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________________ : 96*%*% एकसमओ जहन्नो उक्कोसेणं तु जाव छम्मासा । विरहो सिद्धिगईए उङ्घट्टणवज्जिया नियमा ॥७९॥ एकः समयो जघन्यतः सिद्धिगतौ विरहः - अन्तरं भवति, उत्कर्षतस्तु यावत् षण्मासाः सा च सिद्धिगतिर्नियमात् - निश्चयेनोद्वर्तनवर्जिता, न खलु सिद्धास्ततः कदाचनाप्युद्वर्तन्ते, तद्धेतूनां कर्मणां निर्मूलमुन्मूलितत्वात् उक्तं च- "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ॥ १ ॥ २०४ ॥ ७९ ॥ सम्प्रति 'जीवाणाहारगहणऊसास'त्ति पथ्वोत्तरद्विशततमं द्वारमाह Jain Education International सरिरेणोयाहारो तयाय फासेण रोमआहारो । पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायवो ॥८०॥ ओयाहारा जीवा वे अपजत्तगा मुणेयवा । पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे हुंति भइया ॥ ८१ ॥ रोमाहारा एगिंदिया य नेरइयसुरगणा चेव । सेसाणं आहारो रोमे पक्खेवओ चेव ॥ ८२॥ ओयाहारा भक्खिणो य सवेऽवि सुरगणा होंति । सेसा हवंति जीवा लोमाहारा मुणेयवा ॥ ८३ ॥ अपज्जत्ताण सुराणऽणाभोगनिवत्तिओ य आहारो । पज्जन्ताणं मणभक्खणेण आभोगनिम्माओ ॥ ८४ ॥ जस्स जइ सागराई ठिइ तस्स य तेत्तिएहिं पक्खेहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो ॥ ८५ ॥ दसवाससहस्साइं जहन्नमाऊ धरंति जे देवा । तेसि चउत्थाहारो सतहिं थोवेहिं ऊसासो ॥ ८६ ॥ दसवास सहस्साई समयाई जाव सागरं ऊणं । दिवसमुहुत्तपुहुत्ता आहारूसास सेसाणं ॥ ८७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600108
Book TitlePravachan Saroddhar Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandrasuri
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1926
Total Pages628
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size13 MB
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