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નમો અરિહંતાણું
નમો સિદ્ધાણં નમો આયરિયાણં નમો ઉવજઝાયાણં નમો લોએ સવ્વ સાહૂણે એસો પંચ નમુકકારો સવ્વ પાવપ્પણાસણો મંગલાણં ચ સવ્વસિં પઢમં હવઈ મંગલ
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જિનાગમ પ્રકાશન યોજના પ. પૂ. આચાર્યશ્રી ઘાંસીલાલજી મહારાજ સાહેબ
કૃત વ્યાખ્યા સહિત
DVD No. 2 (Full Edition)
:: યોજનાના આયોજક :
શ્રી ચંદ્ર પી. દોશી – પીએચ.ડી. website : www.jainagam.com
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DWAR SU
YOGDWA
SHREEA
SUTRAM
શ્રી અનુયોગદ્વાર સૂત્રમ
પ્રથમ વિભાગ
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શ્રી અનુયોગ દ્વાર સૂત્રમ (ભાગ-૧)
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મારી કરી હતી કે, શા જ ફેટ, (શુજન ત)
ચંદ્રકાંત પ્રભુદાસ દોશી
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SAMOA AAAAAA
जैनाचार्य- जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री- घासीलालजी - महाराजविरचितया अनुयोगचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भाषाऽनुवादसहितम्
श्री अनुयोगद्वारसूत्रम्
( प्रथमो भागः )
नियोजक
संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानि
पण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी - महाराजः
प्रकाशकः
साणंदनिवासी-श्रेष्टिश्री डोसाभाई गोपालदासस्मरणार्थे
तत्पुत्रप्रदत्त द्रव्य साहाय्येन
अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार समितिप्रमुखः श्रेष्ठि- श्री शान्तिलाल - मङ्गलदास भाई-महोदयः
मु० राजकोट
प्रथमा - आवृत्तिः
प्रति १२००
वीर- संवत्
२४२३
विक्रम संवत्
२०२३
ईसवीसन् १९६७
SOYOOO
मूल्यम् - रू० २५-०-०
Surrorareroowors
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મળવાનું ઠેકાણુ 1 श्री अ. भा. श्वे. स्थानवासी જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, हे गरेडिया वा रोड, रा, (सौराष्ट्र ).
Published by :
Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra ), W. Ry, India.
,
फ्र
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यत्रज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः ।
उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा,
aratai निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥
弱
हरि गीत च्छन्दः
品
करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्र कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥
जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तव इससे पायगा ।
है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥ १ ॥
પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ૨૪૯૩
વિક્રમ સવત્ ૨૦૨૩ ઇસવીસન १८६७
भूस्यः ३. २५=00
: भुद्र :
મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત प्रिन्टींग
प्रेस,
घीअंटा रोड, अभहावाह
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પ્રભુદાસ સુજી દેશ માદી શેરી માંડવી ધાક, शुभट. (शुभंगत
श्री
अनुयोगद्वारसूत्र भाग पहेले की विषयानुक्रमणिका
विषय
अनुक्रमाह ९ मंगळाचरण विषयों का विवरण
३ पांच प्रकार के ज्ञान के स्वरूप का निरूपण
४ श्रवज्ञान के स्वरूप का निरूपण
५ आवश्यक के अनुयोगस्वरूप का निरूपण
६ आवश्यक के निक्षेप का निरूपण
७ नामाकयक के स्वरूप का निरूपण
८ स्थापनावश्यक के स्वरूप का निरूपण
९ नामावश्यक और स्थापनावश्यक के मेद का कथन
१७ कुमात्रत्रनिक द्रव्यावश्यक का निरूपण
१८ ज्ञायक शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त लोकोत्तरीय
व्यावश्यक का निरूपण
१९ भावावश्यक का निरूपण
२० नो आगम भावावश्यक का निरूपण
पृष्ठोङ्क
१० द्रव्यावश्यक का निरूपण
११ नयभेद से द्रव्यावश्यक के स्वरूप का निरूपण
१२ नो आगम से द्रव्यावश्यक का निरूपण
१३ शायक शरीर व्यावश्यक का निरूपण
१४ भव्यश्वरीर द्रव्यावश्यक निरूपणम्
१२७
१५ ज्ञायक शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक का निरूपण १३१-१३२
१६ लौकिक द्रव्यावश्यक का निरूपण
१३२-१४१
१४२-१५०
१- २
३-१३
१३-२९
३०-५७
५८-६०
६१-६३
६४-७२
७२-७७
७८-८५
८६-१०१
१०२-११५
११६-११९
११९-१२६
१५०-१५९ १५९-१६४
१६४ - १६८
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२१ कुप्राचनिक भावावश्यक का निरूपण २२ लोकोत्तरीय भावावश्यक का निरूपण २३ भावावश्यक के पर्याय का निरूपण २४ नामश्रुतका निरूपण
२५ आगम से द्रव्य श्रुतका निरूपण
२६ नो आगम से द्रव्यावश्यक का निरूपण
२७ ज्ञायक शरीर द्रव्यश्रुतका निरूपण
२८ भव्यशरीर द्रव्यश्रुतका निरूपण
२९ ज्ञायक शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यभुतकानिरूपण
३० आगमसे भावश्रुतका निरूपण
३१. लौकिक नो आगम से भावश्रुतका निरूपण
३२ लोकोत्तरीय नो आगमसे भावश्रुतका निरूपण
३३ भावश्रुत के पर्यायों का निरूपण
३४ स्कन्धाधिकार का निरूपण
३५ द्रव्यस्कन्ध का निरूपण
३६ द्रव्य के सचित्तरूप प्रथम भेद का निरूपण
३७ अचित्त द्रव्यस्कन्ध का निरूपण
३८ मिश्र द्रव्यस्कन्ध का निरूपण
३९ अनस्कन्ध का निरूपण ४० अनेक द्रव्यस्कन्ध का निरूपण ४१ आगमसे भावस्कन्ध का निरूपण ४२ नो आगमसे भावस्कन्ध का निरूपण ४३. स्कन्धों के पर्यायों का निरूपण
४४ आवश्यक के छ अध्ययनों का निरूपण ४५ आवश्यक व्याख्यात हो चुके और भागे व्याख्यात
atter उपक्रम का निरूपण
होने वाले विषय का निरूपण
१६८-१७० १७१-१७७
१७८ - १८२
१८३-१८४
१८४ - १८६
१८६-१८७
१८७-१८८
१८९-१९०
१९०-१९९
२०० - २०१
२०२-२०५
२०६-२१०
२१०-२१२
२१३-२१५
२१६-२१८
२१९-२२१
२२२-२२३
२२४-२२७
२२८-२३०
२३१-२३४
२३५
२३६-२३८
२३९-२४१
२४१-२४५
२४५ - २५१ २५१-२५३
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ও যৰিব ধীরুল কা দিত। १८ द्विपद संबंधी द्रव्योपक्रम का निरूपण ९ चतुष्पद विषयक दोनों प्रकार के उपक्रम का निरूपण ५. अपर वियप दोनों प्रकार के उपक्रम का निरूपण ५१ अपित्त द्रव्योपक्रम का निरूपण ५२ मिश्रा द्रव्योपक्रम का निरूपण ५३ क्षेत्रोपक्रम का निरूपण ५४ कालोपक्रम का निरूपण ५५ नो आगम से मावोपक्रम का निरूपण ५६ शाखामावोपक्रम का निरूपण ५७ जानुपूर्वी पादि के सरूप का निरूपग ५८ नामादि आनुपूर्वी का निरूपण ५९ अनौपनिधिकी द्रव्यानुर्वी का निरूपण ६० नंगमव्यवहारअर्थपदका निरूपण ६१ मानसपुत्कीर्तनता का निरूपण ६२ मनोपदर्शनता का निरूपण ६३ समंवतार के स्वरूप का निरूपण ६४ अनुगमके सरूा का निरूपण ६५ सत्पद का निरूपण ६६ द्रव्यप्रमाण का निरूपण ६७ क्षेत्रममाण का निरूपग ६८ स्पर्शनाद्वार का निरूपण ६९ कालद्वार का निरूपग ७० अन्तरद्वार का निरूपग १ भागद्वार का निरूपण ७२ माबद्वार का निरूपण
२५४-२५७ २५७-२५९ २६०-२६१ २६१-२६२ २६२-२६३ २६३-२६५ २६६-२६९ २६९-२७१ २७१-२८४ २८४-२८५ २८६- . .. २८७-३०४ ३०५-३१६ ३१७-३१९ ३१९-३२७ ३२७-३३४ ३३५-३३९ ३३९-३४३ ३४३-३४४ ३४५-३४७ ३४८-३५५ ३५५-३६० ३३१-३६४ ३६५-३७६
३७-३८३
३८३-३८७
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७३ अस्प बहुस्वद्वार का निरूपण
३८७-१९७ ७१ अर्थपद का निरूपण
३९९-१.२ ७५ मा समुत्कीर्तनता का निरूपण
१०३-४.५ ७६ मनोपदर्शनता का निरूपण
४०६-४०८ ७७ समवतार के स्वरूप का निरूपण
४०८-११० ७८ अनुपम केस्वरूप का निरूपण
४१०-४२४ ७९ पूर्वानुपूर्वी आदि तीन भेदों का निरूपण
४१५-१३१ ८० पुदलास्तिकायकों अधिकृत करके तीन द्रव्यों का निरूपण ४३१-४३८ ४१ क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण
४३९-४४२ ८२ अर्थपद की प्ररूपणा
४४२-४५८ ८३ अर्थपद मरूपणा के प्रयोजन का निरूपण
४४९-१५० ८४ मङ्गसमुत्कीर्तनता के प्रयोजन का निरूपण
४५१-४५२ ८५ मनोपदर्शनता का निरूपण
४५२-४५६ ८६ समवतार का निरूपण
४५६-४५७ ८७ अनुगम का निरूपण
४५८-४५९ ८८ द्रव्यप्रमाण का निरूपण
४६०-४६४ ८९ क्षेत्रमाणद्वार का निरूपण
४६५-१७७ ९० स्पर्शवाद्वार का निरूपण
४७७-४७९ ९१ कालद्वार का निरूपण
१८०-४८४ ९२ अन्तरद्वार का निरूपण
४८५-४९. ९३ भागद्वार का निरूपण
४९१-५०० २४. भाषद्वार का निरूपण
५०१-५०१ ९५ अल्पबहुत्वद्वार का निरूपण
५०३-५१० ९६ अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण
५११-५१६ ९७ औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण
५१६-५२३ ९८ अधोलोक गत क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण
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५२७-५३२ ५३३-५३९ ५३९-५४० ५४१-५४७ ५४८-५५० ५५१-५५४ ५५५-५५६ .५५७-५६२ ५१३-५७३
९९ विश्लोक क्षेत्रानुर्वी का निरूपण १.. कर्मलोक क्षेत्रानुपूर्वी का निरूपण १.१ कालानुपूर्वी भादि का निरूपण १०२ नैपषव्यवहारनयसंमत अर्थपद का निरूपण १०३ नेगमव्यवहारनवसंमत भासमुत्कीर्तन का निरूपण १.५ मेगाव्यवहारनयसंमत मनोपदर्शन का निरूपण १०५ समस्कार के स्वरूप का निरूपण १.६ अनुपम के स्वरूप का विरूपण १०७ क्षेबद्यार और स्पर्शनाद्वार का निरूपण १५ कालहार का निरूपण १०१ अन्तरद्वार का निरूपण ११० अनौपनिधिको कालानुपूर्वी का निरूपण १११ अपक्षनरूपण आदि का निरूपण ११२ औषनिधिको कालानुपूर्ती का निरूपण
र उत्कीर्तनानुपूर्वी का निरूपण ११४ मणमानुपूर्वी का निरूपण ११५ संस्थानानुपूर्वी का निरूपण ११६ सामाचार्यानुपूर्वी का निरूपरूग ११७ भावानुपूर्वी का निरूपण ११८ उपक्रम के दूसरेभेद नाम का निरूपण ११९ एक नाम के स्वरूपका निरूपण १२० द्विनाम आदिके स्वरूपका निरूपण १२१ त्रिनाम के स्वरूपका निरूपण १२२ पर्यवनामका निरूपण १२३ प्रकारान्तरसे त्रिनामका निरूपण १२४ चतुर्नामका निरूपण १२५ पांचनामों का निरूपण १२६ छ नामों का निरूपण १२७ औदयिकादि मावों के स्वरूपका निरूपण १२८ औपशमिक भावका निरूपण
५७७-२८७ ५८७-५८८ ५८८-५८९ ५९०-६०१ -६-६०५ ६०५-६०८ ६०८-६१४ ६१४-६२३ ६२३-६२८ ६२८-६३० ६३०-६३२ ६३३-६४४ ६४५-६५५ ६५५-६६६ ६६६-६७१ ६७१-६७७ ६७७-६७९ ६७९-६८२ ६८२-६९१ ६९३-६९६
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१२९ क्षायिक भावका निरूपण १३० क्षायोपशमिक मावका निरूपण १३१ पारिणामिक भावका निरूपण १३२ सामिपातिक मावका निरूपण १३३ द्विकादि संयोगका निरूपण १३४ द्विकादि त्रिकसंयोगज सानिपातिकमावका निरूपण १३५ चतुष्कसंयोगन सांनिपातिक मावका निरूपण १३६ पंचक संयोगन सानिपातिक भावका निरूपण १३७ सप्तनामका निरूपण १३८ कारणदर्शनपूर्वक स्वरोका निरूपण १३९ सात स्वरों के लक्षण का निरूपण १४. स्वरों के ग्राम एवं मूर्छना का निरूपण १४१ स्वर के उत्पत्ति आदि का निरूण १४२ गीत में हेय और उपादेय का निरूपण १४३ अष्ट नाम का निरूपण १४४ नव नाम का निरूपण १४५ लक्षणपूर्वक वीररस का निरूपण १४६ लक्षगपूर्वकशृंगाररप का निरूपण १४७ लक्षग सहित अद्भुनरस का निरूपण १४८ लक्षग सहित रौद्ररस का निरूपण . १४९ लक्षणपहित वीडनकरस का निरूपण
६९७-७१९ ७२०-७२५ ७३५-७४५ ७४५-७१६ ७४७-७५६ ७५७-७७२ ७७२-७८२ ७८२-७८८ ७८९-७९२ ७९२-७९८ ७९८-८०२ ८०३-८०५ ८०६-८०८ ८०८-८२१ ८२१-८२७ ८२८-८३३ ८३३-८३६ ८३६-८३९ ८३९-८४० ८४१-८४४ ८४५-८४८
समाप्त
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ा
॥ श्री वीतरागाय नमः ॥
जना कार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्यश्री अनुयोगचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम्
श्री अनुयोगद्वारसूत्रम्
( प्रथमो भागः ) (मालिनी वृत्तम्)
शिवसरणिविधानं जीवरक्षकतानं,
घासीलालव्रतिविरचितया
सुरनरकृतगानं केवलज्ञानभानम् । प्रशमरसनिदानं ज्ञानदानप्रधानं,
परमसुखनिधानं वर्धमानं नमामि ॥ १ ॥ (२)
करणचरणधारं सर्वपूर्वाधारं,
शुभतरगुणधार प्राप्तसंभारपारम् । कलितसकललब्धि लब्धविज्ञानसिद्धि,
गणधरमभिरामं गौतमं तं नमामि ॥ २ ॥ ॥ श्री ॥
अनुयोगद्वार सूत्र का हिन्दी भाषान्तर प्रारम्भ
मैं उन अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार करता हूँ कि जिन्होंने ४ घातिक कर्मों का अत्यंत विनाश करके के लज्ञानरूपी अनन्त प्रकाश प्राप्त कर लिया है । और इसी कारण जो मोक्षमार्ग के विधायक तथा अनन्त अब्यावाध सुख के निधान (निधि) बने हैं । भव्य जीवों को जो प्रधानरूप से ज्ञान का दान देते हैं और जीवों की रक्षा करने में रूदा तत्पर रहते हैं । देव और मनुष्य जिनके गुणों का गान करते हैं तथा जो प्रशम (शांत) रस के निदान - आदिकारण हैं ॥१॥
અનુયાગઢાર સૂત્રનું ભાષાન્તર પ્રારંભ—
જેમણે ચાર ઘાતિયા કર્મોને સંપૂર્ણત: ક્ષય કરીને કેવળજ્ઞાનરૂપી અનંત પ્રકાશને પ્રાપ્ત કરી લીધેા છે, અને તે કારણે જેએ મેાક્ષમાર્ગના વિધાયક તથા અનંત અન્યબાધ સુખના નિધાન (નિધિ) અનેલા છે, જેઆ ભન્ય જીવાને મુખ્યત્વે જ્ઞાનનું દાન દે છે અને જવાની રક્ષા કરવામા જે સદા તત્પર રહે છે,દેવા અને મનુષ્યા જેમના ગુણા ગાય છે, અને જેએ શાન્તરસના નિદાન આદિકારણ છે એવાં અ ંતિમ તીર્થંકર શ્રી મહાવીર જિનેન્દ્રને હું નમસ્કાર કરૂં છું. ॥ ૧ ॥
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अनुयोगवारले (पृथ्वीच्छन्दः) सगुप्तिसमितिं समां विरतिमादधानं सदा,
क्षमावदखिलक्षम कलितमजुचारित्रकम् । सदोरमुखवस्त्रिका विलसिताननेन्दु गुरु, दुरन्त भववारिधिप्लवमपूर्वबोध स्तुवे ॥३॥
(गीतिः) भव्यानामुपकृतये, प्रवचनसिद्धान्तवोधिनी सरलाम् । घासीलालः कुरुते, व्याख्यामनुयोगचन्द्रिकां शिवदाम् ॥ ४ ॥
जो करणसत्तरि और चरणसत्तरि के धारण करने वाले हैं। समत्त १४ पूर्वरूप समुद्र के जो पारगामी हैं। अत्यन्त श्रेष्ठ सम्यग्दर्शनादि गुणां के जा धारक हैं। संसार का पार जिन्होंने पा लिया है। समस्त लधियां के जो भंडार हैं विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) को सिद्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी हैऐसे उन मुनिश्रेष्ठ गौतम गणधर को मैं नमस्कार करता हूँ । ॥२॥
जो तीन गुप्तियों सहित पांच समितियों को और समस्त विरति को सदा धारण करते हैं । पृथ्वी की तरह जो सर्वसह हैं। निर्मल चारित्र के जो आराधक हैं। वायुकायादिक जीवों की रक्षा के लिये सदोरकमुखवत्रिका से जिन का मुखचन्द्र सर्वदा सुशोभित होता रहता है। जो इस दुरन्त संसाररूप समुद्र में प्रवहण-(नौंका) के जैसे हैं। ऐसे आर्व बोध विशिष्ट गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूं । ॥३॥
જેઓ કરણસત્તરિ (સત્તર કરણ) અને ચરણસત્તરિ (સત્તર ચરણ)ના ધારક છે, સમસ્ત ૧૪ પૂર્વરૂપ સમુદ્રને પાર જેમણે પામી લીધો છે, અત્યંત શ્રેષ્ઠ સમ્યગ્દર્શનઆદિ ગુણોથી જેઓ વિભૂષિત છે, જેમણે પિતાના સંસારને અન્ત કરી નાખે છે, જેઓ સમસ્ત લબ્ધિના ભંડાર છે, અને વિજ્ઞાન (વિશિષ્ટ જ્ઞાન)ની સિદ્ધિ જેમને થઈ ચુકી છે એવાં મુનિશ્રેષ્ઠ ગૌતમ ગણધરને હું નમસ્કાર કરું છું કે ૨ છે
ત્રણ ગુક્તિઓ અને પાંચ સમિતિઓ તથા સમસ્ત વિરતિને સદા ધારણ કરનારા, પૃથ્વીના જેવા સહિષ્ણુ, નિર્મલ ચારિત્રના આરાધક, સદે રકમુખવઝિકા (મુહપતી) વડે જેમનું મુખચન્દ્ર સદા સુશોભિત રહે છે, જેઓ આ દુરન્ત સંસારમાં ભ્રમણ કરતાં છ માટે નૌકા સમાન છે, એવાં અપૂર્વ બોધવિશિષ્ટ ગુરૂદેવને હું નમસ્કાર ४३ छुः ॥ 3 ॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका मङ्गलाचरणम्
इह मनुष्यजन्म दुलभं, यथा-केनापि क्रीडापरेण देवेन यदि माणिकयमयं स्तम्भं वज्रेण चूर्णीकृत्य परमाणुतुल्यं तच्चूर्ण नलिकान्तर्निधाय मेरुशिखरं समालय फत्कृतममीग्णम्नच्चूर्ण सकलं सर्वतः समुड्डायितं भवेत् । तदनन्तरं च यदि विक्षिप्ताम्ने परमाणवः प्रचण्डपवनो ताः सर्वासु दिक्षु दूर गता एकै कशो विभिन्नाः पतिताः म्यु स्तदा तान् परमाणुरूपान् सर्वतः संचित्य तेः पुनः
में घासीलाल मुनिव्रति भव्य जीवों के उपकार के निमित्त प्रवचन के सिद्धान्त को स्पष्ट करनेवाली अनुयोगद्वार मूत्र पर अनुयोगचन्द्रि का नाम की सरल व्याख्या को कि जो भव्य जीवों के लिये आनन्दप्रद है-रचता हूं । ॥४॥
- इस चतुर्गतिरूप संमार में मनुष्य जन्म बहुत दुर्लभ है। इस की दुर्लभता शास्त्रकारोंने इस प्रकार से प्रकट की है-जैसे क्रीडा में तत्पर बना हुआ कोई-देव माणिक्य के स्तम्भ को वज्र से तोडकर चूर २ कर देवें,
और फिर उस चूर्ण को एक नली के भीतर भरकर मेरु के शिखर पर खडा २ अपनी फूंक से इधर उधर दिशाओं में उसे सब ओर उडादेवें। इस तरह सर्व दिशाओं में विखरे हुए वे चूर्ण परमाणु कि जिन्हें प्रचंड वायु के वेग ने एक २ करके बहुत अधिक दूरतक तितर बितर कर लिया है अब यदि वह देव-उन विखरे हुए विभिन्न परमाणुओं को सर्व दिशाओ से एकत्रित
ભવ્ય જીના ઉપકારને માટે, પ્રવચનના સિદ્ધાન્તનું સ્પષ્ટીકરણ કરનારી, અનુયાગદ્વાર સૂત્રની અનુગચન્દ્રિકા નામની સરળ વ્યાખ્યા, કે જે ભવ્ય જીને માટે આનંદપ્રદ છે, તેની હું ઘાસીલાલજી મુનિ, રચના કરૂં છું. ૪
ચાર ગતિવાળા આ સંસારમાં મનુષ્યજન્મની પ્રાપ્તિ થવી ઘણી દુકર છે. તેની દુષ્કરતાનું શાસ્ત્રકારોએ નીચેના ઢટાન્ડ દ્વારા પ્રતિપાદન કર્યું છે.
ધારે કે કઈ એક દેવ ક્રીડામાં તત્પર બનેલો છે. તે વાની મદદથી માણેકના સ્તંભને તેડી નાખીને તેના ચૂરેચૂરા કરી નાખે છે. ત્યાર બાદ તે ચૂર્ણને એક નળીમાં ભરી લે છે. ત્યારબાદ તે દેવ તે માણેકના ભૂકાથી ભરેલી નળીને લઈને મેરૂ પર્વતના શિખર ઉપર જઈને ઊભો રહે છે અને કુંક મારી મારીને તે નળીમાં ભરેલા માણેકના ભૂકાને ચારે દિશાઓમાં ઉડાડી દે છે. ત્યાર બાદ પ્રચંડ વાયુ કુંકાવાને લીધે ચારે દિશાઓમાં વિખરાયેલા તે માણેકને પરમાણુઓ દૂર દૂર સુધી લાડી જઈને વેર વિખેર થઈ જાય છે. હવે ધારો કે તે દેવ એ વિચાર કરે કે સર્વ દિશાઓમાં વેરવિખેર પડેલા તે માણેકના પરમાણુઓને એકત્ર કરીને ફરીથી
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अनुयोगशार
स्तम्भनिष्पादनं दुष्कर, तथैव चतुर्गतिसंसारेषु भ्रमतां जीवार्ना मनुष्यजमा दुर्लभम् तथा चायं संग्रह श्लोकः -
४
" चूर्णीकृत्य पराक्रमान्मणिमयं स्तम्भं सुरेण स्वयं, मेरौ सन्नलिका समीरवशतः क्षिप्तं रजेो दिक्षु तत् । स्तम्भस्तैः परमाणुभिः सुमिलितैर्लोके यथा दुष्करः,
संसारे भ्रमतो मनुष्यजननं जन्तोस्तथा दुर्लभम् " ॥ इति । एवंविधमतिदुर्लभं मानुष ं जन्म सम्प्राप्य, मिथ्याच्चतिमिरप्रणाशकं श्रद्धाज्योतिः प्रकाशक तश्वातत्व विवेचक पीयूषपानमिव हितावहं चञ्चच्चन्द्रः चन्द्रमिव हृदयाह्लादक स्वप्रदृष्टवस्तुनः पुनर्जाग्रदवस्थायां - तल्लाभवत्प्रमोदजन कं भूमिगन निधान प्राप्तिमिव सुखजनक सकलसन्तापहारकं धर्मश्रवणं समुपलभ्य, कर पुनः उनसे मणिमय स्तभ बनाना चाहे तो जिस प्रकार यह स्तंभ निर्माण कार्य उनका दुष्कर है, उसी प्रकार से इस चतुर्गतिरूप संसार में भटकते हुए जीवों को मनुष्य जन्म-मिलना दुर्लभ है । यही बात इस "चूर्णीकृत्य - इत्यादि श्लोक द्वारा कही गई है । इस तरह से अति दुर्लभ बने हुए मनुष्यजन्म को पाकरके और इसमें भी मिथ्यात्वरूप अन्धकार को नाश करनेवाले श्रद्धारूप ज्योति का प्रकाश करनेवाले एवं तत्त्व और अतत्त्व का स्वरूप कहने वाले, ऐसे धर्म का श्रवण कि जो जीव के लिये अमृतपान के समान हितकारक है - चमकती हुई चन्द्रिका के समान, हृदयानन्दजनक है - जागृत अवस्था में स्वप्नदृष्ट वस्तुकी प्राप्ति के समान प्रमोदवारक है, भूमिगतनिधान की प्राप्ति के समान सुखदायक और समस्त सन्तानों का नाशक है, प्राप्त कः के तथा इसके प्रभाष से
તેમાંથી માણિકય રતંભનું નિર્માણ કરૂં. તે તે વેર વિખર થઈને પડેલા પરમાણુઓને એકત્ર કરીને તેમાંથી માણિક્ય સ્ત ંભનું નિર્માણ કરવાનુ કામ તે દેવને માટે જેટલુ દુષ્કર છે, એટલું જ દુષ્કર ચાર ગતિવાળા આ સ'સારમાં ભટકતાં વાને માટે मनुष्य भन्भनी प्रसि३य अर्थ छे. मेन वात सूत्रअरे " चूर्णीकृत्य " धत्याहि खेो દ્વારા પ્રકટ કરી છે.
આ રીતે અતિ દુર્લભ એવા મનુષ્યજન્મને પ્રાપ્ત કરીને, મિથ્યાત્વરૂપ અ`ધકારના નાશ કરનાર, શ્રદ્ધારૂપી જ્યેાતિને પ્રકાશિત કરનાર, તત્ત્વ અને અતત્ત્વના સ્વરૂપનુ પ્રતિપાદન કરનાર, એવા ધમ'નું શ્રવણ કે જે વેને માટે અમૃતપાન સમાન હિતકર છે, જે ચમકતી એવી ચન્દ્રિકાના પ્રકાશસમાન હૃદયને આનંદદાયક છે, જાગૃત અવસ્થામાં જે સ્વપ્નષ્ટ વસ્તુની પ્રાપ્તિના સમાન પ્રમાદકારક છે, જે ભૂમિની
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अनुयोगचन्द्रिका टीका- विषयविवर्णनम्
संसारमागरन रणतरणिं
मिथ्यात्वतिमिरहरणघुमि
स्वर्गापवर्गसुखचिन्नमणि
पश्रेणिसरणि कर्म रिपुदमनीं केवलदर्शन जननीं श्रद्धामवाप्य कर्म रजः प्रक्षालने जलमिव भोगभुजङ्गनिवारणे मंत्रमिव कर्मघनाघनविकरणे पवनमिवकेवलज्ञान भास्कर प्रकटने प्र. चीदिशमिव साद्यनन्तमुक्तिसाम्राज्याभिल, पत्रप्राप्नौ कल्प मित्र संयम लब्बा, हे गेपादेव - तुस्वरूपनिरूप का गवाध
"
संसारसागर से पार उतारने के लिये, तरणि- नौका- जैसी मिथ्यात्वरूपगहन अन्धकार को नाश करने के लिये सूर्य जैसी स्वर्ग और मोक्ष के सुखों को देने के लिये चिन्तामणि जैसी और क्षपक श्रेणि पर आरूढ कराने के लिये नसैनी (निसरणी) जैसी ऐसी श्रद्धा को कि जो जीवों के अनादि संचित कर्मरूप रिपुओं को नाश करने वाली होती है एवं केवलज्ञान और केवल - दर्शन को जन्म देने वाली होती है प्राप्त करके तथा जल के समान संचित कर्मरूपज को धोनेवाले मंत्र के समान भोगरूप भूजंग को दूर करनेवाले, पवन के समान भविष्यत् कालीन कर्मरूप मेघों को उडा देनेवाले, अर्थात् (विखेरनेवाले) पूर्व दिशा के समान केवलज्ञानरूप सूर्य को प्रकटित करनेवाले, और वल्पवृक्ष के समान सादि अनंत मुक्ति के साम्राज्यरूप इच्छित पदार्थ की प्राप्ति करा देने वाले, ऐसे संयम को प्राप्त करके तथा हेय
નીચે છુપાયેલા ખજાનાની પ્રાપ્તિસમાન સુખદાયક છે, જે સમતા સ’તાપાનુ નાશક છે, એવા ધાર્મિ`ક પ્રવચનનું ભાવિક જીવે શ્રવણુ કરવું જોઇએ.
પાર
આ પ્રકારના ધર્મ શ્રષ્ણુને પ્રાપ્ત કરીને, તેના પ્રભાવથી સંસારસાગરને કરવાને માટે શ્રદ્ધાની ખાસ જરૂર રહે છે તે શ્રદ્ધાને અહીં નૌકા સમાન કહી છે, કારણ કે સંસારસાગરને પાર કરવામાં તે નૌકાની ગરજ સારે છે. એવી નૌકા સમાન, મિથ્યાત્વરૂપ ગહન અન્ધકારને ભેદવામાં સૂÖસમાન, સ્વ અને મેાક્ષના સુખ પ્રાપ્ત કરાવવામાં ચિન્તામણિ રત્ન સમાન ક્ષપદ્મણિ પર આરેાહણ કરાવવામાં નિસરણી સમાન, એવી શ્રદ્ધા ધર્માંતત્ત્વ પ્રત્યે હાવી જોઈએ. એવી શ્રદ્ધા જીવેશના અનાદિ કાળથી સંચિત કર્મો રૂપ શત્રુને નાશ કરનારી અને કેવળજ્ઞાન અને કેવળદનની પ્રાપ્તિ કરાવનારી ડાય છે.
જળની જેમ સંચિત કરૂપ રજને ધાનાર, મંત્રની જેમ ભાગરૂપ ભુજંગને દૂર કરનાર, પવનની જેમ ભવિષ્યકાલિન કરૂપ વાદળાને અસ્તવ્યસ્ત કરી નાખનાર, 1 પ્રાચી દિશા (પૂર્વ દિશા) સમાન કેવળજ્ઞાનરૂપ સૂર્યને પ્રકટ કરનાર, અને કલ્પવૃક્ષ સમાન આદિ અનંત મુકિતના સામ્રાજ્યરૂપ ઇચ્છિત પદાર્થની પ્રાપ્તિ કરાવનાર એવા
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अनुयोमबार सुखनन कानि आचाराङ्गादिसूमणि विधिवदधीत्य, संसाग्वारिधिमहातरणि शिवपद-सरलसरणिं सिद्धिपददायकं सालगुणनायकम् अनादि भवसंचितारविषफर्मबन्धनोच्छेदकं मिथ्यात्वग्रन्थिभेदक सम्यग्ज्ञानवर्षणे समय सूत्रपरमार्थ स्वपरसमयाहस्यं च विज्ञाय, तथाविधकर्मक्षयोपशमसम्मविनीं सकलतल स्वरूपनिदर्शिनी द्रव्यगुणपर्यायविषयविज्ञां विशदप्रज्ञां समधिगत्य, प्रवचनानुयोगकरणे यतिभिर्यनितव्यम् । और उपादेयरूप वस्तुओं के स्वरूप के निरूपक एवं अव्याबाध सुख के जनक आचाराङ्ग आदि-आगम शास्त्रों का सविधि अध्ययन करके, तथा-संसारममुद्र से पार उतारने में महातरपि जैसे-और शिवपद के सोपान जैसे, सूत्र के परमार्थ को एवं ग्व-पर समय के रहस्य को कि जिसके बल पर जीप को सिद्धि गति की प्राप्ति होती है. और जीवों के अनादि भव परम्परा से संचितअष्टविध कर्मों का समूह बिनाश होता है तथा-मिथ्यात्वरूपी अन्तरंग ग्रन्थि (गांठ)का जो भेदक होता है और सम्यग्ज्ञानरूपी वर्षा को जो बरसाने में समथे होता है, जान करके, तथा तथाविधकर्म-ज्ञानावरणीय-के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई विशदज्ञा को कि जो समस्त तत्त्वों के स्वरूप का यथार्थ दर्शन कराती है, और जिमसे-द्रव्यों के सहवर्ती गुणों एवं क्रमवर्ती पर्यायों का वास्तविक भान होता है इस बात को जान करके मोक्षाभिलाषियों का कर्तव्य है कि वे प्रवचन के व्याख्यान करने में प्रयत्नशील रहें। સંયમને પ્રાપ્ત કરીને તથા હેય અને ઉપાદેયરૂપ વસ્તુઓના સ્વરૂપના નિરૂપક અને અવ્યાબાધ સુખના જનક આચારાંગ આદિ આગમશાસ્ત્રોનું વિધિપૂર્વક અધ્યયન કરીને તથા સંસાર સાગરને તરી જવામાં મહાતરણિ (નૌકા) જેવા. શિવપદના સોપાન
ન, સૂત્રના પરમાર્થને પ્રકટ કરનાર, સ્વ અને પર સમયના (જિન સિદ્ધાંત અને
સિદ્ધાંતના) રહસ્યને પ્રકટ કરનાર, જેના પ્રભાવથી જીવને સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, અનાદિ ભવ પરમ્પરાથી સંચિત અછવિધ કર્મોના સમૂહને જેના દ્વારા વિનાશ થઈ જાય છે, તથા મિથ્યાત્વરૂપ અન્તરંગ ગ્રન્થિનું જે ભેદક હોય છે, અને સમ્યફ જ્ઞાનરૂપ વર્ષા વરસાવવાને જે સમર્થ હોય છે, એવા પ્રવચનનું શ્રવણ કરવામાં તથા પઠન કરવામાં આવે તત્પર રહેવું જોઈએ જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોનો ક્ષયે પશમથી ઉત્પન્ન થયેલી વિશદ પ્રજ્ઞા કે જે સમસ્ત તના સ્વરૂપનું યથાર્થ દર્શન કરાવે છે, અને જેના દ્વારા દ્રવ્યના સહવતી ગુણે અને કર્મવતી પર્યાનું વાસ્તવિક ભાન થાય છે, એ વાતને સમજીને મેક્ષાભિલાષી છએ પ્રવચનનું વ્યાખ્યાના કરવામાં પ્રયત્નશીલ રહેવું જોઈએ.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. विषयविवर्णनम्
ननु कस्तावदनुयोगः ? उच्यते-युज्यते-संबध्यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योगः कथनलक्षणो व्यापारः, अनुरूपोऽनुकूलो वा योगः अनुयोगः। भगवद्भाषितार्थ तो न्यूनाधिकविपरीतभाववैलक्षण्यमीपदपि गणधरोक्तसूत्रेषु नास्तिइति भगवदुक्तार्थानुरूपः प्रतिपादनलक्षणो व्यापारोऽनुयोग-इति निष्कर्षः। ___अयमनुयोगश्चतुर्धा-(१) चरणकरणानुयोगः (२) धर्म कथानुयोगः, (३) गणितानुयोगः, (४) द्रव्यानुयोगश्च ।
शंका-अनुयोग शब्द का का अर्थ है, उत्तर-भगवान् ने अर्थ रूप से जो प्रबचन की प्ररूपणा की है उसी के अनुसार अनुकूल-जो वक्ता द्वाग वचन का कथन किया जाता है-उपका नाम अनुयोग है।
यहां पर कथन करनेरूप ागरका नाम योग है। भगाद्भापित अर्थ को गणधरों ने मृत्ररूप से ग्रथित किया है। सो इस ग्रथनकार्य में उन्होंने अपनी तर्क से कुछ भी मिश्रण नहीं किया है- किन्तु जैसा प्रभु का कथन था उसी के अनुपार उन्होंने न्यूनता, अधिकता विपरीतका, एव भाववैलक्षण्य का परिहार करते हुए ज्यों का त्यों कथन किया-है-उले सुमबद्ध किग है। इसी कारण गणधरोक्त सूत्रों में न्यूनता अधिकता आदि बाते जासी भी मात्रा में नहीं हैं। इस तरह 'भगवदुक्त अर्थ के अनुरूप प्रतिपादन रूप जोव्यापार है-उसका नाम अनुयोग है' यह इसका निष्कर्षार्थ है।
प्रश्न-"अनुया" शहनो थाय छ ?
ઉત્તર–ભગવાને અર્થરૂપ જે પ્રવચનની પ્રરૂપણ કરી છે, તેને અનુકૂળ અથવા તેની અનુસાર વકતા દ્વારા પ્રવચનનું જે કથન કરાય છે તેનું નામ અનુગ છે.
અહીં કથન કરવારૂપ વ્યાપારને વેગ કહેવામાં આવેલ છે. ભગવદુભાષિત અર્થને ગણધરેએ સૂત્રરૂપે ગ્રથિત કર્યો છે. પરંતુ તે ગ્રંથનકાર્યમાં તેમણે પોતાની કલ્પનાથી કઈ પણ વસ્તુને ઉમેરે કર્યો નથી ભગવાનનું જે પ્રકારનું કથન હતું તેને અનુરૂ૫ કથન જ તેમણે કર્યું છે. ભગવાનના કથનમાં સહેજ પણ વધારો કે ઘટાડે કર્યા વિના. તથા વિપરીતતા અને ભાવ લક્ષણ્યને પરિહાર કરીને તેમણે તે કથન અનુસારનું જ કથન સૂત્રરૂપે ગ્રંથિત કરેલું છે. તે કારણે ગણધરો દ્વારા કથિત સૂત્રમાં ન્યૂનતા. અધિકતા આદિને અલ્પ માત્રામાં પણ સદભાવ નથી. આ પ્રકારે ભગવદુકત (અહં તે દ્વારા થિત) અર્થને અનુરૂપ પ્રતિપાદન રૂપ જે વ્યાપાર છે તેનું નામ જ અનુગ છે. આ પ્રકારને અનુગ પદનો અર્થ ફલિત થાય છે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे
यथा गणवरेण सुधर्मस्वामिन। जम्बूस्वामिनं प्रति भगवदुक्तार्थानुरूपकथनरूपेोऽनुयोग उपक्रमादीनि चत्वारि द्वाराणि समाश्रित्य कृतस्तथाऽन्येनाप्याचार्येण शिष्येभ्यः सूत्रार्थकथनरूपेोऽनुयोगः कर्त्तव्यः । यद्यपि सर्वेषामागमानामनुयोगः कर्त्तव्यः, तथाऽप्यत्रसूत्रे आवश्यकस्यानुयोगः प्रस्तुतः । आवश्यकम्यानुयोगकरणे समर्थः खलु सर्वे पामागमानामनुयोगकरणे समर्थो भवति । तस्मादनुयोगविधिजिज्ञासुना मुनिनाऽनुयोगद्वारवत्रमध्येतव्यम् । इदं च सूत्रं द्रव्यानुयोगान्तर्गतम् ।
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यह अनुयोग चार प्रकार का है - (१) चरणकरणानुयोग (२) धर्म व थानुयोग (३) गणितानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग |
जिम प्रकार से गणधर सुधर्मा स्वामीने जंबूस्वामी के प्रति भगवदुक्त अर्थ के अनुसार कथन करनेरूप अनुयोग का उपक्रम आदि चार द्वारों आश्रम करके किया है उसी तरह से अन्य आचार्य को भी शिष्यो केप्रति मुत्रार्थ का कथन करनेरूप अनुयोग करना चाहिये । यद्यपि आचार्य को शिष्यों के लिये समस्त आगमों का अनुयोग कर्तव्य है, फिर भी इस सूत्र में आवश्यक का अनुयोग प्रस्तुत किया गया है । क्यों कि आवश्यक के अनुयोग करने में समर्थ बना हुआ मुनिजन सम त आगमों के अनुयोग करने में शक्तिशाली हो जाता है । इसलिये अनुयोग की विधि को जानने की इच्छा रखनेवाले मुनिजन को इस अनुयोगद्वारमत्र का अध्ययन अवश्य करता चाहिये । इस सूत्र का अभाव द्रव्यानुयोग में हुआ है । अनुयोग शब्द का अर्थ व्याख्यात है ।
या अनुयोग नीचे प्रमाणे यार प्रहार - (१) थरगुरणानुयोग, (२) धर्मप्रथानुयोग, (3) गणितानुयोग भने (४) द्रव्यानुयोग.
જે પ્રકારે ગણધર સુધર્માસ્વામીએ પેાતાના શિષ્ય જ ખૂસ્વામીની સમક્ષ ભગવદુકત અંને અનુરૂપ કથન કરવા રૂપ અનુયાગનું ઉપક્રમ આદ ચાર દ્વારાના આશ્રય લઇને કથન કર્યું છે; એજ પ્રમાણે અન્ય આચાર્યાએ પણ શિષ્યેાના હિતને માટે સુત્રાનું કથન કરવા રૂપ અનુયાગ કરવા જોઇએ. જો કે આચાર્યએ શિષ્યાને માટે સમફ્ત આગમાના અનુયાગ કરવા જોઇએ, પરન્તુ આ સૂત્રમાં આવશ્યકના અનુયોગ પ્રસ્તુત કરવામાં આવ્યા છે, કારણ કે આવશ્યકના અનુયાગ કરવાને સમથ હાય એવા આચાર્ય અથવા મુનિજન સમસ્ત આગમાના અનુયાગ કરવામાં સમથ ખની જાય છે. તેથી અનુયાગની વિધિને જાણવાની ઇચ્છાવાળા મુનિએ એ આ અનુચેગદ્વાર સૂત્રનું અધ્યયન અવશ્ય કરવુ' જોઈએ. આ શખ્સને અન્તર્ભાવ (સમાવેશ) દ્રવ્યાનુયોગમાં થયા છે. અનુયોગ શબ્દના અર્થ વ્યાખ્યાત સમજવા.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. विषयविवर्णनम्
_ अस्य शब्दार्थस्त्वेवम्-अनुयोगस्य-ब्याख्यानम्य द्वाराणि अनुयोगद्वाराणि, तत्प्रतिपादकं सूत्रम्-अनुयोगद्वारसूत्रम् । अनुयोगस्य चत्वारि द्वाराणि सन्ति । तद्यथा-उपक्रमः, निक्षेपः, अनुगमः, नयश्चेति । तत्र उपक्रमः-उपक्रमणम् उपक्रमः। व्याख्येयवस्तुनो नामनिर्देशः, व्याचिख्यासितशास्त्रम्य तेस्तैः प्रतिपादनप्रकारैः समीपीकरणं न्यासदेशानयनं निक्षेपयोग्यताकरण मित्यर्थः । उपक्रान्तं हि उपक्रमान्तर्गतर्भदेविचारितं-निक्षिप्यते, नत्वनुपक्रान्तम् १। निक्षेपः-निक्षेपणं निक्षेपः -उपक्रमानीतस्य शचिख्यासितस्य विशवश्यकादेः शास्त्रस्य नाम स्थापनादि भेदेन निरूपणम् २। अनुगमः-अनुगमनम्-अनुगमः। नामादिना निक्षिप्तस्य शास्त्रस्यानुकूलं ज्ञानम्, अनुकूलार्थकथनं च ३ । नयः-नर्यात अनेकांशात्मकं वस्तु
इस व्याख्यानरूप अनुयोग के द्वारों का प्रतिपादन करनेवाला जो सूत्र -आगम-है वह अनुयोगद्वार सूत्र है । अनुयोग के चार द्वार हैं । वे इस प्रकार से हैं-[१] उपक्रम (२) निक्षेप, (३) अनुगम और (४) नय। व्याख्येय वस्तु के नाम का कथन करना अर्थात् व्याचिख्यासित-व्याख्या से युक्त करने की इच्छा के विषयभूत बने हुए शास्त्र को उस २ रूपसे प्रतिपादन करने की शैली से न्यासदेश में लाना-निक्षेप की योग्यतावाला उसे बनाना इसका नाम उपक्रम है । उपक्रान्त-उपक्रम के अन्तर्गत भेदों से विचारित-वस्तु का ही तो निक्षेप होता है। अनुपक्रान्त का नहीं। पविध आवश्यक आदि शास्त्र का कि जो उपक्रमित एवं व्याचिख्यासित है, नाम स्थापना आदि के भेद से निरूपण करना इसका नाम निक्षेप हैं। नामादि के भेद से निरूपित शास्त्र का अनुकूल ज्ञान होना और अनुकूल उसके अर्थ का कथन करना इसका नाम अनुगम है । अनेक-धर्मात्मक वस्तु को एकांश के
આ વ્યાખ્યાનરૂપ અનુયેગના દ્વારેનું પ્રતિપાદન કરનાર જે સૂત્ર–આગમ-છે, તેનું નામ અનુગદ્વાર સૂત્ર છે. અનુગના જે ચાર દ્વાર છે, તે નીચે પ્રમાણે છે. (१) , (२) निक्षेप, (3) अनुगम अने (४) नय. व्याभ्येय १२तुना नामनु કથન કરવું એટલે કે વ્યાચિખ્યાસિત વ્યાખ્યાથી યુકત કરવાની ઇચ્છાના વિષયરૂપ બનેલ શાસ્ત્રને તે તે રૂપે પ્રતિપાદન કરવાની શૈલી વડે ન્યા દેશમાં લાવવું. તેને નિક્ષેપની ગ્યતાવાળું બનાવવું તેનું નામ ઉપક્રમ છે. ઉપક્રાત ઉપકમના અન્તર્ગત ભેદની અપેક્ષાએ વિચારાયેલી વસ્તુનો જ નિક્ષેપ થાય છે–અનુપકાન્તન થતું નથી. જે ઉપક્રમિત અને વ્યાચિખ્યાસિત છે એવા છ પ્રકારના આવશ્યક આદિ શાસ્ત્રનું નામ સ્થાપના આદિ ભેદેથી નિરૂપણ કરવું. તેનું નામ નિક્ષેપ છે નામાદિના ભેદથી નિરુપિત શાસ્ત્રનું અનુકૂળ જ્ઞાન હોવું અને તેના અર્થનું અનુકૂળ કથન કરવું
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अनुयोगद्वारपत्रे एकांशावलम्बनेन प्रतीतिपथं प्रापयतीति नयः, नयनम् अनन्तधर्मात्मकस्य वातुनो नियतकधर्मात्मकतावलम्बनेन प्रतीतो प्रापणं नयः। अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेदो नय इति ४। अत्र नगरदृष्टान्तमाह___यथा द्वाररहितं नगरं नगरमेव न भवति । यद्येकस्यामेव प्राच्यां दिशि द्वारं भवेत्, तर्हि तत्र गजरथतुरगपदातीनों नगरवासिनां तदितरेषामागन्तुकानां जनानां च संघर्षे निर्गमः प्रवेशो वा दुष्करोऽनर्थकरश्च भवति । अवलम्बन से जो प्रतीति कराता है, इसका नाम नय है। नगर के दृष्टान्त से इन चारों द्वारा का स्पष्टीकरण इस प्रकार से है-जिस नगर को र नहीं होता है वह वास्तव में नगर ही नहीं माना जाता है। जिस नगर में केवल पूर्वदिशा में ही द्वार हो तो वहां के रहनेवाले गज, तुरग आदि जानवरों का मनुष्यो का, तथा बाहर से आये हुए प्राणियों का आने जाने में संघर्ष होने पर प्रवेश और निर्गम दुष्कर बन जाता है, तथा वह आना जाना अनर्थोत्पादक भी होता हैं। इसी प्रकार से उस नगर में प्रवेश करने के लिये केवल पूर्व और पश्चिम दिशा में एक २ द्वार हो तो ऐसी स्थिति में यद्यपि पूर्व पश्चिम दिगविभागवती प्राणियों को आने जाने में सरलता भले ही रहे, परन्तु जो और दिशाओं में वहां रहते हैं, उन्हे तथा बाहर से आनेवाले जो प्राणी हैं उन्हें और गज, रथ तुरग, आदि जो जानवर हैं-उन्हें संघर्ष તેનું નામ અનુગમ છે. અનેક ધર્માત્મક અર્થાત્ અનેક ધર્મના સ્વભાવવાળી વસ્તુની જે એકાંશના અવલંબનથી પ્રતીતિ કરાવે છે તેનું નામ નય છે.
નગરના દષ્ટાન્ત દ્વારા આ ચાર દ્વારેનું હવે સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે
જે નગરને દરવાજે જ ન હોય તેને વાસ્તવિક રીતે તે નગર જ કહી શકાય નહીં. કેઈ નગરને માત્ર પૂર્વાદિ કોઈ એક જ દિશામાં એક જ દરવાજે હોય, તે નગરમાં દાખલ થવાનું કે તે નગરમાંથી બહાર જવાનું કાર્ય મુશ્કેલ બની જાય છે, કારણ કે હાથી, ઘોડા આદિ પ્રાણીઓ તથા મનુષ્યની અવરજવરમાં સંઘર્ષ થવાને કારણે તે નગરમાં પ્રવેશ કરવાનું કે તે નગરમાંથી બહાર નીકળવાનું કાર્ય દુષ્કર બની જાય છે, તથા તે અવર-જવર કયારેક અનર્થોત્પાદક પણું બની જતી હોય છે. કઈ નગરમાં પૂર્વ પશ્ચિમ બે દિશામાં બે દ્વાર હોય તે તે તે દિશામાં રહેલા પ્રાણીઓ અને મનુષ્યને તો અવર જવર કરવાની અનુકૂળતા રહે છે, પરંતુ અન્ય દિશાઓમાં જે પ્રાણીઓ અને મનુષ્ય રહેતા હોય છે, તેમને તે અવર-જવરમાં મુશ્કેલી જ પડે છે. અન્ય દિશાઓમાંથી નકારમાં પ્રવેશ કરતાં હાથી, રથ ધડા આદિ પ્રાણીઓ અને નગરની બહાર જતા પ્રાણુઓ વચ્ચે સંઘર્ષ થયા જ કરે છે, તે કારણે તે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. विषयविवर्णनम् प्राच्या पश्चिमायां च दिशि द्वारसद्भावे तत्तद्विग्भागवर्त्तिनां निर्गमप्रवेशसौकर्येऽपि तदितरदिग्भागवर्तिनां नगरान्तर्निवासिनां तदितरेषां बाह्य देशादागतानां च जनानां गजरथतुरगादीनां च संघर्षे निर्गमः प्रवेशो वा दुष्करोऽनर्थकरश्च भवति, तथैव त्रिषु दिग्भागेषु द्वारत्रयसद्भावेऽपि जनानां निर्गमः प्रवेशो वा दुप्करोऽनर्थ करश्च भवति, यत्र तु नगरे चतुसृषु दिशासु चत्वारि मूलद्वाराणि, तथा तदनुगतानेकमार्गसंलग्नरथ्यावाराणि विद्यन्ते. तत्र निर्गमः प्रवेशो वा सुकरो भवति । तथैवावश्यक रूपं नगरमपि उपक्रमादिद्वाररहितं नाधिगन्तुं शक्यते। न च केवलमुपक्रमद्वारेण, नापि वा द्वाभ्यामुपक्रमनिक्षेपाभ्यों, न चापि त्रिभिरुपहोने पर आना जाना बडा मुश्किल हो जाता है। परस्पर में धक्कमधक्का होने से अनेक प्रकार के अनिष्ट भी हो जाते हैं। इसी तरह से यदि उसमें प्रवेश करने के लिये तीन द्वार हों, तो कुछ पहिले की अपेक्षा प्रवेश निर्गम में सरलता होने पर भी सर्वथा सरलता नहीं आती है। परन्तु जब उसमें आने जाने के लिये चारो दिशाओं में चार दरवाजे हों, तथा और भी अनेक मार्ग संलग्न रथ्याद्वार हों, तो फिर आने जाने में किसी प्रकार का संघर्ष न होने से कोई भी प्राणी को रुकावट नही होती है और न किसी प्रकार के अनर्थ होने की संभावना ही रहती है। ठीक इसी प्रकार से आवश्यकरूप नगर भी यदि उपक्रम आदि चार द्वारों से विहीन हो तो वह ज्ञान का विषयभूत नहीं बन सकता अर्थात् उसका वास्तविक रहस्यज्ञात नहीं हो सकता , अतः उसे वास्तविकरूप में जानने के लिये इन चार ही उपक्रम आदि द्वारों की परम નગરમાં પ્રવેશ કરવાનું અને તે નગરમાંથી નિર્ગમન કરવાનું કાર્ય મુશ્કેલ જ થઈ પડે છે. ત્યાં એકબીજા વચ્ચે ધક્કા ધકકી થવાથી અનેક પ્રકારના અનિો પણ ઉદભવે છે. એ જ પ્રમાણે જે તે નગરને ત્રણ દિશાઓમાં ત્રણ દરવાજા રાખ્યા હોય તે પહેલા અને બીજા પ્રકારના નગર કરતાં પ્રવેશ અને નિર્ગમમાં અધિક સરળતા તે રહે છે, પણ સંપૂર્ણ સરળતા તે રહેતી નથી. પણ જે નગશ્માં આવવા-જવા માટે ચારે દિશાઓમાં ચાર દરવાજા રાખ્યા હોય, તથા બીજા માર્ગોને જેડતાં બીજાં પણ ઉપારો રાખ્યાં હોય, તે ત્યાં અવરજવરમાં કોઈ પણ પ્રકારને સંઘર્ષ થતે નથી કોઈ પણ બે પ્રાણીઓ વચ્ચે ધકકા ધકકી ચાલતી નથી અને તે કારણે ત્યાં કઈ પણ પ્રકારના અનર્થની શકયતા રહેતી નથી. ત્યાં પ્રાણીઓ અને મનુષ્યો સરળતાથી પ્રવેશ પણ કરી શકે છે અને નિગમ પણ કરી શકે છે. એ જ પ્રમાણે આવશ્યકરૂપ નગર પણ જે ઉપક્રમ આદિ ચાર દ્વારાથી રહિત હોય, તે જ્ઞાનના વિષયરૂપ બની શકતું નથી–એટલે કે તેનું વાસ્તવિક રહસ્ય જાણી શકાતું નથી. તેથી તેને યથાર્થરૂપે જાણવા માટે ઉપક્રમ આદિ આ ચારે
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अनुयोगसूत्रे
क्रमनिक्षेपानुगमैर्द्वारैस्तदर्थमधिगन्तुं शक्यते । तदर्थानधिगमे च सति क्लेशो ऽनर्थश्च जायते । भेदप्रभेद सहितोपक्रमादिद्वारचतुष्टय सद्भावे तु स्वल्पेनैव कालेन तत्सुगमं शाश्वतसुखप्रदं च भवति । तस्माद् द्वारचतुष्टयमाश्रित्य षड्विधावश्यकप्रतिपादनार्थमिदं सूत्र ं प्रस्तुतम् ।
इह शास्त्र प्रवृत्यर्थ मादावानुबन्धचतुष्टयं विज्ञेयम् । तच्च विषयः, प्रयोजनं संवन्धः, अधिकारी चेति । तत्र विषयोऽभिवेयः - स चेह उपक्रमादीन्यनुयोगआवश्यकता है । केवल एक उपक्रमद्वार से या उपक्रम निक्षेपरूप दो द्वारों से अथवा उपक्रम निक्षेप और अनुगम इन तीन द्वारों से उसका अर्थ नहीं जाना जा सकता । अर्थाधिगम-पदार्थ के ज्ञान हुए विना क्लेश एवं अनर्थ होता है । जब भेद प्रभेद सहित इन उपक्रम आदि चार द्वारों का उसमें सद्भाव होता है, तो उनकी सहायता से स्वल्प काल में ही वास्तविकरूप में शास्त्र के अर्थ का बोध सुगमरीति से हो जाता है और इस से वह शास्त्र शाश्वत सुख प्रद भी हो जाता है। इसलिये सूत्रकारने इन पूर्वोक्त चार द्वारों को लेकर षड् विध आवश्यकों को प्रतिपादन करने के लिये इस सूत्र को प्रस्तुत किया है ।
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इस शास्त्र में प्रवृत्ति होने के निमित्त चार बातों की आवश्यकता है । उनका नाम अनुबंध चतुष्टय है । और वे “विषय, प्रयोजन, संबन्ध अधिकारी” ये हैं । जो इस शास्त्र का अभिधेय है. वह विषय है । वह विषय उपक्रमादि चार
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દ્વારાની પરમ આવશ્યકતા રહે છે. કેવળ એક ઉપક્રમ દ્વારથી જ, અથવા ઉપક્રમ અને નિક્ષેપરૂપ એ દ્વારાથી અથવા ઉપશમ, નિક્ષેપ અને અનુગમરૂપ ત્રણ દ્વારાથી તેના અર્થ જાણી શકતા નથી અર્થાધિગમ (અનુ· જ્ઞાન) થયા વિના તેા કલેશ અને અનને પાત્ર થવુ પડે છે. જ્યારે ભેદ પ્રભેદ સહિત આ ઉપક્રમ આદિ ચારે દ્વારાના તેમાં સદ્ભાવ હાય છે, ત્યારે તેની સહાયતાથી ઘણા ઘેાડા સમયમાં જ અને સરળતાથી વાસ્તવિકરૂપે શાસ્ત્રના અના મેધ થઈ જાય છે, અને તેને લીધે તે શાસ્ત્ર શાશ્વત સુખપ્રદ પણ થઈ જાય છે. તેથી સુત્રકારે પૂર્વોક્ત ઉપક્રમ આદિ ચાર દ્વારાને એનુલક્ષીને છ પ્રકારના આવશ્યકૈાનું પ્રતિ. પાદન કરવાને માટે આ સૂત્રને પ્રસ્તુત કર્યું છે.
આ શાસ્ત્રમાં પ્રવૃત્તિ થવાને નિમિત્તે ચાર ખાખતાની આવશ્યકતા રહે છે. જે ચાર ખાખતાની આવશ્યકતા રહે છે તે ચાર ખાખતાને અનુબંધ ચતુષ્ટય કહે छे. ते यार जाणतो नीथे प्रभाशे छे - विषय, प्रयोजन, संबंध भने अधिारी. આ શાસ્ત્રના જે અભિધેય છે તેનુ નામ જ વિષય છે. તે વિષય ઉપક્રમ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका विषयविववर्णनम् द्वाराणि । प्रयोजनं-फलम्, तच्च द्विविधम्-अन्तरफलं परम्पराफले च । तत्राय शास्त्रकर्तुभव्यानुग्रहरूपम् । श्रोतुश्च शास्त्रार्थबोधः । उभयोरपि परम्परा प्रयोजनम् -परमपदप्राप्तिः । शास्त्रस्य विषयस्य च सम्बन्धः-प्रतिबोध्य प्रतिबोधकभावः । परमपदप्राप्तिः । अधिकारी तु जिनाज्ञाराधक इति ।।
अथ शिष्टाचारपरिपालनार्थ शास्त्रनिर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थ शास्त्रस्य मंगलस्वरूपत्वेऽपि शिष्यम्य शास्त्रविषयीभूतार्थ ज्ञानप्राप्तिदृढविश्वासार्थ च मंगलरूपं प्रथमं सूत्रमाह
मूलम्-नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-आभिनिबोहियनाणं सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं ॥ सू० १॥
अनुयोग द्वाररूप है । प्रयोजन नाम फल का है । वह दो प्रकार का होता है[१] अनन्तर-साक्षात्-फल और दूसर। परम्पग फल । “पढने वाले, सुरने वाले भव्यजीवों का इस से अनुग्रह हो ऐसी भावना जो शास्त्रकार के हृदय में होती है वह ग्रन्थकर्ता की अपेक्षा तथा इसे अध्ययन करनेवाले, सुननेवाले प्राणियों को जो इस के द्वारा बोध प्राप्त होता है वह उनकी अपेक्षा इसका साक्षात् प्रयोजन है। एवं ग्रन्थ-शास्त्र-कर्ता-और अध्येता-श्रोता को जो परमपद (मोक्ष) की प्राप्ति होती है वह इसका परम्परा प्रयोजन है। शास्त्र का और विषय का प्रतिबाध्य प्रतिबोधकभाव संबन्ध है विषय प्रतिवोध्य शास्त्र उसका प्रतिबोधक है जिनाज्ञा का आराधक जीव अधिकारी है।
આદિ ચાર અનુયોગ દ્વારરૂપ જ છે. પ્રજન એટલે ફળ. તે પ્રોજન બે प्रा२नु डाय छे. मनन्तर साक्षात् भने (२) ५२२५२० ३.
વાંચનારા અને શ્રવણ કરનારા ભવ્ય જીવોનું તેના દ્વારા કલ્યાણ થાય, એવી જે ભાવના તે શાસ્ત્રકારના હૃદયમાં હોય છે, તે ગ્રન્થકર્તાની અપેક્ષાએ તેનું સાક્ષાત પ્રયોજન છે. તથા તેનું અધ્યયન કરવાથી કે શ્રવણ કરવાથી અધ્યયન કરનારને કે શ્રોતાને જે બંધ થાય છે, તે તેમની અપેક્ષાએ તેનું સાક્ષાનું પ્રયોજન ગણાય છે. ગ્રન્થ (શાસ્ત્ર) કર્તાને, પ્રન્થનું અધ્યયન કરનારને અને તેનું શ્રવણ કરનારને જે પરમપદની પ્રાપ્તિ થાય છે, એજ તેનું પરસ્પર પ્રયોજન ગણાય છે. શાસ્ત્રને અને વિષયને પ્રતિબોધ્ય-પ્રતિબંધક ભાવ રૂપ સંબંધ હોય છે. વિષય પ્રતિબધ્ય અને શાસ્ત્ર તેનું પ્રતિબોધક હોય છે. જિનાજ્ઞાનું આરાધન કરનાર છવ તેને અધિકારી ગણાય છે.
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अनुवोमवार छाया--ज्ञानं पञ्चविधं प्रज्ञप्तम, तद् यथा-आभिनियोपिकज्ञानं, भुतज्ञानम, अवधिज्ञानं, मनःपयेवज्ञानं, केलज्ञानम् ॥१॥
टीका--'नाणं' इत्यादि
ज्ञानम्-ज्ञातिर्ज्ञानमिति भावसाधनः, सविदित्यर्थः । ज्ञायतेवाऽनेनास्माद्वेति ज्ञानं, तदावरणस्य क्षयः क्षयोपशमो वा । ज्ञायते वाऽस्मिन्निति
अब सूत्रकार शिष्ट पुरुषों के आचार को पालन करने के लिये शास्त्र की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिये और-शिप्यों को शास्त्र विषयीभूत अर्थज्ञान की प्राप्ति का दृढ विश्वास जमाने के लिये मंगलरूप होने पर भी इस शास्त्र की आदि में सर्व प्रथम मंगल सूत्र का पाठ करते हैं। ___ "नाणं पंचविहं पण्णतं" इत्यादि । ॥ मृ० १॥
शब्दार्थ-(गाणं) ज्ञान (पंचविहं) पांच प्रकार का-(पण्णत्तं) कहा गया हैं। यहां ज्ञान शब्द भावसाधन-करणसाधन और कर्तृ साधन है "ज्ञातिः-ज्ञानम् जानना इसका नाम ज्ञान है यह भावसाधन में ज्ञान की व्युत्पत्ति है-"ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्" यह करणसाधन में व्युत्पत्ति है-आत्मा जिसके द्वारा पदार्थों को जानता है बह ज्ञान है-इस करणसाधन से ज्ञानावरण कर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम लक्षित होता है । क्यों कि इस के होने पर ही आत्मा में ज्ञान का प्रादुर्भाव (उत्पत्ति) या ज्ञान में सर्वथा निर्मलता आती है । अतःज्ञानावरण का क्षय और क्षयोपशम ज्ञानरूप होने के कारण अभेद संबन्ध से ज्ञानरूप ही
શાસકારે શિષ્ટ પુરુષોના આચારનું પાલન કરવા માટે, શાસ્ત્રની નિવિદને પરિસમાપ્તિ કરવા નિમિત્ત અને શિષ્યોમાં શાસ્ત્રવિષયીભૂત અર્થજ્ઞાનની પ્રાપ્તિને દઢ વિશ્વાસ જમાવવાને નિમિત્તે જે કે શાસ્ત્ર પિતે જ મંગળરૂપ હોવા છતાં પણ આ શાસ્ત્રનો પ્રારંભ કરતી વખતે સૌથી પહેલાં મંગળ સૂત્રને પાઠ કર્યો છે. "नाणं पंचविहं पण्णत्तं" छत्याहि
॥सू. १ ॥ शहाथ-(णाणं) ज्ञान (पंचविहं) प्राय प्रा२नु (पण्णत्तं) युछे. मी “જ્ઞાન” શબ્દ ભાવસાધન, કરણસાધન અને કોંસાધનરૂપ છે. ભાવસાધનમાં જ્ઞાનની व्युत्पत्ति 40 प्रमाणे थाय छे. "ज्ञातिः-ज्ञानम्" on तेनु नाम ज्ञान छे. ४२४साधनमा शाननी व्युत्पत्ति | प्रमाणे छे. "ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम्" આત્મા જેના દ્વારા પદાર્થોને જાણે છે તેનું નામ જ્ઞાન છે. આ કરણસાધન દ્વારા જ્ઞાનાવરણકમને ક્ષય અથવા ક્ષયોપશમ લક્ષિત થાય છે, કારણ કે જ્ઞાનાવરણીય કમને ક્ષય અથવા પશમ થવાથી જ આત્મામાં જ્ઞાનને પ્રાર્દુભાવ થાય છે અથવા જ્ઞાનમાં સર્વથા નિર્મળતા પ્રકટ થાય છે. તેથી જ્ઞાનાવરણને ક્ષય અને પશમ જ્ઞાન રૂપ જ હોવાને કારણે અભેદ સંબંધની અપેક્ષાએ જ્ઞાનરૂપ જ નિવડે છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १ पंचविधज्ञानस्वरूपनिरूपणम् शानमात्मा-तदावरणक्षयक्षयोपशमपरिणामयुक्ताः । जानातीनि वा ज्ञानम् । तत् पञ्चविध-पञ्चपकारं प्रज्ञप्त-प्ररूपितम अर्थतस्तीर्थङ्करैः मत्रतश्च गणधरैः । अत्र गणघरेण स्वबुद्धया परिकल्पितं किंचिदपि नोच्यते । पण्णत्तं' इत्यस्य 'प्राज्ञाप्तम्' इतिच्छायापक्षे-प्राज्ञात्-सर्वज्ञात् आप्त-माप्तं गणधरैरित्यर्थः, यद्वा-प्रज्ञया भव्यजन्तुभिराप्तं-प्राप्तं-प्रज्ञाप्तं तदेव प्राज्ञाप्तम् । नहि ज्ञादिकले रिदमाप्तुं शक्यते होता है। इसलिये करणसाधन में पदार्थों के जानने में अत्यन्त साधक जो ज्ञान है वह गृहीत हुआ है। जो कि ज्ञानाबरण के क्षय और क्षयोपशमस्वरूप है इसी तरह से पदार्थ जिस से जाना जाय वह ज्ञान है इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर भी ज्ञानावरण का क्षय और क्षयोपशम--ज्ञानरूप ही होता है क्यों कि पदार्थ ज्ञान से जाना जाता है । "ज्ञायते अस्मिन्निति ज्ञानमात्मा" पदार्थ जिस से जाना जावे-उसका नाम ज्ञान है इस प्रकार की व्युत्पत्ति में आत्मा ज्ञान रूप प्रतीत होता हैं। यहां परिणाम और परिणामवाले का अभेद होनेके काग्ण आत्मा को ज्ञानरूप मान लिया गया हैं। क्यों कि ज्ञानावरणकर्म के क्षय अथवा क्षयापशम से विशिष्ट आत्मा का परिणाम ज्ञान है और आत्मा परिणाम वाला है। “जानाति इति ज्ञानम्" इस व्युत्पत्ति में भी यही अर्थलभ्य है। ज्ञान में पांच प्रकारता अर्थ की अपेक्षा तीर्थ करोंने और मूत्र की अपेक्षा गणधोंने प्ररूषित की है। इस विषय में गणधरों ने अपनी तरफ से कुछ भी कल्पित करके नहीं कहा है "यह बात पण्णत्त" इस शब्द તેથી કરસાધનમાં પદાર્થોને જાણવામાં અત્યન્ત સાધક જે જ્ઞાન છે તેને જ અહી ગ્રહણ કરાયું છે. એવું જ્ઞાન જ્ઞાનાવરણના ક્ષય અને ક્ષયોપશમ સ્વરૂપ જ હોય છે. એ જ પ્રમાણે “પદાર્થ જેના વડે જાણી શકાય તે જ્ઞાન છે,” આ પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ કરવામાં આવે તે પણ જ્ઞાનાવરણ ક્ષય અને પશમ જ્ઞાનરૂપ જ यई ५3 छ, २९ , हाथ ज्ञानद्वा२।४ neी शाय छे. "ज्ञायते अस्मिन्निति ज्ञानमात्मा" "atथ रेभneी शय तेनु नाम ज्ञान छ,' मा प्रारनी વ્યુત્પત્તિમાં આત્મા જ્ઞાનરૂપ પ્રતિપાદિત થાય છે. અહીં પરિણામ અને પરિણામવાળામાં અભેદ હોવાને કારણે આત્માને જ્ઞાનરૂપ માની લેવામાં આવ્યું છે, કારણ કે જ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષય અથવા ક્ષપશમવાળા આત્માનું પરિણામ જ્ઞાન છે અને આત્મા તે
२ना परिणामपा छे. "जानाति इति ज्ञानम्" मा व्युत्पत्ति अनुसा२ ५५y એજ અર્થ પ્રાપ્ત થાય છે. જ્ઞાનમાં અર્થની અપેક્ષાએ પાંચ પ્રકારના તીર્થ કરે એ પ્રરૂપિત કરી છે અને સૂત્રની અપેક્ષાએ પાંચ પ્રકારના ગણધરોએ પ્રરૂપિત કરી છે. આ બાબતમાં ગણધરોએ પિતાના તરફથી કલિપત કરીને કંઈ પણ મિશ્રિત यु नथी, मेरी बात सूत्रारे "पाण्णत्तं" ५४ द्वारा प्रट ४१ छे. अथवा
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अनुयोगवारसूत्रे
पञ्चविं दर्शाते- 'तं जहा' इत्थादिना तं जहा ' तद्यथ। - तज्ज्ञान यथा पञ्चविधं भवति, तथा प्रोच्यते । तत्र ( १ ) प्रथमं ज्ञानम् - 'आभिणिबोहियनाणं' आभिनिबधिक ज्ञानम् 'अभि' इति अभिमुखः - वस्तुयोग्यदेशावर थानापेक्षी, 'नि' इति नियतः - इन्द्रियमनः समाश्रित्य स्त्र स्व विषयापेक्षीबोधःअभिनिबोधः, स एव आभिनिबेाधिकम् तच्च तद् ज्ञानं च आभिनिबोधिकज्ञानम् । अत्र 'ज्ञान' शब्द: सामान्यज्ञान - वाचकः । अभिनिबोधशब्दः इन्द्रिय नो
से सूत्रकारने प्रकट की है । अथवा, "पण्णत्तं" इस पद की संस्कृत छाया " श्राज्ञाप्त" ऐसी भी होती है - इस का अर्थ यह है कि ज्ञान में पंच प्रकारता गणधरों ने प्राज्ञ तीर्थंकर सर्वज्ञ भगवान् से प्राप्त की है । अथवा इसी छाया के पक्ष में ऐसा अर्थ भी होता है कि ज्ञान में यह पंच प्रकारता भव्य शणियों ने अपनी बुद्धि से ही पाई है। विना बुद्धि से तो यह प्राप्त की नहीं जा सकती है । इस तरह जो प्रज्ञाप्त है बही प्राज्ञाप्त हैं । ( तं जहा ) वह ज्ञान में पंच प्रकारता इस तरह से है । (आभिणिबोहियनाणं) (१) आभिनिबोधिक ज्ञान - यह ज्ञान वक्तु को योग्य देश में होने की अपेक्षा रखता है तथा पांच इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है । यह बात " अभि" और "नि' शब्द से प्रकट होती है । इस तरह योग्य देश में स्थित वस्तु का इन्द्रिय और मन की सहायता से जानने वाले ज्ञान का नाम अभिनिबंध ज्ञान है । यह अभिनबोध ही आभभिबोधिक
" पण्णत्त" म पहनी संस्कृत छाया " प्राज्ञाप्तं " छे. या आज्ञातांनी अपेक्षाओ જો વિચાર કરવામાં આવે તે તેના અથ આ પ્રમાણે થાય છે-જ્ઞાનમાં પંચવિધતાની પ્રાપ્તિ ગણધરાએ પ્રાજ્ઞ તીર્થંકર સર્વજ્ઞ ભગવાન પાસેથી કરી છે.
અથવા તેના અથ એવા પણ થાય છે કે-જ્ઞાનમાં આ પાંચ પ્રકારતા ભવ્ય જીવે એ પેાતાની બુદ્ધિથી જ પ્રાપ્ત કરેલ છે. બુદ્ધિ વગર તેા તેની પ્રાપ્તિ થઇ શકતી જ નથી. भारी ने अज्ञात छे, आज्ञाप्त छे. (तं जहा ) ज्ञानना ते पांय प्र नीथे प्रभाणे छे—(आभिणिबाहियनाणं ) ( १ ) मालिनियोधिक ज्ञानઆ જ્ઞાન વસ્તુ ચેાગ્ય દેશમાં હોય એવી અપેક્ષા રાખે છે, તથા પાંચ ઇન્દ્રિયા અને મનની સહાયતાથી થાય છે. એજ વાત "अभि" भने “नि” ઉપસર્ગી દ્વારા પ્રકટ કરી છે. આ રીતે આભિનિાધિક જ્ઞાનની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે થાય છે—ચેાગ્ય દેશમાં સ્થિત (રહેલી) વસ્તુને ઇન્દ્રિયે અને મનની સહાયતાથી જાણનારા જ્ઞાનનુ”” નામ અલનિષેધ છે. તે અભિનિખાધ જ આભિનિમેાધિક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. मू० १ पञ्चविधज्ञानस्वाहपनिरूपणम् इन्द्रियजन्यविशिष्टज्ञानावकः। अतः सामान्यविशेषयोनियोः सामानाधिकरण्यम् । इदं मतिज्ञामप्युच्यते ॥१॥ ____ (२) श्रुतज्ञानम्-श्रुतं-श्रुतिः-श्रवणं ज्ञानविशेषः। तच्च कीदृशम् ? उच्रते, शब्द य श्रवणेन भाषणादिना दा रज्ज्ञा मुस्पद्यते तदेव श्रुतम् । अत्र तशब्देन श्रुतज्ञानं गृह्यते-ज्ञानं प्रभेद:करणान्तःपातित्वात् । न तु श्रूयते' इति व्युत्पत्या शब्दार्थकः श्रुतशब्दः । लधिरूपे मतिज्ञाने सति पश्चात् श्रुतज्ञान मुत्पद्यते, न तु मतिज्ञानाभावे। अतो मतिज्ञानं कारणं श्रुतज्ञानस्य ।। ज्ञान है। यहां ज्ञान शब्द सामान्य ज्ञान का वावक और अभि नवोध शब्द इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले विशिष्टान का वाचक है। अतः" 'आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं च आभिन्बिोधिज्ञान" इस तरह से इन दोनों सामान्य विशेष झानों में समानाधिन रणा हुई है। इस आ भनिबोधिकज्ञान का दसग नाम मतिज्ञान भी है।
श्रुतज्ञान-शद के श्रवण से अथवा भापण आदि से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह-ज्ञान श्रुतज्ञान है । ज्ञान के प्रभेदों के प्रकरण के आने के कारण यहां श्रुतशब्द से ज्ञान का ग्रहण हुआ। थुत से शब्द का नहीं । "श्रूयते" इति श्रुतं इस प्रकार की व्युत्पत्ति से श्रुत शब्दरूप अर्थ का वाचक भी हाता है परन्तु वह शब्दार्थक श्रुत यहाँ गृहीत नहीं हुआ है । कारण वह श-द पौद्गलिक पर्याय होने से अचेतन है, और ज्ञान आत्मा का निजस्वरूप होने से चेतन है। જ્ઞાન છે.” અહીં જ્ઞાન પદ સામાન્ય જ્ઞાનનું વાચક છે અને અભિનિબંધ પદ ઈન્દ્રિયો અને મનની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થનાર વિશિષ્ટ જ્ઞાનનું વાચક છે. તેથી "आभिनिवाधिकं च हज्ज्ञानं च आभिनिवाधिक ज्ञान" मा ३ ते पन्ने સામાન્ય વિશેષ જ્ઞાનમાં સમાનાધિકરણના થઈ છે. આ અભિનિબધિક જ્ઞાનનું બીજું નામ અતિજ્ઞાન પણ છે.
(૨) શ્રતજ્ઞાન–૨:બ્દના શ્રવણથી અથવા ભાષણ આદિ વડે જે જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે તેને શ્રુતજ્ઞાન કહે છે. જ્ઞાનના પ્રભેદોના પ્રકરણમાં આવી જતું હોવાને લીધે અહીં કૃત શબ્દ વડે જ્ઞાનનું જ ગ્રહણ થયું છે–અહીં થતપદ દ્વારા Ad pीत यस नयी. 'श्रूयते इति श्रुतम्" HERनी ०युत्पत्तिने माधारे શ્રત પદ શબ્દરૂ૫ અર્થનું વાચક પણ સંભવી શકે છે, પરંતુ તે શબ્દાર્થક શ્રુત અહીં પ્રહણ કરવામાં આવ્યું નથી. કારણ કે તે ઇદ પગલિક પર્યાયરૂપ ५.थी अर्थन छ, ज्ञान सामाना नि१३५ वाथी येतन छ.
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अनुयोगबारसूत्रे शंका-- शब्द के श्रवण अथवा भाषण आदि से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है" ऐसा जो श्रुत का लक्षग कहा जा रहा है वह अतिव्याप्ति दोष से युक्त होने के कारण ठीक नहीं है । क्यों कि यह लक्षण मतिज्ञान में भी रहता है। वह श्रोत्रेन्द्रिय और मन से भी होता है ।
उत्त-ऐसा समझना ठीक नहीं है-कारण मतिज्ञान पांचों इन्द्रियों और मन से ही होता है। तब यह ज्ञान केवल मन से ही होता હૈ-કન્ય જિયો સે નહીં !' શબવા થવા માગાદ્રિ से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। ऐसा जो कहा गया है उसका कारण यह है कि शब्द श्रवण और भाषग आदि जन्य जो श्रोत्रेन्द्रिय से उस का ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है-और इस मतिज्ञानपूर्वक उस विषय में जो शब्दश्रवण आदि के संबन्ध से विशेष तिन चालू होता है कि जो केवल मन का ही कार्य है वह श्रुतज्ञान है। उदाहरणार्थ-शब्द विषयक श्रोत्र जन्यज्ञान होने पर उसके संबन्ध से मन में" यह किस प्रकार के शब्द को बोल रहा है-उच्चस्वर से शब्द उच्चरित हो रहा है या धीमे स्वर से" इत्यादि विकल्पों का होना श्रुतज्ञान है ।
શંકા–“શબ્દના શ્રવણ અથવા ભાષણ આદિથી જે જ્ઞાન થાય છે, તેને શ્રતજ્ઞાન કહે છે,” આ પ્રકારનું જે મૃતનું લક્ષણ અહીં બતાવવામાં આવ્યું છે તે અતિવ્યામિ દેથી યુકત હોવાને કારણે ઉચિત નથી, કારણ કે તે લક્ષણને સદ્ભાવ તે મતિજ્ઞાનમાં પણ હોય છે. તે શ્રોત્રેન્દ્રિય અને મનની સહાયતાથી થાય છે.
ઉત્તર-આ માન્યતા બરાબર નથી. કારણકે-મતિજ્ઞાન પાંચે ઈન્દ્રિય અને મનની સહાયતાથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, પરંતુ થતજ્ઞાન તે માત્ર મનની સહાયતાથી જ ઉત્પન્ન છે–અન્ય ઇન્દ્રિયની સહાયતાની તેને જરૂર રહેતી નથી. “શબ્દશ્રવણ અથવા ભાષણાદિથી જે જ્ઞાન થાય છે તેને શ્રતજ્ઞાન કહે છે,” આ પ્રમાણે જે કહેવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે શબ્દશ્રવણ અને ભાષણાદિ જન્ય જે શ્રોત્રેન્દ્રિય થી તેનું જ્ઞાન થાય છે તે મતિજ્ઞાનરૂપ હોય છે. અને તે મતિજ્ઞાનપૂર્વક તે વિષયને અનુલક્ષીને શબ્દશ્રવણ આદિના વિષયમાં વિશેષ ચિન્તન ચાલ થઈ જાય છે તે તે માત્ર મનનું જ કાર્ય હોવાથી તેને શ્રતજ્ઞાન કહે છે ઉદાહરણ દ્વારા આ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે–શબ્દવિષયક શ્રોત્રજન્ય જ્ઞાન થવાથી તેને વિષે મનમાં આ પ્રકારના વિકલ્પો ઉદભવે છે. “આ કયા પ્રકારના શબ્દનું ઉચ્ચારણ થઈ રહ્યું છે ઊંચે સ્વરે શબ્દનું ઉચ્ચારણ થઈ રહ્યું છે કે ધીમે સ્વરે શબ્દનું ઉરચારણ થઇ રહ્યું છે આ પ્રકારના વિકલ્પો જે જ્ઞાનમાં ઉદ્ભવે છે તે જ્ઞાનને શ્રતજ્ઞાન કહે છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका-. १ पञ्चविधज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
शंका-यद्यपि जिस प्रभार मतिान की उत्पत्ति में इन्द्रियों साक्षात् निमित्त हेती हैं वैसी वे श्रुतझान की उत्पत्ति में साक्षात् निमित्त नहीं होती हैंप.न्तु प.म्परा से तो होती ही हैं। जैसे-६र्शन आदि इन्द्रियों से मतिज्ञान हो गया और फिर बाद में उनके विषय में श्रुतज्ञान-जो विशेष विचाररूप है वह होता है। अतः इस अपेक्षा से तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में कोई भेद प्रतीत नहीं होता सो ऐसा कथन भी ठीक नहीं है कारण कि यह औपचारिक कथन है । दूसरे मतिज्ञान विद्यमान वस्तु में ही प्रवृत्त होता है, और श्रुज्ञिान त्रैकालिक विषयों में प्रवृत्त होता है। तथा मतिज्ञान में शब्दोल्लेखन ही होता है और श्रुतज्ञान में नहीं होता है । अर्थात् जैसे श्रुतज्ञान की उत्पत्ति के समय संकेत स्मरण और श्रुतग्रंथ का तात्पर्य अनुसरण अपेक्षित होता है, वैसे वह ईहा आदि मतिज्ञान की उत्पत्ति में अपेक्षित नहीं है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि लब्धिरूप मतिज्ञान के होने पर श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है मतिज्ञान के अभाव में नहीं। इसलिये इस श्रुतज्ञान का कारण मतिज्ञान है ।
શંકા-જેમ મતિજ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં ઈદ્રિય સાક્ષાત નિમિત્ત બને છે એમ થતાનની ઉત્પત્તિમાં તેઓ સાક્ષાત નિમિત્ત બનતી નથી. પરંતુ પરમ્પરાની અપેક્ષાએ તે તેઓ કૃતજ્ઞાનમાં પણ નિમિત્ત રૂપ બને જ છે. જેમ કે સ્પર્શેન્દ્રિય આદિની સહાયતાથી ધારે કે મતિજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થઈ ગઈ છે, ત્યારબાદ તેમને વિષે વિશેષ વિચાર કરવારૂપ શ્રતજ્ઞાન પણ ઉપન થઈ જાય છે. આ રીતે વિચાર કરવામાં આવે તે મતિજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન વચ્ચે કોઈ ભેદ જ જણાતું નથી. સમાધાન–આ પ્રકારની માન્યતા પણ ખરી નથી. કારણકે આ કથન તો માત્ર ઔપચારિક કથન જ છે. વળી બીજું કારણ એ છે કે મતિજ્ઞાન તે માત્ર વિદ્યમાન વસ્તુમાં જ પ્રવૃત્ત થાય છે, પરંતુ કૃતજ્ઞાન તે વૈકાલિક વિજેમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. તથા મતિજ્ઞાનમાં શબ્દ લેખન જ થાય છે, જ્યારે શ્રુતજ્ઞાનમાં તે સ્મરણ તર્કવિતર્ક આફિ પણ થાય છે એટલે કે જેવી રીતે શ્રુતજ્ઞાનની ઉત્પત્તિને સમયે સંકેત, સ્મરણ અને છતગ્રંથનું અનુસરણ અપેક્ષિત હોય છે, એવી રીતે ઈહા આદિરૂપ મતિજ્ઞાનમાં તે સંકેત, સ્મરણ આદિની અપેક્ષા રહેતી નથી. આ વાત પરથી એજ વાત નિશ્ચિત થાય છે કે લબ્ધિરૂપ મતિજ્ઞાનના સદૂભાવમાં જ શ્રુતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે પતિજ્ઞાનને અભાવ હોય તો શ્રતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થતું નથી. તેથી મતિજ્ઞાનને શ્રુતજ્ઞાનમાં કારણભત કહ્યું છે.
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अनुयोगदान ननु आभिनिबोधिकाऽपरपर्यायमतिज्ञानमेव श्रुतज्ञानं सम्पद्यते यथा मृत्तिकैव घटः. तन्तुरेव पटः. तर्हि श्रुतज्ञानस्य पृथगुपादानं भगवता किमर्थ कृतम् ? उच्यते दृष्टान्तद्वयमिदं विषमम, यथा घट पादुर्भावे-पिण्डाकारा मृत्तिा प्रणपति, पटोत्पत्तौ सत्यां तन्तुपुजश्च तथा श्रुतज्ञाने समुत्पन्ने मतिज्ञानं न प्रणश्यति। ___ शंका--जब श्रुतज्ञान का कारण मतिज्ञान है कि जिसका दूसरा नाम आभिनिबोधिकज्ञान है भी तब जिस प्रकार मिट्टीरूप कोरण घटकार्यरूप से परिणम जाता है उसी प्रकार से मतिज्ञान भी श्रुत ज्ञानरूप से परिणम जावे गा-अथवा जिस प्रकार मिट्टी ही घट बन जाती है, और तन्तु ही पट बन जाया करते हैं इसी तरह से मतिझान भी श्रुतज्ञान हो जावेगा तो फिर सूत्र कारने श्रृतज्ञान का पृथकरूप से पाठ सूत्र में क्यों रखा है ?
उत्तर-ये दोनों दृष्टान्त ही विपम हैं क्यों कि
इस प्रकार की मान्यता में मतिज्ञान का विनाश प्रसक्त होगा-हम देखते हैं कि जब घट को उत्पत्ति होती है, तब पिण्डाकार मृत्तिका का विनाश होता है और पट की उत्पत्ति में तन्तुपुंज का । परन्तु जब श्रुतज्ञान होता है तब मतिज्ञान का अभाव नहीं होता है । क्योंकि एक आत्मा में एक साथ
शर ज्ञान तक होना सिद्धान्तकारों ने माना है। यदि श्रुतज्ञान के सहाव में मतिज्ञान का अभाव स्वीकार किया जावे तो यह सिद्धान्त विरुद्ध कथन
શંકા–જે મતિજ્ઞાન અથવા આભિનિબાધિક જ્ઞાનને જ થતજ્ઞાનના કારણરૂપ માનવામાં આવે, તે જેમ માટીરૂપ કારણ ઘટકાર્યરૂપે પરિણમી જાય છે, એ જ પ્રમાણે મતિજ્ઞાન પણ શ્રુતજ્ઞાનરૂપે પરિણમી જશે, અથવા જે પ્રકારે માટી જ ઘડારૂપે પરિરણમિત થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે મતિજ્ઞાન પણ કૃતજ્ઞાનરૂપે પરિમિત થઈ જશે. તે પછી સૂત્રકારે શ્રુતજ્ઞાનને અહીં પૃથક્રરૂપે (એક જુદા જ જ્ઞાનરૂપે) શા માટે प्रतिपाहित यु छ ?
- ઉત્તર–આ બને દષ્ટાન્ત જ વિષમ છે, કારણ કે આ પ્રકારની માન્યતામાં તે મતિજ્ઞાનને વિનાશ થવાની વાત માનવાને પ્રસંગ ઉદુભવશે. આપણે એ વાતને તે પ્રત્યક્ષ દેખી શકીએ છીએ કે જ્યારે ઘટ (ઘડા)ની ઉત્પત્તિ થાય છે ત્યારે માટીના પિંડાને વિનાશ થઈ જાય છે અને જ્યારે પટ (કા૫ડ)ની ઉત્પત્તિ થાય છે ત્યારે તંતુ પુંજને નાશ થઈ જાય છે. પરંતુ જયારે શ્રુતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે ત્યારે મતિજ્ઞાનને વિનાશ થઈ જતું નથી, કારણ કે એક આત્મમાં એક સાથે ચાર જ્ઞાનને સદ્ભાવ હોઈ શકે છે, એવું સિદ્ધાન્તકારોએ સ્વીકારેલું છે. જે કૃતજ્ઞાનને સદ્ભાવ હોય ત્યારે મતિજ્ઞાનને અભાવ હોય છે એવું માનવામાં આવે છે તે માન્યતા તે
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'अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १ ञ्चविधज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
" जत्थ मई तत्थ सुयं, जत्थ सुयं तत्थ मई " ( नन्दी सूं० २४) छाया - यत्र मतिस्तत्र श्रुतं यत्र श्रुतं तत्र मतिः ।
श्रतस्य सद्भावे मतेर्विद्यमानता भगवताऽभिहिता तस्मादपेक्षाकारणमेव मति ज्ञानं श्रुतज्ञानस्येति मन्तव्यम, तथा च मतिज्ञानपूर्वक मिन्द्रियमनोजन्यमाप्तवचनानुंसारि ज्ञानं तज्ञानमिति निष्कर्षः ।
-
'श्रूयते यत्तच्छ्रुतम्' इति व्युत्पच्या श्रुतशब्देन प्रवचनमपि गृह्यते । तस्मिन्पक्षे श्रुतस्य = आप्तवचनस्य ज्ञानं श्रुतज्ञानमिति षष्ठीतत्पुरुषः । आप्तो रागादि ठहरता हैं । कि “ जत्थ मई तत्थ सुयं, जत्थ सुयं तत्थ मई" जहां पर मतिज्ञान है वहां श्रुतज्ञान हैं और जहां श्रुतज्ञान है वहां म-ज्ञान है । इस ताह श्रुत के सद्भाव में मतिज्ञान का सद्भाव - भगवान् ने कहा है । इसलिये ऐसा मानना चाहिये. कि तज्ञान वा मतिज्ञान केवल अपेक्षाकारण ही है । अपेक्षाकारण का तात्पर्य निमित्तकारण से है । जो निमित्तकारण होते हैं वे उपादान कारण की तरह स्वयं कार्यरूप नहीं परिणमते हैं केवल उपादान कारण ही कार्यरूप परिणमता है । तथा च - जो मतिज्ञानपूर्वक ही परंपरा से इन्द्रियों से जो जनि हों और साक्षात्कारण जिसकी उत्पत्ति में मन हो ऐसा आप्तवचनानुसारी जा ज्ञान हैं वही श्रुतज्ञान है ।
श्रूयते यत् तत् श्रुतम् "इस व्युत्पत्ति के अनुसार श्रुतशब्द से प्रवचन का भी ग्रहण हो जाता है । अतः इस पक्ष में आप्तवचनरूप श्रुत का जो ज्ञान है वह श्रुतज्ञान है ऐसा षष्ठी तत्पुरुष समास करना चाहिये । रागद्वेष आदि से रहित સિદ્ધાન્તની વિરૂદ્ધની માન્યતા પ્રતિપાદિત થાય છે. શાસ્ત્રોમાં એવુ કહ્યું છે કે.... "जत्य मई तत्थ सुयं, जत्थ सुयं तत्थ मई" न्यां भतिज्ञान होय है, त्यां श्रुतજ્ઞાન હાય છે જ્યાં શ્રુતજ્ઞાન હોય છે ત્યાં મતિજ્ઞાન હોય છે.” આ રીતે શ્રુતના સદ્ભાવમાં મતિજ્ઞાનના પણુ સદ્ભાવ ભગવાને કહેલા છે. તેથી એવું માનવુ જોઇએ કે મતિજ્ઞાન એ શ્રતજ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં માત્ર અપેક્ષાકારણુ (નિમિત્તરૂપ કારણ) જ છે. જે નિમિત્ત કારણેા હાય છે તે ઉપાદ્યાન કારણની જેમ સ્વયં કાર્ય રૂપે પરિઘુમતા નથી. માત્ર ઉપાદાન કારણ જ કાપે પરિણમે છે. આ દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે શ્રુતજ્ઞાનના આ પ્રમાણે અથ` ફલિત થાય છે.
જે મતિજ્ઞાનપૂર્વક હોય, પરમ્પરાની અપેક્ષાએ જે જ્ઞાન ઈન્દ્રિયથી જનિત હાય છે પણ જેની ઉત્પત્તિમાં સાક્ષાત્ કારણભૂત મન હાય છે, એવું આસવચનાનુસારી हे ज्ञान छे तेने श्रुतज्ञान डे छ. “ श्रयते यत् तत् श्रुतम् " मा व्युत्पत्ति अनुसार શ્રુત પદ દ્વારા પ્રવચન પણ ગ્રહણ થઇ જાય છે. તેથી આ દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે માસવચન રૂપ શ્રુતનુ જે જ્ઞાન છે તેને શ્રુતજ્ઞાન કહે છે, એવા ષષ્ઠી તત્પુરુષ
આ
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अनुयोगद्वारस्त्रे रहितः सर्वज्ञस्तस्य वचनम्-आप्त वचनम् । तदर्थाध्यवसाय (निर्णय) रूपं ज्ञानं भुत ज्ञानमिति । श्रुतज्ञानं प्रति शब्दस्य निमित्तकारणतया शब्देऽपि श्रुतव्यपदेशो भवति । ज्ञानभेदव्यवस्थायां श्रुतशब्दः श्रवणार्थवाचीत्यभिधेयम ॥२॥
(३) अवधिज्ञानम्-अपधानमवधि-इन्द्रिय नोइन्द्रिय निरपेक्षस्य आत्मनः साक्षादर्थ ग्रहणम्, अवधिरेवज्ञानम् अवधिज्ञानम् । अथवा-'अब' शरदोऽधःशब्दार्थः । अव-अधः विस्तृत वस्तु धीयते-ज्ञायतेऽनेनेत्यवधिः । अवधिश्चासौ तज्ज्ञानं चेत्यवधिज्ञानम् । विस्तृतविषयकं शनमित्यर्थः । यथा-अनुत्तरोपपातिका देवा अवधि ज्ञानबलेन, भगवन्तमापृच्छय जीवादितत्वम्वरूपं निर्धारयन्ति ।। विशिष्ट व्यक्ति का नाम आप्त है। जिसे सर्वज्ञ कहा जाता है। उसके बचन का नाम आप्तवचन है। उनके द्वारा प्रतिपादित अर्थरूप जो आगम है. उस आगम का निर्णयरूप ज्ञान श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान के प्रति शब्द निमित्तकारण होता है एतावता निमित्त कारण की अपेक्षा लेकर शब्द में भी श्रुत का व्यवहार होता है । परन्तु ज्ञान भेद की व्यवस्था में श्रुतशब्द श्रवण जन्यज्ञान:प अथ का बाची लिया गया है ।
"अवधानमवधिः" अर्थात् इन्द्रियों एवं मनकी सहायता के विना केवल आत्मा से ही द्रव्य क्षेत्रकाल और भाव की मर्यादा लेकररूपी पदार्थों को जा साक्षात्रूप से ग्रहण करनेवाला ज्ञान होना है. उसका नाम अवधि है ।
अथवा अवविज्ञान में जो अपशब्द है वह अधःशब्द के अर्थ को कहने वाला है। इसलिये जिसज्ञान के द्वारा नीचे का विषय विस्ताररूप से "धीयते" जाना जाता है । वह अवधिज्ञान है तात्पर्य इसका यह है कि जब સમાસ અહીં સમજવું જોઈએ. રાગ, દ્વેષ આદિથી રહિત વિશિષ્ટ વ્યક્તિને આપ્ત કહે છે. સર્વને જ એવાં આપ્ત કહી શકાય છે. તે સર્વાના વચનને આપ્તવયન કહે છે, તેમના દ્વારા પ્રતિપાદિત અર્થે રૂથ જે આગમ છે, તે આગમના નિર્ણયરૂપ જ્ઞાનને જ શ્રુતજ્ઞાન કહે છે. શ્રુતજ્ઞાનની પ્રાપ્તિમાં શબ્દરૂપ નિમિત્ત પરસ્પી કારણ રૂપ હોય છે. તેથી નિમિત્ત કારણુની અપેક્ષાએ શબ્દમાં પણ શ્રુત શબ્દને વ્યવહાર થાય છે પરંતુ જ્ઞાનના ભેદની વ્યવસ્થામાં થત શબ્દને શ્રવણુજન્ય જ્ઞાનરૂપ અર્થને વાચક લેવામાં આવેલ છે.
(3) "अवधानमवधिः " अवविज्ञान
ઈન્દ્રિયે અને મનની સહાયતા વિના કેવળ આત્મા દ્વા જ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની મર્યાદાની અપેક્ષાએ રૂપી પદાર્થોને સાક્ષાતરૂપે ગ્રહણ કરનારું છે જ્ઞાન છે, તેને અવધિજ્ઞાન કહે છે. અથવા-અવધિજ્ઞાનમાં જે “અવ” ઉપસર્ગ છે તે અધઃ શબ્દના અર્થને વાચક છે. તેથી જે જ્ઞાન દ્વારા નીચેના વિષયનું विस्तृत ३५ "धीयते" ज्ञान थाय छ, ते ज्ञानने . अपविज्ञान છે આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે- અવધિજ્ઞાનનું ક્ષેત્ર આગળના અસંખ્યાતમાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १ पञ्चविधज्ञानम्वरूपनिरूपणम्
यद्वा-अवधिना ज्ञानम्-इति तृतीया समासः । अवधिर्मर्यादारू पिद्रव्याप्येव विषयीकरोति नेतराणीति व्यवस्थारूपा। तथाचायमर्थः-अरूपि द्रव्यपरिहारेण रूपिद्रव्यमात्रविषयकं ज्ञानमवश्ज्ञिानमिति ।। ___ यद्वा-अधोधोऽधिकं पश्यति येन तदवधिज्ञानम्। तश्चचतुर्गतिवर्तिनं जीवानमिन्द्रियमनोनीरपेक्षं प्रतिविशिष्टक्षयोपशमनिमित्त सरिद्रव्यसाक्षात्कार जनकं भवति। एतस्य देवमनुष्यतिर्यनारका अधिकारिणः ॥३॥ अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल केअसंख्यातवें भाग से लेकर मारा लोक हैं-तब उसका विषय भी कतिपय पर्याय सहितरूपी द्रा है इसलिये यह ज्ञान विस्तृत विष पवाला है । विस्तृत विषयता जो इस में प्रकट की है वह मनः पर्वायज्ञान की अपेक्षा जाननी चाहिये । को कि मनःपपाय ज्ञान का क्षेत्र सिर्फ मानुषोत्तर पर्वत (यंत ही है और उसका विपर अवधिज्ञान के विषयभूा हुए रूपी द्रव वा अन्ततवां भाग है। अथग-अवधिशब्द या अर्थ मर्यादा है । इस अर्थ में अवधि और ज्ञान का तृतीया तत्पुरुष समास हो.र ऐसा अर्थ होता हैं कि जो ज्ञान मदा लेपर पदार्थों को जानता हैं । इह आधिज्ञान हैं । इस में म दिा रूपी पदार्थों को जानने की अपेक्षा से जाननी चाहिये । कयौ कि रह ज्ञान रूपी पदार्थों को नहीं जानता है। इसलिये इस प्रकार को व्यवस्थारूप मर्यादा युक्त होने के कारण इस ज्ञानक नाम अवधिज्ञान रखा है। अथवा-नीचे नीचे की ओर जो ज्ञान अधिक विषय को ભાગથી લઈને આખા લેક પયતનું છે, અને કતિષય પર્યાય સહિતના રૂપી દ્રવ્યને વિષય કરનારૂં જ્ઞાન છે. આ રીતે તે જ્ઞાન વિસ્તૃત વિષયવાળું છે. તેમાં જે વિસ્તૃત વિષયતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે મન:પર્યવ જ્ઞાનની અપેક્ષાએ સમજવી, કારણ કે મનઃપર્યય જ્ઞાનનું ક્ષેત્ર માત્ર માનુષેત્તર પર્વત પર્યન્ત જ છે અને અવધિજ્ઞાન દ્વારા જેટલારૂપી દ્રવ્યને જોઈ શકાય છે તેના કરતાં મનપર્યય જ્ઞાન દ્વારા અનંતમાં ભાગના રૂપી દ્રવ્યને જોઈ શકાય છે.
અથવા–અવધિ એટલે મર્યાદા. આ અર્થમાં અવધિ અને જ્ઞાન, આ બે પદોનો તૃતીયા તપુરુષ સમાસ બને છે. આ દટીએ વિચારવામાં આવે તે અવધી જ્ઞાનને અર્થ આ પ્રમાણે થશે-જે જ્ઞાન મર્યાદિત પદાર્થોને જાણે છે, તે જ્ઞાનનું નામ અવધિજ્ઞાન છે. તે જ્ઞાનરૂપી પદાર્થોને જ જાણે છે-અરૂપી પદાર્થોને જાણતું નથી, આ પ્રકારની રૂપી પદાર્થોને જ જાણવારૂપ આ મર્યાદા સમજવી. તેથી આ પ્રકારની વ્યવસ્થારૂપ મર્યાદાથી યુક્ત હોવાને લીધે આ જ્ઞાનનું નામ અવધિજ્ઞાન પડયું છે. અથવા– જે જ્ઞાન નીચેની બાજુએ અધિક વિષયને દેખી શકે છે તે જ્ઞાનને અવધિજ્ઞાન કહે
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२४
अनुयोगमा देखता है-वह ज्ञान अवधिज्ञान है ऐसा यह अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों को इन्द्रियां और मन की सहायता के बिना अवधिज्ञावावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है।
शंकाः-शास्त्रकारों ने मनुष्य और तिर्यंचगति के जीवों को जो अवधिज्ञान कहा है वही क्षयोपशम निमित्तक कहा है-फिर यहां चारों गतियों के जीवों को जो अवधिज्ञान होता है वह योपशम निमित्तक होता है ऐसा क्यों कहा-तो इस शंका का समाधान इस प्रकार से है कि अवधिज्ञान की उत्पत्ति नियमतः अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ही होती है-परन्तु इस क्षयोपशम में जहां व्रत, नियम, आदि अनुष्ठान की अपेक्षा रहती है-वह क्षयोपशम निमित्तक कहलाता है ऐसा अवधिज्ञान मनुष्य और तियंचों के होता है। जिस अव धज्ञान में इनकी अपेक्षा न हो किन्तु भव जन्म लेनी ही कारण हो वहां वह अवधिज्ञान इन गुणों की अपेक्षा बिना ही अवधिज्ञाना बरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हो जाता है। ऐसा अवधिज्ञान देव और नारकियों को होता है। अन्तरंग कारण इन दोनों प्रकार के अवधिज्ञानों
છે. ઈન્દ્રિયે અને મનની સહાયતા વિના રૂપી પદાર્થોને જોઈ શકનારૂં આ અવૃધિક્ષાન, અવધિજ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષયથી ચારે ગતિના જેમાં ઉત્પન્ન થતું હોય છે. '
કા–શાસ્ત્રકારોએ તો એવું કહ્યું છે કે મનુષ્ય અને તિર્યંચગતિના એને જે અવધિજ્ઞાન થાય છે તે ક્ષપશમ નિમિત્તક હોય છે. છતાં આપ શા કાણે એવું કહો છો કે ચારે ગતિના જીવને અવધિજ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષયોપશમથી. અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ શકે છે?
સમાધાન-અવધિજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ તે નિયમથી જ અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષપશમથી જ થાય છે, પરંતુ આ ક્ષપશમમાં જ્યાં વ્રત, નિયમ આદિ અનુષ્ઠાનોની આવશ્યકતા રહે છે, ત્યાં તે અવધિજ્ઞાનને સોપશમનિમિત્તક કહેવામાં આવે છે. એવા ક્ષપશમનિમિત્તક અવધિજ્ઞાનને સદભાવ મનુષ્ય અને તિર્યંચામાંજ હાથ જે અવધિજ્ઞાનમાં તેની આવશ્યકતા ન હોય પણ ભવ જ (જન્મ લે એજ) કારણ રૂપ હોય, ત્યાં આ ગુણોની અપેક્ષા વિના જ અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષપશમથી અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. એવા અવધિજ્ઞાનને સદૂભાવ દે અને નારકમાં હોય છે. આ રીતે આ બન્ને પ્રકારના અવધિજ્ઞાનમાં અતરંગ કારણ તે સમાન જ છે. અવધિજ્ઞાનાવરણીય કર્મને ક્ષયોપશમ જ તે બન્નેમાં અને રંગ કારણ છે ? કારણે “અવધિજ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષયે પશમથી ચારે ગતિના માં અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રકારના કથનમાં કેઈ દેષ સંભવ નથી.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. १ ज्ञानस्वरूपनिरूपणम् ___ मनःपर्यवज्ञानमिति । अवनम् अवः । 'अव रक्षण गतिकान्तिप्रीतितृप्त्यवगमाद्यर्थे पु' पठितोऽस्ति, तत्रावगमार्थ माश्रित्य निष्पन्नः । अवः-अवगमः, बोध इत्यर्थः । परिशब्दः सर्वतो भावे, पर्यवः समन्तादववोधः । मनसः पर्यवो मनः पय वः मनोविषयकः समन्तादवबोध इ.यर्थः। मनःपर्यवश्वासौ तज्ज्ञानं चेति मनःपर्यवज्ञानम् । पर्ययः, पर्यायः, एते शब्दा एकार्थवाचाः ।
में समान हैं। अव.धज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम ही अन्तरंग कारण है। अतः ऐसा कहने में कि अवधिज्ञानावःणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान की उत्पत्ति चारों गतियों के जीवों को होती है इस प्रकार के कथन में कोई विरोध नहीं है।
मनःपर्य वज्ञान पर्यव यह शब्द परि उप:अव धातु से बना है। अब धातु रक्षण, गति, कान्ति, प्रीति, तृप्ति, अगम आदि अर्थों में पठित हुआ है सो रही पर इन में से अवगम अर्थ लिया गया हैं । अवगम का अर्थ बोध है। "परि" का अर्थ सब प्रकार से है । मन की सब पर्यायों का साक्षात् जानने वाला जो ज्ञान है वह मनः पर्यवज्ञान है। पर्यय पर्याय ये सब शब्द एकार्थवाचक हैं। तात्पर्य इसका यह है कि मनवाले संझी प्राणी-किसी भी वस्तु का चिन्त्वन मनसे करते हैं। चिन्त्वन के समय चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार चिन्तनकर्म में प्रवृत्त मन भिन्न २ आकारों को धारण करता रहता है। ये आकृतियां ही मन की पर्याय हैं। इन मन की पर्यायों को साक्षात् जानने वाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान हैं द्रव्य मन और
(४) मन:पर्यज्ञान-परि+अव=५५. 240 रीते 'अव' धातुने 'परि' 6५॥ सापाथी ५यव' ५६ मन्यु छ. 'अव्' धातु २२४. गति, ति, ति, तृप्ति, અવગમ આદિ અર્થોમાં વપરાય છે. અહીં તેને અવગમ અર્થ ગૃહીત થયેલ છે. અવગમ એટલે બે ધ. અને “પરિ એટલે “સર્વ પ્રકારે
“મનના સઘળા પર્યાને સાક્ષાત્ જાણનારૂં જે જ્ઞાન છે, તેનું નામ મનઃ પર્યવજ્ઞાન છે.” પર્યાય અને પર્યાય આ બન્ને શબ્દો સમાનાર્થી છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-મનવાળા છે (સંસી છે) કઈ પણ વસ્તુનું મનની મદદથી ચિત્તવન કરે છે. આ પ્રકારના ચિન્તનકમમાં પ્રવૃત્ત થયેલું મન ભિન્નભિન્ન આકારેને ધારણ કરતું રહે છે. તે આકૃતિઓ જ મનના પર્યાયે છે. મનન એ પર્યાયોને સાક્ષાત જાણુનારૂં જે જ્ઞાન છે તે જ્ઞાનનું નામ જ મન:પર્યવજ્ઞાન છે,
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अनुयोगधारणे
मनोद्विविधं-द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्यमनो मनोवर्गणाः । संज्ञिना मनोबर्गणा गृहीताः सत्यो मन्यमानाश्चिन्त्यमाना भावमनोऽभिधीयते ।
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तत्रेह भावमनः परिगृह्यते । भावमनसः पर्यायाश्च परेषाम् अर्द्धतृतीय द्वीपाभ्यन्तरवर्त्तिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां चिन्त्यमान विषयाऽध्यवसायरूपाः । यथा - अन्यः कश्चिदेवं चिन्तयेत् - आत्मा कीदृशः १ अरूंपी, चेतनास्वभावः कर्मणां कर्ता तत्फलभोक्त। चेत्यादयो ये ज्ञान विशेषरूपारतस्यात्मनः परिणामविशेषा तेषां यद् ज्ञानं तन्मन:पर्ययज्ञानम् ।
भाव मन के भेद से मन दो प्रकार का होता हैं । इनमें मनोवगणारूप तो द्रव्य मन हैं तथा संज्ञी जीव उन मनोवर्गणाओं को ग्रहण करके उनके निमित्त से जो विचार करता है वह भावन हैं। यहां पर भावमन का ग्रहण हुआ हैं । मनः पर्यवज्ञानी दूसरों के इस भावमन की पर्यायों को कि जो अढाई द्वीपवर्ती संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियों द्वारा विचारी गई हैं उन्हें साक्षात् जानता है । जैसे कोई यह विचारे कि आत्मा कैसा है ? " अख्पी है चेतना स्वभाववाला है, कर्मों का कर्ता है, और उन कर्मों के फलों का भोक्ता है "इस तरह ये ज्ञानाविशेषरूप जो उस आत्मा के विचारित परिणाम विशेष है उन परिणाम विशेषों का जो ज्ञान है वह मनःपर्यव ज्ञान है । अर्थात् मनःपर्ययज्ञानी इन से कल्पित मन की पर्यायों को साक्षात् जानता है । इससे यह बात ध्वनित होती है कि मन:पर्ययज्ञानी मन को ही प्रत्यक्षरूप से जानता है, चिन्तनीय वस्तुओं को नहीं ।
દ્રવ્યમન અને ભાવમનના ભેદથી મન એ પ્રકારનુ કહ્યું છે. આ બન્નેમાંનુ' જે દ્રવ્ય મન છે તે મનાવ`ણારૂપ છે, તે મનેાવણાઓને ગ્રહણ કરીને તેમના નિમિત્તથી સંજ્ઞી જીવ જે વિચાર કરે છે તે ભાવમનરૂપ છે. અહી ભાવમન ગ્રહણ કરવામાં આવ્યુ છે. અઢી દ્વીપવતી સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવેા દ્વારા વિચારવામાં આવેલી ભાવમનના પર્યાયને મન:પર્યવજ્ઞાની જીવ સાક્ષાત્ જાણે છે. જેમ કે કાઈ એવા વિચાર કરે કે “આત્મા કેવા છે ? શું તે અરૂપી છે? શું તે ચેતના સ્વભાવવાળા છે ? શું તે કર્મના કર્તા અને તે કર્મોનાં લેાના ભાકતા છે ?” આ પ્રકારનું આ જ્ઞાનવિશેષરૂપ ને આત્માદ્વારા વિચારિત જે પરિણામવિશેષ છે, તે પરિણામવશેષને જાણનારૂ જે જ્ઞાન છે, તે જ્ઞાનનું નામ મન:પર્યવજ્ઞાન છે. એટલે કે મનપવજ્ઞાની જીવ આ સકલ્પિત મનના પર્યાયાને સાક્ષાત જાણી શકે છે. આ કથન દ્વારા એ વાત સૂચિત થાય છે કે મનપવજ્ઞાની જીવ મનની પર્યાયને જ પ્રત્યક્ષરૂપે જાણે છે-ચિન્તનીય वस्तुमाने तो नथी,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका १ ज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
मन.पर्यज्ञानी च मनःपर्य यानेव प्रत्यक्षी करोति, न तु बाह्यवस्तु । न च मनः पर्ययज्ञानिना बाह्य वस्तु ज्ञायते इति वाच्यम्, अनुमान्तस्तस्य बाह्यवस्तुज्ञानसद्भावात् । यथा विशिष्टक्षायोपशामिकप्रतिभाशाली प्रेक्षावान् प्रशान्तःकस्यचिदाकारङ्गितादिकं विलोक्य तदीयमनोगतं भावं सामथ्यं चानुमानतो विजानाति तथा मनःपर्यः ज्ञानी कस्पचिद् भावरूपं मन:सर्वतोभावेन प्रत्यक्षीकृत्वानुमानेन वाह्य विप समवयु ते–'इदं वस्त्वनेन चिन्त्यते' इति । वाह्यपदार्थचिन्तनसमये हि वाद्यपदार्थाकारसदृशाकारं मनो भवति ।
इदं मनःपर्ययज्ञानं रूपिविषयत्वप्रत्यक्षायोपशमिकत्वप्र यक्षत्वादिसाम्येऽप्यवधिज्ञानाद् भिन्नं, स्वाम्यादि भेदात् । तथाहि अवधिज्ञानमविरतसम्यग्दृष्टेरपि
प्रश्न -तो क्या चिन्तनीय वस्तुओं को मनःपय यज्ञानी जान नही सकता ?- - उत्तरः-जान सकता है-एर पीछे से अनुमानहारा । जैसे कोई विशिष्टक्षयोपशमिक प्रतिभाशाली विद्वान् शान्तभाव से किसी दूसरे व्यक्ति के आकार इंगित आदि को प्र यक्ष देख कर उसके मनोगत भाव एवं सामर्थ्य को अनुमान से जान लेता है उसी तरह मयःपर्य यज्ञानी किसी के भावरूप मन को सर्वतोभाव से प्र यक्ष कर अनुमान से तहत चिन्तनीय बाह्य वस्तुओं को जान लिया करता है कि इसने इस वस्तु का चिन्तन वि.या है क्यों कि इसका मन उस वस्तु के चिन्तन के समय अवश्य होनेवाले इसप्रकार के आकारों से युक्त है। मन जब बाह्य पदार्थों का चिन्तन करता है तो उस समय वह उस चिन्तित बाह्यपदार्थ के आकार जैसा आगरवाला हो जाता है।
मनःर्य ज्ञान और अवधिज्ञान इन दोनों में रूपी पदार्थो को जानने પ્રશ્ન શું મન:પર્યવજ્ઞાની ઇવ ચિનનીય વરતુઓને જાણી શકતું નથી?
ઉત્તર–મન:પર્યવજ્ઞાની જીવ ચિન્તનીય વરતુઓને પાછળથી અનુમાન દ્વારા જ જાણી શકે છે. જેવી રીતે કેઈ વિશિષ્ટ ક્ષેપથમિક પ્રતિભાશાળી વિદ્વાન શાનતભાવે કેઈ અન્ય વ્યકિતની મુખાકૃતિ, તેની ચેષ્ટાઓ આદિને પ્રત્યક્ષ જોઈને તેના મને ગત ભાવોને સામર્થ્યને અનુમાનથી જાણી લે છે, એ જ પ્રમાણે મન:પર્યવજ્ઞાની છવ કેાઈ અન્ય જીવના ભાવરૂપ મનને પિતાના મન:પર્યવજ્ઞાન વડે પ્રત્યક્ષ કરીને અનુમાનથી તદ્દગત ચિન્તનીય બાહ્ય વસ્તુઓને પણ જાણી શકે છે. તે મન:પર્યવજ્ઞાની છવ એવું અનુમાન કરે છે કે આ વ્યકિતએ આ વસ્તુનું ચિન્તન કર્યું છે, કારણ કે તેનું મન તે વસ્તુના ચિન્તન સમયે જેવા આકારોથી અવશ્ય યુકત હોવું જોઈએ એવા આકારથી અવશ્ય યુકત છે. મન જ્યારે બાહ્યપદાર્થોનું ચિન્તન કરે છે, ત્યારે તે (મન) તે ચિતિત બાહ્યપદાર્થોના આકાર જેવા આકારવાળું થઈ જાય છે.
મન:પર્યવજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાનમાં રૂપી પદાર્થોને જાણવાની અપેક્ષાએ, સાથે
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अनुयोगबारने भवति। द्रव्यतोऽशेषरूपिद्रव्यविषयम्, क्षेत्रताऽसंख्यातलोकविषयम् । कालतोऽतीतानागतासंख्यातोत्सर्पिण्यवसर्पिणीविषयम् । भावतः सकलरूपिद्रव्येषु प्रतिद्रव्यमसंख्यातपर्यायविषयम् ।
मनःपर्ययज्ञानं तु प्रमादरहितस्याऽऽमर्षाद्यन्यतमलभिधारिणः संयतस्त्र भवति । द्रात:-संज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोद्रा विषयम् । क्षेत्रतः-समयक्षेत्रमात्रविषयम्। कालत:-अतीतानागतपल्योपमासंख्यातभागविषयम् । भावता-मनाद्र गतानन्दपर्यायविषयम् ॥४॥ की, क्षायोपशमिकत्व की एवं प्रत्यक्षत्व आदि की अपेक्षा से समानता हैंतो भी स्वाम्यादि की अपेक्षा से भिन्नता है-अवधिज्ञान जो अविरतसम्यक् दृष्टि है, उसको भी हो जाता है, द्रव्य कि अपेक्षा यह समस्तरूपी पदार्थों को विषय करता है, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक इसका विषय माना गया है, काल की अपेक्षा यह अतीत अनागतकाल के असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों को जानता है, तथा भाव की अपेक्षा यह समस्तरूपी द्रव्यों में प्रतिद्रव्य की असंख्यात पर्यायों को जानता है। मनःपर्यवहान अविरत अवस्थावाले जीव को नहीं होता है। उसमें भी प्रमत्त संयत का नहीं होता हैं किन्तु जो अप्रमत्त संयत है उसको होता है। उसमें भी आमर्ष आदि किसी एक लब्धिधारी के ही होता हैं । द्रव्य की अपेक्षा संज्ञी पंचेन्द्रियजीव के मनोद्रव्य को विषय करता है । क्षेत्र की પથમિકત્વની અપેક્ષાએ અને પ્રત્યક્ષત્વ આદિની અપેક્ષાએ સમાનતા છે. પરંતુ કેટલીક બાબતમાં તે અવધિજ્ઞાનથી જુદું પડે છે.
અવધિજ્ઞાન અવિરત સમ્યક્દષ્ટિ જીવમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તે સમસ્તરૂપી પદાર્થોને જોઈ શકે છે, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અસંખ્યાત લેક તેને વિષય મનાય છે, કાળની અપેક્ષાએ તે અતીત અને અનાગતકાળના અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી કાળેને જાણે છે, તથા ભાવની અપેક્ષાએ તે સમસ્તરૂપી દ્રવ્યમાંના પ્રત્યેક દ્રવ્યની અસંખ્યાત પર્યાને જાણે છે. મન:પર્ધવજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ અવિરત અવસ્થાવાળા જીવમાં થતી નથી, પરંતુ જે જીવ સંયત હોય છે તેને જ મન ૫ર્યવજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. વળી પ્રત્યેક સંયત જીવને તે ઉત્પન્ન થાય છે એ કોઈ નિયમ નથી. જેમ કે પ્રમત્ત સંયતને તે ઉત્પન્ન થતું નથી, પણ અપ્રમત્ત સંયતને જ ઉત્પન્ન થાય છે. અપ્રમત્ત સંયતમાં પણ આમર્ષ આદિ કોઈ એક લબ્ધિધારીને જ મન ૫ર્યવજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવના મને દ્રવ્યને તે વિષય કરે છે–જાણી શકે છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १ ज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
(५) केवलज्ञानम्-केवलम्-एकमसहायं ज्ञानावरणीयकर्मात्यन्तक्षयसमुद्भूतम् अतीतानागतवर्तमान पथावस्थितसकलद्रव्यगुण पर्याय विपकमप्रतिपातिज्ञानं केवलज्ञानम् ॥५॥
अधिकं जिज्ञासुभिनन्दिसूत्रे मत्कृतज्ञानचन्द्रिकाटीकाशं विलोकनीयम् ।
इत्थं शास्त्रस्थादावेव ज्ञानपञ्चकवर्णनेन मङ्गलं प्रदर्शितं भवति, सालक्लेशोच्छित्तिमूलत्वेन ज्ञानस्य परममङ्गलत्वात् ॥सू० १॥ अपेक्षा-इसको विपप समयक्षेत्र मात्र हैं । काल की अपेक्षा-अतीन अनागत काल का-पल्योपम का असंख्यात वां भाग इसका विषय है । भाव की अपेक्षा-इसका विषय मनोद्रव्य संबन्धी अनंत पर्याये हैं। केवलज्ञान-एक असहाय ज्ञान का नाम केवलज्ञान हैं। यह ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के अत्यन्त क्षय से होता है। अन्य ज्ञानों की तरह यह प्रतिपाती नहीं हैं। इसके विषय का अधिक विस्तार नन्दीसूत्र की ज्ञानचन्द्रिका नाम की टीका में मैंने लिखा हैं-सो जिज्ञासु महानुभाव वहाँ से इसे देखले ।
इस प्रकार से सूत्रकार ने शास्त्र की आदि में ही जो पांच प्रकार के ज्ञानों का वर्णन किया हैं उससे मंगल प्रदर्शित होता है। क्योंकि ज्ञान सकलक्ले शों की उच्छित्ति का मूलकारण है । अत: उसमें परम मंगलना आती है । ॥ मूत्र. १॥ સમયક્ષેત્ર માત્રને જ તે વિષય કરનારૂં-જાણનારૂં છે. કાળની અપેક્ષાએ અતીત (ભૂત) અને અનાગત (ભવિષ્ય) કાળના પલ્યોપમને અસંખ્યાતમો ભાગ તેને નિ ય છે. ભાવની અપેક્ષાએ તેને વિષય મનોદ્રવ્ય સંબંધી અનંત પર્યાય છે.
(૫) કેવળજ્ઞાન–આ જ્ઞાન એવું છે કે જેમાં ઇન્દ્રિયો અને મનની સહાયતાની અપેક્ષા રહેતી નથી, જ્ઞાનવરણીય કર્મના આત્યંતિક (સંપૂર્ણતઃ) ક્ષયથી આ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. તેને વિષય, ભૂત, ભવિષ્ય અને વર્તમાન, આ ત્રણે કાળ સંબંધી સમસ્ત દ્રવ્ય અને તેમની સમરત (અનંત) પર્યાયે છે. અન્ય જ્ઞાનની જેમ તે પ્રતિપ્રાતિ (એક વખત પ્રાપ્ત થયા બાદ જેનો વિનાશ થાય એવું) નથી. કેવળજ્ઞાનનું વિસ્તૃત નિરૂપણ નન્દીસૂત્રની જ્ઞાનચન્દ્રિકા નામની મેં લખેલી ટીકામાં કરવામાં આવ્યું છે, તે જિજ્ઞાસુ પાઠકે એ ત્યાંથી તે વાંચી લેવું.
આ પ્રકારે સુત્રકારે શાસ્ત્રને પ્રારંભે જ પાંચ પ્રકારના જ્ઞાનનું જે નિરૂપણ કર્યું છે તેનું કારણ એ છે કે જ્ઞાન પિતે જ મંગલરૂપ છે. સકલ કલેશેના ઉછેદનમાં જ્ઞાન જ કારણભૂત બને છે. આ રીતે જ્ઞાનમાં પરમ મંગળતાને સદ્દભાવ હોવાથી સરકારે શરૂઆતમાં જ તેની પ્રરૂપણ કરી છે. સૂટ ૧
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अनुयोगवारस्त्रे पञ्चविधेषु ज्ञानेषु श्रुतज्ञानस्यैव उद्देशसमुद्देशाद्यवसरेऽधिकारोऽस्ति, नेतरेपामिति बोधयितुमाह
मूलम--तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाइं ठवणिजाई गो उद्दिसति, गो समुदिसंलि, णो अणुषणविज्जति । सुयनाणस्स उद्देसो समुदेसो अणुण्णा अगुओगो य पवत्त ॥ सू० २ ॥
छा । तत्र चत्वारि ज्ञानानि स्थाप्यानि स्थापनीयानि नो उद्दिश्यन्ते, नो समुद्दिश्यन्ते, नो अनुज्ञाप्यन्ते । श्रुतज्ञानस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते।सू०२।
टीका-'तत्य बत्तारि' इत्यादि
तत्र-तेषु पञ्चविधेषु ज्ञानेषु चत्वारि-चतुःसंग्ख्यकानि ज्ञानानि आमिनिबोविकाध्यमिनःपर्यवकेवलरूपाणि अंक हार्याणि-न व्यवहाराहा॑णि 'ठप्पाई' स्थाप्यानि उद्देशसमुद्देशाद्यसरे अत एव 'ठवणिज्जाइ' स्थापनी यानि अनधिकृतानि । न तेषामुद्देशादयः क्रियन्ते इति भावः ।
अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि पांच प्रकार के जो ये ज्ञान हैंइनमें श्रुझान का ही उद्देश, समुद्देश आदि के अवसर में अधिकार है दसरे चार ज्ञानों का नहीं-- “त्य चत्तारि"-इत्यादि । ॥ २॥
शब्दार्थ:-(त्य) इन पूर्वोक्त पांच प्रकार के ज्ञानों में (चत्तारि नाणाई) चार प्रसार के ज्ञान-मति-अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान-(ठप्पाइ) उद्देश, समुद्देश आदि के अवसर में व्यवहारयोग्य नहीं हैं । क्यों कि ये गुरु के उपदेश की अपेक्षाबाले नहीं हैं। इसलिये (ठवणिज्जाई) ये स्थापनीय हैंअर्थात् इनके उद्देश आदि नहीं-किये गये हैं । इस विश्य में ऐसा जानना चाहिये कि श्रुतज्ञान ही वाचना आदि द्वारा अपने विषयभूत पदार्थों में
હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરે છે કે પાંચ પ્રકારના જે જ્ઞાન છે તેમાંથી શ્રુતજ્ઞાનનો જ ઉદ્દેશ, સમુદેશ આદિને અવસરે અધિકાર છે-અન્ય ચાર જ્ઞાનેને નથી. __ "तत्थ चत्तारि" त्या
शा-(तत्थ) पूठित पांय ४२i ज्ञानामांथी (चत्तारि नाणाई) यार પ્રકારનાં જ્ઞાન એટલે કે મતિજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન, મનઃ પર્યવજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન (ठप्पाई) हेथ, समुदेश माहिना ५१सरे व्यवहारयोग्य नथी. ४१२५ यारे ज्ञानभा गुरुना 6५देशनी अपेक्षा २रेती नथी, तेथी (ठवणिज्जाइ) ते थारे ज्ञान સ્થાપનીય છે. એટલે કે તેમના ઉદ્દેશ આદિ કરવામાં આવેલ નથી આ વિષયને અનુલક્ષીને એવું સમજવું જોઈએ કે શ્રુતજ્ઞાન જ વાચના આદિ દ્વારા પિતાના
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. मू० २
इदमत्राबधेयम्-श्रुतज्ञानमेव हि वाचनादिना साक्षात् प्रवर्तकं च अन्यानि तु यद्यपि पदार्थानां स्वरूपमववोध्यन्ति, तथापि श्रुतज्ञानमाश्रित्य साक्षात् प्रवर्त्तयितुं निवर्तयितु वा न समर्थानि, तस्मादिह तेषां नाधिकार इति । उक्तमेवार्थ विशदयन्नाह-णो उहिस्मंति' इत्यादि । नो उद्दिश्यन्ते शिष्येभ्यो नोपदिश्यन्ते । नो समुद्दिश् न्ते- एतानि स्थिरपरिचितान कुरु इत्येवंरूपण एतानि चत्वारि ज्ञानानि गुरुमिः शिष्ान् प्रति नोपदिश् न्ते, अत एव एतानि नो अनुज्ञाप्यन्ते-'एतानि सम्म गवधारय, अन्य श्वापि अध्यापर' इत्येवं रूपेण एतानि शिष्यान् प्रति नानुमोद्यन्ते ।
अथा-आभिन्बिोधिज्ञानम्. अवधीनि च ज्ञागनि स्थाप्यानि गुर्वनधीनत्वेनी देशाद्यविषयाणि, अतः स्थापनीयानि-अव्याख्येयानि । श्रुतज्ञानं तु साक्षात् प्रवर्तक होना हैं। ५ द्यपि अन्य ज्ञान भी पदार्थों के स्वरूप का बोध कराते हैं, परन्तु वे श्रुतज्ञान का आश्रय लिये विना अपने विषयभूत हेयोपादेय विषय से न साक्षात् हप में निवर्तक होते हैं, और न उसमें प्रवर्तक होते हैं । इसलिये उन ज्ञानों का यहां उश समुश आदि में विचार नहीं दिया गया है। इसी अर्थ को सूत्रपार विशद रूप से विवेचन करने के लिये कहते हैं कि (णो उदिसंति णो समुरिसंति) ये चार ज्ञान गुरुजनों द्वाग शिप्यों के लिये उपदिष्ट नहीं होते हैं और न गुरूजन उसे ऐसा कहते हैं। कि तुम इनका स्थिररूप से परिचय वरों (णो अणुण्ण विनंति) इन्हें अच्छी तरह से निश्चित कर हृदग में धारण करो तथा दूसरों को भी इन्हें पढाओ अथवा-ये आभिनिबोधिक और अवधि आदि ज्ञान स्थाप्य है-गुरुजनों के ये आधीन नहीं हैं इस कारण उद्देश आदि विषयभृत नहीं हैं इसलिये स्थापनीय વિષયભૂત પદાર્થોમાં સાક્ષાત પ્રવર્તક અને નિવર્નાક હોય છે. જો કે અન્ય જ્ઞાન પણ પદાર્થોના સ્વરૂપને બોધ કરાવે છે ખરાં, પરંતુ તેઓ શુતજ્ઞાનને આધાર લીધા વિના પિતાના વિષયભૂત હેયોપાદેય વિષયથી સાક્ષાત રૂપે નિવત્ત પણ હોતાં નથી. અને તેમાં પ્રવર્તાક પણ હે તાં નથી. તેથી તે જ્ઞાનેને અહીં ઉદેશ સમુદેશ આદિમાં વિચાર કરવામાં આવ્યું નથી. એજ વિષયનું વિશદરૂપ વિવેચન કરવા નિમિત્તે સૂત્રકાર કહે છે કે
(णो उद्दिसति णो समुहिति) ते या२ शान शुरुनः दा शिष्याने ઉપઢિષ્ટ થતાં નથી, અને ગુરુજન તેમને એવું પણ કહેતા નથી કે તમે તેમનો स्थि२ ३पे पश्यिय ४२।, (णो अणुण्णविज्जति) तभने सादी त य ७५.न હૃદયમાં ધારણ કરે તથા અન્યને પણ તેનું અધ્યયન કરો. અથવા-આભિનિબોધક, અવધિજ્ઞાન અને કેવળજ્ઞાન સ્થાય છે, તે ચાર જ્ઞાને ગુરૂજનને
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अनुयोगहारसत्रे अनेकार्थत्वादतिगम्भीरत्वाद् विविधमन्त्राधतिशयसम्पन्नत्वाच्च गुरूपदेशसापेक्षम्, अत एव गुरोरन्तिके उद्देशादिविधिना परमा ल्याणकारि श्रुतमेव गृह्यते । जानिनिबोधिकादीनि तु तत्तदावरणीयकर्मक्षयक्षयोपशमाभ्यां रवत एव जायते, न तु उद्देशादिक्रम्मपेक्षन्ते । अत एर-आभिनिवोधिकस्य अवध्यादीनां च उद्देशादो न क्रियन्ते, किन्तु श्रुतज्ञानस्य उद्देशः उद्दिश्यते इत्युद्देशः इदमयनादि त्वया पठितव्यमिति गुरोरुपदेशरूपं वचनम् । समुद्देशः='इदमधीतसूत्रादिकं स्थिरपरिचितं कुरु' इति गुरोरुपदेशवचनम् । अनुज्ञा-'इदं धारय अन्यांश्च अध्यापयेति हैं -अव्याख्येय हैं । परन्तु जो श्रुतज्ञान है वह तो अनेक अर्थवाला होने से, अति गंभीरता युक्त होने से, और विविध प्रकार के मंत्रादिकों के अतिशय मे समन्वित होने से गुरुजनों के उपदेश की अपेक्षावाला है। इसलिये गुरु ज। के समीप उद्देश आदिरूप विधिपूर्वक परम कल्याणकारी श्रुत ही ग्रहण किया जाता है । अवशिष्ट जो आभिनिबोधिक आदिक ज्ञान हैं वे तो अपने २ आवरणीय कर्म के क्षयोपशम और क्षय से स्वतः ही आविर्भूत हो जाया करते हैं। ये उद्देश, समुद्देश आदिरूष क्रम की अपेक्षा अपनी आविर्भूतिउत्पत्ति में नहीं रखते हैं। इसलिये आभिनिबोधिक ज्ञान और अवधिज्ञानों के उद्देश आदि नहीं किये जाते हैं। किन्तु जो (सुयनाणस्स) श्रुतज्ञान हैउसका ही (उद्देसो) उद्देश-इस अध्ययन आदि-को तुम्हें पढना चाहिये इस प्रकार का गुरु का उपदेशरूप वचन. (समुद्देसो) समुदेश-ये पठित सूत्रादिक वि मृत न हो जावे इसलिये इन्हें स्थिररूप से परिचित करो बार २ इनका पाठ करो इस प्रकार का गुरु का उगदेशरूपवचन (अणुण्णा) अनुज्ञा हृदय આધીન નથી, તે કારણે તે ચારે જ્ઞાન ઉદેશ આદિના વિષયભૂત નથી. તેથી તે ચારે જ્ઞાનેને સ્થાપનીય-અવ્યાખ્યય કહેવામાં આવેલ છે. પરન્ત શ્રતજ્ઞાન તે અનેક અર્થવાળું હોવાથી, અતિ ગંભીરતા યુકત હોવાથી, અને વિવિધ પ્રકારના મંત્રાદિકના અતિશથી સમન્વિત (યુકત) હેવ થી ગુરુજનોના ઉપદેશની અપેક્ષાવાળું છે. તે કારણે ગુરુજનોની સમીપે ઉદ્દેશ આદિરૂપ વિધિપૂર્વક પરમ કલ્યાણકારી શ્રત જ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. બાકીના આભિનિબોધક આદિ જે ચાર જ્ઞાને છે તે તે પિત પિતાના આવરણીય કર્મના પશમ અને ક્ષયથી પિતાની જાતે જ અવિભૂત (પ્રકટ) થઈ જાય છે. તે ચારે જ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં આ ઉદેશ સમુદંશ આદિરૂપ કમની અપેક્ષા રહેતી નથી. તેથી આભિનિબોધિક જ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાન આદિ ज्ञानाना उद्देश ४२पामा मापता नथी. परतुरे (सुयनाण स उद्देसो) श्रुवज्ञान छ. तेन ॥ ७देश, (समुद्देस) समुदेश, (अणुण्णा) मनुज्ञा (अणुओगा य) भने अनुयो। (पवत्तइ) डाय छ-मन्य ज्ञानाना थ, सभुश मा6ि Bाता थी.
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बालिका टीका-म. २ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् शिष्यं प्रति शुरोरुपदेशवचनम् । अनुयोगः-भगवदुक्तानुरूपता च प्रवर्तते । श्रुतज्ञानस्यैव उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च भवति, नान्येषामितिभावः सू०२॥
मूलम्-जइ सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो म पवत्तइ किं अंगपविट्रस्स उद्देसो समुद्दे सो अणुग्णा अणुओगो य पवत्तइ ? किं अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसोअणुण्णा अणुओगो में इनका धारणरूप संस्कार जमाओ, और दूसरों के लिये इन्हें पढाओं इस प्रकार का गुरु का उपदेशरूपरचन, (अणुओगी य) और अनुयोग भगवदुक्तानुरूपता (पवत्तइ) ये सब होते हैं । अन्य ज्ञानों के नहीं।
___ भावार्थ-शुतज्ञान के अतिरिक्त अवशिष्ट चार ज्ञानों में उदेश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग ये चार बातें नहीं होती हैं । क्यों कि इन ज्ञानों में गुरु के उपदेश से जन्यत्व की अपेक्षा नहीं हैं। ये तो अपने २ आवरणकर्मों के क्षय क्षयोपशम के अनुसार उत्पन्न होते हैं। यद्यपि तज्ञान भी अपने आवरणकर्म के क्षयोपशम से ही उत्पन्न होता है-फिर भी उस में गुरु पदेश की अपेक्षा से जन्यता मानी गई है। अतः उसमें उद्देश आदि होते हैं। ॥मू०२॥
આ અધ્યયન આદિને તમારે અભ્યાસ કરવો જોઈએ, આ પ્રકારના ગુરુના ઉપદેશરૂપ વચનને ઉદ્દેશ કહે છે. આ પઠિત સૂત્રાદિ ભૂલી ન જવાય તે માટે સ્થિર ચિત્તે તેમને પરિચય કરો. વારંવાર તેને પાઠ કરે, આ પ્રકા | ગુરુના વચનને સમુદેશ કહે છે.
હૃદયમાં આ સૂત્રને કદી પણ વિસ્મૃત ન થાય એવી રીતે ધારણ કરો અને અન્યને તેનું અધ્યયન કરાવે, આ પ્રકારના ગુરુના ઉપદેશરૂપ વચનને અનુજ્ઞા કહે છે.
ભગવદુતાનુરૂપતાને અનુગ કહે છે.
ભાવાર્થ-શ્રુતજ્ઞાન સિવાયના જે ચાર શાને છે તેમાં ઉદ્દેશ, સમુદ્શ, અનુજ્ઞા અને અનુયોગને-(આ ચાર વાતને) સદુભાવ હોતું નથી, કારણ કે તે જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ ગુરુના ઉપદેશને લીધે સંભવી શકતી નથી. તે ચાર જ્ઞાનેની ઉત્પત્તિ તે ત્યારે જ થાય છે કે જયારે તે પ્રત્યેક જ્ઞાનના આવારક કર્મોને ક્ષયપશમ અથવા ક્ષય થઈ જાય છે. કેવળજ્ઞાનની ઊત્પત્તિ ત્યારે જ થાય છે કે જયારે જ્ઞાનાવરણીય કર્મોને સંપૂર્ણતઃ ઉપશમ થવાથી જ તે જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. જો કે થતજ્ઞાન પણ તેનું આવરણ કરનારા કર્મના ક્ષેપશમથી જ ઊત્પન્ન થતું હોય છે. છતાં પણ તેમાં ગુરુના ઉપદેશની અપેક્ષાએ જન્યતા માનવામાં આવી છે. તેથી જ શ્રુતજ્ઞાનમાં ઉદેશ સમુદેશ આદિને સદ્ભાવ રહે છે. સૂ. ૨
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अनुयोगद्वारसूत्रे य पवत्तइ ? अंगपविठुस्स वि उद्देसो जाव पवत्तइ, अणंगपविटुस्स वि उद्देसो जाव पत्तवइ । इमं पुण पटवणं पडुच्च अणंगपविटुस्स अणुओगो ॥ ३॥
छाया-यदि श्रुतज्ञानस्य उद्देशः, समुद्देशः, अनुज्ञा. अनुयोगश्च प्रवर्तते किम् अङ्गप्रविष्टस्य उद्देशः, समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते १ किम् अङ्गबाह्यस्य उद्देशः समुद्देशः अनुज्ञा, अनुयोगश्च प्रवर्तते ? अङ्गप्रविष्टस्यापि उद्देशो यावत् प्रवर्तते, अनङ्गप्रविष्टस्यापि उद्देशो यावत् प्रवर्तते । इदं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्य अनङ्गप्रविष्टस्य अनुयोगः ॥सू० ३॥ _
टीका-'जइ सुयनाणस्स' इत्यादि
यदि श्रतज्ञानस्य उशः समुद्देशः अनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते तर्हि स उद्देशादिः किम् अङ्गप्रविष्टस्य-द्वादशाङ्गान्तर्गतस्याचाराङ्गादेः प्रवर्त्तते, किं वा अनङ्गप्रविष्टस्य-अङ्गबाह्यस्य दशवकालिकादेः प्रवर्तते ? इति शिष्यप्रश्नः। गुरुरुत्तरयति-'अंगप्पविदुरस वि' इत्यादिना। हे शिष्य ! अङ्गप्रविष्टस्यापि उद्देशो
"जइ सुयनाणस्स" इत्यादि
शब्दार्थ-(जइ) यदि (सुयनाणस्स) श्रुतज्ञान में (उद्देसो) उद्देश (समुद्देसो) समुद्देश, (अणुष्णा) अनुज्ञा (य) और (अणुओगो) अनुयोग इन की (पत्तइ) प्रवृत्ति होती है तो (कि) क्या (अंगपविट्ठग्स) जो अंगप्रविष्ट श्रृंत है उसमें (उदेसा) इन उदेश, (समुद्देसो) समुहेश, (अणुष्णा) अनुज्ञा (य) और (अणुओगो) अनुयोग की (पवत्तइ) प्रवृत्ति होती है ? क्या अथवा जो (अंगबाहिरग्स) अंग बाह्य श्रुतज्ञान है उसमें (उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ) उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग इनकी प्रवृत्ति होती है क्या ? उनर-(अंगपविट्ठरस) अंग प्रविष्ट जो आचाराङ्गादि श्रुत है उनमें (वि) भी (उद्देसो य जाव
"जइ सुयनाणस्स" त्यile
शहाथ- (जइ) ले (सुयनाणग्स) श्रतज्ञानभा (उद्देसो) देश, (समुद्देसो) सभुश, (अणुण्णा) अनुज्ञा (य) भने (अणुओगो पवतई) मनुयोगनी प्रवृत्ति (समाय) थाय छ, त(किं अंगप विस्त) शु२ मगप्रविष्ट श्रुत छ तमा (उद्देसो, समुद्देसो, अणुण्णा य अणुओगो पवत्तइ) से श, समुश, मनुज्ञा भने अनुयोगनी प्रवृत्ति थाय छ ? रे (अंगबाहिरस्स) A140 श्रुतज्ञान छ तभा (उद्देसो, समुद्देसो अणुण्णा अनुओगा य पवत्तइ) देश, सभुश, अनुशा અને અનુયાગની પ્રવૃતિ થાય છે?
त२-(अंगपविदास वि उसो जाव पवत्तइ) माया मारे भग
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ४ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् यावत् प्रवत्त ने, अनङ्गप्रविष्टम्यापि च उ शो यावत् प्रवर्तते । अत्र शास्त्रे पुनः इदं प्रस्तुतं प्रस्थापनं-प्रारम्भं प्रतीत्य आश्रित्य अनङ्गप्रविष्टम्य अनुयोगः प्रवर्तते।सू.३ __ मूलम्-जइ अणंगपविटुस्स अणुओगो, किं कालियस्स अणु. ओगो ? उक्कालियस्त अणुओगो ? । कालियस्त वि अणुओगो, उक्कालियस्स वि अणुओगो । इमं पुणपटुवणं पडुच्च उकालियस्स अणुओगो ॥ सू० ४॥
छाया–यदि अनङ्गप्रविष्टम्य अनुयोगः, किं कालिकम्य अनुयोगः ? उत्कालिकम्यानुयोगः ? कालिकस्यापि अनुयोगः, उत्कालिकस्यापि अनुयोगः । इदं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्य उत्कालिकस्यानुयोगः ॥ मू० ४ ॥
टीका-'जइ' इत्यादि
यदि अनङ्गप्रविष्टस्य अनुयोगः किं कालिकस्यानुयोगः ? किं वा उत्कालिकम्यानुयोगः ? इति शिष्यप्रश्नः । तत्र-कालेन निर्वृत्तं कालिकम् । काले प्रथमपविनइ] इन उद्देश समुदेश आदि की प्रवृत्ति होती है, तथा "अणंगपविट्टस्स वि जा' अनंग प्रविष्ट दशवकालिक आदि मत्र हैं उनमें भी (उद्देसो जाव पवत्तइ) उद्देस आदि की प्रवृत्ति होती है। (इमं पुण पट्टवणं पडुच्च) इस शास्त्र में यह प्रारंभ की अपेक्षा लेकर अनंग प्रविष्ट में अनुयोग प्रवर्तित होता है ऐसा कहा गया है । ।सूत्र३॥
"जइ अणंगपविट्टस्स इत्यादि ।"
शब्दार्थ-(जइ) यदि (अगंगपविष्टस्स अणुअंगो) अनंग प्रविष्ट श्रत में अनुयोग की प्रवृत्ति होती है तो (कि) क्या (कालियस्स अणुओगो ?) कालिक में अनुयोग प्रवृत्ति होती है क्या ? या (उक्कालियस्स अणुओगो) उत्कालिक પ્રવિણ શ્રત છે તેમાં ઉદ્દેશ, સમુદૃશ, અનુજ્ઞા અને અનુગ પ્રવર્તે છે, તથા (अणंगपविठ्ठास वि उदेसो जाव पवत्तइ) ४३ सिट मारे मन प्रविष्ट શ્રત છે તેમાં પણ ઉદ્દેશ, સમુદ્રશ, અનુજ્ઞા અને અનુગ પ્રવર્તે છે. આ રીતે અંગપ્રવિષ્ટ અને અંગબાહ્ય, એ બન્ને પ્રકારના શ્રતમાં ઉદ્દેશ આદિ ચારેનો સદભાવ समावा. (इमं पुग पट्टवणं पडुच्च) मा शमां प्रारमनी अपेक्षाये थे કહેવામાં આવ્યું છે કે અનંગ પ્રવિષ્ટ કૃતમાં અનુયોગની પ્રવૃતિ થાય છે. સુ. ૩
"जइ अणंगपविठ्ठग्स" त्या- ॥ सू. ४ ॥
शहाथ-प्रश्र (जइ अणंगाविट्ठस्स अणुओगो) ने मन प्रविष्ट श्रुतमा अनु. योनी प्रति थाय छ, त (किं कालियस्स अणुओगा ?) शु ४ श्रुतमा
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अनुयोगद्वार में चरमपौरुषीलक्षणे अस्वाध्यायकालं विहाय पठ्यते यत् तत्कालिकम् । तच्च उत्तरा ध्ययनादिकं, यदिह दिवसरात्र प्रथमचरमपौरुषीद्वये एव पठ्यते । उर्ध्व कालात् पठ्यते, इत्युत्कालिकम् । अस्वाध्यायकालं विहाय दिवसे रात्रौ च सर्वस्मिन् यामे यत् पठ्यते तदुत्कालिकमित्यर्थः कालिकसूत्राणि - (१) उत्तराध्ययन – (२) दशाश्रुतस्कन्ध - ( ३ ) बृहत्कल्प - ( ४ ) व्यवहार - ( ५ ) निशीथ - ( ६ ) जम्बू द्वीपप्रज्ञप्ति - ( ७ ) चन्द्रप्रज्ञप्ति - (८) निरथावलिका - ( ९ ) कल्पावर्तसिका - (१०) पुष्पिता (११) पुष्पचूलिका - ( १२ ) वृष्णिदशादीनि अङ्गबाह्यानि, आचाराङ्गादीनि में अनुओग की प्रवृत्ति हाती है ? ( कालियस्स वि अणुओगा उक्कालियस्स वि अणुओगे ) उत्तरः- कालिकका भी अनुयोग होता है और उत्कालिक का भी अनुयोग होता है । (इमं पुण पठवणं पडुच्च उक्कालियस्स अणुओगो) इस शास्त्र में यह प्रारंभ की अपेक्षा लेकर उत्कालिक का अनुयोग कहा है ।
भावार्थ – अनंग प्रविष्ट श्रुत के अनेक भेद कहे गये हैं- उनमें कालिक उत्कालिक त है । प्रथम पौरुषी और अन्तिम पौरुषीरूप काल में जो अस्वा ध्यायकाल को छोडकर पढा जाता है. वह कालिक श्रुत है । जैसे- उत्तराध्यय १, दशाश्रुतस्कंध २, बृहत्कल्प ३, व्यवहार ४, निशीथ, ५ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति ६, चन्द्रप्रज्ञप्ति ७, निरयावलिका ८, कल्पावतंसिका ९, पुष्पिता १०, पुष्पचूलिका ११, वृष्णिदशा आदि ये सब अंगबाह्य श्रुत है वे कालिक श्रुत हैं । तथा आचारांअनुयोगनी प्रवृति थाय छे, 3 ( उक्कालियरस अणुओंगा) उत्जसि श्रतमां अनु ચાગની પ્રવૃતિ થાય છે ?
Ga२ - ( कालियरस वि अणुओगा उक्कालियास वि अणुओगो) मतिः श्रुतभां પણ અનુયાગની પ્રવૃતિ થાય છે અને ઉત્કાલિક ધ્રુતમાં પણ અનુયાગની પ્રવૃતિ થાય છે, (इमं पुण पट्टणं पहुच उक्कालियरस अणुओगा) या शास्त्रभां आ प्रारंभनी અપેક્ષાએ ઉત્કાલિકના અનુયાગ કહ્યો છે.
ભાવા—અન’ગ પ્રવિણ શ્રુતના અનેક ભેદ કહ્યા છે. તેમાંના બે ભેદો આ प्रमाणे छे- (१) असिपुश्रुत भने (२) उत्असिङ श्रुत.
પહેલી પૌરૂષી (પહેલા પ્રહર) અને છેલ્લી પૌરૂષી (છેલ્લા પ્રહર)રૂપ કાળમાં અસ્વાધ્યાયકાળ જે કહ્યો છે તેટલા કાળને છેડીને, જેનું અધ્યયન કરવામાં આવે છે, એવા શ્રુતને કાલિક શ્રુત કહે છે. કાલિક શ્રુત નીચે પ્રમાણે કહ્યાં છે
(१) उतराध्ययन (२) शाश्रुतरसुध, (3) बृहत्म्य, (४) व्यवहार, (च) निशीथ (६) ४ जूही पत्र ज्ञसि, (७) यन्द्रयज्ञप्ति, (८) निश्यावसिअ (2) उदयावत सिा, (१०) પુષ્પિતા, (૧૧) પુષ્પચૂલિકા (૧૨) વૃષ્ણુિદશા વગેરે જે અંગમાહ્ય શ્રુત છે તેમના કાલિકાતમાં સમાવેશ થાય છે, તથા આચારાંગાદિ જે ૧૧ અંગ છે તેમના પશુ
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सू० ४ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् एकादशोङ्गानि च। इोऽतिरिक्तान्यपि का लम्सूत्राणि नन्दिसूत्रे निर्दिष्टानि सन्ति, विच्छिन्नत्वान्नेह तानि निर्दिश्यन्ते । उत्कालि कसूत्राणि-(१) दशवैकालिको(२) पपातिक-[३] राजप्रश्नीय-(४) जीवाभिगम-(५) प्रज्ञपना(६)-नन्दीमत्रा[७] नुयोगद्वारा-८) वश्यक-९) सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्राणि । इतोऽन्यान्यप्युत्कालिकसूत्राणि नन्दिसूत्रे निर्दिष्टानि सन्ति, विच्छिन्नत्वान्नेह तानि निदिन्ते । उत्तर यति-कालिकस्याऽप्यनुयोग', उत्कालिकस्याप्यनुयोगः । पुनरत्र शास्त्रे इदं प्रस्तुतं प्र.थापनं प्रारम्भं प्रतीत्य आश्रित्य, उत्कालि स्यानुयोगः ॥ सू० ४ ॥
मूलम्-जइ उकालियस्त अणुओगो, कि ओवस्सगस्त अणुओगो? आवस्सगवइरित्तस्स अणुओगो ? आवस्सगस्त वि अणुओगो, गादि जो ११ अंग हैं ये भी कालिकश्रुत हैं । इन से अतिरिक्त और भी कालिक सूत्र हैं जिनका कथन नंदित्र में किया गया है । विच्छिन्न हो जाने के कारण हम उन्हें यहां निर्दिष्ट नहीं करते हैं । (१) दशवैकालिक, (२) औपपातिक, (३) राजप्रश्नीय (४) जीवाभिगम, (५) प्रज्ञापना (६) नंदीसूत्र (७) अनुयोगद्वार (८) आवश्यक, (९) सूर्य प्रज्ञप्तिसूत्र, ये सब उकालिकमूत्र हैं। इनसे अतिरिक्त और भी उत्कालिक सूत्र है। जिन्हें नंदिसूत्र में निर्दिष्ट किया गया है, परन्तु वे सब विच्छिन्न हो चुके हैं अतः हम उन्हें यहां प्रकट नहीं करते हैं । उत्कालिक सूत्र अस्वाध्यायकाल को छोडकर दिन में और रात्रि में जब चाहे तब हरएक समय में पढे जाते हैं। इस शास्त्र में उत्कालिक का अनुयोग ही प्रस्तुत होने से प्रकट किया गया है । ॥सूत्र ४॥ કાલિકશ્રતમાં જ સમાવેશ થાય છે, તે સિવાય બીજા કેટલાક કાલિકસૂત્રો પણ છે, જેમનું કથન નક્કિસૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. તે સત્રો વિચ્છિન્ન થઈ ગયેલા હેવાથી અહીં તેમને નિર્દેશ કરવામાં આવ્યો નથી.
હવે ઉત્કાલિક સૂત્રોનાં નામ આપવામાં આવે છે–
(१) ६शवैलिड, (२) भोपाति, (3) राप्रश्नीय, (४) लिम, (५) प्रज्ञापना, (6) नन्दिसूत्र, (७) मनुयोगद्वा२, (८) मावश्य४सुत्र अने () सूर्यપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર, આ બધાં સૂત્રે ઉલ્કાલિક શ્રતમાં સમાવેશ થાય છે. આ સિવાય બીજા કેટલાક ઉત્કાલિક સૂત્રે છે, જેમનાં નામ નન્તિસૂત્રમાં આપવામાં આવ્યાં છે. પરન્તુ તે સૂત્ર વિચ્છિન્ન થઈ ગયેલાં હોવાથી તેમનાં નામે અહીં પ્રકટ કર્યા નથી. અસ્વાધ્યાય કાળ સિવાયના કોઈ પણ કાળે-દિવસે અથવા રાત્રે, જ્યારે ઈચ્છા થાય ત્યારે ઉત્કાલિકસૂત્રોનું અધ્યયન થઈ શકે છે. આ શાસ્ત્રમાં ઉત્કાલિકને અનુગ જ પ્રસ્તુત હોવાથી પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. જે સુપ્ર ૪ છે
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રૂટ
अनुयोगद्वारवत्रे
आवस्सगवइरितस्स वि अणुओगो ! इमं पुण पटुवणं पडुच्च आवस्सस्स अणुओगो ॥ सू० ५ ॥
छान - यदि उत्कालिकस्य अनुयोग, किमावश्यकस्य अनुयोगः ? आवश्यकव्यतिरिक्तस्य अनुयोगः ? आवश्यकस्यापि अनुयोगः, आवश्यक व्यतिरिक्तस्थापि अनुयोगः । इदं पुनःप्रस्थानं प्रतीत्य आवश्यकस्य अनुयोगः | ० ५|| टीका- 'जइ' इत्यादि
यदि उत्कालिकग्य अनुयोगः किमावश्यकस्य अनुयोगः ? आवश्यक व्यतिरिक्तस्य वाऽनुयोगः ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति - 'आवस्सगस्स वि' इत्यादिना । अनुयोग आवश्यकस्यापि भवति, आवश्यकव्यतिरिक्त स्यापि भवति ।
" जइ उक्कालिय स" इत्यादि ।
शब्दार्थ - (इ) यदि ( उक्कालिय स ) उत्कालिक श्रुत का (अणुओगो) अनुयोग होता है तो (क) क्या ( आवस्सग स अणुओगे ?) आवश्यक का अनुयोग होता है ? या ( आव सगवइरित्तस्स अणुओगो) आवश्यक से व्यतिरिक्त का अनुयोग होता है ? उत्तर - ( आवस्सगस्स वि अणुओगे) आवश्यक का भी अनुयोग होता है । और ( आब सगवइरित्त स वि अणुओगो) जो आवश्यक से भिन्न है उनका भी अनुयोग होता है । (इमं पुण पडवणं पडुच्च आव सगस्स अणुओगो) इस शास्त्र में यह प्रारभ की अपेक्षा लेकर आवश्यक का अनुयोग कहा है ।
भावार्थ - शिष्य पूछ रहा है कि हे भदंत ! यदि उत्कालिक श्रुत का अनुयोग होता है तो किस उत्कालिक श्रुत का - आवश्यक का या आवश्यक
" जइ उकालियम्स " छत्याहि
शब्दार्थ — प्रश्न – (जइ उक्कालियस्स अणुओगो) ले हासिश्रुनो अनुयोग थाय छे, तो (किं आवस्सगस्स अणुओगो) शु आवश्यना अनुयोग थाय छे! (आवरसगसग इरितग्स अणुओगो ?) मावश्याथी भिन्न होय मेवां श्रुतनो અનુયાગ થાય છે.
उत्तर- (रसगस्स वि अणुओगो) भावस्यानो पशु अनुयोग थाय छे, भने (सगवइरित व अणुओगो) ने भावश्यम्थी भिन्न छे तेभनो पशु अनु योग थाय छे. (इमं पुण पट्टवणं पडुच्च आवरसगस्स अणुओगो) आशास्त्रमां आ મારભની અપેક્ષાએ આવશ્યકના અનુયોગ કહ્યો છે.
ભાવા —શિષ્ય અહીં એવા પ્રશ્ન પૂછે છે કે “હે ભગવન્ ! જે ઉત્કાલિક શ્રુતના અનુયાગ થાય છે, તેા કયા ઉત્કાલિક શ્રુતના અનુયાગ થાય છે ૧ શુ આવશ્યકના અનુયોગ થાય છે ૧ કે આવશ્યક સિવાયના જે ઉત્કાલિક શ્રુત છે ?તેમના અનુયાગ થાય છે ?’’
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. ४ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् पुनरत्र शाखे इदं-प्रस्तुतं प्रग्थापनं-प्रारम्भं प्रतीत्य-आश्रित्य आवश्यक-य-भ्रमणैः श्रावकश्चोभयकालमवश्यकरणीयस्य सामायिका दिपडध्ययनात्मकस्य सकलसामाचारीमूलस्यावश्यकसूत्रस्यानुयोगः प्रवर्तते । यद्यप्यावश्यकत्रे उद्देशसमुद्देशानुज्ञा वर्त्तन्ते तथाऽप्यत्र सूत्रे उद्देशा दकं त्रयं विहायानुयोग एवाधिक्रियते, तस्यावसरप्राप्त त्वात् । अनुयोगग्य वक्तव्यताचैवम्
“निक्खेवेगट्ठ निरुत्ति विहीं, पवित्ती य केण वा कस्स ? ।
तदार भेयलवखण, तदरिह परिसा य सुत्तत्थो ॥" छाया-निक्षेप एकार्थों निरुक्तिः विधिः प्रकृत्तिश्च केन वा करय ।
तद्द्वाराणि भेदा लक्षणं, तदर्हा परिपच्च सूत्रार्थः ॥इति।।
अ या व्याख्या-निक्षेपः नामस्थापनादिकः। एकार्थः-पर्यायः-अनुयोगो से अतिरिक्त का-तब उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि इन दोनो का भी अनुयोग होता है। यहां पर उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा का कथन कर के सूत्रकार ने जो आवश्यक में केवल अनुयोग का कथन किया है वह अनुयोग को अवसर प्राप्त होने से किया है । यह आवश्यक साधु साध्वी और श्रावक श्राविका को प्रातः और सायंकाल दोनों समय अवश्य करने योग्य कहा गया है । सामायिक आदि के भेद से यह आवश्यक छह प्रकार का है। इसके ऊपर षड्ध्ययनात्मक एक स्वतन्त्र सूत्र रचा गया है-जिसका नाम आवश्यक सूत्र है । यह सकल सामाचारी का मूल कारण है । अनुयोग के विषय में वक्तव्यता इस प्रकार से है
"निक्खेवेगह इत्यादि" नाम स्थापना आदिरूप से अनुयोग का कहना यह अनुयोग का निक्षेप है । अनुयोग के पर्यायवाची शब्दों को कहना-जैसे
આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતાં આચાર્ય કહે છે કે “આ બન્નેને અનુગ છે ?”
અહીં ઉદ્દેશ, સમુદે શ અને અનુજ્ઞાનું કથન કરીને સૂત્રકારે આવશ્યકમાં કેવળ અનુયાગનું જ જે કથન કર્યું છે તે અનુયેગના પ્રાપ્ત અવસરની અપેક્ષાએ કર્યું છે. આ આવશ્યક સાધુ સાધ્વી, શ્રાવક અને શ્રાવિકાએ પ્રાતઃ અને સાયંકાળ, એ બન્ને સમયે કરવા ગ્ય કહેલ છે. સામાયિક આદિના ભેદથી આ આવશ્યક છે પ્રકારને કહ્યો છે. આ વિષયને અનુલક્ષીને છ અધ્યયનવાળું એક સ્વતંત્ર સૂત્ર રચવામાં આવ્યું છે. તે સૂત્રનું નામ “આવશ્યક સૂત્ર” છે. તે સકલ સામાચારીનું મૂળ કારણ છે. અનુગના વિષયમાં આ પ્રમાણે વકતવ્યતા છે,
“निक्खेवेग?" त्याहि-नाम, स्थापन। मा३ि५ अनुयोगनु ४थन यतेनु નામ અનુયેગને નિક્ષેપ છે. અનુગના પર્યાયવાચી શબ્દનું કથન કરવું-જેમ કે
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अनुबोगदारले नियोगो भाषा विभाषा वार्तिकं चैतेऽनुयोग पर्यायाः। निरुक्तः निर्वचनम् . सा
चैवम्-तीर्थङ्करप्ररू पितार्थस्य गणधरोक्तशब्दसमूहरूपसूत्रेण सह अनु अनुकूलो नियतो वा योगः सम्बन्धोऽनुयोगः । अनुयोगशब्दग्य विस्तृतव्याख्या-उपासकदशाङ्गसूत्रस्य मत्कृतायामगारधर्मसंजीवन्यां टीका विलोकनीया । विधिःसूत्रार्थव थन विधिः। तत्र-गुरुणा प्रथमं शिष्येभ्यः सूत्रार्थों वक्तव्यः । तदनु सोऽर्थों नियुक्तिमिश्रो वक्तव्यः । सूत्रे निर्युक्तानां-निश्चयेन युक्तानामेवार्थानां युक्तिपुररस मर्थः शिष्येभ्यो वक्तव्य इत्यर्थः । तत पुनरपि प्रसङ्गानुप्रसङ्गागतः सर्वोऽप्यर्थों वाच्यः। तदुक्तम्
"सुत्तत्थो खलु पढमो बीयो निजुत्तमीसिओ भणिओ ।
तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥" अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा, वार्तिक यह शब्द अनुयोग के पर्यायवाचक हैं। निरुक्तिपूर्वक अनुयोग का अर्थ कहना यह अनुयोग की निरुक्ति हैं। इस में तीर्थ करों द्वारा प्ररूपित अर्थ का गणधरोक्त शब्द समूहरूप सूत्र के साथ अनुकूल अथवा नियत संबन्ध प्रकट वरना होता है। सूत्रार्थ कह ने की पद्धति का नाम विधि हैं। इसमें सर्व प्रथम गुरु को शिष्य के लिये सूत्र का अर्थ सिखलाने का विधान है । बाद में उस शिक्षित अर्थ को नियुक्ति से मिश्रित कर शिष्य को सिखलोना चाहिये अर्थात् निश्चययुक्त पदार्थों का ही-अर्थात् वीतराग कथा से जिन पदार्थों का पदों के अर्थों का गुरु के द्वारा शिष्यने निश्चय कर लिया है ऐसे ही पदार्थों का युक्ति प्रदानपूर्वक शिष्य को और अर्थ कहना चाहिये, इसके बाद प्रसङ्ग अनुप्रसंग को लेकर
और भी जो २ अर्थ होता हो- उस सब को प्रष्ट करना चाहिये-इन सब અનુગ, નિગ, ભાષા, વિભાષા વાતિક, આ બધા પદ અનુયોગના પર્યાયવાચક શબ્દ છે. નિરૂકિતપૂર્વક અનુગને અર્થ કહે તેનું નામ “અનુગ નિરુકિત કર્વક અનુગને અર્થ કહે તેનું નામ “અનુગની નિરૂક્તિ” છે. તેમાં તીર્થકર દ્વારા પ્રરૂપિત અર્થનો ગણુધરેકત શબ્દસમૂહરૂપ સૂત્રની સાથે અનુકૂળ અથવા નિયત સંબંધ પ્રકટ કરવાનો હોય છે. ત્રાર્થ કહેવાની પદ્ધતિનું નામ વિધિ છે. તેમાં ગુરૂએ સૌથી પહેલાં તે શિષ્યને સૂત્રનો અર્થ શિખવા જોઈએ, એવું વિધાન છે. ત્યારબાદ શિખવવામાં આવેલા તે અર્થને નિયુકિતથી મિશ્રિત કરીને શિષ્યને શિખવો જોઈએ. એટલે કે નિશ્ચયયુક્ત પદાર્થોના જ [વીતરાગ દ્વારા પ્રરૂપિત જે પદાથેના પદના અર્થોના ગુરુની મદદથી શિવે નિશ્ચય કરી લીધો હોય એવાં જ પદાર્થોને) યુકિત પ્રદાનપૂર્વક જે કઈ બીજો અર્થ થતું હોય તે પણ શિષ્યને કહે જોઈએ, ત્યારબાદ પ્રસંગ અને અનુપ્રસંગને અનુલક્ષીને તેના બીજા જે જે અર્થ થતાં હોય તે સઘળાં અર્થ પણ પ્રકટ કરવા જોઇએ. આ બધી બાબતેને અનુગમાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् छाया-सूत्रार्थः स्खलु प्रथमो, द्वितीयो 'नयुक्तिमिश्रितो भणितः ।
तृतीयश्च निरवशेषः, एप विधिर्भवत्यनुयोगे ॥ इति ।
विस्तरतस् अन्यन्न । तथा अनुयोगाय प्रतः अत्र चत्वारी भङ्गाः । तत्र प्रथमो भना-उपमी गुरुरुयमी शिष्यः । द्वितीयो भा:-उद्यमी गुरुरमुधमी शिष्यः । दतीयो भङ्गः-अनुपमी गुरुरुपमी शिष्यः । चतुर्थो भगः-अतुपमी गुरुग्नुपनी शिष्यः अत्र-प्रथमभङ्गेऽनुयोगस्य सर्वथा प्राति भवति, चतुर्थभङ्गे तु सर्वथा नैप भवति। द्वितीय तृतीययोस्तु कदाचित् पनि भव त कदाचिन्नापि भवति । तथाऽनुयोगः केन कर्तव्यः ? इति प्रोच्यतेका अनुयोग में समाविष्ट है। यही बात तदुक्तं करके "सुत्तथी" इत्यादि-गाथा द्वारा पुष्ट की है। विधि संबन्धी विस्तार अन्य शास्त्रों में लिखा है। अतः जिज्ञासु जन इस विषय को वहां से जान लेवें अनुयांग की प्रवृत्ति में चार भंग हैं-वे इस प्रकार से हैं
उद्यमी गुरु उद्यमी शिष्य यह प्रथम भंग है । उद्यमी गुरु अनुद्यमी शिष्य यह द्वितीय भंग हैं। अनुधमी गुरु उद्यमी शिष्य यह तीसरा भंग है । अनुद्यमी गुरु अनुदमी शिष्य यह चौथा भंग है। इन में से जो प्रथम भंग है उसमें तो अनुयोग की सर्वथा वृत्ति होना निश्चित है। चौथे भंग में अनुयोग की ऋत्ति विलकुल नही होती है। द्वितीय और तृतीय भंग में अनुयोग की प्रवृत्ति कभी होती है और कभी नहीं भी होती है। सभावी शय छ । पात "सुरथो" याहि आयाम दारा पुष्ट ४ामा આવી છે. વિધિ સંબંધી વિસ્તૃત થન અન્ય શાસ્ત્રોમાં આપવામાં આવેલું છે, તે જિજ્ઞાસુ પાઠકેએ આ વિયનું વિશેષ કથન ત્યાંથી વાંચી લેવું જોઈએ. અનુગની પ્રવૃત્તિમાં નીચે પ્રમાણે ચાર ભાગાઓ (વિકલ) છે
(१) Gधभाशु३ भने भी शिष्य, मा पो मांगी छे. (२) उधमी शु३ भने निश्चमी शिष्य, मा मीन मांगी है. (3) मनुधभी शु३ अने भी शिष्य, बीन्न मांगे छ. (૪) અનુદ્યમી ગુરૂ અને અનુદ્યમી શિષ્ય, આ ચેાથે ભાંગે છે. છે.' આ ચાર વિકલ્પમાંથી જે પહેલો વિકલ્પ બતાવ્યો છે તે વિકલ્પ પ્રમાણેની પરિસ્થિતિમાં તે અgોગની પ્રવૃત્તિ થવાનું કાર્ય સર્વથા નિશ્ચિત જ હોય છે. ચોથા વિકલ્પમાં બતાવ્યા પ્રમાણેની જ્યારે પરિસ્થિતિ હોય છે, ત્યારે અચાગની પવૃત્તિ બિલકુલ ચાલી શકતી નથી. બીજા અને ત્રીજા વિકલ્પમાં બતાવેલી પરિસ્થિતિમાં કયારેક અનુગની પ્રવૃત્તિ સંભવી પણ શકે છે અને ક્યારેક નથી પણ સંભવી શકતી.
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अनुयोग मे
१
1
"देस कुल जाई रूबी, संहणणी, विइजुओ अणासंसी अविकत्थणो अमाई, थिरपरिवाडी पिचको ॥ १ ॥
१०
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जियपरितो जियनिदो, मज्जात्थी देसकालभावन्न् ।
१६
मानाविवदेसभासन्नू ।। २ ।।
१८
१५
आसन्नलद्ध पश्भी,
518
पंचविहे आवारे, मुली सुतत्थतदुभयविहिन्म् । आहरण हेउ उवणय, नय निज्णो गाहणाकुसलले ॥ ३ ॥ ससमयपरसमयविऊ, गंभीरो दित्सिमं सिबो सोमो । गुणसयकलियो जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं ॥ ४ ॥ छाया - देशकुलजातिरूपी संहननी, धृतियुतः अनाशंसी ।
अविकत्थनः आमायी, स्थिरपरिपाटी गृहीतवाक्यः || १ || जितपरिषद् जितनिद्रो मध्यस्थो देशकालभावज्ञः । आसन्नलब्धप्रतिभो नानाविधदेशभापाज्ञः ||२|| पञ्चविधे आचारे, युक्तः सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः । आहरणहेतूपन्य, नय निपुणो ग्राहणाकुशलः ॥ ३॥ स्वसमयपरसमयविद्, गम्भीरो दीप्तिमान् शिवः सोमः । गुणशतकलितो युक्तः, प्रवचनसारं परिकथयितुम् ॥४॥
"
गाथार्थः -- यो मुनिः देशकालकुल जातिरूपी - देश :-आर्यदेशः, कुलं-विशुद्धः पितृवंशः, जातिः = विशुद्रो मातृवंशः रूपं = शोभनाऽऽकृतिः स्तानि चत्वारि सन्त्यस्येति तथा भवति । अर्थाद् यः आर्यदेशोत्पन्नः, विशुद्धपितृमातृवंशोद्भवः, रूपवांश्च भवति । तथा संहननी = दृढसंहननवान् । दृढसंहननी हि
अब यह कहा जाता है कि यह अनुयोग किस प्रकार के विशेषणों से विशिष्ट मुनिजन द्वारा किया जाता है - " देसकुल जाई रुवी ” इत्यादि देश - जो मुनि आय देश में उत्पन्न हुआ हो (१) कुल जाति शुद्ध हो जिसका पितृवंश और जिसका मातृ वंश विशुद्ध हो ( २ ) रूप - आकार जिसका शोभन हों (३) संहननी - जो दृढ संहनन बाला हो ( ४ ) धृति युक्त- अति गहन भी अर्थ में जिसे किसी भी प्रकार की
હવે એ વાત પ્રક્રટ કરવામાં આવે છે કે કયા કયા ગુાથી (વિશેષણાથી) સપન્ન વિશિષ્ટ મુનિજના દ્વારા આ અનુયોગમાં પ્રવૃત્તિ થઈ શકે છે
"देसकुल जाई" ४: बां
(१) ने मुनि मायदेशमां उत्पन्न थयेशा होय, (२) हे भुनिना गुणभक्ति શુદ્ધ હાય-એટલે કે જેના માતૃવંશ અને પતૃવંશ વિશુદ્ધ હાય, (૩) રૂપ-જેમને महार (भाव) सुंदर हाय, (४) सडननी ने मुनि दृढ सडननवाजा हाय, (५)
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अपचन्द्रिका टीका-मु. ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
४३ व्यारूशनादौ न श्राम्यतीति भावः । धृतियुतः-धृतिः अतिगहनेष्वप्यथेषु निर्धान्तता, परीपहोपसर्गसहने निश्चलता च, तया युतः युक्तः । अनाशंसी-वखसत्कारावनाकाक्षी। अविकत्यनः आत्मश्लाघा बर्जितो नाति बहुभाषी वा। अमापी
पटवर्जितः। स्थिरपरिपाटी-स्थिरा अतिशयेन निरन्तराभ्यासतः स्थैर्यमापन्ना परिपाटी-अनुयोगकरणक्रमो यस्य स तथा । यद्वा-गुरुपरम्पराप्राप्तज्ञाननिर. न्तरपारकः। एतादृशो हि सूत्रमर्थ च न कदाचिदपि विपरीतं करोति । गृहीतवाक्य:-गृहीतं वाक्य-वचनं यस्य स तथा, आदेश्वचनवान् इत्यर्थः । तस्य हि अल्पमपि वचनं महार्थ मिव प्रतिभाति । मितपरिषद्-निता परिषद् येन स तश, महत्यामपि परिषदि यः क्षाभं नोपयाति । जितनिद्रः-जिता निद्रा येन स सथा, रात्रौ सूत्रमर्थं च चिन्तन निद्राधीनो न भवतीत्यर्थः । मध्यस्था पक्षपातवर्जितः । देशकालभाषज्ञः द्रव्यक्षेत्रकालभावज्ञानमम्पन्नः। आसन्नलब्धप्रतिमःभ्रान्ति न हो, तथा परीषह और उपसर्ग के सहने में जिसके निश्चिलता हो - (५) अनाशंसी-वस्त्र सत्कार आदि की जिसके आकांक्षा न हो (६) अविकत्थन आत्मप्रशंसा से जो रहित हो अथवा व्यर्थ का जा बहुत भाषण करने वाला न हो (७) अमायी-कपट भाव से जो रहित हो (८) स्थिर परिपाटी-जिसका अनुयोग करने का क्रम अतिशय निरन्तर अभ्यास के वश से स्थिरता को प्राप्त हो गया हो अथवा-गुरु परम्परा से प्राप्त ज्ञानका जो पाठक हो, (२) गृहीत पाक्य-जिसके वचन आदेय हों (१०) जित परिपत्-बडी भारी सभा में भी जो शाम को पास न हो, ११, जितनिद्रः-रात्रि में भी जो सूत्र और अब का चिन्तन करता हुआ निद्रा के पशषती नहीं होता हो १२, मध्यस्थ-पक्षपात से जो रहित हो १३, देशकाल भावज्ञ-जो देश, काल भाव का माता ષતિયુક્ત-અતિ ગહાન વિષયના અર્થ વિષે પણ જેમના મનમાં કોઈ પણ પ્રકારની ઘાનિ ન હોય. તથા પરીષહ અને ઉપસર્ગોની નિશ્ચલતાપૂર્વક જે સહન કરનારું હેય, ૬, અનાશસી વસ્ત્ર, સત્કાર આદિની આકાંક્ષાથી જેઓ રહિત હોય, ૭, અવિકલ્યન-જેઓ આત્મશ્લાઘાથી રહિત હોય અથવા નકામું લાંબું ચેડું ભાષણ કરનારા ન હેથ. ૮, અમારી- જેઓ કપટભાવથી-માયાથારીથી રહિત હોય, ૯, સ્થિરપરિપાટી નિરતર અભ્યાસને કારણે જેમને અનુગ કરવાને કમ સ્થિરતા યુકત બન્યું હોય, અથવા ગુરૂપરમ્પરાથી પ્રાપ્ત જ્ઞાનના જેઓ પાઠક હેય, ૧૦, ગૃહીતવાક્ય-જેમના વચને આદેય (ગ્રહણ કરવા યોગ્ય હોય. ૧૧, જિત પરિષત-ઘણું વિશાળ સભામાં પણ જેઓ ભ અનુભવતા ન હોય. ૧૨, જિતનિદ્ર-જેમણે નિદ્રા ઉપર પણ વિજય પ્રાપ્ત કર્યો હોય એટલે કે રાત્રે પણ નિદ્રાને અધીન થયા વિના જેઓ સત્ર અને અથવું ચિન્તન કર્યા કરતા હેય. ૧૩, મધ્યસ્થ-જેઓ પક્ષપાતથી રાહત હેય, ૧૪. દેશકાલ
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अमुयोनगरले आसन्नं शास्त्रा कर्तुं समीपे समागतं परवादिनं प्रति. लम्मा प्रतिभा बेन स तया, परवादिभिराक्षिप्तः शीघ्रमुत्तरदायीत्यर्थः । नानाविधदेशमाषाज्ञ:अनेकदेशभाषाज्ञानसम्मन्नः। पञ्चविधआचारे युक्तः-ज्ञानादिपञ्चांचारे युक्तः। सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः। आहरणहेतूपनयनिपुणः- तत्र-आहरणं दृष्टान्तः, हेतु:कारको ज्ञापकश्च । तत्र कारक'- यथा घटस्य कर्ता कुम्भकारः । ज्ञापको यथा-घटानामभि ञ्जकः प्रदीपः । उपनय:-उपसंहारः, नयाः नैगमादयः, एतेषु निपुन:कुशलः । ग्राहणाकुशलः ग्राहणायाँ-शिष्यग्य सूत्रार्थतदुभयग्राहणायां कुशलः । स्वसमः परसम पवित्-स्वसिद्धान्तपरसिद्धान्तज्ञानमंपन्नः। गम्भीरः अतुच्छस्वभावः। हो-अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का जो जानने वाले हो १४, आसनलम्धपोतेभः-शास्त्रार्थ करने के लिये निकट आये हुए परबादी को परास्त करने के लिये जिस की प्रतिभा तेज हो-अर्थात् परवादी से आक्षिप्त होने पर जा शीघ्र ही उत्तर दाता हो १५, नानाविध देशभाषाज्ञः-अनेक देशों की भाषाओं का जिसे ज्ञान हो १६, पञ्चविध आचारयुक्तः-ज्ञानाचार आदि पाँच प्र.र के आचारों का जा पालन कर्ता हो, १७, मत्रार्थ तदुभयः विधिज्ञ:सूत्र अर्थ ता तदुभय मूत्रार्थ की विधि का जानकार हो १८, आहारण हेतूपनयननिपुणः-उदाहरण, हेतु, उपनय और नय इनमें जो निपुण हो १९, ग्रहण कुशल-जो शिष्य को तत्व ग्रहण कराने में कुशल हो २०, स्वसमय पर समयवित्-जिस स्वसमय का और परसमय का अच्छी तरह से पोष-ज्ञान .मा१-२।११, ४मन माना ज्ञाता डाय, से द्रव्य. क्षेत्र,
भने माना । Met२ हाय, १५, "आसन्नलब्धप्रतिः " शाखा ४२वाने માટે પિતાની પાસે આવેલા પરાવાદીને પરાસ્ત કરવાને યોગ્ય પ્રતિભાથી જેઓ સંપૂન હાય-એટલે કે પરમતવાદીની સાથે જ્યારે ચર્ચા ચાલે ત્યારે તેના પ્રશ્નોને
ગ્ય ઉત્તર આપીને તેને મતનું ખંડન અને પિતાના મતનું (સ્વ સમયનું) समयान ४२वाने रे सा :य 2, १६, “नानाविध देशभाषज्ञः" भने मने शनी भाषामानुज्ञान ५, १७, 'पञ्चविधआचारयुक्तः" . शानायर All पांय ना मायानु रेमो पासन ४२ना२। डीय. १८, त्रार्थन भयविधिज्ञः' - सी सूत्र, तया तमय (सत्र मने अर्थ मन्ने) सूत्रार्थना विधिना ४२ डाय, १८. "आहरणहेतृपनयनयनिपुणः" हारण, नु' उपनय भने नयमा यो निपुर डाय, २०, "ग्रहणकुशलः" रेमो शियने तत्व अ५ ४२ववाभा श ाय, २१, “स्वसमयपरसमयवित्' यो स्पसमय (જન સિદ્ધાંત) અને પરસમયનું (અન્યસિદ્ધાંતનું સારૂં જ્ઞાન ધરાવતા હોય,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. मू० ५ श्रुतज्ञानम्वरूपनिरूपणम् दीप्तिमान-पखादिभिग्नुपर्णीयः । शिवः अकोर: यहा-त्र तत्र वा विहरन् लोका ल्याणकारी । सोमः शान्तदृष्टिः। गुणशतकलितः-गुणाः दा दाक्षिज्यादयः तेषां शतानि, तैः कलित', यह शतशःदो बहुत्ववाचकः । एतादृश एव मुनिः प्रवचनसारं-द्वादशाङ्गरूपप्रबचनार्थ परिकथतुिरम्यक प्ररूपयितु युक्तः योग्यः सम में भवती त्यर्थः उन.पञ्चविंशतिगुणयुन स्त्र मुनेर्व वनं घृतपरिषिक्तवहिरिव भाति । उक्तगुणरहितमा वचनं तु स्नेहविहीनदीप उव न शोभते । एवं पाविंशति गुणयुक्तेन मुनिना कस्य वाऽनुयोगः करा शास्त्रराऽनुयं गः वर्तव्य इत्यपि वक्ताम् । तागणि-तस्य अनुयोगम्य द्वाराणि-उपक्रमादीनि वक्तव्यानि । वक्ष्यते अग्रे स्वयमेव मूत्रकारः। ता-अनुयोगम्य लक्षणं वक्तव्यम् । लक्षणं चवमुक्तम्हो २५, गंभीर:-जिसका ग्वभाव गहरा हो २२. दीप्तिमान परवादियों द्वारा जो परास्त न किया जा सके २३, शिव-क्रोध जिसे न आवे, अथवा-इतस्ततः विहार करता हुआ जो लोक का कल्याणकारी हो २४, सोम-जिसकी दृष्टि शांत हो २६. और गुणशत कलित-सैकडो दयादाक्षिण्य आदि गुणों से जो युक्त हो, ऐसा मुनि द्वादशांगरूप प्रवचन के अर्थ को अच्छी तरह से प्ररूपित करने के लिये समर्थ होता है । इन २५, (पच्चीस) गुणों से युक्त मुनि के वचन घृत से सिंचित अग्नि के जैसे तेजम्बी होते हैं। परन्तु इन गुणों से रहित जो साधु होता है उसके वचन स्नेह से रहित दीपक की तरह शोभित नहीं होते हैं । इस प्रकार इन २५ गुणों से युक्त मुनि को "क्सि शास्त्र का अनुयोग कर्तव्य है यह भी कहना चाहिये । अनुयोग के जो उपक्रम आदि द्वार कहे गये हैं-वे भी शिष्य को कहना चाहिये । अनुयोग के मेद २२, "गंभीरः" मा २१णावे गीर हाय, २३, “दीप्तिमान ' रेसा हीतिमान डाय-५२मतवाहीमा भने ५२१त ४२वाने समय न डाय, २४, 'शिवः" જેમનામાં ક્રોધને અભાવ હોય અથવા અહીં તહીં વિહાર કરતા થકાં જેઓ
पानुयाय ७२०२। राय, २५, 'साम'' रेमनी ष्टि मया भुगमुद्रा शान्त डाय, "गुणशतकलितः' भने सो या क्षिय मा सं. गुपथी संपन्न હેય. એવા મુનિ જ ઢ દશાંગરૂપ પ્રવચનના અર્થને સારી રીતે પ્રરૂપિત કરવાને સમર્થ હોય છે, આ ૨૫ ગુણોથી યુકત મુનિનાં વચને ઘી વડે સિંચિત અગ્નિના સમાન તેજસ્વી હોય છે. પરંતુ આ ગુણોથી રહિત જે સાધુ હોય છે તેના વચને તેથી રહિત દીપકના સમાન તેજ રહિત (પ્રભાવ રહિત) હોય છે.
આ પ્રકારના ૨૫ ગુણોથી યુકત મુનિએ ક્યા શાસ્ત્રને અનુયોગ કરો જોઈએ, એ વાત પણ અહીં પ્રકટ કરવા અનુયાગને જે ઉપક્રમ આદિ દ્વાર
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દ્
अनुयोग
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" संहिता य पयं चैव पयत्यो पयविनहो । चालणा य पसीद्धी य छब्विहं विद्धि लक्खणं ॥
मू
छाया - संहिता च पदं चैव पदार्थ : पदविग्रहः । चाल्ना च प्रसिद्धि षङ्खिधं विद्धि लक्षणम् ॥ तत्र - २ -संहिता = अस्खलितपदोच्चारणम् । पदम् = वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहति, सुबन्तं तिङन्तं वा । पदार्थ:- पदस्य अर्थ :- अभिधेयः । पदविग्रहः-तिप्रत्ययविभागरूपा विस्तार: । च= पुनः चालना = प्रश्नः । प्रश्ने सति प्रसिद्धि = समाधानं चेति षधम् अनुयोगन्य लक्षणं विद्ध= जानीहि । व्याख्ये सत्रमा च अलियमुवघ। यजणयं' इत्यादि द्वात्रिंशदोषरहितत्वादिकं लक्षणं वक्त०० कि जिन्हें सूत्रकार स्वयं ही आगे कहेंगे । अनुयोग का क्या लक्षण है यह भी शिष्य को समझाना चाहिये । अनुयोग का लक्षण इस प्रकार वहा है - "संहिता य" इत्यादि - अस्खलितरूप से पदों का उच्चारण करना इस का नाम संहिता है । अन्योन्यापेक्षावाले वर्णों की निरपेक्ष जो संहिता है उस नाम अथवा सुबन्त और तिङन्त का नाम पद है। पद के अभिधेय का नाम पद विग्रह है । चालना नाम प्रश्न का है। प्रश्न के समाधान का नाम प्रसिद्धि है । ये छह प्रकार का अनुयोग का लक्षण है । यह लक्षण वहना चाहिये तथा “अलि मुवघायजणयं" इत्यादि जो ३२, दोष - कहे गये है उनसे रहित अनुग होता है यह भी अनुयोग का लक्षण कहना चाहिये । तथा यह भी कहना चाहिये कि अनुयोग को सुनने के लिये
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છે. તે પણ તેમણે શિષ્યાને કહેવા જોઇએ. અનુયાગના પણ ભેદૅ શિષ્યાને બતાવવા ોઈએ. તે ભેદાનું નિરૂપણ સૂત્રકાર પોતે જ આગળ કરવાના છે. તેમણે શામ અનુયાગનાં લક્ષણા પણ સમજાવવા જોઇએ. અનુયે!ગનાં લક્ષણા નીચે પ્રમાણે છે.
"संहिता य" त्याहि-यहोनु स्मलित ३ये उभ्या तु तेनु' नाम સહિતા છે. અન્યાન્યની અપેક્ષાવાળા વાંથી નિરપેક્ષ જે સહિતા છે તેનું નામ અથવા સુમન્ત અને તિઙન્તનું નામ પદ્મ છે. પદના અભિધેયનું નામ પદાથ છે. પ્રકૃતિ પ્રત્યયના વિભાગરૂપ વિસ્તારનું નામ પદવિગ્રહ છે. પ્રશ્નને “ચાલના” કહે છે. પ્રશ્નના સમાધાનરૂપ ઉત્તરને પ્રસિદ્ધિ કહે છે. આ છ પ્રકારનું અનુયાગનું લક્ષણ છે. ગુરૂએ अनुयोगना मा छ लक्षणो पशु शिष्यने उसेवा लेये. तथा “अलि मुबधा पजणयं ?,. ઈત્યાદિ જે ૩ર દોષ છે તે પણ કહેવા જોઇએ. આ ૩૨ દાષાથી અનુયોગ રહિત હાય છે, અને પણ શિષ્યાને કહેવુ જોઇએ. વળી તેમણે શિષ્યને એ પણ સમજા વવુ જોઇએ કે અનુયાગનું શ્રવણ કરવા માટે કેવા કેવા મુનિને ચેષ્ય ગણવામાં આવે છે. અનુયાગનું શ્રવણ કરવા માટે મુનિમાં નીચેની પાગ્યતાએ હાવી જોઈએ.
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अनुलोमचन्द्रिका टी. ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम्
तदर्हाः तस्य = अनुयोगग्य अर्हाः = योग्या मुनयेो वक्तव्यः । तहि -
बहुस्सुए चिपव्ase, कप्पिएय अचंचले । भए य मेहावी, अपरिभाषिओ विक ||१|| पय अणुष्णा, भावओ परिणाम । मारिसे महाभागे, अणुभगं सोउमरिहा || || छा-बहुत विरमत्र जित, कल्पिक अवञ्चल | |
अवस्थित मेधावी अपरिभावितो विद्वान ॥१॥ पात्रं चानुज्ञातः, भावत, परिणामकः । एतादृशो महाभागः, अनुयोगं श्रोतुमर्हति ||२||
=
यो मुनिः बहुश्रुतः = शास्त्रज्ञः, चिरप्रव्रजितः = चिरकाल गृहीतदीक्ष, कल्पिकः = गीतार्थः, अचञ्चलः = चाञ्चल्यवर्जितः, अवस्थितः साधुमर्यादायां स्थितः मेधावी = बुद्धिमान्, अपरिभावितः परिषहोपसर्गे रपरिभृतः परतीर्थिकैरपरिभृतो वा, विद्वान् = पण्डितः - प्रभृताशेषशास्त्राभ्यासनिर्मलबुद्धिरित्यर्थः पात्रं = योग्यः, अनुज्ञातः=गुरुणाऽऽज्ञप्तः, तथा - भावतः परिणामक = भावपरिणामयुक्तश्च भवति । एतादृशो महाभागो मुनिरनुयोगं श्रोतुमर्हति ।
"
४७
ऐसा मुनि योग्य होता है जो बहुस्सुए चिरपथ्यइए" इत्यादि बहुतशास्त्रों का ज्ञाता हो, चिरकाल का दीक्षित हो, गीतार्थ हो चञ्चलता से रहत हो, साधुमर्यादा में स्थिर हों, बुद्धिशाली हो, परीपह और उपसर्गों से या अन्यतीर्थिकजनों से अपरिभृत हो, विद्वान् हो, अर्थात् अनेकशास्त्रों के अभ्यास से जिस की बुद्धि निर्मल हो अनुयोग का पात्र हो गुरु से अनु सुनने की जिसे आज्ञा मिल चुकी हो, और जो भावसे परिणामयुक्त हो ऐसा महाभाग मुनि अनुयोग को सुनने के योग्य होता हैं। गुरु को अनुयोग सुनने वाली सभा का भी कथन करना चाहिये- उन्हें कहना चाहिये कि "वहुस्सुए विरपव्वइए" इत्यादि - ने महुश्रुत - (शासोना ज्ञाता) होय, थिरसास ના દીક્ષિત હોય, ગીતા હાય, ચંચલતાથી રહિત હય, સાધુની મર્યાદાનું દઢતાપૂર્વક પાલન કરનાર હાય, બુદ્ધિશાળી હાય, પરીષહેા, ઉપસર્ગો અને અન્યતીથિ કૈં। થી જે અપરિભૂત (પરાત ન થાય એવા) હાય, વિદ્વાન હાય-એટલે કે અનેકશાન ના અભ્યાસથી જેની બુદ્ધિ નિર્માંળ થયેલી હાય, અનુયાગને પાત્ર હોય. ગુરૂએ જેને અનુયાગનુ શ્રવણુ કરવાની અનુજ્ઞા આપી હાય, અને જે ભાવની અપેક્ષાએ પરિણામયુકત હાય. એવા મહાભાગ મુનિને જ અચે.ગનું શ્રવણુ કરવાને પાત્ર માનવામાં આવે છે. ગુરૂએ અનુયાગ શ્રવણ કરનારી પરિષદ ફેવી હાવી
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अनुयोगासने तथा-परिपद्-अनुयोगस्य रोग्या परिषद् वक्तव्या । सा च सामाग्यता विधा भवति । तद्यथा---
"जाणतिया अजाणंतिया य, तह दुध्विर्या या धेष ।
तिविहा य होइ परिसा, तीसे नाणनगं घोच्छं ॥१॥" छाया-जानाना अजानाना ध, तथा दुर्विदग्धिका वैष ।
त्रिविधा च भवति परिषत् .स्या मानात्वं वक्ष्ये ॥१॥
अयं भावः-परिषत् त्रिविधा भवति,-ज्ञायकपरिपत्, अज्ञायकपरिषद, दुर्विदग्धिका परिपदिति । तन-एकैकपरिषत्स्वरूपं लक्षयितुं प्रथमं शायकपरिसस्वरूपमाह
"गुणदोसपिसेसप्णू अणभिग्गहिया य कुस्सुइमएसु । सा खलु जागगपरिसा, गुणतत्तिल्ला अगुणवजा ॥१॥ खीरमिय रायहंसा, जे घुट्टति गुणे गुणसमिद्धा।
द से वि य छहिता, ते वसहा धीरपुरिसत्ति ॥२॥ छाया-गुणदोपविशेषज्ञा अनभिगृहीता च कुश्रुतिमतेषु ।
सा खलु ज्ञायकपरिपत्, गुणतत्परा अगुणवर्जा ॥१॥ क्षीरमिव गजहंसा, ते पिबन्ति गुणान गुणसमृद्धाः । दोषानपि च त्यक्त्या, ते वृपभा धीरपुरुषा इति ॥२॥
अयं भावः-या परिषद् गुणदोषान् विशेषतो जानाति । कुतिमतेषु आग्रहवती न भवति । एवंविधा गुणेषु तत्परा अगुणेभ्यो र हता परिषत्ज्ञायक अनुयोग को सुनने के यंग्य ऐसी परिषत् होती हैं-अर्थात् परिषत् सामान्य से ३, प्रकार की होती है-एक ज्ञायक परिषत्, दूसरी अज्ञायक परीपत् और ३ तीसरी दुर्विदग्धिका परिपत् । यही बात "जागतिया" इत्यादि गाथाद्वारा प्रकट की गई है। इनमें से ज्ञायक परिपत को स्वरूप इस प्रकार से हैं-गुणदोंस विसेसण्णू "इत्यादि-जो परिषद् गुण और दोपां को विशेषरूप से जानती है જોઈએ તે પણ શિવને સમજાવવું જોઈએ. તેમણે તેને એ વાત સમજાવવી જોઈએ કે અનુયાગનું શ્રવણ કરનારી પરિષદમાં આ પ્રકારની યેગ્યતા હેવી જોઈએ-પરિષદના સામાન્ય રીતે ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે, તે પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે-૧, જ્ઞાયક પરિદ, ૨, અજ્ઞાયક પરિષદ અને ૩. દુધિષિા પરિષદ मा पात "जाणंतिया" त्याls या द्वारा प्रट ४२वामां की छ.
જ્ઞાયક પરિષદનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું હોય છે—
"गुणदोसविसेसष्णू" talk-२ परिषद शुष भने अपार विष३१ જાણતી હોય છે, અને બેટાં શાસ્ત્રોની માન્યતાઓને જે માનતી નથી-ખેરાંશારોને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् परिषदुच्यते । अत्र परिषदि ये नरा भवन्ति, ते गुणसमृद्धा भवन्ति ।
__ यथा राजहंसा सजलदुग्धाद् जलं विहाय दुग्धमेव पिवन्ति, तथैव एते दोषान् विहाय गुणानेव गृह्णन्ति । एते हि धर्मधुराधागणे वृषभा इव उद्युक्ता भवन्ति । अत एव एते धीरपुरुषा उच्यन्ते, इति ज्ञायक-परिषत् ।
अथ-अज्ञायकपरिषत्स्वरूपमाह"जा होइ पगइमुद्धा मिगसावगसीहकुकुडगभूया।
रयणमिव असंठविया, सुहसंणप्पा गुण समिद्धा ॥१॥ छाया-या भवन्ति प्रकृतिमुग्धा मृगशावकसिंहकुक्कुटकभूता ।
रत्नमिवासंस्थापिता सुखसंज्ञाप्या गुणसमृद्धा ॥१॥
अयं भावः-या परिषत् प्रकृतिमुग्धा-प्रकृत्या-स्वभावेन मुग्धा भद्रभावसंपन्ना, मृगशावकसिंहकुक्कुटकभूताः-तव मृगशावकाः हरिणशिशवः, सिंहाः-सिंहऔर खोटे शास्त्रों को मानने वालों के मत में जिसे आग्रह नहीं होता है वह परिषत् ज्ञायक परिपत् है । ऐसी परिपत् गुणों में तत्पर और अगुणों से रहित होती हैं। इस परिपत् में जो मनुष्य होते हैं वे गुणसमृद्ध होते हैं । जैसे राज हंस जलसहितदुग्ध मेंसे जल का परित्याग कर दूध का ही पान करते हैं वैसे ही यह परिषत् दोषों को छोड कर गुणो को ही ग्रहण करती है। इस परिषद के सदस्यजन धर्म की धुरा को धारण करने में वृषभ की तरह सदा उद्योगशील रहा करते हैं। इसलिये ये धीर पुरुष कहलाते हैं । अज्ञायक परिषत् का स्वरूप इस प्रकार से है-"जा होइ पगइ महा" इत्यादि-जो परिषत् स्वभाव से भद्भावयुक्त होती है । तथा मृगशिशु, सिंहशिशु और कुक्कटशिशु के समान जिसके सद य सरल भाव वाले होते हैं-एवं जो खान से निकले हुए માનનારા લેકના મનમાં જેને બિલકુલ શ્રદ્ધા હોતી નથી એવી પરિષદને જ્ઞાયક પરિષદ કહે છે. એવી પરિષદ ગુણગ્રાહી અને અગુણોથી રહિત હોય છે. આ પરિષદમાં એકત્ર થયેલા મનુષ્યો ગુણસમૃદ્ધ હોય છે. જેવી રીતે રાજહંસ જલમિશ્રિત દૂધમાંથી દૂધને જ ગ્રહણ કરે છે અને જળને પરિત્યાગ કરે છે. તેમ આ પરિષદ પણ દેને પરિત્યાગ કરીને ગુણોને ગ્રહણ કરે છે. આ પરિષદના સભ્ય ધર્મની ધુરાને ધારણ કરવામાં વૃષભની જેમ સદા ઉદ્યોગશીલ રહે છે. તે કારણે તેમને ધીરૂ પુરૂષ માનવામાં આવે છે.
અજ્ઞાયક પરિષદનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું હોય છે—
"जा होइ पगइभद्दा" त्याह-रे ५२५४ना सन्यो स्वभावती अपेक्षा ભદ્રભાવ (સરલતા)થી યુકત હોય છે. જેના સભ્યો મૃગશિશુ સિંહશિશુ અને કુકડાના
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अनुयोगगरने शावकाः, कुकुटकाः कुकुटकशावकाः-तद्भूताः तत्सदृशा । “सिंहक्कुकुट' शब्दो अत्र तत्तच्छावकपरौ । तज्जना हरिणशिशुसिंहशिशुकुकुंटशिशव इव अत्यन्त सरल इत्यर्थः। ___ तथा-रत्नमिव असंस्थापिता-सहजरत्नमिवासंस्कृता भवति । सा परिषद सुखसंज्ञाप्या अनायासबोधनीया गुणसमृद्धा-गुणगणयुता च भवति । किं च
"जा खलु अभावियाकुस्सुइहिं न य ससमए गहियसारा ।
अकिलेसकरा सा खलु, वहरं छक्कोडिसुद्धं व ॥" । छोया-या स्खलु अभाविता कुश्रुतिभिः, न च स्वसमये गृहीतसारा ।
अक्लेशकारी सा खलु वज्र षट्कोटिशुद्धमिव ॥२॥
अयं भावः-या परिपत् कुश्रुतिभारभाविता भवति, न च स्वसमये गृहीत सारा स्वसिद्धान्ताभिज्ञा च न भवति, अक्लेशकारी-क्लेशोत्पादिका न भवति, या च षटकोटिशुद्धं सर्वथा शुद्ध वज्रमिव हीरक इव विशुद्धा भवति, सा खल्व शायकपरिषदुच्यते । इति ॥
सम्प्रति दुर्विदग्धपरिषदुच्यते"न य कत्थ वि निम्माओ, न य पुच्छइ परिभवस्स दोसेणं । बत्थिव वायपुष्णो, फुट्टइ गामेल्लग वियड ॥१॥ किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य ।
दुवियड्डगा उ एसा, भणिया तिविहा इमा परिसा" ॥२॥ रत्न के समान असंस्कृत होते हैं। और इसी से जिन्हें समझाना बहुत सरल होता है-अर्थात् जो थोड़े से कहने में ही सन्मार्ग पर आ जाते हैं। ये सव गुणगण से युक्त रहा करते हैं। "जा खलु अभाविता" इत्यादि--यह परिषत् कुतियों के बहकावे में नही आती है और अपने सिद्धान्त के पीछे यह लहना झगडना नहीं जानती है। षट्कोटि शुद्ध हीरे के समान यह परिपत् विशुद्ध होती है। दुर्विदग्ध परिषत् का स्वरूप इस प्रकार से है-"नय कत्थ वि" इत्यादि-जो पुरुष किसी भी विषय में निष्णात न हो और जो पुरुष શિશુ સમાન સરલભાવથી યુકત હોય છે. અને ખાણોમાંથી નીકળેલા રત્ન સમાન જે અસંસ્કૃત હોય છે. જે પરિષદાને ધર્મતત્વ સમજાવવાનું કાર્ય ઘણું જ સરલ હેય छ. सेवा गुथी युत परिषहने अज्ञाय परिष४ ४ छ. "जा खलु अभावित्ता" કુશા આ પરિષદને બહેકાવી શકતાં નથી અને તે પરિષદ સ્વ સિદ્ધાંતથી અભિન્ન પણ હોતી નથી. સિદ્ધાન્તને નામે તને ઝગડા કરતા પણ આવડતા નથી. ષટ્રકેટ શુદ્ધ હીરા સમાન વિશુદ્ધ આ પરીષદ હોય છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ५ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् छाया-न च कुत्रापि निर्मातो न च पृच्छति पारभवस्य दोषेण ।
बस्तिरिख वातपूर्णः स्फुटति ग्रामेयकोऽविदग्धः ॥१॥ किंचिन्मात्रग्राहिणी. पल्लवग्राहिणी त्वरितग्राहिणी च । दुर्विदग्धा त्वेपा भणिता, त्रिविधेयं परिपत् ॥२॥ यो नरः कुत्रापि विपये निष्णातो न भवति ।
परिभवस्य दोपेण-अपमानदं पेण चान्यं जनं वस्तुतत्त्वं न पृच्छति । 'यद्यहमेनं प्रक्ष्यामि तव ममाप्रतिष्ठा स्यादिति हेतो स्तत्वज्ञजनकाशात् तच्चज्ञानं लब्धं न यतते इति भावः । एतादृशो ग्रामेयको -ग्राम्यः-संस्कारवर्जितः अविदग्धः-अनिपुणः पुरुषः, वातपूर्णी बस्तिरिख स्फुटति =स्थूलो भवति अहंकारी भवतीत्यर्थः किंच-य किञ्चिन्मात्रग्राही भवति, निष्णात हैं उनसे वह इस अभिप्राय से वस्तुतत्त्व को नहीं पूछता हो कि इन से पूछने पर मेरी अप्रतिष्ठा-अवज्ञा-होगी इसी कारण वह तत्वज्ञान प्राप्ति में प्रयत्नशाली नहीं होता है ऐसी व्यक्ति सत् ज्ञान के संस्कार से रहित बन कर केवल अविदग्ध-अनिपुण बना रहता है और वायु से पूर्ण धमनी के समान अपने अभिमान में फूला रहता है। इसी तरह जो थाडा बहुत जानता हैं तथा पल्लवग्राही पांडित्र-जिसके पास में है, जो त्वरितग्राही है-कहने पर शीघ्र समझतो लेता है-पर फिर विस्मृत हो जाता है-फिर भी ज्ञानि के अहंकार में तत्पर रहता है ऐसे इन व्यक्तियों की सभा का नाम दुर्विदग्धा सभा है । तात्पर्य इस का यह है कि वोध लव होने पर जो अपने आप
દુવિદગ્ધ પરીષદનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું હોય છે.
'नय कत्थ वि" त्या-315 मे ५३५ अभु वी५५मा नयात नथी. તે વિષયમાં બીજી કઈ એક વ્યક્તિ નિષ્ણાત છે, પરંતુ પહેલી વ્યક્તિ બીજી વ્યક્તિને વસ્તુતત્વ વિષે એ કારણે પૂછતી નથી કે તેને પૂછવાથી મારી અપ્રતિષ્ઠા થશે. આ પ્રકારના અભિમાનને કારણે તે તત્વજ્ઞાન-પ્રાપ્તિમાં પ્રયત્નશીલ રહેતો નથી. એ માણસ સાચા જ્ઞાનના સંસ્કારથી રહિત જ રહેવાને કારણે અવિદગ્ધ-અનિપુણ જ રહે છે. એ માણસ હવાથી ભરેલી ધમણ સમાન અભિમાનથી ફૂલાયા જ કરે છે, આ પ્રકારના અધકચરા જ્ઞાનવાળાને અર્ધદગ્ધ કહે છે. આ પ્રકારના અર્ધદગ્ધ, છીછરા જ્ઞાનવાળા, વરિતગાહી (કેઈ વાત કહેવામાં આવે તો શીધ્ર સમજી લેનારા પણ પાછળથી તેને ભૂલી જનારા) માણસે જ્ઞાનના અભિમાનમાં તત્પર રહેતા હોય છે. એવી વ્યક્તિની સભાને દુર્વિદધા પરિષદ કહે છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેઓ પિતાને વિશિષ્ટ તત્ત્વજ્ઞાની માની રહ્યા છે, અને જે વારંવાર સમજાવવા
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अनुयोगबारसूत्रे पल्लवग्राही त्वरितग्राही भवति । तेषां परिषद् दुर्विदग्धा । इत्येवमुक्तरीत्या त्रिविधा परिषद् विज्ञेया । इहाये उभे अनुयोगाहें, तृतीया तु अनुयोगानीं । एतत्सर्वमुक्त्वा सूत्रार्थों वक्तव्यः । इत्येवमनुयोगस्य द्वादश द्वाराणि वक्तव्यानि भवन्ति । सूत्रकारस्तु शेषाणि द्वाराण्युपलक्षयितुं 'कस्य शास्त्रस्यायमनुयोगः ?' इति सप्तमं द्वारं चेतसि निधाय "जइ सुम्नाणरस उद्देसो' इत्यारभ्य 'इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च आवरसगास अणुओगा' इति यावदुक्तवान् ॥मू० ५॥
को विशिष्ट तत्त्वज्ञानी मान बैठे हैं और समझाने पर भी जो अपने झूठ आग्रह को छोडते नहीं हैं ऐसे व्यक्ति दुर्विदग्ध कहे गये हैं । इन की सभा का नाम दुर्विदग्ध सभा है । इस प्रकार इन तीन सभाओं में से आदि की दो सभाएं तो अनुयोग के योग्य हैं, परन्तु जो तीसरी सभा है वह अनुयोग है वह अनुयोग के योग्य नहीं हैं ।
यह सब अनुयोग से लगता हुआ विषय पहिले कहकर अनुयोगाचार्य को सूत्रार्थ का कथन करना चाहिये । इस प्रकार ये अनुयोग के १२ द्वार हैं। इन बारह द्वारों को अनुयोगाचार्य के विषय कहना चाहिये। सूत्रकारने यद्यपि इन १२ द्वारों का यहां कथन नहीं किया है तो भी उन्होंने शेष द्वारों को उपलक्षित करनेकेलिये “कस्य शास्त्रस्य अयम्-अनुयोगः" इस सप्तमद्वार को चित्त में रखकर-"जइ सुयनाणस्स उदेसो" यहां से प्रारंभ करके "इमं पुण पट्टवणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगो' यहां तक कहा है। स्थिर परिपाटी
છતાં પણ પિતાના દુરાગ્રહને છોડતા નથી, જેઓ જ્ઞાની પુરુષોની વાત સમજવાને પણ તત્પર નથી એવાં પુરુષને દુવિદગ્ધ કહે છે અને એવા પુરુષની સભાને દુર્વિદગ્ધ પરિષદ કહે છે. આ ત્રણ પ્રકારની જે પરિષદ કહી તેમાંની પહેલા બે પ્રકારની પરિષદે તે અનુગને પાત્ર ગણાય છે, પણ ત્રીજા પ્રકારની જે દુવિધ પરિષદ છે, તેને અનુયોગને પાત્ર ગણી નથી, અનુયોગને લગતું આ બધું કથન સૌથી પહેલાં કરવું જોઈએ. ત્યારબાદ જ અનુયોગાચાર્યું સૂત્રાથનું કથન કરવું જોઈએ. આ પ્રકારના તે અનુગના ૧૨ દ્વાર છે. તે બાર હારનું અનુગાચાર્યો શિષ્ય આગળ કથન કરવું જોઈએ. જો કે સૂત્રકારે બે ૧૨ દ્વારેનું કથન અહીં કર્યું नथी, छतi पy माडीना द्वारान Selक्षत ४२वा निमित्त "कस्य शास्त्रस्य अयम् अनुयोगः" કયા સુત્રને આ અનુગ છે,” આ સાતમાં કારને હૃદયમાં ધારણ કરીને “ सुयनाणस्स उद्देसो" ॥ सत्राथी २३ ४ीने "इमं पुण पट्टधणं पडुच्च आवस्सगरस अणुओगो" मा सूत्रपा8 -तनु ४यन ४ छ. "२५२ परिपाट?" विशेष
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ६ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् ___ मूलम्-आवस्सयं णं किं अगं अंगाई ? सुयं सुयाइं ? खंधो खंधा ? अज्झयणं अज्झयणाई ? उद्देसो उद्देसा ? । आवस्सयं णं नो अंग, नो अंगाई, सुयं, नो सुयाई, खंधो, नो खंधा, नो अन्झयणं, अज्झयणाई, नो उद्देसो, नो उदेसा ॥ सू० ६ ॥
छाया-आवश्यकं खलु किम् अङ्गम् अङ्गानि ? श्रुतं श्रुतानि ?, स्कन्धः स्कन्धाः ? अध्ययनम् अध्ययनानि ?, उद्देशः उद्देशाः ? । आवश्यकं खलु ना अङ्गं, नो जो विशेषण बतलाया गया है वह यह प्रमाणित करता है कि इस विशेषणवाला मुनि कभी भी मूत्र और अर्थ को विपरीत नही करता है। जो आदेय वचनबाला मुनि होता है-उसके थोडे भी वचन महार्थ से भरे हुए जैसे मालूम होते हैं। आहरण नाम उदाहरण का है। हेतु दो प्रकार का होता है१ एक ज्ञापक हेतु और दूसरा कारक हेतु-घटका-अभिव्यंजक दीप घटका ज्ञापक हेतु है । घटका कर्ता कुंभकार-घटका कारक हेतु है। उपसंहार का नाम उक्न य है। नेगमादि सात नय हैं। सूत्र ५॥
"आवस्सयं णं इत्यादि । ॥सूत्र ६॥
शब्दार्थ--(आवस्सयं णं) आवश्यक सूत्र (किं अंगम्) क्या १ एक अंग रूप है ? (अंगाई) या अनेक अंगरूप है ? (सुयं सुयाई) एक श्रुतरूप है ? या अनेक श्रुतरूप है ? (खंधो खंधाई ?) एक स्कंधरूप है ? या अनेकस्कंध रूप है ? (अज्झयणं अज्ञयणाई) एक अध्ययनरूप है-या अनेक अध्ययनरूप है ? (उद्देसो उद्देसा) एक उद्देशरूप है या अनेक उद्देशरूप है ?એ વાતનું સમર્થન કરે છે કે આ વિશેષણવાળે મુનિ કદી પણ સૂત્ર અને અર્થનું વિપરીત કથન કરતો નથી. જે મુનિ આદેયવચનથી યુક્ત હોય છે, તેમના શેડ વચને પણ મહા અર્થથી ભરેલા લાગે છે. “આહરણ એટલે ઉદાહરણ અથવા દુષ્ટાન્ત હેતુ બે પ્રકાર હોય છે—(૧) જ્ઞાપક હેતુ અને (૨) કારક હેતુ ઘટને અભિવ્યંજક દીપક ઘટના જ્ઞાપક હેતુરૂપ છે. ઘટનું નિર્માણ કરનાર કુંભકાર (કુંભાર) ઘટના કારકહેતુરૂપ છે. ઉપસંહારનું નામ ઉપગમ છે. નૈગમ આદિ સાત નય છે. સૂત્ર ૫ ___ "आवस्सयं णं" त्याह
सार्थ-(आवस्सयं णं अंगम् अंगाई ?) आवश्यसूत्र शु मे अग३५ छ, ४ भने ३५ छ ? (सुयं सुयाई?) शुत मे श्रुत३५ छ, भने श्रुत. ३५ छ ? (खंधो खंधाई ?) शुते मे २४५३५ छ, ॐ भने २४५३५ छ ? (अज्झयणं अज्झयणाई' ?) शुत मे अध्ययन३५ छे, हे मने अध्यय ३५ छ ? (उद्देसो उद्देसा?) शुत मे लहेश३५ छ, भने ५३५ छ ?
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अनुयोगद्वारसूत्र
अङ्गानि श्रतम्, नो श्रुतानि, स्कधः नो स्कत्राः नो अध्ययनम् अध्ययनानि, नो उदेशो नो उद्देशाः ॥ सू० ६ ||
टीका- 'आवस्मयं णं' इत्यादि
आवश्यकं खलु किं द्वादशान्तर्गतमेकमङ्गमिदम् ? किं वा अङ्गानि - बहून्यङ्गानि । तथा किं श्रुतं श्रुतानि ? आवश्यकं किमेक श्रुतरूपं किंवाऽनेकश्रुतरूपम् ? तथा किं स्कन्धः स्कन्धाः - किमेकः स्कन्धः, बहवो वा स्कन्धाः ! । तथा अध्ययनम् अध्ययनानि आवश्यक दं किमेकमध्ययनं किं वा बहून्यध्ययनानि । तथा उद्देश - उद्देशा वा - किम् - एक उद्देशो वा बहवो वा उद्देशाः इति दश प्रश्नाः । उत्तरयति—'आवस्सयंण इत्यादि । आवश्यकं खलु नो एकाङ्गरूपं नैवा
उत्तर-(आवस्सयं णं नो अंगं नो अंगाई) अनंग प्रविष्टरूप श्रुत होने के कारण आवश्यक सूत्र -न एक अंगरूप है । और न अनेक अंगरूप है । "सुयं नो सुयाई" यह तो एक तरूप है । अनेक श्रुतरूप नहीं है । (खंधो नो खंधा) एक स्कंधरूप है, अनेक स्कंधरूप नहीं है । (नो अज्झयगं, अज्झयणाई) पडू अध्ययन स्वरूप होने से यह एक अध्ययनरूप नहीं हैं किन्तु अनेक अध्यनरूप है । (नो उद्देसो नो उद्देसा) यह न एक उद्देशरूप है और न अनेक उद्देशरूप है । इसका तात्पर्य यह है कि यह आवश्यक सूत्र एक श्रुत स्कंधात्मक और षड् अध्ययनरूप हैं। यह एक अंगरूप और अनेक अंगरूप नहीं है । अनेक श्रुतस्कंधरूप नहीं है और न एक अध्ययनात्मक है, न एक और अनेक उद्देशरूप ही है ।
उत्तर
शंका- यहां ये दो प्रश्न हैं कि "यह आवश्यक सूत्र ९ अंगरूप है या अनेक अंगरूप है" करने योग्य ही नही प्रतीत होते - क्यों कि यह सूत्र नन्दि- (आवरसयं णं नो अंगं नो अंगाई) अनंग प्रविष्ट श्रुत३५ होवाने કારણે આવશ્યકસૂત્ર અક અંગરૂપ પણ નથી, અને અનેક અગરૂપ પણ નથી. ( सुयं नो सुयाइ) ते मे श्रुत३५ ४ छे. मने श्रुतय नही, (खंधा नो खंधा) ते थे! २४६३५ छे, मने४ २४६३५ नथी, (णो अज्झयणं, अज्झपणा) ते ६ અધ્યયનાવાળુ' હાવાને લીધે તેને એક અધ્યયનવાળુ' કહી શકાય નહીં, પણ અનેક अध्ययनवाणु उही शाय. (नो उद्देसो, नो उद्देसT) ते मे उद्देश३५ चा नथी અને અનેક ઉર્દુ શરૂપ પણ નથી. આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે-આવશ્યક સૂત્ર એક શ્રુતસ્કંધાત્મક અને છ અધ્યયનવાળું છે, તે એક અંગરૂપ પણ નથી અને અનેક અગરૂપ પણ નથી, તે અનેક શ્રુતસ્કંધરૂપ પણ નથી, તે એક અધ્યયનાત્મક પણ નથી, અને એક અથવા અનેક ઉદ્દેશરૂપ પણ નથી.
શંકા—આવશ્યક સૂત્ર એક અગરૂપ છે ? કે અનેક અંગરૂપ છે ?” આ એ પ્રશ્નો અહીં પૂછવા જોઈતા ન હતા, કારણ કે આપે જ આગળ એવી વાત કરી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका ६ तज्ञानम्वरूपनिरूपणम् नेकाङ्गरूपम आयानङ्गप्रविष्टन्चात् । श्रुतम्-इदमेकश्रुतरूपमस्ति नो श्रतानि-बहुश्रतान्मकं च नास्ति । स्कन्धः-इदमे सन्धरूपं नतु स्कन्धाः-बहुस्कन्धात्मकं न भवति । नो अध्ययनम्-नकाध्ययनरूपम, किन्तु अध्ययनानि-षडध्ययनात्मकतयाऽनेकाध्ययनरूपम् । नो उद्देशः-इदं नकोद्देशरूपम्, नो उद्देशाः-न बहूद्देशात्मकमित्यर्थः। ___अयं भावः-इदम् आवश्यकम् एकश्रतात्मकत्वात् श्रुतभ्एक स्कन्धात्मकत्वात् स्कंधः षडध्ययनात्मकत्वात् अध्ययनानि च, किन्तु नो अङ्गम, नो अङ्गानि, नो श्रुतानि, नो स्कन्धाः , न। अध्ययनम्, नो उद्देशः, नो उद्देशा वा।।
नचावश्यक म्-अङ्गम् अङ्गानि वा ? इति प्रश्नद्वयम करणीयमेव, नन्दिसूत्रेऽस्यानङ्गप्रविष्टत्वेनोक्तत्वात्, अत्र तृतीयसूत्रे–'इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च अणंगपविट्टस्स अनुअगो' इत्यनेनात्य सूत्रस्यानङ्गप्रविष्टत्वेनोक्तत्वात् ? इति चेत्, उच्यते-यत्तावदुक्तम्-नन्दिसूत्रेऽस्यानङ्गप्रनिष्टत्वमुक्तम्, अतोऽत्र सूत्रेऽस्याङ्गत्वविपये प्रश्नोऽयुक्त इति, तदयुक्तम्, यतो नास्ति कश्चिदेवंविधो नियमो यत्प्रथमं नन्दिसूत्र व्याख्यायवेदं सत्रं व्याख्येयम, कदाचिदनुयोगद्वारं व्याख्यायैव नन्दिसूत्र' सूत्र में अनंग प्रविष्ट रूप से कहा गया है। तथा इसी मूत्र के तृतीय सूत्र में "इमं पुण एट्ठवणं पडुच्च अणंगपविठस्स अणुओगो" इस अंशद्वारा भी इसी बात को कहा है कि यह सूत्र अनंग प्रविष्ट श्रुतरूप है। अतः अनंगप्रविष्ट होने के कारण इस मूत्र के प्रति ये पूर्वोक्त दो प्रश्न अकरणीय ही हैं। उत्तर-इस बात को लेकर कि नन्दिसूत्र में इस सूत्र के अनंग प्रविष्ट कहा है। इसलिये सूत्र में अंगत्वविषयक ये दो प्रश्न अयुक्त हैं सो ऐसा कहना ठीक नहीं है क्यों कि इस प्रकार का कोई निम तो है नहीं कि पहिले नन्दिमूत्र का व्याख्यान करके ही इस मूत्र का वाग्मान करना चाहिये। कदाचित् ऐसा भी हो सकता है कि पहिले इस अनुयोगद्वार सूत्र का व्याख्यान कर છે કે આવશ્યક સૂત્રને નદિસૂત્રમાં અનંગ પ્રવિષ્ટ (અંગબાહ્ય) સૂત્રરૂપે કહેવામાં भाव्यु छ. quो मा अन्यना श्री सूत्रमा " "इमं पुण पट्टबणं पडुच्च अगंगपविटम्स अणुओगो” मा सूत्रांश द्वारा ५९ मावश्य: सूत्रने मन प्रविष्ट श्रुत રૂપે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. આ રીતે તેને અનંગપ્રવિણ શ્રતરૂપ પ્રકટ કર્યા બાદ ઉપર્યુકત બે પ્રશ્નો શું અસ્થાને નથી? આ પ્રકારના પ્રશ્ન ફરી પૂછવામાં શું પુનરુકિત દોષની સંભાવના રહેતી નથી? - ઉત્તર–નન્દિસૂત્રમાં આવશ્યક સૂત્રને અનંગ પ્રવિણ શ્રતરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે, તેથી આ સૂત્રને અનુલક્ષીને અંગત્વ વિષયક જે બે પ્રશ્નો પૂછવામાં આવ્યા છે, તે પ્રશ્નને અયુકત ગણવા તે ઉચિત નથી, કારણ કે એ કઈ નિયમ તે નથી
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अनुयोगहारसूत्रे व्याख्येयं भवेत् । किच-यदि नन्दिमत्रेऽस्या बाह्यत्वे निर्णीते पुनरस्यास्वविषये प्रश्नो निरर्थव स्तर्हि 'जइ सुयनाणग्स उद्देसो समुद्देसो अणुष्णा अणुओगा य पवत्तइ, किं अंगपविठ्ठरस......? किं अंगबाहिरस्स......?' इत्यादि तृतीयसूत्रो पन्यास एव निरर्थकः स्यात, अतो नास्ति नन्दिसूत्रा-नुयोगद्वारसूत्रयोः पौर्वापर्यभावः, अतोऽज्याङ्गत्वविषये प्रश्नः समीचीन एव ।।
ननु मङ्गलार्थ नन्दिसूत्र मेव प्रथमं व्याख्यातव्यम् ? इति चेदुच्यते- तदपि न, नन्दिसत्रेऽपि ज्ञानपञ्चक कीर्तनस्यै व मगलत्वम, तच्चेहाऽप्यस्तीति मालस्यापि नन्दिसूत्रस्य प्रथमव्याख्याने प्रयोजनाभावात् । यच्चक्तम्-'इमं पुण पट्ठवणं' के बाद में व्याख्याता नन्दिसूत्र का व्याख्यान करदें। किच-यदि नदि सूत्र में इसमें अंगबाह्यता का निर्णय होने से अंगत्व विषयक प्रश्न निरर्थक है ऐसा ही मान लिया जावे तो फिर "जइ सुयनाणस' इत्यादि तृतीय सूत्र का उपन्यास ही निरर्थक हो जावे गा। इसलिये नंन्दिसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र इनमें पौर्वापर्यभाव नहीं है-अतः अंगन्य विषयक प्रश्न इसके ऊपर जो किया गया है वह समीचीन ही है।
शंका-मंगल के निमित्त नन्दिमूत्र ही प्रथम व्याख्यान करने योग्य हैं अतः इस तरह इन में पौर्वापर्यभाव आ जायगा-सो ऐसी भी बात नहीं है क्यों कि नन्दिसूत्र में भी पांच ज्ञानों के कथन से जिस प्रकार मंगलता है उसी प्रकार से वह मंगलता इसमें भी है। क्योंकि यहां पर भी पांच ज्ञानों જ કે પહેલાં નદિસૂત્રનું વ્યાખ્યાન (કથન) કર્યા બાદ આ સૂત્રનું વ્યાખ્યાન કરવું ન જોઈએ. કદાચ એવું પણ સંભવી શકે છે કે પહેલાં આ અનુગ દ્વાર સૂત્રનું વ્યાખ્યાન કરીને ત્યારબાદ વ્યાખ્યાતા નદિસૂત્રનું વ્યાખ્યાન પણ કરે.
વળી એવું જ માની લેવામાં આવે કે નદિસૂત્રમાં આ સૂત્ર (આવશ્યક સૂત્ર) ની અંગબાહ્યતાને નિર્ણય થઈ ગયો હોવાથી-અંગત વિષયક જે પ્રશ્ન પૂછવામાં भाव्या छ त निरर्थ मागे , मेवी परिस्थितिमाता "जइ सुयनाणस" त्याle ત્રીજા સુત્રને ઉપન્યાસ જ નિરર્થક બની જશે. નન્તિસૂત્ર અને અનુગદ્વારસૂત્રમાં પાર્વાપર્ય ભાવને સદૂભાવ નથી, તેથી તેને અનુલક્ષીને અંગત્વ વિષયક જે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યા છે તે ઉચિત જ છે.
શંકા-મંગળનિમિત્તની અપેક્ષાએ તે નક્ટિસૂત્ર જ પ્રથમ વ્યાખ્યાન કરવા યોગ્ય છે, તે કારણે તે બન્નેમાં પૌર્વાપર્ય ભાવનો સદુભાવ પણ સંભવી શકે છે.
ઉત્તર–એવી વાત પણ નથી, કારણ કે નન્દિસૂત્રમાં પણ પાંચ જ્ઞાનના કથનથી જેવી મંગળતાને સદૂભાવ છે, એવી જ મંગળતાને આ સૂત્રમાં પણ સદૂભાવ છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका ६ श्रुतज्ञानस्वरूपनिरूपणम् इत्यादिनाऽस्थानगत्वमुक्तमेव, पुनरस्त्याङ्गत्वविषये प्रश्नोऽसमीचीन एवेति, तत्सत्यम्, परन्तु विस्मरणशीलानामल्पबुद्धिमतां शिष्याणामनुग्रहार्थ मेवायं प्रश्नः, इत्यस्यागत्वविषये प्रश्नो निर्दष्ट एवेति बोध्यम् ॥ मू० ६ ॥
इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगो' । इत्यनेन 'आवश्यकम्' इति सूत्रनाम निर्णीतम्, तथाऽनन्तरोक्तेषु दशसु प्रश्नेष्वावश्यकं श्रुतत्वेन स्कंधत्वेनाध्ययनकलापात्मकत्वेन च निणीं तम्, तस्मात् प्रकृते किम् ? इत्याह-'तम्हा इत्यादिना का सर्व प्रथम कथन किया गया है । इस लिये इस बात को लेकर मंगल भूतभी नन्दिसूत्र का प्रथम व्याख्यान करना चाहिये यह वात नहीं बनती है। क्योंकि इस प्रकार के कथन में कोई खास प्रयोजन की पुष्टि नहीं होती है। तथा यह जो बात यही है कि 'इमं पटवणं" इत्यादि पाठ से भी इस अनुयोगद्वार में अनाप्रविष्टता प्रतिपादित होती है अतः इस में यह अगत्व विषयक प्रश्न असमीचीन ही है सो यह बात ठीक है-परन्तु जो शिष्य विस्मरणशील है और अल्पबुद्धिवाले हैं उनके अनुग्रह के लिये ही यह प्रश्न किया गया है। इस तरह इसमें यह अंगत्व विषयक प्रश्न निर्दोप ही है ऐसा जानना चाहिये । ॥सू० ६॥ "इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगेा “इस मूत्र पाट से इसका नाम आवश्यक मूत्र है यह निर्णीत हो जाता है, तथा अनन्तरोक्त दश प्रश्नो में यह आवश्यक श्रुतरूप है, स्कंधस्प है, और पड़ध्ययनात्मक है यह કારણ કે આ સૂત્રમાં પણ સૌથી પહેલાં પાંચ જ્ઞાનેનું જ કથન કરવામાં આવ્યું છે. આ દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તો મંગળભૂત નન્દિસૂત્રનું જ પ્રથમ વ્યાખાન કરવું જોઈએ, એવી વાત પ્રતિપાદિત થતી નથી, કારણ કે આ પ્રકારના કથન. થી કોઈ ખાસ પ્રજનને પુષ્ટિ મળતી નથી.
तथा मेवी । क्षीस ४२वामां आवी छ है "इमं पटवणं" त्या सूत्रपाठ દ્વારા પણ આ અનુગ દ્વારમાં અનંગપ્રવિણતા પ્રતિપાદિત થાય છે, તેથી અગત્ય વિષયક પ્રશ્ન અનુચિત જ છે, તે એ દલીલ પણ બરાબર નથી, કારણ કે જે શિષ્ય વિસ્મરણશીલ અને અલ્પબુદ્ધિવાળા હોય તેમના ઉપર અનુગ્રહ કરવાને માટે જ આ બે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યા છે. તે કારણે અંગત્વ વિષયક જે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવેલ છે, તે બધા નિર્દોષ પ્રશ્નને જ સમજવા જોઈએ. ૬ છે
"इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च आपरसगस्स अणुओगो" मा स्त्रया द्वारा तेनु નામ આવશ્યક સૂત્ર છે, તે નિર્ણત થઈ જાય છે, અને ત્યાર પછીના દસ પ્રશ્રનો દ્વારા એ નિણત થઈ જાય છે કે આ સૂત્ર થતરૂપ છે, સ્કલ્પરૂપ છે અને છે
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अनुयोगहारसने मूलम--तम्हा आवस्सयं निक्खिविस्सानि, सुयं निविखविस्लामि खधं निक्खिविस्सामि, अज्झयणाई निक्खिविस्सामि ॥ सू० ७ ॥
हाया-तम्मात् आवश्यक निक्षेप्स्यामि, श्रुतं निक्षेप्यामि स्कंध निक्षेप्स्याम, अध्ययनानि निक्षेप्यामि ॥ सू० ७ ॥
टीका-'तम्हा' इत्यादि
इह हि आवक सूत्रस्यानुयोगः तच्चाऽऽवश्कं श्रुतरुप कंधरुपम्, अध्ययनरूप च । 'तम्हा' तस्मान् आवश्यकं मिक्षेप्स मि-आवश्यकम्य निक्षेप करिष्ामि, श्रुतं निक्षेप्यामि-श्रुताय निक्षेपं करिष्यामि, स्कन्धं निक्षेप यामि कन्धस्य निक्षेपं करिष्यामि, अध्ययनानि निक्षेप्यामि=3पयनात निक्षेप करिनिर्णीत हो जाता है—इमसे प्रकृत में क्या बात आती है ? इस शंका के “समाधान निमित्त" सूत्रकार कहते है
"तम्हा आवमयं" इत्यादि । ॥ ७॥
शब्दार्थ-यहां आवश्यक सूत्र का अनुयोग प्रस्तुत है और वह श्राव श्यक श्रुतम्प, रकंधाप एवं अध्ययनरूप है। (तम्हा) इसलिये. (आवम्सयं) आवश्यक वा में (निकिवयिस्मामि) निक्षेप करूंगा। (नुयं निग्विाम्मामि) श्रा को निक्षेप करंगा (अज्झायणाई निक्विविस्मामि) अध्ययनों का निक्षेप करंगा। हमका तन्पर्य यह है-कि जब यह शास्त्र आवश्यक आदिरूप से निणीत हो चुका है । तब इन आवश्यक आदि शब्दों का अर्थ खुलासाप से स्पष्ट करने के योग्य हो जाता है। इसके अथ का स्पष्टरूप से विवेचन तभी हो सकता है कि जब पदों का निक्षेप किया जावे। चिना निक्षेप किये इन અધ્યયનવાળું છે. હવે આ સત્રમાં કયા કયા વિષયને સમાવેશ થાય છે, તે પ્રકટ ४२१॥ निमित्त सूत्र४२ ४९ छ :-"तम्हा आवम्सयं" हि
શબ્દાર્થ—અહીં આવશ્યક સૂત્રને અનુયોગ પ્રસ્તુત છે, અને તે આવશ્યક श्रत३५, २४५३५ मन ययन३५ छ. हा तथी (आवम्सयं निक्खिविग्सामि)
वश्य ने निक्षे५ श, (मुय निविखविस्सामि) अतन नि५ शश, (अज्झपणा निक्विविम्सामि) अने अध्ययनाने निक्षेप ४२.
આ કમનનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-જ્યારે આ શાસ્ત્ર આવશ્યક આદિરૂપે નિણત થઈ ગયું છે, ત્યારે આ આવશ્યક આદિ શબ્દના અર્થ ખુલાસા સહિત
સ્પષ્ટ કરવાનું જરૂરી બની જાય છે. તેના અર્થનું સ્પષ્ટરૂપે વિવેચન કરવાનું કાય ત્યારે જ સરળ બની શકે કે જ્યારે પદનો નિક્ષેપ કરવામાં આવે. નિક્ષેપ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. ७ आवश्यकस्यानुयोगस्वरूपनिरूपणम् हामि । अयं भाव:-इदं शास्त्रमावश्यकादिरूपतयां निणीतम्, अत आवश्यकादि शब्दानामर्थों निरूपणीय: ! स च निक्षेपपूर्वक एव स्पष्टतया निरूपितो भवति, अत आवश्यकादी निक्षेपः क्रियते। निक्षेपश्च निक्षेपणं आवश्पकादेर्यथासम्भवं नामादिभेदनिरूपणम् ॥ ७॥
उत्कृष्टतो जघ यतश्च कियान् निक्षेपः कर्त्तव्यः ? इत्याह -
मूलम्-जत्थ य ज जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणेजा चउक्कग निक्खिवे तत्थ ॥सू० ८॥
____ छाया-यत्र च यं जानीयाद् निक्षेपं निक्षिपेत् निरवशेषम् । यत्रापि च न जानी गन. चतुष्कं निक्षिपेत्त ।मु० ८॥ के अर्थ का विवेचन स्पष्टरूप से नहीं हो सकता है। इसलिये इन आवश्यक आदि शब्दों या अब निक्षेप किया जाता है। निक्षेप का अर्थ-आवश्यक आदि शब्दों के यथा संभव नामादि भेदों का निरूपण वरना होता है। सूत्र॥
उत्कृष्टरूप से और जघन्यरूप से कितने निक्षेप कर्तव्य होते हैं इसके लिये सूत्रकार कहते हैं वि.- "जत्य य जं जाणज्जा" इत्या द । सू० ८॥
शब्दार्थ-(जस्थ य जं जाणेज्जा) जीवादिरूप धातु में निक्षप्ता यदि निक्षेप-न्यास-को जानता हो तो उस जीवादिरूप वातु में वह (निरवसेसं निक्लेव निक्खिवे) नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावादि स्वरूप समस्त निक्षेप भेदां का निरूपण करें। (जत्थ वि य न जाणेज्जा तत्थ चउक्कगं निविखवे) तथा जिस वस्तु में जीवादिरूप पदार्थ मेंકર્યા વિના અર્થનું વિવેચન પષ્ટતાપૂર્વક થઈ શકતું નથી. તેથી આ આવશ્યક આદિ પદોને હવે નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે.
નિક્ષેપને અર્થે આવશ્યક શબ્દના યથા સંભવ નામાદિ ભેદોનું નિરૂપણ કરવું તેનું નામ જ નિક્ષેપ છે. જે સુટ ૭ છે
* ઉત્કૃષ્ટરૂપે અને જઘન્યરૂપે કેટલા નિક્ષેપ કર્તવ્ય (યરવા ગ્યો હોય છે, તે પ્રકટ કરવાને માટે સુત્રકાર કહે છે કે
"जत्थ य ज जाणेज्जा" त्यहि
Aa:---(ज थ य जं जाणेज्जा) ६३५ १२तुमा निक्षता निक्ष५ (न्यास)ने तो डाय तो (निरवसेस निक्खेवं निक्सिचे) ते पा९ि३५ १२तुमा નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભવ અને ભાવાદિરૂપ નિક્ષેપના સમસ્ત ભેદનું नि३५४ ४२ ने में. (जत्य वि य न जाणेज्जा त थ चउक्कग निक्खिवे) तथा જે વસ્તુમાં છવાદરૂપ પદાર્થમાં–સમરત નિક્ષિપને નિક્ષતા નિક્ષેપ કરનાર ગુરુ)
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अनुयोगधारने टीका-'जत्थ य' इत्यादि
यत्र च-जीवादि वस्तूनि यं निक्षेप-न्यासं जानीयात्, तत्र जीवादिवस्तूनि निरवशेष-समग्रं-नाम स्थापना द्रव्यक्षेत्रकालभवभावादि स्वरूपं निक्षेपभेदसमूहं निक्षिपेत्-निरूपयेत् । यत्रापि च अपि च=पुनः यत्र-यस्मिन् जीवादिवस्तूनि सर्वान् निक्षेपान् न जानीयात्, तत्र-तस्मिन्नपि जीवादिवस्तूनि चतुष्कं-नामस्थापनाद्रव्यभावरूपं निक्षेपं निक्षिपेत्-न्यस्येत् । अयं भावः-यत्र नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावादिलक्षणा भेदा ज्ञायन्ते, तत्र एमिः सर्वैरपि भेदैर्वस्तुनो निक्षेपो भवति । यत्र तु सर्वे भेदा न ज्ञायन्ते, तत्रापि नामादिभिश्चतुर्भिर्वस्तुनिक्षेप्तव्यमेव, नामादीनां सर्वव्यापकत्वात् । न हि किमपि सदृशं वस्तु विद्यते, यत्र नामादिचतुष्टयं नास्तीति ॥सू० ८॥ यदि वह निक्षेप्ता समस्त निक्षेपों को नहीं जानता हो तो भी उस वस्तु में वह नाम स्थापना, द्रव्य, और भावरूप चार निक्षेपों का न्यास करें।
भावार्थ-जहां पर नाम स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, और भाव आदिरूप निक्षेप भेद जाने जाते हैं वहां पर इन समस्त भी भेदों से वस्तु का निक्षेप होता है । परन्तु जहां ये सब भेद नहीं जाने जाते हैं वहां भी नाम आदि चार वस्तु का निक्षेप तो करना ही चाहिये । क्यों कि नामादिक सर्वव्यापक हैं। ऐसी कोई वस्तु नहीं हैं कि जिस में नामादि चतुष्टय नहीं हैं।
लोक में या आगम में जितना भी शब्दव्यवहार होता-हैं-वह कहां किस अपेक्षा से किया जा रहा है। इस ग्रन्थी को सुलझाना ही निक्षेपव्यवस्था का काम है। प्रयोजन के अनुसार एक ही शब्द के अनेक अर्थ हो જાણતા ન હોય, તે વસ્તુમાં પણ નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ નિક્ષેપના ચાર ભેદનું નિરૂપણ તે તેમણે કરવું જ જોઈએ.
ભાવાર્થ-જ્યાં નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભવ અને ભાવ આરિરૂપ નિક્ષેપ જાણી શકાય એમ હોય ત્યાં આ સમસ્ત ભેદેની અપેક્ષાએ વસ્તુને નિક્ષેપ થાય છે. પરંતુ જ્યાં આ બધાં ભેદો જાણી શકાતા ન હોય ત્યાં પણ નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવ, આ ચાર વસ્તુને નિક્ષેપ તે કરવું જ જોઈએ, કારણ કે નામાદિક ચારે વસ્તુઓ તે સર્વવ્યાપક છે. એવી કઈ પણ વસ્તુ નથી કે જેમાં નામાદિ ચતુષ્ટયને સદ્દભાવ ન હોય.
લોકમાં અથવા આગમમાં જેટલા શબ્દને વ્યવહાર થાય છે તે ક્યાં કંઈ દૃષ્ટિએ કરવામાં આવતું હોય છે, આ સમસ્યાને હલ કરવાનું જ નિક્ષેપ-યવસ્થાનું કામ છે. એક જ શબ્દના પ્રયજન અનુસાર અનેક અર્થ થતા હોય છે, તે અર્થ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू०९ आवश्यकस्प निक्षेपनिरूपणम्
आवश्यकं, ध्रुतं, स्कन्धम्, अध्ययनानि च निक्षेप्यामीति प्रतिज्ञातम् । तत्र प्रतिज्ञानुसारेण प्रथममावश्यकनिक्षेपार्थमाह
मूलम्-से कि तं आवस्सयं ? आवस्सयं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-नामावस्सयं ठवणावस्सयं दवावस्सयं भावावस्मयं ।सू०९। जाते हैं। ये अर्थ ही उस शब्द के न्यास-निक्षेप-अथवा विभाग हैं। शब्द का अर्थ यदि निक्षेप्ता नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव आदि रूप से जानता है तो उसका कर्तव्य है कि वह इन सब न्यासों का विश्लेपण उस शब्द के अर्थ को समझाने में करें। यदि वह इन सब मेदां से परिचित नहीं है तो कम से कम उस शब्दार्थ कर वह नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से विश्लेषण अवश्य करें। क्यों कि ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो इन चाररूप न हो। हरएक पदार्थ कम से कम नाम, स्थापना, द्रव्य
और भावरूप तो है ही। इन में से वक्ता किस निक्षेपरूप अर्थ का प्रतिपादन कर रहा है यह बात सहज में समझ में आ जाती है। इस से प्रकृत अर्थ का वोध और अप्रकृत अर्थ का निराकरण होनेरूप फल श्रोता को प्राप्त हो जाता है ।सत्र ८॥
___अब सूत्रकार प्रतिज्ञा के अनुसार आवश्यक इस शब्द का निक्षेपार्थ क्या है. इस बात को स्पष्ट करते हैं। क्यों कि उन्होंने अभी ऐसी प्रतिज्ञा की है कि में आवश्यक, त, स्कंध और अध्ययनों का निक्षेप करूँगा। જ તે શબ્દના ન્યાસ, નિક્ષેપ અથવા વિભાગરૂપ છે. જે નિક્ષેતા (નિક્ષેપ કરનાર ગુરુ) શબ્દનો અર્થ નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભવ અને ભાવ આદિ રૂપે જાણતું હોય, તે તેનું એ કર્તવ્ય થઈ પડે છે કે તેણે શબ્દને અર્થ સમજાવતી વખતે આ બધાં વાસો (વિભાગ)નું વિશ્લેષણકરવું જોઈએ. જે નિલેસા એ બધાં ભેદોથી પરિચિત ન હોય તે તેણે શબ્દાર્થનું નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવરૂપે તે અવશ્ય વિશ્લેષણ કરવું જ જોઈએ, કારણ કે એ કોઈ પદાર્થ નથી કે જેમાં નામ આદિ ઉપર્યુકત ચાર નિક્ષેપોને સદ્દભાવ જ ન હોય પ્રત્યેક પદાર્થ ઓછામાં એ નામ, સ્થાપના, દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ તે અવશ્ય હોય જ છે. આ નિક્ષેપમાંથી વક્તા કયા નિક્ષેપરૂપ અર્થનું પ્રતિપાદન કરી રહ્યો છે એ વાત સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. તેના દ્વારા પ્રકૃત અર્થને બોધ અને અપ્રકૃત અર્થનું નિરાકરણ થવારૂપ ફળ શ્રેતાને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. એ સ. ૮
હવે સૂત્રકાર પોતાની પ્રતિજ્ઞા અનુસાર “આવશ્યક” આ શબ્દને શો નિક્ષેપાર્થ છે, તે પ્રકટ કરે છે, કારણ કે તેમણે હમણાં જ (પૂર્વ સૂત્રમા) એવું વચન આપ્યું છે કે હું આવશ્યક, શ્રત, કન્ય અને અધ્યયનેને નિક્ષેપ કરીશ.”
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अनुयोगबारसूत्र छाया-अथ किं तदावस्यकम् आवश्यकं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्या-नामावश्यकं स्थापनावश्यकं, द्रव्यावश्यकं, भावावश्यकम् ॥सू० ९॥
टीहा-'से किं तं' इत्यादि___ 'से' इति 'अथ' शब्दार्थे । स चेह वाक्योपन्यासे । उक्तं च-'मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्न्येष्वथो अर्थ' इति । किं शब्दःप्रश्न । तदिति पूर्वप्रकान्तपरामर्श ततोऽयं निष्कर्पो-अथ तत्-पूर्वप्रक्रान्तम् आवश्यक किम् किं स्वरूपम् ? इति शिषप्रश्नः । उत्तरयति--'आररसयं' इत्यादिना । आवश्यकम-अवश्यं कर्तव्यम्-आवश्ययम्-श्रमणादिभिश्चतुर्विध संधैरवस्यमुभयकालं क्रियते इति भावः ।
से कि तं आवश्मयं इत्यादि ।।।सूत्र ९॥
शब्दार्थ--(से किं तं आवस्मयं) शिष्य पूछता है कि हे भदंत ! पूर्व प्रकान्त झावश्यकका क्या स्वरूप हैं ?
उत्तर--(आवस्सयं चउव्विहं पण्णत्त) आवक चार प्रकार का कहा गया है। (जहा) उसके वे चार प्रकार ये हैं-(नामावन्सय, ठावणावरसय, दव्वारसय भावावस्सय) नाम आवश्यक स्थापना आवश्यक द्रव्य आवश्यक, और भार आवश्यक । अथ शब्द का प्रयोग मङ्गल अनन्तर, आरंभ, प्रश्न और कास्न्य इन अर्थों में होता है। यहां इसका प्रयोग वाक्य के उपन्यास में हुआ है। "किं शब्द प्रश्न में आया है। अझ्य कर्तव्य जो होता है उसका नाम आश्यक है। साधुसावी और श्रावक श्राविकारूप चतुर्विध संघ के लिये प्रातःकाल और सायंकाल यह यम आवश्यक कर्तव्य कहा गया है।-अथवा
"से किं तं आवस्सयं" याह
सार्थ-(से कि तं आवस्सयं ?) शिप्य शुरुने मेयो प्रश्न छ छ । " सगवन् ! ५वरित मावश्यनु २१३५ छ ? ।
उत्त२--(आवस्मयं चउविहं पण्णत्तं) मावश्य या२ माना ४ा छ, (तं जहा) से यार ४ारे। नीचे प्रमाणे छ--(नामावरसयं, ठवणावस्सयं, दव्यावासय, भावावस्सय) (१) नाम यावश्य४, (२) स्थापना आवश्य, (3) द्रव्य मावश्य भने (४) मा मावश्य. "अथ"शहनी प्रयोग मन, अनन्त२, આરંભ, પ્રશ્ન, અને કાર્ચ, આટલા અર્થમાં થાય છે. અહીં તેને પ્રગ વાકયના उपन्यासमा थये। छ. ("किं") ५६ प्रश्न ५७१। निभित्ते १५२ डापाथी प्रश्ना
નું વાચક છે. જે અવશ્ય કરવા યોગ્ય હોય છે તેને આવશ્યક કહે છે. સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક અને અવિકા રૂપ ચતુર્વિધ સંઘને સવારે અને સાંજે (સાયંકાળે અવશ્ય કર્તવ્ય (કરવા ગ્ય) અમુક જે કાર્યો છે તેને આવશ્યક કહે છે. અથવા અવશ્ય શબ્દને આ પ્રમાણે પણ અર્થ થાય છે–અચલ, અરજ, અક્ષય, અવ્યાબાધ
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अनुगोववन्द्रिका टीका. सू० ९ आवश्यकस्य निक्षेपनिरूपणम् यदा-अचलमरूजमक्षर मावाधममन्दानन्दसन्द हरूपं शाश्वतं शिवसुखमवश्यंनिश्चयेन भवति स्मात्-तनावश्यकम् । यद्वा-आ-समन्ताद्वश्या भवन्ति इन्द्रि५ कषायादि भावशत्रको र स्मात्तदावश्यकम् । र ठा-ज्ञानादिगुणसमूहो मोक्षी वा आ-समन्ताद्वश्यः क्रियतेऽनेनेति-आवश्यकम् । ____ यद्वा-'आवस्सय' इत्यस्य 'आवासक' मितिच्छाया। विंशतिगंग्यका स्थानकेषु आवासयति-तदाराधने तत्परं करोत्यात्मानमित्यावासकं विधावश्यकमेव । यछा- श्रुतचारित्रलक्षणधर्मारामे आवासयति-निवासयात्मान मिन्यावासकम् ।
रदं आवरः कं चतुर्विध-चत्तम्रो विधा भेदा अम्येति चतुर्विध-चतुःप्रकारकं प्रज्ञप्त-प्ररूपितम् । तद्यथा- यथा- तदाब यकं चतुर्विध भवति तथोच्यते-नामावश्यकं, स्थापनावश्य, द्रव्यावर कं, भावावश्यकप, इत्येवं चतुर्विधमावश्यकं भवति।म..
अवस्यशब्द का अर्थ अचल अरुज अक्षय अव्यावाध अमन्दशानन्द (अन्यन्त आनंद का पुंज) का संदोहरूप जो शाश्वत शिव सुख है : ह है । यह शिव सुख निश्चय से जिगक प्रभाव दश जीवां को प्राप्त होता है :ह आवश्यक है । अथवा-इन्द्रिय और कपाय आदि भावशत्रु सर्व प्रकार से जिस से वश में हो जाते हैं वह आवश्यक है। अथवा-ज्ञानादिक गुणों का समूह या मक्ष जिसके द्वारा सर्व प्रकार से वश्य किया जाता है वह आवश्यक है । अथवा-"आवासयं" की संस्कृत छाग "आवासक" एसी भी है-जो २० ग्थानों में-अर्थात् इन स्थानों की आराधना में-आत्मा को तत्पर बनाता हैं उसका नाम आवासक है और वे बद्ध प्रकार के आवश्यक ही हैं। अथवा-श्रतचारित्ररूप धर्मोद्यान में जो आत्मा का निवास करता है वह आवामक है। यह आवासकम्प आरमक चार प्रकार का कथित हुआ है । ।मत्र ".॥ અમન્દ આનંદના સ દાહરૂપ જે શાશ્વત પ્રિ સુખ છે તેને અવશ્ય કરે છે. જેના પ્રભાવથી જીવને તે શિવ સુખની અવશ્ય પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે, તે વરનું નામ આવશ્યક છે. અથવા ઇન્દ્રિયે અને પાય આદિ ભાવ જેના દ્વારા રા પ્રકારે વશ થઈ જાય છે, તેનું નામ આવશ્યક છે. અથવા ગાનાદિ ગુણના આ છે ના. મક્ષ જેના દ્વારા સર્વ પ્રકારે વર્ષ (પાતાને અધીન) કરવામાં આવે છે, તેનું નામ भा१श्य: छ. गया 'आवम्मय' । पानी २२21 ४ास "भावामा । થાય છે. એ દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તો આવશ્યકના અર્થ આ પ્રમાણ પણ થાય છે-જે ૨૦ સ્થાનની આરાધના કરવામાં પોતાના આત્માને પ્રવૃત્ત રાખે છે તેનું નામ અવાચક છે, અને એવાં છ પ્રકારના જ આવશ્યક છે. અથવા શ્રત ચારિત્રરૂપ ધર્મધ્યાનમાં જે આત્મા નિવાસ કરે છે તેને અવારક કહે છે. તે આવાં રૂપ આવશ્યક ચાર પ્રકારના કહ્યા છે, જે સુ. ૯ |
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अनुयोगाररसे सम्प्रति नमावश्यकस्य स्वरूपं प्रतिपादयितुं सूत्रकार आह
मूलम्-से कि तं नामावस्सयं ?, नामावस्सयं जस्स णं जीवस्स वो अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा तदुभयस्स वा तदु. भयाणं वा, आवस्सएत्ति नामं कजइ, से तं नोमावस्सयं ॥सू०१०॥
छाया-अथ किं तद् नामावश्यकम् ? नामावश्यकं-यस्य खलु जीवस्य वा अबीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा, तदुभयस्य वा, तदुभयेषां वा आवश्यकमिति नाम क्रियते, तदेतन्नामावश्यकम् ॥ सू० १०॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं तं नामावःसय' इति । अथ कि तन्नामावश्यकम् ? उत्तरयति-नामावश्यकम्-एवं भवति यस्य खलु जीवस्य वा अजीवस्य वा. जीवानां वा अजीवानां वा, तदुभयस्य वा जीवाजीवोभयस्य वा, तदुभयेषां वा-जीवाजीवोभयेषां वा आवश्यक मिति नाम क्रियते तदेतन्नामाव
अप कार नाम आवश्यक का क्या स्वरूप हैं इसे प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कथन करते हैं-"से किं तं नामावस्सयं" इत्यादि । ॥ सत्र १०॥
शब्दार्थ--शिष्य पूछता है कि हे भदंत । (से किं तं नामावस्सयं) पूर्व प्रक्रान्त नाम आवश्यक का क्या स्वरूप है ! उत्तर--(नामावस्सयं) नाम आवशयक का स्वरूप इस प्रकार से है-(जस्स णं जीवस्स वा अजीरस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं वा) जिस सिसी जीर का अथवा अजीब का, या अनेकजीवों का या अनेक अजीवों का (तदुभयरस वा तदुभयाणं वा) अथवा जीवअजीब दोनों का, या जीवाजीवों का (आयस्सएत्ति नोमं कज्जइ] आवश्यक ऐसा जो नाम रख लिया जाता है (से तं नामावस्सयं) वह नाम आवशयक है । नाम
હવે સત્રકાર નામ આવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે, એ વાતનું પ્રતિપાદન ४२वा माटे नायना सूत्रनु उयन रे छ-"से कि तं नामावस्सय" त्या:
शा-शिष्य गुरुने । प्रश्न पूछे छे 3-(से किं तं नामावरसय ) 3 ભગવન પૂર્વોક્ત નામ આવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(नामावस्सय) नाम भापश्यनु भा प्रा२नु २५३५ ४-(जस्स गं जीवास बा अजीवस्स बा, जीवाणं वा अजीवाणं वा) आई पर्नु मया मनु, भने ७वानु भने ५०वानु, (तदुभयरस वा तदुभयाणं वा) અથવા જીવ અછવ બન્નેનું અથવા છાનું અને અજીવોનું (છ અને અછ अन्न) (आवस्सएत्ति नामं कज्जइ) "मावश्य" मेरे नाम मामा भावे छ. (से तं नामावासयं) तेरे नाम मा१श्य ४९ छे. नाम मा१श्यमा नाम
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अनुयोगपन्द्रिका टीका सू० १० नामावश्यकस्वरूपनिरूपणम् श्वकर । नाम च तदावस्यकं वेति नामावश्यकं नामरूपमावश्यकमित्यर्थः । यहा-जीवादिवस्तु नामावश्यकं भाति, नाम्ना-नाममात्रेण आवश्यकं नामा श्यकमिति व्युत्पत्तिसंभवात् । यदि जीवादि-वस्तुन आवश्यकमिति नाम क्रियते तदा जीवादिवस्तु नाममात्रेणावश्यकं भवतीति नामा३श्यकशब्दार्थों जीवादिवस्तुभवतीति भावः। नाम्नो लक्षणं चेदम-"यद्वस्तुनोऽभिधानं, स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् "अपर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं तथा।" इति । अयं भाव - 'यवस्तुनोऽमिशन' वस्तुनः इन्द्रादेः यदभिधानम् इन्द्रेति वर्णपञ्चकानुपूर्वीरूपं आरत्यक में नाम ही आवश्यक हो जाता है। अर्थात् “आवश्यक" ऐसा नाम उस वस्तु का रख लिया जाता है। तात्पर्य कहने का यह है कि किसी भी जीवादिक का "आवश्यक" ऐसा जो व्यवहार में इच्छानुसार गुणनिरपेक्ष नाम रख लिया जाया करता है वह "आवश्यक का नामनिक्षेप है। इस मामनिक्षेप में वस्तु केवल "आवश्यक" इस नाम मात्र से ही उसरूप कही जाती है। इस नामनिक्षेप में तदनुरूप गुणों की आवश्यकता नहीं होती है। केवल व्यवहार चलाने के लिये ही ऐसा किया जाता है। अतः नाम मात्रेण आवश्यकं नामाश्वयकं" इस व्युत्पत्ति के अनुसार वह आवश्यकरूप वस्तु नाम मात्र से आवश्यक कहा जाता है। आवश्यक जैसेगुण उसमें नही होते । इस विषय का खुलासा अर्थ इस प्रकार से है-जब किसी जीवादि वस्तु का "आवश्यक" ऐसा नाम रख लिया जाता है उस समय वह जीवादिक वस्तु नाम मात्र से आवश्यक कहलाती है। इस प्रकार नामाप आवश्य: इस જ આવશ્યક થઈ જાય છે. એટલે કે તે વસ્તુનું “આવશ્યક એવું નામ રાખવામાં આવે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કઈ પણ જીવાદિકનું આવયક” એવું જે ગુનિરપેક્ષ (ગુણની અપેક્ષાથી રહિત) નામ. ઈચ્છાનુસાર વ્યવહાર નક્કી કરવામાં આવે છે તેને આવશ્યક નામ-નિક્ષેપ” કહે છે. આ નામનિક્ષેપમાં વસ્તુને કેવળ “આવશ્યક એવા નામ માત્રથી જ તે રૂપે ઓળખવામાં આવે છે. આ નામ નિપમાં તેને અનુરૂપ હેય એવા ગુણેની આવશ્યકતા રહેતી નથી. Bण व्यवहार सापाने निमित्त । मेवु ४२वामां आवे छ. तेथी "नाममात्रेण
आवश्यकं नामावण' मा व्युत्पत्ति अनुसार ते सावश्य४३५ वरतुने नाम માત્રની અપેક્ષાએ જ-એટલે કે નામ પુરતી જ આવશ્યક કહેવામાં આવે છે–જો કે આવશ્યકને અનુરૂપ ગુણોને તે વસ્તુમાં અભાવ હોય છે. આ વિષયનું વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ હવે કરવામાં આવે છે—જ્યારે કોઈ વેદિક વસ્તુનું “આવશ્યક એવું નામ રાખવામાં આવે છે. ત્યારે તે જીવાદિક વસ્તુને નામમાત્રની અપેક્ષાએ જ આવશ્યક
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अनयोगदारखने तन्नाम, इति प्रथमः प्रकारः। अथ द्वितीयेन प्रशारण नाम्नो लक्षणमाह'स्थितमन्यार्थे तदर्थ निरपेक्ष पर्यायानभिधेयं च' इति । अन्याथे-गोपालदारकादौ स्थितम्-इन्द्रेति नाम तदर्थनिरपेक्षतः य प्रसिद्धस्य इन्द्रश-दस्य परमश्वर्यादिरूपो योऽर्थस्तन्निरपेक्ष भवति, गोपालदारकादो परमैश्वर्यादेरभाात् । तथा-गोपालदारकादौ स्थितम् 'द्र इति नाम :न्द्रम्य ये पर्यायाः शक्रादयस्तदनभिधेयंच भवति। शक्रादौ इन्द्रेति प्रसिद्धं नाम वाच्यार्थशून्ये गोपालदारकाशब्द का वह जीवादिरूप वस्तु वाच्यार्थ हो जाता है। नाम या लक्षण इस प्रकार से कहा गया है___ ".स्तुनो यद भधानं तन्नाम' वातु का जा व्याहार में नाम रहे ह नाम है । जैसे किसी इन्द्रादिरूप वस्तु का इन्द्र इनमें इन-द्-र-अ-इन पांच अक्षरों की आनुपुर्वीरूप आभिधान यह नाम का प्रथम प्रकार है। नाम के लक्षण का द्वितीय प्रकार इस तरह से है-"थितमन्यार्थे निरपेक्षं पर्यायानभिधेयं च" किसी गोपाल के लडके का नाम किसी ने इन्द्र ऐसा रखदिया-उसमें परमैश्वर्य आदिरूप जो इन्द्रशब्द का अर्थ है वह है नहीं--क्यों कि वह तो ग्वाले का लडका है उस में परमेश्वर्य का होना कहां से आ सकता है. उसका तो उसमें अभाव ही है-इमलिये उसका इन्द्र र ह नाम अपने अर्थ से निरपेक्ष है। और इन्द्र के जो शक पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द है उन से भी वह अनभिधेय (नहीं कहने योग्य) है। इन पर्यावाची शब्दों से अभिधेय तो इन्द्र ही हो सकता है। अतः કહેવામાં આવે છે. આ રીતે તે જીવાદિરૂપ વરતુ નામરૂપ આવશ્યક આ શબ્દને વાગ્યાથ બની જાય છે. નામનું લક્ષણ આ પ્રમાણે કહ્યું છે.
"वस्तुनो यदभिधानं तन्नाम" परतुरे व्यवहारमा नाम २९ तेनु । નામ નામ છે. જેમ કે કોઈ ઈન્દ્રાદિરૂપ વસ્તુનું ઈન્દ્ર” એવું પાંચ અક્ષરોની આનુપૂવરૂપ અભિધાન, આ નામને પ્રથમ પ્રકાર છે નામના લક્ષણો બીજે પ્રકાર मा प्रभारी छ-"स्थितमन्मार्थे तदर्थनिरपेक्ष पनि भिधेयं च" गाना પુત્રનું નામ કેઈએ ઈન્દ્ર પાડયું “ઈન્દ્ર પદ તે પરમ એશ્વર્યનું વાચક છે. ગોવાળના ઈન્દ્ર' નામના પુત્રમાં આ એશ્વર્ય કયાંથી સંભવી શકે? તેમાં તે આ ગુણને અભાવ જ હોય છે. આ રીતે તેનું આ નામ પિતાના અર્થની અપેક્ષાએ તો બરાબર લાગતું નથી. આ રીતે અર્થની અપેક્ષા રાખ્યા વિના પણ કોઈ વસ્તુ કે વ્યક્તિને અમુક નામે ઓળખવામાં આવતી હોય છે. વળી શકે. પુરન્દર આદિ જે શબ્દ ઈન્દ્રના પર્યાયવાચી છે. તેમના દ્વારા પણ તે અનભિધેય છે. પર્યાયવાચી શબ્દ દ્વારા અભિધેય તે ઈન્દ્ર જ હોઈ શકે છે. આ રીતે વાળના બાળકને ઈદ્ર એવું
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अनुयोगचन्द्रिका टीका १० नामावश्यकस्वरूपनिरूपणम् दावागेपितं, तदपि नाम भवतीति बोध्यम् । तृतीयप्रकारेणापि तल्लक्षणमाह'याच्छिकं च तथा' इति । तथा यदृच्छया कमप्यर्थमनाश्रित्य स्वेच्छया तथाविधव्युत्पत्तिशून्यं “डित्थडवित्यादिरूपं नाम क्रियते, तदपि नाम। इति त्रिविध नामलक्षणम् । त्रिविधिमपि नाम अवश्यकरणीयत्वाद नामावश्यकमुच्यते । अत्र सूत्रे 'वा' शब्दाः विकल्पार्थकाः।
ननु जीवस्य 'आवश्कर' इति नाम का संभवत ? उच्यते-यथा कश्चिलं के जीवस्य स्वपुत्रादे 'देवदत्त' इत्यादि नाम करोति तथा कश्चित् स्वेगोपालदारक (बालक) का इन्द्र ऐसा नाम जो कि शक्र आदि में प्रसिद्ध है वाच्यार्थ से शून्य बने हुए उस गोपालदारक में आरोपित किया गया है। नाम के लक्षण का यह द्वितीय प्रकार है । तथा जो यदृच्छा से नाम रख लिये जाते हैं वे यादृच्छिक नाम हैं जैसे किसी अर्थ की अपेक्षा किये विना ही डिस्थ डवित्थ इत्यादि नाम तथाविध व्युपनि से रहित रखे जाते हैं। इन नामों के रखने में रखनेवाले की इच्छा होती है। इस तरह यह तीन प्रकार नाम के लक्षण हैं । ये तीनों प्रकार के नाम अवश्यकरणीय होने के कारण नाम आवश्यक कहे जाते है ।
शंका--जीवका "आवश्यक" एमा नाम कैसे संभवित होता है ? જે નામ રાખવામાં આવ્યું છે તે વાયાર્થથી રહિત જ લાગે છે. શક આદિને અનુલક્ષીને જયારે ઈન્દ્ર” નામ વપરાય છે. ત્યારે તે તે નામ તેના વાગ્યાથથી યુકત લાગે છે. આ રીત વાગ્યાથે સાથે મેળ ન ખાય અથવા જે નામમાં વાચ્યાર્થ ને જ અભાવ હોય એવું નામ પણ કઈ કઈ વાર રાખવામાં આવતું હોય છે. નામના લક્ષણને આ પ્રકાર સમજે. તથા જે નામ ઇચ્છા અનુસાર રાખવામાં આવે છે, તે નાવને યાદૃછિક નામ કહે छ. म छ भनी अपेक्षा राण्या विना "डित्थ, डविथ" त्यात, ते પ્રકારની વ્યુત્પત્તિથી રહિત નામે પણ રાખવામાં આવે છે. આ પ્રકારના નામે રાખવામાં તે નામ રાખનારની ઈચ્છા જ મુખ્ય ભાગ ભજવતી હોય છે. नामनु । श्रीon 11२नु सक्ष है. मा शते ५॥ मां "न्द्र" નામ સાર્થક લાગે છે, બીજા પ્રકારમાં ગોવાળના પુત્રનું "ઈન્દ્ર” નામ તેના અર્થ પ્રમાણે ગુણથી સંપન્ન લાગતું નથી ત્રીજા પ્રકારના "डित्थ, डवित्थ" आदि नाभी / ५५ प्रारना मथनी पक्षा विना मात्र નામ રાખનારની ઈચ્છાનુસાર રાખવામાં આવે છે. આ ત્રણ પ્રકારનાં નામ અવશ્ય કરણીય હોવાથી તેમને આવશ્યક કહેવામાં આવે છે.
શંકા-જીવનું “આવશ્યક એવું નામ કેવી રીતે સંભવી શકે છે?
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अनुयोगद्वार च्छावशात् स्वपुत्रादेरावश्यकमिति करोति । भावावश्यक स्वरूपशून्ये गोपालदारकादौ आवश्यकेति नामकरणे नाम्ना-नाममात्रेणावश्यकं नामावश्यकं गोपालदारकादि भवति ।
अजीवस्यावश्यकमिति नाम कथं संभवति । उच्यते - 'आवश्यकावासक' शब्दयोरेकार्थता प्रोक्ता । लोके हि-शुष्कोऽचित्तो बहुकोटराकीणों लोऽन्यो
उत्तर-जैसे कोई व्यक्ति अपने पुत्र का नाम देवदत्त रख लेता है उसे देवने तो दिया नहीं है-परन्तु लोक व्यवहार चलाने के लिये ऐसा किया जाता है-उसी तरह कोई ग्वाला आदि अपनी इच्छा से अपने पुत्र आदि का नाम “आवश्यक" ऐसा रस्त्रलें तो यह आवश्यक का नाम निक्षेप है। वास्तव में आवश्यक जैसे गुण उस गोपालदारक में नहीं हैं-यह तो उन से शून्य है-अर्थात् भावावश्यक से वह रहित है-उस में आवश्यक ऐसा जो नामकरण किया गया है वह एक जीव को आश्रित नाम मात्र का आवश्यक है। इस नाम मात्र आवश्यक का वाच्य बह गोपालदारक है। एकं भजीव में आवश्यक ऐसा नाम निक्षेप इस प्रकार से पटित करना चाहिये
आवश्यक और आवासक इन दोनों शब्दों में एकार्थता अमी २ कही गई है-सो इस दृष्टि को ध्यान में रखकर अजीव में "भावश्यक" यह नाम ऐसे घटित हो जाता है कि किसी व्यक्तिने किसी एक शुष्क (पखे) और
ઉત્તર–જેમ કેઈ વ્યકિત પિતાના પુત્રનું નામ દેવદત્ત રાખે છે, જે કે દેવે તેને તે પુત્ર આપ્યો હતો નથી, પરંતુ લેકવ્યવહાર ચલાવવાને એવું કોઈ પણ નામ રાખવું જ પડે છે, એ જ પ્રમાણે જે કઈ વાળ આદિ વ્યકિત પિતાની ઈચ્છાથી પિતાના પુત્રનું નામ “આવશ્યક” રાખી શકે છે. તે આ પ્રકારનું નામ રાખવું તેનું નામ જ આવશ્યક નામનિક્ષેપ સમજ. ખરી રીતે તે તે ગોવાળના પુત્રમાં આવશ્યક જેવા ગુણે તે હેતા નથી–એ પ્રકારના ગુણેથી તે તે રહિત જ હોય છે. એટલે કે ભાવાવાયકથી તે બાળક રહિત જ છે, છતાં પણ તેમાં “આવશ્યક એવા નામનું જ આપણ કરવામાં આવ્યું છે તે એક જીવને આશ્રિત નામ માત્રનું જ “આવશ્યક છે. આ નામ માત્ર ના આવશ્યક વાગ્યે તે ગોવાળપુત્ર છે. લેક વ્યવહાર ચલાવવા નિમિત્તે જ આવી કઈ પણ “સંજ્ઞા” તે બાળકને ઓળખવા માટે ઉપયોગી થઈ પડે છે એટલે જેમ દેવદત્ત નામ રાખી શકાય છે, તેમ “આવશ્યક” નામ પણ શા માટે ન રાખી શકાય કેઈ એક અજીવમાં “આવશ્યક” એ નામ નિક્ષેપ આ પ્રકારે વટાવી શકાય છે-આ સૂત્રમાં જ આગળ એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે આવશ્યક અને આવાસક, આ બને સમનાથી પદે છે. આ દૃષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે અછવમાં “આવશ્યક એવું નામ આ પ્રમાણે સુસંગત લાગે છે–
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १० नामावश्यकस्वरूपनिरूपणम् वा तथाविधः कश्चित् पदार्थ विशेषः सादेरावासोऽयमिति प्रोच्यते । स सक्षोऽन्यो वा तथाविधः पदार्थो यद्यप्यनन्तः परमाणुलक्षणेरजीवद्रव्यनिष्पन्नस्तथाऽप्येकसन्धपरिणतिमाश्रित्य एकाजीवत्वेन विवक्षितः। स्वार्थिक क प्रत्यये कृते आवास एव आवासकमिति नाम एकस्याजीवस्य सिद्धम् । ____बहुनामपि जीवानामावासकमिति नाम संमति । यथा इष्टकापाकाद्यग्निमूषिकावास इत्युच्यते । इष्टापाकाद्यग्नौ हि मूपिकाः संमृच्छिन्ति । अतम्तेषामसंख्येयानामग्निजीवानां पूर्वग्दागसमिति नाम सिद्धम् । बहूनामजीनामपि आपसमिति नाम भवति । दृश्यते हि बहुभिरचित्तै स्तृणेंनी डं अनेक कोटरों से युक्त वृक्ष को अथवा इसी प्रकार के किसी दूसरे पदार्थ को कि जिस में सादिक का निवास स्थान है देखकर कह दिया कि यह वृक्षादिशुष्क पदार्थ सर्पादिक का निवासस्थान है-आवासभूत है-। लोक में ऐसा व्यवहार चलता है-इसलिये उस अजीव एक वृक्षादि पदार्थ का "आवासक या आवश्यक ऐसा नाम रखना यह एक अजीव के आश्रित नाम निक्षेप का विषय है। यद्यपि वह वृक्षादि पदार्थ अनंत परमाणुरूप अजीव द्रव्यों से निष्पन्न हुआ है तो मी एक स्कंधरूप परिणति को आश्रित करके वह एक अजीवरूप विवक्षित किया गया है। तात्पर्य कहने का यह है कि यदि कोई यहां पर ऐसी आशंका करें कि यहां पर एक अजीव पदार्थ को लेकर आवश्यक ऐसा नाम निक्षेप का विषय प्रस्तुत है-शुष्क-वृक्ष में आपने इसे घटित किया है सो वह शुष्क वृक्ष एक अजीव पदार्थ नहीं है-वह तो अनेक परमाणु
કોઈ એક શુક (સૂકા) અને અનેક બખેલેથી યુક્ત વૃક્ષમાં સર્પાદિક જેને વાસ જોઈને એમ કહી દેવામાં આવે છે કે આ વૃક્ષ તે સર્પાદિકનું નિવાસસ્થાન છે અથવા સપદિકના આવાસરૂપ છે. લોકમાં આ પ્રકારનો વ્યવહાર ચાલે છે. તેથી તે વૃક્ષાદિ અજીવ પદાર્થનું “આવાસક અથવા આવશ્યક એવું નામ રાખવું તે એક અજીવમાં “આવાસક અથવા આવશ્યક એવા નામ નિક્ષેપરૂપ સમજવું. જો કે તે વૃક્ષાદિ પદાર્થ અનંત પરમાણુ રૂપ અવ દ્રવ્યો વડે નિષ્પન્ન થયેલ હોય છે, છતાં પણ એક સ્કલ્પરૂપ પરિણતિને આશ્રય લઈને તેને એક અછવરૂપે પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. અહીં કેઈ એવી શંકા કરે કે અહીં તે એક અજીવ પદાર્થની અપેક્ષાએ આવશ્યક એવા નામનિક્ષેપની વાત ચાલી રહી છે, આપે તે શુષ્ક વૃક્ષમાં આવશ્યક' એ નામનિક્ષેપ કર્યો છે, પરંતુ તે શુષ્ક વૃક્ષ એક અજીવ પદાર્થરૂપ નથી. તે તે અનેક પરમાણુ પુંજમાંથી નિષ્પન થયેલું હોવાથી અનેક અજીવ દ્રવ રૂપ પદાર્થ જ છે, તે આ શંકાનું સમાધાન આ કથન દ્વારા કરવામાં આવ્યું છે. અહીં એમ બતાવવામાં આવ્યું છે કે શુષ્ક વૃક્ષ છે કે અનેક પોદુગલિક પરમાણુ
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अनुयोगदारसूत्रे सम्पद्यते । तद्धि पक्षिणामा सय मित्युच्यते । इत्थं बहनामजीमपि 'आसमिति नाम सिद्धम् ।
पुंज से निष्पन्न होने के कारण अनेक अजीव द्रव्यरूप पदार्थ है-सो इस शंका का समाधान इस कथन में किया गया है। कहा गया है कि यह शुष्क पदार्थ यद्यपि अनेक पौद्गलि परमाणुओं के पुंज से निष्पन्न हुआ हैपरन्तु उसरूप की यहां विवक्षा नहीं है- हां तो उन सबके संबन्ध से एक परिणतिरूप हुए ए: सांधद्रव्य की विधा है-इससे ह एक अजीव द्रव्य की वि है-इससे बह ए: अजी: द्र, हैं। अनेक अजीव द्रव्य नहीं। ___ अन जी में आवासक ऐसा नाम इन्न प्रर से घटित करना चाहियेइष्टका (इंट) पाक आदि की जो अग्नि होती है उसमें अनेक मूपिया. संमृच्छन जन्म धारण करती हैं। इस अपेक्षा :ह इष्टपाक आदि की अग्नि मृपिकावासरूप से ६ह दी जाती है। इस तरह उन असात अग्नि जीवों का आबासर. एसा नाम सिद्ध हो जाता है। अने: अजीकों का आ सा एसा नाम इस प्रकार से होता है कि अने: अचित्त तिनकों से नीड-घोंसला-बनता है।
और उसमें पक्षी रहते हैं इसलिये ह" पक्षियों का आवास हैं-इम नाम से पहा जाता है। अतः अनेक अजीव में आस : सा आमा नागनिक्षेत्र
એના પુંજથી નિ પન્ન થયેલું છે, પરંતુ અહીં તે પ્રકારની વિવક્ષા કરવામાં આવી નથી. અહીં તે તે બધાના સંબંધથી એક પરિણતિરૂપ થયેલા એક સ્કન્ધ દ્રવ્યની જ વિવક્ષા ચાલી રહી છે. તેથી તેને અહીં એક અજીવ દ્રવ્ય રૂપે જ પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે, અનેક અજીવ દ્રવ્ય રૂપે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ નથી.
અનેક જેમાં “આવશ્યક” એવું નામ આ પ્રમાણે ઘટિત કરવું જોઈએ
ઇટે પકવવાના ભઠ્ઠા આદિની જે અગ્નિ હોય છે તેમાં અનેક મૂપિકાઓ. (ઉંદરડીએ) સંમૂડ્ઝન જન્મ ધારણ કરે છે. તેથી તે ભદ્રા આદિની અગ્નિને મૃષિકાવાસરૂપે પણ ઓળખવામાં આવે છે. આ રીતે તે અસંખ્યાત અગ્નિનું "मापास" से नाम सिद्ध थ य छे.
અનેક અજીવનું આવાસક એવું નામ આ પ્રમાણે સિદ્ધ કહી શકાય છે.
અનેક અચિત્ત તણખલાંઓની મદદથી માળે બને છે, અને તેમાં પક્ષીઓ રહે છે, તે કારણે તેને પક્ષીઓના આવાસરૂપ ગણને એવું કહેવામાં આવે છે કે આ પક્ષીઓને આવાસક છે. આ રીતે અનેક અછવામાં “આવાસક” એ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका १० नामावश्यकस्वरूपनिरूपणम्
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जीवाजी भययापि 'आवासकमिति नाम संभ ति । दृश्यते हि -जलाशयोद्यानजलयन्त्रादिसहितः प्रासादादिप्रदेशो राजादेशास उच्ते । अ* चजलाशयागादयः सचेतन रत्नाद थ जीवाः सन्ति । इष्टका वादयोऽचेतनरत्नादः श्राजीवाः सन्ति । एतदुभर निप्पन्नस्य राजप्रासादादि - प्रदेशस्य आवा सकं नाम सिध्यति ।
उभयेषां जीनां चापि 'आवासक' मिति नाम संभवति । दृश्यते हि - राजप्रासादयुक्तं सम्पूर्ण नगरं राजादीनामागस उच्यते । सरलः सौधर्मादिल्प इन्द्रादीनामाास उच्यते । इत्थं बहूनां जी नामजीगनां च सम्मिलितानाम् 'आवासरम्' इति नाम सिद्ध । राजप्रासादस्य लघुतादेकमे जीगसित्र हो जाता है । और और अमीर इन दोनों में आ सक यह नाम निक्षेप इस प्रकार से बनता है कि राजमहल का प्रदेश लाश, उद्यान एवं जल यन्त्र- नल - आदि से युक्त होता है वह राजा आदिका आवासस्थान हैइस नाम से कहा जाता है। वहां जो जलाशय, उद्यान एवं सचेतन रत्नादिक हैं- वे तो सचिन इन्य हैं और इष्टका (ईंट या पाष्ठ, अचेतन रत्नादि हैं वे सब अजी हैं। इन दोनों से निष्पन्न हुए उस राजमहल आदि के प्रदेश का नाम आगम होने के कारण "आवास" का निक्षेप है । इसी प्रकार से जीव अब इन दोनों का भी आवासक यह नाम इस प्रकार से घटित होता है कि रासाद से युक्त समत नगरादिक का आवास है इस रूप से बहार में कह दिया जाता है। तथा सौधर्म आदि समस्त कल्प इन्द्रादिवों के आवास से व्यवहृत होते हैं । इस तरह संमिलित अनेक अजीव और जीवों का "आवास" ऐसा नाम सिद्ध हो जाता આવાસને નામનિક્ષેપ સિદ્ધ થઈ જ્ન્મ છે. જીવ જીવ, એ બન્નેમ અવાસ’ આ નાગનિક્ષેપ આ પ્રમાણે સિદ્ધ કરી શકાય છે.
દ્રવ્યરૂપ
જે રાજમહેલના પ્રદેશ જાય, ઉદ્યાન અને જળયંત્ર (ન) આદિથી યુકત હાય છે, તેને રાજા આદનું આવાસ થાન છે,” એ રૂપે કહેવામાં આવે છે, ત્યાં જે ઉદ્યાન, જાશય અને સચંતન રાદિક વસ્તુ ઇં, તે તા સચિત્ત જ છે, અને ઇંટની દીવાલા, અને ચૈતન રત્નાદિકા વગેરે જે વસ્તુએ છે, તે અચિત્તદૃશ્યરૂપ હોવાથી અજીવ છે, એ બન્નેથી જેનુ નિર્માણ થયું છે. એવા તે મહેલ આદિના પ્રદેશનું નામ આવાસરૂપ હોવાને કાણે “આવાસકનું નિક્ષેપ બનેછે. એજ પ્રમાણે જીવાજીવાં પણ ‘અવાક’ નામનિક્ષેપ આ પ્રમણે ઘટાવી શકાય છે. રજપ્રાસાદથી યુક્ત સમસ્ત નગર “રાદિકના આવાસ છે.” આ વહારમાં કહેવામાં આવે છે. તથા સૌધર્મ આદિ સમાત કલ્પન ઇન્દ્રાદિકના આવાસ રૂપે વ્યરૂપ કહેવામાં આવે છે એ રીતે સ ંમિલિત અનેક અજીવે અને જીવાતું “આવાસક’’
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अनुयोगहारने जीवोभयं विवक्षितम् । नगरादीनां सौधर्मादिकल्पानां च महत्त्वाद् बहनि जीवाजीवोभयानि विवक्षितानि । इत्यं जीवाजीवोभयैकत्वबाहुत्वविषये एकत्वं बहुत्वं च विवक्षाधीनं द्रष्टव्यम् । एवमन्यत्रापि जीवादीनामावासकनाम यथासंभवं भावनीयम्। इदं हि दिङ्मात्रप्रदर्शनार्थ मुक्तम् इति नामावश्यक प्ररूपणा ॥सू०१०॥
अथ स्थापनाऽऽवश्यकं निरूपयितुं सूत्रकार आह
मूलम्-से किं तं ठवणावस्सयं ? ठवणावस्सयं जपणं कटकम्मे है। राजप्रासाद नगर एवं सौधर्म आदि की अपेक्षा लघु होने के कारण जीव और अजीव इन दोनों रूप से एक कहा गया है। तथा राजप्रासाद की अपेक्षा नगरादिक एवं सौधर्मकल्प महान-विशाल-होने के कारण अनेक जीव और अजीव रूप से विवक्षित, हुए हैं। इस प्रकार जीव, अजीर, और उभय में अनेकत्व का यह विचार विषक्षा के आधीन हुआ जानना चाहिये । इस प्रकार से अन्यत्र भी जीवादि कों का आवासक नाम यथा संभव समझ लेना चाहिये । यह जो यहाँ समझाया गया है वह तो बहुत ही संक्षेप से समझाया गया है।
इस प्रकार यह नाम आवश्यक की प्ररूपणा जाननी चाहिये।
भावार्थ-सूत्रकार ने यहां नाम आवश्यक का स्वरूप जीव अजीव आदि पदार्थों के एकत्व अनेकत्व को लेकर समझाया हैं। इसे व्यवहार में पहिले यों समझ लेना चाहिये-कि प्रत्येक शब्द का अर्थ चार प्रकार का होता है(१) नामरूप (२) स्थापनारूप, (३) द्रव्यस्प और चौथा भावरूप । शास्त्रीय परिभाषा में इन्हें निक्षेप कहा गया है। निक्षेप नाम रखने या न्यास का है। એવું નામ સિદ્ધ થઈ જાય છે. રાજપ્રાસાદ,નગર એને સૌધર્મકલ્પ આદિની અપેક્ષાએ જીવ અને અજી નાના હોવાને કારણે તે બન્નેને અહીં અવરૂપ એક શખથી જ પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે. તથા રાજમહેલ કરતાં નગર સાધર્માદિક વિશાળ હોવાને કારણે અનેક જીવ અને અજવરૂપે વિવક્ષિત થયેલ છે. આ રીતે જીવ. અજીવ અને ઉભયમાં એકત્વ અનેકત્વને આ વિચાર વિવલાને અધીન રહીને થયેલે સમજ. એજ પ્રકારે અન્યત્ર પણ જીવાદિકનું “આવાસક નામ યથા સંભવ સમજી લેવું જોઈએ. અહીં આ જે સમજૂતી આપવામાં આવી છે. તે તે બહુ જ સંક્ષિપ્તમાં આપવામાં આવી છે. આ પ્રકારની આ નામ આવશ્યકની પ્રરૂપણા સમજવી.
સૂત્રકારે અહીં નામ આવશ્યકનું સ્વરૂપ જીવ અજીવ આદિ પદાર્થોના એકત્વ અનેકવની અપેક્ષાએ સમજાવ્યું છે. આ બાબતમાં પહેલાં તે એ સમજી લેવું જોઈએ કે પ્રત્યેક શબ્દનો અર્થ ચાર પ્રકાર હોય છે. તે ચાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે.
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अनुयोमचन्द्रिका टीका सू० १० नामावश्यकस्वरूपनिरूपणम् वा पोत्थकम्मे वा, चित्तकम्मे वा, लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगो वा सब्भावठवणा वा असब्भावठवणा वा आवस्सए ति ठवणा ठविजइ, से तं ठवणावस्सयं ॥सू० ११ ॥ जिसमें व्युत्पत्ति की प्रधानता नहीं है किन्तु जो मातापिता या इतरलोगों के संकेत बल से जाना जाता हैं वह नामनिक्षेप का विषय है। जैसे किसी व्यक्ति में “महावीर" जैसे गुण नहीं होने पर भी व्यवहार चलाने के निमित्त उसके माता पिता आदि जन उसका नाम महावीर रख लेते हैं । जो वस्तु असली वस्तु के सदृश आकार वाली है वह स्थापना निक्षेप का विषय है। जैसे जंबूद्वीप का नकशा अढाइद्वीप का नकशा तथा वृक्ष महेल आदि का चित्र । जा पदार्थ भाव का पूर्वरूप या उत्तररूप हो वह द्रब्यनिक्षेप का विषय है-जैसे जो वर्तमान में श्रावकपुत्र है वह आगे श्रावक बनेगा उसे श्रावक कहना। जिस शब्द के अर्थ में शब्द का व्युत्पत्ति या प्रवृत्ति निमित्त वर्तमान में बराबर घटित हो रहा हो वह भावनिक्षेप का विषय है। जैसे वर्तमान में महान् वीरता के कार्य करने वालेको महावीर कहना । इसी तरह से जिस जीवादि
(१) नाम३५ (२) २थापना३५, (3) द्रव्य३५ मन (४) मा१३५ शास्त्री. પરિભાષામાં તેને નામનિક્ષેપ કહેવામાં આવે છે. નિક્ષેપ એટલે નામ રાખવું અથવા न्यास (बिमा) ४२यो तेनु नाम निक्षेप छ.
જેમાં વ્યુત્પત્તિની પ્રધાનતા હોતી નથી પણ જે માતા, પિતા અથવા અન્ય લેના સંકેતને આધાર લઈને જાણી શકાય છે, એવું નામનિક્ષેપનું સ્વરૂપ અથવા એ નામનિક્ષેપનો વિષય છે. જેમકે કોઈ વ્યક્તિમાં મહાવીર જેવા ગુણોને અભાવ હેવા છતાં પણ વ્યવહાર ચલાવવાને નિમિત્તે તેના માતા, પિતા આદિ લોકો તેનું નામ મહાવીર રાખી લે છે જે વસ્તુ અસલી વસ્તુના સમાન આકારવાળી છે, તે સ્થાપના નિક્ષેપનો વિષય છે. જેમકે જંબુદ્વીપને નકશે, અઢીદ્વીપને નકશે, વૃક્ષ મહેલ આદિના ચિત્ર, આ બધા સ્થાપના નિક્ષેપના ઉદાહરણ છે.
જે પદાર્થ ભાવને પૂર્વરૂપ કે ઉત્તરરૂપ હોય, તે દ્રવ્યનિક્ષેપને વિષય છે. જેમકે જે અત્યારે શ્રાવકપુત્ર છે તે ભવિષ્યમાં શ્રાવક બનશે માટે તેને શ્રાવક કહે જોઈએ. આનું નામ દ્રવ્યનિક્ષેપ છે.
જે શબ્દના અર્થમાં શબ્દની વ્યુત્પત્તિ અથવા પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત વમાનમાં બરાબર ઘટાવી શકાતાં હેય. તે ભાવનિક્ષેપને વિષય છે જેમકે વર્તમાન સમયે મહાવીરતાનું કાર્ય કરનારને મહાવીર કહે, તે ભાવરૂપ નિક્ષેપ થય ગણાય.
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अनुयोमवार पदार्थ में आवश्यक जैसा एक भी गुण नहीं है और उसे आवश्यक इस माम से व्यवहार करना सो नाम आवश्यक है। नाम का तीन प्रकार के लक्षण से व्यवहार होता है-जहां नाम का व्युत्पत्ति या प्रवृत्ति का निमित्त घटित होता है वह नाम-नामनिक्षेप का विषय न हो कर भावनिक्षेप का विषय बनता है। जैसे परमैश्वर्य को भोगते हुए इन्द्र नामधारी व्यक्ति को इन्द्र इस नाम से पुकारना । यह नाम का प्रथम प्रकार है। हितीय प्रकार में जैसा नाम हो उसकी प्रत्ति का निमित्त व्युत्पत्ति का निमित्त उस में न हो किन्तु संकेत आदि हो तो यह नामनिक्षेप में परिणमित किया गया है जैसे गोपालदारकगोपाल बालक । तृतीय प्रकार में डित्य, डबित्य आदिरूढ शब्द कि जो व्युत्पत्ति रहित ही स्वेच्छानुसार प्रचलित होते है-लिये गये है। इन में भी प्रवृत्ति का निमित्त व्युत्पत्ति का निमित्त नहीं होता है किन्तु रूढि होती है। इस तरह केवल द्वितीय प्रकार ही नामनिक्षेप का विषय पडता है। अतः जिस में आवश्यक जैसे गुण नहीं हैं उस में आवश्यक इस नाम का न्यास (रखना)परना यह आवश्यक का नामनिक्षेप है। जीआदिक पदार्थों में यह निक्षेप कि.स
એજ પ્રમાણે જે જીવાદિ પદાર્થમાં “આવશ્યક એવો એક પણ ગુણ નથી, તે છવાદિ પદાર્થમાં “આવશ્યક' એવા નામને વ્યવહાર કરે, તેને નામ આવશ્યક કહે છે. નામને ત્રણ પ્રકારના લક્ષણોથી વ્યવહાર થાય છે-જ્યાં નામનું વ્યુત્પત્તિ અથવા પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત ઘટિત થતું હોય છે, તેનામ-નામનિક્ષેપને વિષય બનવાને બદલે ભાવનિક્ષેપનો વિષય બની જાય છે. જેમકે પરમ અિશ્વયંથી સંપન્ન એવી કઈ વ્યક્તિને “ઈન્દ્ર એવા નામે ઓળખવી. આ નામને પહેલા પ્રકાર છે.
નામને બીજો પ્રકાર–જેનું નામ હોય એવી પ્રવૃત્તિના નિમિત્તને અથવા વ્યુત્પત્તિના નિમિત્તને જેમાં સદૂભાવ ન હોય, પરંતુ સંકેત આદિને સદૂભાવ હોય તો તેને નામનિક્ષેપમાં પરિણમિત કરવામાં આવ્યું છે. જેમકે વાળના પુત્રનું “ઈન્દ્ર'નામ.
श्री प्रभा 'डित्य डवित्थ' मा ३० । १२ व्युत्पत्तिथी २हित છે અને બોલનારની ઈચ્છાનુસાર પ્રચલિત (ઉચ્ચારિત) થયેલ છે, તેમને ગણાવી શકાય છે. તેમાં પણ પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત અથવા વ્યુત્પત્તિનું નિમિત્ત હોતું નથી પણ રુઢિને જ સદ્દભાવ હોય છે. આ રીતે કેવળ બીજો પ્રકાર જ નામનિક્ષેપના વિષયરૂપ ગણી શકાય છે. તેથી જેમાં આવશ્યક જેવાં ગુણ નથી, તેમાં “આવશ્યક આ નામને ન્યાસ કરે તેને આવશ્યકને નામનિક્ષેપ કહે છે. હવાદિક પદાર્થોમાં આ નિક્ષેપ કેવા પ્રકારે ઘટિત કરવામાં આવ્યું છે, તે વિષયનું ટીકાકારે સૂત્રની
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अनुयोगचन्द्रिका टीका- ११ स्थापनावश्यक स्वरूपनिरूपणम्
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छाया: - अथ किं तत् स्थापनावश्यकम् ? स्थापनावश्यकं यत्खलु काष्टकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा लेप्यकर्मणि वा ग्रन्थिमेवा वेष्टिमे वा पूरिमे वा सङ्घातिमे वा अक्षे वा वराटके वा एको वा अनेको वा सद्भावस्थापनया वा असद्धावस्थापनया वा आवश्यकेति स्थाप्यते, तदेतत् स्थापनावश्यकम् ॥ ० ११॥ टीका- 'से किं तं' इत्यादि
'से किं तं ठवणावस्सयं' अथ किं तत् स्थापनावश्यकम् ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरमाह - 'ठवणावर सयं इत्यादि । स्थापनावश्यकम् - स्थाप्यते - क्रियते इति स्थापना । यथा - जम्बूद्वीप य मानचित्रम्, 'नक्शा' इति भाषाप्रसिद्धम् । आवश्यकमित्यनेन आवश्यक क्रियावान् श्रावकादिरिह गृह्यते । आवश्यक तद्वतो र भेदोपचारात् । काष्ठपाषाणादौ कृतं त य चित्रं ज्ञानादिगुणरहिताऽऽकृतिः थापना । प्रकार से घटित किया गया है यह विष सूत्र की टी में टीकाकारने स्पष्ट किया है । उसे भावार्थ में स्पष्ट करने की आश्यकता नहीं है । ।सूत्र १० ॥ अब छत्रकार स्थापना आयक का निरूपण करते हैं" से किं तं ठवणाः स्यं" इ यादि ।
शब्दार्थ - (से किं तं ठेवणावस्स) शिष्य प्रश्न करता है भत । स्थापना का क्या स्वरूप है ? -
-
उत्तरः- (ठवणावर सं) स्थापना आवश्य वासरूप इस प्रकार से हैजो की जावे उसका नाम स्थापना हैं । जैसे जंबूदीप का नशा, अढाई द्वीप का नशा है । आवश्यक शब्द से यह आवश्यक क्रियावाला श्रावक : आदि गृहीत हुआ है । क्यों कि आवश्यक क्रिया और आवश्यक क्रियावाले में अभेद का उपचार किया गया है । ष्ठपाषाण आदि में किया गया - उकेरा गया
ટીકામાં જ સ્પષ્ટીકરણ કરેલુ` છે. તથી ભાવામાં તેનુ' સ્પષ્ટીકરણ કરવાની જરૂરત रहेती नथी ॥ सू० १० ॥
હવે સૂત્રકાર સ્થાપના આવશ્યકનું નિરૂપણ કરે છે—
" से किं तं ठणावसथे" इत्याहि
शब्दार्थ - शिष्य गुइने मेवे ! प्रश्न पूछे छे - ( से किं तं ठणावस्सयं १) હે ભગવન્! સ્થાપના આવકનુ કેવુ' સ્વરૂપ છે ?
उत्तर- (ठवणावस्सयं) स्थापना आवश्यउनु स्वइयं मा अाउनु छे, ले કરવામાં આવે તેનું નામ સ્થાપના છે. જેમકે જ ભૂદ્રીપના નકશા, અઢીદ્વીપના નકશે, વગેરે સ્થાપના આવશ્યકરૂપ છે. આવશ્યક પદના પ્રયાગદ્વારા અહીં આવશ્યક ક્રિયાવાળા શ્રાવક વગેરે ગૃહીત થયા છે, કારણ કે આવશ્યક ક્રિયા અને અશ્યક ક્રિયા વાળમાં અભેદને ઉ પચાર કરવામાં આવ્યે છે. કાષ્ઠ પાષાણુ આદિમાં આલેખવામાં–
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तत्र श्रावकाद्यभेदोपचारात् स्थापनारूपमावश्यकमित्यर्थः । काष्ठकर्मादिषु आवश्यक क्रेयां कुर्वन्तो यत् स्थापनारूपाः श्रावकादयः स्थाप्यन्ते चित्ररूपेण तत् :स्थापनावश्यकामिति
तात्पर्यम् ! तदाह-जण्णं' इत्यादि । यखलु काष्टकर्मणि वा-काले समुत्की रूपके वा पुस्तकर्मणि वा । पुस्तं वस्त्रं तम्य कर्म-तन्निर्मिता पुचलिका बस्मिन् वा। अथवा-पोत्यकर्मणि' इतिच्छाया, पोत्थं पुस्तकं, तच्चेह संपुटकरूपम्, तत्र कर्म तन्मध्ये वर्तिकालिखितं रूपकं तम्मिन् वा । यद्वा-पोत्थं-पुस्तं ताडपत्रं, तत्र कर्म-तच्छेदनिष्पन्नं रूएकं तस्मिन् वा । चित्रकर्मणि वा-चित्रलिखिते रूपके वा लेप्यकर्मणि-लेप्यरूपके वा, ग्रन्थिमे वा-ग्रन्थेन निवृत्तं ग्रन्थिमं-नैपुण्यातिशयात् ग्रन्थिसमुदाय निष्पादितं रूपकं तस्मिन् वा । वेष्टिमे वा-वेष्टनेन-पुष्पवेप्टनक्रमेण निष्पन्नं रूपकं वेष्टिमं उसका चित्र जो कि ज्ञानादि गुणों से सर्वथा शून्य (रहित) होता है. वह स्थापना. निक्षेप है उसमें आवश्यक क्रिया को संपादन करने की आकृतिरूप में श्रावक आदि को का फोटो-पत्थर या काष्ठ के पटिये पर बनाया जाता हैं, सो चित्र यही स्थापनारूप आवश्यक है। इसी विषय को सूत्रकार "जणं" इत्यादि पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं-(जण्णं कठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा) जो आकृति काष्ठ में उकेरी जावे उसमें अथवा पुस्त-वस्त्र-कपडे पर चित्रित की जावे उसमें अथवा वस्त्र से पुत्तलिका के रूप में बनाई जावे उस में या पोत्यकर्मणि" पुस्तक के बीच में कुची से रंग आदि भर कर बनाई जावे उसमें अथवा ताड पत्र पर छेद करके बनाई जावे उसमें अथबा (चित्तकम्मे वा) चित्ररूप में बनाई जावे इसमें (लेप्पकम्मे वा) अथवा मृत्तिका को गिली करके बनाई जावे उसमें (गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संचाइमे वा) अथवा वस्त्र की गांठों के समुदाय से કોતરવામાં આવેલું તેનું ચિત્ર કે જે જ્ઞાનાદિ ગુણોથી સર્વથા વિહીન હોય છે, તે સ્થાપનાનિક્ષેપ છે. જેમાં આવશ્યક ક્રિયાને સંપાદન કરષાની આકૃતિરૂપે શ્રાવક આદિકનાં ચિત્રો પથ્થર પર અથવા લાકડાનાં પાટિયાં વગેરે પર બનાવવામાં આવે छ, तर ४ स्थापना ३५ आवश्य: छ. मे विषयने सा२ "जण्णं" त्यात પદ દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે–
(जण्णं कट्टकम्मे वा पोत्थकम्मे 1) रे माति et ५२ तरी ४८वामा આવે તેમાં અથવા પુસ્ત પર (વસ્ત્ર પર) ચિત્રિત કરવામાં આવે તેમાં, અથવા વસ્ત્ર भांथी दी३चे मनापामां आवे तमा अथवा-पोत्यकर्मणि" पुस्तनी मह२ पछी १ २ पूरीने मनापामा मावे तभी, अथवा (चित्तकम्मे वा) यत्र३२ २४ सन ४२वामां आवे तमां, (लेप्पकम्गे ना) ली- भाटीमाथी मनापामा भाव तेभां, (गंथिमे वा, वेढिमे वा, पुरिमे वा, संधाइमे वा) मयाsal anistra साक्षी
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अनुयोगचन्द्रिका टीका ११ स्थापनावश्यकस्वरूपनिरूपणम् तस्मिन् वा । यद्वा-एकस्य द्वयोर्वहूनां वा वस्त्राणां वेष्टनेन निष्पन्नं यद्रूपं तद् वेष्टिमं तम्मिन् वा । पूरिमे वा-पूरणेन भरणेन निष्पन्न परिमं-ताम्रपित्तलादिमयं तस्मिन् वा । सङ्घातिमे वा-सङ्घातेन-बहुवस्त्रादिनण्डसमुदायेन निष्पन्नं रूपकं ससा तम तस्मिन् व।। अक्षे वा-अक्षश्चन्दनकस्तस्मिन् वा वराटके-कपके वा सद्भावस्थापनया वा काष्टकर्मादिषु आकारवती या स्थापना सा सद्भावस्थापना श्रावकाद्याकारस्य तत्र सद्भावात् । तया सद्भावस्थापनया, असद्भावस्थापनया वा अक्षा देषु अनाकारवती असम्यग्रूपेण स्थापना भवति सा असद्भावस्थापना, प्रविकाद्याकारस्य तत्रासद्भावात् । तया वा स्थाप्यमानः एको वा अनेको वा आवश्यकेति-आवश्यकक्रियायुक्तश्रावकादिः स्थापना स्थाप्यते-क्रियते । तदेतत् स्थापनाऽऽवश्यकम् ।सू,११॥ जो बनाई जावे उसमें, अथवा एक या दो अथवा अनेक वखो कों वेष्टित करके जो बनाई जावे उसमें, अथवा पुष्पों को आकृति के रूप मे सजा सजा करके जो आकार बनाया जावे उसमें अथवा पित्तलादि द्रव्यों को सांचे मै ढार कर जो आकृति बनाई जावे उसमें अथवा अनेक वस्त्रों के खण्डों से-धज्जियों से-जो रूप बनाया जावे उसमें (अक्खेका) अश्या पाशे में (वराडएवा) अथवा कोडी में (एगो का अणेगो वा) एक अथवा अनेक आवश्यक क्रिया युक्त एक अनेक श्रावक आदि की (सम्भावठवणा असम्भावठवणा) की गई जो सद्भावस्थापना अथवा असद्भावस्थापना है (आवस्सएत्ति ठवणा ठविज्जइ) वह आवश्यक की स्थापना है। (से तं ठवणावस्सयं) यह स्थापना आवश्यक का स्वरूपहै । ॥पुत्र ११॥
બનાવવામાં આવે તેમાં, અથવા એક, બે અથવા અનેક વસ્ત્રોને વેeત કરીને બનાવવામાં આવે તેમાં, અથવા પુપિની આકૃતિરૂપે સજાવટ કરી કરીને જે આકાર બનાવવામાં આવે તેમાં, અથવા પિત્તળાદિ દ્રવ્યને બીબામાં ઢાળીને જે આકાર બનાવવામાં આવે તેમાં અથવા આવે તેમાં, અથવા અનેક વસ્ત્રોના લીરાંઓ (ચિંદર
यो)माथी रे माति मनापामां आवे तभi (अक्खे वा) मा पासोमा मया (वराडए बा) i (एगो वा अणेगो वा) में मथा भने आवश्य: ठिया युरत -मने श्राप आ६५3 (सब्भावठबणा असम्भावठवणा) ४२पामा मावली रे सहला५स्थापन! 4441 असला१ २५ना छे. (आवस्सएत्ति ठवण। ठविज्जइ) तेनु नाम आवश्य/नी २थापना छ. (से तं ठवणावस्सयं) मा २नु આ સ્થાપનાઆવશ્યકનું સ્વરૂપ છે. તે સુ- ૧૧ છે
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अनुयोगहारने नामम्थापनयोर्भेदमाह--
मूलम्-नामवणाणं को पइविसेसो ? णामं आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा ॥सू० १२॥
छाया-नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषः १ नाम यावत्कथिम्, स्थापना इत्वरिका वा भवेत् , यावत्कथिका वा । ॥सू० १२॥
टीका-'नामट्ठवणाण' इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-नामः पापनयोः १: प्रतिविशेषः ? नामस्थापनयो को विशेषः ? न कोऽपि विशेषो दृष्यते। या भावावश्यकस्वरूपशून्ये गोपालदारकादौ आवश्यकेति नाम क्रियते, तथैव स्थापनाऽपि भायावश्यकस्वरूपशून्ये काष्ठपुस्तकादौ आवश्यकशास्त्रस्य तदाकाररूपतया अतदाकाररूपतया वा स्थापना स्थाप्यते अतो भावशून्ये द्रव्यमाने क्रियमाणत्वादनयो नास्ति कचिद् विशेष इति प्रष्टुरा____अब सूत्रकार नाम और स्थापना निक्षेप में क्या अन्तर है-इस बात को प्रकट करते हैं-"नामढवगागं" इत्यादि । ॥त्र १२॥
शब्दार्थ-(हे भदंत ! नाम और स्थापना का क्या भेद हैं ? इस पूर्वोक्त कथन से तो इन दोनों में काइ अन्तर नहीं ज्ञात होता है ? कारण
जिस प्रकार भाषावश्यक के स्वरूप से शून्य गोपालदारक आदि में आव श्यक ऐसा नामनिक्षेप किया जाता है-उसी प्रकार से भावावश्यक के स्वरूप से शून्य काष्ठ पुस्तक आदि में आवश्यकशास्त्र की तदाकाररूप से या अतदाकाररूप से स्थापनानिक्षेप किया जाता है। अतः भाव से शून्य द्रव्यमात्र में क्रियमाण होने के कारण इन दोनों में कोई विशेषता लक्षित नहीं होती हैइस प्रकार का अभिप्राय पूछनेवाले शिष्य का है।
હવે સૂત્રકારના નિક્ષેપ અને સ્થાપના નિક્ષેપ વચ્ચે શો તફાવત છે, તે પ્રકટ કરે છે.
"नामढवणाणं" त्या
શબ્દાર્થ_શિષ્ય ગુરૂને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે “હે ભગવન ! નામ અને સ્થા૫ના વચ્ચે તફાવત છે? પૂર્વોકત કથન પ્રમાણે તે તે બન્ને વચ્ચે કોઈ ભેદ જ દેખાતું નથી, કારણ કે ...જેમ ભાવાવશ્યકના સ્વરૂપથી રહિત ગવાળપુત્ર આદિમાં “આવશ્યક” એ નામ નક્ષેપ કરવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે ભાવાવશ્યકના સ્વરૂપથી વિહીન, કાષ્ઠ, પુસ્તક આદિમાં આવશ્યકશાસની તદાકારરૂપે અથવા અતદાકાર રૂપે સ્થાપના રૂપ નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે. તેથી ભાવથી વિહીન દ્રવ્ય માત્રમાં ક્રિયમાણ હોવાને કારણે એ બન્ને વચ્ચે કોઈ પણ પ્રકારનો ભેદ દેખાતે નથી. આ પ્રકારની પ્રશ્ન કરનાર શિષ્યની માન્યતા અહીં પ્રકટ કરી છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. ११ स्थापनावश्यकस्वरूपनिरूपणम् शयः उत्तरयति-‘णामं आवव हियं' इत्यादि । नाम यावत्व थिकम्-स्वाश्रयद्रव्य स्य अस्तित्वकां यावद् नाम अवतिष्टते, नाग्न आश्रर द्रव्यं यावत्तिष्टति तावनामापि तिष्ठतीति भावः । स्थापना तु इत्वरिका-स्वल्पकालावस्थायिनी वा भवेत् यावत्कथिका वा भवेत् । काष्टकर्मादौ आवश्यकशास्त्रस्य तदाकाररूपा अतदाकारस्पा स्थापना यावत्कथिका भवति, अक्षादौ तु सा इत्वरिका भवतीत्यर्थः अयं भावः-काचित् स्थापना स्वाश्रर द्रव्यय सद्भावेऽपि मध्यकाल एव निव
उत्तर-(णामं आवकहियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आकहिया वा) नाम यावतथिक होता है और स्थापना इतरिक तथा यावत्तथिक दोनों प्रकार का होता है।
स्वाश्रय द्रव्य के अस्तित्व काल तक नाम रहता है-अर्थात्-जिसका वह नाम है वह जब तक मौजूद रहता है तब तक उसगा यह नाम विद्यमान रहता है-इसका नाम यावत्कथिक है परन्तु स्थापना जो है वह स्वल्प कालतक भी रहती है और यावत्कथिक भी होती है-काष्ठ कर्म आदि में आयश्यकशास्त्र की तदाकाररूप अथवा अतदाकारम्पकृत स्थापना यावत्कथिक होती है-स्वाश्रयद्रव्य की स्थिति तक रहती है। तथा अक्ष-(चौकोर पाशा) आदि में कृत अतदाकार स्थापना स्वल्प काल तक रहती हैं । तात्पर्य यह है कि कोई स्थापना स्वाश्रय द्रव्य के सद्भाव में भी बीच ही में समाप्त हो जाया करती है और कोई स्थापना ऐसी हती है जो अपने आश्रयभूत द्रव्य की
उत्तर-(णाम आबकहियं ठवणा इत्तरिया वा होना, आवकहिया वा) નામ યાવસ્કથિત હોય છે, પરંતુ સ્થાપના ઈવરિક (સ્વલ્પકાળ સુધી જ રહેનાર) અને યાવત્કાથત, એ બન્ને પ્રકારની હોય છે. સ્વાશ્રયભૂત દ્રવ્યના અસ્તિત્વકાળ સુધી નામ રહે છે. એટલે કે જેનું તે નામ રાખવામાં આવ્યું છે તે વસ્તુ અથવા વ્યકિતનું અસ્તિત્વ જ્યાં સુધી રહે છે. ત્યાં સુધી જ તે નામનું અસ્તિત્વ રહે છે. આ રીતે નામને યાવસ્કથિત કહેવામાં આવ્યું છે. પરંતુ સ્થાપના તો સ્વપકાળ સુધી પણ રહે છે અને યાવત્કથિત (વસ્તુનું અસ્તિત્વ રહે એટલા માટે કાળ સુધી ટકનારી) પણ હોઈ શકે છે.
જેમકે કાઠ કર્મ આદિમાં આવશ્યકશાસ્ત્રની તદાકારરૂપ અથવા અતદાકારરૂપ કરેલી સ્થાપના યાવસ્કથિત હોય છે-વાયભૂત દ્રવ્યનું જ્યાં સુધી અસ્તિત્વ રહે ત્યાં સુધી જ તે સ્થાપનાનું અસ્તિત્વ રહે છે, તથા અક્ષ (પાશા) આદિમાં કરેલી અતદાકાર સ્થાપના બહુ જ ઓછા કાળ સુધી રહે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે—કેઈ સ્થાપનના સ્વાશ્રયભૂત દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ રહેવા છતાં પણ વચ્ચેથી જ
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अनुयोगदारताचे तंते, काचित्तु तत्सत्ता यादवतिष्ठते, इति एवं च-नामस्थापनयोर्मावशून्यत्वे. नाधारसाम्येऽपि भेदःस्व स्वावस्थानकाल कृत एव भगवता प्रदर्शितः यद्यपि गोपाल दारकादौ विद्यमानेऽपि कदाचिदने नामपरिवर्तनं लोके कचीदृश्यते, तथाच कालकृतोऽपि भेदो नास्ति, तथापि-बहुशः स्थले नाम्नो यावत्काथिकत्वमेव दृश्यते, नाम्नः परावर्तनं तु क्वचिद्विरलतयोपलम्पते । अतोऽल्पस्थलव्यापित्वेन नाम्न इत्वरिकता भगवता न विवक्षिता। नाम्नोऽल्पकालिकताकल्पने तूत्मत्रप्ररूपणापत्तिरिति बोध्यम् । सत्तो काल तक रहती है। इस प्रकार नाम और स्थापना निक्षेप में भावशून्यता की अपेक्षा आधार की समानता होने पर भी अपने २ अवस्थान काल की अपेक्षा कृत ही भेद है ऐसा भगवान ने प्रदर्शित किया है । यद्यपि गोपालदारक आदि में उनकी विद्यमानता रहने पर भी कमी २ अनेक नामों का परिवर्तन होता हुआ लोक में कहीं २ देखा जाता है-इस अपेक्षा कालकृत मेद सर्वथा नहीं आता है तो भी अनेक स्थलों में नाम में यात्कथिकता देखी जाती है । इत्वरिकता नहीं। यह तो केवल विरलतारूप में ही कहीं २ देखी जाती है। इसलिये नाम की इत्वरिकता अल्पस्थल व्यापी होने के कारण उस में भगवान ने विवक्षित नहीं की है। यदि नाम में अल्पकालिकतारूप इत्वरिकता कल्पित की जावे तो उत्सूत्र प्ररूपणा की आपत्ति आती है ऐसा जानना चाहिये। ગમે ત્યારે સમાપ્ત થઈ જતી હોય છે, ત્યારે કોઈ સ્થાપના એવી હોય છે કે જે પિતાના આયભૂત દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ જ્યાં સુધી રહે ત્યાં મેજૂદ રહે છે.
આ પ્રમાણે નામ અને સ્થાપના નિક્ષેપમાં ભાવશૂન્યતાની અપેક્ષાએ આધારની સમાનતા હોવા છતાં પણ પોતપોતાના અવરથાનકાળની અપેક્ષાએ જ ભેદ રહેલે छ, अ भगवाने ४थु छ.
- જે કે ગોવાળપુત્ર આદિનું અસ્તિત્વ રહેવા છતાં પણ કોઈ કોઈ વાર તેમના નામોમાં પરિવર્તન થયા કરતું હોય છે, એવું પણ જોવામાં આવે છે ખરૂં. આ દષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે નામમાં યાત્કાયિકતા રહેતી નથી, પરંતુ આવું ભાગ્યે જ બને છે. અનેક વસ્તુઓ અથવા પદાર્થોમાં તે નામની યાવકથિતા જ જોવા મળે છે–ઈરિકતા (અલ્પ રથાયિત્વ) દેખાતી નથી. નામની અપેક્ષાએ ઇરિકતા તે કેવળ વિરલતા રૂપે જ કઈ કઈ વસ્તુમાં જોવામાં આવે છે. આ રીતે નામની ઇરિકતા અલ્પ થલવ્યાપી હોવાથી ભગવાને અહીં તેની વિવક્ષા કરી નથી. જે નામમાં અલ્પકાલિકતા રૂપ આ ઈત્વરિતાને સ્વીકારવામાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. मू० १२ नामस्थापनयादनिरूपणम्
यत्तु-उपलक्षणमात्र चेदं कालभेदेनेतयं भेदकथनम्-अपरस्यापि बहुप्रकारभेदम्य सम्भवात्, इत्युक्तं,
तदुत्मत्रप्ररूपणम्-रथोत्मत्रप्ररूपण भिया-नामनिक्षेपे इत्वरिकतायाः क्वचित् संभवेऽपि भगवताऽनुक्तत्वादुपलक्षणमिति न स्वीकृतं, तथैव स्थापनायो कालातिरिक्तस्य भेदहेतोः कल्पनेऽप्युत्मत्रप्ररूपणं प्रसज्येत कालान्यकृतभेदस्य भगवताऽनुक्तत्वात् । एतेन-पत् कैश्चिदुक्तं यश-प्रतिमारूपस्थापना-दर्शनात् भावः समुल्ल
जो कई ऐसा कहते हैं कि" :स प्रकार के काल भेद से नामनिक्षेप और स्थापनानिक्षेप में जो भेद का कथन किया गया है वह उपलक्षण मात्र है क्योंकि इससे और भी अनेक प्रकारों को लेकर इन दोनों में भेद संभवित होता हैं “सो उनका ऐमा कथन करना उत्सूत्र प्ररूपणा है-आगम से विरुद्ध है। देखो जैसे नाम निक्षेप में क्वचिन् इन्वरिकता का संभव होने पर भी भगवान् ने इसे उत्त्रप्ररूपणा के भय से उस में नहीं कहा है-वहां तो यावत थिवता ही कही है और इसी कारण से इत्वरिकताको उलक्षणरूप से म्वीकार नहीं दिया है-उसी तरह स्थापना में काल से अतिरिक्त और किसी बात को भेद का हेतु स्वीकार किया जायगा तो उसमें भी उ मूत्र प्ररूपणा की प्रसक्तिमाननी पडेगी । क्योंकि काल के सिवाय अन्य कृत भंद भगवान् ने उसमें कहा नहीं है। इसी तरह से जो कोई और भी मा कहते हैं कि.” प्रतिमारूप
આવે તો ઉસૂત્રપ્રરૂપણાને દેષ લાગે છે-એટલે કે એ પ્રકારની પ્રરૂપણા કરવી એ સૂત્ર વિરૂદ્ધની સિદાતેથી વિરુદ્ધની પ્રરૂપણ કરી ગણાય, એમ સમજવું.
અહીં કેઇ એવી દલીલ કરે કે આ પ્રકારના કાળભેદની અપેક્ષાએ નામનિક્ષેપ અને રથાપનાનક્ષેપ વચ્ચે જે ભેદ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે, તે તે ઉપલક્ષણ માત્ર જ છે. કારણ કે આ સિવાય બીજી અનેક રીતે પણ તે બન્ને વચ્ચે ભેદ સંભવી શકે છે. તે આ પ્રકારનું તેનું જે કથન છે તેને ઉત્સુત્ર પ્રરૂવણા રૂપ જ ગણી શકાય, કારણ કે તે પ્રકારની માન્યતા આગમની વિરૂદ્ધ જાય છે. જેમ નામવિક્ષેપમાં કઈ કઈ પ્રસંગે ઈચ્છિતા (૨.૯૫કાલિનત)ને સંભવ હોવા છતાં પણ ભગવાને ઉત્સુત્ર પ્રરૂપણાના ભયથી તેને ઉલ્લેખ કર્યો નથી-ચાં ને માત્ર યાવથિકના જ પ્રદર્શિત કરવામાં આવી છે અને તે જ કાર છે વકતાનો ઉપલકણરૂપે સ્વીકાર કરવામાં આવ્યું નથી, એજ પ્રમાણે સ્થપનામાં પણ કાળ સિવાયની કઈ પણ બાબતને ભેદ કારણરૂપે સ્વીકારવામાં આવે તે એ પ્રકારની પ્રરૂપણમાં પણ ઉત્સવપ્રરુપણાને જ પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે, કારણ કે સ્થાપના નિક્ષેપમાં કાળકૃત ભેદ સિવાયને કેઈ પણ ભેદ ભગવાને કહ્યા નથી.
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अनुयोगवारसत्रे सति नैवं नामश्रणमात्रादिति नाम थापनयोमेंदः, यथा चन्द्रादेः प्रतिमारूप स्थापनायाँ लोकस्योपयाचितछा पूजाप्रवृत्तिसमीहितलाभादयो दृश्यन्ते, नव नामेन्द्रादौ, इत्यपि तयोभेदः । एवमन्यदपि वाच्य" मिति तदुत्सूत्रप्ररूपणाजनितानन्तसंसारजनकम् । आगमे र दिदमुपलभ्यते-"शहारूवाणं अहंताणं नामगोयसवणयाए महाफलं'। इति । तत्र नास्ति नामनिक्षेपस्य विषमः। "अरहंताणं भगवंताणं" इत्युक्त्या तस्मिन्नर्थे प्रयुक्तस्य नाम्न एव श्रवणेन महाफलसंभवात् स्थापना के देखने से जैसे भाों में उल्लास होता है-जैसा भाव उत्तन्न होते हैं वैसा भावो में उल्लास-उस तरह का परिणाम-उस नाम मात्र के श्रमण से नहीं होता है-यही नाम और स्थानानिक्षेप में भेद है।- देखो-जब इन्द्रकी प्रतिमा रूप से स्थापना की जाती है तो लोग उसके समक्ष विविध प्रकार की याचना करते है, उसकी पूजा करते हैं, और अपने समीहित की प्राप्ति करलेते हैं, इत्यादि सब बाते देखी जाती हैं-नाम इन्द्र आदि में इस प्रगर की बाते नहीं देखी जाती-अतः इस तरह से भी इन दोनों निक्षेपों में भेद हैतथा और भी इसी तरह से भेद के हेतु वाच्य हैं" सो ऐसा यह वक्तव्य भा आगम के विरुद्ध है और :स तरह की प्ररूपणा करना अनन्त संसार वा बढाने वालाहै । कि "तथारूपवाले अरहंत भगवंत्तों के नाम और गोत्र के सुनने से महाफल होता है" सों यह कथन नामनिक्षेपको विषय नहीं है। "अरहंता णं भगवंताणं' क्योंकि इस उक्ति से तथारूप भावअर्ह त में प्रयुक्त नाम के
વળી કઈ કઈ માણસો એવું પણ કહે છે કે......“પ્રતિમારૂપ સ્થાપનાને નિહાળવાથી ભાવેને જે ઉ૯લાસ અનુભવવામાં આવે છે-જે દિલાસ ઉત્પન્ન થાય છે, એવો ભાને ઉલલાસ એ પ્રકારનું મન:પરિણામ)-તે નામ માત્રના શ્રવણથી ઉત્પન થતું નથી. નામનિક્ષેપ અને સ્થાપના નિક્ષેપ વચ્ચે આ પ્રકારને જ તફાવત છે. જેમકે ઇન્દ્રની પ્રતિમાની સ્થાપના કરવામાં આવી હોય તે લોકો તેની સમક્ષ વિવિધ પ્રકારની યાચના કરે છે, તેની પૂજા કરે છે અને પોતાની ઇચ્છિત વસ્તુઓની પ્રાપ્તિ કરી લે છે, પરનું નામ ઈન્દ્ર આદિમાં એવું જોવામાં આવતું નથી. આ રીતે તે બંને પ્રકારના નિક્ષેપમાં આ પ્રકારને ભેદ પણ રહે છે. એટલું જ નહીં પણ તે બને નિક્ષેપો વચ્ચે રહેલો ભેદ દર્શાવતા બીજાં કેટલાક કારણે પણ સદૂભાવ છે.
