहीया । एसा खलु सिद्धाणं जहण्णओगाहणा भणिया ॥४८९॥ ५८ द्वारम् ॥ सिरि उसहसेणपहु १ वारिसेण २ सिरिवद्धमाणजिणनाह ३ । चंदाणण ४ जिण सबेवि भवहरा होह मह तुन्भे ६ ॥ ४९० ॥ ५९ द्वारम् ॥ पत्तं पत्ताबंधो पायढवणं च पायकेसरिया। पडलाइं रयत्ताणं च गुच्छओ पायनिज्जोगो ॥ ४९१ ॥ तिन्नेव य पच्छागा |रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती। एसो दुवालसविहो उवही जिणकप्पियाणं तु ॥४९२ ॥ जिणकप्पियावि दुविहा पाणीपाया पडिग्गहधरा य । पाउरणमपाउरणा एक्केका ते भवे दुविहा ॥ ४९३ ॥ दुग १ तिग २ चउक्क ३ पणगं ४ नव ५ दस ६ एक्कारसेव ७ बारसगं ८ । एए अट्ठ विगप्पा जिणकप्पे हुंति उवहिस्स ॥ ४९४ ॥ पुत्तीरयहरणेहिं दुविहो तिविहो य एककप्पजुओ। चउहा कप्पदुएणं कप्पतिगेणं तु पंचविहो ॥ ४९५ ॥ दुविहो तिविहो चउहा पंचविहोऽविहु सपायनिजोगो। ॥४७९ ॥ जायइ नवहा दसहा एक्कारसहा दुवालसहा ॥ ४९६ ॥ अहवा दुगं च नवगं उवगरणे हुंति दुन्नि उ विगप्पा । पाउरण For Private & Personel Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIवजियाणं विसद्धजिणकप्पियाणं तु ॥ ४९७ ॥ तवेण सत्तेण, सुत्तेण एगत्तेण बलेण य । तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं| पडिवजओ ॥ ४९८ ॥ ६० द्वारम् ॥ एए चेव दुवालस मत्तग अइरेग चोलपट्टो उ । एसो चउदसरूवो उवही पुण थेरकप्पमि ॥ ४९९ ॥ तिणि विहत्थी 8 चउरंगुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं । एत्तो हीण जहन्नं अइरेगयरं तु उक्कोसं ॥ ५०० ॥ पत्ताबंधपमाणं भाणपमाणेण | होइ काय । जह गंठिमि कयंमि कोणा चउरंगुला हुंति ॥ ५०१॥ पत्तगठवणं तह गुच्छगो य पायपडिलेहणी चेव ।। तिण्हपि उ प्पमाणं विहत्थि चउरंगुलं चेव ॥ ५०२॥ अड्डाइजा हत्था दीहा छत्तीसअंगुले रुंदा । बीयं पडिग्गहाओढू | ससरीराओ य निष्फण्णं ॥ ५०३ ॥ कयलीगब्भदलसमा पडला उक्किट्ठमज्झिमजहण्णा । गिम्हे हेमंतंमि य वासासु |य पाणरक्खडा । ५०४॥ तिण्णि चउ पंच गिम्हे चउरो पंचच्छगं च हेमंते । पंच च्छ सत्त वासासु होति घणमसिणरूवा ते ॥ ५०५॥ माणं तु रयणत्ताणे भाणपमाणेण होइ निप्फन्नं । पायाहिणं करतं मज्झे चउरंगुलं कमइ ॥ ५०६ ॥ कप्पा आयपमाणा अड्डाइजा य वित्थडा हत्था । दो चेव सुत्तियाओ उण्णिय तइओ मुणेयवो ॥५०७ ॥ बत्तीसंगुलदीहं चउवीसं अंगुलाई दंडो से । अटुंगुला दसाओ एनयरं हीणमहियं वा ॥ ५०८ ॥ चउरंगुलं विहत्थी एवं मुहणंत-15 गस्स उ पमाणं । बीओऽवि य आएसो मुहप्पमाणेण निष्फण्णं ॥ ५०९॥ जो मागहओ पत्थो सविसेसयरं तु मत्तगपमाणं । दोसुवि दवग्गहणं वासावासे य अहिगारो ॥ ५१०॥ सूवोयणस्स भरियं दुगाउअद्धाणमागओ साहू । भुंजइ एगट्ठाणे एवं किर मत्तगपमाणं ॥५११॥ दुगुणो चउग्गुणो वा हत्थो चउरस्स चोलपट्टो उ । थेरजुवाणाणट्ठा सण्हे For Private & Personel Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ४८० ॥ स्थविरकल्पोपकर थुमि यं विभासा ॥ ५१२ ॥ संथारुत्तरपट्टो अड्डाइज्जा य आयया हत्था । दोहंपि य वित्थारो हत्थो चउरंगुलं चेव ॥ ५१३ ॥ आयाणे निक्खिवणे ठाणे निसियण तुयट्ट संकोए । पुत्रिं पमज्जणट्ठा लिंगट्ठा चेव रयहरणं ॥ ५१४ ॥ संपाइ | मरयरेणू पमज्जणड्डा वयंति मुहपोतीं । नासं मुहं च बंधइ तीए वसहिं पमजंतो ॥ ५१५ ॥ छक्कायरक्खणट्ठा पायग्गहणं ५ णानि ६१ | जिणेहिं पन्नत्तं । जे य गुणा संभोगे हवंति ते पायगहणेऽवि ॥ ५१६ ॥ तणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुक्कझाणट्ठा । दिङ्कं कप्पग्गहणं गिलाणमरणडया चैव ॥ ५१७ ॥ वेउबडवाउडे वाइए य ही खद्धपजणणे चैव । तेसिं अणुग्गहट्ठा लिंगु| दयट्ठा य पट्टो य ॥ ५१८ ॥ अवरेवि सयंबुद्धा हवंति पत्तेयबुद्धमुणिणोऽवि । पढमा दुविहा एगे तित्थयरा तदियरा अवरे ॥ ५१९ ॥ तित्थयरवज्जियाणं बोही उवही सुयं च लिंगं च । नेयाइँ तेसि बोही जाइस्सरणाइणा होइ ॥ ५२० ॥ मुहपत्ती रयहरणं कप्पतिगं सत्त पायनिज्जोग । इय बारसहा उवही होइ सयंबुद्धसाहूणं ॥ ५२१ ॥ हवइ इमेसि मुणीणं | पुबाहीयं सुअं अहव नत्थि । जइ होइ देवया से लिंग अप्प अहव गुरुणो ॥ ५२२ ॥ जइ एगागीधिहु विहरणक्खमो तारिसी व से इच्छा । तो कुणइ तमन्नहा गच्छवासमणुसरइ निअमेणं ॥ ५२३ ।। पत्तेयबुद्धसाहूण होइ वसहाइदंसणे बोही । पोतियरयहरणेहिं तेसि जहण्णो दुहा उवही ॥ ५२४ ॥ मुहपोत्ती रयहरणं तह सत्त य पत्तयाइनिजोगो । उक्कोसोऽवि नवविहो सुयं पुणो पुवभवपढियं ।। ५२५ || एक्कारस अंगाई जहन्नओ होइ तं तहुक्कोसं । देसेण असं पुन्नाई हुंति पुबाई दस तस्स ।। ५२६ ।। लिंगं तु देवया देइ होइ कइयावि लिंगर हिओवि । एगागी च्चिय विहरइ नागच्छ गच्छवासे सो ।। ५२७ ।। ६१ द्वारम् ॥ ॥ ४८० ॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educatio उवगरणाई चउद्दस अचोलपट्टाई कमढयजुयाई । अज्जाणवि भणियाइं अहियाणिवि हुंति ताणेवं ॥ ५२८ ॥ उग्गहSणंतग १ पट्टो २ अड्डोरुय ३ चलणिया ४ य बोद्धवा । अब्भिंतर ५ बाहिनियंसणी ६ य तह कंचुए ७ चेव ॥ ५२९ ॥ उक्कच्छिय ८ वेगच्छिय ९ संघाडी १० चेव खंधगरणी ११ य । ओहोवहिंमि एए अज्जाणं पन्नवीसं तु ॥ ५३० ॥ अह उग्गहणंतगं नावसंठियं गुज्झदेसरक्खट्टा । तं तु पमाणेणेक्कं घणमसिणं देहमासज्ज ॥ ५३१ ॥ पट्टोऽवि होइ एगो देहपमाणेण सो उ भइयो । छायंतोग्गहणंतं कडिबद्धो मल्लकच्छा व ॥ ५३२ ॥ अद्धोरुगोवि ते दोवि गिव्हिडं छायए कडीभागं । जाणुपमाणा चलणी असीविया लंखियाए व ॥ ५३३ ॥ अंतोनियंसणी पुण लीणतरी जाव अद्धजंघाओ । बाहिरगा जा खलुगा कडीइ दोरेण पडिबद्धा ॥ ५३४ ॥ छाएइ अणुकुइए उरोरुहे कंचुओ असिबियओ । एमेव य ओकच्छिय सा नवरं दाहिणे पासे ॥ ५३५ ॥ वेगच्छिया उ पट्टो कंचुगमुक्कच्छिगं च छायंतो । संघाडीओ चउरो तत्थ दुहत्था उवसयंमि ॥ ५३६ ॥ दोन्नि तिहत्थायामा भिक्खट्टा एग एगमुच्चारे। ओसरणे चउहत्थाऽनिसण्णपच्छायणा मसिणा ॥ ५३७ ॥ | खंधकरणी उ चउहत्थवित्थडा वायविहुयरक्खट्ठा | खुज्जकरणी उकीरइ रुववईणं कुडहहेऊ ॥ ५३८ ॥ ६२ द्वारम् ॥ जिणकप्पिया य साहू उक्कोसेणं तु एगवसहीए । सत्त य हवंति कहमवि अहिया कइयावि नो हुंति ॥५३९ ॥ ६३ द्वारम् ॥ अविहा गणिive चग्गुणा नवरि हुति बत्तीसं । विणओ य चउन्भेओ छत्तीस गुणा इमे गुरुणो ॥ ५४० ॥ आयार १ सुय २ सरीरे ३ वयणे ४ वायण ५ मई ६ पओगमई ७ । एएसु संपया खलु अट्ठमिया संगहपरिण्णा ८ (१) ॥ ५४१ ॥ चरणजुओ मयरहिओ अनिययवित्ती अचंचलो चेव (४) । जुग परिचिय उस्सग्गी उदत्तघोसाइ विन्नेओ (८) ॥ ५४२ ॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन आर्योपकरणादीनि ६२-६ ॥४८१॥ SAKSENSAR चरंसोकुंदाई बहिरत्तणवजिओ तवे सत्तो (१२)। वाई महुरक्षऽनिस्सिय फुडवयणो. संपया वयागेत्ति (१६)॥५४३॥ जोगो परिणमवायण निजविया वायणा' निबणे. (२०)। ओम्गह ईहावाया. धारण मइसंपया चउरोत्ति (२४) ॥५४४॥ सत्ती पुलिस क्षेत्र वत्धुं नावं पओजए वावं (२८) । गणजोगन संसत्तं सज्झाए सिक्खणं जाणे (३२)॥५४५ ॥ आयारे सुयरिणय विक्खिवणे व होइ बोद्धबा । दोसन्स परीघाए, विणए चउहेस. पडिवत्ती. (३६)॥५४६॥ सम्मत्तनाणचरणा पत्तेयं अट्ठअद्धमेल्ला । बास्सभेओ. य. तवो सूरिगुणा हुँति छत्तीसं (२) ॥ ५४७ ॥ आयाराई अट्ठ उ तह चेव य दसMIबिहोस ठियकप्पो । बारस तव छावस्सग सूरियणा हुंति बचीस (३)॥ ५४८॥ ६४ द्वारम् ॥ तित्थावर १. सिद्ध २ कुल ३ गण ४ संघ ५ किरिय ६धम्म ७णाणणाणीणं९। आयरिय १० थेरु ११ वज्झाय १२ गामीणं १३ तेस्स पवाई॥ ५४९ ॥ अणसायणा १ य भत्ती २ बहुमाणो ३ तह य वण्णसंजलणा ४ । तित्थयराई तेरस चउम्गुणा हुँति बावण्णा ॥ ५५० ॥ ६५ द्वारम् ॥ | वय ५ समणथम्म १० संजम १७ वेयावच्चं १० च बंभगुत्तीओ९ । नाणाइतियं ३ तव १२ कोहनिम्मा ४ इइ |चरणमेयं ७०॥५५१॥ पाणिवह मुसाकाए अदत्त मेहुण परिम्महे चेव । एयाइं होति पंच उ महबयाई जईणं तु ॥५५२॥ खंतीय महवऽजव मुत्ती तक संजमे य बोद्धवे । सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥ ५५३ ॥ पंचासवा विरमणं पंचिंदिवनिग्महो कसायजओ । दंडत्तयस्स विरई सतरसहा संजमो होइ ॥ ५५४ ॥ पुढवि १ दग २ अगणि ३] मारुय ४ वणस्सइ ५ बि ६ति ७ चउ ८ पणिंदि ९ अज्जीवा १०। पेहु ११ प्पेह १२ पमज्जण १३ परिठवण १४ SANSKRIT ॥४८१॥ Jain Education insanthal Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणो १५ कई १६ काए १७ ॥ ५५५ ॥ आवरिय १ उवज्झाए २ तवस्सि ३ सेहे ४ गिलाण ५ साहू ६ । समणोन्न ७ संघ ८ कुल ९ गण १० वेयावच्चं हवइ दसहा ॥ ५५६ ॥ वसहि १ कह २ निसिद्धिं ३ दिय ४ कुहुंतर ५ पुक्कीलिय ६ पणीए ७ । अइमायाहार ८ विभूसणाई ९ नव वंभगुत्तीओ ॥ ५५७ ॥ वारस अंगाईयं नाणं तत्तत्थसदहाणं तु । दंसणमेयं चरणं विरई देसे य सबै यः ॥ ५५८ ॥ अणसणमूणोयरिया वित्तिसंखेवणं रसच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तको होइ ॥ ५५९ ॥ पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गोवि य अभितरओ तवो होइ ॥ ५६० ॥ कोहो माणो माया लोभो चउरो हवंति हु कसाया। एएसिं निग्गहणं चरणस्स हवंतिमे मेया ॥ ५६१ ॥ ६६ द्वारम् ॥ पिंडविसोही ४ समिई ५ भावण १२ पडिमा १२ य इंदियनिरोहो ५ । पडिलेहण २५ गुत्तीओ ३ अभिग्महा ४ देव करणं तु ७० ॥ ५६२ ॥ सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाय दोसति । दस एसणाय दोसा बायालीसं इह हवन्ति | ॥ ५६३ ॥ आहाकम्मु १ देसिय २ पूईकम्मे ३ य मीसजाए य ४ । ठवणा ५ पाहुडियाए ६ पाओयर ७ कीय ८ पामिच्छे ९ ॥ ५६४ ॥ परियट्टिए १० अभिहड ११ भिन्ने १२ मालोहडे १३ य अच्छि १४ । अणिसिट्टे १५ ऽज्झोयरए १६ सोलस पिण्डुग्गमे दोसा ॥ ५६५ ॥ धाई १ दूइ २ निमित्ते ३ आजीव ४ क्णीमगे ५ तिमिच्छा ६ य । कोहे ७ माणे ८ माया ९ लोमे १० य हवंति दस एए ॥ ५६६ ॥ पुषिं पच्छा संथव ११ विज्जा १२ मंते १३ य चुण्ण १४ जोगे १५ य। उप्पायणाय दोसा सोलसमे मूलकम्मे १६ य ॥ ५६७ ॥ संकिय १ मक्खिय २ निक्खित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ० सूत्रे ॥ ४८२ ॥ दायगु ६ मिस्से ७ । अपरिणय ८ लित्त ९ छड्डिय १० एसणदोसा दस हवंति ॥ ५६८ ।। पिंडेसणा य सबा संखित्तोयरइ नवसु कोडीसु । न हणइ न किणइ न पयइ कारावणअणुमईहि नव ॥ ५६९ ॥ कम्मुद्देसियचरिमे तिय पूइयमी - | सचरिमपाहुडिया । अज्झोयर अविसोही विसोहिकोडी भवे सेसा ॥ ५७० ॥ इरिया १ भासा २ एसण ३ आयाणाईसु ४ तह परिट्ठवणा ५ । सम्मं जा उ पवित्ती सा समिई पंचहा एवं ।। ५७१ ॥ पढममणिच्च १ मसरणं २ संसारो ३ एगया य ४ अन्नत्तं ५ । असुइत्तं ६ आसव ७ संवरो ८ य तह निजरा ९ नवमी ॥ ५७२ ॥ लोगसहावो १० बोहि य दुलहा ११ धम्मस्स साहओ अरहा १२ । एयाउ हुंति बारस जहकमं भावणीयाओ ॥ ५७३ ॥ मासाई सत्ता ७ पढमा ८ बिइ ९ तइय सत्तराइदिणा १० । अहराइ ११ एगराई १२ भिक्खूपडिमाण बारसगं ॥ ५७४ ॥ पडिवज्जइ एयाओ संघ| यणधिइजुओ महासत्तो । पडिमाओ भावियप्पा सम्मं गुरुणा अणुन्नाओ || ५७५ ॥ गच्छेश्चिय निम्माओ जा पुवा दस भवे असं पुण्णा । नवमस्स तइय वत्थं होइ जहण्णो सुआभिगमो ॥ ५७६ ॥ वोसट्टचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी । एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवडं तस्स ॥ ५७७ ॥ गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवज्जइ मासियं महापडिमं । दत्तेगा भोयणस्सा | पाणस्सवि तत्थ एग भवे ॥ ५७८ ॥ जत्थत्थमेइ सूरो न तओ ठाणा पर्यपि संचलइ । नाएगराइवासी एगं च दुगं च अण्णाए | ॥ ५७९ ॥ दुट्ठाण हत्थिमाईण नो भएणं पयंपि ओसरइ । एमाइनियमसेवी विहरइ जाऽखण्डिओ मासो ॥ ५८० ॥ पच्छा गच्छमुवेई एव दुमासी तिमासि जा सत्त । नवरं दत्ती बढइ जा सत्त उ सत्तमासीए ॥ ५८१ ॥ तत्तो य अट्ठमीया भवई इह पढम सत्तराइंदी । तीइ चउत्थचउत्थेणऽपाणएणं अह विसेसो ॥ ५८२ ॥ उत्ताणगपासल्ली नेसज्जी वावि ठाण ठाइत्ता । चरणकर सतती ६६-७ ।। ४८२ ॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहउस्सग्गे घोरे दिवाई तत्थ अविकंपो॥५८३ ॥ दोच्चावि एरिसच्चिय बहिया गामाइयाण नवरं तु । उकुडलगंडसाई ना दण्डाययउब ठाइत्ता ॥ ५८४॥ तच्चावि एरिसच्चिय नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरासणमहवावि चिट्ठिज्जा अंबखुजो वा ॥ ५८५ ॥ एमेव अहोराई छ8 भत्तं अपाणगं नवरं । गामनगराण बहिया वग्धारियपाणिए ठाणं ॥ ५८६ ॥ एमेव | एगराई अट्ठमभत्तेण ठाण बाहिरओ । ईसीपब्भारगए अणिमिसनयणेगदिट्ठीए ॥ ५८७ ॥ साहट्ट दोवि पाए वग्धारियदापाणि ठायए ठाणं । वाघारियलंबियभुओ अंते य इमीइ लद्धित्ति ॥५८८॥ फासण १ रसणं २ घाणं ३ चक्खू ४ सोयंति ५ इंदियाणेसिं । फास १ रस २ गंध ३ वण्णा ४ सद्दा ५ विसया विणिहिट्ठा ॥ ५८९ ॥ पडिलेहणाण गोसावराण्हउग्घा डपोरिसीसु तिगं । तत्थ पढमा अणुग्गय सूरे पडिक्कमणकरणाओ॥ ५९० ॥ मुहपोत्ति १ चोलपट्टो २ कप्पतिगं ३-४-५ दादो निसिज्ज ६-७ रयहरणं ८ । संथारु ९त्तरपट्टो १० दस पेहाऽणुग्गए सूरे ॥ ५९१ ॥ उवगरणचउद्दसगं पडिलेहिजइ | दिणस्स पहरतिगे। उग्घाडपोरिसीए उ पत्तनिजोगपडिलेहा ॥५९२॥ पडिलेहिऊण उवहिं गोसंमि पमजणा उ वसहीए। अवरण्हे पुण पढमं पमज्जणा तयणु पडिलेहा ॥ ५९३ ॥ दोन्नि य पमजणाओ उउंमि वासासु तइय मज्झण्हे । वसहिं बहुसो पमज्जण अइसंघट्टऽन्नहिं गच्छे ॥ ५९४ ॥ मणगुत्तिमाइयाओ गुत्तीओ तिन्नि हुंति नायबा । अकुसलनिवित्तिरूवा |कुसलपवित्तिस्सरूवा य ॥ ५९५ ॥ दबे खित्ते काले भावे य अभिग्गहा विणिहिट्ठा । ते पुण अणेगभेया करणस्स इमं सरूवं तु॥ ५९६॥६७ द्वारम् ॥ अइसयचरणसमत्था जंघाविजाहिं चारणा मुणओ । जंघाहिँ जाइ पढमो निस्सं काउं रविकरेऽवि ॥ ५९७ ॥ एगुप्पा For Private & Personel Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ४८३ ॥ एण गओ रुगकरंमि य तओ पडिमियतो । बीएणं नंदीसरमेइ तइएण समएणं ॥ ५९८ ॥ पढमेण पंडगवणं बीउ - प्पारण नंदणं एछ । तइउप्पारण तओ इह जंघाचारणो एइ ॥ ५९९ ॥ पढमेण माणुसोत्तरनगं तु नंदीसरं तु बीएणं । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहयं ॥ ६०० ॥ पढमेण नंदणवणे बीउप्पारण पंडगवणंमि । एइ इहं तइएणं जो विजाचारणो होइ ॥ ६०१ ॥ ६८ द्वारम् ॥ परिहारियाण उ तवो जहन्न मज्झो तहेव उक्कोसो । सीउण्हवासकाले भणिओ धीरेहिं पत्तेयं ॥ ६०२ ॥ तत्थ जहन्नो गिम्हे चउत्थ छ तु होइ मज्झिमओ । अट्ठममिहमुक्तोसो एत्तो सिसिरे पवक्खामि ॥। ६०३ ॥ सिसिरे तु जहन्न तवो छट्ठाई दसमचरमगो होइ । वासासु अट्टमाई बारसपज्जंतगो नेओ ॥ ६०४ ॥ पारणगे आयामं पंचसु गहो दोसुऽभिग्गहो भिक्खे । कप्पट्ठियावि पइदिण करेंति एमेव आयामं ॥ ६०५ ॥ एवं छम्मासतवं चरिजं परिहारिया अणुचरंति । अणु| चरगे परिहारियपरिट्ठिए जाव छम्मासा ॥ ६०६ ॥ कप्पट्ठिओऽवि एवं छम्मासतवं करेइ सेसा उ । अणुपरिहारियभावं | वयंति कप्पट्ठियत्तं च ॥ ६०७ ॥ एवं सो अट्ठारसमासपमाणो य वन्निओ कप्पो । संखेवओ विसेसो विसेससुत्ताउ नायबो ॥ ६०८ ॥ कप्पसम्मत्तीऍ तयं जिणकप्पं वा उविंति गच्छं वा । पडिवज्जमाणगा पुण जिणस्सगासे पवज्जंति ॥ ६०९ ॥ | तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व नो व अन्नस्स । एएसिं जं चरणं परिहारविसुद्धिगं तं तु ॥ ६१० ॥ ६९ द्वारम् ॥ लंद तु होइ कालो सो पुण उक्कोस मज्झिम जहन्नो । उदउल्लकरो जाविह सुक्कइ सो होइ उ जहन्नो ॥ ६११ ॥ उक्कोस पुबकोडी मज्झे पुण होंति णेगठाणाई । एत्थ पुण पंचरत्तं उक्कोसं होइ अहलंदं ॥ ६१२ ॥ जम्हा उ पंचरत्तं चरंति तम्हा जंघाचार णादीनि ६८-९ ॥ ४८३ ॥ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा चेव य जिणकजह जिणाणं तु । तसिं तु सो SAKESHALISASSASSAGESSES उ हुँतिहार्लदी। पंचेव होङ् गच्छो तेसिं उक्कोसपरिमाणं ॥ ६१३ ॥ जा चेव य जिणकप्पे मेरा सा चेव लंदियाणंपि नाणत्तं पुण सुत्ते भिक्खायरिमासकप्पे य॥ ६१४ ॥ अहलंदिआण गच्छे अप्पडिबद्धाण जह जिणाणं तु । नवरं कालविसेसो उउवासे पणग चउमासो ॥ ६१५॥ गच्छे पडिबद्धाणं अहलंदीणं तु अह पुण विसेसो । उग्गह जो तेसिं तु सो आयरियाण आभवइ ॥ ६१६ ॥ एगवसहीऍ पणगं छबीहीओ य गामि कुवंति । दिवसे दिवसे अन्नं अडंति वीहीसु नियमेणं ॥ ६१७॥ पडिबद्धा इयरेऽवि य एकेक्का ते जिणा य थेरा य । अत्थस्स उ देसम्मि य असमत्ते तेसि पडिबंधो ॥ ६१८ ॥ लग्गाइसु तुरंते तो पडिवज्जित्तु खित्तबाहिठिया । गिहंति जं अगहियं तत्थ य गंतूण आयरिओ ॥ ६१९ ॥ तेसिं तयं पयच्छइ खेत्तं इंताण तेसिमे दोसा । वंदंतमवंदंते लोगंमि य होइ परिवाओ॥ ६२०॥ न तरेज जई गंतुं| आयरिओ ताहे एइ सो चेव । अंतरपल्लिं पडिवसभ गामबहि अण्णवसहिं वा ॥ ६२१॥ तीए य अपरिभोगे ते वंदंते न वंदई सो उ । तं घेत्तु अपडिबद्धा ताहि जहिच्छाइ विहरंति ॥ ६२२ ॥ जिणकप्पियावि तहियं किंचि तिगिच्छंपि ते न कारेंति । निप्पडिकम्मसरीरा अवि अच्छिमलंपि नऽवणिति ॥ ६२३ ॥ थेराणं नाणत्तं अतरंतं अप्पिणति गच्छस्स । तेऽवि य से फासुएणं करेंति सबंपि परिकम्मं ॥ ६२४ ॥एक्केक्कपडिग्गहगा सप्पाउरणा भवंति थे। उ । जे पुण सिं जिणकप्पे भयएसिं वत्थपायाई ॥ ६२५ ॥ गणमाणओ जहण्णा तिणि गणा सयग्गसो य उक्कोसा। पुरिसपमाणे पनरस सहस्ससो चेव उक्कोसा ॥ ६२६॥ पडिवज्जमाणगा वा एक्काइ हवेज ऊणपक्खेवे । होति जहण्णा एए सयग्गसो चेव उक्कोसा ॥२७॥ पुबपडिवनगाणवि उक्कोसजहण्णसो परीमाणं । कोडिपुहुत्तं भणियं होइ अहालंदियाणं तु ॥ ६२८ ॥ ७० द्वारम् ॥ Jan Education International For Private Personal use only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥४८४॥ SASALAMSALAAMANAS उच्चत्त १दार २ संथार ३ कहग ४ वाईय ५ अग्गदारंमि ६ । भत्ते ७ पाण८ वियारे ९-१० कहग ११ दिसा जे यथालन्दिसमत्था य १२॥६२९॥ एएसिं तु पयाणं चउक्कगेणं गुणिजमाणाणं । निजामयाण संखा होइ जहासमयनिदिहा॥३०॥ कादीनि |उवत्तंति परावत्तयंति पडिवण्णअणसणं चउरो १। तह चउरो अब्भंतर दुवारमूलंमि चिट्ठति २॥ ६३१ ॥ संथारयसं-18 ७०-७२ थरया चउरो ३ चउरो कहिंति धम्म से ४ । चउरो य वाइणो ५ अग्गदारमूले मुणिचउक्कं ६॥ ६३२ ॥ चउरो भत्तं ७ चउरो य दाणियं तदुचियं निहालंति ८ । चउरो उच्चारं परिदृवंति ९ चउरो य पासवणं १०॥ ६३३ ॥ चउरो बाहिं धम्म कहिंति ११ चउरो य चउसुवि दिसासु । चिट्ठति १२ उवद्दवरक्खया सहसजोहिणो मुणिणो ॥ ६३४ ॥ ते सवाभावे ता कुज्जा एक्केक्कगेण ऊणा जा । तप्पासट्ठिय एगो जलाइअण्णेसओ बीओ ॥ ६३५ ॥ ७१ द्वारम् ॥ इरियासमिए सया जए १, उवेह भुंजेज व पाणभोयणं २। आयाणनिक्खेवदुगुंछ ३ संजए, समाहिए संजयए मणो ४ वई ५॥ ६३६ ॥ अहस्ससच्चे ६ अणुवीय भासए ७, जे कोह ८ लोह ९ भय १० मेव वजए। से दीहरायं समुपेहिया सया, मुणी हु मोसंपरिवजए सिया ॥ ६३७ ॥ सयमेव उ उग्गहजायणे ११ घडे, मइमं निसम्मा १२ सइ भिक्खु उग्गहं १३ । अणुन्नविय भुंजीय पाणभोयणं १४, जाइत्ता साहम्मियाण उग्गहं १५॥ ६३८॥ आहारगुत्ते १६ अविभूसियापा १७, इत्थी न निज्झाय १८ न संथवेज्जा १९ । बुद्धे मुणी खुड्डुकहं न कुज्जा २०, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं| ॥ ६३९ ॥ जे सद्द २१ रूव २२ रस २३ गंधमागए २४, फासे य संपप्प मणुण्णपावए २५ । गेहिं पओसं न करेज पंडिए, से होइ दंते विरए अकिंचणे ॥ ६४० ॥ ७२ द्वारम् ॥ ॥ For Private & Personel Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंदप्पदेव १ किबिस २ अभिओगा ३ आसुरी ४ य सम्मोहा ५ । एसा हु अप्पसत्था पंचविहा भावणा तत्थ ॥ ६४१ ॥ कंदप्पे १ कुकुइए २ दोसीलत्ते य ३ हासकरणे ४ य । परविम्हियजणणेऽवि य ५ कंदप्पोऽणेगहा तह य ॥ ६४२ ॥ | सुयनाण १ केवलीणं २ धम्मायरियांण ३ संघ ४ साहूणं । माई अवण्णवाई किचिसियं भावणं कुणइ ॥ ६४३ ॥ कोउय १ भूईकम्मे २ पसिणेहिं ३ तह य पसिणपसिणेहिं ४ । तहय निमित्तेणं ५ चिय पंचवियप्पा भवे सा य ॥ ६४४ ॥ सइ विग्गहसीलत्तं १ संसत्ततवो २ निमित्तकहणं च ३ । निक्किवयावि य ४ अवरा पंचमगं निरणुकंपत्तं ५ ॥ ६४५ ॥ उम्म ग्गदेसणा १ मग्गदूसणं २ मग्गविपडिवित्तीय ३ । मोहो य ४ मोहजणणं ५ एवं सा हवइ पंचविहा || ६४६ ||७३ द्वारम् ॥ पंचवओ खलु धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं चउबिहो होइ विन्नेओ ॥ ६४७ ॥ ७४ द्वारम् ॥ चत्तारि पडिक्कमणे किइकम्मा तिण्णि हुंति सज्झाए । पुबण्हे अवरण्हे किइकम्मा चउदस हवंति ॥ ६४८ ॥ ७५ द्वारम् ॥ तिण्णि य चारिताई बावीसजिणाण एरवयभरहे । तह पंचविदेहेसुं बीयं तइयं च नवि होइ ॥ ६४९ ॥ ७६ द्वारम् ॥ सिज्जायरपिंडंमि य १ चाउज्जामे य २ पुरिसजिट्टे य ३ । किइकम्मस्स य करणे ४ ठिकप्पो मज्झिमाणं तु ॥ ६५० ॥ ७७ द्वारम् ॥ आचेलक्कु १ देसिय २ पडिक्कमणे ३ रायपिंड ४ मासेसु ५ । पज्जुसणाकप्पंमि य ६ अट्ठियकप्पो मुणेयवो ॥ आचलको धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं होइ सचेलो अचेलो वा ॥ ६५२ ॥ ६५१ ॥ मज्झि Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ४८५ ॥ मगाणं तु इमं कडं जमुद्दिस्स तस्स चेवत्ति । नो कप्पइ सेसाणं तु कप्पइ तं एस मेरत्ति ॥ ६५३ ॥ सपडिक्कमणो धम्मो | पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिकमणं ॥ ६५४ ॥ असणाइचक्कं वत्थपत्तकंबलयपायपुंछणए । निवपिंडंमि न कप्पति पुरिमअंतिमजिणजईणं ॥ ६५५ ।। पुरिमेयरतित्थकराण मासकप्पो ठिओ | विणिद्दिट्ठी । मज्झिमगाण जिणाणं अट्ठियओ एस विष्णेओ ।। ६५६ ॥ पज्जोसवणाकप्पो चेवं पुरिमेयराइभेएणं । उक्को| सेयरभेओ सो नवरं होइ विनेओ ।। ६५७ ॥ चाउम्मासुकोसो सत्तरि राईदिया जहन्नो उ । थेराण जिणाणं पुण नियमा उक्कोसओ चैव ॥ ६५८ ।। ७८ द्वारम् ॥ भत्ती १ मंगलचेइय २ निस्सकड ३ अनिस्सकडचेइयं ४ वावि । सासयचेइय ५ पंचममुवइट्टं जिणवरिंदेहिं ॥ ६५९ ॥ गिहि जिणपडिमाए भत्तिचेइयं १ उत्तरंगघडियंमि । जिणबिंबे मंगलचेइयंति २ समयन्नृणो बिंति ॥ ६६० ॥ निस्सकडं जं गच्छस्स संतियं ३ तदियरं अनिस्सकडं ४ | सिद्धाययणं च ५ इमं चेइयपणगं विणिहि ॥ ६६१ ॥ नीयाई सुरलोए |भत्तिकयाइं च भरहमाईहिं । निस्सानिस्सकयाई मंगलकयमुत्तरंगंमि ॥ ६६२ ॥ वारत्तयस्स पुत्तो पडिमं कासीय चेइए | रम्मे । तत्थ य थली अहेसी साहम्मियचेइयं तं तु ॥ ६६३ ॥ ७९ द्वारम् ॥ गंडी १ कच्छवि २ मुट्ठी ३ संपुड़फलए ४ तहा छिवाडी य ५ । एयं पोत्थयपणगं वक्खाणमिणं भवे तस्स ॥ ६६४ ॥ बाहल्लपुहुत्तेहिं गंडीपोत्थो उ तुलगो दीहो १ । कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेयवो ॥ ६६५ ॥ चउरंगुलदीहो वा वट्टागिइ मुट्ठिपुत्थगो अहवा । चउरंगुलदीहो च्चिय चउरंसो होइ विन्नेओ ॥ ६६६ || संपुडगो दुगमाई फलया वोच्छं अशुभभावनादीनि ७३-९ ।। ४८५ ।। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | छिवाडिमित्ताहे । तणुपत्तूसियरूवो होइ छिवाडी बुहा बेंति ॥ ६६७ ॥ दीहो वा हस्सो वा जो पिहुलो होइ अप्पबाहल्लो । तं मुणियसमयसारा छिवाडिपोत्थं भणंतीह ॥ ६६८ ॥ ८० द्वारम् ॥ लट्ठी १ तहा विट्ठी २ दंडो य ३ विदंडओ य ४ नाली अ ५ । भणियं दंडयपणगं वक्खाणमिणं भवे तस्स ॥ ६६९ ॥ लट्ठी आयपमाणा विट्ठी चउरंगुलेण परिहीणा । दंडो बाहुपमाणो विदंडओ कक्खमित्तो उ ॥ ६७० ॥ लट्ठीए चउरंगुल समूसिया दंडपंचगे नाली । नइपमुहजलुत्तारे तीए थग्विजए सलिलं ॥ ६७१ ॥ बज्झइ लट्ठीए जवणिया विलट्ठीऍ कत्थइ दुवारं । घट्टिज्जइ ओवस्सयतणयं तेणाइरक्खडा ।। ६७२ || उउबद्धम्मि उ दंडो विदंडओ धिप्पए वरिसयाले । जं सो लहुओ निज्जइ कप्पंतरिओ जलभरणं ॥ ६७३ ॥ विसमाइ वद्धमाणाई दस य पवाई एगवन्नाई । दंडेसु अपोल्लाई सुहाई सेसाई असुहाई ॥ ६७४ ॥ ८१ द्वारम् ॥ aणपण पुण भणियं जिणेहिं जियरागदोसमोहेहिं । साली १ वीहिय २ कोद्दव ३ रालय ४ रने तणाई च ५ ।। ६७५ ।। ८२ द्वारम् ॥ १ एल २ गाव ३ महिसी ४ मिगाणमजिणं च ५ पंचमं होइ । तलिगा १ खल्लग २ वद्धे ३ कोसग ४ कित्ती य ५ बीयं तु ॥ ६७६ ।। ८३ द्वारम् ॥ अप्पडिलेहियदू तूली १ उवहाणगं च २ नायवं । गंडुवहाणा ३ ऽऽलिंगिणि ४ मसूरए ५ चैव पोत्तमए ॥ ६७७ ॥ पल्हवि १ कौयवि २ पावार ३ नवयए ४ तह य दाढिगाली व ५ । दुप्पडिलेहियदूसे एवं बीयं भवे पणगं ॥ ६७८ ॥ 444অ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रे प्रवचन | पल्हवि हत्थत्थरणं कोयवओ रूयपूरिओ पडओ। दढगाली धोयपोती सेस पसिद्धा भवे भेया ॥ ६७९ ॥ खरडो १ तहपुस्तकपश्चवोरुडी २ सलोमपडओ ३ तहा हवइ जीणं ४ । सदसं वत्थं ५ पल्हविपमुहाणमिमे उ पज्जाया ॥ ६८०॥८४ द्वारम् ॥1I कादीनि देविंद१राय २ गिहवइ ३ सागरि ४ साहम्मि ५ उग्गहे पंच । अणुजाणाविय साहूण कप्पए सवया वसिउं ॥१८॥ ८०-८६ ॥४८६॥ अणुजाणावेयबो जईहिं दाहिणदिसाहिवो इंदो १। भरहमि भरहराया २ जं सो छक्खंडमहिनाहो ॥ ६८२ ॥ तह गिहवईवि देसस्स नायगो ३ सागरित्ति सेज्जवई ४ । साहम्मिओ य सूरी जंमि पुरे विहियवरिसालो ५॥ ६८३ ॥ तप्पडिबद्धं तं जाव दोणि मासे अओ जईण सया । अणणुनाए पंचहिवि उग्गहे कप्पइ न ठाउं ॥ ६८४ ॥ ८५ द्वारम् ॥ । खुहा १ पिवासा २ सी ३ उण्हं ४, दंसा ५ चेला ६ रइ ७ थिओ । चरिया ९निसीहिया १० सेजा ११, अक्कोस |१२ वह १३ जायणा १४ ॥ ६८५ ॥ अलाभ १५ रोग १६ तणफासा १७, मल १८ सक्कार १९ परीसहा । पन्ना २० अन्नाण २१ सम्मत्तं २२, इइ बावीस परीसहा ॥ ६८६ ॥ दंसणमोहे दसणपरीसहो पन्नऽनाण पढमंमि । चरमेऽलाभ-18 परीसह सत्तेव चरित्तमोहम्मि ॥ ६८७ ॥ अक्कोस अरइ इत्थी निसीहियाऽचेल जायणा चेव । सक्कारपुरकारे एक्कारस वेयणिजमि ॥ ६८८॥ पंचेव आणुपुषी चरिया ६ सेजा ७ तहेव जल्ले य ८। वह ९ रोग १० तणफासा ११ सेसेसुं नत्थि अवयारो॥ ६८९ ॥ बावीसं बायरसंपराय चउद्दस य सुहुमरायम्मि । छउमत्थवीयरागे चउदस एक्कारस जिणंमि दि॥ ६९० ॥ वीसं उक्कोसपए वटृति जहन्नओ य एक्को य । सीओसिणचरियनिसीहिया य जुगवं न वटुंति ॥ ६९१॥ ॥४८६॥ ८६ द्वारम् ॥ SHOCHSAASAASAASAASAS SANSAASAASAASAASAASA Jan Education International For Private Personal use only www.ainelibrary.org Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PASRC सुत्ते १ अत्थे २ भोयण ३ काले ४ आवस्सए य ५ सज्झाए ६ । संथारे ७ चेव तहा सत्तेया मंडली जइणो ॥६९२॥ ८७ द्वारम् ॥ IPL मण १ परमोहि २ पुलाए ३ आहारग ४ खवग ५ उवसमे ६ कप्पे ७। संयमतिय ८ केवल ९ सिज्झणा १० य जंबुमि वोच्छिन्ना ॥ ६९३ ॥८८ द्वारम् ॥ ___ अण मिच्छ मीस सम्मं अट्ठ नपुंसित्थीवेय छक्कं च । पुंवेयं च खवेई कोहाईएवि संजलणे ॥ ६९४ ॥ कोहो माणो माया लोहोऽणंताणुबंधिणो चउरो । खविऊण खवइ संढो मिच्छं मीसं च सम्मत्तं ॥ ६९५ ॥ अप्पच्चक्खाण चउरो पच्चक्खाणे य सममवि खवेइ । तयणु नपुंसगइत्थीवेयदुर्ग खविय खवइ समं ॥ ६९६ ॥ हासरइअरइपुंवेयसोयभयजुयदुगुंछ सत्त | इमा। तह संजलणं कोहं माणं मायं च लोभं च ॥ ६९७ ॥ तो किट्टीकयअस्संखलोहखंडाई खविय मोहखया । पावइ लोयालोयप्पयासयं केवलं नाणं ॥ ६९८ ॥ नवरं इत्थी खवगा नपुंसर्ग खविय खवइ थीवेयं । हासाइछगं खविउ खवइ सवेयं नरो खवगो ॥ ६९९ ॥ ८९ द्वारम् ॥ ___ अणदंसनपुंसित्थीवेय छकं च पुरिसवेयं च । दो दो एगंतरिए सरिसे सरिसं उवसमेइ ॥७००॥ कोहं माणं मायं लोभ मणताणुबंधमुवसमइ । मिच्छत्तमिस्ससम्मत्तरूवपुंजत्तयं तयणु ॥७०१॥ इत्थिनपुंसगवेए तत्तो हासाइछक्कमेयं तु । हासो दारई य अरइ य सोगो य भयं दुगुंछा य ॥ ७०२ ॥ तो पुंवेयं तत्तो अप्पच्चक्खाणपच्चखाणा य । आवरणकोहजुयलं पस२ मइ संजलणकोहंपि ॥ ७०३ ॥ एयकमेण तिन्निवि माणे माया उ लोहतियगंपि । नवरं संजलणाभिहलोहतिभागे इय| MAAHARIRAJAAPANG व Jan Education Intemani For Private Personel Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्वन ॥४८७॥ | च्छिन्न विसेसो ॥७०४॥ संखेयाई किट्टीकयाई खंडाई पसमति कमेणं । पुणरवि चरिम खंडं असंखखंडाई काऊण ॥७०५॥ ८७-९२ अणुसमवं एकेक उवसामइ इह हि सत्सगोवसमे । होइ अपुवो तत्तो अनियट्टी होइ नपुमाइ ॥७०६॥ पसमंतो जा मंडलीव्यु संखेबलोहखंडाओं चरिमखंडस्स । संखाईए खंडे पसमतो सुहुमराओ सो॥ ७०७ ॥ इय मोहोवसमम्मी कयम्मि उघसंतमोहगुणठाणं । सबट्ठसिद्धिहेउं संजायइ वीवरायाणं ॥७०८ ॥९०द्वारम् ॥ श्रेण्यादी । अणावायमसंलोए १, परस्साणुवघायए २। समे ३ अज्झुसिरे यावि ४, अचिरकालकयमि ५ य ॥ ७०९॥ विच्छिन्ने I गा. दुरमोगाढे ७, नासन्ने ८ बिलवज्जिए ९ । तसपाणबीयरहिए १०, उच्चाराईणि वोसिरे ॥ ७१०॥ ९१ द्वारम् ॥ ४६९२-७१ | उप्पायं पढमं पुण एक्कारसकोडिपयपमाणेणं । बीब अग्गाणीय छन्नउई लक्खपयसंखं ॥ ७११ ॥ विरियप्पवायपुवं सत्तरिपयलक्खलक्खियं तइयं । अत्थियनत्थिपवायं सट्ठीलक्खा चउत्थं तु ॥ ७१२॥ नाणप्पवायनाम एवं एगणकोडिपयसंखं । सच्चप्पवायपुवं छप्पयअहिएगकोडीए ॥७१३ ॥ आयप्पवायपुवं पयाण कोडी उ हुंति छत्तीसं । कम्मप्पवाय-| गवरं असीइ लक्खहिय पयकोडी ॥७१४॥ नवमं पच्चक्खाणं लक्खा चुलसी पयाण परिमाणं । विजप्पवाय पनरस सहस्स एक्कारस उ कोडी ॥७१५॥ छबीसं कोडीओ पयाण पुबे अवंझणामंमि । छप्पन्न लक्ख अहिया पयाण कोडी उ पाणाऊ3 ॥ ७१६ ॥ किरियाविसालपुवं नव कोडीओ पयाण तेरसमं । अद्धत्तेरसकोडी चउदसमे बिंदुसारम्मि ॥ ७१७ ॥ पढमं |आयारंगं अट्ठारस पयसहस्सपरिमाणं । एवं सेसंगाणवि दुगुणादुगुणप्पमाणाई ॥ ७१८ ॥ ९२ द्वारम् ॥ पंच नियंठा भणिया पुलाय १ बउसा २ कुसील ३ निग्गंथा ४। होइ सिणाओ य ५ तहा एकेको सो भवे दुविहो कोहएगकोडीचार्य सट्टीलगाय छन्न ४८७ Join Education International Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ॥ ७१९ ॥ गंथो मिच्छत्तधणाइओ मओ जे य निम्नया तत्तो। ते निम्गंधा कुत्ता तेसि पुलाओ भवे पढमो ॥ ७२० ॥ | मिच्छत्तं वेयतियं हासाई छक्कगं च नायवं । कोहाईण चउक्कं चउदस अभितरा गंथा ॥ ७२१ ॥ खेत्तं वत्थं धणधन्नसंचओ मित्तनाइसंजोगो । जाणसयणासणाणि य दासा दासीउ कुवियं च ॥ ७२२ ॥ धन्नमसारं भन्नइ पुलायसद्देण तेण जस्स समं । चरणं सो हु पुलाओ लद्धीसेवाहि सो य दुहा ॥ ७२३ ॥ उवगरणसरीरेसुं बउसो दुविहो दुहावि पंचविहो । | आभोग १ अणाभोए २ संबुड ३ अस्संबुडे ४ सुहुमे ५ ॥ ७२४ ॥ आसेवणा कसाए दुहा कुसीलो दुहावि पंचविहो । नाणे १ दंसण २ चरणे ३ तवे ४ य अहसुहुमए ५ चेव ॥ ७२५ ॥ उवसामगो १ य खवगो २ दुहा नियंठो दुहावि पंचवि हो । पढमसमओ १ अपढमो २ चरम ३ अचरमो ४ अहासुमो ५ ॥ ७२६ ॥ पाविज्जइ अट्ठसयं खवगाणुवसामगाण चउपन्ना । उक्कोसओ जहन्नेणेक्को व दुर्ग व तिगमहवा ॥ ७२७ ॥ सुहझाणजलविसुद्धो कम्ममलावेक्खया सिणाओत्ति । दुविहो य सो सजोगी तहा अजोगी विणिद्दिट्ठो ॥ ७२८ ॥ मूलुत्तरगुणविसया पडिसेवा सेवए पुलाए य । उत्तरगुणेसु बउसो सेसा पडिसेवणारहिया ॥ ७२९ ॥ निग्गंथसिणायाणं पुलाय सहियाण तिण्ह वोच्छेओ । समणा वउसकुसीला जा तित्थं ताव होहिंति ॥ ७३० ॥ ९३ द्वारम् ॥ निग्गंथ १ सक्क २ तावस ३ गेरुय ४ आजीव ५ पंचहा समणा । तम्मी निग्गंथा ते जे जिणसासणभवा मुणिणो ॥ ७३१ ॥ सक्का य सुगयसीसा जे जडिला ते उ तावसा गीया । जे धाउरत्तवत्था तिदंडिणो गेरुया ते उ ॥ ७३२ ॥ जे गोसालगमयमणुसरंति भन्नंति ते उ आजीवा । समणत्तणेण भुवणे पंचवि पत्ता प्रसिद्धिमिमे || ७३३ ॥ ९४ द्वारम् ॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥४८८॥ संजोयणा १ पमाणे २ इंगाले ३ धूम ४ कारणे ५ चेव । उवगरणभत्तपाणे सबाहिरऽभंतरा पढमा ॥ ७३४ ॥ कुकुडिअंडयमेत्ता कवला बत्तीस भोयणपमाणे । राएणाऽऽसायंतो संगारं करइ सचरित्तं ॥ ७३५ ॥ भुंजतो अमणुन्नं दोसेण8/ निर्ग्रन्थासधूमगं कुणइ चरणं । वेयणआयंकप्पमुहकारणा छच्च पत्तेयं ॥ ७३६ ॥ वेयण १ वेयावच्चे २ इयरिद्वाए य ३ संजमट्ठाए दीनि गा. ४। तह पाणवत्तियाए ५ छ8 पुण धम्मचिंताए ६॥ ७३७ ॥ आर्यके १ उवसग्गे २ तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु ३ । ७१९-४७ पाणिदया ४ तवहेऊ ५ सरीरवोच्छेयणट्ठाए ६ ॥ ७३८ ॥९५ द्वारम् ॥ ___ संसट्ठ १ मसंसट्ठा २ उद्धड ३ तह अप्पलेविया ४ चेव । उग्गहिया ५ पग्गहिया ६ उज्झियधम्मा ७ य सत्तमिया ॥ ७३९ ॥ तंमि य संसट्ठा हत्थमत्तएहिं इमा पढम मिक्खा १। तविवरीया बीया भिक्खा गिण्हंतयस्स भवे २॥७४०॥ नियजोएणं भोयणजायं उद्धरियमुद्धडा भिक्खा ३ । सा अप्पलेविया जा निल्लेवा वल्लचणगाई ४॥७४१॥ भोयणकाले | निहिया सरावपमुहेसु होइ उग्गहिया ५। पग्गहिया जं दाउं भुत्तुं व करेण असणाई ६ ॥७४२ ॥ भोयणजायं जं छड्डुणारिहं नेहयंति दुपयाई । अद्धच्चत्तं वा सा उज्झियधम्मा भवे भिक्खा ॥ ७४३ ॥ पाणेसणावि एवं नवरि चउत्थीऍ होइ नाणत्तं । सोवीरायामाई जमलेवाडत्ति समयुत्ती ॥ ७४४ ॥ ९६ द्वारम् ॥ उज्जु १ गंतुं पच्चागइया २ गोमुत्तिया ३ पयंगविही ४ । पेडा य ५ अद्धपेडा ६ अभितर ७ बाहिसंबुक्का ८॥७४५॥ ठाणा उज्जुगईए भिक्खंतो जाइ वलइ अनडंतो। पढमाए १ बीयाए पविसिय निस्सरइ भिक्खंतो २॥ ७४६ ॥ वामाओ दाहिणगिहे भिक्खिजइ दाहिणाओ वामंमि । जीए सा गोमुत्ती ३ अड्डवियड्डा पयंगविही ४॥ ७४७॥ चउदिसि सेणी K25*55****** For Private Personel Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40SA ASOSISKA OSS भमणे मज्झे मुक्कमि भन्नए पेडा ५। दिसिदुगसंबद्धस्सेणिमिक्खणे अद्धपेडत्ति ६ ॥७४८॥ अभितरसंबुक्का जीए भमिरो दाबहिं विणिस्सरइ ७ । बहिसंबुक्का भन्नइ एयं विवरीयमिक्खाए ८॥ ७४९ ॥ ९७ द्वारम् ॥ ___ आलोयण १ पडिकमणे २ मीस ३ विवेगे ४ तहा विउस्सग्गे ५ । तव ६ छेय ७ मूल ८ अणवडिया य ९ पारं चिए चेव १० ॥ ७५० ॥ आलोइजइ गुरुणो पुरओ कजेण हत्थसयगमणे १ । समिइपमुहाण मिच्छाकरणे कीरइ पडिहै कमणं २॥ ७५१ ॥ सदाइएसु रागाइविरयणं साहिउं गुरूण पुरो । दिजइ मिच्छादुक्कडमेयं मीसं तु पच्छित्तं ३ ॥७५२॥ कजो अणेसणिजे गहिए असणाइए परिच्चाओ ४ । कीरइ काउस्सग्गो दिढे दुस्सविणपमुहंमि ५॥ ७५३ ॥ निधिगयाई दिजइ पुढवाइविघट्टणे तवविसेसो ६ । तवदुद्दमस्स मुणिणो किज्जइ पज्जायवुच्छेओ७॥ ७५४ ॥ पाणाइवायपमुहे पुणवयारोवणं विहेय ८ ठाविज्जइ न वएसुं कराइघायप्पट्ठमणो ९॥७५५ ॥ पारंचियमावजइसलिंगनिवभारियाइसेवाहिं । अबत्तलिंगधरणे बारसवरिसाई सूरीणं १०॥ ७५६ ॥ नवरं दसमावत्तीऍ नवममज्झावयाण पच्छित्तं । छम्मासे जाव तयं जहन्नमुक्कोसओ वरिसं ॥ ७५७ ॥ दस ता अणुसजंती जा चउदसपुवि पढमसंघयणी । तेण परं मूलंतं दुप्पहै सहो जाव चारित्ती ॥ ७५८ ॥ ९८ द्वारम् ॥ सामायारी ओहंमि ओहनिज्जुत्तिजंपियं सर्व ९९ द्वा.। सा पयविभागसामायारी जा छेयगंथुत्ता ।।७५९॥१०० द्वारम् ॥ इच्छा १ मिच्छा २ तहकारो ३, आवस्सिया य ४ निसीहिया ५ । आपुच्छणा य ६ पडिपुच्छा ७, छंदणा य ८ निमतणा ९॥७६०॥ उवसंपया य १० काले, सामायारी भवे दसविहा उ । एएसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥७६१॥ Jan Education Intemanona For Private Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन जाए करेजवा मिच्छा एयातकप्पणं तहक्कारा ७६५ ॥ आपाय तिविहा लाख रिया ४० ९७१०३ भिक्षादीनि | गा. ७४८-७७१ ॥४८९॥ जइ अब्भत्थिज परं कारणजाए करेज से कोई । तत्थ य इच्छाकारो न कप्पइ बलामिओगो उ१॥७६२ ॥ संजम- जोए अब्भुद्वियस्स जं किंपि वितहमायरियं । मिच्छा एयंति वियाणिऊण मिच्छत्ति कायचं २॥ ७६३ ॥ कप्पाकप्पे परिनिट्ठियस्स ठाणेसु पंचसु ठियस्स । संयमतवड्डगस्स उ अविकप्पेणं तहक्कारो ३ ॥ ७६४ ॥ आवस्सिया विहेया अवस्सगंतबकारणे मुणिणो ४ । तम्मि निसीहिया जत्थ सेजठाणाइ आयरइ ५॥ ७६५ ॥ आपुच्छणा उ कजे ६ पुवनिसिद्धेण होइ पडिपुच्छा ७ । पुवगहिएण छंदण ८ निमंतणा होअगहिएणं ९॥७६६ ॥ उवसंपया य तिविहा नाणे तह दसणे चरित्ते य १० । एसा हु दसपयारा सामायारी तहऽन्ना य ॥ ७६७ ॥ पडिलेहणा १ पमजण २ भिक्खि ३ रिया ४|ऽऽलोग ५ भुंजणा ६ चेव । पत्तगधुयण ७ वियारा ८ थंडिल ९ आवस्सयाईया १०॥