તે આ પ્રકારનું કથન પણ આગમ વિરૂદ્ધનું કથન હોવાથી ઉસૂત્રકથન જ ગણાય છે. આ પ્રકારની આગમ વિરૂદ્ધની પ્રરૂપણું કરનાર વ્યકિત અનન્ત સંસારની सन मन छ. भागममा मा अनुरे ४थन मावे छ .........
“તથારૂપ અહત ભગવતેના નામ અને ગોત્રનું શ્રવણ કરવાથી મહાફલની प्राति थाय छ," मा ४थन नामनिक्षेपना विषय३५ नथी. १२९४ "अरहंताणं भग
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२ नामस्थापनयोर्भेद निरूपणम् गोगलदारकादौ प्रयुक्तस्य नाम्नः श्रवणेन तु गोपालदारकाद्यर्थस्यैव बोधादात्मपरिणामशुद्धिहेतुत्वं तस्य नास्तीति । नामनिक्षेःस्थले भगवतोऽर्हतः स्मरणासंभवः तस्य भावशून्य वात्, अत्र तु नामगोत्रा भगवदर्हतः सम्बन्धं षष्ठान्तपदप्रयोगादेव दर्शयता भगवता नामनिक्षेपो न विवक्षितः। भावजिनबोधही श्रवण से महाफल होना बतलाया गया है। केवल नाम श्रवण से नहीं । नहीं तो गोपालदारक में प्रयुक्त अहंत नाम के श्रवण से भी महाफल की प्राप्ति हो जानी चाहिये। वहां तो ऐना होता नहीं है। केवल उस नाम से गोपालदारकरूप अर्थ की हि प्रतीति होती है। आत्मपरिणामों की शुद्विरूप महाफल उससे प्राप्त नहीं होता है। अतः यह मानना चाहिये कि भावरूप अर्हत नाम के ही श्रवण से जीवों को आत्मपरिणामों की शुद्धिरूप फल प्राप्त हेता है। क्यों कि वही उसा हेतु है। साधारण नामनिक्षेप में यह हेतुता नहीं आती है। यदि कोई सा कहेकि अहंत नामनिक्षेप भले ही आत्मपरिणामों की शुद्धि का हेतु न हो तो न सही परन्तु उसके श्राण से भगवान् अर्हत का तो स्मरण हो जाता है सो ऐसा कहना मी उचित नहीं है क्यों कि नामनिक्षेप स्थल में भगगन अर्हत का, उससे भावनिक्षेप से शून्य होने के पारण स्मरण हो आना असंवंताणं" त्या ४५न द्वारा ये मतामा प्यु छ , तथा३५ ला१३५ - તમાં પ્રયુકત નામના જ શ્રવણથી મહાફળની પ્રાપ્તિ થાય છે–કેવળ નામ નામના જ શ્રવણથી મહાફળની પ્રાપ્તિ થતી નથી. નહીં તો કઈ પણ વ્યકિતને માટે (દાખલા તરીકે ગોવાળના પુત્રને માટે) “અહંત' આ નામને ઉગ કરવામાં આવે, તે તેના નામનું શ્રવણ કરવાથી પણ મહાફળની પ્રાપ્તિ થઈ જવી જોઈએ ! પણ અહીં તે એવું બનતું નથી. તે નામદ્વારા માત્ર તે ગેવાળપુત્ર રૂ૫ અર્થની જ પ્રતીતિ થાય છે. આત્મપરિણામોની શુદ્ધિ રૂપ મહાદળની પ્રાપ્તિ તેના નામ શ્રવણથી થતી નથી. તેથી એવું માનવું જોઈએ કે ભાવરૂપ અહત નામના જ શ્રવણથી જેને આત્મપારણામોની શુદ્ધિ રૂ૫ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે, કારણ કે એજ તેને હેતુ છે. સાધારણ નામનિક્ષેપમાં આ હેતુતા સંભવી શકતી નથી.
વળી કઈ માણસ અહીં એવી દલીલ કરે કે અહત નામનિક્ષેપ ભલે આત્મ પરિણામની શુદ્ધિમાં કારણભૂત ન થતે કેય, પણ તેનાથવણથી ભગવાન અહંતના નામનું સ્મરણ તે થઈ જાય છે, એટલું તે આપે માનવું જ પડશે.
તે આ પ્રમાણે કહેવું તે પણ ઉચિત નથી, કારણ કે ભાવનિક્ષેપથી રહિત એવા નામનિક્ષેપથી અહંત ભગવાનનું સ્મરણ થવાની વાત અસંભવિત છે,
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अनुवागार कस्य नाम्न एव भवणेन महाफलसंभवः। एवं स्थापनापि भावरूपार्थशून्या, स्थापनया भावरूपार्थस्य नास्ति कोऽपि सम्बन्धः। भावजिनशरीरवर्तिनी या ऽऽकृतिरासीद् तस्या आश्रयाश्रयिभावरूपसम्बन्धो भावजिनेन सह तदानीं भावोल्लासोऽपि कस्यचित् संजातः, तथा भक्त्या तामाकृति स्मरतो जनस्य भावोल्लासः संभवतु, तदाऽ:कृतेर्भावजिनेन संबन्धात्, परंतु--स्थापनाया आश्रयायिभावसम्बन्धो नास्तिभावजिनेन सह । भावजिनात्मनस्तत्रागहनं स्थापनं तु जिनाज्ञायाचं
भव है। इसलिये "तहास्वाणं अरहंताणं" इत्यादि पाठ में नाम और गोत्र इन दोनों के साथ भगवान् अर्हत के संबन्ध को पष्ठयन्तपद के प्रयोग से प्रकट करनेवाले सूत्रकार ने नामनिक्षेप की विवक्षा नहीं की है। किन्तु भावनिक्षेप जिनके बोधक नाम की विवक्षा की है। क्योंकि उसी नाम के श्रवण से श्रोता को महाफल की प्राप्ति होना संभवित है। इसी तरह से स्थापनाभी भावरूप अर्थ से शून्य होती है। क्यों कि उसका भावनिक्षेपरूप अर्थ के साथ कोई संबन्ध ही नहीं है। यदि कहा जाये कि पहिले भाव जिनके अस्तित्व काल में जो उनके शरीर की आकृति थी-वह आकृति ही स्थापना निक्षेप में विद्यमान रहती है-इसलिये उससे आश्रयाश्रयी भावरूप संबन्ध का बोध हो जाता है-सो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि स्थापनानिक्षेप में आश्रयी ही नहीं हैं तब उससे भाव जिन के साथ आश्रयाश्रयी भावरूप संबन्ध ज्ञात कैसे हो सकता है ? यह तो भावजिनके साथ वे जब थे तब ___थी "तहारूवाणं अरहंताणं" त्या पाभा नाम भने मात्र मे माननी સાથે ભગવાન અહંતના સંબંધને છઠ્ઠી વિભકિતના પદના પ્રોંગ દ્વારા પ્રકટ કરનાર સૂત્રકારે નામનિક્ષેપની વિરક્ષા કરી નથી, પરંતુ ભાવનિક્ષેપ જિનના બેધક એવા નામની વિરક્ષા કરી છે. કારણ કે એજ નામના શ્રવણથી શ્રોતાને મહાફળની પ્રાપ્તિ થવાનું સંભવી શકે છે. એ જ પ્રમાણે સ્થાપના પણ ભાવરૂપ અર્થથી વિહીન જ હોય છે, કારણ કે ભાવનિક્ષેપરૂપ અર્થની સાથે તેને કેઈ સંબંધ જ હોતું નથી.
જે અહીં એવી દલીલ કરવામાં આવે કે પહેલાં ભાવજિનના અસ્તિત્વકાળમાં જે તેમના શરીરની આકૃતિ હતી, એ આકૃતિ જ સ્થાપના નિક્ષેપમાં વિદ્યમાન રહે છે, તેથી તેના દ્વારા આયાયી ભાવરૂપ સંબંધને બંધ થઈ જાય છે, તે એ પ્રકારની માન્યતા પણ ઉચિત નથી, કારણ કે વર્તમાન કાળે સ્થાપના નિક્ષેપમાં જે આશ્રયીને જ સદુભાવ ન હોય તે તેના દ્વારા ભાવજિનની સાથે આશ્રયાશ્રયી ભાવરૂપ સંબંધને બંધ જ કેવી રીતે થઈ શકે ! ભાવૃજિનની સાથે જ્યારે તે
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अनुप्रोगवन्द्रिका टीका १२ नामस्थापनयाभेदनि पगर प्रवचनविरुद्धं कर्तुमशक्यं, कथं तर्हि-भावजिनसम्बन्धाभावे प्रतिमा भावजिनं तद्गुणं वा स्मारयितुं शक्ता भवेत् । सर्वथा कुप्रावनिकद्रव्यावश्यकवत् प्रतिमापूजनं कुर्वन्तःकारयन्तश्च मिथ्यात्वं प्राप्नुवन्ति न तु सभ्यक्त्वमिति । इति स्थापना वश्यकम् ॥सू० १२॥
था-। हो यह हो सकता है कि जिस प्रकार भावजिन का दर्शन करनेवाले किसी व्यक्ति को भागोल्लास हो आता है, उसी तरह भक्ति से उनकी उस आकृति का स्मरण करनेवाले जन को भावोल्लास हो आवे-क्यों कि उस आकृति का भावजिन के साथ संबन्ध है यदि भावजिनके साथ उस आकृति को संबन्ध नहीं होवे तो फिर प्रतिमा भावजन और उनके गुणों का स्मरण कराने में समर्थ कैसे हो सकती है ? परन्तु स्थापना का भावजिन के साथ आश्रया श्रयी भावरूप संबंध तो कोई है नहीं-कि जिस से उससे इसका बोध हो जावे । भावजिन की आत्मा का उसमें आह्वान करना, स्थापन करना यह सब तो चिनाज्ञा से बिलकुल बाहिर की बात है। ऐसी प्रवचन विरुद्ध बात को करना अशक्य है इसलिये सर्वथा कुप्रावचनि: द्रव्यावश्यक की तरह प्रतिमा पूजन करने और करानेवाले मिथ्यादृष्टिपने को प्राप्त होते हैं -सम्पत्य को नहीं। इस तरह स्थापनावश्यक का यह स्वरूप है । भावार्थ इसका स्पष्ट है । ॥मूत्र १२॥
આકૃતિ વિદ્યમાન હતી ત્યારે જ આ પ્રકારને સંબંધ અસ્તિત્વ ધરાવતો હતો. હા, એવું સંભવી શકે છે કે જે પ્રકારે ભાવજિનના દર્શન કરનાર કે વ્યક્તિમાં ભાવાસને ઉમળકે આવી જાય છે, એ જ પ્રમાણે ભકિ ભાવપૂર્વક તે આકૃતિનું
સ્મરણ કરનાર વ્યક્તિમાં પણ ભાવલાસને ઉમળકે આવી જાય ખરે, કારણ કે આકૃતિને ભાવજિનની સાથે સંબંધ છે. જે ભાવજિનની સાથે તે આકૃતિને સંબંધ ન હોય, તે તે પ્રતિમા ભાવજનક અને અનેક ગુણેનું સમરણ કરાવવાને સમર્થ કેવી રીતે બની શકે ! પરંતુ સ્થાપનાને ભાવજિનની સાથે આશ્રયાશ્રયી ભાવરૂપ કોઈ સંબંધ તે છે જ નહી. કે જેના દ્વારા તેને બંધ થઈ જાય, ભાવજિનના આત્માનું તેમાં આવાહન કરવું-સ્થાપન કરવુ, એ તે જિનાજ્ઞાની વિરૂદ્ધનું કૃત્ય ગણાય. એવી પ્રવચનવિરૂદ્ધની વાત કરવી જોઈએ નહીં. તેથી સર્વથા કુપ્રવચનિક દ્રવ્યાવશ્યકની જેમ પ્રતિમાપૂજન કરનાર અને કરાવનાર મિચ્છાણિયુકત બની જાય
છે અને સમ્યકત્વથી રહિત જ રહે છે, સ્થાપનાવશ્યક આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. તેને ભાવાર્થ સ્પષ્ટ હોવાથી વિશેષ સ્પષ્ટીકરણની જરૂર રહેતી નથી. સ. ૧ર.
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अनुयोगद्वारसूत्रे इदानीं द्रव्यावश्यक निरूपयति
मूलम्-से किं तं दव्वावस्सय ? दवावस्सयं दुविहं पण्णत्तं तं जहा-आगमओ य नो आगमओ य ॥ सू० १३ ॥
छाया-अथ किं तद् द्रव्यावश्यकम् ? द्रव्यावश्यकं विविध प्रज्ञप्तम्, तयथा-आगमतश्च नो आगमतश्च ॥ सू० १३ ॥
टीका–‘से किं तं' इत्यादि
शिष्यःपृच्छति-अथ ।क तद् द्रव्यावश्यकम् ? उत्तरयति-'दव्वावस्मयं' इत्यादि । द्रव्यावश्यकम्-वति-गच्छति तांस्तान पर्यायानिति द्रव्यम्-विवक्षितयोरतीतभविष्यद् भावशेःकारणम्, अनुभूतविवक्षितभावमनुभविष्यद्विवक्षितभावं वा वस्त्वित्यर्थः। द्रपलक्षणं च सामान्यत इदं बोध्यम्।
अब सुत्रकार द्रव्यावश्यक का निरूपण करते हैं"से किं तदव्वावम्सयं' इत्यादि। ॥मत्र १३॥।
शब्दार्थ-(अथ) शिष्य पूछता है कि हे भदंत ! (किं न दव्वावस्सयं) पूर्व प्रक्रान्त (पूर्व प्रस्तुत विषय) द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(दव्वावस्सयं दुविहं पण्णत्त) द्रव्यावश्यक दो प्रकार का है जो उन २ पर्यायों को प्राप्त करता है उसका नाम द्रव्य है अर्थात जो विवक्षित अतीत अनागत भाव का कारण हो वह द्रव्यनिक्षेप है । जैसे राजगद्दी से पृथक किये हुए राजा को नरेश कहना। तथा जो आगे राजा होनेवाला है वर्तमानमें वह राजा की पर्याय में नहीं है उसे अभी से राजा कहना यह भविष्यत कालीन पर्याय की अपेक्षा द्रयनिक्षेप है। जैसे राजा का पुत्र
હવે સૂત્રકાર દ્રવ્યાવશ્યકનું નિરૂપણ કરે છે –
“से किं तं दगपस्सय" छत्याहशहाथ-शिष्य गुरुने मेवे। प्रश्न पछ छे ....
"से किं तं दवावस्स?" 3 मापन् ! पूर्व lr1 ( प्रस्तुत विषय) દ્વવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्तर-(दव्यावस्सयं दुविहं पण्णत्तं) द्रव्या१२५४ मे २ ४ . ते તે પર્યાને જે પ્રાપ્ત કરતું રહે છે તેનું નામ દ્રવ્ય છે. એટલે કે જે વિક્ષિત सतात (भूत सिन), मनात (विष्यलिन) लानु २५ डाय छे, ते द्रव्यનિક્ષેપ છે. જેમકે રાજગાદીને જેની પાસે ત્યાગ કરાવવામાં આવ્યું છે તેને નરેશ કહે તે ભૂતકાલિન પર્યાયની અપેક્ષાએ દ્રવ્યનિક્ષેપ છે, તથા વર્તમાન કાળે જે રાજા નથી. પણ ભવિષ્યમાં રાજા બનવાનું છે તેને અત્યારથી જ રાજા કહેવો તે ભવિષ્યકાલિન પર્યાયની અપેક્ષાએ દ્રવ્યનિક્ષેપ છે. જેમ કે, રાજાના પુત્રને રાજા કહે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १३ द्रव्यावश्श् कस्वरूपनिरूपणम्
'भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद् द्रव्यं तत्वज्ञः सचेतनाचेतनं कथितम् । इति ।
व्याख्या-लोके हि भूतस्य-अतीतम्य भाविनः भविष्यतो वा भावस्य तु रत्कारणं भवति, तत् तत्वज्ञैः द्रव्यं-कथितम् । तद्रव्यं सचेतनाचेतनं-सचेतनं-पुरुषादिकम्, अचेतनं-काष्ठादिकं च भवति । अयं भावः-य: पूर्व म्वर्गादिविन्द्रादिभूत्वा इदानीं मनुष्यादित्वेन परिणतः स जीवो तीताय इन्द्रादिपर्यायस्य कारण वात साम्प्रतमपि द्रव्यत इन्द्रादिरुच्यते । यथा-अमात्रादि पदात् प्रच्युतोऽपि अमात्यादिरुच्यते । अपि च अग्रेऽपि य इद्रादित्वेनोप-यते, स इदानीमपि भविष्यदिन्द्रादिपदपर्यायकारणराजा कहा जाता है द्रव्य निक्षेप में विवक्षितपर्याय को जा अनुभवित कर चुकी है ऐसी वस्तु तथा विवक्षित पर्याय को जो भविष्यत्काल में अनुभव करेगा ऐसी वस्तु के विषयरूप से परिगणित हुई है यही बात सामान्यरूप से कथित इस द्रव्य के लक्षण में इस प्रकार से जानने के लिये यही गई है-लोक में तत्त्वज्ञों ने भृतपर्याय का अथवा भविष्यत् पर्याय का जो कारण होता है ग्रह द्रव्य है। मा कहा हैं। वह द्रव्य सचेतन भी है और अचेतन भी हैं । इस का भाव इस प्रकार से जानना चाहिये-जैसे काई जीर पहिले स्वर्ग आदि में इन्द्र आदि की पर्याय में था और वहां से चव कर मनुष्य पर्याय में आगया । फिर भी उसे अतीत इन्द्रादि पर्याय का कारण होने से मनुष्य पर्याय में भी आमात्यपद से रहित हुए व्यक्तिको अमात्य कहने की तरह इन्द्र कहना यह द्रव्य निक्षेप है। इसी तरह जो जीव भविष्य में વામાં આવે છે. દ્રવ્યનિક્ષેપમાં વિવક્ષિત (અમુક) પર્યાયને જે અનુભવિત કરી ચુકી છે એવી વરતુ તથા વિવક્ષિત પર્યાયને જે ભવિયકાળમાં અનુભવ કરશે. એવી વસ્તુ તેના વિષયરૂપે પગિણિત થઈ છે. એજ વાત સામાન્યરૂપે કથિત દ્રવ્યના લક્ષણમાં આ પ્રકારે જાણવા માટે બનાવવામાં આવી છે-તત્ત્વજ્ઞોએ એવું કહ્યું છે કે લોકમાં ભૂતપર્યાયનું અથવા ભવિષ્યની પર્યાયનું જે કારણ છે, તેનું નામ દ્રવ્ય છે. તે દ્રવ્ય સચેતન પણ છે અને અચેતન પણ છે. તેને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે સમજ.
જેમકે કોઈ એક જીવ પહેલાં સ્વર્ગમાં ઈન્દ્રની પર્યાયે ઉત્પન્ન થયે હતો. ત્યારબાદ તે ભવનું આયુષ્ય પૂરું થતાં, ત્યાંથી ચ્યવીને તે મનુષ્યલેકમાં મનુષ્યની પર્યાયે ઉત્પન્ન થઈ ગયે. જેમ અમાત્યના પદથી યુત થયેલી વ્યકિતને અમાત્ય કહેવામાં આવે છે. એમ મનુષ્યની પર્યાયે ઉત્પન્ન થયેલા તે મનુષ્યને તેની ભતકાલિન ઈન્દ્રરૂપ પર્યાયને કારણે ઉજૂ કહે, તેનું નામ જ દ્રવ્ય નિક્ષેપ છે. જેમ
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अनुयोगहारने त्वाद् द्रव्यत इन्द्रादिरभिधीयते, यथा-राजकुमारोऽपि राजा पोर ते. भाविराज पर्यायप्राप्तिहेतुत्वात् । एवमचेतनस्य काष्ठादेरपि भूतभविष्यत्पर्यायकारणत्वेन द्रव्यता भावनीयेत्यर्थः।
एवं द्रव्यरूप मावश्यकम् । तद् द्रव्यावश्यकं हिधिं प्रज्ञप्तम् ? तद्यथाआगमतश्च-आगममाश्रित्य. नो आगमतश्च-नो आगममादित्य । च श-दौठयोरपि स्वस्वविपये प्राधान्यख्यापनाथों ॥सू० १३॥
तत्र-आगमतो द्रव्यावश्यकं निरूपयति
मूलम्--से कि तं आगमओ दव्वावस्सयं ? आगमओ दव्वावस्सयं जस्स णं आवस्सएत्ति पदं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइछक्खरं अक्खलिय अभिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुष्णघोस कठेविप्पइन्द्र की पर्याय से उत्पन्न होनेवाला हो उसे भविष्यत्व ालीन इन्द्र पर्याय का कारण होने के कारण राजकुमार को राजा कहने की तरह इन्द्र कहना यह भी द्रव्य निक्षेप का विषय है। यद्यपि राजकुमार वर्तमान में राजा नहीं है आगे राजा होगा-परन्तु जो उस अवस्था में भी वह राजा कहा जाता है वह भाविराज पर्याय की प्राप्ति का हेतु होने से ही कहा जाता है। इसी तरह से अचेतनकाष्ठ आदि में भी भूत. भविष्यत् पर्याय की कारणतालेकर द्रव्यता घटित कर लेनी चाहिये। इस तरह द्रव्यरूप आवश्यक का नाम द्रव्यावश्यक है। यह द्रव्याश्यक आगम को आश्रित करके और नो आगम का आश्रित करके दो प्रकार का होता हैं । भावार्थ स्पष्ट है-सूत्र १३।। ભવિષ્યકાળમાં રાજા બનવાને હોય એવા રાજકુમારને “રાજા” કહેવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે જે જીવ ભવિષ્યમાં ઈન્દ્રની પર્યાયે ઉત્પન્ન થવાનું હોય તેને ભવિષ્યકાલિન ઈન્દ્ર પર્યાયનું કારણ હોવાને લીધે ઉદ્ર કહે તે પણ દ્રવ્યનિક્ષેપને વિષય છે જે કે રાજકુમાર અત્યારે રાજા નથી, પરંતુ ભવિષ્યમાં રાજા થવાનું છે, છતાં પણ તેને રાજકુમારની અવસ્થામાં પણ જે રાજા કહેવામાં આવે છે તે ભાવિ રાજપર્યાયની પ્રાપ્તિરૂપ કારણની અપેક્ષાએ જ કહેવામાં આવે છે. એ જ પ્રમાણે અચેતન કાષ્ઠ આદિમાં પણ ભૂત-ભવિષ્ય પર્યાયની કાપણુતાની અપેક્ષાએ દ્રવ્યતા ઘટિત કરી લેવી જોઈએ. આ પ્રકારે દ્રવ્યરૂપ આવશ્યકનું નામ દ્રવ્યોશ્યક છે તે દ્રવ્યાશ્યક બે પ્રકારને છે-(૧) આગમની અપેક્ષાએ અને તે આગમની અપેક્ષાથી બે પ્રકારના સમજવા. ભાવાર્થ સ્પષ્ટ છે. એ સૂત્ર ૧૩ છે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. १४ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम् मुक्कं गुरुवोयणोवगयं, से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाएनोअणुप्पेहोए, कम्हा? 'अणुवओगोदव्व' मिति कासू.१४॥
छाया--अथ किं तद् आगमतो द्रव्याश्यकम् ? आगमतो द्रव्यावश्यक यस्य खलु आवश्यकेति पदं शिक्षितं स्थितं जितं मितं परिजितं नामसमं पोषसमम् अहीनाक्षरम् अनत्यक्षरम् अव्याविद्वाक्षरम् अस्खलितम् अमिलितम् अदत्यानेडितं परिपूर्ण परिपूर्णघोपं कण्ठोष्टविप्रमुक्तं गुरुवाचनोपगतम् । स खलु तत्र वाचनया प्रच्छनया परिवर्तनया धर्मकथया नो अनुप्रेक्षया, कस्मात् ? अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा ॥५० १४॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-'से किं तं आगमओ दव्वावस्मयं' इति । अथ किं तद् आगमतो द्रव्यावश्यक ? आगममाश्रित्य द्रव्यावश्यकं किम् ? इति प्रष्टुराशयः उत्तरयति-'आगमओ व्यावसयं' इत्यादि। आगमतो द्रव्यावश्यक म्-एवं विज्ञःम्-याय खलु साधो -आवश्यकमिति पदम् सर्वज्ञप्रणीनमावइसकाभिधेयं शास्त्रं शिक्षितम्-विनयपूर्वकं गुरुमुखाद् गृहीतम् । स्थिनं स्मृतिपथे
आगम की अपेक्षा द्रव्यावश्यक का. स्वरूप सूत्रकार निरूपित करते हैं"से किं तं" इत्यादि ॥मूत्र १४॥
शब्दार्थ-'से) शिष्य पूछता हे कि हे भदंत ! (किं तं आगमओ दवाबरसयं) आगम की अपेक्षा करके द्रत्यावश्यक का क्या स्वम्प है ? अर्थात् दृष्यावश्यक के जो दो भेद कहे गये हैं उनमें से पहिले भेद का क्या स्वरूप है ? उत्तर-(आगमओ दव्यावस्मयं) आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यावश्यक का स्वरूप इस प्रकार से है-(जम्स | आवम्मएति पई सिकिवां) जिम माधने आवश्यक शास्त्र को विनयपूर्वक गुरुके मुम्न से मीग्वा है (ठिय) उसे अच्छी
હવે સૂત્રકાર આગમની અપેક્ષાએ વ્યાશ્વકના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે. “से किं त" त्या
शाय-(से) शिप्य शुरुने मेरो प्रश्न ५छे ३. (किंत आगमओ दव्यावस्सय ?) 10मनी अपेक्षा रे द्रव्या१३५४ ह्या छ तेनु यु २१३५ छ ? એટલે કે દ્રવ્યાવશ્યકના જે બે ભેદ બતાવવામાં આવ્યા છે, તેમાંથી જે પહેલા ભેદ બતાવે છે તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर--(आगमओ दवावस्सय') मागमती अपेक्षा द्रव्यापश्यनु २५३५ मा २नु छे-(जस्सणं आवस्सएत्ति पदं मिविश्वयं) 2 साधुणे ॥१२ययानु ગુરુની સમક્ષ વિનયપૂર્વક અધ્યયન કર્યું છે, (હિ) તેને સારામાં સારી રીતે પાનાના
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अनुयोगहारमत्र विद्यमानम्, जितं-शन्दतोऽर्थतश्च परिचितम्-परिज्ञातम् । मितं-विज्ञातश्लोकपदवर्णादि संख्यामानम्. परिजितं-परि-समन्तात् सर्वप्रकारजितं-परिजितम, आनु पूर्व्या, अनानुपूर्या च पराः तितम, नामसमम्-नाम्ना समं यथा नामं न विस्मृतं
भवति, तथा रत् वदापि विरमृतं न भवति, तन्नामसमम, घोषसमं घोषा उदा त्ताद तैः समम, यथा गुरुणा घोपा उक्तास्तथा यत्र शिष्येणापि समुच्चार्यन्ते तद् घोपसमम् । अहीनाक्षरम् एकेनाप्यक्षरेण अहीनम् । अनत्यक्षरम्-एकव्यादिभिरक्षरे-धिक मत्यक्षम्, न अत्यक्षरं यत्र तदनत्यक्षरम-अधिकाक्षररहितमित्यर्थः, अव्याविद्धाक्षरम-विद्धानि-विपर्यस्तरत्नमालागतरत्नानीव विपर्यस्तानि अक्षराणि यस्मिस्तद् व्याविद्धाक्षरम्, न तथा अन्याविद्राक्षरम् व्याविद्धाक्षरत्वदोषतरह से अपने स्मृति पथ में उतारा है, (जियं) शब्द और अर्थ की अपेक्षा लेकर जिसने उसे अच्छी तरह से जान लिया है (मियं) जिसके श्लोकों की पदों की और वणों की संख्या का प्रमाण जिसे भली प्रकार अभ्यास किया हुआ है (परिजियं) आनुपूर्वी एवं अनानुपूर्वी से जिसने उसे सब तरफ से और सब प्रकार से आवर्तित किया है, (नामसमं) अपने नाम के समान जो कभी भी उसे अपने स्मृतिपथ से दूर नहीं करता है (घोससमं) जिस प्रकार से गुरु महाराज उदात्त आदि घोष स्वरों का उच्चारण किया है, उसी प्रकार से जो उसके घोषादि स्वरों का चारुरूप से उच्चारण करता है, तथा-(अही णवखरं) एक भी अक्षर की हीनता से रहित उसे जिसने सीखा है. (अणचवखरं) बोलते समय-पाठ करते समय जो अपनी तरफ से बोलता है-अर्थात् जैसा उसमें लिखा है वैसा ही उसे उच्चारण करता है (अ वाइद्धक्रनरं) जिसे स्मृतिपटसमा जतायु छ, (जिय) २४ भने अयनी अपेक्षा न तो सारी शते onell सीधेस छ, (मय) ना योनी, पहानी भने पनि सध्यान प्रमाणे सारी शते सम सीधु छ, (परिजियं) मानुषी भने मनानुनी पूर्व तेने गधी त२३थी भने अधा रे परावर्तित ४२ सीधु छ, (नामसमं) પિોતાના નામની જેમ જે તેને કદી પણ પિતાના સ્મૃતિપટમાંથી દૂર કરતો નથી, (घोससम) २ रीते शु३ भड़ा। हात्त माह धापस्वशनु श्या२५५ यु हाय, मे रे तेना धापा २१२नु सु२ रीते ७२या२९ ४२ता छाय, (अहीणवखरं) એક પણ અક્ષરની હીનતા ન રહે એવી રીતે જેણે તેનું અધ્યયન કર્યું છે, (अणच्चकखर) माती मते-48 ४२ता मते २ पोताना तथा मे ५ अक्षर તેમાં ઉમેરીને બોલતે નથીએટલે કે તેમાં જે પ્રમાણે લખ્યું હોય એ પમાણે જ તેનું ઉચ્ચારણ કરે છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका-मृ. १४ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम्
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..रहितम्, अक्षरव्यतिक्रमरहितमित्यर्थः, अग्खलितम् - शास्त्रपाठसमये मध्ये मध्ये विरम्य विरम्य तदुच्चारणम् तत्रखलितरूपोच्चारणदोषस्तेन रहितमित्यर्थः । अभिलितं मिलितदोषरहितम्, तू शास्त्रान्तरवर्तिभिः परमिश्रितं यथा - सामायिकसूत्रे दशवैकालिकोत्तराध्ययनादिपदानि न क्षिपति । अथवा - परार्तमानस्य - यत्र पदादि विच्छेदो न प्रतीयते तम्मिलितं न तथा, अमिलितम् । अव्यत्या - ग्रेडितम् - एक स्मिन्नेव शास्त्रेऽन्यान्यस्थाननिबद्धानि एकार्थानि सूत्राणि एकत्र स्थाने .. समानीय यत्पठितं तद् स्याम्रेडितम् अथवा मचाराङ्गादिवत्रमध्ये स्वबुद्धि- उसने इस तरह से सीखा है कि जिस से उसके उच्चारण में अक्षरों का “व्यतिक्रम नहीं हो सकता हो, (अक्ख लिगं ) पाठ करते समय जो बीच २ में ठहर कर उसका उच्चारण नहीं करना है किन्तु धाराप्रवाह के समान सावधि जो उसे बोलता चला जाता है, (अमिलिं) शास्त्रान्तरवर्ती पद को मिलाकर जो उसे नहीं बोलता है - जैसे सामायिक सूत्र में दशवैकालिक, उत्तराध्ययन के सूत्रों को बोलना - यह मिश्रित दोष हैं - इस दोष से हितकर सामायिक पाठ का बोलना यह अमिश्रित दोष हैं । अथवा पाठ करते समय जहां पदादि का विच्छेद प्रती 1 नहीं होता है. उसका नाम मिलिन है, इसरूप से नहीं बोलना इस का नाम अमिलित है - अर्थात् इस तरह से आवश्यक सूत्र का उच्चारण करता . है कि जिसके उच्चारण में पदादिका विच्छेद अच्छी तरह से लक्षित हो रहता है । ( अवच्चामेलिये) एक ही शास्त्र में अन्य २ स्थानों पर लिखे गये सार्थक सूत्रों को एक स्थान में लेकर उस शास्त्र वा पढना इसका नाम
(अव्वाइद्र क्खरं) नेनुं ते खेत्री रीत अध्ययन ! छे! तेना स्यारसु बसते अक्षरोंना व्यतिभ था तो नयी, (अक्खलि ) लेना पाठ २ती वमते વચ્ચે વચ્ચે અટકીને તેનું ઉચ્ચારણ કરતા નથી પણ પાણીના પ્રવાહની જેમ संस्थासितं३ये ने तेनु' भ्यार ये लय छे, (अमीलिय ) अन्य शास्त्रवती होने તેની સાથે સેળભેળ કરીને જે તેનું ઉચ્ચારણ કરતા નથી-જેમકે સમાયિક સૂત્રમાં દશવૈકાલિક કે ઉત્તરાધ્યયનના સૂત્રાનું ઉચ્ચારણ કરવું તેનું નામ મિશ્રિત દોષ છે, આ દાષા ન થાય એવી રીતે સામયિક પાઠનુ ઉચ્ચારણ થવુ જોઇએ. અથવા પાઠ કરતી વખતે જયાં પદાદિના વિચ્છેદ થતા નથી, તેનું નામ મિલિત અને તે મકારે ઉચ્ચારણ ન કરવું તેનું નામ અમિલિત છે. એટલે કે તે આવશ્યકસૂત્રના પાનુ. એવી રીતે ઉચ્ચારણ કરે છે કે જેના ઉચ્ચારણમાં પાદના વિચ્છેદ સારી रीते सक्षितं थतो रहे छ, (अवच्चामेलिय) मे४ ०४ शास्त्रभां बुढा लुहा स्थानो पर લખવામાં આવેલા એકાક ને એક જ સ્થાનમાં લઈને તે શાસ્ત્રના પાઠ કરવા
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अनुयोगद्वार कल्पितानि तत्सदृशानि सूत्राणि कृत्वा प्रक्षिप्य पठित व्यत्याग्रेडितम् | यश अस्थानविरतिकं व्यत्याम्रेडितम्, न तथा, अव्यत्याग्रेडित दोषरहितमित्यर्थः । परिपूर्णम्-सूत्रतो विन्दुमात्रादिभिरननम्, अर्थतोऽध्याहा' काङक्षादिरहित ं च । परिपूर्णघोषम् उदात्तादिघोषयुक्तम् ननु 'घोषसमम्' इत्युक्त्वा पुनः परिपूर्णघोषमिति कथनं पुनरुक्तिदोषग्रस्तम्, इति चेदुच्यते, घोषसमम्' इति शिक्षाकालमाश्रित्योक्तम्, 'परिपूर्णघ. पम्' इति तु परावर्त्तनाकालमाश्रित्य क्तम, अतो नास्ति पुनरु
त्याम्रेड है अथवा आचारांग आदि सूत्र के बीच में अपनी बुद्धि से बनाकर उसके जैसे सूत्रों को प्रक्षिप्त करके पढना इसका नाम भी व्यत्वा
डित है, अथवा बोलते समय जहां विराम लेना चाहिये वहां विगम नही लेना और नहीं लेना चाहिये वहां विराम लेना इसका नाम भी व्यत्याग्रेडित है । इस प्रकार का व्यत्याम्रेडित दंप जिसके द्वारा उस आवश्यक शास्त्र के अध्ययन करने में नहीं लगा गया है अर्थात् इस दोप को वर्जित करके जिसने आवश्यकशास्त्र को सीखा है, (पडिपुष्णं) सूत्र की अपेक्षा बिन्दु मात्र आदि से अन्न एवं अथ की अपेक्षा अध्याहार एवं आकांक्षा आदि से रहित रूप से उस आवश्यकशास्त्र का जिसने भली प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर लिया है(पंडि पुष्णघासं) उदात अनुद्यत्तस्वरिस धोपों का यथास्थान ज्ञान प्राप्तकर जिसने उस शास्त्र का अच्छी रीति से परावर्तन किया हैं । “घेोपसमं और परिपूर्णघेाष" इन दोनों विशेषणों में पुनरुक्तिदोष इस लिये नही मानना चाहिये कि पहिला विशेषण शिक्षा काल को आश्रित करके कहा गया हैं और यह दूसरा विशेषण परावर्तन તેનું નામ “યત્યાક્રેડિત છે. અથવા આચારાંગ આદિ સૂત્રના પાઠ કરતી વખતે વચ્ચે વચ્ચે પોતાની બુદ્ધિથી રચેલાં તેના જેવાં જ સૂત્રનું ઉચ્ચારણ કરવું તેનુ નામ પણ વ્યત્યાક્રડિત છે અથવા બેલની વખતે જયાં વિરામ લેવા અને વિરામ ન લેવાને હાય ત્યાં વિરામ લેવા તેનું નામ પણ યત્યા*ડિત છે. આ પ્રકારના યત્યા*ડિત દાનુ જેના દ્વારા તે આવશ્યક શાસ્ત્રનું અધ્યયન કરતી વખતે સેવન કરાયુ' નથી, એટલે કે આ દોષના ત્યાગપૂર્વક જેણે આવશ્યકશાસ્ત્ર અધ્યયન કર્યું છે. (पडिपुण्णं) सूत्रनी अपेक्षाओ मिन्हु मात्र माहिथी अन्यून भने अर्थंनी अपेक्षाखे અધ્યાહાર અને ખાકાંક્ષા આદિથી રહિતરૂપે તે આવશ્યકશાસ્ત્રનું જેણે સારી રીતે ज्ञान प्राप्त पुरी सीधु छ.
(परिपुष्णघोसं ) उद्यात्त माहि घोषोनुं यथास्थान ज्ञान प्राप्त उरीने २३ ते शास्त्रनु सारी रीते परावर्तन युछे, 'घोससमं' भने “पडिपृष्णघो सं" मा मन्ने વિશેષણેામાં પુનરુકિત દોષ એ કારણે માનવા જોઈએ નહીં કે પહેલું વિશેષણ શિક્ષા કાળને આશ્રિત કરીને વપરાયું છે અને બીજું વિશેષણુ પરાવતન કાળને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १४ द्रव्या३श्यकसरूपनिरूपणम् क्तिदोषः । कण्ठोष्ठविप्रमुक्तम्-कण्ठश्च-ओष्ठंच-कण्ठाप्ठम्-तेन विप्रमुक्तम्-सुस्पष्ट मित्यर्थः न तु बालमूकादिभाषितवदस्पष्टम् । तथा-गुरुवाचनोपगत-गुरोःसकाशादधिगता या वाचना, सूत्रार्थस्य च ग्रहणं तथा उपगत प्राप्तम, तदेवं यस्य साधोरावश्यकपदं शिक्षिनादिगुणोपेतमधिगत भवति, स खलु साधुः तत्र आवश्यकपदे वाचनण-शिष्याध्यापनरूपण प्रच्छनया-प्रच्छना-पूर्वाधीतसूत्रादौ संशये सति गुरुसमीपे प्रच्छनम्, यद्वा-प्रच्छना-विशोषितस्य सूत्रस्य माभूद् विम्मरणमिति गुरोः प्रश्नरूपा, तया, परिवर्तनया अधीतस्य मूत्रादेः पुनःपुनरावृत्ति करणं गुणनं परिवर्तना, तया. धर्मकथया दर्गतौ प्रपनन्त सत्त्वसंघात सुगतो धारय(पुनरावर्तन) कालको आश्रित करके कहा गया है। (कंठाहविप्पमुक्क) बाल आदि के भाषित की तरह जिस का उसशास्त्र या असष्ट उच्चारण नहीं हे-किन्तु बिलकुल स्पष्ट स्वर से जो उसका उच्चारण करता है, तथा (गुरुवायणावगयं) गुरुके पास रहार जिसने इस आवश्यकशास्त्र की चना पाई है-मूत्र और अर्थ का अध्ययन किया है-जिस से उसे उस-आवश्यक शास्त्र का ज्ञान प्रात हुआ है-इस तरह इन पूर्वोक्त श्रुतगुणरूपविशेषणों के अनुसार जिस साधुने आवश्यकशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करलिया है-अतः (से) वह साधु (तत्थ) उस आवश्यक शास्त्र मे (वायणाए पुच्छगाए परियट्टणाए धम्मकहाए) शिष्य अध्ययनरूप वाचना से, पूर्वाधीत मूत्रादि में संशय हे ने पर गुरु के समीप पूछनेरूप अथवा विशोधित सूत्र का विस्मरण न हो जावे इस ख्याल से गुरु से प्रश्नकरनेरूप पृच्छना से, अधीत पढा हुआ सूत्रादिक कि पुनः पुनः आवृत्ति करनेरूप परिवर्तना से और दुर्गति में पडते माश्रित परीने १५॥ छ. (कंठोडविप्पमुक्कं) पास मा भूभासना જેવું અસ્પષ્ટ ઉચ્ચારણ જે કરતે નથી–પરન્ત બિલકુલ સ્પષ્ટ સ્વરથી જે તેનું ઉચ્ચાણ अरे छ, (गुरुवायणावगयं) गु३नी पासे २हीन 0 मा भाव२५४ शाननी वायना કરી છે–એટલે કે ગુરૂની સમક્ષ જેણે સૂત્ર અને અર્થનું અધ્યયન કર્યું છે અને આ રીતે જેને આવશ્યક સૂત્રનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું છે, આ રીતે પૂર્વોકત શ્રત ગુણ રૂપ વિશેષણના અનુસાર જે સાધુએ આવશ્યશાસ્ત્રનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી લીધું છે. અને तेथी (से) ते साधु (तत्थ) ते आवश्य:शाखमा (वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माहाए) शिष्य अध्ययन३५ पायन 43 पूर्वाधात (पडसा रेनु अध्ययन ४२वामा આવ્યું છે તેને પૂર્વાધીત કહે છે) સૂત્રાદિમાં સંશય થાય ત્યારે ગુરૂને તે વિષે પ્રશ્ન કરવારૂપ પૃછાવડે અથવા વિશે ધિત સૂત્રનું વિસ્મરણ ન થઈ જાય તે ખ્યાલથી ગુરૂને પ્રશ્ન કરવારૂપ પૃચ્છના વડે અધત સૂત્રનો ફરી ફરીને પાઠ કરવારૂપ પરિવર્તન પડે અને દુર્ગતિમાં પડતાં જીવેને સુગતિમાં ધારણ કરાવનાર ધર્મકથાવડે-એટલે
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अनुयोगभार तीन धर्मः तस्य कथनं धर्मकथा अहिंसादि धर्मप्ररूपणरूपा, तथा वर्ग मानोऽस्तीति आगमतो द्रव्यावश्यकन्पते । ननु वाचनादिभि तत्रावश्यक शास्त्रे व मामः साधुः कथमागमनो द्रव्यावर कं भवतीति शिष्यशङ्कां निराकर्तुमाह- 'नो अपुणे' मो अनुप्रेक्षया - वाचनादिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि शाखार्थानुचिन्तन रूपमनुप्रेक्षण नो वर्त्तमानो भवति अनुप्रेक्षया युक्तो न भवतीत्यर्थः, अतः स आगमतो इम्पावश्यकं भवति । अनुप्रेक्षयाचाऽवमानः कथमागमती द्रव्यावश्यकं भवतीति स्वयमाह सूत्रकारः - 'कम्हा' इत्यादिना । कस्मात् आगमतो द्रव्यावश्यकं भवति १ उनरयति - 'अणुवओगो दामिति वहु अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा - उपयुज्यते :- वस्तुपरिच्छेदं करोति जीवोऽनेनेत्युपयोगः । करणे घञ्प्रत्ययः । उपयोगः= हुए जीवों को सुगति में धारणकराने वाले ( पहोंचाने वाले) धर्म की कथा से - अर्थात्. अहिंसादि धर्म की प्ररूपणा से र्तिमान है - इस तरह आगम की अपेक्षा वह साधु
वश्यक कहा गया है। यहां ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, कि वालनादिरूप क्रियाओं से उस आवश्यक शास्त्र में वर्तमान वह साधु आगम की अपेक्षा द्रव्यावaan कैसे है क्योंकि (नो अणुप्पेहा ए) इस पर से सूत्रकार ने इस शंका का समाधान किया है - वे कहते हैं कि वाचनादिरूप क्रियाओं से आवश्यकशास्त्र में वर्तमान रहा हुआ भी वह साधु शास्त्र के अर्थ का अनुचिस्तन करने रूप अनुप्रेक्षा चिन्तन से उसमें वर्तमान नहीं है । इसलिये वह अगम से व्याक है । (म्हा अमुषयोग दव्यमिति) क्योंकि “अनुप्रयोगो ब देशा शास्त्र का वचन है । इस का तात्पर्य यह हैं कि-जीव जिस के द्वारा वस्तु का परिच्छेद करता है उस का नाम उपयोग हैं । उप उपसर्ग पूर्वक युज् કે અહિંસાદિ ધર્મની પ્રરૂપણાવડે વર્તમાન (વિદ્યમાન) છે. આ રીતે આગમની અપેક્ષાએ તે સાધુને દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવ્યે છે.
અહીં એવી શંકા ન કરવી જોઈએ કે વચનાદિ ક્રિયાઓ વડે તે આવશ્યક સૂત્રમાં વર્તમાન તે સાધુ આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યક કેવી રીતે સ’ભવી શકે છે? સૂત્રકાર આ સુત્રપાઠ દ્વારા તે શકાનું સમાધાન કર્યું છે—
(नो अणुप्पेहाए) वायनापि विडे आवश्य४ शास्त्रभां वर्तमान रहे
અવા તે સાધુ શાસ્ત્રના અથનું અનુચિન્તન કરવારૂપ અનુપ્રેક્ષાની અપેક્ષાએ તેમાં ધત માન હતા નથી તે કારણે તે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યક છે. (તા अणुपयागो दनमित्ति) अर हे शास्त्रनु येवु वयन छे हैं "अनुपयोगों द्रव्य" આ ગ્રંથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે
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જીવ જેના દ્વારા વસ્તુના પષ્ઠિત કરે છે (વસ્તુનું જ્ઞાન મેળવે છે) તેનુ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १४ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम् ९५ जीवस्य बोधरूपा पारः । न विद्यते उपयोग स्त्रासो-अनुपयोगः । इति कृत्वा अरमात् कारणात् स साधुरागमता यावश्यकं भ-ति। यस्य व रयचित् माधोगवश्यकशास्त्र शिक्षितं स्थितं जितं यावद् वाचनोपगतं भवति, स खलु साधुरतत्रावः यकशास्त्रे वाचना-प्रछना-परिवर्तना धर्मकाभितमानाऽपि आश्यकोपयोगरहित्वादागमता द्रव्यावश्यकं भवतीति समुदित.र्थः । अत्रेद बोध्यम्वाचना प्रच्छनाक्ष्य उपयोगपूर्वका अनुपयोगपूर्वकाश्च भवन्ति । परमिह द्रव्यावर कप्रातावादनुपयोगपूर्वका वाचनाप्रच्छनादयो बौद्धन्दाः । अनुप योगग्तु भाव
धातु से करण में धन प्रत्यय करने से उपशेग शब्द निष्पन्न हुआ है। जीव के बोधरूप व्यापार का नाम उपयोग है। यह उपयोग जहां पर नहीं है उस का नाम अनुपयोग है। इस अनुपयोग से उस आवश्यद शास्त्र में युक्त होने के कारण वह आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता आगम से द्रव्यावश्यक माना जाता है। तात्पर्य कहने का यह है कि जिस साधुने आवश्यक शास्त्र को अच्छी तरह से जान लिया है. सीख लिया है-उसका यह पूर्णरूप से ज्ञाता हो चुका है-अतः वह साधु उस आव कशास्त्र में वाचना पृच्छना, परिवर्तना एवं धर्मकथा के रूप से वर्तमान मान लिया जाता है-फिर भी आवश्यक के उपयोग से रहित होने के कारण वह आगम से द्रावश्यक कहलाता है। उसे यो समझना चाहिये कि वाचना पृच्छना आदि उपयोगपूर्वक भी होते हैं
और अनुपयोगपूर्वक भी। परन्तु यहां रवयक का प्रकरण होने से वे નામ “ઉપયોગ” છે. “પુનું ધાતુને ૩૧ ઉપસર્ગપૂર્વક કરણ અર્થ વગ પ્રત્યય લગાડવાથી ઉપયોગ શબ્દ બને છે. જીવના બોધરૂપ વ્યાપારનું નામ ઉપગ છે. તે ઉપયોગને જ્યાં સદૂભાવ નથી તેને અનુપયોગ કહે છે. તે અનુપયોગપૂર્વક તે આવશ્યકશાસ્ત્રમાં યુકત હોવાને કારણે તે આવશ્યકશાસ્ત્રના જ્ઞાતાને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આવશ્યક (દ્રવ્યાવશ્યક) માનવામાં આવે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે સાધુએ આવશ્યક શાસ્ત્રને સારી રીતે જાણી લીધું છે-સારી રીતે તેનું અધ્યયન કરી લીધું છે. તેને પૂર્ણ રૂપે જાણકાર થઈ ગયો છે, એવા સાધુને તે અવશ્યકશાસ્ત્રમાં વાચના. પૃરછના, પરિવર્તન અને ધર્મકથા રૂપે વર્તમાન માની લેવામાં આવે છે, છતાં પણ આવશ્યકના ઉપગથી રહિત હોવાને કારણે તેને આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવે છે. આ વાતને વધુ ખુલાસો આ પ્રમાણે સમજવોવાચના, પૃચ્છના, આદિ ઉપગપૂર્વક પણ થાય છે અને અનુગપૂર્વક પણ થાય છે પરંતુ અહીં દ્રવ્યાવશ્યકનું પ્રકરણ ચાલતું હોવાથી તેમને અનુગપૂર્વક જ
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अनुयोगद्वारसत्र
शून्यता, तच्छ्रन्यं च वस्तु द्रव्यमेव भवतीति वाचना दिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि साधु व्यावश्यकम् । अनुप्रेक्षा तूपयोगपूर्विकैव भवति, उतरतंत्र वर्तमाना द्रावश्यकं न भवति ।
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ननु आगममाश्रित्य द्रव्यावश्यकमित्यागमरूपमिदं द्रव्यायवश्यकमित्युक्तं भवति एतच्च युक्तं न प्रतिभाति, यत् आगमो ज्ञानं ज्ञानं च भात्र एवेति कथमस्य द्रव्यत्वमुपपद्यते ? इति चेत् उच्यते - आगमस्य कारणमात्मा, तदधिष्ठितो देहः, शब्दश्वोपयोगशून्यसृत्रोच्चारणरूप इहास्ति, न तु साक्षादागमः । एतच्च त्रितयमागम कारणात् कारणे कार्योपकारादारम उच्यते, कारणं च विवक्षित भावस्य द्रव्यमेव भवतीत्यदोषः ।
अनुपयोगपूर्वक गृहीत किये गये हैं । भावशून्यता का नाम अनुपयोग है । उपयोग से शून्य द्रव्य ही होता है । इसलिये वह आवश्यकशास्त्र का ज्ञाता साधु उसमें वाचनादिक से वर्तमान होता हुआ भी उपयोग से शून्य होने के कारण द्रव्यावश्यक है । अनुप्रेक्षा जो होती है वह उपयोगपूर्वक ही हंती है इसलिये उसमें वर्तमान साधु द्रव्यावश्यक नहीं है वह तो भावावश्यक हैं |शंका- जब आप आगम को आश्रित करके द्रव्यावश्यक की प्ररूपणा करते हो तो वह द्रव्यावश्यक आगमरूप वहा गया है मानने में आता है । परन्तु यह बात युक्त प्रतीत नहीं होती है क्योंकि आगम जो होता है वह तो ज्ञानरूप होता है । और ज्ञान भावरूप होता है । अतः आगम में द्रव्यता कैसे बन सकती है ?
उत्तर - आगम के कारण आत्मा, आत्माविष्ठित देह, और उपयोगशून्य सूत्र का उच्चारणरूप शब्द ये तीन माने गये हैं । साक्षात आगम नहीं । ये तीन आगम के कारण होने से कारण में आगमरूप कार्य का उपचार किया गया है । इसलिये इन्हें आगमरूप से कहा है । विवक्षित भाव का जो कारण
ગૃહીત કરવામાં આવેલ છે. ભાવશૂન્યતાનુ નામ અનુપયોગ છે દ્રશ્ય જ ઉપયાગથી રહિત હોય છે. તેથી તે આવશ્યક શસ્ત્રના જ્ઞાતા સાધુ તેમાં વાચના આદિરૂપે વર્તમાન હાવા છતાં પણ ઉપયેગથી રહિત હાવાને કારણે દ્રશ્યાવશ્યક જકહેવાય છે. અનુપ્રેક્ષા તા ઉપયેગપૂર્ણાંક જ થાય છે. તેથી તેમાં (અનુપ્રેક્ષામાં) વમાન સાધુ ૬૦ચાવશ્યક નથી, પણ ભાવાવશ્યક છે.
શકા—જ્યારે આપ આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યાવશ્યકની પ્રરૂપણા કરી છે. ત્યારે એવુ લાગે છે કે દ્રશ્યાવશ્યકને આગમરૂપ કહેવાયાં આવ્યુ છે, એવુ આપ પ્રતિપાદન કરી રહ્યા છે. પરન્તુ એ વાત યુકત લાગતી નથી કારણ કે આગમ
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अनुयोगचन्द्रिका टीश. १४ द्रव्यावश्यकरवरूपनिरूपणम् ___ ननु-आगमतोऽनुपयुक्ती द्रव्यावश्यकम, इत्येतावनैवेष्टसिद्धेः शिक्षितादिश्रुतगुणाभिधानं व्यर्थमितिचेत्, उच्यते-शिक्षितादिश्रुतगुणाभिधानेन मूत्रकार इदं सूचयति-एवंविधं निर्दोपमपि श्रुतमुच्चारयनोऽनुपयुक्तस्य द्रव्यश्रुतं द्रव्यावश्यकमेव भवति, किं पुनः सदापम् । उपयुक्त-य स्खलितादिदोपदुष्टमुच्चारयतोऽपि होता है वह द्रव्य ही होता है। इसलिये आइक में उपयोगरहित आत्मा का आगम से द्रव्यावश्यक कहना निर्दोष है।
शंका-ठीक है- आवश्यक में अनुपयुक्त आन्मा को आप आगम की अपेक्षा द्रव्यावश्यक कहिये-इसमें कई विरोध नहीं है-परन्तु मूत्रकार ने जो शिक्षितादि श्रुतगुणों का वर्णन किया है सो उनके कहने की क्या आवश्यकता थी ? वह श्रुतगुण कथन तो ठार्थ है। क्यों कि इस श्रुतगुण कथन से आगम की अपेक्षा लेकर व्यावश्यक की सिद्धि में कोई संगति प्रतीत नहीं होती ? सो इस प्रकार का साक्षेप भी संगत प्रतीत नहीं होताकारण सूत्रकार इस श्रुतगुणवर्णन से यह मूचित करते है कि इस प्रकार निर्दोप भी शास्त्र का उच्चारण करने वाले साधुका कि जो उस में अनुपयुक्त (विना उपयोग के)
તે સનરૂપ હોય છે અને જ્ઞાન ભાવરૂપ હોય છે. તેથી આ ગામમાં પ્રયતા કેવી રીતે ઘટાવી શકાય છે?
उत्त२–माजमना मात्र १२ भानामा मा०यां छ-(१) मा, (२) આત્માધિષ્ઠિત દેહ અને (૩) ઉપયોગ રહિત કૃત્રના ઉચ્ચારણરૂપ શબ્દ-સાક્ષાત આગમ નહીં. આગમના આ ત્રણ કા વાળી કારમાં આગ-રૂપ કાર્યને ઉપચાર કરવામાં આવે છે. તે કારણે તેમ, અગમરૂપ કહેવામાં આવેલ છે. વિવ ક્ષિત ભાવનું છે કારણ હોય છે તે દ્રવ્ય એ ય છે તેથી આવશ્યકમ ઉપયોગ રહિત આત્માને આગમન અટકાએ નાક કહે એમાં કઈ દોષ નથી, એ તે નિર્દોષ કથન જ ગણી શકાય.
શંકા–આવશ્યકમાં અનુપાત અમાન આ૫ માની અપેક્ષાએ કાલે દ્રવ્યાવશ્યક કહે, એમાં અમને કંઈ વાંધો નથી, પરંતુ રત્રકારે જે શિક્ષિત આદિ શ્રતગુણોનું વર્ણન કર્યું છે. તે વર્ણન કરવાની અહીં શી અવશ્યકતા હતી? તે શ્રતગુણકથન તે વ્યર્થ જ લાગે છે, કારણ કે આ શતગુણ કથન વડે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યકની સિદ્ધિમાં કોઈ સંગત દેખાતી નથી.
ઉત્તર–આ પ્રકારને આ પણ સંગત લાગતું નથી, કાણ કે સૂત્રકાર આ થતગુણ વર્ણન વડે એ સૂચિત કરવા માંગે છે કે આ પ્રકારે નિદેવરૂપે પણ શાસ્ત્રનું ૬ચ્ચારણ કરનાર સાધુ કે જે તેમાં અનુપમુક જ રહેલો છે, તેનું તે દ્રવ્ય ત
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अनुयोगद्वारम्ने भावश्रुतमेव भवति । एवं प्रत्युपेक्षादि क्रिया निर्दोषा अपि अनुपयुक्तस्य न तथाविधफलदायिन्या भवन्ति । उपयुक्तस्य तु मतिवेकल्यादितः सदोषा अपि प्रत्युपेक्षादि क्रियाः कर्ममलापनयनाय समर्था भवन्तीति ।
ननु भवत्वनुपयुक्तो द्रव्यावश्यकम्, किन्तु हीनाक्षरंसूत्रं समुच्चारिते को दोषः ? कथमुक्तमहीनाक्षर ? मिति, उच्यते-लौतिकविद्यःमन्त्रा अपि अक्षरहीनाः समुच्चार्यमाणास्तत्फलं दातुमसमर्था अनविहाश्च भवन्ति, कि तर्हि परममन्त्ररूपे हो रहा है-वह ट्रटर श्रुत द्र-यावश्यक ही है। तो फिर सदोष शास्त्र को उच्चारण करने वाले की तो बात ही क्या है ? जो रस शास्त्र में उपयंग युक्त है ऐसा प्राणी यदि स्खलित आदि दोष से भी दापित शास्त्र का उचारण करता है तो उसका वह द्रव्य त भावश्रत ही है। इसी तरह अनुपयुक्त साधु रूप प्राणी की प्रत्युपेक्षणा द क्रिया निर्दोष भी हो तो भी वे तथाविध फल की प्रदाता नहीं होती हैं । परन्तु जो साधु उन प्रत्युपेक्षणादि-पडिलेहणा ब्रियाओं को उनमें उपयुक्त बन कर करता है और यदि वे मति विकलता आदि के वश से सदोप भी कर्ममलको दूर करने के लिये समर्थ होती हैं।
शंका-अनुपयुक्त साधु द्रव्यावश्यक भले हो परन्तु हीनाक्षररूप से सूत्र के उच्चारित होने पर क्या दंप है कि जिस मे "अहीणवखरं" यह श्रत का कथित गुणरूप ग्रूप विशेषण सफल माना जा सके ?
__उत्तर-लौकिक विद्या, मंत्र, भी जब अक्षर न्यून बोले जाते है तो वे अपने वास्तविक फल को देने में असमर्थ हो जाते हैं और अनर्थकारक बन जाते हैं तव फिर परममंत्र रूप सूत्र के विषय में क्या कहना । हीनाक्षर सूत्र के દ્રવ્યાવશ્યક જ છે, તો સદેષ શાસ્ત્રનું ઉચ્ચારણ કરનારની તો વાત જ શી કરવી જે તે શાસ્ત્રમાં ઉપયોગયુકત છે એ સાધુ પણ જે ખલિત આદિ દષથી દૂષિત થયેલા શાસ્ત્રનું ઉચ્ચારણ કરે છે, તે તેનું તે દ્રવ્યથત ભાવકૃત જ છે. એ જ પ્રમાણે અનુપયુકત સાદુરૂપ જીવન પ્રત્યુપ્રેક્ષણાદિ ક્રિયા નિર્દો હોય તે પણ તથાવિધ (તે પ્રકારના) ફલની પ્રદાતા સંભવી શકતી નથી. પરંતુ જે સાધુ તે પ્રત્યુપ્રેક્ષણાદિ ક્રિયાઓને તેમાં ઉપયુક્ત બનીને કરે છે, એ સાધુ કદાચ મતિ વિકલતા આદિને કારણે સદોષ હોય તે પણ તેની તે કિયાઓ કર્મમળને દૂર કરવાને સમર્થ જ હોય છે.
શંકા–અનુપયુકત સાધુને દ્રવ્યાવશ્યક માની લઈએ, પરંતુ હીનાક્ષરરૂપે सूत्रनु यार ४२वामा मेवो तो ये है।५ छ ॐ थी "अहीणखरं" या શ્રતના કથિત ગુણરૂપ વીશેષણને સફળ માની શકાય ?
ઉત્તર–વૌકિક વિદ્યારૂપ મંત્રનું ઉચ્ચારણ કરવા પણું જે એકાદ અક્ષરને ઉડાડી દેવામાં આવે છે, તે તે મંત્ર પણ વાસ્તવિક ફળ આપવાને અસમર્થ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १४ द्रव्यावश्यकस्वरूपनिरूपणम्
तत्फलकल्याणरूपमोक्षानवाप्ति
सूत्रे वक्तव्यम् ? हीनाक्षरे सूत्रे उच्चारिते रनन्तावा तश्च भवतीति सुनीभिर्विभाव्यम् ।
अत्रायं दृष्टान्तः - एकदा राजगृहनगरोद्याने समः सुतस्य भगवतो महावीर - स्य चरणौ वन्दितुं देवासुरविद्याधरनरसमुदायः समागतः । स्वपुत्रेणाभयकुमारेण सह राजा णिकोऽपि समागतः । भगवता परिषदि धर्मदेशना दत्ता । धर्मदेशनानन्तरं सर्वेऽपि भगवन्तमभिवन्द्य वग्वस्थानं गताः । सपुत्रः श्रेणिको भगवन्तं पर्युपासीनः । भगवत्समीप एव स्थितः । अस्मिन् समये कश्चिद् विद्याधरो विस्मृतविद्येकाक्षरो नभसा गन्तुमुत्पतितः, किंचिद् गत्वा उच्चरित होने पर उसका फल जो परम कल्याणरूप मोक्ष की प्राप्ति होना वह नहीं होती है और अनन्त संसार की प्राप्तिरूप अनर्थ प्रगट होते हैं, इस विषय में यह दृष्टांत हैं - एक समय राजगृह नगर के उद्यान में भगवान महावीर वा समवसरण हुआ ।
प्रभु को वंदना करने के लिये देव, असुर, विद्याधर एवं मनुष्य इन सबका समुदाय आ पहुंचा। अपने पुत्र अभयकुमार के साथ राजा श्रेणिक भी आये । भगवान ने परिषदा में धर्म की देशना दी । सुनकर सब भगवान् को वंदना करके अपने २ स्थान पर चले पर राजा श्रेणिक नहीं गये । सपुत्र वे भगवान की पर्युपासना में लवलीन हो कर भगवान् के सभीप में ही बैठ गये । इतने में कोई एक विद्याधर जिसको अपनी विद्या का एक अक्षर विस्मृत हो गया था । आकाशमार्ग से जाने के लिये उड़ा। वह બની જાય છે અને અન કારક પણ ખની શકે છે, તો પછી પરમ મંત્રરૂપ સૂત્રની તેા વાત જ શી કરવી ? હીનાક્ષર સૂત્રના ઉચ્ચારણને લીધે પરમ કલ્યાણકારક મેક્ષ રૂપ ફળની પ્રાપ્તિ પણ થતી નથી એ-લું જ નહીં પણ અન ંત સંસારની પ્રાપ્તિરૂપ અનર્થ પણ પ્રગટ થાય છે આ વિષયને અનુલક્ષીને નીચેનું દૃષ્ટાંત આપવામાં આવ્યું છે.
કોઇ એક સમયે રાજગૃહ નગરના ઉદ્યાનમાં મહાવીર પ્રભુત્તુ સમવસરણ થયું પ્રભુને વદણા કરવા નિમિત્તે દેવ, અસુર, વિદ્યાધર અને મનુષ્યનેા સમુદાય આવી પહેાંચ્યા. પાતાના પુત્ર અભયકુમારને સાથે લઈને મહારાજા શ્રેણિક પણ આવી પહેાંચ્યા ભગવાને ત્યાં એકત્ર થયેલી પરિષદાને ધર્મની દેશના દીધી. ભગવાનની દેશના સાંભળીને અને ભગવાનને વદણા કરીને સૌ પોતપાતાને રથાને પાછાં ફર્યાં, પરન્તુ રાન્ત શ્રેણિક ત્યાંથી ખસ્યા નહીં. તે પેાતાના પુત્રની સાથે ભગવાનની પ પાસનામાં તલ્લીન થઈને ત્યાંજ બેસી રહ્યો. હવે આ વખતે નીચેના બનાવ બન્યા. સમવસરણમાંથી પાઠે ફરતા કેઇ એક વિદ્યાધર આકાશમાર્ગે ઉડવા માગતા હતા પણ આકાશમાં ઉડવા માટે જે મંત્રના ઉચ્ચાર કરવા જોઇએ તે મત્રના એક અક્ષર તે ભૂલી
देशना
गये |
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योगवारको निपतितः, पुनरुत्पतितो निपतितव । एवं पुनः पुनरुत्पतन्तं निपनन्तं तं विद्याधरं वीक्ष्य अभयकुमारो भगवन्तं प्रणम्यैवमब्रवीत् - भदन्त । कथमयं महाभागो विद्याधरो विच्छिन्नपक्षः पक्षीव पुनः पुनर्नभसि उत्पतति निपतति च ? ततो भगवता प्रोक्तम्- अयं विद्याधरो विस्मृत विद्येकाक्षरो नभसि गन्तुं प्रयतते. परन्तु सफलत न भवति । भगवद्वचनं श्रुत्वा अमर कुमारस्तस्य विद्याधरस्य समीपे समागत्यैवमब्रवीत् - महाभाग ! यदि वं मामपि विद्यासाधनोपायं कथयेस्तदा त्वद्विस्मृतवियैकाक्षरं तुभ्यं निवेदयामि । विद्या रेणाभय कुमार वचनं प्रतिनम् । अभय
BRO
कुछ दूर गया. ही था कि नीचे गिर पडा। वहां से फिर उडा और फिर आगे जाकर गिर पड़ा। इस तरह वारचार उडते और गिरते हुए उस विद्यार को अभयकुमार ने देख लिया । देखकर उसने भगवान् से नमस्कार कर पूछाहे भदन्त ! कटे हुए पक्षवाले पक्षी की तरह यह विद्याधर बार २ आकाश में उड़ता हैं और गिर पडता है सो इसका क्या कारण है ? तब भगवान् ने कहा - यह विद्याधर अपनी आनाश गामिनी विद्या का एक अक्षर भूल गया - अतः उडने का प्रयत्न करता हुआ भी यह उसमें सफल नहीं हो पा रहा | भगवान् के इस प्रकार वचन सुनकर अभयकुमार शीघ्र ही उस विद्यार के पास गया और बोला- महाभाग ! यदि तुम मुझे विद्या सिखा देंगे तो मैं तुम्हारे लिये विद्या के विस्मृत हुए एक अक्षर को कह दूंगा । अभयकुमार की इस बात को उस विद्याधर ने मान लिया तब अभयગયા હતા. તે આકાશમાં ઉડચા તો ખરા પણ ચોડે દૂર જઈને નીચે પડી ગ गयीं. નળી ફરીથી ઉડચે; પરન્તુ ઘેાડે દૂર જઈને કરી નીચે પડી ગયા. આ પ્રમાણે મારવાર ઉડતાં અને પઢતાં તે વિદ્યાધરને અભયકુમારે જોયો. તેનું કારણ જાણવાની તેને ઇચ્છા થઈ તેણે મહાવીર પ્રભુને વંદણા નમસ્કાર કરીને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન छयो- "हें लगवम् ! तूरेसी यांमवाणा पक्षीनी प्रेम या विद्याधर वारंवार भांडा भांडे छे भने नीचे पड़ी लय छे. ते अस्य शुं थे ?
'त्यारे महावीर प्रमुखे मलयडुंभारने या प्रभा नवा आयो-डे संमयકુમાર ! તે વિદ્યાધર પેાતાની
ते उडवाने प्रयाशगामिनी विद्यानो मे अक्षर : लूसी गये हैं.
કરવા છતાં પણ તે તેમાં સફળ થતા નથી,
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ભગવાનનાં એવાં વચનેા સાંભળીને અભયકુમાર તુરંત જ તે વિદ્યાધરની પાસે પહોંચી ગયા. તેણે તે વિદ્યાધરને કહ્યું-હું મહાભાગ ! જો તમે મને વિદ્યા સાધવાના ઉપાય બતાવો, તે હું તમને આકાશગામિની વિધાના મંત્રનો વિસ્તૃત થઇ ગયેલા એક અક્ષર બતાવી દઉં વિધાધરે અભયકુમારની તે વાતને સ્વીકાર કર્યાં.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका-७. १४ द्रव्यावश्य स्वरूपनिरूपणम् कुमारस्य एकस्मादपि पदादनेक दाभ्यहन शक्तिरासीत् । स विद्याधर कथितमन्त्रं श्रुत्वा विम्मृतमक्षरं तस्मै निवेदितवान् । स विद्याधरोऽपि तम्मै विद्यासाधनोपायमकथयत् । ततो विद्याधरो विस्मृतमक्षरमुपलभ्य म्बसमाहितप्रदेशं गतः । अनेन दृष्टान्तेनेदं वोध्यम-यथा तस्य विद्याधरस्यकाक्षरविग्मरणेन हीनाक्षरता दोमान्नभोगनिरपरता, विद्या च व्यर्थतां याता तथैव हीनाक्षरे मूत्र उच्चारितेऽर्थभेद तद्भेदात् क्रियाभेदः, क्रियाभेदे च मोक्षानवाप्तिः। ततो दीक्षाग्रहणादिकमपि वयर्थ्यमापद्यतेति । एवमधिकाक्षगदिष्वपि दोपा बोध्याः । मिरतरभिया दृष्टान्ताभिगनाद् विम्यते। ॥ सू० १४ ॥ कुमार ने कि जिसे 'सर्वाक्षर सन्निपाती विद्या में निपुणता थीं जिससे उनको एक भी पद से अनेक पदों को विचार करने की शक्ति प्राप्त थी उस विद्याधर के कथित मंत्र को सुनकर विस्मृत अक्षर उसे कह दिया । विद्याधरने भी अभयकुमार को विद्यासाधन के उपाप कह दिये। इस प्रकार अपनी विद्या के विरमृत अक्षर को प्राप्त कर वह विद्यावर अपने यथेष्ट स्थान पर चला गया। अतः इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार उस विद्याधर की एक अक्षर विस्मृत हो जाने के कारण विद्या हीनाक्षरता के दोर से दृषित होने से नभोगति करने में असमर्थ हुई
और व्यर्थ हुई उसी तरह हीनाक्षर करके नत्र का उच्चारण से अर्थ में भेद हो जाता है, उस से क्रिा में भेद आने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो पाती है। इस से दीक्षा ग्रहण आदि कार्य भी सब व्यर्थ हो जाते हैं। इसी तरह
मनयना२ पासे 'सर्वाक्षरसन्निपाती' विद्या पाथी तमामा એવી શકિત હતી કે તે એકાદ પદને શ્રવણ કરીને પણ અનેક પદને વિચાર કરી શકતા હતા. આ શક્તિના પ્રભાવથી વિદ્યાધર કથિત મંત્રને સાંભળીને વિરમૃત અક્ષર તેણે તે વિદ્યાધરને બતાવી દીધું. વિદ્યારે પણ અભયકુમારને વિદ્યા સાધવાના ઉપાય બતાવી દીધા. આ પ્રકારે મંત્રના વિમૃત અક્ષરને જાણી લઈને તે વિદ્યાધર પોતાને યથેષ્ટ સ્થાને ચાલ્યા ગયે.
આ દૃષ્ટાન્ત દ્વારા એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે-જેમ તે વિદ્યાધર પિતાની આકાશગામિની વિદ્યાને એક અક્ષર ભૂલી જવાને કારણે તેની વિદ્યા હીનાક્ષરતાના દેષથી દૂષિત થવાને લીધે તેને નગતિ કરાવવાને અસમર્થ બની ગઈ, એજ પ્રમાણે હીનાક્ષર કરીને સૂત્રનું ઉચ્ચારણ કરવામાં આવે તે અર્થ માં ભેદ પડી જાય છે. અર્થમાં ભેદ પડી જવાને કારણે ક્રિયામાં પણ ભેદ પડી જાય છે અને ક્રિયામાં ભેદ પડી જવાને લીધે મોક્ષની પ્રાપ્તિ પણ થઈ શકતી નથી. તે કારણે દીક્ષા ગ્રહણ આદિ કાર્ય પણ વ્યર્થ બની જાય છે. એ જ પ્રમાણે સૂત્રમાં અક્ષરને ઉમેરીને સુત્ર
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अनुयोगद्वार
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सम्प्रति नयभेदेन द्रव्यावश्यकभेदा उच्यन्ते —
मूलम् - नेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्वावस्वयं, दोग्णि अणुवउत्ता आगमओ दोणि दव्वावस्तयाई, तिष्णि अणुवउत्ता आगमओ तिग्णि दव्वावस्सयाई, एवं जावइया अणुवउत्ता आगमओ तावइवाई दवावस्याई । एवमेव वत्रहारस्सवि । संगहस्त णं एगो वा अणेगे वा अणुवउत्तो वा अणुवत्ता वा दव्ववस्तयं दव्वावस्याणि वा से एगे दव्वावस्सए । उज्जसुयस्स एगो अणुवत्तो आगमओ एवं दव्वावस्सयं पुहुत्तं नेच्छइ । तिन्हं सहनयाणं जाणए अगुवउत्त अवत्थु कम्ही ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ, जइ अणुत्रउसे जाणए ण भवइ तम्हा णत्थि आगमओ दव्वावस्यं । से तं आगमओ दच्चावस्तयं ॥ सू० १५ ॥ अधिक अक्षर आदि करके सूत्र के उच्चारण में दोष आते हैं । इनके ऊपर भी दृष्टान्त है जिन्हें यहां शास्त्र के विस्तार के भय से नहीं लिखा है । भावार्थ-संक्षेप में आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यापक का स्वरूप सूत्रकार के अभिप्रायानुसार इस प्रकार जानना चाहिये जिन साधुने आवयश्क सूत्र को सविधि अच्छी तरह से सीख लिया है - गुण के अनुसार उसका अध्ययन कर लिया है - परन्तु उसमें उपयोग से वह रहित है - ऐसी स्थिति में वह साधु का आगम द्रव्यावश्यकरूप है | |सूत्र १४॥
ઉચ્ચારણ કરવામાં પણ દેષ રહેલા છે. તેનું પ્રતિપાદન કરતું એક દૃષ્ટાન્ત આપી શકાય એમ છે, પણ શાસ્ત્રના વિસ્તાર થઇજવાના ભયથી અહીં તે દૃષ્ટાન્ત આપ્યું નથી. ભાવા—આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ સૂત્રકારના અભિપ્રાય અનુરાર કેવુ છે તે હવે સક્ષિપ્તમાં પ્રકટ કરવામાં આવે છે–
જે સાધુએ આવશ્યકને વિધિપૂર્વક સારી રીતે શીખી લીધું છે–શ્રુતગુણાનુ સાર તેનું અધ્યયન કરી લીધું છે પરન્તુ તેનાં તે ઉપયાગથી વહીન છે, એવી પરિસ્થિતિમાં તે સાધુ આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યક કહેવાને યેગ્ય ગણાય છે સુત્ર૧૪
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १४ द्रव्याश्यकस्वरूपनिरूपणम्
छाया-नेगमस्य खलु एकः अनुः युक्त आगमत एकं दावश्यकम्, द्वावनुपयुक्ती आगमतो दे द्रावश्यके, त्रयःअनुपयुक्ता आगमतः त्रीणि द्रव्यावश्यकानि । एवं यावन्तः अनुपयुक्ता आगमतः तावन्ति द्रव्यावःयकानि । एवमेव व्यवहारस्थापि। संग्रहस्य खलु एका वा अनेके वा अनुपयुक्तो वा अनुपयुक्ता वा द्रव्यावश्यकं द्रावकानि वा, स एकं द्रव्यावर कम् । ऋजुसूत्रस्य एकः अनुपयुक्त
अब सूत्रकार नयों के भेद से गायक के भेद कहते हैं:--- "नेगमस्स णं एगों" इत्यादि।।मू० १५।।
शब्दाथे-(नेगमम्स णं) नंगमनय की विवक्षा से (एगो) एक (अण्वउत्तो) अनुपयुक्त आत्मा (आगमओ) आगम को आश्रित करके (एग दवाव-सय) एक द्रव्यावश्यक है। (दोणि अणुवउत्ता आगमओ दोष्णि दवावासायाई) दो अनुपयुक्त आत्माएं आगम की अपेक्षा लेकर दो द्र यावश्यक हैं। तिष्णि अणुवउत्ता आगमओ तिष्णि दवावस्मयाई) तीन अनुपयुक्त आत्माएं आगम की अपेक्षा लेकर तीन द्रवश्यक है। (एवं जावड्या अणुवउता आगम भो तारइगई दवावस्सयाई) इसी तरह जितनी और भी आत्माएं अनुपयुक्त हैं उतने ही आर.म की अपेक्षा लेकर व्यावश्क हैं। (अमेव ववहारस वि) इसी ताह से व्यवहानयकी विवक्षा से जानना चाहिये। (मंहस्स णं एगो वा अणेगो वा अणुवउत्तो श अगुवउत्ता वा दयारम्सयं द वायम्सयाणि वा से एगे दवावस्मए) संग्रहनय को विवक्षा से एक, अनुपयुक्त आत्मा एक द्रव्यावश्यक नथा अनेक द्रव्यावश्यक हैं' ऐसा जो कथन नंगमनय और व्यवहार
હવે સૂત્રકાર નાના ભેદની અપિલ એ દ્રવ્યાવશ્યકના ભેદનું કથન કરે છે, "नेगमम्म णं एगा" त्यादि--
था- (नेगमस्स णं) म नयनी टिणे (२॥२ ५२वामां गाये तो (एगो) से (अणुउनो) अनुपयु! kit (आगमओ) मने माश्रित प्रशन (एगं दवावस्मयं) ४ द्रव्यावश्य: . (दोणि अणुवउत्ता आगमओ दोणि दवावासयाई) मे अनुपयुत स! भा२सागमनी अपेक्षा मे द्रव्यावस्य: छ. (तिणि अणुवउत्ता आगमओ तिणि व्यावम्याइ) वा अनुपयु51 गाभास भागमानी अपेक्षा ७ द्रव्या१२५५ छे, (एवं जावइया अणुवउत्ना आगमओं तावइयाई दवावस्सयाई) ०४ मा ulla 2सा मामा अनुपयुन छ. मेटसा मागभनी अपेक्षा यावश्य: छे. (एवमेव वचहारम्स वि) ०यबा२ नयनी દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તો પા આ વિયને અનુલક્ષીને ઉપર મુજબનું જ કથન समा. (मंगहरस णं एगो वा अणेगा वा अणुवउत्ता वा अणुवउत्ता वा दव्वावासय दवावायाण वा से एगे दवावस्मए) सब नयन माघारे पियार ४२. વામાં આવે તે “એક અનુપયુકત આત્મા અગમની અદાએ એક દ્રવ્યાવશ્યક
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१०४
भनुवार आगमत एक द्रष्यावश्यकम्, पृथक्त्वं नेच्छति । त्रयणां शन्दनयानां ज्ञायक अनुपयुक्तः अवस्तु, कस्मात् ? यदि ज्ञायकोऽनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तो ज्ञायको न भवति तस्माद् नास्ति आर.मतो द्रव्यायव म् । तदेतदागमतो द्रःयावर कम् ॥ ०१५॥
टीका-'नेगमस्स णं' इत्यादि
जिनशासने हि सर्वमपि सूत्रमर्थश्च नविचार्यते । तत्र न्याः सप्तविधा। नय की दृष्टी से किया जाता है यह सब ए. द्रन्यावश्यक है। क्योकि संग्रहनय भिन्न २ प्रकार की वस्तुओं को तथा अनेक व्यक्तियों को किसी भी सामान्य तत्त्व के आधार पर एक रूप में संकलित करता है। (उज्जु सुयरस एगो अणु उत्तो आगमओ एगं दयावासयं पुहुत्तं नेच्छइ) ऋजु सूत्र नवी दृष्टी में एक अनुपयुक्त आत्मा आगम की अपेक्षा लेकर एक द्रावश्यक है। र ह नय भेदवाद वो नही चाहता है। (तिष्णं सद्दनाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थु, कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भइ, जइ अणुवउत्ते, जाणए न भवई) तीन शब्दनयों की दृष्टि में जो ज्ञायक होता है वह यदि तों अनुपयुक्त है, तो दह अवन्तुस्वरूप है। क्यों कि ज्ञायक अनुपयुक्त नही होता । यदि वह अनुपयुक्त है तो वह ज्ञायक नहीं है । इसलिये आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यावश्यक जो कहा गया है वह नहीं है। (से तं आगमश्री दवावस्सयं) इस तरह आगम को आश्रित करके प्रक्रान्त द्रव्यावश्यक છે, તથા અનેક અનુપયુકત આત્માઓ અનેક દ્રવ્યાવશ્યક છે. આ પ્રકારનું જે જે કથન ગમ નય અને વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યું છે, તેને બદલે અહીં બધાને એક દ્રવ્યાવશ્યક જ કહેવા જોઈએ, કારણ કે સંગ્રહનય જુદા જુદા પ્રકારની વસ્તુઓને તથા અનેક વ્યકિતઓને કેઈ પણ સામાન્ય તત્વને આધાર सन मे ३५मा ससित ४२ छ. (उज्जुसुयस्स एगो अणुव उत्तो आगमओ एगं दध्यावासयं पहुत्तं नेच्छड) ४२, नयनी मे से अनुपयु४त मात्मा मानी अपेक्षा मे द्रव्याश्य छ. २मा नय समापने यात नथी. (तिण्णं सहनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थु, कम्हा ? जइ जाणए अणुवउते, न भवइ, जइ अणुवउत्ते, जाणए न भवई) त्रय श०६ नयानी दृष्टि से भानपामा भावे છે કે-જે જ્ઞાયક હોય છે તે જે અનુપયુકત હોય તે તે વસ્તુ સ્વરૂપ છે, કારણ કે જ્ઞાયક અનુપયુક્ત સંભવી શકે જ નહીં જે તે અનુપયુક્ત હોય, તે તે જ્ઞાયક જ હોઈ શકે નહીં. તે કારણે આગમને આશ્રય લઈને જે દ્રવ્યાયશ્યક બતાવવામાં भावे तना सहला ८ नथी. (से तं आगमओ दव्यावरस) । प्ररनु આગમને આશ્રિત કરીને પ્રક્રાન્ત (પ્રસ્તુત વિષયરૂપ) વ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १५ नयभेदेन द्रव्यावश्यकनिरूपणम् १०५ उक्तं च
नेगम संगहववहार, उज्जुसुए चेव होइ बोद्धव्वे ।
सद्दे य समभिरूढे, एवंभूए य मूलनया ॥१॥ छाया--नेगमः संग्रहो व्यवहार ऋजुसूत्रश्चैव भवति बोन्यः । शब्दश्च समभिरुढ एवंभूतश्च मूलनयाः ॥इति॥
तत्र-नैगमनयमाश्रित्य आगमतो द्रव्यापकभेदमाहका स्वरूप है।
जिनशासन में समस्त सूत्र और अर्थों का विचार नगों को लेवर किया गया है। ये नय मूल में सात हैं कहाभी है (१) नैगम (२) संग्रह (३) व्यवहार (४) ऋजु सूत्र (५) शब्द (६) समभिरद (७) एवंभून । इनमें से नैगमनय को लेकर सूत्रकार आगम की अपेक्षा से द्रव्यावश्यक के भेदों को कहते हैं-नैगमनय का तात्पर्य उन विचारों से है कि जिनके बलपर पदार्थ का बोध विविध प्रकार से होता है । "नको गमो बोधमाः यम्य सः नैगमः" वाधा अनेक उपाय है वे नंगम हैं इस न्युत्पत्ति के अनुसार यही अर्थ लभ्य होता है।
इस नैगम नयशी अपेक्षा से उपयोग वर्जित एकदेवदत्त आदि व्यक्ति एक आगम द्रव्यावश्यक है। दो अनुपयुक्त देवदत्त और यज्ञदत्त नाय के. व्यक्ति दो आगम द्रव्यावश्यक हैं। अनुपयुक्त देवदत्त, यजदरा और विष्णुदत्त नाम के व्यक्ति ३ आगमदत्यावश्यक हैं। इसी ताह जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हैं वे सब उतने ही आगमद्रव्यापक इस न्य की दृष्टि
જિન શાસનમાં સમસ્ત સૂત્ર અને અર્થોનો જુદા જુદા નયનો આધાર લઈને વિચાર કરવામાં આવ્યો છે. એ ય મુખ્યત્વે સાત કહ્યા છે. (૧) નેમ નથી, (२) सह नय, (3) व्यवहार नय, (४) सत्र नय, (५) साई नय, (६) સમભિરૂઢ નય અને (૭) એવંભૂત નય.
પહેલાં તે નગમ નયની માન્યતા અનુસાર સૂત્રપર આગમની અપેક્ષાએ વ્યાવશ્યકના ભેદનું નિરૂપણ કરે છે. નગમ નયનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–જે વિચારોને આધારે પદાર્થને બોધ વિવિધ થાય છે, તે વિચારધારાનું નામ જ नेगम नय छ. नेका गमा बोधमार्गः यस्य सः नंगमः" मा व्युत्पत्ति अनु२१२ ઉપર્યુકત અર્થ જ પ્રાપ્ત થાય છે,
આ નૈગમનયની અપેક્ષાએ ઉપયોગ વર્જિત એક દેવદત્ત આદિ વ્યક્તિ એક આગમ દ્રવ્યાવશ્યક છે. ઉપયોગરહિત (અનુપયુક્ત) દેવદત્ત અને યાદત્ત નામની બે વ્યકિત બે આગમદ્રવ્યાવશ્યક છે. દેવદત્ત, યજ્ઞદત્ત અને વિષ્ણુદત્ત નામની ત્રણ અનુ. પયુકત વ્યકિતએ ત્રણ આગમવ્યાવશ્યક છે. એ જ પ્રમાણે જેટલી અનુપયુકત વ્ય
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अनुयोगद्वारसूत्रे
नेगमस्स णं' इत्यादिना' नको गमोऽर्थमार्गो यस्य स नैगमः । पृषोदरादित्वात् ककारस्य लोपः बहुविध वस्त्ववबोधक इत्यर्थः । तस्य नैगमस्य खलु एको देवदत्तादिः अनुपयुक्तः = उपयोगवर्जितः आगमत एकं द्रव्यावश्यकम् । द्वौ देवदत्तयज्ञदत्तावनुपयुक्त आगमतो द्वे द्रव्यावश्यके । त्रयो देवदत्तयज्ञेदनविष्णुमित्रा अनुपयुक्ता आगमतस्त्रीणि द्रव्यावश्यकानि । ' एवं ' अनेन प्रकारेग वन्तः अनुपयुक्ताः आगमतः तावन्ति द्रव्यावर कानि अयं भावः - - नैगमनयः सामान्यरूपं विशेषरूपं च वस्तु अधिगमयति = बोधयति । न तु संग्रहवत्सामान्यमेव । तत्र - विशेषरूपं भेदमाश्रित्य देवदत्तादि प्रत्येक व्यक्ति भेदेन यावन्तोऽनुपयुक्ताः भवन्ति सर्वाण्यप्यस्य द्रव्यावश्यकानि । न पुनः संग्रहवत्सामान्यवादित्वादेव मेव द्रव्यावश्यकम् इति । ।
में हैं । तात्पर्य इसका यह है कि- नैगमनय सामान्य और विशेषरूप अर्थ को कहता है - जिस प्रकार संग्रहनय सामान्यरूप ही अर्थ है ऐसा कहता है, उस प्रकार से यह नय नहीं कहता । यह तो विशेष को भी विषय करता है । इसकी मान्यतानुसार पदार्थ सामान्य और विशेष उभयरूप है वह न सामान्यरूप है और न केवल विशेषरूप ही । इस तरह विशेषरूप भेद का आश्रय करके देवदत्त आदि जितने भी अनुपयुक्त व्यक्ति हैं उतने ही आगम द्रव्य वक्ष्यक इस नय की दृष्टि से हैं सामान्यवादी होने के कारण संग्रहनय की तरह एक ही द्रव्यावश्यक नहीं हैं । संग्रहनय से गृहीत पदार्थों का विधिपूर्वक - विभाग जिस अभिप्राय के द्वारा किया है उस अभिप्राय का नाम व्यवहार नय है । इस नय की मान्यतानुसार सामान्य कोई वस्तु नहीं है । क्योंकि यह सामान्य का निरावरण करता है । इसके प्रतिपादन का विषय विशेष है । કિતઓ હાય છે તેએ આ નયની માન્યતા અનુસાર એટલા જ આગમદ્રયાવશ્યક छे. या उथननुं तात्पर्य नीचे प्रभा छ नेगम नय સામાન્ય અને વિશેષરૂપ અને ખતાવે છે. જેવી રીતે સગ્રહનય “સામાન્યરૂપ જ અર્થ છે,” એવું કહે છે, એ પ્રકારે આ નય કહેતા નથી, એ તેા વિશેષરૂપે પણુ અને ખતાવે છે. રીંગમ નયની માન્યતા અનુસાર તેા પદાર્થ કેવળ સામાન્યરૂપ પણ નથી, કેવળ વિશેષરૂપ પણ નથી, પરન્તુ સામાન્ય અને વિશેષરૂપ એટલે કે ઉભયરૂપ છે. આ રીતે વિશેષ રૂપ ભેદની અપેક્ષાએ દેવદત્ત આદિ જેટલા અનુપયુક્ત પુરૂષા છે, એટલાં જ આ નયની દૃષ્ટિએ આગમ દ્રશ્યાવશ્યક છે—સામાન્યવાદી હાવાને કારણે સંગ્રહનયની જેમ એક જ દ્રવ્યાવશ્યક નથી, સંગ્રહનયથી ગૃહીત પદાર્થોને જે અભિપ્રાયદ્વારા વિધિપૂર્વક વિભાગ કરવામાં આવે ?, તે અભિપ્રાયનું નામ વ્યવહાર નય છે. આ નયની માન્યતા અનુસાર કેાઈ વસ્તુ સામાન્ય નથી, કારણ કે તે સામાન્યનું નિરા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका १५ नयभेदेन द्रव्यावश्यक निरूपणम्
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एवं व्यवहारस्यापि संग्रहनयेन गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसंधिना क्रियते स व्यवहारः । अर्थात् विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनय इत्यर्थः । परसंग्रहनयेन गृहीतार्थविषये व्यवहारोदाहरणं यथा - यत् सत्, तद् द्रव्यं पर्यायो वेति । अपरसंग्रहगृहीतार्थविषये वहारोदाहरणं यथा - द्रव्यं तजीवादिपविधम् । स प यः द्विविधः - क्रमभावी सहभावी चेति । एवं यो जीवः स मुक्तः संसारी
क्यों
अतः यह उसके प्रतिपादन करने में ही तत्पर रहता है । संग्रहनय के दो भेद हैं - १, पर संग्रहभ्य और दूसरा अपर संग्रहनय । जड चेतनरूप अनेकव्यनियों में जो सद्रूप एक सामान्यतय है उसी पर दृष्टि र नकर दूसरे विशेषों को ध्यान में न रखते हुए सभी व्यक्तियों को एक रूप मानकर ऐसा जो विचार होता है कि संपूर्ण जगत् सप है कि-सत्ता से रहित कोई वस्तु है ही नहीं । इसी का नाम पर संग्रहनय है । इस पर संग्रहनय से गृहीत विषय के विषय में व्यवहार ऐसा विचार करता है कि जो सनृप है वह द्रव्य है या पर्याय है। यदि द्रव्य सत् है जो कि परग्रह नयके विषय की अपेक्षा ऊपर संग्रहन्य वा विषय पडता है तो क्या जीव द्रव्य है, या अजीव है । क्यं कि द्रव्य के जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस प्रकार से ६ भेद हैं । इन में जीव को छोडकर पुद्गल आदि सब अजीव के भेद हैं। यदि पर्याय सत् है तो वह दो प्रकार की है (2) क्रमभावी और दूसरी सहभावी । यदि जीवद्रव्य सत् है तो કરણ કરે છે, તેને પ્રતિપાદન કરવાના વિષય વિશેષ છે, તેથા તે તેનુ પ્રતિપાદન કરવાને જ તત્પર રહે છે. સંમહત્ત્વના બે ભેદ છે-(૧) પર સંગ્રહનય અને (૨) અપરસંગ્રહનય. જડ ચેતનરૂપ અનેક વસ્તુઓમાં જૈ સપ એક સામાન્ય તત્ત્વ છે. એન પર જ નજર રાખીને ખીજી વિશષ્ટતાઓને ધ્યાનમાં લીધા વિના સઘળી વસ્તુઓને એકરૂપ માનીને એશ જે વિચાર કરવામાં આવે છે કે સંપૂર્ણ જગત સ×પ છે, કારણ કે સત્તા (અસ્તિત્વ)થી રહિત કોઇ પદાર્થ છે જ નહીં, તેનું જ નામ પરસગ્રહનય દ્વારા ગૃહીત પદાર્થના વિષયમાં વ્યવહાર એવા વિચાર કરે છે કે જે સ્તૂપ છે તે દ્રવ્ય છે કે પર્યાય છે ? જો તે દ્રવ્યસત્ રૂપ હાય તા તે પરમસ`ગ્રહનયના વિષય હેવાને બદલે અપરસ’ગ્રહનના વિષય ગણી શકાય છે. જો તે દ્રશ્યસત રૂપ હાય તા શું તે જીવદ્રવ્યરૂપ છે કે અજીવદ્રવ્યરૂપ છે ? કારણ કે द्रव्यना युगस, धर्म, अधर्म, आश भने आऊ, मा પ્રકારે ૬ ભેદ પડે છે. તેમાંથી જીવ સિવાયના જે પાંચ ભેદો કહ્યા છે તે અછદ્રયના ભેદો છે. જો પર્યાયસત હોય તા તે પર્યાય એ પ્રકારની હાય ઇં-(૧) ક્રમભાવી અને (૨) સદભાવી,
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'अनुयोग ढार
च" इत्यादि । तस्य एवमेव = नैगमवदेव एको देवदत्तादिरनुपयुक्त आगमत एकं द्रव्यावश्यकम्, हावनुपयुक्तौ आगमतो द्वे द्रव्यावश्यके, त्रयाऽनुपयुक्ता अगमतस्त्रीणि द्रव्यावश्यकानि । एवं यावन्तोऽनुपयुक्तास्तावन्ति आगमतो द्रव्यावश्यकानि विज्ञातव्यानि । विशेषार्थप्रतिपादकतया नैगमव्यवहारयोः साम्यम्, अतःक्रमप्राप्तं संग्रहमतिक्रम्य ग्रन्थलाघवार्थ व्यवहार पन्यासो नैगममनुकृतः । सम्प्रति कौन सा जीवद्रव्य संसारी जीव या मुक्त जीव? इस तरह यह व्यवहार निय वहां तक भेद करता चला जाता है कि फिर जिस से और भेद नहीं हो सके । जिस विधि से संग्रह किया जाता है उसी विधि से उनका विभाग किया जाता है । इस प्रकार नैगमन्य की तरह ही अनुपयुक्त एक देवदत्त आदि व्यक्ति आगम द्रव्यावश्यक है । अनुपयुक्त दो व्यक्ति दो आगम द्रव्यावश्यक हैं । अनुपयुक्त तीन व्यक्ति तीन आगम द्रव्या इयक हैं। इस तरह जितने भी आगम में अनुपयुक्त व्यक्ति हैं वे सब उतने ही आगम द्रव्यावश्यक हैं । जिस प्रकार विशेषरूप अर्थ की प्ररूपणा नैगमनय करता है उसी प्रकार से उसकी प्ररूपणा व्यवहारनय भी करता है- एता ता इन दोनों में समानता है । इसीलिये सूत्रकारने क्रमप्राप्त संग्रहन्य को छोडकर शास्त्र की लघुता निमित्त व्यवहारनय का उपन्यास संग्रहनव से पहिले और नैगमनव के पीछे किया है । संग्रहनय की विचारधारा के अनुसार आगम द्रव्यावश्यक एक ही है - वह इस प्रकार से सामान्य मात्र को विषय करनेवाला जो पराજો જીવદ્રવ્ય સત્ હોય તા કયું જીવદ્રવ્ય એવું છે-સ‘સારી જીવદ્રવ્ય એવુ છે કે મુકત જીવદ્રત્મ્ય એવું છે ? આ પ્રકારે આ વ્યવહારનય ત્યાં સુધી ભેદ કરતા જ જાય છે કે છેવટે એમાંથી અન્ય ફાઇ ભેદ પાડી શકાય જ નહીં., જે વિધિથી 'સંગ્રહ કરવામાં આવે છે, એજ વિધિથી તેમને વિભાગ કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે નાગમનયની જેમજ અનુવ્યુકત એક દેવદત્ત આદિ વ્યક્તિ એક આગમ દ્રશ્યાવશ્યક છે. અનુપયુકત બે વ્યકિત એ આગમદ્રવ્યાવશ્યક છે. અનુપયુક્ત ત્રણ વ્યકિત ત્રણ આગમદ્રવ્યાવશ્યક છે. એજ પ્રમાણે જેટલી આગમમાં અનુપયુકત વ્યકિતઆ હાય, એટલાં જ આંગમદ્રવ્યાવેશ્યક સમજવા. જે પ્રકારે નૈગમનય વિશેષ રૂપ અર્થની પ્રરૂપણા કરે છે, એજ પ્રમાણે તેની પ્રરૂપણા વ્યવહાસ્નય પણ કરે છે. એટલા પુરતી એ બન્નેમાં સમાનતા છે, તે કારણે સૂત્રકારે ક્રમપ્રાપ્ત સંગ્રહનયને છેડીને શાસ્ત્રની હ્રદ્યુતાને નિમિત્તે નૈગમનયની પછી અને સંગ્રહનયના પહેલાં ન્યવહારનયના ઉપન્યાસ કર્યાં છે.
સગ્રહનયની માન્યતા અનુસાર આગમદ્રવ્યાવશ્યક એક જ છે. તે આ પ્રમાણે સમજવું–સામાન્ય માત્રને વિષય કરનારા જે પરભ્રંશ (અભિપ્રાય-માન્યતા) છે, તેનું
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अनुयोगचन्द्रिका टीका मूत्र १५ नयभेदेन गावाकनिष्पगम् १०९ संग्रहनगमतेन ग्राह- 'संगहम्म' इत्यादिना। संग्रहस्य, सामाःयमात्रग्राही परामर्शः मंग्रहः। स विविधः-परोऽपश्च । सर्व वन्तु एकं, सपन्वेनाविशेषात् । अयमर्थःसर्वस्मिन् वस्तुनि सत्ता विद्यने, सा चकैव, अतस्तां सत्तामाश्रित्य सर्व वस्तु एकं सदिन्युच्यते । सत्तालयं महासामान्यमाश्रित्य पररांग्रहः प्रोक्तः। अपरसंग्रहन्तु अवान्तरसामान्यं पर्यायवादिकमाश्रित्य भवति । यथा-'धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीय व्याणामक्यं द्रःयत्वाभेदात्' इत्यादि । अयमर्थ:मर्श है उसका नाम संग्रहनय है। यह संग्रहन पर सामान्य और अपरसामा. न्य को विषय करने की दृष्टि से दो प्रकार का है-परसामान्य को विषय करनेवाला-परसंग्रहाय और अपसामान्य की विषय करनेःला अपरसग्रहनय है । सत्ता नाम का महा सामान्य पर सामान्य है। द्रव्यत्व, र्यायव आदि जो अवान्तर सामान्य है वह अपरसामान्य श्री अविशेषता से एक हैअर्थात् सी बोई वस्तु नहीं है कि जिस में सत्ता ही हो अतःअब सब में सत्ता विद्यमा: है और वह मना एक ही है-तब इस सत्ता को लेकर सब दम्तुएँ एक दूप हैं। यह पसंग्रहनय की विचार धा। है । अपरसंग्रहनय की विचारधारा अवान्तर सामान्य को लेगर चलती है-जैसे धर्म, अधर्म आकाश काल, पुद्गल औः जीव इन द्रव्यों में व्यत्वजानिकी अपेक्षा अभेद होने से एकना है। क्यों कि इनमें इसी से द्रव्य द्रव्यमा
નામ સંગ્રહનય છે. તે સંગ્રહનય પાસામાન્ય અને અપસામાન્ય વિજય કરે વાની દષ્ટએ બે પ્રકારનો છે. પર સામાન્ય વિષય કરનારો પસંચનય છે અને અપસામાન્યને વિય કરનારે અપરા હનય છે સત્તા નામના : હરામાन्यने ५सामान्य छे. व्याय, पर्यायप, माहि पातर सामान्य छ, તેને અપર સામાન્ય કહે છે. જયારે એ વિચાર કરવામાં આવે છે કે સમસ્ત વરતુ સત્તા સામાન્યની વિશેષતાની અપેક્ષાએ એક જ છે-એટલે કે એવી કોઈ વસ્તુ જ નથી કે જેમાં સત્તા જ (અસ્તિત્વજ) ન હોય. આ રીતે સઘળી વસ્તુઓમાં સત્તા વિદ્યમાન છે અને તે રાત્તા એક જ છે, જે એ સત્તાની દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે સઘળી વસ્તુઓ એક સહૃપ જ છે. આ પ્રકારની પસંગ્રહ नयनी विभाधा। (मान्यता) छ.
અપસંગ્રહનયની વિચારધારા અવાન્તર સામાન્યની અપેક્ષાએ ચાલે છે– જેમકે ધર્મ, અધર્મ, આકાશ. કાળ. પુદ્ગલ અને જીવ, આ દ્રમાં દ્રવ્યત્વજાતિની અપેક્ષાએ અભેદ હોવાથી એકતા છે. કારણ કે તેમનામાં તેના દ્વારા જ દ્રવ્યદ્રવ્ય એવું જ્ઞાન અને દ્રવ્યાદ્રવ્ય એવી વચનપ્રવૃત્તિ થાય છે. એજ વાતને
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अनुयोगद्वारमत्र लोके हि धर्मों द्रव्यम् अधर्मों द्रव्यम्,आगशो द्रव्यं, वालो द्रव्यं, पुद्गलो द्रव्यंजीवो द्रव्यम्, इत्येवमुच्यते, अतो ज्ञायते-धर्मादौ द्रव्यत्वं वर्तत इति । एकमेव द्रत्वं धर्मादिषु षट्सु विद्यते । द्रव्यत्वेन धर्मादीनामेकत्वं संगृह्यते । एवं चेतनाचेतनपर्यायाणां सर्वेषामेकत्वं संगृह्यते, पर्यायत्वाविशेषादिति । एवंभूतो यः संग्रहो नयस्तस्यापेक्षया खलु एको वा अनेके वा अनुपयुक्तो वा अनुपयुक्ता वा यद् आगमतो द्रव्यावश्यकं द्रव्याचश्यकानि वा । सत् किमि याह-'से एगे' इति । तदेकं द्रव्यावश्यकम् । अस्या माशय:-संग्रहनयो हि सामान्यस्यैव प्राहकः . न तु विशेषाणाम्, तस्मात् सामान्यव्यतिरेकेण विशेषसिद्धेर्यानि कानिचिद् द्रव्याज्ञान और द्रव्य, द्रव्य ऐसीवचन प्रवृत्ति होती है । इसी बात को "धर्मों द्रव्यं अधर्मो द्रव्यं, आकाशो द्रव्यं, कालो द्रव्यं पुद्गलो द्रव्य, जीवो द्रव्यं" इन पदोंद्वारा प्रगट किया है, इस तरह अनुवृत्ति प्रत्यय होने से यह प्रतीत हे ता है कि इनमें द्रव्यत्व है। और यह द्रव्यत्व धर्मादिक ६ द्रव्यत्यनियों में एक ही है । इसलिये इस द्रव्यत्व की अपेक्षा धर्मादिक द्रव्यां में एकता का संग्रह हो जाता है। इसी तरह से सचेतन और अचेतन द्रव्यों की जितनी भी पर्यायें हैं उन सब में भा पर्यायत्वरूप सामान्य की अपेक्षा से एकता का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार का जो यह संग्रहनय है। उस की अपेक्षासे चाहे तो एक आगम में अनुपयुक्त देवदत्तादि भक्ति हों चाहे अनेक देवदत्तादि व्यक्ति हो वे सब एक ही आगमद्रव्यावश्यक हैं। तात्पर्य इसका यह है-कि संग्रहनय एक सामान्यमात्र का ही ग्राहक है, विशेषों का नहीं। इसलिये विशेष की अपेक्षा जो अनेक आगम द्रव्यावश्यक हैं वे सब जब सामान्य के अतिरिक्त "धर्मों द्रव्य अधर्मो द्रव्यं, आकाशो द्रव्य, पुद्गलो द्रव्य जीवो द्रव्य" आ पहे। દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. આ રીતે અનુ વૃત્તિ પ્રત્યય હોવાથી એવું લાગે છે કે તેમનામાં દ્રવ્યત્વ છે. અને તે દ્રવ ધર્માદિક ૬ દ્રય ચકિતઓમાં (પદાર્થોમાં એક જ છે. તેથી આ દ્રયની અપેક્ષાએ ધર્માદિક દ્રવ્યમાં એકતાને સંગ્રહ થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે સચેતન અને અચેતન દ્રવ્યોની જેટલી પર્યાય છે, તે સઘળી પર્યાયમાં પણ પર્યાયવરૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ એકતાને સંગ્રહ થઈ જાય છે. આ પ્રકારને સંગ્રહ છે તેની અપેક્ષાએ એક આગમમાં અનુપયુક્ત દેવદત્ત આદિ વ્યક્તિ પણ એક જ આગમદ્રવ્યાવશ્યક છે, અને અનુપયુકત દેવદત્ત આદિ અનેક વ્યકિતઓ પણ એકજ આગમવ્યાવશ્યક છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સંગ્રહ નય એક સામાન્ય માત્રને જ ગ્રાહક છે. વિશેને ગ્રાહક નથી. તેથી વિશેષની અપેક્ષાએ જે અનેક આગમદ્રવ્યાવશ્યક છે, તે બધાં જ જે સામાન્ય છે–વિશેષરૂપ
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अनुयोगचन्दिका टीका १५ नयभेदेन द्रव्यावश्यकनिरूपणम् वस्यकानि तानि सर्वाणि सामान्यापेक्षया सत्ताया एकत्वादेक मेव, अत संग्रहनयमते एकमेव द्रव्यावश्यकम् । इति ।
अथ जुसूत्रमते आह-'उज्जुसुयस्स' इत्यादि । ऋजुसूत्रस्य ऋजु-वर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमात्रं प्राधान्यतः सूत्रयति-सूचर तीति ऋजुसूत्रः । यथा विशेष हैं ही नहीं तो उसकी अपेक्षा जायमान ये अनेा आगम द्रव्यावक सत्ता की एकता के कारण एक ही हैं। इसलिये संग्रहनय के मत में एक ही द्रव्यावश्यक है। अब सूत्रकार ऋजु सूत्रनय की अपेक्षा आगम क्रया शक वा विचार करते हैं-वर्तमानक्षण स्थायि पर्या मात्र को जो प्रधानता से विषय करता है उसका नाम ऋजु सूत्रनय है। नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय पदार्थों की विविध अवस्थाओं की ओर ध्यान नहीं देते हैं। इसलिये उन्हें क्या पता कि वर्तमान में पदार्थ या का रूप है। इसीलिये इन तीन नयों को द्रव्यार्थिकनय माना गया है। क्यों कि इनमें द्रव्य को ही विषय करने की मुख्यता है। पर्यायां की तरफ इनका लक्ष्य नहीं है-चयोंकि इन की दृष्टि में अविवक्षित है-गौण- हैं.। परन्तु ऐसा तो हो ही नहीं स. ता कि विचारक का ध्यान केवल द्रव्य पर ही रहे, पर्याय पर न जावे । विचारक के विचार जिस प्रकार विविध पदार्थों का उनकी विविध अवस्थाओं की शिवक्षा किये विना वर्गीकरण और विभाग करते हैं उसी प्रकार वे उन पदार्थों की विविध अवस्थाओं को भी अपने लक्ष्य में रखते हैं। कि तु જ નથી, તે તેની અપેક્ષાએ જાયમાન તે અનેક આગ દ્રવ્યાવશ્યક સત્તાની એકતાને કારણે એક જ છે. તેથી સંગ્રહાયની માન્યતા અનુસાર તે એકજ દ્રવ્યાવશ્યક છે
હવે સૂત્રકાર ત્રાજુસૂત્રનયની અપેક્ષાએ આગમદ્રવ્યાવશ્યક વિચાર કરે છેવર્તમાન ક્ષણથાયી પર્યાયમાત્રને જ જે મુખ્યત્વે વિચાર કરે છે, તે નયનું નામ અનુસૂત્રનય છે. નગમ, સંગ્રહ અને વ્યવહાર, આ ત્રણ પ્રકારના નય, પદાર્થની વિવિધ અવરથાઓ તરફ ધ્યાન દેતાં નથી, તેથી તે નયને આધારે એવું કેવી રીતે જાણી શકાય કે વર્તમાનમાં પદાર્થનું કેવું રવરૂપ છે? તે કારણે તે ત્રણ નયને દ્રવ્યાર્થિક નય માનવામાં આવેલ છે. કારણ કે તેમાં દ્રવ્યને જ વિય કરવાનીદ્રવ્યનો જ વિચાર કરવાની પ્રધાનતા હોય છે પરંતુ પર્યાયની તરફ તેમનું લય હેતું નથી, કારણ કે તે તે તેમની દષ્ટિએ અવિવક્ષિત અથવા ગૌણ છે. પણ વિચારકનું ધ્યાન કેવળ દ્રવ્ય પર જ રહે અને પર્યાય પર ન જાય એવું તે સંભવી શકતું નથી. વિચારકના વિચારો જે પ્રમાણે વિવિધ પદાર્થોનું -તેમની વિવિધ અવ. સ્થાઓની વિવિક્ષા કર્યા વિના-ધ્યાનમાં લીધા વિના જેમ વર્ગીકરણ અને વિભાગીકરણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ વિવિધ પદાર્થોની વિવિધ અવસ્થાઓને પણ
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अनुयोगहारपत्रे 'संप्रति सुखविवर्तोऽस्ति' इत्यादि । अनेन वाक्येन हि वर्तमानक्षणवति सुखाख्यं पर्यायमात्र प्रदर्श्यते । तस्य मते-एको देवदत्तादिः अनुपयुक्तः, आगमत एकं द्रा विश्र कम । अयं भावः-ऋजुसूत्रनयो हि वर्तमान कालिकमेव पर्यायवस्तुं बोध' ति, नातीतं विन्टत्वात्, नायनागतमनुत्पानात् । वर्तमानकालिकमपि विविध अवस्थाओं का सम्मेलन :व्य कोटि में आता है पर्या कोटि मे आता है क्योंकि पर्याय एक क्षणवर्ती होती है। उसमें भी वर्तमान का नाम ही पर्याय है। क्योंकि अतीत विनष्ट और अनागत अनुत्पन्न होने के कारण उनमें पर्याय का वहार नहीं हो सकता । इसी से ऋजु सत्रनय का विषय वर्तमान पर्यायमात्र वहा गया है। आशय यह है कि यह नय विद्यमान अवस्थारूप से ही वस्तु को स्वीकार करता है। दृत्य उ. मे सर्वथा अविवक्षित रहता है। अतः पर्याय संबन्धी जितने भी विचार होते हैं वे सब ऋजु सूत्रनय की श्रेणि में आते हैं । जैसे "संप्रति सुखविवर्ती गित" इस समय सुखयुक्त हैं इस वाक्य से दर्तमानणी सुख नाम की पर्याय मात्र दिनलाई गई है। उसके मत में एक अनुपयुक्त देवदनादि एफ आगम द्रव्यावश्यक है। यह अभी २ स्पष्ट वि या गया है कि वर्तमानकालीन पर्याय वस्तु को ही रह नय विपय करता है अतीत अनागत पर्यायों को नहीं-क्योंकि अतीत पर्याय निष्ट है और अनागत पर्याये अनुमान हैं। वर्तमान वालीन पर्याय में भी जो લક્ષ્યમાં રાખે છે. પરંતુ વિવિધ અવસ્થાઓનું સંમેલન દ્રવ્યકોટિમાં આવે છેપર્યાયકેટમાં આવતું નથી. વારતવમાં તે એક પર્યાય જ પર્યાયકોટિમાં આવે છે, કારણ કે ર્યાય એક ક્ષણવતી હોય છે. તેમાં પણ વર્તમાનનું નામજ પર્યાય છે. કારણ કે અતીત (ભૂતકાલિન) વિનષ્ટ હોય છે અને અનાગત (ભવિય કાલિન) અનુત્પન્ન હોય છે. તે કારણે તેમનામાં પર્યાયને વહેવાર થઈ શકતું નથી. તે કારણે ત્રાળુત્ર નયનો વિષય વર્તમાન પર્યાય માત્ર જ કહ્યો છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે આ નય વિદ્યમાન અવરથા રૂપે જ વરતુને સ્વીકાર કરે છે. દ્રવ્ય તેમાં સર્વથા અવિવક્ષિત રહે છે. તેથી પર્યાય સંબંધો જેટલાં વિચારો હોય છે, તે ri सूत्रनयनी श्रेशिभा भावी नय छे. भो "संप्रति सुखविरोऽस्ति" આ વાક્યથી વર્તમાન ક્ષણવત સુખ નામની પર્યાય પાત્ર જ બતાવવામાં આવી છે. અજુસત્રનયની માન્યતા અનુસાર એક અનુપયુકત દેવદત્તાદિ એક આગમ દ્રવ્યાવશ્યક છે. એ વાત તે આગળ સ્પષ્ટ કરવામાં આવી ચૂકી છે કે આ નય વર્તમાન કાલિન પર્યાયવસ્તુને જ વિષય કરે છે–અતીત અનાગત પર્યાને વિય કરતો નથી કારણ કે અતીત (ભૂતકાલિન) પર્યાય વિનષ્ટ હોય છે અને અનાગત (ભવિષ્ય
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अनुयोपचन्द्रिका टीका सू० १५ नयभेदेन द्रव्यारश्यकनिरूपणम् ११३ स्वकीयमेव बोधयनि स्वकार्यसाय त्वान् स्वधनात्, न तु परकीयं, स्वार्यासाधकत्वात् परधनवत्, नस्मादेको देवदनादिग्नुपयुक्तोऽय मते आगमन एकं द्रव्यावश्यम्, इति । अयं नयः-पृथक्त्वं नेच्छति-अतीतानागतभेदतः परकीयभेदतश्च पार्थक्यं नामिलपति, किंतु इतमानकालिकं स्वगतमेव वस्तु, तच्चैकमेव । तस्मादेव मे। द्रव्यावश्यक मेतन्नयमते ।
शब्दादींस्त्रीन् नयान् समाश्रित्य यथयति-'तिहं सद्दन णं' इत्यादि। त्रयाणां श दप्रशना नाः शब्दन्याः शब्दसमभिर ढवम्भृता, एते हि अर्थागमकारणत्वात् शब्दस्यैव प्राधान्यमिच्छन्ति, न थम्य । शब्दादेवार्थप्रतीतेः, तेषां अपनी पर्याय है उसे ही कहता है क्यांकि वही स्वधन की तरह अपने कार्य की साधक होती है। परकीय पर्याः को बह विषय नहीं करती है कारण वह अपने कार्य की साधक नहीं होती है जैसे परका धा । इस नयकी दृष्टि में इसी कारण से पृथक्त्व-नानान्य ही है-अर्थत् अतीन अनागत के भेद से और परकीय भेद से यह पर्यायों में भिन्नता नहीं मानता है। किन्तु वर्तमान कातिक रवगत पय य को ही वास्तविक मानता है और एक ही है ऐमा प्रतिपादन करता है। इसलिये इस न की मान्यतानुसार आगमद्रव्यावश्यक एक ही है-अनेक नहीं । अब पत्रकार शब्द, ममभिरुढ और एवंभृत नय को लेकर आगमकावश्यक का विचार करते हैं ।-शव प्रधाननयों का नाम शब्दनय है और पसे ये तीन नय है । अधिगम अ का ज्ञान होने का कारण होने से शब्द की ही ये प्रधानता मान्ने है-अर्थ की नहीं। नयों की सी કાલિન) પર્યાયે અનુત્પન્ન દેય છે. વર્ત નિલિન પર્યાયમાં પણ જે પિતાની પર્યાય છે તેને જ તે બ-વે છે. કારણ કે એજ પના ધની જેમ પોતાના કાર્યની સાધક હોય છે. કારણ કે એ જ પતિઃ | ધનની જેમ પોતાના કાર્યની સાધક હોય છે. પરકીય પયયને તે વિષય કર્તા નથી. કારણ કે જ્યના ધનની જેમ તે पोताना यनी २५४ हाती रही. . . . . .
५४.५વૈવિધ્ય નથી કારણ કે અતીત અનગરના ૯ થી અને પછી દિથી ચા નય પર્યામાં ભિન્નતા માનતા નથી. પરંતુ વર્તમાનકાલિક સ્વાગત પર્યાયને જ તે વાસ્તવિક માને છે અને એક જ છે . નું પ્રતિપાદન કરે છે. તેથી આ નયન ન્યતા અનુકાર આગમ વ્યાવશ્યક એક જ છે અનેક નથી.
હવે સૂત્રકાર શબ્દ, સમભરૂઢ નય અને એવંભૂત નયની દષ્ટિએ આગમ દ્રવ્યાવશ્યકને વિચાર કરે છે– ઉ. પ્રધાન નાનું નામ શુદય છે. અને એવાં આ ત્રણ નય છે. અર્થાવગ (અર્થને બેધ)નું ટાણુ હોવાથી શી જ પ્રધાન
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अनुयोगदारमत्रे ज्ञाय:- ज्ञाता, अथ च अनुपयुक्तः, इत्येतत् अवस्तु-असत्, न संभवतीत्यर्थः । कस्मात् एवमुच्यते ? इत्याह-'जइ' इत्यादि-यदि ज्ञायको भाति, अथ अनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तो भवति तर्हि ज्ञा' को न भवति । अयं भाव:आवश्यक शास्त्रज्ञस्तत्र चानुपयुक्त आगमतो द्रव्यावश्यकमिति पूर्व प्रापितम् । एतच्च शब्दादिनया न स्वीकुर्वन्ति । एतेषां मते यो हि-आवश्यक शास्त्रज्ञः सोऽनुपयुक्तो न भवितुमर्हति, यो हि-अनुपयुक्तः स आवश्यक शास्त्रज्ञो न भवितुमईति, ज्ञानम्योपयोगर पत्वात् । एते हि शुद्धन' माश्रित्य वस्त्वभ्युपगच्छन्ति, मान्यता है कि द्रव्य और पर्याय के संबन्ध में जितने विचार होते हैं उनका वर्गीकरण उपर्युक्त चार नयों में ही हो जाता है। जिनका वर्गीकरण स्वतंत्र नय द्वारा किया जाय ऐसे विचार ही शेप नहीं रहते । तथापि विचारों को प्रकट करने और इष्ट पदार्थ का ज्ञान कराने का प्रधान साधन शब्द है। इसलिये इसकी मुख्यता से जितना भी विचार किया जाता है वह सब तीन नयों की ही कं टि में आता है। ये नय यह कहते हैं कि अबतक शब्द प्रयोग की विविधता होने पर भी अर्थ में भेद स्वीकार नहीं किया गया है-परन्तु जहां शब्दनिष्ठ तारतम्य है उसके अनुसार अवश्य अर्थभेद है। इसीलिये ये कहते हैं कि यह बात कैसे बन सकती है कि जो आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता है ह उसमें अनुपयुक्त है। क्यों कि ज्ञाता होने पर अनुपयुक्त-और अनुपयुक्त होने पर ज्ञाता यह असत् है-संभवित नहीं होता है । આ ત્રણે ન માને છે–અર્થની પ્રધાનતા માનતા નથી. આ નાની એવી માન્યતા છે કે દ્રવ્ય અને પર્યાયના સંબંધમાં જેટલા વિચારો હેય છે. તે વિચારોનું વગી. કરણ ઉપર્યુકત ચાર નયમાં જ થઈ જાય છે.
- જેમનું વર્ગીકરણ સ્વતંત્ર નય દ્વારા કરી શકાય એ કોઈ વિચાર જ બાકી રહેતો નથી. છતાં પણ વિચારોને પ્રકટ કરનાર અને ઈષ્ટ પદાર્થોનું જ્ઞાન કરાવનાર મુખ્ય સાધન શબ્દ છે. તેથી તેની શબ્દની) પ્રધાનતાની અપેક્ષાએ જેટલા વિચારો કરવામાં આવે છે તેટલા વિચારોને આ ત્રણ નાની કટિમાં જ મૂકી શકાય છે. તે ન એ બતાવે છે કે હજી સુધી શબ્દ પ્રયોગની વિવિધતા હોવા છતાં પણ અર્થમાં ભેદને સ્વીકાર કરવામાં આવ્યું નથી પરંતુ જયાં શબ્દ નઠ તારતમ્ય છે. તેના અનુસાર અર્થભેદ પણ અવશ્ય છે જ. તેથી તેઓ કહે છે કે-“એવી વાત કેવી રીતે સંભવી શકે કે જે આવશ્યકશાસ્ત્રને જ્ઞાતા છે. તે તેમાં અનુપયુક્ત છે, કારણકે જ્ઞાતા હોવા છતાં પણું અનુપયુક્ત હોય અને અનુપયુકત હોવા છતાં પણ જ્ઞાતા હોય એ વાત જ અસંભવિત હોય છે. જ્ઞાતા હોય તે તે તેમાં ઉપયુક્ત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. १६ नयभेदेन द्रव्यावश्यकनिरूपणम् अतो य: प्यागमकारणत्वादात्मदेहादिकमागम वेनोक्त तदप्यौपचारिकम, अत
तदागमन्वेन न प्रतिपद्यन्ते । तस्मादेतन्मते द्रव्यावश्याय असंभाएवेति । उक्तामुपसंहरन्नाह-‘से तं आगम) दव्यावस्सयं' इति । तदेतदागमतो द्रकावश्यकम् ॥ मू० १५ ॥ ज्ञाता है तो वह उस में उपयुक्त है । अनुपयुक्त है तो वह उस का ज्ञाता नह है। अतः आश्यक शास्त्र के अनुपयुक्त ज्ञाता को लेकर जो आगमद्रव्याव यक की प्ररूपणा को ये शब्दादिनय स्वीकार नहीं करते हैं। क्योंकि ज्ञाता और अनुः युक्तता का समन्वय बैठता नहीं है। अनुपयुक्तता की स्थिति में वह आ.श्य शास्त्र का ज्ञाता ही नहीं हो साता है। ज्ञाता शब्द का अर्थ "उस संबन्धी ज्ञानवाला" ऐसा होता है । जब तत्संबन्धी ज्ञानवाला वह है तो इ. का तात्पर्य यही है कि वह ज्ञान के उपयोगवाला है। क्योंकि ज्ञान स्यं उपयोगरूप है। ये तीनों नय शुनर को आत्रित करके वस्तु को स्वीकार करते हैं। इसलिये जो “आगम के का ण होने से आत्मा तदधिष्ठित दह, और शब्द ये आगमरूप हैं" ऐसा कहा है। क्योकि ये आगमरूप से नही माने जाते हैं। इसलिये इन नयों के मन्तव्यानुसार आगम द्रव्या वश्यक असंभव ही है। इस तरह पूर्व प्रक्रान्त आगमद्रव्यावश्यक का स्वच्प इस प्रकार का कहा है।
(ઉપગ સંપન્ન) હેય. અને અનુપયુક્ત હોય તે તેને જ્ઞાતા જ ન હોય એ વાત જ સંભવી શકે છે. તેથી આવશ્યકશાસ્ત્રના અનુયુકત જ્ઞાતાની અને ક્ષિાએ જે આગમ વ્યાવશ્યકની પ્રરૂપણ કરી છે. એ પ્રરૂવણને આ શબ્દાદિ ત્રણ પ્રકારના યે સ્વીકાર કરતા નથી. કારણ કે જ્ઞાતા અને અનુપયુકતતાનો સમન્વય જ સંભવી શકતું નથી. અનુપયુકતાની સ્થિતિમાં તે આવશ્યકશાસ્ત્રને જ્ઞાતા જ સંભવી શકતો નથી. (જ્ઞ તા એટલે તેના સંબંધી જ્ઞાન ધરાવનારો.” આ પ્રકારનો અર્થ સમજવો) જે તે જ્ઞાતા હોય એટલે કે તે વિષયના જ્ઞાનથી સંપન્ન હેય. તે તેનું તાત્પર્ય એ જ છે કે તે જ્ઞાનના ઉપયોગવાળો (ઉપયુક્ત) છે. કારણ કે જ્ઞાન પિતે જ ઉપયોગરૂપ હોય છેઆ ત્રણે નય શુદ્ધ નયને આધારે વસ્તુને સ્વીકાર કરે છે. તેથી એવું જે કહેવામાં આવ્યું છે કે “આગમનાં કારણરૂપ હોવાથી આત્મા તદધિષ્ઠિત દેહ અને શબ્દ એ આગમરૂપ છે.” આ કથન પણ ઔપચારિક કથન જ છે. કારણ કે તેમને આગમરૂપ માનવામાં આવતા નથી. તેથી આ ત્રણે નયેની માન્યતા અનુસાર આગમદ્રવ્યાવયક સંભવિત જ નથી. આ રીતે પૂર્વપ્રકાત આગમવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું કહ્યું છે.
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अनुयोगदारमाने सम्प्रति नोआगमता द्रव्यावश्यकं प्राह
मूलम्--से किं तं नो आगमओ दव्वावस्सयं ? नो आगमओ दव्वावस्तयं तिविहं पण्णतं, तं जहा-जाणयसरीरदव्वावस्सयं, भवियसरीरदव्वावस्सयं, जाणयसरीरभवियसरीरवइरितं दवावस्सयं ।सू०१६
छाया-अथ किं तद् ने आगमतो द्रव्याश्यकम् , नो आगा.तो द्रव्रा
अयं भावः--मृत्रकार ने नगमादि सात नयों की मान्यता को आश्रित करके आगमद्रव्यावश्यक में एकत्व अनेकत्व आदि का प्रतिपादन किया है। नेगमनय की अपेक्षा से आगमरावक में एक त्व और अनेक त्व है। संग्रहनय की अपेक्षा से घर में केवल एकत्व है । व्यहारन य की अपेक्षा से एक और अनेक आगम र विश्यक हैं। ऋजुमूत्रनर की अपेक्षा से आगमद्रव्यावश्यक एक ही हैं । इन्द, समभिरूढ और एवंभूत इन तीन नयों की अपेक्षासे आगमद्रव्यावश्क है ही नहीं। इन सब नयों की मान्यताओं का स्पष्टीकरण टीका के अर्थ में करदिरा गाा है । ॥ मत्र १५॥
अब सूत्रकार नोआगमद्रव्यावश्यक वा प्रतिपादन करते हैं“से किं तं नो आगमओ” इत्यादि । ॥ सूत्र १६ ॥ शब्दार्थ-(से तिं नोआगमभो दव्यावस्सयं) हे भदंत ! नोआगम
સંક્ષિપ્ત ભાવાર્થ-સૂત્રકારે નેગમ આદિ સાત નાની માન્યતાનો આધાર લઈને આગમ વ્યાવશ્યકમાં એકત્વ. અનેકત્વ આદિનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. ગમનયની માન્યતા અનુસાર આગમદ્રવ્યાવશ્યકમાં એકત્વ અને અનેકત્વ છે. સંગ્રહનયની માન્યતા અનુસાર તેમાં માત્ર એક જ છે, વ્યવહારનયની માન્યતા અનુસાર એક આગમદ્રવ્યાશ્યક પણ છે અને અનેક દ્રવ્યાવશ્યક પણ છે. જુસૂત્રનયની માન્યતા પ્રમાણે આગમદ્રવ્યાવશ્યક એક જ છે. શબ્દનય. સમભિરૂઢનય અને એવ. ભૂતનય. આ ત્રણે નયેની માન્યતા અનુસાર આગમદ્રવ્યાવશ્યક છે જ નહીંઆ સઘળા નાની માન્યતાનું સ્પષ્ટીકરણ ટીકાર્થમાં કરવામાં આવ્યું છે. પોસ્ટ ૧પ
હવે સૂત્રકાર અને આગમદ્રવ્યાવશ્યકનું” પ્રતિપાદન કરે છે
"से किं तं नोआगमओ" त्यादि---
शहाथ-(से किं तं नो आगमओ द्रव्यावस्सय ?) बगवन्! न2014 ને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યાવશ્યકનું કેવું સ્વરૂપ છે ?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका-वृ. १६ नोआगमतो द्रन्यावश्यकनिरूपणम् ११७ वश्यकं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकम्, भव्यशरीरद्रव्यावश्यम्, ज्ञायाशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्याश्यकम् ॥सू० १६॥
टीका-'से किं तं' इत्यादि-- ___ अथ किं तद् नो आगमतो द्रव्यावश्यकम ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति'नोआगमओ दवावस्मयं तिविहं षष्णत्तं' इत्यादि । नो आगमतो द्रव्यावश्यक त्रिविध प्रजप्तम् । अत्र नो शब्दः सर्वथा प्रतिषेधे देशतः प्रतिषेधेऽपि च वर्तते। तथा च सर्वथा आगमाभावमाश्रित्य द्रःयावर कं, तथा देशतः आगमाभावमाश्रित्य द्रव्याश्यकं च नोआगमतो द्रव्यावश्यकमिति। तत् त्रिविधं प्रज्ञप्तं-तीर्थ करैः प्ररूपितमि यर्थः। (१) ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकं, (२) भव्यशरीरद्रव्यावश्यकम्.(३) ज्ञायकशरीरभःयशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यकंचेति । तत्र-ज्ञानवानिति ज्ञायकः, शीय ते को आश्रित कर के द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? उत्तर-(नोआगमओ दव्वावस्सयं तिविहं पप्णत्तं)नोआगम की अपेक्षा करके द्रव्यावश्या तीन प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। (तंजहा) उसके वे तीन प्रकार ये हैं-जाणयसरीरदव्वावरसयं, भवियसरीरदव्यावासय, जाणयसरीरभवियसरीरवइरितं दव्यावासयं) (१)ज्ञायक शरीर द्रव्यावश्य : (२)भया शरीरइव्यावश्य:, और ज्ञायक शरीरभ शरीरव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक । नो शद सर्वथा प्रतिषेध में और किञ्चित् प्रतिषेध में भी आता है। नो आगम व्यावश्यक में नो श द इन्हीं दोनों अर्थों में व्यवहृत हुआ है। इस तरह आगम के सर्वथा अभाव को और आगम के एकदेश अभाव को लेकर व्यावश्यक वनता है । यह नो आगम द्रव्यावश्यक ज्ञायक शरीर आदि के भेद से ३ प्रकार का है। जो आगमशास्त्र को जान चुग है ऐसे ज्ञाय का निर्जीव शरीर नोआगम
Gत्त२-(नोआगमओ दयाबस्सय तिविहं पण त) न। मनी अपेक्षाद्र०यावश्यना त्रए प्रा२ । छे. (तंजहा) ते ३ प्राशनीय प्रमाणे सभा
(जाणयसरीरदव्यावस्सयं, भवियसरीरदब्वावरसयं, जाणयसरीरभरियसरीवइरित्तं दकाररसय) (१) ज्ञाय शरी२ द्र०यावश्य५. (२) १०यशरीर द्र०या વશ્યક અને જ્ઞાયકશરીર ભવ્ય શરીર વ્યતિરિકત દ્રવ્યાવશ્યક.
ટીકાર્થ–“ન” શબ્દ સર્વથા નિષેધ અથવા અંશત: નિષેધના અર્થમાં વપરાય છે. "નોઆગમ દ્રવ્યાવશ્યકમાં” જે નો” શબ્દ આવ્યું છે તે ઉપર્યુકત બને અર્થમાં વપરાય છે. આ રીતે આગમના સર્વથા અભાવને અને આગમના એક દેશતઃ અભાવને લઈને દ્રવ્યાવશ્યક બને છે. આ આગમદ્રવ્યાવશ્યક જ્ઞાયક શરીર આદિના ભેદથી ત્રણ પ્રકારને કહ્યો છે. જે આગમનું જાણી ચુકયે છે એવા શાયકનું નિજીવ શરીર ને આગમદ્રવ્યવાશ્યક છે. આગામી કાળમાં જે જીવ વિવક્ષિત
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अनुयोगदारसत्रे प्रतिक्षणं क्षीयते इति शरीरं,ज्ञायास्यशरीरं ज्ञायकशरीरं तदेव द्रव्या इयकमिति ग्रिहः जीवपरित्यत मावश्यकशास्त्रज्ञानवतः शरीरं ज्ञायकशरीग्द्रश्या श्यकम्। विव. क्षितपर्यायेण भविष्यतीति भ-यस्तस्य शरीरं भाविभावावश्यककारणत्वात् द्रव्याव्यावश्यक हैं । विवक्षित पर्याय से युक्त जो आगामी काल में होगा उसका नामभव्य है । भावि भारूप आवाक का कारण होने से उसका शरीर भव्य शरीर द्रव्यावश्यक है ज्ञायक शरीर और भव्यशरीर इन दोनों से भिन्न जो द्रव्यावश्यक है वह ज्ञायक शरीर-भ० शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक है । इस प्रकार यह तीन प्रकार का नो आगनद्रव्यावश्यक है।
भावार्थ-नो आगमद्रव्यावश्यक का स्वरूप प्रकट करने के लिये सूत्रकार ने इसके तीन भेद किये है-(१) ज्ञायकशरीरद्रव्याश्यक, (२) भव्य शरीरद्रव्या श्यक और (३) तद्वयतिरिक्त न्यावश्यक । नोआगम द्रव्यावश्यक में नो शब्द आगम के सर्वथा निषेध करने में प्रयुक्त हुआ है-तथा च-जीव पहिले आवश्यकशास्त्र का ज्ञाता था वह जब मर जाना है-पर्यायान्तरित हो जाता है तब उस समय का निर्जीव शरीर है वह आगमाभाव से विशिष्ट होने के कारण ज्ञाय शरीरद्रमावश्यक है । इसी तरह जो आगामी काल में आवश्यकशास्त्र का ज्ञाता होगा ऐसे उसका जो शरीर है यह भयशरीर પર્યાયથી યુકત થવાને છે, તેને ભવ્યજીવ કહે છે. ભાવિ સ્વભાવરૂપ આવશ્યકનું કારણ હોવાથી તેનું શરીર ભથશરીર દ્રવ્યાવશ્યક ગણાય છે. જ્ઞાયક શરીર દ્રાવશ્યક અને ભથશરીર દ્રવ્યાવશ્યકથી ભિન્ન જે દ્રવ્યાવશ્યક છે તેને સાયકશરીર-ભવ્યશરીર વ્યતિ(રકત દ્રવ્યાવશ્યક કહે છે. આ પ્રમાણે આ ત્રણ પ્રકારને આ ને આગમ દ્રવ્યાવશ્યક છે.
ભાવાર્થ– આગમ દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવા નિમિત્તે સૂત્રકારે તેના નીચે પ્રમાણે ત્રણ ભેદ કહ્યા છે
(१) शायरी२०यावश्य' (२) १२५२१२ २०यावश्य, (3) तय०यतिक्षित (मन्नथी मिन्न) द्र०यावश्य.
આગમ દ્રવ્યાવશ્યકમાં “ના” પદ આગમને સર્વથા નિષેધ કરવામાં प्रयुत यो छ. रेम
જે જીવ પહેલાં આવશ્યકશાસ્ત્રને જ્ઞાતા હતા, તે જયારે મરણ પામે છે–અન્ય પર્યાયે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે સમયનું તેનું જે નિર્જીવ શરીર હોય છે તે આગમન અભાવવાળું હોવાને કારણે જ્ઞાય શરીરદ્રવ્યાવશ્યક રૂપ ગણાય છે. એ જ પ્રમાણે જે જીવ ભવિષ્યમાં આવશ્યકશાસ્ત્રને જ્ઞાતા થવાને છેતે જીવના શરીરને ભવ્ય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७ ज्ञाथ कशरीर द्रव्यवश्यकनिरूपणम्
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३. कं भव्यशरीरद्रव्याश्यकम् । ज्ञायः शरीरभव्यशरीराभ्यां व्यतिरिनं. - भिन्न द्रव्यावश्यकं इत्येवं त्रिविधं नोआगमता द्रव्याचकं बोध्यम् ॥ सू० १६ ॥ तत्र प्रथमभेदं निरूपयितुमाह
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मूलर मे किं तं जाणयसरीरदव्वावस्तये ? जाणयसरीरदवावसयं वस्सएत्ति पयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं वत्रगयचुयचवियचतदेहं जीवविष्पजढं सिजागयं वा संधारगयं वा निसीहियागयं वा सिडसिलातलगयं वा पासिना णं कोई भणेजा अहो ! इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिणं भावेणं आवरसएत्तिपयं आघत्रियं पण्णत्रियं परुवियं दसिय निर्देसियं उपसि । जहा को दितो ? अयं महुकुंभे आसी, अयं घयकुंभे आमी से तं जाणयसरीर. दव्वास्स || सू० १७ ॥
छाया - अथ किं तद् ज्ञायकशरीरच्या गाम् ? ज्ञायः शरीरखत्यावश्यम् आइकेति पदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत शरीरकं व्यपगतच्युमच्यादित यतः देहं जीव द्रव्यावश्यक है । तथा इन दोनों से व्यतिरिक्त जो उव्यावश्यक है वह तद्वयतिरिक्त द्रव्यावश्यक है | || सूत्र १६ ॥
अब सूत्रकार नोआम म्याव यक का जी प्रथम भेट ज्ञायक शरीर द्रव्यावश्यक है उसे विशेषरूप से स्पष्ट करते हैं-
"से किं तं जाणवर खव्यावर
इदि । ॥ ० १७ ॥ शब्दार्थ - प्रश्न - ( से किं तं जाणयसरीदत्वादस्मयं ) हे भदंत ! ज्ञाक शरीर द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ?
શરીર દ્રવ્યાવશ્યકરૂપ માનવામાં આવે છે. તથા આ બન્ને કરતાં ભિન્ન અવાજે દ્રવ્યાવશ્યક છે તેને તયર્યાકિત (ઉભયથી ભિન) દ્રવ્યાવશ્યક કહે છે, ાસ ૧૬૫ “આગમ દ્રવ્યાવશ્યક’” ના, નાયઃશરીદ્ર-યાવશ્યક નામના જે પહેલા ભેદ છે તેનું મૃત્રકાર હવે વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ કરે છે—
'से किं तं जाणयसरीरदवस्पयं" "त्याहि-
शब्दार्थ - प्रश्न - (से किं तं जाणयसरीरदव्यावरसुर्य) हे लगएन ! ज्ञाय શરીર દ્વયાવશ્યકનું કેવું સ્વરૂપ કહ્યું છે ?
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मानुयोग बिहीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा नैषेधिगतं वा सिद्धशिलातलगत:वा दृष्टा खलु कापि भणेत्-अहो ! अनेन शरीरसमुच्छ्येण जिन दृष्टेन भावन अ: श्यकेतिपदम आपवितं प्रज्ञापितं प्ररूप्तिं दर्शितं निदर्शितम् उ दर्शितम् ।
उत्तर-(आवरसएत्ति पयस्थाहिगारंजाणयरस जं सरीरं) आवश्यक पदाच्य आगम के अर्थरूप अधिकार के ज्ञाता का-अति आवः। कम्त्र के अर्थ को जाननेवाले साधु आदि का-ऐसा शरीर कि जो (वयगय चुयचवियचत्तदेह) व्यपगत चैतन्यपर्षय से रहित है, च्युत-बलिष्ठ आयुक्षय के कारणों से प्राण रहित है रक्तदेह-आहारपरिणति जनित वृद्धि जिससे सर्वथा निकलचुकी है (जाणयसरीरदवायरसय) ज्ञायक शरीर द्रः यावश्यक है। इसी अर्थ का स्पष्ट ज्ञान होने के लिये सूत्रकार शदातर से इसका वर्णन करते है (जीवविप्पजढं सिज्जागयं वा संथाग,यं वा निसीहियागयं वा सिसिलातलग वा पासित्ता णं कोई भाणेज्जा) वे कहते हैं कि जब इस प्रकार के प्राण रहित शरीर को शय्या पर देखर रके, संस्तारगत देखकरके साध्यायभूमि अथवा स्मशानभृमि गत देखकरके या सिद्ध शिलालगत देखकरके वे कहते हैं कि (अहो) अहो ! (इमेणं) इस (सरीरसमुस्सएणं) शरीररूप पुद्गल संघात ने (जिनविटेणं भावेणं) तीर्थ करों द्वारा मान्य हुए कर्म निर्जरण के अभिप्राय से अथवा तदावरण के क्षय, क्षयोपशमरूप भाव से अर्थात् ज्ञानावरणीयप में के क्षय
____उत्त२-(आवस्सए त एयत्वाहिगारं जाणयस्स जं सीर) ११३५४ ५४ाશ્ય આગમના અર્થરૂપ અધિકારના જ્ઞાતાનું એટલે કે આવશ્યકસૂત્રના અર્થને જાણુना॥ साधु सानु मे शरी२ ३२ (ववगयचुयचावियचत्तदेहं) ०५५। 1ચૈતન્ય પર્યાયથી રહિત છે, ચુત દસ પ્રકારના પ્રાણોથી પરિવર્જિત (રહિત) છે, त्यति गाड२५रिणति नित वृद्धि की संपूर्ण नlsil युटी छ, (जाणय सरीग्दव्यावस्मयं) मेवा शश२२ "शाय शरी२ द्र०यावश्य” हे, सा अर्थना વધુ સ્પષ્ટ ખ્યાલ આપવાના હેતુથી સૂત્રકાર અન્ય શબ્દો દ્વારા તેનું વર્ણન કરે છે–
(मीर विप्पज सिज्जागयं वा, संवारगयं वा, निकी हगायं बा, सिद्धमिलातलगयं वा पासित्ताणं कोइ भणेज्ना) 240 3:२॥ प्र.६२हित शरीरने शय्या પર દેખીને, સસ્તારગત દેખીને, સ્વાધ્યાયભૂમિ અથવા સ્મશાનભૂમિગત દેખીને अथवा सि.शिलात भान तयार छ -(अहो) अ ! (इमेणं सरीरसमस्सएणं) मा शश२ ३५ पुस धाते (जिनदिटेणं भावेणं) ताय ४२ • भगवान। દ્વારા માન્ય યેલા કર્મનિર્જ રણના અભિપ્રાયથી અથવા તદાણના ક્ષય,ક્ષેપમાં '३५ माया मेरो ज्ञानावरणीय माना क्षय क्षयोपशम अनुसार .(आवासए त्तपन)
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १७ ज्ञायकारीद्रव्याव कनिरूपणम् १२१ यथा को दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भ आसीत, अयं घृतकुम्भ आसीत् । तदेतत् शायफशरीरद्रव्यावश्यकम् ॥ सू० १७ ॥
टीका-शिष्यः पृच्छति--'से कि तं' इतादि। हे भदन्त ! अथ कि तत् ज्ञायक शरीरद्रयावकम् ? उत्तरमाह-'जाणयसरीरदव्वावस्सयं' इत्यादि। ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकं ६र्यते इत्यर्थः। आवश्यये ति पदार्थाधिकारयकर.आवश्य तिपदस्य आवश्यक पदवाच्यस्य आगमस्य यः अर्थाधिकारः अर्थ एव अर्थाधि, कारः तस्य ज्ञायकः-जाता, तस्य आवश्यकम्त्रार्थ ज्ञातवतः माध्यादे यत् शरीरम् । क्षयोपशम के अनुसार (आवस्सएत्तिपयं) आवर ३ सूत्र का विशेषरुप से (आधविय) गुरु से ज्ञान प्राप्त किया था (पप्णवियं) सामान्यरूप से उसे शिष्यों को समझाया था। (परू वियं) सूत्राथे पर नपूर्वक फिर उसे शिष्यजनों को पढाया था (दंसिय) प्रतिलेखनादि क्रियारूप मे उम ग्वयं ने अपनी आत्मा में उतारा था । और बाद में इसी रूप में दूसरों को दिखलारा था-अर्थात् प्रतिलेखनादि क्रिया के प्रदर्शन से यह :कट किए था कि दोनों समय समस्त भंड पाणों की प्रतिलेखना करनी आवश्यक है । अंगुल मात्र वस्त्र खण्ड भी विना प्रति लेख्ना के नहीं रहना चाहिये । निदमियं) आवश्यकशास्त्र के ग्रहण करने में जो शिप्यजन अक्षम थे उनके लिये इसने करुणावश होकर बार २ आवश्यक शास्रग्रहण व वाया । (उवदंसियं) सर्वनय और युक्तियों द्वारा शिष्यजनों के हृदयस्थान में इसे बिना किसी संदेह के इसने जमाया था अनः वह शरीरज्ञायक शरीरद्र यावश्यक हैं । सा१श्य सूत्रनु विशेष३५ (आदि) Y२ . मययन यु तु-ज्ञान प्रात यु तु. (ण) समान्य तशित स.००० रन (परूयं) सत्रार्थना ४थन त थी शियाने नुययन २०युतुसियं) પ્રતિલેખનાદિ ક્રિયારૂપે તેમણે પોત પોતાના આત્મામાં ઉતાર્યું હતું, અને ત્યાર બાદ એજ રૂપે શિવેને બનાવ્યું હતું, એટલે કે પ્રતિલખના આદિ ક્રિયાના પ્રદ
નથી એ પ્રકટ કર્યું હતું કે બન્ને કામય રામ પાત્ર વનાદિ ઉપકરણાની પ્રતિલેખના કરવી આવશ્યક છે. વસ્ત્ર એક ઇંચ જેટલા ભાગ પણ પ્રતિલેખના विनान। २यो ने नाही. (निदमियं) मा१३५ शान ए ४२वाने (प्यो અક્ષમ હતા, તેમના પ્રત્યે કરુણાભાવ રાખીને તેણે તેમને વારંવાર આવશ્યક સૂત્ર अS ४२११ाने प्रयत्न यात 'उवदंसियं ५५ नय अने युतिया ६२ તેણે શિષજનેના હદસ્થાનમાં છે કે રૂપે તેને એ બધાણ કરાવ્યું હતું તેથી તેનું આ શરીર જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે.
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'अनुयोगद्वार
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कीदृशं ज्ञायव शरीर द्रव्याध्ययकं भवतीत्याह - 'ववगय' इत्यादि । व्यपगतच्युतच्या वितत्यत. देहं पगतं चैतन्य पर्यायः हिम्. उ. एदयुतं दशविधाये: परिवर्जितम, व्याक्तिम् = चलवतायुःक्षरेण प्राणेभ्यः परिभ्रंशितम्, व्यक्त देहं - त्यक्तो देहः=आहारपरिणतिजनित उपचयो रेन तत्तथा व्यपगतादीनां चतुर्णा कर्मधारयः । अमुमेवार्थ स्पष्टप्रतिपत्तये शब्दान्तरेणाह - 'जीवविप्पजढं' इति, जीवविप्रहीण = जीवात्मना सवैथा परित्यक्तं तत् शय्यागतं वा - शय्या शरीरप्रमाणा तत्र गतं = स्थितं दृष्ट्वा संरतारगतं वा संस्तारे ऽर्धतृतीय हस्तप्रमाणस्तत्र गतं दृष्ट्वा नैषेधिकीगतं वा-नैधिकी स्वाध्या भूमिः श्मशानभूमिश्च तत्र गतं दृष्ट्वा सिद्धशिलातलगतं वा - अनेकविध तपः परिशोषितश्रीराः साधवो यत्र स्वर मे गत्वा भक्तप्रत्याख्यानरूपमनशनं कृतवन्तः कुर्वन्ति, वरिष्यन्ति च तत् सिद्ध शिलातलम्, यद्वा यत्र कश्चिद् महर्षिः सिद्धस्तत् सिद्ध शिलातलम्, तत्र गतं = स्थितं दृष्ट्वा खलु कोऽपि श्राकादिः, भणति = कथयति - 'अहो !" अहो ति दैन्ये, विस्मय, आमन्त्रणे च 'अनित्यं शरीरम्' दैग्यम् | 'आवश्यकं झतम्' इति विस्मयः । पार्श्वस्थं प्रति आमन्त्रणम् । त्रितयोऽप्यर्थोऽत्र संगच्छते । खलु अनेन = क्षतथा परियमानेन शरीरसमुच्छ्रयेण = शरीरमेव स्मुच्छ्रयः पुद्गल संघातस्तेन जिनदृष्टेन तिर्थङ्कराभिमतेन भावेन = कर्मनिर्जरणाभिप्रायेण यद्वा- तदावरणक्षरक्षयोपशमलक्षणेन आवश्यके तिपदम आवश्यक शास्त्रम, आगृहीतम् = गुरोः सकाशादधिगतम, प्रज्ञापितम् - सामान्यरूपेण शिष्येभ्यः कथितम्, प्ररूपितम् = सूत्रार्थकथनपूर्वकं शिष्येभ्येोऽध्यापितम् दर्शितम् = प्रतिलेखनादिक्रियायाः प्रतिलेखनीयम् अङ्गुलमात्रं वस्त्रखण्डमपि अप्रतिलेखनेन न स्थापनीयम् इति । निदर्शितम्
"
शरीर के साथ नहीं हो
६ स
प्रकार
शंका - - अचेतन होने से शरीररूप पुद्गल स्कंध जब आवश्यक शास्त्र वा ज्ञाता ही नहीं हो सकता है तब सूत्रकार का " आवस्सएत्तिपद आघवियं" आदि कहना संगत प्रतीत नहीं होता है । क्योंकि ग्रहण करना प्ररूपणाआदि करना ये सब क्रियाऐ जीब के साथ संबन्धित होती हैं । अतः जीव के धर्म होने के कारण इनकी घटना सो सकती है ? इस आशं का उत्तर શંકા—અચેતન હેાવાને કારણે શરીરરૂપ પુદ્ગલ સ્કંધ જે આવશ્યકશાસ્ત્રના ज्ञाता होई शकतो नथी तो सूत्रअस्तु "आवस्सएत्ति पदं आघवियं) मा प्रअ - રતું કથન સ ંગત લાગતુ નથી. કારણ કે ગ્રહણ કરવાની અને પ્રરૂપણા આદિ કરવાની ક્રિયાએ તા જીવની સાથે સંબંધ ધરાવનારી હાય છે. આ ક્રિયા જીવના ધમ રૂપ હાવાને કારણે મૃત શરીરમાં તેને કેવી રીતે ઘટાવી શકાય ? ચૈત ય યુૠત શરીરમાં જ આ ક્રિયાઓના સદ્દભાવ હાય છે.
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अयोगचन्द्रिका टीका १७ ज्ञापकशरी द्रव्यावश्यक निरुपगम्
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आवश्यकशास्त्रग्रहण क्षमेभ्यः शिष्येभ्यः करुणावशात् पुनः पुनर्दर्शित, उपदर्शतम् = सर्वनययुक्तिभिश्च प्रदर्शितम् । अत इदं शरीरं ज्ञायकशरीर द्रवश्यकम् !
नन्वनेन शरीरसमुच्छ्रेणाऽऽवश्य मागृहीतमि यादि नोपपद्यते, ग्रहणप्ररूपणादीनां जीवधर्मत्वेन शरीरस्थाघटमानत्वात् इति चेदुच्यते - भूतपूर्वमाश्रित्य तत्कथितम् अतो नास्ति दोषः । ननु शय्यादिगतं साधुशरीरं दृष्ट्रा कश्चित् पूर्वोक्तप्रकारेण वदति, परन्तु तस्य द्रव्यावश्यकत्वं न संभवति, “भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम्” इति पूर्वोक्तरचना आवश्यकपर्यायस्य कारणमे । द्रव्यावश्यकं भवितुमर्हति । आवश्यकपर्यायस्य कारणं तु चेतनाविष्ठितमेव शरीरम्, नत्वचेतनम्, अतो निर्जीव से है कि ज्ञानक शरीर को जो द्रव्यावश्यक कहा है वह भूतपूर्व को (अर्थात् भूतकाल की अपेक्षा को ) लेबर कहा है । अर्थात् जब रह शरीर चेतनाधिष्ठित था - तब उस के संबन्ध से यह उस शास्त्र कीप्ररूपणा आदि करता था । अतः इसमें कोई दोष नहीं हैं । शंका- शय्यादिगत साधु के शरीर को देख करके यदि कोई पूर्वोक्त प्रकार से बहता है तो भले कहो । परन्तु उस शरीर में द्रव्यावश्यकता संभवित नहीं होती है क्यों कि भूत अथवा भावी पर्याय का जो कारण हैचाहे वह सचेतन हो चाहे अन हा वही तत्वज्ञों की दृष्टि में द्रव्य - द्रव्य निक्षेप का विषय माना गया है । अतः इस कथन से आवश्यकपर्याय का कारण ही द्रव्यावश्यक होने के योग्य हो सकता है । सो ऐसे द्रव्यावश्यक का ऐसा कारण तो चेतनाविष्ठित शरीर ही होता है, अचेतन शरीर नहीं । इसलिये निर्जीव शय्यादिगत साधु शरीर द्रव्यावश्यक नहीं हो सकता है।
આ શંકાનું સમાધાન નીચે પ્રમાણે સમજવું—
જ્ઞાયક શરીરને જે દ્રશ્યાવશ્યક કહેવામાં આવ્યું છે, તે ભૂતપૂર્વની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવ્યુ છે. એટલે કે જ્યારે તે શરીર ચૈતયથી યુકત હતુ ત્યારે તે આ શાસ્રની પ્રરૂપણા આદિ કરતુ હતુ. તેથી આ પ્રકારના કથનમાં કાઇ દોષ નથી. શકા—શય્યાદિગત સાધુના શરીરને જોઇને કોઈ પૂર્વીકૃત પ્રકારે કહેતા હૈય તે ભલે કહે, પરન્તુ એ શરીરમાં દ્રાયકા તા સહવી જ શાતી નથી ! કારણ કે ભૂત કે લાવી, પર્યાયનું જે કારણુ -લે તે રચન હૈ.ય અવા લે તે અચેતન હાય. પણ એને જ તત્ત્વજ્ઞ દ્રવ્ય-દ્રવ્યનિક્ષેપના વિષય માને છે. તેથી આ કથન અનુસાર તેા આવડ્યકપર્યાયનુ કાણુ જ દ્રવ્યાચક છુવાને ચૈત્ય હાઈ શકે છે. અને એવા દ્રશ્યાવશ્યકનુ એવુ કારણ તે ચેતનાયુકત શીર જ હાઇ શકે છે, અચેતન શરીર એવાં કારણરૂપ બની શકતું નથી. તે કારણે શય્યાદિગત ાનવ સાધુનું શરીર ક્રૂવ્યાવશ્યક હાઈ શકતુ નથી,
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अनुयोगारसूत्रे शय्यादिगतं साधुशरीर द्रव्यावश्यकं भवितुं नाईतीति चेदुच्यते-यद्यपि तस्मिन काले चैतन्याभावात् शरीरस्प व्यावश्यकत्वं नास्ति. तथापि अतीतपर्यायानुवृत्याभ्युपगमपरनवानुवृत्याऽतीतमावश्यकपर्यायकारण वमपेक्षास्य द्रव्यावश्यकत्वं बोध्यमिति नास्ति काचिद् विप्रतिपत्तिः । अत्रार्थे शिष्यो दृष्टान्तं पृच्छति-'जहा कंदिटुंतो' इति । यथा को दृष्टान्तः अत्र यथा कश्चिद् दष्टान्तो भवेत्, तथा कथयतु ? इति शिष्यपृच्छायां दृष्टान्तमाह-'अयं महुकुमे आसी, अयं धकुंभे आसी' इति । अयं मधुकुम्भ आसीत्, अपघृतकुम्भ आसीत् इति । अयं भावः-यथा कोऽपि कस्मिंश्चिद् घटे घृतं वा मधु वा भृत्वा समानीतवान, पुनस्ततस्तदपसारितवान्, अपमारिते तस्मिन्-अयं घृतकुम्भ आसीत, अयं मधुकुम्भ आसीदिति सो इस शंका का उत्तर इस प्रकार से है कि यद्यपि उस काल में चेतना नहीं होने से उस शरीर में द्रव्यावश्यकरूपता नहीं है तो भी भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा से अतीत आपक पर्याय के प्रति कारणता उसमे भी ऐसा मानकर उसमें द्रव्यावश्या ता जाननी चाहिये । इस तरह इस कथन में कोई दोष नहीं है। शिष्यजनों को समझाने के लिये इसी विषय में सूत्रकार दृष्टान्त कहते हैं क्योंकि (जहा कोदिटुंता) उन्होंने इन पदोद्वारा यही पूछा हैं कि हे गुरु महाराज ! इस विषय में जैसा कोई दृष्टान्त हो वैसा आप कहिये। (अयं महुकुंभे आसी अयं घयकुभे आसी। तब वे शिष्य को दृष्टान्त कहते हैं कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति घडे में मधु या धृत भरकर लाया
और फिर उसमें से उस मधु या घृतको निकाल लिया भी वह उसे यह मधुकुंभ था या यह घृतकुंभ था इस प्रकार से कहता है। और ऐसा व्यहार भी लोक में उसमें भूतकालिक मधु या घृत का आधार
આ શંકાનું હવે સમાધાન કરવામાં આવે છે –
જો કે તે કાળે તે સાધુ શરીરમાં ચેતનાને સદૂભાવ નથી અને તે કારણે તે શરીરમાં દ્રવ્યાવશ્યકરૂપતાને સદ્ભાવ નથી, પરંતુ ભૂતપૂર્વ પ્રજ્ઞાપનનયની અપેક્ષાએ અતીત ભુતકાલિન) આવશ્યક પર્યાયના કારણને તે તેમાં સદૂભાવ હતા જ, એમ માનીને તેમાં દ્રવ્યાવશ્યકતા જાણવી જોઈએ. આ રીતે વિચારવામાં આવે તે આ કથનમાં કઈ દોષ નથી, આ વિષય શિષ્યજનેને સારી રીતે સમજાવવા માટે સૂત્રકાર એક दृष्टान्त आये छ, (जहा को दिलुतो) ४.२५ शिव्या द्वारा २ मा प्रानु સૂચન કરવામાં આવ્યું છે “હે ગુરુમહારાજ ! આ વિષયને અમને સચોટ ખ્યાલ આવે તે માટે એવું કોઈ દૃષ્ટતહાય,તે આપ અમને તે કહી સંભળાવવાની કૃપાકર
__(अयं महुकुंभे आसी अयं घयकुंभे आसी) शिष्यमानी मा नितिने ध्यानमा લઈને ગુરુ નીચેનું દૃષ્ટાન્ત આપે છે કોઈ એક વ્યક્તિ એક ઘડામાં મધ અથવા ઘી ભરીને લાવે છે. ત્યાર બાદ તે તેમાંથી મધ અથવા ઘી કાઢી નાખે છે અથવા વાપરી નાખે છે. છતાં પણ તે એવું કહે છે કે “આ મધને ઘટે છે અથવા આ ઘીને ઘડે છે. ભૂતકાળમાં તે કુંભ મધ અથવા ઘીને ભરવા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १७ ज्ञायकशरीरद्रव्यावकनिष्पणम् १२५ भूतकालिक घृतमध्वाधारत्वेन लोके व्यपदिव्यते । तथैव भूतकालिकावर यकपर्याय कारणत्वाधारत्वेन निर्जीवं शय्यागतं शरीरमपि द्रव्यावश्यकमुच्यते, इति ।
इत्थं पूर्वोक्त जीव विप्रमुक्तं शय्यादिगतं साधुशरीरं नोआगमतो द्रव्यावश्यकं भवति । आवश्ययार्थज्ञानलक्षणस्य आगमस्य तदानीं तच्छरीरे सर्वथाऽभावात्।
_ 'चुय' इत्युक्त्या 'चाविय' इति पुनरभिधानं स्वभाववादिनो मतनिराकरपार्थ । स्वभाववादि।। हि स्वभावत एव मरगं मन्यन्ते, परन्तु स्वभावस्य सर्वदा वर्तमानत्वेन सर्वदा तत्प्रसङ्गात्, अतः आयुः क्षयेणैव प्राणिनां प्राणाः शरीरानिगच्छन्तीति सूचयितुं 'चाविय' इत्युक्तम् । वाला होने से अपदिष्ट होता है। उसी प्रकार भूतकालीन आवश्यक पर्याय का कारण रूप आगरवाला होने से निर्जी शय्यादिगत शरीर भी द्रव्यावश्यक कहा जाता है। इस तरह पूर्वोक्त जी रिप्रमुक शल्यादिगत साधु आदि का शरीर नोआगमकी अपेक्षा ले र द्रव्यावश्यक होता है। कयोंकि उस अवस्था में आवश्यक का अर्थज्ञान रूप आगम का उस बरीर में सर्वथा अभाव है "चुय" ऐसा कहकरके भी जो सूत्रकार ने "चावि" ऐसा कहा है वह स्वभाववादी मत को निराारण करने के लिये कहा है, क्योंकि स्वभाववादिगं की एसी मान्यता है कि मरण स्वभाव से ही होता है। परन्तु यह उनकी मानता ठीक नहीं है क्योंकि मग मात्र तो सौदा वर्तमान ही रहता है-अतः सर्वदा मरण होने का प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिये इस पद से यह बतलाया गया है कि जब आयु का क्षप होता है तभी प्राणियों के प्राण शरीर से निकलते માટે વપરાતો હતો. તે કારણે લોકોમાં તેને મધનો ઘડો અથવા ઘીને ઘડે કહેવાને વ્યવહાર થતો જોવામાં આવે છે. એ જ પ્રમાણે ભૂતકાલિન આવશ્યક પર્યાયના કારણ રૂપ આધારવાળું હોવાથી નિર્જીવ શય્યાદિગત શરીર પણ દ્રવ્યાવશ્યક જ કહેવાય છે. આ પ્રકારે પૂર્વોકત જીવવિપ્રમુકત (પ્રાણથી રહિત) શમ્યાદિગત સાધુ આદિનું શરીર આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યક હોય છે. કારણ કે તે અવરથામાં આવશ્યકના અર્થજ્ઞાનરૂપ આગમને તે શરીરમાં બિલકુલ અભાવ હોય છે..
"चुय" युत' मा पहने। प्रयाग ४ा माई "चाविय" क्यापित' मा પદને જે પ્રયોગ કરવામાં આવે છે તે સ્વભાવવાદીઓના મતનું નિરાકરણ કરવા માટે કરવામાં આવેલ છે. સ્વભાવવાદીઓની એવી માન્યતા છે કે મરણ તે સ્વાભા વિક રીતે જ થાય છે. તેમની તે માન્યતા બરાબર નથી. કારણ કે મરણસ્વભાવ તો સર્વદા વિદ્યમાન રહે છે. અને તેમની માન્યતા સ્વીકારવામાં આવે તે સર્વદા મરણું बयान 1 पास थये. तेथी तमना ते मान्यता पोटी छ. "चाविय' मा ५४
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अनुयोगाने सम्प्रत्युपसंहरन्माह-से तं जाणयसरीरदव्यावसा.य' इति । तदेतत् ज्ञा' क शरीरद्रव्यावश्यकं वर्णितम् । इति ॥ मू० १७॥ हैं । इतना यथन र अब सूत्रकार इसा उपमहार व रते हुए कहते हैं (व.(से सं जाणयसरी-दव्या स्सथं) इस प्रकार पूर्वोक्त ज्ञार.कशरीरद्रध्यावश्यक का यह वर्णन है।
भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा ज्ञायकशरीर द्रव्यावश्यक का स्वरूप वर्णन किया है। यह बात पहिले स्पष्ट की जा चुकी है कि भूत या भविप्यन का कारण ही द्रा होता है। अतः जो साधु आदि आवश्यक शास्त्र को जान रहा है परन्तु उसका उसमें उपयोग नहीं है ऐसा वह साधु आदि । जीव द्रव्यावश्यक हैं । इस द्रव्यावश्यक वा भेद ही नोआगम द्रव्याद३५व है। जिस साधुने पहिले आवश्यक सूत्र का सविधिज्ञान प्राप्तकर लिया था और जब वह पर्यावान्तरित होता है -तो उसका वह निर्जीव शरीर आवश्यक मत्र के ज्ञान से सर्वथा अभावविशिष्ट होने के कारण ही नोआगमज्ञायक शरीरद्रव्यापक है । आगमज्ञान जिस में बिलकुल नहीं है ऐसा वह इ.रीर उस आगम के ज्ञाता का है कि जिसने उस आगम को जाना तो था परन्तु वह उसमें उपयोग से विही। था। इस तरह नोभागमाय: इ.रीर द्रव्यावश्यक पदों के अर्थ से वह निर्जीव शय्यादिगत माधु का रीर नोआगमज्ञायक પ્રયોગ કરીને એ વાતનું પ્રતિમાદન કરવામાં આવ્યું છે કે જ્યારે આયુકર્મને ક્ષય થાય છે ત્યારે જે પ્રાણીઓનાં પ્રાણ શરીરમાંથી નીકળી જાય છે.
वे सूत्रा२ मा सुत्रन ५७।२ ४२तां । प्रभारी डे -(से तं जाणय सरीरदव्वावस्सयं) भानु पूर्वात शाय: शरी२ द्र०य.पश्यनु २१३५ छे.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યાવશ્યકના રવરૂપનું વર્ણન કર્યું છે. એ વાત તે પહેલા સ્પષ્ટ કરવામાં આવી ચુકી છે કે ભૂત અથવા ભવિષ્ય પર્યાયનું કારણ જ દ્રય હોય છે તેથી જે સાધુ આદિ આવશ્યકશાસ્ત્રને જાણી ગયો છે પણ તેમાં તેને ઉપયોગ નથી એટલે કે જે અનુપયુક્તતા સંપન છે, એવાં તે સાધુ આદિને જીવ ૮૦માવશ્યક કહેવાય છે.
"ना " मा २८५१२ने से लेह छे..
જે સાધુએ પહેલાં આવશ્યક સૂત્રનું સવિધિ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી લીધું હતું. એવા સાધુને જીવ જયારે મનુષ્યપર્યાયમાંથી નીકળીને અન્ય પર્યાયમાં ચાલ્યા જાય છે. ત્યારે તેનું તે નિર્જીવ શરીર આવશ્યક સૂત્રના જ્ઞાનથી સર્વથા અભાવવિશિષ્ટ (રહિત) થઈ જાય છે. તે કારણે તેના તે નિર્જીવ શરીરને અને આગમજ્ઞાયક શરીર દ્રાવશ્યક રૂપ કહેવામાં આવે છે. આગમજ્ઞાન જેના બિસ્કુલ નથી. એવું તે શરીર તે આગમજ્ઞાતાનું છે કે જેણે તે આગમને જાણે તે હતું પણ તે તેમાં ઉપયોગથી વિહીન (અનુપક્તિ) હતા. આ રીતે આગમ જ્ઞાયક શરીર
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अनुयोगचन्किा टीका १८ भयशरीन्द्रावश्यक निरूपणम्
अथ द्वितीय भेदं निम्पयितुमाह
मलम्--से किं तं भवियसरीरदव्वावस्सयं ? भवियसरीरदव्वावस्तयं जे जीवे जोणि म्मणनिक्खते इमेणं चे व आत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिवोदिट्टे भावेणं आवस्सएत्तिपयं सेएकाले सिक्खिस्सइ न ताव सिक्खाइ । जहा को दिटुतो ? अय महुकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्सइ ।सेतं भवियसरीरदव्यावरसयं सू०१८॥
छाया-अथ किं तद् भव्यशरीद्रव्यावश्यकम ? भव्यशरीर द्रव्यावश्यक यो जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेनैव आत्तकेन शरीरसमुच्छ्येण जिनोपदिष्टेन शरीर द्रव्यावश्यक है। अनेक विध तपस्याओं से जिनका इ.रीर परिशोषित हो रहा है ऐसे साधुजनों ने जहाँ र यमेव जाकर भक्त प्रत्याख्यानरूप अनसन को किया है करते है और आगे भी यरंगे उस स्थानका नाम सिद्धशिलातल है। अथवा जहाँपर जो कोई महर्पि संम्तारक करके म णधर्मको प्राप्त किया हो उस स्थान का नाम सिद्ध शिलातल हैं। ॥ मृ० १७॥
अब सूत्रमार नोआगम द्रव्यावश्य: वा जो दसरा भेद भव्यशरीर द्रव्यावश्यक है-उसकि प्ररूपणा करते हैं
“से किं तं भवियसरीरदव्यावस्मयं इत्यादि-॥ मु० १८ ॥
शब्दार्थ-(अथ) वि.व्य पूछता है कि हे भदन्त ! (त भवियसरीरदवावम्सयं किं) पूर्वप्रक्रान्त भव्यशरीरद्रव्याश्यक का क्या वरूप है ?
દ્રવ્યાવશ્યક’ આ પદના અર્થની અપેક્ષાએ તે નિર્જીવ શય્યાદિત સાધુનું શરીર ને આગમ જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે.
અનેક પ્રકારની તપરાઓ વડે જેનું શરીર પરિશોપિત થઈ રહ્યું છે. એવાં સાધુઓ માં જાતે જ જઈને આહારપાણીના પ્રત્યાખ્યાનરૂપ અનશન ધારણ કરે છે. ધારણ કરતા હતા અને ધારણ કરશે. તે સ્થાનનું નામ સિદ્ધશિલાતલ” છે. અથવા જે સ્થાને કોઈ મહર્ષિ થઈ ગયા હોય તે સ્થાનને સિદ્ધશિલાનલ કહે છે. સ ૧૭
હવે સૂત્રકાર ભવ્ય શરીર દ્રાવક નામનો ને આગમદ્રવ્યાવશ્યકને જે બીજે से छेतेनी प्र३५।। ३२ छ– “से कि त भवियसरीरदव्यावस्सयं या
थार्थ-(अथ) व शिष्या गुरुने मेवे। प्रत ५ ३ (तौं भवियसरीरदवावस्सयं किं ?) 3 भगवन् ! पति १०य द्रव्यापश्यनु ३ १३५ छ ?
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अनुयोमहारचे भावेन आवश्यकेति पदम् एकाले शिक्षिप्यते, न तावत् शिक्षते । यथा को दृष्टा तः १ अयं मधुकुम्भो भविष्यति, अयं घृतकुम्भो भविष्यति । तदेतत् भव्यशरीगव्यावश्यकम ॥ सू० १८ ॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से कि तं भवियसीरदावरसय' इति अथ किः तद् भव्यशरीरद्रव्यावश्यकम् ? उत्तरम्ह- 'वि' सरदवाररसयं' इति भव्यशरीरद्रव्यावश्यक-भविष्यतीति :-विवक्षितपर्याय योग्य इत्यर्थः, तस्य शरीरं तदेव भविभावावश्यककार णत्वाद् द्रव्यावश्यक-मायशरीद्रव्यावश्यक वर्ण्य ते इत्यर्थः । यो जीव-योनिजन्मनिष्कान्तः योन्यायोनिमध्यात्-जन्म काले निष्क्रान्तः निर्गतो न तु पूर्णसमयात् पूर्वमेव गर्भात् पतितो अनेक आत्तकेन-गृहीतेन शरीन्समुछ्येण जिनोपदिष्टेन भावेन आवश्यकेति पदम् आवश्यकशास्त्र भविष्यत्काले शिक्षिष्ट ते अध्येध्यते, न तावत्-संप्रति शिक्षते ? एवं विधं शरीरं भव्यद्रव्यावर यकं भवति । अापि आगमावमाश्रित्य नोगमत्वं बोध्यम्, तस्मिन् समये तत्र शरीरे सर्वथाऽगमस्या भावात् । नो शादोऽत्र आगमस्य सर्वथा निषेधं सूचयति ।
उत्तर-(जे जीवे जोणिजम्मणनिवखते इमेणं चेव आत्तएणं सरी समुस्सएर्ण जिणोव दिशेणं आवम्मएत्ति पयं सेयकाले सिविखस्सइ न तावसिक्खाइ भवियसरीरदव्वावस्सयं) जो जीव उत्पत्तिस्थानरूप योनि से अपना समयपूर्ण करके ही निकला है-समय के पहिले बीच में उत्पन्न नहीं हुआ है-ऐसा वह जीव उस प्राप्त शरीर से जिनोपदिष्ट भावके अनुसार आ श्यकशास्त्र को भविष्यतकाल में सीखेगा-वर्तमान काल में सीख नहीं रहा है ऐसा दह शरीर भव्यशरीर द्रव्यावश्यक है। इस भव्पशरीर द्र-यावश्यक में भी आगम के अभाव को लेकर नो आगमता जाननी चाहिये । क्यों कि उस समय उस
उत्त२-(जे जीवे जोणिजम्मणनि खते इमेणं चेव आत्तएणं सीम्समुसएणं जिणोवदिट्ठणं भावेणं आवस्सए त्ति पयं सेयकाले सिविखम्सइ न तावसिक्खाइ भवियसरीरदव्यावास) २७१ पत्तिस्थान३५ योनिमाथी पातानो समापू३। કરીને જ બહાર નીકળે છે સમય પૂરો થયા પહેલા બહાર નીકળ્યાનથી એટલે કે ગર્ભમાંથી પન્સ. સમય વ્યતીત થયા પહેલાં પતિત થયે નથી, એ તે જીવ તે પ્રાપ્ત શરીર વડે જ જિનો પદિષ્ટ ભાવ અનુસાર આવશ્યકશાસ્ત્રને ભવિષ્યમાં શિખશે-વર્તમાન કાળમાં તે તેને શીખી રહ્યો નથી, એવાં તે ભવ્ય જીવનું શરીર “ભવ્યશરીર દ્રવ્યા. વશ્યક કહેવાય છે. આ ભવ્યશરીરકવ્યાવશ્યકમાં પણ આગમના અભાવને લીધે
આગમતા (આવશ્યકશાસ્ત્રના જ્ઞાનને સર્વથા અભાવ) જાણવી, કારણ કે તે સમયે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० १८ भव्यशरीरद्रव्यान्ययव निरूपणम्
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ननु - आवश्यकपर्यायस्य कारणं द्रव्यावश्यकमुच्यते तदानीं तंत्र शीरे आगमाभावात् तस्य नाति तं प्रति कारणत्वम्, अतोऽय शरीरे नातिद्रव्यःवश्यकत्वम् ? इति चेत्, उच्यते तदानीमपि तत्र द्रव्यावश्यकत्वमुपचर्यते इति नास्ति कोऽपि दोष: । अत्र दृष्टान्तजिज्ञासया शिष्यः पृच्छति - 'जहा को दिट्ठ'तो' इति । य को दृष्टान्तः- हे भदन्त । अत्र यथा कं पितो भवेत् रथा हवीतु ? उत्तरमाह - 'अयं महुकुं मे भविस्सह, अयघय कुंभे में विरु' इति । अयं मधुकुग्भी भविष्यति, अयं घृतकुम्भो भविष् ति । अयं भावः - घृतरण. य मधुरक्षणाय च कुम्भशरीर में आगम वा सर्वथा अभाव हैं। नो शब्द इस मय के शरीर में आगम का सर्वथा निषेध सूचित करता है ।
शंका - आवश्यक पर्यायका जो कारण होता है ह द्रव्यावश्यक वहा जाता है । इस समय के शरीर में तो आगम का संदेश अभाव है, इसलिये उस शरीर को द्रव्यावश्यक के प्रति कारणता नहीं हं ने से उसमें द्रव्याव्यक ता कैसे आमरती है ?
उतर - उस समय भी उसमें द्रव्यावश्यकता उपचार किया जाता है । क्योंकि यह शरीर आगे चलकर इसी पर्याय में आवश्यकशास्त्र का ज्ञाता बनेगा - परन्तु वर्तमान में नहीं है । इसलिये आयशा भाविगल संबन्धी अनुपयुक्त का उसमें उपचार के सर्वथा निषेध किया गया है। इस विषय में दृष्टान्त जानने की इच्छा से शिष्य पूछता है कि हे भदंत ! (हा को दितो) यहां पर जैसा दृष्टान्न हो ईसा आप कहिये તે શરીરમાં આગમના સર્વાંધા ભાવ જાય “નો” પદ તે સમયે શરીરમાં સર્વથા નિષેધ સૂતિ કરે છે.
શકા—આવશ્યકપર્યાયનું જે કારણ હાય છે, તેને દ્રાશ્યક કહેવામાં આવે છે. અત્યારે તે તેના શરીરમાં આગમના સર્વથા અભાવ જ છે. આ રીતે શરીરમાં દ્રવ્યાવશ્યકના કારણના જ સદ્ભાવ ન દેવા છતાં પણ તેમાં દ્રવ્યાવશ્યકતા કેવી રીતે સંભવી શકે છે ?
ઉત્તર—આ સમયે તો તેમાં દ્રવ્યાવશ્યકતાના ઉપચાર કરવામાં આવે ઇં એટલ કે આ કથનને આંપચારિક ન જ સમજવું જોઈએ કારણ કે આ શરીર આગળ જતાં આ મનુષ્ય પર્યાયમાં જ આવશ્યકશાના રાતા વા -૬ માળે તે તે તેને જ્ઞાતા નથી. તેથી આવ્યશાસ્ત્રના વિષ્ઠા સબંધી . ત જ્ઞાતૃત્વના તેમાં ઉપચાર કરીને તેના ઋચા નિષેધ કરવમાં આવ્યે છે.
આ વિષયને દૃષ્ટાન્તથી સમજા માટે શિષ્ય ગુરુને આ પ્રમાણે કહે - ( जहा को दितो महन्त ! या विषय प्रतिपादन तु दृष्टान्तवानी કૃપા કરે, ગુરૂ મહારાજ આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવા .િમિત્તે નીચેનુ દાન્તે આ છે.
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. अनुयोगारपत्र कारेग हौ घटौ निमितौ। ततःकोऽपि तं पृष्टवान्-किमर्थो एतौ घटौ ? कुम्भकारः कथयति अयं घृतकुम्भो भविष्पति, अयं तु मधुकुम्भो भविष्यति, इति । यथा भविष्यद्धृताधा त्वपर्यायं मध्वाधारत्वपर्यायं तदानीमप्याश्रित्य घृतकुम्भो मधुकुम्भश्चेति व्यपदिष्यते, तगात्रापि भाविन माथ्यावश्यकपर्याय कारणस्य(अयं महुकुभे भविरसइ, अयं घरकुभे भविरसइ) सुनो दृष्टान्त इस विषय में इस प्रकार है-घृत रखने के लिये, और मधु रखने के लिये, किसी कुमार ने दो घडे बनाये । उन्हें देखार किसीने उससे पूछा कि ये किसलिये तुमने बनाये हैं-तब उसने उससे कहा कि यह घृत कुंभ होगा और रह मधुकुंभ होगा। तो जिस प्रकार उस समय भविष्यत् घृताधारत्वरूप पर्याय और मध्वाधारत्वरूप पर्याय या उन दोनों में आश्र' कर उन्हें वह घृत कुंभ और मधुकुंभ इसरूप के कह देता है, उसी तरह इस समय के शरीर में भी भावि आवश्यकरूप पोय के प्रति कारणता को लेकर उसे द्रव्यावश्यकरूप से मान लिया जाता है। इस व्यावश्यक रूप भव्यशरीर में वर्तमान में आवश्यक के अर्थज्ञान वा सर्वथा अभाव है इसलिये उसमें नोआगमता जाननी चाहिये । इस तरह यह प्रक्रान्त (पूर्वप्रस्तुत) भव्यशरीर द्रब्यावश्यक का वर्णन किया।
तात्पर्य इसका यह है कि-सूत्रकारने इस सूत्रद्वारा भव्यशरीर द्रव्या वश्यक का स्वरूप प्राट किया है। मनुष्य प्राप्त शरीर से जा आगे आवश्यक
(अयं महकुंभे भविस्सइ, अयं घरकुंभे भविरसइ) 0 ये मारे भय ભરવાને માટે તથા ઘી ભરવાને માટે બે ઘડા બનાવ્યા. તે બન્ને ઘડાને જોઈને કોઈએ તેને એવો પ્રશ્ન પૂછે કે “આ બે ઘડી તમે શા માટે બનાવ્યા છે ?” ત્યારે કુંભારે એક ઘડો બતાવીને કહ્યું કે “આ મધુકુંભ છે” અને “જે ઘડો બતાવીને કહ્યું કે “આ વૃતકુંભ છે જે પ્રકારે ભવિયકાલિન વૃતાધાર વરૂપ પર્યાય - અને મધુ આધારસ્વરૂપ પર્યાયને તે બન્ને ઘડામાં આશ્રય લઈને અત્યારે પણ તેમને ધૃતકુંભ અને મધુકુંભ રૂપે ઓળખવામાં આવે છે-(જો કે વર્તમાનકાળે તો તેમાં છત પણ નથી અને મધ પણ નથી) એજ પ્રમાણે આ સમયના શરીરમાં પણ ભવિષ્યકાલિન આવશ્યકરૂપ પર્યાયના કારણને સદૂભાવ હોવાને કારણે તેને દ્રવ્યાવશ્યક રૂપે માની લેવામાં આવે છે. આ દ્રવ્યાવશ્યકરૂપ ભવ્ય શરીરમાં વર્તમાન કાળે તે આવશ્યકના અર્થજ્ઞાનને સર્વથા અભાવ જ છે. તે કારણે તેમાં “ આગમતા” સમજવી. પૂર્વ પ્રકાન્ત (પૂર્વપ્રસ્તુત) ભવ્ય શરીરદ્રવ્યાવશ્યકનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે.
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ પ્રકટ કર્યું છે. જે મનુષ્ય પ્રાપ્ત શરીર દ્વારા જ ભવિષ્યમાં આવશ્યક સૂત્રને સુપયુકત જ્ઞાતા
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अनुयागचन्द्रिका टीम. १९ ज्ञभन्यशरीरपतिरिक्तद्रव्यावश्यक निरूपणम् १३१ माश्रित्य द्रव्यावश्यक विज्ञेयमिति । भव्यशरीरे आवश्यकर्थिज्ञानाभावान्नोआगम वं बोव्यम् । तद् भव्यशीरद्रव्यावश्यकं वर्णितम् ॥ १८॥
अथ तृतीय भेदं निरूपयितुमाह--
मूलम्-से किं तं जाणयसरीरभवि सरीरवइरितं दव्यावस्सयं जाणयसरीरभवियसरीखइरित्तं दव्यावस्मयं तिवि पण्णतं । तं जहा-लोइयं, कुप्पावयणियं, लोउत्तरिय ॥ सू० १९ ॥
छाया-अथ किं तद् ज्ञा कशरीरभव्यशीव्यतिरिक्त द्रव्यावश्यकम् । ज्ञायशी शरीर व्यतिरिक्त व्यावश्यकं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा लौकिकं, कुप्रावचनि, लोकोत्तरिकम् ॥सू०.९॥ ___टीका-शिष्यः पृच्छति—'से कि त इ यादि । अथ वि. तद् ज्ञायशीभ० शरी। व्यतितिं द्रव्यावश्याम ? उत्तरमाह - 'जाणयसरी भवियस रिइरित' शास्त्र वा अनुपयुक्त ज्ञाता बनेगा उस या वह शरीर द्रव्यावश्यक है। वर्तमान में वह ऐसा नहीं है, अतः उसका उसमें उपचार करलिया जाना है। इस द्रव्य व क में आवश्यक का अर्थज्ञान बिलकुल नहीं है। इसलिये इसे नोआगम भी अपक्षा वह भव्यशरीर द्रव्यावश्यक है। ॥ सूत्र १८ ॥
अब सूत्रकार तृतीय भेद के स्वरूप या निरूपण करते हैसे कि तं जाणयसरीरभपियसरीरवइरिन इत्यादि । ।मु० १९ ॥
शब्दार्थ-(स) शिष्य पृछा है कि हे भदत ! (त जाणयसरीर भावय सरीर वरित दवानरसय सिं) पूर्व प्रक्रान्त (पूर्वप्र तुत) ज्ञायक शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है ? उत्तर-(जाण सरीरभवि सरीरબનવાને છે, તેના તે શરીરને દ્રવ્યાકરૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. વર્તમાનકાળે તે એવું નથી, તેથી તેને તમાં ઉપચાર કરી લેવામાં આવે છે. આ અપેક્ષાએ તેને દ્રવ્યાવશ્યક બનાવી લેવામાં આવે છે. આ દ્રવ્યાવશ્યકતાં આવશ્યકનું અર્થજ્ઞાન બિલકુલ નથી, તેથી આગમની અપેક્ષાએ તેને ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવ્યું છે. સૂ૦ ૧૮ છે
- હવે સૂત્રકાર ઉપર્યુકત બનેવી ભિન્ન એવા ને આગમવ્યાયકના ત્રીજા लेहनु २१३५ समग छ-"से कि त जाणयसरीरभवियसरी चरित" त्या.
शा-शिष्य गुरुने मेवा प्रश्न पूछे छे (से तं जाणयसरीर भवियसरी - वइरितं दव्यावस्सय किं) 3 वन् ! प्रश्तुत ॥५४॥२ नव्याश२ व्यति. રિકત દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે? એટલે કે સાકશરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવા દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
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अनुयोगहारचे इत्यादि । ज्ञायाशी। भव्यशरीव्यतिरिक्तं ज्ञायक शरीरभव्यशीराभ्यां व्यतिरिक्तं =भिन्न द्रव्याव३५कं त्रिविधं प्राप्तम् । तद्यश-लौकिक, कुमाव चनिकं च ।सू०१९। तत्रज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तलौकिक द्रव्याश्यकरुपं प्रथमं भेदं निस्पयितुमाह
मूलम्-से किं तं लोइयं दव्वावरसयं लोइयं दवावरसयं जे इमे राईसरतलवर माडंबियकोडुंबियइब्भसेटि सेणावइ सत्थवाहप्पभिइओ कलं पाउप्पभायाए रयणीए सुविमलाए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहापंडुरे पभाए रक्तासोगप्पगामकिसुयसुयमुहगुंजद्धरागसरिसे कमलागरनलिणिसंडबोहए उट्रियम्मि सूरे सहस्सर. स्तिमि दिणयरे तेयसा जलंते मुहधोयणदंतपक्वालण-तेल्ट-हाणफणिहसिद्वत्थय-हरि आलिय-अदागधृवपुःफमल्लगंधतंबोलवत्थाइ याइं दव्वावस्मयाई करेति । तओ पच्छा रायकुलं वा देवकुलं वा आरामं वा उजाणं वा सभं वा पर्व वा गच्छंति से तं लोइयं दव्यावस्तय ॥ सू० २०॥
___ छाया--अथ किं तद् लौकिकं द्रव्यावर यकम् ? लौकिक द्रव्यावश्यक-य वइरित्तं दवावग्सयं तिविहं पप्णत्तं) ज्ञायव शरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यावश्या तीन प्रकार का वहा है-(तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(लोइयं कुप्पावयणियं लोउत्तरिय) लौकिक कुप्रावचनिक और लोकोत्तरिक । ॥ मू० १९ ॥
अब सूत्रकार तव्यतिरिक्त लौकिक द्रव्यावश्यरूप प्रथम भेद का कथन करते है-से कि त लोइयं दवावस्सयं" इत्यादि। ॥ सूत्र २० ॥ शब्दार्थ-से किं तं शिष्य पूछता है कि हे भदंत ! (त लोइयं दवावस्सय
उत्त२-(जाणयसरी भवियसरीग्वइरितं दव्यावस्सय तिविहं पणतं) साय शरी२ सयशरी२ व्यतित द्र०यापश्यना २ ४ह्या छे. (तंजहा) ते प्रा। नीचे प्रमाणे छ-(लोइयं कुप्पावणियं लोउत्तरिय) (१) al, (२) प्रापयनि मने (3) सत्त२ि४ । स. १८ ॥ હવે સૂત્રકાર તદ્રયતિરિકત લૌકિક દ્રવ્યાવશ્યકરૂપ પહેલા ભેદનું સ્વરૂપ સમજાવે છે. "से कि त लेइयं दवावस्सयं" त्याहशा--(से) शिष्य ४३ने मेयो प्रश्न पूछे छ । सन् ! (तलोइयं
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अनुयोगचन्द्रिका टीका-नृ. २० लो केकद्रव्यावश्यनिरूपणम् इमे राजेश्वरतलः ग्माडम्बिककौटुग्विकम्यवेष्ठिसेनापतिसार्थवाहप्रभृतयः कल्पे प्रादुष्प्रभातायां रजन्यं मुविमलायां फुल्लोत्पलकमल कोमलोन्मीलिने यथापाण्डुरे प्रभान रक्ताशोकप्रकाशकिंशुकशुकमुग्वगुजार्द्धगगसदृशे कमलाकरनलिनीपण्डबोधके उत्थिते गये सहस्ररमो दिनकरे तेजसा ज्वलति मुग्वधावनदन्तप्रक्षालन किं) लौकिक व्यावश्यक प प्रथम भेद का का स्वरूप है ? (लो.यं दवावस्मयं) उत्तर-लौरिक दयावश्यक का ग्वरूप इन प्रकार से है-(जे इमे राईसर, तलवरमार्ड विय, कोइंघिय, इभ से ट्ठि, सेणावइ, सन्यवाहप्पभिओ) जो ये राजेश्वर-मांडलिकनन्पति, एश्वर्य संपन-यक्ति, लन्दर, माडंपिक कौटुम्बिक, भ्य. श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि मनु य (कल्लं) मान्य प्रभात के होने पर (पाउपभाछाए रणीए) प्रारंभिक अवस्था प्राप्त है प्रभान जिस में ऐसी रात्रि के होने पर (मुविमलाए, फुल्लुप लकमल कोमलुम्मिलियम्भि) तथा पूर्व की अपेक्षा म्फुटतर प्रकाश संपन्न गत्रि के होने पर विकसित कमल के पत्रों के और मृगविशेप के नयनों के सुकुमार उमाल वाले (अहापडुर) यथा योग्य पीतमिश्रित शुक्ल : पभाए) प्रभात के होने पर (रत्तासोगप्पगा कि सुयमुयमुहगु जद्धरागमरिस) तथा रक्त अशोकवृक्ष की कांनि के नया पलाश पुष्प, और शुक मुख एवं गुंजा के राग के सदृश (कमलागरण लिणि मंडवाहए) ३ मलों की उन्पत्त भृ मरूप हुदादिजलाशयों में पद्मानों के विकाशक (महम्मसिमि दवास्स किं ?) सौ. ६०या१५५४ ३५ ते प्रयन लहनु २१३५ छ ?
उत्तर--(लाइयं दवावास) alls F-१२यर्नु २१३५ २१॥ प्रानु
(जे इमे राईमर, तलवर, माडंविय, कोई विय, इन्भ, सेहि, सेणावइ, सत्थवाहप्पभिइओ) ने मारा ५२ (भाउ नपति- वपन्न यति), તલવ૨, માંડલિક, કૌટુંબિક, ઇભ્ય, શ્રેષ્ઠિી, સેનાપનિ, સાર્થવાહ અદિ મનુ (कल्लं) सामान्य प्रमात ४., (उपभायाए रयणीए) र व्यतीत हने हवनी प्रा लि १५२या३५ लात मा तi, (ममिल ए, पुत्लुपलकमलकोमलुम्मिलियग्मि) या ना ५सा२ ६ न पाहता तर પ્રકાશથી સંપન્ન, વિકસિત કમલપત્રથી સંપન અને મૃગવિશેષના નયનોના રસ્કાર G-भीसनथी युत, (अहापंडर) यथायाश्य पात1 शुस (गा. :) पमाए) प्रभात यता, (त्तासागपगामकिमय सुयमुहगुंनद्धगगसरिसे) तथा :वृक्षना સમાન, પલાશપુષ્પ સમાન તથા શુકન મુખ સમાન અને શું ન (ચણોઠીને અર્ધ
मा) समान सास, (कमलागरनलिणिसंडबोहए) ४मयोना उत्पत्ति स्थान३५ Rell reयोमा पन पनाने विसित ४२ना२, (सहस्सास्सिम्मि दिणयरे तेयसा
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अनुयोगहारसूरी तैलस्नानफणिहसिद्धार्थकहरितालिकाऽऽदर्शधृपपु-पमाल्यगन्धताम्बूलवस्त्रादिवानिद्रा वश्यकानि कुर्वन्ति । ततःपश्चात् राजकुलं आ देवकुलं वा आगमं या उद्यानं वा सभां वा प्रपा वा गच्छन्ति । तदेतत् लौकिकं द्वःयावश्यकम् ॥सू० २०॥
टी -शिष्यःपृच्छति-से f. इत् आदि। अथ किं तद् लौकिक द्रव्यावशम् इति । उनर माह-लौकिक-लोके भवं लोकिकं गाव कव० ते दिणयरे तेयसा जलंते) सहमवरणों से युक्त, दिवस विधाक और तेज से देदीप्यमान ऐसे : सरे उठ्ठियम्मि) रथ के उदित होने पर (मुहशेयण-दंतपय खालण-तेल्ल-हाणफणिह-सित्थय-हरि--अदागधृः पुष्फमल्लगंधतंबोलत्या याई दव्यावा.याई यति) मुँह का धोना दन्तों का क्षालन करना फणिह -कंची से बालों का ऊंछना, मङ्गलनिमित्त सरसों का और दुर्वा का प्रक्षेपण करना, दर्पण में मुंह का अवलोकन करना, धूप से व बों को सुरभित करना, फूलों को लेना, पुप्पों की माला पहिरना पान खाना, और शुद्ध वस्त्रों का पहिरना इत्यादिरूप लावश्यक करते हैं । (तओ प छा) इसके बाद वे (रायकुलं वा देवकुलं वा आरामं वा उमाणं वा सभं वा, पवं वा गच्छंति) राजकु ल में, या देवकुल में अथवा आराम में या उद्यान में. ा सभा में अथवा पानीयशाला में जाते हैं। तात्पर्य : सके कहने का यह है कि राजेश्वरादि संबन्धी जो मुखधार नादि कार्य है वह सब लौकिक ३० वःयः हैं। राजा जिन्हें जलंते। स४२५ (
४थी युत, हिवस विधाय: शने ती प्यमान सेवा (सूरे उट्ठियम्मि) सूर्यना मय यतi (मुहधे यण, दंत वरखालणं, तेल्ल, हाण. फणिह, सिद्धत्थ्य, हरि, अद्दागधून, पुफ.मल्लंग प्वाल याई दवाव सयाई करेंति) भुप घो।३५. iत सा३ ४२१॥ ३५ शरीर ५२ तेसनु માલિશ કરવારૂપ, રનાન કરવારૂપ, દાંતિયા કે કાંસકી વડે વાળ ઓળવારૂપ, મંગળ નિમિત્ત સરસવ અને દુર્વાનું પ્રક્ષેપણ કરવારૂપ દર્પણમાં પિતાના મઢ નું અવલેકન કરવાંરૂપ, સુગંધયુકત ધૂપથી વરોને સુગ ધિદાર કરવારૂપ, ફૂલે ગ્રહણ કરવા રૂપ, ફૂલની માળા પહેરાવારૂપ, પાન ખાવારૂપ, વચ્છ સે ને પરિધાન કરવારૂપ ઇત્યાદિ३५ द्रव्या१२५ ४२ छ (तओ पच्छा) त्या२६ ते (गयकुलं या, देवकुलंग, आरामं वा, उज्जाणं वा, सभ वा, पवं वा, गच्छंनि) २४६२२मां, मया हे સ્થાનમાં, અથવા આરામગૃહમાં અથવા બાગમાં, અથવા સભામાં અથવા જળાશય त२३ 01य छे.
આ સમસ્ત કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે કાજેશ્વર આદિ ઉપયુંકત માણસના જે, મુખધાવન આદિ કાર્યો છે તે તેને લોકિક દ્રવ્યાવશ્વકરૂપ ગણવામાં આવ્યા છે..
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. मू० २० लौकिकन्यावश्ः कनिरूपणम् १३५ इत्यर्थः । ये इमे मनुष्याः राजेश्वरतल माण्ड विककौटुम्बिकेभ्यश्रेप्टिसेनापति सार्थवाहप्रभृन :, तत्र-राजानः= मारडलिका नरपतयः, ईश्वराः ऐश्व सम्पन्नाः, तलवराः भूपालदनपट्टपरिभूषितगजाला : कोट्टपाना इत्यथः छिःनभिन्नजनाश्रमविशेषो मडग्वम्तत्राधिकृताः माडग्वि : ग्रामपञ्चरतीप य इत्यर्थः, यद्वासार्द्धकोशब्दर परिमितप्रान्तरैर्विच्छिद्यविद्यिथितानां ग्रामाणामधिपतयः, कौटुम्बिकाः कुटुम्बभरणे तत्पराः, यहा- बहुकुटुम्बप्रतिपालयाः, इभ्याः इभो-हरती तत्प्रम.णं द्रव्यमहन्तीति तथा, ते च जघन्यम मोत्कृष्टभेदात् त्रिपकाराः, तत्र हस्तिपरिमितमणिमुक्ताप्रवाल सुवर्ण, रजतादिव्यराशिस मनो उघ 1:, हर परिमित वज्रमणिमाणिक्यराशिस्वामिनी मध्यमाः, हस्तिपरिमितकेवलवज्रस्वामिन पट्टबन्ध प्रदान करता है उनका नाम तलवर है अर्थात् कटवाल । ये राजा जैसे ही होते हैं। छिन्नभिन्न जनाथ विशेप का नाम मडंब है। इन मडंयो में जो अधिकृत होते हैं उ का नाम माडं विक है । ये ५०० गांवों के अधिपति होते हैं। ढाई २ कोस के अन्तर को छोड छोड कर जो गांव वसते हैं उनका नाम भी मडव है। इनके जो अधिपति होते हैं वे माडविक हैं। कुटुंब के भरणपोषण कार्य में जोत रहते हैं अथवा अनेक कुटुम्बो का जो प्रति ालन करते हैं वे बौटुम्बक हैं। इभ नाम हाथी का है। हाथी प्रमाण द्रव्य जिनके पास है ता है वे इभ्य है। ये जघन्य. मध्यम और उत्कृष्ट इस तह ३ प्रकार के होते हैं। इनमें से जो ह ग्त परिमित मणि, मुत्ता, प्रवाल सुवर्ण और रजत आदि इत्याशि के स्वामी होते हैं वे जघन्य स हैं। हस्ति रिमित व-हीरा, मणि, और माणिक्य गांश के जो कमी होते हैं
હવે આ સૂત્રમાં વપરાયેલા તલવર આદિ પદને અર્થ સમજાવવામાં આવે છે-“તલવ સંતુષ્ટ થાય ત્યારે રજા જેમને .જપાપાક પ્રદાન કરે છે તેમનું નામ તલવર છે. તેઓ રાજા જેવાં જ હોય છે. છિન્નભિન્ન જનાશ્રયવિશે ને મડંબ કહે છે. આ પ્રકારના માંબેના અધિપતિને મારું બિક કહે છે. તેઓ ૫૦૦-૫૦૦ ગામના અધિપતિ હોય છે. અથવા અઢી અઢી ગાઉને અંતરે જે ગામ વસે છે તે ગામનું નામ મર્ડબ છે અને તેના અધિપતિને માડ બિક કહે છે. કુટુંબના ભરણ પણ ના કાર્યમાં જેઓ રત રહે છે તમને. અથવા અનેક કુટુંબનું પરિપાલન કરનારને કૌટુંબિક કહે છે. અભ્ય” એટલે હાથી હાથી પ્રમાણ ધન જેની પાસે હોય છે. તેને ઈભ્ય કહે છે ઇભ્યના નીચે પ્રમાણે ત્રણ પ્રકાર છે. જઘન્ય મધ્ય અને ઉત્કૃષ્ટ
स्तिपरिमित (हाथी प्रभा) मलि. माती. प्रवास. सुपाण६० (यां1) माह દ્રવ્યરાશિને જે હવામી હોય છે તેને જઘન્ય ઈભ્ય કહે છે. હસ્તિપરિમિત જ
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१.३६
उत्कृष्टाः,
विलक्षण हिरण्यपट्टर मलङ्कृतमूर्धानो नगरप्रधानव्यवहारः,
अनुयोग ढारक श्रेष्ठिनः=लक्ष्मीकृपाकटाक्षप्रतक्षलक्ष्यमाणद्र विणलक्षलक्षण
सेना त
= चतुरङ्ग सेनानायकाः, सार्थवाहा : = गणिम-धरिम- मेय-परिच्छेद्य रूपकेयविक्रेय 'तुजातमादाय लाभेच्छ्या देशान्तराणि ब्रजतां सार्थ वाहयन्ति = योगक्षेमेभ्यो परिपालयन्ति, दीन नोपत्र राय मूलधनं दवा तान् संवर्द्धन्तीति तथा तत्र - गणिमम् = एकहि त्रिचतुरादि संख्यात्रमेण गणयित्वा यद्दी ते स्था-नालि र पूगीवे मध्यम इ हैं । जो हस्ति परिमित वज्र के ही अकेले स्वामी होते हैं वे उत्कृष्ट हैं। जिन के पास लक्ष्मी देवी के कृपाकटाक्ष से लाखों का द्रव्य होता है और इसी कारण जो नगर सेठ की उपाधि से विभूषित रहा करते हैं । इसके उपलक्ष्य में राजा इ. हें सुवर्ण का पट्टबंध प्रदान करता है जिस से उन का मस्तक सदा विभूषित रहा करता हैं। ऐसे मनुष्य श्रेष्ठी कहलाते हैं । चतुरंग सेना के जो नायक होते हैं उनका नाम सेनापति है । गणिम, धरिम, मेय, और परिच्छेद्यरूप क्रय विक्रय योग्य द्रव्यसमूह को लेकर जो लाभ की इच्छा से देशान्तर का जाते हुए मनुष्यों के साथ को दीनजनों के निमित्त प्रदान कर उनका संवर्द्धन करते हैं उनका नाम सार्थवाह है । अलब्ध वस्तु का लाभ होना इसका नाम योग और लग्ध का परिरक्षण होना इसका नाम क्षेम है। नारिकेल नारियल, पूगीफल - सुपारी, कदलीफल - के आदि ये सब गणिम द्रव्य हैं। क्योंकि ये एक, दो, तीन, चार आदिरूप से -ही. भ िभने भागिनी मशिनों ने खानी होय छे तेने मध्य हस्य' उहे छे. હસ્તિપરિમિત વને જ જે સ્વામી હેય ઇં તેને ઉત્કૃષ્ટ અભ્ય' કહે છે.
T
1.
જેમની પાસે ૯૯મીદેવીની કૃપાને લીધે લાખ નુ દ્રવ્ય હોય છે. અને તે કારણે જંને નગરશેઠની પદવી મળી હોય છે. એવા મનુષ્યને ધ્રૂ'ઠી (શેઠ) કહે છે. આ પદવીના ઉપલક્ષ્યમાં રાજા તેમને સુવર્ણ ના રૃમ ધ પ્રદાન કરે છે પટ્ટગંધથી તે શ્રôિીનું મસ્તક સદા વિભૂષિત રહે છે. ચતુરગ સેનના નાયકને સેનાપાત કહે છે. હવે સાવાહ' આ પદના અર્થ સમાવવામાં આવે છે—
ણિમ, ધિરમ, મેય. અને પરિશ્ર્વરૂપ વિક્રયયેગ્ય દ્રવ્યસમૃદ્ધને લઇને લાભ પ્રાપ્તિની ઇચ્છાથી અન્ય દેશ તરફ પ્રયાણ કરતાં મનુષ્યોના સાથ (સમૃહ)ને જે ચેગ ક્ષેમપૂર્વક પાળે છે. અથવા તેમને જવાનું હોય તે સ્થાને સલામત રીતે પહાંચાડે છે, જે પેાતાના મૂળ ધનનુ ગરીબ લોકોને માટે દાન કરીને તેમનું સવન કરે છે, એવા પુરૂષને સાવાહ કહે છે,
सध परतुन साल (ग्रामि३य साल ) थव। तेनुं नाम योग' छ ने લબ્ધ (પ્રાપ્ત થયેલી વસ્તુ)નું પરિક્ષણ થવું તેનું નામ 'ક્ષેમ' છે નળિયેર. સાપારી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका २० लौकिकद्रावश्यकनिरूपणम्
१३७ फलं-कदलीफलादिकम् । धरिमं=तुलासूत्रेणोत्तोल्य यद्दीयते. यथा ब्रीहि-यवलक्षण-सितादि । मेयं शरावलघुभाण्डादिनोत्तोल्य यद्दीयते, यथा-दुग्ध-घृततैलप्रभृति । परिच्छेद्यं च प्रत्यक्षतो निकषादिपरीक्षया यद्दीयते, यथा-मणिमुक्ता-प्रवालाभरणादि । एतेषां राजेश्वरादीनामितरेतरयोगद्वन्द्वः, ते प्रभृतयःआद्या मुख्या येषां ते तथा, कल्पे-सामान्येन प्रभाते, प्रभातस्यैव विशेषावस्थाः प्राह-'पाउप्पभायाए' इत्यादिना । पाउप्पभायाए' प्रादुष्पभातायां प्रादुर्भूतः प्रारम्भिकावस्था प्राप्तः प्रभातो यस्यां सा तथा तस्याम, रजन्याम्-रात्रौ इति प्रभातस्य प्रथमावस्था १ । तदनन्तरम् सुविमलायां पूर्वापेक्षया-फुटतरपकाशायां गिनकर वेचे या दिये जाते हैं। जो तराज़ से तोलकर वेचे या दिये जाते हैं-उनका नाम धरिम है जैसे व्रीहि, यव-जौं, लवण, शक्कर आदि । पीतल आदि के बनाये गये बाँटों से जो नापकर वेचे या दिये जाते हैंउनका नाम मेय है-जैसे घृत, तेल दुग्ध वगैरह । जो कसौटी आदि पर कसकर प्रत्यक्ष में परीक्षित करके दिये जाते हैं वे परिछेद्य हैं। जैसे मणि, मुक्ता प्रवाल आदि । “पाउप्पभायाए" इत्यादि पदों द्वारा सूत्रकारने प्रभात की विशेष अवस्थाओं का प्रतिपादन किया है । वे अवस्थाएँ यहां ३ तीन प्रकट की गई है 'पाउप्पभायाए" इस पद से प्रभात की प्रथम अवस्था बतलाई गई है-इस अवस्था में रात्रि प्रभातप्राय हो जाती है । यह समय प्रभात की आभा प्रारम्भिक अवस्था में आ जाती है । इसके बाद प्रभात कीद्वितीકેળાં આદિને ગણિભદ્રવ્ય કહે છે. કારણ કે આ વસ્તુઓ એક બે. ત્રણ આદિરૂપ ગણીને વેચાય છે અથવા ખરીદ કરાય છે. ત્રાજવાની મદદથી વજન કરીને જે વસ્તુ એને વેચાય અથવા ખરીદાય છે તે વસ્તુઓને ધરમ કહે છે. જેમકે ચોખા. જવ, મીઠું. સાકર આદિ દ્રવ્ય પીતળ આદિમાંથી બનાવેલા પાવળાં આદિ સાધન વડે માપીને જે દ્રવ્યે વેચાય છે તે દ્રવ્યોને મેય” કહે છે. જેમકે ઘી. તેલ, દૂધ. જે ને કસોટી પથ્થર આદિ પર કસોટી કરીને તેમની પ્રત્યક્ષ પરીક્ષા કરીને કરીને વેચવા કે ખરીદવામાં આવે છે. એવાં દ્રવ્યને પરિચ્છેદ્ય કહે છે. જેમકે, भलि. मोति, प्रवास माद्रि०यो.
“पाउप्पभायाए" प्रत्याहि पह! वा२। सारे प्रमातनी विशेष अवश्या सार्नु प्रतिपाइन छे. ते अवस्थामा मडी प्रा२नी हेवामा भावी छ-"पाउ प्पभायाए'' मा 48 २। प्रभातनी प्रथम अवस्था घट ४२वामा भावी छ. मा અવસ્થામાં રાત્રિ પ્રભાતપ્રાય થઈ જાય છે. લગભગ રાત્રિના ચાર વાગ્યાના સમયને આ પ્રભાતની પ્રથમ અવસ્થારૂપ રમય સમજ. તે સમયે પ્રભાતની આભા
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अनुयोगद्वारा तम्यामेव रात्रौ अनन्ताम् फुल्लोत्पलकमलको लान्मीलिते-फुल्ल च तदुत्पल च फुलोत्पलम्, कमलो मृगविशेषः, तयोः वोमल स्पुमा म् दलान रनव उ.मीलिखम- उन्मीलनं यस्मिन् प्रभाते स तश तस्मिन् 'अहापंडुरे' यसपाहुरे म्यथायोग्यपीतसंकलितशुक्ले प्रभाते सति इति-प्रभातस्य द्वितीयावस्था २॥ तदनन्तरंरक्ताशोकप्रशिकिंशुकशुकमुखशुजार्द्धरागसहशे रक्ताशोषस्य प्रकाश कान्तिः, विजुकं
पलाशपुग्मं च, गुजार्द्ध च, तेषां रागेण सदृशो यः स तथा तस्मिन्, बमलाकरनलिनीपण्डबोरवे-कमलानाम् आरा: उत्पत्तिभूमयो दादि जलाशय विशेषास्तेषु यानि नलिनीषण्डानि-पावनानि तेषां बोधकस्तस्मिन्, सहसरमा सहस्रकिरणे दिनकरे-दिवसविधायिनि ते नसा ज्वलति सूर्य उत्थते च सति इति प्रभातस्य तृतीयस्था ३। तदा मुखबावनदन्तप्रक्षालनतेलस्नानफणहसिद्धार्थकहरितालिकाऽऽदर्शधूपपुष्पमाल्यगन्धताम्बूलवस्त्रादिकानि द्रव्यावश्य कानि कुर्वन्ति । तत्र-मुखधावनंजलेन मुखप्रक्षालनम् , दन्तप्रक्षालनम् दन्तकाष्ठाय अवस्था होती है-३समें पहिले की अपेक्षा प्रकाश स्फुटतर हो जाता हैजिले पौ फटना कहते हैं। धीरे २ प्रकाश बढते २ कमलों के ईपत् विकाश
और मृगों के उन्निद्र-निद्रारहित नयनों के सुकुमार उन्मीलन से युक्त होकर कुछ २ पीत वर्ण से मिश्रितशुभ्रता से समन्वित बन जाता है। इस द्वितीय आस्था को पार कर जब प्रभात अपनी तृतीय अवस्था में पहुंचता है तब इस समय सूर्य उदित होकर अपने प्रकाश-ऊपा से उसे प्रकाशित कर देता हैं। इसे तृतीय अवस्था संपन्न प्रभात के समय जो राजेश्वरादि मनुष्य मुखधावनादि आवश्यक मृत्यों का संपादन करते हैं वे सब कार्य लौकिक द्रव्यावश्यक हैं।
પ્રારંભિક અવસ્થામાં આવી જાય છે. ત્યારબાદ પ્રભાતની દ્વિતીય અવરથાનો પ્રારંભ થવા માંડે છે. ત્યારે પહેલાં કરતાં પ્રકાશ ફુટતર થતો જાય છે. આ સમાન પિ ફાટે અથવા ભળભાંખળાને સમય કહે છે ધીરેધીરે પ્રકાશ વધતે વધતે. કમળને ઈપત (સામાન્ય અલ્પ) વિકાસથી અને તેના ઉનિક નયનેના સુકુમાર ઉમીલનથી (ઉઘડવાથી) યુકત થઈને સહેજ સ , પીતવર્ણથી મિશ્રિત એવી ગુજ. તાથી સમન્વિત બની જાય છે આ બીજી અવસ્થા પસાર કરીને જ્યારે પ્રભાત પિતાની ત્રીજી અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે, ત્યારે સૂર્યોદય થઈ જવાને કારણે, સુર્યના હજારો કિરણે વડે-ઊષા વડે પ્રભાત પ્રકાશિત થઈ જાય છે. આ તૃતીય અવસ્થાસંપન્ન પ્રભાત સમયે રાજેશ્વર આદિ મનુષ્ય જે મુખધાવન આદિ આવશ્યક કૃત્ય કરે છે, તે સઘળાં કૃત્યોને લોકિક દ્રવ્યાવશ્યક કહે છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २० लौकिकद्रणवश्यक निरूपणम्
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दिना दन्तानां घावनं, तैलं= तैलाभ्यः स्नानं, तथा - फणिह :- कङ्कतिका - कङ्कतिकया केशेषु व्यापारणमित्यर्थः, सिद्धार्थकाः = सर्षपाः, हरितालिका = दुर्वा, मस्तके मङ्गलार्थ' सिद्धार्थकानां दुर्गायाश्च प्रक्षेपणम् आदर्श: = दर्पण: - मुखाद्यवलोकनम्, धूप := धृपेन वस्त्राणां सुरभीकरणम्, पुष्पाणि, माल्यम् = पुष्पमाला, पुष्पमाल्यानां मस्तकादिषूपयोगः, ताम्बूलम्, त्रस्त्राणि च आदियेषां तानि तथाभूतानि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति । ततः पश्चात् मुखधावनादि-द्रव्यावश्यक करणानन्तरं राजकुलं वा देवकुलं वा आरामं वा उद्यानं वा तथा सभां वा, प्रपां = पानीयशालां वा गच्छन्ति । राजेश्वादिसम्बन्धिकं मुखधावनादिकं द्रव्यावश्यकं विज्ञेयम् ।
ननु राजेश्वरादिमिरवश्यं क्रियमाणत्वाद् मुखभावनादीनां भवत्वावश्यकत्वम परन्तु द्रव्यत्वं तु तेषां नास्ति, विवक्षितपर्यायस्य यत् कारणं तस्यैव द्रव्यत्वात्, उक्तं चापि—
"भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्द्रव्यं तच्चज्ञेः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥ इति ॥
अस्य पद्यस्य व्याख्या प्रागेव 'से किं तं दव्वावस्तयं' इति त्रयेादशसूत्रस्थ टीकायां कृता ।
इत्थं राजेश्वरादि संबन्धिनां मुखधावनादीनामावश्यकपर्यायकारणत्वाभावाद्
शंका - - राजेश्वर आदि मनुष्य द्वारा संपादित मुखधावनादि कृत्यों में अवश्यकरणीयता होने के कारण आवश्य त्व भले रहे. इस में हमें कोई विवाद नही है - परन्तु उनमें विवक्षित पर्याय के प्रतिकारणत्वरूप द्रव्यत्व नहीं आता है । क्योंकि विवक्षित यहाँ आवश्यक पर्याय है, उस पर्याय के प्रति मुख धावनादि क्रियाओं का क्या संवन्ध ? | द्रव्य का लक्षण १३ वें सूत्र को टीमें "भूतस्य भाविनो वा" इत्यादि पद्यद्वारा स्पष्ट ही कर दिया गया है । अतः इस प्रकार की द्रव्यता राजेश्वर आदि के मुख धावनादि लौकिक
શંકા—રાજેશ્વર આદિ મનુષ્યદ્વા। સંપાદિત મુખધાવન આદિ ક્રિયાઓમાં અવશ્ય કરણીયતા હૈાવાને કારણે આવશ્યકત્વ ભલે રહે. એ વાત સ ંબધમાં અમે કોઇ વિાદમાં ઉતરવા માગતા નથી. પરન્તુ તે ક્રિયાઓમાં વિક્ષિત પર્યાયના કારણસ દ્રા સંભવી શકતુ નથી, કારણ કે વિવક્ષિત પર્યાયરૂપ જે આવશ્યક પર્યાય હવે પ્રક કરવામાં આવી છે, તે પર્યાયની સાથે સુખધાવન આદિ ક્રિયાઓને સબ છે ! તેરમાં સૂત્રની ટીકામાં આપે દ્રવ્યનું આ પ્રમાણે લાચુ કહ્યું भाविनो वा " त्याहि आये प्रतिपादित पुरेसा मे सक्षषु प्रभानी इंन्याश શ્વર આદિના મુખધાવન આદિ લૌકિક કામૅમાં નહીં આવી શકવાથી (અસહમાં મલ
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अनुयोगद्वारसूत्रे
नास्ति द्रव्यावश् यकत्वमिति चेदुच्यते - 'भूतस्य भाविनो वा' इत्याद्येव द्रव्यलक्षणं नास्ति, किन्तु - 'अप्पाहणे वि दव्वसहोत्थि अप्राधान्येऽपि द्रव्यशब्दोऽस्ति - इति वचनात् अप्रधानरूपेऽर्थेऽपि द्रव् - शब्दां वर्तते । मुख गनादौ मोक्षप्राप्तेरप्राधान्यं च मोक्षकारणभूतभावावश्यक ापेक्षया बोध्यम् । यतो मोक्षस्य कारणं तु भावा वश्यकमेव नतु द्रव्यावश्यकम् अतोऽत्र मुखधावनादेरप्राधान्यमिति । ततश्च द्रव्यभूतानि - अप्रधानभूतानि - आवश्यकानि द्रव्यावश्यकानीत्यर्थः, एवं च संसारकारणानां राजेश्वरादि मुखधावनादीनामस्त्येव द्रव्यावश्यकत्वम् इति नास्ति दोपावसरः । मुखकार्यों में नहीं. आसकने से उनमें आवश्यक पर्याय के प्रति कारणता नहीं बन सकती है । इस कारणता के अभाव में उनमें द्रव्यावश्यकता नहीं आसकती है ? उत्तर - शंकाकार को जो इस प्रकार की शंका उत्पन्न हुई है। उसका कारण "भूतस्य भाविनो बा" इत्यादि पद्योक्त द्रव्य का लक्षण है कि इसपर यह कहना है कि द्रव्य का लक्षण इनना ही नहीं है किन्तु "अप्पहाणे विदव्वसहोत्थि" अप्राधान्य अर्थ में भी द्रव्य शब्द है "इसकथन के अनुसार अवधान अर्थ में भी द्रव्य शब्द का प्रयोग हुआ है । न मुखानादि लौकिक कृत्यों में मोक्षप्राप्ति की अप्रधानता मोक्ष के कारण भूत भावावश्यक की अपेक्षा से कहा गया है । क्योंकि मोक्ष का कारण तो भावाश्यकही होता है, नहि कि व्यावशक इसलिए यहाँ मुखधावनादि की अप्रधानता है । इसकारण द्रव्यभूत- अप्रघानभूत जो हैं वे द्रव्यावश्यक हैं ऐसा अर्थ द्रव्यावश्यक का लभ्य हो जाता है । इस तरह राजेश्वर आदि के संसारकारणभूत मुखधावनादि कार्यों में द्रव्यावश्यकता घटित हो जाती है । इन मुखधावनादि कृत्यों में लोकप्रसिद्धि से भी आगमरूपता नहीं हैं-अतः उनमें आम वा अभाव होने से नो ઢાવાથી) તે ક્રિયાએ આવશ્યકપર્યાયના કારણરૂપ બની શકતી નથી. આ કારણુતાના અભાવને લીધે તે ક્રિયાઓમાં દ્રવ્યાવશ્યકતાના સદૂભાવ સંભવી શકતા નથી,
आवश्यक
उत्त२—२४| ४२नारे मा. अारनी ने शंका उरी छे तेनु र "भूतस्य भाविनो वा" धत्याहि सुत्रधार द्वारा द्रव्यनुं में सक्ष अट खाभां भाव्यु छे, તે લક્ષણવાળા પાને જ દ્રવ્ય માનવુ જોઇએ, એવી જ તેની માન્યતા છે. આ પ્રકારની માન્યતાને કારણે જ આ શકા ઉદ્દભવી છે. તે તેની શંકાના જવાબરૂપે भारेट वान हे द्रव्यनुं सक्षा भेटसु ? नशी, परन्तु "अप्पहाणे वि दव्वसहोत्थि" "अप्रधान्यभां वा द्रव्य श६ छे, ” या उथन अनुसार अप्रधान અથ માં પણ દ્રવ્ય શબ્દના પ્રયાગ થયા છે. તે મુખધાવન આદિ લૌકિક નૃત્યામાં જે અપ્રધાનતા (પ્રધાનતાથી રહિતપણુ) કહી છે તે મેાક્ષના કારણભૂત ભાષાવશ્યકની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવી છે, તેથી દ્રવ્યભૃત-અપ્રધાનરૂપ જે આવશ્યક છે. તેમને
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अनुयागचन्द्रिका टीका मूत्र २० लौकिक द्रव्यावनिरूपणम् धावनादौ लोकप्रसिद्धयाऽपि आगमाभावात् सर्वथा नोआगमत्वम, नोश-दश्चात्र सर्वथा आगमनिषेधे वर्तते । तदेतत् लौकिकं द्रावश्यकं वर्णितम् ॥ २०॥ आगमता आजाती है । इस प्रक र सर्वथा आगम के अभावजन्य द्रव्यावः यता इनमें होने से लौकिक द्रःयावश्यकला इनमें बन जाती है। इस तरह से लौकिक द्रव्याः श्यक का स्वरूप वर्णन है।
भावार्थ--इस मुत्रद्वारा सूत्रकार ने तद्वयतिरिक्त लौकिकद्रव्यावश्यक का स्वरूप बतलाया है। उसमें संसारीजनोंद्वारा जो भी मांगलिक कृत्य हैं कि जिन्हें करना आवश्यक होता है वे सब लोकिक द्रव्यावश्यक हैं। मंगल निमित्त सर्पपो का क्षेप वरना दूर्वा का संसार कार्यों में उपयोग करना. दहीं आदि का किसी शुभ कार्य के निमित्त भक्षण करना आदि सब द्रव्यावश्यक हैं । र द्यपि इन लौकिक आवश्यक पर्याय के प्रति कोई संबध नहीं है फिर भी इन्हें द्रा ३१क का अर्थ अधानभूत आवश्यक मानकर यावश्यकरूप माना गया है। इन लौकिक कार्यों में आगम का सर्वथा अभाव रहता है। अतः ये नोआगमरूप हैं ।सूत्र२०॥ દ્રવ્યાવશ્વકરૂપ કહે છે આ પ્રકારો દ્રાવશ્યક અર્થ પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. આ પ્રકારે રાજેશ્વરાદિના સંસાર કારણભૂત મુખધાવન આદિ કાર્યામાં દ્રવ્યાવશ્યકતા ઘટિત થઈ જાય છે. આ મુખધાનાદિ કૃમાં લોકપ્રસિદ્ધિની અપેક્ષાએ પણ આગમરૂપતા નથી. તે કારણે તે કિય માં ગમન અભાવ હોવાને લીધે ને આગમતા સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રકારે આગના સર્વથા અભાવ જન્ય દ્રવ્યવથિકતા તેમનામાં હોવાથી તેમનામાં લૌકિક દ્રવ્યાવશ્યકતા હોવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે દ્રવ્યાવશ્યકતાના રવરૂપનું આ પ્રકારનું વર્ણન અહીં કરવામાં આવ્યું છે.
ભાવાર્થ-આગલા બે ત્રમાં (૧૭ અને ૧૮ માં સૂત્રમાં જ્ઞાયકશરીર દ્રવ્યાવશ્યક અને ભવ્યશરીરદ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું. હવે તે બન્નેથી ભિન્ન એવા દ્રવ્યાવશ્યકની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે. આ સૂત્રદ્વાર તેના પ્રથમ ભેદરૂપ લૌકિક દ્રવ્યાવશ્યકનું સ્વરૂપ બતાવવામાં આવ્યું છે. સંસારી જીવો દ્વારા જે જે માંગલિક ક્રિયાઓ કરવાનું આવશ્યક માનવામાં આવે છે. તે સઘળી ક્રિયાઓને લૌકિક દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવે છે. મંગળ નિમિત્તે સરસવ આદિને પ્રક્ષેપ કરે, દૂર્વા (દર્ભ)ને માંગલિક કાર્યોમાં ઉપયોગ કરે. કેઈ શુભકાર્યને નિમિત્તે દહીં આદિનું ભક્ષણ કરવું. વગેરે ક્રિયાઓને લૌકિક વ્યાવશ્યક કહે છે. જો કે આ લૌકિક આવશ્યક કૃત્યોને આવશ્યકપર્યાયની સાથે કેઈ સંબંધ નથી. છતાં પણ દ્રવ્યાવશ્યક અર્થ અપ્રધાનભૂત આવશ્યક માનીને તેને દ્રવ્યાવશ્યકરૂપ માનવામાં આવેલ છે. આ લૌકિક કાર્યોમાં આગમને સર્વથા અભાવ રહે છે. તેથી તેઓ ને આગમરૂપ છે. એ સૂઇ ૨૦
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अनुयोगटारसत्रे अथ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्य तिरिक्त-कुप्रावचनिकद्रव्यावश्यक रूपं द्वितीरभेदं निरूपयति
मूलम-से किं तं कुप्पावणियं दळभावस्मयं ? कुप्पावणियं दव्याबस्सयं जे इमे चरगचीरिगचम्मखंडियभिक्खोडपंडुरंगगोयम गोव्वतिय गिहिधम्मधम्मचिंतगअविरुद्धविरुद्ध वुडसावगप्पभित
ओ पालैंडत्था कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते इदस्स वा खंदस्स वा रद्दस्स वा सिवस्स वावेसमणस्स वा देवस्स वा नागस्स वा जक्खस्स वा भूयस्स वा मुगुदस्स वा अजाए वा दुग्गाए वा कोदकिरियाए वा उक्लेवणसंमज्जणआवरिसणधूवपुप्फगंधमलाइयाई दवावस्सयाइ करेंति, से तं कुप्पावणियं दवावस्सयं ॥ सू० २१ ॥
छा-अथ किं तत् कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकम् ? कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकं य इमे चरकचीरिकचर्मखण्डिकभिक्षोण्डपाण्डुराहगोतमगोत्रतिक
अब सूत्रकारतद्वयाँतरिक्त का ज' दुसरा भेद कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक है उसमा वर्णन करते हैं-"से किं तं कुप्पावणियं" इत्यादि।।सूत्र २१॥
शब्दार्थ--(से) हे भदंत ! (त) पूर्वप्रक्रान्त (पूर्व प्रस्तुतविषय) कुप्पावयणियं दव्वावासयं किं) कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक का क्या स्वरूप है। (कुप्पावणियं दव्वावस्सयं) उत्तर--कुप्रावचनिक द्रव्याश्यक का स्वरूप इस प्रकार है-सुनो(जे इमे चरगचीरिगचम्मखंडि भिक्खोंडपंडुरंगगोयमगोपतियगिहिधम्म
તદ્વયતિરિકત દ્રવ્યાવશ્યકને જે કુખાવચનિક દ્રવ્યાવશ્યક નામને બીજો ભેદ છે तनु वे सूत्रा२ वन रे छे--- “से किं त कुप्पास्यणियं" त्याह
शा-(से) शिष्य शु३ने मेयो प्रश्न पूछे छे ३ ९न् ! (तं) पूर्व Hird (पूर्व प्रस्तुत विषय) (कुप्पावयणियं दवावस्सय वि) प्रापयनि द्र०याવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(कुप्पावयणिय दळावस्सय) प्रापयनि: द्रव्यापश्यनु २१३५ मा २४ छ-(जे इमे चरगचीरिगचम्मखंडिभिक्खोंडपंडुरंगगोयमगोव्वतिगि
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अनुयोगचन्द्रिका का.स.०२१ कुप्रा चनिय द्रव्यावश्यकम्वरूपं द्वितीय निरूपणम् १४३
गृहिधम धर्मचिः काविरुद्ध विरुद्धवृद्धश्रावकप्रभृतयः पापण्डस्थाः कल्पे प्रादु
भातायां रजन्यः यत् तेजसा उ लति इन्द्रस्य वा स्कन्दस्य पा रुद्रस्य या शिवस्य वा वैश्रवणस्य वा देवस्य वा नागस्य वा यक्षस्य वा भृतस्य वा मुकुम्यस्य मा आर्याया वा दुर्गा वा कोट्टक्रियाश वा उपलेपनसम्माजनावर्षणधूपपूष्पगन्धमाल्य दिकानि द्रव्याक' कानि कुर्वन्ति । तदेतत् कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यकम् ॥ मू० २१ ॥ धम्मचिंतगं अनिरुदविरुद्धघुसावगप्पभितओ पासंडत्था) जो ये चरक, चीरिक, चर्मखंडिा, निक्षोण्ड, पाण्डुराड़, गोनम, गोव्रतिक, गृहि, धर्माधर्म चिंतक, अविरूद्ध, वितु, और वृद्ध. श्रावक आदि हैं कि जो षण्डम्य अपने आप को व्रती मानते हैं (कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते) सामान्य प्रभात होने पर प्रभातप्राय रजनी के होने पर यावत् तेज से ज्वलित सये के उदय होने पर (इंदरसवा) इन्द्र की (खंदस्स वा) अथवा स्कंद-कार्ति क स्वामी की (रुद्दम्स वा) अथवा रुद्र की (सिवस्स वा) अथवा शिव की (वेसमणस्स वा) अथवा वैश्मण की (देवस्स बा) अथवा सामान्य देव की (नागरस वा) अथवा नाग की (जक्खस्स वा) अथवा यक्ष की (भूयस्स वा) अथवा भूत की (मुगुदस्सवा) अथमा मुकुद की (अज्जाए वा) अथवा आर्यादेवी की (दुग्गाए वा) अथवा दुर्गा कि (कोकिरियाए वा) अथवा कोट्टक्रिया की (उवलेण संमज्जणआवरिसण-घूवपुकगंधमल्लाइयाइंदावर: या याति-से तं कुप्पावयणियं हिधम्मयम्मचिंतगअ वरूद्धविरुद्ध सावगप्पमित आ पासंड था) ने २१ २२५ या२ि४, यम, लि. पांडा. गौतम, गोप्रति४, डियर्मा, धाथि-तह, અવિરૂદ્ધ અને વૃદ્ધ શ્રાવક અ દિ છે કે જેઓ પાષડથ છે-જેઓ પોતાની જાતને વતી માને છે (આ બધાં પદેને અર્થ શબ્દાર્થને અને તે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યે ) (कल्लं पाउपभायाए र णीए जाच तेयमा जलंते) तेथे। सामान्य प्रभात Aniલગભગ રાત્રિને અન્તકાળ સમીપ આવે ત્યારે ભળભાંખળું થાય ત્યારે અને સૂર્ય पाताना सखरिणाथी प्रथा दागे त्यारे इंदरस ग)-द्रनी म:(वंदरसा ) २४नी-ति२पामिनी, (रुहस्स) #२८नी (सिकस्स वा) 424ा शिवनी (वेसमणम्स वा) मा वैश्रमनी मेरनी. (देवरस वा) ॥24॥ सामान्य हेवना (नागस्स बा) नानी (जक्रवरस ) २.५। ५क्षनी. (भूयस्स वा) मया भूतनी (मुगुदस्स वा) मथ।। भुनी (अज्जाए वा) मया माहिवामी (दुग्गाए वा) भया दुगनी (कोट्टकरियाए वा) 224 [यानी (उवटे वण, संमज्नणआररिसण-धूव पुष्फ गंधमल्लाइयाइ दवावस्सयाई करेंति से तं कुप्पावणिय
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अनुयोगबारसत्रे टी-शिष्यःपृच्छति-'से किं तं' इत्यादि । अथ किं तत कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकम् ? उत्तरमाह-कुप्राचनिक-कुत्सितं प्रवचनं येगी ते कुन वचनाः, कुत्सितत्वं चाय प्रवचनस्य मोक्षानुपयोगित्वात् , तेषाभिदं कुप्रावचनिकम् द्रव्यावश्यक मेवं विज्ञेयम-य इमे चरकचीरिकचर्मखण्डिक-भिक्षीप्ड-पाण्डुराङ्गगोतमगोत्रतिकगृहिधर्मधर्मचिन्तकाविरुद्ध विरुद्ध वृद्धश्रावकप्रभृतयः, पाषण्डस्थाः, तत्र-चरकाः-घाटिवाहका:-यूथबद्धाः सन्तो ये रिक्षा चरन्ति ते चरकाः, अथा-भुञ्जाना ये चरन्ति ते चरकाः । चीस्किारथ्यापतितवस्त्रखण्डधारकाः, चमखण्टिका: चर्मवसनाः, यहा-चर्मम सर्वोपकरणा', भिक्षोण्डा-ये भिक्षालब्ध मेवान्नादिकं भुजते न तु स्वपालितगवादीनां दुग्धादिकं, ते भिक्षोण्डा दव्वावस्य) उपलेपन क्रिया करते हैं, संमार्जन क्रिया करते हैं, दुग्ध एव गन्धी दक आदि से ग्नान क्रिया करते हैं, पुष्पपूजा करते हैं, धूपपूजा करते है, चन्दन से उना उपलेपन करते हैं उन पर माला चढाते हैं, इत्यादिरूप जो द्रव्याइयक करते हैं वह सव कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक है। इस प्रकार पूर्व पक्रान्त द्रव्याश्यक का यह स्वरूप है।
जो समुदायरूप में एकत्रित होकर भिक्षा मांगते हैं वे चरक हैं । अथवा खाते २ जो चलते हैं वे चरक हैं मार्ग में पड़े हुए दस्वखंडों को जो पहना करते हैं वे चीरिक हैं। चमडे को वस्त्ररूप में पहनते हैं अथवा चमडे के ही समस्त उपारण जिनके होते है उनका नाम चर्मखंडिक है। भिक्षा में प्राप्त हुए अन्न से ही जो अपनाउदर पूर्ण करते हैं-अपने घर में पालित गाय आदि के दुग्धादिक से नहींदवावस्सयं) ५५४ [या ४२ छ, समान या रे छ, ध, मघा माह વડે સ્નાન કરાવવાની ક્રિયા કરે છે, ક્લે વડે પૂજા કરે છે, “પપૂજા કરે છે, ચન્દન વડ તેનું ઉપલેપન કરે છે, તેમના પર માળા ચડાવે છે, ઈત્યાદિ પ્રકારના જે દિવ્યાવશ્યક કરે છે તે સઘળા દ્રવ્યાવશ્યકને કુપ્રવચનિક દ્રવ્યાવશ્યક કહે છે. પૂર્વ પ્રસ્તુત કુમારચનિક દ્રવ્યાવશ્યકનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે હવે ચરક આદિ પદેને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે–જેઓ સમુદાયરૂપે એકત્ર થઈને ભિક્ષા માગે છે. તેમનું નામ ચરક છે. અથવા ખાતાં ખાતાં જેઓ ચાલે છે. તેમને ‘ચરક' કહે છે. માર્ગ પર પડેલા વસ્ત્રખંડોને એકત્ર કરીને જેઓ તે વખંડોને ધારણ કરે છેપહેરે છે–તેમને “ચીરક' કહે છે, ચામડાને જ વરૂપે પહેરનાર અથવા ચામડાનાં જ ઉપકરણે રાખનારને ચર્મખંડિત કહે છે.
ભિક્ષામાં પ્રાપ્ત થયેલા અન્નથી જ જેઓ પોતાનું પેટ ભરે છે–તાને ઘેર ખળેલી ગાય આદિના દૂધ આદિથી જે પિતાનું પેટ ભરતે નથી તેને ભિક્ષેડ'
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० २१ कुप्रावनिकद्रव्यावश्यकनिरूपणम् १४५ उच्यन्ते, यद्वा-भिक्षोण्डाः-सुगतशासनस्थाः, पाण्डुराङ्गाः-पाण्डुराणि-भस्मलेपनात् शुभ्राणि अङ्गानि गात्राणि येषां ते तथा, भस्मलेपितशरीरा इत्यर्थः गोतमाः-ये हि विस्मयकारक पादपतनादिशिक्षाभिषभं शिक्षयित्वा पराटकमालाभिस्तं विभूष्य तस्य वृषभन्य विविधमभिनयं दर्शयित्वा भिक्षन्ते ते गोतमा गोव्रतिकाः-गोव्रतं येषां ते गोव्रतिकाः गोर्यानुकारिणः, ते हि गर्वा मध्ये वस्तुमिच्छया तद्भवनाभावितान्तःकरणा पुरान्निर्गच्छन्तीभिगोभिःसह निर्गच्छन्ति, तिष्ठन्तीभिः सह तिष्ठन्ति. उपविशन्तीभिः सहोपविशन्ति, भुजानामिःसह तद्वदेव तृणपुष्पफलादिकं भुजते, जलं पिबन्तीभिः सह र दनुव रणेनैव जलं पिबन्ति । उक्तं च- "गावीहिं समं निग्गमावेसठाणासणाइ पकरंति ।
भुंति जहा गावी तिरिक्ववासं विभावंता ॥" उनका नाम भिक्षोण्ड है। अथवा सुगत-(बुद) के शासन को मानने वालों का नाम भी भिक्षोण्ड है। भम्म के लेपन से जिनका शरीर शुभ्र हो जाता है उन का नाम शुभ्राङ्ग है । जो वैल को विस्मयकारक चाल सिखा करके और उसे कौडियों की मालाओं से विभूपित करके उसका अभिनय दिखा २ कर भिक्षावृत्ति करते हैं उनका नाम गोतम है। राजा दिलीप की तरह गोव्रत का जो पालन करते हैं उनका नाम गेतिक है । गोत्रत को पारन करने वाले मनुष्य गायों के मध्य में रहने की इच्छा से गायें जब पुर से नीकलती हैं तब उनके साथ ही निकलते हैं, जब वे बैटती हैं-तव बैठते हैं जब वे खडी होती हैं-तब वे खड़े होते हैं, जब ये चरती हैं तब वे भोजन करते हैं फलादि का, और जब वे जल पीती हैं, तब वे जल पीते हैं। કહે છે અથવા સુરતના (બુદ્ધના) શાસનને માનનારનું નામ ભિડ છે. ભસ્મના લેપથી જેમનું શરીર શુભ્ર થઈ જાય છે, તેમને “શુભ્રાંગ” કહે છે. જેઓ બળદને આશ્ચર્યજનક ચાલ શિખવીને અને તેને કેડીઓની માળાઓથી વિભૂષિત કરીને, તેને અભિનય લોકોને બતાવી બતાવીને ભિક્ષાવૃત્તિ કરે છે તેમને તમ' કહે છે. રાજા દિલીપની જેમ ગો વ્રતનું પાલન કરનારને ગેબ્રતિક' કહે છે. ગોવ્રતનું પાલન કરનાર પુરુષ ગાની પાસે રહીને તેમની સેવા કર્યા કરે છે. જ્યારે ગાય ગામમાંથી બહાર નીકળે છે ત્યારે ગત્રાતક પણ તેમની સાથે જ ગામની બહાર ચાલી નીકળે છે, જ્યારે તે ગાયે નીચે બેસે છે ત્યારે તે ગેબ્રતિક પણ નીચે બેસે છે. જ્યારે તેઓ ઊભી થાય છે ત્યારે તે પણ ઊભો થાય છે, જ્યારે તેઓ ચરતી હોય છે, ત્યારે તે પણ ફલાદિરૂપ ભજન કરે છે, જ્યારે તેઓ પાણી પીવે છે, ત્યારે તે પણ પાણી પીવે છે. કહ્યું પણ છે, એમ કહીને સૂત્રકારે જે ગાથા આપી છે તે
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अनुयोगद्वारसत्रे
छाया - गोभिः समं निर्गममवेशस्थानासनादि प्रकर्वन्ति । भुजते यथा गौः, तिर्यग्वासं विभावयन्तः || इति ।।
गृहिधर्माण:- गृहिणां धर्मों येणं ते गृहिधर्माण: = 'गृहस्थ धर्म एव श्रेयान् इति मत्वा तदुचितधर्माचारिणः । उक्तं च तदनुसारिभिः"गृहाश्रमसमो धर्मों, न भूतो न भविष्यति ।
तं पालयन्ति ते धीराः, लीनाः पाषण्डमा ताः ॥ इति । धर्मचिन्तकाः- याज्ञवल्क्यादि प्रणीत धर्मसंहितादिभिः सह मे भ्रमं चिन्तयन्ति मिर्व्यवहरन्ति मे ते धर्मचितिका उच्यन्ते, अविरुद्धाः - देषनृपमाता पितृतिर्यगादी नामबिरोधेन विनयकारिणो मे भवन्ति तेऽविरुद्धा: - वैनयिका इत्यर्थः विरुद्धाः
उक्तं च-करके जो गाथा लिखी है उस का अथ भी यही है । गृहम धर्म ही श्रेयस्कर है ऐसी जिन की मान्यता होती हैं । और उसी के उचित जो धर्म का आचरण करते हैं वे गृहिधर्मा है । इन लोगो का ऐसा कहना है कि गृहस्थाश्रम जैसा धर्म न हुआ है और न होगा। जो धीर होते हैं वे ही इसका पालन करते हैं और जो क्लीव - कमजोर हैं ये व्रतों को लेते हैं । याज्ञवल्क्य आदि के द्वारा रचित धर्मसंहिता आदि को लेकर जो धर्म का विचार करते हैं- उनके अनुसार अपनी दैनिक प्रवृत्ति चलाते हैं वे धर्मचिन्तक हैं । देव नृप, मातापिता और तिर्यञ्च आदि का विना किसी मेदभाव के जो एकसा विनय करते हैं वे अविरूद्ध - वैनयिक मिथ्यादृष्टि - हैं ।
ગાથાના ઉપર મુજબના જ અથ થાય છે. તે ગાથામાં ગાત્રતિકનાં લક્ષણા બતાનવામાં આવ્યા છે,
श्र
"गृहस्थधर्म ४ શ્રેયસ્કર છે,” આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનાર અને તેને અનુરૂપ જ ધર્મનું આચરણ કરનાર જે પુરુષા હાય છે તેમને 'ગૃહિધર્માં' કાંડું છે. તે લેાકેાની એવી માન્યતા છે કે ગૃહસ્થાશ્રમ જે કોઇ ધમ થયે . પણ નથી અને થવાને પણ નથી. જે લેાકેા ધીર હાય છે તએ જ તેનુ પાલન કરી શકે છે અને જે લેકે કલીબ (કમજોર) હાય છે તેએ જ તેાની આરાધના કરે છે. યાજ્ઞવલ્કય આદિ તચિન્તા દ્વારા રચિત ધર્માંસહિતા આદને આધારે જેએ ધર્મના વિચાર કરે છે, અને તેને અનુસાર જ પેાતાની સૈનિક પ્રવૃત્તિ ચલાવે છે तेभने “धर्मथिन्त” हे छे.
भेो। हेव. नृप, भाता पिता भने तिर्यथाहिनो अयिशु प्राश्नो लेहलाव રાખ્યા વિના એક સરખા વિનય કરે છે, તેમને ‘અવિરૂદ્ધ' (જૈનયિક મિથ્યા-ષ્ટિ)
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. २१ कुप्रावचनिकद्रव्यावश्यक निरूपणम् १४७ अक्रियावादिनः, एते हि पुण्यपापपरलोकादिकं न मन्यन्ते, अतः सर्वपापन्डिविरुपाचारत्वादेते विरुद्धा उच्यन्ते ।
नन्वेतेषामक्रियादीनां पुण्यपापाद्यस्वीकरणात् इन्द्रायुपलेपनकर्तुत्वं न संभबतीति चेत, उच्यते, पुण्यप्राप्तीच्छया यबपि तेषाम् ईन्द्राद्यपलेपनकर्तृत्वं न संभवति तथापि जीविकोदेशेन तु तत्संभवत्वेवेति न कश्चिद् दोषः ।
वृद्धश्रावकाः वृद्धाः प्राचीनकालमपेक्ष्य वृदाः, तएव भावयन्तीति श्रावकाःब्राह्मणाः-ऋषभदेवज्येष्ठपुत्रभरतशासनकाले ये देवगुरुधर्मस्वरूपं श्रावयितार पुण्य, पाप और परलोक आदि की मान्यता से जो बहिर्भूत होते हैं ऐसे अक्रियावादी विरुद्ध हैं । इनका आचारविचार सर्व पाखण्डियों सर्व धर्मवाले की अपेक्षा विरुद्ध होता है। इसलिये ये विरुद्ध कहे जाते हैं।
शंका-ये अक्रियावादी जब पुण्यपाप आदि कुछ भी नहीं मानते हैं। -तब इन्द्र आदि का ये उपलेपन आदि क्यों करेंगे-अर्थात् नहीं करेंगे, ऐसी स्थिति में इन्हें इन्द्रादि के उपलेपन आदि के कर्तृत्व में क्यों गिनाया गया है-सो इस शंका का उत्तर इस प्रकार से हैं कि इन में भले ही पुण्य प्राप्ति की इच्छा से इन्द्रादिक का उपलेपन कर्तृत्व संभवन हो-तोभी आजिषिका के उद्देश से उनमें इन्द्रादिक का उपलेपनादि करना संभवित होता ही है। अतः सूत्रकार की कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक में इनकी परिगणना निर्दुष्ट है। वृद्धश्रावक का अर्थ यहां ब्राह्मण से है। क्योंकि प्राचीन કહે છે. જેઓ પાપ, પુષ્ય, પરલોક આદિને માનતા જ નથી એવાં અકિયાવાદીને વિરૂદ્ધ કહે છે. તેમના આચારવિચાર બધાં ધર્મવાળા કરતાં વિરૂદ્ધના જ હોય છે,
શંકા–તે અક્રિયાવાદીઓ જે પાપ પૂણ્ય આદિમાં માનતાં જ નથી. તે તેઓ ઈન્દ્ર આદિનું ઉપલેપન, પૂજન આદિ શા માટે કરે? કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે સત્રમાં ઈદ્રાદિનું ઉપલેપન, પૂજન આદિ કરનારમાં આ અક્રિયાવાદીઓને પણ ગણાવવામાં આવેલ છે. અકિયાવાદીઓ આ પ્રકારની ક્રિયાઓ કરે તે કેવી રીતે માની શકાય?
ઉત્તર–ભલે તેઓમાં પુણ્યપ્રાપ્તિની ઇચ્છાથી ઈન્દ્રાદિનું ઉપલેપન, પૂજન આદિ ક્રિયાઓ કરવાની વાત અસંભવિત હોય પરંતુ આજીવિકા ચલાવવાના હેતુથી તેઓમાં પણ ઈન્દ્રાદિકનું ઉપલેપન પૂજન આદિ ક્રિયાઓને સદૂભાવ હોઈ શકે છે. તેથી સત્રકારે કુમારચનિક દ્રવ્યાવશ્યકમાં તેમની જે પરિગણના કરી છે તે નિર્દોષ કથનરૂપ " सभी नये.
આ સૂત્રમાં વૃદ્ધશ્રાવક આ પદ બ્રાહ્મણના અર્થમાં વપરાયું છે, કારણ કે અહીં પ્રાચીન કાળની અપેક્ષાએ તેમનામાં વૃદ્ધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. આ
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अनुयोगटारसूत्रे आसन् अतएवऋद्धाः, त एव पश्चाद् ब्राह्मणा जाताः। एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, ते प्रभृतयः आद्याः-मुख्या येषां ते तथा, प्रभृतिग्रहणात् परिव्राजकादीनां संग्रहः, पाषण्डस्था:-पाषण्ड-व्रतं तत्र तिष्ठन्तीति पापण्डस्थाः-व्रतिनः कल्ये प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत्तेजसा ज्वलति, एतेषां पदानां व्याख्या पूर्वसूत्रे कृता तत एवावगन्तव्या, इन्द्रस्य वा स्कन्दस्व-कार्तिकेयस्य वा, रुद्रस्यहरस्य वा, शिवस्य व्यन्तरविशेषस्य वा, वैश्रवणस्य वा, देवस्य-सामान्यदेवाय वा, नागस्य फाल की अपेक्षा लेकर उनमें वृद्धता कही गई है, और वह इस प्रकार से है कि-जब ऋषभदेव भगवान् यहां विराजमान थे, तब उनके ज्येष्ठपुत्र भरतचक्रवर्ती ने अपने शासनकाल में देव गुरु धर्म के स्वरूप को सुनाने के लिये इनकी स्थापना की थी। अतः स्थापना का काल बहुत ही अधिक प्राचीन इस तरह से प्रमाणित होता है ! वाद में ये वैदिकधर्म के उपासक बन गये अतः ये ब्राह्मण कहलाने लगे। यहाँ प्रभृति शब्द से परिव्राजक आदि कों का ग्रहण हुआ है। पापण्ड शब्द का अर्थ व्रत है । व्रतका पालन करने वाले पापण्डस्थ है। यहां यावत् शब्द से २१, वें सूत्र में कथित प्रातःकाल की ३ अवस्थाओं का और सूर्य के सहखरश्मि-दिनकर आदि विशेषणों का ग्रहण किया गया हैं। स्कंद नाम कार्तिकेय का है। रूद्रनाम महादेव का है। शिव-व्यन्तरदेव विशेष का नाम है। वैश्रवण કથનનું નીચે પ્રમાણે સ્પષ્ટીકરણ સમજવું-જ્યારે રાષભદેવ ભગવાન અહીં વિરાજમાન હતા, ત્યારે તેમના જયેષ્ઠ પુત્ર ભરત ચક્રવતીએ પોતાના શાસનકાળમાં દેવ, ગુરુ અને ધર્મનું સ્વરૂપ સંભળાવવાને કાળ ઘણે જ પ્રાચીન રહેવાની વાત પ્રમાણિત (સિદ્ધ) થઈ જાય છે. ત્યાર બાદ તે લોકો વૈદિક ધર્મના ઉપાસક બની ગયા, અને તે કારણે બ્રાહ્મણ તરીકે ઓળખાવા લાગ્યા આ રીતે પ્રાચીન કાળમાં જેઓ જિનેન્દ્રના ઉપાસક હતા, પણ પાછળથી વૈદિક ધર્મના ઉપાસક બની ગયા. એના લોકોને અહી “વૃદ્ધશ્રાવક” કહ્યા છે. અહીં “પ્રભુતિ પદને પ્રયોગ કરીને સૂત્રકારે અહી પરિવ્રાજક આદિ અન્ય પત્થના લેકોને ગ્રહણ કરવાનું સૂચન કર્યું છે. ____ "पाप" मा ५६ "व्रत"ना सभा १५२यु छे. प्रतने पासन ४२नारने पाप ७५' ४३ छ."कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते" मा सुत्रपामारे 'जाव (यात)' ५४ मा०यु छे. तेना द्वारा २१ भा सत्रमा प्रथित प्रात:जनी ત્રણ અવસ્થાઓને તથા સૂર્યના સહસરશ્મિ. દિનકર આદિ વિશેષણેને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે.
રક એટલે કાર્તિકેય. રુદ્ર એટલે મહાદેવ. શિવ આ શબ્દ વ્યક્તદેવ
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PREPARATE
अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० २१ कुप्रावचनिकन्यावकनिरूपणम् १४९ भवनपतिविशेषस्य वा, यक्षस्य या, भूतस्य वा यक्षोभूतौ :न्तरविशेषौ मुकदिस्य नारायणस्य , आर्यायाः-आर्या देवी विशेषः, तस्या वा, दुर्गायाःसिंहारूढामहिषासुरं हतुं तदुपरिनिहितकचरणा दुर्गा तरया वा, कोट्टक्रियायाः -महिषकट्टनपरा कोट्टक्रिया-तम्या वा, उपलेपनसंमार्जनावर्षणधूपपुष्पगन्धमाल्यादिकानि-द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति । तत्र उपलेपनम् नग्नीताद्युपलेपः, सम्मार्जनं= वस्त्रखण्डेन संशोधनम्, आवर्षणम् दुग्ध-गन्धोदकादिना स्नपतम्, पुष्पं-पुष्पैः पूजनम्, धूपः-धूपदानम्, गन्धः- चन्दनाद्यनुलेपनम्, माल्य-मालापरिधापनम्, एतान्यादौ येषां तानि तथा, द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति । अयं भावः-य इमे चरकचीरिकादयः पापण्डस्थाः कल्ये प्रादुष्प्रभातर जन्यादिक्रमेण समुत्थाय इन्द्राकुबेर का नाम है। भवनपति विशेष नागकुमार का नाम नाग है। यक्ष और भूत ये व्यन्तर देवविशेष हैं । नारायण का नाम मुकुंद है। दुर्गा नाम की एक देवी है। जिसकी सवारी सिंह पर है। महिषासुर को मारने के लिये इसका एक चरण सिंह पर रखा रहता है-इसरूप में इसकी मूर्ति बनी हुई होती है। कोदृक्रिया नाम की भी एक देवी होती है। जिसने महिषासुर का नाश किया है। नवनीत-मक्खन आदि का इन पा उपटन करना इसका नाम उपलेपन है । वस्त्रखंड से इनको झाडना पंछना इसका नाम सम्मान है। दुग्ध एवं गन्धोदक से इन्हें नहलाना इसका नाम स्नपन है। तात्पर्य कहने का यह है कि जो चरक चीरक आदि पाषण्डस्थ प्रातःकाल आदि के વિશેષને માટે વપરાય છે. વૈશ્રણવ એટલે કુબેર નામને લેકપાલ દસ પ્રકારના ભવનપતિ દે માં જે નાગકુમાર દે છે તેમને અહીં “નાગ” કહેવામાં આવેલા છે. યક્ષ અને ભૂત. આ બન્ને વ્યતર નિકાયના દેવો છે. અમુકુંદ” એટલે નારાયણ (मिसान), दु" । नामनी से हेवी छ. ते स. ५२ सवारी ७२ 2. મહિષાસુરને મારનારી આ દેવીની એવી મૂર્તિ બનાવવામાં આવે છે કે જેને એક ચરણ મહિષાસુર પર અને બીજે સિંહ પર રહેલો હોય છે. કેકિયા” આ નામની પણ એક દેવી હોય છે. જેણે મહિષાસુરને દવંસ કર્યો હતો.
હવે ઉપલેપન આદિ પદેને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે-ઉપર્યુક્ત દેવદેવીની મૂર્તિ પર માખણ આદિનું ઉપન (લેપન) કરવું તેનું નામ ઉપલેપન છે. વસ્ત્રના કકડા વડે તેમની મૂર્તિઓને લૂછવી અથવા ઝાપટવી તેનું નામ સમાજન છે. દૂધ અને ગાદક (સુગન્ધયુક્ત જળ) આદિ વડે તેમની કૃતિઓમ નવરાવવી તેનું નામ “સ્નાન છે.
આ સઘળા કથનને ભાવાર્થ એ છે કે ચરક. ચીરિક આદિ ઉપર્યુકત પાઉંડ. સ્થ (પાખંડીઓ) પ્રાતઃકાળ આદિ સમયે ઇદ્રાદિકની પ્રતિમાઓનું ઉપલેપન આદિ
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अनुयोगद्वार मे
दीनामुपपनादीनि द्रव्यावश्यमानि कुर्वन्ति, तैः कृतमुपलेपनादिकं कुप्रावचनिकं द्रावश्यकमिति । अत्रापि अप्राधान्याद् द्रव्यस्यम्, अप्राधान्यं चोपलेपनादौ मोक्षकारणभावावश्यकापेक्षया बोध्य
,
मोक्षकारणं तु भावावय मेव न तु द्रव्यावश्यकम्, अतोऽथोपलेपनादि द्रव्य वश्यक स्यामानान्यं भवतीति । सर्वथा-आगमत्वाभावात् ना आगमत्वं च ज्ञेयम् । तदेतत्कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकं वर्णितमिति । । ० २१ ॥
ज्ञायकशरी - भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकस्य लोकोत्तरिकरूपं तृतीयभेदमाह-
मूलम् — से किं तं लोगुत्तरियं दव्वोवस्सयं ? लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्कायनिरणुकंपा हय इव उद्दामा, गया इव निरंकुसा, घट्टा मट्ठा तुप्पोट्टा पंडुरपडपाउरणा जिणाणां मणाणाए सछंदं विहरिऊणं ऊभओ कालं आवस्सयस्स उवति । से तं लोगुत्तरियं दव्वावस्स । से त जाणयसरीरभवियसरीरवइरितं दव्वावस्यं । से तं नोआगमओ दव्वावस्यं ॥ सू० २२|| हो जाने पर इन्द्रादिकों की प्रतिमाओं का उपलेपन आदि आवश्यक कृत्य करते हैं वे सब कृत्य कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक हैं । इन उपलेपनादि क्रियाओं में मोक्ष के कारणभूत भावावश्यक की अपेक्षा अप्रधानता होने से द्रव्यत्व जानना चाहिये और सर्वथा आगम के अभाव का अपेक्षा नोआगमता जाननी चाहिये । इस प्रकार कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक का यह स्वरूपवर्णित किया हैं । भावार्थ स्पष्ट है - ॥सूत्र २१ ॥ I
अब सूत्रकार तद्बयतिरिक्त द्रव्यावश्यक का तीसरा भेद जो लोकोत्त रिक द्रव्यावश्यक है - उसका कथन करते हैं
આવશ્યક કૃત્ય કરે છે. તે બધાં કૃત્યોને કુપ્રાવચનિક દ્રવ્યાવશ્યક કહેવામાં આવે છે. તે ઉપલેપન આદિ ક્રિયામાં મેાક્ષના કારણભૂત ભાવાવણ્યકની અપેક્ષાએ અપ્રધાનતા હાવાથી દ્રવ્યત્વના સદ્ભાવ સમજવા જોઇએ. અને આગમના સર્વથા અભાવની અપેક્ષાએ “નેા આગમતા” સમજવી જોઇએ. આ પ્રકારે કુપ્રાવચનિક દ્રુન્યાવશ્યકનું આ સ્વરૂપ અહીં પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યુ છે. ભાવાર્થ સ્પષ્ટ છે. સૂ.૨૧ તદ્વયતિરિકત દ્રવ્યાવશ્યકના લેાકેાન્તરિક દ્રવ્યાવશ્યક નામના ત્રીજા ભેદનું સ્વ३५ वे सूत्रार अउट १रे छ– “से किं तं लोगुत्तरियं" त्याहि
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अनुयोगचन्द्रिका टीका--. २२ तद्व्यतिरिक्तलोकोत्तरीयद्रव्यावश्यक निरूपणम् १५१
B ===
छाया -जय किं तद् लोकोत्तरिकं द्रव्यावश्यकम् ? लोकोत्तरिकं द्रव्यावश्यकं य इमे मण्गुणमुक्तयो गिनः पटुकाय निरनुकम्पाः हया इव उद्दामानः, गजा इव निःकुशाः, घृष्टाः मृष्टाः, तुप्रोष्टाः पाण्डुरपटप्रावरणाः जिनानामनाज्ञया स्वच्छन्दं विहृत्य उभः कालम् आवश्यकाय उपतिष्ठन्ते । वदेतद् लोकोचरिकं द्रव्याबश्यकम् । तदेतद् ज्ञायकशरीर- भव्य शरीरव्यतिरिक्त द्रध्यावश्यकम् । तदेतत् नो आगमतो द्रव्यावःकम् ॥० २२||
-
-
टीका - शिष्यः पृच्छति - 'से किं तं' इत्यादि । अथ किं तद् लोकोसरिकं द्रव्यावश्यम् उत्तमाह- लोः ोत्तरिकं लोकेषु = भुवनत्रये उनराः = उत्कृष्टतराः साधवः, या शेकेषु = भुवनत्रये उत्तरम् = उत्कृष्टतरं जिनप्रवचनं तेषां तस्य वा इदम्-लोको रिकं साधुसम्बन्धिजिनशासनसम्बन्ध वा द्रव्यावश्यकम् एवं विज्ञेयम् य इमे श्रम गुणमुक्त योगिनः - श्रमणाः = साधवस्ते गुणाः = मूलोत्तरगुणरूपाः, तत्र - प्रातिपात विरमणादने मूलगुणाः, पिण्डविशुद्ध यादयस्तूत्तरगुणाः - तेषु मुक्तः = परिक्को योगो = व्यापारो रस्ते श्रमणगुणमुक्त
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" से कि त लोगुत्तरियं " इत्यादि । ।सूत्र २२ ॥ शब्दार्थ - (से) हे भदंत । ( तं लोगुत्तरियं दव्वाव सयं किं) लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का क्या वरूप है ?
उत्तर- (गुत्तरियं दव्वावस्स) लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक का स्वरूप इस प्रकार है - ( जे इमे समणगुणमुव कोगी छक्काय निरणुकंपा हा इव उद्दामा ) श्रमण के मूल गुणों और उत्तर गुणों में जिनका व्यापार परित्यक्त हो चुका है - अर्थात् - मूलोत्तर गुणों में जिनकी बिलकुल आस्था नहीं उपेक्षा है अर्थात् उनसे जो रहित है तथा छह के जीवों के प्रति जिन के अन्तःकरण में दया नहीं है, अतएव उद्दण्ड घोडों की तरह जिनकी प्रवृत्ति बिलकुल हो रही हैगुरुने खेद प्रश्न पूछे है है- (तं लोगुत्तरियं दव्वाप्रस्तुत सोत्तर द्रव्यावश्या स्व३५ वु छे ? दव्यानरस्यं) सातरि द्रव्यावश्यानु' मा प्रठारनु'
शब्दार्थ – (रं) शिष्य वरसयं किं ?) ङे लहन्त ! उत्तर – (तं लोगुत्तरियं
-
સ્વરૂપ છે.
( जे इमे समणगुणमुक्र जागी छक्काय निरणुकंपा हयाइव उद्दामा ) श्रभाणुना મુળગુણા અને ઉત્તરગુ@ામાંથી જેમના યાપાર (વૃત્તિ) પત્યિકત થઇ ચુકી છેએટલે કે મુલેાત્તરગુણામાં જેમને બિવપુલ આસ્થા થી પણ ઉપેક્ષા જ-એટલે કે જેઓ શ્રમણુના મૂળગુણાથી અને ઉત્તરગુણાથી રહિત છે. તથા કાયના જીવા પ્રત્યે જેમના અંતઃકરણમાં દયા નથી. અને તે કારણે ઉદૃ'મ અશ્વની જેમ જેમની
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अनुयोगहारने योगिनः, मूलोत्तरगुणरहिता इत्यर्थः । एते कदाचित् सानुकम्पा अपि स्युरित्याह-'छक्काय निरणुकंपा' इति। पायनिरनुकम्पाः-पायेषु
पृथिव्यादिषु निर्गता अनुकम्पा दया येषां ते तथा, षड्जीवनिकायदयावर्जिताः अत एव-ते हया इव उद्दामान:-बल्गारहिता अश्वा इव, चरणनिपातजीवोपमद निरपेक्षत्वात् द्रुतचारिणः, गजा इव निरकुंशाः आचार्याज्ञोल्लवनशीलत्वात् तथा-घृष्टाः फेनादिना श्लक्ष्णीकृत जाधवयवा अवयवावयविनारभेदोपचारात् घृष्टाः । तथा-मृष्टा तैलेोदकादिना मृष्टाः चिक्कणीकृताः केशाःशरीरं वा येषां ते मृष्टाः, तथा-तुप्रोष्ठा:-तुप्राः-शीतलव रूक्षत्यापनयनाथ नवनीतादिस्निग्धपदाथे ग्रंक्षिता अष्ठा येषां ते तथा, नवनीतादिमिः चिकणितौष्ठा इत्यर्थः, तथाअर्थात् जिस प्रकार विनालगाम के अश्व चरण निपात में जीवोपमर्द निरपेक्ष होने से द्रुतगति किया करते हैं उसी तरह जो ईर्यासमिति से रहित होने के कारण दवदवचारी (द्रुतचारी) होते है (गयाइव निरंकुसा) मदोन्मत हाथी की तरह जो निगडुश होते हैं-जिस प्रकार मदोन्मत्त गज अपने महावत की आज्ञा से बहिर्भूत बन जाया करता है-उसी प्रकार जो आज्ञा को नहीं मानते हैं(घंटा) जिन्होंने फेन आदिसे जंघा आदि अवयोवा चिकाण-मुलायम) बनाया है (मट्ठा) तैल आदिस्निग्ध पदार्थों से केशों का जो संस्कार करते हैं, जल से बार २ जो शरीर को धोते रहते हैं (तुप्पाहा) शीतकाल जन्य ओष्ठों की रुक्षता हटाने के लिये जो नवनीत-मक्खन-आदि स्निग्ध पदार्थों की उनमें मालिश करते हैं-अर्थात् नवनीतादिक की मालिश से जो अपने ओष्टयुगल પ્રવૃત્તિ ચા. રહી છે. એટલે કે જેવી રીતે અશ્વ જમીન પર ચરણ મુકતી વખતે જીપમર્દનની પેરવી કર્યા વિના તગતિથી ચાલ્યા કરે છે. એ જ પ્રમાણે જેઓ ઈર્યાસમિતિથી વિહીન હોવાને કારણે જીપમર્દનની પરવા કર્યા વિના શીઘગતિથી यादया ४२i डाय छ ( तयारी डाय छे). (गयाइव निरं -सा) रेमो महोन्मत्त હાથીને જેવાં નિરંકુશ હોય છે-જેમ મદોન્મત્ત હાથી તેના મહાવતની આજ્ઞા પ્રમાણે ચાલતું નથી એ જ પ્રમાણે જેઓ ગુરુની આજ્ઞાને માનતા નથી. (ઘા) ફેન (એક પ્રકારને નિગ્ધ પદાર્થ) આદિ વડે જેમણે જાઘ આદિ અવયને મુલાयस मनाव्यां छे. (मट्टा तेरा मा स्निग्ध पहा या पोताना पानी સંસ્કાર કરે છે. અને જેઓ જળથી શરીરને વારંવાર જોયા કરે છે. घायां रे छे, (तुष्प ट्ठा) अन ४।२0 टी गये। उनी ३क्षता ६२ ४२पाने भाटे જેઓ માખણ, ને, વેસેલીન આદિ સિનગ્ધ પદાર્થોનું તેના પર માલિશ કરે છે, એટલે કે જેઓ સ્ન આદિના માલિશ વડે પિતાના હોઠને મુલાયમ રાખવાનો
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अनुयोगन्द्रिका टीका. २२ तद्वयतिरिक्तलोकोत्तरीयद्रव्यावश्यकनिरूपणम् १५३ पाण्डुरघटप्रावरणाः पाण्डुगः धौताः मलपरीषहसहनाक्षमत्वात्, पटाः परिधानपखाण, प्रावरणानि-शरीराच्छादनवस्त्राणि च येषां ते तथा, परिहितनिर्मलवसनाः, जिनानामाज्ञया स्वच्छदं विहृत्य-जिनाज्ञामनादृत्य स्वस्त्र रुच्या विविधक्रियाः कृत्वा उभयकाल-प्रातःसायम् आवश्यकाय-प्रतिक्रमणाय उपतिष्ठन्तेउद्युक्ता भवन्ति । तत्तेषामावश्यकं लोकोत्तरिकं द्रव्यावर गकम् । अत्र द्रव्यायश्यकत्वं भावशून्यत्वात्, तत्कलाभावात्, संसारकारणत्वाच्च अप्रधानतया बोध्यम् । को चिकने रखते हैं. (पंडुरपडपाउणा) जो मल परीषह को सहने में असमर्थ होने के का ग अपने पहनने और ओढने के वस्त्रों को धोने में आसक्त रहते हैं। दिणाणमणाणाए) जिन भगवान् की आज्ञाकी परवाह न करके जो (स छंद विहरिऊणं) अपनी अपनी रूचि के अनुसार विविध काओं करके (उभओ कालं) प्रातः सायं दोनों समय (आवस्सयस्य वति) प्रतिक्रमण करने के लिये उद्युक होते हैं (से) सोर लाउनरियं दभाव-मयं) उनका वह आवश्यक-प्रतिक्रमण कोरिक अमाशयक हैं। से जाणासरीर भविय सरीरकइरितं दावत: य इस रह ज्ञायक शरीर और भव्यशी इन दोनों से जुदा यह दृव्याव य-लोकोत्तरित व्या . है । इन क्रियाओं में भावशून्यता होने के कारण उन । काई वा वि फल प्राप्त नहीं होता हैउल्टा उन से सारा ही वर्णन होता है। इसलिये इन भावशन्य द्रव्यलिङ्गि साधुओं द्वारा किया गा आवश्यक प्रथा : हे ने के कारण द्रव्याप्रयत्न ४२ता रहे छ, (पंडुरपडपाउरणा ! मदन सहन ४२वामां आसમર્થ હોવાને કારણે પિતાના પહેરવા ટકાના વસ્ત્રોને ધવામાં આસકત રહે છે. (जिणाणमणालाए) नेन्द्र पान... ज्ञानी ५:१५ विरे। (सछंद विहरिऊणं) पानी ४२-४! २५नुसारन ६५ जिया रीन (उमओकालं) प्रात: मने सायण, मा भन्ने समये (आवस्सथस्स उनटुंति) प्रतिभ, ४२पाने तयार थाय छ, (से तं लोउत्तरियं दवावस्सयं) तो तेमनी ते मावश्य [या३५ प्रतिभए टोत्त:२४ द्रव्यावश्य४३५ गाय छे. (से तं जाणयसरीर भविय सरीरवहरितं दवावस्सयं) शायरी२ भने १०यशरीर, 41 मन्नेथी मिन्न એવા દ્રવ્યાવસ્થાના કેરિક દ્રવ્યાવશ્યક નામના ત્રીજા ભેદનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજવું. આ ક્રિયાઓમાં ભાવશૂન્યતા હોવાને કારણે તેમનું કઈ વાસ્તવિક , ફલ પ્રાપ્ત થતું નથી, પરંતુ ઉટે સંસાર જ વધે છે. તેથી આ પ્રકારના દ્રવ્ય"લિંગી સાધુઓ દ્વારા કરવામાં આવેલું આવશ્યકકર્મ અપ્રધાન હોવાને કારણે વ્યા
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अनुयोगदारले नोआगमत्वं च देशे क्रियालक्षणे आगमाभावात् । 'नो बन्दस्यात्र देशप्रतिषेधवचनत्वं बोध्यम । आवश्यकज्ञानसद्भावादागमोऽपि देशतो बताते, इति ।
अत्र छाकात्तरिकद्रव्यावश्यके दृष्टान्तः प्रदश्यते-पुरा बसन्तपुरे नगरेऽगीतार्थ एकः संघो विहरति म। तत्र संघे साधुगुणरहितः कश्चित्संविग्नाभासः साधुः प्रतिदिनं पुरःकर्मादिदोषदुष्टमनेषणीयं भक्तादि गृहीत्वा महता संबेगेन प्रतिक्रमणकाले सर्वमालेचयति । अगीतार्थों गच्छाचार्यध तस्मै अगीतार्थत्वात वश्यक माना गया है ऐसा जानना चाहिये। यहां पर 'गो' शब्द एक देश प्रतिषेध अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् परिक्रमण क्रियारूप एकदेश में आगम रूपता नहीं है। परन्तु प्रतिक्रमणरूप आवश्यक के ज्ञान का सद्भाव होने से वहां आगम भी इस तरह एकदेशरूप आवश्यक क्रिया में आगम का प्रतिपेष यह 'नो' शब्द करता है। और यह प्रकट करता है कि यहां केवल आगम एकदेश में वर्तमान है। इस तरह "ना" शब्द में देश प्रतिषेधवचनता जाननी चाहिये । लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक के ऊपर दृष्टान्त इस प्रकार से है-प्राचीनकाल में बसन्तपुर नाम के नगर में एक अगीतार्थ संघविहार करता हुआ आया । उसमें साधुगुणों से रहित एक साधु था । जो संविग्नाभास (ऊपर से वैराग्य देखानेवाला) था। वह प्रतिदिन पुरः कर्मादि दोषों से युक्त अनेपणीय आहार ले करके आता-और बडे ही संवेग भाव से १३५४३५ भानवामा मान्यु छ, मेम समन. मी "नो आगम" ५४मा १५राये। "नो" २०६ मे देश प्रतिषेध (निषेध)न। म मां प्रयुत यो छ, मेट से પ્રતિક્રમણ ક્રિયારૂપ એક દેશમાં આગમરૂપતા હોતી નથી, પરંતુ પ્રતિક્રમણરૂપ આવયના જ્ઞાનને સદૂભાવ હોવાથી ત્યાં આગમને પણ એકદેશની અપેક્ષાએ સદ્દભાવ હોય છે. આ રીતે બને પદ અહીં એક દેશરૂપ આવશ્યક ક્રિયામાં આગમને પ્રતિષેધ (નિષેધ) કરે છે, અને એ વાત પ્રકટ કરે છે. કે ત્યાં આગમ કેવળ એક દેશતઃ વર્તમાન છે. આ પ્રમાણે “” શબ્દમાં દેશ પ્રતિષેધ વચનતા સમજવી જોઈએ. લકત્તરિક ૦૭. વશ્યકનું પ્રતિપાદન કરવાને માટે હવે નીચેનું દષ્ટાન્ત આપવામાં આવે છે
પ્રાચીન કાળમાં વસંતપુર નામના નગરમાં અગીતાર્થ સાધુઓને એક સંઘ વિહાર કરતા કરતે આવી પહોંચ્યો. તે સંઘમાં સાધુઓના ગુણોથી રહિત, પણ સંવિસાભાસી (ઉપર ઉપરથી વૈરાગ્ય ભાવ દેખાડનાર) એ એક સાધુ હતું. તે હંમેશા પુરા કર્માદિ દેથી યુકત અનેષણીય (અકલ્પ્ય) આહાર વિહોરી લાવતે હતો, અને પ્રતિક્રમણ કરતી વખતે ઘણા જ સંવેગભાવ પૂર્વક પોતાના દેશની
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अनुयोगचन्द्रिका टीका-सू.२२ तव्यतिरिक्तलाकोत्तरीयद्रव्यावश्यकनिरूपणम् १५५ प्रायश्चिसं प्रयच्छन् एव वदति-पश्यत साधवः। कथमय' स्वदुष्कृतमगोपयन अशठतया प्रकाशयति, दोषासेवनं सुकरम्, आलेोचना तु दुष्करा, अतोऽशठतयैव शुध्यतेऽसौ । इत्थं तस्य प्रशंसां त्वाऽन्येऽपि अगीतार्थश्रमणास्तं प्रशंसन्ति, चिन्तयन्ति च गुरुसमीपआलोचन । चेत् शुद्धस्तर्हि असकृद्दीषासेवनायां कृतायामपि न कश्चिद् दोषः । इत्थं गच्छति कियतिकाले तत्रैकः संविग्नगीतार्थः कश्चित् साधुः समायानः । स प्रतिदिनमेवंविधं व्यतिकरं विलोक्य तं गच्छाप्रतिक्रमण करने के समय में अपने दोषों की आलोचना करता। गच्छाचार्य जो कि स्वयं अगीतार्थ थे वे अगीतार्थ जान करके उसके लिये प्रायश्चित्त दे ते समय ऐसा कहते कि है साधुओं-देखो-यह साधु कितना भला है कि जो अपने एक भी दोष को नहीं छिपाता है, और सबको सरल भावसे प्रकटकर देता है। दोषों का सेवन तो हो जाता है, परन्तु उनकी आलोचना करना बडा कठिन काम है । इसलिये यह किसी भी मायाचार के विना जो अपने दोषों की आलेचना करता है उसी से यह शुद्ध हो जाता है। इस प्रकार आचार्य कृत प्रसा को सुनकर के संघस्थ अन्य अगीतार्थं श्रमणजन भी उसकी प्रशंसा करने लगजाते। और विचारने लगते कि गुरु के समीप में यदि आलोचना करने मात्र से ही दोषों की शुद्धि हो जाता है तो बार २ दोषों के सेवन करने में भी कई हानि नहीं है। इस प्रकार करते २ जब कितनाक समय निकल गया-तब उस संघ में एक संविग्न क्रियापात्र) गीता र्थ कोई साधु विहार करता हुआ बाहर से आया । जब उसने संघ की इस આલોચના કરતે હતે. તે ગચ્છના આચાર્ય કે જેઓ અગીતાર્થ હતા, તેઓ આ સંવિગ્નાભાસી સાધુને પ્રાયશ્ચિત દેતી વખતે સાધુઓની પાસે તેની આ પ્રમાણે પ્રશંસા ક્ય કરતાં હતાં- “હે સાધુઓ ! જુઓ, આ સાધુ કેટલે ભલે છે કે તેને એક પણ દેષ છુપાવતે નથી, અને પોતાના સઘળા દેને સરલભાવે પ્રકટ કરી દે છે. દેનું સેવન તે થઈ જાય છે, પરંતુ તેમની આલેચના કરવાનું કામ ઘણું જ કઠણ છે. કોઈ પણ પ્રકારના માયાચાર વિના પોતાના દેશની આલોચના કરવાને લીધે તે શુદ્ધ થઈ જાય છે.” આચાર્ય દ્વારા તેની આ પ્રમાણે પ્રશંસા થતી જોઈને સંઘના અંગીતાર્થ અન્ય શ્રમણે પણ તેની પ્રશંસા કરવા મંડી જતા. તે સંઘના સાધુઓમાં આ પ્રકારની પેટી માન્યતા વ્યાપી ગઈ કે ગુરુની સમીપે માત્ર આલેચના કરવાથી જ દેશોની શુદ્ધિ થઈ જતી હોય, તે વારંવાર દેષોનું સેવન કરવામાં પણ કેઈ હાનિ નથી. આ પ્રકારની તેમની પ્રવૃત્તિ કેટલાક સમય સુધી ચાલુ જ રહી. એવામાં કોઈ એક સંવિગ્ન (ડિયાપાત્ર) ગીતાર્થ સાધુ ગામ નગર આદિને વિહાર કરતે કરતે તે વસન્તપુર નગરમાં આવી પહોંચ્યા. જ્યારે તેણે તે અગી
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अनुवो चार्यमुक्तवान्-त्वमस्य शठसाध : प्रशंसां कुर्वन् अग्निभक्तप्रशंसको नृप इस इसे । गच्छाचार्येण तत्कथां कथयितु प्रेरितः स संविग्नगीतार्थों मुनिरेवं प्रोक्तपान्।
आसीद् गिरिनगरवासी कश्चिदग्निभक्तो वणिक्। स प्रतिवर्ष पश्नरागरत्नैः गृहं भृत्वा वह्निना तत् प्रदीपयति । अग्नौ तस्यैवं विधं श्रद्धातिशयं विलोक्य, तन्न गरवासिनो जना नरपतिश्चाविवेकितया तं प्रशंसन्त एवंवदन्सिभन्योऽयंवणिक, य: प्रतिवर्ष पद्मरागैवह्नि सन्तर्पयति । अथान्यदा प्रबलपवनवेगेन प्रकार की प्रतिदिन की व्यवस्था देखी-तब उससे नहीं रहा गया-और गच्छाचार्य के पास जाकर उसने उनसे कहा आप इस शठ साधु की जो प्रशंसा करते हैं-वह य आपका अग्निभक्त की प्रशंसा करनेवाले ए- राजा की तरह है। यह कथा कैसी है इस प्रकार गराचार्य के पूछने पर उम संविग्न गीतार्थ साधुने उन्हें यह कथा इस तरह से सुनाई-गिरिनगर में ए अग्निभक्त वणिक रहला था। यह प्रतिवर्ष पद्मरागरत्नों को घर में भरकर उसमें आग लगा देता था। उसके अविवेक पूर्ण कार्य की वहां का राजा और पुरवासिजन सबही प्रशसा करते। कहते-देखा इसके श्रद्धातिशय को-जो प्रति वर्ष पद्मरागमणियों से अग्निदेव को संतर्पित रता है। एकदिन की बात है कि जब उसने पद्मशगमणियों का भरकर घरमें आग लगाई-तब उस समय आंधी के वेग से अग्निज्वाला इतनी अधिः प्रदीप्त हुई कि उसका संभालना मुश्किल हो गय-। देखते २ उस प्रदीप्त अग्निने राजमहल सहित उस समस्त नगर તાર્થસંધના તે સંવિગ્નાભાસી સાધુની તે પ્રકારની દરજની પ્રવૃત્તિ દેખી, ત્યારે તેનાથી તે સહન થઈ શકી નહીં. તેણે તે અગીતાર્થ સંઘાચાર્યની પાસે જઈને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું – “આપ આ શઠ સાધુની જે પ્રશંસા કરે છે તે અગ્નિભક્તની પ્રશંસા કરનારા એક રાજાના કાર્ય જેવું કાર્ય છે. ત્યારે તે સંઘાચાર્ય तेभने पूछ्यु-"मिलतनी शी ४था छ? * ત્યારે તે સંવિગ્ન ગીતાર્થ સાધુએ તેમને નીચે પ્રમાણે કથા કહી ગિરિનગર માં એક અગ્નિભકત વણિક રહેતું હતું. તે અનિદેવને ખુશ કરવા માટે પ્રતિવર્ષ પધરાગ રત્નને ઘરમાં ભરીને તેને આગ લગાડતું હતું. તેના આ અવિવેકપૂર્ણ કાર્યની ત્યાં રાજા અને નગરવાસીઓ ખૂબ પ્રશંસા કરતા હતા, તેઓ એકબીજાને કહેતાં–જુઓ તેને અગ્નિદેવ પ્રત્યે કેટલી બધી શ્રદ્ધા છે ! તે શ્રદ્ધાને કારણે તે તે પ્રતિવર્ષ પદ્મરાગ મણિઓથી અગ્નિને સંતૃપ્ત કરે છે. હવે એક દિવસે એવું બન્યું કે જ્યારે તે વણિકે ઘરમાં પધરાગમણિઓ ભરીને ઘરને આગ લગાડી ત્યારે અચાનક આંધી ચડવાને કારણે તે આગ ચેરમેર પ્રસરી ગઈ અને તેને પ્રાકૃમી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू०२२ नद्वयतिरिक्तलोकोत्तरिपद्रव्यावर कनिरूपणम् १५७
प्रादितम्तत्प्रदापितवहीराजप्रासादसहितं समस्तमपि तन्नगरं ददाह । तो राज्ञा स वणिग्दण्डितो नगगद् निष्कासितश्च । ___तथा त्वमपि अविधि वृत 7 अस्य प्रशंसां कुन् आत्मानं संधं च विना शयसि । यदि पुनरत्त मेनं शिक्षयसि, तदाऽपर नृप इव स्वपस्कल गणकारको भविष्यसि । तथाहि
आसीत्कश्चिद् राजा, यो हि तथाविधकर्मकारिणं कंचीदेकं वणिज समाहूब प्रोक्तवान्-'दि तव पद्मरागमणिभिरग्नेस्तर्पणमावश्यकं, तर्हि वने गत्वा को भी स्वाहा कादिया । राजा ने जब परिस्थिमि का विचार किया तो अपने अज्ञानमा पर उसे बडा पश्चात्ताप हुआ । अन्तमें उसने उस वणिक को दण्डित करअपने नगर में बाहिर निकाल दिया। इसी प्रकार आप भी अविधि में प्रवृत्त हुए इस साधु की जो प्रशंसा करते हैं-वह आप का आर संघ का विनाशक है। यदि इस संघ में आप किसी एक को भी शिक्षित करदे तो आपका यह कार्य एक दूसरे राजा की तरह स्व और परका कल्याणकारक होगा-मुनिये-एक राना था। उसके राज्य में भी इसी अग्निभका कति की तरह एक वणिक रहता था। वह भी प्रतिवर्ष पनरागमणियों को घर में भरकर उसमें आग लगा देता था-और इस तरह से अग्नि का संतर्पित किया करता था। जब राजा को उसकी इस बात का पता लगा- व उसे बुलाकर उसने कहा कि यदि पद्मरागमणियों से अग्नि को संतर्पित करना तुम्हारे लिये आवश्यक है-जो तुम यह कार्य नगर में रह લેવાનું કાર્ય મુશ્કેલ બની ગયું. તે આગની જવાળાઓમાં રાજમહેલ સહિત આખું નગર ભસ્મીભૂત થઈ ગયું. જ્યારે રાજાએ આ પરિસ્થિતિના કારણને શાંત ચિત્ત વિચાર કર્યો ત્યારે તેને પોતાની અા.દાને માટે પશ્ચાત્તાપ થયો. તેણે તે વણિકને સજા ફરમાવીને પિતાના નગરમાંથી હાંકી કાઢયે. તે રાજાની જેમ આપ અવિધિમાં પાપાચારમાં પ્રવૃત્ત થયેલા આ શઠ સાધુની જે પ્રશંસા કરે છે, તે આપને અને સંઘને વિનાશ કરનારી નિવડશે. જે આપ કા સંઘમાંથી એવા એક સાધુને પણ શિક્ષા કરીને હાંકી કાઢશે. તે આપનું તે કાર્ય એક બીજા રાજાના કાર્યની જેમ રવ અને પરનું કાણું કરનારૂં થઈ પડશે. હવે તે સવસ બીનાથે સાધુ તે રાજાની કથા તે આચાર્યને કહી સંભળાવે છે
કેઈ એક રાજાના નગરમાં ઉપર્યુકત અગ્નિભકત વણિક જે એક વણિક રહેતું હતું. તે પણ અગ્નિદેવને તૃપ્ત કરવા નિમિત્તે પ્રતિવર્ષ પિતાના ઘરમાં પ. રાગમણિઓ ભરીને ઘરને આગ લગાડી દેતો હતું જ્યારે રાજાને તેની આ વાતની ખબર પડી ત્યારે તેણે તે વણિકને પેતાની પાસે બોલાવીને આ પ્રમાણે ચેતવણી આપી–જે પધરાગ મણિઓ ઘરમાં ભરીને તેને આગ લગાડીને તમે અગ્નિદેવને
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अनुयोगद्वारसूत्रे
कथं नव ं करोषि ? तवैवंविधया क्रिया कदाचित्सम तो पि ग्रामो विनश्येत् । इत्येवं तं निर्भर्त्स्य दण्डयित्वा नगराद् निष्कासितवान । तथा त्वमपि कुरु ।
एवं तेन संविग्नगीतार्थेन बहुशः प्रतिबोधितोऽपि स गच्छाचार्यों यदा रखव्यापारान्न निवृत्तस्तदा स साधुः अन्यान् गच्छस्थितान् साधून् एवमुक्तवान - " यद्येषोऽसंविग्नोऽगीतार्थो गच्छाधिपो भवद्भिर्न परित्यज्यते, तदा भवतां महान् अनर्थो भविष्यती 'ति । एवंविधं साध्वाभासावर कप्रकारं सर्व टोकोस रिकं द्रव्यावश्यकम् । एतत्सर्व निगमयन्नाह - ' से तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सर" कर क्यों करते हो - क्यों नहीं जंगल में जाकर इसे किया करते हो। क्यों कि इस तुम्हारी प्रवृत्ति से कभी न कभी समस्त ग्राम के नष्ट होने की संभावना हैं । अतः तुम इस दुष्प्रवृत्ति वाया तो त्याग करो नहीं तो गाँव से बाहिर निकल जाओ । इस प्रकार डाट डपट कर उस राजाने उसे दण्डित करके अपने नगर से बाहिर निकाल दिया । अतः आप भी संघ की कल्याण कामना से ऐसा ही की जिये । इस प्रकार उस संविग्नगीतार्थ साधुने उन गच्छाचार्य को बहुत प्रकार से समझाया । परन्तु जब वे समझाने पर नहीं समझे तब उस आगतसाधुने संघस्थित अन्य साधुओं से इस प्रकार कहा- देखो यह गच्छाधिपति अग्नि (क्रियाहीन) और अगीतार्थ है, यदि आपलोग इससे अलग नहीं होते हैं - तो इसमें आप सब का बडा भारी अनर्थ होगा । इस प्रकार का साध्वाभासों (वेषधारियों) का जो भी आवश्यक प्रकार हैं वह સંતૃપ્ત કરવાનું આવશ્યક માનતા હા. તે તમારે નગરમાં રહીને એવુ કાર્ય કરવું ોઈએ નહી. જગલમાં જઈને તમે તે કામ કરી શકે છે. નગરમાં રહીને તમે તમારી આ પ્રવૃત્તિ ચાલુ રાખશે। તે તમારી આ દુપ્રવૃત્તિને કારણે કોઇ વાર આખા નગરને ભસ્મીભૂત કરી નાખશે. માટે કાં તેા તમારી આ દુષ્પ્રવૃત્તિ અધ કરી દે નહી” તેા ગામ છેડીને જતા રહે” આ પ્રમાણે ધમકાવીને રાજાએ તેને પોતાના નગરમાંથી હાંકી કાઢયા. આપે પશુ સંઘના કલ્યાણને ખાતર તે શઠ સાધુને સઘ માંથી હાંકી કાઢવા જોઇએ. આ પ્રમાણે તે સવિગ્નગીતા સાધુએ તે ગચ્છાચાય ને ખૂબખૂબ સમજાવ્યા, છતાં પણ જ્યારે તેમણે તેની વાતને ન સ્વીકારી ત્યારે તે સવિગ્નગીતા સાધુએ તે સંઘના અન્ય સાધુએને આ પ્રમાણે કહ્યું- આ ગચ્છધિપતિ અસવિગ્ન (ક્રિયાહીન) અને અગીતા છે. જો આપ તેમનાથી જુદા નહીં પડે તે આપનું અકલ્યાણ થશે. આપના સ‘સાર અલ્પ થવાને બદલે દીઘ થતા જશે.” આ પ્રકારના દ્રવ્યલિ’ગી સાધુઓની (માત્ર વેષની અપેક્ષાએ જ સાધુ દેખાતા ઢાય પણ સાધુના આચારાથી રહિત હેાય એવા સાધુને દ્રવ્યલિંગી કહે છે) જે
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अनुयोगच न्द्रका टीका सू० २३ भावावश्यकनिरूपणम्
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इति तदेत लोकोत्तरिकं द्रव्यावश्यकं वर्णितम् । नोआगमतो द्रव्यावश्यकमपि सर्व निरू पेतमिति कटयितुमाह-तदेतद् न आगमतो द्रव्यावश्यकं वर्णितम् । तदेतत् द्र यावश्यकं वर्णितम् इति ॥० २२|| अथावसरमा भावावश्यकं निरूपयितुमाह
मूलम् - से किं तं भावावस्तयं ? भावावस्तयं दुविहं पण्णत्तं, रुं जहा आगमओ य, नो आगमओ य ॥ सू० २३॥
छाश--अथ किं तद् भावावश्यकम् ? भावावश्यकं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्य !-आगमतश्च, नीभागमतश्च | | ०२३ ||
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टी ! - शिष्यः पृच्छति -- 'से किं तं भावा स्स' इति । हे भदन्त ! अथ किं तद् भावावश्यकम् ? उत्तरमाह - 'भावावस्तयं' इति । भावावश्यकसब लोकान्तरिक द्रव्यावधिक है । इस तरह यहां तक ( से तं नोआगमओ दवस) पूर्व प्रक्रान्त नोआगम द्रध्याव यक का कथन किया गया है कि नोआगम को लेकर द्रव्यावश्यक के भेद प्रभेदों का पूर्वोस रूप से वर्णन हो चुका है | || सूत्र २२ ॥
अब सूत्रकार भावावश्यक का वर्णन करते हैं-से किं तं भावावस्तयं इत्यादि || सूत्र २३ ॥
शब्दार्थ - (से) हे भदंत ! भाावश्यक का क्या स्वरूप है ? उत्तर--(भावावस्मयं दुविहं पण्णत्तं ) भावोवश्यक दो
प्रकार का है । (तंजा) वे प्रकार ये हैं- ( आगमओ य नोआगम्य ) एक आगम को लेकर भावावश्यक और दूसा नोआग को लेकर भावावश्यक । विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त जो साध्वादिरूपपदार्थ है उसका नाम भाव है । यहां भाव કાર્ડ આવશ્યક ક્રિયાએ હાય છે. તે લેાકેાન્તરિક દ્રવ્યાવશ્યક રૂપજ ગણાય છે. (सेतं नो आगमओ दवावस्स) मा रीते मडी सुधीमां पूर्व प्रस्तुत नो आगम દ્રવ્યાવશ્યકનુ” કથન કરવામાં આવ્યું છે. એમ સમજવુ'. કહેવાનું' તાત્પય એ છે કે નાઆગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાવશ્યકના જે ભેદ-પ્રભેદો પડે છે. તેમનું વર્ણન અહીં પુરૂ થાય છે. શાસ્॰ ૨૨
હવે સત્રકાર ભાવાવણ્યકના સ્વરૂપનુ નિરૂપણ કરે છે— " से किं तं भावावस्सयं" त्याहि
शब्दार्थ – (से) शिष्य गुरुने હે ભગવન્ ! ભાવાવણ્યકનું સ્વરૂપ કેવું
प्रश्न पूछे छे 3 तं भावाप किं) કહ્યું છે ?
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अनुयोगासने
इह - विवक्षित क्रियानुभवयुक्तोयोऽर्थः साध्वादिरूपः स भावः । भाव तद्वतो' मेदोपचाराद भाषः । यथा-ऐश्वर्यरूपायाः इदनक्रियायाः अनुभवाद् इन्द्रो भाव उच्यते । भाववासौ आवश्यकं च भावावश्यकम् । यद्वा विवक्षितक्रियानुभवरूपं भावमाश्रित्य आवश्यकं भावावश्यकम् ।
तद् द्विविधं प्रज्ञेप्तम् । तद् यथा - आगमतश्च = आगममाश्रित्य नोआगमतश्च = आगमाभावमाश्रित्य ।। ० २३ ॥
मूलम्
1
किं तं आगमओ भावावस्सय ? आगमओ भाषावयं जाणय उवउत्ते । से तं आगमओ भावावस्स्यं ॥ सू० २४ ॥ छाया - अथ किं तद् आगमतो भावावा यकम् ? आगमतो भांवावश्यकं ज्ञायक उपयुक्तः । तदेतदागमतो भावावश्यकम् ॥ मु० २४ ॥
और भाववान में अभेदोपचार किया गया है । इसलिये विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त अर्थ को भाव कह दिया है । जैसे ऐश्वर्यरूप इन्दन क्रिश के अनुभव से इन्द्र भाव कहा जाता है । भावरूप आवश्यक का नाम भागवशयक है । अथवा विवक्षित क्रिया के अनुभवरूप भाव को लेकर जी आवश्यक होता है उसका नाम भावावश्यक है | ॥सूत्र २३ ॥
भावावश्यक का स्वरूप आगम की अपेक्षा लेकर सूत्रकार इस प्रकार से प्रकट करते हैं-से किं तं आगमओ भावावस्सयं इत्यादि ॥ | सूत्र २४॥ शब्दार्थ - - हे भदंत ! आगम को आश्रित करके भाव आवश्यक का क्या स्वरूप है ?
उत्त२-(भावावस्सं दुविहं पण्णत्तं) लावावश्यना मे प्र२ छे (तंजा) ते પ્રકાશ નીચે પ્રમાણે કહ્યા ( आगमो य नोआगमो य) (१) भागमनी अपेक्षा ભાવાવશ્યક અને (૨) ના આગમની અપેક્ષાએ ભાવાવશ્યક,
વિંવક્ષિત ક્રિયાના અનુભવથી યુકત જે સાધુ આદિ રૂપ પદાથ' છે, તેનુ' નામ ભાવ છે. અહીં ભાવ અને ભાવવાનમા અભેદપચારની અપેક્ષાએ આ પ્રમાણે કહેવામાં આ ... છે. તેથી વિક્ષિત ક્રિયાના અનુભવથી યુકત અને ‘ભાવ’ કહેવામાં આ છે. જેમ કે અા રૂપ ઇન્દન ક્રિયાના અનુભવથી ઈન્દ્રને ભાવરૂપ કહેવામાં આવે છે. ભાવરૂપ આવશ્યકનુ' નામ ભાવાવશ્યક છે. અથવા વિવક્ષિત ક્રિયાના અનુભવન અપેક્ષાએ જે આવશ્યક હાય છે, તેનુ' નામ ભાવાવશ્યક છે. ૫ સુ॰ ૨૩
હવે સૂત્રકાર ભાષાવશ્યકના પ્રથમ ભેદ રૂપ જે “ આગમનની અપેક્ષાએ ભાષાવશ્યક'' છે, તેના સ્વરૂપનુ કથન કરે છે—
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टीका —— शिष्यः पृच्छति - 'से किं तं आगमओ भावावस्तयं' इति । अथ किं तद् आगमतो भावावश्यकम् ? उत्तरमाह - 'आगमओ भावावस्स्य' इत्यादि । आगमतो भावाश्यक ज्ञाक उपयुक्तः । अयमर्थः- आश्वयक आश्वक पदार्थज्ञग्तज्जनित - संवेगेन विशुः यमानपरिणाम तत्र चोपयुक्तः साचादिराग मतो भावावश्यकम् । आवश्यकार्यज्ञानरूपस्यागमस्यात्र. सत्त्वात् । भावेश्वात्रावश्यकार्थज्ञानजनितोपयोगवच्चात् भावमाश्रित्यावश्यकमिति व्युत्पत्तेः । इदमुक्तं भवति - भाव
अनुयो । चन्द्रिका टीका सूत्र २४ भावावश् यक स्त्ररूपनिरूपणम्
"
उत्तर- (आगमओ भावाःस्सयं जाण उवउत्ते) आवश्यक सूत्र के अर्थ को जानने वाला ऐसा उसमें उपयोगयुक्त बना हुआ साध्वादि कि जिसके परिणाम संवेग से विशुद्ध बन रहे हैं आगमतः भावा कक है । क्योंकि इसमे आवश्यक सूत्र के अर्थज्ञानरूप आगमका सद्भाव हो रहा है । यद्यपि आय के अर्थज्ञान से जनित जो उपयोग है उसका नाम भाव है । और इस भाव को आश्रित करके जो आवश्यक है वह भावावश्यक है, इस आवश्यक आगम से रूप में बहा
प्रर की व्युत्पत्ति से
अर्थ के ज्ञाता का आवश्यक में उपयोगरूप बना हुआ परिणाम, भावावश्यकरून ठहरता है फिर भी जो साध्वादि को भावा जाता है वह इस प्रकार के परिणाम से युक्त हं ने के कारण उपचार से कहा जाता हैं ऐसा जानना चाहिये । आश्यक में जो यह उपयोग परिणाम
से किं तं आगमओ भावावस्स" त्याहि
શબ્દા-હે ભગવન્! આગમને આશ્રિત કરીને (આગમની અપેક્ષાએ) ભાવ આવશ્યન્નુ' સ્વરૂપ કેવું છે ?
Gत्त२-(आगमओ भावावस्सयं जाणय उवउत्ते) आवश्य सूत्रना अर्थने જાણનારા અને તેમાં ઉપયોગ યુકત બનેલા સાધુ કે જેનાં પરિણામે સંવેગને લીધે વિશુદ્ધ બની રહ્યા હોય છે, તે આગમની અપેક્ષાએ ભાવવશ્યક હોય છે, કારણ કે એવા સાધુમાં આવશ્યક સુત્રના અજ્ઞાન રૂપ આગમના સદ્ભાવ થઇ રહ્યો હાય છે. જો કે આવશ્યના અર્થ જ્ઞાનથી જનિત જે ઉપયોગ છે તેનુ નામ ભાવ છે, અને તે ભાષને આશ્રિત કરીને જે આવશ્યક છે, તેનું નામ ભાવાવશ્યક છે, આ પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ અનુસાર આ શ્યક અના જ્ઞાતાનું આવશ્યકમાં ઉપયોગયુકત બનેલું પરિણામ (નિવૃત્ત) આગમની અપેક્ષાએ ભાવવશ્યક રૂપ પ્રતિપાદિત થાય છે, છતાં પણ જે સાધુ આદિને ભાવવશ્યક રૂપ કહેવામાં આવેલ છે તે આ પ્રકારના પરિ ણામથી યુત દાવાને કારણે ઔપચારિક રીતે કહેવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું.
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अनुयोगबारसूत्रे रूप भावावस्या है वह धर्म पदाच्य है कयों कि यह श्रुत धर्म के अन्तर्गत है इसी की मान्यता के विषय में जिन भगवान् की आज्ञा का सद्भार है।
तात्पर्य कहनेका यह है कि यहां पर शंकाकार की ऐसी शंका हो सकती है कि नाम आवश्क, स्थापना आवश्यक और द्रव्य आवश्क ये आराधना करने योग्य हैं ऐसी जिन भगवान् की आज्ञा ही नहीं हैं यह बात तो निश्चित है- कि इनमें उपयोग का अभाव हैं और चारित्र गुण विहीनता है। अतः ये कमों कि निर्जरा के साधक नहीं होते हैं। और इसी कारण ये धर्मपद वाच्य भी नहीं होते हैं। परन्तु जो सामायिक आदि रूप लोकत्तरिक द्रव्यावश्यक है कि जो प्रवचनोक्त है-आगम संमत है-वह तो धर्मपदवाच्य होना चाहिये-सो इस शंग वा समाधान इस प्रकार से है-कि सामायिक आदि क्रियाएँ प्रवचनोक्त अवश्यक है तो भी वे जिनाज्ञा से वहि भूत बने हुए साध्वाभासों (वेषधारियां) द्वारा कि जो स्वच्छंद विहारी होते हैं, मूलगुण और उत्तर गुणों में जिन्हें आस्था नहीं होती है, छहकार के जीवों की रक्षा करनेरूप अनुकंपा वा भाव जिनके अंतःकरण में शून्यरूप से रहता है अनुपयोगपूर्वक अपनी रुचि के अनुसार यद्वा तहा क्रिया की આવશ્યકમાં જે આ ઉપયોગ પરિણામ રૂપ ભાવાવશ્યક છે તે ધમ પદવાણ્ય છે, કારણ કે તે શ્રતધર્મની અંદર સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. તેની જ માન્યતાના વિષયમાં જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાને સદૂભાવ છે આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે
કદાચ કોઈને એવી શંકા થાય કે નામ આવશ્યક સ્થાપના આવશ્યક અને દ્વવ્યાવશ્યક, તે ત્રણે આવશ્યકો આરાધના કરવા યોગ્ય છે, એવી જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞા જ નથી. કારણ કે તેમનામાં ઉપગનો અભાવ છે, અને ચારિત્રગુણ વિહીનતા રહેલી છે તેથી તેઓ કર્મની નિર્જરાના સાધક થતા નથી. અને એ જ કારણે તેઓ ધર્મ પદવાઓ પણ હોતા નથી. પરંતુ સામાયિક આદિ રૂપ લોકોત્તર દ્રવ્યાવશ્યક, કે જે પ્રવચનકત છે-આગમ સંમત છે, તે તો ધર્મ ૫દવા હેવા જ જોઈએ.
તે તે પ્રકારની શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે સમજવું સામાયિક આદિ ક્રિયાઓ આગમસંમત અવશ્ય છે. પરંતુ જિનાજ્ઞાના પરિપાલનથી જેઓ વિહીન બનેલા છે એવા દ્રવ્યલિંગી (સાધુ વેષધારી) સાધુઓ દ્વારા કરવામાં આવતી તે સામાયિક આદિ ક્રિયાઓ ધર્મ પદવા હોઈ શકતી નથી. કારણ કે એવા સાધુઓ તે સ્વછંદ વિહારી હોય છે, મૂલગુણ અને ઉત્તર ગુણેથી તેઓ રહિત હોય છે, છકાયના જીવોની રક્ષા કરવા રૂપ અનુકંપા ભાવનો તેમનામાં સદંતર અભાવ હોય છે, એવા સાધુઓ તે અનુપગ પૂર્વક, પિતાની રુચિ પ્રમાણે ફાવે એવી રીતે તે સામાયિક આદિ
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अनुगन्द्रिका टीका २३ मात्रावश्यक स्वरूपनिरूपणम्
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श्यकार्थज्ञस्य आवश्यकोपयोगपरिणाम आगमतो भावावश्यकम् । साध्वादिस्तु तादृशपरिणामवच्वादुपचारादागमतो भावावश्यकमुच्यते ।
इदमावश एकोपयेागपरिणामरूपं भावावश्यकं धर्मपदवाच्यं भवति श्रुत धर्मान्तर्गतत्वादत्र जिनाज्ञाः सच्चात् ।
जाती है | अतः वे भी धर्मपदवाच्य नहीं हो सकती है। इसलिये उस लोकातरिक द्रव्यावश्क में भी निर्जराजनकत्व का अभाव होने से जिन भगवान की आज्ञा उसे मान्यता प्रदान करने की वह आराधना करने योग्य है इस प्रकार की - नहीं हैं। इस प्रकार यह आर.म भावावश्यक, का वर्णन किया ।
भावार्थ -- यह सूत्रकारने पहिले ही अट करदिया है कि विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त अर्थ का नाम भाव है । अर्थात् जो आवश्यक शास्त्र का ज्ञाता है और उसमें उपयोग से युक्त है - ऐसा साव दिरूप अर्थ भावाश्यक है । इस भावावश्यक के दो भेद हैं- ? एक आगम भावावश्यक और दूसरे नोआगम भावावश्यक । आगम भावावश्यक में ज्ञाता का उपयोग रूप परिणाम आगमरूप माना गया है । अतः वह परिणाम आगम की अपेक्षा भावावश्यक होने से आगम भावश्यक है। साध्वादिकों कि जो आवश्यकशास्त्र के ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त बने हुए हैं जो आगमभावावश्यक कहा जाता है वह उस परिणाम की अभेद विवक्षा से कहा जाता है । जिन भगवान् ने इस आगमभावावश्यक को ही धर्मपदवाच्य होने के कारण उपादेय ક્રિયાઓ કરતા હોય છે. તે કારણે તેમની તે ક્રિયાએ ધમ પદવાચ્ય (ધમ કહી શક:ય એવી) હે।તી નથી. તેથી એ લેાકેારિક દ્રવ્યાવશ્યકમાં પણ નિજ રાજનકત્વના અભાવ હાવાધી જિન ભગવાને તેમને આરાધના કરવા યોગ્ય કહી નથી. આ પ્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આગમ ભાવાવસ્યકનું રવરૂપ પ્રગટ કરવામાં આવ્યુ છે.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે એ વાત તે આગળ પ્રકટ કરી દીધી જ છે કે વિવક્ષિત ક્રિયાના અનુભવથી યુકત અંનું નામ ભાવ છે. એટલે કે જે સાધુ આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાતા છે અને તેમાં ઉપયુકત (ઉપયાગ પરિણામથી યુકત) છે, એવા સાધુ આફ્રિ રૂપ અને ભાષાવશ્યક કહે છે. આ ભાવાશ્યદના એ ભેદ બતાવ્યા છે (૧) આગમ ભાષાવશ્યક અને (૨) નાઆગમ ભાવાવશ્યક.
આગમ ભાવાવણ્યકમાં જ્ઞાતાના ઉપયાગ રૂપ પરિણામને આગમ રૂપ માનવામાં આવેલ છે. તેથી તે પરિણામ આગમની અપેક્ષાએ ભાવાવશ્યક રૂપ હેાવાથી તેને ભાગમ ભાવાવશ્યક કહેવામાં આવ્યુ` છે. સાધ્વાદિકા કે જેએ આવશ્યક શાસ્ત્રના જ્ઞાતા હેાવાની સાથે સાથે તેમાં ઉપયુકત બનેલા તેમને જ જે આગમ ભાવાવશ્યક કહેવામાં આવે
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१६४.
अनुयोगद्वारसूत्रे नामावश्यकम्-आवश्यकनामको गोपालदारकादिः, स्थापनावश्यकम् आवश्यक क्रियावतः कस्यचित् काष्ठकर्मादिषु चित्रम्, F०३३ क च आवश्यकोपयोगशून्या देहागमकिपः। एमावर वेषु उपयोगाभावेन चरणगुणरहितत्वेन च कर्मनिर्जराजनकत्वाभादाराध्यत्वेन जिनाज्ञा नास्ति, तस्मादेतत् त्रिविधमायकं धर्मपदवाच्यं न भवतीति निश्चयः । लोकोत्तरिकद्रदायकप्रवचनोक्तं सदपि जिनाज्ञाबायैः स्वच्छन्दविहारिभिर्मूलानरगुणरहितैः पट कायनिनुकम्पैरनुपयोगपूर्वकं क्रियमाणं सामायिकादिकम् । तदपि धर्म पदवाच्यं न भवितुमर्हति तत्रापि निर्जराजनकत्वाभावेन विधेयतया निनाज्ञाया अभावात् ।
उक्तमर्थमुपसंहरन् प्राह-'से तं आगमओ भावा रस्सयं' इति । तदेतत् आगमता भावावश्यकं वर्णितम् ॥ मू० २४॥
अथ भावावश्यकस्य द्वितीयभेदमाह
मूलम्--से किं तं नो आगमओ भावावस्मयं ? नो आगमओ भावावस्तयं तिविहं पण्णतं, तं जहा-लोइयं, कुप्पावणिय, लोगुत्तरियं ॥ सू० २५॥ स्वीकार्य कहा है-नाम स्थापना और द्रव्य आवश्यक को नहीं । क्योंकि आवश्यक नाम के धारी गोपालबालों में आवश्यक की स्थापनावाले किसी भावकआदि के आवश्यक क्रिया संपन्न चित्र में तथा आवश्यक क्रिया में उपयोग शून्य पने हुए नोआगम द्रव्यावश्यकरूप देह में एवं आगमोक्त भी लोकोत्तरिक द्रघ्यावश्यकरुप सामायिक आदि में उपयोग की शून्यता से और चारित्र गुण की रहितता से कर्म निर्जरा करने की सामर्थ्य नही हैं। अतः ये धर्मपदवाच्च नहीं हुए हैं। और इसी कारण इन्हें उपादेय नहीं कहा गया है । ॥सूत्र २४॥ છે તે આ પરિણામની અભેદ વિવક્ષાની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવે છે. આ આગમ ભાવાવશ્યક જ ધર્મ પદવાણ્યું હોવાથી જિનેશ્વર ભગવાને તેને ઉપાદેય કહેલ છે
નામાવશ્યક, સ્થાપના આવશ્યક અને દ્રવ્યાવશ્યકને ઉપાદેય કહ્યા નથી. કારણ કે આવશ્યક નામધારી ગોપાલબાળોમાં, આવશ્યકની સ્થાપનાવાળા કેઈ શ્રાવક આદિના આવશ્યક ક્રિયા સંપન્ન ચિત્રમાં, તથા આવશ્યક ક્રિયામાં ઉપયોગ શૂન્ય (અનુપયુકત) બનેલા ને આગમ દ્રવ્યાવશ્યક રૂપ સામાયિક આદિમાં ઉપગની
ન્યતા અને ચારિત્રગુણની રહિતતાને લીધે કર્મની નિર્જરા કરવાનું સમર્થ્ય હેતું નથી. તેથી તેમને ધમ પદવાય કહી શકાય નહીં, અને એ જ કારણે તેમને ઉપદેવ પણ ગણી શકાય નહીં. સૂત્ર ૨૪
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २५ नोआगम भावावश्पकनिरूपणम् १६५
छाया--अथ किं तद् नोआगमता भावाश्यकम् ? ने आगरता भावावश्यकं त्रिविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-लौकिकं कुप्रावचनिकं लोकोत्तरिकप ॥२५॥
टीका--'से किं तं इत्यादि। व्याख्या निगदसिद्धा ॥मू० २५॥ लौकिक भावावश्यक माह--
म्लम्-से कि तं लोइयं भावावस्पयं? लोइयं भावावस्तयं पुवण्हे भारह अवरण्हे रामायणं । मे तं लोइयं भावावस्सयं।सू०२६।
अब सूत्रकार भागवश्यक का द्वितीय भेद जो नाआगमभावर यफ है उतका निरूपण करते हैं-"से fi तं नोआगमओं" इत्यादि। ॥सूत्र २५॥
शब्दार्थ-(से) शिष्य पूछता है कि हे भदंत । नोआगम की अपेक्षा लेकर भावापक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(नाआगमओ भावावरसयं तिविहं पण्णत्त) नाआगम को आश्रित करके भागावश्यक तीन प्रकार का कहा हुआ है । (तंजहा) जैसे-(लोइयं) लौकिक (कुप्पाव णिय) कुप्रावचनिक और (लोगुत्तरियं) लोकोत्तरिक । इस प्रकार जानना चाहिये। उस व्याख्या में द्रव्यावश्यक की जगह भागक शब्द का प्रयोग करना चाहिये । ॥ २५॥
अब सूत्रकार लौकिक भागावश्यक का वर्णन करते हैं“से कि त लोइयं" इत्यादि ॥मूत्र २६॥
ભાવાવશ્યકને જે “નો આગમ ભાવાવશ્યક” નામને બીજો ભેદ છે તેનું સૂત્ર १२ वे नि३५४ ४२ छ-" से तं नो आगनओ" त्या
શબ્દાર્થ– (૨) શિષ્ય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે કે હે ભગવન ! આગમની અપેક્ષાએ જે ભાવાવશ્યક કહ્યો છે તે ભાવાવશ્યકનું એટલે કે ને આગમ ભાવાવશ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(नोभागमओ भावावस्तयं तिविहं पणत्त) नमामले माश्रित કરીને ભાવાવશ્યકના ત્રણ પ્રકાર કહ્યા છે. (સંગા) તે ત્રણ પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે
(लाइय) (१) allis (कुप्पावयणियं) (२) मुआवयनि भने (3) लोगु-) त्तरियं) बोत्त(२४ मा पहनी व्याभ्या द्र०यावश्य४नी वा सभी नये, પરંતુ તે વ્યાખ્યામાં દ્રવ્યાવશ્યકની જગ્યાએ “ભાવાવશ્યક પદને ઉપયોગ કરે नये ॥ सू. २५ ॥
હવે સૂત્રકાર લૌકિક ભાવાવશ્યકનું નિરૂપણ કરે છે– "से किं तं लोइयं" त्याह
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१६६
अनुयोगद्वारसूत्रे
छाया -- अथ किं तद् लौकिक भावावश्यकम् १ लौकिक भावाव । क पूर्वाह्न भारत, अपराह्ने रामायणम् । तदेतत् लौकिक भावावश्यम् । ५०२६ | टीका -- शिष्यः पृच्छति - 'से कि तं लोइयं भावावस्स' अथ किं तद् लौकिक भावावश्यकम् ? उत्तरमाह - 'लोइयं भावावस्स' इत्यादि । लौकिक भावावश्यकं पूर्वाहे भरतं = भारतस्य वाचनं श्रवणं वा. अम हे रामायणम, अपराह्ने रामायणम् = रामायणस्य वाचनं श्रवणं वा । लोके हि - भारतस्य वचनं श्रवणं पूर्वाह्ने क्रियमाणं दृश्यते तथा - रामायणस्य वाचनं श्रवणम् अपराहे क्रियामाणं दृश्यते, वैपरीत्ये दोषदर्शनात् ततचे थं लोकेऽवश्यकरणीयतयाऽऽवश्यकत्वं तद्वाचक श्रोतुश्च तदर्थोपयोगपरिणामसच्चाद् भावत्वम्, तद्वाचकः भाणक्रियया पुस्तकपत्रादिपरावर्तनरूपय । हन्तामिनयरूपया च क्रिया युक्ता शदार्थ - (से) शिव पूछता है कि हे भदंत ! पूर्वप्रक्रान्त ( पूर्व प्रस्तुत ) लौकिक भाव का क्या स्वरूप है ?
'
उत्तर -- (लाइं भावावस्तथं पुत्रण्हे भारहं अवरण्हें रामायणं) लौकिक भावावश्यक का स्वरूप ऐसा है कि पूर्वान्ह में महाभारत का वाचना अथवा श्रवण करना, अपराढ़ में रामाण का वाचन अथवा श्रवण करना । लोक में महाभारत का वाचन अथवा उसका श्रवण करना यह काम पूर्वाह्न में देखा जाता है, तथा रमाया का वाचना अपराह्न में (दूवेर पीछे) । इसके विपरीत करने से दोष का पात्र होना पडता है । इस तरह यह काम आवश्यक क ने ये ग्य हेने के कारण अवश्य करूप है, तथा उसके श्रोता और वाचनकर्ता का उसके अर्थ में उपयोगरूप परिणाम के सद्भाव से उनमें भावरूपता है । वाचने वाला શબ્દાર્થ-શિષ્ય ગુરુને એવા પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવન્ ! પૂત્રપ્રસ્તુત લૌકિક ભાવાવણ્યકનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
25
उत्तर- (लाइयं भावा रस्यं पुत्र हे भारहं अवरव्हे रामायण) लोडिड लावाવશ્યક સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે-પૂર્વાહ્ન (દિવસના આગલા ભાગમાં) મહાભારતને વાંચવું અથવા શ્રવણુ કરવું અને અપરાહૂને (દિવસના પાછલા ભાગમાં) રામાયણને વાંચવું અથવા શ્રવણુ કરવુ, તે અવશ્ય કરવા ચૈાગ્ય હાવાથી આવશ્યક રૂપ ગણાય છે. લેાકેામાં મહાભારતનું વાંચન અથવા શ્રવણુ કરવાનું કાર્ય પૂર્વાદ્ઘમાં કરવા યોગ્ય ગણાય છે અને રામાયણનું વાંચન અથવા શ્રવણું કરવાનુ` કાર્ય અપરાદ્ધમાં કરવા ચેાગ્ય મનાય છે. તેના કરતાં વિપરીત ક્રમે તે કરવાથી દોષને પાત્ર થવું પડે છે. આ રીતે આ કાર્ય અવશ્ય કરવા ચેાગ્ય હાવાથી આવશ્યક રૂપ છે, તથા તેના શ્રોતા અને વાચનકર્તાના તેના અર્થમાં ઉપયોગ રૂપ પરિણામના સદ્દભાવને લીધે તેમાં ભાવરૂપતા પણ હૈાય છે. વાચનકર્તા તે વખતે ભાષણ કરવાની ક્રિયાથી, પુસ્તકના
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अनुयोगचन्द्रिका टीका.सू०२६ लौकिकभावावश्यकनिरूपणम् भवति, श्रोताऽपि च श्रवण-गात्र संयतत्व-कर संपुटीकरणादिबियावान् भवति । एवं तयोः क्रियाद त्वेन नोभागमत्वम्, 'किरियाःऽगमो न होइ' इति वचनान् । क्रियारूपे देशे आगमत्वाभावाद् नोआगमत्वमपि । अत्र ना शब्दस्य देशनिषेधवं धकत्वात् । लोके भारतादावागमन्वं व्यवहि यते, तस्माद्देशत आगमोऽ
त्यपि । तस्मात् पूवाले पराहे यथानिर्दिष्टकाले भारतायुपयुक्तो यदवश्यं भ.रतादिकं वाचः ति शृणं ति वा, तहचिरं श्रवणं च लौकिकं भावावश्यत्र मिति बाचते समय भाषण क्रिया से, पुस्तक के पन्नों को पलटने आदिरूप क्रिया से, और निज हाथ से इशारा करने रूप अभिनय क्रिया से युक्त होता है। तथा जो श्रोता होते हैं। वे भी श्रवण क्रिया से शरीर को संयत करनेरूप किया से और दोनों हाथों को जोडे रहनेरूप क्रिया से युक्त होते हैं। इस तरह की इन द नो की इन क्रियाओं में आगमता नहीं है-क्यों कि "किरिया- आगमो न हे इ" क्रिया आगम नहीं होती है ऐसा सिद्धात वचन है। इसलिये क्रियारूप देश में आगमता का अभाव होने से नोआगमता भी हैं। यहां नो शब्द देशनिषेधका बोधक है। परन्तु लोक में महाभारत आदि ग्रन्थों में आगमता का व्यः हार होता है-इसलिये इनमें आग:ता भी है। इस तरह क्रिया में आगमता वा सद्भाव होने से वहीं आगमता रा सद्भाव और वहीं आगमता का अभाव पर जाने से नो एक देश से आगमता बन जाती है। इस प्रर यथा निर्दिष्ट पूर्वा और अगध काल में भारतादि में उपयुक्त हुए व्यक्ति आदि का जा उनका वाच । और सुननारूप आપાનાંઓ ફેરવવાની ક્રિયાથી યુકત હોય છે, તથા શ્રોતાઓ તે શ્રવણ કરવા રૂપ ક્રિયાથી, શરીરને સંયત કરવા રૂપ ક્રિયાથી અને બને હાથને જોડી રાખવા રૂપ ક્રિયાથી યુકત હોય છે. આ પ્રકારની વકતા અને પ્રતાની તે ક્રિયાઓમાં આગમताने समाव तो नथी ४।२१ "किरिया आगमो न हाइ” “ (341 આગમરૂપ હોતી નથી,” આ પ્રકારનું સિદ્ધનનું કથન છે. આ પ્રકારે ક્રિયા રૂપ દેશમાં આગમતાનો અભાવ હોવાથી તેમાં “ આગમતાને પણ સદ્દભાવ હોય છે. અહીં “” શબ્દ દેશ નિષેધ (અંશત નિષેધનો) બોધક છે. પરંતુ લેકમાં મહાભારત આદિ ગ્રંથોમાં આગમતાને વ્યવહાર થાય છે, તે કારણે તેમનામાં આગમતાને સદૂભાવ પણ રહે છે. આ રીતે ક્રિયામાં આગમતાને અભાવ અને મહાભારત આદિમાં આગમતાને સદ્ભાવ હોવાથી એટલે કે એક પ્રકારે આગમ તાને સદ્ભાવ હોવાથી તેમાં નોઆગમતા (એક દેશની અપેક્ષાએ આગ મતા) સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રકારે યથા નિર્દિષ્ટ પૂર્વાહન કાળમાં મહ ભારત આદિમાં ઉપયુકત (ઉપગ પરિણામથી યુક્ત) થયેલ વ્યકિતનું જે તેમના વાચન અને શ્રવણરૂપ
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अनुयोगबारको बोध्यम् । तदेतत् निगमयन्नाह-'से तं लोइयं मावावस्सयं इति । तदेतत् लौकिक भावावश्यकं वर्णितम् ॥सू० २६॥
कुप्राश्चनिकं भावावश्यकमाह
मूलम्-से किं तं कुप्पावयणियं भावावस्सयं ? कुप्पावणियं भावावस्सयं जे इमे चरगचीरिग जाव पासंडत्था इजंजलि होमजपों दुस्कनमोकारमाइयाई भावावस्सयोइ करें ति। से तं कुप्पावणियं भावावस्सयं सू० २७॥
छापा-अथ किं तत् कुपावनिक भावावश्यकम् ? कुप्राक्चनिकं भावावश्यकं य इमे चाकचीरिक या त् पाषण्ड थाः इज्याञ्जलिहोमजपोन्दुरुक्कनमस्कारादिकानि भावावश्यकानि कुर्वन्ति । तदेतत कुप्रावचनिकं भावविश्यकम् ॥मु० २७॥ भयक कर्म है वह वाचन और श्रण लौकिक भावावश्यक है। इस तरह एकदेश में आगमता की अपेक्षा लेकर (से तं लोइयं भावावस्सयं) यह पूप्रक्रान्त लौकिक भावावर यक का वर्णन किया। ॥मत्र २६॥
अब सूत्रकार कुप्रावनिक भावावशयक का वर्णन करते हैं । “से किं तं कुप्पावयणियं” इत्यादि । ॥सू० २७।।
शब्दार्थ-(से) शिष्य पूछा हैं कि हे भदंत ! तं (तत्) पूर्व प्रक्रान्त (पूर्वप्रस्तुत) (कुप्पावयणिथं भावावस्सयं किं) कुप्रावचनिक भावावश्यक का क्या
उत्तर-(कुप्पावणियं भारावस्सयं) कुपावचनिक भागश्यक का रूप આવશ્યક કમ છે, તે વાંચન અને શ્રવણ લૌકિક ભાવાવશ્યક રૂપ હોય છે. (से तं लोइयं भावावास) 41 प्रा२नु न भागम ( २३५ भागमताना સદુભાવવાળા) લૌકિક ભાવાવણ્યનું સ્વરૂપ સમજવું.
હવે સૂત્રકાર નો આગમ ભાવાવશ્યકના બીજા ભેદ રૂપ કુપ્રવચનિક ભાવાपश्यतु नि३५५५ ४३ छ– “से किं त कुप्पावणियं' त्या| શબ્દાર્થ–() શિષ્ય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે કં) પૂર્વ પ્રક્રાન્ત-પૂર્વ પ્રस्तुत (कुप्पायणिय भावावसयं किं) प्रावधान भावापश्यनु २१३५ छ?
उत्तर-(कुप्पावणियं भावावस्सयं) प्रापयनि भावा-श्यनु २५३५ मा प्रा. २नु छ-(जे इमे चरगचीरिंग जाव पासड था) ले ५२४, यामि मा परित
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अनुयोगचन्द्रिका टीका-३.२७ कुप्रावचनिकभावावश्यकनिरूपणम् १६९
शिष्यः पृच्छति-से कि त कुप्पावयणियं वापरतयं ?' इति । अथ कि तत् कुमारचनिक भाषावश्यकम् ? । उत्तरमाह-कु-विचनिक भाषावश्यकमेष .: विज्ञेयम्- इमे च काचीरिक यावत् पाषण्ड उपयुक्ताः सन्तो यथाघसरं यदा
श्यम, इज्यान्जलिहोमजपो दुरुक्कनमस्कारादिकानि, भाषावश्यकानि कुर्वन्तीत्यन्वयः। तत्र चरकादयः प्राग्व्याख्याताः । तत्र-इज्या यज्ञः अञ्जलिः-जलाञ्जलिःमूर्याय दीयते, होमः नित्यहवनम् जप:- गायः , उन्दुरुक्म्-धूपः, धूपदानमित्यर्थः, अयं देशीयःशब्दो धृपार्थकः । नमस्कारः बन्दनम, एतान्यादौ येषां तानि. भावावश्यकानि कुर्वन्ति । एता न हि दरकर्च रिकादिभिः पापण्डस्थैरवश्य क्रियमाणत्वादावःयकानि । तदर्थोपयोग हादिपरिणामसद्भावाद भावत्वम् । चरकादीनां तदर्थज्ञानरूपो देशत आगमः, काशिनः : योगादिभिरारूपो देशरतु नोभागमः इस प्रकार से है। (जे इमे चाग चीग जापापडत्था) जं ये चरक चीरिक आदि पाषंडस्थ मनुष्य उपयुक्त होकर अवसर के अनुसा (इज्जंजलिहोमजपोंदुरुक्कनमोक्कार माइयाई) यज्ञ करते हैं. सूर्य के लिये जलांजलि देते हैं; नित्य हवन करते हैं, गायत्री का जाप २ मे हैं, अग्नि में धूप जलाते हैं, ता वंदना आदिरूप भावावश्यक ते हैं. मो ये सत्र क्रि उन चरक चीरिकादिको द्वारा आवश्याकरणीय होने के कारण आःश्यक रूप हैं। तथा इनके अर्थ में जो उनका उपग पग्णाम लगा रहता है तथा श्रद्धा आदि का भाव जाग्रत रहता है-मो इस पारक ये त्रि.याएं भावावश्यकरूप हैं। इस तरह चरक आदि यो हा जो उन प्रयाओं वर्धाज्ञान है वह एक देश आगमरूप है । ता उ.का और ति का मंयोजनादिरूप जो व्यवहार है वि-क्रियाएं हैं-ह नियार पाहाः आगमरूप नहीं हैं-नोપાખંડસ્થી (પાખંડી) મનુષ્ય ઉપયુકન (ઉપગ રૂપ પણિામ સંપન્ન) यधने असरने यनु३५ (इज्जजलिहोमजपादक्क नमावकारमाझ्याइ) यज्ञ ४३ છે, સૂર્યને જલાંજલિ અર્પણ કરે છે, નિન્ય હોમહવન કરે છે, ગાયત્રીને જાપ કરે છે, અગ્નિમાં ધૂપ નાખીને તેને બાળે છે, તથા વંદના આદિ ક્રિયાઓ કરે છે, તે બધી ક્રિયાઓ ભાવાવશ્યક રૂપ ગણાય છે. આ સઘળી ક્રિયાઓ તે ચરક, ચીરિક આદિ પૂર્વોકત લેકે દ્વારા અવશ્ય કરવા યોગ્ય હોવાને કારણે આવક રૂપ ગણાય છે. વળી તે ક્યાઓમાં તેમના ઉપગ પરિણામને પણ સભાવ રહે છે. અને શ્રદ્ધાદિલ પણ જાગૃત રહે છે. આ કારણે તે ક્રિયા ને ભાવાવશ્યક રૂપ કહે. વામાં આવી છે. તથા તે વખતે તેમના કર અને ઘરના સંયોજન આદિ રૂપ જે વ્યવહાર અથવા ક્રિયાઓ થાય છે, તે ક્રિયારૂપ વ્યવહાર આગમ રૂપ નથી પણ ને
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अनुयोगदारणे तथा च देशिकागमाभ'षमाश्रित्य नोआगमत्त्वमपि । नो शब्दस्यत्रापि देशनिषेध परत्वात् । घरकचीरिकादिभिः पाषण्डस्थैरवश्यं क्रियमाणम् इज्याञ्जलि होमादिक कुभाषचनिकं भावावश्यकमितिभावः । तदेतत् कुविचनिकं भावावश्यकं वर्णितमामू०२७।
आगम है। इस तरह देशिक आगमके अभाव को लेकर उन क्रियाओं में नोआगमता है । नोआगम का तात्पर्य एकदेश में आगमता का सद्भाव है। अतःचरक, चीरक आदि पाषंडस्थ पुरुषों द्वारा की गई इज्या (यज्ञ) अंजलि होमादिकरूप एक देश क्रियाओं के ज्ञान में तो आगमता है। इस प्रकार कुप्रावचनिक-भागवश्यक का यह स्वरूप है।
भावार्थ-यहाँ नोआगम का तात्पर्य सर्वथा आगमाभाव से नहीं है। किन्तु एदेशमें आगम के अस्तित्व से है। चरक चीरिवादि पाखण्डी जनों को यज्ञादि क्रियाएँ उनके सिद्धान्तानुसार अवश् यारणीय होती हैं, वे उन्हे उपयोगपूर्वक करते हैं। उनमें उनकी अट श्रद्धा हती है। इस तरह ये क्रियाएँ भावावश्यकरुंग में पडती है और ये सब कियाएं उनकी ज्ञान मूलक ही होती हैं । इसलिये इन क्रियाओं के ज्ञानमें तो आगम रहता ही हैं। परन्तु जो और उनकी हस्त शिर की संयोजन आदिरूप क्रियाएं हैं उनमें
આગમ રૂપ જ છે; કારણ કે આ ક્રિયાઓ આગમમાન્ય ક્રિયાઓ જ છે. આ રીતે દેશિક આગમના અભાવની અપેક્ષાએ છે ક્રિયાઓમાં ને આગમતાને સદૂભાવ હોય છે એમ સમજવું. “ને આગમતા” એટલે એકદેશની અપેક્ષાએ આગમતા. તેથી ચરક, ચીરિક આદિ પૂર્વોકત પાખંડસ્થ પુરુષ દ્વારા કરવામાં આવેલી યજ્ઞ, અંજલિ દ્વારા અભિષેક, હમ આદિ રૂપ એકદેશરૂપ ક્રિયાઓના જ્ઞાનમાં તે આગમતાને સદભાવ છે. તે દૃષ્ટિએ વિચારતા તે ક્રિયાઓ કુપ્રવચનિક ભાવાવશ્યક રૂપ ગણાય છે. કુપ્રવચનિક ભાવાવશ્યકનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજવું.
ભાવાર્થ-“ને આગમ” આ પદ સર્વથા આગમાભાવતા દર્શાવતું નથી, પણ એકદેશતઃ આગમને સદૂભાવ બતાવે છે. ચરક, ચીરિક આદિ પાખંડી લેકેને માટે યજ્ઞાદિ ક્રિયાઓ તેમના સિદ્ધાન્તાનુસાર અવશ્ય કરણીય ગણાય છે. તેઓ તે ક્રિયાઓ ઉપગપૂર્વક કરે છે. તેમાં તેમને અતૂટ શ્રદ્ધા હોય છે. આ રીતે આ ક્રિયાઓ ભાવાવશ્યક રૂપ ગણાય છે, અને તેમની આ બધી ( યાઓ જ્ઞાનમૂલક જ હોય છે. તેથી તે ક્રિયાઓના જ્ઞાનમાં તે આગમને સદભાવ રહે છે જ પરંતુ એ સિવાયની હસ્તશિરના સંયેજન આદિ રૂપ જ ક્રિયાઓ છે તેમાં આગમરૂપતા હતી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. २८ लोकोत्तरिकभाववश्यकनिरूपणम् ____ १७१ लोकोत्तरिकं भावावश्यकमाह
मृलम्-से किं तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं ? लोगुत्तरियं भावावस्सयं जपणं इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविआ वा तच्चित्ते तम्मणे से तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्रोवउत्ते तदपियकरणे त भावणाभाविए अण्णत्थकत्थइमणं अकारेमाणे उभओकालं आवस्स करेंति, तं लोगुत्तरिय भावावस्सयं । से तं नो आगमओ भावावस्स, से तं भावावस्सय ॥ सू २८ ॥
छाया-अथ किं तद् लोकोत्तरिकं भावावश्यकम् ? लोकोत्तरिकं भावावश्यकंयत्खलु इमे वणा वा श्रवण्यो वा श्रावका वा विकावा तच्चित्तास्तन्मनसस्तल्लेश्यास्तदध्यवसितास्तत्तीबाध्य वसानास्तदर्थोपयुक्तास्तदर्पितकरणास्तद्भावनाआगमरूपता नहीं हैं। इस तरह आगम का एकदेश में अस्तित्व लेकर चरकचीरिकादि संबंधी होम आदि क्रियाएं कुप्रावचनिक भावावश्यक हैं।सू०२७।
अब सूत्रकार लोकोत्तरिक भावावश्यक का कथन करते हैं"से कि त लोगुनरियं” इत्यादि । ॥ सू० २८ ॥
शब्दार्थ-(से) शिष्य पूछा है कि हे भदंत ! लोकोत्तरिक भावावश्यक का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(लोगुत्तरियं भावावग्सयं) लाकोत्तरिक भारावश्यक का ग्वरूप इस प्रकार से है-(जणं इमे समणे वा समणी या सावओ वा माविआ वा) जो ये मण मणी, श्रावक अथवा श्राविका जन (तच्चित्ते) आवश्यक में चित्त लगाकर (तम्मणे) मन लगाकर (तल्लेस्से) નથી. આ રીતે આગમના એકદેશતઃ અસ્તિત્વની અપેક્ષાએ ચરક, ચીરિક આદિ દ્વારા કૃત હોમ, હવન, યજ્ઞ આદિ ક્રિયાઓ કુમારચનિક ભાવાવશ્યક રૂપ હોય છે. સુ. ૨૭
હવે સૂત્રકાર લકત્તરિક ભાવાવશ્યક નામના નો આગમ ભાવાવશ્યકના ત્રીજા मेनु नि३५५५ ४२ छ.' से कि तं लोगुत्तरियं" त्या| શબ્દાર્થ-(જે) શિષ્ય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે પૂર્વ પ્રસ્તુત લોકેતરિક ભાવાવયકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(लागुत्तरिय भावावस्मयं) बोत्त२४ लापा१श्यनु मा प्रानु સ્વરૂપ હોય છે
(जण्ण' इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविआ वा) ॥ श्रम, अभी (Aibal), श्रा१४ २.ने प्राविमा (तच्चित्त) मावश्यमाथित वीन, (तम्मणे)
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अनुयोगाने भाविता अन्यत्र कुत्रापि मनो कुर्वन्त उभयतः कारम आवशकं कुर्वन्ति । तदेतद लोकोत्तरिकं भाशवश्यकम् । तदेतन्नो अगमता भावावश्यकम् तदेतद् भावावश्याम् ॥सू०. २८॥ ____टीका-शियः पृच्छति-से किं तं लोगुत्तरियं भावावस्स अथ किं तद् लोकोत्तरिकं भावाश्यकम् ? इति । उनरमाह-'लागुत्तरि' भावावस्सयं' इत्यादि। लोकोत्तरिक भावावश्यकमेव विज्ञेयम्. या वलु इमे श्रमणा: श्रमण्यो वा श्राम्यन्तिमुक्त्यर्थ तपन्तीति-श्रममाः स्त्रियशन् श्रमण्य:-साधवा वा साव्योवेत्यर्थः श्रावका वा श्राविका वा, शृण्वन्ति-साधुसमीप जिनप्रणीतां मामाचारीमिति श्रावकाः श्रमणासकाः. स्त्रियश्चेत् श्राविका =श्रमणापासिकाः, वा शब्दा: संमुच्चयार्थाः, तचित्ताः तस्मिन्नेव आवस्यके चित्त सामान्योपयोगरूप येषां ते तथा, आवश्यक सामा योपयोगव तः, तथा तन्मनसः-तस्मिन्नेव मनो विशेषो शुभपरिणामरूप लेण्यासन्न होकर (तदझवसिए) क्रिया संपादन विपय अटवसाययुक्त. होकर (:त्ति ज्झ साण) तीव्र आत्मपरिणाम विशिष्ट्र होकर (तदट्ठीवउत्त) तदर्थ में उयुक्त होकर (तदप्पिय करणे) तदर्पितकरणबाले. होकर) (तम्भावणाभाविए) तद्भाला से भावित होकर (अप्णत्थकत्थइ मणं अक.रेमाणे) अन्य और कहीं पर भी मनको नहीं लगाार (उभो कोलं) दोनों समय (आवस्मयं करेंति) आवश्यक करते हैं (से च लोगुत्तरिय भावासम्सयं). यह लोकोत्तरिक भावाश्यक है। मुक्ति प्राप्ति के निमित्त जो तप तपते हैं उन का नाम "श्राम्यन्तीति श्रमणाः' इस व्युत्पत्ति के . अनुसार श्रमण हैं जो साधुओं के समीप जिन प्रणीत मामाचारी का श्रवण करते हैं उनका नाम श्रावक है। ये श्रमणापासक होते हैं। आवश्यक क्रिया में जिनका सामान्यरूप से उपयोग है, वे श्रमण आदिजन यहाँ "तच्चित्ते" पद के वाच्यार्थ हुए भन सवीन (तल्लाई) शुभ पालाम३५ संश्या सं५.नयधने (दमकसिए
यास पा६न विषय अध्ययथी युत यधने, (तत्तिवझवसाणे) तीन साम परिणाम युउत ५४ने, (तदट्ठोउत्ते). १५५४ म मा ५युत (७५याध..३५ परिणामयुत) ५४ने. (तदप्पियकरणे) तपित ४युत ने (तम्भावणा भाविए) ते प्रा२नी सापनाथी लावत (सपन्न) थन (अण्णत्थत्यंइ मण अक रेमाणे अने मन्य' ५५ १२तुमा भनन सभा सीधा विना, (उमओ कालं) भन्ने समये (आवासयं करेंति) २ माश्य (प्रतिभा मा म१श्य वा योग्य કિયાએ) કરે છે, તેને લેકેરરિક ભાવાવશ્યક કહે છે.
હવે આ સૂત્રમાં શ્રમણ આદિ પદને ભાવાર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે
"श्राम्यन्ति इति श्रमणाः' मा व्युत्पत्ति प्रभारी. “भुति प्रास ४२१॥ નિમિત્તે જેઓ તપ તપે છે તેમને શ્રમણ કરે છે જેઓ સાધુઓની સમીપે જિનપ્રણીત સામાચારીનું શ્રવણ કરે છે તેમને શ્રાવક કહે છે. તેઓ શ્રમણે પાસક હોય છે. આવયક ક્રિયામાં સામાન્ય રૂપે ઉપયોગ યુકત હોય એવા શ્રમણ આદિને અહીં "तचित्ते" मा पहना १२या ३ प्रयुत थये। सभावा. विशेष ३२
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० २८ लोकोत्तरिकभावावश्यकनिरूपणम् १७३ पयोगरूपं येषां ते तथा. आवश्यक विशेषोपयोगवन्तः, तल्लेश्याः-तम्मिन्-आवश्यके एव श्या-शुभपरिणामरूपा येषां ते तथा, आश्यके शुभपरिणामवन्तः, तश-तदध्यवसिताः-जमिन-आवश्यके एतच्चित्तवादिना अपवसितम्अध्यवसायः वि.यासम्पादन विषयों येषां ते तथा, आ.३ क क्रियासंपादनविषयकविचारयुक्ता', तथा-तत्तीबाध्यवसानाः-तमिन् आवश्यके एव तीवं
प्रारम्भकालादेव प्रतिक्षणं प्रवर्धमानम् अध्यवसानम् इदं सकलकर्मनिर्जराजनके तस्मादवश्यमाश्रयणीय'-मित कारक आत्मपरिणामो येषां ते तथा, तदोपयुक्ताः आवश्यक ार्थोपयुक्ताः-'आवश्यक-सामायिक-चनुविंशतिरतद-वन्दन-प्रतिव्र मणकायोत्सर्ग-प्रत्याख्यानरूपं यदवश्यं शाश्वतमचलमरुजमक्षयम वाधममन्दानन्दसन्दोहरूपं शिवसुखं प्रापयति, तामादवश्यं सोपयोगं प्रशस्ततरसंवेगनिवेदजानना चाहिये । जिनका उपयोग विशेषरूप से आवश्यक क्रिया में लगा हुआ है ऐसा श्रमण भादि जन "तम्मणे' इस पद के चर्थ हुए जानना चाहिये । आवश्यक क्रियाओं के संपादन विषयक विचारों से जो . युक्त हैं ऐमे श्रमण आदिजन “तदज्झः सिए" इस पद के वाच्यार्थ हुए जाननाचाहिये। तथा जिनका आत्मपरिणाम प्रारम्भकाल से ही इस प्रकार के विचार से कि यह आवश्यक सकलकमी की निर्जरा का जनक है इमलिये अवश्य आश्रयणीच है, प्रतिक्षण वृद्धिंगत होता रहता है वे श्रमण आदिजन तत्तिवज्झवमाणे" इस पद के वाच्यार्थ हुए हैं। आवश्यक में जिन के परिणाम शुभ हैं वे 'तल्ले रसे" पद के वाच्यार्थ-जानना चाहिये । आवश्यक-सामायिक चतुर्वि तिम्तव, वंदन प्रतिक्रमण, कार्योत्सर्ग इनरूप हैं, सो यह अक्षय,
शाश्वत, अचल, अरु?, अभय, बाध और अनन्द आमन्द के सन्दोहरूपशि - भापश्य छियासमा ७५योय यु-त येसा छ मेवा श्रमाने महामणे" આ પદના વાર્થ રૂપે પ્રયુકત થયેલા સમજવા.
, આ અવશ્યક આશ્રયણીય છે,” આ પ્રકારની વિચાર ધારાથી જેમનું આત્મ- પરિણામ આરંભકાળથી જ યુક્ત રહે છે, અને તમે કમે જેમનું આ પ્રકારનું
मात्मपरिणाम द्धि पाम २३ छ, मेवा श्रमहिने मी "तत्तिबज्यवसाणे" આ પદના વાચાર્થ રૂપ સમજવા. આવશ્યક ક્રિયામાં જેમના પરિણામ શુભ છે mai भएy माहिने मी "तल्ले से" मा ५६ना पाच्या ३५ समा नये.
सामायि, २४ तिथ शनी २तुति, वन, प्रतिng, सियाEि રૂપ જે આવશ્યક છે, તેઓ શાશ્વત, અચલ, અજ, અક્ષય, અવ્યાબાધ અને અમન્દ આનંદના સોહરૂપ (સમુદાયરૂ૫) શિવ સુખની પ્રાપ્તિ અવશ્ય કરાવી દેનાર છે, અને
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अनुयोपटाराने पूर्वकमाराधनीय-' मित्यात्मपरिणामयुक्ताः इयर्य। : तथा तदप्तिकरणातस्मिन् आवश्यके अर्पितानि-याथातथ्येन नियुक्तानि करणानि=तत्साभकमृतानि देहरजोहरणसदोरकमुखवस्त्रिकादीनि यै ते तथा, आवश्यककर्मणि सम्यग्यथा स्थानन्यस्तोपकरणा इत्यर्थः, तथा-तद्भावनाभाविताः-तस्य-आवश्यकस्य भावनाआवश्यक-सर्वकल्याण-पारणम, अनन्तभवोपार्जित कर्मरजोऽपहारक-मिति प्रतिक्षण-मनुस्मरणरूपा, तया भाविताः प्रमादपरिहारपूर्वक परमोत्साहेन आवश्यक क्रियाकरणपरायणाः, अन्यत्र कुत्रा · मनः अकुर्वन्तः, उपलक्षण वाचं कायं चान त्रा कुर्वन्तः उभयकाले रत् विपकं कुर्वन्ति तदेतल्लोकोत्तरिकं भावावसुख को प्राप्त करा देता है अतः यह अश्य उपयोगपूर्वक प्रशस्ततर संवेग के साथ निवेंदपूर्वक आराधनीय है इस प्रकार के आत्मपरिणामों से जो युक्त हैं ऐसे श्रमण आदिजन "तदद्वस्वउत्ते' इस पद के वाच्यार्य हुए हैं। तथा-जिन्हों ने आवश्यक में यथास्थान तत्साधकभूत देह, रजेहरिण, सदारव मुखवत्रिका आदिकों को नियुक्त कर रखा है अर्थात् आवश्य क्रया में अच्छी तरह से उ होने यथा स्थान उपकरणों को रखा है ऐसे वे श्रमण आदि जन "तदप्पियकरणे" पद के वाच्यार्थ हुए हैं। आवश्यक समस्त कल्याणां । कारण है तथा अनंत भवे पार्जित कम रज का नाशक है इस प्रकार की प्रतिक्षण में अनुस्मरणरूप भ.वना से जो प्रमाद परित्यागपूर्वक परमोत्साह से आवश्यक क्रिया के करने में परायण बने हुए हैं ऐसे श्रमण आदिजन "तम्भावणाभाविए" पद के वाच्यार्थ हुए हैं। मन यह पद बचन और कायका उपलक्षण તે કારણે તે અવશ્ય ઉપગ પૂર્વક પ્રશસ્તતર સંવેગની સાથે, નિર્વેદપૂર્વક આરાધનીય છે,” આ પ્રકારના આત્મપરિણામથી જેઓ યુકત હોય છે એવાં શ્રમણ माहिन "तदवोवउत्ते' । पहना पाया ३२ अ ४२१॥ ये
આવશ્યક ક્રિયા કરતી વખતે તે ક્રિયાના સાધનભૂત દેહ, રજોહરણ, સરક મુહપતી આદિ ઉપકરણને જેમણે યોગ્ય સ્થાને રાખેલાં છે એટલે કે આવશ્યક ક્રિયામાં જેમણે ઉપકરણને બરાબર વિચાર પૂર્વક ઉચિક સ્થાને સ્થાપિત કરેલાં છે, તે अभय माहिने 48 "तदपियकरणे' मा पहना पाश्या ३५ समये.
આવશ્યક ક્રિયાઓ સમસ્ત કલ્યાણની જનક છે, તથા અનંત ભપાર્જિત કમજને નાશ કરનારી છે.” આ પ્રકારની પ્રતિક્ષણે અનુસ્મરણ રૂ૫ ભાવનાથી પ્રેરાઈને જેઓ પ્રમાદના ત્યાગ પૂર્વક અને પરમત્સાહ પૂર્વક આવશ્યક ક્રિયાઓ ४२वाने पसय भनेता छे सेवा श्रम आहिन "तन्माणाभ विए" मा पहना વાયાર્થ રૂપ સમજવા જોઈએ.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र २८ लोकोत्तरिकभावावश्यकनिरूपणम् १७५ शकम् मूले समणे वा' इत्यादौ बहुत्वे वाच्ये एकवचन निर्देश आर्यत्वात्-यदिमे
मणादयस्तच्चित्तादि विशेषग-विशिष्टी उभपकालं प्रतिक्रमणाघावश्यकं कुर्वान्त तल्लोकोत्तरिक भारावश्यकम, इति संक्षेपार्थः । अत्रापि-अवश्यं करणात् आवबयफत्म्. तदुपयोगपरिणामस्य सद्भावाद् भावत्वम्, आवश्यक क्रयोलक्षण देशस्यानोगमायाद् नोआगमत्वं च बोधरम् । तदेतल्लोकात्तरिक भावावश्यकं वर्णितम् एवं विधं नोआगमतो भावावश्यकं निरूपितमिति सूचयितुमाह-'से तं नोआगमतो भावावस्सयं' इति । तदेतन्नो आगमतो भावावग्यक पणितम्। एवं सर्वथा भावावश्यकं निरूपितमिति सूचयितुमाह-'से तं भावावस्सयं' इति । तदेहैं। तात्पर्य कहने का यह है कि जो श्रमण आदिजन तच्चित्त आदि विशेपणों से युक्त बनकर दोनों काल प्रतिक्रमग आदि आवश्यकों को करते हैं भावावश्यक है। ये क्रियाएँ श्रमण आदि जनाको अवश्य करने योग्य हैं ४ सलिये तो ये आवश्यक हैं। तथा उनमें इनके करनेवालेका उपयोग परिणाम वर्तमान रहता है इसलिये उ6में भावरूपता है । तथा आवश्यक क्रियाएँ स्वयं आगम रूप नहीं हैं अन: आवश्यक क्रिया रूप एकदेशमें अनागमता और इनके ज्ञानरूप एक देश में आगमताका सद्भार होनेसे नो अगमकी अपेक्षा ये आवश्यक क्रियाएँ लोकोत्तरिकभावावश्यक जाननी चाहिये । इस तरह नोआगनको आश्रित करके लोकोत्तरिकभावावश्यकका यहां तकका वर्णन किया। हस प्रा. नाआगम भावावश्यकका पूर्ण रूपसे वर्णन हो चुका है इस बातको बतलाने के लिये सूत्रकारने " से तं भावानस्सयं" पदका प्रयोग किया है।
મન” આ પદ વચન અને કાયનું ઉપલક્ષક છે. આ સઘળા કથનનું તાત્પર્ય थे छे २ अभय, अभी, श्रा१४ भने श्रावि "तच्चित्त" माह विषयी યુક્ત બનીને બને કાળે પ્રતિકમણ આદિ જે આવશ્યકે કરે છે, તે આવશ્યક નેઆગમની અપેક્ષાએ લોકોત્તરિક ભાવાવશ્યક ગણાય છે. આ ક્રિયાઓ શ્રમણ શ્રમણ શ્રાવક અને શ્રાવિકોને માટે અવશ્ય કરવા ગ્ય મનાતી હોવાથી તેમને આવશ્યક રૂપ કહી છે. તે આવશ્યક ક્રિયાઓ કરનાર શ્રમણ આદિનું ઉપગ પરિણામ તેમાં વિદ્યમાન રહે છે, તે કારણે તેમાં ભાવરૂપતાને સદૂભાવ હોય છે. તથા આવશ્યક ક્રિયાઓ સ્વયં આગમ રૂપ નથી, તેથી આવશ્યક ક્રિયા રૂપ એકદેશમાં અનામતા અને તેમના જ્ઞાનરૂપ એક દેશમાં આગમતાને સદ્ભાવ હોવાથી આ આવશ્યક ક્રિયાઓને ને આગમની અપેક્ષાએ લોકોત્તરિક ભાવાવશ્યક રૂપે સમજવી આ રીતે આગમને આશ્રિત કરીને લકત્તરિક भावापश्यतु । सूत्रमा प्रति५६ ४२वामा मान्छ. मेन पातन सत्रमारे 'से तं भावावस्सयं" मा सुत्रा द्वारा प्रगट ४१ छ. या सूत्रा6 पत सत्रना
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अनुयोगबारसे तद् भावावश्यक सर्व वर्णिम । भावावश्यकमेव चतुर्विधपंघेरुमदेयं न तु नामस्यााना.. द्रव्यावका 'न, तेषां कर्म निर्जराजकन्वाभावात् संसारकास्णस्थाचता -भावावश्यकेऽपि आगमतो भावावश्यकं लोकोत्तरिकरूप नोआगमता भाषावादक चेति इयमेवोपादेयं, न तु-लौफिक कुप्रावनिक च भानवाया मिति सर्वतीर्थ कराणामभिप्रायः ॥स० २८।। भावावश्यक ही चतुर्विध संघा उपादेय है। नाम स्थापना और द्रव्यरूपं आवक उगदेय नहीं है। क्योंकि इनमें कर्म निजगसी जनकताका सयों अभाग है अर्थात इनको निमित्त यां इंना सेवन करके यदि कोई प्राणी अपने मेकी निर्जरा करना चाहे तो वह नही कर साता है। इसलिये इन्हें संसारका कारणों में परिगणित किया गया है। भावावश्या में भी आगमा भावाश्यक और नोआगया तृतीय भेद रूप लागतरिक भागवश्यक ये: दोही उपादेय हैं । लौकिक और कुप्रावचनिक भावावश्यक नहीं ऐसा समस्त तीय करोंका कथन है।
भावार्थः-नाआगम भावावश्यकता आवश्यक रूप आगमका सर्वथा अभाव विवक्षित नहीं हुआ है। किन्तु आगमका एकदेश विवक्षित हुआ है। हस नाआगम भावावश्वकके । लौकिककुप्रोवचनिक और लेकित्तरिक ये ३ तीन भेद किये गये हैं। पूर्वाह्न में महाभारतका अपराह्न में गमायणका वाचना ઉપસંહાર રૂપે પ્રકટ કરે છે કે આ રીતે ને આગમ લેકેતરિક ભાવવશ્યકનું नि३५५ 8 ५३ याय छे...
ભાદ્યાવશ્યક જ ચતુર્વિધ સંધને માટે ઉપાદેય ગણાય છે. નામ, સ્થાપના અને દ્રવ્યાવશ્યક ઉપાદેય ગણાતાં નથી, કારણ કે તે ત્રણે આવશ્યકમાં કર્મનિર્જાની જનકાને સર્વથા અભાવ જ છે કારણ કે તેમનું સેવન કરવાથી જે કઈ જીવ કર્મોની નિર્જરા કરવાનું ઈચ્છતો હોય, તો તે રીતે કર્મોની નિર્જરા કરી શક્ત નથી. તે કારણે તે ત્રણે આવશ્યકેને સંસારવર્ધન કરનારાં કારણે રૂપે ગણાવવામાં આવેલ છે. ભાવાવસ્યકમાંથી પણ આગમ ભાવાવશ્યક અને આગમન. ત્રીજા ભેદ રૂપ લેકેનરિક ભાવાવશ્યક આ બેને જ ઉપાદેય કહી શકાય તેમ છે. લૌકિક અને કુકાવંચનિક ભાવાવશ્યકને ઉપાદેય રૂપ ગણી શકાય નહીં, એવું સમસ્ત તીર્થકરોનું ४थत छ....
ભાવાર્થ–ને આગમ ભાવાવશ્યકમાં આવશ્યક રૂપ આગમને સર્વથા અભાવ વિવક્ષિત થ નથી, પરંતુ આગમને એક દેશ વિવક્ષિત થયેલ છે. આ આગમ ભાવાવશ્યકતા નીચે પ્રમાણે ત્રણ ભેદ પડે છે (૧) લૌકિક, (૨) કુકાવચનિક અને (૩) કેરરિક પૂર્વાણમાં. મહાભારતનું અને અપરાણમાં રામાયણનું વાંચન
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू०२८ लोकोतरिकभावावकनिरूपणम् एवं श्रण करना ये निर्दिष्ट समय पर क्रियमाण होनेसे आवश्यक रूप हैं। इनमें वाचक और श्रीताका जो अर्थोपयोग परिणाम है वह भावरूप हैं । इसलिये पाचक और भाता, कि जिनका ग्रन्थों में उपयोग रूप परिणाम लग रहा है वे लौकिक भावावश्यक है। तथा लोकको अपेक्षा भारतादिक आगम मी हैं। इन आगमों में उपयुक्त घने हुए वक्ता और ताजन में उस समय विविध प्रकारकी जो क्रिया होती रह हैं वे आगमरूप नहीं हैं क्योंकि श्रुतज्ञान ही आगमरूप माना गया है। इ तरह एकदेशमें आगमकी विधमानता हे।नेसे भारतादिका वाचन वण लौकिक भावावश्यक है। चरक चीरिक आदि पाखंडीजनों द्वारा जो हाम यज्ञ आदि प्रियाएं की जाती हैं वे सब उनके लिये उनके मान्य सिद्धानानुसार वय तिव्य हैं इसलिये ये सब क्रिया आवश्यक है। इन आवक क्रियाओ के संपादन करते समय उन संपादन अधिा उपयोग आदि रूप परिणाम उनमें संलग्न रहता है इसलिये ये भाव हैं । इस तरह ये क्रियाएँ भावावश्यक मान ली जाती है। इनका ज्ञान आग्म. और संपादन कर्मो की का'शर संयोजनादिरूप क्रियाएँ अनागम हैं । इस प्रकार ए देशमें आ मना: सद्भाव होनेसे आगम के एकदेशको आ ित गररे ये कि एँ कुप्पावननि भावावश्यक हैं। અને શ્રવણ કરવા રૂપ કાર્ય નિર્દિષ્ટ રસમયે ક્રિયા હોવાથી અવરૂપ . તેમાં વાચક અને નાનું જે અધોગ મુકત પરિણામ છે, તે ભાવરૂપ છે. આ કારણે તે ગ્રંથમાં ઉપયોગ યુકત પરિણામો સુકત રવાં તે વાચક અને શ્રોતાજને લૌકિક ભાવાવશ્યક રૂપ ગણાય છે તે લોકની અપેક્ષાએ સાભાર આદિને આગ પણ ગણવામાં આવે છે. તે આગમાં ઉપયુકત એલ. વડત અને શ્રેતાઓમાં તે સમયે વિવિધ પ્રકારની ક્રિયાઓ થતી રહે છે, તે ક્રિયાએ આગમરૂપ નથી, કારણ કે શ્રુતજ્ઞાનને જ આગમરૂપ માનવામાં આવ્યું છે. આ રીતે એકદેશની અપેક્ષાએ આગમની વિદ્યમાનતા હોવાના કારણે મહાભારત આદિનું વાંચન અને શ્રમણ
આગમ લૌકિક લાવાવ પક રૂપ છે. ચરક, ચીરિક આદિ પાખંડીઓ દ્વારા જે યજ્ઞ, હોમ, હવન આ ક્રિયાઓ કરવામાં આવે છે તે તેમના માન્ય સિદ્ધાન્તાવસાર તેમને માટે અવશ્ય કરવા એગ્ય મનાય છે. તેથી તે બધી ક્રિયાઓને આવશ્યક રૂપ કહેવામાં આવે છે. આ આવશ્યક ક્રિયાઓ કરતી વખતે તે ક્રિયાઓ કરનાર લોકોના ઉપગ આદિ રૂપ પરિણામ તે આવશ્યક ક્રિયાઓમાં સંલગ્ન રહે છે, તેથી આ પ્રકારના ભાવથી યુકત તે ક્રિયાઓને ભાવાવશ્યક રૂપ માનવામાં આવે છે. તે ક્રિયા ઓનું જ્ઞાન આગમ રૂપ ગણાય છે. અને તે ક્રિયાઓ કરનારની કર શિર સંગ આદિ રૂપ ાઓ અનાગમ રૂ૫ ગણાય છે. આ પ્રકારે એક દેશમાં આગમતાને
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अनुयोगद्वारसत्रे
अथ - भावावश्यकस्य पर्यायानाह-
मूलम् - तस्स णं इमे एगट्टिया णाणाघोसा जाणावंजणा णाम
घेज्जा भवंति तं जहा -
आवस्यं १, अवस्सकरणिजं २, धुवनिभ्गहो ३, विसोही ४य । अज्झयणछक्क वग्गो ५, नाओ, आराहणा ७ मग्गो ८ ॥१॥ समणेणं सविएणय अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा । अंते अहो निसस्य तम्हा आवस्त्रयं नाम ॥२॥ सेतं आवस्यं ॥सू० २९ ॥
चतुविध संघ द्वारा उपयुक्त होकर जो दोनों समय - सुबह और साथङ्काल —- प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाए की जाती है वे नाआगमकी अपेक्षा लोकान्तरिक भावावश्यक हैं संघका ये अवश्य ही उभयकाल में क्रियमाण होनेसे आवश्यक रूप हैं । कर्त्ता इनमें उपयोग पूर्वक तल्लीन होता है इसलिये इनमें भावरूपता है । इनका ज्ञान उपयोगरूपमें उसे होता है अतः ये आगम रूप है तथा और अवशिष्ट कर शिर संयोजनादि क्रियाएँ आगम रूप नहीं हैं । इस तरह नोआगमको आश्रित करके प्रतिक्रमण आदिएँ लोकातरिक भावावश्यक हैं । सूत्र ।। २८ ।।
સદૂભાવ હાવાથી આગમના એક દેશને આશ્રિત કરીને તે ક્રિયાએાને નાઆગમ પ્રાવચનિક ભાષાવશ્યક રૂપ કહેવામાં આવે છે.
ચતુવિધ સ ંધ ઉપર્યુકત થઈને અને સમય પ્રાતઃકાળે અને સાકાળે પ્રતિક્રમણ આદિ જે આવશ્યક ક્રિયાએ કરે છે, તે ક્રિયા નેઆગમની અપેક્ષાએ લેાકેાત્તરિક ભાવાવસ્યક રૂપ છે. અને કાળે શ્રણાદિ દ્વારા અવશ્ય કરવા યાગ્ય હાવાથી આવશ્યક રૂપ છે. કર્તા તેમાં ઉપયેગ પૂર્વક તલ્લીન થઈ જાય છે, તેથી તેમાં ભાવરૂપતા છે. તે ક્રિયાએના જ્ઞાનના ઉપયેગ રૂપે તેનામાં સાવ ટ્રાય છે, તેથી તે ક્રિયા આગમરૂપ છે, તથા બીજી કરશિર સંયાજન આદિ ક્રિયાએ આગમ રૂપ નથી. આ રીતે ના આગમને આશ્રિત કરીને પ્રતિક્રમણ આદિ ક્રિયાએ લેાકેાત્તરિક ભાવાવશ્યક રૂપ છે, એટલે કે તે પ્રતિક્રમણુ આદિ આવશ્યક ક્રિયાઓ નાઆગમ લેાકેારિક ભાવાવશ્યક રૂપ છે, એમ સમજવું. ॥ સૂ. ૨૮ ॥
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अनुयोगचन्द्रिका टीका.सू०२९ भावावश्यकपर्यायनिरूपणम्
छाया-तस्य खलु इमानि एकाथिकानि नानाघोपाणि नानाव्यञ्जनानि नामधेयानि भवन्ति, तद्यथा--
आवश्यकम् १ अवश्यकरणीयम् २ ध्रुवनिग्रहो ३ विशोधिश्च ४।
अभ्ययनवगः ५ न्यायः ६ आराधना ७ मार्गः ८ ॥१॥ श्रमणेन श्रावकेण च अवश्यकर्त्तव्यकं भवति यस्मात् ।
अन्तेऽहनि शस्य तस्मादावश्यकं नाम ॥२॥ तदेतदावश्यकम् ॥ सू० २९॥
अब सूत्रकार भावावश्यकका पर्यायों को कहते हैं"तस्सणं इमे" इत्यादि ! मूत्र ॥ २९॥
शब्दार्थः-(तस्स णं) उस आवश्यक के (इमे) ये वक्ष्यमाण (एगढिया) एक अर्थवाले (नामधेज्जा) नाम हैं। ये नाम (णाणा घोसा णाणा वंजणा) भिन्न २ उदान आदि स्वरों एवं कार आदि अनेक व्यजनोंसे सहित हैं। (तंजहा) वे इस प्रकारसे है-(आवरमयं) १ आव,यक (अवस्स करणिज्जं५) अवश्यकरणीय, (धुवनिग्गहो) ध्रुवनिग्रह ३. (विसाही य) विशोधि ४ अज्झयण छक्वग्गो)अध्ययनषटकवर्ग ५, (नाओ) न्याय ६, (आगहणा) आराधना ७, (मग्गो) मार्ग इनमें आवश्यक शब्दका अर्थ (से किं तं आवस्सयं) इसके पहिले नावेसूत्र में स्पष्ट कर दिया गया है। अवश्यकरणीय-मोक्षार्थीजनों द्वाग यह नियमसे अनुष्टेय (करने योग्य) होता है इसलिये इसका नाम अवश्यकरणीय है। ध्रुव હવે સૂત્રકાર ભાવાવશ્યકના પર્યાયવાચી શબ્દોનું નિરપણ કરે – "तस्सणं इमे" त्याहि
(तस्सणं इमे एगट्ठिया नामधेज्जा) ते मापश्यना नीचे प्रमाणे : नामा छ
(णाणा घोसा णाणा वंजणा) ते नाभा १६॥ १६हात्त माह २१२। भने ४७।२ मा भने व्यनाथी यु-त छ. (तंजहा) ते नामी नाथे प्रभाछे(आवस्सयं) (१) भा१श्य, (अवस्सकरणिज्ज) (२) मा१२५ ४२७॥य, (धुवनिग्गहा)Qपनि, (बिसाहाय) (४) विधि, (अज्झयणछक्कवग्गो) (५) अध्ययषट् ॥', (नाओ) (६) न्याय, (आराहणा) (७) माराधना भने (मग्गो) भाग (१) 'मावश्य५' मा पहने। अर्थ "से कि तं आवस्सयं" मा प्रश्नसूत्री २३ यता નવમાં સૂત્રમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. (૨) “અવશ્વકરણીય'-મેક્ષાથી જને દ્વારા ते अवश्य अनुष्ठेय (अनुठान ४२१॥ योग्य, मायणीय) राय छ, तेथी । 'भq. રયકરણીય નામ પડ્યું છે.
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अनुयोगदारले टीका-'तस्स गं' इत्यादि
तस्य आवश्यक य खलु इमानि-वक्ष्यमाणानि नानाघोपाणि-नाना-नेक विधाः भिन्ना भिन्ना इति यावत्, घोषाः उदात्तादिश्वराः येषां तानि तथाभिन्नाभिन्नोदात्तादिस्वरयुक्तानि, तथा-नानाव्यञ्जनानि-नाना=अनेक विधानि व्यञ्जनानि-ककारादीनि येषां तानि तथा-कारादिभिन्नभिन्नव्यञ्जनसहितानि एकार्थिकानि-परमार्थत एकार्थ विषयाणि नामधेयाणि-नामानि-पर्यायाः भवन्ति । तद्यथा-आवश्यकम् १ अवश्यकरणीयम् ध्रुवनिग्रहो३ विशोधिश्च४ अध्ययनषकवर्गो५ न्यायः६ आराधना७ माग:८ । इति । अयमर्थ:-आवश्यकम्, अस्य शब्दार्थ:'से किं तं आवस्सयं' इत्यत्र प्राग् वर्णितः ॥१॥ अवश्पकरणीयम्-मोक्षार्थिभिर्नि यमेनानुष्ठेयत्वात्-अवश्य करणीयम् ॥२॥ ध्रुवनिग्रहः-अनादित्वात् चिदपर्यवसितत्वाद् ध्रुवं-कर्म तत्फलभृतः संसारो वा, तस्य निग्रहः-निग्रहहेतुत्वात् निग्रहः, ध्रुवनिग्रहः-चतुर्गतिकसंसारनिवारकः ॥३॥ विशोधिः-विशाधनं विशोधिस्तद्हेतुत्वाद् आवश्यकं विशोधिः तस्य कमलापहारकत्वात् ॥४॥अध्ययनपर्वगः-अध्ययनापकम् अध्ययनपटकम् तपा वगः अध्ययनपट्कवर्गः-सामायिकादिपडध्ययनसमूहरूपः ॥५॥ न्यार:अभीष्टार्थसिद्धेः सम्बनुपायत्याद् न्यायः यद्वानिग्रह-अनादि होने के एवं नाना जीवों की अपेक्षा पर्यवसानसे रहित होने के कारण ध्रुवनामकर्म या कर्म के फलभूत संसार है। इस कर्मका या उसके फलभूत संसारका निग्रह इससे होता है, इसलिये इसका नाम ध्रुवनिग्रह है। विशोधि- कर्मरूप मल की अपति (निवृत्ति) इससे होती है- इसलिये इसका नाम विशोधि है। यह सामायिक आदि छह अध्ययन समूह रूप है-इसलिये इसका नाम अध्ययनपटूक वर्ग है। अभीष्ट अर्थ की सिद्धिका यह सबसे भला उपाय हैं इसलिये इसका नाम न्याय है-अथवा जीव और कर्म के अनादिका
(૩)વનિગ્રહ'-કર્મ અથવા કર્મના ફલસ્વરૂપ સંસારનું નામ ધ્રુવ છે, કારણ કે કર્મ અને સંસાર, આ બન્ને અનાદિ અને વિવિધ જીની અપેક્ષાએ પર્યવસાનથી રહિત (અનંત) છે. એવા અનાદિ અનંત કર્મનો અથવા કર્મના ફલસૂત સંસારને નિગ્રહ આ આવશ્યક ક્રિયાઓ વડે થાય છે, તેથી તેનું ત્રીજું નામ 'ध्रुपनि छ.
(४) विधि-तेन ॥२॥ ४३५भजनी निवृत्ति या विशुद्ध थाय है, तथी तेनु यो नाम "विशोधि" छ.
(૫) “અધ્યયનષક વર્ગ-તે સામાયિક આદિ ૬ અધ્યયનના સમૂહરૂપ હેવાથી તેનું પાંચમું નામ “અધ્યયનષક વર્ગ છે.
(૬) “ન્યાય—અભીષ્ટ અર્થની સિદ્ધિના સૌથી સારો ઉપાય રૂપ હેવાને કારણે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका २९ भावाय पर्याय निरुपण
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जीवकर्म संबन्धापना - यथार्थप्रथिनोहये पि क्षेत्रधन दिसम्बन्धिकं चिरकालिक मपि विवाद न्यायाध्यक्ष दृष्टो व्यायो रुपनयति तथैवावश्यकमपि जीवकर्मणे - नादिकालमा सम्बन्धमपनवतीति-श्य मपि व्याय इत्युच्यते ॥६॥ आराधना=मेज़ाराधना हेतुत्वाद। श्यकम् आना || मार्गः - तथा मार्गो नगरं प्रापयति, तथैवावश्यकमपि मे क्षं प्र पयतीति मोक्षरूपपुरप्रापकत्वात् आवश्यक मार्गः इति ॥८॥
।
सम्प्रति-यावश्यकपदस्य शब्दाः सूत्रकारः पयमेव प्रदर्शयति- 'समणेणं इत्यादि । श्रमणेन साधुना आणि चारस्योपलात् श्रमणा श्राविया च य-मत् अहर्निशम्य = अहोरात्रस्य अन्ते असा दिवसान्ते रुधन्ते चे लीन संबन्धक यह दूर कर देता है जिस प्रकार वादि प्रतिवादी के बहुत समय का भी क्षेत्र, धन आदि संवन्धी विद न्यायाध्यक्ष न्याय के चल पर दूर कर देता है - भी जीन और कर्म के अनादिकालीन आश्रयाश्रयिनाव दूर कर देता है उसका नाम भीन्य है। मोक्षकी आगवाह हेतु है । इसलिये उसका नाम आराधना है। जिस प्रकार मार्ग पविकको नगर में पहुंचा देता है उसी प्रकार आवश्यक भी सोक्ष रूपनगर से अपने रधिपहुंचाता है इसलिये इसका नाम - मागं है। है - इस arah अब सूत्रकार प्रकट करते हैं
प्रकार
शब्द
क्या
के के द्वारा यह (जम्हा)
11.
जिस कारण से ( अहोसिस अंने) दिवसाल और निशान्त में (अर्थ हो.) आय करणीय होता है (तम्हा) (सकारण से आवासयं नाम ) इसका તેનું છઠ્ઠું નામ “ન્યાય” અથવા-જેવી રીતે ન્યારા વાદી અને પ્રતિવાદીના જર, જમીન આ।િ વિવાદને ન્યાયને આધારે દૂર કરી નાખે છે, એજ પ્રમાણે આવશ્યક પણ જીવ અને કર્માંના અનાદિ કાલન આશ્રયાશ્રયી ભાવરૂપ સબ ધને દૂર કરી નાખે છે. તેથી આવશ્યકનું છઠ્ઠું નામ ‘ન્યાય છે.
(૭) ‘આરાધના’–મેક્ષની આરાધના કરવામાં આવશ્યક હેતુપ (સાધનરૂપ) थ डे छे, तेथी तेनु' मानभु नाम 'आराधना' है.
(८) 'भाग-भेदी ते भार्ग पथिउने गाडी हे हे, ये प्रभा આવશ્યક પણ તેના આરાધક જીવને મેક્ષ રૂપ નગરમાં પહાંચાડી દે છે, તેથી તેનું આઠમુ' નામ માર્ગ છે. આવશ્યક શબ્દના શા અન્ય છે, તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે छे (सवणेण सात्रएं य) श्रम ने श्रा द्वारा ते (जम्हा) र (अहो निसरस अंते) हिवसने अन्ते भने रात्रिने भन्ते (अवरस वायव्यं होइ) अवस्य
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बगुबीनगर त्यर्थः, अवश्यकर्त्तव्यकम अवश्यं करणीयं भवति, तस्मात् अस्य बाकाय नाम भवति । तदेतदावश्यकम्-'आवस्यं निक्खिविस्सामि' इति यत्प्रतिशत तदेवं नामादिभेदैरावश्यक निक्षिप्य वर्णितम् । इत्थमनुयोगद्वारसत्रे बाकायकाधिकारः संपूर्ण ॥ सू०२९॥ _ 'सुयं निक्खिविस्सामि' इति प्रतिज्ञानुसारेण श्रताधिकार प्रारभ्यते सत्र प्रथमं श्रुतस्वरूपं निरूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं सुयं ? सुयं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-नामसुयं, ठवणासुयं, दव्वसुय, भावसुयं ॥सू० ३०॥
छाया--अथ किं तत् श्रुतम् ? शृंत चतुर्विधं प्रज्ञप्तम, तद्यथा-नामभुतम्, स्थापनाश्रुतम्, द्रव्यश्रुत, भावश्रुतम् ॥ सू० ३०॥
टीका--से किं त सुयं' इत्यादि-व्याख्या निगदसिद्धा ॥९० ३०॥ नामआवश्यक है । (से तं आवम्सयं) “आस्सयं निक्खिविस्सामि" इसप्रकार की जो सूत्रकार ने पहिले कहा है उसी के अनुसार नाम, स्थापना आदि मेदों द्वारा आवश्याका न्यास करके वर्णन किया हैं। इस प्रकार से अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्य का धिकार समाप्त हुआ। सूत्र० २९॥
___ अब सूत्रकार “ सुयं निक्विविस्समि' इस कथन के अनुसार श्रुताधिकार प्रारंभ करते हैं-इसके पहिले वे श्रुत के स्वरूपका निरूपण करने के लिये "से किं तं सुयं, इत्यादि । सूत्र कहते है
से किं तं सुयं ?” इत्यादि । ॥ सूत्र ३० ॥ शब्दार्थः-से) शिष्य पूछता है कि हे भदन्त ! श्रुतका क्या स्वरूप है।
उत्तर-(सुयं चउव्विहं पण्णत्तं) श्रुत चार प्रकारका कहा गया है ४२६४ीय डाय छ, (तम्हा)ते २२ (आवरसय नाम) तेनु नाम मापश्य छे. (से तं "आबस्सयं 'आवस्सयं निविखवि सामि' मारे सारे २ पडेलisबुछ ते અતૃસાર' નામ રથાપના આદિ ભેદે દ્વારા આવશ્યકને ન્યાસ (વિભાગ) કરીને વાન કર્યું છે આ પ્રકારે અનુગદ્વાર સૂત્રને આવશ્યક અધિકાર અહીં સમાપ્ત થાય છે. જે ૨૯ છે
वे सूत्रा२ "सुयं निक्खिविस्सामि" 40 ४थन अनुसार श्रुताधिरने પ્રારંભ કરે છે સૌથી પહેલાં તેઓ શ્રતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવા નિમિત્તે “ किं तं सुथं" त्या सत्र ४ छ- "से किं तं सुथं?" त्या - ___शहाथ-(से किं तं सुयं ?) शिष्य गुरुने थे। प्रश्न पूछे छ? Baral सुतनु ५१३५ छ
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अनुयोगचन्द्रिका दीका सूत्र ३१ सामश्रुतनिरूपणम्
सत्र नापश्रुत निरूपयति -
मूलम-से कि तं नामसुय ? नामसुयं जस्स णं जीवस्स वा जाव सुएत्ति नाम कज्जइ, ॥सू० ३१॥
छाया-थ किं तद् नामश्रुतम् ? नामश्रुत यस्य खलु जीवस्य वा यावत् श्रुतेति नाम क्रियते, तदेतत् नामश्रतम् ॥मृ० ३१॥
टी-से कि तं' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा । म० ३१ ।। अथ स्थापनातं निरूपयति
मृलम्-से कि तं ठवणासुय ? ठवणासुयं जपणं कट्रकम्मे वा जाव ठवणा ठविजइ, से तं ठवणासु । नामठवणाणं को पइविसेसो? नाम आवकहियं,ठवणा इत्तरिय :: होजा आवकहिया वा ।सू०३२। (तं जहा) उसके वे चार प्रकार ये हैं-(नामसुयं ठवणासुयं-वसुयं भावसुयं) नामश्रुत, स्थापनाश्रुत, दुध त और भाव त ।। मृत्र ३० ॥
नाम श्रुसका क्या करूप है म बानो मूत्रमार प्रकट करते हैं'से हितं नान सुय इत्यादि । ॥ मत्र ३१॥
शब्दाथ - हे .दंत ! नाम त का क्या म्वरूप है ? उत्तर-नाममुय) नाम श्रृतका ग्वरूप इस प्रकार से है (अम्म जीवम्म वा अजीवाय वा जाव सुएत्ति नाम कज्जइ) जिस किसी जीव अपचा अभाव आदि का त ऐमा जो नाम रख लिया जाता है। इसकी व्याम । न मा क की तरह जाननी चाहिये । ॥ मत्र ३१ ॥
उत्तर-(सुयं चउविहं पण्ण) श्रु। ५२ :नु थुछ (तंजहा) ते यार ।। नये प्रमाणे जे-(नाम मुकं, ठवणामु, दमयं, भावमुयं, (१) नाम श्रुत (२) स्थापनाश्रुत, (3) इयत, मने (४) म:१,,त. ॥ १० ३० ॥
હવે સૂત્રકાર નીમતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે
" किं तं नामसुय?' त्या-- શબ્દાર્થ-શિય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવન! નામથુતનું કેવું સ્વરૂપ છે?
उत्तर (नामसुय)नाम श्रुतनु २१३५ । छ-(जस्म ण जीवस्स वा अजीवस्स वा जाव सुर ति नाम कज्जइ) 0 ७१ मथ। २०७१ दिनु “ ત” એવું જે નામ રાખવામાં આવે છે તેને નામ તે કહે છે. આ નામથનની વ્યાખ્યા મ આવશ્યકની વ્યાખ્યા અનુસાર જ સમજી લેવી. એ સૂ૦ ૩૧ છે
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अनुयोगद्वारबजे
छाया--थ किं तत् स्थापनाश्रुतम् स्थापनाथुतं यत्खलु काष्ठव मणि घा यावत् स्थापना स्थाप्यते, तदेतत् स्थापना श्रुतम् । नामस्थापनयेोः कामति विशेषः ९ नाम यावत्कथिकम स्थापना इत्वरिका वा भवेत् यावत्कथिका वा ०१ ढोका' से कि तं ठत्रणासु इत्यादि व्याख्या प्राग्वत् ।। ५०३२ ।। श्रतं निरूपयितुमाह-
मूलम् - से कि तं दव्वसुयं ? दव्वसुयं दुविहं पण्णसं, सं जहा -आगमओ य नो आगमओ य ॥सू० ३३॥
छाया -- अथ किं तद् द्रव्यश्रुतम् ? द्रव्यश्रतं द्विविधं प्रज्ञतम्, तद्यथाआगमतश्च नो आगमतश्च ॥ सू० ३३ ॥
स्थापना श्रुत का स्वरूप क्या हैं इसबातका सूत्रकार निरूपण करते हैं"से कि तं" इत्यादि । || सूत्र ३२ ॥
शब्दार्थ:-से ( किं तं ) हे भदन्त ! स्थापना श्रुत का क्या स्वरूप हैं ? उत्तर:- (ठवणासुर्य) स्थापना त का स्वरूप इस प्रकार से है (जण्णं) जो ( कटुकम्मे वा जाव ठ णाठविज्जइ काठ आदि में " यह प्रकार की जो कल्पना या आप किया जाता है (से तं स्थापना श्रुत है । गाम ठवणाणं को इविसेसो) नाम और स्थापना में क्या अन्तर है ?
तहै" इस ठवणासुयं) वह
t
·
उत्तरः - ( नाम आवक हियं या ठवणा इत्तरिया वा होज्जा) नाम यावत्कथिक होता है और स्थापना यावत्कथिक / और इत्वरिक दोनों प्रकार की होती है । इसकी व्याख्या बारहवें सूत्र की तरह जाननी चाहिये । || सूत्र ३२ ॥
હવે સુત્રકાર સ્થાપના શ્રુતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે - " से किं तं ठरणासु ?” धत्यादि -
शहार्थ - (से किं तं ) इत्याहि-शिष्य गुरुने भेवा प्रश्न पूछे छे ! हे भगवन् ! स्थापनाश्रुतनु ं ङेवु ं स्१३५ छे ? ( कटुकम्मे वा जाव ठवणा ठविज्जइ) 108 આહિમા “ આ શ્રવ છે” આ પ્રકારની જે કલ્પના અથવા આરેાપ કરવામાં આવે छ (सेतं ठवणासुयं तेने 'स्थापनाश्रुत' उडे हे ( णाम ठवणाणं को पइविसे से ) હે ભગવન્! નામ અને સ્થાપના વચ્ચે ા તફાવત છે?
उत्तर- ( नाम आवक हियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा ) नाम यावत्वथि ડાય છે. અને સ્થાપના યાવત્કથિક અને ઇરિક, આ બન્ને પ્રકારની હોય છે. આ સૂત્ર' વિશેષ વિવેચન તથા આ સૂત્રને ભાયા ખારમાં સૂત્રમાં (સ્થાપના આવ. શ્યક સુત્રમાં) કહ્યા અનુસાર સમજવે. ॥ સુ૦ ૩૨ ll
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ३४ आगमतो र श्रुतनिरूपणम्
टीका---' से किं तं दध्वयं' इत्यादि ।
व्यख्या प्राग्वत् ॥ सू० ३३ ॥ श्रुतं निरूपयति-
तत्र - आगमतो
मूलम् - से किं लं आगमओ दव्वसुयं ? आगमओ दव्वसुयं अम्ल णं सुरति पयं सिक्खियं ठियं जियं जाव णो अणुप्पेहाए कम्हा ? अवओगो दव्यमिति कटु नेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्वसुर्य जाव कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ । सेतं आगमओ दव्वसु ॥सू० ३४ ||
१८५
पण
छाया - अथ किं तदागमतो द्रव्यश्रुतम, आसमतो द्रव्यभुतं - यस्य खलु श्रति परं शिक्षितं स्थित जितं यावत् तो अनुप्रेक्षा. कस्मात् ? अनुपयोगो शब्दार्थ - (सेति) हे सहन्त वाक्य स्वरूप है ? उत्तर:- (दुव्ययं त्यभूत से प्रार वहा गया | ( तं जहा ) उसके गये हैं- (ओय नोआगमओ य) ? आगम को अश्रित करके व्यश्रुत होता है और दूसरा नोआ के आश्रित करके श्रुत होता है। इसकी व्याख्या पहिले की तरह आनी चाहिये | || मूत्र ३३॥ अब सरकार आगम की अपेक्षा करके का निरूपण करते हैं"से किं तं गमओ दव्वसुरी" दि । ॥ ३४ ॥ शब्दार्थ : - ( से किं तं) शिष्य पूछता है कि हे भदन्त । आगम का आश्रय करके जो इत्यथत होता है उस व्या?
१२.
वे सूत्राद्रव्यश्रुत
" से किं तं दव्यसुयं ?" इत्यादि
शब्दार्थ - (से किं तं
सुवन् !
३५ छ?
Gur-(geagi zfaż groja) komandu A
: 9. (HEI)
ते मे प्रारे! नीचे प्रभा (आगमओ व नोआगमओय ) (1) न्यागमने आश्रित કરીને દ્રવ્યશ્રુત હોય છે, અને (૨) નાઆગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યશ્રુત હાય છે. તેની વ્યાખ્યા આવશ્યક સૂત્રમાં આગળ કહ્યા પ્રમાણે સમજવી.
॥ सू० ३३ ॥
હવે સૂત્રકાર આગમને આશ્રિત જે દ્રવ્યશ્રુત છેં તેનું નીચે પ્રમાણે નિરૂપણુ ४२ - " से किं तं आगमओ दव्वसुर्य” त्याहि
शब्दार्थ- (से किं त आगमओ दध्वसुर्य ?) शिष्य गुरुने सेवा प्रश्न पूछे છે કે—હે ભગવન્ ! આગમના આશ્રય કરીને જે દ્રવ્યશ્રુત હાય છે, તે દ્રવ્યશ્રુતનું हे स्व३५ छे ?
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१८६
अनुयोगडारी द्रव्यमिति कृत्वा, गमन्य खलु एकोऽनुपयुक्त आगमत एकं श्रुतं यावत् कस्मात् ? यदि ज्ञायकः अनुपयुक्तो न भवति । तदेतदागमतो द्रव्य श्रुतम् ।सू०३४॥
टीका--'से कि त आगमओ दव्यसुयं इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् ।।२०३४॥ उम.मागमती द्रव्यश्रुतम् । अथ मो आगमतो द्रव्युतमाह
मूलस्-से कि त नो आगमओ दध्वसुय ? नो आगमओ दव्वसुयः तिषिह पण्णतं, त जहा-जाणयसरीरदव्वसुया, भविय. सरीरदब्यसुयं, जाणयसरीर-भवियसरीरवइरित्तं दध्वसुयं ।सू०३५।
उत्तर:-(आगमओ दव्वसुयं) आगम या आश्रय कर के द्रव्यश्रुत कास्वरूप इस प्रकार से है-(जस्सणं सुएति पयं सिविखयं ठियं जियं जान णो अशुप्पेहाए) जिस साधु आदि को श्रुतपद शिक्षित है स्थित है जित है। या-त्पद से मित है, परिजित है नामसम है, धषसम है, अहीनाक्षर है, अनरक्षर है,अव्याविद्धाक्षर (उलट पुलट पनेसे रहित) है, अस्खलित है, अमिलित है, अव्यत्यानेडित है, परिपूर्ण घोषवाला है, २ण्ठो ठविप्रमुक्त है. और गुरुवाचनोपगत है। इसतरह वह साधु आदि वाचना से पृच्छनासे परिवर्तना (आवृत्ति)से और धर्मकथा से उसमें वर्तमान हैं परन्तु उपयोग से वर्तमान नहीं हैं, अतः उपयोग से रहित हं ने के कारण वह साधु आगम को आश्रित कर के द्रव्यश्रुत माना गया है । (कम्हा) क्योंकि (अणुवओगो दवमिति कटु) ऐसा आगम का वचन हैं कि जो उपयोग से रहित होता है वह द्रव्य माना जाता है। इसकी माख्या १४ वें सूत्र के समान जाननी चाहिये । सूत्र ॥ ३४ ॥
उत्तर-(आगमओ दव्वसुय) भागमन माश्रय शने द्रव्यश्रत मा
२१३५ -
(जम्म णं सुएत्ति पय सिक्खि पं ठिय जिय जाव णो अणुप्पेहाप) रे 'साधु महिने त५६ शिक्षित छ, स्थित छ, लित . भित थे, ५२लित छ, નામસમ છે, ઘોષસમ છે. અહીનાક્ષર છે, અનત્યક્ષર છે, અન્યાવિદ્ધાક્ષર અખલિત
છે, અમિલિત છે, અવ્યત્યા એડિત છે, પરિવણઘેષયુકત છે, કઠોઠ વિપ્રમુક્ત છે, છે અને ગુરુવારાને પગત છે, આ રીતે તે સાધુ આદિ વાચનાથી, પરિવર્તનાથી પૃચ્છ નથી, પરિવર્તનથી અને ધર્મકથાથી તેમાં વર્તમાન છે, પરંતુ ઉપયોગ પરિણામથી તેમાં વર્તમાન પ્રવૃત્ત) નથી, અને તેથી ઉપયોગથી રહિત હેવાને કારણે તે સાધુને
मागमानी अपेक्षाये द्रव्यश्रुत मानपामा पाने छ; (कम्हा) ४२५ 3 (अणुवओगो | दवमिति क१) मनु मे वयन छ , २ ६५५योगयी २हित य छ
અનુપયુકત પરિણામવાળો હોય છે તેને દ્રવ્યરૂપ માનવો જોઈએ. આ ત્રમાં વપરાયેલાં પદોને ભાવાર્થ ૧૪ માં સૂત્રમાં આપ્યા પ્રરાણે સમજો. . ૦ ૩૪
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अनुयोगचन्द्रिका टीका मू० ३५ नोआगमतो द्रव्यश्रतनिरूपणम्
१८७ ___हाश--अथ किं तद् नो आगमतो द्रव्यश्रुतम् ? नो आगमतो द्रव्य भुतं त्रिविधं प्रज्ञप्तम तद्यथा-ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतम्. भव्यशरीरद्रव्यश्रुतम्, ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यतम् ॥मू० ३५।। टीका--'से किं तनोआगमओ दश्वसुर्य' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् ।मु०३५। अथ ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतमाह--
मलम्-से किं त जाणयसरीरदव्वसुयं ? जाणयसरीरदव्वसुयं सुयत्तिपयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुयचावियचत्तदेहं त चेव पुत्वणिय भाणियध्वं जाव से तं जाणयसरीरदव्वसुयं ॥ सू० ३६ ॥
अब सूत्रकार नोआगम को आश्रित करके द्रव्यश्रुत का कथन करते हैं“से किं तं नोआगमओ दव्वसुयं” इत्यादि । सूत्र ३५॥
शब्दार्थः ‘से कित) हे भदन्त ! नोआगम को आश्रित करके द्रव्यथत का क्या स्वरूप है ? (नोआगमओ दव्वसुयं) नोआगम को आश्रित करके द्रव्यचन (तिविहं पण्णत्तं) ३ तीन प्रकार का कहा है। (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(जाणयसरीरदव्वसुर्य, भवियसरीरदब्धसुयं, जाणयसरीर-भवियसरीरवइरितं दवमुयं) ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुत, भव्यशरीरद्रव्यश्रुत, और ज्ञायकशरीरभव्यशरीर इन दोनों से व्यतिरिक्तद्रव्यश्रुत । इस सूत्र की ब्याख्दा पहिले कहे हुए १६ वे सत्र की व्याख्या के अनुमार जाननी चाहिये। ॥ सू ३५ ॥
હવે સૂત્રકાર નો આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યશ્રતનું નિરૂપણ કરે છે– ,
"से कि त नागमओ दव्वसुय?" यह
शहाय-( से किं तं) त्या शिष्य गुरुने थे। प्रश्न पूछे है महात!, ને આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યશ્રતનું સ્વરૂપ કેવું છે? ____उत्त२-(नआगमओ दव्वसुय तिविहं पण्णत्तं) नमागभने मत शन द्रव्यश्रुतना ! ४२ ४ ते. (तजहा) ते ५ प्रा। नाय प्रभार छ (जाणयसरीरदव्वसुय, भवियसरीरदव्वसुय, जाणयसरीरवइरित्तं दध्वसुय)। (१) ज्ञाय शरी२ द्रयश्रुत, (२) नव्यशरी२ द्रव्यश्रत्र, भने (3) ज्ञाय शरीर भने ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવું વ્યસ્ત આ સૂત્રની વ્યાખ્યા આગળ ૧૬ માં સત્રની જે વ્યાખ્યા આપવામાં આવી છે, તે વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી. મે સ ૩૫ |
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१८८
अनुयोगदारो छाया--अथ किं तद् ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतम् ? ज्ञायकशरीरद्रव्यश्रुतंश्रुतेति पदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेहं तदेव पूर्वभणित भणितव्यं यावत, तदेतत् ज्ञारकशरीरद्रव्यश्रुतम् ॥सू० ३६॥ टीका-से किं तं जाणयसरीरदयसुर्य' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् ॥१० ३६॥
ज्ञायकशरीर द्रब्यश्रुत का क्या स्वरूप है-इस बात को सूत्रकार स्पष्ट करते है-“से किं तं जाणयसरीरदब्बसुयं” इत्यादि ॥१० ३६॥
शब्दार्थ-से कि त जागयसरीरव्वसुम) हे भदन्त (ज्ञायशरीर द्रव्य अत का क्ण स्वरूप है ?
. उत्तर--(सुयत्तिपयत्थाहिगारजागरस्स) श्रुत शब्द वाच्य आगम के अर्थ रूप अधिकार के ज्ञाता का ऐसा (सरीरय) शरीर (4) जो (ववगयचुय चावियचत्तदेहं) व्यपगत-चैतन्य पर्याय से रहित हो चुका है, च्युत-वंश प्रकार के प्राणों से परिवर्जित हा गया है, च्यावित-बलिष्ठ आयुक्षय के कारणों से प्राण रहित हो गया है। त्यक्तदेह आहार परिणति जनित वृद्धि जिससे सर्वथा निकल चुकी है (जाणयसरी व्वसुयं) ज्ञायकशरीर द्रश्रुत है। (तं चेव पुत्वभणिय) यहां पर १७ में पत्र कथित इस विषय संवन्धी इस व्यपगत आदि पाठ से आगे (जाव से त आण सरीरदबाय) ज्ञायकसरीर द्रव्यश्रुत का पाठ (भाणियध्वं) ग्रहग करलेना चाहिये। इसकी (याख्या १७ वे सूत्र में कही गई हैं। ॥ सूत्र ३६ ॥
હવે સૂત્રકાર જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યથુનના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે
"से किं तं जाणयसरीरद सुय" इत्यादि
शा-(से किं तं जाणयसरीन्दव्यसय?) शिष्य शुरुन सेवा प्रश्न પૂછે છે કે હે ભગવન્! જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યશ્રતનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(सुयत्ति परत्याहिगारजाणयस्स) श्री शहना पाय सेवा भाग भना मथ३५ मबिना ज्ञातानु (सरी य) २ (ज) ३ रे (व-गयचुय चावियचत्तदेह) व्यपात २४ युयुछ चैतन्य पर्यायथी 81 ७ युयु छ, યુત થઈ ચુક્યું છે દસ પ્રકારના પ્રાણથી રહિત થઈ ચુકયું છે, થ્યાવિત થઈ ચુકયું છે, બલિષ્ઠ આયુક્ષયના કારણથી પ્રાણુરહિત થઈ ચુક્યું છે, ત્યકતદેહ થઈ ચુકયું છે આહાર પરિણતિ જનિત વૃદ્ધિ જેમાંથી સર્વથા નીકળી ચુકી છે (जाणयसरीरदब्वसुयं) मेवां शरी२ने 'ज्ञाय शरीर द्रव्यश्रु' ३५ अपामा भावे छ. (त चेव पुश्वं भणिय) मही १७मा सुत्रमा थित मा विषय धीमा 044nd All ५४थी ५३ ४शने (जाव से तं जाणयसरीरदव्वसुय) ज्ञाय. शरीर द्रव्यश्रत पर्यन्तन। ५७ (भाणियब) अ ४२ नये. ती ०याभ्या ૧૭માં સુત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી જોઈએ. સ. ૩૬
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अनुयोगचन्द्रिका टीका-म.३७ भायश्रुतनिारपणाम्
अथ भव्य भुत निरूपयितुमाह-- __ मूलम्--से कि त भवियसरीरदव्वसुय ? भवियसरीरदव्वसुय जे जीवे जोणी जम्मण निकवते जहा दव्वावस्सए तहाभाणियव्वं जाव, से त भवियसरीदव्वसुय ॥सू० ३७ ॥
__ छाया--अथ किं तद् भव्यशरीरदव्यश्रुतम् ? भन्यसरीरद्र भुत यो जीवो योनिमन्मनिष्क्रान्तो यथा द्रव्यावश्यक तथा भणितव्यं यावत तदेतद् भव्यशरीगद्रव्यश्रुतम् ॥ ३७॥
अब मुत्रकार भव्य शरीर द्रव्यश्रुत का निरूपण करते हैं-- "से कि तं भवियसरीग्द-वसुयं" इत्यादि ।।। सूत्र ३७ ॥
शब्दार्थः-(से) हे भदन्त ! (त) पूर्वप्रकान्त (भवियसरीपदयमुयं) भन्यशरीरद्रव्यश्रुत का (किं) क्या विर? है ?
उत्तर:-(जे जीवे जो णीजम्मणनिक्वते) जो जीव उत्पत्तिस्थानरूप योनि से अपना समय पूर्ण करके निकला है-गर्भपात से उत्पन्न नहीं हुआ है किन्तु जन्मा है ऐसा वह जीव उस प्राप्त शरीर से जिनापदिष्टभाव के अनुसार श्रुत शब्द वाना आगम के अर्थ को भविष्य में भीखेगा--वर्तमानकाल में सीख नहीं रहा है एमा शरीर भयशरीर द्रव्यश्रुत है। (जहा द स्सए तहा भाणियव्वं जाब मे न भवियसरीग्दव्यमुयं) इस विषय से लगता हुआ वर्णन जिस प्रकार से व्यावश्यक के वर्णन में किया गया है उसी प्रकारका वर्णन यहां भी समझना चाहिये । और यह वर्णन यह "भव्यशरीर द्रव्यश्रत है।
एवं सुत्रा२ व्यश: तनु नि३५९५ ४२ छ
“से कि तं भवियसरीन्दव्यसुयं" त्या શબ્દાર્ધ–() શિષ્ય ગુરુને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે () પ્રસ્તુત વિષય३५ (मवि सरीरदध्वसु) म८य१२द्रव्यश्रुतनु (f.) : २५३५ छ ?
____उत्तरे (जे जीव जोणीजम्मणनिक्वंतरी १ अत्यत्ति स्थान३५ योनिમાંથી પોતાનો સમય (૯. રહેવાના સવાય) પર કરીને નીકળે છે ગર્ભપાતથી ઉતપન થયા નવી એ તે જીવ તે કામ શરીર વડે વર્તમાનકાળે મૃત શબ્દવાન્ય આગમન અને રાખી રહ્યો નથી ! ભવયમાં અડવાના અને શીખવાને છે. એવા : જીવના શરીરને ભવ્ય શરીર શ્રત રૂપ ગણવામાં આવે छ. (जहा दवावस्सए नहा भाणिमर जाव से न भविणासरीर दम्य सुय) १८मा સૂત્રમાં દ્રવ્યાકના વિષયને અનુલક્ષીને જેવું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. એવું વર્ણન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. તેને વશરીર દ્રવ્યશ્રત કહે છે આ
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अनुयोगटारो टीका--'से कि त भवियसरीर दध्वसुय' इत्यादि । व्याख्या पूर्ववत् ।सू१३७१ अथ-ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतमाह--
मूलम्--से कि त जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्वसुयं ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्वय पत्तयपोत्थयलिहियं ।
अहवा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्तं दध्वसुयं पंचविहं पणतं, त जहा-अंडय? बोंडयं २ कीडय ३ बोलय ४ वागय५ । (तत्थ) अंडय हंसगब्भादि बोंडय कप्पासमाइ। कीडयं पंचविह पण्णत, तजहा-प? मलए असुए चीणंसुए, किमिरागे। वालयं पंचविहं पण्णत्तं, त जहा-उष्णिए, उहिए, मियलोमिए, कोतवे, किटिसे । वागय सणमाइ । से त जाणयसरीरभवियसरीरवइरितं दज्वसुय । से त नो आगमओ दव्वस्य । से त दव्वसुय॥सू०३८॥
छाया-अथ किं तद् ज्ञा कशरीर भव्यशरीतिरिक्तं द्रव्य श्रुतम् ? ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्य श्रुतं पत्रकपुस्तकलिखितम् ।
वहाँ तक जानना चाहिये । इसकी व्याख्या १४ वें सूत्र के अनुसार ही जामनी चाहिये। ।। मूत्र ३७ ॥
अब सूत्रकार ज्ञायकशरीरभव्यशरीर इन दोनों से भिन्न जो तद्वयतिरिक्त द्रव्यश्रुत हैं इसका स्वरूप कहते हैं"से किं त जाणयसरीरमषियसरीरवइरिसदध्वसुयं" इत्यादि ॥ सूत्र ३८ ॥
शब्दार्थः-(से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्त दव्यसुर्य) शिष्य સૂત્રપાઠ પર્યન્તનું ભવ્યશરીર કથાવશ્યક સૂત્રનું સમસ્ત કથન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ તેની વ્યાખ્યા પણ ૧૮માં સૂત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે જ સમજવી. ૩૭
જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીર આ બન્નેથી ભિન્ન એવું જે “તદ્રયતિરિત દ્રવ્યશ્રત” છે તેના સ્વરૂપનું હવે સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે
"से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित दव्वसुयं' त्याleशहाथ-(से कि त जाणयसरीरभवियसरी वहरिन व्वसुयं ?) शिष्य
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अनुयोगचन्द्रिकाटी 1.३८ झाय शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यभतनिरूपणम्१९१
अथवा -ज्ञा शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसूत्रं पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथाअण्डजं, बोण्डजं, कीटजं. वालज, पाल्पलम् । (तत्र) अण्डज हंसगर्भादि. बोण्डर्ज कर्यासादि, कीटनं पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-पट्टे, मलगम्, अंशुकं, चीनाशुक, कृमिरागम, वाल पञ्चविध प्रज्ञप्तम्-तद्यथा और्णिकम् औष्ट्रि कम्, मृगली. मिकम्, कोतवम्, किट्टिसम् । बाल्कलं शणादि । नदेन ज्ञाय शरीरभव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रवर नुप्तम् । तदेतद् नोआगमतो द्रव्यश्रतम्। तदेतद् द्रव्यभुतम् ॥सू०३८॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं त जाणयसरीरभवियसरीर वहरित दव्यसुर्य' इति । अथ किं तद् ज्ञाय शरीरभ यशरीग्व्यतिरिक्त द्रव्यश्रुतम् ? इति। उत्तरमाह-'जाणयसरीरभत्यिसरीरवहरितं दध्वसुयं' इत्यादि । शायक शरीरभव्यशरीरव्यनिरिक द्रव्यश्रुतम्, पत्रकपुस्तकलिखितम् पत्रकाणि-तालपत्रादीनिच पुस्तकानि-पत्रसङ्घातरूपाणि च तेषु लिखितम् । यद्वा-पत्तयषोतयलिहियं' इतिपाठप्य 'पत्रकपोतकलिखितम' इतिच्छाया। स्त्र-पोतकानि वस्त्राणि । पत्र केषु पुस्तकेषु वस्त्रकेषु च लिखितं ज्ञायक.शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यश्रुतम्। पूछता है कि हे भदन्त ! ज्ञाय शरीर और भव्यशरीर इन दोनों से मिन जो द्रव्यश्रुत है उसका क्या स्वरूप है ? ।
उत्तरः- पत्तयपोत्थयलिहियं जाणयसरीरभवियसरीरवरित दलसुयं) ताडपत्रो और पत्रों के संघातरूप पुस्तकों में लिखा हुआ जो श्रुत हैं वह ज्ञायक शरीर और भव्यशरीरव्यसिरिक्त द्रव्य श्रुत हैं ऐसा जानना चाहिये। सूत्रकार (अहवा) अथवा-द से कहते हैं "पत्तयपोतयलिहियं" इम पाठकी संस्कृत छाया पत्रकपोतक लिखित', सी भी होती है इस पक्ष में पोतकशब्द का अर्थ वस्त्र है, और पत्रक शब्द का अर्थ पुस्तक । इस प्रकार वस्त्रों के ऊपर
और पुस्तकरूप कागजों के ऊपर लिखा गया श्रुत ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભદન્ત! જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીર. આ બન્નેથી ભિન્ન એવું જે દ્રવ્યશ્રત છે તેનું કેવું સ્વરૂપ છે? ___उत्त:-(पत्तयपोत्थयलिहिय जाणयसरीरभविपसरीग्वइरित्तं दध्वसुयं) તાડપત્રો અને પત્રોના સમૂહરૂપ પુસ્તકમાં લખેલું જે થત છે તેને જ્ઞાયકશરીર અને सयशरी२ ०यतिरित द्रव्यश्रत छ. (अहवा) या "पत्तयपोत्थयलिहिय" આ સત્રાંશની સંસ્કૃત છાયાની દૃષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે આ સૂત્રપાઠને. નીચે પ્રમાણે અર્થ થશે- "पात:" थेट पस, मने 'पत्र" मेट ५२४ मा शत शनी मर्थ કરતા દ્રવ્યતને નીચે પ્રમાણે અર્થ પણ થઈ શકે છે કે વસ્ત્રો ઉપર અને પુસ્તક રૂપ કાળ પર લખેલા મુનને જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવું દ્રવ્ય
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अनुयोगद्वारसत्रे
पत्रकादिलिखितग्य तस्य उपयोगरहितत्वात् द्रव्यत्वं बोध्यम् । आगमो हि ज्ञानं, तस्य कारणम् - आत्मा - देहः शब्दश्चैतत्त्रयं त भाषाम् तस्य मोआगम विज्ञेयम् अपि च- पत्रकपुस्तक लिखितस्य अचेतनत्वाद् ज्ञानरूपत् भाषाध्व नो भागम स्वम् । इह 'सुय' इत्यस्यार्षत्वात् सूत्रमिति छायापक्षे प्राह- 'हवा' इत्यादि । अथवा ज्ञायव शरीरभः यशरीरव्यतिरिक्त द्र० सूत्र पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् । तद्यथाअण्डजम् ?, बोण्डजम२, कीटजम्३, बालजम्४, बाल्कल५५,
तत्र पञ्चविधद्रव्यसूत्रमध्ये प्रथमं भेदं प्ररूपयति- 'अंडयं हंसगब्भादि' इति । अण्डज हरु गर्भादि, इह हंसशब्देन चतुरिन्द्रियो जीवविशेषो गृह्यते, तस्य से व्यतिरिक्त द्रव्य है । पत्रक आदि पर लिखे हुए श्रुत में उपयोग से रहित होने के कारण द्रव्यत्व है । आगम नाम ज्ञान का है । इस के कारण
त्मा, देह और शब्द कारणभूत होते हैं। इनका अभाव होने पर उसमे नोआगमता है । अपि च-पत्रक पुस्तक आदि में लिखित श्रुतं में अचेतनता होने के कारण ज्ञानरूपता का अभाव है इसलिये भी उसमें नोआगमता है । तथा जब "सुय" पद की छाया 'सूत्र' ऐसी होती है तब उस पक्ष में क्या इस का अर्थ होता है इसे ( जाण सरीरभविय सरीरखइरित्तं दव्वसुयं पंचविहं पण ) वे कहते हैं कि ज्ञायक शरीर और भगशरीर इन से भिन्न जो द्रव्यमुत्र है वह पांच प्रकार का है - ( त जहा ) वे प्रकार ये है ( अंडयं, १ वौंडय २, कीडयं ३, बालयं ४, वागय ५) अण्डज बोण्डज, कीटज, अलज और बाल्कल । (तत्थ) इन में (अण्डय) अंडज का तापय इस प्रकार से हैं ( हंस શ્રુત કહે છે.” કાગળ આદિ પર લખાયેલા શ્રુતમાં ઉપયેગથી રહિતતા હોવાને કારણે દ્રવ્ય છે. જ્ઞાનને આગમ કહે છે તે આગમરૂપ જ્ઞાનમાં આત્મા, દેહ અને શબ્દ કારણભૂત બને છે. તેમને જયાં અભાવ હાય ત્યાં આગમતાના સદ્દભાવ હાતા નથી પશુ નામગમતાના સદ્ભાવ રહે છે. તાડપત્ર પુસ્તક આદિમાં લખેલા શ્રુતમાં અચેતનતા હેાવાથી જ્ઞાનરૂપતાને અભાવ હોય છે, તે કારણે તે તમાં આગમતા રહેલી છે.
,
क्यारे "सुयं" या पहनी संस्कृत छाया “मुत्र' 'सूत्र' थाय छे, त्यारे तेने थे। अर्थ थाय छे ते हवे सूत्रार अ८ रे छे- ( जाणयसरीरभ वियसरीरहरितं दव्वसुर्य पंचविहं पष्णस) तेथे हे छे है ज्ञायम्शरीर द्रव्यश्रुत भने लवियशरीर द्रव्यश्रुतशी भिन्न येवु ने द्रव्यसूत्र ('दव्वसुय' ) नी संस्कृत छाया " - सूत्र " ने आधारे या यह मन्युं छे छे ते पथि प्रहार धुंछे- (तंजही) प्राश नीचे प्रभा छ - ( अंडयं बांडयं कीडयं वागयं) (१) मंडल, (२) मांडन, (3) डीटर, (४) आसन भने (4) वास ( तत्थ अण्डयं हंसगभादि)
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रोगन्द्रिका टीका.२०३८ ज्ञायक.शरीरभव्यशरीरष्यतिरिक्तव्यश्रुतनिरूपणम् १९३
गर्म:-तग्निमिता कोशिका कोथली' इति प्रसिद्धा तदुत्पन्न सूत्रमण्डजमुख्यते, 'रक्षमी' इति भाषाप्रसिद्धम् । आदिशब्दचतुरिन्द्रियमेदं प्रदर्शयति । ननु परि
सगोत्पन्न सूत्रमण्डजमुष्यते तर्हि 'अंडयं हंसगम्भादि' इति सामानाधिकरण्य नोपपयते इति चे दुध्यते, कारणे कार्योपचारात् हंसगर्भोत्पन्नं सत्रमपि-हंसगर्भ इन्पुरते इति नास्ति कोऽपि दोषः ॥१॥
___ अथ द्वितीय भेदं प्ररूपयति-'योदय कप्पासमाई' इति । बोण्ड कार्पासादि' कार्पासनिष्पन्नं सूत्रं बोण्डजं-बोप्डं-कार्पासक्रोशः फलविशेषरूपस्तज्जातं गन्मादि) 'हंस' एक चतुरिन्द्रिय जीव विशेष होता है । वह एक कोथली बनाता है। इससे उत्पन्न जो मूत्र होता है उसका नाम अंडज है। इसे भाषा में रेशमी वस्त्र कहते हैं । हंसगर्म में जो आदि शब्द है वह चौइन्द्रियों के मेद का प्रदर्शक है।
शंकाः- यदि हंसगर्भ से उत्पन्न मत्र अंडज कहलाता है तो "अंडणं हँस गम्भादि" में समानाधिकरणता नहीं बन सकती है, सो उसका उत्तर इस मार से है कि यहां पर कारण में कार्यका उपचार किया गया है। इसलिये हत के गर्भ कोथली से उत्पन्न हुए मूत्रको भी हंसगर्भ के नाम से कह दिया है। इसतरह के कथन में कोई दोष नहीं है। (बोंडयं कप्पासमाइ) कपास से बने हुए मृत्रका नाम बोण्डन हैं। बोण्ड नाम कपास के कोशका है। कपास का कोश एक प्रकारका फल होता है। जिसमें से कपास निकलता પહેલાં તે અંડજેને ભાવાર્થ બતાવવામાં આવે છે. “હું” એક ચતુરન્દ્રિય જીવવિશેષનું નામ છે. (અહીં હંસ નામનું પક્ષી ગૃહીત થયું નથી પણ પતંગીયા જેવું કઈ ચતુરિન્દ્રિય જંતુ ગૃહીત થયું છે.) તે એક કેથળી (કોશ) બનાવે છે તેમાંથી જે સૂત્ર ઉત્પન થાય છે તેને “અંડજ' કહે છે. તેને ગુજરાતી ભાષામાં રેશમી વસ્ત્ર કહે છે. “હંસગર્ભ” આ પદની પાછળ જે “આદિ' પદ મૂકવામાં આવ્યું છે તે ચૌઇન્દ્રિયેના ભેદનું પ્રદર્શક છે.
શંકા–જે હંસગર્ભમાંથી ઉત્પન્ન થયેલા સત્રને અંડજ સત્ર કહેવામાં આવે तो "अंडयं हंसगम्भादि"भा समाना४ि२४ता पटित यती नयी.
ઉત્તર–અહીં કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરવામાં આવ્યા છે. તે કારણે સના ગર્ભમાંથી કશમાંથી ઉત્પન્ન થયેલા સૂત્રને પણ અહીં હંસગર્ભના નામે માટે કરવામાં આવેલ છે. આ કારણે આ પ્રકારના કથનમાં કઈ દેષ નથી.
(बोडयं कपासमाइ) पास गया ३मांधी मने wisor. "Mis" मा પદ કપાસના કેશરૂપ કાલાને માટે વપરાય છે. આ કપાસમાંથી જે સત્ર બને છે. तेने मेist छ. (डि-दीमा साने 'बोडिया' ७ ) मी मा ५६
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अनुयोगदारले केण्डजमुदते । इहाप्यादि शब्दः प्रकारवाची । फलस्य श्फारो भेदः कसि इति बोधयितुमादि शब्दः प्रयुक्त इति । अत्रापि काणे कार्याचाराव कर्पास पोइजमिति सामानाधिकरण्यम ।
अथ तृतीय भेदमाह-'फीडयं पंचषिहं पण्णसं' इति । कीटज पम्पवित्र प्रज्ञप्तम्-कीटज-कीटात् चतुरिन्दिर जीवविशेषाज्जातं धनं पञ्चपकारक प्रसं-प्रकपितम् । पञ्चप्रकारस्वमेय स्पष्टयति-त जहा' इत्यादि । सघथा-पई-पसत्रम, पदृसत्रोत सिविषये एवं वृद्धसम्प्रदाय:-अरण्ये निकुञ्जमध्ये मांसपीडादिरूपामिपपुजाः स्थाप्यन्ते । तेषां पुजानां पावतो निम्ना उन्नताच सान्तरा पहनः है। इस कपास के बने हुए सूत्र को बोण्डज कहा जाता है। यहां आदि शब्द प्रकावाची है। कपास से फलका भेद है। यह भेद पास है। इस बातको समझाने के लिये यहाँ आदि शब्द प्रयुक्त हुआ है । यहां भी कारण में कार्य के उपचार से वोप्डज मूत्र को कपास वह दिया है। इसलिये समानाधिकरणता बनने में कोई दोप नहीं है। (कीडयं पंचविहं पण्णत) कीटज़ मन्त्र पांच प्रकारका कहा गया हैं। चौइन्द्रिय जीव विशेष का नाम कीट है। उस से उत्पन्न जो मूत्र होता है वह पांच प्रकार का होता है। (जहा) जैसे-“पट्टे मलए अंसुए पीणसुए किमिरागे' पट्ट, मलय, अंशुक चीनांशुक और कृमिराग । पट्ट से यहां मह सत्र लिया गया है। इस पत्र की उत्पत्ति के विषय में वृद्ध परम्परा से ऐसी बात सुनने में आती है-जंगल में एक निकुंज लतापिहित प्रदेश होता है । इस में मांसचीडादि रूप अ.मिपपुंज रख दिये जाते हैंપ્રકારવાચક છે. કપાસ અને કાલા વચ્ચે ભેદ છે. કાલું એક પ્રકારના ફલ રૂપ છે જ્યારે કપાસ તેમાંથી નીકળતી વસ્તુરૂપ છે. આ વાતને સમજાવવાને માટે અહીં આદિ શબ્દ વપરાય છે. અહીં પણ કહેવામાં આવેલ છે. તેથી સમાનાધિકરણતા ઘટિત થવામાં કઈ દોષ રહેતું નથી.
(कीडयं पंचविहं पण्णत्त) 312 सूत्र पांय प्रारना i . तुन्द्रय જીવવિશેષ (રેશમના કીડા આદિ છે)ને કીટ (કીડે કહે છે. તેની લાળ આદિ भांची मने रे सूत्र डाय छे तेन 120 सूत्र डे छ (तंजहा) 12. सूत्रना viय । नीय प्रभा छ (पट्टे, मलए, अंसुए, चीणंसुए, किमिरागे)- (१) पर (२) मध्य, (3) अशु, (४) यानांशु भने (५) भिसा
'पट्ट' मा ५४थी मडी पट्टसत्र अडर थयुं छ. मा पट्ट सुनी उत्पत्तिना વિષયમાં વૃદ્ધ પરમ્પરાની અપેક્ષાએ આ પ્રકારની વાત પ્રચલિત છે-જંગલમાં કંઈ એક નકુંજમાં (વૃક્ષ અને લતાઓના સમૂહથી યુકત સ્થાનને નિકુંજ કહે છે)
किमिरागेय है। (तजहा से उत्पन्न जो सब होचोटि
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अनुमेमचन्द्रिकाटीका ३८ ज्ञायकशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तद्रव्यश्रुतनिरूपणम् १९५ कीलका निखन्यन्ते । मांसल लुपाः पलङ्गकोटाः मांसचीडादिकमभितः समायान्ति । ते हि कीलकान्तरेषु इतस्ततः परिभ्रमन्तो लालाः प्रमुञ्चन्ति । ताश्च कीलकेषु लग्नाः परिगृह्यन्ते । ततस्ताभिः पट्टमूत्र निर्मीयते ॥१॥ मलय मलयदेशोत्पन्न सूत्रम् ॥२॥ अंशुकम-चीनदेशबहिर्भागे समु पन्नं मूत्रम् ॥३॥ चीनांशुम्=चीनदेशाभ्यन्तरभागे सम्पन्न सूत्रम् ॥४॥ कृमिरागं-कृमिरागं-कृमरागसूत्रम् । अत्र विषये एवं श्रयते -कस्मिंश्चिदेशे मनुष्यादिशोणितं गृहीत्या केनापि योगेन योजयिस्वा पात्रे ग्थाप्यते । तच्च सच्छिद्रपात्रेणाच्छाद्यते। तत्र-पुनः प्रभूताः कृमयः समुत्पद्यन्ते । ते पवनसेवनाभिलाषिणः पात्रच्छिद्रान्निगच्छन्ति आसन्नप्रदेशे पर्यट
उन आमिप पुंजों को आजूबाजू में नीचीऊची कुछ अन्तर से अनेक कीलें गाढ दी जाती हैं। वहां मांस के लोभी अनेक पतंग कीडे उस मांस चीडादिक की चारों ओर आते हैं। और उन कीलों के आसपास घूम कर अपनी लारको छोडते हैं। उनकी लों पर लगी हुई उनकी लारोंको फिर लोग एकत्रित कर के उन से पट्टमुत्र बनाते हैं । मलयदेश में उत्पन्न हुए मूत्रका नाम मलय है। चीनदेश के बाहर उत्पन्न हुए सूत्रका नाम अंशुक हैं। चीनदेश के भीतर बने हुए मुत्रा नाम चीनांशुक है। कृमिराग मत्र के विषय में ऐसी बात सुनी जाती है कि किसी देश में मनुष्य आदिका रक्त ले कर लोग उसे पात्र में किसी भी तरह जमाते हैं। और फिर उस पात्र के मुँहको छिद्रोंवाले ढकने से ढक देते हैं। उसमें धीरे कीडे उत्पन्न हो जाते हैं। वह जब वायुसेवन की इच्छा से सच्छिद्रढक्कन से होकर
માંસ આદિરૂપ આમિષપુંજ પાથરી દેવામાં આવે છે. ત્યાં તે માંસપે જેની આસપાસ થોડે થોડે અંતરે નીચી ઊંચી અનેક ખીલી ચડી દેવામાં આવે છે. અનેક પતંગીયાઓ (કીડાઓ) માંસથી આકર્ષિત થઈને તે ખાવાની ઇચ્છાથી તે માંસપે જેની ચારે તરફ આવે છે. અને માંસનું ભક્ષણ કરીને તે ખીલાઓની આસપાસ ભમી ભમીને પિતાની લાળ તે ખીલાઓ પર છેડે છે. તે ખીલાઓ પર એકત્ર થયેલી લાળને એકત્ર કરી લઈને લેકે તેમાંથી પટ્ટસૂત્ર બનાવે છે.
મલયદેશમાં ઉત્પન્ન થયેલા સૂત્રને મલયસૂત્ર કહે છે. ચીન દેશની બહારના પ્રદેશમાં બનેલા સૂત્રને અંશુક કહે છે. ચીન દેશની અંદરના ભાગોમાં બનેલા સત્રને ચીનાંશુક કહે છે. કૃમિરાગસૂત્ર વિષે આ પ્રકારની માન્યતા પ્રચલિત છે કે મનુષ્ય આદિના રકતને એકત્ર કરીને કેઈ એક પાત્રમાં જમાવી દે છે. ત્યાર બાદ તે પાત્ર પર છિદ્રાળું આચ્છાદન ઢાંકી દે છે. તેમાં ધીરે ધીરે કીટરાશિ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે હવા ખાવાની ઈચ્છાથી તે સછિદ્ર આચ્છાનમાંથી બહાર નીકળીને
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अनुयोगद्वारात्रे
तस्ते लालजालं मुञ्चन्ति । तेन निष्पन्नं सूत्रं कृमिगगमुच्यते । तच्च रक्तवर्णकृमिसमुन्नत्वात् स्वाभाविकर क्तवर्ण भवति ।
अथ वालजस्त्ररूपं चतुर्थभेदं प्ररूपयति- 'बालगं' इत्यादि । बाजं - बालाः = रोमाणि बालेभ्यः = ऊरणिकादि लामभ्यो जातम् तत् पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् = प्ररूपितम्, तद्यथा - और्णिकम् - ऊर्णाया इदमौर्णिकम् मेष रामनिप्पन्नम् ||१|| ओष्टिकम्-उष्ट्राणामिदम्, औष्ट्रि कम्-उष्ट्र रोमनिप्पन्न सूत्रम् ||२|| मृगलौकिकम्-मृगराममिनिं ०१न्नं, मृगलौमिकम् । मृगसदृशा मृगेभ्यो ह्रस्वाकारा आरण्यजीव वशेषा इह मृग शब्देन विवक्षिताः तेषां रामभिर्निष्पन्नं सूत्रं मृगलौमिकम् ॥३॥ कौतम - उन्दु र रोम निष्पन्नं सूत्रम् | ४|| किट्टिसम - और णिकादिसत्र निर्माणानन्तरं यदवशिष्ट'
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बाहर निकलते हैं तो वह आसपास के प्रदेश में घूमते हुए वहां अपनी लार छोड़ते हैं । इस लार से जो सूत्र बनता है वह कृमिराग सूत्रे कहलाता है । इसकी रक्तवर्णवाले कृमियों से उत्पन्न होने के कारण वर्ण स्वभावतः लाल रहता है। (बालथं पंचविह पण्णत्त) भेड आदि के बालों से उत्पन्न हुवा सूत्रत्रका नाम बालज सूत्र है । यह भी पांच प्रकारका है- (त जहा ) जैसे - ( उणिए) मेप आदि के रोम से उत्पन्न हुआ सूत्र और्णिक (उट्टिए) उष्ट्र के रोम से उत्पन्न हुआ मृत्रा औष्ट्रिक (मियलोमिए) मृग के रेशम से उत्पन्न हुआ सूत्र मृगलोमिक (कोतवे) चूहे के रोम से उत्पन्न हुआ सूत्र कौतव, (किट्टि से) और्णिक आदि सूत्रों के निर्माण करते समय जो बाल इधरउधर गिर जाते हैं उसका नाम किट्टिस है । इस किट्टिस से जो सूत्र बनाया તે પાત્રની આસપાસ ભમવા માંડે છે અને તે પાત્ર પર પેાતાની લાળ છેડયા કરે છે. તે લાળને લેાકેા એકત્ર કરી લે છે, અને તેમાંથી જે સૂત્ર બનાવવામાં આવે છે તેને કૃમિરાગસૂત્ર કહે છે. લાલવવાળા કૃમીઓમાંથી ઉત્પન્ન થવાને કારણે તેના રગમાં સ્વાભાવિક રતાશના સદૂભાવ હાય છે.
( बालयं पंचविहं पण्णत्तं) घेटां महिना वाजभांथी उत्पन्न थयेला सूत्र नाभ 'मासन्सूत्र' छ. तेना पशु पांय प्रकार छे (तंजहा) प्रेम ! उष्णिए) (1) સણિક-ઘેટાં આદિના વાળમાંથી બનેલા સૂત્રને ઓણિ`ક (ઉનનું બનેલુ) સુત્ર કહે छ. (उट्टिए) (२) मौष्ट्रि४ जना वाणमांथी उत्पन्न थयेसा सुत्रने 'मोष्ट्रमसूत्र' ४ छ (मिवलोमिए) भृगना वाजभांथी मनावेला सूत्रने 'भृगखेोभिसूत्र' हे छे. (कोतवे) (४) हरनी वाटीभांथी मनावेला सूत्रने तव सुत्र आहे छे. (किट्टिए) (૫) આરણિક આદિ સૂત્રનું નિર્માણ કરતી વખતે જે વાળ ઉડીને આમતેમ જઈ પડયાં ડાય છે તે વાળને ‘કિટ્ટિસ’ કહે છે, કિટ્ટિસમાંથી (વેસ્ટમાંથી જે સૂત્ર અના
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अनुगोमचन्द्रिका टीका.५०३८ज्ञाय शरीर भव्यशरीर तिरिक्तद्रव्यश्रत निरूपणम् १९७ तत् किट्टिसं तनिष्पनं सत्रमपि किट्टिसमुच्यते : यद्वा-औणिकादीनां मूत्राणां व्यादिसंयोगेन निष्पन्नं सूत्रं किट्टिसम् । अथवा-पूर्वोक्तातिरिक्ता येऽश्वादयो जीवास्तल्लोमनिष्प-नं मृवं मिट्टिसम् । ५॥
अथ पञ्चमं भेदमाह='वागय सणमाइ' इति । बाललं शणादि-शणादि निष्पन्न मूत्र वाल्कलम् ।
ननु श्रुतप्रकरणे प्रस्तुते किमर्थ मूत्रप्ररूपणम् इति चेदुच्यते, प्राकृते-'सुय' शन्देन श्रुतस्य, आर्षत्वात्सूत्रस्य च ग्रहणात् समानशब्दप्रतिपाद्यत्वरूपसाम्यादिदमपि प्रापयतीति नास्ति कश्चिद्दोषः, प्रसंगतः शिष्यबुद्धिवेशद्यार्थ मूत्रस्वरूपं जाता से वह कि दृस सूत्र से । अथवा औणि आदि सूत्रो के। अब दुहरा तिहरा- दो तारवाला ती तारगला आदि रूपमें करके जो मुत्र बनाया जाता है
उसग नाम किट्टिन है। अपना इन मेष आदि जीवों से अतिरिक्त जो अश्व आदि जीव हैं, उनके रोगों से निष्पन्न डुबा मूत्र किट्टिस है ।(वागयं सणमाइ) सन अदि है जो सूत्र बनता है उसका नाम वाल्कल वल्वन पुत्र हैं।
शंका-यहां तो शून को प्रकरण प्रस्तुत है फिर किस कारण यहां सूत्र की प्ररूपणा मूत्रकार ने की ? ____ उत्तर-आष होने के कारण प्राकृत में "य" शब्द से श्रुत और सूत्र इन दोनों का बोध होता है-क्योंकि इन दोनों अर्थों का प्रतिपादक यह "सूत्र" शब्द है । अ.: इन दोनों में समान शब्दद्वाग प्रतिपाद्यवरूप વવામાં આવે છે તેને “કિસિસૂત્ર” કહે છે. અથવા ઓરણુંક આદિ સૂવને જ્યારે ઉપ૮, ત્રિપદું, ચપટ, આદિ રૂપે વણીને તેમાંથી જે સૂત્ર બનાવવામાં આવે છે તેને કિટ્ટિસ કહે છે. અથવા ઉપયુંકત ઘેટાં, ઊંટ આદિ છ સિવાયના અન્યાદિ eaना पाणमांधी मनास सूत्रने ससूत्र छ. (वायं सणमाइ) )५) શણુ આદિની છાલમાંથી જે સુત્ર બને છે તેને વકજ સત્ર કહે છે.
શંકા- અહીં શ્રેનનો અધિકાર ચાલી રહ્યો છે. છતાં અહીં સૂત્રકાર સૂત્રની પ્રાપણા શા માટે કરી છે?
उत्तर- "सुय' मा प्राकृत पहने। म थाय छ, भने 'सुय' नी સંસ્કૃત છાયા ‘સત્ર થાય છે આ વાત તે આગળ પ્રકટ થઈ ચુકી છે. આ રીતે 'सुय" ५६ श्रत भने सूत्र, मा भन्नेना अनु मे५४ छ, ४२६५ "सुय" શબ્દ આ બન્ને અર્થોનું પ્રતિપાદન કરે છે. તેથી તે બન્નેમાં સમાન શબ્દ દ્વારા પ્રતિપધત્વરૂપ સમાનતા હોવાને કારણે સૂત્રકારે અહીં સૂત્રની પણ પ્રરૂપણા કરી
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अनुयोगहारमो प्ररूपितम् अनेन-'भावश्रुते प्रकान्ते, कथं नामश्रुतादि प्ररूपण ?' मितिसन्देहाइसरोऽपि निरस्तः, तस्यापि शियबुद्धिवैशद्यफलत्वात्। किंच नामस्थापनद्रन्य श्रृंताना प्ररूपणमन्तरेण भावश्रुतस्य विशिष्टशानं न भवतीत्यपि बोध्यम्।
उक्तमथै निगम बन्नाह-'से त जाणयसरी भवियसरीरवरित दवसय' इति । तदेतद् ज्ञायक शरीरभव्यशरीर तिरिक्तं द्रव्यश्रुतम् । नो आगमतो द्रव्यशुतमपि सर्व निरूपितमिति प्रकट ितुमाह-‘से तनोआगमओ दवसुयं' इति । तदे समानना होने के कारण मूत्रकारने इसकी भी सम्पणा कर दी है। अथवा प्रसंग लेकर शिष् बुद्धि की विशदता के निमित्त मुकास्ने भूत्रे का स्वरूप यहां प्रकट किया है। इस वर्णन से इस संदेह का भी कि "यहां पर तो भावभुन का प्रकरण चल हा हैफिर इस प्रकरण में नामश्रुत नाम आदि का प्ररूपण क्यों किया" अवसर नहीं मिलता है। क्योंकि यह वर्णन भी शिष्पजनों की बुद्धि की विशदता करने रूप फल से सफल हैं। किंच-नाम स्थापना और द्रव्यधुत की प्ररूपणा के बिना भावश्रुत का विशिष्टज्ञान नहीं होता है इसलिये यह नाम आत आदि की प्ररूणा की गई है ऐमा भी जानना चाहिये । अब सूत्रकार इस अर्थ का उपसंहार करते हुए कहते हैं किं (मे तं जागयमरीरभवियसरीरवहरितं दध्वसुयं) इस प्रकार यह पूर्व प्रक्रान्त ज्ञाय शरीर और भव्यજ તે કારણે આ પ્રકારની પ્રરૂપણા નિર્દોષ સમજવી જોઇએ. અથવા પ્રસંગે પ્રાપ્ત આ સુત્ર પદની પ્રરૂપણ કરવા પાછળ સૂત્રકારને આ પ્રકારને હેતુ પણ સંભવી
-"भुय" ५६नी संत छाया "सूत्र" याय 2. A. 'सपने महीने શિષ્યબુદ્ધિની વિશદતાને નિમિત્ત પણ સૂત્રકાર અહીં સૂત્રના સ્વરૂપની કરૂણ કરી છે. વળી અહીં એવી શંકા પણ અસ્થાને છે કે “અહીં તે દ્રવ્ય“તની પ્રરૂપણા ચાલી રહી છે, છતાં આ પ્રકરણું નામત આદિની પ્રરૂપણું શા માટે કરવામાં આવી છે?” આ શંકા ઉચિત ન ગણી શકાય, કારણ કે આ વર્ણન પણ શિષજનની બુદ્ધિની વિશદતાને નિમિત્તે જ કરવામાં આવ્યું છે અને તે પ્રકારની વિશહતા કરવા રૂપ ફલથી સંપન્ન છે. વળી નામશ્રત, સ્થાપનાશ્રી આદિની પ્રરૂપણ કર્યા વિના વ્યકૃતનું વિશિષ્ટજ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકતું નથી. તે કારણે આ નામકૃત આદિની પ્રપણુ અહીં કરવામાં આવી છે, એમ સમજવું જોઈએ
હવે સૂત્રકાર આ વિષયને ઉપસંહાર કરતાં કહે છે કે –
(से तं जाणयसरीरभवियसरीत्वरितं दध्वसुयं) शायशरीर भने १०५शरीरथी मिन्न सेवा द्र०यश्रुतनु मा २नु २१३५ छ. (से तं नोआगमयो
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अनुवोगन्द्रिका टीका सूत्र ३९ भाषश्रुतनिरूपणम् सद नो आगमतो द्वन्यातम् । द्रध्यक्षुतमपि सर्व निरूपितमिति चयितुमाहसे त दम्बमुय' इति । तदेतद् द्रव्यश्रत वर्णितम् ॥मू० ३८॥
अध भावभुन निरूपयतिमूलम्--से कि तं भावसुयं ? भावसुयं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा आगमओ य, नोआगमओ य ॥सू० ३९॥
छाया-अथ किं तद् भावभुतम् ? भावभुत विविध प्रज्ञतं. तद्यथा-आगमतश्च नोआगमतश्च सू० ३९॥
टीका--शिष्य पृच्छति-से कि त भावसुय" इति । अाकिं तद् भावश्रुतम् ? इति, उत्तरमाह-मावसुय" इत्यादि । भावश्रुतम्-इह श्रुतपदार्थाशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यभुत है । (से तं नोआगमओ दध्वसुयं) इस तरह नोआगम का आश्रित करके समस्तद्रव्यश्रुत का निरूपण हो चुका । (से तं दव्वयं) यही सब द्रव्यश्रुत का स्वरूप है । ॥मत्र ३८॥
अब मत्रकार-भावश्रुत का वर्णन करते है“से किं त भावसुर्य" इत्यादि । सूत्र॥ ३९ ॥
शब्दार्थ:-(से कित) शिष्य पूछता है कि हे भदन्त ! पूर्व प्रक्रान्त भावथुन का स्या स्वरूप है?
उत्तर-(भावसुर्य) भावश्रुत (दुविहं पण्णत) दो प्रकार का कहा गया है। श्रुत रूप पदार्थ के अनुभव से युक्त जो साधु आदि जीव है वह भार शब्द का वाच्यार्थ है । भाव और श्रुत इन दोनों में अभेद के उपचार से भावश्रत साध्वादि को कहा गया है। इस तरह भाव जो है वही श्रुत बन जाता है। दम्बसुयं)मा शत नाम द्र०यश्रुतना थे महानु नि३५९५ मी समास याय ®. (से तं दमयं) भने द्र०यश्रुतना मां बेटोनु नि३५५५ ५५ मी ५३ થાય છે. સૂત્ર ૩૮ છે
"से किंतं भावसुयं" त्याह
शा-(से किं त भावसुयं?) शिष्य गुरुने सो प्रल छ छ । ભગવન્! પૂર્વપ્રસ્તુત ભાવકૃતનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्त२-(भावमुयं दुविहं पण्णत्तं) मावश्रुत मे ॥२नु छ. श्रुत३५ ५४ा. ના અનુકવવી યુક્ત જે સાધુ આદિ જેવો હોય છે તેઓ ભાવ શબ્દના વાસ્યાથ રૂપ છે ભાવ અને શ્રત આ બન્નેમાં અભેદના ઉપચારની અપેક્ષાએ સાધુ આદિને ભાવથી કહેવામાં આવેલ છે. આ રીતે જે ભાવ છે એજ શ્રત બની જાય છે.
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अनुवोनहार नुभवयुक्तो यः साध्वादिः स भाः, श्रुतं च गृह्यते। भावश्रुत योग्तवतो श्व अभेदोपचाराद् भाववासी श्रुतं च भावश्रुतम् । यहा अर्थानुभवरूपं भाव माश्रित्य श्रुप्त भावभुतम् । यहा-भावप्रधानं भुत-भावातम्, तत् द्विविध प्रशसम, त जहा' तद्यथा-आगमओ य नोआगमअ य आगमतश्च नोआगमतबेति॥३९॥
तस् प्रथमं भेदं निरूपयितुमाह--
म्लम्-से किं तं आगमओ भावसुयं ? आगमओ भावसुयं जाणए उववसे । मे तं आगमओ भावसुयं सू० ४०॥
छाया-अथ किं तद् आगमतो भावश्रुतम् ? आगमतो मानश्रुत शायक उपयुक्तः। तदेतत् आगमतो भाषश्रुतम् । सू० ४० ।
टीका-शिष्यःपृच्छति-से किं त आगमओ भावसुय' इति । अथ किं तत् आगमतो भावश्रुतम् ? उत्तरमाह-'आगमओ भावसुय इत्यादि । वामअथवा भावरूप श्रुत को आश्रित करके जो भुत होता है वह भावश्रुत है। अथवा भाव प्रधान जो श्रुत है उसका नाम भावभुत है (तंजहा) उस भावश्चत के घे दो प्रकार ये हैं-(आगमओ य, नोआगमओ य) १ एक आगम भावश्रुत और दूसरा नोआगम भावश्रुत । इनमें जो आगम को आश्रित करके भाव व होता है उसका नाम आगम भावश्रुत और जो नाआगम आश्रित करके भावश्रुत होता है वह नोभागम भावश्रुत है। ॥ सत्र ३९॥
अब मत्रकार आगम भावश्रुत का स्वरूप कहते हैं"से कि तं आगमओ भावसुयं" इत्यादि । ॥ सूत्र ४० ॥
शब्दाथ:- (से कि त आगमओ भावसुयं) हे दन्त ! आगम को आश्रित करके जो भावश्रुत होता है उसका क्या स्वरूप हैं ? અથવા ભાવરૂપ શ્રતને આશ્રિત કરીને જે શ્રત હોય છે તેને ભાવકૃત કહે છે. सया सावधान २ श्रुत छ तेनु नाम नापश्रुत छ. (तं जहा) लाना नीय प्रमाणे मे | -(आगमओ य, नोआगमओ य) (१) भागम ભાવકૃત અને (૨) આગમ ભાવથત આગમને આશ્રિત કરીને જે ભાવતા હોય છે તેને આગમ ભાવત કહે છે અને આગમને આશ્રિત કરીને જે ભાવકૃત હોય છે તેને આગમ ભાવકૃત કહે છે. એ સૂ. ૩૯ છે
હવે સૂત્રકાર આગમ ભાવBતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે– " से कित आगमआ भावसुर्य" त्याह
शहा-(से) शिष्य गुरुने । प्रश्न ४३ छ । सन् ! (किं आगमआ भावसुर्य?) भागभने माश्रित ४शन २ लापश्रुत राय छ तेतु સ્વરૂપ કેવું છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० ४० आगमतो भावश्रुतनिरूपणम् २०१ मतो भारभुतं ज्ञायक उपयुक्तः-श्रुप्तपदार्थज्ञः श्रुतपदार्थे उपयोगाश्च यः साध्वादिः स आगमतः आगममाश्रित्य भावश्रुतं भवति । अयं अतोपयोगरूपपरिणामस्य सद्भावात् भावत्वम् । अतार्थज्ञानस्य समापादागमत्वं बोध्यम् । तदेतन्निगमयन्नाह-'से त आगमओ भावसुय' इति । तदेवदागमतो भावभुत पनितम्, इति ॥२०४०॥
अथ बितीयभेदमाह--
मूलम्-से किं तं नो आगमओ भावसुयं ? नोआगमओभावसुयं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-लोइ यं, लोगुत्तरिय च ॥सू० ४१॥
___ छाया-अथकिं तद् नाआगमता भोवश्रुतम् ? नोआगमतो भावनुतं विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-लौकिकम्, लोकोत्तरिकं च ।'सू० ४१॥
उत्तर-(आगमओ भावसुयं जाणए उवउत्ते) आगम को आश्रित करके भावश्रुत का स्वरूप इस प्रकार से है-जो साध्वादि त का ज्ञाता है और उसमें उपयोग युक्त है । वह आगम को आनित करके भावश्रुत होता है। श्रुत में उपयोगरूप परिणाम के सद्भाव से उस साध्वादि में भावता है, और श्रुत के अर्थज्ञान के सद्भाव से आगमता है। इसतरह (से त आगमओ भावसुय) यह आगम को लेकर भावभुत का स्वरूप है। ॥ सूत्र ४० ॥
नोआगमकी अपेक्षा लेकर भावश्रुत का स्वरूप इस प्रकार से है"से किं त” इत्यादि । ॥ मत्र ४१ ॥
शब्दार्थः-(से) हे भदन्त ! नोआगम की अपेक्षा लेकर भावश्रुत का क्या स्वरूप हैं ? (नेआगमओ भावसुयं दुविहं पण्णत्त) नोआगम की अपेक्षा लेकर
उत्त--(आगमओ भावसुयं जाणए उवउत्ते) मागभने साधारे आवश्रुता પ્રકારનું સ્વરૂપ કહ્યું છે. જે સાધુ આદિ છવ શ્રતને જ્ઞાતા હોય છે અને તેમાં ઉપયોગ પરિણામથી યુક્ત હોય છે, તે સાધુ આદિને આગમની અપેક્ષાએ ભાવકૃત કહે છે. શ્રતમાં ઉપયોગ રૂપ પરિણામના સદૂભાવને લીધે તે સાધુ આદિમાં ભાવતા હોય છે શ્રતના અર્થજ્ઞાનના સદૂભાવને લીધે તે સાધુ આદિમાં આગમતાને પણ સદભાવ હોય છે. આ પ્રકારનું (सेत आगमओ भावसुयं) भागभने माश्रित प्रशन लापतनु २५३५ छ, मेम સમજવું . સ. ૪૦ છે
હવે સત્રકાર ને આગમ ભાવતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે.
"स कि त नोआगमओ भावसुय" त्याह
શબ્દાર્થ-સે) શિષ્ય ગુરુને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવન ને આગમને આશ્રય લઈને ભાવકૃતનું કેવું સ્વરૂપ કહ્યું છે२६
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अनुयोगहारने टीका- 'से किं तं नाओगमोभावसुयं' इत्यादि। व्याख्या निगदसिद्धा मू० ४१ तत्रायभेदं निरूपयति--
मूलम्---से कि त लोइय नोआगमओ भावसुयं ? लोइयं नोआगमओभावसुयं ज इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्रिएहि सच्छंद बुद्धिमइविगप्पियं, तं जहा-भारहं रामायणं भीमासुरुवं कोडिल्लयं घोडयमुहं सगडभदियाओ कप्पासिय गागसुहुयं कणगसत्तरी वेसियं वइसेसिय बुद्धसासणं काविलं लोगायइयं सद्वितंतं माढरं पुराण वागरणं नाडगाई, अहवा बावत्तरिकलाओ चत्तारि वेया संगोवंगा। से.त लोइयं नो आगमओ भावसुयं ॥ सू० ४२॥
छाया-अथ किं तद् लौकिकं नोआगमता भावभुतम् ? लौकिकं नोआगमता भावतं यदिदमज्ञानिकैः मिथ्यादृष्टिकैः स्वच्छन्दबुद्धिमविविकल्पितम् तद्यथा-भारनं, रामायणं, भीमासुरोक्तं, कौटिल्यकम् , घोटकमुखम् शकटभद्रका कासिकम्, नागमुक्ष्मम, कनकसप्ततिः, वैशेशिकम्, बुद्धशासनम्, कपिलं, लोकायतिकम, षष्ठितन्त्रम्, माठरं पुराणं व्याकर नाटकानि । अथवा द्वासप्ततिकलाः, चत्वारो वेदाः साङ्गोपाङ्गाः । तदेतद् लौकिकं नोआगमतो भावश्रुतम् ॥स०४२॥ भावश्रुत दो प्रकार का कहा गया है । (तंजहा) वे प्रकार ये हैं (लोइयं लोगुत्तरियं) १ एक लौकिक दूसरा लोकोत्तरिक । इस सूत्र की व्याख्या पहिले कही गई व्याख्या के अनुसार जाननी चाहिये । ॥ सू ४१ ॥ अब सूत्रकार नोआगम को आश्रित करके लौकिक भावत का कथन करते हैं
"मे किं त' इत्यादि । सूत्र ४२ ॥ शब्दार्थ:-(से) हे भदन्त ! (नाआगमओ) नोआगम को आनित करके (तं)
उत्तर-(नाआगमा भावमुयं दुविह पण्णत्तं) नमामनी अपेक्षाओं मापश्रुतना मे ॥२ ४. छ. (तजहा), ते ४ा। नीय प्रमाणे छ-(लाइयं, लागुत्तरिय) (१) allss मने (२) हात्त२ि४ ा सूत्रनी व्याच्या घi भावं. શ્યક સૂત્રમાં કહ્યા અનુસાર સમજવી. | સુ. ૪૧ છે હવે સત્રકાર ને આગમ લૌકિક ભાવકૃતના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે
"से कि त" त्याlsशहाथ-(से) शिष्य शुरुने मेवो प्रश्न पूछ छ सपन! (नोभाग
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अनुयोगचन्द्रिकाटीका.४२ लौकिकं नोआगमतो भावभूतनिरूपणम्
२०३
CT
टीका - शिष्यः पृच्छति से किं तं लोइयं नोआगमओ भावसुर्य' इति । अथ किं तद् लौकिकं नाआगमतो भावश्रुतम् ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह-'लाइव' नो आगमओ भावसुर्य' इत्यादि । लौकिकं नोगमता भावश्रुतम् यदिदं वक्ष्यमाण भारतादिकम्, अज्ञानिक : = अल्पज्ञानिभिः - अत्राल्पार्थको नञ् शब्दः, सम्यग्दृष्टयोऽप्यज्ञानिका भवन्ति इत्यत आह- 'मिच्छादिट्ठीहिं' इति । मिथ्या दृष्टिभिः स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितम् - स्वच्छन्देन सर्वज्ञोक्तार्थविरुद्वेन स्वाभिप्रायेण बुद्धिमतिभ्यां बुद्धि : = ईहावग्रहरूपा, मतिः = अवायधारणारूपा, ताभ्यो विकल्पितम् - सर्वज्ञोक्तार्था ननुसारिबुद्धिमतिभ्यां विरचितमित्यर्थः । तद् लौकिकं नोआगमतो भावश्रुतं विज्ञेयम् । तदेव नामतो निर्दिशति 'तं जहा' इत्यादिना - तद्यथा - भारत, रामायणं, भीमामु रातं = भीमासु रेण रचितं शास्त्रम्, कौटिल्यकम् पूर्वप्रक्रान्त (लाइयं भावसुर्य) लौकिक भावश्रुत ( किं) क्या है ?
उत्तर : - (नोआमओ) नोआगम को आश्रित करके (लाइय भावसुर्य) लौकिक भावश्रुत इस प्रकार से है - (ज इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्टिएहिं सच्छंदबुद्धि मविगप्पिय) जो यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा अपनी स्वच्छंद बुद्धि और मति से रचा गया है। वह लौकिकभावश्रुत है ऐसा जानना चाहिये । ईहा और अवग्रहरूप विचारधारा का नाम बुद्धि है । तथा अवाय और धारणरूप विचारधारा का नाम मति है । सर्वज्ञ उक्त अर्थ से विरुद्ध अभिप्रायवाली बुद्धि और मति से जिन शास्त्रोंका ग्रथन किया गया है वे सत्र लौकिक भावत है । (तंजहा) जैसे - ( भारह रामायणं भीमा सुरुकं मओ) नामागमने आश्रित उर्शने (त) पूर्व प्रस्तुत विषय ॥ ॐ भावश्रुतनु (किं) वु २१३५ छे ?
( लोइयं भावसुयं ?)
उत्तर- (नोआगमओ) नामागमने आश्रित उरीने (लाइयं भावसुर्य) सौं ભાવતથ્થુનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ કહ્યું છે.
(जं इमं अण्णा णिएहि मिच्छादिट्ठिएहिं सच्छदबुद्धिमः विगपिय) अज्ञानी મિથ્યાદૃષ્ટિએ વડે પેાતાની સ્વચ્છંદ બુદ્ધિ અને મતિથી રચેલા શ્રુતને ‘લૌકિક ભાવશ્રુત' કહે છે ઇંડા અને અવગ્રહરૂપ વિચારધારાનું નામ બુદ્ધિ છે, તથા અવાય અને ધારણારૂપ વિચારધારાનું નામ મતિ છે. સત્ત કેવળી ભગવાના દ્વારા કથિત અથી વિરૂદ્ધ અલિપ્રાયવાળી બુદ્ધિ અને મતિથી જે શાસ્ત્રોનુ' ગ્રંથન (રચનારૂપ अथन) उरायु हाय छे, ते शास्त्राने सोडिलावश्रुत हे छे (तं जहा ) वां सो ભાવશ્રુતાનાં નામ નીચે પ્રમાણે છે.
( भारहं रायायणं, भीमासुरक्कं के डिल्लयं घोडयमुह ) भड्डाभारत, राभायाद; लीभासुर रथितशास्त्र, औटिस्य (याणाम्य) रचित अर्थशास्त्र, बोटम्भुम
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अनुयोगद्वारसत्रे कौटिल्येन-चाणक्येन निर्मितम्-अर्थशास्त्रम् (घोटकमुखम,)घोटर मुखनामकं शास्त्रम्, शकटभद्रिकाः एतन्नामक शास्त्राणि, कार्पासिकम्-कार्पासिकनामकं शास्त्रम्, नागमुक्ष्मम्, एसन्नामकं शास्त्रम्, कनकसप्ततिः कनकसप्ततिनामकं शास्त्रम्, वैशिकम्-कामशास्त्रप्रकरणविशेषः, वैशेषिकम-काणाददर्शनम, बुद्धशासनं-त्रिपिटकरूपम्, कपिलम्सांख्यशास्त्रम्, लोकायतिकंचार्वाक दर्शनम्-सांख्यशास्रग्रन्थविशेषः, माठरं पुराणं व्याकरणं नाटकानि-माठरं-माठरनिर्मितशास्त्रविशेषः, पुराणं-व्याकरणं, नाटकानिदृश्यकाव्यानि, बहुवचनान्तपदात्-श्रव्यकाव्यानि च । एतानि पूर्वोक्तानि भारतादीनि लौकिक नोभागमता भावश्रुतम् । मकारान्तरेण तदाह-'अहव। इत्यादि। अथवा-दासप्ततिकला:-कलनानि-लौकिकरस्तुस्वरूपपरिज्ञानानि कलाः, द्वासप्तति संख्यकाः कला:-द्वासप्ततिकलाः, एताश्च-समवायाङ्गादिसूत्रेषु प्रोक्ताः, तथा-चत्वारो वेदाः साङ्गोपाङ्गाः-अङ्गानि-शिक्षावल्पव्याकरणनिरुक्तछन्दाज्यौतिषरूपाणि फाडिल्लयं घोडयमुह) महाभारत रामायण, भीमासुररचित शास्त्र, चाणक्य रचित अर्थशास्त्र, घोटक मुखनामकशास्त्र, (सगडभदियाओ) शकटभद्रिका नामकशास्त्र (कप्पासियं) कार्पासिक नामकशास्त्र (णाग सुहुम) नाग सूक्ष्म नामक शास्त्र (कणगसत्तरी) कनकसप्तति नामक शास्त्र (वेसियं) कामशास्त्र प्रकरण विशेष (वेइसेसियं) वैशेषिकशास्त्र, (बुद्धसासणं) त्रिपिटकरूप बुद्धशास्त्र, (कविलं) सांख्यशास्त्र, (लोगायइयं) चार्वाक दर्शन (सद्वितंतं) षष्टि तंत्र सांख्यशास्त्र ग्रन्थ विशेष, (माठर) माठरनिर्मितशास्त्र विशेष, (पुराणं) पुराण) (वागरण) व्याकरण (नाडगाई) दृश्य वाच्य और श्राव्य काव्य । (अहवा) अथवा (बावत्तरिकलाओ) ७२ कलाएँ (संगोवंगा चत्तारिया) सांगोपांग चारों वेद । ७२ कलाओं का वर्णन समवायाङ्ग आदि सूत्री में है। शिक्षा, कल्प, नाम , (सगडभदियाओ) २ मा नामनु श (कप्पासिक) पा. सि नाम , (णागसुहम) नागसूक्ष्म नामनु शास्त्र, (णगसत्तरी) न सति नाम शास, (वेसियं) मशाख ५४२ विशेष, (वेइसेसियं) alrs
स, (बद्धसासण) त्रिपिट ३५ मोद्धानु धर्मशास्त्र, (कविल) पिसनु सांभ्य. जयन नामनु शाख, (लोगासुइयं) या ४0, (सहितंत) षष्टित सांस्य शासन अयविशेष, (माठर) भा४२ निमित शास विशेष, (पुराण) पुराण (वागरण) ०या३२, (नाडगाइं) ४२२४।०य भने श्रा०या०य, (अहवा) 4411 (बावत्तरिकलाओ ७२ ४ामा, (संगावंगा चत्तारि वेदा) मा भने 64iगयुत यारे ॥ બધાને લોકિકભાવશ્રત કહે છે. ૭૨ કલાઓનું વર્ણન સમવાયાંગ આદિ સૂત્રોમાં કરવામાં આવ્યું છે. વેદના છ અંગ નીચે પ્રમાણે છે શિક્ષા, ક૯૫, વ્યાકરણ, નિરુકત છન્દ અને જ્યોતિષ અને તેમની વ્યાખ્યા રૂપ જે ગ્રંથ છે તેમને ઉપાંગ કહે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका-म. ४२ लौकिकं नोआगमभावश्रतनिरूपणम् २०५ षट्, उपाङ्गानि दुगाख्यास्पाणि. तैः सहिता ऋग्यजुःसाम थर्वणलक्षणाश्चत्वारो वेदाः, लौकिकं नोभागमता भावश्रुतम् । भारतराम यणादीनां ले के आगमत्वेन प्रसिद्धत्वादागमत्वेऽपि तदुक्तक्रियाया अनागमत्वात् नोआगमत्वम्, लोकप्रसिद्धथैव : तत्वमपि तेषां । तदुपयोग एव भवितुमर्हति, उपयोगी भावनिक्षेप इतिवचनात् । तदेतत् लौकिकं नोभागमता भावतं वर्णितम् । इति ॥ सू०४२॥ ब्याकरण निरुक्त, छद. ज्योतिष, ये छह वेदों के अंग हैं । और उनकी व्याख्या रूप जो ग्रन्थ हैं वे उपांग हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद ये चार वेद हैं। ये सब लौकिक भाश्रित हैं। लोक में भारत रामायण आदि आगम शास्त्ररूप से माने जाते हैं, इसलिये इनमें आगमता है और इनमें जो क्रियाएँ वर्णित हैं, वे आचारूप नहीं होने से अनागमरूप हैं। इसप्रकार भारत आदिकों में तदुक्त क्रियाओंकी अपेक्षा नाआगमता आ जाति है। लेोक प्रसिद्धि से ही इनमें श्रुतता है । इसलिये ये नाआगम को आश्रित करके लौकिक भारत है। इनमें जो सूत्रकारने मात्र तता प्रकट की है वह इनके संलग्न उपयोग की अपेक्षा से ही प्राट की गई जाननी चाहिये। शब्दात्मक जो भारत, रामाण आदिक हैं वे तो भावत हो ही नहीं सकते हैं कयोंकि "उपयोगा भाः निक्षेपः" उपग को ही भावनिक्षेप कहा है ऐसा आप्तवचन है। (से त लाइयं नाआगमओ भावसुय) इस प्रकार नोआगमकी अपेक्षा यह लौकिक भावतका वर्णन किया।છે. ચાર વેદના નામ આ પ્રમાણે છે અન્વેદ, સામવેદ, યજુર્વેદ અને અથર્વવેદ લેકમાં મહાભારત, રામાયણ આદિને આગમ-શાસ્ત્ર રૂપે માનવામાં આવે છે, તેથી તેમાં આગમતાનો સદૂભાવ છે, અને તે શાસ્ત્રોમાં જે ક્રિયાઓનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે ક્રિયાઓ આચારરૂ૫ નહીં હોવાથી અનાગમરૂપ છે. આ રીતે મહાભારત આદિ ગ્રન્થમાં તદુક્ત ક્રિયાઓની અપેક્ષાએ આગમતા આવી જાય છે. લેકપ્રસિદ્ધિની અપેક્ષાએ તે ગ્રન્થમાં શ્રતતાને સદ્ભાવ છે. તેથી તે શાને
આગમ લૌકિક ભાવકૃત રૂપ કહેવામાં આવ્યાં છે તે શાસગ્રન્થમાં સૂત્રકારે જે ભાવકૃતતા પ્રકટ કરી છે તે તેમને તે શ્રતોમાં ઉપયાગદેપ પરિણામની યુકત્તતા (સંલગ્નતા)ને કારણે જ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે, એમ સમજવું. શબ્દાત્મક જે મહાભારત, રામાયણ આદિ છે, તેમને તે ભાવશ્રત ગણી શકાય જ નહીં કારણ કે "उपयोगा भारनिक्षेपः" ७५गने भावनिक्षेप ४ छ. 24। प्रा सिद्धा. -तानुयन . (सेत लोइयं नोआगमओ भावमूयं) AL A२नु नाम alls ભાવશ્રુતનું સ્વરૂપ સમજવું.
'अज्ञानिक' मज्ञानी ५४मा २ (२५" ५ छ, ते ना२१५४ नयी
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अनुयोगबारपत्रे अथ लोकोत्सरिकं नोआ मतो भावश्रुतमाह
मूलम-से कि तं लोउत्तरिय नोआगमओ भावसुय ? लोउत्तरियं नोआगमओ भावसुय जं इमं अरहंतेहिं भयवंतेहिं उष्पण्णणाणदंसणधरेहि तीयपञ्चुप्पण्णमणागय जाणएहि सव्वण्णूहिं सब्वदरिसीहि तिलुक्कबहियमहियपूइएहि अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेहि पणीय दुवालसंगं गणिपिडगं, तं जहा-आयारो सूयगडो ठाणं सम. वाओ विवाहपण्णत्ती नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ अंतगडदमाओ अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाई विवागसुयं दिदिवाओय । से तं लोउत्तरियं नोआगमओ भावसुयं । से तं आगमओं भवसुयं । से तं भावसुयं ॥ सू०४३॥
__ अथ किं तद् लेोकोत्तरिकं नोआगमतो भावश्रुतम् ? लोकोत्तरिकं नोआजमतो भावश्रुतं यदिदं अर्हद्भि भगवद्भिरुत्पन्नज्ञानदर्शनधरैः अतीतप्रत्युत्पन्ना नागतज्ञायकैः सर्वज्ञः सर्वदर्शि भिः त्रैलोक्यावलेाक्तिमहितपूजितैः अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरैः प्रणीत द्वादशाङ्ग गणिपिटकं, तद्यथा-आचारः, सूत्रकृत, स्थान, समवायः, विवाहप्रज्ञप्तिः, ज्ञाताधर्मव थाः, उपासकदशाः, अन्तकृतद्दशाः, अनुतरोपपातिकदशाः प्रश्नव्याकरणानि, विपाकश्रुतम्, दृष्टिवादश्च । तदेतत् लोकातरिकं नाआगमना भावतम् । तदेतद् नोभागमतो भावश्रुतम् । तदेतत् आग. मतो भावश्रुतम् ।। सू० ४३॥ अज्ञानिक पद में जो नञ् समास हुआ है वह अल्पार्थ में हुआ है। अतः अज्ञानिक का तात्पर्य "अल्पज्ञानवाले" ऐसे होता है। ऐसे अल्पज्ञानी तो सम्यक् दृष्टि भी होते हैं-अतः इनकी निवृत्ति के लिये मिथ्यादृष्टि पद सूत्रकार ने प्रयुक्त किया है। ॥ सू० ४२ ॥
__ अब मूत्रकार नोआगम की अपेक्षा करके लोकोत्तरिक भाषश्रुतका वर्णन પણ અલ્પાર્થક છે. તેથી અજ્ઞાની એટલે અલ્પજ્ઞાનવાળા, આ પ્રકારને અર્થ અહીં સમજ એવો અલ્પજ્ઞાની તે સમ્યફ દષ્ટિ જીવ પણ હોઈ શકે છે, તેથી અહીં સમ્યફષ્ટિ અલ્પજ્ઞાનવાળાની નિવૃત્તિને નિમિત્તે સૂત્રકારે મિથ્યાષ્ટિ વિશેષણને પણ મગ કર્યો છે. જે સ્ત્ર. ૪૨ છે
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अनुपयोगचन्द्रिका टीका सूत्र४३ लोकोत्तरिकनोआगमतो भावश्रुतनिरूपणम् २०७
'से कि त" इत्यादि
अथ किं तद् लोकोत्तरिक नोआगमता भावश्रुतम ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरमाह-उत्पन्नज्ञानदर्शनधरैः, उत्पन्ने ज्ञानावरणक्षपणादिप्रकारेण संजाते न तु सहजे ये ज्ञानदर्शने तयोः धारषास्तः, सादिकेवलज्ञान दशनोपयोगयुक्त रित्यर्थः तथा-अतीतप्रत्युत्पन्नानागतज्ञायकः तत्र अतीताः भूतकालिकाः, प्रत्युत्पन्नाःवर्तमान कालिकाः, अनागताः भविष्यत्कालिका अस्तेिषां ज्ञायकास्तैः, तथासर्वज्ञैः सर्वद्रव्यपर्याय जानन्तीति सर्वज्ञास्तैः. सर्वदर्शिमिः केवलदर्शनेन एकेन्द्रियादि सर्व प्रसस्थावरं जगद् द्रष्टुं शीलं येषा ते सवदर्शिनम्तैः, तथा अलास्याकरते हैं-"से किं तं लोउत्तरियं" इत्यादि । ॥ सूत्र ४३ ॥
शब्दार्थः-(से) शिष्य पूछता हैं कि हे भदन्त ! (नोआगमओ) नोआग मको आश्रित करके (तं) पूर्वप्रक्रान्त (लोउत्तरियं भावसुयं किं) लोकोत्तरिक भावभत क्या है ? ___उत्तर-(नेभिगमओ) नोआग की अपेक्षा करके (लोउत्तरिय भावसुयं) लोकोतरिकभावश्रुत इस प्रकार से है- (उप्पण्णणाणदंसणवरेहिं) झाना वरणकर्म के क्षय से उत्पन्न हुए केवरज्ञान और दर्शनावरण कर्म के क्षय केवलदर्शनरूप उपयोग को धारण करनेवाले, (तीयपच्चुप्पण्णमणागयजाणएहिं) अतीत-भूतकालिक प्रत्युत्पन्न-वर्तमान कालिक अनागत-भविष्यत्कालिक पदार्थो को जाननेवाले (सव्वष्णू हिं) समस्त द्रव्यों और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों के ज्ञाता (सब्बदरिसीहिं) केवलदर्शन से एकेन्द्रियादि समस्त त्रसस्थावर रूप जगत् देखने के
હવે સત્રકાર ને આગમ લકત્તરિક ભાવAતનું નિરૂપણ કરે છે–
"से तं लोउत्तरियं" त्याहि
शहाथ-(से) शिष्य गुरुने सेवा प्रश्न पूछे छे भावन् ! (नोआगमी) नोमाराम मालश्रुतना भी ३५ (त लोउत्तरिय भावमुयं कि) पूर्व प्रस्तुत લેકત્તરિક ભાવકૃતનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(नोआगमओ) नोभारामनी साश्रय न (लोउत्तरियं भावसुर्य) લકાતરિક ભાવશ્રતનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે.
"उप्पण्ण णाणदंसणधरेहिं" शान५२५ना क्षयथा 4-1 4 Aur भने शन३५ ७५योगने पा२५ ४२ना२।, 'तीयपचुप्पणमणामयजाणएहि" wala (ensilas), प्रत्युत्पन्न (तभान silies). माने मनात (alpurtels पहानि ना२, (सव्वगृहि) समस्त द्रव्यो भने तेमनी मिती' पर्याय साता (सम्बदरिसीहिं) पण शनया मेन्द्रियाः समस्त भने स्था१२३५
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अनुयोगशारने वलोकितमहितपूजितैः-ौले.क्येन त्रिलोकीस्थितेन भानपतिभ्यन्तरनर विद्याधर धमानिकादिसमूहेन स्ने 'वहिय' इति देशी शब्दः अपलोकितार्थ पाचक स्ततः-अवलोकिता:-अमन्दानन्दापरिग्लुतलोचनेनिरीक्षिताः महिना यथावस्थिताऽसदशगुणोत्कीर्तनलक्षणेन भावस्त वेन अमिष्टुताः पूजिता बन्दनादिलक्षणया कायिकक्रियया सत्कृतास्तैः, तथा अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनपरैः अप्रतिहत्ते-समस्तापरणक्षयसम्भूतत्वाद् मूर्तामूर्तेषु समस्तवस्तुषु कटकुडयादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा अतएव क्षायिकत्वाद्वा वरे-श्रेष्ठे ये ज्ञानदर्शने केवल शानकेवलदर्श नरूपे, तयोधरा:-धारका ये ते तथा तैः, एवंभूताई दिर्भगवद्भिः, यदिदं द्वादशाङ्गतरूपस्य परमपुरुषस्याङ्गानीव अङ्गानि, द्वादशअङ्गानि-आचारादीनि यत तद् द्वादशाङ्गगणिपिटकम् गणोऽस्यास्तीति गणी आचार्य स्तम्य पिटकमिव सर्वस्वाधारमजूषेव प्रणीत-प्ररूपित, तद् लोकोत्तरिक लोकोत्तरैःस्वभाववाले (तिलुक्कवहियमहियपूइएहिं) तीन लोकवर्ती भवनपति, ध्वन्तर, नर, किन्नर, विद्याधर ज्योतिषिक वैमानिक आदि के समूह से अवलोकित अमन्द आनन्द के अश्रुओं से परिष्लुत लोचनों द्वारा निरीक्षित-हुए, महित-यथावस्थित गुणों के कीर्तनरूप भावस्तवसे संस्तुत हुए, पूजित-वन्दनादिरूप कायिक क्रिया से सत्कृत हुए (अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेहिं) तथा अप्रतिहत समस्त आवरण के क्षय से उत्पन्न होने के कारण मूर्त और अमूर्त सालवस्तुओं में कटकुडय (कटचटाई कुडय-भित्ति) आदि से भी अस्स्वलित अथवा अविसंवादी ऐसे श्रेष्ठ के ज्ञान और केवलदर्शन के धारक (अरिहंतेहिं भगवंतेहिं) अर्हन्त भगवन्तों द्वारा (दुवालसंग) आचारंगादि द्वादश अंगवाला (जं इम) जो यह
सतन न पाना समापणा, (तिलुक्कवहियमहियपूइएहिं) ऋण पती' ભવનપતિ, વન્તર, નર, કિન્નર, વિદ્યાધર, તિષિક, વૈમાનિક આદિના સમૂહથી અવલંકિત, અમંદ આનંદા શ્રઓથી પરિવુત લોચને દ્વારા નિરીક્ષિત થતી મહિત- યથાવસ્થિત ગુણોના કીર્તનરૂપ ભાવસ્તવનથી સંસ્તુત (સ્તવિત) यतi, yondi-4-हन३५ यि४ या43 सास्ति यतi, (अप्पडियवरनाणदंसण धोति) तथा अप्रतित समस्त भावना क्षयथा ५-न ये पान १२ મૂર્વ અને અમૃત સકળ વસ્તુઓ કટ, કુડય (કટ એટલે ચઢાઈ અને કુડય એટલે હીતા આદિથી પણ અખલિત અથવા અવિસંવાદી એવા શ્રેષ્ઠ કેવળજ્ઞાન અને Pand'नना धा२४ (अरिहंतेहिं भगवंतेहिं) मत तो वास (बालसंग) माया मा मा२ A141m (जइय) २ मा (गणिपिडगं पणीय) ५८४ પ્રરૂપત થયું છે, તે કેત્તર તીર્થકર દ્વારા પ્રણીત હવાને કારણે લેકત્તરિક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ४३ लोकोत्तरिकनोआगमतो भावश्रतनिरूपणम् २०९ तीर्थ कृतिः प्रणीतत्वाद् लोकोत्तरि भावनतम् । तत्स्वरूपमाह-'त जहा' इत्या दिना-तद्यथा-आचारः, सूत्रकृत, थान, समवायो विवाहप्रज्ञप्तिः, ज्ञाताधर्मकथाः, उपामकदशाः, अन्तकृत शाः. अनुत्तरापपातिकदशाः, प्रश्नव्याकरणानि विपाकत, दृष्टिवादश्च । सर्वज्ञप्रणीतं द्वादशाङ्गरूपं यद् गणिपिटक. तदर्थों पयागो भावश्रुत उपयोगो भावनिक्षेप इति वचनात् । स चोपयोगश्चरणगुणसमन्वितश्चेत् तर्हि नो आगमतो भावत' भवति. चरणगुणस्य क्रियारूपत्वेन आनागमत्वात्. नो शब्दम्य च देशपतिषेधकत्वेना यणात् । उपयोगचारित्रवान् (गणिपिडगं पणीय) गणिपिटक प्रापित हुआ है लोकोत्तर तीर्थकरों द्वारा प्रणीत होने के कारण लोकोत्तरिक भावभुत है । 'त जहा' द्वादश अंगां के नाम इस प्रकार है ।-आयारो) आचारांग (सूयगडो मत्रकृतांग (ठाणं) स्थानांग (समवाओ) समवायांग (विवाह एण्णत्ती) विवाह प्राप्ति'भगवती सूत्र' (नायाधम्मकहाओ ज्ञाता धर्म कथा ( उवासगदसाओ) उपासक दांग (अंतगडदसाआ) अन्तकृतशाग (अणुत्तरोववाइयदसाआ) अनुत्तरापपातिक दशांग (पण्हागगरणाइं) प्रश्नव्याकरण, (विवागसुय) विपाकश्रुत (दिहिवाओ य) आर दृष्टिवाद । इन बारह अंगों के अर्थ में जा उपयोगरूप परिणाम है वह भाव श्रुत है "उपयोगा भावनिक्षेप" है, ऐसा सिद्धान्त का वचन है। यह उपयोगरूप परिणाम यदि चरणगुण-चारित्र गुण से युक्त है तो वह नागम से भावश्रुत है क्यों कि चग्ण गुण क्रियाम्प है और क्रिण आगम नहीं होती है। इस प्रकार यहां नोशब्द में आगम एकदेश में निषेधक हाने से देश प्रतिषेधकता बन जाती है । यद्यपि उपयोग आर चारित्र गुण से साश्रुत३५ छ. (1 जहा) ते वाश (भा२) मगाना नाम नीय प्रमाणे छ-- (आयारो) (१) मायासंग, ( यगडा) (२) सुत्रहतांग. (ठाणं) (3) स्थानांग, (समवाओ) (४) समवायin. (विवाह पण्णत्ती) (५) विवाह प्रज्ञप्ति (मरावती सूत्र) (नाया धम्मकहाओ) (९) ज्ञाता था. (उवासगदसाओ) (७) उपास४४in. (अंतगडदसाओं) (८) अन्तत६in. (अणुत्तरोववाइयदसाओ) (८) अनुत्त५पातिin (पण्डावागरणाइ) (१०) प्रश्न०या४२९४. (विवागसुयं) (११) विपाश्रुत भने 'दिद्विवाओ य' (१२) टिपा. मा मारे माना अभारे उपयो॥३५ परिणाम छ तेनु नाम मावश्रुत छ. ४।२५ , "उपयोगा भावनिक्षेपः" मा ५२नु સિદ્ધાન્તનું વચન છે. આ ઉપયોગ રૂપ પરિણામ જે ચરણગુણ-ચરિત્રગુણથી યુકત હોય તો તે ને આગમની અપેક્ષાએ ભાવથત છે, કારણ કે ચરણગુણ ક્રિયારૂપ હેય છે, અને ક્રિયા આગમરૂપ હોતી નથી. આ પ્રકારે અહીં બને પદ એકદેશની અપેક્ષાએ આગમનું નિષેધક હોવાથી દેશપ્રતિષેધકતા ઘટિત થઈ જાય છે. જો કે ઉપ२७
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अनुयोगदारो साध्वादि पभेदोचाराद् भावश्रुत भवितुमर्ह ति । इह तु चारित्रसमन्वितो द्वाद. शाङ्गोपयोगो नोआगमतो भावश्रुतमित्याशयेन द्वादशाङ्गो गणिपिटकमित्युक्तम् । अन्यथा शब्दात्मकस्य द्वादशाङ्गस्योपयोगरूपत्वाभावाद् भावश्रुतत्वं नोपपद्यते । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-'से तं' इति । तदेतद् लोकोत्तरिकं नो आगमःो भाः श्रुतम् । सर्व नो आगमता भावश्रुतं निरूपितमिति मृचयितुमाह-'से तं' इति । देतानो आगमतो भावश्रुतम् । इत्थं सभेदं भावश्रुत प्ररूपितमिति सूचयितुमाह - ‘से तं भावसुयं' इति । तदेतद् भावश्रुतम् इति । सू० ४३॥
इत्थं भावश्रुतस्वरूपमुक्त्वा सम्प्रति तत्पर्यायानाह
मूलम्-तस्स णं इमे एट्रिया जाणाघोसा जाणाजणा नामधेजा भवंति, तं जहा
सुयसुत्तगंथसिद्धं,-तसासणे आणावयग उवएसे ।
पन्नत्रण आगमे वि य, एगट्ठा पजवा सुत्ते ॥ से त सुयं ॥स० ४४॥ युक्त हुआ साधु आदि भी अभेदोपचार से भाषश्रुत हो सकता है, परन्तु यहाँ जो द्वादशाङ्गगणिपिटको नोआगम से भा श्रुत कहा है यह द्वादशांग के चारित्रगुणसमन्वित उपयोग को लेकर ही कहा है ऐसा जानना चाहिये । क्योंकि शन्दात्मक जो द्वादशांग है वह उपयोगरूप नहीं होता है । अतः उसमें उपयोगरूपता का अभाव होने के कारण भावश्रुतता नहीं बनती है। (से तं नोआगमओ भावसुर्य) इस तरह नोआगम को आश्रित करके यह लोकोत्तरिक भावश्रुत का स्वरूप है । (से तं भारसुयं) इस प्रकार से सूत्रकारने समेद भावश्रुत की प्ररूपणा यहाँ तक की है। सूत्र ४३॥ વેગ અને ચારિત્રગુણથી યુકત થયેલા સાધુ આદિ પણ અભેદેપચારથી ભાવAત હે ઈ શકે છે, પરંતુ અહીં જે દ્વાદશાંગરૂપ ગણિપિટકને ન આગમની અપેક્ષાએ ભાવકૃત કહ્યું છે તે દ્વાદશાંગના ચારિત્રગુણ સમન્વત ઉપયોગની અપેક્ષાએ જ કહેવામાં આવ્યું છે, એમ સમજવું જોઈએ, કારણ કે શબ્દાત્મક જે દ્વાદશાંગ છે તે ઉપયોગ રૂપ હેતું નથી. તેથી તેમાં ઉપયોગ રૂપતાને અભાવ હોવાને કારણે मावतता संभवी शती नथी. (से तं नोआगमी भावसुयं) मा हार्नु
આગમને આશ્રિત કરીને લેકત્તરિક ભાવત નામના આગમ ભાવકૃતના બીજા सहनु २१३५ समन (से तं भावसुर्य) - सुत्ररे मापश्रुतना ही અહીં સુધીમાં પ્રરૂપણા કરી છે આ રીતે ભાવકૃતનું વર્ણન અહીં સમાપ્ત થાય છે. ગ્રા
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अनुयोगचन्द्रिकाटीका ४४ भावश्रुतपर्याय निरूपणं म्
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छाया - तस्य खलु इमानि एकार्थिकानि नानाघोषाणि नानाव्यञ्जनानि नामधेयानि भवन्ति, तद्यथा
श्रुतसूत्रग्रन्थसिद्धान्त शासनमाज्ञावचनमुपदेशः । प्रज्ञापना आगमोऽपि च एकार्थाः पर्यायाः सूत्रे ॥ तदेतत् श्रुतम् ॥ ० ४४ ॥ टीका- 'तस्स णं' इत्यादि
तस्य=भावश्रुतस्य खलु इमानि = वक्ष्यमाणानि एकार्थिकानि = एकार्थविषयाणि नानाघोषाणि = उदात्तानुदात्तादि नानास्वरयुक्तानि नानाव्यञ्जनानि = ककारा द्यनेकव्यञ्जनात्मकानि नामानि नामानि भवन्ति तद्यथा - श्रुतसूत्र' सिद्धान्त' ग्रन्थशसिनम् — तत्र — श्रुतम् - श्रूयते यत्ततश्रुतम १, सूत्रम् - अथ नां सूचकं सूत्रम् २, ग्रन्थः- तीर्थं करकल्पपादवचन प्रसूनानां ग्रन्थनाद् ग्रन्थः ३. सिद्धान्तः
गुरुसमीपे
अब सूत्रकार भावश्रुत के पर्यायवाची शब्दों को कहते हैं । " तस्स णं इमे" इत्यादि ॥ सू० ४४ ॥
शब्दार्थ - ( तस्स णं इमे णाणाघोसा णाण। वंजणा एगडिया नामवेज्जा भवंति ) उस भावश्रुत के ये उदात्त अनुदात्त आदि नाना स्वरों से युक्त, और ककार आदि अनेक व्यञ्जनोंवाले एकार्थविषयक नाम हैं । ( तं जहा ) जो इस प्रकार से ह
(सुयसुत्तगंथसिद्धंतसासणे आणवयणउवएसे पन्नवणआगमे विय एगट्ठा
पज्जवा सुत्ते) गुरु के समीप सुना जाने के कारण भावश्रुत का नाम श्रुत है अर्थों की सूचना इससे होती है इसलिये इसका नाम सूत्र है । तीर्थ कर रूप कल्पवृक्ष के वचन रूप पुष्पों का इसमें ग्रथन रहता है इसलिये इसका
I
હવે સૂત્રકાર ભાવશ્રુતના પર્યાયવાચી શબ્દનું કથન કર છે" तस्सणं इमे" छत्याहि
शब्दार्थ - (तरसणं इमे णाणाघोसा णाणावंजणा एगडिया नामधेज्जा भवंति ) ते श्रुतना, उदात्त अनुदात्त आदि विविध खरोथी युक्त भनेर महि अनेऽव्यंकनाथी युक्त अर्थ नाम छे. (तंजहा) त नाभी नीचे प्राथे ६તે
( सुयसुत्तगंथ सिद्ध त सासणे आणवयण उवए से एगट्ठा पज्जवा सुत्ते) (१) श्र+ - गुरुनी सभीपे तेनु श्रवण કારણે તેનું નામશ્રુત છે. (૨) સૂત્ર-અર્થાની સૂચના તેના દ્વારા મળે છે તેથી તેનુ બીજું' નામ સુત્ર છે.
(૩) પ્રથ-તીથકર રૂપ કલ્પવૃક્ષના વચનરૂપી પુષ્પાનુ તેમાં ગ્રંથન થયેલુ
पनवण आगमे विय
वामां आवे छे ते
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अनुयोगबारमत्रे सिद्धं-प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थम् अन्त नयति-प्रमाणकोटिमारोहयतीति सिद्धान्तः४, शासनम्-मिथ्यात्वाविरतिकषायादिप्रवृत्तजीवानां शासनात्-शिक्षणाद्-शासनम् ५, एषां समाहारः । तथा-आज्ञा-आज्ञाप्यन्ते मोक्षार्थिनः प्राणिनोऽनयेति-आज्ञा६, वचनम्-उक्तिः-वाग्योग इत्यर्थः७, उपदेशः-हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्युपदेशनाउपदेश:८, प्रज्ञापना-प्रज्ञाप्यन्ते यथावस्थितजीवादिपदार्थों अनयेति प्रज्ञापनार, अपि च आगमःआचार्य पारम्पयेणागच्छ तीति-आगमः, आप्तवचनं वा आगम१०, एते सर्वेऽपि सूत्रविषये एकार्थाः पयार्याः बोद्धव्याः । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-तदेतत् श्रुतम्-श्रुतादिनामभेदैर्यदुक्तं तत् श्रुतं विज्ञयमिति ॥१० ४४॥ नाम ग्रन्थ है। प्रमाण प्रतिष्ठित अर्थ को यह प्रमाण कोटिमें स्थापित कर देता है इसलिये इसका नाम सिद्धान्त है, मिथ्यात्व अविरति, और कपाय आदि में प्रवृत्त हुए व्यक्तियों को उनसे दूर होनेकी शिक्षा देता है इसलिये इसका नाम शासन है। मोक्षामिलापी प्राणी जन इससे आज्ञापित किये जाते है, इसलिये इसका नाम आज्ञा है । वाणी के द्वारा यह स्पष्ट किया जाता है इसलिये इसका नाम वचन है । जीवों को इससे हित में प्रवृत्त होने की शिक्षा (उपदेश) मिलता है इसलिये इसका नाम उपदेश है। इसके द्वार। जावादिक समस्त पदार्थ जिस रूप में स्थित है उसी रूप से प्रज्ञापित किये जाते हैं इसलिये इसका नाम 'प्रज्ञापना' है। आचार्य परंपरा से यह चला आ रहा है इसलिये इसका नाम 'आगम' है। अथवा यह आप्त का वचन है इसलिये भी 'आगम' है । ये सब मुत्र के पर्यायवाची शब्द है ऐसा जानना હેવાથી તેનું નામ ગ્રથ છે. (૪) સિદ્ધાંત પ્રમાણપ્રતિષ્ઠિત અર્થને તે પ્રમાણુભતની કટિમાં સ્થાપિત કરી દે છે તેથી તેનું નામ સિદ્ધાંત છે. (૫) શાસન મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, કષાય આદિમાં પ્રવૃત્ત થયેલી વ્યક્તિઓને તેનાથી દૂર રહેવાની શિક્ષા તે આપે છે, તેથી તેનું પાંચમું નામ શાસન છે (૬) આજ્ઞા-તેના દ્વારા મનુષ્ય આદિને અમુક આજ્ઞાઓ આપવામાં આવે છે, તેથી તેનું છઠું નામ આજ્ઞા છે. (૭) વચનવાણી દ્વારા તેને સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે, તેથી તેનું નામ વચન છે. (૮) ઉપદેશ-તેના દ્વારા જીવેને ઉપાદેયમાં પ્રવૃત્ત થવાની અને અનુપાદેય હય પદાર્થો)થી નિવૃત્ત થવાની શિક્ષા (ઉપદેશ) મળે છે, તેથી તેનું આઠમું નામ ઉપદેશ છે. ૯) પ્રજ્ઞાપના-તેના દ્વારા, જીવાદિક પદાર્થો જે રૂપે વર્તમાનમાં છે એજ રૂપે પ્રજ્ઞાપિત કરવામાં આવે છે એટલે કે જીવાદિક સમસ્ત પદાર્થોના યથાર્થ સ્વરૂપને प्रज्ञापित ४२वामां आवे छ, तथी तेनु म प्रज्ञापना छे. (१०) भागम-मायाय પરમ્પરાથી તે ચાલ્યું આવે છે, તેથી તેનું નામ “આગમ” છે. આ બધા શ્રતના
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अनुयोगचन्द्रिका टीका.सू० ४५ स्कन्धाधिकारनिरूपणम्
इत्यं श्रुताधिकारमुक्त्वा सम् ति-'खधं निक्खिविस्मामि' इति कथनानुसारेण स्कन्धाधिकार उच्यते
मूलम्--से किं तं खंधे ? खंधे चउविहे पण्णत्ते, त जहानामखंघे ठवणाखंधे दव्वखंधे भावखंधे ॥ सू० ४५ ॥
छाया-अथ कोऽसौ स्कन्धः ? स्कन्धश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नामस्कन्धः, स्थापनास्कन्धः द्रव्यस्कन्धः, भावस्कन्धः ॥ सु० ४५ ॥
टीका-से किं त' इत्यादि-- अस्य व्याख्या स्पष्टा, नवरं-कन्धःपरमाण्वादि समुदायः ॥४५॥
चाहिये । (से तं सुर्य) इस तरह इन श्रुतादि नामों से यह श्रुत कहा गया है।सूत्र४४॥
अब सूत्रकार (खंधं निक्खिविस्सामि) इस कथन के अनुसार सन्धाधिकार प्रारंभ करते हैं
शब्दार्थः-(से किं तं ख धे) हे भदन्त ! स्कंधका क्या स्वरूप है ? (खधेचउविहे पण्णते)
उत्तरः-कंधका स्वरूप प्रकट करने के लिये उस के चार प्रकार प्रज्ञप्त हुए हैं-(तं जहा) वे इस तरह से हैं-(नामख धे) नाम स्कंध (ठवणा खधे) ग्थापना स्कंध (दव्वस्कंधे) द्रव्यस्कंध (भावख धे) और भावस्क ध। स्कंध शब्द का अर्थ है पुद्गल परमाणुओं का सश्लेष । इसकी व्याख्या पहिले की गई व्याख्या की तरह ही जाननी चाहिये।
पर्यायवाची शहा, सेभ समा नये. (से तं सु) 240 प्र॥२ मही શ્રતનું નિરૂપણ સમાપ્ત થાય છે. જે સૂટ ૪૪
वे सत्र 'खंध निविखविस्सामि' मा थन अनुसार २४-याधिकारना प्रारक घरे -'से किं तं खधे" त्याह
शा-(से किं खंधे १) शिष्य गुरुने सेवा प्रश्न पूछे छे भगवन! २४.नु उ २१३५ डाय छ ?
उत्तर-खंधे चउविहे पण्णत्ते) २४.धना २१३५नु नि३५५ ४२वा निमित्त तेना या२ ४.२ ४. (तंजहा) ते प्रा। नीचे प्रमाणे छ-(नामख धे, ठवणाखंधे, दन्वखधे, भावखंधे) (१) नाभ२४-५, (२) स्थापना२४.५, (3) द्र०५२४.५ અને (૪) ભાવધ ઔધ શબ્દનો અર્થ “પુદ્ગલ પરમાણુઓના સંશ્લેષ” સમજ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા આગળ કહેલી વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી.
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अनुयोगदारले भावार्थ:-रूप, गंध, रस, और स्पश जिसमें पाये जाते हैं उसका नाम पुद्गल है। यह पुद्गल अणु और स्कंध के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। कितने ही प्रकार के पुद्गल क्यों न हों. वे सब इन दो भागों में समा जाते हैं। जो पुद्गलद्रव्य अतिमूक्ष्म है-जिस का भेद नहीं हो सकता है इसी कारण से जो स्वयं अपना ही आदि अथवा अपना ही अंत और अपना ही मध्य है, दो स्पर्श एक रस, एक गंध, और एक वर्ण से युक्त है वह परमाणु है। यद्यपि पुद्गल स्कंध में स्निग्ध रूक्ष में से एक, शीत उण में एक मृदु कठोर में से एक, अर लधु गुरु में से एक, ये चार स्पर्श होते हैं, किन्तु परमाणु के अतिसूक्ष्म होने के कारण उसमें मृदु कठोर लधु और गुरु, इन चार स्पर्शो का प्रश्न ही नहीं उठना है। इसलिये इसमें केवल दो स्पर्श माने गये हैं। इससे अन्य द्वयणुक आदि स्कंध बनते हैं। इसलिये यह उनका कारण है । कार्य नहीं। यद्यपि द्वयणुक आदि स्कंधों का भेद होने से परमाणु की उत्पत्ति देखी जाती है इसलिये यह भी कथञ्चित् कार्य ठहरता है परन्तु मौलिक रूप में यह पुद्गलकी स्वाभाविक दशा है इसलिये वस्तुतः यह किसी का कार्य नहीं है। इसका ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता-किन्तु वार्य रिङ्ग द्वारा इसका अनुमान ज्ञान
ભાવાર્થ–જેમાં રૂપ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શને સદૂભાવ હોય છે, તેનું નામ पुग छ. ते पुसलाना मे ले ४ा छ- (१) मा भने (२) २४.५ . अमे તેટલા પ્રકારના પુદગલો હોય પણ તે બધાને આ બે ભેદમાં સમાવેશ થઈ જાય છે.
જે પુદ્ગલ દ્રવ્ય અતિ સૂક્ષ્મ હોય છે, જેના વિભાગ થઈ શકતા નથી, અને તે કારણે જે પોતે જ પોતાના આદિ રૂપ, પિતાના અન્વરૂપ અને પિતાના મધ્યરૂપ હોય છે, જે બે સ્પર્શ, એક રસ, એક ગંધ અને એક વર્ષથી યુક્ત હોય છે, એવાં પુદ્ગલ દ્રવ્યને પરમાણુ કહે છે. કે પુદ્ગલ સ્કમાં સ્નિગ્ધ અને કઠોર આ બે સ્પર્શીમાને એક સ્પર્શ, શીત અને ઉષ્ણુ, આ બેમાંથી એક, મૃદુ અને કઠોર આ બે સ્પર્શમાંથી એક લઘુ અને ગુરુ, આ બેમાંથી એક, એમ ચાર સ્પર્શીને સદુભાવ હોય છે, પરંતુ પરમાણુ અતિ સુકમ હોવાને લીધે તેમાં મૃદુ, કઠોર, લઘુ અને ગુરુ, આ ચાર સ્પર્શેના સદ્ભાવને તે પ્રશ્ન જ ઉદ્દભવતે નથી. તેથી તેમાં માત્ર બે સ્પર્શોને જ સદ્દભાવ માનવામાં આવ્યો છે. તે પરમાશુમાંથી અન્ય કયણુક (બે અણુવાળા) આદિ ઔધ બને છે. તેથી સ્કન્ધ બનાવવામાં તે કારણભૂત બને છે-કાર્યભૂત બનતું નથી. જો કે દ્વયણુક આદિ સ્કન્ધોને વિભાગ થવાથી પરમાણુની ઉત્પત્તિ થતી જોવામાં આવે છે, તેથી તે પણ કયારેક કાર્યરૂપ બને છે. પરન્ત મૌલિક રૂપે પુદગલની તે સ્વાભાવિક દશા છે, તેથી વસ્તુતઃ તે કેઈન કાર્યરૂપ નથી. તે પરમાણુનું જ્ઞાન ઇન્દ્રિયોથી થતું નથી, પરંતુ કાર્યલિંગ
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अनुगोगचन्द्रिका दीका.सू० ४६ स्कवाधिकारनिरूपणम् ___ २१५ मूलम्--नामवणाओ पुठ्वभणियाणकमेण भाणियवाओ।सू०४६॥
छाया-नामस्थापने पूर्वभणितानुक्रमेण भणितव्ये ॥ सू० ४६ ॥ टीका-'नामढवणाओ' इत्यादि
नामस्कन्धः स्थापनास्कन्धश्च नापावश्यकस्याग्नाऽऽवश्यक-प्रतिपादक सत्राऽनुमारेग वक्तव्यो । इति ॥० ४६॥ से बोध होता है। स्कंध दो या दो से अधिक परमाणुओं के संश्लेष से बनता है। द्वयणुक तो परमाणुओं के संश्लेष से ही बनता है-परन्तु व्यणुक आदि स्कंध परमाणुओं के संश्लेष से भी बनते है तथा परमाणु और स्कंध के सं”लेष से या विविध स्कंधों के संश्लेष से भी बनते हैं। इसलिये अ न्यस्कंध के सिग शेष सब स्कंघ परस्पर कार्य भी हैं और कारण भी। जिन स्कंधों से बनते हैं उनके कार्य हैं और जिन्हें बनाते हैं उनके कारण भी॥सत्र४५।.., __"नाम ढवणाओ पुब्वभाणियाणुककमेण भाणिय व्याओ" इत्यादि ॥ मूत्र ४६ ॥
शब्दार्थ-(नाम मठवणाओ पुठवभणियाणुक्कमेण भाणियवाओ) नाम स्कंध और स्थापनास्कंध का स्वरूप नाम आवश्यक और स्थापना आवश्यक के म्वरूप का प्रतिपादन करनेवाले सूत्रों के अनुसार जानना चाहिये। विशेषता केवल इनी ही है । कि नाम आश्यक की जगह नामस्कंध और स्थापना आवश्यक कि जगह स्थापना स्कंध लगाकर मत्रों का अनुगम करना चाहिये।।सत्र ४६॥
દ્વારા તેને અનુમાન જ્ઞાનથી બોધ થાય છે. બે અથવા બેથી વધારે પરમાણુઓના સંશ્લેષથી સ્કન્ધ બને છે, કયણુક કપ તે પરમાણુઓના સંશ્લેષથી જ બને છે, પણ વ્યગુક (ત્રણ અણુવાળે) આદિ સ્કન્ધ પરમાણુઓના સંશ્લેષથી પણ બને છે. અથવા વિવિધ સ્કોના સંલેષથી પણ બને છે. તેથી પ્રયક સ્કન્ધ સિવાયના બાકીના બધાં સ્કન્ધ પરસ્પર કાર્ય પણ છે અને કારણ પણ છે-જે સ્કમાંથી તેઓ બને છે તે સ્કના કાર્યરૂપ અને જે સ્કને તેઓ બનાવે છે તેમના કારણરૂપ છે, એમ સમજવું. એ સૂત્ર ૪૫ છે
"नामट्ठवणाओ पुव्वभणियाणुक्कमेण भाणियव्याओ" त्याह
सहाय-(नामट्ठवणाओ पुव्वभणियाणुक्रमेण भाणियवाओ) नाम२४-५ અને સ્થાપનાસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ નામ આવશ્યક અને સ્થાપના આવશ્યકના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરનારાં સૂત્રો પ્રમાણે જ અમજવું નહીં. એટલી જ વિશેષતા સમજવાની છે કે નામ આવશ્યકને બદલે નામ અને સ્થાપના સ્કન્ધ સૂત્રોનું કથન થવું જોઈએ. એ સૂત્ર ૪૬ !
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२१६
अनुयोग ढारसत्रे
अथ द्रव्य कन्धं निरूपयति
मूत्र से किं तं दव्वख घे? दवनख घे दुविहे पण्णत्त े, तं जहा आगमओ य नोआगमओ य । से क त आगमओ दव्वख घे ? आ मओ दव्वखधं - जस्स णं खधेत्ति प सिक्खियं, सेसं जहा द वावस्सए तहा भातियव्वं । नवर खधाभिलावा जाव से किं तं जाणयसरीर भवियसरीर इरित्ते दव्त्रखंधे ! जाणय तरीरवइरिने दव्वखधतिविहे पण्णत्ते, तं जहा सचित्त अचि मीसए ॥ सू० ४७॥
छाया - अथ कोऽसौ द्रव्य कन्धः १ द्रव्यस्कन्धो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाआगमतश्च नोआगमतश्च । अथ कोऽसौ आगमतो द्रव्यस्त्रन्धः ? आगमतो द्रव्यस्कन्धः–यस्य खलु स्कन्धेति पदं शिक्षितम, शेषं यथा द्रव्यभवश्यके तथा अब मुत्रकार द्रव्यस्कंध का निरूपण करते हैं
" से किं तं दवख घे" इत्यादि || सूत्र ४७ ॥
शब्दार्थ:- (से) हे भदन्त ! (तं) पूर्वप्रक्रान्त ( दव्वखंबे) द्रव्यस्कंध (किं) कथा है ?
उत्तर- (दव्वख धे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्यस्कंध दो प्रकार का कहा गया है । (तंजा) जैसे (आगमओ य नोआगमओ य) १ एक आगम को लेकर और दूसरा नोआगम को लेकर । (से कि त आगमओ दव्यखं धे) आगम से द्रव्य स्कंधका क्या स्वरूप है ? (आगमओ दव्वखं धे जग्स णं खधेति पर्य
હવે સુત્રકાર દ્રવ્યસ્કન્ધનું નિરૂપણ કરે છે" से किं तं दव्वखं घे"
त्याहि
शब्दार्थ (से) शिष्य गुड्ने येवे। प्रश्न पूछे छे ! (त) पूर्व प्रस्तुत (दब्वखंधे) द्रव्यन्धनु (किं) ठेवु स्व३५ छे ?
ws
उत्तर- ( दयस्त्रधे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्यसन्ध में अहारना
छ (तं जहा ते मे प्रा। नीचे प्रभा छ – (१) ( आगमओ य, नोआगमओय) (१) भागમની અપેક્ષાએ દ્વવ્યસ્કન્ધ અને (૨) નાઆગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય૭૫.
(से किं त आगमओ दव्वख धे?) डे लगवन् ! आगमने याश्रित अरीने દ્રવ્યસ્કન્ધનુ કેવુ' સ્વરૂપ છે ?
उत्तर- (आगमअ दव्वरनधे जस्सणं खधेति पयं सिक्खियं सेसं जहा दव्वावस्सए तहा भाणियां) भागभनी अपेक्षाये भागभने आश्रित हरीने
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ४७ द्रव्यस्क व निरूपणम्
भणितम् । नवरं कन्यामला यावत् अथ कोऽसौ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरयतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः १ ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धस्त्रिविधः मज्ञप्तः, तद्यथा - सचित्तः अचित्तो मिश्रकः ॥ ४७ ॥
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टीका - 'से कि त' इत्यादि । व्याख्या निगः सिद्धा ||४०४७|| सिक्लियं सेसं जहा दव्वा वस्सए तहा भाणियव्त्रं) उत्तर - आगम से- आगम को आश्रित करके - द्रव्यस्कंध का स्वरूप इस प्रकार से है, जिस साधु आदि ने कंत्र इस पदके अर्थ को गुरु के मुख से सीख लिया है यहां से लेकर “ठियंजियं" आदि शेष पदों को यहां कहना चाहिये और उनका अर्थ जिस प्रकार से द्रव्यावश्यक के वर्णन में कहा गया है वैसा ही अर्थ यहां पर उस पाठका लगा लेना चाहिये । इस तरह स्कंध संबन्धी आलाप " अथ कोऽसौ शायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कंधः" यहां तक समझलेना चाहिये । (जाण यसरीर भवि यसरीरवइरित्ते दव्वखधे तिविहे पण ते ज्ञायकशरीर भव्यशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यस्कंध तीन प्रकार का कहा गया है । (तंजहा) वे प्रकार ये हैं (सचि अचित्ते भीसए) सचित्त, अचित्त और मिश्र । भावार्थ:- शिष्य ने गुरुमहाराज से पूछा है कि हैं भदन्त ! द्रव्य स्कंध का क्या स्वरूप है ? तब गुरु महाराज ने उसे समझाने के लिये ऐसा कहा कि हे शिष्य । द्रव्य स्कंध को स्वरूप दो प्रकार से निर्धारित किया गया है-१ દ્રવ્યસ્કન્ધનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે-“ જે સાધુએ સ્કન્ધ, આ પદના અને ગુરુની सभीचे शीभी सीधे छे" अडींथी श३ उरीने "ठियं जियं" माहि द्रव्यावस्था સૂત્રમાં આવેલા પદ્માને અહીં પણ ગ્રહણ કરવા જોઇએ. તે દેના જે પ્રકારના અર્થ દ્રશ્યાવશ્યક સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યા છે, તે પ્રકારના અથ અહી પણ थषु थवा हो या अरे अन्ध संबंधी " अथ कोऽसौ ज्ञायव शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः" अहीं सुधीनु' अथवु लेये.
(जाण सरीरभवि यसरीरखहरिते दव्वबंधे तिविहे पण्णसे) ज्ञायशरीर અને ભયશરીર વ્યતિરિકત (થી ભિન્ન) દ્રવ્યત્સ્ય ત્રણ પ્રકારને હ્યો છે. (तं जहा) ते अमरो मा प्रभाछे
(सचिते अचित मीस ) ( 1 ) सत्ति (२) अथित्त भने (3) मिश्र. ભાષા-શિષ્ય ગુરુ મહારાજને એવા પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવન્ ! દ્રય*ધનું સ્વરૂપ કેવું છે?' ત્યારે ગુરુ તેને તે સમજાવવા માટે ભેદ પ્રભેદપૂર્વક તેના સ્વરૂપતું નીચે પ્રમાણે નિરૂપણ કરે છે.
તેઓ તેને કહે છે કે દ્રવ્યકધનું સ્વરૂપ એ પ્રકારે નિર્ધારિત કરી શકાય છે
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૯
अनुयोगद्वार
आगम को आश्रित करके और दूसरा। नाआगम को अश्रित करके । इनमें आगम को आश्रित करके द्रव्यकंध का रूप जैा पीछे १४ वें सत्र में आगम को आत करके द्रव्यावश्यक का स्वरूप कहा गया है- वैसा ही जानना चाहिये। जिसका तात्पर्य यह है कि जिस साधु आदि ने स्कंध के स्वरूप को प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र को अच्छी तरह से जान तो लिया है। परन्तु वह उसमें उपयोग से वर्जित है ऐसा वह साधु आगम की अपेक्षा द्रव्यस्कंध ज्ञायकशरीर द्रव्यस्कध भव्यशरीर द्रव्यस्क और इन दोनों से व्यतिरिक्त द्रव्यस्क इसतरह से ३ तीन प्रकार का है। उनमें पहिले पदबा स्वरूप १६, १७, १८, इन तीन सूत्रो द्वारा पीछे स्पष्ट किया गया है। वहां आवश्यक पद की जगह स्कंध पद लगाकर इसे समझलेना चाहिये । इसका सारांश ह है कि स्कंधशास्त्र के ज्ञाता का जो निर्जिव शरीर हैं वह नोआगम की अपेक्षा ज्ञायकशरीर है । तथा आगे जिस शरीर से स्कंधशास्त्र को वह
(૧) માગને આશ્રિત કરીને અને (૨) ના આગમને આશ્રિત કરીને.
આગમના આધાર લઇને દ્રવ્યસ્કન્ધનું કેવું સ્વરૂપ છે તે હવે સમજાવવામાં આવે છે. ૧૪માં સૂત્રમાં આગમને આધાર લઇને દ્રાવણ્યકનુ' જેવુ સ્વરૂપ કહેવામાં આવ્યું છે. એવું જ આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યસ્કન્ધનું સ્વરૂપ સમ જવું. આ કથનના સંક્ષિપ્ત સારાંશ નીચે પ્રમાણે સમજવે.
જે સાધુ આદિએ સ્કન્ધના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરનારા શાસ્ત્રને સારી રીતે જાણી લીધું છે, પરન્તુ તે તેમાં ઉપયેગ પરિણામથી રહિત છે, એવા તે સાધુ આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યસ્ક ધ રૂપ છે. નેઆગમની અપેક્ષાએ દ્રશ્યસ્કન્ધના ત્રણ પ્રકાર કહ્યા ઃ (૧) જ્ઞાયકશરીર દ્રવ્યસ્કન્ધ, (૨) ભયશરીર દ્રવ્યસ્કન્ધ અને (૩) ઉપર્યુકત બન્નેથી યતિરિકત (મિન્ન એવે) દ્રશ્યસ્કન્ધ આ ત્રણ પ્રકારોમાંના પહેલા બે પ્રકારેાનું સ્વરૂપ ત્ર ૧૭ ૧૮ અને ૧૯માં સૂત્રમાં કહ્યા અનુસાર જ સમજવું જોઈએ. ત્યાં ‘આવશ્યક' શબ્દની જગ્યાએ સ્કન્ધ” શબ્દ મૂકવાથી સ્કન્ધ વિષયક કથન અની જશે. તે સુત્રાના સારાંશ નીચે પ્રમાણે છે સ્કન્ધશાસ્ત્રના જ્ઞાતાનું જે નિર્જીવ શરીર છે તે નાઆગમની અપેક્ષાએ નાયકશરીર દ્રવ્યસ્કન્ધ રૂપ છે, તથા જે જીવ ગૃહીત શરીર દ્વારા ભવિષ્યમાં સ્કધશાસ્રના જ્ઞાતા બનવાના છે, તેના શરીરને નાઆગમ ભવ્યશરીર દ્રશ્યસ્કન્ધ રૂપ સમજવું,
6.
હવે આ બન્નેથી વ્યતિરિક્ત (ભિન્ન) જે દ્રશ્યસ્કન્ધ છે, તેનું સ્વરૂપ સમજા
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अनुबोगचन्द्रिका टीका.सू. ४८ सचित्तरूपं प्रथममेदनिरूपणम्
तत्र सचित्तरूपं प्रथमं भेद रूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं सचित्त दव्यखधे ? सचित्त दव्वखधे अणेगविहे पण्णत्त, तं जहा-हयखधे गयखधे किंनरखंधे किंपुरिसखधे महोरगखंधे गधव्वग्वधे उसभखधे । से तं सचित्ते दव्वखघे ॥सू० ४८॥
छाया-अथ कोऽसौ सचित्तो द्रव्य कन्धः ? सचित्तो द्रव्यस्कन्धोऽनेकविधःप्रज्ञप्तः, त था-हयस्कन्धो गजस्कन्धः किन्नराकन्ध- किम्पुरुषम्कन्धो महोरगस्कन्धो गन्धर्वस्कन्ध वृषभ-कन्धः। स एष सचित्तो द्रव्य कन्धः । मू० ४८॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं तं' इत्यादि । अथ कोऽसौ सचित्तो द्रव्यस्कन्धः ? इति । उत्तरमाह-सचित्ते दध्वखंघे' इत्यादि । चित्तं चेतनासंज्ञानमुपयोगोऽवयानं मनोविज्ञानमिति पर्यायाः, चित्तेन सह वर्तते सचित्तः, द्रव्यस्कन्धः अने विध: व्यक्तिभेदात् अनेकप्रकारकः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-हयस्कन्धः हयः अश्वः, स एव विशिष्टेकपरिणामपरिणतत्वात् स्कन्धो हयस्कन्धः, एवं गजस्कन्धः, किन्नरादयो गन्धर्वान्ताः व्यन्तरविशेषाः। वृषभस्कन्धः-वृषभःसीखेगा वह भव्यशरीर द्रव्यस्कंध है। अब इन दोनों से व्यतिरिक जो द्रव्यस्कंध है वह सचित्त, अचित और मित्र के भेद से ३ तीन प्रकार काहे ॥मत्र४७॥
अब मूत्रका सचित्त रूप प्रथम भेद की प्ररूपणा करते हैं"से किं तं सचित्ते दव्वख धे” इत्यादि ।॥ मृत्र ४८ ॥
शब्दार्थः- (से कि त सचित्ते दध्वख धे) हे भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्त (प्रारंभ किया हुआ) सचित्त द्रव्यस्क ध का क्या स्वरूप है ?
उत्तर:- सचित्ते दव्वख धे अणेगविहे पण्णत्ते) सचित्त द्रव्याकंध अनेक प्रकार का कहा गया है। (तजहा) जैसे-(हयखंधे, गयखंधे किन्नरવવામાં આવે છે તેના નીચે પ્રમાણે ત્રણ ભેદ કહ્યા છે (૧) સચિત્ત, (૨) અચિત્ત अन (3) मिश्र, ॥ सू० ४७ ॥ હવે સૂત્રકાર સચિત્ત રૂપ પહેલા ભેદની પ્રરૂપણ કરે છે. "से कि त सचित्ते दव्यख धे" त्याहिसाथ-(से कि त सचित्ते दब्यख धे?) શિષ્ય ગુરુ મહારાજને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભદત ! આગમ જ્ઞાયકશરીર અને ભવ્યશરીર વ્યતિરિકત દ્રવ્યસ્કના પ્રથમ ભેદરૂપ સચિત દ્રવ્યકનું કેવું સ્વરૂપ કહ્યું છે.
अत्त२-(सचित्त दव्यखधे अणेगविहे पण्णत्ते) सथित द्र०य२४५ भने ARो हो छ. (तंजहा) म : (हयख धे, गयख धे, किन्नरखधे, किंपरिस
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अनुयोगद्वारने बलीवर्दः स एव सन्धः वृषभसन्धः । जीवानो शरीरैः रह कथंचिदमेदे सत्यपि सचित्तासन्धाधिकारात् जीवानामेव च परमार्थतः सचेतनत्वादिह हयादिसम्बन्धिनो जीवा एव विवक्षिता नतु तदधिष्ठितशरीराणीति बोध्यम् । ननु जीगनां स्कन्धत्वं नोपपद्यते, पुद्गलप्रचयस्यैव स्कन्धत्वादिति चेन, जीवानां प्रत्येकमसंख्येयखधे, किंपुरिसखंधे, महोरगखंधे, गंधव्वखंधे, उसभखंधे) हयस्कंध, गजस्कंध, किन्नरस्कंध, किंपुरुष स्कंध, महोरगस्कंध, गंधर्वस्कंध, वृषमस्कंध । चेतना, संज्ञान, उपयोग, अवधान, मन और विज्ञान ये सब चित्त के पर्यायवाची शब्द हैं।
इस चित्त से जो युक्त होता है, उसका नाम सचित्त है। यह सचित्त स्कंध व्यक्तिभेद की अपेक्षा अनेक प्रकार का है। हय नाम अश्व घोडा का यह पुद्गल परमाणुओं की एक विशिष्ट पर्याय है। अतः यह स्कंध रूप है । इसी तरह से गजादि स्का के विषय में भि जानना चाहिये । किन्नर से लेकर गंधर्व तक के स्कंध ठगन्तरदेव के भेद हे। पभ नाम बैल का है जीवों या गृहीत शरीर के साथ इथंचित् अभेद हैं तो भी सचित्तस्कंध का अधिकार होने से यहां उन २ पर्यायों में रहे हुए जीवों में ही परमार्थतः सचेतनता होने के कारण वे हयादि संबन्धी जीव ही विवक्षित हुए हैं। तदधिष्ठित शरीर नहीं।
शंका:-यहां आप जीवों में स्कन्धता को कथन कर रहे है-सो यह
खधे, महोरगख धे, गंधव्वख धे, उसभख धे,) य२४५, १२४, 81२२४५. पुरु५२४, भडा२॥१४५, २४.५, भने वृषम२४५..
ચેતના, સંજ્ઞાન, ઉપયોગ, અવધાન, મન, અને વિજ્ઞાન આ બધા ચિત્તના પર્યાયવાચી શબ્દ છે. આ ચિત્તથી જે યુક્ત હોય છે તેને સચિત્ત કહે છે. આ સચિત્તસ્કન્ય વ્યકિતભેદની અપેક્ષાએ અનેક પ્રકારના છે. હય એટલે ઘેડો તે દુગલ પરમાણુઓની એક વિશિષ્ટ પર્યાય રૂપ છે. તેથી તે સ્કલ્પરૂપ છે. એ જ પ્રમાણે ગજાદિ સ્કન્ધના વિષયમાં સમજવું.
કિરથી લઈને વ્યન્તર પર્યન્તના સ્કન્ધ વ્યક્તર દેના ભેદરૂપ છે. વૃષભ એટલે બળદ. જીવને ગૃહીત શરીરની સાથે અમુક રૂપે અભેદ છે, છતાં પણ સચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધને અધિકાર ચાલતું હોવાથી અહીં તે તે પર્યાયામાં રહેલા છમાં જ પરમાર્થ (સ્વભાવત) સચેનતા હોવાને લીધે તે હયાદિ સંબંધી છે જ વિવક્ષિત થયા છે તેમાં અધિષ્ઠિત (તદધિષ્ઠિત) શરીરની વિવક્ષા અહીં થઈ નથી.
શંકા-આપ અહીં છમાં જે સ્કન્યતાનું પ્રતિપાદન કરતું કથન કરી રહ્યા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ४८ सचित्तरूपं प्रथमभेदनिरूपणम् प्रदेशात्मक त्वेन तेषां न्यत्वस्य सुप्रतीतत्वात् । ननु हयस्कन्धादीनामन्यतरेण केनाप्युदाहरणेन सिद्धं किमेहुभिरुदाहरणैरितिचेत्. उच्ा ते-आमाऽछतवादनिराकर्तु भिन्न रूपविजातीयस्कन्धबहु-वमाश्रित्य उदाहरणं प्रदर्शितम् । अ . तवादाङ्गीकारे सिद्धसंसारिव्यवहारोच्छेदप्रसंगात् । प्रकृमुपसंहरन्नाह-स एष सचित्तो द्रव्यस्कन्ध इति ॥१० ४८॥ कथन जचता नहीं है। क्योंकि जो पुद्गल प्रवयरूप होता है उसमें ही सान्धता घटित होती है । जीव में नहीं क्योंकि यह पुद्गल प्रचयरूप नहीं हैं।
उत्तरः-ठीक है परन्तु यह ऐकान्तिक बात नहीं है, कि पुद्गलप्र क्य में ही स्कंधता घटित होती है। हरएक जीव असंख्यात प्रदेश है । इस अपेक्षा उनमें स्कन्धता सुप्रतीत है। अतः पुद्गलप्रचय रूप नहीं होने परभी असंस्यात प्रदेशात्मकता रूप प्रचबवाला होने से जीव में स्कंधता सुघटित है।
शंकाः-सचित द्रव्यस्क धकी सिद्धि हय कन्ध आदि में से किसी एक भी उदाहरण से जब हो जाती है। तब फिर इन अनेक उदाहरणों को यहां प्रट करने की क्या आवश्यकता हुई ? उत्तरः- आत्मा द्वैतवाद को निराकरण करने के लिये भिन्न २ स्वरूपाले विजातीय स्कों की अनेकता लेकर मुत्रकारने इन उदाहरणों को दिखलाया है।
यदि केवल अद्वैतवाद को अंगीकार किया जावे तो सिद्ध और संसारी છે તે કથન ઉચિત લાગતું નથી, કારણ કે જે પુદ્ગલપ્રચય રૂપ હોય તેમાં જ સ્કધતા ઘટાવી શકાય છે જીવમાં સ્કન્ધતા ઘટાડી શકાતી નથી કારણ કે તે પુદગલપ્રયચ રૂપ નથી.
ઉત્તર “પુદ્ગલપ્રચયમાં જ સ્કન્ધતા ઘટિત થાય છે, એવી કોઇ એકાસ્તિક વાત જ અહીં પ્રતિપાદિત થઈ નથી. પ્રત્યેક જીવ અસંખ્યાત પ્રદેશયુકત હોય છે. તે દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે તેમાં સ્કન્ધતા સુપ્રતીત થાય છે. તેથી પુદ્ગલ પ્રચય રૂ૫ નહીં હોવા છતાં પણ અસંખ્યાત પ્રદેશાત્મકતા રૂપ પ્રચયવાળે હેવાને કારણે જીવમાં સ્કતા સુઘટિત જ છે?
શંકા–હયસ્કન્ધ આદિ કમાંથી કઈ પણ એક સ્કલ્પના ઉદાહરણ દ્વારા સચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધનું પ્રતિપાદન કરી શકાય એમ છે. છતાં અહીં અનેક ઉદાહરણ આપવા પાછળ સૂત્રકારને શો હેતુ રહેલો છે.
ઉત્તર-આત્માદ્વૈતવાદનું નિરાકરણ કરવાને માટે ભિન્ન ભિન્ન સ્વરૂપવાળા વિજાતીયસ્કની અનેકતાની અપેક્ષાએ સૂત્રકારે આ ઉદાહરણ બતાવ્યા છે. જે માત્ર અદ્વૈતવાદને જ સ્વીકાર કરવામાં આવે, તે સિદ્ધ અને સંસારીનો જે વ્યવહાર છે તેના ઉછેદન પ્રસંગે પ્રાપ્ત થશે.
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अनुयोगदारको अचित्तद्रव्यसन्धं निरूपयनि
मूलम्--से कि तं अचित्ते दव्वखंधे ? अचित्त द वखधे अणेगविहे पण्णत्त, तं जहा-दुपएसिए तिपएसिए जाव दसपएसिए सं. खिजपएसिए असंखिजपएसिए अणंतपएसिए। से त अचित्ते दव्वखधे ॥ सू० ४९ ॥
छाया-अथ कोऽसावचित्तो द्रव्यस्कन्धः ? अचित्तो व्यस्कन्धः-अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा--द्विप्रदेशित: त्रिदेशिको यावत् दशप्रदशिकः संख्येय प्रदेशिकः असंख्येयप्रदे शकः अनन्तप्रदेशिकः । स एपः अचित्तो द्रव्यस्कन्धः।४९। का जो व्यवहार है उसके उच्छेद का प्रसंग प्राप्त होगा। (से त सचिचे दव्वखधे) इस प्रकार से यह सवित्त द्रव्यस्कन्ध है । ।। सूत्र ४८॥ अब मुत्रार अचित्त द्रापस्कन्धों श निरूपण करते हैं
"से किं तं अचित्ते दवखंधे' इत्या दे । ॥ सूत्र ४९ ॥
शब्दार्थः-(से किं तं अचित्ते दळखंभो) हे भदन्त ! अचित्त द्रव्यस्कंध का क्या स्वरूप है ? (अचिने दव्यवखंधे अणेगविहे पण्ण) उत्तर-अचित्त द्रव्याकंध अनेक प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे - (दुपएसिए तिपएसिए जाव दसपएसिए मंखेज्जपसिए असंखेज्जपएसिए अणंतपससिए) दो प्रदेशवाला अचित्त द्रव्यस्कध, तीन प्रदेशवाला अचित्तद्रव्यस्कंध, यावत् दश प्रदेशवाला अचित्तद्रव्यस्कंध, संख्यात प्रदेशवाला अचिनद्रव्यस्कन्ध, असंख्यात प्रदेश वाला अचित्त द्रव्यस्कंध, और अनन्तप्रदेश
(से तं दरखघे) मा प्ररे सथित द्र०५२४-पना २१३५नु पg Ast સમાપ્ત થાય છે કે સુહ ૪૮ છે
હવે સૂત્રકાર અચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધના સ્વરેપનું નિરૂપણ કરે છે– "से किं त अचित्त दबखधे” त्या
शहाय-(से किं तं अचित्त दव्वखधे?) शिष्य गुरुने सेवा प्रश्न ४३ હે ભગવન ! પૂર્વ પ્રસ્તુત અચિત્ત દ્રવ્યસ્કાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अचित्त दवखधे अणेगविहे पण्णत्तो) अायत्तद्र०५२४.५ भने २ने ४ो छ. (तजहा) भ ...
(दुपएसिए, तिपएसिए जाव दसपएसिए, सखेजपएसिए, असंखेजपएसिए, अणंतपएसिए) में प्रदेशपाणी अयित्त द्र०य२४.५ प्रदेशका मथित દ્રવ્યસ્કન્ધ એ જ પ્રમાણે દસ સુધીના પ્રદેશવાળ અચિત્ત દ્રવ્યસ્કલ્પ, સંખ્યાત
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अनुयोगचन्द्रिकाटी : ४९ अचित्तद्रव्यस्कन्यनिरूपणम्
टी:-“से कित" इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-अथ कोऽसावचित्तो द्रव्यसन्धः ? उत्तरमाह-अचिनो द्रव्यसन्ध:- अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तयथा-द्विप्रदेशि:-प्रकृष्टः पुद्गलास्तिकायदेश प्रदेशः प्रदेशः परमाणुरित्यर्थः, छौ प्रदेशौ रत्र स द्विप्रदेशिकः-सन्धः । एवं यावत्-अनन्तप्रदेशिक: स्वधः। स एषोऽचित्तो पस्कन्धः ॥ सू० ४९॥
वाला अचित द्रव्यस्कन्ध । यह "प्रकृष्टः देशः प्रदेशः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार सब से अल्प परिमाणवाला पुद्गास्तिकाय का जो देश है उसका नाम प्रदेश-परमाणु-है । संख्यात. असंख्यात और आन्त प्रदेशवाला पुद्गलास्तिकाय का देश स्थान मूलरूप में परमाणु है ।
अनेक परमाणुओं के मेल से दयादि प्रदेशो स्कंध बनते है । १ पुद्गल परमाणु भी अस्तिकाय इसीलिए है कि वह नाना स्कंधों का उत्पादक है
भावार्थ-यहां पर सूत्रकारने अचित द्रव्यस्कन्ध का स्वरूप कहा है। उसमें दो प्रदेशी स्कंध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कंध तक के जितने पुद्गलस्कंध हैं वे सब अचित्त द्रव्यस्कन्ध में परिगणित हुए हैं । दो परमाणु मिलकर द्विप्रदेशी स्कन्ध, तीन परमाणु मिलकर तीन प्रदेशी कंय यावत् अनन्त परमाणु मिलकर अनन्त प्रदेशी स्कंध बने हैं। ये सब अचिन द्रव्यस्कंध हैं। ॥ मूत्र ४९ ॥
પ્રદેશવાળે અચિત્ત દ્રવ્યસ્ક, અસંખ્યાત પ્રદેશવાળ અચિત્ત દ્રવ્યક , અને मनात प्रदेशका अथित्त द्रव्य ४.५ 'प्रकृष्टः देशः प्रदेशः' मा व्युत्पत्ति मनुસાર સૌથી અ૯૫ પરિમાણવાળો પુદ્ગલાસ્તિકાયને જે દેશ છે તેનું નામ પ્રદેશ પરમાણું છે સંખ્યાત. અસંખ્યાત અને અનન પ્રદેશવાળા પુલાસ્તિકાયને દેશ (मथ) भू१३पे ५२मा छे.
અનેક પરમાણુઓના મેળથી (સંગથી) દ્વયાદિ પ્રદેશી કન્ય બને છે. એક પુદગલ પરમાણુ પણ વિવિધ સ્કન્ધનું ઉત્પાદક હોવાને કારણે અસ્તિકાય રૂપ જ છે.
ભાવાર્થઅહીં સૂત્રકારે અચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે. બે પ્રદેશી કન્યથી લઈને અનંત પ્રદેશી સ્કન્ધ પર્વતના જેટવા પુદગલ સ્કન્ધ છે, તે બધાંને અહીં અચિત દ્રવ્યક રૂપે ગણાવવામાં આવ્યાં છે. બે પરમાણુ મળીને દ્ધિપ્રદેશી કન્ય, ત્રણ પરમાણુ મળીને ત્રિપ્રદેશી સ્કન્ધ, અને એજ પ્રમાણે ચાર, પાંચ આદિ અનન્ત પર્યન્તના પરમાણુ મળીને ચાર પ્રદેશી, પાંચ પ્રદેશી આદિ અનન્ત પ્રદેશી પર્યન્તના કો બને છે. તે બધાં સક અચિત્ત દ્રવ્યરકાસૂ૦૪
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अनुयोगवश
अथ मिद्रव्यस्कन्धं निरूपयति-
मूलम् - - से किं तं मीसए दव्त्रखंधे ? मीसए दवख घे अणेगविहे पण्णत्त, तं जहा - मेणाए अग्गिमे खधे, सेणाए मज्झिमे खो, सेणाए पच्छिमे खधे, से तं मीलए दव्वखंघे ॥सू० ५०
छाया - अथ कोऽसौ मिश्रको द्रव्यस्कन्धः १ मिश्रको द्रव्यस्कन्धः - अनेक विधः प्रज्ञेप्तः, तद्यथा - सेनाया अग्रिमः स्कन्धः सेनायश मध्यमः स्कन्धः, सेनायाः पश्चिमः स्कन्धः । स एष मिश्रको द्रव्यस्कन्धः ||सू० ५०||
टीका 'से किं तं' इत्यादि --
अथ कोऽसौ मिश्रको द्रव्यस्कन्धः १ इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरमाह - मिश्रकःसचेतनाचेतन संकीर्णोमि :, स एव मिश्रकः एवंविधा द्रव्यस्कन्धः अनेक
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अब सूत्रकार मिश्रद्रव्यस्कंध का वर्णन करते हैं, -- "से किं तं मीसए" इत्यादि । || सूत्र ५०॥
शब्दार्थ - (सेतिं मीसा दव्वख घे) हे भदन्त । मिश्र द्रव्यस्कंध का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (मीसए दब्वख घे अणेगविहे पण्णत्त) मिश्रद्रव्यस्कंध अनेक प्रकार का कहा गया है । (तं जहा ) जैसे - ( सेणार अगिमेखंधे, सेणाए मज्झिमेख वे सेणाए पच्छिमे खधे, से तं मीसए दव्वखं धे) सेना का अग्रिम स्कंध, सेना का मध्यमस्कंध, सेना का पश्चिमस्कंध ) इस प्रकार से यह मिश्र द्रव्यस्कंध है सचेतन और अचेतन इन दोनों का मिश्रण जहाँ होता है उसका नाम मिश्र
હવે સૂત્રકાર મિશ્ર દ્રશ્યસ્કન્ધનું નિરૂપણ કરે છે" से किं तं मीसए" इत्याहि—
हाथ - ( से किं तं मीसए दव्वखधे) डे लडन्त ! मिश्र द्रव्यसन्ध स्व३५ ठेवु छे.
उत्तर- (मीसए दव्वखंधे अणेग विहे पण्णत्त) मिश्र द्रव्यसन्धना भने प्रहार उद्या छे. (तंजहा) भ ..........
सेणार अगिमे खधे, सेणाए मज्झिमे खधे, सेणाए पच्छिमे खंधे, से तं मीस दव्वखं धे) (1) सेनानी अग्रिम सुन्ध, (२) सेनानो मध्यभसन्धाने (3) સેનાના પશ્ચિમ (અન્તિમ) સ્કન્ધ આ પ્રકારનું આ મિશ્ર દ્રવ્યસ્કન્ધનુ' સ્વરૂપ છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका- ५० मिश्रद्रव्यस्कन्धनिरूपणम्
प्रकारकः प्ररूपितः, तद्यथा - सेनामा अग्रिमः स्कन्धः - हरुः यश्वरथपदातिकवचखङ्गकुतधनुर्बाणादसमुदायरूपा सेना तस्या अग्रिमः स्कन्धः - अग्रभाम्रो मिश्रक: स्कन्धः । तथा-सेनाया मध्यमः स्कन्धः पश्चिमः = पृष्ठवर्त्ती स्कन्वश्च मिश्रकः स्कन्धः । इस्त्यादयश्चात्र सचेतनाः, कवचादयश्वाचेतनाः । इत्थं सचेतनाचेतन वच्चादत्र मिश्र - कत्वं बोध्यम् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - स एष मिश्रको द्रव्यस्कन्ध इति सू० ५० ॥ अथ प्रकारान्तरेण ज्ञायक शरीर भव् शरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यस्यान्यं निरूपयतिमूलम् - अहवा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वखधे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- कसिणख घे, अकसिणख घे अणेगदवियख धे । सू०५१। छाया - अथा ज्ञायकशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्ध स्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - कृत्स्नस्कन्धः, अकुतरनः कन्ध, अनेकद्रव्यस्कन्धः ॥५१॥ टीका - ' अहवा' इत्यादि - व्याख्यानिगदसिद्धा ॥ ५१ ॥
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है। सेना इन दोनों की संमिश्रणरूप अवस्था है । इसमें हस्ती, अश्व, रथ, प्यादे, कवच, तलवार, भाला, धनुष, और वाण आदि का संबन्ध रहना है । इनका समुदाय ही तो सेना है इसमें हस्ती आदि सचेतन पदार्थ हैं। इन दोनों का संमिश्रण इसमें रहता हैं। इसलिये इसे मिश्र द्रव्यस्कन्ध कहा हैं । सू. ५० ।
अब दूसरी तरह सूत्रकार ज्ञायकशरीर भव्य शरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यस्कंध का निरूपण करते हैं- " अहवा जाणयसरीग्भवियसरीर" इत्यादि । ॥ मुत्र ५१ ॥
शब्दार्थ - ( अथवा ज्ञायक शरीर भव्यशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यस्कन्ध तीन प्रकार कहा गया है । ( तं जहा) जैसे कृत्स्नस्कंध, अकृत्स्नस्कंध और अनेक द्रव्य कंध | इसकी व्याख्या पहिले जैसी जाननी चाहिये || सूत्र ५१ ॥
સચેતન અને અચેતન, આ બન્નેનું મિશ્રણ જેમાં થયેલુ હાય છે તેને મિક્ષ કહે છે. સેના આ બન્નેના સમિશ્રણરૂપ અવસ્થાથી સપન્ન વ્હાય છે. તેમાં હાથી, ઘેાડા રથ, પાયદળ, કવચ, તલવાર, ભાલા, ધનુષ અને ખાણુ આદિસચિત્ત અચિત્ત પદાર્થાના સદ્ભાવ રહે છે, તેના સમુદ્રાયને જ સેના કહે છે. તેમાં હાથી, ઘોડા, સૈનિકે આદિ સચેતન પદાર્થો હેય છે, અને તલવાર, કવચ, ભાલા આદિ અચે. તન પદાર્થો પણ હાય છે. તેમાં સચેતન અને અચેતન, ખન્નેનું સમિશ્રણ રહે છે. તે કારણે તેને મિશ્ર દ્રવ્યસ્કન્ધ રૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. સૂ. ૫૦ ૫ હવે સૂત્રકાર જ્ઞાયકશરીર અને ભવ્યશરીરથી ભિન્ન એવા તયતિરિકત દ્રવ્યस्न्धनुं नि३पण मी रीते रे छ- "अहवा जाण सरीरभरि यसरीर" इत्यादिશબ્દાર્થ –અથવા નાયકશરીર અને ભવ્યશરીરથી ભિન્ન એવા દ્રવ્યસ્કન્ધના छे. (तंजहा) ते प्ररे नीचे प्रमाणे हे - (१) डृत्स्नस्सुध, અકૃત્સ્નસ્કંધ અને અનેક દ્રવ્યસ્કન્ધ તે ત્રણના સ્વરૂપનુ નિરૂપણું હવે પછીના સૂત્રોમાં वामां भावशे ॥ सु. ५१ ॥
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अनुयोमबारको तत्राबभेदं निरूपयति
मूलम्-से कि तं कसिणखंधे ? कसिणखधे से चेव हयख', गयखधे । से त कसिणखधे सू० ५२
छाया--अथ कोऽसौ कृत्स्नस्कन्ध : ? कृत्स्नस्वन्धः स एव हयस्कन्धो गजस्कन्धेो यावद् वृषभरकाधः। स एप कृत्स्नस्कन्धः ॥५२॥
टीका--शिष्यःपृच्छति-से किं तं' इत्यादि ।
अथ कोऽसौ कृत नस्कन्धः ? उत्तरमाह-कृत्स्नस्वन्धः-जीवापेक्षया प्रदेशानां परिपूर्णत्वात् कृत्स्नः परिपूर्णः, स चासौ स्कन्धः, अयं तु स एव-पूर्वोक्त एव हयस्कन्धो-गजसन्धो यावद् वृपभस्कन्धो विज्ञेयः।
ननु-हयस्कन्धादीनामे त्रापि उदाहरणत्वेन निर्दिष्टत्वात् सचित्तस्क-धस्येव संज्ञान्तरेण प्रकारान्तम्त्वमुक्तम्, नत्वत्र ज्ञायकशरीग्भः शरीव्यतिरिक्त
“से कि तं कसिणखधे इत्यादि सत्र ५२॥ शब्दार्थ-(से कि तं कसिणख घे) हे भदन्त कृत्स्नद्रव्यस्कंध का क्या स्वरूप है ? (कसिणखधे से चेव हयख'घे गयखधे जाव उसभग्व धे) उत्त-हास्कंध गजस्कंध से लेकर वृषभस्कंध तक जो सचित्तस्कंध ४८ वे सूत्र में प्राट किया गया है-वही कृतनस्कन्ध है। परिपूर्णस्कंध का नाम कृतनाकंध है । इस कंध में जीब की अपेक्षा प्रदेशों की परिपूर्णता रहती है।
शंका--मुत्रकारने इस कृत्स्नस्कंध में भी हयादिकों को ही उदाहरणरूप से निर्दिष्ट किया हैं। और सचित्त द्रव्यस्कंध में भी उन्हें ही उदाहरणरूप से कहा है तो इनके इस वथन से यही ज्ञात होता है कि सचित्त द्रव्यस्कंध ही
"से कि तं कमिणखधे" त्या
शहाथ-(से किं कसिणख धे?) शिष्य गुरुने यो प्रश्न पूछ छ ભગવન્! કૃત્ન દ્રવ્યરકલ્પનું સ્વરૂપ કેવું છે?
__त्त२-(कसिणख घे से चेव हयखधे गयवंधे जाव उसभखंधे) यन्य ગજસ્કન્ય આદિ વૃષભસ્કન્ધ પર્યનના જે સચિત્ર ૪૮માં સત્રમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, એ સચિત કો જ કૃત્ન દ્રવ્યસ્કન્ધ રૂપ છે પરિપૂર્ણ સ્કનનું નામ કૃત્ન સ્કન્ય છે. આ સ્કધમાં જીવની અપેક્ષાએ પ્રદેશની પરિપૂર્ણતા રહે છે.
શંકા–સૂત્રકારે આ કૃત્કામાં પણ અવ વિગેરેના ઉદાહરણરૂપથી બતાવેલ છે, અને અચિત્ત દ્રવ્યસ્કમાં પણ તેમને જ ઉદાહરણરૂપે પ્રકટ કર્યા છે. તેમના આ કથનથી એજ વાત જાણવા મળે છે કે સચિત્ત દ્રવ્યસ્કને જ અહીં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सू० ५२ करनस्कन्धनिरूपणम्
২২৩ द्रव्यस्कन्धस्य भेदा तरत्वम् अतः कृत्स्न सन्धमा दना पुनरभिधानमनर्थकमिति चे दुनते-पूर्व सचित्त-द्रव्यसन्धाधिकागत् तथाऽसम्भविनोऽपि बुद्धय निष्कृष्य उक्ता, इह तु जीवतदधिष्ठित शरीरावयवलक्षणः समुदायः कृत्स्नस्सन्धत्वेन विवक्षित इत्यतोऽभिधेयभेदात् सिद्धं भेदान्तरत्वम् । अस्त्येवं, तथापि हयस्कन्धस्य कृत्स्नत्वं नोपपद्यते, तदपेक्षया गजस्कन्धस्य बृहत्तरत्वादिति चे मैवम, असंख्येय प्रदेशात्मको जीवस्तदधिष्ठिताश्वशरीरावयवा इत्येवं रूपः समुदाय हयादिस्कन्धत्वेन विक्षित इति जीवम्यासंख्येय देशात्मा त्वेन सर्वत्र तुल्प तया गजादि स्वन्ध स्य बृहत्तरत्वासिद्धः । प्रकृतमुपसहरन्नाह-से त' इति । स एष कृत नस्कन्धहति॥५२। नामान्तर से प्रकारान्तररूप में वहे गये हैं । अतः इस तरह से कृत्स्नस्कंध आदि रूप से-पुन: ३थन करना-सचित्त द्रव्य कन्ध का विवेचन करना ठीक नहीं हैं ?
उत्तर सचित्तद्रव्यस्कन्ध में हयादि संबधी जीवों की ही उनके शरीर से उन्हें अपनी बुद्धि द्वारा पृथक निकालकर विवक्षा हुई हैं- उनके शरीर की नहीं परन्तु इस कृतम्नस्कंध में जीव और जीवाधिष्ठित इरीरावयव इन दोनों रूप जो समुदाय है उसकि विवक्षा हुई है। इस तरह अभिधेय के भेद से सचित्त दव्यस्कंध में और इस कृत्स्नस्कंध में परस्सर में भेद है।
___ शंका-इस तरह भेद भले रहो तो भी हय स्कन्ध में कृत्स्नता नहीं बनती है। क्यों कि हयस्कन्ध की अपेक्षा गजरकंध बहुत बड़ा हं ता है।
उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि हयादिम्बंधों में असंख्यातप्रदेश जीव और इस जीव से अधिष्ठित शरीरावयव इन दोनोंरूप समुदाय विवक्षित है-एक નીમાતર દ્વારા ( સ્ક ધ રૂપ અન્ય નામ દ્વારા) પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તે સચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધનું અહીં ફરીથી કૃસ્નદ્રવ્યસ્કન્ધને નામે વિવેચન કરવું તે યોગ્ય गाय नही.
ઉત્તર– સચિત્ત દ્રવ્યસ્કામાં અશ્વાદિ સંબંધી જેની જ તેમના શરીરથી તેમને પિતાની (સૂત્રકારની) બુદ્ધિ દ્વારા પૃથક (અલગ) કરી નાખીને-વિવક્ષા થઈ છે-તેમનાં શરીરની વિવક્ષા થઈ નથી. પરંતુ આ કૃત્નસ્કધમાં જીવ અને છવાધિષ્ઠિત શરીરવયવ આ બને રૂપ જે સમુદાય છે. તેની વિવક્ષા થઈ છે. આ રીતે અભિધેયના ભેદની અપેક્ષાએ સચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ધ અને અ: કૃન દ્રવ્યરક-ધમાં પર સ્પર ભેદ છે.
શંકા–આ પ્રકારનો ભેદ ભલે હોય, છતાં પણ હયરકલ્પમાં કૃનતા ઘટિત થતી થી, કારણ કે હયસ્કન્ધ (અશ્વરકધ) કરતાં ગજસ્કન્ધ ઘણે માટે હોય છે.
ઉત્તર–એવું કથન યોગ્ય નથી, કારણ કે હયાદિસ્કોમાં અસંખ્યાત જીવ પ્રદેશે અને તે છવ વડે અધિષ્ઠિત શરીરવયે બને રૂ૫ સમુદાય વિવક્ષિત છે.
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अनुयोगटारो अथ-अकृस्त्नाकन्धं निरूपयति
मूलम्-से कि त अकसिणखधे ? अकसिणखधे सो चेव दुपए. सियाइखधे जाव अणंतपएसिए खंधे।से तं अकसिणख धे ।सू०५३॥
जीव में असंख्यात प्रदेश होता है। इस प्रकार असंख्यात प्रदशरूप से जीव की सर्वत्र तुलता है। अतः गजो दम्बयों में बहत्तरता की असिद्धि है। (से त कमिणख धे) इ7 तरह यह कृत्स्नग्कंध का ग्वरूप है ।
भावार्थ-मूत्रकारने इस स्त्र द्वारा दूसरी तरह से नद्वयतिरिक्त द्रमस्कंध के भेदों का कथन किया है । इन में जो कृतम्नस्कंध है उस में तत् १ जीव और तत्२ जीधिप्टिनशरीरावयवरूपसमुदाय विवक्षित हुआ है। इस तरह हयस्कंध अपने रूप से गजादिस्कंध अपने रूप से अपने २ में पूर्ण हैं। इसलिये ये रकंध कृतनकध हैं । आत्मा को शास्त्रकारोंने असंख्यात प्रदेशी कहा है। ये प्रदेश चाहे हयाक हो चाहे गजम्कंध हो सब में पूर्ण रहते हैं। यही इनकी अपने-अपने स्कंध में पृणता हैं। सच तद्व्यस्कंध में तत्तत जीवाघिष्ठितशरीर विवक्षित नही है वहीं तो केवल उस शरीर में वर्तमान जीव ही विवक्षित है। इस प्रकार कृत्स्नस्कंध में और-सचित्त द्रव्यस्कंध में अन्तर जानना चाहिये । ॥ सू० ५२ ॥
એક જીવમાં અસંખ્યાત પ્રદેશ હોય છે. આ પ્રકારે અસંખ્યાત પ્રદેશીરૂપે જીવની સર્વત્ર તુલ્યતા (સમાનતા) છે. તેથી ગજાદિ સ્કન્ધમાં અશ્વાદિ કર્ધા કરતાં पिता सिद्ध यती नथी. (से तं कसिणस्न धे) मा प्रा२नु २५-धनु २१३५छ. - ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા તયતિરિક દ્રવ્યસ્કન્યના ભેદનું બીજી રીતે કથન કર્યું છે. તેમાંથી જે કૃત્નસ્કન્ધ છે તેમાં તે તે જીવ અને તે તે હય, ગજાદિ છવાધિષ્ઠિત શરીરવયવ રૂપ સમુદાય વિવક્ષિત થયે છે. આવી રીતે હયકન્ધ અને ગજાદિ સ્કન્ધ પિતાપિતાને રૂપે પરિપૂર્ણ છે. તેથી તે સ્કન્ધને કૃમ્નસ્ટમ્પ કહેવામાં આવેલ છે. આત્માને શાસ્ત્રકારોએ અસંખ્યાત પ્રદેશી કહ્યો છે. તે પ્રદેશ ભલે હયસ્કન્ધ હોય અથવા ભલે ગજસ્ક-ધ હોય બધામાં પૂર્ણ રહે છે એજ તેમની પિતાપિતાના સ્કધમાં પૂર્ણતા છે. સચિત્તદ્રવ્યસ્કધમાં તે તે (અશ્વ, ગજ આદિ પ્રત્યેક છવાધિષ્ઠિ શરીર વિવક્ષિત થયું નથી, ત્યાં તે કેવળ તે તે શરીરમાં રહેલા જીવની જ વિવિક્ષા થઈ છે. આ પ્રકારનું કૃત્નસ્કન્ધ અને સચિત્ત દ્રવ્યસ્કન્ય વચ્ચેનું અંતર ( a) समर. ॥ स. ५२ ॥
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अनुयोग बन्द्रिकाटीका. ५३ अकृत्स्नं कन्धनिरूपणम्
२२
छाया - अब कोsat अकृत्स्नस्कन्धः १ अकृत्स्न स्कन्धः स एव द्विप्रदेशि - कादिस्वन्धो यावत् अनन्तप्रदेशिक : स्कःधः । स एष अकृत्स्नस्कन्धः || ५३ ॥
टीम- शिष्यः पृच्छति - 'से किं तं' इत्यादि
अथ कोऽसावकृत्स्नस्त्रन्त्रः १ इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरमाह - अकृत्स्नस्वन्धः - न कृत्स्नः-अकृत्स्नः, स चासौ स्कन्धवेति, अकृत्स्नस्कन्धः - य मादन्योऽपि बृहत्तरः स्कन्धाऽस्ति सोऽपरिपूर्णत्वादकृत्स्नस्वन्ध इत्यर्थः, स तु स एव पूर्वोक्त प्रदेशिकादि सन्धा यावत् अनन्तप्रदेशिकः सन्धः । द्विप्रदेशिक : स्कन्धस्त्रिप्रदेशि पेक्षया स्नः त्रिदेशि चतुः प्रदेशिकापेक्षयाऽकृत न इयुक्तरोत्तरापेक्षया अब सूत्रकार अकुत स्कंध का कथन करते हैं"से किं तं अकसिणख धे ?" इत्यादि । || सूत्र ५३ ॥
शब्दार्थ से किं तं अकिसखधे सो चेव दुपएसियाइखधे जाव अणतपएसिए खधे) अकृत्स्नस्कंध का स्वरूप इस प्रकार से है कि जो द्वि प्रदेशिक आदि स्कंध से लेकर अनन्तप्रदेशिक तक के स्कंध हैं वे सब अक्रूरनस्कध हैं । जिस स्कंध से और भी कोई दूसरा बहुत बडा स्कंध होता है - वह अपरिपूर्ण होने के कारण अकृनस्कंध है । ऐसे अपरिपूर्ण ये सब द्विप्रदेशवाले स्कंध से लेकर अनन्त प्रदेश तक के स्कंध हैं । इनमें अपरिपूर्ण ता इस प्रकार से है कि जो द्विप्रदेशिक स्कंध होता है वह त्रिप्रदेशिक स्कंध की अपेक्षा न्यून होने से अपरिपूर्ण हाता है, त्रिप्रदे शिकस्कंध चतुः प्रदेशिक स्कंध की अपेक्षा न्यून होने से अपरिपूर्ण होता है । इस तरह उत्तरोत्तर की હવે સુત્રકાર અમૃનસ્કન્ધનું નિરૂપણ કરે છે. "से किं तं अकसिणखंधे " धत्याहि
शब्दार्थ - (से किं तं अकसिणख धे?) शिष्य गुरुने मेव। प्रश्न पूछे छे } હે ગુરુમહારાજ ! અકૃત્સ્ન સ્કન્ધનું સ્વરૂપ કેવુ છે?
उत्तर- (अकिसिणखं सेो चे दु१ एसियाइखधे जात्र अत्तवएसिए खंधे) मत्स्नस्न्धनु स्व३ मा अारनु छे ने द्विप्रदेशिक आदि उन्धोथी सहने અનંતપ્રદેશિક પર્યંન્તના સ્કન્ધા છે, તે બધાં અકૃત્સ્નસ્કન્ધા છે. જે સ્કન્ધ કરતાં વધારે માટે કાઈ ખીને સન્ય હાઇ શકે છે, તે રકન્ધુ અપરિપૂર્ણ હાવાને કારણે કૃન સ્કન્ધ ગણાય છે. દ્વિપ્રદેશીથી લઈને અનંત પ્રદેશી પર્યન્તના સમસ્ત સ્કન્ધા આ રીતે અપરિપૂર્ણ જ હેાય છે. તેમાં અરિપૂર્ણતા આ પ્રકારે સમજવી જોઇએ જે દ્વિપ્રદેશિક :ન્ય હાય છે તે ત્રિપ્રદેશિક સ્કન્ધ કરતાં ન્યૂન હેાવાથી અપરિપૂર્ણ હાય છે, ત્રિપ્રદેશિક સ્કન્ધ ચતુઃપ્રદેશિક સ્કન્ધ_કરતાં ન્યૂન હાવાથી અપરિપૂર્ણ હાય ७. खेल प्रमाणे उत्तरोत्तर अन्धतां प्रत्ये पूर्वना (गणना) सुषमा न्यून
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अनुयोगबारपेत्र पूर्वपूर्वोऽकृत्स्नो बोध्यो यावत्कृत्स्नता नायाति ! पूर्व द्विप्रदेशिकादिः सर्वोकृष्टप्रदेशश्च स्कन्धः सामान्येनाचित्ततया प्रोक्तः, इह तु सर्वोत्कृष्ट कन्धादधोवर्ति एवा. चित्तस्कघा उत्तरोत्तरोत्तरापेक्षया पूर्वपूर्वतरा अकृत्स्नरकस्यत्वेनोक्ता इयुभो दः॥५६॥ अपेक्षा से पूर्व २ का स्कंध अकृत ना कंध जानना चाहिये । यह अकृत्रनता तबतक चलती है कि जब तक कृतनता नहीं आती है।-द्विप्रदेशिक आदि स्कंध और समस्त और समस्त उ कृष्ट प्रदेशवाले स्कंध पहिले सामान्य रूप से अचित्त व हे गये हैं। पर तु इस अकृत्स्न्द्र य कंध के प्रकरण में सर्वोस्कृष्ट स्कंध से पहिले के ही कंध उत्तरोत्तर की अपेक्षा से अकृत्स्नस्कधरूप से कहे गये हैं। यही इन दोनों में भेद है
भावार्थ--त्रकारने इस सूत्रद्वारा अकृत नस्कन्ध का वरूप और अकस्तर कंध में तथा अचित्तस्कंध में क्या अन्तर है यह प्रकट किया है । आपेक्षिा अचित्त स्कन्धे की आरिपूर्णता का नाम अकृता है । यह अकृत नता द्विप्रदेशी आदि कधो में त्रिप्रदेशी आदि स्कन्धों की अपेक्षा आती है।
और यह आपेक्षिक अकृतानता तबतक मानी जाती है कि जबतक अन्त में कृरस्नता नहीं आ जाती है। इसके आते ही अन्त का स्कंध कृस्न होने से फिर आगे के लिये अकृत्स्नता की द्वारा रु जाता हैं। इस प्रकार कृनता તાની અપેક્ષાએ તેમાં અપરિપૂર્ણતા સમજવી આ અપરિપૂર્ણતાને કારણે જ તેમને અકૃમ્નસ્કન્ધ કહેવામાં આવ્યા છે. આ અકૃત્નતા ત્યાં સુધી ચાલુ રહે છે કે જ્યાં સુધી કૃનતા (પરિપૂર્ણતા) આવતી નથી.
દ્વિદેશિક આદિ સ્કન્ધ અને સમસ્ત ઉત્કૃષ્ટ પ્રદેશવાળા ને પહેલાં સામાન્યરૂપે અચિત્ત કહેવામાં આવ્યા છે. પરંતુ આ અકૃત્ન દ્રવ્યકધના પ્રકરણમાં સર્વોત્કૃષ્ટ સ્કન્ધથી આગળના સ્કન્ધને ઉત્તરોત્તરની અપેક્ષાએ અકૃત્નકન્વરૂપે કહેવામાં આવ્યા છે. એટલે જ અચિત્તસ્કન્ધ અને અકૃમ્નસ્ક ધ વચ્ચે તફાવત છે.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અકૃમ્નસ્થાના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે, તથા અકૃતનસ્કન્ય અને અચિત્ત સ્કન્ધ વચ્ચે તફાવત છે તે પણ પ્રકટ કર્યું છે. આપેક્ષિક અચિત્તસ્કન્ધની અપરિપૂર્ણતાનું નામ જ અકૃસ્નતા છે. ઢિપ્રદેશિક આદિ સ્કમાં ત્રિપ્રદેશી આદિ સ્કન્ધ કરતાં અકૃસ્નતા (અપરિપૂર્ણતા) રહેલી હોય છે. આ આપેક્ષિક અસ્નતાને સદૂભાવ રહે છે કે જયાં સુધી અને કૃ—તા (પરિપૂર્ણતા) આવી જતી નથી. આ પ્રકારે જ્યારે કૃનતા આવી જાય છે ત્યારે અન્તિમ ઔધ (ઉત્કૃષ્ટ પ્રદેશેવાળો સ્કલ્પ)કૃત્ન કન્ય થઈ જવાને કારણે ત્યારબાદ અસ્નિતાની ધારા અટકી જાય છે. આ રીતે કુરનરક કરતાં પહેલાંના કો
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अनुयोगचन्द्रिका टीका ५४ द्रव्य कन्ध निरूपणम्
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मूलम-से किं तं अगद द्वियख धे ? अणेगद वियख धें - तस्स चैत्र देसे अवचिए तस्स चेव देसे उवचिए, से तं अगदवियखंध सेत जाणयसरीरभवियसरीरवइरित दव्वखधो, से तं नी आगमओ दव्वखधे, तं तं दव्वखधे ॥ सू० ५४ ॥
छाया - अथ कोऽसौ अनेकद्रव्यस्कन्धः १ अनेकद्रव्यरसक-ध-तस्यैव देशोऽपचितः तव देशउपचितः । स एपः अनेव स्वधः स एष ज्ञाय कशरीरभ शरीरख्यतिरिक्तो द्रव्यस्यन्धः, स एष न े आगमतो द्रव्यस्कन्धः । स एष द्रव्यस्कन्धः ॥ ५४ ॥ टीका - - ' से किं तं' इत्यादि -
अथ कोसौ अनेकद्रव्यस्कन्धः १ इति शिष्वप्रश्नः । उत्तरमाह अनेकद्रव्यम्कन्धः - अनेक द्रव्यश्वासौ स्कन्धश्चेति कर्मधारयः स तु यपस्तथोच्यते ' तरस
:
से पहिले २ के स्कन्धों में पूर्व २ की अपेक्षा कृत्स्नता और उत्तर २ की अपेक्षा अकृत्स्नता सापेक्षिक सघ जाती है । अत के कृत्स्नस्कंध में कृत्स्नता सापेक्षिक नहीं है किन्तु स्वाभाविक होती है । अचित्त द्रव्यसन्ध में द्विप्रदेशी आदि समस्त अचित्त स्कंधों में सामान्य रूप से अचित्तता प्रकट की गई है और अकृत्स्नस्कंध में सर्वोत्कृष्ट स्कंध से पहिले पहिले के स्कंधों में अपरिपूर्णता । इम प्रकार इन दोनों में अन्तर वहा गया है | सूत्र ५३ ।। अब सूत्रकार अनेक द्रव्यस्कंध को कहते हैं" से किं तं" इत्यादि । ॥ ५४ ॥
માં તેમના પૂર્વ પૂર્વના (આગળ- આગળના) સ્કન્ધાની કરતાં કૃત્સ્નતા અને ઉત્તરોત્તર (પાછળ–પાછળના) સ્કન્ધાની અપેક્ષા અકૃત્સ્નતા સાપેક્ષિક રીતે ઘતિ થઈ જાય છે. અન્તિમ કૃત્સ્નસ્કન્ધમાં કૃનતા સાપેક્ષક હોતી નથી, પણ સ્વાભાવિક હાય છે, કારણ કે તેના કરતાં માટે કોઈ સ્કન્ધ જ હેાતા નથી, પણ તેના કરતાં નાન તેની આગળના સ્કન્ધા હાય છે.
અચિત્ત દ્રશ્યસ્કન્ધમાં-દ્વિપ્રદેશી આદિ સમસ્ત અચિત્ત સ્કન્ધામાં સામાન્યરૂપે અચિત્તતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. અને કૃત્સ્નસ્કન્ધમાં સર્વોત્કૃષ્ટ રકન્ધથી આગળના (પહેલાંના) સ્કન્ધામાં અપરિપૂર્ણતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. આ પ્રકારનું તે બન્ને વચ્ચેનું અંતર (તફાવત) કહેવામાં આવ્યું છે. ! સૂ॰ ૫૩ ॥
હવે સૂત્રકાર અને દ્રવ્યસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે. 'से किं तं अगद वियस्त्र घे" धत्याहि
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૨૩૨
अनुयोगद्वार
,
चेव' इत्यादिना । तग्यव = स्कन्धस्यैव यो देश : = नखदन्तकेशादिलक्षणो भागः अपचितः=जीव प्रदेश र्विरहितो भवति तथा तस्यैव= स्कन्धस्यैव यो देश :- पृष्ठो दरकरचरणादिलक्षणो भाग उपचितः = जीव दशव्र्व्याप्तो भवति, सोऽनेकद्रव्यम्वन्धी बोध्यः । अयं भावः तयोर्यथोक्त देश यो विंइि. टेक. परिणामपरि तयो र्यो देहाख्यः समुदायः सोऽनेकद्रव्यरु कन्धः, सचेतनाचेतनानेकद्रव्यात्मकत्वादिति । अयमनेक द्रव्यस्कन्धः सामर्थ्यात्तुरगादिस्कन्ध एव प्रतीयते ।
ननु तर्हि कृत्स्नस्कन्धादस्य को विशेषः ? इति चे दुच्यते - कृत्स नस्कन्धस्तु शब्दार्थ - ( से किं तं .. .द.वि. खधे) हे भदन्त ! अनेक द्रव्यस्कंध का क्या स्वरूप है | ( अणे गदवियखंधे) उत्तर - अनेक द्रव्यस्कंध का स्वरूप जैसा है - वैसा - हम कहते हैं (तस्स चेत्र देसे अवचिए तम्स चैव देसे उवचिए) स्कंध का जो नख वेश दन्त, आदिरूप भाग है, वह अपनित - जी प्रदेशों से रहित - होता है, तथा उसी स्कंध का जो पृष्ट, उदर, कर, चरण आदिरूप भाग है, वह उपचित - जी प्रदेशों से व्याप्त रहता है ( से तं अणेगदवियखंधे) वह अनेक द्रव्यस्कंध है । इसका तात्पर्य यह है कि इन दोनों भागों का कि जो एक विशिष्ट आकार में परिणत रहते हैं. देहरूप समुदाय अनेक द्रव्यस्क है ।
क्योंकि यह समुदाय सचेतन और अचेतनरूप अनेक द्रव्यात्मक है | यह अनेक द्रव्यद्रस्कध सामर्थ्य से तुरगादिकध - हयादिस्बंध ही प्रतीत होता है। शंका- जब यह अनेक द्रव्यस्कंध हयादिकधरूप प्रतीत होता है तो शब्दार्थ (से किं तं अणेगद वियख दे ?) शिष्य गुइने सेवा प्रश्न रे દ્રવ્યન્કન્ધનું સ્વરૂપ કેવું છે?
છે કે હું ગુરૂ મહારાજ! અનેક
उत्तर---
-- ( अगदवियखं घे) अनंत द्रव्यन्धनु स्व३५ मा प्रभार ४ छे( स चैव देसे अवचिए तस्स चेव देसे उवचिए) २४न्धनो के नाम, ईश, हांत આદરૂપ ભાગ હોય છે તે અપચિત-જીવપ્રદેશેામાંથી રહિત-હેાય છે, તથા એજ સ્કન્ધના જે પૃષ્ઠ, ઉદર, હાથ, પગ આદિરૂપ ભાગા છે તેએ ઉપચિત-જીવ પ્રદેશેાથી व्याप्त-२ छ. (से त अणेगदवियख धे) मा प्रहार मनेय द्रव्यन्धनु स्व३५ છે. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે તે બન્ને ભાગા (અપચિત અને ઉપચિત ભાગે) કે જે એક વિશિષ્ટ આકારે પરિણત થઇને તેમના જે દેહરૂપ સમુદાય બને છે તેને અનેકદ્રયસ્કન્ધ કહેવામાં આવે છે કારણ કે તે સમુદાય સચેતનરૂપ અને અચેતન રૂપ અનેક દ્રવ્યાત્મક હોય છે. આ અનેક દ્રવ્યસ્કન્ધ તુરગાદિસ્ક ધ (અન્વાદિસ્ક )
સમાન જ લાગે છે.
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अनुषांगचन्द्रिका टीका सूत्र ५४ अनेकद्रव्यस्कन्धनिरूपणम्
२३३ जीवप्रदेशानुगतो यावान् देशस्तावानेव विवक्षितो न तु जीवप्रदेशाव्याप्तन खादि सहितः, अत्र तु नखादि सहितोऽपि अनेकद्रव्यस्कन्धत्वेन विवक्षितः।
ननु पूर्वोक्त मिश्रस्कन्धादस्य को विशेषः ? इति चेदुच्यते- पूर्वत्र पृथगपृथगवस्थितानां रचेतनानां हस्त्यादीनामचेतनानां कवचादीनां च समूहत्वेन परिकल्पनया मिश्रस्क. धत्वम्, अत्र तु विशिष्ट परिणाम परिणतानां सचेतनाचेतनद्रव्याणामनेकद्रव्यस्कन्धन्वम्, इत्यनयोर्विशेषः । मूले 'तस्स' शब्देनात्र प्रकरणस्वारस्यात् सन्यमात्रं विवक्षितम् । सम्प्रति प्रकृतमुपसंहतु माह से तं' इत्यादि । स एषः फिर स्कंध से इसमें अंतर क्या है ?
उत्तर - कृत्स्नस्कंध में तो जीव के प्रदेशों से व्याप्त जितना शरीरावयवरूप देश है वही विवक्षित हुआ है, जीवप्रदेशों से अव्याप्त नखादि सहित प्रदेश नहीं । परन्तु इस अनेक द्रव्यस्कंध में नखादि सहित भी देश अनेकद्रव्यस्कंधरूप से विवक्षित हुआ है।
शंका- तो फिर मिश्र व्यस्कन्ध से इ में क्या विशेषता आई ? उत्तरमिश्रद्रव्यस्कन्ध में पृथक् और अपृथकरूप से व्यवस्थित हुए हस्ती आदिको के समुदाय को मिश्रस्कंधरूप से कहा गया है, परन्तु उस अनेक द्रव्यस्कंध में विशिष्ट परिणामरूप से परिणत हुए सचेतन अचेतन द्रव्यों को अनेक द्रव्य रूप से कथित किया गया है । यही न दोनों में विशेषता है 1 मूलमें "रस" शब्द यहां पर प्रकरण की स्वरसता से स्कंध मात्र विवक्षित हुआ है। अब इस प्रकरण का उपसंहार करने के निमित्त सूत्रकार कहते हैं
શકા—જો આ અનેક દ્રવ્ય ન્ય યાદિસ્કસ્વરૂપે જ प्रतीत थाय छे, तो તેમાં કૃત્સ્નસ્કન્ધ કરતાં શી વિનિા ઇં?
ઉત્તર-કૃસ્તષ્કન્ધમાં તેા જીવના પ્રદેશોથી વ્યાસ જેટલા શરીરાયવરૂપ દેશ (મશ-ભાગ) છે; તેની જ વિવક્ષા થઇ છે, વપ્રદેશેથી અન્યાસ નખાદિ સહિત ના પ્રદેશે.ની વિવક્ષા થઈ નથી. પરંતુ આ અનેક દ્રવ્યરકન્ધમાં તે નખાદિ સહિત જીવપ્રદેશેાથી વ્યાપ્ત શરીરાયવરૂપ દેશની અનેક દ્રવ્યસ્કન્ધરૂપે વિવક્ષ થઇ છે,
શંકા—મિશ્ર દ્રવ્યસ્કન્ધ કરતાં અક દ્રવ્યસ્કન્ધમાં શી વિશિષ્ટતા છે ?
ઉત્તર—મિશ્ર દ્રવ્યસ્કન્ધમાં પૃથક્ અને અપૃથરૂપે વ્યવસ્થિત થયેલા હાથી આદિ સચેતન પદાર્થોના અને કવચ, તલવાર દ અચેતન પદાર્થાના સમુદાયને મિશ્રસ્કન્ધરૂપ હેવ માં આવ્યો છે. પરંતુ આ અનેક દ્રવ્યસ્કન્ધમાં વિશિષ્ટ પરિણામ રૂપે પરિણત થયેલા સર્ચન અચેતન દ્રવ્યેને અહંકદ્રવ્યસ્કન્વરૂપ કહેવામાં આવેલ *छे, भेटखेो न मे जन्नेव ताव है. भूणभा " तस्स" शब्द वडे अड अ રણુની સ્વરસતાની અપેક્ષાએ રકધ માત્ર વિક્ષત થયેલ છે. હવે આ પ્રકરણને
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२३४
___ असुयोगकारले अनेकविधो द्रव्यस्कन्ध इति । ज्ञायकशरीरभन्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसन्धो निरूपित इति सूचयितुमाह-से तं' इत्यादि । स एष ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरित्तो द्रव्यस्कन्ध होत । नो आगमतो द्रव्यस्कन्धो निरूपित इति दूधयितुमाह-'से तं' इत्यादि । स एष नोआगमतो द्रव्यस्कन्ध इति । द्रव्यस्कन्धोऽपि निरूपित इति सूचयितुमाह-'से तं' इत्यादि । स एष द्रब्यस्कन्ध इति।५४।
अथ भावसन्धं निस्पयितुमाह
मूलम्-से कि तं भावखंधे ? भावखंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा आगमओ य नोआगमओ य ॥ सू० ५५ ॥ ____ हाया-अथ कोऽसौ भावरकन्धः १ भावस्कन्धे विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा आगमतच नोआगमतश्च ॥ ५५॥ कि (से तं अणेगदवियखधे) इस प्रकार यह अनेकविध द्रव्य कंध है । (से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दरखधे-से तं नो आगमओ दव्वखंधे, से तं दवखंधे) इस प्रकार से ज्ञायकशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्त द्रव्यस्कंधका निरूपर समाप्त हुआ-और इसकी समाप्ति से नोआगम की अपेक्षा लेकर द्रव्याकंध का कथन भी पूर्ण हुआ इसकी पूर्णता से द्रव्यस्कंध निक्षेप का स्वरूप विषयक वर्णन भी पूर्ण हो चुका । ।सूत्र ५४॥
अब सूत्रकार भाव कध का निरूपण करते हैं
"से किं तं भावखधे" । इत्यादि ॥मूत्र ५५॥ शब्दार्थ--(से कि त भावख धे) हे भदन्त । भावस्कंध का क्या स्वरूप है ? ७५२ ३२१॥ निमित्ते सूत्रा२ ४१ छ -(से तं अणेगदवियख धे) मा ४. २नु भने ४२०५२४-५ २१३५ छे. (से तं जाणयसरीर, भवियसरीरवइरित्ते दव्वखंधेसे त नोआगमओ दव्वखंधे, से तं दव्वखंधे) मा रे शाय४०१२ भने ભવ્યશરીર વ્યતિરિત દ્રવ્યસ્કન્ધનું નિરૂપણ અહીં સમાપ્ત થાય છે. તેના નિરૂપણની સમાપ્તિ થવાથી ને આગમદ્રવ્યસ્કન્ધના બધા ભેદના નિરૂપણની પણ અહીં સમાપ્તિ થઈ જાય છે, આ રીતે આગમદ્રવ્યસ્કન્ધનું નિરૂપણ સમાપ્ત થઈ જવાથી દ્રવ્યસ્કલ્પનિક્ષેપના સ્વરૂપ વિષયક કથન પણ અહીં પૂરું થઈ જાય છે. પ૦ ૫૪
હવે સૂત્રકાર ભાવસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે– से किं तं भावलंधे ?" त्या
सम्वार्थ-( किं तं भावस्त्र धे) शिष्य गुरुने वो प्रश्न पछे छ । છે ગરુમહારાજ! ભાવકલ્પનું સ્વરૂપ કેવું છે?
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अनुयोगचन्द्रिकाटीका ५६ आगमतो भावस्कन्धनिरूपणम्
टीका-'से कि तं' इत्यादि-व्याख्या निगदसिद्धा ॥५५॥ अथ-आगमतो भावस्कन्धमाह--
मूलम्--से कि तं आगमओ भावखंधे? आगमओ भावखंधे जाणए उवउत्ते । से त आगमओ भावखंधे ॥सू०५६॥
छाया--अथ कोऽसौ आगमतो भावस्कन्धः १ आगमतो भावस्कन्धो ज्ञायक उपयुक्तः। स एष आगमतो भावस्कन्धः ॥५६॥
टीका--'से किं तं' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा ॥५६॥
उत्तर--(भावख धे दुविहे पण्णत्ते) भावस्कंध दो प्रकार का है (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(आगमओ य नोआगमओ य) एक आगम भावस्कंध और दूसरा नोआगम भावस्कंध । इसकी व्याख्या आगम भावावश्यक की व्याख्या जैसी ही जाननी चाहिये । ॥सू० ५५॥
अब सूत्रकार आगमभावस्कंध का कथन करते हैं"से किं त आगमओ" इत्यादि । ॥ सूत्र ५६ ॥
शब्दार्थ-(से कि त आगमओ भावबंधे १) हे भदंत ! आगम को आश्रित करके जायमान आगमभाव कंध का कया स्वरूप है ? (आगमओ भावखंधे जाणए उवउत्ते) उत्तर-आगम मो आश्रित करके स्कंध पदार्थ का उपयुक्त ज्ञाता आगम भावस्कंध है । (से तं वाममो भावख धे) यह आगम को
उत्तर-(भावखधे दुविहे पण्णत्ते) १२४.५ मे ॥२ ४ा छ. (तं जहां) ते । नीये प्रभारी छ-(आगमओ य नोभागमओ य) (१) मामा१४.५ અને (૨) આગમભાવસ્કન્ધ ભાવસ્કન્ધની વ્યાખ્યા ભાવ આવશ્યકની વ્યાખ્યા જેવી જ સમજવી | સૂ૦ પપ છે
હવે સૂત્રકાર આગમભાવસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે– “से किं तं आगमओ भावखधे?" त्या
थार्थ-(से कि त आगमओ भावनधे १) शिष्य गुरुने मेवा प्रश्न पूछे છે કે ગુરુ મહારાજ ! આગમને આશ્રિત કરીને જાયમાન એવા ગમભાવસ્કનું यु २१३५ छे ? ___उत्त२ (आगमओ भावखधे जाणए उवउत्ते) भागभने साधारे २४५५४ायना ७५युत (७५या परिणाम युत) ज्ञाताने मागम भा१२४.५ 3 छ. (से त आगमो भारलंधे) 2. ARD भागभने मालित ४शन भाममा84
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अनुयोगद्वारसत्रे अथ नो आगमतो भावस्मन्धमाह--
म्लम्-से किं तं नोआगमओ भावखंध ? नोआगमओ भावखंधे एएसिं चेव सामाइयमाइयाण छण्हं अज्झयणाणं समुदयसमिइसमागमेणं आवस्सयसुयखधे भावख धैत्ति लव्भइ । से तं नोआगमओ भावखधे, से त भावखचे ।सू० ५७॥
छाया--अथ योऽसौ नोआगमतो भावस्वन्धः १ नोआगम्तो भावस्कन्धः एतेषामेव सामायिकादीनां पण्णामः ययनानां समुदयसमितिसमागमेन आवश्यकश्रुतस्कन्धा भावस्कन्ध इति लभ्यते । स एप नोआगमतो भावस्कन्धः । स एन भाव कन्धः ॥५७॥
टीका--शिष्यःपृच्छति-से किं तं' इत्यादि-अथ कोऽसौ नोआगमतो भावस्कन्धः ? इति । उत्तरमाह-को आगम्तो भाव कन्ध एवं विज्ञेयः-एतेषांप्रस्तुतानामेव सामायिकादीनां पम् अध्ययनानां समुदयसमितिसमागमेन
आश्रित करके आगम भावस्कंध का स्वरूप है। इसकी ख्या आगमभावावश्यक प्रतिपादक मूत्र की व्याख्या जैसी जाननी चाहिये । ॥मत्र ५५॥
अब सूत्रकार नोआगम को आश्रित करके भावस्कंध का स्वरूप कहते हैं-- “से किं त नोआगमओ इत्यादि । ॥सूत्र ५७॥
शब्दार्थ--(से किं तं नोआगमओ भावख धे) हे भदन्त । नोआगम से भावस्कंध क्या है। (नो आगमओ भावख धे) नो आगम से भावस्कंध ऐसा है-(एएसिं चेव सामाइयमाइयाणं छहं अज्झयणाणं समुदयसमिई समागमेणं સ્વરૂપ છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા આગમભાવાવશ્યકનું પ્રતિપાદન કરનારા સૂત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે જ સમજવી. સૂઇ પદા
હવે સૂત્રકાર ને આગમ ભાવસ્કન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે
“से कि त नोआगमओ भावखधे" त्यादि
शार्थ--(से किं त नोआगमओ भावनधे ?) शिष्य ४३ने को प्रश्न પૂછે છે કે હે ગુરુ મહારાજ ! નોઆગમને આશ્રિત કરીને જે ભાવસ્કન્ધ કહ્યું છે
તે આગમભાવસ્કલ્પનું સ્વરૂપ કેવું છે? उत्तर-(नोआगमओ भावन धे) नोमामला१२४-धनु २५३५ मा प्रा२नु छ.
(एएसिं चेव सामाश्यमाइयाणं छह अज्झयणाणं समुदयसमिई समागमेणं अवस्सयसुयखंधे भावनध त्ति लब्भइ) ५२२५२ प्रस्तुत प्ये सभा
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अनुगोगन्द्रिकाटीग. ५७ नोआगमतो भाव कन्धनिरूपणम्
२३७ समुदयस्य आवश्यकादि षडध्ययनसमुदायस्य या सभितिः-नर तर्येण मीलनं तम्याः समागमः परस्परं संबद्धता एोपयोगस्तन निष्पन्नो य आवश्यकश्रुतम्कन्धः स भावस्कन्ध इति लभ्यते भवति । अयं भावः-परस्परसम्बद्धसामायिकादिषडध्ययनसमृहनिप्पन्नआवश्यकश्रुताकाधः सदोरकमुखवस्त्रिका रजोहरणादिव्यापारलक्षणक्रियायुक्ततया विवक्षिता नोआगमतो भावरकन्धः। स्कन्धपदार्थ ज्ञानत्वागमः । तदुपयोगो भावः, किया नोआगमः। क्रियालक्षणस्य देश या नागमत्वाद् नो शदोऽत्र देः निषेधपणे बोद्धव्य इति । पृथगुभूतानामपि सामायि का द पडध्ययनानां स्क.धः स्यादत उक्तम्-'समुदयसमिइ' इति । समुदयसमिअवस्सय सुरखधे भावखधे तिलब्भः) आ मा में परस्पर प्रस्तुत हुए सामायिक आदि छह अध्यानों के निरन्तर सेवन से जो आत्मा में एक उपयोगम्प परिणाम उत्पन्न होता है, उस परिणाम से निष्पन्न आवश्यक श्रुतस्कंधभावस्कध है। तात्पय इसका यह है-परस्पर में संबद्ध हुए सामायिक आदि छह अध्ययनों के । मूह से निष्पन्न हुआ आवश्यक श्रुत कध, भदोरकमुखवस्त्रिका रजो हरण आदि व्यापाररूप क्रिया से सहित नब विवक्षित होता हैतब वह नोआगम बंध है। स्कंध पदार्थ का ज्ञान आगम है । और उस आगम में हुआ ज्ञाता का उपयोग भाव है । तथा रजोहण आदिरूप जो क्रिया है. ह नोआगम है । इस तरह द्रियारूप एक देश में अनागमता होने से नो शब्द यहां देशनिषेध परक. जानना चाहिये । सूत्रकार "समुदयसमिइ” पद का "आवश्यक आदि छह अध्ययनों के समूह का निरन्तर मिलना" यह अर्थ है तथा "माराम" का पटप्रदशीग्ध की तरह आवश्या.श्रुतःकध का યિક આદિ છ અધ્યયનના નિરંતર સેવનથી આત્મામાં જે એક ઉપયાગરૂપ પરિફામ નિષ્પન્ન (ઉત્પન્ન) થાય છે, તે પરિણામથી નિષ્પન્ન (જયમાન) આવશ્યક શ્રતકંધનું નામ ભાવકન્ય છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-પપરની સાથે સંબદ્ધ થયેલા એવા સામાયિક આદિ છ અધ્યયનના સમૂહથી નિષ્પક્ષ થયેલે આવશ્યક શ્રતસ્ક, સદરક મુહપત્તી રજોહરણ આદિ વ્યાપારરૂપ ક્રિયા સહિત જ્યારે વિવક્ષિત થાય છે, ત્યારે તે આગમભાવરકરૂપ બની જાય છે. સ્કન્ધ પદાર્થના જ્ઞાનને આગમરૂપે, તથા તે આગમમાં જ્ઞાતાના ઉપયોગરૂપ પરિણામને ભાવરૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તથા રજોહરણ આદરૂપ જે ક્રિયા છે તેને આ ગમ કહી છે. આ રીતે ક્રિયારૂપ એક દેશમાં અનાગમતા હોવાથી “ના” શબ્દ અહીં शिनिषेधनु संयन ४३ छ, सेभ सभा. मात्र "समुदय समीइ" मा પદને “સામાયિક આદિ છ અધ્યયને નું નિરન્તર મળવું” એવો અર્થ થાય છે, . "समागम" मा पहना “७ प्रदेशी २४.५नी म आवश्य४ त२४-५नु
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अमुयोगद्वारखो तिस्तु नैरन्तय विस्थापितलोहशलाकानामिव परस्परमिर पेक्षाणामपि स्यादत आह'समागम' इति । षट्प्रदेशिकस्काधवत् एकीभूतोयमावश्यक श्रुतम्बन्धः। प्रकृतमुपसंहरन्नाह-सोऽसौ नोआगमतो भावस्कन्धः, इति । भावस्कन्धः सर्वतोऽपि निरूपित इहि मृचयितुमाह-सोऽसौ भावस्कन्धः, इति ॥१० ५७ आत्मा में एकरूप होना" यह है। इस तरह सूत्रकारने इस समागमपद से यह स्पष्ट किया है कि नैरन्तर्य रूप में अवस्थापित लोह शलावाओ के समान प'सर निरपेक्ष सामायिक आदि षड आवश्यकों की समुदयसमिति नोभागम मे भावस्कंध नहीं है। (से तं नोआगमओ भावखधे) इस तरह यह नोआगम से भावस्कंध है। (से तंभारखधे) इस प्रकार भावसकंध का वर्णन किया।
भावार्थ--मूत्रकारने इस सूत्र द्वारा नोआगम को आलित करके भावस्कंध का स्वरूप प्रकट किया है। इसमें उन्होंने यह कहा है कि परस्पर संश्लिष्ट सामायिक आदि छह अध्यानों के निरन्ता सेवन करने से जो आन्मा में तल्लीनता होनेरूप उपयोग परिणाम होता है और उस परिणाम से जो आवश्यक श्रुतस्कंध निष्पन्न होता है उसका नाम भाव स्कंध है। यही भावस्कंध जब सदोरकमुखरस्त्रिका आदि व्यापाररूप क्रिया से विवक्षित किया जाता है। तब वह नोमागम भावस्कंध हैं। स्कंध पदार्थ का ज्ञान आगम उसमें ज्ञाता का उपयोग भाव और जो रजोहरण आदि द्वारा किं આત્મામાં એકરૂપ થવું', એ અર્થ થાય છે. આ રીતે સૂત્રકારે આ સમાગમ પદના પ્રયોગ દ્વારા એ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે નિરાય રૂપે અવસ્થાપિત લેહશલાકાઓની લેઢાની સળીઓની) જેમ પરસ્પર નિરપેક્ષ સામાયિક આદિ છે આવશ્યअनी समुध्यसमिति नमागमती अपेक्षा सा१२४५ नथी. (से तं नोआगमओ भावन धे) नामासमनी अपेक्षा मा१२४.धनु मा ५४२ २१३५ छे. (से तं भावख धे) मा शत भा१२:न्धना मन्ने महानु qणुन मी समास थाय छे.
ભાવાર્થ--સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આગમને આશ્રિત કરીને ભાવસ્કના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે. તેમાં તેઓએ એ વાત પ્રતિપાદિત કરી છે કે પરસ્પર સંશ્લીટ (સંબદ્ધ) સામાયિક આદિ ૬ અધ્યના નિરન્તર સેવનથી આત્મામાં જે તલ્લીન તા થવા રૂપ ઉપગ પરિણામ થાય છે અને તે પરિણામથી જે આવશ્યકશ્રુત સ્કન્ય નિષ્પન્ન થાય છે, તેનું નામ ભાવસ્કન્ધ છે. એજ ભાવકજને જયારે સદે - મક મહત્તી રજોહરણ આદિ વ્યાપારરૂપ ક્રિયાથી વિવક્ષિત કરવામાં આવે છે, ત્યારે તે આગમભાવસ્કંધ કહેવાય છે. સ્કન્ધ પદાર્થના જ્ઞાનનું નામ આગમ છે, તેમાં જ્ઞાતાના ઉપગ પરિણામનું નામ ભાવ છે, અને જે રજોહરણ આદિવડે થતી દિવ્યા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका.सू० ५८ स्कन्धपर्याय निरूपणम् इदानीं स्कन्धस्य पयान् विवक्षुराह
मूलमू-तस्स णं इमे एगट्रिया णाणाघोसा णाणावंजणा एगट्रिया नामघेजा भवंति, त जहा-गणकाए य निकाए, ग्वधे वग्गे तहेव रासी य । पुंजे पिंडे निगरे, संघाए ओउलसमूह ॥१॥ से त खंघे ॥ सू० ५८॥
छ.या-ताय खलु इमानि एर्थिन नाना पाणि नानाव्यञ्जनानि एकार्थिवानि नामधेयानि भवन्ति, तद्यथा-गणःकायश्च निकायः साधे। दर्गस्तथैव राशिश्च । पुनःपिण्डो निकरः संघात आकुलः समूहः ॥१॥ स एप स्कन्धः ॥५८॥ जानेवाली प्रमार्जना आदि क्रियाएँ हैं वे नोआगम हैं। यहां नो शब्द सर्वथा आगमाभाव का निषेधक नहीं हैं किन्तु एकदेश आगम का निषेधक है ? स्कंध पदार्थ का ज्ञान आगम और क्रिया अनागम नोआगम है। यह नोआगम को लेकर भावस्कंध का स्वरूप है।मत्र५७।
अब सूत्रमार स्कंध की पर्यायो या कथन करते हैंतरसणं इमे एगठिया इत्यादि ! ॥मत्र ५८॥
शब्दार्थ--(तम्स) इस स्कंध के (इमे) ये (णाणाघोमा) उदान आदि नाना घोपवाले (णाणावंजणा) ककार आदि अनेक व्यंजन वाले (एगटिया)-- एकाकि पर्यायवाची (नामधेज्जा भवंति) नाम हैं । (तं जहा) जो इा प्रकार से हैं-(गणकाए य निराए ग्वंधे, वग्गे नहेब गमी ॥ पुंजे पिंड निगरे संधाण आउलसमृहे ॥१॥ से त खघे) गणकाय, निकाय, बंध, वर्ग, गशि, पूज,
ઓ છે તે આગમ છે. અહીં ન’ શબ્દ સર્વથા આ માભાવના નિધધક નથી, પરનું એક દેશતઃ આગમને નિષેધક કે. સ્કન્ધ પદાર્થનું જ્ઞાન આગમરૂપ છે અને ક્રિયા અનાગમ-આગમરૂપ છે. આગમભાવસ્કર્ધાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. સુપછા
હવે સૂત્રકાર સ્કન્ધના પર્યાયવાચી શબ્દનું કથન કરે છે
"तस्स णं इमे एगट्रिया" त्याह
शहाय---(तास) ते २४-धना (इम) मा (णणो घोला) हात मा विविध घ mi (णाणावंजणा) ४४॥२ ll भने ०५/qui (एगट्टिया) मे . पर्यायवाची (नामघेज्जा भवंति ना ह्या छ. (तं जहा) में नामानीय प्रमा(गणकाए य निकाए खधे, वग्गे नहेव रासीय पुंज पिंड निगरे, ग्वंगण आउल समूहे ॥॥ से तं खंधे) , आय, निय, २४.५, ५५, राशि, पु, ष,
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अनुयोगद्वारसूत्रे टीका'तस्स णं' इत्यादि
तम्य-स्कन्धस्य खलु इमानि-वक्ष्मामानि एकाधिकानि नानापाषाण नानाव्यञ्जनानि नामधेयानि भवन्ति । तद्या-गण'-मल्लादिगणवद् गणः,कायः= पृथिवीकायादिवत्कायः, निकायः-पड्जीवनिकायवनिकायः, स्कन्धः द्विप्रदेशिका दिस्कन्धवत् स्कन्धः, वर्गः: गोवर्गवद् वर्गः, राशिः-शालिधान्यादिवढाशिः, पुञ्जःविप्रकीर्णपुजीकृतधान्यादिवत् पुजः, पिण्ड:-गुडादि पिण्ड वत् पिण्डः, हिरण्यद्रव्यादिनिकम्वद् निकरः, सङ्घानः-महोत्सवादि साम्मलितमनसद्धातवत् ससातः, पिण्ड, निकर, संघात, आकुल और समूह ! ये जो गण से लेकर समूह तक के शब्द है, वे भावन के बार. पर्याय है। ऐसा जानना चाहिये। एकाधिक आद पदों की व्या या पहले की तरह जानी चाहिये । इस प्रकार से यहां तक स्कंध के स्वरूप का वर्णन मुत्रमारने व या है।
जिस प्रहार मल्ल आदिकों का गण होता है उसी प्रकार से कंध भी अनेक परमाणुओं का संश्लिष्टरुप ए परिणाम होता है इसलिये इस का नाम गण हैं। पथिवीका : आदि के रमान यह स्कंध काय है : षट्जीव निकाप की तरह यह कंध निकाय है । द्विप्रदेशि आदिस्कंध केजैसा यहस्कंध है। गोवर्ग ी तरह ह वरूप है। शालिबाना आदि की तह यह राशिरूप है ।-फैलार को ये गये धान्यादी भी तरह यह पुंजरूप है। गुड
आदि के पिण्ड की तरह रह पिंडरूप है। चांदी आदि के समूह की तरह નિકર, સંઘાત, આકુલ અને સહ આ જે ગણથી લઈને સમૂહ પર્યન્તના શબ્દો છે તે ભાવસ્કર્ધાના વાચક છે, એમ સમજવું. એકર્થિક આદિ પદોની વ્યાખ્યા આગળ કહ્યા અનુંસાર સમજવી આ પ્રકારે સૂત્રકારે અહીં સુધી ધના સ્વરૂપનું વર્ણન કર્યું છે. અહી સ્કાનું વર્ણન પૂરું થાય છે.
હવે આ ગણ આદિ પદોને અર્થ સમજાવવામાં આવે છે
“ગણુ”-જેમ મેલ આદિનું રણ હોય છે એજ પ્રમાણે સ્કન્ધ પણ અનેક પરમાણુઓના એક સંક્ષિણ પરિણામરૂપ હોય છે, તેથી તેનું નામ ગણ પડયું છે.
"4"-पृथ्वी४.५ महिनी ॥ २४.५ ५३५ छे. “નિકાય”—પટજીવનિકાયની જેમ આ ધ નિકાયરૂપ છે. “કંધ”—દ્ધિપ્રદેશિક આદિ સ્કંધની જેમ તે સ્કધરૂપ છે. "al"- पाम ते २४.५३५ छ. "शशि" शातिधान्य (2) साहिनी म त शि३५ छ. “પુંજ” એકત્ર કરેલા ઘા પુંજની જેમ તે પુંજરૂપ છે. “પિંડ” ગોળ આદિના પિંડની જેમ તે પિંડરૂપ હોય છે.
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अनुयोगचन्द्रिकाटीका ५९ आवश्यकस्य षडध्ययननिरूपणम्
२४१ आकुल:-राजगृहाङ्गणनाकुलवदाकुलः, समूहः-पुरादिजनसमूहवत् समूहः । एते गणादि समूहान्ताः शब्दा भावस्कन्धस्य वाचका बोध्याः। एवार्थिकादिपदानां व्याख्या पूर्ववद् बोध्या । सम्प्रति स्कन्धमुपसंहरन्नाह- स एष स्कन्ध इति॥५८॥ इत्थं मान्धाधिकार उक्तः, सम्प्रति आवश्यकस्य षड यानि विविन्तेमूलम्--आवस्सगस्स णं इमे अस्थाहिगारा भवंति, तं जहा
साव जजोगविरई, उकित्तण गुणवओ य पडिवत्ती। खलियस्त निंदणावणचिगिच्छा गुणधारणा चेव ।१।।सू०५९॥ छाया-ओवश्यकस्य खलु इमे अर्थाधिकारा भवन्ति, तद्यथा
सावद्ययोगविरनिः उत्कीर्तनं गुणवतश्च प्रतिपत्तिः ।
स्वलितस्प निन्दना व्रणचिकित्सा गुणधारणा चैव । सू० ५९॥ यह निकररूप है। महोत्सव आदि में सम्मिलित जनसमुदाय के समान यह संघातरूप है। राजगृह के आंगन मे हुए व्याप्त जनसमूहरूप यह आकुल है। पुर आदि के जन-मूह की तह यह समूहरूप है॥पुत्र ५८॥
स्कंध घिसार का कथनकर अब सूत्रकार आवश्यक के छह अध्ययनों का विवेचन करते हैं--'आवरसगास” इत्यादि । ॥त्र ५९॥
शब्दार्थ-हे भदन्त ! आवश्यक संबन्धी छह अध्ययन कौन २ से हैं ?
इस प्रकार से पूछे जाने पर सूत्रमार अधिकार को आश्रित करके उन अध्ययनों को कहते हैं-(आव गस इत्यादि) (आवरसगरस णं इमे
“नि४२" याही महिना समूडनी मते (४२३५ छे. “સંઘાત'. મહારાવ આદિમાં એકત્ર થયેલા જનસમુદાયની જેમ તે સંઘાતરૂપ છે.
“આકુલ” રાજગૃહ આદિના આંગણામાં જમા થયેલા વ્યાપ્ત જનસમૂહની જેમ તે આકુલરૂપ છે.
“સમૂહ પુર આદિના જનસમૂહની જેમ તે અમૃતરૂપ છે. જે સૂઇ ૫૮ છે
અધાધિકારનું વર્ણન પૂરું થયું, હવે સૂત્રકાર આવશ્યકના ૬ અધ્યયનનું (वयन रे छ- आवस्सग" -
શબ્દાર્થ-શિષ્ય ગુરુને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ગુરુ મહારાજ ! આવશ્યકના કયા ક્યા છે અધ્યયન છે?
ઉત્તર–આ પ્રકારના પ્રશ્નના ઉત્તર રૂપે સત્રકાર અર્થાધિકારનો આશ્રય લઈને ते अध्ययने हे छ-(आवरसगस्स णं इमे अस्थाहिगारा भवंति) अधिारने
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अनुयोगवारले टीका-'आवम्सगस्त णं' इत्यादि
आवश्यक सम्बन्धी नि षडयर नानि कानि ? इति तान्यर्थाधिकारमा श्रत्यो च्यन्ते-आवरसगस्स' इत्यादिना । आवश्यक य खलु इमे-वक्ष्यमाणा अर्थाधिपा:-अर्थेन अधिकाराः-अर्थमा श्रत्य प्रऽता भवन्ति, तद्यथा-सावधयोग विरतिः सामायिकलक्षणो प्रथमेऽध्ययने प्राणातिपातादि सर्वसावधयोगविरतिर
र्थाधिकारः ? उत्कीर्तनम-द्वितीये चतुर्दिशतिस्तवाध्ययने कर्मक्षर प्रधान कारणत्वात् लब्धबोधिविशुद्धि हेतुत्वात् पुनर्वोक्लिाभफलत्वात् सादद्ययोगविरत्युपदेशकत्वेनोपकारिवाच्च तीर्थ कृतां गुणोत्तीर्तनरूपोऽर्थाधिकारः२। तृतीये वन्दनाध्ययने गुणवतश्च प्रतिपत्तिः-गुणाः मूलोत्तर गुणरूपा व्रतपिण्डविशुद्धयादयो विद्यन्ते अत्याहिगारा भवंति) आवश्यक के ये वक्ष्यमाण अर्थाधिकार-अर्थ को आश्रित करके व.थन हैं। (त जहा) जो इस प्रकार से हैं-- _ (सावज्जजोगविरई उक्कित्तणं गुणवओ य पडिवत्ती । खलियस्स निदणा वणतिमिच्छा गुणधारणा चेव) सामारिकरूप प्रथम अध्ययन में, प्राणातिपात आदिरूप सर्व सावद्ययोग से विरति हे ना यह अधिकार है । द्वितीय चतुविशतिस्तवरूप अध्ययन में कर्मों के क्षय करने में प्रधानकारण होने से लब्धवोधिकी विशुद्ध से हेतु होने से, तथा पुनर्बोधि के लाभरूप फल की प्राप्ति में कारणभूत हं ने से और सावद्ययोग से विरति के उपदेशक होने के कारण अत्यंत उपकारी होने से, तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तनरूप अर्थाधिकार है, तृतीय वन्दनाध्ययन में मूलगुण और उत्तर गुणरूप व्रत, पिण्डविशुद्धि अथन माश्रित शन मापश्यनु नीय प्रमः ४थन छ. (तंजहा) छ अध्यय. નેમાં આ પ્રકારના અર્થની (વિષયની) પ્રરૂપણ કરી છે –
__ (सावज्जजोगविरई उविकत्तणगुणवओ य पडिवत्ती। खलियस्स निंदणावणतिगिच्छा गुणधारणा चेव) सामायि४३५ पडसा मध्ययनमा ३५ सावध
ગોની વિરતિનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. બીજા ચતુર્વિશતિસ્તવરૂપ (૨૪ તીર્થકરોના કીર્તનસ્તવનરૂ૫) જે અધ્યયન છે તેમાં તીર્થકરોની સ્તુતિ ગુણેના ઉત્કીર્તનરૂપ અર્થાધિકાર છે તે તીર્થકરોની રતુતિ કરવાનું કારણ નીચે પ્રમાણે છેકર્મોને ક્ષય કરવામાં પ્રધાન કારણભૂત હોવાથી, લબ્ધાધિની વિશુદ્ધિમાં કારણભૂત હોવાથી અને પુનર્બોધિના લાભરૂ૫ ફળની પ્રાપ્તિમાં કારણભૂત હોવાથી, સાયંધયોગામાંથી વિરતિના ઉપદેશક હોવાને કારણે અત્યન્ત ઉપકારી હોવાથી તીર્થકરોના ગુણની રતુતિ થવી જ જોઈએ. ૨૪ તીર્થંકરના ગુણોના ઉત્કીર્તનરૂપ અર્થથી સંપન્ન આ બીજું અધ્યયન છે. ત્રીજા વદણ ૨.૨ માં ૨ અને ૯ ૨ગુરૂપ વ્રત
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अनुयोगचन्द्रिकाटीका. ५९ आवश्यकस्य षडध्ययननिरूपणम् यस्य स गुणवांस्तस्य प्रतिपत्ति: बन्दनादिका कर्तव्या,-एरूपोऽर्थाधिका। च शब्दः पुनरर्थे ३॥ तथा-चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययने-स्खलितस्य साधुकत्याच्चलितस्य निन्दना-निन्दा कर्त्तव्या। अयं भावः-मूलोत्तरगुणेषु प्रमादाचीर्णस्य प्रत्यागतसंवेगस्य जन्तोविशुध्यमानाध्यवसायस्य अकार्य मद-मित्येवं रूपेण निन्दारूपोऽर्थाधिकारः ४। तथा पञ्चमे कार्योत्सर्गाध्ययन-व्रणचिकित्सा-व्रणस्य चिकित्सा-भैषज्यम् । अयं भाव:-चारित्ररूप पुरुषस्य योऽयमतिचाररूपो भावव्रणस्तस्य दशविधप्रायश्चित्तरूपा चिकित्सा कर्त्तव्येति, एवंरूपोर्थाधिकारः प्रोच्यते ५। तथा-षष्ठे प्रत्याख्यानाध्ययने-गुणधारणां-गुणानां मूलोत्तरगुणानां
आदि गुण जिसमें है ऐसे गुणवान् साधुको वन्दना आदि करनेरूप अर्थाधिकार है। चौथे प्रतिक्रमण अध्ययन में साधुकृत्य से स्खलित हुए की निन्दाकारने-अर्थात् अतिचारों की निग्रहणा करने आदिरूप अर्थाधिकार है। इसका भाव यह है कि जो साधु मूलगुणों एवं उत्तरगुणों में प्रमाद पतिततो हो रहा है, परन्तु बैराग्यभाव उसका नष्ट नहीं हुआ है, और परिणामा में जिसको विशुद्धि बढती रहती है-ऐसे उस साधु को “यह काम करने योग्य नहीं है" इस प्रकार का निंदारूप अधिकार है।
पांचवां जो कायोत्सर्ग नामका अध्यश्न हैं उसमें व्रण (फाडा) चिकिसारूप अर्थाधिकार है ता.पर्य इसका यह है कि चारित्ररूप पुरुष का जो अतिवाररूप भावत्रण है उसकी दश प्रकार प्रायश्चित्तरूप चिकित्साकरनी चाहिये ऐसा उसमें अर्थाधिकार है। तथा छठा प्रत्याख्यान नाम का जो પિંડ વિશુદ્ધિ આદિથી સંપન્ન હોય એવા ગુણવાન સાધુને વંદણુ આદિ કરવારૂપ અધિકાર છે. ચોથા પ્રતિક્રમણ અધ્યયનમાં સાધુકૃત્યથી ખલિત થયેલાની નિના કરવાને એટલે કે પોતાના દ્વારા જે આતચારેનું સેવન થઈ ગયું હોય તેની નિગ્રહણ આદિ કરવારૂપ અર્થાધિકાર છે. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે જે સાધુ મૂળગુણે અને ઉત્તરગુણની આરાધના કરવામાં પ્રમાદને કારણે દેશે કરતે હોય છે, પરંતુ તેને વૈરાગ્યભાવ નષ્ટ થયો નથી અને જેના પરિણામોમાં વિશુદ્ધિની વૃદ્ધિ જ થતી રહે છે, એવા સાધુ દ્વારા પિતાના દેશની આ પ્રકારે નિંદા કરાય છે. “આ કામ કરવા એગ્ય નથી, છતાં પ્રમાદને કારણે મારાથી એવું થઈ ગયું” આ પ્રકારની નિંદારૂપ અધિકારથી યુકત ચોથું અધ્યયન છે. (૫) પાંચમું કાગ નામનું અધ્યયન છે, તેમાં ત્રણચિકિત્સારૂપ અર્થાધિકારનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. એટલે કે ચારિત્રરૂપ પુરુષને અતિચારરૂપ જે ભાવત્રણ છે તેની દસ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્ત રૂપ ઈલાજે વડે ચિકિત્સા કરવી જોઈએ, એ વિષયનું તેમાં પ્રતિપાદન કર્યું છે. છ8 પ્રત્યાખ્યાન નામનું અધ્યાય છે. તેમાં મૂળગુણે અને ઉત્તરગને ધારણ કરવા
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___ अनुयोग रखने धारणा-प्रतिपत्तिः, एवं रूपोऽर्थाधिकारः प्ररूपयिष्यते । मूलोत्तरगुणाना निरति चारं सन्धारणं यथा भवात तथा प्रत्याख्यानाध्ययने प्ररूपयिष्यते इत्यर्थः ।। 'चैब' इति 'च' शब्दादन्येऽप्यवान्तराधिकारा विज्ञ याः। एवं' सदानधारणे वोध्यः। अध्ययन है। उसमें मूलगुण और उत्तागुणों को धारण करनेरूप अर्थाधिकार है। मूलगुण उतरगुणों को अतिचार रहित अच्छी तरह धारण करता है वेसी प्ररूपणा सूत्रकार प्रत्याख्यान अध्ययन में करेंगे। "च" शब्द से सूत्रकारने यह प्रकट किया है कि आवश्यक के और अवान्तर अर्थाधिकार हैं। "एव" शब्द अवधारण अर्थ में आया हैं।
भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्रद्वारा आवश्यक के छ अर्थाधिकारों को वर्णन किया हैं।(१) सामायिक (२) चतुर्विशतिस्तव, (३) वंदना, (४) प्रतिक्रामण, (५) वायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान । इन सर्व सावययोगों से विरक्त होना सामायिक अध्ययन में, चोवीस तीर्थंकरों की स्तुति करना द्वितीय चतुर्विशतिम्तव अध्ययन में, गुणवान साधु को वन्दना आदि करना वन्दनाध्ययन में साधुकृत्य से स्खलित हुए साधु को अपनी निंदा करना प्रतिक्रमग अध्ययन में, चारित्र में लगे हुए अतिचारों की दशविध प्रायश्चित से शुद्धि करना: र्योत्सर्ग अध्ययन में, मूलगुण और उत्तरगुणों को धारण करना प्रत्याख्यान अध्ययन में अर्थाधिकार हैं। ૩૫ અર્થાધિકાર છે. પ્રત્યાખ્યાન દ્વારા તે મૂળગુણ અને ઉત્તરગુણેને અતિચાર રહિત સમ્યફરૂપ ધારણ કરે છે, એવી પ્રરૂપણું સૂત્રકાર આગળ જતાં પ્રત્યાખ્યાન અધ્યયમાં કરશે. “a” શબ્દ દ્વારા સૂત્રકારે એ પ્રકટ કર્યું છે કે આવશ્યકના આ सिवायना मी पर भवान्तर अधि२ छ. "एव" मा ५६ अवधार અર્થમાં વપરાયું છે.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આવશ્યકતા છ અર્થાધિકારોનું વર્ણન કર્યું छ-(१) सामायि४ (२) यतुविशतिरत (२४ तीथ रानी २तुति), (3) ना, (४) प्रतिभ, (५) यस अन (6) प्रत्याभ्यान.
પહેલા અદયયનમાં સમસ્ત સાવધ થેગોથી વિરકત થવાને, બીજા અધ્યયનમાં ૨૪ તીર્થકરની સ્તુતિ કરવાને, ત્રીજા વંદના અધ્યયનમાં ગુણવાન સાધુને વંદણા આદિ કરવાને, ચોથા પ્રતિક્રમણ અધ્યયનમાં સાધુકૃત્યથી ખલિત થયેલા સાધુએ પિતાની નિન્દા કરવાને, પાંચમાં કાર્યોત્સર્ગ અધ્યયનમાં ચારિત્રમાં લાગેલા અતિચારોની દસ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્તોથી શુદ્ધિ કરવાને અને છઠ્ઠા પ્રતિક્રમણ અધ્યયનમાં મૂળગુણે અને ઉત્તરગુણેને ધારણ કરવાને અર્વાધિકાર છે. આગળ સરકારે આ प्रमाणे ४थन ज्यु -
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अनुवोमचन्द्रिका टीका.सू० ५९ आवश्यकस्य षडध्ययननिरूपणम् २४५
पूर्वम् 'अ.वस्मयं निविखविस्सामि, मुयं निक्खिविम्सामि, खधं निक्विविस्सामि, अज्झयणं निक्खिविस्सामि' इत्युक्तम् । तत्र-आवश्यकादीनि त्रीणि पदानि निक्षिप्तानि । अध्ययनस्य निक्षेपः सम्प्रति क्रमप्राप्तोऽपि न क्रियते । यतस्तस्य निक्षेपः वक्ष्यमाणनिक्षेपानुयोगद्वारे ओघनिष्पन्ननिक्षेपे करिष्यते।स०५९।
आधुनावश्यकरु य यद् व्याख्यातं, यच्च व्याख्येयं तदुभयमुपदर्शयन्नाहमूलम्--आवस्सयस्स एसो पिंडत्थो वणिओ समासेणं ।
एत्तो एकेक पुण, अज्झयणं कित्तइस्लामि ॥१॥ तं जहा-सोमाइयं, चउवीसत्थओ वन्दणयं पडिकमणं काउस्सग्गो पच्चरवाणं । तत्थ पढमं अज्झयण सामाइयं, तस्स ण इमे
पूर्व में आवम् निक्खि वेस्सामि. सुयं निक्विपिम्सामि, खंध नि.क्खविस्सा मि अझणं निक्खिविस्सामि" ऐसा सूत्रकारने कहा है सो इनमें से आवर क आदि तीन पद तो मृत्रकार द्वारा निक्षिप्त किये जा चुके । अब अध्यपन का निक्षेप क्रम प्राप्त है-सो क्रम प्राप्त होने पर भी उसका निक्षेप सत्रकार यहां नहीं कर रहे हैं क्यों कि वक्ष्पमाण निक्षेपअनुयोगद्वार में आघनिष्पन्न निक्षेत्र में वें उपका निक्षेप करेंगे। ॥ सूत्र ५९ ॥
अब सूत्रकार आवश्यक का जो विषय-व्याख्यात हो चुका है तथा आगे जो विषय व्याख्यात हो चुका है यह दिखलाते है:
आवम्सयस्स एसो इत्यादि । ॥ मूत्र ६०॥
शब्दार्थ-(आवस्सयस्स) आवश्यक इसनाम से प्रसिद्ध शास्त्र का (एसा) यह पूर्वोक्तरूप (पिण्डत्थो) पिण्डार्थ (समासेणं) संक्षेपसे (वण्णिओ) कहा है।
"आवस्सय निक्विविस्तामि, सुयं निविखवि सामि, खध निवि विस्सामि, अज्झयणं निविखविस्सामि"
આ કથન અનુસાર આવશ્યક, શ્રત અને સ્કધ આ ત્રણને નિક્ષેપ તે થઈ ચુ છે હવે અનુક્રમ પ્રમાણે અધ્યયનને નિક્ષેપ થવો જોઈએ. છતાં પણ સત્રકાર અહીં ક્રમ પ્રાપ્ત અધ્યયનને નિક્ષેપ કરતા નથી, કારણ કે આ વિષયને નિક્ષેપ અનુયોગ દ્વારમાં-ઘનિષ્પન્ન નિક્ષેપમાં તેઓ તેને નિક્ષેપ કરશે. . સ ૫૯
હવે સૂત્રકાર આવશ્યકને જે વિષય વ્યાખ્યાત થઈ ચુક્યું છે અને આગળ જે विषय व्याभ्यात पाना , त मताव छ. “आवस्सयम्स एसो" त्या:
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अनुयोगद्वार मुत्रे
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चत्तारि अणुओगदारा भवंति तं जहा उवक्कमे १, निक्खेवे २, अणुगमे ३, नए ४ ॥६०॥
छाया - आवश्यकस्य एप पिण्डार्थो वर्णितः समासेन । अत एकैकं पुनरःपयनं कीर्त्तयिष्यामि ॥ १ ॥
तद्यथा - सामायिक चतुर्विंशतिस्तवो बन्दनकं प्रतिक्रमणं कायोत्सर्गः प्रत्याख्यानम् । तत्र प्रथममध्ययनं सामायिकम् । तस्य खलु इमानि चत्वारि अनुयागद्वाराणि भवन्ति तद्यथा - उपक्रमो निक्षेपः अनुगमो नयः ॥ ६० ॥
तात्पर्य कहने का यह है - इस शास्त्र वा आवश्यकश्रुतस्कंध ऐसा नाम सार्थक है | अतः सार्थक नाम होने से अवश्य करणीय सावद्ययोगविरति आदि का प्रतिपादन सूत्रकार आगे करेंगे । ( एत्तो) इसलिये आवश्यक का संक्षेप से समुदाय अर्थ वर्णन करने के बाद ( पुणे ) पुनः (एकेक अज्झणं) एक एक अध्ययन का (कित्तसामि ) कथन में करूंगा। (त जहा ) वे अध्ययन इस प्रकार से हैं - ( सामाइयं चउवीसत्थओव दणयं पडिक्कम, काउर सग्गो पच्चक्खाणं) १ सामायिक, २ चतुर्विंशतिस्तव, ३ वन्दनक, ४ प्रतिक्रमण ५ कायोत्सर्ग ६, प्रत्याख्यान । (तत्थ पढमं असणं सानाइये) इन ६ अध्ययनो में से १ पहिला अध्ययन सामायिक है। समः आपः - समायः समायः प्रयोजनमस्येति सामायिकम् इस व्युत्पत्ति के अनुसार रागद्वेष से रहित ऐसा आत्मा का
',
शब्दार्थ - ( आवस्स यस्स) आवश्य आ नाभे असद्धि सेवा शास्त्रम (एसो) 241 yaisa uzaι (fazëî) lu'sıèî (¤¤¡ài) alguнi (qfò3⁄47) staнi આન્યા છે. આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે-આ શાસ્ત્રનું આવશ્યક શ્રત સ્કન્ધ' એવું નામ સાÖક છે. આ રીતે આ શાસ્ત્રનું નામ સા ક હેાવાથી, અવશ્ય કરણીય સાવદ્યયેાગ વિરતિ આદિનું પ્રતિપાદન સૂત્રકાર આગળ કરવાના છે. (ો) तेथी भावश्यम्ना समुदाय अर्थनु संक्षिप्तमां वर्षान उरीने (पुण) हवे (एकेकं अज्झयणं) थोड थोड अध्ययननुं (कित्तः स्सामि) वन डु उरीश, मेवु सुत्रर वयन आये छे. (तंजहा) आवश्यना ते अध्ययनानां नाम या प्रमाणे छे ( सामाइयं, चउवीत्थओ वन्दणय पडिक कमणं, काउस्सग्गो पच्चक्त्राणं) (१) सामायि, (२) अतु विशतिस्तव (२४ तीर्थ उरानी स्तुति) (3) बन्हन, (४) प्रतिभालु, (५) अयोत्सर्ग मने (१) प्रत्याख्यान. (तत्थ पढमं अज्झयणं सामाइन ) आछ अध्ययनोभां पडेसु સામાયિક નામનું અધ્યયન છે, જેના દ્વારા મેધ આદિકાના અધિક અધિક પ્રાપ્તિ थती रहे तेनु' नाम अध्ययन छे, "समः आयः = समायः समायः प्रयोजनमस्येति
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leनुयागचन्द्रिका टीका सूत्र ६० आवश्यक व्याख्यानं व्शख्येयस्य च निरूपणम् २४७ टीका- 'आवरस्यरस' इत्यादि -
आवश्यक 'य= आवश्य के ति नाम्ना प्रसिद्धस्य शास्त्रस्य एव : = पूर्वोक्तरूपः पिण्डार्थः=समुदायार्थः समासेन = संक्षेपेण वर्णितः = थितः । अस्य शास्त्रस्यावश्यक श्रुतस्कन्ध इति- अवर्थाम | नाम्नोऽन्वर्थत्वात् अवश्यं करणीयं सावद्ययोगविरत्यादिकं प्रतिपादयिष्यते इति - अभिप्रायः । उत्तरार्ध गाथाऽर्थमाह- अतः = आवकय संक्षेपेण समुदायार्थ वर्ग जानन्तर पुनः = भूयः एकैकम् अध्ययनं कीर्त्त - यिष्यामि = कथयिष्यामीति ।
एकैकमध्ययनं कीर्त्तयिष्यामीति प्रतिज्ञानुसारेण तन्निरूपयितुमाह'त जहा ' इत्यादि । तद्यथा - सामायिक चतुर्विंशतिस्तवो वन्दनकं प्रतिक्रमणं कायोत्सर्गः प्रत्याख्यानम् । तत्र - तेषु षट्सु अध्ययनेषु प्रथमम् = आद्यम् अध्ययनम् - अधि- अधिकम् अयनं प्रापणं बोधादेर्येन तदध्ययनम्, सामायिकम् - समः = रागद्वेषवियुक्तः स्वात्मवत्सर्वभूतेषु दृष्टिसम्पन्नस्तस्य आय: = प्रतिक्षणं ज्ञ नादि - गुणोत्वसमभाव परिणाम जो सर्वभूतों में स्वा-मवत् दृष्टे से संपन्न होता है उस नाम सम है । इस सम की जो आय प्राप्ति है - ज्ञानादिगुणोत्कर्ष के साथ लाभ है उसका नाम समय है । यह सम प्रतिक्षण अपूर्व भवाटवी में भ्रमण करने के कारणभृत संकेश भाव के विच्छेदक और निरूपम सुख के हेतु ऐसे ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप पर्यायां से जो संयुक्त हो जाता है उसका नाम समाय हैं यह समायशब्द का निष्कर्षार्थ है । यह समाय ही जिस ज्ञान क्रियारूप अध्ययन का प्रयोजन है उसका नाम सामायिक है । अथवा समाय एव सामायिकम् " समाय ही सामायिक है। इसका जो सबसे पहिले कथन किया है - उसका कारण यह है कि यह सामायिक समस्त चारित्रादि गुणांका आधार होने के का ण मुक्ति का प्रधान हेतु हैं। कहा हैं- जैसे सर्व सामायिकम् " मा व्युत्पत्ति रागद्वेषथी हित सेवा आत्मानुं सम्भाव३य परिणाम કે જે સર્વભૂતામાં સ્વાત્મવત્ દષ્ટિથી સપન હોય છે, તેનુ નામ ‘સમ’છે. તે સમની જે આય (પ્રાપ્ત) દે-જ્ઞાનાદિ ગુણાક રૂપ જે લાભ છે, તેનું નામ સમાય છે પ્રતિક્ષણુ અપૂર્વ ભવાટવીમાં ભ્રમણ કરાવવાને કારણભૂત સંકલેશ ભાવના વિચ્છેદક અને અનુપમ સુખના હેતુ એવાં જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપ પર્યાયાધી જે સંયુકત (સંપન્ન) થઈ જાય છે તેનું નામ સમાય છે. આ પ્રકારના સમાય' પદને નિષ્કર્ષા થાય છે. આ સમાય જ જે જ્ઞાન ક્રિયારૂપ અધ્યયનનું પ્રયાજન છે, तेनुं' नाभ सामायिक छे. अथवा - "समाय एव सामायिकम् " सभाय न सामायि४३ છે આ સામાયિકનું સાથી પ્રથમ કથન કરવાનું કારણ એ છે કે આ સામાયિક સમસ્ત ચારિત્રાદિ ગુણેાના આધારરૂપ હોવાથી મુકિતપ્રાપ્તિના પ્રધાન કારણરૂપ છે.
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जनुयोगिवार पंप्राप्तिः-समायः, समो हि प्रतिक्षणमपूर्वेःज्ञानदर्शनचरणपर्यायवाटवीभ्रमणहेतुसंक्लेशविच्छेदकै निरुपमसुखहेतुभिः संयुज्यते इति भावः, समायः प्रयोजनमाय ज्ञानक्रियासमुदायरूपस्वाध्ययमस्येति सामायिकम् । यद्वा-समाय एव सामायिकम् । समस्तचरणा दगुणारत्वेन प्रधानमुक्तिकारणत्वादस्य प्रथममुपन्याम। उक्तं च
“सामायिक गुणानामाधारः, स्वमिव सर्व भावानाम् । नहि सामायि हीनाश्चरणादि गुणान्विता येन ॥१॥ तामाजगाद भगवान् सामायिकमेव निरूपमापायम् । शारीरमासानेकदुःखनाशस्य मोक्षस्य ॥२॥” इति ॥
तस्यैवंभूतस्य सामायिकरय खलु इमानि वक्ष्यमाणानि च वारि अनुयोगहाण-अनुयोगः अध्ययनार्थकथनविधिस्तस्य द्वागणीव द्वाराणि-महापुरस्येव सामायिकस्यानुयोगार्थ व्याख्यानार्थ द्वाराणि-प्रवेशमार्गा भवन्ति । महानगरदृष्टान्तः पूर्व सप्तपञ्च उपदर्शितस्तत एव विज्ञेयः । भावों का आधार आत्मा होता है उसी तरह समस्त गुणों का आधार सामायिक है-सामायिक रहित पुरुष चारित्रादिगुणों से युक्त नहीं हो सकते हैं । इसलिये भगवान्ने शारीरिक मानसिक अनेक दुःखो के न शवाले मोक्ष का निरूपम उपाय सामायिकको ही कहा है। (तरस णं इमे चत्तारि अणुओगदाग हवं ति) उस सामायिक के वे चार अनुयोगद्वार हैं। जिस प्रकार प्रवेश के चार प्रधान द्वार होते हैं। उसी प्रकार प्रवेश के चार प्रधान द्वार होते हैं। उन्हीं का नाम अनुयोग द्वार अध्ययन के अर्थ के रहने की विधि का नाम अनुयोग है। महानगर का दृष्टान्त प्रथम सूत्र की व्याख्या करने के पहिले कहदिया हैअतः बहां से उसे जोन लेना चाहिये ।કહ્યું છે કે-જેમ સસ્તા ભાવને આધાર આત્મા હોય છે, તેમ સમસ્ત ગુને આધાર સામાયિક છે.” સામાયિકરહિત પુરુષ ચારિત્ર આદિ ગુણોથી સંપન્ન થઈ શકતા નથી. તેથી જ ભગવાને શારીરિક અને માનસિક દુઃખોને નાશકર્તા મોક્ષ पासिनो श्रेष्ठ पाय सामायिs on yeो छ. (त सणं इमे चत्तारि अणुओगदारा हवंति) ते सामायिना मा यार अनुयोर वार छ । महानगरमा प्रवेश કરવાને માટે ચારે દિશામાં ચાર મુખ્ય દરવાજા હોય છે, એ જ પ્રમાણે આ મહાનગરરૂપ સામાયિકના એનુયેગને (વ્યાખ્યાનને) માટે ચાર દ્વાર કહે છે. અધ્યયનના અને (વિષયને) કહેવાની વિધિનું નામ અનુગ છે મહાનગરના દ્વારેનું દાન પ્રથમ સૂત્રની વ્યાખ્યા કરતાં, પહેલાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે તે તે દુષ્ટાત પહેલા સૂત્રમાંથી વાંચી લેવું જોઈએ.
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अनुमोगर्गद्रवाटी.म.६० आवक-य व्याख्यानं व्याख्येयस्य च निरूपणम् २४९
सानि अनुयोगद्वाराणि दर्शयति-त जहा' इत्यादि । तद्यथा उपक्रमाउपक्रममम्-उपक्रमः-दूरस्थस्य वस्तुतस्तस्तैः प्रतिपादनपकारैः समीपमानीय निक्षेपयोग्यताकरणमियर्थः । उपकान्तं हि उपक्रमोन्तर्गतैमें दैविचारितं सद निक्षिप्यते नान्यथेति भावः। या-उपक्रम्यते-निक्षेपयोग्यं क्रियतेऽनेन गुरुमाम्सोमेनेत्युपक्रमः । अथवा-उपक्रम्यतेऽस्मिन् शिष्यभषणभावे सति गुरुपेत्युपकमा, किंवा-उपक्रम्यतेऽ'माद् विनीतविनयविनयादि एपक्रमः । एवं मिषक्षाभेदेन करणाधिकरणा पादानकारकैमुरुबाग्योगादयोऽर्था उक्ताः। यदिवेत्रोऽप्यन्यन्तरोऽर्थः करणादिकारकवाच्यत्वेन विवक्ष्यते तथापि न दोषः।
___ ( जहा) सूत्रकार उन्हीं अनुयोगद्वारों को कहते हैं-(उवक्कमे, निरखेवे, अणुगमे, नए) १ उपक्रम, निक्षेप, अनुगम, और नय । दूरस्थवस्तु को उन २ प्रतिपादन प्रकारों से समीप में लाकरके निक्षेप की योग्यतावाली बनाय इसका नाम उपक्रम है। उपक्रान्त वस्तु ही उपक्रमान्तर्गत मेदों से विचारित होती हुई निक्षिप्त योग्य होती है। अन्यथा नहीं । अथवा-जिस गुरु के वचन के व्यापार से वस्तु निक्षेप योग की जाती है उसका नाम उपक्रम है। शिष्यजनों को सुनने का भाव होने पर वस्तु जिसमें निक्षेपयोग्य की जाती है उसका नाम उपक्रम है। जिस विनीत-विनयशील शिष्य के विनयादि गुणों से वस्तु निक्षेप योग्य की जाती है उसका नाम उपक्रम है। इस प्रकार विवक्षा के भेद से इन पूर्वोक्त करण अधिकरण अपादान आदि रा गुरुवाग्योंग आदि अर्थ उपक्रम का कोई एक भी अर्थकरण आदि द्वारा वाच्यत्वेन विवक्षित हुआ लिया जाय तो भी उसमें कोई दोष नहीं हैं।
(तंजहा) ते मनुया नीय प्रभा -
(उवक्कमे, निक्खेवे, अणुगमे, नए) (१) ५४५, (२) निक्षेप, (3) अनुराम भने (४) नय.
દરની વસ્તુને આ પ્રતિપાદન પ્રકારની સમીપમાં લાવીને નિક્ષેપને યોગ્ય | બનાવવી તેનું નામ ઉપક્રમ છે. ઉપક્રાન્ત વસ્તુ જ ઉપક્રમાન્ત ગતિભેદથી વિચારાતાં વિચારાતાં નિશ્ચિગ્ય થાય છે અન્ય પ્રકારે નિક્ષેપગ્ય થતી નથી.
અથવા-જે રુના વચનના વ્યાપારથી વસ્તુને નિયોગ્ય કરાય છે, તેને નામ ઉપક્રમ છે. શિને સાંભળવાને ભાવ થાય ત્યારે વસ્તુ જેમાં નિક્ષેપગ્ય કરાય છે તેનું નામ ઉપક્રમ છે. જે વિનીત શિષ્યના વિનયાદિ ગુણોથી વસ્તુને નિક્ષેપગ્ય કરાય છે તેનું નામ ઉપક્રમ છે. આ પ્રમાણે વિવક્ષાના શેતથી આ પૂર્વોકત કરણ, અધિકરણ, અપાદાન આદિદ્વારા ગુરુવાગ્યેાગ આદિ ઉપક્રમના અર્થ કહેવામાં આવ્યા છે. જે આ બધામાંથી ઉપદમના કેઈ એક પણ અર્થકરણ આદિ દ્વારા વાચતારૂપે જે વીક્ષિત થયે છે તે લેવામાં આવે, તે પણ તેમાં ઈષનથી.
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अनुयोगशास्त्रे . निक्षेप:-निक्षेप निक्षेपः-नाममापनातिभेदैः शास्त्रदिर्यसन व्यवस्थापनमिति यावत् । निक्षिप्यतेऽनेनारिमन अस्मादिति वा निक्षेपः । गरुवायोगार्था अत्रापि पूववद् वाध्याः । ___अनुगमः-अनुगमनम, अनुगमः- प्रानुकुलार्थक व नम । अनुगम्यते-न्या. स्यायते पत्रमनेनालिन यस्मा ति-नगमः। बार विव पूर्वपद पोया।
नया-नयनं नयः, नीयते-परिस्रिते नियिते स्वरूप-नेनामिन अस्माउति नयः। अनन्तधर्माध्यासिते व सुनि एकांशप्राहको बोध इत्यर्थः । अयमेवार्थों भावसाने व रणादि साधने चापि चोध्यः । इदमत्र पोयम्-उप
रखने का नाम निक्षेप है-नाम ग्थापना आदि के भेद से शास्त्र आदि का न्या-व्यवस्थापन करना इ" का नाम निक्षेा है । जिसके द्वारा अथवा जिसमें अथवा जिससे वस्तु निक्षेपकी जाती- रझाइ जाती हैं इ का नाम निक्षेप है। गुरुवाग्योग आदि अर्थ यहां पर भी पहिले की तरह करण आदि साधनोंडारा किये गये जानना चाहिये । सूत्र के अनुकूल अर्थ कहना इसका नाम अनुगम है। जिसके द्वारों स्त्रका व्याख्यान किया जावे अथवा जिसमें सूत्रका व्याख्यान किया जाय अथवा जिससे सूत्रका व्याख्यान किया जावे उसका नाम अनुगम है। यहां पर भी करणादिकार कों द्वारा वाच्य अर्थ की विवक्षा पहिले की तरह जान लेनी चाहिये। जिसके बाग, अथवा जिसमें, जथवा जिससे वस्तु का रूप जाना जावे उसका नाम नय है। इसका तात्पर्य यह कि वस्तु में अनंत धर्म हैंउनमें से किसी एक अंश का ग्रहण करनेवा जो बोष है उसका नाम नष
રાખવું અથવા સ્થાપન કરવું તેનું નામ નિ ૫ છે. એટલે કે નામ, સ્થાપના આદિના ભેદ પરા શાસ્ત્ર ન્યાસ (વ્યવસ્થાપન) કરે તેનું નામ નિ ૫ છે. જેના દ્વારા અથવા જેમાં અથવા જેના વડે વસ્તુ નિ ૫ કરાય છે-વસ્તુનું પ્રતિપાદન કરાય છે-વસ્તુનું રવરૂપ સમજાવવામાં આવે છે તેનું નામ છે. ગુરુવાગ આદિ અર્થે પણ અહીં પહેલાંના જેવાં જ કરણ આદિ સાધારા કરવામાં આવ્યા છે, એમ સમજવું. સૂત્રને અનુકૂળ એ અર્થ કહેવો તે નામ અનુગમ છે. જેમાં દ્વારા ત્રનું વ્યાખ્યાન કરવામાં આવે, અથવા જેમાં ત્રનું વ્યાખ્યાન કર વામાં આવે, અથવા જે વડે સૂત્રનું વ્યાખ્યાન કરવામાં આવે, તેનું નામ અનુગમ છે. અહીં પણ કરણ આદિ સાધને દ્વારા વાચ્ય અર્થ વવક્ષા પહેલાની જેમ જ સમજવી.
नसहारा . नाथी Redg२१३५ ONJURL मा छ. तेनु नाम नय छ. तेच ताप' नये प्रभाव-तुम मतभी छ. भाथी. એક અંશને ગ્રહણ કરનાર જે બેધ હોય છે તેનું નામ નય છે.. નયને આ
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अनुयोगचन्द्रिकाटी। म. ६१ लौकिकमुपक्रमनिरूपणम् कान्तमेव निक्षेपयोग्यतामानीतमेव वस्तु निक्षिप्ते, अत आदावुपक्रममभिधाय पश्चाद् निक्षेप उक्तः नामादिभेदैनिक्षिप्तमेन अनुगमविषयं भवति, अतो निक्षेपानन्तरमनुगम उच्यते : अनुगम्यमानमेव च नयैविचार्य ते नानर थोत तदनन्तर' नय उक्तः ॥ ६॥ __तत्र-उपक्रमो द्विविधः शास्त्रीयो लौकिकश्च । तत्र लौ कमुपक्रममाह--
'मूलम-से कि त उवक्कमे ? उक्कमे छविहे पण्णत्ते, तं जहा णामोवक्कमे ठवणो मे दव्योवक्कमे खेतोवक्कमे कालोवक्कमे भावोवकमे । नामठवणाओ गयाओ। से किं तं दबोवक्कमे ? दव्योवक मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-आगमओ य नो आगमो य नोव जाणयसरीरभवियसरीर बारित्ते दव्योवक्रमे तिविहे पण्णत्ते त जहा-सचित्ते अचित्ते मीसए ॥सू० ६१॥
है। नय का यही अर्थ भावापन में और करण आदि साधनों में भी जानना चाहिये । यहां इस प्रकार समझना चाहिये उपक्रान्त ही-निक्षेप की योग्यता में आई हुई ही वस्तु निक्षेप्त होती है, इसलिये सब से पहिले उप क्रम को कह करके पश्चात् सूत्रकारने निक्षेप का पाठ किया है । नाम आदि भेदों से निक्षेप हुई पस्तु ही अनुगम की विषयभूत बनती है-इसलिये निक्षेप के अनन्तर अनुगम कहा है। अनुगम से युक्त हुई ही वस्तु नयों द्वारा विचार कोटि में आती है, अन्यथा नहीं इसलिये अनुगम के बाद नय का पाठ किया है। सूत्र ६०॥ અર્થ જ ભાવસાધન ાં અને કરણ આદિ સાધનામાં પણ સમજ જોઈએ. અહીં આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. ઉપક્રાન્ત જ-નિક્ષેપની ગ્રતામાં આવેલી વસ્તુ જ નિક્ષિપ્ત થાય છે, તેથી સત્રકારે સૌથી પહેલાં ઉપક્રમનું કથન કરીને ત્યારબાદ નિક્ષેપનું કથન કર્યું છે.
નામ આદિ ભેથી જેને નિક્ષેપ કરવામાં આવ્યો હોય એવી વાત જ અનુગમ કરવાને યોગ્ય બને છે. તેથી નિક્ષેપનું કથન કર્યા બાદ સૂત્રકારે અગમતું કથન કર્યું છે. અનુગમથી યુકત એવી વસ્તુ જ ન દ્વારા વિચારણીય બને છે, તેથી અનુગામના સ્વરૂપનું કથન કર્યાબાદ સુત્રકારે નયના સ્વરૂપનું કથ ! કર્યું છે. પાસ. ૬૦
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अनुयोगद्वारखो छाया-अथ कोऽसौ उपक्रमः १ उपक्रमः पविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नामोपक्रमः स्थापनोपक्रमः द्रव्योपक्रमः क्षेत्रोपक्रमः कालोपक्रमो भाबोपक्रमः नामस्थापने गते । अथ कोऽसौ द्रव्योपक्रमः ? द्रव्योपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आगमतश्च नोआगमतश्च भव्यशरीरपतिरिक्तो द्रव्योपक्रमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-सचित्तः, अचित्तः मिश्रकः ॥६१॥
उपकम शास्त्रीय उपक्रम और लौकिक उपक्रम के मेद से दो प्रकार का है-इनमें लौकिक उपक्रम का क्या स्वरूप है यह सूत्रकार प्रकट करते हैं
"से किं तं उवक्कमे" इत्यादि ॥सूत्र ६१॥
शब्दार्थ-(से किं तं उवक्कमे) हे भदन्त ! उपक्रम का क्या तात्पर्य है ? उत्तर--(उवक्कमे छविहे पण्णत्त) उपक्रम छ प्रकार का कहा गया है। (तंजहा) जैसे (णामोवक्कमे, ठवणो क्कमे, दबोवक्कमे, खेतोवक्कमे, कालोवक्कमे, भावोरक्कमे) नाम उपक्रम, स्थापना उपक्रम द्रव्य उपक्रम, क्षेत्रउपक्रम, कालउपक्रम और भावउपक्रम । (नामठवणाओ गयाओ) नाम उपक्रम और स्थापना उपक्रम का स्वरूप नाम आवश्यक और स्थान आवश्यक के समान जानना चाहिये । (से किं तं दव्वविक्कमे) हे भदन्त । द्रव्योपक्रम का क्या स्वरूप है ? (दबोवक्कमे दुविहे पण्णत्ते) द्रव्योपक्रम दो प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जसे (आगमओ य नोआगमओ य जाव जाणयसरीर भवियसरीर
ઉપકમના શાસ્ત્રીય ઉપકમ અને લૌકિક ઉપક્રમ નામના બે ભેદ કહ્યા છે. તેમાંથી લૌકિકઉપક્રમનું સૂત્રકાર હવે નિરૂપણ કરે છે–
"से किं तं उवक्कमे" त्या
शहाथ-(से कि त उवक्कमे १) शिष्य गुरुने सो प्रा पूछे छे ગુરુમહારાજ ! ઉપક્રમનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर- (उवक्कमें छविहे पण्णत्ते) G५ ६ रन हो -(तंजा) તે પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે. (णामोवक्कमे, ठवणोवक्कमे, दव्वोवक्कमे, खेत्तोवकामे, कालोवक्कमे, भाशेवामे) (१) नाम ५४म, स्थापना 63भ, (3) ६०५५भ, (४) क्षेत्र3५७ (५) - 68 अने (6) RIq५४म. (नामउवगाओ गयाओ) नाम भने स्थापना ઉપક્રમનું સ્વરૂપ નામ આવશ્યક અને સ્થાપના આવશ્યક જેવું સમજેવું. (से कि त दबोवक्कमे १) प्रश्न-डे सुरुमा ! ०५४म २१३५ छ ?
उत्तर-(दव्योवक्कमे दुविहे पण्णत्ते) द्र०यो५४म में प्राप्ने। ह्यो छ. (तनहा) न....(आगमओ य, नोआगमओ य जाव जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दग्धो
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रूपणम्
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अनुवागचन्द्रिका टीका मूत्र ६१ लौकिकमुपक्रमनिरूपणम्
टीका-शिष्यः छति-'से कि तं' इत्यादि-अथ कोऽसौ उपक्रमः ? इति । उत्तरमाह-उपक्रमः षड्डिधः प्रनप्तः-नामोपक थापनोपक्रमादिरूपः । तत्र नामोपक्रमस्थापनोपक्रमो नामावश्यकम्थापनावश्यकवद् विज्ञेयौ। सम्प्रति द्रव्योपक्रम प्रश्नपूर्वकं प्रस्तौति-अथ कोऽसौ द्रव्योपक्रमः ? द्रव्योपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा-आगमतश्व नो आगमतश्च, यावत् ज्ञायक शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता
गोपक्रमः । इह यावच्छब्देन द्रव्यावश्यकवद् द्रव्योपक्रमव्याख्या बोध्या । तत्र ज्ञायकशरीरभ शरीरव्यतिरिक्तो द्रव्योपक्रम स्त्रिविधः प्रज्ञप्तः। तद् यथा-सचित्तः, अचित्तः, मिश्रकः । तत्र सचित्त द्रव्यविषयः सचित्तः, अचित्तद्रव्यविषयोऽचित्त, मिश्रद्रव्यविषयो मित्रकः ॥सू० ६१॥ वइरित्त दवावक्कमे तिलिहे पण्णत्ते-तं जहा-सचित्ते अचित्ते मीसए) आगम द्रव्योपक्रम-नोआगम द्रव्योपक्रम । नोआगम द्रव्योपक्रम ३ तीन प्रकार काहैज्ञायकशरीर द्रव्योपक्रम, भव्यशरीर द्रव्योपक्रम और ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्योपक्रम । इनमें ज्ञायक शरीर, भविय शरीर से व्यतिरिक्त जोद्रव्योपक्रम है वह तीन प्रकार का है। सचित्त, अचित्त और मिश्र । जिस उपक्रम का विषय सचित्त द्रव्य है वह तद्वयतिरिक्त सचितद्रव्योपक्रम है। जिस उपक्रम का विषय अचित्त द्रव्य है वह तद्वयतिरिक्त अचित्तद्रव्योपक्रम है। और जिसका विषय सचित्त अचित्त दोनों प्रकार का द्रव्य है। वह तद्वयतिरिक्त मिश्र द्रव्योपक्रम है। इस द्रव्योपक्रम की व्याख्या द्रव्यावश्यक की तरह जाननी चाहिये।
भाग--मुत्रकारने यहां पर उपक्रप के भेदों को प्रकट करते हुए वक्कमे तिविहे पण्णत्ते-तं जहा-सचित्ते, अचित्ते भीसए)
(1) शायरी२ २०ये। ५म भने (२) नामासम-यो५४म. नासाभद्रव्ये:भनीय प्रमाणे त्रय प्रारना ह्यो छ-(१) ज्ञाय शरी२ व्यायाम, (२) मध्यશરીર દ્રવ્યાપક્રમ અને (૩) જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્યશરીરથી યતિરિકત (ભિન્ન) દ્રવ્યોપકમ તેમને જે જ્ઞાયકશરીર ભવ્ય શરીર વ્યતિરિત દ્રવ્યાપકમ છે તેના નીચે प्रमाणे त्र २ छ. (१) सथित्त, (२) अयित्त भने (3) मिश्र २ भने। વિષય સચિત્ત દ્રવ્ય છે, તેને તદ્વયતિરિકત સચિત્તદ્રવ્યાપક્રમ કહે છે. જે ઉપક્રમને વિષવ અચિત્તદ્રવ્ય છે તે ઉપક્રમને તદ્રયતિરિત અચિત્ત દ્રવ્યપક્રમ કહે છે. અને જેને વિષય સચિત્ત ચિત્ત અને પ્રકારનું દ્રવ્ય છે. તે ઉપક્રમને તદ્વયતિરિક્ત મિશ્ર દ્રોપક્રમ કહે છે. આ દ્રપકમની વ્યાખ્યા દ્રવ્યાવયકના જેવી જ સમજવી.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં ઉપક્રમના ૬ ભેદને પ્રકટ કર્યા છે. તેમાંથી
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अनुयोगद्वारमत्रे अथ सचित्तं द्रव्योपक्रम निरूपयति-- __ मूकम्-से किं तं सचि । दव्योवक्कमे ? सचि दबोवक्रमे तिविहे पण्णत्त, तं जहा-दुपए चउपए अपए । एकि पुण दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-परिकमे य वत्थुविणासे य ॥ सू० ६२ ॥ नाम स्थापना और उन्य का उपक्रम का स्वरूप प्रकट किया है। इसमें किसी चेतन अचेतन पदार्थ का उपक्रम ऐसा नाम रख लेना यह नाम स्पक्रम है। किसी पदार्थ में उपक्रम का आरोप करना यह स्थापना उपक्रम है। भूत में हुई अथवा भविष्यत् काल में होनेवाली उपक्रम की पर्याय को वर्तमान में उपक्रमरूप से हना यह द्रव्य उपक्रम है। इसके आगम और नो आगम को आश्रित करके दो भेद हैं। उपक्रमशास्त्र का अनुपयुक्त ज्ञाता आगमकी अपेक्षा से दव्योपद्रम है। नोआगम को आश्रित करके द्रव्योपक्रम के ३ मेद हैं-ज्ञायव शरीर, भव्यशरीर और इन दोनों से व्यतिरिक्त द्रव्योपक्रम । इनमें उपक्रम शास्त्र के अनुपयुक्त ज्ञाता का निर्जीव शरीर नोआगम से ज्ञायक शरीर द्रव्योपक्रम है। जिस प्राप्त शरीर में जीव आगे उपक्रम शास्त्र को सीखेगा वह भव्यशरीर द्रव्योपक्रम है। इन दोनों से व्यनिरिक्त जो नोआगमद्रव्योपक्रम है वह सवित्त, अचिन और मिश्रद्रव्योपळम के मेद से तीन ३ प्रार का है। ॥त्र ६१॥ નામ, સ્થાપના અને દ્રપક્રમનું નિરૂપણ આ સૂત્રમાં કર્યું છે. કેઈ ચેતન–અચેતન પદાર્થનું “ઉપક્રમ” એવું નામ રાખવું તે “નામઉપક્રમ છે. કેઈ પદાર્થમાં ઉપકમને આરેપ કરે તેનું નામ સ્થાપના ઉપકમ છે. ભૂતકાળમાં પ્રાપ્ત થયેલી અથવા ભવિષ્યમાં થનારી ઉપકમની પર્યાયને વર્તમાનમાં ઉપક્રમરૂપે કહેવી તેનું નામ દ્રવ્યઉપક્રમ છે. તેના આગમ અને આગમને આશ્રિત કરીને ભેદ છે. ઉપક્રમશાત્રને અનુપયુકત જ્ઞાતા આગમની અપેક્ષાએ દ્રપક્રમ છે, ને આગમને આશ્રિત કરીને દ્ર પક્રમના ત્રણ ભેદ પડે છે. (૧) જ્ઞાયકશરીર, (૨) ભવ્ય શરીર અને (૩) તે બન્નેથી ભિન્ન એ તદ્વયતિરિક્ત દ્રવ્યપક્રમ.
ઉપકમશાસ્ત્રના અનુપયુકત જ્ઞાતાના નિર્જીવ શરીરને નેઆગમની અપેક્ષાએ નાયકશરીરદ્રવ્યોપમ કહે છે. જે પ્રાણ શરીરથી છવ આગળ જતાં ઉપક્રમશાસ્ત્ર શીખશે, તેનું નામ ભવ્ય શરીર દ્રપક્રમ છે. આ બન્નેથી ભિન્ન એ કેઆગમ દ્રવ્યપક્રમ છે, તે સચિત્ત, અચિત્ત, અને મિશ્ર દ્રપકમના ભેદથી ત્રણે जारन हो छ. ।। स. ६१ ॥
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अनुगोगवन्द्रिका टीका. सू० ६२ सचित्त व्योपक्रमनिरूपणम्
छाया--अथ कोऽसौ सचित्तो द्रव्योप कमः ? सचित्तो द्रकोपक्रमस्त्रिवियः प्रज्ञप्तः, तयथा-द्विपदश्चतुष्पदो पदः । एककः पुनईि विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथापरिकर्मणि प व तुबिनाशे च सूत्र ६२॥
अब सत्रकार सचित्त इत्योपक्रम का रूप प्रकट करते हैं"से कि तं सचित्ते दरोवरकमे” इत्यादि । ।सत्र ६२॥
शब्दार्थ--(से किं तं सचिचे दविकमे) हे भदन्त ! सचित्त द्रव्योपक्रम का या स्वरूप है?
(सचित्त दन्वोरक्कमे तिविहे पण्णत्ते) उत्तर-सचित्त द्रव्योपक्रम ३तीन प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे (दुपए चउपए अपए) द्विपद, चतुष्द और अद। इन में से नट तक आदरूप द्विपद सचित्त द्रव्यो पक्रम है। हस्ती अश्व आदिरूप चतुष्पद सचित द्रव्योरक्रम है। तथा आम्रादिवृक्षरूप अ द सचित्त द-यो क्रम है। (एकिके पुण दुविहे पण्णत्ते) इनमे भी एक एक दो २ प्रकारका कहा गया है । (तौं जहा) जैसे-(परिक्कमे य इत्युविणासे य) किर्म में और व तु विनाश में अवस्थित वस्तु में गुण विशेष का आधान वरना परिकर्म है। इस परिकम में परिकर्म विषयवाला द्रव्योपकार होता है। द्विपदवाले नट-नर्तक आदि जन घृत आदि द्रव्य के उपयोग से जो अपने बल आदि की रद्धि करते हैं अथवा और अनेक साधनों से कर्ण एवं स्कन्धों को बढाते हैं वह रिकम को आश्रित करके सचित्त द्रव्यो
હવે સત્રકાર સચિત્ત દ્રપકમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે–
“से कि त सचित दव्वोरक्कमे" त्याdि
Al-(से कि त सचिते दवोवक्कमे ?) शिष्य गुरु२ । प्रश्न पूछे छ । सन् ! सचित्त द्रव्योपभानु ३ २१३५ छ ?
उत्तर-(सचित्ते दबोवक्कमे तिविहे पण्णत्ते) सचित्त द्र०या५भत्र मारने। छो छ (तजहा) ते मारे। नीचे प्रमाणे .
(दुपए, चउपए, अपए) (1) ६५६, (२) यतु०५४ भने (3) ४५६ नट, नत: આદિરૂપ દ્વિપદ સચિત્ત દ્રવ્ય પક્રમ છે, ગજ, અશ્વ આરિરૂપ ચતુષ્પદ સચિત્ત દ્રપક્રમ છે, તથા આગ્રાદિ વૃક્ષરૂપ અપદ સચિત્ત દ્રવ્યાપક્રમ છે.