७६८ ॥ १०१ द्वारम् ॥ उवसमसेणिचउक्कं जायइ जीवस्स आभवं नूणं । ता पुण दो एगभवे खवगस्सेणी पुणो एगा ॥७६९॥ १०२ द्वारम् ॥ गीयत्यो य विहारो बीओ गीयत्थमीसओ भणिओ । एत्तो तइयविहारो नाणुनाओ जिणवरेहिं ॥ ७७० ॥ दबओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं तु खेत्तओ। कालओ जाव रीएजा, उवउत्ते य भावओ॥ ७७१ ॥ १०३ द्वारम् ॥ __ अप्पडिबद्धो अ सया गुरूवएसेण सवभावेसुं । मासाइविहारेणं विहरेज जहोचियं नियमा ॥ ७७२ ॥ मुत्तूण मासकप्पं अन्नो सुत्तमि नत्थि उ विहारो । ता कहमाइग्गहणं कज्जे ऊणाइभावेणं ॥ ७७३ ॥ कालाइदोसओ जइ न दबओ एस कीरए नियमा । भावेण तहवि कीरइ संथारगवच्चयाईहिं ॥ ७७४ ॥ काऊण (कम्हिंपि) मासकप्पं तत्थेव ठियाण तीस ६ मग्गसिरे । सालंबणाण जिट्ठोग्गहो य छम्मासिओ होइ ॥ ७७५ ॥ अह अस्थि पयवियारो चउपाडिवयंमि होइ निग्गमणं ।। ॥४८९ । Join Education International Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहवावि अनितस्सा आरोवण सुत्तनिद्दिढ ॥ ७७६ ॥ एगक्खेत्तनिवासी कालाइक्कंतचारिणो जइवि। तहवि हु विसुद्धचरणा विसुद्धआलंबणा जेण ॥ ७७७ ॥ सालंबणो पडतो अत्ताणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इय सालंबणसेवी धारेइ जई असढभावं ॥ ७७८ ॥ काहं अछित्तिं अदुवा अहिस्सं, तवोवहाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं व नीइसु य सारइस्सं, सालंब-18 सेवी समुवेइ मोक्खं ॥ ७७९ ॥ १०४ द्वारम् ॥ आ जाओ य अजाओ य दुविहो कप्पो य होइ नायबो । एक्केकोऽवि य दुविहो समत्तकप्पो य असमत्तो ॥७८०॥ गीयत्थुर जायकप्पो अगीयओ खलु भवे अजाओ य । पणगं समत्तकप्पो तदूणगो होइ असमत्तो॥७८१॥ उउबद्धे वासासुं सत्त समत्तो तदूणगो इयरो । असमत्ताजायाणं ओहेण न किंचि आहवं ॥ ७८२ ॥ १०५ द्वारम् ॥ PI दिस अवरदक्षिणा १ दक्खिणा य २ अवरा य ३ दक्खिणापुबा ४ । अवरुत्तरा य ५ पुषा ६ उत्तर ७ पुषुत्तरा | ८ चेव ॥७८३॥ पउरऽन्नपाण पढमा बीयाए भत्तपाण न लहंति । तइयाएँ उवहिमाई नत्थि चउत्थी' सज्झाओ ॥७८४॥ है पंचमियाए संखडी छट्ठीएँ गणस्स भेयणं जाण । सत्तमिया गेलन्नं मरणं पुण अट्ठमे बिति ॥ ७८५ ॥ दिसिपवणगाम सूरियछायाएँ पमजिऊण तिक्खुत्तो। जस्सोग्गहोत्ति काऊण वोसिरे आयमेज्जा वा ॥ ७८६ ॥ उत्तरपुवा पुज्जा जम्माएँ | निसायरा अहिपडंति । घाणारिसा य पवणे सूरियगामे अवन्नो उ ॥ ७८७ ॥ संसत्तग्गहणी पुण छायाए निग्गयाएँ वोसि-18 रइ । छायाऽसइ उण्हंमिवि वोसिरिय मुहत्तयं चिट्टे ॥ ७८८ ॥ उवगरणं वामगजाणुगंमि मत्तो य दाहिणे हत्थे । तत्थ|ऽन्नत्थ व पुंछे तिआयमणं अदूरंमि ॥ ७८९ ॥ १०६ द्वारम् ॥ For Private Personal use only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ४९० ॥ बाले १ वुढे २ नपुंसे य ३, कीवे ४ जड्डे य ५ वाहिए ६ । तेणे ७ रायावगारी य ८, उम्मत्ते य ९ अदंसणे १० ॥ ७९० ॥ दासे ११ दुडे य १२ मूढे य १३, अणत्ते १४ जुंगिए इय १५ । ओबद्धए य १६ भयए १७, सेहनिप्पेडिया इय १८ ॥ ७९१ ॥ १०७ द्वारम् ॥ जे अट्ठारस भैया पुरिसस्स तहित्थियाऍ ते चेव । गुबिणी १ सबालवच्छा २ दुन्नि इमे हुंति अन्नेवि ॥ ७९२ ॥ | १०८ द्वारम् ॥ पंडए १ वाइए २ कीवे ३, कुंभी ४ ईसालुयत्ति य ५ । सउणी ६ तक्कमसेवी ७ थ, पक्खियापक्खिए ८ इय ॥ ७९३ ॥ सोगंधिए य ९ आसत्ते १०, दस एते नपुंसगा । संकिलिट्ठित्ति साहूणं, पद्यावेउं अकप्पिया ॥ ७९४ ॥ १०९ द्वारम् ॥ हत्थे पाए कन्ने नासा उट्ठे विवज्जिए चेव । वामणगवडभखुज्जा पंगुलटा य काणा य ॥ ७९५ ॥ पच्छावि होंति वियला आयरियत्तं न कप्पर तेसिं । सीसो ठावेयचो काणगमहिसोव निम्मंमि ॥ ७९६ ॥ ११० द्वारम् ॥ मुल्लजुयं पुण तिविहं जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं । जहनेणऽङ्कारसगं सयसाहस्सं च उक्कोसं ॥ ७९७ ॥ दो साभरगा दीविच्चगा उ सो उत्तरावहो एक्को । दो उत्तरावहा पुण पाडलिपुत्तो हवइ एक्को । ७९८ ।। दो दक्खिणावहा वा कंचीए नेलओ स दुगुणाओ । एक्को कुसुमनगरओ तेण पमाणं इमं होइ ॥ ७९९ ॥ १११ द्वारम् ॥ सेज्जायरो पहू वा पहुसंदिट्ठो य होइ कायबो । एगो णेगे य पहू पहुसंदिट्ठेवि एमेव ॥ ८०० ॥ सागारियसंदिट्ठे एगम| णेगे चउक्कभयणा उ । एगमणेगा वज्जा णेगेसु य ठावए एगं ॥ ८०१ ॥ अन्नत्थ वसेऊणं आवस्सग चरिममन्नहिं तु करे । १०४-१११ विहारादी नि गा. ७७६-८०१ ॥ ४९० ॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K HASSASSINAASARAS दोन्निवि तरा भवंती सत्थाइसु अन्नहा भयणा ॥ ८०२॥ जइ जग्गंति सुविहिया करेंति आवस्सयं तु अन्नत्थ । सिजायरो न होई सुत्ते व कए व सो होई ॥ ८०३ ॥ दाऊण गेहं तु सपुत्तदारो, वाणिजमाईहि उ कारणेहिं । तं चेव अन्नं | व वएज देस, सेज्जायरो तत्थ स एव होइ ॥८०४॥ लिंगत्थस्सवि वज्जो तं परिहरओ व भुंजओ वावि । जुत्तस्स अजुत्तस्स व रसावणे तत्थ दिद्रुतो ॥ ८०५॥ तित्थंकरपडिकुट्ठो अन्नायं उग्गमोवि य न सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवया दुल्लहसेजा उ वोच्छेओ ॥ ८०६॥ पुरपच्छिमवजेहिं अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं । भुत्तं विदेहएहि य न य सागरिअस्स | पिंडो उ ॥ ८०७ ॥ बाहुल्ला गच्छस्स उ पढमालियपाणगाइकजेसु । सज्झायकरणआउट्टिया करे उग्गमेगयरं ॥ ८०८॥ ११२ द्वारम् ॥ | चउदस दस य अभिन्ने नियमा सम्मं तु सेसए भयणा । मइओहिविवज्जासे होइ हु मिच्छं न सेसेसु ॥ ८०९॥8 ११३ द्वारम् ॥ चउदस ओही आहारगावि मणनाणि वीयरागावि । हुँति पमायपरवसा तयणंतरमेव चउगइया ॥८१०॥ ११४ द्वारम्॥ जमणुग्गए रविमि अतावखेत्तंमि गहियमसणाइ । कप्पइ न तमुवभोत्तुं खेत्ताईयत्ति समउत्ती ॥ ८११॥ असणाईयं कप्पइ कोसदुगभंतराउ आणेउं । परओ आणितं मग्गाईयंति तमकप्पं ॥ ८१२ ॥ पढमप्पहराणीयं असणाइ जईण कप्पए भोत्तुं । जाव तिजामे उडे तमकप्पं कालइकंतं ॥ ८१३ ॥ कुक्कुडिअंडयमाणा कवला बत्तीस साहुआहारे । अहवा ARAASARA Jan Education Intemanong For Private Personel Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० ॥ ४९१ ॥ निययाहारो कीरइ बत्तीसभाएहिं ॥ ८१४ ॥ होइ पमाणाईयं तदहियकवलाण भोयणे जइणो । एगकवलाइऊणे ऊणोयरिया तवो संति ( तंमि ) ॥ ८१५ ॥ ११५ ११६।११७|११८ द्वारम् ॥ पवयणअसहाणं- १ परलाभेहा य २ कामआसंसा ३ । ण्हाणाइपत्थणं ४ इय चत्तारिऽवि दुक्खसेज्जाओ ।। ८१६ ॥ ११९ द्वा. सुहसेज्जाओऽवि चउरो जइणो धम्माणुरायरत्तस्स । विवरीयायरणाओ सुहसेज्जाउत्ति भन्नंति ॥ ८१७।। १२० द्वारम् ॥ अट्ठा १ णट्ठा २ हिंसा ३ कम्हा ४ दिट्ठी य ५ मोस ६ दिने ७ य । अज्झप्प ८ माण ९ मित्ते १० माया ११ लोभे १२ रियावहिया १३ ।। ८१८ ।। तस्थावरभूएहिं जो दंडं निसरई उ कज्ज्ञेणं । आयपरस्स व अट्ठा अट्ठादंडं तयं बिंति १ ॥ ८१९ ॥ जो पुण सरडाईयं थावरकायं च वणलयाईयं । मारेइ छिंदिऊण व छड्डेई सो अणट्ठाए २ ॥ ८२० ॥ अहिमाइवयरियस्स व हिंसिंसुं हिंसई व हिंसेही । जो दंड आरभई हिंसादंडो हवइ एसो ३ ।। ८२१ ॥ अन्नट्ठाए निसिरइ कंडाई अन्नमाहणे जो उ । जो व निअंतो सस्सं छिंदिज्जा सालिमाईयं ॥ ८२२ ॥ एस अकमहादंडो ४ दिट्ठविवज्जासओ इमो होइ । जो मित्तममित्तंति काउं घाएज अहवावि ॥ ८२३ ॥ गामाई घाएज व अतेण तेणत्ति वावि धाएजा । | दिविवज्जासेसो किरियाठाणं तु पंचमयं ५ ॥ ८२४ ॥ अत्तट्ठ नायगाईण वावि अट्ठाइ जो मुसं वयइ । सो मोसप्पच्चइओ दंडो छट्ठो हवइ एसो ६ ॥ ८२५ || एमेव आयनायगअट्ठा जो गिण्हई अदिन्नं तु । एसो अदिन्नवत्ती ७ अज्झत्थीओ | इमो होइ ॥ ८२६ ॥ नवि कोइ य किंचि भणइ तहवि हु हियएण दुम्मणो किंचि । तस्सऽज्झत्थी सीसइ चउरो ठाणा इमे तस्स ॥ ८२७ ॥ कोहो माणो माया लोभो अज्झत्थकिरिय एवेसा ८ । जो पुण जाइमयाई अट्ठविहेणं तु माणेणं |११२-१२० शय्यान्तः रादीनि गा. ८०२-२७ ॥ ४९१ ॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANSARREARSAA ॥ ८२८ ॥ मत्तो हीलेइ परं खिंसइ परिभवइ माणवत्तेसा ९ । माइपिइनायगाईण जो पुण अप्पेवि अवराहे ॥ ८२९॥ तिबं दंडं कुणई दहणंकणबंधताडणाईयं । तम्मित्तदोसवित्ती किरियाठाणं भवे दसमं १०॥ ८३०॥ एगारसमं माया अन्नं हिययंमि अन्न वायाए । अन्नं आयरई वा सकम्मणा गूढसामत्थो ॥ ८३१॥ मायावत्ती एसा ११ एत्तो पुण लोहवत्तिया इणमो। सावजारंभपरिग्गहेसु सत्तो महंतेसु ॥ ८३२ ॥ तह इत्थीकामेसु गिद्धो अप्पाणयं च रक्खंतो । अन्नेसिं सत्ताणं वहबंधणमारणे कुणइ ॥ ८३३ ॥ एसेह लोहवत्ती १२ इरियावहिअं अओ पवक्खामि । इह खलु अणगारस्सा समिईगुत्तीसुगुत्तस्स ॥ ८३४ ॥ सयतं अणप्पमत्तस्स भगवओ जाव चक्खुपम्हंपि । निवयइ ता सुहुमा हू इरियावहिया | किरिय एसा १३ ॥ ८३५ ॥ १२१ द्वारम् ॥ ___सामाइयं चउद्धा सुय १ दंसण २ देस ३ सब ४ भेएहिं । ताण इमे आगरिसा एगभवं पप्प भणियबा ॥ ८३६ ॥ तिण्ह सहस्सपुहुत्तं च सयपुहुत्तं च होइ विरईए । एगभवे आगरिसा एवइया हुंति नायबा ॥ ८३७ ॥ तिण्ह असंखसहस्सा सहसपुहुत्तं च होइ विरईए । नाणभवे आगरिसा एवइया टुतिं नायवा ॥ ८३८ ॥ १२२ द्वारम् ॥ सीलंगाण सहस्सा अट्ठारस एत्थ हुँति नियमेणं । भावेणं समणाणं अक्खंडचरित्तजुत्ताणं ॥ ८३९ ॥ जोए ३ करणे ३ सन्ना ४ इंदिय ५ भोमाइ १० समणधम्मे य १० । सौलंगसहस्साणं अट्ठारगस्स निष्फत्ती ॥ ८४० ॥ करणाइँ तिन्नि || जोगा मणमाईणि हवंति करणाई । आहाराई सन्ना चउ सोयाइंदिया पंच ॥ ८४१॥ भोमाई नव जीवा अजीवकाओ य समणधम्मो य । खंताइदसपयारो एवं ठिय भावणा एसा ॥ ८४२॥ न करइ मणेण आहारसन्नविप्पजढगो उ निय Join Education International Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन मेण । सोइंदियसंवरणो पुढविजिए खंतिसंजुत्तो ॥ ८४३ ॥ इय महवाइजोगा पुढवीकाए हवंति दस भेया । आउकाया- १२१-१२१ ईसुवि इअ एए पिंडिअंतु सयं ॥ ८४४ ॥ सोइंदिएण एवं सेसेहिवि जं इमं तओ पंच । आहारसन्नजोगा इय सेसाहिं क्रियादी सहस्सदुगं ॥ ८४५ ॥ एवं मणेण वयमाइएसु एवं तु छस्सहस्साई । न करे सेसेहिंपि य एए सबेवि अद्वारा ॥ ८४६ ॥ ॥४९२॥ दि १२३ द्वारम् ॥ दाद२९-८५ __नेगम १ संगह २ ववहार ३ रिजुसुए ४ चेव होइ बोद्धबे । सद्दे ५ य समभिरूढे ६ एवंभूए ७य मूलनया ॥ ८४७॥ एकेको य सयविहो सत्त नयसया हवंति एवं तु । बीओवि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥ ८४८॥ १२४ द्वारम् ॥8 | जन्न तयट्ठा कीयं नेव वुयं जं न गहियमन्नेसिं । आहड पामिच्चं चिय कप्पए साहुणो वत्थं ॥ ८४९ ॥ अंजणखंजणकइमलित्ते, मूसगभक्खियअग्गिविदढे । उन्निय कुट्टिय पजवलीढे, होइ विवागो सुह असुहो वा ॥ ८५०॥ नवभागकए वत्थे चउरो कोणा य दुन्नि अंता य । दो कन्नावट्टीउ मज्झे वत्थस्स एकं तु ॥ ८५१ ॥ चत्तारि देवया भागा, दुवे भागा य माणुसा । आसुरा य दुवे भागा, एगो पुण जाण रक्खसो ॥ ८५२ ॥ देवेसु उत्तमो लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो। आसुरेसु य गेलन्नं, मरणं जाण रक्खसे ॥ ८५३ ॥ १२५ द्वारम् ॥ ___ आगम १ सुय २ आणा ३ धारणा ४ य जीए ५ य पंच ववहारा। केवल १ मणो २ हि ३ चउदस ४ दस ५ नव| पुवाइ ६ पढमोऽत्थ ॥ ८५४ ॥ कहेहि सब जो वुत्तो, जाणमाणोऽवि गृहइ । न तस्स दिति पच्छित्तं, बिंति अन्नत्थ ॥४९२। सोहय ॥ ८५५॥ न संभरे य जे दोसे, सन्भावा न य मायओ। पञ्चक्खी साहए ते उ, माइणो उन साहए १॥८५६॥ वहो सत्त नयसया हवतिहमनेसि । आहड पामिञ्च चियागो सुह असुहो वा ॥ या भागा, दुवे भागा तयट्ठा की जयगिविदहे । उन्निय कुष्ट्रिय प्रजवलत्यस एकं तु ॥ ८५१ ॥ चतार, माणुसेसु य मज्झिम *********** For Private & Personel Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्पाई सेसं सर्व्वं सुयं विणिदि २ । देसंतरट्ठियाणं गूढपयालोयणा आणा ३ ।। ८५७ ॥ गीयत्थेणं दिन्नं सुद्धिं अवहारिकण तह चैव । दिंतस्स धारणा तह उद्धियपयधरणरूवा वा ४ ॥ ८५८ ॥ दबाइ चिंतिऊणं संघयणाईण हाणि - मासज्ज | पायच्छित्तं जीयं रूढं वा जं जहिं गच्छे ५ ।। ८५९ ।। १२६ द्वारम् । पंच अहाजायाई चोलगपट्टो १ तहेव रयहरणं २ । उन्निय ३ खोमिय ४ निस्सेज्जजुयलयं तह य मुहपोत्ती ५ ॥८६० ॥ १२७ द्वारम् ॥ सबेsवि पढमजा दोन्नि य वसहाण आइमा जामा । तइओ होइ गुरूणं चउत्थ सबे गुरू सुयइ ॥ ८६१ ॥ १२८द्वारम् ॥ सहुद्धरणनिमित्तं गीयस्सऽन्नेसणा उ उक्कोसा । जोयणसयाई सत्त उ बारस वासाई कायवा ।। ८६२ ।। १२९ द्वारम् ॥ जावज्जीवं गुरुणो असुद्धसुद्धेहिं वावि कायवं । वसहे बारस वासा अट्ठारस भिक्खुणो मासा ॥ ८६३ ॥ १३० द्वारम् ॥ अप्पत्ते च्चिय वासे सबं वहिं धुवंति जयणाए । असईए उदगस्स उ जहन्नओ पायनिज्जोगो ॥। ८६४ ॥ आयरिय गिलाणाणं मइला मइला पुणोवि धोइज्जा । मा हु गुरूण अवण्णो लोगम्मि अजीरणं इअरे ॥ ८६५ ॥ १३१ द्वारम् ॥ बत्तीस किरकवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥ ८६६ ॥ अद्धमसणस्स सर्वजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । वायपवियारणट्ठा छन्भागं ऊणयं कुज्जा ॥ ८६७ ॥ सीओ उसिणो साहारणो य कालो तिहा मुणेयचो । साहारणंमि काले तत्थाहारे इमा मत्ता ॥ ८६८ ॥ सीए दवस्स एगो भत्ते चत्तारि अहव दो Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनापाणे । उसिणे दवस्स दुन्नी तिन्नि व सेसा उ भत्तस्स ॥ ८६९ ॥ एगो दवस्स भागो अवडिओ भोयणस्स दो भागा।|| १२६-३६ वहुंति व हायति व दो दो भागा उ एक्केके ।। ८७० ॥१३२ द्वारम् ॥ आज्ञादीनि, | पट्टीवंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीओ । मूलगुणहिँ विसुद्धा एसा हु अहागडा वसही ॥ ८७१ ॥ वंसगकडणो- गा. ॥४९३॥ |कंवण छायण लेवण दुवारभूमी य । परिकम्मविप्पमुक्का एसा मूलुत्तरगुणेसु ॥ ८७२ ॥ दूमिय धूविय वासिय उज्जोइय ८५७-८२ बलिकडा अवत्ता य। सित्ता संमट्ठावि य विसोहिकोडिं गया वसही ॥ ८७३ ॥ मूलुत्तरगुणसुद्धं थीपसुपंडगविवज्जियं | वसहिं । सेविज सबकालं विवजए हुंति दोसा उ ॥ ८७४ ॥ १३३ द्वारम् ॥ ॥ चत्तारि विचित्ताई ४ विगईनिज्जूहियाई चत्तारि ८। संवच्छरे य दोन्नि उ एगंतरियं च आयाम १० ॥ ८७५ ॥ नाइ| विगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयाम । अवरेऽवि य छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्म ११॥ ८७६ ॥ वासं कोडीसहियं १२ आयामं कट्ठ आणुपुबीए । गिरिकंदरं व गंतुं पाओवगर्म पवजेइ ॥ ८७७ ॥ १३४ द्वारम् ॥ नयराइएसु घेप्पइ वसही पुवामुहं ठविय बसहं । वामकडीइ निविट्ठ दीहीकअग्गिमेकपयं ॥८७८॥ सिंगक्खोडे कलहो ठाणं पुण नेव होइ चलणेसु । अहिठाणे पोट्टरोगो पुच्छंमि य फेडणं जाण ॥ ८७९ ॥ मुहमूलंमि य चारी सिरे य कउहे य पूयसकारो । खंधे पट्ठीय भरो पुटुंमि य धायओ वसहो ॥ ८८०॥ १३५ द्वारम् ॥ | उसिणोदगं तिदंडुक्कलियं फासुयजलंति जइकप्पं । नवरि गिलाणाइकए पहरतिगोवरिवि धरियवं ॥ ८८१॥ जायइ ॥४९३॥ सचित्तया से गिम्हमि पहरपंचगस्सुवरि । चउपहरोवरि सिसिरे वासासु पुणो तिपहरुवरि ॥ ८८२ ॥ १३६ द्वारम् ॥ Jan Education Intemanonal For Private Personal use only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिगुणा तिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयवा । सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तयहिया चेव ॥ ८८३ ॥ बत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहिया य तह य देवाणं । देवीओ पन्नत्ता जिणेहिं जियरागदोसेहिं ॥ ८८४ ॥१३७ द्वारम् ॥ उवसग्ग १ गम्भहरणं २ इत्थीतित्थं ३ अभाविया परिसा ४ । कण्हस्स अवरकंका ५ अवयरणं चंदसूराणं ६ ॥८८५॥ | हरिवंसकुलुप्पत्ती ७ चमरुप्पाओ ८ य अट्ठसयसिद्धा ९ । अस्संजयाण पूया १० दसवि अणंतेण कालेणं ॥८८६॥ सिरिरिसहसीयलेसुं एकेक मल्लि नेमिनाहे य । वीरजिणिंदे पंच उ एग सबेसु पाएणं ॥ ८८७ ॥ रिसहे अढहियसयं सिद्धं सीयलजिणमि हरिवंसो। नेमिजिणेऽवरकंकागमणं कण्हस्स संपन्नं ॥८८८॥ इत्थीतित्थं मल्ली पूया अस्संजयाण नवमजिणे। अवसेसा अच्छेरा वीरजिणिंदस्स तित्थंमि ॥ ८८९ ॥ १३८ द्वारम् ॥ पढमा भासा सच्चा १ बीया उ मुसा विवज्जिया तासिं २। सच्चामुसा ३ असञ्चामुसा ४ पुणो तह चउत्थीत्ति ॥८९०॥ जणवय १ संमय २ ठवणा ३ नामे ४ रूवे ५ पडुच्चसच्चे य ६ । ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ दसमे ओवम्मसच्चे य १० ॥ ८९१॥ कोहे १ माणे २ माया ३ लोभे ४ पेजे ५ तहेव दोसे ६ य । हास ७ भए ८ अक्खाइय ९ उवघाए १० द निस्सिया दसहा ॥ ८९२ ॥ उप्पन्न १ विगय २ मीसग ३ जीव ४ अजीवे ५ य जीवअज्जीवे ६ । तह मीसगा अणंता ७ परित्त ८ अद्धा ९ य अद्धद्धा १०॥ ८९३ ॥ आमंतणि १ आणमणी २ जायणि ३ तह पुच्छणी य ४ पन्नवणी ५। ४ पच्चक्खाणी भासा ६ भासा इच्छाणुलोमा य ७॥ ८९४ ॥ अणभिग्गहिया भासा ८ भासा य अभिग्गहमि ९ बोद्धबा । |संसयकरणी १० भासा वोयड ११ अबोयडा १२ चेव ॥ ८९५ ॥ १३९ द्वारम् ॥ AKASONING 564615 Jan Education International For Private Personal use only www.ainelibrary.org Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे १३७-४२ स्त्रीमानादीनि गा. ८८३-९०६ ॥४९४॥ कालतियं ३ वयणतियं ६ लिंगतियं ९ तह परोक्ख १० पच्चक्खं ११ । उवणयऽवणयचउक्कं १५ अज्झत्थं चेव १६ सोलसमं ॥ ८९६ ॥ १४० द्वारम् ॥ __ मासा य पंच सुत्ते नक्खत्तो १ चंदिओ २ य रिउमासो ३ । आइच्चोऽविय अवरो ४ ऽभिवडिओ तह य पंचमओ ५ ॥८९७॥ अहरत्त सत्तवीसं तिसत्तसत्तविभाग नक्खत्तो २७ ।। चंदो अउणत्तीसं बिसट्ठिभाया य बत्तीसं२९॥३॥८९८॥ | ४| उउमासो तीसदिणो ३० आइच्चो तीस होइ अद्धं च ३०।। अभिवडिओ य मासो चउवीससएण छेएणं ॥ ८९९ ॥ |भागाणिगवीससयं तीसा एगाहिया दिणाणं तु ३१ । १३ । एए जह निप्फत्तिं लहंति समयाउ तह नेयं ॥९०० ॥ १४१ द्वारम् ॥ __ संवच्छरा उ पंच उ चंदे १ चंदे २ ऽभिवड्डिए ३ चेव । चंदे ४ ऽभिवडिए ५ तह बिसद्विमासेहिं जुगमाणं ॥९०१॥ |१४२ द्वारम् ॥ __ माघवईऍ तलाओ ईसिंपन्भारउवरिमतलं जा । चउदसरजू लोगो तस्साहो वित्थरे सत्त ॥ ९०२॥ उवरिं पएसहाणी |ता नेया जाव भूतले एगा। तयणुप्पएसवुड्डी पंचमकप्पंमि जा पंच ॥९०३॥ पुणरवि पएसहाणी जा सिद्धसिलाएँ एक्कगा तारजू । घम्माए लोगमज्झो जोयणअस्संखकोडीहिं ॥९०४॥ हेटाहोमुहमल्लगतुल्लो उवरिं तु संपुडठियाणं । अणुसरह मल्लगाणं लोगो पंचत्थिकायमओ ॥ ९०५ ॥ तिरियं सत्तावन्ना उहुं पंचेव हुंति रेहाओ । पाएसु चउसु रजू चउदस रजू |य तसनाडी ॥ ९०६॥ तिरियं चउरो दोसु छ दोसुं अट्ठ दस य इक्किक्के । वारस दोसुं सोलस दोसुं वीसा य चउसुंपि ॥४९४॥ in Education Intematon For Private Personel Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमुवरि इगवन्ना सा३ ॥ हेडाओ वाहात सबलोगम्मि ॥ ९०७ ॥ पुणरवि सोलस दोसुं बारस दोसुपि हुँति नायबा । तिसु दस तिसु अट्ट च्छा य दोसु दोसुपि चत्तारि ॥९०८॥ ओयरिय लोयमज्झा चउरो चउरो य सबहिं नेया । तिग तिग दुग दुग एक्किक्कगो य जा सत्तमी पुढवी ॥ ९०९॥ अडवीसा छबीसा चउवीसा वीस सोल दस चउरो । सत्तासुवि पुढवीसुं तिरियं खण्डुयगपरिमाणं ॥ ९१० ॥ पंच सय बार सुत्तर हेट्ठा तिसया उ चउर अन्भहिया । अह उडे अट्ठ सया सोलहिया खंडुया सवे ॥ ९११॥ बत्तीसं रज्जूओ हेट्ठा दरुयगस्स हुंति नायवा । एगोणवीसमुवरि इगवन्ना सवपिंडेणं ॥९१२ ॥ दाहिणपास दुखंडा वामे संधिज विहिय विव रीयं । नाडीजुया तिरजू उड्डाहो सत्त तो जाया ॥ ९१३ ॥ हेट्ठाओ वामखंडं दाहिणपासंमि ठवसु विवरीयं । उवरिम तिरजुखंडं वामे ठाणमि संधिज्जा ॥९१४ ॥ तिन्नि सया तेयाला रजूणं हंति सबलोगम्मि । चउरंसं होइ जयं सत्तण्ह घणेणिमा संखा ॥ ९१५ ॥ छसु खंडगेसु य दुगं चउसु दुगं दससु हुँति चत्तारि । चउसु चउकं गेवेज्जणुत्तराई चउकमि | ॥९१६॥ सयंभुपुरिमंताओ, अवरंतो जाव रज्जुओ । एएण रज्जुमाणेण, लोगो चउदसरजुओ॥ ९१७ ॥ १४३ द्वारम् ॥ | सन्नाउ तिन्नि पढमेऽत्थ दीहकालोवएसिया नाम । तह हेउवायदिट्ठीवाउवएसा तदियराओ ॥ ९१८ ॥ एयं करेमि एयं कयं मए इममहं करिस्सामि । सो दीहकालसन्नी जो इय तिक्कालसन्नधरो ॥ ९१९ ॥जे उण संचिंतेउं इटाणिद्वेसु | विसयवत्थूसुं । वत्तंति नियत्तंति य सदेहपरिपालणाहे ॥ ९२० ॥ पाएण संपइच्चिय कालंमि न यावि दीहकालंमि । ते ४ हेउवायसन्नी निच्चेट्ठा हुंति हु असन्नी ॥ ९२१॥ सम्मदिट्ठी सन्नी संते नाणे खओवसमिए य । अस्सन्नी मिच्छत्तमि | दिद्विवाओवएसेणं ॥ ९२२ ॥ १४४ द्वारम् ॥ वेजए tortor GUSTROLOROSMAURUSALA For Private & Personel Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ४९५ ॥ आहार १ भय २ परिग्गह ३ मेहुण ४ रूवाओ हुंति चत्तारि । सत्ताणं सन्नाओ आसंसारं समग्गाणं ॥ ९२३ ॥ १४५ द्वारम् ॥ आहार १ भय २ परिग्गह ३ मेहुण ४ तह कोह ५ माण ६ माया ७ य । लोभो ८ ह ९ लोग १० सन्ना दसवेया सबजीवाणं ॥ ९२४ ॥। १४६ द्वारम् ॥ आहार १ भय २ परिग्गह ३ मेहुण ४ सुह ५ दुक्ख ६ मोह ७ वितिगिच्छा ८ । तह कोह ९ माण १० माया ११ लोहे १२ लोगे य १३ धम्मो १४ घे १५ ॥ ९२५ ।। १४७ द्वारम् ॥ चउसद्दहण ४ तिर्लिंगं ३ दसविणय १० तिसुद्धि ३ पंचगयदोसं ५ । अट्ठपभावण ८ भूसण ५ लक्खण ५ पंचविहसंजुतं ॥ ९२६ ॥ छहिजयणा ६ ऽऽगारं ६ छन्भावण ६ भावियं च छट्ठाणं ६ । इय सत्तयसट्ठिलक्खणभेयविसुद्धं च सम्मत्तं ॥ ९२७ ॥ परमत्थसंथवो वा १ सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वावि २ । वावन्न ३ कुदंसणवज्जणा य ४ सम्मत्तसद्दहणा ॥ ९२८ ॥ सुस्सूस १ धम्मराओ २ गुरुदेवाणं जहासमाहीए। वेयावच्चे नियमो ३ सम्मद्दिट्ठिस्स लिंगाई ॥ ९२९ ॥ अरहंत १ सिद्ध २ चेइय ३ सुए य ४ धम्मे य ५ साहुवग्गे य ६ । आयरिय ७ उवज्झाएसु ८ य पवयणे ९ दंसणे १० | यावि ॥ ९३० ॥ भत्ती पूया वन्नज्जलणं नासणमवन्नवायस्स । आसायणपरिहारो दंसणविणओ समासेणं ॥ ९३१ || मोत्तूण जिणं १ मोत्तूण जिणमयं २ जिणमयट्ठिए मोत्तुं ३ । संसारकच्चवारं चिंतिज्जंतं जगं सेसं ॥ ९३२ ॥ संका १ ख २ विगच्छा ३ पसंस ४ तह संथवो कुलिंगीसु ५ । सम्मत्तस्सऽइयारा परिहरियवा पयत्तेणं ॥ ९३३ ॥ पावयणी १ धम्म २ १४४-४७ लोकखण्डुकादीनि गा. १९०७-३३ ॥ ४९५ ॥ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कही २ वाई ३ नेमित्तिओ ४ तवस्सी ५ य । विजा ६ सिद्धो य ७ कवी ८ अद्वैव पभावगा भणिया ॥ ९३४ ॥ जिण-|| सासणे कुसलया १ पभावणा २ ऽऽययणसेवणा ३ थिरया ४ । भत्ती य ५ गुणा सम्मत्तदीवया उत्तमा पंच ॥९३५ ॥ 18 उवसम १ संवेगोऽवि य २ निबेओ ३ तह य होइ अणुकंपा ४ । अत्थिक्कं चिय ५ एए संमत्ते लक्खणा पंच ॥ ९३६ ॥ नोअन्नतिथिए अन्नतिथिदेवे य तह सदेवेऽवि । गहिए कुतित्थिएहिं वंदामि न वा नर्मसामि ॥ ९३७ । नेव अणालत्तो आलवेमि नो संलवेमि तह तेसिं । देमि न असणाईयं पेसेमि न गंधपुप्फाइ ॥९३८॥ रायाभिओगो य १ गणाभिओगो ४२, बलामिओगो य ३ सुराभिओगो ४ । कतारवित्ती ५ गुरुनिग्गहो य ६, छ च्छिडिआओ जिणसासणम्मि ॥ ९३९॥ मूलं १ दारं २ पइट्ठाणं ३, आहारो ४ भायणं ५ निही ६ । दुच्छक्कस्सावि धम्मस्स, सम्मत्तं परिकित्तियं ॥९४०॥ अत्थि Pय १ निच्चो २ कुणई ३ कयं च वेएइ ४ अस्थि निवाणं ५ । अत्थि य मोक्खोवाओ ६ छस्सम्मत्तस्स ठाणाई ॥९४१॥ |१४८ द्वारम् ॥ है एगविह १ दुविह २ तिविहं ३ चउहा ४ पंचविह ५ दसविहं ६ सम्मं । दबाइ कारगाई उवसमभेएहि वा सम्म ९४२॥ एगविहं सम्मरुई १ निसग्गऽभिगमेहि २ तं भवे दुविहं । तिविहं तं खइयाई ३ अहवावि हु कारगाईयं ॥९४३॥ ३ सम्मत्तमीसमिच्छत्तकम्मक्खयओ भणंति तं खइयं । मिच्छत्तखओवसमा खाओवसमं ववइसंति ॥ ९४४॥ मिच्छत्तस्स |उवसमा उवसमयं तं भणंति समयन्नू । तं उवसमसेढीए आइमसम्मत्तलाभे वा ॥ ९४५ ॥ विहिआणुट्ठाणं पुण कारगमिह रोयगं तु सद्दहणं । मिच्छट्ठिी दीवइ जं तत्ते दीवगं तं तु ॥ ९४६ ॥ खइयाई सासायणसहियं तं चउविहं तु विन्नेयं । For Private & Personel Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रे १४८-४९ सम्यक्त्वेलक्षणं भेदाश्च गा. ९३४-६२ प्रवचन हतं सम्मत्तभंसे मिच्छत्ताऽऽपत्तिरूवं तु ॥९४७ ॥ वेययसंजुत्तं पुण एवं चिय पंचहा विणिद्दिढ । सम्मत्तचरिमपोग्गल- |वेयणकाले तयं होइ ॥ ९४८॥ एवं चिय पंचविहं निस्सग्गाभिगमभेयओ दसहा । अहवावि निसग्गरुई इच्चाइ जमागमे भणिअं॥९४९ ॥तहाहि-निस्सग्गु १ वएसरुई २ आणरुई ३ सुत्त ४ बीयरुईमेव ५। अहिगम ६ वित्थाररुई ७ किरिया ८ ॥४९६॥ संखेव ९ धम्मरुई १०॥९५०॥ जो जिणदिढे भावे चउबिहे सद्दहेइ सयमेव । एमेव नन्नत्ति य स निसग्गरुइत्ति नायवो ॥ ९५१॥ एए चेव उ भावे उवइटे जो परेण सद्दहइ । छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइत्ति नायबो ॥ ९५२ ॥ रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई नाम ॥ ९५३ ॥ जो सुत्तमहिजतो सुएणमोगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण बाहिरेण य (उ) सो सुत्तरुइत्ति नायबो ॥ ९५४ ॥ एगपएऽणेगाइं पयाइं जो पसरई उ सम्मत्ते । उदएव तिल्लबिंदू सो बीयरुइत्ति नायबो ॥ ९५५ ॥ सो होइ अहिगमरुई सुयनाणं जस्स अत्थओ दिटुं । एक्कारस अंगाई पइन्नगा दिद्विवाओ य ॥ ९५६ ॥ दवाण सवभावा सबपमाणेहिं जस्स उवलद्धा । सबाहिं नयविहीहिं वित्थाररुई मुणेयवो ॥ ९५७ ॥ नाणे दंसणचरणे तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई नाम ॥ ९५८ ॥ अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइत्ति होइ नायवो । अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसुं ॥ ९५९ ॥ जो अस्थिकायधम्मं सुयधर्म खलु चरित्तधम्मं च । सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइत्ति नायबो ॥९६०॥ आईपुढवीसु तीसु खय १ उवसम २ वेयगं ३ च सम्मत्तं । वेमाणियदेवाणं पणिदितिरियाण एमेव ॥९६१ ॥ सेसाण नारयाणं तिरियत्थीणं च तिविहदेवाणं । नत्थि हु खइयं सम्मं अन्नेसिं चेव जीवाणं ॥ ९६२ ॥ १४९ द्वारम् ॥ RRRRRRRR ॥४९६॥ For Private & Personel Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारस सत्तय तिन्निय सत्त य कुलकोडिसयसहस्साई । नेया पुढविदगागणिवाऊणं चैव परिसंखा ॥ ९६३ ॥ कुलकोडिसयसहस्सा सत्त य नव य अट्ठवीसं च । बेइंदियतेइंदियचउरिंदियहरियकायाणं ॥ ९६४ ॥ अद्धत्तेरस वारस दस | दस नव चैव सयसहस्साइं । जलयरपक्खिचउप्पयउरभुयसप्पाण कुलसंखा ।। ९६५ ।। छबीसा पणवीसा सुरनेरइयाण सयसहस्साई । बारस य सयसहस्सा कुलकोडीणं मणुस्साणं ॥ ९६६ ॥ एगा कोडाकोडी सत्ताणउई भवे सयसहस्सा । | पन्नासं च सहस्सा कुलकोडीणं मुणेयवा ॥ ९६७ ॥ १५० द्वारम् ॥ पुढविदगअगणिमारुय एक्केके सत्त जोणिलक्खाओ । वणपत्तेयअणते दस चउदस जोणिलक्खाओ ।। ९६८ ।। विग लिंदिएसु दो दो चउरो चउरो य नारयसुरेसुं । तिरिए होंति चउरो चउदस लक्खा उ मणुएसु ॥ ९६९ ॥ समवन्नाइ|समेया बहवोऽवि हु जोणिलक्खभेयाओ । सामन्ना घिप्पंतिह एकगजोणीइ गहणेणं ॥ ९७० ॥ १५१ द्वारम् ॥ त्रैकाल्यं ३ द्रव्यषट्कं ६ नवपदसहितं जीवपट्रकायलेश्याः ६, पञ्चान्ये चास्तिकाया ५ व्रत ५ समिति ५ गति ५ ज्ञान५ चारित्र ५ भेदाः । इत्येते मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमर्हद्भिरीशैः, प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥ ९७९ ॥ यस्स विवरणमिणं तिक्कालमईयवट्टमाणेहिं । होइ भविस्सजुएहिं दबच्छकं पुणो एयं ॥ ९७२ ॥ धम्मत्थिकायदवं १ दवमहम्मत्थिकायनामं २ च । आगास ३ काल ४ पोग्गल ५ जीवदवस्सरूवं च ६ ॥ ९७३ ॥ जीवा१ जीवा २ पुन्नं ३ पावा ४ ऽऽसव ५ संवरो य ६ निज्जरणा ७ । बंधो ८ मोक्खो ९ य इमाई नव पयाइं जिणमयम्मि ॥ ९७४ ॥ जीवच्छकं इग १ बि २ ति ३ च ४ पणिंदिय ५ अनिंदियसरूवं ६ । छक्काया पुढवि १ जला २ नल ३ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यादीनि प्रवचन वाउ ४ वणस्सइ ५ तसेहिं ६ ॥९७५ ॥ छल्लेसाओ कण्हा १ नीला २ काऊ य ३ तेउ ४ पउम ५ सिया ६ । कालवि १५०-५२ सूत्रे हीणं दवच्छकं इह अत्थिकायाओ॥९७६॥ पाणिवह १ मुसावाए २ अदत्त ३ मेहुण ४ परिग्गहेहि ५ इहं । पंच वयाई कुलकोभणियाई पंच समिईओँ साहेमि ॥ ९७७॥ इरिया १ भासा २ एसण ३ गहण ४ परिट्ठवण ५ नामिया ताओ। पंच ॥४९७॥ गईओ नारय १ तिरि २ नर ३ सुर ४ सिद्ध ५ नामाओ॥९७८ ॥ नाणाई पंच मइ १ सुय २ ओहि ३ मण ४ केव गा. लेहि ५ भणियाई । सामइय १ छेय २ परिहार ३ सुहुम ४ अहक्खाय ५ चरणाई ॥ ९७९ ॥ १५२ द्वारम् ॥ ९६३-८९ । दंसण १ वय २ सामाइय ३ पोसह ४ पडिमा ५ अबंभ ६ सच्चित्ते ७। आरंभ ८ पेस ९ उद्दिट्ट १० वजए समणभूए ११ य ॥ ९८०॥ जस्संखा जा पडिमा तस्संखा तीऍ हुंति मासावि । कीरंतीसुवि कजाउ तासु पुछत्तकिरिया उ ॥ ९८१॥ पसमाइगुणविसिटुं कुग्गहसंकाइसल्लपरिहीणं । सम्मदंसणमणहं दंसणपडिमा हवइ पढमा १॥९८२ ॥ बीया|णुबयधारी २ सामाइकडो य होइ तइयाए ३ । होइ चउत्थी चउद्दसीअट्ठमिमाईसु दिवसेसु ॥९८३ ॥ पोसह चउबिहंपि य पडिपुण्णं सम्म सो उ अणुपाले । बंधाई अइयारे पयत्तओ वजईमासु ॥ ९८४ ॥ सम्ममणुवयगुणवयसिक्खावयवं थिरो य नाणी य । अट्ठमिचउद्दसीसु पडिमं ठाएगराईयं ॥ ९८५ ॥ असिणाण वियडभोई मउलियडो दिवसबंभयारी य। रत्तिं परिमाणकडो पडिमावजेसु दिवसेसुं ॥ ९८६॥ झायइ पडिमाएँ ठिओ तिलोयपुजे जिणे जियकसाए । निय दोसपञ्चणीयं अन्नं वा पंच जा मासा ॥ ९८७ ॥ सिंगारकहविभूसुकरिसं इत्थीकहं च वर्जितो । वजइ अबंभमेगंतओ य का॥४९७॥ छिट्ठीइ छम्मासे ॥ ९८८ ॥ सत्तमि सत्त उ मासे नवि आहारइ सचित्तमाहारं । जं जं हेडिल्लाणं तं तोवरिमाण सबंपिल For Private & Personel Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ९८९ ॥ आरंभसयंकरणं अट्ठमिया अट्ठ मास वज्जेइ । नवमा नव मासे पुण पेसारंभेऽवि वज्जेइ ॥ ९९० ॥ दसमा दस मासे पुण उद्दिकपि भत्त नवि भुंजे । सो होइ उ छुरमुंडो सिहलिं वा धारए कोई ॥ ९९९ ॥ जं निहियमत्थजायं पुच्छंत सुयाण नवरि सो तत्थ । जइ जाणइ तो साहइ अह नवि तो बेइ नवि याणे । ९९२ ।। खुरमुंडो लोएण व रयहरणं पडिग्गहं च गिव्हित्ता । समणो हूओ विहरइ मासा एकारसुक्कोसं ॥ ९९३ ॥ ममकारेऽवोच्छिन्ने वच्चइ सन्नायपलि दहुं जे । तत्थवि साहुब जहा गिण्हइ फासुं तु आहारं ।। ९९४ ॥ १५३ द्वारम् ॥ जव १ जवजव २ गोहुम ३ सालि ४ वीहि ५ धन्नाण कोट्टयाईसुं । खिविऊणं पिहियाणं लित्ताणं मुद्दियाणं च ॥ ९९५ ॥ उक्कोसेण ठिइ होइ तिन्नि वरिसाणि तयणु एएसिं । विद्धंसिज्जइ जोणी तत्तो जायेइऽबीयतं ॥ ९९६ ॥ तिल १ मुग्ग २ मसूर ३ कलाय ४ मास ५ चवलय ६ कुलत्थ ७ तुवरीणं ८ । तह कसिणचणय ९ वल्लाण १० कोट्टयाईसु खिविणं ॥ ९९७ ॥ ओलित्ताणं पिहियाण लंछियाणं च मुद्दियाणं च । उक्किठिई वरिसाण पंचगं तो अबीयतं ॥ ९९८ ॥ अयसी १ लट्टा २ कंगू ३ कोडूसग ४ सण ५ वरट्ट ६ सिद्धत्था ७ । कोद्दव ८ रालग ९ मूलग बीयाणं १० कोट्टयाईसु ॥ ९९९ ॥ निक्खित्ताणं एयाणुकोसठिईऍ सत्त वरिसाई । होइ जहन्नेण पुणो अंतमुहुत्तं समग्गाणं ॥ १००० ॥ १५४ द्वारम् ॥ जोयणस्यं तु गंता अणहारेणं तु भंडसंकंती । वायागणिधूमेहि य विद्धत्थं होइ लोणाई ॥ १००१ ॥ हरियालो मणसिल पिप्पली उ खज्जूर मुद्दिया अभया । आइन्नमणाइन्ना तेऽवि हु एमेव नायबा ॥ २ ॥ आरुहणे ओरुहणे निसियण गोणाइणं च गाउम्हा । भोम्माहारच्छेओ उवकमेणं तु परिणामो ॥ ३ ॥ १५५ द्वारम् ॥ *****জ6 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ४९८ ॥ धन्नाई वीसं जव १ गोहुम २ सालि ३ वीहि ४ सट्ठी ५ य । कोद्दव ६ अणुया ७ कंगू ८ रालय ९ तिल १० मुग्ग ११ मासा १२ य ॥ ४ ॥ अयसि १३ हरिमंथ १४ तिउगड १५ निष्फाव १६ सिलिंद १७ रायमासा १८ य । इक्खू १९ मसूर २० तुवरी २१ कुलत्थ २२ तह धन्नय २३ कलाया २४ ॥ ५ ॥ १५६ द्वारम् ॥ | आवीइ १ ओहि २ अंतिय ३ वलायमरणं ४ वसट्टमरणं च ५ । अंतोसलं ६ तब्भव ७ बालं ८ तह पंडियं ९ मीसं | १० ॥ ६ ॥ छमत्थमरण ११ केवलि १२ वेहायस १३ गिद्धपिट्टमरणं १४ च । मरणं भत्तपरिन्ना १५ इंगिणि १६ | पाओवगमणं च १७ ॥ ७ ॥ अणुसमयनिरंतरमाविइसन्नियं तं भणति पंचविहं । दवे खेत्ते काले भवे य भावे य संसारे ॥ ८ ॥ एमेव ओहिमरणं जाणि मओ ताणि चैव मरइ पुणो । एमेव आइअंतियमरणं नवि मरइ ताणि पुणो ॥ ९ ॥ संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । इंदियविसयवसगया मरंति जे तं वसट्टं तु ॥ १० ॥ गारवपंकनिबुड्डा अइयारं जे परस्स न कहंति । दंसणनाणचरित्ते ससल्लमरणं हवइ तेसिं ॥ ११ ॥ मोतुं अकम्मभूमिय नरतिरिए सुरगणे य नेरइए । सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं च केसिंचि ॥ १२ ॥ मोत्तूण ओहिमरणं आवी (ई) यंतियंतियं चेव । सेसा मरणा | सवे तब्भवमरणेण नायवा ॥ १३ ॥ अविरयमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं बिंति । जाणाहि बालपंडियमरणं पुण | देसविरयाणं ॥ १४ ॥ मणपज्जवोहिनाणी सुयमइनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं केवलिमरणं तु केवलिणो ॥ १५ ॥ गिद्ध इभक्खणं गिद्धपिट्ट उब्बंधणाइ वेहासं । एए दोन्निऽवि मरणा कारणजाए अणुन्नाया ॥ १६ ॥ भत्तपन्ना इंगिणि पायवगमणं च तिन्नि मरणारं । कन्नसमज्झिमजेट्ठा धिइसंघयणेण उ विसिट्ठा ॥ १७ ॥ १५७ द्वारम् ॥ १५३-५७ श्राद्धप्रति मादीनि गा. ९९० १०१७ ॥ ४९८ ॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.८४ पलिओवमं च तिविहं उद्धारऽद्धं च खेत्तपलियं च । एक्केकं पुण दुविहं बायर सुहुमं च नाय ॥ १८ ॥ जं जोयणविच्छिन्नं तं तिउणं परिरएण सविसेसं । तावइयं उबिद्धं पलं पलिओवमं नाम ॥ १९ ॥ एगाहियबेहियतेहियाण उक्कोस सत्तरत्ताणं । सम्मङ्कं संनिचियं भरियं वालग्गकोडीहिं ॥ २०॥ तत्तो समए समए इक्किके अवहियंमि जो कालो । संखिज्जा खलु समया वायरउद्धारपलंमि ॥ २१ ॥ एकेकमओ लोमं कट्टुमसंखिज्जखंडमद्दिस्सं । समछेयाणंतपएसियाण पलं भरिजाहि ॥ २२ ॥ तत्तो समए समए एक्केके अवहियंमि जो कालो । संखिज वासकोडी सुहुमे उद्धारपलंमि ॥ २३ ॥ वाससए वासस एकेके बायरे अवहियंमि । बायरअद्धापलियं संखेज्जा वासकोडीओ ॥ २४ ॥ वाससए वाससए एक्केके अवहियम्मि सुहुमंमि । सुमं अद्धापलियं हवंति वासा असंखिज्जा ॥ २५ ॥ बायरसुहुमायासे खेत्तपसाणुसमयमवहारे । बायरसुहुमं खेत्तं उस्सप्पिणीओ असंखेज्जा ॥ २६ ॥ १५८ द्वारम् ॥ उद्धारपल्लगाणं कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ एक्कस्स भवे परीमाणं ॥ २७ ॥ जावइओ उद्धारो अड्डाइजाण सागराण भवे । तावइआ खलु लोए हवंति दीवा समुद्दा य ॥ २८ ॥ तह अद्धापल्लाणं कोडाकोडी भवेज्ज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ परिमाणं हवइ एगस्स ॥ २९ ॥ सुहुमेण उ अद्धासागरस्स माणेण सबजीवाणं । कम्मठिई कायठिई भवट्टिई होइ नायबा ॥ ३० ॥ इह खेत्तपलगाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ एक्कस्स | भवे परीमाणं ॥ ३१ ॥ एएण खेत्तसागरउवमाणेणं हविज्ज नायबं । पुढविदगअगणिमारुयहरियतसाणं च परिमाणं ।। ३२ ।। १५९ द्वारम् ॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रवचन० सूत्रे ॥ ४९९ ॥ दस कोडाकोडीओ अद्धाअयराण हुंति पुन्नाओ । अवसप्पिणीऍ तीए भाया छच्चेव कालस्स ॥ ३३ ॥ सुसमसुसमा य १ सुसमा २ तइया पुण सुसमदुस्समा ३ होइ । दूसमसुसम चउत्थी ४ दूसम ५ अइदूसमा छट्ठी ६ ॥ ३४ ॥ सुसम - सुसमाऍ कालो चत्तारि हवंति कोडिकोडीओ । तिन्नि सुसमाऍ कालो दुन्नि भवे सुसमदुसमाए ॥ ३५ ॥ एक्का कोडाकोडी बायालीसाऍ जा सहस्सेहिं । वासाण होइ ऊणा दूसमसुसमाइ सो कालो ॥ ३६ ॥ अह दूसमाऍ कालो वाससह|स्साई एकवीसं तु । तावइओ चेव भवे कालो अइदूसमाएवि ॥ ३७ ॥ १६० द्वारम् ॥ अवसप्पिणी भागा हवंति उस्सप्पिणीइवि छ एए । पडिलोमा परिवाडी नवरि विभाएसु नायबा ॥ ३८॥ १६१द्वारम् ॥ ओपणी अनंता पोग्गलपरियट्टओ मुणेयवो । तेऽणंता तीयद्धा अणागयद्धा अनंतगुणा ॥ ३९ ॥ पोग्गलपरियट्टो इह दबाइचउधिहो मुणेयवो । थूलेयरभेएहिं जह होइ तहा निसामेह ॥ ४० ॥ ओरालविउद्यातेयकम्मभासाणपाणमणएहिं । फासेवि सबपोग्गल मुक्का अह बायरपरट्टो ॥ ४१ ॥ अहव इमो दबाई ओरालविउद्यते यकम्मे हिं । नीसेसदबगहमि बायरो होइ परियट्टो ॥ ४२ ॥ दबे सुहुमपरट्टो जाहे एगेण अह सरीरेणं । फासेवि सबपोग्गल अणुकमेणं नणु गणिजा ॥ ४३ ॥ लोगागासपएसा जया मरतेण एत्थ जीवेणं । पुट्ठा कमुक्कमेणं खेत्तपरट्टो भवे धूलो ॥ ४४ ॥ जीवो जइया एगे खेत्तपएसंमि अहिगए मरइ । पुणरवि तस्साणंतरि बीयपएसंमि जइ मरए ॥ ४५ ॥ एवं तरतमजोगेण सबखेत्तंमि जइ मओ होइ । सुहुमो खेत्तपरट्टो अणुक्रमेणं नणु गणेज्जा ॥ ४६ ॥ ओसप्पिणीऍ समया जावइया ते य निययमरणेणं । पुट्ठा कमुक्कमेणं कालपरट्टो भवे थूलो ॥ ४७ ॥ सुहुमो पुण ओसप्पिणी पढमे समयंमि जइ मओ होइ । पुण | १५८-१६१ पल्योपमादीनि गा. १०१८-४७ ॥ ४९९ ॥ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवि तस्साणंतरबीए समयंमि जइ मरइ ॥४८॥ एवं तरतमजोएण सबसमएसु चेव एएसुं। जइ कुणइ पाणचार्य अणु- कमेणं नणु गणिज्जा ॥४९॥ एगसमयंमि लोए सुहुमागणिजिया उ जे उ पविसंति । ते हुंतऽसंखलोयप्पएसतुल्ला असंखेज्जा ॥५०॥ तत्तो असंखगुणिया अगणिकाया उ तेसि कायठिई । तत्तो संजमअणुभागबंधठाणाणिऽसंखाणि ॥५१॥ त तिजलायपासतला अस ताणि मरंतेण जया पुट्ठाणि कमुक्कमेण सबाणि । भावंमि बायरो सो सुहुमो य कमेण बोद्धवो ॥५२॥१६२ द्वारम् ॥ भरहाइ ५ विदेहाई ५ एरवयाइं च ५ पंच पत्तेयं । भन्नंति कम्मभूमी धम्मजोग्गा उ पन्नरस ॥५३॥ १६३ द्वारम् ॥ | हेमवयं १ हरिवासं २ देवकुरू ३ तह य उत्तरकुरूवि ४ । रम्मय ५ एरन्नवयं ६ इय छन्भूमी उ पंचगुणा ॥ ५४॥ एया अकम्मभूमीउ तीस सया जुअलधम्मजणठाणं । दसविहकप्पमहद्दुमसमुत्थभोगा पसिद्धाओ॥५५॥१६४ द्वारम् ॥ __ जाइ १ कुल २ रूव ३ बल ४ सुय ५ तव ६ लामि ७ स्सरिय ८ अट्ठमयमत्तो। एयाई चिय बंधइ असुहाई बहुं च संसारे ॥५६॥ १६५ द्वारम् ॥ भू १ जल २ जलणा ३ निल ४ वण ५ बि ६ ति ७ चउ ८ पंचिंदिएहिं ९ नव जीवा । मणवयणकाय ३ गुणिया हवंति ते सत्तवीसंति ॥ ५७॥ एक्कासीई सा करणकारणाणुमइताडिया होइ । सच्चिय तिकालगुणिया दुन्नि सया होंति तेयाला (२४३)॥५८॥ १६६ द्वारम् ॥ द्रिा संकप्पाइतिएणं ३ मणमाईहिं ३ तहेव करणेहिं ३ । कोहाइचउक्केणं ४ परिणामेऽट्ठोत्तरसयं च ॥५९॥ संकप्पो संरंभो १ परितावकरो भवे समारंभो २। आरंभो ३ उद्दवओ सुद्धनयाणं च सबेसि ॥ ६०॥ १६७ द्वारम् ॥ RAVESGROGRAMSABSCRICESS in Education International Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे १६२-७२ पुद्गलपराव दीनि ॥५० ॥ १०४८-७० दिया कामरइसुहा तिविहं तिविहेण नवविहा विरई । ओरालियाउवि तहा तं बंभं अट्ठदसभेयं ॥१॥१६८ द्वारम् ॥ कामो चउवीसविहो संपत्तो खलु तहा असंपत्तो । चउदसहा संपत्तो दसहा पुण होअसंपत्तो ॥ १२॥ तत्थ असंपत्ते|ऽत्था १ चिंता २ तह सद्ध ३ संभरण ४ मेव । विक्कवय ५ लजनासो ६ पमाय ७ उम्माय ८ तब्भावो ९॥६३॥ मरणं च होइ दसमे १० संपत्तंपि य समासओ वोच्छं । दिट्ठीए संपाओ १ दिट्ठीसेवा २ य संभासो ३ ॥ ६४ ॥ हसिय ४ ललिओ ५ वगूहिय ६ दंत ७ नहनिवाय ८ चुंबणं ९ चेव । आलिंगण १० मादाणं ११ कर १२ सेवण १३ ऽणंगकीडा १४ य ॥६५॥ १६९ द्वारम् ॥ हा इंदिय ५ बल ३ ऊसासा १ उ १ पाण चउ छक्क सत्त अद्वैव । इगि विगल असन्नी सन्नी नव दस पाणा य बोद्धबा M॥६६॥ १७० द्वारम् ॥ का मत्तंगया य १ भिंगा २ तुडियंगा ३ दीव ४ जोइ ५ चित्तंगा ६ । चित्तरसा ७ मणियंगा ८ गेहागारा ९ अणियणा ६य १०॥ ६७ ॥ मत्तंगएसु मज्जं सुहपेज १ भायणा य भिंगेसु २ । तुडियंगेसु य संगयतुडियाई बहुप्पगाराई ३ ॥६८॥ दीवसिहा ४ जोइसनामगा य एए करेंति उज्जोयं ५। चित्तंगेसु य मलं ६ चित्तरसा भोयणट्ठाए ७॥ ६९ ॥ मणियंगेसु |य भूसणवराई ८ भवणाइ भवणरुक्खेसु ९ । तह अणियणेसु धणियं वत्थाई बहुप्पयाराई १०॥ ७० ॥ १७१ द्वारम् ॥ घम्मा १ वसा २ सेला ३ अंजण ४ रिट्ठा ५ मघा ६ य माधवई ७ । नरयपुढवीण नामाई हुंति रयणाई गोत्ताई ॥५० ॥ in Educh an intemeia Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ७१ ॥ रयणप्पह १ सक्करपह २ वालुयपह ३ पंकपहमिहाणाओ ४ । धूमपह ५ तमपहाओ ६ तहा महातमपहा ७ पुढवी ।। ७२ ।। १७२ द्वारम् ॥ तीसा य १ पनवीसा २ पन्नरस ३ दस ४ चैव तिन्नि ५ य हवंति । पंचूण सयसहस्सं ६ पंचैव ७ अणुत्तरा नरया ॥ ७३ ॥ १७३ द्वारम् ॥ सत्तसु खेत्तसहावा अन्नोऽनुद्दीरिया य जा छट्ठी । तिसु आइमासुं वियणा परमाहम्मियसुरकया य ॥७४॥१७४ द्वारम् ॥ सागरमेगं १ तिय २ सत्त ३ दस ४ य सत्तरस ५ तह य बावीसा ६ । तेत्तीसं ७ जाव ठिई सत्तसु पुढवीसु उक्कोसा ॥ ७५ ॥ जा पढमाए जेट्ठा सा बीयाए कणिट्ठिया भणिया । तरतमजोगो एसो दसवाससहस्स रयणाए ॥ ७६ ॥ १७५ द्वारम् ॥ पढमा पुढवी नेरइयाणं तु होइ उच्चत्तं । सत्त धणु तिन्नि रयणी छच्चेव य अंगुला पुण्णा ॥ ७७ ॥ सत्तमपुढवीऍ पुणो पंचैव धणुस्सयाई तणुमाणं । मज्झिमपुढवीसु पुणो अणेगहा मज्झिमं नेयं ॥ ७८ ॥ जा जम्मि होइ भवधारणिज्ज अवगाहणा य नरएसु । सा दुगुणा बोद्धवा उत्तरवेउवि उक्कोसा ॥ ७१ ॥ भवधारणिजरूवा उत्तरविउधिया य नरपसु । ओगाहणा जहन्ना अंगुलअस्संखभागो उ ॥ ८० ॥ १७६ द्वारम् ॥ वसई मुहुत्ता १ सत्त अहोरत २ तह य पन्नरस ३ । मासो य ४ दो य ५ चउरो ६ छम्मासा ७ विरहकालो उ ॥ ८१ ॥ उक्कोसो रयणाइसु सवासु जहन्नओ भवे समयो । एमेव य उबट्टणसंखा पुण सुरवरुत्तुल्ला (राण समा ) ॥ ८२ ॥ १७७ द्वारम् ॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे १७२-८४ नरकना| मादीनि गा. १०७१-९३ ॥५०१॥ काऊ १ काऊ २ तह काऊनील ३ नीला ४ य नीलकिण्हा ५ य । किण्हा ६ किण्हा ७ य तहा सत्तसु पुढवीसु लेसाओ॥ ८३॥ १७८ द्वारम् ॥ | चत्तारि गाउयाई १ अछुट्ठाई २ तिगाउयं चेव ३ । अड्डाइजा ४ दोन्नि य ५ दिवट्ठ ६ मेगं च ७ नरयोही ॥ ८४॥ १७९ द्वारम् ॥ | अंबे १ अंबरिसी २ चेव, सामे य ३ सबलेइ य ४ । रुद्दो ५ वरुद्द ६ काले य ७, महाकालित्ति ८ आवरे ॥ ८५॥ हा असिपत्ते ९ धणू १० कुंभे ११, वालू १२ वेयरणी इय १३ । खरस्सरे १४ महाघोसे १५, पन्नरस परमाहम्मिया ॥८६॥ |१८०द्वारम् ॥ । तिसु तित्थ चउत्थीए केवलं पंचमीइ सामन्नं । छट्ठीऍ विरइऽविरई सत्तमपुढवीइ सम्मत्तं ॥ ८७॥ पढमाओ चक्कवट्टी दबीयाओ रामकेसवा हुंति । तच्चाओ अरहंता तहतकिरिया चउत्थीओ ॥ ८८ ॥ उबट्टिया उ संता नेरइया तमतमाओ पुढवीओं। न लहंति माणुसत्तं तिरिक्खजोणिं उवणमंति ॥ ८९॥छट्ठीओ पुढवीओ उबट्टा इह अणंतरभवंमि । भज्जा मणुस्सजम्मे संजमलंभेण उ विहीणा ॥ ९॥ १८१ द्वारम् ॥ | अस्सन्नी खलु पढमं दोच्चं च सरिसिवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउत्थिं उरगा पुण पंचमि पुढविं ॥९१॥ छडिं |च इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि पुढवि । एसो परमुववाओ बोद्धवो नरयपुढवीसु ॥ ९२॥ वालेसु य दाढीसु य पक्खीसु य जलयरेसु उववन्ना । संखिज्जाउठिईया पुणोऽवि नरयाउया हुंति ॥ ९३ ॥ १८२-१८३-१८४ द्वारम् ॥ 40CREAMCAESARKARANCE ॥५०१॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्संखोसप्पिणिसप्पिणीउ एगिंदियाण ( उ ) चउण्हं । ता चेव ऊ अणंता वणस्सइए उ बोद्धवा ॥ ९४ ॥ वाससहस्सा संखा विगलाणं ठिइड होइ बोद्धवा । सत्तट्ठभवा उ भवे पणिंदितिरिमणुय उक्कोसा ॥ ९५ ॥ १८५ द्वारम् ॥ बावीसई सहस्सा सत्तेव सहस्स तिन्निऽहोरत्ता । वाए तिन्नि सहस्सा दसवाससहस्सिया रुक्खा ॥ ९६ ॥ संवच्छराई बारस राईदिय हुंति अउणपन्नासं । छम्मास तिन्नि पलिया पुढवाईणं ठिउक्कोसा ॥ ९७ ॥ सण्हा य १ सुद्ध २ वालुय ३ मणोसिला ४ सक्करा य ५ खरपुढवी ६ । एक्कं १ बारस २ चउदस ३ सोलस ४ अट्ठार ५ बावीसा ६ ॥ ९८ ॥ १८६ द्वारम् ॥ जोयणसहस्समहियं ओहपएगिंदिए तरुगणेसु । मच्छजुयले सहस्सं उरगेसु य गन्भजाईसु ॥ १०९९ ॥ उस्सेहंगुलगुणियं जलासयं जमिह जोयणसहस्सं । तत्थुप्पन्नं नलिणं विन्नेयं भणियमाणंति ॥ ११०० ॥ जं पुण जलहिद हेसुं पमाणजोयणसहस्समाणेसुं । उप्पज्जइ वरपरमं तं जाणसु भूवियारंति ॥ ११०१ ॥ वणऽणंतसरीराणं एगमनिलसरीरगं पमाणं । अनलोदगपुढवीणं असंखगुणिया भवे बुड्ढी ॥ २ ॥ विगलिंदियाण बारस जोयणा तिन्नि चउर कोसा य । सेसा - गोगाहणया अंगुलभागो असंखिजो ॥ ३ ॥ गम्भचउप्पय छग्गाउयाई भुयगेसु गाउयपुहुत्तं । पक्खीसु धणुपुहुत्तं मणुएसु य गाउया तिन्नि ॥ ४ ॥ १८७ द्वारम् ॥ कायं पुप्फगोलय १ मसूर २ अइमुत्तयस्स कुसुमं च ३ । सोयं १ चक्खू २ घाणं ३ खुरप्पपरिसंठिअं रसणं ४ ॥ ५ ॥ नाणागारं फासिंदियं तु बाहलओ य सवाई । अंगुल असंखभागं एमेव पुहुत्तओ नवरं ॥ ६ ॥ अंगुलपुहुत्त रसणं फारसं तु सरीरवित्थडं भणियं । बारसहिं जोयणेहिं सोयं परिगिण्हए सद्दं ॥ ७ ॥ रूवं गिण्हइ चक्खू जोयणलक्खाओं साइरे Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे १८५-१९० कायस्थित्यादीनि ॥५०२॥ १०९४११२१ गाओ। गंधं रसं च फासं जोयणनवगाउ सेसाणि ॥ ८॥ अंगुल असंखभागा मुणंति विसयं जहन्नओ मोत्तुं । चक्खं तं | पुण जाणइ अंगुलसंखिज्जभागाओ ॥९॥ १८८ द्वारम् ॥ पुढवीआउवणस्सइवायरपत्तेसु लेस चत्तारि । गम्भे तिरियनरेसुं छल्लेसा तिन्नि सेसाणं ॥ १० ॥ १८९ द्वारम् ॥ एगेंदियजीवा जति नरतिरिच्छेसु जुयलवजेसुं । अमणतिरियावि एवं नरयमिवि जंति ते पढमे ॥११॥ तह संमुच्छिमतिरिया भवणाहिववंतरेसु गच्छंति । जं तेसिं उववाओ पलियासंखेजआऊसुं ॥ १२ ॥ पंचिंदियतिरियाणं उववाउकोसओ सहस्सारे । नरएसु समग्गेसुवि वियला अजुयलतिरिनरेसु ॥ १३ ॥ नरतिरिअसंखजीवी जोइसवजेसु जंति |देवेसु । नियआउयसमहीणाउएसु ईसाणअंतेसु ॥ १४॥ उववाओ तावसाणं उक्कोसेणं तु जाव जोइसिया । जावंति बंभलोगो चरगपरिवाय उववाओ॥ १५॥ जिणवयउक्किट्ठतवकिरियाहिं अभवभवजीवाणं। गेविजेसुक्कोसा गई जहन्ना भवणवईसु ॥ १६ ॥ छउमत्थसंजयाणं उववाउकोसओ अ सबढे। उववाओ सावयाणं उक्कोसेणऽचुओ जाव ॥ १७ ॥ उववाओ लंतगंमि चउदसपुबिस्स होइ उ जहन्नो । उक्कोसो सबढे सिद्धिगमो वा अकम्मस्स ॥ १८ ॥ अविराहियसामन्नस्स त साहुणो सावयस्सऽवि जहन्नो। सोहम्मे उववाओ वयभंगे वणयराईसुं॥१९॥ सेसाण तावसाईण जहन्नओ वंतरेसु| उववाओ। भणिओ जिणेहिं सो पुण नियकिरियठियाण विन्नेओ ॥२०॥ १९० द्वारम् ॥ नेरइयजुयलवजा एगिदिसु इति अवरगइजीवा । विगलत्तेणं पुण ते हवंति अनिरय अमरजुयला ॥ २१ ॥ हुंति हु ॥५०२॥ For Private & Personel Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCIES उपलधम्मियनरनियलचउगइयार समुच्छिमाण य अमणतिरिच्छा नरतिरिया जुयलधम्मिए मोत्तुं । गब्भचउप्पयभावं पावंति अजुयलचउगइया ॥२२॥ नेरइया अमरावि ट्रिय तेरिच्छा माणवा य जायंति । मणुयत्तेणं वज्जित्तु जुयलधम्मियनरतिरिच्छे ॥ २३ ॥१९१ द्वारम् ॥ हैI भिन्नमुहुत्तो विगलेंदियाण संमुच्छिमाण य तहेव । बारस मुहुत्त गम्भे सबेसु जहन्नओ समओ ॥ २४ ॥ उबट्टणावि एवं संखा समएण सुरवरु तुल्ला । नरतिरियसंख सबेसु जंति सुरनारया गब्भे ॥ २५॥ बारस मुहुत्त गब्भे मुहुत्त सम्मु|च्छिमेसु चउवीसं । उक्कोस विरहकालो दोसुवि य जहन्नओ समओ ॥२६॥ एमेव य उबट्टणसंखा समएण सुरवरुत्तुल्ला । मणुएसुं उववजेऽसंखाउय मोत्तु सेसाओ ॥ २७ ॥ १९२-१९३ द्वारम् ॥ भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिणो देवा । दस १ अट्ठ २ पंच ३ छबीस ४ संखजुत्ता कमेण इमे ॥ २८ ॥ |अलुरा १ नागा २ विजू ३ सुवन्न ४ अग्गी ५ य वाउ ६ थणिया ७ य । उदही ८ दीव ९ दिसाविय १० दस भेया भवणवासीणं ॥ २९ ॥ पिसाय १ भूया २ जक्खा ३ य रक्खसा ४ किन्नरा ५ य किंपुरिसा ६ । महोरगा ७ य गंधवा ८ अट्ठविहा वाणमंतरिया ॥ ३०॥ अणपन्निय १ पणपन्निय २ इसिवाइय ३ भूयवाइए ४ चेव । कंदिय ५ तह महर्कदिय ६ कोहंडे ७ चेव पयगे ८ य ॥ ३१॥ इय पढमजोयणसए रयणाए अट्ठ वंतरा अवरे । तेसु इह सोलसिंदा रुयगअहो दाहिणुत्तरओ ॥ ३२ ॥ चंदा १ सूरा २ य गहा ३ नक्खत्ता ४ तारया ५ य पंच इमे । एगे चल जोइसिया घंटायारा थिरा अवरे ॥ ३३ ॥ सोहंमी १ साण २ सणंकुमार ३ माहिंद ४ बंभलोयमिहा ५। लंतय ६ सुक्क ७ सहस्सार ८ आणय ९ पाणया १० कप्पा ॥ ३४ ॥ तह आरण ११ अञ्चुया १२ विहु इण्हि गेविजवरविमाणाई । पढम सुदरिसणं| For Private Personal use only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ५०३ ॥ Jain Education १३ तस्स बिईयं सुप्पबुद्धंति १४ ॥ ३५ ॥ तइयं मणोरमं १५ तह विसालनामं १६ च सबओभदं १७ । सोमणसं १८ सोमाणस १९ महपीइकरं च २० आइञ्चं २१ ॥ ३६ ॥ विजयं च २२ वैजयंतं २३ जयंत २४ मपराजियं २५ च सब २६ । एयमणुत्तरपणगं एएसिं चउविहसुराणं ॥ ३७ ॥ चमरबलि सारमहियं सेसाण सुराण आउयं वोच्छं । दाहिण दिवहृपलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं ॥ ३८ ॥ अद्धुड अद्धपंचमपलिओम असुरजुयलदेवीणं । सेसवणदेवयाण य देसूणद्धपलियमुक्कोसं ॥ ३९ ॥ दस भवणवणयराणं वाससहस्सा ठिई जहण्णेणं । पलिओवममुक्कोसं वंतरियाणं वियाणिज्जा ॥ ४० ॥ पलियं सवरिसलक्खं ससीण पलियं रवीण सयसहस्सं । गहणक्खत्तताराण पलियमद्धं चउन्भागो ॥ ४१ ॥ तदेवीणवि तडिइअद्धं अहियं तमंतदेविदुगे । पाओ जहन्नमट्ठसु तारयतारणमहंसो ॥ ४२ ॥ दो साहि सत्त साहिय दस चउदस सत्तरेव अयराई । सोहम्मा जा सुक्को तदुवरि एकेकमारोवे ॥ ४३ ॥ तेत्तीसऽयरुकोसा विजयाइसु ठिइ जहन्न इगतीसं । अजहन्नमणुक्कोसा सबट्ठे अयर तेत्तीसं ॥ ४४ ॥ पलियं अहियं सोहंमीसाणेसुं तओऽहकप्पठिई । उवरिलंमि जहन्ना कमेण जावेक्कतीसयरा ॥ ४५ ॥ सपरिग्गहेयराणं सोहंमीसाण पलियसाहिययं । उक्कोस सत्त वन्ना नव पणपन्ना य देवीणं ॥ ४६ ॥ १९४ द्वारम् ॥ सत्तेव य कोडीओ हवंति बावत्तरी सहसहस्सा । एसो भवणसमासो भवणवईणं वियाणिजा ॥ ४७ ॥ चउसट्ठी असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीई । बावन्तरि कणगाणं वाउकुमाराण छन्नउई ॥ ४८ ॥ दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिं| दथणियअग्गीणं । छण्हंपि जुयलयाणं बावत्तरिमो सयसहस्सा ॥ ४९ ॥ इह संति वणयराणं रम्मा भोमनयरा असंखिज्जा । १९१-१९४ एकेन्द्रियागत्यादीनि गा. ११२२-४९ ॥ ५०३ ॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्तो संखिज्जगुणा जोइसियाणं विमाणाओ ॥ ५० ॥ बत्तीसऽट्ठावीसा वारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोया | विमाणसंखा भवे एसा ॥ ५१ ॥ पंचास चत्त छच्चेव सहस्सा लंत सुक्क सहसारे । सय चउरो आणयपाणएसु तिन्नारणचुयए ॥ ५२ ॥ एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए पंचैव अणुत्तरविमाणा ॥ ५३ ॥ चुलसीई सयसहस्सा सत्ताणउई भवे सहस्साइं । तेवीसं च विमाणा विमाणसंखा भवे एसा ॥ ५४ ॥ १९५ द्वारम् ॥ भवणवण जोइसोहम्मीसाणे सत्त हुंति रयणीओ । एक्केकहाणि सेसे दु दुगे य दुगे चउके य ॥ ५५ ॥ गेविज्जेसुं दोन्नि य एगा रयणी अणुत्तरेसु भवे । भवधारणिज्ज एसा उक्कोसा होइ नायवा ॥ ५६ ॥ सबेसुक्कोसा जोयणाण वेउबिया सयसहस्सं । गेविज्जणुत्तरेसुं उत्तरवेउबिया नत्थि ॥ ५७ ॥ अंगुल असंखभागो जहन्न भवधारणिज्ज पारंभे । संखेज्जा अवगा हण उत्तरवेउधिया सावि ॥ ५८ ॥ १९६ द्वारम् ॥ किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहंमीसाण तेऊलेसा मुणेयचा ॥ ५९ ॥ कप्पे सणकुमारे | माहिंदे चैव बंभलोए य । एएसु पम्हलेसा तेण परं सुक्कलेसाओ ॥ ६० ॥ १९७ द्वारम् ॥ सक्कीसाणा पढमं दोच्चं च सणकुमारमाहिंदा । तच्चं च बंभलंतग सुक्कसहस्सारय चउत्थिं ॥ ६१ ॥ आणयपाणयकप्पे वेवा पासंति पंचमीं पुढवीं । तं चेव आरणच्चुय ओहिणाणेण पाति ॥ ६२ ॥ छट्ठि हिट्ठिममज्झिमगेविज्जा सत्तमिं च | उवरिल्ला । संभिन्नलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा ॥ ६३ ॥ एए सिमसंखेज्जा तिरियं दीवा य सागरा चेव । बहुययरं Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥५०४॥ उवरिमया उटुं च सकप्पथूभाई ॥६४॥ संखेजजोयणा खलु देवाणं अद्धसागरे ऊणे । तेण परमसंखेजा जहन्नयं पन्नवीसं १९५-२०३ तु ॥६५॥ भवणवइवणयराणं उर्दु बहुओ अहो य सेसाणं । जोइसिनेरइयाणं तिरिय ओरालिओ चित्तो॥६६॥१९८द्वारम् भवनादीनि भवणवणजोइसोहमीसाण चउवीसई मुहुत्ता उ । उक्कोस विरहकालो सबेसु जहन्नओ समओ ॥ ६७ ॥ नव दिण वीस 51 गा. मुहुत्ता बारस दस चेव दिण मुहुत्ता उ । बावीसा अद्धं चिय पणयाल असीइ दिवससयं ॥ ६८ ॥ संखिज मास आण- ११५०-७८ यपाणय तह आरणचुए वासा । संखेजा विन्नेया गेविजेसुं अओ वोच्छं ॥ ६९॥ हिट्टिमे वाससयाई मज्झिम सहसाई |उवरिमे लक्खा । संखिज्जा विन्नेया जहसंखेणं तु तीसुपि ॥ ७॥ पलिया असंखभागा उक्कोसो होइ विरहकालो उ। विजयाइसु निद्दिट्ठो सवेसु जहन्नओ समओ ॥ ७१ ॥ १९९ द्वारम् ॥ उववायविरहकालो एसो जह वण्णिओ य देवेसु । उबट्टणावि एवं सबेसि होइ विन्नेया ॥ ७२ ॥ २०० द्वारम् ॥ एको व दो व तिन्नि व संखमसंखा य एगसमएणं । उववजंतेवइया उबढ्तावि एमेव ॥ ७३ ॥ २०१ द्वारम् ॥ पुढवीआउवणस्सइ गम्भे पज्जत्तसंखजीवीसुं । सग्गचुयाण वासो सेसा पडिसेहिया ठाणा ॥ ७४ ॥ बायरपजत्तेसुं सुराण भूदगवणेसु उप्पत्ती । ईसाणंताणं चिय तत्थवि न उवट्टगाणंपि ॥ ७५ ॥ आणयपभिईहिंतो जाऽणुत्तरवासिणो चवेऊणं । मणुएK चिय जायइ नियमा संखिजजीविसुं ॥७६ ॥ २०२ द्वारम् ॥ परिणामविसुद्धीए देवाउयकम्मबंधजोगाए । पंचिंदिया उ गच्छे नरतिरिया सेसपडिसेहो ॥ ७७॥ आईसाणा कप्पा ॥५०४॥ उववाओ होइ देवदेवीणं । तत्तो परं तु नियमा देवीणं नत्थि उववाओ ॥ ७८ ॥२०३ द्वारम् ॥ NAGARIKCACARA en Education Interior For Private Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसमओ जहन्नो उक्कोसेणं तु जाव छम्मासा । विरहो सिद्धिगईए उबट्टणवज्जिया नियमा ॥ ७९ ॥ २०४ द्वारम् ॥ सरिरेणोयाहारो तयाय फासेण रोमआहारो । पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायबो ॥ ८०॥ ओयाहारा जीवा 8 सवे अपजत्तगा मुणेयबा । पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे हंति भइयवा ॥ ८१॥ रोमाहारा एगिंदिया य नेरइयसुरगणा चेव । सेसाणं आहारो रोमे पक्खेवओ चेव ॥ ८२॥ ओयाहारा मणभक्खिणो य सबेऽवि सुरगणा होति । सेसा हवंति जीवा लोमाहारा मुणेयवा ॥ ८३ ॥ अपजत्ताण सुराणऽणाभोगनिवत्तिओ य आहारो। पजत्ताणं मणभक्खणेण आभो|गनिम्माओ॥ ८४ ॥ जस्स जइ सागराई ठिइ तस्स य तेत्तिएहिं पक्खेहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो॥८५॥x दसवाससहस्साई जहन्नमाऊ धरंति जे देवा । तेसि चउत्थाहारो सत्तहिं थोवेहिं ऊसासो ॥ ८६ ॥ दसवाससहस्साई समयाई जाव सागरं ऊणं । दिवसमुहुत्तपुहुत्ता आहारूसास सेसाणं ॥ ८७ ॥ २०५ द्वारम् ॥ ___ असीइसयं किरियाणं १८० अकिरियवाईण होइ चुलसीई ८४ । अन्नाणिय सत्तट्ठी ६७ वेणइयाणं च बत्तीसं ३२|| En८८ ॥ जीवाइनवपयाणं अहो ठविजंति सयपरयसद्दा। तेसिंपि अहो निच्चानिच्चा सद्दा ठविजन्ति ॥ ८९॥ काल १ स्सहाव २ नियई ३ ईसर ४ अप्पत्ति ५ पंचवि पयाई । निच्चानिच्चाणमहो अणुकमेणं ठविजंति ॥९०॥ जीवो इह अत्थि | सओ निच्चो कालाउ इय पढमभंगो। बीओ य अस्थि जीवो सओ अनिच्चो य कालाओ॥९१॥ एवं परओऽवि हु दोन्नि | भंगया पुबदुगजुया चउरो । लद्धा कालेणेवं सहावपमुहावि पार्वति ॥ ९२॥ पंचहिवि चउक्केहिं पत्ता जीवेण वीसई| भंगा । एवमजीवाईहिवि य किरियावाई असिइसयं ॥ ९३ ॥ इह जीवाइपयाई पुन्नं पावं विणा ठविज्जन्ति । तेसिमहो BUSTOSHIRISHISHISHISHISHISHI म.सा.८५ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवचन ० सूत्रे ।। ५०५ ॥ भ्रायम्मि उविज्जए सपरसद्दुर्गं ॥ ९४ ॥ तस्सवि अहो लिहिज्जइ काल १ जहिच्छा य २ पयदुगसमेयं । नियइ १ स्सहाव२ ईसर ३ अप्पति ४ इस पत्रकं ।। ९५ ।। पढमे अंगे जीवो नत्थि सओ कालओ तयणु बीए । परओऽवि नस्थि जीवो काला इय अंगगा दोनि ॥ ९६ ॥ एव जइच्छाईहिवि परहिं भंगडुगं दुगं पत्तं । मिलियावि ते दुवालस संपत्ता जीवतत्तेणं ॥ ९७ ॥ एवमजीवाईहिवि पत्ता जाया तओ उ चुलसीई । भैया अक्रिरियवाईण हुंति इमे सबसंखाए ॥९८॥ संत १ मसंतं २ संतासंत ३ मवत्तव ४ सय अवत्त ५ । असयअवत्तवं ६ सयसयवत्तबं ७ व सत्त पया ॥ ९९ ॥ जीवाइनवपयाणं अहोकमेणं इमाई ठविऊणं । जह कीरइ अहिलावो तह साहिज्जइ निसामेह ॥ १२०० ॥ संतो जीवो को जाणइ ? अहवा किं व तेण नाएणं ? । सेसपएहिवि भंगा इय जाया सप्त जीवस्स ॥ १ ॥ एवमजीवाईवि पत्तेयं सत्त मिलिय तेसट्ठी । तह अन्नेऽवि हु भंगा चत्तारि इमे उ इह हुंति ॥ २ ॥ संती भावुप्पत्ती को जाणइ किंच तीऍ नायाए ? । एवमसंती भावुप्पत्ती सदसत्तिया चेव ॥ ३ ॥ तह अवत्तधावि हु भावुप्पत्ती इमेहिं मिलिएहिं । भंगाण सत्तसट्ठी जाया अन्नाणियाण इमा ॥ ४ ॥ सुर १ निवइ २ जइ ३ नाई ४ थविरा ५ वम ६ माइ ७ पिइसु ८ एएसिं । मण १ वयण २ काय ३ दाणेहिं ४ चउविहो कीरए विणओ ॥ ५ ॥ अट्ठवि चउक्कगुणिया बत्तीस हवंति घेणइयभेया । सबेहिं पिंडिएहिं तिनि सया हुंति तेसट्ठा ॥ ६ ॥ २०६ द्वारम् ॥ माओ य मुणिदेहिं भणिओ अट्टभेयओ । अन्नाणं १ संसओ २ चैव मिच्छानाणं ३ तहेव य ॥ ७ ॥ रागो ४ दोसो ५ मइब्भंसो ६, धम्मंमि य अणायरो ७ । जोगाणं दुप्पणिहाणं ८, अट्ठहा वज्जियबओ ॥ ८ ॥ २०७ द्वारम् ॥ २०४-७ सिद्धिविरहादीनि गा. ११७९ १२०८ ।। ५०५ ॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भरहो १ सगरो २ मघवं ३ सणंकुमारो य रायसदूलो ४ । संती ५ कुंथू ६ य अरो ७ हवइ सुभूमो ८ य कोरबो। IN९॥ नवमो य महापउमो ९ हरिसेणो १० चेव रायसवूलो । जयनामो ११ य नरवई बारसमो बंभदत्तो य १२ ॥१०॥ २०८ द्वारम् ।। अयले १ विजये २ भद्दे ३, सुप्पभे य ४ सुदंसणे ५। आणंदे ६ नंदणे ७ पउमे ८, रामे यावि ९ अपच्छिमे॥११॥ २०९ द्वारम् ॥ तिविट्ठ य १ दुविट्ठ य २ सयंभु ३ पुरिसुत्तमे ४ पुरिससीहे ५ । तह पुरिसपुंडरीए ६ दत्ते ७ नारायणे ८ कण्हे ९ |॥ १२ ॥२१० द्वारम् ॥ आसग्गीवे १ तारय २ मेरय ३ मधुकेढवे ४ निसुंभे ५ य । बलि ६ पहराए ७ तह रावणे य ८ नवमे जरासिंधू ॥ १३ ॥ २११ द्वारम् ॥ CI सेणावइ १ गाहावइ २ पुरोहि ३ तुरय ४ गय ५ वडई ६ इत्थी ७। चकं ८ छत्तं ९ चम्म १० मणि ११ कागिणि| १२ खग्ग १३ दंडो १४ य ॥१४॥ चकं १ खग्गं २ च धणू ३ मणी ४ य माला ५ तहा गया ६ संखो ७। एए सत्त उ रयणा सवेसि वासुदेवाणं ॥ १५ ॥ चक्कं छत्तं दंडं तिन्निवि एयाई वाममित्ताई । चम्म दुहत्थदीहं बत्तीसं अंगुलाइ असी ॥ १६ ॥ चउरंगुलो मणी पुण तस्सद्धं चेव होइ विच्छिन्नो । चउरंगुलप्पमाणा सुवन्नवरकागिणी नेया ॥ १७ ॥ ॥ २१२॥ द्वारम् ॥ . SASSASSASSICO For Private & Personel Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 प्रवचन ॥५०६॥ गा ANSAREERS नेसप्पे १ पंडुयए २ पिंगलए ३ सवरयण ४ महपउमे ५ । काले य ६ महाकाले ७ माणवग ८ महानिही संखे ९| ॥ १८॥ नेसप्पंमि निवेसा गामागरनगरपट्टणाणं च । दोणमुहमडंबाणं खंधाराणं गिहाणं च ॥ १९॥ गणियस्स य चन्यादीनि गीयाणं माणुम्माणस्स जं पमाणं च । धन्नस्स य बीयाणं उप्पत्ती पंडुए भणिया ॥२०॥ सवा आहरणविही पुरिसाणं| जा य जा य महिलाणं । आसाण य हत्थीण य पिंगलगनिहिम्मि सा भणिया ॥ २१ ॥ रयणाई सबरयणे चउदस पव- १२०९-३२ राई चक्कवट्टीणं । उप्पजति एगिदियाई पंचिंदियाई च ॥ २२॥ वत्थाण य उप्पत्ती निष्फत्ती चेव सबभत्तीणं । रंगाण य धाऊण य सबा एसा महापउमे ॥ २३ ॥ काले कालन्नाणं भव पुराणं च तिसुवि वंसेसु । सिप्पसयं कम्माणि य तिन्नि पयाए हियकराई ॥ २४ ॥ लोहस्स य उप्पत्ती होइ महाकाल आगराणं च । रुप्पस्स सुवण्णस्स य मणिमोत्तियसिलपवालाणं ॥ २५ ॥ जोहाण य उप्पत्ती आवरणाणं च पहरणाणं च । सबा य जुद्धनीई माणवगे दंडनीई य ॥ २६ ॥ नट्टविही नाडयविही कवस्स चउविहस्स निप्फत्ती । संखे महानिहिम्मि उ तुडियंगाणं च सवेसि ॥ २७ ॥ चक्कट्ठपइट्ठाणा | अदुस्सेहा य नव य विक्खंभे । बारस दीहा मंजूससंठिया जण्हवीऍ मुहे ॥ २८॥ वेरुलियमणिकवाडा कणयमया विविहरयणपडिपुन्ना । ससिसूरचक्कलक्खण अणुसमवयणोववत्तीया ॥ २९॥ पलिओवमट्टिईया निहिसरिनामा य तत्थ खलु देवा । जेसिं ते आवासा अक्केजा आहिवच्चाय ॥ ३०॥ एए ते नव निहिणो पभूयधणरयणसंचयसमिद्धा । जे वसमुवगच्छति सबेसिं चक्कवट्टीणं ॥ ३१ ॥ २१३ द्वारम् ॥ ॥५०६॥ नमिउं नेमि एगाइजीवसंखं भणामि समयाओ। चेयणजुत्ता एगे १ भवत्थसिद्धा दुहा जीवा २ ॥३२॥ तस थावरा JainEducation interna For Private Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education, य दुविहा २ तिविहा थीपुंनपुंसगविभेया ३ । नारयतिरिय नरामर गइभेयाओ चउन्भेया ४ ॥ ३३ ॥ अहव तिवेयअवेयगसरूवओ वा हवंति चत्तारि ४ । एगबितिचउपणिदियरूवा पंचप्पयारा ते ॥ ३४ ॥ एए चिय छ अनिंदियजुत्ता ६ अहवा छ भूजलग्गिनिला । वणतससहिया ६ छप्पिय ते सत्त अकायसंवलिया ॥ ३५ ॥ अंडय १ रसय २ जराउय ३ संसेयय ४ पोयया ५ समुच्छिमया ६ । उब्भिय ७ तहोववाइय ८ भेएणं अट्ठहा जीवा ॥ ३६ ॥ पुढवाइ पंच बितिचउपणिंदि ४ जुत्ता य नवविहा ९ हुंति । नारयनपुंस तिरिनरतिषेय सुरथीपुमेवं वा ९ ॥ ३७ ॥ पुढवाइ अट्ठ अस्सन्नि सन्नि दस ते ससिद्ध इगदस उ ११ । पुढवाइया तसंता अपज्जपजत्त बारसहा ॥ ३८ ॥ बारसवि अतणुजुत्ता तेरस मुहुमियरे| गिंदिबेइंदी । तिय चउ असन्नि सन्नी अपजपज्जत्त चउदसहा ॥ ३९ ॥ चउदसवि अमलकलिया पनरस तह अंडगाइ जे अट्ठ । ते अपज्जत्तगपजत्तभेयओ सोलस हवंति ॥ ४० ॥ सोलसवि अकायजुया सतरस नपुमाइ नव अपज्जत्ता । पज्जत्ता अट्ठारस अकम्मजुअ ते इगुणवीसं ॥ ४१ ॥ पुढवाइ दस अपज्जा पज्जत्ता हुति वीस संखाए । असरीरजुएहिं तेहिं वीसई | होइ एगहिया ॥ ४२ ॥ सुहुमियर भूजलानलवाउवणाणंत दस सपत्तेआ । वितिच असन्निसन्नी अपज्जपज्जत्त बत्तीसं ॥४३॥ तह नरयभवणवण जोइकप्पगेवेज्जऽणुत्तरुप्पन्ना । सत्तदसऽडपणवारस नवपणछप्पन्नवेउवा ॥ ४४ ॥ हुंति अडवन्नसंखा ते नरतेरिच्छसंगया सबे । अपजत्तपजत्तेहिं सोलसुत्तरसयं तेहिं ॥ ४५ ॥ सन्निदुगहीण बत्तीससंगयं तं सयं छयत्तालं । तं भवाभवगदूरभवा आसन्नभवं च ॥ ४६ ॥ संसारनिवासीणं जीवाण सयं इमं छयत्तालं । अप्पं व पालियां सिवसुह %% % % % % 6 Www.jainelibrary.org Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रे **** २१४-१५ जीवसंख्याकर्मप्रकृतयः गा. प्रवचन कंखीहिं जीवेहिं ॥४७॥ सिरिअम्मएवमुणिवइविणेयसिरिनेमिचंदसूरीहिं । सपरहियत्थं रइयं कुलयमिणं जीवसंखाए ४॥४८॥ २१४ द्वारम् ॥ पढमं नाणावरणं १ बीयं पुण दसणस्स आवरणं २ । तइयं च वेयणीयं ३ तहा चउत्थं च मोहणीयं ४ ॥४९॥ ॥५०७॥ पंचममा ५ गोयं ६ छटुं सत्तमगमंतरायमिह ७ । बहुतमपयडित्तेणं भणामि अट्ठमपए नाम ८॥५०॥२१५ द्वारम् ॥ पंचविहनाणवरणं नव भेया सणस्स दो वेए । अट्ठावीसं मोहे चत्तारि य आउए हुति ॥५१॥ गोयम्मि दोन्नि पंचंतहराइए तिगहियं सयं नामे । उत्तरपयडीणेवं अट्ठावन्नं सयं होइ ॥५२॥ मइ १ सुय २ ओही ३ मण ४ केवलाणि जीवस्स आवरिजति । जस्स प्पभावओ तं नाणावरणं भवे कम्मं ॥ ५३ ॥ नयणेश्यरोरहि केवल४दसणआवरणयं भवे चउहा । निद्दा ५ पयलाहि छहा ६ निदाइदुरुत्त ७-८ थीणद्धी ९ ॥५४॥ एवमिह दसणावरणमेयमावरइ दरिसणं जीवे । सायमसायं च दुहा वेयणियं सुहदुहनिमित्तं ॥ ५५ ॥ कोहो माणो माया लोभोऽणताणुबंधिणो चउरो। एवमपञ्चक्खाणा पच्चक्खाणा य संजलणा ॥ ५६ ॥ सोलस इमे कसाया एसो नवनोकसायसंदोहो। इत्थीपुरिसनपुंसगरूवं वेयत्तयं तंमि ॥ ५७ ॥ हासरईअरईभयसोगदुगुंछत्ति हासछक्कमिमं । दरिसणतिगं तु मिच्छत्तमीससम्मत्तजोएणं ॥५८॥ इय मोह अट्ठवीसा नारयतिरिनरसुराउय चउक्कं । गोयं नीयं उच्चं च अंतरायं तु पंचविहं ॥ ५९॥ दाउं न लहइ लाहो| न होइ पावइ न भोगपरिभोगं । निरुओऽवि असत्तो होइ अंतरायप्पभावेणं ॥ ६०॥ नामे बायालीसा मेयाणं अहव होइ सत्तट्ठी। अहवावि हु तेणउई तिगअहियसयं हवइ अहवा ॥ ६१॥ पढमा बायालीसा ४२ गइ १ जाइ २ सरीर ARRRRRRRORIS १२३३-६१ पणियं सुहदुहनिरत्त ५.८ थीणा ॥ ५३॥ नयणे१२ सय २ ओही ********* ॥५०७॥ Jan Education a l For Private Personel Use Only D ww.janelibrary.org Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KASAUSKAASLASHUSHA HARUSHA ३ अंगुवंगे ४ य । बंधण ५ संघायण ६ संघयण ७ संठाण ८ नामं च ॥ १२॥ तह वन्न ९ गंध १० रस ११ फास १२ नाम अगुरुलहुयं च १३ बोद्धबं । उवधाय १४ पराघाया १५ णुपुचि १६ ऊसासनामं च १७॥ ६३ ॥ आयावु. ४|१८ जोय १९ विहायगई २० तस २१ थावरामिहाणं च २२ । बायर २३ सुहुमं २४ पज्जत्ता २५ पज्जत्तं च २६ नायचं ॥ ६४ ॥ पत्तेयं २७ साहारण २८ थिर २९ मथिर ३० सुभा ३१ सुभं ३२ च नायवं । सूभग ३३ दूभग ३४ नाम सूसर ३५ तह दूसरं ३६ चेव ॥ ६५ ॥ आएज ३७ मणाएज ३८ जसकित्ती नाम ३९ अजसकित्ती ४० य । निम्माणं |४१ तित्थयरं ४२ भेयाणवि हुँतिमे भेया ॥ ६६ ॥ गइ होइ चउप्पयारा जाईवि य पंचहा मुणेयवा । पंच य हुँति सरीरा अंगोवंगाई तिन्नेव ॥६७॥ छस्संघयणा ६ जाणसु संठाणावि य हवंति छच्चेव ६ । वनाईण चउकं ४ अगुरुलहु १ वघाय १ परघायं १॥ ६८॥ अणुपुषी चउभेया ४ उस्सासं १ आयवं १ च उज्जोयं १। सुहअसुहा विहयगई २ तसाइवीसं |च २० निम्माणं ॥ ६९॥ तित्थयरेणं सहिया १ सत्तट्ठी एव हुंति पयडीओ ६७ । संमामीसेहिं विणा तेवन्ना सेसकम्माणं ॥ ७० ॥ एवं वीसुत्तरसयं १२० बंधे पयडीण होइ नायबं । बंधणसंघायावि य सरीरगहणेण इह गहिया ॥ ७१॥ बंधणभेया पंच उ संघायावि य हवंति पंचेव । पण वन्ना दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा य ॥७२॥ दस सोलस छवीसा एया मेलीवि सत्तसट्ठीए । तेणउई होइ तओ बंधणभेया उ पन्नरस ॥७३॥ वेउवाहारोरालियाण सगतेयकम्मजुत्ताणं। नव बंधणाणि इयरदुसहियाणं तिन्नि तेसिपि ॥ ७४ ॥ सबेहिवि छूढेहिं तिगअहियसयं तु होइ नामस्स । इय उत्तरपयडीणं कम्मट्ठग अट्ठवन्नसयं ॥ ७५ ॥ २१६ द्वारम् ॥ Jain Education K ... For Private Personal Use Only w.jainelibrary.org Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे २१६-१९ कर्मभेदादीनि गा. ॥५०८॥ १२६२-८८ है सत्तहछेगबंधा संतुदया अट्ठ सत्त चत्तारि । सत्तट्ठछपंचदुर्ग उदीरणाठाणसंखेयं ॥ ७६ ॥ बंधेऽट सत्तऽणाउग छविह- ममोहाउ इगविहं सायं । संतोदएसु अट्ठ उ सत्त अमोहा चउ अघाई॥७७॥ अट्ठ उदीरइ सत्त उ अणाउ छबिहमवेयणीआऊ । पण अवियणमोहाउग अकसाई नाम गोत्तदुगं ॥ ७८ ॥ बंधे वीसुत्तरसय १२० सयबावीसं तु होइ उदयंमि १२२ । उदीरणाएँ एवं १२२ अडयालसयं तु सन्तमि १४८॥ ७९ ॥ २१७ द्वारम् ॥ ___ मोहे कोडाकोडीउ सत्तरी वीस नामगोयाणं । तीसिअयराण चउण्हं तेत्तीसऽयराई आउस्स ॥ ८०॥ एसा उक्कोसठिई | इयरा वेयणिय बारस मुहुत्ता। अट्ठट्ट नामगोत्तेसु सेसएसुं मुहत्तंतो॥८१॥ जस्स जइ कोडकोडीउ तस्स तेत्तियसयाई वरिसाणं । होइ अबाहाकालो आउम्मि पुणो भवतिभागो ॥ ८२॥ २१८ द्वारम् ॥ o सायं १ उच्चागोयं २ नरतिरिदेवाउ ५ नाम एयाओ । मणुयदुर्ग ७ देवदुगं ९ पंचिंदियजाइ १० तणुपणगं १५॥८॥ अंगोवंगतिगंपि य १८ संघयणं वज्जरिसहनारायं १९ । पढम चिय संठाणं २० वन्नाइचउक्क सुपसत्थं २४ ॥ ८४ ॥ अगु||रुलहु २५ पराघायं २६ उस्सासं २७ आयवं च २८ उज्जोयं २९ । सुपसत्था विहगगई ३० तसाइदसगं च ४० निम्माणं | ४१॥ ८५॥ तित्थयरेणं सहिया पुन्नप्पयडीओं हुँति बायाला ४२ । सिवसिरिकडक्खियाणं सयावि सत्ताणमेयाउ ॥८६॥ | २१९ द्वारम् ॥ | नाणंतरायदसगं १० देसण नव ९ मोहपयइ छवीसा २६। अस्सायं निरयाउं नीयागोएण अडयाला ॥८७॥ नरयदुगं २ तिरियदुर्ग ४ जाइचउक्कं ८ च पंच संघयणा १३ । संठाणावि य पंच उ १८ वन्नाइचउक्कमपसत्थं २२॥ ८८॥ उव ॥५०८॥ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRRRRY घाय २३ कुविहायगई २४ थावरदसगेण होति चोत्तीसा ३४ । सबाओ मीलियाओ बासीई पावपयडीओ ८२॥ ८९॥151 २२० द्वारम् ॥ ___ भावा छच्चोवसमिय १ खइय २ खओवसम ३ उदय ४ परिणामा ५। दु २ नव ९ द्वारि १८ गयीसा २१ तिग ३ भेया सन्निवाओ य ॥९० ॥ सम्मचरणाणि पढमे दंसणनाणाई दाणलाभा य । उवभोगभोगवीरिय सम्मचरित्ताणि य बिइए ॥ ९१ ॥ चउनाणमणाणतिगं देसणतिग पंच दाणलद्धीओ । सम्मत्तं चारित्तं च संजमासंजमो तइए ॥ ९२॥ | चउगइ चउक्कसाया लिंगतिगं लेसछक्कमन्नाणं । मिच्छत्तमसिद्धत्तं असंजमो तह चउत्थम्मि ॥ ९३ ॥ पंचमगंमि य भावे जीवाभवत्तभवया चेव । पंचण्हवि भावाणं भेया एमेव तेवन्ना ॥ ९४ ॥ ओदयियखओवसमियपरिणामेहिं चउरो गइच उक्के । खइयजुएहिं चउरो तदभावे उवसमजुएहिं ॥९५॥ एक्केको उवसमसेढिसिद्धकेवलिसु एवमविरुद्धा। पन्नरस सन्निवाPइयभेया वीसं असंभविणो॥९॥ दुगजोगो सिद्धाणं केवलिसंसारियाण तियजोगो। चउजोगजुअं चउसुवि गईसु मणुयाण पणजोगो ॥ ९७ ॥ मोहस्सेवोवसमो खाओवसमो चउण्ह घाईणं । उदयक्खयपरिणामा अढण्हवि हुंति कम्माणं ॥९८॥ द सम्माइचउसु तिग चउ भावा चउ पणुवसामगुवसंते। चउ खीणऽपुवे तिन्नि सेसगुणठाणगेगजिए ॥ ९९ ॥२२१द्वारम् ॥ इह सुहुमबायरेगिंदियबितिचउ' असन्नि सन्नि पंचिंदी।पज्जत्तापज्जत्ता कमेण चउदस जियट्ठाणा ॥१३००॥२२२द्वारम्॥ धम्मा १ ऽधम्मा २ ऽऽगासा ३ तियतियभेया तहेव अद्धा य १० । खंधा ११ देस १२ पएसा १३ परमाणु १४ अजीव चउदसहा ॥१॥२२३ द्वारम् ॥ SAUGACASSESCENCESCOM in Educatari n a For Private & Personel Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ५०९ ॥ Jain Education मिच्छे १ सासण २ मिस्से ३ अविरय ४ देसे ५ पमत्त ६ अपमत्ते ७ । नियट्टि ८ अनियट्टि ९ सुहुमु १० वसम ११ खीण १२ सजोगि १३ अजोगि ॥ १४ गुणा ॥ २ ॥ २२४ द्वारम् ॥ गइ १ इंदिए य २ काये ३ जोए ४ वेए ५ कसाय ६ नाणेसुं ७ । संजम ८ दंसण ९ लेसा १० भव ११ सम्मे १९२ सनि १३ आहारे १४ ॥ ३ ॥ २२५ द्वारम् ॥ मइ १ सुय २ ओही ३ मण ४ केवलाणि ५ मइ ६ सुयअन्नाण ७ विभंगा ८ । अच्चक्खु ९ चक्खु १० अवही ११ केवलचउदंसणु १२ वउगा ॥ ४ ॥ २२६ द्वारम् ॥ सच्चं १ मोसं २ मी ३ असचमोसं ४ मणो तह वई य ४ । उरल १ विउवा २ हारा ३ मीस ३ कम्मयग १ मिय जोगा ।। ५ ।। २२७ द्वारम् ॥ मिच्छे सासाणे वा अविरयभावंमि अहिगए अहवा । जंति जिया परलोयं सेसेक्कारसगुणे मोतुं ॥ ६ ॥ २२८ द्वारम् ॥ मिच्छत्तमभवाणं अणाइयमणंतयं च विन्नेयं । भवाणं तु अणाई सपज्जवसियं च सम्मत्ते ॥ ७ ॥ [ मीसाखीणसजोगे न मरंतिकारसेसु अ मरंति । तेसुवि तिसु गहिएसुं परलोअगमो न अट्ठेसु ॥ ८ ॥ ] छावलियं सासाणं समहियतेत्तीस - सायर चउत्थं । देसूणपुबकोडी पंचमगं तेरसं च पुढो ॥ ८ ॥ लहुपंचक्खर चरिमं तइयं छट्टाइ बारसं जाव । इह अट्ठ गुणट्टाणा अंतमुहुत्ता पमाणेणं ॥ ९ ॥ २२९ द्वारम् ॥ अंतमुहुत्तं नरए हुंति चत्तारि तिरियमणुपसुं । देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउद्यणाकालो ॥ १० ॥ २३० द्वारम् ॥ ऊऊर २२०-३० पापभेदा दीनि गा. १२८९ १३१० ॥ ५०९ ॥ ww.jainelibrary.org Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयण १ कसाय २ मरणे ३ वेउविय ४ तेयए य ५ आहारे ६ । केवलियसमुग्घाए ७ सत्त इमे हुंति मणुयाणं ॥११॥ एगिंदीणं केवलिआहारगवजिया इमे पंच । पंचावि अवेउवा विगलासन्नीण चत्तारि ॥ १२॥ केवलियसमुग्घाओ पढमे समयंमि विरयए दंडं । बीए पुणो कवाडं मंथाणं कुणइ तइयंमि ॥ १३ ॥ लोयं भरइ चउत्थे पंचमए अंतराई संहरइ । से छढे पुण मंथाणं हरइ कवाडंपि सत्तमए ॥ १४ ॥ अट्ठमए दंडपि हु उरलंगो पढमचरमसमएसुं । सत्तमछट्ठबिइजेसु होइ ओरालमिस्सेसो ॥१५॥ कम्मणसरीरजोई चउत्थए पंचमे तइज्जे य । जं होइ अणाहारो सो तंमि तिगेऽवि समयाणं ॥१६॥२३१ द्वारम् ॥ | आहार १ सरीरि २ दिय ३ पजत्ती ४ आणपाण ४ भास ५ मणे ६। चत्तारि पंच छप्पिय एगिदियविगलसन्नीणं ॥१७॥ पढमा समयपमाणा सेसा अंतोमुहुत्तिया य कमा।समगंपि हुंति नवरं पंचम छट्ठा य अमराणं ॥१८॥२३२ द्वारम् ॥ विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समोहया अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥१९॥ २३३ द्वारम् ॥ | इह १ परलोया २ ऽऽयाणा ३ मकम्ह ४ आजीव ५ मरण ६ मसिलोए ७। सत्त भयहाणाई इमाई सिद्धंतभणिहायाई॥२०॥ २३४ द्वारम् ॥ I हीलिय १ खिंसिय २ फरसा ३ अलिआ ४ तह गारहत्थिया भासा ५ । छट्ठी पुण उवसंताहिगरणउल्लाससंजणणी ६ ॥२१॥ २३५ द्वारम् ॥ दुविहा २ अट्ठविहा वा ८ बत्तीसविहा य ३२ सत्तपणतीसा ७३५ । सोलस य सहस्स भवे अट्ठ सयट्ठोत्तरा १६८०८ SSC+++MAGN40059 For Private & Personel Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे *** ॐ* वइणो ॥ २२ ॥ दुविहा विरयाविरया दुविहंतिविहाइणऽढहा हुँति । वयमेगेगं छबिहगुणियं दुगमिलिय बत्तीसं ॥ २३ ॥ २३१-३६ तिनि तिया तिन्नि दुया तिन्निक्केक्का य हुँति जोएसु । ति दु एक ति दु एक ति दु एकं चेव करणाइं ॥ २४ ॥ मणवय गुणस्थिकाइयजोगे करणे कारावणे अणुमईए । एक्कगद्गतिगजोगे सत्ता सत्तेव गुणवन्ना ॥ २५॥ पढमेको तिन्नि तिया त्यादीनि दोन्नि नवा तिन्नि दो नवा चेव । कालतिगेण य गुणिया सीयालं होइ भंगसयं ॥ २६॥ पंचाणुवयगुणियं सीयालसयं तु नवरि जाणाहि । सत्त सया पणतीसा सावयवयगहणकालंमि ॥ २७ ॥ सीयालं भंगसयं जस्स विसुद्धीऍ होइ उवलद्धं १३११-३६ सो खलु पच्चक्खाणे कुसलो सेसा अकुसला उ ॥ २८ ॥ दुविहतिविहाइ छच्चिह तेसिं भेया कमेणिमे हुँति । पढमेको दुन्नि तिया दुगेग दो छक्क इगवीसं॥ २९॥ एगवए छन्भंगा निहिट्ठा सावयाण जे सुत्ते । ते च्चिय पयवुड्डीए सत्तगुणा छज्जुयाल कमसो ॥ ३०॥ इगवीसं खलु भंगा निविट्ठा सावयाण जे सुत्ते । ते च्चिय बावीसगुणा इगवीसं पक्खिवेयवा ॥ ३१॥ एगवए नव भंगा निद्दिद्वा सावयाण जे सुत्ते । ते च्चिय दसगुण काउं नव पक्खेवंमि कायबा ॥ ३२॥ इगवन्नं खलु भंगा निद्दिट्ठा सावयाण जे सुत्ते । ते च्चिय पन्नासगुणा गुणवन्नं पक्खिवेयवा ॥ ३३ ॥ [ सीयालं भंगसयं वयवुढऽउया|लसयगुणं काउं। सीआलसण्णजुयं सबागं जाण भंगाणं ॥] एगाई एगुत्तरपत्तेयपयंमि उवरि पक्खेवो । एकेकहाणिअवसाणसंखया हुंति संयोगा ॥ ३४ ॥ अहवा पयाणि ठविउं अक्खे चित्तूण चारणं कुजा । एक्कगदुगाइजोगा भंगाणं संख कायबा ॥ ३५ ॥ बारस १ छावट्ठीवि य २ वीसहिया दो य ३ पंच नव चउरो ४ । दो नव सत्त य ५ चउ दोन्नि । ॥५१०॥ नव य ६ दो नव य सत्तेव ७॥ ३६ ॥ पण नव चउरो ८ वीसा य दोन्नि ९ छावट्ठि १० बारसे ११ को १२ य । साव-12 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यभंगाणमिमे सबाणवि हुंति गुणकारा ॥ ३७॥ छच्चेव य १ छत्तीसा २ सोल दुगं चेव ३ छ नव दुगमिकं ४ । छ स्सत्त सत्त सत्त य ५ छप्पन्न छसट्ठि चउ छढे ६ ॥ ३८ ॥ छत्तीसा नवनउई सत्तावीसा य ७ सोल छन्नई । सत्त य सोलस | भंगा अट्ठमठाणे वियाणाहि ८॥ ३९ ॥ छन्नउई छावत्तरि सत्त दु सुन्नेक्क हुंति नवमम्मि ९। छाहत्तरि इगसट्ठी छायाला हि सुन्न छच्चेव १०॥४०॥ छप्पन्न सुन्न सत्त य नव सत्तावीस तह य छत्तीसा ११ । छत्तीसा तेवीसा अडहत्तरि छहत्त रिगवीसा १२॥ ४१॥ दुविहतिविहेण पढमो दुविहं दुविहेण बीयओ होइ । दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥ ४२ ॥ एगविहं दुविहेणं एकेक्कविहेण छट्ठओ होइ । उत्तरगुण सत्तमओ अविरयओ अट्ठमो होइ ॥४३॥ पंचण्हमणुवयाणं एक्कगदुगतिगचउक्कपणगेहिं । पंचगदसदसपणएक्कगो य संजोय नायबा ॥४४॥ छच्चेव य छत्तीसा सोल दुर्ग चेव छ नव दुग एकं । छस्सत्त सत्त सत्त य पंचण्ह वयाण गुणणपयं ॥४५॥ वयएक्कगसंजोगाण हुँति पंचण्ह तीसई भंगा । गुणसंजोग दसण्हंपि तिन्नि सट्ठा सया हुंति ॥४६॥ तिगसंजोग दसण्हं भंगसया एक्कवीसई सट्ठा । चउसंजोगप्पणगे चउसट्ठि सयाण असियाणि ॥४७॥ सत्तत्तरी सयाई छहत्तराई तु पंचमे हुँति । उत्तरगुणअविरयमेलि-1|| याण जाणाहि सवग्गं ॥४८॥ सोलस चेव सहस्सा अट्ठ सया चेव हुँति अट्ठहिया । एसो वयपिंडत्थो दंसणमाई उ पडिमाओ॥ ४९ ॥ तेरसकोडिसयाई चुलसीइजुयाई बारस य लक्खा । सत्तासीई सहस्सा दो य सया तह दुरुत्ता य ॥५०॥२३६ द्वारम् ॥ सर्व पाणइवायं १ अलिय २ मदत्तं ३ च मेहुणं सर्व ४ । सबं परिग्गहं ५ तह राईभत्तं ६ च वोसरिमो ॥५१॥ सबं प्र.सा.८६ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन READARSANSANS २३६-४६ अणुव्रतभंगादीनि गा. १३३७-६४ ॥५११॥ है कोहं ७ माणं ८ मायं ९ लोहं १० च राग ११ दोसे १२ य । कलहं १३ अब्भक्खाणं १४ पेसुन्नं १५ परपरीवायं १६ ॥५२॥ मायामोसं १७ मिच्छादसणसलं १८ तहेव वोसरिमो। अंतिमऊसासंमि देहपि जिणाइपच्चक्खं ॥५३॥२३७द्वारम् ॥ छवय छकायरक्खा पंचिंदियलोहनिग्गहो खंती। भावविसुद्धी पडिलेहणाइकरणे विसुद्धी य ॥५४॥ संजमजोए जुत्तय अकुसलमणवयणकायसंरोहो । सीयाइपीडसहणं मरणंउ(तु)वसग्गसहणं च ॥ ५५॥ २३८ द्वारम् ॥ धम्मरयणस्स जोगो अक्खुद्दो १ रूववं २ पगइसोमो ३ । लोयप्पिओ ४ अकूरो ५ भीरू ६ असठो ७ सदक्खिन्नो ८ ॥५६॥ लज्जालुओ ९ दयालू १० मज्झत्थो ११ सोमदिहि १२ गुणरागी १३ । सक्कहसुपक्खजुत्तो १४ सुदीहदंसी १५ | विसेसन्नू १६ ॥ ५७ ॥ वुड्डाणुगो १७ विणीओ १८ कयन्नुओ १९ परहियत्थकारी य २० । तह चेव लद्धलक्खो २१ इगवीसगुणो हवइ सड्डो॥५८॥२३९ द्वारम् ॥ उक्किट्ठा गब्भठिई तिरियाणं होइ अट्ठ वरिसाई। माणुस्सीणुक्किट्ठ इत्तो गब्भडिई वुच्छं ॥ ५९॥ २४० द्वारम् ॥ गब्भट्ठिई मणुस्सीणुक्किट्ठा होइ वरिसबारसगं। गम्भस्स य कायठिई नराण चउवीस वरिसाइं॥६०॥२४१-२४२ द्वारम् ॥ पढमे समये जीवा उप्पन्ना गब्भवासमझमि । ओयं आहारंती सबप्पणयाइ पूयब ॥ ६१॥ ओयाहारा जीवा सबे अपजत्तया मुणेयवा । पजत्ता उण लोमे पक्खेवे हुंति भइयवा ॥ ६२ ॥ २४३ द्वारम् ॥ रिउसमयण्हायनारी नरोवभोगेण गब्भसंभूई। बारसमुहुत्त मज्झे जायइ उवरिं पुणो नेय ॥ ६३ ॥ २४४ द्वारम् ॥ सुयलक्खपुहुत्तं होइ एगनरभुत्तनारिगन्भमि । उक्कोसेणं नवसयनरभुत्तत्थीइ एगसुओ ॥ ६४ ॥२४५-२४६ द्वारम् ॥ ॥५११॥ A LM Jan Education in For PrivatesPersonal use Only. .. | Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा होय तु उवटुंभस्स कारण इकडाहे सत्तंगुलाई जाडाई । कालेजयं tortor पणपन्नाएँ परेणं जोणी पमिलायए महिलियाणं । पणहत्तरीऍ परओ होइ अवियओ नरो पायं ॥ ६५ ॥ वाससयाउयमेयं परेण जा होइ पुषकोडीओ। तस्सद्धे अमिलाया सवाउयवीसभाये य ॥६६॥ बीयं सुकं तह सोणियं च ठाणं तु जणणिगभंमि । ओयं तु उवट्ठभस्स कारणं तस्सरूवं तु ॥ ६७॥ अट्ठारसपिट्ठकरंडयस्स संधीउ हुंति देहमि । बारस पंसुलियकरंडया इहं तह च्छ पंसुलिए ॥ ६८॥ होइ कडाहे सत्तंगुलाई जीहा पलाइ पुण चउरो । अच्छीउ दो पलाई है सिरं तु भणियं चउकवालं ॥ ६९॥ अद्भुट्ठपलं हिययं बत्तीसं दसण अच्छिखंडाई । कालेजयं तु समए पणवीस पलाइ निद्दिढ ॥ ७० ॥ अंताई दोन्नि इहयं पत्तेयं पंच पंच वामाओ । सविसयं संधीणं मम्माण सयं तु सत्तहियं ॥ ७१॥ सहि सयं तु सिराणं नाभिप्पभवाण सिरमुवगयाणं । रसहरणिनामधेजाण जाणऽणुग्गहविधाएसु ॥ ७२ ॥ सुइचक्खुघाणजीद हाणणुग्गहो होइ तह विघाओ य । सट्ठसयं अन्नाणवि सिराणऽहोगामिणीण तहा ॥ ७३ ॥ पायतलमुवगयाणं जंघाबल कारिणऽणुवघाए । उवघाए सिरवियणं कुणंति अंधत्तणं च तहा ॥ ७४ ॥ अवराण गुदपविट्ठाण होइ सर्दु सयं तह सिराणं । जाण बलेण पवत्तइ वाऊ मुत्तं पुरीसं च ॥ ७५॥ अरिसा उ पांडुरोगो वेगनिरोहो य ताण य विघाए। तिरिहै यगमाण सिराणं सट्ठसयं होइ अवराणं ॥७६ ॥ बाहुबलकारिणीओ उवघाए कुच्छिउयरवियणाओ। कुवंति तहऽन्नाओ | पणवीसं सिंभधरणीओ॥ ७७ ॥ तह पित्तधारिणीओ पणवीसं दस य सुक्कधरणीओ। इय सत्त सिरसयाई नाभिप्पभ-5 वाई पुरिसस्स ॥ ७८ ॥ तीसूणाई इत्थीण वीसहीणाई हुंति संढस्स । नव पहारूण सयाई नव धमणीओ य देहमि ॥७९॥ है तह चेव सबदेहे नवनउई लक्ख रोमकूवाणं । अबुट्ठा कोडीओ समं पुणो केसमंसूहि ॥ ८॥ मुत्तस्स सोणियस्स य AAARRRR Jan Education in For Private Personel Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥५१२॥ गा पत्तेयं आढयं वसाए उ । अद्धाढयं भणंति य पत्थं मत्थुलुयवत्थुस्स ॥ ८१॥ असुइमल पत्थछकं कुलओ कुलओ य २४७५३ पित्तसिंभाणं । सुक्कस्स अद्धकुलओ दुढे हीणाहियं होजा ॥ ८२॥ एक्कारस इत्थीए नव सोयाई तु हुँति पुरिसस्स । इय5 योनिम्ला किं सुइत्तणं अद्विमंसमलरुहिरसंघाए? ॥ ८३ ॥ २४७-२४८ द्वारम् ॥ न्यादीनि सम्मत्तंमि य लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होइ । चरणोवसमखयाणं सायरसंखंतरा हुंति ॥ ८४ ॥ २४९ द्वारम् ॥ सत्तममहिनेरइया तेऊ वाऊ अणंतरबट्टा । न लहंति माणुसत्तं तहा असंखाउया सबे ॥ ८५ ॥ २५० द्वारम् ॥ १३६५-९५ वरिसाणं लक्खेहिं चुलसीसंखेहिं होइ पुर्वगं । एयं चिय एयगुणं जायइ पुर्व तयं तु इमं ॥८६॥ २५१ द्वारम् ॥ पुवस्स उ परिमाणं सयरिं खलु वासकोडिलक्खाओ। छप्पन्नं च सहस्सा बोद्धबा वासकोडीणं ॥ ८७ ॥२५२ द्वारम् ॥ दसजोयणाण सहसा लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा । सोलससहस्स उच्चा सहस्समेगं तु ओगाढा ॥८८॥ २५३ द्वारम् ॥5 उस्सेहंगुल १ मायंगुलं च २ तइयं पमाणनामं च ३। इय तिन्नि अंगुलाई वावारिजति समयंमि ॥ ८९॥ सत्थेण सुतिक्खेणवि छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सका । तं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं ॥९०॥ परमाणू तसरेणू रहरेणू । 8 अग्गयं च वालस्स । लिक्खा जूया य जवो अट्ठगुणविवड्डिया कमसो ॥ ९१॥ वीसंपरमाणुलक्खा सत्तानउई भवे सह स्साई । सयमेगं बावन्नं एगंमि उ अंगुले हुंति ॥ ९२ ॥ परमाणू इच्चाइक्कमेण उस्सेहअंगुलं भणियं । जं पुण आयंगुलमेरिसेण तं भासियं विहिणा ॥ ९३ ॥ जे जंमि जुगे पुरिसा अट्ठसयंगुलसमूसिया हुंति । तेसिं जं नियमंगुलमायंगुलमेत्य P॥५१२॥ त होइ ॥ ९४ ॥ जे पुण एयपमाणा ऊणा अहिगा व तेसिमेयं तु । आयंगुलं न भन्नइ किंतु तदाभासमेवत्ति ॥ ९५ ॥ अंगुलं भणिया सेमेयं तु । समुसिया For Private & Personel Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANSAANEX उस्सेहंगुलमेगं हवइ पमाणंगुलं सहस्सगुणं । उस्सेहंगुलदुगुणं वीरस्सायंगुलं भणियं ॥ ९६ ॥ आयंगुलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ मिणसु देहं । नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु ॥९७ ॥ २५४ द्वारम् ॥ जंबूदीवाउ असंखेजइमा अरुणवरसमुद्दाओ । बायालीससहस्से जगईउ जलं विलंघेउं ॥ ९८ ॥ समसेणीए सतरस | एकवीसाइं जोयणसयाई । उल्लसिओ तमरूवो वलयागारो अउक्काओ ॥ ९९ ॥ तिरिय पवित्थरमाणो आवरयंतो सुरालदायचउक्कं । पंचमकप्पे रिटुंमि पत्थडे चउदिसिं मिलिओ ॥ १४००॥ हेट्ठा मल्लयमूलट्ठिइढिओ उवरि बंभलोयं जा । कुक्कु डपंजरगागारसंठिओ सो तमक्काओ॥१॥ दुविहो से विक्खंभो संखेजो अस्थि तह असंखेजो । पढमंमिवि विक्खंभो संखेजा जोयणसहस्सा ॥२॥ परिहीऍ ते असंखा बीए विक्खंभपरिहिजोएहिं । हुति असंखसहस्सा नवरमिमं होइ वित्थारो॥ ३ ॥ २५५ द्वारम् ॥ सिद्धा १ निगोयजीवा २ वणस्सई ३ काल ४ पोग्गला ५ चेव । सबमलोगागासं ६ छप्पेएऽणतया नेया ॥४॥२५६ द्वारम् ॥ अंग १ सुविणं २ च सरं ३ उप्पायं ४ अंतरिक्ख ५ भोमं च ६ । वंजण ७ लक्खण ८ मेव य अट्ठपयारं इह निमित्तं है॥५॥ अंगप्फुरणाईहिं सुहासुहं जमिह भन्नइ तमंगं १ । तह सुसुमिणयदुस्सुमिणएहिं जं सुमिणयंति तयं २॥ ६॥ इठमणिटुं जं सरविसेसओ तं सरंति विन्नेयं ३ । रुहिरवरिसाइ जमि जायइ भन्नइ तमुप्पायं ४॥७॥ गहवेहभूयअट्ट६ हासपमुहं जमंतरिक्खं तं ५ । भोमं च भूमिकंपाइएहिं नजइ वियारेहिं ६॥८॥ इह वंजणं मसाई ७ लंछणपमुहं तु लक्खणं भणियं ८ । सुहअसुहसूयगाई अंगाईयाई अट्ठावि ॥९॥२५७ द्वारम् ॥ Jain Education Intemaliona For Private & Personel Use Only IDMww.jainelibrary.org Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन जलदोणमद्धभारं समुहाई समूसिओ उ जो नव उ। माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं नेयं ॥१०॥ २५८ द्वारम् ॥ सूओ १ यणो २ जवन्नं ३ तिन्नि य मंसाई ६ गोरसो ७ जूसो ८ । भक्खा ९ गुललावणिया १० मूलफला ११ हरि-1 अंगुलादयगं १२ डागो १३ ॥११॥ होइ रसालू य १४ तहा पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं १७ चेव । अट्ठारसमो सागो १८|| दीनि गा. ॥५१३॥ निरुवहओ लोइओ पिण्डो ॥ १२॥ जलथलखहयरमंसाई तिन्नि जूसो उ जीरयाइजुओ । मुग्गरसो भक्खाणि य खंड १३९६. खजयपमोक्खाणि ॥ १३ ॥ गुललावणिया गुडप्पपडीउ गुलहाणियाउ वा भणिया । मूलफलंतिक्कपयं हरिययमिह जीर-15 १४२१ याईयं ॥ १४॥ डाओ वत्थुलराईण भजिया हिंगुजीरयाइजुया । सा य रसालू जा मज्जियत्ति तल्लक्खणं चेयं ॥१५॥ दो घयपला महु पलं दहियस्सऽद्धाढयं मिरिय वीसा । दस खंडगुलपलाई एस रसालू निवइजोगो ॥१६॥ पाणं सुराइयं पाणियं जलं पाणगं पुणो एत्थ । दक्खावाणियपमुहं सागो सो तक्कसिद्धं जं ॥ १७ ॥ २५९ द्वारम् ॥ | वुड्डी वा हाणी वा अणंत १ अस्संख २ संखभागेहिं ३ । वत्थूण संख ४ अस्संख ५णंत ६ गुणणेण य विहेया ॥१८॥ २६० द्वारम् ॥ समणी १ मवगयवेयं २ परिहार ३ पुलाय ४ मप्पमत्तं ५ च । चउदसपुर्वि ६ आहारगं च ७ न य कोइ संहरइ ॥ १९॥२६१ द्वारम् ॥ चुलहिमवंतपुषावरेण विदिसासु सायरं तिसए। गंतूणंतरदीवा तिन्नि सए टुति विच्छिन्ना ॥ २०॥ अउणावन्ननवसए FRANKARRAO ॥५१३॥ in Education Intem For Private Personel Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि किंचूणे परिहि तेसिमे नामा । एगोरुअ १ आभासिय २ वेसाणी चेव ३ नंगूली ४ ॥२१॥ एएसिं दीवाणं परओ चत्तारि जोयणसयाणि । ओगाहिऊण लवणं सपडिदिसिं चउसयपमाणा ॥२२॥ चत्तारंतरदीवा हय ५ गय ६ गोकन्न ७ संकुलीकन्ना ८ । एवं पंचसयाई छस्सय सत्तट्ठ नव चेव ॥२३॥ ओगाहिऊण लवणं विक्खंभोगाहसरिसया भणिया। चउरो चउरो दीवा इमेहिं नामेहिं नायबा ॥ २४ ॥ आयंसमिंढगमुहा अयोमुहा गोमुहा य चउरोए १२ । अस्समुहा हत्थिमुहा सीहमुहा चेव वग्घमुहा १६ ॥ २५॥ तत्तो य आसकन्ना हरिकन्न अकन्न कन्नपावरणा २० । उक्कमुहा मेहमुहा विजुमुहा विजुदंता य २४ ॥ २६ ॥ घणदंत लट्ठदंता य गूढदंता य सुद्धदंता य २८ । वासहरे सिहरिंमि य एवं चिय अट्ठवीसावि ॥ २७ ॥ तिन्नेव हुंति आई एगुत्तरवड्डिया नवसयाओ । ओगाहिऊण लवणं तावइयं चेव विच्छिन्ना ॥२८॥ संति इमेसु नरा बजरिसहनारायसंहणणजुत्ता । समचउरंसगसंठाणसंठिया देवसमरूवा ॥ २९ ॥ अट्ठधणुस्सयदेहा किंचूणाओ नराण इत्थीओ । पलियअसंखिजइभागआऊया लक्षणोवेया ॥ ३० ॥ दसविहकप्पदुमपत्तवंछिया तह न |तेसु दीवेसु । ससिसूरगहणमकूणतयामसगाइया हुंति ॥ ३१॥ २६२ द्वारम् ॥ । नर १ नेरइया २ देवा ३ सिद्धा ४ तिरिया ५ कमेण इह हुंति । थोव १ असंख २ असंखा ३ अणंतगुणिया ४ अनंतगुणा ५॥ ३२ ॥ नारी १ नर २ नेरइया ३ तिरिच्छि ४ सुर ५ देवि ६ सिद्ध ७ तिरिया ८ य । थोव असंखगुणा चउ संखगुणाऽणंतगुण दोन्नि ॥ ३३ ॥ तस तेउ पुढवि जल वाउकाय अकाय वणस्सइ सकाया। थोव असंखगुणाहिय Pतिन्नि दोऽणंतगुणअहिया ॥ ३४ ॥ पण चउ ति दु य अणिंदिय एगिदि सइंदिया कमा हुँति । थोवा तिन्नि य अहिया GARAUGAISAXARSA SAX Jan Education For Private Personel Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे | पादीनि ॥५१४॥ दोऽणंतगुणा विसेसहिया ॥ ३५ ॥ जीवा पोग्गल समया दव पएसा य पज्जवा चेव । थोवाणंताणता विसेसअहिआ२६२-६७ दुवेऽणंता ॥ ३६॥ २६३ द्वारम् ॥ अन्तरद्वीजा दुप्पसहो सूरी होहिंति जुगप्पहाण आयरिया। अजसुहम्मप्पभिई चउरहिया दुन्नि य सहस्सा ॥३७॥२६४ द्वारम्॥ है. ओसप्पिणअंतिमजिण तित्थं सिरिरिसहनाणपज्जाया। संखेजा जावइया तावयमाणं धुवं भविही ॥३८॥२६५ द्वारम् ॥ दो कायप्पवियारा कप्पा फरिसेण दोन्नि दो रूवे । सद्दे दो चउर मणे नत्थि वियारो उवरि यत्थी ॥ ३९॥ गेविज- १४२२-४९ गुत्तरेसुं अप्पवियारा हवंति सबसुरा । सप्पवियारठिईणं अणंतगुणसोक्खसंजुत्ता ॥ ४० ॥ २६६ द्वारम् ॥ हा पंचमकप्पे रिटुंमि पत्थडे अट्ठ कण्हराईओ । समचउरंसक्खोडयठिइओ दो दो दिसिचउक्के ॥४१॥ पुषावरउत्तरदाहिणाहि मज्झिल्लियाहि पुछाओ । दाहिणउत्तरपुधा अवरा बहिकण्हराईओ॥ ४२ ॥ पुवावरा छलंसा तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा । अभंतरचउरंसा सबावि य कण्हराईओ॥४३॥ आयामपरिक्खेवेहिं ताण अस्संखजोयणसहस्सा । संखेजसहस्सा पुण विक्खंभे कण्हराईणं ॥४४॥ ईसाणदिसाईसुं एयाणं अंतरेसु अट्ठसुवि । अट्ठ विमाणाई तह तम्मझे एक्कगविमाणं ॥ ४५ ॥ अच्चिं १ तहऽच्चिमालिं २ वइरोय ३ पभंकरे य ४ चंदाभं ५ । सूराभं ६ सुक्काभं ७ सुपइट्ठाभ च ८ रिट्ठाभं ९॥४६॥ अट्ठायरविईया वसंति लोगंतिया सुरा तेसुं । सत्तट्ठभवभवंता गिजंति इमेहिं नामेहिं ॥४७॥ सारस्सय १ माइच्चा २ वण्ही ३ वरुणा य ४ गद्दतोया ५ य । तुसिया ६ अबाबाहा ७ अग्गिच्चा ८ चेव रिट्ठा य ९॥४८ पढमजुयलंमि सत्त उ सयाणि बीयंमि चउदस सहस्सा । तइए सत्त सहस्सा नव चेव सयाणि सेसेसु ॥४९॥२६७ द्वारम् ॥ ॥५१४॥ in Educan international For Private Personal use only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजमघा १ उप्पाये २ सादिधे ३ वुग्गहे य ४ सारीरे ५ । महिया १ सच्चित्तरओ २ वासम्मि य ३ संजमे तिविहं ६||॥५०॥ महिया उ गम्भमासे सच्चित्तरओ य ईसिआयवे । वासे तिन्नि पगारा बुब्बुय तवज फुसिए य ॥५१॥ दवे है तं चिय दवं खेत्ते जहियं तु जच्चिरं कालं । ठाणाइभास भावे मोत्तुं उस्सासउम्मेसे ॥५२॥ पंसू य मंसरुहिरे केससि लावुद्धि तह रयुग्घाए । मंसरुहिर अहरत्तं अवसेसे जच्चिरं सुत्तं ॥ ५३ ॥ पंसू अच्चित्तरओ रयस्सलाओ दिसा रउग्धाओ। तत्थ सवाए निवायए य सुत्तं परिहरंति ॥५४॥ गंधबदिसा विजुक्क गज्जिए जूव जक्खआलित्ते । एकेकपोरिसिं गजिय *तु दो पोरिसी हणइ ॥ ५५ ॥ दिसिदाहो छिन्नमूलो उक्क सरेहा पगाससंजुत्ता । संझाछेयावरणो उ जूघओ सुकि दिण हा तिन्नि ॥५६॥ चंदिमसूरुवरागे निग्घाए गुंजिए अहोरत्तं । संझाचउ पाडिवए जं जहि सुगिम्हए नियमा ॥५७॥ आसाढी ६ इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोद्धबे । एए महामहा खलु एएसिं जाव पाडिवया ॥ ५८॥ उक्कोसेण दुवालस चंदों जहनेण पोरिसी अट्ठ । सूरो जहन्न बारस पोरिसि उक्कोस दो अट्ठ ॥ ५९॥ सग्गहनिवुड एवं सूराई जेण हुंतिऽहोरत्ता । आइन्नं दिणमुक्के सोच्चिय दिवसो य राई य ॥६०॥ वुग्गहदंडियमाई संखोमे दंडिए व कालगए । अणरायए य सभए जच्चिरनिद्दोच्चऽहोरत्तं ॥ ६१॥ तदिवसभोइआइ अंतो सत्तण्ह जाव सज्झाओ । अणहस्स य हत्थसयं दिविविवित्तमि | सुद्धं तु ॥ ६२॥ मयहर पगए बहुपक्खिए य सत्तघर अंतर मयंमि । निहुक्खत्ति य गरिहा न पढंति सणियगं वावि ॥६३ ॥ तिरिपंचिंदिय दबे खेत्ते सविहत्थ पोग्गलाइन्नं । तिकुरत्थ महंतेगा नगरे बाहिं तु गामस्स ॥ ६४ ॥ काले तिपोरिसि अट्ठ व भावे सुत्तं तु नंदिमाईयं । सोणिय मंसं चम्मं अट्ठीवि य अहव चत्वारि ॥ ६५॥ अंतो बहिं व धोयं सट्ठी in Education Intematonal For Private Personel Use Only sww.jainelibrary.org Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे २६८ अस्वाध्यायाः ॥५१५॥ -4+4G १४५०-८१ हत्थाउ पोरिसी तिन्नि । महकाइ अहोरत्तं रत्ते वूढे य सुद्धं तु ॥ ६६ ॥ अंडगमुज्झिय कप्पे न य भूमि खणंति इयरहा तिन्नि । असझाइयप्पमाणं मच्छियपाया जहिं बुडे ॥ ६७ ॥ अजराउ तिन्नि पोरिसि जराउयाणं जरे पडे तिन्नि । रायपहबिंदुपडिए कप्पे बूढे पुणो नत्थि ॥ ६८॥ माणुस्सयं चउद्धा अढि मोत्तूण सयमहोरत्तं । परियावन्नविवन्ने सेसे तिय सत्त अद्वैव ॥ ६९ ॥ रत्तुक्कडा उ इत्थी अट्ठ दिणे तेण सत्त सुक्कहिए । तिण्ह दिणाण परेणं अणोउगं तं महारत्तं ॥७॥ दंते दिवि विगिंचण सेसढि बारसेव वरिसाई। दङ्वीसु न चेव य कीरइ सज्झायपरिहारो ॥ ७१॥२६८ द्वारम् ॥ विक्खंभो कोडिसयं तिसट्ठिकोडी उ लक्खचुलसीई । नंदीसरो पमाणंगुलेण इय जोयणपमाणो ॥७२॥ एयंतो |अंजणरयणसामकरपसरपूरिओवंता । बालतमालवणावलिजुयब घणपडलकलियब ॥ ७३ ॥ चउरो अंजणगिरिणो पुवाइदिसासु ताणमेकेको । चुलसीसहस्सउच्चो ओगाढो जोयणसहस्सं ॥ ७४ ॥ जुम्मं । मूले सहस्सदसगं विक्खंभे तस्स उवरि सयदसगं । तेसु घणमणिमयाई सिद्धाययणाणि चत्तारि ॥ ७५॥ जोयणसयदीहाई बावतरि ऊसियाई रम्माइं । पन्नास वित्थडाई चउद्दुवाराई सधयाई ॥ ७६ ॥ पइदारं मणितोरणपेच्छामंडवविरायमाणाई । पञ्चधणुस्सयऊसियअद्रुत्तरसयजिणजुयाइं ॥ ७७ ॥ मणिपेढिया महिंदज्झया य पोक्खरिणिया य पासेसुं । कंकेल्लिसत्तवन्नयचंपयच्यावणजुयाओ ॥ ७८ ॥ नंदुत्तरा य नंदा आणंदा नंदिवद्धणा नाम । पुक्खरिणीओ चउरो पुर्वजणचउदिसिं संति ॥७९॥ विक्खंभायामेहिं जोय|णलक्खप्पमाणजुत्ताओ। दसजोयसियाओ चउदिसितोरणवणजुयाओ॥ ८॥ तासि मज्झे दहिमुह महीहरा दुद्धद| हियसियवन्ना । पोक्खरिणीकलोलाहणणोब्भवफेणपिण्डुव ॥ ८१॥ चउसद्विसहस्सुच्चा दसजोयणसहस्सवित्थडा सके। XAMISHAHARANASAN ॥५१५॥ Jain Education in For Private Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहसमहो उवगाढा उवरि अहो पल्लयागारा ॥ ८२॥ अंजणगिरिसिहरेसु व तेसुवि जिणमंदिराई रुंदाई । वावीणमंतरालेसु पचयदुर्ग दुगं अत्थि ॥ ८३ ॥ ते रइकरामिहाणा विदिसिठिया अट्ठ पउमरायाभा । उवरिठियजिर्णिदसिणाणघुसिणरससंगपिंगुव ॥८४॥ अञ्चंतमसिणफासा अमरेसरविंदविहियआवासा । दसजोयणसहसुच्चा उबिद्धा गाउयसहस्सं ॥८५॥ झल्लरिसंठाणठिया उच्चत्तसमाणवित्थडा सवे । तेसुवि जिणभवणाई नेयाई जहुत्तमाणाई ॥८६॥ दाहिणदिसाएँ भद्दा विसालवावी य कुमुयपुक्खरिणी । तह पुंडरीगिणी मणितोरणआरामरमणीया ॥८७॥ पुक्खरिणी नंदिसेणा तहा अमोहा |य वावि गोथूभा । तह य सुदंसणवावी पच्छिमअंजणचउदिसासु ॥ ८८॥ विजया य वेजयंती जयंति अपराजिया उ! वावीओ। उत्तरदिसाएँ पुवुत्तवावीमाणा उ बारसवि ॥ ८९॥ सबाओ वावीओ दहिमुहसेलाण ठाणभूयाओ । अंजणगिरिपमुहं गिरितेरसग विजइ चउदिसिपि ॥ ९०॥ इय बावन्नगिरीसरसिहरट्ठियवीयरायबिम्बाणं । पूयणकए चउबिहदेवनिकाओ समेइ सया ॥ ९१॥ २६९ द्वारम् ॥ ___ आमोसहि १ विप्पोसहि २ खेलोसहि ३ जल्लओसही ४ चेव । सबोसहि ५ संभिन्ने ६ ओही ७ रिउ ८ विउलमइलद्धी ९॥ ९२ ॥ चारण १० आसीविस ११ केवलिय १२ गणहारिणो य १३ पुवधरा १४ । अरहंत १५ चक्कवट्टी १६ बलदेवा १७ वासुदेवा १८ य ॥ ९३ ॥ खीरमहुसप्पिआसव १९ कोट्ठयबुद्धी २० पयाणुसारी २१ य । तह बीयबुद्धि २२ तेयग २३ आहारग २४ सीयलेसा २५ य ॥ ९४ ॥ वेउविदेहलद्धी २६ अक्खीणमहाणसी २७ पुलाया २८ य । परिणामतववसेणं एमाई हुँति लद्धीओ ॥ ९५ ॥ संफरिसणमामोसो मुत्तपुरीसाण विप्पुसो वावि (वयवा)। अन्ने विडित्ति Jain Education Interational For Private & Personel Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन० सूत्रे ॥ ५१६ ॥ विट्ठा भासंति पइत्ति पासवणं ॥ ९६ ॥ एए अन्ने य बहू जेसिं सबेवि सुरहिणोऽवयवा । रोगोवसमसमत्था ते हुंति सओसहि पत्ता ॥ ९७ ॥ जो सुणइ सबओ मुणइ सबविसए उ सबसोएहिं । सुणइ बहुएवि सद्दे भिन्ने संभिन्नसोओ सो ॥ ९८ ॥ रिउ सामन्नं तम्मत्तगाहिणी रिउमई मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं घडमेत्तं चिंतियं मुणइ ॥ ९९ ॥ विउलं वत्थुविसेसण नाणं तग्गाहिणी मई विउला । चिंतियमणुसरइ घडं पसंगओ पज्जवसएहिं ॥ १५०० ॥ आसी दाढा तग्गय महाविसाssसीविसा दुविहभेया । ते कम्मजाइभेएण णेगहा चउविहविकप्पा ॥ १ ॥ खीरमहुसप्पिसा ओवमाणवयणा तयासवा हुति । कोट्टयधन्नसुनिग्गलसुत्तत्था कोट्ठबुद्धीया ॥ २ ॥ जो सुत्तपएण बहुं सुयमणुधावर पयाणुसारी सो । जो अत्थपएणडत्थं अणुसरइ स बीयबुद्धीओ ॥ ३ ॥ अक्खीणमहाणसिया भिक्खं जेणाणियं पुणो तेणं । परिभुत्तं चिय विज्जइ बहुएहिवि न उण अन्नेहिं ॥ ४ ॥ भवसिद्धियपुरिसाणं एयाओ हुंति भणियलद्धीओ । भवसिद्धियमहिलाणवि जत्तिय जायंति तं वोच्छं ॥ ५ ॥ अरहंतचक्किकेसवबलसंभिन्ने य चारणे पुवा । गणहरपुलायआहारगं च न हु भवियमहिलाणं | ॥ ६ ॥ अभवियपुरिसाणं पुण दस पुबिलाउ केवलित्तं च । उज्जुमई विडलमई तेरस एयाउ न हु हुंति ॥ ७ ॥ अभवियमहिलाणंपि हु एयाओ हुंति भणियलद्धीओ । महुखीरासवलद्धीवि नेय सेसा उ अविरुद्धा ॥ ८ ॥ २७० द्वारम् ॥ पुरिमकासणनिबिगइयआयंबिलोववासेहिं । एगलया इय पंचहिं होइ तवो इंदियजउत्ति ॥ ९ ॥ निबिगइयमायामं उपवासो इय लयाहिं तिहिं भणिओ । नामेण जोगसुद्धी नवदिणमाणो तवो एसो ॥ १० ॥ नाणंमि दंसणंमि य चरणंमि य तिन्नि तिन्नि पत्तेयं । उववासो तप्पूयापुवं तन्नामगतवंमि ॥ ११ ॥ एक्कासणगं तह निब्बिगइयमायंबिलं अभत्तट्ठो । इय 1 २६९-७० नन्दीश्वदीन गा. १४८२ १५११ ॥ ५१६ ॥ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होइ लयचउकं कसायविजए तवच्चरणे ॥ १२॥ खमणं एक्कासणगं एकगसित्थं च एगठाणं च । एक्कगदत्तं नीषियमायंबिलमट्ठकवलं च ॥ १३ ॥ एसा एगा लइया अट्ठहिं लइयाहिं दिवस चउसट्ठी । इय अट्ठकम्मसूडणतवंमि भणिया जिणिं देहिं ॥१४॥ इग दुग इग तिग दुग चउ तिग पण चउ छक्क पंच सत्त छगं । अढग सत्तग नवगं अट्ठग नव सत्त अद्वैव | ४॥ १५॥ छग सत्तग पण छक्कं चउ पण तिग चउर दुग तिगं एगं । दुग एक्कग उववासा लहुसिहनिक्कीलियतवंमि॥१९॥ चउपन्नं खमणसयं दिणाण तह पारणाणि तेत्तीसं । इह परिवाडिचउक्के वरिसदुर्ग दिवस अडवीसा ॥ १७॥ विगईओ निविगईयं तहा अलेवाडयं च आयाम । परिवाडिचउक्रमि य पारणएसुं विहेयवं ॥ १८॥ इग दुग इग तिग दुग चउ तिग पण चउ छक्क पंच सत्त छगं । अड सत्त नवऽड दस नव एकारस दस य बारसगं ॥ १९॥ एकार तेर बारस चउदस तेरस य पनर चउदसगं । सोलस पनरस सोला होइ विवरीयमेकंतं ॥२०॥ एए उ अभत्तट्ठा इगसट्ठी पारणाणमिह होइ । एसा एगा लइया चउग्गुणाए पुण इमाए ॥२१॥ वरिसछगं मासदुर्ग दिवसाई तहेव बारस हवंति । एत्थ महासीहनिकीलियंमि तिचे तवञ्चरणे ॥२२॥ एक्को दुगाइ एक्कग अंतरिया जाव सोलस हवंति । पुण सोलस एर्गता 51 एकतरिया अभत्तट्ठा ॥ २३ ॥ पारणयाणं सट्ठी परिवाडिचउक्कगमि चत्तारि । वरिसाणि हुंति मुत्तावलीतवे दिवससंखाए ॥२४॥ इग दुति काहलियासुं दाडिमपुप्फेसु हुँति अट्ठ तिगा । एगाइसोलसंता सरियाजुयलंमि उववासा ॥ २५॥ अंतमि तस्स पयगं तत्थंकट्ठाणमेकमह पंच। सत्त य सत्त य पण पण तिन्निकतेसु तिगरयणा ॥ २६ ॥ पारणयन दिणट्ठासी परिवाडिचउक्कगे वरिसपणगं । नव मासा अट्ठारस दिणाणि रयणावलितमि ॥ २७ ॥ रयणावलीकमेणं| Jain Education in Fac.jainelibrary.org Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥५१७॥ कीरइ कणगावली तवो नवरं । कुज्जा दुगा तिगपए दाडिमपुप्फेसु पयगे य ॥ २८ ॥ परिवाडिचउक्के वरिसपंचगं २११ विदिणदुगूणमासतिगं । पढमतवुत्तो कज्जो पारणयविही तवप्पणगे ॥ २९॥ भद्दाइतवेसु तहाऽऽइया लया इग दु तिन्नि विधतपांसि चउ पंच । तह ति चउ पंच इग दु तह पणग इग दोन्नि ति चउक्कं ॥ ३०॥ तह दुति चउ पणगेगं तह चर पणगेग गा. दोन्नि तिन्नेव । पणहत्तरि उववासा पारणयाणं तु पणवीसा ॥ ३१॥ पभणामि महाभदं इग दुग तिग चउ पणच्छ ४१५१२-४२ सत्तेव । तह चउ पण छग सत्तग इग दु ति तह सत्त एकं दो ॥ ३२॥ तिन्नि चउ पंच छकं तह तिग चउ पण छ सत्तगेगं दो। तह छग सत्तग इग दो तिग चउ पण तह दुगं ति चउ ॥ ३३ ॥ पण छग सत्तेकं तह पण छग सत्तेक दोन्नि (तिय चउरो। पारणयाण गुवन्ना छण्णउयसयं चउत्थाणं ॥ ३४ ॥ भद्दोत्तरपडिमाए पण छग सत्तट्ट नव तहा सत्त । अड नव पंचच्छ तहा नव पण छग सत्त अद्वैव ॥ ३५॥ तह छग सत्तट्ट नव पण तहट्ट नव पण? सत्तंऽभत्तट्ठा। पणहत्तरसयसंखा पारणगाणं तु पणवीसा ॥ ३६॥ पडिमाएँ सबभद्दाएँ पणच्छ सत्तट्ठ नव दसेक्कारा । तह अड नव दस एक्कार पण छ सत्त य तहेक्कारा ॥ ३७॥ पण छग सत्तग अड नव दस तह सत्तट्ट नव दसेक्कारा । पण छ तहा दस एक्कार पण छ सत्तट्ट नव य तहा ॥ ३८॥ छग सत्तड नव दसगं एक्कारस पंच तह नवग दसगं । एक्कारस पण छकं सत्तट्ठ य इह तवे हॉति ॥ ३९ ॥ तिन्नि सया बाणउया इत्थुववासाण होति संखाए। पारणया गुणवन्ना भद्दाइतवा इमे भणिया ॥४०॥ पडिवइया एक्कच्चिय दुर्ग दुइजाण जाव पन्नरस । खमणेहऽमावसाओ होइ तवो सबसंपत्ती ॥४१॥ ॥५१७॥ रोहिणिरिक्खदिणे रोहिणीतवो सत्त मासवरिसाई। सिरिवासुपुजपूयापुवं कीरइ अभत्तट्ठो ॥४२॥ एक्कारस सुयदेवीत For Private Personel Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंमि एकारसीओ मोणेणं । कीरंति चउत्थेहिं सुयदेवीपूयणापुर्व ॥ ४३ ॥ सबंगसुंदरतवे कुणंति जिणपूयखंतिनियमपरा । अडववासे एगंतरंबिले धवलपक्खमि ॥ ४४ ॥ एवं निरुजसिहोवि हु नवरं सो होइ सामले पक्खे । तंमि य अहिओ कीरइ | गिलाणपडिजागरणनियमो ॥ ४५ ॥ सो परमभूषणो होइ जंमि आयंबिलाणि बत्तीसं । अंतरपारणयाई भूसणदाणं च | देवरस || ४६ || आयइजणगोऽवेवं नवरं सधासु धम्मकिरियासुं । अणिगूहियबलविरियप्पवित्तिजुत्तेहिं सो कज्जो ॥ ४७ ॥ एगंतरोववासा सबरसं पारणं च चेन्तंमि । सोहग्गकप्परुक्खो होइ तहा दिज्जए दाणं ॥ ४८ ॥ तवचरणसमत्तीए कप्प - तरू जिणपुरो ससत्तीए । कायबो नाणाविहफलविलसिरसाहियासहिओ ॥ ४९ ॥ तित्थयरजणणिपूयापुढं एक्कासणाई सत्तेव । तित्थयरजणणिनामगतवंमि कीरंति भद्दवए ॥ ५० ॥ एक्कासणाइएहिं भद्दवयचउक्कगंमि सोलसहिं । होइ समोसरणतवो तप्पूयापुचविहिएहिं ॥ ५१ ॥ नंदीसरपडपूया निययसामत्थसरिसतवचरणा । होइ अमावस्सतवो अमावसा - वासरुद्दिट्ठो ॥ ५२ ॥ सिरिपुंडरीयनामगतवंमि एगासणाइ कायवं । चेत्तस्स पुन्निमाए पूएयबा य तप्पडिमा ॥ ५३ ॥ | देवग्गठवियकलसो जा पुन्नो अक्खयाण मुट्ठीए । जो तत्थ सत्तिसरिसो तवो तमक्खयनिहिं बिंति ॥ ५४ ॥ वढइ जहा कलाए एक्केक्काएऽणुवासरं चंदो । संपुन्नो संपज्जइ जा सयलकलाहिं पबंमि ॥ ५५ ॥ तह पडिवयाए एक्को कवलो बीयाइ पुन्निमा जाव | एकेककवलवुडी जा तेसिं होइ पन्नरसगं ॥ ५६ ॥ एकेकं किमि य पक्खंपि कलं जहा ससी मुयइ । | कवलोवि तहा मुच्चइ जामावासाइ सो एक्को ॥ ५७ ॥ एसा चंदप्पडिमा जवमज्झा मासमित्तपरिमाणा । इण्हि तु वज्जमज्झं मासप्पाडिमं पवक्खामि ॥ ५८ ॥ पन्नरस पडिवयाए एकगहाणीऍ जावऽभावस्सा । एक्केणं कवलेणं जाया तह पडि Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सूत्रे ॥५१८॥ गा. AXARRARRRRR है वईऽवि सिआ॥५९॥ बीयाइयासु इक्वगवुड्डी जा पुन्निमाएँ पन्नरस । जवमज्झवज्जमज्झाओं दोवि पडिमाओं भणियाओ है। २७२ ॥ ६०॥ दिवसे दिवसे एगा दत्ती पढमंमि सत्तगे गिज्झा। वड्डइ दत्ती सह सत्तगेण जा सत्त सत्तमए ॥ ६१॥ इगुव- पातालनवासरेहिं होइ इमा सत्तसत्तमी पडिमा । अट्ठमिया नवनवमिया य दसदसमिया चेव ॥ १२॥ नवरं वडइ दत्ती सह कलशाः अठगनवगदसगवुड्डीहिं । चउसट्ठी एक्कासी सयं च दिवसाणिमासु कमा ॥ ६३ ॥एगाइयाणि आयंबिलाणि एकेकवुद्धिमंताणि । पजंतअभत्तठाणि जाव पुन्नं सयं तेसिं ॥ ६४ ॥ एयं आयंबिलवद्धमाणनामं महातवचरणं । वरिसाणि एत्थ चउदस मासतिगं वीस दिवसाणि ॥६५॥ गुणरयणवच्छरंमी सोलस मासा हवंति तवचरणे । एगंतरोववासा पढमे मासंमि कायबा ॥ ६६ ॥ ठायब उकुडुआसणेण दिवसे निसाएँ पुण निच्चं । वीरासणिएण तहा होयवमवाउडेणं च ॥१७॥ बीयाइसु मासेसुं कुन्जा एगुत्तराए वुडीए । जा सोलसमे सोलस उववासा हुंति मासंमि ॥ ६८॥ ज पढमगंमि मासे तमगुट्ठाणं समग्गमासेसु । पंच सयाई दिणाणं वीसूणाई इममि तवे ॥ ६९ ॥ तह अंगोवंगाणं चिइवंदणपंचमंगलाईणं । उवहाणाइ जहाविहि हवंति नेयाई तह समया ॥ ७० ॥ २७१ द्वारम् ॥ पणनउइ सहस्साई ओगाहित्ता चउद्दिसिं लवणं । चउरोऽलिंजरसंठाणसंठिया होति पायाला ॥१॥ वलयामुह केयूरे ६ जुयगे तह ईसरे य बोद्धवे । सबवइरामयाणं कुड्डा एएसि दससइया ॥ ७२ ॥ जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिं च होति विच्छिन्ना । मज्झे य सयसहस्सं तत्तियमित्तं च ओगाढा ॥ ७३ ॥ पलिओवमट्टिईया एएसिं अहिवई सुरा इणमो । काले ॥५१८॥ जय महाकाले वेलंब पभंजणे चेव ॥ ७४ ॥ अन्नेवि य पायाला खुड्डालिंजरगसंठिया लवणे । अट्ठ सया चुलसीया सत्त For Private Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8| सहस्सा य सबेसि ॥ ७५ ॥ जोयणसयविच्छिन्ना मूलुवरि दस सयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्सं दसजोयणिया य सिं कुड्डा ॥७६ ॥ पायालाण विभागा सबाणवि तिन्नि तिन्नि बोद्धया । हिट्ठिमभागे वाऊ मज्झे वाऊ य उदगं च ॥७॥ उवरिं उदगं भणियं पढमगबीएसु वाउसंखुमिओ । उर्ल्ड वामे उदगं परिवड्डइ जलनिही खुमिओ ॥७८ ॥ परिसंठिअंमि पवणे पुणरवि उदगं तमेव संठाणं । वड्लेइ तेण उदही परिहायइऽणुक्कमेणेव ॥ ७९ ॥ २७२ द्वारम् ॥ समओ जहन्नमंतरमुक्कोसेणं तु जाव छम्मासा । आहारसरीराणं उक्कोसेणं नव सहस्सा ॥ ८०॥ चत्तारि य वाराओ चउदसपुची करेइ आहारं । संसारम्मि वसंतो एगभवे दोन्नि वाराओ ॥ ८१॥ तित्थयररिद्धिसंदसणत्यमत्थोवगहणहे| वा । संसयवुच्छेयत्थं [वा] गमणं जिणपायमूलंमि ॥ ८२॥ २७३ द्वारम् ॥ सग जवण सबर बब्बर काय मुरुडोड्डु गोण पक्कणया । अरबाग होण रोमय पारस खस खासिया चेव ॥ ८३॥ दुबिलय लउस बोक्कस मिलंध पुलिंद कुंच भमररुआ। कोवाय चीण चंचुय मालव दमिला कुलग्या या ॥८४॥ केकय | किराय हयमुह खरमुह गयतुरयमिंढयमुहा य । हयकन्ना गयकन्ना अन्नेऽवि अणारिया बहवे ॥८५॥ पावा य चंडकम्मा अणारिया निग्घिणा निरणुतावी । धम्मोत्ति अक्खराई सुमिणेऽवि न नजए जाणं ॥८६॥ २७४ द्वारम् ॥ रायगिह मगह १ चंपा अंगा २ तह तामलित्ति वंगा य ३ । कंचणपुरं कलिंगा ४ वणारसी चेव कासी य५॥८७॥ साकेयं कोसला ६ गयपुरं च कुन ७ सोरियं कुसट्टा य ८। कंपिल्लं पंचाला ९ अहिछत्ता जंगला चेव १०॥८८॥ बारवई य सुरहा |११ मिहिल विदेहा य१त्थ कोसंबी १३ । नंदिपुरं संडिल्ला १४ भद्दिलपुरमेव मलया य १५॥ ८९॥ वइराड मच्छ १६ Jain Educ a tion For Private Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन सत्रे CHARISMASISHARMOSA वरुणा अच्छा १७ तह मत्तियावइ दसन्ना १८ । सोत्तीमई य चेई १९ वीयभयं सिंधुसोवीरा २०॥९०॥ महुरा य सूर- २७३-६ सेणा २१ पावा भंगी य २२ मासपुरी वट्टा २३ । सावत्थी य कुणाला २४ कोडीवरिसं च लाढा य २५॥ ९१॥ सेय-| आहारवियाविय नयरी केयइअद्धं २५ च आरियं भणियं । जत्थुप्पत्ति जिणाणं चक्कीणं रामकण्हाणं ॥ ९२॥ २७५ द्वारम् ॥ त कानार्यायनव दरिसणंमि ९ चत्तारि आउए ४ पंच आइमे अंते ५।सेसे दो दो भेया ८ खीणमिलावेण इगतीसं ॥९३॥ पडि | देशकर्मसेहण संठाणे य वन्नगंधरसफासवेए य । पण ५ पण ५ दु २ पण ५ ४८ तिहा एगतीसमकाय १ ऽसंग २ ऽरुहा ३| 5/भेदाः गा. ल १५७५.९९ 1॥ ९४ ॥२७६ द्वारम् ॥ ML धम्मधराधरणमहावराहजिणचंदसूरिसिस्साणं । सिरिअम्मएवसूरीण पायपंकयपराएहिं ॥९५॥ सिरिविजयसेणगणहरक8णिट्ठजसदेवसूरिजिडेहिं । सिरिनेमिचंदसूरिहिं सविणयं सिस्सभणिएहिं ॥९६॥ समयरयणायराओ रयणाणं पिव समत्थदाराई।। है निउणनिहालणपुर्व गहिउं संजत्तिएहिं व ॥९॥ पवयणसारुद्धारो रइओ सपरावबोहकजंमि। जंकिंचि इह अजुत्तं बहुस्सुआतं विसोहंतु॥९॥जुम्मं ।जा विजयइ भुवणत्तयमेयं रविससिसुमेरुगिरिजुत्तं । पवयणसारुद्धारोतानंदउ बहु पढिजंतो॥१५९९॥ ॥५१९॥ aastasura sursatasaras इति श्रीनेमिचन्द्रमरिक्तं प्रवचनसारोद्धारसूत्रम् । श्रेष्ठि देवचन्द्र-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे प्रन्थाङ्कः ६४. essenger RSRSRSRSRSenserserSAS शता Jain EducationD iana For Private Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personel Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SR GROSSRIGANGANAGAN SONGSOON GRG8 வான் பாபா શ્રી સાણંદ સાગર ગ9 રૂાન ભંડાર // इति श्रीप्रवचनसारोद्धारवृतौ-उत्तरभागः // . इति श्रेष्ठि-देवचन्द्र-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे-ग्रन्थाङ्कः 64. SouchicavalhalavaloclavdhvcovelVENUSIVISUCHANDIT Jan Education International For Private Personel Use Only