एकिके पुण दुविहे पण्णत्ते) से प्रत्ये:ना ५५ मध्ये २ या छ. (तंजहा) म (परिकमे य वत्थुविणासे य) (१) पश्मिन। माश्रित प्रशने शुक्षविशेषनु भाधान કરવું તેનું નામ પરિકમ છે. આ પરિકમમાં પરિકમ વિષયવાળો દ્રવ્યોપમ છે. દ્વિપદવાળા (બે પગવાળા) નટ, નતક આદિજન ધી આદિ દ્રવ્યના ઉપયોગથી પિતાના બળ આદિની જે વૃદ્ધિ કરે છે, અથવા બીજા અનેક સાધનેથી કર્ણ અને ધાને
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अनुसागवार ष्टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं त' इत्यादि
अथ कोऽसौ सचित्तो द्रव्योपक्रमः ? इति । उत्तरमाह-सचित्ती योपक्रमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः । तद्यथा-द्विपदः, चतुष्पदः, अपद इति । तत्र-द्विपदः नटनत कादिरूपः, चतुष्पदः-हस्त्यश्वादिरूपः, अपद: आम्रादिलरूपः। तत्र द्विपदादिषु पुनरेकैको विविध:-परिकमणि घ घरतुवनाशे च । धापस्थितस्यैष वस्तुनो गुणविशेषाधान परिकम, तत्र परिकर्मणि-परिकम विषयो द्रव्योपक्रमः॥ पक्रम है.। कहा भी है कि क्रिया से वस्तुओं का जा गुण विशेषरूप परिणाम हैउसका नाम परिकर्म है। वस्तु के विनाश की विषय करनेवाला द्रव्योवक्रम तब होता है कि जब उपाय विशेषों से वस्तु के विनाश का ही उपक्रम होताहै।
भावार्थ--मूत्रकारने इस मूत्रद्वारा सचित्त द्रव्योपक्रम को ३ रूप में विभक्त किया है। १ द्विपद २ चतुप्पद और तीसरा अपद । द्विपदू दो चरणवाले प्राणी चतुष्पद-चार चरणवाले जानवर, अपद-जिनके चरण नहीं ऐसे एकेन्द्रिय वृक्ष आदि अपद हैं। इन सब में जी। होने से ये सब सचिन है। इन तीनों प्रकार के सचित्तों के विषय में परिकर्म और विनाश को लेकर द्विपदादि द्रव्योपक्रम दो २-२ प्रकार का और होता है। घृत आदि शक्तिवर्धक पदार्थों के सेवन से जो ये द्विपद आदि अपने में बल आदि की वृद्धि करते हैं वह परिकर्म विषयवाला, और उपाय विशेषों से वस्तु को विनाश करनेवाला जो उपक्रम किया जाता हैं वह विनाश विषयवाला द्रव्यो (ખભાઓને) કૃદ્ધિયુકત કરે છે, તે પરીકર્મને આશ્રિત કરીને જે ઉપક્રમ છે તેનું નામ સચિત્તદ્રવ્યપક્રમ છે. કહ્યું પણ છે કે ક્રિયાની અપેક્ષાએ વસ્તુઓનું જે ગુણવિશેષ રૂપ પરિણામ છે તેનું નામ પરિક છે. વસ્તુના વિનાશને વિષય કરનાર દ્રવ્યપક્રમ ત્યારે જ થાય છે કે જ્યારે ઉપાયવિશેષ દ્વારા વસ્તુના વિનાશને જ ઉપકમ થાય છે.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા સચિત્ત દ્રપક્રયાના ત્રણ ભેદ બતાવ્યા છે. (१) द्विपद, (२) तु.५६) भने (3) अ५६६५६ मेट मे पायो , यतु.५४ એટલે ચાર પગવાળા જાનવરો અને અપદ એટલે જેને પગ નથી એવા એકેન્દ્રિય વૃક્ષાદિને ગ્રહણ કરવા જોઈએ. આ બધામાં જીવ હોવાથી તેઓ સચિત્ત છે. આ ત્રણ પ્રકારના સચિત્તોના વિષયમાં પરિકર્મ અને વિનાશની અપેક્ષાએ દ્વિપદાદિ પ્રત્યેક દ્રપક્રમના બબ્બે પ્રકાર પડે છે. ઘી આદિ શક્તિવર્ધક પદાર્થોના સેવનથી જે
આ દ્વિપદ આદિ સચિત્ત છે પિતાના બળ આદિની વૃદ્ધિ કરે છે, તે પરિકમ વિષયવાળે કર્ણોપક્રમ છે, અને ઉપાય વિશે દ્વારા વસ્તુને વિનાશ કરનારે જે ઉપક્રમ કરવામાં આવે છે તે વિનાશ વિષયવાળો ઠ પક્રમ છે. આ કથનને
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अनुयागवंदिका टीका सूत्र ६३ द्विपद उपक्रमनिरूपणम्
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द्विपदानां नटनर्त्तकादीनां घृताद्युपयोगेन यद् बलवर्णादिवरण कर्ण र कन्धवर्धनादिक्रिया वा स सचितद्रव्योपक्रमः । उक्तं च-
"परिकम्मं किरियार, वत्थूणं गुणविसेस परिणामो” । छाया -- परिकर्म क्रियया वस्तूनां गुणविशेषपरिणामः ॥ इति || वस्तुविनाशविषयो द्रव्योपक्रम - यदा उपाय विशेषैर्वग्तुनो विनाश एवो पक्रम्यते तदा भवति ॥ ०६२ ॥
द्विविधमप्येतमुपक्रमं वक्तुमुपक्रमते --
मूलम् - से किं तं दुपए उवक्कमे ? दुपए उवक्कमे नडाणं नच्चगाणं जल्लाणं मल्लाणं मुट्ठियाणं वेलंबगाणं कहगाणं पवगाणं लासगाणं आइक्खगाणं लंखाणं मंखाणं तृणइलाणं तुंबवीणियाणं कावडियाणं मागहाणं । से तं दुपए उक्कमे ॥ सू० ६३ ॥
छाया - अथ कोऽसौ द्विपद उपक्रमः ? द्विपद उपक्रमो नटानां नर्त्तकान जल्लानां मल्लार्ना मौष्टिकानां विडम्बकानां कथकानां प्लवकानां लासकानाम् पक्रम हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि सचित्त द्विपदों चतुष्पदों और अपदों को परिकर्म और विनाश को लेकर जो घृतादिव्यों का उपक्रम आयोजन सेवन किया जाता हैं वह परिकर्म और विनाशविला सचित द्विपदादि द्रव्योपक्रम हैं | || सू० ६२ ॥
इसी विषय को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं" से किं तं दुपए उक्कमे" इत्यादि ॥
६३॥
शब्दार्थ - - ( से किं तं दुपए उक्कमे ) हे भदन्त ! द्विपद सबन्धी द्रव्योपक्रम का क्या स्वरूप है । ? ( दुपए उवक्कमे नडाणं नच्चगाणं जल्लाणं
ભાષા એ છે કે દ્વિપદા, ચતુષ્પદ અને અપદાના પકિ અને વિનાશની અપે ક્ષાએ જે શ્રી આદિ દ્રવ્યેાના ઉપક્રમ (આયેાજન-સેવન) કરવામાં આવે છે, તે રિ ક અને વિનાશરૂપ વિષયવાળા સચિત્ત દ્વિપદ દ્રર્યક્રમ છે. સ૦ ૬૨૫ આ દ્વિપદ સ ંબંધી દ્રવ્યેપક્રમના વિષયમાં સૂત્રકાર વિશેય સ્પષ્ટીકરણ કરે છે"से कि त दुपए उवकमे" त्याहि
शब्दार्थ - (से किं तं दुपए उवक्कमे ?) शिष्य गुरुने । प्रश्न पूछे छे है ભગવન્ ! દ્વિપદ સ ંબંધી દ્રવ્યેાપક્રમનુ સ્વરૂપ કેવુ' છે ?
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अनुयोगबार 'आख्यायकानां लकानां मह्वानां तूणिकानां तुम्बवीणि कानां कावडिकानां मामधानाम् । स एष पिद उपक्रमः ॥१० ६३॥
टीका-शिष्यः पृछति-'से कि त' इत्यादि। अप कोऽसौ द्विपदउपक्रमः ? उत्तरमाह--यद् नटाना-नाटयकर्तृणां, नर्त काणां नृत्य विधायिनां, जल्लाना-जल्ला:-वस्त्रमादाय क्रीडाकारकाः, विरदपाठका वा, तेषाम्, मल्लामल्लाः प्रसिद्धास्तेषां, मौष्टिकानां मुष्टिभिर्याद्धारो मल्लविशेषा मौष्टिकारतेषाम्, विडम्बकाना म्= नानादेपधारिणां विदा कानाम्. कथ कानाम्-कथया: थावारका
तेषाम, प्लवकान-कते ये ते 'लदकार हरि तारो नद्यादितारका बा तेषाम्, लासकानाम्-रास्कान गारति ये ते लासकाः, अ.यशाद प्रयोक्तारे भण्डाना, तेषाम्, आख्यायकानाम्-आख्यायका शुभाशुभाख्यायिनस्तेषाम लहानाम-महतो वरयानभाग ये घिरे हन्ति ते लढारतेषाम्, मलानाम् ये चित्रपटादिहस्ता भिक्षा चरन्ति ते मङ्खारतेषाम् , तूणियानाम्- तूणवाववादिनाम्, मल्लाणं मुट्ठियाणं बेलंबगाणं व हगःणं पवगाणं लासगाणं आइदखगाणं लंखाणं मंखाणं तूणइल्लाणं तुंबवीणियाणं कावडियाणं मागहाणं) नाटय करनेवाले नटों का नृत्यकरनेवालों का, वस्त्र को पकडकर क्रीडा करनेवाले जल्लों का, अशा विरुदावली पढनेबालों का पहलवानों का, मुष्टियों से युद्धकरनेवाले मल्लविशेषों
का, अनेक मेषों का धारण करनेवाले विद्पयो का, कथाओं को कहनेवालों • का, गर्त आदि को लांघने की अथवा नदी से पार उतारने की क्रिया में
अभ्यस्त बने हुए प्लवकों का रासलीग करनेशलों का अथवा जयशब्द का प्रयोग करनेवाले भांडों का शुभ और अशुभ को कहनेवाले अख्यायकों का. बडे भारी वांस के अग्रभाग पर आरोहण करनेवाले लंखां का, चित्रपट आदि को हाथ में लेकर भीख मांगनेवाले मंखों का, तूणवाद्य को बजानेवाले तूणिको
उत्तर-(दुपए उवकमे नडाणं नचगाणं जल्लाणं मल्लाणं, मुट्ठियाणं बेलंबगाणं कहगाणं पवगाणं लासगाणं आइक्खगाणं, लंखाणं मखाणं, तूणइल्लाणं तु क्वीणियाणं कावडियाण मागहाणं) नाट। ४२ना२ नटाना, नृत्य ४२ना। नताना, पत्रने પકડીને કીડા કરનારા જલેને અથવા બિરુદાવલી બેલનારાઓને પહેલવાનેને, મુષ્ટિકને (મુઠ્ઠીઓ વડે લડનારા મલ્લવિશેન), અનેક વે ધારણ કરનાર વિષકને, કથાકારોને, ગત્ત આદિને પાર કરવાની અથવા નદીને પાર કરાવવાની ક્રિયામાં અભ્યસ્ત રહેતા એવા પ્લવકેને, રાસલીલા કરનારાને અથવા જય શબ્દનું હરણ કરનારા ભાંડેને, શુભ અને અશુભને કહેનારા અખ્યાયકોને, ઘણું મોટા વાંસ પર આરોહણ કરનારા લખને (બજાણીયાઓને), ચિત્રપટ આદિને હાથમાં લઈને તેની મદદથી ભીખ માગતા મખેને, તંતુવાદ્યોને બજાવનારા તણિકને,
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अनुयोगचंद्रिका टीका पुत्र ६३ द्विषद उपकाने गम् तुम्बची णाम तुम्बनिर्मिता का वीणा सा तुम्बवीणा, तद्वादनं शिल्पं येषा तुम्बर्शणिकास्तेपाम, कावडिकानाम्-'कावडि' इति भाषाप्रसिद्धभारवाहकानाम् मागधानाम्-मागधाः मङ्गल ठास्तेपाम, एषां सर्वेषा-पिं घृताधुपयोगेन बलवर्णारिकरणं कर्णसन्धादिवर्द्धन वा स द्विपद उपक्रमः । एष परिकर्मविषयः सचित्तो विपद उमः यस्तु नटादीनां खङ्गादिभिर्नाश एवोपक्रम्यते-सम्पा ते स वस्तु बनाशविपयः सचित्तो द्विपदो द्रव्योपक्रमः इति वाक्यमपि प्रकरणवशादाक्षेप्तनम् । स एष द्विपद उपक्रमः ॥मू० ६३॥ का, तूंबडी की वीणा बनाकर उसे बजाने वाले तुंबबीणिों का, काबड से भार ढोनेवालों कावडिकों का, और मंगल पाठकों का जो अपने शरीर में घृतादिक द्रव्य के सेवन से शक्ति आदि के संबर्द्धन करने का उपक्रम किया जाता हैं, अथवा जिन २ और साधनों से बातों कों और स्कंधों को बढाया एवं बलिष्ट किया जाता है वह सब प्रयत्न द्विपद संबन्धी उपक्रम है। यह जो विपदों का उपक्रम है वह परिकम को विषय करनेवाला है इसलिये यह सचित्त विपद उपक्रम है । ता उन्हीं नट आदिकों का जो खङ्गआदि से विनाश करने का उपक्रम किया जाता हैं वह वस्तुं के विनाश से संबन्धित होने के कारण वस्तु विनाश विषयवाला सचित्त द्विपद द्रव्योपक्रम है। इस तरह का वन्तु विनाश विषयक सचित्त द्विपद द-योपक्रम का पाठ सूत्र में नहीं आया है-तो भी प्रकरण के वश से उसे यहां समझ लेना चाहिये । इस प्रकार से यह द्विपद उपक्रम संबन्धी कथन है।
તુંબની વીણા બનાવીને તેને વગાડનારા તુંબવીણિકોને, કાવડની મદદથી ભાર વહન કરનાર કાવડીયાઓનો અને મંગળપાઠકે જે પિતાના શરીરમાં ધી આદિના સેવન વડે શક્તિ આદિના સંવર્ધનને જે ઉપક્રમ કરવામાં આવે છે. અથવા જે જે બીજા સાધનો પર કોંને અને ખભાને વૃદ્ધિયુકત અને બલિષ્ઠ કરવામાં આવે છે, તે બધાં પ્રયત્નને દ્વિપદ વિષયક ઉપક્રમ કહે છે. આ જે દ્વિપદોને ઉપક્રમ છે તે પરિકમને વિય કરનાર છે, તેથી તે સચિત્ત દ્વિપદ ઉપક્રમ છે. તથા એજ નટ આદિકોને તલવાર આદિથી જે વિનાશ સ્વાને ઉપકમ કરવામાં આવે છે, તે વસ્તુના વિનાશરૂપ વિષયવાળો સચિત્ત દ્વિપદ દ્રવ્યપક્રમ છે. આ પ્રકારને વસ્તુવિનાશ વિષયક સચિત્ત દ્વિપદ દ્રવ્યાપકમને પાઠ સૂત્રમાં આવ્યો નથી, તે પણ
આ પ્રકરણમાં તેને સમાવેશ કરવાનું જરૂરી લાગવાથી, તેનું કથન નહીં થવું 'જોઇએ. આ પ્રકારનું દ્વિપદ સચિત્ત ઉપક્રમનું સ્વરૂપ સમજવું.
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अनुयोगद्वारखं अथ चतुष्पदविषयं द्विविधमप्युपक्रम वर्णयति
मूलम्--से किं तं चउप्पए उवक्कमे ? चउप्पए उनकमे चउपयाणं आसाणं हत्थीणं इच्चाइ । से त चउप्पए उवक्रमे ॥सू० ६४॥
छाया--अथ कोऽसौ चतुष्पद उपक्रमः ? चतुष्पद उपक्रमश्चतुष्पदानाम् अश्वानां हस्तिनाम, इत्यादि । स एप चतुष्पद उपक्रमः ॥ ॥१० ६४॥
भावार्थ--मृत्रकार ने जो सचित्त के भेदरूप द्विपद आदि का परिकर्म और विनाश विपरक द्रव्योपक्रम कहा है-उसी के द्विपदरूप आघमेर के स्वरूप का वर्णन संक्षेप में इस सूत्रद्वारा किया गया है-नट, नर्तक आदिजनों का जो अपने में शक्ति बढाने वाले घृत आदि पदार्थ हैं उन पदार्थों के सेवन आदि करने का जो उनका उपक्रम प्रयत्न-है वह परिकर्म विषयक द्विपद उपक्रम है। तथा विनाश के साधनभूत तलवार आदि से जो इनके विनाशकर दिये जाने का उपक्रम होता है, बह विनाश विषयक द्विपद उपक्रम है । ॥मू० ६६॥
अब चतुष्पद विषयक दोनों प्रकार के उपक्रम का वर्णन सूत्रकार करते हैं"से कि तं चउपए' इत्यादि। ॥सूत्र ६४॥
शब्दार्थ-(से किं तं चउपाए उबक्कमे) हे भदन्त ! चतुष्पद उपक्रम का क्या स्वरूप हैं-(चउप्पए उवक्कमे चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणं इच्चाइ) चतुष्पद अश्व, गज आदि जानवरों को अच्छी चालचलने आदि की शिक्षा
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે જે સચિત્તના ભેદરૂપ દ્વિપદ આદિના પરિકર્મ અને વિનાશ વિષયક દ્રપક્રમ કહ્યા છે, તેના જ દ્વિપદરૂપ પ્રથમ ભેદના સ્વરૂપનું વર્ણન અહીં સંક્ષિપ્તમાં કરવામાં આવ્યું છે –
નટ, નર્તક આદિજને પિતાની શકિત વધારવાને ઘી આદિ પદાર્થોનું સેવન કરવાનો જે ઉપક્રમ-પ્રયત્ન કરે છે તેને પરિકર્મ વિષયક દ્વિપદ ઉપક્રમ કહે છે. તથા તલવાર આદિ સાધન વડે તે નર, નર્તક આદિજનેને વિનાશ કરી નાખવાને જે ઉપમ (પ્રયત્ન) થાય છે તેને વિનાશ વિષયક દ્વિપદ ઉપક્રમ કહે છે. સ૬૩ .
હવે સત્રકાર ચતુષ્પદ વિષયક બન્ને પ્રકારના ઉપક્રમનું વિષયકનું નિરૂપણ કરે છે"से किं तं चउप्पए" त्या:
शहाय-(से किं तं चउप्पए उवक्कमे १) शिष्य गुरुने मेरो प्रश्न पूछ छ । હે ભગવન ! ચતુષ્પદ ઉપમનું કેવું સ્વરૂપ છે?
उत्तर-(चउप्पए उवक्कमे चउप्पयाणं आसाणं हत्थीगं इचाइ) योvi 4, ગજ આદિ જાનવરેને સારી ચાલ ચલાવવા આદિ શિક્ષા દેવારૂપ જે ઉપ મ છે.
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अनुवे द्रिका टीका सूत्र ६५ अदविषमुपक्रमनिरूपणम्
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टीका - शिष्यः पृच्छति - 'से किं तं' इत्यादि । अथ कोऽसौ चतुष्पदानाम् अश्वानां हस्तिनामित्यादि - अश्वगजप्रभृति चतुष्पदजीवानां शिक्षागुणविशेषकरणपरिकर्मणि- सचित्तद्रव्योः क्रमः खङ्गादिभिस्त्वेषां विनाश करण च, वस्तुविनाशे सचितद्रव्योपक्रमः, इति वाक्यशेषः । एतन्निगमयन्नाह - स एष उपक्रम इति ॥ म्रु. ६४॥
अथापदविषयं द्विविधमप्युपक्रममाह
म् - - से कि त अपए उक्क्कमे ? अपए उनक्कमे अपयाणं अंबागं अंवाडगाणं इच्चाइ । सेतं अपओवक्कमे । से तं सचित्तव्व
I
॥सू० ६५॥
छाया - अथ कोऽसौ अपद उपक्रमः ? अपद उपक्रमः - अपदानाम् आम्राणाम आम्रातकानाम् इत्यादि । स एष अपदेापक्रमः । स एष सचित्त द्रव्येापक्रमः ॥ ६४ ॥ टीका – शिष्यः पृच्छति –' से किं त" इत्यादि । अथ कोऽसौ अपद उपक्रमः ? इति । उत्तरमाह - अपद उपक्रमो हि - अपदानां रथावरनामकर्मोदयात् चचनक्रियावर्जितानाम् आम्राण | म् - आम्रवृक्षाणाम्, तत्फलानां च तथा
देना यह परिकर्म की अपेक्षा सचित द्रव्योपक्रम है। तथा इन्हीं जानवरों को तलवार आदि स मार डालना यह विवश की अपेक्षा सचित्त द्रव्योपक्रम है। इस प्रकार यह सचित के भेदरूप चतुष्पद का दोनों प्रकार के द्रव्योपक्रम का कथन है | || सूत्र ६४ ॥
अब सूत्रकार अपद विषयक दोनों प्रकार के उपक्रम का कथन करते हैं" से किं तं अपए" इत्यादि । || सूत्र ६५ ||
शब्दार्थ - (से किं तं अपए उवक्कमे ) हे भदन्त ! अपद - जो आम्र एवं आम्रातक आदि वृक्ष और उन के फल हैं कि जिनमें स्थावर नामकर्म के
તે પરિક્રમની અપેક્ષાએ સચિત્ત દ્વ॰ન્યાપક્રમ છે. તથા એજ જાનવરેશને તલવાર આદિ વડે મારી નાખવાના જે ઉપક્રમ છે, તેને વિનાશની અપેક્ષાએ સચિત્ત દ્રવ્યે પદ્મમ કહે છે. આ પ્રકારે સચિત્તના ભેદરૂપ ચતુષ્પદના અને પ્રકારના દ્રવ્યાપક્રમનુ અહીં વર્ણન કરવામાં આવ્યુ છે. ૫ સ્૦ ૬૪ ll
હવે સુત્રકાર અપદ (ચરણુ વિહીન જીવા) વિષયક બન્ને પ્રકારના ઉપક્રમનુ नि३५ ४२ छ. " से किं तं अपए उवक मे" इत्याहि
शहार्थ - (से किं तं अपए उवक्कमे १) शिष्य गुरुने थे। भश्न पूछे छे કે હે ભગવન્ ! અપદ ઉપક્રમનુ સ્વરૂપ કેવું હાય છે ?
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अनुयोगवारसत्रे आम्रातकानाम्-आम्रातकक्षाणां तत्फलानां च, इ. यादि । अयं भावः-आम्रादिवृक्षाणां वृक्षायुर्वेदोक्तपद्धत्या वृद्धिकरणं, तत्फलानां च गर्ने पलालादौ स्थापनादिना झटिति पक्वावस्थापादनं तत् परिकम विषयः अपद उपक्रमः । शस्त्रादिना च यदेषां विनाशकरणं तद् वस्तु विनाशविषयः अपद उपक्रम इति । स एषः अपदोपक्रमः । स एष सचित्तद्रव्योपक्रम इति ॥० ६५॥
अथ-अचित्तद्रव्योपक्रम निरूपयति
मूलम्--से किं तं अचित्तदव्योवक्कमे ? अचित्तदव्योवक्कमे खंडाईणं गुडाईणं मच्छंडीणं । से तं अचित्तदत्वोवक्कमे ॥ सू०६६॥
छया-अथ कोऽसौ अचित्तद्रव्योपक्रमः ? अचित्तद्रव्योपक्रमः खण्डादीनां गुडादीनां मत्स्यण्डीनाम् । स एषः अचित्त द्रव्योपक्रमः ॥६६॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-'से कि त' इत्यादि-अथ कोऽसौ अचित्तद्रव्यो क्रमः ? इति । उत्तरमाह-अचित्तद्रव्योपक्रमः-खण्डादीनां='खांड' इति
उदय से स्वयं चलन क्रिया नहीं होती हैं उनकी वृक्षायुर्वेदोक्त पद्धति से वृद्धि करना-खात आ दे डालकर उन्हें बढाने का उपक्रम करना उनके फलों को खड्डा आदि में भरकर पलाल आदि से उन्हें दबाकर के जल्दी पका लेना यह सब परिकर्म का विषय करनेवाला अपद उपक्रम है । तश शस्त्र आदि से इनका विनाश करना यह व तु विनाश विषयक अपद उपक्रम है। इसप्रकार यह दोनों प्रकारका उपक्रम अपद का द्रव्यापकन है। इस तरह यहां तक यह सचित्त द्रव्य संबन्धी उपक्रम का कथन है। ।।मु० ६५॥
ઉત્તર–આમ્ર (બે) આદિ જે વૃક્ષો અને તેમનાં જે જે ફળે છે. જેમના સ્થાવર નામ કર્મના ઉદયને લીધે જેઓ ચલન ક્રિયાથી રહિત હોય છે, તેમની વૃક્ષયુકત પદ્ધતિથી વૃદ્ધિ કરવી -ખાતર અદિ નાખીને તેમની સારી રીતે વૃદ્ધિ થાય એ પ્રયત્ન કરે, તેમના ફળને ખાડા આદિમાં ભરીને તેના પર પરાળ આદિ દબાવીને તેમને જરી પકાવવાનો પ્રયત્ન કરે, તેને પરિકમની અપેક્ષાએ અપદ ઉપક્રમ કહેવાય છે. તથા શસ્ત્ર આદિ વડે તે વૃક્ષાદિને વિનાશ કરે તેને વસ્તુ વિનાશવિષયક અપદ ઉપક્રમ કહે છે. આ પ્રકારે બન્ને પ્રકારના અપદ ઊપ. ક્રમનું નિરૂપણ અહીં પૂરું થાય છે, અને સચિત્ત દ્રવ્યાપકમના બધાં ભેદનું વર્ણન પણ અહીં સમાપ્ત થાય છે. સ. ૬પા
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अनुयोगचंद्रिका टीका सूत्र ६६ अचित्तद्रव्यापकमानिस पणम् भाषाप्रसिद्ध प्रभृतीनां, गुडादीनां-गुडप्रभृतीनं, मत्स्याङीनाम्-प्रतलगडादीना, 'राब' इति भाषाप्रसिद्धानां विज्ञेयः। अयं भावः-अचित्तानां खण्डगुड मरः यण्डीनां द्रव्याणामुपाय-विशेषेण यन्माधुर्याधिकयकरणं तत परिकम विषयः अचित्तद्रव्योपक्रमः । एषामेव यः सर्वथा विनाश करण तद् वस्तुविनाश विषयः अचित्त द्रव्योपक्रमः । एतन्निगमर नाह-'से त. इत्यादि । स एष अचित्त द्रव्योपक्रम इति ॥सू० ६६॥
अब मिश्रद्रव्योपक्रममाह
मूलम्--से कि तं मीसए दव्वोवक्कमे ? मीसए दव्योवक्रमे से चेव धासग आयंसगाइमंडिए आसाई । से तं मीसए दव्वोक्कमे । से तं जाणयसरीर भवियसरीर वइरित्ते दव्वोवक्कम। स तं नोआगमओ दव्योवक्कमे। से कि तं दव्योवक्कमे सू०६७॥
अब सूत्रकार अचित्त द्रव्योपक्रम का कथन करते हैं“से किं तं अचित्त दवावक्कमे' इत्यादि ।मत्र ६६॥
शब्दार्थ-(से किं तं अचित्तदव्योः कमे) हे भद त ! अचिन द्रव्योपक्रम का क्या स्वरूप है?
उत्तर-(खंडादीनां गुडादीनां मच्छंडीणं, अचित्तदश्वोरक्कमें) खांड, गुड और राब इन पदार्थों में उपाय विशेष से जो मधुरता की अधिकता करदी जाती है वह परिकर्म विषयवाला अचित्त द्रव्योपक्रम है ता इन्हीं पदार्थों का जो सर्वथा विनाश करदिया जाता है, वह विनाश विपयक अपित्त द्रव्योए म है । (सेत अचित्तदन्वेविक्कमे) इस तरह से अचित्त द्रव्योपक्रम का यह स्वरूप है। ॥मत्र ६६॥
હવે સૂત્રકાર અચિત્ત દ્રવ્યપક્રમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે –
" से किं तं अचित्तव्योवक्कमे" त्याह
शा-(मे कितं अचित्तद्रव्योवक्कमे?) शिष्य शुरुने मेयो प्रश्न पूछ । હે ભગવન્ ! અચિત્ત દ્રવ્યક્રમનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(खंडादीनां गुडादीनां मच्छ डीणां अचितदवो वक्कमे) wis, गण, ઈત્યાદિ પદાર્થોમાં ઉપાય વિશે દ્વારા મધુરતાની વૃદ્ધિ કરવા રૂપ જે ઉપક્રમ થાય છે, તેને પરિકમ વિષયને અચિત દ્રવ્યપક્રમ કહે છે. તથા એજ પદાર્થોને જે સર્વથા વિનાશ કરી નાખવા રૂપ ઉપકમ થાય છે તેને વિનાશ વિયક અચિત્ત द्रयो५४ ४ छ. (से तं अचित्ते दवे वक्कमे) मा प्रा२नु भयत्त द्रव्यो५ मनु २१३५ छ. ॥ १. १६ ॥
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अनुयोगद्वारे छाया-अथ कोऽसौ मिश्रको द्रव्योपक्रमः स एव स्थासकादर्शकादिमण्डितः अश्वादिः । स एष मिश्रको द्रव्योपक्रमः । स एष ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तोद्रव्योपक्रमः । स एष आगमतो द्रव्योपक्रमः। स एष द्रव्योपक्रम ॥०६७॥
टीका--शिष्य पृच्छति-से किं तं' इत्यादि । अथ वाऽसौ मिश्रको द्रव्योमकमः ? इति । उत्तरमाह- मिश्नक: सचित्ताचित्तात्मको द्रव्योपक्रमः-स्थासकादर्शकादि मष्टितः-स्थासकः अश्वाभरणविशेषः, आदर्श: वृषभनीवारण विशेषः, आदि शब्दात् कुङ्कुमादयः, एषां समासः, तैर्मण्डितःभूषितः अश्वा
अब सूत्रकार मिश्र द्रव्योपक्रम का कथन करते है“से किं तं मीसए दवावक्कमे" इत्यादि । ।मु० ६७॥
शब्दार्थ-(से किं तं मीसए दवावक्कमे) हे भदन्त ! मिश्र द्रव्योपक्रम क्या स्वरूप है?
उत्तर--(मीसए दवावक्कमे से चेव थासगआयंसगाइमंडिए आसाई-से त मी ए दवावक्कमे) सचिनात्मक-मिश्र-द्रव्योपक्रम का स्वरूप इस प्रकार से है-कि अचित्त स्थासक और आदर्श आदि से विभूषित हुए घोडे से लेकर बैल तक के जानवरों में जो शिक्षा आदि गुण की विशेषता करने का उपक्रम किया जाता है वह परिसम विपपक मिश्रद्रव्योपक्रम हे । स्थासक यह घोडे का आभरण विशेष है। आदर्श पह बैल का आभरण विशेष है। एडक शब्द का अर्थ मेष हैं। स्थासक-आदर्श और आदि पद से गृहीत कुंकुम का लेप
હવે સૂત્રકાર મિશ્ર દ્રપક્રમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે
“से कि त मीसए दवावकमे" त्यilk
शहाथ-(से कि त' मीसए दवावकमे?) शिष्य गुरुने मेवे प्रश्न पूछे छ - बसपान् ! मिश्र द्रव्यो५४ भनु २१३५ छ
उत्तर-(मीसए दवावक्कमे से चेव थासगआयंसगाइमंडिए आसाइ-से त मीपए दवावक्कमे) - સચિત્તાત્મક મિશ્ર દ્રપક્રમનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે- અચિત્ત સ્થાસિક, દર્પણ આદિથી વિભૂષિત થયેલા ઘડાથી લઈને બળદ પર્યન્તના જાનવરમાં જે શિક્ષા આદિ ગુણની વિશેષતા કરવાનો ઉપક્રમ કરવામાં આવે છે, તેને પરિકર્મ વિષયક મિશ્ર કવ્યાપક્રમ કહે છે. સ્થાસક આ ઘોડાનું એક ખાસ આભરણ છે भने पनी मा मनु मास२९ विशेष छ. 'एडक' मा ४ मेष (..) ને વાચક છે, સ્થાસ, દર્પણ, કુંકુમને લેપ આદિ અચિત્ત દ્રવ્યો છે તથા અશ્વ,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका स्त्र ६७ मिश्रद्रव्योपक्रमनिरूपणम्
२६५ दिः अश्वप्रभृत्येऽकान्तो विज्ञेयः । अयं भाष:-स्थानकादर्शकादि भूषितानां कृत
माना तेषामश्वायेडकान्तानां यच्छिक्षादि गुणविशेषा रण परिम मविषयः मिश्रद्रव्योपकमः। तेषां रङ्गादिभिविनाशस्तु रस्तुविनाश विषयो मिश्रद्रव्योपक्रम इति । अत्र-अश्वाद । सचेतनत्वात् स्थानकादीनाम् अचेतनत्वात् मिश्र द्रव्यत्व बोध्यम् । एतदुपसंहरन्नाह से त' इत्यादि । स एष मिथका द्रव्योपक्रम इति । ज्ञायकशरीरभव्यशरीरच्यतिरिक्तो द्रव्योपक्रमः म्कलोऽपि निरूपित इति सूचयितुमाह-'से तं' इत्यादि । स एष ज्ञावर शरीभव्यशरीव्यतिरिक्तो द्रव्योपक्रम इति । नोआगमतः सर्वोऽपि द्रव्योपत्रमो निरूपित इति सूचयितुमाह'से तं' इत्यादि। स एष नोआगमतो द्रव्योपक्रम इति। द्रोपत्रमः सर्वो निरूपित इति मुरयितुमाह-'से त इत्यादि । स एप द्रव्योपक्रम इति । मृ०६७॥ ये सब अचित्त द्रव्य है। तथा अश्व वगैरह सचित्त द्रव्य है। इन से जब इन सचित्त पदार्थों को विभूषित किया जाता है-तब ये मिश्र ;व्य कहलाते हैं । इन में जो शिक्षा गुण से विशेषता का आपादन होता है यही मिश्र द्रव्योपक्रम का स्वरूप परिकर्म की अपेक्षा लेकर कहा गयो है। त ब इनका खग आदि विनाशक कारणों से विन श हो जाता है तब वह विनाश को लेकर मिश्र द्रव्योपक्रम का स्वरूप कहा जाता है। यही मिश्रद्रव्योपक्रम है। (से त जाणयसरीरभवियसरीरवरित दव्योवक्कमे) इस प्रकार ज्ञायकशरीर द्रव्योपक्रम और भव्यशरीर द्रव्योपक्रम से व्यतिरिक्त द्रव्योपक्रम का स्वरूप कहा है। (से तनोआगमओ दव्योवरकमे-से त दबोवपक्कमे) नोआगम की अपेक्षा लेकर यह द्रव्योपक्रम का स्वरूप पूर्णरूप से निरूपित બળદ, ઘેટાં આદિ સચિત્ત દ્રવે છે. આ સચિત્ત અધ આદિ જાનવરોને જયારે ઉપર્યુંકત સ્થાસક, પણ આદિ અચિત્ત દ્રવ્ય વડે વાત કરવામાં આવે છે, ત્યારે તેઓ મિથ દ્રવ્ય રૂપ બની જાય છે. એવાં મિશ્ર દ્રવ્ય રૂપ સ્થાસકથી વિભૂષિત અવાદિમાં જે શિક્ષા આદિ ગુણની વિશેષતા કરવાને ઉપકમ થાય છે તેનું નામ જ પરિક વિષયક મિશ્ર દ્વપક છે. અને તેને તલવાર આદિ શસ્ત્રો વડે વિનાશ કરવાને જે ઉપક્રમ થાય છે, તે ઉપકાને વિનાશ વિષયક મિશ્ર દ્રપકમ કહે છે. આ પ્રકારનું મિશ્ર દ્રપક્રમનું સ્વરૂપ છે.
(से त जाणयसरीरभवियसरीग्वरित दवायक्कमे)
આ પ્રકારે સાયકશરીર દ્રવ્યો પકેમ અને ભવ્ય શરીર દ્રવ્યપક્રમથી વ્યનિરિકત (सि-न) सेवा २०५४मा २५३५नु (न३५ 8 ५३ थय छ. ( से तं नो आगमआ दयोक्कमे से तदथ्योरक्कम) 20 ते नाम द्रव्या५मना
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अनुयोगभर
अथ क्षेत्रोपक्रम निरूपयतिमूलम् - से किं तं खेतो मे ? खेत्तोवक्कम जवणं हलकुलियाखेत्ताइं उवक्कमिजंति । स तं खेत्तोवक्कम ॥ सू० ६८ ॥
छाया - अथ काऽसौ क्षेत्रोपक्रमः १ क्षेत्रोपक्रमो यत्खलु हलकुलिकादिभिः क्षेत्राण्युपक्रम्यन्ते । स एप क्षेत्र पक्रमः ॥ ६८ ॥
टीका - शिष्यः पृच्छति -- से किं तं इत्यादि । अथ के सौ क्षेत्रोपक्रमः १ इति ।
उत्तरमाह - क्षेत्रोपत्र मः - क्षेत्राणामुपक्रम :- क्षेत्रसम्बन्ध्युपक्रमः यत्खलु हलहो चुका। इसके निरूपण होने से द्रव्योपक्रम का समस्त स्वरूप भी निरूपित हो गया ऐसा जानना चाहिये ।
भावार्थ - सचित्ताचित्त द्रव्य में जो विशेषता का आपादन किया जाता है वह परिकर्म विषयवाला मिश्र द्रव्योपक्रम हैं और सचित्ताचित्तरूप मिश्र द्रव्य जो खादिविनाशक कारणों से विनाश किया जाता है, वह विनाश विषयक सचित्ताचित द्रव्योपक्रम है - इस प्रकार यहां तक द्रव्योपक्रम से संबन्धित जितना भावर्णन है वह सब सूत्रकार ने कर दिया है | ॥ ६७॥
अब इत्रकार क्षेत्री र म का स्वरूप प्रकट करते है" से किं त खेत्तोवक्कमे" इत्यादि । सूत्र ॥ ६८ ॥
शब्दार्थ - ( से किं तं खेत्तोवक्कमे ) हे भदन्त ! क्षेत्रोपक्रम का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (खेत्तोवक्कमे जण्णं हलकुलियाईहिं खेला उवक्कमिज्जति-से
17
ભેદેશના સ્વરૂપનું નિરૂપણુ અહિ' સંપૂર્ણ થાય છે, અને તેનુ નિરૂપણુ થઇ જવાને લીધે દ્રવ્યાપક મના બધા ભેદો અને પ્રભેદનુ નિરૂપણ પણ સંપૂર્ણ` થઇ જાય છે એમ સમજવુ.
ભાષા-સચિત્તાચિત્ત દ્રશ્યમાં (મિશ્ર દ્રશ્યમાં) જે વિશેષતાનું આપાદન કરવામાં આવે છે, તે પરિકમ વિષયક મિશ્ર દ્રવ્યાપક્રમ છે. અને સચિત્તાચિત્ત રૂપ મિશ્ર કન્યાને જે શસ્ત્રાદિ રૂપ વિનાશક કારણા વડે વિનાશ કરવામાં આવે છે, તેને વિનાશ વિષયક શ્ર દ્રન્ગેાપક્રમ કહેવાય છે. આ રીતે અહી સુધીમાં ૬ન્યાપક્રમ સાથે સંબંધ રાખનારૂ એવું સમસ્ત વર્ણન સૂત્રકારે સમાપ્ત કર્યું" છે. ૫ સ૦ ૬૭૫ હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રેપક્રમના સ્વરૂપનું' નિરૂપણ કરે છે— " ( से किं तं खत्तोवक्कमे ) " त्याहि
शद्वार्थ - " से किं तं खेत्तोवक्कमे" हे भगवन् क्षेत्रोपमनु शु स्व३५ १ (नोवयक मे जष्णं हलकुलिया ईहि खेतो
उबवमिति से त
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अनुयोग बन्द्रिक टीका. स. ६८ क्षेत्रोपक्रम निरूपणम्
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कुलिकादिभिः - इथं प्रसिद्वन् कुलिकं = हल विशेषः तत् लघुतरं काष्ठं खलु तृणादिच्छेदनार्थमुपयुज्यते । तदादिभिः क्षेत्राणि उपक्रम्यन्ते - वीजवपनयेाग्यानि क्रियन्ते। अयं भावः - हलकुलिका दिमिः क्षेत्राणां यद्रीजवपनयोग्यता रणं तत्परिकर्म विषयः क्षेत्रेापक्रमः । तथा - गजबन्धनादिभिर्यत् क्षेत्राणि उपक्रम्यन्ते - विनाश्यन्ते, तद् बस्तु विनाशविषयः क्षेत्रोपक्रमः । गजपुरि दिना क्षेत्रगतची जप्ररोहणशक्ति विनाश ते इति विनष्टानि क्षेत्राण्युच्यन्ते । हत्य द्विविधः क्षेत्रोपक्रमो बाध्य इति ।
ननु क्षेत्रगत पृथिव्यादि द्रव्याणामेव एतौ परिकर्मविनाशौ । इत्थं च तं खेतो मे ) क्षेत्रोपक्रम का स्वरूप इस प्रकार से हैं कि जो हल एवं कुलितृणादिको खेत में से दूर करने के लिये काम में लिये गये एक प्रकार का ह जैसा लघुतर काष्ठ-आदि से जोत हर खेन बीज वपन (बोने) के योग्य बनाये जाते हैं वह क्षेत्र का स्वरूप है । यह क्षेत्रोपक्रम परिपकर्म और विनाश को लेकर दो प्रकार का है- इनमें जो हल आदि से जोतकर क्षेत्र को बीजोत्पादन की योग्यतावाला बनाना यह परिक्रमं विषयक क्षेत्रेोपक्रम है तथा खेतों में हाथी आदि कों को बांधकर उन्हें बीजवपन (बेने) के अयोग्य बना देना यह वस्तु विनाश विषय क्षेत्रोपक्रम है। हाथी की मूत्र और लिंडों से खेत में बीजोत्पादन करने की शक्ति का नाश हो जाता है। इस प्रकार यह दोनों प्रकार का क्षेत्रापक्रम जानना चाहिये ।
शंका - परिकर्म और विनास जो होते हैं वे क्षेत्रगत पृथिवी आदि द्रव्यों के ही होते हैं
खेत्तोवक मे) क्षेत्रमनु स्व३५ मा प्राछे ने हज रमने मुसिङ (जेतरमांथी તૃદિને દૂર કરવાને માટે એક પ્રકારનું હળ જેવું લઘુતર કાષ્ઠ વિશેષ વપરાય છે તેનુ નામ કુલિક છે.) આ વડે ખેડીને ખેતરને ખીજ વાવવાને યાગ્ય બનાવવાનું કાર્ય થાય છે તેને ક્ષેત્રાપક્રમ કહે છે. તે ક્ષેત્રેપક્રમના પરિકમ અને વિનાશની અપેક્ષાએ એ ભેદ પડે છે. હુળ આદિ વડે ખેડીને ખેતરને જે બીજોત્પાદનની ચેમ્ય તાવાળુ બનાવવાના ઉપક્રમ (પ્રયત્ન) થાય છે, તેને પરિકમ વિષયક ક્ષેત્રોપક્રમ કહે છે. તથા ખેતરમાં હાથી આદિને બાંધીને તેને બીએપાદનને માટે અયેગ્ય બનાવવાના જે ઉપક્રમ થાય છે તેને વિજ્ઞાશ વિષયક ક્ષેત્રોમ કહે છે. એવુ' માનવામાં આવે છે કે હાથીના મૂત્ર, મળ આદિ જે ખેતરમાં પડયું હોય તે ખેતરની બીજોઉત્પાદન શકિતનો નાશ થઇ ાય છે આ પ્રકારે અહીં બન્ને પ્રકારન ક્ષેત્રપરિક નુ સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ` છે.
શકા— પરિકમ અને વનથ જે થાય છે તે તે ક્ષેત્રગત પૃથ્વી આદિ ન્યાના જ થાય છે. તેથી તેને ક્ષેત્રોપક્રમ કહેવાને બદલે દૂ૨ાપક્રમ જ કહેવા
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अनुयोगदारसत्रे द्रव्योपक्रम एवायं न तु क्षेत्रापक्रमः, तहि कथं क्षेत्रोपत्रमः ? इति चेत्, उच्यतेक्षेत्रं हि आकार मुच्यते, तस्य चामूर्तत्वात्तदुपक्रमो न संभवति, तथापि तदाधेयत्वेन स्थितानों पृथिव्यादि द्रव्याणां य उपक्रमः स क्षेत्रोऽप्युपचर्यते । लोकेऽपि यथा 'मञ्चाः क्रोशन्ती'-त्यादौ आधे यतधर्माणामाधारे उपचारा भवति । उक्तंचापि
"खेत्तमरूपं निबं. न त स परिकम्मणं न य विणासे।।
आहेयगयवसेण उ, करणविणासावयारो उ" ॥ १ ॥
इसलिये यह क्षेत्रोपक्रम न होरर द्रव्यापक्रम ही हुआ फिर इसे क्षेत्रोपक्रम कैसे कहा___उत्तर-क्षेत्र शब्द का अर्थ आकाश है। और यह आकाशरूप क्षेत्र अमृत है-अतः इसका उपक्रम नहीं होसरता है। फिर भी इस में आधेय रूप से वर्तमान जो पृथिविव्यादि द्रव्य है, उनका तो उपक्रम होता है इसलिये उनका उपक्रम आरारूप आकाश में उपचरितकर लिया जाता है। इसलिये क्षेत्रापक्रम बन जाता है। लोक में भी जैसे "मञ्चा:क्रोशन्ति" मंचबोलते हैं। खेत रक्षा के लिये खेत के लिये खेत के पाली पर जा घरविशेप बनाते हैं उसका मंच कहते हैं, मंच बोलते हैं ऐमा जो कह दिया जाता है-वह आधेय रूप पुरुषादिकों के धर्मों को आधार में उपचरित करके ही कहा जाता है- कहा भी है-'खत्तमस्वे' इत्यादि-उस का अर्थ यही है कि क्षेत्र तो अरूपी और नित्य है। उपका न परिकम हो सकता है और न विनाश,
જોઈએ. છતાં અહીં તેને ક્ષેત્રપક્રમ રૂપે શા માટે પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે?
ઉત્તર–ક્ષેત્રા શબ્દનો અર્થ આકાશ થાય છે, અને આ આકાશરૂપ ક્ષેત્ર અમૂર્ત છે તેથી તેનો ઉપક્રમ થઈ શકતું નથી. છતાં પણ તેમાં આધેય રૂપે વતમાન જે પૃથ્વી આદિ દ્રવ્ય છે તેમને તો ઉપક્રમ થાય છે. તેથી તેમને ઉપક્રમ આધાર રૂપ આકાશમાં ઉપચરિત કરી લેવામાં આવે છે. તેથી ક્ષેત્રોપકમ ઘટિત થઈ जय छे. सोमा ५५ "मञ्चाः क्रोशन्ति" "भय मा छ," मे ४ामा આવતું હોય છે. ખેતરની રક્ષા માટે એક માંચડો બનાવ્યો હોય છે. ત્યાં બેઠો બેઠે કે પુરુષ ખેતરની રખેવાળી કરે છે મંચ પર બેઠેલો પુરુષ બેલતે હોય ત્યારે કેટલીક વખત “મંચ બોલે છે,” આ પ્રકારને પણ વ્યવહાર થતો જોવામાં આવે છે. આધેય રૂ૫ પુરૂષના ધર્મોને આધાર રૂપ મંચમાં ઉપચરિત કરીને આ प्रमाणे वामां आवे छे. ४[ ५५ छे , "खेत्तमरूवे" त्याहि-सत्रा. ઠને પણ એ જ અર્થ છે કે ક્ષેત્ર તે અરૂપી અને નિત્ય છે. તેનું પરિકમ
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अनुयोगचन्द्रिकाटीका ख. ६९ कालोपक्रमनिरूपणम्
छ. या -- क्षेत्रमरूपं नित्यं न तस्य परिकर्म न च विनाशः । करणविनाशोपचारान
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आधेयगतवशेनैव
॥ इति ।
इत्थं च 'क्षेत्रोपक्रमः' उत्तरपि न दोषः । सम्प्रति प्रकृतमुपसंहरन्नाह - 'से तं' इत्यादि । स एष क्षेत्रोपक्रम इति ॥ मु० ६८ || अथ कालपक्रमं निरूपयति
मूलम् - से किं तं कालोवक्कमे ? कालोवक्कमे जण्णं नालियाई हिं कालस्सोवक्कमणं कीरइ । से तं कालोवक्कमे ॥ सू० ६९ ॥
छाया-अथ केाऽसौ कालापक्रमः १ कालापक्रमा यत्खलु नालिकादिभिः कालस्योपक्रमणं क्रियते । स एष कलापक्रमः ॥ ६९ ॥
टीका -- शिष्यः पृच्छति -- 'से कि त' इत्यादि ? इति । उत्तरमाह - कालक्रमो हि स भवति, यत्खलु नालिकादिभिः - नालिया - ताम्रादिमय घटिका,
परन्तु क्षेत्र में जो करण और विनाश वा व्यवहार होता है वह आत्रेयगतवस्तु के चरण और विनाश के उपचार से होता है । इस प्रकार क्षेत्रोपक्रम कहने में ई दोष नहीं हैं। इस तरह यह क्षेत्रोपक्रम का स्वरूप हैं ||०६८।। अब सूत्रकार वालेोपक्रम को स्वरूप प्रकट करते हैं
"से किं तं कालावक मे" इत्यादि । ॥ ६९॥
शब्दार्थ- (से किं तं कालावकमे) हे भदन्त ! काले |पक्रम यां क्या स्वरूप हैं ? ( कालावकामे जणं नालियाई हिं कालस्से विक्कमणं की रह से तं काला कम) कालोपक्रम का स्वरूप इस प्रकार से है - जो नालिका तथा घटी आदि से कालका यथावत् स्वरूप परिज्ञात हो है - वह कालोपक्रम है । ताम्रआदि का एक छोटी सी घटी પણ થઈ શકતુ નથી અને તેના વિનાશ પણ થઇ શકતા નથી. પરન્તુ ક્ષેત્રમાં જે કરણ અને વિનાશના વ્યવહાર થાય છે. તે આધેયગત વસ્તુના કરણ અને વિનાશના ઉપચારની અપેક્ષાએ થાય છે. આ પ્રકારે તેને ક્ષેત્રાપક્રમ કહેવામાં કોઇ દોષ નથી. આ પ્રકારનું ક્ષેત્રાપક્રમનું સ્વરૂપ છે !! સ્૦ ૬૮ ॥
जाता
" से किं तं कालो वक्कमे" छत्याहि
शब्दार्थ-(से किं त' कालोवक्कमे ?) शिष्य गुरुने भेवे। प्रश्न पूछे छे ! ભગવન્ ! કાલેાપક્રમનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्तर- (कालोबक्कमे जष्णं नालियाहिं कालस्सोवक मगं
कालोवक्कमे ) आयो भनु સ્વરૂપ આ પ્રકારે કહ્યું યથાવત્ સ્વરૂપનું જે પરિજ્ઞાન થાય છે તેનું નામ
की रह से तं ઃ- નાલિકા આદિ વડે કાળના કાલેપક્રમ છે. તામ્ર માહિની
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बनुयोगदारी इयं हि दाडिमपुष्पाकाराऽधच्छिया भवति। अधश्छिद्रेण नालिका मध्ये जलं प्रविशति । जलेन भृतायां नालकायां कालमानो निश्चीयते । आदि पदात् शङ्कच्छाय नक्षत्रचारादयोऽपि बोध्याः । एभिरपि कालो मीयते । एतैः-कालमापकसाधनैः कालस्योपक्रमगं क्रियते । अयं भावः-नालिकाशर्कुच्छायानक्षत्रचारादिभिर्यत् 'एतावान् पौरुष्यादिकालोऽतिक्रान्तः' इति परिज्ञायते स परिकर्मविषयः कालोपक्रमः । अत्र कालस्य यथावत्परिज्ञानमेव परिकम बोध्यम् । ता-नक्षत्रादि चारैः कालस्य यद् विनाशनं स वस्तुविनाशविषयः कालोपक्रमः । श्रूयते हि लोके बनाई जाती है। उसका आकार दाडिम-अनाके पुष्प जैसा होता है ? इसके नीचे एक छे। हेाता है ? नीचे के छे। से इसमें जल पविष्ट होता है ।जब यह जल से भी जाती है तो इससे काल का मान निश्चित किया जाता है। यहां पर आदि पर से शंकुच्छा । और नक्षत्रों की चाल
आदि ग्रहण हुई है । इन से भी काल का मान जाना जाता है । इस त ह इन कालमापक साधनों से काल का उपक्रम किया जाता है। तात्पर्य कहने का यह है कि इन नालिका-शंकुच्छाया और नक्षत्रचाल आद से जो "इतना पौरुषी आदिकाल व्यतीत हो चुका' सा जाना जाता है बह परिकर्म विषयवाला कालोपकम है । काल का यथावत् परिज्ञान होना ही यहाँ परिर्म जानना चाहिये । तथा नक्षत्र आदिकों की चाल से जो काल का विनाश होता है वह व-तु वेनाश वि कालोका है। लो में ऐसा
એક નાની સરખી ઘડિયાળ બનાવવામાં આવે છે. તેને આકાર દાડમના પુષ્પ જેવો હોય છે. તેની નીચે એક છિદ્ર હોય છે. આ સાધનને પાણીથી ભરેલા કેઈ પાત્રમાં મૂકવામાં આવે છે. તે છિદ્ર દ્વારા તેમાં પાણી દાખલ થવા માંડે છે. જ્યારે તે સાધન (નાલિકા) જળઘડી પાણીથી ભરાઈ જાય છે ત્યારે તેની મદદથી કાળનું માપ નિશ્ચિત કરવામાં આવે છે. અહીં “આદિ પદ વડે શંકુરછાયા અને નક્ષત્રની ચાલ આદિ ગ્રહણ થયેલ છે. તેમની મદદથી પણ કાળનું માપ નીકળી શકે છે. આ પ્રકારે આદિ કાલમાપક સાધન વડે કાળને ઉપક્રમ કરવામાં આવેલ છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે આ નાલિકા (જળઘડી) શંકુછાયા (સૂર્ય ઘડી)
અને નક્ષત્રોની ચાલ આદિ દ્વારા “આટલા પર આટલી . ઘડી આદિ વ્યતીત થઈ ગયા આ પ્રકારનું કાળવિષયક જે જ્ઞાન થાય છે તેને પરિકર્મ કાપકમ કહે છે. કાળનું યથાત્ પરિજ્ઞાન થવું તેનું નામ અહીં પરિકર્મ સમજવું. તથા નક્ષત્ર આદિકની ચાલથી કાળને જે વિનાશ થાય છે, તે વસ્તુવિનાશવિષયક કાપક્રમ સમજે. જેમાં એવી વાત થી સાંભળ
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अनुलोमचन्द्रिका टीका. ५० ६२ सचित्तद्रव्योपक्रमनिरूपणम् २७१ 'अनेन ग्रहन्भत्रादिचारेण कालो विनाशितः, न भविष्यन्त्यधुना धान्यानि'इति । उक्तं च
"छायाए नालियाए, व परिकम्म से जहत्थं बिन्नाणे ।
रिक्खाइयचारे हि य, तम्स विणासो विवज्जासो ॥१॥ छाया-छाया नालि.कया वा परिकर्म तस्य यथार्थ विज्ञानम् ।
ऋक्षादिकचारैश्च. तस्य विनाशो विपर्यासः ॥१॥
इत्थं वस्तु विनाशवि यः कालोपक्रमो बोध्यः। प्रकृतमुपसंहरन्नाह-'से तं' इति । स एषकालोपक्रम इति ॥६९॥
अथ भावोपक्रम निरूपयति--
म्लम्-से किं तं भावोवक्कमे ? भावोवक्कमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा आगमओ य नोआगमओ य । आगमओभावोवक्कमो नाणए उववत्ते । नोआगमओ भावोवक्कमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पसत्थे, य अपसत्थे य । तत्थ अपसत्थे डोडिणिगणिया अमच्चाईणं । पसत्थे गुरुमाइणं । से तं नोआगमओ भावोरक्कमे । से तं भोवोवक्कम । से तं उवक्कम ॥सू०७०॥
सुना जाता है कि इस ग्रह नक्षत्र आदि की चाल से काल नष्ट हो गयाअब अनाज पैदा नहीं होगा । वहा भी है-'छायया' इादि उसका अर्थ इस प्रकार से हैं कि छाया से अथवा नालिका से जो काल का यथार्थ परिज्ञान है वह परिकम है। तथा नक्षत्रादिकों की गति से उसमें जो विपरीत ता है वह काल का यह वस्तु विनाश विषयक कालोपक्रम है। इस तरह से यह कालोपक्रम का स्वरूप वर्णन है। ॥० ६९॥
વામાં આવે છે કે આ નક્ષત્રની ચાલ આદિથી કાળ નષ્ટ થઈ ગયે-હવે અનાજ पे नही थाय. पृथु ५२ छ - "छाया" Uत्याह-मा सूत्रपाइने। मावा नये પ્રમાણે છે છાયાથી અથવા નાલિકા આદિથી જે કાળનું યથાર્થ પરિજ્ઞાન થાય છે તેનું નામ પરિકર્મ છે, તથા નક્ષત્રાદિકોની ગતિથી તેમાં જે વિપરીતતા આવે છે, તે કાળના વિનાશરૂપ છે. આ પ્રકારના કાળના વરતુવિનાશ વિષયક આ કાળોપક્રમ છે. આ પ્રકારે કાલેપકમના વિષયનું નિરૂપણ અહીં સંપૂર્ણ થાય છે, જે સૂ. ૬૯ છે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे
छाया -- अथ कोऽसौ भावोपक्रमः ? भावोपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाआगमतश्च नोआगमतश्च । आगमतो भावोपक्रमो ज्ञायक उपयुक्तः । नोआगमता भावोपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - प्रशस्तश्चाप्रशस्तश्च । तत्र - अप्रशस्तो डोडिणि गणिकाऽमात्यादीनाम् । प्रशग्तो गुर्वादीनाम् । स एष नोआगमतो भावोपक्रमः । स पप भावोपक्रमः । स एष उपक्रमः ॥ ७० ॥
टीका -- शिष्यः पृच्छति - 'से किं तं' इत्यादि । अथ कोऽसौ भाव पक्रमः १ इति । उत्तरमाह - भावोपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा - आगमतश्च नोआगमतश्च । तत्र - आगमतः । आगममाश्रित्य उपक्रमो हि ज्ञायक: = उपक्रम शब्दार्थज्ञः उपयुक्त = उपक्रमे उपयोगवांश्च बोध्यः । अयं भावः - उपक्रम -
अब सूत्रकार भावापक्रम का निरूपण करते हैं" से किं तं भावावकमे इत्यादि | | ० ७० ॥ शब्दार्थ - (से किं तं भावेोवक मे) हे स्वरूप है ?
भदन्त ! भावोपक्रम का क्या
उत्तर--(भावावक दुविहे पण्णत्ते) भावेोपकम दो प्रकार का हा गग है । (तं जहा ) उसके वे प्रकार ये हैं - ( आगमओ य नाआगमओ य) १ आगम hr आश्रित करके भाव कम होता है और दूसरा नोआगकेा आश्रित करके भः वाक्रम होता है. ( जाणए उवउत्त आगमओ भावावक्कमे ) जो उपक्रम शब्द के अर्थ का जानता है और उसमें उपयोग से युक्त है वह आगम से भावापक्रम है ।
હવે સુત્રકાર ભાવેાપક્રમનું નિરૂપણ કહે છે " से किं तं भावविकमे" त्याहि
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हार्थ - (सेतं भावेावक मे ?) शिष्य गुरुने सेना प्रश्न पूछे छे है હે ભગતમ્ ! ભાવેાપક્રમનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर- (भावावक दुविहे पण्णत्ते) लावो मना मे अमर उद्या छे. (तं जहा ) તે એ પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે.
(आगमओ य, आगमओ य ) (१) आगमने आश्रित उरीने ने लावायभ થાય છે તેને ‘આગમ ભાવેાપક્રમ' કહે છે. (૨) નાઆગમના આશ્રિત કરીને થતા भावेोपडभने–“न।आगम लावेोपभ” हे छे. (जाणए उवउने आगमओ भावावक कमे) જે ઉપક્રમ શબ્દના અને જાણે છે અને તેમાં ઉપયેાગથી યુકત છે, તે આગમની અપેક્ષાએ ભાવેાપક્રમ છે. આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે–ઉપક્રમ અને ઉપાય, આ બન્ને એકાક શબ્દો છે. ભગવાન તીર્થંકર દ્વારા કથિત અનુશાસનના જ્ઞાનના
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अनुयोगपन्द्रिका टीका सूत्र ७० नोआगमतो भावोपक्रममनिरूपणम् २७३ उपायः, स चेह-भगवदनुशासनज्ञानसाधनरूपो ग्राह्यः । उक्तं च--
"सोचा भगवाणुमासणं, सच्चे तत्थ करेज्जुवक्कम ॥” । छाया-श्रुत्वा भगवदनुशासनं सत्यं तत्र कुर्यादुपक्रमम्-इति
व्याख्या-सत्यं यथार्थ भगवता तीर्थ करेण प्रोक्तमनुशासनं श्रुत्वा तत्र अनुशासने उपक्रम तत्प्राप्युपायं कुर्यात्-इत्यर्थः।
. इत्थं च भगवटुक्तानुशासनप्राप्त्युपोयज्ञस्तत्रोपकमे उपयुक्तश्च आगमतो मावोपक्रम इति ।
नोआगमतो भावोपक्रमोऽपि द्विविधः प्रज्ञप्तः । तद् यथा प्रशस्तश्च, अप्रशस्तश्च । इह भावशब्दः-अभिप्रायाख्यो जीवद्रव्यपर्यायोऽभिमतः। उक्त च-भावाभिख्याः पञ्च स्वभावसत्ताऽऽत्मयोन्यभिमाया इति । ततश्च-भावस्य
इसका भाव यह है कि उपक्रम और उपाय ये एकार्थक शब्द हैभगवान् तीर्थ कर द्वारा कथित अनुशासन के ज्ञान का साधनरूप वह उपक्रम यहां ग्राह्य हुआ है। अन्यत्र ऐसा ही कहा है-(साच्चा) इत्यादि । कि भगवान् के द्वारा कथित अनुशासन बिलकुल सत्य है-उसे श्रवणकर श्रोता का कर्तव्य है कि वह उसकी प्राप्ति का उपाय करें। इस प्रकार भगवदुक्त अनुशासन की प्राप्ति का उपाय जानने वाला ज्ञाता उस उपक्रम में उपयुक्त होता हुआ आगम से भावोपक्रम है। (नोत्रागमओ भावविक्कमे दुविहे पण्णत्ते-त जहा) नो आगमको आश्रित करके भावोपक्रम दो प्रकारका कहा गया है। जैसे (पसत्थे य अपसत्थे य) एक प्रशस्त और दूसरा अप्रशस्त । यहां पर भाव शब्द का अर्थ अभिप्राय है और यह जीव द्रव्य का पर्यायरूप से माना गया है। कहा भी है (भावाभिख्याः ) भावके पांच नाम हैं स्वभाव १, सत्ता २, आत्मा३, योनि ४, और अभिप्राय ५ । इस तरह साधन३५ ते ७५म सही ग्राह्य थयो छ. अन्यत्र १५ मे ॥ छ । 'सोचा" ઈત્યાદિતીર્થકર ભગવાન દ્વારા કથિત અનુશાસન સર્વથા સત્ય છે. તેને શ્રવણ કરનાર શ્રાવકનું તેની પ્રાપ્તિનો ઉપાય કરવાનું કર્તવ્ય થઈ પડે છે. આ પ્રકારે ભગ વદુકત અનુશાસનની પ્રાપ્તિને ઉપાય જાણનાર જ્ઞાતા તે ઉપક્રમમાં ઉપયુકત ઉપયોગ પરિણામથી યુક્ત) હોવાને કારણે આગમની અપેક્ષાએ ભાપક્રમરૂપ હોય છે. _ (नोआगमओ भावविक्कमे दविहे पण्णते) नासागम ला५म में प्रश्न यो छे. (तं जहा) तमे प्रा। नीय प्रभाले छ- (पसत्थे य अपसत्थे य) (१) પ્રશસ્ત અને (૨) અપ્રશસ્ત અહીં ભાવ શબ્દને અર્થ અભિપ્રાય છે, અને તે જીવप्र०यनी पर्याय३५ भानपामा मा०ये। छ. युं ५५ छ "भावाभिख्याः " भावना पांय नाम न2 प्रमाणे छ-(१) २१मा, (२) सत्ता, (3) मात्मा, (४) यानि
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अनुयोगासने परकीयाभिप्रायस्य उपक्रमणं यथावत्परिज्ञान भावोपक्रम इति । तत्र-द्विविधे नोआगमतो भावोपक्रमे, अप्रशस्ता भावोपक्रमः-डोडिणि गणिकाऽमात्यादीनां बोपः । अयमाशयः-डोडिणिनाग्न्या ब्राह्मण्या गणिकया अमात्येन च यत् पराभिप्रायरूपस्य भावस्य यथोवत् उपक्रमः-परिज्ञानं कृत तद् नोआगमतोऽपशस्त भागोपक्रमः । अप्रशस्तत्वं चास्थ संसारफलत्वात्, इति । डाडिण्यादि भि था पराभिप्रायः परिज्ञान: प्रसङ्गशात्तदुच्यते
आसीत्काऽपि डोडिणि नाम्नी ब्राह्मणी। तस्या आसंस्तिस्त्रो दहितरः । साताः परिगाय्यैवं चिन्तितवती-जामाणामभिप्रायं परिज्ञाय दुहितरः शिक्षणीयोः परकीय भाव अभिप्रायका यथावत् पग्ज्ञि न होना इस का नाम भावोपक्रम है । (तत्थ) नोआगम की अपेक्षा से द्विविध हुए भावापक्रम में जो अप्रशस्त भावोपक्रम है-वह डोडिणि ब्राह्मणी गणिका, और अमात्य आदि कों में जानना चाहिये । डोडिणि नाम की ब्राह्मणी एक बेश्या और एक अमात्य था सब पर के अभिप्राय का जो यथावत् परिज्ञात कर लिया करते थे वह उनका नोआगम से अप्रशस्त भावोपक्रम था । अप्रशस्तता इस में इमलिये है कि यह संसाररूप फल का जनक होता है।-डोडिणि आदि ने जिस प्रकार से पर का अभिप्राय जाना-प्रसंगवश उसे यहां दर्शाया जाताहै___एक कोई डोडिणी नामकी ब्राह्मणी थी। उसकी ३ तीन लडकिया थीं। उनका उमने विवाह करदियो ! विवाह करने के बाद उसने सोचा कि में जामाताओं के अभिपाय को ज्ञात कर अपनी इन पुत्रियों को शिक्षित कर भने (५) भनिभाय. मा शते ५२8ीय भावनु (माजप्रायनु) यथार्थ परिज्ञान यत् તેનું નામ ભાવોપકમ છે. (તથ) આગમભાવપક્રમના જે બે પ્રકારો કહેવામાં આવ્યા તેમને જે અપ્રશસ્ત ભાવપક્રમ કહ્યો છે તેને સદૂભાવ ડેડિણિ બ્રાહ્મણી, ગણિકા અને અમાત્ય વગેરેમાં જાણવે. હવે આ ડિણિ બ્રાહ્મણી આદિના અપ્રશસ્ત ભાવપકમને સમજાવવાને માટે અહીં તેમની કથા આપવામાં આવી છે. તે ત્રણે બધાંના અભિપ્રાયને પરિસાત કરવાને સમર્થ હતા. તેમને તે ભાપક્રમ નેઆગમની અપેક્ષાએ અપ્રશસ્ત ભાવપક્રમરૂપ હતું. તેમને ભાવપક્રમ અપ્રશસ્ત તે કારણે હતું કે તે સંસારરૂપ ફલને જનક હતે. ડેડિણિ આદિએ જે પ્રકારે અન્યને અભિપ્રાય જાણે હતું તે પ્રકારનું અહીં પ્રસંગવશ કથન કરવામાં આવે છે–કે એક ગામમાં ડેડિણી નામની એક બ્રાહ્માણી રહેતી હતી. તેને ત્રણ પુત્રીઓ હતી. તેણે તે ત્રણેના વિવાહ કરી નાખ્યા. પુત્રીઓને વિવાહ કર્યા બાદ તેને એવો વિચાર આવ્યું કે ત્રણે જમાઈઓને અભિપ્રાય (સ્વભાવ) જાણી લઈને મારે મારી પુત્રીઓને એવા પ્રકારની શિક્ષા આપવી જોઈએ કે તે શિક્ષાને અનુરૂપ જીવન
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अनुवोनचन्द्रिका टीका. सू. ७० नोआगमतो भावोपक्रमनिरूपणम् २७५ यवैताः सुखिताः स्युः इति विचिन्त्य तया सर्वा दुहितर एवमुक्ताः-युष्माकं पतयो यदा व स्व शयनागारे समागच्छेयुस्तदा युष्माभिः-कंचि दोष मुद्भाव्य स्व स्वपतिः शिरसि पादप्रहारेण ताडनीयः। तदा युष्मत्पतयो यत्कुर्युस्तन्मह्य निवेदयत । एवं जनन्या प्रोक्ते सति ताः सर्वाः पुत्रिकाः स्व शयनागारे स्वीय स्वीय पति प्रतीक्षमाणाःस्थिताः ।
अथ ज्येष्ठायाः पतिः शयनागारे समागतः ततः सा कमपि दोषमुद्भाव्य तच्छिरसि चरणेन प्रहृतवती। प्रहारसमनन्तरमेव तस्याः पतिस्तदीयं चरणं हस्तेन गृहीत्वा सस्नेहमिदमब्रवीत्-अयि प्रिये ! पाषाणादपि कठोरे मम शिरसि त्वया चरणः पातितः । मन्ये केतकीकुसुमादपि कोमलतरस्त्वदीयश्चरणः पीडितो दूं कि जिससे इन का जीवन सुखी बन सके । इस प्रकार विचार करके उसने अपनी ३ तीनों पुत्रियों से कहा कि देखों जब तुम्हारे पति अपने २ शयन भवन में आवे तब तुम लोग किसी दोष को कल्पित कर उन्हें लातें मारना । जब वे तुम लोगों से इसके प्रतिकार स्वरूप में जो कुछ करे' वह हम से कहना । इस प्रकार माता के कहने पर उन सब पुत्रियों ने वैसा ही किया। वे सब अपने २ शयनागार में चली गई और वहाँ अपने २ पतिओं की प्रतीक्षा करती हुई बैठ गई। इतने में बडी लडकी का पति आगया । पति के आने पर उसने उसे दोष दिखाकर एक लात शिर में जमा दी। लात के लगते ही उसने उसके उसी पग को पकडकर बडे भारी स्नेह के साथ कहा अयि प्रिये ! पाषाण से भी कठोरतर मेरे शिर पर तुमने अपने चरण को रखा है-सो मैं समझता हूं कि केतकी के कुसुम से भी જીવીને તેઓ પિતાના જીવનને સુખી બનાવી શકે. આ પ્રકારનો વિચાર કરીને તેણે પિતાની ત્રણે પુત્રીઓને બોલાવીને આ પ્રમાણે સલાહ આપી
“આજે જ્યારે તમારા પતિ તમારા શયનખંડમાં આવે ત્યારે તમારે કઈ કલ્પિત દોષ બતાવીને તેમના મરતક પર લાત મારવી. ત્યારે પ્રતિકારરૂપે તેઓ તમને જે કંઈ કહે અથવા જે કંઈ કરે તે સવારમાં મને કહેવાનું છે. તે ત્રણે પુત્રીઓએ માતાની સલાહ પ્રમાણે જ કર્યું -તેઓ પિતપોતાના શયન, ખંડમાં ચાલી ગઈ અને પોતપોતાના પતિની પ્રતીક્ષા કરવા લાગી. સૌથી મોટી પુત્રીને પતિ જયારે શયનખંડમાં આવ્યું, ત્યારે તેણે તેના પર કેઈદેષનું આર. પણ કરીને તેના મસ્તક પર એક લાત લગાવી દીધી. લાત ખાતાની સાથે જ તેના પતિએ તેને પગ પકડીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું-“પ્રિયે ! પથ્થરથી પણ કઠોર એવાં મારા મસ્તકપર તમે કેતકીના પુષ્પસમાન કેમળ પગ વડે જે લાત મારી છે.
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२७६.
अनुयोपहार जातः। एवं ब्रुवाणः स तस्याश्चरणसंवाहनमकरोत। प्रभाते सा सर्व वृत्तमा निवेदितवती। सहर्ष या मात्रा सा मोक्ता-वत्से ! त्वया स्वगृहे यथेच्छ कत्र्तव्यम् । तव पति ग्त्वदाज्ञावर्ती भविष्यति । अथ द्वितीययाऽपि तथैव स्वपत्युःशिरसि चरणप्रहारः कृतः। त याः पतिः किंचिद्रोपमुपदर्शयन्नुवाच-कुलवधूनामनुचितोऽयं व्यवहारः। इत्युक्त्वा कोपान्निवृत्तः। प्रभाते साऽपि माने सर्व वृत्त निवेदितवती । ततः सा मात्रा सहर्ष प्रोक्ता-वत्से ! त्वमपि स्वगृहे यथेच्छअधिक सकुमार यह तुम्हाग चरण दुखने लगा होगा । इस प्रकार कहने के साथ ही उसने उसके रस चरण को दाबना प्रारंभ कर दिया। प्रातःकाल उस लड़की ने यह सब कृत्य अपनी माता से कह दिया। माता को इसे सुनकर बडा हर्ष हुआ। उसने पुत्री स कहा-वत्से । तुम अपने घर में जो कुछ करना चाहो सो कर सकती हो-क्यांकि पति के इस व्यवहार से यह पता पडता हैं कि वह तुम्हारा आज्ञावशी रहेगा।
दूसरी पुत्री ने भी अपने पति के साथ ऐसा ही व्यवहार किया-उसके शयनागार में पति के आने पर उसने उसके मस्तक पर ज्यों ही चरण प्रहार किया कि उसे कुछ रोष आ गया। अपना रोष प्रकट करते हुए उसने उससे कहा यह व्यवहार कुलवधुओं के योग्य नहीं है-जो तुमने मेरे साथ किया है। ऐसा कहकर वह फिर शांत हो गया। प्रातःकाल उस पुत्री ने रात्रि के पति के इस व्यवहार को माता से प्रकट किया। तब उसकी माताने हर्षित તેને લીધે તમારા નાજુક ચરણ દુખવા માંડ્યા હશેઆ પ્રમાણે કહીને તેણે તેના તે પગને દાબવા માંડે, બીજે દિવસે તે મોટી પુત્રીએ આ સમસ્ત વાત તેની માતાને કહી સંભળાવી. તે વાત સાંભળીને માતાને (ડેડિણી બ્રાહ્મણીને) ઘણે જ આનંદ થયે. જમાઈના આ પ્રકારના વર્તનથી તેના સ્વભાવને તે સમજી ગઈ. તેણે તેની મોટી પુત્રીને આ પ્રમાણે સલાહ આપી. “તું તારા ઘરમાં જે કરવા ધારે તે કરી શકીશ, કારણ કે તારા પતિના આ વ્યવહારથી એવું લાગે છે કે તે તારી આજ્ઞાને અધીન રહેશે.”
બીજી પુત્રીએ પણ પિતાના પતિ સાથે જ એ જ વર્તાવ બતાવે-જે તે શયનખંડમાં પ્રવેશ્યો કે તુરત જ કઈ દેષનું આરોપણ કરીને તેણે તેના મસ્તક પર એક લાત લગાવી દીધી. ત્યારે તેના પતિને શેડો રેષ ઉપજો. તેણે પિતાને રાષ માત્ર આ શબ્દ દ્વારા જ પ્રકટ કર્યો-“મારી સાથે તે જે વર્તાવ કર્યો છે, તે કુળવધુએને યોગ્ય વર્તાવ ન ગણાય તારે આવું કરવું જોઈએ નહીં” આ પ્રમાણે કહીને તે શાન્ત થઈ ગયે. પ્રાતઃકાળે બીજી પુત્રીએ પણ આ બધી વાત સંભળાવી
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अनुपौनपनिकायका सू. ७० नोआगमतोमावोपक्रमनिरूपणम् कुरु स्टोऽपि पतिः क्षणमात्रेण तुष्टो भविष्यति ! अथ तृतीययाऽपि स्वपति म्तथैव प्रहतः ततः स कोषाध्मातचित्तो रोषारणलोचन उच्चैः स्वरेण तां निर्भत्स यन्नेवमुवाच-अयि दुष्टे ! कुलकन्यकानुचितमिदं कृत्यं कथं त्वया कृतम् ? इत्युक्त्वा मुष्टयादिभिम्तां ताडयित्वा गृहान्निष्कासितवान् । ततः सा मातुः समीपे गत्वा सर्व वृत्त निवेदितक्ती। जामातुः स्वभावमवगत्य सा ब्राह्मणी तत्समीपे गत्वा तत्क्रोधमुफ्सान्स्वयितु मधुरया गिरा प्रोवाच-वत्स । अस्मत्कुलाचारोऽयं यत् प्रथमसमागमे वध्वा वरस्य शिरसि चरणप्रहारः कर्तव्य इति, अतो मम होर उसे कहा कि हे बेटी ! तुमभी अपने घर में अपनी इच्छानुसार सत्र कुछ करो! तुम्हारे व्यवहार से रुष्ट भी तुम्हारापति क्षणमात्र में तुष्ट हो जावेगा। जब तीसरी लडकी का पति अपने शयनागार में आया तो उसने भी अपनी माता के कहे अनुसार वैसा ही व्यवहार अपने पति के साथ किया। तब वह क्रोध से भर गया और रोष से लाल २ आंखें करके बडे जोर से उससे डाटकर कहने लगा-अयि दुष्टे ! कुलकन्या के अयोग्य यह कृत्य तूने मेरे साथ क्यों किया? ऐसा कहकर उसने उसे खूब मुक्कों से मारा पीटा
और मार पीट कर फिर उसे घर से बाहिर निकाल दिया। तब वह अपने माता के पास गई और सब वृत्तान्त कहने लगी। पुत्री के कथनानुसार वह अपने जामाता के भाव का जानकर उसके पास गई-और जाकरके मीठी २वाणी से उसके क्रोध को शांत करती हुई कहने लगी-वत्स ! यह हमारे कुल का आचार है कि सुहागरात में प्रथम समागम के समय वधू अपने पति ત્યારે તેની માતાએ સંતોષ પામીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું “બેટી! તું પણ તારા ઘરમાં તારી ઈચ્છા પ્રમાણે વર્તાવ કરી શકે છે. તારા પતિને સ્વભાવ એ છે કે તે ગમે તેટલે રૂટ થયે હેય તે પણ ક્ષણમાત્રમાં તુષ્ટ થઈ જાય એવે છે.” - ત્રીજી પુત્રીએ પણ કઈ દેષનું આરોપણ કરીને તેના પતિને મસ્તક પર લાત લગાવી દીધી. ત્યારે તેના ક્રોધને પારા ઘણે ઊંચે ચડી ગયે, તેની આંખો ક્રોધથી લાલ થઈ ગઈ અને તેણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું, “અરે નીચ ! કુલકન્યાએ ન કરવા યોગ્ય આ પ્રકારનું કાર્ય તે શા માટે કર્યું?” આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેને ગડદા, પાટુ આદિ મારી મારીને ઘરમાંથી ધક્કો મારીને બહાર કાઢી મુકી. ત્યારે તે પુત્રી તેની માતા પાસે ગઈ અને તેમને સર્વ હકીક્ત કહી સંભળાવી. પુત્રીની આ વાત દ્વારા ડેડિણી બ્રાહ્મણીને તેની ત્રીજી પુત્રીના પતિના સ્વભાવને પણ ખ્યાલ આવી ગયે. તુરત જ તે તેની (ત્રીજી પુત્રીના પતિની) પાસે પહોંચી ગઈ અને મીઠી વાણી દ્વારા તેના ક્રોધને શાન્ત પાડવાને પ્રયત્ન કરવા લાગી. તેણે તેને આ પ્રમાણે કહ્યું “જમાઈરાજ ! અમારા કુળમાં સુહાગરાતે પ્રથમ સમાગમ વખતે પતિના
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अमुसेवार पुच्या भवांस्ताडितो न तु दोनन्येन । अतो भवान् स्वरोष निवर्तयतु । श्वभू वचनं निशम्य स रोषान्निवृत्तः। सा स्वपुत्रीमुक्तगन्-त्से ! दुराराध्यस्ते पति अतोऽयं त्वया परमपावधानतया महता प्रयत्नेन समागधनीयः । इत्थं डोडिणि ब्राह्मण्या स्व जामादृणामभिप्रायो ज्ञातः ॥१)
अथ गणिकया यथा पराभिप्राया ज्ञातस्तथोच्यते
आसीत् करमिश्चिन्नगरे चतुष्पष्टिकलाचतुरा विलासिनी नाम गणिका । तया हि पराभिप्रायपरिज्ञानार्थ रतिभवनभित्तौ स्व स्व क्रियां कुर्वन्तो राजपुत्रा दयश्चित्रिताः। तस्या गृहे यज्जातीयो जन: समायानि स स्वजातीयोचितचित्रके मस्तकपर चरण प्रहार करे। इसी बात से मेरी पुत्री ने तुम्हें ताडित किया है-दर्जनता से नहीं । इसलिये आप अपने रोष की शांति करलें। इस प्रकार से साम् के वचन को सुनकर उसने क्रोध छोड दिया । तब डोडिणि ने अपनी पुत्री से कहा-वत्से । तेरा पति दुराराध्य है। इसलिये तं इसकी बडी सावधानी के साथ बहुत ही यत्न पूर्वक सेवा करना। इस प्रकार डोडिणि ब्राह्मणी ने अपने जामाताओं का अभिप्राय जान लिया। ____ अब गणिका ने जिस प्रकार से पर का अभिप्रय जाना वह कहा जाता है-किसी नगर में ६४ कलाओं में निपुण विलासवती नाम की एक गणिका रहती थी। उसने दूसरों के जभिपाय को जानने के निमित्त अपने रति भवन की दीवाल पर अपनी. २ क्रियाओं को करते हुए राजपुत्र आदिकों મસ્તક પર ચરણપ્રહાર કરવાને અચાર ચાલ્યો આવે છે. તે કારણે મારી પુત્રીએ તમારી સાથે એ વ્યવહાર કર્યો છે, દુષ્ટતાને કારણે એવું કરવામાં આવ્યું નથી. માટે આપે કોઇ છોડીને તેના વર્તન માટે તેને માફી આપવી જોઈએ.” સાસૂના આ પ્રકારના વચને સાંભળીને તેને ગુસ્સે ઉતરી ગયે. ત્યારબાદ તે ડેડિણી બ્રાહ્મણીએ તેની ત્રીજી પુત્રીને આ પ્રમાણે સલાહ આપી-બેટી ! તારા પતિ દુરા રાધ્ય છે. માટે તારે તેમની આજ્ઞાનું બરાબર પાલન કરવું અને ખૂબ જ સાવધાની પૂર્વક તેમની સેવા કરવી.
આ પ્રકારે ડેડિણી બ્રાહ્મણીએ પિતાના જમાઈઓના અભિપ્રાયને ઉપર દર્શાવેલી યુક્તિ વડે જાણી લીધે.
- હવે પર અભિપ્રાય જાણવાને સમર્થ એવી એક વિલાસવતી નામની ગુણિકાનું દષ્ટાંત આપવામાં આવે છે. કેઈ એક નગરમાં કેઈ એક ગણિકા રહેતી હતી. તે ૬૪ કલાઓમાં નિપુણ હતી. તેણે પારને અભિપ્રાય જાણવાને માટે આ પ્રકારની પદ્ધતિ અપનાવી હતી. તેણે પોતાના રતિભવનની ભીતે પર જુદા જુદા પ્રકારની ક્રિયાઓ કરતાં વિવિધ જાતિના પુરૂષનાં ચિત્રો દોરાવ્યાં હતાં. જે પુરૂષ
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अनुगन्द्रिका टीका सत्र ७० नोआगमतो भावोपत्र मनिरूपणम् २७९ दर्शने समासजते । ततः सा तं परिचित्य तदुचितव्यवहारेण तं सत्कुरुते । तस्या व्यवहारेन सन्तुष्टा जनारतस्यै यथेष्टमयं जातं प्रयच्छन्ति । इत्थं गणिकया पराभिप्रायो ज्ञातः ।२) ___ अथाऽमात्येन यथा पराभिप्रायो ज्ञातस्तथोच्यते--
आसीत् कस्मिंश्चिन्नगरे भद्रबाहु म राजा। तस्यासीन्नीति-शास्त्रचतुरो झटिति पराभिप्रायसवादनशीलः सुशीलो नोमाऽमात्यः। अथैकदा स राजाऽ मात्येन सहाश्ववाहनिकायां गतः। पथि गच्छता राजतुरङ्गमेण क्वापि खिलप्रदेशे (विनजोता-पडतल प्रदेश) स्थित्वा मूत्रिनम्। तच्च मूत्र बहुतरकालपर्यन्तं तत्र के चित्रों को अंकित कर दियो । उसके घरमें जिस जाति का मनुष्य आता वह अपने जातीयोचित चित्र के देखने में तल्लीन हो जाता। इस तरह उसे पहिचान कर उसके योग्य व्यवहार से उसका सत्कार करने लगती । इस प्रकार उसके व्यवहार से संतुष्ट हुए मनुष्य उसे इच्छानुकूल पैसा दे दिया करते।
___अमात्य जिस पद्धति से पर का अभिप्राय जान लेता वह बात यहाँ प्रस्ट की जाती है
विसी नगर में भद्रबाहु नामक गजा था। उसके अमात्य का नाम सुशील था। वह नीतिशास्त्र में वडा चतुर था, पर के अभिप्राय को जल्दी से जल्दी जान लेता था । एक दिन की बात हैं कि राजा अमात्यके साथ अश्वक्रीडा करने के लिये बाहर निकला-मार्ग में चलते हुए राजा के घोडे ने किसी पडतल प्रदेश में खड़े होकर पेशाबकर दिया पेशाब बहीं पर
ત્યાં આવતે, તે પિતાના જાતીયચિત ચિત્રનું નિરીક્ષણ કરવામાં તન્મય થઈ જતો તેના આ પ્રકારના વર્તનથી તેની જાતિ, સ્વભાવ, રુચિ આદિને તે વિલાસવતી સમજી જતી હતી અને તે પુરૂષની સાથે તેની જાતિ રૂચિ આદિને વર્તાવ બતાવીને તેને સત્કાર આદિ દ્વારા ખુશખુશ કરી નાખતી. તેના વર્તત આદિથી ખુશ થઈને તેને ત્યાં જનારા પુરૂષ ખૂબ ધન આપીને પોતાને સંતેષ પ્રકટ કરતા હતા.
- હવે અમાત્યનું દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવે છે અને એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે તે અમાત્ય કેવી રીતે અન્યના અભિપ્રાયને જાણી લેતો હત–
કેઈ એક નગરમાં ભદ્રબાહુ નામે રાજા રાજ્ય કરતો હતો. તેને સુશીલ નામે એક અમાત્ય હતું. તે નીતિશાસ્ત્રમાં ઘણે જ નિપુણ હતું. પરના અભિપ્રાયને ઘણી જ ઝડપથી જાણી લેવાને તે સમર્થ હતું. હવે એક દિવસ તે રાજા તે અમાત્યને સાથે લઈને અધક્રિીડા કરવા નિમિત્તે નગરની બહાર નીકળી પડે. ચાલતાં ચાલતાં માર્ગના કોઈ એક પડતર (ખેતી ન થતી હોય એવો પ્રદેશ) પર ઊભા રહીને બેઠા પેશાબ કર્યો. તે પેશાબ સુકાઈ ગયે નહીં પણ ત્યાં તે જમીનમાં
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अपामारने स्थितमेवासीत् । निवर्तमानेन राज्ञाऽश्चमू तथैवावस्थित पृष्टम् । सतो राक्षा चिन्तितम् यद्यत्र सरो भवेत्तर्हि तदगाधजलं भवेत्, न कदापि परिशुम्पेत् । इत्य चिन्तयन् राजा तं भूभागं चिर' निरीक्षित वान् । ततोऽमा त्येन सह राजा स्वभवनं समागतः । गज्ञो मनोगतभावं परिक्षाय सेनामात्येन तदनु तत्र महत्सरः कारितम्, परितः सरोवरपालिषु च सर्व कुसुमफला विविध जातीया वृक्षाः समारोपिताः । ततोऽन्यथाऽमात्येन सह तत्र प्रदेशे गच्छता तेन राज्ञा तरुगजिशोभित तत् सरोवरं विलोकय पृष्टम्-अहो! केनेदमति रमणीयं सरः कारितम् ? आमात्येनोक्तम्-भवद्भिरेव, ततो विस्मितमना रामा भरा रहा-मूखा नहीं जव अश्वक्रीडा करके राजा वापिस लौटा तो उसने उस घोडे के पेशाब को वहीं पर भरा हुआ देखा-तब राजाने मन में विचार किया-कि यदि यहां पर तालाव खुदवाया जावे तो वह अगाध जल से भरा रहेगा । कभी भी मूरखेंगा नहीं । इस प्रकार विचार करते २ उस राजा ने वहुत समय तक उस भूभाग का देखा इसके बाद वह राजा अमात्य के साथ राजमहल में आगया । राजा के मनोगत भाव को जानने वाले उस अमात्यने कुछ समय बाद वहां एक बडा भारी तालाब खुदवा दिया। उसके चारों ओर उसने तट पर सव ऋतुओं के कुसुम और फलवाले अनेक जाति के वृक्ष लगा दिये । किसी समय अमात्य के साथ राजा उसी मार्ग से होकर निकले । वृक्ष के झुण्डों से शोभित उस सरोवर को देखकर उन्होंने मंत्री से पूछा अहे। ! यह अति रमणीय तालाव यहां किसने बनवाया है ? એમને એમ પડ રહી. થોડીવાર પછી રાજા અને અમાત્ય એજ રસ્તેથી પાછાં ફર્યા. તે પડતર જગ્યામાં જોડાના પેશાબને હજી પણ વિના સૂકાયેલે જોઈને રાજાના મનમાં આ પ્રકારને વિચાર આવ્યે-“જો આ જગ્યાએ તળાવ ખોદાવવામાં આવે, તે તે તળાવ કાયમ અગાધ જળથી ભરપૂર રહેશે. તેનું પાણી સુકાશે નહીં આ પ્રકારને વિચાર કરતે કરતે તે રાજા તે ભૂમિભાગ સામે ઘણીવાર સુધી તાકી રહ્યા. ત્યારબાદ તે રાજા તે અમાત્યની સાથે રાજમહેલ તરફ રવાના થઈ ગયે. તે ચતુર અમાત્ય તે રાજાના મને ગત ભાવને બરાબર સમજી ગયો. તેણે રાજાને પૂછ્યા વિના જ તે જગ્યાએ એક વિશાળ તળાવ ખોદાવ્યું અને તેના કિનારે વિવિધ પ્રકારના અને વિવિધ ઋતુઓનાં ફલ-ફૂલથી સંપન્ન વૃક્ષ રોપાવી દીધાં. ત્યારબાદ ફરી કઈ દિવસે તે રાજા તે અમાત્યની સાથે એજ રસ્તે થઈને ફરવા નીકળે પેલી જગ્યાએ વૃક્ષોના ઝુંડેથી સુશોભિત તે જળાશયને જોઈને રાજાએ તે અમાત્યને પૂછયું-અરે! આ અતિશય રમણીય જળાશય અહીં કે અંધાયું છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० ७० नोआगमतो भावोपक्रमनिरूपणम् २८१ पृष्टवान्-मया कदा कारितम् ? इति नो स्मरामि । एवं नृपेणोक्तोऽमात्यः सर्व वृत्तं कथिकान । राजाऽपि सचिवस्य परचित्ताभिषायज्ञानशक्ति विलोक्स व प्रशस्य नजीविकां वर्द्धयामास । इत्यममात्येन पराभिप्रायो ज्ञातः ।३।
एतेषां सर्वेषां भावोपक्रमाणां संसारफलत्वाः प्रशस्तत्वम् । नो आगमतः प्रशस्तो भावोपक्रमश्च गुदीनाम् । श्रुतादिपरिज्ञानार्थ यद् गुर्वादीनां भावोपतब अमात्य ने कहा महाराज ! आपने ही बनवाया है, तब राजा के मन में वडा आश्चर्य हुआ और उसने मंत्री से पूछा मैंने यह करवाया हैं ? इस बात की तो मुझे याद ही नहीं है। इस प्रकार राजा से कहे गये अमात्य ने सब यथा स्थितघृत्तान्न उनसे कह दिया ! राजा ने व मत्रा की परके चित के अभिप्राय को जानने की शक्ति देखकर उसकी बडी प्रशंसा की और उसके वेतनकी वृद्धि करदी और उनका पद बढा दिया इस प्रकार यह परचित के अभिप्राय को जानने वाले अमात्य की कथा है । कि जिसमें इस प्रकार से अमात्य ने परचित्ताभिप्राय को जाना यह कहा गया हैं। इन सब भावोपक्रमणों में संसाररूप फल जनकता होने के कारण अप्रशस्तता है। (पसत्थे गुरुमाईणं) गुरु आदिकों के अभिप्राय को यथावत् जानना यह नोआगम को आश्रित का के प्रशस्त भावोपक्रम है। अर्थात् श्रुा आदिकों के परिज्ञान के ત્યારે અમાયે જવાબ આપે-“હે મહારાજા આપે પોતે જ આ જળાશય બંધાવ્યું છે.?” ત્યારે રાજાના આશ્ચર્યને પાર ન રહ્યો. તેણે અમાત્યને કહ્યું. “આ જળાશય શું મેં બંધાવ્યું છે? આ જળાશય બંધાવવાને કેઈ આદેશ કર્યાનું મને યાદ નથી !” ત્યારે અમાત્ય આ પ્રમાણે ખુલાસો કર્યો-“હે મહારાજ ! ઘણા સમય સુધી આ જગ્યાએ ઘોડાના મૃત્રને વિના સૂકાયે પડયું રહેવું જોઈને આપે આ જગ્યાએ જળાશય બંધાવવાનો વિચાર કરે. આપે માનેલું કે આ જગ્યાએ જળાશય ખોદાવવાથી તેમાં પાણી કદી સુકાશે નહીં. આપના આ મને ગત વિચારનેઆપ અશ્વકડા કરીને પાછા ફરતી વખતે જે દૃષ્ટિથી તે અવમવની સામે નિરખી રહ્યા હતા તે દૃષ્ટિ દ્વારા જાણી જોઈને મેં આ જળાશય અહીં બંધાવ્યું છે.” પરના ચિત્તને સમજવાની પિતાના અમાત્યની તે શકિત જોઈને રાજાને ઘણે હર્ષ થયે તેણે તેની ખૂબ પ્રશંસા કરી અને તેનું વેતન અને હદ વધારી દઈને તેની કદર કરી. આ પ્રકારની અન્યના મને ગત ભાવને જાણનાર તે અમાત્યની કથા છે. આ ત્રણે ભાવપક્રમણનાં દાન્ત છે. આ ભાવપક્રમણમાં સંસારરૂપ ફલજનકતાને સદ્ભાવ હોવાથી તેમને અપ્રશસ્ત કહેવામાં આવેલ છે.
_ (पसत्थे गुरुमाईणं) ४३ महिना अभिप्रायने य॥३५ ता ते प्रशस्त ભાપક્રમ છે. એટલે કે મૃત આદિનું પરિજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવા ઇચ્છતા શિયાદિને
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अनुयोगद्वारस्त्रे
क्रमणं स प्रशस्त भावोपक्रम स्वर्थः । नन्वत्रानुयोगद्वारविचारः प्रकृतः, अनुयोगश्च व्याख्यानम्, एवं च यदेवानुये । गद्वारव्याख्य नोपयोगि तदेवात्र वक्तव्यम् । गुरुभावोपक्रमस्तु व्याख्यानानुपयेोगित्वादवक्तव्य एवेति चे दुच्यते व्याख्यान हि गुर्वा भवति । अतो व्याख्यानापलब्धये शिष्याणां गुरे रभिप्रायज्ञानं परमावश्यकम् । गुर्बभिप्रायझो हि तदनुकूलाचरणेन गुरं प्रसादयति, प्रसादिता गुरुस् तस्मै सरहस्यं शास्त्र प्ररूपयति । एवं गुरुभावा पक्रमोऽपि व्याख्यानस्याङ्गमेव, अतो गुरुभावेापक्रम उचित एव । उक्तं च" गुर्वायत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेऽपि । तस्माद् गुर्वाराधनपरेण हितकाङ्क्षिणा भाव्यम् ॥१॥
लिये जो शिष्यादिको गुरु आदि कों के भाव का यथावत् परिज्ञान होता है - वह प्रशस्त भावोपक्रम हैं।
शंका – यहाँ तो अनुयोगद्वारका विचार चल रहा है । अनुयोग का अर्थ व्याख्यान हैं । इसलिये जो अनुयोगद्वार के व्याख्यान करने में उपयोगी हो वही यहां कहना चाहिये । गुरु भावोपक्रम तो व्याख्यान में अनुपयोगी है । इसलिये उसे यहां नही कहना चाहिये ।—
उत्तर - व्याख्यान गुरु के आधीन होता है । अतः उस व्याख्यान की प्राप्ति के लिये गुरु के अभिप्राय का ज्ञान करना शिष्यों को परम आवश्यक है । गुरु के अभिप्राय को जानने वाला शिष्य उनको अपने ऊपर अनुकूल आचरण से प्रसन्न करता हैं और प्रसादित हुए वे गुरुजन उसके लिये रहस्य युक्त शास्त्र की प्ररूपणा करते हैं। इस प्रकार गुरुके भावका शिष्य को यथावत् परिज्ञान होना यह भी व्याख्यान का अंग ही है । इसलिये उसका कथन यह उचित ही है । कहा भी है ( गुर्वायत्ता) इत्यादि । शास्त्रों का पढनादिગુરુઆદિકાના ભાવનું જે યથાર્થ પરિજ્ઞાન થાય છે, તેનું નામ ના આગમની અપેક્ષાએ પ્રશસ્ત ભાવેાપક્રમ છે.
શંકા—અહીં તા અનુયાગદ્વારની પ્રરૂપણા ચાલી રહી છે. અનુયાગના અથ વ્યાખ્યાન થાય છે. તેથી અનુયાગદ્વારનું વ્યાખ્યાન કરવામાં ઉપયુકત હોય તેમનું જ થન અહીં થવુ જોઇએ. ગુરૂભાવાપક્રમ તા વ્યાખ્યાનમાં અનુપયેાગી છે, તેથી અહીં તેનુ કથન થવું જોઇએ નહીં.
ઉત્તર—વ્યાખ્યાન ગુરુને આધીન હૈાય છે. તેથી તે વ્યાખ્યાનની પ્રાપ્તિને માટે ગુરૂના અભિપ્રાયને જાણી લેવાનું જ્ઞાન શિષ્યાને માટે પરમ આવશ્યક ગણાય છે. ગુરુના અભિપ્રાયને જાણનારા શિષ્ય તેમને અનુકૂળ થઇ પડે એવા પેાતાના આચરણથી તેમને ખુશ કરે છે, અને તેના વતનથી સંતુષ્ટ થયેલા તે ગુરુ તેની સમક્ષ રહસ્યયુકત શાસ્રની પ્રરૂપણા કરે છે. આ રીતે ગુરૂના ભાવનું શિષ્યને યથાવત પરિજ્ઞાન થવું એ પણ વ્યાખ્યાનના એક 'ગરૂપ જ છે. તે કારણે સૂત્રકારનું उपर्युत इथन दथित ४ छे. उधुं छे - ( गुर्वायत्ताइत्यादि) शास्त्रोनु पहन
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सत्र ७० नोआगमतो भावोपक्रमनिरूपणम् २८३ अन्यच्च-"जुत्तं गुरुमगगहणं नाऊण तयं जहट्ठियं तत्तो।
जह होइ सुप्पसन्नं, तह जइयव्वं गुणत्थीहि" ॥१॥ छाया–युक्त गुरुमनोग्रहणं, ज्ञात्वा तदा यथास्थितं ततः ।
यथा भवति सुप्रसन्नं, तथा यतितव्यं गुणार्थिभिः ॥१॥
पुनः
"गुरुचितायत्तोई, वक्खाणंगाइ जेण सव्वाई।
तेण सह सुप्पसन्नं, होइ तयं तं सहा कुज्जा" ॥२॥ छाया-गुरुचितायत्तानि, व्याख्यानाङ्गानि येन सर्वाणि ।
तेन यथा सुप्रसन्नं, भवति तदा तत् तथा कुर्यात् ॥२॥ रूप समस्त अध्ययन गुरु महाराज के समीप में ही होता है इसलिये समस्त शास्त्रारम्भ गुरुमहाराज के आधीन है। अतः अपने हित की अभिलाषा रखने वाले शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु महाराज की आराधना करने में तत्पर रहे।
१॥-और भी गुरुमहाराज के मनका-अभिप्राय -शिष्य को जानना उचित है। तब ही वह उनसे यथार्थ में शास्त्र का रहस्य ज्ञात कर सकता है। इसलिये गुणाथी-विनीत शिष्य को चाहिये कि जिस प्रकार से गुरु महाराज सुप्रसन्न रहें एसा यत्न उसे करते रहना चाहिये।
२॥-फिर भी कहा है 'गुरु चित्ताई इत्यादि । व्याख्यान के समस्त अंग गुरु महाराज के चित्ताधीन रहा करते हैं। इसलिये जिस प्रकार से वे सुप्रसन्न रहें वैसा सब काम शिष्य को अवश्य कर्तव्य है। ३॥-और भी આદિરૂપ સમસ્ત અધ્યયન ગુરૂ મહારાજની સમીપે જ થાય છે, તેથી સમસ્ત શાસ્ત્રારંભ ગુરૂને આધીન છે. તેથી પિતાના હિતની ખેવના રાખનાર શિયનું એ કર્તવ્ય થઈ પડે છે કે તેણે ગુરૂમહારાજની આરાધના કરવાના કાર્યમાં તત્પર रहे .
(૧) ગુરૂમહારાજના મનોભાવને (અભિપ્રાયને, જાણી લે તે શિષ્યને માટે અતિ આવશ્યક છે. ત્યારબાદ જ તે તેમની પાસેથી શાસ્ત્રના યથાર્થ રહસ્યને જાણી શકે છે. તેથી જે પ્રકારે ગુરૂ રાજી રહે એ પ્રકારનો પ્રયત્ન ગુણાથી વિનીત શિષ્ય કરે જઈએ.
(२) छुछ 3-"गुरुचित्ताई" त्याह-व्याज्यानना समस्त भागो १३ મહારાજના ચિત્તાધીને રહે છે. તેથી જે પ્રકારે તેઓ પ્રસન્ન રહે તે પ્રકારના કામે શિષ્યએ અવશ્ય કરવા જોઈએ.
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२८४
अनुयोगहारले पुनः "आगारिंगियकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुज्जा ।
तहवि य से नवि कूडे, विरहम्मि य कारणं पुच्छे" ॥३॥ छाया--आकारेङ्गितकुशलं (शिष्यं) यदि श्वेत वायसं वदेयुः पूज्याः
तथाऽपि च तेषां (वचन) नापि कूटयेत्, विरहे च कारणं पृच्छे॥३॥ तेषां पूज्यानां वचनं नापि कूटयेत् असत्यं न कुर्यात्, तथेति कुर्यादित्यर्थः विरहे-विजने एकान्ते इत्यर्थः, कारणं-श्वेतवायसकथनप्रयोजनं पृच्छेत् शेष सुगमम्।। __स एष नोआगमतो भावोपक्रमः । स एष भावोपक्रमः। स एष उपक्रमः ॥५० ७०॥
'गुरुनाइणं' इत्यत्रादिशब्देन सूचितं शास्त्रभावोपक्रमं निरूपयितुमाह
मूलम्-अहवा-उक्कमे छविहे पण्णत्ते, तंजहा-आणुपुठवी१, नाम२, पणामं३ वत्तव्वया४ अत्थाहिगारे५ समोयारे६ ॥सू०७१॥ कहा है 'आगारिंगियकुसलं, इत्यादि आकार और इंगित (अभिप्राय) के जानने में कुशल शिष्य यदि पूज्य गुरुमहाराज काले कौवे को यदि सफेद कौवा भी कह दें, तो भी गुरुजन के वचन को उसे विना किसी तर्क के स्वीकार कर लेना चाहिये। बाद में एकान्त में काले कौवे को सफेद कहने के प्रयोजनका कारण पूछना चाहिये । (से तं नोआगमओ भावोवक्कमे-से तं भावोरक्मे से तं उवक्कमे) वह यह नोआगमको आश्रित करके भावोपक्रम है। इससरह आगम और नोआगमको आश्रित करके भावोपक्रम का यहां तक स्वसप वर्णन किया । इस स्वरूप से उपक्रम का स्वरूप ज्ञात हो जाता है।सूत्र७०।
(3) ४ ५ छ । आगारिंगियकुसलं" त्याह-७२ भने जितने જાણવામાં નિપુણ એવો શિષ્ય ગુરૂનાં વચનને તક અથવા દલીલ કર્યા વિના સ્વી કારી લે છે. ધારો કે ગુરૂ કહે કે “કાગડાને વર્ણ ધોળે હોય છે, તે તેમના તે કથનને પણ તે શિષ્ય દલીલ કર્યા વિના સ્વીકારી લે છે. ત્યારબાદ એકાન્તમાં તેણે ગુરુને પૂછવું જોઈએ કે “આપ કાગડાને વર્ણ ધૂળે કહે છે તેનું કારણ કૃપા કરીને સમજાવે.”
__(से तं नोआगमओ भावोवकमे) मा नासामने आश्रित शने un५६भनु २१३५ समा. (से त भावोवक्कमे) मा ५४ भने । આગમ ભપક્રમરૂપ માપક્રમના બન્ને ભેદનું નિરૂપણ અહીં સમાપ્ત થાય છે. (सेत उवक्कमे) मा शत भनी समस्त सहानु पर्थन मी समास થયું છે. સૂ૦ ૭૦
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अनुशे गन्द्रिका टीका सूत्र ७१ शास्त्रभावोपक्रमनिरूपणम्
__ छाया--अथवा-उपक्रमः पविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अनुपूर्वी १. नामर, प्रमाणं३, वक्तव्यता४, अर्थाधिकार:५ समवतारः ६ ॥० ७१॥
टीका-अहवा इत्यादि
पूर्व गुरुभावपक्रमः प्रदर्शितः संप्रति शास्त्रभावोक्रमः प्ररूप्यते-'अथवे -ति, अथवा-अनन्तरं-गुरुभावोपक्रमवर्णनानन्तरम् उपक्रमः-शास्त्रभावोपक्रमा पविधः प्रज्ञप्तः। 'तं जहा' इत्यादि. तद्यथा-यथा तस्य भावोपक्रमस्य पड्विधत्वं तदुच्यते 'आणुपुव्वी' इत्यादिना । तत्र प्रथम उपक्रम आनुपूर्वी१, द्वितीयो नाम २, तृतीयः प्रमाणम्३, चतुर्थो वक्तव्यता४, पञ्चमः-अर्थाधिकार:६, षष्ठः समयतोरः ६ इति । ।मु० ७१॥
___अब सूत्रकार "गुरुमाईणं" इस पद में आदि पद से मूचित शास्त्रभावोपक्रम का निरूपण करने के लिये “अहवा" इत्यादि सूत्र कहते हैं: -
"अहवा उवक्कमे छबिहे" इत्यादि । ।मत्र ७१॥
शब्दार्थ--(अहवा) अथवा (उवक्कमे) उपक्रम (छविहे) छह प्रकार का (पण्णत्ते) कहा गया है । (तंजहा) वे प्रकार ये हैं-(आणुपुत्वी १, नामं २, पणाम ३, वत्तब्वया ४, अत्याहिगारे ५, समोयारे ६,) आनुपूर्वी १, नाम २, प्रमाण ३, वक्तव्यता ४, अर्थाधिकार ५, और समवतार ६, पहिले गुरुभावोपक्रम का कथन सूत्रकारने करदिया है। अब वे आदिपद से सूचित शास्त्र भावोपक्रम का निरूपण करते हैं-यहां उपक्रम पद से शास्त्रभावोपक्रम लिया गया है। अतःशास्त्रोक्त भावोपक्रम पूर्वोक्तरूप से ६ प्रकार का है ऐसा सूत्र का संक्षिप्तार्थ है। ॥मत्र ७१॥
हवे सुत्रे२ "गुरुमाईणं" मा ५६मां माहि ५४थी सुथित शास्त्रमावापभनु नि३५९ ४२वाने भाटे "अहवा" त्यादि सूत्रानु ४थन ४२ -
"अहवा उवक्कमे छबिहे"-त्या___ हाथ-(अहवा) 424l (उवक्कमे छविहे पण्णत्ते) 6५४ ७ ५४।२।। sat छ. (तंजहा) ते ७ ॥२। नीचे प्रमाणे छ-(आनुपुव्वी, नामं, पणाम, वनब्वया, अत्याहिगारे, समोयारे) (१) भानुभूती', (२) नाम, (3) प्रमाण, (४) વકતવ્યતા (૫) અર્વાધિકાર અને ૬ સમવતાર.
પહેલાં ગુરૂમાપક્રમનું પ્રતિપાદન સૂત્રકારે કરી લીધું. હવે તેઓ આદિપદથી सयित शास्त्रमा५४भनु नि३५५५ ४२ छ- मा पात "अहवा" या पाया સુચિત થાય છે. અહીં ઉપક્રમ પદથી શાસ્ત્રભાવે પક્રમ ગૃહીત થયેલ છે. તેથી શાસ્ત્રો ક્તભાવપક્રમ પૂર્વોક્તરૂપ છ પ્રકારને હેય છે, એ આ સૂત્રના સંક્ષિપ્તાર્થ છે. સ.૭૧
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अनुयोगद्वारसत्रे अथानुपूर्यादीनां स्वरूपं निरूपयितुमाह,
मूलम्-से किं तं आणुपुव्वी१, आणुपुत्वी दसविहा, पण्णत्ता, तंजहानामाणुपुत्वी१, ठवणाणुपुव्वीर, दव्वाणुपुव्वी३, खेत्ताणुपुत्वी४, कालाणुपुवी५, उकित्तणाणुपुत्वी६, गणणाणुपुत्वी७, संठाणाणुपुव्वीट, सामायारीआणुपुव्वी९, भावाणुपुनी१० ॥सू०७२॥
छाया-अथ काऽसौ आनुपूर्वी ? आनुपूर्वी दशविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथानामानुपूर्वी १, स्थापनानुपूर्वी२, द्रव्यानुपूवीं ३, क्षेत्रानुपूर्वी ४, कालानुपूर्वी५, उत्कीर्तनानुपूर्वी ६, गणनानुपूर्वी ७, संस्थानानुपूर्वी ८, सामाचार्यानुपूर्वी९, भावानुपूर्वी १० ॥मू० ७२॥
टीका-शिष्यः पृच्छति-से कि तं' इत्यादि । अथ कोऽसौ आनुपूर्वी १ इति । उत्तरमाह-आनुपूर्वी-इह हि पूर्व प्रथमम् आदिः इति पर्यायाः। पूर्वस्य-अनु
अब सूत्रकार आनुपूर्वी आदि को के स्वरूप का कथन प्रारंभ करते हैं:दस में सब से प्रथम वे आनुपूर्वी कितने प्रकार की है यह स्पष्ट करते हैं
"से कि तं' इत्यादि । ॥सत्र ७२॥
शब्दार्थ--(से किं तं आणुपुव्वी) हे भदन्त ! पूर्व प्रक्रान्त आनुपूर्वी क्या है-(आणुपुवी दसविहा पण्णत्ता) उत्तर--आनुपूर्वी दस प्रकार की कही गई है। (तं जहा) जो इस प्रकार से है-(णामाणुपुव्वी) एक नामानुपूर्वी (ठवणाणुपुव्वी) दुसरी स्थापानानुपूर्वी (दवाणुपुव्वी) तीसरी द्रव्यानुपूर्वी (खेत्ताणुपुब्वी) चौथी क्षेत्रानुपूर्वी (कालाणुपुव्वी) पांचवी कालानुपूर्वी (उक्कित्तणाणुपुव्वी) छठी उत्कीर्तनानुपुर्वी (गणणाणुपुथ्वी) सातवीं गणनानुपूर्वी (संठाणाणुपुच्ची) आठवी-संस्थानानुपूर्वी (सामायारीमा०) नववीं समाचार्यानुपूर्वी (भावाणुपुव्वी) और दशमी भावानुपूर्वी। पूर्व, प्रथम और आदि ये सब पर्याय
હવે સૂત્રકાર આનુપૂર્વી આદિકના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવાને પ્રારંભ કરે છે. તેમાં સૌથી પહેલાં તે એ વાત પ્રકટ કરે છે કે આનુપૂર્વી કેટલા પ્રકારની છે?
"से कि त आणुपुव्वी" त्या
शाय-(से किं तं आणुपुवी) शिव्य शु३ने थे। प्रश्न पछे छे . હે ભગવન ! પૂર્વપ્રકાન્ત (પૂર્વ પ્રસ્તુત) આનુપૂવીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-आणुपुन्वी दसविहा पणत्ता-तंजहा) मानुषी नानीय प्रभारी श પ્રકાર કહા છે
(णामाणुपुथ्वी (१) नाभानुभूती, (ठवणाणुपुव्वी) (२) २थापनानुषी, (दव्वाणुपुदी) (3) द्रव्यानुषी, (खेत्ताणुपुन्धी) (४) Augी', (कालाणुपुवी (५)
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अवयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाधानुपूवी निरूपणम् पश्चात्-अनुपूर्व, तस्य भावः आनुपूर्वी-त्र्यादिवतु संहतिः, आनुपूर्वी-अनुक्रमः परिपाटीत्येते शब्दाः समानार्थकाः। व्यादिवस्तु संहतिरूपा एषाऽनुपूर्वी नामानुपूर्व्यादिभेदैर्दशविधा विज्ञेयेति । सू० ७२॥
सम्प्रति नामाधानुपूर्वी निम्पयितुमाहमूलम् -नाम ठवणाओ गयाओ।
से कि तं दव्वाणुपुव्वी ? दव्वाणुपुत्वी दुविहा पण्णत्ता, त. जहा-आगमओ य नोआगमओ य।
से कि त आगमओ दत्वाणुपुवी जस्स गं आणुपुचित्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव नो अणुप्पेहाए, कम्हा ? अणुवओगो दवमिति कटु । णेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगा दव्वाणुपुत्वी जाव कम्हा ? जइ जाणए अणुव उत्ते न भवइ जइ अणुवउत्ते जाणए न भवइ तम्हा णथिआगमओ दव्वाणुपुठवी। से तं आगमओ दव्वाणुपुवी। वाची शब्द हैं। पूर्वस्य अनु अनुपूर्व-पूर्व के पीछे ऐसा अनुपूर्व शब्द का अर्थ होता है। अनुपूर्व का जो भाव है वह आनुपूर्वी है। अर्थात् तीन आदि वस्तुओं का जो समुदाय हैं वह आनुपूर्वी है। आनुपूर्वी अनुक्रम, परिपाटी ये सब आनुपूर्वी के पर्यायवाची शब्द है । तीन आदि वस्तुओं की संहति रूप यह आनुपूर्वी पूर्वोक्त प्रकार से दश मेदवाली है ऐसा जानना चाहिये । ।मत्र७२॥
सानुभूती', (उकित्तणाणुपुव्वी) (६) G४ीतनानुभूती', (गणणाणुपुव्वी) (७) आधुनानुभूती', (संठाणानुपु-वी) (८) संस्थानानुभूती (सामायारी आणुपुव्वी) () समायार्यानुषी भने (भावाणुपुची) (१०) मापानुभूती.
पू, प्रथम भने म मात्र पर्यायवाची शह छ. "पूर्वस्य अनु अनुपूर्व" "५ (प्रथम)नी पा७॥", मेव! अनुपूर्व २४ सय थाय छ. मा અનુપૂર્વને જે ભાવ છે તેનું નામ અનુપૂરી છે. એટલે કે આદિ વસ્તુઓને જે સમુદાય છે તેનું નામ આનુપૂવી છે. આનુપૂર્વી, અનુક્રમ અને પરિપાટી, આ ત્રણે આનુપૂવીના પર્યાયવાચી શબ્દો છે. ત્રણ આદિ વસ્તુઓના સમૂહરૂપ આ આgવી પકત દસ ભેદવાળી કહી છે, એમ સમજવું. સ. ૭રા
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अनुयोगद्वार से कि तं नो आगमओ दवाणुपुवी ? नो आगमओ दवाणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-जाणयसरीरदव्याणुपुव्वी, भक्यिसरीरदवाणुपुत्वी, जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दवाणुपुची। से किं तं जाणयसरीरदवाणुपुवी ? जाण्यसरीरदवाणुपुटवी आणुपुरी पयस्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुयचावियचत्तदेहं सेसं जहा दवावस्सए जाव से तं जाणयसरीरदधाणुपुवी। से कि त भवियसरीरदब्वानुपूवी ? भवियसरीरदवाणपुथ्वी जे जीवे जोणीजम्मणणिक्खंते मेसं जहा दवावस्सए जाव से त. भवियसरीरदवाणुपूवी। __से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दवाणुपुत्री ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दवाणुपुवी दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-ओवणिहिया य अणोवणिहिया य। तत्थ णं जा सा ओवणिहिया सो ठ'पा । तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया सा दुविहा पण्णता, त' जहा-नेगमश्वहाराणं, संगहस्स य ॥सू० ७३॥
छाय। -नामस्थापने गते । अथ काऽसौ द्रव्यानुपूर्वी ? द्रव्यानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञमा, तद्यथा-आगमतश्च नोआगमतश्च ।
अब सूत्रकार नामानुपूर्वी को निरूपण करते हैं"नाम ठवणाओ गयाओ" इत्यादि । ॥सूत्र ७२॥
शब्दार्थ-(नामठणाओ गयाओ) नामानुपूर्वी और स्थापनानुपूर्वी का स्वरूप नामावश्यक और स्थापनावश्यक के जैसा जानना चाहिये। (से किं
હવે સરકાર નામાનુપૂર્વ નિરૂપણ કરે છે
"नामठवणाओ गयाओ" त्याह
शहा---(नामठवणाभो गयाओ) नमानुपूर्वा भने स्थापनानुषी १३५ नाभा१श्य भने स्थापना आवश्यना पूर्वात २१३५ मतुसा२१ समन(से कि त दव्वाणुपुवी ?) 3 wiयन ! द्रव्यानुभूती न २१३५ ३ छ ?
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योगन्द्रिकाटोका सूत्र ७३ नामाद्यानुपूर्वी निरूपणम्
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अथ का सौ आगमतो द्रव्यानुपूर्वी ? आगमतो द्रव्यानुपूर्वी यस्य खड भानुपूर्वीति पदं शिक्षितं स्थितं जितं मितं परिजितं यावद् नोअनुप्रेक्षया, कस्मात् ? अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । नैगमस्य खल्ल एकोऽनुपयुक्तः आगमत एका ब्रन्यापूर्वी यावत् कस्मात् ? यदि शायकः अनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तो ज्ञायको न भवति, तस्माद् नास्ति आगमतो द्रव्यानुपूर्वी । सैषा आगमतो द्रव्यानुपूर्वी । अथ काऽसौ नोआगमतो द्रव्यानुपूर्वी ? नोआगमतो द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रझता, तद्यथा - शायकशरीर द्रव्यानुपूर्वी, भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी शायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वी अथ काऽसौ ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी ? झायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी - आनुपूर्वीपदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं व्यपगतच्युतच्याचितत्यक्तदेहं शेषं यथा द्रव्यावश्यके तथा भणितव्यम्, यावत् सैषा ज्ञायकवरीदन्यानुपूर्वी ।
अथ का सा भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी ? भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी यो जीवो योनिजन्मनिष्क्रान्तः शेषं यथा द्रव्यावश्यके० यावत् सैषा भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी । अथ काऽसौ ज्ञापकशरीरमव्यशरीरव्यतिरिक्ता, द्रव्यानुपूर्वी? ज्ञायकशरीरमव्यशरीरव्यतिरिक्ता, द्रव्यानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - औपनिधिकीच अनौपनिचिकी च । तत्र खलु या सा औपनिधिकी सा स्थाप्या । तत्र खलु या सा अनौपधिकी साद्विविधा तद्यथा - नैगमव्यवहारयोः, संग्रहस्य च ॥ मृ०७३॥
टीका - नाम ठवणाओ' इत्यादि
नामस्थापने= नामानुपूर्वी स्थापनानुपूर्व्यो गते गत गतप्राये उक्तमाये इत्यर्थः । अयं भावः - नामानमूर्वी स्थापनानुपूर्वी चैनद्वयं नामावश्यकवत् स्थापनावश्यकवद् विज्ञेयमिति ।
अथ द्रव्यानुपूर्वी निरूपयितुमाह-' से किं तं ' इत्यादि ।
अथ काऽसौ द्रव्यानुपूर्वी ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरमाह - ' दव्त्राणुपूब्बी ' इत्यादि । द्रव्यानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता । तद् यथा - आगमतश्च, नोआगमतश्च । तं दव्याणुपुची) हे भदन्त ! द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (दव्वाणुपुधी दुविहा पण्णत्ता) उत्तर- द्रव्यानुपूर्वी दो प्रकार की कही गई है (तंजा) वे प्रकार ये हैं (आगमओय नोआगमओय) एक आगम से
उत्तर- दव्वाणुपुवो दुबिहा पण्णसा तंजड़ा) द्रव्यानुपूर्वीना नाथ प्रभा प्रकार. (आगमओ य नोआगम ओ य ) ( 1 ) भागभनी अपेक्ष: खे અને (૨) નાઆગમની અપેક્ષાએ આગમના આશ્રિત કરીને જે દ્રવ્યાનુપૂર્વી
म० ३७
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अनुयोगवार तत्र-आगमतो द्रव्यानुपूर्वी यस्य साधोः खलु आनुपूर्वीति पदं शिक्षितं स्थित जितं मितं परिजितं यावत्-रह यावच्छब्दात्-नामसमं घोषसमम् अहीनाक्षरम् अत्यक्षरम् अव्याविद्धाक्षरम् अस्खलितम् अमिलितम् अव्यत्यानेडितं प्रतिपूर्ण पति
और दूसरी नोआगम से । आगम को आश्रित करके जो द्रव्य आनुपूर्वी होती है वह आगम द्रव्यानुपूर्वी है। (से किं तं गमओ दव्वाणुपुठवी) हे भदन्त । आगम को आश्रित करके जो द्रव्यानुपूर्वी होती है ? उसका क्या स्वरूप है ? (भागमओ दव्वाणुपृथ्वी) आगम को आश्रित करके जो द्रव्यानुपूर्ती होती है उसका स्वरूप इस प्रकार से है-(जस्स णं आणुपुग्वित्ति पयं सिक्खियं) जिस साधु आदिने आनुपूर्वी इस पद वाच्य अर्थ को विनयपूर्वक गुरुमुख से सीख लिया है (ठिय) उसे अच्छी तरह से अपने स्मृति पथ में उतार लिया है (जिय) शब्द और अर्थ की अपेक्षा से जिसने उसे भलि भांति जान लिया है (मिय) उसके पदादिकों की संख्या का परिमाण जिसने भली प्रकार से अभ्यास कर लिया है। (परिजिय) जिसने उसे सब तरफ से और सब प्रकार से परावर्तित करलिया है। वह आगम को आश्रित करके द्रव्यानुपूर्वी है। यहां यावत् शब्द से " नामसम, घोषसम अहीनाक्षर अत्यक्षर अव्या. विद्धाक्षर, अस्खलित, अमिलित, अव्यत्यानेडित, प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोष થાય છે તેનું નામ આગમદ્રવ્યાનુપૂવી છે અને ના આગમને આશ્રિત કરીને २ मानुषी थाय छ तेनु नाम नामासमद्रव्यानुनी छे. (से कि त आगमओ दव्वाणुपुव्वी) १ 3 मापन् ! सामने। पाश्रित ४शन रे अनुपूवी छे તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
(आगमओ दव्वाणुपुत्वो) भागमन भानित शन २ द्रव्यानुपूती याय છે તેનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે
(जस्स णं आणुपुत्वोति पय सिक्खिय) २ साधु माहि " मानुषी" આ પદના વાચ્યાર્થને વિનયપૂર્વક ગુરૂને મુખેથી સારી રીતે શીખી લીધું છે, (ठिय) तने सारी शत पाताना स्मृति५८६ ५२ उतारी बाधा छ, (जिय) Avg भने अर्थनी अपेक्षा २0 तक सारी रात one ela छे, (मिय) તેના પદાદિકની સંખ્યાનું પરિણામ જેણે સારી રીતે સમજી લીધું છે, (परिजिय) 0 तने मची तरथी भने म हारे पतित शीधु છે, તે આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યાનુપૂર્વી છે. અહીં યાવત' પદથી " नामसम, घोषसम, महीनाक्षर, अत्य१२, सन्याविाक्षर, अमावत,
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मनुयोगवन्द्रिका टोका स्त्र ७३ नामाद्यानुपूर्वी निरूपणम् पूर्णघोपं कण्ठोष्ठविषमुक्तं गुरुवाचनोपगतं भवति । स खलु तत्र-आनुपूर्वीतिपदे वाचनया प्रनया परिवर्तनया धर्मकथया च वर्तमानो भवति, न तु अनुप्रेक्षया वर्तमानो भवति । एवंविधः स साधुरागमतो द्रव्यानुपूर्वी पदेऽनुप्रेक्षयाऽवर्तमानः साधुः आगमतो द्रव्यानुपूर्वी कथं भवतीत्याह-'कम्हा' इत्यादिना-कस्मात कंठोष्ठविप्रमुक्तः गुरुवावचनोपगतः" इन पदों का संग्रह किया गया है। इन पदों का अर्थ १४ वे सूत्र में स्पष्ट कर दिया है। ऐसा वह व्यक्ति "आनुपूर्षी" इस पद में वाचना पृच्छना, परिवर्तना और धर्मकथा इन से वर्तमान माना जाता है । परन्तु अनुप्रेक्षा से वर्तमान-नहीं माना जाता है। इस प्रकार का वह साधु व्यक्ति आगम से द्रव्यानुपूर्वी जानना चाहिये।
शंका-(कम्हा) आनुपूर्वी पद में अनुप्रेक्षा से अवर्तमान साधु आगम से द्रव्यानुपूर्वी कैसे माना जाता है ?
उत्तर-" अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा" अनुपयोग-जीव जिसके द्वारा वस्तु का परिच्छेद करता है उसका नाम उपयोग है। इस उपयोगका अभाव अनुपयोग है। इस से युक्त होने के कारण आनुपूर्वी का वह ज्ञाता आगम से द्रव्यानुपूर्वी माना जाता है। ऐसा शास्त्र का वचन है। तात्पर्य कहने का यह है कि जिस साधुने आनुपूर्वी को અમિલિત, અવ્યત્યાગ્રંડિત, પ્રતિપૂર્ણ, પ્રતિપૂર્ણઘેષ, કઠોકવિપ્રમુક્ત. ગુરુવાચોપગત આ પદેને ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે. તે પદને અર્થ ૧૪માં સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. આ બધાં વિશેષણોથી યુક્ત સાધુ આદિને આનુપૂર્વી” આ પદમાં વાચના, પૃચ્છના, પરિવર્તન અને ધર્મકથા દ્વારા વર્તમાન માનવામાં આવે છે, પરંતુ અનુપ્રેક્ષા દ્વારા વર્તમાન માનતું નથી. આ પ્રકારના તે સાધુને આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂર્વી સમજ.
A-(कम्हा) भानुका ५६मा अनुप्रेक्षा द्वारा अवतमान साधु सासમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂર્વી કેવી રીતે મનાય છે?
उत्तर-" अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा" ०१ ना बा२१ १२तुनो परि. છેદ (બંધ) કરે છે તેનું નામ ઉપગ છે. તે ઉપગના અભાવનું નામ અનુપયોગ છે. આ અનુપગથી યુક્ત હોવાને કારણે અનુપૂર્વીને તે જ્ઞાતા આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂર્વ મનાય છે, એવું શાસ્ત્રનું વચન છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-જે સાધુએ આનુપૂવીને સારી રીતે જાણી લીધી -શીખી લીધી છે-એટલે કે તે તેને પરિપૂર્ણરૂપે જ્ઞાતા થઈ ગયા છે, તે
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मनुयोगद्वारपणे अनुप्रेक्षया वर्तमानः साधुरागमतो द्रव्यानुपूर्वी भवति? उत्तरयति-अणुवओगो दवमितिकटु' अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । अनुपयोगो हि द्रव्यं भवति, अतोऽनु. पेक्षयाऽवर्तमानः साधुरागमतो द्रव्यानुपूर्वी भवति ।
नेगमादि भेदेन द्रव्यानुपूर्वी भेदास्त्वेवं विज्ञेयाः नैगमस्य खलु एकोऽनुपयुक्त भागमत एका द्रव्यानुपूर्वी, यावत् यावच्छब्दात् द्वावनुपयुक्तौ आगमतो द्वे आनु. पूज्यौं । त्रयोऽनुपयुक्ता आगमतस्तिस्रो द्रव्यानुपूर्व्यः । एवमेव व्यवहारस्यापि । सम्यक् प्रकार से जान लिया है-सीख लिया है-वह उसका पूर्णरूप से ज्ञाता बन चुका है, अतः वह साधु उस आनुपूर्वी में वाचना पृच्छना आदि से वर्तमान होने पर भी उसमें उपयोग से रहित होने के कारण वह आगम से द्रव्यानुपूर्वी कहलाता है। (णेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगा दव्वाणुपुत्वी, जाव कम्हा? जइ जाणए अणुवउत्तं न भवइ, जइ अणुवउत्ते जाणए न भवइ, तम्हा णस्थि आगमओ दव्वाणुपुत्वी से तं आगमओ दवाणुपुची) ।
अब सूत्रकार नैगमनय आदि के भेद से द्रव्यानुपूर्वी के भेदों को कहते है-इन में नैगमनय की दृष्टि से एक अनुपयुक्त आत्मा-साधु आगम से एक द्रव्यानुपूर्वी है। यहां यावत् शब्द से ऐसा जानना चाहिये-कि दो अनुपयुक्त साधु आगम से दो द्रव्यानुपूर्वी हैं। तीन अनुपयुक्त साधु, आगम से तीन द्रव्यापूर्वी हैं । इस प्रकार जितने अनु. पयुक्त साधु हैं आगम से उतनी ही द्रव्यानुपूर्वीयां हैं। इसी प्रकार से व्यवहारनय की दृष्टि से द्रव्योनुपूर्वी में एकत्व अनेकत्व का कथन સાધુ આનુપમાં વાચના, પૃચ્છના, આદિ વડે વર્તમાન હોવા છતાં પણ તેમાં ઉપયોગથી રહિત હોવાને કારણે આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂરી કહેવાય છે.
(णेगमस्स ण एगो अणुवउत्तो आगमओ एगा वाणुपुवी जाव कम्हा ? जइ जाणए अनुवउत्ते न भवइ, जइ अनुव उत्ते जाणए न भवइ, तम्हा णस्थि भागमो दव्वानुपुवी-सेत्त आगमओ दव्वानुपुव्वी)
હવે સૂત્રકાર નૈગમય આદિના ભેદથી દ્રવ્યાનુપૂવીના ભેદેનું કથન કરે છે–નગમ નયની દષ્ટિએ એક અનુપયુક્ત આત્મા (સાધુ) આગમની અપેક્ષાએ એક દ્રવ્યાનુપૂવી છે. અહીં “યાવત્ ” પદથી નીચે પૂર્વોક્ત સૂત્રપાઠ ગ્રહણ કરે.
નગમનયની દૃષ્ટિએ બે અનુપમયુકત સાધુ આગમની અપેક્ષાએ બે દ્રવ્યાનુપૂર્વી છે, ત્રણ અનુપયુકત સાધુ આગમની અપેક્ષાએ ત્રણ દ્રવ્યાનવી છે. એ જ પ્રમાણે જેટલા અનુપયુકત સાધુ છે એટલાં જ આગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂવી છે. એ જ પ્રમાણે વ્યવહારનયની અપેક્ષાએ પણ દ્રવ્યાનુપૂવીમાં
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अनुयोगबन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाचानुपूर्वी निरूपणम्
संग्रहस्थ खलु एकोऽनुपयुक्तः, अनेके वाऽनुपयुक्ता आगमतो द्रव्यानुपूर्वी मानुपूज्यौं वा एकैव द्रव्यानुपूर्वी बोध्या। ऋजुमूत्रस्य एकोऽनुपयुक्त आगमन एका द्रव्यानुपूर्वी, पृथयों नेच्छति । त्रयाणां शब्दनयानां झायकोऽनुपयुक्तोऽवस्तु, करमान ? यदि शायकः, अनुपयुक्तो न भवति, यदि अनुपयुक्तः, ज्ञायको न भवति तस्माद् नास्ति तन्मते आगमतो द्रव्यानुपूर्वी । अत्रोक्तानां शिक्षितादि पदानां व्याख्या पूर्ववद् बोध्या । एतदुपसंहरन्नाह-सैपाऽऽगमतो द्रव्यानुपूर्वीति । जानना चाहिये संग्रहनय की ऐसी मान्यता है कि एक द्रव्यानुपूर्ण है। नैगम और व्यवहार नय की मान्यता के अनुमार द्रव्यानुपूर्वी जो एक और अनेकरूप है-सो यह नय ऐसा कथन करता है कि मामान्यतत्व के आधार पर समस्त द्रव्यानुपूर्वियां एक ही हैं-भिन्न २ अनेक नहीं। ऋजुसूत्रनय की मान्यतानुसार वर्तमान क्षण में एक अनुपयुक्त साधु आगम की अपेक्षा एक आनुपूर्वी है। यह नय आनुपूर्वी में भिन्नताअनेकता नहीं मानता है। तीन शब्दनय की मान्यतानुसारज्ञायक होकर भी जो अनुपयुक्त होता है वह अवस्तु स्वरूप है। क्यों कि जो ज्ञायक होगा वह अनुपयुक्त नहीं होगा, जो अनुपयुक्त होगा वह ज्ञायक नहीं होगा। इसलिये आगम की अपेक्षा लेकर जो द्रव्यानुपूर्वी बनती है वह नहीं है। यहां पर जो शिक्षित आदि पद आये हैं उनकी व्याख्या पहिले की व्याख्या के ममान समझनी એકત્વ અને ત્વનું કથન સમજવું જોઈએ. સંગ્રહનાની એવી માન્યતા છે કે એક જ દ્રવ્યાનુપૂવી છે. નૈગમનય અને વ્યવહાર જ્યની માન્યતા અનુસાર દ્રવ્યાનુપૂવી જે એક અને અનેકરૂપ છે તેનું કારણ એ છે કે આ નય એવું કથન કરે છે કે સામાન્ય તત્ત્વના આધાર પર સમસ્ત દ્રવ્યાનુપૂર્વી એ એક જ છે-ભિન્ન ભિન્ન અનેક-નથી. જુસૂત્ર નયની માન્યતા અનુસાર વર્તમાન ક્ષણે એક અનુપયુક્ત સાધુ આગમની અપેક્ષાએ એક આનુપૂર્વી છે. આ નય આનુપૂર્વમાં ભિન્નતા (અનેકતા)ને માનતા નથી. ત્રણે શબ્દોની માન્યતા અનુસાર જ્ઞાયક હોવા છતાં પણ જે અનુપયુક્ત હોય છે તે અવસ્વસ્વરૂપ છે. કારણ કે જે જ્ઞાયક હશે તે અનુપયુક્ત અહી હોય અને જે અનુપયુત હશે તે નાયક નહીં હોય, આ પ્રકારની તે ત્રણે શબ્દ નાની માન્યતા છે. તેથી આગમની અપેક્ષાએ જે દ્રવ્યાનુપૂવી બને છે તેને આ ત્રણે શબ્દનોની માન્યતા અનુસાર સદભાવ જ હાત નથી. અહીં જે શિક્ષિત આદિ પદે આવ્યાં છે તેમની વ્યાખ્યા આગળ આપ્યા પ્રમાણે જ સમજવી. આ પ્રકારનું આગમ દબાવી સ્વરૂપ છે.
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___ अथ नोआगमतो द्रव्यानुपूर्वी तिजिज्ञासया शिष्या पृच्छति-से कितं' इत्यादि । अथ काऽसौ नोभागमतो दव्यानुपूर्वी ? इति । उत्तरयति-'नोभागमो दव्वानुपुली' इत्यादि । नोआगमतो द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रसप्ता-शायकशरीर. द्रव्यानुपूर्वी १ भव्यशरीर-द्रव्यानुपूर्वी २ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्या. नुपूर्वी ३ । ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी जिज्ञासमानः शिष्यः पृच्छति-अथ काऽसौ ज्ञायफशरीरद्रव्यानुपूर्वी ? उत्तरयति-'जाणयसरीर' इत्यादि । नायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी हि-आनुपूर्वी पदार्थाधिकारज्ञायकस्य यत् शरीरकं व्यपगतच्युतच्यावितत्यक्तदेहं जीवविषमुक्त शय्यागतं वा संस्तारगतं वा सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा खल चाहिये । इस प्रकार यह आगम से द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप है। (से कि तं नोआगमओ व्वानुपुव्वी) हे भदन्त ! नो आगम को आश्रित करके द्रव्यानुपूर्वो का क्या स्वरूप है ? (नोभागमओ व्वानुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता) नोआगम को आश्रित करके होनेवाली द्रव्यानुपुर्वी तीन प्रकार की कही गई है। (तं जहा) जैसे-(जाणयसरीरदव्यानुपुत्वी, भवियसरीरदव्वानुपुल्ची,जाणयसरीरभवियसरीरवहरित्ता दव्वानुपुग्धी) ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वी, भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी और ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी । (से कि तं जाणयसरीरदव्वानुपुव्वी) हे भदन्त ! पूर्वप्रकान्त ज्ञायशरीर द्रव्यानुपूर्वी क्या है ? __ (जाणयसरीरदव्वानुपुत्वी) ज्ञायकशरीर द्रव्यानुपूर्वी इस प्रकार से है। (आनुपुव्वीपयत्याहिगारजाणयस्स जं सरीरं ववगयचुयवावियचत्त.
(से किं तनोआगमओ दवाणुपुञ्वी १) मान! नागभने पाश्रित કરીને દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(नोआगमओ दव्यानुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता) नामासमने माश्रित ४श जयभान द्रव्यानुनी र प्रनी ही छ-(तंजहा) ते प्रा। नीय प्रभार छ
(जाणयसरीरदव्वानुपुव्वी, भवियसरीर दव्वानुपुव्वी जाणयसरीरभषियसरीरपरिचा व्वानुपुव्वी) (1) शायशरीर द्रव्यापूवी', (२) अयशरीर द्रव्यापी અને (૩) સાયકશરીર ભવ્યશરીર વ્યતિરિત દ્રવ્યાનુપૂર.
IN-से किं त जाणयसरीरदबानुपुव्वो ?) 8 सवान! ५ प्रान्त (પૂર્વ પ્રસ્તુત) જ્ઞાયક શરીર દ્વવ્યાપૂવીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(जाणयसरीरदब्वानुपुव्वी) ज्ञाय शरीर द्रव्यानुभूती नु ५१३५ ।। आर -(आनुपुव्वी पयत्वाहिगारजाणयस्स जसरीर' ववगयचुयचाविय पाचही मानुनी' मा ५४ना अधिकारने नार से पालथी
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बोगवनिका रोका सूत्र ७३ नामाचानुपूर्वी निरूपणम् कोऽपि भणे अहो! खलु अनेन शरीरसमूच्छयेण जिनदृष्टेन भावेन आनुपूर्वीति पदम् आगृहीतं प्रशापितं परूपितं दर्शितं निदर्शितम् । यथा कोऽत्र दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भ आसीदिति । 'जीव विभमुक्तम्' इत्यारभ्य एतत्पर्यन्तः पाठः 'शेषं यथा द्रव्यावश्य के तथा भणितव्यं यावत्' इत्यनेन संग्राह्यः एषां पदानां व्याख्या द्रव्यावश्यके द्रष्टव्या। एतन्निगमयन्नाह-सैषा ज्ञायकशरीरद्रव्यानुपूर्वीति । देहं) आनुपूर्वी इस पद के अधिकार को जानने वाले साधु का जो व्यपगत च्युत, च्यावित और त्यक्त देहवाला शरीर अर्थात् आहार परिणति जनित वृद्धि से रहित शरीर है वह ज्ञायकशरीर द्रव्यानुपूर्वी है। (सेसं जहा दव्वावस्सए जाव से तं जाणयसरीरदव्वानुपुथ्वी) यहां पर" जीवविप्रमुक्तं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा नैषेधिकीगतं वा, सिद्धं शिलातलगतं वा दृष्ट्वा खलु कोऽपि भणेत् अहो! खलु अनेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनदृष्टेन भावेन आनुपूर्वीति पदं आगृहीतं, प्रज्ञापितं, प्ररूपितं, दर्शितं, निदर्शितं । यथा कोऽत्र दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भआसीत् अयं घृतकुम्भ आसीत् " यह (सेस) अवशिष्ट पाठ (जहा दव्वावस्सए जाव) जैसा द्रव्यावश्यक में कहा है वैसा लगा लेना चाहिये। इन समस्त पदों की व्याख्या द्रव्यावश्यक के प्रकरण में कह दी गई है-अतः वहां से जान लेनी चाहिये । इस प्रकार नोआगम की अपेक्षा से द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप है।
રહિત ચુત, ચાવિત અને ત્યક્ત દેહવાળું જે નિર્જીવ શરીર છે-એટલે કે આહાર પરિણતિ જનિત વૃદ્ધિથી રહિત જે શરીર છે તે જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યાનુપૂવી છે. (વ્યપગત, ચુત, ચ્ચાવિત આદિ પદને ભાવથ આગળ આવી ગયો છે.)
(सेस' जहा दव्वावस्सए जाव से त जाणयसरीरदव्वानुपुव्वी) सही " जीवविप्रमुक्त शय्यागत वा, नैषेधिकीगत वा, सिद्धशिलातलगत वा दृष्क्षा खलु कोऽपि भणेत् अहो! बलु अनेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनदृष्टेन भावेन आनुपूर्णति पद आगृहीत, प्रज्ञापित', प्ररूपित, दर्शित, निदर्शितं यथा कोऽत्र दृष्टान्तः? अय मधुकुम्भ आसीत, अय घृतकुम्भ आसीत् " मा (सेस) माडीका सूत्र (जहा दव्वावस्सए जाव) द्र०यावश्यमा san अनुसार २७५ કરવું જોઈએ. આ સઘળાં પદેની વ્યાખ્યા દ્રવ્યાવકના પ્રકરણમાં આપવામાં આવી છે. તેથી જિજ્ઞાસુ પાઠકે એ તે ત્યાંથી વાંચી લેવી. આ પ્રકારના નેઆગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે.
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मनुयोगद्वार
शिष्यः पृच्छति' से किं तं ' इत्यादि । अथ काऽसौ भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी ? मन्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी हि-यो जीवो योनि जन्मनिष्क्रान्तोऽनेनैव आसकेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनोपदिष्टेन भावेन आनुपूर्वी ति पदम् आगामिकाले शिक्षिष्यते, न तावत् शिक्षते । यथा को दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भो भविष्यति, अयं घृतकुम्भो भविष्यतीति अनेनैव आत्तकेन' इत्यारभ्य एतत्पर्यन्तः पाठः शेषं यथा द्रव्यावश्यके यावत्' इत्यनेन संग्राह्यः । व्याख्या च द्रव्यावश्यके द्रष्टव्या । सम्प्रत्येतदुपसंहरन्नाह - सेवा भव्यशरीरद्रव्यानुपूत्र ति ।
( से किं तं भक्तिरीरव्वानुपु०वी) हे भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्त भव्यशरीर द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
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उत्तर- (भत्रिय मरीरदव्वानुपुवी ) भव्यशरीरद्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है- ( जे जीवे जोणीजम्मणणिक्खते सेसं जहा दव्वावस्सए जाव से तं भविषसरीरदच्वानुपुथ्वी) जो जीव जन्मकाल में अपना पूर्ण मास का समय समाप्तकर उत्पन्न हुआ-बीच में नहीं, ऐसा मनुष्य उस प्राप्त शरीर से जो भविष्यत्कालमें आनुपूर्वी का अनुपयुक्त ज्ञाना बनेगा उसका वह प्राप्त शरीर नो आगम से भव्यशरीर द्रनुपूत्र है। यहां पर अनेनैव आत्तकेन " इस पाठ से लेकर " शरीरममुच्छ्रमेण जिनोपदिष्टेन भावेन आनुपूर्वी तिपदं आगामिकाले शिक्षिष्यते न तावत् शिक्षते । यथा को दृष्टान्तः अयं मधुकुम्भो भविष्यति अयं घृतकुम्भो भविष्यति” यहाँ तक का पाठ " शेष' यथा द्रव्यावश्यके यावत् " इस पाठ से ग्रहण करलेना चाहिये । इस प्रश्न - से किं त भवियम्ररीरदव्वानुपुत्री ? हे भगवन् ! लव्यशरीर द्रव्याનુપૂર્વી'નુ કેવું સ્વરૂપ છે ?
उत्तर- ( जे जीवे जोणिजम्मणणिक्खंते से जहा दव्वावस्सप जाव से त भवियसरीरदव्वानुपुब्बी) ने व भाताना गर्भभां पूरं नव भास रहने એટલે કે પૂર્ણ કાળ વ્યતીત કરીને ઉત્પન્ન થયા છે—અપૂર્ણ કાળ વ્યતીત ઉત્પન્ન થયા નથી. એવે જીવ ભવિષ્યકાળમાં અનુપૂર્વી ને અનુભવયુક્ત અનશે—વતમાનકાળે તે અનુપૂર્વીના જ્ઞાતા નથી, તેા એ જીવને તે પ્રાપ્ત શરીર अपेक्षः मे लव्यशरीर द्रव्यानुपूर्वी छे. अहीं " अनेनैव નાઆગમની आत्तकेन " या सूत्रपथी बहने " शरीरखमुच्छ्रयेण जिनोपदिष्टेन भावेन तावत् शिक्षये । यथा आनुपूर्वीतिपदं आगामि काले शिक्षिष्यसेन को दृष्टान्तः १ अयं मधुकुम्भो भविष्यति अयं घृतकुम्भो भविष्यति ” यही સુધના સૂત્રપાઠ દ્રવ્યાવશ્યક સૂત્રમાં કહ્યા અનુસાર ગ્રહણ કરવાનું સૂત્રકારે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाद्यानुपूर्वीनिरूपणम्
२९७ शिष्यः पृच्छति-से कि तं' इत्यादि । अथ काऽसौ ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानपूर्वी ? इति । उत्तरमाह-'जाणयसरीर' इत्यादि। शायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वी हि द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-औपनिधिको च अनौपनिधिकी च । तत्र मेदद्वयमध्ये या सा औपनिधिकी इह निधिशब्दस्य निक्षेपोऽर्थः, निधानं, निधिः निक्षेपः, न्यासः, स्थापनेति शब्दाः पर्यायाः। उप= सामीप्येन निधिः-उपनिधिः-एकस्मिन् विविक्षितेऽर्थे पूर्व व्यवस्थापिते तत्समीपे पाठ की शंकासमाधान पूर्वक जैसी व्याख्या द्रव्यावश्यक के स्वरूपको निरूपण करते समय की है वैसी ही व्याख्या इसकी जाननी चाहिये। इस प्रकार यह नोआगम को लेकर द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप है। (से कि तं जाणयसरीरभावियसरीरबारित्ता दव्वाणुपुव्वी) हे भदन्त ! पूर्वोक्त ज्ञायक शरीर भव्य शरीर इन दोनों से व्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-( जाणयसरीरभवियसरीरवहरित्ता वाणुपुब्बी दुविहा पण्णत्ता) ज्ञायकशरीर भव्यशरीर इन दोनों से भिन्न द्रव्यानुपूर्वी दो प्रकार की कही है (तंजहा) जैसे (ओवणिहिया, य अणोवणिहिया य)
औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी और अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी । (तत्व ण जासा ओवणिहिया सा ठप्पा) इनमें जो औपनिधिकी द्रव्यानुपूवी है वह स्थाप्य है। क्योंकि अल्प विषयवाली होने से वह इस समय व्याख्या करने योग्य नहीं है। निधिशब्द का अर्थ यहां निक्षेप है। સૂચન કર્યું છે દ્રવ્યાવશ્યકના પ્રકરણમાં શંકાઓના સમાધાન પૂર્વક ભવ્યશરીર દ્રવ્યાવશ્યકના સ્વરૂપનું જેવું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે એવું જ અહી ભચશરીર દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ થવું જોઈએ આ પ્રકારનું આગમની અપેક્ષાએ ભવ્ય શરીર દ્રવ્યાનુપૂવીનું સ્વરૂપ સમજવું.
प्रश-(से किं त जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुपुव्वी १) 8 ભગવન! પૂર્વ પ્રક્રાન્ત જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીર આ બનેથી ભિન્ન એવી દ્રવ્યાનુવીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
अत्तर-(जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुपुव्वी दुविहा पण्णत्ता) સાયકશરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવી દ્રવ્યાનુપૂર્વી એ પ્રકારની કહી છે. (Aaro नये प्रभारी छे-ओवणिहियो य अणोवणिहिया य) (1)
यानपवा अन (२) अनोपनिधिही द्रव्यानु५वी (तत्थणं वा मा मोवणिहिना मा ठप्पा) तमा २ गोपनिवि भानु छेते स्थाय
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अनुयोगद्वारसूत्रे एवापरापरस्य वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्यादिक्रमेण यन्निक्षेपणं स उपनिधिरित्ययः उपनिधिः प्रयोजनं यस्या आनुपूर्व्याः सा-औपनिधिड़ी । सामायिकादि-षडध्ययनानां पूर्वा प्रादिना निक्षेप एव उपनिधिः स प्रयोजनं यस्याः आनुपूाः सा, औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्ती स्थाप्या संप्रति न व्याख्यातव्या-अल्पविषयत्वे. नात्र नोच्यते, किश्वग्रे वक्ष्यते इति भावः । सम्पति बहुवक्तव्यत्वेन पश्वान्निर्दिष्टाऽपि अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वथैव व्याख्यायते । तत्र खलु या सा अनौपनिधिकी निधान, निधि निक्षेप, न्यास स्थापना ये सब निधिशब्द के पर्याय वाची शब्द हैं । उपशब्दका अर्थ समीप है और निधि शब्दका अर्थ रखना है। एक कोई विवक्षित पदार्थ पहिले व्यवस्थापित कर देने पर फिर उसके पास ही और २ दूसरे पदार्थों के वक्ष्यमाण पूर्वानुपूर्वी के क्रम से जो रखा जाता है उसका नाम उपनिधि है। यह उपनिधि जिस आनुपूर्वी का प्रयोजन हो वह औपनिधिकी आनुपूर्वी है। इसमें सामा. यिक आदि छह अध्ययनों का पूर्वानुपूर्वी से निक्षेप किया जाता है। इनका यह निक्षेप ही उपनिधि है । औपनिधिकी आनुपूर्वी में यह उपनिधि ही प्रयोजनभूत होती है। अल्प विषय वाली होने से जो यहां उसे व्याख्यातव्य नहीं कहा गया है उसका तात्पर्य यह नहीं है कि उस सूत्र में सूत्रकार उसका कथन नहीं करेंगे । किन्तु आगे वे उसे कहेंगे-अभी यहां नहीं। अगोपनिधिकी आनुपूर्वी का जो सूत्रकार છે, કારણકે અ૫ વિષયવાળી હોવાના કારણે અત્યારે અહીં તેનું પ્રતિપાદન १२पानी ४३२ नयी ' पहने। म सही नि५' सभा निधान, નિધિ, નિક્ષેપ, ન્યાસ અને સ્થાપના આ બધા નિધિશબ્દના પર્યાયવાચી शही छे. '6' २४ने। मय' 'सभी५' याय छे. अने निEि' Aws રાખવાના અર્થને સૂચક છે હવે ઉપનિધિ શબ્દનો આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે-કોઈ એક વિવક્ષિત પદાર્થને પહેલાં વ્યવસ્થાપિત કરી દીધાં પછી તેની પાસે જ અન્ય પદાર્થોને પૂર્વાનુમૂવીના ક્રમથી જે રાખવામાં સ્થાપિત કરવામાં) આવે છે તેનું નામ ઉપનિધિ છે. ” આ ઉપનિધિ જે અનુપૂવીનું પ્રજન છે તે આનુપૂવને ઔપનિધિધી આનુપૂવ કહે છે તેમાં સામાયિક આદિ ૬ અધ્યયને પૂર્વાનુપૂવથી નિક્ષેપ કરવામાં આવે છે. તેમને આ નિપ જ ઉપનિધિ રૂ૫ છે. ઔપનિધિકી આનુપૂવીમાં આ ઉપનિધિ જ પ્રજનભૂત હોય છે. અ૫વિષયવાળી હવાને કારણે તેને અહીં વ્યાખ્યાત કરવા ગ્ય નહીં કહેવાનું તાત્પર્ય એવું નથી કે આ સૂત્રમાં સૂત્રકાર
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द्रव्यानुपूर्वी साद्विविधा प्रज्ञता । ' अनोपनिधिकी' इत्यस्यायमर्थः अनुपनिधिः= वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण अनिक्षेपः - अव्यवस्थापनं स प्रयोजनं यस्याः सा अनौपनिधिका पूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण व्यवस्थापनं न क्रियते सा व्यादि परमाणुनिष्पन्नस्कन्धविषया आनुपूर्वी अनौपनिधिकोत्युच्यते इति भावः ।
औपनिधिकी आनुपूर्वी के पहिले यहीं विवेचन कर रहें हैं! उसका कारण यह है कि उस आनुपूर्वी के विषय में वक्तव्यता बहुत है। (नथण जा सा अणोवणिहिया सा दुबिहा) इन औपनिधिकी अनौपनिधिकी आनुपूर्वी में जो यह दूसरी अनोपनिधिकी आनुपूर्वी है वह दो प्रकार की है। (तंजा) जैसे (नेगमववहाराणं संगहस्स्य) एक नैगम व्यवहार नय संमत और दूसरी संग्रह नय संगत। " अनौपनिधिकी" इसका अर्थ इस प्रकार से है कि वक्ष्यमाग पूर्वानुपूर्वी क्रम से जहां पदार्थों की स्थापना नहीं होती है उसका नाम अनुपनिधि है यह अनुपनिधि जिस आनुपूर्वी का विषय है उसका नाम अनौपनिधिक आनुपूर्वी है। जिस आनुपूर्वी में पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से पदार्थों की स्थापना व्यवस्था न हो और जो त्र्यादिपरमाणु से निष्पन्न हुए स्कंध को विषय करती हो ऐसी आनुपूर्वी अनौपनिधिकी आनुपूर्वी है।
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તેનુ' નિરૂપણુ કરવા માગતા નથી તેઓ અડ્ડા તેનુ નિરૂપણ કરવાના નથી પણ આ ગ્રન્થમાં (સૂત્રમાં) જ તેનું નિરૂપણુ આગળ કરવામાં આશે. અનૌપનિષિકી આનુપૂર્વી નું અહં' સૂત્રકારે ઔનિષિકી આનુપૂર્વી પહેલાં જે વિવેચન કર્યું છે તેનુ કારણ એ છે કે અૌષનિધિકી આનુપૂર્વી विषेनी वहुतव्यता धीबांची छे. (तत्थगं जा सा अणोत्र निहिया सा दुबिहा) मा भन्ने अहारनी आनुपूत्र सोमानी ने अनोपनिधिडी मानुपूर्वी छे ते से प्रहारनी उडी छे (संजहा) ते मे प्राश नीचे प्रमाणे छे - (नेगमबबहाराणं संगहस्स य) (१) नैगम भने व्यवहार नय संभित मने (२) સ'ગ્રહનય સ ંમત “ અનઔપનિધિકી ” આ પદના અથ આ પ્રમાણે થાય છે વક્ષ્યમાણુ પૂર્વાપૂર્વીના ક્રમે જયાં પદાર્થની સ્થાપના થતી નથી તેનું નામ અનુપિનિધ છે. આ અનુપનધિ જે આનુપૂર્વીને વિષય છે તે આનુપૂર્વી'નુ' નામ અનૌનિષિકી આનુપૂર્વી છે, આનુપૂર્વીમાં પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના ક્રમપૂ. વક પદાર્થોની સ્થાપના વ્યવસ્થા ન હોય અને જે ત્રણ આદિ પરમાણુથી નિષ્પન્ન થયેલા (ઉત્પન્ન થયેલા) સ્કન્ધને વિષય કરતી હેાય (સ્ક ંધનું પ્રતિપાદન કરતી હાય) એવી આનુપૂર્વીનું નામ અનૌનિધિકી અનુપૂર્વી છે,
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अनुयोगद्वारस्ते नच स्कन्धविषयेऽनौपनिधिकीत्वं नोपपद्यते, यतः कश्चित् स्कन्धत्रिपदेशिका, कश्चिचतुःमदेशिकः कश्चित् पश्चपदेशिका, इत्युत्तरोत्तर सर्वे स्कन्धाः क्रमपूर्वकमेव भवन्ति ततश्च पूर्वानुपूर्व्या व्यवस्थापनस्य सद्भावादनौपनिधिकीत्वमेव तत्रास्ति, नत्वनोपनिधिकीत्वं तत्र संभवतीति चेत् .
अत्रोच्यते-तत्र कस्यचित् स्कन्धस्य पूर्वानुपूर्व्यादि क्रमेण व्यवस्थापनं नान्येन केनचित क्रियते, सर्वेषां स्कन्धानां विस्रसापरिणामपरिणतत्वात् अतः स्कन्धविषयेऽनौपनिधिकीत्वमुपपद्यते । यत्र तु तीर्थकरादिना पूर्वानुपूादिक्रमेण वस्तूनां __ शंका-स्कंध में अनौपनिधि की पना नहीं बनता है। क्योंकि कोई स्कंध तीन प्रदेश वाला होता है, कोई चार प्रदेशवाला होता है, कोई पांच प्रदेशवाला होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर समस्त स्कंध क्रम पूर्वक ही होते हैं इस प्रकार इनमें पूर्वानुपूर्वी के क्रम से स्थापना की व्यवस्था का सद्भाव आने से औपनिधि की पना ही आता है, अनौपनिधिकीपना नहीं।
उत्तर-स्कंधो में जो त्रिप्रदेशिकता आदि है वह किसी के द्वारा यहां की हुई नहीं है-अर्थात् ऐसा नहीं है कि त्रिप्रदेशी स्कंध है उसे किसी ने तीन परमाणु पूर्वानुपूर्वी क्रम से रखकर बनाया हो । उसमें त्रिप्रदेशिकता तो स्वभाव से ही है । क्योंकि जितने भी स्कंध हैं वे सब स्वाभाविक परिणाम से परिणत होते रहते हैं। इसलिये स्कंध में अनौपनिधिकीपना ही आता है। जहां पर तीर्थंकर आदिकों द्वारा पूर्वा
શંકા-સ્કન્દમાં અનૌપનિષિકપણું સંભવી શકતું નથી, કારણ કે કોઈ સ્કંધ ત્રણ પ્રદેશવાળો હોય છે, કેઈ ચાર પ્રદેશવાળો હોય છે, કઈ પાંચ પ્રદેશવાળ હોય છે. આ પ્રકારે ઉત્તરોત્તર સમસ્ત કપ ક્રમપૂર્વક જ હોય છે. તેથી તેમાં પૂર્વાનુમૂવીના ક્રમપૂર્વક સ્થાપનાની વ્યવસ્થાનો સદ્દભાવ હોવાથી ઔપનિધિકી પણું હોઈ શકતું નથી.
ઉત્તર-રકધામાં જે ત્રિપ્રદેશિકતા આદિ છે તે કેઈના દ્વારા ત્યાં કરાયેલ નથી એટલે કે એવી કોઈ વાત નથી કે વિપ્રદેશી જે સ્કંધ છે તેને કોઈએ ત્રણ પરમાણુ પૂર્વાનુપૂવ ક્રમપૂર્વક રાખીને બનાવ્યો છે. તેમાં તે સ્વભાવથી જ ત્રિપદેશિકતા હોય છે, કારણ કે જેટલાં સ્કન્ધ છે તે બધાં સ્વાભાવિક પરિણામ દ્વારા જ પરિણત થતા રહે છે. તેથી સ્કંધમાં અનૌપનિધિપાસુ જ ઘટાવી શકાય છે જ્યાં તીર્થકર આદિક દ્વારા પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના કમથી વસ્તુ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाद्यानुपूर्वीनिरूपणम्
३०१ व्यवस्थापनं भाति, तत्रोपनिधिको आनुपूर्वी, यथा-धर्माधर्मादिषद्रव्येषु, सामायिकादि षडध्ययनेषु च ।
नन्वेवं पूर्गनुपूादिक्रमेण व्यवस्थापनं यत्र नास्ति तत्रानौषधिकीति स्वीकारे आनुपूर्वोत्वमेव नोपपद्यते, पूर्वानुपूर्यादिक्रमस्यैवानुपूर्वी रूपत्वात्, पूर्वा नुपूर्व्यादि क्रमेण व्यवस्थापनस्याऽभावे आनुपूर्ध्या एव नास्ति संभवः? इतिचेत् . ___ अत्रोच्यते-पयपि स्कन्धगतव्यादि परमाणूनां स्कन्धरूपेण विशिष्टौकपरिणामपरिणतत्वात् , तथापि-योग्यतामाश्रित्यानुपूर्वी त्व संभवति । तथाहि-त्र्यादि. परमाणनामादिमध्यावसानभावेन नियतक्रमेण व्यवस्थापनयोग्यताऽस्तीत्यतस्तां योग्यतामाश्रित्यात्राप्यापूर्वी त्वं न विरम्यते । नुपूर्वी आदि के क्रम से वस्तुओं की व्यवस्था होती है वहां पर औपनि धिकी आनुपूर्वी होती है। जैसे धर्म अधर्म आदि ६ द्रव्यों में और सामायिक आदि ६ अध्ययनों में है।
शंका-यदि ऐसा ही स्वीकार किया जावे कि जहां पर पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से व्यवस्थापन नहीं है वहां अनौपनिधिकी आनुपूर्वी है सो इस कथन में-ऐसी मान्यता में-आनुपूर्वीपना ही नहीं आता है। क्यों कि पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रममेंही आनुपूर्वी रूपता है। जहां पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से व्यवस्थापन का अभाव है वहां आनुपूर्वी का ही संभव नहीं होता है।
उत्तर-यद्यपि स्कंधगत तीन आदि परमाणुओं का नियतक्रम नहीं है क्यों कि वे परमाणुओं स्कंधरूपसे विशिष्टैक परिणाम में परिणत रहा करते हैं। तो भी योग्यता को आश्रित करके उनमें आनुपूर्वीपना એની વ્યવસ્થા થાય છે, ત્યાં ઔપનિધિકી આનુપૂરી થાય છે. જેમ કે ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય આદિ ૬ દ્રવ્યોમાં અને સામાયિક આદિ ૬ અધ્યયનમાં શંકા-જે એવું જ માની લેવામાં આવે કે જ્યાં પૂર્વાનુમૂવી આદિના ક્રમથી વ્યવસ્થાપન નથી પણ અનૌપનિધિની આનુપૂર્વીના કમથી વ્યવસ્થાપન છે, તે એ પ્રકારની માન્યતામાં તે આનુપૂર્વીતા જ સંભવી શકતી નથી, કારણ કે પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના ક્રમમાં જ આનુપૂર્વીરૂપતા છે.
જ્યાં પૂર્વાનુપૂર્વી આદિના ક્રમપૂર્વક વ્યવસ્થાપનને અભાવ છે, ત્યાં આનુપૂવીને સંભવ જ હોતો નથી.
ઉત્તર-જે કે કન્યગત ત્રણ આદિ પરમાણુઓને નિયતક્રમ હોતો નથી, કારણ કે તે પરમાણુ સ્કલ્પરૂપે એક વિશિષ્ટ પરિણામમાં પરિણત થયા કરે છે. છતાં પણ વ્યતાને આશ્રિત કરીને આનુપૂર્વીતા આ પ્રકારે
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अनुयोगद्वारहरे ___ सम्मति अस्या द्वैविध्यमाह-तद्यथा-नैगमव्यवहारयोः, संग्रहस्य च । नैगमव्यवहारसंमता संग्रहसंमता चेति द्विविधाऽनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी त्यर्थः । इदमत्र बोध्यम् -ओघनो हि नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरुदैवंभूताः सप्त नया भवन्ति एतेषां हि द्रव्यार्थिकपर्यायाधिकरक्षणे नयद्वयेऽन्तर्भावो भवति । 'द्रव्यमेव परमार्थतोऽस्ति न पर्यायाः' इत्यभ्युपगमपरो नयो द्रव्याथिकनयः, 'पर्याया एव वस्तुतः सन्ति न द्रव्य'-मित्यभ्युपगमपरो नयः पर्यायार्थिकनयः। तत्र नयेषु-नैगमसंग्रहव्यवहारा द्रगर्थिकनयाः, ऋजुत्रशब्दसमभिमाना गया है । और वहां इस प्रकार से-कि-तीन आदि परमाणुओं में
आदि मध्य और अवसानभावरूप जो नियतक्रम है उस क्रम से व्यवस्थापनकी योग्यता है। इमलिये उस योग्यता को आश्रित करके उन तीन आदि परमाणुओं में भी आनुपूर्वीपन विरुद्ध नहीं होता। ___ अनौपनिधिकी आनुपूर्वी में जो द्विविधता कही गई है उसका अभिप्राय यह है कि सामान्य से नय सात हैं, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूढ और एवंभूत । इन सातों का द्रव्यार्थिक
और पर्यायार्थिक, इन दो नयो में अन्तर्भाव हो जाता है। द्रव्य ही परमार्थतः-वास्तविक रूप से हैं पर्याय नहीं-इस प्रकार द्रव्य कोही स्वीकार करने वाला नय द्रव्यार्थिक नय है । और पर्याये ही वास्तविक सत् है द्रव्य नहीं इस प्रकार पर्यायों को ही वास्तविक रूप में मानने वाला नय पर्यायार्थिक नय है । नैगम, संग्रह, और व्यवहार ये तीन द्रव्य को ही માનવામાં આવી છે-ત્રણ આદિ પરમાણુઓમાં આદિ, મધ્ય અને અવસાન (અન્ત) ભાવરૂપ જે નિયતક્રમ છે તે કમની અપેક્ષાએ વ્યવસ્થાપનની યોગ્યતા છે. તેથી તે ગ્યતાની અપેક્ષાએ તે ત્રણ આદિ પરમાણુઓમાં આનુપવી. તાને સદભાવ માનવામાં કોઈ વાંધે રહેતું નથી.
અનૌપનિધિકી અનુપૂવમાં જે દ્વિવિધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે તેનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે–સામાન્ય રીતે તે આ સાત નય છે-નગમ, સંગ્રહ, વ્યવહાર, જુસૂવ, શબ્દ, સમભિરૂઢ અને એવંભૂત તે સાતે નયને મુખ્ય બે પ્રકારમાં વહેંચી શકાય છે-(૧) દ્રવ્યાર્થિક અને (૨) પર્યાયાર્થિક દ્રવ્ય જ પરમાર્થતઃ (વાસ્તવિક રૂપે) છે–પર્યાય નથી, આ રીતે દ્રવ્યને જ સ્વીકાર કરનારા નયને દ્રવ્યાર્થિક નય કહે છે.
પર્યાયે જ વારતવિક સત્ છે-દ્રવ્ય વાસ્તવિક સત્ (વિદ્યમાન વસ્ત) નથી, આ રીતે પર્યાને જ વાસ્તવિક રૂપે સ્વીકારનારા નયને પર્યાયાર્થિક નય કહેવામાં આવે છે. નગમ નય, સંગ્રહ નય અને વ્યવહાર નય, આ ત્રણે
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३०३ भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७३ नामाद्यानुपूर्वीनिरूपणम् स्टेवंभूताश्चत्वारः पर्यायार्थिकनयाः। तत्र द्रव्यार्थिको हि सामान्यतो द्विविधो भवति-विशुद्धोऽविशुद्धश्च । तत्र नैगमव्यवहाररूपः-अविशुद्धः । संग्रहरूपरतु विशुद्धः । नेगमत्र्यवहारौ हि अनन्तपरमानन्तद्वयणुकाधनेक व्यक्त्यात्मकं कुष्णाधनेकगुणाधारं त्रिकाल विषयं वा अविशुद्ध द्रव्यं विषयीकुरुतः, इति हेनोरनयोरविशुद्धत्वम् । संग्रहश्च परमायादिकं परमाण्वादि साम्यादेकं तिरोभूतगुणकलापमविद्यमानपूर्वापरविभागं नित्यं सामान्यमेव द्रव्यं विषयीकुरुने । सामान्यं च-अनेकत्वादि दोष वनितत्वात् शुद्धम् । ततश्च सामान्यरूपशुद्धद्रव्याभ्युपगमपरत्वादयं संग्रहनयः शुद्धः। विषय करने वाले होने से द्रव्यार्थिक नय हैं। ऋजु सूत्र, शब्द, समभिः रूढ और एवंभूत ये चार नय पर्यायों को ही विषय करने वाले होने से पर्यायार्थिक नय हैं । सामान्य से द्रव्यार्थिक नय दो प्रकार का होता है एक विशुद्ध और दूसरा अविशुद्ध । नैगम और व्यवहार ये दो नय अविशुद्ध हैं। संग्रह नय विशुद्ध है। नैगम और पवहार ये दो नय अनन्त परमाणु, अनन्त दयणुक आदि अनेक व्यक्तिस्वरूप, और कृष्ण आदि अनेक गुणों के आधारभूत अथवा त्रिकालवी ऐसे अविरुद्ध द्रव्य को विषय करते हैं । इसलिये ये अविशुद्ध हैं। तथा संग्रह नय जातिको अपेक्षा से परमाणु आदि एक सामान्य रूप द्रव्य को ही विषय करता है उसकी दृष्टि में अनेक भिन्न २ परमाणु भी परमाणु आदि रूप से समानता वाले होने के कारण एक हैं। गुण समूह पर उसकी ન દ્રવ્યનું જ પ્રતિપાદન કરનારા હેવાથી દ્રવ્યાર્થિક નયમાં તેમને સમાવી લેવામાં આવ્યા છે જુસૂત્રનય, શબ્દનય, સમભિરૂઢ નય અને એવંભૂત નય, આ ચારે ન પર્યાનું જ પ્રતિપાદન કરનારા હોવાથી તેમને પર્યાયાર્થિક નયમાં સમાવી શકાય છે. સામાન્ય રૂપે દ્રવ્યાર્થિક નય બે પ્રકારે છે–(૧) વિશુદ્ધ અને (૨) અવિશુદ્ધ નૈગમ અને વ્યવહાર, આ બને નય અવિશુદ્ધ છે અને સંગ્રહનય વિશુદ્ધ છે. નિગમ અને વ્યવહાર નય અનંત પરમાણુ, અનંતદ્વયશુક આદિ અનેક વ્યક્તિસ્વરૂપ (વસ્તુસ્વરૂપ) અને કૃષ્ણ આદિ અનેક ગુના આધારભૂત અથવા ત્રિકાલવતી એવા અવિશુદ્ધ દ્રવ્યને વિષય કરે છે (પ્રતિપાદન કરે છે, તેથી તે બને નયને અવિશુદ્ધ કહ્યા છે. સંગ્રહનયને વિશુદ્ધ કહેવાનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે સંગ્રહનય જાતિની અપેક્ષાએ પરમg આદિ એક સામાન્ય રૂ૫ દ્રવ્યને જ વિષય કરે છે તે નયની માન્યતા અનુસાર તે અનેક ભિન્ન ભિન્ન પરમાણુ પણ પરમાણુ આદિ રૂપ સમાનતાવાળા હોવાને લીધે એક જ છે. ગુણસમૂહ તરફ તેની દષ્ટિ જતી નથી,
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अनुयोगद्वारसूत्रे
अत्र च द्रव्यानुपूर्व्याः प्रक्रान्तत्वात् द्रव्यार्थिकमतेनैव तस्याः शुद्धाशुद्धस्वरूपं दर्शयिष्यते, न तु पर्यायार्थिकम तेन, पर्यायविचारस्यामक्रान्तत्वादिति ॥०७३॥
सम्पति नैगमव्यवहारसम्मतामनौपनिधिकीं द्रव्यानुपूर्वी दर्शयति
मूलम् - से किं तं नेगमत्रवहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुत्री ? नेगमववहाराणं अणोवणिहिया दव्वाणुपुत्री पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - अट्ठपयपरूवणया१, भंगसमुक्कित्तणयार, भंगोवदंसणया३, समोयारे४, अणुग मे५ ॥सू०७४॥
दृष्टि नहीं जाती है। क्योंकि गुण भी एक प्रकार की पर्याय है। और यह वस्तु की सहभावी पर्याय है द्रव्यगत पूर्वापर विभाग को भी यह नहीं मानता है । अतः इन सबबातों को गौण करके वह न सिर्फ एक नित्य सामान्य धर्मात्मक विशुद्ध द्रव्य को ही विषय करनेवाला होने से विशुद्ध माना गया है। क्योंकि इस नय का विषय अनेकत्वआदि नहीं है । सामान्य रूप द्रव्यत्व में अनेकत्व आदि तो उसकी दृष्टि में दूषण है । अतः अनेकत्व आदि दोषों से वर्जित सामान्यरूप शुद्ध द्रव्प को विषय करने के कारण यह नय विशुद्ध है। यहां पर द्रव्यानुपूर्वी का प्रकरण चल रहा है इसलिये पार्थिकनय के मत से ही उस द्रव्यानुपूर्वी का शुद्ध अशुद्ध स्वरूप सूत्रकार दिखलावेंगे पर्यायार्थिकनय के मत से नहीं । । ० ७३ ॥
કારણ કે ગુણ પણ એક પ્રકારની પર્યાય જ છે. દ્રવ્યગત પૂર્વાપર વિભાગને પણ તે માનતા નથી તેથી આ બધી બાબતેને ગૌણરૂપ ગણીને તે નય માત્ર નિત્ય સામાન્ય ધર્માત્મક વિશુદ્વ દ્રવ્યનું જ પ્રતિપાદન કરનારા હાવાથી તેને વિશુદ્ધનય માનવામાં આવ્યા છે, કારણ કે આ નયના વિષય અનેકત્વ આદિ નથી સામાન્યરૂપ દ્રવ્યત્વમાં અનેકત્વ આદિ તે તે નયની માન્યતા પ્રમાણે દૂષણરૂપ છે. તેથી અનેકત્વ આદિ દાષાથી વિહીન સામાન્યરૂપ શુદ્ધદ્રવ્યનુ પ્રતિપાદન કરનારા ડાવાને કારણે સંગ્રહનયને વિશુદ્ધ નય કહેવામાં આવ્યે છે અહી. દ્રવ્યાનુપૂર્વી ના અષિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી સૂત્રકાર અહી દ્રવ્યાર્થિ નયની માન્યતા અનુસાર જ દ્રવ્યાનુપૂર્વીના શુદ્ધ અશુદ્ધ સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરશે-પર્યાયાર્થિ ક નયના મત અનુસાર અહી' તેનું નિરૂપણ ४२शे नहीं' ||सू०७३||
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७४ अनौपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वीनिरूपणम् ३०५
छाया-अथ का सा नगरव्यवहारयोः अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी ? नैगमन्यवहारयोः अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा अर्थपदप्ररूप नता१, भङ्गसमुत्कीर्तनता२, भङ्गापदर्शनता३, समवतारः४, अनुगमः ॥मू०७४॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ का सा नैगमम्पयहारसम्मना अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरमाह-'नैगमबहाराणं' इत्यादि। नैगमव्यवहारयोरनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता । तद् यथा-अर्थपदप्ररूपणता-अर्थ:-ज्यणुकस्कन्धादिरूपस्तद्युक्तं तद्विपयं वा पदम् भानुपूादिकम् -अर्थपदम् , तम्य पापणं कयनं ____ अय सूत्र का नैगम-व्यवहार नए मंमत औषनिधिकी द्रव्यानुनपर्वी को प्रकट करते हैं.-से किं तं इत्यादि।
शब्दार्थ-(से कितनेगमवयहागणं अणोवणिहिया दवाणुपुच्ची ?) हे भदन्त ! नैगम और व्यवहार इन दो नयों को संमत जो अनौपनि. धिकी द्रव्यानुपूर्वी है उसका क्या स्वरूप है ? ___ उत्तरः-(नेगमववहाराणं अणोरणिहिया दवाणुपुत्रधी पंचविहा पण्णत्ता) नैगम व्यवहार नय संमत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पांच प्रकारकी कही हुई है । (तंजहा) वे प्रकार ये है-(अट्ठ पयपरूवणया, भंगसमुक्त्तिणया, भंगोक्दमण या, ममोयारे अणुगमे) अर्थपदप्ररूपणता१, भंगसमुत्कीर्तनता२, भंगोपदर्शनता३, समवतार ४, और अनुगम५, । अर्थपदप्ररूपणता-पणुकस्कंध आदिरूप अर्थ से युक्त अथवा-पणुकस्कंध तीन परमाणुवाला कंध आदिरूप अर्थ को विषय करनेवाला जो पद है
હવે સૂત્રકાર નિગમ અને વ્યવહારનય સંમત અનૌપનિધિ દ્રવ્યાનું पूवी २१३५ ५४८ ४२ -“से किं त" त्याह
शा-(से कि त नेगमववहाराणं अणोणिहिया दवाणुपुब्बी!) શિષ્ય ગુરુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે હે ભગવાન્ ! નિગમ અને વ્યવહાર, આ બે નયને સંમત છે અનૌપનિધિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી છે તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
€त्तर-(नेगमववहाराण अणोवणिहिया दवाणुपुत्र्यी पंचविहा पण्णता) નગમ અને વ્યવહારનય સંમત અનોપનિધિ કી દ્રવ્યાનુપૂવી પાંચ પ્રકારની
सी. (तंजहा) ते मारे। नीचे प्रमाणे छे-(अटुपयपहवणया, मंग समुकितणया, भंगोवदंसणया, समोयारे Bणुगमे) (१) अ ५६ ५३५६, (२) . सभुडीत नता, (3) मापशनता, (४) समता२ भने (५) अनुगम અર્થપપ્રરૂપણુતા-વ્યક (ત્રણ પરમાણુવાળે) કન્ધ આદિ રૂપ અર્થથી યુક્ત અથવા ચાચુક૭૫ આદિરૂપ અર્થને વિષય કરવાવાળું જે પદ છે તેનું નામ
म० ३९
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अनुयोगद्वारसूत्रे तदेव, अर्थपदमरूपणता। भानुपूर्यादिका संज्ञा, तद्वाच्यरूपणुकादिरथः संज्ञी। संज्ञासंजिसम्बन्धकथनमा प्रथमं कर्त्तव्यमिति भावः । इति प्रथमो भेदः १। अत्र स्वार्थे तलू प्रत्ययो बोध्यः। तथा-भङ्गसमुत्कीर्तनता-भज्यन्ते विकल्प्यन्ते इति भङ्गाः तेषामेव आनुपूर्यादिपदानां समुदितानां वक्ष्यमाणन्यायेन संमविनो विकल्पाः, तेषां समुत्कीर्तनं-समुच्चारेणं, तदेव, भङ्गसमुत्कीर्तनता, आनुपूर्यादिपदनिष्पन्नानां प्रत्येकभङ्गानां द्वयादिसंयोगभङ्गानां च समुच्चारणमित्यर्थः। इति द्वितीयो भेदः २। तथा-भङ्गोपदर्शनता-तेषामेव सूत्रमात्रतयाऽनन्तरसमुत्की. तितानां भङ्गानां प्रत्येकं स्वाभिधेयेन व्यणुकाद्यर्थेन सह उपदर्शनम्-भङ्गोपदर्शनं, तदेव भङ्गोपदर्शनता । इति तृतीयोभेः ३। उसका नाम अर्थपद है । इस अर्थपद की प्ररूपणा करना यही अर्थपद प्ररूपणता है। आनुपूर्वी आदि यह संज्ञा है-नाम है। इन नाम का वाच्यार्थ जो व्यणुक आदि है वह संज्ञी है। संज्ञा संज्ञी के संपन्धका कथन मात्र सब से प्रथम करना यही अर्थपद प्ररूपणता है। तथा-भंग समुत्कीर्तनता-जो भेदरूप हो उसका नाम भंग है। समुदित उन्हीं आनुपूर्वी आदि पदों के संभवित विकल्पों-भेदों-का अच्छी प्रकार से उच्चारण करना अर्थात् आनुपूर्वी आदि के पदों से निष्पन्न हुए प्रत्येक भंगों का और संयोगज दो आदि भंगों का योलना यही भंग समुत्कोतनता है। भंगोपदर्शनता-सूत्र मात्र होने के कारण अनन्तरूप से उच्चरित हुए उन्ही-भंगों में से प्रत्येक भंग का अपने अभिधेयरूप कथन ज्यणुकादि अर्थ के साथ जो उपदर्शन-बोलना है-वही भंगोपदर्शनता है। અર્થપદ છે. આ અર્થપદની પ્રરૂપણ કરવી તેનું નામ જ “અર્થપદ પ્રરૂપ एता'छ. मानुषी माल मा ससा (नाम) . मा नामाना २ त्रिम આદિ વાચ્યાર્થ છે સંજ્ઞી છે. સંજ્ઞા સંસીના સંબંધનું કથન જ સૌથી પહેલાં કરવું એજ અર્થપદપ્રરૂપણુતા છે.
ભંગસમુત્કીર્તનતા–જે ભેદ રૂપ હોય તેનું નામ ભંગ છે. સમુદિત એજ આનુપૂર્વી આદિ પદેના સંભવિત લેનું (વિકલ્પોનું) સારી રીતે ઉચ્ચારણ કરવું એટલે કે આનુપૂવ આદિના પદે વડે નિષ્પન્ન (ઉત્પન્ન) થયેલા પ્રત્યેક અંગેનું અને સંગજનિત છે આદિ અંગેનું કથ કરવું તેનું નામ જ ભંગસમુત્કીતનતા છે.
અંગે પદર્શનતા-સૂત્રમાત્ર હેવાને કારણે અનન્તરરૂપે ઉચ્ચરિત થયેલા એજ ભંગમાંથી પ્રત્યેક ભંગનું પોતાના અભિધેય રૂપ ત્રિશુક આદિ અર્થની સાથે જે ઉપદર્શન (ઉચ્ચારણ) કરવું તેનું નામ જ ભંગાપદનતા છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७४ अपोपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वी निरूपणम् ३०७ __ननु भङ्गसमुत्कीर्तनभङ्गोपदर्शनयोः को भेदः ? इति चेत् उच्यते-भङ्गसमु. कीर्तने भङ्गविषयकं सूत्रमेवोच्चारणीयम् । भङ्गोपदर्शने तु तदेव स्वविषयभूतेना. र्थेन सहोच्चारयितव्यमिति। तथा-समवतारः तेषामेवानुपूर्व्यादि द्रव्याणी स्वस्थानपरस्थानान्तर्भावचिन्तनप्रकारः । इति चतुर्थों भेदः ४। तथा-अनुगमःअनुगमनम् , अनुगमनेषामेवानुपूर्यादिद्रव्याणां सत्पदप्ररूपणादिभिरनुयोगद्वारैर्विचारणम् । इति पञ्चमोभेः ५। एभिः पञ्चभिप्रकार नँगमव्यवहारनयमतेन अनौपनिधिक्याः द्रषानुपूर्व्याः स्वरूपं निरूप्यत इति भावः ॥०७४॥ तत्र प्रथमं भेदमाह
मूलम्-से किं तं नेगमववहाराणं अटुपयपरूवणया ? नेगमववहाराणं अतृपयपरूवणया-तिपएसिए आणुपुत्री, चउप्पएसिए आणुपुवी जाव दसपएसिए आणुपुत्वी, संखेजपएसिए
शंकाः-भंगसमुत्कीर्तन और भंगोपदर्शन इन दोनों में क्या भेद है ? भंगसमुत्कीर्तन में भंग विषयक सूत्र का ही केवल उच्चारण करना होता है और भंगोपदर्शन में वही सूत्र अपने विषयभून अर्थ के साथ बोला जाता है। उन्हीं आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का स्वस्थान और परस्थान में अन्तर्भाव होने के विचारों का जो प्रकार है उसका नाम समवतार है। उन्हीं आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का जो सत्पदकी प्ररूपणा आदि वाले अनुयोगद्वारों से विचार करना होता है वह अनुगम है। इन पांच प्रकारों से नैगमव्यवहार नय के मत से मान्य अनारनिधिको द्रव्यानु. पूर्वी का स्वरूप निरूपित होता है। ।मु०७४।।
શંકા-ભંગ સમુત્કીર્તન અને ભંગ પદર્શન વચ્ચે શો ભેદ છે?
ઉત્તર-ભંગ સમુ-કીર્તનમાં ભંગવિષયક સૂત્રનું જ કેવળ ઉચ્ચારણ કરવાનું હોય છે. પરંતુ ભગો પદર્શનમાં એજ સૂત્ર પિતાના વિષયબત અર્થની સાથે ઉચ્ચારિત થાય છે.
સમવતાર-એજ આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યનો સ્વસ્થાન અને પરસ્થાનમાં અન્તર્ભાવ થવાના વિચારોને જે પ્રકાર છે તેનું નામ “સમાવતાર' છે.
અનુગમ-એજ આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યો જેને સત્પદની પ્રરૂપણા આદિવાળા અનુગ દ્વારેથી વિચાર કરાય છે તેનું નામ અનુગમ છે.
આ પાંચ પ્રકારે નૈગમ અને વ્યવહાર નયના મતસંમત અનોપનિષિી દ્રવ્યાનુપૂવીનું સ્વરૂપ નિરૂપિત થાય છે, સૂ૦૭૪
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अनुयोगद्वारसूत्रे आणुपुवी, असंखिज्जपएसिए आणुपुत्री, अनंत एसिए आणुपुथ्वी, परमाणुपोग्गले अणाणुपुवी, दुपए सिए अवत्तवए, तिप एसिया आणुपुवीओ जाव अनंतपएसियाओ आणुपुवीओ, परमाणुपोग्गला अणाणुपुवीओ, दुपएसियाई अत्रत्तव्वयाई । से तं गमववहाराणं अटूपयपरूवणया ॥ सू० ७९ ॥
छाया - अथ का सा नैगमव्यवहारयोः अष्टपदप्ररूपणता ? नैगमव्यवहारयोः अष्टपदप्ररूपणता - त्रिदेशिक आनुपूर्वी, चतुष्मदेशिक आनुपूर्वी, यावद् दशमदेशिक आनुपूर्वी, संख्येयमदेशिक आनुपूर्वी, असंख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, अनन्तप्रदेशिक आनुपूर्वी, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी, द्विपदेशिकः अवक्तव्यकः । त्रिप्रदे शिका आनुपूर्व्यो यावद् अनन्तगदेशिका आनुपूर्व्यः । परमाणुपुद्गलाः अनानुपूर्व्यः । द्विपदेशिकादीनि अवक्तव्यकानि । सैषा नैगमव्यवहारयो अर्थ पदमरूपणा ||०७५ ॥
टीका - शिष्य : पृच्छति- -अथ का सा नैगमव्यवहारसम्ता अर्थपदप्ररूपणतारूपाऽऽनुपूर्वी ? इति । उत्तरमाह - नैगमव्यवहारसम्मताऽर्थ पद प्ररूपणतारूपाssनुपूर्वा एवं विज्ञेया तथा हि- त्रिपदेशिकः- त्रयः प्रदेशाः = परमाणुलक्षणा विभागा यस्मिन् स त्रिप्रदेशिकः = प्रदेशत्रयात्मकः स्कन्धः आनुपूर्वी बोध्या । एवं चतुष्पदे
अथ सूत्रकार प्रथम भेदका वर्णन करते हैं'से किं तं नेगमववहाराणं इत्यादि' ।
शब्दार्थ:- (से किं तं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया) हे भदन्त ! पूर्वकथित नैगन व्यवहारनयसंगत अर्थपद प्ररूपणतारूप आनुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तरः- ( नेग नववहाराणं अडुवधपरूवणया) नैगम व्यवहारनय संमत अर्थपद प्ररूपणतारूप आनुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है (तिएसिंए आणुपुवी, चउप्पएसिए आणुपुन्वी, जाव दसपएसिए आणु
હવે સૂત્રકાર પ્રથમ ભેદનું વણુન કરે છે
" से किं त' नेगमववहाराण " त्याहि
शब्दार्थ - (से कि त नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूपवणया ?) डे लगवन् ! પૂર્વ કથિત નૈગમવ્યવહાર નય×'મત અ`પદ પ્રરૂપશુતા રૂપ આનુપૂર્વી'ન સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर- (तपसि आणुपुत्री, चउप्परसिए आणुपुथ्वी, जात्र दसपएसिए
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अनुगोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७५ अनौपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वी निरूपणम् ३०९ शिकस्कन्धो यावत् दशपदेशिकः आनुपूर्वी बोध्या यावत् संख्यातप्रदेशिक आनु पूर्वी, असंख्यातप्रदेशिकः आनुपूर्वी, अनन्तप्रदेशिकः आनुपूर्वी बोध्या।
परमाणुपुद्गलः एकः परमाणुस्तु अनानुपूर्वी बोध्या। परमाण्वन्तरा-संस्पृष्टत्वात् , द्विपदेशिका परमाणुद्वयविभागवान् स्कन्धस्तु भानुपूर्वितया अनानुपर्वितया वा वक्तुमशक्या, अतः सोऽवक्तव्यकः। यस्मादेवं तस्मात्-त्रिमदेशिकाः सर्वेऽपि स्कन्धा आनुपूयॊ भवन्ति, यावत् अनन्तमदेशिकाः सर्वेऽपि स्कन्धा आनुपूर्यों भवन्ति । पुथ्वी संखेज्ज पएसिए आणुपुची, असंखिजपएसिए आणुपुज्वी, अणंतपएसिए आणुपुठवी) तीन प्रदेशोंवाला व्यणुक स्कंध आनुपूर्वी है चार प्रदेशोंवाला चतुष्प्रदेशिक स्कंध आनुपूर्वी है। यावत् दश प्रदेशोंवाला स्कंध आनुपूर्वी है यावत् संख्यातप्रदेशोंवाला स्कंध आनुपूर्वी है, असंख्य प्रदेोवाला स्कंध आनुपूर्वी है। ऐसा जानना चाहिये।
(परमाणुपोग्गले आणाणुपुव्वी, दुपएसिए अवत्तव्यए) परन्तु जो एक परमाणु है वह आनुपूर्वी नहीं है। क्योंकि वह और किसी दूसरे परमाणु से संस्पृष्ट नहीं है। द्विप्रदेशवाला जो स्कंध है वह आनुपूर्वी रूप से और अनानुपूर्वी रूप से वक्तुं अशक्य है इसलिये वह अवक्तव्य है। जब ऐसी बात है तो (तिपएसिया आणुपुत्वीओ जाव अणंतर एसि. याओ आणुपुञ्चीओ) तीन प्रदेशवाले समस्तस्कंध आनुपूर्वी हैं-यावत् अनन्त प्रदेशवाले जितने भी स्कंध हैं वे सब आनुपूर्वियां है । (परमाणु आणुपुञ्ची, संखेज्जपएसिए आणुपुत्री, असंखिज्जपएसिए आणुपुव्वी, अणंत परमिए आणुपुब्बी) ३५ प्रशोपागे। व्या४ २४५ भानुभा छे, या२ प्र. શેવાળે ચતુuદેશિક સ્કંધ આનુપૂર્વી છે, દસ પર્યન્તના પ્રદેશેવાળો કંધ આનુપૂર છે, સંખ્યાત પ્રદેશે.વાળો સ્કંધ આનુપૂવી છે, અસંખ્યાત પ્રદેશેવાળો સ્કંધ આનુપૂર્વી છે અને અનંત પ્રદેશેવાળો સ્કંધ આનુપૂર્વી છે, એમ સમજવું
(परमाणुगोग्गळे अणाणुपुल्वी, दुपएसिए अवत्तव्वए) पन्तु २१॥ એક પરમાણુ છે તે આનુવાં રૂપ નથી, કારણ કે તે કોઈ બીજા પરમ હું વડે સંસ્કૃષ્ટ દેતું નથી બે પ્રદેશવાળા જે સ્કંધ છે તે આનુપૂર્વી રૂપે અને અનાનુપવી રૂપે વ્યક્ત થવું અશકય છે તેથી તે અવકતવ્ય છે જે એવી વાત
ता (तिपएसिया आणुपुन्वीओ जाव अणंतपएसियाओ आणुपुब्बीओ) १९ પ્રદેશેવાળા સમસ્ત સ્કંધે આનુપૂર્વીએ રૂપ છે, અને અનંત ચન્તના પ્રદેશેવાળા જેટલા કંધે છે તેઓ પણ આનુપૂર્વી એ રૂપ છે.
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अमुयोगद्वारले परमाणुपुद्गलारतु अनानुपर्यों भवन्ति । द्विप्रदेशिकानि-चणुकस्कन्धद्रयाणि आनुपूर्वितयाऽनानुपूर्वितया वा अवक्तव्यकानि भवन्ति ।
अत्रेदं बोध्यम्-आनुपूर्वी परिपाटीत्युच्यते । सा च यत्रैवादि मध्यान्तलक्षण: सम्पूर्णो गणनानुक्रमोऽस्ति तत्रैवोपपद्यते, नान्यत्र । एवं च यत्र स्कन्ध आदिमध्यो. ऽन्तश्च भवति स स्कन्ध आनुपूर्वीत्युच्यते । आदिश्व यस्मात्परमस्ति पूर्व नास्ति स बोध्यः । मध्यश्च यस्मात् पूर्वमस्ति परमप्यस्ति स बोध्यः। अन्तश्च यस्मात्पूर्वमस्ति पर नास्ति स बोधपः। एतत्रितयं तु त्रिभदेशिकाघनन्तमेदेशिकान्तेषु पोग्गला अणाणुपुब्बीओ, दुपएसियाइंअवत्तव्वयाइं) जो भिन्न २ असंबद्ध अवस्थावाले-पुद्गल परमाणु हैं वे आनुपूर्वियां नहीं हैं। (दुपएसियाई अवत्तवयाइ) और जो दो प्रदेशवाले पुद्गल स्कंध हैं वे आनुपूर्वी रूप से और अनानुपुर्वी रूप से वक्तव्य नहीं होने के कारण अवक्तव्य हैं। ___यहां यह समझना चाहिये-कि आनुपूर्वी नाम परिपाटी का है। यह परिपाटीरूप आनुपूर्वी वहीं पर होती है कि जहां पर आदि मध्य
और अन्त रूप गणना का संपूर्ण अनुक्रम होता है। अन्यत्र नहीं होती। इस प्रकार जहां स्कंध में आदि, मध्य और अंत होता है। वह स्कंध आनुपी ऐसा कहलाता है। जिससे पर है और पूर्व नहीं है वह आदि शब्दका वाच्यार्थ-पदका अर्थ है। जिससे पूर्व है और पर भी है वह मध्य शब्द का वाच्यार्थ है । और जिससे पूर्व है परन्तु पर नहीं है-वह अन्त
(परमाणुगोग्गला अणाणुपुब्बीओ, दुपएसियाई अवत्तव्वयाइ) २ CAR ભિન્ન-અસંબદ્ધ અવસ્થાવાળા પુદ્ગલ પરમાણુઓ છે તેઓ આનુપૂર્વી રૂપ નથી, અને જે બે પ્રદેશવાળા પુલસ્ક છે તેમને આનુપૂર્વી રૂપે અને અનાનુપૂર્વી રૂપે વ્યક્ત કરી શકાય એવાં ન હોવાથી અવકતવ્ય છે.
અહીં આનુપૂર્વાને અર્થ પરિપાટી સમજે તે પરિપાટી રૂ૫ આનુ પ્રવીને ત્યાં જ સદ્ભાવ હોય છે કે જ્યાં આદિ, મધ્ય અને અન્ત રૂપ ગણનાનો સંપૂર્ણ અનુક્રમ શકય હોય છે-જ્યાં આ અનુક્રમ સંભવિત હતો નથી ત્યાં આનુપૂવી પણ સંભવી શકતી નથી આ પ્રકારે જે રકધમાં આદિ, મધ્ય અને અન્ન હોય છે, તે સ્કલ્પને આનુપૂર્વી રૂપ કહી શકાય છે. જેની પૂર્વે કંઈ ન હોય પણ પછી કંઈક હોય, એ “આદિ' પદને વસ્યાથી છે. જેની પૂર્વે કંઈક હોય અને પછી પણ કંઈક હોય, એ “મધ્ય' પદને પામ્યાર્થ છે. જેની પૂર્વે કંઈક હોય પણ પછી કંઈ પણ ન હોય, એ
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मनुयोगचन्द्रिका सूत्र ७५ अनौपनिधि कीद्रव्यानुपूर्वीनिरूपणम् ३११ स्कन्धेष्वस्ति, अतस्तेषु प्रत्येकं स्कन्धः भानुपूर्वी भवति । परमाणुपुद्गले तु एतत्रितयं नास्ति, अतः सोऽनानुपूर्वी बोध्यः । द्विपदेशिकस्तु अवक्तव्यको भवति । यद्यपि तत्र परमाणुद्वयस्य सद्भावादन्योऽन्यापेक्षया पूर्वपश्चादावोऽस्ति, अतस्तत्र पूर्वस्य अनु-अनुपूर्व तस्य भाव आनुपूर्वी इत्येवंरूपाऽऽनुपूर्वी सुतरां सिध्यति, तथापि मध्याभावात् सम्पूर्णगणनानुक्रमो नास्ति, अतः स आनुपूर्णत्वेन वक्तुमशक्यः ।
ननु माऽस्तु सम्पूर्णगणनानुक्रमस्तथापि पूर्वपश्वाझावरूपाया आनुया विधमानत्वादयमानुपूर्वी भवितु मर्हति ? इति चेदुच्यने, यथा मेरुपर्वतादौ कचित शन्द का वाच्यार्य है। ये तीनों आदि मध्य और अन्त त्रिप्रदेशिक आदि स्कंध से लेकर अनन्त प्रदेशतक के स्कंधों में होते हैं। इसलिये इनमें प्रत्येक स्कंध आनुपूर्वी रूप होता है । परन्तु जो एक परमाणु है उसमें ये तीनों नहीं होते हैं। इसलिये वह आनुपूर्वी नहीं होता है। विप्रदेशिक पुद्गलस्कंध अवक्तव्य होता है । यद्यपि द्विप्रेशिक स्कंध में दो परमाणु संश्लिष्ट रहते हैं इसलिये वहां अन्योन्यापेक्षा से पूर्व पश्चाद्धाव है । अतः पवस्य अनु-पूर्व के पीछे-अनुपूर्व है और इस अनुपूर्व का जो भाव है वह आनुपूर्वी है। इत्येवं रूपा आनुपूर्वी सुतरां वहां सिद्ध हो जाती है, तो भी मध्य का अभाव होने से सम्पूर्ण गणनानुक्रम वहां नहीं बनता है। इसलिये वह गणनानुक्रम आनुपूर्वी रूप से वक्तुं अशक्य है। 'अन्त' पहन पाया है. मा जोन (भा6, मध्य भने सन्तना) સદ્ભાવ ત્રિપ્રદેશિક આદિ સ્કધથી લઈને અનંત પ્રદેશિક પર્યાના સ્કંધમાં હેય છે. તેથી તે પ્રત્યેક અંધ આનુપૂર્વી રૂપ હોય છે. પરંતુ જે એક પરમાણુ છે તેમાં આદિ, મધ્ય અને અન્ત, આ ત્રણેને અભાવ હોય છે, તેથી એક પરમાણ આનુપૂર્વી રૂપ હેતુ નથી દ્વિદેશિક સ્કંધને આનુપૂવી રૂપે અથવા તે અનાનુપૂર્વી રૂપે વ્યકત કરી શકતા નથી તેથી તેને અવકતવ્ય કહ્યો છે જે કે દ્વિદેશિક સ્કંધમાં બે પરમાણુ સંક્ષિણ રહે છે, તે કારણે તેમાં અન્યની અપેક્ષાએ પૂર્વપશ્ચાદુભાવને (આદિ અને અન્તનો) સદુભાવ હોય છે, પરંતુ ત્યાં મધ્યને સદ્ભાવ હેતે નથી અનુપૂર્વની व्युत्पत्ति मा प्रमाणे याय छ-" पूर्वस्य अनु अनुपूर्वः " " ५u'नी पा७नु' એટલે અનુપૂર્વ ” આ અનુપૂર્વને જે ભાવ છે તેનું નામ આનુપૂવી છે. આ પ્રકારની આનુપૂર્વી તે અહીં (દ્વિદેશી ધમાં) સરળતાથી સિદ્ધ થઈ જાય છે, છતાં પણ મધ્યનો અભાવ હોવાથી ત્યાં સંપૂર્ણ ગણનામ સંભવી શકતે નથી તેથી તે ગણનાનુક્રમ આનુપૂર્વી રૂપે વ્યકત થ અશક્ય છે,
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अनुयोगद्वार
कमपि पदार्थ मध्यत्वेनावधीकृत्य पूर्वादिविभागो लोकेः क्रियते, तत्राऽणावि यदि स्यात्तर्हि स्यादेवम् । नचैत्रमस्ति । अत्र तु मध्ये कोऽपि नास्ति, यमकृत्याऽसाङ्कर्येण पूर्वपश्वाद्भावः परस्परानपेक्षया संभवेत् । अर्थात् - यत्राद्यचरमपरमानोर्मध्येऽन्यः परमाणुर्वियते, तत्र - मध्यगतं परमाणुमाश्रित्य यः पूर्वपचाद्वानो भवति स एवानुपूर्वी भवति नान्यः अतोऽयमानुपूर्वीत्वेन वक्तुमशक्यः ।
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शंका:- संपूर्ण गणनाक्रम भले न हो परन्तु पूर्व पश्चाद्भावरूप आनुपूर्वी के विद्यमान होने से यह द्विप्रदेशी स्कंध आनुपूर्वी हो सकता है।
उत्तर:- जिस प्रकार मेरु पर्वत आदि में किसी स्थल पर किसी भी पदार्थ को मध्यरूप से मर्यादित करके लोग उससे पूर्व पश्चिमपर की विभाग करते हैं, उसी प्रकार यहां पर भी द्विप्रदेशिक स्कंध में भी यदि ऐसा होता तो ऐसा हो सकता अर्थात् आनुपूर्वत्व आ सकता। परन्तु ऐसा तो है नहीं। क्यों कि यहां द्विप्रदेशिक स्कंध में मध्य में कोई भी नहीं है कि जिसे मर्यादित करके उस स्कंध में पूर्व पर भाव परस्पर की अनपेक्षा के समग्र भाव से बन जावे । तात्पर्य कहने का यह है कि अ पर आदि अंत के दो परमाणुओं के बीच में एक तीसरा परमाणु मौजूद रहता है वहां पर मध्य गत परमाणु को अवधिभूत मान कर जो पूर्व पश्चाद्भाव होता है वही आनुपूर्वी होता है । अन्य दूसरा नहीं । इसलिये विदेशी स्कंध आनुपूर्वीरूप से वक्तुं अशक्य है ।
શકા-સ’પૂર્ણ ગણુનાનુક્રમ ભલે ન હોય પણ આદિ અને અન્તરૂપપૂર્વ પશ્ચાદ્ ભાવરૂપ આનુપૂર્વી વિદ્યમાન હાવાથી આ દ્વિપદેશી સ્મુધ આનુપૂર્વી' રૂપ સભવી શકે છે તે તેને આનુપૂર્વી રૂપ કહેવામાં શે વાંધા નડે છે? ઉત્તર-જે રીતે મેરુ પર્વત આક્રિ સ્થળની મધ્યમાં આવેલા કાઇ પદાર્થને મધ્યભાગ રૂપે મર્યાદિત કરીને લોકો તેના પૂર્વ પશ્ચિમ રૂપ વિભાગ પાડે છે અને મધ્યસ્થ સ્થળની પૂર્વે આવેલા ભાગાને પૂર્વના ભાગેા રૂપે અને પશ્ચિમે આવેલા સ્થળાને પશ્ચિમના ભાગેા રૂપે ઓળખે છે, એજ પ્રમણે દ્વિપદેશી સ્કન્ધમાં પણ મધ્યભાગના સદૂભાવ હતા એવુ થઈ શકત બનત-તેના પૂર્વ-પશ્ચિમરૂપ વિભાગ પડી શકત-અને તે તેમાં આનુપૂર્વી संभवी शत પરન્તુ એવુ તે તેમાં શકય નથી, કારણ કે દ્વિપ્રદેશિક સ્કન્દ્રમાં મધ્યમાં એવું કંઇ પણ નથી કે જેને મર્યાદિત કરીને તે સ્ક્રેપમાં પૂર્વ' પર ભાવ પરસ્પરની અનપેક્ષા પૂર્વ સમગ્રરૂપે શકય અને આ કથનના ભાવાય એ છે જ્યાં આદિ અને અન્તના એ પરમાણુઓની વચ્ચે એક ત્રીજુ પરમાણુ માજુક હોય છે, ત્યાં મધ્યના પરમાણુને અવધિભૂત (મર્યાદારૂપ) માનીને પૂર્વ પશ્ચાદ્ભાવ શકય બને છે અને ત્યારે જ અનુપૂર્વી સ ́ભવી શકે છે–તે સિવાય આનુપૂર્વી ત્વ શકષ ખનતું નથી. તે કારણે દ્વિદેશી સ્પધને આનુપૂર્વી રૂપે વ્યક્ત કરી શકતા નથી,
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र ७५ अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वीनिरूपणम् ३५
ननु तर्हि परमाणुपुद्गलबत् बनानुपूर्वीत्वेन कयं नोच्यते ? इति चेदाहपरस्परापेक्षया पूर्वपश्चाभावमात्रस्य सदावादयमनानुपूर्वीत्वेनापि वक्तुं न शक्यते। इत्यमानुपूर्वीत्वेन अनानुपूर्वीत्वेन च वक्तुमशक्यत्वादवक्तव्यक एव द्वयणुकस्कन्धः। अनेन चेदमायातं-यत् त्रिपदेशिकादौ आदिमध्यान्तभावस्य विद्यमानतयाऽसा. क्येण पूर्वपवादावस्य सत्त्वात् त्रिपदेशिकादिः स्कन्ध एवानुपूर्वी, परमाणुपुद्गलस्त्वनानुपूर्वी, द्वयणुकस्त्ववक्तव्यक इति । एवं चात्र संज्ञासंशिसम्बन्धकथनरूपाऽपदपरूपणा कृता भवति ।
शंका-जब यह विप्रदेशिकस्कंध आनुपूर्वी रूप से नहीं कहा जा सकता है तो फिर इसे पुद्गलपरमाणु की तरह अनानुपूर्वी रूप से क्यों नहीं कह देते हैं ?
उत्तर-परस्पर की अपेक्षा से इसमें पूर्वपश्चाद्भाव मात्र का जप सझाव है तो फिर इसे अनानुपूर्वी रूप से भी कैसे कहा जा सकता है?। इस प्रकार आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी रूप से यह विप्रदेशिकस्कंध वक्तुं भशक्य होने से अवक्तव्य कोटि में मानलिया गया है। इस कथन से यह पात आई कि त्रिप्रदेशिक आदि स्कंध में आदि, मध्य और अन्त-भाष की विद्यमानता होने से समग्र रूपमें पूर्वपश्चादाव मौजुद है। यह त्रिप्रदेशिक आदि स्कंध ही आनुपूर्वी है। और परमाणु पुद्गल अनानु. पूर्वी है तथा दयणुकरकंध अवक्तव्य है। इस प्रकार यहां पर संज्ञासंज्ञि सम्बन्धरूप अर्थ पद की प्ररूपणा हो जाती है।
શંકા-જે દ્વિદેશી સકંધ આનુપૂર્વી રૂપ કહી શકાતા નથી, તે તેને મુદ્દલ પરમાણુની જેમ અનાનુપૂર્વી રૂપ કહેવામાં શો વધે છે?
ઉત્તર-પરસ્પરની અપેક્ષાએ તેમાં પૂર્વપશ્ચાદુભાવ માત્રને જ જો સદુભાવ છે તો તેને અનાનુપૂર્વી રૂપ પણ કેવી રીતે કહી શકાય? આ રીતે આ ક્રિપ્રદેશી સંધ આનુપૂર્વી રૂપ પણ કહી શકાય તેમ નથી અને અનાનુ. મુવી ૩૫ પણ કહી શકાય તેમ નથી, તે કારણે તેને અવક્તવ્ય કટિમાં ગણાવવામાં આવ્યું છે. આ કથન દ્વારા એજ વાત સિદ્ધ થાય છે કે ત્રિકદેશિક આદિ, સ્કંધમાં આદિ મધ્ય અને અન્ત ભાવની વિદ્યમાનતા હોવાથી તેમાં સમગ્રરૂપે પૂર્વપશ્ચાદુભાવ મેજૂદ છે. તેથી આ ત્રિપ્રદેશિક આદિ અંધજ આનુપૂર્વી રૂપ છે, અને પરમાણુ યુદ્ધa અનાનુપૂવ રૂ૫ છે તથા દ્વિપ્રદેશી કંપ અવકતવ્ય કેટિને છે. આ પ્રકારે અહીં સંજ્ઞા સંજ્ઞી સંબંધ છે અર્થપદની પ્રરૂપણ થઈ જાય છે,
म० ४०
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ननु 'त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी' इत्यापेकवचनबदर्शमेनैव संशासविसम्बन्ध कथनं सिद्धम् , कथं पुनखिपदेशिका आतुर्यः इत्यादि पहुवचनान्तनिर्देशक कृतः १ इति चेदुच्यते-आनुपूर्यादि द्रव्याणां प्रतिमेदमनन्तव्यक्तिख्यापमान नैगमव्यवहारयोरित्यंभूताऽभ्युपगममदर्शनार्थ च बहुपचनान्तत्वेन निर्देशः कृत शनि नास्ति कश्चिद् दोषः।
शंका-"त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी" इत्यादि एकवचन के कथन से ही संज्ञा संज्ञी सम्बन्धका कथन जब सिद्ध हो जाता है तब फिर क्यों सूत्रकार ने “त्रिप्रदेशिका आनुपूर्यः" तीन इत्यादि बहुवचनान्त पद का निर्देश किया? ___ उत्तर-आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का हरएक भेद अनन्त व्यक्तिरूप है। इस बात को ख्यापनकरने के लिये और नैगम एवं व्यवहार नय का ऐसा सिद्धान्त है इस बात को प्रदर्शित करने के लिये बहुवचनका प्रयोग किया है । तात्पर्य कहने का यह है कि "त्रिप्रदेशा आनुपूर्व्यः". ऐसा जो सूत्रकारने कथन किया है उससे वे यह कहना चाहते हैं कि त्रिप्रदेशिक एक द्रव्यरूप एक ही आनुपूर्वी नहीं है किन्तु त्रिप्रदेशिक द्रव्य अनन्त हैं-अतः अनन्त आनुपूर्वियां हैं। इसलिये त्रिप्रदेशिकरूप भिन्न २ अनन्त आनुपूर्वियों की सत्ता सूचित करनेके लिये "त्रिपदे शिका आनुपूर्व्यः" ऐसा बहुवचनान्त पद का प्रयोग किया गया है। 1 શંકા-ત્રિપ્રદેશિક ઈત્યાદિ એક વચનના કથન દ્વારા જ સંજ્ઞા સંશી
धनू थन ने सिद्ध 25 गय तो सूरे “त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्यः" ‘ત્રિપ્રદેશિક આનુપૂર્વીએ ઈત્યાદિ બહુવચનાક્ત પદને નિર્દેશ શા २० च्या छ ?
ઉત્તર-આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યોને પ્રત્યેક ભેદ અનંત વ્યક્તિરૂપ (પદાથરૂ૫) છે,” એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવાને માટે અને ગમ તથા વ્યવહાર નયને એ સિદ્ધાંત છે એ વાતને પ્રદર્શિત કરવા માટે બહુવચनमा प्रयोग ५५ ४२पामा मा०येछे भी यिननु तात्पर्य ये छ।" त्रिप्रदेशाः आनुपूयः" मा प्रा२नु सूत्रारे२ यन थुछ तनावमा એ વાત પ્રકટ કરવા માગે છે કે ત્રિપ્રદેશિક એક દ્રવ્યરૂપ એક જ આનુપૂવી નથી પરંતુ વિપ્રદેશિક દ્રવ્ય અનંત હોવાને લીધે અનન્ત નુખવી એ છે. તથી ત્રિશિક રૂ જુતી જુદી અનંત આનુવીઓની સત્તા (અસ્તિત્વ थित ३२पाने भाट “ त्रिप्रदेशिका भानुपूर्व्यः" " प्रियिमानुपाया। એવાં બહુવચનાન્ત પદને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યા છે. એ જ પ્રમાણે ચિર
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मनुबोमचन्द्रिका टीका सूत्र ७५ अनौपनिधिकी द्रध्यानपूर्षीनिरूपणम् ३१५
ननु अनानुपूर्वीद्रव्यमेकेन परमाणुना निष्पद्यते, अवक्तव्यक द्रव्य तु परमाणु: इयेन, आनुपूर्वीद्रव्यं तु जघन्यतोऽपि परमाणुत्रयेण, एवं द्रव्यवृद्धया पूर्वानुपूर्व कममाश्रित्य प्रथममनानुपूर्वीद्रव्यं वक्तव्यम् , ततोऽवक्तव्यकद्रव्यम् , ततश्चानुपूर्वी द्रव्यम् । पश्चानुपूर्वीक्रममाश्रित्य तु प्रथममानुपूर्वी द्रव्यं वक्तव्यम् , ततोऽवक्तव्यक दृष्यम् , ततथानुपूर्वीद्रव्यम् । अत्र पुनः क्रमद्वयमुल्लङ्थ्य निर्देशः कथं कृत ? इति चेदुच्यतेइसी प्रकार से चार प्रदेशोंवाला एक स्कंध एक आनुपूर्वी है-इस प्रकार से चार प्रदेशोंवाले स्कंध भी अनन्त हैं अतः वे अनन्तानुपूर्वियां हैं। अन्यत्र भी इसी प्रकार से उद्भावित कर लेना चाहिये।
शंका-अनानुपूर्वी जो द्रव्य है वह एक परमाणु से निष्पन्न झेता हैं अर्थात् एक परमाणु अनानुपूर्वी है, और अवक्तव्य द्रव्य परमाणुद्वय के सम्बन्ध से निष्पन्न होता है। अर्थात् संश्लिष्ट परमाणुद्वयस्कंध अवक्तव्य है, तथा कम से कम भी आनुपूर्वी द्रव्य परमाणुत्रय से निष्पन्न होता है, अर्थात् परमाणुत्रय के संश्लेष से सब से जघन्य आनुपूर्वी, निष्पन्न होती है इस प्रकार द्रव्य की वृद्धि से पूर्वानुपूर्वी क्रम को लेकर सत्रकार को चाहिये था कि वे पहिले अनानुपूर्वी द्रव्य का कथन करते, इसके बाद अवक्तव्य द्रव्यका कथन करते और इसके बाद आनुपूर्वी द्रव्य. का कथनकरते हैं । यदि पश्चानुपूर्वी के क्रम को लेकर उन्हें कथन करना પ્રહેશેવાળ એક સકંધ એક આનુપૂવ રૂપ છે અને ચાર પ્રદેશવાળા જે, અનંત છે છે તે અનંત આનુપૂર્વી રૂપ છે એજ પ્રમાણે અનંત પ્રદેશી પર્યન્તના સ્કંધે વિષે પણ સમજી લેવું.
શંકા-અનાનુપૂર જે દ્રા છે તે એક પરમાણુમાંથી નિષ્પન્ન થાય – એટલે કે એક પરમાણુ અનાનુપૂર્વી રૂપ છે, અને અવકતવ્ય દ્રવ્ય બે પરમાયુના સંબંધથી નિપન્ન થાય છે-એટલે કે સંકિaષ્ટ પરમાણુ હયકંધ અવ• કતવ્ય છે-એટલે કે દ્વિદેશી સ્કંધ આનુપૂર્વી રૂપ પણ નથી અને અનાનુપૂર્વી રૂપ પણ નથી આનુપૂર્વી દ્રવ્ય એછામાં ઓછા ત્રણ પરમાણુ વડે નિષ્પન્ન થાય છે એટલે કે ત્રણ પરમાણુના સંશ્લેષથી જઘન્યમાં જધન્ય રૂ૫ આનુપૂર્વી નિપન્ન થાય છે. આ રીતે દ્રવ્યની વૃદ્ધિ દ્વારા પૂર્વાનુપૂર્વી મની અપેક્ષાએ સૂત્રકારે પહેલાં અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યનું કથન કરવું જોઈતું હતું ત્યાર પછી અવક્તવ્ય દ્રવ્યનું કથન કરવું જોઇતું હતું અને ત્યાર બાદ આનુપૂર્વી દ્રવ્યનું કથન કરવું જોઈતું હતું જે પશ્ચાપૂના કમથી કથન કરવું હોય
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मनुयोगद्वार आनुपूर्वीद्रव्यापेक्षयाऽनानुपूर्वीद्रव्याणि अल्पानि, अनानुपूर्वीद्रव्यापेक्षयाऽ. वक्तव्यकद्रव्याणि अल्पेतराणि, इत्येव' द्रव्यहान्या पूर्वानुपूर्वीक्रमनिर्देश एवात्र वर्तते, इति नास्ति कश्चिदोषः। सम्पति प्रकृतमुपसंहरन्नाह-सैषा नैगमव्यवहार• सम्मताऽर्थपदमरूपणतारूपाऽनौपनिधिकी आनुपूर्वी ॥सू०७५॥ था तो-पहिले आनुपूर्वी द्रव्य का कथन करते बाद में अवक्तव्य द्रव्य का कथन करते और फिर बाद में अनानुपूर्वी द्रव्य का कथन करते। परन्तु उन्होंने इन दोनों क्रमों का उल्लंघन कर निर्देश किया है सो इसका क्या कारण?
उत्तर-सूत्रकार को इस प्रकार के निर्देश से यह बतलाना इष्ट है कि आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य थोडे हैं, और अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा अवक्तव्यक द्रव्य और भी कम हैं। इस प्रकार द्रव्य को हानि से सूत्रकारने यहां पूर्वानुपूर्विक्रम को लेकर उसी का निर्देश वक्तव्यरूप से इष्ट किया है। अतः इस प्रकार निर्देश में कोई दोष नहीं है । (से तं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया) इस प्रकार से नेगम व्यवहारनय संमत यह पूर्वप्रकान्त अर्थ पदप्ररूपणतारूप का अनौपनिधिकी आनुपूर्वी है।
भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा अर्थपद प्ररूपणा का क्या स्वरूप है यह विषय स्पष्ट किया है। व्यणुकस्कंध से लेकर अनन्त प्रदेशवाले તે પહેલાં આનુપૂર્વાદ્રથનું, ત્યાર બાદ અવ્યક્ત દ્રવ્યનું અને ત્યાર બાદ અનાનુપૂર્વ દ્રવ્યનું કથન કરવું જોઈતું હતું. પરંતુ આ બે ક્રમમાંથી એક પણ ક્રમને અનુસરવાને બદલે તેમણે પહેલાં આનુપૂવદ્રવ્યનું, ત્યાર બાદ અનાનુપૂવીનું દ્રવ્યનું અને છેલ્લે અવકતવ્ય દ્રવ્યનું કથન કર્યું છે. તે આમ કરવાનું શું કારણ હશે?
ઉત્તર-સૂત્રકાર આ પ્રકારના ક્રમ દ્વારા એ બતાવવા માગે છે આનુપૂ. વીદ્રવ્ય કરતાં અનાનુપૂવી દ્રવ્ય જેવું છે, અને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં અવક્તવ્ય થોડું છે આ રીતે સૂત્રકારે અહીં દ્રવ્યની હાનિનાં અપેક્ષાએ પૂવનુપૂવ ક્રમને આધાર લઈને ઉપયુક્ત કમે તેની પ્રરૂપણ કરી છે. તેથી આ પ્રકારના નિર્દેશમાં કેઇ દેષ નથી.
(से त' नेगमववहाराणं अदुपयपस्वणया) मा प्रानु' नाम भने વ્યવહારનય સંમત પૂર્વ પ્રસ્તુત અર્થપદ પ્રરૂપણુતા રૂપ અનપથિકી આનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અર્થપદ પ્રરૂપણાનું કેવું સ્વરૂપ છે તે વિષયને સ્પષ્ટ કર્યા છે. ત્રણ અણુવાળા (ત્રપ્રદેશી) કંધથી લઈને અનંત
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पुनधिका टोका सूत्र ७६ नंगमव्यवहारार्थपदमरूपणा अस्याः प्रयोजनं किम् ? इति दर्शयितुमाह
मूलम्-एयाए गं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए किं पओयणं? एयाए णं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए भंगसमुक्त्तिणया कज्जइ ॥सू०७६॥ जितने भी स्कंध हैं वे सब यहां " अर्थ" शब्द से गृहीत हुए हैं। इस अर्थ से युक्त अथवा इस अर्थ को विषय करनेवाला जो पद है उसका नाम अर्थपद है। इसकी प्ररूपणा का नाम अर्थ पद प्ररूपणा है। इस प्ररूपणा में पुद्गल परमाणु और द्विप्रदेशी स्कंध वर्जित हो जाते हैं। क्यों कि-एकपुद्गलपरमाणु आनुपूर्वी रूप नहीं है और द्विप्रदेशी स्कंध अवक्तव्य है । सब से जघन्य आनुपूर्वी का प्रारंभ त्रिप्रदेशी स्कंध से होता है। क्यों कि यहीं से क्रम की सम्पूर्ण गणना चलती है । गणना का तात्पर्य गिनती से है। आदि मध्य और अंत इस प्रकार से गणना जहां होती है वहीं पर आनुपूर्वीरूप परिपाटी मौजूद रहती है। यह अयं पद प्ररूपणारूप आनुपूर्वी नैगमनय और व्यवहार नय इन दोनों नयों को संमत है। ये अर्थ पद प्ररूपणारूप आनुपूर्वियां एक से लेकर अनन्त हैं। इसका कारण यह है कि त्रिप्रदेशी आदि स्कंध से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कंध तक के जितने भी स्कंध हैं वे सय अनन्त हैं। ॥० ७५॥ પર્યન્તના પ્રદેશવાળા જેટલા રકંધ છે, તે બધાને લઈને અહી “ અર્થ છે પદથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આ અર્થથી યુકત અથવા આ અર્થનું प्रतिपन ४२॥
३२ ५६ छ त नाम 'म ५४' छे. तेनी ५३५४ानु નામ “અર્થ પદ પ્રરૂપણ' છે. આ પ્રરૂપણામાં પુદ્ગલ પરમાણુ અને દ્વિપ્રદેશી સ્કંધ વજિત થઈ જાય છે–એટલે કે તેમની પ્રરૂપણા થતી નથી, કારણ કે એક પુદ્ગલ પરમાણુ આનુપૂર્વ રૂપ નથી અને દ્વિપ્રદેશી સ્કંધ અવકતવ્ય છે. જઘન્યમાં જઘન્ય આનુપૂરીનો પ્રારંભ ત્રિપ્રદેશી કપથી થાય છે, કારણ કે ત્યાંથી જ કમની સંપૂર્ણ ગણુના ચાલુ થાય છે. (ગણના એટલે ગણતરી) આદિ, મધ્ય અને અન્ત, આ પ્રકારની ગણના જ્યાં સંભવિત હોય છે, ત્યાં જ અનુપૂર્વી રૂપ પરિપાટી મેજૂદ રહે છે. આ અર્થપદ પ્રરૂપણ રૂ૫ આનપૂર્વી ગમનય અને વ્યવહારનય, આ બને ના દ્વારા સંમત (માન્ય) છે. આ અર્થપદ પ્રરૂપણારૂપ આનુપૂર્વીઓ એકથી લઈને અનંત પર્યન્તની છે, કારણ કે ત્રિપ્રદેશથી લઈને અનંત પ્રદેશી સુધીના જેટલા રકંધ છે, તે બધાં અનંત છે. સૂ૦૭પા
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३१८
___ अनुयोगायक छाया-एनया खलु नैगमव्यवहारयोरर्यपदमरूपणतया कि प्रयोजनम् ? एतया खलु नैगमव्यवहारयोरर्थपदपरूपणतया भासमुत्कीर्तनता क्रियते॥०७६।।
टोका-'एयाए णं' इत्यादि
एतया नैगमव्यवहारसम्मतया अर्थपदमरूपणतया कि प्रयोजनम् किं फलम् ? इति शिष्यः पृच्छति । अथ-उत्तरयति-एतया नैगमव्यवहारसम्मतयाऽर्थपदप्रसपणतया भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते। अयं भावः-अर्थपदप्ररूपणतायां संहासंशिव्यवहारो निरूपितः । संज्ञासंज्ञिव्यवहारे सत्येव भङ्गकाः समुत्कीर्तयितुं शक्यन्ते, नान्यथा, संज्ञामन्तरेण निर्विषयाणां भङ्गानां प्ररूपणाया असंभवात् । तस्याद् __ इसका प्रयोजन क्या है ? इस बात को सूत्रकार अब प्रदर्शित करते हैं-'एयाएणं' इत्यादि।
शब्दार्थ-हे भदन्त ! (एयारणं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवण. याए कि पओयणं) नेगम व्यवहारनय संमत इस अर्थ पद प्ररूपणता रूप आनुपूर्वी से क्या प्रयोजन सधता-निकलता-है।
उत्तर-(एयाएणं नेगमववहाराणं अपयपरूषणयाए भंगसमु. कित्तणया कज्जा) इस नैगमव्यवहारनय संमत अर्थ पद प्ररूपणतारूप आनुपूर्वी से भंग समुत्कीर्तनता की जाती है। तात्पर्य यह कि पहिले जो यह कहा गया है कि अर्थ पद प्ररूपणता में संज्ञा संज्ञि व्यवहार निहित है । क्यों कि उसी से संज्ञा संज्ञि व्यवहार चलता है। और इस व्यवहार के होने पर ही भंगों का समुत्कीर्तन (उत्पत्ति) हो सकता है। अन्यथा नहीं हो सकता है। कारण-संज्ञा-नाम-के विना निर्विषय हुए
હવે આ અર્થપદ પ્રરૂપણા રૂપ આનુપૂર્વનું પ્રજન પ્રકટ કરવા मित्त सत्र छ -“ एयाएणं" त्या:
हाथ-प्रश्न-समपन्! ( एयाएणं नेगमयवहाराण' अदुपयपरूवणयाए कि पओयण) नेगम अने ०५१७२नय समता म ५४ ५३पता ૨૫ આનુપૂર્વી દ્વારા કયું પ્રયોજન સિદ્ધ થાય છે?
उत्तर-(एयाएणं नेगमववहाराणं अटुपयपरूवणयाए भंगसमुक्त्तिणा, જના) આ નગમનય અને વ્યવહારનય સંમત અર્થપદ પ્રરૂપણતા ૩૫ આવી વડે ભંગસમુત્કીર્તનતા કરાય છે આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે
પહેલાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે અર્થપદ પ્રરૂપણુતામાં સંજ્ઞા સંજ્ઞા વ્યવહાર ચાલે છે, અને તે વ્યવહારને સદ્ભાવ હોય તે જ ભગનું સમીતીન (લંગની ઉત્પત્તિ થઈ શકે છે તેને અભાવ હોય તે થઈ શકતું નથી. કારણ કે સંજ્ઞા (નામ) વિના નિવિષય થયેલા અંગે (વિકપ,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७६ मङ्गसमुत्कीर्तनता निरूपणम्
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भङ्गसमु कीर्त्तनतैव एतस्या नैगमव्यवहारसम्मताया अर्थपदप्ररूपणतायाः फलं बोध्यमिति ।। ० ७६ ॥
थापनिधिक्याद्वितीय भेदरूपामर्थपदप्ररूपणतायाः फलभूतां मङ्गसमुत्कीतां निरूपयति
मूलम् - से किं तं नेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ? नेगमववहाराणं भंगसमुसमुक्कित्तणया अस्थि आणुपुव्वी १, अस्थि अणाणुपुव्वीर, अस्थि अवन्त्तव्वए ३, अस्थि आणुपुब्बीओ४, अस्थि अणाणुपुवीओ५, अस्थि अवत्तव्वयाई ६, । अहह्या - अस्थि आणुपुत्री य अणाणुपुव्वीय १ | अहवा - अस्थि अणुपुत्रीय अणाणुपुवीओश अहवा अस्थि आणुपुव्वीओ य अणाणुपुत्रीओ य३॥ अहवा - अस्थि आणुपुत्रीओ य अणाणुपुत्रीओ या अहवाअस्थि अणाणुपुत्रीय अवतन्त्रए । ५ अहवा - अस्थि आणुपुवीओ य अवत्तव्वयाई य ६ अहवा - अस्थि आणुपुव्वीओ य अवन्तव्त्रए य ७। अहवा - अस्थि आणुपुव्वीओ य अवक्तव्त्रयाई य८ | अहवा - अस्थि अणाणुपुव्वी य अवत्तत्रए य ९ । अहवा अस्थि अणाणुपुव्वी य अवक्तव्वयाई य १० | अहवा - अस्थि अणाणुबुव्वीओ य अवत्तव्वए य ११ अहवा - अस्थि अणाणू
भंगों की प्ररूपणा का होना असंभव है। इसलिये भंग समुत्कीर्तनता ही इस नैगम व्यवहार संमत अर्थपदप्ररूपणता का फल है। ऐसा जानना चाहिये | | ० ७६ ॥
ભાંગાએ)ની પ્રરૂષણા કરવાનું કાર્ય જ અસંભવિત ખની જાય છે તેથી ભંગસમુત્કીનતા જ આ નૈગમવ્યવહારનય સંમત અર્થીપદ પ્રરૂપણુતાનું' કુલ છે प्रेम समई लेले सू०७९॥
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अनुयोगद्वार पुवीओ य अवतव्वयाई य १२ अहवा - अस्थि आणुपुव्वी य अणाणुपुवीय अवत्तव्वए य १| अहवा-अस्थि आणुपुवी य अणाणुपुवीय अवत्तयाइं य२ अहवा-अस्थि आणुपुन्वी य अणाणुपुवीओ य अवत्तव्वए य ३ | अहवा - अस्थि आणुपुव्वी य अणाणुपुत्रीओ य अवत्तव्त्रयाई य ४ | अहवा - अस्थि आणुपुवीओ य अणाणुपुवीय अवत्तव्वए य ५ । अहवा - अस्थि आणुवीओ य अणाणुपुवीय अवत्तब्वयाई य ६ | अहवा-अत्थि
वीओ य अणाणुपुवीओ य अवत्तव्वए य ७॥ अहवा- अस्थि आणुपुवीओ य अणाणुपुवीओ य अवत्तव्वयाइं य८ एए अट्ठ भंगा । एवं सव्वे वि छव्वीसं भंगा। से तं नेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ॥ सू० ७७ ॥
छाया - अथ का सा नैगमव्यवहारयोर्भङ्गसमुत्कीर्त्तनता ? नैगमव्यवहारयोसमुत्कीर्त्तनता अस्ति आनुपूर्वी १, अस्ति अनानुपूर्वी २, अस्ति अवक्तव्यकम् ३, सन्ति आनुपूर्व्यः ४, सन्ति अनानुपूर्व्यः ५, सन्ति अवक्तव्यका नि ६ ।
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अथवा स्तः आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च१, अथवा सन्ति आनुपूर्वी च मनातुपूर्व्यश्वर, अथवा सन्ति आनुपूर्व्यश्च अनानुपूर्वी च३, अथवा सन्ति आनुपूर्व्यथ अनानुपूर्व्यश्च ४, अथवा स्तः आनुपूर्वी च अवक्तव्यकं च ५, अथवा सन्ति आनुपूर्वी च भवक्तव्यकानि च६, अथवा सन्ति आनुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकं च७, अथवा सन्ति आनुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि च८, अथवा स्तः अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकं च९, अथवा सन्ति अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च १०, अथवा सन्ति अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकं च ११, अथवा सन्ति अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि च १२ ।
अथवा - सन्ति आनुपूर्वीच अनानुपूर्वीच अवक्तव्यकं च१, अथवा सन्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च२, अथवा सन्ति आनुपूर्वीच अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकं च३, अथवा सन्ति आनुपूर्वी च अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि ४, अथवा सन्ति आनुपूर्व्यश्च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकं च५, अथवा सन्ति भानुपथ अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकानि च६, अथवा सन्ति आनुपूर्व्यम अनानुपश्च
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७७ भङ्गसमुत्कीर्तनतानिरूपणम् ___ ३२१ भवक्तव्यकं च ७, अथवा सन्ति आनुपूर्वश्च अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकानि च८, एतेऽष्टौ भङ्गाः। एवं सर्नेऽपि पविशतिर्भङ्गाः। सैषा नैगमव्यवारयोर्भमा स्कीचनता ॥ मू०७७॥
टीका-से किं तं' इत्यादि
भय का सा नैगमध्यपहारसम्मता भासमुत्कीर्तनता? इति शिष्य पश्नः। उत्तरयति-गमव्यवहारमम्मता भङ्गसमुत्कीर्तनता एवं विज्ञेया, तद्यथा-अस्ति भानुपूर्वी, अस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अक्तव्यकमित्यादि । अस्य सूत्रस्य व्याख्या स्पष्टा । अत्रदं बोध्यम् राचनान्नेन आनुयादिपदत्रयेण त्रयो भना, बहुवर
अब सूत्रकार हमी भंग म नुकीर्तनता का कि जो अनौपनिधिको अर्थपदमरूपतासी काभन है निरूपा करते हैं
"से किं तं नेगमश्वयारा भंग सनुकित्तणया" इत्यादि।
शब्दार्थ-से किंतं नेगमववहाराणं भंगममुक्किसणया) हे भदन्त ! नैगम व्यवहारनय संमत ऐमी वह भंगममुस्कीतनता वया है ?
उत्सर-(नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया) नैगम व्यवहारनय संमत वह भंगसमुत्कीर्तनता इस प्रकार से है (अस्थि आणुपुन्धी) आनुपूर्वी है (अस्थि अणाणुपुव्वी) अनानुपूर्वी है (अस्थि भव. तथए) अवक्तव्य है (अस्थि आणुपुवीओ) आनुपूर्वियां हैं। (भरिथ भणाणुपुम्वीओ) अनानुर्वियां हैं (अस्थि अवत्तव्ययाई) अवक्तव्यको इत्यादि । इस सूत्र की व्यख्या स्पष्ट है । यहां इस प्रकार से जानना चाहिये-कि जो ये आनुपूर्वी आदि तीन पद एकवचनान्त, इन से
હવે સૂત્રકાર અનોપનિધિક અપદ પ્રરૂપણુતાના જે ફલરૂપ છે એવી સંગ સમુઠીતનતાનું નિરૂપણ કરે છે
"से किं त' नेगमववहाराण भंगस मुकित्तणया ?" त्या:
शाय-से किं त' नेगमवहाराण भंगसमुक्त्तिणया): सपन! નગમવ્યવહારનય સંમત એવી તે અંગસમુત્કીનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
त्ति२-(नेगमयवहाराण भंगसमुबिधणया) नेयमानय भने ०५२५. समत ते समुहीनता मा ५३:२नी (भत्यिमाणुपुब्बी) भानुन ), (भत्यि भणाणुपुवी) मना५वी छ, (भत्यि भवत्तव्वए) भys, (अस्थि माणुपुबोओ) मानवीमा , ( भत्थि भणाणुपुन्वीभो) मनानु. वायाछ, ( अस्थि अवत्तव्ययाई) भने भत०), त्या ३५ोनी भुजीतनता (६५Gि) समावी.
આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સ્પષ્ટ છે. અહીં ભાંગાઓની રચના બા પ્રમાણે સમજવી. આનુપૂવ આદિના જે ત્રણ પદે એકવચનાન્ત છે, તેમના ત્રા
म०४१
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अनुयोगद्वारले नातेन च त्रयो भङ्गाः, इत्येवमसंयोगपक्षे पर मना भवन्ति । संयोगपक्षे तु पदअयस्यास्य त्रयो द्विकसंयोगाः । एककस्मिस्तु द्विक संयोगे एकवचन-पहुवचनाम्या चतुर्भनयाः सदाबाद् त्रियपि द्विकय गेषु द्वादश भनाः सम्पयन्ते ।१२। त्रिकयोगस्त्वत्र एक एच। तत्र च एकवचनबहुवचनाभ्यामष्टौ भङ्गा भवन्ति । मवेऽप्यमी पविशतिः। २६। भङ्गानां स्थापना चैवम् -
। षड्विंशतिभङ्गानां कोष्ठकमिदम् । असंयोगे भगाः द्विकसंयोगे प्रथमा चतुभङ्गी१ | त्रिकसंयोगे भगाः ८ *आनुपूर्वी १ | आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी-अवक्तव्यकः १ अनानुपूर्वी२ | आनुपूर्वी-अनानुद्यः२ । आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी-अवक्तव्यकाः२ अवक्तव्यकः३| आनुपूर्व्यः-अनानुपूर्वी ३ | आनुपूर्वी-अनानुपूर्व्यः-अवक्तव्यकः३ तीन भंग बनते हैं और जो आनुपूर्वी आदि तीन पद बहुवचनान्त हैं उनसे भी ३ भंग बनते हैं। इस प्रकार असंयोग पक्षमें ये छह ६ भंग हो जाते हैं। और संयोग पक्ष में इन तीन पदों के विसंयोगी भंग ३ होते हैं। इन में एक एक भा में दो दो का मंयोग होने पर एकवचन
और बहुवचन को लेकर चार २ भंग हो जाते हैं इस प्रकार तीन भंग के द्विक संयोगी भंग चार २ होने से ये १२ भंग बन जाते हैं। तथा त्रिक संयोग में एक वचन और यहुवचन को लेकर ८ भंग पनते है। इस प्रकार सवभंग मिलकर २६ भंग होते हैं। इन भंगोका क्रम इस प्रकार से है
भानुपूर्वी १, अनानुपूर्वी २, अवतव्यक, ये तीन भंग एक बच. नान्त हैं। आनुपूर्वियां१, अनानुर्वियार; और अनेक अवक्तव्यकर, ये ३ भंग बहुवचनान्त है, ऐसे असंयोगी भंग हुए ६ । दो के संयोग से तीनचतुर्भगियां बनती हैं, उनमें प्रथम चतुर्भगी इस प्रकार से बनती है-आनुपूर्वी अनानुपूर्वी १, आनुपूर्वी अनानुर्वियां २, બાંગા બને છે અને જે આનુપૂર્વી આદિના ત્રણ પદે બહુવચનાન્ત છે તેમના પણ ત્રણ ભાંગાઓ બને છે. આ રીતે કુલ ૬ અસગી ભાંગાઓ मन छे. मात्र पढाना (भानुनी, मनामी भने मत०५४11) . સગી ભાંગ ત્રણ થાય છે પ્રત્યેક ભાંગામાં બબેને સંગ થવાથી એક વચન
અને બહુવચનની અપેક્ષાએ પ્રત્યેક પદની સાથે ચાર-ચાર લાંગા બને છે. આ રીતે ત્રણે એની સાથે કુલ ૧૨ દ્વિસંગી ભાંગા બને છે. વિકાસ યોગી पुस ८inसन 2. सारी मया भजीन +12+८=
२i w. मा २६ लामानम मा प्रभार समनाया-(1) भानुकी', (२) भनानु५वी', (3) सपत०५४, again वयनान्त छे.
(1) भानु५वीसी, (२) मनानुनीमा (3) भने४ अपातयी, ત્ર સાંગા બહુવચનાન્ત છે. એવી રીતે અસંગી ૪ માં થયા ૬ * एकवचनामयः,
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: अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७७ भङ्गसमुत्कीर्त्तनतानिरूपणम्
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आनुपूयः १ अनानुपूव्य : २ अवक्तव्यकाः ३ असंयोगे षड्
बहुवचनान्ता | आनुपूय :- अनानुपूर्व्यः ४ त्रयः द्विकसंयोगे द्वितीया चतुर्भङ्गी आनुपूर्वी- अवक्तव्यकः ? आनुपूर्वी - अवक्तः यकाः २ आनुपूर्व्यः- अवक्तव्यकः ३ आनुपूय:- अवक्तव्यका ४ द्विकलंयोगे तृतीया चतुर्भङ्गी ३ अनानुपूर्वी - अवक्तव्यकः १ अनानुपूर्वी अवतव्यकाः२ अनानुपूर्व्यः - अवक्तव्यकः ३ अनानुपूर्व्य :- अवक्तव्यकाः४ एते द्विकसंयोगे द्वादश भङ्गाः १२
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आनुपूर्वी अनानुषूय :- अवक्तव्यकः ४ आनुपूव्य :- अनानुपूर्वी अवक्तव्यकः ५ आनुपूर्य :- अनानुपूर्वी अवक्तव्यकाः ६ आनुपूर्ध्य :- अनानुपूर्यः अवक्तव्यकः ७ आनुपूर्व्यः अनानुपूर्ष अवतःयकाः ८ एते त्रिकसंयोगे अष्टौ भङ्गाः ८
आनुपूर्तियां अनानुपूर्वी३, आनुपूर्वियां अनानुपूर्वियां४ । द्वितीय चतुभ इस प्रकार से है
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आनुपूर्वी, अवक्तव्यक१, एकआनुपूर्थी बहु अवक्तव्यक२, आनुपूपि एक अवक्तव्यक, ३, आनुपूर्वियां पहुअवक्तव्यक ४| तृतीय चतुर्भगी इस प्रकार से है- अनानुपूर्वी अवक्तव्यक १, अनानुपूर्वी बहु अवक्तव्यंक २, अनानुपूर्वियां एक अवक्तव्यक ३ अनेक आनुपूर्वियां अनेक अवत व्यक ४ | इन तीन चतुभैगियों को मिलाने से द्विकसंयोगी बारह भंग होते है १२ | तीन तीनके संयोग से जो आठभंग बनते हैं वे इस प्रकार से हैं - एक आनुपूर्वी एकअनानुपूर्वी एक अवक्तव्यक १, एक आनुपूर्वी एक अनानुपूर्वी अनेक अवक्तव्यक २, एक आनुपूर्वी अनेक अनानुએ પાના સંચાગથી ત્રણ ચતુ ગી બને છે, તેમાં પ્રથમ ચતુ“ભી या प्रभःशे अने छे-(1) आनुपूर्वी - अनानुपूर्वी, (२) खानुपूर्वी - अनानुयूवीओ, (3) आनुपूर्वी थे। - अननुपूर्वी (४) आनुपूर्वी थे। अनानुपूर्वी थे.
બીજી દ્વિકસ ચેગી ચતુમ ગી આ પ્રમાણે ત્રણ ચતુભગીએ બને છે. તેમાં अने छे–(१) अनुयूरों-से) भवतया, (२) आनुपूर्वी - बहु वक्तव्य, (3) आनुपूर्वी थेो भवतव्य, (४) मानुपूर्वी थे। जहु अवस्तव्य
1
श्रील यतुर्भगी या प्रमाणे जने है- (१) मनानुपूर्वी वस्त ०४, (२) अनानुपूर्वा-महु अवतव्य । ( 3 ) अनानुपूर्वी थे। - थोड व्यवस्तયક અને (૪) અનાનુપૂર્વી એ- અનેક અવકતવ્યકે. મેળવવાથી દ્વિકસ’યેાગી ર ભગ બને છે. ૧૨
આ ત્રણ ચતુભ'ગીઓને
ત્રણ પાના સયેાગથી નીચે પ્રમાથે આ! ભાંગા બને છે-(૧) એક માનુપૂર્વી, એક અનાનુપૂર્વી એક અવકષક (૨) એક આનુપૂર્વી, એક अनानुपूर्वी, अने भवन (3) मे मानुपूर्वी अने मनानुपूर्वा
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રષ્ટ
अनुयोगद्वारसूत्रे
एवमेते पर्विंशतिर्भेदा विज्ञेयाः। नतु किमर्थं मङ्गसमुत्कीर्त्तनं क्रियते ? इति चेदुकयते - इक वचनान्तबहुवचनान्तरानुपूर्वादिभिस्त्रिभिः पदैरसंयोगपक्षे संयोगपक्षे मिलिताः षड्विंशतिर्भङ्गाः संभवन्ति । तेषु च मध्ये येन केनचिद् भङ्गेन वक्ता पूर्वियां एक अवक्तव्यक ३, एक आनुपूर्वी अनेक अनानुपूर्वियां, अनेक अवक्तव्यक ४, अनेक आनुपूर्वियां एक अनानुपूर्वी एक अवक्तव्यक ५, अनेक आनुपूर्वियां एक अनानुपूर्वी अनेक अवक्तव्यक ६, अनेक आनुपूर्वियां अनेक अनानुपूर्वियां एक अवक्तव्यक ७, अनेक आनुपूर्विय अनेक अनानुपूर्वियां अनेक अवक्तव्यक, ८. ऐसे त्रिकसंयोगी आठ भंग होते हैं ८ इस प्रकार ये स्वतन्त्र रूप से विना संयोग के एक वचन और बहुवचन, को लेकर ६, तथा इन छहों के दो दो के संयोग से १२, और तीन २ के संयोग से ८ भंग हो जाते हैं। ऐसे सब मिलकर कुल छाईस भंग होते हैं ।
शंका- भंगों का समुत्कीर्तन वर्णन किस लिए किया गया है ? उत्तर- यहां पर एकवचनान्त और बहुवचनान्त जो आनुपूर्वी आदि तीन २ पद हैं कि जिनके असंयोग पक्ष से ६ और संयोग पक्ष में २० इस तरह २६ भंग बन जाते हैं
એક અવકતવ્યક. (૪) એક આનુપૂર્વી, અનેક અનાનુપૂર્વાએ, અનેક અવ તન્યકા (૫) અનેક આનુપૂરીએ, એક અનનુપૂર્વી, છેક અવકતવ્યક (६) अने! मनुयूथे, थे मनानुपूर्वी, अने गवतव्य है। (७) અનેક આનુપૂર્વી એ, અનેક અનાનુપૂર્વી એ, એક અવકતવ્યક. (૮) અનેક આનુપૂર્વી એ, અનેક અનાનુપૂર્વી, અનેક અવકતવ્યો આ રીતે ત્રિક મચાગી આઠ ભ ́ગ બને છે. આ રીતે સ્વતંત્ર રૂપે-વિના સાગવાળા ૬ ભાંગા એક વચન અને બહુવચનવાળાં પદેથી ખને છે. તથા તે છએના દ્વિકસ યાગથી ૧૨ ભાંગા બને છે, અને ત્રણ ત્રસુના સયાગથી ત્રિકસ*ચાગી ૮ ભાંગા ખને છે. આ રીતે કુલ ભાંગા ૬૪૧૨×૮=૨૬ થઈ જાય છે.
प्रश्न-लगोनुं (लांगाओ।नुं समुत्तीर्तन (उत्पत्ति) शा मारे ४२वामां आयु है? ઉત્તર–અહી' જે એકવચનાન્ત અને બહુવચનાન્ત જે આનુપૂર્વી, અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક, આ ત્રણ ત્રણ પદે છે તેમના અસંચાગ પક્ષે ૬, અને સ’ચૈત્રપક્ષે (દ્વિકસયાગ અને ત્રિકસ યાગની અપેક્ષાએ) ૨૦ સાંગા અને છે. આ રીતે કુલ ૨૬ ભાંગા બને છે, આ સઘળા ભાંગાએમાંથી વકતા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७८ भङ्गसमुत्कीर्तनतायाःकारणनिरूपणम् ३२५ इन्यं विवक्षते, तेन भङ्गेन वक्ता विवक्षिनद्रव्यं वदतु इति हेतो नैगमव्यवहारनगा. भमुपगमेन सर्वानपि भङ्गान् प्रतिपादगितु भङ्गममु-कीर्तनं कृतमिनि । सम्पति पतमु संहरन्नाह-सैषा भङ्गसमुत्कीर्तननेति ॥सू०७॥
अस्याः प्रयोजनं किम् ? इति प्रश्नपूर्वकं कारणं प्रतिपादयितुमाह
मूलम्-एयाए णं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए किं पयोयणं? एयाए णं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए भंगोवदंसणया कीरइ ॥सू०७८॥
छाया-एतया खलु नैगमव्यवहारयो भङ्गसमुत्कीर्तनतया कि प्रयोजनम् ? एतया खलु नैगम पवहारयोः भङ्गसमुत्कीन नतया भङ्गोपदर्शनता क्रियते ।।सू०७८॥
टोका-शिष्यः पृच्छति-'एयाए णं' इत्यादि-एनया नैगमव्यवहारसम्मतया भासमुत्कीर्तनतया कि प्रयोजनं- फलं किम् ? इति । उत्तरयति-पतया नैगमव्यत्र
उनके बीच में वक्ता जिस किसी भंग से द्रव्य की विवक्षा करना चाहता है, वह उस भंग से विवक्षित द्रव्य को कहे इस कारण नैगम
और व्यवहारनय संमत समस्त भी भंगों को कहने के लिये मत्रकार ने इन भंगो का समुत्कीर्तन किया है। (से तं नेगमववहाराणं भंग समुक्कित्तणया) इस प्रकार यह पूर्व प्रक्रान्त नैगम व्यवहारनय संमत भंग समुत्कीर्तनता है। सू०७७॥
इसका क्या प्रयोजन है इस यात को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं "एयाएणं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए पियोयण" इत्यादि।
शब्दार्थ- हे भदन्त ! नैगम व्यहारनय संमत इस भंग समुत्की निता का क्या प्रयोजन है ? જે કોઈ ભાંગા (વિક૬૫)ના અપેક્ષાએ દ્રવ્યની વિવફા (પ્રતિપાદન) કરવા માગતા હોય, તે ભાંગાની અપેક્ષાએ વિવક્ષિત દ્રવ્યનું પ્રતિપાદન કર, તે હતને ધ્યાનમાં લઈને નિગમ અને વ્યવહારનય સંમત સમસ્ત ભાંગાઓનું કથન કરવાને માટે સૂત્રકારે આ ભાંગાઓનું સમુદ્ધર્તન (રચના) કર્યું છે. ( से त नेगमवहाराण भंगसमुक्त्तिणया) मा २ नाम अनेच्या રાય સંત પૂર્વોકત ભંગ સમુત્કીર્તનતાનું સ્વરૂપ છે. સૂ૦૭૭
હવે સૂવકાર નૈગમવહાર સંમત ભંગસમુત્કીર્તનતાનું શું પ્રયોજન ते ५४८ ४२ छ-“एचारण नेगमववहाराण भंगसमुक्त्तियाए किं पयायण" याkि
શબ્દાર્થ–પ્રશ્ન-હે ભગવાન ! નગમધ્યવહાર નયસંમત આ ભંગસમુત્કાતનતાનું શું પ્રયોજન છે?
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अनुयोगशारने हारसम्मतया भङ्गसमुत्कीर्तनतया भङ्गोपदर्शनना क्रियते इति भोपदर्शनव भङ्गसमुत्कीर्तनतापगः प्रयोजनमिति। अयं भावः-भङ्गासमुन्कीत्तरताय भङ्ग पत्रमुक्तम्, भङ्गोपदर्शना तस्यैव वाच्यं पणु कस्कन्धादिकं वक्ष्यते, तच भाफमत्रे समु. कीर्तिते सत्येव वक्तुं शक्यते । वाचककथानमन्तरेण वाच्यकथनस्य सर्वथैवाऽसम्भवात् , अतो भङ्गोपदर्शनतैव भङ्ग समुत्कीर्तनतायाः फलं योध्यम् ।
उत्तर-(एयाए ण नेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए भंगोदंसणया कीरद ) नैगन व्यहारनय संपन इस भंग समुस्कीर्तनमा से भंगों को दिखाया जाता है उनकी प्ररूपणा की जाती है। इसलिये भंगसमुस्कीर्तनता का भंगो को दिखलाना प्रयोजन है । इसका तात्पर्य यह है भंगो की समुत्कीर्तनता में भंगों को कहने वाला उनको प्ररूणता करने वाला मूत्र कहा गया है और भंगोग्दर्शनता में उसी के वाच्य व्यणुक स्कन्धआदि प्रदर्शन किये जावेंगे कहे-जावेंगे।
सो गणुक स्कन्ध आदिकों का यह प्रदर्शनरूप कथन जप तक भंगों कोदिखाने वाला मूत्र नहीं कहा जावेगा-लय तक नहीं हो सकता है उसी प्रदर्शक सूत्र के समुत्कीतन होने पर ही वह वक्तुं शक्य हो सकता है। क्यों कि यह नियम है कि वाचक मुत्र-के कथन के विना वाच्यरूप अर्थ का कथन करना सर्वथा असंभव है। इसलिये भगोदपर्शनताही भंगसमुत्कीर्तनका का फल है-ऐमा जानना चाहिये।
उत्तर-( एयारण नेगनववहाराण भंगसमुक्त्तिणयाए भैगोरदसणया कीरइ) નિગમવ્ય હાર નયસં મત આ ગરમીનતા વડે ભંગો (બાંગાએ) બતાવવામાં આવે છે તેમની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે તેથી ભાંગને બતાવવાનું જ ભંગસમુત્કીર્તનતાનું પ્રજન છે આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છેભંગની સમુદીનતામાં ભંગને કહેનારા તેમની પ્રરૂપણ કરનારા-ભગેને પ્રકટ કરનારાં સૂવે નું કથન કરવામાં અાવ્યું છે, અને ભંગો પદનતામાં તેના જ વસ્ય એવાં શુક (વિદેશી–ત્રણ અણુવાળા) સકલ આદિ પ્રદર્શિત કરવામાં આવશે.
જ્યાં સુધી ભગને પ્રકટ કરનારૂં સૂત્ર કહેવામાં ન આવે, ત્યાં સુધી ત્રિઅમુક કંધ અ દિકના પ્રદર્શન રૂ૫ કથન થઈ શકતું નથી એજ પ્રદર્શક સૂત્રનું સમુકી ન થતાં જ તે કથન કરવું શકય બને છે, કારણ કે એ નિયમ છે કે વાચક સૂવનું કથન કર્યા વિના વાગ્યરૂપ અર્થનું કથન કરવાનું કાર્ય સર્વથા અસંભવિત હોય છે. તેથી લંગો પદર્શનના (બંગોને પ્રગટ કરવા તે) જ ભંગ સમુત્કીર્તનતાના ફલસ્વરૂપ છે એમ સમજવું જોઈએ.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७८ मङ्गलमुन्कीर्तनतामाःकारणनिरूपणम् ३२७
ननु भोपार्शननायां वाच्यम् शुकम्झन्धादे : कथनकाले आपूादिमूत्रं मयुको तारने, तत्कय पुनभा समुहलनं क्रियते ? इति चेदुच्यतेयथा हि
संहिया य पयं चेक, पयथो पयविणहो ।
चालणा य पलिद्धी यह नई बिन्दि लावणं ।।१।। छाया-हिना च पदं चैत्र, पदार्थः पदसंबरः।
चालमा न पमिश्रि, पदधि सिदि लगा। ॥
नि मायाको पंदिताया कि काले नू व पशुधारितमपि पदार्थकथनकाले पुनरव्ययमय तदुचनाय ने, सदाऽभियमुकीनन आमिद्धस्यैव सूत्रम्य भङ्गापदर्शनतायां काच्या कामादित्यर्थ प्रमङ्गतः पुनरपि समुश्कीतनं करियों ने मुख्यतयेति न कचिद दोष इति ॥१० ७८।। ___ शंका – भोप शनना 27 अणुसन्ध आदि है उनके कशन कार में अनुपूर्वी-आदि प्रदर्शक सूत्र मृत्रकार-फीर कहेंगे-तो फिर यह कथन कैसे संगत हो मताकि पहिले भंगममुकीर्तन किया जाता है याद मे भगो पदर्शन ?
उत्तर-" संहिया य पयं चेव पयत्यो पयविरगहो. चालणा य पमिद्वी य छव्यिहं विद्धि लकवणं' म प्रकार व्याख्यान के समय में सत्र समुच्चारित होता हुआ मी पाप कथन के अवसर पर प्रमका पुनः भी अर्थप्रतिपादन के लिये उच्चारण किया जाना है। उमी प्रकार से यहां पर भी भंगमभुमीतनता से मिद्र हाही मूत्र का भंगोपदनिता में वाच्यवाचक भाव की मुग्वपूर्वक प्रतिपत्ति के निमित्त
શંકા- ભગોપદનતામાં વચ્ચે જે ત્રિઅણુક આદિ રૂંધ છે તેમના કથનકાળ (તેમનું કથન કરતી વખતે) એ નવી આદિ પ્રદર્શક સૂત્ર સૂવાર ફરી કહેશે તે આ કથન કેવી રીતે સંગત બની શકશે કે પહેલાં ભંગસभुडीन ४६१५ छ भने त्य.२ " म ४२.५ ।
उत्त२.“ संहिया व पय चेव परयो र बगहो । चालणा य पविद्धी य यह विद्धि लकानग" मा माया प्रभागेन। व्यायान। म . જેમ સંહિતાના વ્યાખ્યાનક સૂત્ર સમુચ્ચારિત થયેલું હોવા છતાં પણ પદાર્થકથનને અવસરે અર્થનું પ્રતિપાદન કરવા નિમિત્તે ફરીથી પણ તેનું ઉચ્ચારણ કરવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે અહીં પબુ ભંગસમુત્કીર્તનતાથી સિદ્ધ થયેલા સવનું જ ભંગ પદનતામાં વાયવાચક ભાવની સુખપૂર્વક પ્રતિ
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अथ भङ्गोपदर्शनता प्रतिपादयितुमाह
मूलम् - से किं तं नेगमववहाराणं भंगोवदंसणया ? नेगमववहाराणं भंगोवदंसणया - तिपएसिए आणुपुव्वी १, परमाणुपोग्गले अणाणुपुथ्वी २, दुप्पएसिए अवत्तव्वए ३ अहवा तिपसिया आणुपुत्रीओ १, परमाणुपोग्गला अणाणुपुव्वीओर, दुप्पएसिया अवत्तव्वयाई ३ ।
अनुयोगह
अहवा तिपएसिए१य परमाणुपुग्गलेश्य आणुपुव्वी३य अणाणुपुत्री४य चउभंगो | अहवा-तिप्पएसिए१य दुप्पए सिए य आणुपुवीय अवक्तव्यए य चउभंगोटा अहवा परमाणुपोग्गले प्रसंगवश फिर से भी समुत्कीर्तन किया जावेगा मुख्य रूप से नहीं । अतः उस में कोई दोष नहीं है ।
भावार्थ-भंग समुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है यह बात सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा स्पष्ट की है। वे कह रहे हैं कि भंगसमुत्कीर्तनता का फल भंगोपदर्शनता है । मंगसरकीर्तनता में भंगों का नाम निर्देश किया जाता है । तथा भंग कितने होते हैं, यह प्रकट किया जाता है । भगोपदर्शनता में जो भंग कहे गये हैं उनका वाच्यार्थ 'यह है' यह प्रकट किया जाता है। इस प्रकर भंग समुत्कीर्तनता में कथित भंगों का भंगोपदर्शनता भंगों का दिखाने का वाच्यार्थ यह है यह प्रकट किया गया होने से भंगसमुत्कीर्तनता का फल भगोपदर्शनता है यह बात बन जाती है। सू०७८। પત્તિ (ગ્રહણ–ખાધ) કરાવવાને માટે પ્રસ ́ગવશ ફરીથી પણ સમુત્કીતન કરવામાં આવશે-મુખ્ય રૂપે નહીં તેથી તેમાં કોઇ દોષની સભાવના નથી. ભાવાય –ભંગસમુત્કીત’નતાનું શું પ્રયેાજન છે, એ વાતનુ સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા સ્પષ્ટીકરણ કર્યુ છે—તેમણે એ વાત અહીં સમજાવી છે કે ભંગસમુહીનતાનું કુલ ભગાપદનતા છે. ભગસમુત્કીનતામાં ભંગાના વાચ્યાય પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે ભગસમુત્ક્રુતનતમાં જે જે ભગા કહેવામાં આવ્યા હોય તે તે ભગાના વચ્ચેાથ પ્રકટ કરવાનું કાય ભગાપનતામાં કરવામ આવે છે તે કારણે ભંગસમુત્કીત નતાનું વ સગાપહાનતા છે, એ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. IIસૂ૦૭૮૫
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७९ भङ्गोपदर्शननिरूपणम्
३२९
यदुपए लिए य अणाणुपुव्वी य अवसव्वषय चडभंगो१२॥ अहवा तिप्पएसिए य परमाणुपोग्गले य दुप्पएलिए य आणुपुव्वी य अणापुत्रीय अवतव्य य१ । अहवा तिप्पएसिए य परमाणुपोग्गले य दुष्पपनिया य आणुपुव्वी य अणाणुपुच्ची य अवतव्वयाइं वर । अव तिप्पसिए य परमाणुपुग्गला य दुप्पएसिए य आणुवीय अणुपुवीओ य अवत्तव्वए य ३ | अहवा तिप्पदसिय परमाणुषोग्गला य दुप्पएसिया य आपुली य अणाणुपुत्रीओ य अवत्तवयाई च४ | अहवा तिप्पलिया य परमाणुपोरगले य दुप्पएसिए य आणुपुवीओ य अणाणुपुबी य अवतब २५ । अहया तिप्पसिया य परमाणुपोग्गले य दुप्पएसिया ये आओ य अणाणुपुवीय अवत्तत्वयाई व ६ अहवातिप्पपासेया य परमाणुपोग्गला य दुपएसिए य आणुपुच्चीओ य अणाणुवीय अवत्तव्वए य ७| अहवा-तिप्पएसिया य परमा
पोग्गला व दुप्पएसिया य आणुपुव्वीओ य अणाणुपुरुषओ य अवस्नयाई फटा से तं नेगमववहाराणं मंगोवदंसगया। सू०७९॥
छाया-अथ का सा नेगमपारयोः भङ्गोपदर्शना ! नैगमभ्यवहारयोः मङ्गोपदर्शनता- विदेशिक आनुपूर्वी १ परमाणुपुद्गलः अनानुपूर्वी २ द्विमदेशिक : अवक्तव्यम् ३, अथवा त्रिमदेशिका आनुपूयः परमाणुपुला भनानुपूर्व्यः द्विमदेधिकाः भवक्तव्यानि ३। अथवा त्रिदेशिक परमाणु आनुपूर्वी व अनानुपूर्वी च४ चत्वारो भङ्गाः, अथवा त्रिदेशिकम द्विपदेशिकथ आनुपूर्वी च अवक्तव्यकं च४, चत्वारो भङ्गाः, अथवा परमाणुपुद्गल, द्विपदेशिका अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकं च४ चत्वारो मङ्गाः १२ । अथवा त्रिप्रदेशिकश्च परमाणुद्गश्च द्विनदेशिका आनुपूर्वीच अनानुपूर्वीच व अवक्तव्यकं च १, अथवा त्रिमदेशिक परमाणुपुद्गल डिमदेशिकाम आनुपूर्वीच अनानुपूर्वीच अवक्तब्यकानिचर, अथवा त्रिमदेशिक परमाणुपुद्गलाब जिनदे
ज० ४२
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भनुयोगद्वारसूत्रे शिकश्च आनुपूर्वी च अनानुपूर्व्यश्च अवक्तव्यकं च ३, अथा त्रिप्रदेशिकश्च परमाणुपुद्गलाश्च द्विपदेशिकाच आनुपूर्वी च अनानुपूर्व्यश्व अवक्तव्यकानि च४, अथवा त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलथ द्विपदेशिकश्च आनुपूर्वश्च अनानुपूर्वीच अवक्तव्यकं चर, अथवा त्रिपदेशिका परमाणुपुद्गल.श्च द्विपदेशिकाश्च आनुपूर्व्यश्च अनानु. पूर्वी च अक्तव्यकानि च ६। अथवा त्रिपदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलाश्च द्विपदेशिकच
आनुपूर्वीच अनानुपूर्गश्च अक्तव्यकं च ७, अथवा त्रिप्रदेशिकाश्च परमाणुपुद्गलाश्च द्विप्रदेशिका आनुपूर्यश्च अनानुपूर्यश्च अवक्तव्यकानि च ८ सैषा नैगमव्यवहा. रयोः भङ्गोपदर्शनता ॥०७९।। ___टीम-शिष्यः पृच्छति-' से कि तं' इत्यादि । अथ का सा नैगमव्यवहा. सम्मता भङ्गोपदर्शनता ? इति। उत्तरयति-गमव्यवहारसम्मता भङ्गोपदर्शनता एवं विज्ञेया, तथाहि त्रिप्रदे शक आनुपूर्वी-त्रिमदेशिकोऽर्थ आनुपूर्वीत्युच्यतेत्रिप्रदेशिकस्कन्धलक्षणेनार्थेनानुपूर्वीति प्रथमो भङ्गको निष्पयते इत्यर्थः१। पर
अब सूत्रकार उसी भंगोपदर्शनता का प्रतिपादन करते हैं"से किं तं नेगमववहाराणं" इत्यादि।
शब्दार्थ- (से किं तं नेगमववहाराण भंगोवदंसणया ?) हे भदन्त नैगम व्यवहारनय संमत वह भगोपदर्शनता क्या है ? (नेगमववहा राणं भंगोवदंसणया )
उत्तर- नैगमव्यवहारनय संमत वह भंगोपदर्शनता इस प्रकार से हैं । (तिप्पएसिए आणुपुची १ परमाणुपुग्गले अणाणुपुन्वी २, दुप्पएमिये अवत्तव्यए ३ ) त्रिपदेशिकस्कंधरूप पदार्थ आनुपूर्वी इस शब्द का वाच्यार्थ है-अर्थात् तीन प्रदेश वाला पदार्थ आनुपूर्वी इस नाम से कहा जाता है इसलिए त्रिप्रदेशिक स्कंध रूप अर्थ से आनुपूर्वी
હવે સૂત્રકાર જ અંગે પ્રદર્શનતાનું પ્રતિપાદન કરે છે“से कि त नेगमववहाराण" त्या
हाथ-प्रश-(से कि त नेगमववहाराण भंगोपदसणया!) मान्! નૈગમ અને વ્યવહાર નયસંમત તે ભંગાપદર્શનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-( नेगमववहाराण' भंगोवदरणया) नरामया२ नयसभत ते
पहनतानु 21 (२२५३५ -(तिप्पएसिए आणुपुब्बी १, परमाणुपुग्गले अणणुपुव्वी २, दुप्पएलिए अवत्तव्वए ३,) बिहेसि २४५ ३५ પદાર્થ આનુપૂવી શબ્દને વાગ્યાર્થી છે. એટલે કે ત્રણ પ્રદેશવાળા સ્કધ રૂપ પદાર્થને “આનુપૂર્વી” આ નામે ઓળખાય છે. તેથી ત્રિપ્રદેશિક સ્કંધ રૂપે અર્થ (પદાર્થ) વડે “અનુપૂવી ' આ પ્રથમ ભંગ બને છે. પરમાણુ યુદ્દલ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७९ भङ्गोपदर्शननिरूपणम् ३३१ माणुपुद्गला अनानुपूर्वी परमाणुपुद्गललक्षणोऽर्थः अनानुपूर्वीयुच्यते, इति द्वितीयो भङ्गः। द्विप्रदेशिकः अबक्तपकम् -द्विपदेशिकस्कन्धलक्षणोऽर्थोऽवक्तव्यकमुच्यते । इति तृतीयो भङ्गः३। एकवचनपक्षे त्रयो भङ्गा उक्ताः ३। एवं बहवस्त्रिप्रदेशिकस्कन्धः लक्षणा अर्था आनुपूर्व्यः, वहवः परमाणुपुद्गरूपा अर्था अनानुपूर्व्यः बहवो द्विप्रदेशिकस्कन्धरूपा अर्था अवक्तव्यकानि। इति बहुवचनपक्षे त्रयो भङ्गाः६ । इत्थमसंयोगपक्षे षण्णां भङ्गानामर्थकथनं बोध्यम् । एवं संयोगपक्षे प्रथमद्विकयह प्रथम भंग बनता है। परमाणुपुद्गल अनानुपूर्जी अर्थान परमाणु पुद्गल रूप अर्थ अनानुपूर्वी कहलाता है-हमलिये पुद्गल परमाणु अर्थ से अनानुपूर्वो यह द्वितीय भंग बनना है । द्विप्रदेशिक स्कंध अवक्तव्यक इस शब्द का वाच्यार्य है-अर्थात् द्विप्रदेशवाला पदार्थ अवक्तव्यक इस नाम से कहा जाता है इसलिये वह अवतरक कहलाता है । यह तीसराभंग है ये ३भग एक वचन पक्ष मे कहे हैं । ( अहवा तिप्प. एसिया आणुपुवीभो १, परमाणुपोग्गला अगाणुपुथ्वीओ२, दुप्पएसिया अवत्तव्चयाई३,) इसी प्रकार बहुत त्रिप्रदेशिक स्कंधरूप पदार्थ आनुपूर्वीयों हैं । बहुत १ परमाणु पुद्गल रूप पदार्थ अनानुपूर्वीयां हैं। बहुतद्विप्रदेश क स्कन्ध रूप पदार्थ बहुत अवक्तव्यक है । इस प्रकार बहुवचन पक्षमें ये ३ तीन भंग हैं । इस प्रकार से असंयोग पक्ष में उक्त ६ भंगोका यह अर्थ અનાનુપૂર્વી રૂપ છે–એટલે કે પરમાણુ પુદ્ગલ રૂપ અર્થ (પદાર્થ) ને અનાનુપવી કહે છે. તેથી પુદ્ગલપરમાણુ રૂપ પદાર્થથી “અનાનુપૂવી” આ નામને બીજો ભંગ (ભાગો) બને છે દ્ધિપ્રદેશિક સ્કંધ “અવકતવ્યક” રૂપ શબ્દને વાર્થ છે. (દ્ધિપ્રદેશિક સકંધ આનુપૂર્વી રૂપે પણ ૦૨કત થઈ શકતું નથી અને અનાનુપૂવ ફરે પણ વ્યકત થઈ શકતું નથી, તે કારણે તેને અવક્તવ્યક કહ્યો છે, એટલે કે દ્વિપદેશિક ધને “અવક્તવ્યક” આ નામે ઓળખવામાં આવે છે, તે કારણે તેને “અવકતવ્ય” આ નામના ત્રીજા ભંગરૂપ ગણાવ્યું છે આ ત્રણે ભંગ એકવચનાત પદની અપેક્ષાએ બનાવવામાં આવ્યા છે.
(अहवा-तिप्पएसिया आणुपुबीओ १, परमाणुपोग्गला अणाणुपुवीओ २. दुप्पएसिया अवत्तव्ययाई ३,) मे प्रमाणे घर। विपशि: २१५ ३५ पहाय આનુપૂર્વીઓ રૂ૫ છે, અને ઘણું પરમાણુ યુગલ રૂપ પદાર્થો અનાનુપ વિએ રૂપ છે, અને ઘણું દ્વિદેશિક ધ પદાર્થો ઘણું અવકતવ્ય રૂપ છે. આ રીતે બહુવચન પક્ષમાં આ ત્રણ ભાગ બને છે. આ પ્રકારનું અસંગ પક્ષમાં ભાંગાબેનું કથન સમજવું એટલે કે અસરગી કુલ ૬ ભાંગા અને
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अनुयोगद्वारसूत्रे संयोगेऽपि त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः परमाणुपुद्गलश्चानुपूय॑नानुपूर्वीत्वेनोच्यते । एस. देव दर्शयति-अथवा त्रिपदेशिकश्च परमाणुपुद्गलश्च आनुपूर्वीन अनानुपूर्वी च चत्वारो भङ्गाः ४। अयं भावः-यदा त्रिप्रदेशिकस्कन्धः परमाणुपुद्गलश्च प्रतिपादयितुममोप्टो भवति, तदा ‘अत्थि आणुपुब्बी य अणाणुपुव्वी य' इत्येवं भङ्गो निष्पद्यते । एक्मन्येऽपि त्रयो भङ्गा अर्थकथनपुरस्सरा वक्तव्याः। इत्थं प्रथमकथन जनना चाहिये । संयोग पक्षमें-एकपचन और बहुवचन संबन्धी प्रथम और द्वितीय भंग को संयुक्त करने पर त्रिप्रदेशिक- एक स्कंध एक आनुपूर्वी और एक परमाणुपुद्गल एक अमानुपूर्वी का धाच्यार्थ जानना चाहिये । यही वान (अहवा तिप्पमिए । परमाणुपुग्गले य आणुपुव्वी य अणाणुगुब्बी य च उभंगो ) इन पदों द्वारा स्पष्ट की गई है। यह प्रथम चतुर्भगी का प्रथम भंग है। “आलुपूर्वी अनानुपूर्व्यः" इम द्वितीय भंग में त्रिप्रदेश बाला १. एक स्कंध और एक प्रदेश वाले अनेक पुद्गलपरमाणु वाच्यार्थरूप से निपक्षित हुए हैं । "आनुपूर्व्यः अमानुपूर्वी, इस तृतीय भंग में तीन आदि प्रदेश वाले बहुत स्कंध और १ एक प्रदेशवाला एक पुद्गलपरमाणु विवक्षित हुआ है। "आनुपूर्व्यः अनानुपूर्व्यः " इस चतुर्थ भंग में अनेक व्यादि प्रदेश वाले स्कंध और अनेक एक प्रदेश वाले पुद्गल परमाणु गच्यार्थरूप से विवक्षित हुए हैं। इस प्रकार से यह दो भगों के संयोग से उत्पन्न हुई છે, એમ સમજવું સગપક્ષમાં એકવચન અને બહુવચન સંબંધી પહેલા અને બીજા ભાગાને સંયુક્ત કરવાથી ત્રિપદેશિક એક સ્કંધ એક આનુપૂવી રૂ૫ અને એક પરમ સુપુદ્રગલ એક અનાનુપૂર્વાના વાર્થ રૂપ સમજે नये २४ वात “ अहवा तिप्पएसिए य परमाणुपुगले य आणुपुव्वी य अणाणुपुव्वी य च उभंगो" मा सूत्र५४ ६२॥ २५८ ४२२१ मा मापी छ. ॥ 43 यतुम जानो ५ मांगो छ. " आनुपूर्वी अनानुसूर्यः " मा भीon ભાંગામાં ત્રિપ્રદેશવાળો એક અંધ અને એક પ્રદેશવાળા અનેક પુદ્ગલપરभार पाच्या ३२ विवक्षित यया छ. “ आनुपूर्यः अनानुसूर्वी" मा श्रीमत ભાંગામાં ત્રણ આદિ પ્રદેશવાળા ઘણા છે અને એક પ્રદેશવાળું એક पुस ५२मा विवक्षित येत छ. “आनुपूर्व्यः अनानुपूर्व्यः " मा याथा ભાંગામાં અનેક ત્રિપદેશી આદિ ઠ અને અનેક એક પ્રદેશવાળા પુદ્ગલપરમાણુ વાચ્યાર્થ રૂપે વિવક્ષિત થયા છે. આ પ્રકારની બે અંગે (સાંગાઓના) ના સગથી ઉત્પન્ન થયેલી આ પહેલી ચતુર્ભગી છે. તેમાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ७९ भङ्गोपदर्शननिरूपणम्
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द्विकयोगे चटारो मङ्गा बोद्धव्याः ४ । एवमेव द्वितीयद्विकयोगे तृतीयद्विक योगे च चत्वारवत्वारो भङ्गा विज्ञेयाः । एवं द्वादश भङ्गाः १२ । चभंगो' इत्यत्रापत्वादेक वचनम् । त्रियोगे तु अथवा त्रिपदेशिकच परमाणुपुद् गलश्च द्विप्रदेशिवश्व आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकं चेत्यादयोऽटो भङ्गा बोध्याः । सर्वेऽपि भङ्गा अर्थकथनपुरस्सरा भावनीया: :
का क्या २ होता है यह में स्पष्ट कर दी है सो समझना चाहिये । किया । "भंगों में जो एक से
प्रथम चतुर्भागी है। इसमें चार मंत्रों का वाच्यार्थ प्रकट किया गया है। इसी प्रकार से द्वितीय डिक के योग में नारभंग और तृतीय द्विक के योग में चार भंग जानना चाहिये। उनके योग में वाच्यार्थ इन भंगों प्रथम द्विक के योग से जायमान चतुर्भागी उसी के अनुसार उन उन अंगों का वाच्यार्थ प्रकार १२ गंगों का वाच्यार्थ यहां तक प्रस्ट का प्रयोग हुआ है यह आप होने सेसन प्रदेश नाद पुरस्कंध एक प्रदेश वाला पुद्गल " अणुसंघ "अव
हुआ है । त्रि- वीके "आनुपूर्वी " इस शब्द का अनापूर्वी " इस शब्द
क्तव्यक" इस शब्द आदि आठ भंगों में
और
है इसी प्रकार से द्वितीय तृतीय वाच्यार्थ जान देना चाहिये ।
ચાર ભાંગાઓને વડ પ્રાટ કરવમાં આવ્યા છે. જ પ્રમાણે બીજા દ્વિકસયેાગમાં પશુ ચાર ભાંગા, ૨ તે વક્ત કિમચાગમાં પણ ચાર ભાંગા સમજવા જોઇએ મા દરેક ભારે વાયા વડેલી ઝિંક ચગી ચતુ शीना लःनामे उपाय अवामां आव्यो छे तो પણ સમજી લેવે; ઇએ આ वाय्यार्थ खादी सुधीमा स्पष्ट
स्पष्टी તેની મદદથી મા બે ચતુ‘ગાનાં रीते द्विसयेगी मार (१२ लगान કરવામાં આવ્યે છે.
હવે ત્રણના ચાળથી જ ભાંગાઆ બને છે તેનું आवे डे-पडेले लांगो-त्र प्रदेश. युद्धभु६ “ વાચ્યાધ રૂપ, એક પ્રદેશવાળુ એક પુગલપરમાણુ વા રૂપ અને એ પ્રદેશવાળા સ્કંધ રૂપ સમજવા,
"
66 અવક્તવ્યક "9
સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં
આનુપૂ
"3 શબ્દના
અનાનુપૂર્વી " શબ્દના
શબ્દના વાધ્યાય
.
એજ પ્રમાણે બેથી લઈને આઠ પર્યન્તના ભાંગાના વાચ્યા પણ
સમજી લેવા.
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ફેષ્ઠ
अनुयोगद्वारसूत्रे
ननु - आनुपूर्व्यादिपदानां व्यणुरुस्कन्धादिकोऽर्थः अर्थपद प्ररूपण तालक्षणे प्रथमद्वारे उक्त एत्र तस्किमनेन पुनरुक्तेन ? इति चेत्, उच्यते तत्र पदार्थमात्रमुक्तम्, इह तु तेषामेवानुपूर्व्यादिपदानां भङ्गकरचना समादिष्टानामर्थः मोच्यते इवि नास्ति कश्चिद् दोषः । यद्वा-नयमतवैचित्र्यप्रदर्शनार्थं वा पुनरथपदर्शनं कृतमिति नास्ति कश्चिद् दोष इत्यलमधिकोक्त्या । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - ' से तं' इत्यादि । सैषा नैगमव्यवहारसम्मता भङ्गोपदर्शन तेति ||०७९॥
शंका- इन आनुपूर्वी आदि पदों का व्यणुक आदि रूप वाच्यार्थ अर्थ पद प्ररूपणता रूप प्रथम द्वार में कह ही दिया गया है। फिर इस पुनरुक्त कथन से क्या लाभ ?
उत्तर— अर्थप्ररूपणना में पदार्थ मात्र कहा गया है-तबकि यहां पर उन्ही आनुपूर्वी आदि पोंका की जो भंगरचना द्वारा स्पष्ट किये गये हैं अर्थ कहा गया है। अतः यहां पुनरुक्ति दोष नहीं है । अथवा नयनत की विचित्रता दिखलाने के लिये पुनः अर्थ कथन किया गया है। इस प्रकार यह कथन सर्वधा निर्दोष है । इस विषय में अब अधिक क्या कहें । ( से तं नेगमववहाराणं भंगोवदंसगया ) इस प्रकार से नैगम व्यवहारनय संमत यह भंगोपदर्शनता है
भावार्थ- मंगसमुत्कीर्तना द्वारा निर्दिष्ट हुए भंगो का इस भंगोपदजनता में अर्थ का कथन किया जाता है। इनका कौन २वाच्यार्थ है यह बात શકા-મા આનુપૂર્વી આદિ પદોને ત્રિઅણુક આદિ ३५ વાગ્યાથ અપદ પ્રરૂપશુતા રૂપ પહેલા દ્વારમાં કહી દેવામાં આવ્યે છે. છતાં અહી’ તેનુ' ફરીથી કથન શા માટે કરવામાં આવ્યું છે ?
ઉત્તર-અ પદપ્રરૂપણુતામાં માત્ર પદાર્થનું જ પ્રતિપાદન કરાયુ છે. પરન્તુ અહીં તે ભંગરચના દ્વારા સ્પષ્ટ કરાયેલા એજ આનુપૂર્વી આદિ પઢાના અથ કહેવામાં આવ્યે છે તેથી અડી' પુનરુતિષને સ'ભવ રહેતા નથી અથવા નયમતની વિચિત્રતા બતાવવાને માટે અનુ ફરીથી કથન કરવામાં આવ્યું છે. આ રીતે આ કથન બિલકુલ નિર્દોષ જ છે. આ વિષमां वे अधिक डेवानी ४३२ रडेती नथी. ( से तं नेगमववहाराणी भंगोबसणया ) मा प्रहारनी नैगम अने व्यवहार नयसभित या अगोदर्शनता छे. ભાવાય –ભગસમુત્કીત નતા દ્વારા નિર્દિષ્ટ થયેલા ભંગે ના અનુ કથન આ ભંગાપદશનામાં કરવામાં અવ્યુ છે તેમના કયા કયા વાગ્યાથ થાય છે એ વાત શાખ્યામાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. અપપ્રરૂપશુતામાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८० समवतारस्वरूपनिरूपणम् अथ क्रमप्राप्त सगवतार प्ररूपयति
मूलम्-से किं तं समोयारे? समोयारे-नेगमववहाराणं आणुपुत्वीदवाई कहिं समोयरंत? किं आणुपुत्बोदव्वेहिं समोयरंति? अणाणुपुत्वीदवहिं समोयरंति? अवत्तवयदत्वहिं समोयरंति ? नेगमयवहाराणं आणुपुत्वीदवाई अणाणुपुबीदवेहिं सनोयरंति नो आणुपुत्वीदवेहिं समोयरंति णो अवत्तवयदत्वेहिं समोचरंति। नेगनववहारागं अणाणुपुत्वीदवाइं कहिं
समोयरंति? किं आणुपुत्वीदवहिं समोयरंति ? अणाणुपुवी दवहिं समोयति ? अवत्त वरदवहिं समोयरंति ?, नो आणु. पुवीदवेहिं समोयरंति अणाणुपुत्वोदवे हे समोयरंति, नो अवतवयदल्वेहिं समोयरंति । नास्यवहाराणं अवत्तव्यदबाई कहिं समोयरंति ? किं आणुएवीदवेहि समोयरांति? अगाणुपुबीदवहिं समोयरंति ? अवत्तवयदवेहिं समोयरंति? नो आणुपुबीदव्वहिं समोयरांति,णो अणाणुपुयीदव्यहिं समोयरंति अपत्नव्वयदव्वेहि समोयरंति। से तं सगोगारे ॥सू०८०॥ ।
छाया-अथ कोऽसौ ममलार: ? यावतार:-नामव्यवहारयोः आनुपर्नीद्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति?, किम् आनुपूर्वीद्रव्येषु समक्तरन्ति ? अनानुपूर्वीद्रव्येषु समातरन्ति ? अवक्तव्यको समरनन्दि ? नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अबक्तव्यक द्रव्येषु समवतरन्ति । नामव्यहार योः अनानुपूर्वीद्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? व्याख्या में स्पष्ट की गई है। अर्थपद प्ररूपणता में केवल अर्थपदरूप पदार्थ का कथन है-तय कि इसमें भिन्न २ रूपसे कथित भंगोका अर्थ है। इसलिए पुनरुक्ति दोष के लिये यहां स्थान नहीं है । सू० ७॥ તે કેવળ અર્થપદ રૂપ પદાર્થનું જ કથન થયું છે, પરંતુ ભગો પદર્શનતામાં તે ભિન્ન ભિન્ન રૂપે કથિત અંગેના અર્થનું કથન થયું છે તેથી અહી પુનરુકિત દેષને સંભવ નથી, છે સૂ૭
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अनुयोगद्वारसूत्रे किम् आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानुपूर्वी द्रव्येषु समातरन्ति ? अवक्तव्यक द्रव्येषु समवतरन्ति? नो आनुपूर्वीद्रव्येषु समक्तरन्ति, अनानुपूर्वी द्रव्येषु समवतरन्ति, नो अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति । नैगमव्यवहारयोः अवक्तव्यकद्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किम् आनुपूर्वी द्रव्येषु समक्तरन्ति? अनानुपूर्वी द्रव्येषु समकतन्ति ? अवक्त.व्यवद्रव्येषु समवतरन्ति ? नो आनुपूर्वी द्रव्येषु समवनरन्ति, नो अनानुपूर्वी द्रव्येषु समवतरन्ति, अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति । स एप समस्तारः ॥मू०८०॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ समवतारः? इति शिष्य प्रश्नः। उतरयति-समवता:-समयतरणं समवतार:=समावेशः तेषायेवानुः दिव्याणा स्वस्थानपरस्थानान्तर्भावचित्नपकारः, स एवं विज्ञेयः-प्रया-नगाव्यवसायोः आनुपूर्वी द्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? नैगमव्यवहारसम्मनानि आनुपूर्वी द्रव्याणि कुत्र समाविशन्ति ? किम् आनुपूर्वीद्रव्येषु समस्तरन्ति ? किननानुपूर्वीद्रव्येषु ? किंवाऽवतव्यक द्रव्येषु ?
अव सत्रकार समवतार की प्ररूपणा करते हैं
"से कि तं समोयारे" इत्यादि । (से कितं समोयारे) हे भदंत! पूर्व प्रकान्त समपतार का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- ( समोपारे ) पूर्वकाल समवतार का स्वरूप इस प्रकार से है-समवतार का तात्पर्य समावेश है-अर्थात् अनेक आनुपूर्भ
आदि जो द्रव्य हैं इनका अन्तर्भाव स्वस्थान में होता है या परस्थान में होता है इस प्रकार के चिन्तन प्रकार का - विचार का जो उत्तर है घही समावेश- या समवतार है। यह विचार इस प्रकार से होता है कि-( नेगमववहाराणं आणुपुची दवाई-कहिं समोयरंति, किं आणु. पुन्धी व्वेहि समोयरंति अणाणुपुव्धी दवेkि समोयरंति ?)
હવે સૂત્રકાર સમવતારની પ્રરૂપણ કરે છે“से कि त समोयारे" त्याह
शहाथ-(से किं त' समोयारे ?) ३ सन् ! 'प्रस्तुत सभपतानु २१३५ छ ?
उत्तर-(समोयारे) सभपता२२१३५नीय प्रभारी छ-समवतार समावेश એટલે કે અનેક આનુપૂર્વી આદિ જે દ્રવ્ય છે તેમને અંતર્ભાવ સ્વસ્થાનમાં થાય છે કે પરસ્થાનમાં થાય છે, આ પ્રકારના ચિન્તનને-વિચારને જે ઉત્તર છે તેને જ સમવતાર અથવા સમાવેશ કહે છે તે વિચાર આ પ્રમાણે થાય -(नेगमववहाराण भाणुपुत्वी दवाई कहिं समोयरंति ! किं माणुपुब्बी
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८० समवतारस्वरूपनिरूपणम् ३३० इति त्रिविधः प्रश्नः। उत्तरमाह-नेगमववहाराणं' इत्यादि । नेगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु, न गा. ऽवक्तव्यकद्रव्येषु । अयं भावः-आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वी द्रव्यलक्षणायां स्व. जातावेव वर्तन्ते, न ततोऽन्यत्र । यतः समवतारः-सम्यगविरोधेन अवतरणंवर्तनम्-अविरोधवृत्तिता पोच्यते । अविरोधवृत्तिता च स्वजातावेव स्यात् , न त परजातौ । तस्याः परजातित्तित्वे विरोधात् । ततश्च नानादेशवृत्तीनि सर्वायनैगम और व्यवहारमय-संमत जो आनुपूर्वी द्रव्य है वे कहां समाविष्ट होते हैं? क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं या अनानुपूर्वी द्रव्यों में ? या ( अवत्तव्यदधेहि समोयरंति) प्रवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? (नेगम ववहारणं आणुपुवी दव्वाई अणाणुपुग्यो दव्वेहिं समोयरंति )
उत्तर- नैगम व्यवहारनय संमत जो आनुपूर्वी द्रव्य हैं वे आनुः पूर्वी द्रव्यों में ही समाविष्ट होते हैं ( नो अणाणुपुच्चीदवेहिं समोय. रंति नो अवत्तव्वयदव्वेहि समोयरंति) अनानुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट नहीं है और न अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं। इसका भाष यह है-कि समस्त आनुपूर्वी द्रव्य, विना किसी विरोध के अपनी जाति में ही रहते हैं दूसरी जाति में नहीं । विना विरोध के अपनी जाति में रहना इलो का नाम समवतार समावेश, अविरोधवृत्तिता है। यह दव्वेहिं समोयरंति, अणाणुपुव्वी व्वेहिं समोयरंति) नैसम भने यहार નયસંમત જે આનુપૂવ દ્રવ્ય છે તેમને કયાં સમાવેશ થાય છે? શું આનુપૂર્વી દ્રમાં સમાવેશ થાય છે, કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોમાં સમાવેશ याय छ १ ५24 (अवत्तव्वयवेहिं समोयरंति ) अपतय: द्र०योमा सभा. वेश थाय छ १ (नेगमयवहागण आणुपुत्वीदव्वाई आणुपुब्बीदव्येहि समोयरंति) उत्तर-नाम भने ०५१७२ नयभत २ भानु द्रव्ये, तेमनी मानुषी द्रव्यमान समावेश थाय , ( नो अणाणुपुची दम्बेति समोयरंति, नो अवत्तव्ययवेहिं समोयरंति ) मनानुषी द्रव्योमा समावेश પણ થતું નથી અને અવકતવ્ય દ્રવ્યોમાં પણ સમાવેશ થતો નથી આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે–
સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય કોઈ પણ જાતના વિરોષ (અવરોધ) બ્રિા પિતાની જાતિમાં રહે છે–બીજી જાતિમાં રહેતા નથી કેઈ પણ પ્રકારના વિરોધ વિના પિતાની જાતિમાં રહેવું તેનું જ નામ સમવતાર અથવા સમા
म० ४३
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____ अनुयोगद्वारसूत्रे भविरोध वृत्तिता अपनी जाति में ही हो सकती है दूसरी जाति में नहीं । आनुपूर्वी द्रव्योंका समवतार यदि पर जाति में भी माना जावेगा तो इस प्रकार परजाति में रहने पर उनमें स्वजाति में रहने की अविरोध वृत्तिता नहीं बन सकेगी । इसलिये यह निश्चित सिद्धान्त है-कि नाना देशवर्ती समस्त आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यरूप अपनी जाति में ही रहते हैं। परजाति में नहीं। ( नेगमववहाराणं अणाणुपुत्वाई कहिं समोयरंति किं आणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति ? अणाणुपुत्वी दवे. हिं समोरंति ? अवत्तव्वयव्वेहि समोयरंति) नैगम व्यहारनय संमत समस्त अनानुपूर्वी द्रव्य कहां प्रविष्ट होते हैं ? क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं, या अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ?
उत्तर- ( नो आणुपुत्वीदवेहिं समोयरंति, अणाणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति, नो अवत्तव्वयव्वेहिं समोयरंति ) जितने भी अनानुपूर्वी द्रव्य है- वे सघन तो आनुपूर्वी द्रव्यों में रहते हैं, और न अवक्तव्यक द्रव्यों में रहते हैं, किन्तु अपनी जाति रूप जो अनानुपूर्वी द्रव्य है उनमें ही रहते हैं । इसी प्रकार से जितने भी नैगमव्यवहार नय संमत अवक्तવેશ અથવા અવિરોધવૃત્તિતા છે. આ અવિરધવૃત્તિતાને સદ્ભાવ પિતાની જાતિમાં જ હોઈ શકે છે–અન્ય જાતિમાં હોઈ શક્યું નથી આનુપૂવ દ્રવ્યને સમવતાર (સમાવેશ) જે પર જાતિમાં પણ માનવામાં આવે તે આ રીતે પર જાતિમાં રહેવાથી તેમનામાં સ્વજાતિમાં રહેવાની અવિરાધવૃત્તિતા સંભવી નહીં શકે તેથી એ નિશ્ચિત સિદ્ધાંત છે કે વિવિધ દેશવતી સમસ્ત આનુપૂવ દ્રવ્ય આનુર્વા દ્રવ્ય રૂપ પિતાની જાતિમાં જ રહે છે५२तिभा २२तुनी .
(नेगमववहाराण' अणाणुपुव्वाइ कहिं समोयरंति किं आणुपुथ्वी दव्वेहि समोयरंति ? अणाणुपुव्वी व्वेहि समोयरंति ? अबत्तव्ययपव्वेहि समोयरंति!) બેગમ અને વ્યવહાર નયસંમત સમસ્ત અના પૂર્વ ક્યાં પ્રવિષ્ટ થાય છે? શું તેઓ આનુપૂર્વી દ્રવ્યોમાં સમાવિષ્ટ થાય છે કે અનાનુપૂવી દ્રવ્યોમાં સમાવિષ્ટ થાય છે, કે અવકતવ્યક દ્રવ્યોમાં સમાવિષ્ટ થાય છે?
उत्तर-(नो आणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति, अणाणुपुव्वीदव्वेहिं समोय. रंति, नो अवत्तव्वयव्वेहि समोयरंति ) २ai मानानु द्रव्य छ, तमा આનુપૂવી દ્રવ્યોમાં પણ રહેતાં નથી, અવકતવ્યક દ્રવ્યોમાં પણ રહેતાં નથી, પણ તેમની જાતિ ૩૫ જે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય હોય છે તેમાં જ રહે છે. એજ પ્રમાણે નિગમવ્યવહારનય સંમત જેટલાં અવકતવ્યક દ્રવ્ય છે તેને
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र ८१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
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ध्यानुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येष्वेव वर्त्तन्ते नान्यत्रेति । एवं नैगमव्यवहारसम्म - तानि अनानुपूर्वी द्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्येष्वेव वर्त्तन्ते, नैगमव्यवहारसम्मतानि अवक्तव्यकद्रव्याणि च अवक्तव्यकद्रव्येष्वेव वर्त्तन्ते इश्यपि भावनीयम् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - स एष समवतार इति ॥ ८० ॥
,
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अथानुगमं निरूपयितुमाह
मूलम् - से किं तं अणुगमे ? अणुगमे नवविहे पण्णत्ते ? तं जहा संतपयपरूवणया १ दव्वप्यमाणं २च खित्त३ फुसणा य४ । कालो य ५ अंतरं ६ भाग ७ भाव ८ अप्पा बहुं ९ क्षेत्र ॥१॥
से तं अणुगमे ॥सू०८९॥
छाया- - अथ कोऽसौ अनुगमः ? अनुगमो नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सत्पद प्ररूपणता १ द्रव्यमाणं च २ क्षेत्रं ३ स्पर्शना च ४ । कालश्च ५ अन्तर ६ भागो७ भावः ८ अल्पबहुत्वं चैत्र ||१|| स एषोऽनुगमः ॥० ८१ ॥
sun द्रव्य हैं वे सब अपनी जातिरूप अवक्तव्यक द्रव्यों में ही रहते हैं। ऐसा अर्थ अवशिष्ट पाठ को लगा लेना चाहिये। इस प्रकार यह समवतार का स्वरूप है ?
भावार्थ - आनुपूर्वी अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक जितने भी द्रव्य हैं उनके विषय में ये तीन प्रश्न हो सकते हैं कि आनुपूर्वी आदि समस्त द्रव्य कहां रहते हैं ? | अपनी जावालों में ही रहते हैं-या भिन्न जाति वोलों में रहते हैं। इनका ही समाधान सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा किया है । उसमें यह कहा गया है कि नैगमव्यहारसंमत समस्त आनुपूर्वी आदि द्रव्य अपनी २ जाति में ही रहते हैं-भिन्न जाति में नहीं । । सृ० ८० ॥
પણ પેાતાની જાતિ રૂપ અવકતવ્યક દ્રવ્યેામાં જ રહે છે; એવા મથ બાકીના પાઠના વિષયમાં સમજી લેવા જોઇએ આ પ્રકારનું સમવતારનું સ્વરૂપ છે. ભાવાથઆનુપૂર્વી, અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક રૂપ જેટલાં દ્રવ્યે છે, તેમને વિષે આ ત્રણ પ્રશ્ન સભવી શકે છે-આનુપૂર્વી આદિ સમસ્ત દ્રવ્ય કયાં રહે છે ? શું તેએ પેતાની જાતિવાળામાં જ રહે છે, કે ભિન્ન જાતિવાળામાં રહે છે? સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં આ પ્રશ્નોનું જ સમાધાન કર્યુ” છે. તેમણે આ સૂત્રમાં એ વાતનુ પ્રતિપાદન કર્યું છે કે નૈગમવ્યવહારનય. સંમત સમસ્ત આનુપૂર્વી આદિ દ્રશ્ય પોતપેાતાની જાતિમાં જ રહે છે-ભિન્ન જાતિમાં રહેતાં નથી. ાસુ૦૮૦ના
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अनुयोगद्वारसूत्रे ____टीका-शिष्यः पृच्छति-से किं तं' इत्यादि। अथ कोऽसौ अनुगम ? इति । अनुगमः-सूत्रार्थस्य अनुकूलम् अनुरूपं वा गमनं व्याख्यानम्-अनुगमः । स नवविधानवपकारकः प्रज्ञप्ता=प्ररूपितः, तद्यथा-सत्पदमरूपणता-सन् विद्यमानो योऽर्थः=भावस्तद्विषयं पदं सत्पदं तस्य प्ररूपणं प्रज्ञापनं तदेव सत्पदमरू. पणता प्रथमं कर्त्तव्या। अयं भावः-स्तम्भकुम्मादीनि पदानि सदर्थविषयाणि दृश्यन्ते, शशशङ्गगगनकुमुमादीनि पदानि स्वसदर्थविषयाणि दृश्यन्ते । तत्रानु
अब सूत्रकार अनुगम का निरूपण करते हैं"से किं तं अणुगमे ?" । इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किंतं अणुगमे ?) हे भदन्त ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? उत्तर-(अणुगमे नवविहे पण्णत्ते) अनुगम नौ प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे-(संतपयपवणया) १ सत्पद-प्ररूपणता (दव्यप्पमाणं च) २ द्रव्यप्रमाण (खित्त ३ फुमणाय ४)३ क्षेत्र४ स्पर्शन (कालोय, अंतर, भाग भाव अप्पायहु चेव ) ५ काल ६ अन्तर , ७ भाग ८ भाव और ९ अल्पबहुत्व । (से तं अणुगमे ) इस प्रकार यह अनुगम का स्वरूप है। सूत्र के अनुकूल अथवा अनुरूप व्याख्यान करना इसका नाम अनुगम है । यह पूवोंक्त रूप से नौ प्रकार का कहा गया है। सत्पदप्ररूपणतारूप १ प्रथम अनुगम के भेद में यह प्ररूपित किया जाता है कि जिस प्रकार से शशशृङ्ग आदि पद असदर्थ को विषय करने वाले
હવે સૂત્રકાર અનુગામનું નિરૂપણ કરે છે– " से किं त अणुगमे ?" त्याह
साथ-( से किं त अणुगमे ? ) 3 मापन ! पूप्रस्तुत अनुगमन २१३५ ३ छ?
उत्तर-(अणुगमे नवविहे पण्णत्ते-त' जहा) मनुगमना नाय प्रमाणे न ४२ ४ा छे-(संतपयपरूवणया) (१) सर५६ ५३५ता , (दव्व:पमाण' च) (२) द्र०यमा, (खित्त ३ फुसणा य४ (3) क्षेत्र, (४) २५शन, (कालो य, अंतर, भाग, भाव, अप्पाबहुंचेव) (५) , (६) मन्त२, (७) मार, (८) साव, भने (6) अमत्व.
(से त' अणुगमे ) मा प्रा२नु अनुगमनु २१३५ छे सूत्रन अनुज અથવા અનુરૂપ વ્યાખ્યાન કરવું તેનું નામ અનુગમ છે તેને ઉપર મુજબ નવ પ્રકાર કહ્યા છે. સત્યપ્રરૂપણુતા રૂપ અનુગામના પ્રથમ ભેદમાં વિદ્યમાન પદાર્થવિષયક પદની પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે સસલાને શિગડ લેવાની
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् पूर्वादिपदानि स्तम्भादि पदानीव सदर्थविषयाणि, किं वा शशशृङ्गादिपदानीव अपदर्थविषयाणि ? इति पर्यालोचनीयमिति ।१। तथा-द्रव्यप्रमाणम् =आनुपूादि. पदवाच्यानां द्रव्याणां प्रमाण संख्यास्यरूपं पालोचनीयम् ।२। च पुनः क्षेत्रम् = आनुपूादिपदवाच्यद्रव्याणाम् अाधारस्वरूपं वक्तव्यम् । किरति क्षेत्रे तानि भवन्तीति चिन्तनीयमिति भावः।३। तथा-स्पर्शना च पर्यालोचनीया। तानि द्रव्याणि कियत् क्षेत्रं स्पृशन्तीति चिन्तनी मिति भावः ।४। तथा-कालश्च वक्तव्यःहोते हैं, उस प्रकार से ये आनुपूर्वी आदि पद असदर्थ विषयक नहीं हैं किन्तु जिस प्रकार स्तम्भ आदि पद स्तम्भ आदिरूप अपने वास्तविक अर्थ को विषय करने वाले होते हैं उसी प्रकार से आनुपूर्वी आदि पद यथार्थरूपसे अपने सदर्थ को विषध करने वाले हैं। इस प्रकार विद्यमान पदार्थ विषयकपद की प्ररूपणा का नाम मत्ादप्ररूपणता है। यह सत्पदप्ररूपणा अनुगम करते समय प्रथम कर्तव्य होती है। इसलिये उसे अनुगम के भेदों में प्रथम स्थान दिया गया है । द्रव्य प्रमाण में आनु. पूर्वा आदि पदों के द्वारा जिन द्रव्यों को कहा जाता है उनकी संख्या कितनी है इसका विचार होता है ? क्षेत्र में-आनुपूर्वी आदि पदों द्वारा कथित द्रव्यों का आधाररूप क्षेत्र विचारित होता है-अर्थात् ये आनुपूर्वी आदि द्रव्य कितने प्रमाण क्षेत्र में होते हैं ऐसा विचार किया जाता है। स्पर्शन में ये आनुपूर्वी आदि द्रब्य कितने क्षेत्र को स्पर्श करते हैं પ્રરૂપણ કરવી તે અસદઈ પ્રરૂપણા છે, કારણ કે તેને શિંગડાં જ હતાં નથી પરંતુ આનુપૂર્વી આદિ પદ અસદર્થ વિષયક લેતા નથી પણ સદર્થ વિષયક હોય છે. જેવી રીતે સ્તન્ન આદિ પદ સ્તભ અ.દિ રૂ૫ પિતાના વાસ્તવિક અર્થને વિષય કરનારા (પ્રતિપાદન કરનારા) હોય છે, એજ પ્રમાણે આનુપૂર્વી આદિ પદ યથાર્થ રૂપે પોતાના દર્થને વિષય કરનારા હોય છે. આ રીતે વિદ્યમાન પદાર્થવિષયક પદની પ્રરૂપણનું નામ “સત્યદકરૂપતા ” છે, આ સત્પદપ્રરૂપણ અનુરામ કરતી વખતે પહેલાં કરવા યોગ્ય હોય છે. તેથી તેને અનુગામના ભેમાં પહેલું સ્થાન આપવામાં આવ્યું છે. ૧
દ્રવ્ય પ્રમાણમાં એ વિચ ૨ કરવામાં આવે છે કે આનુપૂર્વ આદિ પદે દ્વારા જે દ્રવ્યોનું કથન કરવામાં આવે છે તેમની સંખ્યા કેટલી છે. ૨
ક્ષેત્રમાં-આનુપૂવ અ દિ પદે દ્વારા કથિત દ્રવ્યના આધારરૂપ ક્ષેત્રને વિચાર કરવામાં આવે છે–એટલે કે એ આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય કેટલા પ્રમાસુવાળા ક્ષેત્રમાં હોય છે, એ વિચાર કરવામાં આવે છે. ૩.
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अनुयोगद्वारसूत्रे तेषां द्रव्याणां स्थितिलक्षणः कालश्च प्ररूपणीयः॥२॥ तथा-अन्तरं वक्तव्यम् । विवक्षितस्वभावपरित्यागे सति पुनस्तद्भावमाप्तिविरहलक्षणमन्तर प्ररूपणीयमिति भावः। द्रव्यस्य विवक्षितस्वभावपरित्यागे सति पुनस्तद्भावमाप्तौ च मध्ये यः कालः सोऽन्तरमुच्यते, इति बोध्यम् । ६॥ तथा-भागश्च वक्तव्यः। आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषव्याणां कस्मिन् भागे वर्तन्ते, इत्येवं भागः प्ररूपणीय इति भावः ॥७॥ तथा भावः प्ररूपणीयः। आनुपूर्वीद्रव्याणि कस्मिन् भावे वर्तन्ते इत्येवं रूपो भावो वक्तव्य इत्यर्थः ।।८॥ तथा-अल्पबहुत्वं चैवचापि वक्तव्यम् । आनुपूर्व्यादिद्रव्याणां ऐसी पर्यालोचना होती है । क्षेत्र में केवल आधारभूत आकाश ही लिया जाता है और स्पर्शनता में आधार क्षेत्र के चारों तरफ के आकाश प्रदेश जो आधेय के द्वारा छुये गये हों वेभी लिये जाते हैं। आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की स्थिति का विचार यह काल है । अनुगम में आनुपूर्वी आदि द्रव्यों कि स्थिति कितनी है इस बात की पर्यालोचना की जाती है अन्तर नाम विरह काल का है। विवक्षित पर्याय के परित्याग हो जाने पर पुनः उसी पर्याय की प्राप्ति होने में जो बीच में अन्तर पडता है उसका नाम विरह काल है । अनुगम में इस अन्तर की प्ररूपणा करना आवश्यकीय माना गया है। आनुपूर्वी द्रव्यशेष द्रव्यों के किस भाग में रहते हैं इस प्रकार के भाग की भी प्ररूपणा अनुगम में कर्तव्य होती है ओनुपूर्वी आदि द्रव्य किस भाव में रहते हैं इस प्रकार की प्ररूपणा का नाम भाव है। न्यूनाधिकता | સ્પર્શન અનુગમમાં એવો વિચાર કરવામાં આવે છે કે તે આનુપૂવ આદિ દ્રવ્ય કેટલા ક્ષેત્રનો સ્પર્શ કરે છે ક્ષેત્રમાં કેવળ આધારભૂત આકાશ જ લેવામાં આવે છે અને સ્પર્શનામાં આધાર ક્ષેત્રની ચાર તરફના જે આકાશ પ્રદેશ અધેય દ્વારા સ્પષ્ટ થયા હોય, તેમને પણ લેવામાં આવે છે આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યોની સ્થિતિને વિચાર કરે તેનું નામ કાળઅનુગમ” છે. કાળઅનુપમમાં આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યોની સ્થિતિ કેટલી છે, એ વાતની પર્યાલેચતા (વિચારણ) કરવામાં આવે છે વિરહકાળને અન્તર કહે છે. વિવક્ષિત (અમુક) પર્યાયને પરિત્યાગ થઈ ગયા બાદ ફરીથી એજ પર્યાયની પ્રાપ્તિ થવામાં વચ્ચે જેટલું અન્ડર પડે છે તેટલા અન્તરને વિરતકાળ કહે છે. અનુગમમાં આ અખ્તરની પણ પ્રરૂપણ કરવાનું આવશ્યક ગણાય છે.
આનુપૂવી દ્રવ્યો શેષ (બાકીના) દ્રવ્યના કયા ભાગમાં રહે છે, તે પ્રકારના ભાગની પણ પ્રરૂપણા અનુગામમાં કરવી પડે છે. ૭ આનુપૂર્વી આદિ દ્વવ્યો કયા ભાવમાં રહે છે, તે પ્રકારની પ્રરૂપણાનું નામ ભાવઅનુગમ છે. જૂનાયિકતાનું નામ અ૫હત્વ છે દ્રવ્યાર્થિક નયને આધારે, પ્રદેશાર્થતાને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८२ सत्पद्प्ररूपणानिरूपणम्
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द्रव्यार्थताऽऽश्रयणेन प्रदेशार्थताऽऽश्रयणेन तद्भयार्थताऽऽश्रयणेन च परस्पर स्तोक बहुत्वचिन्तालक्षणम् अल्पबहुत्वं चाऽपि प्ररूपणीयमिति भावः ॥ ९ ॥ प्रकृतमुपसंहरन्नाह - ' से तं' इत्यादि । स एष अनुगम इति ॥ ०८१ ॥
इत्थं संक्षेपतोऽर्थमभिधाय विस्तरेणार्थमभिधातुकामः सूत्रकारोऽनुगमस्य नवसृ भेदेषु सम्पदप्ररूपणारूपं प्रथमं भेदमाह
मूलम् - नेगमववहाराणं आणुपुथ्वीव्वाइं किं अस्थि नत्थि ? णियमा अस्थि, नेगमववहाराणं अणःणुपु०वी दव्वाई कि अस्थि णत्थि ?, णियमा अस्थि, नेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाई किं अस्थि णत्थि ? णियमा अस्थि || सू०८२ ॥
का नाम अल्पबहुत्व है । द्रव्यार्थिकनय के आश्रय से प्रदेशार्थता के आश्रय से और तदुभय-द्रव्यार्थिक प्रदेशार्थिक इन दोनों के आश्रय से इन आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में जो स्तोक बहुत का विचार है वही अल्पबहुत्व है । अनुगम में इस अल्पबहुत्व की भी प्ररूपणा कर्तव्य होती है । (सेतं अणुग मे ) इस प्रकार यह अनुगम का स्वरूप है ।
भावार्थ- सूत्रार्थ के अनुकूल अथवा अनुरूप व्याख्यान का नाम अनुगम है । इस अनुगम में इन नौ ९ विषयों का विचार किया जाता है । इसलिये वह अनुगम सत्पद प्ररूपणा आदि के भेद से नौ प्रकार का कहा गया है। इन सत्पद प्ररूपणता आदि का क्या स्वरूप है इसे स्वयं सूत्रकार विस्तार से आगे सूत्रों द्वारा स्पष्ट करते हैं। ।। सू० ८१ ॥
આધારે અને તદુભય (તે બન્ને) દ્રષ્યાયિક અને પ્રદેશાર્થિક એ બન્નેને આધારે આ આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યેામાં જે અલ્પત્વ અને બહુત્વને વિચાર કરવામાં આવે છે તેનું નામ જ અલ્પખત્વ અનુગમમાં આ અબહુत्वनी अ३५था पछु ४२वा योग्य गाय छे ( से त अणुगमे ) मा अमानु અનુગમનુ' સ્વરૂપ છે.
ભાવા -સૂત્રાને અનુકૂળ અથવા અનુરૂપ વ્યાખ્યાનનું નામ અનુગમ છે. તે અનુગમમાં ઉપયુંકત ન વિષયેના વિચાર કરવામાં આવે છે, તેથી તે અનુગમમાં સત્પદ પ્રરૂપણા આદિ નત્ર ભેદ કહ્યા છે આ સપદ પ્રરૂપણા આદિન! સ્વરૂપનું' વિસ્તાર પૂર્વકનું નિરૂપણ સૂત્રકાર પેનેે જ માગળના સૂત્રમાં કરવાના છે, તેથી અહી’તેને ભાવા સક્ષિપ્તમાં આપવામાં આવ્યે છે.ાસૂા
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भनुयोगदारसूत्रे छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वोद्रव्याणि किं सन्ति न सन्ति ? नियमात्. सन्ति । नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वी द्रव्याणि किं सन्ति न सन्ति ? नियमात् सन्ति। नेगमव्यवहारयोः अवक्तव्यद्रव्याणि किं सन्ति न सन्ति ? नियमात् सन्ति।सू०८२॥
टीका-'नेगमववहाराणं' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा सू०८२॥
इस प्रकार संक्षेप से मत्पदनरूपणा आदि का अर्थ कहकर अब सूत्रकार विस्तार से उनका अर्थ कहने की इच्छा से अनुगम के नौ भेदों का कथन करते हैं-'नेगमववहाराण' इत्यादि।
शब्दार्थ-(नेगमववहाराणं जाणुपुच्चीदवाई किं अस्थि नत्थि ?) नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी अव्य क्या है या नहीं हैं ?
(णियमा अस्थि ) उत्तर-अवश्य हैं। ( नेगमववहाराणं अणाणुपुच्ची व्वाइं कि अस्थि स्थि? ) नेगम व्यवहारनयसंमत अनानुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं हैं ? उत्तर-(णियमा भत्थि ) नियम से हैं-अवश्य २ हैं(नेगमववहाराणं अवत्तव्वागवई किं अस्थि ? णस्थि ?-णियमा अस्थि ) नैगम व्यवहारानय संमत अवताव्यक द्रव्य हैं या नहीं हैं ?
उत्तर-नियमतः हैं।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्रद्वारा नैगम व्यवहारनय संमत आनु. पूर्वी आदि द्रव्य हैं ? यह बात नियमपद से जोर के साथ प्रकट की है
આ પ્રમાણે અનુગામના સત્પદપ્રરૂપણ આદિ ભેદોનો અર્થ સંક્ષિપ્તમાં સમજાવીને હવે સૂત્રકાર તે નવે ભેંકોનો અર્થ વિસ્તારપૂર્વક સમજાવવા માગે છે. તેથી તેઓ સત્પદપ્રરૂપણુતા રૂપ તેના પ્રથમ ભેદનું નીચેના સૂત્ર દ્વારા नि३५ ४२ छे-“ नेगमववहाराण" ध्या
सहाय-प्र-(नेगमववहाराण आणुपुवी दवाइ' किं अस्थि नवि) નગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અનુપૂર્વી દ્રવ્યું છે કે નથી?
उत्तर-(णियमा अत्थि) अवश्य छ १.
प्रश्न-(नेगमववहाराण अणाणुपुबी दवाई फि अस्थि णत्थि !) नेग. મવ્યવહારનયસંમત અનાનુપૂવી દ્રવ્ય શું છે કે નથી ?
उत्तर-(णियमा अत्थि) नियमयी ४ मे मनानुभूती यौन અસ્તિત્વ પણ અવશ્ય છે જ.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા નગમવ્યવહાર નયસંમત અનુપૂવી આદિ દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ હવાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. “તેમનું અસ્તિત્વ નિયમથી જ છે,” આ પ્રકારના કથન દ્વારા તેમને આ વાતને ભારપૂર્વક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८३ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम्
e
३४९
अथ द्रव्यमाणरूपं द्वितीयभेदमाह
मूलम् - नेगमत्रवहाराणं आणुपुव्वदव्वाई किं संखिज्जाई असंखिजाई अनंताई ?, नो संखिजाई नो असंखिजाई अनंताई । एवं अणाणुपुत्रीदवाई अवतवनदवाई च अनंताई भाणि - यवाई | सू०८३||
छाया - नैगमात्योरानुपूर्वी द्रव्याणि किं संख्येयानि असंख्येयानि अनन्तानि ? नो संख्यानि नो असंख्येयानि नवानि । एवम् अरानुपूर्वी द्रव्याणि अवनिवानि ॥८९॥
टीका- 'नेवाराणं' इत्यादि ।
नैगमव्यवहारसम्पतानि पूर्वीयाणि किं संख्यानि सन्ति ? किम संख्येपानि सन्ति ? वानन्वानि सन्ति ? इति नः । उत्तरयति भनुपूर्वी - द्रव्याणि नो संख्येपनि मन्ति, नो यानि सन्ति । अपि तु अनन्तानि सन्ति । अर्थात् वे जोर देकर यह कह रहे हैं कि ये आनुपूर्वी आदि द्रव्य सत्ता विशिष्ट हैं। ऐसे नहीं हैं, कि ये नहीं हैं । ॥ सूत्र० ८२ ॥
1
'नेगमववहाराराणी' इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( नेगमबवहाराणं आणुपुच्वी दव्वाई किं संविज्जाई असंखिज्जाई अंगताई ? ) नैमव्यवहारनय संमत अनेक अनुपूर्वी द्रव्यसंख्यात हैं ? या असंख्यात हैं ? या अनन्त हैं ?
उत्तर- (नो संखिज्जाइं नो असंखिज्जाइं) नैगमव्यवहारनय संमत आनुपूर्वी द्रव्य न संख्यात हैं और न असंख्यात है किन्तु (अनंताई ) પ્રકટ કરી છે એટલે કે તેએ ભારપૂર્વક એવું કહે છે કે આનુપૂર્વી આદિ દ્વવ્યે સત્તાવિશિષ્ટ છે-તે દ્રવ્યાનું અસ્તિત્વ અવસ્ય છે. જ. તેએ વિ. ધમાન નથી એમ સમજવું! સૂ૦૮૨ !!
" नेगमववहाराण' आणुपुन्वी " इत्यादि -
हाथ - ( नेगमववहाराणं आणुपुव्वी दव्वाई' किं संखेज्जाइ, असंतिबजाइ अर्णताई ? ) नैगमव्यवहार नय संभत भने मानुपूर्वी द्रव्यो शु अध्यात छे, हे असभ्यात छे, हे अनंत है ?
R२- (नो संखिज्जा' नो असंखिज्जाई, अणताई ) नैगम भने ०५५હારનયસંમત આનુપૂર્વી દ્રવ્યેા સખ્યાત પણ નથી, અસંખ્યાત પણ નથી,
अ० ४४
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अनुयोगवार एवम् अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रपाणि च अनन्तानि विज्ञेयानि । इदमंत्र बोध्यम्-इहानुपूय॑नानुपूर्व्यवक्तव्य रुद्रव्येषु प्रत्येकमनन्तान्पनन्तानि एककस्मिसप्याकाशपदेशे लभ्यन्ते, किं पुनः सर्वलोके । अतः संख्येयासंख्येयप्रकारद्वयं निषिध्य विष्वपि स्थानेष्वानन्त्यमेवोच्यते । असंख्येये लोके कथमनन्तानि द्रव्याणि विष्ठन्तीति न शकुनीयम् ? पुद्गलपरिणामस्य अविन्त्यत्वात् , दृश्यते हि-एक पदीपप्रभा परमाणुव्याप्तेषु एकगृहातवांकाशमदेशेषु अनेकापरमदीपपमा. अनन्त हैं । (एवं प्रणाणुपुब्धी दवाइं अवत्तव्वगदम्वाइं च अणंताई भाणि. यवाई) इसी प्रकार से यह भी जानना चाहिये कि अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्यकद्रव्य भी अनंत हैं। संख्यात-असंख्यात नहीं हैं। इस कथन का यह भाव है कि आनुपूर्वी और अवक्तव्यक इन द्रव्यों में प्रत्येक आनु. पूर्वी आदि द्रव्य अनन्त २ हैं। और प्रत्येक ये एक २ भी आकाश के प्रदेश में अनन्त अनन्त पाये जाते हैं । मर्वलोक की तो बात ही क्या है। इसलिये ये न संख्यात हैं और न असंख्यात है इसलिये इन तीनो में दोनों प्रकारता का निषेध कर अनन्तता की स्थापना की गई है। यहां ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि असंख्यात प्रदेशीभाकाश रूप क्षेत्र में अनंत आनुपूर्वी आदिद्रव्य कैसे ठहर सकते है क्यों कि पुद्गल का परिणमन अचिन्त्य होता है। यह तो हम अपनी आखों से देखते हैं कि एक प्रदीप की प्रभा से व्याप्त एक गृहान्तवर्ती-आकाश के प्रदेशों में ५२.तु ममत. (पव अणाणुपुबीव्वाई' भवत्तव्वगदवाईच अणंताई भाणियव्याई) मे प्रभारी मनानुषी द्रव्ये ५५ मत छ भने Anવ્યક દ્રવ્યો પણ અનંત છે, એમ સમજવું જોઈએ તે બન્ને પ્રકારના દ્રવ્ય સંથાત પણ નથી અને અસંખ્યાત પણ નથી આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે આનુપૂર્વી અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક આ દ્રવ્યમાંના આનુપૂલી આરિ દ્રવ્ય અનંત-અનંત છે. તે પ્રત્યેકને એક એક આકાશપ્રદેશમાં પy અનંત અનંત રૂપે સદુર્ભાવ હોય છે. તે પછી સર્વકની તે વાત જ શી કરવી ! તે કારણે તેને સંખ્યાત પણ કહ્યા નથી અને અસંખ્યાત ૫) કતા નથી આ રીતે ત્રણેમાં બંને પ્રકારતાનો નિષેધ કરીને અનંતતાનું જ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે.
અત એવી શંકા કરવી ન જોઈએ કે અસંખ્યાત પ્રદેશી આકાશ રૂપ ક્ષેત્રમાં અનંત આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય કેવી રીતે રહી શકે છે, કારણ કે પુદગલનું પરિમન અચિંત્ય હોય છે. એ તે આપણે આપણી આંખો ૧૪ એઈ શકીયે છીએ કે એ પ્રતીપ (દીપક) ની પ્રજાથી વ્યાસ એક ચાન્ડર્વતી-(વરની અંદર)
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अनुयोगचन्द्रिका का सूत्र ८३ द्रव्यप्रमाणनिरूपणम् परमाणनामप्यवस्थानम् । न चाक्षिदृष्टेऽप्यर्थेऽनुपपत्तिः, अनिप्रसङ्गात् । अत मानुपूर्व्यादि द्रव्याणामानन्त्ये न कश्चिद् दोष इति ॥१०८३.। दूसरे ओर भी अनेक पदीपों की प्रभा के परमाणुओं का अवस्थान हो जाता है। आखों देखे हुये अर्थ में शंका करने जैसी कोई पात ही नहीं होती है । नहीं तो, अतिप्रसंग नाम का दोष आता है। इसलिये भानुपूर्वी आदि अनन्त द्रव्यों को असंख्यात प्रदेशी आकाश में अब स्थित होने में कोई बाधा नहीं आती है। और न आनुपूर्ण आदि द्रव्यों को अनंत मानने में कोई आपत्ति आती है। ___ भावार्थ- सूत्रकार ने अनुगम का द्वितीय भेद जो द्रव्य प्रमाण है उसके विषय में यह निर्णय किया है उसमें आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का प्रमाण अनन्त है ऐसा निर्देश कर ऐसा स्पष्ट किया है कि असंख्यात प्रदेशी आकाश लोकाकाश-में इनका अवगाहन बाधित नहीं हो सकता है क्योंकि पौगलिक परिणाम अचिन्त्य होना है। एकही घर के भीतर में रहे हुये आकाश में हम देखते हैं कि अनेक प्रदीप प्रभा के परमाणु समा जाते हैं। इसी प्रकार से अवगाहन शक्ति के योग से और परिणमन की विचित्रता से एक भी आकाश के प्रदेश में अनन्त आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का अवगाहन बाधित नहीं होता है । ॥सू० ८३॥ રહેલ આકાશના પ્રદેશોમાં બીજા પણ અનેક પ્રદીપની પ્રજાના પરમાણુઓનું અવસ્થાન (નિવાસ) થઈ જાય છે. આંખો વડે જોયેલા વિષયમાં શંકાને કોઈ અવકાશ જ રહેતું નથી નહી તે, અતિપ્રસંગ નામને દોષ આવે છે. તેથી આનુપૂર્વી આદિ અનંત દ્રવ્યનું અસંખ્યાત પ્રદેશી આકાશમાં અવસ્થાન થવામાં કઈ બાધા (મુશ્કેલી, અવરોધ) રહેતી નથી અને આવી આ દ્રવ્યાને અનંત માનવામાં પણ કોઈ વાંધો સંભવ નથી.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે અનુગામના દ્રવ્યપ્રમાણ નામના બીજા ભેદનું આ સૂત્ર દ્વારા નિરૂપણ કર્યું છે. તેમાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય અનંત છે. આ પ્રકારનું પ્રતિપાદન કરીને એવી સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી છે કે અસંખ્યાત પ્રદેશી આકાશમાં-લે કાકાશમાં તેમની અવગાહના હોવાની વાત સ્વીકારવામાં કોઈ પણ પ્રકારનો વાંધે સંભવી શકતું નથી, કારણ કે પીગલિક પરિણામ અચિત્ય હોય છે. એક જ ઘરની અંદર રહેલા આકાશમાં (અવકાશમાં) અનેક પ્રદીપની પ્રજાના પરમાણુઓને સમાવેશ થઈ જાય છે, એ વાત તે આપણે આપણી આંખ વડે જ જોઈ શકીએ છીએ. એજ પ્રમાણે અવગાહનશક્તિના યોગથી અને પરિણમનની વિચિત્રતાથી આકાશનાં એક પ્રદેશમાં પણ અનંત આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યોનું અવગાહન (समावेश) भानपामा मापत्ति संसपी सती नथी. सू०८३॥
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अनुयोगद्वार सम्पति क्षेत्ररूपं उतीयभेदमाह
मूलम्-नेगमववहाराणं आणुपुबी दबाई लोगस्त किं संखि. जइभागे होज्जा, अतंखिज्जइभागे होज्जा, संखजेसु भागेसु होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, सव्वलोए होज्जा? एगं दत्वं पडुच्च संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखेज्जइभागे वा होज्जा संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखिज्जेसु भागेसु वा होज्जा, सव्वलोए वा होज्जा। णाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्व. लोए होज्जा। नेगमववहाराणं अणाणुपुत्वीदव्वाइं कि लोयस्स संखिज्जहभागे होऊजा जाव सबलोए वा होज्जा ? एगं दव्वं पडुच्च नो संखेजइ भागे होना असंखिग्जदमागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेनु होज्जा नो सव्वलोए होज्जा। एवं अयत्तव्यगदव्वाइं भाणियवाई ॥सू०८४॥ ___ छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य किं संध्येयतमभागे भवन्ति, असंख्येयतमभागे भवन्ति, संख्यथेषु भागेषु भवान्त, सर्वलोके भवन्ति? एक द्रव्यं प्रतीत्य संख्येयेषु भागेषु या भान्ति, असंख्येयतम भागे वा भवन्ति, संख्येयेषु भागेषु वा भवन्ति, असंख्ये येषु वा भवनित, सर्वलोके या भवन्ति । नाना. द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात सर्वलोके भवन्ति । नैगमवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणि कि लोकस्य संख्येयतमभागे भवन्ति यान् सर्वलोके वा भान्ति ? एक द्रव्यं प्रतीत्य नो संख्येयतममागे भान्ति असंख्येयेषु भागेषु भान्ति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो सर्वहोके भवन्ति, नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । एवमवक्तव्यकद्रव्याणि भणितव्यानि ।।मू०८४||
टीका- नेगमववहाराणं' इत्यादि___ अब सूत्रकार-तृतीय भेद के विषय मे कहते हैं
" नेगम ववहाराणं" इत्यादि ।
હવે સૂત્રકાર અનુગામના ત્રીજા ભેદ રૂપ ક્ષેત્રના વિષયમાં નીચે समार यन ४२ छ- नेगमववहाराण" 48
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अनुयोगबन्द्रिका टीका सूत्र ८४ क्षेत्रनिरूपणम्
नैगमन्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वी द्रव्याणि किं लोकस्य एकस्मिन संख्येयतमे मागे भवन्ति-अवगाहन्ते ?१f वा एकस्मिन् असंख्येयत मे भागेऽवगाइन्ने?२ अपवा-कि संख्येयभागेषु भवन्ति अवगाहन्ते ? ३ किमसंख्येयभागेषु भवन्तिअवगाहन्ते ? ४ अथवा-किं सर्वलोके भवन्ति ? ५ इति पञ्चप्रश्नाः। उत्तरमाहभानुपूर्वीद्रव्याणिज्यणुकस्कन्धादीनि अनन्ताणुकस्कन्धान्तानि, तत्र-पकं द्रव्यं प्रतीत्य सामान्यत एक द्रव्यमाश्रित्य किमपि लोकस्य संख्येयतमभागे भवति, ___ शद्वार्थ-(नेगमववहाराणं आणुपुव्धी दवाई) नैगम व्यवहार नय संमत अनेक आनुपूर्वी द्रव्य ( लोगस्स ) लोक के (किं) क्या ( संग्वि.
जहभागे ) १ संख्यातवें भाग में ( होज्जा) अवगाहित हैं ? या ( असंखिज्जहभागे होज्जा २) असंख्यानवे भाग में अवगाहित है ? (संखेग्जेसु भागेसु होज्जा ) या ३ संख्यात भागों में अवगाहित हैं? या ४ ( असंखेज्जेसु भागेलु होज्जा ) असंख्यात भागों में अयगाहित हैं ? या ( सबलोग होज्जा? ) ५ सम्पूर्ण लोकमें अवगाहित हैं ?
उत्तर-(एग दव्वं पडुच्च संखेज्जहभागे वा होज्जा, अमलेन्जा भागे वा होज्जा संखेज्जेस्सु भागेसु वा होज्जा; असंखेजेए भागेमु वा होज्जा सव्वलोए वा होज्जा) व्यणु कादि अनन्ताणु स्कंधों में से सामान्य रूप से किसी एक द्रव्य की अपेक्षा करके कोई एक मानु लोक के संख्यानवे भाग में तथा कोई एक अनुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है तथा कोई एक आनुपूर्वी जय लोकके
श:-( नेगमयवहाराण आपण पुच्चीदाइ) नाम - यम:२. नयमत भने भानु पूर्वा द्रव्य (लोगस कि संधि भागे होजा) Y લોકના સંખ્યામાં ભાગમાં અવરોહિત છે ? કે લાકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં अहित छ, 3 (असंखिजइ भागे होज्जा २) सना मध्यातमा लामा Alत, 3 ( संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ३) सभ्यात मागोमा अति छ, (सबलोए होज्जा ? ) स सभा माहित आय १ __ 6त्तर-(एग' दव पहुन्च संखेज्जइ भाग वा होज्जा, असंख जद भागे पा होज्जा, संखे जेसु भागेसु दा होला, असंस्बिोसु भागेसु वा होज्जा, सव्व. लोए वा होज्जा) र ५२ (auaal) थी मन पयतनां आपका સંધ (અનંત પ્રદેશી કંધ)થી સામાન્ય રૂપે કેઈ એક દ્રવ્યની અપે. ક્ષાએ કઈ એક અ નુ દ્રવ્ય લેકના સંખ્યામાં ભાગમાં અવગાદિત થઈને રહે છે, કોઈ એક અનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં રહે
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अनुयोगद्वारको लोकस्य संख्याततमभागमवगाह्य तिष्ठतीत्यर्थः । तथा-किमपि लोकस्य असंख्येयतमे भागे भवति-तिष्ठति २। तथा-किमपि तु लोकस्य संख्येयेषु भागेषु भवति ३। तथा-लोफस्याऽसंख्येयेषु भागेषु भवति ४ । तथा किमपि सर्वलोके भवति-सर्वलोकमवगाह्य तिष्ठति । ___ अयं भावः-अनन्तानन्तपरमाणुपचयनिष्पममचित्तमहास्कन्धलक्षणम् आनुपूर्वी द्रव्यमेकं समयं सकललोकमवगाहते । ननु कथमयमचित्तमहारकन्धः सकललोकमवगाहते ? इति चेदाइ-यथा-समुद्घातवतिकेवळी सकललोकमवगाइते तयैवाचित्तमहास्कन्धोऽपि। तथाहि-लोकमध्यव्यवस्थितः समुद्घातवर्ति केवली प्रथमसमये तिर्यग्संख्यातयोजनविस्तरं संख्यातविस्तरं वा अधिस्तु चतुर्दशर. संख्यात भागों में तथा कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य, लोक के असंख्यात भागों में और कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक में अवगाहित होकर रहता है । जैसे कि अनंतानंत पुद्गल परमाणुओं के समूह से निष्पन्न हुभा अचित्त महास्कंध । यह अचित्त महा स्कंधरूप आनु. पूर्वी द्रव्य एक समय में सकल लोक को अवगाहित करता रहता है।
शंका- यह अचित्त महास्कंध सकललोक में कैसे अवगाहित हा जाता है? ___ उत्सर-जैसे समुद्घालवर्ती केवली सकल लोक में समा जाते हैंउसी प्रकार से अचित्त महास्कंध भी सफल लोक में अवगाहित होजाता है- समा जाना है। अर्थात् लोक के मध्य में व्यवस्थित हुआ केवली जप समुद्धात करता है तो वह प्रथम समय में आत्मा के प्रदेशों को दण्डाकार रूप में परिणमाता है । यह दण्डाकार रूप परिणमन છે, તથા કઈ એક આનુપૂર્વા દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાત ભાગોમાં રહે છે. કે ઈ એક અનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગોમાં રહે છે, અને કોઈ એક આનુપૂવ દ્રવ્ય સમસ્ત લેકમાં અવગાહિત થઈને રહે છે જેમ કે અનંતાનંત પુદ્ગલ પરમાણુઓના સમૂહમાંથી નિષ્પન્ન થયેલ અચિત્ત મહાત્કંધ તે અચિત્ત મડાધ રૂપ આનુપૂર્વ દ્રવ્ય એક સમયમાં સકળ લકને અવગાહિત કરી શકે છે.
પ્રમ–તે અચિત્ત મહાકંધ સકલ લેકમાં કેવી રીતે અણહિત થઈ જાય છે.
ઉત્તર જેવી રીતે સમુદ્રઘાતવતી કેવલી સકળ લોકમાં સમાઈ જાય છેઅવળાહિત થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે અચિત્ત મહાધ પણ સકલ લેકમાં અવગાહિત થઈ જાય છે–સમાઈ જાય છે એટલે કે લેકની મધ્યમાં રહેલા કેવળી જ્યારે સમુદ્રત કરે છે, ત્યારે પ્રથમ સમયે આત્મપ્રદેશે ને દંડાકાર
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अनुयोगचन्द्रिकाठीका स्त्र ८४ क्षेत्रनिरूपणम् ज्ज्वायतं विश्रसापरिणामेन वृत्तं दण्डं करोति, द्वितीये कपाटं करोति, तृतीये मन्यानं करोति, चतुर्थेऽन्तरालपूणेन सकललोकव्याप्तिं करोति, पश्चमेऽन्तराणि संहरति, षष्ठे मन्थानं, सप्तमे कपाटम् , अप्टमे पुनर्दण्डं संहरति । ततः सावस्था प्रतिपद्यने । एवमचित्तमहास्कन्धोऽपि समयमेकं सकललोकमवगाहने इति । ___ तथा-नानाद्रव्याणि आनुपूर्वीपरिणामयुक्तानि अनन्तानि द्रव्याणि प्रतीत्यआश्रित्य द्रव्याणि नियमात्-नियमतः सर्वलोके भवन्ति-सकललोकमवगाहन्ते । उनका तिर्यक में संख्यात योजन तक अथश असंख्यात योजन तक विस्तृत होता है । तथा ऊर्ध्व और नीचे में १४राजु प्रमाण लंबा होता है । आत्मप्रदेशों का यह दण्डाकार रूप परिणमन स्वाभाविक होता है द्वितीय समय में उनके वे आत्मप्रदेश कपाट के आकार में परिणम जाते हैं। तृतीय समय में मंथान रूप हो जाते हैं । और चौथे समय में अन्तराल की पूर्ति कर वे सकल लोक में व्याप्त होजाते हैं पांचवें समय में अंतरालों को संकुचित कर छठवें समय में मन्थान का सातवें समय में कपाट का आठवें समय में दण्ड का संकोच कर अपने आप में समाजाते हैं-पूर्वावस्थापन्न हो जाते हैं । इसी प्रकार अचित्त महास्कन्ध भी एक समय में सकल लोक को व्याप्त कर लेता है । (णाणा. दव्वाइं पबुच्च नियमा सवलोए होज्जा) तथा आनुपूर्वी परिणाम युक्त अनंतद्रव्यों को आश्रित करके वे द्रव्य नियम से सर्वलोक में રૂપે પરિણાવે છે. તેમનું આ દંડાકાર રૂપ પરિણમન તિર્લગ્ન લેકમાં સંપાત યે જન સુધી અથવા અસંખ્યાત જન સુધી વિસ્તૃત થયેલું હોય છે, તથા ઉર્વ અને અધભાગમાં ૧૪ ચૌદ રાજુ પ્રમાણ લાંબુ હોય છે. આત્મપ્રદેશનું આ દંડાકાર રૂપ પરિણમન સ્વાભાવિક હેય છે. બીજા સમયમાં તેમના તે આત્મપ્રદેશ કપાટના આકારમાં પરિણમન પામે છે ત્રીજા સમયમાં મંથાનરૂપ થઈ જાય છે, અને ચેથા સમયમાં અન્તરાલની પૂર્તિ કરીને સકળ (ાકમાં વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. પાંચમા સમયમાં અંતરને સંકુચિત કરીને છા સમયમાં મંથાનને સંકુચિત કરીને, સાતમાં સમયમાં કપાટને અને આઠમાં સમયમાં દંડને સંકુચિત કરીને પિતાના શરીરમાં જ સમાઈ જાય છે એટલે કે પૂર્વાવસ્થામાં આવી જાય છે એ જ પ્રમાણે અચિત્ત મહાસં૫ ५५ । समयमा देने व्यास ४N से छे. (णाणावाई पदुच्च नियमा सम्बोए होजा) तया मानुषी परिणाम युक्त मानत यानी अपेक्षा पियार કરવામાં આવે તે તે બે સમસ્ત લેકમાં અવગાહિત છે. આ કથનનું
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मनुयोगदार अयं भवः-लोकाकाशस्य नास्ति केऽपि प्रदेशो यत्र सूक्ष्मपरिणामपरिणताति अनन्तानि आनुपूर्वीद्रव्याणि न मन्ति, किन्तु सर्वत्र सन्ति । नस्वेतानि नानाद्रव्याणि संख्येयतमादिप्रदेशेषु नन्तीति। एवं नैगमव्यवहारसम्मताऽनानु. पूर्ववक्तपकलाविपयेऽपि पश्च पञ्च प्रश्नाः । उत्तरस्त्वेवं विज्ञेयः-एक द्रव्य माश्रित्यानानुपूर्वीद्रव्यम् अमक्ताकद्रव्यं च लोकस्य असंख्येयतमभागे भवति, अवगाहित हैं। तात्पर्य इमका यह है कि मनस्त लोकाकाश का कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है कि जहां पर मत परिणाम से परिणत हुए अनंत आनुपूर्वी द्रव्य न हो । अति लोक में सर्वत्र आनुपूर्वी द्रव्य है। ये आनुपुर्नी अनेक द्रव्य लोक संख्यातवें अथवा असंख्यातवें भाग में नहीं हैं। हमी प्रकार से नाम और व्यवहारनय संमत अनानुः पूर्वी और अदत्तव्धक द्रव्यों के विषय में भी पांच २ प्रश्न होते हैं जो (नेगमहाराणं अशाणुगुरुशी दमाई कि लोयरस संखिज्जइ भागे, होजा जाव सव्वलोए वा हो जा?) इन पदों द्वारा पक्त किये गये हैं। इन प्रश्नों का उत्तर भी ( एगं दव्वं पडुनच नो संखेज्जइ भागे, कोजा, अग्विजह भागे होज्जा नो मखेज्जेसु भागेसु होज्जा. नो असंखेज्जेसु भागेप्नु होज्जा नो सव्वलोए होज्जा) इनसूत्रांशों द्वारा इसप्रकार दिया गया है-कि एक द्रव्य को आश्रित करके अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्यक द्रव्य लोक के असंख्यातवे भाग में अपगाहित તાત્પર્ય એ છે કે સમસ્ત કાકાશને કોઈ પણ પ્રદેશ એ નથી કે જ્યાં સૂર્મ પરિણામથી પરિત થયેલાં અનંત આનુપૂવી દ્રવ્યો ન હોય એટલે કે લેકમાં સર્વત્ર આનુપૂવ દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ છે તે અનેક આનુપૂવી દ્રવ્ય લે કના સંખ્યાતમાં અથવા અસંખ્યાતમાં ભાગમાં નથી પણ સમસ્ત લેકમાં છે, એમ સમજવું એજ પ્રમાણે નૈગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યના વિષયમાં પણ પાંચ-પાંચ પ્રશ્નો પૂછી शाय छे. २ प्रश्न नायना सूत्र ६२१ पूछामा भ.या. (नेगमवबहाराण अणाणुपुत्री दव्वाई' किं लोयरस संखिज्जइभागे होज्जा. जाव सव्वलोए वा होज्जा ।) नैशम भने व्यपार नय सभत अनानु५वी द्र०या ? લોકના સંખ્યામાં ભાગમાં, કે સંખ્યાત ભાગમાં કે અસંખ્યાત ભાગોમાં કે સમસ્ત લેકમાં અવગાહિત થઈને રહે છે?
6त्तर-“एगं दव्यं पडुच्च नो संखेज्जइ भागे, होज्जा, असंखेजइ मागे होजा नो संखेज्जेसु भागेसु होजा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होजा. नो सव्वळोए होऊजा " द्रव्यनी अपेक्षाये विया२ २१ामा मावे तो मना નવ દ્રવ્ય અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ અવગાહિત થઈને રહે છે, સંખ્યામાં ભાગમાં, સંખ્યાત ભાગમાં, અસંખ્યાત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८४ क्षेत्रनिरूपणम् न तु संख्येयतमभागे । अनानुपूर्वीद्रव्यं हि परमाणुरुष्यते स चैकैकाकाशपदेशाबगाड एव भवति, आक्तव्याद्रव्यं च द्वयणुकस्कन्धः, स चैकपदेशावगाढो द्वि. प्रदेशावगारो वा स्यादित्यनयोरसंख्येयभागवृत्तित्वमेव । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात्सर्वोकावगाहना पूर्ववद् बोध्या ।। स्० ८४॥ होकर रहते हैं। संख्यातवें भाग में नहीं । परमाणु अनानुपूर्वी द्रव्य है। वह आकाश के एकप्रदेश में ही अवगाहित- होकर रहता है। क्यों कि वह स्वयं एकत्रदेशी है । द्वयणुक जो स्कंध है । वह अवक्त. व्यक द्रव्य है । वह लोकाकाश के एक प्रदेश में भी रहता है और दो प्रदेश में भी रहता है । इस प्रकार इन दोनों की वृत्ति लोक के असं. ख्यातवें भाग में ही है, नाना अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को आश्रित करके नाना अमानुपूर्वी द्रव्य और प्रवक्तव्यक नियम से समस्त लोकाकाश में रहते हैं। क्यों कि आकाश का कोई प्रदेश ऐसा नहीं है कि जहां पर इनका सद्भाव न हो। ___ भावार्थ-सत्रकारने इस सूत्र द्वारा आनुपूर्वी भादि द्रव्यों के रहने के विषय में किये गये पांच प्रश्नों का उत्तर एक और नाना द्रव्यों को लेकर दिया गया है-वे पांच प्रश्न इस प्रकार से हैं-१ अनानुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं ? २ या असंख्यातवें भाग में रहते हैं ३ या लोक के मख्यात भागों में रहते हैं ? या ४ असंख्यात ભાગોમાં કે સર્વલોકમાં અવગાવિત થઈને રહેતાં નથી પરમાણ અનાનુપૂવ દ્રવ્યરૂપ છે. તે આકાશના એક પ્રદેશમાં જ અવસાહિત થઈને રહે છે ને આણવાળે જે કંધ છે તે અવકતવ્યક દ્રવ્યરૂપ છે. તે કાકાશના એક પ્રદેશમાં પણ રહે છે અને બે પ્રદેશમાં પણ રહે છે. આ રીતે તે બનેની અવગાહના લેકને અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ છે. વિવિધ અનાનુપૂવ ક અને અવકતવ્યક દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે છે તેઓ સમસ્ત
કાકાશમાં રહે છે, એમ સમવું જોઈએ, કારણ કે આકાશને કઈ પs, પ્રદેશ એવો નથી કે જયાં તેમને સદ્દભાવ ન હોય.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યની અવગાહના વિશે પૂછવામાં આવેલા પાંચ પ્રકોને ઉત્તર એક દ્રવ્ય અને અનેક દ્રવ્યોને અનુલક્ષીને આપે છે તે પાંચ પનો નીચે પ્રમાણે –(૧) આપવી દ્રો શું લેકના સંખ્યામાં ભાગમાં રહે છે? અથવા (૨) અસખ્યાતમાં
भ०४५
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अनुयोगद्वारसूत्रे भागों में रहते हैं ४ या समस्त लोक में रहते हैं ?५ उत्तर- पुल द्रव्य का आधार यद्यपि सामान्य रूप से लोकाकाश ही नियत है तथापि-विशेष रूप से भिन्न २ पुद्गल द्रव्य के आधार क्षेत्र के परिमाण में अन्तर होता है, वही अन्तर इस उत्तर में प्रकट किया गया है- क्योंकि भिन्न २ व्यक्ति होते हुए भी पुद्गलों के परिमाण में विविधता है एक रूपता नहीं है । इसलिये यहां उनके आधार का परिमाण अनेक रूप से कहा गया है-सारांश यह है कि आधार भूत क्षेत्र के प्रदेशों की संख्या आधेयभूत पुगदल द्रव्य के परमाणुओं की संख्या से न्यून या उसके बराबर हो सकती है अधिक नहीं। इसलिये एक परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्य आकाश के एकही प्रदेश में स्थित रहता है। पर दूधणुक एक प्रदेश में भी ठहर सकता है और दो प्रदेश में भी । इसी प्रकार उत्तरोत्तर संख्या बढते बढते पणुक, चतुरणुक, यावत् संख्याताणुक स्कन्ध एक प्रदेश, दो प्रदेश, तीन प्रदेश यावत् संख्यात प्रदेश क्षेत्र में ठहर सकते हैं। संख्याताणु द्रव्य की स्थिति के लिये असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र की आवश्यकता नहीं पड़ती। भामा २७ छ ? (3) अथवा शु. सेना सयात सभा २७ ? (४) અથવા શું લેકના અસંખ્યાત ભાગ માં રહે છે? (૫) અથવા શું સમસ્ત લેકમાં રહે છે.
ઉત્તર-પુદ્ગલ દ્રવ્યોને આધાર છે કે સામાન્ય રૂપે કાકાશ જ નિયત છે, છતાં પણ વિશેષ રૂપે ભિન્ન ભિન્ન પુલકદ્રવ્યના આધારક્ષેત્રના પરિમાણમાં અન્તર હોય છે, એજ અતર આ ઉત્તરમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે-કારણ કે ભિન્ન ભિન્ન પદાર્થ હોવા છતાં પણ પુલના પરિમા
માં વિવિધતા છે, એકરૂપતા નથી તેથી અહીં તેમના આધારનું પરિમાણ (પ્રમાણુ) અનેક રૂપે કહેવામાં આવ્યું છે. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે આધારભૂત ક્ષેત્રના પ્રદેશોની સંખ્યા આધેયભૂત પુદ્ગલદ્રવ્યના પરમાણુઓની સંખ્યા કરતાં ન્યૂન અથવા તેના જેટલી જ હોઈ શકે છે, પણ અધિક હોઈ શકતી નથી તેથી એક પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય આકાશના એક જ પ્રદેશમાં રહે છે, પણ બે આસુવાળું અવક્તવ્યક દ્રવ્ય આકાશના એક પ્રદેશમાં પણ રહી શકે છે અને બે પ્રદેશમાં પણ રહી શકે છે. આ રીતે ઉત્તરોત્તર પરમાણુઓની અથવા પ્રદેશની વૃદ્ધિ થતાં થતાં ત્રણઆણવાળા, ચાર અણુવાળા યાવત્ સંખ્યાતાણુ કંધ એક પ્રદેશમાં બે પ્રદેશમાં, ત્રણ પ્રદેશમાં યાવત્ સંખ્યાત પ્રદેશ રૂપ ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે. સંખ્યાત આણવાળા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८५ स्पर्शनाद्वारनिरूपणम् सम्मति स्पर्शनाद्वाररूपं चतुर्थभेदमाह
मूलम् - नेगमववहाराणं आणुपुव्वदव्वाई लोगस्स किं संखेज्जइभागं फुसंति ? असंखेज्जइभागं फुसंति ? संखेज्जे भागे फुसंति ? असंखेज्जे भागे फुसंति ? सबलोगं फुसंति ? | एगं दव्वं पडुच्च लोगस्स संखे जइभागं वा फुसइ जाव सव्वलोगं वा फुसइ । णाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोगं फुसंति । णेगमववहाराणं अणाणुपुवदव्वाई लोयस्स किं संखिज्जइभागं फुसंति असंख्याताणुक स्कंत्र एक प्रदेश से लेकर अधिक से अधिक अपने बरा बर की असंख्यात संख्यावाले प्रदेशों के क्षेत्र में ठहर सकता है। अनंताक और अनंतानंताणुरु स्कंध भी एक प्रदेश, दो प्रदेश इत्यादि क्रम से बढते २ संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र में ठहर सकते हैं उनकी स्थिति के लिये अनन्त प्रदेशात्मक क्षेत्र की जरू रत नहीं है । पुगल द्रव्य का सबसे बड़ा स्कंध जिसे अचित्त महास्कंध कहते हैं और जो अनंतानंत अणुओं का बना हुआ होता है वह भी असंख्यात प्रदेश लोकाकाश में ही ठहर जाता है। इस प्रकार आनुपूर्वी आदि एक द्रव्य की अपेक्षा इस कथन को हृदय में धारण करके इस सूत्र को लगाना चहिये। नाना द्रव्य की अपेक्षा इन समस्त द्रव्यों का अवगाहन समस्त लोकाकाश में है । सू० ८४ ॥
३५५
यस -
દ્રવ્યને રહેવા માટે અસંખ્યાત પ્રદેશેાવાળા ક્ષેત્રની જરૂર પડતી નથી ખ્યાત અણુવાળા સ્કંધ એક પ્રદેશથી લઇને વધારેમાં વધારે પેાતાના જેટલી જ અમ્રખ્યાત સંખ્યાવાળા પ્રદેશના ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે અનંત અવાળા અથવા અન’તાન'ત અણુવાળા સ્કંધ પણ એકથી લઇને સખ્યાત પર્યન્તના પ્રદેશવાળા અને અસખ્યાત પ્રદેશેાવાળા ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે, તેને રહેવાને માટે અનંત પ્રદેશેાવાળા ક્ષેત્રની આવશ્યકતા રહેતી નથી પુદ્ગલ દ્રષા સૌથી મોટો કધ કે જેને અચિત્ત મહુસ્કંધ !હે છે અને જે અનંતાનંત અણુઓના બનેલા હૈય છે, તે પણ લેકકાશના અસ`ખ્યાત પ્રદેશામાં જ રહી શકે છે. આ પ્રમાણે અતાનુપૂર્વી આદિ કન્ધદ્રવ્યની અપેક્ષાએ આ કથનને હૃદયમાં ધારણ કરીને આ સૂત્રના અર્થ સમજવા જોઇએ વિવિધ દ્રવ્યેાની અપેક્ષાએ આ સમસ્ત દ્રોનું અવગાર્ડન સમરત લેાકાકાશમાં છે. IIસૂ૦૮૪ ।
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अनुयोगद्वारसूत्रे जाव सवलोगं फुसंति ? एगं दवं पडुच्च नो संखिजइ भागं फुसइ, असंखिज्जइ भागं फुसइ नो संखिज्जे भागे फुसइ, नो असंखिजे भागे फुसइ, नो सवलोयं फुसइ। नाणादव्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोयं फुसंति। एवं अवत्तव्वगदव्वाई भाणियत्वाइं ॥सू०८५॥
छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वी द्रव्याणि लोकस्य किं संख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? असंख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? संख्येयान् भागान स्पृशन्ति ? असंख्येयान भागान् स्पृशन्ति ? सर्वलोक स्पृशन्ति ?। एकं द्रव्यं प्रतीत्य लोकस्य संख्ये.
अब सूत्रकार स्पर्शनाद्वार नामक चतुर्थ भेद का कथन करते हैं"नेगमववहाराणं" इत्यादि।
शब्दार्थ- (नेगमववहाराणं आणुपुची दवाई लोगस्स किं संखे. उजहभागं फुसंति ? ) नैगमव्यवहारनय संमत अनेक आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? ( असंखेज्जहभाग फुसंति ) या असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं (संखेज्जे भागे फुसंति ) या संख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? ( असंखेज्जे भागे फुसंति ) या असंख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? (सबलोग फुसंमि) समस्त लोक का स्पर्श करते हैं- ?
उत्तर- ( एग दव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागं वा फुसइ जाव सव्व लोगं वा फुसइ) व्यणुक स्कंध से लेकर अनन्ताणु स्कंध
હવે સૂત્રકાર અનુગામના સ્પર્શના નામના ચોથા દ્વારનું નિરૂપણ કરે છે“ नेगमववहाराण" त्याल
शाय-( नेगमववहाराण आणुपुवी दवाइ लोगस्स कि संखेज्जइ भाग फुसंति !) नाम भने व्य१७२ नयभत भने भानुपूर्वी द्रव्यो शुना Aण्यातमा बासना २५४ ४२ छ १ ( असंखेज्जइ भाग फुसंति ?) है सस Vयातमा साना १५ रे - १ (संखेज्जे भागे फुसंति ?)सन्यात भागान। २५ अरे छ १ ( असंखेज्जे भागे फुसंति ) , अस प्यात मागेन। ५५ रे छ १ ( सव्वलोगं फुसंति १) समस्त ना २५ ४२ छ ?
उत्तर-(एग दव्व पदुच्च लोगस्य संखेजइभाग वा फुखइ बाव सव्वलोग वा फुसइ) निमा २४थी व अनन्ता २४५ -तना भानु.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८५ स्पर्शनाद्वारनिरूपणम्
३५७ यतमभागं वा स्पृशति यावत् सर्वलोकं या स्पृशति । नाना द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोकं स्पृशन्ति । नगमव्यवहारयोरनानुपूर्वी द्रव्याणि लोकस्य किं संख्येयतमभागं स्पृशन्ति । यावत् सर्वलोकं स्पृशन्ति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य नो संख्येयतमभागं स्पृशेति, असंख्येयतमभागं स्पृशति, नो संख्येयान् भागान् स्पृशति, नो असंख्येयान् भागान् स्पृशति, नो सर्वलोकं स्पृशति । नाना द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोकं स्पृशन्ति । एवम् अवक्तव्यक द्रव्याणि भणितव्यानि ॥सू०८५।। तक के आनुपूर्वी द्रव्यों में से सामान्यतः कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य. लोक के संख्यातवें भाग की कोई एक लोक के असंख्यातवें भाग की कोई एक संख्यात भागों की कोई एक असंख्यात भागों की और कोई एक सर्व लोक की स्पर्शना करते हैं (णाणा दयाइं पडुच्च नियमा सम्व. लोगं फुसंति) तथा नना आनुपूर्वी द्रव्य-अनन्त आनुपूर्वी परिणामयुक्त द्रव्य नियम से सर्वलोक की स्पर्शना करते हैं । (णेगमववहाराणं अणा. गुवो दवाई लोयस्स कि संखेज्जह भागं फुमति, जाव सबलोगं फुसति ? ) नैगम व्यवहार नय समत समस्त अनानुपूर्वी द्रव्यों में कोई एक अनानुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग की स्पर्शना करते हैं?
उत्तर- ( एगं दव्वं पडुच्च नो मग्विज्जहभागं फुमइ, असम्खि ज्जह भागं फुसइ नो संविज्जे भागे फुसह, नो अमग्विज्जे भागे फुसह, नो सबलोगं फुसह) एक द्रव्य की अपेक्षा लेकर अनानुपूर्वी
પૂર્વી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યામાં ભાગને સપર્શ કરે છે, કોઈ એક અનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગને સ્પર્શ કરે છે, કોઈ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય હેકના સંત ભાગોને, કેઈ એક આનુપૂર દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગોન અને કઈ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સમસ્ત સેકનો સ્પર્શ કરે છે. (णाणा दबाई पहुच्च नियमा सव्वलोग फुसंति ) तथा विविध मानुषी દ્રવ્ય-અનંત આનુપૂર્વ પરિણામયુકત દ્રવ્ય નિયમથી સર્વલેકની સ્પર્શના કરે છે..
(णेगमववहाराण आणाणुपुब्बी दवाई लोगस्म कि संखेज्जइभाग' फुसंति, जाव सव्वलोग फुसंति ?) नाम भने व्या२ नयभत सभरत અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોમાંનું કે ઈ એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય શું લેકના ખાતામાં ભાગની કે અસંખ્યાતમાં ભાગની, કે સંવત ભાગોની, કે અસંખ્યાત ભાગની કે સમસ્ત લેકની સ્પર્શના કરે છે?
उत्तर-( एग दव पदुच्च नो संखिज्जहभाग फुसह, बसंबिमा भाग फुसइ, नो संखिज्जे भागे फुसइ, नो असंखिज्जे भागे फुसइ, नो सम्म
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अनुयोगद्वारले टोका-'नेगमश्वहाराण' इत्यादि।
क्षेत्रद्वारवत् अत्रापि प्रश्नोत्तरप्रकारो बोध्यः। क्षेत्रस्पर्शनयो स्त्वयं विशेषः। परमाणुद्रव्यस्यावगाहना-एकस्मिन्नाकाशपदेशे भवति तत् क्षेत्रम् , स्पर्शना । परमाणुद्रव्यस्य सप्तमु प्रदेशेषु. पडू दिग्व्यवस्थितान् षट्पदेशान् यत्र च स्वाब गाहना तमपि प्रदेशं स्पृशति परमाणुद्रव्यम् । द्रव्य लोक के संख्यात भाग की स्पर्शनता नहीं करता है । किन्तु असं ख्यात भाग की ही स्पर्शना करता है । लोक के संख्यान भागों की यह स्पर्शना नहीं करता है, असंख्यात भागों की वह स्पर्शना नहीं करता है और न वह सर्वलोक को स्पर्शना करता है । ( नाणा दवाई पहुच्च नियमा सव्वलोयं फुसंति ) नाना द्रव्यों की अपेक्षा वे अनानुपूर्वी द्रव्य नियमतः समस्त लोक की स्पर्शना करते हैं । ( एवं अवत्त. ध्वगदम्वाई भाणियब्वाइं) इसी प्रकार से नाना अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी जानना चाहिये।
भावार्थ- क्षेत्रवार की तरह यहां पर भी प्रश्नोत्तर का प्रकार जानना चाहिये । क्षेत्र के स्पर्शन में यह भेद है कि परमाणुदय की जो अवगाहना एक आकाश प्रदेश में होती है वह क्षेत्र है, तथा परमाणु की जो निवासस्थान रूप आकाश के चारों ओर के प्रदेशों को छना होता है वह स्पर्शना है यह उत्कृष्ट स्पशे-छना परमोणु का आकाश लोग फुमइ) में अनानुका ०५नी अपेक्षा वियार ४२पामा भावत આ પ્રમાણે કથન સમજવું-એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાતમાં ભાગની સ્પર્શના કરતું નથી, સંખ્યાત ભાગની સ્પર્શન પણ કરતું નથી, અસંખ્યાત ભાગોની સ્પર્શન પણ કરતું નથી, અને સમસ્ત લેકની પણ પર્શના કરતું નથી, પણ અસંખ્યાતમા ભાગની જ સ્પર્શના કરે છે. (नाणादवाई पडुच्च नियमा सबलोय फुसति) विविध द्रव्योनी अपेक्षा વિચાર કરવામાં આવે છે તે અનાનુપૂ દ્રવ્ય નિયમથી જ સમસ્ત લેકની १५शना छ. ( एवं अवतव्वगवाई भाणियब्वाई) से प्रभार अ५ કતવ્યક દ્રવ્યની સશના વિષે પણ સમજવું.
ભાવાર્થ-ક્ષેત્રદ્વારના જેવા જ અહીં પણ પ્રકારના પ્રકાર સમજવા મત્ર અને સ્પર્શનમાં એ ભેટ છે કે પરમાણુદ્રવ્યની અવગાહના જે એક આકાશપ્રદેશમાં થાય છે તે ક્ષેત્રરૂપ છે, તથા પરમાણુ વડે તેના નિવાસસ્થાન કપ આકાશના ચારે તરફના પ્રદેશોનો જે પશ થાય છે તેનું નામ સ્પશના છે. પરમાણને તે ઉત્કૃષ્ટ પશે આકાશના સાત પ્રદેશોમાં થાય છે. તે સાત
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अनुयोग चन्द्रिका टीका सूत्र ८५ स्पर्शनास्वरूपनिरूपणम् ३५९
यत्तु सौगता:-परमाणुद्रव्यमादिमध्यान्त्यादिविभागरहितं निरंशमेकस्वरूप मिष्यते तस्य परमाणुद्रव्यस्य षहदिकस्पर्शनाऽभ्युपगमे तदेकत्वसिद्धान्तो नोपपद्यते-यदि येनैव स्वरूपेण परमाणुः पूर्वाधन्यतरदिशया सम्बद्धस्तेनैवान्य. दिग्भिरित्युच्यते, तहि-अयं पूर्वदिक्सम्बद्धः, अयं चापरदिक्सम्बद्ध इत्यादि विभागो न स्यात्, एकस्वरूपत्वात् , यदि विभागाभाव एक इष्ट इत्युच्यते, तर के मात प्रदेशों में होता है चारों दिशाओं के चार प्रदेश और ऊपर, नीचे के दो एवं जहां उसकी अपनी अवगाहना है एक वह प्रदेश इस प्रकार ये सात प्रदेश हैं। इस स्पर्शना के विषय में जो बौद्धों का ऐसा कहना है कि परमाणु द्रव्य तो आदि मध्य, और अन्त आदि के विभाग से निरंश एक रूप है। फिर वह छह दिशाओं को स्पर्श करता है, ऐसा स्वीकार कैसे किया जा सकता है ? यदि ऐमा स्वीकार किया जावे तो उसमें एकत्व का सिद्धान्त घटित नहीं हो सकता है क्यों कि जिस स्वरूप से परमाणु पूर्वआदि किसी एक दिशा से सम्बध है यदि वह उसी स्वरूप से अन्य दिशाओं से भी सम्बद्ध है तो इस मान्यता में फिर ऐसा विभाग नहीं बन सकता कि यह परमाणु का पूर्व दिग सबद्ध प्रदेश है यह अपर दिसंबद्ध प्रदेश है । क्यों कि वह एकरूप स्वीकार किया गया है । अतः यह मानना चाहिये कि परमाणु जय सप्त प्रदेशों को छूता है तो उसमें विविध रूपता होने से वह एक रूप नहीं हो પ્રદેશ નીચે પ્રમાણે છે-ચારે દિશાઓના ચાર પ્રદેશ, ઉપરને એક પ્રદેશ, અને નીચેને એક પ્રદેશ અને જયાં તેની પિતાની અવગાહના છે તે એક પ્રદેશઆ રીતે તે વધારેમાં વધારે સાત આકાશપ્રદેશનો સ્પર્શ કરે છે. આ સ્પર્શના વિષયમાં બૌની એવી જે માન્યતા છે કે પરમાણુ દ્રવ્ય તે આદિ, મધ્ય અને અન્ન આદિના વિભાગથી રહિત નિરંશ (અંશ રહિ )-એકરૂપ જ છે તે પછી એ સ્વીકાર કેવી રીતે કરી શકાય કે તે છ દિશાઓને પર્શ કરે છે? જે એ સિદ્ધાંત સ્વીકારવામાં આવે છે તેમાં એકત્વનો સિદ્ધાંત ઘટિત થઈ શકતો નથી, કારણ કે સ્વરૂપે પરમાણુ પૂર્વાદિ કોઈ એક દિશામાં સંબદ્ધ છે, એવાં જ સ્વરૂપે જે તે અન્ય દિશાઓ સાથે પણ સંબંધ હોય, તે આ માન્યતામાં એ વિભાગ સંભવી શકતે નથી કે પરમાણુને આ પ્રદેશ પૂર્વદિગ્માગ સાથે સંબદ્ધ છે અને આ પ્રદેશ પશ્ચિમ દિગ્માગ સાથે સંબદ્ધ છે, કારણ કે તેને તે નિરંશ રૂપે (એક રૂપે) સ્વીકારવામાં આવ્યું છે. તેથી એવું માનવું જોઈએ કે પરમાણુ સાત પ્રદેશને સ્પર્શ કરતું હોવાથી તેમાં વિવિધ રૂપતા હેવાથી તે એકરૂપ હેઈ શકતું
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भनुयोगद्वारसूत्रे पदिक्सम्बन्धकथनं विरुध्यते, यदि येन स्वरूपेण परमाणुः पूर्वाद्यन्यतरदिशया सम्बदस्तद्भिनमिन्नतरूपेणापरदिग्भिः संबध्यते इत्युच्यते तर्हि परमाणोः षट् स्वरूपाच्या एकत्वं हीयते, इति वदन्ति तन्न सम्यक् ।
परमाणुव्यतया निरंश एव, एक एव, तथापि परमाणोः परिणामशक्तिरचिन्त्याऽस्तीति तथाविधपरिणामसद्भावाद् दिक्षट्केन सह नैरन्तर्येणावस्थान संभवतीति तस्य सप्तसु पदेशेषु स्पर्शना कथनं नानुपपन्नमिति ॥ सू० ८५॥ सकता है। यदि एक रूपता मानने के लिये विविध रूपतारूप विभाग का अभाव ही इष्ट रखा जावे तो फिर उसमें षड् दिक छ दिशाभोंका संबंध कथन विरूद्ध पड़ता है। तात्पर्य इसका यह है कि परमाणु जिस स्वरूप से पूर्व आदि किसी एक दिशा के साथ संबद्ध है उसका वह निजरूप भिन्न है और अपर आदि दिशाओं के साथ संबद्ध स्वरूप भिन्न है तो फिर. इस प्रकार स्वरूप में भिन्नताआने के कारण-छह स्वरूपता की आपत्ति का प्रसंग हो जाने के कारण- उसमें एकत्व की हीनता ही आती है। ____अतः बौद्धों का ऐसा कथन ठीक नहीं है- क्यों कि परमाणु द्रव्य रूप होने के कारण निरंश ही है एक ही है फिर भी परमाणु की परिमाण शक्ति अचिन्त्य है इसका कारण उस प्रकार के परिणाम के मद्भाव से छह दिशाओं के साथ उसका निरन्तर रूप अवस्थान संभवित है। इसलिये सात प्रदेशों में स्पर्श ना कथन अघटित नहीं है। मृ०८५॥ નથી જે એકરૂપતા માનવાને માટે વિવિધ રૂપતા રૂપ વિભાગને અભાવ જ ઇષ્ટ માનવામાં આવે, તે તેમાં છ દિશાઓ સાથે સંબદ્ધ હોવાનું કથન વિરૂદ્ધ પડે છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરમાણુ જે સ્વરૂપે પૂર્વાતિ કોઈ એક દિશાની સાથે સંબદ્ધ છે, તેનું તે નિજરૂપ ભિન્ન છે અને પશ્ચિમ આદિ દિશાઓની સાથે સંબદ્ધ સ્વરૂપ પણ ભિન્ન હોય તે આ રીતે સ્વસ પમાં ભિન્નતા આવવાને કારણે છ પ્રકારના સ્વરૂપ માનવાનો પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે અને તે કારણે તેમાં એકત્વને અભાવ આવવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે.
તેથી બોદ્ધોની એ પ્રકારની માન્યતા સાચી નથી, કારણ કે પરમાણુ દ્રવ્ય ૩૫ હોવાને કારણે નિરંશ જ છે–એક જ છે, છતાં પણ પરમાણુની પરિણામશકિત અચિંત્ય છે. તે કારણે તે પ્રકારના પરિણામના સદુભાવમાં છ દિશાઓની સાથે તેનું નિરંતર રૂપ અવસ્થાન સંભવિત છે. તેથી સાત દિશાઓમાં તેના સ્પર્શનું કથન અઘટિત (અનુચિત) નથી. સૂ૦૮પા
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अनुयोगचन्द्रिकटीका सूत्र ८६ कालद्वारनिरूपणम्
उक्तं स्पर्शनाद्वारम् इदानीं पञ्चमं कालद्वारमाह
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मूळम् - गमववहाराणं आणुपुव्वी दव्वाई कालओ केवचिरं होई ? एगं दव्वं पहुच्च जहणेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, णाणादव्वाइं पडुच्च णियमा सव्वद्धा । अणाणुपुब्वी दव्वाइं अवत्तव्वग दव्वाई व एवंषेव भाणियव्वाई । सू. ८६ ।
छाया - नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? एकं द्रभ्यं प्रतीत्य जघन्येन एवं समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नाना द्रव्याणि मतीत्य नियमात् सर्वाद्धा अनानुपूर्वीद्रव्याणिअवक्तव्यक द्रव्याणि च एवमेव मणितव्यानि ॥ ०८६ ॥
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स्पर्शना द्वार को कह कर अब सूत्रकार पाँचवें कालद्वार का कथन करते हैं-" नेगमववहाराणं आणुपुत्री दव्बाई" इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( नेगमववहाराणं आणुपुन्वी दव्वाई ) नैगम और व्यबहार इन दो नय संमत आनुपूर्वी द्रव्य ( कालभो ) काल की अपेक्षा से (he faai) कितने काल तक (होई) आनुपूर्वी रूप से रहते हैं ? ( एगं दव्वं पहुच्च जहणणं एगं समयं )
उत्तर- आनुपूर्वी द्रव्य एक आनुपूर्वी की अपेक्षा को लेकर कम से कम एक समय और ( उक्कोसेणं असंखेज कालं) अधिक से अधिक असंख्यात काल तक आनुपूर्वी रूप से रहता है । ( जाणादवाई पडुच्च णियमा सम्बद्धा ) तथा नाना आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेપશ’નાદ્વારનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર અનુગમના પાંચમાં ભે રૂપ કાળદ્વારનું ક્રયન કરે છે—
" नेगमबवहाराणं आणुपुव्वी दवाई "इत्यादि
शब्दार्थ'-(नेगमवबहारण अणुपुब्बी दव्बाइ) नेगम अने व्यवहार, था मे नयसंभत भानुपूर्वी द्रव्यो (काळभो ) अजनी अपेक्षा मे (केवडिचर) डेटा आज सुधी (होई) मानुपूर्वी ३ये २३ छे ?
Cत्तर- ( एग दव्त्र ं पदुच्च जहणेण एग समय ) भे! मानुपूर्वी द्रव्मनी અપેક્ષાએ વિચારવામાં આવે તે એક અનુપૂર્વી દ્રવ્ય એછામાં ઓછા એક अभय सुधी भने (उक्को सेण असंखेज्ज' काळ) वधारेभां पधारे सभ्याता सुभीमानुपूर्वी ३पे २३ छे, (नाणारवाई पंडुच्च नियमा सम्बद्धा) तथा विविष માનપૂવી દ્ર॰યેની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે અનેક આનુપૂર્વં ન્યાની સ્થિતિ સર્વકાળની હોય છે આ યનના ભાવાય નીચે પ્રમાણે છે,
म० ४६
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अनुयोगद्वारस्त्र टीका-'णेगमववहाराणं' इत्यादि
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कालमाश्रित्य कियचिरं= कियन्तं कालं भवन्ति ? । आनुपूर्वीत्वपर्यायेण कियत्कालम् अवतिष्ठन्ते ? इवि मष्टुराशयः। सूत्रे 'होई' इत्येकवचनमार्पत्वात् उत्तरमाइ-आनुपूर्वीद्रव्यम् एक द्रव्यं प्रतीत्य-आश्रित्य जघन्यत एक समयमवतिष्ठते, उत्कर्षत: असंख्येय काय मबतिष्ठते । नानाद्रव्याणि-बहूनि आनुपूर्वीद्रव्याणि प्रतीत्याश्रित्य तु नियमन एषां सर्वाद्धा-सार्वकालिकी स्थितिर्भवति । अयं भावः-परमाणुद्वयादौ अपरेकादिपरमाणुमीलने सति अपूर्व किंचिदानुपूर्वीद्रव्यमुत्पद्यते, ततः समयाद पुनरप्ये. क्षा लेकर अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों की स्थिति सार्वकालिकी है तात्पर्य इसका यह है कि आनुपूर्वी द्रव्य का आनुपूर्वी द्रव्य रूप में रहने का जो एक समय रूप काल कहा गया है, वह इस प्रकार से है कि-परमाणुद्वय आदि में दूसरे एक आदि परमाणुओं के मिलने पर एक कोई अपूर्व आनुपूर्वी द्रा उत्पन्न हो जाता है वोद में एक समय के अनन्तर उसमें से एक आदि परमाणु के छूट जाने पर वह भानुपूर्वी द्रव्य उस रूप से अपगत (नष्ट ) हो जाता है। इसलिये एक आनुपूर्वी द्रव्य की, अपेक्षा से आनुपूर्वी रूप में रहने का काल जघन्य से एक समय कहा गया है। और जब बही एक आनुपूर्वीद्रव्य असंख्यात काल तक आनुपूर्वी द्रव्य रूप में रहकर एक आदि परमाणु से वियुक्त होता है तब उसकी अवस्थितिका कृरष्ट. समय असंख्यात का कहा गया है । अवस्थितिहाल किसी भी एक
આનુપૂવી દ્રવ્યને આનુપૂવી દ્રવ્યરૂપે રહેવાના જે એક સમય ૨૫ કાળ કહ્યો છે તે આ પ્રકારે કહ્યો છે–
પરમાણુ કયણઆદિમાં (બે પરમાણુમાં) કોઈ એક આદિ અન્ય પરમાર, મળવાથી કઈ એક અપૂર્વ દ્રવ્ય ઉત્પન્ન થઈ જાય છે ત્યાર બાદ એ સમય પછી તેમાંથી એક આદિ પરમાણુ વિયુક્ત (અલગ) થઈ જવાથી તે આનુપૂર્વ દ્રવ્ય તે રૂપમાંથી અપગત (નષ્ટ) થઈ જાય છે એટલે કે તે રૂપે રહેતું નથી તે કારણે એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વ રૂપે રહેવાને કાળ એાછામાં ઓછો એક સમયને કહ્યો છે. અને જ્યારે એજ એ આનપૂવા અસંખ્યાત કાળ સુધી આનુપૂર્વી દ્રવ્યરૂપે રહીને એક આદિ પર મારુ રૂપે વિયુક્ત (અલગ) થઈ જાય છે ત્યારે તેની અવસ્થિતિને ઉત્કૃષ્ટ સમય અસંખ્યાત કાળને કહ્યો છે. કેઈ પણ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યને અવર
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८६ कालद्वारनिरूपणम् काद्यणौ वियुक्ते सति तदानुपूर्वीद्रव्यमपगतं भवति, अत एकमानुपूर्वोद्रव्यमधिकृत्य जघन्यत एकः समयोऽवस्थितिकालः । यदा तु तदेवैकमानुपूर्वीद्रव्यमसङ. ख्यातकालं तद्भावेन स्थित्वाऽनन्तरोक्तस्वरूपेण वियुज्यते, तदा तस्य उत्कृष्टतो ऽसंख्येयोऽवस्थितिकालः, नत्वनन्तोऽवस्थितिकालः, उत्कृष्टाया अपि पुद्गल. संयोगस्थितेरसंख्येयकालत्वात् । बहूनि आनुपूर्वीद्रव्याणि आश्रित्य तु एषामानु. पूर्वीद्रव्याणां नियमतः सर्वाद्धा स्थिति बोध्या। यतो नास्ति कश्चित्तादृशः कालो यत्र कालेऽयं लोक आनुपूर्वीद्रयरहितो भवेदिति । आनुपूर्वी द्रव्य का आनुपूर्णरूप में रहने का काल अनन्त नहीं होता है। क्योंकि उत्कृष्ट भी पुद्गल संयोगस्थिति असंख्यात काल की ही होती है। अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा तो इन आनुपूर्वीद्रव्यों की स्थिति नियमतः सर्व काल की है। क्योंकि लोक में ऐसा कोई काल नहीं है कि जिसमें ये आनुपूर्वी द्रव्य नहीं हों । ( अणाणुपुब्धी दवाइं अवत्तवगवाईच एवं चेव भाणियव्वाइं ) अनानुपूर्वी द्रव्यों में और अवक्तपक द्रव्यां में भी जयन्य और उत्कृष्ट रूप काल एक द्रव्य और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा लेकर पूर्वोक्त रूपसे ही जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि कोई एक परमाणु एक समय तक अकेला रहकर बाद में किसी दूसरे परमाणु से संश्लिष्ट हो जाता है । इस. लिये एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा से उस अनानुपूर्वी रूप एक द्रव्य का अवस्थिति काल जघन्य से एक समय का और जब वही एक परमाणु સ્થિતિકાળ (આનુપૂર્વ રૂપે રહેવાને ક ળ) અનંત હે નથી, કારણ કે ઉત્કૃષ્ટ પુદ્ગલસંગ સ્થિતિ પણ અમ્રખ્યાત કાળની જ હોય છે. અને આનુપૂર્વી દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ તે તે આનુપૂર્વા દ્રવ્યોની સ્થિતિ નિયમથી જ સર્વકાલીન હોય છે, કારણ કે તેમાં એ કોઈ કાળ નથી કે જ્યારે આનુપૂર્વી દ્રવ્યોનું અસ્તિત્વ જ ન હોય.
(अणाणुपुत्वीदव्वाइ' अवत्तव्यगदवाई च एवं चेव भाणियव) अनानु. પૂર્વી દ્રવ્યમાં અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યે માં પણ એક દ્રવ્ય અને અનેક દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ પૂર્વોક્ત જઘન્ય કાળ અને ઉત્કૃષ્ટ કાળ સમજી લે આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે. કે ઈ એક પરમાણુ એક સમય સુધી એકલું રહીને ત્યાર બાદ કેઈ બીજા પરમ ણુ સાથે સંલિષ્ટ થઈ જાય છે. તેથી એ અનાનુપૂરી દ્રવ્યનો અવસ્થિતિકાળ (અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપે રહેવાને કાળ) ઓછામાં ઓછો એક સમયને કહ્યો છે, અને જ્યારે એજ એક પરમાણુ
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अनुयोगद्वारसूत्रे एवमेव-अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रयाणि च वक्तव्यानि । भानु. पूर्वीद्रव्येषु अबक्तव्यद्रव्येषु च जघन्यत उत्कृष्ट तश्चापि पूर्वोक्त एवावस्थानकाला।
अयं भावः-कश्चित्परमाणुरेकं समयमेकाकी स्थित्वा ततोऽन्येन परमाणुना. संश्लिष्टो भवति । अत एकमनानुद्रिव्यमधिकृत्य जघन्यत एकः समयोऽवस्थिति कालः। स एवैकः परमाणु यदा असंख्यातं कालं तद्भावेन स्थित्वाऽन्येन परमाणुना संश्लिष्यति, तदा उत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽवस्थितिकालो भवति । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु पूर्वदेव सर्वाद्धा स्थितिर्योध्या।
परमाणुद्वयलक्षणमवतव्यकद्रव्यमपि यदा समयमेकं संयुक्त स्थित्वा ततो पियुज्यते, तदवस्थमेव या पुनरन्येन परमाणुना संयुज्यते, तदा तस्यावक्तव्यक द्रव्यतया, एकसमयलक्षणः कालस्तस्य जघन्यतोऽवस्थितिकालो बोध्यः । यदा तु असंख्यात काल तक अकेले रहने की स्थिति में रहकर बाद में किसी दूसरे परमाणु से संश्लिष्ट हो जाता है तब उसका अवस्थितिकाल उस्कृष्ट से असंख्यात काल माना जाता है नाना द्रों की अपेक्षा. से इन अनानु पूर्वी द्रव्यों की अवस्थिति का समय सर्वकाल माना गया है क्योंकि लोक में ऐसा कोईसाभी समय नहीं है कि जिसमें ये अनानुपूर्वी दय न हों। एक परमाणुरूप द्रव्यरूप अवक्तव्यक द्रव्य भी जब एक समय तक संयुक्त रह कर फिर वियुक्त हो जाता है तब उसका अवस्थिति काल जघन्य से एक समय माना गया है, अथवा जय वह उसी स्थिति में एक समय तक रहते हुए किसी और दूसरे परमाणु से संयुक्त हो जाता है तब उसका अवस्थितिकाल जघन्य से एक समय का माना गया है । और जय वही अवक्तव्यक द्रव्य असंख्यात અસંખ્યાત કાળ સુધી એકલું રહીને ત્યાર બાદ કઈ બીજા પરમાણુની સાથે સલિષ્ટ થઈ જાય છે, ત્યારે તેને અવસ્થિતિ કાળ અધિકમાં અધિક અસં. ખ્યાત કાળને મનાય છે વિવિધ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચારવામાં આવે તે તે અનાનુપૂવી દ્રવ્યને અવસ્થિતિકાળ સર્વકાલીન માનવામાં આવ્યું છે, કારણ કે લેકમાં એ કઈ સમય નથી કે જ્યારે આ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ જ ન હોય.
બે પરમાણુ રૂપ એક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પણ જ્યારે એક સમય સુધી સંયુક્ત રહીને ત્યાર બાદ વિભક્ત થઈ જાય છે, ત્યારે તેને જઘન્ય અવસ્થિતિ કાળ એક સમયને માનવામાં આવે છે અથવા જયારે તે એજ સ્થિતિમાં એક સમય સુધી રહીને ત્યાર બાદ કેઈ એક બીજા પરમાણુ સાથે સંક્ષિપ્ત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वारनिरूपणम् तदेवावक्तव्यकद्रव्यं असंख्यातं कालं तद्भावेन स्थिवा विघटते, तदवस्थमेव वा पुनरन्येन परमाणुना संश्लिष्यति, तदा उत्कृष्टतो अवक्तव्यकद्रव्यतया असंख्यात. कालस्तदवस्थितिकालो बोध्यः। नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु पूर्ववत् सर्वादानस्थितिकालो बोध्यः॥० ८६॥
सम्पति षष्ठमन्तरद्वारमाह
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होई? एगं दवं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं, नाणादव्वाइं पडुच्च णस्थि अंतरं। णेगमववहा. राणं अणाणुपुबीदव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होई ? एगं दव्वं पडुच्च जहणणेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, नाणादब्वाइं पडुच्च गस्थि अंतरं। गमववहाराणं अवत्तगकाल तक तद्भाव से स्थित रहकर फिर विघटित हो जाता है, अथवा जब वह उसी स्थिति में असंख्यात काल तक रहता हुआ बाद में किसी दूसरे परमाणु से संश्लिष्ट हो जाता है तब उस्कृष्ट से उसका अवक्तव्यक द्रव्य रूप से अवस्थिति काल असंख्यात काल प्रमाण माना जाता है। नाना अवक्तव्धक द्रव्यों की अपेक्षा इन अवक्तव्यक द्रव्यों का अवस्थिति काल सर्वकालिक माना गया है। क्योंकि लोक में ऐसा कोई भी समय नहीं है कि जिसमें इनकी अवस्थिति न हो ॥० ८६॥ થઈ જાય છે ત્યારે તેને અવસ્થિતિ કાળ જઘન્યની અપેક્ષાએ એક સમયને ગણાય છે, અને જ્યારે તે અવક્તવ્યક દ્રવ્ય અસંખ્યાત કાળ સુધી એ જ સ્થિતિમાં રહીને ત્યાર બાદ વિઘટિત (વિભક્ત) થઈ જાય છે, એટલે કે જ્યારે તે એજ રિથતિમાં અસંખ્યાત કાળ સુધી રહે છે અને ત્યાર બાદ કોઈ બીજા પરમાણુ સાથે સંક્વિઝ (સંયુક્ત) થઈ જાય છે, ત્યારે તેને અવક્તવ્ય
વ્યરૂપે રહેવાને કાળ (અવસ્થિતિ કાળ) અધિકમાં અધિક અસંખ્યાત કાળ પ્રમાણ માનવામાં આવ્યું છે.
વિવિધ અવક્તવ્યક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તે અવક્તવ્યક દ્રવ્યને અવ સ્થિતિ કાળ (અવક્તવ્યક દ્રવ્યરૂપે રહેવાને સાય સર્વકાલીન કહ્યો છે. એટલે કે એ કોઈ પણ સમય નથી કે જ્યારે તેમની અવસ્થિતિ (અસ્તિત્વ) જ न ५ ॥ सू० ८६ ॥
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अनुयोगद्वारसूत्रे दवाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होई ? एगं दवं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं, नाणादवाइं पडुच्च णस्थि अंतरं ॥सू० ८७॥ ___ छाया-नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वी द्रव्याणामन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति? एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षेण अनन्तं कालम् , नानाद्रपाणि पतीत्य नास्ति अन्तरम् । नैगमव्यवहायोरनानुपूर्वीद्रव्याणाम् अन्तरं कान्तः कियचिरं भवति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षण असंख्येयं
अब सूत्रकार अन्तर द्वारकी प्ररूपणा करते हैं "णेगमववहाराण" इत्यादि
शब्दार्थ-प्रश्न (णेगमववहाराणं आणुपुब्धीदव्याणं अंतरं कालो केवच्चिरं होई )
प्रश्न-गम व्यवहारनय संमत आनुपूर्वी द्रव्यों का व्यवधान काल की अपेक्षा कितने काल का होता है ? अर्थात् आनुपूवी द्रव्य आनुपूर्वी स्वरूप का परित्याग करके पुनः उस आनुपूर्वी स्वरूप को जितने काल के व्यवधान से प्राप्त करते हैं उस काल व्यवधान का नाम अर्थात् विरह काल का नाम अंतर है । यहां अंतर यह काल की अपेक्षा से शिष्य ने पूछा है । क्योंकि अंगर क्षेत्र की अपेक्षा से भी होता है। इसीलिये यहां उस क्षेत्र गत अंतर के परिहारार्थ काल पद का प्रयोग सूत्रकार ने किया है।
वे सूत्र २ अन्तरवारनी ५३५५५ ४२ छ--"णेगमववहाराणं" त्याह
साथ-प्रश्न-(णेगमवघहाराणं आणुपुत्वीदव्याणं अंसर कालओ देवच्चिर होई ?) नेगम अने यहा२, मा भन्ने नयस मत मानुपूका द्रव्यनु વ્યવધાન (અંતરવિરાળ) કાળની અપેક્ષાએ કેટલા કાળનું હોય છે? આનુપૂર્વી દ્રવ્ય આનુપૂર્વી રૂપનો ત્યાગ કર્યા બાદ ફરીથી તે આનુપૂવી દ્રવ્યરૂપ થવરૂપને જેટલા કાળના વ્યવધાન (આંતર) બાદ પ્રાપ્ત કરે છે, તે વ્યવધાન કાળનું નામ અથવા વિઃકાળનું નામ અંતર છે. અહીં વિષે કાળની અપેક્ષાએ તે અંતરના વિષયમાં પ્રશ્ન પૂછે છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પણ અંતર હોઈ શકે છે, પણ અહીં ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અંતર પૂછયું નથી અહી તે કાળની અપેક્ષાએ અંતર પૂછયું છે. તેથી જ અહીં “ કાઢો केवरिवर" मा सूत्रा3 भूश्य छे.
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मनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वारनिरूपणम् प्रम्प, नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम्। नैगमव्यवहारयोरवक्तव्यक् द्रव्या. पाप अन्तरं कालतःकियच्चिरं भवति ? एक द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एक समयम., उत्कर्षण अनन्तं काळम् , नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् ।।मू० ८७॥
टीका-'णेगमववहाराणं' 'यादि
नंगमव्याहारसम्मतानाम् आनुपूर्वीद्रव्याणाम् अन्तरंगवधानं काढतः कालमाश्रित्य किपचिरं-कियत्कालावधि भवति ?। क्षेत्रतोऽप्यन्तरं भवत्यतस्तव्यवच्छेदाय पाह-'कालो केवच्चिरं' इति । आनुपूर्वीद्रव्यागाम् आनुपूर्वी स्वरूपा परित्यज्य पुनस्तत्माप्ति र्यावता कालेन भवति स किं परिमाणः कालो भक्तीति प्रश्नः। उत्तरमाह-एकं द्रव्यं प्रतीत्य-आश्रित्य जघन्यत एक समयमन्तरम् , उन्कर्षतस्तु अनन्तं कालमन्तरम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु अन्तरं नास्ति । अयं भावः-ज्यणुकचतुरणुकादीनां मध्ये किमप्यानुपूद्रिव्यं विश्रसापरिणामा पयोगपरिणामाद् वा खण्डशो वियुज्य परित्यक्त नुपूर्णभावं संभातम् । पुनम्तन एकसमयाज़ विश्रसादिपरिणामात् पुनस्तै रेय परमाणुभिस्तथैव निप्पलम् । इत्यं ।
उत्तर-(एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं पगं समयं, उक्कोसेणं अणंतं. कालं ) एक आनुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा जघन्य अंतर एक समय का और उस्कृष्ट अंतर अनंत काल का है ( नाणा दयाई पडच्च गस्थि अंतरं ) तथा नाना द्रव्यों की अपेक्षा अंतर नहीं है। इस कथन का भाव यह है कि व्यणुक, चतुरणुक आदि आनुपूर्वी द्रव्य में से कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य स्वाभाविक अथवा प्रायोगिक परिणमन से ग्वंस खंड होकर आनुपूर्वी पर्याय से रहित हो गया अब पुनः वही द्रव्य एक समय के बाद स्वाभाविक आदि परिणाम के निमित्त से उन्हीं
उत्तर-(एगं दब पडुच्च जहण्णेण एग समय उक्कोसेणं अणतं काळं ) એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઓછામાં ઓછું અંતર (વિરહકાળ) એક समयनु भने धारेभा पारे मत२ अनत जनु :य छे. (नाणा बाई पहुच्च णत्यि अंतर) तथा विविध योनी अपेक्षा पिया२पामां आवेता એવા અંતરને સદૂભાવ જ નથી. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છેત્રણ આસુવાળું, ચાર અગુવાળ આદિ આનુપૂવ દ્રવ્યોમાંથી કેઈ એક આનપૂર્વ દ્રવ્ય સ્વાભાવિક અથવા પ્રાયોગિક પરિણમન વડે ખંડ ખંડ થઈ જઈને આનુપૂવ પર્યાયથી રહિત થઈ ગયેલું હવે એજ દ્રવ્ય એક સમય બાદ ફરીથી સ્વાભાવિક આદિ પરિણમન દ્વારા એજ પરમાણુઓના સંગથી એજ આનુપૂરી
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अनुयोगद्वार च एकं द्रव्यमाश्रित्यानुपूर्वीत्वस्य परित्यागे पुनर्लाभे च सति मध्ये योऽन्तरः स जघन्यत एकसमयात्मको बोध्यः, उत्कृष्टतस्तु अन्तरमनन्तकालं भवति । तथाहि तदेव विवक्षितं किमप्यानुपूर्वीद्रव्यं पूर्ववदेव भित्रम् , ततस्ते परमाणवोऽन्येषु परमाणुद्वयणुकत्र्यणुकप्रभृतिषु अनन्ताणु कस्कन्धपर्यन्तेषु प्रतिस्थानमुत्कृष्टां स्थितिमनुभवन्तः पर्यटन्ति । इत्थं पर्यटनं कृत्वा कालस्यानन्तत्वाद विश्रसादिपरिणामतः पुनर्यदा तैरेव परमाणुभिस्तदेव विवक्षितमानुपूर्वीद्रव्यं जायते तदा उत्कृष्टतोऽनन्त परमाणुओं के संयोग से निष्पन्न हो गया-विवक्षित आनुपूर्वी रूप पन गया। इस प्रकार एक आनुपूर्व द्रव्य को आश्रित करके आनुपूर्वी स्वरूप के परित्याग हो जाने पर और पुनः उसी स्वरूप में आने पर बीच में जो अन्तर पहा वह जघन्य से एक समय का पडा-इस प्रकार यह एक समय का अन्तर जानना चाहिये । तथा उस्कृष्ट से अन्तर अनंत काल का, इस प्रकार से अजाता है कि कोई एक विवक्षित आनुपूर्वी द्रव्य पूर्वोक्त रूप से आनुपूर्वी पर्याय से रहित हो गया। इस प्रकार निर्गत वे परमाणु अन्य व्यणुक व्यणुक आदि से लेकर अनन्त स्कंध पर्यन्त रूप अनन्त स्थानों में प्रत्येक उत्कृष्ट काल की स्थि ति का अनुभव करते हुए संश्लिष्ट रहे । इस प्रकार प्रत्येक व्यणुक आदि अनन्त स्थानो में अनंत काल तक संश्लिष्ट होते २ अनन्त काल समाप्त होने पर जब उन्हीं परमाणुओं द्वारा वही विवक्षित आनुपूर्वी द्रव्य पुनः निष्पन्न हो जावे तब यह अनंत काल का उत्कृष्ट अंतर
રૂપ બની જાય છે. આ રીતે એક આનુપવી દ્રવ્યના આનુપૂવી સ્વરૂપને પરિત્યાગ થઈ ગયા બાદ ફરીથી એજ સ્વરૂપમાં આવી જવામાં જે કાળનો આંતરો પડે છે તે કાળના ખતરા રૂપ જઘન્ય અંતર એક સમયનું સમજવું
Fષ્ટની અપેક્ષાએ જે અનંત કાળનું અંતર કહીં છે તેનું સ્પષ્ટીકરણ ની પ્રમાણે છે–ધારે કે કોઈ એક વિવક્ષિત આનુપૂવી દ્રવ્ય પૂર્વોક્ત રૂપે આપવી પર્યાયથી રહિત થઈ ગયું છે. આ રીતે વિભક્ત થયેલાં તે પરમાણુઓ અન્ય બે અણુવાળા, ત્રણ અણુવાળા વગેરેથી લઈને અનંત પર્યન્તના અણુવાળા અન્ય રૂપ અનંત સ્થાનમાંની પ્રત્યેક સ્થાનમાં ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિને અનુભવ કરતાં થકા સંશ્લિષ્ટ રહ્યા. આ પ્રમાણે પ્રત્યેક ક્યાક અદિ અનંત સ્થાનમાં અનંત કાળ સુધી સંશ્લિષ્ટ રહ્યા બાદ એટલે કે એ સ્વરૂપમાં રહેતાં રહેતાં અનંત કાળ વ્યતીત થઈ ગયા બાદ એજ પરમાણુઓ દ્વારા ત્યારે વિવક્ષિત આનુપૂર્વી દ્રવ્યનું ફરીથી નિર્માણ થઈ જાય છે, ત્યારે એમ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वारनिरूपणम्
३६९ कालमन्तरं भवति । नानाद्रव्याण्याश्रित्य त्वन्तरं न भवति । यतो नास्ति कश्चित स कालो यत्र सर्वाण्यानुपूर्वीद्रव्याणि युगपदानुपूर्वीभाव परित्यजन्ति, लोकेऽनन्ता. नन्तानुपूर्वीद्रव्याणां सर्वदा विद्यमानत्वात् , अतो नानाद्रव्यापेक्षयाऽन्तरं नास्तीति।
तथा-नैगमव्यवहारसम्मतानामनानुपूर्वीद्रव्याणां कालतः कियच्चिरमन्तरं भवतीति प्रश्नः। उत्तरमाह-'एगं दब' इत्यादि । एकं द्रव्यमाश्रित्य जघन्यत एकं समयमनानुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं भवति, उत्कर्षतोऽसंख्येयं कालमन्तर भवति । नानाहोता है। नाना आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा जो काल का अन्तर नहीं कहा गया है, सो उसका कारण यह है कि लोक में ऐसा कोई मा भी काल नहीं कि जिप्स में समस्त आनुपूर्वी द्रव्य अपने आनुपूर्वी स्वभाव का एक साध परित्याग कह देते हो । क्यों कि लोक में अनंतानंत आनुपूर्व द्रव्य सईदा विद्यमान रहते हैं । इसलिये नाना आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा से अन्तर नहीं आ सकता है । (णेगमववहारण अणा णुपुच्चीदव्यागं अन्तरं कालभो केवच्चिरं होई ? )
प्रश्न- नैगम व्यवहारनय संमत अनानुपूर्वी द्रव्यों का व्यवधान काल की अपेक्षा कितने काल का होता है ?
उत्तर-(एगं दवं पडुच्च जहण्णेणं एगं समय, उक्कोसेणं असंखेनं कालं नाणादवाई पदुच्च णत्थि अंतरं ) अनानुपूर्वी द्रव्यों का विरह काल एक अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा से जधन्य एक समय का और થવામાં અનંત કાળનું ઉત્કૃષ્ટ અંતર પડી જાય છે. એટલે કે આપવા પર્યાયને પરિત્યાગ કર્યા બાદ ફરી આનુપૂવ પર્યાયમાં આવી જવામાં અનંત કાળનું વ્યવધાન (આાંતરે) પડી જાય છે. “વિવિધ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ કાળનું અંતર છે જ નહીં,” આ પ્રકારના કથનનું કારણ એ છે કે લોકમાં એ કોઈ પણ સમય નથી કે જ્યારે સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રલે પિતાના આનુપવી સ્વભાવને એક સાથે પરિત્યાગ કરી દેતાં હેય, કારણ કે લેકમાં અનંતાનંત આનુપૂવી દ્રવ્યો સવંદા વિદ્યમાન રહે છે, તેથી વિવિધ આનુપૂવી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ કાળનો અંતરે જ પડી શકતો નથી.
प्रश्न-(णेगमववहारणं आणाणुपुठवी व्वाणं अंतर कालओ केवरिचर होई।) ગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અનાનુપૂવી દ્રવ્યોનું વ્યવધાન (અંતર-વિરહ. કાળ) કાળની અપેક્ષાએ કેટલા કાળનું હોય છે?
त्ति -(एगं व पच्च जहण्णेण एग समय सकोसेण असंखेजका नाणाव्वाइं पडुच्च णस्थि भंवर') मनानुभूती' या वि२६ .
म०४७
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नुयोगद्वार
द्रव्याण्याश्रित्य तु नास्ति अन्तरमिति । अयमाशयः - यदा परमाणुस्वरूपं किमप्यनानुपूर्वीद्रपम्, अन्येन परमाणुना द्वचणुकपणुकादिना वा एकं समयं संश्लिष्य समयादूर्ध्वं पुनर्विश्लिष्टं भवति, तदेकद्रव्यापेक्षया जघन्यत एकं समयमन्तरं भवति । यदा तु तदेवानानुपूर्वीद्रव्यं परमाणुद्रयणुकञ्यणुकादिना केनचिद् द्रव्येण सह संयुज्यते, संयुक्त चासंख्येयं कालं स्थित्वा ततो त्रियुज्य पुनः पूर्ववदनानुपूर्वी लभते । इत्थमेकं द्रव्यमाश्रित्य उत्कृष्टतोऽसंख्येयकालमन्तरं भवतीति ।
उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात काल का होता है । नाना अनानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं हैं। तात्पर्य इसका इस प्रकार से है कि जब कोई भी परमाणुरूप अनानुपूर्वी द्रव्य अन्य किसी दूसरे परमाणु के साथ अथवा द्वणुक व्यणुक आदि के साथ एक समय तक संश्लिष्ट होकर बाद में उससे वियुक्त विश्लिष्ट हो जाता है तब एक अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा जघन्य एक समय का अन्तर होता है। और जब वही अनानुपूर्वी द्रव्य रूप परमाणु किसी द्व्यणुक व्यणुक आदि के साथ संयुक्त हो जाता है और असंख्यात काल तक संयुक्त रह कर फिर उससे वियुक्त होता है, तो इस प्रकार पुनः उसे अनानुपूर्वी रूप में आने पर यह द्रव्य की अपेक्षा उत्कृट असंख्यात काल का अन्तर होता है।
અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ એછામાં એછે. એક સમયને અને વધારેમાં વધારે અસખ્યાત કાળના હાય છે વિવિધ અનાનુપૂર્વ દ્રવ્યાની અપેક્ષાએ विचार उरवामां आवे तो व्यवधान (विराज-अतर) ना सहभाव नथी. આ થનનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે-જ્યારે કાઈ પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કાઈ ખીજા પરમાણુની સાથે અથવા ઢચણુક, ત્રિમ આદિ સ્કંધાની સાથે એક સમય સુધી સષ્ટિ (સ'યુક્ત) રહીને તેનાથી વિયુક્ત (અલગ) થઇ જાય છે ત્યારે એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઓછામાં આછા સમયનું અંતર (વ્યવધાન) પડી જાય છે. અને એજ અનનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપ પરમાણુ જ્યારે કાઈ ટ્રૂયણૂક, ત્રિઅણુક આદિ ધાની સાથે સ`શ્લિષ્ટ થઈને અસંખ્યાત કાળ સુધી એજ સ્થિતિમાં રહીને ફરીથી તેમાંથી વિયુક્ત (વિભક્ત) થઈ જાય છે, અને ફરીથી અનાનુપૂરી રૂપે નિષ્પન્ન થઇ જાય છે, તે આ પ્રકારે અનાનુપૂર્વીના પરિત્યાગથી લઇને અનાનુપૂર્વીના પુનઃ નિર્માંશુમાં વધારેમાં વધારે અસખ્યાત કાળનુ` અંતર પડે છે. આ ઉત્કૃષ્ટ અતર એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ કહ્યુ` છે, એમ સમજવુ.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वारनिरूपणम्
ननु अनानुपूर्वीद्रव्यं यदाऽनन्तानन्तपरमाणुप्रचितस्कन्धेन सह संयुज्यते, तत्संयुक्तं चासंख्येयं कालमप्रतिष्ठते, ततोऽसौ स्कन्धोभिद्यते । भिन्ने च तस्मिन् स्कन्धे यस्तस्माल्लघुः स्कन्धो भवति, तेनापि सह संयुक्तमसंख्यातं कालमवतिष्ठते, पुनस्तस्मिन्नपि स्कन्धे भिधमाने यस्तस्माल्लघुनरः स्कन्धो भवति तेनापि लघुतरेण स्कन्धेन सह संयुक्तमसंख्येयं कालमवतिष्ठते, इत्येवं क्रमेण पुनस्तस्मिन्नपि भिद्यमाने स्कन्धे यस्तस्माल्लघुतमः स्कन्धो भवति, तेनापि संयुक्तमसंख्येयं कालमवतिष्ठते, इत्येवं तत्र भिद्यमाने क्रमेण कदाविदनन्ता अपि स्कन्धा संभ
शंका-जब एक अनानुपूर्वी द्रव्य अनंतानंत परमाणुओं के प्रचय रूप से संयुक्त होता है और वह उसके साथ संयुक्त अवस्था में असं. ख्यात काल तक रहता है और बाद में जब यह स्कंध भेद को प्राप्त होता है-अर्थात् टूटता है-तब उससे जो लघुस्कंध उत्पन्न होता है, उसके साथ भी यह परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्य असंख्योत काल तक संयुक्त रहता है । बाद में जब वह भी स्कंध भेद को प्राप्त होता हैतब उससे भी एक लघु र स्कंध उत्पन्न हो जाता है । और उस लघु. तर स्कंध के साथ भी यह असंख्यात काल तक संयुक्त रहता है। इस प्रकार के क्रम से जब वह लघुतर स्कंध भी भेद प्राप्त हो जाता है-तय उससे भी एक लघुतम स्कंध उत्पन्न हो जाता है। और यह परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्य उस लघुका स्कंध के साथ भी असंख्यात काल
શંકા-જ્યારે એક અનાનુપૂર્વા દ્રવ્ય અનંતાનંત પરમારના પ્રચય રૂ૫ અંધ સાથે સંયુક્ત થાય છે અને તે તેની સાથે સંયુક્ત અવસ્થામાં અસંખ્યત કાળ સુધી હ્યા બાદ જ્યારે તે કંધ વિભકત થઇ જાય છે ત્યારે તેમાંથી કોઈ લઘુકંધ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે લધુસ્કંધની સાથે પણ તે પરમાણુ રૂપ અનાનુપ દ્રવ્ય અસંખ્યાત કાળ સુધી સંયુક્ત રહે છે. ત્યારબાદ જયારે તે હક ધ પ વિભકત થઈ જાય છે ત્યારે તેમાંથી કોઈ લધુસ્કંધ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે તે લધુસ્કે ધન સાથે પણ તે પરમાણુ રૂ૫ અનાનું પૂર્વા દ્રવ્ય અસં"યાત કાળ સુધી સંયુકત રહે છે. ત્યાર બાદ જ્યારે તે સ્કંધ પણ વિભકત થઈ જાય છે ત્યારે તેમાંથી પણ એક લઘુતર સ્કંધ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, અને તે લઘુતર સ્કંધ સાથે પણ તે પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂર્વા દ્રવ્ય અસ ખ્યાત કાળ સુધી સંયુકત રહે છે ત્યાર બાદ તે લઘુતર સ્કંધ પણ વિભકત થઈ જાય છે અને તેમાંથી પણ એક લઘુતમ કંધ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. આ પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂર્વા દ્રવ્ય તે લઘુતમ કંપની સાથે પણ અસંખ્યાત કાળ સુધી સંકિટ (સંયુક્ત) હે
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अनुयोगद्वारसूत्र वेयुः, तत्र प्रत्येकस्मिन् स्कन्धे संयुक्तमनानुपूर्वीद्रव्यं यदा यथोक्तामसंख्येयकालं स्थितिमनुभूय एकाकि भवति, तदा तस्य यथोक्तानन्तस्कन्धस्थित्यपेक्षयाऽनन्तमपि फालमन्तरं भवति । ततः कथमुक्तमसंख्येयं कालमेवान्तरम् ? इति चेत्, उच्यते___यदि संयुक्तः परमाणुरनन्तं कालं तिष्ठेत्तदा भवदुक्तमुचितं स्यात् , परन्त्वेवं नास्ति, एतत्सूत्रपामाण्यात् व्याख्याप्रज्ञप्त्यादि मूत्रपामाण्याच्च परमाणुसंयोग
तक संश्लिष्ट रहता है । इस प्रकार क्रम २ से उन २स्कंधों के टूटने पर कदाचित् अनंत भी स्कंध संभवित होते हैं-इस प्रकार अनंत स्कन्धों में से प्रत्येक स्कंध के साथ संयुक्त वह अनानुपूर्वी द्रव्य, जय असंख्यात काल की अपनी स्थिति को समाप्त कर एकाकी रूप में आजाता है-अर्थात् पूर्व की अनानुपूर्वी रूप एक परमाणु अवस्था को प्राप्तकर लेता हैतब उसका इन पूर्वोक्त अनन्त स्कंधों में रहने रूप स्थिति की अपेक्षा से अनन्त काल का भी अन्तर हो जाता है। तब फिर सूत्रकार ने यहां पर एक अनानुपूर्वी द्रव्धका काल की अपेक्षा लेकर असंख्यात काल का ही अन्तरक्यों कहा है ?
उत्तर-यह शंकाकार के द्वारा प्रदर्शित अनन्त काल का अन्तर तब संगत बैठ सकता है कि जब परमाणु संयुक्त होकर अनंत काल तक दयणुकादि अनंत स्कंधों के साथ रहता हो । परन्तु इस सूत्र की प्रमा. છે આ રીતે કામ કરે છે તે છે વિભક્ત થતા રહે છે. આ પ્રકારે તે કયારેક અનંત કંધ પણ સંભવી શકે છે આ અનંત સ્કંધમાંના પ્રત્યેક સ્કંધની સાથે અસંખ્યાત-અસંખ્યાત કાળ સુધી સંયુકત રહીને જ્યારે તે પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂર્વા દ્રવ્ય પૂર્વી પિતાની સ્થિતિમાં આવી જાય છેએટલે કે અનાનુપૂર્વી રૂપ પરમાણુ અવસ્થાને ફરી પ્રાપ્ત કરે છે, ત્યારે તે પૂર્વોકત અનંત અંધામાં રહેવા રૂપ સ્થિતિની અપેક્ષાએ તે અનંત કાળનું અંતર પણ પડી જાય છે છતાં સૂત્રકારે અહીં શા માટે એવું કથન કર્યું છે કે એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યને વિરહકાળ અસંખ્યાત કાળને હૈય છે? એટલે કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપ અવરથાને ત્યાગ કર્યા બાદ ફરી એજ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરવામાં અસંખ્યાત કાળનું, અંતર પડે છે એમ શા માટે કહ્યું છે? અનંતકાળનું અંતર પડે છે, એવું કેમ કહ્યું નથી?
ઉત્તર-શંકાકર્તા દ્વારા પ્રદર્શિત અનંત કાળનું અંતર ત્યારે જ સંગત બની શકે કે જ્યારે તે પરમાણુ હયગુક આદિ અનંત કંપની સાથે સંયુકત થઈને અનંત કાળ સુધી રહેતું હોય, પરંતુ આ સૂત્રની પ્રમાણુતાથી અને
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मैनुयोगन्द्रि का टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वारनिरूपणम् स्थि तेरुत्कृष्टतोऽसंख्येयकालवावगमात् , अतोऽसंख्येयं कालमन्तरं बोध्यम् । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु अन्तरं न भारतीति ।
तथा-नैगमव्यवहारसम्मतानां द्विपदेशिकस्कन्धरूपाणामवक्तव्यकद्रव्याणां कालतः किच्चिरमन्तरं भवतीति प्रश्नः।
उत्तरमाह-'एग दन' इत्यादि। एकं द्रव्यमाश्रित्य जघन्यत एक समयमन्ताम् , उत्कृष्टतोऽनन्तं कालमन्ता भवति। नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु अन्तरं नास्तीति। णता से और व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि सूत्रों की प्रमाणता से परमाणु की मयुक्त अवस्था की स्थिति उत्कृष्ट रूप से असंख्यात काल तक की ही कही गई है । अतः सूत्र कथित असंख्यात काल का ही उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिये । तथा नाना अनानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता है । क्यों कि लोक मे ऐसा कोई भी काल नहीं है कि जिस काल में कोई न कोई अनानुपूर्वी द्रव्य न रहे। 'नेगमववहाराणं अवत्सगदवाणं अंतरं काल भो केवच्चिरै होई ?'
प्रश्न- नैगमव्यवहारनयस मत अवक्तव्यक द्रव्यों अपनी अवक्ता व्यक अवस्था का परित्याग करदेनेपर और पुनः उसी स्थिति में आने पर कालकी अपेक्षा कितना विरह काल है। ?
उत्तर-(एगं दवं पडुच्च जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं વ્યાખ્યાપ્રાપ્તિ આદિ સૂત્રની પ્રમાણુતાથી પરમાણુની સંયુક્ત અવસ્થામાં રહેવાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અસંખ્યાત કાળ પર્વતની જ કહી છે તેથી સૂવાથિત અસંખ્યાત કાળનું જ ઉત્કૃષ્ટ અંતર સમજવું જોઈએ.
વિવિધ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ અંતર હેતું નથી, આ પ્રકારના કથનનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે
લેકમાં એ કઈ પણ કાળ નથી કે જે કાળે કઈને કોઈ અનાનું. પૂવી દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ જ ન હોય એટલે કે કઈને કઈ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ તે લેકમાં સદા કાળ રહે છે જ.
प्रश्न-( नेगमववहाराण अवत्तगदवाण अंतर कालमो केवरिचर होई) નૈગમ અને ૦પવહાર નયસંમત અવકતવ્યક દ્રવ્યને પિતાની તે અવકતવ્યક અવસ્થાને પરિત્યાગ કર્યા બાદ ફરીથી અવકતવ્યક અવસ્થામાં આવી જવામાં કેટલા કાળનું અંતર પડે છે? એટલે કે દ્વયણુક અંધ ૨૫ અવાતવ્યાક
ને વિરહકાળ કાળની અપેક્ષાએ કેટ કહ્યો છે? उत्तर-( एग व पदुच्च जहनेण एग समय, सकोसेणं गणतं का,
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अनुयोगद्वारस्ते अयं भावः-द्विप्रदेशिकस्कन्धरूपमवक्तव्यकद्रव्यं विघटितं स्वतन्त्रं परमाणुहर्य जातम् । समयमेकं विघटितमेव स्थित्वा पुनः एतदेव परमाणुद्वयं परस्परं मिलिखा द्विपदेशिकः स्कन्धो जातः । यद्वा-विघटित एवं द्विपदेशिकः स्कन्धः स्वतन्त्र परमाणुरूपतां पाप्य, अन्येन परमाण्यादिना समयमेकं संयुज्य-समयावं ततो वियुज्य पुनस्तदेव परमाणुद्वयं परस्परं मिलित्वा द्विपदेशिकः स्कन्धो निष्पना, इत्यमवक्तव्यकद्रव्याणां जयन्यत एक समयमन्तर बोध्यम्, नाणादब्वाइं पडुच्च णस्थि अंतरं) एक अवक्तव्यक द्रव्य की अपेक्षा जधन्य अंतर एक समय का, और उत्कृष्ट अंतर अनंत काल का है। तथा नाना अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा अंतर नहीं है । इस कथन का तात्पर्य इस प्रकार से है-कि एक विदेशी स्कंध द्रव्य विघटित हो गया और वह स्वतंत्र रूप से दो परमाणु रूप बन गया। अब वेदो परमाणु एक समय तक परम्पर जूदे २ रहे। फिर एक समय बाद आपस में संश्लिष्ट हो गये और उनके श्लेष से वही द्विप्रदेशी स्कंध पुनः उत्पन्न हो गया। अथवा-द्विपदेशि स्कंध विघटित हो गया और उससे दो परमाणु उत्पन्न हो गये। वे परमाणु अन्य परमाणु आदि के साथ एक समय तक संयुक्त रहे और बाद में उससे विघटित होकर वे ही परमाणु परस्पर मिल कर उसी द्विपदेशिक स्कंध रूप में परिणत हो माणादव्वाई पडुच्च णस्थि अंतरं) मे ५१४०५५ ६०यनी अपेक्षा अन्य ( छ.भा माछ) अत२ मे समयनु' भने र (१४ारेमा थारे) અંતર અનંત કાળનું છે, તથા વિવિધ અવક્તવ્યક દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ અંતરને સદૂભાવ જ નથી આ કથનનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-કઈ એક ઢિપ્રવેશી સ્કન્ધ રૂપ અવકતયક દ્રવ્ય ધારે કે વિઘટિત (વિભકત) થઈને બે સ્વતંત્ર પરમાણુ રૂપ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. ત્યાર બાદ ઓછામાં ઓછા એક સમય સુધી તો તે બન્ને પરમાણુ એક બીજાથી અલગ જ રહે છે, પણ ત્યાર બાદ તેઓ એક બીજાની સાથે સંવિષ્ટ (સંયુકત) થઈ જઈને ફરીથી દ્વિદેશી કન્ય રૂપ બની જાય છે. અથવા-દ્વિદેશી સ્કંધ વિઘટિત થઈ જઈને તેમાંથી બે પરમાણુ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે તે પરમાણુઓ અન્ય પમાણ આદિની સાથે એક સમય સુધી સંશ્લિષ્ટ રહે છે, પણ ત્યાર બાદ તેઓ તેનાથી વિદ્યુત થઈને પરપરની સાથે સંયુકત થઈ થઈને ફરીથી ઢિપ્રદેશિક અંધ રૂપે પરિણત થઈ જાય છે. આ રીતે એજ દ્વિદેશી ઢંધનું તેમના દ્વારા નિર્માણ થઈ જાય છે. આ પ્રકારે દ્વિદેશી કંધ રૂપ અવસ્થાને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८७ अन्तरद्वार निरूपणम्
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यदा च तदेव विघटितं स्वतन्त्रं परमाणुभिरनन्तद्वर्यणुकञ्यणुक यावदनन्ताकस्कन्धैः सह क्रमेण संयोगमासाद्य प्रत्येकस्मिन् स्कन्धेऽसकृदुत्कृष्टां स्थितिमनुभूय कालस्यानन्त्यात्पुनरपि तथैव द्वणुरुरुन्यतया परिणतं भवति, तदाऽवक्तकद्रव्यत्वं प्रतिपद्यते । इत्थं वियोगानन्तरं पूर्वस्वरूपप्राप्तौ अनन्तकालः प्राप्यते, गये - इस प्रकार वही प्रथम स्कंध बन गया। इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कंध अवस्था विघटित होने से पुनः वही द्विप्रदेशी स्कंध बनने के बीच में यह अवक्तव्यक द्रव्य का एक समय का अन्तर जघन्य जनना चाहिये । तथा जब वही विदेशी स्कंध विघटित होते ही दों परमाणु रूप में आजाता है और वे परमाणु स्वतंत्र रूप से अनंत परमाणुओं के साथ अनंत द्वणुक, त्र्यणुकों यावत् अनन्ताणुक स्कंधों के साथ क्रम २ से संयोग को प्राप्त करके, जब प्रत्येक स्कंध में बार २ अपनी उत्कृष्ट स्थिति को समाप्त कर देते हैं तो इस प्रकार काल की अनंतता के बाद जब वे अपनी उसी पूर्व अवस्था रूप द्विप्रदेशिक स्कंध रूप में परिणत हो जाते हैं, तो इसके बीच में यह अनंत काल का उत्कृष्ट समय निकल आता है । नाना अवक्तव्यक द्रयों की अपेक्षा काल का अंतर नहीं है ऐसा जो कहा गया है उसका भाव यह है कि लोक में ऐसा
પરિત્યાગ કરીને-દ્વિપ્રદેશી ક ́ધ રૂપ અવસ્થામાંથી વિદ્રિત થઈને ફરીથી એજ દ્વિપ્રદેશી રકČધ રૂપ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરવામાં એક સમયપ્રમાણ કાળનું જઘન્ય અંતર પડે છે. તેથી જ અવકતવ્યક દ્રવ્ય રૂપ અવસ્થા પુનઃ પ્રાપ્ત હૈાવાથી જધન્ય અંતર
કરવામાં તેને ઓછામાં ઓછે એક સમય લાગતા
भ्रभयनु ह्युं छे.
ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ તે અંતર અનંતકાળનું` કેવી રીતે થાય છે? તે હવે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે
એજ દ્ધિપ્રદેશી કોંધ વિટિત થઈને એ પરમાણુ રૂપ બની જાય છે તે મને પરમાણુ સ્વતંત્ર રૂપે અનંત પરમાણુએની સાથે અનંત દ્વયશુક કંધા, ત્રિઅણુક રકધા આદિ અનંત અણુક પન્તના કહ્યા સાથે ક્રમે ક્રમે સયોગ પ્રાપ્ત કરીને જ્યારે પ્રત્યેક સ્કંધમાં વારંવાર પાતાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સમાસ કરી નાખે છે, અને આ રીતે અનંત કાળ બાદ જ્યારે તે પેાતાની એજ પૂર્વ અવસ્થા રૂપ દ્વિપ્રદેશિક કધ રૂપે ગૃિત થઈ જાય છે, તે આમ થવામાં અનંત ક્રાળના ઉત્કૃષ્ટ સમય વ્યતીત થઈ જાય છે આ રીતે ઉત્કૃષ્ટ આંતર (विरण) अनंत अजनी थाय छे,
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अनुयोगद्वारसूत्रे
भत उत्कृष्टतोऽनन्तं कालमन्तरं भवति । नानाद्रव्याण्याश्रित्य पूर्वोक्तवदेषान्तरं न भवतीति ॥ ०८७ ।
अथ सप्तमं भागद्वारमाह
मूलम् - णेगमत्रवहाराणं आणुपुवदव्वाई सेसव्वाणं कइभागे होजा? किं संखिज्जइभागे होज्जा ? असंखिज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? नो संखिज्जइभागे होज्जा, नो असंखिज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा । गमववहाराणं अणाणुपुत्री दव्वाई सेसदव्वाणं कइभागे होज्जा ? किं संखिज्जइभागे होज्जा ? असंखिज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? नो संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा । एवं अवतउवगदव्वाणि वि भाणियव्वाणि ॥ सू० ८८ ॥
छाया - नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कियद्भागे भवन्ति ? कोई साभी समय नहीं है कि जिसमें कोई न कोई अवक्तव्यक द्रव्य की सप्ता न बनी रहती हो । ॥ सू० ८७ ॥
अब सप्तम भाग नामक द्वार का सूत्रकार कथन करते हैं" जैगम ववहाराणं" इत्यादि । शब्दार्थ - ( नेगमववहाराणं) नैगमव्यवहानय संमत समस्त आनु
“ વિવિધ અવકતવ્યક દ્રવ્યેાની અપેક્ષાએ કાળનુ' અંતર નથી, " मा થનના ભાવાથ એવા છે કે લેકમાં એવા કઈ પણ સમય હાતા નથી કે જ્યારે લેકમાં કોઈને કોઈ અવતબ્યક દ્રવ્ય વિદ્યમાન ન હાય એટલે કે अपने अर्थ भवतव्य द्रव्य तो सोभां सर्वा विद्यमान होय छे . ॥सू०८७ ॥ હવે સૂત્રકાર અનુગમના ભાગદ્વાર નામના સાતમાં ભેનું નિરૂપણ કરે છે. 'णेगमबवहाराणं " त्याहि
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शब्दार्थौं–(णेगमबबद्दारराणं) नैगम भने व्यवहार नयसभित समस्त
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अनुजेगवन्द्रिका टोका सूत्र ८८ भागद्वारनिरूपणम् कि संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवः न्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? नो संख्येयतमभागे भवन्ति, नो असंख्येयतममागे भवन्ति, नो संख्येयेषु भागेषु भान्ति, नियमात् असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति । नैगमव्यवहारयोरनानुपूर्वी द्रव्याणि शेषद्रव्याणां कियद्भागे भवन्ति ? किं संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु पूर्वी द्रव्य ( सेसदवाणं )शेष द्रव्यों में ( कहभागे) कितने भाग में (होज्जा) है । (किं) क्या (संखेज्जइ भागे होज्जा) संख्यातवें भोग में हैं? (खेज्जेप्लु भागेषु होज्जा) अथवा संख्यात भागो में हैं ? अथवा (असंग्विजह भागे होजा) या असंख्यातवें भाग में है. ( असंखेज्जेसु भागेषु होज्जा ) या संख्यात भागो में हैं? (बो संखिज्जइभागे होज्जा नो असखिज्जाभागे होज्जा) न संख्यातवें भाग में हैं न असंख्यातवें भाग में हैं (नो संखेज्जेसु भागेसोज्जा ) और न संख्यात भागों में हैं, किन्तु (नियमा) नियम से वे (असंखेज्जेतु भागेसु होज्जा) असंख्यात भागों में हैं। (णेगमवषः हाराणं अणाणुपुल्बी दवाई) नैगम व्यवहारनय संमत समस्त अनान पूर्वी द्रव्य (सेसवाणं कहभागे होज्जा ) शेष द्रव्यों की कितने भाग में हैं? किं) क्या (संखिज्जइ भागे होज्जा) संख्यातवें भाग में हैं? मानुषी' द्र०य (सेसव्व ण) sीना न्याना (कइभागे होज्जा ?) 8281 भागमा छ १ (किं संखेजइभागे होज्जा ?) शु स"यातमा समi ? (असंखेज्जइ भागे होना) मध्यातमा लामा छ? (संखेज्जेसु भागेस होजा)सप्यात सागमा छ ? (असंखेन्जेसु भागेसु होज्जा )असण्यात भागमा १
उत्त२-( नो संखिज्जइभागे होज्जा, नो असंखिज्जइमागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होजा) समस्त मानुपूरी द्रव्य माना योना सन्याતમાં ભાગમાં પણ હેતું નથી, અસંખ્યાતમાં ભાગમાં પણ હેતું નથી,
यात मागीमा ५५ हातु नथी, ५२न्तु (नियमा असंखेज्जेसु मागेसु होज्जा) નિયમથી જ તે સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય બાકીનાના અસંખ્યાત ભાગમાં હોય છે.
(णेगमववहाराणं अणाणुपुव्वी दवाई ) म भने ०५१६॥२ नयभत समस्त मनानु द्र०य (सेसव्वाण कहभागे होज्जा ?) मानना
योना arwi नागनु राय ? (किं संखिज्जाभागे हान्या) सभ्यातमा लामा हाय छे' (असंखिज्जइमागे होज्जा) अपातमा
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मनुयोगदारो भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? नो संख्येयतमभागे भवन्ति, असंख्येय. तमभागे भवन्ति, नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति । एवमवक्तव्यकद्रव्याण्यपि भणितव्यानि ॥मू०८८॥
टीका-'नेगमववहाराणं' इत्यादि
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि व्यणुकस्कन्धप्रभृत्यनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तानि सर्वाण्यपि आनुपूर्वीद्रव्याणि शेपद्रव्याणाम् अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यलक्षणानां कियति भागे भवन्ति ? किं संख्येयतमभागे भवन्ति, यथा-असया( असंखिज्जइभागे होज्जा ) असंख्यातवें भाग में हैं ? या (संखे. ज्जेसु भागेसु होज्जा) संख्यात भागों में हैं ? या (असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा) असंख्यात भागों में हैं !
उत्तर- ( नो खेज्जहभागे होज्जा ) संख्यातवें भाग में नहीं है-(असंखेज्जइभागे होज्जा ) किन्तु असंख्यातवें भाग में हैं । ( नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेप्नु होज्जा) संख्यात भागों में नहीं हैं ' और न असंख्यात भागों में हैं । (एवं अवत्तव्वगदव्वाणि वि भाणियब्वाई) इसी प्रकार से अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी ऐसा ही कथन जानना चाहिये
भावार्थ -त्र्यणुक स्कंध आदि से लेकर अनन्त परमाणु स्कंध पर्यन्त जितने भी स्कंध हैं वे सब आनुपूर्वी द्रव्य हैं । अनंत एक २ परमा. णु और अनंत द्यणुक स्कंध क्रमशः अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य हैं। पूछने वाले का यह अभिप्राय है कि आनुपूर्वी द्रव्य अनानुपूर्वी और मासमा लय छ १ (संखिज्जेसु भागेसु होज्जा ) सभ्यात मागीमा सय ? (असंखिज्जेसु भागेसु होज्जा) , मसप्यात मागीमा 14 छ ?
उत्तर-(नो संखिज्जइ भागे होज्जा, असंखेज्जइ भागे होज्जा) सभ्यातमा भामा नथी, ५ असण्यातमा मामा छ, (नो संखेजेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा) अध्यात मागोमा ५ नथी भने असण्यात भागमा ५ नथी. (एवं अवत्तव्वगव्वाणि वि भाणियव्वाई') सत०४ દ્રવ્યના વિષયમાં પણ અનાનુપૂવ દ્રવ્યના જેવું જ કથન भही सय ४२७ .
ભાવાર્થ-ત્રણથી લઈને અનંત પરમાણુવાળા જેટલા કહે છે, તેમને આનુપૂર્વી દ્રવ્યો કહે છે જે અનંત એક એક સ્વતંત્ર પરમાણુ છે તેમને અનાનવી દ્રવ્ય કહે છે. બે પરમાણુવાળા જે અનંત કહે છે તેમને અનાનુપૂવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કહે છે આ સૂત્રમાં પ્રશ્નકર્તા એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે આનુપૂર્વી
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८८ भागद्वारनिरूपणम् कल्पनया शतस्य विंशतिमिताः?, किमसंख्याततमे भागे भवन्ति, यथा शतस्यैत्र दश ?, कि संख्येयेषु भागेषु भवन्नि, यथा शतस्यैव चत्वारिंशत् षष्टिा ?, किमसंख्येयेषु भागेषु भवन्ति, यथा शतस्यैव अशीतिः ?, इति प्रश्नः। उत्तरमाहआनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यापेक्षया हीनानि न भवन्ति, प्रत्युत अधिकान्येव भवन्ति, अधिकत्व चाप्पेषां नो संख्येयतमभागेन, नो असंख्येयत. मभागेन, नापि संख्येयैर्भागः, अपि तु असंख्पेयैर्भागैरधिकानि भवन्तीति बोध्यम्, अवक्तव्यक द्रव्यों से अधिक हैं या कम ? तब सिद्धान्तकारों ने इसका उत्तर अधिक रूप में दिया है । तब पुनः शंकाकार ने पूछा कि यदि ये शेष द्रव्यों की अपेक्षा अधिक हैं, तो उनके किस भाग से अधिक है। क्या संख्यातवें भाग से अधिक हैं ? या असंख्यातवें भाग से अधिक हैं ? या संख्यात असंख्यात भागों से अधिक हैं ? तब सूत्रकार ने उसे समझाया कि ये शेष द्रव्यों के असंख्यात भागों से ही अधिक है इतर तीन भागों से नहीं । क्योंकि ये आनुपूर्वीद्रव्य अनानुपूर्वी और अब. क्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा हीन नहीं हैं। किन्तु अधिक ही हैं । यह अधिकता इनमें शेष द्रव्यों के संख्यातवें असख्यातवें एवं संख्यान भागों से मानी गई है। इसका तात्पर्य यह है कि सब आनुपूर्वी द्रव्य अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात દ્રવ્ય, અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય અને અવક્તયક દ્રવ્ય કરતાં અધિક પ્રમાણમાં છે કે અ૫પ્રમાણમાં છે? ત્યારે તેના ઉત્તર રૂપે સિદ્ધાંતકાએ કહ્યું છે કે આપણી દ્રવ્ય, અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અધિક પ્રમાણમાં છે.
વળી પ્રશ્નકર્તા એવો પ્રશ્ન કરે છે કે જે તે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય બાકીના દ્રવ્ય કરતાં અધિક છે, તો કેટલામાં ભાગ જેટલું અધિક છે? શું સંખ્યાતમાં ભાગ જેટલું અધિક છે? કે સંખ્યાત ભાગો જેટલું અધિક છે?? અસંખ્યાત ભાગે જેટલું અધિક છે ?
ત્યારે સૂવકારે તેને એવો ઉત્તર આપે છે કે આનુ દ્રવ્ય બાકીના દ્રના અસંખ્યાત ભાગો પ્રમાણુ જ અધિક છે, સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ અધિક નથી, કારણ કે તે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય, અનાનુપૂવ દ્રવ્ય અને અવતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં ન્યૂન પ્રમાણમાં હોતાં નથી–પણ અધિક પ્રમાણમાં જ હોય છે તે આનુપૂર્વા દ્રવ્યમાં આ અધિકતા બાકીના દ્રોના સંખ્યામાં ભાગપ્રમાણ પણ કહી નથી, અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ પણ કહી નથી, સંખ્યાત ભાગ પ્રમાણ પણ કહી નથી, પરંતુ અસંખ્યાત ભાગે પ્રમાણ જ
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अनुयोगद्वार
अयं भावः - आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्यापेक्षया असंख्येयगुणानि सन्ति, यथा श्रतस्याऽशीतिः । आनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि एतत्त्रयमसत्कल्पनया शतस्वरूपं तत्राऽऽनुपूर्वीद्रव्याणि अशीतिसंख्यातुल्यानि, शेषद्रव्याणि = अनानुपूर्व्यवक्तव्यकरूपाणि प्रत्येकं दश दश गणनया विंशतिसंख्यातुल्यानीति ।
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ननु शेषद्रव्या पेक्षयाऽऽनुपूर्वीद्रव्याणि स्तोकान्यपि भवन्तु का हानिः ? इति दुच्यते - अनानुपूर्वीद्रव्याणि परमाणुरूराण्येव, अवक्तव्यकद्रव्याणि तु द्वषणुकगुणे-अधिक है। जैसे मान लिया जावे कि ये तीनों प १००, संख्या के स्थानापन्न हैं । इनमें अस्सी संख्या के तुल्य आनुपूर्वी द्रव्य हैं। और शेष संख्या २०, बीस के तुल्य अर्थात् १०-१० दस संख्या के बराबरअनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य हैं। शेष द्रव्यों के संख्यातवें अस - हातवें भाग से अथवा संरुवात भागों की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्यों nt अधिक मानने पर उनमें अखंख्यात गुणी अधिकता नहीं आसकने से हीनता आती है ।
शंका- यदि शेष द्रव्यों की अपेक्षा समस्त आनुपूर्वी द्रव्यस्तोकअल्प कम भी मान लिये जायें तो इसमे क्या हानि है ?
કહી છે એટલે કે સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અને અલક્તાક ચૈા કરતાં સખ્યાત ગણાં વધારે છે. ધારો કે આ ત્રણે વ્યે મળીને ૧૦૦નું પ્રમાણ થાય છે, તેમાંથી ૮૦ ભાગ પ્રમાણે આનુપૂર્વા દ્રવ્યો હાય અને ૧૦-૧૦ ભાગ પ્રમાણુ અનાનુપૂર્વી અને અકતવ્યક દ્રવ્યે હાય તે ખાકીના ત્રંબ્યા ૨૦ ભાગપ્રમાણ હોવાથી તેમના કરતાં અનુપૂર્વી દ્રવ્ય ચાર ગણું હાવાથી તેમાં અસખ્યાતગણી અધિકતા ગણી શકાય નહીં. પરન્તુ સૂત્રકારે તેમાં ખ્યાતગણી અધિકતા કહી છે તેથી આ પ્રકારનું કથન કરવામાં અસખ્યાત ગણી અધિકતા નહીં આવી શકવાને કારણે હીનતા આવી જાય છે. કારણ કે આનુપૂર્વી કન્યાને ખાકીના વ્યા કરતાં સખ્માતમાં ભાગપ્રમાણુ પણ કહ્યા નથી, અસૂખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ પણ કહ્યા નથી, સખ્યાત ભાગે પ્રમાણ (સંખ્યાત ગણાં) પણ કહ્યાં નથી, પણુ અસ`ખ્યાત ભાગેપ્રમાણ (असख्यात गां४) उद्यां छे.
શ'કા–જો ખાકીનાં દ્રવ્યા કરતાં સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્યને અલ્પ માન” વામાં આવે તે તેમાં શી હરકત છે ?
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अनुचोववन्द्रिकाटीका सूत्र ८८ भागद्वारनिरूपणम् पाण्येव, आनुपूर्वीद्रव्याणि तु व्यणुकचतुरणुकप्रभृत्यनन्ताणुकपर्यन्तानि, अतः शेषद्रव्यापेक्षयाऽऽनुपूर्वीद्रव्याणि असंख्येयभागैरधिकानि बोध्यानि । उक्तं चापि
"एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेज्जपएसियाणं असंखेज्जपएसियाण अणंतपरसियाणं अणंतपएसियाण य खंधाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्बत्यो वा अणंतपएसिया खंधा, परमाणुपोग्गला अणंतगुगा, संखेज्जपएसिया खंधा संखेज्जगुणा, असंखेज्जपए सिया खंधा असंखेज्जगणा" ____ छाया एतेषां खलु भदन्त ! परमाणुपुद्गलाना संख्येयप्रदेशिकानाम् असं. ख्येयप्रदेशिकानाम् अनन्तप्रदेशिकानां च स्कन्धानां के केभ्योऽल्ला वा बहुका पा तुल्या वा विशेषाधिका वा ?, गौतम ! सर्वस्तोका अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः,
उत्तर-अनानुपूर्वी द्रव्य परमाणुरूप ही है और अवक्तव्यक द्रव्य दयणुक रूप ही है । तथा आनुपूर्वी द्रव्य ज्यणुक आदि स्कंध से लेकर अनन्ताणुक स्कंध पर्यन्त है-इसलिये ये आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातभागों से अधिक है ऐसा जानना चाहिये। अन्यत्र भी इसी बात को यों कहा है-हे भदन्त ! परमाणु रूप पुद्गलों में संख्यात प्रदेश वाले स्कंधों में, असंख्यात प्रदेश वालेस्कंधों में और अनन्त प्रदेश शेले स्कंधों में कौन किनसे अल्प है ? कौन किनसेंबढ़त है? कौन किनसे तुल्य है ? अथवा कौन किनसे विशेष अधिक है?
उत्तर-हे गौतम सबसे कम अनतप्रदेशी स्कंध है, परमाणु पुदबल इनसे अनंत गुणित है संख्यात प्रदेशी स्कंध संख्यात गुणित है।
ઉત્તર-અનાનુપૂર્વ દ્રવ્ય પરમાણુ રૂપ જ છે અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય દ્વાણુક ધ રૂપ જ છે પરંતુ આનુપૂવી દ્રવ્ય ત્રિઅણક, આદિ અનંત બણક પર્યન્તના સ્કંધ રૂપ છે. તે કારણે તે આનુપૂવ દ્રવ્ય બાકીના દ્રવ્યો કરતાં અસંખ્યાત ગણું વધારે હોય છે, તે કારણે તેને બાકીના બે કરતાં અલ્પ કહી શકાય નહીં વળી અન્યત્ર પણ એવું જ કહ્યું છે કેભગવદ્ ! પરમાણુરૂપ પુલે, સંખ્યાત પ્રદેશવાળા સકધ, અસંખ્યાત પ્રદેશેવાળા છે અને અનંત પ્રદેશાવાળા કંધમાં કોણ કોનાથી અ૫ છે, કેણ કોનાથી અધિક છે, કોણ કોની બરાબર છે અને કેશ કેના કરતાં વિશેષાધિક છે?
ઉત્તર-હે ગૌતમ! અનંતપ્રદેશી કંપે સૌથી અહ૫પ્રમાણમાં છે, પ્રમાણપુલ તેમનાં કરતાં અનંત ગણાં છે, સંપાત પ્રદેશ રક
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भयोगवार परमाणुपुद्गला अनन्तगुणाः, संख्येयपदेशिकाः स्कन्धाः संख्येयगुणाः, असंख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धा असंख्येयगुणाः, इति ।
अत्र मूत्रे सर्वस्या अपि पुद्गल जातेरपेक्षयाऽसंख्यातप्रदेशिकाः स्कन्धा असं. यातगुणा उक्ताः। असंख्यातपदेशिकाः स्कन्धास्तु आनुपूर्व्यामेवान्तर्भनन्ति, अतस्तदपेक्षया आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषसमस्तद्रव्येभ्योऽपि असंख्यातगुणानि किं पुनस्नानुपूर्व्यक्तव्यकद्रव्यमात्रात् । 'अधिकानी ति अर्थस्वारस्यादाक्षिप्यते ।
तथा-नैगमन्यवहारसम्मतानि अनानुपूर्वीद्रव्याणि-परमाणुरूपाणि द्रव्याणि शेषद्रव्याणाम् भानुपूर्यवक्तव्यकद्रव्याणामपेक्षया क्रियतिभागे भवन्ति ? किं संख्ये. येषु मागेषु भवन्ति ? किमसंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-नो संख्येयतम भागे भवनि, किंतु असंख्येयतमभागे भवन्ति, नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असंख्ये येषु भागेषु भवन्ति । अनानुद्रिव्याणि-शेषद्रव्याणाम्
और असंख्यात प्रदेशी स्कंध असंख्यात गुणित है । इस सूत्र में समस्त पुदल जाति की अपेक्षा से उसके असंख्यात प्रदेशी स्कंध असं. ख्यात गुणे कहें हैं । सो ये असख्यात प्रदेशी स्कंध आनुपूर्वी में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । इसलिये इस अपेक्षा से सष आनुपूर्वी द्रव्य शेष समस्न द्रव्यों से भी जब असंख्यात गुणित हैं तो कि अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा से ये असंख्यात गुणे हैं इसमें तो कहना ही क्या है। सूत्र में " अधिक" पद नहीं कहा गया है फिर भी यहां उसका आक्षिप्त अर्थ के अनुसार किया गया है । तथा नैगमध्यवहारनय संमत जो अनानुपूर्वी द्रव्य-परमाणु रूप द्रव्य हैं ये आनुपूर्वी और अवक्तव्य क द्रव्यों की अपेक्षा से उनके असंख्यात અસંખ્યાત ગણું છે. અને અસંખ્યાત પ્રદેશી શકંધ અસંખ્યાતગણા છે. આ સૂત્રમાં સમસ્ત મુદ્દગલ જાતિની અપેક્ષાએ તેના અસંખ્યાત પ્રદેશી રક અસંખ્યાત ગણાં કહ્યા છે. તે અસંખ્યાત પ્રદેશી ધન આપવીમાં જ સમાવેશ થઈ જાય છે. આ રીતે વિચાર કરતાં, જે સમરત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય બાકીના સમસ્ત ક કરતાં પણ અસંખ્યાત ગણું છે, તે અનાનુપૂર્વ અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં તે તે અસખ્યાત ગણું હોય એમાં શંકા કરવા
१ नथी. सूत्रमा “ अधि" ५४ पापयु नथी, छतi ५ मही तेना અને સ્પષ્ટ ખ્યાલ આપવા માટે તે પદને પ્રયોગ કર્યો છે.
તથા નિગમ અને વ્યવહાર નયસંમત જે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય (પરમાણ દવ્ય) છે તે આપવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યો કરતાં અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે. તે બાકીના દ્રવ્યના સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણ નથી, સંખ્યાત
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८९ भाषद्वारनिरूपणम्
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असंख्येयतममागे भवन्ति - सन्ति, न तु शेषभागेषु त्रिषु । असत्कल्पनया यथा तस्य दश, भवन्ति । न तु शेषेषु त्रिषु मागेषु भवन्ति । तदेवाह - ' एवं अवतन्त्रगवाणि वि' इति । एवमवक्तव्यकद्रव्याण्यपि भणितव्यानि=अवक्तव्यकद्रव्याण्यपि मनानुपूर्वी देव शतस्य दशवद् विज्ञेयानि ॥ ८८ ॥
अथाष्टमं भावद्वारमाह
मूलम् - णेगमववहाराणं आणुपुच्चीदव्वाई कतरम्मि भावे होज्जा ? किं उदइए भावे होजा ? उवसमिए भावे होजा ? खइए भावे होज्जा ? खओवसमिए भावे होज्जा पारिणामिए भावे होज्जा ? संनिवाइए भावे होज्जा ? णियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा । अणाणुपुच्चीदव्वाणि अवत्तत्र गदव्वाणि य एवं चैव भाणियव्वाणि ॥ सू०८९ ॥
छाया - नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि कठमस्मिन् भावे भवन्ति ? किमौद पिके भावे भवन्ति ? औपशमिके भावे भवन्ति ? क्षायिके भावे भवन्ति ?
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भाग हैं। शेष तीन भागों से अधिक नहीं | जैसे मान लिया जावे कि ये तीनों द्रव्य १०० संख्यात रूप में हैं इनमें शेष द्रव्यों की अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य ८० ' और अनानुपूर्वी द्रव्य १०, दश हैं। इसी प्रकार अवक्तव्यक द्रव्य भी आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा सौ के दश की तरह उनके असंख्यातवें भाग जानना चाहिये शेष तीन भागों से नहीं । ॥ सू०८८ ॥
ગણુ... પણુ નથી અને અસ`ખ્યાત ગણું પશુ નથી. ધારો કે અનુપૂર્વી, અનાનુપૂર્વી અને વાતત્યક, આ ત્રણે દ્રવ્યે મળીને ૧૦૦ સેા ની સંખ્યા રૂપે છે. તેમાં બાકીના દ્રવ્યેની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી' દ્રવ્ય ૮૦ અને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય દૃશની સંખ્યા રૂપ છે એજ પ્રમાણે વક્તવ્યક દ્રવ્ય પશુ આનુપૂર્વી અને અનાનુપૂર્વી દ્રશ્યેની અપેક્ષાએ ૧૦માંથી ૧૦૦ ની જેમ તેમના અસખ્યાતમાં ભાગરૂપ જ સમજવું તેને તેમના સંખ્યાતમાં ભાગરૂપ અથવા તેમના કરતાં સ`ખ્યાત ગણુ` કે અસખ્યાત ગણું સમજવું જોઇએ નહીં. IIસૂ॰૮૮)
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क्षायोपशमिके भाषे भान्ति ? पारिणामिके भावे भवन्ति ?. सामिपातिक भावे भवन्ति ? नियमात् सादि पारिणामिके भावे भवन्ति । अनानुद्रिव्यापि अवक्तव्यकद्रव्याणि च एवमेव भणितव्यानि ॥सू०८९॥ अब सूत्रकार अष्टम जो भावद्वार है-उसका कथन करते हैं
"णेगमववहाराण" इत्यादि शब्दार्थ-(जेगमववहाराणं आणुपुबीदव्वाइं कतरम्मि भावे होज्जा)
प्रश्न-नैगमव्यवहारनय संमन समस्त आनुपूर्वी द्रव्य किस भाव में वर्तते हैं ? (कि उदहए भावे होज्जा ?) क्या औदयिक भाव में वर्तते हैं ? ( उवसमिये भावे होज्जा ) या औपशमिक भाव में वर्तते । (खहए भावे होज्जा?) या क्षायिक भाव में वर्तते हैं ? (ख भोवसमिये भावे होज्जा ?) या क्षायोपशमिक भाव में वर्तते हैं ? (पारिणामिएं भावे होज्जा) या पारिमाणिक भाव में वर्तते है ? (संनिवाइए भावे होज्जा) या सान्निपातिक भाव में वर्तते हैं ? (णियमा साइ परिणामिए भावे होज्जा) ___ समस्त आनुपूर्वी द्रव्य नियम से सादि पारिणामिक भाव में वर्ततें हैं। द्रव्य का उस-उस पसे जो परिणमन होता है उसका नाम परि. णाम है । इस परिणाम का नाम ही पारिणामिक है । अथवा परिणाम होता हो या परिणाम से जो बनता हो उसका नाम पारिणामिक है।
હવે સત્રકાર અનુગામના આઠમાં ભેદ રૂ૫ ભાવતારનું કથન કરે છે"णेगमयवहाराण" या
शहाथ-(णेगमववहाराण आणुपुवी व्वाई कतरम्मि भावे होजा?) પ્રશ્ન-નૈગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અનુપૂર્વી ક કયા ભાવમાં રહે છે? (किं उदइए भावे होज्जा) मोहयि भाभा २७ ले ? (सवसमिए भावे होज्जा) , मीपथभि भाभा २९ छ १ (खइए भावे होज्जा ?, , क्षायि भाभा डाय छ १ (खओवनमिए भावे होज्जा ?) क्षायो५भि wi सय १ (पारिणामिए भावे होजा?) है पारिवामि भाभा य? (संनिवाइए भावे होज्जा १) सानिपाति: भाqHi Rय छ १
उत्तर-( णियमा साइपरिणामिए भावे होज्जा) सभस्त आनुर्वा न्य નિયમથી જ સાદિપારિમિક ભાવમાં રહે છે દ્રવ્યનું તે તે પે જે પરિણમન થાય છે તેનું નામ પરિણામ છે એ પરિણામનું નામ જ પારિામિક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ८९ भावद्वारनिरूपणम् यह परिणाम दो प्रकार का होता है-एक सादि और दूसरा अनादि । धर्मास्तिकाय आदि जो अरूपी द्रव्य हैं उसका जो उस-उस रूप से स्वाभाविक परिणमन है वह अनादि परिणाम है । क्यों कि अनादि काल से ही इन द्रव्यों का परिणमन इसी रूप से होता चला आरहाहै। तात्पर्य कहने का यह है कि इन द्रव्यों का जो स्वाभाविक स्वरूप परिणमन हैं वही अनादि परिणाम है । परन्तु जो रूपी द्रव्य-पुद्गल द्रव्य है उनका उस उस प्रकार का जो परिणमन होता है वह सादि परिणाम है। क्योंकि अभ्र, इन्द्रधनुष आदि पौद्गलिक द्रव्यों के उस उस प्रकार के परिणमन में अनादिता होती है । इसलिये समस्त आनु पूर्वी द्रव्य सादि पारिणामिक भाव में वर्तते हैं । अर्थात् आनुपूर्वी द्रव्यों में जो आनुपूर्वी रूप विशिष्ट परिणाम है वह अनादि कोलीन नहीं है। कारण-पुद्गलों का जो एक विशिष्ट रूप से परिणाम होता है वह उत्कृ. ष्ट की अपेक्षा असंख्यात कालतक ही स्थायी माना गया है। इसी प्रकार से समस्त आनुपूर्वी द्रव्य और समस्त अवक्तव्य भी सादि परिणामि क भाव में ही रहते हैं । औदयिक भावों की व्याख्या आगे की जावे गी इसलिये यहां नहीं की गई है।
छे. परिणाम में प्र४१२D डाय छ-(१) सा परिणाम, (२) मनाहि परिणाम ધર્માસ્તિકાય આદિ જે અરૂપી દ્રવ્યો છે તેમનું તે તે રૂપે જે રવાભાવિક પરિણમન થાય છે તેનું નામ અનાદિ પરિણામ છે, કારણ કે અનાદિ કાળથી જ તે દ્રવ્યનું આ રૂપે પરિણમન થતું આવે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે આ દ્રવ્યનું જે સ્વાભાવિક સ્વરૂપ પરિણમન છે, એજ અનાદિ પરિણામ છે. પરંતુ જે રૂપી દ્રવ્ય (પુદ્ગલ દ્રવ્ય) છે તેમનું તે તે પ્રકારનું જ પરિણમન થાય છે તે સાદિ પરિણામ છે, કારણ કે વાદળાં, મેઘધનુષ આદિ પૌલિક દ્રના તે તે પ્રકારના પરિણમનમાં અનાદિતા હોતી નથી તેથી એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે સમસ્ત આનુપૂર્વા દ્રવ્ય સાદિપરિણામિક ભાવમાં રહે છે. એટલે કે આનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં જે આનુપૂર્વી રૂપ વિશિષ્ટ પરિણામ છે તે અનાદિ કાલિન નથી કારણ કે પુનું જે એક વિશિષ્ટ રૂપે પરિણમન થાય છે તે વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ સુધી જ સ્થાયી રહે છે, એમ માનવામાં આવે છે. એજ પ્રમાણે સમસ્ત અનાનુપ દ્રવ્ય અને સમસ્ત અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પણ સાદિપરિણામિક ભાવમાં જ રહે છે ઔદયિક આદિ ભાવેનું સ્પષ્ટીકરણ આગળ કરવામાં આવશે.
म०४९
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अनुवोगदान टीका-'णेगमववहाराणं' इत्यादि. नैगमन्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रयाणि कतमरिमन् भावे भवन्ति ? इति सामान्यतः पृष्ट्वा विशेषतः पृच्छति-किमौदयिक भावे भवन्ति ? किमौपशमिके भावे भवन्ति ? क्षायिके भावे भवन्ति क्षायोपशमिके भावे भवन्ति ? पारिणामिके भावे भवन्ति ?, सामिपातिके भावे भवन्ति ? इति उत्तरमाह-नियमात् अवश्यतया-आनुपूर्वीद्रव्याणि सादिपारिणामिके-भावेभवन्ति । तत्र-परिणमनं द्रव्यस्य तेन तेन रूपेण भवनं परिणामः, म एव पारिणामिकः, परिणामे भवः, परिणामेन निर्वृत्त इति वा पारिणामिकः । स च द्विविध:सादिरनादिश्च तत्र-धर्मास्तिकायाधरूपिद्रव्याणामनादिः परिणामः । अनादिकालगत् वत्तद्रव्यत्वेन तेषां परिणतत्वात् । रूपिद्रव्याणां तु सादिः परिणामः, अभ्रेन्द्रधनुरा दीनां तथा परिणामस्पानादिवाभावात् । सादिवासी पारिणामिकश्च सादि पारि
भावार्थ- आनुपूर्वी आदि द्रव्य कौन से भाव वाले हैं यह यहां प्रश्न किया गया है तब इसका उत्तर सूत्रकार ने यों दिया है कि ये सब आनुपूर्वी आदि पोद्गलिक द्रव्य सादि पारिमाणिक भाव वाले हैं। पारिमाणिक भाव द्रव्य का वह परिणाम है जो सिर्फ द्रव्य के अस्तित्व से आप ही आप हुआ है। औपशमिकभाव कर्मों के उपशम से होता है। जैसे मल के नीचे बैठ जाने पर जलमें स्वच्छता होती है। क्षायिक भाव कमों के क्षय से पैदा होता है। जैसे कीचड़ के सर्वथा नष्ट हो जाने पर जल में स्वच्छता आती है। क्षय और उपशम इन दोनों के संबन्ध से जो भाव उत्पन्न होते हैं वे क्षायोपशमिक भाव हैं जैसे कोदों-क्रोद्रको धोने पर कुछ मादक शक्ति नष्ट हो जाती है और कुछ
- ભાવાર્થ-આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય કયા ભાવવાળાં હોય છે, એ અહી પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે એ પ્રશ્નને સૂત્રકાર એ ઉત્તર આપે છે કે સમસ્ત આનુપૂર્વી આદિ વગલિક દ્રવ્ય સાદિપરિણામિક ભાવવાળાં હોય છે. પરિણામિક ભાવદ્રવ્યનું એ પરિણામ છે કે જે માત્ર દ્રવ્યના અસ્તિત્વમાં જ આપો આપ થયા કરે છે. પણમિક ભાવ કર્મોના ઉપશમથી ઉત્પન્ન થાય છે. જેમ પાણીમાં રહેલે કચરો નીચે બેસી જઈને પાણી સ્વચ્છ થાય છે જ પ્રમાણે કર્મોના ઉપશમથી ઓપશર્મિક ભાવ પેદા થાય છે. કર્મોના ક્ષયથી ક્ષયિક ભાવ પેદા થાય છે જેમ કાદવને સર્વથા નાશ થઈ જવાથી પાણી રવચ્છ બની જાય છે એ જ પ્રમાણે કર્મોનો ક્ષય થવાથી સાયિક ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે. ક્ષય અને ઉપશમ, આ બન્નેના સંબંધથી જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તેમને લાય શમિક ભાવ કહે છે. જેમ કેદારને. પાણીમાં બેવાથી તેની થેલી માદકશક્તિ નષ્ટ થઈ જાય છે અને થોડી
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्त्वद्वारनिरूपणम्
૭.
णामिकः, तस्मिन् भावे भवन्ति, आनुपूर्वीद्रयाणामा नुपूर्वीत्वेव परिणामस्याना दिवाऽसंभवात्, उत्कर्षतो विशिष्टैक परिणामेन पुद्गलानाम संख्येयकालमेवावस्था - नातं । एवमनानुपूर्वोपाणि अवक्तव्यवद्रव्याणि च सादिपारिणामिके भावे एवं भवन्ति । औदयिकादीना व्याख् न कृता, अग्रे करिष्यमाणत्वात् ।। सू० ८९ ॥
मूलम् - एएसि णं भंते! णेगमववहाराणं आणुपुवीदवाणं अणाणुपुवीदवाणं अवत्तगदवाणं य दवट्टयाए पएस याए दवदुपए सट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्लां वो विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अवत्तः व्वगदव्वाई दव्वड्डयाए, अणाणुपुवी दवाई दद्दट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपुदवाई दवट्टयाए असंखेज्जगुणाई १ । पएसट्टयाएं सव्वस्थोवाई गमववहाराणं अणाणुपुवीदवाई अपएसट्टयाए । अवत्तवगदवाई पसट्टयाए विसेसाहियाई | आणुपुवीद वाई पट्टयाए अनंतगुणाई २ । दद्दटुपएस ट्टयाए सवत्थोत्राइं रोगमंत्रत्रहाराणं अवृत्तव्वगदव्वाईं दट्ट्याए । अणाणुपुर्वी दवाई दध:
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शेष बची रहती है । कर्मों के उदय से होने वाले भाव औदधिक भांव हैं। जैसे कीचड़ के संबन्ध से जल में मलिनता होती है। पारिणामिक भाव के दो भेद हैं १ एक सादि पारिणामिक भाव और दूसरा अनदि पारिणामिक भाव । अनादि पारिणामिक भाव धर्मास्तिकायादिक अमूर्त पदार्थों में होता है। और मूर्त पौगलिक द्रव्यों में सादि पारिणामिक भाव होता है | ।। सू० ८९ ॥
ખાકી રહી જાય છે એજ પ્રમાણે ક્ષય અને ઉપશમને કારણે પણ કર્મની સ્થિતિ થાય છે કર્મોના ઉદયથી ઉત્પન્ન થતાં ભાવને ઔદિય ભાવ કહે છે જેમ કાદવને લીધે પાણી મલિન બને છે, એજ પ્રમાણે કર્મોના · ઉદયથી આમા પર કર્મારૂપી મેલ જામે છે પારિામિક ભાવના लेह - (१) साहि पारिए नि भावना सद्धभाव धर्मास्तिष यह अभूत નીચે પ્રમાણે બે ચૈામાં હોય છે અને મૂર્ત પૌદ્ગલિક દ્રબ્યામાં સાદિપારણામિક ભાવા सद्भाव होय छे. [सू०८७॥
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अनुयोगद्वारसूत्रे
याए अपएसट्र्याए विसेसाहियाई । अवत्तव गदवाई पएसइयाए विसेसाहियाई | आणुपुर्वी दवाई दवटुयाए असंखेज्जगुणाई, ताइं चैव पएसट्र्याए अनंतगुणाई ३ । से तं अणुगमे, से तं नेगमववहाराणं अणोवणिहिया दवा णुपुवी ॥ सू० ९० ॥
छाया - एतेषां खलु भदन्त नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणामनानुपूर्वीद्रव्याणामवक्तव्यकद्रव्याणां च द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया द्रव्यार्थ प्रदेशार्थतया कानि केम्योऽल्पानि वा बहुकानि वा तुल्यानि वा विशेषाधिकानि वा ? गौतम ! सर्वस्तोकानि नैगमव्यवहारयोरवक्तव्यकद्रव्याणि द्रव्यार्थतया, अनानुपूर्वोद्रव्याणि
अब सूत्रकार नववें अल्प बहुत्व द्वार की प्ररूपणा करते हैं"एएसि णं भते !" इत्यादि
शब्दार्थ - (भंते! णेगमववहाराणं एएसिं आणुपुत्री दग्वाणं अणाणुपुग्वदन्वाणं अवत्तग्वगद्व्वाणं य दबट्टयाए पसाए, वहुपएसहाए करे करेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ) हे भदन्त ! नैगम व्यवहारनय संमत इन आनुपूर्वी द्रव्यों के अनानुपूर्वी द्रव्यों के, और अवक्तव्यक द्रव्यों के बीच में द्रव्यार्थता प्रदेशार्थता और द्रव्यार्थ प्रदेशार्थता की अपेक्षा करके कौन २ द्रव्य किन २ द्रव्यों से अल्प हैं ? कौन २ द्रव्यों से अधिक है ? कौन २ किन२ के समान हैं ? कौन २ किन २ द्रव्यों से विशेष अधिक हैं ?
હવે સૂત્રકાર નવમાં અલ્પબહુત્વ દ્વારની પ્રરૂપણા કરે છે" एपणिं भंते! " इत्याहि
शब्दार्थ - (भंते ! णेगमववहाराणं एएसिं आणुपुत्रीदव्वाण अणाणुपुषी दव्वाण' अवत्तव्यगदव्वाण' य दव्वट्टयाए पएसटुयाए, दव्वटुपए सट्टयाए कयरे करेहिंता अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया बा ? ) हे भगवन् ! મૈગમ અને વ્યવહારનયસંમત આ આનુપૂર્વી દ્રબ્યા, અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યા અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યેાની દ્રશ્યાતા, પ્રદેશાતા અને વ્યા પ્રદેશા તાની અપેક્ષાએ સરખામણી કરવામાં આવે, તેા કયા કયા દ્રવ્યેા કરતાં ન્યૂન છે ? કયા કયા દ્રબ્યા કયા કયા દ્રજ્યે કરતાં અધિક છે ? કયા કયા દ્રશૈ કયા કયા દ્રન્યાની ખરાખર છે? અને કયા કયા દ્રવ્યે કયા કયા દ્રશૈાથી વિશેષાધિક છે ?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्त्वद्वारनिरूपणम् ३८९ द्रव्यार्थतया विशेषाधिकानि। आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि । प्रदेशार्थतया सर्वस्तोकानि नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रमणि अप्रदेशार्थतया
उत्तर- ( गोयमा दवट्ठयाए गमववहाराणं अवत्तवगव्वाई सम्वत्थोवाइं ) हे गौतम ! द्रयार्थता की अपेक्षा से नैगम व्यवहारनय संमते अवक्तव्यक द्रव्य सर्वस्नोक हैं-अनानुपूर्वी द्रव्यों से भी अल्प हैं। (अणाणुपुवी दवाई दवट्टयाए विसेसाहियाई ) तथा अनानु. पूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा से विसेषाधिक हैं-अवक्तव्यक द्रव्यों से कुछ अधिक हैं । विसेषाधिकना इनमें वस्तुस्थिति के स्वभाव से है । "तदुक्तम्" इन परमाणु पुद्गलों के और विप्रदेशी स्कंधों के बीच में कौन किससे अधिक है ? गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कंधों से परमाणु पुद्गल. अधिक हैं । इस कथन के अनुसार अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा पर. माणुरूप पुद्गल अधिक प्रमाणिन होते हैं । (दबट्टयाए आणुपुत्री दया. इं असंखेज्जगुणाई) तथा द्रव्यार्थता की अपेक्षा से आनुपूर्वीद्रव्य असं. ख्यात गुणित हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि जो अनानुपूर्वी द्रव्य हैं उनमें परमाणुरूप एक एक ही स्थान लभ्य है, एवं जो अवक्तव्यक द्रव्य हैं उनमें भी द्विप्रदेशी स्कंध रूप एक एक स्थान ही लभ्य हैं परन्तु जो
उत्तर-(गोयमा ! ) 3 गौतम ! (दव्वदयाए गमववहाराण' अवत्तव्यगदव्वाइ सव्वत्थे वाई) द्रल्या तानी अपेक्षा नैगम भने व्य१७२ नय. સંમત અવક્તવ્યક દ્રવ્ય સૌથી અલ્પ છે એટલે કે અનાનુપૂવી દ્રવ્યોથી પણ તે ५८५प्रभाभा अय छे. (अणाणुपुत्रीदव्वाई, दबदयाए विसे साहियाई) તથા કથાર્થતાની અપેક્ષાએ અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અનાનુપૂર્વા દ્રવ્ય વિશેષાધિક છે. તેમાં આ વિશેષાધિકતા વસ્તુસ્થિતિના સ્વભાવની અપેક્ષાએ समावी. “ तदुक्तम् " Bघु ५५ छ , “ 8 सपन्। ५२मा पुराना અને દ્વિદેશી કંધે, આ બન્નેમાંથી કે કોના કરતાં અધિક છે? ઉત્તરહે ગૌતમ! દ્વિપદેશીક સ્કન્ધ કરતાં પરમાણુ પુદગલો અષિક હોય છે.” આ કથન અનુસાર ઢિપ્રદેશી કં રૂપ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં પરમાણુ પુદ્ગલ રૂપ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય અધિક છે, એ વાત પ્રમાણિત થાય છે. (दट्टयाए आणुपुत्वीदव्वाई' असंखेज्जगुणाई) तथा यातानी अपेक्षा આનુપૂવ દૂબે, અનાનુપૂર્વી કો કરતાં અસંખ્યાત ગણાં છે. આ કથનનું સ્પષ્ટીકરણ નીચે પ્રમાણે છે જે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય છે તેમાં પરમાણુ રૂ૫ એક એક સ્થાન જ લભ્ય હોય છે, અને જે અવકતવ્યક વે છે તેમાં પણ દ્વિદેશી કંધ રૂપ એક એક જ સ્થાન લભ્ય હોય છે. પરંતુ જે
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अनुयोगद्वारसूत्रे
अवक्तव्कद्रव्याणि प्रदेशार्थतया विशेषाधिकानि । आनुपूर्वद्रव्याणि प्रदेशार्थतया - अनन्तगुणानि २। द्रव्यार्थ म देशार्थतया सर्वस्तोकानि नैगमव्यवहारयोरवतव्यद्रव्याणि द्रव्यार्थतया । अनानुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतया अम देशार्थतया विशेषाधिकानि । अव क्तव्यकं द्रव्याणि प्रदेशार्थतया विशेषाधिकानि आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि तान्येव प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि । स एषोऽनुगमः । सैषां नैगमव्यवहारयोः अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी ॥ म्र० ९० ॥
३९०
आनुपूर्वी द्रव्य है उनमें व्यणुक स्कंध से लगाकर एकोत्तर वृद्धि से एक एक प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि होने से अनंताणुक स्कंध पर्यन्त अन न्त स्थान हैं इसलिये स्थान की बहुत विवक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यातगुणे कहे गये हैं।
शंका- यदि आनुपूर्वी द्रव्यों के स्थान पूर्व की अपेक्षा अनन्त हैं इसलिये आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात गुणें पूर्व की अपेक्षा लेकर के कहें गये हैं, सो ये कहना ठीक नहीं है क्यों कि इस प्रकार के कथन से तो उन आनुपूर्वी द्रव्यों में उनकी अपेक्षा असंख्यातगुणता न आकर अनंत गुणता ही आती है ?
उत्तर- अनंताणुक जो स्कंध हैं वे तो अनानुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा से अनन्त भागवर्ती होने के कारण स्वभावतः ही स्तोक-कम- हैं। इसलिये अनन्ताणुक स्कंधों को लेकर आनुपूर्वी द्रव्यों में आनुपूर्वी के स्थानों में कुछ वृद्धि नहीं होती है। इसलिये यथार्थरूप में उनमें - आनुपूर्वी द्रव्यों આનુપૂર્વી દ્રવ્યે છે તેમાં તે ત્રિઅણુક કધથી લઇને ક્રમે ક્રમે એક એક પ્રદેશની ઉત્તરશત્તર વૃદ્ધિ થતાં થતાં અનતાણુ ધ પન્તના અન સ્થાન હાય છે તેથી સ્થાનના મર્હુતની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી લ્યે, અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યેા કરતાં અસ્રખ્યાત ગણુાં કહેવામાં આવ્યાં છે.
શકા-જો આનુપૂર્વી .ના સ્થાન અનંત હોય, અને અનાનુપૂર્વી યેાના તથા અવક્તવ્યક લ્યે.નાં સ્થાન એક એક હોય તેા અહી' આનુપૂર્વી દ્રબ્યાને અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યેા કરતાં અનંતગણુાં કહેવા જોઇતા હતાં છતાં અહીં તેમને અસ ંખ્યાત ગણાં શા કારણે કહ્યાં છે?
ઉત્તર-અનંતાણુક જે સ્કધા છે તેએ અનાનુપૂર્વી દ્રા કરતાં અન તમાં ભાગપ્રમાણુ ઢાવાને કારણે સ્વાભાવિક રીતે જ સ્નેક (ઓછાં, ન્યૂન) છે. તેથી અનંતાણુક કાને લીધે આનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં—આનુપૂર્વી કૂબ્યાનાં સ્થાનમાં ખાસ કોઇ વૃદ્ધિ થતી નથી. તેથી યથાય રૂપે તે તે આનુપૂર્વી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्त्वद्वारनिरूपणम् __ टीका-'एएसिणं.' इत्यादि
हे भदन्त ! नैगमव्यवहारसम्म तानामेतेषामानुपूर्वीद्रव्याणामनानुपूर्वी द्रव्यागामवक्तव्यकद्रव्याणां च मध्ये द्रव्यार्थतया द्रव्यमे गर्थों द्रव्यार्थस्तस्यभावो द्रव्यार्थता तया, द्रव्यस्वेनेत्यर्थः, द्रव्यत्वमपेक्ष्य, प्रदेशार्थतया=प्रदेशत्वमपेक्ष्य, द्रव्यार्थप्रदेशार्थनया-द्रव्यत्वं प्रदेशत्वं चापेक्ष्य कानि केभ्यः अल्पानि विशेषहीनस्वादिना स्तोकानि वा भवन्ति ? बहुकानि-असंख्येयगुणत्वादिनाधिकानि वा भवन्ति ? तुल्यानि=समसंख्यत्वेन समानि वा, किंचिदाधिक्येन विशेषाधिकानि ना भवन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति-हे गौतम ! द्रध्यार्यतया द्रव्यार्थत्वमपेक्ष्य नेगमव्यवहारसम्मतानि अवक्तव्या द्रव्याणि सर्वस्तोकानि-अनानुद्रिव्येभ्य आमुपूर्वीद्रव्येभ्यश्च अल्पानि । अनानुपूर्वीद्रव्याणि तृ द्रव्यार्थतया विशेषाधिकानिअधक्तपकद्रव्येभ्यः किंचिदधिकानि । विशेषाधिक्यं त्यस्य वस्तुस्थितिस्वभावात् । तदुक्तम्
__ 'एएसिणं भंते ! परमाणुपोगालाणं दुपएसियाणं बंधाणं कयरे कयरेहितों बहुया ? गोयमा ! दुप्पएसिएस्तिो खंधेहिंतो परमाणुपोग्गला बहुया ॥ - छाया-एतेषां खलु भदन्त ! परमाणुपुद्गलानां द्विपदेशिकानां स्कन्धानां मध्ये के केभ्यो बहुकाः;३ गौतम ! द्विपदेशिकेभ्यः स्कन्धेयः परमाणुपुद्गला पहुकाः०३ इति।
में- असंख्यात गुणित ही स्थान बनते हैं और उन्हीं स्थानों को लेकर उनमें असंख्यात गुणता आती है। अनंतगुणता नहीं। यह सब विषय अनुगम के भाग नाम के सप्तनद्वार में कथित "एएसिणं भंते!"इत्यादि सूत्रपाठ से जान लेना चाहिये। इस प्रकार द्रव्याता की अपेक्षा लेकर बहुत्व का कथन करके अब सूत्रकार प्रदेशत्व की अपेक्षा से आनुपूर्वी आदि દ્રમાં અસંખ્યાત ગણાં જ સ્થાન બને છે, અને એજ સ્થાનની અપેક્ષાએ તેમનામાં (આનુપૂર્વી દ્રમાં) અસંખ્યાત ગુણિતતા જ સંભવી શકે છેઅનંત ગુણિતા સંભવી શકતી નથી. ૮૮માં સૂત્રમાં અનુગામના ભાગર नामना सातभा सेतुं प्रतिपादन ४२ती मते सूत्रा “ एएसिंण" त्यात સૂત્રપાઠ દ્વારા આ વિષયનું વિશેષ વર્ણન કર્યું છે. તે તે સૂત્રમાંથી તે વોચી લેવું. આ રીતે દ્રવ્યર્થતાની અપેક્ષાએ આનુપૂવ ક આદિની અ૯૫બહુતાનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર પ્રદેશત્વની અપેક્ષાએ આનુવી આદિ દ્રવ્યના અપભવનું કથન કરે છે–
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मनुयोगदारसे तथा-द्रव्यातया आनुपूर्वीद्रव्याणि असंख्येयगुणानि ।।
अयं भावः-अनानुपूर्वीद्रव्येषु परमाणुलक्षणं स्थानमेकैकमेव लम्यते, अबक्त व्यकद्रव्येषु दयणुकस्कन्धलक्षणं स्थानमेकैकमेवलभ्यते । आनुपूर्वीद्रन्येषु तु व्य. णुकस्कन्धप्रभृतीनि एकोत्तरद्धयाऽनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तानि अनन्तानि स्थानानि द्रष्यों में अल्प बहुस्व का कथन करके अप सूत्रकार प्रदेशत्व की अपेक्षा से आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में अल्प बहुत्वका कथन करते हैं-(णेगमववहारणं अणाणुपुब्बीदव्वाइं पएसट्टयाए सव्वत्थोवाइं) नैगम व्यवहारनय संमत समस्त अनानुपूर्वी द्रव्य प्रदेशत्व की अपेक्षा करके अवक्तव्यक द्रव्यों से एवं आनुपूर्वी द्रव्यों से अलग है । क्यों कि (अपएसट्टयाए ) भनानुपूर्वी द्रव्यों में प्रदेशरूप अर्थका अभाव है। तात्पर्य कहने का यह है कि परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्यों में भी यदि द्वितीय आदि प्रदेश हो तो द्रव्यार्थता की तरह प्रदेशार्थता में भी अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा से उनकी अधिकता हो जावे परन्तु ऐसा तो है नहीं क्यों कि परमाणु अप्रदेशी होता है-ऐसा सिद्धान्त का वचन है। इसलिये प्रदेशार्थता की अपेक्षा से ये आनुपूर्वीद्रव्य सर्वस्तोक-थोडे कहे गये हैं। निष्कर्षार्थ इसका यह है कि अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता की अपेक्षा लेकर अवक्तव्यक द्रव्यों से कुछ अधिक कहे गये हैं और अवक्तव्यक द्रव्य इनसे कम । सो यदि परमाणुरूप इन अनानुपूर्ण द्रव्यों में भी यदि द्वितीयादिक प्रदेश मान लिये जावें
(णेगमववहाराण अणाणुपुबीदव्वाई पएसट्टयाए सव्वत्थोवाई) नेगम અને વ્યવહાર નયસંમત સમસ્ત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય પ્રદેશની અપેક્ષાએ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અને આનુપૂવ કા કરતાં અ૯૫ હેય છે, કારણ हैं (अपएसटुयाए) मनानुपू द्र०यामा प्रदेश ३५ अयाना अनार डाय. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે પરમાણુ રૂ૫ અનાનુપૂવી દ્રવ્યોમાં પણ દ્વિતીય આ પ્રદેશને સદૂભાવ હતા તે દ્રવ્યાર્થતાની જેમ પ્રદેશાર્થતામાં પણ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં તેમની અધિકતા જ હતા પરંતુ એવી કઈ વાતને તે સદ્ભાવ જ નથી, કારણ કે પરમાણુ અપ્રદેશી હોય છે, એવું સિદ્ધાંતનું વચન છે. તે કારણે પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ અનાનુપૂવી દ્રવ્યોને સૌથી અલપ કહેવામાં આવેલ છે. આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે દ્રવ્યાર્થતાની અપેક્ષાએ તે અનાનુપૂર્વા કાને અવક્તવ્યક કા કરતાં વિશેષાધિક કહેવામાં આવેલ છે. એટલે કે અનાનુપૂવી દ્રવ્ય કરતાં અવક્તવ્યદવે અલ્પ કહેવામાં આવ્યાં છે. પણ પ્રદેશની અપેક્ષાએ તે આનુપવી
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मंदुपोगन्द्रिका टीका सूत्र ९० अल्पबदुत्ववारनिरूपणम् माप्यन्ते, अतः स्थानबहुत्वात् आनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्येभ्योऽवक्तव्यक ज्येभ्यथाऽसंख्येयगुणानि।।
ननु-आनुपूर्वीद्रव्याणां स्थानानि यधनन्तानि, तर्हि आनुपूर्वीद्रव्याणि पूर्वापेक्षयाऽनन्तगुणानि भवन्तीतिरक्तव्यम् , कथनमसंख्यातगुणानीत्युक्तम् ? इति
चेत्, उच्यते-अनन्ताणुकस्कन्धास्तु अमानुपूर्व्यपेक्षयाऽनन्तभागवर्तित्वात् स्व. मावादेव स्तोका इति-अनन्ताणु कस्कन्धेरानुपूर्वीद्रव्येषु न किंचिद् वर्धने, अतो वस्तुवृत्त्या असंख्यातान्येव नेषु स्थानानि पाप्यन्ते । तदपेक्षया तु असंख्यात. गुणान्येव तानि भवन्ति, नः पनन्तगुणानीति । एतच्चानुगप्रस्य सप्तमे भागनाम के द्वारे प्रदर्शितात्-'एएसिं गं भी ' इत्यादिकान् सूत्रपाठान् सबभावनी यम् । इत्थं द्रव्यार्थवयाऽस्पबहुस्त्रमभिषाय सम्प्रति प्रदेशातथा तदाह-'पएसट्टयाए, इत्यादि। नैगमव्यवहारसम्मतानि अनानुद्रिव्याणि पदेशार्थतया प्रदेशत्वमपेक्ष्य सर्वस्तो. कानि-अवक्तव्यद्रव्येय आनुपूर्वीद्रव्येभ्यश्वाल्पानि । एषां सर्वस्तीकरवे हेतुमाह'अपएसट्टयाए' इति । अपदेशार्थतना-अप्रदेशार्थत्वात् , अनानुपूर्वी द्रव्येषु प्रदेवरूपस्यार्थस्थ अभायात् । अयं भावः-यदि हि अनानुपूर्वी द्रव्येष्वपि प्रदेशाः स्युः स्तदा द्रव्यातायामिव पदेशार्यतायामपि अवक्तव्यकद्रव्यापेक्षया वेषामाधिप स्यात् , नचैतदरित, 'परमाणुरप्रदेशः' इति वचनात् , अतः सर्वस्तोकानि एतानि ।
ननु यधनानुद्रिव्येषु मदेशार्थता नास्ति, तर्हि मा तस्या विचारोऽनुपयुक्त एवे? ति चेत् , उच्यते-'प्रदेश' शब्दस्य कृष्टः-सर्वसक्षमः देशः मुद्गलास्तितो प्रदेशार्थता से भी उनकी प्रवक्तव्यकद्रव्यों की अपेक्षा अधिकता मानी जानी चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि परमाणु भप्रदेशी है। भतः अनानुपूर्वी द्रव्य सर्वस्तोक त्यही सिद्धान्त युक्तियुक्त है।
शंका-यदि अनानुपूर्वी द्रव्यों में प्रदेशार्थता नहीं है, तो यहां पर प्रदेशार्थता को लेकर उनका विचार करना अनुपयुक्त ही है કોને અવક્તવ્ય દ્રવ્ય કરતાં પણ અપ માનવામાં આવેલ છે, કારણ કે પરમાણુ ૨૫ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અપ્રદેશી હોય છે જે આ પરમાણુ રૂપ અનાનુપવ કોમાં પણ દ્વિતીય આતિ પ્રદેશને સદૂભાવ માનવામાં આવે, તે પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ પર અવશ્વક કરતાં અનાનુપવી દ્રવ્યની અધિકતા સંભવી શકે છે. પરંતુ પરમાણ રૂપ અનાનુપૂર્વી ને સર્વસ્તક (સૌથી અ૫) માનવીનો સિદ્ધાંત જ યુક્તિયુક્ત લાગે છે.
શંકા- અનાનપૂવ દ્રવ્યમાં પ્રદેશાર્થતાને સદૂભાવ જ ન હોય, તે અતી પ્રવેશાર્થતાની અપેક્ષાએ તેમને વિચાર કર એ વાત જ જ અનુચિત લાગતી નથી?
०५.
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अनुयोगद्वारा कायस्थ निरंशो भागः, इति व्युत्पच्या परमाणुद्रव्येऽपि प्रदेशत्वमस्त्येव, भतः प्रदेशार्थतया एषां विचारो नानुपयुक्त इति । तथा अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्थ - तयाऽनानुपूर्वीद्रव्येभ्यो विशेषाधिकानि अवक्तव्यकद्रव्येषु एकैकस्य द्विमदेशत्वात् । अनानुपूर्वीद्रव्यापेक्षयाऽवक्तव्यकद्रव्याणां प्रदेशार्थत्वमाश्रित्य विशेषाधिक्यं बोध्यमिति । आनुपूर्वीद्रव्याणि तु प्रदेशार्थतया अवक्तव्य व द्रव्येभ्यो ऽनन्तगुणानि ।
उत्तर - ऐसा नहीं है- क्योंकि 'प्रकृष्टदेशः प्रदेश:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सर्व सूक्ष्मदेश का नाम प्रदेश, अर्थात् पुङ्गलास्तिकाय का निरंश भाग है वह प्रदेश है। ऐसा प्रदेशपन परमाणु द्रव्य है ही । इसलिये प्रदेशार्थता की अपेक्षा इनका विचार अनुपयुक्त नहीं है तथा(अवक्तव्य गदव्वाई पर सट्टयाए विसेसाहियाइं ) अवक्तव्यक द्रव्य प्रदेशार्थता की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक- कुछ अधिकहैं । अर्थात् अवक्तव्यक द्रव्यों में एक २ भवक्तव्यकद्रव्य द्विमदेशवाला होता है और अनानुपूर्वी द्रव्यों में एक एक अनानुपूर्वीद्रव्य एक प्रदेश वाला होता है इसी कारण अनानुपूर्वी द्रव्यों से भवक्तव्यक द्रव्य प्रदे शार्थता को लेकर कुछ अधिक कहे गये हैं । ( भाणुपुब्बीदन्याई पएसदुपाए अनंतगुणाई) जो आनुपूर्वी द्रव्य हैं वे अवक्तवक द्रव्यों की अपेक्षा अनंतगुणे हैं। क्यों कि इनके प्रदेश अवक्तव्य द्रव्यों के प्रदेशों
ઉત્તર-એ વાત जरामर नथी, मर५ " प्रकृष्टदेशः प्रदेशः " मा વ્યુત્પત્તિ અનુસાર સૌથી સૂક્ષ્મ દેશનું નામ પ્રદેશ છે એટલે કે પુદ્રશાશ્તિક્રાયને જે નિરશ ભાગ છે તે પ્રદેશરૂપ જ છે. એવુ પ્રદેશ તેા પરમાણુ દ્રવ્યમાં જ હાય છે. તેથી પ્રદેશાથતાની અપેક્ષાએ તેમના વિચાર કરવામાં અનુસુપ્તતા જણાતી નથી.
तथा-(भवतव्यगव्बाइ ५एसट्टयाए बिसेसाहियाइ) अवतव्य द्रव्य પ્રદેશા વની અપેક્ષાથી વિશેષાષિક ઢાય છે. એટલે કે મવકતવ્ય કન્યામાના પ્રત્યેક અવકતવ્યકદ્રશ્ય ખમ્ભે પ્રદેશવાળાં ઢાય છે, અને અનાનુપૂર્વી ચેામાંનું પ્રત્યેક અનાનુપૂર્વી દ્રશ્ય એક એક પ્રદેશવાળું દાય છે. તે કારણે પ્રદેશાતાની અપેક્ષાએ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યેા કરતાં અવકતવ્યક દ્રવ્ચેાને विशेषाधिक (अभु प्रभाशुभां बधारे).
( भाणुपुन्वीबाई परसटुयाए अर्णसगुणाई) प्रदेशार्थं तानी અપેક્ષાએ અત્રતત્મક દ્રવ્ય કરતાં ભાનુપૂર્વી' દ્રબ્યા અનંત ગણાંઢાય છે, કારણ કે
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भोगवन्द्रिका टीका सूत्र ९० अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम् द्रव्यार्थतयाऽऽनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्येभ्योऽवक्तव्यकद्रव्येभ्यश्चाऽसंख्यातगुणान्युक्तानि, तदपेक्षयाऽऽनुपूर्वीद्रव्यस्कन्धानामसंख्यातगुणत्वात् । प्रदेशार्थताऽ. पेक्षया तु आनुपूर्वीद्रव्याण्पनन्तगुणानि सन्ति, तत्मदेशानां पूर्वापेक्षयाऽनन्तगुणत्वादिति२ । इत्थं प्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वमुक्तवा, इदानीमुभयार्थतामाश्रित्य तदुच्यते. 'दबटुपएसहयाए' इत्यादि। नैगमव्यवहारसम्मतानि अवक्तव्यकद्रव्याणि द्रव्यार्य. प्रदेशार्थतया सर्वस्तोकानि, सर्वस्तोकत्वे हेतुमाह-'दबट्ठयाए' इति । अवक्तव्यक द्रव्याणां-द्रव्यार्थतया-द्रव्यार्थयात् सर्वस्वोकत्वं बोध्यम् । तथा अनानुपूर्वीद्रव्याणि से अनंत गुणे हैं । यह पहिले कहा जा चुका है कि आनुपूर्वीद्रव्या यता को आश्रित करके अनानुपूर्वी द्रव्यों से अवक्तव्यकद्रव्यों से असं. ख्यातगुण हैं क्यों कि इनकी अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य स्कंध असंख्यात गुण होते हैं । परन्तु प्रदेशों की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य अनन्त गुणे हैं। क्यों कि इनके प्रदेश पूर्व की अपेक्षा अनन्तगुणें कहे गये हैं। इस प्रकार प्रदेशार्थता को अपेक्षा अल्प बहुत्व का कथन करके अब सूत्रकार उभ. यार्थता की अपेक्षा लेकर अल्म बहुस्व का कथन करते हैं
(णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदवाई दवट्ठपएसट्टयाए सव्वत्थो. वाइं) नैगमव्यवहारनय संमत अवक्तव्यक द्रव्य द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता रूप उभयार्थता की अपेक्षा लेकर सर्वस्तोक हैं । कयोंकि (दम्ब ट्ठयाए) अवक्तव्यक द्रव्यों में द्रव्यार्थता की अपेक्षा लेकरके पहिले सर्व તેમના પ્રદેશ અવક્તવ્યક દ્રવ્યના પ્રદેશે કરતાં અનંત ગણાં હોય છે. પહેલાં એ વાત તે પ્રકટ કરવામાં આવી ચુકી છે કે દ્રથાર્થતાની અપેક્ષા અનાનુપૂવ દ્રવ્ય અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં આનપૂર્વ દ્રવ્યો અસંખ્યાત ગણાં છે, કારણ કે તેમના કરતાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યસ્કંધ અસંખ્યાત ગણાં હોય છે પરંતુ પ્રદેશોની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વા દ્રવ્ય અનંત ગણાં છે, કારણ કે તેમના પ્રદેશે અવકતવ્યક દ્રયે.ના પ્રદેશે કરતાં અનંત ગણાં કહ્યાં છે આ રીતે પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી આદિ ના અપ-બહત્વનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ઉભયાર્થતા 'બર્થતા અને પ્રદેશાર્થતા)ની અપેક્ષા
मना समपर्नु यन रे छे-(णेगमववहाराण अवतव्वगदम्बाई दबद. पएसद्वयाए सम्वस्थोवाई) नेम भने ५१७२ 14समत मत-य छन्
વ્યાર્થતા અને પ્રદેશાર્થતા રૂપ ઉભયાર્થતાની અપેક્ષાએ સર્વસ્તક સોથી - छ, १२५ (दबट्ठयाए) या तानी अपेक्षा मात०५४ ६०यमi aids. ता प्रतिपाइन प3ai ४२१:४i मायु, 1५८ (अगाणुपुषी दम्बाई दबदुपाए
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अनुयोगद्वार उभयार्थश्वमाश्रित्य वक्तव्यवद्रव्यापेक्षया विशेषाधिकानि बोध्यानि अत्र हेतुमाह'दव्बट्टपाए अपर सट्टयाए' इति । द्रव्यार्थ तयाऽप्रदेशार्थतथा च अनानुपूर्वीद्रव्याजामवक्तव्यव द्रव्यापेक्षया विशेषाधिक्यं बोध्यम् । ' अवतन्त्रगइव्वाई' इत्यादि, अवक्तव्यकद्रव्याणां त्विह प्रत्येकं द्विप्रदेशत्वाद्विगुणितानां तेषामन्येभ्यः =अनानुपूर्वीद्रव्येभ्यः प्रदेशार्थतया विशेषाधिकरवं बोध्यम्। उभयार्थत्वमाश्रित्यानुपूर्वी द्रव्याणि असंख्येयगुणान्यनन्तगुणानि च सन्तीति सूचयितुमाह-' आणुपृथ्वीव्वाई' इत्यादि । आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि बोध्यानि, च = पुनः तान्येव = आनुपूर्वीद्र पाण्येव प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि बोध्यानि । प्रत्येकचिन्तास्तोता कही गई है। तथा "अणाणुपुरुषीदन्याइं दव्वट्टयाए अपएसया विसे साहियाई ) अनानुपूर्णे द्रव्य उभयार्थश्व को आश्रित करके अवक्तव्यक द्रव्य की अपेक्षा से कुछ अधिक हैं। यहां कुछ अधिकता द्रव्यार्थता और अप्रदेशार्थता से जाननी चाहिये। (अवक्तव्वगदग्बाई एसए विसे साहियाई ) तथा अवक्तव्यक द्रव्य प्रदेशार्थता की अपे क्षा लेकर अनानुपूर्वी द्रव्यों से विशेषाधिक है। सो यह विशेषाधिकता इनमें प्रत्येक अवक्तव्यक द्रव्य द्विप्रदेशी होने के कारण जाननी चाहिये । क्यों कि ये प्रत्येक अनानुपूर्वी द्रव्यों के प्रदेशों की अपेक्षा द्विगुणित प्रदेशवाले हैं। तब कि अनानुपूर्वी द्रव्यों में प्रदेश एक एक है। इस प्रकार इनमें द्विगुणिता जानना चाहिये। (आणुपु०दीव्वाई दव्त्रयाए असंखेज्जगुणाई ताई चैव परसट्टयाए अनंतगुणाई ) उभयार्थता को आश्रित करके द्रव्यार्थना की अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात अपट्टयाए विसेस हियाइ) अनानुपूर्वी द्रव्य उयार्थत्वनी अपेक्षाओ अब. બ્યક દ્રષ કરતાં વિશેષાધિક હેય છે અહી' દ્રવ્યાતા અને અપ્રદેશાથ तानी अपेक्षाओ या अधिछता समभवी. (अवत्तव्यगव्वाई' विसेसाहियाइ) तथा वक्तव्य द्रव्यो प्रदेशार्थतानी अपेक्षा मनानुपूर्वी દ્રવ્યે કરતાં વિશેષાષિક છે. તેમની આ વિશેષાધિકતા પ્રત્યેક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય દ્વિપ્રદેશી હાવાને કારણે સમજવી, કારણ કે પ્રત્યેક કરતાં પ્રત્યેક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય ખમણા પ્રદેશવાળું હોય છે એક એક પ્રદેશવાળું હાય છે અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય ખએ પ્રદેશવાળું હોય છે, તે કારણે અવક્તવ્યક દ્રવ્યને અના૰પૂર્વી દ્રશ્ય કરતાં બમણા પ્રદેશવાળુ' કહ્યું છે. ( आणुपुव्वदव्वाई दव्बट्टयाए असंखेज्जगुणाई ताइ चेव पएमट्टयाए अणतगुणाइ ) लयार्थतानी अपेक्षाको हवे तेमना अस्यमहुत्वना विचार
पएसटुयाए
અનાનુપૂર્વી દ્રશ્ય અનાનુપૂર્વી દ્રશ્ય
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मधुरोमान्द्रिका टीका सूत्र ९० अस्पबहुत्ववारनिरूपणम् जादुमयार्यतया चिन्तायामयमेव विशेषः-अनानुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतामाश्रित्य अबक्तव्यक द्रव्यापेक्षया विशेषाधिकानि भवन्ति, तत्र प्रदेशरहितत्वात् प्रदेशार्थमाया असंभवात् सर्वस्तोकत्वं न गृहीतम् । प्रत्येकचिन्तायां तु प्रदेशार्थतापक्षे तदपि एपितम्। एतदर्थमेव उभयार्थता पक्षोपादानम् । इत्य नवविधमनुगममुक्त्वा सम्मति प्रकरणमुपसंहरनाह-' से तं' इत्यादि । स एषोऽनुगमः। सैषा नैगमव्यवहार. योरनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वीति ॥मू०१०॥ गुणे हैं और प्रदेशार्थता की अपेक्षा करके आनुपूर्वीद्रव्य अनन्तगुणा है। इस प्रकार प्रत्येक पक्ष से विचार करने की अपेक्षा जो यह उभयार्य पक्ष की अपेक्षा लेकर विचार करने में आया है उसमें यही विशेषता है कि जैसे इस पक्ष में अनानुपूर्वी द्रव्य, द्रव्यार्थता को आश्रित करके अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा विशेषाधिक कहे गये हैं। वैसे वे प्रदेश होने के कारण सर्वस्तोक प्रदेशार्थता असंभवता से नहीं लाये गये हैं। परन्तु जब प्रत्येक पक्षको लेकर इनका विचर होता तप यह सर्वस्तोकता भी उनमें प्रकट की जाती है। इसी निमित्त से यहां यह तृतीय पक्षरूप उभयार्थता गृहीत की गई है। इस प्रकार नब. विध अनुगम कह करके अब सूत्रकार इस प्रकरण का उपसंहार कर. ने के अभिप्राय से ( से तं अणुगमे, से तं गमयवहाराणं अणोवणि.हिया दव्वानुपुब्वी ) इन पदों द्वारा यह प्रकट कर रहे हैं कि इस प्रकार કરવામાં આવે છે-દ્રવ્યાર્થતાની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વ દ્રવ્ય અસંખ્યાત ગણું અને પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ આનુવ દ્રવ્ય અનંત ગયું છે. આ પ્રકાર પ્રત્યેક પક્ષને અનુલક્ષીને વિચાર કરવાની અપેક્ષાએ જે અહીં ઉભયાર્થપક્ષની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવ્યા છે તેમાં એક વિશેષતા છે કે-જેમ દ્રવ્યાર્થિતાની દષ્ટિએ વિચાર કરીને અનાનુપૂવ દ્રવ્ય અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં વિશેષાધિક પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, એ પ્રમાણે પ્રદેશાર્થતાની અપે. ક્ષાએ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોને વિશેષાધિક બતાવવામાં આવ્યા નથી, કારણ કે તેઓ પ્રદેશરહિત હોવાને કારણે અવક્તવ્યક દ્રો કરતાં અ૫પ્રમાણવાળા છે. પરંતુ જે પ્રત્યેક પક્ષની અપેક્ષા એ તેમને વિચાર કરવામાં આવે તે આ સર્વસ્તકતા (સૌ કરતાં અહ૫પ્રમાણુતા) પણ તેમનામાં પ્રકટ કરી શકાય છે. એજ નિમિત્તને લીધે અહીં તૃતીય પક્ષ રૂ૫ ઉભયાથતા હીત કરવામાં આવી છેઆ પ્રમાણે નવ પ્રકારના અનુગામનું નિરૂપણ કરીને હવે સરકાર ai ४२४ने। 6५२ ४२ता । छे -(से त' अणुगमे से गमवार हाराण अणोवणिहिया पाणुपुब्धी) अनुरामनु ४२ १३५ .
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अनुयोगद्वार
इत्थं नैगमव्यवहारनयमतेन अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी उपाख्याय संग्रहनयमतेन सम्प्रति तामेव व्याख्यातुमाह
मूलम् - से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया दवाणुपुवी ? संगहस्स अणोवणिहिया दव्वाणुपुत्री पंचविहा पण्णत्ता, तं जहाअट्ठपयपरूवणयार, भंगसमुक्कित्तणयार भंगोवदंसणया ३ समोयारे४ अणुगमे५॥सू०९१॥
छाया - अथ का सा संग्रहस्य अनौपनिषिकी द्रन्यानुपूर्वी ? संग्रहश्य अनौपनिषिकी द्रव्यानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा - अर्थपदमरूपणता १, भङ्गसमुत्कीचनता२, भङ्गोपदर्शनता ३, समवतारः४, अनुगमः ५ ॥ ०९१॥ टीका -' से किं तं ' इत्यादि
व्याख्या निगद सिद्धा | सू० ९९ ॥
से यह अनुगम का स्वरूप है। इस प्रकार यहां तक नैगम व्यवहार नय संगत अनोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का कथन किया । सू० ९० ॥
अब सूत्रकार संग्रहनय के मतानुसार इस अनौपनिधि की द्रव्यालुपूर्वी का कथन करते हैं - 'से किं तं' इत्यादि ।
शब्दार्थ - हे भदन्त ! ( से किं तं संगहस्त अणोवणिहिया दव्वाणु पुत्री ) ' संग्रहनय संमत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (संगहस्स अणोवणिहिया दव्वाणुपुत्री पंचविहा पण्णत्ता) संग्रहनय संमत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पांच प्रकार कही गई है। (तं जहा ) उसके वे प्रकार ये हैं- ( अट्ठश्यरूपवणया १ भंग समुत्तिणया ५ गोवदंसणया ३ समोयारे ४, अणुग मे ५, ) अर्थपद प्ररूपणता १, भंग પ્રકારે અહીં સુધીમાં સૂત્રકારે તૈગમવ્યવહારનયસમત અનૌપનિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી ના સ્વરૂપનુ નિરૂપણ કર્યું છે. ાસૢ૦૯૦||
હવે સૂત્રકાર સંગ્રહનયના મતાનુસાર આ અનૌપનિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી ના वइप उथन रे छे - " से कि त " त्याहि
शब्दार्थ - प्रश्न- (से किं तं संगहस्स अगोवणिहिया दत्राणुपुत्र्वी १) के ભગવન્ ! સ'ગ્રહનયસ'મત અનોપનિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर - ( संगहस्स अणोवणिहिया दन्त्राणुपुत्री पंचविहा पण्णत्ता ) स श्रद्धनयस'भत मनोयनिषिडी द्रव्यानुपूर्वी पांच प्रारनी उही छे. ( स जहा ) ते अाश नीचे प्रमाये छे - ( अत्थपयपरूवणया १, भंगसमुक्तिणया २, भंगोषदंसधया, स्वमोयारे४ अणुगमे५) (१)अर्थ पढअ३पलुता, (२) अजय भुडीत नला
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योगचन्द्रिका ठीका सूत्र ९२ अर्थपदप्ररूपणानिरूपणम्
अथ संग्रहनयेनार्थ पदमरूपणतामाह
मूलम् - से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ? संगहस्स अट्ठपयपरूवणया तिप्पएसिए आणुपुद्दी उप्पएलिए आणुपुव्वी जाव दसपएसिए आणुपुवी संखिजपएसिए आणुपुत्री असंखिज्जपएसिए आणुपुत्री अनंत एसिए आणुपुत्री परमाणुपोग्गले अणाणुपुत्री, दुप्पएसिए अवत्तव्वए । से तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ॥ सू० ९२ ॥
छाया-अथ का सा संग्रहस्य अर्थपदप्ररूपणता ? संग्रहस्य अर्थपदप्ररूपणता - त्रिप देशिक आनुपूर्वी चतुष्पदेशिक आनुपूर्वी याद दशप्रदेशिक आनुपूर्वी संख्येयमदेशि समुस्कीर्तनतार भंगोपदर्श नता ३ समवतार४ और अनुगमः । इम सुत्र की व्याख्या ७४ वे सूत्र की व्याख्या के अनुसार जाननी चाहिये || तु ० ९१ ॥
संग्रहनय के मतानुसार अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं। " से किं तं संगहरूस" इत्यादि
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शब्दार्थ - हे भदन्त ! (से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया) पूर्व प्रक्रान्त उस संग्रहनय मान्य अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ?
उत्तर - ( संगहस्स अट्ठपयपरूवणया) संग्रहनय मान्य अर्थ पद प्ररूवणता का स्वरूप इस प्रकार से है - ( तिप्पएसिए आणुनी चउष्पएसिए आणुपुत्री, जाब दसपएसिए आणुपुथ्वी संविज्अप लिए
(3) भगोपहर्शनता, (४) सभवतार माने (4) अनुगम आ सूत्री વ્યાખ્યા ૭૪ માં સૂત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી. !!સૢ૦૯૧/
સંગ્રહનયના મતાનુસાર અર્થ પદ પ્રરૂપણુતાનું' સ્વરૂપ કેવુ' હાય છે તે sa a se s d–“à fás a' énga” Jul—
शब्दार्थ - प्रश्न- (से कि त संगहस्य प्रत्यपयपरूवणया १) हे भगवन् ! પૂર્વ પ્રસ્તુત સંગ્રહનયસ'મત અર્થ પદપ્રરૂપણુતાનું' સ્વરૂપ કેવુ' કહ્યું છે ? Gत्तर-( संगइस्स भ्रत्थपयपरूवणया) स अनयस भत अर्थ यह स्व३५ मा अाउनु छे
वृतानु
( तिप्परखिए अणुपुब्बी, चचम्पयसिप भाणुपुब्बी, जाब दस पर लिए श्रापुन्जी, संखिन्नपपलिए बाणुपुब्बी, असिज परचिय आणुपुन्बी, अनंतक
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मनुयोगदार क आनुपूर्वी असंख्येयप्रदेशिक आनुपूर्वी, अनंतप्रदेशिक आनुपूर्वी परमाणुपुद्गला अनानुपूर्वी, द्विपदेशिकः अवक्तव्यकम् । सैषा मंग्रहस्य अर्थपदमरूपणता।मु०९२॥ आणुपुज्वी असंखिज्जपएसिए आणुपुग्वी, अणंतपएसिए आणुपुत्वी, परमाणुपुग्गले अणाणुपुठवी; दुप्पएसिए भवत्तव्यए) विप्रदेशवाला स्कंध आनुपूर्वी है, चार प्रदेशवाला स्कंध आनुपूर्वी है, यावत दश प्रदेशवाला स्कंध आनुपूर्षी है' संख्यात प्रदेशवाला स्कंध आनुपूर्वी है, असंख्यात प्रदेश वाला स्कंध आनुपूर्वी है, अनन्त प्रदेश वाला स्कंध आनुपूर्वी है, परमाणुपुद्गल अनानुपूर्वी द्रव्य है, द्विप्रदेश वाला स्कन्ध अवक्तव्यक
प है यही संग्रहनय मान्य अर्थपद प्ररूपणता का स्वरूप है । तात्पर्य इसका यह है कि पहिले नेगम और व्यवहार नयको अपेक्षा करके एक त्रिप्रदेशिक स्कंध एक आनुपूर्वी द्रव्य है, अनेक त्रिप्रदेशिक स्कंध. अनेक आनुपूर्वी द्रव्य है इस प्रकार आनुपूर्वी में एकस्व और अनेकत्व का निर्देश किया गया है । परन्तु समान्यत्ववादी होने के कारण इस संग्रहनय के मतानुसार समस्त त्रिप्रदेशिक स्कंध एक ही आनुपूर्वी हैं । इस नय की मान्यता इस विषय में ऐसी है कि जितने भी त्रिप्रदेशिक स्कंध हैं वे यदि अपने त्रिप्रदेशिकत्व रूप सामान्य से भिन्न हैं तो विपदेशिक आदि स्कंध की तरह वे त्रिप्रदेशिक स्कंध ही नहीं एमिए वाणुपुव्वी, परमाणुपुग्गले अणाणुपुवी, दुप्पएसिए अवत्तव्वए) १y પ્રદેશવાળે કંધ આનુપૂવિ છે, ચાર પ્રદેશવાળે અંધ આનુવી છે, એજ પ્રમાણે દસ પર્યન્તના પ્રદેશવાળો કંધ આનુપૂવ છે સંખ્યાત પ્રદેશવાળે કંધ અનુપૂવી છે, અસંખ્યાત પ્રદેશવાળ સ્કંધ આનુપૂવી છે અને અનંત પ્રદેશવાળો કંધ અનુપૂવી છે. પરમાણુ પુદ્ગલ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય છે અને બે પ્રદેશવાળ કંધ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય છે. સંગ્રહનય દ્વારા માન્ય અર્થપd પ્રરૂપણતાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છેનગમ અને વ્યવહાર નયની માન્યતાને આધારે પહેલાં એવું કથન કરવામાં આવ્યું છે કે એક ત્રિપ્રવેશી કંધ એક આનુવ દ્રવ્ય રૂપ છે, અને અનેક વિપ્રદેશ છે અનેક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપ છે. આ રીતે આનુપૂર્વમાં એકત્વ અને અનેકત્વને ત્યાં નિર્દેશ કરવામાં આવ્યો છે. પરંતુ સામાન્ય તવવાદી હેવાને કારણે આ સંગ્રહનાની માન્યતા અનુસાર સમરત ત્રિકદેશી કંઇ એક જ આનુપૂર્વી રૂપ છે. આ વિષયને અનુલક્ષીને આ નયની
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गिन्द्रिका टीका सूत्र ९२ अर्थपदप्ररूपणानिरूपणम् टीका-'से कि तं' इत्यादि
अब का सा संग्रहनयसम्मता अर्थप्ररूपणता ? इति पश्नः। उत्तरमाह-संग्रह नवसम्मता अर्थपदमरूरणता तु त्रिप्रदेशिकः स्कन्ध आनुपूर्वी चतुष्पदेषिक: स्कन्ध आनुपूर्वी यावद दशप्रदेशिकः स्कन्ध आनुपूर्वी, संख्येयप्रदेशिकः स्कन्ध मानुपूर्वी, असंख्येयपदेशिकः स्कन्ध जानुपर्छ, अनन्तमदेशिकः स्कन्ध आनुपूर्वी, परमाणुपुद्गलः आनुपूर्ग, द्विपदेशिकः स्कन्धः अबक्तव्यकमिति । अत्रेदंबोध्यम्पूर्वत्र नेगमव्यवहारनयारपेक्ष्य 'त्रिपदेशिक आनुपूर्वी-त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्यः' इत्येवमेकत्वेन बहुत्वेन व निर्देशः कृतः । संग्रहन ये तु संग्रहस्य सामान्यत्रादित्वात् सर्वेऽपि प्रिदेशिकाः स्कन्धा एकै शानु । अत्र को हेतुः -त्रिमदेशिकाः रकपाः त्रिपदेशिकत्वमःमान्याद् भिन्नाः, अभिन्ना वा ?। यदि भिन्दास्तहि त्रिप्र. देशिकाः स्कन्धात्रिपदेशिका एक न स्युः, द्विपदेशिकादिवत् । अधऽभिन्नास्तहि यावन्तत्रिप्रदेशिकाः सन्ति, ते सर्वेयेक रसरूया एवं च सर्वेऽपि त्रिप्रदेशिकाः कन्या एकानुपूर्वी । तथा चतुष्पदेशिकतथा सर्वेऽपि चतुष्पदेशिकाः स्कन्धा एकैवानुपूर्वी । एवं पञ्चमदेशिकादयः स्कन्धा अपि एका-एका भानुपूर्वी बोध्या। इदं च अविशुद्धसंग्रानयमतेन बोध्यम् । विशुदसंपहनयमतेन तु सर्वेषां त्रिपदे. कहला सकते है । यदि त्रिप्रदेशित्व रूप सामान्य से वे अभिन्न है, तो दे सब त्रिप्रदेशिक स्कंध एक स्वरूप ही हैं। इस प्रकार सब भी त्रिप्रदेशिक स्कंध एक ही आनुपूर्वी हैं अनेक आनुपूर्वी नहीं। इसी प्रकार चतुष्प्रदेशिकत्व रूप सामान्य को अपेक्षा समस्त चतुष्प्रदेशिक स्कंध एक ही आनुपूर्वी हैं। इसी प्रकार से पञ्च प्रदेशिक आदि स्कंध भी एक एक आनुपूर्वी हैं ऐसा जानना चाहिये । यह कथन अविशुद्ध संग्रहनय के मत से हैं। परन्तु जो विशुद्ध संग्रहनय हैं उसके मतानुमार तो માન્યતા એવી છે કે જેટલા ત્રિપ્રદેશી કંપ છે તેઓ જે પિતાના ત્રિકશિક રૂપે સામાન્યથી ભિન્ન હોય તે તેમને ત્રિપ્રદેશિક ર જ કરી શકાય નહીં જે તેઓ ત્રિાદેશિક વ રૂપ સામાન્યથી અભિન્ન હોય, તે તે બધા ત્રિપ્રદેશિક સ્ક છે એક રૂપ જ છે. આ રીતે બધા ત્રિપદેશિક કપ એક જ આ વી રૂપ છે-અનેક આનુપૂવી” રૂપ નથી એ જ પ્રમાણે ચતુ.... શિકત્વ રૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ સમસ્ત ચતુuદેશિક કંધ એક જ આપવી રૂપ છે, એ જ પ્રમાણે પાંચ આદિ પ્રદેશેવાળા કંધે પણ એક મક આવી રૂપ છે, એમ સમજવું આ કથન તે અવિશુદ્ધ સંગ્રહાયની માન્યતા પ્રકટ કરે છે. પરંતુ વિશુદ્ધ સંગ્રહનયની માન્યતા અનુસાર તે
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૪૦૨
अनुयोगद्वार
शिकाद्यनन्तप्रदेशिकपर्यन्तानां स्कन्धानाम् आनुपूर्वीत्वसामान्याभेदात् सर्वाsप्यानुपूर्वी एकैव । एवमनानुपूर्वीत्वसामान्याव्यतिरेकात् सर्वेऽपि परमाणुपुला एकैवानानुपूर्वी, अवक्तव्यकत्वरूपसामान्यान्यतिरेकात् सर्वे द्विपदेशिकाः स्कन्धा अपि एकमेव वक्तव्यम्, अतोऽत्र - ' तिप्पएसिए आणुपृथ्वी' इत्यादि एकत्वेनैव निर्दिष्टम्, न तु बहुत्वेनेति । प्रकृतमुपसंहर माह ' से तं' इत्यादि । सेवा संग्रहनयसम्मताऽर्थपदप्ररूपण ते ति १ ॥ म्र० ९२ ॥
समस्त त्रिप्रदेशिकादि स्कंध से लेकर अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यन्त के स्कंधों की जीतनी भी आनुपूर्वियां हैं वे सब आनुपूर्वीत्व रूप सामान्य से अभिन्न होने के कारण एकही अनानुपूर्वीरूप है। इसी प्रकार अनानुपूर्वीत्व रूप सामान्य से अभिन्न होने के कारण समस्त परमाणु पुल रूप अनानुपूर्वी एकही अनानुपूर्वी रूप हैं । इसी प्रकार से अवक्तव्यक स्वरूप सामान्य से अव्यतिरिक्त होने के कारण समस्त द्विप्रदेशिक स्कंध भी एकही अवक्तव्यकरूप हैं। इसलिये यहां सूत्र में "तिप्पसिए आणुपुच्ची" इत्यादि रूप से एकस्व का निर्देश सूत्रकार ने किया है। बहुत्व का नहीं । ( से तं संगहस्स अट्ठपथपरूवणया) इस प्रकार पह संग्रहनय मान्य अर्थपद् प्ररूपणता का स्वरूप है ।
भावार्थ - संग्रहनय दो प्रकार का है- १ अविशुद्ध संग्रहनय और दूसरा विशुद्ध संग्रहनय । अविशुद्ध संग्रहनय की मान्यतानुसार जितने भी त्रिप्रदेशिक वाले स्कंध हैं वे एक आनुपूर्वी है तथा जितने भी સમસ્ત ત્રિપ્રદેશિક આદિ કધથી લઈને અનત પ્રદેશિક પન્તના સ્મ્રુધાની જેટલી આનુપૂર્વી એ છે, તે બધી આનુપૂર્વીએ પણ આનુપૂર્વી ત્ય રૂપસ્રામાન્યની અપેક્ષાએ અભિન્ન હેાત્રાથી એક જ આનુપૂર્વી રૂપ છે. એજ પ્રમાણે અનાનુપૂર્વી ત્વ રૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ અભિન્ન હોવાને કારણે સમસ્ત પરમાણુ પુદ્ગલરૂપ અનાનુપૂર્વી એ પણ એક જ અનાનુપૂર્વી' રૂપ છે. એજ પ્રમાણે અવકતવ્યક રૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ અભિન્ન હેાવાને કારણે સમસ્ત દ્વિપ્રદેશી કધા પણ એક જ વ્યવક્તવ્યક રૂપ છે. તેથી જ સૂત્રકારે આ सूत्रभां “ तिप्पलिए आणुपुरुषी ” त्रिप्रदेशि भानुपूर्वी त्यादि ३ये त्वन निर्देश यो छे, महुत्वनो निर्देश यो नथी. ( से व संगइस्व अत्यपयपरूवणया) मा अठार अनयस'भत अर्थ यहा २१३५ ४. ल.वार्थ-सभèनय मे अमरनो छे - ( १ ) अविशुद्ध सभनय भने (२) વિશુદ્ધ સ`ગ્રડનય અવિશુદ્ધ સગ્રહનયની માન્યતા અનુસાર સમસ્ત ત્રિપ્રદેશી કધા એક આનુપૂર્વી રૂપ છે, એજ પ્રમાણે જેટલા ચાર પ્રવેશીથી લઈને
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९३ भापमुत्कीर्तनतानिरूपणम् ४०३ · सम्मति मासमुन्कीर्तनवां निरूपयति
मूलम्-एयाए णं संगहस्स अट्रपयपरूवणयाए कि पओयणं? एयाएणं संगहस्स अटुपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया कजइ। से किं तं संगहस्त भंगसमुक्त्तिणया? संगहस्से भंगसमुकित्तणया-अस्थि आणुपुबी १ अस्थि अणाणुपुव्वी २ अस्थि अवत्तवए३, अहवा अस्थि आणुपुत्रीय अणाणुपुत्वी यर, अहवा अस्थि आणुपुबी य अवत्तव्वए य५, अहवा अस्थि अणाणुपुत्वी य अवत्तव्वए य६, अहवा अस्थि आणुपुवी य चतुष्प्रदेशिक यावत् अनलाणुक स्कंध हैं ये सब स्वतंत्र २ भिन्न २ चतुपदेशी आदि आनुपूर्वियां हैं । परन्तु विशुद्ध संग्रहनय की मान्यः तानुसार ये सब जुदी २ अनेक आनुपूर्षियां भी एक आनुपवित्व रूप सामान्य की अपेक्षा से एक ही हैं । इसी बात को प्रदर्शित करने के लिये सूत्रकार ने इस सूत्र में त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी आदि पदों में एकवचन का प्रयोग किया है। ज्यणुक स्कंध आदिरूप अर्थ से युक्त अथवा व्यणुक स्कंध आदि रूप अर्थ को विषय करने वाले पद की प्ररूपणा करना यही अर्थपदप्ररूपणता है। नैगम और व्यवहारनय मान्य अनेकत्व का यह नय आनुपूर्वी में निषेध करके एकत्व स्थापन करता है । ॥१०९२॥ અનંત પ્રદેશી પર્યન્તના કંધે છે તે પ્રત્યેક પણ એક એક સ્વતંત્ર ચતુ. પ્રદેશી, પંચપ્રદેશી આદિ અનુપૂર્વી રૂપ છે. વિશુદ્ધ સંગ્રહાયની માન્યતા અનુસાર તે ત્રિપ્રદેશિક સકંધ રૂપ અનુપૂવથી લઈને અનંત પ્રદેશિક સ્કષ. રૂમ આનુપૂર્વી પર્વતની સમસ્ત આનુપૂર્વીએ પણ આનુપૂર્વીવ રૂ૫ સામાન્યની અપેક્ષાએ એક જ અનુપૂવ રૂ૫ છે. આ વાતને પ્રદર્શિત કરવાને માટે સૂત્રકારે ત્રિાદેશિક આનુપૂર્વી આદિ પદેમાં એકવચનને પ્રયાગ કર્યો છે. ત્રિપણુક સ્કંધ આદિ રૂપ અર્થથીયુક્ત ત્રિઅણુક કંધ આદિ ૫ અર્થનું પ્રતિપાદન કરનારા પદની પ્રરૂપણા કરવી તેનું જ નામ અN૫૮ પ્રાપણુતા છે. નિગમ અને વ્યવહાર નિયમિત અનેકત્વને આ નય (
રહ. નો આનુપૂર્વીએમાં નિષેધ કરી એકત્વનું પ્રતિપાદન કરે છે. સૂત્ર
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४०४
भनुयोगदारक अणाणुपुव्वी य अवत्तव्वए य७। एवं सत्त भंगा। से तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया ॥सू०९३॥
छाया-एतया खलु संग्रहस्य अर्थपदप्ररूपणतया कि प्रयोजनम् ? एतया खलु संग्रहस्य अर्थपदमरूपणतया संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्चनना क्रियते । अथ का सा संगलस्य भासमुत्कीर्तनता? संग्रहस्य भनसमुत्कीर्तनता-अस्ति आनुपूर्वी १, अस्ति अनानुपूर्वी २ अस्ति अवक्तव्यकम् ३, अथवा-अस्ति अनुपूर्वी च अनानु
अब सूत्रकार सप्तमभंगसमुत्कीर्तनता का निरूपण करते हैं"एयाए ण संगहस्स" इत्यादि।
शब्दार्थ-(एयाएणं संगहस्स अकृपयपरूवणयाए कि पओयण ?) हे भदन्त ! संग्रहनय मान्य इस अर्थपदप्ररूपणता से कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है ?
उत्तर-(एयाए णं संगहस्स अट्ठण्यपरूवणयाए संगहस्स भंगसमु. कित्तणया कज्जइ ) संग्रहनय मान्य इस अर्थपद प्ररूपगता से संग्रह नय मान्य भंगसमुत्कीर्सनता की जाती है। "से कितं संगहस्स भंगसमुचित्तणया ? ) संग्रहनय मान्य वह भंगसमुत्कीर्तनता क्या है ?
उत्तर- (संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया) संग्रहनय मान्य वह भंगसमुत्कीर्तनता इस प्रकार से है-(अस्थि आणुपुव्वी' अस्थि अणाणुपुव्वी) १ एकरापूर्वी है ' दूसरा अनानुरू: है (अस्थि अवत्तवए) तीसरा अवक्तव्यक है ( अहवा अस्थि आणुपुबीर अणाणुपुच्चीय ) चौथा
હવે સૂત્રકાર સાતમા ભંગ, ભંગસમુત્કીર્તનતાનું નિરૂપણ કરે છે– " एयाएण संगहस्स" त्याl:
साथ-(एयाएण संगहस्स अत्थषयपरूवणयाए किं पोपण) से ससવન્ ! સંગ્રહનયમાન્ય આ અર્થેપદપ્રરૂપણુ વડે કર્યું પ્રપે જન સિદ્ધ થાય છે?
उत्तर-(एयाएण' संगहस्स अत्थपयपरूवणाए संगहस्स भंगसमुकित्तणया se) સંગ્રહનય સંમત આ અર્થપદપ્રરૂપણુતા વડે સંગ્રેડનયમાન્ય ભંગસમુકીર્તનતાનું સ્વરૂપ જાણી શકાય છે.
“से किं तं संगहस्स भंगसमुचिषणया" सीनय मान्य समुही. तनतानु २१३५ ३ छ ।
उत्तर-(संगहस्स भंगसमुकित्तणया ?) सनयस मत त मसभुडीતનતા આ પ્રકારની કહી છે
(अस्थि आणुपुधी, अस्थि अणाणुपुब्बी) (१) । मानुषी छे. (२) 2) मनानुनी ७, (अस्थि अवत्तव्यप) (3) मे अपत०५४ छ. (अहवाअवि माणुपुब्बी य, अणाणुपुन्बी य) (४) मानुषी छ, मनानुनी ,
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रोगन्द्रिका टीका सूत्र ९३ भासमुत्कीर्तनतानिरूपणम् ४१५ पूर्वी च ४, अथवा-अस्ति भानुपूर्वीच अक्तव्यकं च५, अथवा-अस्ति अनानु. पूर्वी व वक्तव्यकं च६, अयन-अस्ति आनुपूर्वीच अनानुपूर्वीच अक्ष्य क १७। एवं सप्त भङ्गाः। सैषा संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तनता ।।मू० ९३॥ आनुपुर्वी है. अनानुपूर्वी है ( अहवा-अस्थि माणुपुवीय अवसव्वल्य ) अंपवा ५ भानुपूर्वी हैं अवक्तव्यक है ( अहवा-अस्थि अणाणुपुब्बीय अक्सग्वए य ) अथवा-६ अनानुपूर्ण है अवक्तव्यक है, ( अहवाअस्थि आणुपुरुवीय अणाणुपुरवी अवत्तव्वए य ) अथवा ७ आनुपूर्वी है अमानुपूर्वी है अबक्तव्यक है । ( एवं सत्त भंगा ) इस प्रकार ये साल भंग हैं । ( से तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया) इस प्रकार संग्रहनन मान्य भंगसमुत्कीर्तनता है। ___ भावार्य-संग्रहनय मान्य अर्थ पद प्ररूपणता से क्या प्रयोजन सधता है? यह बात सूत्रकार ने इस सूत्रद्वारा स्पष्ट की है। इसमें उन्हों ने भंग समुत्कीर्तनता का प्रयोजन कहा है, इस भंगसमुत्कीर्तनता में मूल में ३ पद हैं १ आनुपूर्वी, २ अनानुपूर्वी और तीसरा अवक्तव्यक । आनुपूर्वी का वाच्यार्थ क्या है ? यह सब पहिले स्पष्ट कर दिया गया है।
( अहवा-अस्थिवाणुपुव्वी य अवत्तब्बए य) 4411 (५) भानुयूपीछे. म. ७०य छे. (अहवा-अत्थि अणाणुपुव्वी य अवत्तव्यए य) अथवा (6) सनातुकी छे, अवतव्य छे. (अहवा-अस्थि आणुपुव्वी य, अणाणुपुब्वी य, अवत्तव्वए य) अथवा (७) भानु पूा छे, अनानुषी छ भने सात २. (एव सत्त भंगी) 1 रे सही मात Hiu (Gel) मने छ. (सेत संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया) मा ५२नु सनयस मत मसभुती. નત્તાનું સ્વરૂપ છે.
ભાવાર્થ-સંગ્રહનયસંમત અર્થ પદપ્રરૂપપણુતાનું પ્રજન: આ સૂત્રદ્વાર સૂત્રકારે પ્રકટ કર્યું છે. તેમણે આ સૂત્રમાં એવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે અર્થપદ પ્રરૂપણુતા વડે ભંગસમુત્કીર્તનતા રૂપે પ્રયજન સિદ્ધ થાય છે, આ ભંગસમુદ્ધીતનામાં મૂળ ત્રણ પદ . તે ત્રણ પદ આ પ્રમાણે છે(१) मानुसी, (२) मनानुषी भने (3) अ१४२०५४ भानुभूती माहिती વાગ્યા પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યા છે. આ ત્રણે પદને સ્વતંત્ર રૂપે
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अनुयोगद्वार
टीका- 'एयाएणं' इत्यादि -"
9
er - एकपदमाश्रित्य त्रयो भङ्गाः पदद्वयसंयोगमाश्रित्य त्रयो भङ्गाः, पदत्रयसंयोगमाश्रित्य एको भङ्गः । इत्थं सप्त भङ्गा बोद्धव्याः । मन्नस्थापना मूलोक्तक्रमेणैव बोध्या । अस्य सूत्रस्यः व्याख्या कृतमाया ॥ ० ९३ ॥ भङ्गोपदर्शनयां प्रदर्शयति
४०६
मूलम् - एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए किं पओयण ? एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए संगहस्स भंगोवदंसणया कीरइ । से किं तं संगहस्स भंगोवदंसणया ? संगहस्स भंगोवदंसणया तिप्प एसिया आणुपुत्री १ परमाणुपोग्गला अणाणुपुव्वीर दुष्पएसिया अवतन्त्र ए३ | अहवा तिप्पएसिया य परमाणुपोग्गलाय आणुपुवी य अणाणुपुवी य ४| अहवा तिप्पएसियाय दुष्पपसिया य आणुपुवीय अवत्तव्त्रए य ५ । अहवा परमाणुपोग्गलाय दुष्प एसिया य अणाणुपुवीय अवक्तव्वए य६ । अहवा - तिपए सियाय परमाणुपोग्गला य दुप्पएसिया य आणुपुण्त्रीय अगाणुपुन्त्री य अवन्त्तव्वए य७। से तं संगहस्स भंगोवदंसणया ॥ सू० ९५४ ॥
इनमें १ एक आनुपूर्वी २ अनानुपूर्वी और तीसरा अवक्तव्यक इन तीन पदों को स्वतंत्र रूप से आश्रित हो करके ३ भंग हो जाते हैं। तथा आनुपूर्वी अनानुपूर्वी, आनुपूर्वी अवक्तव्यक और अनानुपूर्वी अवक्तव्यक ये तीन भंग दो दो पदों के संयोग को लेकर बने हैं। और आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी' अवक्तव्यक यह सातवां भांगा तीन पदों के संयोग से बना है । इस प्रकार तीन पर्दों के स्वतंत्रता और संयोग से ये ७ भंग बने हुए हैं । ॥ सू० ९३ ॥
લઈને ત્રણ ભાંગા બને છે. દ્વિસયાગી ત્રણ ભાંગા નીચેના બબ્બે પાના સ'ચાગથી અને છે-અનુપૂર્વી અને અનનુપૂર્વી, આનુપૂર્વી અને વકતવ્ય અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક નુપૂર્વી, અનુપૂર્વી, અને અવક્તવ્યક, ત્રણ પઢીના સ ંચા સાતમા ભાંગેા બને છે. આ રીતે ત્રણ પટ્ઠાના અસ ચેાગી ત્રણ ભાંગા, દ્વિકસચેાગી ત્રણ ભાંગા અને ત્રિસ ચગી એક ભાંગે મળીને કુલ સાત ભાંગા અને છે. ડાસૢ૦૯૩ા
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४०७ पोनिका टीका स्म ९४ भङ्गोपदर्शनतानिरूपणम्
गया-तपा खलु संग्रहस्य भासमुत्कीर्चनतया कि प्रयोजनम् १ एतथा सख संग्रहस्य मंगसमुत्कीर्तनतया संग्रहस्य भनोपदर्शनता क्रियते। अथ का सा संबहस्य भनोपदर्शनता? संग्रहस्य भोपदर्शनता त्रिप्रदेशिका आनुपूर्वी१ परमाजुपुद्गला अनानुपूर्वी २, द्विपदेशिका अवक्तव्यम् ३ । अथवा-त्रिप्रदेशिकाश्च पर
अप मूत्रकार भंगोपदर्शनता का कथन करते हैं"एमाएणं संगहस्स" इत्यादि।
शब्दार्थ- ( एयारणं मंगहस्स भंगसमुक्तित्तणयाए कि पओयणं) हे भदन्त संग्रहनय मान्य इस भंगसपुरकीर्तनता से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है?
उत्तर- (एयाएणं संगहस्स समुक्त्तिणयाए भंगोवदंमगया कीरइ) संग्रहनय मान्य इस भंग समुत्कीर्तनता से संग्रहन य मान्य भंगोपदर्श नता दिखलाह जाती है। ( से किं तं मंगहस्म भंगोवदंमणया ? )हे भदन्त ! संग्रनय मान्य भगोपदर्शनता क्या है ?
उत्तर-(संगहस्स भंगोषदंसणया) संग्रहनय मान्य भंगोपदर्शनता यह है (तिप्पएसिए आणुपुग्वी) यावन्मात्र त्रिप्रदेशी स्कन्ध है वे एक. १ आनुपूर्वी है। इस प्रकार भानुपूर्वी इस शब्द के वाच्यार्थ से यावन्मात्र त्रिप्रदेशी स्कंध हैं वे सब संगृहीत हो जाते हैं। (परमाणुपोग्गला अणा. णुपुव्वी) यावन्मात्र परमाणु पुद्गल हैं वे एक अनानुपूर्ण हैं- इस प्रकार
હવે સૂત્રકાર ભંગ પાર્શનતાનું નિરૂપણ કરે છે– " एयाएण संगहस्य" -
-(एयारण मंगहस्स भंगसमुचित्तणयाए किं पओयण? 4 વન ! સંગ્રહનયમાન્ય આ લંગસમુત્કીર્તનતા વડે કર્યું પ્રયોજન સિદ્ધ થાય છે?
उत्तर-( एयाएण संगहस्स भंगसमुझित्तण पाए संगहस्स भंगोवदंशणया कीरह) સંગ્રહનયમાન્ય આ ભંગસમુત્કીર્તનતા વડે સંગ્રહનય માન્ય ભંગોપદર્શનતા मताभ भावे. (से कि त संगहस्स भंगोवदंपणया ?) से समपन् । સંગ્રહનયમાન્ય ભંગ ૫દર્શનતાનું કેવું સ્વરૂપ છે?
उत्तर-(संगहस्स भंगाबदसणया) सनयमान्य सोपानतानु સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે–
(सिप्पएसिया पाणुपुयी) २२सा विशी २७ , तेरो આવ રૂપ છે. આ રીતે જેટલા વિદેશી કંપે છે તેમને અહીં આનyी Aurt पा२याय ३२ ३४५२१ मे. (परमाणुपोग्गठा अणाणु
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gee माणुपुद्गलाश्च आनुपूर्वीच अनानुपूर्वीच ४ । अथवा-त्रिमदेशिकाश्च द्विपदेशिकाय मानुपूर्वीच अवक्तव्यकं च ५। अथवा-परमाणुपुद्गलाश्च द्विपदेशिकाश्च अनानुपूर्वीच भवक्तव्यकं च ६ । अथवा-त्रिपदेशिकाश्च परमाणुपुद्गला श्च द्विपदेशिकाश्च आमु. पूर्वी च अनानुपूर्वी च अवक्तव्यकं च ७ । सैषा संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनता।मु०९४॥
टीका-'एयाएणं' इत्यादि। अत्रापि सप्त भङ्गा वोध्याः। अस्य सूत्रस्य व्याख्याकृतमाया ३ ॥० ९४॥ अथ समवतार प्रदर्शयति
मूलम्-से किं तं संगहस्स समोयारे? संगहस्त समोयारेसंगहस्त आणुपुत्वीदनाई कहिं समोयरंति ? किं आणुपुठवी. दहिं समोयरंति ? अणाणुपुत्वीदव्वेहिं समोयरंति ? अवत्त
बगदव्वेहिं समोयरंति ? संगहस्म आणुपुबीदव्वाइं आणुपुत्रीदव्वेहिं समोयरंति नो अणाणुपुत्वीदव्वेहिं समोयरंति नो मनानुपूर्षी इस शब्द के वाच्यार्य से यावन्मात्र परमाणु पुद्गल है वे सप अनानुपूर्वी इस एक पद से संगृहीत हो जाते हैं । (दुप्पएसिया अवसउवए) इसी प्रकार यावन्मात्र दिप्रदेशी कंध हैं वे एक अवक्तव्यक हैं इस प्रकार अवक्तव्यक इस शब्द के वाच्यार्थ से यावनमात्र विप्रदेशी स्कंध हैं वे सब अवक्तव्यक इस एक शब्द से संगृहीत हो जाते हैं। इसी प्रकार से दिसंयोगी तीन पदों का और त्रिसंयोगी १ एक पद का भी वाच्यार्थ समझ लेना चाहिये । इसी विषय को सूत्रकार ने 'अहवा' भादि पदों द्वारा कहा है इन समस्त पदों की व्याख्या पहिले की जा पुकी है। ॥ सू० ९४ ॥ पुब्बी) २८i ५२मा पुल छे, तो ये अनानुरवी' ३५ है. मा રીતે સમસ્ત પરમાણુ પુદ્ગલેને અહીં અનાનુપૂર્વી પદના વાગ્યાથ રૂપે ગ્રહણ
पामा भावेस. (दुप्पएसिया अव्वत्तव्यए) Reai विशी १४ , તેઓ એક અવક્ત૫ક રૂપ છે. આ રીતે “અવક્તવ્યક” આ પદને વાગ્યાથી સમસ્ત દ્વિદેશી કહે છે તેથી “ અવક્તવ્યક” આ એક પદના પ્રયોગ દ્વારા સમસ્ત દ્વિદેશી & ગ્રહણ થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે દ્વિસંગી ત્રણ ભાંગાઓને અને ત્રિસંયોગી એક ભાંગાનો વાગ્યાથે પણ
भO a ४२. मा. विषयनु सूत्ररे " महवा " He alsत प| લાશ કથન કર્યું છે. આ બધા ની વ્યાખ્યા પહેલાં આપવામાં जावी सुडी है. ॥२०४॥
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का टीका सूत्र ९५ समवतारस्वरूपनिरूपणम्
૧૦૨
अवसन्नगद०जेहिं समोयति । एवं दोन्नि वि सट्टाणे सटुाणे समोयरंति । से तं समोयारे ॥ सू० ९५ ॥
छाया - अथ कः स संग्रहस्य समवतारः १ संग्रहस्य समवतारः - संग्रहस्य भानुपूर्वीद्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किमानुपूर्वीद्रव्येषु समक्तरन्ति ? अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति ? संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि अब सूत्रकार संग्रहनय मान्य समवतार का स्वरूप कहते है" से किं तं " इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( से किं तं संगहम समोपारे) हे भदन्त संग्रहनय मान्य समवतार का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (संगहरूस समोवारे ) संग्रहनय मान्य समवतार का स्वरूप इस प्रकार से है समवतार का अर्थ समावेश- मिलना है। अर्थात् आनुपूर्वी आदि जो द्रव्य है उनका अन्तर्भाव मिलना स्वस्थान में होता है या परस्थान में होता है ? इस प्रकार चिन्तन प्रकार का जो उत्तर है वह समावेश है । यह विचार प्रकार इस प्रकार से होता है कि संग्रह नय संमत आनुपूर्वी द्रव्य कहाँपर समाविष्ट होते हैं ? (किं आणुपुव्वेहिं समोपरंति ? अगाणुपुब्वेहिं समोगरंति, अवन्तन्यगदव्वेहिं समोयरंति ? ) क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं? या अनानुपूर्वीद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं या अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ।
હવે સૂત્રકાર સ ંગ્રહનયમત સમવતારના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે " से कि त " हत्याहि
शब्दार्थ - ( से कि त संगहरव समोमारे १) हे भगवन् ! सभनय સંમત સમજતારનું સ્વરૂપ કેવુ છે?
6.
उत्त- "सगइश्स समोयारे " સંગ્રહનયમાન્ય સમવતારનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે-(સમવતાર એટલે સમાવેશ અથવા મિલન) એટલે કે માનુપૂર્વી આદિ જે દ્રર્યેા છે તેમને અન્તર્ભાવ (સમાવેશ) સ્વસ્થાનમાં થાય છે કે પરસ્થાનમાં થાય છે?” આ પ્રકારની વિચારધારાના જે ઉત્તર છે, તેનું નામ સમવતાર છે મ. વિચારધારા આ પ્રમાણે ચાલે છે–સ‘ગ્રહનયસ’મત भानुपूर्वी द्रव्यो। समावेश थाय छे ? ( कि आणुपुव्वी दव्बेहिं समोयरंति १ अाणुपु०बी०बेहिं समोयरंति ? अवत्तच्वगदव्बेहिं समोयरंति ? ) शु मानुपूर्वी' કબ્યામાં સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે–મળી જાય છે ? કે અનાનુપૂર્વી' દ્રયૈામાં સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે ? કે અવકતવ્યક દ્રન્ચેામાં સમાવિષ્ટ થઇ જાય છે,
म० ५२
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अनुयोगटारो भानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति, नो अनानुपूर्वीद्रव्येषु समबतरन्ति नो अवक्तन्यकद्रव्येषु समवतरन्ति । एवं द्वावपि स्वस्थाने स्वस्थाने समवतरतः । स एष समवतारः ॥सू०९५॥
टीका-से कि तं' इत्यादिअस्य सूत्रस्य व्याख्या कृतमायैवेति ४॥सू० ९५॥ अथ पञ्चमं भेदमनुगमं निरूपयति
मूलम्-से किं तं अणुगमे ? अणुगमे अट्ठविहे पण्णते, तं जहा-'संतपयपरूवणया, दवप्पमाणं चखित्तं फुसणा य। कालो य अंतरं भाग भावे अप्पाबहुं नस्थि॥१॥' संगहस्स आणुपुवीदव्वाइं कि अस्थि णत्थि ? नियमा अस्थि, एवं दोन्नि वि ॥१॥ संगहस्स आणुपुबीदवाई किं संखिजाइं असंखिजाइं अणंताई? नो संखिजाइं नो असंखिज्जाइं नो अणंताई, नियमा एगो
उत्तर-संगहस्स आणुपुग्वीदव्वाइं आणुपुत्वीदन्वेहिं समोयरंति, नो अणाणुपुत्वीदग्वेहिं समोयरंति, नो अवत्तव्धगदव्वेसिमोयरंति) संग्रहनय संमत समस्त आनुपूर्वीद्रव्य स्वस्थान रूप भानुपूर्वीद्रन्पों में ही समाविष्ट होते हैं। परस्थान रूप अनानुपूर्वीद्रव्यों में या अवक्तम्पक द्रव्यों में समाविष्ट नहीं होते हैं । (एवं दोन्नि विसटाणेसहाणे समोय. रति) इसी प्रकार से संग्रहनय संमत अनानुपूर्वीद्रव्य और अवक्तव्यक उप भी क्रमशः अपने अपने स्थानरूप अनानुद्रिव्यों में और भव. क्तव्यकद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं। इसकी व्याख्या ८० सूत्र के समानजाननी चाहिये ॥ सू० ९५ ॥
उत्तर-(संगहस्य आणुपुत्वीदव्वाई आणुपुत्वीदव्बेहि समोयरंति, नो भवत्तगदव्वेहि समोयरंति नो अणाणुपुव्वीदव्येहि समोयरंति) सनयमत સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સ્વસ્થાન રૂપ આનુપૂર્વી દ્રવ્યુંમાં જ સમાવિષ્ટ થાય છે, પરસ્થાન રૂ૫ અનાનુપૂવી દ્રમાં કે અવકતવ્યક દ્રવ્યમાં સમાવિષ્ટ यता नथी. (एवं दोन्नि वि पदाणे सदाणे समोयरंति) मे प्रभादे स. હનયસંમત અનાનુપૂવ દ્રવ્ય અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પણ અનુક્રમે પોતતાના રથાનરૂપ અનાનુપૂવી દ્રવ્યોમાં અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોમાં સમાવિષ્ટ થાય છે. તેનું સ્પષ્ટીકરણ ૮માં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું. સૂક્ષ્મ
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ मनुगमस्वरूपनिरूपणम् रासी, एवं दोनिवि ||२|| संगहस्स आणुपुवीदवाई लोगस्स कइभागे होज्जा ? किं संखेज्जइभागे होज्जा असंखेज्जइभागे होज्जा संखेज्जेसु भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ? नो संखेज्जइभागे होज्जा नो असंखेज्जइ भागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा सव्वलोए होज्जा, एवं दोन्नि वि ॥३॥ संगहस्स आणुपुaदवाई लोगस्स किं संखेज्जइभागं फुसंति ? असंखेज्जइभागं फुसंति ? संखिज्जे भागे फुसंति ? असंखिज्जे भागे फुसंति ? सव्वलोगे फुसंति ? नो संखेज्जइभागं फुसंति जाव नियमा सव्वलोगं फुर्सति । एवं दोन्नि वि ॥ ४ ॥ संगहस्स आणुपुवीवाई कालओ केवच्चिरं होंति ? सव्वद्धा । एवं दोणि वि॥५॥ संगहस्स आणुपुत्रदिवाणं कालओ केवच्चिरं अंतरं होई ? नत्थि अंतरं, एवं दोणि वि । ६ । संगहस्स आणुपुत्रीदव्वाइं सेसदव्वाणं कइभागे होज्जा ? किं संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? नो संखेज्जइभागे होज्जा, नो असंखेज्जइभागे होज्जानो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा तिभागे होज्जा । एवं दोनिवि |७| संगहस्स आणुपुत्रीदढवाई कयरांमि भावे होज्जा ? नियमा साइ पारिणामिए भावे होज्जा । एवं दोन्नि वि । ८। अप्पाबहुं नत्थि । सेतं अणुगमे । से तं संगहस्स अणोदणिहिया दव्वाणुपुच्ची । सेतं अणोवणिहिया दवाणुपुब्वी || सू०९६॥
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ધર્મર
मनुयोगद्वार
छाया - भथ कोऽपौ अनुगमः ? अनुगमः अष्टविधः मतः, तद्यथा - 'सम्पदप्ररूपणता द्रव्यप्रमाणं च क्षेत्रं स्पर्शना च । कालय भन्तरं भागो भागः, अल्पबहुत्वं नास्ति ॥ १ ॥ ' संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि किं सन्ति न सन्ति ? नियमात् सन्ति । एवं द्वे अपि ॥ १ ॥ संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि किं संख्येयानि असंख्येयानि अनन्तानि ? नो संख्येयानि नो असंख्येयानि नो अनन्तानि । नियमात् एको राशिः । एवं द्वे अपि ॥ २ ॥ संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य कतिभागे भवन्ति ? किं संख्येयतमभागे भवन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु मागेषु भवन्ति ? सर्वलोके भवन्ति ? नो संख्येयतमभागे, भवन्ति नो असंख्येयतमभागे भवन्ति नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति । नियमात् सर्वलाकं भवन्ति । एवं द्वे अपि || ३ || संग्रहस्व आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य किं संख्ये यतमभागं स्पृशन्ति ? असंख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? संख्येयान् भागान् स्पृशन्ति ? असंख्येयान् भागान स्पृशन्ति ? सर्वलोकं स्पृशन्ति ? नो संख्येयतमभागं स्पृशन्ति यावत् नियमात् सर्वलोकं स्पृशन्ति । एवं द्वे अपि || ४ || संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि कालतः क्रियश्चिरं भवन्ति ? सर्वाद्धा । एवं द्वे अपि ||५|| संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणां काळतः किञ्चिरमन्तरं भवति ? नास्ति अन्तरम् । एवं द्वे अपि || ६ || संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि शेषद्रव्याणां कविभागे भवन्ति ? कि संख्येयतमभागे मत्रन्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति । संख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? नो संख्येयतमभागे भवन्ति, नो असंख्येयतमभागे भवन्ति नो संख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवन्ति, नियमात् त्रिभागे भवन्ति । एवं द्वे अपि ॥ ७ ॥ संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि कतरस्मिन् भावे भवन्ति निमाम् सादिपारिणामिके मावे भवन्ति । एवं द्वे अपि ॥८॥ अल्पबहुत्वं नास्ति । स एषोऽनुगमः । सैषाऽनोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी । सू० ९६ ॥
टीका -' से किं तं ' इत्यादि
अथ कोऽसौ अनुगमः ? = संग्रहनयसम्मतोऽनुगमः कः ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह - अनुगमोऽष्टविधः प्रज्ञप्तः । तद्यथा-सत्पदमरूपणता, द्रव्यप्रमाणं क्षेत्रं स्पर्शनाअब सूत्रकार पांचवें भेद अनुगम का निरूपण करते हैं"से किं तं अणुगमे" इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( से किं तं अणुगमे ) हे भदन्त ! संग्रह संमत अनु गम का क्या स्वरूप है ?
હવે સૂત્રકાર સગ્રહનય સૌંમત અનુગમના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે" से किं तं अणुग मे” हत्याहि
शार्थ - ( से किं त अनुगमे १) हे भगवन् ! स अडनयमान्य अनुगमनुं સ્વરૂપ કેવુ' કહ્યું છે ?
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अनुयोगचन्द्रिकाठीका स्त्र ११ मनुगमस्वरूपनिरूपणम् काय अन्तरं मागो भावश्चेति । अल्पबहुत्वरूपोऽनुगमस्तु संग्रहनयमते नास्ति, बस्य नयस्य सामान्यवादित्वात् । सम्पति सत्पदप्ररूपणतां प्ररूपयति-'संगहस्स मापुनी दवाई कि अत्वि नत्यि' इत्यादि । संग्रहसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि
उत्तर- (अणुगमे अट्ठविहे पण्णत्ते) अनुगम आठ प्रकार का कहा गया है (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(संतपयपरूवणया दव्यमाणंच खितं फुमणा य, कालोय अंतरं भाग भावे अपायहु नस्थि ) सप. दप्ररूपणता १, द्रव्यप्रमाण-२, क्षेत्र ३, सर्शना ४, काल ५, अन्तर ६, भाग७ ओर भाव८ अल्पबहुत्व अनुगम का प्रकार यहां नहीं है क्योकि संग्रहनय सामान्यवादी है। “सगहस्सआणुपुत्रीदव्याई कि अस्थि णस्थि णियमा अस्थि एवं दोन्नि वि" सस्पदप्ररूपणता के निमित्त मूत्रकार कहते हैं कि इस सत्पद प्ररूपणा में यह प्ररूपित किया जाता है कि जिस प्रकार से शशशृंग आदिपद असदर्थ को विषय करने वाले होते है उस प्रकार से ये आनुपूर्वी आदि पद असदर्थ विषयक नहीं हैं, किन्तु जैसे स्तंभआदि पद स्तंभ रूप अपने वास्तविक अर्थ को विषय करते हैं उसी प्रकार से ये आनुपूर्वी आदिपद भी वास्तविक आनुपूर्वी आदि को विषयक करते हैं, इसलिये (संगहस्स आणुपुब्बीदव्वाइं कि अस्थि ण.
उत्त२-( अणुगमे अढविहे पण्णत्ते ) अनुराम भाउ ४२ शो . (तंजहा) ते प्रा। नीये प्रभारी - (संतपयपरूवणया, वप्पमाणं च वित्तं फुसणा य, कालो य अंतर भाग भावे अप्पाबहु नस्थि) (१) सत्५६५३५यता, (२) द्रव्यमा, (३) क्षेत्र, (४) २५N ना, (५) , (६) अन्त२, (७) ना अने (८) मा. स त्य રૂપ અનુગામને પ્રકાર અહીં નથી, કારણ કે સંગ્રહનય સામાન્યવાદી છે. ( संगहस्स आणुपुब्बीदवाई कि अत्थि णस्थि ? णियमा अस्थि एवं दोन्नि वि) હવે સૂત્રકાર સત્પદપ્રરૂપણુતાનું સ્વરૂપ સમજાવે છે- સત્પદપ્રરૂપણુતામાં એ વાતની પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે કે જે પ્રકારે શશશ્ચંગ (સસલાના શિંગડાં) આદિ પદ અસદર્થ (અવિદ્યમાન પદાર્થ)નું પ્રતિપાદન કરનારા હોય છે, એ પ્રકારે આ આનુપૂવ આદિ પદે અસદર્થનું પ્રતિપાદન કરનારા નથી પરંતુ જેમ સ્તભ આદિ પદે સ્તંભરૂપ પોતાના વાસ્તવિક અર્થને પ્રતિપાદિત કરે છે, એજ પ્રમાણે આનુપૂર્વી આદિ ૫ઇ પણ વાસ્તવિક આનુપૂર્વી આદિ सायतु विधमान पाय नु) प्रतिपादन रे थे. तेथी (संगहस्म भाणपुल्की दव्याई कि अत्थि पत्थि ?) " सनयस मत भानुपूवी द्र०य छेनी "
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भयोगद्वारी किं सन्ति ? न वा सन्ति ? इति प्रश्नः। उत्तरमाह-नियमात् सन्ति=मानुपूर्वीद्रव्याणां सद्भावः संग्रहनयमतेऽस्त्येवेत्यर्थः ।
ननु संग्रहविचारे प्रक्रान्ते 'आनुपूर्वीद्रव्याणि' इति बहुत्वेन निर्देशोऽनुपपमा, संग्रहनयमते आनुपूर्वीसामान्यस्यैवाऽभ्युपगमादिति चेत्, उच्यते-संग्रहनयमते मुख्यतया सामान्य मेवाभ्युपगम्यते, तथापि गौणरीत्या व्यवहारनयमते द्रव्यबहुस्वमपेक्ष्य बहुत्वेन निर्देशः कत इति नास्ति कश्चिद् दोषः । एवं संग्रहनयमते द्वयोरनानुपर्यवक्तव्यकयोर्विषयेऽपि बोध्यम् । अनानुपूर्यवक्तव्यकद्रव्याणां समायो नियमादस्तीत्यर्थः। अथ द्रव्यममाणनिरूपयितुमाह-'संगहस्स आणुपुजीदवाई कि संखिज्जाई' इत्यादि-संग्रहनयसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि किं संख्येयानि सन्ति ? किमसंख्येयानि सन्ति ? किंवा-अनन्तानि सन्ति ? इति प्रश्नः। उत्तरमाहथि" संग्रहनय संमत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं हैं, इस प्रकार की शंका का समाधान यह है कि ये (नियमा अस्थि) नियम से हैं । इसी प्रकार से अनानुपूर्वी ओर अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी यही समझना चाहिये कि ये दोनों द्रव्य नियम से हैं । द्रपप्रमाण में आनुपूर्वी आदि पदों द्वारा जिन द्रव्यों को कहा गया है उनकी संख्या का निर्धारण होता है-जैसे (संगहस्स आणुपुयीदवाई कि सखिज्जाइं असंखि. जजाई अणंताई ? ) संग्रहनय संमत आनुपूर्वीद्रव्य क्या संख्यात है या असंख्यात या अनंत हैं ? __उत्तर (नो संखिज्जोइं नो असंखिज्जाइं नो अणंताई) न संख्यात हैन असंख्यात हैं, और न अनंत हैं किन्तु (नियमा एगो रासी) नियम से एक राशिरूप हैं सा प्रश्र मा प्रमाणे उत्तर आपी शरय. (णियमा अत्थि) “मानुपा દ્રવ્યો અવશ્ય છે જ એ જ પ્રમાણે અનાનુપૂર્વ અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોના વિષયમાં પણ એવું સમજવું જોઈએ કે એ બને દ્રવ્ય પણ અવશ્ય વિદ્યમાન છે.
દ્રવ્યપ્રમાણમાં એ વાતને વિચાર કરવામાં આવે છે કે આનુપૂવી આદિ પદે દ્વારા જે દ્રવ્યનું કથન કરવામાં આવે છે તે દ્રવ્યોની સંખ્યા
छ. २ } (संगहस्स आणुपुब्धीवाई किं सखिज्जाइ असंखिज्जाई अर्णवाई) 3 मान्! नयभत मानुषी द्रव्य शुन्यात, કે અસંખ્યાત છે કે અનંત છે?
त्तर-(नो संखिजाई, नो असैबिजाई नो अणताई) नियमत નવી દ્રવ્યો સંખ્યાત પણ નથી, અસંખ્યાત પણ નથી અને અનતા पनी , ५२न्तु (नियमा एगो रासी) नियमी से शशि३५.
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मोचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
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संग्रहनये आनुपूर्वीद्रव्याणि नो संख्येयानि नो असंख्येयानि नो अनन्तानि सन्ति । किन्तु नियमात् एको राशिरस्ति ।
ननु आनुपूर्वीद्रव्याणां संख्येयादित्वाभावादेकराशित्वमपि नोपपद्यते, द्रम्यबाहुल्ये सत्येव तस्योपपद्यमानत्वात्, दृश्यते च लोके व्रीहिबाहुल्ये 'व्रीहिराशिः ' इति व्यवहारः, १ इति चेत्, उच्यते - संख्ये या दिवाभावेऽपि स्व स्वरूपात् आनुपूर्वीद्रव्यबाहुल्यं विद्यते । तेषामानुपूर्वीत्वसमान्यमाश्रित्य यदेकत्वं तदपेक्षया एकराशित्वमिति 'एको राशि:' इत्यस्याभिप्रायः, इति नास्तिकचिद् दोषः । यद्वा
शंका- जब आनुपूर्वीद्रव्य संख्यात आदिरूप नहीं हैं तो उनमें एकराशि रूपता भी कैसे बनसकती है ? क्योंकि यह राशिरूपता द्रव्य बहुलता में ही होती है । लोक में भी ऐसा ही देखा जाता है की जब धान्य बहुत होता है तब ''यह व्रीहिराशि " है ऐसा व्यवहार होता है ।
उत्तर- संख्यात आदि रूपता के अभाव में भी अपने स्वरूप को लेकर आनुपूर्वीद्रव्यों में बहुलता है। अतः आनुपूर्वीत्व सामान्य का आश्रय करके इनमें जो एकता है उसकी अपेक्षा ये एक राशिरूप है ऐसा कहने का अभिप्राय सूत्रकार का है। इसमें कोई दोष नहीं है । तात्पर्य कहने का यह है कि त्रिप्रदेशिक एक आनुपूर्वी है, चतुष्पदेशिक एक आनुपूर्वी है पंचप्रदेशिक एक भानुपूर्वी है इत्यादि अनंत प्रदेशिक एक आनुपूर्वी है । इस प्रकार से सप अनुपूर्वियों के स्वरूप
6" या
શંકા- જો આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સખ્યાત આદિ રૂપ ન ઢાય તે તેમાં એક રાશિરૂપતા કેવી રીતે સ`ભવી શકે છે? કારણ કે આ રાશિરૂપતા તે દ્રવ્યની બહુલતામાં જ મ'ભવી શકે છે. લેકમાં પણ એવુ' જ લેવામાં આવે છે કે જયારે ધાન્ય ઘણું જ ડાય છે ત્યારે એમ કહેવામાં આવે છે थोमानी ढंगसे। (शशि ) .
ઉત્તર—સંખ્યાત આદિ રૂપતાને અભાવ હોવા છતાં પણ પેાતાના સ્વરૂપની દૃષ્ટિએ આનુપૂર્વી' દ્રવ્યેામાં બહુલતા (વિપુલતા) છે. તેથી આનુપૂર્વી વ સામાન્યની અપેક્ષાએ તે દ્રવ્યેામાં જે એકતા છે તે એકતાને અનુ सक्षीने सूत्रठारे हीं मेवुठठे हे " માતુપૂત્રી દ્રવ્યામાં એકરાશિરૂપતા છે. ” તેથી આ પ્રકારના કથનમાં કોઈ દોષ નથી આ કથનનું તાત્પય એ છે કે ત્રિપ્રદેશિક એક ભાનુપૂર્વી' ચાર પ્રદેશિક એક અનુપૂર્વી છે, પાંચ પ્રદેશિક પર્યન્તના લકવાની એક એક આનુપૂર્વી છે. આ પ્રકારે મષી આનુપૂત્રીઓના સ્વરૂપ ભિન્ન ભિન્ન છે, પરંતુ તે સઘળી આાનુપૂર્વી એમાં
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मनुयोगहारले यथा-यथा विशिष्टैकपरिणामपरिणते स्कन्धे तदारम्भकपरमाणूनों राहुल्येऽपि तद्गतैकत्वमेव मुख्यतया विवक्ष्यते, तथैवात्राऽपि भानुपूर्वीद्रव्यवाहुल्येऽपि एकमानुरीत्वसामान्यमाश्रित्य एकत्वमेव मुख्यतया विवक्षितम् , अतो मुख्यमेकत्वमाश्रित्यैव संख्येयत्वादयो निषिध्यते । गुणभूतानि द्रव्याण्याश्रित्य तु राशिस्वमपि न विरुध्यते इति न कश्चिद् दोषः। एवमनानुपूर्यवक्तव्यकद्रव्यविषयेऽपि बोध्यम् । भिन्न २ है-सोहन सव में भानुपूर्वी त्वरूप सामान्य की अपेक्षा करके एकता मान ली जाती है-इस अपेक्षा इनमें एकराशिरूपता मानी गई है ? अथवा-जैसे विशिष्ट एक परिणाम स्कंध द्रव्य में तदारभ्भक परमाणुओं की बहुलता होने पर भी तद्गत एकता ही मुख्य रूप से विव. क्षित रूप से होती है, उसी प्रकार यहांपर भी राशिरूपता में भी भानुपूर्वीद्रव्यों की बहुलता होने पर भी एक आनुपूर्वीत्व रूप सामान्य को भाश्रित करके एकत्व ही मुख्यतया विवक्षित हुआ है। और इसी कारण इस मुख्य एकत्व को लेकर के संख्येयत्व आदि निषिद हुए हैं । भतः आनुपूर्वीद्रव्य में एक राशिरूपता विरुद्ध नहीं है । तथा गौण हुए व्यक्तिरूप द्रव्यों को आश्रित करके एक राशिपना भी विरुद्ध नहीं होता है । ( एवं दोनिवि ) इसी प्रकार से आनुर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य में भी एकराशिता का उद्भवन कर लेना चाहिए।
આનyવી વરૂપ સામાન્યની અપેક્ષાએ એકતા માની લેવામાં આવી છે. તેથી તે અપેક્ષાએ આનુપૂવીઓમાં એકરાશિરૂપતા માની લેવામાં આવી છે. અથવા-જેમ કઈ એક વિશિષ્ટ પરિણામ સ્કધદ્રવ્યમાં તદારંભક તેને આરંભ કરનારા) પરમાણુઓની બહુતા હોવા છતાં પણ તદૂગત એકતા જ મુખ્ય રૂપે વિવક્ષિત થાય છે, એ જ પ્રમાણે અહીં પણ-શશિરૂપતામાં પણ આનુપૂર્વી દ્રવ્યની બહતા હોવા છતાં પણ એક આનુવીરવ રૂપ સામાન્યને આધારે એકત્વ જ મુખ્યત્વે વિવક્ષિત થયું છે, અને એ જ કારણે આ મુખ્ય એકને લીધે સંયેયત્વ, અસંખ્યત્વ આદિને નિષષ થયું છે. તેથી આનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં એકરાશિરૂપતા માનવામાં કોઈ દેષ નથી. તથા ગૌણ પતાઈ રૂ૫ દ્રવ્યોને આશ્રિત કરીને એકરાશિત્વ પણ વિરૂદ્ધ પડતું નથી. (एवं दोन्नि वि) से प्रभार मनानुषी द्रव्यमा पर मेशिप ७५ કરવું જોઈએ અને અવકતવ્યક દ્રવ્યમાં પણ એકરાશિત્વ સમજી લેવું જઇને હવે સૂત્રકાર સંગ્રહનયસંમત ક્ષેત્રનું નિરૂપણ કરે છે–
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सोचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
४१७ मा क्षेत्र निरूपयितुमाह-'संगहस्स आणुपुब्बोदबाई लोगस्स कहभागे होना!' इलादि-संग्रहनयसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य कतिभागे-कियद्भागे मान्ति ! कि संख्पेयतमभागे भवन्ति ? किमसंख्येयतमभागे भवन्ति ? किं संख्येयेषु मागेषु भवन्ति ? किमसंख्येयेषु भागेषु भवन्ति ? किं सर्वलोके भवन्ति ? इति जः। उत्तरमाह-संग्रहनयसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य संख्येयतमभागे नो भवन्ति, अपपेयतमभागे नो भवन्ति, संख्येयेषु भागेषु नो भवन्ति, असंख्ये. येषु भागेषु चापि नो भवन्ति, किन्तु नियमान् सर्वकोके भवन्ति । आनुपूर्वी. सामान्यस्यै कत्वात् म भोव्यापित्वाच्च नियमात सर्वलोके तत्सत्ता बोध्या ।
अब मूत्रकार क्षेत्र का निरूपणा करते हैं
प्रश्न- (संगहम्ल आणुपुब्धी दवाई लोगस्स कहभागे होज्जा ?) संग्रहनय संमत समस्त आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में हैं? (किं संखेज्जहभागे होज्जा, असंखेन्जहभागे होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु होज्जा? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? सव्वलोए होज्जा ! )क्या लोक के संख्यातवें भाग में हैं ? या लोक के असंख्यातवें भाग में हैं? या लोक के संख्यान भागो में है ? या लोक के असंख्यात भागों में है या सर्वलोक में हैं ?
उत्तर-(नो मखेज्जहभागे होज्जा, नो असंखेज्जाभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होजना, नो असंखेन्जेप्सु भागेसु होज्जा, निय. मा सवलोए होजना, एवं दोनिवि ) समस्त आनुपूर्वी द्रव्य लोक के न संख्यातवें भाग में हैं न अत ख्यातवे भाग में हैं, न संख्यात भागों में हैं और न अमंल्यात भागों में हैं किन्तु नियम से समस्त लोक में है।
प्रश्र-(संगहास आणुपुब्धीदवाई लोगस्स कहभागे होता ) 31 पन् । सनयमान्य मानुषी द्रव्ये ना ४८सा मामा ? (किं संखेजइभागे होना, असंखेजइभागे होज्जा, संखेज्जेसु भागेस होज्जा, असं बेज्जेसु भागेसु होज्जा, सव्वलोप होज्जा । शुना सध्यातमा भागमा ? કે અસંખ્યાતમાં ભાગમાં છે? કે લેકના સંખ્યાતભાગોમાં છે! કે લોકના અસંખ્યાત ભાગમાં છે કે સર્વ લેકમાં છે?
उत्तर-(नो संखेज्जइभागे होज्जा, नो असंखेज्जइभागे होम्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होजा, नो असंखेम्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा सवलोए होता, एवं दोन्नि वि) समस्त मानुषी द्रव्य वन संज्यातमा भागमा ५९ नका, અખાતમાં ભાગમાં પણ નથી, સંખ્યાત ભાગોમાં પણ નથી, અસંખ્યાત લાગોમાં પણ નથી, પરંતુ નિયમથી જ સમસ્ત લેકમાં છે, કારણ કે આન
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अनुयोगदाणे अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यविषयेऽप्येवमेव बोध्यम् । स्पर्शनाद्वारेऽपि एवमेव बोध्यम् । कालद्वारे तु-कालतः आनुपूर्वीत्वानानुपूर्वीत्वावक्तव्यत्वानामव्यवच्छिमत्वेन सर्वदाऽवस्थायित्वात् कालत्रयेऽप्येषां सर्वाद्धास्थानं बोध्यम् । अत एवैषां काल. तोऽन्तरमपि न भाति, आनुपूर्वीत्वादीनां कालत्रयेऽपि सत्येन व्यवच्छेदाभावात् , इत्यन्तरद्वारे भावनीयम् । भागद्वारे त्वेवं विज्ञेयम्-आनुपूर्वीद्रव्येषु प्रत्येकद्रध्याणिक्योंकि आनुपूर्वी त्वरूप सामान्य एक है और वह सर्वलोक व्यापी है इसलिये नियमतः आनुपूर्वी द्रव्य की सत्ता सर्वलोक में हैं । इसी प्रकार से अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में इसी प्रकार का कथन जानना चाहिये । तथा स्पर्शना द्वार में भी ऐसा ही मंतव्य जोनना चाहिये । अर्थात् आनुपूर्श आदि समस्त द्रव्य सर्वलोक का नियम से स्पर्श करते हैं। यही विषय प्रश्नोत्तर पूर्वक (संगहस्त आणुपुत्वीदब्वाई लोगस्स किं संखेज मागं फुसति ? असंखेज्जहभागं फुसति संखेज्जे भागे फुसति, असंखेज्जे भागे फुमति ? सव्वलोग फुसति? नो संखेज्जइभागं फुपति, गाव नियमा सव्वलोगं फुसति, एवं दोनिवि) सूत्रकार ने इन पदों द्वारा स्पष्ट किया है। (संगहस्स आणुपुव्वीदवाई कालो केवच्चिरं होति ? सब्बद्धा एवं दोन्निथि)
प्रश्न-संग्रहनय मान्य ममस्त भानुपूर्धी द्रव्य काल को आश्रित करके कितने समय तक आनुपूर्वी रूप से रहते हैं। પૂર્વીત્વ રૂપ સામાન્ય એક છે અને તે સર્વલેકવ્યાપી છે, તેથી નિયમથી જ આનુપૂર્વી દ્રવ્યની સત્તા (અસ્તિત્વ) સર્વ લેકમાં છે. આ પ્રકારનું કથન અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય વિષે પણ સમજવું એટલે કે તે બને અસ્તિત્વ પણ નિયમથી જ સમસ્ત લેકમાં છે. સ્પર્શનાને અનુલક્ષીને પણ એવું જ કથન સમજી લેવું. એટલે કે આનુપૂર્વી આદિ સમસ્ત દ્રવ્ય નિયમથી જ સર્વલકને સ્પર્શ કરે છે. એ જ વિષયનું સૂત્રકારે નીચેના પ્રશ્નોત્તરે દ્વારા સ્પષ્ટીકરણ કર્યું. છે
(संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाई लोगस्स किं संखेजइभागं फुसंति ? असंखेन्जर भागं फुसंति, संखजे भागे फुसं ते, असखिग्जे भागे फुसंति, सबलोग फुसंति? नो संखेज्जइभागं फुसंति, जाब नियमा सव्वलोगं फुसंति, एवं दोन्नि वि.)
પ્રશ્ન-હે ભગવન! સંગ્રહનયસંમત આનુપૂર્વ કચ્ચે શું લેકના સંખ્યાતમાં ભાગને સ્પર્શે છે કે, અસંખ્યામાં ભાગને સ્પર્શે છે, કે સમસ્ત લેકને પશે છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
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-त्रिमदेशिकचतुष्पदेशिकादीनि अनन्तप्रदेशिकपर्यन्तानि, नियमात् शेषद्रव्याणाम्= भानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणां त्रिभागे= त्रयाणां राशीनामेको राशिरूपो भागखिभागस्वस्मिन् भवन्ति । अयमर्थः - अनानुपूर्वीद्रव्याणां सर्वेषां संकलनेन यावत्
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उत्तर- आनुपूर्वीत्व अनानुपूर्वीत्व और अवक्तव्यकत्व सामान्य का कभी भी विच्छेद नहीं होता है इसलिये इनका अवस्थान सर्वाद्धासार्वकालिक है । इसीलिए काल की अपेक्षा इनका विरह काल भी नहीं है। तात्पर्य कहने का यह है कि आनुपूर्वीस्व आदिकों का कालजय में भी सत्व होने के कारण व्यवच्छेद नहीं होता है, इस कारण इनमें अन्तर नहीं माना जाता है ऐसा विचार अन्तरद्वार में किया गया जानना चाहिये । यही बात सूत्रकारने (संगहरुस आनुपुच्चीदव्याणं कालओ केवचिचरं अतरं होई ? नत्थि अंतरं) इन पदों द्वारा कही गई है (संगहस्स आणुपुत्री दव्वाई सेसदव्याणं कइ भागे होज्जा )
प्रश्न- संग्रहनयमान्य समस्त आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों के कौन से भाग में हैं ? (कि संखेज्जह भागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होज्जा ઉત્તર-આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સમસ્ત લેાકને જ સ્પર્શે છે, લેાકના સખ્યાતમાં ભાગને, અસખ્યાતમાં ભાગને, સખ્યાત ભાગાને કે અસખ્યાત ભાગે ને સ્પર્શતું નથી આ પ્રકારનું કથન અનાનુપૂર્વી દ્રબ્યા અને અવકતવ્યક દ્રબ્યાની સ્પના વિષે પશુ સમજવું.
( संगहस्स आणुपुत्रीदब्वाइ' कालओ केवच्चिरं होति । सव्वद्धा, एव' दोन्नि बि ) प्रश्न-डे लगवन् ! सश्रडुनयमान्य समस्त मानुपूर्वी द्रव्य अजनी અપેક્ષાએ કેટલા સમય સુધી આનુપૂર્વી રૂપે રહે છે ?
ઉત્તર-આનુપૂર્વી, અનાનુપૂર્વીત્વ અને અવકતવ્યકત્વસામાન્યને ક્રક્રિ પણ વિચ્છેદ થતા નથી તેથી તેમનું અવસ્થાન (અસ્તિત્વ) સાકાલિક ડાય છે તે કારણે કાળની અપેક્ષાએ તેમના વિરહકાળ પશુ નથી. આ સ્થનનું ત.ષય એ છે કે આનુપૂર્વી આદિના ત્રણે કાળમાં સદ્ભાવ હોવાને કારણે ચવચ્છેદ (વિનાશ) સંભવી શકતે નથી. તે કારણે કાળની અપેક્ષાએ તેમના अन्तर (विराज) ने सलाव होतो नथी. या अहारे सूत्रारे अ ंतરદ્વારની પ્રરૂપણા કરી છે, એમ સમજવું એજ વાત સૂત્રકારે નીચેના સૂત્રપાઠ દ્વારા વ્યક્ત કરી છે—
( संगहस्स आणुपुत्रीदव्वाण' कालओ केवच्चिर' अंतर होई ? नबि अंतर) मा सूत्रपाठी लावार्थ उपर साध्या प्रभाषे समन्व
वे भागद्वारनं नि३५ ४२वामां आवे छे - ( संगहस्स आणुपुब्बी दव्बाई
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५२.
मनुयोगदारले राशिर्भवति तस्य मागत्रयकरणेन यस्तृतीयो भागः संपद्यते तत्संख्यकानि बाहुपूर्वीद्रव्याणां प्रत्येकद्रव्याणि भवन्ति, संग्रहस्यानुपूर्वीद्रव्याणि कस्मिन् मारे भवन्ति ?, इति प्रश्नः । उत्तरमाह-नियमात् सादिपारिणामिके भावे भवन्ति । संखेज्जेसु भागेतु होजा? असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा?) क्या संख्यातवें भाग में हैं या असंख्यातवें भाग में हैं ?-या संख्यात भागों में हैं ' या असंख्यात भागों में हैं ? - ____उत्तर-(नो संखेज्जहभागे होज्जा, नो असंखेज्जह भागे होज्जा, नो संखेज्जेस्तु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा तिभागे होज्जा ) संग्रहनय मान्य समस्त आनुपूर्वी द्रव्यों में से प्रत्येक
आनुपूर्वीद्रव्य-त्रिप्रदेशिक, चतुष्पदेशिक आदि अनन्त प्रदेशिक द्रव्यनियम से शेष द्रव्यों के विभाग में हैं । अर्थात् अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तव्यकद्रव्यों को मिलाकर जो राशि उत्पन्न हो उस राशि के ३ भाग करो-इनमें जो तृतीय भाग आवे तत्प्रमाण आनुपूर्वी द्रव्यों में प्रत्येक आनुपूर्वी द्रव्य हैं । ( एवं दोन्निवि )-इसी प्रकार आनुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में जानना चाहिये । (संगहस्स आणुपुव्वी सेसव्वाग कइभागे होज्जा ?) प्रश्न-3 भगवान् ! सनयस मत समस्त मानुपी द्र०५ मीना द्रव्याना मामा मागप्रमाण य छ १ (किं संखेज्जइभागे होज्जा ? असंखेज्जइभागे होउ ना ? संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? असं. खेज्जेसु भागेसु होज्जा') शुसध्यातमा मागप्रमाण छ ? , मसभ्यातमi ભાગપ્રમાણે છે? કે સંખ્યાત ભાગો પ્રમાણ સંખ્યાત ગણું છે? કે અસંખ્યાત ભાગો પ્રમાણ-અસંખ્યાત ગણું છે?
उत्तर-(नो संखेज्जइभागे होज्जा, नो असंखेज्ज इमागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नियमा तिभागे होज्जा) સંગ્રહનયમાન્ય સમસ્ત આનુપૂવી દ્રામાંથી પ્રત્યેક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય-ત્રિપ્રદેશિક ચતુષ્પદેશિક પંચ પદેશિક આદિ અનંત પ્રદેશિક પર્યન્તના પ્રત્યેક આનપૂવી દ્રવ્ય-નિયમથી જ બાકીના દ્રવ્યોના ત્રીજા ભાગ પ્રમાણ જ હોય છે. એટલે કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યો અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોને એકત્ર કરવાથી જે રાશિ બને છે તે રાશિના જે ત્રણ ભાગ કરવામાં આવે છે તે પ્રત્યેક ભાગપ્રમાણુ (તે બાકીના દ્રવ્યની રાશિના શશિના ત્રીજા ભાગપ્રમાણ) भानुभूती यामांना प्रत्ये: मानुषी द्र०य हाय छे. (एव दोन्नि वि) . પ્રમાણે અનાનુપૂર્વ અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યના વિષયમાં પણ સમજવું.
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अनुचोगवन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् पन्चाई कयरंमि भावे होज्जा ? ) संग्रहनय मान्य आनुपूर्वी द्रव्य किस भाव वाले हैं ?
उत्तर- (नियमा साइपारिणामए भावे होज्जा) संग्रहनय मान्य मानुपूर्वीद्रव्य नियम से सादिपारिणामिक भाववाले हैं । (एवं दोन्निवि) इसीप्रकार से दोनों आनुपूर्वी और अवक्तव्यकद्रव्यों के विषय में जा. मना चाहिये। (अप्पा बहुनस्थि ) राशिगत द्रव्यों में अल्प यहुत्व नहीं माना गया है । क्योंकि इस संग्रहनय में राशिगत द्रव्यों का अस्तित्व व्यवहारनयरूप कल्पना मात्र से ही मान्य हुआ है। तात्पर्य कहने का यह है कि संग्रहनय की दृष्टि आनुपूर्वी द्रव्यों में अनेकत्व काल्पनिक हैं। क्यों कि व्यवहारनय इस बात को स्वीकार करता है कि आनुपूर्वी द्रव्य प्रत्येक अनेक हैं । इसलिये यह अनेकत्व सामान्य रूप भानुपूर्वी त्व की दृष्टि में विलीन के कारण है ही नहीं। __ शंका-यदि यही बात है तो फिर सूत्रकार ने इस संग्रहनय मान्य अनुगम के प्रकरण में "संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि किं संख्येयानि" आदि पहुवचनान्त पद में आनुपूर्वी द्रव्य को क्यों रखा है ? "आनुपूर्वी
प्रश्र-( संगहस्स आणुपुव्वी दवाइ कयरंमि भावे होज्जा ?) सहनय. માન્ય આનુપૂર્વી દ્રવ્ય કયા ભાવથી યુકત હોય છે ?
उत्तर- नियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा) सनयमत मानुभूती द्रव्या नियमयी ५ सहिपारिवामि भाणाय छे. (एव दोन्नि वि) એજ પ્રમાણે સંગ્રહનયસંમત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પણ नियमथी १ सहिपारिभिर माणi हाय छे (अप्पा बहू' नत्थि)
શિગત દ્રવ્યમાં અ૫બહત્વ માનવામાં આવ્યું નથી, કારણ કે આ સંગહનયમાં રાશિગત દ્રવ્યોનું અસ્તિત્વ વ્યવહાર નયરૂપ કલ્પના માત્રથી જ માન્ય થયું છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સંગ્રહનયની દષ્ટિએ આ પૂર્વ દ્રવ્યમાં અનેકત્વ કાલ્પનિક છે, કારણ કે વ્યવહાર નય એ વાતને સ્વીકાર કરે છે, કે પ્રત્યેક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અનેક છે. અને તે અનેકત્વ સામાન્ય ૩૫ આનુપૂવવની દષ્ટિમાં વિલીન થઈ જવાને કારણે છે જ નહીં.
શંકા-જે એવી હકીકત હોય તે સૂત્રકારે આ સંગ્રહનયમાન્ય અનુગ. भना प्रभा " संगहस्म आनुपूर्वी द्रव्याणि किं संख्येयानि " या मह. पचनान्त 48i भानुषी द्रव्यने म भू १ "" आनुपूर्वी व्य"
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Arramananews
अन्गद् द्वयमपि पूर्ववद् बोध्यम् । राशिगतद्रव्याणां पूर्वोक्ताल्पबामा नानी यते, द्रव्याणां प्रस्तुतनये व्यवहारसंवृत्तिमात्रेणेव सचादिति । एवमनानुपूर्ववत व्यकद्रव्यविपयेऽपि बोध्यम् । अनुगमं समापयवाह-'सेतं अणुगमे ' इति । स
च्यम्" ऐसा एक वचनान्त पद प्रयुक्त करना चाहिये। क्योंकि संवहनव मुख्यतया सामान्यत्व ही मानता है।
उत्तर-शंका ठीक है-परन्तु सूत्रकार ने जो पहुवचनान्त आनुपूर्वी पद को रखा है उसका कारण यह है कि वे यह प्रकट करना चाहते हैं यवहारनय से द्रव्ययतुत्व भी हैं । इसी यात की अपेक्षा करके उन्होंने यहां आनुपूर्वी में बहुवचन का निर्देश किया है।
शंका-व्यवहारनय की अपेक्षा सूत्रकारने जब नेगम व्यवहारसंमत अनुगम का प्रकरण प्रारंभ किया है तब वहां द्रव्यषहत्व दिखला ही दिया है फिर हले यहां इस एकत्व के प्रकरण में प्रदर्शित करने की क्या आवश्यकता थी ? ___उत्तर-ठीक है-नहीं दिखलाना चाहिये, परन्तु जो शिष्य विस्मरण शील है उन्हे इस विषय को पुनः स्मृत कराना कोई पुनरुक्ति दोष की पात नहीं है । अतः सूत्रकारने ऐसा किया है। शिष्यजन जिस प्रकार से वस्तु का स्वरूप समझ सके उसी प्रकार से उन्हे समझाना गुरुका कर्त.
આ એક વચનાન્ત પદને પ્રવેગ કેમ કર્યો નથી ? સંગ્રહનીય મુખ્યત્વે સામાન્યતત્વને જ માને છે તેથી અહીં એકવચનના પદને પ્રયોગ ધ ઈતે હતા.
ઉત્તર-શંકાકર્તાની શંકા વ્યાજબી છે. પરંતુ સૂવકારે જે બદ્ધચનાન પદને પ્રયોગ કર્યો છે-આનુપૂર્વી દ્રવ્ય ” એ પ્રયોગ કર્યો છે તેનું કારણ એ છે કે તેઓ એ વાત પ્રકટ કરવા માગે છે કે વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ દવ્યગહત્વ પણ છે. એજ વાતને અનુલક્ષીને સૂત્રકારે અહીં આનુપૂર્વી પદમાં બહુવચનને નિર્દેશ કર્યો છે.
શંકા-નગમવ્યવહાર નયસંમત અનગમના પ્રમાણમાં જ સૂત્રકારે વ્યવહારનયની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય મહત્વ પ્રકટ કર્યું છે. છતાં અહીં ફરીથી તેને એકવના પ્રકરણમાં પ્રદર્શિત કરવાની શી આવશ્યકતા હતી?
ઉત્તર-વિમરણશીલ શિષને આ વિષયનું ફરી સ્મરણ કરાવવા માટે સૂત્રકારે અહીં તેને ફરી ઉલ્લેખ કર્યો છે તેથી આ પ્રમાણે કરવામાં પુનરુક્તિ દેશની સંભાવના રહેતી નથી શિવે જે પ્રકારે વસ્તુના સ્વરૂપને સમજી શકે એ પ્રકારે તેમને સમજાવવાનું તે ગુરુનું કર્તવ્ય થઈ પડે છે.
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मधुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९६ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
एषोऽनुगमः । इत्थं संग्रदसम्मताऽनौष निधि की द्रव्यानुपूर्वी समाप्ते तिचयितुमाह'सेतं संगस्स ' इत्यादि । सैषा संग्रहसम्मताऽनपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी । अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी समाप्तेति सूचयितृमाह से तं भणोवणिधिया' इत्यादिसैषाऽनोपनिषिकी द्रव्यानुपूर्वीति ॥ ०९६ ।।
"
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इत्थमनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी निरूप्य सम्पति माइनिर्दिष्टामीपनिधिक द्रव्यानुपूर्वी प्राह
मूलम् - से किं तं ओवणिहिया दव्वाणुपुदी ? ओवणिहिया दव्वाणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- पुव्वाणुपुत्री१, पच्छाणुपुवीर, अणाणुपुवीय ३ ॥ सू० ९७ ॥
व्य हो जाता है । ( से तं अणुग मे । से तं संगहस्त अणोवणिहिया दव्याणुपुत्री, सेत अणोवनिहिया दव्याणुपृथ्वी) इस प्रकार अनुगम के प्रकरण को समाप्त करते हुये सूत्रकार कहते हैं कि यह पूर्वोक्तरूप से संग्रहनय मान्य अनुगम का स्वरूप है । इसकी समाप्ति में संग्रहनय संगत अनौपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी का कथन समाप्त हो चुका। यही प्र क्रान्त अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप है। इसका विशेषरूप से खुलाशा अर्थ नैगम व्यवहार संमन अनुगम के प्रकरण में लिखा जा चुका है ।। सू० ९६ ॥
इस प्रकार से अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का निरूपण करके अव सूत्रकार पूर्व कधित औपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी का कथन करते हैं
( से तूं अणुगमे ! खेत संभाइरस अणोवनिहिया दव्वाणुपुत्री से त अणोरणिहिया दव्षाणुपुब्बी) वे अनुगमना करना उपसार २ सूत्रકાર કહે છે કે આ પ્રકારનું (ઉપર વધુ વ્યા પ્રમાણેનુ') સગ્રહનયમાન્ય અનુ ગમનુ' સ્વરૂપ છે. અનુગમના સ્વરૂપનું નિરૂપણુ થઈ જવાથી સંગ્રહનયમાન્ય અનુગમનુ સ્વરૂપ છે. અનુગમના સ્વરૂપનું નિરૂપણુ થઇ જવાથી સગ્રહનયસંમત અનૌપનિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી નું કથન અહીં પૂરૂ થાય છે. આ પ્રકારનું પૂર્વ પ્રસ્તુત અનૌપનિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે. તેના વિશેષ ખુલાસે નૅગમવ્યવહાર નયસંમત અનુગમના પ્રકરણમાં આપવામાં આવેલે છે, સદ્ગ૬૫ આ પ્રમાણે અનૌપનિષિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી નું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર પૂર્વ'થિત ઓપનિધિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી નું નિરૂપણ કરે છે—
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अनुयोगदारसे या-अथ का सा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी १ औपनिधिकी द्रन्यानी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वीर, पश्चानुपूर्वी २, अनानुपूर्वी ३२ ० ९७।।
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ का सा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरमाहभोपनिधिकी-उपनिधिः स्थापनं निर्माणमित्यर्थः, स प्रयोजनमस्या सा, द्रव्यानुपूर्वी-द्रव्यविषयाऽऽनुपूर्वी त्रिपकारा प्रोक्ता। तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी विवक्षितधर्मास्तिकायादिद्रव्यविशेषसमुदाये यः पूर्वः प्रथमस्तस्मादारभ्य या आनुपूर्वी - अनुक्रमः परिपाटो वा निक्षिप्यते सा पूर्शनुपूर्वी ? । पश्चानुपूर्वी-तत्रैव द्रव्यविशेष.
“से किं तं ओवणिहिया" इत्यादि
शब्दार्थ-से किं तं ओवणिहिया दवाणुपुटवी ) हे भान्त ! औपनिधि द्रव्यानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (ओवणिहिया वाणुपुब्बी तिचिहा पणत्ता ) औपनिधि द्रव्यानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है । (तंजहा) वे उसके ३ प्रकार ये है-(पुम्वाणुपु०वी १, पच्छाणुपुवी२, अणाणुपुव्वी ३ य) १ पूर्वानुपूर्वी २ पश्चानुपूर्वी और ३,अनानुपूर्वी उपनिधि का अर्थ स्थापन या निर्माण है। यह जिसका प्रयोजन हो उसका नाम औपनिधिकी है । यह द्रव्य वियषक औपनिधिकी द्रव्पानुपूर्वी-पूर्वोक्तरूप से३तीन प्रकार की हैं। विवक्षित धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य विशेष के समुदाय में जो पूर्व प्रथम द्रव्य है उससे लेकर जो आनुपूर्वी - अनुक्रम-परिपाटी निक्षिप्त की
“से कि त ओवणिहिया" त्याह
सहाय-( से कि त ओवणिहिया व्वाणुपुब्बी ) 3 भावन! मी५ નિષિકી દ્રવ્યાનુપૂવીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(ओवणिहिया दव्वाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता) मोपनिधिही न्या. नुपी १५ २नी ही छे. (तंजहा) ते त्रय प्रा। नीचे प्रमाणे - (पुत्वाणुपुषी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुगी य) (१) पूर्वानुभूती, (२) ५श्वानु. पूवी, भने (3) मनानुभूती
ઉપનિધિ એટલે સ્થાપના અથવા નિર્માણ તે સ્થાપના અથવા નિર્માણ જેન પ્રોજન હોય છે તેને ઔપનિધિ કી કહે છે. આ દ્રવ્યવિષયક ઔપનિષિકીના ઉપર મુજબ ત્રણ પ્રકાર છે. વિવણિત ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યવિશેષના સમુદાયમાં જે પૂર્વ (પ્રથમ દ્રવ્ય) છે ત્યાંથી શરૂ કરીને જે આનુ પૂર્વ (અનુક્રમ, પરિપાટી) નિશ્ચિત કરવામાં આવે છે-રાખવામાં આવે છે
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मोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९८ पूानुपादिमेदत्रयनिरूपणम् ४२५ मादाय यः पावास्या अन्तिमस्तस्मादारभ्य व्यतिक्रमेण या ऽऽनुपूर्वी निक्षिप्यते मा पचानुपी २। अनानुपूर्वी-पूर्वानुपूर्वीपश्चानुपूर्वीभ्यां मिन्नस्वरूपा याऽऽनु. पूर्वी साऽनानुपूर्वी ॥ सू०९॥ पूर्वानुपूर्यादिभेदत्रयं निरूपयितुमाह
मरम्-से किं तं पुत्वानुपुब्बी ? पुव्वाणुपुवी-धम्मत्थिकाये अधम्मस्थिकाये, आगासस्थिकाये, जीवत्थिकाये, पोग्गलत्थिकाये, अद्धासमये । से तं पुव्वाणुपुठवी । से किं तं पच्छाणुपुवी? पच्छाणुपुवी-अद्धासमए, पोग्गलस्थिकाए, जीवत्थिकाए, आगासस्थिकाए, अहम्मस्थिकाए, धम्माथिकाए। से तं पच्छाणुपुत्वी। से किं तं अगाणुपुवी? अणाणुपुवी-एयाए घेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णम्भासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुत्वी ॥सू०९८॥
छाया-अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः भाकाशास्तिकायो जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायः अद्धासमयः। सैषा पूर्वाकी जाती है-रखी जाती है वह पूर्वानुपूर्वी है । तथा उसी द्रव्य विशेष के समुदाय में जो पाश्चोत्य-अंतिमद्रव्य है-उससे लेकर व्यक्तिक्रम से जो आनुपूर्वी निक्षिप्त की जाती है वह प्रश्चानुपूर्वी है। पूर्वानुपूर्वी एवं पश्चानुपूर्वी इन दोनों से भिन्न स्वरूप वाली जो आनुपूर्वी है वह भनानुपूर्वी है।॥ सू० ९७॥
पूर्वानुपूर्वी आदि जो तीन भेद हैं उनका स्वरूप क्या है इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं-“से किं तं पुव्वानुपुव्वी" इत्यादि। તેનું નામ પૂર્વાનુપૂલ છે. તથા એજ દ્રવ્યવિશેષના સમુદાયમાં જે પાશ્ચાત્યઅંતિમ દ્રવ્ય છે, ત્યાંથી શરૂ કરીને એટલે કે ઉલ્ટા ક્રમથી જે આનપૂર્વ રાખવામાં આવે છે તેને પશ્ચાનુપૂર્વા કહે છે. પૂર્વાનુપૂર્વી પશ્ચાતુપૂર્વી, આ બનેથી ભિન્ન સ્વરૂપવાળી જે આનુપૂવી છે તેને અનાનુપૂર્વા કહે છે. સૂ૦૯
હવે સૂત્રકાર પૂર્વાનુમૂવી આદિ ત્રણ ભેદના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર છે"से कि त पुल्वानुपुवी" त्याle
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अनुयोगद्वार
नुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी - अद्धासमयः, पुनलास्तिकाच, जीवास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, धर्मास्तिकायः । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी - एतस्यामेव एकादिकायामेकोतरिकायां षड्गच्छतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषाऽनानुपूर्वी ॥ स. ९८।। टीका- -' से किं तं ' इत्यादि
-
अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरमाह - 'पुव्वाणुपुन्त्री ' इत्यादि । पूर्वानुपूर्वी-धर्मास्तिकायः १, अधर्मास्तिकायः २, आकाशास्तिकायः ३, जीवास्तिकाय: ४, पुद्गलास्तिकायः५, अद्धासमयः ६ । धर्मास्तिकायादीनां व्याख्याऽऽचाराङ्गसूत्रस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे मत्कृताचारचिन्तामणिटीकायां द्रष्टव्या । तथा - अद्धासमयः - अद्धारूपः समय इति समासः । अद्धाशब्दः कालवाचकः । शब्दार्थ - ( से किं तं पुव्वानुपुत्र्वी १) हे भदन्त । पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर - ( पुव्वाणुपु०वी) पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है( धम्मस्थिकाये, अधम्मस्थिकाये, आगासत्धिकाये जीवस्थिकावे, पोग्गलत्थिकाये' अद्धासमये ) १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ जीवास्तिकाय ५ पुद्गालास्तिकाय और ६ अद्धा समय इस प्रकार की परिपाटी से इन छह द्रव्यों का निक्षेपण करना यह पूर्वानुपूर्वी है। इन धर्मास्तिकाय आदि को का क्या स्वरूप है इस बात को जानने के लिये आचोराङ्ग-सूत्र के प्रथम स्कंध में मत्कृत आचारचिन्तामणि टीका देखनी चाहिये । अद्धारूप जो समय है उसका नाम अद्धा समय है । अद्धा शब्द शार्थ - (से किं तं पुव्बानुपुब्बी ?) हे भगवन् ! पूर्वानुपूर्वीनु २१३५ ठेवु छे १
62-(goggat) valgyalj 2934 anı sig. (farm, अधम्मत्थिकाये, आगासत्थिकाये, जीवत्थिकाये, पोग्गलत्थिकाये, अद्धासमये ) ( 1 ) धर्मास्तिठाय, (२) अधर्मास्तिाय, ( 3 ) आमशास्तिहाय, (४) वास्तिमय, (૫) પુદ્ગલાસ્તિકાય અને (૬) અદ્ધાસમય (કાળ), આ પ્રકારની પરિપાટીથી (અનુક્રમથી) છ દ્રવ્યેાનું નિક્ષેપણ કરવું તેનું નામ પૂર્વાનુપૂર્વી' છે.
આચારાંગ સૂત્રની આચારચિન્તામણિ નામની મેં જે ટીકા લખી છે તેના પહેલા સ્કંધમાં ધર્માસ્તિકાય આદિના સ્વરૂપનું' નિરૂપણ કરવામાં આછ્યુ‘ એ તા જિજ્ઞાસુ પાઠકેએ ત્યાંથી તે વાંચી લેવુ. અદ્ધા રૂપ જે સમય છે તેનું નામ અદ્ધારમય છે. અદ્ધા શબ્દ કાળવાચક છે, અને સમય શબ્દ
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मनुबोनचन्द्रिका टीका सूत्र ९८ पूानुपूर्व्यादिमेदत्रयनिरूपणम् समवान्दोऽनेकार्थकः शपयादिष्वपि वर्तते, अतः कालमर्थ बोधयितुम्-'अदा' हात विशेषणोपादानम् । पट्ट माटिकादिपाटनदृष्टान्तसिद्धः सर्वक्ष्मः पूपिरकोटिविममुक्तो वर्तमानः एकः कालांश इति 'अदासमय' शब्दार्थों बोध्यः, अत एवात्र पस्तिकायत्वाभावः, बहुपदेशवति द्रव्य एव तस्य सद्भावात् । इह तु नास्ति प्रदेबाहुल्यम्,-अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन एकमात्रस्य वर्तमानरूपस्य समयस्व प्रदेशस्य सद्भावात् । ननु समयबहुत्वाभावे 'समया वलियमुहुत्ता काल वाचक है और समय शन्द अनेकार्थक है। क्योंकि समय शन्द का प्रयोग शपथ आदि अनेक अर्थों में भी होता है । अतः कालरूपअर्थ का वह यहां बोधक है, इस बात को बोध कराने के निमित्त सूत्रकार ने उसका विशेष अद्वापद रखा है। वर्तमान एक कालांश का नाम अद्धा समय है । यह अत्यंत सूक्ष्म है । पूर्व और अपर कोटि से यह रहित होता है। इसकी सिद्धि पट्ट साटिकादि के फाड़ने रूप दृष्टान्त से होती है। अर्थात् सर्व सूक्ष्मातिमूक्ष्म जो वर्तमान कालांश है वही अद्वा समय का वाच्यार्थ है। इसे अस्तिकाय में परिगणित नहीं किया गया है। क्यों कि इसमें बहुप्रदेशत्व का अभाव है। जो बहुप्रदेश वाले-होते हैं उन्हे ही अस्तिकाय कहा गया है । अतीतकाल विनष्ट हो जाने के और भविष्यत् काल अनुत्पन्न होने के कारण एकमात्र वर्तमानरूपसमय प्रदेश का सद्भाव है इसलिये उसमें प्रदेशबाहुल्य नहीं है।
शंका-समय की बहुता के आभाव में "समयावलियमुहत्ता दिव. અનેકાર્થક છે, કારણ કે સમય શબ્દ પ્રયોગ શપથ આદિ અનેક અર્થોમાં પણ થાય છે. તેથી તે પદ અહીં કાળરૂપ અર્થનું બેધક છે, તે વાતને સમજાવવાને માટે સૂત્રકારે તેનું વિશેષ અદ્ધાપદ રાખ્યું છે. વર્તમાન એક સમયનું નામ અદ્ધા સમય છે. તે અત્યંત સૂક્ષ્મ છે. પૂર્વ અને અપર કેટિણી તે રહિત હોય છે. તેની સિદ્ધિને માટે પટ્ટ સાટિકા આદિ ફાડવાનું દખાન આપવામાં આવે છે એટલે કે સર્વસૂક્ષ્માતિસૂક્ષ્મ જે વર્તમાન કાલાંશ છે એજ અદ્ધાસમયના વાગ્યાથું રૂપ છે. તેને અસ્તિકામાં ગણાવવામાં આવેલ નથી કારણ કે તેમાં બહુ પ્રદેશત્વને અભાવ છે. જે બહુ પ્રદેશવાળાં હોય છે તેમને જ અસ્તિકાય કહેવાય છે. અતીતકાળ (વ્યતીત થઈ ગયેલે કાળ) વિનષ્ટ થઈ જવાને કારણે અને ભવિષ્યકાળ અનુત્પન્ન હેવાને કારણે એક માત્ર વર્તમાન રૂપ સમયપ્રદેશને જ સદૂભાવ છે, તેથી તેમાં પ્રદેશબાહુલ્ય નથી.
-समयनी माताना ने अभाव भानपामा भावे, ते “ समयाव
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भंगागवारले दिवसमहोरसपक्खमासा य' इत्यागमसिद्ध आवलिकादिकालः कथमुपपयेत ! इति चेत्, उच्यते-व्यवहारनयमाश्रित्य-आवलिकादिसत्ता स्वीक्रियते। निधन नयमते तु तदसत्वमेव । नहि पुद्गलस्कन्धे परमाणुसकात इवावलिकादिषु समयसातः कश्चिदस्थितोऽस्ति, अतो व्यवहारनयमतेन तत्कथनमस्तीति न कबिर् दोष इति । तदेतदुपसंहरन्नाह-' से तं' इत्यादि, सैषा पूर्वानुपूर्वीति । अब पश्चानुपूर्वी निरूपयितुमाह-' से किं तं' इत्यादि । अथ का सा पचानुपूर्वी ! इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरमाह-'पच्छानुपुब्बी' इत्यादिना। पश्चानुपूर्वी हि'अद्धासमयः, पुद्गलास्तिकायः, जीवास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, अधर्मास्तिस महोरत्तपक्खमासाय" इत्यादि आवलिकारूप काल जो कि आगम सिद्ध है कैसे संगत माना जा सकता है ?
उत्तर-व्यवहारनय को लेकर ही आवलिकादिरूप की सत्ता स्वीकृत हुई है। निश्चयनय के मत को लेकर नहीं। क्योंकि इस मत में तो आवलिकादि रूप कालका सत्व नहीं माना गया है। जिस प्रकार से पुदलस्कंध में परमाणुओं का संघात अवस्थित है उस प्रकार से आव. लिकादिकों में कोई समय संघात अवस्थित नहीं है । इसलिये मानना चाहिये यह आवलिकादिरूप काल का कथन व्यवहारनय के मत से है। इसलिये इसमें कोई दोष नहीं है । (से तं पुव्वानुपुव्वी) इस प्रकार यह पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप है । " से किं तं पच्छानुपुव्वी" पश्चानुपूर्वी क्या है?
उत्तर-(पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी इस प्रकार से हैं-(अद्धासमए लियमुहुत्ता दिवसमहोरत्तपक्खमासा य" मालि, भुत', हस, शत, પક્ષ, માસ આદિ રૂપ કાળ કે જે આગમ દ્વારા સિદ્ધ થયેલ છે, તેને કેવી રીતે સંગત માની શકાય?
ઉત્તર-વ્યવહાર નયની દૃષ્ટિએ જ આવલિકાદિ રૂપ કાળની સત્તા (સમયનું અસ્તિત્વ) સ્વીકૃત થઈ છે-નિશ્ચયનયની માન્યતા અનુસાર તે આ વિકા આદિ રૂપ કાળનું અસ્તિત્વ જ સ્વીકારવામાં આવ્યું નથી જે પ્રકારે પુલસ્કંધમાં પરમાણુઓને સંઘાત (સોમ) અવસ્થિત વિદ્યમાન છે, એ પ્રમાણે આવલિકાકેમાં કઈ સમયનો સંધાત અવસ્થિત નથી તેથી એવું માનવું જોઈએ કે આ આવલિકાદિ રૂપ કાળનું કથન વ્યવહાર નયના મતાનુસારનું કથન છે. તે કારણે આ પ્રકારના કથનમાં કઈ દેષ નથી. (से त पुत्वानुपुत्री) मा प्रा२नु पूर्वानुवीन २१३५ छे.
પ્રશ્ન-હે ભગવન્ ! પશ્ચાનુપૂર્વી નું કેવું સ્વરૂપ છે? त्तिर-(पच्छाणुपुव्वी) ५श्वानुवा भी प्रानी 81 8-(अवासमए,
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नन्द्रिका टीका सूत्र ९८ पूर्व्यानुपूर्व्यादि मेदत्रयनिरूपणम्
કરેછે
कायः, धर्मास्तिकायः, इति व्युत्क्रमेण निर्दिष्टा । तदेतदुपसंहरन्नाह' से ' इत्यादि, सेवा पञ्चानुपूर्वीति । अथानानुपूर्वी निरूपयति-' से किं तं ' इत्यादिना । मय का सा अनानुपूर्वी ? - न विद्यते आनुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वीद्वयरूपा मांसा तथा विवक्षितपदानामनन्तरोक्तक्रमद्वयमुमुलध्य परस्परसादृशेः संभवद्भिर्मङ्गकैर्यस्यां विरचना क्रियते सानानुपूर्वीत्यर्थः । सा हि - एतस्याम् = अनन्तराषिकतधर्मास्तिकायादिसम्बन्धिन्याम्, एकादिकायाम् = एक आदिर्यस्यां सा तथा तस्याम्, पुनः- एकोत्तरिकायाम् एकैक उत्तरः प्रवर्धमानो यस्यां सा तथा पोग्गलस्थिकाए, जीवस्थिकाए आगासत्थिकाए, अहमस्थिका धम्मस्थिकाए) अद्धा समय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अघमस्तिकाय, धर्मास्तिकाय । इस प्रकार जो धर्मादिक द्रव्यों का व्युत्क्रम से निर्देश है (सेतं पच्छाणुपुत्री) वह पश्चानुपूर्वी है। (से किं अणाणुपुब्बी) हे भदन्त ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (अणाणुपुत्रो )
उतर - अनानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार है- ( एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छ गच्छ्गयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दूरुवृणो) जिस में पूर्वानुपूर्वी और पचानुपूर्वी ये दोनों नहीं हैं उसका नाम अनानुपूर्वी है। इसमें विवक्षित धर्मादिक पदों के अनन्तरोक्त क्रमद्वय को उल्लधन करके परस्पर संम्भवित भंगों से उन पदों की विरचना की जाती है इस अनानुपूर्वी मे जो श्रेणी स्थापित की जाती है उसमें सबसे पहिले एक संख्या रखी जाती हैं। बाद में एक एक की उत्तरोत्तर वृद्धि पागलत्यिकार, जीवत्थिकाए, आगासत्थिकाए, अहम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकाप) श्रद्धासभय (अज), थुङ्गसास्तिमाय, वास्तिप्राय, आअशास्तिहाय, अधभीસ્તિકાય અને ધર્માસ્તિકાય, આ પ્રકારે ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યેાને જે स्टाडेमपूर्व'! निर्देश थाय छे, (सेत पच्छाणुपुब्बी) तेनुं नाम पश्चानुपूर्वी छे ?
प्रश्न - (से कि अणाणुपुव्वी) डे लगवन् ! अनानुपूर्वी नुं स्व३५ वु' है ? Gत्तर-(अणांणुपुव्वी) मनानुपूर्वी नु ख३५ या प्रभार - (एयाए वेब एग। इयाए एगुत्तरियाए छगच्छ्गयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दूरुवूणो) प्रेमां પૂર્વાનુપૂર્વી અને પદ્માનુપૂર્વી એ બન્ને નથી, તેનુ' નામ અનાનુપૂર્વી છે. તેમાં ધર્માસ્તિકાય આદિ પદાના ઉપયુ કત અને ક્રમનુ ઉલ્લંઘન કરીને પસ્પર સભવિત ભંગા વડે તે પદોની વિરચના કરાય છે. આ અનાનુપૂ નીમાં જે શ્રેણી સ્થાપિત કરવામાં આવે છે તેમાં સૌથી પહેલાં એક સખ્યા શખવામાં આવે છે, ત્યાર બાદ છ સખ્યા સુધી ઉત્તરાત્તર એકની વૃદ્ધિ
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तस्याम् , पुनः-षड्गच्छगतायाम्-पण्णां गच्छ:-समुदाया-पहच्छस्तं गताबासा पाच्छगता तस्यां-धर्मास्तिकायादिद्रव्यष्ट्रकविपयायो, श्रेण्या पश्तो अन्योन्याभ्यास:-अन्योऽन्यं परस्परम्-अभ्यासो-गुणनम् , अन्योऽन्याभ्यास:-परस्परगुणनरूपः, तथा-द्विरूपोनः आपन्तविवक्षारहितः, एवंरूपाऽनानुपूर्वी पोध्या। अयमभिप्रायः-प्रथमं व्यवस्थापितककाया अन्ते च स्थापितषट्संख्याया (१-२-३-४-५-६) धर्मास्तिकायादि द्रव्यषट्कविषयायाः पर्या परस्परगुणने मङ्गकसंख्या भवति, सा आद्यन्तभङ्गकद्वयरहिता अनानुपूर्वी बोध्येति । अस्य सूत्रस्येदं तात्पर्यम् - पूर्वानुपूर्ध्या हि-प्रथमं तावद् धर्मास्तिकायः स्थापयितव्यः, तदनु-अधर्मास्तिकायः तत आकाशास्तिकायः, इत्येवं क्रमेण ' अद्धासमय:' इत्येतत्पर्यन्तं स्थापना कर्तव्या। पश्चानुपूर्त्या तुप्रथमम् अद्धासमयो व्यवस्थापनीया, तदनु पुद्गलास्तिकायः, ततो जीवास्तिकायः, इत्येवं व्युत्क्रमेण 'धर्मास्तिकायः' छह संख्या तक होती चली जाती है,जैसे १-२-३-४-५-६,फिर इनमें परस्पर में गुगा किया जाता है जैसे १४२२४३६ ६४४२४,४५=१२०, १२०४६-७२०, इस प्रकार अन्योन्याभ्यस्तराशि बन जाती है। इसमें से भादि अन्त के दो भंग करने पर अनानुपूर्वी बन जाती है इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि पूर्वानुपूर्वी में पहिले धर्मास्तिकाय स्थापित हो जाता है, उसके बाद अधर्मास्तिकाय, उसके बाद आकाशास्तिकाय' उसके बाद जीवास्तिकाय, फिर पुद्गलास्तिकाय और फिर अद्धा समय । इस
मसे यहां छह द्रव्यों का स्थापन होता है। तथा पश्चानुपूर्वी में पहिले अद्धा समय 'फिर पुद्गलास्तिकाय, बाद में जीवास्तिकाय, फिर अकाशास्तिकाय थती २७ , २ ३ १-२-३-४-५-६ या२ माह तमा ५२२५२ने गुहार
वामां आवे छे. भ3 १४२२ । २४33 | ६x४-२४ ।, २४४५१२०, १२०४६-७२० मा रीते अन्योन्याभ्यस्त राशि मनी नय छे. भावी ५३. માતને એક ભંગ અને અન્ય એક ભંગ એ છ કરી નાખવાથી અનાનપૂર્વી બની જાય છે આ સૂત્રનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે
પૂર્વાનુપૂર્વી માં પહેલાં ધર્માસ્તિકાય સ્થાપિત થાય છે, ત્યાર બાd અધમસ્તિકાય, ત્યારબાદ આકાશાસ્તિકાય, ત્યાર બાદ જીવાસ્તિકાય, ત્યાર ાહ પુદ્ગલાસ્તિકાય અને ત્યાર બાદ અઢાસમય (જળ) રથાપિત થાય છે. આ કમે છ દ્રવ્યનું પૂર્વાનુપૂર્વી માં સ્થાપન થાય છે. - પશ્ચાપૂવીમાં પહેલાં અદ્ધા સમય, ત્યાર બાદ પુદગલાસ્તિકાય, ત્યાર જ વાસ્તિકાય, ત્યાર બાદ આકાશાસ્તિકાય, ત્યાર બાદ અષમાંસ્તિક
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९९ पुनलास्तिकायमधिकृत्य द्रव्यत्रयनिरूपणम् ४३१ इत्वत्पर्यन्तं स्थापना कर्तव्या । अनानुपूर्व्यां तु पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी स्वक्रम व्युत्क्रमोभयं परित्यज्य यथारुचि स्थापना कर्तव्येति । प्रस्तुतसूत्रमुपसंहरन्नाह' से वं ' इत्यादि । सैषाऽनानुपूर्वीति ।। ०९८ ।।
इथं धर्मास्तिकायादीनि षडपि द्रव्याणि पूर्वानुपूर्व्यादित्वेनोदाइतानि । सत्येकं पुद्रलास्तिकायमधिकृत्याह -
I
मूलम् - अहवा ओणिहिया दव्वाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुत्राणुपुत्री पच्छाणुपुत्री अणाणुपुत्री से किं तं पुव्वाणुपुत्री ? पुव्वाणुपुत्री परमाणुपोग्गले दुप्पएसिए तिप्पमसिए जाव दसपएसए संखिज्जपएसिए असंखिज्जपएसिए अणतपएसिए । से तं पुव्वाणुपुव्वी । से किं तं पच्छा णुपुवी ? पच्छा णुपुत्री अनंतप पसिए असंखिज्जप एसिए संखिज्जपए सिष जाव दसपएसिए जाव तिप्पए लिए दुप्पएसिए परमाणुपोग्गले । सेतं पच्छा पुव्वी । से किं तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुब्बी एयाए. चैव पगाइयाए एगुत्तरियाए अनंतगच्छगयाए सेटीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुत्री । से तं ओवणिहिया दव्वाणुपुच्ची । से तं जाणयसरीरभविय सरीरवइरित्ता
बाद अधर्मास्तिकाय और फिर धर्मास्तिकाय इस व्युत्क्रम से ६ द्रव्यों का स्थापन किया जाता है । परन्तु अनानुपूर्वी में इन दोनों प्रकार के पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी रूप क्रम व्युत्क्रम का परित्यागकर यथारुचि ६ द्रव्य स्थापित किये जाते हैं। (से तं अणाणुपुथ्वी) इस प्रकार यह अनानुपूर्वी का स्वरूप हैं । ।। सू० ९८ ॥
અને ત્યાર બાદ ધર્માસ્તિકાય, આ પ્રકારના ઉલ્ટા ક્રમથી ૬ દ્રવ્યેનું સ્થાપન કરાય છે પરન્તુ અનાનુપૂર્વી માં તે પૂર્વાનુપૂર્વીની જેમ છ દ્રવ્યેાના સીધા ક્રમના અને પશ્ચાનુપૂર્વી ની જેમ તેમના ઉલ્ટા ક્રમને અને યથારુચિ (भनने अभे ते रीते) छ द्रव्योनु स्थापन ४२वामां आवे छे (सेतं' अणाणुपुत्री) या प्रकार अनानुपूर्वी स्व३५ . सू०५८॥
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दब्वाणुपुव्वी। से तं नो आगमओ दव्वाणुपुव्वी। से तं दवाणुपुव्वी ॥सू०९९॥
गया-अथवा-औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्राप्ता, तपथा-पूर्वानु पूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-परमाए. पुद्गलो द्विपदेशिकः त्रिपदेशिको यावत् दशप्रदेशिकः संख्येयप्रदेशिकः असंख्येयपदेशिकः अनन्तमदेशिकः । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पचानुः
अप सूत्रकार एक पुद्गलास्तिशाय के ऊपर तीनों की घटना करते हैं"अहवा भोवणिहिया" इलादि।
शब्दार्थ-( अहवा) अथवा- (ओवणिहिया दवाणुपुव्वी)ोपनिषि की द्रव्यानुपूर्वी (तिविहा पण्णत्ता) तीन प्रकार की कही गई हैं। (तं जहा) वे प्रकार ये हैं- (पुव्वाणुपुव्वी) पूर्वानुपूर्वी (पच्छाणुपुन्धी) पश्चानुपूर्वी (भणाणुपुव्वी) और अनानुपूर्वी। (से किं तं पुव्वाणुपुवी ?) हे भदन्त ! पूर्व प्रक्रान्त पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (पुव्वाणुपुषी)
उत्तर-पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से हैं-(परमाणुपुग्गळे दुप्पएसिए तिप्प. एसिए जाव दसपएसिए संखिज्जपएप्तिए असंखिज्जपएसिए अणंतपएसिए) परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी यावत् दशप्रदेशी, संख्यातपदेशी, असंख्यात प्रदेशी, अनंतप्रदेशी स्कंध-इस क्रमसे यह पुद्गला.
वे सूत्रा२४ पुस्तिय 6५२ मात्रा घटना (स्थापना) - "अहवा भोवणिहिया" त्याह
Avडाय-(अहवा) या (भोवणिहिया दवाणुपुषी) गोपनिषद अन्यानुभवी (तिविहा पण्णत्ता) ३५ ४२नी hd. (तंजहा) ते १५ ॥३॥ ना प्रभारी थे-(पुव्वाणुपुव्वी, पन्छाणुपुष्वी अणाणुपुव्वी) (१) मानुषी (२) पक्षानुभूती (3) अनानुा .
48-(से कि त पुव्वाणुपुत्री ?) ३ पन् ! पानी १३५४
उत्तर-(पुव्वाणुपुव्वी) पूर्वानुभूतीन २१३५ ॥ २४ ५५ ४ - (परमाणुपुगले, दुप्पएसिए तिप्पएसिए जाव दसपएपिए, संखिग्जपपसिए, बसंधि
जपएसिए, अणंतपएसिए) ५२मा पुस, विप्राः४५, निशि४५, જય પ્રદેશી પર્યન્તના સ્કંધ, સંખ્યાત પ્રદેશમસ્કંધ, અસંખ્યાત પ્રદેશી રકપ અને અનંત પ્રદેશી ઢંધ આ ક્રમપૂર્વકની પુદ્ગલાસ્તિકાય સંબંધી જે આવyी, (से व पुव्वाणुपुव्वी) तेने पूर्वानुवी .
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अनुवोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९९ पुगलास्तिकायमधिकृत्य द्रव्यत्रयनिरूपणम् ४३५ वी-अनन्तप्रदेशिकः असंख्येयमदेशिका संख्येयप्रदेशिको यावद् दशमदेशिको पावत् त्रिमदेशिको द्विपदेशिका परमाणुपुद्गलः । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा मनानुपूर्वी अनानुपूर्वी एतस्यामेव एकादिकायामेकोतरिकायामनन्तगच्छगतायो मेन्याम् अन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषाऽनानुपूर्वी । सैषा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी । सैषा ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वी । सैषा नोआगमतो इम्यानुपूर्वी । सैषा द्रव्यानुपूर्वी ॥सू० ९९॥
टीका-'अहवा' इत्यादि
भयवा-पुनः पुद्गलास्तिकायमाश्रित्य औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी पूर्वानुपूर्ती पबानुपूय॑नानुपूर्वी भेदेत्रिविधा प्रज्ञप्ता। तत्र-परमाणुपुद्गलो द्विप्रदेशिक इत्यादिक्रमेण-' अनन्तप्रदेशिकः' इति पर्यन्तं पूर्शनुपूर्वी। तथा-व्यु-क्रमेण 'अनन्तप्रदेशिकः' इत्यारभ्य 'परमाणुपुद्गलः' इति पर्यन्तं पश्चानुपूर्वी। अनानु. स्तिकाय संबंधी (से तं पुव्वाणुपुत्री) पूर्वानुपूर्वी है । (से किं तं पच्छा. पुपुन्धी ) हे भदन्त ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर- (पच्छाणुपुन्वी )पश्चानुपूर्वी इस प्रकार से है-(अणंतपएसिए भसंखिज्जपएसिए, संखिज्जपएसिए जाव दसपएसिए जाप तिप्पएसि. ए दुप्पएसिए परमाणुरोग्गले ) जब पुद्लास्तिकाय अनंत प्रदेशिक, असंख्यात प्रदेशिक, संख्यात प्रदेशिक, यावत् दशप्रदेशिक पावत् त्रिप्रदेशिक विप्रदेशिक और परमाणुपुद्गल इस व्युत्क्रम से परिगणित हो तब (से तं पच्छाणुपुत्वी ) वह पश्चानुपूर्वी है। (से किं तं अणाणुपुव्वी) हे भदन्त ! अनानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर-(अणाणुपुत्वी) अनानुपूर्वी इस प्रकार से हैं (एयाएचेव एगाइयाए एगुत्तरियाए अणंतगच्छगयाए सेटीए-अण्णमण्णम्भासो र.
HA-(से किं तपछाणुपुवी?) ३ मापन ! पक्षानुपी ५१३५ ३छ ।
उत्तर-(पच्छाणुपुब्बी) ५वानुभूवी 24 प्रा२नु ११३५ छ-(अणंदपएसिए, बसंखिजपएसिए, संखिज्जपएसिप जाव दसपएसिप जाव तिप्पएसिद, दुप्पएपिए, परमाणुपोग्गले) ब्यारे Y Rasiयने मनात प्रशिक्ष, अस.
ખાત પ્રદેશિક, સંખ્યાતપ્રદેશિક, દસપ્રદેશિક, નવપ્રાદેશિક આદિ ત્રણ પ્રદેશિક પત્તના સ્કલ્પરૂપે અને દ્વિપ્રદેશિક અંધ અને પરમાણુ પુદ્ગલ, આ પ્રકાર Beu vथी परिगणित याय, त्यारे (से तपच्छाणुपुत्वी ते ५श्वानु. yी उपाय छे.
48-(से किंत भणाणुपुव्वी) उस मनानुपी ५१३५४ाय? त्तिर-(अणाणुपुव्वी) मनानु५वीन १३५ मा २ -(एयाए पेष म० ५५
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अनुयोगधारो पूर्वी तु एकादिकायामेकोतरिकायाम् अनन्तगच्छगतायाम्-एकोत्तरवृद्धिमत्स्कन्धानामनन्तत्वात् स्कन्धा अनन्तास्तेषां गच्छ: समुदायस्तं गता-माप्ता तस्या तथाभूतायाम् एतस्यां परमाणुपुद्गलादारभ्य अनन्तप्रदेशपर्यन्तायामेव श्रेण्यापंक्ती, सा अन्योऽन्याभ्यासा=परस्परगुणनरूपा द्विरूपोन: आद्यन्तस्थभावयरहिता च बोध्या।
नु यथैकः पुद्गलास्तिकायः पूर्वानुपूर्व्यादित्वेनोदाहृतः, तथैवान्येऽपि कयं नोदाहृताः ? इति चेत् , उच्यते-इह पूर्वानुपूर्व्यादिविचारे परमाण्वादिद्रव्याणां वृणो) जिसमें पुर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी ये दोनों नहीं हैं उसका नाम अनानुपूर्वी है यह यात पहिले कह दी गई है । इसमें विवक्षित पदों के अनन्तरोक्त क्रमवय को उलंघन करके परस्पर संभवित भंगा से उन पदों की विरचना की जाती है। उसमें सबसे पहिले एकप्रदेशी परमाणुपुद्गल की स्थापना की जाती है । फिर बादमें द्विप्रदेशी स्कंध आदि की । इस प्रकार एक एक २ प्रदेश की वृद्धि करते २ जब अनंत मदेशी स्कंधतक स्थापना हो चुकती है-तब इन सपकी श्रेणी बन जाती है। इस श्रेणी-पंक्ति में एकोत्तर वृद्धिवाले स्कंध अनंत हो जाते हैं। फिर इनमें परस्पर में गुणा किया जाता है । जो महाराशिरूप संख्या आती है उसमें आदि और अन्त के दो भंग करनेपर अनानुपूर्वी बन जाती है।
शंका-जैसे एक पुगद्लास्तिकाय पूर्वानुपूर्वी आदि रूपसे उदाहृत एगाइयाए एगुसरियाए अणंतगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णव्भासो दुरूवूणो) भां પૂર્વાનુપૂર્વી અને પયાનુપૂવ, એ બને નથી, તેનું નામ અનાનુપૂર્વી છે, એ વાત પહેલાં પ્રકટ કરવામાં આવી ચુકી છે તેમાં વિવક્ષિત પદના (પરમાણુ પુદ્ગલ આદિના) ઉપર્યુંકત બને કમને પરિત્યાગ કરીને પરસ્પર સંભવિત ભંગ વડે તે પદની વિરચના કરવામાં આવે છે. તેમાં સૌથી પહેલાં એક પ્રદેશી પરમાણુ પુદ્ગલની સ્થાપના કરવામાં આવે છે અને ત્યાર બાદ દ્વિપદેશી કંધ આદિની સ્થાપના કરાય છે. આ રીતે એક એક પ્રદેશની વૃદ્ધિ કરતાં કરતાં જ્યારે અનંત પ્રદેશી કંધ સુધીની સ્થાપના થઈ જાય છે, ત્યારે તે બધાની એક શ્રેણી બની જાય છે. આ શ્રેણી–પંક્તિમાં ઉત્તરોત્તર એકની વૃદ્ધિવાળા અંધ અનેક થઈ જાય છે. ત્યાર બાદ પરસ્પરનો ગુણાકાર કરવામાં આવે છે. આ આ રીતે જે મહારાશિ રૂપ સંખ્યા આવે છે તેમાંથી પહેલે અને છેલ્લો, એ બે ભંગ કમી કરવાથી અનાનુપૂર્વી બની જાય છે.
પ્રશ્ન-જે રીતે એક પુદગલાસ્તિકાયને ઉદાહરણ રૂપે લઈને તેની પૂર્વ
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सुबोगचन्द्रिका टीका सूत्र ९९ पुद्गलास्तिकायमधिकृत्य मेदत्रयनिरूपणम् ४३५ परिपाटयादिलक्षणः क्रमः प्रक्रान्तः । स च द्रव्यबाहुल्ये सत्येव संभवति । व चास्ति धर्मास्तिकाये, अधर्मास्तिकाये, आकाशास्तिकाये च पुद्गलास्तिकायवद् इम्पबाहुल्यम् , एकैक द्रव्यत्वात्तेषाम् । जीवास्तिकाये त्वनन्तजीवद्रव्याणां सवाद् गमप्यस्ति द्रव्यबाहुल्यम् , तथापि परमाणुद्विपदेशिकादिषु यथा पूर्वानुपूर्वीत्वा. दिहेतुः पूर्वपश्चाद्भावो विद्यते, न तथा जीवद्रव्येषु, प्रत्येकजीवस्यासंख्येयप्रदेश परवेन सर्वजीवानां तुल्पप्रदेशत्वात् । परमाणुद्विपदेशिकादिद्रव्याणां तु विषमप्रदेशिकत्वात् पूर्वपश्चाद्भावो विद्यते । तथा-अद्धासमयस्यापि एकसमयरूपत्वादेव हुआ है-उदाहरण से उपस्थित किया गया है वैसे ही अन्य धर्मास्ति काय आदि द्रव्य क्यों नहीं उदाहृत किये गये हैं।
उत्तर-यहां पूर्वानुपूर्वी आदि के विचार में परमाणु आदि द्रव्योंका परिपाटीरूपक्रम प्रक्रान्त कथन में चलरहा-है, सो वह क्रम द्रव्यकी बहु खतामे संभवित होता है-बन सकता है धर्मास्तिकाय में, अधर्मास्ति. काय में और आकाशास्तिकाय में पुगद्लास्तिकाय की तरह यह द्रव्यषाहुल्य नहीं है क्योंकि सब एकएक द्रव्यरूप माने गये हैं। यह यद्यपि जीवा. स्तिकाय में अनंत जीवद्रव्यों की सत्ता होने के कारण द्रव्यवाहुल्य है, परन्तु फिरभी परमाणुओं में एवं द्विप्रदेशी स्कंध आदिकों में जैसा पूर्वानुपूर्वी आदि कारणभूत पूर्व पश्चाद्भाव विद्यमान है वैसा जीव. द्रव्यों में नहीं है। क्योंकि प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशवाला है। इस लिये समस्त जीवों में तुल्य प्रदेशना है परमाणुओं एवं द्विप्रदेशिक નુપૂર્વી આદિનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે ધર્માસ્તિકાય આદિ અન્ય દ્રવ્યને ઉદાહરણરૂપે કેમ લેવામાં આવ્યાં નથી ?
ઉત્તર-અહીં પૂર્વાનુપૂર્વ આદિને વિચાર કરતાં પરમાણુ આદિ દ્રવ્યોનો પરિપાટી રૂપ કમ (અનુક્રમ) પ્રસ્તુત કથનમાં પ્રતિપાદિત થઈ રહ્યો છે. તેથી આ કથન દ્રવ્યની બતામાં જ સંભવી શકે છે. ધર્માસ્તિકાય અધર્માસ્તિકાય અને આકાશાસ્તિકાયમાં પુદ્ગલાસ્તિકાયની જેમ આ દ્રવ્યબાહુલ્યને સદુર્ભાવ નથી. કારણ કે તેમને તે એક એક દ્રવ્યરૂપ માનવામાં આવેલ છે. જે કે જીવાસ્તિકામાં અનંત છવદ્રવ્યોની સત્તા (અસ્તિત્વ) હોવાને કારણે દ્રવ્યબાહુલ્ય છે, પરંતુ પરમાણુઓમાં અને દ્ધિપ્રદેશી સધ આદિકે માં જે પૂર્વાપવી આદિના કારણભૂત પૂર્વપશ્ચાત્ ભાવ વિધમાન છે, એ જીવ દ્રવ્યમાં નથી. કnણ કે પ્રત્યેક જીવ અસંખ્યાત પ્રદેશવાળે છે તેથી સમસ્ત જીવોમાં તુલ્ય (સમાન) પ્રદેશતા છે. પરમાણુએ અને દ્વિદેશિક આદિ દ્રવ્યમાં તે વિષમ
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भनुयोगद्वारखे पूर्वानुपूर्वीत्वाद्यसंभवः, अतोऽत्र पुद्गलास्तिकाय एव पूर्वानुपूर्वीस्वादिकोदाहता, नत्वन्ये धर्मास्तिकायादय इति ।
सदेतदुपसंहरन्नाह-' से तं' इत्यादि । सैषा अनानुपूर्वीति । औपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी सम्पूर्णति सूचयितुमाह-से तं ओवणिहिया' इत्यादि । सैषा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वीति । ज्ञायकशरीरमव्यशरीव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वीसंपूर्णेति सूचयितुमाह-'से तं जाणयसरीरभवियसरीर वारित्ता' इत्यादि-सैषा ज्ञायकआदि द्रव्यों में तो विषमप्रदेशिकता है इसलिये वहां पूर्वपश्चाद्भाव है। तथा जो अद्धासमय है वह एकसमयरूप है इसलिये उसमें भी पूर्वानु पूर्वी आदि संभवित नहीं है इसलिये पुगद्लास्तिकाय ही पूर्वानुपूर्वी
आदिरूप से उदाहृत किये गये हैं अन्य धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य नहीं। (से तं अणाणुपुव्वी) इस प्रकार यह अनानुपूर्वी है । (से तं ओवणिहिया व्वाणुपुत्वी) यहांतक पूर्व प्रकान्त ओपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का कथन किया गया है । ( से तं जाणयसरीरभवियसरीरवहरित्ता दव्वाणुपुन्वी ) इस प्रकार औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का कथन समाप्त होते ही ज्ञायक शरीर भव्य शरीरव्यतिरिक्त द्रव्यानुपूर्वी समाप्त हो जाती है । (से तनो आगमओ दवाणुपुवी-से तं दवाणुपुव्वी) इस कथन की समाप्ति होते ही नोआगम को आश्रित करके जायमान द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप समाप्त हो जाता है । इसप्रकार यह द्रव्यानुपूर्वी है। પ્રાદેશિકતા છે, તેથી ત્યાં પૂર્વપશ્ચાદ્ભાવ છે તથા જે અદ્ધા સમય સંભવિત નથી તેથી પુદ્ગલાસ્તિકાયનું જ પૂર્વાનુપૂર્વી આદિ રૂપે ઉદાહરણ આપવામાં આવ્યું છે, અન્ય ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યનું તે પ્રકારે ઉદાહરણ આપવામાં मा०यु नथी. ( से त अणाणुपुत्री) मा प्रा२नु अनानुपूर्वानु. २५३५ छे. (से त ओवणिहिया दव्वाणुपुव्वी) भी सुधीमा पूर्व प्रस्तुत भोपनिधिही द्रव्यानुभूतीनु ४थन ४२पामा भायु छे. (से त' जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुपुव्वी) मा रीत भोपनिधि द्रव्यानुपूर्वा न ४थन ५३ यतi જ, જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવી દ્રવ્યાનું પર્વોનું વર્ણન પણ मही समास थाय छे.
(से त' नोआगमओ दवाणुपुवी-से त दव्वाणुपुब्बी) मा ४यननी સમાપ્તિ થઈ જવાથી ને આગમને આધારે જે દ્રવ્યાનુપૂર્વી બને છે તેના સ્વરૂપના નિરૂપણની પણ સમાપ્તિ થઈ જાય છે. આ પ્રકારનું આ द्रव्यानुभूतीन २१३५ ७.
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अनुयोगचन्द्रिका का सूत्र ९९ पुद्गलास्तिकायमधिकृत्य मेदत्रयनिरूपणम् ४३७ शरीरभन्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यानुपूर्वीति । नोभागमतो द्रव्यानुपूर्वी संपूर्णेति समितुमाह-' से तं नो आगमभो' इत्यादि-सैषा नो आगमतो द्रव्यानुपूर्वीति । मानी सम्पूर्णेति सूचयितुमार-से तं' इत्यादि-सैषा द्रव्यानुपूर्वीति॥सू.९९॥ भावार्थ-इस सूत्रद्वारा सूत्रकारने पुद्गल द्रव्य को लक्ष्य करके औपनिचिकी द्रव्यानु पूर्वी की विविधता उसपर घटित की है । यह तो पहिले से ही ज्ञात हो चुका है कि विवक्षित द्रव्य विशेष के समुदाय में जो प्रथम इग्य है उससे लेकर क्रमशः अन्तिम द्रव्यतक जो परिपाटी स्थापित की जाती है वह आनुपीं है। यहां पुद्गलद्रव्य के ऊपर सूत्रकार को यह घटित करनी है, अतः वे उसके एकप्रदेश से लेकर क्रमशः अनन्त प्रदेशी स्कंध तक बनाते हैं । इस प्रकार एकरदेशी पुद्गलपरमाणु यह पुनलास्तिकाय द्रव्य का प्रथम द्रव्य जानना चाहिये। इसके बाद एक प्रदेशोत्तर वृद्धि करते चला जाना चाहिये । इससे द्विप्रदेशी स्कंध निप्रदेशी स्कंध, चतुष्पदेशी स्कंध पंच प्रदेशी स्कंध, आदि अनंत प्रदे.
शी स्कंध तक अनंत पोद्गलिक स्कंध बन जाते हैं। तब इनकी स्थापना इस प्रकार से की जाती है-एक प्रदेशी परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशी स्कंध अथणुक, त्रिप्रदेशी व्यणुक चतुष्प्रदेशी स्कंध चतुरणुक इत्यादि । इस प्रकार की यथाक्रम की गई यह स्थापना पूर्वानुपूर्वी है । तथा इसी स्थापना
ભાવાર્થ-આ સૂત્રમાં સૂત્રકારે પુદ્ગલ દ્રવ્યને અનુલક્ષીને ઔપનિધિ કી દ્વવ્યાનુપૂર્વની ત્રિવિધતાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે એ વાત તે પહેલાં પ્રકટ થઈ ચુકી છે કે વિવક્ષિત દ્રવ્યસમુદાયમાં જે પહેલું દ્રવ્ય હોય તે દ્રવ્યથી શરૂ કરીને અનુક્રમે છેલા દ્રવ્ય સુધીની જે પરિપાટી (અનુક્રમ) સ્થાપિત કરવામાં આવે છે, તેનું નામ આનુપૂર્વી છે. અહીં પુદ્ગલ દ્રવ્ય સાથે સૂત્રકાર તે આનુપૂરીને ઘટાવવા માગે છે તેથી તેમણે તેના એક પ્રદેશથી લઈને અનંતપ્રદેશ સુધીના અનંત સ્કંધ બનાવ્યાં છે. આ રીતે એક પ્રદેશી પાગલ પરમાસુને પુલાસ્તિકાયનું પ્રથમ દ્રવ્ય સમજવું જોઈએ ત્યાર બાદ એક એક પ્રદેશની વૃદ્ધિ કરતાં કરતાં આગળ વધવું જોઈએ. આ રીતે ક્રિકદેશી સ્કંધ, ત્રિપ્રદેશ સ્કંધ, ચાર પ્રદેશ સ્કંધ, પાંચ પ્રદેશી કંધ આદિ અનંત પ્રદેશી પર્યન્તના અનંત પૌગલિક સકંધ બની જાય છે. ત્યારે તેમની સ્થાપના આ પ્રમાણે કરવામાં આવે છે-એક પ્રદેશી પરમાણુ પુલ, દ્વિદેશી અંધ હયક, ત્રિપ્રદેશી સ્કંધ ત્રિઅણુક, ચતુuદેશી ઔધ ચતુરણુક, ઈત્યાદિ. કે આ પ્રકારના સીધા કમપૂર્વક જે સ્થાપના કરવામાં આવે છે તેનું નામ
પર્વ છે. એજ સ્થાપનામાં છેલ્લા દ્રવ્યો (અનંતપ્રદેશી કંધને) પહેલે
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मनुयोगद्वारा में जय अन्तिमादि द्रव्य को प्राथमिक रूप देकर न्युरक्रम से स्थापित किया जाता है तो वही पश्चानुपूर्वी कहलाती है तथा स्वेच्छानुसार क्रमव्युत्क्रम का उल्लंघन करके पुद्गलास्तिकाय के द्रव्यों का जो स्थापना करना होता है वह अनानुपूर्वी है। जैसे इसे यों समझना चाहिये कि चतुरणुक के बाद एकप्रदेशीपुद्गल परमाणु का, इसके बाद षटूप्रदेशी पुद्गलस्कंध का इसके बाद असंख्यात प्रदेशी स्कंध आदि कास्थापन करना आदि। ज्ञायकशरीरभव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्यानुपुर्वी पहिले दो प्रकार की पत्रकार ने कही है इसमें अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के विषय में सूत्रकार ने बहुत अधिक विस्तृत विवेचन किया है। औपनिधि की द्रव्यानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वी आदि के मेद से यह तीन प्रकार की कही गई है । एक पुद्गलास्तिकाय के ऊपर जो पूर्वानुपूर्वी आदि की घटना सूत्रकार ने कही है उसका कारण यह है कि उनमें ही द्रव्यषष्ट. लता है। "आकाशादेकद्रव्याणि" अर्थात्-आकाश पर्यन्तके तीन द्रव्य-अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, और आकाशास्तिकाय ये तीनों द्रव्य एक द्रव्य वाले होते हैं, तदनुसार धर्मास्तिकाय आदि तीन મૂકીને ઉલટા કમથી જ્યારે દ્રવ્યોને સ્થાપિત કરવામાં આવે છે, ત્યારે તેને પશ્ચાનુપૂર્વી કહે છે તથા ઉપરના બને ક્રમનું ઉલ્લંઘન કરીને પિતાની ઈચ્છાનુસાર પુદ્ગલાસ્તિકાયના દ્રવ્યેની જે સ્થાપના કરવામાં આવે છે તેને અનાનુપૂર્વ કહે છે. જેમ કે ચતુરચુક સ્કધની પહેલાં સ્થાપના કરવી, ત્યાર બાદ એક પ્રદેશી પુદ્ગલ પરમાણુની, ત્યાર બાદ છ પ્રદેશી પુદ્ગલ સ્કંધની સ્થાપના કરવી, ત્યાર બાદ અસંખ્યાત પ્રદેશ સ્કંધ આદિની સ્થાપના કરવી તેનું નામ અનાનુપૂર્વી છે. જ્ઞાયક શરીર અને ભવ્ય શરીરથી ભિન્ન એવી દ્રવ્યાનપૂર્વના સૂત્રકારે બે પ્રકાર પહેલાં પ્રકટ કર્યા છે. તેમાંના અનોપનિપિકી દ્રવ્યાનુપૂર્વી નામના બીજા પ્રકારનું તે ખૂબ જ વિસ્તારપૂર્વક પહેલાં વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે.
પનિધિકી કાવ્યાનુપૂવીના પૂર્વાનુ પૂ આદિ ત્રણ ભેદોનું નિરૂપણ પણ પહેલાં સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. ત્યાર બાદ સૂત્રકારે એક પુલાસ્તિકાયના પૂર્વાનુપૂર્વી આદિ સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે, પણ ધર્માસ્તિકાય આદિ માં એ પ્રમાણે કરવામાં આવ્યું નથી, કારણ કે પુદ્ગલાસ્તિકાયમાં જ દ્રવ્યબાહુલ્યને સદ્ભાવ-ધર્માસ્તિકાય આદિમાં દ્રવ્યબાહુલ્ય નથી. "भाकाशादेकद्रव्याणि" मा ४थन अनुसार पास्ताय मालियामा
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बोनचन्द्रिका टीका सूत्र १०० क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् इत्वं द्रन्यानपूर्तीस्था सम्पति क्षेत्रानुपूर्वीमाह
मूत्रम्-से किं तं खेत्ताणुपुत्वी ? खेत्ताणुपुटवी दुविहा पण्ण. चा, तं जहा-ओवणिहिया य अणोवणिहिया य। तत्थ णं जा सा ओषणिहिया सा ठप्पा। तत्थणं जासा अणोवणिहिया सा दुविहा पष्णता, तं जहा-णेगमवहागणं १, संगहस्स २ य ॥सू०१००॥
छाया-अथ का सा क्षेत्रानुपूर्वी ? क्षेत्रानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथामौषनिधिको च अनौपनिधिकी च । तत्र खलु या सा औपनिधिकी सा स्थाप्या। द्रव्यों में द्रव्य बहुलता नहीं है। जीवास्तिकाय में यद्यपि द्रव्य बाहुल्य हैपरन्तु पुद्गल की तरह वह द्रव्य बाहुल्य एक २ जीव द्रव्य में क्रमशः नहीं है, क्योंकि प्रत्येक जीवद्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं। इस प्रकार इस कथन के समाप्त होते ही नो आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप कथन समाप्त हो जाता है ॥ सू० ९९॥
अब सत्रकार क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करते हैं"से कि तं खेत्ताणुपुव्वी" इत्यादि ।
शब्दार्थ- ( से किं तं खेत्ताणुपुव्वी) हे भदन्त ! क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(खेताणुपुव्वी दुविहा पण्णत्ता) क्षेत्रानुपूर्वी दो प्रकार की कही गई है। (तं जहा) जैसे (ओवणिहिया यभणोवणिहिया य)१ औपनिधिको દ્રવ્યબાપલ્યનો અભાવ છે. જીવાસ્તિકાયમાં જે કે દ્રવ્યબાહુલ્ય છે ખરું, પરતુ પુદ્ગલની જેમ તે વ્યબાહુલ્ય એક એક છવદ્રવ્યમાં ક્રમશઃ નથી, કારણ કે જીવદ્રવ્ય અસંખ્યાત પ્રદેશ છે. આ રીતે આ કથન સમાપ્ત થઈ જતા નેઆગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂવીના સ્વરૂપનું કથન સમાપ્ત થઈ જાય છે. સૂ૦૯લા
હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે – " से किं त खेत्ताणुपुबी" त्याह
शा-(से किंव खेवाणुपुन्बी) ३ मापन् । क्षेत्रानुपूतीन કવરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(खेत्तागुपुब्बी दुविहा पण्णत्ता) क्षेत्रानुभूती मे १२नी - (वंजहा) ते २ मारे। नाय प्रभा -(गोवणिहिया य अणोवणिहिया) (1)
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अनुयोगद्वार -नैगमव्यवहारबो११,
४४०
तत्र खलु या सा अनौपनिधिकी साद्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथासंग्रहस्य २ च ।। सू० १०० ॥
टीका--' से किं तं ' इत्यादि
●पाख्या पूर्ववद् बोध्या । सू० १००॥
क्षेत्रानुपूर्वी, दूसरी अनोपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी (तस्थ णं जा सा ओषणिहियासा ठप्पा) इनमें जो औपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी है वह अल्प विषयवाली होने के कारण अर्थात् उसका विषय विशेष विवेचना करने के योग्य न होने से - इस समय व्याख्या नहीं की जाती है। तात्पर्य कहने का यह है कि प्रथम नंबर की होने के कारण सूत्रकार को सबसे पहिले औपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी का विवेचन करना कर्तव्य है । परन्तु ऐसा न करके वे पहिले अनौपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वीका जो विवेचन करेंगे उसका कारण यह है कि औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी को विषय विशेष बक्तव्य के योग्य नहीं है। क्यों कि उसका विषय अल्प है । इसलिये (तस्थणं जा सा अणोवणिहिया सा दुबिहा पण्णत्ता) इनदोनों अनुपूर्वियों में जो अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी है उसका विस्तृत विवेचन करने के अभिप्राय से सूत्रकार कहते हैं कि वह दो प्रकार की कही गई है। (तं जहा ) वे उसके प्रकार ये हैं - ( गमववहाराणं १ संगहस्स २) एक श्रोपनिधिडी क्षेत्रानुपूर्वी, अने (२) अनौपनिधिठी क्षेत्रानुपूर्वी (वत्थणं जा बोणिहिया वा ठप्पा) तेमांथी ने सोपनिधिठी क्षेत्रानुपूर्वी छे ते प વિષયવાળી હવાને કારણે એટલે કે તેના વિષય, વિશેષ વિવેચન કરવા યાગ્ય નહી. હાવાને કારણે, તેનું નિરૂપણ સૂત્રકાર આ સૂત્રમાં કરશે નહી* પણ પાછળના સૂત્રમાં કરશે. જો કે ક્રમ અનુસાર તે તે પહેલી ડેાવાથી તેનુ નિરૂપણ પહેલાં થવુ જોઇએ. પરન્તુ સૂત્રકારે અહી અનૌપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વી'નુ' નિરૂપણ પહેલાં કર્યુ છે કારણ કે ઔપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીને વિષય અલ્પ હાવાથી તેનુ વિશેષ વક્તવ્ય કરવાનું નથી, પરન્તુ અનૌપનિષિકી ક્ષેત્રાનુકૂ ની”ના વિષય વિસ્તૃત વિવેચન કરવા ચૈગ્ય છે. તેથી સૂત્રકાર અહી પહેલાં कानोपनिधिठी द्रव्यानुपूर्वीनु नि छे - ( तत्थ ण' जा वा अणोवणिहिया या दुविहा पण्णत्ता) ते मन्ने मानुपूर्वी सभांनी ने मनोपनिधिमी क्षेत्रानुपूर्वी छेतेना मेरा छे. (तंजा) ते अहारी नीचे प्रभाषे(गमववहाराण, संगहरन ) ( 1 ) नैगमव्यवहार नयभत अनोपनिधिमी क्षेत्रा
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सोचन्द्रिका टीका सूत्र १०१ क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् तब नेषमन्यवहारसम्मवां क्षेत्रानुपूर्वी निरूपयितुमार
मूलम्-से किं तं गमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुती ? गमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुरी पंचविहा पाणचा, तंजहा-अत्यपय रूवणया१,भंगसमुक्त्तिणयार, भंगोवेदसणया३, समोयारे४, अणुगमे ॥सू० १०१॥
गया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी १ नेगममवहारयोः अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तघा-अर्थपदररूपपवार, भंगसमुन्कीर्तनता२, भंगोपदर्शनता३, समवतारः४, अनुगम:५।।स्.१०१।।
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अब का सा नैगमव्याहारसम्मना अनी पनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी ? इति शिष्य प्रभा। उत्तरमाह-'नेगमववहाराणं प्रणोवगिहिया' इत्यादि। नैगमव्यवहारयोः नैगमव्यवहारनयसंमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी और दूसरी संग्रानयसंमत अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी । इस सूत्र की व्याख्या पहिले की तरह जाननी चाहिये । सू० १०० ॥ अब गमव्यवहारनयसंमत क्षेत्रानुपूर्वी का कथन सूत्रकार करते"से कि तं गमववहाराणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ-हे भदन्त ! नैगम और व्यवहारनय संमत अनौपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(अणोवणिहिया खेत्ताणुपुथ्वी ) अनौपनिधिकी क्षेत्रानु पूर्वोका स्वरूप इस प्रकार से है-(पंचविहा पण्णत्ता) यह नेगमव्यव. हारनयसंमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी पांच प्रकार की कही गई। (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(अस्थपयपरूवणया १ भंगसमुक्कित्तणया નવી (૨) સંગ્રહનયસંમત અપરિવિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વી આ સૂત્રની વ્યાખ્યા આગળ કહ્યા પ્રમાણે સમજવી. સૂ૦૧૦૦
હવે સૂત્રકાર નિગમવ્યવહાર સંમત ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે“से किं तणेगमववहाराण" त्याह
શખાઈ-પ્રશ્ન-હે ભગવન્! ગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અનોપનિ. પિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વનું સ્વરૂપ કેવું છે?
61२-(अणोवणिहिया खेचाणुपुव्वी) अनोपनियती क्षेत्रानुनी १३५
२नु छ-(पंचविहा पण्णत्ता) 0 नाम भने व्यहारनयमत MANS कानुषी पाय न ही छे. (तंजहा) नये प्रभा -बत्वपयपरूपणया, भंगसमुक्तिणवा, भंगोवर्दवणया, समोयारे, बगु.
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भनुयोगदारसे अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी क्षेत्रविषया आनुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तयथा-अर्थपदारूपणता १, भासमुत्कोत्तनता २, मङ्गोपदशेमता ३, समवतारः ४, अनु. गम ५, इति ॥पू० १०१॥ __ मूलम्-से कि तं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणया? णेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया तिप्पएसोगाढे आणुपुत्वी जान दसपएसोगाढे आणुपुत्री जाव संखिजपएसोगाढे आणुपुव्वी असंखिजपएसोगाढे आणुपुव्वी। एगपएसोगाढे अणाणुपुवी। दुप्पएसोगाढे अवत्तव्वए तिप्पएसोगाढा आणुपुवीओ जाव दसपएसोगाढा आणुपुत्वीओ जाव असंखिजपएसोगाढा आणुपुव्वीओ। एगपएसोगाढा अणाणुपुब्बीओ। दुप्पएसोढा अवत्तव्वयाई। से तं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणया।सू०१०२॥
छाया-अथ का सा नैगमव्यवहाराणाम् अर्थपदपरूपणता ? नेगमव्यवहाराणाम् अर्थपदप्ररूपणता-त्रिप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी यावद् दशमदेशावगाढ आनु२, भगोवदंसणया ३, समोयारे ४, अणुगमे) अर्थपदप्ररूपणता भंगससमुत्कीतनता, भंगोपदर्शनता, समावतार और अनुगम इन सब शब्दों की व्याख्या पीछे ७४ वें सूत्र में की जा चुकी है। सू० १०१ ॥
अय सूत्रकार नैगमव्यहारनय संमत अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का जो प्रथम भेद अर्थपदप्ररूपणता है उसका कथन करते हैं
"से किं तं गमववहाराणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ-'से कितं गमववहाराणं अत्यपयपरूवणया?' हे भदन्त ! नैगमव्यवहारनय संमत अर्थपदप्ररूपणता का क्या स्वरूप है ? गमे) (१) अ५४ प्र३५यता, (२) सहीतता, (3) wins नता, (૪) સમાવતાર, અને (૫) અનુગમ આ પાંચ શબ્દની વ્યાખ્યા આગળ ૭૪માં સૂત્રમાં આપવામાં આવી છે તે ત્યાંથી વાંચી લેવી. સૂ૦૧૦
હવે સૂત્રકાર નિગમવ્યવહારનયસંમત અનૌપનિધિની ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના અર્થપદપ્રરૂપણુતા નામના પહેલા ભેદનું નિરૂપણ કરે છે–
"से किं तं गमववहाराण "या:
हाथ-(से किं तं गमववहाराण भत्थपयपरूवणया!) के सन् ! નિગમ અને વ્યવહાર નયસંમત અર્થપદપ્રરૂપણુતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
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मक्चन्द्रिका टीका सूत्र १०२ अर्थपदप्ररूपणा ही बावत्संख्येयप्रदेशावगाढः-आनुपूर्वी असंख्येयप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी । एकप्रदेशावगारः अनानुपूर्वी। द्विपदेशावगाढः अबक्तव्यकम् । त्रिपदेशावगाढा आनुपुलों यावद् दशपदेशावगाढा आनुपूतों यावद् असंख्येयप्रदेशावगाढा आनुपूर्व्यः।
(जेगमववहाराणं अस्थपयपरूवणया)
उत्तर-नैगमव्यवहारनयसंमत अर्थपद प्ररूपणता का स्वरूप इस प्रकार से है- (निप्पएसागाढे आणुपुथ्वी, जाव दसपएसोगाढे माणुपुथ्वी जाव संखिज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी, असंखिज्जपएसो. गाडे आणुपुव्वी ) व्यणुक स्कंध आदि रूप अर्थ से युक्त अथवा व्यणुक स्कंध आदिरूप अर्थ को विषय करनेवाला जो पद है उसका नाम अर्थपद है । इस अर्थकी प्ररूपणतो करने का नाम अर्थपदप्ररूपणा है । तीन आकाश प्रदेश में स्थित द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है । यावत् दश आकाश प्रदेशों में स्थित द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है यावत् संख्यात आकाश प्रदेशों में स्थित द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है । असंख्यात आकाश प्रदेशों में स्थित द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है । (एगपएसोगाढे अणाणुपुब्बी, दुप्पएसोगाढेअवसव्वए) एक प्रदेश में स्थित परमाणु द्रव्य अनानुपूर्वी है। दो प्रदेश में स्थित द्वथणुक स्कंध अवक्तव्यक द्रव्य हैं । (तिप्पएसोगाढा आणुपुवी. भो जाव दसपएसोगाढा आणुपुन्वीभो जाव असखिज्जपएसोगाढा आणुपुव्वीओ ) तीन आकाश प्रदेशों में स्थित समस्त द्रव्यस्कंध तीन
उत्तर-(णेगमववहाराण अत्यपयपरूवणया) नामव्यवहार नयस मत अय. પદપ્રરૂપણાનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે
(सिप्पएस्रोगाढे आणुपुब्बी, जाव दसपएसोगाढे आणुपुल्वी जाव संखिज्ज. पएसोगाढे पाणुध्वी, असंखिज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी) त्रिमा २४५ भात ૨ અર્થ (વિષય) થી યુક્ત અથવા ત્રિઅણુક કંધ આદિ રૂપ અર્થનું પ્રતિપાદન કરનારૂં જે પદ છે તેનું નામ અર્થપદપ્રરૂપણુતા છે. ત્રણ આકાશ પ્રોમાં રહેલે દ્રવ્યર્કંધ આનુપૂર્વી રૂ૫ છે. એ જ પ્રમાણે દશ પર્યંતના, સંખ્યાત પર્યંતના અને અસંખ્યાત પર્યન્તના આકાશપ્રદેશમાં રહેલ દ્રવ્ય ४५ ५५ मानुषी ३५ छे. (एगपएसोगाढे अणाणुपुब्धी, दुप्पएसोगाढे अवत्तव्वए) मे माशयमा स्थित ५२भा द्रव्य अनानुनी ३५ . આકાશપ્રદેશોમાં સ્થિત પરમાણુ અંધ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય રૂપ છે.
(तिप्पएसोगाढा आणुपुत्वी जाव दसपएसोगाढा आणुपुव्वीओ, जाव असंबिजपएसोगाढा आणुपुव्वीओ) Y माशाwi २९ समस्त प.
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अनुयोगद्वार
एकप्रदेशावगाढा अनानुपूर्व्यः । द्विपदेशात्रगाढा अवक्तव्यकानि । सैषा नैगमध्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणता ॥ ० १०२ ॥
४४४
टीका - तत्रार्थपदमरूपणतां निरूपयितुमाह-' से किं तं' इत्यादि - अथ का सा नैगमव्यवहारसम्मताऽर्थ पद प्ररूपणता ? इति । उत्तरमाह - ' जेगमबवहाराणं ' इत्यादि । नैगमव्यवहारयोरर्थपद प्ररूपणता - ' त्रिप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी यावद् दशम देशात्रगाढ आनुपूर्वी ' इत्यारभ्य 'द्विपदेशावगाढा अवक्तव्यकानि' इत्यन्वा
। द्रव्यानुपूर्वीवदत्रापि व्याख्या विज्ञेया । अयमत्र विशेषः - त्रिप्रदेशावगाढ: = त्रिषु नभः प्रदेशेषु अवगाढः = स्थितः, त्रिपदेशावगाढः - त्रिप्रदेशावगाही द्रव्यस्कन्धः । स पणुकादिकोऽनन्ताणुरुपर्यन्तो द्रव्यस्कन्ध आनुपूर्वी ।
ननु यदि द्रव्यस्कन्ध एवानुपूर्वी, कथं तर्हि तस्य क्षेत्रानुपूर्वीत्वम् ? इति वेद, उच्यते - क्षेत्रपदेशत्रयावगाहपर्यायविशिष्टोऽसौ द्रव्यस्कन्धो गृह्यते, न तु आनुपूर्वी है । यावत् दश प्रदेशों में स्थित समस्त द्रव्यस्कंध दश आनुपूर्वियां हैं । यावत् असंख्यात प्रदेशों में स्थित द्रव्यस्कंध असंख्यात आनुपूर्वियां हैं। ( एगपएसोगाढा अणाणुपुब्बीओ ! दुप्पएसोगाढा अवक्तव्वयाई) आकाश के एक २ प्रदेश में स्थित एक पुद्गलपरमाणु संधात आदि अनानुपूर्वियां हैं। दो प्रदेश में स्थित द्रयणुक द्रव्यस्कंध आदि अवक्तव्यक द्रव्य हैं । यह सूत्रपदों का अर्थ हैं इनकी व्याख्या के लिये देखो ७५ वां सूत्र ।
शंका- त्रिप्रदेशावगाही द्रव्यस्कंध से लेकर अनंताणुक पर्यन्त स्कंधद्रव्य आदि अनानुपूर्वी रूप है तो उसमें क्षेत्रानुपूर्वी रूपता कैसे बन
'ધા ત્રશુ આનુપૂર્વી એ રૂપ હાય છે, એજ પ્રમાણે દસ પર્યંતના પ્રદેશામાં સ્થિત સમસ્ત દ્રવ્યકધા દશ પર્યન્તની આનુપૂર્વી એ રૂપ હોય છે, સખ્યાત પ્રદેશે માં સ્થિત સમસ્ત દ્રવ્યસ્કધા સખ્યાત આનુપૂવી'એ રૂપ અને અસખ્યાત આકાશપ્રદેશમાં સ્થિત સમસ્ત દ્રવ્યકા અસખ્યાત मानुपूर्वी थे। ३५ होय छे. ( एगपएसोगाढा अणाणुपुब्बीओ, दुप्परसोगाढा अबतव्वयाइ) भाशना येथे अशमां स्थित प्रत्येक युगसपरमाणु ३५ સમુદાય અનાનુપૂર્વી એ રૂપછે. એ આકાશપ્રદેશેામાં રહેલા દ્વચલુક દ્રશ્ય ધા અવક્તવ્યક દ્રવ્ય રૂપ છે. આ પ્રકારના સૂત્રપોના અથ થાય છે. તેમની વ્યાખ્યા ૭૫માં સૂત્રમાં આપી છે.
શકા—ત્રિપ્રદેશાવગાહી દ્રષ્યસ્ક ધથી લઇને અન`તાણુક પન્તના દ્રષ્ટસ્કંધા આનુપૂર્વી રૂપ હોય તે તેમાં ક્ષેત્રાનુપૂર્વી રૂપતા કેવી રીતે સાંભળી
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गोगचन्द्रिका टीका स्त्र १०२ अर्थपदप्ररूपणा
४४५ परिशिष्टः, अतोऽत्र क्षेत्रानुपूर्ण्यधिकारात् क्षेत्रावगाहपर्यायस्य प्राधान्यान सोऽपि जानुपूर्वीति न दोषः । अयं भावः-क्षेत्रानुपूय॑धिकारादेवात्र प्रदेशत्रयलक्षणस्य देवस्व मुख्यं क्षेत्रानुपूर्वीत्वम् । एवं च तदवगाढं द्रव्यमपि तत्पर्यायस्य प्राधान्येन विवक्षितस्वात् क्षेत्रानुपूर्णत्वेन न विरुध्यते, इति । सकती है क्योंकि क्षेत्रानुपूर्वी रूपतातो प्रदेश व्यादिरूप क्षेत्रके साथ संबन्ध रखती है ज्यणुकादि पुरल स्कंधों के साथ नहीं । शंकाकार का भभिप्राय यह है क्षेत्रानुपूर्वीका जब यहां प्रकरण चलरहा है तो उसमें पुगल द्रव्यानुपूर्वी के विचार करने की क्या आवश्यकता है? ___ उत्तर-यहां जो त्रिप्रदेशावगाढ द्रव्यस्कंध को अनानुपूर्वी कहा है। सो उसका तात्पर्य आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाहरूप पर्याय से विशिष्ट द्रव्यस्कंध से हैं । तीन पुद्गलपरमाणुवाले द्रव्यस्कंध अकाशरूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों को रोक कर रहते हैं। अतः आकाशके तीन प्रदेश. में अवगाही द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है, ऐसा जानना चाहिये। वैसे तो क्षेत्रा. नुपूर्वी का अधिकार चला आरहा है इसलिये मुख्य रूप से क्षेत्रानुपूर्वी तो तीन प्रदेशरूप क्षेत्रहरी है। इस प्रकार मुख्यरूप से क्षेत्रानुपूर्वी रूपता तीन प्रदेशरूप क्षेत्र में विवक्षित होने पर भी जो तदवगाढ-तीन प्रदेश स्प क्षेत्रावगाही-द्रव्य को क्षेत्रानुपूर्वी कहा है वह क्षेत्रावगाह रूप पर्याय શકે છે? ક્ષેત્રાનુપૂવરૂપતા તે પ્રદેશયાધિરૂપ ક્ષેત્રની સાથે સંબંધ રાખે છે—ત્રિઅણુક પુદ્ગલરકની સાથે સંબંધ રાખતી નથી શંકાકર્તાને એ અભિપ્રાય છે કે અહીં જ્યારે ક્ષેત્રાનુપૂવને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, ત્યારે પુદ્ગલ દ્રવ્યાનુપૂવીને વિચાર કરવાની શી આવશ્યકતા છે ?
ઉત્તર-અહીં જે ત્રણ પ્રદેશની અવગાહનાવાળા દ્રવ્યકધને આનુપૂર્વ રૂપ કહેવામાં આવ્યું છે, તેને અર્થ અહી આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએત્રણ પ્રદેશમાં અવગાહના રૂપ પર્યાયથી યુક્ત દ્રવ્યસ્કંધને અહીં આનુપૂર્વ ૨૫ કહેલ છે-ત્રણ પુદ્દગલ પરમાણુવાળા દ્રવ્યધને નહીં તે ત્રણ પદૂગલ પમાણુવાળા દ્રવ્યસ્ક આકાશ રૂપ ક્ષેત્રના ત્રણ પ્રદેશને રોકીને રહે છે. તેથી આકાશના ત્રણ પ્રદેશમાં અવગાહી (રહેલે) દ્રવ્યસ્કંધ આનુપૂવ રૂપ છે, એમ સમજવું. જો કે અત્યારે તે અહીં ક્ષેત્રાનુપૂવને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, અને મુખ્યત્વે ક્ષેત્રનુ પવી તે ત્રણ પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્ર જ છે. આ રીતે શેત્રાનુપૂર્વી રૂપતા મુખ્યત્વે ત્રણ પ્રદેશ રૂપ ક્ષેત્રમાં વિવક્ષિત હેવા છતાં પણ જે ત્રણ પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્રાવગાહી દ્રવ્યને ક્ષેત્રાનુપૂર્વી રૂપ કહેવામાં આવ્યું છે, તે
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अनुयोगद्वारसले
ननु यदि क्षेत्रस्यैव मुख्यं क्षेत्रानुपूर्वीत्वं तर्हि कथं तत् परित्यज्य तदवगाढ द्रव्यस्यानुपूर्वी स्वादिकं चिन्त्यते १ इति चेत्, उच्यते-' संतपयपरूवणया' इत्यादि वक्ष्यमाणत्र हुतर विचारविषयत्वेन द्रव्यस्य शिष्यमविन्युत्पादनार्थत्वात् क्षेत्रस्व तु नित्यत्वेन सदावस्थितमानत्वादचलत्वाच्च प्रायस्तत्रानुपूर्व्यादि कल्पना करणे शिष्यबुद्धेः सम्यक् प्रवेशाभावात् तत्रानुपूर्वीत्वादिकं न चिन्त्यने, अतोऽय क्षेत्राक गाढव्यमेव क्षेत्रानुपूर्वीत्वेनोक्तमिति नास्ति कश्चिद् दोषः । एवं चतुष्मदेशाऽव-' गाढद्रव्यादिष्वपि बोध्यम् । 'असंख्येयप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी ' इत्यस्य असंख्येय. को प्रधानता से विवक्षित होनेके कारण से कहा है । अतः द्रव्य में भी उपचार से क्षेत्रानुपूर्वी रूपता विरुद्ध नहीं पड़ती है।
शंका- जय क्षेत्र में ही मुख्य रूप से क्षेत्रानुपूर्वी रूपता है तो फिर क्या ऐसा कारण है जो इस मुख्य रूपता का परित्याग कर उपचार को शरण करके तदवगाही द्रव्य में क्षेत्रानुपूर्वी का विश्वार किया जारहा है ?
उत्तर (संतपयपरूवणया) आदि रूप वक्ष्यमाण बहुतर विचार का विषय द्रव्य होता है और इसी के विचार से शिष्यों की मति व्युत्पन्न: बनती है । क्षेत्र तो नित्य है तथा सदा अवस्थित है अचल है इसलिये प्रायः करके उसमें आनुपूर्वी आदि की कल्पना करने में शिष्यजन की बुद्धिका अच्छी तरह प्रवेश नहीं हो सकता है। इसलिये वहां पर आनुपूर्वी आदि का विचार नहीं किया है। अतः यहां पर क्षेत्रावगाही द्रव्य ક્ષેત્રાવગાહ રૂપ પર્યાય મુખ્યત્વે વિક્ષિત હોવાને કારણે કહ્યુ છે, તેથી દ્રવ્યમાં પણ ઔપચારિક રૂપે ક્ષેત્રનુપૂર્વી રૂપતા વિરૂદ્ધ પડતી નથી.
શકાજો ક્ષેત્રમાં જ મુખ્યત્વે ક્ષેત્રાનુપૂર્વીતાના સદ્દભાવ હૈયા તા થા કારણે આ મુખ્યરૂપતાનેા પરિત્યાગ કરીને ઔપચારિકતાના આધાર લઈને તદવગાહી (તેમાં અવગાહિત થયેલા-રહેતા) દ્રવ્યમાં ક્ષેત્રાનુપૂર્વી ના વિચાર કરવામાં આવી રહ્યો છે ?
ઉત્તર-સપદપરૂપશુતા આદિ રૂપ નીચે દર્શાવેલા ઘણા વિચારાના વિષય દ્રવ્ય હાય છે, અને તેના જ વિચારથી શિષ્યેની મતિ વ્યુત્પન્ન અને છે. ક્ષેત્ર તા નિત્ય છે તથા સદા અવસ્થિત છે, અને અચલ છે. તેથી સામા ન્યતઃ તેમાં આનુવી આદિની કલ્પના કરવાથી એ વાત શિષ્યાના મગજમાં સારી રીતે ઉતરી શકતી નથી તેથી તેને અનુલક્ષીને આદિના વિચાર કરવામાં આન્યા નથી અહીં તા ક્ષેત્રાવાહી દ્રવ્યને ક્ષેત્રાનુપૂર્વી રૂપે પ્રકટ કરવામાં
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १०२ अर्थपदप्ररूपणा
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प्रदेशेषु भवगाढोऽसंख्येयाणुकोऽनन्ताणुको वा द्रव्यस्कन्धः, इत्यर्थो बोद्धव्यः । अदं बोध्यम् - एकः परमाणुः आकाशस्य एकस्मिन्नेव प्रदेशेऽवगाहते, द्विप्रदेशिकादबोऽसंख्यातमदेशिकान्तास्तु स्कन्धाः प्रत्येकं जघन्यत एकस्मिन्नाकाशम देशेअवगाहन्ते, उत्कृष्टतस्तु यत्र स्कन्धे यावन्तः परमाणवो भवन्ति स स्कन्धस्तावस्वेव नमः प्रदेशेष्ववगाहते । अनन्ताणुकस्कन्धोऽपि जघन्यत एकस्मिन्नभः प्रदेशेनाते, उत्कृष्टतस्तु - असंख्येयेध्वेव आकाशप्रदेशेष्ववगाहते, नत्वनन्तेषु, छोकाकाशस्यासंख्ये यप्रदेशत्वात्, अलोकाकाशे च द्रव्यस्यावगाहाभावादिति । तथा ही क्षेत्रानुपूर्वी से कहा है। इसमें कोई दोष नहीं हैं। इसी प्रकार से चतुष्प्रदेशावगाढ द्रव्य आदिकों के विषय में भी ऐसा ही जानना चाहिये ।
“असंख्येयप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी" इस पद का अर्थ आकाश के असंख्यात प्रदेशों में असंख्यात अणुवाला अथवा अनंत अणुवाला द्रव्यस्कंध आनुपूर्वी है ऐसा जानना चाहिये । तात्पर्य इसका यह है कि एक पुङ्गपरमाणु आकाश के एकही प्रदेश में अवगाही होता है । परन्तुदो प्रदेशवाले पुद्गलस्कंध से लेकर असंख्यात प्रदेशवाले जो पुद्गलस्कंध है उनमें प्रत्येक पुद्गल स्कंध कमसे कम एक आकाश प्रदेश में रहता है और अधिक से अधिक जिस स्कंध में जितने प्रदेश हैं जितने परमाणुओं का बना हुआ है - वह उतने ही आकाश के प्रदेशों में ठहरता है । अनन्त आकाश प्रदेशों में नहीं। क्योंकि द्रव्यों का अवगाह असंख्यात प्रदेशवाले लोकाकाश में ही हैं। अनन्त प्रदेश वाले अलोकाकाश में
આવેલ છે તેથી તે કથનમાં કોઈ દોષ નથી એજ પ્રમાણે ચાર પ્રદેશાવગાઢદ્રવ્ય વગેરેના વિષયમાં પણ એમ જ સમજવુ' જોઈએ.
“ અસ`ખ્ય પ્રદેશાવગાઢ આનુપૂર્વી આ પદના મય* નીચે પ્રમાણે સમજવા–માકાશના અસખ્યાત પ્રદેશમાં સખ્યાત અણુવાળા અથવા અનંત અણુવાળા દ્રવ્યસ્કંધ આનુપૂર્વી છે એમ સમજવું આ કથનના ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-એક પુદ્ગલપરમાણુ આકાશના એક જ પ્રદેશમાં અવગાહી હાય છે. પરન્તુ એ પ્રદેશવાળા પુદૂગલકધથી લઈને અસખ્યાત પ્રદેશવાળા જે પુદ્ગલ સ્કા છે, તેમાંના પ્રત્યેક પુદ્ગલ સ્કંધ ઓછામાં એાછા એક આકાશપ્રદેશમાં રહે છે અને વધારેમાં વધારે તે કધના જેટલા પ્રદેશેા હાય-જેટલા પરમાણુઓના તે સ્મુધ બનેલા હાય-એટલાજ આકાશપ્રદેશામાં તે રહે છે, અનંત આકાશપ્રદેશેામાં તે રહેતા નથી, કારણ કે
બ્યોને અવગાહ અસખ્યાત પ્રદેશનાળા તાકાકાશમાં જ છે-અનંત પ્રદેશ
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भडयोमा एकप्रदेशावगाढः-एकस्मिन्नेव नभःपदेशे अवगादः स्थितः परमाणुसयावर स्कन्धसङ्घातश्च क्षेत्रतोऽनानुपूर्वीति । तथा-द्विपदेशावगाढः-आकाशस्य प्रदेश दयेऽवगाढा=स्थितो द्विपदेशिकादिस्कन्धः क्षेत्रतोऽवक्तव्यकमिति। प्रकृतमुपसंहरन्नाह-' से तं' इत्यादि । सैषा नैगमव्यवहारयोरर्थप्ररूपणतेति॥१० १८२॥ नहीं । तात्पर्य यह है कि आधारभूत क्षेत्र के प्रदेशों कि संख्या आधेय. पुद्गल द्रव्य के परमाणुओं की संख्या से न्यून या उसके बराबर हो सकती है, अधिक नहीं । इसलिये एक परमोणु एकही आकाश प्रदेश स्थित रहता है पर घणुक एक प्रदेश में भी ठहर सकता है और दो में भी इसी प्रकार उत्तरोत्तर संख्या बढते २ व्यणुक चतुरणुक-यावत् संख्याताणुक स्कंध एक प्रदेश दो प्रदेश तीन प्रदेश यावत् संख्यात प्रदे. श क्षेत्र में ठहर सकते हैं संख्याताणुक द्रव्य की स्थिति के लिए असं. ख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र की आवश्यकता नहीं पड़ती। असंख्याताणुक स्कंध एक प्रदेश से लेकर अधिक से अधिक अपने बराबर की अधिक संख्यावाले प्रदेश के क्षेत्र में ठहर सकता है। अनन्ताणुक और अनंता. नंताणुक स्कंध भी एकप्रदेश दो प्रदेश इत्यादि क्रम से बढते २ संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेशवाले क्षेत्र में ठहर सकते हैं उनकी स्थिति के लिये अनंत प्रदेशात्मक क्षेत्र जरूरी नहीं है । तथा एकही आकाशવાળા અલકાકાશમાં નથી આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આધારભૂત ક્ષેત્રના પ્રદેશોની સંખ્યા આધેયભૂત પુદ્ગલદ્રવ્યના પરમાણુઓની સંખ્યા કરતાં એછી પણ હેઈ શકે છે અને બરાબર પણ હોઈ શકે છે, પરંતુ અધિક હોઈ શકતી નથી તેથી એક પરમાણુ એક જ આકાશપ્રદેશમાં રહી શકે છે પણ બે અણુવાળા અંધ એક આકાશપ્રદેશમાં પણ રહી શકે છે અને બે આકાશપ્રદેશોમાં પણ રહી શકે છે એજ પ્રમાણે ઉત્તરોત્તર આણુઓની સંખ્યા વધતાં વધતાં જે ત્રિઅણુક, ચતુરચુક આદિ સંખ્યાતાણુક પર્વતના ક" પણ એક પ્રદેશમાં, બે પ્રદેશમાં, ત્રણ પ્રદેશમાં અને સંખ્યાત સુધીના આકાશપ્રદેશમાં રહી શકે છે. સંખ્યાતાક દ્રવ્યને રહેવાને માટે અસખ્યાત પ્રશવાળા ક્ષેત્રની જરૂર પડતી નથી અસંખ્યાતાણુક કંધ એક પ્રદેશથી લઈને વધારેમાં વધારે પિતાના બરાબરની અધિક સખાવાળા પ્રદેશના ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે. અનંતાણુક સ્કંધ અને અનંતાનતાણુક રકંધ પણ એક પ્રદે. શમાં, બે પ્રદેશમાં, ત્રણ પ્રદેશમાં અને એજ ક્રમે વધતાં વધતાં સંખ્યા પ્રદેશવાળા ક્ષેત્રમાં રહી શકે છે. તેમની સ્થિતિને માટે તેમને રહેવાને માટે) અનંત પ્રદેશવાળા ક્ષેત્રની જરૂર પડતી નથી તથા એક જ આકાશમાં
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योगचन्द्रिका टोका सूत्र १०३ अर्थपवरूपणताप्रयोजननिरूपणम् र
मलम्-एयाए णं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणयाए किं पओयणं?एयाए णं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणयाएणेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया कजइ ॥सू०१०३॥
छाया-एतया खलु नैगमव्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणतया कि प्रयोजनम् ! एतया खलु नैगमव्यवहारयोरर्थपदपरूपणताया नैगमन्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते । सू. १०३॥
टीका- 'एयाए णं' इत्यादि
नैगमव्यवहारमम्मतया एतया अर्थपदमरूपणतया कि प्रयोजनम् ? इति प्रश्नः। एतया हि भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते इत्युत्तरम् ।।मू० १०३।। प्रदेश में स्थित परमाणु संघात और स्कंध संघात क्षेत्रकी अपेक्षा अना. सुपूर्वी है तथा द्विप्रदेशागाढ -आकाशके दो प्रदेशों में स्थित-द्विप्रदेशिक आदि स्कंध, क्षेत्र की अपेक्षा अवक्तव्यक है। इस प्रकार यह नैगमव्यव. हारनय संमत अर्थपद प्ररूपणता है ।। मू. १०२॥
"एयाएणं णेगमववहाराणं" इत्यादि। शब्दार्थ-(एयाएणं णेगमववहाराणं अत्यपयपरूवणयाए कि पोयणं?) हे भदन्त ! नैगम व्यवहारनय संमत अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के प्रथम मेद रूप इम अर्थपदप्ररूपणता से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ?
उत्तर-(एयाएणं गमववहाराणं अस्थपथपरूवणयाए णेगमववहासणं भंगसमुक्कित्तणया कज्जइ ) नैगमव्यवहारनयसंमत अनौप. निधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के प्रथम भेद रूप इस अर्थपद प्ररूपणता से भंग"સ્થિત પરમાણુ સંઘત અને સ્કંધ સંઘાતક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અનાનુપૂવી છે. તથા દ્વિપ્રદેશાવગાઢ (આકાશના બે પ્રદેશમાં રહેલા) ધ્રિપ્રદેશિક આદિ સ્કંધ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અવક્તવ્યક છે, એમ સમજવું નગમવ્યવહાર નયસંમત અર્થપ્રરૂપણતાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. સૂ૦૧૦રા
" एयापण गमववहाराण" याह
शहाय-एयाएण णेगमववहाराण अत्थपयपरूवणाए किं पओयण!) ભગવન! નિગમ વ્યવહારનયસંમત અનપનિધિની ક્ષેત્રાનુપૂવીના પ્રથમ ભેદ રૂપ આ અર્થપદપ્રરૂપણતાથી કયું પ્રયોજન સિદ્ધ થાય છે?
6त्त-(एयाए णं णेगमववहाराण अत्यपयपरूवणयाए णेगमववहाराण भंगसझुषितणया कजइ) नामव्यवहानसभत मनोपनिधिली क्षेत्रानुश्वीना પ્રથમ ભેદ રૂપ આ અર્થપદપ્રરૂપણુતા વડે ભંગસમુત્કીર્તનતા રૂપ પ્રજન
स० ५७
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मनुबोगद्वार मूलम्-से किं तं गमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया?णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया-अस्थि आणुपुच्ची, अस्थि अणाणुपुत्वी, अस्थि अवत्तवए। एवं दवाणुपुधिगमेणं खेत्ताणुपुवीए वि ते चेव छव्वीसं भंगा भाणियबा, जाव से तं भंगसमुकित्तणया ॥सू०१०४॥
छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनता ? नैगमव्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनता-अस्ति आनुपूर्वी, अस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अवक्तव्यकम् । एवं द्रव्यानुपूर्वीगमेन क्षेत्रानुपूर्यामपि त एव षड्विंशतिर्भका भणितव्याः, यावत् सैषा नैगमव्यवहारयोः भङ्गोपदर्शनता ।सू० १०४॥
टीका-अथ भङ्गसमुत्कीर्तनतां प्ररूपयितुमाह-' से कि तं' इत्यादि । अब का सा नैगमव्यवहारसम्मता मङ्गसमुत्कीर्तनता ? इति प्रश्नः। उत्तरमाह-'णेगमववहाराणं' इत्यादि । नैगमव्यवहारसम्मता मङ्गसमुत्कीर्तनता-अस्ति आनुपूर्वी, समुत्कीर्तनता रूप प्रयोजन सिद्ध होता है। इसके भावार्थ के लिये पीछे ७६ वें सूत्र के भावर्थ को देखो। ॥ १०३ ॥
अब सूत्रकार इसी भंगसमुत्कीर्तनता का निरूपण करते हैं“से किं तं गमववहाराणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ- ( से किं तं गमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया?) हे भदन्त ! नैगमव्यवहारनयसंमत वह भंग समुत्कीर्तनता क्या है?
उत्तर-(णेगमववहारणं भंगसमुकित्तणया अस्थि आणुपुव्वी अस्थि भणाणुपुन्वी, अस्थि अवसव्वए) नैगमव्यवहारनयसंमत वह भंगसमुत्कीर्तनता इस प्रकार से है-आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है अवक्तસિદ્ધ થાય છે આ પદના ભાવાર્થ માટે આગળના ૭૬માં સૂત્રને ભાવાર્થ વાંચી જવે. સૂ૦૧૦૩
હવે સૂત્રકાર એજ ભંગસમુત્કીર્તનતાનું નિરૂપણ કરે છે– " से किं तणेगमववहाराण" त्याल
उत्तर-(णेगमववहाराण भंगसमुक्कित्तणया अस्थि आणुपुब्बी, बत्यि अणाणुपुव्वी, अस्थि अवतव्वए) नैगमव्यपारनयस मत समुहान આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે-આનુપૂર્વી છે, અનાનુપૂવી છે, અને અવતરક છે.
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मेनुयोगवन्तिकारीका सूत्र १०५ भंगसमुत्कीर्तनताप्रयोजननिरूपणम् ४५ बस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अवक्तव्यकम् । एवं द्रव्यानुपूर्वीगमेन-द्रव्यानुपूर्वीपाठवत क्षेत्रानुपूर्यामपि त एव द्रव्यानुपूर्वीपकरणे ७७-७८ मूत्रे पोक्ता एव, षड्विंशति महा भणितन्याः। किमवधि मणितव्याः? इत्याह-'जाव से तं' इत्यादि । यावत् सैषा नैगमव्यवहारसम्मता भासमुत्कीर्तनतेति ॥मू० १०॥ ___ मूळम्-एयाएणं णेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए किं पओयणं? एयाएणं णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए णेगमववहाराणं भंगोवदंसणया कज्जइ ॥सू० १०५॥
छाया-एतया खलु नैगमव्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनतया कि प्रयोजनम् ? एतया खलु नैगमव्यवहारयोः भङ्गसमुत्कीर्तनतया नैगमव्यवहारयो भङ्गोपदर्शनता क्रियते ।।सू० १०५॥ व्यक है। (एवं दव्वाणुएव्विगमेणं खेत्ताणुपुव्वीए वि ते चेव छन्वीसं भंगा. भाणियव्वा अस्थि से तं भंगसमुक्त्तिणया ) इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी के पाठ की तरह क्षेत्रानुपूर्वी में भी द्रव्यानुपूर्ण के प्रकरण में कहे गये २६ भंग जानना चाहिये। इनभंगो के विषय को स्पष्ट करनेवाला पाठ ७७ -७८ सूत्रों में पीछे कहा गया है-सो वहांतक इसभंग विषयक पाठ को ग्रहण करना चाहिये । यह पाठ “से तं भंगसमुक्त्तिणया" यहीं तक है। इस सूत्र की व्याख्या के लिये इन्हीं सूत्रों की व्यख्या को देखनी चाहिये । ॥ सू० १०४ ॥
अब सूत्रकार इस भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ? इसबात को स्पष्ट करते हैं-'एयाए णं णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए' इत्यादि।
शब्दार्थ-(एयाए णं णेगमश्वहाराणं भंगसमुक्किसणयाए कि पओ.
(एवं दवाणुपुब्धिगमेण खेत्ताणुपुठवीए वि ते चेव छव्वीसं भंगा भाणियव्या जाव से तं भंगसमुक्कित्तणया) मा रे द्रव्यानुपूवी ना पानी में क्षेत्रानु. પૂવ માં પણ દ્રવ્યાનુવન પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલા ૨૬ ભાંગાઓ કહેવા જોઈએ. આ ભંગના (ભાંગાઓના) વિષયની સ્પષ્ટતા ૭૭ તથા ૭૮ માં सूत्रमा ४२पामा मापी युझी छ, “से त भंगसमुक्कित्तणया" ॥ सूत्रपात પર્યાને સૂત્રપાઠ ત્યાંથી ગ્રહણ કરે જઈએ. આ સૂત્રની વ્યાખ્યાને માટે ઉપર્યુક્ત બને સૂત્રેની વ્યાખ્યા વાંચી લેવી. સૂ૦ ૧૦૪
" एयाए ण णेगमववहाराण भंगममुक्कित्तणयाए" त्या:
महाय-एयाए ण णेगमववहाराण भंगसमुकित्तणयाए कि पओयण? : ભગવન્!તૈગમ અને વ્યવહારનયસંમત આ ભંગસમુત્કીર્તનતાનું શું પ્રયોજના
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भनुयोगद्वारी टीका-' एयाए णं' इत्यादि। व्याख्या सुगमा सा अष्ट सप्ततितम ७८ सूत्रे विलोकनीया |. १०५॥
मूलम्-से किं तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया? णेगमववहाराणं भंगोगदंसणया तिप्पएसोगाढे आणुपुबी, एगपएसोगाढे अणाणुपुत्री, दुप्पएसोगाढे अवत्तवए, तिप्पएसोगाढा आणुपुत्वीओ, एगपएसोगाढा अणाणुपुत्वीओ, दुप्पएसोगाढा अवत्तवयाइं ।।सू० १०६॥
छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोः भङ्गोपदर्शनता ? नैगमव्यवहारयोर्भङ्गोपदर्शनता-त्रिपदेशावगाढ आनुपूर्वी, एकप्रदेशावगाहः अनानुपूर्वी, डिप्रदेशावगाढः यणं ?) हे भदन्त नैगमव्यवहारनय संमत इस भंगसमुमीतनता का क्या प्रयोजन है?
उत्तर-(एयाएणं गमववहाणं भंगसमुकित्तणयाए णेगमयवहाराणं भंगोवदसणया कज्जद)नैगमव्यवहारनय संमत इस भंगसमुत्कीर्तनता से नैगमव्यवहारनय संमत भंगों को दिखाया जाता है-अर्थात् उनकी प्ररूपणा की जाती है । इसलिये भंगसमुत्कीर्तनताका भंगों को दिखलाना यही प्रयोजन है । इसकी व्याख्या के लिये पीछे का ७८ अठहत्तर वां सूत्र देखो। ॥ सू० १०५ ॥
“से किं तं गमववहरागं" इत्यादि ।
शब्दार्थ-( से किं तं गमववहाराणं भंगोवदसणया ) हे भदन्त ! नैगमन्वहारनय संमत वह भंगोपदर्शनता क्या है ? । ___ उत्तर-(णेगमववहाराणं भंगोवदसणया)नैगमव्यवहारनय संमत
उत्तर-(एयाएण ण णेगममहाराण भंगसमुक्त्तिणयाए णेगमवषहाराण भंगोवसणया कज्जइ) नैगमध्यपहारनयस मत मागसमुहातनता નગમવ્યવહારનયસંમત ભાંગાઓ બતાવવામાં આવે છે, એટલે કે તેમની પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે. તેથી ભંગોને (ભાગાઓને) પ્રકટ કરવાનું જ પ્રોજન છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યાને માટે આગળનું ૭૮મું સૂત્ર વાંચી જવું. સૂ૦૧૦૫
" से कि त णेगमववहाराण" त्य:
शहाथ-(से किं त णेगमवहाराण भंगोवदंम्रणया?) 3 भगवन् ! નગમવ્યવહાર નયસંત તે અંગે પદર્શનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(णेगमववहाराण भंगोवदसणया) नगमायानयस मत सोपશનતાનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે–
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योगवन्धिका टीका सूत्र १०६ भनोपदर्शनतानिरूपणम् अपकन्यकम् । त्रिप्रदेशावगाढा आनुपूर्व्यः, एकपदेशावगाढा अनानुपूर्यः, द्विपदेशावगाहा अवक्तव्यकानि ॥मू०१.६॥ । टीका-सम्पति भङ्गोपदर्शनतां निरूपयितुमाह-' से कि तं' इत्यादि । टीका मुगमा सू०१०६॥ भंगोपदर्शनता इस प्रकार से है-(तिप्पएसोगाढे ओणुपुव्वी एगपएसो. गाढे अणाणुपुव्वी दुप्पएसोगाढे अवत्तव्वए ) आकाश के तीन प्रदेशों में रहा हुआ व्यणुक आदि स्कंध आनुपूर्वी इस शब्दका वाच्यार्थ है । एकप्रदेश में स्थित परमाणु संघात, और स्कंध संघात क्षेत्र की अपेक्षा अनानुपूर्वी है तथा आकाश के दो प्रदेशों में स्थित विप्रदेशिक आदि स्कंध क्षेत्र की अपेक्षा अवक्तव्यक है । (तिप्पएसोगाढा आणुपुचीओ, एगपएसोगाढा अणाणुपुव्वीओ, दुप्पएसोगाढा अवत्तव्वयाई) आकाश के तीन प्रदेशों में रहे हुए बहुत से व्यणुक आदि स्कंध आनुपूर्वियां इस बहुवचनान्त शब्द के वाच्यार्थ हैं। आकाशके एक प्रदेश में रहे हुए अ. नेक परमाणु संघात आदि द्रव्य, अनानुपूर्षियां इस शब्दके वाच्यार्थ हैं। तथा विप्रदेश में स्थित अनेक द्विप्रदेशिक आदि स्कंध अवक्तव्यक इस बहुवचनान्त शब्द के याच्याध है । इसकी व्याख्या के लिये पीछे ७९ वे सूत्र की व्याख्या देखनी चाहिये ॥ सू० १०६ ॥
(तिप्पएसोगाढे आणुपुब्बी एगपएसोगाढे अणाणुपुवी दुप्पएसोगाढे अवत्तध्वए) माशना १ प्रदेशमा २३॥ या (त्रय म ) मा
આનુપૂવી” ” આ શબ્દો વાર્થ રૂપ છે. એક પ્રદેશમાં સ્થિત પરમાણુ સંધાત, અને સકંધ સંઘત ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ અનાનુપવી છે
તથા આકાશના બે પ્રદેશમાં રહેલ દ્વિદેશિક આદિ ધ ક્ષેત્રની अपेक्षा अ१४तव्य छे. (तिःपएसोगादा आणुपुवीओ एगपएसोगाढा अणाणुपुवीओ, दुप्पएसोगाढा अवत्तव्वयाई) घgi or नि 4.6 २४ “આનુપૂવી ઓ” આ બહુવચનાન્ત શબ્દના વાચ્યાર્થ રૂપ છે. આકાશના એક પ્રદેશમાં રહેલા અનેક પરમાણુ સંઘાત આદિ દ્રવ્યો “અનાનુપૂર્વીએ ” આ પદના વસ્થાર્થ રૂપ છે. બે પ્રદેશમાં સ્થિત અનેક દ્વિદેશિક આદિ રક “ અવક્તવ્યો” આ બહુવચનાન્ત પદના વાગ્યાથું રૂપ છે. આ સત્રની વ્યાખ્યા સમજવા માટે ૭૯ માં સૂત્રની વ્યાખ્યા વાંચી લેવી. ૧૦૬ છે.
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अनुयोगद्वार
मूलम् - अहवा तिप्पएसोगाढे य एगपएसोगाढे य आणुपुवी अणाणुपुवीय एवं तहा चैव दव्त्राणुपुविगमेणं छबीसं भंगा भाणियद्वा जाब से तं गम त्रवहाराणं भंगोत्रदंसणया ॥ सू० १०७॥
छाया - अथवा-त्रिमदेशा गाढव एकमदेशावगाढच आनुपूर्वीच अनानुपूर्वी च। एवं तथाचैव द्रव्यानुपूर्वीगमेन षट्विंशतिर्भङ्गा भविष्या यावत् सेवा नैगमव्यवहारयोः भङ्गोपदर्शनता ||० १०७॥
टीका -- ' अहवा' इत्यादि । व्याख्या सुगमा ||०१०७||
४५४
"अहवा तिप्पएसोगाढे य" इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( अहवा तिप्पएसोगाढे य एगपएसोगाढे य आणुपुरुवीय) अणाणुपुण्वीय) अथवा त्रिप्रदेशावगाढ स्कंध और एकप्रदेशावगाड कंप एक आनुपूर्वी और एक अनानुपूर्वी हैं। ( एवं तहाचेव दव्याणुपुत्रिगमेणं छत्रीस भंगा भाणियन्त्रा जाव से तं णेगमववहाराणं भंगोव दंसणया) इस तरह द्रव्यानुपूर्वी के पाठ की तरह २६, भंग समझ लेना चाहिये । इस प्रकार यह नैगम व्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता है ।
सूत्रकारने यह बात पहिले द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में स्पष्ट करदी है कि एकवचनान्त और बहुवचनान्त आनुपूर्वी आदि-३-३ पदों के असंयोग और संयोगपक्ष में २६, भंग किस प्रकार से बनते हैं और इन सबका वाच्यार्थ क्या २ है । उस द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरणगत आनुपूर्वी,
" अहवा तिप्परसोगाढे ४त्याहि
शब्दार्थ - ( अहवा तिप्पएसोगाढे य एगपएसो वाढे य आणुपुब्बी य अणाणुपुञ्चीय) अथवा - त्रिप्रदेशावगाढ २४६ (आशना त्रषु प्रदेशोभां रहे थे। કધ) અને એક પ્રદેશાવગાઢ સ્કંધ એક આનુપૂર્વી અને એક અનાનુપૂર્વી છે. ( एवं तहाचेत्र दव्त्राणुपुव्विगमेणं छव्वीस भंगा भाणियव्त्रा जाव से तं गमववहाराणं भंगोवदंसणयां) मे प्रभा द्रव्यानुपूर्वीना पाठनी प्रेम २६ ભાંગાએ સમજી લેવા જોઇએ.
આ પ્રકારનું નગમવ્યવહાર નયસંમત ભંગાપદશનતાનું સ્વરૂપ છે. સૂત્રકારે પહેલાં દ્રવ્યાનુપૂર્વી ના પ્રકરણમાં એ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે એકવચનાન્ત અને બહુવચનાન્ત આનુપૂર્વી આદિ ત્રણ-ત્રણ પદોના અસચેગ અને સચેાગ પક્ષે ૨૬ ભાંગાએ કેવી રીતે ખને છે, અને તેમના વાગ્યાથ શા થાય છે,
તે દ્રવ્યાનુપૂર્વીના પ્રકરણમાં બતાવેલાં આનુપૂર્વી, અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક આદિ પદ્મોના વાગ્યામાં ત્રિપ્રદેશિક આદિ ક, એક પ્રદેશી
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जोपरनिका टीका एम १०६ मझोपदर्शनतानिरूपणम् मनानुपूर्वी और अवक्तव्यक आदि पदों के वाच्यार्थ में त्रिप्रदेशिक भादि स्कंध एक प्रदेशी पुद्गल परमाणु और द्विप्रदेशी स्कंध आदि आते है। तब कि इस क्षेत्रानुपूर्वी के प्रकरण गत भंगोपदर्शनता में आकाश के तीन प्रदेशों में स्थित त्रिप्रदेशिक आदि स्कंध ही आनुपूर्वी शब्द के पाच्या माने गये हैं। एक दो आकाश के प्रदेशों में स्थित त्रिप्रदेशिक रकंध आनुपूर्वी शन्दके वाच्यार्थ नहीं माने गये हैं। क्योंकि यह पहिले कहा जा चुका है कि त्रिप्रदेशिक स्कंध आकाशके एकप्रदेश में भी अव. गाही हो सकता है, दो प्रदेश में भी अवगाही हो सकता है और तीन प्रदेशों में भी ठहर सकता है। त्रिप्रदेशिक स्कंध के लिये आकाश के पार प्रदेशों की ठहरने के लिये आवश्यकता नहीं है । इसी प्रकार जो चतुष्पदेशिक स्कंध होगा उसे अपने को अवगाहित होने के लिये आ काश के एक दो, तीन, एवं चार प्रदेश आपेक्षिक होंगे। पांच प्रदेश नहीं । इसलिये क्षेत्रानुपूर्वी में यदि त्रिप्रदेशिक स्कंध आकाश के एक प्रदेश में अथवा दो प्रदेश में स्थित है, तो वह क्षेत्र की अपेक्षा अनानपूर्वी और अवक्तव्यक शन्द का वाच्यार्थ होगा। क्षेत्रकी अपेक्षा आनु पूर्वी तीनप्रदेश से ही प्रारंभ होती है । इसी तरह जो असंख्यात प्रदे. પુદ્ગલપરમાણુ અને ઢિપ્રદેશી રકંધ આદિ આવે છે. પરંતુ આ ક્ષેત્રાનુPવના પ્રકરણગત ભંગદશનતામાં આકાશના ત્રણ પ્રદેશોમાં સ્થિત ત્રિપ્રદેશિક આદિ રકધ જ આનુવીં શબ્દના વાચ્યાર્થ રૂપે માનવામાં આવેલ છે. એક પ્રદેશમાં કે બે પ્રદેશોમાં સ્થિત ત્રિપ્રદેશિક અંધને અહીં આનુHવી શબ્દના વાચ્યાર્થ રૂપે માનવામાં આવેલ નથી, કારણ કે એ વાત તે આગળ પ્રકટ કરવામાં આવી ચુધ છે કે ત્રિપ્રદેશી કંધ આકાશના એકપ્રદેશમાં પણ અવગાહી થઈ શકે છે–રહી શકે છે, એ પ્રદેશોમાં પણ અવગાહી થઈ શકે છે અને ત્રણ પ્રદેશોમાં પણ અવગાહી થઈ શકે છે. ત્રિપ્રદેશી સ્કંધને રહેવા માટે આકાશના ચાર પ્રદેશની આવશ્યક્તા રહેતી નથી. એ જ પ્રમાણે ચાર પ્રદેશિક કંધને રહેવા માટે આકાશના એક બે, ત્રણ અથવા ચાર પ્રદેશની આવશ્યક્તા રહે છે. તેને રહેવા માટે પાંચ પ્રદેશોની જરૂર પડતી નથી. તેથી જ એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે જે ત્રિપ્રદેશિક સ્કંધ આકાશના એક પ્રદેશમાં અથવા બે પ્રદેશમાં રહેલું હોય, તે ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ તેને અનાનુકૂવી અને અવક્તવ્યક શખના વાચ્યાર્થ રૂપ જ ગણુ જોઈએ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આનુપૂવને પ્રારંભ ત્રણ પ્રદેશથી જ થાય છે, એ જ પ્રમાણે જે
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मोगहाण मूलम्-से किं तं समोयारे? समोयारे णेगमववहाराण आणुपुचीदवाई कहिं समोयरंति ? किं आणुपुबीदवेहिं समोयरंति अणाणुपुष्वदिवहिं समोयरंति ? अवत्तवगदवेहिं समोय. रंति ?, आणुपुवीदवाइं आणुपुबीदवेहिं समोयरंति नो अणाणुपुचीदवेहि नो अवत्तवयद वेहिं समोयरंति । एवं तिणि वि सट्टाणे समोयरंतित्ति भाणिय वं। से तं समोयारे॥सू०१०८॥
छाया-अथ कोऽसौ समवतारः ? समवतारो नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वी द्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किम् आनुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति ? अनानुपूर्वीद्रव्येषु शवाला-स्कंध होगा-वह भी आकाशके एक, दो, तीन आदि प्रदेशों में भवगाही हो सकता है और असंख्यात प्रदेशों में भी अवगाही हो सकता है । अतः क्षेत्र की अपेक्षा यह असंख्याताणुक स्कंध भी एकप्रदेश में स्थित होनेपर अनानुपूर्वी और दो प्रदेश में अवक्तव्यक अवगाहित होने पर माना जावेगा। तथा तीन आदि असंख्यात प्रदेशों में स्थित होनेपर आनुपूर्वी माना जावेगा। इस प्रकार से चित्तमें अवधारित कर २६भंगों का वाच्यार्थ क्षेत्रकी अपेक्षा आनुपूर्वी अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकइन एकवचनान्त बहुवचनान्त पदों के असंयोग और संयोग पक्ष में द्रव्यानुपूर्वी के भंगोपदर्शन की तरह कर लेना चाहिये । ॥सू० १०७॥ અસંખ્યાત પ્રદેશવાળો રકંધ હશે તે પણ આકાશના એક, બે, ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં પણ અવગાહી હોઈ શકે છે, અને અસંખ્યાત પ્રદેશમાં પણ અવગાહી હોઈ શકે છે, જ્યારે તે અસંખ્યાતણુક સકંધ આકાશના એક જ પ્રદેશમાં રહેલું હોય ત્યારે ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ તેને અનાનુપૂર્વી રૂપ ગણુ જોઈએ, પરંતુ જ્યારે તે ત્રણથી લઈને અસંખ્યાત પર્યન્તના આકાશના પ્રદેશોમાં રહેલું હોય ત્યારે ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ તેને આનુપૂર્વી રૂપ ગણ જોઈએ, આ પ્રકારને અર્થ મનમાં ધારણ કરીને ૨૬ ભંગને વાગ્યાથે સમજી લેવો જોઈએ, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આનુ પૂવીં, અનાનુપૂવી અને અવે તવ્યક આ એકવચનાન અને બહુવચનાન્ત પદના અસંગ અને સોગ પણે દ્રવ્યાનુપૂવને ભંગદર્શનની જેમ અહીં પણ ૨૬ માંગો સમજી લેવા જોઈએ. સૂ૦ ૧૦૭
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मनुपौगचन्द्रिका टीका सूत्र १०८ समवतारनिरूपणम् समबतरन्ति ! अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति ? आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येषु समबतरन्ति, नो मनानुपूर्वीदन्येषु नो अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति । एवं वीण्यपि स्वस्पाने समबतरन्तीति भणितव्यम् । स एष समवतारः ॥सू० १०८॥
टीका-अथ समवतारं प्ररूपयितुमाह-' से किं तं' इत्यादि । अथ कोऽसौ समवतारः? इत्यारभ्य ‘स एष समवतारः' इति पर्यन्तस्य पारस्य व्याख्या मशीतिसूत्रवद् द्रव्यानुविद् बोध्या ॥सू. १०८॥
अव सूत्रकार समवतार की प्ररूपणा करते हैं"से किं तं समोयारे !" इत्यादि ।
शब्दार्थ-हे भदन्त ! (से किं तं समोयारे) पूर्वप्रक्रान्त समवतार का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(समोयारे) पूर्वप्रकान्त समवतार का स्वरूप इस प्रकार से है-(गेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं कहिं समोयरंति?) शिष्य पूछ. ता है कि नैगमव्यवहार नयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य कहां समाविष्ट होते है (किं आणुपुल्वी दवेहिं समोयरंति ? अणाणुपुत्वीदव्वेहिं समोयरंति) क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? या अनानुपूर्वी द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ? या (अवत्सव्वगव्वेहिं समोयरंति) अवक्तव्यकद्रव्यों में समाविष्ट होते हैं ?
उत्तर-(आणुपुत्वीदगई आणुपुब्बीदव्वेहि समोयरंति) नैगमव्यहारनय संमत आनुपूर्वी द्रव्य आनुपूर्वी द्रव्यों में ही समाविष्ट होते हैं।
હવે સૂત્રકાર સમવતારની પ્રરૂપણ કરે છે– "से कि त समोयारे" त्याल
A14-( से कि त समोयारे) साप ! भाग २ ममतार નામને પ્રકાર કહ્યો છે તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(समोयारे) सभपता२नु ११३५ मा प्रा२नु छ-(जेगमपबहाराण पाणुपुव्वी व्वाई कहिं समोयरंति ?)
શિષ્યને પ્રશ્ન-નગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂર્વી દ્રવ્યો ક્યાં સમાविट याय १ (किं आणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति ? भणाणुपुबीदव्बेहि समोयरंति, अवत्तव्यगव्वेहि समोयरंति ?) शुमानुपूवी द्रव्यामा समाविष्ट થાય છે? કે અનાનુપૂવ દ્રવ્યમાં સમાવિષ્ટ થાય છે કે અવક્તવ્ય દ્રવ્યામાં સમાવિષ્ટ થાય છે?
6त्तर-(आणुपुव्वीदव्वाई आणुपुत्वीदव्वेहिं समोयरंति) नेशमन्यार नयम भानुदा द्रव्ये। भानु५वा द्रव्योमा । समाविष्ट याय , (नो
म०५८
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अनुयोगदारसूत्रे मूलम्-से किं तं अणुगमे ? अणुगमे नवविहे पण्णते, तं जहा-संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुं चेव ।।सू०१०९।।
छाया-अथ कोऽसौ अनुगमः ? अनुगमो नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सत्पदमरूपणता यावत् अल्पबहुत्वं चैव ।।सू० १०९॥
टीका-अथ अनुगमं प्ररूपयितुं प्राइ-से कि तं' इत्यादि । अथ कोऽसौ अनुगमः ? इति प्रश्नः । अनुगमो नवविधः प्राप्तः, तद्यथा- सत्पदप्ररूपणता १, (नो अणोणुपुत्वीदव्वेहिं नो अवत्तवगव्वेहिं समोयरंति) अना. नुपूर्वी द्रव्यों में एवं अवक्तव्धक द्रव्यों में समाविष्ट नहीं होते हैं। (एवं तिणि वि सट्टाणे समोयरंति त्तिभाणियन्व-से तं समोयारे) इसी प्रकार से यह समझना चाहिये कि अवक्तव्यक और अनानुपूर्वी द्रव्य भी आनुपूर्वी द्रव्य की तरह अपनी ५ जातिरूप की अवक्तव्यक और अना नुपूर्वी द्रव्यरूप स्वस्थान में ही अन्तर्भूत होते हैं इस प्रकार से ये तीनों ही स्व स्व स्थान में ही समाविष्ट होते हैं,। परस्थान में नहीं यही समवतार का स्वरूप है इस सूत्र की व्याख्या पहिले ८० सूत्र की व्याख्या की तरह जाननी चाहिये ॥ सू० १०८ ॥
अब सूत्रकार अनौपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी के पंचम भेदरूप अनुगम के स्वरूप का कथन करते हैं-"से कि तं अणुगमे?" इत्यादि।
शब्दार्थ-(से किं तं अणुगमे?) हे भदन्त ! अनुगम का क्या स्वरूप है?
उत्तर-(अणुगमे नवविहे पण्णत्ते) अनुगम नौ प्रकार कहा है (तंजअणाणुपुत्वी दव्वेहिं, नो अवत्तव्वगदव्वेहि समोयरंति) ५५ अनानुभूती द्रव्यामा भने अ१४०५५ द्रव्यमा समाविष्ट यdi नथी. (एवं तिणि वि सदाणे समोयरंति त्ति भाणियव्व-से त समोयारे) से प्रभार सतन्य અને અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યો પણ પિતપેતાની જાતિના દ્રોમાં જ (અનુક્રમે અવક્તવ્યક અને અનાનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપ સ્વસ્થાનમાં જ) અંતર્ભત થાય છે. અન્ય સ્થાનમાં અંતર્ભત થતાં નથી આ પ્રકારનું સમવતારનું સ્વરૂપ છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા ૮૦ માં સૂત્રની વ્યાખ્યા પ્રમાણે સમજવી. સૂ૦૧૦૮
- હવે સૂત્રકાર અનૌપનિધિની ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના પાંચમાં ભેદ રૂપ અનુગામના ५१३५नु नि३५ ४२ छ–“से किं तं अणुगमे ?" त्याls -
शहाथ-(से किं तं अणुगमे?) 8 सपन! अनुगमनु ५१३५ छ। त्ति२-(अणुगमे नवविहे पण्णत्ते) मनुगमन न१ २ ४ थे,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १०९ अनुगमनिरूपणम् यावत् अल्पबहुत्वं९ चैवेति । इह-यावच्छन्देन-द्रव्यप्रमाण२, क्षेत्रं ३, स्पर्शना ४, का: ५, अन्तरं ६, भागः ७, भा.८ इति बोध्यम् । व्याख्या एकाशीति सूत्रवत् द्रव्यानुपूर्ती बोध्या ॥५० १०९॥
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुबोदाई किं अत्थि णस्थि? णियमा अत्थि। एवं दुण्णि वि।सू० ११०॥ ___ छाया-नैगमपबहारयोः आनुपूर्णद्रव्याणि कि सन्ति न सन्ति ? नियमात् सन्ति । एवं द्वे अपि ॥पू० ११०॥
टीका-तम-सपदपरूपणनाद्वारं प्ररूपयति-'णेगमवहाराणं' इत्यादि । अस्य द्वारस्य व्याख्या यशोति स्त्रात् द्रव्यानुपूर्वीबद् बोध्या ॥मू० ११०॥ हा) जैसे-(संतपयारूण या जाव अप्पावहुंचेव) सत्पदप्ररूपणता यावत् अल्प बहुत्व ,। यहां यावर शब्द से इस अनुक्तपाठका संग्रह हुआ है"दव्यप्पमाणं खित. फुलगा, कालोय, अंगर, भाग, भाव," द्रव्य प्रमाण क्षेत्र स्पर्शना, काल, अंतर, भाग और भाव, इस सूत्र की व्याख्या के लिये देखो पीछेका ८१, वां सूत्र ॥ १०९॥
अब सूत्रकार अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के अनुगम के भेदरूप प्रथम सत्पदप्ररूपणता का कथन करते हैं
"णेगमववहाराणं" इत्यादि । शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं आणुपुब्धीदवाई कि अस्थि णत्थि ?णियमा अस्थि । एवं दुण्णिवि) नैगमव्यवहारनय संमत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं? (तं जहा) ते मारे। नीय प्रमाणे -(संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहु चेव) સત્પદપ્રરૂપણુતાથી લઈને અપમહત્વ પર્યન્તના નવ પ્રકારો અહીં પર્યન્ત ५४ वा" दवप्रमाण खित्त, फुखणा, कालोय, अंतरं, भाग, भाव " द्रव्य. પ્રમાણ, ક્ષેત્ર, સ્પર્શન, કાળ, અંતર, ભાગ અને ભાવ, આ સાત પ્રકાર ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા માટે ૮૧મું સૂત્ર વાંચી જવું સૂ૦૧૦૯
હવે સૂત્રકાર અનૌપદ્યિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના અનુગામના પ્રથમ ભેટ રૂપ સત્પદપ્રરૂપણુતાનું નિરૂપણ કરે છે
"णेगमववहाराण" त्या
शाय-(णेगमववहाराण आणुपुब्बोदवाई कि अस्थि गस्थि ? णियमा भत्थि, एवं दुण्णि वि)
પ્રશ્ન-નગમવ્યવહાર નયસંમત આનુવ દ્રવ્ય છે કે નહી?
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अनुयोगद्वारसूत्रे मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदवाइं किं संखिज्जाई असंखिज्जाइं अणंताई ? नो संखिज्जाइं असंखिज्जाइं नो अणंताई। एवं दुण्णि वि ॥सू० १११॥
छाया-नैगमव्यवहारयोः आभुपूर्वीद्रव्याणि किं संख्ये यानि असंख्येयानि अनन्तानि ? नो संख्येयानि, असंख्येयानि, नो अनन्तानि । एवं द्वे अपि ॥० १११॥
टीका-अथ द्रव्यप्रमाणद्वारं प्ररूपयितुमाह -'णेगमववहाराणं' इत्यादि । नेगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूद्रिव्याणि किं संख्येयानि भवन्ति ? किंवा असं. ख्येयानि भवन्ति ? उत वा अनन्तानि भवन्ति ? इति त्रिविधः प्रश्नः। उत्तरमाह'नो संखिज्जाई' इत्यादि । नो संख्ये यानि भवन्ति, नो अनन्तानि भवन्ति, अपि तु असंख्येयानि भवन्तीत्यर्थः । इति । अयं भावः-त्रिपदेगावगाढादीनि द्रव्याणि
उत्तर-नियमतः हैं । इसी प्रकार नैगमव्यवहारनयसमत अनानु. पूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य भी नियम से हैं । इस सूत्र की व्याख्या के लिये देखो पीछे का ८२, वां ॥ सू० ११० ॥
"णेगमववहाराणं आणुपुव्वी दवाई" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदवाइं कि संखिज्जाई, असं. खिज्जाई, अणंताई ? ) हे भदन्त ! नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं ? या असंख्यात हैं ? या अनंत हैं ?
उत्तर-(नो संखिज्जाइं, असंखिज्जाई, नो अणंताई। एवं दुण्णिवि) मैगमव्यवहारनय संमत आनुपूर्वीद्रव्य न संख्यात हैं न अनंत हैं किन्तु असंख्यात हैं । इसका तात्पर्य यह है-आकाश के तीन प्रदेश में स्थित
ઉત્તર-અવશ્ય છે જ એજ પ્રમાણે નૈગમવ્યવહાર નયસંમત અનાનુમુવી અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય પણ અવશ્ય છે જ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સમજવા માટે ૮૨માં સૂત્રની વ્યાખ્યા વાંચી લેવી. સૂ૦૧૧૦ ___“णेगमववहाराण' आणुपुव्वीदवाई" त्या:
शहाथ-(णेगमववहाराण आणुपुत्वीदव्बाई किं संखिज्जाई', असंवि. ज्जा, अणंताई) 3 मापन ! नैरामया२ नयभत भानुभूपी द्रव्यो Y. सध्यात छे, असभ्यात छ, , सनत छ?
उत्तर-(नो संखिज्जाइ असंखिज्जाई, नो अणताइ, एवं दुण्णि वि)
નિગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય સંખ્યાત પણ નથી, અનંત પણ નથી, પરંતુ અસંખ્યાત જ છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १११ द्रव्यप्रमाणद्वारनिरूपणम् क्षेत्रत मानुर्वीत्वेन निर्दिष्टानि, त्रिप्रदेशादि स्कन्धाधारभूताः क्षेत्रविभागाथ असंख्येयप्रदेशात्मके लोकेऽसंख्याता भवन्ति, अतो द्रव्यतया बहूनामप्यानुर्गद्रयाणां क्षेत्रावगाहमपेक्ष्य क्षेत्रक्यमाश्रित्य तुल्यपदेशावगाहानामेकत्वात् क्षेत्रानुपू. ठामसंख्यातान्येवानुपूर्वी द्रव्यागि भवन्तीति। अथानानुपूर्यवक्तव्यकद्रव्यविषये शाह-एवं' इत्यादि । एवम्=मानुपूर्वीद्रव्यवत् द्वे अपि-अनानुपूर्यवक्तव्यक द्रष्यामि असंख्पेयानि बोध्यानि । अयं भावः-एकैकपदेशावगाढं बहूपि द्रव्यं क्षेबत एकानानुपूर्वी । लोकस्य प्रदेशा असंख्याताः सन्ति, अतस्तत्तुल्यमसंख्य. हुए द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा आनुपूर्वीरूप से कहे गए हैं । तीन आदि प्र. देशवाले रकंत्रों के आधारभूत क्षेत्र विभाग असंख्यात प्रदेशी लोक में असंख्यात हैं । इसलिये द्रव्य की अपेक्षा बहुत भी आनुपूर्वीद्रव्य तुल्य प्रदेशवाले क्षेत्र में अवगाह की अपेक्षा करके एक मान लिये जाते हैंअर्थात् आकाशरूप क्षेत्र के तीन प्रदेशों में त्रिप्रदेशवाले, चार प्रदेश बाले, पांच प्रदेशवाले छह आदि अनंत प्रदेशवाले अनेक आनुपूर्वीद्रव्य अवगाहित होकर रहते हैं । परन्तु ये सब द्रव्य तुल्यप्रदेशावगाही होने के कारण एक हैं। क्षेत्रानुपूर्वी में लोक के ऐसे त्रिपदेशात्मक विभाग असंख्यात हैं । इसलिये आनुपूदिव्य भी तत्तुल्य संख्यावाले होने के कारण असंख्यात होते ही हैं । इसी प्रकार-आनुपूर्वी द्रव्य की तरहअनानुपूर्वी, अवक्तव्यक द्रव्य भी अमंख्यान ही हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि लोक के एक एक प्रदेश में अवगाही अनेक द्रव्य क्षेत्र की
આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-આકાશના ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં રહેલા દ્રવ્યને ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી રૂપ કહેવામાં આવે છે. ત્રણ આદિ પ્રદેશવાળા આંધના આધારભૂત ક્ષેત્રવિભાગે અસખ્યાત પ્રદેશી લેકમાં અસંખ્યાત છે. તેથી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ ઘણાં જ આનુપૂર્વી દ્રવ્યને તથપ્રદેશવાળા ક્ષેત્રમાં અવગાહની અપેક્ષાએ એક માનવામાં આવેલ છે એટલે કે આકાશરૂપ ક્ષેત્રના ત્રણ પ્રદેશમાં ત્રણ પ્રદેશવાળાં, ચાર પ્રદેશવાળાં, પાંચ પ્રદેશવાળાં અને છ આદિ અનંત પ્રદેશવાળાં અનેક આનુપૂવ દ્રવ્ય અવગાહિત થઈને રહે છે, પરંતુ તે સઘળાં દ્રવ્ય તુલ્યપદેશાવગાહી હવાને કારણે એક છે. ક્ષેત્રાનુપૂર્વમાં લેકના એવાં ત્રિપ્રદેશાત્મક વિભાગ અસંખ્યાત છે. આનુપૂવ દ્રવ્ય પણ તેના જેટલી જ સંખ્યાવાળા હોવાથી અસંખ્યાત જ હોય છે. એ જ પ્રમાણે (અનુપૂવી દ્રવ્યોની જેમ) અનાનુપૂવી દ્રવ્યો અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પણ અસખ્યાત જ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે હેકના એક એક પ્રદેશમાં અવગાહી અનેક દ્રવ્યો પણ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ
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अनुयोगद्वारसूत्र स्वादनानुपूर्वी द्रव्याण्यपि असंख्येयानि भवन्ति । तथा-प्रदेशद्वयेऽजगाढं बहूपि द्रव्यं क्षेत्रत एकमेवावक्तव्यकद्रव्यम्। लोकस्य द्विप्रदेशात्मका विभागा असं पाताः सन्ति, अतो द्विपदेशात्मकान्यवक्तव्यकद्रव्याण्यप्यसंख्यातानि भवन्तीति ।मु० १११॥ अपेक्षा एक ही अनानुपूर्वी रूप हैं । ये असंख्यात इसलिए माने गये हैं कि इस प्रकार से असंख्यात प्रदेशवाले लोक में एक एक प्रदेश में ये एक २ रहते हैं । तथा आकाश के दो प्रदेशों में स्थित बहुत भी द्रव्य क्षेत्र की अपेक्षा एक ही अवक्तव्यक द्रव्य हैं । आकाश के दो प्रदेश रूप विभाग असंख्यात होते हैं इसलिये तदवगाहीद्रव्य भी असंख्यात है।
भावार्थ-नैगमव्यवहारनय संमत आनुपूर्वी, अनानुर्वी और अब. क्तव्यक द्रव्य कितने हैं ? सूत्रकारने इस सूत्रद्वारा इन प्रश्नों का समा. धान किया है। उन्होंने कहा है कि-आकाश के त्रिप्रदेशात्मक, विप्रदेशात्मक और एकप्रदेशात्मक विभाग असंख्यात है। क्योंकि आकाश स्वयं असंख्यात प्रदेश वाला है। यद्यपि आकाश के प्रदेश अलोकाकाश की अपेक्षा अनंत कहे गये हैं, फिर भी इस अनंत अलो. काकाश में कोई द्रव्य नहीं रहता है। असंख्यात प्रदेशवाले लोका. काश-में ही द्रव्योंका अवगाह है। लोकाकाशके उन विभागों में आनु. पूर्वी, अनानुपूर्वी, और अवक्तव्यक द्रव्य प्रत्येक असंख्यात २ रहते हैं। એક જ અનાનુપૂર્વી રૂપ છે. તેમને અસંખ્યાત માનવાનું કારણ એ છે કે, આ પ્રકારે અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા લેકના એક એક પ્રદેશમાં એક એક અનાનુપૂવી દ્રવ્ય રહે છે. તથા આકાશના બે પ્રદેશમાં સ્થિત ઘણાં દ્રવ્ય પણ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ એક જ અવક્તવ્ય દ્રવ્ય રૂપ છે. આકાશના બે પ્રદેશ રૂપ વિભાગ અસંખ્યાત હોય છે, તે કારણે તેમાં અવગાહી દ્રવ્ય પણ અસંખ્યાત છે,
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ પ્રશ્નનું સમાધાન કર્યું છે કે નગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂર્વી, અનાનુપૂવ અને અવક્તવ્યક દ્ર કેટલાં છે. સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં એ વાતનું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે આકાશના ત્રિપદેશાત્મક, દ્ધિપ્રદેશાત્મક અને એક પ્રદેશાત્મક વિભાગ અસંખ્યાત છે, કારણ કે આકાશ પિતે જ અસંખ્યાત પ્રદેશવાળું છે. જો કે અલકાકાશની અપેક્ષાએ આકાશના પ્રદેશે અનંત કહ્યા છે, પરંતુ આ અનંત અકાકાશમાં તે કોઈ પણ દ્રવ્યનો સદુભાવ જ નથી અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા લોકાકાશમાં જ દ્રવ્યને અવગાહ છે. કાકાશના તે વિભાગમાં અસંખ્યાત આનુપૂવી દ્ર, અસંખ્યાત અનાનુપૂર્વા દ્ર અને અસંખ્યાત અવક્તવ્યક
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १११ द्रव्यप्रमाणद्वारनिरूपणम् ४६३ क्योंकि यहांपर क्षेत्र की अपेक्षा-आनुपूर्वी आदि का विचार चल रहा है। अत: एक प्रदेशात्मक असंख्यात विभागों में एक एक विभागों में एक २ आनुपूर्वी आदि द्रव्य रहता है । यद्यपि एक प्रदेश में द्रव्य की अपेक्षा अनेक आनुपूर्वी आदि द्रव्य रहते हैं-परन्तु वे सब एक प्रदेश में आधारभूत होने के कारण एक माने जाते हैं। अतः इस प्रकार से एक प्रदेशरूप विभाग में रहे हुए ये अनेक द्रव्य एक प्रदेशरूप आधार की अपेक्षा एक प्रदेशावगाही होने के कारण एक अनानुपूर्वी द्रव्य रूप पड़ते हैं । इस प्रकार लोक के एकप्रदेशात्मक असंख्यात विभागों में अनानुपूर्वी द्रव्य असंख्यात ही हो जाते हैं । इसी प्रकार से अवक्तव्यक द्रव्य और अनानुएवीं द्रव्य भी असंख्यात सध जाते हैं। क्योंकि लोक के बिप्रदेशात्मक विभाग जष असंख्यात हैं तो इनमें जितने भी द्विप्रदेशी
आदि द्रव्य रहेंगे वे सब द्विप्रदेशावगाही होने के कारण एक द्विप्रदेशास्मक विभाग में एक अवक्तव्यक द्रव्य रूप से स्वीकृत माने जावेगें। इस विप्रदेशात्मक एक विभाग में जब अवक्तव्यक द्रव्य रहता है तो दिप्रदेशास्मक असंख्यात विभागों में असंख्यात ही अवक्तव्यक द्रव्य रहेगें। દ્રવ્ય રહે છે. અહીં ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ આનુપૂવ આદિને વિચાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી એકપ્રદેશાત્મક અસંખ્યાત વિભાગોમાંના પ્રત્યેક વિભાગમાં એક એક આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય રહે છે. જો કે પ્રત્યેક પ્રદેશમાં દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અનેક આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય રહે છે, પરંતુ તેઓ બધાં એક પ્રદેશમાં આધારભૂત હોવાને કારણે તેમને એક માનવામાં આવેલ છે. આ રીતે એકપ્રદેશ રૂપ વિભાગમાં રહેલાં અનેક દ્રવ્યો એક પ્રદેશરૂપ આધારની અપેક્ષાએ એક પ્રદેશાવગાહી હોવાને કારણે એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય ૨૫ ગણવાને ગ્ય બને છે. આ રીતે લેકના એક પ્રદેશાત્મક અસંખ્યાત વિભાગોમાં અનાનુપવી ક અસંખ્યાત લેવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. એજ પ્રમાણે અવક્તવ્યક દ્રવ્ય અને આનુપૂવી દ્રવ્ય પણ અસંખ્યાત હેવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે, કારણ કે લેકના દ્વિપદેશાત્મક વિભાગ અસંખ્યાત હેવાથી તેમાં જેટલા ઢિપ્રદેશી આદિ દ્રવ્ય રહેશે તે સૌ પણ હિપ્રદેશાવગ હી હોવાને કારણે એક દ્વિપદેશાત્મક વિભાગમાં એક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય રૂપે સ્વીકૃત થયેલાં માની શકાશે. આ દ્વિપદેશાત્મક એક વિભાગમાં જે એક અવકતવ્યક દ્રવ્ય રહેતું હોય, તે ક્રિપ્રદેશાત્મ અસંખ્યાત પ્રદેશમાં અસંખ્યાત અવકતવ્યક દ્રએ રહી શકે, એ વાત પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે. આ રીતે અવકતવ્યક છે અસંખ્યાત લેવાનું કથન પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે.
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मनुयोगशाला ___ मूलम्-णेगमववहाराणं खेत्ताणुपुचीदवाइं लोगस्स किं संखिज्जइभागे होजा ? असंखिज्जइभागे होज्जा ? जाव सव. लोए होज्जा ?, एगंदव्वं पडुच्च लोगस्स सांखज्जइभागे वा होजा, असंखिज्जइभागे वा होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, देसूणे वा लोए होजा। नाणा. दवाइं पडुच्च नियमा सालोए होज्जा। णेगमववहाराणं अणाणुपुत्वीदव्वाणं पुच्छा एगदवं पडुच्छ नो संखेजइभागे होजा, असंखेज्जइभागे होजा, नो संखेजेसु भागेसु होजा नो असंखेजेसु भागेसु होज्जा नो सव्वलोए होजा, नाणादम्बाई पडुच्च णियमा सव्वलोए होज्जा। एवं अवत्तबगदव्वाणि वि भाणियव्वाणि ॥सू०११२॥
इसी प्रकार अवक्तव्यकद्रव्य भी असंख्यात-सधजाते हैं । इसी प्रकार से लोक के जब त्रिप्रदेशात्मक विभाग असंख्यात है तो इनमें जितने भी त्रिप्रदेशी आदि द्रव्य रहेंगे वे सब त्रिप्रदेशावमाही होने के कारण एक त्रिप्रदेशात्मक विभाग में एक आनुपूर्वी द्रव्य रूप से स्वीकृत हुए माने जावेगें। इस त्रिप्रदेशात्मक एक विभाग में जब एक आनुपूर्वीद्रव्य रहता है तो लोक के त्रिप्रदेशत्मक असंख्यात विभागों में द्रव्य कितने ओनुपूर्वी रहेंगे। इस प्रकार गणना के अनुसार आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात सध जाते हैं । सू० १११ ॥
એજ પ્રમાણે લેકના વિદેશી વિભાગો પણ જે અસંખ્યાત હોય તો તેમાં જેટલાં ત્રિપ્રદેશી આદિ દ્રવ્ય રહેશે તેઓ બધાં પણ ત્રિપ્રદેશાવ. ગાહી હોવાને કારણે એક ત્રિપ્રદેશાત્મક વિભાગમાં એક આનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપે સ્વીકત થયેલા મનાશે આ ત્રિપ્રદેશાત્મક એક વિભાગમાં જે એક આનુપૂર્વ દ્રવ્ય રહેતું હોય, તે લેકના ત્રિપ્રદેશાત્મક અસંખ્યાત વિભાગમાં અસં. ખ્યાત આનુપૂર્વ કો રહેતા હશે આ પ્રકારે આનુપૂવી દ્રવ્યોની સંખ્યા પણ અસંખ્યાત હોવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. સ ૧૧૧
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम् ४६५
छाया-नैगमव्यवहारयोः क्षेत्रानुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य किं संख्येयतममागे भवन्ति ? असंख्येयमागे भवन्ति यावत् सर्वलोके भवन्ति ? । एकं द्रव्यं प्रतीत्य लोकस्य संख्येयतमभागे वा भवति, असंख्येयतमभागे वा भवति, संख्येयेषु भागेषु
वा भवति, असंख्ये येषु भागेषु वा भवति, देशोने वा लोके भवति । नाना द्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलो के भवन्ति। नेगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणां पृच्छायामेकद्रव्यं प्रतीत्य नो संख्येयतमभागे भवति, असंख्येयतमभागे भवति, नो संख्येयेषु भागेषु भवति, नो सर्वलो के भवति । नाना द्रव्याणि प्रतीत्य नियमाव सर्वलोके भवन्ति । एवम् प्रवक्तव्य कद्रव्याण्यपि भणितव्यानि ॥सू० ११२॥
टीका-अथ क्षेत्रद्वार निरूपयितुमाह-'णेगमववहाराणं' इत्यादि ।
नै गमव्यवहारसम्मतःनि क्षेत्रानुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य कि संख्येयतमभागे भव. न्ति ? असंख्येयतमभागे भवन्ति ? यावत् सर्वलोके भवन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरमाहएक द्रव्यं प्रतीत्य आनुपूर्वी द्रव्यं लोकस्य संख्येयतमभागे वा भवति, असंख्येयतमभागे वा भवति, संख्येयेषु वा भागेषु भवति, असंख्येयेषु वा भागेषु भवति ।
(गमववहाराणं खेत्ताणुपुव्वी) इत्यादि ।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं खेत्ताणुपुवी-दवाई लोगस्स किं संखिज्जाभागे होज्जा ?)
प्रश्न-नैगमव्यवहार नय संमत क्षेत्रानुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के सं. ख्यानवें भाग में होते हैं ? (असंखिज्जहभागे होज्जा?) या असंख्यातवें भागमें रहते हैं ? (जाव सव्वलोए होज्जा) यावत् समस्त लोकमें होते हैं ?
उत्तर-(एगं दवं पडुच्च लोगस्स संखिज्जहभागे वा होज्जा असं. खेज्जहभागे वा होज्जा संखेग्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा देणे वा लोए होज्जा ) एकद्रव्यकी अपेक्षा लेकर आनुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यातवें भाग में भी रहताहै असंण्यातवें
" णेगमववहाराण खेत्ताणुपुवो" त्याह
सहाय-(णेगमवहाराणं खेसाणुपुत्वीदव्वाई लोगस्स किं संखिज्जा भागे होज्जा) Bापन् ! नगभव्य१६२ नयस मत क्षेत्रानुन द्रव्ये। शु बना सभ्यातमा भागमा छ ? ४ (असंखिज्जइभागे होज्जा ?) असे न्या. तभा मागमा सय छ। (जाव सबलोए होज्जा ?) समस्त भांडीय छ ?
उत्तर-(एगं दव पहुच लोगस्स संखिजइभागे वा होज्जा, असंखिजइभागे वा होज्जा, संखेग्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु वा होजा, देसूणे वा लोए होजा) मे द्र०यनी अपेक्षा पिया२ ३२पामा भावे તે આનુપૂર દ્રવ્ય લેકના સંખ્યામાં ભાગમાં પણ રહે છે, અસંખ્યાતમાં
अ० ५९
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___अनुयोगद्वारस्ते .
.. स्कन्धद्रव्याणां विचित्रपरिणमनशक्तिमत्वात् संख्येयादिप्रदेशावगाहित्वं बोध्यम् । विशिष्टक्षेत्रावगाहोपलक्षितानां स्कन्धद्रव्याणामेव क्षेत्रानुपूर्वीत्वेनोक्तत्वात् । तथा एक द्रव्यं प्रतीत्य देशोने वा लोके आनुपूर्वीद्रव्यं भवति ।
ननु-अचित्तमहास्कन्धस्य सर्वलोकव्यापकत्वं पूर्वमुक्तम्। तस्य च समस्तलोकवर्त्य संख्येयप्रदेशलक्षणायां क्षेत्रानुपूर्व्यामवगाढत्वात परिपूर्णस्यापि क्षेत्रानुपूर्वीत्वं न किंचिद् विरुध्यते, अतस्तदपेक्षया क्षेत्रतोऽप्यानुपूर्वीद्रव्यं सर्वलोकव्यापि भाग में भी रहता है, संख्यात भागों में भी रहता है असंख्यात भागों में भी रहता है। क्योंकि स्कंध द्रव्यों की परिणमन शक्ति विचित्र प्रकार की है। अतः विचित्रप्रकार की परिणमन शक्तिवाले होने के कारण स्कंध द्रव्योंका अवगाहलोक के संख्यातवें आदि भागों में होता है। क्यों कि विशिष्ट क्षेत्र में अवगाह से उपलक्षित हुए स्कन्ध द्रव्यों को ही क्षेत्रानुपूर्वी रूप से कहागया है । तथा एक द्रव्य की अपेक्षा लेकर आनुपूर्वी द्रव्य कुछ कम-देशोन लोक में भी अवाहित होता है।
शंका-पहिले द्रव्यानुपूर्वी में अचित्त महास्कंध, कि जो पुद्गलद्रव्य सबसे बड़ा स्कंध होता है और जो अनंतानंत परमाणु भों से निष्पन्न होता है । सर्व लोक व्यापी कहा है । इस प्रकार अचित्त महास्कंध की अपेक्षा एक आनुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक में व्यापक होकर जब रहता है-तष यह बात आपकी कैसे मानी जा सकती है कि आनुपूर्वी द्रव्य ભાગમાં પણ રહે છે, સખ્યાત ભાગોમાં પણ રહે છે, અસંખ્યાત ભાગમાં પણ રહે છે, કારણ કે ધ દ્રવ્યોની પરિણમનશક્તિ વિચિત્ર હોય છે. વિચિત્ર પ્રકારની પરિણમનશકિતવાળા હેવાને કારણે સ્કંધ દ્રવ્યને અવગાહ લેકના સંખ્યામાં આદિ ભાગોમાં હોય છે. કારણ કે વિશિષ્ટ ક્ષેત્રમાં અવગાહથી ઉપલક્ષિત થયેલાં સ્કંધદ્રવ્યને જ ક્ષેત્ર નુપૂર્વી રૂપે ગણવામાં આવે છે. તથા એક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અમુક ન્યૂન દેશપ્રમાણ-દેશોન–કમાં પણ અવગાહિત હોય છે.
શંકા-દ્રવ્યાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરતાં પહેલાં આપે એવું કહ્યું છે કે પદ્રલ દ્રવ્યને સૌથી મોટે રકંધ કે જે અનંતાનંત પરમાણુઓમાંથી બને છે, અને જેને અચિત્ત મહાત્કંધ કહેવામાં આવે છે, તે સર્વલકવ્યાપી છે.” આ પ્રકારે આ અચિત્ત મહારકાધની અપેક્ષાએ એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય જે સમસ્ત લોકમાં વ્યાપક હોય તે આપની એ વાત કેવી રીતે માની શકાય કે આનુપૂર્વી દ્રવ્યને એક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તે અમુક દેશન (દેશ ન્યૂન) લેકમાં વ્યાપીને રહે છે? કારણ કે સમસ્ત લેક
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम् ४६७ पाप्यते, कथं वर्हि देशोनलोकव्यापिता प्रोच्यते ? इति चेत् , उच्यते- अयं लोक आनुपूय॑नानुपूर्ववक्तव्यकद्रव्यैः सर्वदेवाशून्य एवं भातीति सिद्धान्तः । यदिचात्राऽऽनुपूर्व्याः सर्वलोकव्यापिता निर्दिश्येत, तदाऽनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणां निरवकाशतयाऽभावः प्रतीयेत, अतश्व-अचित्तमहास्कन्धपूरितेऽपि लोके जघन्यतोऽप्येकः प्रदेशोऽनानुपूर्वीविषयत्वेन विवक्षितः। प्रदेशद्वयं चावक्तव्यकद्रव्यविषयः एक द्रव्य की अपेक्षा करके कुछ कम लोक में व्यापक होकर रहता है । क्योंकि समस्त लोकवर्ती असंख्यात प्रदेशरूप क्षेत्रानुपूर्वी है सो उसमें अवगाढ-अवगाही होने से- परिपूर्ण अचित्त महास्कंध का क्षेत्रानुपूर्वोपना भी कुछ भी विरुद्ध नहीं पड़ता है। इसलिये आनुपूर्वी द्रव्य में एक आनुपूर्वी, द्रव्य की अपेक्षा करके जो देशोन लोक में अवगाहिता प्रकट की है वह ठीक नहीं है। __उत्तर-यह सिद्धान्त है कि यह लोक आनुपूर्वी अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों से सदा ही अशून्य है । यदि आनुपूर्वी द्रव्य कोसर्बलोक व्यापी माना जावे तो फिर अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को ठहरने के लिये स्थान न होने के कारण उनका अभाव प्रसक्त होगा। और जब देशोन लोक में एक आनुपूर्वी द्रव्य व्यापक होकर रहता है। ऐसा माना जाता है तो इस प्रकार से अचित्त महास्कंध से पूरित हुए भी लोक में कम से कम एक प्रदेश ऐसा भी आजाता है कि जो अना. नुपूर्वी द्रव्य का विषय रूप से विवक्षित हो जाता है । तथा दो प्रदेश વત અસંખ્યાત પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્રાનુપૂર્વી છે, અને તેમાં અવગાહી (રહેલે) હેવાથી પરિપૂર્ણ અચિત્ત મહાછંધમાં પણ ક્ષેત્રાનુપૂવવ માનવામાં કઈ પણ વધે જણાતું નથી.
- ઉત્તર-એવો સિદ્ધાંત છે કે આ લેક આનુપૂવી અને અવક્તવ્ય દ્રવ્યોથી રહિત કદી હેતે નથી જે આનુપૂવી દ્રવ્યને સર્વલેકવ્યાપી માનવામાં આવે, તે અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોને રહેવાનું સ્થાન જ બાકી ન રહે ! અને તે કારણે તેમને અભાવ જ માનવાનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે જે એવું માનવામાં આવે કે દેશોન (દેશ ન્યૂન) લેકમાં એક આનું પૂર્વી દ્રવ્ય વ્યાપીને રહે છે, તે અચિત્ત મહાકંપ વડે પૂરિત થયેલ વેકમાં પણ એાછામાં ઓછા એક પ્રદેશ એ પણ બાકી રહેશે કે જેમાં અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યને સદ્ભાવ હોઈ શકે, તથા તે લેકમાં બે પ્રદેશ એવા
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अनुयोगद्वारसूत्रे त्वेन विवक्षितम्, आनुपूर्वीद्रव्यस्य तत्र सत्त्वेऽपि तस्याऽभाधान्येन विवक्षणात्, अनानुपूर्व्यवक्तव्यकयोस्तु प्राधान्येन विवक्षणादिति, अतोऽत्र देशोनो लोकोत्र विवक्षितइति। उक्तंच
" महखंधापुण्णे वि य अत्तबगऽणाणुपुग्विदलवाई।।
जदेसोगाढाई तसेणं स लोगूणो" ॥१॥ छाया-महास्कन्धाऽऽपूर्णेऽपि च अवक्तव्यकाऽनानुद्रिव्याणि ।
___ यद्देशावगाढानि तदेशेन स लोकोनः ॥इति ।
ननु यद्येवं तर्हि द्रव्यानुपूर्व्यामपि सर्वलोकव्यापित्वमानुपूर्वीद्रव्यस्य यदुक्तं सद् विरुध्यते, अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामनवकाशत्वेन तत्राप्यभाव प्रतीति. ऐसे भी आ जाते हैं कि जो अवक्तव्यक द्रव्य के विषयरूप से विवक्षित हो जाते हैं । इन एक और दो प्रदेशों में आनुपूर्वी द्रव्य का भी सद्भाव रहता है तो भी अप्रधान होने से उसकी वहां विवक्षा नहीं होती है। अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक इन द्रव्यों की ही प्रधानता होने से विवक्षा की जाती है । इसलिये आनुपूर्वी द्रव्य एक आनुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा से देशोन लोक में अवगाहित कहागया है । यही बात उक्तंच"महाखंधा पुण्णेविय इत्यादि" करके इस गाथा द्वारा प्रकट की गई है। __ शंका-यदि यही बात है कि एक अनानुपूर्वी द्रव्य क्षेत्रानुपूर्वी में देशोन लोक व्यापी है फिर द्रव्यानुपूर्वी में भी यही बात माननी चाहिये. परन्तु वहां ऐसी बात नहीं मानी गई है वहां तो भानुपूर्वी द्रव्य को सर्व लोक व्यापी कहा गया है । क्षेत्रानुपूर्वी में अनानुपूर्वी द्रव्य को सर्वપણ બાકી રહેશે કે જેમાં અવક્તવ્યક દ્રવ્યને અવગ હ સંભવી શકશે તે એક અને બે પ્રદેશોમાં આનુપૂવીં દ્રવ્યનો પણ સદૂભાવ રહે છે, છતાં પણ તે ત્યાં અપ્રધાન હોવાને કારણે તેની વિવક્ષા અહીં કરી નથી અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક, આ બે દ્રવ્યની જ ત્યાં પ્રધાનતા હેવાથી તેમની જ વિવક્ષા કરવામાં આવી છે. તેથી જ એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે આનુપૂવી દ્રવ્યને એક આનુપૂર્વી દ્રથની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તેની भाना शान सभा छ. मे पातने “महाखंधा पुण्णेविय" ઈત્યાદિ સૂત્રપાઠ દ્વારા અહીં પ્રકટ કરવામાં આવી છે.
શંકા-જે એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય ક્ષેત્રાનુપૂવમાં દેશેન (દેશ ન્યૂન) લોકવ્યાપી હોય, તે દ્રવ્યાનુપૂર્વી માં પણ એવી જ વાતને સ્વીકાર થશે જોઈએ પરન્ત દ્રવ્યાનુપૂર્વમાં એવી વાતને સ્વીકાર કરવાને બદલે આનુપૂર્વી અને સર્વવ્યાપી કહેવામાં આવેલ છે. ક્ષેત્રાનુપૂર્વમાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યને
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भनुपोगचन्द्रिका टोका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम् ४६९ प्रसाद, सर्वकालं च तेषामप्यवस्थितिप्रतिपादना ? दिति चेत् ? उच्यतेद्रध्यानपूर्ण हि द्रव्याणामेवगनुपूर्यादिपाव उक्तः, न तु क्षेत्रस्य, तस्य तत्रानधि कुतत्वात् । आनुपूर्व्यादिद्रव्यागां परस्परभेदेऽपि एकस्मिन्नपि क्षेत्रे तदवस्थानं न किंचिद् विरुष्यते, यथा एकापवरकान्तर्गतानेक प्रदीपप्रमाणामवस्थिति न विरुध्यते। इत्वं च द्रव्यानुपूामानुपूर्वीद्रव्याणां समस्तलो के विद्यमानत्वेऽपि न तत्र कस्या लोक व्यापी मानने में जो आपने अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यको ठहरने के लिये स्थान होने के कारण उनमें अभाव के प्रसंग प्राप्त होने का कथन किया है, सो वही अभाव के प्रसंग प्राप्त होने के कारण उन अनानुपूर्वी" और अवक्तव्यक द्रव्योंके लिये द्रव्यानुपूर्वी में भी आनुपूर्वी द्रव्य को सर्वलोकव्यापी मानने पर उपस्थित होता है । परन्तु ऐसा तो है नहीं-क्योंकि सर्वकाल उन दोनों का भी अवस्थान माना गया है ।
उत्तर-द्रव्यानुपूर्वी में द्रव्यों के ही आनुपूर्वी आदि भाव का कथन किया गया है। आकाश रूप क्षेत्र को आनुपूर्वी आदि भाव का नहीं। क्योंकि वहां पर द्रव्यानुपूर्वी में-आकाश रूप क्षेत्र का विचार अधिकृत नहीं है । आनुपूर्वी आदि द्रव्यों का परस्पर में भेद होने पर भी उनका अवस्थान एक भी आकाश प्रदेश रूप क्षेत्र में थोड़ा सा भी विरूद्ध नहीं पड़ता है, जैसे एक कोठे के अन्तर्गत अनेक प्रदीप प्रभाओं की अवस्थिति में कोई विरोध नहीं होता है । इस प्रकार द्रमानुपूर्वी मे आनुपूर्वीद्रव्यों સર્વલકથાપી માનવામાં આવે અને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થવાને ભય બતાવે છે કે એ પ્રકારની માન્યતાને સ્વીકાર કરવામાં આવે તે અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય ને રહેવાના સ્થાનને જ અભાવ રહેવાને કારણે તે દ્રવ્યેન અભાવ માનવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે. તે આનુપૂવી દ્રવ્યને સર્વવ્યાપી માનવામાં આવે તે અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોને પણ અભાવ માનવાનું કારણ અહીં પણ ઉપસ્થિત થશે પરંતુ એવી વાત તો સંભવિત નથી, કારણ કે તે બન્નેને સદ્ભાવ સદા માનવામાં આવેલ જ છે.
ઉત્તર-દ્રવ્યાનુપૂર્વીમાં દ્રવ્યના જ આનુપૂર્વ આદિ ભાવનું કથન કરવામાં આવ્યું છે-આકાશરૂપ ક્ષેત્રના આનુપૂર્વી આદિ ભાવનું કથક થયું નથી, કારણ કે દ્રવ્યાનુપૂર્વમાં આકાશ રૂપ સેવને વિચાર અધિકૃત નથી. આનું પર આદિ દ્રવ્યને પરસ્પરમાં ભેદ હોવા છતાં પણ તેમનું અવસ્થાન એક પણ આકાશપ્રદેશ રૂપ ક્ષેત્રમાં સહેજ પણ વિરૂદ્ધ પડતું નથી જેવી રીતે એક કોઠાની અંદર પ્રદીપ (દીવા) ની પ્રભાઓની અવસ્થિતિમાં કોઈ વિરોધ પડતું નથી, એ જ પ્રમાણે દ્રવ્યાનુપૂર્વમાં આનુપૂવ કન્વેને સમસ્ત લેકમાં
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अनुयोगद्वारले प्यनाकाश इति, न कश्चिद् शेषः । क्षेत्रानुपूर्ध्या तु द्रव्याणामौपचारिक एवानु पूादिभावा, मुख्यतस्तु क्षेत्रस्यैवानुपूर्गदिभावो विवक्षितः, तम्यैवात्राधिकारान् । तस्मादत्र यदि सोऽपि लोकपदेशा आनुपूयाँ व्याप्ता भवेयुस्तहि अनानुपूर्णवक्तध्यकतया किमन्यत् क्षेत्र क्षेत्रानुपूर्वीस्यात् ।। येषु नभःप्रदेशेष्वानुपूर्व्यस्तेग्वेवामा नुपूर्व्यवक्तव्यययोरपि सद्भावः स्यादिति तु न वक्तुं शक्यते, द्रन्यावगाहभेदेन को समस्त लोक में व्यापक मानने पर भी वहां अनानुपूर्वी और अब क्तव्यक द्रव्यों के ठहरने में अनवकाश रूप दोष की आपत्ति का प्रसंग प्राप्त थोड़ा भी नहीं होता है । परन्तु क्षेत्रानुपूर्वी में जो द्रव्यों का आनुः पूर्वी आदि भाव कहा गया है वह तो औपचारिक ही हैं। क्योंकि इस क्षेत्रानुपूर्वी में क्षेत्र में, ही आनुपूर्वी आदि रूप भाव मुख्य रूप से विव. क्षित हुआ है, इसका कारण यह है कि उसका यहां अधिकार चल रहा है, इसलिये क्षेत्रानुपूर्वी में यदि सब भी लोक के प्रदेश आनुपूर्वी से व्या. त हो जावे तो फिर अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक रूप से और कौन से दूसरे प्रदेशरूपी क्षेत्र क्षेत्रानुपूर्वी रूप से व्यवहृत होंगे कि जिससे जिन आकाश के प्रदेशों में आनुपूर्वियों का सद्भाव है उन्हीं में अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकों का सद्भभाव हो सके ? नहीं हो सकेगा। अतः फिर यह कैसे कहा जा सकता है, कि जिन आकाश प्रदेशों में आनुपूर्वी का सद्भभाव है उन्होंमें अनानुपूर्वियों और अवक्तव्यकों का भी सद्भाव हैं। यदि इसपर यों कहा जावे कि इस प्रकार से मानने में कि जिन आकाश
વ્યાપક માનવા છતાં પણ ત્યાં અનાનુપૂવી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યને રહેવામાં અવકાશ રૂપ દેષની આપત્તિનો પ્રસંગ બિલકુલ પ્રાપ્ત થ નથી. પરંતુ ક્ષેત્રાનપૂર્વમાં દ્રવ્યોના જે આનુપૂર્વી આદિ ભાવ કહેવામાં આવ્યા છે તે તે ઔપચારિક જ છે, કારણ કે આ ક્ષેત્રાનપૂર્વમાં શ્રેષમાં જ અનુપૂર્વી આદિ ૫ ભાવ મુખ્ય રૂપે વિવક્ષિત થયા છે તેનું કારણ એ છે કે તેને જ અધિકાર અહીં ચાલી રહ્યો છે તેથી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીમાં જો લેકના સમસ્ત પ્રદેશો આનુપૂર્વી વડે વ્ય સ થઈ જાય, તે અન નુપૂર્વી અને અવકક દ્રવ્યોને જેમાં સદૂભાવ હોય એવાં અન્ય પ્રદેશ રૂપ ક્ષેત્રનો સમાવ જ કયાથી રહે! આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં એવું કેવી રીતે કહી શકાય કે જે આકાશપ્રદેશમાં આનુપૂવી એને સદ્ભાવ છે, એજ આકાશપ્રદેશમાં અનાનુપૂર્વ અને અવકતવ્યકેને પણ સદભાવ છેજે આ બાબતને અનુ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम्
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क्षेत्रभेदस्य विवक्षणात् । तस्मादनानुपूर्व्यवक्तव्यकयो विषयं प्रदेशप्रयं विहाय शेषप्रदेशा एवानुपूर्व्या विषयो भवतीति प्रदेशत्रयलक्षणेन देशेन लोकस्योन्ता विव क्षिता, अतः क्षेत्रानुपूर्णमेकं द्रव्यं प्रतीत्य आनुपूर्वीद्रव्य देशोने लोके भवति । प्रदेशों में आनुपूर्वी द्रव्य अवगाहित होते हैं, उन्हीं प्रदेशों में शेष दो द्रव्य भी अवगाहित होते हैं। अतः अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों से अधिष्ठित वे कुछ प्रदेश अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक रूप से कहें जावेंगे । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है कारण इस प्रकार के कथन से द्रव्य के अवगाह की भिन्नता से क्षेत्र में भेद आजाता है । जिसकी यहां विवक्षा है। ये कहने का यह है कि द्रव्यानुपूर्वी में आनुपूर्वी द्रव्यों का समस्त लोक में अवस्थान न होने पर भी अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के अवस्थान होनेपर वहां कोई दोष नहीं आता है । परन्तु क्षेत्रानुपूर्वी में यदि आनुपूर्वीद्रव्य को समस्त लोक व्यापी माना जावे अर्थात् लोक के समस्त प्रदेश आनुपूर्वी रूप मान लिये जावें तो इस स्थिति में अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक प्रदेश कौन से मानें जावें गे कि जिनमें अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य ठहर सकें । अतः यह मानना चाहिये कि इस क्षेत्रानुपूर्वी में एक प्रदेश अनानुपूर्वी क्षेत्रानुनुपूर्व का विषय है और दो प्रदेश अवक्तव्यक क्षेत्रानुपूर्वी के विषय
ક્ષીને એવી દૃઢીલ કરવામાં આવે કે “જે આકાશપ્રદેશે માં આનુપૂર્વી' દ્રવ્ય અવગાહિત ડાય છે, એજ પ્રદેશેામાં બાકીના મને દ્રવ્યે અવગાહિત હૈય છે, અને તે કારણને લીધે અનાતુપૂત્રી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યેથી અધિષ્ઠિત એવાં એજ અમુક પ્રદેશને અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક રૂપે કહી શકાશે. ”
આ પ્રકારની માન્યતા પણ ખરાખર નથી, કારણ કે આ પ્રકારની માન્યતાના સ્વીકાર કરવાથી દ્રવ્યના અવગાહની ભિન્નતાને લીધે ક્ષેત્રમાં પણ ભિન્નતા આવી જાય છે. તેની જ અહી' વવક્ષા ચાલી રહી છે આ સમસ્ત કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે દ્રવ્યાનુપૂર્વીમાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યેનું સમસ્ત લેાકમાં અવસ્થાન ઢાવા છતાં પણ અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યાનું ત્યાં અવસ્થાન માનવામાં કોઇ દ્વેષ નથી પરન્તુ ક્ષેત્રાનુપૂર્વીČમાં જે આનુપૂર્વી સમસ્ત લેકવ્યાપી માનવામાં આવે એટલે કે લેાકના સમસ્ત પ્રદેશાને જો આનુપૂર્વી રૂપ માનવામાં આવે, તે અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રગૈા જેમાં અવગાહિત થઇ શકે એવાં અનાનુપૂર્વી પ્રદેશેા કાને માનવા ? તેથી એવું જ માનવું પડશે કે આ ક્ષેત્રાનુપૂર્વી માં એકપ્રદેશ અનાનુપૂર્વા ક્ષેત્રાનુપૂર્વી ને વિષય છે અને એ પ્રદેશ અવક્તવ્યક ક્ષેત્રાનુપૂર્વી ના વિષય છે. આ
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भनुयोगद्वारसूत्रे तथा-नानाद्रव्याणि प्रतीत्य आनुपूर्वीद्रव्याणि नियमात् सर्वलोके भवन्ति । ध्यादिप्रदेशावगाढ मेदतो नानाविधैः विभिन्न प्रकारैरानुपूर्वीद्रव्यैः सर्वोऽपि कोको व्याप्त इति भावः। हैं। इस प्रकार अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को ठहरने के लिये ये तीन प्रदेश लोक के हैं । इन प्रदेशो में यद्यपि आनुपूर्वीद्रव्य भी अवगा; हित होकर रहता है-परन्तु उसकी यहां गौणता है, और शेष दो द्रव्यों की मुख्यता है, इस प्रकार अवगाहियों के भेद से अवगाहरूप आकाश में भेद आजाता है । अतः अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकद्रव्यों के विषय भूत प्रदेशत्रय को छोड़ कर बाकी के समस्त प्रदेश लोक के आनुपूर्वी रूप है । तथा एकप्रदेश अनानुपूर्वी और दो प्रदेश अवक्तव्यक है। इसी कारण तीन प्रदेशरूप देशरूप देश से न्यूनता लोक में विवक्षित की गई है। अर्थात् लोक के ये ३ प्रदेश भानुपूर्वी नहीं हैं और बाकी के समस्त प्रदेश आनुपूर्वीरूप हैं । इस प्रकार क्षेत्रानुपूर्वी में एक आनुपूर्वी द्रव्य को आश्रित करके तीन प्रदेश न्यून समस्त लोक में आनुपूर्वी द्रव्य अवगाही हैं । यह कथन सिद्ध हो जाता है। तथा (नाणाव्वाई, पडुच्च नियमा) नाना द्रव्यों की अपेक्षा लेकर समस्त भानुपूर्वी द्रव्य: नियम से सर्वलोक में अवगाही है । अर्थात् लोक के व्यादिप्रदेशों में રીતે અનાનુપૂવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યને રહેવા માટે લેકના આ ત્રણ પ્રવેશે છે. તે પ્રદેશોમાં જે કે આનુપૂવ દ્રવ્ય પણ અવગાહિત થઈને રહે છે, પરંતુ તેની ત્યાં ગણતા છે અને બાકીના બે દ્રવ્યેની પ્રધાનતા છે. આ પ્રકારે અવગાહિત દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ અવગાહરૂપ આકાશમાં પણ ભેદ આવી જાય છે. તેથી અનાનુપૂર્વ અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોના વિષય રૂ૫ ત્રણ પ્રદેશ સિવાયના લોકના બાકીના સમસ્ત પ્રદેશો આનુપૂવરૂપ છે. તથા એક પ્રદેશ અનાનુપૂર્વી રૂપ અને બે પ્રદેશ અવક્તવ્યક રૂપ છે. આ કારણે ત્રણ પ્રદેશરૂપ દેશની અપેક્ષાએ લેકમાં ન્યૂનતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. એટલે કે લેકના તે ત્ર પ્રદેશ આનુપૂવ ૨૫ નથી અને બાકીના સમસ્ત પ્રદેશે આનુપૂર્વી રૂપ છે. આ રીતે એ કથન સિદ્ધ થાય છે કે ક્ષેત્રાનપવમાં એક અનાનુપૂવી દ્રવ્યને આશ્રિત કરીને ત્રણ પ્રદેશ ન્યૂન સમસ્ત લેકમાં આનુપૂવી દ્રવ્યની અવગાહના છે.
तथा ( नाणादव्वाई पडुच्च नियमा) विविध द्रव्यानी अपेक्षा पियार કરવામાં આવે તે સમસ્ત આનુપવી દ્રવ્ય નિયમથી જ સલેકમાં અવગાહી
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भमुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम्
तथा-नैगमव्यवहारसम्मतानाम् अनानुपूर्वीद्रव्याणां पृच्छायांपने तु एवं विज्ञेयम्-एकं द्रव्य प्रतीत्य अनानुपूर्वीद्रव्यं नो संख्येयतमभागे भवति, नो संख्ये येषु भागेषु भवति, नो असंख्येयेषु भागेषु भवति, नापि च सर्वलोके भवति, किन्तु-असंख्येयतमभागे भवति । अयं भावः-एक द्रव्यमाश्रित्यानानुपूर्वीद्रव्यं स्थित आनुपूर्वी द्रव्यों के भेद से विभिन्न प्रकार के आनुपूर्वी द्रव्यों से समस्त लोक व्याप्त हैं । ( णेगमववहाराणं) नेगम व्यवहारनयसंमत (अणाणुपुत्वीदवाई ) अनानुपूर्वी द्रव्यों के (पुच्छाए ) प्रश्नों में तो इस प्रकार समझना चाहिये (एगंद) एक द्रव्य की (पडुच्च) प्रतीति करके अर्थात् एक अनानुपूर्वीद्रव्य की अपेक्षा करके (नो संखेज्जहभागे होज्जा) अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग में अवगाही नहीं हैं (नो संखेज्जेसु भागे होज्जा संख्पात भागों में अवगाही नहीं हैं(नो. असंखेज्जेसु भागेलु होज्जा असंख्यात भागों में अवगाही नहीं हैं) (नो सव्वलोए होज्जा) और न सर्वलोक मे अवगाही हैं किन्तु ( असंखेज्जइ भागे होज्जा) लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाही हैं। अयं भावः-एक आनानुपूर्वी द्रव्य को लेकर जब यह विचार किया जाता है कि अनानु. पूर्वीद्रव्य लोक के कौन से भाग में अवगाहित है? तब यह उत्तर मिलता है कि असंख्यातवें भाग में ही अवगाही है। क्योंकि अनानुपूर्वी द्रव्य (રહેલું છે. એટલે કે લેકના ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં રહેલા આનુપૂવી દ્રવ્યોના
था विभिन्न ना मानुपूर्वी द्रव्ये 43 अमरत al०यास छे. (णेगमववहाराण) नम०५१४२ नयस मत (अणाणुपुत्वी दवाण) अनानुनी द्रव्याना (पुच्छाए) प्रश्रोमा (विषयमi) तो मा प्रमाणे समान(एगं दव पडुन्च) ने मे अनानुनी दयनी अपेक्षा विया२ ३२पामा भाव, ता (नो संखिज्जहभागे होज्जा) अनानुनी द्रव्य सोना सभ्यातमा भागमा सही नथी, (नो संखेज्जेसु भागेसु होजा), उन भ्यात भागोमा ५५ अाही नथी, (नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा) असभ्यात मागीमा ५५ माडी नथी, (नो सबलोए होजा) अने समस्त awi ५६५ असी नथी, ५२.तु (असंखेज्जहभागे होज्जा) asना असभ्यातमा ભાગમાં અવગાહી છે. આ સઘળા કથનને ભાવાર્થ એ છે કે એક અનાનપૂર્વી દ્રવ્યની બાબતમાં એવો વિચાર કરવામાં આવે કે “એક અનાનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના કેટલા ભાગમાં અવગાહી છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર એ છે કે તે લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ અવગાહી છે. કારણ કે અનાનુપૂવી દ્રવ્ય
म. ६०
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मनुषोगवारले लोकस्य संख्येयतमे भाग एव वर्तते, एकप्रदेशावगाढस्यैवानानुपूर्वीत्वेन विवक्षणात, एकप्रदेशस्य च लोकाऽसंख्येयभागवर्तित्वादिति । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु अनानुपूर्वीद्रव्याणि नियमाव सर्वलोकव्यापी नि भवन्ति, एकैकमदेशावगाढद्रव्यभेदानां समस्तलोकव्यापित्वादिति भावः ।
एवम् अनानुपूर्वीद्रव्यवत् अक्तव्यकद्रव्याण्यपि भणितव्यानि वक्तव्यानि । अयं भावः-एकं द्रव्यमाश्रित्यावक्तव्यकद्रव्यमपि असंख्येयतम मागे एव भवति, द्विपदेशावगाढस्यैवावक्तव्यकद्रव्यत्वेनाभिधानात् मदेशद्वयस्य च लोकासंख्येयरूप से वही द्रव्य विवक्षित हुआ है, जो लोक के एकप्रदेश में ही-अव. गाढ होता है । लोक का एकप्रदेश लोक के असंख्यातवें भाग में रहने वाला है । इसलिये अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में ही अवगाही माना गया है । (नाणा दवाई) नाना अनानुपूर्वी द्रव्यों की(पडुरुव) अपेक्षा लेकर अनेक अनानुपूर्वी द्रव्य (णियमा) नियम से (सव्य लोए होज्जा) सर्वलोक व्यापी माने गये हैं । क्योंकि एक एकप्रदेश में अवगाढ अमानुपूर्वीद्रव्यों के भेद समस्त लोक को व्याप्त किये हुए रहते हैं। (एवं अवत्तवगव्वाणि वि भाणियवाणि ) इसी प्रकार अनानुपूर्वी द्रव्य की तरह अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी जानना चाहिये । तात्पर्य कहने का यह है कि एक अवक्तव्यक प की अपेक्षा से एक अवक्तव्यकद्रव्य भी लोक के असंख्यातवें भाग में ही अवगाही रहता है, क्योंकि लोक के प्रदेशव्य में अवगाहुए द्रव्य को अवक्तરૂપે એજ દ્રવ્ય વિવક્ષિત થયું છે કે જે લેકના એક પ્રદેશમાં જ રહેલું હોય છે. લેકિનો એક પ્રદેશ લેકના અખાતમાં ભાગમાં રહેલું હોય છે. તે કારણે અનાનુપૂવી દ્રવ્યને ઠોકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ અવગાહી માનવામાં આવ્યું છે.
(नाणादवाई पदुच्च) विविध अनानुषी द्रव्योनी अपेक्षा विकार ४२पामा भावे, त (णियमा पव्वलोए होज्जा) तो तभ२ नियमयी સર્વલેકવ્યાપી માનવામાં આવેલ છે, કારણ કે એક એક પ્રદેશમાં અવગાઢ અનાનુપૂવી દ્રવ્યોના ભેદ સમસ્ત લેકને વ્યાપ્ત કરીને રહેલાં હોય છે. ( अवत्तव्यगदव्वाणि वि भाणियव्याणि) मनानुभूती द्रव्याना २० ४यन અવક્તવ્યક દ્રવ્ય વિષે પણ અહીં ગ્રહણ કરવું જોઈએ એટલે કે એક અવતવ્યક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે એમ કહેવું જોઈએ કે એક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ અવગાહી હોય છે, કારણ કે લોકના બે પ્રદેશમાં જ અવગાહિત થયેલા દ્રવ્યને અવતાયક.
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११२ क्षेत्रप्रमाणद्वारनिरूपणम्
४७५ भागवतित्वात् । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु अबक्तव्यकद्रव्याणि सर्वलोके सन्ति, नानाद्रव्यापेक्षया द्विपदेशा गाढानामवक्तपाद्रव्याणां समस्तलोकव्यापित्वादिति भावः।
ननु-आनुपूर्वादीनि त्रीण्यपि द्रव्यागि सर्वलोकव्यापीनि पोच्यन्ते, इस्थं च येष्वाकाशप्रदेशेषु आनुपूर्वी, तेष्वेवाकाशपदेशेषु अनानुपूर्व्यवक्तव्य कद्रव्ययोरपि सद्भावः प्रतिपादितो भवति, एवं च कथमेकस्यैव क्षेत्रस्य परस्परविरुद्ध भिन्नविषयम् आनुपूर्व्यादिव्यपदेशत्रयं स्यात् ? इति चेत् , अप्रोच्यते-त्र्यादिप्रदेशावव्यक द्रव्यरूप से कहा गया है । लोक के असंख्यात प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातवें भाग रूप पड़ते हैं। इसलिये अवक्तव्यक द्रव्य को लोक के असंख्यातवें भागवर्ती माना गया है। तथा नाना अवक्तव्यकद्रव्यों की अपेक्षा से जितने भी अवक्तव्यक द्रव्य हैं, वे सब लोक के दो २ प्रदेशों में व्यापक रहने के कारण सर्वलोकव्यापी माने गये हैं।
शंका-आनुपूर्वी आदि जो द्रव्य हैं वे सब ही लोकव्यापी हैं ऐसा आप कहते हैं । सो जिन आकाश प्रदेशों में आनुपूर्वी द्रव्य रहते हैं। उन्हीं आकाश प्रदेशों में इतर दो अनानुपूर्वी अवक्तव्यक द्रव्य भी रहते हैं। यही बात इस कथन से प्रतिपादित होती है । अतः इस प्रकार के कथन से एक ही क्षेत्र में परस्पर विरुद्ध ओनुपूर्वी आदि व्यपदेशत्रय जो कि भिन्न भिन्न विषय से संबंधित है, कैसे संगत हो सकता है ? દ્રવ્ય કહેવામાં આવે છે. લેકના તે બે પ્રદેશને લેકના અસંખ્યાત પ્રદેશોની સાથે સરખાવવામાં આવે તે લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગની બરાબર જ હોય છે. તે કારણે જ એક અવક્તચેક દ્રવ્યને લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં જ રહેલું માનવામાં આવ્યું છે. વિવિધ અવક્તવ્યક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચારવામાં આવે છે તે સઘળાં અવક્તશ્યક દ્રવ્ય લેકના બબ્બે પ્રદેશમાં વ્યાપ્ત હોવાને કારણે તેમને સર્વલોકવ્યાપી માનવામાં આવ્યાં છે.
શંકા-આપે અહીં એવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે આનુપૂ આદિ જે દ્રવ્ય છે તેમાં સમસ્ત લેકવ્યાપી છે. આપના આ કથન વડે તે એવું પ્રતિપાદિત થાય છે કે જે આકાશપ્રદેશમાં આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રહે છે, એજ પ્રદેશમાં અનાનુપૂર્વી દ્રો અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય પણ રહે છે, આ પ્રકારનું કથન સંગત લાગતું નથી, કારણ કે એક જ ક્ષેત્રમાં પરસ્પરથી વિરૂદ્ધ એવાં આનુપૂવ આદિ દ્રવ્યને અવગાહ કેવી રીતે સંભવી શકે? ભિન્ન ભિન્ન વિષય સાથે સંબંધિત આ ત્રણેને એક જ ક્ષેત્રમાં કેવી રીતે સદૂભાવ હે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे गाढाद् द्रव्याद भिन्नमेव तावदेकप्रदेशावगाढम् , ताभ्यां च भिन्नं द्विपदेशार. गाढम् । इत्थं च आधेयस्यावगाहकद्रव्यस्य भेदादाधारस्याप्यवगाह्यस्य क्षेत्रस्य भेदः शंकाकार की इस शंका का भाव यह है कि एकही क्षेत्र में आनुपूर्वी अनानुपूर्वी और अवक्तपक इन तीनों की संगति कैसे हो सकती है? क्योंकि यह आनुपूर्वी आदि का भाव एक दूमरे से सर्वथा विरुद्ध है। क्योंकि इनका विषय अपना २ भिन्न २ है। यदि ये तीनों व्याप्त रूप होते तो एक क्षेत्र में घटित भी हो जाते-परन्तु ऐसे तो ये-नहीं हैं । ये तो तीनों व्यापक द्रव्य हैं । इस प्रकार जो आकाशप्रदेश आनुपूर्वी रूप से कहें जावेगें वे ही अनानुपूर्वी और अवक्तव्यकरूप से कैसे व्यपदिष्ट हो सकते हैं ? इसलिये अनानुपूर्वी आदिभाव को व्यापक मानने पर एक ही आकाशरूपक्षेत्र में आनुपूर्वी आदि व्यपदेश भिन्न विषयवोला होने के कारण परस्पर विरुद्ध पडता है।
उत्तर-आकाशरूप क्षेत्र यदि एकही माना जाता तो इस प्रकार की शंका संगत हो सकती-परन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि व्यादिप्रदेशों में अवगाढ जो आनुपूर्वीद्रव्य है उससे एक प्रदेशागाढ द्रव्य भिन्न है, और इन दोनों से द्विप्रदेशावगाढ द्रव्य भिन्न है। इस प्रकार आधेय रूप जो શકે? શંકાકારની શંકાને ભાવાર્થ એ છે કે આનુપૂવી, અનાનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોનું અસ્તિત્વ એક જ ક્ષેત્રમાં કેવી રીતે સંભવી શકે? આ આનુપૂર્વી આદિ ભાવો પરસ્પરથી બિલકુલ વિરૂદ્ધ ગુણધર્મો ધરાવે છે, તે પ્રત્યેકને વિષય પરસ્પરથી ભિન્ન ભિન્ન છે, છતાં તેમને આપ સર્વક વ્યાપી કેવી રીતે કહે છે ? જે તે ત્રણે વ્યાપ્ય રૂપ હેત તે એક ક્ષેત્રમાં તેમને સદુભાવ માની શકાત, પરંતુ તેઓ વ્યાપ્ય રૂપ નથી તે ત્રણે વ્યાપક દ્રવ્ય રૂપ છે. આ પરિસ્થિતિમાં જે આકાશપદેશને આનુપૂર્વી રૂપે ઓળખવામાં આવશે, એજ આકાશપ્રદેશને આનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક રૂપે કેવી રીતે કહી શકાશે? તેથી અનાનુપૂર્વી આદિ ભાવને વ્યાપક માનવામાં આવે તે એક જ આકાશરૂપ ક્ષેત્રમાં આનુપૂર્વી આદિ વ્યપદેશ ભિન્ન વિષયવાળ હોવાને કારણે પરસ્પરથી વિરૂદ્ધ પડે છે.
ઉત્તર-આકાશ રૂપ ક્ષેત્ર જે એક જ માનવામાં આવ્યું હેત તે આ પ્રકારની શંકા સંગત ગણું શકત. પરંતુ એવું નથી કારણ કે ત્રણ આદિ પ્રદેશોમાં અવગઢ જે આનુપૂવ દ્રવ્ય છે, તેના કરતાં એક પ્રદેશાવગાઢ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય ભિન્ન છે અને તે બનને કરતાં ટ્રિપ્રદેશાવગાઢ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય ભિન્ન છે. આ રીતે આધેય રૂપ જે અવગાહક દ્રવ્ય છે, તેના ભેદથી
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मनुवोगवनिका टीका सूत्र ११३ स्पर्शनाद्वारनिरूपणम् स्वादेव । तथा च व्यपदेश्मेदो युक्त एव । दृश्यते चानन्तधर्माभ्यासिते वस्तूनि तवत्सहकारि सन्निधानात्तत्तदर्माभिव्यक्तौ समकालं व्यपदेशमेदः, यथा खड्गाकुन्तकवादियुक्ते देवदत्ने खड्गी कुन्ती कवचीत्यादिव्यपदेशभेद इति नास्ति कश्रिद दोषः। इति क्षेत्रद्वारम् ॥५० ११२॥
अथ स्पर्शनाद्वार प्ररूपयितुमाह
मूलम्-णेगमश्वहाराणं आणुपुत्वीदवाइं लोगस्स किं संखे. ज्जइभागं फुसंति ? असंखिजइभागं फुसति ? संखेज्जे भागे फुसंति जाव सव्वलोयं फुसंति? एगं दत्वं पडुच्च संखिजइभागं वा फुप्सइ, असंखिज्जइभागं वा संखेज्जे भागे वा असंखेज्जे भागे वा देसूणं वा लोगं फुसह। नाणादब्वाइं पडुच्च णियमा सव्वलोयं फुसंति। अणाणुपुचीदव्वाइं अवत्तव्वगदवाइंघ जहा खेत्तं नवरं फुसणा भाणियव्वा ||सू०११३॥ अवगाहकद्रव्य है उसके भेद से आधाररूप अवगाह्य क्षेत्रमें भेद हो जाता ही है । इसप्रकार होने से व्यपदेश भेद वहां होना युक्त ही है । असं. गत नहीं । भिन्न २ सहकारियों की सन्निधानता से तत्तद्धर्म की अभिः व्यक्ति होनेपर अनन्त धर्मात्मक एक ही वस्तु में युगपत् व्यपदेश भेद होना देखा जाता है। जैसे खड्ग, कुन्त, कवच, आदि से युक्त एक हीदेवदत्त व्यक्ति में खड्गी, कुन्ती कवची इत्यादि व्यपदेश भेद देखा जाता है अतः अनानुपूर्ण आदि भाव को एक क्षेत्र में व्यापक माननेपर उसमें आनुपूर्वी आदिरूप से व्यपदेश निर्दोष है । ॥ सू० ११२ ॥ આધારરૂપ અવગાહ્ય ક્ષેત્રમાં ભેદ આવી જ જાય છે. આ પ્રમાણે થવાથી ત્યાં વ્યપદેશ ભેદ થવો તે યુક્ત જ લાગે છે અસંગત લાગતો નથી જુદા જુદા સહકારીઓની સન્નિધાનતા વડે તે તે ધર્મની અભિવ્યક્તિ થાય ત્યારે અનન્ત ધર્માત્મક એક જ વસ્તુમાં યુગપત્ (એક સાથે) વ્યપદેશ ભેદ થતો જોવામાં આવે છે, જેમકે ખડગ, કુન્ત, કવચ આદિ વડે યુક્ત એક જ દેવદત્ત આદિ વ્યક્તિમાં ખડ્રગી, કુતી, કવચી ઈત્યાદિ વ્યપદેટા-ભેદ જોવામાં આવે છે. તેથી અનાનુપૂવ આદિ ભાવેને એક ક્ષેત્રમાં વ્યાપક માનવામાં આવે તો તેમાં આનુ પવ આદિ રૂપે વ્યપદેશ નિર્દોષ છે. સૂટ ૧૧૨
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अनुयोगद्वारखे छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि लोकस्य किं संख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? असंख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? संख्येयान् भागान स्पृशन्ति ? यावत् सर्वलोकं स्पृशति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य संख्येयतमभागं वा स्पृशति, असंख्येयतम. भागं वा संख्येयान् भागान् वा असंख्येयान् भागान् वा देशोनं वा लोकं स्पृशति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात सर्वलोकं स्पृशन्ति । अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवकन्यकद्रव्याणि च यथाक्षेत्रं नवरं स्पर्शना भणितम्या ।।मू०११३॥
टोका-'णेगमवहाराणं' इत्यादि । नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि कि लोकस्य संख्येयतममागं स्पृशन्ति ? असंख्येयतमभागं स्पृशन्ति ? इत्येवं पूर्ववदेव प्रश्ना विज्ञेयाः । उत्तरमाह-' एग दवं' इत्यादि । एकं द्रव्यं प्रतीत्य आनुपूर्वी द्रव्यं संख्येयतमभागं वा स्पृशति, असंख्येयतमभागं वा स्पृशति, संख्येयान् वा भागान्, असंख्येयान् वा भागान् स्पृशति, देशोनं वा
अब सूत्रकार स्पर्शनाद्वार की प्रपरूणा करते हैं "णेगमववहाराणं" इत्यादि।
शब्दार्थ-प्रश्न-(णेगमवहाराणं आणुपुव्वी दवाई लोगस्स किं संखेज्जहभाग फुसंति ?) नैगमव्यवहारनय संमत समस्त आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? ( असंखेज्जहभागं फुसंति ? ) या असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? ( संखेज्जेभागे फुसति) या संख्यात भागों का स्पर्श करते हैं ? (जाव सव्वलोय फुसति) या यावत् सर्वलोक का स्पर्श करते हैं ? (एगं दव्य पडुच्च)
उत्तर-एक द्रव्य को आश्रित करके (संखिज्जइभागं वा) आनुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग को (फुसइ ) स्पर्श करता है(असंखिज्जहभागं वा) असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है (संखिज्जे
હવે સૂત્રકાર સ્પર્શનાદ્વારની પ્રરૂપણ કરે છે– “णेगमववहाराण" त्या
साथ-प्रश्न-(णेगमववहाराण आणुपुवीदवाई लोगस्स कि संखेज्जद भागं फुति, असंखिज्जइभागं फुसति, संखेज्जे भागे फुसंति, जाव सबलोयं फसंति?) नैगमव्यवहारनयमत सभरत भानुभूती द्रव्ये शु. सोना સંખ્યામાં ભાગને સ્પર્શ કરે છે? કે અસંખ્યાતમાં ભાગને સ્પર્શ કરે છે? કે સંખ્યાત ભાગોને સ્પર્શ કરે છે? કે અસંખ્યાત ભાગોનો સ્પર્શ કરે છે? કે સમસ્ત લેકિનો સ્પર્શ કરે છે?
उत्तर-(एगं व पडुच्च) से पनी अपेक्षा लिया२ ४२पामा सावेत (संखिज्जहभाग वा फुसइ) सानु द्रव्य बना सध्यातमा मागन५५५ रे छ, (असखिज्जहभागं वा) अभ्यातwi II ५५
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४७९ अनुरोगबन्द्रिका टीका सूत्र ११३ स्पर्शनादारनिरूपणम् लोकं स्पृशनि। अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्योर्निरवकाशताप्रसङ्गात् पूर्ववत् लोकस्य देशोनानुपूर्वीद्रव्यस्पर्शना बोध्येति भावः। नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु आनुपूर्वीद्रव्याणि नियमात् सर्वलोकं स्पृशन्ति । अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणां स्पर्शना तु अत्रैवाव्यव: स्तिपूर्वोक्त क्षेत्रद्वारबद् बोध्या। इति स्पर्शनाद्वारम् ।।१० ११३॥ भागे वा असंखेज्जे भागे वा) संख्यात भागों को स्पर्श करता है, असं. ख्यात भागों को स्पर्श करता है' (देमूणं वालोग फुसइ) देशोन लोक का भी स्पर्श करता है । (नाणादव्वाइं पडुच्च णियमा सव्वलोय फुसंति) नाना द्रव्यों की अपेक्षा करके तो आनुपूर्वीद्रव्य नियम से सर्वलोक का स्पर्श करते हैं (अणाणुपुत्वीदव्वाइं अवत्तव्धगदव्वाइं च जहा खेत्तं नवरं फुमणा भाणियन्वो) अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की स्पर्शना तो यहीं पर अव्यवहित पूर्वोक्त क्षेत्रद्वार की तरह जानना चाहिये ।
भावार्थ-नैगमव्यवहारनय संमत आनुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग की कोई एक लोक के असंख्यातवे भाग की कोई एक लोक के संख्यात भागों की, कोई एक असंख्यात भागों की, और कोई एक देशोन सर्वलोक की स्पर्शना करते हैं। यहां पर जो कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य को देशोन लोक की स्पर्शना करने का कथन किया है सो उसका कारण यह है कि यदि आनुपूर्वी द्रव्य समस्त लोक की स्पर्शना करें तो अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को अवकाश प्राप्ति का अभाव होगा। २५२ छ, (संखेजे भागे वा, असंखेज्जे भागे वा) सप्यात सामान पy २५. ४३ 2, असभ्यात भाजन ५५ ५५ रे छे, (देसूणं वा लोगं फुसइ) अन शान ५५ ५५ रे छे. (नाणादव्वाई पदुच्च णियमा सव्वलोय फुपति) विविध द्रव्यानी अपेक्षा पिया२ ४२वामा म., तो मानुषी' द्रव्ये। नियमयी साने ५५१२. (बणाणुपुत्वी दवाई भवत्तव्वगव्वाई व जहा खेत्तं नवरं फुसणा भाणियव्या) अनानुनी भने अतव्य द्रव्ये.नी સ્પર્શન વિષેનું કથન પૂર્વોક્ત ક્ષેત્રદ્વારના કથન મુજબ જ સમજવું જોઈએ.
ભાવાર્થ-નગમગ્યવહાર નયસંમત આનુપૂર્વી દ્રવ્યોમાંનું કંઈ એક આવી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યામાં ભાગની, કેઈ એક આનુપૂર્વા દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાત ભાગોની, કેઈ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગોની અને કેઈ એક આનુપૂવી દ્રવ્ય દેશોન સર્વલેકની સ્પર્શના કર છે. અહીં “એક આનુપૂવ દ્રવ્ય દેશોન સર્વકની સ્પર્શના કરે છે.” આ પ્રકારનું જે કથન થયું છે તેનું કારણ એ છે કે જે એક આનવી દ્રવ્ય સમસ્ત લોકની સ્પર્શના કરતું હોય, તે અનાનુપૂવ અને અવકતવ્યક
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मनुयोगद्वार अथ कालद्वारमरूपयति
मम्-णेगमववहाराणं आणुपुबीदवाई कालओ केवञ्चिरं होई ? एगं दवं पडुच्च जहन्नेणं एर्ग समयं उक्कोसेणं असं. खिजं कालं । नाणादव्वाइं पडुच्च णियमा सव्वद्धा। एवं दोणि वि ॥सू०११४॥
छाया-नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कियचिर भवन्ति ? एकं द्रव्यं प्रतोत्य जघन्येन एक समयम् , उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वाद्धा। एवं द्वे अपि॥मू० ११४॥
टीका-'णेगमववहाराणं' इत्यादि।
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? इति प्रश्नः। क्षेत्रावगाहपर्यायस्य प्राधान्यविवक्षया त्र्यादिप्रदेशावगाढद्रव्याणामेवानु. अतः इन दोनों द्रव्यों को भी अवकाश प्राप्त हो इसलिये आनुपूर्वी द्रव्य की स्पर्शना देशोन लोक की कही गई है । नानो द्रव्यों की अपेक्षा ये तीनों ही द्रव्य नियम से सर्वलोक की स्पर्शना करते हैं।॥सू० ११३॥
अब सूत्रकार कालद्वार की प्ररूपणा करते हैं"जेगमववहाराणं आणुपुव्वी" इत्यादि।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं) नैगमव्यवहारनयसंमत (आणुपुवी. दव्वाइं) समस्त आनुपूर्वी द्रव्य (कालओ) कालकी अपेक्षा (केवच्चिर होई) कितने समयतक आनुपूर्वी रूप से रहते हैं ? पूछने वाले का यह आशय है कि अनानुपूर्वी आदि द्रव्यो का क्षेत्र में व्यादि प्रदेशों में अब દ્રવ્યને સ્પર્શના કરવા માટેના સ્થાનને અવકાશ જ ન રહે. તે બન્ને દ્રવ્યની સ્પશન પણ અવકાશ મળી રહે તે માટે આનુપૂવ દ્રવ્યની સ્પર્શના સમસ્ત લેકમાં કહેવાને બદલે દેશના લોકમાં કહી છે. વિવિધ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે આનુપૂર્વી આદિ ત્રણે દ્રવ્ય નિયમથી જ સર્વલકની સ્પર્શના કરે છે. સૂઃ૧૧૩
હવે સૂત્રકાર કાળદ્વારની પ્રરૂપણ કરે છે"णेगमववहाराण आणुपुव्वी" त्याह
महाय-(णेगमववहाराण) नामव्य१७२ नयभत (भाणुपुव्वीदवाई) सभरत भानुभूती द्रव्ये (कालओ) जनी अपेक्षाये (केवच्चिरं होई ?) है। સમય સુધી આનુપૂવ રૂપે રહે છે? એટલે કે આનુપૂર્વા દ્રવ્યોને ક્ષેત્રમાં– ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં અવગાહિત થઈને રહેવાને કાળ કેટલો છે? કારણ કે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११४ कालद्वारनिरूपणम्
४८१
पूपदिभावः पूर्वमुक्तः तेषामानुपूर्व्यादिद्रव्याणामवगाहस्थितिकालः क्रियान् भवतीति प्रादुराशयः । उत्तरमाह-' एगं दव्वं ' इत्यादि । एकं द्रव्यं प्रतीत्य कालतः= कालमाश्रित्य आनुपूर्वीद्रव्यं जघन्येन एकं समयं वर्तते । इह द्विपदेशावगाढस्य वा एक प्रदेशावगाढस्य वा द्रव्यस्य परिणाम वैचित्र्यात् प्रदेशत्रयाद्यवगाहभवने आनु पूर्वीद्रव्य प्रदेशः संजातः । एकं समयं तद्भावेन स्थित्वा पुनः पूर्ववदेव द्विपदेशाव गाढमेकप्रदेशावगाढं वा तद् द्रव्यं संजातम्, अतो जघन्यत आनुपूर्वीद्रव्याणामेकं समयमवस्थिति बध्येति भावः । तथा उत्कर्षेण असंख्येयं कालं भवति । अयं गाइ रूप से रहने का समय कितना है ? क्यों कि यह पहिले कहा जा चुका है कि क्षेत्र में अवगाह पर्याय की प्रधानता रूप से विवक्षा है । और इसलिये व्यादि प्रदेशों में अवगाढ हुए द्रव्यों में ही आनुपूर्वी आदि भाव का कथन क्षेत्रानुपूर्वी में किया गया है। अतः पूछने वाले ने यहाँ यह पूछा है कि वे आनुपूर्वी आदि द्रव्य ज्यादि प्रदेश रूप क्षेत्र में कितने समय तक आनुपूर्वी आदि रूप से अवगाहित रहते हैं ?
उत्तर- ( एगं) एक द्रव्य की (पडुच्च) अपेक्षा लेकर ( जहन्नेणं) कम से कम ( एगं समयं ) एकसमय तक और (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट ज्यादा से ज्यादा (असंखिज्जं कालं) असंख्यात काल तक एक आनुपूर्वीद्रव्य क्षेत्र में अवगाहित रहता है। तात्पर्य कहने का यह है कि द्विप्रदेश में अबगाहित या एक प्रदेश में अवगाहित हुआ द्रव्य परिणमन की विधिता से जब प्रदेश आदि में अवगाहित होता है उस समय उसमें आ
એ વાત તે પહેલાં જ પ્રટ કરવામાં આવી ચુકી છે કે ક્ષેત્રમાં અવગા પર્યાયની પ્રધાન રૂપે વિવક્ષા છે. અને તેથી જ ત્રણ આફ્રિ પ્રદેશેામાં અવગાહિત થયેલાં દ્રામાં જ આનુપૂર્વી આદિ ભાવનું કથન ક્ષેત્રાનુપૂર્વી માં કરવામાં આવ્યું છે. તેથી મહીં પ્રશ્નકર્તાને એવા પ્રશ્ન છે કે તે આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્ય ત્રણ આદિ પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્રમાં કેટલા સમય સુધી આનુપૂર્વી આદિ રૂપે અવગાહિત રહે છે?
उत्तर- (एगं दव्वं पड़ुच्च) श्रे४ द्रव्यनी अपेक्षा वियार श्वामां आवे ते (जहण एगं समयं ) मे मानुपूर्वी द्रव्य सोछामा ओछा श्रेष्ठ समय सुधी भने (उकोसेणं असंदिज्जं कालं ) पधारेभां पधारे असंख्यात आण સુધી ક્ષેત્રમાં અવગાહિત રહે છે. આ કથનને ભાવાથ' નીચે પ્રમાણે છે-એ પ્રદેશામાં અવગાહિત થયેલું અથવા એક પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલુ. મુખ્ય પરિણમનની વિચિત્રતાથી જ્યારે ત્રણ આદિ પ્રદેશામાં અવગાહિત થાય છે,
म० ६१
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भनु योग्यारस्त्रे भावः-यदा तदेव द्रव्यमसंख्येयं कालं तनावेन स्थित्वा पुनस्तथैव हिरदेवारगाढमेकप्रदेशावगाढं वा जायते तदाऽऽनुपूर्वीदव्यस्य उत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं स्थितिर्भवति । अनन्तं कालं तु स्थिति न भवति, एकपदेशावगाढस्यैकद्रव्यस्य उत्कर्षतोऽसंख्येयकालमेवावस्थानात् । तथानानाद्रव्याणि प्रतीत्य जानुपूर्वीद्रव्याणि नियमात् सर्वोदासर्वकालमेव भवन्ति-वर्तन्ते इत्यर्थः ज्यादिप्रदेशावगादद्रष्य. नुपूर्वी ऐसा व्यपदेश हो जाता है । सो वह द्रव्य एक समय तक आनु. पूर्वी रूप से वहां अवगाहित रहकर बाद में पहिले की तरह ही या तो विप्रदेश में अवगाहित हो जाता है या एक प्रदेश में अवगाहित हो जाता है इसलिये आनुपूर्वी द्रव्यों की व्यादि प्रदेशों में रहने की स्थिति एक समय की कही गई है। इसी प्रकार से जप आनुपूर्वी द्रव्यअसंख्यात काल तक तद्भाव से स्थित रहकर पुनः विप्रदेशावगाही पन जाता है तब आनुपूर्वी द्रव्य की उत्कृष्ट रूप से असंख्यात काल की स्थिति होती है ऐसा जानना चाहिये । अनन्त काल तक वहाँ पर रहने की, उसकी स्थिति नहीं होती है। क्योंकि एक अवगाहमें एक द्रन्प असं. ख्यात काल तक ही ज्यादा से ज्यादा रह सकता है। तथा (णाणा. दव्वाइपडुच्च) अनेक आनुपूर्वी द्रन्यों की अपेक्षा से आनुपूर्वीद्रव्यों का अवस्थान (णियमा सम्वद्धा) नियम से मार्वकालिक है।अर्थात् ત્યારે તેમાં “આનુપૂવ' પદને વ્યપદેશ થાય છે-તેને આનુપૂવ રૂપે કહી શકાય છે. તે દ્રવ્ય ઓછામાં ઓછું એક સમય સુધી ત્યાં આનુપૂર્વ રપે અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ પહેલાની જેમ જ બે પ્રદેશમાં કે એક પ્રદેશમાં અવગાહિત થઈ જાય છે. તેથી આનુપૂર્વી દ્રવ્યોની ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં રહેવાની જધન્ય સ્થિતિ એક સમયની કહી છે. એ જ પ્રમાણે આનુપૂવી દ્રવ્ય અસંખ્યાત કાળ સુધી આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપે અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ બે પ્રદેશાવાહી કે એક પ્રદેશાવગાહી બની જાય છે. આ પ્રકાર આનુપૂર્વી દ્રવ્યની આનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપે રહેવાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અસંખ્યાત કાળની થઈ જાય છે. તે અનંત કાળ સુધી ત્યાં આનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપે રહી શકતું નથી, કારણ કે એક દ્રવ્ય એક અવગાહમાં વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ સુધી જ રહી શકે છે.
तथा (णाणादवाई पदुख्य) भने, भानुको द्रव्या.ी अपेक्षा વિચાર કરવામાં આવે, તે આનુપૂર્વી દ્રવ્યોની આનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપે રહે. पानी स्थिति (णियमा सम्बद्धा) नियमयी सापति की है. मेर
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११४ कालद्वारनिरूपणम् मेदानां सर्वदैवावस्थानात् । एवं द्वे अपि । अयं भावः-यदा एकं द्रव्यमेकस्मिन् प्रदेशेऽत्रगाढमेकं समयं स्थित्वा ततो द्वयादिपदेशावगाढं भवति, तदा अनानुपूर्वीद्रव्यस्य जघन्यत एक समयं स्थितिः। यदा तु तदेवासंख्यातं कालं तद्रूपेण स्थित्वा सतो चादिनदेशावगाढं भवति, तदा-उत्कर्षतोऽसंख्येयोऽवगाहस्थितिकालः। श्यादिप्रदेशों में अवगाढ आनुपूर्वीद्रव्यों के जो भेद हैं उनका अवस्थान सर्वदा ही रहता है । (एवं दोण्णिवि) इसी प्रकार से जब एक अनानुपूर्वी द्रव्य एक प्रदेश में एक समय तक अवगाढ रहकर बाद में व्यादिप्रदेशों में अवगाढ हो जाता है तब उस अनानुपूर्वी द्रव्य की जघन्य से एक समय की स्थिति मानी जाती है। तथा जब वही अनानुपूर्वीद्रव्य असं. ख्यात समय तक अनानुपूर्वी द्रव्यरूप से एक प्रदेश में अवगाढ रहकर बाद में व्यादि प्रदेशों में अवगाढ-स्थित-हो जाता है तब उस्कृष्ट से असंख्यात काल तक ही उस अनानुपूर्वीद्रव्यकी उस एक प्रदेश में रहने की स्थिति मानी जाती है, तथा अनेक अनानुपूर्वी द्रव्योंकी अपेक्षा अनावपूर्वी द्रव्यों की स्थिति का काल एकप्रदेश में अवगाढ हुए अनानुपूर्वी द्रव्यके भेदों का सर्वदा ही सद्भाव होने से सार्वकालिक माना गया है। विप्रदेश में अवगाढ अवक्तव्यकद्रव्य का एक समय के बाद एक प्रदेश में अथवा व्यादि प्रदेशों में अवगाहित हो जाने पर जघन्य से अवगाह ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં અવગાહિત જે આનુપૂર્વી દ્રવ્યના ભેદે છે તેમનું अस्तित्व सहा २ छ । (एव दोणि वि) से प्रभार से मनानुपूवी દ્રવ્યની જઘન્ય સ્થિતિ પણ એક સમયની કહી છે. એટલે કે એક અનાનુપૂવી દ્રવ્ય એછામાં ઓછું એક સમય સુધી એક પ્રદેશમાં અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ બે આદિ પ્રદેશમાં અવગાહિત થઈ જાય છે. તેથી જ એક અનાનુપૂવી દ્રવ્યની જઘન્ય સ્થિતિ એક સમયની કહી છે. પરંતુ જ્યારે એજ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય અસંખ્યાત સમય સુધી એક પ્રદેશમાં અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ બે આદિ પ્રદેશમાં અવગાઢ સ્થિત) થઈ જાય છે, ત્યારે તે અનાનપૂર્વી દ્રવ્યની તે એક પ્રદેશમાં રહેવાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અસંખ્યાત કાળની મનાય છે. જે અનેક અનાનુપૂવી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે અનેક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોની સ્થિતિને કાળ એક પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલા અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યના ભેદને સર્વદા સદ્દભાવ હોવાથી સાર્વકાલિક માનવામાં આવ્યા છે.
બે પ્રદેશમાં અવગાઢ (સ્થિત) અવક્તવ્યક દ્રવ્ય એક સમય પછી એક કેસમાં અથવા ત્રણ આદિ પ્રદેશોમાં અવગાહિત થઈ જાય, તે જઘન્યનો
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अनुयोगद्वारसूत्रे
नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु सर्वकालम्, एक प्रदेशावगाढद्रव्य भेदानां सर्वदैव सद्भावात् । अवक्तव्यकद्रव्यस्य तु द्विमदेशावगाढस्य समयादूर्ध्वमेकस्मिन् प्रदेशे त्र्यादिषु वा प्रदेशेष्ववगाहप्रतिपत्तौ जघन्यत एकः समयोऽवगाहस्थितिकालः असंख्येयकाला द्विपदेशावगाई परित्यजतस्तस्यावक्तव्यकद्रव्यस्य उत्कर्षवोऽसंख्येयोsaगाहस्थितिकालः सिध्यति । नाना द्रव्याण्याश्रित्य तु सर्वकालं, द्विप्रदेशावगाढद्रव्यभेदानां सदैव सद्भावादिति । समान वक्तव्यत्वादाह - एवं दोणि त्रि'- त्ति एवं द्वे अपि बोध्ये ||० ११४ ॥
४८४
स्थिति का काल एक समय है । तथा असंख्यात काल के बाद विप्रदेशों में अपने अवगाह को छोड़ने वाले उस अवक्तव्यकद्रव्य का उत्कृष्ट रूप से अवगाह स्थिति का काल असंख्यातकाल हैं। तथा नाना अवक्तव्यक यों की अपेक्षा द्विप्रदेश में अवगाढ अवक्तव्यक द्रव्य के भेदों का सर्वदा ही सद्भाव रहने के कारण उनका अवगाह-स्थितिका काळ सर्वकाल माना गया है। इसप्रकार आनुपूर्वी द्रव्य की तरह इन दोनों द्रव्य की अवगाह-स्थिति का समय जानना चाहिये ।
भावार्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने यह स्पष्ट किया है कि अनुपूर्वी आदि द्रव्य त्र्यादि प्रदेशरूप क्षेत्र में अपने २ रूप में कब तक स्थित रहते हैं। इन बातों का उत्तर उन्होंने एक द्रव्य और अनेक द्रव्य को आश्रित करके दिया है। जिसका निष्कर्षार्थ यह है कि आनुपूर्वी द्रव्य ज्यादि प्रदेशों में एक समय तक स्थित रहकर यदि एक या द्विप्रदेश અપેક્ષાએ તેની અવાહસ્થિતિને કાળ એક સમયના કહ્યો છે. તથા અસં. ખ્યાત કાળ બાદ એ પ્રદેશેામાંના પેાતાના અવગાહને છેડનારા તે અવક્તવ્યક દ્રવ્યની વધારેમાં વધારે અવગાહસ્થિતિ અસંખ્યાતકાળની કહી છે. તથા અનેક અવક્તવ્યક દ્રવ્યાની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે એ પ્રદેશામાં અવગાઢ અવક્તવ્યક દ્રન્યાના ભેદોના સદા સદૂભાવ જ રહેવાને કારણે તેમની અવગાહસ્થિતિ સાવ કાલિક માનવામાં આવી છે. આ પ્રકારે આ બન્ને દ્રવ્યની અવગાહસ્થિતિને કાળ આનુપૂર્વી દ્રવ્યે ની અવગાહસ્થિતિ કાળ પ્રમાણે જ સમજવા જોઇએ.
ભાવાર્થ –આ સૂત્રમાં સૂત્રકારે એ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યે ત્રણ આદિ પ્રદેશેારૂપ ક્ષેત્રમાં પોતપાતાના મૂળ રૂપે કેટલા કાળ સુધી અસ્તિત્વમાં રહે છે? આ વાતના ઉત્તર સૂત્રકારે એક દ્રવ્ય અને અનેક ચૈાને અનુલક્ષીને આપ્યા છે. આ સમસ્ત સૂત્રના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે-આનુપૂર્વી' દ્રશ્ય ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં એક સમય સુધી આનુપૂર્વી દ્રષ્ય
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बनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र ११५ अन्तरद्वारनेरूपणम्
अथान्तरद्वारं प्रतिपादयितुमाह
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदवाणमंतरं कालओ केवञ्चिरं होई ? तिण्हपि एगं दवं पडुच्च जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, नाणादव्वाइं पडुच्च णत्थि अंतरं ॥सू० ११५॥ में प्रवाहित हो जाता है तो वहां पर एक अनानुपूर्वी द्रव्य की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य का स्थिति काल माना जाता है । और यही एक आनुपू. द्रिव्य उन व्यादि प्रदेशों में असंख्यात काल तक अवगाहित रहकर बाद में एकप्रदेश या दो प्रदेश में अवगाहित हो जाता है तो इस स्थिति में इसका समय असंख्यात काल का माना जाता है। यह संख्यान कोल का समय उत्कृष्ट है । और एक समय का काल जघन्य है, नाना मानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा से यह समय सर्वदा का है क्योंकि व्यादि में ऐसा कोई सा भी समय नहीं है कि जिसमें कोई न कोई आनुपूर्वी द्रव्य का भेद अवगाहित न हो। इसी प्रकार से अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी ऐसा ही वक्तव्य निर्धारित कर लेना चाहिये ॥ मू० ११४ ॥
રૂપે સ્થિત રહીને જે એક પ્રદેશમાં અથવા બે પ્રદેશમાં અવગાહિત થઈ જાય છે, તે એ પરિસ્થિતિમાં એક આનુપૂર દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી દ્રવ્યને સ્થિતિકાળ એક સમયને ગણાય છે. પરંતુ એ જ આનુપૂવી દ્રવ્ય જે તે ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં અસંખ્યાત કાળ સુધી અવગાહિત રહીને ત્યાર બાદ એક પ્રદેશમાં અથવા બે પ્રદેશમાં અવગાહિત થઈ જાય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તેને સ્થિતિકાળ અસંખ્યાતકાળને માનવામાં આવે છે આ અસંખ્યાતકાળના સમયને તેને ઉકૃષ્ટ કાળ સમજ અને એક સમયના પૂર્વોકત કાળને તેને જઘન્ય કાળ સમજો. અનેક આનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે છે તે સમય સાર્વકાલિક છે, કારણ કે ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં એવો કઈ પણ સમય નથી કે જેમાં કઈને કઈ આનુપૂવી દ્રવ્યને ભેદ અવગાહિત ન હોય અનાનુપૂવ અને અવક્તવ્યક
ના એક અને બે પ્રદેશોમાં રહેવાના કાળના સંબંધમાં પણ આનુપૂવી દ્રના કાળના જેવું જ કથન સમજવું સૂ૦૧૧૪.
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૪૮૬
अनुयोगद्वार
छाया - नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतः कियच्चिरं मवति ? त्रयाणामपि एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् ||० ११५ ॥
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1
टीका – 'गमत्रवहाराणं' इत्यादि । नैगमव्यवहारसम्मतानामानुपूर्वीद्रण्याणाम् अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? इति शिष्य मश्नः । उत्तरमाह-'तिष्हं पि' इत्यादि । त्रयाणाम् = आनुपूर्व्यनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणाम् एकं समयं प्रतीत्य जघन्येन एकं समयमन्तरम् | उत्कर्षेण असंख्येयं कालमन्तरम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्ति अन्तरम् । प्रश्नकोटौ आनुपूर्वीद्रव्याण्याश्रित्य प्रश्नः क्रियते अब सूत्रकार अन्तरद्वार का प्रतिपादन करते हैं
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'गमववहाराणं " इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( गमववहाराणं) नैगम व्यवहारसंमत ( आणुपुत्रीदव्वाणं) आनुपूर्वी द्रव्यों का ( अंतरं) अन्तर-व्यवधान - (कालओ) कालकी अपेक्षा (कियच्चिरं होई) कितने समय का होता है ?
उत्तर- (तिरहं पि एवं दब्बं पडुच्च) आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी, और अवक्तव्यक इन द्रव्यों के एक समय को आश्रित करके ( जहन्ने णं ) जघन्य से (एकं समयं ) एक समयका अंतर है ( उक्को सेणं) उत्कृष्ट से (असंखेज्जं कालं) असंख्यातकाल का अंतर है। (नाणा दव्वाइं पडुच्च) तथा नाना द्रव्यों की अपेक्षा करके (णस्थि अंतरं) कोई अन्तर नहीं है। शंका- प्रश्न कोटि में आनुपूर्वी द्रव्यों को आश्रित कर के प्रश्न किया गया
હવે સૂત્રકાર અન્તરદ્વારનું નિરૂપણ કરે છે—
66
गमत्रवहाराण " त्याहि
शब्दार्थ - (गमत्रवहाराण) नैगभव्यवहार नयस'भत ( आणुपुत्र्वी वाणं) स्मानुपूर्वी द्रव्येोनुं (अन्तरं) अन्तर ( व्यवधान, आंतरे | ) ( कालओ क्रियच्चि હો) કાળની અપેક્ષાએ કેટલા સમયનું હોય છે ?
उत्तर- (तिह एग दव्वं पडुच्च) भानुपूर्वी, मनानुपूर्वी याने અવક્તવ્યક આ ત્રણેના એક એક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચારકરવામાં આવે તે ( जहणं एक्कं समय) मे.छामां मधु मे समयनुं भने (उको हेणं असंखेज्ज' कालं) उत्पॄष्टथी असभ्यात भजनुं यांतर होय ग्यानेड द्रव्यांनी यापेक्षाचे विचार अश्वामां રાઈ અન્તર નથી.
શક્રા-પ્રશ્નમાં તા માનુપૂર્વા દ્રવ્યે
. ( नाणादव्बाई पडुरुच ) आवे तो ( णत्थि अंवर)
વિષે પ્રશ્ન પૂછ્યામાં આગે છે.
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योगमा टीका सूत्र ११५ अन्तरवारनिरूपणम्
४८७ परन्त बयानामपि द्रव्याणां समानान्तरत्वेन प्रतिपातया उत्तरकोटौ तिण्हं पि' इति प्रोक्तम् । अस्य द्वारस्यायं भावा-यदा ज्यादिनदेशावगाढं किमप्यानुपूर्वीद्रव्यम् एकस्माद् विवक्षितक्षेत्रात् समयमेकम् अन्यत् क्षेत्रमवगाह्य पुनरपि केवलम् , अन्यद्रव्यसंयुक्तं वा भूत्वा तमेव विवक्षितव्याधाकाशप्रदेशम् अवगाहते, तदैकानुपूर्वी द्रव्यस्य समयमेकं जघन्यतोऽन्तरकालो बोध्यः । तथा-तदेव द्रव्यं यदाऽन्येषु क्षेत्रप्रदेशेष असंख्येयं कालं परिभ्रम्य केवलम् , अन्यद्रव्यसंयुक्तं वा भूत्वा प्रथममेव क्षेत्रप्रदेश मवगाहते, तदा उत्कृष्टतोऽसंख्येयं कालमन्तरं भवति । न च पुनहै, परन्तु उत्तरकोटि में "तिण्हं पि" तीनों द्रव्यों को क्यों पकड़ा गया है ?
उत्तर-इसका कारण यह है कि इन तीनों द्रव्यों का अन्तर समान है। इस द्वार का भाव इस प्रकार से है-जिन समप कोई एक व्यादि प्रदेशावगाढ आनुपूर्वी द्रव्य किसी एक विवक्षित क्षेत्र से एक समय तक किसी दूसरे क्षेत्र में अवगाहित होकर पुनः अकेला या किसी दूसरे द्रव्य से संयुक्त होकर उसी विवक्षित व्यशदि आकाशरूप प्रदेश में अवगाढ होता है तो उस समय उस एक आनुपूर्वी द्रव्य का अन्तर काल-विरहकाल जघन्य से एक समय का है-ऐसा जानना चाहिये। तथा जब वही द्रव्य अन्य क्षेत्र प्रदेशो में असंख्पातकाल तक घूमकर केवल या अन्य द्रव्यों से संयुक्त होकर पहिले के ही अवगाहित प्रथम क्षेत्र प्रदेश में अवगाहित होता है तब विरहकाल उत्कृष्ट से असंख्यात પરતુ ઉત્તર રૂપે તે ત્રણે દ્રવ્યની વાત કરવામાં આવી છે તેનું કારણ શું છે? ઉત્તર-તે ત્રણે દ્રવ્યનું અત્તર સમાન હવાથી ત્રણે દ્રવ્યના અતરની વાત સાથે જ કરવામાં આવી છે.
ઉત્તર–આ અન્તરદ્વારનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–આ સૂત્રમાં અન્તર એટલે વિરહકાળ ગ્રહણ કરવો જોઈએ કે એક ત્રણ આદિ પ્રદેશાવગઢ આનુપૂવી દ્રવ્ય કેઈ એક વિવક્ષિત (અમુક) ક્ષેત્રમાંથી નીકળીને એક સમય સુધી કઈ બીજા ક્ષેત્રમાં અવગાહિત થઈને ફરીથી પિતે એકલું અથવા કોઈ અન્ય દ્રવ્યની સાથે સંયુક્ત થઈને એજ વિવક્ષિત ત્રણ આદિ આકાશ રૂપ પ્રદેશોમાં અવગાઢ થાય, તે તે પરિસ્થિતિમાં તે એક આનુવી દ્રવ્યનું અંતર કાળની અપેક્ષાએ (વિરહાકાળ) એક સમયનું ગણાય છે, આ અતરને કાળની અપે. શ્રાએ જવન્ય અતર સમજવું તથા એજ દ્રવ્ય અન્ય ક્ષેત્ર પ્રદેશોમાં અસં.
ખ્યાતકાળ સુધી ફરીને પોતે એકલું અથવા અન્ય દ્રવ્ય સાથે સંયુક્ત થઈને પહેલાં જે ક્ષેત્રમાં અવગાહિત થયું હતું એજ ક્ષેત્રમાં અવગાહિત થઈ જય, તે તે પરિસ્થિતિમાં તેને ઉત્કૃષ્ટ વિરહકાળ અસંખ્યાતકાળને ગણાય
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अनुयोगवा द्रव्यानुपूर्व्यामिव अनन्त कालमन्तरं भवति, यतो द्रव्यानुपूज्या विवक्षितद्रव्यादन्ये द्रव्यविशेषा अनन्ता भवन्ति । तैश्च सह क्रमेण तस्य संयोगे पुनःस्वरूप प्राप्तौ अनन्तं कालमन्तरं भवति । अत्र तु विवक्षितावगाहक्षेत्रादन्यत क्षेत्रमसंख्येयमेव । पतिस्थान च अवगाहनामाश्रित्य असंख्येयकालं संयोगस्थितिः। ततथासंख्येये क्षेत्रे परिभ्रमद् द्रव्यं पुनरपि केवलम् , अन्यसंयुक्त वाऽसंख्येयकालानन्तरं तस्मिन् विवक्षितप्रदेश एवावगाहनां कुर्यात् ।। काल का माना जाता है। जिस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी में विरहकाल माना गया है उस प्रकार से यहां विरहकाल अनन्त कालका नहीं माना गया है। क्यों कि द्रव्यानुपूर्वी में विवक्षित द्रव्य से दूसरे जो द्रव्य है वे अनन्त हैं। अतः उनके साथ क्रम क्रम से उसका संयोग होने पर फिर से अपने स्वरूप की प्राप्ति में उसे अनन्त काल लग जाता है। इस प्रकार पुनः स्वरूप प्राप्ति में अन्तर अनंत काल का सध जाता है। परन्तु यहां विवक्षित-अवगाह क्षेत्र से अन्य क्षेत्र असंख्यातप्रदेश प्रमाण ही है, अनंत प्रदेश प्रमाण नहीं । इसलिये प्रतिस्थान में, अवगाहना को आश्रित करके जो उसकी संयोग स्थिति है वह असंख्यातकाल की है। अतः विवक्षित प्रदेश से अन्य असंख्यात क्षेत्र में परिभ्रमण करता हुआ द्रव्य पुन: उसी विवक्षित प्रदेश में अन्य द्रव्य से संयुक्त होकर या एकाकी ही असंख्यातकाल के बाद अवगाहित हो जाता है। છે. અહીં એ વાત ધ્યાનમાં રાખવા જેવી છે કે દ્રવ્યાનુપૂવીમાં ઉત્કૃષ્ટ (વધારેમાં વધારે) અનન્ત કાળને વિરહકાળ કહ્યો છે, પરંતુ ક્ષેત્રાનુપૂર્વમાં ઉત્કૃષ્ટ વિરહકાળ અનન્તકાળને કહેવાને બદલે અસંખ્યાતકાળને કહ્યો છે. તેનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે
દ્રવ્યાનવીમાં વિવણિત દ્રવ્ય સિવાયના જે અન્ય દ્રવ્યો છે તે અનંત છે. તેથી તેમની સાથે તેને ક્રમશઃ સંગ થઈને ફરીથી પોતાના સ્વરૂપની પ્રાપ્તિ થવામાં તેને અનંતકાળનું અન્તર પડી જાય છે. આ પ્રકારે પુન: સ્વરૂપ પ્રાપ્તિમાં અનન્તકાળનું અન્તર પડવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. પરંતુ અહીં (ક્ષેત્રાનુપૂર્વી માં) વિવક્ષિત અવગાહક્ષેત્ર સિવાયનાં અન્ય ક્ષેત્રે તે અસંખ્યાતપ્રદેશ પ્રમાણે જ છે-અનંત પ્રદેશ પ્રમાણ નથી તેથી પ્રત્યેક સ્થાનમાં અવગાહનાને આશ્રિત કરીને જે તેની સંયોગસ્થિતિ છે, તે અસં. ખાતકાળની જ છે તેથી કઈ વિવસિત પ્રદેશમાંથી નીકળીને અન્ય અસંખ્યાત ક્ષેત્રોમાં પરિભ્રમણ કરીને તે દ્રવ્ય પિતે એકલું અથવા અન્ય દ્રવ્યની સાથે સંયત થઈને તે વિવસિત પ્રદેશમાં અસંખ્યાતકાળ વ્યતીત થયા બાદ જ અવગતિ થઈ જાય છે,
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गोपचन्द्रिका टीका सूत्र ११५ भन्तरवारनिरूपणम्
नतु भवत्वसंख्येयः प्रदेशः, परन्तु तौर प्रदेशे द्रव्यस्य पुनः पुनः परिभ्रमणेन अनन्तकालगन्तर्यमपि प्राप्यते, तदेव कथमनन्तकालमन्तरं नोच्यते इति चेद, उच्यते, विवक्षितपदेशादसंख्येयपदेशे क्षेत्रेऽसंख्येयकालमेव द्रव्यं परिभ्रमति, तदनन्तरं पुनर्विवक्षितक्षेत्र एव तद् द्रव्यं नियमादागग्छति, वस्तुस्थितिस्वाभा. ध्यादिति । अतो नास्ति कश्चिदोषः । यद्वा ज्यादि प्रदेशलक्षणाद् विवक्षितक्षेत्रात तदानुपूर्वीद्रव्यमन्यप्रगतं, ततस्तत् क्षेत्रम् असंख्येयकालार्ध्व स्वभावादेव तेनैव आनुपूर्वीद्रव्येण, वर्णगन्धरसस्पर्श संख्यादिधर्मैः सर्वथा तुल्येन अन्येन वा आनुपूर्वी__ शंका-अवगाहना क्षेत्र से अन्यक्षेत्र भले ही असंख्यातप्रदेशपाला हो-इस में कोई बाधा नहीं है। परन्तु उसी प्रदेशों में पार २ परिभ्रमण करने से द्रव्य को इस परिभ्रमण में अनन्त काल का भी अन्तर लग सकता है। अतः सत्रकारने यहां अनन्तकाल का अन्तर क्यों नहीं कहा?
उत्तर-विवक्षित प्रदेशरूप क्षेत्र से अन्य असंख्यात प्रदेशासप क्षेत्र में द्रव्य का परिभ्रमण असंख्यातकाल तक ही होता है। इसके बाद वह द्रव्य नियम से फिर विवक्षित क्षेत्र में ही आजाता है। क्यों कि ऐसा ही वस्तुस्थिति का स्वभाव है। अथवा-जब ज्यादि प्रदेशस्प विवक्षित क्षेत्र से वह भानुपूर्वी द्रव्य अन्य प्रदेश में चला जाता है' पाद में वह क्षेत्र स्वभाव से ही असंख्यातकाल के पश्चात् उसी आनु. पूर्वी द्रव्य से या वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, एवं संख्या आदि धर्मों से
શંકા-અવગાહના ક્ષેત્ર સિવાયનું જે અન્ય ક્ષેત્ર છે તે ભલે અખાત પ્રદેશોવાળું હોય તે વાત માનવામાં અમને કોઈ વાંધો નથી પરનું એજ પ્રદેશોમાં વારંવાર પરિભ્રમણ કરવામાં તે દ્રષ્યને અનન્તકાળનું અન્તર પર લાગી શકે છે. છતાં સૂત્રકારે અહીં અનન્તકાળના અન્તરને બદલે અસં. ખ્યાતકાળનું અન્તર શા માટે કહ્યું છે ?
ઉત્તર-વિવક્ષિત પ્રદેશરૂપ ક્ષેત્રમાંથી નીકળીને અન્ય અસંખ્યાત પ્રદેશ રૂ૫ રેત્રમાં દ્રવ્યનું પરિભ્રમણ અસંખ્યાત કાળ સુધી જ થાય છે. ત્યાર બાદ તે દ્રવ્ય નિયમથી જ તે વિવક્ષિત ક્ષેત્રમાં જ આવી જાય છે, કારણ કે તેને બે જ સ્વભાવ છે.
અથવા-ત્રણ આદિ પ્રદેશ રૂપ કેઈ વિવક્ષિત ક્ષેત્રમાંથી નીકળીને તે આપવ દ્રવ્ય અન્ય પ્રદેશમાં ચાલ્યું જાય છે, અને ત્યારબાદ તે ક્ષેત્ર સ્વભાવથી જ અસંખ્યાતકાળ બાદ એજ આવી દ્રવ્ય સાથે, અથવા ',
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भनुपोगवारपणे द्रव्येण संयुज्यते इति नियमात् असंख्येयकामोत्तरं तथाविधानुद्रिव्येण तरक्षेत्र संयुज्यते एवेति असंख्येयकालमेव अन्तरं भवतीति नास्ति कवि दोषः । तथानानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । व्यादिप्रदेशावगाढानि सर्वाण्यपि आनपूर्वीद्रव्याणि युगपत् स्वभावं विहाय पुनस्तथैव जायन्ते इति तु न कदाचिदपि संभवति, असंख्येयानां तेषां सर्वदैव विद्यमानत्वादिति नानादन्याश्रयपक्षे नास्ति अन्तरमिति भावः । एवमनानुपूर्व्यवक्तव्यक द्रव्यविषयेऽपि अन्तरभावना कर्सन्या।सू.११५। उसी के तुल्य किसी दूसरे आनुपूर्वी द्रव्य से संयुक्त हो जाता है। ऐसा नियम है। इस नियम के अनुसार असंख्यात काल काही अन्तर होता है। नाना द्रव्यों की अपेक्षा से अन्तर नहीं है ऐसा जो कहा गया है उसका तात्पर्य यह है कि ज्यादिप्रदेशों में अवगाढ हुए समस्त भी आनुपूर्वी द्रव्य एक साथ अपने स्वभाव को छोडकर पुनः उन्हीं व्यादिप्रदेशों में अबगाहित हो जाते हों ऐसी बात किसी भी समय में संभवित नहीं होती है। क्यों कि असंख्यात आनुपूर्वी द्रव्य सदाही विद्यमान रहते हैं। इसलिये नाना द्रव्यों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। इसी प्रकार से अनानुपूर्वी और अवक्तन्यक द्रव्य के विषय में भी भन्तर भावना जाननी चाहिये ॥सू० ११५॥ ગંધ, રસ, સ્પર્શ અને સંખ્યા આદિ ધર્મોની અપેક્ષાએ તેના જેવાં જ કોઈ બીજા આનુપૂવી દ્રવ્ય સાથે સંયુક્ત થઈ જાય છે એ નિયમ છે. આ નિયમ પ્રમાણે અસંખ્યાતકાળનું અન્તર વ્યતીત થયા બાદ તે પ્રકારના આનુપૂવ દ્રવ્ય વડે તે ક્ષેત્ર અવશ્ય સંયુક્ત થઈ જાય છે. આ રીતે અસં. ખ્યાતકાળનું જ અન્તર પડવાની વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે.
અનેક દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તો કાળની અપેક્ષાએ કઈ અન્તર જ પડતું નથી, આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલાં સમસ્ત આનવી દ્રવ્ય એક સાથે પિતાના સ્વભાવને છેડીને ફરી એજ ત્રણ આદિ પ્રદેશમાં અવગાહત થઈ જતાં હોય એવી વાત કોઈ પણ સમયે સંભવી શકતી નથી, કારણ કે અસંખ્યાત આનુપૂર્વા દ્રવ્ય સદા વિધમાન રહે જ છે. તે કારણે અનેક દ્રની અપેક્ષાએ અન્તરને અલાવ કહ્યો છે. એ જ પ્રમાણે અનાવી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યોના વિષયમાં પ૬ અન્તર (વિરહાકાળ)નું કથન સમજી લેવું જોઈએ. ૧૧૫
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम् इत्थमन्तरद्वारं व्याख्याय सम्मति भागद्वार व्याख्यातुमाह
मूलम्-णेगमक्वहारागं आणुपुत्रीदवाइं सेसव्वाणं कइ. भागे होज्जा ? तिगि वि जहा दवाणुपुब्बीए ॥सू०११६॥
छाया-नैगमव्यवहारयोः अनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कियद् भागे भवन्ति ? त्रीण्यपि यथा द्रव्यानुपूर्व्याम् । मू० ११६॥
टीका-'णेगमवहाराणं' इत्यादि--
नैगमव्यवहारसम्मनानिआनुपूर्णद्रव्याणि शेपद्रयाणाम् अनानुपूर्व्यवक्तव्यक द्रव्याणां कतिभाग कियति भागे भवन्ति ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-त्रीण्यपि यथा द्रव्यानुपूर्याम् । यथा द्रव्यानुपूर्व्या भागद्वारे प्रतिपादितं तथैवात्रापि त्रयाणामपि द्रव्याणां विषये बोध्यम् । अयं भावः-आनुपूर्वी द्रव्याणि अनानुपूर्व्यवक्तव्यकरूपशेषद्रव्येभ्योऽसंख्येय गैरधिकानि । शेषद्रव्याणि तु तेषामसंख्येयभागे वर्तन्ते ।
अब सूत्रकार भागद्वार का व्याख्यान करते हैं"णेगम ववहाराणं इत्यादि"
शब्दार्थ- (णेगमववहाराणं) नैगमव्यवहारनय संमत (आणुपुधी. दवाई) समस्त आनुपूर्वीद्रव्य (सेमदवाणं) शेष द्रव्यों के-अनानुपूर्वी
और अवक्तव्यक द्रव्यों के (कहभागे) कितने भागों में हैं ? (तिणिधि. जहा दवाणुपुन्विये)
उत्तर-जिस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी में भागद्वार में प्रतिपादन किया है उसी प्रकार से यहां पर तीनों ही द्रव्यों के विषय में जानना चाहिये। इसका भाव यह है-अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य उनके असंख्यात भागों से अधिक है । तथा शेष द्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों के असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।
હવે સૂત્રકાર ભાગદ્વારનું નિરૂપણ કરે છે–
(णेगमषवहाराण) नेमण्या२ नयस मत (आणुपुत्वीदव्वाई) समस्त भानु५वी द्र०ये। (सेमवाणं) श्रीन याना (अनानुभूपी भने मत. व्य द्रश्याना) (कइभागे) 2anwi RIप्राय डेय छ ?
उत्तर-(तिण्णि वि जहा दव्वाणुपुव्वीए) द्रव्यानुपूर्वी मार द्वारमा २ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન અહીં પણ ત્રણે દ્રવ્યો વિષે સમજવું એટલે કે અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં આનુપૂવી દ્રવ્ય તેમના અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ વધારે છે તથા બાકીના દ્રવ્ય આનુમૂવી દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણ છે.
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D
भानुयोगदारसले ननु 'च्यादिपदेशावगाढानि द्रव्याणि आनुपूर्यः, एककप्रदेशावगाढानि द्रव्याणि जनानुपूर्यः, दि द्वि प्रदेशावगादानि द्रव्याणि अक्तव्यकानि' इति पूर्व प्रतिपादितम् । तान्येतानि त्रिविधान्यपि द्रव्याणि सर्वलोकव्यापीनि । तेषां मध्ये युक्त्या विचारणायां कृतायामानुपूर्वीद्रव्याणां सर्वस्तोकता प्राप्यते । तथाहि-कोके किल असत्कल्पनया त्रिंशत्मदेशाः कल्प्यन्ते । तेषु त्रिंशत्प्रदेशेषु अनानुपूर्वीद्रव्याणि त्रिंशत्संख्यकानि भवन्ति एकैकप्रदेशावगाढत्वात् । अवक्तव्यकद्रव्याणि तु पश्चदश, द्वि द्वि प्रदेशावगाढत्वात् । आनुपूर्वीद्रव्याणि तु यदि त्रिप्रदेशनिष्पनान्येव गण्यन्ते
शंका-यह पहिले ही कहा जा चुका है। कि ज्यादिप्रदेशों में स्थित द्रव्य आनुपूर्वी हैं एक एक प्रदेशों में स्थित अनानुपूर्वी हैं, और दो दो प्रदेशों में स्थित द्रव्य अवक्तव्यक द्रव्य हैं। ये तीनों ही द्रव्य सर्वलोक व्यापी हैं । इनके बीच में, युक्ति से विचारणा होने पर आनुपूर्वी द्रव्य सबसे थोड़े आते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार से है"लोक असंख्यात प्रदेशी है-सो असंख्यात प्रदेश को असत्कल्पना से ३०, मानकर उनप्रदेशों के स्थानपर ३०,तीस रखलेना चाहिये-इन ३०, प्रदेशों में एक एक प्रदेश पर अनानुपूर्वी द्रव्य अवगाहित हैं इसलिये अनानुपूर्वीद्रव्य ३० हो जाते हैं। तथा अवक्तव्यक द्रव्य लोक के दो दो प्रदेशों में एकर अवगाढ होने के कारण १५,आते हैं । तथा आनुपूर्वीद्रव्य लोक के ३-३ तीन २ प्रदेशों में अवगाढ हैं इसलिये उनकी संख्या १०
શંકા-આગળ એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે ત્રણે, ચાર આદિ પ્રદેશમાં સ્થિત દ્રવ્યને આનુપૂર્વી કહે છે, એક એક પ્રદેશમાં સ્થિત દ્રવ્યને અનાનુપૂવી કહે છે અને બન્ને પ્રદેશોમાં થિત દ્રવ્યને અવકતવ્યક કહે છે. આ ત્રણે દ્રવ્ય સર્વક વ્યાપી છે જે બુદ્ધિપૂર્વક વિચાર કરવામાં આવે તે તે ત્રણે દ્રવ્યોમાંથી આનુપૂર્વી દ્રવ્યનું પ્રમાણ સૌથી ઓછું હોવું જોઈએ તેને ખુલાસે આ પ્રમાણે છે-“લેક અસંખ્યાત પ્રદેશેવાળો છે.” હવે અહીં અસત્કલ્પનાને આધાર લઈને એવું માની લઈએ કે લેકના ૩૦ પ્રદેશ છે. આ ૩૦ પ્રદેશોમાંના પ્રત્યેક પ્રદેશ પર અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અવગાહિત છે. તેથી ૩૦ પ્રદેશોમાં ૩૦ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અવગાહના માની લઈ એ. લોકના બબ્બે પ્રદેશોમાં એક એક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય અવગાહિત હોવાથી ૩૦ પ્રદેશોમાં અવગાહિત અવક્તવ્ય દ્રવ્યોની સંખ્યા ૧૫ માની લઈએ તથા આનુપૂવી દ્રવ્ય લેકના ઓછામાં ઓછા ત્રણ ત્રણ પ્રદેશોમાં અવગાહિત હેવાથી ૩૦ પ્રદેશમાં અવગાહિત આનુપૂર્વી દ્રવ્યની
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गोन्द्रका टोका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम्
४१३ गानि दशसंख्यकान्येव भवन्ति त्रिपदेशारगाढत्वात् । अत एष तानि सर्वस्तोकामेव वाच्यानि । इति चेदाइ-यदि ये नमःप्रदेशा एकस्मिन्न नुपूर्वीद्रव्ये उपयुक्ता मान्ति ते यस्मिन्नोपयुक्ता भवेयुस्तदेवं स्थान , नचैवमस्ति, यतः त्रिभिःपदेशैः सम्पधमाने एकस्मिन् आनुपूर्वीद्रव्ये ये त्रयः प्रदेशा उपयुक्ता भवन्ति, त एव त्रयः प्रदेश अन्यान्यरूपतया परिणतैरन्यैरप्यानुपूर्वीद्रव्यरुपयुज्यन्ते । अा एकैकः प्रदेयोऽने केषां त्रिक संयोगानामानुपूर्वीद्रव्याणामाधारो भवति । एवं चतुष्कसं योगपसंयोग यावरसंध्येय संयोगानुपूर्वीद्राविषयेऽपि बोध्यम् । ततश्च एकैको नमः
आती है। आनुपूर्वीच्य तीनप्रदेशों से प्रारंभ होकर निष्पन्न होते है। इसलिये इन्हे त्रिप्रदेशावगाढ माना गया है। इस प्रकार ये अनानुपूर्वी
और अवक्तव्यकद्रव्यों की अपेक्षा पूर्वोक्तरीति से विचार करने पर कम ही आते हैं" यदि कोई इस प्रकार से कहे तो इसका उत्तर इस प्रकार से हैं कि जो आकाशपदेश एक आनुपूर्णद्रव्य में उपयुक्त होते हैं, वे यदि अन्य आनुपूर्वी द्रव्य में उपयुक्त नहीं होते तो ऐसा कहना बन सकता था परन्तु ऐसा नहीं है । क्योंकि तीन प्रदेशों से जायमान एक आनुपू. वीना में जो तीनप्रदेश उपयुक्त होते हैं, वे ही तीन प्रदेश अन्य अन्य रूप से परिणत हुए अन्य आनुपूर्वी द्रव्यों द्वारा भी अपने २ उपयोग में लाये जाते हैं। इसलिये लोक का एक २ प्रदेश अनेक त्रिक संयोगी आनुपूर्वी द्रव्यों का आधार होता है । इसी प्रकार से चतुष्क संयोगी यावत् असंख्यात संयोगी आनुपूर्वी द्रवों के विषय में भी जानना સંખ્યા ૧૦ માની લઈએ આનુપૂર્વીય દ્રવ્ય ત્રણથી લઈને અસંખ્યાત પર્યરતના પ્રદેશમાંથી નિષ્પન્ન થાય છે. તેથી અહીં તેને ત્રિપ્રદેશાવગાઢ માનીને ઉપર પ્રમાણેની ગણતરી કરવામાં આવી છે. આ રીતે વિચાર કરવામાં આવે તે અનાનુપૂર્વી અને અવતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં તેનું પ્રમાણ ઓછું દેખાય છે.
આ પ્રકારની માન્યતા બરાબર નથી તે હવે સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છેજે આકાશપ્રદેશ એક આનુપૂર દ્રવ્યમાં ઉપયુકત થાય છે તેઓ જે અન્ય આનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં ઉપયુક્ત થતા ન હોત તે એવું બની શકત. પરંતુ એવું તે બનતું નથી કારણ કે ત્રણ પ્રદેશમાં અવગાહિત એક આનુપૂવ દ્રવ્યમાં જે ત્રણ પ્રદેશે ઉપયુક્ત થાય છે, એજ ત્રણ પ્રદેશ અન્ય અન્ય રૂપે પરિણત થયેલા અન્ય આનુપૂવી દ્રવ્ય દ્વારા પણ પોતપોતાના ઉપયોગમાં લેવામાં આવે છે. આ રીતે લેકને પ્રત્યેક પ્રદેશ અનેક ત્રિકસંગી આનપૂર્વી ને આધાર થાય છે, એ જ પ્રમાણે ચતુષ્ઠ સંગીથી લઈને
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अनुयोगशारतले प्रदेशः अनेकेषु व्यादि संयोगात्मकेषु आनुपूर्वीद्रव्येषु उपयुज्यते । इत्थं च ज्यादि संयोगात्मकानुपूर्वीद्रव्यरूपाधेयभेदेन पतिपदेशरूपाधारस्यापि भेदो विवक्षितो भवति । नहि नभःपदेशा येन स्वरूपेणेकस्मिन् आधेये उपयुक्ता भवन्ति, तेनैव स्वरूपेण आधेशान्तरेऽपि । तथा सत्येकस्मिन् आधारस्वरूपे तदवगाहनाद् आधे. यानाम् एकता प्रसज्येत, घटे तत्स्वरूपवत् । ततश्च असंख्येयपदेशात्मके स्वस्थित्या व्यवस्थिते लोके यावन्तस्त्रिकसंयोगाघसंख्येयसंयोगपर्यन्ता संयोगा जायन्ते सावन्त्यानुपूर्वीद्रव्याणि भवन्ति । तानि च व्यादि संयोगानां बहुत्वाद् बहुसंख्य चाहिये । इस प्रकार एक २ आकाश प्रदेश अनेक ज्यादि संयोगात्मक आनुपूर्वी द्रव्यों में उपयुक्त होता है। अतः व्यादि संयोगात्मक आनुपूर्वी द्रव्य रूप आधेय के भेद से, हर एक प्रदेश रूप आधार का भी भेद, विवक्षित हो जाता है । क्योंकि आकाश प्रदेश जिप्त स्वरूप से एक आधेय मे उपयुक्त होते हैं । उसी स्वरूप से वे दूसरे आधेय में उपयुक्त नहीं होते हैं । यदि ऐसी हो पात मानी जावे कि आकाश प्रदेश जिस स्वरूप से एक आधेय में उपयुक्त होते हैं उसी स्वरूप से वे अन्य भा. धेय में भी उपयुक्त होते हैं तो एक आधार स्वरूप में उनकी अवगाहना होने से उन अनेक आधेयों में घट में घट के स्वरूप की तरह एकता प्रसक्त होगी। इसलिये अपने स्वरूप की अपेक्षा से असंख्यात प्रदेशी लोक में जितने भी त्रिक संयोगादि रूप असंख्यात संयोग पर्यन्त तक के संयोग हैं उतनेही आनुपूर्वीद्रव्य हैं । ये आनुपूर्वीद्रव्य ज्यादिसंयोगों અપ્રખ્યાત સંયેગી પર્યન્તના આનુપૂર્વી દ્રવ્યોના વિષયમાં પણ સમજવું આ પ્રકારે પ્રત્યેક આકાશપ્રદેશ અનેક ત્રિ આદિ સંયોગાત્મક આનુપૂવી કોમાં ઉપયુક્ત થાય છે. તેથી ત્રિ આદિ સંગાત્મક આનુપૂવ દ્રવ્ય રૂપે આધેયના ભેદને લીધે દરેક પ્રદેશ રૂપ આધારને પણ ભેદ પડી જાય છે. કારણ કે જે સ્વરૂપે આકાશપ્રદેશ એક આધેયમાં ઉપયુક્ત થાય છે, એ જ સ્વરૂપે તેઓ બીજા આયમાં પણ ઉપયુક્ત થતા નથી જે એવી વાત માનવામાં આવે કે આકાશપ્રદેશ જે સ્વરૂપે એક આધેયમાં ઉપયુકત થાય છે એજ સ્વરૂપે તેઓ અન્ય આધય વસ્તુમાં પણ ઉપયુક્ત થાય છે, તે એક આધારસ્વરૂપમાં તેમની અવગાહના હોવાથી તે અનેક આધેયમાં પણ ઘટમાં ઘટના સ્વરૂપની જેમ એકતા માનવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે, તેથી પિતાના સ્વરૂપની અપેક્ષાએ અસંખ્યાત પ્રદેશી લેકમાં વિકસાયેગથી લઈને અસંખ્યાત સગ પર્યન્તના જેટલા સંયોગે છે એટલાં જ આનુપૂવી દ્રવ્ય છે ત્રિ
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योगचन्द्रिका टीका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम्
कानि बोध्यानि । अवक्तव्यकद्रव्याणि तु द्विकसंयोगानां स्वोकत्वात् स्तोकानि । मनानुपूर्वीद्रव्याण्यपि लोकप्रदेश संख्यासमान संख्यत्वात् स्तोकान्येव । अत्र सुखावबोधार्थ किंचिभिर्दिश्यते। तथाहि लोके कि पञ्चाकाशप्रदेशाः कल्प्यन्ते, :: इति । अत्र अनानुपूर्वीद्रव्याणि तावत् पञ्चैत्र भवन्ति । यथा - : - : इति ।
तद्यथा
रक्तद्रव्याणि तु अष्टौ अष्टानामेव द्विसंयोगानामिद्दाभ्युपगमात् ।
इति ।
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यथा
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भनुपूर्वीद्रव्याणि तु षोडश संभवन्ति । तत्र दशत्रिक संयोगाः, पञ्च चतुष्कसंयोगाः, को बहुत होने के कारण बहुसंख्यक हैं। और जो अवक्तव्यक द्रव्य हैं ये डिक् संयोगों के कम होने के कारण कम हैं। तथा जो अनानुपूर्वी द्र हैं । वे भी लोक प्रदेशों की संख्या के बराबर होने के कारणकम ही है । यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जाये इसलिये य समझना चाहिये-लोक में पाँच आकाशप्रदेश कल्पित करो, और उसका आकार : ० : इस प्रकार से करो । प्रत्येक आकाश प्रदेश में एक अनानुपूर्वी द्रव्य है इसलिये इस हिसाब से पांच अनानुपूर्वी द्रव्य है। ऐसा मान लो तथा द्विप्रदेश संयोगी जो अवक्तव्यक द्रव्य हैं वे द्विक्रमदेश संयोगों को यहां आठ ही होनेसे आठ आते हैं। जैसे- संस्कृत टीका में आकार देकर कहा गया है। आनुपूर्वीद्रव्य १६, संभवित होते हैं वे इसप्रकार से १०, त्रिक प्रदेश संयोग के १०, ५ चतुष्प्रदेशि संयोग के पांच, और આદિ સંચાગે ઘણા હોવાને કારણે તે આનુપૂર્વી દ્રવ્યે મહુસખ્યક છે, અને દ્વિકસ’યેગા આછાં ઢાવાને કારણે અવક્તવ્ય દ્રવ્યે તેના કરતાં અલ્પ સખ્યામાં છે. તથા જે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યેા છે તે પણ લેકના પ્રદેશેાની સખ્યાની ખરાખર હાવાથી આનુપૂર્વી દ્રવ્યેા કરતાં અલ્પ સખ્યામાં છે. આ વાતને સ્પષ્ટ રીતે સમજવા માટે આ પ્રમાણેની કલ્પના કરે-ધારા કે આકાશપ્રદેશે પાંચ છે અને તેમના આકાર આ પ્રમાણે છે- ૦: પ્રત્યેક પ્રદેશમાં એક એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યે રહી શકે છે. તેથી પાંચ પ્રદેશમાં પાંચ અનાનુપૂર્વી દ્રા રહી શકે એમ માની તે.
તથા દ્વિપ્રદેશ ચેગી જે વક્તવ્યક દ્રવ્યેા છે, તેમની સખ્યા અહી માઢની આવે છે, કારણ કે અહીં દ્વિકપ્રદેશ સયેગા આઠ આવે છે તે વાત ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે.
આ પાંચ પ્રદેશેામાં આનુપૂર્વી દ્રવ્યે ૧૬ સ'ભવી શકે છે. તેના હિસાબ ખા પ્રમાણે સમજવા-ત્રિકમહેશ મયાગના ૧૦, ચતુ પ્રદેશ સયેાગના
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ममुयोगशारण पत्रकसंयोगस्त्वेक इति षोडश । तत्र दशत्रिकसंयोगा एवं बोध्याः-षट् तापनिक संयोगा मध्यव्यवस्थापितेन सह लभ्यन्ते, यथा- इति । तथा मध्यनिरपेक्षैदिग्व्यवस्थापितैश्चतुर्भिश्चत्वारस्त्रिकसंयोगाः, पयाइति । इत्थं दश त्रिकसंयोगा भवन्ति । पश्च च चतुष्कसंयोगा एवं विशेयाः-चत्वारस्तावन्मध्यव्यवस्थापितेन सह भवन्ति, पथा- इति। एकस्तु चतुष्कसंयोगो मध्यनिरपेक्षेर्दिग्व्यवस्थापित चतुर्भिः, यथाइति । इत्थं पञ्च चतुष्फसंयोगा भवन्ति । एक पांच प्रदेश संयोगका एक । इनमें त्रिकप्रदेश संयोग जो दस हैवे इस प्रकार हैं-मध्य में जो प्रदेश व्यवस्थापित है, उसके साथ त्रिकप्रदेश संयोग ६ आते हैं-जैसे टीका में आकार देकर कहे गये हैं-तथा मध्य प्रदेश निरपेक्ष जो दिव्यवस्थापित चार प्रदेश हैं उनके साथ त्रिकप्रदेश संयोग ४ चार आते हैं जो टीका में दिये हुए चित्र द्वारा स्पष्ट किये गये हैं इस प्रकार से तीन २ प्रदेशों के संयोग दश होते हैं-ये तीन तीन प्रदेशों के संयोग ही १० अनानुपूर्वी द्रव्यों के आधार क्षेत्र है। तथा चार२ प्रदेशों के संयोग ५इसप्रकार है-मध्य में जो प्रदेश व्यवस्थापित है उसके साथ चतुष्क संयोगचार होते हैं, ये चतुष्क संयोग ही चार आनुपूर्वी द्रव्यों के आधाररूप क्षेत्र हैं। जो टीका में दिये हुवे चित्र द्वारा कहे गये हैं। तथा मध्य प्रदेश निरपेक्ष जो चार दिग्व्यवस्थापित चारप्रदेश में उनसे एक चतुष्कसंयोगरूप आधार चारप्रदेशी आनुपूर्वी द्रव्य निष्पन्न होता है। जो संस्कृत टीका में दिया हुचा चित्रद्वारा स्पष्ट ૫, અને પાંચપ્રદેશ સંગનું ૧, આ રીતે કુલ ૧૪ આનવી દ્રવ્યો થઈ જાય છે. તેમના જે ૧૦ ત્રિકપ્રદેશ સંગ કહ્યા છે તે નીચે પ્રમાણે સમજવા-મયમાં જે પ્રદેશ વ્યવસ્થાપિત (રહેલે) છે, તેની સાથે ત્રિકપ્રદેશ અંગ છે અને છે. એજ વાત ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિવારા સમજાવવામાં આવી છે. મધ્યપ્રદેશ સિવાયના જે ચાર પ્રદેશો ચાર દિશામાં આવેલા છે. તેમની સામે ત્રિકપ્રદેશસચોગ ચાર આવે છે તેમને પણ આ આકૃતિ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે આ ત્રણ ત્રણ પ્રદેશોના સંગ ૧૦ થાય છે આ ત્રણ ત્રણ પ્રદેશના સંગ જ ૧૦ આનુHવી દ્રવ્યોના આધારક્ષેત્ર છે. તથા ચાર ચાર પ્રદેશના પાંચ સંગ આ પ્રમાણે થાય છે-મયમાં જે પ્રદેશ વ્યવસ્થાપિત છે તેની સાથે ચતુષ્કગ ચાર થાય છે. તે ચત .
ગ જ ચાર આનુપૂવી દ્રવ્યોનાં આધારરૂપ ક્ષેત્ર છે. તેમને સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિ દ્વારા બતાવવામાં આવેલ છે તથા મધ્યપ્રદેશ સિવાયના ચાર દિશામાં વ્યવસ્થાપિત જે ચાર પ્રો છે. તેમના દ્વારે પાર
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम्
कसंबोगस्तु सुगम एच यथा- (0) इति इत्वं पञ्चपदेशप्रस्तारेऽप्यानुपूर्वीद्रव्याणाम् भनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यापेक्षा बाहुल्यं दृश्यते । ततः स्वस्थित्या व्यवस्थितेऽसंख्येयप्रदेशात्म के लोके आनुपूर्वीइन्याणाम् अनानुपूर्यवक्त यकद्रव्यापेक्षयाऽसंख्यातगुणत्वं स्पष्टमेवेति ॥मू०११६॥ किया गया है। इस प्रकार चतुष्कसंयोग रूप आधार क्षेत्र के आनुपूर्वी द्रव्य पांच होते हैं। तथा इन पांच प्रदेशों के संयोग से जायमान एक पांच प्रदेशी आनुपूर्वी द्र०प का समझना सुगम है । जो संस्कृत टीका में दिया हुवा चित्र में समझाया गया है । इस प्रकार से पांच प्रदेशों के प्रस्तार में भी इन आनुपूर्वी द्रव्यों का अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा बाहुल्य देखा जाता है। तब इससे अपनी स्थिति के अनुसार सुव्यवस्थित इस असंख्यात प्रदेशवाले लोक में आनुपूर्वी द्रव्यों में अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा से असंख्यात. गुणता स्पष्ट ही है।
भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्रद्वारा यह समझाया है कि नैगमव्यवहार नयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात गुणे अधिक हैं और शेष द्रव्य आनुपूर्वीद्रव्यों के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इस बात को सुनते ही किसी शंकाकार ने इस. પ્રદેશી આનુપૂર્વી દ્રવ્યના એક ચતુષ્કસ ગ રૂપ આધાર નિષ્પન્ન થાય છે, તેને પણ સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે ચતુષ્કસંયોગ રૂપ આધાર ક્ષેત્રના આનુપૂવી દ્રવ્ય પાંચ થાય છે. તથા તે પાંચ પ્રદેશના સાગથી નિષ્પન્ન પાંચપ્રદેશી એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યને સમજવું સુગમ છે. ટીકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિમાં તેને સમજાવવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે પાંચ પ્રદેશોના પ્રસ્તારમાં પણ અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં આનુપૂર્વી દ્રોની અધિકતા જવામાં આવે છે, તો પછી અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા લેકમાં અનાનુપવી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં આનુપૂવ દ્રવ્ય અસંખ્યાત ગણાં હોય એમાં નવાઈ પામવા જેવું શું છે?
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે એ વાતનું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે નગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂવી દ્રવ્યો અનાનુપૂર્વ અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યો કરતાં અનેક ગણો વધારે છે. અને આનુવ દ્રવ્ય સિવાયના દ્રવ્ય આનપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાતમાં ભાગપ્રમાણ છે. સૂત્રકારના આ કથન સામે કોઈ વ્યક્તિ એવી શંકા પ્રકટ કરે કે આપનું આ કથન બુદ્ધિગમ્ય
म० ६३
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भनुयोगशार पर शंका की-कि आपका यह कथन युक्ति से संगत नहीं बैठता हैकारण असंख्यात प्रदेशी इस लोक में सबसे अधिक संख्या आनुवर्षी द्रव्यों की ही आती है बाद में इनसे कम अवक्तव्यक द्रव्यों की और इनसे भी कम आनुपूर्वीद्रव्यों की । इस बात को हम इसप्रकार से समझा सकते हैं। लोक असंख्यातप्रदेशी माना गया है-सो लोकके असं. ख्यात प्रदेशों के स्थान में ३० संख्या रख लो-ये ३० ही असंख्यात प्रदेश हैं । अनानुपूर्वीद्रव्य लोंकाकाश के एक २ प्रदेश रूप आधार पर अवगाहित हैं इस अपेक्षा से अनानुपूर्वी द्रव्यों की संख्या ३० आती है। और अवक्तव्यक द्रव्य जो द्विप्रदेशी होता है, वह दो दो प्रदेशों में अवगाहित होता है-इसलिये उसकी संख्या १५ आती है । तथा आनुपूर्वी द्रव्य त्रिप्रदेशावगाढ होता है। इसलिये इनकी संख्या दश आती है । तब सिद्धान्तकार ने इस शंका का उत्तर बहुत सुन्दरीति से किया है-उन्होंने उसे समझाया कि जैसा तुम कह रहे हो वैसा नहीं है। જોાિ મારા ઘર ઘરેશમિરર પરે પરિવાર અને ગુજરિ रूप अनानुपूर्वी द्रव्यों का आधारस्थल है एक आनुपूर्वी द्रव्य में आकाश લાગતું નથી પિતાની શંકાના સમર્થનમાં તે એવી દલીલ કરે કે-અસં. ખ્યાત પ્રદેશવાળા આ લેકમાં અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોની સંખ્યા સૌથી વધારે છે, અવક્તવ્યક દ્રવ્યોની સંખ્યા અનાનુપૂવ દ્રો કરતાં ઓછી છે અને આનુપૂવ દ્રવ્યોની સંખ્યા તે અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં પણ ઓછી છે. નીચેની કલ્પના દ્વારા તે પિતાની આ માન્યતાનું સમર્થન કરે છે. લેકના અસંખ્યાત પ્રદેશ માનવામાં આવ્યા છે. ધારો કે લેકના ૩૦ પ્રદેશ છે અનાનુપૂવ દ્રવ્ય લેકાકાશના એક એક પ્રદેશ રૂ૫ આધાર પર અવગાહિત છે. તેથી ૩૦ પ્રદેશમાં અવગાહિત અનાનુપૂવ દ્રવ્યની સંખ્યા ૩૦ ત્રીસ થાય છે અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કે જે બેટદેશી હોય છે તે કાકાશના બબ્બે પ્રદેશોમાં અવગાહિત હોય છે. તેથી તેમની સંખ્યા ૧૫ ની થાય છે. તથા આપવી દ્રવ્ય લોકાકાશના ત્રણ ત્રણ પ્રદેશમાં અવગાહિત હેવાથી ૩૦ પ્રદેશમાં અવગાઢ આનુપૂવી દ્રવ્યોની સંખ્યા બાકીના બન્ને દ્રવ્ય કરતાં ઓછી થવા છતાં આપ શા કારણે એવું કહે છે કે આનુપૂવ દ્રવ્ય બાકીના બને દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાત ગણાં હોય છે?
આ શંકાનું અહી નીચે પ્રમાણે સમાધાન કરવામાં આવ્યું છે...તમે કહે છે એવી વાત નથી, કારણ કે આકાશને એક એક પ્રદેશ ભિન્ન ભિન્ન રૂપે પરિણત થયેલ અનેક ત્રણ આદિ આશુરૂપ આનુપૂવી દ્રવ્યોનું આધારસ્થાન છે. એક આનુપૂવ દ્રવ્યમાં આકાશમાં જે ત્રણ પ્રો ઉપયકત થાય
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मनुयोगवन्द्रिका टोका सूत्र ११६ भागद्वारनिरूपणम्
४९९ के जो तीन प्रदेश उपयुक्त होते हैं वे यदि अन्य अनानुपूर्वी द्रव्यों के उपयोग में न आते, तो यह बात यन भी जाती कि आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा बहुत कम हैं, परन्तु जो आकाश के ज्यादि प्रदेश एक आनुपूर्वी द्रव्य में काम आते हैं, वे ही अन्य आनुपूर्वी द्रव्यों के भी उपयोग में आते हैं । जो आकाश के ३ प्रदेश जिस स्वभाव से व्यणुक रूप एक मानुपूर्वी द्रव्य के उपयोग में आते हैं। वे तीन प्रदेश उसी स्वभाव से ध्यणुकादि एवं चतुष्पदेशिक आदि अनेक आनुपूर्वी द्रव्यों के उपयोग में नहीं आते हैं। उनके स्वभाव में भिन्नता आजाती है। इसलिये आकाश को स्वभाव की भिन्नता के कारण असंख्यात प्रदेशी माना गया है। व्यणुकादिरूप आनुपूर्वीद्रव्य भी तो एक २ की ही संख्या में नहीं हैं किन्तु एक २ आनुपूर्वी द्रव्य अनेक हैं । तभी तो ये समस्त आनुपूर्वियां लोकव्यापी हैं। अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्य भी इसी प्रकार से हैं। इनमें आनुपूर्वी द्रव्य ही इन दो द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात गुणा है । क्योंकि अनानुपूर्वी द्रव्य के लिये एकप्रदेश रूप आधार की और अवक्तव्यक द्रव्य के लिये दो प्रदेशरूप आधार की ही છે, તે ત્રણ પ્રદેશ જે અન્ય આનુવી દ્રવ્યોના ઉપયોગમાં આવી શક્તા ન હેત તે એવી વાત સંભવી શકત કે આનુપૂવ કો બાકીના બનને દ્રવ્ય કરતાં બહુ જ અલ્પ સંખ્યામાં છે. પરંતુ પરિસ્થિતિ એવી છે કે આકાશના જે ત્રણ આદિ પ્રદેશ એક આનુપૂવી દ્રવ્યના કામમાં આવે છે, એજ પ્રદેશ અન્ય આનુપૂવી દ્રવ્યોના ઉપગમાં પણ આવે છે. જે આકાશના ત્રણ પ્રદેશે જે સ્વભાવને લીધે ત્રણ અણુવાળી એક આનુપૂર્વના ઉપયોગમાં આવ્યા છે, તે ત્રણ પ્રદેશે એજ સ્વભાવથી ત્રણ અણુવાળાં, અને ચાર પ્રદેશવાળાં આદિ અનેક આનુપૂર્વી ના ઉપયોગમાં આવતાં નથી. તેમના સ્વભાવમાં આધેયની ભિન્નતાને લીધે ભિન્નતા આવી જાય છે. તેથી આકાશને સ્વભાવની ભિન્નતાને કારણે અસંખ્યાત પ્રદેશી માનવામાં આવેલ છે. ત્રિ અણુક આદિ રૂપ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય પણ એક એકની સંખ્યામાં જ નથી, પરંતુ પ્રત્યેક આનુપૂવ દ્રવ્ય અનેક હોય છે.-ત્રિ અચુક આદિ પ્રત્યેક આનુપૂવી અનેક હોય છે... અને તેથી જ તે સમસ્ત આનુપૂર્વી એ લેકવ્યાપી છે. અનાનુપૂર્વી અને અવકતવ્યક દ્રવ્ય પણ લેકવ્યાપી છે આ ત્રણેમાંથી આનુપૂર્વી દ્રવ્ય જ તે બન્ને દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાત ગણું છે, કારણ કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યને માટે એક પ્રદેશ રૂપ આધારની અને અવકતવ્યક દ્રવ્યને
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अनुयोगद्वारसूत्रे રૂપાના પરતી હૈ, તા િઆનુપૂર્વ કિ સર આહિ समस्त रूप आधार की अपेक्षा पड़ती है- तो एक २ प्रदेश में भी अनेक आनुपूर्वी द्रव्य अवगाहित हैं । तष कि अनेक अनानुपूर्वी और अनेक अवक्तव्यकद्रव्य एक प्रदेश और दो दो प्रदेशों में ही अपगाहित हैं। इसी विषय को लोक में पांचप्रदेशों की कल्पना कर निर्णय किया गया है । इनमें चारों दिशाओं में चार प्रदेश स्थापित- करना चाहिये और एक प्रदेश बीच में। अनानुपूर्वीद्रव्य जैसा की कहा गया है, कि एक प्रदेशावगाही होता है इसलिये एक २ प्रदेश में एक एक रहने के कारण पांचप्रदेश रूप आधार संबन्धी वे ५ ही ज्ञात होते हैं । न्यून और अधिक नहीं। इन पांच प्रदेशों में जप दो२ प्रदेशों का संयोग-किया जाता है तो वे द्विक संयोग यहां आठ बनते हैं-जैसे टीकामें दिया हुवा चित्र में प्रदर्शित किये गये हैं। यहां जो एक दो आदि अंक-लिखे हुए हैं वे दो दो प्रदेशों के संयोग के प्रदर्शक हैं। इस प्रकार ये दो दो प्रदेशों के संयोगरूप जो आधार हैं वे उतने ही अवक्तव्यक द्रव्यों के आधार हैं । માટે બે પ્રદેશ રૂપ આધારની આવશ્યકતા પડે છે, પરંતુ આનુપૂર્વી દ્રવ્યને માટે એક, બે, ત્રણ આદિ સમસ્ત પ્રદેશરૂપ આધારની આવશ્યકતા રહે છે. તથા એક એક પ્રદેશમાં પણ અનેક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અવગાહિત છે, જ્યારે અનેક અનાનુપૂર્વી અને અનેક અવકતવ્યક દ્રવ્યે તે અનુક્રમે એક એક પ્રદેશમાં અને એ પ્રદેશમાં જ અવગાહિત છે. હવે સૂત્રકાર લોકના પાંચ પ્રદેશે હેવાની કલ્પના કરીને આ વિષયનું સ્પષ્ટીકરણ કરે છે–ચાર દિશાએમાં ચાર પ્રદેશની અને વચ્ચે એક પ્રદેશની સ્થાપના કરવી જોઈએ. તેની આકૃતિ આ પ્રમાણે બનશે?
અનાનુપૂવી દ્રવ્ય એક પ્રદેશાવગાહી હોય છે, તેથી એક એક પ્રદેશમાં એક એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય હેવાને કારણે પાંચ પ્રદેશ રૂ૫ આધારમાં પાંચ જ અનાનુપૂવ દ્રવ્ય સંભવી શકે છે. તેથી ઓછાં કે વધારે સંભવી શકતાં નથી. આ પાંચ પ્રદેશમાં જે બએ પ્રદેશને સંગ કરવામાં આવે, તે એવાં બ્રિકસરયોગ અહીં આઠ બને છે તે ઉપરની સંસ્કૃત ટકામાં આપવામાં આવેલ આકૃતિમાં બતાવવામાં આવેલ છે
આ આકૃતિમાં જે એક, બે આદિ અંકે લખ્યા છે, તે બબ્બે પ્રદેશોના સાગના પ્રદર્શક છે. આ રીતે તે બલ્બ પ્રદેશના સંગ રૂપ જે આધાર છે, તેઓ એટલાં જ અવક્તવ્યક દ્રવ્યોના આધાર રૂપ છે આ રીતે
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र ११७ भावद्वारनिरूपणम् इत्यं भागद्वारमभिधाय सम्पति भावद्वारमाह
मूलम्-णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदवाई कयरंमि भावे होज्जा? णियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा। एवं दोगि वि ॥सू० ११७॥
छाया-नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्यागि कतरस्मिन् भावे भवन्ति ? नियमात् सादिपारिणामिके भावे भवन्ति । एवं द्वयोरपि ॥सू० ११७॥ इस प्रकार से यहां हिकप्रदेश संयोगरूप आधारवर्ती ८ अवक्तव्यकद्रव्य हैं। यह बोध हो जाता है । क्योंकि जितने आधार हैं उतने ही वहां अनानुपूर्वी आदि द्रव्य हैं ऐसा यहां कहा गया है । आनुपूर्वी द्रव्य इन पांच प्रदेशों के संयोग रूप आधार १६ होने से १६ होते हैं । चतुष्कसंयोग पांच और पांच प्रदेशों का एक संयोग यहां होता है । इन चतुष्क (चार) संयोग रूप पांच आधारों में पांच आनुपूर्वी द्रव्य और पांच प्रदेशों के संयोगरूप एक आधार में एक पांच प्रदेशवाला आनुपूर्वी द्रव्य रहता है। पांच प्रदेशों में दो दो प्रदेशों के संयोग ८, तीन तीन प्रदेशों के संयोग १०, चार चार प्रदेशों के मंओग-से पांच घनते हैं । औरपांच प्रदेशोंका संयोग एक ये सब द्विकादि संघोगरूप आधार कैसे बने यह सब संस्कृत टीकामें दिया हुवा चित्रोंद्वारा स्पष्ट किया गया है।सू. ११६॥ અહીં ક્રિકપ્રદેશ સગરૂપ આધારવતી આઠ અવકતવ્યક દ્રવ્ય હોવાને બોધ થઈ જાય છે, કારણ કે જેટલા આધાર છે એટલાં જ ત્યાં આનપૂરી આદિ દ્રવ્ય છે એવું અહીં કહેવામાં આવ્યું છે.
આ પાંચ પ્રદેશના સંયોગરૂપ આધાર ૧૬ હોવાથી આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અહી ૧૬ હોય છે. ચતુષ્કસંગ પાંચ અને પાંચ પ્રદેશનો એક સંયોગ અહીં થાય છે. આ ચતુષ્કસંગ રૂપ પાંચ અંધારામાં પાંચ આનyવી દ્રવ્યો અને પાંચ પ્રદેશોના સંગ રૂપ એક આધારમાં પાંચ પ્રદેશવાળું એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રહે છે. પાંચ પ્રદેશોમાં બબ્બે પ્રદેશના સંગ આઠ. ત્રણ ત્રણ પ્રદેશના સંરગ ૧૦, ચાર ચાર પ્રદેશના સંયેગ પાંચ અને પાંચ પ્રદેશને સંગ એક બને છે, આ બધાં દ્રિકાદિ સંયોગ રૂપે આધાર કેવી રીતે બને છે, તે બધું સૂત્રાર્થમાં આકૃતિઓ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં माय छे. ॥९०११६॥
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अनुयोगदारसूत्रे टीका-'णेगमश्वहाराणं' इत्यादि
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि कतरस्मिन् भावे भवन्ति ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरयति-भानुपूर्वीद्रव्याणि नियमात् सादिपारिणामि के भावे भवन्ति। एवं द्वे अपि अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याण्यपि सादिपारिणामिके भावे भवन्तीति । अयं भावः-यादिप्रदेशावगाह परिणामस्य एकप्रदेशावगाहपरिणामस्य द्विप्रदेशावगाहपरिणामस्य चेति त्रयाणामपि द्रव्याणां सादिपारिणाभिकत्वात् सादिपारिणामिकभाववर्तित्वं वोध्यमिति ॥सू० ११७॥
अब सूत्रकार भावद्वार का कथन करते हैं"णेगमववहाणं" इत्यादि।
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं आणुपुत्री दवाई) नैगम व्यवहारनयसंमत समस्त भानुपूर्ण द्रव्य- (कयरंमि भावे होज्जा) कौन से भाव में वर्तते हैं।
उत्तर- (णियमा) नैगमव्यहारनयसंमत समस्त आनुपूर्वी द्रव्य नियम से (माइपारिणामिए भावे होजा) सादि पारिणामिक भाव मेंवर्तते हैं। (एवं दोणिवि) इसी प्रकार से अनानुपूर्वी और अव. क्तव्यक द्रव्यों के विषय में भी-जानना चाहिये । तात्पर्य इसका यह है कि व्यादि प्रदेशों में आनुपूर्वी द्रव्यों का अवगाह, परिणाम एक प्रदेश अमानुपूर्वी द्रव्यों का अवगाह परिणाम और अवक्तव्यक द्रव्यों का द्विप्रदेशों में अवगाह परिणाम सादि है । इसलिये-ये सब द्रव्य सादि पारिणामिक भाववर्ती- हैं। ॥ सू०११७ ॥
હવે ભારદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે – “णेगमववहाराण" त्या:
शा-(णेगमववहाराणं आणुपुव्वी दव्वाई) नैगम या२नयसभात समस्त मानुषी द्रव्य (कयरंमि भावे होज्जा ) ४या लाभ पतमान डाय छे ? उत्तर-(णियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा) नैगमव्यवहार नयस મત સમસ્ત આનુપૂર્વી દ્રવ્ય નિયમથી જ સાદિપરિણામિક ભાવવત હોય छ (एवं दोणि वि) मे ॥ ४थन मनानुषी द्रव्ये। भने अत०५४ દ્રવ્યના વિષયમાં પણ સમજવું આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છેત્રણ આદિ પ્રદેશમાં આનુપૂવી દ્રવ્યોનું અવગાહપરિણામ, એક પ્રદેશમાં અનાનુપૂવી દ્રવ્યોનું અવગાહપરિણામ અને બે પ્રદેશમાં અવકતવ્યક દ્રવ્યનું અવગાહપરિણામ સાદિ (આદિ સહિત) હોય છે. તેથી જ આ ત્રણે કોને સાહિપરિણામિક ભાવવતી કહ્યાં છે. સૂ૦૧૧૭
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११८ अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम्
इत्थं भावद्वारमभिधाय अल्पबहुत्वद्वारं परूपयतिमूलम् - एएसिणं भंते! णेगमववहाराणं आणुपुबीदवाणं अणाणुपुवीदवाणं अवतव्वगदव्वाणं यदव्वट्टयाए पसट्टयाए दव्वटुपएसटुयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुगा वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अवत्तव्वग दवाई दव्वट्टयाए, अणाणुपुवीदवाई दव्वट्टयाए विसेसाहियाई, आणुपु०वी०वाई दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणाई | पसट्टयाए सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं आणुपुथ्वीव्वाई अपए सट्टयाए । अवत्तव्वगदव्वाई पएसट्टयाए विसेसाहियाई । आणुपुव्वी दव्वाई पट्टयाए असंखेज्जगुणाई । दव्वट्टपपसट्टयाए सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाई दव्वट्टयाए । अणाणुपुत्रीदव्वाई दव्वट्टयाए अपएसट्टयाए विसेसाहियाई । अवत्तवगदवाई पट्टयाए विसेसाहियाई | आणुपुवीद व्वाइं दव्वट्टयाए असंखेजगुणाई ताई चैव परसट्टयाए असंखेज्जगुणाई | से तं अणुगमे । से तं गमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणु पुथ्वी ॥ सू० ११८ ॥
छाया - एतेषां खलु भदन्त नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणाम् अनानुपूर्वीद्रव्याणाम् अवक्तव्यकद्रव्याणां च द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया कानि केभ्यः अल्पानि वा बहुकानि वा तुल्यानि वा विशेषाधिकानि वा ? | गौतम ! सर्वस्वोकानि नैगमव्यवहारयोः अवक्तव्यकद्रव्याणि द्रव्यार्थतया । अनानुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतया विशेषाधिकानि । आनुपूर्वी द्रव्याणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि । प्रदेशार्थतया - सर्वस्वोकानि नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणि अम देशार्थतया । अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्थतया विशेषाधिकानि । आनुपूर्वीद्रव्याणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि । द्रव्यार्थ प्रदेशार्थतया सर्वस्वोकानि नैगमव्यवहारयोः अवक्तव्यक द्रव्याणि द्रव्यार्थतया । अनानुपूर्वी - द्रव्याणि द्रव्यार्थतया श्रमदेशार्थतया
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अनुयोगहारो विशेषाधिकानि । अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्यतया विशेषाधिकानि । आनुपूर्वी द्रव्याणि द्रव्यार्थतयाऽसंख्येयगुणानि तान्येव प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि । स एषोऽनुगमः । सैषा नैगमव्यवहारयोः अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी ॥सू० ११०॥
टीका-'एएसि णं' इत्यादि।
हे भदन्त ! एतेषां खलु नैगमव्यवहारसम्मतानाम् आनपूर्वीद्रव्याणाम् अना. नुपूर्वीद्रव्याणाम् अवक्तव्यकद्रव्याणां मध्ये कानि द्रव्याणि कतरेभ्यो द्रव्येभ्यो द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया द्रव्यार्थपदेशार्थतया च अल्पानि वा बहुकानि वा तुल्यानि वा विशेषाधिकानि वा भवन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति-'गोयमा' इत्यादिना। अस्य व्याख्या नवतितमसंख्यकमत्रवद् वोध्या।
अब सुत्रकार अल्प बहुत्व द्वार की प्ररूपणा करते हैं"एएसि णं भंते" इत्यादि।
शब्दार्थ- (भते) हे भदन्त ! (णेगमववहाराणं एएसिं आणुपुन्वी दव्याण) नैगमव्यवहारनय-संमत इन आनुपूर्वी द्रव्यों के (अणाणुपुव्वी दव्वाणं ) अनानुपूर्वी द्रव्यों के (य) और (अवत्तव्वगदव्याण) अवक्तव्यकद्रव्य के पीच (कयरे कयरेहितो) कौन कौन से द्रव्यों से (दव्वट्ठयाए, पएसट्टयाए, दवट्ठपएसट्टयाए ) द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता और द्रव्यार्थता प्रदेशार्थता की अपेक्षा (अप्पावा पहुगावा तुल्लावा विसेसाहियावा) अल्प है-कौन र किनर द्रव्यों से बहुत हैं कौन२ किन२-के समान हैं और कौन २ किन २ द्रव्यों से विसेष अधिक हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (णेगमवक्षहाराणं) नैगमव्यवहारनय संमत (अवत्तव्यगदवाई) अवक्तव्यक
હવે સૂત્રકાર અલ્પબડત દ્વારની પ્રરૂપણ કરે છે– " एएसिं णं भंते !" त्या
सहाय-(भंते !) भगवन् ! (णेगमववहाराणं एपसिं पाणुपुन्वीदव्याण भणाणुपुत्वीदव्वाण, अवत्तव्वगव्वाणं) नामव्यवहार नयस मत मा भानु. वाल्यो, मनानुपूवी न्यो भने मतव्य यामांना (कयरे क्यरेरितो) हैया ४ या द्रव्ये (दव्वटुयाए, पएसटुयाए, दन्वटुपएसट्टयाए) व्याय, प्रो.
यता भने याता प्रदेशातानी अपेक्षा (अप्पा वा बहुगा वा, तुल्या पा, विसेमाहिया वा ?) यया ये ४२di १५ प्रभा १ ४ याय॥
ક યા ક યા દ્રવ્ય કરતાં અધિક છે, કયા કયા એ કયા કયા ના જેટલાં જ છે અને કયા કયા બે કયા કયા દ્રવ્ય કરતાં વિશેષાધિક છે?
उत्तर-(गोयमा !) गौतम ! (णेगमववहाराणं) नरामयपहार नयमत (अवत्तव्यगव्वाई) मत व्या (पन्वयाए) यातनी अपेक्षाने
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मोगचन्द्रिका टीका सत्र ११८ अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम्
न्य (दबट्ठयाए) द्रव्पार्थना की अपेक्षा (सन्वयोवाई) सर्वस्तोक हैं। (अणाणुपु-धीदवाई) अनानुपूर्वीद्रव्य (दवट्टयाए) द्रव्यार्थता की अपेक्षा (विसेसोहिआई) विशेष अधिक है। (आणुपुवीदवाई) आनुपूर्वीद्रव्य (दबट्टयाए) द्रधार्थता की अपेक्षा (असंखेज्जगुणाई) असंख्यात गुणे हैं। (पएसट्टयाए) प्रदेशार्थताकी अपेक्षा (णेगमववहाराणं) नैगम. व्यवहारनय संमत (अणाणुपुब्बी दवाई) अनानुपूर्वी द्रव्य (सव्वस्थो. वाइं सर्वस्तोक हैं। क्योंकि (अपएसट्टयाए) अनानुपूर्वीद्रव्य में प्रदेशरूप भर्थ का अभाव है। तात्पर्य यह है, कि परमाणु रूप अनानुपूर्वी द्रव्यों में भी यदि वितीय आदि प्रदेश हो तो द्रव्यार्थता की तरह प्रदेशार्थना में भी अबक्तव्याव्यों की अपेक्षा से उनकी अधिकता हो जाती। परन्तु ऐमा तो है नहीं, क्योंकि परमाणु अप्रदेशी होता है। ऐसा सिद्धान्त का वचन है इसलिये प्रदेशता की अपेक्षा से ये अनानुपूर्वी द्रव्य सर्वस्तोक कहे गये हैं। (अवरायगव्याई) अवक्तव्यका द्रव्य (पएस. याए) प्रदेशार्थता की अपेक्षा (विसेसाहियाई) विशेष अधिक हैं। (आण पुन्वी दवाई) आनुपूर्वी द्रव्य (पएसट्टयाए) प्रदेशार्थता की अपेक्षा (असं. खेज्जगुणाई) असंख्यात गुणे हैं । (दव्वटुपएसट्टयाए) द्रव्यार्थता और. (सम्वत्थोवाइं) सौथी म८५ प्रभामा छ. (अणाणुपुठवी दवाई दव्वद्वयाए विसेसाहियाई) ०३ तानी अपेक्षा विया२ ४२पामा भाव तो मनानुपपी. द्रव्यो म१तय: ये। ४२di पिपाधि छ. (बाणुपुव्वीदव्वाई दवट्याए असंखेज्जगुणाई) भने दयार्थतानी अपेक्षा भानु द्रव्ये मनाना द्रव्ये ४२di पY AAभ्यात गया . (पएसट्टयाए) प्रदेशातानी अपेक्षा विया२ ४२पामा मात्र तो (णेगमववहाराणं) नरामय१७२ नयन मत (पणा. णुपुव्वीवाई) मनानुनी द्रव्ये (सव्वत्थोवाई) सोथी माछछ, ४।२। (अपरमदयाए) मनानुनी या प्रश३५ अन! ममा . मा यनना ભાવાર્થ એ છે કે પરમાણુ રૂપ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં પણ જે બે આદિ પ્રવે. શાને સદ્ભાવ હેત તે દ્રવ્યાર્થતાની જેમ પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષા એ પણ અવકતવ્યક દ્રવ્યે કરતાં અનાનુપૂવી દ્રવ્યોની અધિકતા જ સંભવી શકત, પરતુ એવી વાતને તે અહીં અવકાશ નથી, કારણ કે પરમાણુ અપ્રદેશી હોય છે, એવું સિદ્ધાન્તનું વચન છે. તેથી જ પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ मानानुर्षी दयने सस्तो (सोयी अ६५ प्रभाy) यु. (अवत्तगदम्बाई) भत०५४ द्रव्ये। (पएसट्टयाए) प्रशियितानी अपेक्षा भानुभूती द्रव्यो Rai विशेषाषिः . (आणुपुब्बीदव्वाई पएसद्वयाए बसंखेज्जगुणाई) प्रो.
म०६४
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अनुयोगद्वारसूत्र प्रदेशार्थता इन दोनों की अपेक्षा से (णेगमववहागणं) नैगम व्यवहारनय संमत-(अवत्तव्वगदव्याई) अवक्तव्यक द्रव्य (मन्वयोवोइं) सर्वस्तोक हैं। क्योंकि (दवट्ठयाए) अवक्तव्यक द्रव्यों में द्रव्यार्थता की अपेक्षा पहिलेसर्वस्तोकता प्रकट की गई है । (अणाणुपुब्बी दवाई दवट्टयाए अपए. सट्टगाए विसेमाहियाई) अनानुपूर्वी द्रव्य द्रव्यार्थता से और अप्रदेशार्थता से अबक्तव्यक द्रव्य की अपेक्षा कुछ अधिक हैं । (अवत्तव्वगदव्याई पएसट्टयाए विसेमाहियाई । ) अवक्तव्यक द्रव्य प्रदेशार्थता की अपेक्षाअनानुपूर्वी द्रव्यों से कुछ अधिक हैं। ( आणुपुची दवाई दबट्टयाए असंखेज्जगुणाई ) उभयार्थता को आश्रित करके द्रव्यार्थता की अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य असंख्यात गुणें हैं और (पएसट्टयाए) प्रदेशार्थता की अपेक्षा से भी (ताईचेव) वे ही आनुपूर्वीदव्य (असंखेज्जगुणाई) असं. ख्यात गुणे हैं (से तं अणुगमे) इस प्रकार यह अनुगम का स्वरूप है (से तं गमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी) इस प्रकार यहां तक नैगम व्यवहारनय संमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी के स्वरूप का कथन किया। सूत्र पदों का यह अर्थ है। इसकी व्याख्या ९० वें सूत्र के શાતાની અપેક્ષાએ આનુપૂવી દ્રવ્ય અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાત ri . (दबटुपएस टुयाए) द्रव्यायता भने प्रदेशातानी अपेक्षा वियर ४२१॥म भाव तो (णेगमववहाराणं) नेगमय।२ नयस मत (अवचव्वगदव्वाई) भरत-य: द्रव्ये सोथी मां, २५ (दवट्याए) द्रव्याथતાની અપેક્ષાએ અવકતવ્યક દ્રવ્યોમાં પહેલાં સર્વસ્તકતા (સૌથી અહ૫ प्रभार) मताभ भाव . (अणाणुपुव्वीदव्याई दवदयाए अपएमट्याए विसेमाहियाई) द्रव्यात भने प्रदेशातानी अपेक्षा मानानुनी व्यो अ१४तय४ ये ४२di विशेषाधि छे. (आणुपुवीदवाई व्वदयाए असं. खेजगुणाई) या तानी अपेक्षा पियार ४२वामां आवे तो मानुषी योगस यात छे. (पएसयाए) प्रशानी अपेक्षा पियार १२पामा भावे तो (ताई चेव) ते भानुषी द्रव्यो (असंखेज्जगुणाई) असण्यात आ ले. (से तं अणुगमे) मा ५४२अनुगमन ११३५ . (से तणेगमबबहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी) मारीत मी सुधीनां सूत्रोमा નગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિધિક ક્ષેત્રાનપૂર્વાના સ્વરૂપનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. સૂત્રપને આ અર્થ છે તેની વ્યાખ્યા ૯૦માં સૂત્ર પ્રમાણે સમજવી,
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गनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११८ अल्पबहुत्वद्वारनिरूपणम्
अत्रेदं बोध्यम्-द्रव्यगणनं द्रव्यार्थता, प्रदेशगणनं प्रदेशार्थता, उभयगगनं तूमयार्थता। तत्रानुपूर्या विशिष्टद्रव्यावगाहोपलक्षितास्यादिनभ:प्रदेशसमुदाया द्रपाणि, समुदायारम्भकास्तु प्रदेशाः। अनानुपू तु एकैकप्रदेशावगाहिद्रव्योपलक्षिताः सकलनभःप्रदेशाः प्रत्येकं द्रव्याणि, प्रदेशा. स्वत्र न संभवन्ति, एकैकमदेशद्रव्ये हि प्रदेशान्तरायोगात् । अवक्तव्य केषु तु समान जाननी चाहिये। "अत्रेदं बोध्यं-द्रव्यों की गिनती करना इसका नाम द्रव्यार्थता है । प्रदेशों की गिनती करना इसका नाम प्रदेशार्थता है । द्रव्यों और प्रदेशों की दोनों की गिनती-गणना करना उभयार्थता है। आनुपूर्वी में विशिष्ट द्रव्यों के अवगाह से उपलक्षित हुए जोनभःप्रदेश हैं उन नभःप्रदेशों के यह तीन नभःप्रदेशों का समुदाय है यह चार नभः प्रदेशो का समुदाय है “इत्यादि जो समुदाय हैं-वे समस्त ज्यादि नभःप्रदेश समुदाय द्रव्य हैं । और इस समुदायों के जो आरं. भक हैं वे प्रदेश हैं । अनानुपूर्वी में, एक एकप्रदेश अवगाही हुए द्रव्य से उपलक्षित जो सकल आकाशप्रदेश हैं वे अलग २ प्रत्येक द्रव्य है। प्रदेश यहां संभवित नहीं है। क्योंकि एक २ प्रदेश रूप द्रव्य में अन्य प्रदेशों का रहना असंभव है अवक्तव्यकों में लोक में जितने द्विक-दो दो प्रदेशों के योग हैं उतने वे प्रत्येक द्रव्य हैं । और इन द्विक योगों को
“ अत्रदं बोध्यं" मी मे समनपार्नु छ , योनी तरी ४२वी તેનું નામ દ્રવ્યાર્થતા છે અને પ્રદેશોની ગણતરી કરવી તેનું નામ પ્રદેશાર્થતા છે. દ્રવ્યોની અને પ્રદેશોની (ઉભયની) ગણતરી કરવી તેનું નામ ઉભયાર્થતા છે. આનુપૂર્વમાં, વિશિષ્ટ દ્રવ્યોના અવગાહથી ઉપલક્ષિત (યુકત) એવાં જે આકાશપ્રદેશના “આ ત્રણ આકાશપ્રદેશનો સમુદાય છે, આ ચાર આકાશપ્રદેશને સમુદાય છે,” ઈત્યાદિ રૂપ જે સમુદાયે છે તે સમસ્ત ત્રણ આદિ આકાશપ્રદેશમાં રહેલાં દ્રવ્યસમુદાયે આવી જાય છે. અને તે સમુદાયના જે આરંભકે છે તેમનું નામ પ્રદેશ છે.
અનાનુપૂર્વમાં, એક એક પ્રદેશમાં અવગાહિત થયેલા દ્રવ્યથી ઉપલક્ષિત જે સમસ્ત આકાશપ્રદેશો છે તેઓ અલગ અલગ પ્રત્યેક દ્રવ્ય છે અહી પ્રદેશ સંભવિત નથી, કારણ કે એક એક પ્રદેશ રૂપ દ્રવ્યમાં અન્ય પ્રદેશોનું અસ્તિત્વ અસંભવિત છે. અવક્તવ્યકોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે. તો લાકમાં જેટલાં દ્વિ યોગ (બબે પ્રદેશોના ગ) છે, એટલાં તે પ્રત્યેક તવ્ય છે, અને તે હિકોને આરંભ કરનારા પ્રદેશો છે,
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मनुयोगधारने यावन्तो लोके द्विकयोगाः संभवन्ति तावन्ति प्रत्येकं द्रव्याणि, तदारम्भकास्तु प्रदेशा इति। किंच 'सम्बत्योवाई गमववहाराणं अवत्तध्वगदम्बाई इत्यादि यदुक्त तत्रोच्यते-ननु यदा पूर्वोक्तयुक्त्या एकैको नभामदेशोऽनेकेषु द्विकसंयोगेषूपयुज्यते, तदा अनानुपूर्वी द्रव्येभ्योऽवक्तव्यकद्रव्याणामेव बाहुल्यमुपलभ्यते, पञ्चप्रदेशनमःकल्पनायामपि पञ्चसंख्यकेभ्योऽनानुपूर्वीद्रव्येभ्योऽष्टसंख्यकानामवक्तव्य कद्रव्याणामेव आधिक्यदर्शनात् , तत् कथमिहोक्त 'सव्वत्योवाई णेगमववहाराणं अवत्तनगदव्वाई' इति ? अत्रोच्यते-लोकमध्यमात्रमाश्रित्य अवक्तव्यकद्रव्याणामाधिक्यमुक्तम् । परन्तु लोकपर्यन्तस्थितनिष्कुटगता ये कण्टआरंभ करने वाले प्रदेश हैं । किंच- “सम्वत्योबाई णेगमववहाराणं अवत्तव्वगवाई" इत्यादि जो कहा है उसके विषय में शंकाकार का ऐसा कहना है कि पहिले प्रदर्शित युक्तिके अनुसार जब एक एक अकाशप्रदेश अनेक द्विक संयोगों में उपयुक्त होता है तब अनानुपूर्वी द्रव्यों से अवक्तव्यक द्रव्यों की ही बहुलता मालुम देती है जैसा पहिले कहा गया है कि आकाश के कल्पित पांच प्रदेशों में एक २ प्रदेश पर अनानुपूर्वी द्रव्य रहता है और आठ अवक्त. व्यक द्रव्य रहते हैं। अतः इस कथन से अनानुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा अवक्तव्यक द्रव्यों की बहलना पाई जाती है। तो फिर यहां ऐसे कैसे कहा कि नैगमव्यहारनय संमत अवक्तव्यक द्रव्य सर्वस्तोक हैं ?
उत्तर-लोकके भध्यभाग मात्र को आश्रित करके अवक्तव्यक द्रव्यों में अधिकता कही गई है । परन्तु जो एक २ प्रदेश लोक के अन्त तक
-“ सव्वत्थोवाई गमववहारणं अवत्तव्वगव्वाई" आये थे જે કહ્યું છે કે ન ગમવ્યવહારનયસંમત અવક્તવ્યક દ્રવ્યે સૌથી ઓછાં છે, પરન્તુ આ૫નું આ કથન બરાબર લાગતું નથી પહેલાં આપે જ એ વાતનું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે એક એક આકાશપ્રદેશ અનેક દ્વિસંગોમાં ઉપયુક્ત થાય છે, અને તેથી જ અનાનુપૂવ કો કરતાં અવક્તવ્યક દ્રવ્યોની જ અધિકતા હોવી જોઈએ આપે પહેલાં એવું કહ્યું છે કે લેકના પાંચ પ્રદેશે હોય તે દરેક પ્રદેશમાં એક એક અનાનુપૂવ દ્રવ્યની અવગાહના હોય તે પાંચ પ્રદેશમાં પાંચ અનાનુપૂવી દ્રવ્યો હોઈ શકે અને તે પાંચ પ્રદેશમાં આઠ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય રહી શકે આપના પૂર્વોક્ત આ કથન દ્વારા તે અવ. ક્તવ્યક દ્રવ્ય અનાનુપૂવી દ્રવ્ય કરતાં અધિક હોવાની વાતને જ પુષ્ટિ મળે છે. છતાં અહી આપે શા કારણે એવું કથન કર્યું છે કે નૈગમવ્યવહાર નયસંમત અવક્તવ્યક દ્રવ્યે સર્વસ્તક છે?
ઉત્તર-લેકના મધ્યભાગ માત્રને અનુલક્ષીને અવક્તવ્ય દ્રવ્યોની અધિતા બતાવવામાં આવી છે. પરંતુ જે એક એક પ્રદેશ લેકના અન્ત પર્યક્ત
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भोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११८ अस्पबहुत्वद्वारनिरूपणम् ५०९ कातयो विभेण्या निर्गता एकाकिनः प्रदेशास्ते विश्रेणिव्यवस्थितत्वादवक्तव्यक. वादबक्तव्यकत्वायोग्या इति तेषामनानुपूर्वीसंख्यायामेवान्तर्भावो भवति । अतो लोकमध्यस्थितां निष्कुटगतां च अनानुपूर्वीद्रव्यसंख्यां मीलयित्वा यदा केवली निर्दिशति, तदाऽवक्तव्यकद्रव्याण्येव स्तोकानि, अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु ततो विशेपाधिकानि । अत्र निष्कुटस्थापना ४४४ इति । अत्र विश्रेणिलिखितौ द्वौ अबतव्यकायोग्यौ द्रष्टव्यौ । इत्थम्भूतावामी सर्वलोकपर्यन्तेषु तु बहवः सन्ति, इत्यनानुपूर्तीद्रव्याणाम् अवक्तव्यकद्रव्यापेक्षया बाहुल्यं बोध्यम् । अतएवोक्तम्'सबत्योवाई णेगमवहाराणं अत्तव्यगदम्बाई' इति । आनुपूर्वीद्रव्याणां तु तेभ्यो. स्थित एवं निष्कुट स्थान में हैं और जिनका आकार कण्टक जैसा है, श्रेणि से जो निकले हुए नहीं हैं, ऐसे वे प्रदेश विश्रेणि में व्यवस्थित होने के कारण अवक्तव्यक के योग्य नहीं माने गये हैं । अतः इनका अन्तर्भाव अनानुपूर्वी की संख्या में ही हुआ है । इसलिये लोक के मध्य में स्थित और निष्कुट जो अनानुपूर्वी द्रव्यों की संख्या है उसको मिलाकर जिस समय-केवली भगवान् इसका कथन करते हैं। तब वेऐसा ही कहते हैं कि अवक्तव्यक द्रव्यही स्तोक हैं और अनानुपूर्वीद्रव्य उनसे कुछ अधिक हैं । निष्कुट की स्थापना यहां ४ ४ ४ इस प्रकार से है। इसमें विश्रेणि लिखित दो अवक्तव्यक के अयोग्य हैं। इस प्रकार के तो ये समस्त लोक के अन्त तक बहुत हैं। इसलिये अवतव्यक द्रव्यों की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्यों की अधिकता जाननी चाहिये ? થિત (રહેલે) છે અને નિષ્ફટસ્થાનમાં છે અને જેને આકર કંટક (કાંટા) જે છે, શ્રેણિમાંથી જેઓ નીકળેલા નથી, એવા તે પ્રદેશ વિશ્રેણિમાં વ્યવસ્થિત હોવાને કારણે તેમને અવક્તવ્યક કહેવાને ગ્ય ગણ્યા નથી તેથી તેમને સમાવેશ અનાનુપૂર્વીની સંખ્યામાં જ થયો છે. તેથી લેકની મધ્યમાં સ્થિત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય અને નિષ્ફટગત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોની સંખ્યાનો સરવાળો કરીને જ્યારે કેવલીભગવાન તેમનું કથન કરે છે ત્યારે તેઓ એવું જ કહે છે કે અવક્તવ્યક દ્રવ્યો જ ઓછાં છે અને અનાનુપૂવ દ્રવ્ય તેમના કરતાં विशेषाधिः छ निटनी स्थापना (आकृति) मही' मा प्रमाणे ठे-'४४४' તેમાં વિશ્રેણિ લિખિત બે અવક્તવ્યને ગ્ય નથી. આમ તે તેઓ સમસ્ત લાકના અન્ત સુધીમાં ઘણું જ છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિને કારણે જ અવકતવ્યક દ્રવ્ય કરતાં અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યોની અધિકતા સમજવી જોઈએ.
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मनुयोगद्वारस्ते siलात गुणत्यमुक्तोत्र। विशेषस्त्र-उमयार्थताविचारे आनुपूर्वीद्रव्याणि स्वद्रव्ये. भ्यः प्रदेशार्थतयाऽसंख्येयगुगानि, एकैकस्य तावद् द्रव्यस्य व्यादिभिरसंख्येयैनमः पदेशैरारब्धत्वात , नमःमदेशानां च संमिलितानामपि असंख्येयत्वादिति । प्रस्तुतविषयमुपसंहरमाह-से तं' इत्यादि स एषोऽनुगमः- अनुगमविषयोऽत्रसम्पूर्णः । तत्समाप्तौ नैगमव्यवहारसम्मताऽनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी उपसंहृतेति तदुपसंहारमाह-'से तं णेगम०' इत्यादि-सैषा नैगमव्यवहारसम्मताऽनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी सम्पूर्णा ॥मू० ११८॥
इसलिये अब मूत्रकारने "सव्वस्थोवाइं णेगमववहाराणं अवत्तव्य गदव्वाई" ऐसा कहा है । अनानुपूर्वी द्रव्य उनसे असंख्यात गुणे में यह बात पहिले स्पष्ट की जा चुकी है। यहां इतनी विशेषता और है कि जिस प्रकार आनुपूर्वी द्रव्य अनानुपूर्वी द्रव्यों से असंख्यात गुणे हैं । उसी प्रकार वे उभयार्थता से विचरित होने पर प्रदेशार्थता की अपेक्षा अपने २ द्रव्यों से भी असंख्यात गुणे हैं। क्योंकि एक २ आनु. पूर्वी द्रव्य तीन आदि असंख्यात नभः प्रदेशों (आकाश) से निष्पन्न होता है और संमिलित हुए भी वे नभःप्रदेश असंख्यात ही होते हैं। इस प्रकार अनुगम का विषय समाप्त होते ही नैगमव्यवहारनयसंमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का कथन समाप्त हो गया-इस विषय की सूचना से तं', इत्यादि पदों द्वारा सूत्रकार ने दी है। सू० ११८ ॥
तथा ॥ सूत्र॥रे घुछे । “ सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अव्वत्तव्वगदवाइं" " नाम-या२ नयमित अपतव्य द्रव्यो पोथी मौwi છે.” આનુપૂવ દ્રવ્ય તેમના કરતાં (અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં) અસંખ્યાત ગણાં છે. એ વાત તે પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી ચુકી છે. અહીં એટલી વધુ વિશેષતા છે કે જે પ્રકારે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાત ગણાં છે, એ જ પ્રમાણે ઉભયાર્થતાની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે પણ આનુપૂર્વી દ્રવ્યો અનાનુપૂવ દ્રવ્ય કરતાં અસંખ્યાત ગણાં જ છે કારણ કે પ્રદેશાર્થતાની અપેક્ષાએ પણ એજ પ્રકારની પરિસ્થિતિ છે. કારણ કે પ્રત્યેક આનુપૂવી દ્રવ્ય ત્રણ આદિ અસખ્યાત આકાશપ્રદેશ વડે નિષ્પન્ન થાય છે, અને તે આકાશપ્રદેશની એકંદર સંખ્યા પણ અસખ્યાત જ થાય છે. આ પ્રકારે અનુગામનું વિષય નિરૂપણ અહીં સમાપ્ત થાય છે. અને અનુગામનું વર્ણન સમાપ્ત થવાથી નૈગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિધિદી त्रानुका ४थन ५५ ५३ याय छे. “ से तं" या सूत्र | सारे मेल id सथित श. ॥९०११८॥
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र ११९ अनौपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५११
इत्वं नैगमव्यवहारसम्मतामनौनिधिको क्षेत्रानुपूर्वीमुक्त्वा सम्पति संग्रहनयसंमतामनौषनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वीमाह__मूलम्-से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुत्बी ? संगहस्स अणावणिहिया खेत्ताणुपुवी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा अत्थपयपरूवणया१, भंगसमुक्त्तिणयार,भंगोवदंसणया३, समो. यारे४, अणुगमे५। से किं तं संगहरस अत्थपथपरूवणया?, संगहस्स अत्थपयपरूवणया-तिपएसोगाढे आणुपुत्वी, चउप्पएसोगाढे आणुपुठवी, जाव दसपएसोगाढे आणुपुत्री, संखिज्जपएसोगाढे आणुपुटवी, असंखिज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी, एगपएसोगाढे अणाणुपुठवी, दुप्पएसोगाढे अवत्तठाए। से तं संगहस्स अत्थपयपरूवणया। एयाए णं संगहस्स अत्थपयपरुवणयाए किं पओयणं ?, संगहस्स अत्थपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया कज्जइ। से किं तं संगहस्त भंगसमुक्त्तिणया ?, संगहस्त भंगसमुक्त्तिणया अस्थि आणुपुवी, अस्थि अणाणुपुब्बी अस्थि अवत्तव्यए। अहवा अत्थि आणुपुवी अणाणुपुवी य, एवं जहा दव्वाणुपुबीए संगहस्स तहा भाणियव्वं जाव से तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया। एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणयाए किं पओयणं? एयाए णं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणयाए संगहस्त भंगोवदंसणया कज्जइ। से किं तं संगहस्स भंगोवदंसणया?, संगहस्तभंगोवदंसणया-तिप्पएसोगाढे आणुपुब्बी, एगपएसोगाढे अणाणुपुव्वी, दुप्पएसोगाढे अवत्तवए । अहवा तिप्पएसोगाढे य एगपएसोगाढे य आण
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मनुयोगवार पुब्बी य अणाणुपुव्वी य, एवं जहा दवाणुपुवीए संगहस्स तहा खेत्ताणुपुवीए वि भाणियव्वं जाव से तं संगहस्स भंगोवदंसणया। से किं तं समोयारे ? समोयारे-संगहस्स आणु. पुचीदव्वाइं कहिं समोयरंति ? किं आणुपुवीदव्वेहि समोय. रांति? अणाणुपुवीदवेहिं ? अवत्तबगदहिं ? तिण्णिवि सटाणे समोयरंति। से तं रूमोयारे। से किं तं अणुगमे ? अणुगमे अट्ठव्हेि पण्णते, तं जह!-संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुं नस्थि । संगास्स आणुपुटीदवाई किं अत्थि पत्थि ? णियमा अस्थि । एवं तिषिण वि। सेसगदाराई जहा दव्वाणुपुबीए संगहस्त तहा खेत्ताणुपुबीए वि भाणियबाइं जाव से तं अणुगमे । से तं संगहस्त अगोवणिहिया खेत्ताणुपुवी। से तं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुवी ॥सू०११९॥
छापा--अथ झा वा संत्रस्य अनिधिकी क्षेत्रानुनी ? संग्रहस्य भनौषनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अर्थ पदप्ररूपणता १, भंगसमुत्कीर्त
इस प्रकार नैगमव्यवहारनयसंमत अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करके भय सूत्रकार संग्रहनयमान्य अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करते है-से कि तं इत्यादि
शब्दार्थ- ( से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया खेसाणुपुव्वी ?)
प्रश्न-हे भदन्त ! पूर्वरक्रान्त पहिले प्रारंभ की हुई उस संग्रहनय मान्य अनोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
આ પ્રકારે નિગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિધિ કી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર સંગ્રહનયસંમત અનોપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું नि३५५ रे छ-" से किं तं" त्याह
शा-(से किं तं संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी) मापन। પૂર્વ પ્રકાન્ત-પહેલાં જેને પ્રારંભ થઈ ચુકી છે એવી–સંગ્રહનયસંમત અનપનિશ્ચિકી લેત્રાનું વનું સ્વરૂપ કેવું છે !
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बोगवन्द्रिन टीका सूत्र ११९ अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५१३ नसार, मंगोपदर्शनता३, समवतार!४, अनुगमः ५ । अथ का सा संग्रहस्य अर्थपद. पागता ? संग्रहस्य अर्थपदमरूपणता-त्रिप्रदेशावगाह आनुपूर्वी, चतुष्पदेशावगाडमानपूर्ती, यावद् दशमदेशावगाढ जानुपूर्वी, संख्येयप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी,
उत्तर-(संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी पंचविही पण्णत्ता) संवहनयमान्य अनोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी पांच प्रकार की कही गई है। (तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(अस्थपयारूवणया) १ अर्थपदप्ररूप. णता ( भंगसमुकित्तगया)२ भंगममुत्कीर्तनता (भंगोवदंसणया)३ मंगोपदर्शनता ( समोयारे ) ४ समवतार (अणुगमे) और अनुगम ।
प्रश्न-(से किं तं संगहस्स अस्थपयपरूक्षणया) संग्रहनय मान्य अर्थपदप्ररूपणता क्या है ?
उत्तर (संगहस्स अस्यपयपरूवणया) संग्रहनयमान्य अर्थपदप्ररूपणता इस प्रकार से है-(तिप्पएसोगाढे आणुपुव्वी) तीन प्रदेश में अवगावस्थित-त्र्यणुक आदि द्रव्य आनुपूर्वी है ( चउप्पएसोगाढे आणुपुथ्वी) चार प्रदेशों में अवगाढ चतुरणुक आदि आनुपूर्वी है
(जाव दसपएसोगाढे आणुपुव्वी) यावत् दशप्रदेशावगाट ग्य आनुपूर्वी है (संखिज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी) संख्यात प्रदेशावगार म्य आनुपूर्वी है। (असंखिज्जपएसोगाढे आणुपुव्वी) असंख्यात प्रदे.
त्ति:-(संगहस्स अणोरणिहिया खेसाणुपुवी पंचविहा पण्णता) समनय सभत मनोपनित्रिनुपूर्वा पाय प्रानीही छे. (संजहा) तारे। नाये प्रभारी -(अत्थपयपरूवणया) (१) अर्थ ५६५३५यता, (भंगसमुकिसणया) (२) समुहीत नता, (भंगोवदंसणया) (8) पशिनता, (समोयारे) (४) सभवता२ भने (अणुगमे) (५) अनुगम.
प्रश्न-(संगहरस अत्थपयपहवणया ?) सनयमान्य अ५४५३५६तानु ९१३५ छ ?
उत्तर-(संगहस्स अत्यपयपरूवणया) सहनयमान्य अ५४५३५५ता था २नी 8-(तिपएसोगाढे आणुपुव्वी) त्रए प्रदेशमा अपार (२४) १९ मावाणु द्रव्य भानुभूपी ३५ है, (चउप्पएस्रोगाढे पाणुपुव्वी) या२ प्रदेशमा
10 या२ भाद्र०५ ५ भानुकी , (जाव दस पएसोगाढे आण. पुब्बी) ४० पर्यन्तना प्रदेशमा अ५८ द्र०य मानुषी छ, (संखिज्जपएमोगाढे आणुपुवी) सयात प्रशामा अ न्य भानुका छ, (असं. खिन्नपएसोगाढे आणुपुव्वी) अने अभ्यात प्रदेशमा १ ०५ पर
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भनुयोगद्वार असंख्येयप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी, एकपदेशावगाढ अनानुपूर्वी द्विपदेशावगाव अवक्तव्यकम् । सैषा संग्रहस्य अर्थपदप्ररूपणता । एतस्याः खलु संग्रहस्य अर्थ - प्ररूपणतायाः किं प्रयोजनम् ? संग्रहस्य अर्थमरूपण या संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते । कोऽसौ संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्त्तनता ? भङ्गसमुत्कीर्त्तनता अस्ति आनुपूर्वी, अस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अवक्तव्यकम् । अथवा अस्ति आनुपूर्वीच अनानुपूर्वी च । शावगाढ द्रव्य आनुपूर्वी हैं। (एग एसोगाटे अणाणुपुथ्वी) एक प्रदेशावगाढ द्रव्य अनानुपूर्वी है। (दुप्पएसोगाढे अवत्तव्यए) दो प्रदेशावगाढ द्रव्य अवक्तव्यक है । ( से तं संगहस्स अस्थपयपरूवणया) इस प्रकार यह संग्रहनय मान्य अर्थपदमरूपणता है। (एयाएणं संगहस्स अत्थपयपरूवणयाए किं पणं ) इस संग्रहनयमान्य अर्थपदप्ररूपणता से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? (संगहस्स अत्थपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुक्किन्तणया कज्जई )
उत्तर- इस संग्रहनयमान्य अर्थपदप्ररूपणता से संग्रहनयमान्य भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है। यही इसका प्रयोजन है (से किं तं संगहस्स भंग समुत्तिणया) हे भदन्त ! संग्रहनय मान्य यह भंगसमूरकीर्तनता क्या है ? (संगहस्स भंग समुत्तिणया अस्थि आणुपुन्वी अस्थि अणाणुपुत्री अस्थि अवलम्बए) संग्रहनय मान्य भंगसमुत्कीर्तनता ऐसी है कि आनुपूर्वी है अनानुपूर्वी है अवक्तव्यक द्रव्य है । ( अहवा अस्थि आणु
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छे. (गोगाढे भणाणुपुब्बी) मे प्रदेशमां अवगाढ द्रव्य अना नुपूर्वी ३५ छे, (दुप्पपसोगाढे अवन्त्तव्वए) मे प्रदेशमां अवगाढ द्रव्य यवउत्तव्य छे. ( से तं संगहस्स अत्यपयपरूवणया) सश्रनयमान्य अर्थ पहअ३पशुતાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે.
प्रश्न- (याएणं संगहरु अत्यपयपह्नणणयाए कि पओयणं ?) मा सभनयમાન્ય અર્થ પદપ્રરૂપણુતા વડે કયા પ્રત્યેાજનની સિદ્ધિ થાય છે ?
उत्तर- (संगहस्स अत्थपयपरूवणयाए संगहस्व भंगल मुकितणया कल्लाइ ) આ સગ્રહનયસંમત અથ પદપ્રરૂપણતા દ્વારા સંગ્રહનયમાન્ય ભગસમુત્કીત્તનતા કરવામાં આવે છે. એટલું જ તેનું પ્રયાજન છે,
ux-(À fá á ángu inagfagnar 1) 2 q?qq! d'agqyuમત તે ભગસમુત્કીનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે !
उत्तर - ( संगहस्स भंगसमुत्तिणया अस्थि आणुपुन्त्री, अस्थि अणाणुपुब्बी अस्मि अवत्तव्वर) साथ नयसभित भगअभुडीर्तनता या प्रभारनी - भानुपूर्ति छे, अनानुपूर्वी छे भने भवतव्य द्रव्य छे. (अहना अस्थि जाणुपुब्बी,
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अनुषोगन्द्रिका टीका स्त्र ११९ अनोपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी निरूपणम् ५१५ संवा द्रव्यानुपाः संग्रहस्य तथा भणितव्यं यावत् सैषा संग्रहस्य भङ्गसमुत्कीर्तमला। एतस्याः खलु संग्रहस्य भासमुत्कीर्तनतायाः किं प्रयोजनम् ? एतया सख संग्रास्य भासमुत्कीर्तनतया संग्रहस्य भनोपदर्शनता क्रियते । अथ काऽसौ संग्रहस्य भगोपदर्शनता ? संग्रहस्य भङ्गोपदर्शनता-त्रिप्रदेशावगाढः पुब्बी, अणाणुपुत्वीय एवं जहा दवाणुपुबीए संगहस्स तहा भाणियव्वं जाव से तं संगहस्स भंगसमुक्तित्तणया) अथवा आनुपूर्वी है अनानुपूर्वी है इस प्रकार जिस रीति से द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में संग्रहनय मान्य भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप कहा गया है, उसी प्रकार से इस क्षेत्रानुपूर्वी में भी संग्रनयमोन्य भंगसमुत्कीर्तनता का स्वरूप जानना चाहिये। यह स्वरूप कथन का संग्रह " से तं संगहस्स भंगसमुक्तितणया" इसपाठ तक करना चाहिये । (एयाएणं संगहस्स भंगसमुकितणयाए कि पओयणं? कज्जइ) इस संग्रहनय मान्य भंगसमुत्कीर्त नता का क्या प्रयोजन है ?
उत्तर- (एयाएणं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए संगहस्स भंगो वदंसणया कज्जइ) इस संग्रहनय मान्य भंगसमुत्कीर्तनता से संग्रहनय मान्य भंगोपदर्शनता की जाती है। (से किं तं संगहस्स भंगोवदंसणया ? ) हे भदन्त ! संग्रहनय मान्य वह भंगोपदर्शनता क्या है ? अणोणुपुन्वी य, एवं जहा दवाणुपुवीए संगहस्स तहा भाणियव्वं जाव से तं संगहस्य भंगम मुक्कित्तणयो) अथवा “मानुपूकी छे, मनानुपी छे" ઈત્યાદિ જે પ્રકારનું કથન દ્રવ્યાનુપૂર્વીના પ્રકરણમાં સંગ્રહનયસંમત ભંગસમુત્કીર્તનતા વિષયમાં કરવામાં આવ્યું છે એ જ પ્રકારનું કથન આ ક્ષેત્રાનુપૂર્વમાં પણ સંગ્રહનયમાન્ય ભંગસમુકીર્તનતાના વિષયમાં પણ સમજવું नये ॥ यन " से तं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया" मा सूत्रमा पर्यन्त
ये. प्रश्न-(एयाएण संगहस्स भेगस मुक्तित्तणयाए किं पओयण ?) ॥ सभडन. ધમાન્ય ભંગસમુત્કીર્તનતાનું પ્રયોજન શું છે?
उत्तर-(एयाएणं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणयाए संगहस्स भंगोवर्दसणया फज्जइ) मा नयभान्य भुडीत नता १3 सनयमान्य गोप. શનતા કરવામાં આવે છે.
प्रल-(से किं तं संगहस्स भैगोवदमण या १) 8 सपन् । अनियमत તે ભગેપદર્શનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
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अनुयोगद्वारस्ते भावपूर्वी, एकपदेशावगाडः आनुपूर्वी द्विपदेशावगाढा अवक्तव्यकम्। अथवा-त्रिप्रदेशावगाढच एकप्रदेशावगाढश्च आनुपूर्वी च अनानुपूर्वी च, एवं यथा द्रव्यानुपूर्त्या संग्रहस्य तथा क्षेत्रानुपूर्यामपि भणितष्य यावत् सैषा संग्रहस्य मङ्गोपदर्शनता। अथ कोऽसौ समवतारः ? समवतार:संग्रहस्य आनुपूर्वी द्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किमानुपूर्वी पेषु समवतरन्ति ?, अनानुपूर्वी द्रव्येषु ? अवक्तव्यकद्रव्येषु ? त्रीण्यपि स्वस्थाने समवतरन्ति, सोऽसौ समवतारः। अथ कोऽसावनुगम: ? अनुगमः अष्टविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-यावत् अल्पबहत्त्वं नास्ति । संग्रहस्य आनुपूर्वीद्रव्याणि किं सन्ति न सन्ति ? नियमात सन्ति । एवं त्रीण्यपि । शेषकद्वाराणि यथा द्रव्यानुपूा संग्रहस्य तथा क्षेत्रानुः पूर्व्यामपि भणितव्यानि यावत् स एषोऽनुगमः। सैषा संग्रहस्य अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी। सैपा अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी ।।मू० ११९॥ ___टीका-'से कि तं' इत्यादि। संग्रहनयाभिमत द्रव्यानुपूर्वीवदेव माय इदमपि सूत्रम् । अतो व्याख्यातमायमेव, अस्य व्याख्या चार्नवतितमसूत्रादारभ्य सप्तनवतिपर्यन्तमूत्रे विलोकनीया ।।मु०११९॥ इस्थमनोपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वीमभिधाय सम्पत्योपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वीमाह
मूलम्-से किं तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुठवी? ओवणिहिया खेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा, पुव्वाणुपुब्बी, पच्छाणुपुवी, अणाणुपुव्वी। से किं तं पुत्वानुपुवी ? पुवाणुपुव्वीअहोलोए तिरियलोए उड्डलोए। से तं पुव्वाणुयुब्बी। से किं तं
उत्तर- (संगहस्स भंगोवदंसणया ) संग्रहनय मान्य भंगोपदर्शनताइस प्रकार से है-(तिपएसोगाढे आणुपुठवी) त्रिपदेशावगाढ आनुपूर्वी इत्यादि आगेके समस्त पदों का अर्थ संग्रहनय मान्य द्रव्यानुपूर्वी में कथित भंगसमुत्कीर्तनता आदि के सूत्रों की व्याख्या के अनुसार ही है। इसलिये इनमें पदों की व्यख्या के लिये पिछे ९४ वे सूत्र से लेकर ९७ वें तक के सूत्रों को देखना चाहिये ॥ सू० ११९॥
उत्तर-(संगहस्स भंगोवदंसणया) स461यमान्य ५४ मतानु વરૂપ આ પ્રકારનું છે
(तिपएसोगाढे आणुपुत्वो) त्रिशा॥d मानुषी त्या पूर्वरित સમસ્ત પદનો અર્થ સંગ્રહનયમાન્ય વ્યાનુપૂર્વાના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ ભંગસમુત્કીર્તનતા આદિના સૂત્રોની વ્યાખ્યા પ્રમાણે જ છે. તેથી તેમાં જે પદે આવે છે તેમની વ્યાખ્યા જાણવા માટે ૯૪ થી ૭ સુધીના સૂત્રો વાંચી જવાની ભલામણ કરવામાં આવે છે. સૂ૦૧૧
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पपुवोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२० औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५१७ पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुत्री उडुलोए तिरिएलोए अहोलोए। से तं पच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपुब्बी ? अणाणुपुवी एयाए व एगाइयाए एगुत्तरियाए तिगच्छगयाए सेढीए मन्नमन्नन्भासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुची ॥सू० १२०॥
छाया-अथ का सा औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी ? औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी विविधा मनप्ता, तपथा-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्ण? पूर्वानुपूर्ती-अधोलोकः, तिर्यग्लोकः ऊर्ध्वलोकः । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का
इस प्रकार अनौपनिधि की क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करके अध सूत्र कार औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करते हैं
“से किं तं ओवणिहिया" इत्यादि।
शब्दार्थ- (से कि तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुच्ची? ) हे भदन्त ! संग्रहनय मान्य औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप हैं ?
उत्तर-(ओवणिहिया खेत्ताणुपुब्बी तिविहा पण्णत्ता) औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है-(तं जहो) वे उसके प्रकार ये हैं-(पुव्वाणुपुत्री, पच्छाणुपुची अणाणुपुत्री) १ पूर्वानुपूर्वी २ पश्चानुः पूर्वी (३) अनानुपूर्वी (वे किं तं पुव्वाणुपुव्वी) पूर्वानुपूर्वी क्या है ? _उत्तर- (पुवाणुगुब्बी) पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से है- (अहो लोए, तिरियलोए, उडुलोए) अधोलोक लियंग्लोक अवलोक । (से तं पुरवणु. पुब्बी) यह पूर्वानुपूर्वी है। (से किं तं पच्छाणुपुञ्ची) पश्चानुपूर्वी क्या है ?
આ પ્રમાણે અનૌપનિધિક ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર "Rोपनिषि क्षेत्रनुपूवी नुं धन ४२ छ– “से किं तं ओवणिहिगा" त्या
___ शहा-(से किं तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुत्री ?) भगवन् ! स48. નયમાન્ય ઔપનિધિકી ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(ओवणिहिया खेवाणुपुची तिविहा पण्णत्ता) मोपनिधिही क्षेत्रानु. पूर्वी १५ ॥२नी ही छे. (तंजहा) ते प्रा। नाय प्रमाणे छ-(पुवाणुपुव्वी, पच्छाणुपुत्री, अणाणुपु०वी) (१) पूर्वानुभूती', (२) ५श्वानुषी (3) मनानुका
प्रश्न-(से किं तं पुव्वाणुपुब्बो) भूषानुपूवी मेट शु?
उत्तर-(पुठवाणुपुव्वी) पूर्वानु५ ११३५ मा नुं छे-(अहोलोए, तिरियलोए, उलोए) अधोखा, तिय अने sarals, (से तं पुव्वाणुपुव्वी) પ કરે કહેવું તેનું નામ પૂર્વાનુમૂવી છે.
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अनुयोगहारले सा पश्चानुपूर्वी-पश्चानुपूर्वी ऊर्धलोकः, तिर्यग्लोकः, अधोलोका। सैषा पश्चानुपूर्वी। अथ का सा अनानुपूर्बो ? अनानुपूर्ती-एतस्यामेव एकादिकायामेकोत्तरिकाया विगच्छगताया श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपन्यूनः । सैषा अनानुपूर्वी ॥सू०१२०॥
टीका--'से किं तं' इत्यादि । व्याख्याकृतपाया । ऊर्षलोकादि लोकायविषये किंचिदुच्यते-औषनिधिको द्रव्यानुपूर्वीपस्तावे द्रव्यानुपूर्व्यधिकारा धर्मा____ उत्तर-(पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी इसप्रकार से है-उडलोए तिरियलोए अहोलोए) उप्रलोक, तिर्यग्लोक, अधोलोक, (से स पच्छाणुपुठवी) यह पश्चानुपूर्ण है । (से कितं अणाणुपुब्बी) अनानुपूर्वी क्या है? ___ (अणाणुपुच्ची) अनानुपूर्वी इस प्रकार से हैं। (एयाएचेव एगइयाए एगु त्तरियाए तिगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवणो-सेतं अणाणुपुत्री) जिसमें पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी ये दोनों नहीं हैं उसका नाम अनानुपूर्वी है इसमें विवक्षित अधोलोक आदि क्रमद्वय को उल्लंघनकरके परस्पर सं भवित भंगों से उन पदों की विरचना की जाती है । इस अनानु. पूर्वी में जो श्रेणी स्थापित की जाती है, उसमें सब से पहिले १ एक संख्या स्थापित की जाती है-बाद में एक २ की उत्तरोत्तर वृद्धि तीन संख्या तक होती चली जाती है। फिर इनमें परस्पर में गुणा किया जाता है। इस प्रकार अन्योन्याभ्यस्त राशि बन जाती है। इसमें से आदि अंत के
प्रश-(से किं तं पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी ने ४४ छ ?
उत्तर-(पच्छाणुपुव्वी) ५श्वानुवा' मा प्रा२नी य छ-(उङ्कलोए, तिरियलोए, अहोलोए) Brqals, तियो भने भयो, मा प्रभारी र इमे उ' (से तं पच्छाणुपुवी?) तेनु नाम पश्चानुनी छे.
प्रश-(से किं तं अणाणुपुव्वी) मनानुभूती ये शु. १
उत्तर-(अणाणुपुव्वी) अनानुनी मानी डाय छे-(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए तिगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णन्भासो दुरूवूणो-से तं अणाणुपुव्वी) मा पूर्वानु५वी अने ५श्वानुवा थे -नेन समारय थे, એવા ક્રમપૂર્વક કથન કરવું તેનું નામ અનાનુપૂવી છે. તેમાં ઉપર્યુક્ત બને કમનું ઉલંઘન કરીને પરસ્પરની સાથે સંભવિત ભંગે (ભાંગાએ) વડે તે પની વિરચના કરવામાં આવે છે. આ અનાનુપૂર્વીમાં જે શ્રેણી સ્થાપિત કરવામાં આવે છે, ત્યાર બાદ ત્રણ સંખ્યા સુધી ઉત્તરોત્તર એક એક સંખ્યાની વૃદ્ધિ થતી રહે છે. ત્યાર બાદ તેમને પરસ્પરમાં ગુણાકાર કરાય છે. આ પ્રકારે અન્ય અભ્યાસ રાશિ બની જાય છે તેમાંથી અતિ અને
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અનુયાગ દka
पोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२० भोपनिधिको क्षेत्रानुपू/निरूपणम् ५५९ स्तिकायादीनि द्रव्याणि पूर्वानुपूादित्वेन ९८ अष्टनवति सत्रे उदाहतानि । अब तु क्षेत्रानुपाः प्रस्तावात अधोलोकादयः पूर्शनुपूादित्वेनोक्ताः। अधोडोकादिविभागास्तु-अधिश्चतुर्दशरज्ज्वायतस्य अनियतविस्तारस्य पञ्चास्तिदो भंग कम कर ने पर अनानुपूर्वी बन जाती है। यही अनानुपूर्वी है। इस सत्र की व्याख्या के लिये ९८ वां सून देखो। ऊर्ध्वलोक आदि जो तीन लोक हैं, उनके विषय में यहां कुछ-कहा जाता है।-औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में द्रव्यानुपूर्वी का अधिकार होने से वहां धर्मा. स्तिकाय आदि द्रव्यों को पूर्वानुपूर्वी आदिरूप से उदाहृत किया गया है। परन्तु यहां क्षेत्रानुपूर्वी का प्रकरण चल रहा है इसलिये अधोलोक आदि पूर्वानुपूर्वी आदि रूप से उदाहृत हुए हैं। लोक के ये जो ऊर्ध्व: लोक अधोलोक आदि तीन विभाग किये गये हैं मो उसका कारण यह है कि मध्यलोक के बीचोंबीच मेरु पर्वत है। इसके नीचे का भाग अधोलोक और ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक है। तथा बराबर रेखा में तिरछा फैला हुआ मध्यलोक है। मध्यलोक का तिरछा विस्तार अधिक है इसलिये इसे तिर्यग्लोक भी कहते हैं। लोक ऊपर से नीचेतकलंबाई में १४ राजू है । विस्तार इसका अनियत है। यह पांच अस्ति
અન્તના બે ભંગ ઓછાં કરી નાખવાથી અનાનુપૂવ બની જાય છે. અનાનવનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સમજવા માટે ૯૮મું સૂત્ર વાંચી જવું.
હર્વલક આદિ જે ત્રણ લેક છે તેમના વિષે હવે અહીં થોડું કથન કરવામાં આવે છે
ઔપનિષિક દ્રવ્યાનવીના પ્રકરણમાં દ્રવ્યાનુપૂવને અધિકાર હેવાથી ત્યાં ધર્માસ્તિકાય આદિ દ્રવ્યોનું પૂર્વાપૂવ આદિ રૂપે કથન કરવામાં આવ્યું હતું. પરંતુ અહીં ક્ષેત્રાનુપૂવને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે તેથી અહીં અલક આદિ ક્ષેત્રનું પૂર્વાપૂવ આદિ રૂપે કથન કરવામાં આવ્યું છે. લેકના ઉર્વક અધલેક (તિયક) આદિ જે ત્રણ વિભાગ કરવામાં આવ્યા છે તેનું કારણ એ છે કે મલેકની વચ્ચે વચ મેરુપર્વત છે. તેની નીચેના ભાગને અલેક અને ઉપરના ભાગને ઉકલેક કહે છે તથા બરાબર રેખામાં તિરછી ફેલાયેલે મધ્યક છે. મધ્યલેકને તિર વિસ્તાર અધિક હોવાને કારણે તેને તિયક પણ કહે છે લેકની ઉપરથી નીચે સુધીની લંબાઈ ૧૪ રાજુ પ્રમાણ છે. અને તેને વિસ્તાર અનિયત છે તે પાંચ અસ્તિકાથી
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अनुयोगबारब कायमयस्य त्रिधा परिकल्पनया सम्पद्यन्ते । तत्रास्यां रत्नममायां बहुसमभूभागे मेरुमध्ये नभःप्रदेशद्वयेऽष्टप्रदेशो रुचकोऽस्ति । तस्य प्रतरद्वयस्य मध्ये एकस्मादधस्तनमतरादारभ्याधोऽभिमुखं नव योजनशतानि परिहत्य परतः सातिरेकसप्तरज्ज्वायतोऽधोलोकः । अथवा-अधः शब्दोऽशुभार्थकः तत्र च क्षेत्रप्रभावाद बाहुल्येनाशुभएव द्राणां परिणामो भवति। अशुभपरिणामिद्रव्यवस्वादेव स लोकः अधोलोक इत्युच्यते । उक्तं च
'अहव अहोपरिणामो खेत्ताणुभावेण जेण ओसणं पायः ।
असुभो अहोत्ति भणिभो दव्याणं तेणऽहोलोगो॥" छाया-अथवा अधः परिणामः क्षेत्रानुभावेन येनोत्सन्नम् । ___अशुमोऽध इति भणितो द्रव्याणां तेनाधोलोकः ॥इति।। कायों से व्याप्त है लोक के अधः मध और ऊर्ध्व इस प्रकार से ये तीन विभाग हैं। इस रत्नप्रभा पृथिवीपर पहु समभूभागवाले मेरु पर्वत के मध्य में आकाश के दोप्रतरों में अर्थात् दो दो प्रदेशों के वर्ग में
आठ रुचक प्रदेश हैं। उस प्रतरद्वय में से एक अधस्तन प्रतर से ले कर नीचे की नौ सौ योजन की गहराई को छोड़कर उसके आगेनीचे कुछ अधिक सात राजू विस्तारवाला अधोलोक है । अथवा-अधः शन अशुभ अर्थ का वाचक है । उस अधोलोक में क्षेत्र के प्रभाव से अधि. कतर अशुभ ही द्रव्यों का परिणाम होता है। इसलिये अशुभ परिणामवाले द्रव्यों से युक्त होने से कहा जाता है यही बात उक्तंच करके "अहव अहो परिणामो" इत्यादि गाथा द्वारा निर्दिष्ट की गई है। तथा उसी प्रकार द्रव्य में से एक उपरितन प्रतर से लेकर ऊंचे नौ सौ
વ્યાપ્ત છે. લેકના ત્રણ વિભાગ નીચે પ્રમાણે છે-(૧) અધઃ (૨) મધ્ય અને (૩) ઉદર્વ આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી પર બહુસમભૂભાગવાળા મેરુ પર્વતના મધ્યમાં આકાશના બે પ્રતિરોમાં–એટલે કે બબ્બે પ્રદેશોના વર્ગમાં આઠ રુચકપ્રદેશ છે. તે બે પ્રતરમાંના એક અપસ્તન પ્રતરથી લઈને નીચે ૯૦૦ જનની ઊંડાઈને પાર કરવાથી સાત રાજ કરતાં અધિક વિસ્તારવાળે અલેક આવે છે અથવા “અધ:' પદ્ધ અશુભ અર્થનું વાચક છે. તે અલકમાં ક્ષેત્રના પ્રભાવને લીધે અધિકતર અશુભ દ્રવ્યપરિણામ જ હોય છે. આ રીતે અથવા પરિણામવાળાં દ્રવ્યોથી યુક્ત હોવાને કારણે તે લેકને અલેકને નામે
पामा भाव 2. मेरी बात सूत्रारे “ अहव अहो परिणामो" ઈત્યાદિ ગાથા દ્વારા પ્રકટ કરી છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२० मोपनिधिको क्षोनुपू/निरूपणम् ५२१ समाच-तस्यैव रुचकमतरद्वयस्य मध्ये एकस्मादुपरितनप्रतरादारभ्यो नव योजन
तानि परिहत्य परतः किंचिन्न्यूनसप्तरज्वायतऊर्ध्वलोकः। ऊर्ध्वम्-उपरिम्यवस्थापितो लोक ऊर्चलोकः । अथवा-ऊर्ध्वशब्दः शुभपर्यायः । तत्र क्षेत्रममापाद द्रव्याणां प्रायः गुमाएव परिणामा भवन्ति । अतः शुभपरिणामि द्रव्ययो. गानः शुभो लोकःउक्त'च-' उइंति उवरि जंचिय सुभवित्तं खेत्तो य दव्वगुणा।
उपज्जति सुभा वा तेण तो उडलोगोत्ति ॥" छाया-ऊ मिति उपरि यदेव शुभं क्षेत्रं क्षेत्रतश्च द्रव्पगुणाः।
उत्पद्यन्ते शुभा वा तेन स ऊलोक इति ॥ इति । तथा च-पू!क्तयोरधोलोकोवलोकयोरन्तरालेऽष्टादश योजनशतानि तिर्यग्लोकः। समयपरिभाषया नियंग् मध्ये व्यवस्थितो लोकः तिर्यग्लोकः । अथवा-तिर्यक्छब्दो योजन छोड़कर ऊसके आगेऊपर कुछ कम सात राजू लंबा ऊर्ध्वलोक है। ऊपर रहा हुआ जो लोक है उसका नाम ऊर्वलोक है। अथवाऊर्ध्वशब्द यहां शुभ अर्थ का वाचक है। उस ऊर्ध्वलोक में क्षेत्र के प्रभाव से द्रव्यों के परिणाम प्रायः शुभ ही होते हैं इसलिये शुभ परिणामवाले द्रव्यों के संबन्ध से शुभलोक का नाम ऊर्ध्वलोक है। यही बात यहा उक्तंच करके " इंति उवरि" इत्यादि गाथा द्वारा प्रकर की गई है। इन पूर्वोक्त अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के बीच में १८ सौ योजन प्रमाणवाला नियंग्लोक-मध्यलोक है। सिद्धान्त की परि. भाषा के अनुसार यहां तिर्यग् शब्द का अर्थ मध्य है। इसलिये मध्य में व्यवस्थित हुए लोक का नाम तिर्यग् मध्य-लोक है । अथवा-तिर्यग
ઉપર જે બે પ્રતરની વાત કરી છે તેમાંના એક ઉપેરિસન પ્રતરથી લઈને ૯૦૦ એજન ઊંચે જવાથી સાત રજૂ કરતાં સહેજ ઓછા વિસ્તારવાળો ઉર્વલક આવે છે. તે લેક ઊંચે આવેલું હોવાથી તેનું નામ ઉર્વિલેક છે. અથવા “ઉદ્ધ' શબ્દ અહી શુભ અર્થને વાચક છે તે ઉર્વિલેકમાં ક્ષેત્રના પ્રભાવથી દ્રવ્યોનું પરિણામ સામાન્ય રીતે શુભ જ હોય છે આ રીતે શુભ પરિણામવાળાં દ્રથી યુક્ત હોવાને કારણે તે લેકનું નામ ઉર્વક પડ્યું છે. એક વાત સૂત્રકારે નીચેની ગાથા દ્વારા વ્યક્ત કરી છે"उति वरि" त्यादि । पूति अधार अन Galasी पश्ये ૧૮ સે યોજનના પ્રમાણવાળા તિર્યક-મધ્યલેક છે. સિદ્ધાંતની પરિભાષા પ્રમાણે અહીં “તિર્ય' પદને અર્થ “મધ્ય” થાય છે. તેથી મધ્યમાં રહેલા લેકનું નામ તિય (મધ્ય) લેક પડયું છે અથવા “તિયંગ” આ પર
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अनुयोगद्वार
मध्यमपर्यायः । तत्र च क्षेत्रमभावात् प्रायो मध्यमपरिणामवन्त्येव द्रव्याणि संजायन्ते, अतस्तद्योगात् तिर्यक्-मध्यमो लोकस्तिर्यग्लोकः । यद्वाऽस्य लोकस्य ऊर्ध्वाध भागापेक्षया तिर्यग्लोक एवं विशालतया प्रधानम् । 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' । इति न्यायमनुसृत्यायं लोकोऽपि 'तिर्यग्लोकः' इत्युच्यते । उक्तं च
66 मज्झणुभावं खेत्तं जं तं तिरियंति वयणपज्जवओ । Hot तिरियं विसालं अतो व तं तिरियलोगोत्ति ॥ " छाया - मध्यानुभावं क्षेत्रं यत् तत्तिर्यगिति वचनपर्यवात् ।
भते तिर्यग् विशालमतो वा स विर्यग्लोक इति ॥ इति । अत्र जघन्यपरिणामि द्रव्ययोगात् जघन्यतया चतुर्दशगुणस्थानकेषु मिध्यादृष्टेरिव आदावेव अधोलोकस्योपन्यासः । ततो मध्यमपरिणामि द्रव्ययोगान्मध्यमत्वेन शब्द यहां मध्यम पर्याय का वाचक है। इस मध्यलोक में क्षेत्र के प्रभाव से प्रायः मध्य परिणामवाले ही द्रव्य होते हैं । इसलिये इन मध्यम परिणाम वाले द्रव्यों के संयोग से तिर्यग्-मध्यम- जो लोक है उसका नाम तिर्यग्लोक है। अथवा इस लोक में अपने ऊर्ध्व और अधो भाग की अपेक्षा से तिर्यक् लोक ही विशाल है इसलिये विशालता की अपेक्षा बही प्रधान है । और ऐसा न्याय है कि जो प्रधान होता है उसी के अनुसार व्यपदेश - नाम चलता है । इसलिये इस लोक को तिर्यग् लोक इस नाम से कह दिया गया है। उक्तंच करके यही बात "मज्झणुभावं इत्यादि गाथा द्वारा स्पष्ट किया गया है। यहां जो सूत्र में सर्वप्रथम अधोलोक का उपन्यास किया गया है सो उसका कारण यह है कि वहां पर प्रायः जघन्य परिणाम वाले द्रव्यों का ही संबंध रहा करता है। इसलिये
મધ્યમપર્યાયનું' વાચક છે આ મલાકમાં ક્ષેત્રના પ્રભાવથી સામાન્ય રીતે મધ્યમ પરિણામવાળાં દ્રવ્યે જ હાય છે. આ મધ્યમ પરિણામવાળાં દ્રવ્યેથી યુક્ત હાવાને કારણે તિય ગ્-મધ્યમ જે લેાક છે તેનુ' નામ તિયગ્લાક પડયું છે. અથવા આ લેકના ઉષ્ણ અને અધભાગ કરતાં તિય ગ્લાક જ વધારે વિશાળ તે કારણે તિયગ્લાકને જ મુખ્ય ગણી શકાય એવેશ નિયમ છે કે જે પ્રધાન ડેય તેને નામે જ વ્યવહાર ચાલે છે. તેથી આ લકને “ તિ ગ્લેક " या प्रकार नाम आपवामां भाव्यु छे. सूत्रद्वारे "मज्झणु भावं " ઇત્યાદિ ગાથા દ્વારા એજ વાત વ્યક્ત કરી છે.
S.
અહી' સૂત્રકારે સૌથી પહેલાં અમાલેાકનું કથન કર્યુ છે, કારણ કે સુધાલાકમાં સામાન્યતઃ જઘન્ય પરિણામવાળાં ડૂબ્યાના જ સદ્ભાવ રહે છે.
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२१ अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् तिर्यग्लोकस्योपन्यासः। ततश्च उत्कृष्ट द्रव्यवत्त्वादुलोकस्योपन्यासः, इति पूर्वानुपाः क्रमो बोध्यः। पश्चानुपूर्त्या तु पूर्वानुपूा व्युत्क्रमो बोध्यः । अनानुपूा तु पदत्रयस्य षड्मा भवन्ति, ते च पूर्व दर्शिता एव । शेषभावना विह माग्नदेव बोध्या ॥सू० १२०॥
सम्पति शिष्यत्रुद्भिवेशद्यार्थम् अधोलोक क्षेत्रानुपूर्यादि दर्शयितुमाह
मलम्-अहोलोअ खेत्ताणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता, तं जहापुराणुपुब्बी पच्छाणुपुत्री अणाणुपुब्बी।से किं तं पुवाणुपुठवी! पुव्वाणुपुवी-रयणप्पभा सक्करप्पभा वालुअप्पभा पंकप्पभा धूमप्पभा तमप्पभा तमतमप्पभा। से तं पुवाणुपुवी ? से किं तं पच्छाणुपुवी ! पच्छाणुपुवी-तमतमा जाव जिस प्रकार चौदह गुण स्थानों में जघन्य होने से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का सर्व प्रथम उपन्यास करने में आया है इसीप्रकार यहांपर भी जघ. न्य होने से अधोलोक का उपन्याम करने में आया है । तथा मध्यम परिणाम वाले द्रव्यों के संबंध को लेकर मध्यम होने के कारण तिर्यग् लोक का और उस्कृष्ट द्रव्यवाला होने के कारण ऊवलोक का क्रमशः उपन्यास किया गया है यह पूर्वानुपूर्वी का क्रम है । और जो पश्चानुपूर्वी है उसमें पूर्वानुपूर्वी का व्युत्क्रम रहा करता है । तथा अनानुपूर्वी में इन तीन पदों के ६ भंग होते हैं ये पहिले दिखला ही दिये गये हैं । शेष भावना यहां पहिले की तरह ही जाननी चाहिये । म ० १२०॥ જેવી રીતે ૧૪ ગુણસ્થાનનું વર્ણન કરતી વખતે જઘન્ય એવાં મિથ્યાષ્ટિ ગુણસ્થાનનું વર્ણન સૌથી પહેલાં કરવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે જઘન્ય હોવાને કારણે અલકનું વર્ણન પણ સૌથી પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. મધ્ય પરિ. કામવાળાં દ્રવ્યથી યુક્ત હોવાને કારણે તિર્ધકને ઉપન્યાસ (વર્ણન) ત્યાર બાદ કરવામાં આવ્યો છે, અને ઉત્કૃષ્ટ દ્રવ્યપરિણામવાળા ઉર્વિલેકને ઉપન્યાસ (વજન) ત્યાર બાદ કરવામાં આવ્યું છે. આ પૂર્વાનુપૂર્વીને ક્રમ છે પશ્ચાનુપૂવીમાં વનુપૂવ કરતાં ઉલટ ક્રમ રહે છે, તથા અનાનુપૂર્વી માં આ ત્રણ પદના ૨ ભંગ (વિક) થાય છે, તે અંગે પહેલા બતાવવામાં આવ્યા છે બાકીનું કથન પહેલાના કથન પ્રમાણે જ અહીં સમજવું જોઈએ. સૂર
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अनुयोगद्वारसूत्रे रयणप्पभा। से तं पच्छाणुपुची। से किं तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुत्वी एयाए चेव एगाइयाए इगुत्तरियाए सत्तगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो। सेतं अणाणुपुची ॥सू०१२१॥
छाया-अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा पज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी, पथा. नुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-रत्नप्रभा शर्करामभा वालुकाप्रमा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा तमस्तमःमभा। अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी-तमस्तमा यावद् रत्नपमा सैंषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी एतस्यामेव एकादिकायामेकोतरिकायां सप्तगच्छगतायां श्रेण्याम् अन्योऽन्याभ्यासो द्विरूपोनः ॥मू० १२१॥
अब सूत्रकार शिष्यजनों की बुद्धि की विशदता के निमित्त अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी आदि को दिख लाते हैं --'अहोलोए खेत्ताणुपुवी' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(अहोलोअ खेत्ताणुपुच्ची तिविहा पण्णत्ता) अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है-(तं जहा) जैसे (पुव्वाणुपुन्वी, पच्छाणुपुव्यो, अणाणुपुव्वी) पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी ( से किं तं पुवाणुपुब्बी) हे भदन्न ! पूर्वानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर-(पुव्वाणुपुव्वी) अधोलोक पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार है-(रयण. प्पमा, सक्करप्पभा, बालु अप्पभा, पंकपाभा, धूमपमा, तमप्पभा, तम तमप्पभा) रत्नप्रमा, शकेराप्रमा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, और तमस्तमःप्रभा, इनमे जो पहिली नरक पृथवी
શિષ્યોને આ વાત બરાબર સમજાય તે ઉદ્દેશથી સૂત્રકાર હવે અલેક क्षेत्रानुभूती मानु नि३५५ ४२ छ-" अहोलोअ खेत्ताणुपुवी" त्या
शहाथ-'अहोलोअ खेत्ताणुपुव्वी तिविहो पण्गत्ता) अधेस क्षेत्रानुभूती
१२नी ४ी छे. (तंजहा) ते त्रय रे। नीचे प्रमाणे छे-(पुवाणुपुव्वी, पछाणुपुव्वी, अणाणुपुत्री) पूर्वानुषी, पश्चानु५वी, अने अनानुपूवी.
प्रश्न-(से किं तं पुवाणुपुव्वी) उमापन ! म पूर्वानुपूपी वी छ।
उत्तर-(पुव्वाणुपुव्वी) भासा पूर्वानुपूवी मा १२नी छे-(रयणप्पभा सकरप्पभा, वालुअप्पमा, पंकप्पभा, धूमप्पभा, तमप्पभा, तमतमपभा) २त्नमा, सराला, पाप्रमा, ५मा, धुमप्रमा, तमाममा तमस्तम:प्रमा, AL કમે સાતે પૃથ્વીને ઉપન્યાસ કરે તેનું નામ અધે લેક પૂર્વાનુમૂવી છે. પહેલી નરકપૃથ્વીનું નામ રત્નપ્રભા પડવાનું કારણ એ છે કે ત્યાં નારકનાં
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अनुयोगदिका का स्त्र १२१ अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् टोका- ‘ोगोअखेचाणुपुब्बी' इत्यादि।
अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी हि-पूर्वानुपूर्व्यादि भेदेखि विधा प्राप्ता । तत्र पूर्वानुपूरी-नारकजीवनिवासस्थानातिरिक्तस्थानेषु इन्द्रनीलादि बहुविधररनानां प्रभायाः सत्त्वाव प्रथमा नरकविवी रत्नमभेत्युच्यते । द्वितीया शर्करापभा। इयं हि शर्कराणाम्-उपलखण्डानां प्रभावत् प्रभावत्वेन शर्करामभेत्युच्यते । तृतीया-वालुकामभा। बाजुकायाः-सिकतायाः प्रमावन प्रभावत्वेनैषा वालुकाप्रमेत्युच्यते। एवमेव-- पकस्य कीचड ' इति लोकपसिद्धस्य, धूमस्य='घुमा' इति लोकप्रसिद्धस्य, तमसः अन्धकारस्य कृष्णद्रव्यस्य, तमस्तमसः महान्धकारस्य-निविडकृष्णवर्णद्रव्यस्य च प्रभावत् प्रभावत्वेन तत्तत्पृथिवी पङ्कमभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमहै उसका नाम रत्नप्रभा इसलिये हुआ है कि नारक जीवों के निवास स्थानों के अतिरिक्त स्थानों में वहां इन्द्रनील आदि अनेक प्रकार के रत्नों की कान्तिका सद्भाव है । शर्कराप्रभा, नाम की जो द्वितीय भूमि है उसकी प्रभा शर्करों-पाषाण खंडों की प्रभा जैसी है। वालुकाप्रमा नाम की जो तृतीय भूमि है उसकी कान्ति रेत की प्रभा के समान है। पंकप्रभा नाम की चौथी भूमि है उसकी प्रभा कीचड़ की प्रभा के समान है। धूनप्रभा नाम की पांचवी भूमि की प्रभा धृ की प्रभा जैसी है। तमः प्रभा नामकी छट्ठी भूमि की प्रभा कृष्ण द्रव्यरूप जो अंधकार है उसकी प्रभा के जैसी है। और जो सातवीं भूमि तमस्तम प्रभा है, उसकी कान्तिगाढ कृष्ण द्रव्यरूप जो महधिकार है उसकी कान्ति जैसी है इस प्रकार पूर्वानुपूर्वी में रत्नप्रभा शर्कराप्रमा, वालुकाप्रभा, पंक નિવાસસ્થાને સિવાયનાં સ્થાનમાં ઈન્દ્રનીલ આદિ અનેક પ્રકારનાં રત્નની કાતિને સદ્ભાવ છે. બીજી તરકપૃથ્વીની કાન્તિ કાંકરાઓની કાન્તિ જેવી હોવાથી તેનું નામ શર્કરા પ્રભા છે. ત્રીજી નરકપૃથ્વીની કાતિ રેતીની કાતિના જેવી હોવાથી તેનું નામ વાલુકાપ્રભા છે. જેથી પૃથ્વીની પ્રભા પંક (કાદવ)ના જેવી હોવાથી તેનું નામ પંકપ્રભા પડયું છે. પાંચમી પૃથ્વીની પ્રભા ધુમાડાના જેવી હેવાથી તેનું નામ “મપ્રભા પડયું છે. છઠ્ઠી પૃથ્વીની પ્રભા કૃષ્ણદ્રવ્ય રૂપ અંધકારના જેવી હેવાથી તેનું નામ તમ પ્રભા છે. સાતમી પૃથ્વીની કાન્તિ ગાઢ-અતિશય કૃષ્ણદ્રવ્ય રૂપ મહાલ્પકારની કાતિ જેવી હોવાથી તેનું નામ તમસ્તમપ્રભા છે આનુપૂર્વમાં આ કમે સાતે પૃથ્વીને ઉપન્યાસ થાય છે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे
रतमः - प्रभेति क्रमेण नाम्ना व्यपदिश्यते । एषा पूर्वानुपूर्वी । पश्चानुपूर्व्या तु तम स्तमा इत्यारभ्य रत्नप्रभेत्यन्तं व्युत्क्रमेण व्यवस्थापना बोध्या । अनानुपूर्व्या तु एषां सप्तानां पदानामन्योन्याभ्यासे चत्वारिंशदधिकाः पञ्चसहस्रसंख्यकाः पूर्वानु पूर्वी पश्चानुपूर्वी रूपाऽऽवन्तभङ्गद्वयविवक्षारहिता भङ्गा बोध्याः ॥० १२१ ।।
मूलम् - तिरियलोय खेताणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, तं जहापुव्वाणुपु०वी पच्छाणुपुत्री अणाणुपुव्वी । से किं तं पुव्वाणुपुवी ? पुत्राणुपु०वी - "जंबुद्दीवे लवणे, धायइ कालोय पुत्रखरे वरुणे । खीर घय खोय नंदी, अरुणवरे कुंडले रुअगे ॥१॥ आभरणवत्थगंधे, उप्पलतिलए य पुढविनिहिरयणे । वासहरदहनईओ, विजयावकखारकप्पिदा ॥२॥ कुरुमंदर आवासा, कूडा नक्खत्तप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और तमस्तमः प्रभा, इस प्रकार इन सात भूमियों का उपन्यास होता है । तथा पश्चानुपूर्वी में तमस्तमःप्रभा से लेकर रत्नप्रभा तक व्युत्क्रम से इन भूमियों का उपन्यास किया जाता है। अनानुपूर्वी में इन सात पदों का १-२-३-४-५-६-७ इस रूप से उपन्यास किया जाता है । फिर बाद में ओपस में इनका गुणा किया जाता है। इस प्रकार गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उसमें से आदि अन्त दो भंग कर दिये जाते हैं। इन सात पदों का परस्पर गुणा होने पर ५०४० भंग होते हैं। इनमें से पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी रूप दो आदि अन्त के भंग कम कर दिये जाते हैं। इस प्रकार यह अधोलोक संबंधी अनोनुपूर्वी है ।। सू० १२१ ॥
પધ્ધાનુ પૂર્વી માં તમસ્તમઃપ્રભાથી લઇને રત્નપ્રભા સુધીના ઊલટા ક્રમે સાતે પૃથ્વીઓના ઉપન્યાસ કરવામાં આવે છે. અનાનુપૂર્વીમાં આ સાત पोनो १, २, ३, ४, ५, ६, ७ આ રૂપે વર્ષોંન કરવામાં આવે છે, ત્યાર બાદ પરસ્પરમાં તેમનાં ગણુાં કરવામાં આવે છે આ પ્રમાણે ગણુાં કરવાથી જે રાશિ ઉત્પન્ન થાય છે તેમાંથી આદિ અને અન્તના એ ભગા (વિકલ્પ) બાદ કરવામાં આવે છે આ સાત પદોના પરસ્પર ગુણાકાર થવાથી ૫૦૪૦ ભંગ થાય છે તેમાંથી પૂર્વાનુપૂર્વી અને પદ્મ નુપૂર્વી રૂપ આદિ અન્તના એ ભગ એછાં કરવામાં આવે છે. ધોલેાક સંબધી અનાનુપૂર્વી મા પ્રકારની છે. ાસૂ૦ ૧૨૧)
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२२ तिर्यग्लोकक्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् चंदसूग य । देवे नागे जक्खे भूए य सयंभूरमणे य ॥३॥ से तं पुत्वाणुपुब्बी। से किं तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुवी-सयंभूरमणेय जाव जंबुद्दीवे। से तं पच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपुटवी? अणाणुपुबी एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखेजगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूगो । से तं अणाणुपुब्बी।सू० १२२॥
छाया-तिर्यग्लोक क्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता तद्यथा-पूर्गनुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी जम्बूद्वीपो लवणो धातकी कालोदः पुष्करः वरुणः । क्षीरः घृतः क्षोदः नन्दी अरुणरः कुण्डलः रुचकः । आभरणवस्वगन्धाः उत्पलतिलकं च पृथिवी निधिरत्नम् । वर्षधरहदनद्यो विजया
"तिरियलोयखेत्ताणुपुच्ची" इत्यादि
शन्दार्थ-(तिरियलोयखेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता) तिर्यग्लोक क्षेत्रा. नुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है। (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(पुव्वाणु. पुन्वी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुठवी) पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानु. पूर्वी । (से कि तं पुव्वाणुपुन्वी ? ) हे भदन्त ! पूर्शनुपूर्वी क्या है ? (पुव्वाणु पुव्वी) __उत्तर-पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से है-जंबुद्दीवे लवणे, धायई कालोय पुवखरे वरुणे । खीर-घय-खोय नंदी-अरुणवरे कुंडले मागे ॥१॥ ___ "आभरणवस्थगंधे, उप्पलतिलए य पुढवि निहिरयणे। वासहरदहनईओ, विजया वक्खारकप्पिदा ॥ २ ॥ जंषुद्वीप, लवणसमुद्र धातकी
" तिरियलोयखेत्ताणुपुव्वी" त्यात
At4-( तिरियलोयखेत्ताणुपुवी तिविहा पण्णत्ता) तिय क्षेत्रानु. ५वी' ॥२नी ही छ. (तंजहा) ते प्रा। नीचे प्रमाणे छ-(पुव्वाणुपुन्धी पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुवी) पूर्वानु५वी, पानु५वी मने अनानुपूवी.
प्रश-(से किं तं पुव्वाणुपुवी ?) भगवन्! पूर्वानुनी D२१३५ छ? उत्तर-(पुव्वाणुपुब्बी) तिय समधी पूर्वानु पूती 20 नी छ(जंबुरीवे लवणे, धायई कालो य पुक्खरे वरुणे । खीर-घयखोय-नंदी-अरुणवरे कुंडले उभगे ॥१॥ बाभरणवत्थगंधे, उप्पलतिलए य पुढविनिहिरयणे । बासहर दहनईओ, विजयावक्खारकप्पिदा ॥२॥ જબૂદ્વીપ, લવસમુદ્ર, ધાતકી ખંડ, કાલહસમુદ્ર, પુષ્કરદ્વીપ,
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अनुयोगदार वक्षस्कारकल्पेन्द्राः। कुरुमन्दरावासा कूटा नक्षत्रचन्द्रसूर्याश्च । देवो नागो यक्षो भूतश्च स्वयम्भूरमणश्च । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी पश्चानुपूर्वीस्वयभूरमणश्च यावज्जम्बूद्वीपः । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी-एतस्यामेव एकादिकायामेकोतरिकायामसंख्येयगच्छगताय श्रेण्या मन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषा अनानुपूर्वी ॥सू० १२२॥
टीका-'तिरियलोअ' इत्यादि ।
तिर्यग्लोकक्षेत्रानुर्वी अपि पूर्वानुपूर्व्यादिभेदेन त्रिविधा विज्ञेया। तत्र जम्बूद्वीपेत्यारभ्य स्वयभूरमणेत्यन्तं पूर्गनुपूर्वी बोध्या। तत्र-जम्बूद्वीपो जम्बू वृक्षोपलक्षितो द्वीपो बोध्यः तन परिवेष्टय स्थितो लवणरसवज्जलपूरितो लवणसमुद्रः। लाणसमुद्रं परिवेष्टय धातकीवृक्षोपलक्षितो धातकी. द्वीपः। ततस्तं परिवेष्टय शुद्धजलरसास्वाइवान् कालोदः समुद्रः। तं परिवेष्टथ स्थितः पुष्करैरुपलक्षितः पुष्करद्वीपः । पुष्करद्वीपं परिवेष्टय स्थितः शुद्ध जलरसास्वादवान् पुष्करोदः समुद्रः। तं परिवेष्टय स्थितो वरुणो द्वीपः। ततो वारुणीरसास्वादो वारुणोदः समुद्रः । ततः क्षीरद्वीपः। ततश्च क्षीरोदः समुद्रः। ततश्च घृतद्वीपः। ततो घृतोदः समुद्रः। तत इक्षुद्रीपः। ततश्च इक्षुरसास्वाद इक्षु. रसोदः समुद्रः। ततो नन्दी-नन्दीश्वरद्वीपः। ततो नन्दीश्वरसमुद्रः । ततोऽरुणवरो खंड, कालोदसमुद्र पुष्करद्वीप, पुष्करोदसमुद्र, वरुणद्वीप, वारुणोदसमुद्र क्षीरदीप, क्षीरोदसमुद्र, घृतदीप' घृतोदसमुद्र, इक्षुशीप, इक्षुरसोदसमुद्र, नन्दीदीप नन्दीसमुद्र अरुणावरदीप अरुणयरसमुद्र कुण्डलबीप, कुन्डलसमुद्र, उचकद्वीप, रुचकसमुद्र,। इसके बाद असंख्यातदीप
और असंख्यात समुद्र हैं। सय से अन्तिम छीप स्वयंभूरमण द्वीप और सबसे अन्तिमसमुद्र स्वयंभूरमण समुद्र हैं। अनुक्त इन द्वीपसमुद्रों के नाम आभरण, वस्त्र, गंध, उत्पल तिलक आदि से उपं. लक्षित है अर्थात् स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त जो और मोप और समुद्र धु०७२।४समुद्र, १२alप, पारसमुद्र, क्षादीप, समुद्र, धृतदीप, समुद्र, क्षुद्वीप, क्षुरसाइसमुद्र, न-laly, नन्दीसमुद्र, मरયુવરદ્વીપ, અરુણુવરસમુદ્ર, કુંડલદ્વીપ, કંડલસમુદ્ર, રુચ દ્વીપ, ચકસમુદ્ર, ત્યાર બાદ અસંખ્યાત દ્વીપ અને અસંખ્યાત સમુદ્રો છે. સૌથી છેલ્લે દ્વીપ સ્વયંભૂરમણદ્વીપ, અને સૌથી છેલ્લે સમુદ્ર સવયંભૂરમણસમુદ્ર છે. અનુત જેનાં નામે અહીં કહાં નથી એવા) દ્વીપસમુદ્રોનાં નામ આભરણુ, વાસ, ગધ, ઉત્પલ, તિલક આદિથી ઉપલક્ષિત છે. એટલે કે રુચકસમુદ્રથી લઈને વયંભરમણ સમુદ્ર સુધીમાં અનુક્રમે આભરણદ્વીપ આભરણસમુદ્ર, વાદ્વીપ, समुद्र, दीप, समुद्र, Grvaalu, Gravy, CGasalu, dिas.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२२ तिर्यग्लोक क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम्
द्वीपः । तचारुणवरसमुद्रः । ततः कुण्डलद्वीपः । ततश्च कुण्डलसमुद्रः । ततो रुबकद्वीपः । ततश्व रुचकसमुद्रः । तथा असंख्येयानाम् असंख्येयानाम् द्वीपानामन्ते आभरणवखगन्धोत्पलतिलकापलक्षिताः आभरणवस्त्रगन्धोत्पलतिकादि स्वयम्भूरमगान्ताः द्वीपाः, तत्तन्नामानः समुद्राव सन्ति । स्वयम्भूरमणसमुद्रः - शुद्धोदकरसास्वादः । मूले पुष्कराधारभ्य स्वयम्भूरमणान्ताः शब्दा द्वीपसमुद्रोभयवाचका
हैं उनके नाम आभरण आदि के ऊपर हैं। जो द्वीप का नाम है वही नाम बेठे हुए समुद्र का है । स्वयंभूरमण समुद्र के जलका स्वाद शुद्धोदक रसास्वाद जैसा है मूल में पुष्कर से लेकर स्वयंभूरमण तक के शब्द द्वीप और समुद्र के वाचक है। तात्पर्य कहनेका यह है। कि रुचकद्वीप और रुचकसमुद्र के आगे आभरण द्वीप और आभरणसमुद्र है । इसके बाद वस्त्र द्वीप और वस्त्र समुद्र है । इसके आगे गंध द्वीप और गंध समुद्र है इसी प्रकार से उत्पल, तिलक पृथिवी निधि, रत्न वर्षधर, हर, नदी, विजय वक्षस्कार, कल्पेन्द्र ( कूरु मंदर आवासा कूडानक्खन्तदरा य देवे नागे जक्खे भूए य सयंभूरमणे य ३) कुरु, मन्दर आवासकूट, नक्षत्र, चन्द्र सूर्य देव, नाग यक्ष भूत, और स्वयंभूरमण इन नाम वाले असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र है। जंबूद्वीप नाम का जो द्वीप है, वह जंबूवृक्ष से युक्त है । इसलिये इसका नाम जंबुद्वीपहुआ है। इस जंबूद्रीप को वेष्टित हुए गोल चूड़ी के आकार के आकार जैसा लवणસમુદ્ર આદિ અસખ્યાત દ્વીપસમુદ્રો આવેલા છે. દ્વીપેાનાં જે નામેા છે, એજ નામેા તેમને વી'ટળાયેલા સમુદ્રોના માટે પણ વપરાયાં છે.
સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રનું પાણી શુદ્રે પાણીના જેવાં સ્વાદવાળુ છે. પુષ્કરથી લઈને સ્વયંભૂરમણ પન્તના શબ્દો દ્વીપા અને સમુદ્રો-ખન્નેનાં વાચક છે એમ સમજવું આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે રુચકદ્વીપ અને રુચકસમુદ્રથી માગળ જતાં આભરણદ્વીપ અને આભરણુસમુદ્ર આવે છે, ત્યાર બાદ વસ્ત્રદ્વીપ અને વસમુદ્ર આવે છે, ત્યાર બાદ ગંધદ્રીપ અને ગધસમુદ્ર આવે છે, त्यार माह उत्पक्ष, तिस, पृथ्वीनिधि, रत्नवर्षधर, हनही विभयवक्षस्मार, ४८पेन्द्र (कुरुमंदर आवासा कूडान स्वत्तचंदसूग य, देवे नागे जक्खे भूप य सयंभूरमणे य ||३||) रु, भन्४२, भाषासङ्कट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, हेव, નાગ, યક્ષ, ભૂત અને સ્વયંભૂરમણ આ નામેવાળાં અસખ્યાત દ્વીપા અને અસખ્યાત સમુદ્રો આવે છે. જમૂદ્રીપ નામને જે દ્વીપ છે તે જ બૂવૃક્ષથી યુક્ત હાવાને કારણે તેનું નામ જ બૂટ્વીપ છે. આ જ બુદ્વીપને ઘેરીને વલયના
अ० ६७
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अनुबोगद्वारको बोध्याः ननु मुले असंख्येयानसंख्ययान द्वीपसमुद्रानुल्य ये ये द्वीपसमुद्रादयः सन्ति, तेषां नामानि निर्दिष्टानि, किन्यन्तरास्थिता अतिक्रम्यमाणा ये दीपा उक्तास्ले किं नामकाः ? इति चेदाइ-लोके पदार्थानां शङ्कवालशस्वस्तिक समुद्र हैं, इस समुद्र का जल लवण के स्वाद जसा खारा है । लवणसमुद्र को घेरे हुये धातकी खंडद्वीप है। यह धातकी वृक्ष से उपलक्षित है। इस धातकी द्वीप को घेरे हुए कालोदसमुद्र है । इस जल का स्वाद शुद्ध जल के स्वोर मा है, खारा नहीं हैं। इस समुद्र को घेर कर पुष्करदीप है। यह पुष्करद्वीप को घेर कर उस की चारों ओर पुष्कगेदसमुद्र है इसके जल का स्वाद शुद्ध जल के स्वाद जैसा है। इस समुद्र को वेष्टितहुए वरुणद्वीप है । वरुणद्वीप को घेरकर स्थित हुआ वोरणोद समुद्र है । इसके जलका स्वाद वारुणी रस के प्रास्वाद जैमा है। इसके बाद क्षीरद्वीप है, क्षीरसमुद्र को घेरे हुए घृतद्वीप है। इसके बाद घृतोदसमुद्र है । घृतोदसमुद्र को घेरे हुए इक्षु-द्वीप है। इसके बाद इक्षुरसोद समुद्र है । इक्षुरसोद समुद्र के बाद नन्दीश्वर द्वीप है । और उस द्वीप को घेरे हुए नन्दीश्वरसमुद्र है। फिर अरुणवरद्वीप और अरुणवरममद्र है। फिर कुन्डल द्वीप और कुन्डल समुद्र है। बाद में रुचक द्वीप और रुचक समुद्र है। इस प्रकार से आभरण वस्त्र आदि-शुभनाम वाले असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त-तक है।આકારને લવણસમુદ્ર આવેલ છે. તે સમુદ્રનું પાણી લવણ (મીઠા)ને જેવાં ખારા સ્વાદવાળું છે. લવણસમુદ્રને ઘેરીને ધાતકીખંડ દ્વીપ અવેલે છે તે ધાતકીદ્વીપ ધાતકી નામના વૃક્ષની યુક્ત હોવાને કારણે તેનું નામ ધાતકીદ્વીપ પડયું છે. આ ધાતકીદ્વીપને ઘેરીને કાદસમુદ્ર રહે છે. તેનું પાણી ખાવું નથી પણ શુદ્ધ જળ જેવા સ્વાદવાળું છે લવણસમુદ્રને ઘેરીને પુષ્કરદ્વીપ આવેલો છે પુષ્કરોથી યુકત હોવાને કારણે તેનું નામ પુષ્કરદ્વીપ પડયું છે. પુષ્કર દ્વીપને ઘેરીને તેની ચારે તરફ પુષ્કરોદ સમુદ્ર આવે છે. તેના જળને સ્વાદ શુદ્ધ જળના સ્વાદ જેવો છે આ સમુદ્રને વેરીને વરુણદ્વીપ રહેલે છે અને વરુણદ્વીપને ઘેરીને વારુણે સમુદ્ર આવેલ છે. તેના જલનો સ્વાદ વારુણરસના સ્વાદ જેવું છે. ત્યાર બાદ ક્ષીરદ્વીપ છે, તેને ઘેરીને સીદસમુદ્ર આવેલ છે ક્ષીરસમુદ્રને ઘેરીને બૃતદ્વીપ આવેલો છે અને ઘતદ્વીપને ઘેરીને વૃદ સમુદ્ર રહેલ છે. ત્યાર બાદ વિનોદ સમુદ્રને ઘેરીને ઇક્ષદ્વીપ આવે છે અને ઈક્ષદ્વીપને ઘેરીને ઈશ્નરસાદ સમુદ્ર આવેલ છે. ઇક્ષસોદ સમુદ્રને ઘેરીને નન્દીશ્વર દ્વીપ રહે છે અને નન્દીશ્વર દ્વીપની ચોમેર નન્દીશ્વર સમુદ્ર રહે છે ત્યાર બાદ અરુણુવરદ્વીપ અને અરુણુવર સમદ્ર આવે છે. ત્યાર બાદ કુંડલદ્વીપ અને કુંડલસમુદ્ર આવે છે ત્યાર બાદ ચકલીપ અને રુચક સમુદ્ર આવે છે ત્યાર બાદ આભરણ દ્વીપ, આભરણ
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अनुबोगरन्द्रिका टीका सूत्र १२२ तिलोकक्षेत्रानुपूर्वी निरूपणम् ५३१ श्रीवत्सादीनि यान्ति शुभनामानि सन्ति तैः सरप्युपलक्षिता अन्तरालस्थिता द्वीपसमुद्राः सन्ति। उक्तंच-"दीवसमुदाणं भंते ! केवइया नामधिज्जेहिं पण्णता ? गोयमा ! जावइया लोए मुभा नामा सुभा स्वा सुभा गंधा सुभा रसा मुभा फासा एवइया णं दीवसमुद्दा नामधिजेहिं पण्णत्ता।" (जीवा. ३ प्र. ४ उ.) । छाया-द्वीपसमुद्राः खलु भदन्त ! कियन्तो नामधेरैः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! यावन्ति लोके शुभानि नामानि शुमानि रूपाणि शुभाः गन्धाः शुभा रसाः शुभाः स्पर्शा: इयन्तो द्वीपसमुद्रा नामधेयैः प्रहमाः । इति । एते हि-असंख्येयसंख्यकाः अनुपदवक्ष्यमाणगायया प्रतिपादिता द्रष्टव्याः।
शंका-मूल में असंख्यात २ द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करके जो जो द्वीप और ममुद्र आदि है उनके नाम तो कहे हैं परन्तु जो अन्तराल में स्थित द्वीप कहे हैं उनके क्या नाम हैं ? ___ उत्सर-लोक में पदार्थों के शंख, ध्वज, कलश स्वतिक, श्रीवत्स आदि जितने शुभ नाम हैं-उन सबसे उपलक्षित अन्तराल में स्थित हुए द्वीप
और समुद्र हैं। उक्तंच करके "दीवसमुद्दाणं इत्यादि" जो सूत्र पाठ दिया गया है उसका यही भाव है-इसमें यही कहा गया है कि लोक में जितने शुभ नाम हैं जितने शुभ रूप हैं, जितने शुभ गंध हैं जितने शुभ रस हैं और जितने शुभ स्पर्श हैं इतने ही द्वीप समुद्र इतने ही સમુદ્ર, વસ્ત્રદ્વીપ, વસ્ત્રસમુદ્ર, આદિ શુભનામવાળા અસંખ્યાત દ્વીપ અને સમુદ્રો આવે છેછેવટે લવણદ્વીપ અને લવણસમુદ્ર આવે છે.
પ્રશ્ન-મૂળમાં અસંખ્યાત સમુદ્રોને પાર કરીને આગળ વધતાં છેવટે સ્વયંભૂરમણ દ્વીપ અને સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર આવે છે, એવું કહેવામાં આવ્યું છે તેમાંથી કેટલાક દ્વીપ અને સમુદ્રોનાં નામ આપે આ સૂત્રમાં પ્રગટ કર્યા છે. પરતું ત્યાર પછીના સ્વયંભૂરમણદ્વીપ પયંતમાં જે દ્વીપસમુદ્રો છે તેમનાં નામે આપે અહીં પ્રગટ કર્યા નથી તેમના નામે જણાવવા કૃપા કરશો?
ઉત્તર-લેકમાં પાર્થોનાં શંખ, ધ્વજ, કલશ, સ્વસ્તિક, શ્રીવત્સ આદિ જેટલાં શુભ નામે છે, એ સઘળાં નામોથી ઉપલક્ષિત (ઓળખાતાં) તે અન્તरासमा २७सा द्वीप भने समुद्रो छे. उखु ५५ डे-" दीवसमुदाणं" ઈત્યાદિ આ સૂત્રપાઠ દ્વારા એ વાત પ્રગટ કરવામાં આવી છે કે લેકમાં જેટલા શુભ નામ છે, જેટલાં શુભ રૂપ છે, જેટલા શુભ ગધે છે, જેટલાં શુભ સ્પર્શ છે, તેમનાં વડે આ દ્વીપસમુદ્રો ઉપલક્ષિત છે. તેઓ અસંખ્યાત હેવાને કારણે પ્રત્યેકનાં નામ અહીં આપી શકાય એમ નથી દીપસમો
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अनुबोगद्वारसूत्रे Gथाहि-"उद्धारसागराणं अड्राइजाण जत्तिया समया।
दुगुणादुगुणपवित्थर दोबोदहि रज्जु एवइया ॥" छाया-उद्धारसागराणामर्धतृतीयानां यावन्तः समयाः।
द्विगुणद्विगुणप्रविस्ताराः द्वीपोदधयो रज्ज्वामियन्तः ॥ इति तदेषा पूर्वानुपूर्वी । पश्चानुपूर्वी तु व्युत्क्रमेण बोध्या । अनानुपूर्वी तु-अमीषामसंख्येयानां पदानामन्योऽन्याभ्यासे ये ऽसंख्येया भङ्गा भवन्ति, तत आधन्त विवक्षारहिता भङ्गा बोध्याः ॥सू० १२॥ नाम वाले हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि द्वीप और समुद्र असंख्यात संख्या वाले हैं । द्वीप समुद्र कितने हैं ? इसका उत्तर, उद्धारसागराणं" गाथा द्वारा दिया गया है जिसका भावार्थ ऐसा है कि अढाइ उद्धार सागरों के जितने समय होते हैं उतने एक दूसरे से दूने विस्तार वाले द्वीप और समुद्र हैं। इस प्रकार जंबूद्वीप आदि के क्रम से स्वयं रमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त द्वीप समुद्रों का उपन्यास करना सो पूर्वानुपूर्वी है । तथा इन्हीं द्वीपसमुद्रों का व्युत्क्रम से अर्थात् स्वयंभूरमण से प्रारंभ कर जंबूद्वीप तक-न्यास-उपन्यास-करना सो पश्चानुपूर्वी है । और इन्हीं असंख्यात पदोंका स्थापन करके फिर उनका परस्पर में गुणा करना और प्राप्त गुणन राशि में से आदि अन्त के दो भंग कम कर-देना इस प्रकार करने से असंख्यात भंगहोते हैं वह अनानुपूर्वी है। ।। लू० १२२ ॥ કેટલાં છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર નીચેની ગાથા દ્વારા આપવામાં આવ્યું છે"उद्धार सागराणं" त्या6ि- थानी भाषा मे छ, “मढी ઉદ્ધાર સાગરના જેટલા સમય થાય છે એટલા એક બીજાથી બમણાં બમણાં વિસ્તારવાળા શ્રી અને સમુદ્રો છે.” આ પ્રકારે જંબૂદ્વીપથી શરૂ કરીને
સ્વયંભૂરમણ દ્વીપ અને સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર પર્યન્તના દ્વી અને સમુદ્રોને ઉપન્યાસ કરે તેનું નામ તિર્થક સંબંધી પૂર્વાનુમૂવી છે.
ઉપર્યુક્ત દ્વીપસમુદ્રોને ઊલટા કમમાં એટલે કે સ્વયંભૂરમણે સમુદ્રથી લઈને જબૂદ્વીપ પર્યન્તના પદને ઉપન્યાસ કરવો તેનું નામ પશ્ચાનુપૂવી છે. અને એજ અસંખ્યાત પદેનું સ્થાપન કરીને તેમને પરસ્પરની સાથે ગુણાકાર કરો અને એ રીતે જે ગુણનરાશિ (ગુણાકાર) પ્રાપ્ત થાય તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભેગેને કાઢી નાખવા આ પ્રમાણે કરવાથી જે અક્ષરખ્યાત એ થાય છે તેમનિ બનાવી રૂપ સમજવા. સૂ૫૨૨
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भोमनिका टीका स्त्र १२३ ऊर्बलोक क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५३३
सम्पति ऊर्च लोकक्षेत्रानुपूर्वी निरूपयतिमम्-उडलोवखेसाणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता,तं जहा-पुवाणुपुब्बी पच्छाणुपुत्री अणाणुपुची । से किं तं पुत्वाणुपुत्री ? पुवाणुपुवी सोहम्मे१, ईसाणे२, सगंकुमारे३, माहिदे४, बंभलोए५, लंतए६, महासुके,सहस्सारे८, आणए९, पाणए१०, आरणे११ अच्चुए१२, गेवे जगविमाणे१३. अणुत्तरविमाणे१४, ईसिपब्भारा१५, से तं पुवाणुपुवी। से किं तं पच्छाणुपुबी ? पच्छाणुपुत्वी ईसिपब्भारा जाव सोहम्मे । से तं पच्छाणुपुबी । से किं तं अणाणुपुत्री ? अगाणुपुवी-एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए पन्नरसगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नभासो दुरुबूगो। से णं अणाणुपुवी। अहवा ओवणिहिया खेत्ताणुपुत्वी तिविहा पण्जत्ता, तं जहापुवाणुपुत्वी, पच्छाणुपुत्री, अणःणुपुवी। से किं त पुवाणुपुत्री ? पुवाणुपुद्दी-एगपएसोगाडे, दुप्पएलोगाढे, दसपएसोगाढे संखि जपएसोगाढे जाव असंवि जपएसोगाढे। से तं पुवाणुपुब्बी। से किं तं पच्छाणुपुत्री ? पच्छाणुपुत्री-असं खिजपएमोगाढे संखिजपएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे । से तं पच्छाणुपुत्री। से किं तं अणाणुपुवी ? अणःणुपुवी-एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखिजगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नम्भासा दुरूवूणो। से तं अणाणुपुवी से तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुत्वी से तं खेत्ताणुपुत्री ॥सू० १२३॥ ___ छाया-ऊलोकक्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्गनुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-सौधर्मः१, ईशानः२, सनत्कु. मारो३, माहेन्द्र.४, ब्रह्मलो५, लान्नुको ६, महाशुल:७, सहस्रार:८, मानत:९,
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५३४
मनुयोगद्वार
प्राणतः १०, आरणः ११, अच्युतो २, ग्रैवेयकविमानं १३, अनुत्तरविमानं १४, ईषम्याग्बारा । १५ सेवा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पचानुपूर्वी - ईष स्मारमारा यावत्सौधर्मः । सैषा पश्चानुर्थी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वीएतस्यामेव एकादिकायामेको तरिकायां पश्चदशगच्छ्गतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषा अनानुपूर्वी अथवा - औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तथा पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानु पूर्वी - एकपदेशावगाढो द्विपदेशावगाढो दशप्रदेशावगाढः संख्येयप्रदेशावगाढो यावत् असंख्येयप्रदेशावगाढः । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी - असंख्येयप्रदेशावगाढः संख्ये य प्रदेशावगाढो यावत् एकमदेशावगाढः । सेवा पचानुपूर्वी ? अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी - एतस्यामेव एकादिकायामेकोत्तरिकायामसंख्येचगच्छगतायां श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषा अनानुपूर्वी । सैषा औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी सेषा क्षेत्रानुपूर्वी ॥ १२३ ॥
टीका - ' उडूलोयखेसा०' इत्यादि ।
ऊर्ध्वलोक क्षेत्रानुपूर्वी हि पूर्वानुपूर्व्यादिभेदेत्रिविधा विज्ञेया । तत्र - पूर्वानुपूर्वी सौधर्मादपत्रमारान्ता । प्रज्ञापकप्रत्यासत्या प्रथमं सौधर्मोपन्यासः । ततस्तत्त अब सूत्रकार ऊर्ध्वलोक क्षेत्रानुपूत्र का निरूपण करते हैं:"उलोयखेत्ताणुपुच्ची" इत्यादि ।
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शब्दार्थ - (उडूशेयखेतानुपुत्री तिविहा पण्णत्ता) ऊर्ध्वलोक क्षेत्रा नुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है । (तं जहा) जैसे – (पु०वाणुपुत्री) पूर्वानुपूर्वी (पच्छाणुपु०वी) पश्चानुपूर्वी (अणाणुपुब्बी) और अनानुपूर्वी (से किं तं yogyatी ? ) हे भदन्त । पूर्वानुपूर्वी क्या है ?
(yoवाणुपुवी) पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से हैं। (सोहम् मे १) सौधर्म १ ईसाणे २, सणकुमारे ३, माहिंदे ४, बंगलोए ५, लंत ६, महासुહવે સૂત્રકાર ઉલેક ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે खेत्तणुपुत्री त्याहि
"
""
से
क्षेत्रानुपूर्वी
शब्दार्थ - (उड्ढडोयखेत्ताणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता) प्रारी उसी छे. (तंजा) ते त्रय प्राशनीये प्रभा छे - ( पुत्र्त्राणुपुच्ची, पच्छाणुपुत्री, अणाणुपुत्री) (१) पूर्वानुपूर्वी (२) पश्चानुपूर्वी अने (3) अनानुपूर्वी प्रश्न - ( से किं तं पुत्राणुपुव्वी १) हे भगवन् ! पूर्वानुपूर्वीनु स्व३५ કેવુ હાય છે?
उत्तर—उध्त्रये ! समधी पूर्वानुपूर्वी स्व३५ मा प्रानु छे (सोहम्मे ). (1) alan, fd, avgait, affet, davia, Sac, negà, verait,
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मनुबोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२३ ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५३५ लोकपत्यासत्या तचल्लोकोपन्यासः । मौधर्मनामकं विमानं हि ताक्षेत्रविमानेषु सर्व श्रेष्ठम , अतः सः लोकः सौधर्मेति व्यपदिश्यते । एवमेव ईशानायच्युतरिमानानां तत्तल्लो के श्रेष्ठत्वमनस्तत्तन्नाम्ना स स लोको व्यपदिश्यते। लोकपुरुषस्य ग्रीवाविभागे भवानि विमानानि ग्रैवेयकविमानानीत्युच्यन्ते । अनुत्तरविमानस्यलोकापेक्षयाऽन्यानि उत्तराणि विमानानि न सन्तीति तानि विमानानि अनुत्तरक्के ७, महम्मारे ८, आणए २, पाणए १०. आरणे ११, अच्चुए १२, गेवेज्जगविमाणे १३, अणुत्तरविमाणे १४, ईसिफभारा १५) ईशान २ सनत्कुमार ३, माहेद्र ४. ब्रह्मलोक ५, लान्तक ६, महाशुक्र ७, सहस्रार. ८. आनन ९, प्राणत १०, आरण ११ अच्युत १२, ग्रेवेयकविमान १३, अनुत्तरविमान १४, और ईषत्प्रागभारा १५ (से तं पुवाणुपुव्वी) यह पूर्वानुपूर्वी है । यहां पर प्रज्ञापक-की प्रत्यात्तिसे सबसे पहिले सौधर्म का उपन्यास किया गया है। बाद में तत्तत् लोक की प्रत्यासत्ति से उन ५ लोगों का उपन्यास हुआ है। मौधर्म नाम का विमान है। यह विमान तत्क्षेत्र सबन्धी विमानों में सर्वश्रेष्ट है इमलिये उसके संबन्ध से उस लोक का नाम सौधर्मलोक हुआ है। इसी प्रकार ईशान से लेकर अच्युत नक के विमानों में उन २ लोको में श्रेष्टता है। हम लिये उस २ नाम से वह २ लोक कहा गया है। लोक रूप पुरुष की ग्रीवा के स्थानापन्न जो विमान हैं वे अवेयक विमान कहलाते हैं।
आणए, पाणए, भारणे, अच्चुए) (२) ४शान, (3) सनामा२, (४) भाडेन्द्र, (५) झs, (६) alrds, ७) भाशु , (८) सना२, (८) मानत, (10) प्रात, (११) भार", (१२) भ२युत (गेवेजगविमाणे, अणुतरविमाणे ईसिपन्भारा) (13)वय विमानो, (१४) पत्प्रामारा. (से तं पुवाणुपुठली) मा ક્રમે ઉáલેકગત ક્ષેત્રોને ઉપવાસ કરે તેનું નામ પૂર્વાનુપૂર્વી છે. અહી પ્રજ્ઞાપાની વધારે નજીકમાં આવેલા ઈશાનકલ્પને ઉપન્યાસ પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે, ત્યાર બાદ ત્યાંથી વધારેને વધારે દૂર આવેલાં ક્ષેત્રને ઉપન્યાસ અનુક્રમે કરવામાં આવ્યું છે. સૌધર્મ ક૯૫માં જે વિમાને છે તેમાં સર્વશ્રેષ્ઠ સૌધર્મ નામનું વિમાન હોવાથી તે દેવલોકનું નામ સૌધર્મકલ્પ પડ્યું છે. એજ પ્રમાણે ઈશાનથી લઈને અમ્યુત પર્યન્તના કપમાં પણ એજ નામનાં (ઈશાન, સનકુમાર) વિમાનોની શ્રેષ્ઠતા છે, એમ સમજવું કે કારણે તેમનાં નામે પણ તે વિમાન જેવાં જ રાખવામાં આવ્યાં છે. લેકરૂપ પુરુષની શ્રીવાના સ્થાનમાં જે વિમાને રહેલાં છે તેમને શૈવેયક વિમાન કહે છે.
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अनुयोगशारखे विमानान्युच्यन्ते । ईषत्वामाग-भाराकान्त पुरुषवदीपन्नतत्वात एषा ईषत्माग्भारेस्युच्यते । इयं सौधर्मादोषत्प्राग्भारान्ता पूर्वानुपूर्वी । तया ईत्पाग्भारा यार सौधर्म इति पश्चानुपूर्वी । तथा-अनानुपूर्णा तु सौधर्मादिपञ्चदशपदानामन्योऽन्याअनुत्तरविमानस्थ लो की-अपेक्षा और दूसरे विमान-उसर-श्रेष्ट नहीं है-इसलिये वे विधान अनुत्सर विमान कहे गये हैं । भार आक्रान्त पुरुष की तरह कुछ झुकी हुई होने-से यह ईषत्प्रारभारा इस नाम से कही गई है। सौधर्म से लेकर ईषत् प्रारभारा भूमितक पूर्वानुपूर्वी है। (से किं तं पच्छाणुपूव्वी) हे भदन्त पश्चानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर-(पच्छाणुपुच्ची) पश्चानुपूर्ण इस प्रकार हैं-(ईसिफभाराजाब सोहम्मे) इषत् प्रारभारा भूमि से लेकर जो सौधर्म देवलोक तक व्यु: स्क्रम से गणना है ! (से तं पच्छाणुपुन्वी ) वह पश्चानुपूर्वी है । (से कि तं अणाणुपुथ्वी ?) हे भदन्त ऊर्श्वलोक सबन्धी अमानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर-(अणाणुपुव्वी) ऊर्ध्वलोक सबन्धी अनानुपूर्वी इस प्रकार से हैं। (एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए पन्नरसगच्छगयाए सेढीए अन्न मन भासो दूरुवृणो) इस अनानुपूर्वी में जो श्रेणी स्था. અનુત્તર વિમાનસ્થ લેકના કરતાં અન્ય કઈ પણ વિમાન શ્રેષ્ઠ નથી તે કારણે તે શ્રેષ્ઠ વિમાનને અનુત્તર વિમાને કહ્યાં છે. જેમ કે ભારને વહન કરતે પુરુષ સહેજ મૂકી જાય છે એજ પ્રમાણે આ ઈષત્પાશ્વારા પૃથ્વી પણ સહેજ મૂકેલી હોવાને કારણે તેનું નામ ઈષ~ામાર પડયું છે. સૌધ. મથી લઈને ઈન્સ્ટાગ્યાર પર્યન્તનાં પનો ક્રમપૂર્વક ઉપન્યાસ કરે તેનું નામ પૂર્વાનુમૂવી છે.
प्रश्न-(से कि त पच्छाणुपुव्वी) भगवन् ! ५श्वानुनु १३५ ४१
उत्तर-(पन्छाणुपुव्वी) ५श्वानुनी मानी -(ईसिपम्भारा जाब सोहम्मे) पत्न. मा२। भूमिथी श३ ४१२ सीध८५ पर्यन्तना क्षेत्राना ઊલટા કમમાં જે ઉપન્યાસ કરવામાં આવે છે-ગણતરી કરવામાં આવે છે (से तं पच्छाणुपुव्वी) तेनु नाम पश्चानु छ.. ___ (से कि तं अणाणुपुवी?) Geqats सभी मनानुभूतीनु વરૂપ કેવું છે? ____ सत्तर-(अणाणुपुव्वी) Balats सभी अनानु५ मा प्रानी - (एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियार पन्नरसगच्छगयाए सेढीए अन्नमनभासो दरूवूणो) मा मनानुषामा २ ही स्थापित ४२१मा मावे तेमा सोधी
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मानुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२३ ऊर्यलोकक्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् ५३७ म्यासे यावन्तो भङ्गका भवन्ति, ते आघात विवक्षारहिता भला बोध्याः सम्पतिऔपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी प्रकारत्रयेण प्रदर्शयितुमाह-'अहवा' इत्यादि । अथवाबोपनिषिकीक्षेत्रानुपूर्वी पूर्वानुपादिभेदैखिविधा विज्ञेया। तत्र-पूर्वानुपूर्वी पित की जाती है उसमें सबसे प्रथम में १ संख्या रखी जाती है बाद में एक २ की उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जोती इस प्रकार की वृद्धि यहां १५ संख्या तक होती है ! फिर इनमें परस्पर में गुणा किया जाता है। जो गुणन फल आता है उसमें आदि अन्त के दो भंग कम कर दिये जाते हैं। क्योंकी आदिका भग आनुपूर्वी में आजाता है और अन्तका भा पश्चानुपूर्वी में आजाता है। इसलिये अनानुपूर्वी में आदि अंत के दो भंग छोडने को कहा है। इस प्रकार (से ण अणाणुपुव्वी) यह अवंलोक संबन्धी अनानुपूर्वी बन जाती है। (अहवा) अथवा-ओव. णिहिया-खेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता) औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी-तीन प्रकार की प्रज्ञप्त हुई है । (तं जहा) जैसा-(पुव्वाणुपुत्वी, पच्छाणुपुब्धी, अणाणुपुव्वी) पूर्वानुपूवीं पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी (से किं तं पुन्वाणुपुब्धी ) पुर्वानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर-(पुव्वाणुपुन्वी) पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार से है-एगपएसोगाने दुप्पएसोगाढे दसपएसोगाढे संखिज्जपएसोगादे जाव असंखिज्जपएसो પહેલાં એક સંખ્યા રાખવામાં આવે છે, ત્યારબાદ ઉત્તરોઉત્તર એક એકની વૃદ્ધિ થતી જાય છે. આ પ્રકારની વૃદ્ધિ અહીં ૧૫ સંખ્યા સુધી કરાય છે. ત્યાર બાદ તેમાં પરસ્પરને ગુણાકાર આવે છે. જે ગુણનફળ આવે તેમાંથી આદિને એક અને અન્યને એક એમ બે ભંગ બાદ કરવામાં આવે છે. કેમકે-આદિને ભંગ આનુવી માં આવી જાય છે, અને અંતનો ભંગ પશ્ચાનુપૂર્વમાં આવી જાય છે. તેથી અનાનુપૂર્વીમાં આદિ અને सतना मेम RAM छानु हां छे. (से गं अणाणुपुव्वी) मा गरे Baats समधी अनानुभूती' मनी नय छे. (अहवा) अथवा-(ओवणिहिया. खेत्ताणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता) भोपनिधिती क्षेत्रानुभूती ३ ४२नी ४00. (जहा) ते ५४१२॥ नीय प्रभाव छ-(पुव्वाणुपुव्वी, पच्छाणुपुव्वी, षणाणुपुव्वी) (१) पूर्वानुभूती', (२) ५वानुषी माने (3) मनानुषी
प्रश्न-(से किं तं पुव्वाणुपुणी) मापन् ! पूर्वानुमान १३५ है ।
उत्तर-(पुव्वाणुपुव्वी) कानुनी मा प्रा२नी छे. (एगपएसोगाढे, दुप्प एसोगाढे, दसपएसोगादे, संखिग्जएएसोगाढ़े जाव असंखिजपएसोगाडे) ,
भ० ६८
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भनुयोगद्वार एकादेशावगादादारभ्यासंख्येयादेशावगाहान्ता योध्या। पश्चानुपूर्वी तु असंख्ये. यप्रदेशावगाढमारभ्य एकप्रदेशावगाढान्ता बोध्या। अनानुपूर्वी तु-एकपदेशारगाढाधारभ्य असंख्येयप्रदेशावगाढानामन्योऽन्याभ्यासेऽसंख्येया भगा भवन्ति । तेषु आधन्तविवक्षा नास्ति, औपनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी समाप्तेति सूचयितुमा:गाढे) एक प्रदेशावगाढ, दो प्रदेशावाढ, दशपएसावगाढ संख्यात प्रदे. शोवगाढ यावत् असंख्यात प्रदेशावगाढ ( से किं तं पच्छाणुपुष्वी ) पश्चानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर- (पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी इस प्रकार से है । (असंखिज्ज पएसोगाढे संखिज्जपएसोगाढे जाव एगपएसोगावे) असंख्यातप्रदेशाव गाढ, संख्यात प्रदेशावगाढ यावत् एकादेशावगाढ (से तं पच्छा. णुपुव्वी) इस प्रकार यह पश्चानुपूर्वी है। (से किं तं अणाणुपुव्वी) हे भदन्त ! अनानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर-(अणाणुपुव्वी) अणाणुपूर्वी इस प्रकार से है--(एगाए थेव एगाइयाए एगुत्तरियाए संखिज्जगच्छगयार सेढीये अन्नमन्नम्मासो दूरूवूणो) इन पदों का अर्थ पहले दिया गया है । तात्पर्य यह है कि यहां जो श्रेणी मांडी जावेगी वह एक से प्रारंभ कर एक की वृद्धि होते २ असंख्यात तक होती जावेगी फिर उन सबका परस्पर में गुणा करने पर जो असंख्यात भंग रूप महाराशि उत्पन्न होगी उसमें से आदि પ્રદેશાવગાઢ, બે પ્રદેશાવગાઢ, દસ પર્વતના પ્રદેશારગાઢ, સંખ્યાત પ્રદેશા46 स२ मसज्यात प्रवेशासा८ (से तं पुवाणुपुव्वी) मा मनाने ક્ષેત્રાનપૂવી છે તેને પૂર્વાનુમૂવ કહે છે.
प्रल-से किं तं पच्छाणुपुठवी!) 3 मसन् ! ५श्चनुनी वा डाय?
उत्तर-(पच्छाणुपुव्वी) ५श्वानुभूती' मा मानी जाय छ-(असंखिज्जपएसोगादे, संखिज्जपएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे) असभ्यात प्रदेशा, સંખ્યાત પ્રદેશાવગાઢ અને એજ પ્રકારના ઉલટા કમમાં એકપ્રદેશાવગઢ પર્યस्तन पटान। ५न्यास ४२वे। (से तं पच्छाणुपुव्वी) तेनु नाम पश्चानुभूती थे.
श-(से किं तं अणाणुपुव्वी) मानानुनी मा प्रा२नी हाय छ-(एगाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखिन्जगच्छगयाए सेटीए अन्नमन्नन्भासोदरूवूणो) આ પાને અર્થ પહેલાં આપવામાં આવ્યું છે. એટલે કે અહીં જે શ્રેણી સ્થાપિત કરવામાં આવશે તે એકથી શરૂ કરીને એક એકની વૃદ્ધિ કરતાં કરતાં અસંખ્યાત પર્વતની થઈ જશે ત્યાર બાદ તે સૌને પરસ્પરની સાથે ગુણાકાર કરવાથી જે અસંખ્યાત ભંગરૂપ મહારાશિ ઉત્પન્ન થશે તેમાંથી
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र १२४ कालानुपूर्वीनिरूपणम्
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' से ओमिडिया' इत्यादि । सैषा औनिधिको क्षेत्रानुपूर्वी । इत्थं क्षेत्रानुपूर्वी समाप्तेति सूचयितुमाह-' से तं' इत्यादि । सैपा क्षेत्रानुपूर्वी ॥० १२३ ॥
उक्ता क्षेत्रानुपूर्वी, सम्मति पूर्वोद्दिष्टामेव क्रममाप्तां कालानुपूर्वी विवृणोतिमूळम् - से किं तं कालाणुपु०वी ? कालाणुपुवी दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - ओवनिहिया अणोवणिहियाय ॥ सू० १२४॥
छाया - अथ का सा काला नुपूर्वी ? कालानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाऔप निधिकी अनौपनिधिकी च ॥ सू० १२४ ॥
टीका- ' से किं तं ' इत्यादि । व्याख्या सष्टा ॥ ० १२४ ॥
मूळम् - तत्थ णं जा सा ओवणिहिया सा ठप्पा । तत्थ णं जा सा अणोवणिहिया सा दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा - णेगमववहाराणं संगहस्स य ॥ सू०१२५॥
छाया - तत्र खलु या सा औपनिधि सा स्थाप्या । तत्र खलु या सा अनौपनिधिकी साद्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नैगमव्यवहारयोः संग्रहस्य च ॥सू.१२५ ॥ टीका – ' तत्थ णं ' इत्यादि । व्याख्यातप्रायमिदं सूत्रम् ।। ० १२५ ।। अंत के दो भंग कम कर दिये जायेंगे - ( से तं अणाणुपु०वी) इस प्रकार से क्षेत्र संबन्धी अनानुपूर्वी बनती है। (से नं ओवणिहिया खेत्ताणुपुत्री) इस प्रकार औपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी है इस प्रकरण के समाप्तहोते ही क्षेत्रानुपूर्वी का स्वरूप समाप्त हो जाता है | ॥ सू० १२३ ॥
अब सूत्रकार पूर्वोद्दिष्ट ही क्रमप्राप्त कालानुपूर्वी का कथन करते हैं"से किं तं" इत्यादि ।
शब्दार्थ - इस सूत्र की व्याख्या स्पष्ट की है । ।। सू० १२४ ॥
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આદિના એક ભંગ અને અન્તનેા એક ભંગ એમ એ ભગ કમી કરવામાં भाव (से किं तं अणाणुपुत्री) मा प्रहारे क्षेत्रस ंधी अनानुपूर्वी मने छे. ( से तं ओवणिहिया खेत्ताणुपुत्री) मा अनुं भौपनिधिडी क्षेत्रानुपूर्वानुं स्व३५ छे. (से तं खेत्ताणुपुत्री) औोपनिधिः क्षेत्रानुपूर्वीनु' उथन समाप्त थवाथी ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના સ્વરૂપનું નિરૂપણુ અહી' પૂરૂ' થાય છે. સૂ૦૧૨૩શા
હવે સૂત્રકાર પૂર્વાષ્ટિ ક્રમપ્રસ કાલાનુપૂર્વી નું કથન કરે છે— " से किं त " त्याहि
શબ્દાર્થ –આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સ્પષ્ટ છે. પ્રસૂ॰૧૨૪
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अनुयोगदारले __ मूलम्-से किं तं गमववहाणं अणोवणिहिया कालाणुपुटवी? अणोवणिहियाकालाणुपुब्बी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-अत्थपयपरूवणया, भंगसमुक्त्तिणया, भंगोवदंसणया, समोयारे, अणुगमे ॥सू०१२६॥ ___ छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयोरनौपनिधिकी कालानुपूर्वी ? अनौपनिघिकी कालानुपूर्वी पश्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अर्थपदप्ररूपणता, भङ्गसमुत्कीर्तनता, भङ्गोपदर्शनता, समवतारः, अनुगमः ॥सू० १२६॥
टीका-'से कितं' इत्यादि । व्याख्याऽस्य स्पष्टा ।।सू. १२६॥ 'तस्थणं' इत्यादि।
शब्दार्थ-इन में जो औपनिधि कालानुपूर्वी है वह अल्पवक्तव्य विषय वाली होने से स्थाप्य है-अभी उसका विषय प्रतिपादन करने योग्य नहीं है । तथा जो अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी है वह दो प्रकार की है। एक नेगमव्यवारनयसंमत अनोपनिधिकी कोलानुपूर्वी और दूसरी संग्रहनयसंमत अनौपनिधिको कालानुपूर्वी। यह सूत्र पहले व्याख्यात हो चुका है । ॥ सू० १२५ ॥ ___ "से कि तं गमववहाराणं" इत्यादि ।
(से किं तं गमववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुवी ?) हे भदन्त । नैगमव्यहारनयमित अनोपनिधिकी कालानुपूर्वी क्या है ? (अणोवणिहिया कालाणुपुवी पंचविहा पण्णत्ता)
" तत्थणं " त्या
શબ્દાર્થ-તેમાં જે ઔપનિધિકી કાલાનુપૂર્વી છે, તે અલ્પ વક્તવ્યવિષયવાળી હવાથી સ્થાપ્ય છે–એટલે કે હમણાં તેના વિષયનું પ્રતિપાદન કરવું તે યોગ્ય નથી તેમાંની જે અનૌપનિધિતી કાલાનુકૂવી છે તેના બે પ્રકાર છે(૧) નિગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિધિકી કાલાનુપૂર્વી અને (૨) સંગ્રહન વસંમત અનૌપનિધિકી કાલાનુપૂવી આ સૂત્રના વિષયની પ્રરૂપણા પહેલાં થઈ ચુકી છે. સૂ૧૨૫l
"से कि सं गमववहाराणं " त्याls
सहाथ-(से किं तं गमववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुठवी?) के ભગવાન ! મૈગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિધિશ્રી કાલાનપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अणोवणिहिया कालाणुपुषी पंचविहा पण्णता) अनोपनिविकी
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १२७ मेगमव्यवहारनयसंमतार्थपदनिरूपणम् ५४१
मूल-से किं तं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणया ? णेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणया-तिसमयाइइए आणुपुवी जाब दससमयइिए आणुपुवी संखितसमयडिइए आणुपुत्री, असंखिजसमयट्टिइए आणुपुव्वी । एगसमपट्टिइए अणाणुपुथ्वी । दुसमय ट्ठिए अवतन्त्रगं । तिसमयइियाओ आणुपुवीओ । एगसमयद्विइयाओ अणाणुपुत्रीओ। दुसमयडिइयाओ अवन्त्तव्वगाई । से तं गमववहाराणं अत्थपयपरूवणया । एयार णं गमववहाराणं अत्यपयपरूवणयाए किं पओयणं ? एयाए णं गमवत्रहाराणं अत्थायपरूवणयाए णेगमववहाराणं भंगसमुवित्तणया कजइ ॥ सू० १२७॥
छाया - अथ का सा नैगमव्यवहारयोः अर्धपद्मरूपणता ? नैगमव्यवहारयोः अर्थपदप्ररूपणता त्रिसमयस्थितिक आनुपूर्वी याबद् दशसमयस्थितिक आनुपूर्वी,
उत्तर - अनौपनिधि की कालानुपूर्वी पांच प्रकार की कही गई है । (तं जहा ) वे प्रकार ये हैं - ( अत्थपयपरूवणयो भंगसमुक्कित्तणया, भंगो बदंसणया, समोवारे अणुगमे ) अर्थपदप्ररूपणता भंगसमुत्कीर्तनता समवतार और अनुगम । इस सूत्र की व्याख्या स्पष्ट है | || सू० १२६ ॥ "से किं तं गमववहाराणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ - (से किं तं गमवहाराणं अत्थपयपरूवणया ? ) हे भदन्त ! नैगमव्यहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता क्या है ? ( णेगमबवहाराणं अत्थापयपरूवणया)
सानुपूर्वी पांथ प्रभारनी उही छे. (तंजहा) ते पांथ प्रकाश नीचे प्रभा छे- (अत्थापयपरूवणया, भंगसमुक्कित्तणया, भंगोवदंसणया समोयारे अणुगमे ) (१) अर्थ यहअ३पलुता, (२) मंगसमुट्ठीर्तनता, (3) लगो पहर्शनता, (४) सभवતાર અને (૫) અનુગમ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સ્પષ્ટ છે. સૂ૦૧૨૬॥
" से किं तं गमववहाराणं " त्याहि
शब्दार्थ - (से किं तं गमनवहाराणं अत्थपयपरूवणया १) हे भगवान् ! નેગમવ્યવહાર નયસંમત અથ પદ્મ પ્રરૂપણુતાનું સ્વરૂપ કેવુ' છે?
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अनुयोगद्वारसूत्र संलोयसमयस्थिनिक आनुपूर्वी, असंख्येयसमयस्थितिकआनुपूर्वी। एकसमयस्थितिक अनानुपूर्वी । द्विसमयस्थितिक आक्तव्यकम्। त्रिसमयस्थितिका आनु. पूर्यः । एकसमयस्थितिका अनानुपूर्व्यः। द्विसमयस्थितिका अवक्तव्यकानि । सैषा नैगमव्यवहारयोः अर्थपदमरूपणता । एतस्याः खलु नैगमव्यवहारयोः अर्थपदपरूपणतायाः किं प्रयोजनम् ? एतस्याः खलु नै गमव्यवहारयोरर्थपदप्ररूपणताया नैगमव्यवहारयोर्भङ्गसमुत्कीर्तनता क्रियते ।।सू० १२७॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ का सा नैगमव्यवहारसम्मता अर्थपदमरूपणता? इति प्रश्नः । उत्तरयतिइत्थं च पर्यायपर्यायिणोरभेदोपचारमाश्रित्य, तत्र च कालपर्यायस्यैव प्राधान्यमाश्रित्य कालपर्यायविशिष्टस्य द्रव्यस्यापि कालानुपूर्वीत्वं बोध्यम्। अनन्तसमयावधिद्रव्यस्य स्थितिः स्वभावादेव न भवति, अतोऽनन्तसमयस्थितिकः
उत्तर-नैगमव्यहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता इस प्रकार से हैं(ति समयटिहए आणुपुब्बी, जाव दससमयपएठिहए आणुपुब्बी) जिस द्रव्य विशेष की स्थिति तीन समय की हैं-अर्थात् तीन समय की स्थितिवाला जो द्रव्य विशेष है-वह त्रिसमयस्थितिक है। ऐसा त्रिसमय स्थिति क जो द्रव्य विशेष है वह आनुपूर्वी है, ऐसा द्रव्य विशेष एकपरमाणु भी हो सकता है द्विपरमाणुक स्कंध भी हो सकता तीन परमाणु वाला स्कंध भी हो सकता है, चार परमाणु वाला भी स्कंध हो सकता है, पांच आदि परमाणु वाले स्कंध से लेकर अनंत परमाणुओं वाला स्कंध तक भी हो सकता है । इस प्रकार एक परमाणु रूप द्रव्य से लेकर द्विपरमाणुक त्रिपरमाणुक आदि अनन्त परमाणुक स्कंध पर्यन्त जितने भी द्रव्य
उत्तर-(णेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणया) नेगमध्यपहा२ नयसमेत म ५. ६५३५यता मानी -(तिसमयद्विइए आणुपुत्वी, जाब दससमयदिइए आणुपुत्री) २ द्रव्यविशेषनी स्थिति ] समयनी डाय छ, तद्रव्यविशेषन ત્રિસમયસ્થિતિ કહે છે એવું ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળું જે દ્રવ્યવિશેષ છે, તેને અહીં આનુપૂર્વી રૂપ સે પજવું જોઈએ એવું દ્રવ્યવિશેષ એક પરમાણુ પણ હોઈ શકે છે, બે પરમાણવાળે સ્કન્ધ પણ હોઈ શકે છે, ત્રણ પરમાણુ વાળો સ્કન્ધ પણ હોઈ શકે છે, ચાર પરમાણુવાળ કન્ય પણ હોઈ શકે છે, અને પાંચથી લઈને અનંત સુધીના પરમાણુઓવાળા સ્કન્ધ પણ હોઈ શકે છે.
આ રીતે એક પરમાણુ રૂ૫ દ્રવ્યથી લઈને દ્વિપરમાણુક, ત્રિપરમાણુક અનંત પરમાણુક સ્કન્ધ પર્યન્તના જેટલાં દ્રથવિશેષ છે, તે ત્રણ સમયની સ્થિતિ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ नैगमव्यवहार नयसंमतार्थपदनिरूपणम् ५४३ बालापूर्वी न मोक्ता । तथा - एकसमवस्थितिकः परमाण्णाद्यमन्तपरमाणु कस्कन्थ पर्यन्तो द्रव्यविशेषः अनानुपूत्र । द्विसमयस्थितिकः परमाण्वाद्यनन्तपरमाणुकस्कन्धपर्यन्तो द्रव्यविशेषः अवक्तव्यकम् । तथा त्रिसमयस्थितिकाः परमाण्वायनन्तपरमाणु कस्कन्धात्मका द्रव्यविशेषा यावदसंख्येय समय स्थितिकाः पूर्वोक्तद्रव्यविशेषा विशेष तीन समय की स्थिति वाले हैं वे सब अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी के भेद रूप अर्थपदप्ररूपणा के विषय भूत है। और ये सब एक २ अनानुपूर्वी है। इसी प्रकार से चार समय की स्थिति वाला -1 - जितना भी द्रव्य है उससे लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों तक जितने द्रव्य विशेष हैं उन में प्रत्येक द्रव्यविशेष आनुपूर्वी है ।
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शंका- यदि द्रव्य विशेष को ही यहां आनुपूर्वी पना है तो फिर कालानुपूर्वी ऐसा कहना विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि कालानुपूर्वी में काल में आनुपूर्वी पना कहना चाहिये द्रव्य विशेष में नहीं। यहां तो अनुपूर्वी पना द्रव्यविशेषों में कहा जारहा है ।
उत्तर - यहां जो द्रव्य विशेषों में आनुपूर्वी पना कहाँ जारहा है सो केवल - द्रव्यों में नहीं कहा जारहा है किन्तु जो द्रव्य समयत्र आदि रूप काल पर्याय से विशिष्ट है उसमें ही कहा जारहा है । इसलिये यहां समयप्रय आदिरूप कालपर्याय से युक्त ही द्रव्य ग्रहण किया गया है। इस प्रकार काल की पर्याय जो समयत्रय आदि વાળાં છે, તે સઘળા અનૌપનિધિકી કાલાનુપૂર્વીના ભેદ રૂપ અથ પદપ્રરૂપશુતાના વિષયરૂપ છે. અને તેએ બધાં એક એક અનાનુપૂર્વી રૂપ છે એજ પ્રમાણે ચાર સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્યે છે તે ચૈાથી લઈને અસખ્યાત પર્યન્તની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્યે છે, તેમાંનું પ્રત્યેક દ્રષ્યવિ. શેષ પશુ આનુપૂર્વી રૂપ જ છે.
શકા-જો દ્રવ્યવિશેષમાં જ આનુપૂર્વીતા માનવામાં આવે, તે “ असाનુપૂર્વી” આ પ્રકારનું કથન વિરૂદ્ધ પડે છે, કારણ કે કાલાનુપૂર્વીના કથનમાં તા કાળમાં આનુપૂર્વીતા કહેવી જોઈએ-દ્રવ્યવિશેષમાં આનુપૂર્વીતા કહેવી એઇએ નહીં. અહી તે આપે દ્રવ્યવિશેષામાં આનુપૂર્વીતા ખતાવી છે. તે શ્રા ખાખતના આપ શા ખુલાસા કરી છે! ?
ઉત્તર-અહીં જે દ્રવ્યવિશેષામાં આનુપૂર્વીતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે, તે કેવળ દ્રવ્યેામાં જ પ્રકટ કરવામાં આવી નથી, પરન્તુ જે દ્રવ્ય સમયત્રય આદિ રૂપ કાળપર્યાયથી વિશિષ્ટ (યુક્ત) છે તેમાં જ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તેથી અહીં સમયત્રય આદિ રૂપ કાળપર્યાયથી યુક્ત દ્રવ્ય જ મહેણુ ક્રૂર
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अनुयोगद्वार
पर्यायी जो विशिष्ट द्रव्य हैं सो इन दोनों में अभेद के उपचारका आश्रय करके और कालपर्यायकी ही प्रधानता मानकर के काल पर्याय विशिष्ट द्रव्य में भी कालानुपूर्वीपना जानना चाहिये । अनन्त समय तक रहनेवाले द्रव्य की स्थिति स्वभाव से ही नहीं होती है । अर्थात् कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है कि जिसकी स्थिति स्वभाव से अनन्त समयवाली हो। इसीलिये अनन्त समय की स्थितिवाली कालानुपूर्वी नहीं कही है। (संखिज्जसमयहिइए आणुपुन्धी असंखिज्जसमयहिए आणुपुच्ची ) इन पर्दोंका अर्थ विषयक खुलासा भी इसी कथन में हो का है। (एसमए अणाणुब्बी) तथा जो परमाणुरूप द्रव्य, द्वयणुक द्रव्य, व्यणुकद्रव्य यावत् संख्याताणुक द्रव्य, असंख्याताणुक और अनंतणुक द्रव्य एक समय की स्थितिवाला है वह अनानुपूर्वी है। (दुसमपट्ठिए अवक्तव्वगं ) तथा जो दो समयकी स्थितिवाला परमाणुरूप द्रव्य, वणुक द्रव्य त्र्यणुक द्रव्य यावत् संख्याताणुक द्रव्य, असं ख्याणुक द्रव्य और अनंताणुक पर्यन्त तक का द्रव्य है वह सब अबhors द्रव्य है । (तिसमपट्टियाओ आणुपुब्बीओ) तीन समयकी
વામાં આવેલ છે. આ પ્રકારે કાળની ત્રણ પાંચા અને તે ત્રણપચાવાળા દ્રશ્યમાં અભેદના ઉપચાર કરીને અને કાળપર્યાયની જ પ્રધાનતા માનીને કાળપર્યાયવિશિષ્ટ દ્રવ્યમાં પશુ કાલાનુપૂર્વીતા સમજવી જોઇએ દ્રવ્યની અનન્ત સમય સુધી રહેવાની સ્થિતિ સ્વભાવથી જ હોતી નથી એટલે કે કોઈ પણ દ્રવ્ય એવું નથી કે જેની સ્થિતિ વભાવથી જ અનંત સમયની હોય તેથી જ અનંત સમયની સ્થિતિવાળી કાલાનુપૂર્વી હતી નથી તે કારણે અન’ત સમયની સ્થિતિવાળી કાલાનુપૂર્વી અહી પ્રકટ કરવામાં આવી નથી.
(संज्जिसमयइिए आणुपुव्वी असंखिय समय ट्टिए आणुपुब्बी) આ સૂત્રપાઠને અર્થ' પણ ઉપયુક્ત કથનમાં સ્પષ્ટ થઈ ચુકયા છે.
(एमइए अणाणुपुब्बी) तथा मे परभार ३५ द्रव्य, मे आशुવાળું દ્રવ્ય, ત્રણુ અણુવાળું દ્રવ્ય, ચારથી લઇને સંખ્યાત પર્યન્તના અણુવાળું દ્રવ્ય, અસખ્યાત અણુક દ્રવ્ય અને અનંતાણુક દ્રશ્ય એક સમયની स्थितिवाणु होय छे, तेने नानुपूर्वी ३५ समभवु (दुस्खमयइए अव्वगं તથા એ સમયની સ્થિતિવાળું જે પરમાણુ રૂપ દ્રવ્ય, એ અણુવાળું દ્રશ્ય, ત્રશુથી લઈને સ ંખ્યાત પન્તના અણ્ણાળું દ્રવ્ય, અસખ્યાત અણુ દ્રવ્ય અને અનંત અણુક દ્રવ્ય હોય છે તેને અવક્તવ્ય દ્રવ્યરૂપ સમજવું,
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२७ नैगमध्यवहारसमतार्थपदनिरूपणम् ५४५ मानुपूर्व्यः । एकसमयस्थितिका अनानुपूर्व्यः । द्विसमयस्थितिका अवक्तन्यकानि । सैषा नैगमन्यवहारसम्मता-अर्थपदमरूपणता । एतस्याः खल नैगमव्यवहारयोर्य प्ररूपणतायाः किं प्रयोजनम् ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-एतया खलु नैगमव्यवहारसम्मतयाऽर्थप्ररूपणतया नैगमव्यवहारयोः भङ्गसास्कीर्तनता क्रियते ॥सू. १२०।। स्थितिवाले जितने भी परमाणु आदि से लेकर अनंताणुक पर्यन्त तक के स्कंधात्मक द्रव्य विशेष हैं वे तथा संख्यात असंख्यातसमयकी स्थितिबाले परमाणुरूप द्रव्य से लेकर अनंताणुक पर्यन्त तक के जितने भी द्रव्य विशेष हैं वे सब पहुवचनान्त आनुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ हैं। (एगसमयट्ठियाओ अणाणुपुब्बीओ) तथा जितने भी एक परमाणुरूप द्रव्य से लेकर अनंताणुक पर्यन्त तक के द्रव्य विशेष एक समय की स्थितिवाले हैं वे सब बहुवचनान्त अनानुपूर्वी शब्द के वाच्यार्थ हैं। (दुसमयट्टियाओ अवत्तव्ययाई) तथा दो समय की स्थितिवाले जितने
भी ये पूर्वोक्त द्रव्य हैं वे सब बहुवचनान्त अवक्तव्यक शब्द के वाच्यार्थ हैं, (से तं गमववहाराणं अस्थपयपरूवणया) इस प्रकार नैगमव्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता है। (एयाएणंणेगमववहाराणं अस्थपयपरूव. णाए कि पओयणं) प्रश्न-इस नैगमव्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणता का क्या प्रयोजन है?
(ति समयहियाओ भाणुपुत्वीओ) त्रय सभयनी स्थितिani Rai પરમાણુ આદિથી લઈને અનંતાણુક પર્યન્તના સ્કર્ધાત્મક દ્રવ્યવિશે છે, તેમને તથા સંખ્યાત, અસંખ્યાત સમયની સ્થિસ્તિવાળા પરમાણુરૂપ દ્રવ્યથી લઈને અનંતાયુક પર્યન્તના જેટલાં દ્રવ્યવિશે છે તેઓ બહુવચનાત આવી શબ્દના વાગ્યાથ રૂપ છે.
(पग समयट्रिइयाओ अणाणुपुव्वीभो) तथा ४ ५२भार३५ द्र०यक्षा લઈને અનંતાક પર્યંતના જેટલાં દ્રવ્યવિશે એક સમયની સ્થિતિવાળા છે, તેઓ બધાં બહુવચનાઃ અનાનુપૂવ શબ્દના વાગ્યાથ રૂપ છે.
(दुसमयदिइया ओ अपत्तब्धगाई) तथा २ समय स्थितिmi Rai પૂર્વોકત દ્રવ્ય છે, તેઓ બધાં બહુવચનાન્ત અવકતવ્યક શબ્દના વાયાર્થ ३५ छे. (से तं गमववहाराणं अत्यपयरूवणया) नरामयः२ नयस भत અર્થપદપ્રરૂપણુતાનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે.
-(एयाएणं णेगमववहाराणं अत्यपयपावणाए किं पओयणं १) 0 श. વ્યવહાર નયસંમત અર્થપદપ્રરૂપણુતાનું પ્રયોજન શું છે?
म०६९
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मनुयोगवारले उत्तर-एयाएणं जेगमववहाराणं अस्थपयपावणाए णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया कज्जइ) नैगमव्यवहारनयसंमत इस अर्थपदारपणता से नेगमव्यवहारनयसंमत भंगसमुत्कीर्तनता की जाती है। ___ भावार्थ-सूत्रकार यहां कालानुपूर्वी का कथन कर रहे हैं। अतः उस विषयका सांगोपांग वर्णन करने के लिये उन्होंने इस आनुपूवीं को औपनिधिकी और अनौपनिधिकी इस प्रकार के दो विभागो में विभक्त किया है। इन का शब्दार्थ क्या है ? यह सय पीछे द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में स्पष्ट कर दिया गया है। औपनिधि की आनुपूर्वी के स्वरूप आदिका कधन सूत्रकार अनौपनिधिकी आनुपूर्वी के कथन करने के बाद करेंगे। अतः उसे पहिले न कहकर वे अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी का सर्व प्रथम विवेचन करने के अभिप्राय से उसे नैगमः व्यवहारनय संमन अनौपनिधिकी और संग्रहनय संमत अनोपनिधिकी इन दो विभागो में विभक्त कर रहे हैं । इन में जो नैगमव्यवहारनय संमत अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी है वह अर्थपदप्ररूपणता, भंगसमुस्कीतनता, भंगोपदर्शनता, समवतार और अनुगम के भेद से ५ पांच प्रकार की है। अर्थपदप्ररूपणता में तीन समय से लेकर असंख्यात
E१२-(एयाएणं णेगमववहाराणं अत्थपयपरूवणयाए णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया कज्जइ) नसभव्यबहारनयम1 मा अ५: ५३५ तान आधारे નિગમવ્યવહાર નયસંમત ભંગસમુત્કીર્તનતા કરાય છે.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં કાલાનુકૂવીનું કથન કર્યું છે. આ વિષયનું સાંગોપાંગ વર્ણન કરવાને માટે સૂત્રકારે કરેલાનુપૂવના ઔપનિધિકી અને અનૌપનિધિકી નામના બે વિભાગ પાડયાં છે. આ બંનેને અર્થ દ્રવ્યાપક વીના પ્રકરણમાં પહેલાં બતાવી દેવામાં આવેલ છે અનોપનિધિકી આનુપૂ. વને સ્વરૂપનું કથન કર્યા બાદ સૂત્રકાર ઓપનિધિકી આનુવીના સ્વરૂપનું કથન કરશે આ પ્રકારે સૂત્રકાર પહેલાં તે અનોપનિધિ કી આનુપૂર્વીનું નિર પણ કરે છે તે માટે તેમણે અનૌપનિધિ કી આનુપૂવીને નીચેના બે વિભાગમાં વિભકત કરી નાખી છે-૧) નગમવ્યવહારનયસંમત અનોપનિધિકી અને (૨) સંગ્રહનયસંમત અનૌપનિધિકી તેમાંની જે ગમવ્યવહારનયસંમત અનોપનિધિકી કાલાનુપૂવ છે તેના નીચે પ્રમાણે પાંચ ભેદ પડે છે-૧) अ५४ ५३५४ा, (२) समुहातनता, (3) wapital, (४) सभ. तर मन (५) अनुराम,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका स्त्र १२७ नैगमव्यवहारसंमतार्थपदनिरूपणम् ५४७ समय तक की स्थितिवाला जितना भी एक परमाणु आदि द्रव्य हैवह सब आनुपूर्वी शन्द का वाच्यार्थ है। क्योंकि यहां कालानुपूर्वी का प्रकरण है इसलिये तीन आदि समयों में रहनेवाले द्रव्य को ही आनुपूर्वी माना गया है। एक परमाणु भी तीन समयकी स्थितिवाला होता है, दो आदि परमाणुबाला द्रव्य भी तीन समय की स्थितियोला होता है। अतः ये सब आनुपूर्वी शब्द के वाच्य हैं। इसी प्रकार से चार आदि समयों से लेकर संख्यात समय और असंख्यात समय तक की भी स्थितिवाले ये पूर्वोक्त द्रव्य होते हैं। इसलिये ये सब स्वतंत्र आनुपूर्वी हैं। एक समयकी स्थिनिवाला एक पुद्गलपरमाणु द्रव्य और व्यणुक आदि अनंत परमाणुक पर्यन्त तक का द्रव्य अनानुपूर्वी है ! दो समयकी स्थितिवाला एक पुद्गलपरमाणुरूप द्रव्य और व्यणुक आदि अनंत परमाणु युक्त तकका दूध अवक्तव्यक द्रव्य हैं। यहां एक वचनांत और बहुवचनान्त जो आनुपूर्वी आदिपद सूत्रकारने कहे हैं उन का कारण यह है कि तीन आदि लमयों की स्थितियाले आनुपूर्वी द्रव्य एक २ व्यक्तिरूप भी है और अनेक अनंत-व्यक्तिरूप भी हैं। इसी
અર્થપદ પ્રરૂપશુતામાં ત્રણ સમયથી લઈને અસંખ્યાત સમય પર્વતની સ્થિતિવાળાં જેટલાં એક પરમાણુથી લઈને અનંત પર્યંતના પરમાણુવાળાં કળે છે, તે બધા દ્રવ્યને આનુવ રૂ૫ ગણવામાં આવે છે, કારણ કે અહીં કાલાનુપૂવને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે તેથી ત્રણ અદિ સમયની સ્થિતિ વાળાં દ્રવ્યને જ આનુપૂવ રૂપ માનવા માં આવ્યાં છે. એક પરમાણુ પણ ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળું હોઈ શકે છે, એ આદિ પરમાણુવાળું દ્રવ્ય પણ ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળું હોઈ શકે છે. તેથી એવાં ત્રણ સમયની સ્થિતિ. વાળાં દ્રવ્ય આનુપૂવ રૂપ છે એજ પ્રમાણે ચારથી લઈને સંખ્યાત સમયે, અને અસંખ્યાત પર્યન્તના સમયની સ્થિતિવાળાં એક પરમાણુંવાળ, અને બેથી લઈને અનંત પર્યન્તના પરમાણુવાળાં દ્રવ્ય પણ હોઈ શકે છે એવાં બધાં દ્રવ્ય પણ સ્વતંત્ર આનુપૂર્વી રૂપ જ ગણાય છે. એક સમયની સ્થિતિવાળું એક પુદ્ગલ પરમાણુ રૂપ દ્રવ્ય અને બે અણકથી લઈને અનંત આક પર્યન્તનું દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી રૂપ ગણાય છે. બે સમયની સ્થિતિવાળું એક પગલપરમાણુ રૂપ દ્રવ્ય અને બે અણુવાળાથી લઈને અનંત પર્યન્તના અણુવાળું દ્રવ્ય અવક્તવ્યક રૂપ ગણાય છે. અહીં સૂત્રકારે જે એકવચનાન્ત અને બહુવચનાઃ આનુપૂવ આદિ પદ બતાવ્યાં છે તેનું કારણ એ છે કે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળાં આનુપવી ક એક એક વ્યક્તિ (પદાર્થ)
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अनुयोगद्वारसूत्रे
मूलम् - से किं तं णेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया ? गमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया - अस्थि आणुपुव्वी, अस्थि अणाणुपुथ्वी, अस्थि अवत्तव्वगं । एवं दव्वाणुपुत्रीगमेणं कालापुवीए वि ते चैव छत्रीसं भंगा भाणियव्वा जाव से तं गमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया । एयाएणं णेगमववहाराणं भंगसमुत्तिणयाए किं पओयणं ? एयाए णं णेगमवत्र हाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए णेगमववहाराणं भंगोवदंसणया कजइ ॥सू०१२८॥
प्रकार से अवक्तव्यक और अनानुपूर्वी द्रव्यों के विषय में भी जानना चाहिये । इसके खुलासा के लिये द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण में नैगमव्यवहारनयसंमत अर्थपदप्ररूपणतारूप आनुपूर्वी का अर्थ देखना चाहिये । वहां द्रव्यानुपूर्वी का प्रकरण होने से तीन आदि प्रदेशवाले द्रव्य को आनुपूर्वी, एक प्रदेशवाले द्रव्य को अनानुपूर्वी और दो प्रदेशवाले द्रव्य को अवक्तव्यक द्रव्य कहा है। तब कि यहां कालानुपूर्वी के सबन्ध से तीन आदि समय स्थित द्रव्यको आनुपूर्वी, एक समय स्थित द्रव्य को अनानुपूर्वी और दो समयस्थित द्रव्य को अवक्तव्यक द्रव्य कहा है । इस एक वचनान्त और बहुवचनान्त आनुपूर्वी आदि अर्थपद प्ररूपणता का प्रयोजन क्या है ? इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं । सू० १२७॥
રૂપ પશુ હોય છે. એજ પ્રમાણે અવક્તવ્ય અને અનાનુપૂર્વી દ્રષ્યેાના વિષયમાં પણુ સમજવુ' તેના સ્પષ્ટીકરણુ માટે દ્રવ્યાનુપૂર્વી'ના પ્રકરણમાં નાગમવ્યવહાર નયસ'મત અર્થ પદપ્રરૂપણા રૂપ આનુપૂર્વીનું પ્રકરણ વાંચી જવાની ભલામણ કરવામાં આવે છે. તે પ્રકરણમાં દ્રવ્યાનુપૂર્વી નું નિરૂપણ કરેલુ હાવાથી, ત્રણ આદિ પ્રદેયાવાળાં બ્યાને અનુપૂર્વી રૂપ, એક પ્રદેશવાળા દ્રવ્યને અનાનુપૂર્વી રૂપ અને એ પ્રદેશવાળા દ્રવ્યને અવક્તવ્યક રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. પરન્તુ અહી' કાલાનુપૂર્વીનું કથન ચાલતુ હાવાથી ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળા દ્રવ્યને આનુપૂર્વી રૂપ, એક સમયની સ્થિતિવાળા દ્રવ્યને અનાનુપૂર્વી રૂપ અને બે સમયની સ્થિતિવાળા દ્રવ્યને અવક્તવ્યક રૂપ કહેવામાં मावेस छे. આ એકવચનાન્ત અને બહુવચનાન્ત અથ પદ્મપ્રરૂપણુતાનું પ્રત્યેાજન શું છે? તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે. પ્રસૂ॰૧ર૭ના
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अनुयोगवन्द्रिका टोका सघ १२८ नेगमम्यवहारनयसंमतभासमुत्कीर्तननि. ५४९
छाया-अब का सा नैगमव्यवहारयो भनसमुत्कीर्तनता ? नैगमव्यवहारयो मङ्गसमुत्कीर्चनता-अस्ति भानुपूर्वी, अस्ति अनानुपूर्वी, अस्ति अवक्तव्यकम् । एवं सप्तसप्ततिमूत्रोक्तद्रव्यानुपूर्वीगमेन कालानुपूामपि त एव षविंशतिभङ्गा मगितच्या यावत् सैपा नेगमव्यवहारयोमङ्गसमुत्कीर्तनता । एतस्याः खलु भग" से किं तं गमववहाराणं " इत्यादि ।
शब्दार्थः-(से किं तं गमववहाराणं भंगसमुकित्तणया?) हे भदन्त ! नैगमव्यवहारनयसंमत वह भंगसमुत्कीर्तनता क्या है ?
उत्तरः-(णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया) नैगमव्यवहारनय. संमत भंगसमुत्कीर्तनता इस प्रकार से है-(अस्थि आणुपुल्वी, अस्थि अणाणुपुत्वी अस्थि अवत्तव्वगं) आनुपूर्वी है, अनानुपूर्वी है, अवक्तव्यक है (एवं दवाणुपुब्बीगमेणं कालाणुपुवीए वि ते चेव उव्वीसं भंगा भाणियब्वा) इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी में कथित भंगसमुत्कीर्तनता के अनुरूप इस कालापूर्वी में भी वे ही २६ भंग बना लेना चाहिये ।
और-इस पाठ को " से तं गमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया" इस पाठ तक समाप्त हुआ जानना चाहिये । (एयाए णं णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए किं पोयणं ?) नैगमव्यवहारनयसंमत इस भंगसमुत्कीर्तनता का क्या प्रयोजन है ?
" से किं तं गमववहाराणं " त्या:
शहाय-(से किं तं गमववहाराणं भंगसमुक्तित्तणया ? ) भगवन् ! નગમવ્યવહાર નયસંમત તે ભંગસમુત્કીર્તનતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
हत्तर-(णेगमववहाराण भंगसमुक्त्तिणया) नैगम०५१७९२ नयमत ભંગસમુત્કીર્તનતાનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે
( अत्थि आणुपुब्वी, अस्थि अणाणुपुथ्वी, अस्थि अवत्तठवगं ) मानुषी है, बनानु छ भने तय छ, (एवं दवाणुपुत्वीगमेण कालाणुव्वीए वि ते चेव छन्वीसं भंगा भाणियचा ) मा रे द्रव्यानुषी ना ५२५मा જેવાં ૨૬ ભંગ (ભગાઓ) કહેવામાં આવ્યા છે, એવાં જ ૨૨ ભાંગાઓ मासानुपूवी ना विषयमा ५५ उप मे. “से तं गमववहाराणं भंगपमुक्त्तिणया" मा सूत्रा: ५यन्तनु समस्त यन मही ५४ ४२२.
4-( एयाएणं णेगमववहाराणं भंगसमुकिवणयाए किं पोयण!) नेगमा વ્યવહાર નયસંમત આ ભંગસમુકતનતાનું શું પ્રયોજન છે?
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अनुयोगद्वारसूत्र समुन्कीर्तनतायाः किं प्रयोजनम् । एतया खलु नैगमवहारयोः भासमुत्कीर्तनतया नैगमव्यवहारयोर्भङ्गोपदर्शनता क्रियते ॥९० १२८॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि। व्याख्याऽस्य स्पष्टा ॥५० १२८॥
उत्तर-(एयाए णं णेगमघवहाराणं भंगसमुक्त्तिणघाए णेगमय वहाराणं भंगोवदंसणया फज्जा ) इस नैगमव्यवहारनयसंमत भंगसमु. स्कीर्तनता से नैगमव्यवहारनयसंमत भंगोपदर्शनता की जाती है। इस सूत्र की व्याख्या स्पष्ट है
भावार्थ:-यहां इस प्रकार से जानना चाहिये-कि जो ये आनुपूर्वी आदि तीन पद एकवचनान्त हैं उनसे तीन भंग बनते हैं। और जो आनुपूर्वी आदि तीन पद बहुवचनान्त हैं उनसे भी तीन भंग बनते हैं। इस प्रकार असंयोग पक्ष में ये जुदे २ छ भंग हो जाते हैं। और संयोग पक्ष में इन तीन पदों के द्विसंयोगी भंग तीन होते हैं। इनमें एक २ भंग में दो दो का संयोग होने पर एकवचन और बहुवचन को लेकर चार चार भंग हो जाते हैं। इस प्रकार तीन भंग के द्विकर्मयोगी भंग चार २ होने से ये १२ बन जाते हैं। तथा त्रिकसंयोग में एकवचन
और बहुवचन को लेकर ८ भंग धनते हैं । इस प्रकार सय भंग मिलकर २६ भंग होते हैं । इन भंगों की स्थापना के लिये द्रव्यानुपूर्वी के प्रकरण का ७७ वां सूत्र देखना चाहिये ।।।सू०१२८॥
उत्तर-( एयारणं णेगमववहाराणं भंगसमुक्तित्तणयाए णेगमववहाराणं भंगोव. दसणया कज्जइ) मा नेगमय१७२ नयमत समुहीनताने साधारे નગમવ્યવહાર નયસંમત અંગે પદર્શનતા કરવામાં આવે છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા સ્પષ્ટ છે.
ભાવાર્થ—અહીં ૨૬ ભંગ કેવી રીતે બને છે, તે હવે સમજાવવામાં આવે છે–આનુપૂર્વી આદિ ત્રણ એકવચનાન્ત પદોના ત્રણ ભંગ (ભાંગા) બને છે. અને જે આનુપૂવ આદિ બહુવચનાઃ ત્રણ પદે છે તેમના પણ ત્રણ ભંગ બને છે. આ રીતે કુલ ૬ ભંગ અસાગ પક્ષમાં થાય છે.
સંગ પક્ષમાં આ ત્રણ ૫ઇને દ્વિસંગી ભંગ ત્રણ થાય છે. તેમાં પ્રત્યેક ભંગમાં બબ્બેને સંયોગ થવાથી એકવચન અને બહુવચનવાળા ચાર ચાર ભંગ બને છે. આ રીતે ત્રણ અંગેના દ્વિસંગી ચાર ચાર ભંગ થતા હોવાથી કુલ બ્રિકસંગી જંગ ૧૨ થાય છે. અને વિકસાયેગમાં એકવચન અને બહુવચનાન પદે નાં કુલ ૮ ભંગ થાય છે. આ પ્રકારે કુલ ૨૬ ભંગ થઈ જાય છેઆ અંગેની રચના સ્પષ્ટ રીતે સમવા માટે દ્રવ્યાનું પૂર્વેના પ્રકરણનું ૭૭મું સૂત્ર વાંચી લેવાની ભલામણુ કરવામાં આવે છે. સૂ૦૧૨૮મી
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मनुचोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२९ नैगमन्यवहारपसंमतभङ्गोपदर्शनामि. ५५१
मूलम्-से किं तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया? जेगम भंगोवदंसणया-तिसमयहिइए आणुपुच्ची, एगसमयटिइए अणाणुपुत्वी, दुसमयहिइए अवत्तव्वगं। तिसमयहिइया अणाणुपुबीओ एगसमयहिइया अणाणुपुष्वीओ, दुसमयट्रिइया अवत्तव्वयाई, अहवा-तिलमयट्रिइए य एगसमयटिइए य आणुपुत्वी य अणाणुपुत्वीया एवं तहा चेव दवाणुपुवीगमेणं छठवीसंभंगाभाणि. कना जाव से तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया ॥सू० १२९॥
छाया-अथ का सा नैगमव्यवहारयो भङ्गोपदर्शनता ? नैगम. भङ्गोषदर्श नता-त्रिसस्यस्थितिक आनुपूर्वी, एकसमयस्थितिक अनानुपूर्वी, द्विसमयस्थितिक अवक्तव्यकम् । त्रिपमयस्थितिका आनुपूर्व्यः। एकसमयस्थितिका आनुपूर्व्यः ।
" से किं तं गमयवहाराणं" इत्यादि।
शब्दार्थः-(णेगमववहाराणं) हे भदन्त ! नैगमव्यवहार नयसंमत (त) पूर्वप्रक्रान्त (से) वह-(भंगोषदंसणया) भंगोषपदर्शन्ता (कि)क्या है? ___ उत्तर:-(णेगम. भंगोवदंसणया) नैगमव्यवहारमयसंमत भंगोपदर्शनता इस प्रकार से है-(तिसमयष्टिाए आणुपुत्री) तीन समय की स्थितिवाला एक एक परमाणु आदि द्रव्य आनुपूर्वी है । (एगसमयहिहए अणाणुपुव्वी) एक समय की स्थितिवाला एक परमाणु आदि द्रव्य अनानुपूर्वी है । (दुसमयटिइए अवत्सव्वग) दो समय की स्थितिवाला एक परमाणु आदि द्रव्य अवक्तव्यक है । (तिसमयट्टिया आणुपुब्बीओ)
" से किं तं गमववहाराणं" त्य:
शहाथ-(णेगमववहाराणं) ३ भाप ! नरामय१६०२ नयस मत (i) ५ id (से) ते (भगोवदंसणया) aahsundlनु (किं) ३ २१३५ - १
उत्तर-(णेगमववहाराणं भंगोवदंगणया) नाम०५५७२नयस मत गो. ५नता मा ४.२नी छे
(तिसमयटिइए आणुपुब्बी) समनी स्थितिवाणु प्रत्ये: ५२॥ भात द्रव्य मानु५वी' ३५ . (एगसमयदिइए अणाणुपुव्वी) समयनी स्थितिवाणु मे ५२मा मा द्र०य मनानुषी ३५ छे. (दुसमयदिइए भवत्तवर्ग) मे समयनी स्थितिवाणु मे ५२मा मा6ि द्र०य भातव्य ३५ . (तिसमयदिइया आणुपुव्वीओ) ३५ समय स्थितिmi भने।
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भनुयोगद्वारस्ये द्विसमयस्थितिका अवक्तव्यकानि । अथवा-त्रिसमयस्थितिकच एकसमयस्थितिका आनुपूर्वीच अनानुपूर्वी व । एवं तथैव द्रव्यानुपूर्वीगमेन पहविचतिर्भना भणितव्याः, यावत् सैषा नैगमव्यवहारयो भङ्गोपदर्शनता ।।मु० १२९॥ ___टीका-से किं तं इत्यादि । व्याख्या द्रव्यानुपूर्वीवदभ्यूहनीया। स०१२९।। तीन समय की स्थितिवाले अनेक अपनी २ एक सी जातिवाले पदार्थ आनुपूर्वियां हैं । (एगसमयहिइया अणाणुपुव्वीओ) एक समय में स्थितिथाले अनेक अपनी २ एक सी जातिवाले पदार्थ अनानुर्वियां है। (दुसमयहिहया अवत्तव्ययाई) दो समय की स्थितिवाले अनेक अपनी २ एक सी जातिवाले पदार्थ अवक्तव्यक हैं। इस प्रकार ये एकवचनान्त बहुवचनान्त पक्ष में ३-३ भंग हैं । इस प्रकार से असंयोग पक्ष में इन छ भंगों का अर्थ कथन है। संयोगपक्ष में एकवचन और बहवचन संबन्धी प्रथम और द्वितीय भंग को संयुक्त करने पर त्रिसमय की स्थितिवाला पदार्थ एक आनुपूर्वी और एक समय की स्थितिवाला पदार्थ एक अनानुपूर्वी का वाच्यार्य जानना चाहिये। यही बात (अहवा तिसमवटिइए य एगसमयहिए य आणुपुत्वी य अणाणुपुत्री य) इस पाठ द्वारा स्पष्ट की गई है। यह प्रथम चतुर्भगी का प्रथम भंग है (एवं तहाचेव दवाणुपुवीगमेणं छब्बीसं भंगा भाणियव्वा जाव से तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया) इस प्रकार द्रव्यानुपूर्वी के पाठ के पातपातानी में सभी तिवा ५६. अनानुषी थे। ३५ छे. (दुसमयट्रिइया अवत्तवयाई) २ सभयनी स्थिति भने पातपातानी से સરખી જાતિવાળા પદાર્થો અવક્તવ્ય કે રૂપ છે. આ પ્રકારે એકવચનાન્ત અસગ પક્ષમાં ત્રણ ભંગ અને બહુવચનાંત અસંગ પક્ષમાં પણ ત્રણ બંગ બને છે. આ રીતે અસંયોગપક્ષે કુલ નંગ બને છે. સંયોગપક્ષે એકવચન અને બહુવચન સંબંધી પ્રથમ અને દ્વિતીય ભંગને સંયુક્ત કરવાથી ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળો પદાર્થ એ આનુપાવી રૂપ અને એક સમયની સ્થિતિવાળો પદાર્થ એક અનાનુપાવી રૂપ સમજ ઈએ, એજ વાત નીચેના સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવી છે
(माया तिसमयदिइए य एगसमयष्ट्रिइए य भाणुपुब्धीप भणाणुपुठवी य) આ પ્રકારે પહેલી ચતુર્ભાગીને પહેલે ભંગ ઉપર પ્રકટ કરવામાં આવ્યો છે. (एवं तहा चेव दवाणुपुन्वीगमेणं छब्बीसं भंगा भाणियव्या जाव से तंगमनवहाराणं भैगोवदंषणया) भा द्रव्यापीना l tulon अनुसा.
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भोगचन्द्रिका टीका सूत्र १२९ नैगमध्यवहारनयसंमतभङ्गोपदर्शननि. ५५३
अनुसार यहां पर " से तं जेगमबवहाराणं भंगोवदंसणया " इस पाठ पर्यन्त २६ भंग जानना चाहिये। यही भंगोपदर्शनता है। यहां २६ भंग इस प्रकार से बनते हैं
(१) त्रिसमयस्थितिक - एकपरमाणु आदि से लेकर अनंताणुक स्कंध पर्यंत द्रव्य विशेष आनुपूर्वी, (२) एक समय स्थितिक- एक परमाणु आदि से लेकर अनंताणुक स्कंध पर्यन्त द्रव्यविशेष अनानुपूर्वी (३) द्विसमयस्थितिक - एकपरमाणु द्रव्य आदि से लेकर अनंताणुक स्कंध पर्यंत द्रव्य विशेष - अवक्तव्यक ये ३ तीन भंग एकवचनान्त हैं
(१) त्रिसमयस्थितिक- अनेक एक २ परमाणु आदि से लेकर अनेक अनंताणुक स्कंचद्रव्यविशेष- आनुपूर्वियां, (२) एक समयस्थितिकअनेक एक २ परमाणु आदि द्रव्य से लेकर अनेक अनंताणुक स्कंध पर्यंत अनानुपूर्वियां, (३) द्विसमर्यास्थतिक - अनेक एक २ परमाणु आदि से लेकर अनेक अनंताणुक स्कंध पर्यंत समस्त अवक्तव्यक ये तीन भंग बहुवचनान्त हैं।
दो २ भंगो के संयोग से प्रथम चतुभंगी इस प्रकार से बनती है(१) आनुपूर्वी अनानुपूर्वी (२) आनुपूर्वी अनानुपूर्वियां (३) आनुपूर्वियां २ना २१ महीं समवा हाये. “ से तं गमवबहाराणं भंगोबदंसणया ” नैगमव्यवहार नमस'भत भगोषहर्शनतानु ३५ मा प्राश्नु કે, આ સૂત્રપાઠ પર્યંન્તનું સમસ્ત કયન અહી' ગ્રહણ કરવું જોઇએ. મા પ્રકારનું ભંગાપદ્મશ’નતાનું સ્વરૂપ #મજવુ' અહી. આ પ્રકારના ૨૬ ભ′ગ મને એએકવચનાન્ત ત્રણ ભ’ગા
(૧) ત્રિસમયસ્થિતિક-એક પરમાણુ દ્રવ્યથી લઈને અનંતાણુક સ્કેન્ચ પન્તના દ્રવ્યવિશેષરૂપ-આનુપૂર્વી' (૨) એક સમયસ્થિતિક એક પરમાણુ દ્રષ માહિથી લઇને અનંત અણુક કન્યા પન્તના દ્રવ્યવિશેષ રૂપ આનુપૂર્વી (૩) એ સમયની સ્થિતિવાળા એક પરમાણુ દ્રવ્ય આદિથી લઇને અનંતાણ અન્ય પર્યન્તના દ્રવ્યવિશેષ રૂપ અવક્તવ્યક મહુવચનાન્ત ત્રણ ભગા
(૧) ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળાં અનેક એક એક પરમાણુ રૂપ કૂચેથી લઈને અનેક અન'તાણુક કધ પન્તના દ્રવ્યવિશેષ આનુપૂર્વી છે. (૨) એક સમયની સ્થિતિવાળાં એક એક પરમાણુ રૂપ દ્રવ્યેથી લઈને અનેક અનતાણુક સ્કન્ધા પર્યન્તના દ્રવ્યવિશેષ અનાનુપૂર્વી એ છે.
(૩) એ સમયની સ્થિતિવાળાં અનેક એક એક પરમાણુ રૂપ દ્રવ્યેથી લઈને અનેક અનતાણુક કન્યા પયન્તના દ્રવ્યવિશેષા અવક્તવ્યક રૂપ છે. એ પદ્માના સ’ચેાગથી પડેલી ચતુભ'ગી (ચારભાંગા) નીચે પ્રમાણે અને છે(१) यानुपूर्वी अनानुपूर्वी, (२) मानुपूर्वी मनानुपूर्वी 'ओ।, (1) भानु
म० ७०
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अनुयोगवार अनानुपूर्षी, (४) आनुपूर्वियां अनानुपूर्विया । वितीय चतुर्भगी-इस प्रकार से है (१) आनुपूर्वी अवक्तव्यक (२) आनुपूर्वी बहु अवक्तव्यक (३) आनुपूर्वियां एक अवक्तव्यक (४) अनेक आनुपर्वियां अनेक अब तव्यक । तृतीय चतुर्भगो इस प्रकार से है-(१) अनानुपूर्वी अवक्तव्यक (२) अनानुपूर्वी बहु अवक्तव्यक (३) अनानुर्वियां एक अवक्तव्यक (४) अनेक आनुपूर्वियां अनेक अवक्तव्यक । इस प्रकार दो २ के संयोग पक्ष में विसंयोगी भंग इन एकवचनान्त बहुवचनान्त आनुपूर्वी आदि पदों के ये १२ भंग हैं । तीन २ के संयोग से जो आठ भंग बनते है वे इस प्रकार से हैं-(१) एक आनुपूर्वी एक अनानुपूर्वी एक अवक्तव्यक, (२) एक आनुपूर्ण एक अनानुपूर्वी अनेक अवत्तव्यक (३) एक आनुपूर्वी अनेक अनानुपूर्वियां एक अवक्तव्यक (४) एक आनुपूर्वी अनेक अनानुपूर्वी अनेक अयक्तव्यक () अनेक आनुपूर्वियां एक अनानुपूर्वी एक अवक्तव्यक, (६) अनेक आनुपूर्वियां एक अनानुपूर्वी अनेक अवक्तव्यक (७) अनेक आनुपूर्वियां अनेक अनानुपूर्वियां एक अवक्तव्यक (८) अनेक आनुपूर्वियां अनेक अनानुपूर्वियां अनेक अवक्तપવી એ અનાનુપૂર્વી અને (૪) આનુપૂવીએ અનાનુપૂર્વીએ.
બે પદેના સંગથી બીજી ચતુર્ભાગી નીચે પ્રમાણે બને છે
(१) भानुपूी अपत०५४, (२) मानुषी ५! अ५४तव्य, (२) આનુપૂર્વી એક અવક્તવ્ય, (૪) અનેક આનુપૂર્વી એ અનેક અવક્ત કે.
બે પદોના સંગથી ત્રીજી ચતુર્ભગી આ પ્રમાણે બને છે
(૧) એક આનુપૂર્વી એક અવક્તવ્ય, (૨) એક અનાનુપૂર્વ भzतव्य, (3) ५७ अनानुा मे अ१४०५४ (४) l मनानुY. વી એ ઘણું અવક્તવ્ય.
આ પ્રકારે એકવચનાત અને બહુવચનાઃ આનુપૂર્વી આ િપના સંયોગથી કુલ ૧૨ બ્રિકસંગી ભંગ થાય છે. હવે ત્રણ પદેના સંયોગથી જે ૮ ભંગ બને છે, તે પ્રકટ કરવામાં આવે છે,
(1) मे भानुषी २४ अनानुषी ने भरतय: (२) આનુપવી, એક અનાનુપૂર્વી અને ઘણા અવક્તવ્ય (૩) એક આનુપૂર્વી, અનેક અનાનુપૂવીએ અને એક અવક્તવ્યક (૪) એક આનુપૂર્વી, અને અનાનપવઓ અને અનેક અવક્તવ્યો (૫) અનેક આનુપૂવી, એક અનાનુપૂર્વી અને એક અવક્તવ્યક (૬) અનેક આનુપૂવીઓ, એક અનાતુપૂર્વી અને અનેક અવક્તવ્યો (૭) અનેક આનુપૂર્વી ઓ, અનેક અનાનુવએ અને એક અવક્તવ્યક (૮) અનેક આનુપૂર્વી એ, અને અનાનપવીએ
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गनुयोगवन्द्रिका का सूत्र १३० समवतारस्वरूपनिरूपणम्
मूलम्-से किं तं समोयारे ? समोयारे गमववहाराणं आणुपुत्वीदमाई कहिं समोयरंति ? किं आणुपुवीदव्वेहिं समो. यरंति ? अणाणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति ? अवत्तव्यगदम्वेहि समोयरंति? एवं तिपिणवि सहाणे समोयरति भाणियत्वं से तं समोयारे ॥सू० १३०॥
छाया-अथ कोऽसौ समत्र तारः? नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि कुत्र समवतरन्ति ? किमानुपूद्रिव्येषु समातरन्ति ? अनानुपूर्वीद्रव्येषु समवतरन्ति व्यक । इस प्रकार ये सब भंग २६ हो जाते हैं। इनकी विशेष जानकारी के लिये द्रव्यानुपूर्ण प्रकरणगत भंगोग्दर्शनता को देखना चाहिये। ।।सू०१२९॥
" से किं तं समोयारे ?" इत्यादि ।
शब्दार्थः-(से किं तं समोयारे) हे भदंत ! पूर्वप्रकान्त समवतार का क्या स्वरूप हैं ? -
उत्तर-(समोयारे) पूर्वप्रक्रान्त (पहले प्रारंभ किया हुवा) सपवतार का स्वरूप इस प्रकार से है।-(णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं काहिं समोयरंति) नैगमव्यवहारनयसंमत जो अनेक आनुपूर्वी द्रव्य हैं उनका अन्तर्भाव कहां होता है ? इस प्रकार के चिन्तन प्रकार का जो उत्तर देता है वही समवतार है। यह विचार इस प्रकार से होता है कि અને અનેક અવક્તવ્ય આ પ્રકારે અસગી ૬, દ્વિસંગી ૧૨ અને ત્રિકસંગી ૮ ભાંગા મળીને કુલ ૨૬ ભગા થઈ જાય છે. તેમના વિશે વધુ માહિતી મેળવવી હોય તે દ્રવ્યાનુપૂવના પ્રકરણમાં જે ભંગો પદર્શનતાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે તે વાંચી જવાની ભલામણ કરવામાં આવે છે. સૂ ૧૨મા
" से कि तं समोयारे" याह
शहाथ-प्रश्न-(से कि तं समोयारे ?, 3 मापन ! ५ प्रान्त (मनी. પનિધિકી કાલાનુપૂર્વીના એક પ્રકાર રૂ૫) સમાવતારનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(समोयारे) पून्ति सभवता२१३५ मा प्रा२नु छ(णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाई कहिं समोयरंति) नैसमय१९२ नयस भत જે અનેક આનુપૂવી દ્રવ્ય છે તેમને અન્તર્ભાવ (સમાવેશ) કયાં થાય છે? એ સ્વસ્થાનમાં તેમને સમાવેશ થાય છે કે પરસ્થાનમાં થાય છે કે આ પ્રકારની વિચારધારાને જે ઉત્તર દેવે તેનું નામ સમવતાર છે. અહીં આ
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अनुयोगद्वारसूत्रे अवक्तव्यकद्रव्येषु समवतरन्ति ? एवं त्रीण्यपि स्वस्थाने समवतरन्ति इति भणितध्यम् । स एष समवतारः ॥सू० १३०॥
टीका-से कि तं' इत्यादि। अशीतितमसूत्रे द्रव्यानुपूर्वीवदस्य सूत्रस्य व्याख्या बोध्या ।मु० १३०॥ नैगमव्यवहारनयसंमत समस्त आनुपूर्वी द्रव्य (किं आणुपुत्वीदव्वेहि समोयरंति, अणाणुपुव्वी दव्वेहि-समोयरंति, अवत्तव्वगवेहि समो. यांति) क्या आनुपूर्वी द्रव्यों में अन्तर्भूत होते हैं ? या अनानुपूर्वी द्रव्यों में अन्तर्भूत होते हैं ? या अवक्तव्यक द्रव्यों में अन्तर्भूत होते हैं ? (एवं तिण्णिवि सट्टाणे समोयरंति इति भाणियां) ___ उत्तर-नैगमव्यवहारनयसंमत जो आनुपूर्वी द्रव्य हैं वे आनुपूर्वी द्रव्यों में ही समाविष्ट नहीं होते हैं और न अवक्तव्यक द्रव्यों में समाविष्ट होते हैं। इसी प्रकार से जितने भी नैगमव्यवहारनयमान्य अनानुपूर्वी द्रव्य हैं वे अपनी जाति में अन्तर्भूत होते हैं, भिन्न जाति में नहीं। नैगमव्यवहारनयसंमत अवक्तव्यक द्रव्य भी अवक्तव्यक द्रव्यों में ही अन्तर्भूत होते हैं अन्य आनुपूर्वी आदि द्रव्यों में नहीं। इस प्रकार आनुपूर्वी, अनानुपूवीं और अवक्तव्यक ये तीनों भी द्रव्य પ્રકારની વિચારધારા ચાલે છે–નૈગમવ્યવહાર નયસંમત સમસ્ત આનુપૂર્વી द्रव्य (किं आणुपुत्रीदव्वेहिं समोयरंति, अणाणुपुत्वीदव्वेहिं समोयरंति, अवत्तव्वगदम्वेहि समोयरंति १) शुभानुभूती द्रव्योमा अन्तभूत थाय छ १ ३ अनाનુપૂર્વી દ્રવ્યોમાં અંતબૂત થાય છે ? કે અવક્તવ્યક દ્રવ્યમાં અન્તર્ભત થાય છે?
उत्तर-(एवं तिण्णि वि सटाणे समोयाति इति भाणियव्य) नरामयसार નયસંમત જે આનુપૂર્વી દ્રવ્યો છે તેને આનુપૂર્વી દ્રવ્યોમાં જ સમાવિષ્ટ થાય છે, તેઓ અનાનુપૂવ દ્રામાં સમાવિષ્ટ થતાં નથી અને અવક્તવ્યક દ્રવ્યોમાં પણ સમાવિષ્ટ થતાં નથી. એ જ પ્રમાણે ગમવ્યવહાર નયસંમત જેટલાં અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય છે, તેઓ પણ પિતાની જાતિમાં જ (અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યમાં જ) સમાવિષ્ટ થાય છે, તેમનાથી ભિન્ન એ આનુપૂવી દ્રવ્યોમાં અથવા અવક્તવ્યક દ્રવ્યામાં સમાવિષ્ટ થતાં નથી એ જ પ્રમાણે નૈગમવ્યવહાર નયસંમત અવક્તવ્યક દ્રવ્યો પણ અવક્તવ્યક દ્રવ્યોમાં જ સમાવિષ્ટ થાય છે--અન્ય આનુપૂર્વી આદિ દ્રવ્યમાં સમાવિષ્ટ થતાં નથી આ પ્રકારે આનુપવી, અનાનુપૂવી અને અવકતવ્યક, આ ત્રણે પ્રકારનાં દ્રવ્ય તિપિતાના
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
५५७
मूलम् - से किं तं अणुगमे ? अणुगमे णवविहे पण्णत्ते, तं जहा - संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुं वेव । णेगमववहाराणं आणुपुच्चीदव्वाई किं अस्थि णत्थि ३? नियमा तिष्णि वि अस्थि । गमववहाराणं आणुपु०बीदव्बाई किं संखिज्जाई असंखिज्जाई अनंताई ३ ? तिष्णि वि नो संखिजाई, असंखिजाई, नो
अणंताई ॥ सू० १३१ ॥
छाया - अथ कोऽसावनुगमः ? अनुगमो नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सत्पदमरूपणता यात्रदल्पबहुत्वं चैव । नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वी द्रव्याणि किं सन्ति न अपने २ स्थान रूप जाति में हीं अन्तर्भूत होते हैं इस सूत्र की व्याख्या के लिये देखो पीछे का ८० वां सूत्र || || मू० १३०॥
66
से किं तं अणुगमे " इत्यादि ।
शब्दार्थ - (से किं तं अणुग मे ?) हे भदंत ! अनुगम का क्या स्वरूप है ? उत्तर - ( अणुगमे णवविहे पण्णत्ते) अनुगम नौ प्रकार का कहा गया है । (तंजा) जैसे (संतपय परूवणया, जाव अप्पाबहुं चेव) संतपद - प्ररूपणता से लेकर अल्पबहुत्व तक -
अर्थात् - ( १ ) सत्पदप्ररूपणता, (२) द्रव्यप्रमाण, (३) क्षेत्र (४) स्पर्शना (५) काल ( ६ ) अन्तर, (७) भाग (८) भाव (९) अल्पबहुत्व । विद्यमान पदार्थ विषयक पद की प्ररूपणा का नाम सत्पदप्ररूपणता है। इस में (गमहाराणं आणुपुत्रीदव्बाई किं अस्थि णत्थि ३) जो સ્થાન રૂપ જાતિમાં જ અન્તભૂત થાય છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા માટે પાછળ ૮૦મું સૂત્ર વાંચી જવુ... જોઈએ।।સૂ॰૧૩૦ના
66
' से किं तं अणुगमे " इत्याहि
शब्दार्थ - (से किं तं अणुग मे १) हे भगवन् ! अनुगमनुं स्व३५ ठेवु' है? उत्तर- (अणुग विहे पण्णत्ते) अनुगंभ नव प्रहारनो ह्यो छे.
(सजहा) ते अा नीथे प्रभाछे
(संतपयपरूवणया, जाव अप्पा बहु चेष ) सतयह प्र३यताथी सहने અલ્પબહુવ પન્તના નવ પ્રકાર। અહીં ગ્રહણ કરવા જોઇએ. તે નવ પ્રકાર હવે ગણાવવામાં આવે છે—
(१) सत्य अ३पटुता, (२) द्रव्यप्रभाशु, (3) क्षेत्र, (४) स्पर्शना, (4) हाज, (६) अन्तर, (७) लाग' (८) लाव मने (८) मध्यमडुत्व.
વિદ્યમાન પદ્મા વિષયક પદ્મની પ્રરૂપણુતાનું નામ સપદપ્રરૂપણુતા છે. तेभां (गमववहाराणं आणुपुत्रीव्वाईं किं अस्थि णत्थि ?) अर्ध सेवा अभ
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५५८
अनुयोगद्वारसूत्रे
सन्नि ? नियमात् श्रभ्यपि सन्ति । नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वी द्रव्याणि किं संख्ये - यानि असंख्येयानि अनन्तानि ३१ त्रीण्यपि नो संख्येयानि, असंख्येयानि, नो अनन्तानि । सू० १३१ ॥
टीका--' से किं तं' इत्यादि -
शिष्यः पृच्छति अथ कोऽसावनुगमः ? इति । उत्तरयति - अनुगमो नवविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - सत्पदप्ररूपणतेत्याद्यल्पबहुत्वान्तः । तथादि - सरपदप्ररूपणता १, द्रव्यप्रमाणं२, क्षेत्रं ३, स्पर्शना४, कालः५, अन्तरम् ६, भागः७, भावः८, अल्पबहुत्व' ९ चेति । तत्र - सत्पदप्ररूपणतां निरूपयितुमाह- 'गमहाराणं' इत्यादिनैगमव्यवहारसम्म तान्याऽऽनुपूर्वी द्रव्याणि कि सन्ति ? न सन्ति वा? एत्रमनापूववकविषयेऽपि मनो बोध्यः । उत्तरयति - नियमात् त्रीण्यपि अनु कोई ऐसा प्रश्न करते हैं कि "नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य हैं या नहीं हैं " इसी प्रकार का प्रश्न अनानुपूर्वी द्रव्यों और अवक्तars porों के भी विषय में होता है- -तब इसका उत्तर- (णियमा तिष्णि वि अस्थि) "नियमतः ये तीनों द्रव्य हैं" ऐसा दिया जाता है। (गमववहाराणं आणुपुत्र्वी दव्बाई किं संखिज्जाई असंखिजाई अनंताई ३ १ )
प्रमाण में आनुपूर्वी आदि पदों द्वारा जिन द्रव्यों को कहा जाता है उनकी संख्या कितनी है इसका विचार होता है - जिसे इस पाठ द्वारा व्यक्त किया गया है- प्रश्नकर्ता पूछता है कि नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वी द्रव्य क्या संख्यात हैं, या असंख्यात हैं या अनंत हैं ? इसी प्रकार का प्रश्न प्रश्नकर्त्ता का अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव के विषय में भी है। इसका उत्तर सूत्रकार ने (तिथिग પૂછે કે “ નેગમવ્યવાર નયસ'મત આનુપૂર્વી દ્રવ્યે છે કે નથી ? અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યેા છે કે નથી ? અવક્તવ્યક દ્રબ્યા છે કે નથી ? ” તે તે પ્રશ્નના उत्तर या प्रम.ये आपवामां आवे छे - (नियमा तिणि वि अत्यि ) ત્રણે દ્રષ્યે અવશ્ય વિદ્યમાન છે. આ પ્રકારે માનપૂર્વી આદિ કન્યાના અસ્તિત્વ વિષયક જે પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે તેનુ નામ સત્પદપ્રરૂપણુતા છે.
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હવે દ્રવ્યપ્રમાણનુ સ્વરૂપ સમજાવવામાં આવે છે–જે દ્રવ્યાને આનુપૂર્વી આદિ રૂપે ઓળખવામાં આવે છે, તે દ્રબ્યાની સખ્યાના દ્રવ્યપ્રમાણમાં વિચાર કરવામાં આવે છે એજ વાતને નીચેના સૂત્રપાઠ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે
प्रश्न- (णेगमववहाराणं आणुपुत्रीदव्बाई किं संखिज्जाई, असंखिज्जाई, अणंताई १) नैगमव्यवहार नयसभित समस्त यानुपूर्वी द्रव्यों शु संख्यात છે, અસંખ્યાત છે, કે અનત છે ? આ પ્રકારના પ્રશ્ન અનાનુપૂર્વી કી અને અન્નક્તવ્યક દ્રવ્યે વિષે પણ પૂછવા જોઈએ,
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अनुयोगधद्रिका टीका सूत्र १३१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम्
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पूर्च्छनानुपूयं वक्तव्यकाभिधेयानि त्रीण्यपि सन्ति । अथ द्रव्यप्रमाणं निरूपयति'णेगमवरहाराणं' इत्यादि । नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रव्याणि किं संख्ये - यानि असंख्येयानि अनन्तानि । एवमनानुपूर्वीद्रव्या वक्तव्यकद्रव्यविषयेऽपि प्रश्नो बोध्यः । उत्तरयति - त्रीण्यपि नो संख्येयानि नो अनन्तानि, किन्तु असंयेयानि । अत्रेदं बोध्यम् - ज्यादिसमय स्थितिकानि परमाण्वादि द्रव्याणि यद्यपीह
प्रत्येकमनन्तानि तथापि समययलक्षण स्थितिरेकैव, कालस्य प्राधान्यात् द्रव्यबहुस्वस्य गुणीभूतत्वाच्च । एवं च त्रिसमयस्थितिकैरनन्तैरपि एकमेवानुपूर्वी द्रव्यम् । इत्थमेत्र चतु समयादि स्थितिकानन्तेषु यावदश समय संख्येयसमया बिनो संखिजाई, असं खिजाई, नो अनंताई) यों दिया है। वे कहते हैं कि ये तीनों ही द्रव्य न संख्यात हैं और न अनंत हैं, किन्तु असंख्यात हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि तीन समय की स्थितिवाले प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्य यद्यपि इसलोक में अनंत हैं तो भी उनकी समरूपस्थिति एक ही है। क्योंकि काल की यहां प्रधानता है और doreहुत्व की गौणता है । इसलिये समयत्रय की स्थितिवाले जितने भी वे परमाणु आदि अनंत द्रव्य हैं वे सब अपनी २ तीन समय की स्थितिकी अपेक्षा से एक ही आनुपूर्वी द्रव्य रूप हैं। इसी प्रकार से यद्यपि चार समय आदि की स्थितिवाले प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्य अनंत हैं, यावत् दश समय को स्थितिवाले, संख्यात समय की
उत्तर- (तिष्णि वि नो संखिज्जाई, असं खिज्जाई, नो अणंताई) भानुपूर्वी આદિ ત્રણે પ્રકારના દ્રવ્યેા સખ્યાત પશુ નથી, અનંત પશુ નથી, પરન્તુ અસખ્યાત છે. આ કથનના ભાવાથ એ છે કે ત્રણુ સભ્યની સ્થિતિવાળાં પ્રત્યેક પરમાણુ આદિ દ્રવ્યે ને કે આ લેાકમાં અનંત છે, છતાં પણ તેમની સમયત્રય રૂપ સ્થિતિ એક જ છે, કારણ કે કાળની અહી' પ્રધાનતા મહેણ કરવાની છે અને દ્રવ્યમહત્વની ગૌણુતા સમજવાની છે તેથી ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં પરમાણુથી લઈને અન ́ત પન્તના પુદ્ગલ પરમાણુવાળાં કન્ય રૂપ દ્રવ્યેા છે, તે બધાં પાતપાતાની ત્રણ સમયની સ્થિતિની અપેક્ષાએ એક જ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપ છે. એજ પ્રમાણે ને કે ચાર આિ સમયની સ્થિતિવાળાં પ્રત્યેક પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય અનંત છે, દસ સમય પયન્તની સ્થિતિવાળાં, સખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં અને અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં પરમાણુ આદિ દ્રવ્યે અનંત છે, છતાં પશુ તેએ તપેાતાની ચાર ઋતિ સમય, ઇસ પર્યન્તના સમય, સખ્યાત અને અસ',
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मनुवोगदारले संख्येयसमयस्थितिकानन्तेषु एकैकेषामेकैकानपूर्वीत्व बोध्यम् । द्रव्यस्यानन्तसमयस्थितिरेव न भवति तथाविधस्व-भावत्वात् । एवमेव अनानुपूर्वी द्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि चाप्यसंख्येयानि वोयानि । नन एकसमयस्थितिकस्य द्रन्यस्य अनानुपूर्वीत्व, द्विसमयस्थितिकस्य द्रव्यस्यावक्तव्यकत्वमुच्यते, तत्र यद्यपि लोके स्थितिवाले, असंख्यात समय की स्थितिवाले परमाणु आदि द्रव्य अनंत हैं तो भी वे अपनी २ चार आदि समय, दश समय, संख्यात समय, और असंख्यात समयरूप स्थिति को एक होने की अपेक्षा से एक एक आनुपूर्वी रूप हैं । अर्थात् चार आदि समय की स्थितिवाले जितने भी अनन्त परमाणु द्रव्य एवं अनन्त स्कंध द्रव्य हैं वे अपनी चार समय की स्थिति को एक होने के कारण एक आनु वी द्रव्य हैं । इसी प्रकार से दश आदि समयोंकी स्थितिवाले अनंत परमाणु द्रव्य से लेकर अनंत परमाणुक स्कंधों में भी एक २ को एक २ आनुपूर्षी रूपता अपनी २ स्थितिको एक होने की अपेक्षा से जानना चाहिये । द्रव्य की स्थिति अनंत समय की नहीं होती है, क्योंकि ऐसा कोई द्रव्य ही नहीं है कि जिसकी स्थिति अनन्त समय की हो। इसलिये आनुपूर्वी द्रव्यों को असंख्यात माना गया है। इसी प्रकार से अनानुपूवीं द्रव्य और भवक्तव्यक द्रव्य भी असंख्पात २ हैं ऐसा जानना चाहिये।
शंका-एक समय की स्थितिवाला द्रव्य अनानुपूर्वी है और दो समय की स्थितिवाला द्रव्य अवक्तव्यक है। इनमें यद्यपि लोक में एक
ખ્યાત સમય રૂપ સ્થિતિ એક સરખી હોવાને કારણે એક એક આનુપવી રૂ૫ છે. એટલે કે ચાર સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં અનંત પરમાણુ દ્ર અને અનંત સ્કન્ધ દ્રવ્ય છે. તેઓ ચાર સમયની એક સરખી સ્થિતિવાળાં હોવાને કારણે એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યરૂપ છે એજ પ્રમાણે પાંચથી લઈને દસ પયનના સમયની સ્થિતિવાળાં, સંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં અને અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં અનંત પરમાણુ દ્રથી લઈને અનંત પરમાણુ કધમાં પણ, તે પ્રત્યેકની પિતપોતાની સ્થિતિની એકરૂપતાને કારણે તે પ્રત્યેકમાં પણ એક એક આવી રૂપતા સમજવી જોઈએ દ્રયની સ્થિતિ અનંત સમયની છેતી નથી-એટલે કે એવું કોઈ પણ દ્રવ્ય નથી કે જેની સ્થિતિ અનંત સમયની હેય તેથી આનુપૂવ કાને અસંખ્યાત જ માનવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય પણ અસંખ્યાત જ છે અને અવકતવ્યક દ્રવ્યો પણ અસંખ્યાત જ છે એમ સમજવું.
શંકા-એક સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી છે, અને બે સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય અવત૫ા છે જે કે લેકમાં એક સમયની સ્થિતિવાળાં
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३१ अनुगमस्वरूपनिरूपणम् एकसमयस्थितिकानि द्विसमयस्थितिकानिच परमाण्वादिद्रव्याणि प्रत्येकमनन्तानि सन्ति, तथापि पूर्वोक्तरीत्या एकसमयलक्षगाया द्विसमयलक्षणायाश्च स्थितिरेकैकस्पत्वाद् द्रव्यबाहुल्यस्य च गुणीभूतत्वादेकमेवानानुपूर्वीद्रव्यमेकमेव चावक्तव्यकद्रव्यं वक्तुमुचितं, न तु प्रत्येकमसंख्येयम् । ननु यदि च द्रव्यभेदेन भेदोऽङ्गीक्रियते सहि प्रत्येकमनन्तं वक्तुमुचितम् , एकसमयस्थितीनां द्विसमयस्थितीनां च द्रव्याणां एक समय को स्थितिवाले और दो समय की स्थितिवाले परमाणु आदि प्रत्येक द्रव्य अनंत हैं, तो भी पूर्वोक्त रीति से एक समय की और दो समय की स्थिति को एक रूप होने से और द्रव्यबाहुल्य को गौण होने से एक ही अनानुपूर्वी द्रव्य और एक ही अवक्तव्यक द्रव्य है ऐसा कथन करना ही उचित है । प्रत्येक असंख्यात है ऐमा कहना उचित नहीं है। शंकाकार का तात्पर्य यह है कि कालानुपूर्वी में द्रव्य बाहुल्य गौण माना गया है और काल प्रधान-इसलिये एकसमय की स्थितिवाले जितने द्रव्य होगे वे मय अपनी अपनी एक २ समय की स्थिति में एकरूपता होने के कारण एक ही अनानुपूर्वी द्रव्य कहे जायेंगे भिन्न २ असंख्यात अनानुपूर्वी द्रव्य नहीं । इस प्रकार जितने भी दो समय की स्थितिवाले द्रव्य होंगे वे सय अपनी २ दो २ समय की स्थिति को एक रूप होने से एक ही अवक्तव्यक द्रव्य माने जायेंगे भिन्न भिन्न असंख्यात अवतष्यक द्रव्य नहीं। यदि द्रव्य के भेद से इनमें भेद माना जावे तो फिर અને એ સમયની સ્થિતિવાળા પરમાણુ આદિ પ્રત્યેક દ્રવ્ય અનંત છે, છતાં પણ પૂર્વોકત રીતે એક સમયની અને બે સમયની સ્થિતિની એકરૂપતા લેવાથી અને દ્રવ્યબાહુલ્યની ગૌણતા હેવાથી “એક જ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય અને એક જ અવકતવ્યક દ્રવ્ય છે,” એવું કથન કરવું ઉચિત ગણાત પ્રત્યેક અસંખ્યાત છે, એવું કથન કરવું ઉચિત લાગતું નથી શંકાકરનારના કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે- કાલાનુપૂર્વમાં દ્રવ્યબાહુલ્યને ગૌણ માનવામાં આવ્યું છે અને કાળને પ્રધાન માનવામાં આવેલ છે. તેથી એક સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્ય હશે, તેમનામાં એક એક સમયની સ્થિતિ રૂપ એકતા હોવાને કારણે, એક જ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપ ગણવા જોઈએભિન્ન ભિન્ન અસંખ્યાત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂ૫ ગણવા જોઈએ નહીં એજ પ્રમાણે બે સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્ય હશે તે બધાંને પણ, પોતપિતાની બબ્બે સમયની સ્થિતિની એકરૂપતાને કારણે, એક જ અવક્તવ્ય દ્રવ્ય રૂપ માનવા પડશે-ભિન્ન ભિન્ન અસંખ્યાત અવક્તવ્યક દ્રવ્યો ૨૫ માની
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अनुपोगपरसूले प्रत्येकमानन्त्यादितिवेदाह-लोके हि असंख्येया अवगाहभेदाः सन्ति । एवं एकसमयस्थितिकद्विसमयस्थितिकयोर्द्रव्ययोः एकैकस्य अगाइनाभेदेन भिन्नतया विवक्षितत्वात्मत्येकमसंख्येयं दोध्यम् । प्रत्यवगाहंच एकममयस्थितिकद्विसमयस्थितिकानेकद्रव्यसंभवादनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामाधारक्षेत्रभेदात्प्रत्येक मसंस्पेयत्वं न विरुध्यते ।।इनि।।मु० १३१ । इस प्रकार से तो इनमें प्रत्येक में असंख्यातता न कहकर यहां सूत्रकार को अनंनता प्रत्येक में कहना उचित था क्यों कि एक समय की स्थितिवाले द्रव्यों में और दो समय की स्थितिवालेद्रव्यों में प्रत्येक द्रव्य अनन्त है ?
उत्तर-लोक में अवगाह भेद असंख्यात हैं। इसलिये एक समय की स्थितिवाले जितने द्रव्य हैं और दो समय की स्थितिवाले जितने द्रव्य हैं उनमें से एक २ द्रव्य में अवगाहना के भेद से भिन्नता है। इस मित्रता की विवक्षा की वजह से प्रत्येक द्रव्य असंख्यात है-ऐसा जानना चाहिये । हरएक अवगाहमें एक समय की स्थितिवाले और दो समय की स्थितिवाडे अनेक द्रव्यों का रहना संभवित होता है। इस लिये असंख्य अवगाह में अनानुपूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों के रहने के कारण उनके आधारभूत क्षेत्र में भेद हो जाता है । इसलिये इनमें
શકાશે નહીં. જે દ્રવ્યના ભેદને લીધે તેમની વચ્ચે ભેદ માનવામાં આવે, તે તે પ્રત્યેકમાં અસંખ્યાતતા આવવાને બદલે અનંતના જ આવવાનો પ્રસંગ ઉપસ્થિત થશે તેથી સૂત્રકારે અહીં જે અસંખ્ય તતા કહી છે તેને બદલે પ્રત્યેકમાં અનંતતા જ કહેવી જોઈતી હતી, કારણ કે એક સમયની સ્થિતિવાળાં દ્રવ્યોમાં અને બે સમયની સ્થિતિવાળાં દ્રમ-એ પ્રત્યેકમાંઅનંતતા જ હોય છે.
ઉત્તર-લેકમાં અવગાહભેદ અસંખ્યાત છે તેથી એક સમયની સ્થિતિ વાળાં જેટલાં બે છે અને બે સમયની સ્થિતિવાળા જેટલાં દ્રવ્ય છે, તેમાંના પ્રત્યેક દ્રવ્યમાં અવગાહનાના ભેદને લીધે મિત્રતા છે. આ ભિન્નતાની અપેક્ષાએ પ્રત્યેક દ્રવ્ય અસંખ્યાત છે, એમ સમજવું જોઈએ. દરેક અવગાહમાં એક સમયની ક્ષિતિવાળાં અને બે સમયની સ્થિતિવાળાં અનેક દ્રની વિવમાનતા (રહેવાનું) સંભવિત હોય છે. તેથી અસંખ્ય અવગાહમાં અનાનુપવી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યોના રહેવાને કારણે તેમના આધારભૂત ક્ષેત્રમાં લેહ પડી જાય છે તેથી તે દ્રવ્યમાં–પ્રત્યેકમાં-અસંખ્યાતતાનું કથન વિરુદ્ધ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३२ क्षेत्रद्वारस्पर्शनाद्वारनिरूपणम्
अथ क्षेत्रद्वारं स्पर्शनाद्वारं च वक्तुमाह
मूलम्-गेगमश्वहाराणं आणुपुब्बीदवाइं अणाणुपुत्वीदवाई अवत्तबगदम्बाई लोगस्स किं संखि जइभागे होज्जा? असंखिजहभागे होजा? संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा ? असंखेजेसु भागेसु वा होज्जा ? सव्वलोए वा होज्जा? आणुपुत्वीदवाइं एगं दव्वं पडुच्च संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखेज्जइ भागे वा होजा, संखेग्जेसु वा, भागेसु होज्जा, असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा, देसूणे वा लोए होज्जा ? नाणादवाइं पडुञ्च नियमा सव्वलोए होज्जा। एवं अणाणुपुत्रीदव्वाइं। आएसंतरेण वा सव्वपुच्छासु प्रत्येक में असंख्यानता का कधन विरुद्ध नहीं है। निर्दोष है। तात्पर्य कहने का यह है कि लोक में एक समय की स्थितिवाले द्रव्यों को रहने के स्थान असंख्यात है क्यों कि लोकाकाश स्वयं असंख्यात प्रदेशी है। इन द्रव्यों को रहने का एक ही एक प्रदेश रूप या दो प्रदेश रूप आधार स्थान नहीं है। अतः एक प्रदेश रूप और दो आदि रूप आधार अनेक होने के कारण उन असंख्यात आधार रूप स्थानों में ये प्रत्येक द्रव्य असंख्यात रूप में रहते हैं इसलिये ये प्रत्येक असंख्यात ही है अतः भिन्न २ स्थानों में रहे हुवे इन एक समय की और दो समय की स्थिति वाले द्रव्यों में प्रत्येक में असंख्यानता का कथन निर्दोष है। स०१३ ॥ પડતું નથી, પણ નિર્દોષ કથન રૂપ જ ગણી શકાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે લેકમાં એક સમયની સ્થિતિવાળાં દ્રવ્યને તથા બે સમયની સ્થિતિવાળાં દ્રવ્યોને રહેવાનાં સ્થાન અસંખ્યાત છે, કારણ કે કાકાશ પોતે જ અસંખ્યાત પ્રદેશોવાળું છે આ દ્રવ્યોને રહેવાનું એક જ પ્રદેશ રૂપ અથવા બે પ્રદેશરૂપ આધારસ્થાન હોતું નથી તેથી એક પ્રદેશરૂપ અને બે પ્રદેશ આદિ રૂપ આધાર અનેક હોવાને કારણે તે અસંખ્યાત આધાર ૩૫ સ્થાનોમાં તે પ્રત્યેક કથા અસંખ્યાત રૂપે રહે છે. તેથી તે પ્રત્યેક અસંખ્યાત જ છે. આ રીતે ભિન્ન ભિન્ન સ્થાનમાં રહેલા એક સમયની અને બે સમયની સ્થિતિવાળા તે પ્રત્યેક દ્રામાં અસંખ્યાતનું કથન છેષરહિત જ છે.) સૂ૦૧૩
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मनुयोगदारले होज्जा। एवं अवत्तव्वगदवाणि विजहा खेत्ताणुपुव्वीप।फुसणा कालाणुपुवीए वि तहा चेव भाणियव्या सू०१३२॥ ___ छाया- नैगमध्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्वीद्रव्याणि अवक्तव्यकद्रव्याणि लोकस्य कि संख्येयभागे भवन्ति ? असंख्येयमागे भवन्ति ? संख्येयेषु भागेषु ची भवन्ति ? असंख्येयेषु भागेषु वा भवन्ति ? सर्वलोके वा भवन्ति ! आनुपूर्वीद्रव्याणि एकं द्रव्यं प्रतीत्य संख्पेयभागे वा भवन्ति, असंख्येयभागे वा भवन्ति, संख्येयेषु वा भागेषु भवन्ति ? असंख्येयेषु वा भागेषु भवन्ति ? देशोने वा लोके भवन्ति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । एवमनानुपूर्वीद्रव्यम् । आदेशान्तरेण वा सर्वपृच्छासु भवन्ति । एवमवक्तव्यकद्रव्याग्यपि यथा क्षेत्रानुपाम् । स्पर्शनाकालानुपूर्यामपि तथैव भणितव्या ॥सू०१३२॥
टीका-'णेगमववहाराणं' इत्यादिनैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वीद्रपाणि लोकस्य किं संख्येयभागे भवन्ति तिष्ठन्ति ? इत्यादिनः । उत्तरयति-'एग दव्वं' इत्यादि । भानुपूर्वीद्रव्याणि एकं
अब सूत्रकार क्षेत्रद्वार और स्पर्शनद्वार का कथन करते हैं"णेगमववहाराणं" इत्यादि
शब्दार्थ-(णेगमववहाराणं) नैगमव्यवहारनयमान्य (आणुपुष्षी दव्वाई) समस्त आनुपूर्वी द्रव्य (भणाणुपुत्वी व्वाई) समस्त अनानुपूर्वी द्रव्य (प्रवत्तव्धगदम्वाई) और समस्त अवक्तव्यक द्रव्य (लोगस्स) लोक के (किं) क्या (संखिज्जहभागे होऊना) संख्यात भाग में रहते हैं? (असंखिज्जइ भागे होज्जा) या असंख्यात भाग में रहते हैं (संखेज्जेसु. भागेसु वा होज्जा) या संख्यात भागों में रहते हैं ? (असंखेज्जेसु मा. गेसु वा होज्जा) या असंख्यात भागों में रहते हैं ? (सव्वलोए वा होज्जा) या समस्त लोक में रहते हैं ?
હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રદ્વાર અને સ્પર્શનદ્વારનું કથન કરે છે.– "णेगमववहाराणं" त्या:
शहाथ-(णेगमववहाराणं) नराम०५१७२ नयसमत (आणुपुत्वीदव्वाई) समस्त भानुभूती' या, (अणाणुपुत्वीदवाई) समस्त अनानुभूती द्रव्यो, (अवनम्वगदव्वाई) भने समस्त अतथ्य द्रव्ये (लोगस्स किं संखिग्जा भागे होजा) सभ्यातमा भामा २७ , (असंखिन्जाइमागे होन्जा), मप्यात बारामा २3 , (संखेज्जेसु भागेसु वा होजा)।
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असुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३२ क्षेत्रद्वारस्पर्शनाद्वारनिरूपणम्
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द्रव्यं प्रतोत्य = आश्रित्य छोकस्य संख्येयमागे 'होज्जा' भवन्ति तिष्ठन्ति, असंख्येमागे वा तिष्ठन्ति, संख्येयेषु भागेषु वा तिष्ठन्ति, असंख्येयेषु भागेषु वा विष्ठन्ति, देशोने वा लोके तिष्ठन्ति । अत्र ज्यादिसमयस्थितिकद्रव्यस्य संख्येवादिभागवर्त्तित्वं तचदवगाहसंभवाद बोध्यम् । तथा यदा व्यादिसमयस्थितिकः सूक्ष्मपरिणामः स्कन्धो देशोने लोकेऽवगाहते, तदा एकस्य आनुपूर्वीद्रव्यस्य
उत्तर- ( आणुपु०वी०बाई एगं दव्वं पडुच्च संखेज्जहभागे वा होजा, असंखेज्जइ भागे वा होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा, असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा, देसूणे वा लोए होज्जा) एक द्रव्य की अपेक्षा करके कोई एक आनुपूर्वीद्रव्य लोक के संख्यात भाग में रहता है, कोई एक आनुपूर्वीद्रव्य लोक के असंख्यात भाग में रहता है, कोई एक आनुपूर्वी द्रव्य लोकके संख्यात भागों में रहता है और कोई एक आनुपूर्वीद्रव्य लोक के असंख्यात भागों में रहता है। तथा कोई एक आनुपूर्वीद्रव्य देशोन लोक में रहता है। यहां पर जो व्यादि समय की स्थितिवाले द्रव्य का लोक के इन संख्यात आदि भागों में रहना कहा गया है वह उन २ भागों में अवगाह उनका संभावित है इस अपेक्षा से कहा गया है ऐसा जानना चाहिये । तथा-जिस समय ज्यादि समय की स्थितिवाला सूक्ष्म परिणाम युक्त स्कंध देशोन लोक में अवगाहित होता है - ठहरता है उस समय एक आनुपूर्वीद्रव्य देशोन लोकवर्ती होता है ऐसा समझना चाहिये। असभ्यात समस्त मां २३ छे ? उत्तर- (आनुपुच्चीदव्त्राई एगं दव्वं पडुच्च संखेज्जइभागे वा होज्जा, असंखेउजइभागे वा होज्जा, संखेज्जेसु भागे सु वा होज्जा, असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा, देसूणे वा लोए होज्जा) मेध्यनी अपेक्षा वियार वामां आवे तो એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેાકના સખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કેાઇ એક આનુપૂર્વી દ્રબ્ય લેાકના અસખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કાઇ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેાકના સખ્યાત ભાગામાં રહે છે, તથા કોઇ એક આનુપૂર્વી દ્રશ્ય દેશેાનલેાકમાં રહે છે.
सभ्यात लागोभां रहे छे, (असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा) भागोभां रहे छे, (सव्वलोए वा होज्जा ?)
6"
અહીં “ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય (ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય) લેાકના સંખ્યાત આદિ લાગેામાં રહે છે. ” એવું જે કથન કરવામાં આવ્યું છે તેનું કારણ એ છે કે તે સખ્યાત આદિ ઉપર્યુક્ત ભાગોમાં તેની અવગાહના સભવિત ડાય છે. તથા જે સમયે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળા સૂક્ષ્મ પરિણામયુકત રાન્ધ દેશેાનલેાકમાં અવગાહિત થાય છે-રહે છે તે સમયે मे भानुपूर्वी द्रव्य देशनिबेोऽवती होय छे, वु' समन्यु लेईथे.
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अनुयोगवारसूरे देशोनलोकवत्तित्वं भावनीयम् । ननु सम्पूर्णेऽपि लोके कस्मादिदं न तिष्ठति ? इति चेदुच्यते-सर्वलोकन्यारी अचिसमहास्कन्ध एव भवति, स च सर्वलोकन्यापितया एकमेव समयमेव तिष्ठते, ततःपरं तदुपसंहारात् । न चैकसमयस्थितिक मानुपूदिव्यं भवति, ज्यादिममयस्थितिकत्वेनैव तत्संभवात् । तादृशं द्रव्यं तु नियमादेकेनापि प्रदेशेनोन एव लोकेऽवगाहते । अतः व्यादिसमयस्थितिकद्रव्यस्य देशोनव्यापित्वं बोध्यम् । ननु-अचित्तमहास्कन्धस्यैकसमयस्थितिकत्वं नोपपद्यते
शंकाः-आप जो सूक्ष्म परिणाम युक्त व्यादि समय की स्थितिवाले स्कंध रूप एक आनुपूर्वीद्रव्य को देशोन लोक व्यापी बतला रहे हो सो यह समस्त लोक में क्यों नहीं रहता है ?
उत्तर:-यह तो पहिले ही कहा जा चुका है कि सर्वलोक व्यापी अचित्त महास्कंध ही होता है और यह अचित्त महास्कंध सर्वलोक में व्यापक रूप से एक ही समय तक रहता है-बाद में उसका संकोचउपसंहार-हो जाता है। एक समय की स्थितिवाला तो आनुपूर्वीद्रव्य होता नहीं है । वह तो व्यादि समय की स्थितिवाला ही होता है। अतः ऐसा जो द्रव्य होता है वह नियम से एक प्रदेश ऊन ही लोक में अव. गाहित होता है । इसलिये व्यादि समय की स्थितिवाला जो द्रव्य होता है वह देशोनलोक व्यापी होता है ऐसा समझना चाहिये।
शंका-आपने जो अचित्त महास्कंध को एक समय की स्थितिवाला प्रकट किया है, सो वह एक समय की स्थितिकता उसमें घटित नहीं
શંકા-આપ જે સૂક્ષમ પરિણામયુક્ત ત્ર આદિ સમયની સ્થિતિવાળા કલ્પ રૂપ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યને દેશોનલેકવ્યાપી કહ્યો છે, તે અમારે પ્રશ્ન એ છે કે તે સમસ્ત લેકમાં કેમ વ્યાપેલે (અવગાહિત) નથી ?
ઉત્તર-એ વાત તે પહેલાં સ્પષ્ટ થઈ ચુકી છે કે અચિત્ત મહાઅન્ય જ સર્વ લેકવ્યાપી હોય છે, અને તે અચિત્ત મહાસ્ક સર્વ લેકમાં વ્યાપક રૂપે એક સમય સુધી જ રહે છે. ત્યાર બાદ તેનો સંકેચ (ઉપસં. હાર) થઈ જાય છે. આનુપૂર્વી દ્રવ્ય એક સમયની સ્થિતિવાળું હોતું નથી. તે તે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું હોય છે. તેથી એવું જે વ્ય હોય છે તે તે દેશેન લેકમાં (એક પ્રદેશ પ્રમાણ ન્યૂન લેકમાં) જ અવગાહિત થાય છે, એ નિયમ છે. તેથી જ એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું જે દ્રવ્ય હોય છે, તે દ્રવ્ય દેશોન લેકમાં અવગાહિત હોય છે,
શંકા-આપે કહાં તે અચિત્ત મહાસ્કન્યની સ્થિતિ એક સમયની હોય છે, પરંતુ આપનું તે કથન દૈષયકા લાગે છે, કારણ કે, કપટ, મળ્યાન
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३२ क्षेत्रवारस्पनाबारनिरूपणम् पण्डकपाटमन्थानायवस्थागणनेन तस्याप्यष्टसमयस्थितियात् । असौ हि-केवलि समुद्यावन्यायेन विसापरिणामवशाञ्चतुभिः समयलॊकस्य पूरणं करोति । संहरणमपि प्रतिलोम-तस्यचित्तमहास्कन्धस्य तैरेव चतुभिः समयै द्रष्टव्यम् । एवं च सत्यौ ममयान् कालमानेन भवतीति । एवं चाचित महास्कन्धस्याप्यानुपूर्वीन्यात् अनुपूद्रिव्यस्यापि सर्वलोकव्यापित्यं वक्तव्यं, न तु देशोनलोकव्यापित्वमिति चेदाह-अत्र हि दण्डकपाटमन्धानाधभिन्ना भिमा अवस्थाः। अवस्थाभेदेन वस्तुनोऽपि मेदः । इत्थं च दण्डकपाटमन्थानाद्यवस्थद्रव्येभ्यो भिन्न एवाचित्त. होती है। क्यों कि दण्ड, कपाट और मन्थान आदि अवस्श की गणना से उसमें भी आठ समय की स्थितिकता आती है। यह अचित्त महास्कंध केवलिसमुद्घातन्याय से विस्रसापरिणामवशात् चार समयों में लोक को पूरित करता है। अर्थात् सकल लोक को व्याप्त करलेता है और चार ही समयों में फिर वह अपना मंहार करता है-अर्थात् अपने आपमें समाजाता है। इस प्रकार इसकी स्थिति अठ समय की कालप्र. माण से होती है। फिर एक समय की स्थिति आप इमकी कैसे कहते हो ? तथा यह अचित्त महास्कंध भी आनुपूर्ण रूप है और जब यह इस प्रकार से सर्वलोक व्यापी है तो आनुपूदिव्य को जो आप देशोनलोक व्यापी कह रहे हो वह कैसे संगत माना जा सकता है ? अतः आनुपूर्वी द्रव्य सर्वलोक व्यापी है ऐसा कहना चाहिये ?___उत्तर-दण्ड, कपाट और मन्थान आदि अवस्थाएँ हैं वे भिम २ हैं। और अवस्थाओं के मेद से अवस्थावाली वस्तु में भी भेद होता है। इस આદિ અવસ્થાઓની ગણતરી કરતાં તેની સ્થિતિ આઠ સમયની થાય છે આ આ અચિત્ત મહાસ્ક, કેવલિસમુદ્ધાતને ન્યાયે વિસસા પરિણામને લીધે ચાર સમયમાં સકળ લેકને વ્યાપ્ત કરી દે છે, અને ત્યાર બાદ ચાર સમયમાં જ તે પિતાનો ઉપસંહાર કરે છે એટલે કે પિક અદર જ સમાઈ જાય છે. આ રીતે કાળપ્રમાણને વિચાર કરવામાં આવે તે તેની સ્થિતિ આઠ સમયની થાય છે. છતાં આપ તેની સ્થિતિ એક સમયની શા કારણે કહે છો ? આ અચિત્ત સ્કંધ આઠ સમાની રિતિવાળા હોવાથી આનુપૂર્વ રૂપ જ છે. જે આવી દ્રવ્ય રૂપ આ અચિત્ત રૂપે સર્વ લેકવ્યાપી હોય, તે આનુપૂવ દ્રવ્યને આપ કેવી રીતે દેશેન લેકવ્યાપી બતાવો છે? આ રીતે આનુપૂવી દ્રવ્યને દેશન લેકવ્યાપી કહેવું તે સંગત લાગતું નથી. તેને સવલકવ્યાપી જ કહેવું જોઈએ.
ઉત્તર-દંડ, કપાટ અને મન્થાન આદિ જે અવસ્થાઓ છે તે ભિન્ન ભિન્ન છે, અને અવસ્થાએાના ભેદને લીધે અવસ્થાવાળી વસ્તુમાં પશુ ભિન્નતા આવી
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भयोगबारसूरे महास्कन्धः। स चैकसमयस्थितिक एव। एवं च तस्यानुपूस्वाभानादानुपूर्ती द्रव्यस्य देशोनलोकव्यापि न विरुध्यते, इति । यद्वा-यथा क्षेत्रानुपयों तथाऽत्रापि सर्वलोकव्यापिनोऽप्यचित्तमहास्कन्धस्य विवक्षया एकस्मिन्नमःमदेशे. ऽपाधान्याश्रयणेन देशोनलोकवर्तित्व बोध्यम् । तत्र प्रदेशे हि एकसमयस्थितिकम्य प्रकार दण्ड, कपाट और मन्थान अवस्थावाले द्रव्यों से भिषाही अचित्त महास्कंध है। एक समय की स्थितिवाला द्रव्य आनुपूर्वी रूप नहीं माना गया है। अतः इसमें आनुपूर्वीत्व का अभाव है। इसलिये जो आनुपूर्वी द्रव्य में अचित्त महास्कंध को लक्षित करके सवेलोक व्यापिता पर लाने की शंका उठाई है वह निर्मूल है। अतः यही कथन सत्य है कि आनुपूर्वी द्रव्य देशोनलोकव्यापी होता है यदा-क्षेत्रानुपूर्वी की तरह यहां पर भी मर्वलोक व्यापी भी अचित्त महास्कंध की विवक्षा से एक आनुपूर्वी द्रव्य को एक आकाश के प्रदेश में अप्रधानता के आश्रय से उसे देशोन लोकवर्ती जानना चाहिये-तात्पर्य कहने का यह है कि अचित्त महास्कंध रूप एक आनुपूर्वीद्रव्य को देशोन लोकव्यापी न मानकर यदि केवल मर्वलोकव्यागे ही मानो जावे तो फिर अनानु. पूर्वी और अवक्तव्यक द्रव्यों को ठहरने के लिये स्थान न होने के कारण उनका अभाव प्रमक्त होगा और जब देशोन लोक में प्रचित्त महा. स्कंध रूप एक आनुपूर्तद्रव्य व्यापक होकर रहता है ऐसा माना जाना જાય છે. આ પ્રકારે દંડ, કપાટ અને મન્થાન અવસ્થાવાળાં દ્રવ્યથી અચિત્ત મહાકધમાં ભિન્નતા છે. અને તે એક જ સમયની સ્થિતિવાળો છે. એક સમયની સ્થિતિવાળા દ્રવ્યને આનુપૂર્વી રૂપ ગણાતું નથી પણ અનાનુપૂવી ૨૫ જ ગણાય છે. આ પ્રકારે તે અચિત્ત મહાકલ્પમાં આનુપૂવતાને અભાવ જ છે તેથી શંકા કર્તાએ એવી જે શંકા ઉઠાવી છે કે “અચિત્ત મહાસ્ક સલેકવ્યાપી હેવાથી આનુપૂર્વી દ્રવ્યને પણ સર્વવ્યાપી કહેવું જોઈએ.” તે વાત ઉચિત નથી તે સાબિત થઈ જાય છે. અચિત્ત મહાકજ અનાનુપવી ૩૫ હેવ થી તેની સવલોકવ્યાપિતાને આધાર લઈને આનુપવી દ્રવ્યમા સલેકવ્યાપિતા માની શકાય નહીં. તેથી એજ કથન સત્ય સિદ્ધ થાય છે કે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય દેશોન લેકવ્યાપી હોય છે.
અથવા-ક્ષેત્રાનુપૂવની જેમ અહીં પણ સર્વલેકવ્યાપી અચિત્ત મહા૨કની વિવાની અપેક્ષાએ એક આનુપૂરી દ્રવ્યને એક આકાશના પ્રદેશમાં અપ્રધાનતાને આશ્રય લઈને દેશોન લેકવ્યાપી સમજવું જોઈએ. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે અચિત્ત મહાસ્કા રૂપ એક આનુપૂર્વી દ્રવ્યને દેશોન લેકવ્યાપી માનવાને બદલે સર્વ લેકવ્યાપી માનવામાં આવે, તો અનાનુપૂવી અને અવકતવ્યક દ્રવ્યેને રહેવાનું સ્થાન જ ન રહેવાને કારણે તેમને અભાવ માનવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે અને જો એવું માનવામાં આવે કે અચિત્ત મહાસ્કન્ય રૂપ એક આવી દ્રવ્ય દેશોન લેકમાં વ્યાપ્ત થઈને રહેલું હોય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३२ क्षेत्रद्वारस्पर्शनाद्वारनिरूपणम्
अनानुपूर्वीद्रव्यस्य द्विसमयस्थितिकस्यावक्तव्यकद्रव्यस्य च प्राधान्यात् । एवमन्यदपि भागमाविरोधतो वक्तव्यम् । तथा नानाद्रव्याणि अनेकानुपुर्वीद्रव्याणि प्रतीत्य नियमात् सर्वलोके भवन्ति । व्यादिसमयस्थितिकद्रव्याणां सर्वलोकेऽपि
नानाद्रव्याणि नियमात् सर्वलोकव्यापीनि भवन्तीति भावः । एवमेव मनानुहै तो इस प्रकार से अचित्त महा स्कंध से पूरित हुए भी लोंक में कम से कम एकप्रदेश ऐसा भी आजाता है कि जिसमें अनानुपूर्वी और अब -
व्यक द्रव्य को ठहरने के लिये स्थान मिलजाता है यद्यपि इस एक प्रदेश में भी आनुपूर्वीद्रव्य रहता है तो भी उसकी प्रधान रूप से वहाँ विवक्षा नहीं मानी जाती है। वहां तो एक समय की स्थितिवाले अनानुपूर्वीद्रव्य और दो समय की स्थितिवाले अवक्तव्यक द्रव्य की ही प्रधा ता मानी जाती है इस प्रकार और भी बातें आगम में विशेष न आवे इस प्रकार से समझ लेनी चाहिये । तथा-(नादिव्वाई पडुच्च नियमा सम्बलोए होज्जा ) अनेक आनुपूर्वीद्रव्यों की विवक्षा करके नियम से आनुपूर्वोद्रव्य समस्त लोक में रहते हैं अर्थात् व्यादि समय की स्थितिबाले अनेक आनुपूर्वोद्रव्यों की सत्ता समस्त लोक में भी पायी जाती है इसलिये नाना आनुपूर्वीद्रव्यों की अपेक्षा से अनेक आनुपूर्वीद्रव्य समस्त लोक व्यापी होकर रहते हैं । ( एवं अणाणुपुब्वदिव्यं) इसी प्रकार
છે, તેા આ રીતે અચિત્ત મહામ્કન્ધ વડે પૂરત (વ્યાસ) થયેલા લેાકમાં પણ આછામાં ઓછે. એક પ્રદેશ એવે! હાય છે કે જેમાં અનાતુપૂત્રી અને વક્તવ્યક દ્રવ્યને રહેવાને માટે સ્થાન મળી જાય છે. જો કે તે એક પ્રદેશમાં પણ આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રહે છે, છતાં પણ તેમાં તેમને પ્રધાનરૂપે ગણી શકાય નહી” તે એક પ્રદેશમાં તે એક સમયની સ્થિતિવાળા અનુપૂર્વી દ્રવ્યની અને એ સમયની સ્થિતિવાળા અવક્તવ્યક દ્રવ્યની જ પ્રધાનતા માનવી પડે છે. એજ પ્રમાણે બીજી વાતેને પણ આગમની વિરૂદ્ધ ન પડે એવી રીતે સમજી લેવી જોઇએ.
तथा - (नाणादव्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा) भने मानुपूर्वी દ્રવ્યેની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તેએ નિયમથી જ સલેાકમાં રહેલાં હોય છે, એમ સમજવુ' જોઈ એ. એટલે કે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળાં અનેક આનુપૂર્વી દ્રવ્યેનું અસ્તિત્વ સમસ્ત લેાકમાં પણ હોય છે, તેથી જ અનેક આનુપૂર્વી દ્રષ્યેાની અવગાહના ખામતમાં એવુ કથન કરવામાં માવ્યું છે કે અનેક આનુપૂર્વી દ્રબ્યા સમસ્ત લેકમાં વ્યાસ થઇને રહે છે,
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अनुयोग एवी द्रव्यमाभित्य अनानुपूर्वीद्रव्यम पे लोकस्यासंख्येयभागेध्यापि भवति । अत्रेदं बोध्यम्-यथा क्षेत्रानुपूामनानुपूर्वीद्रव्यं लोकस्यासंख्येयमागे भवति, तथा कालानामपि तस्यासंख्येयभागवत्तित्वं बोध्यम् । यतो यत्कालत एक. समयस्थितिकं तत्क्षेत्रतोऽप्येकप्रदेशावगादं भवति । तच्च लोकस्यासंख्येयमागे एवं भवति । प्रकारान्तरमुपाश्रित्याह-'आएसंतरेण वा' इत्यादि। आदेशान्तरेण-प्रका. रान्तरमाश्रित्य अनानुपूर्वी द्रव्यं सर्वपृच्छासु-संख्येयभागे, असंख्येयभामे, संख्येयभागेषु असंख्येयभागेषु सर्वलोके वा, भवति । अयं भावः-अचित्तमहारकसे अनानुपूर्वीद्रव्य के विषय में भी जानना चाहिये-अर्थात् एक अनानुपूर्वीद्रव्य को आश्रित करके एक अनानुपूर्वी द्रव्य भी लोक के असंख्यात भाग में रहता है-यहां ऐसा समझना चाहिये-जैसे क्षेत्रानुपूर्वी में एक अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है, उसी प्रकार से कालानुपूर्वी में भी वह लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है। क्यों कि काल की अपेक्षा जिसकी एकसमय की स्थिति है वह क्षेत्र की अपेक्षा भी एक प्रदेश में स्थित होता है। यह एकप्रदेश में रहना ही लोक के असंख्यातवें भाग में उसका रहना है। (आएसंतरेण वा सम्वपुच्छासु होज्जा) अथवा पत्रकार प्रकारान्तर को आश्रित करके अनानुपूर्वीद्रव्य के विषय में इस प्रकार से कहते हैं कि यदि कोई ऐसा पूछे कि अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के संख्यात भाग में अथवा असं. ख्यातमाग में अथवा संख्यात भागों में अथवा सर्वलोक मे रहता
(एवं अणाणुपुब्बी दव्वं) मे ४५1 मन नु५ द्र०यन विषयमा પણ સમજવું જોઈએ એટલે કે એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે એક અનાનુપૂવી દ્રવ્ય પણ લેકના અસંખ્યાત ભાગમાં હે છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે સમજ-જેવી રીતે ક્ષેત્રાનુપૂર્વમાં એક અનાનુપૂવી દ્રવ્ય લોકનાં અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, એ જ પ્રમાણે કાલાનુપૂર્વીમાં પણ તે લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં રહે છે, કારણ કે કાળની અપેક્ષાએ જેની એક સમયની સ્થિતિ હોય છે, તે ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પણ એક પ્રદેશમાં અવગાહિત (રહેલું) હોય છે. આ એક પ્રદેશમાં રહેવું, તેનું નામ જ લેકના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં રહેવું છે.
(बाएसंतरेण वा सव्वपुग्छासु होज्जा) अय। सूत्रा२ अन्य प्रकारे આનુપાવી દ્રવ્યના વિષયમાં નીચે પ્રમાણે કથન કરે છે–જે કઈ એ પ્રશ્ન છે કે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કે અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કે સમસ્ત લેકમાં રહે છે?
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भयोगवन्द्रिका टोका सूत्र १३२ क्षेत्रहारस्पर्शनाद्वारनिरूपणम् ५७१ न्यस्य दण्डायवस्थाः परस्परं भिषाः, आकारादि मेदाद, द्वित्रिचतुःप्रदेशिकादि स्कन्धवत् । ततश्च ता दण्डाघवस्था एकेकसमयत्तित्वात् पृथगनानुपूर्वीद्रव्याणि। तेषु च मध्ये किमपि कियत्यपि क्षेत्रे वर्त्तते, इत्यनया विवक्षया किल एकमनानपूर्वीद्रव्यं प्रकारान्तरेण एतत्सूत्रोक्तसंख्ये वभागादिकासु पञ्चस्वपि पृच्छासु लम्यते । तथा नानाद्रव्याणि प्रतीत्याऽनानुपूर्वीद्रव्याणि सर्वस्मिन्नपि लोके भवन्ति । एक है ? तो उसका उत्तर इस प्रकार से है-दो तीन चारप्रदेशवाले स्कंध आदि की तरह अचित्त महास्कंध की दण्ड, कपाट और मन्थान अवस्थाएँ आकार आदि के भेद से परस्पर में भिन्न २ हैं। इस प्रकार वे दण्डादिक अवस्थाएँ एक एक समयवर्ती होने के कारण पृथक् २ अनानुपूर्वी द्रव्य हैं। इनके बीच में कोई एक अनानुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भी क्षेत्र में रहता है जब इस प्रकार की विवक्षा होती है तब-इस विवक्षा से एक अनानुपूर्वी द्रव्य प्रकारान्तर से इस सूत्रोक्त संख्य भागादिक पांचों ही पृच्छाओं में लभ्य हो जाता है-तात्पर्य कहने का यह है कि एक समय की स्थितिवाला अनानुपूर्वी द्रव्य होता है और इस अनानुपूर्वी द्रव्य में से कोई एक द्रव्य लोक के संख्यात भाग में रहता है कोई एक द्रव्य असंख्यात भाग में रहता है, कोई एक द्रव्य संख्यात भागों में रहता है। कोई एक असंख्यात भागों में रहता है और कोई एक सर्वलोक में रहता है। तथा नाना अनानुपूर्वीद्रव्यों
તે આ પ્રશ્ન એ ઉત્તર આપી શકાય કે બે, ત્રણ, ચાર પ્રદેશવાળાં સ્કન્ધ આદિની જેમ અચિત્ત મહાસ્કની દંડ, કપાટ અને મન્થાન અવ. સ્થાઓ આકાર આદિની અપેક્ષાએ એક બીજીથી ભિન્ન ભિન્ન હોય છે. આ પ્રકારે તે દંડાદિક અવસ્થાએ એક એક સમયવતી હોવાને કારણે અલગ અલગ અનાનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપ હોય છે. તેમાંનું કઈ એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના કેટલા ય ક્ષેત્રમાં રહે છે. જ્યારે આ પ્રકારની વિવક્ષા થાય છે, ત્યારે આ વિવક્ષાની અપેક્ષાએ એક અનાનુપવી દ્રવ્ય પ્રકારાન્તરની અપેક્ષાએ આ સત્રોક્ત સંખ્યય ભાગાદિ પાંચ પ્રકારના ભાગોમાં ઉપલબ્ધ થાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે એક સમયની સ્થિતિવાળા અનાનુપૂવી દ્રવ્યની અવગાહનાને વિચાર કરવામાં આવે, તે કઈ એક અનાનુપવી દ્રવ્ય લેકના સુખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કોઈ એક અનાનુપૂવ દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે, કેઈ એક અનાનુપૂવ દ્રવ્ય લેકના સંખ્યાત ભાગોમાં રહે છે, કોઈ એક અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય લેકના અસંખ્યાત ભાગમાં રહે છે અને કોઈ એક અનાવી દ્રવ્ય સર્વકમાં પણ રહે છે, અનેક અનાની દૂની.
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अनुयोगद्वार समयस्थितिकानां द्रव्याणां सर्वत्र सस्वादिति । एवम्-अवक्तव्यकद्रव्याण्यपि यषा क्षेत्रानुष्योम् । अयं भावः-अवक्तव्यकद्रव्य क्षेत्रानुपूज्यामिर कालानुयामपि लोकस्यासंख्येयभागे एव भवति । यतो यत्कालतो द्विसमयस्थितिकं तत्क्षेत्रतो ऽपि द्विपदेशावगाढम् , तच्च लोकस्यासंख्येयभागमेव व्याप्नोति । अथवाद्विसमयस्थितिकं द्रव्यं स्वभावादेव लोकासंख्येयभागव्यापि भवति, न ततोऽधिकव्यापि । तथा-आदेशान्तरेण वा-'महाखंधवज्जमन्नदव्येसु आइल्लचउपुच्छासु होज्जा" इति प्रोक्तम् । की अपेक्षा करके नाना अनानुपूर्वी द्रव्य सर्वलोक में भी रहते हैं। क्योंकि एक समय की स्थितिवाले अनानुपूर्वीद्रव्यों का सर्वत्र सत्त्व रहता है। (एवं अवत्तव्यगव्वाणि वि जहा खेत्ताणुपुवीए) इसी प्रकार क्षेत्रानुपूर्वी की तरह अवक्तव्यक द्रव्य भी हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार से क्षेत्रानुपूर्वी में श्रवत्तव्यक द्रव्य लोक के असंख्यात भागवर्ती बतलाया गया है उसी प्रकार से यहां कालानुपूर्वी में भी वह लोक के असंख्यातवें भाग में रहनेवाला बतलाया गया है। क्यों किकालकी अपेक्षा जिसकी स्थिति दो समय की होती है वह लोक के दो प्रदेशों में ही अवगाढ होता है। दो प्रदेशों में अवगाढ होना ही लोक के असंख्यातवें भाग में व्याप्त करना है । अथवा दो समय की स्थितिवाला द्रव्य स्वभाव से ही लोक के असंख्यातवें भाग में व्याप्त होता है इस से अधिक भाग को અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે તેઓ સર્વલેકવ્યાપી હોય છે, એમ સમજવું, કારણ કે એક સમયની સ્થિતિવાળાં અનાનુપ દ્રવ્યનું અસ્તિત્વ सपत्र डाय छे. (एवं आत्तगव्वाणि वि जहा खेत्ताणुपुत्रीए) क्षेत्रानुषीमा અવક્તવ્યક દ્રવ્યોની અવગાહના વિષે જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન અહીં પણ સમજવું જોઈએ આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છેક્ષેત્રાનુપૂર્વમાં અવક્તવ્યક દ્રવ્યને લેકના અસંખ્યાત ભાગવત બતાવ્યું છે, એજ પ્રમાણે અહીં કલાનુપૂર્વી માં પણ તેને લેકના અસંખ્યાત ભાગમાં રહેલું જ બતાવવામાં આવ્યું છે, કારણ કે કાળની અપેક્ષાએ જેની સ્થિતિ બે સમયની હોય છે, તે દ્રવ્ય લેકના બે પ્રદેશમાં જ અવગાઢ હોય છે. આ પ્રકારે બે પ્રદેશમાં રહેવું તેનું નામ જ લોકના અસંખ્યાતમાં ભાગને ભ્યાસ કરે અથવા બે સમયની સિથતિવાળું દ્રવ્ય હવભાવથી જ લેવાના અસંખ્યાતમાં ભાગને વ્યાપ્ત કરે છે, તેના કરતાં અધિક ભાગને તે વાત કરતું નથી,
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भलोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३२ क्षेत्रवारपर्शनाद्वारनिरूपणम्
भत्रेदमनुमन्धेयम् -किमपि द्विसमयस्थितिकं द्रव्यं लोकस्य संख्येयतमभागमक्माइते, किमप्यसंख्येयतमभागम् किमपि संख्येयान् भागान् , किमपि तु असंख्येयान मागान् न तु सर्वलोकमवगााते । सर्वलोक न्यापित्वं तु महामन्धस्य । स चाष्टममयै निष्पद्यते, न तु द्वाभ्यां समयाभ्याम् । अतो द्विस यस्थितिकत्वाभावेन महास्कन्धस्यावक्तव्यकत्वामावादवक्तव्यकद्रव्य विषये पश्चमपृच्छा न भवति। बत एव-महाखंधवजं' इत्युक्तम् । नानाद्रव्याणि तु सर्वलाकव्यापानि भवम्तीति । इति क्षेत्रद्वारम् । स्पर्शनाद्वारं निरूपयितुमाह-'फुसणा' इत्यादि। स्पर्शना. द्वारमपि तयेव-क्षेत्रानुपूर्वी देव विज्ञेयम् ।मु०१३२॥ वह व्याप्त नहीं करता है । तथा-"आदेशान्तरेण वा-महाखंधवज्जमन्नदब्वेसु आइल्लचर पुच्छासु होज्जा" ऐसा जो कहा है उसका भाव इस प्रकार से है-कि दो समय की स्थितियाला कोई एक अवक्ताक द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग में अवगाढ होता है कोई असंख्यात भाग में अवगाढ होता है, कोई संख्यात भोगों में अवसाद होना है, और कोई असंख्यात भागों में अवगाढ होता है परन्तु सर्वजोक में अवगाढ नहीं होता है। सर्वलोक में अवगाढतो महास्कंध होता है। यह महास्कंध आठ समयों से निष्पन्न होता है। दो समयों से नहीं। इस लिये इस महास्कंध में द्विसमयस्थितिकता का अभाव होने से अवक्तव्यकद्रव्यत्व का अभाव है। इसलिये अवक्तव्यक द्रव्य के विषय में पांचवां प्रश्न नहीं होता है । इसीलिये " महापंधषज्ज" ऐसा कहा है। तथा नाना अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा करके नाना अवक्तव्यक द्रव्य सर्व
तथा-" आदेशान्तरेण वा-महाखंधवज्जमन्नन्वेसु आइल्लच उपुच्छासु होजा" प्रभारी ने युं छे तने मापा नीये प्रभार छ- समयनी સ્થિતિવાળું કેઈ એક અવક્તવ્યક દ્રવ્ય લોક સંખ્યાત ભાગમાં અવગાઢ (२९) राय छे, असभ्यातमा लमi डाय छ, असभ्यात ભાગોમાં અવગાઢ હોય છે, કેઈ અસંખ્યાત ભાગમાં અવગાઢ હોય છે, પરંતુ કોઈ પણ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય સમસ્ત લેકમાં અવગાઢ હોતું નથી. મહાકલ્પ જ સર્વલેકમાં અવગાઢ હોય છે. આ મહાઘ આઠ સમયમાં નિષ્પન્ન થાય છે-એ સમયે.માં નિષ્પન્ન થતું નથી આ રીતે આ માસ્ક ધમાં બે સમયની સ્થિતિને અભાવ હોવાને કારણે તેને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય રૂપ ગણી શકાય નહી’ આ રીતે અવક્તવ્યક દ્રવ્યની અવગણનાની બાબતમાં પાંચમી पात (
सsilpai) संभवी सती नथी तथा " महाखंधवज" આ સત્રાંશ મૂકવામાં આવે છે. અનેક અવક્તવ્યક દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે એવું કથન ગ્રહણ કરવું જોઈએ કે
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अनुयोगद्वारसूत्रे
अथ कालद्वारमाह -
मूलम् -- णेगमववहाराणं आणुपुवी दवाई कालओ केवच्चिरं होंति ? एगं दवं पडुच्च जहणणेणं तिष्णि समया उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । नाणादवाई पडुच्च सङ्घद्धा । णेगमववहाराणं आणुपुवीदबाई कालओ केवच्चिरं होइ ? एगं दवं पडुच्च अजहन्नमणुक्कोसेणं एक्कं समयं, नाणादवाई पडुच्च सब्बद्धा । अवत्तगदवाणं पुच्छा, एगं दवं पडुच्च अजहण्णमणुकोसेणं दो समया, णाणादवाईं पडुच्च सङ्घद्वा ॥ सू० १३३॥
छाया - नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वी द्रव्याणि काळतः कियच्चिरं भवन्ति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन त्रीन् समयान् उत्कर्षेण - असंख्येय कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीय सर्वाद्वा । नैगमव्यवहारयोः अनानुपूर्वीद्रव्याणि कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य अजघन्यानुत्कर्षेण एकं समयं नानाद्रव्याणि प्रतीत्य सर्वाद्धा । अवक्तव्यकद्रव्याणां पृच्छा । एकं द्रव्यं प्रतीत्य अजघन्यानुत्कर्षेण द्वौ समयौ, नानाद्रव्याणि प्रतीत्य सर्वाद्धा ॥ ० १३३ ॥ टीका- ' गमववहाराणं ' इत्यादि ।
नैगमव्यवहारसम्मतानि आनुपूर्वी द्रव्याणि कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति - एकं द्रव्यं प्रतीस्य आनुपूर्वीद्रव्याणां जघन्यतः श्रीन लोक व्यापी होते हैं। इस प्रकार यहां तक क्षेत्रद्वार की प्ररूपणा हुई है। (फुमणा कालानुपुबीए वि तहा चैव भाणियव्वा ) स्पर्शना द्वार भी इसका कालानुपूर्वी में क्षेत्रानुपूर्वी की तरह जानना चाहिये ॥ भ्रू० १३२ ॥ अब सूत्रकार कालद्वार का कथन करते हैं
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'गमववहाराणं' इत्यादि ।
शब्दार्थ - (जैगम ववहाराणं) नैगमव्यवहारनयसंमत ( आणुपुबी - दग्बोई) समस्त आणुपूर्वोद्रव्य (कालओ) कालकी अपेक्षा करके (केवfset होई) कितने समयतक रहते हैं ?
પ્રકારે આ
અનેક અવક્તવ્યક દ્રબ્યા સલેકવ્યાપી હાય છે. આ सूत्रभां क्षेत्रद्वारनी प्रषाला ४२वामां भावी है. (फुलणा कालाणुपुब्बीए वि तहालेव भाणियत्रा) सानुपूर्वाभां स्पर्शना द्वास्तु' उथन पशु क्षेत्रानुपूर्वांनी જેમ જ સમજવું જોઇએ. સૂ૰૧૩૨/૫
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अनुगचन्द्रिका टोका सूत्र १३३ कालवारनिरूपणम् समवान स्थितिः, उत्कर्षेण चासंख्येयं कालं स्थितिः। अयं भावः आनुपूर्वी द्रव्याणां मध्ये त्रिसमपस्थितिकं द्रव्यं सर्वतो जघन्यं, तच्च त्रीन समयानेव तिप्ठति । अतो जघन्यतस्त्रिसमयं यावदानुपूर्वीद्रव्याणां स्थितिः। उत्कृष्टतस्तु असंख्येयं कालं स्थिति;ध्या । ततः परमेकेन तद्रूपेण परिणामेन द्रव्यावस्थान
उत्तर-(एगं दव्वं पडुच्च) एक आनुपूर्वोद्रव्य की अपेक्षा करके भानुपूर्णद्रव्यों की (जहण्णेणं) जघन्य से (तिणि समया) तीन समयकी स्थिति है, और (उकोसेणं) उस्कृष्ट से (असंखेनं कालं) असंख्यातकाल की स्थिति है। इसका तात्पर्य यह है । आनुपूर्वीद्रव्यों के बीच में तीन समय की स्थितिवाला द्रव्य सब से कम है यह तीन समय तक ही ठहरता है-रहता है। इसलिये आनुपूर्वीद्रव्यों की स्थिति जघन्य से तीन समय तक की कही गई है। और उत्कृष्ट से जो असंख्यात काल की स्थिति कही गई है उसका तात्पर्य यह है कि द्रव्य असंख्यात काल के बाद आनुपूर्वीरूप परिणाम से परिणमित
હવે સૂત્રકાર કાયદ્વારનું કથન કરે છે– "णेगमववहाराणं " त्या
शहाय-(णेगमववहाराणं) नेमण्यार नयस मत (आणुपुल्वीदव्वाई) समस्त भानुभूती द्रव्ये (कालो) णनी अपेक्षामे (केवचिचरं होई ) । સમય સુધી રહે છે?
उत्तर-(एगं दव्वं पडुच्च) मे भानु द्र०यनी अपेक्षा पियार १२पामा भावे, तो भानु द्र०यनी (जहण्णेणं तिण्णि समया) अन्य (माछामा पछी) मिति र समयनी ही मन (उकोसेणं असंखेज्जं कालं) Be (धारेभा पारे) स्थिति अप्यात जनी ही . मा કથનને ભાવ થે નીચે પ્રમાણે છે-જે આનુપૂર્વા દ્રવ્ય છે તેમાં ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય સૌથી ઓછું છે. તે ત્રણ સમય સુધી જ રહે છે, તે કારણે આનુપૂવી દ્રવ્યોની જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સમયની કહી છે. તેની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અસંખ્યાત કાળની કહેવાનું કારણ એ છે કે તે દ્રવ્ય અસંખ્યાત કાળ બાદ આવી રૂપ પરિણામ રૂપે પરિણમિત વહેતું જ નથી,
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भनुयोगद्वारा
यैवाभावादिति । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु आनुपूर्वीद्रव्याणां सर्वादासर्वका स्थिति र्भवति । लोकस्य प्रत्येकस्मिन् प्रदेशे तेषां सर्वदा सद्भावात् । तथा-नैगमव्यवहारसम्मतानि अनानुपूर्वीद्रव्याणि काळतः कियच्चिरं भवन्ति तिष्ठन्ति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति - एकं द्रव्यं घतीत्य अजघन्यानुत्कर्षेण एकं समयं तिष्ठन्ति । रहता ही नहीं है। ( नागादव्बाई पडुच्च सन्वद्रा) तथा नाना आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा को आश्रित करके आनुपूर्व द्रव्यों की स्थिति सार्वकालिक है। क्योंकि लोक के प्रत्येक प्रदेश में नाना आनुपूर्वी द्रव्यों का सद्भाव रहता है (णेगमबवहाराणं ) नैगमव्यवहारनयसंमत (अणाणुgodioवाई ) समस्त अनानुपूर्वी द्रव्य ( कालओ) काल की अपेक्षा से (haraj ) कितने समय तक रहते हैं।
उत्तर- ( एगं दत्रं पडुच्च ) एक अनानुपुर्वीद्रव्य की अपेक्षा करके- (अजहन्नमणुक कोसेणं) अनानुपूर्वीद्रव्य अजघन्य और अनुत्कर्ष से एक समय तक रहते हैं (नाणादव्वाई पडुच्च सव्वद्धा) और नाনद्रव्यों की अपेक्षा करके समस्त अनानुपूर्वी द्रव्य सर्वकाल रहते है । क्योंकि लोक के हरएक प्रदेश में इनका सद्भाव रहता है। (अवत्तव्वगद -व्वाणं पुच्छा) अवक्तव्यकद्रव्यों के विषय में भी इसी प्रकार से प्रश्न हैं कि नैगमव्यवहारनयसंमत अवक्तव्यक द्रव्य काल की अपेक्षा से कितने समय तक रहते है ?
(नादव्वाइं पहुच्च सव्वद्धा) भने मानुपूर्वी द्रव्योनी अपेक्षाखे વિચાર કરવામાં આવે, તેા આનુપૂર્વી દ્રવ્યેની સ્થિતિ સાવ કાલિક છે, કારણ કે લેાકના પ્રત્યેક પ્રદેશમાં વિવિધ આનુપૂર્વી દ્રન્યાના સદા સદ્ભાવ જ રહે છે. प्रश्न- (गमववहाराणं) नेगमव्यवहार नयस'भत (अणाणुपुत्रीदव्बाई) समस्त मनानुपूर्वी द्रव्येो (कालओ) अजनी अपेक्षाओ (केवम्बिरं) डेंटला સમય સુધી રહે છે ?
उत्त२–(एगं दव्वं पडुन्च) मनानुपूर्वी द्रव्यनी अपेक्षाको वियाएं ४२वामां आवे तो (अजहन्नमणुकोसेणं) मनानुपूर्वी द्रव्य धन्य भने अनु. दृष्ट अजनी अपेक्षाओ मे समय सुधी रहे छे. (नाणा हव्वाई पद्दुच्च सव्वद्धा) અને અનેક દ્રબ્યાની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યેની સ્થિતિ સાવ ક લિક છે, કારણ કે લેાકના દરેક પ્રદેશમાં તેમના સદ્ભાવ રહે છે. प्रश्न- (अवत्तगव्वाणं पुच्छा) भवक्तव्य द्रव्याना विषयभांप हो પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યે છે કે નૈગમવ્યવહાર નયસ'મત અક્તવ્ય દ્રવ્ય કાળની પેક્ષાએ કેટલા સમય સુધી રહે છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३४ अन्तरवारनिरूपणम् नानाद्रव्याणि तु प्रतीत्य सर्वकालम् , लोकस्य प्रतिप्रदेशे तेषां सद्भावात् । अबकम्यकद्रव्याणि तु एकं द्रव्यं प्रतीत्य अजघन्यानुत्कर्षेण द्वौ समयौ तिष्ठन्ति । मानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु सर्वकालम् । लोकस्य पतिपदेशे तेषां सर्वादावस्थानात् ।। एकसमयस्थितिकस्यैवानानुपूर्वीत्वं, द्विसमयस्थितिकस्यैवावक्तव्यकत्वमभ्युपगम्य. तेऽतो नानयोयोषिये जघन्योत्कृष्टचिन्तासंभव इति भावः ॥१० १३३॥
अथान्तरद्वारमाह
मूळम्-णेगमयवहाराणं आणुपुबीदवाणमंतरं कालओ केवचिरं होई ? एगं दवं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं दो समया। नाणादवाई पडुच्च गत्थि अंतरं। णेगमववहाराणं अणाणुपुब्बीदव्वाणमंतरं कालओ केवच्चिरं होई ? एगं दव्वं पडुच्च जहन्नेणं दो समया, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं गाणा. दव्वाइं पडुच्च गस्थि अंतरं। णेगमववहाराणं अवत्तबगदम्वाणं
उत्तर-(एगं दव्वं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं दो समया जाणा व्वाइं पडुच्च सम्वद्धा) एक द्रव्य की अपेक्षा करके अजघन्य और अनु. स्कृष्ट से अवक्तव्यक द्रव्य दो समय तक रहते हैं। और नाना द्रव्यों की अपेक्षासे सर्वकाल रहते हैं । क्योंकि लोक के प्रतिप्रदेश में इनका सर्वदा अवस्थान रहता है । एक समय की स्थिति वाला द्रव्य अनानुपू. वी है और दो समय की स्थितिवाला द्रव्य अवक्तव्यक है इसलिये इन दोनों के विषय में जघन्य और उत्कृष्ट को लेकर विचार नहीं किया गया है। सू० १३३॥
उत्तर-(एगं दव्वं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं दो समया, णाणा व्वाई पडुच्च सव्वद्धा) 23 दयनी अपेक्षा विया२ ४२सामा मावे तो अन्य અને અનુષ્કૃષ્ટ કાળની અપેક્ષાએ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય બે સમય સુધી રહે છે. અને જે અનેક દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે અવક્તવ્યક દ્રવ્યની સ્થિતિ સાર્વકાલિક છે, કારણ કે લેકના દરેક પ્રદેશમાં તેમને સદા સદ્ભાવ રહે છે. એક સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય અનાનુપૂર્વી રૂપ છે અને બે સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય અવક્તવ્યક રૂપ છે. તે કારણે તે બને જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવ્યો નથી. સૂ૧૦૩
म०७३
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भनुयोगद्वार सूत्रे
पुच्छा, एगं दत्रं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसणं असंखेज्जं कालं । णाणादव्वाइं पडुच्च णत्थि अंतरं । भाग भाव अप्पानहुं चेव जहा खेत्ताणुपुवीए तहा भाणियव्वाई जात्र से तं अणुगमे । से तं गमववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुथ्वी || सू० १३४॥
छाया - नैगमव्यवहारयोः आनुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? एकं द्रव्यं प्रतीश्य जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण द्वौ समयौ । नानाद्रव्याणि प्रतीश्य नास्ति अन्तरम् । नैगमव्यवहारयोरनानुपूर्वी द्रव्याणामन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन द्वौ समयौ उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । नैगमव्यवहारयोरवक्तव्यकद्रव्याणां पृच्छा । एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येनैकं समयम्, उत्कर्षेणासंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य नास्ति अन्तरम् । भागोभावोऽल्पबहुत्वं चैन यथा क्षेत्रानुपूर्व्यां तथा भणितव्यानि यावत्सोऽसावनुगमः। सैपा नैगमव्यवहारानौ पनिधिको कालानुपूर्वी स. १३४।
टीका- ' गमववहारःणं ' इत्यादि -
नैगमव्यवहारसम्मतानामानुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतः क्रियच्चिरं भवति ? इति प्रश्नः । उत्तरयति - एकं द्रव्यं प्रतीत्यानुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतो जघन्येअब सूत्रकार अन्तरद्वार की प्ररूपणा करते हैं। "गमववहारणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ - ( गमववहाराणं) नैगमव्यवहारनयसंमत (आणुपुब्बी ori) समस्त आनुपूर्वीद्रव्यों का (अंतरं) अंतर (कालओ) कालकी अपेक्षा से (कियच्चिरं) कितने समय का होता है ?
उत्तर- ( एगं दव्वं पडुच्च) एक द्रव्य की अपेक्षा लेकर ( जहन्नेणं) आनुपूर्वीद्रव्यों का अंतर- विरहकाल - जघन्य से (एगं समयं) एक समय का
હવે સૂત્રકાર અન્તરદ્વારની પ્રરૂપણા કરે છે—
66
"
'dinacagızió”» Scale
शव्दार्थौं (णेगमववहाराणं) नैगभव्यवहार नयसभित ( आणुपुब्बी दव्वाणं) समस्त भानुपूर्वी द्रव्येोनु (अंतरं) अ ंतर (विराज ) ( कालओ) अजनी अपेक्षाये (कियचिरं) डेटा समयनुं होय छे ?
उत्तर- ( एगं दव्वं पडुच्च) को ४ द्रव्यनी अपेक्षा विचार वामां आवे तो महणेणं) यानुपूर्वी द्रव्योनु धन्य अतर-धन्य विरहमण- (एगं
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मनुष्योगवन्द्रिका टीका स्त्र १३४ अन्तरवारनिरूपणम् नैकं समयं भवति, उत्कर्षेण तु द्वौ समयौ। नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्ति अन्तरम् । अयं भावः-यादिसमयस्थितिकं विवक्षितं किंचिदेकमानुपूर्वीद्रव्यं तं परिणामं परित्यज्य परिणामान्तरेण समयमेकं स्थित्वा पुनःपूर्वोक्तेनैव परिणामेन यादि समयस्थितिकं जायते तदा जघन्यत एकं समयमन्तरं भवति। यदा तदेव द्रव्यं द्वौ समयौ परिणामान्तरेण स्थित्वा पुनस्तेनैव परिणामेन व्यादि समयस्थितिकं जायते तदा तत्रोत्कर्षमो द्वौ समयो अन्तरं भवति। यदि पुनः परिणामान्तरेण क्षेत्रादिभेदतः समयद्वयात् परतोऽपि तिष्ठेत् तदा तत्राऽप्यानु.
और ( उक्कोसेणं) उत्कृष्ट से (दो समया) दो समय का होता है। (नाणादवाई पडुरच) तथा नाना द्रव्यों की अपेक्षा लेकर इनमें (णस्थि अंतरं) अंतर नहीं है) तात्पर्य इसका इस प्रकार से है कि ध्यादि समय की स्थितिवाला कोई विवक्षित एक आनुपूर्वीद्रव्य आनु. पूर्वीप अपने परिणाम को छोडकर के किसी दूसरे परिणाम से एक समय तक परिणमित रहकर पुनः उसी परिणाम से ज्यादिसमय की स्थितिवाला बन जाता है तो ऐसी स्थिति में जघन्य से वहां अंतर एक समय का होता है। और जिस समय वही द्रव्य दो समय तक परि. णामान्तर से परिणमित बना रहकर फिर बाद में उसी परिणाम से ज्यादिसमय की स्थितिवाला बनता है तो ऐसी दशा में वहां उत्कृष्ट से दो समय का अन्तर माना जाता है। यदि परिणामान्तर से परिणमित बना हुआ वह द्रव्य क्षेत्रादि संबन्ध के भेद से दो समय से अधिक समय) मे समयनु भने (उकोसेणं) १५: धारे भत२ (दो समया) में समयनु डाय छे. (णाणादव्याइं पहच्च) मने द्र०यानी अपेक्षा पियार ४२वामा सावता (णत्थि अंतरं) भत२ (१२९४) नथी मा ४थननु તાત્પર્ય એ છે કે ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું દ્રવ્ય પિતાના અનુપૂર્વી રૂપ પરિણામને છોડીને કોઈ અન્ય પરિણામ રૂપે એક સમય સુધી પરિણ મિત રહીને ફરી ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળા આનુપૂર્વી દ્રવ્ય રૂપે પરિમિત થઈ જતું હોય, તે એવી પરિસ્થિતિમાં ત્યાં જઘન્ય અત્તર (વિરહકાળ) એક સમય ગણાય છે. પણ ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળું કે આનુપૂર્વી દ્રવ્ય પિતાના આનુપૂર્વી રૂપ પરિણામને છોડીને કેઈ અન્ય પરિણામ રૂપે બે સમય સુધી પરિણમિત રહીને ફરી ત્રણ આદિ સમયની સ્થિતિવાળા આનુપૂવી દ્રવ્ય રૂપે પરિમિત થઈ જતું હોય, તે એ પરિસ્થિતિમ ત્યાં ઉત્કૃષ્ટ અત્તર બે સમયનું ગણાય છે. જે અન્ય પરિણામ રૂપે પરિણુમિત થવું તે અનુપ દ્રવ્ય ક્ષેત્રાદિ સંબંધના ભેદથી બે સમય
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अनुयोगद्वार
पूर्वीत्वमनुभवेत्, ततोऽन्तरमेव न स्यात् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्त्यन्तरम्, त्रिसमय स्थितिकद्रव्याणां लोके सर्वदा सद्भावादिति । तथा - नैगमव्यवहारसम्म - वानामनानुपूर्वीद्रव्याणां कालतः कियच्चिरमन्तरं भवति १ इति प्रश्नः । उत्तरयतिएकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येन द्वौ समयौ अन्तरम्, उत्कर्षतः असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्ति अन्तरम् । अयं भावः एकं द्रव्यं प्रतीत्य एकसमयसमय तक भी रहता है तो उस समय वह उस स्थिति में भी आनुपूर्वी स्वका अनुभवन करता है और इस स्थिति में वहां अन्तर ही नहीं आता है । नाना द्रव्यों की अपेक्षा से जो अन्तर नहीं कहा है उसका कारण यह है कि त्रिसमय की स्थितिवाले कोई न कोई द्रव्य लोक में सर्वदा रहते ही हैं।
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प्रश्न – (णेगमववहाराणं अणाणुपुञ्चीदव्वाणं अंतरं कालओ के afari होई) नैगमव्यवहारनयसंपत अनानुपूर्वीद्रव्यों का अन्तर का ल की अपेक्षा कितनेक समय का होता है ?
उत्तर- ( एगं दत्र पडुच्च ) एक द्रव्य की अपेक्षा लेकर (जहम्ने णं) जघन्य से (दो समया) दो समय का और (उक्को सेणं) उत्कृष्ट से (असंखेज्जं कालं ) असंख्यातकाल का अन्तर होता है । ( णाणादव्वाइं पटुच्च णत्थि अंतरं) तथा नानोद्रव्यों की अपेक्षा करके अन्तर नहीं
કરતાં અધિક સમય સુધી પણ રહે તે તે પરિસ્થિતિમાં પણ ત્યારે તે આનુપૂર્વીશ્વને અનુભવ કરે છે, અને આ સ્થિતિમાં ત્યાં અંતર જ સભવી શકતું નથી વિવિધ દ્રવ્યેની અપેક્ષાએ અંતર (વિરહકાળ)ના અભાવ જ કહેવાનું કારણ એ છે કે ત્રણ સમયની સ્થિતિવાળાં કાઈને કંઈ દ્રવ્ય લેકમાં સવ દા માજુદ જ રહે છે.
प्रश्न- (गमववहाराणं अणाणुपुव्वी दव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होई?) નગમવ્યવહાર નયસ'મત અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યેનું અંતર કાળની અપેક્ષાએ કેટલા સમયનું હાય છે ?
उत्तर- (एगं दव्वं पहुच्च) थे! मनानुपूर्वी द्रव्यनी अपेक्षाओ विचार ४२वामां आवे तो (जत्रेण दो समया) धन्य अन्तर (गोछामां मोछो विराज) में समयनुं (उक्को सेणं असंखेज्जं कालं) उत्कृष्ट अ ंतर (वधारैभां धारे विरहा) असण्यात अजनुं होय . ( णाणादव्बाई पडुच्च स्थि अंतरं) भने द्रव्योनी अपेक्षा विचार करवामां भावे, तो अ ंतर (विरह'द्वाज) होतु' नथी या उथननो भाषार्थ नाथ प्रभा - सभयनी स्थिति
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३४ अन्तरद्वारनिरूपणम्
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स्थिति कान्यनानुपूर्वीद्रव्याणि यदा परिणामान्तरेण समयद्रयमनुभूय पुनः पूर्वमेव स्थिति लमेरन् तदा जघन्यतः समयद्वयमन्तरं लभ्यते । यदि तु परिणामान्तरेण एकमेव समयं तिष्ठेयुस्तदा अन्तरमेव न भवति, तत्राप्यनानुपूर्वी स्वस्यैव सद्भावात् । अब समययात्परतो यदि परिणामान्तरेण तिष्ठेयुस्तदा जघन्यत्वमेव न स्यात् । यदा तु तान्येव द्रव्याणि असंख्येयं कालं परिणामान्तरेण स्थित्या पुनरेकस्थितिकं. परिणामं लभेरन्, तदा उत्कृष्टतोऽसंख्येयं कालमान्तरं भवति । ननु अन्यान्यद्रव्य.. क्षेत्रसम्बन्धेऽनन्तमपि कालम् अन्तरं भवितुमर्हति ततः कथमुक्तम् उक्को सेण होता है। इसका भाव यह है कि एक समय की स्थितिवाले अनानुपूर्वीद्रव्य जिस समय दूसरे परिणाम से दो समय तक परिणमित बने रहते हैं और बादमें पुनः उसी अपनी पूर्व स्थिति में आजाते हैं तब वहां जघन्य से दो समय का अन्तर माना जाता है। और यदि वे परि नामान्तर से परिणमित बने हुए एक समय तक ही रहते हैं तो ऐसी दशा में वहां अन्तर ही नहीं होता है क्यों कि उसस्थिति में भी वहाँ अनानुपूर्वीत्व का सद्भाव है । और यदि वे दो समय के बाद तक भी परिणामान्तर से परिणमित बने रहते हैं तो वहां जघन्यता नहीं मानी जाती है । और जब वे ही द्रव्य असंख्यात काल तक परिणामान्तर से परिणमित रहकर पुनः एक स्थिति वाले अपने परिणाम को पाते हैंतब उत्कृष्ट से असंख्यात काल अन्तर होता है । -
વાળું કોઇ એક અનાનુપૂર્વી દ્રશ્ય જ્યારે અન્ય પરિણામ રૂપે પરિણમિત થઈને એ સમય સુધી તે પરિણામ રૂપે પરિમિત થયેલુ રહીને ત્યાર ખાદ પેાતાની એજ પૂર્વ સ્થિતિમાં આવી જાય, તે એવી સ્થિતિમાં ત્યાં જાન્ય વિરહકાળ એ સમયને ગણાય છે, અને જો તે એક સમય સુધી જ અન્ય પરિણામ રૂપે પરિણુમિત થયેલુ રહે છે, તે એવી પરિસ્થિતિમાં ત્યાં અંતર જ હાતુ નથી, કારણ કે એવી દશામાં તે દ્રશ્યમાં અનાનુપૂર્વી ને સાવ જ રહે છે. અને સમય બાદ પશુ જે અન્ય પરિણામ રૂપે પરિષુમિત થયેલુ જ રહે, તે ત્યાં જઘન્યતા માનવામાં આવતી નથી પરન્તુ ને તે દ્રવ્ય અસખ્યાત કાળ સુધી અન્ય પરિણામ રૂપે પરિમિત થયેલુ રહીને, ત્યાર બાદ એક સમયની સ્થિતિવાળા પેાતાના પૂત્ર પરિણામને પ્રાસ. કરે તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યના ઉત્કૃષ્ટ વિરહકાળ, અસખ્યાતકાળના ગણાય છે,
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भनुयोगद्वारसूत्र आयेज्जं कालं' इति ? इति चेदाइ-कालानुपूर्वी प्रक्रमात् कालस्यैवात्र प्राधान्यं विवक्षितम् , यदि चात्र अन्यान्यद्रव्यक्षेत्रसंबन्धादन्तरकालबाहुल्यं क्रियते, तदा तद् द्वारेगवान्तरकालस्य बहुतं स्यात् , तदा द्रव्यक्षेत्रयोरेव प्राधान्यं स्यात, न तु कालम्य । तस्मादेकस्मिन्नेव परिणामन्तरे यावान् कश्चिदुत्कृष्टः कालो लभ्यते स एवान्तरे चिन्त्यते, स चासंख्येय एव । ततः परमेकेन परिणामेन वस्तुनोऽ. वस्थानस्यैव निषिद्धत्वात् । इदं च सूत्रस्य विवक्षावैविचिच्यात् सर्व पूर्वमुत्तरत्र ___ शंका-अन्य२ द्रव्य और क्षेत्र के साथ संबन्ध होने पर अनन्तकाल का भी अन्तर हो सकता है, तो फिर सूत्रकार ने “उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं" ऐसा क्यों कहा?
उत्तर-कालानुपूर्वी के प्रकरण से काल में ही यहां प्रधानता वि. वक्षित हुई है, यदि यहां पर अन्य २ द्रव्य और क्षेत्र के संबन्ध से अं. तरकाल में बाहुल्य किया जाता है तो यह याहल्य उसमें द्रव्य और क्षेत्र के द्वारा ही आया माना जावेगा तपतो द्रव्य और क्षेत्र की ही प. धानता हो जावेगी काल की नहीं। इसलिये एक ही परिणामान्तर में जितना कुछ उत्कृष्ट काल लभ्य होता है वही अन्तर में विचारा जाता है और वह इस प्रकार से असंख्यात ही लभ्य होता है। इसके बाद व. स्तु का एक परिणाम रूप से अवस्थित रहना ही निषिद्ध है। यह सब कथन सूत्र की विवक्षा की विचित्रता से आगे पीछे आगम में विरोध न
શંકા-જુદાં જુદાં દ્રવ્ય અને ક્ષેત્રની સાથે સંબંધ થતું હોય તે અનં. તકાળનું પણ અંતર સંભવી શકે છે. છતાં સૂત્રકારે ઉત્કૃષ્ટ અંતર અસંખ્યાતકાળનું શા કારણે કહ્યું છે?
ઉત્તર-કાલાનુપૂર્વનું પ્રકરણ ચાલતું હોવાને કારણે અહીં કાળમાં જ પ્રધાનતા માનીને કથન કરવામાં આવ્યું છે. જે અહીં જુદાં જુદાં દ્રવ્ય અને
ત્રના સંબંધને લીધે અંતરકાળમાં બાહુલ્ય માનવામાં આવે, તે તે બાહુલ્ય તેમાં દ્રવ્ય અને ક્ષેત્રના દ્વારા જ આવેલું માનવું પડશે જે એ પ્રમાણે કર. વામાં આવે તે કાળની પ્રધાનતાને બદલે દ્રવ્ય અને ક્ષેત્રની જ પ્રધાનતા માનવાનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે તેથી એક જ પરિણામાન્તરમાં જેટલે ઉકષ્ટકાળ થાય છે, તેને જ ઉત્કટ અંતર રૂપ માનવામાં આવે છે, અને તે ઉત્કટ અંતર ઉપર બતાવ્યા પ્રમાણે અસંખ્યાતકાળનું જ હોય છે. ત્યાર બાદ (અસંખ્યાત કાળ બાદ) વસ્તુ એક પરિણામ રૂપે અવસ્થિત () રહેવાને જ નિષેધ છે. આ સમસ્ત કથન, સૂત્રની વિવક્ષાની વિચિત્રતાને લીધે. એવી રીતે અહીં લગાડવું જોઈએ કે આગમના આગળપાછળના કથ
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३४ भन्तरद्वारनिरूपणम्
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भागमाविरोधेन भावनीयम् । नानाद्रव्याण्याश्रित्य तु नास्त्यन्तरम्, लोकस्य प्रतिप्रदेशे सर्वदा तस्य सद्भावादिति । तथा नैगमव्यवहारसम्मतानामवक्तव्यकद्रव्याणामपि अन्तरविषये पृच्छा = मनोऽनानुपूर्वीवद् बोध्यः । उत्तरस्तु एकं द्रव्यं प्रतीत्य जघन्येनैकं समयमन्तरम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । नानाद्रव्याणि मतीत्य नास्ति अन्तरमिति । अयं भावः - द्विसमयस्थितिकं किंचिदवक्तव्यकद्रव्यं परिणामान्तरेण समयमेकं स्थित्वा ततः पुनर्द्विसमयस्थितिकत्वमेव यदा लभते तदा आवे इस प्रकार लगा लेना चाहिये। नानाद्रव्यों की अपेक्षा करके जो अन्तर नहीं कहा गया है उसका कारण यह है कि लोक के प्रति प्रदेश में सर्वदा उसका सद्भाव रहा करता है। (गमववहाराणं अवत्तsriदत्राणं पुच्छा) नैगमव्यवहारनयसंमत अवक्तव्यक द्रव्यों के अन्तर के विषय में प्रश्न- अनानुपूर्वीद्रव्य की तरह ही जानना चाहिये ।
उत्तर — उसका इस प्रकार से हैं- (एगं दव्वं पटुच्च) एक अवक्तsun द्रव्य की अपेक्षा करके (जहणणेणं) जघन्य से अन्तर (एगं समयं ) एक समय का है और (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट से अन्तर ( असंखेज्जं कालं ) असंख्यात काल का है। तथा (णाणादव्वाई पटुच्च णत्थि अंतरं) नाना द्रव्यों की अपेक्षा से अन्तर नहीं है । इसका तात्पर्य यह है कि दो समय की स्थितिवाला कोई अवक्तव्यक द्रव्य परिणामान्तर से परिનમાં કોઇ વિરેષ સંભવે નહી' અનેક અનાતુપૂર્વી દ્રવ્યેની અપેક્ષાએ અંતરવિરહકાળ–ના અભાવ કહેવાનું કારણ એ છે કે લેકના પ્રત્યેક પ્રદેશમાં તેને સદા સદ્ભાવ જ રહ્યા કરે છે,
प्रश्न- (णेगमववहाराणं अवत्तवगदव्वाणं पुच्छा) नैगमव्यवहार नयसभित વક્તવ્યક દ્રવ્યેાના અંતરના વિષયમાં પણ અનાનુપૂર્વી દ્રવ્યના જેવા જ પ્રશ્ન સમજવે.
उत्तर- (एग द पहुच्च) मे भवतव्य द्रव्यनी अपेक्षाये विचार ४२वामां आवे तो (जहणणं एगं समयं ) ४धन्यनी अपेक्षा मे मे समयतुं, मने (उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं ) उ-ष्टनी अपेक्षाये असण्यात अजनु मांतर ડાય છે. એટલે કે આછમાં આછે એક સમયના અને વધારેમાં વધારે असभ्यात अणनेो विराज होय छे. (ण णादव्बाई पडुच्च णत्थि अंतरं ) વિવિધ અવક્તવ્યક દ્રવ્યેાની અપેક્ષાએ વિચ:ર કરવામાં આવે, તે વિરહુકાળ રૂપ અતરના અભાવ હાય છે.
હવે આ કથનના ભાવાથ' બતાવવામાં આવે છે, ધારા કે એ સમયની સ્થિતિવાળું કાઈ અવશ્યક દ્રવ્ય પેતાના પરિણામને ત્યાગ કરીને કોઈ
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अनुयोगदारस्ते जधन्यत एकं समयमन्तरम् । यदा च परिणामान्तरेणासंख्येयं कालं स्थित्वा तस: 'पुनदिमस्यस्थितिकल्लं लभते तदा उरकर्षण असंख्येयं कालमन्तरं भवति । अनुपू यथाऽऽक्षेपपरिहारौ तथाऽत्रापि बोध्यौ । तथा-नानाद्रव्याणि प्रतीत्य तु नास्ति अन्तरम् , लोके सर्वदा तेषां सद्भावात् । इत्थमन्तरद्वारमुक्त्वा सम्प्रतिभागद्वारं भावद्वारमल्पबहुत्वद्वारं च वक्तुकाम आह-भाग-भाव अल्पाबहुचेव' इत्यादि । अयं भावः-अत्रापि भागद्वार क्षेत्रानुपूर्वीवद् बोध्यम् । क्षेत्रानुपूर्वा यथाऽनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्यापेक्षयाऽपंख्येय गैरधिकानि, शेषद्रव्याणि तदपेक्षयाऽसंख्येयभागन्यूनानि तथाऽत्रापि बोध्यम् । इदमत्र बोध्यम्-अनानुपूर्वीद्रव्यं णमित हुआ एक समय तक रहता है और बाद में फिर वह दो समय की अपनी पूर्वस्थिति को प्राप्त कर लेता है तब इस स्थिति में विरहकाल जघन्यरूप से एक समय का माना जाता है और जब दो समय की स्थितिवाला कोई अवक्तव्यक द्रव्य परिणामान्तर से परिणमित असं. ख्यात काल तक बना रहकर फिर दो समय की अपनी पूर्वस्थिति में आ जाता है तब इस दशा में वहां उसका अन्तर असंख्यात काल का माना जाता है। अनानुपूर्वी में जिस प्रकार से आक्षेप और उसका परिहार किया गया है उसी प्रकार से यहीं पर भी अक्षेप और उसका परिहार उसी पद्धति से किया गया जानना चाहिये। तथा नाना अबक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा जो अन्तर नहीं कहा गया है उसका कारण यह है कि लोक में सर्वदा अवक्तव्यक द्रव्यों का सद्भाव रहता है। (भाग, भाव, अप्पाबहुं चेव जहा खेत्ताणुपुव्वीए तहा भाणिपब्वाई અન્ય પરિણામ રૂપે પરિમિત થઈ જાય છે. ત્યાર બાદ તે એક સમય સુધી એજ દશામાં રહીને ફરી બે સમયની પિતાની પૂર્વ સ્થિતિને પ્રાપ્ત કરી લે છે. તે એવી પરિસ્થિતિમાં જઘન્ય વિરહકાળ એક સમયને ગણાય છે. પરન્ત કોઈ અવક્તવ્યક દ્રવ્ય અન્ય પરિણામ રૂપે પરિણમિત થઈને અસંખ્યાત કાળ સુધી તે અન્ય પરિણામ રૂપે જ રહીને ત્યાર બાદ એ સમયની પિતાની પ્રવરસ્થિતિમાં આવી જાય છે, તે એવી પરિસ્થિતિમાં તે અવક્તવ્યક દ્રવ્યનું ઉક” અંતર અસંખ્યાત કાળનું માનવામાં આવે છે. અનાનુપૂવીમાં જે પ્રકારની શંકા ઉઠાવવામાં આવી છે તે પ્રકારની શંકા અહીં પણ ઉઠાવી શકાય છે શંકાનું ત્યાં જે પ્રકારે નિવારણ કરવામાં આવ્યું છે એજ પ્રકારે અહીં પણ નિવારણ કરી શકાય છે, વિવિધ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ અંતરનો અભાવ કહેવાનું કારણ એ છે કે मात०५४ योनी सहा सदमा २३ छे. (भाग, भाव, अप्पा
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सोगवन्द्रिका टीका सूत्र १३४ अन्तरबारनिरूपणम् हि एकसमयस्थितिलक्षणमेकं स्थानं लभते, प्रवक्तव्यकद्रव्यं तु द्विसमयस्थितिलक्ष नमेकं स्थानं कमते । आनुपूर्वीद्रव्यं तु त्रिसमयचतुःसमयपञ्चसमयस्थितिलक्षणानि स्थानान्यारभ्यासंख्येयस्थितिलक्षणपर्यन्तेषु स्थानेषु एकैकं स्थानं लभते । इत्थं चानुद्रिव्यं शेषद्रव्यापेक्षयाऽसंख्येयमागाधिकम् । शेषद्रव्याणि तदपेक्षयाऽसंजाव से तं अणुगमे) भागद्वार, भावद्वार और अमावस्यद्वार क्षेत्रानुः पूर्वी की तरह यहां पर भी जाना चाहिये। अर्थात क्षेत्रानुपूर्वी में जैसे समस्त आनुपूर्वी द्रव्य शेष यों की अपेक्षा असंख्यात भागो से अधिक-असंख्यानगुणिजन-माने गये हैं और शेष द्रव्य-अनानुपूर्वी एवं भवक्तव्यक इन-इनकी अपेक्षा असंख्यातभागन्यून माने हैं उसी प्रकार यहां पर भी भागछार के विश्य में कथन जानना चाहिये ! यहां ऐसा जानना अनानुपूर्वी द्रव्य एक समय की स्थितिरूप एक स्थान को प्राप्त करता है और जो अवक्तव्यक द्रव्य है वह हिसमय की स्थिति रूप एक स्थान को पाता है, तथा जो आनुपूर्थी द्रव्य है, वह तीन समय, चार समय पांच समय की स्थितिरूप स्थानों से लेकर असंख्यात समय तक की स्थितिरूप स्थानों में एक एक स्थान को प्राप्त करना है। इस प्रकार आनुपूर्वी द्रव्य शेष द्रव्यों की अपेक्षा अमंख्यान भागों से अधिक
चेव जहा खेत्ताणुपुवीर तहा भाणि व्याइं जाद से अगुग मे) २, ભાવ દ્વાર અને અપહરદ્વારનું કથન ક્ષેવાનુપરીની જેમ જ અહી પણ સમજવું જોઈએ એટલે કે શેત્રાનવીમાં જેવી રીતે સમeત આનુવ દ્રવ્યને બાકીનાં દ્રવ્યો કરતાં અસંખ્યાતગણું કહેવામાં આવ્યું છે, અને બાકીનાં કને (અનાનકવી અને અવક્તવક દ્રવ્યને) આનુપૂવ દ્રો કરતાં અસંખ્યાત ભાગ પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહી પણ ભાગદ્વારના વિષયમાં કથન ગ્રહણ થવું જોઈએ આ કથનનું વધુ ૨૫ટીકર નીચે પ્રમાણે સમજવું.
અનાનુપૂર્વી દ્રવ્ય એક સમયની સ્થિતિ રૂ૫ એક સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે, અને જે અવક્તવ્યક દ્રવ્ય છે તે બે સમયની રિથતિ રૂપ એક સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે, તથા જે આનુપૂવી દ્રવ્ય છે તે ત્રણ, ચાર, પાંચ આદિ સમયની સ્થિતિ રૂપ સ્થાનેથી લઈને અસંખ્યાત સમય પર્યન્તની સ્થિતિ રૂપે સ્થાનેમાંના એક એક સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. આ પ્રકાર અનવી દ્રવ્ય બાકીનાં બે દ્ર કરતાં અસંખ્યાતગણું અધિક સંભવી શકે છે અને બાશિના
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भनुपोगवारपणे ख्येयभागन्यूनानीति । तथा-भावद्वारे भानुपय॑नानुपूर्व्यवक्तव्यकानां प्रयाणामपि द्रष्याणां सादिपारिणामिकमाववति पूर्ववद् बोध्यम् । तथा-एषो प्रयाणा द्रव्याणामल्पबहुत्वद्वारमे बोध्यम्-अवक्तव्यकद्रव्याणि हि सर्वस्तोकानि, तेषां स्वभारत एव स्तोकत्वात् । अनानुपूर्वी न्याणि तु ततो विशेषाधिकानि, अनानु. पूर्वीद्रव्याणामवक्तव्यकद्रव्यापेक्षया विशेषाधिकत्वात् । आनुपूर्वीद्रव्याणि तु उक्तो. भयद्रव्यापेक्षया असंख्येयभागाधिकानि । असंख्येयभागाधिकस्वं त्वेषाम् उपरिभागद्वारे निर्दिष्टं तथैवात्राऽपि बोध्यम् । भागादि विषये क्षेत्रानुपूर्वीवत् सर्व बोध्यमिति । इत्थं नैगमव्यवहारसम्मताऽनौपनिधिकी कालानुपूर्वीवत् उपसंहृतेति लभ्य होता है। और शेष दो द्रव्य उसकी अपेक्षा असंख्यातभागन्यून लभ्य होते हैं। भावहार में आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और प्रवक्तव्यक पे तीनों भी द्रव्य पूर्व के जैसे सादि पारिणामिक भाववर्ती हैं। तथाइन तीनों द्रव्यों का अल्पपहुस्वद्वार इस प्रकार से जानना चाहियेसमस्त प्रवक्तव्यक द्रव्य स्वभाव से ही कम होने से शेष दो द्रव्यों की अपेक्षा से कम हैं। अनानुपूर्वी द्रव्य अवक्तव्यक द्रव्यों की अपेक्षा से कुछ-विशेष अधिक है। तथा जो भानुपूर्षी द्रव्य हैं इन दोनों द्रव्यों की अपेक्षा असंख्यात गुणा अधिक है। असंख्यात भागाधिकता जिस प्रकार से ऊपर भागवार में प्रकट की गई है उसी प्रकार से यहां पर भी जानना चाहिये। तात्पर्य करने का यह है कि इन भागादिशारों के विषय में सब कयन क्षेत्रानुपूर्षी की तरह ही जानना चाहिये। इस प्रकार (जाप से तं अ.) यावत् यह अनुगम का स्वरूप બે પ્રકારનાં દ્રવ્ય આનુપૂવ દ્ર કરતાં, અસંખ્યાત ભાગ પ્રમાણ ખૂન हा है छ.
ભાવ દ્વારમાં આનુપૂર્વી અને અવક્તવ્યક, આ ત્રણે દ્રવ્યોને આગળ કહ્યા પ્રમાણે સાદિપરિણમક ભાવવતી' કહાં છે.
આ ત્રણેના અ૫હત્વકારનું કથન આ પ્રમાણે સમજવું-સમસ્ત અવક્તવ્યક દ્રવ્ય સ્વાભાવિક રીતે જ આ હેવાને કારણે બાકીનાં બને દ્રવ્ય કરતાં ઓછું છે. અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતા અનાનુપૂવ દ્રવ્ય વિશેષા. વિક છે અનાનુપવી જો અને અવક્તવ્યક દ્રવ્ય કરતાં આનુપૂવી દ્રવ્ય અસંખ્યાત ભાગ પ્રમાણ અધિકતાનું સ્પષ્ટીકરણ ઉપર ભાગદ્વારમાં જે પ્રમાણે કરવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે અહીં પણ સમજી દેવું આ સમસ્ત કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આ ભાગાદિ દ્વારાના વિષયમાં સમસ્ત કથન ક્ષેત્રાનવીના ने । अमrg (जाब से तं अणुगमे) "I HIR अनुगमन ५५३५
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गनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३५ अनौपनिधिकीकालानुपूर्वी निरूपणम् ५८७
रयितुमाह- से तं' इस्पादि। सैषा नैगमम्यवहारसम्मता अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी ॥४० १३४॥ अथ संग्रहनयमतेन औपनिधिकीं कालानुपूर्वीमाह
मूलम्-से किं तं संगहस्स अणोवाणिहिया कालाणुपुत्री ? संगहस्त अणोत्रणिहिया कालाणुपुवी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-अस्थपयपरूवणया, भंगसमुक्त्तिणया, भंगोवदंसणया, समोयारे, अणुगमे । सू०१३५॥
छाया-अथ का सा संग्रहस्य अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी ? संग्रहस्य अनौ है। इसको समाप्त होते ही नंगमव्यवहारनयसंमत अनौपनिधिकी काला. नुपूका यह प्रकरण समाप्त हो रहा है इस बात को सूचित करने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि (से तं गमववहाराणं अणोवणिहिया कालाणुपुन्वी ) इस प्रकार से यह नैगमव्यवहारनयसंमत अनौनिधिकी कालानुपूर्वी है।सू० १३४॥ __ अब सूत्रकार संग्रहनय के मन्तव्यानुसार अनोपनिधिकी कालानु. पूर्वी का कथन करते हैं -"से किं तं संगहस्स" इत्यादि ।
शब्दार्थ -- (से किं तं संगहस्स अणोणिहिया कालाणुपुव्वी) हे भदंत । संग्रहनयमान्य अनौपनिधिकी कालानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर -- (संगहस्स अणोवणिहिया) संग्रहनय मान्य अनौपनिधिकी (कालाणुपुथ्वी) कालानुपूर्वी (पंचविहा पण्णता) पांच प्रकार की છે.” આ કથન પર્યન્તનું ક્ષેત્રાનુપૂવીના પ્રકરણમાંનું સમરત કથન અહી ગ્રહણ કરવું જોઈએ તેની સમાપ્તિ થતાં જ નિગમવ્યવહાર નયસંમત અનૌપનિઘિકી કાલાવનું આ પ્રકરણ સમાપ્ત થઈ રહ્યું છે, એ વાતને સૂચિત ४२पाने भाट सूत्र४२ 241 प्रभावे -(से तं गमववहाराणं णोवणिहिया कालाणु पुव्वी) “ नय१९०२ नयभत भनी पनि नुवान ઉપર બતાવ્યા પ્રમાણેનું સ્વરૂપ છે.” સૂ૧૩૪
હવે સૂત્રકાર સંગ્રહનયના મંતવ્ય અનુસાર અનોપનિધિકી કાલાન:वीन प्रयन रे छे-“से किं तं संगहस्स" त्याह
शहाथ-(से किं तं संगहास अगोवणिहिया कालाणुपुवी १) सपन। ગહનયમાન્ય અનૌપનિશ્ચિકી કાલાનુપૂવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
त्तिर-(संगहस्स अणोबणिहिया कालाणुपुष्वी पंचविहा पणत्ता) सनय.
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अनुयोगद्वार पनिधि की कालानुपूर्वी पञ्चविधा प्रज्ञप्ता. तपथा-अर्थपदप्ररूपणता, मासमुत्कीनता, मनोपदशनता, समवतारः अनुगमः ॥सू०१५॥ टीका-से कितं' इत्यादि । व्याख्याऽस्य पूर्ववद योध्या । म्० १३५॥ अर्थपदमरूपणतादीनां निरूपणायाह
मूलम्-से किं तं संगहस्स अस्थपयरवणया ? एयाई पंच वि दाराइं जहा खेत्ताणुपुबीए संगहस्स तहा कालाणुपुबीए वि भाणियवाणि, णवरं ठिई अभिलायो, जाव से तं अणुगमे से तं संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपुबी ॥सू०१३६॥
छाया-अथ का सा संग्रहस्य अर्थपदपरूपणता ? एतानि पश्चापि द्वाराणि यथा क्षेत्रानुपूयां संग्रहस्य तथा काळानुपूामपि भणि व्यानि, नवरं स्थित्यमिः लापर, यावत् स एपोऽनुगमः। सपा संग्रहस्य अनोपनिधिकी कालानुपूर्वी।मू.१३६॥
टीका-“से कि तं" इत्यादि ।
अथ का सा संग्रहसम्मताऽर्थपदपरूपणता ? इति प्रश्नः। उत्तरपति-एतानिअर्थपरूपणतादीनि पश्चापि द्वाराणि संग्रहमते क्षेत्रानुपूक्मेकोत्तरशततमे सूत्रे कही गई है (तं जहा) जैले- अषयपरूवणया भंगसमुकित्तणया, भंगाघदसणया 'समोयारे' अणुगमे) अर्थपदप्ररूपणता, भंगसमुत्कीर्तनता, भंगोपदर्शनता समयतार और अनुगम इस सूत्र की व्याख्या पहिले की गई व्याख्या के अनुसार ही जाननी चाहिये।मू०१३५॥
"से किं तं संगहस्स" इत्यादि ।
शब्दार्थ-- (से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ) हे भदंत ! सेमहनयमान्य अर्थपद प्ररूपणता क्या है ? (एयाइं पंच वि दाराइं जहा खेत्ताणुपुठवीए संगहस्स तहो कालाणुकुठवीए वि भाणियवाणि) समत भनीपनि खानुषी पाय ॥२नी ही छ. "तं जहा" त पांय अशनीय प्रभारछे-(अटुपयपरूवणया भंगसमुक्त्तिणया, भंगोवदंषणया, समोयारे, अणुगमे) (१) अ५४ प्र३५यता, (२) समुहीत नता, (3) Allપદર્શનતા, (૪) સમવતાર અને (૫) અનુગમ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવી ૧૩૫
"से किं तं संगहस्स" त्याह
Awan-से किं तं संगहस्स अटुपयपवणया?) भगवन्! स. હનયસંમત અર્થપદ પ્રરૂપણુતાનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(एयाइं पंच वि दाराइं जहा खेत्ताणुपुवीए संगहस्त तहा कालाणुपु. बीए वि भाणियबाणि) सनयमन त्रानुषी मा म पांये नाश
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योगा टीका सूत्र १३६ अर्थपत्रप्ररूपणादीनां निरूपणम्
बथा सन्ति तथा कालानुपूर्व्यामपि संग्रहमते भणितव्यानि । नवरं=विशेषस्त्वयमेत्रयदत्र स्थित्यभिलापः कर्त्तव्यः । अयं भावः - क्षेत्रानुपूर्व्या "तिपरसोगाढे आणुपुन्त्री, चउप्परसोगाढे आणुपुच्ची" इत्याद्युक्तम्, एमिड- "तिसमयडिए भाजुपुच्ची, चउसमयहिए आणुपुथ्वी" इत्यादि वक्तव्यमिति । क्षेत्रानुपूर्वोत् किवइवधिवक्तव्यम् ? इत्याह- ' जाव से तं' इति । यावत्स एषोऽनुगम इति पर्यन्तं क्षेत्रानुपूर्वीत्रदेव वक्तव्यमिति । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - ' से तं संगहरू ' इत्यादि । सैषा संग्रहनयसम्मता अनौपनिधिको कालानुपूर्वी ते ॥ मु० १३६ ।।
उत्तर -- संग्रहनय मान्य इन पांचों द्वारों का कथन जिस प्रकार का क्षेत्रानुपूत्र में किया गया है उसी प्रकार का कथन संग्रहनयसंमत इन पांचों द्वारों को इस कालानुपूर्वी में भी जानना चाहिये । (णवरं ठिई अभिलावी जाव से तं अणुग मे ) परन्तु विशेषता केवल इतनी है कि क्षेत्रानुपूर्वी में “त्रिप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी चतुष्यदेशावगाढ आनुपूर्वी " इस प्रकार से भंगों का आलाप करने में आया है तब यहां पर " ति समय आणुपुवी च समयहिए आणुपुच्ची " इत्यादि प्रकार से मंगों का आलाप करना चाहिये । क्षेशनुपूर्वी की तरह इन आनुपूर्वी आदि भंगों का संग्रह कहां तक करना चाहिये इसके लिये सुत्रकार कः हते हैं कि " से तं अणुगमे" इस प्रकार यह क्षेत्रानुपूर्वी संबन्धी अनुगम का स्वरूप है " यहां तक संग्रह करना चाहिये । (सेतं संगहस्स अगोवणिहिया कालानुपुच्ची ) इस प्रकार यह संग्रहनय संमत अनौप निधिकी कालानुपूर्वी है।
6:
જેવું કથન કરવામાં આવ્યુ છે, એવુ જ કથન સંગ્રહનયસ'મત આ કાલાनुपूर्वीना पाये द्वाराना विषयमा पशु सम सेवु (णवरं ठिई अभिलाबो जाब से तं अणुगमे) परन्तु क्षेत्रानुपूर्वीना उथन करतां या उथनमां नीचे પ્રમાણે વિશિષ્ટતા રહેલી છે-ક્ષેત્રાનુપૂર્વીના પ્રભુમાં ત્રિપ્રદેશાવગાઢ માનુી, ચતુ પ્રદેશાવગાઢ આનુપૂર્વી,'( આ પ્રકારે ભગનું કથન કરવામાં भाष्यु ं छे, त्यारै स·अनयस'भत मानुपूर्वीभां "तिसमयइिए आणुपुब्बी, मइ आणुपुन्त्री, ” इत्यादि प्रहारे लगोनु' स्थन ' लेहो क्षेत्रानुपूवांना अरगत पाउनु उथन, " से तं अणुग मे " " या प्रभारनु અનુગમનુ સ્વરૂપ છે. મા सूत्रपाठ पर्यन्त र लेये. (से तं संगइरस भगोवणिहिया काळाणुपुथ्वी) मा प्रहार सभनयस'भत मनोपनिषिठी કાલાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે.
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भनुयोगदारणे अथ भोपनिधिकी कालानुपूर्वी प्ररूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं ओवणिहिया कालाणुपुत्री ? ओवणिहिया कालापुत्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुवाणुपुवी पच्छाणुपुत्वी अणागुपुर्वी । से किं तं पुवाणुपुवी ? पुवाणुपुवी समए, आवलिया, आण, पाणू, थोवे, लवे, मुहुत्ते, अहोरत्ते, पक्खे, मासे, उऊ, अयणे, संवच्छरे, जुगे, वाससए, वाससहस्से, वाससयसहस्से, पुव्वंगे, पुवे, तुडियंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अव. वंगे, अववे, हुहुअंगे, हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, णलिणंगे, गलिणे, अस्थनिऊरंगे, अत्थनिऊरे, अउअंगे, अउए, नउअंगे, नउए, पउअंगे, पउए, चुलिअंगे, चूलिया, सीसपहेलि. अंगे, सीसपहेलिया, पलिओवमे, सागरोवमे, ओस्तप्पिणी,
भावार्थ-- सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा संग्रहनय मान्य अनौपनिघिकी कालानुपूर्वी के अर्थपदमरूपणता आदि पांच द्वारों के स्वरूप कथन के विषय में यह समझाया है कि इन पांच द्वारों के स्वरूप का कथन क्षेत्रानुपूर्वी में संग्रहनय की मान्यता के प्रकरण में जिस प्रकार से किया गया है वैसा ही स्वरूप कथन इनका इस कालानुपूर्वी में इस प्रकरण में जानना चाहिये। परन्तु उस प्रकरण में प्रदेशों को लेकर आनुपूर्वी आदि भंगों का स्वरूप कथन करने में आया है-तब कि यहां पर समयों को लेकर आनुपूर्वी आदि भंगों का स्वरूप दिखाया गया है। सू० १३६॥
ભાવ.ધં-સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં સંગ્રહનયસંમત અનૌપનિષિકી કાલાનુપૂર વિના અર્થ પદ પ્રરૂ ૫ણુતા આદિ પાંચ દ્વારના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છેસંગ્રહનયસંમત ક્ષેત્રનુવીના પ્રકરણમાં આ પાંચ દ્વારા વિષે જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન અહીં પણ ગ્રહણ કરવાનું કહ્યું છે. તે પ્રકરણના કથન કરતાં આ પ્રકરણના કથનમાં એટલી જ વિશેષતા છે કે તે પ્રકરણમાં પ્રદેશોની અપેક્ષા એ અંગેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, પરંતુ અહીં સમયેની અપેક્ષાએ આનુપૂર્વી આદિ ધૂળેના અંગેનું કથન કરવામાં આવ્યું है, मेम समा. सू०१३९॥
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र १३७ औपनिधिकीका लानुपूर्वीनिरूपणम् उस्सप्पिणी, पोगलपरियडे, अईयद्धा, अणागयद्वा सव्वद्धा । से किं तं पच्छाणुपुबी ? पच्छाणुपुद्दी - सव्वद्धा अणागयद्धा जाब समए । से तं पच्छाणुपुत्री से किं तं अणाणुपुथ्वी ? अणाणुपुवी - एयाए व एगाइयाए इगुत्तरियाए अनंत गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरुवूणो । से तं अणाणुपुव्वी | अहवा ओवणहिया कालावी तित्रिहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वाणुपुत्री, पच्छा पुथ्वी, अणापुच्ची । से किं तं पुव्वाणुपु०वी ? पुव्वाणपुत्री- एगसमयइिए, दुसमयडिइए, तिसमय ट्टिइए जाव दससमयइए संखिजसमय ट्टिइए असंखिजसमय ट्ठिइए सेतं पुव्वाणुपुवी । से किं तं पच्छाणुपुत्री ? पच्छाणुपुव्वीअसंखिजसमय ट्टिइए जाव एगसमयडिइए । से तं पच्छा पुवी । से किं तं अणाणुपुच्ची? अणाणुपुच्ची - एयाए देव एगाइयाए एगुत्तरियाए असंखिजगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नन्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुब्वी । से तं वणिहिया कालाणुपुवी । सेतं कालापुवी ॥ सू० १३७॥
छाया - अथ का सा औपनिधिकी कालानुपूर्वी ? औपनिधि की कालानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी समयः आवलिका आनः प्राणः स्तोकः लवः मुहूर्तः अहोरात्रः पक्षः मासः ऋतुः अयनं संवत्सरः युगं वर्षशतं वर्षसहस्रं वर्षशतसहस्रं पूर्वा पूर्व त्रुटिता त्रुटितम् अटटाङ्गम् अटटम् अववाङ्गम् अवत्रम् हुहुका हुहुकम् उत्पलाङ्गम् उत्पलं पचाप नलिना नकिनम् अर्थनिपुराङ्गम् अर्थनिपूरम् अयुताम् अयुतं ना नयुतं प्रयुता मयुतं चूलिकाङ्ग चूलिका शीर्षमहेलिका शीर्षप्रहेलिका पत्थोपमं सागरोपमम् अवसर्पिणी उत्सर्पिणी पुलपरिवर्तः अतीवाद्धा अनागताद्धा सर्वाद्वा । सेवा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी सर्वादा अनागताद्धा
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भनुयोगद्वारसमे यावत् समयः । सैषा पश्चानुपूर्वी । अय का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी-एतस्या. मेव एकादिकायामे कोतरिकायामनन्त गच्छगतायां श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासो द्विरपोनः । सैषाऽनानुपूर्वी। अथवा-औपनिधिकी कालानुपूर्ती त्रिविधा प्रज्ञाना, तयधा-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्ण अनानुपूर्वी। अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्णनुपूर्तीएकसमयस्थितिको द्विसमपस्थितिका त्रिसमयस्थितिको यावद् दशपमयस्थितिका संख्येयसमयस्थितिकः असंख्येयतपस्थितिकः । सैषा पूर्वानुपूर्त । अथ का सा पक्षानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी-असंख्येय समयस्थितिको यावत् एकसमयस्थितिकः । सेना पश्चानुपूर्ण । अथ का सा अमानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी-पतस्यामेव एकादिकायामेकोतरिकायामसंख्येयगच्छगनायां श्रेण्याम-पोऽन्याभ्यासो द्विरूपोनः। सैषा मनानुपूर्वी । सँगा औरनिधिकी कालानुपूर्वी। सैषा कालानुपूर्वी ॥० १३७॥
टीका-' से किं तं' इत्यादि
अथ का मा औपनिधिकी कालानुपूर्वी ? इति पश्नः । उत्तरयति-औपनिधिकी कालानुपूर्वी पूर्वानुपूर्ण पश्चानुपूय॑नानुपूर्तीभेदेन त्रिविधा प्राप्ता। तत्र पूर्वानु पूर्वी-समय वक्ष्यमाणस्वरूपः सर्वमृक्षः कालांशः एष हि सर्वप्रमाणानां प्रभव
अय सूत्रकार औपनिधिकी कालानुपूर्वी की प्ररूपणा करते हैं"से किं तं ओर्वाणहिया" इत्यादि ।
शब्दार्थ -- (से किं तं ओवणिहिया कालाणुपुषी १) हे भदन्त । औपनिधि की कालानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-- (भोवणिहिया कालाणुपुव्वी) औपनिधिकी कालानुपूर्वी (तिविहा पण्णत्ता) तीन प्रकार की कही गई है (तं जहा) वे प्रकार ये हैं (पुव्वाणुपुल्वी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुव्वी)१ पूर्वानुपूर्वी२ पश्चानुपूर अनानुपूर्वी । (से किं तं पुव्वाणुपुव्वी) हे भदन्त ! पूर्वानुपूर्ण क्या है?
उत्तर--"समए, आवलिया, आण, पाणू. थोवे, लवे, मुटुत्ते, अहो - હવે સૂત્રકાર ઔપનિધિકી કાલાનુની પ્રરૂપણ કર છે
" से कि तं ओवणिहिया "त्या
हा-(से कि तं ओवणिहिया कालाणुपुषी) सन् ! मोपनिવિકી કાલાનુપૂર્વનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्तर-(ओवणिहिया कालाणुपुब्बी) गोपनिधिही सानुकाना (तिविहा पण्णत्ता, तंजहा) नीचे प्रमाणे १ ४.२ ४॥ -(पुव्वाणुपुग्यो, पछाणु. पुन्यो, अणाणुपुव्वी) (१) पूर्वानुवी', (२) पश्शानु५वी', माने (3) मनानुवा.
प्रस-(से कितं पुवाणुपुयी।) लगन् ! पूर्वानु५वी२१३५ । उत्त-समए, आवठिया, बाण, पाण्, थाने, बने, मुतबहोरखा
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सुयोगचन्द्रिका टीका मूत्र १३७ औपनिधिकीकालानुपूर्वीनिरूपणम् १९३ रत्ते, पक्खे, मासे, 3ऊ, अयणे". समय आवलिका, आन, प्राण, स्तोक लब, महत, महोगत्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन (संबच्छरे) संवत्सर (हु. गे) युग, (वाममए) वर्षशत (वाससहस्से) वर्ष सहस्र, (वाससयसहस्से) वर्षशतसहस्र, (पुत्वंगे) पूर्वाङ्ग (पुब्वे) पूर्व (नुडियंगे) त्रुटितांग) (तुडिए) त्रुटित, (अडडंगे) अटटाङ्ग (अडडे) अटट (अववंगे) अववान (अ. ववे) अवय (हुरभंगे) हुहुहाङ्ग (हुहुए) हुहुक (उप्पलंगे) उत्पलाङ्ग (उ. पले) उत्पल (पउमंगे) पद्माङ्ग (गउमे) पद्म (गलिणंगे) नलिनाग (णलिणे) नलिन (अत्यनिऊरंगे) अर्थ निपूराङ्ग (अत्यनिउरे) अर्थ निपूर (अउअंगे) अयुताङ्ग (अ उए) अयुन (न उअंगे नयना नउए) नयुक्त (पउ अंगे) प्र. युनाग (पउए) प्रयुन (चूलिअंगे) चूलिकांग (चूलिया) चूलिका (सीस पहेलिअंगे) शीर्षप्रहेलिकाङ्ग (मीनपहेलिया) शीर्षप्रहेलिका (पलिओक्मे) पल्योपम (मागरोवमे सागरोपन (ओसप्पिणी) अवसर्पिणी (उस्स पिणी) उत्सर्पिणी) (पोग्गलपरिय?) पुद्गलपरिवर्त (अईयद्धा) अतीताद्धा (अणागयट्टा) अनागताद्धा (सव्वद्धा) सर्वाद्धा। यह पूर्वानुपूर्वी हैं। सम. य का स्वरूप आगे स्वयं मूत्रकार कहेंगे। यह काल का सब से सूक्ष्म अंश है । इनसे ही समस्त प्रमाणों की आवलिका आदिकों की - उ. पश्खे, मासे, उऊ. अयणे, समय, पक्षिय!, li, ley, Ra४, ११, भुडून, म:२॥३, ५५, मास, *तु. मयन, (संवच्छरे, जुगे) सत्स२, युग, (वासमए) शत, (वाससहस्से) १५ सहर, (वाससयसहरसे) १५शत सस (AIR) (पुगे, पुवे) ५नि, पूर्व (डियंगे, तुहिए,) त्रुटितin, बुरित, (अडडंगे, अष्टडे) 4221, 22, (अववंगे, अक्वे) ११, १११, (हुहुअंगे, हुहुए) .in, हु, (उप्पलंगे, उपले) ७५ , ५६ (पउमंगे, पउमे) ५, ५५, (गलिणंगे, णलिणे) नविन!, नलिन, (अत्यनिऊरंगे) म , (अत्यनिऊरे) अनि५२, (अ ) अयुतin, (अउए) Mयुत, (नउअंगे, न उए) नयुतान, नयुत, (पउअंगे) प्र. 1, (ए) प्रयुत, (घूटिअंगे) यूGिit, (चूलिया) यूलित, (सीसपहेलिअं) प्रतिin, (सीसपहेलिया) श मि१, (पलिओवमे) पक्ष्यायम, (सागरोवमे) साग।५म, (ोसप्पिणी) Aqeel, (उस्सप्पिणी) उत्सपि, (पोग्गलपरियटे) पुसपरि. पत्त', (अईयद्धा) मतद्धा, (अणायद्धा) अनागताद्धा, (सव्वद्धा) सर्वात, આ કમે પદોને ઉપન્યાસ કરે તેનું નામ પૂર્વાનુ પૂર્વી છે. કાળના સેથી સૂમ અંશનું નામ “સમય” છે. સૂત્રકાર પિતે જ તેનું સ્વરૂપ આગળ સમજાવવાના છે. તે સમયને આધારે જ આવલિકા આદિ કાળપ્રમાણેની
भ० ७५
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____ भनुयोगदारो त्वात् प्रथम निर्दिष्टः, आवलिका इयं हि असंख्येयः समयनिष्पद्यते। भानः-एक उच्छवासः संख्येयाऽऽवलिकारूपः, उपलक्षणारसंख्येवावलिकारूपो निःश्वासोऽपिप्रातः। पाण:-संख्येयावळिकारूपयोरुच्छासनिःश्वासयोः कालः, स्तोका-सहमाणात्मकः, लवासप्तस्तोकात्मकः, मुहतः सप्तसप्ततिलवात्मकः, अहोरात्रा त्रिंशन्मुहूर्तात्मकः, पक्षः पञ्चदशाहोरात्ररूपः, मास: पक्षद्वयरूपः, ऋतु:-मास. द्वयरूपः, अयनम् ऋतुत्रयात्मकम् , संवत्सरः अयनद्वयात्मकः, युगं-पञ्चवर्षात्मकम् , वर्षशतं विंशतियुगात्मकम् , वर्षेसहस्रम् , वषेशतसहस्रम्-शतगुणितं सहस्रंशतसहस्रं-वर्षाणां शतसहस्रं वर्षशतसहस्रं-लक्षवर्षाणि, पूर्वाङ्गम् चतुरशीतिलक्षत्पत्ति होती है इसलिये सूत्रकार ने सर्व प्रथम इसका उपन्यास किया है। असंख्यान समयों को एक आवलिका होती है। संख्यात आवलिकाओं का एक उच्छवास होता है । इसी प्रकार संख्यात आवलिका रूप एक निश्वास होता है । संख्यात आवलिका रूप जो उच्छ्वास निःश्वास का काल है वही प्राण है सात प्राणों का एक स्तोक होता है । सात स्तो. कों का एक लव होता है । सतहत्तरलवों का एक मुहर्त होता है। ती. समुहूतों का एक अहोरात्र होता है । १५ अहोरात्र का एक पक्ष होता है । दो पक्षों को एक मास होता है। दो महीनों की एक ऋतु होती है। तीन ऋतुओं का एक अयन होता है। दो अयनों का एक संवत्सर होता है। पांच वर्ष का एक युग होता है। बीस युगों का एक सौ वर्ष होता है। दशसौ वर्षों का एक वर्षसहस्र होता है । सौ हजार वर्षों का एक लाख वर्ष होता है। चौरासी लाख वर्षों का १ पूर्वाङ्ग होता है। ગણતરી કરી શકાય છે, તેથી જ સૂત્રકારે સૌથી પહેલાં સમયને ઉપન્યાસ કર્યો છે. અસંખ્યાત સમયની એક આવલિકા થાય છે. સંખ્યાત આવલિआसानी से नि:श्वास (निवास प्रमाण) थाय छे. प्यात मालકાએ રૂપ જે ઉધાસ નિઃશ્વાસને કાળ છે. તેનું નામ જ પ્રાણ છે. સાત પ્રાને એક સ્તક થાય છે સાત સ્તકને એક લવ થાય છે. ૭૭ લવનું એક મુક્ત થાય છે. ૩૦ મુહૂર્તનું એક અહોરાત્ર (દિનરાત્રિ) થાય છે ૧૫ અહોરાત્રનું એક પક્ષ (પખવાડિયું) થાય છે. બે પક્ષોને એક માસ થાય છે. બે માસની એક વાત થાય છે. ત્રણ તુનું એક અયન થાય છે. બે અયનનું એક સંવત્સર (વર્ષ) થાય છે. પાંચ સંવત્સરને એક યુગ થાય છે. વીસ યુગના શતવર્ષ થાય છે દસ સો વર્ષ પ્રમાણ કાળને વર્ષસહસ કહે છે. સો હાર (લાખ) વર્ષ પ્રમાણ કાળને લાખ વર્ષ કહે છે ૮૪ લાખ વર્ષોનું એક
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भावन्धि का टीका सूत्र १३७ मोपनिधिकीकालानुपूर्वनिरूपणम् ५९५
त्मिकम्, पूर्वम् चतुरशीत्या लागुणिते चतुरशोतिलक्षात्मकेऽके यावती संख्यालभ्यते तत्ममाणम् , सा संख्याच-सप्ततिकोटिलक्षाणि षट्पञ्चाशचकोटिसहस्राणि (७०५६००००००००००) वर्षाणाम् । उक्तंच
" पुनस्स उ परिमाणं, सयगे खलु हुँति कोडिलक्खाउ ।
छप्पण्णं च सहस्सा, बोद्धमा वासकोडीणं ॥" छाया-पूर्वस्य तु परिणामं सतिः खलु भवन्ति कोटिलक्षाः।
षट्पञ्चाशच्च सहस्राणि योद्धव्या वर्षकोटीनाम् ॥इति॥ इदमपि चतुरशीत्यालार्गुणतं त्रुटिताङ्ग भवति । त्रुटिताङ्ग हि चतुरशीत्याल:गुणितं सदेकं त्रुटितं भवति । त्रुटितं च चतुरशीत्यालगुणितं सदेकम् अटटाङ्ग भवति । चतुरशीत्यालझर्गुणितं च अटटाङ्गमेकमटटं भाति। एवमेव इतः प्रभृति चौरासी लाखपूर्वाङ्ग का१ पूर्व होता है। इसमें वर्षों का संख्या ७०५६०००, ०००,०००० इतनी आती है । यही पान "पुवस्स उ परिमाणं" इत्यादि गाथा द्वारा प्रकट की है। इन वर्षों में ८४ लाख का गुणा करने पर जो संख्या आती है वह त्रुटिताङ्ग का परिमाग है । त्रुहितांग परिमाण में चौरासीलाख का गुगा करने पर एक त्रुटित होता है । एक त्रुटित को ८४ लाख से गुणा करने पर १ अटटाङ्ग होता है। एक अटटाङ्ग को चौरासी लाग्य से गुणा करने पर एक अट होता है। १ अटट प्रमाण में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ एक अववाङ्ग होता है। १ अववाह में ८४ लाख का गुगा करने पर एक अक्व होता है। इसी प्रकार आगेर शीर्षप्रहेलिका तक के प्रमाणों में ऐसे ही करते चले जोना चाहिये । अर्थात् १ अवव में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ हुहुकाङ्ग, १हु. हुकान में चौरासी लाग्व से गुणा करने पर१ हुहुक, १ हुहुक में चौरासी પૂર્વાગ થાય છે, અને ૮૪ લાખ પૂર્વાગનું એક પૂર્ણ થાય છે. એક પૂર્વના ७०५९०००००००००० १५ थाय छे. मे पात सूत्ररे “ पुवस्स र परिमाणं" छत्यादि सूत्र५४ ६॥२॥ प्राट ४३ . ८४ साथ नु ટિતાંગ થાય છે એટલે કે ૭૦૫૬૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦ વર્ષને ૮૪ લાખ વડે ગુણવાથી જેટલાં વર્ષ આવે છે, તેટલાં વર્ષ પ્રમાણુ કાળને એક ત્રુટિતાંગ કહે છે ૮૪ લાખ ત્રુટિતાંગનું એક ત્રુટિત થાય છે. ૮૪ લાખ ત્રુટિતેનું એક અટટાંગ થાય છે. ૮૪ લાખ અટરનું એક અવવાંગ થાય છે. ૮૪ લાખ અવવાંગોનું એક અવવ થાય છે. એક અવવના ૮૪ લાખ ગણાં કરવાની એક હકાંગપ્રમાણ કાળ બને છે. ૮૪ લાખ હુકાંગનું એક હુડક બને છે
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अनुयोगद्वार पूर्व पूर्व चतुरशीत्यालक्षैश्चतुरशीत्या लक्षैश्च गुणितम् उत्तरोतरमेकैकं कालममाणं यावत् शीर्षप्रहेलिकान्तं बोध्यम् । शीर्ष महेलिकायाः स्वरूपमङ्कत एवं बोध्यम्- ७५,८२
लाख से गुणा करने पर १ उत्पलाङ्ग एक उत्पलाङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर एक उत्पल, १ उत्पल में ८४ लाख से गुणा करने पर १पद्माङ्ग, १ पद्माङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर एक पद्म एक प
में ८४ लोख से गुणा करने पर १ नलिनाङ्ग, १ नलिनाङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ नलिन १ नलिन में ८४ से गुणा करने पर १ अर्थ निपूराङ्ग एक अर्थ निपूगङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ अर्थ निपूर १ अर्थनिपूर में ८४ लाख से गुणा करने पर एक अयुतांग १ अनांग में ८४ लाख से गुणा करने पर १ अयुन, १ अयुत में ८४ लाख से गुणा करने पर १ नयुनांग १ नयुनाङ्ग में ८४ लाख से गुणा क रने पर १ नयुत १ नयुन में ८४ लाख से गुणा करने पर १ प्रयुनाङ्ग ११ प्रयुताङ्ग में ८४ लाख से गुणा करने पर १ प्रयुत, १ प्रयुक्त में८४ लाख से गुणा करने पर एक चूलिकाङ्ग, १ चूलिकाङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर चूलिका एक एक चूलिका में ८४ लाख से गुगा करने पर १ शीर्ष प्रहेलिका और एक शीर्ष प्रहेलिकाङ्ग में चौरासी लाख से गुणा करने पर १ शीर्षप्रहेलिका का प्रमाण होता है । इस शीर्षप्रहेलिका के अंको
હુકને ૮૪ લાખ વડે ગુણુવાથી એક ઉપલાંગ થાય છે. ૮૪ લાખ ઉત્પલાંગાના એક ઉત્પલ કાળ થાય છે ૮૪ લાખ ઉત્પલનું એક પદ્માંગ થાય છે અને ૮૪ લાખ પદ્માંગાનુ' એક પુત્ર થાય છે. તેના ૮૪ લાખ ગણુાં કરવાથી એક નિલનાંગ થાય છે. એકનાલિનાંગના ૮૪ લાખ ગણુાં કરવાથી એક નિલન આવે છે. લિનના ૮૪ લાખ ગણુાં કરવાથી એક અનિપૂરાંગ આવે છે એક નિપૂરગના ૮૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક અર્થનિપૂર આવે છે. એક અ་નિપૂરના ૮૪ લાખ ગણુાં કરવાથી એક અયુતાંગ, એક અમ્રુતાંગના ૮૪ લાખ ગણુાં કરવાથી એક અમૃત, એક અચૂતના ૮૪ લાખ ગણુાં કરવાથી એક નયુતાંગ, એક નયુતાંગના ૮૪ લાખ ગણુાં કરવાથી એક નયુત, એક નમ્રુતના ૮૪ લાખ ગણુાં કરવાથી એક પ્રયુતાંગ, એક પ્રયુતાંગના ૮૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક પ્રદ્યુત, એક પ્રયુતના ૮૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક સૂલિકાંગ, એક ચૂલિકાંગના ૮૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક ફૂલિકા, એક ફૂલિકાના ૮૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક શીષ પ્રહેલિકાંગ અને એક શીષપ્રહેલિકાંગના ૮૪ લાખ ગણાં કરવાથી એક શીષ`પ્રહેલિકા નામના કાળનું પ્રમાણ આવે છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३७ मोपनिधिकीकालानुपूर्वीनिरूपणम् ५९७ ६३,२५,३०.७३०,१०,२४,२१,५७,९७,३५,६१,९७,५६,९६,४०,६२, १८, ९३.६८,४८०,८०१८,३२,९६, एतदग्रे चत्वारिंशदुत्तरैकशतसंख्यकानि शून्यानि (१४०) निक्षेप्तव्यानि । तदेवं शीर्षप्रहेलिकायां चतुर्नवत्यधिकशतसंपकानि भास्थानानि भवन्ति । अनेन पूर्पोकेन कालमानेन के पांचिद् रत्नप्रभानारलाणां मवनपतिव्यन्तरसुराणां सुषमदुषमारकसम्भविनां नरतिरश्चां च यथासंभवमायुषो मानं भवति । एतस्माच्च परतोऽपि संख्येयः कालोऽस्ति, किन्तु तस्य अतिशयज्ञानवनितानां छमस्थानामसंव्यवहार्यत्वात् , सर्षपायुपमयाऽव वक्ष्यमाणत्याच नेहोक्तः। किं तर्हि ? उपमामाप्रतिपाद्यानि पल्योपमादीन्येव । तत्र पलयोपमसा. का प्रमाण ७५८२६३२५३०७३० १०२४११, ५७९७३५६९,०७५६१६४. • ६२१८९६६८४८०८० १८३२९६, और इसके १४० शून्य रखने से इ. तना होता है ! इस समस्त अंको को संरूपा का योग १९४ अंक प्रमा. ण होता है। इस पूर्वोक्त काल प्रमाण से किन नेक रत्नप्रभागत नारको की तथा भवनपति, व्यन्तर देवों की और सुपनदुषमारक में उत्पन्न हुए मनुष्य तिर्यश्चो की यथासंभव आयु का प्रमाण कहा जाता है। इससे आगे भी संख्यात फाल है। परन्तु वह यहां जो नहीं कहा गया है। उसका कारण यह है कि एकतो वह अतिगरज्ञान वर्जिन जो छद्मस्थ प्राणी हैं उनके द्वारा अमंगवहार्य है। तथा कमरेनषा आदि की उपमा देकर मूत्रकार आगे उसे इसी शास्त्र में स्वयं कहेंगे भी। उपमा मात्र देकर जिनका स्वरूप समझाया जा सकता है ऐसे पल्योपम
ઉપરના કોષ્ટકને આધારે એક શિર્ષ પ્રહેલિકાનાં વર્ષોની ગણતરી કરવામાં આવે તે ૧૪ આંકડાની સંખ્યા આવે છે. તે સંખ્યા નીચે પ્રમાણે છે૭૫૮૨૬૩૨૫૩૦૭૩૦૧૦૨૪૧૧૫૭૯૭૩૫૯૯૭૫૬૬૪૦૬૨૧૮૯૬૬૮૪૮૦૮ ૦૧૮૩૨૯૬ આ ૫૪ આંકડા ઉપર જમણી તરફ ૧૪૦ શૂન્ય મૂકવાથી જે ૧૯૬ આંકડાની સંખ્યા આવે છે, તે સંખ્યા એક શિર્ષ પ્રહેલિકાનાં વર્ષો બતાવે છે. આ પૂર્વોક્ત કાળપ્રમાણને આધારે કેટલાક રત્નપ્રભા નરકના નારકેન, ભવનપતિ દેના, વ્યન્તર દેવેન, અને સુષમદુષમ આરામાં ઉત્પન્ન થયેલા મનુષ્યોના યથાસંભવ આયુનું પ્રમાણ કહી શકાય છે. શીર્ષ. પહેલિકાની આગળ પણ સંખ્યાત કાળ છે. પરંતુ અહીં તેનું કથન કરવામાં આવ્યું નથી કારણ કે તે અતિશય જ્ઞાનવજીત છત્વસ્થ જીવો દ્વારા અસંખ્ય વહાર્ય છે-છદ્મસ્થ જ દ્વારા તેને વ્યવહારમાં ઉપયોગ થઈ શકે તેમ નથી સત્રકાર સર્વપ (સરસવ) આદિની ઉપમા દ્વારા તે કાળપ્રમાણેનું આગળ ઉ૫ર નિરૂપણ કરવાના છે. ઉપમા દ્વારા જ જેના સ્વરૂપને સમજાવી શકાય
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अनुयोग
गरोपमे वक्ष्यमाणस्त्ररूपे । दशसागरोपमकोटाको टिममाणात्ववसर्पिणी, तावन्मानैव उत्सर्पिणी । अनन्ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यः पुद्गल परिवर्त्तः । अनन्ताः पुत्रकपराबर्चा अनीताद्धा । अनाग वाद्धाऽप्यनन्त पुद्गलपरावर्त्तमानैत्र बोध्या । अतीतानागतवर्त्तमानकालस्वरूप सर्वाद्धा । इयं पूर्वानुपूर्वी । पश्चानुपूर्णे तु 'सर्वाद्धा' इत्यारम्य 'समयः' इत्यन्ता वोध्या । अनानुपूर्वी तु 'समयः' इत्याद्यारभ्य 'सर्वाद्वा'
और सागरोपम जो काल हैं उन्हें सूत्रकार आगे प्रगट करेंगे । दश सांगरोपम कोटि कोटि का १एक अवसर्पिणी काल और इतने ही प्रणाम वाला एक उत्सर्पिणी काल होता है। एक पुद्गल परावर्त काल अनन्त अं. सर्पिणी उत्सर्पिणी काल का होता है। तथा जो अतीताद्धा - काल होता है उसमें अनन्त पुद्गल परावर्त होते हैं। अर्थात् अनन्त पुलपराaa का एक अतीताद्धा काल होता है। इसी प्रकार जो अनागताद्वा काल होता है वह भी अनन्त पुल परावर्तो का होता है। तथा जो सर्वाद्वा काल है वह अतीत अनागत और वर्तमान काल इन तीनों का संमिलित रूप होता है। इस प्रकार यह पूर्वानुपूर्वी है। तथा सर्वाद्धा से लेकर समय पर्यन्त जो व्युत्क्रम से इनकी स्थापना - विन्यास करना है वह पश्चपूर्वी है। यही बात (से किं तं पच्छाणुपुथ्वी ?) हे भदन्त । पश्रानुपूर्वी क्या है इस प्रश्न के उत्तर में (सम्बद्धा अणागपद्धा जाव समए) इन पदों द्वारा प्रगट की गई है। (से तं पच्छणुपुत्री) इस प्रकार
એમ છે એવાં પચેપમકાળ અને સાગરાપમ કાળનું સ્વરૂપ સૂત્રકાર આગળ પ્રકટ કરવાના છે. દસ સાગરોપમ કાટિકાટિના એક અવસર્પિણીકાળ થાય છે અને ઉત્સર્પિણી કાળનું પણ એટલુ· જ પ્રમાણુ કહ્યું છે. અનંત અવસ પિ ણીકાળના એક પુદ્ગલપર,વત કાળ થાય છે. અનત પુદ્ગલપરાવત ના એક અતીતાદ્ધા-કાળ થાય છે એટલે કે અનિતાદ્ધામાં અનંત પુદ્ગલપરાવતકાળ હાય છે. એજ પ્રમાણે અનંત પુદ્ગલપરાવર્તના એક અનાગતાહા. કાળ થાય છે. જે સર્વોદ્ધા કાળ છે તે અત્તી, અનાગત અને વમાન, આ ત્રણે કાળના સમિત્રિતકાળ રૂપ હોય છે. આ પ્રકારનુ` પૂર્યાંનુપૂર્વીનુ સ્વરૂપ છે.
હવે પશ્ચાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવે છે—
प्रश्न - ( से किं पच्छानुपुच्ची ?) हे भगवन् ! पश्चानुपूत्र'नु' स्व३५ ठेवु छे?
२- (सव्वाद्धा, अणागयद्धा जाव समर ) सोद्धा, मनागताद्धा इत्याहि ઊલટા ક્રમે સમય પર્યન્તના પદોને વિન્યાસ (સ્થાપના) કરવા, તેનું નામ धानुपूर्वी छे, (से तं पणुपुब्बी) मा अठार पश्चानुपूर्वी नुं स्व३५ छे,
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अनुयोगन्द्रका टीका सूत्र १३७ यौध निधि की कालानुपुर्वीभिरूपणम्
इत्यन्यानामन्योऽन्याभ्यासे ये अनःता भङ्गा भवन्ति तेषु आद्यन्तरूपभङ्गद्वयविवक्ष: मपहाय सर्वभद्गुणनात्मिवा बोध्या । अत्र कालविचारस्य प्रस्तुतत्वात् समादेशकालत्वेन प्रसिद्धत्वात् अनुषङ्गतो विनेयानां समयादिकाळज्ञानं भन्छ, इति प्रकारान्तरेण कालानुपूर्वी माह- 'अहवा' इत्यादिना । अथवा औपनिधिको कालानुपूर्वी पूर्वानुपूर्व्यादिभेदेन त्रिविधा प्रष्ठा । तत्र पूर्वानुपूर्वी एकसमययह पश्चानुपूर्वी का स्वरूप है। (से किं तं अणाणुपुच्ची?) हे भदन्त ? अना नुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
- ।
उत्तर- (एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए अनंनगच्छगयाए सेदीए अण्णमण्णभासो दूरुवृणो) अनानुपूर्वी में समयादि पदों का एक२ की वृद्धिपूर्वक उपन्यास किया जाता है, फिर बाद में आपस में इनका गुणा किया जाता है। इस प्रकार गुणा करने पर जो अनन्त भंगरूप राशि उत्पन्न होती है उसमें से आदि और अन्त के दो भंग घटा दिये जाते हैं। इस प्रकार से अनानुपूर्वी अनन्त भंगात्मक होती है। यहां काल का विचार प्रस्तुत है और समयादिक कालरूप से प्रसिद्ध हैं । इस लिये शिष्यों को समयादिरूप कालका आनुषंगिक रूप से ज्ञान हो जावे इसलिये सूत्रकार प्रकारान्तर से कालानुपूर्वीका कथन करते है - ( अहवा ओवणहिया कालापुच्वी तिविहा पण्णत्ता) अथवा औपनित्रिकी कालानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है (तं जहा ) जैसे ( पुत्रवाणुपुच्ची पच्छा पुत्री, अणाणुपुत्री) पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी ।
२- (एयाए चैव एमाइयाए एगुत्तरियाए अनंतगच्छगयाए सेढीए अण्णभासो दूरूवूणो ) अनानुपूर्वीभां सभयाहि पहोनेो थोड थोनी वृद्धिश्री ઉપન્યાસ કરવામાં આવે છે. ત્યાર બાદ આપસમાં (અદરે અંદર) તેમના ગણાં (તેમના ગુણાકાર) કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે ગુણાકાર કરવાથી જે અનંત ભગરૂપ રાશિ ઉત્પન્ન થાય છે તેમાંથી શરૂઆતને અને અન્તને એક, એમ એ ભગા ઓછાં કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે અનાતુપૂર્વી અનંત ભગરૂપ હોય છે. અડી' કાળના અધિકાર ચાલી રહ્યો છે અને સમયાદક કાળરૂપે પ્રસિદ્ધ છે. તેથી શિષ્યેાને સમયદિ રૂપ કાળનુ આનુષંગિક રૂપે જ્ઞાન થઈ જાય તે હેતુથી સૂત્રકાર કાલાનુપૂર્વીના સ્વરૂપનું અન્ય પ્રકારે निपथ ४२ छे - ( अहवा ओवणिहिया काला णुपुत्र्वी तिविहा पण्णत्ता) अथवा - भोपनिधिडी खानुपूर्वा व प्रारीही छे. (तंजा) ते प्रा नये प्रभाछे छे - (पुव्वाणुपुत्री, पछाणुपुबी, अणाणुपुब्बी) पूर्वानुपूर्वी, પદ્માનપૂર્વી અને અનાનુપૂર્વી,
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६००
अनुयोगदारको स्थिनिक:-एकः समयः स्थितिर्यस्य द्रव्यविशेषस्य सत्याभूतो दयविशेषो पोध्यः। एवमेव-द्विसमयस्थितिकस्त्रिसमयस्थितिको यावद्दशसमयस्थितिका संख्येयसमयस्थितिकोऽसंख्येयसमयस्थितिकश्च द्रव्यविशेषः पूर्वानुरी बोध्या। पश्चानुपतिअसंख्येयसमयस्थितिको यावदेकसमयस्थितिकश्च। अनानुपूर्वी तु-एकसमयस्थितिकाधारभ्य असंख्येयसमयस्थितिकानामन्योन्याभ्यासेऽसंख्येया मना भवन्ति, तेषु आघन्तरूपमङ्गकद्वयविवक्षामपहाय सर्वभङ्गगुणनास्मिका बोध्या। इयमोपनिधिकी कालानुपूर्ण बोध्या । एतदेवाह-' से तं ओवणि हिया' इत्यादि । सैपा औपनिधि(से कि तं पुउधाणुपुठवी) हे भदन्त ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(पुत्राणुपुरवी ) पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है(एगसमयट्टिए, दुसनयहिहए, तिसमयटिहए जाच दस समयहिए संखिसमयटिइए असंखिज्जसमयटिइए) एक समय की स्थितिवाला, दो समय की स्थिनिवाला, तीन समय की स्थितिवाला यावत् दश समय की स्थितिवाला संख्यातसमय की स्थितिवाला असंख्यातसमय की स्थितिवाला जितना भी द्रव्य विशेष है वह सब पूर्वानुपूर्ण है। (से कि तं पच्छाणुपुव्वी) हे भदन्त ! पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (असंखिजजसमयटिइए जाच एगसमयटिहए पच्छाणुपुत्वी) असंख्यातसमय की स्थितिवाले द्रव्य से लेकर एकसमय तक की स्थितिवाला जो द्रव्य विशेष है वह पश्चानुपूर्ण है। (से तं पच्छाणुपुञ्वी) यह पश्चानुपूर्ण का स्वरूप है। (से किं तं अणाणुपुव्वी?) हे भदन्त अनानुपूर्ण का
प्रश्न-(से किं तं पुवाणुपुठशे) ३ मापन ! पूर्वानुभूतीन १३५ छ?
उत्तर-(पुव्वाणुपुत्री) yानुपूर्वानु २१३५ मा ५२नु -(एगसमयदिइए, दुसमयट्रिइए, तिसमयदिइय जाव इससमयदिइए, सखिज्जसमहिए, असंखिज्जसमदिइए) मे सभयनी स्थितिini, बे समयनी यतिवाणा, ત્રણથી લઈને દસ પર્વતની સ્થિતિવાળાં, સંપાત સમયની સ્થિતિવાળાં અને અસંખ્યાત સમયની સ્થિતિવાળાં જેટલાં દ્રવ્યવિશે તેઓ પૂર્વાનુમૂવી રૂપ છે.
प्रश्न-(मे किं तं पच्छाणुपुव्वी) मावन् ! ५श्वानुवा'१३५ ?
उत्तर-(असंखिज्जसमयदिइए जाव एगसमयदिइए पन्छाणुपुव्वी) असभ्यात સમયની સ્થિતિવાળાથી લઈને એક સમય પર્યન્તની સ્થિતિવાળાં જે દ્રવિसो छ, ते ५श्वानुषी ३५ छे. (से तं पच्छाणुपुव्वी) मा २ पान. પૂવીનું સ્વરૂપ છે.
प्रल-(से हिं तं पणाणुपुवी?) 8 करा ! अनानुभूती तु २१३५ ३१
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टीका सूत्र १३८ उत्कीर्तनानुपूर्वीनिरूपणम्
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की का बुर्वी । इत्थं कालानुपूर्वी समाप्तेति सूचयितुमाह-' से तं' इत्यादिसेवा कालानुपूर्वीति ॥ १३७॥
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अथ पूर्वोत्कीर्तनानुपूर्वी प्रतिपादयितुमाह
I
मूलम् - से किं तं उत्तिणाणुपुवी ? उत्तिणाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, सं जहा - पुपुवी पच्छाणुपुत्री अणाणुपुवी । से किं तं पुवाणुपुवी ? पुत्राणुपुत्री - उसमे अजिए संभवे अभिनंदणे सुमई पउमपहे सुपासे चंदप्पहे सुहा सीयले सेजंसे बासु
स्वरूप है ? ( एवाए चेत्र एमाइयाए एगुत्तरियाए असंखिज्जगच्छगपाए सेदीए अन्नमन्नभासो दुरुवृणो अणाणुपुत्री)
उत्तर - एक से लेकर असंख्यात तक एकर की वृद्धि करते हुए असंख्नश्रेणि मांड़ो, फिर इन श्रेणियों में परस्पर में गुणा कर दो और उस उत्पन्न असंख्यात भंग रूप महाराशि में से आदि अंत के दो भंग- पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी रूप दो भंगों और अवक्तव्यक भंगों को कम कर दो यही अनानुपूर्वी का स्वरूप है । (से तं ओवणिहिया कालानुपुत्री से तं कालाणुपुव्वी) इस प्रकार औपनिधिकी कालानुपूर्वी है। इसके समाप्त होते ही पूर्वप्रकान्त कालानुपूर्वी का कथन समाप्त हो गया । पृ० १३७॥
उत्तर- (एयाए चेत्र एगाइयाए पगुत्तरियाए असंखिज्जग ढगयाए सेटीए अन्नमन्नभासो दूरुवृणो अणाणुपुब्बी) मेथी सर्धने असंख्यात पर्यन्त भेड એકની વૃદ્ધિ કરતાં કરતાં અસંખ્યાત શ્રેણી સુધીનાં ચૈાના ઉપન્યાસ ५२વામાં આવે છે. ત્યાર બાદ તે શ્રેણીઓના પરસ્પરમાં ગુણાકાર કરવામાં આવે છે અને આ પ્રકારે જે અસ`ખ્યાત ભંગ રૂપ મહારાશિ ઉત્પન્ન થાય છે, તેમાંથી આદિ અને અન્તના એ ભાંગાએ-પૂર્વાનુપૂર્વી' અને પશ્ચાનુપૂર્વી રૂપ બે ભાંગાએ-માદ કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારનું અનાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે (सेतं अणःणु) । औोपनिधिठी नानुपूर्वी हे (से तं ओबणिहिया काङाणुपुत्वी से तं काला णुपुत्री) मा प्रहार सोपनिधिडी असानुपूर्वी नुं સ્વરૂપ છે. તેના સ્વરૂપનું... કથન સમાપ્ત થતાની સાથે જ પૂર્વ પ્રસ્ક્રાન્ત કાલાનુપૂર્વી ના ના સ્વરૂપનું કથન પણ સમાપ્ત થાય છે. શાસ્॰૧૩૭૫)
अ० ७६
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६०२
अनुयोगद्वार
पुजे विमले अनंते धम्मे संती कुंथू अरे मल्ली मुणिसुव्वए मी अरिमी पासे वद्धमाणे । से तं पुव्वाणुपुच्ची । से किं तं पच्छावी? पछाणुपुत्री - वद्धमाणे जाव उसभे । से तं पच्छाणुपुव्वी । से किं तं अणाणुपुव्वी ? अणाणुपुत्री - एयाए व एमाइयाए एगुत्तरियाए चडवीस गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णासो दुरूवू । से तं अणाणुपुत्री से तं उक्तित्तणापुच्ची ॥सू० १३८॥
छाया - अथ का सा उकीर्तनानुपूर्वी ? उत्कीर्तनानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञता, तद्यथा पूर्वानुपूर्वी पथानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वीऋषमः अजितः संभवः अभिनन्दनः सुमतिः पद्मप्रभः सुपार्थः चन्द्रमभः सुविधिः शीतलः श्रेयांसः वासुपूज्यः विमलः अनन्तः धर्मः शान्तिः कुन्थुः अरः मल्लिः मुनिसुव्रतः नमिः अरिष्टनेमिः पार्श्वे वर्द्धमानः । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी - एतस्यामेव एकादिकायामेकोत्तरिकायां चतुर्विंशतिगच्छतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरुपोनः । सैपा अनानुपूर्वी । सैषा उस्की - र्त्तनानुपूर्वी ||०१३८ ॥
टीका- -' से किं तं ' इत्यादि
अथ का सा उत्कीर्तनानुपूर्वी ? इति शिष्यमश्नः । उत्तरयति- उत्कीर्त्तनं कथनम् अभिधानोच्चारणमिति यावत् तस्य आनुपूर्वी = अनुपरिपाटिः पूर्वानुपूर्व्यादि
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अथ सूत्रकार पूर्वोक उत्कीर्तनानुपूर्वी का प्रतिपादन करते हैं'से किं तं उकिसणाणुपुथ्वी ? इत्यादि ।
शब्दार्थ - हे भदन्त ! ( से किं तं उकित्ताणुपुत्री ? ) पूर्व प्रकान्त उत्कीर्तनानुपूर्वी का स्वरूप क्या है ?
उत्तर- ( उक्कित्तणाणुपुथ्वी तिविहा पण्णसा) उत्कीर्तनानुपूर्वी तीन હવે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત ઉત્કીનાનુપૂર્વીના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે" से किं तं उक्त्तिणाणुपुव्वी " इत्याह
शब्दार्थ - (से किं तं उत्तिणाणुपुत्र्वी १) हे भगवन् ! पूर्व प्रान्त बडीત નાનુપૂર્વી નું સ્વરૂપ કેવુ* છે ?
उत्तर- (कित्तणाणुपुथ्वी तिविह। पण्णत्ता तंजहा) उडीत नानुपूर्वीना
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भयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३८ उत्कीर्तनानुपूर्वी निरूपणम् ६०३ मेदेन त्रिविधा प्राप्ता। तत्र-पूर्वानुपूर्वी-ऋषभादि वर्द्धमानान्ता । सर्वपथमोत्पवाद् ऋषभस्य प्रथममुपादानम् । तदनन्तरं क्रमेण अजितादय उक्ताः। पश्चानुपूर्वी तुप्रकार की कही गई है। (तं जहा) उसके वे प्रकार ये हैं-(पुव्वाणुपुत्री, पच्छाणुपुषी, अणाणुपुव्वी) पूर्णनुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी। उत्कीर्तन शब्द का अर्थ नाम का उच्चारण करना ऐसा है । इस उत्कोतन की जो परिपाटी है उसका नाम उत्कीर्तनानुपूर्वी है। (से कि तं पुवाणुपुब्धी) पूर्व प्रक्रान्त पूर्वानुपूर्वी क्या है ?
उत्तर-(उसभे अजिए संभवे अभिणंदणे, सुमई, पउमप्पहे, सुपासे, चंदप्पहे, सुविही, सीयले, सेज्जं से, वासुपुज्जे, विमले, अणते, धम्मे, संनी, कुंथू, अरे, मल्ली, मुणिप्लुम्चए, णमी, अरिट्ठणेमी, पासे, वद्धमाणे, से तं पुत्राणुपुठवी) ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्माभ, सुपार्य, चंद्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व, और बर्द्धमान । इस प्रकार परिपाटिरूप से नामो. च्चारण करना इसका नाम उत्कीर्तनानुपूर्वी का प्रथम भेद पूर्वानुपूर्वी है। ऋषभनाथ सब से प्रथम उत्पन्न हुए हैं। इसलिये उनका प्रथम नामोच्चारण किया है। तदनन्तर क्रमशः अन्य अजित आदि हुए हैं इसलिये उनका नामोच्चारण हुआ है। पश्चानुपूर्वी में वर्द्धमान को नीय प्रमाणे त्रय ५७१२ ४: छे-(पुव्वाणुपुव्वी, पच्छाणुपुव्वी, अणाणुपुव्वी) (१) पूर्वानु५वी', (२) ५श्च नुपूर्वी अने (3) अनानुपूवी.
" नामनु या५५ ४२" सेट सीन माहीत ननी (नामनु GA२ ४२पानी) परिपाटी (पद्धति) छे, तेनु नाम जीतनानुभूती छे.
48-(से किं तं पुवाणुपुबी') 3 भगवन् ! पूर्वानुषीनु २१३५ छ ?
उत्तर-(उसभे, संभवे, चंदप्पहे. सुविही, सीयले, सेज्जंसे, वासुपुज्जे, विमले, अणंते, धम्मे, संती, कुंथू, अरे, मल्ली, मुणिसुव्वए, णमी, अरिदणेमी, पासे, बद्धमाणे, से तं पुव्वाणुपुत्री) अपन, भति, समप, भनिनन, भुमति, ५५म, सुपाव प्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, पासुल्य, विमा, अनन्त, यम, शान्ति, न्यु, १२, मल्ली, मुनिसुव्रत, नमि, मरि. ટનેમિ, પાર્શ્વ અને વર્ધમાન, આ પ્રકારે પરિપાટી રૂપે નામોચ્ચારણ કરવું તેનું નામ પૂર્વાનુમૂવી છે. તે ઉત્કીર્તનાનુપૂવીના પ્રથમ ભેદ રૂપ છે. અષભનાથ ભગવાન સૌથી પહેલાં થઈ ગયાં હોવાથી તેમના નામનું ઉચ્ચારણ સૌથી પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. ત્યાર બાદ અજિત આદિ તીયકરે ક્રમશઃ થઈ ગયા હોવાથી તેમના નામનું ક્રમશઃ ઉચ્ચારણ કરાયું છે.
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अनुयोगवारसूत्र वर्षमानादि ऋषभान्ता बोध्या । अनानुपूर्ती तु-ऋषभादिवर्धमानान्तानां चतुर्ति शतिपदानामन्योऽन्याभ्यासे आध-तरूपमङ्गकद्वयविवक्षामपहाय भङ्गा विधातव्यास्तदात्मिका बोध्या । ननु औपनिधिक्या द्रव्यानुपूर्वा अस्याश्च को भेदः१ उच्यते, तत्र हि द्रव्याणां विन्यासमात्रमेव पूर्वानुपूर्यादिभावेन चिन्तितम् । अत्र तु तेषामेव तथैवोत्कीर्तनं क्रियते-इत्येतावन्मात्रेण एतयोमेदो बोध्यः । ननु अस्त्येवं तथाऽ. प्यत्र शास्त्रे आवश्यकस्य प्रस्तुतत्वादत्रापि सामायिकाघध्ययनानामेवोत्कीर्तनं युक्तम्, आदि करके-ऋषभपद को अन्त में उच्चरित किया जाता है। तथा अनानुपूर्वी आदि के ऋषभपद से लेकर अन्तिम वर्द्धमान तक के चौ. थीस पदों का परस्पर में गुणा करने पर और गुणितराशि में से आदि अन्त रूप भंग द्वय की विवक्षा को कम करने पर जितने भंग बचते हैं उन भंग स्वरूप होती है। __ शंका-औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी से इस में क्या भेद है ? ___ उत्तर-औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी में द्रव्यों का केवल विन्यास ही पूर्वानुपूर्वी आदिरूप से विचारित होता है और इस उत्कीर्तनानुपूर्वी में उन्ही द्रव्यों का आनुपूर्वी आदिरूप से नामोच्चारण किया जाता है।
शंका--इस शास्त्र में आवश्यक का प्रकरण होने से इस आनुपूर्वी में भी सामायिक आदि अध्ययनों का ही उत्कीर्तन करना उचित था
/ પશ્ચાનુપૂવનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે-ઉપર જે કમે નામોચ્ચારણ કરાયું છે તેના કરતાં ઊલટા ક્રમે નામોચ્ચારણ કરવાથી પશ્ચાનુપૂર્વીબને છે. તેમાં વધમાનથી લઈને રાષભ પર્યંતના પદોનું ઉચ્ચારણ કરાય છે. આ રીતે વર્ધમાન પદ પહેલું અને “રાષભ” પદ છેલું આવે છે. અનાનુપૂર્વમાં શરૂઆતના ઋષભ પદથી લઈને છેલ્લા વર્ધમાન પર્વતના ૨૪ પદ પર સ્પરની સાથે ગુણાકાર કરવામાં આવે છે અને તેથી જે મહારાશિ આવે છે તેમાંથી આદિ અને અન્ય રૂપ બે ભેગેને બાદ કરવામાં આવે છે. આ બે ભગો બાદ કરવાથી જે અંગે બાકી રહે છે, તે લંગરૂપ અનાનુપવી હોય છે
શંકા-ઓપનિધિકદ્રવ્યાનુપૂવ કરતાં આ ઉત્કીર્તનાનુપૂર્વમાં શો તફાવત છે?
ઉત્તર-ઔપનિધિકી દ્રવ્યાનુપૂવીમાં દ્રવ્યોનો કેવળ વિન્યાસ જ પૂર્વાનવ આદિ રૂપે કરવામાં આવે છે, પરંતુ આ ઉકતનાનુપૂર્વામાં તે એજ વ્યેનું આનુપૂર્વી આદિ રૂપે ઉચ્ચારણ કરવામાં આવે છે.
શકા–આ શાસ્ત્રમાં આવશ્યાનો અધિકાર ચાલતું હોવાથી આ આનપ્રવીમાં સામાયિક આદિ અધ્યયનોનું જ ઉત્કીર્તન ઉચ્ચારણ) કરાયું હતું
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अनुबोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३९ गणनानुपूर्वीनिरूपणम् कबमपक्रान्तानामृषमादीनामुत्कीर्तनं कृतम् ? इति चेदाह-इदं शास्त्रं सर्वव्यापकमित्यादावेवम् उक्तम् । तत्समर्थयितुमेव ऋषमादीनामुपादानं कृतम् । ऋपभादीनां तीर्थकर्तृत्वात्तन्नामोच्चारणे सकलमपि श्रेयः प्राप्नोति जन इति युक्तमेव तेषां भगवतां नामोच्चारणम् । एवं विधस्थलेऽन्यत्राप्येवमेव समाधेयमिति । प्रकृनमुप संहरन्नाह-' से तं' इत्यादि । सैपा उन्कीर्तनानुपूर्वी ॥ मू०१८।
अथ पूर्वोक्तामेव गणनानुपूर्वी निरूपयितुमाहमूलम्-से किंतं गणणाणुपुत्री ? गणणाणुपुब्बी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुवाणुपुटवी पच्छाणुपुब्बी अणाणुपुठनी से किं तं पुव्वाणुपुवी ? पुटाणुपुवी-एगो, दस, सयं, सहामं, दस सहस्साइं, तो फिर अपक्रान्त-प्रकरण बाह्य-ऋषभ आदिकों का उत्कीर्तन सूत्रकारने क्यों किया ? ___ उत्तर--यह तो पहिले ही कहा जा चुका है कि यह शास्त्र सर्व व्यापक है। सो इसी बात का समर्थन करने के लिये यहां ऋषभादिकों का उत्कीर्तन किया है । ये ऋषभ आदि तीर्थ कर्ता हैं। इनके नाम का उच्चारण करने वाला मनुष्य समस्त श्रेयको पा लेता है। अतः उनके नाम का उच्चारण करना युक्त ही है। दूसरे और भी इसी प्रकार के स्थलों में ऐसा ही समाधान समझना चाहिये। इस प्रकार से यह उत्कीर्तनानुपूर्वी है। सूत्रस्थ वाकी पद सुगम्य हैं अतः उनका भिन्न भिन्न रूप से अर्थ नहीं लिखा है।सू० १३८॥
તે ઉચિત ગણાત તેને બદલે અપ્રકાન્ત (પ્રકરણના વિષયથી બાહ્ય એવા) આવભ આદિકનું ઉત્કીર્તન સૂત્રકારે શા કારણે કર્યું છે?
ઉત્તર-એ વાત તે પહેલાં જ કહેવામાં આવી ચુકી છે કે શાસ્ત્ર સર્વવ્યાપક છે. એજ વાતનું સમર્થન કરવાને માટે અહીં અષભાદિકેનું ઉત્કીર્તન (નામોનું ઉચ્ચારણુ) કરવામાં આવ્યું છે. આ કાષભ આદિ તીર્થ કરોએ તીર્થની સ્થાપના કરી હતી. તેમના નામનું ઉચ્ચારણ કરનાર મનુષ્યનું દરેક પ્રકારે શ્રેય જ થાય છે. તેથી તેમનાં નામનું ઉચ્ચારણ કરવું ઉચિત જ ગણી શકાય આ પ્રકારનાં બીજાં સ્થાનોમાં પણ આ પ્રકારનું જ સમાધાન સમજવું.
આ પ્રકારનું ઉત્કીર્તનનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ છે આ સૂત્રમાં આવેલાં બાકીના પદને અર્થ સુગમ હોવાથી અહીં તેમનું, વધુ સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું નથી. સૂ૦૧૩૮૫
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अनुयोगद्वारसूत्रे
I
सयसहस्सं, दस सयसहस्साई, कोडी, दस कोडीओ, कोडीसयं, दस कोडिसयाई । सेतं पुत्राणुपुत्री से किं तं पच्छाणुपुत्री ? पच्छाणुपुत्री- दस कोडिसयाई जान एगो से तं पच्छावी । से किं तं अणावी? अणाणुपु०बी-एयाए चेत्र एगाइयाए एगुत्तरिया र दसकोडिसयगच्छ्गयाए सेडीए अन्नमन्नन्भासो दुरूवूणो । सेतं अणाणुपुरी । से तं गगणाणुपुन्शी ||सू० १३९॥ -अथ का सा गणनानुपूर्वी ? गणनानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथापूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी एको, दश शतं सहस्रं दश सहस्राणि शतसहस्रं दश दातसहस्राणि कोटिः, दशकोटयः, कोटिशतं दशकोटिशतानि । सेवा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी दशकोटिशतानि यावदेकः । सैपा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी एतस्यामेव एकादिकायामेकोत्तरिकायां दशकोटिशतगच्छगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासी द्विरूयोनः । सेवा अनानुपूर्वी । येषा गगनानुपूर्वी ||०१३९ | टीका -' से किं तं' इत्यादि
छाया
अथ का सा गणनानुपूर्वी ? इति प्रश्नः । उत्तरयति - गणनानुपूर्वी पूर्वानुपूर्वादिभेदेन त्रिविधा। तब एका दिवशकोटिशनान्तानुपूर्वी दश कोटिशतायेंगणनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है-इस बात को अब सूत्रकार स्पष्ट करते हैं - " से किं तं गणमाणुपुच्ची ?" इत्यादि । शब्दार्थ - ( से किं तं गगणाणुपुच्ची)
प्रश्न -- हे भदन्त ? गणनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-- (गणगाणुपुच्ची निविदा पण्णत्ता) गणनानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है । (तंजा) जैसे (पुच्चाणुपुत्री पच्छाणुपुञ्ची, अणाणुपुच्ची)
હવે સૂત્રકાર ગણનાનુપૂર્વાના સ્વરૂપનું નિરૂપણુ કરે છે
" से किं तं गणणाणुपुन्त्री " त्याहि
शब्दार्थ - (से किं तं गणण णुपुत्री) डे अगवन् ! गगुनानुपूर्वीनु સ્વરૂપ કેવુ છે ?
उत्तर- ( गणणाणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता)
नानुपूर्वीत्र प्रहारनी उही - (तंजा) तेरे नीचे प्रमाणे छे - ( पुत्राणुपुत्री, पच्छाणुपुत्र्वी, अणाणुपु०जी) (1) पूर्वानुपूत्र, (२) पश्चानुपूर्वी अने (3) अनानुपूर्वी.
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अ निका टीका सूत्र १३९ गणनानुपूर्वी निरूपणम्
६०७ पाता पचानुपूर्वी । तया-एतस्यामेव एकादिकायाकोतरिकायां दशकोटिशतमछगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोन:-अनानुपूर्वी, व्याख्या पूर्ववत् । पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी (से कि तं पुव्वाणुपुव्वी) हे भदन्त ! पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? ___ उत्तर-- (पुवाणुपुव्वी) पुर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है(एगो) एक (दस) दश, (सयं) सौ (सहस्सं) हजार (दससहस्साई) दश हजार (सयसहस्साई) लाख (दससयसहस्साई) दश लाख (कोडी) करोड़ (दस कोडीओ) दस करोड़ (कोडीसयं) अर्य, (दस कोडिसयाई) दस अर्ष (मे तं पुव्वाणुपुव्वी) यह पूर्व प्रक्रान्त पूर्वानुपूर्वी है । (से कितं पच्छाणुपुची?) हे भदन्त! गणनानुपूर्वी के भेद रूप पश्चानुपूर्वी का क्या स्वरूप है?
उत्तर-- (पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है। (दस कोडिसयाइं जाव एगो) दस अर्ष से लेकर व्युत्क्रम से एक तक गिनना (से तं पच्छाणुपुव्वी) सो पश्चानुपूर्वी है । (से कि तं अणाणुपुञ्वी) हे भदन्त ! अनानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ? (अणाणुपुव्वी) अनानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है--(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए दस कोडिसयगच्छगयाए सेटीए अन्नमन्नम्भासो दुरूपूणो) एक से लेकर
प्रश्न-(से किं तं पुव्वाणुपुवी?) हे साप ! पूपानुपूर्वा न २१३५ छ?
उत्तर-(पुव्वाणुपुत्री) पूर्वानुभूतीन २१३५ मा प्रा२नु छ-(एगो) से, (दस) ४स, (सयं) से, (सहस्स) १२, (दससहस्साई) ६८ M२, (सयसहरसाई) arm, (दससय सहस्साई) इस सास, (कोडी) ४२।७, (दस कोडीओ) इस ४२।७, (कोडीसयं) सम०८, (दस कोडीसयाई) स मम, (से तं पुव्वाणुपुव्वी) त्याहि ३२ गाना ४२वी तेनु नाम पूर्वानुनी छे.
प्रश्न-(से किं तं पच्छाणुपुव्वी?) 8 सपन मनानु५वी ना मीत ले રૂપ પશ્ચાનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(पच्छाणुपुब्बी) पश्चानुपूती नु २१३५ मा ५२नु है-(दसकोडीसयाई जाव एगो, इस अयी सन वटा भे से सुधानी तरी ४२वी (से तं पच्छाणुपुठवी) तेनु नाम पश्चानुवा छे.
प्रश्न-(से किं तं अणाणुपुवी?) 8 मापन् ! नानुषी ना alon मेह રૂપ અનાનુપૂવીનું સ્વરૂપ કેવું છે ?
उत्तर-(अणाणुपुची) अनानुदीनु ११३५ मा प्रकार छ-'एयाए व एगाइयाए एगुत्तरियाए दसकोडिम्यगच्छगयाए सेढीए अनममन्भासो दूरुवूणा)
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१०८ अत्रोक्ताः संख्या उपलक्षणमात्रम्, अब इतोऽन्या अपि संभापमानाः संख्या
आगन्तव्याः। उत्कीर्तनानुपूर्वा नाममात्रोत्कीर्तनं कृतम्, अत्र गणनानुपूष्यों - एकादि संख्यानामभिधानं कृतमिति बोध्यम् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-' से तं' इत्यादि । सैषा गणनानुपूर्वी । मू० १३९॥
अथ प्रागुद्दिष्टामेव संस्थानानुपूर्वीमाहमूलम्-ते किं तं संठाणाणुपुवी ? संठागाणुपुवी तिविहा पण्णता, तं जहा-पुव्वाणुपुवी पच्छाणुपुवी अणाणुपुटवी । से कि तं पुवाणुपुटवी ? पुव्वाणुपुवी-समचउरंसे निग्गोहमंडले सादी खुजे वामणे हुडे । से तं पुवाणुपुवी । से किं तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुवी-डंडे जाव चउरंसे । से तं पच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपुवी ? अगाणुपुबी एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छ गच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नभासो दुरुवूगो। सेत अणाणुपुटवी। सा एसा संठाणाणुपुठवी ॥सू० १४०॥
छाया-प्रथ का सा संस्थानानुपूर्वी ? संस्थानानुपूर्वी त्रिविधा प्राप्ता, तद्यथापूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी। अय का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-समचतुरस्रं न्यग्रोधमण्डलं सादि कुब्जं शमनं हुण्डम् । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी-हुण्डं यावत् समचतुरस्रम् । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का दश कोटिशतक की एक एक की वृद्धिवाली श्रेणी में स्थापित संख्या का परस्पर में गुणा करने पर और उत्पन्न उस महाराशि में से भंग द्वय की विवक्षा को कम करने पर अवशिष्टभंगात्मक (से तं अणाणपुबी) अनानुपूर्वी है (से तं गणणाणुपुव्वी) इस प्रकार यह गणनानुपूर्वी का स्वरूप है ॥सू० १३९॥ એકથી લઈને દસ અબ જ પર્યન્તની એક એકની વૃદ્ધિવાળી શ્રેણીમાં સ્થાપિત સંખ્યાનો પરસ્પરની સાથે ગુણાકાર (સંયોજન) કરીને જે ભંગની મહારાશિ ઉત્પન્ન થાય છે તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભંગને બાદ કરવાથી જે ભગ बाकी २७ छ, मागान (से त अणाणुपुषी) अनानुभूती ३५i भाव है(सेस' गणणाणुपुब्बी) मा प्रा२नु मनानुनि १५३५HARI
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चन्द्रिका टीका सूत्र १४० संस्थानानुपूर्वीनिरूपणम् सा अनानुपर्छ? अनानुपूर्वी-एतस्यामेव एकादिकायामे कोतरिकायां छ गच्छयतार्थ अषामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः। सैपा अनादपूर्ती। सपा संस्थानानुपूर्वी मु.१४०॥
टीका-'से किं तं ' इत्यादिअथ का सा संस्थानानुपूर्वी ? इति प्रश्नः। उतरयति-संस्थानानुपूर्वी संस्थानानिभाकृतिविशेषाः, तेषामानुषपरिपाटी संस्थानानुपूर्वी आकृतिविशेषरूपाणि । संस्थानानि जीवाजीभेदेन यद्यपि द्विविधानि तथापि 'समचउरंसे' इत्याद्यभिधानेन जीवसम्बन्धीन्येव तानि व ध्यानि । इयं संस्थानानुपूर्व्यपि पूर्वानुपूदि . मेदेन त्रिविधा प्रोक्ता तत्र-पूर्वानुपूर्वी-समचतुरस्रम्-समंना भेरुपर्यधश्च सकल. पुरुषलक्षणोपेतानपतया चतुरसम. अन्यूनाधिकाश्चतस्रः अस्रयः-कोणा यस्य तत्
अब सूत्रकार पूर्वोक्त संस्थानानुपूर्वी का स्वरूप कथन करते है-- "से कितं मंठाणाणुपुत्री" इत्यादि ।
शब्दार्थ-- से किं तं संठाणाणु पुरुषी ?) हे भदंत ! पूर्वप्रक्रान्त संस्थानानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-- (संठाणाणुपुवी तिविहा पण्णत्ता) संस्थानानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है (तं जहा) वे प्रकार ये हैं -- (पुत्राणुपुब्बी, पच्छ।णुपुन्वी, अणाणु पुठवी,) पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी से किं तं पुराणुएन्वी) पूर्वानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर--(पुवाणुपुवी) पूर्वानुपूर्वी का स्वरूप इस प्रकार से है-(समबउरंसे, निग्गोह मंडले, सादी खुज्जे वामणे हुंडे) समचतुरस्र संस्थान, पग्रोधमंडल संस्थान, मादि संस्थान, कुज संस्थान, वामन संस्थान,
હવે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત સંસ્થાનાનવીનું નિરૂપણ કરે છે" से कि त संटाणाणुपुत्री ?" त्याह
शहाथ-(से किं त' संठाणाणुपुबी १) ३ सन् ! पूरित सत्यानाJ५वीनु २१३५ ३ १ ।
उत्तर-(संठाणाणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता) सस्थानानुषी १५ प्रारी की छे. (न'जहा) ते १५ ॥३॥ नीचे प्रमाणे २-(पुव्वाणुपुठवी पच्छाणुपुत्धी णाणुपुत्री) (१) पूर्वानुनी (२) ५श्वानुनी अने (3) अनानुपूर्दा
प्रश्न-(मे किं त पुराणुपुत्रवी ? ) 3 बातम्! पूर्वानुषी नु ३५ ३ छ?
उत्तर-(पुवाणुपुत्री) पूर्वानुमानु २१३५ मा प्रा२नु 8-(समचरंसे, गोहमंडले, सादी, खुज्जे, वामणे, हुंडे) सभयतु२२० संस्थान, •योध स्थान, स. संस्थान, ७सस्थान, वामन संस्थान मनहुँ स्थान, अ० ७७
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अनुयोगद्वार
चतुरस्रम् | अनयोः कर्मधारयः । तुल्यारोहपरिणाहः सम्पूर्णलक्षणोपेताङ्गोपाङ्गावयवः स्वालाष्टाधिकशतोच्छ्रायः सर्वसंस्थानेषु मुख्यः पञ्चेन्द्रियजीवशरीराकारविशेष और हुंड संस्थान | आकृति विशेष का नाम संस्थान है । इन संस्थानों की जो परिपाटी है उसका नाम आनुपूर्वी है । यद्यपि ये संस्थान जीव और अजीव के संबन्धी होने से दो प्रकार के हैं तो भी " इस प्रकार के कथन से यहाँ जीवसंबन्धी ही ग्रहण किये गये हैं । जिस संस्थान में नाभि से ऊपर के और नीचे के समस्त अवयव सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार अपने २ प्रमाण से युक्त हों, हीनाधिक न हों उसका नाम सम'चतुस्र है, " समं चतुस्रम् यस्प तत् समचतुरस्रम् " यह इसकी व्युत्पत्ति है । इसका तात्पर्य यह है कि इस संस्थान में जितने भी शरीर के नाभि से ऊपर नीचे के अंग उपांग रूप अवयव होते हैं वे सब समस्त लक्षणों से सहित होते हैं। न्यूनाधिक भाव इनमें नहीं होता है शरीर के चारों कोने इसमें बराबर होते हैं। इस संस्थान में आरोह और परिणाह- उतार चढाव - एकसा होता है। सामुद्रिक शास्त्र में सुहावने शरीर के जितने भी लक्षण कहे गये हैं वे सब लक्षण इस संस्थान वाले शरीर के अंग और આ ક્રમે સંસ્થાને વિન્યાસ કરવા તેને સંસ્થાનાનુપૂર્વીના પ્રથમ ભેદ રૂપ પૂર્વાનુપૂર્વી કહે છે.
સસ્થાન એટલે આકાર મા આકારાની જે પિરપાટી તેનુ' નામ આનુ પૂર્વી છે જો કે આ સંસ્થાન જીવ અને અજીવ વિષયક હાવાને કારણે મુખ્ય એ પ્રકારનુ હાય છે, પરન્તુ " समचउरंसे " इत्यादि पट्टो द्वारा यहीं જીવસ’બ...ધી સસ્થાનાને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે,
સમચતુરસ્ક્રૂ સ ́સ્થાન જે સંસ્થાનમાં (આકાર વિશેષમાં) નાભિની નીચેના અને નાભિની ઉપરનાં સમસ્ત અવયવ સામુદ્રિક શાસ્ત્રમાં બતાવ્યા પ્રમાણેના પાતપાતાનાં પ્રમાણવાળાં હાય છે—હીન અથવા અધિક પ્રમાણવાળી હાતાં નથી, તે સંસ્થાનને સમચતુરસ્ત્ર સંસ્થાન કહે છે. તેની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રમાણે થાય છે
" समं चतुस्रम् यस्य तत् समचतुरस्रम् ” मा धननो भावार्थ नीचे प्रमाणे –આ સસ્થાનમાં નાભિની ઉપરનાં અને નીચેનાં સમસ્ત અંગ ઉપાંગે સમસ્ત લક્ષણેાથી યુક્ત હોય છે. કોઈ પણ અંગ ઉપાંગ ન્યૂન અથવા અધિકપ્રમાણવાળું હતું નથી. પણ સપ્રમાણ હેાય છે તેમાં શરીરના ચારે ખૂણુા ખરાખર હાય છે આ સસ્થાનમાં આરાહ અને અવરોહ-ચઢાવ અને ઉતાર-એક સરખા હૈાય છે. સામુદ્રિક શાસ્ત્રમાં સુંદર શરીરના જેટલાં લક્ષણા કહ્યાં છે, તે બધાં લક્ષણા આ શરીરના અગઉપાંગામાં જોવામાં આવે છે. આ સસ્થા
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र १४० संस्थानानुपूर्वीनिरूपणम् ६१२ इत्यर्थः । न्यग्रोधमण्डलम् न्यग्रोधो वटवृपरतद्वन्मण्डलं यस्य तत्तथा, यथा-न्यप्रोष उपरि सम्पूणवियवोऽधस्तनभागे पुन न तथा, तथेदमपि नाभेरुपरि विस्तरबहुलं शरीरलक्षणोक्तप्रमाणभागम् , अधस्तु हीनाधिकममाणं विज्ञेयम्। सादिभादिरिह उत्सेपाख्यो नाभेरधस्तनो देहमागो गृह्यते । आदिनानाभेरधस्तनकायलक्षणेन सह वर्तते इति सादिः । यद्यपि सर्वशरीरमादिना सह वर्तते तथापि सादित्वविशेषणान्यथाऽनुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपन्न आदिरिह गृहयते, तत उपांगों में रहा करते हैं । अपने अंगुल से इस संस्थान वाला शरीर १०८ अंगल की ऊंचाईवाला होता है। यह संस्थान समस्त संस्थानों में मुख्य होता है। और यह पंचेन्द्रिय जीव के शरीरका एक विशेष आकाररूप होता है। न्यग्रोधमण्डल-न्यग्रोध नाम वटवृक्ष का है। इसके समान जिसका मंडल हो- अर्थात् जिस प्रकार न्यग्रोध-बटवृक्ष-ऊपर में संपूर्ण अवयवोंवाला होता है और नीचे वैसा नहीं होता, उसी प्रकार यह संस्थान भी नाभि से ऊपर में बहुत विस्तारवाला होता है और नाभि से नीचे हीनाधिक प्रमाणवाला होता है ऐसे संस्थान का नाम न्यग्रोध मंडल है। सादि-नाभि से नीचे का जो उत्सेध नाम का देह भाग है वह यहां आदि से ग्रहण किया है। नाभि से नीचे का भाग कायरूप आदि के साथ जो रहता है उसका नाम सादि है। यद्यपि समस्त शरीर आदि सहित होते हैं तो भी संस्थान का जो सादि विशेषग
નવાળા મનુષ્યની ઊંચાઈ તેના ૧૦૮ આંગળપ્રમાણુ હોય છે. આ સંસ્થાન બધાં સંસ્થામાં મુખ ( ક) ગણાય છે. અને આ સંસ્થાન પંચેન્દ્રિય જીવના શરીરના એક આકારવિશેષ રૂપ હોય છે.
ન્યોધમંડલસંસ્થાન-વડના વૃક્ષને ન્યગ્રો કહે છે. તે વડના જેવું છે સંસ્થાન (આકાર) હોય છે તે સંસ્થાનનું નામ ન્યગ્રોધમંડલસંસ્થાન છે. જેમ વડને ઉપરનો ભાગ સંપૂર્ણ અવયવાળ હોય છે, પણ નીચે એ હતો નથી, એજ પ્રમાણે આ સંસ્થાન નાભિથી ઉપરના ભાગમાં ઘણા વિસ્તાર વાળું હોય છે, પરંતુ નાભિની નીચેના ભાગમાં ન્યૂનાધિક પ્રમાણુવાળું હોય છે. માટે આ પ્રકારના સંસ્થાનનું નામ ચડ્યોધમંડલ સંસ્થાન છે.
સાદિસંસ્થાન નાભિની નીચેને જે ઉન્મેષ નામને શરીરને ભાગ છે, તેને અહીં “આદિલ્મ પદ વડે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. નાભિથી નીચેને જે ભાગ કાયરૂપ આદિની સાથે રહે છે તેનું નામ “સાદિ” છે. જો કે સમસ્ત શરીરે આદિ સહિત જ હોય છે, છતાં પણ અહીં જે સાદિ વિશેષણ લગા
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अनुयोगद्वारसूत्रे
उक्तम् - उत्सेध बहुलमिति । अत्रेदमुक्तं भवति यत्स्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपन्नमुपरि च हीनं तत्सादीति बोध्यम् । कुब्जं यत्र संस्थाने शिरो ग्रीवं हस्तपादादिकं च यथोक्तममाणलक्षणोपेतम् उदरादिमण्डलं च यथोक्तप्रमाणरहितं तत् कुब्ज मित्युभ्यते । वामनम् - यत्र तु हृदयोदरपृष्ठं सर्वलक्षणोपेतं शेषं तु हीनलक्षणं लद् वामन-कुनविपरीतमित्यर्थः । हुण्डम् = पत्र संस्थाने सर्वेऽप्यवयवाः प्रायो क्षणविरुद्धा भवन्ति, तत्संस्थानं हुण्डमित्युच्यते । चतुरस्रसंस्थानस्य समस्तलक्षरखा है वह अन्यथानुपपत्ति के बल से विशिष्ट प्रमाणलक्षणोपेत आदि से ही संबंधित होता है। इसीलिये उत्सेधबहुल ऐसा कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि नाभि से नीचे का भाग जिस संस्थान में बहुत विस्तारवाला होता है और नाभि से ऊपर का भाग हीन होता है वह संस्थान सादि है । कुब्ज जिस संस्थान में शिर, ग्रीवा, हाथ, पग आदि यथोक्त प्रमाणवाले हों और उदर आदि का मंडल यथोक्त प्रमाण से विहीन हो वह कुब्ज संस्थान है । वामन-जिस संस्थान में हृदय, उदर और पीठ ये समस्त लक्षणों से युक्त हों और बाकी के अवयव हीन लक्षणवाडे हों उसका नाम वामन संस्थान है । यह संस्थान कुब्ज से विपरीत होता है । हुण्ड संस्थान- जिस संस्थान में समस्त अवयव प्रायः लक्षणहीन होते उसका नाम हुण्ड संस्थान है । समचतुस्र संस्थान समस्त लक्षणों से ડવામાં આવ્યુ છે, તે અન્યથાનુપપત્તિના બળથી વિશિષ્ટ પ્રમાણુ લક્ષણેાપેત આદિ વડે જ સંબ'ધિત હોય છે. તેથી જ તેને ઉત્સેધ અહુલ કહ્યું છે. આ કથનના ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે-જે સંસ્થાનમાં નાભિની નીચેના ભાગ ઘણા વિસ્તારવાળે હાય, પરન્તુ નાભિની ઉપરનેા ભાગ હીનપમાણુવાળા હાય છે, તે સ્થાનને સાદિ સંસ્થાન કહે છે.
કુ་સસ્થાન-જે સ્થાનમાં શિર, ગ્રીવા, હાથ, પગ આદિ અંગેા શાસ્ત્રોક્ત પ્રમાણવાળાં હોય, પરન્તુ ઉદર આદિ અંગે યથાક્ત પ્રમાણુથી વિહીન હાય છે, તે સંસ્થાનને ગુજ્જસ્થાન કહે છે.
ܕ
વામનસ સ્થાન–જે સંસ્થાનમાં હૃદય, પેટ, અને પીઠ, આ અંગેા સમસ્ત લક્ષણેાથી યુક્ત હાય છે, પરન્તુ બાકીનાં અવયવેા હીન લક્ષણવાળાં હોય છે, તે સંસ્થાનને વામનસ સ્થાન કંડે છે. આ સસ્થાન કુબ્જસસ્થાન કરતાં વિપરીત લક્ષણૢાવાળું હાય છે.
હુંડસ સ્થાન–જે સંસ્થાનમાં શરીરનાં ખધા અવયવે। યથાક્ત લક્ષÌાવાળાં હાવાને ખલે વિપરીત લક્ષણાવાળાં હોય છે, તે સંસ્થાનને હુડ સંસ્માન કહે છે,
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नुकोनन्दिका टीका सूत्र १४० संस्थानानुपूर्वीनिरूपणम् पोपेतलाव मुरूपत्वम् । ततः शेषाणां यथाक्रमं हीनत्वाद् द्वितीयादित्वं बोध्यम् । सेना पूर्वानुपूर्वी बोध्या । पश्चानुपूर्वी तु, हुण्डादिवतुरस्रान्ता बोध्या । तथा-चतुरनादि हुण्डान्तानां पदानामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः। आधन्तरूपद्वयभङ्गकवित्रधामपहाय ये भङ्गास्ते-अनानुपूर्वीति । ननु यदीत्थं संस्थानानुपूर्वी पोच्यते, तर्हि संहननवरसस्पर्शायानुपूर्योऽपि वक्तव्याः स्युः, तथा सति आनुपूाः माग् द्वासप्ततितमस्त्रोक्तदशसंख्यकत्वमेव परिहीयेत, एवं च आनुपूर्णाः दशविधत्व युक्त होता है इसलिये उस में मुख्यता है। शेष प्रमाणोपेत-लक्षणों से यथाक्रम होन हैं इमलिये उन में अमुख्यता द्वितीयता आदि है। यही पूर्वप्रक्रान्त पूर्वानुपूर्वी है । हुण्ड संस्थान से लेकर समचतुरस्र संस्थान तक पश्चानुपूर्वी होती है। तथा समचतुरस्र से लेकर हुण्ड संस्थान तक के पदों का परस्पर में गुणाकरने पर और उस गुणिन राशि में आदि अंत के भंगद्वय की विवक्षा कम करने पर जो भंग होते हैं उन भंग स्वरूप अनानुपूर्ती होती है । शंका-यदि इस प्रकार से संस्थानानुपूर्वी आप कहते हैं तो संहनन, वर्ण, रस, स्पर्श आदि को की भी आनुपूर्वियां आपको कहनी चाहिये । इस प्रकार से आनुपूर्वियां कहने पर जो७२ वें सूत्र में " आनुपूर्वियां दश होती हैं " ऐसा कहा है सो उस संख्या में ही आती है।
સમચતુરસ સંસ્થાન સમસ્ત લક્ષણેથી યુક્ત હોય છે. તેથી તેમાં પ્રધાનતા માનીને તેનું કથન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. બાકીનાં સંસ્થાને શાસ્ત્રોક્ત લક્ષણે કરતાં ક્રમશઃ એાછાં ઓછાં લક્ષણે ધરાવે છે તેથી તે સંપાનેને ગૌણ ગણીને તેમનું કથન સમચતુરસ્ત્ર સંસ્થાનનું કથન કર્યા બાદ કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રકારનો કથનને જે કમ છે તેને જ અહીં પૂર્વાનુપૂર્વી રૂપ ગણવામાં આવેલ છે. હુંડ સંસ્થાનથી લઈને ઊલટા ક્રમે સમચતુ આ પર્વતના સંસ્થાનેને ક્રમ રાખવાથી પશ્ચાતુપૂર્વી રૂપ બીજી સંસ્થાન નુપૂર્ણ બને છે
અનાનુપૂર્વા-સમચતુરસ્ત્ર સંસ્થાનથી લઈને હુંડસંસ્થાન પર્યન્તની એક એકની વૃદ્ધિવાળી શ્રેણિમાં સ્થાપિત સંસ્થાને પરસ્પરની સાથે ગુણાકાર (સીજન) કરવાથી જે ગુણિતરાશિ આવે તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભગોને બાદ કરવાથી જે ભંગસમૂહ બાકી રહે છે, તે ભંગસમૂહ રૂપ અનાનુપવી હોય છે.
શંકા-જે આ પ્રકારે આ૫ સંસ્થાનાનુપૂર્વીનું કથન કરે છે, તે સંહનન, વર્ણ, રસ, સ્પર્શ આદિકેની આનુપૂર્વી એનું આપે કથન કરવું જોઈએ આ પ્રકારે આનુપૂવ એ કહેવામાં આવે તે ૭૨માં સૂત્રમાં “આનુપૂર્વીએ દસ હોય છે,” આ પ્રકારનું જે કથન કર્યું છે તે કેવી રીતે સંમત માની શકાય?
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अनुयोगदारसूत्रे कथनमसंगतम् ? इति चेदाह पूर्वोक्तमानुपूर्या दशविधत्वं नो संख्यामा नियामकम् अपि तु उपलक्षणमात्रम्। अतो दशविधानुपूर्व्यतिरिक्ता अन्या अपि संभाव्यमाना आनुपूर्यः मुधिया स्वधिया विभावनीयाः।मू० १४०॥ __ अथ सामाचार्यानुपूर्वीमाह
मूलम् से किं तं सामायारी आणुपुठवी ? सामायारी आणुपुत्री तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुवाणुपुत्री पच्छानुपुत्री अणाणुपुवी।से किं तं पुवानुपुवी ? पुब्वाणुपुवी-इच्छागारो, मिच्छा. गारो,तहक्कारो, आवस्तिया, निसीहिया,आपुच्छणा,पडिपुच्छणा, छंदणा, निमंतणा, उवसंपया। से तं पुवाणुपुवी। से किं तं पच्छाणुपुवी ? पच्छाणुपुब्बी-उवसंपया जाव इच्छागागे। से तं पच्छाणुपुवी।से किं तं अणाणुपुवी? अगाणुपुत्री-एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए दसगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो से तंअणाणुपुवी। सेतं सामायारी आणुपुठची।सू.१४१॥ - छाया- अथ का सा सामावार्यानुपूर्वी ? सामाचार्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी-इच्छाकारः, मिथ्याकारः, तथाकारः, आवश्यकी, नैषेधिको, आपच्छना, प्रतिपच्छना, छन्दना, ___ उत्तर-पहिले जो आनुपूर्वी में दश प्रकारता प्रकट की है वह संख्यात की नियामकता रूप से प्रकट की है, किन्तु वह तो उपलक्षण मात्र से कही है । इसलिये दश प्रकार की आनुपूर्तियों से भी अतिरिक्त
और भी आनुपूर्वियां संभवित होती हैं ऐसा इससे भाव निकलना है। इमलिये ऐसी आनुपूर्वियों को बुद्धि शाली जन अपनी बुद्धि से उद्भावित करलें । सूत्र" १४० "
ઉત્તર-પહેલાં આનુપૂર્વેમાં જે દસ વિધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. તે સંખ્યાતની નિયામકતા રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવી નથી, પણ તે તે ઉપલક્ષણ માત્રની અપેક્ષાએ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે, તેથી દસ પ્રકારની આપવીઓ સિવાયની બીજી આનુપૂવીઓ પણ સંભવિત હોય છે, એવો તે કથનને ભાવાર્થ સમજ તેથી બુદ્ધિશાળી માણસોએ એવી આપવીએને પોતાની બુદ્ધિથી જ ઉદ્ભાવિત કરી લેવી જોઈએ. સૂ૦૧૪૫
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सुत्र १४१ सामाचार्यानुपूर्वी निरूपणम् निमन्त्रणा, उपसंपन् । सैपा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा पश्चानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वीउपसंपद यादिच्छाकारः । सैपा पूर्वानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्ती ? अनानु पूर्वी-एतस्यामेव एकादिकायामे कोतरिकायां दशगच्छगतायां श्रेण्यामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैपा अनानुपूर्वी । सैषा सामाचार्यानुपूर्वी ॥० १४१॥
टीका-' से किं तं' इत्यादि
अथ का सा सामाचार्यानुपूर्वी ? इति शिष्यप्रश्नः। सामाचार्यानुपूर्वीसमाचरणं समाचारः शिष्टजनाचरितः क्रियाकलापः, स एव सामाचारी, स्वार्थेप्यञ् , पित्वान्डीप् , तद्रूपा आनुपूर्वी सामाचार्यानुपूर्वी । सा हि पूर्वानुपूर्व्यादि
अब मूत्रकार मामाचारी आनुपूर्षी का कथन करते हैं -- “से कि तं मामायारी आणुपुब्बी" इत्यादि ।।
शब्दार्थ--से किं तं सामायारी आणुपुव्वी) हे भदन्त ! पूर्वप्रकान्त सामा वारी आनुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(सामायारी आणुपुयी तिविहा पण्णत्ता) सामाचारी आनुपूर्वी का तात्पर्य है शिष्यजनों द्वारा आचरित क्रियाकलाप रूप समाचार । यह समाचार ही स्वार्थ में व्यञ् प्रत्यय और डीप होने से सामाचारी ऐसा बन जाता है। इस सामाचारी रूप जो आनुपूर्वी है। वह सामाचारी आनुपूर्वी कही जाती है। यह आनुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है । (तं जहा) जैसे (पुन्धाणुपुबी,पच्छाणुपुग्धी, अणाणुपुब्धी)पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी और अनानुपूर्वी। (से किं तं पुव्वाणुपुव्वी) हे भदन्त! पूर्वापूर्वी सामाचारी क्या है?
હવે સૂત્રકાર સામાચારી આનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે" से किं तं सामायारी आणुपुवी " त्याह
शा-(से किं तं सामायारी आणुपुव्वी) भगवन् ! पूर्वहित સામાચારી આનુપૂર્વીનું સ્વરૂપ કેવું છે?
6त्तर-(सामायारी आणुपुब्बी तिविहा पण्णत्ता, तंजहा) शिष्य द्वारा આચરિત ક્રિયાકલાપ રૂપ સમાચારને સામાચારી આનુપૂર્વી કહે છે. તે સમા ચાર જ સામાચારી રૂપ હોવાથી તેનું નામ સામાચારી પડયું છે. આ સામાચારી રૂપ જે આનુપૂર્વી છે તેને સામાચારી આનુપૂવ કહે છે. તેના नाये प्रमाणे त्रय २ ४ा छ-(पुवाणुपुत्री पच्छाणुपुब्बी, अणाणुपुव्वी) (१) पूर्वानुषी', (२) ५श्वानुषी अने (3) अनानुपूवी.
प्रश्न-(से किं तं पुवाणुपुत्री') 3 मान्! पूर्वानुन साभायारीनु સ્વરૂપ કેવું છે ?
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६९.६
अनुवोमहारसूत्रे
भेदेन चिविधा प्रज्ञा । तत्र पूनुपूर्वी इच्छाकारः, मिथ्याकारः, तथाकारः, तत्र- इच्छाकारः- इच्छाया बल। भियोगमन्तरेण करणम् ॥ १ ॥ मिथ्याकारः = मिथ्या= देनाssवरितं तदसदिति मनसि करणम् । कस्मिंश्चिदकृत्ये कर्मणि कृते सखि भव्येनैत्रं विचिन्त्यते यदिदं मया कृतं तद् भगवताऽनुक्तत्वात् मिथ्याभूतम्, अतो मयेदं दुष्कृतं कृतमित्येवं यदसत्क्रियातो निवृत्तिः स मिथ्याकार इति भावः ॥ २॥
उत्तर (वाणुपुत्री) पूर्वानुपूर्वी सामाचारी इस प्रकार से है(इच्छागारो मिच्छागारो, तहऋकारो आवस्सिया निसीहिया, ओपुच्छणा' पडिपुच्छणा छेदणा' निमंत्रणा, उवसंपया) इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आवश्यकी, नैषेषिकी, आप्रच्छना, प्रतिप्रच्छना, छन्दना, निमंत्रणा, और उपसंपत् । किसी की जबर्दस्ती विना व्रतादिक आचरण करने की इच्छा करना इसका नाम इच्छाकार है। मेरे प्रमाद आदि से अकृत्य का सेवन हो गया है वह मेरा निष्फल हो असत् हो ऐसा मन में विचार करना इसका नाम मिथ्याकार है । कोई अकृत्य कर्म जब बन जाता है । तब भव्यपुरुष मन में ऐसा चिन्तवन करता है कि जो यह मैंने किया है वह भगवान् द्वारा अनुक्त होने से मिथ्याभूत है । इसलिये यह दुष्कृत्य है और यह मैंने किया है अब आगे नहीं करूंगा - इस प्रकार
—
उत्तर - (पुव्वाणुपुब्वी) पूर्वानुपूर्वी साभायारीनुं स्व३५ आ प्रभारनु छे(इच्छागारो, मिच्छागारो, तहक्कारो आवस्सिया, निसीहिया, आपुच्छणा, पडिपुच्छणा, छंदणा, निमंतगा, उत्रसंपया ) ४२-छार, मिथ्याअर, तथाभर, आवश्यडी, नैवेधिडी, माप्रछता प्रतिप्रच्छना, छन्ना, निमंत्रणा भने ઉપસ'પત્, આ ક્રમે પદોના વિન્યાસ (સ્થાપના) કરવા તેનું નામ પૂર્વાનુપૂર્વી સામાચારી છે. હવે ઈચ્છાકાર આદિ પદોના અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે– ક્રેઇની ખળજબરી વિના-બહારના કોઇ પણ દખાણુ વિના-ત્રાદિક આચરવાની ઇચ્છા કરવી તેનું નામ ઈચ્છાકાર છે.
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९.
“ મારા દ્વારા પ્રમાદ આદિને કારણે આ અકૃત્યનું જે સેવન થઈ ગયું छे, ते भारु' अडत्य निण्ड्स (मिथ्या) डे!, ” मा प्रहारनो भनभां वियार કરવા તેનું નામ મિથ્યાકાર છે. જયારે કોઇ અકૃત્યનુ સેવન થઇ જાય છે ત્યારે ભપપુરુષ મનમાં એવુ ચિન્તવન કરે છે કે “ આ મેં જે કર્યુ છે તે ભગવાન દ્વારા અનુક્ત હાવાથી મિથ્યાભૂત છે. તેથી તે દૃષ્કૃત્ય રૂપ જ છે. એવું દુષ્કૃત્ય મારા વડે સેવાઈ ગયું છે, પરન્તુ હવેથી હું તેનુ સેવત નહી કરુ, ” આ પ્રકારના વિચાર કરીને અસત્ ક્રિયાએથી દૂર રહેવુ.એવી ક્રિયાએ કરત પાછાં હઠવું, તેનુ નામ મિથ્યાકાર છે.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४१ सामाचार्यानुपूर्वीनिरूपणम्
६१७
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तथाकारश्च -सूत्रव्याख्यानादौ प्रस्तुते गुरुभिः करमश्चिद् वचस्युदीरिते सति यथा भवन्तः प्रतिगद्यन्ति तथैवैन" दित्येवं करणम्-वितर्कमकृत्वैव गुर्वाज्ञाऽभ्युपगम इत्यर्थः ॥ ३ ॥ आवश्यकी - जानाद्यर्थमु यादवश्यं वहिर्गमने समुपस्थिते 'अवश्यमिदं कर्तव्यमतोऽयं गच्छामि' इत्येवं या गुरुं प्रति निवेदना सा आवश्यशीति तात्पर्यम् ॥ २॥ नैषेधिकी निपेधे भ-नैषेधि की उपाश्रयाद् बहिः कर्तव्यव्यापारं परिसमाप्य पुनस्तत्रैव प्रविशतः शेषसाधूनामुत्त्रासादि-दोषपरिजिहीर्षया बहिर्व्यापार निषेधेन उपाश्रयमवेशनम् ||५|| आप्रच्छना= भदन्त ! करोमीद" विचार कर असत् क्रिवात्रों से पीछे हटना उनसे दूर रहना इसका नाम मिथ्याकार है। सूत्र व्याप आदि जय हो रहा हो तब उस समय गुरुजन जो कोई भी वचन उच्चरित करें तब ऐसा कहना कि जिम प्रकार आप कहते हैं वह वैसा ही है। इसका नाम तथाकार है । तात्पर्य यह है कि तर्क किये बिना ही गुरुदेव की आज्ञा का स्वीकार करना तथाकार है। आवश्यक कर्तव्य करने के लिये उपाश्रय से वहिर्गमन यदि अवश्य कर्तव्य रूप में उपस्थित हो तब अवश्यं कर्तव्यमिदम् अतो गच्छामि' ऐसा ख्याल करके गुरु से बाहर जाने की आज्ञा प्राप्त करने के लिये निवेदना इसका नाम आवश्यकी है। उपाश्रय से बाहिर कर्तव्य कर्म को समाप्त कर के जन साधु उपाश्रय में प्रवेश करे, तब शेष साधु जनों को मेरे द्वारा कोई उत्त्रास आदि न हो इस प्रकार के ख्याल से उपाश्रय में अपने प्रवेश की सूचना देना इसका नाम नैषेधिकी है।
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સૂત્રનું વ્યાખ્યાન આદિ જયારે ચાલી રહ્યું હોય, ત્યારે ગુરુ જે વચને કહે તેને સ્વીકારી લેવાં- હે ગુરુદેવ! આપ જે કહેા છે તે ખરૂ જ છેઆપની વાત યા છે, આ પ્રકારનાં વચનેનુ' ઉચ્ચારણ કરવું તેનું નામ તથાકાર છે. એટલે કે તક કર્યા વિના જ ગુરુની આજ્ઞાને સ્વીકાર કરવે! તેનું નામ તથાકાર છે.
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આવશ્યકી–અ.વશ્યક કર્તવ્ય કરવાને માટે ઉપાશ્રયમાંથી બહ:૨ જવાનુ
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ले अवश्य ४९०५ ३ये उपस्थित थाय, ते " अवश्यं कर्तव्यमिदम् अतो गच्छामि ” આ કાર્ય અવશ્ય કરવા ચેગ્ન છે, આ પ્રકારને વિચાર કરીને બહાર જવાની આજ્ઞા પ્રસ કરવા માટે ગુરુની આગળ નિવેદન કરવુ તેનું નામ અહ્વશ્યકી છે. ઉપાશ્રયની બહારના કાને પતાવીને જ્યારે સાધુ ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરે, ત્યારે તે પોતાના ઉપાશ્રયમાં પાછાં ફરવાની સૂચના આપે છે. આ પ્રકારે ઉપ શ્રમાં પુનઃ પવેશની જે સૂચના અપાય છે તેને નૈષધિકી કહે છે. આમ કરવાનુ કારણ એ છે કે તેના આગમનની પ્રતીક્ષા કરતા બાકીના
अ. ७८
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अनुयोगद्वार
मित्येवं गुरुं प्रति प्रच्छनम् ||६|| प्रतिपच्छना = किंचित्कर्त्तव्यमुद्दिश्य शिष्येण पृष्टों गुरुः तत्कार्यं कर्त्तुं दत्ताज्ञोऽपि पुनः कार्यारंभसमये कथयति सा प्रतिच्छन् । अथवा - ग्रामान्तरगमनाय गुरुणादिष्टः शिष्यो गमनकाले यत्पुनर्गुरुं प्रतिपृच्छति सा प्रतिप्रच्छना 'एवं प्रत्येककार्येऽपि बोध्यम्' ॥७॥ छन्दना = साधुः स्वानीवाशमधुपभोगविषये गुर्वाज्ञया 'परिभुङ्क्ष्वेदं कुरु मयि कृपाम्' इत्येवं- यथारात्निकमन्यसाधून प्रति आग्रहं करोति, सा छन्दना ॥८॥ निमन्त्रणा -' इमं - पदार्थमुप
हे भदन्त ! मैं यह काम करता हूँ इस प्रकार से गुरु महाराज से पूछना इसका नाम आप्रच्छना है। किसी कर्तव्य कार्य को उद्देश्य करके जब शिष्य गुरुजन से उस कार्य को करने की आज्ञा प्राप्त करने के लिये पूछता है, और कार्य की आज्ञा होने पर भी कार्य करने के समय में गुरु से पुनः पूछना इसका नाम प्रतिपच्छना है । अथवा दूसरे ग्राम में जाने के लिये गुरुद्वारा आदिष्ट हुआ शिष्य जब जाने लगे तो उसका कर्तव्य है कि वह जाते समय पुनः गुरु महाराज से पूछे इस प्रकार के पूछने का नाम भी प्रतिप्रच्छना है । यह प्रतिप्रच्छना प्रत्येक कार्य में भी हो सकती है । साधु अपने भाग का आहार आदि के लिये यथा रानिक अन्य साधुओं से गुरु की आज्ञा प्राप्त कर जो ऐसा आग्रह
સાધુઓને તેના આગમનની ખખર પડે છે અને તેના દ્વારા કાઈને ઉત્રાસ . ઉત્પન્ન થવાની સ’ભાવના રહેતી નથી.
કામ કરૂ છું ’ આ પ્રકારે ગુરુ
આપ્રચ્છના— હે ભગવન્! હું આ મહાજને પૂછવું' તેનુ નામ પ્રચ્છના છે. પ્રતિપ્રચ્છના કાઈ કામ કરવા માટે શિષ્ય ગુરુ અને તે કાર્યની ગુરૂએ આજ્ઞા આપ્યા છતાં પણુ કાર્ય પ્રમાણે ગુરુને ફરીથી પૂછવુ તેનુ' નામ પ્રતિપ્રચ્છના છે
પાસે
કરતી
આજ્ઞા માગે, વખતે આ
અથવા-ખીજે ગામ જવાની ગુરુ દ્વારા આજ્ઞા મળી હોય. છતાં પણ ખીજે ગામ ગમન કરતી વખતે શિષ્યે ફરીથી ગુરુની આજ્ઞા લેવી જોઈએ આ પ્રકારે પૂર્વે આજ્ઞા પ્રાપ્ત થઈ ગયા ખાદ ગમન કરતી વખતે ગુરુને ક્રી જે પૂછવામાં આવે છે તેનું નામ પ્રતિચ્છના છે. પ્રત્યેક કાર્યમાં પણ આ
પ્રતિપ્રચ્છના સભવી શકે છે.
છંદના–પોતાના ભાગના માહારાદિને ભેજનાદિ રૂપે ગ્રહ્મણ દરવાની અન્ય સાંભાગિક સાધુઓને વિનંતિ કરવી તેનુ નામ છંદના છે. ગુરુની માજ્ઞા લઇને તે સાધુ યથારાત્વિક અન્ય સાધુએને આ પ્રમાણે આગ્રહ કરે
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४१ सामाचार्यानुपूर्वीनिरूपणम् लभ्याहं तुभ्यं दास्यामीति मे भावो वर्तते ' इत्येवं पदार्थप्राप्तेः पूर्वमेव यत्साधू. नामामन्त्रगं सा निमन्त्रगा। उक्तंच
"पुन्नग्गहिरण छंदण निमंतणा होई आग हरणं" छाया-पूर्वगृहीतेन छन्दना निमन्त्रणा भवत्यगृहीतेनेति ॥९॥ तथा-उपसम्म="त्वदीयोऽर" मित्येवं रूपेण श्रुताद्यर्थमन्यदीयसत्ताऽभ्युपगमः ॥१०॥ इह धर्मम्य परानुपतापमूलत्वात् इच्छाकारस्य आज्ञावलाभियोगलक्षणपरो. पतापकत्वात् पायान्येन प्रथममुपन्यासः। परानुपतापकेनापि च कथंचित्स्खलने करता है कि मुझ पर कृपा करके इसे आप ग्रहण करिये-अपने उपयोग में लाइये उसका नाम छंदना है । पदार्थ प्राप्ति के पहिले ही जो अन्य साधुजनों से ऐसा कहना कि इस पदार्थ को लाकर मैं तुम्हें दंगा इसका नाम निमंत्रणा है। उक्त च करके (पुञ्चग्गहिएण) इत्यादि गाथा द्वारा यही बात कही गई है। श्रुनादिके अर्थ को सीखने के लिये में आपका ही हूँ इस प्रकार से अन्य साधु आदि की आधीनता स्वीकार करना इसका नाम उपसंपत् है। धर्म परानुपतापमूलक होता हैअर्थात् धर्म वही है कि जिस से-किसी भी प्राणी को कष्ट न हो। इच्छाकार इसी प्रकार का धर्म है। क्योंकि इसमें जिनव्रतादिकों को आचरण करने की इच्छा की जाती है उसमें पर की आज्ञा और यला. मियोग काम नहीं करता है। क्योंकि इन से दूसरे प्राणियों को संताप છે-“કૃપા કરીને આપ આ આહારદિને ગ્રહણ કરે અને તેને ઉપયોગ કરે.” આ પ્રકારની સાધુ સમાચારીનું નામ છંદના છે.
નિમંત્રણ–પદાર્થની પ્રાપ્તિ થયાં પહેલાં કઈ પણ સાધુને કઈ પણ અન્ય સાધુ દ્વારા એવું જે કહેવામાં આવે છે કે અમુક પદાર્થ વારી લાવીને હું આપને આપીશ, આ પ્રમાણે કઈ પણ વસ્તુ લાવી આપવાને भाव छ तम 3 तेन नाम निभा छे. "पुव्वग्गहिएण" त्यात સૂત્રપાઠ દ્વારા આ વાત જ પ્રકટ કરવામાં આવી છે.
S५५त्-श्रुतानि भय पाने माटे " आपने। १ छु'," આ પ્રકારનાં વચનો દ્વારા અન્ય સાધુની આધીનતાને સ્વીકાર કરે તેને નામ ઉBસંપનું છે.
ધર્મ પરાનુ તાપમૂલક હોય છે. એટલે કે ધર્મ તેને જ કહી શકાય કે જેના દ્વારા કઈ પણ પ્રાણીને કષ્ટ ન થાય ઇચ્છાકાર એજ પ્રકારનો ધર્મ છે, કારણ કે તેમાં જે પ્રતાદિકનું આચરણ કરવાની ઈચ્છા કરાય છે, તેમાં અન્યની આજ્ઞા અથવા બળજબરી ચાલી શકતી નથી, કારણ કે એવી આજ્ઞા
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अनुयोगद्वारसूत्रे मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमिति तदनन्तरं मिथ्याकारस्योपन्यासः । एतौ य गुरुवचनपतिपत्तावेव ज्ञातुं शक्यौ, गुरुवचनं च तथाकारकरणेनैव सम्यक् प्रतिपन्नं भवतीति तदनन्तरं तथाकारस्योपन्यासः । गुरुवचनं स्वीकृत्यापि शिष्य उपाश्रयाद् बहिनिर्गमनकाले गुरुं पृष्ट्वैव निर्गच्छन्, अतस्तथाकारानन्तरं गुरुपूछारूणया आवइपक्याः कथनम् । बहिनिर्गतः शिष्यो नैपेथिर्क पूर्वकमेनोपाश्रये प्रविशेदिति आवश्यक्या अनन्तरं नैषेधिक्याः कथनम् । उपाश्रये प्रविष्टः साधुगुरुमापृच्छयैव सर्वहोता है या हो सकता है। अतः व्रतादिकों की चाहना में आत्मा की निज इच्छा ही काम करती हैं। इसलिये इच्छाकार में प्रधानता होने से उसका यहां सर्व प्रथम उपन्याप्त किया है। दूसरों को अनुपतापक होने वाले भी गुरुजन द्वारा कथंचित् व्रतादिक से स्खलित होने पर शिष्यादिजनों के लिये मिथ्यादुष्कृत दिया जाता है इसलिये इच्छाकार के बाद में मिथ्या दुष्कृत का पाठ रखा है । इच्छाकार और मिथ्यादुष्कृत ये दोनों गुरुवचनों पर विश्वास रखने पर या उनको स्वीकृति करने पर ही ज्ञातुं शक्य हैं इसलिये गुरुमहाराज के वचनों का स्वीकार किया जाना तथा कार से ही जाना जाता है इसलिये मिथ्याकारके बाद तथाकार का पाठ रखा है । गुरुवचन को स्वीकार करके भी शिष्य का कर्तव्य है कि जब वह उपाय से बाहर जावे तो गुरु से पूछकर ही जावे इस बात को स्पष्ट करने के लिये तथाकार के बाद आवश्यकी અને બળજબરી કરવામાં આવે તે અન્ય અને સંતાપ થાય છે કે થઈ શકે છે. તેથી વ્રતાલિકાની ચાહનામાં આત્માની પિતાની જ ઈરછા કાર્યસાધક બને છે. આ પ્રકારે ઈચ્છાકારમાં પ્રધાનતા હોવાને કારણે અહીં સૌથી પહેલાં ઉછાકારનો ઉપવાસ કરવામાં આવ્યો છે. જ્યારે કોઈ સાધુ કોઈ અકૃત્યનું સેવન કરે છે અથવા વ્રતાદિકનો ભંગ કરે છે ત્યારે અન્ય જીવોને કષ્ટ નહીં આપનારા એવાં ગુરુજને દ્વારા મિથ્યાદુષ્કૃત દેવામાં આવે છે, તેથી ઈચ્છાકારને ઉપન્યાસ કર્યા બાદ મિથ્યાકારને ઉપન્યાસ કરવામાં આવ્યો છે. ઇચ્છાકાર અને મિથ્યાદુષ્કૃત, આ બંનેને સદ્ભાવ ત્યારે જ હેઈ શકે છે કે જ્યારે ગુરુનાં વચને પર શિષ્યને વિશ્વાસ હોય છે. ગુરુના વચનેનો શિષ્ય સ્વીકાર કરે છે, એ વાત તથાકાર વડે જ જાણી શકાય છે. તે કારણે મિથ્યાકાર પછી તથાકારને પાઠ રાખવામાં આવ્યું છે.
ગુરુના વચનને તથાકાર દ્વારા સ્વીકાર કરનાર શિષ્ય ઉપાશ્રયમાંથી કઈ આવશ્યક કાર્ય નિમિત્ત બહાર જવા માટે ગુરુની આજ્ઞા લેવી જોઈએ, એજ વાતને સ્પષ્ટ કરવાને માટે તથાકાર પછી આવશ્યકીને પાઠ રાખવામાં આળ્યો
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४२ सामाचार्यानुपूर्वीनिरूपणम् मनुतिष्ठेदिनि धिक्या अनन्तरभाषच्छनायाः कथनम् । शिविकार्य कर्तुमध्यवसितः पाप्नाझोऽपि शिष्यः कार्यकरासमये गुरुं पुनः पृच्छेदिति गुरोरनुमति प्राप्तुकामः कारणप्रदर्शनपूर्वकं पुनःपृच्छेदिति आच्छनानन्तर मतिपच्छनायाः कथनम् ! सानेपन गुरुगाऽनुज्ञातः शिको स्वसंविधागपाताशनाद्याहारपरिमोगार्थ पर्याय ज्येष्ठक्रमेण साधूनान येदिति प्रतिपच्छनानन्तर छन्दनाया उपन्यासः । का पाठ रखा है। बाहर गया हुआ शिष्य नषेधिकोपूर्वक ही उपाश्रय में प्रवेश करे इस विषय को बनाने के लिये आगळ्यकी के बाद नैवे. धिकी का पाया है। उपाश्रय में प्रविष्ट हुआ शिष्य जो कुछ भी करे वह गुमनहाराज की आज्ञा लेकर ही करे इस विषय को कहने के लिये नेषेधिकी के बाद आप्रच्छना शा पाठ गला है। किमी कर्तव्य कार्य को करने के लिये शिष्य गुरु महाराज से पूछे परन्तु वे यदि उस कार्य को करने की आज्ञा देवे शिष्य नाचात् पुनः आवश्यक कार्य को करने के लिये गुरु महाराज से आवेदन करे और उस कार्य को करने की उनसे आज्ञा प्राप्त करने के लिये पूछे यह संबंध बताने के लिये आप्रच्छना के बाद प्रतिप्रच्छना का पाठ रखा है। गुरु महाराज से आज्ञा प्राप्त कर अशनादिक को लाया हुआ शिष्य उसके परिभोग के विवाद : धुनों को शामिल करे इस बात को
છે. ઉપાશાયરી ( ગયેલા સાધુએ નધિકીપૂર્વક જ ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરવો જોઈએ. એ વાતને પ્રકટ કરે માટે આવશ્યક પાઠ પછી નધિકીને પાઠ ૨ ખવામાં આવ્યો છે. ઉપાશ્રયમાં પ્રષ્ટિ થયેલ શિષ્ય જે કામ કરે તે કામ તેણે ગુરુમારાજની આજ્ઞા લઈને કરવું જોઈએ, એ વાત પ્રકટ કરવાને માટે નૈશ્વિકીના પાઠ પછી આપનાને પાઠ રાખવામાં આવ્યો છે. કોઈ પણ કાર્ય કરવા માટે શિષ્ય ગુરુની આજ્ઞા માગે અને ગુરુ તે કાર્ય કરવાની આજ્ઞા આપે, તે પછી ડીવાર ભીને તેણે ફરીથી કાર્યને આરંભ કરત વખતે ગુરુની ફરીથી આજ્ઞા માગવી તે બતાવવા માટે પ્રતિછના (ફરી પૂછ)ને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે, તે કારણે સૂત્રકારે આકચ્છના પછી પ્રતિષ્ઠાનો પાઠ મૂકે છે. ગુરુ મહારાજની આજ્ઞા લઈને જે આહારાદિ સાધુ લાવ્યો હોય તેના ઉપભેગને માટે અન્ય સાધુઓને માનપૂર્વક બેલાવવા જોઈએ, એ વાતને પ્રકટ કરવા માટે પ્રતિપ્રચ્છના પછી છન્દનાને પાઠ રાખવામાં આવ્યો છે.
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अनुयोगद्वारसूत्रे
छन्दना तु गृहीत एवाशनादौ संभवेत्, अगृहीते तु निमन्त्रणैव, अतच्छन्दनाया अनन्तरं निमन्त्रणाया उपन्यासः । १ गुरूपसत्तिमन्तरेण= गुरुपामीप्यं विना इच्छाकारादिनिमन्त्रणान्ता सर्वाऽपि सामाचारी गुरूपसत्तिमन्तरेण= गुरुसामीप्यं विना न ज्ञायते इति सर्वान्ते उपसम्पद उपन्यासः १ । इति पूर्वानुपूर्वत्वे हेतुर्बोध्यः । उपसंहरन्नाह - सैषा पूर्वानुपूर्वीति । पश्चानुपूर्वी तु उपसम्पदादीच्छाकारान्ता बोध्या । कहने के लिये प्रतिप्रच्छना के बाद छन्दना का पाठ रखा है। गृहीत अशनादिक में ही छन्दना होती है परन्तु जो अगृहीन अशनादिक हैं उनमें तो निमंत्रणा ही होती है। इसलिये छन्दना के बाद निमंत्रणा का पाठ रखा है। इच्छाकार से लगाकर निमंत्रणा तक की जितनी भी सामाचारी हैं वे सब गुरु महाराज की निकटता के विना नहीं जानी जा सकती है इस बात को कहने के लिये अन्त में उपसंपत् का उपन्यास किया है। इस प्रकार इस सामाचारी के पूर्वानुपूर्वीत्व में यह सब हेतु जानना चाहिये ।
( से तं पुत्राणुपु०वी) इस प्रकार यह पूर्वानुपूर्वी है। (से किं तं पच्छापुच्ची) हे भदन्त ! पश्चानुपूर्वी सामाचारी क्या है ?
उत्तर- ( उवसंपया जाव इच्छागारो) उपसंपदा से इच्छाकार पर्यन्त (पच्छाणुपुबी) पञ्चानुपूर्वी है। (से किं तं अणाणुपुब्वी ?) हे भदन्त !
ગૃહીત અશનાદિના વિષષમાં જ છન્દના સભવી શકે છે, પરન્તુ અગ્ર હીત અશનાદિકના વિષયમાં નિમંત્રણા સભવી શકે છે, તે કારણે ઈન્દનાના પાઠ પછી નિમ`ત્રાના પાઠ રાખવામાં આવ્યા છે ઈચ્છાકારથી લઈને નિમત્રણા પન્તની જેટલી સામાચારી છે, તેમને જાણવાને માટે ગુરુની નિકટતાની જરૂર રહે છે, એ વાતને પ્રકટ કરવા માટે સૌથી છેલ્લે ઉપસ’પા ઉપન્યાસ કરવામાં આવ્યા છે. સામાચારીમાં ઇચ્છાકાર આદિ ક્રમે પદોની જે સ્થાપના કરવામાં આવે છે તેનું નામ પૂર્વાનુપૂર્વી છે. આ પદોને આ પ્રકારના ईभ आपवानु' २] ५२ वामां भाव्यु छे. ( से तं पुव्वाणुपुव्वी) આ પ્રકારનું પૂર્વાનુપૂર્વી' સામાચારીનુ સ્વરૂપ છે.
प्रश्न - ( से किं तं पच्छाणुपुव्वी १) हे भगवन् ! पश्चानुपूर्वी साभायरीनु *१३५ ठेवु छे ?
उत्तर - ( वसंस्था जाव इच्छा गारो) उपस पहाथी सईने हरछार पर्यन्तना अवटा उभभां होना उपन्यास (स्थापना) ४२वे । (पच्छाणुपु०वी) તેનું નામ પશ્ચાનુપૂર્વી છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४२ भावानुपूर्वीनिरूपणम्
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तथा - इच्छाकाराद्युपसम्पदन्तानां पदानामन्योऽन्याभ्यासो द्विरूपोनः - आद्यन्तपदद्वयविवक्षामपहाय ये भङ्गास्ते - अनानुपूर्वी बोध्याः । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - सैषा सामाचर्यानुपूर्वीति ॥ १४१ ॥
अथ भावानुपूर्वीमाह—
मूत्रम् - से किं तं भावाणुपुथ्वी ? भावाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वाणुपुच्ची पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी । से किं तं पुव्वाणुपुवी ? पुवाणुपुवी - उदए १, उवसमिए २, खाइए ३, खओवसमिए४, पारिणामिए५, संनिवाइए६, । से तं पुव्वाणुपुथ्वी । से किं तं पच्छाणुपुत्री ? पच्छाणुपुत्री संनिवाइए जाव उदइए । से तं पच्छा पुव्वी । से किं तं अणाणुपुथ्वी ? अणाअनानुपूर्वी क्या है ? (अणाणुपुब्बी) अनानुपूर्वी सामाचारी इस प्रकार से है (एयाए चेव एगोझ्याए उगुत्तरियाए दस गच्छनयाए सेठीए अण्णमन्नभासो दुखवूणो ) इच्छाकार से लेकर उपसंपदा तक के दश पदों का एक एक अधिक संख्या कर के परस्पर में गुणा करना चाहिये और इस प्रकार से जो राशि उत्पन्न होवे उसमें से आदि अन्त के भंग द्वय की विवक्षा को कम कर देना चाहिये । अन्त में जितने भंग बचते हैं उन भंगात्मक यह अनानुपूर्वी सामाचारी होती है। (से तं सामायारी आणुपुत्री) इस प्रकार यह सामाचारी आनुपूर्वी है ॥ ० १४१ ॥
प्रश्न - ( से कि त अणाणुपुब्बी) हे भगवन् ! अनानुपूर्वी साभायारीनु स्व३५ ठेवु छे ?
उत्तर- (अणाणुपुत्री) अनानुपूर्वी साभायारीनु स्व३५ आ अारनु छे(एयाए चेr एगइया एगुत्तरियाए दसगच्छगयाए सेढीए अण्णमन्नभासो दुरूवृणो) ઇચ્છાકારથી લઈને ઉપસ'પદા પન્તના દસ પદોને એક એક અધિક સ’ખ્યા લઈને પરસ્પરમાં ગુડ્ડાકાર કરવા જોઇએ આ પ્રકારે જે રાશિ પ્રાપ્ત થાય તેમાંથી અદિ અને અન્તના બે ભ`ગેાની વિવક્ષા ખાદ કરી નાખવી જોઇએ.
આ છે ભંગા બાદ જતાં જેટલા ભ ંગા ખાકી રહે છે તેટલા ભંગારૂપ આ अनानुपूरी सामायारी डाय छे. (से तं सामायारी आणुपुत्री) साभायारी આનુપૂર્વી નું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ છે. સૂ૦૧૪૧૫
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भनुयोगद्वारस्ये णुपुवी-एयाए चेत्र एगाइयाए एगुत्तरियाए छ गच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूगो। से तं अणाणुपुवी। से तं भावाणुपुवी।सेतंआणुपुवी।आणुपुत्वीति पयं समत्तं ॥सू.१४२॥
छाया-अथ का सो भावानुर्भो ? भावानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञा, तद्यथापूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी । अथ का सा पूर्वानुपूर्वी ? पूर्वानुपूर्वी-औद. यिकः?, औपशमिकः२, क्षायिकः३, क्षायोपशमिकः४, पारिणामिकः५, साभिपातिकः६ । सैषा पूर्वानुपूर्वी । अब का सा पश्चानुपूर्वी ? पश्चानुपूर्वी-सान्निपातिको यावदौदयिकः । सैषा पश्चानुपूर्वी । अथ का सा अनानुपूर्वी ? अनानुपूर्वी-एत. स्यामेव एकादिकायाम् एकोत्तरिकायां पगच्छगतायां श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासो द्विरूपोनः । सैषा अनानुपूर्वी । सैपा भावानुर्वी । सैपा आनुपूर्वी। आनुपूर्वीति पदं समाप्तम् । मू० १४२॥
टीका---' से कि तं' इत्यादि
अथ का सा भावानुपूर्ती ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-भावानुपूर्वीभाषा:भाव्यन्ते विन्त्यं ते पदार्था यैस्ते भावा:-अन्तःकरणपरिणतिविशेषाः। भूयते तेन तेन रूपेणाऽऽत्मना यस्ते भावाः जीपस्य परिणामविशेषा औदयिकादयः, तेषामानुपूर्वी भावानुपूर्वी । सा पूर्वानुपूष्यादिभेदैस्त्रिविधा पज्ञप्ता । तत्र-पूर्वानु
अव सूत्रकार भावानुपूर्वी का कथन करते हैं‘से कि तं भावाणुपुवी ?' इत्यादि
शब्दार्थ-(से किं तं भावाणुपुष्वी ? ) हे भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्त भावानुपूर्वी क्या है?
उत्तर--(भावाणुपुब्धी) भाषानुपूर्वी (तिविहा) तीन प्रकार की (पण्णत्ता) कही गई है। (तं जहा) उसके वे तीन प्रकार ये हैं-(पुवाणु. पुव्वी) १ पूर्वानुपूर्वी (पच्छाणुपुत्री) २ पश्चानुपूर्वी और (अणाणुपुव्वी)
હવે સૂવકાર ભાવાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે" से किं तं भावाणुपुठवी" त्याह
या--(से कि त भावाणुपुवी?) से मापन् ! पूxिt मानुषी नु ११३५ ३ छे.
___ उत्तर-(भावाणुपुबो तिविहा पण्णत्ता-तंजहा) भावानुपूवी नानीय प्रमाणे ३१ २ ४ा छ-(पुवाणुपुञ्ची) (1) पूर्वानुभूती', (पन्छाणुपुष्वी (२) पश्चानुपूरी भने (अणागुपुत्री) (3) मनानुनी.
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४२ भावानुपूर्वीनिरूपणम् पूर्वी-औदायिकः मोपशमिशः क्षायिकः क्षायोपशमिकः पारिणामिकः सान्निपातिश्चेति षट् । औदयिकादिस्वरूपस्य पुरस्ताद वक्ष्यमाणत्वेनात्र तेषां स्वरूप निरूपणं न क्रियते । अत्र शास्त्रे नारकादिगतिरौदयिको भाव इति वक्ष्यते । ३ अनानुपूर्वी । जिनके छारा पदार्थों का विचार किया जाता है उनका नाम भाव है। और ये भाव अन्तःकरण की परिणति विशेषरूप हैं। अथवा आत्मा उम २ रूप से होता है वे भाव हैं। ऐसे वे भाव जीव के परिणाम विशेषरूप हैं। और ये परिणाम विशेष औदयिक आदि रूप होते हैं। इन परिणाम रूप भावों की आनुपूर्वी का नाम भावानुपूर्ण है। (से किं तं पुवाणुपुवी? हे भदन्त ! भावानुपूर्वी का भेद जो पूर्वानुपूर्वी है उसका क्या स्वरूप है अर्थात् वह क्या है ?
उत्तर-- पुज्वाणुपुठी) वह पूर्वानुपूर्वा इस प्रकार से है-(उदइए) औदयिक (उवममिए) औपशमिक (ग्वाइए) क्षायिक (खओवसमिए) क्षायोपशमिक (पारिणामिए) पारिणामिक (संनिवाइए) और सान्निपातिक इन औयिक आदिकों का स्वरूप आगे कहा जायगा, इसलिये यहां उसका स्वरूप निरूपण नहीं किया है। इस शास्त्र में नारकादि रूप चारों गतियां औदायिक भाव रूप से कही जावेगी इसलिये औद
જેમના દ્વારા પદાર્થોને વિચાર કરવામાં આવે છે, તેમનું નામ ભાવ છે. આ ભાવો અન્તઃકરણની પરિતિવિશેષ રૂપ (પરિણામ રૂ૫) હોય છે. અથવા અ ત્મા જે જે રૂપે હોય છે તે તે રૂપનું નામ ભાવ છે. એવાં તે ભાવે જીવના પરિવાર વિશેષ રૂપ હોય છે. અને તે પરિણામવિશેષ ઔદ યિક આદિ રૂપ હોય છે. તે પરિણામો રૂ૫ ભાવની આનુપૂર્વીનું નામ ભાવાનુપૂવી છે.
प्रश्न-(से कि त पुयाणुपुवी?) 3 वन् ! भावानुवी ना २ पा. નુપૂર્વી નામને પહેલે ભેદ છે, તેનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે?
उत्तर-(पुवाणुपुव्वी) ते पूर्वानुनी मा प्रा२नी छे (उदइए) मोहथि, (उवममिए) औ५शमि, (खाइए) क्षायि, (ख भोवसमिण) क्षाया५शभिर, (पारिणामिए) ५ विभि, (संनिवाइर) मने सानिपातिs, भाभे पहोने। ઉપન્યાસ કરે તેનું નામ પૂર્વાનુમૂવી ભાવાનુપૂર છે.
આ ઔદવિક અદિ પદને અર્થ સૂત્રકાર દ્વારા આગળ પ્રકટ કરવામાં આવશે, તેથી અહીં તેમને વરૂપનું નિરૂપ કર્યું નથી. આ શાસ્ત્રમાં નરકાદિ ૩૫ ચાર ગતિઓનું ઔદયિક ભાવ રૂપે પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે તેથી ઔદયિક ભાવ રૂપ નરકાદિ ગતિઓને સદ્ભાવ હોય, તે જ બાકીના
अ० ७९
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अनुयोगशास्र औदायिकभावरूपनारकादिगतो मत्यामेव औपशमिकादयः शेषमावा यथासम्भव मादुर्भवन्तीति शेषभागाधारत्वेन औदयिकस्य प्राधान्यम् । अत एव प्रथमं तदुपन्यासः। ततः शेषाणां पश्चानापवि भावानां मध्ये औपशमिकस्य स्तोकविषयत्वात् स्तोकतया पतिपादयिष्यते शो ची कटाहन्यायेन औदायिकानन्तरमवशिष्टेषु पञ्चसु मध्ये पूर्वमौपशमिकस्योपन्यासः । औपशमिकापेमयाऽधिकविषयत्वात्क्षायिकस्य तदनन्तरमुपन्यासः । ततथ विषयाणां तारतम्यमाश्रित्य क्रमेण क्षायोपशमिकस्य पारिणामिकस्य चोपन्यासः। सानिगतिकमायो हि पूर्वोक्तभावानां द्विकादिसंयोगेन समुत्पद्यते इति सर्वान्ते सान्निपातिकभावोपन्यासः । इयं भावानां यिक भावरूप नरकादि गतियों के होने पर ही शेष औपशमिक आदि भाव यथासंभय उत्पन्न होते हैं । इसलिये शेष भावों का आधारभूत होने से आदधिक भाव में प्रधानता है। इसी कारण उसका सर्वप्रथम सूत्रकारने विन्यार किया है । इस के बाद अवशिष्ट पांचों भावों के बोच में औपशामक भाव स्तोक विषयवाला है इसलिये वह स्वयं स्तोक है इस प्रकार से आगे प्रतिपादित किया जावेगा, अतः सूचीकटाहन्याय से औदायिक के अनन्तर अवशिष्ट पांन भावों के बीचमें से पहिले औपशमिक का पाठ किया गया है। औपशमिक की अपेक्षा अधिक विषयवाला होने से क्षायिक का पाठ औपशमिक के बाद किया गया है। इस के अनन्तर विषयों की तरतमता का पाश्रय करके क्रम से क्षायोपशमिक और पारिणामिक का पाठ किया गया है । इन पूर्वोक्त भावों के विकादि संयोग से सान्निपातिक भाव उत्पन्न होता है इसलिये ઔષશમિક આદિ ભાવ ઉત્પન થઈ શકે છે આ પકારે બાકીના ભાવના આધાર રૂપ હેવાને લીધે દયિક ભાવમાં પ્રધાનતા છે. તેથી જ સૂત્રકારે તેનો વિન્યાસ સૌથી પહેલાં કર્યો છે–એટલે કે તેને સ ી પહેલું સ્થાન આપ્યું છે. બાકીના પાંચ ભામાને ઔપશમિક ભાવ તેક (અ૫) વિષયવાળ હોવાથી તે પિતે જ સ્તક છે. (આ વાતનું સૂત્રકાર આગળ પ્રતિપાદન કરશે) તેથી સૂચીકટાહ ન્યાયે ઔદયિક ભાવ પછી પથમિક ભાવને મૂકવામાં આવ્યું છે. ઔપશમિક ભાવ કરતાં અધિક વિષયવાળો હેવાને કારણે ક્ષાવિકભાવને પશમિક ભાવ પછી મૂકવામાં આવેલ છે. વિષયની અધિકારતા અને અધિકતમતાને કારણે ક્ષાયિક ભાવ પછી અનુક્રમે ક્ષાપથમિક અને પરિણામિક ભાવને મૂકવામાં આવ્યા છે. આ પૂર્વોક્ત ભાવના દ્વિસંગ આદિથી સાન્નિપનિક ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી સૌથી છેલ્લા
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सुबोगन्द्रिका टीका सूत्र १४२ भावानुपूर्वीनिरूपणम् पूर्यानुपूर्वी। सैषा पूर्वानुपूर्वी ति। पश्चानुपूर्वा तु सानिपातिकाधौदयिकान्ता बोध्या। तथा-औदयिकादि सान्निपातिकान्तानां पण्णां पदानामन्योन्याभ्यासो द्विरूपोन:-आधन्तपदद्वयविवक्षामपहाय ये भङ्गास्तदात्मिकाऽनानुपूर्वी बोध्या। सब के अन्त में सानिपातिक भाव का उपन्यास किया गया है। (से तं पु०) इस प्रकार यह भावों की पूर्वानुपूर्वी है। (से किं तं पच्छाणुपुन्वी) हे भदन्त ! पश्चानुपूर्वी क्या है ? (पच्छाणुपुव्वी) पश्चानुपूर्वी इस प्रकार से है-(संनिवाइए जाव उदइए) सान्निपातिक भाव से लेकर
औदयिक भाव तक पश्चानुपूर्वी है। (से तं पच्छाणुपुवी) यही पूर्वप्रका. न्त भावों की पश्चानुपूर्वी है । (से किं तं अणाणुपुव्वी?) हे भदन्त ! भावों की अनानुपूर्वी क्या है ? (एपाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छ गच्छगयाए से ढोए अन्नमन्नन्भासो दुरूवूगो) औदयिकादि सान्निपातिकान्त छह पदों को परस्पर में गुणा करना और गुणित राशिरूप भागों में से आदि अन्त के पदय की विवक्षा को कम करना इस प्रकार जो भंग बचते हैं उन भंग स्वरूप यह भावो की (भणाणु पु०) अनानुपूर्वी है । (से तं अणाणुपुव्वी) यही पूर्वप्रक्रान्त अनानुपूर्वी है। (से तं भावाणुपुव्वी) इस प्रकार यह भावानुपूर्वी है । (से तं आणुपुव्वी) सन्निपातिमापन उपन्यास ४२वामा मान्य छे. (से तं पुवाणुपुव्वी) मा પ્રકારની આ ભાવની પૂર્વાનુમૂવી છે.
प्रश्न-(से किं तं पच्छाणुपुत्री ?) भगवन् ! मावानुवा नी पश्चानुपू. વનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(पच्छाणुपुली) ५श्वानुपूतान २१३५ मा प्रा२नु छ-(संनिवाइए जाव उदइए) पूरीनुपूची ३२dian भना-मेट, सान्निति माथा લઈને ઔદયિકભાવ પર્યાના–ભાવે ને પશ્ચાતુર્થી કહે છે.
प्रश्न-(से कि त अणाणुपुव्वी?) 3 भगवन्! सावनी मनानुपूवान સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छ गन्गयाए सेढीए अन्नमन्नमासो दुरूवूणों) मौयिउथी / सान्निति ५-तना छ पहानी ५२९५૨ની સાથે ગુણાકાર કરો, અને તેને લીધે જે રાશિરૂ૫ ભાંગાઓ આવે તેમાંથી આદિ અને અન્તના બે ભાંગાઓ બાદ કરવા થી જે ભાંગ બાકી २९ छे, ते मांगा। ३५ (अणोणुपुत्री) अनानुपू सभापी.
(से त भावाणुपुव्वी) मा मनी भावानुभूती डाय छे (से त आणुકુદકી) આ પ્રકારે નામાનુપૂર્વીથી લઈને ભાવાનુપૂવ પર્યન્તની દસે આપએના રૂપનું નિરૂપણ અહીં પૂરું થાય છે, એ વાત સૂચિત કરવા માટે
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अनुयोगद्वारा प्रकृतमुपसंहरन्नाह-सैषा भावानुपूर्तीति । नामानुपूादि भावानुपूर्व्यन्ता दशाऽप्यानुपूर्व्यः समुद्दिष्टा इति मूयितुमाह सैपा आनुपूर्वीति । इत्थमुपक्रमस्थ आनुपूर्णा नामकः प्रथमो भेदः समुद्दिष्ट इति सूचयितुमाह-आनुपूर्वीति पदं समाप्तमिति ॥सू० १४२॥
सम्मत्युपक्रमस्य नामाभिधेयं द्वितीयं भेदं पारख्यातुमाह
मलम्-से किं तं णामे ? णामे दसविहे पण्णते, तं जहाएगणामे, दुणामे तिणाम, चउगामे, पंचणामे, छणामे, सत्तणामे, अढणामे, नवणामे, दतगामे ॥सू०१४३॥ छाया-अथ किं तन्नाम? नाम दशविधं पज्ञप्तम्, तद्यथा-एकनाम, द्विनाम, त्रिनाम, चतुर्नाम, पश्चनाम, षण्णाम, सप्तनाम, अष्टनाम, नवनाम, दशनाम ॥मू०१४३॥
टीका-' से किं तं ' इत्यादि
शिष्यःपृच्छति-अथ किं तन्नाम ? इति । उत्तरयति-नाम-जीवगतज्ञानादिपर्यायाजीवगतरूपादिपर्यायानुसारेण प्रतिवस्तुभेदेन नमति तदभिधायकत्वेन वर्तते यहां तक नामानुपूर्वी से लेकर भावानुपूर्वी तक जो दश आनुपूर्वियां हैं वे सब प्रतिपादित हो चुकी इसकी सूचना के लिये मत्रकारने " से तं आणुपुव्वी" यह कहा है। (आणुपुचीतिपयं समत्त) इस प्रकार यहां तक उपक्रम का यह आनुपूर्वी नाम का प्रथम भेद कथित हो चुका अर्थात् समाप्त हुआ॥स०१४२॥
अब सूत्रकार उपक्रम का जो द्वितीय भेद नाम नाम का है उसकी व्याख्या करने के लिये कहते हैं कि-"से किं तं णामे ?" इत्यादि।
शब्दार्थ - (से किं तं णामे) हे भदन्त ! पूर्वप्रकान्त नाम क्या है ? (णामे दसविहे पण्णत्ते) सूत्रमारे “से त' आणुपुत्री” मा :२ने। सूत्र५४ भूये। छे (आणुपुवीतिपयं समत) मा प्ररे ७५मना भानुभूती नामना प्रथम मनु नि३५ मही समास थाय छे. ।।सू०१४२॥
ઉપકમને બીજો ભેદ “નામ” છે હવે સૂત્રકાર તે નામનું નિરૂપણ કરે છે"से कि त णामे ?" त्याह
शहा-(से कि त णामे ?) 3 भगवन् ! 643मना भी २ ३५ નામ શું છે?
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४३ 'नाम' स्वरूपनिरूपणम् इति नाम-वस्वभिधानमित्यर्थः । उक्तंच
"जं वत्थुणोऽभिहाणं पज्जयभेयाणुसारि तं णामं ।
पइभेअं जं नमई. पइभेयं जाइ जं भणिअं" ॥१॥ छाया-यद्वस्तुनोऽभिधानं, पर्ययभेदानुसारि तन्नाम ।
प्रतिभेदं यन्नमति, प्रतिभेदं याति यद् भणितम् ।।इति।। एवंविधमिदं नाम दशविधं प्रज्ञप्तम् । दशविधत्वमाह-तद्यथा-एकनाम द्विनाम त्रिनामेत्यादि । तत्र-येन केन एकेनापि सता नाम्ना सर्वेऽपि विवक्षितपदार्था अभिधातुं शक्यन्ते, तदेकनाम बोध्यम् । एवं याभ्यां द्वाभ्यां नामभ्यां सर्वेऽपि
उत्तर - यह नाम दश प्रकार का कहा गया है । जीवगत ज्ञानादिक पर्यायों और अजीवगत रूपादिक पर्यायों के अनुसार जो प्रतिवस्तु के भेद से नमता है - झुकता है - अर्थात् उनका अभिधायकवाचक होता है वह नाम है । उक्तंच-करके " जं वत्थुणोऽभिहाणं" इत्यादि गाथा द्वारा यही नाम शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट की है। (तं जहा) नाम के दस प्रकार ये हैं -(एगणामे दणामे तिणामे च उणामे,पंचणामे, छणामे, सत्तणामे, अट्ठणामे 'नवणामे, दसणामे ) एक नाम, दो. नाम, तीन नाम, चार नाम, पांच नाम, छह नाम, सात नाम, आठनाम, नौ नाम, और दश नाम ! जिस एक नाम से समस्त पदार्थों का कथन हो जाता है यह एक नाम है। जैसे सत्, सत् इस नाम से समस्त पदार्थों का युगपत् कथन हो जाता है क्यों कि ऐसा कोई भी पदार्थ
___उत्तर-(गामे दसविहे २ण्णत्ते) ते नाना ६५ प्र.२ ४ा छ त જ્ઞાનાદિક પર્યાયે અને અવગત રૂપાદિક પર્યાયે પ્રમાણે જે પ્રત્યેક વસ્તુના ભેદથી નમે છે–મૂકે છે-એટલે કે તેમનું અભિધાયક (વાચક) હોય છે, તેનું नाम “ नाम" छे. “जं वत्थुणोऽभिहाणं " .याहि गाथा द्वारा 'नाम' શબ્દની ઉપર પ્રમાણેની વ્યુત્પત્તિ જ પ્રકટ કરવામાં આવી છે.
(तंजहा) नामना इस प्रा। नीचे प्रमाणे छ-(एगणामे, दुणामे, तिणामे, चउणामे, पंचणामे, छणामे, प्रत्तणामे, अदृणामे, नवणामे, दसणामे) (१) नाम, (२) ये नाम, (3) १ नाम, (४) या२ नाम, (५) पांय नाम, (९) छ नाम, (७) सात नाम, (८) मा नाम, (6) नव नाम भने (१०) ४स नाम.
२ मे नामथी समस्त पहातुं यन य छे, ते " नाम"
छ. २म है " सत्" " सत्" मा नामया समस्त पार्नु साये કથન થઈ જાય છે, કારણ કે એ કોઈ પણ પદાર્થ નથી કે જે આ સત
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सुयोग
विवक्षितपदार्था अभिधातुं शक्यन्ते तद् द्विनाम । तथा यैस्तु विनियमि सर्वेऽपि विवक्षितपदार्था अभिधातुं शक्यन्ते तत् त्रिनाम । एवं रीत्या चतुर्नामादिदशनामान्तविषयेऽवि बोध्यम् ०१४३ ।।
तत्रोद्देशक्रमेण निर्दिशन् प्रथममेकनामस्वरूपं निर्दिशति -
मूलम् - से किं तं एगणामे ? एगणामे - णामाणि जाणि काणि वि, दत्राण गुणाण पज्जवाण च । तेसिं आगमनिहसे, नामनि परूविया सण्णा ॥ १ ॥ से तं एगणा मे ॥ सू० १४४॥
छाया - अथ किं तदेक नाम ? एकनाम-नामानि यानि कान्यपि द्रव्याणां गुणानां पर्याणां च । तेषामागम निकषे-नामेति प्ररूपिता संज्ञा । तदेव - देकनाम ||० १४४||
टीका – 'से किं तं' इत्यादि
अथ किं तदेकनाम ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति - एकनान - एकं सद् नामेति विग्रहः । तत्स्वरूपमेवाह - ' णामाणि जाणि ' इति गाथया । अयं भावः = द्रव्याणां= नहीं है जो इस सत् नाम रहित हो। अतः सत् यह एक नाम है । इसी प्रकार जिन दो नामों से समस्त विवक्षित पदार्थ अभिधातुं शक्य होते हो वह दो नाम है । तथा जिन तीन नामों से समस्त विवक्षित पदार्थ कहने में आ जाते हों वह त्रि नाम हैं। इसी प्रकार से चतुर्नामादि से लेकर दशनाम तक के विषय में भी जानना चाहिये । सू० १४३॥
उद्देश क्रम से निर्देश करने वाले सूत्रकार सर्व प्रथम एक नाम के स्वरूप का कथन करते हैं- " से किं तं एगणामे ?" इत्यादि ।
शब्दार्थ - (सेतिं गणा मे) हे भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्त एक नाम क्या है ? નામથી રહિત હોય તેથી ‘સત્' એક નામરૂપ છે. એજ પ્રમાણે જે એ નામાથી સમસ્ત વિવક્ષિત પદાર્થોનું કથન થઇ જાય છે, તેમને એ નામ રૂપ સમજવા તથા જે ત્રણ નામેાથી સમસ્ત વિશ્વક્ષિત પર્થોનું કથન છે, તે ત્રણ નામને ત્રિનામ કહે છે. એજ પ્રમાણે ચતુર્નામથી લઈને દસ નામ પન્તના નામના પ્રકાશ વિષે પણ સમજવું. ાસૂ૰૧૪૩॥
થઈ જાય
પૂ`સૂત્રમાં નામના પ્રકારો પ્રકટ કરવામાં આવ્યાં હવે સૂત્રકાર નામના પ્રથમ પ્રકાર રૂપ એકનામના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે.-
66 " से कि त एगणामे ?" त्याहि
शब्दार्थ - (से कि त पगणा मे ? ) हे भगवन् ! पूर्व प्रान्त गोम्नाभ शु છે? એટલે કે એનામનું સ્વરૂપ કેવુ છે ?
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भनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १४४ एकनामस्वरूपनिरूपणम् जीवाजीवभेदानां. गुणानां ज्ञानादीनां रूपादीनां च, तथा-पर्यायाणां नारकत्वादीनामेकमुमकृष्ण त्वादीनां च नामानि अभिधानानि यानि कानिचिल्लोके रूहानि, नयथा-जीवो जन्तुरात्मा पाणीत्यादि, आकाशं नमस्तारापथो व्योमाम्बरमित्यादि । तथा-शानं बुद्धिर्बोध इत्यादि, तथा-रूपं रसो गन्ध इत्यादि, तथानारकस्तियङ्मनुःघ इन्यादि, एकगुणकृष्णो द्विगुणकृष्ण इत्यादि । तेषां सर्वेषामप्यभिधानानाम्-आगमनिकषे-आगम एव निकषः हेमरजतसदृश जीवादिपदार्थरूपपरिज्ञान हेतुत्वात् कषपट्टस्तस्मिन् 'नाम' इत्येवंरूपा संज्ञा-आख्या
उत्तर - (णामाणि जाणि काणि वि. दवाण, गुणाण, पज्जयाण च। तेसिं आगमनिहसे नामति पविया मण्णा"१" से तं एगणामे) एक होकर जो नाम होता है व एक नाम है। इसी का स्वरूप इस गाथा द्वारा सूत्रकार ने कहा है ~~ीर अजीब नेद विशिष्ट द्रव्यों के. ज्ञानादिक गुणों के, रूपादि गुणों के तथा नारकत्व आदि पर्यायों के लोक में जितने भी नाम रूट हैं --- जैसे-जीव-जन्तु, आत्मा' प्राणी इत्यादि, आकाश, नभस तारापथ, व्योमन् (योम) अभ्यर इत्यादि'तथा ज्ञान घुद्धि. बोध इत्यादि, तथा रूप, रस, गंध. इत्यादि तथा नारक तिर्यङ् मनुष्य इत्यादि एक गुण कृष्ण, दो गुण कृष्ण इत्यादि-इन सब अभिधानों की "नाम" ऐसी एक संज्ञा आगम रूप निकष (कसौटी) कही गई है। सो ये सब जीव जन्तु आदि अभिवान एक नामस्व
उत्तर-(णामाणि जाणिकाणि वि, दव्वाण, गुणाण, पज्जवाण च तेसिं आगम निहसे नामंति परूधिया सण्णा ।।१।। से त एगणामे) मे भयन मट કરનારૂં જે નામ હોય છે તેને “એકનામ” કહે છે. તે એકનામનું સ્વરૂપ સૂત્રકારે ઉપરની ગાથા દ્વારા પ્રકટ કર્યું છે. તેનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે
જીવ અજીવ રૂપ ભેદવાળાં દ્રવ્યના જ્ઞાનાદિક ગુણોના, રૂપાદિ ગુણેના, તથા નારકત્વ અદિ પર્યાના લેકમાં જેટલાં નામો રૂઢ (પ્રચલિત) છે, તે બધાં અભિધાનની (નામોની) “નામ' એવી એક સંજ્ઞા આગમ રૂપ નિકા (કસે ટી) કહેવામાં આવી છે. જેમ કે જીવ-જન્તુ, આમા, પ્રાણી
त्याहि. तथा ज्ञान, बुद्धि सोय त्याहि तय नम, त.२१५५, ०यम, म , અંબર ઈત્યાદિ તથા રૂપ, રસ, ગંધ ઈત્યાદિ તથા નારક, તિર્યંચ, મનુષ્ય ઈત્યાદિ એક ગણું કૃ, બે ગણું કૃષ્ણ ઈત્યાદિ આ બધાં અભિધાનની "नाम" मेवी से सजा-माम३५ से1ि- है. तेथी सा જીવ-જનુ આદિ અભિધ નને એક નામ સામાન્યની અપેક્ષાએ “એકના”
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प्ररूपिना व्यवस्थापिता । अयं भावः-सर्वाण्यपि जीवो जन्सुरित्याधमिधानामि मामत्वसामान्यमाश्रित्यकेन नाम शब्देनोच्यन्ते इति। इत्थं च एकेनाप्यनेन नामशब्देन लोकरूढाभिधानानि सर्वाण्यपि वस्तूनि प्रतिपाद्यन्ते इत्येतदेकनामोव्यते। तदेव उपसंहरन्नाह तदेतदेकनामेति ॥मू. १४४॥ सामान्य के आश्रय से एक नाम शन्द से कहे जाते हैं। इस प्रकार एक भी इस नाम शब्द से वस्तुओं के, गुणों के और पर्यायों के जो भी लोक रूढ नाम हैं वे सब" नामत्व" इस एक सामान्य पद से गृहीत हो जाते हैं । इसलिये इस एक भी नाम शब्द से लोकरुढाभिधान वाली मष भी वस्तुग प्रतिपादित हो जाती हैं । अतः एक नाम कहा लाता है । (से तं एगगामे) इस प्रकार यह एक नाम है।___ भावार्थ- एक नाम क्या है इस जिज्ञासा का समाधान करने के निमित्त मूत्रकार ने यहां उसी का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने सम. शाया है की जितने संसार में द्रव्यों के, पर्यायों के और गुणों के लोक रूढ नाम हैं-यद्यपि वे सब जुदे २ हैं । फिर भी नामत्व सामान्य के आ. श्रयभूत होने के कारण वे सय एक ही हैं । इस प्रकार नामत्व सामान्य की दृष्टि से ये सब नाम एक है-क्यों कि जितने अभिधानरूप व्यक्ति हैं उन सब में नामत्व रूप सामान्य रहता है। यही बात आगमरूप શબ્દ દ્વારા પ્રકટ કરવામાં આવે છે આ રીતે એક પણ આ નામ વડે-શબ વડે–વસ્તુઓના ગુણેનાં અને પર્યાનાં જે નામે લેકમાં રૂઢ થયેલા હોય છે, તે બધાંને “ નામવ” આ એક સામાન્ય પદ વડે ગ્રહણ કરી શકાય છે. તેથી આ એક નામ શબ્દથી પણ લેકમાં રૂઢ એવા અભિધાનવાળી બધી पतु प्रतिपाति / लय छे. तेथी तेने में नाम ४ छे. (सेत एगणामे) मा १२नु नामनु ११३५ छ
मापाथ-सूत्ररे मा सूत्रमi, · नाम शु " l प्रश्रनु સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે. તેમણે આ સૂત્રમાં એ વાત સમજાવી છે કે સંસારમાં દ્રવ્યોનાં. પર્યાનાં અને ગુણેનાં જેટલાં લેકરૂઢ (લેકમાં પ્રચલિત) નામ છે, તે નામો જે કે જુદાં જુદાં છે, છતાં પણ નામ સામાન્યના આશ્રયભૂત હોવાને કારણે તેઓ સૌ એક જ છે. આ રીતે નામત્વ સમાન્યની દષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે છે તે બધાં નામો એકનામ રૂપ જ છે, કારણ કે જેટલા અભિધાન રૂપ પદાર્થો છે, તે સઘળા પદાર્થોમાં નામત્વ રૂ૫ સામાન્યને સદ્દભાવ રહે છે, એજ વાત આગમ રૂપ કીની ઉપમા દ્વારા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् ६३३
मूलम् -से किं तं दुनामे ? दुनामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाएगवखरिए य अगक्ख रिए च । से किं तं एगखरिए ? एगक्वरिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-ही, सी, धी, थी, । से तं एगवखरिए। से किं तं अगेगक्खरिए ? अणेगक्खरिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-कन्ना वीणा लया माला । से तं अणेग
खरिए। अहवा-दुनामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जीवनामे य अजीवनामे य । से किं तं जीवनामे ? जीवनामे अणेगविहे पण्णते, तं जहा-देवदत्तो जगणदत्तो विण्हुदत्तो सोमदत्तो । से तं जीवनामे । से किं तं अजीवनामे ? अजीवनाम अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा घडो पडो कडो रहो । से तं अजीवनामे । अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा विसेसिए य अविसेसि. ए य। अविससिए दवे, विसेसिए जीवदव्वे अजीवदव्वे य । अविसेसिए जीवदव्वे, विससिए णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुकसौटी से प्रसिद्ध की गई है। यहां पर आगम को जो कसोटी की उपमा दी गई है उसका कारण यह है कि जिस प्रकार हेम रजत आदि के वास्त. विक स्वरूप का परिज्ञान निकषपट से होता है उसी प्रकार हेम रजत के साश जो जीवादि पदार्थ हैं उन के स्वरूप का परिज्ञान शास्त्र-आगम -से ही होता है। अतः उनके स्वरूप के परिज्ञान का हेतु होने से आगम को यहां सूत्रकार ने निकष की उपमा से उपमित किया है।०१४४। વ્યક્ત કરવામાં આવી છે. અહી આગમને કટી ઉપમા દેવાનું કારણ એ છે કે જેવી રીતે સે નું, ચાંદી આદિના વાસ્તવિક સ્વરૂપનું પરિણાન નિષપટ્ટ (કસોટી કરવાનો પથ્થર) વડે થાય છે, એ જ પ્રમાણે સોનાચાંદી જેવાં જીવાદિ પદાર્થો છે તેમના વાસ્તવિક સ્વરૂપનું પરિણાન આગમ (શાસ્ત્ર) વડે જ થાય છે. તેથી તેમના સ્વરૂપના પરિજ્ઞાનના હેતુભૂત હોવાને કારણે સૂત્ર કારે આગમને અહીં નિકલ (કલેટી પથરની ઉપમા આપી છે સૂ૦૧૪જા
अ०८०
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अनुयोगडाबरे स्से देवे। अविससिए णेरइए, विसेसिए रयणप्पहाए सक्करप्पहाए वालुअप्पहाए पंकप्पहाए धूमप्पहाए तमाए तमतमाए। अविसेसिएरयणप्पहापुढवीणेरइए, विससिए पजत्तए य अपजत्तए य । एवं जाव अविसेसिए तमतमापुढवी नेग्इए, विसेसिए पजत्तएय अपज्जत्तए य । अविलेसिए तिरिक्ख जोणिए, विससिए एगिदिए बेइंदिए तेइंदिए चउरिदिए पंचिदिए । अविससिए एगिदिए, विसेसिए पुढविकाइए आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणस्तइकाइए । अविसेसिए पुढविकाइए, विससिए सुहुम पुढविकाइए य बादरपुढविकाइए य। अविससिए सुहुमपुढविकाइए, विसेसिए पज्जत्तयसुहुमपुढविकाइए य अपज्जतयसुहुमपुढविकाइए य। अविसेसिए य बादरपुढविकाइए, विसेसिए पज्जत्तयबादरपुढविकाइए य अपज्जत्तयवादरपुढविकाइए य। एवं आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणस्सइकाइए अविसेसिए, विसेसिए य पज्जत्तय अपज्जत्तय भेएहिं भाणियत्वा । अविससिए बेइंदिए, विसेसिए पजत्तय बेइंदिए य अपज्जत्तय बेइंदिए य।एवं तेइंदियचाउरिदियावि भाणियव्वा । अविससिए चिंदियतिरिक्खजोणिए,विससिए जलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिए खहयरपंचिंदियतिरिक्खजाणिए । आविसेसिए जलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए विप्लेसिए संमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए य गब्भवक्कंतियजलयरपंचिदियतिरिक्खजोगिए य। अविसेसिए संमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए, विससिए पज्जत्तयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्ख
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् जोगिए य। अपज्जतयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य। अविप्लोमिए गम्भवकंतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए, विससिए पज्जत्तयगम्भवतियजलयरपंचिदियतिरिक्ख जोणिए य, अपज्जत्तगभवतिजलयरपंचिंदियतिरिक्खजो. णिए य । अविससिए थलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणिए, विससिए चउप्पयथलयरपंथिदिनिरिक्ख जोणिए य परिसप्पथलयरपंचिं. दियतिरिक्ख जोणिए व अविसेसिए चउपयथलयरपंचिंदियति. रिक्खजोगिए,विससिए सम्मुच्छिमच उप्रयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोगिए य गम्भवतियवउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोगिए य। अविससिए सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरि. क्ख जोणिए, विसेसिए पज्जत्तयसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य अपज्जत्तयसमुच्छिमच उप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणिए य। अविससिए गभवतियच उपयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए, विसेमिए पज्जत्तयगम्भवक्ततियच उप्पयथलयरपंचिंदियतिरिख जोणिए य अपज्जत्तयगब्भवक्रतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्वजाणिए य । अविसेसिए परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए, विससिए उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्लोणिए य भुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिवाखजोणिए य। एए वि सम्मुच्छिता एज्जत्तगा अपज्जत्तगा य, गब्भननिया वि पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य भागियव्वा ।
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अनुयोगद्वारसूत्र अविसेसिए खहयरपंचिदियतिरिकाखजोणिए, विससिए सम्मुच्छिमखहयरपंचिदियतिरिक्वजोणिए य गम्भवतियखहयरपंचिदियतिरिक्खजोगिए य। अविससिए समुच्छिमखहयरपांचदियतिरिक्ख जोगिए, विसेलिए पज्जत्त यसमुच्छिमखहयरपंचिं. दियतिरिक्खजोगिए य अपज्जत्तयसमुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्ख जोगिए य । अविलेसिए गभवतियवहारपंचिंदियति. रिक्ख जोगिए, विससिए पज्जतयगम्भवतियखहयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणिए य अपज्जत्तयगम्भवतियख हयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए य। अविसेसिए मणुस्ते, विसेसिए संमुच्छिममणुस्से गन्भवत्तियमणुस्से। अविसेसिए संमुच्छि प्रमणुस्मे, विसेसिए पज्जत्तगसंमुच्छिममणुस्ते य अपजत्तममुच्छिममणुस्से य। अविसेसिए गब्भवतियमणुस्से, विसेसिए कम्मभूमिओ य अकम्मभूमिओ य अंतरदीवओ य संखिजवासाउय असंखिज्जवासाउय पज्जत्तापज्जत्तओ। अविसेसिए देवे विसेसिए भवणवासी वाणमंतरे जोइसिए वेमाणिए य। अविप्लेसिए भव. णवासी, विसेमिए असुरकुमारे नागकुमार सुवण्णकुमारे विज्जुकुमारे अग्गिकुमारे दीवकुमारे उदहिकुमारे दिसीकुमारे वाउकुमारे थणियकुमारे। सब्वेसिपि अविसेसियविसेसिय पजत्तग अपज्जत्तगभेया भाणियव्वा । अविससिए वागमतरे, विसेसिए पिसाए, भूए, जक्खे, रकानसे, किन्नरे, किंपुरिमे, महोरगे, गंधब्बे, एएसि पि अविसेसियविससियपज्जत्तयअपज्जत्तयभेया भाणि
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् यत्वा। अविससिए जोइसिए, विसेसिए चंदसूरे गहगणे नक्खत्ते तारारूवे। एएसि पि अविसेसियविसेसियपज्जत्तय अपज्जतय. भेया भाणियव्या आविसमिए वेमाणिए, विससिए कप्पोवगे य कप्पातीयगे य । अविसेसिए कप्पोवगे, विसेसिए सोहम्मए ईसा. णए सणंकुमारए माहिंदए बंभलोए लंतयए महासुक्कए सहस्सारए आणयए पाणयए आरणए अच्चुयए। एएसिपि अविसेसियविसेसियपज्जत्तगअपज्जत्तगर्भया भाणियव्वा। अविसे. सिए कप्पातीयए, विसेसिए गेवेज्जगे य अणुत्तरोववाइए य अविसेसिए गेवेजए, विसेसिए हेट्रिमे, मज्झिमे, उवरिमे। अविसेसिए हेडिमगेवेजए, विसेसिए हेटिमटिमगेवेज्जए, हेट्टिम मज्झिमगेवेजए, हेट्ठिम उवरिमगेवेज्जए। अविसेसिए मज्झिमगेविजए, विसेसिए मज्झिमहेट्रिमगेवेज्जए, मज्झिममज्झिमगेवेजए, मज्झिम उवरिमगेवेज्जए। अविसेसिए उवरिमगेवेजए, विसेसिए उवरिमहेटिमगेवेजए उवग्मिमझिमगेवेज्जए उवरिम उवरिमगेवेज्जए य। एएसिपि सव्वेसि अविसेसियविससियपज्जत्तगापज्जत्तगभेया भाणियव्या। अविससिए अणुत्तरोव. वाइए, विसेसिए विजयए वेजयंतए जयंतए अपराजियए सम्वसिद्धए य। एएसिपि सव्वेसिं अविसेसियविसेसियपज्जत्तगापाजगभेया भाणियवा। अविससिए अजीवदवे, विसेसिए धम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए य। अविसेसिए पोग्गलस्थिकाए, विसेसिए
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अनुयोगद्वार परमाणुपोग्गले दुप्पएसिए तिप्पएसिए जाव अणंतपएसिए य। से तं दुनामे ॥सू०१४५॥
छाया-अथ किं तद् द्विनाम ? द्विनाम द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा- एकाक्षरिकं च अनेकाक्षरिकं च । अथ किं तदेकाक्षरिकम् ? एकाक्षरिकम् अनेकविध मज्ञप्तम् , तद्यथा-हीः श्रीः धीः स्त्री। तदेतदेकाक्षरिकम् । अथ तदनेकाक्षरिकम् ? अनेकाक्षरिकमनेकविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-कन्या वीणा लगा माला। तदेतदनेका. क्षरिकम् । अथवा-द्विनाम द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा जीवनाम च अजीवनाम च। अथ किं तद् जीवनाम ? जीवनाम अनेकविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-देवदत्तो यज्ञदत्तो विष्णुदत्तः सोमदत्तः । तदेतद् जीवनाम । अथ किं तदजीवनाम ? अजीवनाम अनेकविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-घटः पटः कटो स्थः। तदेतदजीवनाम । अथवाद्विनाम द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-विशेषितं च अविशेषितं च । अविशेषितं द्रव्यम् , विशेषितं जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं च । अविशेषितं जीवद्रम् , विशेषितम्-नैरयिका, तिर्यग्योनिका, मनुष्यो देवः। अविशेषितम् नैरयिकः, विशेषितम् रत्नप्रभाकः, शर्करामभाको, वालुकापभाकः, पङ्कपभाको, धूमप्रभाकः, तमस्का, तमसमस्कः। अविशेषितम्-रत्नपभापृथिवीनैरयिकः, विशेषितम्-पर्याप्तकश्च अपर्याप्तकश्च । एवं यावत् अविशेषितम्--तमस्तमः पृथिवी-नरयिको, विशषितम्-पर्याप्तकश्च अपर्याप्तकश्च । भविशेषतम्-तिग्योनिकः, विशे पतम्-एकेन्द्रियो द्वीन्द्रियस्त्रीन्द्रियश्चतुरिन्द्रियः पश्चेन्द्रियः । भविशे पितम्-एकेन्द्रियः, विशेषितम्-पृथिवीकायिका, अकायिकः, तेजस्कायिका, वायुकायिकः, वनस्पतिकायिकः। अविशेषितम्पृथिवीकायिकः, विशेषितम्--सूक्ष्मपृथिवीकायिकश्च वादस्पृथिवीकायिकश्च । अविशेषितम्-सूक्ष्मपृथिवीशयिका, विशेषितम्-पर्याप्तकमुक्ष्मपृथिवीकायिकश्च अपप्तिकसूक्ष्मपृथिवीकायिकश्च । अविशेषितं च-बादरपृथिवीकायिका, विशेषितम्पर्याप्तकवादरपृथिवीकायिकश्च अपर्याप्तकवादरपृथिवी कायिकच। एवम्-अका. यिकः, तेजस्कायिको वायुकायिको वनस्पतिकायिकः, अविशेषितं विशेषितं पर्याप्त कापर्याप्तकभेदाम्याम्ः भणितव्ये अविशेषितम्-द्वीन्द्रियः, विशेषितम्पर्याप्तकद्वीन्द्रियश्च अपर्याप्तकद्वीन्द्रियश्च । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियावपि भणितव्यो। अविशेषितम्-पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम्-जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः. स्थलचरपश्चन्द्रियतिर्यग्योनिका खेचरपञ्चेन्द्रितिर्यग्योनिकः । अविशेषितम्-जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम्-संमृच्छिमजलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्दियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेषितम्-संमूच्छिमजलचरपत्र
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् न्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम् पर्याप्तक-संमच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च अपर्याप्तकसंमृन्छिमजलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेपितम्-भिव्युत्क्रान्तिकजलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका, विशेषितम्-पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चे. न्द्रियनिर्यग्योनिकश्च अपर्याप्त कगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रिगतिर्यग्योनिाश्च । अविशेपिनम् स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका, विशेषितम्-चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रि पतिर्यग्योनिकश्च परिसर्पस्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेषितम्-चतुपदस्थलचरपञ्चेन्द्रियनिर्यग्योनिकः, विशेषितम्-संमूछिमचतुष्पदस्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपश्चन्द्रियग्योनिकश्च । अविशेषितम्-संमूच्छिमचतुष्पदस्थलचरपश्चन्द्रियतिर्यग्बोनिकः, विशेषितम्पर्याप्तकसंमूच्छिमचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च अपर्याप्तकसमूछिमचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेषितम्-गर्भव्युत्क्रान्तिकचतुपदस्थळचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम्-पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचस्पश्चेन्द्रियति यग्योनिकश्च अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपश्च. न्द्रियतिर्यग्योनिकथ । अविशेषितम्-परिसर्पस्थल वरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेपिनम्-उरःपरिसर्पस्थलचरपश्चेन्द्रियतियंग्योंनिकश्च भुमपरिसस्थिलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकश्च । एतेऽपि संछिमाः पर्याप्तका अपर्याप्तकाच, गर्भव्युत्क्रान्तिका अपि पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च भणितव्याः। अविशेषितम् खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकविशेपितम् संमूच्छिमखेचरपञ्चेन्द्रियनिर्यग्योनिकश्च गर्भव्युन्क्रान्तिकरखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च । अविशेपितम्-संमृच्छिमखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, विशेषितम्-पर्यासकसंमच्छिमखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिमश्च । अपर्याप्तकसंमच्छिमखेचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिमश्च । अविशेपितम्-गर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः विशेषितम् पर्याप्तकगर्भव्यु-क्रान्तिकखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकश्च अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकश्च । अविशेषितम्-मनुष्यः, विशेषितम्-संमच्छिममनुव्यश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यश्च । अविशेषितम्-सम्मृञ्छिममनुष्यः, विशेपितम्-पर्याप्त सम्मूञ्छिममनुष्यश्च अपर्याप्तकसम्मूछि ममनुष्यश्च । अविशेषितम्गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यः, विशेषितम्-कर्मभूमिजश्व अकर्मभूमि नश्व अन्तरद्वीपजश्व, संख्येयवर्षायुष्कः असंख्येयवर्षायुष्कः पर्याप्तकः अपर्याप्तकः। अविशेषितम्-देवः, विशेषितम्-भवनवासी वानव्यन्तरः ज्योतिषिको वैमानिकश्च। अविशेषितम्-भवनबासी,विशेषितम्-अमुरकुमारो नागकुमारः सुपर्णकुमारो विद्युत्कुमारः अग्निकुमारो द्वीपकुमारः उदधिकुमारो दिक्कुपारो वायुकुमारःस्तनितकुमारः। सर्वेषामपि अविशेषितविशेपितपर्याप्तापर्याप्तकभेदा भणितव्याः । अविशेषितवानन्यन्तरः,
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अनुयोगदारी निशेषितम्-पिशाचो भूतो यक्षो राक्षसः किन्नरः किंपुरुषो महोरगी गन्धर्व । एतेषामपि अविशेषितविशेषतपर्यास्तापर्याप्तकभेदा भणितव्याः। अविशेषितम्ज्योतिषिकः, विशेषितम्-चन्द्रः मूर्यः ग्रहगणः नक्षत्रं तारारूपम् । एतेषामपि अविशेषितविशेषितपर्याप्तापर्याप्तकभेदा भणितव्याः। अविशेषितम् वैमानिका, विशेषितम्-कल्पोपगश्व कल्पानीतकश्च । अविशेषितम्-कल्पोपगः, विशेषितम्सौधर्मकः ईशानकः सनत्कुमारको माहेन्द्रको ब्रह्मलोकको लान्तकको महाशुक्रक सहस्रारक आनतकः प्राणतकः आरणकः अच्युतकः । एतेषामपि अविशेषितविशेपितपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा भणितव्याः। अविशेषितम्-कल्पातीतकः, विशेषिम्प्रैवे पकश्च अनुतरोपपातिकश्च। अविशेषितम्-वेगकः, विशेपितम्-अधस्तना, मरमा, उपरितनः । अविशेषितम्-अधस्तनौवेयकः, विशेषितम्-अधस्तमाधस्तनप्रैवेयकः, अधस्तनमध्यमग्रैवेयकः, अधस्तनोपरितनगवेयकः। अविशेषितम्-मध्यमौवेयकः, विशेपिम्-मध्यमाधस्तन ग्रेवेयकः, मध्यममध्यमवेयकः, मध्यमोपरि तनोवेयकः। अविशेषितम्-उपरितनवेयकः, विशेषितम्-उपरितनाधस्तनौवेयका, उपरितनमध्यमवेयकः, उपरितनोपरितनग्रैवेयकश्च । एतेषामपि सर्वेषां अविशेषितविशेषितपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा भणितव्याः। अविशेषितम्-अनुत्तरोपपातिकः, विशेषितम्-विजयको वैनयन्तको जयन्तकः अपराजितका सर्वार्थसिद्धकश्च । एतेषामपि सर्वेषाम् अविशेषितविशेषितपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा भणितव्याः। अविशेषितम्-अजीवद्रव्यम् , विशेषितम्-धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः, अद्धासमयश्च । अविशेषितम्-पुद्गलास्तिकायः, विशेषितम्-परमाणुपुद्गलो द्विपदेशिकः त्रिपदेशिको यावदनन्तपदेशिकश्च । तदेतद द्विनाम ॥मू०१४५॥
टीका-'से किं तं' इत्यादि
अथ किं तद् द्विनाम ? इति शिष्यपश्नः । उत्तरयति-द्विनाम-द्विविधं नामद्विनाम । द्विनामत्वादेवेदं द्विपकारकं बोध्यम् । द्विपकारकत्वमेवाह-तद्यथा-एका.
अब सूत्र कार बिनाम की प्ररूपणा करते है"से किं तं दुनामे?" इत्यादि शब्दार्थ-(से कि तं दुनामे) हे भदान! वह दिनाम क्या है ? હવે સૂત્રકાર હિનામના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે– " से किं त दुनामे" त्या:
शा-(से कि त दुनामे ?) 8 साप ! नामना भी ॥२ ३५ विनामनु २१३५ ३ छ ?
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम्
६४१
एकाक्षरिकं च अनेकाक्षरिकं च । तत्रैकाक्षरिक्रम् एकं च तदक्षरं चेति एकाक्षरम्, तेन निर्वृत्तमेकाक्षरिकम्, तद्धि - ही: - लज्जा, श्रीः - लक्ष्मीः, धीः- बुद्धि, इत्यादिकमेकाक्षरिकं द्विनाम बोध्यम् । तथा अनेकाक्षरिकम् - अनेकानि च तान्यक्षराणि-अनेकाक्षराणि तैर्निर्टतमनेकाक्षरिकम्, तद्धि-कन्या वीणा लता मालेत्यादिकमनेकाक्षरिकं द्विनाम बोध्यम् । एवं 'बलाका पत्ताका' इत्यादि ज्याद्यक्षरनिष्पन्नमपि
उत्तर - (दुनामे दुविहे पण्णत्ते) द्विनाम - द्विविधनाम - दो प्रकार का है। यहां द्विनाम का तात्पर्य दो प्रकार के नाम से है। दो प्रकार का जो नाम है वह द्विनाम है (तं जहा) नाम के दो प्रकार ये है - ( एगक्खरिए य अणेगरिए प) एकाक्षरिक और अनेकाक्षरिक एक अक्षर से जो नाम निष्पन्न हो वह एकाक्षरिक नाम है और जो अनेक अक्षरों से निष्पन्न होता है वह अनेकाक्षरिक नाम है । जैसे 'ही' लज्जा, 'श्री' लक्ष्मी, 'घी' बुद्धि, स्त्री, ये सब एकाक्षरिक द्विनाम हैं। कन्या, वीणा, यता, माला ये सब अनेकाक्षरिक द्विनाम हैं । यही बात ( से किं तं एक्खरिए ? एक्खरिए अणेगविहे पण्ण से) तं जहा ही, सी, घी, थी, से तं एगक्खरिए-से किं तं अणेगक्खरिए ? अणेगक्खरिए-अणेगविहे पण्णत्ते - तं जहा - कण्णा, वीणा, लया, माला, से तं अणगक्खरिए) इस सुत्रपाठ द्वारा प्रश्नोत्तर पूर्वक सूत्रकारने प्रदर्शित की है। इसी प्रकार “बलाका पताका" इन तीन अक्षरों से निष्पन्न हुआ नाम
२ - (दुना दुविदे पण्णत्ते) द्विनाभ - द्विविधनाभ मे प्रारनु छे-ही દ્વિનામ પદ એ પ્રકારના અર્થમાં વપરાયું છે. તેથી એ પ્રકારનુ' જે નામ तेनुं नाम द्विनाम छे. (तंजा) नामना से प्रहारो नीचे प्रभाछे- (एक्सरिय अणेगक्खरिए य) (१) अक्षरि भने (२) भनेमाक्ष२ि४ को नाम ठ અક્ષર વડે નિષ્પન્ન થાય છે, તે નામને એકાક્ષરિક નામ કહે છે. અને જે નામ અનેક અક્ષરો વડે નિષ્પન્ન થાય છે, તેને અનેકાક્ષરિક નામ કહે છે.
प्रेम हे "ही" (Arm), “श्री” (तक्ष्मी), “ थी" बुद्धि, 'श्री' यहि अक्षरि द्विनाम छे उन्या, वीया, लता, भाषा, आदि अनेमाक्षरि४ દ્વિનામ છે. એજ વાત સૂત્રકારે આ સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રશ્નોત્તરપૂર્વક પ્રક્રેટ કરી છે(से किं त एगखरिए ? एगक्खरिए भणेगविहे पण्णत्ते, तजहा ही, सी, भी थी, से त एगक्खरिए से किं त अणेगक्खरिए ? अणेगक्खरिए अणेगविहे पण्णत्ते - तजहा कण्णा, वीगा, छया, माला, से त अणेगक्खरिए) भा सूत्रपाठा भावार्थ सुपरवाया है. प्रभा " बलाका,
अ० ८१
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भनु बोगद्वार पोध्यम् । इत्थमेकाक्षरानेकाक्षरेति द्विमकारेण नाम्ना विवक्षितस्य समस्तस्यापि वस्तुजातस्य प्रतिपादनाद् द्विनामेत्युच्यते। द्विरूपं सत् सर्वस्य नामेति द्विनाम। द्वयोर्नाम्नोसमाहार इति पक्षे तु द्विनामेतिच्छाया बोध्या। अथ प्रकारान्तरेण द्विनाम निरूपयति-अथवा-द्विनाम द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-जीवनाम च अजीवनाम चेति । तत्र-देवदत्तयादत्तादिभेदेन जीवनाम अनेकविधम् । तथा-घटपटादिभेदेनाभी अनेकाक्षर निष्पन्न नाम में अन्तर्हित जानना चाहिये । इस प्रकार एकाक्षर और अनेकाक्षर से निष्पन्न दो प्रकारवाले नाम से, विवक्षित समस्त भी वस्तु समूह का प्रतिपादन होता है इससे दो नाम ऐसा कहा जाता है । “विरूपं सत् सर्वस्य नामेति बिनाम" सर्व का नाम दो रूपवाला होता है। इसलिये वह द्विनाम है। एकाक्षरिक और अने. काक्षरिक ये ही नाम के दो रूप है। " द्वयोः नाम्नोः, ममाहारः इति दिनाम" इस पक्ष में भी दिनाम ऐसी ही छाया जाननी चाहिये। ' अब सूत्रकार प्रकारान्तर से बिनाम का निरूपण करते हैं-(अहवादुनामे दुविहे पण्णत्ते) अथवा-द्विनाम दो प्रकार का प्रज्ञप्त-हुआ है (तं जहा) जसे (जीव नामे य अजीव नामे य) जीव नाम और अजीव नाम (से किं तं जीवनामे ?) हे भदन्त ! जीव नाम क्या है ?(जीवनामे अणेगविहे पण्णत्ते) जीव नाम अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ पताका" मात्र अक्षरा नि०पन्न या नाभन मनाक्ष२ नि0पन नाममा જ સમાવેશ કરવો જોઈએ આ પ્રકારે એકાક્ષર અને અનેકાક્ષર વડે નિષ્પન્ન થતા બે પ્રકારવાળા નામ વડે વિવક્ષિત સમસ્ત વસ્તુસમૂહનું પ્રતિપાદન થાય है, तथा तन दिनाम ३५ वामां आवे छे. “द्वि हां सत् सर्वस्य नामेति द्विनाम' सपनु नाम मे ३५वाणु डाय छ, तथी द्विनाम ३५ छ - क्षरि भने मनाक्षरिश, सामे, नामनां मे ३२॥ छ. " द्वयोः नाम्नोः समाहारः इति द्विनाम" स प प दिनाम' मेवी छाया सभी જોઈએ હવે સૂત્રકાર બીજી રીતે કિનામનું નિરૂપણ કરે છે
(अहवा-दुनामे दुविहे पण्णत्ते) अथवा-द्विनाम में प्रश्न - (तजहा) तमे प्रा। नये प्रमाणे छे-( जीवनामे य, अजीवनामे य) (१) पनाम अने (२) १७१ नाम.
प्रश्न-(से किं तं जीवनामे?) 3 लान् ! नाम मेट ?
उत्तर-(जीवनामे अणेगविहे पण्णत्ते) पनामना भने २ ४६॥ छे. (तजहा) २ ...(देवदत्तो जण्णदत्तो विण्हत्तो सोमदत्तो) हेपत्त, यज्ञहत्त, ( त्त, सेभित्त, वगेरे.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४५ द्विनामादिस्वरूपनिरूपणम् ६४३ जीवनामाप्यनेकविधम् । जीवाजीवेति द्वाभ्यां नामभ्यामेव विवक्षितसमस्तपदार्थानां संग्रहाद् द्विनामेत्युच्यते । पुनरेतदेव प्रकारान्तरेणाह-अथवा द्विनाम द्विविधं प्रज्ञ. सम्-अविशेषितं च विशेषितं च । तत्र-अविशेषितं द्रव्यम् । विशेषितं-जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं च । प्रत्ये कमिदमविशेषितविशेषितभेदात् पुनर्भेदान्तराचानेकप्रकारक भवतीति मूलादेव विज्ञेयम् । सौगम्याच मूलस्य व्याख्यान क्रियते । अत्रेदंबोध्यम्है। (तं जहा) जैसे (देवदत्तो जगदत्तो विण्हुदत्तो सोमदत्तो) देवदत्त, यज्ञदत्त, विष्णुदत्त, सोमदत्त आदि । (से किं तं अजीव नामे) वह अजीव नाम क्या है ? (अजीवनामे अणेगविहे पण्णत्ते)
उत्तर- अजीव नाम अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है (तं जहा) जैसे (घडो, पडो, कडो, रहो) घट, पट, कट, रथ, आदि । (से तं अजीव नामे) यह अजीव नाम है । (महवा दुनामे दुविहे पगत्ते) अथवाद्विनाम दो प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। (तं जहा) जैसे (विसेसिए य अविसेसिए य) विशेषित और अविशेषित (अविसेसिए दव्वे विसेसिए जीवदव्वे अजीवव्वे य) अविशेषित द्रव्य कहलाता है और विशेषित उसके भेद कहलाते हैं । द्रव्य ऐसा नाम अविशेषित द्विनाम है। और द्रव्य दो प्रकार का होता है-१ जीव द्रव्य
और दूसरा अजीव द्रव्य ऐसा नाम विशेषित द्वि नाम है। इनमें जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य ये अविशेषित और विशेषित के भेद से तथा और भी भेदान्तरों से अनेक प्रकार के हो जाते हैं यह यात मूल से
प्रश्न-(से कि त अजीवनामे?) 3 मापन्! नाम से शु
उत्तर-(अजोवनामे अणेगविहे पण्णत्ते) मनामना भने प्र हा छे. (त'जहा) २ ४ (घडो, पडो, कडो, रहो) ५८ ५८, ४८ (२४), २५ पोरे (से त अजीवनामे) मा ५२नुं अपनाम डाय छे. (अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते) अथवा विनामना २ २ ४ा छ. (तजहा) भ .... (विसेसिए य अविसेसिए य) (१) विशषित म२ (२) भविशषित (अविसेसिप दव्वे, विसेसिए जोवदव्वे अजीवदवे य) द्रव्यने विशेषित ३५ वाय मन द्रव्यमा ७१ १ ३५ होने विशेषित उपाय छे. 'न्य' ने નામ અવિશેષિત દ્વિનામ છે. દ્રવ્ય બે પ્રકારનું હોય છે-(૧) જીવ દ્રવ્ય અને (૨) અછવદ્રવ્ય આ જીવદ્રવ્ય અને અજીવદ્રવ્ય રૂપ નામને વિશેષિત હિનામ કહે છે. વળી જીવ દ્રવ્ય અને અજીવ દ્રવ્યના અવિશેષિત અને અવિશેષિત નામના બે ભેદ તથા બીજા પણ ઘણા ભેદ પડતા હોવાથી તે દ્રવ્યના અનેક પ્રકાર હોય છે, આ વાત મૂળ સૂત્રમાંથી જ જાણી લેવી જેમ કે
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अनुयोगद्वार
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तु संमूर्च्छन्ति तथाविधकर्मोदयाद् गर्भमन्तरेणैवोत्पद्यन्ते ते सम्मूर्छिमाः । येषां तु गर्भे व्युत्क्रान्तिः उत्पत्तिस्ते गर्मव्युत्क्रान्तिकाः । परिसर्पन्ति ये ते परिसर्पाः । ते हि - उरः परिसर्प - भुज परिसर्पभेदाभ्यां द्विप्रकाराः । तत्र - उरः परिसर्पाः - सर्पा दयः । भुजपरिसर्पास्तु गोधानकुलादयः । इति । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - तदेतद् द्विनामेति ॥ १४५ ॥
ही जान लेनी चाहिये जैसे- (अविसेसिए जीवदव्वे, विसेसिए जेरइए तिरिक्खजोणिए, मणुस्से देवे) जीव द्रव्य ऐसा नाम अविशेषित द्विनाम है तथा नारक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य, देव ये विशेषित द्विनाम हैं। (णेरइए अविसेसिए) नैरयिक यह अविशेषित द्विनाम है और (turante सक्कर प्पहाए, वालुअप्पहार, पंकपहाए, धूमप्पहाए तमाए, तमतमाए विसेसिए) रत्नप्रभागत नैरधिक, शर्करा प्रभागत नैरयिक, वालुका प्रभागत नैरयिक, पंक प्रभागत नैरग्रिक, धूम प्रभागत नैरयिक, तमः प्रभागत नैरयिक तमस्तमःप्रभागत नैरयिक ये विशेषित द्विनाम हैं। आगे भी इसी प्रकार से सूत्र के अन्त तक प्रत्येक भेद में अविशेषित और विशेषित द्विनाम की योजना कर लेनी चाहिये । सूत्र सुगम होने से आगे के पदों की व्याख्या नहीं की है। संमूच्छिम वे जीव हैं जो तथाविध कर्म के उदय से गर्भ के विना ही उत्पन्न हो जाते हैं। व्युत्क्रान्ति का तात्पर्य उत्पत्ति है। जिन जीवों की उत्पत्ति
( अविसेसिए जीवदव्वे, विसेसिए णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से, देवे ) 'लवद्रव्य' या नाम व्यविशेषित द्विनाम है, तथा नार, तियय, मनुष्य मने देव, આ ચારે વિશેષિત દ્વિનામેા છે.
(इए अविसेखिए ) 'नार' मा नामने ले अविशेषित द्विनाभ - वामां आवे तो ( रयण पहाए, सक्कर पहाए, वालुअ पहाए, पंकपहाए धूमप्प - हाए, तमाए, तमतमाए विसेसिए) रत्नप्रभाना नार, शरायलाना नारड, વાલુકાપ્રભાના નારક, પંકપ્રભાના નારક, ધૂમપ્રભાના નારક, તમઃપ્રભાના નાક, અને તમસ્તમઃપ્રભાના નારકને વિશેષિત દ્વિનામ કહે છે, એજ પ્રકારે સૂત્રના અન્ત સુધીના પ્રત્યેક ભેદમાં અવિશેષિત અને વિશેષિત દ્વિનામની યાજના કરી લેવી જોઈએ સૂત્ર સુગમ હાવાથી પછીનાં પદાની વ્યાખ્યા આપવામાં આવી નથી જે જીવે તથાવિધ કર્મના ઉદયથી ગભ વિના જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે જીવાને સમૂ"િછમ જીવે કહે છે. વ્યુત્ક્રાન્તિ પના અ` · ઉત્પત્તિ ' થાય છે. જે જીવાની ઉત્પત્તિ ગČજન્મથી થાય છે,
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १४६ त्रिनामनिरूपणम् त्रिनाम निरूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं तिनामे ? तिनामे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा दवणामे गुणणामे पज्जवणामे य। से किं दवणामे ? दवणामे छविहे-पण्णत्ते, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवस्थिकाए पुग्गलत्थिकाए अद्धासमए य। से तं दवनामे। से किं तं गुणनामे ? गुणनामे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-वण्णणामे गंधणामे रसणामे फासणामे संठागणामे । से किं तं वण्णणामे? वण्णणामे पञ्चविहे पण्णत्ते, तं जहा-कालवण्णणामे नीलवणणामे लोहियवण्णनामे हालिद्दवपणनामे सुकिल्लवण्णनामे । से तं वण्णनामे। से किं तं गंधनामे-गंध. नामे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुरभिमंधनामे य दुरभिगंधनामे य । से तं गंधनामे। से किं तं रसनामे? रसनामे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-तित्तरसणामे कडुपरसणामे कसायरसणामे अंबिलरसणामे महुररसणामे य। से तं रसणामे। से किं तं गर्भ जन्म से होती है वे गर्भव्युत्क्रान्ति जीव हैं। जो सकते है वे परिसर्प हैं । उरःपरिसर्प और भुजपरिसर्प के भेद से परिसर्प जीव दो प्रकार के हैं ! सादिक जीव जो कि छाती से मरवाते हैं-उरः परिसर्प हैं । और गोधा, नकुल आदि जीव जो भुजाओं से सरकते-चलते हैं वे भुजपरिसर्प हैं । इप्त प्रकार यह द्विनाम हैं ।।५० १४६॥ તે જીવને ગર્મયુક્રાતિક જીવો કહે છે, જે જીવે સરકતાં સરકતાં ચાલે છે તે અને પરિસર્પ કહે છે. પરિસર્ષ ના ઉર પરિસર્પ અને ભુજપરિસર્પ નામના બે ભેદ પડે છે. સર્પાદિક જે જે છાતીના બળથી સરકે તે જીવોને ઉર પરિસ કહે છે. ગળી, નેળિયા આદિ ભુજાઓના બળથી સરકે (ચાલે છે, તેથી તેમને ભુજપરિસર્ષ કહે છે. આ પ્રકારનું આ દ્રિનામનું સ્વરૂપ છે. માસૂ૦૧૪૫
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अनुयोगद्वारले फासणामे ? फासणामे अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा-कक्खडफासणामे मउयफासणामे गरुयफासणामे लहुयफासणामे सोयफासणामे उसिणफासणामे गिद्धफासणामे लुक्खफासणामे। से तं फासणामे । से किं तं संठाणनामे ? संठाणनामे-पंचविहे पण्णत्ते तं जहा परिमंडलसंठाणनामे वसंठाणनामे तंससंठाणनामे चउरंसठाणनामे आययसंठाणनामे। से तं संठाणनामे से तं गुणनामे ॥सू० १४६॥ __ छाया-अथ किं तत् त्रिनाम ? त्रिनाम त्रिविधं प्रज्ञप्तम् , तथथा-द्रन्यनाम, गुणनाम पर्यवनाम च । अथ किं तद् द्रव्यनाम ? द्रव्यनाम पइविधं प्रनतम् , तद्यथा-धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायो जीवास्तिकायः पुद्गलास्तिकायः अद्धासमयश्च । तदेतद् द्रव्यनाम । अथ किं तद् गुणनाम ? गुणनाम पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-वर्णनाम गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाम संस्थाननाम । अय किं तद वर्णनाम ? वर्णनाम पश्चविध प्रजप्तम् , तद्यथा-कालवर्णनाम नीलवर्णनाम लोहितवर्णनाम हारिद्रवर्णनाम शुक्लवर्णनाम तदेतद्वर्णनाम । अथ किं तत् गन्धनाम ? गन्धनाम द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-सुरभिगन्धनामच दुरभिगन्धनाम च । तदेतद् गन्धनाम । अथ किं तद् रसनाम ? रसनाम पञ्चविध प्रज्ञप्तम् , तद्यथातिक्तरसनाम, कटुकरसनाम, कषायरसनाम अम्लरसनाम मधुररसनाम । तदेतद् रसनाम । अथ किं तत् स्पर्शनाम ? स्पर्शनाम-अष्टविध प्राप्तम् , सद्यथाकर्कशस्पर्शनाम मृदुकस्पर्शनाम गुरुकस्पर्शनाम लघुकस्पर्शनाम शीतस्पर्शनाम उष्णस्पर्शनाम स्निग्धस्पर्शनाम रूक्षस्पर्शनाम । तदेतत् स्पर्शनाम । अथ किं तत् संस्थान नाम ? संस्थाननाम पञ्चविध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-परिमण्डलसंस्थाननाम वृत्तसंस्था ननाम व्यससंस्थाननाम चतुरंससंस्थाननाम आयतसंस्थाननाम । तदेतत संस्थान नाम । तदेतद् गुणनाम |सू० १४६॥
टीका-'से किं तत् त्रिनाम ? इति शिष्यपश्नः। उत्तरपति-त्रिनाम-त्रिरूपं नाम त्रिनाम तत् त्रिविध प्रज्ञप्तम् । यत एवेदं त्रिनाम अत एवेदं विविध
अब त्रिनाम का सूत्रकार निरूपण करते हैं-- "से किं तं तिनामे" इत्यादि । હવે સરકાર ત્રિનામનું નિરૂપણ કરે છે– "से किं तं तिनामे "त्या
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १३५ त्रिनामनिरूपणम्
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बोध्यम् । त्रैविध्यमेवाह - तद्यथा द्रव्यनाम- द्रवति = गच्छति तांस्तान् पर्यायान् प्राप्नोतीति द्रव्यं तस्य नाम- द्रव्यनाम । गुगनाम-गुण्यन्ते= संख्यायन्ते इति गुणास्तेषां नाम-गुणनाम । तथा-वर्णनाम-वर्ण्यते = अलङ्क्रियते वस्त्वनेनेति वर्णः, तस्य नाम वर्णनाम । एषु त्रिविधेषु नामसु प्रथमं द्रव्यनाम जिज्ञासमानः शिष्यः पृच्छति - अथ किं तद् द्रव्यनाम ? उत्तरयति - द्रव्यनाम हि धर्मास्तिकायादिभेदैः षड्विधम् । धर्मास्तिकायादीनां व्याख्या पूर्व कृता । गुणनामतु वर्णगन्धरसस्पर्श
शब्दार्थ - - (से किं तं तिनामे ?) हे भदन्त ! त्रिनाम क्या है ? उत्तर -- (तिनामे तिविहे पण्णत्ते) त्रिनाम तीन प्रकार का कहा गया है तीन रूप वाला जो नाम है वह त्रिनाम है ! त्रिनाम से ही यह त्रिविध है । (तं जहा) वे तीन प्रकार ये हैं-- (दव्वणामे, गुणनामे, पज्जवणामे) द्रव्यनाम, गुणनाम, पर्यव नाम । उन २ पर्यायों को जो प्राप्त करता है उसका नाम द्रव्य है । इस द्रव्य का जो नाम है वह द्रव्यनाम है। जो गिने जावें उनका नाम गुण है यह गुण शब्द की व्युत्पत्ति है। इनका जो नाम है वह गुण नाम हैं। पर्याय का जो नाम है वह पर्याय नाम है । पर्याय नाम का वर्णन सूत्रकार १४७ वें सूत्र में करेंगे। (सेकिं तं दव्वनामे) वह द्रव्य नाम क्या है ?
उत्तर -- (दव्वणामे छव्विहे पण्णत्ते) द्रव्य नाम ६ प्रकार का कहा है । (तं जहा) जैसे- (धम्मस्थिकाए, अचम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए शब्दार्थ - (से किं त' तिनामे १) हे भगवन् ! त्रिनाभ भेटले शु? उत्तर- (तिनामे तिविहे पण्णत्ते) त्रिनाभना त्र र छेत्र ३५વાળુ' જે નામ છે, તેને ત્રિનામ કહે છે ત્રિનામ હોવાને લીધે જ તે ત્રણ प्रानुं छे. (तजहा) ते त्र प्रहारो नीचे प्रभाशे छे - ( दुब्वणामे, गुणनामे, पब्जवणामे) (१) द्रव्यनाभ, (२) गुशनाभ भने ( 3 ) पर्ययनाभ (पर्यायनाभ.)
જુદી જુદી પર્યાયાને જે પ્રાપ્ત કરે છે, તેનું નામ દ્રવ્ય છે. આ દ્રવ્યનું જે નામ છે તેને દ્રવ્ય નામ કહે છે. ગુણુ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ આ પ્રમાણે છે. " गाय ते शुद्ध छे." તે ગુણનું જે નામ છે તેને ગુણુનામ કહે છે. પર્યાયનું જે નામ છે, તેનું નામ પર્યાયનામ છે, આગળ ૧૪૭માં સૂત્રમાં સૂત્રકાર આ પર્યાયનામનુ વણ્ન કરવાના છે.
प्रश्न - ( से किं तदव्वनामे ? ) ते द्रव्यनाम शु छे ?
उत्तर- (दव्वणामे छवि पण्णत्ते) द्रव्यनाम छ प्रा२नुं थुं छे. (त'जहा) भेभ है....(धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगास्रत्थि काए, जीवत्थिकार, पुग्गलत्यि
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मनुयोगदारद संस्थानभेदैः पञ्चविधम् । तत्र वर्णनाम-कृष्णनीललोहितहारिद्रशुक्लनामभेदैः पश विधम् । धूसरारूणरूप कपिशादयस्तु वर्णा संयोगेनैवोत्पयन्ते, नत्वेते तेभ्यो भिन्ना इति न पृथगुपात्ताः। तथा-गन्धनाम-गभ्यते आघ्रायते इति गन्धस्तस्य नाम: गन्धनाम । तद्धि-सुरभिदुरभिभेदाद द्विविधम् । तत्र-सौमुख्यक सुरभिः, वैमुख्यजीवत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, अद्धासमए य) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और महा समय । इन सबकी व्याख्या पहिले की जा चुकी है । अतः यहां नहीं की है। (से तंदवनामे) इस प्रकार यह द्रव्य नाम है। (से कि तं गुणनामे) वह गुण नाम क्या है ?
उत्तर-(गुणनामे पंचविहे पण्णत्ते) गुणानाम पांच प्रकार का कहर गया है। (तं जहा) जैसे-- (वण्णगामे, गंधणामे रसणामे, फास णामे, संठाणणामे) वर्णनाण, गंध नाम, रस नाम, स्पर्श नाम, संस्थान नाम । वस्तु जिससे अलंकृत की जाती है वह वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति है। इस वर्ण का जो नाम है वह वर्ण नाम है। जो सूंघी जावे वह गंध है। इस गंध का जो नाम है वह गंधनाम है । जो चखा जाता है वह रस है। रस का जो नाम है वह रस नाम है। जो स्पर्श से जाना जाता है वह स्पर्श है। संस्थान नाप्न आकार का है। इस संस्थान का जो नाम है वह संस्थान नाम है। काए, अद्धासमए य) यस्तिय, अधरिताय, माशास्तिय, पास्तिકાય, પુદ્ગલાસ્તિકાય અને અદ્ધાસમય (કાળ) આ બધાં પની વ્યાખ્યા પહેલાં આપવામાં આવી છે, તેથી અહી તેમની વ્યાખ્યા આપવામાં આવી नथी (से तदननामे) मा प्रा२नु ते द्रव्यनाम है.
प्रश-(से कि त गुणनामे?) मापन् ! सुनाम र ४३ छ।
उत्तर-(गुणनामे पंचविहे पण्णत्ते- तजहा) गुमनाम पाय प्रानु ४ छ. ते ॥२॥ नये प्रभारी छ-(वण्णणामे, गंधणामे, रमणामे, फासणामे, संठाणणामे) १ नाम, नाम, २सनाम, ५ नाम भने संस्थाननाम વસ્તુને જેના વડે અલંકૃત કરાય છે, તેને વણું કહે છે. તે વર્ણનું જે નામ છે તેને વર્ણનામ કહે છે. સુંઘવાથી જેને અનુભવ થાય છે, તે ગમે છે. આ ગંધનું જે નામ છે તેને ગંધનામ કહે છે. ચાખવાથી જેને અનુભવ થાય તે રસ છે. એવા રસનું જે નામ છે, તે રસનામ છે. કઈ પણ વસ્તુને અડકવું તેનું નામ સ્પર્શ છે. આ સ્પર્શનું જે નામ છે તેને સ્પર્શનામ કહે છે. સંસ્થાન એટલે આકાર આ સંસ્થાનના નામને સંસ્થાનનામ કહે છે.
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४६ त्रिनामनिरूपणम् कद्दुरभिः। तथा-रसनाम-रस्यते-आस्वाद्यते इति रसस्तस्य नाम रसनाम । तच्च-तिक्तकटुककषायाम्ळमधुरनाम भेदात पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् । तत्र-तिक्तरसनाम- लेष्मादिदोषहन्ता रसः, तस्य नाम तिक्तरसनाम । तिक्तरससेवनफलमुक्तमायुबंदशास्त्रे-"श्लेष्मामरुचिः पित्तं तुषं कुष्ठं विषं ज्वरम् । हन्यात्तिक्तो रसो बुदेः कर्ता
(से कि तं वणणामे) वह वर्णनाम क्या है ?
उत्तर-(वण्णणामे पंचविहे पण्णत्ते) वर्णनाम पांच प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे-(कालवण्णणामे, नीलवण्णनामे, लोहियषण्णनामे, हालिदवण्णनामे, सुकिल्लवपणनामे) काल कृष्ण-वर्ण नाम, नीलवर्णनाम, लोहितवर्णनाम, हारिद्रवर्णनाम, शुक्लवर्णनाम। धूसर, अरूण रूप जो कपिशादि वर्ण हैं-वे संयोग से ही उत्पन्न होते हैं, इसलिये ये स्वतंत्रवर्ण नहीं हैं इसलिये इनका स्वतंत्र रूप से सत्र में पाठ नहीं किया है। सुरभिगंध और दुरभिगंध के भेद से गन्ध गुण दो प्रकार का है । जो गंध अपनी ओर आकृष्ट करती है वह सुरभि गंध और जो अपने से विमुख करती है वह दुरभिगंध है। तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर नाम के भेद से रस पांच प्रकार है। श्लेष्म आदि दोषों को नष्ट करनेवाला जो रस है वह तिक्त रस है। तिक्त रम के सेवन का फल आयुर्वेद शास्त्र में ऐसा कहा है-मात्रा से
प्रश्न-(से किं तवण्णगामे) सावन् ! १ नामनु २१३५ डाय छ?
उत्तर-(वण्णणाम पंचविहे पण्णत्ते) १ नाम पांय ५४१२न sai छे. (तजहा) २भ है....(कालवण्णणामे, नीलवण्णणामे, लोहियवण्णणामे, हालिहवण्णणामे, सुकिल्लवण्णणामे) (१) ४०१ नाम, (२) नाव नाम, (3) all (२४) नाम, (४) रिद्र (पानी) व नाम, भने (५) शुसपनाम.
આ સિવાયના જે ધૂસર આદિ વણે છે, તેઓ ઉપર્યુક્ત વર્ગોના સગથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી તેમને સ્વતંત્ર વર્ણ રૂપ ગણી શકાય નહીં, તેથી અહીં તેમને સ્વતંત્ર પ્રકારો રૂપે બતાવવામાં આવેલ નથી સુરભિગ (सुमध) अने दुनिय (ग)ना सेहथा पशुगुना से २ ५४ 0. જે ગધ જીવને પિતાની તરફ આકર્ષે છે તે ગંધને સુરભિગંધ અને જે ગંધ ને પિતાની તરફ ખેંચવાને બદલે વિમુખ કરે છે એવી ગંધને
निय हे छे. २सना नीय प्रमाणे पाय प्रा२ छे-(१) तित (तीसा), (२) ४९ (331), (3) ४ाय (तुरे), (४) ua (माटे1) मन (भधुर) કફ આદિ દેને નાશ કરનાર જે રસ છે તેનું નામ તિક્તરસ છે. આયુર્વેદ શાસ્ત્રમાં તિક્તરસના સેવનના નીચે પ્રમાણે લાભે બતાવ્યા છે–ચગ્ય માત્રામાં
अ० ८२
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अनुयोगद्वारको मात्रोपसेवितः" । इति। तथा-कटुकरसनाम-गळरोगमशमनो मरिचनागराधाश्रितो रस:-कटुकरस:-तस्य नाम-कटुकरसनाम । कटुकरससेवनफलमुक्तमायुर्वेदे-कटुर्गलामयं शोफं, इन्ति युक्त्योपसेवितः। दीपनः पाचको रुच्यो बृहणोऽतिक.फापहः। इति। तथा-कषायरसनाम-रक्तदोपाधपनेताविभीतकामलककपित्थाचाश्रितो रसःकषायरसः, तस्य नाम कषायरसनाम । उक्तं चास्य सेवनफलम्-"रक्तदोषं कर्फ पित्तं, कषायो हन्ति सेवितः । रूक्षः शीतो गुणग्राही रोचकश्च स्वरूपतः" इति॥ सेवन किया तिक्तरस श्लेष्मा-कफ अरुचि, पित्त, तृषा, कुष्ठ, विष, ज्वर, इनका नाश करता है और बुद्धि को बढाता है । इस तिक्तरस का जो नाम है वह तिक्तरस नाम है। गले के रोग को प्रशान्त करनेवाला एवं मरिच और नागर आदि में रहनेवाला जो रस है वह कटुकरस है। इस कटुकरस के सेवन का फल आयुर्वेदशास्त्र में ऐसा कहा है-युक्ति से सेवन किया गया कटुक रस....शोफ-सूजन को नष्ट करता है, दीपक, पाचक, रुच्य और वृहण होता है । बढे हुए कफ को नष्ट करता है । रक्त दोष आदि का नोशक-विभीतक-बहेड़ा आमलक -आँवला एवं कपित्थ आदि के आश्रित जो रस है वह कषाय रस है। इसका जो नाम है वह कषाय रस नाम है । इसके सेवन का फल ऐसा कहा है-सेवित हुआ यह कषाय रस रक्तदोष, कफ, पित्त, को नाश करता है। यह स्वरूप से रुक्ष, शीत और गुणग्राही होता है तथा તક્તરસનું જે સેવન કરવામાં આવે, તે કફ, અરુચિ, પિત્ત, તૃષા, કુષ્ઠ, વિષ અને જવરને નાશ થાય છે અને બુદ્ધિની વૃદ્ધિ થાય છે. આ તિક્તરસનું જે નામ છે, તે તિક્તરસ નામ છે.
ગળાના રોગોને પ્રશાન્ત કરનાર અને મરિચ અને નાગર આદિમાં રહેનારે જે રસ છે, તે રસનું નામ કટુકરસ (કડેસ્વાદ) છે. આયુર્વેદ શાસ્ત્રમાં આ કટુક રસના સેવનનું ફળ નીચે પ્રમાણે કહ્યું છે–ગ્ય માત્રામાં બે કટુક રસનું સેવન કરવામાં આવે, તે શરીરના કેઈ પણ ભાગને સેજે ઉતરી જાય છે, દીપક (પાચનક્રિયામાં મદદ રૂ૫) હોય છે, અમ્ય અને બંહણ (શક્તિવર્ધક) હોય છે તે વધારાના કફને નાશ કરે છે. - રક્તદોષ આદિને નાશક, બહેડા, આમળાં, કઠાં આદિમાં રહેલે જે રસ છે તેને કષાય (તરા) રસ કહે છે. તેનું જે નામ છે તે કષાયરસ નામ છે. આયુર્વેદમાં કવાયરસના સેવનનું ફળ નીચે પ્રમાણે કહ્યું છે-જે યોગ્ય રીતે સેવન કરવામાં આવે તે કષાયરસ રકતદોષ, કફ, અને પિત્તને નાશ रैछे. ते ३क्ष, शीत, मुख्याही भने राय जाय छे.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४६ त्रिनामनिरूपणम् तथा-अम्लरसनाम-अग्निदीपनादिकृदम्लीकाद्याश्रितो रसः-अम्लरसः, तस्य नाम-अम्लरसनाम । उक्तं चास्य फलम्-"अम्लोऽग्निदीप्तिकत् स्निग्धः, शोफपित्तकफापहः । क्लेदनः पाचनो रुच्यो, गूढवातानुलोमकः ॥इति॥ तथा-मधुररसनामपित्तादिप्रशमनः खण्डशर्करायाश्रितो रसो मधुररसः, तस्य नाम-मधुररसनाम । उक्त चास्य फलम्-"पित्तं वातं विपं हन्ति, धातुद्धिकरो गुरुः । जीवनः केशकृद् बालवृद्ध क्षीणौजसां हितः" इति।। अन्यत्र हि सिन्धुलवणाधाश्रितो लवणरोचक होता है । अम्लीक-इमली आदि में रहा हुआ जो रस है वह अम्लरस है। यह अग्निदीपन आदि का करने वाला होता है। इस रस का जो नाम है वह अम्ल रस नाम है। इसका फल इस प्रकार कहा है-यह रस अग्निदीपक होता है, स्निग्ध होता है। शोफ, पित्त और कफ को नाश करता है। क्लेदन, (पसीना उत्पन्न करनेवाली शरीरका अग्निविशेष) पाचन करता है-और रुच्य होता है तथा गूढ वायु का अनुलोमक होता है । पित्तादिका प्रशमन करने वाला जो रस है वह मधुर रस है। यह मधुर रस खांड, शकर आदि का आश्रित रहता है। इसका जो नाम है वह मधुररसनाम है । इसका फल ऐसा कहा है कि मधुररस पित्त, वात, और विषका नाशक होता है, धातु की वृद्धि करता है गुरु होता है । बालक, वृद्ध और क्षीण शक्ति वालों का यह हित कर्ता होना है । जोवनप्रद और केशवर्धक होता है। दूसरी जगह सिन्धु लवण सैन्धव-आदि के आश्रित लवण रस भी
આમલી આદિમાં રહેલા રસને અસ્ફરસ (ખાટવાદ) કહે છે. તે અગ્નિદીપન (જઠરાગ્નિને સતેજ કરનારે) આદિ કરનારે હોય છે. આ રસનું જે નામ છે તે અસ્ફરસ નામ છે. અમ્ફરસના સેવનનું ફળ આ પ્રકારનું કહ્યું છે-આ રસ અગ્નિદીપક અને સ્નિગ્ધ હોય છે. સોજા પિત્ત અને કફને નાશક હોય છે ફલેદન, પાચન કરે છે. અને રુચ્ય (રુચિકર) હોય છેવળી આ રસ ગૂઢ વાયુને અનુલેખક હોય છે.
પિત્તાદિકનું શમન કરનારે જે રસ છે તેનું નામ મધુરરસ છે. તે ખાંડ, સાકર, ગોળ આદિમાં રહેલું હોય છે. તેનું જ નામ છે તે મધુરરસ નામ છે તેના સેવનનું ફળ આ પ્રકારનું કહ્યું છે-મધુર રસ વાત, પિત્ત અને વિષને નાશક હોય છે, ધાતુની વૃદ્ધિ કરનાર અને ગુરુ હોય છે બાલક, વૃદ્ધો અને કમજોર માણસોને લાભકારી હોય છે, જીવનપ્રદ અને કેશવર્ધક હોય છે કેટલાક કે લાવારસ (ખારો સ્વાદ) ને પણ એક પ્રકારના સ્વતંત્ર રસ
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अनुयोगद्वारस्ये रसोऽपि पठ्यते। अयं रसो हि स्तम्भिताहारबन्धविध्वंसादिकर्ता भवति । अयं रसो हि मधुरादिरससंसर्गजवात्तदभिन्तत्वेन विषश्यते । यतो लवणरसयोगादेवान्येऽपिरसाः स्वादीयस्त्वं भजन्ते, अतस्तिक्तादिषु पञ्चसु रसेषु लवणरसस्यान्तर्मावा, अत एव न तस्य पृथगुपादानम् । प्रकृतमुपसंहरबाह-तदेतद्रसनामेति। अथ गुणनाम्नश्चतुर्थभेदं जिज्ञासितुकामः पृच्छति-अथ किं तत् स्पर्शनाम ? इति । उत्तरयतिस्पर्शनाम-स्पृश्यते त्वगिन्द्रियेणावबुध्यते इति स्पर्शः, तस्य नाम स्पर्शनाम । तद्धि अष्टविधम् =अष्टसंख्यक बोध्यम् । अष्ट विधत्वमेवाह-तद्यथा-कर्कश स्पर्शनामएक-एक स्वतंत्र रस कहा गया है। यह रस स्तंभित आहार आदि का विध्वंस का होता है आहार वर्धक एवं मलब. द्धता नाशक होता है। यह रस मधुर आदि रस के संसर्ग से उत्पन्न होने के कारण उनसे-अभिन्न ही माना गया है। क्यों कि लवण रस के भोग से ही अन्य दूसरे रस स्वादिष्ट लगते हैं। इसलिये तिक्तादि पांच रसों में ही लवण रस का अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये इस रस का स्वतंत्र रूप से सूत्रकार ने कथन नहीं किया है। यह अर्थ "से कितं गंधनामे" यहां से लेकर" "महररसणामे" यहां तक के पाठ का किया है । (से तं रसणामे) इस प्रकार यह रस नाम है । (से किं तं फासणामे) हे भदन्त ! गुणनाम का जो चतुर्थ भेद स्पर्श नाम है वह क्या है ?
उत्तर--(फासणामे अट्ठविहे पण्णत्ते) स्पर्श नाम आठ प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। स्पर्शन इन्द्रिय से जो जाना जाता है वह स्पर्श है। રૂપે ગણાવે છે. સિંધાલુણ, નમક, આદિમાં આ રસને સદ્ભાવ હોય છે. આ રસ ઑભિત આહાર આદિને વિધ્વંસ કરવાવાળા હોય છે. આહારવર્ધક અને બંધકેશને નાશક હોય છે. આ રસ મધુર આદિ ૨સના સંસર્ગથી ઉત્પન્ન થતું હોવાને કારણે, તે રસોથી અભિન્ન જ ગણીને અહીં તેને સ્વતંત્ર પ્રકાર રૂપે ગણવામાં આવેલ નથી કારણ કે લવણરસના વેગથી જ અન્ય રસ સ્વાદિષ્ટ લાગે છે. તેથી તિક્તાદિ પાંચે રસોમાં લવણરસનો સમાવેશ થઈ જાય છે. તેથી જ સૂત્રકારે આ રસનું २१तत्र ३३ ४यन यु. नथी " से कि त गंधनामे" या सूत्रधी वन " महुररसणामे" मा सूत्र पय-तना सूत्रानो मापा ५२ ५४८४२वामा माया छे. (से त रमणामे) मा जानु २सनामनु १५३५ समा.
प्रश्न-(से किंत फासणामे ?) भगवन् ! गुगुनामना यो ले ३५ જે સ્પર્શનામ છે, તેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(फासणामे अदविहे पणत्ते) १५ नाम A8 प्रा२नु प्रशस यु છે. સ્પર્શેન્દ્રિયની મદદથી જે અનુભવ થાય છે, તેનું નામ ૫શ છે
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अमुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४६ त्रिनामनिरूपणम् स्तब्धताकारणं पाषाणादिगतः स्पर्शः-कर्कशस्पर्शः-तस्य नाम कर्कशस्पर्शनाम । मृदुकस्पर्शनाम-कोमलस्पर्शकारणं तिनिशलतादिगतः स्पर्शः-मृदुकस्पर्शस्तस्य नाम। गुरुकस्पर्शनाम-अधःपतनहेतुरयोगोलकादिगतः स्पर्शः-गुरुकस्पर्शस्तस्य नाम । लघुझस्पर्शनाममायस्तियंगूधिोगमनहेतुरकतूलादि निश्रितः स्पर्शः-लघुइस स्पर्श का जो नाम है वह स्पर्श नाम है । (तंजहा) इसके आठ प्रकार ये हैं-(कक्खडफासणामे, मउयफासणामे, गरुयफासणामे, लहुयफासणामे, सीयफासणामे, उसिणफासणामे, णिद्धफासणामे, लुक्वफासणामे) कर्कश स्पर्श नाम मृदुक स्पर्श नाम, गुरुकस्पर्श नाम, लधुकस्पर्श नाम, शीतस्पर्श नाम, उष्णस्पर्श नाम, स्निग्धस्पर्श नाम, रूक्ष. स्पर्श नाम । कर्कशस्पर्श पाषाण आदि में रहता है । यह स्पर्श स्तब्धता का कारण होता है । इसका जो नाम है वह कर्कशस्पर्श नाम है। कोमलस्पर्श का जो कारण होता है तथा तिनिशलता-वेत्र लता आदि में जो रहता है वह मृदुकस्पर्श है । इसका जो नाम है वह मृदुकस्पर्श नाम है । जो अधःपतन का कारण होता है और अयोगोलक आदि में रहता है वह गुरुकस्पर्श है । इसका जो नाम है वह गुरुकस्पर्श नाम है। जो स्पर्श प्रायः तिर्यग् ऊर्ध्व, अधः गमन में कारण होता है और जो अर्कतूल आदि के आश्रय रहता है वह लघुक स्पर्श है । उसका जो मा १५शन २ नाम छ त १५ नाम छे. (तजहा) ते २५श नामना भा. ४२ नाय प्रभार छ-(कक्खडफासणामे, मउयफासणामे, गरुयफ:सणामे, लह. यफासणामे, सीयफासणामे, सिगफासणामे, गिद्धफासणामे, लुक्खफासणामे) (१) श१५श नाम, (२) भू.५श नाम, (3) गुरु२५नाम, (४) सधु-५शनाम, (५) शीत३५ नाम, (६) GY५ नाम, (७) स्नि५ नाम (८) ३३२५॥ नाम.
પાષાણ આદિમાં કર્કશ સ્પર્શને સદભાવ હોય છે. આ સ્પેશ સ્તષ્ક, તાના કારણભૂત બને છે. તેનું જે નામ છે તે કર્ક શસ્પર્શનામ છે કમલસ્પર્શનો અનુભવ કરાવનાર તિનિશિલતા (ત્રલતા) આદિના સ્પર્શને મૃદુસ્પર્શ કહે છે તેનું જ નામ છે. તે મૃદુકસ્પર્શનામ છે. જે વસ્તના અધઃપતનમાં કારણભૂત બને છે એવા લોઢાના ગેળા આદિના સ્પર્શને ગુરુકરપશ કહે છે. આ સ્પર્શ દ્વારા વસ્તુ ભારે છે એવો અનુભવ થાય છે. આ ગુરુક સ્પર્શનું જે નામ છે તે ગુરુકપર્શનામ છે. આંકડે તેલ આદિ હલકી વસ્તુઓના સ્પર્શને લઘુકસ્પર્શ કહે છે આ સ્પર્શ વસ્તુને તિર્યંગમન, ઉર્ધ્વગમન અને અધેગમનમાં કારણભૂત બને છે, તેનું જે નામ છે તે
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अनुयोगद्वारी कस्पर्शस्तस्य नाम । शीतस्पर्शनाम-देहस्तम्मादि हेतुः हिमाद्याश्रितः स्पर्शः शीत. स्पर्शस्तस्य नाम । उष्णस्पर्शनाम-आहारपाकादिकारणं वहन्याउनुगतः सर्शः उष्णस्पर्शस्तस्य नाम । स्निग्धस्पर्शनाम-पुद्गलद्रव्याणां मियः संयुज्यमानानां बन्धनिबन्धनं तैलादिस्थितः स्पर्शः स्निग्धस्पर्शस्तस्य नाम । तथा-रूक्षस्पर्शनामपुद्गलद्रव्याणामबन्धनिबन्धनं भस्मादिस्थितः स्पर्शः रूक्षस्पर्शस्तस्य नाम । इस्पष्टविध स्पर्शनाम बोध्यम् । तदेतदुपसंहरबाह-तदेतत्स्पर्श नामेति । अथ किं तत् संस्थाननाम ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-संस्थाननाम हि परिमण्डलसंस्थाननामादिभेदः नाम है वह लधुक स्पर्श नाम है। देहस्तम्भ आदि का जो हेतु होता है एवं जो हिम आदि के सहारे रहता है वह शीतस्पर्श है। इसका जो नाम है वह शीतस्पर्श नाम है । आहार के पकाने आदि का जो कारण होता है ऐसा अग्नि आदि के सहारे रहा हुआ जो स्पर्श है वह उष्णस्पर्श है। इसका जो नाम है वह उष्णस्पर्श नाम है । परस्पर मिले हुए पुद्गल द्रव्यों के संश्लिष्ट होने का कारण होता है ऐसा तैला दिक पदार्थ के सहारे रहा हुआ स्पर्श-स्निग्धस्पर्श है । इसका जो नाम है वह स्निग्धस्पर्श नाम है । जो पुद्गल द्रव्यों के अबन्ध का कारण होता है ऐसा भस्मादि स्थित स्पर्श रूक्षस्पर्श है। इसका जो नाम है वह रूक्षस्पर्श नाम है। (से तं फासणामे) इस प्रकार यह आठ प्रकार का स्पर्शनाम है। (से कितं संठाणणामे) वह संस्थान नाम क्या है? લઘુકપર્શનામ છે હિમ, બરફ આદિના સપર્શથી જે સ્પર્શને અનુભવ થાય છે તે સ્પર્શને શીતસ્પર્શ કહે છે. શરીર ઠુંઠવાઈ જવામાં કે અકડાઈ જવામાં આ સ્પર્શ કારણભૂત બને છે. તેનું જે નામ છે, તે શીતસ્પર્શનામ છે. આહારને રાંધવા આદિમાં જે કારણભૂત થાય છે અને અગ્નિ આદિમાં જેને સદૂભાવ હોય છે, તે સ્પર્શને ઉષ્ણસ્પર્શ કહે છે તેનું જ નામ છે તે ઉષ્ણસ્પનામ છે. તેલ, ઘી આદિ પદાર્થોમાં જે સ્પર્શને સદૂભાવ હોય છે તે સ્પશને સ્નિગ્ધપર્શ કહે છે. પરસ્પર મળેલાં પુદ્ગલ દ્રવ્યના એક બીજા સાથે સંશ્લિષ્ટ રહેવામાં આ સ્પર્શ કારણભૂત બને છે. તેનું જે નામ છે તે નિધસ્પર્શનામ છે જે સ્પર્શ પુદ્ગલ દ્રવ્યોના સંબંધમાં કારણભૂત બને છે તે સ્પશને રૂક્ષસ્પર્શ કહે છે ભસ્મ આદિમાં આ સ્પર્શને સદ્ભાવ હોય છે. तेनु २ नाम छ ते ३३९५ नाम छ (से त' फासणामे) मा ४२६ मा પ્રકારના સ્પર્શનામનું સ્વરૂપ છે.
Un-(से कि त संठाणणामे १ ३ मापन् ! सयान नाम २१३५ ३१
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सुत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम् ___ ६५५ पंचविध प्रज्ञप्तम्। संस्थानमाकारविशेषस्तत्स्वरूपं प्रसिद्धमेव । तदेतदुपसंहरनाहतदेतत् संस्थाननामेति । इत्थं गुणनाम प्ररूपितमिति सूचयितुमाह-तदेतत् गुणनामेति ॥सू० १४६॥
मूलम्-से किं तं पज्जवणामे ? पज्जवणामे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-एगगुणकालए दुगुणकालए तिगुणकालए जाव दसगुणकालए संखिज्जगुणकालए असंखिज्जगुणकालए अणंतगुणकालए। एवं नीललोहियहालिद्दसुकिल्ला वि भाणियवा। एगगुणसुरभिगंधे दुगुणसुरभिगंधे तिगुणसुरभिगंधे
(संठाणनामे पंचविहे पण्णत्ते) संस्थान नाम पांच प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है (परिमंडलसंठाणनामे, वसंठाणनामे, तंस संठाणनामे, चउरंस. संठाणनामे आययसंठागनामे) संस्थान नाम आकार विशेष का है। यह संस्थान नाम परिमंडल संस्थान नाम आदि के भेद से पांच प्रकार का है। इन संस्थानों का स्वरूप प्रसिद्ध ही है । संस्थान के नाम इस प्रकार से हैं-परिमंडल संस्थान, वृत्त संस्थान, व्यस्रसंस्थान, चतुरस्रसंस्थान, और आयतसंस्थान। (से तं संठाणनामे) इस प्रकार यह संस्थान नाम है । (से तं गुणनामे) इस प्रकार से यहांतक यह गुणनाम का वर्णन है। द्रव्यों के नाम द्रव्धनाम, वर्ण रस आदिकों के नाम गुणनाम है। सू०१४६॥
उत्तर-(संठाणनामे पंचविहे पण्णत्ते) संस्थाननामना पांय १२ हा छ. (तजहा) त । नीये प्रमाणे छे-(परिमंडलसंठाणनामे, वसंठाणणामे, त ससंठाणनामे, चउरंससंठाणनामे, आययसंठाणनामे) २ विशेषतुं नाम સંસ્થાન છેઆ સંસ્થાનનામના પરિમંડલ સં થાન નામ આદિ પાંચ પ્રકારો છે. આ સંસ્થાનું સ્વરૂપ જાણીતું હોવાથી અહીં તેમનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું નથી સંસ્થાનનાં નામ આ પ્રમાણે છે-(૧) પરિમંડલસંસ્થાન (૨) वृत्तसंस्थान, (3) यस स्थान, (४) यतुरनस स्थान भने (५) मायतसत्यान. (से त संठाणनामे) या प्रानुं संस्थान नामर्नु २१३५ छ. (से त गुणनामे) १, २स, गध, २५श भने संस्थाननाम ३५ अनामनु म। પ્રકારનું સ્વરૂપ છે દ્રવ્યનાં નામને દ્રયનામ કહે છે અને વર્ણ રસ ગંધ, પર્શ અને સંસ્થાનના નામને ગુણનામ કહે છે. સૂ૦૧૪દા
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अनुयोगद्वार
जाव अनंतगुणसुरभिगंधे । एवं दुरभिगंधोऽवि भाणियव्वो । एगगुणतित्ते जाव अनंतगुणतित्ते । एवं कडुयकसाय अंबिलमहुरावि भाणियन्त्रा । एगगुणकक्खडे । जाव अनंतगुणकक्खडे एवं मउयगरुयल हुयसीतउसिणणिद्धलुक्खावि भाणियन्वा । से तंपजवणामे ॥ सू. १४७॥
छाया - अथ किं तत् पर्यवनाम ? पर्यवनाम अनेकविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाएक गुणकालकः, द्विगुणकालकः, त्रिगुणकालको यावद् दशगुणकालकः संख्ये बगुणकालकः असंख्येयगुणकालकः अनन्तगुणकालकः । एवं नीललोहितहारिद्रशुक्ला अपि भणितव्याः । एकगुणसुरभिगन्धो द्विगुणसुरभिगन्धः त्रिगुणसुरभिगन्धो यावदनन्तगुणसुरभिगन्धः । एवं दुरभिगन्धोऽपि भणितव्यः । एकगुणतिक्तो यावदनन्तगुणतिक्तः । एवं कटुकषायाम्लमधुरा अपि भणितव्याः । एकगुणकर्कशो यावदनन्तगुणकर्कशः । एवं मृदुकगुरुकलघुकशीतोष्ण स्निग्धरूक्षा अपि भणितम्याः । तदेतत् पर्यवनाम ||सू० १४७॥
टीका -- ' से किं तं ' इत्यादि -
सम्प्रति पर्यवनाम परिज्ञातुं पृच्छति अथ किं तत् पर्यवनाम ? इति । उत्तरयति - पर्यवनाम - परि= समन्तात् अवन्ति = अपगच्छन्ति न तु द्रव्यवत् सर्वदैवावतिष्ठन्ते इति पर्यवाः । अथवा परि=समन्तात् अवनानि = गमनानि द्रव्यस्यावस्थान्तरमाप्तिरूपाणीति पर्यवाः = एकगुणकालत्वादयस्तेषां नाम - पर्यवनाम । पर्याय
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" से किं तं पज्जवणामे " ? इत्यादि ।
शब्दार्थ - (से किं तं पज्जवणामे) हे भदन्त ! पर्यव नाम क्या है ? उत्तर- (पज्जवणामे अणेगविहे पण्णत्ते) पर्यवनाम अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है । द्रव्य के जैसी जो सर्वदा नहीं ठहरती हैं किंतु बदलती रहती हैं वे पर्यव हैं । अथवा जो द्रव्य की भिन्न २ अवस्थारूप वे पर्यव हैं । ये पर्यव एक गुणकालव आदि हैं। इनका नाम पर्यव
હવે પવનામની પ્રરૂપણા કરવામાં આવે છે—
" से किं तं पज्जवणामे " इत्यादि
शब्दार्थ-(से किं त' पज्जवणामे ? ) डे भगवन् ! पर्यवनाभनुं स्व३५ ठेवु छे उत्तर- (पज्जवणामे अणेगविहे पण्णत्ते) पर्यवनाभ ने अहारना यां છે. દ્રષ્યની જેમ જેનું અસ્તિત્વ સદા રહેતું નથી, પણ જે બદલાતી જ રહે છે તેનું નામ પર્યોય અથવા પવ છે અથવા તે દ્રવ્યની ભિન્ન ભિન્ન અવ
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असुबोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम् नामेति पाठान्तरपक्षे-परि-समन्तात् अयन्ते अपगच्छन्तीति पर्यायाः। यतापरि सामस्त्येन यन्ति अभिगच्छन्ति वस्तुतामिति पर्यायास्तेषां नाम पर्यायनाम । अत्रपोऽप्यर्थः पूर्वोक्त एव बोध्यः। पर्यवनाम हि अनेकविध प्राप्तम् । अनेकविधत्वमेवाह-तद्यथा-एकगुणकालक:-अत्र गुणशब्दोऽशार्थकः । एकगुणेन एकाशेन कालका-कृष्णः परमाण्वादिरेकगुणकालक इत्युच्यते । समस्तस्यापि त्रैलोक्य. नाम हैं। जब " पज्जवणामे" इसकी संस्कृत छाया पर्यायनाम ऐसी होती है तब इस पाठान्तर पक्ष में भी यही पर्यव नामोक्त अर्थ ही निकलता है (तंजहा) यह पर्यवनाम अनेक प्रकार का इस प्रकार से है(एगगुणकालए, दुगुणकालए, तिगुणकालए, जाव दसगुणकालए संखिज्जगुणकालए, असंखिज्जगुणकालए अणंतगुणकालए ) एक गुणकालक, द्विगुणकालक, त्रिगुणकालक, यावत् दशगुणकालक, संख्यातगुणकालक, असंख्यातगुणकालक, अनंतगुणकालक। यहां गुण शन्द अंश का पाचक है। जिस परमाणु आदि द्रव्य में कृष्ण गुण का एक अंश हो वह परमाणु आदि द्रव्य एक गुणकालक है। इसी प्रकार जिस परमाणु आदि द्रव्य में कृष्ण गुण के दो अंश हैं वह द्विगुणकालक है तीन अंश कृष्ण गुण के हैं वह त्रिगुणकोलक है यावत् संख्यात अंश कृष्णगुण के हैं वह संख्यातगुणकालक है असंख्यात સ્થાઓ રૂપ હોય છે. દ્રવ્યની એક ગણી, બે ગણી કાળાશ આદિ રૂપ આ पर्याय डाय छे. “पज्जवणामे" मा ५४नी संस्कृत छाया 'पर्यायनाम' થાય છે. તે પર્યાયનામને અર્થ પણ પજવનામ થાય છે. આ રીતે પર્યાય અને પર્જવ, આ બને સમાન અથી પદે છે.
(त' जहा) पर्यवनामना भने प्रा। छे म । (एगगुणकालए, दुगुणकालए, तिगुणकालए, जाव दसगुणकालए, संखिज्जगुणकालए, असंखिज्जगुणकालए, अणंतगुणकालए) : Y a४, शु , त्रिगुपथी ने દસગુણ પર્યતનું કાલક, સંખ્યાત ગુણકાલક, અસંખ્યાત ગુણકાલક અને અનંતગુણકાલક અહીં “ગુણ' શબ્દ અંશને વાચક છે. જે પરમાણુ આતિ દ્રવ્યમાં કાળાશને એક અંશ હોય છે તે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યને એકરુણ કાલક દ્રવ્ય કહે છે. એ જ પ્રમાણે જે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યમાં કાળાશના બે અંશ હોય છે તે પરમાણુ અ દિ દ્રવ્યને દ્વિગુણકાલક દ્રવ્ય કહે છે એજ પ્રમાણે દસગુણકાલક પર્યન્તના પ્રત્યે ને અર્થ પણ સમજ જે દ્રવ્યમાં કાળાશના સંખ્યાત અંશ હોય છે તે અને સંખ્યાત ગુણકાલા કહે છે જે દ્રવ્યમાં
म० ८३
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अनुयोगहारसूत्रे गतकालकस्य असत्कल्पनया पिण्डितस्य च एका सर्वअधन्यो गुणः अंशस्तेन कालका-एकगुणकालका-सर्वजघन्य-कृष्ण इत्यर्थः। एवं द्विगुणकालकप्रभृत्यनन्तसुगकालकान्ताः परमाणवो बोध्याः। एवमेव एकगुणनीलकादय एकगुणलोहितअंश कृष्णगुण के हैं वह असंख्यात गुणकालक है और अनंत अंश कृष्ण गुण के हैं वह अनंतगुणकालक है। एक गुण से जो काला है ऐसा परमाण्वादि द्रव्य एक गुणकालक शब्द का वाच्यार्थ है। इसी प्रकार से अन्यत्र भी-द्विगुणकालक आदि में भी समझना चाहिये। तात्पर्य कहने का यह है कि तीन लोक में जितना भी कालक गुण है उसको असत् कल्पना से एकत्रित करलो, फिर उसमें से उस कृष्ण वर्ण का सबसे जघन्य अंश लेलो-इस जघन्य कृष्णांश से जो काला हो-वह एक गुणकालक परमाणु आदि द्रव्य है । (एवं) इसी प्रकार (नीललोहियहालिहसुकिल्ला वि भाणियवा) एक गुण-अंश नीलवर्ण का जिसमें है वह एक गुणनीलक परमाणु आदि द्रव्य है। दो गुणअंश-नीलवर्ण के जिसमें हैं वह द्विगुणनीलक है। इसी प्रकार से तीन चार आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त अंश नीलवर्ण के जिसमें हैं वे तीन गुणनीलक, चार गुगनीलक यावत् संख्यात गुणनीलक કાળાશના અસંખ્યાત અંશ હોય છે, તે દ્રવ્યને અસંખ્યાત ગુણ કાલક કહે છે અને જે દ્રવ્યમાં કાળાશના અનંત અંશ હોય છે તે દ્રવ્યને અનંતગુણ કાલક કહે છે. આ રીતે કાળાશના એક ગુણ અથવા અંશવાળું પરમાણ. આદિ દ્રવ્ય “એકગુણકાલક”નું સમાનાથી પદ છે. એ જ પ્રમાણે દ્વિગુણકાલક આદિના વિષયમાં પણ સમજવું આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છેત્રણે લેકમાં જેટલો કાલકશુષ (કાળાશ) છે તેને ધારો કે અસ૮૫નાને આધારે એકત્ર કરવામાં આવે ત્યાર બાદ તેમાંથી તે કૃષ્ણ વર્ણને જઘન્ય (સૌથી નાને) અંશ લઈ લે. આ જઘન્ય કૃષ્ણઅંશ પ્રમાણે કાળા દ્રવ્યને से गु
५२मा माहि द्र०य । छ. (एवं) मे प्रमाणे (नील, डोहिय, हालिरसुकिल्ला वि भाणियवा) २ ५२मा माहिद्र०यमा नीस ना એક અંશ હોય છે તેને એક ગુણ નીલક પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય કહે છે જેમાં નીલવર્ણના બે અંશ હોય છે તેને દ્વિગણનીલક દ્રવ્ય કહે છે એ જ પ્રમાણે ત્રણ, ચાર આ િદસ પર્યન્તના નીલવર્ણના અંશ જેમાં હોય છે તે દ્રવ્યને ત્રણ ગુણ નીલક, ચારગુણનીલક, (યાવત) દસ ગુણનીકલ દ્રવ્ય કહે છે એજ પ્રમાણે સંખ્યાત, અસંખ્યાત અને અનંત અંશ નીલવર્ણ ધરાવતાં દ્રવ્યને
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम्
કર
काय एकगुणहारिद्रादय एकगुणशुक्रादयश्च परमाणत्रो बोध्याः । तथा - एक गुणसुंरभिगन्धचनन्तगुण सुरभिगन्धान्ताः परमाणवी बोध्याः । एवमेकगुणदुरभिगन्धाद्येअसंख्यात गुणनीलक एवं अनन्त गुणतीलक परमाणु आदि द्रव्य हैं । इसी प्रकार एक आदि अंश लोहितवर्ण का जिसमें है वह एक गुणे लोहितक परमाणु आदि द्रव्य है, एक गुण आदि पीतवर्ण का जिसमें है वह एक गुण पीतवर्णवाला दो गुण पीत वर्णवाला परमाणु आदि द्रव्य है । इसी प्रकार से एक गुण आदि शुल्क वर्णवाले परमाणु आदि द्रव्य भी जानना चाहिये । (एकगुणसुरभिगंधे दुगुणसुरभिगंधे, तिगुणसुरभिगंधे जाव अनंतगुण सुरभिगंधे-एवं दुरभिगंधोऽवि भाणियन्वो) एक जघन्य - अंश सुरभिगंधवाला परमाणु आदि दो अंश सुरभिगंधवाले परमाणु आदि यावत् अनंत अंश सुरभि गंधवाले परमाणु आदि भी जानना चाहिये ! एक जघन्य अंश दुरभिगंध का जिसमें है वह एक गुण दुरभिगंधत्राला परमाणु आदि द्रव्य है यावत् अनंत अंश दुरभिगंध के जिसमें हैं वे अनन्त गुग दुरभिगंधवाले परमाणु आदि हैं।
અનુક્રમે સ`ખ્યાત ગુડુનીકલ, અસખ્યાત ગુણનીકલ અને અનંતગુણુનીકલ દ્રવ્યા કહે છે. એજ પ્રમાણે જે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યમાં લાલવણુને એફ અંશ હોય છે, તે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યને એક ગુણુ લેાહિતક દ્રવ્ય કહે છે એજ પ્રમાણે દ્વિગુણુàાહિતકથી લઇને અન’તનુજી લેાહિતક પન્તના પદોને અ જાતે જ સમજી શકાય એવા છે જે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યમાં પીળાવહ્યુના એક અંશ હોય છે, તેને એક ગુરુ પીતવણ વાળુ કહે છે એજ પ્રમાણે દ્વિગુણુ પીત વણુ વાળાં દ્રવ્યેાથી લઈને અન‘તગુણુપીતવ વાળાં દ્રવ્યો વિષે પણુ સમજવુ' એજ પ્રમાણે શુકલ વણુના એકથી લઈને અનત પન્તના અ’શવાળા પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય વિષે પણ સમજવુ',
પવનામના વધુ પ્રકારાને હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે—
( एकगुणसुरभिगंधे, दुगुणसुरभिगंधे, तिगुणसुरभिगंधे, जाव अणतगुण सुरभिगंधे, एवं दुरभिगंधोऽव भाणियन्त्रो) मे सुरभिगुवा परमाणु આદિ (ઓછામાં ઓછા સુરભિતા અશવ છું... પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય), સુરભિના એ અંશવાળું, અને ત્રણથી લઈને અનંત પર્યંન્તના સુરભિગ ́ધના અશાવાળાં પરમાણું આદિ કન્યા પશુ હાય છે એજ પ્રમાણે એકથી લઈને અનંત પર્યંન્તના દુરભિઅન્યના અંશેાવાળાં પરમાણુ આદિ દ્રવ્યેા હોય છે જે પરમાણુ આદિ દ્રવ્યમાં દુધના ઓછામાં ઓછે. અશ-એક અશ-હોય તે દ્રવ્યને એક ગુણ દુલિબધવાળુ કડે છે. એજ પ્રમાણે ખકીનાં પદોને અર્થ પણ સમજી લેવાં.
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भनुयोगद्वारस्त्रे नन्तगुणदुरभिगन्धान्ताः परमाणवो बोध्याः। तथा-एकगुणतिक्ताबनन्तगुणतिक्तपर्यन्ताः परमाणवो बोध्याः। एवमेव-एकगुणकटुकादयः, एकगुण कषायादयः, एकगुणाम्लादयः, एकगुणमधुरादयवापि परमाणो बोध्याः । तथा-एकगुणकर्कशप्रभृत्यनन्तगुणकर्कशान्ताः बोध्याः। एवमेव-एकगुणमृदुकादयः, एकगुणगुरुका. दयः, एकगुणलघुकादयश्च-कर्कशमृदु-गुरुलघुस्पर्शाः परमाणुषु न लभ्यन्ते, एषां बादरानन्तपदेशिस्कन्धेष्वेव सद्भावात् , ततोऽत्रपरमाणवो न ग्राह्य इति। तथा एकगुणशीतादयः, एकगुणोष्णादयः, एकगुणस्निग्धादयः, एकगुणरूक्षादयश्च तथा एक गुण तिक्त का जिसमें है वह एक गुण निक्तवाला परमाणु
आदि है यावत् अनंत अंश तिक्त गुण के जिसमें हैं वे अनंत गुण तिक्तवाले परमाणु आदि हैं ऐसा जानना चाहिये । इसी प्रकार से एक गुण कटुकादिवाले, एक गुण कषाय आदिवाले, एक गुण अम्लादिवाले
और एक गुण मधुरादि रसवाले परमाणु आदि भी जानना चाहिये तथा एक गुण कर्कश स्पर्शवाले से लेकर अनंत कर्कशांशवाले भी ऐसे ही जानना चाहिये ! इसी प्रकार एक गुण मृदुक आदिवाले, एक गुण गुरु स्पर्श आदिवाले एक गुण लघु स्पर्श आदिवाले भी जानना चाहिये। कर्कश मृदु-गुरु लघु ये चार स्पर्श परमाणु में नहीं होते हैं, क्यों कि ये चार स्पर्श पादर अनन्तप्रदेशी स्कंध में ही होते हैं। तथा एक गुण
રસની અપેક્ષાએ પર્યાયના નીચે પ્રમાણે પ્રકારે છે–એક ગુણતિક્ત રસવાળું પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય એજ પ્રમાણે અનંત પર્યન્તના તિક્તગુણવાળાં પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય પણ હોય છે. એ જ પ્રમાણે એક ગુણ કટુકથી લઈને અનંતગુણ કટુક પર્યન્તના, એક ગુણ કષાયથી લઈને અનંત ગુણ કષાય એક ગુણ અસ્ફરસથી લઈને અનંતગુણ પર્યન્તના અમ્લ રસવાળાં અને એક ગુણ મધુરથી લઈને અનંત પર્યંતના મધુરગુણવાળાં દ્રવ્ય પણ હોય છે.
સ્પર્શની અપેક્ષાએ પર્યાયના નીચે પ્રમાણે પ્રકારે છે–એક ગુણ કર્કશ સ્પર્શવાળાથી લઈને અનંતગુણ કર્કશ સ્પર્શવાળા, એ જ પ્રમાણે એક ગુણ મૃદુકથી લઈને અનંત ગુણ મૃદુક પર્યન્તના, એક ગુણથી લઈને અનેક ગુણ પર્યન્તના ગુરુ સ્પર્શવાળાં, એક ગુણથી અનેક ગુણ પર્વતના લઘુ ૫શવાળાં, એક ગુણથી લઈને અનેક ગુણ શીતસ્પર્શવાળાં, એકથી લઈને અનેક ગુણ ઉષ્ણ૫વાળાં, એકથી લઈને અનેક ગુણ પર્યન્તના સ્નિગ્ધ સ્પર્શવાળાં અને એકથી અનેક ગુણ પર્યન્તના રૂક્ષસ્પર્શવાળાં, દ્રવ્ય પણ હોય છે કર્કશ, મદ,
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम् बोध्याः। ननु-गुणपर्याययोः को भेदः ? इति चेदुच्यते-सर्वदा सहवत्तिनो गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाः, एवं च-सदैव सहवत्तित्वाद् वर्णगन्धरसादयः सामान्येन गुणा उच्यन्ते, न हि मूर्ने वस्तुनि कदाचिदपि वर्णगन्धरसादयो निवर्तन्ते । एकगुणकालकत्वादयस्तु पर्यायाः। द्विगुणकालकत्वावस्थायामेकगुणकालत्वस्याभावेन शीतादिवाले, एक गुण उष्णादिवाले, एक गुणस्निग्धादिवाले और एक गुण रूक्षादिवाले भी जानना चाहिये।
शंका-गुण और पर्याय में क्या भेद हैं ? शंकाकार का यह अभिप्राय है कि द्रव्य में गुग और पर्यायें युगपत् रहा करती हैं तब ये दोनों एक ही हैं-फिर गुण और पर्यायों को सूत्रकार ने अलग अलग क्यों कहा?
उत्तर-गुण और पर्यायें यद्यपि द्रव्य में एकसाथ रहती हैं-फिर भी इनमें यह भेद है कि गुण तो द्रव्य के सहवर्ती होते हैं और पर्याय क्षण विध्वंसी होने के कारण द्रव्य की सहवर्ती नहीं होती हैं। ये तो क्रमवर्तिनी ही होती हैं । इसलिये सर्वदा सहवर्ती होने के कारण वर्ण गंध, और रसादिक सामान्य से गुण कहे जाते हैं और उनकी एक गुण कालकत्वादि क्रमवर्ती अवस्थाएँ पर्याय कही जाती हैं। ये वर्ण, गंध, आदि गुण मूर्त वस्तु जो पुद्गल हैं उससे कभी भी निवृत्त नहीं होते हैं। ગુરુ અને લઘુ, આ ચાર સ્પર્શોને પરમાણુમાં સદ્ભાવ હોતું નથી, કારણ કે તે ચાર સ્પર્શીને સદ્ભાવ બાદર અનંત પ્રદેશી ઔધમાં જ હોય છે.
શંકા-ગુણ અને પર્યાય વચ્ચે શું ભેદ છે? (આ પ્રશ્નનો ભાવાર્થ એ છે કે દ્રવ્યમાં ગુણ અને પર્યાય એક સાથે જ રહેતાં હોય છે આ રીતે તે બન્ને એક જ હોવા છતાં પણ સૂત્રકારે ગુણ અને પર્યાનું જુદા જુદા વિષય રૂપે શા માટે કથન કર્યું છે?)
ઉત્તર-ગુણ અને પર્યાયે જે કે દ્રવ્યમાં એક સાથે રહે છે, છતાં પણ તે બનેમાં આ પ્રમાણે ભેદ છે
ગુણતે દ્રવ્યને સહવતી હેય છે, પરંતુ પર્યાયે ક્ષણ વિકસી હોવાને કારણે દ્રવ્યના સહવતી હેતા નથી વર્ણ, ગંધ, રસ આદિ સર્વદા સહવતી હોવાને કારણે તેમને ગુણ કહેવામાં આવે છે. પણ તેમની એક ગુણકાલવ આદિ કમવતી અવસ્થાએને પર્યાય કહેવામાં આવે છે. વર્ણ, ગંધ આદિ જે ગુણે છે તેમને મૂર્ત વસ્તુમાંથી–પુલમાંથી-કદી પણું નાશ (નવૃત્તિ) થતું નથી ગુના અંશોનું નામ પર્યાય છે. ગુણને એક અંશ બે અંશેની
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अनुयोगद्वारसूत्र एकगुणकालकत्वावस्थायां द्विगुणकालकत्वस्याभावेन च एकगुणकालकस्यादीनां क्रमवृत्तित्वात पर्यायत्वं बोध्यम् । उक्तंच
" सहवर्तिनो गुणाः, यथा जीवस्य चैतन्यामूर्तत्वादयः ।
क्रमवर्तिनः पर्यायाः यथा तस्यैव नारकत्वतियक्त्वादयः।।" इति । ननु यद्येवं तर्हि वर्णादिसामान्यस्य भवतु गुगत्वम् , तद्विशेषाणां कृष्णादीनां तु गुणत्वं न स्यात् , तेषामनियमितत्वात् , इति चेदाह-कृष्णादीनां वर्णसामान्यभेदा. गुणों के गुणांश पर्याय हैं । गुण का एक अंश दो अंशों को अवस्था में निवृत्त हो जाती हैं । इसलिये ये गुणांश पर्याय हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि जब परमाणु द्रव्य में सर्व जघन्य रूप कृष्णादि गुण रहते हैं तब वे, दो अंश कृष्णादि गुगों के आने पर निवृत्त हो जाते हैं। इसी प्रकार कृष्णादि गुगों के दो अंश एक अंश कृष्णादि गुगों की अवस्था में निवृत्त हो जाते हैं। इसलिये कृष्णादि गुणों के ये एक, दो तीन यावत् संख्यात असंख्यात और अनंत अंश सब पर्याय हैं। क्योंकि ये क्रमवर्ती हैं। उक्तंच-"सहवर्ती " इत्यादि गुण सहवर्ती होते हैं-जैसे जीव के चैतन्य अमूतत्य आदि । पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं-जैसे जीव की नारक तिर्यक् आदि पर्यायें।
शंका-यदि यही बात है तो फिर वर्णादि सामान्य में ही गुणपना होना चाहिये-वर्णादिकों के विशेष जो कृष्ण आदि हैं उनमें गुणपना અવસ્થામાં નિવૃત્ત થઈ જાય છે અને બે અંશ એક અંશની અવસ્થામાં પણ નિવૃત્ત થઈ જાય છે. તેથી તે ગુણશને પર્યાય રૂપ ગણવામાં આવે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-વારે કે કઈ દ્રવ્યમાં ઓછામાં ઓછા પ્રમાણવાળા એટલે કે એક ગુણ (અંશ) કાળાશ આદિ ગુણ રહેલે હોય પરંતુ બે અંશ (ગુણ) કૃષ્ણાદિ ગુણોનું તે દ્રવ્યમાં આગમન થતાં જ તે એક ગુણ કૃષ્ણાદિ ગુણોની નિવૃત્તિ થઈ જાય છે એ જ પ્રમાણે કૃણાદિ ગુણેના બે અંશ રહેલા હોય, તે એક ગુણકૃષ્ણાદિ અવસ્થાની પ્રાપ્તિ થતાં જ તે બે અશેની નિવૃત્ત થઈ જાય છે તેથી કૃષ્ણાદિ ગુણના એક, બે, ત્રણ, ચાર, આદિથી લઈને સંખ્યાત, અસંખ્યાત અને અનંત પર્યન્તના બધા અંશે पर्याय ३५ छ, १२५ १ तमे। उभरतीय छे. यु पार छ -"सह वर्ती") याl मा ४थन द्वा२। ये पात ५४८ ४२वाभां भावी है गुप સહવતી હોય છે. જેમ કે જીવના ચિતન્ય, અમૂર્ત આદિ ગુણે સહવતી છે. પર્યાયે કમવતી હોય છે. જેમ કે જીવની નારક, તિર્યંચ આદિ પર્યા.
શંકા-જે એવું હોય, તે વર્ણાદિ સામાન્યમાં જ ગુણપણુ દેવું જોઈએ પરતુ કાળાશ અાદિ જે વર્ણવિશેષે છે તેમાં ગુણપણુને અભાવ હવે જોઈએ,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम्
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नामपि प्रभूतकालं प्रायः सहावस्थायित्वमिति तेपामपि गुणत्वं बोध्यम् । नन्देते गुणपर्यायाः पुनास्तिकायस्यैव भवताऽभिहिताः, न तु धर्मास्तिकायादीनाम् । दृश्यन्ते च धर्मास्तिकायादीनामपि गुणा गतिस्थित्यवगाहोपयोगवर्त्तनादयः, पर्यायाश्च प्रत्येकमनन्ता अगुरुलघ्वादय इति चेदाह इन्द्रियप्रत्यक्षगम्यत्वात् सुमतिनहीं होना चाहिये। क्योंकि ये अनियमित हैं। शंकाकार की इस शंका का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार गुण के एक अंश दो-अंश आदि अनियमित है इसलिये ये पर्याय हैं उसी प्रकार कृष्णादि भी अनिय मित है अतः इन्हें भी पर्याय ही मानना चाहिये-गुण नहीं । सो इस शंका का उत्तर यह है कि वर्ण सामान्य के भेद जो ये - कृष्णादि हैं वे प्रायः बहुत समय तक द्रव्य के साथ अवस्थित रहते हैं । इसलिये इन में गुणता मानी गई है। पर्यायें इस प्रकार से द्रव्य के साथ नियमित प्रभूतकाल तक नहीं रहती हैं । इसलिये अचिरस्थायी होने से उन में गुणता नहीं मानी गई है।
शंका- ये गुण पर्यायें आपने पुद्गलास्तिकाय की ही कही हैं धर्मास्तिकायादिकों की नहीं कहीं हैं। सो ऐसा तो है नहीं क्योंकि पुलास्तिकाय के जैसा धर्मास्तिकायादिकों में भी गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहहेतुत्व, उपयोग एवं वर्त्तनादि गुण और इनमें प्रत्येक में अनन्त अगुरुलघु आदि रूप पर्यायें देखी जाती हैं
કારણ કે તે અનિયમિત છે, અહી શંકા કરનાર વ્યક્તિ એવુ` કહેવા માગે છે કે જેમ ગુણુના એક અશ, એ અશ આદિ અનિયમિત હોવાથી તેમને પર્યાય રૂપ ગણવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે કૃષ્ણાદિ મુા પણ અનિયમિત હાય છે, તેથી તેમને પણ ગુણરૂપ માનવાને બદલે પર્યાય રૂપ જ માનવા જોઇએ. આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે કરી શકાય—
વણુ સામાન્યના ભેદ રૂપ જે કૃષ્ણા વર્ષોં છે, તેઓ સામાન્ય રીતે ઘણા સમય સુધી દ્રવ્યની સાથે અવસ્થિત રહે છે (વિદ્યમાન રહે છે) તેથી કૃષ્ણાદિ વણુને દ્રવ્યના ગુણુરૂપ માનવામાં આવેલ છે પરન્તુ પર્યાય એ રીતે દ્રવ્યની સાથે લાંખા સમય સુધી રહેતા નથી આ રીતે અચિરસ્થાયી હવાને કારણે તેમને દ્રવ્યના ગુણુરૂપ માનવાતે ખદલે દ્રવ્યની પર્યાય રૂપ માનવામાં આવે છે. શંકા-આપે અહી પુદ્ગલાસ્તિકાયના જ ગુQા અને પર્યાયાનું પ્રતિપદન કર્યું છે. ધર્માસ્તિકાય આદિના ગુણા અને પાંચાનુ' તે આપે કથન જ કર્યું નથી પુદ્ગલાસ્તિકાયની જેમ ધર્માસ્તિકાય આફ્રિકામાં પણ ગતિ હેતુત્વ, સ્થિતિ હેતુત્વ, અવગાહહેતુત્વ, ઉપયેગ અને વત્તનાદ ગુણ્ણાના અને અન'ત અગુરુ લઘુ આદિ પર્યાયનો અહીં શા કારણે ઉલ્લેખ કરાયે
નથી ?
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मनुबोगद्वारसे पाद्यतया पुद्गलद्रव्यस्यैव गुगपर्याया उक्ताः, न तु शेषाणां धर्मास्तिकायादीनाम् । तस्माद् यत् किमपिनाम तेन सर्वेणापि द्रव्यनाम्ना गुणनाम्ना पर्यायनाम्ना ना भवितव्यम् , नातः परं किमपि नामास्ति । ततः सर्वस्यैवानेन संग्रहात् त्रिनामसदुच्यते इति । सू० १४७॥
उत्तर-पुद्गल द्रव्य को गुण पर्यायें इन्द्रिय प्रत्यक्ष द्वारा गम्य होने से सुप्रतिपाद्य हैं इसलिये सूत्रकारने उमकी ही गुण और पर्यायें यज्ञ कही हैं शेष धर्मास्तिकायादिकों की नहीं । इसलिये जो भी कोई नाम है वह या तो द्रव्य का नाम होगा, या पर्याय का नाम होगा या गुन का नाम होगा। इससे आगे और कोई नाम नहीं होगा अतः समस्त नामों का इस त्रिनाम से संग्रह हो जाने से यह त्रिनाम कहलाताहै।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस मूत्र द्वारा त्रिनाम की व्याख्या की हैउसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि तीन प्रकार का जो नाम है पर त्रिनाम है। नाम के तीन प्रकार द्रव्य गुण और पर्याय नाम है। जो भी नाम होगा वह या तो द्रव्य को लेकर होगा, या गुण को लेकर होगा या पर्याय को लेकर होगा। धर्मास्तिकाय आदि जो नाम हैं वे द्रव्याश्रित नाम है । अर्थात्-द्रव्यों के जो नाम हैं वे द्रव्य नाम हैं। गुणों के जो
ઉત્તર-પુદ્ગલદ્રવ્યના ગુણો અને પર્યાયે ઈન્દ્રિયપ્રત્યક્ષ દ્વારા અનુભવી શકાય તેવાં હોવાથી તેમનું પ્રતિપાદન સરળતાપૂર્વક કરી શકાય છે પરંતુ ધર્માસ્તિકાયાદિના ગુણ પર્યાને ઈન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ દ્વારા અનુભવ કરી શકતે નથી તેથી જ સૂત્રકારે અહીં પુલ દ્રવ્યના જ ગુણે અને પર્યાનું પ્રતિ પાદન કર્યું છે, બાકીનાં ધર્માસ્તિકાય આદિકના ગુણે અને પર્યાનું પ્રતિપાદન કર્યું નથી તેથી જ જે કઈ પણ નામ હશે તે કાં તે દ્રવ્યનું નામ હશે, કાં તે ગુણનું નામ હશે કાં તે પર્યાયનું નામ હશે તેનાં કરતાં આગળ બીજું કોઈ પણ નામ નહીં હોય તેથી સમસ્ત નાબેને આ ત્રિનામ વડે સંગ્રહ થઈ જવાથી, તેમને અહીં ત્રિનામ રૂપ કહેવામાં આવેલ છે.
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા ત્રિનામનું નિરૂપણ કર્યું છે આ સૂત્રમાં તેમણે એ વાત સ્પષ્ટ કરી છે કે ત્રણ પ્રકારનું જ નામ છે તે ત્રિનામ છે. नामना १५ ॥२ नये प्रभार छ-(१) द्रव्यनाम, (२) गुनाम, अन (3) પર્યાયનામ જે કઈ પણ નામ હશે કાં તે દ્રવ્યને આધારે હશે, કાં તે શાશને આધારે હશે, કાં તો પર્યાયને આધારે હશે ધર્માસ્તિકાય આદિ જે નામો છે તેઓ દ્રવ્યાશ્રિત નામો છે એટલે કે કનાં જે નામ
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गोपनि टीका सूत्र १४७ पर्यवनामनिरूपणम् नाम हैं वे गुण नाम हैं-इमीलिये गुणनाम पांच प्रकार का कहा गया है। यद्यपि गुम रूप रसादि के भेद से चार प्रकार का होता है परन्तु संस्थान को भी पुद्गल द्रव्याश्रित सर्वदा होने के कारण गुणरूप मान लिया गया है इसलिये गुणनाम में पंचविधता कही गई है। पांच प्रकार के वर्गों का, दो प्रकार के गंधो का, पांच प्रकार के रसों का और आठ प्रकार के स्पों का तथा पांच प्रकार के परिमंडल आदि आकारों का जो २ नाम है वह गुण नाम होकर भी भिन्न २ रूप से वर्णादि नाम है। इस प्रकार ये गुण नाम २५ प्रकार के होकर भी एक गुणनाम में ही अन्तर्भूत हैं। पर्याय नाम नियमित नहीं हैं। क्योंकि पर्याये स्वयं अनेकविध हैं। रूप, रस, गंध आदि जितने भी गुण हैं उन सब में उनके एक दो तीन चार आदि संख्यात, असंख्यात अनंत अंश हैं एक कृपण गुण को ही ले लीजिये-कोई पदार्थ कम कृष्ण है, कोई उससे अधिक कृष्ण है
और कोई उससे भी अधिक कृष्ण हैं। यह कृष्ण गुण की तरतमता उसके अंशों के ऊपर निर्भर है। कृष्ण गुण का सबसे कम जो एक છે તે દ્રવ્યનામ છે. ગુણેનાં જે નામ છે તે ગુણનામ છે. તે ગુણનામ પાંચ પ્રકારના કહ્યા છે જે કે વર્ણ, રસ, ગંધ, અને સ્પર્શ રૂ૫ ચાર ગુણ હોય છે, પરંતુ સંસ્થાન (આકાર)ને પણ પુદ્ગલ દ્રવ્યમાં સદા સદ્દભાવ રહે છે, તે કારણે અહીં સંસ્થાનને પણ ગુણ રૂપ ગણીને ગુણનામમાં પંચવિધતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. પાંચ પ્રકારના વર્ષોના, બે પ્રકારના ગંધનાં, પાંચ પ્રકારના રસના, આઠ પ્રકારના સ્પર્શનાં અને પાંચ પ્રકારના સંસ્થાનાં (આકારેન) જે જે નામો છે તે ગુણનામ હેવા છતાં પણ જુદાં જુદાં વર્ણાદિ નામ રૂપ છે. આ પ્રકારે આ ગુણનામ ૨૫ પ્રકારના હોવા છતાં પણ એક ગુણનામમાં જ સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. પર્યાયનામ નિયમિત નથી, કારણ કે પર્યા અનેકવિધ હેાય છે રૂપ, રસ, ગંધ આદિ જેટલા ગુણે છે તેમાં વર્ણાદિના એક, બે, ત્રણ, ચાર, આદિથી લઈને ૧૦ પર્યંતના અંશોને, સંખ્યાત અશેને, અસંખ્યાત અંશેને અને અનેક અંશેને સદુભાવ હોઈ શકે છે. એકલા કૃષ્ણ વર્ણ રૂપ ગુણને જ દાખલે લઈએ કેઈ પદાર્થમાં ઘણી ઓછી કાળાશ હોય છે, કોઈકમાં અધિક કાળાશ હોય છે, કઈમાં અધિકતર કાળાશ હોય છે, તે કઈમાં અધિકતમ કાળાશ હોય છે. આ કૃષ્ણ ગુણની જૂનાધિતાને આધારે તેમાં રહેલી કાળાશના અંશ પર આધાર રાખે છે. કૃષ્ણ ગુણને જે સૌથી જઘન્ય (ન્યૂનમાં ન્યત) અંશ છે તે એક અંશ રૂ૫
બ૦ ૮૪.
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अनुयोगद्वार
पुनः प्रकारान्तरेण त्रिनाम मोच्यते
मूलम् - तं पुण णामं तिविहं, इत्थी पुरिसं णपुंसगं देव ।
एएसि तिव्हंपि य, अंतंमि य
परूवणं वोच्छं ॥१॥
हवंति चत्तारि ।
तत्थ पुरिसस्स अंता, आई ऊओ ते चेव इत्थियाओ, हवंति ओकारपरिहीणा ॥ २ ॥
अंश है वह कृष्ण गुण का जघन्य अंश है । यह कृष्ण गुणांश कृष्णगुण का पर्याय है । इस पर्यायवाला जो परमाणु आदि द्रव्य है वह कृष्ण गुण की एक अंश रूप पर्यायवाला होने से एक गुण कृष्णवालाएक गुणकालक- परमाणु आदि इस नाम से कहा जाता है। इसी प्रकार से अन्य द्विगुण आदि कालक द्रव्य पर्याय नाम में जानना चाहिये । इसी प्रकार से अन्य गंधादि गुणों के एकादि अंशोपेत परमाणु आदि द्रव्यों के नाम के विषय में जानना चाहिये। यहां पर कृष्णादि गुणों की एक अंश दो अंश आदि पर्यायें कही हैं और इन पर्यायों के आश्रित एक गुण कालक परमाणु ऐसा जो नाम है वह पर्यायाश्रित नाम है। पर्यायाश्रित नाम में पर्याय की मुख्यता रहती है । गुण और पर्यायों में सहवर्त्तित्व और क्रमवर्तित्व अनियमितत्व को लेकर भेद है। तात्पर्य यह है कि सहवर्ती गुण और क्रमवर्ती पर्यायें हैं । ॥ सू० १४७॥
ગણાય છે તે કૃષ્ણ ગુણુાંશ કૃષ્ણ ગુણની પર્યાય રૂપ ગણાય છે. આ પર્યાયવાળું. પરમાણુ આદિ દ્રવ્ય હાય છે તે કૃષ્ણે શુન્નુના એક અંશ રૂપ પર્યાંચવાળું હાવાથી તેને એક ગુણ કૃષ્ણુતાવાળું અથવા એક ગુણુ કાલક પરમાણુ આદિ રૂપ કહેવામાં આવે છે. દ્વિગુણુ આદિ કાલક દ્રશ્યપર્યાયના વિષયમાં પણ એજ પ્રકારનું સ્પષ્ટીકરણ સમજવુ' એજ પ્રમાણે અન્ય ગધાદિ ગુણ્ણાના એક આદિ અ‘શેાવાળા પરમાણુ આદિ દ્રબ્યાના નામ વિષેનું કથન પણ સમજવું જોઇએ.
અહીં કૃષ્ણાદિ ગુણાના એક અંશ, એ અંશ આદિને પર્યાય રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. અને તે પર્યાચાને આધારે એક ગુણુ કાલક ૫૨માણુ, આદિ જે નામ આપવામાં આવ્યાં છે, તે પર્યાયાશ્રિત નામેા છે પર્યાયાશ્રિત નામનાં પર્યાયની પ્રધાનતા રહે છે ગુણુ અને પર્યાયમાં સહતિ અને ક્રમતિ (અનિયમિતત્વ)ની અપેક્ષાએ ભેદ હોય છે એટલે કે ગુગુ સહવતી હોય છે અને પર્યાય ક્રમવતી હોય છે. પ્રસૂ॰૧૪૭ના
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मनुगोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४८ प्रकारान्तरेण त्रिनामनिरूपणम्
अंतिअ इंतिय उंतिय-अंताउ गपुंसगस्त बोद्धव्वा। एएमि तिण्हंपि य, वोच्छामि निदंसणे एत्तो॥३॥ आगारंतो राया, ईगारंतो गिरी य सिहरी य। ऊगारंतो विण्हू, दुमो य अंतो उ पुरिसाणं ॥४॥ आगारंता माला, ईगारंतो सिरी य लच्छी य। ऊंगारंता जंबू, बहू य अंता उ इत्थीणं ॥ अंकारंतं धन्नं, इंकारंतं नपुंसगं अत्थि ।
उंकारंतं पीलुं महुंच अंताणपुंसाणं॥से तंतिणामे।सू.१४८॥ छाया- तत्पुनर्नाम त्रिविधम् , स्त्री पुरुषो नपुंसकं चैत्र ।।
एतेषां त्रयाणामपि च, अन्ते च प्ररूपणां वक्ष्ये ॥ तत्र पुरुषस्य अन्ताः, आईऊओ भवन्ति चत्वारः । तएव स्त्रियाः, भवन्ति ओकारपरिहीनाः॥ अं इति च इं इति च, उं इति च अन्तास्तु नपुंसकस्य बोधव्याः। एतेषां त्रयाणामपि, वक्ष्यामि निदर्शनमितः ।। आकारान्तो 'राया' ईकारान्तो 'गिरी' च 'सिहरी' च । ऊकारान्तो 'विहू' 'दुमो' च अन्तस्तु पुरुषाणाम् ॥ आकारान्ता 'माला' ईकारान्ता 'सीरी'च 'लच्छी'च । ऊकारान्ता 'जंबू' 'बहू' च अन्यस्तु स्त्रीणाम् ॥ अंकारान्तं 'धन्नं' इंकारान्तं नपुंसकम् 'अस्थि'।
उंकारान्तः 'पीलं' 'महुं' च अन्तो नपुंसकानाम् ॥ तदेतत् त्रिनाम ॥सू०१४८॥
टीका–'तं पुण' इत्यादि
द्रव्यसम्बन्धि तत्पुनर्नाम स्त्री पुनपुंसकभेदेन त्रिविधं विज्ञेयम् । एषां त्रयाणामपि च नाम्नाम् अन्ते यान्याकारादीन्यक्षराणि तद्वारा नाम्नः प्ररूपणां करि
प्रकारान्तर से पुनः इमी त्रिनाम को सूत्रकार कहते हैं"तं पुण णामं तिविहं" इत्यादिહવે સૂત્રકાર ત્રિનામનું બીજા પ્રકારે કથન કરે છે– "तं पुण णामं तिविह" त्या
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अमुयोगमा ज्यामि ॥१॥ तत्र-त्रिविधनाम्नो मध्ये पुरुषस्य पुल्लिङ्गनाम्नः अन्ना अन्तस्थिता वर्णा 'आई ऊओ' इति भवन्ति । तथा-स्रोलिङ्ग नाम्नः अन्तस्थिता वर्णा
ओकारवर्जिताः पूर्वोक्ता एव वर्णा बोध्याः। आकारान्ता ईकारान्ता ऊकारान्ताश्च शब्दा स्त्रीलिङ्गा बोध्याः॥२॥ तथा-नपुंसकशब्दानाम् 'अ' इति च 'ई' इति च '' इतिच अन्ता बोध्याः । अयं भाव:-अंकारान्ता इंकारान्ता उकारान्ताश्च शब्दा नपुंसकलिङ्ग बोध्याः। इतोऽग्रे एतेषां त्रयाणामपि निदर्शनम् उदाहरणं वक्ष्यामि
शब्दार्थ-द्रव्य संबन्धी (तं पुणणाम) वह नाम (तिविहं) तीन प्रकारका है (इस्थी पुरिसं णपुंसगंचेव) स्त्रीनाम पुरुषनाम और नपुंसक नाम । (एएसिं तिण्हंपि अंतमियपरूवणं वोच्छं) मैं इन तीनों भी नामों की अन्त में आगत आकारादि अक्षरों द्वारा प्ररूपणा करूँगा। (तत्थ) तीन प्रकार के नाम के बीच में (पुरिसस्स) पुल्लिङ्ग नाम के (अंतो) अन्त में (आईउ ओ चत्तारि हवंति) आई ऊ, ओ, ये चार वर्ण होते हैं। (इत्थियाओ) स्त्रीलिङ्ग नाम के अन्त में (ओकार परिहीणा) ओकार वर्ण से रहित ये पूर्वोक्त ही वर्ण (हवंति) होते हैं। अर्थात् आकारान्त, ईकारान्त और ऊकारान्त शब्द स्त्रीलिङ्गवाले होते हैं। तथा (अन्ताः) जिनके अन्त में (अंतिम इंतिय उतिय) अं, इं, उं ये वर्ण होते हैं वे (णपुंसगस्स) शब्द नपुंसकलिङ्ग, के (बोद्धव्वा) जानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि प्राकृत भाषा में अं, ई, उं, अन्तवाले शब्द नपुंसकलिङ्ग,
___ शाय-द्रय विषय (तं पुण णाम) a नाम (विविह) ३ ४२नु 3य छे. नेम , (इत्थी पुरिसं णपुंसगं चेव) (१) श्रीनाम, (२) पुरुषनाम (3) नस नाम (एएसिं तिण्ह पि अंतमियपरूवण वोच्छं) वे ॥ ३ પ્રકારનાં નામની તેમના અંત્યાક્ષરો દ્વારા પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે એટલે કે સ્ત્રીલિંગ, આદિનાં નામોને અને કયા કયા અક્ષરે આવે છે, તે પ્રકટ ४२वामां आवे छ-(तत्थ पुरिसस्स अंता आ, ई, ऊ, ओ चत्तारि हवंति) पुरुથના (પુલિંગનામો, નરજાતિનાં નામ) ને અને આ, ઈ, ઊ કે એ, આ यामांना ५ १ (अक्ष२) डाय छे. (इस्थियाओ ओकारपरिशीणा) સ્ત્રીના નારી જાતિનાં નામ) ને અન્ને “એ” સિવાયના પૂર્વોક્ત ત્રણે सेट, आ, ई, ऊ (हवंति) डाय छे ये हैं आरान्त, ईरान्त भने
आशन्त शण्ही नारी तिनi (C) डाय छ, तथा (अन्ताः) २४ने मन्त (अंतिअ इंतिय उतिय) भ, 3 6 डीय छ, ते शहाने (णपुंसगस्स) नधुस लिना (नान्येतर तिनI) (बोल्वो) समनपा यन તાત્પર્ય એ છે કે પ્રાકૃત ભાષામાં એ, ઈ અને ઉં અનાવાલા ને નવું
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बोचन्द्रिका टीका सूत्र १४८ प्रकारान्तरेण त्रिनामनिरूपणम्
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कवयिष्यामि ||३|| अथ पुंल्लिङ्गशब्दोदाहरणमाह - 'राया' इति आकारान्तः शब्दो बोध्यः । ‘गिरी' 'सिहरी' च शब्दौ ईकारान्तौ । 'बिहू' इति ऊकारान्तः 'दुमो ' इति ओकारान्तः । एते पुँल्लिङ्गशब्दाः || ४ || अथ स्त्रीलिङ्गशब्दोदाहरणान्याह - 'माला' इति आकारान्तः शब्दः । ' सिरीलन्छी' शब्दौ ईकारान्तौ । 'जंबू बहू' शब्दौ च ऊकारान्तौ । आकारान्ता ईकारान्ता ऊकारान्ताच माळादयः शब्दाः स्त्रीलिङ्गा बोध्याः || ५ || अथ नपुंसकलिङ्गशब्दोदाहरणान्याह - 'अंकारं तं धन्नं ' माने गये हैं । (एतेसिं तिपि य एतो णिदंसणे वोच्छामि ) अब मैं यहां से आगे इन तीनों के उदाहरण कहता हूँ - (आगारंतो राया, ईगारंतो गिरी, य सिहरी य, ऊगारंतो विण्ह दुमो य अंतो उ पुरिसार्ण) "राया" यह पुल्लिङ्गके आकारान्त शब्द का उदाहरण है "गिरी" एवं "सिहरी" ये दो शब्द पुल्लिङ्ग, के ईकारान्त शब्द के उदाहरण हैं । "विण्हू" यह पुल्लिङ्ग के ओकारान्त शब्द का उदाहरण है । और "दुमो " यह पुल्लिङ्गके ऊकारान्त शब्द को उदाहरण हैं । (इत्थीण) स्त्रीलिङ्ग शब्द के उदाहरण ये हैं - (आगारंता माला) आकारान्त "माला" शब्द (ईगारंता ) ईकारान्त ( सिरीय लच्छी य) “सिरी" और "लच्छी" ये दो शब्द (ऊगारंता जंबू बह्य) ओकारांत "जंबू" और "वह" ये दो शब्द | इस प्रकार आकारान्त, ईकारान्त और ऊकारान्त मालादिकशब्द स्त्रीलिङ्ग जानना चाहिये। अब सूत्रकार नपुंसकलिङ्ग शब्दों के उदाहरण
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साबिंगना नाभी गवामां आवे छे. (एतेमिं तिन्ह पि य एतो णिदंसणे बोच्छामि) हवे मा त्र सिचना यहोना उद्यारथे। भाषवामां आवे छे(आगारंतो राया, ईगारंतो तिरी, य सिहरी य, ऊगारंतो विषहू, ओगारंतो दुमो, अंतो उ पुरिमाणं) पुलिगना अन्त यह ४ः३२७ राया " (राम), ४. "गिरी" (गिरि) भने सिहरी " ( शिमरी) मा मे यहो अशन्त नरमतिनां पढो छे. “विण्डू (विषय) આ પદ ઊકારાન્ત નરજાતિનું પદ छे. " दुमो (वृक्ष, द्रुम) " मा आईत यह खेाशन्त नरमतितु यह छे, (इत्थीण) स्त्रीलिंग (नारीलतिनां) पहोना नीचे प्रमाणे उहाड२ छे- (आगारंता माला) 66 માલા 99 या यह आकारान्त नारीन्नतिनु छे, (ईगारंता सिरी य लच्छी य " सिरी " भने " लच्छी " આ બે પ્રાકૃત પાઈકારાન્ત-નારી लतिनां पो छे, (ऊतारंता जंबू, बहूय) “जू” भने “जडू” मा मे પદા ઊકારાન્ત નારીજાતિનાં પદ્મ છે. આ પ્રકારે આકારાન્ત, ઇંકારાન્ત અને કારાન્ત માલા આદિ પટ્ટાને સ્ત્રીલિંગ સમજવા જોઇએ . હવે સૂત્રકાર નપુ એક
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अनुयोगवारस्य अंकारान्तः शब्दः 'धन्नं' इति विज्ञेयः । 'अत्थि' इति शब्द इंकारान्तो बोध्या। 'पील महुँ' चेति शब्द द्वयं उंकारान्तं बोध्यम् । एते अंकारान्तादयः शब्दा नपुं. सकलिङ्गा बोध्याः। लिङ्गत्रये य एते शब्दा उक्तास्ते सविभक्तिकाः माकृतशब्दा विज्ञेयाः प्रकृतमुपसंहरन्नाह-तदेतत् त्रिनामेति ॥सू० १४८|| कहते हैं-(भंकारंतं धन्न) अंकारान्त शब्द "धन्नं" हैं। (इंकारंतं नपुं सगं अत्थि) इंकारान्त शब्द "अधि" है (उंकारंतं पिलं महं च) और उकारान्त "पीलं" "महुं" हैं ये अंकारान्तादि शब्द (अन्ता) कि जिनके अन्त में "अं" "ई" "" ये वर्ण हैं वे (नपुंसगाणं) नपुंसकलिङ्ग हैं। तीनों लिङ्गों में जो ये उदाहरण कहे गये हैं वे विभक्तियुक्त प्राकृत शब्द हैं। (से तं तिणामे ) इस प्रकार यह त्रिनाम है।
भावार्थ-प्राकृत भाषा में तीन लिङ्ग हैं। उनमें जिन शब्दों के अन्त में "आ ई ऊ ओ" ये चार वर्ण हों वे पुल्लिङ्ग हैं-जैसे "राया" यह शब्द "संस्कृत में "राया" की छाया “राजन्” है। और यह वहां हलन्तपुल्लिङ्ग में नकारान्त शब्द है । "गिरी और सिहरी" ये दो शब्द इकारान्तपुल्लिङ्ग के उदाहरण हैं । संस्कृत में इन की छाया "गिरि" बिना (नान्यत२ जतिनi) पहाना हा२। मापे - (अकारान्तं धनं) "धन्नं" . पाहत ५६ अरान्त न विनु ५४ छे. (इंकारान्तं नपुंसगं अत्थि) “ अस्थि, 0 प्राकृत ५४ रान्त नपुस गर्नु ५६ छे. (उकारान्तं पीलुं महुं च) “ पोलुं” भने " महुं" पह। 'रान्त न:सबिना पढी छ. २ शहोने भन्ते म, , , " छे ते पहा (नपंसगाणं) नघुसविना काय छे, म पात तो पडेसां अट ४२१मां આવી ચુકી છે. ત્રણે લિંગનાં (જાતિના) આ જે પદના ઉદાહરણ આપपामा भाच्या छ, a विमतियुत प्राकृत शम्। छ. (से तं विणामे) मा પ્રકારનું ત્રિનામનું સ્વરૂપ સમજવું.
ભાવાર્થ-પ્રાકૃત ભાષામાં ઉપર્યુક્ત ત્રણ લિંગ હોય છે. જે શબ્દને अन्त " आ, ई, ऊ, ओ" मा या२ माना छ ५ १ हाय छ ते पह। पुलिस डाय छ रेभ मारान्त “राया" ५६ मा शनी संत छाया “राजम् ,' थाय छ तर शुभरातीमा "M" छ. ॥ शम मान्त लिनु हा २६ छे. " गिरी" भने “बिहरी" मा पहो Usad yanना 8२। ३२ मही १५२।यां छे. "गिरी" पात पनी संस्कृत छाया " गिरी" थाय छ, “सिहरी" भनी
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १४८ प्रकारान्तरेण त्रिनामनिरूपणम् ६७१ और "शिवरी" ऐसी होती है-गिरि शब्द वहां अजन्त पुल्लिङ्ग और शिखरिन् शन्द हलन्तपुल्लिङ्ग है। "विण्ह" यह शब्द ऊकारान्त पुल्लिङ्ग का है। इसकी संस्कृत छाया "विष्णु" ऐसी है। विष्णु शब्द यहां अजन्त पुल्लिङ्ग है। "दुमो" यह शब्द ओकारान्त पुल्लिङ्ग का है। इसकी छाया "द्रुमः" ऐसी है । यह शब्द वहां अकारान्त पुल्लिङ्ग है। स्त्रीलिङ्ग में प्राकृत आकारान्त माला शब्द है। संस्कृत छाया इसकी माला ही है। संस्कृत में भी यह शब्द अजन्त स्त्रीलिङ्ग ही है। प्राकृत भाषा में ओकारान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग नहीं माना जाता है। जैसे देवों आदि शब्द । ओकारान्त शब्द सब ही पुल्लिङ्ग है। लच्छी सिरी-कि जिनकी संस्कृ छाया लक्ष्मीः और श्री ऐसी होती है दोनों शब्द ईका. रान्त स्त्रीलिङ्ग हैं। ऊकारान्त जंबू बह शब्द प्राकृत में स्त्रीलिङ्ग हैं। संस्कृत में भी ये दोनों स्त्रीलिङ्ग में हैं। प्राकृत भाषा में नपुंसकलिङ्ग की निशानी अंई उ है। जिनके अन्त में ये अं इं उं होते हैं वे नपुंसकलिङ्ग माने जाते हैं। जैसे अस्थि अस्थि, महुं-मधु पील-पील। इस प्रकार सकृत छया " शिखरी" थाय छ, गुतीमा तन सय ५'त थायछे “विण्ह " मा ५६ शन्त पुदिन २ ३५ छ. तनी सत छाया " विष्णु" थाय छे. “दुमो” मा ५४ रात पुगिना ઉદાહરણ રૂપ છે. તેની સંસ્કૃત છાયા “ટૂમ થાય છે તેને ગુજરાતીમાં " वृक्ष" ४ छ सभा 'द्रुम' ५४ मत छ. सारान्त भोलि पनु हा "माला" ५६ छे. तेनी सतत छाय। ५५ 'माता' જ થાય છે સંસ્કૃતમાં પણ આ શબ્દ આકારાન્ત સ્ત્રીલિંગ જ છે પ્રાકૃતમાં આકારાન્ત શબ્દને સ્ત્રીલિંગવાળો ગણવામાં આવતું નથી જેમ કે “દે' अधां सन्त यह पुEिnाय छ “ सिरी भने लच्छी" मान्ने પદ ઈકરાન્ત સ્ત્રીલિંગનાં ઉદાહરણ છે તેમની સંસ્કૃત છાયા અનુક્રમે "श्री" भने “ लक्ष्मी" छे. सरतमा ५५ मा मने पहश्रीनिi or पहा . ऊ ४२रान्त " जंबू” भने “ बहू " म भन्ने पातमा सीसि जना શબ્દો છે સંસ્કૃત ભાષામાં પણ આ બન્ને શબ્દો સ્ત્રીલિંગ જ છે. જે શબ્દોના अन्त्याक्ष। “अं 'इं " य छ, ते शो नविना सराय छ
भ, “अत्थि" मा ५६ इंन्त, “ महुं" ५४ उसत भने "पोलं" मा ५६ उ शन्त भने 'धन्नं' मा ५६ अं १२-त नसलगना पो छे संस्कृतमा तमना मना पाय म " मधु", 'पीलु'
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भनुबोगदारखे अथ चतुर्नान निरूपयितुमाह --
मूलम्.-से फि त चउणाम ? च उणामे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-आगमेणं लोवेणं पयईए विगारेणं । से किं तं आगमेणं? आगमेणं वक, वयंसे, अइमुत्तए। से तं आगमेणं। से किं तं लोवणं? लोवेणं ते एत्थ तेऽस्थ, पडो एत्थ-पडोऽस्थ, घडो एत्थ घडोऽत्थ। से तं लोवेणं। से किं तं पगईए ? पगईएहोद इह गड्डे आवडंती, आलिक्खामो एण्हि, अहो अच्छरियं । से तं पगई।। से किं तं विगारेणं? विगारेणं-दंडस्म अग्गंदंडग्गं, सा आगया साऽऽगया, दहि इणं-दहीणं, नईइह-नईह, मह उदगं-महृदगं वह ऊहो-वहहो । से तं विगारेणं। से तं चउणामे ॥सू०१४९॥
छाया-अथ किं तच्चतुर्नाम? चतुर्नाम चतुर्विधं प्रज्ञतम्, तद्यथा-आगमेन, लोपेन, प्रकृत्या, विकारेण । अथ किं तदागमेन? आगमेन-चक्रम् , वयस्याः, अतिमुक्तकः । तदेतदागमेन । अथ किं तद् लोपेन ? कोपेन-ते अत्रतेऽत्र, पटो अत्र-पटोऽत्र, घटो अत्र घटोत्र । तदेतद् लोपेन । अथ किं तत् प्रकृत्या ? प्रकृत्या-भवति-इट, गर्ते आपतन्ती आलेक्ष्याम इदानीम् , अहो आश्चर्यम् तदेतत् प्रकत्या। अथ किं तद् विकारेण विकारेण दण्डस्य अग्रम् दण्डाग्रम् , सागता= साऽऽगता, दधि इदम् दधीदम् , नदी इह-नदीह, मधु उदकम्-मधूदकम् , वधू उहा-वधूहः। तदेतद् विकारेण । तदेतच्चतुर्नाम ॥५० १४९॥ स्त्रीलिङ्ग, पुलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग संबन्धी शब्दों से निष्पन्न स्त्रीनामपुल्लिङ्ग नाम और नपुमक नाम हैं । इस प्रकार लिङ्गानुसार यह त्रिनाम स्वरूप है ।सू० १४८॥ અને ઘરછે આ પ્રકારનાં સ્ત્રીલિંગ, પુલિંગ અને નપુંસકલિંગના શબ્દમાંથી બનતાં નામને અનુક્રમે સ્ત્રીનામ, પુલિંગનામ અને નપુંસકનામ કહે છે. લિંગ (જાતિ) અનુસાર ત્રિનામનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજવું. સૂ૦૧૪૮
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भनुयोनचन्द्रिका टीका सूत्र १४९ चतुर्नामनिरूपणम्
टीका -' से किं तं ' इत्यादि
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शिष्यः पृच्छति - अथ किं तच्चतुर्नाम ? इति उत्तरयति - चतुनीम - चतुष्प्रकारक नाम - चतुर्नाम तद्धि चतुर्विधं प्रज्ञातम् । चतुर्विधत्वमेवाड - आगमेन, लोपेन, प्रकृत्या, विकारेण चेति आगमेनेत्यादिषु सर्व 'निष्पन्न' - मित्यध्याहार्यम् । तत्र - आगमेन निष्पन्नम् ' बैंक, वयंसे, अइमुंतर' वक्रं वयस्यः, अतिमुक्तकः, अत्र प्राकृते आगमरूपोऽनुस्वारः, “वक्रादावन्तः" (८।१।२६) तथा लोपेन निष्पन्नं नाम - 'ते अब सूत्रकार चार प्रकार के नाम की प्ररूपणा करते हैं"से किं तं चरणामे" इत्यादि ।
६७३
शब्दार्थ - (से किं तं चउण मे) हे भदन्त ! वह चतुर्नाम क्या है । उत्तर- (चउगामे चउच्चिहे पण्णत्ते) चतुर्नाम - चार प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है । (तं जहा) जैसे (आगमेण, लोयेणं पपईए, विगारेणं) एक आगम निष्पन्न नाम, दूसरा लोपनिष्पन्न नाम तीसरा प्रकृत fasure नाम और चौथा विकार निप्पन्न नाम । (से किं तं आगमेणं) हे भदंत ! आगम निष्पन्न नाम क्या है ?
उत्तर- (आगमेणं वंकं वयंसे असुंतए) आगमनिष्पन्न नाम वक्र वयस्य और अतिमुक्तक हैं। (सेतं आगमेणं) इस प्रकार ये सब आगम से निष्पन्न नाम हैं। (से किं तं लोवेणं) हे भदन्त ! लोप निष्पन नाम क्या है ?
હવે સૂત્રકાર ચતુર્નામની પ્રરૂપણા કરે છે—
66
' से किं तं च मे " त्याहि
ચેથાલેદ રૂપ
शब्दार्थ - (से किं तं चउणामे) हे भगवन् ! નામના ચતુર્નામનુ સ્વરૂપ કેવું છે ?
त्तर- (चणा मे चउबिहे पण्णत्ते) यतुर्नाम यार प्रहार छु छे (तंजा) ते यार प्रहारो नीचे प्रमाणे छे - (आगमेण, लोवेणं, पयईए, बिगारेणं) (१) आगमनिष्यन्न नाम, (२) सेोपनिष्यन्न नाम, ( 3 ) प्रभृतिनिष्पन्न नाम (४) विहारनिष्पन्न नाम.
प्रश्न - (से किं तं आगमेणं) हे भगवन् ! आगमनिष्यन्न नाम हैने उसे छे? હૈ उत्तर-(आगमेणं वंकं, वयंसे, अइ मुंतर) १४, वयस्य भने अतिभुत, मा पहो आगमनिष्यन्न नाभे छे. ( से तं आगमेणं) मा अारनां भागमनिष्यन्न નામા હૈાય છે
प्रश्न- (से किं तं लोवेणं) हे भगवन् ! सोपनिष्यन्न नाम ठेवु' होय छे ?
अ० ८५
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६७४
अनुयोगदार एत्य तेत्य, पडो एत्य पडोत्थ' ते अत्र-तेऽत्र, पटो अत्र-पटोऽत्र इत्यादि, मत्र पाकृतमयोगे 'एत्थ' इत्यस्य एकारस्य लोपः "त्यदायव्ययात् तत्स्वरस्य लुक" (८।१।४०)। तथा-प्रकृस्या निष्पन्नं नाम-'गड्डे-आवडंती, आलेक्खमो-एणि, होइ-इह' गर्ते आपतन्ती, आलेक्ष्याम इदानीम् , भवति-इह, इत्यादि । भत्र "एदोतोःस्वरे" (१७) "त्यादेः" (८१.९) एतत्सूत्रानुसारेण माकृते प्रकृतिभावो भवति । तथा-विकारेण निष्पन्नं नाम-'दंडस्स अग्गं दंडग्गं, सा आगया
उत्तर-(लोवेणं) लोप निष्पन्न नाम इस प्रकार से हैं-(ते एस्थ= तेऽत्थ, पडो एल्थ-पडोऽस्थ, घडो एस्थ-घडोऽस्थ) ते अम्रतेऽत्र पटो अत्र-पटोऽत्र घटो अत्र घटोऽत्र (से तं लोवेणं) इस प्रकार ये लोपसे निष्पन्न नाम हैं। (से कि तं पगईए) हे भदन्त प्रकृति भाव से निष्पक्ष नाम क्या है ? (पगईए) प्रकृति भाव से निष्पन्न नाम इस प्रकार से है (होइ इह, गड्डे आवडंनी आलिक्खामो एम्हि अहो अच्छरिय) भवति इह गर्ते आपतन्ती, आलेयाम इदानीम् , अहो आश्चर्यम् (से तं पगईए) इस प्रकार ये प्रयोग प्रकृति भाव से निष्पन्न नाम हैं । (से किं तं विगा. रेणं) हे भदन्त । विकार से निष्पन्न नाम क्या है?
उत्सर-(विगारेणं) विकार से निष्पन्न नाम इस प्रकार से है(दंडस्स+अग्गं दडग्गं, सा+आगया साऽऽगया, दहि+इणं-दहीणं, नई+
उत्तर-(लोवेणं) सोपनि०५-न नाम मा प्रा२ना तय छे-(ते एत्थ तेऽस्थ, पडो एत्थ-पडोऽत्थ, पडो एत्थ घडोऽत्थ) तमत्रतेऽत्र(तत्र, ते अने व १२ये " આનું જે નિશાન છે તેને અવગ્રહચિહ્ન કહે છે. આ પ્રકારનું નિશાન પછીના पहना 'अ' न साय थये। छ म सूयवे है) ५टेम-पटोऽत्र, भने घटमित्र घटोऽत्र (भा पहाभां मना अने। सा५ याथी अपथिक भू. पामा मायां . (से तं लोवेणं) मा प्ररे सोपथी नियन्न नामा डाय છે તેમને લેપનિષ્પન્ન ના કહે છે.
-से किं तं पगईए ?) भगवन्! प्रकृतिमाथी निपन्न नाम કેવું હોય છે?
उत्तर-(पगईए) प्रकृतिलावधी निपन्न नाम मा प्रानु जय है(होइ इह, गड्ढे आवडंती, आलिखामो एण्हिं, अहो अच्छरिय) भति, भत भापतन्ती, आयाम हानीम्, अ। आश्चयम् (से तं पगईए), 11રના આ પ્રગો પ્રકૃતિભાવનિષ્પન્ન નામના ઉદાહરણે પૂરાં પાડે છે.
प्रश्न-से किं तं विगारेणं) 3 लन् ! विनियनाम हाय ? SHR-(विगारेणं) विनिष्पन्न नाम प्रानु डाय छ-(दंडस्सx
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अनुयोगवन्द्रिका टी का सूत्र १४९ चतुर्नामनिरूपणम्
६७५ सागया' दण्डस्य-अंग्रे दण्डाग्रम् , सा-आगता साऽऽगता' इत्यादि बोध्यम् । विकारो हि वर्णस्य स्थाने वर्णान्तरापादनरूपः । नामवंचात्र तेन तेन रूपेण नमनात् परिणमनाद् बोध्यम् । लोके हि यान्तः शब्दास्ते आगमाघन्यतमनिष्पन्ना एव सन्ति । ये च डित्य डवित्थादयः कश्चिदव्युत्पन्नत्वेनाभिमतास्तेऽपि शाकटायनमते व्युत्पन्ना एव । उक्तंच
"नाम च धातुमाह निरुते, व्याकरणे शकटस्यच स्तोकम् (अपत्यम् )।
यन्न पदार्थविशेष समुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदूह्यम्" ॥इति। इत्थं च सर्वेषां शब्दानामागमादिमिश्चभिः संग्रहादिदमागमादिकं चतुर्नामेत्युच्यते। प्रकृतमुपसंहरन्नाह-नदेतच्चतुर्नामेति ॥५० १४९॥ इह-नईह महु+उदगं+प्रहृदगं, वह महोब्रहहो। दण्ड+अग्र-दण्डाग्र सा+ आगतासागता दधि+इदंदधीदं नदी+हनदीह, मधु+उदक-मधूदक, वधू+ऊह वधूहः (सेत विगारेणं) इस प्रकार के ये शब्द विकार निष्पन्न नाम हैं । ( से नं च उणामे ) ये पूर्वोत चतुर्नाम हैं।
भावार्थ--आगम निष्पन्न, लोप निष्पन्न, प्रकृति नियन्न और विकार निष्पन्न इस प्रकार से चतुर्नाम चार प्रकार के होते हैं। आगम रूप अनुस्वार से जो शब्द निष्पन्न होते हैं वे आगम निष्पन्न चतुर्नाम है जैसे प्राकृत भाषा में वंक, वयंसे, अई मुंतए ये शब्द हैं। "वक्रादावन्तः" इस सूत्र से प्राकृत भाषा में वक्रादि शब्दो में आगमरूप अनुस्वार होता है। "वंक" शब्दकी संस्कृत छाया "यकम्" है। वयंसे "शब्द की
अग्ग-दंडगं, सा+आगया AISऽगया, दहि । इणं-दहीणं, नई इह-नईह, महर उदगं=महूदगं, बहूxअहो बर्हो) ६+ ६, सा+आगतासागता, दधिx इदं धीह,
नीनहीड, मधु+उदक-म५६४, वधूxऊह-वधूडः (से तं विगारेणं) मा मा २०४। विनि०५न्न नाभी छे. (से तं चउणामे) मा मयां નામે પૂર્વોક્ત ચતુર્નામ રૂપ ગણાય છે.
ભાવાર્થ-ચતુનમના ચાર પ્રકાર છે-આગમનિષ્પન, લેપનિષ્પન, પ્રકતિનિષ્પન, અને વિકારનિષ્પન આગમ રૂપ અનુસ્વાર વડે જે જે શબ્દો બને તેમને આગમનિષ્પન્ન ચતુર્નામ રૂપ સમજવા જેમ કે પ્રાકૃત ભાષાના "बंकं, वयंसे अने अइमुंतए" ! शो भागमनि०५-न यतु भा छे. " वादावन्तः” । सूत्र मे पात ८ ७२ छ , प्राकृत भाषामा And शण्टामा ३५ अनुस्वार डाय छे. "वं" मा प्राकृत शासन संस्कृत छाया "वक्रम् ” छे. “वयंसे" I प्राकृत ५४नी सस्त या
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अनुयोजदारको सयत छाया" वयस्यः"है। "मुंतर की जगह पर आमुन्सर भी रूप होते हैं। परन्तु चंकं आदि जो ये नाम-प्रतिपादिक संज्ञक शब्द है भामम निष्पन्न नाम है अर्थान् अनुस्वार के आगम से बने हुए नाम हैं।
+एस्थ, पडो+एस्थ, इन प्राकृत प्रयोगो में "एस्थ" शब्द के एकार का लोप "त्यदाद्यव्ययात् तत्स्वरस्य लुक्" इस सूत्र से होता है। इसलिये "तेस्थ पडोत्थ" ये लोप निष्पन्न नाम हैं। "गड्डे आवडती, आलेक्समो ऐहिं होह इह" इन प्रकृतिभाव निष्पन्न नामों में "एदेतोः स्वरे त्यादेः इन सूत्रों के अनुसार प्राकृत भाषा में प्रकृतिभाव होता है। जो प्रयोग जैसे हैं उनका वैसा ही रूप रहना इसका नाम प्रकृति भाव है। प्रकृति भाष में मूल रूप में कोई विकार नहीं होता है। गर्ते+आपतन्ती यहां पर संस्कृत व्याकरण के अनुसार ए के स्थान में अव् होना चाहिये, आले. याम+इदानीम् यहाँ पर "आद्गुण" से ए गुण होना चाहिये, भवति+ इह यहां पर अकः सवर्णे दीर्घः." से दीर्घ होना चाहिये-परन्तु प्रकृति भाव होने पर इन नामों में कोई भी संधिरूप विकार नहीं हुआ है। "वयस्यः" छ. " अइमुंतए" मा प्राकृत पहनी सकृत छाया " अतिमुक्वकः" छे. "व" मा ५४नी या "वल्क, " " वयंसे" मा पहनी सन्याय " वयस्से" भने “अइमुंतए" मा ५४नी १२॥ " अइमुत्तए" આ રૂપને પણ પ્રયોગ થાય છે. પરંતુ વંક આદિ ઉપર્યુક્ત નામે-પ્રતિપાદન કરનારા ઉદાહરણ રૂ૫ શબ્દ-આગમનિષ્પન્ન નામ છે, કારણ કે આ नामा मनुस्मारना भागमथी भने छे. " त्यदाद्यव्ययात् तत्स्वारस्य लुक्" भी सूत्रमा मतासा नियम अनुसार “ ते+एत्थ" भने “ पडो+एत्थ" मा आत होमi " एत्थ" ५४ना "ए" ५ पाथी " तेत्य" भने "भोल", पनि०पन्न नामा मन्यां छे. “एदेतोः स्वरे स्यादेः" मा सत्रमा मताने नियम प्रभार "गड्डे पावडंती" भने “आलेक्खमो एहिं, કોઇ ” આ પ્રતિભાવ નિપન્ન નામમાં પ્રકૃતિભાવને સદ્ભાવ રહે છે. પ્રતિભાવમાં મૂળરૂપમાં કઈ પણ પ્રકારને વિકાર થતો નથી પરંતુ જે પ્રયોગ २१॥ २१३२ हाय मेi । २१३२ २७ छे. “गर्त+आयतन्तो" मा पानी सन्धि यता सरत ॥४२ना नियम प्रमाणे "ए" ! 'अ ' या मे, भने “ आलेश्याम+इदानीम् " मा पानी सन्धि ४२di अ+इ=ए मा नियम अनुसार “ आलेक्ष्यामेदानीम् "
य मे, "भवति+इह" मम इ+हई यायी ‘भवतीह ' नये; ५२न्तु ॥ ५:ो प्रतिमा निन्न नामा હવાથી, તે નામોમાં કઈ પણ પ્રકારને સધિ રૂપ વિકાર થયો નથી.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५० पञ्चनामनिरूपणम् अथ पञ्चनाम निरूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं पंचनामे ? पंचनामे-पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-नामियं णेवाइयं अक्खाइयं ओवसग्गियं मिस्सं। आसे दण्ड+ मग्गं दण्ड+अग्रम् सा आगया, दहि+इणं, नई+ईह महु+उदर्ग, यह ऊहो, इन विकार निष्पन्न नामों में सर्वत्र दीर्घरूप विकार हुआ है। वर्ण के स्थान में दूसरे वर्ण का होना इसका नाम विकार है तथा उस उस रूप से परिणमन होनो इसका नाम नाम है। विकार होने पर इनका "दंडग्गं साऽऽगया, दहीणं, नईह महदगं, वहहो" ऐसा रूप हो जाता है। लोक में जितने भी शब्द हैं वे आगम आदि किसी एक से निष्पन्न हुए ही होते हैं। तथा "डिस्थ डविथ आदि जो शब्द अव्युत्पन्न किन्हीं२ के द्वारा माने हुए हैं वे भी शाकटायन के मत में व्युत्पन्न ही माने गये हैं। उक्तंच-नाम च धातुजमाह निरूक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदह्यम्" इस प्रकार समस्त शब्दों का इन आगमादि चारों से संग्रह हो जाता है इसलिये आगमादिक चतुर्नाम कहे जाते हैं ॥सू० १४९॥
"दंड+अग्गं सा+आगया दहि+इणं, नई+इह, महु+उदगं, अने बहू+हो" सा मां पहोम सन्धि ३५ १ि४.२ ने " अम, सागया, दहीणं, नईह, महूदगं, बहहो" त्य: विपन्न नामे मन्य छे. असे વર્ણને સ્થાને બીજા વર્ણને પ્રેમ છે તેનું નામ વિકાર છે. જે નામમાં આ પ્રકારનું પરિણમન થયું હોય છે, તે નામોને વિકારપિન નામ કહે छ. "दंड+अग्गं" मा ७५युत पोमा सन्धिने ये वि२ ५४ पाथी " दण्डान, साऽऽगया, दहीणं, नईह, महूदगं वहूहो । १२नां ३॥ सनी ગયાં છે. લેકમાં જેટલાં શબ્દો છે, તેઓ આગમ આદિ પૂર્વોક્ત ચાર प्रशमनमे ४॥नि०५-न येता डाय छे. तथा "डित्य हवित्थ" આદિ જે શબ્દને કઈ કઈલેકે દ્વારા અયુત્પન્ન માનવામાં આવે છે, પરન્તુ શાકટાયનના મત અનુસાર તેમને પણ વ્યુત્પન જ માનવામાં આવેલ
. धुं ५ -" नाम च धातुजमा निरुक्ने व्याकरणे शकटस्य च तोकम् यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदूह्यम्” मा प्रकारे સમસ્ત પદેને આ આગમ આદિ ચારેમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. તેથી આગમાદિ ૩૫ ચતુર્નામ રૂપે અહીં તેમને પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે. સૂ૦૧૪
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अनुयोगद्वारसूत्र त्ति नामियं, खलु ति नेवाइयं, धावइत्ति अक्खाइयं, परित्ति
ओवसग्गियं, संजए त्ति मिस्सं। से तं पंचनाम ॥सू०१५०॥ ___ छाया-अय किं तत् पश्चनाम? पश्चनाम पश्चविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथानामिक, नैपातिकम् , आख्यातिकम् , औपसर्गिकं, मिश्रम् । अश्व इति नामिकम् । 'खलु' इति नैपातिकम् । 'धावति' इति आख्यातिकम् । 'परि' इति औपसर्गिकम् । संयत इति मिश्रम् । तदेतत् पश्चनाम ॥मू० १५०॥
टीका-'से कि तं' इत्यादि
शिष्यः पृच्छति-अथ किं तत् पश्चनाम ? इति। उत्तरयति-पश्चनाम-पञ्च. प्रकारकं नाम-पश्चनाम, तद्धि पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्। पञ्चविधत्वमेवाह-नामिकमित्यादि । तत्र-अश्व इति नामिकम्-वस्तुवाचकत्वात् । 'खलु' इति नैपातिकम्निपातेषु पठितत्वात् । धावतीति आख्यातिकं क्रियाप्रधानत्वात् । 'परि' इति
अब सूत्रकार पश्चनाम का निरूपण करते हैं" से किं तं पंचनामे" इत्यादि। शब्दार्थ-(से किं तं पंचनामे ? ) हे भदन्त ! पंचनाम क्या है ?
उत्तर-(पंचनामे पंचविहे पण्णत्ते) पंच नाम पांच प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। (तं जहा) उस के पांच प्रकार ये हैं-(नामियं, णेवाइयं, अक्खाइयं, ओवसग्गियं मिस्स) नामिक नैपातिक, आख्यातिक, औपसर्गिक, और मिश्र। वस्तु का वाचक होने से (आसेत्ति नामिय)-अश्व यह शब्द नामिक है । (खलुत्ति नेवाइयं) खलु शब्द निपातों में पठित होने के कारण नैपातिक है। क्रियाप्रधान होने से (धावत्ति अक्खाइयं) धावति" यह तिङ्गन्त पद आख्यातिक है। (परित्ति ओवसग्गियं) परि
वे सूत्र.२ ५यनामनु नि३५२ २ - “से किं तं पंचनामे" त्याहशहाथ-(से किं तं पंचनामे १) सन् ! ५'याम अने ४ छ ?
उत्तर-(पंचनामे पंचविहे पण्णत्ते) ५यनाम पांय ना छे. (तंजहा) । नाये प्रभार -(नामियं, णेवाइयं, ओवसग्गिय, मिस्स) (१) नाभि, (२) नाति, (3) आध्याति, (४) भोपसन भने (५) मिश्र.
वस्तुनु वा पाने १२ (आसेत्ति नामिय) "A" ५४ नाभि४ २६५ ३५ सभा (खलुत्ति नेवाइयं) "म" ५७ नाwi
१५२रातु पाने ४२ नेपातिना २५ ३५ सभा (धावइत्ति अक्साइयं) "धावति" मा ५४ याप्रधान पाने र भाभ्यातिन BIR
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बोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५१ पण्णामनिरूपणम् औषसर्गिकम् उपसर्गेषु पठितस्वात् । 'संयतः' इति मिश्रम्-उपसर्गनामोभयनिष्कात्वात् । एतैर्नामिकादिभिः पञ्चभिः सकलशब्दसंग्रहणात् पञ्चनामवं बोध्यम् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-तदेतत् पश्चनामेति मू० १५०॥
अथ षण्णामं निरूपयति
मूलम्-से किं तं छण्णामे ? छण्णामे छबिहे पण्णत्ते, तं जहा-उदइए, उवसमिए खइए खओवसमिए पारिणामिए संनिवाइए ॥सू०१५१॥
छाग-अथ किं तत् षण्णाम ? षण्णाम षड्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-औदयिकः, औपशमिकः, क्षायिका, क्षायोपशमिकः, पारिणामिका, सान्निपातिकः।।मु० १५१॥ टीका-'से किं तं' इत्यादि
अथ किं तत षण्णाम? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-षण्णाम षटप्रकारकं नार-पण्णाम, तद्धि-औदयिकादिभेदेन षड्विधं विज्ञेयम् । नन्वत्र प्रकृतं यह उपसर्ग, उपसर्गों में पठित होने से औपसर्गिक है। (संजए त्ति मिस्स) संयत यह सुबन्त पद उपसर्ग और नाम इन दोनों से निष्पन्न होने के कारण मिश्र है। इन नामिक आदि पांचों से समस्त शब्दों का संग्रह हो जाता है इसलिये ये पांच नाम कहे जाते हैं। (से तं पंचनाम) इस प्रकार यह पंचनाम का स्वरूप है।सू० १५०॥ अब सूत्रकार छहनाम का निरूपण करते हैं-'से कितं छण्णामे' इत्यादि। शब्दार्थ-से किं तं छण्णामे ?) हे भदन्त ! छह नाम क्या है?
उत्तर-(छण्णामे छविहे पण्णत्ते) छह नाम छह प्रकार का प्रज्ञप्त ३५ छे. (परित्ति ओवसग्गियं) “परि" ५स छे. उपस ३ तना प्रयोग याय छ, ते २0 तेने मो५४ ४ (संजए त्ति मिरस) सयत ५४ 'सभ्' ५ भने 'यत' पहना सयोगथी पन्यु डापायी । મિશ્રના ઉદાહરણ રૂપ ગણી શકાય આ નામિક આદિ પાંચે પંચનામ વડે समस्त शहीन सयड 45 Mय छे, तेथी तभने ५यनाम छ. (सेतं पंचनाम) मा प्रा२नु पायनामनु ११३५ समा. ॥सू०१५०॥
હવે સૂત્રકાર છનામની પ્રરૂપણા કરે છે– “से कि त छण्णामे" त्या:
हा-(से कि त छण्णामे) ३ भगवन् ! नामना २ ३५ છનામનું સ્વરૂપ કેવું કહ્યું છે?
उत्तर-(अण्णांमे छबिहे पण्णत्ते) छनामना १५३ (नामना
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अनुयोगद्वारसूत्र नाम, न तु पदर्थाः, एवं च नाम्नः प्रकरणे तदर्थानां भावलक्षणानां प्ररूपणमयु. क्तमिति चेदाह, नाम नामवतोरभेदोपचाराद् नामार्थप्ररूपणमय्यदुष्टमेवेति न कश्चिद दोषः। तत्र ज्ञानावरणादीनामष्टानां स्व स्वरूपेण विपाकतोऽनुभवनम् उदयः, स एव औदयिकः। अथवा-उदयेन निष्पन्न औदयिकः। औदायिकश्च भाव एव सामर्थाद् गम्यते । एवमग्रेऽपि भाव इत्याक्षेप्यः सामर्थ्यात् । उपशमहुआ है। छह प्रकारवाला जो नाम है वह छह नाम है। यह नाम छह प्रकारवाला है इसीलिये यह छह भेदवाला है। (तं जहा) उसके वे छह प्रकार ये हैं-(उदाए, उपसमिए, खाए, खओवसमिए, पारिणामिए, संनिवाइए) औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशामिक पारिणामिक और सान्निातिक।
शंका-यहां प्रकरण नाम का चल रहा है। नाम के अर्थों का नहीं इस प्रकार नामके प्रकरण में उसके अर्थरूप भावों की प्ररूपणा करनायुक्त नहीं है?
उत्तर-नाम और नामवाले अर्थ में अभेद के उपचार से नामार्थ की प्ररूपणा करना अयुक्त नहीं है। औदयिक भाव-ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों के अपने२ रूप से विपाक का अनुभव करना इस का उदय है। इस उदय का नाम ही औदपिक हैं। अथवा उदय से निष्पन्न हुआ जो भाव है वह औदयिक है। औदयिक पद की सामर्थ्य से यहां औदयिक भाव ही लिया गया है । इसी प्रकार से आगे भी ૬ પ્રકારો હેવાને લીધે જ અહીં તેને પન્નામ (છનામ કર્યું છેતે છે नीचे प्रमाणे -
(उदइए, वसमिए खइए, खओवसमिए, पारिणामिए, संनिवाइए) (1) मोहयि:, (२) मौ५भिर, (3) क्षायि:, (४) आयो५शभिः, (५) पारिया भि अन (९) सान्निपाति.
શંકા-અહી નામનું પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે. નામના અર્થોનું આ પ્રકરણ નથી આ પ્રકારના નામના પ્રકરણમાં તેના અર્થરૂપ ભાવની પ્રરૂપણ કરવી તે ઉચિત લાગતું નથી છતાં આપે શા કારણે અહીં અર્થરૂપ ભાવોની પ્રરૂપણ કરી છે ?
ઉત્તર-નામ અને નામવાળા અર્થમાં અભેદ માનીને આ પ્રકારે નામર્થની પ્રરૂપણ કરવી અયુક્ત નથી.
દયિકભાવ-જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મોના ફળ રૂપ વિપાકન-અનુભવ કરે, તેનું નામ ઉદય છે આ ઉદયનું નામ જ ઔદયિક છે. અથવા ઉદયથી નિષ્પન્ન થયેલ જે ભાવ છે તેનું નામ ઔદયિક છે. ઔદયિક પદ અહીં ઔદયિક ભાવનું જ વાચક છે. એ જ પ્રમાણે ઔપશ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५१ षण्णामनिरूपणम्
६८१ नम्-उपशमः-कर्मणोऽनुदयाक्षीणावस्था भस्मराश्यन्तरालस्थितवहिवत् , स एव, तेन वा निर्वृत्त औपशमिकः । क्षयः कर्मणोऽपगमः, स एव तेन वा निवृत्तःसायिकः। क्षायोपशमिक:-क्षय उपशमश्च उक्त एव, तदेव भावः क्षायोपशमिकः, तेन निवृत्तो वा क्षायोपशमिकः । अयं च-ईषद्विध्यातभस्मवविद् बोध्यः ।
औपशमिक भाव क्षायिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, पारिणामिक भाव, और सान्निपातिक भाव उन २ पदों से जानना चाहिये। औपशमिक-कर्मों का उदय में नहीं रहना, किन्तु उनकी उपशमावस्था का होना इसी का नाम अनुदयाक्षीणावस्था है। इसी अवस्था का नाम उपशम है। जैले भस्मराशि के भीतर अग्नि छुपी रहती है उसी प्रकार से इस उपशम अवस्था में कर्मों का उदय नहीं है किन्तु वे सत्ता में बैठे रहते हैं। इस उपशम का नाम ही औपशमिक भाव है। अथवा इस उपशम से जो भाव निवृत्त (बनता) होता है वह औप. शमिक भाव है। कर्मों का अत्यंत विनाश होना इसका नाम क्षय है। यह क्षय ही क्षायिक है । अथवा इस क्षय से जो उत्पन्न होता है-वह क्षायिक है। कर्मों का क्षय और उपशम होना इसका नाम क्षयोपशम है। यह क्षयोपशम ही क्षायोपशमिक है। अथवा क्षयोपशम से जो मोष उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक भाव है। यह भाव कुछ बुझी हुई अग्नि के जैसा जानना चाहिये। तात्पर्य कहने का यह है कि इस क्षयो. મિકભાવ, ક્ષાવિકભાવ, ક્ષાપશમિકભાવ, પરિણામિકભાવ અને સાત્રિપાતિક ભાવને પણ ઔપશમિક આદિ પદે વડે નિષ્પન્ન થયેલા સમજવા જોઈએ.
પશમિ-કર્મો ઉદયાવસ્થામાં રહેલાં ન હોય, પણ ઉપશમાવસ્થામાં રહેલાં હોય, ત્યારે તે અવસ્થાને અનુદયાક્ષીણાવસ્થા કહે છે એજ અવસ્થાનું નામ ઉપશમ છે. જેમ રાખના ઢગલા નીચે અગ્નિ છુપાયેલું રહે છે, એ જ પ્રમાણે ઉપશમ અવસ્થામાં કર્મોને ઉદય હોતું નથી પણ તેમનું અસ્તિત્વ તે હોય છે જ આ ઉપશમનું નામ જ પશમિક ભાવ છે અથવા આ ઉપશમ વડે જે ભાવ નિષ્પન્ન થાય છે તે ભાવનું નામ ઔપશમિક ભાવ છે કર્મોને અત્યંત વિનાશ થવે તેનું નામ ક્ષય છે. તે ક્ષય જ ક્ષાયિક રૂપ સમજ, અથવા આ ક્ષયથી જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તે ભાવને ક્ષાયિકભાવ કહે છે કને ક્ષય અને ઉપશમ કે તેનું નામ શોપશમ છે. તે ક્ષયોપશમ જ સાપશમિક છે. અથવા ક્ષોપશમ વડે જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તે ભાવન નામ સાથે પરામિક ભાવ છે આ ભાવને ડી ડી બુઝાયેલી અગ્નિ જે
भ० ८६
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अनुयोगदारपणे परिणामः-तेन तेन रूपेण वस्तूनां परिणमनं-भवनम् , स एव, तेन वा नितः पारिणामिकः । सन्निपातः अनन्तरोक्तानां भावानां द्वयादिरूपेण मेलनं स एक, वेन वा निरीतः सानिपातिकः॥इति।।सू०१५१॥
सम्पति एतेषां भावानां स्वरूपं निरूपयितुमाह
मूलम्-से किं तं उदइए? उदइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाउदइए य उदयनिप्फण्णे य। से किं तं उदइए? उदइएअटण्हं कम्मपयडीणं उदएणं से तं उदइए। से किं तं उदयनिप्फणे ? उदयनिप्फणे-दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जीवोदयपशम में कितनेक सर्वघाति स्पर्द्ध को (अंशो) का उदयाभावी क्षय और कितनेक सर्वघातिसईको का सदवस्थारूप उपशम होता है और देशघाति प्रकृतिरूप जो सम्यक् प्रकृति है उसका उदय रहता है। इसलिये इस भाव को कुछ बुझी हुई और कुछ नहीं बुझी हुई अग्नि की उपमा दी गई है। उस २ रूप से वस्तुओं का जो परिणमन होता है वह परिणाम है। वह परिणाम ही पारिणामिक भाव है। अथवा इस परिणाम से जो भाव उत्पन्न होता है वह पारिणामिक भाव है। इन पांच भावों का द्वयादि संयोगरूप से जो मिलना है वह सन्निपात है। यह सभिपात ही सान्निपातिक भाव है। अथवा इस सन्निपात से जो भाव उत्पन्न होता है वह सान्निपातिक भाव है ॥सू.० १५१॥ સમજ આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે આ ક્ષયોપશમમાં કેટલાક સર્વઘાત પદ્ધકે (અંશને) ઉદયાભાવી ક્ષય અને કેટલાક સર્વઘાતિ સ્પદ્ધકને સદવસ્થા રૂ૫(વિદ્યમાનતા રૂ૫) ઉપશમ થાય છે, અને દેશઘાતિ પ્રકૃતિ રૂપ જે સમ્યફ પ્રકૃતિ છે તેને ઉદય રહે છે તેથી આ ભાવને ડી બુઝાયેલી અને છેડી ન બુઝાયેત્રી અગ્નિની ઉપમા આપવામાં આવી છે. તે તે રૂપે વસ્તુઓનું જે પરિશમન થાય છે તેને પરિણામ કહે છે. તે પરિણામ જ પરિણામિક ભાવ છે. અથવા તે પરિણામ વડે જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તેને પરિણામિકભાવ કહે છે આ પાંચ ભાવેનું જે દ્વિકસોગ આદિ સાગ ३२ भितन (सयो) थाय छ, तेनु नाम सन्निपात . त सन्निपात . સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ છે અથવા તે સન્નિપાત વડે જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય के ते. नाम सान्नियति माप छ. ॥२०१५१॥
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५२ औदयिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६८३. निष्कण्णेय अजीवोदयनिष्फण्णे य से किं तं जीवोदय निष्फ पणे ? जीवोदयनिष्फण्णे - अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे पुढविकाइए जाव तसकाइए कोहकसाई जाव लोहकसाई, इत्थीवेदए पुरिसवेदए णपुंसगवेदए कण्हले से जाव सुकलेसे मिच्छादिट्ठी सम्मदिट्ठी मीसदिट्ठी अविरए असण्णी अण्णाणी आहारए छउमत्थे सजोगी संसारत्थे असिद्धे । से तं जीवोदयनिष्फण्णे । से किं तं अजीवोदय निष्फ पणे अजीवोदय निष्कपणे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा उरालियं वा सरीरं, उरालिय सरीरपओगपरिणामियं वा दवं, वे उद्द्वियं वा सरीरं, वे उद्वियसरीरपओगपरिणामियं वा दवं, एवं आहारगं सरीरं, तेयगं सरीरं, कम्मगं सरीरं च भाणियवं । पओगपरिणामिए वपणे गंधे रसे फासे । से तं अजीवोदयनिष्कण्णे । से तं उदयनिकण्णे से तं उदइए ॥सू० १५२॥
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छाया - अथ कोऽसौ औदयिकः ? औदयिको द्विविधः मज्ञप्तः, तद्यथाऔदयिकश्च उदयनिष्पन्नश्च । अथ कोऽसी औदयिकः ? औदयिकः - अष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयः खलु । स एष औदयिकः । अथ कोऽसौ उदयनिष्पन्नः ? उदयनिष्पन्नो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - जीवोदयनिष्पन्नश्च अनीवोदय निष्पन्नश्च । अथ कोऽसौ जीवोदय निष्पन्नः ? जीवोदय निष्पन्नः अनेक विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नैरयिकः तिर्यग्योनिको मनुष्यो देवः पृथिवोकायिको यावत् सकायिकः क्रोधकषायी यावद् लोभकपायी खावेदकः पुरुषवेदको नपुंसकवेदकः कृष्णलेश्यो यावत् शुक्ललेश्यो मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिः मिश्रदृष्टिः अविरतः असंज्ञी अज्ञानी आहारकः छद्मस्थः सयोगी संसारस्थः असिद्धः । स एव जीवोदय निष्पन्नः । अथ कोऽसौ अजीवोदय निष्पन्नः ? अजोवोदयनिष्पन्नः - अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - औदारिकं वा शरीरम्, औदारिकशरीरमयोगपरिणामितं वा द्रव्यम्, वैकुर्विकं वा शरीरं वैकुर्विकशरीरमयोगपरिणामितं वा एवमुद्रव्यम् - आहारकं शरीरम् तैजस्कं
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६८४
भनुयोगद्वारपणे शरीरं कार्मकं शरीरं च भणितव्यम् । प्रयोगपरिणामितो वर्णो गन्धो रसः स्पर्शः। स एषोऽजीवोदयनिष्पन्नः। स एष उदयनिष्पन्नः। स एष औदयिकः ॥० १५२॥
टीका-'से किं तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ औदयिकः? इति प्रभः। उत्तरयति-औदायिको द्विविधा ममतः । द्वैविध्यमेवाह-औदयिकः उदयनिष्पन्नश्च । तत्र औदयिकः-मानावरणीयादीनामष्टकर्मप्रकृतीनामुदयः। 'णं' इति वाक्यालङ्कारे। अयं प्रथमो भेदः। द्वितीयच मेद उदयनिष्पन्नः। स हि-जीवोदयनिष्पन्नः, अजीवोदयनिष्पन्नध।
भव पत्रकार इन्हीं भावों का स्वरूपनिरूपण करते हैं'से किं तं उदइए' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं उदइए?) हे भदन्त ! पूर्वप्रक्रान्त औदयिक भाव क्या है ?
उत्तर-(उदइए दुविहे पण्णत्ते) औदयिक भाव दो प्रकार का प्राप्त हुआ है। (तं जहा) उसके वे दो प्रकार ये हैं-(उदइए य उदय निष्फण्णे य) एक औदायिक और दूसरा उदयनिष्पन्न (से किं तं उदइए?) हे भदन्त ! औदायिक भाव क्या है ? (अट्ठण्हं कम्मपयडीणं उदएणं उदइए)
उत्तर-ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म प्रकृतियों का उदय औद. यिक है। (से तं उदइए) इस प्रकार यह औदयिक है।
(से किं तं उदयनिष्फणे १) हे भदन्त ! उदयनिष्पन्न क्या है ?
આગલા સૂત્રમાં ઔદયિક આદિ જે ભાવ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે, તે ભાવના રૂપનું હવે સૂત્રકાર નિરૂપણ કરે છે–
"से कि त उदइए" त्या:
शाय-से कि त उदइए?) ३ सन् ! नामना ७ माना પહેલા ભેદ રૂપ હયિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે?
उत्तर-(उदइए दुविहे पण्णत्ते) माथि भाव में प्रकारको यो. (सजहा) ते मे २ नाथे प्रभारी समनपा-(सदइए य उदयनिष्फण्णे य) () मोहयिभन (२) यनि-पन्न.
प्रश्न-(से कि त पाए ?) 8 सपा ! सोयिनु' २१३५ ४ सय).
उत्तर-(अण्ह कम्मपयडीणं सदएणं उदइए) ज्ञानापणीय माल ४ ४प्रतिमान य मोडयि ३५ सभा (सेत उदइए) मा शत मोयिानु સ્વરૂપ સમજs. 14-(से कि त उदयनिष्फण्णे?) सन् ! यनि०प-ननु ५५३५३३५१
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५२ औदयिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६८५ तत्र - जीवोदयनिष्पन्नः - जीवे उदयेन निष्पन्नः । औदयिक भावोऽनेकविधः मज्ञप्तः । अनेकविधत्वमेवाह - 'रइए' इत्यादि । नैरयिकादिरसिद्धान्तो जीवोदयनिष्पन्न औदयिको भावो बोध्यः । नैरयिकादयः शब्दा भावपरा बोध्याः । नारकत्वादयः पर्यायाः कर्मणामुदयेनैव जोवे निष्पद्यन्ते इत्यत एते जीवोदय निष्पन्ना इति भावः ।
उत्तर – (उदयनिष्फण्णे - दुविहे पण्णत्ते) उदयनिष्पक्ष दो प्रकार का कहा गया है । (तं जहा ) वे दो प्रकार ये हैं- ( जीवोदयनिष्कणे य अजीवोदयनिष्oणे ) - एक जीवोदय निष्पन्न और दूसरा अजीवोदयनिष्पन्न। (से किं तं जीवोदयनिष्फण्णे ? ) हे भदन्त ! जीव में उदय से जो भाव निष्पन्न होता है वह क्या है ?
उत्तर- ( जीवोदयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) जीव में उदय से जो औदयिक भाव निष्पन्न होता है वह अनेक प्रकार का कहा है (तं जहा) जैसे - ( रइए, तिरिक्खजोणीए, मणुस्से, देवे, पुढविकाइए जाव तसकाइए, कोहकसाई, जाव लोहकसाई, इत्थीवेदए, पुरिसवेदए, पुंसगवेदए, कण्हले से, जाव सुक्कलेसे मिच्छादिट्ठी, सम्मदिट्ठी; मीसदिट्ठी, अविरए, असण्णी, अण्णाणी, आहारए, छउमत्थे, सजोगी, संसारस्थे, असिद्धे) नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य, देव, पृथिवीकायिक यावत्
कायिक, क्रोधकषायी, यावत् लोभकषायी, स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक, कृष्णलेश्या, यावत् शुक्ललेश्या, मिथ्यादृष्टि, सम्यकदृष्टि,
उत्तर- (उदयनिष्फण्णे दुविहे पण्णत्ते) उध्यनिष्यन्नना में अहार पड़े थे. (तंजा) ते प्रअ नये प्रमाये - (जीवोदयनिष्फण्णे य, अजीवोदयनिरफण्णे य) (१) वाहय निष्पन्न, (२) अनुवोध्य निष्पन्न
प्रश्न- (से किं त जीवोदय निष्फण्णे?) हे भगवान् । षभां उध्यथी ભાવ નિષ્પન્ન થાય છે, તે ભાવનુ સ્વરૂપ કેવું હાય છે ?
उत्तर- (जीवोदयनिष्कण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) वमां अध्यथी ने मोहयिष्ठभाव उत्पन्न थाय छे, ते भने प्रहारनो होय छे (सं जहा ) प्रेम है....(णेरइए, तिरिक्खजोणी, मणुस्से, देवे, पुढविकाइप जाब तसकाइए, कोह कसाई जाब लोकखाइ, इत्थीवेदए, पुरिस्रवेदए, णपुंसगवेदए, कण्हलेसे जान सुक्कले से, मिच्छादिट्ठी, सम्मदिट्ठी, मीस दिट्ठी, अबिरए, असण्णी, अण्णाणी, आहारए, छउमत्थे, सज्जोगी, संसारत्थे, असिद्धे) ना२५, तिर्यग्योनिङ, मनुष्य, हेव, પૃથ્વીકાયિક આદિ સ્થાવર, ત્રસકાયિક, ધકષાયીથી લઈને લાભકષાયી પય - ન્તના, શ્રીવેદક, પુરુષવેદક, નપુ'સકવેક, કૃષ્ણલેફ્સાથી લઈને ચુલલેશ્યા
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૬૬
अनुयोगद्वार
ननु नारकत्वादिभ्योऽन्येऽपि निद्रापञ्चक वेदनीयहास्यादयो बहवः कर्मोदयजन्याः पर्यायाः सन्धि, कथं तर्हि नारकत्वादयः कतिपय एवोदाहृताः ? इति चेदाहनारकत्वादयोऽत्रोपलक्षणत्वेनोदाहृताः, अत एभ्योऽन्येऽपि सम्भविनः पर्याया बोध्याः । ननु कर्मोदयजनितानां नारकत्वादीनां भवत्वत्रोपन्यासः, परन्तु लेश्यास्तु. मिश्रदृष्टि अविरत, असंज्ञी, अज्ञानी, आहारक, छद्मस्थ, सयोगी संसारस्थ, असिद्ध । ये सब नैरयिक से लेकर असिद्ध पर्यन्त जीवोदयfree aaus भाव हैं। नैरयिक आदि शब्द भाव परक जानना चाहिये | नारकत्व आदि पर्यायें कर्मों के उदय से ही जीव में निष्पन्न होती हैं इसलिये ये जीवोदय निष्पन्न हैं।
शंका:- नारकत्व आदि से भिन्न और भी निद्रापञ्चक- निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि वेदनीय और हास्यादि अनेक कर्मोदय जन्य पर्यायें हैं। तो फिर सूत्रकार ने यहां इन नारक आदि थोड़ी सी पर्यायों को ही उदाहृन क्यों किया है ?
उत्तरः- सूत्रकार ने जो यहां इन नारक आदि पर्यायों को उदाहृत किया है वह केवल उपलक्षण रूप से किया है । इसलिये इन से भी अतिरिक्त जितनी भी पर्यायें कर्मोदय जन्य हैं वे सब इनसे गृहीत हो जाती हैं।
शंका-कर्मोदय जनित इन नारक आदि पर्यायों का औदधिक भाव पर्यन्तनी बेश्यावाजा, मिथ्यादृष्टि, सभ्यइदृष्टि, मिश्रदृष्टि, असशी, अज्ञानी, भाडारड, छद्मस्थ, सयोगी, ससारस्थ भने असिद्ध, या मघां वायનિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવે છે. નૈયિક આદિ શબ્દોને ભાવપરક સમજવા જોઇએ નારકત્વ આદિ પર્યાયેા કર્મના ઉદયથી જ જીવમાં નિષ્પન્ન (ઉત્પન્ન) થાય છે, તેથી તેમને જીવેાયનિષ્પન્ન કહેવામાં આવેલ છે.
શ'કા—નારકત્વ આદિ ઉપયુક્ત પર્યાય સિવાયની નિદ્રાપ'ચક (નિદ્રા, નિદ્રાનિદ્રા, પ્રચલા, પ્રચલાપ્રચલા, ત્યાનગૃદ્ધિ), વેદનીય અને હાસ્યાદિક અનેક ક્રમેક્રય જન્ય પર્યાય છે. છતાં સૂત્રકારે તે પર્યાયાને ગણાવવાને બદલે માત્ર નારકાદિ પાને જ કેમ ગણાવેલ છે?
ઉત્તર-સૂત્રકારે તા અહીં ઉદાહરણ રૂપે નારકદ્ધિ પર્યાયાને જીવાયનિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવ રૂપે ગણાવેલ છે. કેવળ ઉપલક્ષણ રૂપે જ આ પ્રમાણે કરવામાં આવ્યું છે. પરન્તુ તે સિવાયની ક્રમેક્રય જન્મ જેટલા પર્યા છે, તેમને પણ અહી ગ્રહણ કરી શકાય છે.
શકા—ક્રમઁય જનિત આ નારક આદિ પર્યાયને ઔયિક ભાવમાં શહે
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५२ औदयिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६८७ कस्यचित् कर्मण उदये भवन्तीत्येतन्नप्रसिद्धम्, तत् कथमिह कृष्णलेश्यादयः पठयन्ते ? इति चेदाह - लेश्यास्तु योगपरिणामः त्रिविधोऽपि योगः कर्मोदयजन्य एव, ततो लेश्यानामपि योगकर्मोदयेत्युभयजन्यत्वं न विरुध्यते इति नास्ति छेश्यानाम पाठे कश्चिद् दोषः । केचित्वेवं मन्यन्ते यथा कर्माष्टकोदयात् संसारस्थत्त्रमसिद्धत्वं च जायते, तथैव लेश्यावस्त्रमपि जायते इति । प्रकृतमुपसंहरन्नाह - स एष जीवोदय निष्पन्न इति । अथ कोऽसौ अजीवोदय निष्पन्नः ? में उपन्यास भले रहो, परन्तु लेइगाएँ औदयिक हैं यहबात संभवित नहीं होती, क्योंकि लेश्याएँ किसी कर्म के उदय से होती हों यह बात प्रसिद्ध नहीं है । अतः जब ऐसी बात है, तो फिर सूत्रकार ने औदयिक भाव में इनका पाठ क्यों रखा है ?
उत्तर:- लेइयाएँ योगों के परिणाम प्रवृत्ति रूप हैं । और तीनों प्रकार का जो योग है वह शरीर नाम कर्मोदय जन्य है । इसलिए लेश्याओं को योग और शरीर नामकर्मोदय इन दोनों द्वारा जन्य के होने के कारण इनका पाठ - औदयिक भाव में रखना निर्दोष है। कोई २ इस विषय में ऐसा मानते हैं कि जैसे आठ कर्मों के उदय से संसारस्थत्व और असिद्धत्व होता है, उसी प्रकार लेइयावत्व भी होता है, ( से तं जीवोदयनिष्oणे) इस प्रकार यह जीवोदय निष्यन्न औदयिक भाव हैं । (से किं तं अजीबोध - निष्कण्णे) हे भदन्त ! अजीवोदयनिष्पन्न औदायिक भाव क्या है ? |
સમાવિષ્ટ કરવામાં આવે, પરન્તુ લેસ્યાએ ઔદયિક હાવાનુ` સભવી શકતુ નથી, કારણ કે લેશ્યાઓને કદયજન્ય માનવામાં આ.વતી નથી છતાં પશુ સૂત્રકારે શા કારણે ઔદિયેક ભાવમાં તેને સમાવેશ કર્યાં છે?
ઉત્તર-લેસ્યાએ ચેગેાના પરિણામ-પ્રવૃત્તિ-રૂપઢાય છે અને ત્રણે પ્રકારના ચેગ શરીરનામ કર્માંજન્ય હાય છે. તેથી ચેગ અને શરીરનામ કમેદિય આ બન્ને દ્વારા જન્ય હેવાને કારણે લેશ્યાઓના ઉપયુક્ત ઔયિક ભાવમાં સમાવેશ કરવામાં કાઇ દેષ જણાતા નથી કોઈ કાઈ લેકે એવુ માને છે કે-જેવી રીતે આઠ કર્મોના ઉદયથી સ’સારીપણાની અને અદ્ધિत्वनी आप्ति थाय छे, मेन प्रमाये श्यायु पशु प्राप्त थाय छे. ( से तं ज़ीवोदयनिष्फण्णे) मा अभरनु वाध्य निष्पन्न मोहयिक भावनु स्त्र३य छे. प्रश्न- (से किं त ं अजीवोदयनिष्कण्णे १) हे भगवन् । अलवाहय નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવનુ સ્વરૂપ કેવું હાય છે ?
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भनुयोगद्वारपणे इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-अजीवोदयनिष्पन्न:-अजीवे उदयेन निष्पन्न बौदयिक भावः अनेकविधः पज्ञप्तः । अनेकविधत्वमेवाह-तद्यथा-औदारिकं वा शरीरम्विशिष्टाकारपरिणतं तिर्यङ्मनुष्यदेवरूपमौदारिकं शरीरकम् । औदारिकशरीरमयोगपरिणामितं वा द्रव्यम्-औदारिकशरीरस्य प्रयोगेण व्यापारेण परिणामितं निष्पादितं वा द्रव्यम् । एतद्वयमपि अजीवे पुद्गलद्रव्ये औदारिकशरीरनामकौदयेन निष्पद्यते, अत एतद द्वयम् अजीबोदयनिष्पन्न औदयिको भाव उच्यते। एवं वैकुर्विकादिचतुःशरीरविषयेऽपि बोध्यम् । औदारिकादि शरीरप्रयोगेण यत्
उत्तर-(अजीवोदयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) अजीव में उदय से निष्पन्न औदयिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे-(उरालियं वा सरीरं उरालियसरीरं पोगपरिणामियं था दव्व) विशिष्ट आकार परिणत हुआ तिर्यश्चों और मनुष्यों का देहरूप औदारिक शरीर, अथवा औदारिक शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य, ये दोनों भी अजीवपुद्गलद्रव्यमें औदारिक शरीर नामकर्म के उदय से निष्पन्न होते हैं। इसलिये ये दोनों अजीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव कहे जाते हैं। (वउव्वियं वा सरीरं, वेउव्वीयसरीरपओगपरिणामियं वा दव्वं एवं आहारगं सरीरं, तेयगं सरीरं कम्मगं सरीरं च भाणियव्वं ) इसी प्रकार से क्रिय शरीर, अथवा वैक्रिय शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य, आहारक शरीर अथवा आहारक शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य, तेजस शरीर अथवा तेजस शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य, कार्माण
उत्तर-(अजीवोदयनित्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) Ani Aथी निपन्न मीयि भने १२ने। यो छे. (तजहा) २४ ...(उरालियं वा सरीर घरालियसरीरं-पओगपरिणामियं वा दवं) विशिष्ट मामा परियत यये તિયો અને મનુષ્યના દેહરૂપ દારિક શરીર, અથવા દારિક શરીરના વ્યાપારથી નિષ્પાદિત દ્રવ્ય આ બને અજીવ–પુદ્ગલ દ્રવ્યમાં ઔદારિક શરીર નામકર્મના ઉદયથી નિષ્પન્ન (ઉત્પન્ન) થાય છે. તેથી તે બન્નેને અજીવદય निपन्न मोहयिमा अपामा भावे छे. (वेउव्वियं वा सरीरं, वेउब्बियसरीरपओगपरिणामियं वा दव्वं, एवं आहारगं सरीरं, तेयगं सरीरं, कम्मगं सरीरं च भाणियव्व) से प्रा३ वैश्य शरी२, अयवैश्यि शरीरना याપારથી નિષ્પાદિત દ્રવ્ય, આહારક શરીર અથવા આહારક શરીરના વ્યાપારથી નિપાદિત દ્રવ્ય, તેજસ શરીર અથવા તેજસ શરીરના વ્યાપારથી નિષ્પાદિત
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५२ औदयिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६८९ परिणम्यते द्रव्यं तत् स्वयमेव दर्शयति सूत्रकार:-'पओगपरिणामिए' इत्यादि । प्रयोगपरिणामितो वर्णो गन्धो रसः स्पर्शः। अयं भाव-औदारिकादीनां पश्चानामपि शरीराणां प्रयोगेण निष्पादितं वर्णगन्धरसस्पर्शस्वरूपं द्रव्यं बोध्यम् । एतद्भिनमानप्राणादिकमपि यच्छरीरे उत्पद्यते तदप्युपलक्षणत्वाद् ग्राह्यमिति । ननु यथा नारकत्वादयः पर्याया जीवे भवन्तीति जीवोदयनिष्पन्ने औदयिके पठचन्ते, एवं शरीराण्यपि जीवे एव भवन्ति, अत एतान्यपि जीवोदयनिष्पन्ने औदयिक एव पठनीयानि, कथं पुनरजीवोदयनिष्पन्ने औदयिके पठ्यन्ते ? इति शरीर अथवा कार्माग शरीर के व्यापार से निष्पादित द्रव्य के विषय में भी जानना चाहिये । औदारिकादि शरीर के व्यापार से जो द्रव्य औदा. रिकादि रूप परिणामित होता है उसे सूत्रकार स्वयं दिखलाते है-(पओगपरिणामए वण्णे, गंधे, रसे, फासे,) प्रयोग परिणामित वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श हैं । इसका तात्पर्य यह है-कि औदारिक आदि पांचों भी शरीरों के व्यापार से जो द्रव्य निष्पादित होता है वह वर्ण, गंध, रस, और स्पर्शरूप है। इनसे भिन्न आन प्राण आदिक भी जो शरीर में उत्पन्न होते हैं वे भी उपलक्षण से यहां ग्रहण कर लेना चाहिये ! __ शंका-जैसे नारकत्व आदि पर्यायें जीव में होती हैं इस अभिप्राय से वे जीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव में कही गई है। इसी प्रकार शरीर भी जीव में ही होते हैं-अतः वे भी जीवोदयनिष्पन्न औदयिक દ્રવ્ય અને કાર્માણ શરીર અથવા કાર્માણ શરીરના વ્યાપારથી નિષ્પાદિત દ્રવ્યના વિષયમાં પણ સમજવું ઔદારિક આદિ શરીરના વ્યાપારથી જે દ્રવ્ય
દારિક આદિ રૂપે પરિમિત થાય છે, તેને સૂત્રકાર પોતે જ બતાવે છે(पओगपरिणामिए वण्णे, गंधे, रसे, फासे) प्रयो५रिणभित qए, मध, २५ અને સ્પર્શ છે. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-દારિક આદિ પાંચે શરીરેના વ્યાપારથી જે દ્રવ્ય નિષ્પાદિત થાય છે, તે વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ રૂપ હોય છે. આ સિવાય જે આન, પ્રાણાદિકની શરીરમાં ઉત્પત્તિ થાય છે તેમને પણ ઉપલક્ષણની અપેક્ષાએ અહીં ગ્રહણ કરવા જોઈએ.
શંકા-જેવી રીતે નાયકત્વ આદિ પર્યાને જીવમાં સદ્ભાવ હોય છે, અને તે કારણે તે તે પર્યાને જીવદય નિષ્પન્ન ઓયિક ભાવમાં સમાવેશ કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે શરીરને પણ જીવમાં સદૂભાવ હોય છે, તેથી તેમને પણ જીવદય નિન ઔદયિક ભામાં સમાવેશ થ જોઈને તે
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अनुयोगद्वारसूत्रे वेदाह-यद्यप्यौदारिकादिशरीराणि जीवे भवन्ति, तथापि औदारिकादिशरीर नामककर्मोदयस्य मुख्यतया शरीरपुद्गलेष्वेव विपाको भवति, अत एतानि औदारिकादीनि पञ्चशरीराणि अजीवोदयनिष्पन्ने औदयिक एव भावे पठयन्ते, अतो नास्ति कश्चिद् दोषः । इत्थमजीवोदयनिष्पन्न औदयिकभावः प्ररूपित इति सूचयितुमाह-स एपोऽजीवोदयनिष्पन्न इति। उदयनिष्पन्नो भावः सकलोऽपि मरूपित इति सूचयितुमाह-प्त एष उदय निष्पन्न इति । एतावता औदयिको भावः प्ररूपित इति सूचयितुमाह-स एष औदयिक इति । इत्थं द्विविधोऽप्यौदयिकभावः परुपित इति विज्ञेयम् ।।मू० १५२॥ भाव में ही कहना चाहिये थे, फिर क्यों-उन्हे अजीवोदयनिष्पन्न औदयिक भाव में रखा है?
उत्तर-यद्यपि औदारिक आदि शरीर जीव में होते हैं, तो भी औदारिक आदि शरीर नाम कर्मका विपाकमुख्यतया शरीर पुद्गलों में ही होता है, इसलिये इन औदारिक आदि पांच शरीरों को अजीवोदय निष्पन्न औदारिक भाव में ही रखा है। इसलिये इसमें कोई दोष नहीं है। (से तं अजीवोदयनिष्फण्णे) इस प्रकार से यह अजीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव का कथन है । (से तं उदयनिष्फण्णे, से तं उदइए) एतावता औदयिक भाव प्ररूपित हो चुका । और इस प्ररूपणा से दोनों प्रकार का भी औदयिक भाव कथित हो चुका ऐसा जानना चाहिये। .. भावार्थ-सूत्रकार ने इस मूत्र द्वारा औदयिक भाव का कथन किया है। इसमें उन्होंने यह समझाया है कि अष्टविध कर्मों का जो उदय है છતાં અહીં તેને અજવોદય નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવ રૂપે શા કારણે ગણાવવામાં આવેલ છે?
ઉત્તર–જે કે ઔદારિક આદિ શરીરનો જીવમાં સદ્ભાવ હોય છે, છતાં પણ દારિક આદિ શરીર નામકર્મને વિપાક મુખ્યત્વે શરીર પુદ્રલેમાં જ થાય છે. તેથી હારિક આદિ પાંચ શરીરને અદય નિષ્પન્ન
દયિક ભાવ રૂપ કહેવામાં આવેલ છે. તેથી તે પ્રકારનું કથન નિર્દોષ જ भी शय. (से तं अजीवोदयनिष्फण्णे) मा भवाय नपन्न मोहयि सापर्नु २५३५ सम (से त उदयनिष्फण्णे, से त उदइए) मा प्रकारे ઔદયિક ભાવની પ્રરૂપણ અહીં સમાપ્ત થાય છે આ પ્રરૂપણ દ્વારા બન્ને પ્રકારના ઔદયિક ભાવેની પ્રરૂપણા સમાપ્ત થઈ જાય છે.
ભાવાર્થસૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા ઔદયિક ભાવનું કથન કર્યું છે. આ સૂત્ર દ્વારા તેમણે એ વાતનું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે આઠ પ્રકારનાં કર્મોને
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १५२ औदयिकादिभावानां स्वरूपनिरूपणम् ६९९
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एक तो वह औदयिक भाव है, दूसरा अष्टविध कर्मो के उदय से जो are were होता है वह औदधिक भाव है। यह कर्मोदय निष्पन्न औदयिक भाव जीवोदय निष्पन्न और अजीबोदव निष्पन्न के भेद से दो प्रकार का कहा गया है । कर्मों के उदब से जो भाव जीव में उदित होता है वह जीवोदय निष्पन्न और जो अजीव में उदित होता है वह अजीवोदय निप्पन्न औदयिक भाव है। वह जीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव में चारों गतियां चारों कषाय, तीनों वेद मिथ्या दर्शन अज्ञान छहों लेश्याएँ असंयम, असिद्धभाव आदि परिणमित किये गये हैं। क्योंकि ये सब जीव में ही विवक्षित अपने कर्म के उदय से निष्पन्न होते हैं-जैसे मनुष्यगति नाम के उदय से मनुष्य गति, निर्यञ्चगतिनामकर्म के उदय से तिर्यञ्चगति, देवगति नामकर्म के उदय से देवगति और नरकगति नामकर्म के उदय से नरक गति उत्पन्न होती है । इसी प्रकार से चारों कषाय वेदनीय के उदय से होता है। तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्मदर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो प्रकार का है જે ઉત્ક્રય છે તે ઔયિક ભાવ રૂપ છે અને ખીજુ એ પણ પ્રકટ કર્યું છે કે આઠ પ્રકારના કર્માંના ઉદયથી જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તે પણ ઔદિયેક ભાવ રૂપ છે તે કહૃદય નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવના નીચે પ્રમાણે એ ભેદ ह्या छे - (१) वे. ६५ निष्पन्न भने (२) अवध्य निष्पन्न भेना - યથી જે ભાવ જીવમાં ઉદ્દિત થાય છે તેને જીવે.યનિષ્પન્ન ઔયિક ભાવ કહે છે. અને કર્માંતા ઉદયથી જે ભાવ અજીવામાં ઉત્પન્ન (દિત) થાય છે, તેને અજીવાય નિષ્પન્ન ઔયિક ભાવ કડે છે. જીવાયનિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવમાં ચારે ગતિએ, ચારે કષાયે, ત્રણે વેદ, મિથ્યાદર્શન અજ્ઞાન, છએ લૈશ્યાએ, અસયમ, અસિદ્ધભાવ આદિને ગણવામાં આવેલ છે, કારણ કે એ બધાં ભાવાના જીવમાં જ સદ્ભાવ હૈાય છે. અને જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્માંના ઉદયથી આ ભાવે નિષ્પન્ન થતા હોય છે જેમ કે મનુષ્યગતિ નામક ના ઉદયથી મનુષ્યગતિ, તિર્યંચગતિ નામ કમના ઉદયથી તિય ચગતિ, દેવગતિ નામકર્મના ઉદયથી દેવગતિ અને નરકગતિ નામક ના ઉદયથી નરકગતિ ઉત્પન્ન થાય છે. ચારે કાર્યની ઉત્પત્તિ પશુ કષાયવેદનીયના ઉદયથી થાય છે આ કથનનું તાત્પર્યં એ છે કે-મેહનીય કમના બે પ્રકાર છે- ચારિત્ર માહનીય અને દનમાનીય દર્શનમેહનીયના નીચે પ્રમાણે ત્રણ ભેદ પુર
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अनुयोगद्वारसूत्रे दर्शन मोहनीय के, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और तदुभय-सम्यक्त्व मिथ्या स्व ये तीन भेद हैं । चारित्र मोहनीय के कषाय वेदनीय और नो कषाय वेदनीय ये दो भेद हैं । इनमें जो कषाय वेदनीय है, उसके उदय होने पर क्रोध मान, मोया और लोभ ये चारों कषायें उत्पन्न होते है।
और नोकषाय चारित्र मोहनीय के उदय होने पर तीन वेद निष्पन्न होते हैं । मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से मिथ्या दर्शन होता है । किसी शानावरण कर्म के उदय से अज्ञान भी होता है । लेश्याएँ योग परिणाम रूप हैं। इसलिये ये योग जनक शरीर नामकर्म उदय के फल है। चारित्रमोहनीय के सर्वघाति स्पर्धको (कर्मों के अंश ) के उदय से असंयत भाव होता है। किसी भी कर्म के उदय से असिद्ध भाव होता है इस प्रकार जो भी जीव में कर्मोदय से पर्याय निष्पन्न होती है वह सब औदयिक भाव है ऐसा जानना चाहिए। अजीव में उदय से निष्पन्न जो भाव है वह अजीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव है। यह अजीवोदय निष्पन्न औदायिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है। जैसे औदारिक आदि शरीर अथवा औदारिक शरीर आदि के व्यापार से निष्पादित द्रव्य । ये शरीरादि अजीवोदय निष्पन्न औद. છે-સમ્યકત્વ, મિથ્યાત્વ અને તદુભય (સમ્યકત્વ મિથ્યાત્વ) ચારિત્ર મોહનીયના નીચે પ્રમાણે બે ભેદ પડે છે-(૧) કષાયવેદનીય અને (૨) નેકષાયદનીય જ્યારે કષાયવેદનીયને ઉદય થાય છે ત્યારે ક્રોધ, માન, માયા અને લાભ રૂપ ચારે કષાયે ઉત્પન્ન થાય છે અને નેકષાયચારિત્ર મોહનીયને ઉદય થાય ત્યારે ત્રણ વેદ (સ્ત્રી, પુરુષ અને નપુંસક રૂપ ત્રણ વેદ) નિષ્પન્ન થાય છે મિથ્યાત્વ મોહનીયના ઉદયથી મિથ્યાદર્શન ઉત્પન્ન થાય છે. જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ઉદયથી અજ્ઞાનભાવ ઉત્પન્ન થાય છે વેશ્યાઓ
ગપરિણામ રૂપ ગણાય છે તેથી યોગજનક શરીર–નામકર્મના ઉદયના ફલરૂપ તેમને ગણી શકાય છે. ચારિત્રમેહનીયના સર્વઘાતિ સ્પદ્ધ કેના (કર્મોના અંશના) ઉદયથી અસંયત ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે કઈ પણ કર્મના ઉદયથી અસિદ્ધભાવ ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે કર્મોદયને કારણે જીવમાં જે પર્યા ઉત્પન્ન થાય છે તે બધી પર્યાને દયિક ભાવ રૂપ સમજવી જોઈએ.
અજીવમાં કર્મોદયને લીધે જે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તે ભાવને અજીદય નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવ કહે છે. આ અદય નિષ્પન્ન ઔયિકભાવ અનેક પ્રકારને બતાવે છે જેમ કે દારિક આદિ શરીરે અથવા દા. રિક આદિ શરીરેના વ્યાપારથી નિપાદિત દ્રવ્ય આ શરીરાદિને અજય
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५३ औपशमिकभावनिरूपणम् अथ औपशमिकं भावं निर्दिशति
मूलम्-से किं तं उवसमिए ? उपसमिए दुविहे पण्णने, तं जहा-उवसमे य उवसमनिप्फण्णे य । से किं तं उसमे ? उवसमे-मोहणिजस्स कम्मस्त उवसमेणं । से तं उसमे। से कि तं उवसमनिप्फण्णे? उवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-उवसंतकोहे जाव उवसंतलोहे उबसंतपेजे उवसंतदोसे उवसंतदंसणमोहणिजे उवसंतमोहणिज उवसमिया सम्मत्तलद्धी उवसमिया चरित्तलद्धी उवसंतकसाय छउमस्थवीयरागे । से तं उसमनिप्फपणे । से तं उवसमिए ॥सू० १५३॥
छाया-अथ कोऽसौ औपशमिकः ? औपशमिको द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-उपशमश्च उपशमनिष्पन्नश्च । अथ कोऽसावुपशमः-मोहनीयस्य कर्मण उपशमः खलु। सोऽसावुपशमः । अथ कोऽसावुपशमनिष्पन्नः ? उपशमनिष्पन्नः अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-उपशान्त-क्रोधो यावदुपशान्तलोभ, उपशान्तप्रेम उपशान्तद्वेष उपशान्तदर्शनमोहनीय उपशान्तमोहनीयः औपशमिकी सम्यक्त्वलब्धिः औपशमिकी चारित्रलब्धिः उपशान्तकषायछद्मस्थवीतरागः। स एष उपशमनिष्पन्नः। स एष औपशमिकः ॥सू० १५३॥
टीका-' से किं तं' इत्यादि। यिक भाव इसलिये कहे गये हैं कि औदारिक आदि शरीर नाम कर्म का विपाक मुख्यतया इन शरीर पुद्गलों में ही होता है। इसीलिये इन्हें पुद्गल विपाकी प्रकृतियों में परिणमित किया गया है। ।। सू०१५२॥
अब सूत्रकार औपशमिक भाव का कथन करते हैं
"से किं तं उवसमिए" इत्यादि। નિષ્પન્ન ઔદયિક ભાવ રૂપે પ્રકટ કરવાનું કારણ એ છે કે દારિક આદિ શરીર નામકર્મને વિપાક મુખ્યત્વે આ શરીરપુલમાં જ થાય છે. તેથી તેમને પુલવિપાકી પ્રકૃતિમાં પરિણમિત કરાયેલ છે. સૂ૦૧૫રા
હવે સૂત્રકાર ઔપશમિક ભાવનું પ્રતિપાદન કરે છે–" से किं तं उवमिए " त्याल
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अनुयोगद्वारसूत्रे शिष्यः पृच्छति-अथ कोऽसौ औपशमिकः ? इति । उत्तरयति-औषशमिकःउपशमोपशमनिष्पन्नभेदेन द्विविधः प्रज्ञप्तः। तत्र-मोहनीयस्य कर्मण उपशम एव उपशम इत्युच्यते । 'ण' इति वाक्यालङ्कारे । अयं प्रथमो भेदोऽष्टाविंशतिविधस्य मोहनीयस्यैव कर्मग उपशमश्रेण्यां द्रष्टव्यः, 'मोहस्सेवोवसमो' (मोहस्पैवोपशमः) इति वचनात् । अथ द्वितीय भेदमाह-अय कोऽसौ उपशमनिष्पन्नः ? इति प्रश्नः। उत्तरयति-उपशमनिष्पन्न उपशान्तकोषाधुपशान्तकषायछमस्थवीतरागान्तो
हे भदन्त ! (से किं तं उवसमिए ?) वह औपशमिकभाव क्या है ? (उवसमिए दुविहे पण्णत्ते).
उत्तर-औपशमिक भाव दो प्रकार का कहा गया है। (तंजहा) उसके वे दो प्रकार ये हैं-(उवसमे य उवसमनिष्कण्णे य) एक उपशम
और दूसरा उपशम निष्पन्न है । (से किं तं उवसमे?) हे भदन्त ! वह उपशम क्या है ?
उत्तर-(उवसमे मोहणिज्जस्स कम्मस्स उवसमेणं) अट्ठाईस प्रकार के समस्त मोहनीय कर्मका जो उपशम है वही उपशम है।
यह उपशन ८ वे ९वें १० वें ११ वें गुणस्थान रूप उपशमश्रेणी में होता है। (से तं उवसमे) इस प्रकार यह उपशम है। (से किं तं उवसमनिप्फण्णे ?) हे भदन्त ! वह उपशम निष्पन्न क्या है ? उत्तर-( उपसमनिष्कणे अणेगविहे पण्णत्ते) उवशम निष्पन्न
साथ-(से किं तं उपसमिए ?) 3 मापन् ! ते भोपाभानु સ્વરૂપ કેવું કહ્યું?
उत्तर-(उवसमिए दुविहे पण्णत्ते) मो५मि भाव में प्रश्न हो छ (तंजहा) त प्ररे। मा प्रभारी छ-(उजसमे य उवसमनिप्फण्णे य) (१) ५शम भने (२) ५शमनि०पन्न.
प्रश्न-से कित उवसमे ?) भगवन्! ते ५शभर्नु २१३५ हेतु छ ?
उत्तर-उनसमे मोहणिज्जस्स कम्मस्स उनसमेणं) २८ ५४१२ना समस्त મેહનીય કર્મના ઉપશમને જ અહીં ઉપશમ ભાવ કહેવામાં આવ્યું છે. આઠ, નવ, દસ અને અગિયારમાં ગુણસ્થાન રૂપ ઉપશમ શ્રેણીમાં આ ઉપशम भावना समा१२ छे (सेत उवसमे) मा ४२नु' ७५शभनु ११३५ डाय छे.
प्रश्न-(से कि त उपसमनिष्फण्णे ?) ३ मा ! श्रीपशम लाना બીજા ભેદ રૂપ ઉપશમ નિષ્પન્નનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उवसमनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) ७५शम निस्पन्न भौ५५भि
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नुवोपचन्द्रिका टीका सूत्र १५३ औपशमिकभावनिरूपणम् गोव्यः । अत्रेदं बोध्यम्-मोहनीयस्योपशमेन दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं चोपशान्तं भवति, एतद्द्वये उपशान्ते क्रोधादय उपशान्ता भवन्तीति । स एषोऽनन्त रोक्तो द्वितीयो भेदो बोध्यः । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-स एष औपशमिक इति । इत्थं निर्दिष्टो द्विविधोऽप्यौपशमिको भावः ॥मू० १५३॥
औपशमिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है। (तं जहा) जैसे-(उवसंत कोहे) क्रोध का उपशान्त होना (जाव उवसंतलोहे) यावत् लोभ का उपशान्त होना, (उवसंतपेमे) प्रेम-राग-का उपशान्त होना (उवसंत दोसे) द्वेष का उपशान्त होना (उवसंत दमणमोहणिज्जे) दर्शनमोहनीय का उपशांत होना (उवसंतमोहणिज्जे) मोहनीय कर्म का उपशान्त होना (उपसमिया सम्मत्तलद्धी) औपशमिकी सम्यक्त्व लब्धि, (उवममिया चरित्तलद्धी) औपशमिकी चारित्रलब्धि (उवसंत कसाय छ उमत्थवीयरागे) उपशान्त कषाय, छद्मस्थवीत राग (से तं उपसमनिप्फण्णे) इस प्रकार यह उपशम निष्पन्न औपशमिक भाव हैं। (से तं उवसमिए) इस प्रकार दोनों प्रकार का औपशमिक निर्दिष्ट हो चुका।
भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने औपशमिक भाव का स्वरूप दिखलाया है। उसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि उपशम से होनेवाला औपमिक भाव दो प्रकार का होता है । एक प्रकार का औपशमिक
भाप अने: ४२ना ४ा छे. (तजहा) भ3-उवसंते कोहे जाव उवसंते लोहे)ोष शन्त थी, मानपत ययु', भाया५शान्त थवी, बस 6शन्त थवा, (उवसंत पेमे) प्रेम (२१) शान्त यो, (उवसंतदासे) द्वेष SAIत थी, (उवसंत देसण मोहणिज्जे) निभानीयनु शान्त (सवसंतमोहणिज्जे) माखनीय भनु शान्त युः, (उपसमिया सम्मत्तलद्धी) मोपशमिती सभ्यqalu, (उवसमिया चरित्तलद्धी) श्रीपशमिही यात्रि (उवसंत कसाय छउमत्थवीयरागे) शान्त पाय, अस्थवीत।, (से तं उपसमनिष्फण्णे) त्यालि ३५ मा शमनियन सोशभि भाव . ( से तं उवसमिए) 0 प्रा२नु भन्ने प्रा२ना मोपभि भावोनु २१३५ समाव:
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે ઓપશમિક ભાવના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું છે. સૂત્રકારે ઉપશમ જનિત ઓપશમિક ભાવના બે પ્રકારો બતાવ્યા છે. એક પ્રકારને ઔપશમિક ભાવ એવો હોય છે કે જે માત્ર મોહનીયમના
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अनुबोगद्वारसूत्रे भाव वह है जो केवल मोहनीय कर्म के ही उपशम स्वरूप होता है। तात्पर्य इस कथन का यह है कि कर्मों की दस अवस्थाओं में एक उपशान्त अवस्थाभी है। जिन कर्म परमाणुओं की उदीरणा संभव नहीं अर्थात् जो उदोरणा के अयोग्य होते हैं वे उपशान्त कहलाते हैं। यह अवस्था आठों कर्मों में सम्भवित है। प्रकृत में इस उपशान्त अवस्था से प्रयोजन नहीं है। किन्तु अधः करण आदि परिणामों से जो मोहनीय कर्म का उपशम होता है प्रकृत में उसी से प्रयोजन है। इसीलिये "मोहनीयस्यैवोपशमः" ऐसा पाठ यहां जानना चाहिये क्यों कि अन्यत्र ऐसा ही पाठ है । मोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय के ३ भेदों
और चरित्र मोहनीय ने २५ भेदों को लेकर २८ प्रकार का है, इस सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का उपशम, उपशम श्रेणी में होता है, इसलिये मोहनीय कर्म का उपशम रूप ओपशमिक भाव उपश्रेणी में होना कहा गया है। दूसरा-उपशन निष्पन औपशामिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है सो उसका तात्पर्य यह है कि मोहनीय के उपशम से दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ये दोनों उपशान्त हो जाते हैं । इनके उपशान्त होने पर क्रोधादिक भी उपशान्त हो जाते हैं इस प्रकार यह औपमिक भाव का विवेचन है । ॥सू०१५३॥ ઉપશમ રૂપ હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે- કર્મોની દસ અવસ્થાએમાંની એક ઉપશમ અવસ્થા પણ છે. જે કર્મપરમાણુઓની ઉદીરણા શક્ય હોતી નથી, એટલે કે જે કર્મ પરમાણુઓ ઉદીરણાને માટે અયોગ્ય હોય છે, તેમને ઉપશાન કહે છે આ અવસ્થાને આઠ પ્રકારનાં કામમાં સંભવ હોય छ. प्रतi (ही) 0 G५शान्त अवस्थानु प्रयासन नथी, ५२न्तु अध:કરણ આદિ પરિણામોથી જે મેહનીય કમને ઉપશમ થાય છે, તેનું જ मही प्रयासन छे. तेथी "मोहनीयस्यैवोपशमः " मा २ ५४ मही સમજવો જોઈએ કારણ કે અન્યત્ર એવો જ પાઠ આવે છે.
દર્શન મેહનીયકર્મના ત્રણ ભેદ અને ચારિત્રહનીયના પચીશ ભેદે મળીને મોહનીયકર્મના કુલ ૨૮ પ્રકાર છે આ સંપૂર્ણ માહનીયકમને ઉપશમ, ઉપશમ શ્રેણીમાં થાય છે તેથી મોહનીય કર્મના ઉપશમ રૂપ અપશમિક ભાવ ઉપશમ શ્રેણીમાં હોવાનું કહેવામાં આવ્યું છે. બીજા પ્રકારનો જે ઉપશમનિષ્પન્ન
ઓપશમિક ભાવ છે, તે અનેક પ્રકારને કહ્યો છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે- મોહનીયના ઉપશમથી દર્શન મેહનીય અને ચારિત્રમોહનીય, એ બને ઉપશાન્ત થઈ જાય છે તે ઉપશાન્ત થઈ જવાથી ક્રોધાદિક પણ ઉપશાન્ત થઈ જાય છે આ પ્રકારનું પથમિક ભાવના સ્વરૂપનું વિવેચન मही ४२वाभा माथ्यु छे. सू०१५३॥
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प्रसुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनामनिरूपणम् अथ क्षायिकं नाम निरूपयति
मूलम्-से किं तं खइए ? खइए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाखइए य खयनिष्फण्णे य। से किं तं खइए ? खइए-अटण्हं कम्मपयडीणं खए णं से तं खइए। से किं तं खयनिष्फण्णे ? खयंनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, खीण आभिणिबोहियणाणावरणे, खीण सुयणाणावरणे, खीण ओहिणाणावरणे, खीणमणपजवणाणाव. रणे, खीणकेवलणाणावरणे, अणावरणे, निरावरणे, खीणावरणे, णाणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के, केवलदंसी, सब्वदंसी, खीणनिद्दे, खीणनिदानिद्दे, खीणपयले, खीणपयलापयले, खीण थीणगिद्धी, खीणचक्खुदंसणावरणे, खीणअचक्खुदंसणावरणे खीणं
ओहिदसणावरणे, अणावरणे, निरावरणे, वीणावरणे, दरिसणावरणि.ज.कम्मविष्पमुक्के, खीणसायावेयणिजे खीणअसायावयणिज्जे, अवेयणे, निव्वेयणे खीणवेयणे, सुभासुभवेयणिज्जकम्मविप्पमुक्के, खीणकोहे, जाव खीण. लोहे, खीणपेजे, खीणदोसे, खीणदसणमोहणिज्जे, खीणपरित्तमोहणिजे, अमोहे, निम्मोहे, खीणमोहे, मोहणिजकम्मविप्पमुक्के, खीणणेरइयाउए, खीणतिरिक्खजोणिआउए, खीणमणुस्साउए, खीणदेवाउए, अणाउए, निराउए, खीपाउए, आउकम्मविप्पमुक्के, गइजाइसरीरंगोवंगबंधणसंघायणसंघयणेसंठाण अणेगबोंदिविंदसंघायविप्पमुक्के, खीणसुभणामे, खीण असुभणामे, अणामे निष्णामे, खीणनामे, सुभासुभ
था ८८
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भनुयोगद्वार
णामकम्मविप्पमुक्के, खीणउच्चागोए, खीणणीयागोए, अगोए, निग्गोए, खीणगोए, उच्चणीयगोत्तकम्मविप्पमुक्के, खीणदाणं. तराए, खीणलाभंतराए, खीणभोगतराए, खीणउवभोगतराए, खीणवीरियंतराए, अणंतराए, णिरंतराए, खीणंतराए, अंतरायकम्मविप्पमुक्के, सिद्धे, बुद्धे, मुत्ते, परिणिव्वुए, अंतगडे, सव्वदुक्खप्पहीणे। से तं खयनिष्फण्णे। से तं खइए ॥सू०१५४॥
छाया-अथ कोऽसौ क्षायिकः ? क्षायिको द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-क्षायिकश्च क्षयनिष्पन्नश्च । अथ कोऽसौ क्षायिकः ? क्षायिक:-अष्टानां कर्मप्रकृतीनां क्षयः खलु । सोऽसौ क्षायिकः। अथ कोऽसौ क्षयनिष्पन्नः? क्षयनिष्पन्नोऽनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अरहा जिनः केवली क्षीणाभिनिबो. धिकज्ञानावरणः क्षीणश्रुतज्ञानावरणः क्षीणावधिज्ञानावरणः क्षीणमनःपर्यवज्ञानावरणः क्षीणकेवलज्ञानावरणः अनावरणः निरावरणः क्षीणावरणो. ज्ञानावरणीयकर्मविषमुक्तः केवलदर्शी सर्वदर्शी, क्षीणनिद्रः क्षीणनिद्रानिद्रः क्षीणप्रचलः क्षीणप्रचला प्रचलः क्षीणस्त्यानगृद्धिः, क्षीणचक्षुदर्शनावरणः क्षीणाचक्षुर्दर्शनावरणः क्षीणावधिदर्शनाबरणः क्षीणकेवलदर्शनावरणः अनावरणः निराकरणः क्षीणावरणः दर्शनावरजीयकर्मविप्रमुक्तः । क्षीणसातावेदनीयः क्षीणासातावेदनीयः अवेदनो निवेदनः क्षीणवेदनः शुभाशुभवेदनीयकर्मविप्रमुक्तः। क्षीणक्रोधो यावत् क्षीणलोभः क्षीणप्रेमा क्षीणद्वेषः क्षीणदर्शनमोहनीयः क्षीणचारित्रमोहनीयः अमोहो निर्मोहः क्षीणमोहो मोहनीयकर्मविषमुक्तः। क्षीण नैरयिकायुष्कः क्षीणतिर्यग् योनिकायुष्कः क्षीणमनुष्या. युष्कः क्षीणदेवायुष्कः अनायुष्को निरायुष्कः क्षीणायुष्कः आयुकर्मविषमुक्तो, गति जातिशरीराङ्गोपाङ्गवन्धनसंघातन संहननसंस्थानानेकशरीरवृन्दसंघातविप्रवमुक्तःक्षीणशुभनामा क्षीणाशुभनामा अनामा निर्नामा क्षीणनामा शुभाशुभनामकर्मविप्रमुक्तः। सीणोच्चगोत्रः क्षीणनीचगोत्रः अगोत्रः निर्गोत्रः उच्चनीचगोत्रकर्मविप्रमुक्तः। क्षीणदानान्तरायः क्षीणलाभान्तरायः क्षीणभोगान्तरायः क्षीणवीर्यान्तरायः अनन्तरायो निरन्तरायः क्षीणान्तरायः अन्तरायकर्मविप्रमुक्तः। सिद्धो बुद्धो मुक्तः परिनिर्वृत्तः अन्तकृतः सर्वदुःखमहीणः । सोऽसौ क्षयनिष्पन्नः। सोऽसौ क्षायिकः॥सू०१५४॥
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मंजुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
टीका-'से कि तं' इत्यादि
अथ कोऽसौ क्षायिकः ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयति-क्षायिकः क्षय एव, क्षयेण निष्पन्नो वा क्षायिकः । स द्विविधः प्रज्ञप्तः। द्वैविध्यमेवाह-तद्यथा-क्षायिका क्षयनिष्पन्नश्च । तत्र-क्षायिकः खलु अष्टानां कर्मप्रकृतीनां ज्ञानावरणीयाधष्टविध. कर्मप्रकृतीनां क्षयः। क्षयनिष्पन्नस्तु अनेकविधः प्रज्ञप्तः। अनेकविधत्वमाह
अब सूत्रकार क्षायिक भाव का निरूपण करते हैं"से किं तं खहए " इत्यादिशब्दार्थ-(से कि तं खहए ?) हे भदन्त ! वह क्षायिक क्या है ?
उत्तर-(खहए दुविहे पण्णते) क्षायिक दो प्रकार का कहा गया है।(तंजहा) (जैसे-खहए य खयनिष्फण्णे य) एक क्षय रूप क्षायिक और दूसरा क्षय निष्पन्न । (से किं तं खहए) हे भदन्त ! वह क्षायिक क्या है? (अट्ठण्हं कम्मपयडीणं खएणं) आठ कर्म प्रकृतियों का जो क्षय है वही क्षायिक है। (सेतं खहए) इस प्रकार वह यह क्षायिक है (से किं तं खयनिफण्णे) हे भदन्त ! वह क्षयनिष्पन्न क्षायिक क्या है ? (खयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते).
उत्तर-क्षय निष्पन्न क्षायिक भाव अनेक प्रकार का है। (तंजहा) जैसे-(उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली) उत्पन्न ज्ञान दर्शन को
હવે સૂત્રકાર ક્ષાયિક ભાવનું નિરૂપણ કરે છે– " से कि तं' खइए" त्याह
शा-(से कि त खइए ?) 3 मन् ! पूर्व प्रान्त क्षायि: भानु સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(खइए दुविहे पण ते) क्षायि भाव से प्रारना ४ह्यो छे. (त'जहा) तमे प्रा। नी2 प्राय छे-(खइए य ख य निप्फण्णे य) (१) क्षय ३५ क्षायि मन (२). क्षयनि०५न.
प्रश्न-(से कि त खइए ?) 3 मापन् ! क्षायि: भानु २१३५ हैं ? उत्तर-(अट्ठण्हं कम्मपयडीणं खरणं) मा प्रकृतिमाना क्षयनु नाम क्षायि छे. (से त खइए) क्षायिनु मा प्रा२नु २१३५ छे.
प्रश्न-से कि त खयनिष्फण्णे ?) ३ मापन ! क्षायि४ लापन lands રૂપ ક્ષયનિષ્પન્ન ક્ષાયિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(खयनिष्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) क्षयनि०पन्न क्षायिमा भने uat रना हो छे. (तंजहा) २...(उप्पण्णणाणसणधरे धरहा जिणे केवली) पन्न જ્ઞાનદર્શનધારી અહત જિન કેવલી ક્ષયનિષ્પન ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે. જેવી
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I.
अनुयोगद्वारसूत्रे
-
"
तद्यथा - उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः - उत्पन्नयोः - अपनीतमलादर्शमण्डलप्रभावत् सकलतावरणापगमादभिव्यक्तयोः ज्ञानदर्शनयोर्धरः = धारकः, अरहा :- नास्ति रहः = रहस्यं यस्यासौ अरहाः - अविद्यमान रहस्यः, नास्य किंचिदपि गोप्यमस्तीति भावः, जिनः- आवरणशत्रुजे तृत्वात् केवली - केवलं संपूर्ण ज्ञानमस्यास्तीति केबलीकेवलज्ञानवान्, क्षीणाभिनिबोधिकज्ञानावरणः- क्षीणमामिनिवोधिकज्ञानावरणंधारण करनेवाले अर्हत जिन केवली - जिस प्रकार-मल के अपगम से आदर्श मण्डल की प्रभा में पदार्थ प्रतिबिम्बित होने लगते हैं, उसी प्रकार - मूलरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के विनाश से उत्पन्न निर्मल अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन में त्रिकालवर्ति समस्त ज्ञेय झलकने लगते हैं ऐसे ज्ञान और दर्शन को जो धारण करते हैं तथा जो अरहा - जिनके लिये कोई भी जगत का पदार्थ गोप्य नहीं हैं। आवरण
शत्रु के विजेता होने से जो जिन हैं, तथा जिनका ज्ञान संपूर्ण है, इसलिये जो केवली हैं, यहां केवल शब्द का अर्थ सम्पूर्ण ज्ञान है। इस सम्पूर्ण ज्ञान रूप केवल ज्ञान से जो युक्त हैं ऐसे वे उत्पन्न ज्ञानदर्शन को धारण करनेवाले अरहा जिन केवली क्षयनिष्पन्न क्षायिक भावरूप हैं।
अब सूत्रकार प्रत्येक कर्म के नष्ट होने से जो २ नाम होते हैं उनका यहाँ से कथन करते हैं - यह कथन सिद्धपर मेंष्ठी की अपेक्षा से जानना चाहियेक्योंकि वे ही प्रत्येक कर्म के क्षय से क्षायिकभाव रूप निष्पन्न होते हैं।
રીતે અરીસા ઉપરના મેલ દૂર કરી નાખવામાં આવે તે અરીસામાં પદાર્થનું સ્પષ્ટ પ્રતિષિ‘ખ દેખાય છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાનાવરણુ અને દનાવરણુરૂપ કર્મો મળ દૂર થઈ જવાને લીધે ઉત્પન્ન થયેલા નિ`ળ, અનત જ્ઞાન અને શ્મન'ત દર્શનમાં ત્રિકાળવતી સમસ્ત જ્ઞેય પદાર્થો સ્પષ્ટ રૂપે દેખવા માંડે છે. એવા જ્ઞાન અને દર્શનના ધારક અર્હત જિન કેવલી ક્ષયનિષ્પન્ન ક્ષાયિક ભાવરૂપ છે. ‘ મરહા ’–જેમને માટે જગતને કોઈ પણ પદાર્થો લગે.પ્ય (અદૃષ્ય) નથી અથવા જેમણે કામ, ક્રોધાદ્રિ શત્રુએના નાશ કરી નાખ્યું છે એવાં તીથકર ભગવાનાને અરહા અથવા અર્હત કહે છે. કર્મારિ રૂપ શત્રુઓ પર વિજય મેળવનારા હાવાથી તેમને જિન કહ્યા છે તેમનું જ્ઞાન સપૂર્ણ હાવાથી તેમને કેવલી કહ્યા છે કેવલજ્ઞાન એટલે સ ́પૂર્ણ જ્ઞાન,
હવે સૂત્રકાર પ્રત્યેક કર્મના નાશ થવાથી જે જે નામ થાય છે, તેમનું નિરૂપણ કરે છે આ કથન દ્વિદ્ધ પરમાત્માની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યુ છે એમ સમજવુ', કારણ કે તેમના પ્રત્યેક કર્મના ક્ષય થવાને કારણે તેએ જ જ્ઞાયિક ભાવ રૂપે નિષ્પન્ન થાય છે.
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अनुबोगचन्द्रिका टोका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
७१ यस स तथा, एवं-क्षीणश्रुतावधिमनःपर्यवकेवलज्ञानावरणरूपाणि चत्वारि पदानि बोध्यानि । तथा-अनावरणः-अविद्यमानमावरणं यस्य त तथा, विमलप्रकाशवत्वात् निर्मलाकाशस्थितचन्द्रवत् । निरावरणः-निर्गतम् आवरणं यस्य स तथा समस्तावरण
ज्ञानावरण कर्म पांच प्रकार का है
१ मति ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण जीव जब अहंत जिन केवली बनता है, तब उसका सम्पूर्ण ज्ञानावरणकर्म नष्ट हो जाता है-इसलिये (वीण आभिणिबोहियणाणावरणे) क्षीण हो गया है आभिनिबोधिक शनावरण जिप्तका (खीणसुयणाणावरणे) क्षीण हो गया है श्रुतज्ञानावरण कम जिसका (खीणओहियणाणावरणे) क्षीण हो गया है अवधि ज्ञानावरण कर्म जिसका (खीण मणपज्जवणाणावरणे) क्षीण हो गया है मनापर्यवज्ञानावरण जिसका, (खोणकेवलणाणावरणे) क्षीण हो गया है केवलज्ञानावरण जिसका, ऐसा होने के कारण क्षीणाभिनियोधिक ज्ञानावरण, क्षीण श्रतज्ञानावरण, क्षीणावधिज्ञानावरण, क्षीण मन:पर्यव. ज्ञानावरण, क्षीण केवलज्ञानावरण ये भिन्न २ नाम समस्त ज्ञानायरजोय कर्म के क्षय हो जाने की अपेक्षा से निष्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार से (अणावरणे निरावरणे, खीणावरणे, णाणावरणिज्जकम्मविप्पमुक्के) जब समस्त आवरण कर्म नष्ट हो जाता है तब वह आत्मा
જ્ઞાનાવરણ કમ પાંચ પ્રકારનાં છે
(१) भतिज्ञाना१२९], (२) श्रु1साना१२९५, (3) सपधिज्ञाना१२, (४) मन:५१ज्ञाना१२५ भने (५) अज्ञानापर.
જીવ જ્યારે અહંત જિન કેવથી બને છે, ત્યારે તેને સમસ્ત જ્ઞાનાવ२५ भनि नाश 48 mय छ, तथा ३ (खीण आभिणियों हिय णाणावरणे) क्षी भामिनिमाधि ज्ञाना२शुपाणी, (खीण सुयणाणावरणे) क्षीण तज्ञाना१२६ भवानी, (खीण ओहियण गावरणे) की अधिज्ञाना१२५ भदाणा, (खीण मणपज्जवणाणावरणे) क्षीय मन:पय ज्ञाना१२५ भदाणे भने (खीण केवल. णाणावरणे) क्षी नाव२५ भवानी 25 जय छे ते धारणे समस्त જ્ઞાનાવરણીય કર્મોને ક્ષય થઈ જવાને કારણે તેના આ પાંચ નામો નિષ્પન थाय छे. (१) क्षीमिनिमाधिशाना१२५. (२) क्षीणतज्ञानाव२५, (3) सीधा विज्ञानावर, (४) क्षा मनःप ज्ञाना१२५ भने (५) क्षी ज्ञाना१र१ मे प्रमाणे (अणावरणे, निरावरणे, खीणावरणे, णाणावरणिजम्मविप्पमुक्के) यारे समस्त मा१२९ मना नाश २७ तय छे त्यारे ते मामा
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७०२
अनुयोगदान रहितत्वात् । विगतमलस्वर्णवत् , क्षीणावरणः-क्षीणो निःसत्ताकीभूतः आवरणो यस्य स तथा, अपुनर्भावावरणरहितत्वात् । अपाकृतमलावरणजात्यमणिवत् । उपसंहरंन्नाह-ज्ञानावरणीयकर्मविप्रमुक्तः-ज्ञानावरणीयेन कर्मणा विविधैः अनेकप्रकारः मकर्षण मुक्तः । एषां पदाना नयमतभेदेन भेदो बोध्यः । इत्थं ज्ञानावरणीयक्षया. पेक्षाणि नामान्युक्तानि। निर्मल आकाश में स्थितपूर्ण चन्द्र के जैसा निर्मल प्रकाशवाला हो जाता है इसलिये अविद्यमान आवरणवाला होने से उसका “ अनावरण" ऐसा नाम हो जाता है। अतः अनावरण यह उसकी नाम रूप अवस्था
आवरण के क्षय से निष्पन्न होने के कारण क्षायिक भाव रूप है। आगे किसी भी प्रकार के आवरण कर्म का संबन्ध फिर उस आत्मा से होता नहीं है इसलिये वह निरावरण अवस्था विशिष्ट बन जाता है। तब उसका नाम "निरावरण" ऐसा हो जाता है। इसी प्रकार वह निःसत्ता की भूत आवरणवाला होने के कारण क्षीण मलावरणवाले जात्यमणि के जैसा "क्षीणावरण" इस नामवाला बनजाता है। इस प्रकार विविध प्रकार से ज्ञानावरणीय कर्म द्वारा विमुक्त बने हुए उस आत्मा के ये पूर्वोक्त समस्त नाम ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से कहे गये हैं। यद्यपि शब्दनय की अपेक्षा से इनमें कोई भी भेद नहीं है इसलिये નિર્મળ આકાશમાં રહેલા પૂર્ણચન્દ્રના સમાન વિમલ પ્રકાશવાળો બની જાય છે. આ રીતે અવિદ્યમાન આવરણવાળ હોવાને લીધે તેનું “અનાવરણ” નામ નિષ્પન્ન થાય છે આ અનાવરણ” નામ રૂપ તેની અવસ્થા આવરણના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થયેલી હોવાને કારણે ક્ષાયિક ભાવરૂપ ગણાય છે.
ભવિષ્યમાં કોઈ પણ પ્રકારનું આવરણ કર્મ તે આત્માને લાગવાનું નથી, તેથી તે આત્મા નિરાવણ અવસ્થા સંપન્ન બની જાય છે. તેથી તેનું નિરાવરણ” નામ નિષ્પન્ન થઈ જાય છે એજ પ્રમાણે તે આત્મા નિ:સત્તાબત આવરણવાળો (આવરણના અસ્તિત્વ વિનાને) બની જવાને કારણે ક્ષીણ મલાવરણવાળા ઉત્કૃષ્ટ મણિની જેમ “ક્ષીણાવરણ” આ નામવાળે બની જાય છે આ પ્રકારે વિવિધ પ્રકારે જ્ઞાનાવરણીય કર્મમાંથી વિમુક્ત થયેલા તે આત્માને પૂર્વોક્ત સમસ્ત નામો જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષયની અપેક્ષાએ કહે, વામાં આવ્યાં છે જે કે શબ્દનયની અપેક્ષાએ તે નામો વચ્ચે કંઈ પણ ૮ ન હોવાને કારણે આ શબ્દને પર્યાયવાચી શબ્દો જ ગણી શકાય છે, પરંતુ
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रोगन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् .अथ दर्शनावरणीयक्षयापेक्षाणि नामान्याह- केवलदर्शी-केवलेन क्षीणावरणेन दर्शनेन पश्यतीतिकेवलदर्शी-सर्व पश्यतीति सर्वदर्शी-क्षीणदर्शनावरणत्वात् सकलपदार्थदर्शी । एवं क्षीणनिद्रादीनि पश्नामानि तथा दर्शनावरणचतुष्कक्षयसम्भवीन्यपराण्यपि क्षीणचक्षुर्दर्शनावरणादीनि नामानि बोध्यानि । तत्र निद्रापञ्चक सक्षणमेवमवगन्तव्यम्ये पर्यायवाची शब्द हैं। फिर भी समभिरूढनय की अपेक्षा से इनके पाच्यार्थ में भिन्नता होने से इनमें भेद है, ऐसा जानना चाहिये ।
अब सूत्रकार दर्शनावरणीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से जायमान नामों को कहते हैं-(केवलदंसी) आत्मा से जब दर्शनावरणीय कर्म सर्वथा निर्मूल हो जाता है, तब वह आत्मा, क्षीणावरणवाले दर्शन से, सामान्यरूप में समस्त ज्ञेयों को देखता है, इसलिये केवलदर्शी वह कहलाने लगता है। (सम्बदंसी) क्षीण दर्शनावरणवाला होने से समस्त पदार्थों का वह दृष्टा बन जाता है । इसलिये वह सर्वदर्शी कहलाता है। (खीणनिद्दे, वीणनिहानिदे, वीणपयले, खीणपयलापयले, खीणथीणगिद्धी, खीणचक्खुदंसणावरणे, खीण अचक्खुदंसणावरणे, खीण ओहिदंसणावरणे खीण केवलदंसणवरणे अणावरणे, निरावरणे, खीणावरणे) निद्रादर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से वह क्षीण निद्र हो जाता है; निद्रानिढा दर्शनावरणीयकर्म निर्मल होने से क्षीणनिद्रानिद्र, प्रचला दर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से क्षीण प्रचल, સમધિરૂઢ નયની અપેક્ષાએ તેમના વાર્થમાં ભિન્નતા હોવાના કારણે तमनी १२ये मेह (अत२-
तत) छ, मेम अभावुन. હવે સૂત્રકાર દર્શનાવરણીય કર્મના ક્ષયની અપેક્ષાએ જે નામો નિષ્પન્ન याय छे तभनु थन ४२ ४-(केवलदंसी) मात्मा ५२थी न्यारे शनाप२०ीय કર્મો સર્વથા નિર્મૂળ થઈ જાય છે ત્યારે તે આત્મા, ક્ષીણાવરણવાળા દર્શન વડે સામાન્ય રૂપે સમસ્ત ય પદાર્થોને દેખી શકે છે, તેથી તેને “કેવલદશ”
अपामा भावे छे. (सव्वदंसी) क्षोशना२णपणे ५ पाने २० ते આત્મા સમસ્ત પદાર્થોને દ્રષ્ટા બની જાય છે, તેથી તેને “સર્વદશી” કહે. पामां आवे छे. (खीणनिर्दे, वीणनिहा निदे, खीणपयले, वीणपयलापयले, खीण थीणगिद्धी, खीण चक्खुदंसणावरणे, खीण अचक्खुदंसणावरणे, खीण ओहिदसणावरणे, खीण केवलदसणावरणे, अणावरणे निरावरणे, वीणावरणे) ते आत्माना निद्रा વરણીય કર્મને નાશ થઈ જવાને લીધે તે “ક્ષીણનિદ્ર' કહેવાય છે, તેના નિદ્રાનિદ્રા દર્શનાવરણીય કર્મ નિમ્ળ થઈ જવાથી તે “ક્ષીણનિદ્રાનિદ્ર” કહેવાય છે. તેના પ્રચલા દર્શનાવરણીય કર્મ નષ્ટ થઈ જવાથી તેને “ક્ષીણ
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"ह पडिबोहा निद्दा दुहंपडिवोहा य निदनिहाय । पयला होइ ठियस्स उ, पयलापयला य चंकमो ॥१॥ आइसकिलिष्टकम्माणु वेयणो होइ थीणगिद्धी य ।
महनिदा दिणचिंतियवाचार पसाहणी पायं ॥२॥" छाया-सुखप्रतिबोधा निद्रा दुःखपतिबोधा च निद्रानिद्रा च ।
प्रचला भवति स्थितस्य प्रचलामचला च चमतः॥१॥ अतिसंक्लिष्टकर्मानुवेदनो भवति स्त्यानगृद्धिस्तु।
महानिद्रा दिनचिन्तितव्यापार प्रसाधनीमायः ॥२॥इति । प्रचला प्रचला दर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से क्षीण प्रचलामचला, स्त्यानगृद्धि दर्शनावरणीय कर्म क्षीण होने से क्षीण स्त्यानमृद्धि चक्षुर्दर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने से क्षीण चक्षुर्दर्शनावरण, अच. क्षुदर्शनावरण कर्मनष्ट होने से क्षीण अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्श नावरण कर्म नष्ट होने से क्षीणावधिदर्शनावरण, केवलदर्शनवरण कर्म नष्ट होने से क्षीण केवलदर्शनावरण कहलाने लगता है। अर्थात् दर्शनावरण कर्म के सर्वथा विगम क्षय हो जाने से उस आत्मा के ये पूर्वोक्त नाम निष्पन्न हो जाते हैं। निद्रा पंचक का लक्षण इस प्रकार से है-सुहपडियोहा-इत्यादि-जिस कर्म के उदय से सुख पूर्वक जाग सके ऐसी निद्रा आवे वह निद्रा दर्शनावरण कर्म है। जिसके उदय से निद्रा से जागना अत्यन्त दुष्कर हो वह निद्रानिद्रा दर्शनावरणપ્રચલ' કહેવાય છે. તેના પ્રચલા પ્રચલા દર્શનાવરણીય કર્મ નષ્ટ થઈ જવાથી તેને ક્ષીણપ્રચલા પ્રચલ કહેવાય છે, તેને ત્યાનગૃદ્ધિ દર્શનાવરણીય કર્મને ક્ષય થઈ જવાથી તેને “ક્ષીણસ્યાનગુદ્ધિ” કહેવાય છે. તે આત્માના ચક્ષુદશના વરણીય કર્મને નાશ થઇ જવાથી તેને “ક્ષીણચક્ષુદ્ધશનાવરણ” કહેવાય છે. તેના અચકુઈશનાવરણ કર્મને નાશ થઈ જવાથી તેને “ક્ષીણ અચકુશનાવરણ” કહેવાય છે. તેના અવધિદર્શનાવરણ કમને ક્ષય થઈ જવાથી તેને ક્ષીણાવાધિદશનાવરણ” કહેવાય છે તેના કેવલ દર્શનાવરણ કર્મનો નાશ થઈ જવાથી તેને ક્ષીણકેવલદર્શનાવરણ” કહેવાય છે. એટલે કે દર્શનાવરણ કને સંપૂર્ણતઃ નાશ થઈ જવાને કારણે તે આત્માના પૂર્વોક્ત નામો નિષ્પન્ન થાયે છે.
નિદ્રા પંચકનાં લક્ષણ નીચે પ્રમાણે સમજવાં–
"सुहपडिबोहा" त्याह-२ जना यथा सुभपू Mal Aml એવી નિદ્રા આવી જાય છે, તે કમને નિદ્વાદર્શનાવરણ કર્મ કહે છે જે કાના ઉદયથી નિદ્રામાંથી જાગવાનું અત્યંત દુષ્કર થઈ જાય છે, તે કમને નિદ્રનિદ્રા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
तथा - अनावरणादिशब्दाः पूर्व ज्ञानावरणाभावापेक्षया प्रोक्ताः, अत्रतु दर्शनावरणाभाषापेक्षया बोध्याः । उपसंहरन्नाह - दर्शनावरणीय कर्मविप्रमुक्त इति ।
कर्म है । जिस कर्म के उदय से बैठे २ या खडे २ हो नींद आ जावे वह प्रचलदर्शनावरण कर्म है । जिस कर्म के उदय से चलते २ ही निद्रा आ जावे वह प्रचला प्रचला दर्शनावरण कर्म है । स्स्थानगृद्धि यह महानिद्रा है । इस निद्रावस्था में, जागृत अवस्था में सोचे हुए काम करने का सामर्थ्य प्रकट हो जाता है । जिस जीव को अति संक्लिष्ट कर्मका उदय होता है उसी जीव के यह स्त्यानगृद्धि होती है । इस निद्रा में सहज बल से कई अनेक गुण अधिक बल प्रकट होता है। - पहिले जिस प्रकार ज्ञानावरण कर्म के अभाव को लेकर अनावरण निरावरण, क्षीणावरण, इन शब्दों का अर्थ प्रकट किया गया है उसी प्रकार यहां पर दर्शनावरण कर्म के अभाव की अपेक्षा लेकर इन शब्दों का अर्थ लगा लेना चाहिये। (दरिसणावर णिज्जकम्म विप्यमुक्के इस प्रकार ये पूर्वोक्त नाम दर्शनावरणीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से सूत्रकार ने कहे हैं ।
નાવરણ ક્રમ કહે છે જે કમના ઉદયથી બેઠાં બેઠાં કે ઊભાં ઊભાં નિદ્રા આવી જાય છે, તે કમને પ્રચલાદર્શનાવરણુ કમ કહે છે. જે કમના ઉદયથી ચાલતાં ચાલતાં દ્રિા આવી જાય છે, તે કમને પ્રચલાપ્રચલા દનાવરણ ક્રમ કહે છે ‘ સ્ત્યાનગૃદ્ધિ' આ પત્ર મહાનિદ્રાનુ વાચક છે. આ પ્રકારની નિદ્રાવસ્થામાં જાગૃત અવસ્થામાં જે કામા કરવાના વિચાર કરવામાં આવ્યા હાય તે કામ કરવાનું સામર્થ્ય પ્રકટ થઈ જાય છે. જે જીવમાં અતિ સકિલષ્ટ ક્રમના ઉદય હાય છે, એજ જીવમાં આ સ્ત્યાનગૃદ્ધિ દશનાવરણને સાવ રહે છે સ્વાભાવિક અળ કરતાં કેટલાય ગણુાં અધિક બળને આ પ્રકારની નિદ્રામાં અનુભવ થાય છે.
આગળ જ્ઞાનાવરણ કર્યાંના અભાવની અપેક્ષાએ અનાવરણુ, નિરાવરણુ અને ક્ષીાવરણ, આ પદોના અર્થ પ્રકટ કરવામાં આવ્યે છે એજ પ્રકારે અહીં દર્શનાવરણ ક્રમ”ના અભાવને અનુલક્ષીને અનાવરણુ, નિરાવરણુ અને ક્ષીણાવરણના અથ સમજી લેવા જોઈએ.
(दग्सिणावरणिजकम्मविष्यनुके) सूत्रभरे इर्शनावरणीय उभंना क्षयनी અપેક્ષાએ કેવળદશી થી લઈને નિરાત્રણ પચન્તના ઉપયુક્ત નામે પ્રકટ કર્યો છે
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अनुयोगद्वारसूत्रे
इत्थं दर्शनावरणीय क्षयापेक्षया नामान्युक्त्वा सम्मति वेदनीयकर्मक्षयापेक्षाणि नामानि प्रतिपादयितुमाह- 'खीणसायावेय णिज्जे' इत्यादि । वेदनीयं द्विविधं भवति - सातम् असतं च तत्र - सातं प्रीत्युत्पादकम्, असातम् अमीत्युत्पादकम्, तत्क्षये क्षीणसातावेदनीयः क्षीणा सातावेदनीयश्च भवति । तथा - अवेदन: = वेदनारहितः - अयम् अल्पवेदनोऽपि व्यवहीयते । तथा-निर्वेदनः = सर्ववेदनाभ्यो रहितः । कालान्तरेऽपि वेदना न भवतीति सूचयितुमाह- क्षीणवेदनः - क्षीणा = अपुनर्भावितया
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अब वे वेदनीय कर्म के क्षय की अपेक्षा से जायमान नामों को कहते हैं
( खीणसायावेय णिज्जे खीण असायावेयणिज्जे) वेदनीय कर्म दो प्रकार का है - एक साता वेदनीय कर्म और दूसरा असातावेदनीय कर्मजिस कर्म के उदय से जीव को सुख का अनुभव हों वह सातावेदनीय और जिसके उदय से प्राणी को दुःख का अनुभव हो वह असाता वेदनीय है। इन दोनों प्रकार के वेदनीय कर्म के क्षय होने पर जीव क्षीणसातावेदनीय और क्षीणा सातवेदनीय हो जाता है। (अवेधणे, निव्वेयणे) वेदनारहित हो जाता है। अवेदन शब्द का अर्थ अल्प वेदनावाला ऐसा भी होता है। क्योंकि अवेदन में जो "अ" है वह ईषदर्थ- में भी प्रयुक्त होता है। इसलिये निवेदन - सर्व प्रकार की वेदना से वह रहित बन जाता है। (खीणवेयणे) कालान्तर में भी बेदना इस जीव को नहीं होती है इसलिये क्षीणवेदन अर्थात् अपुनर्भाविवेदन हो
હવે વેદનીય કર્મના ક્ષયની અપેક્ષાએ જે નમા નિષ્પન્ન થાય છે, તે वामां आवे छे - ( खीणखायावेयणिज्जे खीण असायावेयणिज्जे) वेहनीय ક્રમના બે પ્રકાર પડે છે–(૧) સાતાવેદનીય કમ અને (૨) અસાતાવેદનીય ક્રમ જે કમના ઉદયથી જીવને સુખનેા અનુભવ થાય છે, તે કમને સાતાવે. નીય ક્રમ કહે છે જે કમના ઉદયથી જીવને દુ:ખનેા અનુભવ થાય છે, તે મને અસતાવેદનીય કમ કહે છે આ બન્ને પ્રકારના વેદનીય કર્મના ક્ષય થઈ જવાથી જીવ " श्रीथुसातावेदनीय " भने " ક્ષીણાસાતાવેદનીય ’” બની लय छे. (अवेयणे, निव्वेयणे) वेहनीय मना क्षय व स्वाथी आत्मा વેદનારહિત બની જાય છે. “ અવેદન ” પત્ર અલ્પવેદનાનું પણ વાચક છે, કારણ કે ‘ અવેદન ’ પદમાં જે ‘ અ ' ઉપસર્ગ છે તે અલ્પતાના અર્થમાં પણ પ્રયુક્ત થાય છે. તેથી સૂત્રકારે ‘ નિવેČદન ’ પદ્મના પ્રયોગ દ્વારા એ વાત પ્રક્રેટ કરી છે કે વેદનીય કમ ના સથા ક્ષય થવાથી આત્મા સર્વપ્રકારની વેદનાથી रडित थर्ध लय छे. (खीण वेयणे) असान्तरे (लविण्यमां) प ते भवने વેદનાના અનુભવ કરવા પડતા નથી તેથી તે જીવને “ ક્ષીણુવેદન ” કહ્યો છે,
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अनुयोमर्यान्द्रका टीका स्त्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् सर्वथा विनष्टा वेदना यस्य स तथा । एतदुपसंहरमाह-शुभाशुभवेदनीयकर्मविपाक इति । अथ मोहनीयक्ष यापेक्षाणि नामानि प्ररूपयितुमाह-'खीणकोहे' इत्यादि। बोनीयं द्विविधं भवति-दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च । तत्र-दर्शनमोहनीयं सम्पत्वमिश्र मिथ्यात्वभेदात् त्रिविध भवति । चारित्रमोहनीयं तु क्रोधादिकषाय हास्यादि नोकषायभेदात् द्विविधं भवति । एतत्क्षये यानि नामानि भवन्ति तान्याए पत्रकारः-क्षीणक्रोधो यावत् क्षीगलोभः । एतानि नामानि सुबोध्यानि । तथाक्षीणप्रेमा-क्षीणं प्रेम-मायालो मी यस्य स तथा-अपगतमायालोभ इत्यर्थः । जाता है, (सुभासु भवेयणिज कम्मविप्पमुक्के) शुभ और अशुभवेदनीय कर्म से विप्रमुक्त हुए उस जीव के ये पूर्वोक्त क्षीण सातावेदनीय आदि नाम हैं। ___ अब सूत्रकार मोहनाय कर्म के क्षय से जो नाम होते है उन्हें कहते हैं
(खोण कोहे जाव खीणलोहे) मोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है एक दर्शन मोहनीय और दूसरा चारित्र मोहनीय-इनमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमिथ्यात्व और मिश्र के भेद से दर्शन मोहनीय तीन प्रकार का हैतथा चारित्र मोहनीय, क्रोधादिकषाय और हास्यादिक नोकषाय के भेद से दो प्रकार का है-इस दोनों प्रकार के मोहनीय के क्षय होने पर जो नाम होते हैं उन्हें सूत्रकारने क्षीण क्रोध यावत् क्षीण लोभ इन शब्दों द्वारा प्रकट किया है । ये नाम सुबोध्य हैं। (खीणपेज्जे) प्रेम शब्द (सुभानुभवेयणिज्ज कम्मविप्पमुक्के) शुभ भने पशुस हनीय या विभुत થયેલા તે જીવના ક્ષીણસાલાવેદનીય આદિ પર્વોક્ત નામે સમજવાં.
હવે સૂત્રકાર મેહનીય કર્મના ક્ષયથી આત્માનાં જે જે નામો નિષ્પન્ન થાય છે તેમનું નિરૂપણ કરે છે–
(खीण कोहे जाव खीण लोहे) मोडनीय भनी नीये प्रभाव पर ५४-(१) शानभानीय अने (२) शास्त्रि भाडनीय मिथ्यात, सभ्यप. મિથ્યાત્વ અને મિશ્રના ભેદથી દર્શનમોહનીય કર્મ ત્રણ પ્રકારના કહ્યાં છે, ક્રોધાદિક કષાય અને હાસ્યાદિક નોકવાયના ભેદથી ચારિત્ર મોહનીમ કર્મ બે પ્રકારનું કહ્યું છે. આ બંને પ્રકારના મેહનીય કર્મને આત્મામાંથી ક્ષય થઈ જવાથી આત્માનાં નીચેનાં નામે નિષ્પન્ન થાય છે શીશુક્રોધ, ક્ષીણુમાન, ક્ષીણમાયા અને ક્ષીણુભ આ નામને અર્ધ સુગમ सपायी तमना वर वधु २५४ता ४२पानी ४३२ नबी (सीव पेन्के) मे
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मनुयोगद्वार कोणद्वेषः क्षीणो द्वेषा-क्रोधमानौ यस्य स तथा-अपगत क्रोधमान इत्यर्थः। तथाअमोहः-अपगतमोहनीयकर्मा, अयं च अल्पमोहोदयोऽपि लोके व्यवहिबते । तथा-निर्मोहः-निर्गतो मोहान्निर्मोहः । यतोऽपोहः, अत एव निर्मोहो बोध्यः। भिमोहस्तु कालान्तरे मोहोदययुक्तोऽपि स्यादुपशान्तमोहवदिति प्रत्ययो मा भवत्विति हेतोराह-क्षीणमोहः-अपुनर्माविमोहोदयः इत्यर्थः, एनदुपसंहरबाह-मोह. माया और लोभ का बोधक है। मोहनीय कर्म के-नष्ट होने पर मायो
और लोभ नष्ट हो जाते हैं । (ग्वीण दोसे ) इसी प्रकार द्वेष-मान और क्रोध-भी नष्ट हो जाता है । अतः क्षीण प्रेमा, क्षीण द्वेष ये नामहोते हैं। (अमोहे निम्मोहे, ग्वीणमोहे) अमोह निर्मोह क्षीण मोह-वे नाम भी मोहनीय कर्म के अभाव में होते हैं। अल्प मोहवाले में भी अमोह शब्द का प्रयोग होता है सो ऐसा अमोह यहां नहीं लिया गया है किन्तु मोहनीय कर्म से जो अपगत है वही अमोह है, ऐसा अमोह ही यहां ग्रहण किया गया है। जिस कारण यह अमोह हैं इसलिये निर्मोह है। कोई ऐसी शंका भी कर सकता है कि जो निर्मोह होता है, वह कालान्तर में मोहोदय से युक्त भी बन सकता है-जैसे उपशान्त मोहवाला बन जाता है । सो इस आशंका को निर्मूल करने के लिये सूत्रकार ने क्षीणामोह यह पद रखा है। इससे उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि अपुनर्भाव मोहोदय जिम जीव के होते हैं, वही यहां अमोह શબ્દ માયા અને લેભને બેધક છે. મોહનીય કર્મને નાશ થઈ જવાથી જીવન માયા અને લેભ નષ્ટ થઈ જાય છે, તેથી તે જીવને “ક્ષીપ્રેમા” उपाय छे. (खीण दोसे) मेल प्रमाणे भारतीय मना नाश ५७ गाथा આત્માને દ્વેષ ભાવ પણ નષ્ટ થઈ જાય છે તેથી તે આત્માનું “ક્ષીણ દ્રષ” नाम निय-न थाय छे. (अमोहे निम्मोहे, खोणमोहे) मोडनीय मन ममा य गाथी मामानi 'मोड,' निमाड,' भने क्षीणमाड नामी ५५ નિષ્પન થાય છે અ૫ મોહવાળામાં પણ અમેહ શબ્દ પ્રયોગ થાય છે. પરન્તુ અમોહ શાદને એ અર્થ અહીં ગ્રહણ કરવાનું નથી. અહીં તે માહનીય કર્મને સર્વથા ક્ષય થઈ જવાને લીધે આત્મામાં મોહને સર્વથા અભાવ જ ગ્રહણ કરવાનો છે. જે કારણે તે આત્મામાં આ અમેહનો સદુભાવ છે એજ કારણે નિર્મોહને પણ સદૂભાવ છે. કદાચ કઈ એવી શંકા ઉઠાવે કે કાળાન્તરે નિર્મોહી આત્મામાં મેહને ઉદય થઈ જવાથી તે મહાયયુક્ત પણ બની શકે છે, તે તે આશંકાનું નિવારણ કરવાને માટે સૂત્રકાર શીશમોહ” પદને પગ કર્યો છે, આ પદ દ્વારા સૂત્રકારે એ વાત પ્રકટ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
७०९ नीयकर्मविषमुक्त इति । नारकायुष्कादिभेदेन आयुष्कर्म चतुर्विध बोध्यम् । सम्पति तत्क्षयोद्भवानि नामानि प्ररूपयति-क्षीणनैरयिकायुष्कः, क्षीणतिर्यग्योनिकायुष्कः, क्षीणमनुप्यायुप्का, क्षीणदेवायुष्कः। एतानि चत्वार्यपि पदानि सुगमानि । तथा-अनायुष्मा अविद्यमानायुष्कः। अविद्यमानायुष्कस्तु तद्भविकायुः निरमोह नामवाला ग्रहण किया गया है । इस प्रकार (मोहणिज्जकम्म विपमुक्के) मोहनीय कर्म से विप्रमुक्त बने हुए जीव के ये क्षीण क्रोध से लेकर क्षीण मोह तक के नाम हैं। अब आयुकर्म के क्षयापेक्ष जो नाम होते हैं, उन्हें सूत्रकार स्पष्ट करते हैं-आयु कर्म चार प्रकार का है-नरक आयु तिर्यगायु, मनुष्य आयु देव आयु सो इनमें से (खीण. जेरड्याउए, खीणतिरिक्खजोणिआउए, खीण मणुस्साउए खीण. देवाउए) नरकायुष्क के क्षय होने से क्षीण नरकायुष्क, तिर्यग्योनिक आयुष्क के क्षय होने से क्षीणतिर्यग्योनिकायुष्क, मनुष्य आयुष्क-के नष्ट होने से क्षीण मनुष्यायुष्क और देवायुष्क के नष्ट होने से क्षीण देवायुष्क ये नाम होते हैं ( अणाउए, नीराउए, खीणाउए ) अनायुप्क, निरायुष्क और और क्षीणायुप्क ये नाम भी होते हैं तद्भव संबन्धी आयु કરી છે કે જે જીવમાં અપુતભવિમહદય (ભવિષ્યમાં ફરી ઉદયમાં ન આવે मेवो भाड) हाय छ, ते ७५२ ४ मी. अमोड' मने निड' नामाको यो छ. (मोहणिज्नकम्मविप्पमुके) मोहनीय भथी सपूत: विभुत થયેલા જીવના ક્ષીણક્રોધથી લઈને ક્ષણમોહ પયતનાં ઉપર્યુક્ત નામો સમજવાં,
હવે સૂત્રકાર આયુકર્મના ક્ષયથી આત્માના જે જે નામો નિષ્પન્ન થાય છે, તેમનું નિરૂપણ કરે છે–
आयुना या२ २ छ-(1) न२४ायु, (२) तिय आयु, (3) मनुष्या मन (४) आयु. (खोणणेरड्या उर, खीणतिरिक्खजोणि आउए, खीणमणुसाउए, खीण देवाउए) न२४ायुना क्षय याने सीधे ७१ 'क्षीन२४ायु બની જાય છે, તિર્યનિક આયુષ્યનો ક્ષય થઈ જવાથી જીવ “ક્ષીણતિય નિકાયુષ્ક બની જાય છે, મનુષ્ય આયુષ્કને ક્ષય થઈ જવાથી જીવ ક્ષીણુમનુષ્પાયુષ્ક” થઈ જાય છે અને દેવાયુષ્કને ક્ષય થઈ જવાથી જીવ ક્ષીણદેવાયુક” થઈ જાય છે. આ પ્રકારે ચારે ગતિના આયુષ્યને ક્ષય થઈ पाथी ना ५युत यार नाम निपन्न थाय छे. (अणाउप, निराउए, खीणाउए) आयुश्मन। क्षय ५४ थी Ori " मनायु.४," “निरायु" અને “ક્ષીણાયુષ્ક” આ ત્રણ નામે પણ નિષ્પન્ન થાય છે. તદૂભવ સંબધી તે
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अनुयोगद्वार क्षयमात्रेऽपि भवती, त्यत्राह-निरायुष्का-निर्गतायुष्क इति । निरायुष्मस्तु शै. शीमवस्थां किविदवतिष्ठमानायुः-शेषोऽपि उपचारतः स्यादत आह-क्षीणायुष्क इति। एतदुपसंहरनाह-आयुष्कर्मविप्रमुक्त इति । नामकर्म सामान्येन शुभाशुभभेदतो द्विविधम् , विशेषतस्तु गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गादि भेदाद् द्विचत्वारिंशदादिभेदंजिस जीव की नष्ट हो गई हो ऐसा जीव भी अनायुष्क कहलाता हैअतः ऐसा अनायुष्क यहां गृहीत नहीं है किन्तु जिसका आयुकर्म समाप्त हो चुका है ऐसा ही निरायुष्क अनायुष्क यहां लिया गया है। यदि इस पर ऐसी आशंका की जावे कि ऐसी निरायुष्क अवस्था जीव की शैलेशी अवस्था में हो जाती है-परन्तु यहां सम्पूर्णरूप से वह जीव निरायुष्क तो नहीं बनता है-फिर भी निरायुष्क इस नाम से किंचित आयु अवशिष्ट होने पर भी उपचार से कहा ही जाता है । अतः इस आशंका को दूर करने के लिये सूत्रकारने क्षीणायुष्क यह पद रखा है। इसलिये अनायुष्क निरायुष्क ये नाम तब ही जानना चाहिये कि जब सम्पूर्णरूप से आयुकर्म नष्ट होचुका होता है। (आयुकम्मविष्पमुक्के) इस प्रकार से आयुकर्म के सर्वथा अभाव होने पर क्षीणनरकायुष्क आदि ये नाम निष्पन्न होते हैं । (गहजाए ભવનુ) જેનું આયુષ્ય નષ્ટ થઈ ગયું હોય છે એવા જીવને પણ અનાયુષ્ય કહી શકાય છે. પરંતુ એવા અનાયુષ્યની વાત અહીં કરવામાં આવી નથી અહીં તે એવા અનાયુષ્યની વાત કરવામાં આવી છે કે જેના આયુકમને સદંતર ક્ષય થઈ ચુકયો હોવાને કારણે જે નિરાયુષ્ક બની ગયેલ છે એટલે કે અહી નિરાયુષ્ક (આયુષ્યરહિત) જીવને જ અનાયુષ્ક ૫દ વડે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. કદાચ અહીં કેઈ એવી શંકા ઉઠાવે કે એવી નિરાયુષ્ક અવસ્થા તે જીવની શૈલેશી અવસ્થામાં થઈ જાય છે, પરંતુ આ અવસ્થાવાળો છવ સંપૂર્ણ રૂપે નિરાયુષ્ક બનતો નથી, છતાં પણ “નિરાયુષ્ક' આ નામનો પ્રયોગ, થોડું આયુ બાકી હોવા છતાં પણ ઔપચારિક રૂપે કરવામાં આવે છે. આ આશંકાને દૂર કરવાને માટે સૂત્રકારે “ક્ષણાયુષ્ક” પદ મૂકયું છે. તેથી આત્માને અનાયુષ્ક, અને નિરાયુષ્ક રૂપે ત્યારે જ ગણી શકાય કે જ્યારે मायुमन सपू पर क्षय 25 गये डाय छे. (आयुकम्मविप्पमुक्के) मा પ્રકારે આયુકર્મને સર્વથા અભાવ થઈ જવાથી આત્માનાં ક્ષીણુનરકાયુષ્ક અહિ ઉપર્યુક્ત નામે નિષ્પન્ન થાય છે.
હવે નામકર્મના ક્ષયથી આત્માના જે જે નામ નિષ્પન્ન થાય છે, તે નામની સૂત્રકાર પ્રરૂપણ કરે છે–
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भावोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् स्थानान्तराद् विज्ञेयम् । अत्र तु तत्क्षयभानोनि कियन्त्यपि तन्नामानि पाह-गति जातिशरीराङ्गोपाबन्धनसंघातनसंहननसंस्थानानेकशरीरवृन्दसंघातविषमुक्तः-तत्र मतिः नारकादिगतिचतुष्टयहेतुभूतं गतिनाम, जातिः-एकेन्द्रियादि जातिपञ्चककारणं जातिनाम, शरीरम्-औदारिकादिशरीरपञ्चकनिवन्धनशरीरनाम, अङ्गो. पारम्-औदारिकवैक्रियाहारकशरीरत्रयाङ्गोपाङ्ग निर्वृत्तिकारणम् अङ्गोपाङ्गनाम, बन्धनम्=काष्ठादिखण्डसंयोजकलासादिद्रव्यमिव शरीरपञ्चकपुद्गलानां परस्परं सरीरंगोवंगबंधणसंघायणसंठाणअणेगषोंदिविंदसंघायविप्पमुक्के) नामकर्म सामान्य से शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म इस प्रकार दो भेदवाला हैं और विशेषरूप से गति जाति शरीर अंगो. पाङ्ग आदि के भेद से ४२ प्रकार के हैं । तथा ४२ प्रकार से भी और अधिक मेदवाला है। इसके ये सब भेद अन्य शास्त्रों से जानलेना चाहिये। यहां पर तो सूत्रकारने इस नामकर्म के क्षय से जो नाम उत्पन्न होते हैं उन्हें कहा है। नारक आदि चार गतियों का हेतुभूत जो कर्म है वह गति नामकर्म है। एकेन्द्रिय आदि पांच जाति का जो कारण होता है वह जातिनामकर्म है। औदारिक आदि पांच शरीर का जो कारण होता है वह शरीर नामकर्म है। औदारिक अंगोपांग, वैक्रीय अंगोपांग और आहारक अंगोपांग की रचना का जो हेतु हो वह अंगोपांग नामकर्म है । जिस प्रकार काष्टादि खंडों
(गइजाइसरीरंगोवंगबंधणसंघायणसंठाणअणेगोंदिबिंदसंघायविप्पमुक्क) नामકર્મના નીચે પ્રમાણે બે મુખ્ય ભેદ કહ્યા છે. (૧) શુભનામકર્મ અને (૨) અશુભનામકર્મ. પરંતુ વિશેષ રૂપે વિચાર કરવામાં આવે તે ગતિ. જાતિ, શરીર, અંગોપાંગ આદિના ભેદથી નામ કમના ૪૨ ભેદ પડે છે, તથા આ ૪૨ ભેદે સિવાયના કેટલાક વધુ ભેદે પણ પડે છે તેના આ સઘળા ભે વિષેની માહિતી અન્ય શાસ્ત્રોમાંથી મેળવી લેવી અહીં તે સૂત્રકારે આ નામકમને ક્ષય થઈ જવાથી આત્માના જે જે નામો નિષ્પન્ન થાય છે તેમનું જ કથન કર્યું છે. નારક આદિ ચાર ગતિઓની પ્રાપ્તિના કારણભૂત જે કર્મ છે તેનું નામ ગતિનામકર્મ છે એકેન્દ્રિય આદિ પાંચ જાતિના કારણબત જે કર્મ છે તેને જાતિનામકર્મ કહે છે. ઔદારિક આદિ શરીરના કારણરૂપ જે કર્મ છે તેનું નામ શરીરનામકર્મ છે. ઔદારિક અંગોપાંગ, વૈક્રિય અગપાંગ અને આહારક અંગોપાંગની રચનાના કારણભૂત જે કર્મ છે તેને અંગોપાંગ નામકમ કહે છે. જેવી રીતે કાષાદિના ટુકડાઓને લાખ આદિ
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भनुयोगदारसे बन्धहेतुबन्धननाम, संघातनं-काष्ठसमुच्चयकारकः कर्मकर इव तेषामेव पुगगनां परस्परं बधनार्थमन्योऽन्य सांनिध्यरूप सघातकारणं सयातनाम, संहननम्= कपाटादीनां लोहपट्टादिरिव औदारिकशरीरास्थ्ना परस्परबन्धविशेषनिबन्धनं संह. नननाम, संस्थानम् संस्थाननाम-संतिष्ठ-ते विशिष्टावयवरचनात्मिकया शरीराकृस्या जन्तवो भवन्नि येन तत् संस्थाननाम । इदं हि सभचतुरस्रादिसंस्थानकारणम्। तथा-अनेकशरीरन्दसंधातः-अनेकानि शरीराणि-अनेकशरीराणिको परस्पर में जोडनेवाला लाख आदि द्रव्य होता है उसी प्रकार पांच
औदारिक शरीर आदि के पुद्गलों को जो परस्पर में जोड़ता है। वह बंधन नामकर्म है। काष्टको चुन चुन २ कर रखने वाले कर्मकर की तरह जो उन्हीं पुद्गलों को परस्पर मे बन्धने के लिये अन्योन्यसांनिध्यरूप संघात का कारण होता है। अर्थात् बद्ध पुद्गलों को शरीर के नाना विध आकारों में व्यवस्थित करने वाला जो कर्म है वह संघात कर्म है। जैसे कपाट आदिकों को लोह पट्ट परस्पर में पांध देता है उसी प्रकार जो औदारिक शरीर की हड़ियों को परस्पर मे बांध देता है वह संहनन नामकर्म है । अर्थात् यह नामकर्म अस्थिबंध की विशिष्ट रचना रूप होताहै । जिसकर्म से अवयवों की विशिष्ट रचनारूप शरीर की आकृति पने वह संस्थान नामकर्म समचतुरस्रादि संस्थान का कारण है। तथा. अनेक शरीरों का जो समूह रूप संघात है वह अनेक शरीरवृन्द संघात દ્રવ્ય વડે પરસ્પરની સાથે જોડવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે પાંચ રિક શરીર આદિના પુદ્ગલેને પરસ્પરની સાથે જોડનારું જે કર્મ છે તેનું નામ બધન નામ કર્મ છે, ગ્ય કાઇને વીણી વીણીને બેઠવનાર કારીગર (સુથાર)ની જેમ. એજ કર્મપુલોને પરસ્પરની સાથે બાંધવાને માટે અન્ય સાંનિધ્ય ૩૫ સંભાતમાં જે કર્મ કારણભૂત બને છે-એટલે કે બદ્ધ પુદ્ગલેને શરીરના વિવિધ આકારમાં ગોઠવનારૂં (સ્થાપિત કરનારું) જે કર્મ છે તેનું નામ સંઘાત કર્મ છે. જેવી રીતે કમાડ આદિનાં પાટિયાઓને લેઢાની પાટી પરસ્પરની સાથે બાંધી દે છે. એ જ પ્રમાણે દારિક શરીરનાં હાડકાંઓને પરસ્પરની સાથે બાંધી દેનારૂં જે કમ છે તેને સંવનન નામકર્મ કહે છે એટલે કે આ નામકર્મ અસ્થિબંધની વિશિષ્ટ રચના રૂપ હોય છે. જે કર્મ અવયની વિશિષ્ટ રચના રૂપે શરીરની આકૃતિ બનાવવામાં કારણભૂત બને છે તે કર્મનું નામ સંસ્થાન નામકમ છે. આ સંસ્થાન નામકર્મ સમચતુસ્ત્રાદિ સંસ્થાનમાં કારણભૂત બને
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
७३ तेषां वृन्द-समूहस्तदेव पुद्गलसंघातरूपत्वात् संघातः-अनेकशरीरवृन्दसंघातः, शरीरानेकत्व जन्मान्तरीयशरीराण्यादाय । अस्मिन्नपि जन्मनि जघन्यत औदास्कितेजसकार्मणरूपशरीरत्रयस्य सद्भावाद वा शरीरानेकत्वं बोध्यम् । गत्यादिशब्दाना द्वन्द्वसमासः, तै विषमुक्तो यः स तथा। शरीरशन्देन शरीरनिबन्धनं नामकम गृहीतम् , 'शरीरवृन्दे' त्यत्र शरीरशब्देन तु तत्कार्यभूतशरीराण्येव गृह्यन्ते, इत्यनयोमैदः, अतो न पौनरुत्यम् , तथा-क्षीणशुभनामा-क्षीणं-विनष्टं शुभनामतीर्थकर शरीर की अनेकता है । अथवा जीव के दूसरे जन्म में तेजप्त और कार्मण ये दो शरीर साथ रहते हैं, इसलिये इन जन्मान्तरीय शरीरों को लेकर कम से कम एक जीव में इस जन्म में भी औदारिक तैजस और कार्मण ये तीन शरीर रहते हैं । इस अपेक्षा से भी शरीर की अनेकता रूप-अनेक शरीर वृन्द संघात सधजाता है । इन गत्यादिक शब्दों में द्वन्द्व समास है, इन गत्यादिकों से जो विप्रमुक्त है वह गति जाति-शरीर. अंगोपांग बन्धन-संघात संहनन संस्थान-अनेक शरीरवृन्दसंघात विमुक्त शब्द का वाच्यार्थ है । गति जाति शरीर आदि में जो यह शरीर शब्द है उसका अर्थ शरीर नामकर्म है, इस नाम कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीरों की रचना होती है तथा "अनेक शरीर वृन्द" में जो शरीर शब्द आया है, वह उस शरीर नामकर्म के कार्यभूत उन औदारिक आदि शरीरों का वाचक है। इस प्रकार इनमें છે અનેક શરીરેના સમૂહરૂપ જે સંધાત છે તેને અનેક શરીરવંદ સંપાત કહે છે. તે અનેક શરીરવૃંદ સંઘાત શરીરની અનેકતા રૂપ હોય છે અથવા જીવની સાથે રહે છે. તેથી આ જન્માક્તરીય શરીરની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે એક જીવમાં ઔદારિક, તેજસ અને કાર્મ, આ ત્રણ શરીરને સદૂભાવ હોય છે આ દૃષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે શરીરની અનેકતા રૂપ અનેક શરીરવૃંદ સંઘાતનું પ્રતિપાદન થઈ જાય છે ઉપર્યુક્ત ગતિ આદિ શબ્દમાં દ્વન્દ્ર સમ સ છે. આ ગતિ આદિથી જે જીવ વિપ્રમુક્ત થઈ ગયેલ साय छे ते ने गति, ति, शरीर, भोपान, मन, धात, मनन, સંસ્થાન અને અનેક શરીરવૃન્દસંઘાતવિપ્રમુકત ગણવામાં આવે છે. એટલે કે એવા જીવના ગતિવિપ્રમુકત જાતિવિપ્રમુકત આદિ નામો નિષ્પન્ન થાય છે. ગતિ, જાતિ, શરીર આદિમાં જે શરીર શબ્દ છે તેનો અર્થ શરીરનામકમ છે. આ નામકર્મના ઉદયથી ઔદારિક આદિ શરીરની રચના થાય છે. તથા“અનેક શરીરવૃન્દ” આ પદમાં જે શરીર' શબ્દ આવ્યું છે તે શરીર શખ શરીર નામકર્મના કાર્યભૂત તે દારિક આદિ શરીરને વાચક છે.
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अनुयोगद्वार
शुभसुभगसुस्वरादेययशः कीर्त्त्यादिकं यस्य स तथा । क्षीणाशुभनामा - क्षीणम् अशुभनाम= नरकगत्यशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशः कीच्यादिकं यस्य स तथा । अनामा निर्नामा क्षीणनामा इति त्रयोऽपि शब्दाः 'अमोह:' इत्यादिवद् भावनीयाः । उपसंहरन्नाह - शुभाशुभनामकर्मविप्रमुक्त इति । गोत्रम् - उच्चनीचभेदेन द्विविधं भवति । सम्मति तत्क्षयसंभवीनि नामान्याह - 'क्षीणोच्च गोत्रः' इत्यारभ्य
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भिन्नता जाननी चाहिये । (खीण सुभणामे) नामकर्म के नष्ट होने पर तीर्थकर, शुभ, सुगम, सुस्वर, आदेय और यशःकीर्ति आदि-जो शुभ नाम हैं ये सब विनष्ट हो जाते हैं इसलिये " क्षीणशुभनामा" यह बाम निष्पन्न होता है । (खीण असुभणामे) इसी प्रकार नामकर्म के नष्ट होने पर नरकगति, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर अनादेय, और अयशः कीर्ति आदिक अशुभ नाम नष्ट हो जाते हैं । इसलिये ' क्षीणाशुभ्र नामा " यह नाम निष्पन्न हो जाता है । (अणामे, निष्णामे, खीणनामे) अनाम, निर्नाम और क्षीणनाम ये तीनों शब्द भी अमोह आदि शब्दों के जैसे समझना चाहिये । ( सुभासु भणामकम्म विप्यमुक्के) इस प्रकार गति विप्रमुक्त से लेकर क्षीणनाम तक के ये नाम इस शुभाशुभनामकर्म से सर्वथा रहित हो जाने पर निष्पन्न होते हैं । (स्त्रीण उच्चागोए खीण नीयागो) अब सूत्रकार गोत्रकर्म से विप्रमुक्त
या अठारै तेभनी वस्थॆ लिन्नता समभवी लेहये. (खीणसुभणा मे ) नाम भन नाथ थतां न तीर्थ ४२, शुल, सुलग, सुस्वर, माहेय, यश डीर्ति युक्त माहि જે શુભ નામા હોય છે તેમના પણ નાશ થઈ જાય છે, તેથી એવા જીવનું “ શ્રીજી શુભનામા या नाम निष्यन्न थाय छे ( खीण असुमणा मे ) मेन प्रभा नाभम्भनो नाथ थतां नरगति, अशुल, दुर्लग, दुःस्वर, अनाद्वेय, યશ:કીતિક આદિ અશુભ નામાના પણ નાશ થઈ જાય છે તેથી એવા चषनु' “श्रीशुाशुलनामा ” नाम निष्यन्न थाय छे. (अणामे, निण्णामे, खीणणामे) वणी नामम्भ निर्भूज यह स्वाथी लवना अनाम, निर्नाभ, अने ક્ષીણુનામ આ નામ પણ નિષ્પન્ન થાય છે. આ ત્રણે શબ્દોના ભેદ અમેહ, निर्माड भने श्री मोहना वा समन्वो (सुभासुभनामकम्मवित्यमुक्के) જ્યારે આત્મા શુભાશુભ નામક'થી સ`થા રહિત થઇ જાય છે ત્યારે તેના ગતિવિપ્રમુકતથી શ્રીજીના પર્યન્તના ઉપયુ કત નામે નિષ્પન્ન થાય છે.
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હવે સૂત્રકાર ગાત્રકમના ક્ષય થઇ જવાથી આત્માના જે જે નામેા નિષ્પન્ન थाय छे, तेभनु नि३ययुरेछे
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् 'उच्चनीचकर्मविषमुक्तः' इत्यन्तैः पदैः । एषां व्याख्या पूर्ववद् भावनीया । अन्तरायकर्म हि दानान्तरायादिभेदैः पञ्चविध बोध्यम् । सम्प्रति तत्क्षयनिष्पन्नानि नामानि प्राह-क्षीणदानान्तरायः' इत्यारभ्य 'अन्तरायकर्मविप्रमुक्तः' इति। एषा होने पर जो नाम निष्पन्न होते हैं उन्हें कहते हैं । गोत्र कर्म दो प्रकार का है-उच्च गोत्र और नीच गोत्र । संतान क्रम से चले आये हुए जीव के आचरण का नाम गोत्र है। प्रतिष्ठा प्राप्त हो ऐसे कुलमें जन्म दिलानेवाला कर्म उच्च गोत्र और शक्ति रहने पर भी प्रतिष्ठा न मिल सके ऐसे कुल में जन्म दाता कर्म, नीच गोत्र कहलाता है। गोत्र कर्म के अभाव होते ही उच्च और नीच दोनों प्रकार का गोत्र नष्ट हो जाता है-अतः क्षीणोच्चगोत्र और क्षीण नीचगोत्र ये नाम निष्पन्न होते हैं। (अगोए निग्गोए खीणगोए) इन अगोत्र निगोत्र क्षीणगोत्र शब्दों की व्याख्या पहिले जैसी ही जाननी चाहिये । अब सूत्रकार अन्तराय कर्म के अभाव में जो नाम निष्पन्न होते हैं उन्हें बताते हैं-दानान्त. राय आदि के भेद से अन्तराय कर्म ५ प्रकार का है। इनमें (खीणदाणं. तराए, खोणलाभंतराए खीण भोगंतराए, खीणउवभोगंतराए, खीण वीरियंतराए) दानान्तराय के क्षय होने से क्षीण दानान्तराय,
(खीण उच्चागोए खीण नीयागोए) गोत्रमना नीय प्रभारी ने १२ ५४ छे-(१) यगोत्र, (२) नीयगोत्र मा म पाथी प्रति भने छ, એવા કુળમાં જન્મ અપાવનાર કર્મને ઉચ્ચગોત્ર કર્મ કહે છે શક્તિ હેવા છતાં પણ–યોગ્યતા હોવા છતાં પણ પ્રતિષ્ઠા ન મળે એવા કુળમાં જન્મ અપાવનાર કર્મને નીચ ગોત્રકર્મ કહે છે ગાત્રકને ક્ષય થતાંની સાથે જ ઉચ્ચ અને નીચ, આ બન્ને પ્રકારના ગોત્રને નાશ થઈ જાય છે તેથી જેના ગોત્રકમને नाश ५७ गये. छ । ना "क्षीणायगेत्रि" भने “क्षी नायगोत्र" नामा नि०पन्न थाय छे. (अगोए, निग्गोए, खीणगोए) qणी वा सामान "भगोत्र" " निगेत्रि" भने “ क्षीगोत्र" ५५ डेवामा भाव छे. मा પદની વ્યાખ્યા “અહ” આદિની વ્યાખ્યાને આધારે સમજી શકાય એવી છે.
હવે સૂત્રકાર અન્યાય કર્મના અભાવથી આત્માના જે જે નામે નિષ્પન્ન थाय छ, तमनु थन ४२ छ
દાનાન્તરાય આદિના ભેદથી અન્તરાયકર્મ પાંચ પ્રકારના કહ્યા છે. (खीणदाणंतराए, खीणलाभंतराए, खीणभोगंतराए, खीणउवभोगंतराए, खीणवीरि. यंतराए) ना हानान्त:मनो क्षय य: पापी 'क्षीहानान्तर
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भनुयोगद्वारसूत्रे व्याख्याऽपि पूर्ववदेव बोध्या । इत्थं ज्ञानावरणाद्यन्तरायकर्मान्ताष्टप्रकृतीनामेकैकक्षयेण निष्पन्नानि नामान्यभिधाय सम्पति समुदिताष्टकर्म प्रकृतिक्षये यानि नामानि निष्पयन्ते तान्याह-'सिद्धे' इत्यादि-सिद्धा=सिद समस्तमयो जनत्वात् सिदः । बुद्ध बोधस्वरूपत्वाद् बुद्धः। मुक्ताबाह्याभ्यन्तरग्रन्थबन्धन मुक्तत्वाद् मुक्तः। परि. लाभोन्तराय के क्षय होने से क्षीण लाभान्तराय, भोगान्तराय के क्षय होने से क्षीण भोगान्तराय उपभोगान्तराय के नष्ट होने से क्षीण उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय के नष्ट होने से क्षीण वीर्यान्तराय ये नाम निष्पन्न होते हैं (अणंतराए णिरंताए लोणंतराए ) तथा अनन्तराय निरन्तराय और क्षीणान्तराय ये नाम निष्पन्न होते हैं। इस प्रकार ये सब पूर्वोक्त नाम (अंतरायकम्मविप्प मुक्के) अन्तराय कर्म से विमुक्त होने पर होते हैं । ( सिद्धे वुद्धे मुत्ते परिणिन्वुए, अंतगडे, सव्वदुक्खप्पहीणे ) अब सूत्रकार यह कहते हैं कि ये जो ज्ञानावरण आदि से लेकर अन्तराय कर्म पर्यन्त आठकर्म हैं उनमें से एक एक कर्म के नाश होने से जैसे ये भिन्न २ नाम कहे गये हैं उसी प्रकार से आठ कर्मों के सर्वधा नष्ट होने पर जो नाम होते हैं ये हैं-सिद्ध-समस्त प्रयोजन सिद्ध हो जाने से सिद्ध-यह नाम
લાભાન્તરાય કર્મને ક્ષય થઈ જવાથી “ ક્ષીણલાભાન્તરય,” ભોગાન્તરાયને ક્ષય થઈ જવાથી “ક્ષીગાન્તરાય,” ઉપભોગાન્તરાયને ક્ષય થઈ જવાથી "क्षीपा -त२.य,” भने वीर्यान्तराय। क्षय पाथी " क्षीवार्या. तशय" । २i नi नामा नि०पन्न याय छे. (अणंतराए, णिरंतराए, जीणंतराए) तथा ना अन्तराय भनी २५ पाथी तना “मनतराय," निरन्तराय' भने 'क्षीयान्तराय' मा नाम नि०५न्न थाय छे. ક્ષીણદાનાનરાયથી લઈને ક્ષીણુન્તરાય પર્યન્તના ઉપર્યુક્ત નામે આત્માને ત્યારે જ ઓળખી શકાય છે કે જ્યારે તેના અનરાય કમને સંપૂર્ણતઃ ક્ષય થઈ ગયો હોય છે.
(सिद्धे, बुद्धे, मुत्ते, परिणिवुए, अंतगडे, सव्वदुक्खप्पहीणे) ज्ञाना१२५था લઈને અન્તરાય પર્યન્તના પ્રત્યેક કર્મને નાશ થવાથી જીવના જે ભિન્ન ભિન્ન નામો નિષ્પન્ન થાય છે. તેમનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર, આઠે કમેને સર્વથા વિનાશ થવાથી જીવના જે જે નામે નિષ્પન્ન થાય છે, તે નામને પ્રકટ કરે છે
આઠે પ્રકારના કર્મોને જ્યારે સર્વથા ક્ષય થઈ જાય છે ત્યારે જીવના समस्त प्रयोगनी सिद्ध 45 nय छ तेथी १नु " सिद्ध" सिद्ध'
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मनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् ७१७ नितिरि समन्तात्-सर्वप्रकारैः निर्वृतः शीवीभूतः परिवृतिः परिनिर्वृ तत्वं च सर्वोत्कृष्ट सकलसमोहितमोक्षरूपार्थपाप्त्या बोध्यम् । अन्तकृतः-अन्तकृतत्वं तु समस्तसंसारान्तकारित्वाद् बोध्यम् । तथा-सर्वदुःखपहीणः । सर्वदुःखमहीणत्वं तु शारीरमानसदुःखानामात्यन्तिकक्षयेण बोध्यम् । सम्पति प्रकृतमुपसंहरन्नाह-स एष क्षयनिष्पन्न इति । निरूपितः क्षायिको भाव इति सूचयितुमाह-स एष धायिक इति ।।सू० १५४॥
निष्पन्न होता है।-बुद-बोध स्वरूप हो जाने से बुद्ध यह नाम निष्पन्न होता है। मुक्त-बाह्य और आभ्यन्तररूप परिग्रह बन्धन से छूट जाने से मुक्त यह नाम निष्पन्न होता है । परिनित-सर्व प्रकार से, सब तरफ से शीती भूत हो जाने से परिनिर्वत यह नाम निष्पन्न होता है। सकल समीहितो में सर्वोत्कृष्ट समीहित एक मोक्ष ही है-सो उसकी प्राप्ति से परिनिर्वतपना-जानना चाहिये । अन्तकृत-समस्त संसार का अन्तकारी होने से अन्तकृत यह नाम निष्पन्न होता है सर्व दुःखपहीणशारीरिक एवं मानसिक समस्त दुःखों के आत्यंतिक क्षय हो जाने से सर्व दुःख प्रहीण यह नाम निष्पन्न होता है। __ अब सूत्रकार इस प्रकरण का उपसंहार करने के निमित्त कहते हैं નામ નિષ્પન્ન થાય છે. એ જીવ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શનથી યુક્ત થઈ જવાને કારણે “બુદ્ધ” ગણાય છે. એવો જીવ બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિ ગ્રહરૂપ બન્શનમાંથી મુકત થઈ જાય છે તેથી તેને “મુક્ત” કહેવામાં આવે છે. એ જીવ સર્વ પ્રકારના પરિતાપથી નિવૃત થઈને શીતલીભૂત થઈ જાય છે, તેથી તેનું પરિનિવૃત” નામ નિષ્પન્ન થાય છે. સકળ સમીહિતેમાં સર્વોત્કટ સમીહિત તે માત્ર મેક્ષ જ ગણાય છે, તે મોક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ જવાના કારણે તે આત્મામાં પરિનિવૃતતા સમજવી એ જીવ સમસ્ત સંસારનો અન્તકારી બને છે તેથી તેને “અન્નકૃત” કહે છે. એવા જનના શારીરિક અને માનસિક સમસ્ત દુખેને આત્યંતિક (સંપૂત) ક્ષય થઈ જવાને કારણે તેને સર્વદુઃખ પ્રહણ કહે છે. આ પ્રકારે આઠે કર્મોને સર્વથા ક્ષય કરી નાખનાર જીવના નીચે પ્રમાણે નામે નિષ્પન્ન થાય છે-(૧) સિદ્ધ (२) मुद्ध, (3) भुत, (४) ५३निवृत, (५) मन्तत भने (६) समी .
હવે આ સૂત્રને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે – (से तं खयनिष्फण्णे) मा ४२नु क्षयनि०पन्न क्षायि भापर्नु ११३५ ७.
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मनुयोगद्वार कि (से तं खयनिष्फण्णे) इस प्रकार यह क्षय निष्पन्न है । (से तं खइए) इस प्रकार यह क्षायिक भाव का निरूपण है____ भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा क्षायिक भाव का निरूपण किया है। उसमें उन्होंने यह कहा है कि ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कमों का जो क्षय है एक तो वह क्षायिक भाव है-और दूसरा क्षायिक भाव वह है जो इन कर्मों के क्षय से निष्पन्न होता है । कमों के क्षय से निष्पन्न हुआ क्षायिक अनेक प्रकार का कहा है । उनमें पांच प्रकार के ज्ञानावरण कर्म के क्षय से नौ प्रकार के दर्शनावरण कर्म के क्षय से दो प्रकार के वेदनीय कर्म के क्षय से, २८ प्रकार के मोहनीय कर्म के क्षय से चार प्रकार के आयु कर्म के क्षय से, ४२ प्रकार के नाम कर्म के क्षय से, दो प्रकार के गोत्रकर्म के क्षय से और पांच प्रकार के अन्तराय के क्षय से सूत्र प्रदर्शित जितने भी नाम निष्पन्न होते हैं वे सब क्षायिक हैं । क्योंकि ये भिन्न २ प्रकार के कर्मों के क्षय से निष्पन्न होते हैं। यहाँपर क्षयनिप्पन्न क्षायिकभाव में क्षयनिष्पन्न क्षायिक नामों का कथन जो किया गया है वह आप्रासंगिक नहीं है, क्योंकि क्षायिक (से तं स्वइए) क्षयनिष्पन्न थायि: मापनु नि३५ समास या क्षायि ભાવના સ્વરૂપનું નિરૂપણ પણ અહીં પૂરું થાય છે.
ભાવાર્થસૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા ક્ષાયિક ભાવનું નિરૂપણ કર્યું છે. તેમાં તેમણે ક્ષાયિક ભાવના બે પ્રકાર બતાવ્યા છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મોને જે ક્ષય છે તેને ક્ષાયિક રૂપ પહેલે પ્રકાર ગણવામાં આવે છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોનો ક્ષયથી નિષ્પન થતાં ક્ષાયિક ભાવને ક્ષયનિષ્પન રૂપ બીજા પ્રકારને ક્ષાયિક ભાવ કહ્યો છે. કર્મોનો ક્ષયથી નિષ્પન થતે ક્ષાયિક ભાવ અનેક પ્રકારને કહ્યો છે. પાંચ પ્રકારના જ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયથી, નવ પ્રકારના દર્શનાવરણ કર્મના ક્ષયથી, બે પ્રકારના વેદનીય કર્મના ક્ષયથી, ૨૮ પ્રકારના મેહનીય કર્મના ક્ષયથી, ચાર પ્રકારના આ યુકર્મના ક્ષયથી, ૪૨ પ્રકારના નામકર્મના ક્ષયથી, બે પ્રકારના ગોત્રકમના ક્ષયથી, અને પાંચ પ્રકારના અન્તરાય કર્મનો ક્ષયથી સૂક્ત જેટલાં નામ નિષ્પન થાય છે, તેમને ક્ષયનિષ્પન ક્ષયિક ભાવ રૂપે ગણવા જોઈએ, કારણ કે તે નામો ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારનાં કર્મોનો ક્ષયથી નિષ્પન્ન થાય છે.
આ સત્રમાં ક્ષયનિષ્પન ક્ષાયિક ભાવોમાં ક્ષયનિષ્પન્ન ક્ષાયિક નામોનું જે કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે અપ્રાસંગિક નથી. તેનું કારણ નીચે
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योगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम्
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भाव का तात्पर्य है क्षय से उत्पन्न हुई अवस्था के परिणाम | यह आत्मा की निज स्वाभाविक अवस्था है। इसमें जो भी परिणाम हैं वे सब शुद्ध मामस्वरूप हैं । इन्हीं परिणामों को लेकर जो नाम कहे गये हैं । के नाम, स्थापना या द्रव्यरूप नहीं हैं, किन्तु भावरूप हैं। कर्मों के नष्ट होने पर आत्मा का जो मौलिक रूप प्रकट हो जाता है, उसी मौलिक रूप के ये वाचक हैं इसलिये इन नामों का क्षायिकभाव के प्रकरण में विवेचन करना युक्ति युक्त ही है। अप्रासंगिक नहीं है। जैसे जब केवलज्ञानावरण नष्ट हो जाता है+तब आत्मा में केवलज्ञानगुण प्रकट हो जाता है केवलज्ञानावरण के नष्ट होते ही क्षायोपशमिक चार ज्ञान क्षायिकरूप हो जाते हैं - अर्थात् केवल ज्ञान में अन्तर्हित हो जाते हैं । तय इस आत्मा का क्षीण केवल ज्ञानावरण ऐसा नाम जो होता है वह नाम, स्थापना या द्रव्यरूप नहीं है । किन्तु भावनिपेक्ष रूप है । कारण उस प्रकार की पर्याय उस आत्मा में निष्पन्न हो चुकी है, और उसी का यह वाचक है। इसी प्रकार से शेष कर्मो के क्षय से निष्पन्न हुए नामों में भी जनाना चाहिये । इसीलिये क्षायिक भाव के प्रकरण में सूत्रकार ने इनका निर्देशन किया है । ।। सू० १५४ ॥
પ્રમાણે છે-ક્ષયથી ઉત્પન્ન થયેલી અવસ્થાના પરિણામને ક્ષાયિક ભાવ ગણાય છે. તે આત્માની નિજ સ્વાભાવિક અવસ્થા છે. તેમાં જે જે પરિણામે છે, તે બધાં પિરણામ શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપ છે. તે પરિણામેાના વિચાર કરીને જે નામેા બતાવવામાં આવ્યાં છે તેએ નામ, સ્થાપના કે દ્રવ્યરૂપ નથી, પરન્તુ ભાવરૂપ છે. કર્મના ક્ષય થઈ જવાથી આત્માનું જે મૌલિક મૂલ રૂપ પ્રકટ થઈ જાય છે, એજ મૌલિક રૂપના તે વાચક છે. તેથી તે નામેાનું ક્ષાયિક ભાવના પ્રકરણમાં વિવેચન કરવુ... તે અનુચિત અથવા અપ્રાસંગિક નથી, પરન્તુ ઉચિત અને પ્રાસ'ગિક જ છે. જેમ કે કેવળજ્ઞાનાવરણ કરના સપૂણ્ ક્ષય થઈ જતાં જ આત્મામાં કેવળજ્ઞાનગુણુ પ્રકટ થઇ જાય છે. કેવળજ્ઞાનાવષ્ણુના નાશ થતાં જ ક્ષાયેાપશમિક ચાર જ્ઞાન ક્ષાયિક રૂપ થઈ જાય છે, એટલે કે આ ચારે જ્ઞાન કેવળજ્ઞાનમાં જ સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. ત્યારે તે માત્માનું “ક્ષીણકેવળજ્ઞાનાવરણ' આ નામ નિષ્પન્ન થઈ જાય છે. તે નામ, સ્થાપના અથવા દ્રવ્યરૂપ હાતું નથી, પરન્તુ ભાવનિક્ષેપ રૂપ જ હોય છે, કારણ કે તે પ્રકારની પર્યાય તે આત્મામાં નિષ્પન્ન થઈ ચુકી હેાય છે, અને આ નામ તેનું જ વાચક છે. એજ પ્રમાણે બાકીનાં કર્મોના ક્ષયથી નિષ્પન્ન થયેલાં નામેાના વિષયમાં પશુ સમજવુ'. તેથી જ ક્ષાયિક ભાવના પ્રકરણમાં સૂત્રકારે તેમના નિર્દેશ કર્યાં છે. સૂ૦ ૧૫૪ા
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भनुयोगद्वार अथ क्षायोपशमिकं नाम निरूपयति
मूलम्-से किं तं खओवसमिए ? खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-खओवसमे य, खओवसमनिप्फण्णे य। से किं तं खओवसमे ? खओवसमे चउण्हं घाइकम्माणं खओवसमेणं, तं जहा-णाणावरणिज्जस्स, दंसणावरणिजस्त, मोहणिजस्स, अंतरायस्स, खओवसमेणं, से तं खओवसमे। से किं तं खओवसमनिप्फण्णे ? खओवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा खओवसमिया आभिणिबोहियणाणलद्धी, जाव खओवसमिया मणपजवणाणलद्धी, खओवसमिया मइअण्णाणलद्धी, खओव. समिया सुयअण्णालद्धी, खओवसमिया विभंगणाणलद्धी, खओवसमिया चक्खुदसणलद्धी, अचक्खुदंसणलद्धी ओहिदंसणलद्धी, एवंसम्मदंसणलद्धी मिच्छादसणलद्धी, सम्ममिच्छादसणलद्धी, खओवसमिया सामाइयचरित्तलद्धी, एवं छेयोवटावणलद्धी, परिहारविसुद्धियलद्धी, हुमसंपरायचरित्तलद्धी, एवं चरित्ताचरित्तलद्धी, खओवसमिया दाणलद्धी, एवं लाभलद्धी, भोगलद्धी, उवभोगलद्धी, खओवसमिया वीरियलद्धी, एवं पंडियवीरियलद्धी, बालवीरियलद्धी, बालपंडियवीरियलद्धी, खओवसमिया सोई. दियलद्धी, जाव खओवसमिया फासिंदियलद्धी, खओवसमिए आयारंगधरे, एवं सुयगडंगधरे, ठाणंगधरे, समवायंगधरे, विवाहपण्णत्तिधरे, नायाधम्मकहाधरे, उवासगदसाधरे, अंतगडदसाधरे, अणुत्तरोववाइयदसाधरे, पण्हावागरणधरे, विवागसुक्षरे
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपशर्मिकभावनिरूपणम् ७२१ खओवसमिए दिट्रिवायधरे, खओवसमिए णवपुवी, खओवसमिए जाव चउद्दस्सपुची, खओवसमिए गणी, खओवसमिए वायए,सेतंखओवसमनिष्फण्णे, सेतं खओवसमिए॥सू०१५५॥
छाया-अथ कोऽसौ क्षायोपशमिकः ?क्षायोपशमिकः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाक्षयोपशमश्च क्षयोपशमनिष्पन्नश्च । अथ कोऽसौ क्षयोपशमः ? क्षयोपशमः-चतुर्णा पातिकर्मणां क्षयोपशमः खलु तद्यथा-ज्ञानावरणीयस्य, दर्शनावरीयस्य मोहनीयस्य, अन्तरायस्य क्षयोपशमः खलु, स एष क्षयोपशमः। अथ कोऽसौ क्षयोपशमनिष्पन्नः ! क्षयोपशमनिष्पन्नः अनेकविधः प्रज्ञप्तः-तद्यथा-क्षायोपशमिकी आभिनिबोधिकशानलब्धिः, यावत् क्षायोपशमिकी मनः पर्ययज्ञानलब्धिः, क्षायोपशमिकी मत्यज्ञानलब्धिः, क्षायोपशमिकी श्रुताज्ञानलब्धिः, क्षायोपशमिकी विभङ्गज्ञानलब्धिः, क्षायोपशमिकी चक्षुर्दर्शनलब्धिःः अचक्षुर्दर्शनलब्धिः, अवधिदर्शनलब्धिः, एवं सम्यक्दर्शनलब्धिः, मिथ्यादर्शनलब्धिः, सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धिः, क्षायोपशमिकी सामायिकचारित्रलब्धिः, एवं छेदोपस्थापनलब्धिः परिहारविशुद्धिकलब्धिः, सूक्ष्मसंपरायचारित्रलब्धिः, एवं चरित्राचरित्रलब्धिः क्षायोपशमिकी दानलब्धिः, एवं लाभलब्धिः, भोगलब्धिः, उपभोगलब्धिः, क्षायोपशमिकी वीर्यलब्धिः, एवं पण्डितवीर्यलब्धिः, बालवीर्यलब्धिः बालपण्डितवीर्यकब्धिः, क्षायोपशमिकी श्रोत्रेन्द्रियलब्धिः, यावत् क्षायोपशमिकी स्पर्शेन्द्रियलब्धिः, क्षायोपशमिकः आचाराधरः, एवं सूत्रकृताधरः, स्थानाङ्गधरः समवायाङ्गधरः, व्याख्याप्रज्ञप्तिधरः, ज्ञाताधर्मकथाधरः, उपासकदशाधरः, अन्तकद्दशाधरः, अनुत्तरोपपातिकदशाधरः, प्रश्नव्याकरणधरः, विपाकश्रुतधरः, क्षायोपशमिको दृष्टिबादधरः, क्षायोपशमिको नवपूर्वीधरः, क्षायोपशमिको यावत् चतुर्दशपूर्वीधरः, क्षायोपशमिको गणी, क्षायोपशमिकोवाचकः। स एष क्षयोपशमनिष्पन्नः। स एष क्षायोपशमिकः ॥सू०१५५॥
टीका-'से किं तं' इत्यादिअय कोऽसौ क्षायोपशमिकमः ? इति शिष्यपश्नः । उत्तरयति-क्षायोपशमिका अब सूत्रकार क्षायोपमिकभावका निरूपण करते हैं'से किं तं खओवसमिए' इत्यादि ।
शब्दार्थ-( से किं तं खओवसमिए? ) हे भदन्त ! वह क्षायोपशमिक क्या है?
હવે સૂત્રકાર ક્ષાપશમિક ભાવનું નિરૂપણ કરે છે "से किं तं खओवसमिए" त्या
Avtथ-(से किं तं ख गोवसमिए ?) B मावन् पूlन्त आयપથમિકનું સ્વરૂપ કેવું છે?
अ० ११
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अनुयोगद्वार
क्षयोपशम-क्षयोपशम निष्पन्नेति द्विविधः । तत्र - क्षगोपशमः - केवलज्ञानप्रतिबन्धकव ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय मोहनीयान्तरायरूपमा विकर्म चतुष्टयस्य क्षयोपशमोबोध्यः । अयं भावः - : - विवक्षितज्ञानादिगुणविघातकस्य कर्मणः उदयप्राप्तस्य क्षयः= सर्वथाऽपगमः, अनुदीर्णस्य तस्यैव कर्मण उपशमः = विपाकत उदयाभावः । ततश्व क्षयोपलक्षितः उपशम इति । ननु औपशमिके भावे उदयप्राप्तस्य कर्मणः सर्वथा
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उत्तर- खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते) क्षयोपशमिक दो प्रकार का प्रज्ञप्त हुआ है। (तं जहा ) जैसे- खओवसमे य खओवसमनिष्फdot) एक क्षयोपशमरूप क्षायोपशमिक और दूसरा क्षयोपशमनिष्पन क्षायोपशमिक |
( से कि त खओवस मे ? ) हे भदन्त ! वह क्षायोपशम क्या है ।
उत्तर- (खओवसमे चउन्हें घाइकम्माणं खओवस मेगं ) केवल ज्ञान के प्रतिबन्धक ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिक कर्मों का जो क्षयोपशम है वह क्षायोपशम है। इसका तात्पर्य यह है कि विवक्षित ज्ञानादिक गुणों को घात करने वाले उदय प्राप्त कर्म का क्षय सर्वथा अपगम और अनुदीर्ण उसी कर्म का उपशम - विपाक की अपेक्षा से उदयाभाव इस प्रकार क्षय से उपलक्षित जी उपशम है वही क्षयोपशम है ।
शंका- औपशमिक भाव में उदय प्राप्त कर्मका सर्वधा क्षय है और
उत्तर- (खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा ) क्षायोपशमिक भावना नीथे प्रभाबे मे प्रा२४ छे - ( खओवस मे य खओवसमनिष्फण्णे य ) (1) ક્ષયાપશમ રૂપ ક્ષાયેાપશમિક અને (ર) ક્ષયે પશમ નિષ્પન્ન ક્ષાયેાપશમિક.
-
प्रश्न – (से किं तं खओवसमे ? ) हे भगवन् ! ते क्षायोपशमनु स्व३५ ठेवु छे ?
उत्तर- (खओवसमे च उण्डं बाइकम्माणं खओवस मेणं) त्रणज्ञानना प्रतिषષક-કેવળજ્ઞાનને પ્રકટ થતું રોકનારાં-જ્ઞાનાવરણીય, દનાવરણીય, માહનીય અને અન્તરાય, આ ચાર ક્રાતિયા ક્રર્માના જે ક્ષયેાપશમ રૂપ ભાવ છે, તેને ક્ષાપશમ કહે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે-વિક્ષિત જ્ઞાનાદિક ગુણાના ઘાત કરનારા ઉદય પ્રાપ્ત ક્રર્માંના ક્ષય (સર્વથા અપગમ) અને અનુદીણું એજ કર્મીના ઉપશમ (વિપાકની અપેક્ષાએ ઉદયાભાવ), આ પ્રકારના ક્ષયથી ઉપલક્ષિત જે ઉપશમ છે, તેનુ' નામ જ સાપશમ છે.
શકા—ઔપશમિક ભાવમાં ઉદ્દયપ્રાપ્ત ક`ના સત્રથા ક્ષય થાય છે અને
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १५५ शायोपशमिकभावनिरूपणम् ७२३ क्षयः, अनुदयप्राप्तं तु कर्म न क्षीणं नापि तस्योदयोऽतस्तस्योपशमश्च उच्यते, भायोपचमिकेऽस्मिन्नपि भावे उदीर्णस्य क्षयः, अनुदीर्णस्य चोपशम इत्युच्यते, इस्थमनयोः को भेदः ? इति चेदाह-कर्मणः क्षयोपशमे तु विपाकत एवोदयामाका, प्रदेशस्तु अस्त्येवोदयः, औपशमिके भावे तु कर्मणः प्रदेशतोऽप्युदयो नास्तीत्य. नयोमेंदो बोध्यः । क्षयोपश पस्तु ज्ञानावरणादि कर्मचतुष्टयस्यैव भवति, नान्येषा भनुदय प्राप्त जो कर्म है उसका न क्षय है और न उदय है, किन्तु उपशम है, इसी प्रकार इस क्षायोपशमिक भाव में भी उदीर्ण कर्मका क्षय है और अनुदीर्ण कर्मका उपशम है। तब औपशमिक और क्षायोपशमिक में क्या भेद है ? ___ उत्तर-क्षयोपयोशम भाव में जो कर्म का उपशम कहा गया है वह विपाक की अपेक्षा से ही उदयाभाव रूप उपशम कहा गया है, प्रदेश की अपेक्षा नहीं -प्रदेश की अपेक्षा से तो वहां कर्मका उदय है परन्तु औपशमिक भाव में जो उपशम कहा गया है वह विपाक
और प्रदेश दोनों की अपेक्षा से कहा गया है । अर्थात् औपशमिक भाव में कर्म का न विपाकोदय है, और न प्रदेशोदय है । नीरस किये हुए कर्म दलिकों का वेदन प्रदेशोदय है और रस विशिष्ट दलिकों का विपाक वेदन विपाकोदय है। क्षयोपशम ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अंतराय इन चार कर्मों का ही होता है । निषिद्ध होने અનુદય પ્રાપ્ત જે કમ છે તેને ક્ષય પણ થો તથી અને ઉદય પણ થતું નથી પરંતુ ઉપશમ જ થાય છે. એ જ પ્રકારે ક્ષાયોપથમિક ભાવમાં પણ ઉતીર્ણ કર્મને ક્ષય અને અનુદી કમને ઉપશમ થતું હોય છે. તે પછી ઔપશમિક અને ક્ષાપશમિકમાં શે ભેદ છે ?
ઉત્તર-ક્ષ પશમ ભાવમાં કર્મને જે ઉપશમ કહેવામાં આવ્યું છે તે વિપાકની અપેક્ષાએ જ ઉઠયાભાવ (ઉદયને અભાવ) રૂપ ઉપશમ બતાવવામાં આવ્યો છે, પ્રદેશની અપેક્ષાએ બતાવવામાં આવ્યો નથી. પ્રદેશની અપેક્ષાએ તે ત્યાં કર્મને ઉદય જ છે. પરંતુ પશમિક ભાવમાં જે ઉપશમ બતાવવામાં આવ્યા છે, તે વિપાક અને પ્રદેશ, આ બન્નેની અપેક્ષાએ બતાવવામાં આવ્યું છે એટલે કે ઔપશમિક ભાવમાં કમને વિપાકેદય હેતું નથી, પણ પ્રદેnય હોય છે. નીરસ કરાયેલાં કમંદવિકોનુ વેદના પ્રદેશોદય રૂપ છે અને રસવિશિe દવિકેનું વિપકવેદન વિપાકે ય રૂપ છે. જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય લેખ
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अनुयोगद्वार कर्मणां, निषिद्धत्वात् । सम्पति प्रथमं भेदमुपसंहरन्नाह-स एष क्षयोपशम इति । द्वितीयं भेदं पृच्छति-अथ कोऽसौ क्षयोपशमनिष्पन्नः? इति । उत्तरयति-क्षयोपशनिष्पन्नः अनेकविधः प्रज्ञप्तः। अनेकविधत्वमेवाह-तद्यथा-क्षायोपशमिकी आभिनिबोधिकज्ञानलब्धिः क्षयोपशमेन निष्पन्ना क्षायोपशमिकी, सा का ? इत्या:आभिनिबोधिज्ञानलब्धिरिति। आमिनिबोधिक ज्ञान-मतिज्ञानं तस्य लन्धिः-माप्ति: इयं हि-स्वावरणकर्मक्षयोपशमेनोपसम्पद्यते, अत एवेयं क्षायोपशमिकीत्युच्यते । इत आरभ्य क्षायोपशमिकी मनः पर्यवज्ञानलब्धिरिति यावद् वक्तव्यम् । तत्तज्ज्ञान से अन्य कर्मों को नहीं होता है । ( से तं खोसमे) इस प्रकार यहक्षयोपशम है (से कि तं खोवसमणिप्फण्णे ? ) हे भदंत ! क्षयोपशम निष्पन्न क्षायोपशमिक भाव क्या है ?
उत्तर-(खोवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्त) क्षयोपशम निष्पम क्षायोपशमिक भाव अनेक प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं
(वोव समिया आभिणियोहियणाणलद्धी जाय खोवसमिया मणपज्जषणाणलद्धी) क्षयोपशमिकी आभिनियोधिक ज्ञानलब्धि-अभिनिबोधक नाम मतिज्ञान है। इस मतिज्ञान की प्राप्ति का नाम आभिनिषोधिक ज्ञानलब्धि है। यह आभिनियोधिकज्ञानलब्धि मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होती है। इसलिये इसे क्षायोपशमिकी कही है, इसी प्रकार श्रुतज्ञानलब्धि श्रुतज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से होती है। अवधिનીય અને અંતરાય, આ ચાર પ્રકારનાં કર્મો જ પશમ થાય છે, અન્ય કર્મોને क्षयोपशम यो नयी. (खे तं खओवसमे) मा ४२नुक्षया५मनु १३५ छे. ___ -(से कि ते खओवसमणिप्फण्णे ?) मान्! श्या५शमनिष्पन्न શાપથમિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(खओवसमनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते) क्षयोपशमनिपान क्षायो५शभिमा१ मने ५२ ह्यो छे. (तंजहा) २म है.... (खओवसमिया भाभिणियोहियाणणलद्धी जाव खोवसमिया मणपजवणाणलद्धी) क्षायो५मिती આઈનિબેધિક જ્ઞાનલબ્ધિ મતિજ્ઞાનને આભિનિબેધિક જ્ઞાન કહે છે. આ મતિજ્ઞાનની પ્રાપ્તિનું નામ આભિનિબંધિક જ્ઞાનલબ્ધિ છે. મતિજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષપશમથી આ આભિનિબેધિક જ્ઞાનલબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે તેથી તેને ક્ષાપશમિકી કહેવામાં આવી છે. એ જ પ્રમાણે શ્રુતજ્ઞાનાવરણ કર્મના
પશમથી શ્રુતજ્ઞાનલશ્વિની, અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયે પશમથી
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मेनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपमिकभावनिरूपणम् प्राप्तिहिं तत्चदावरणकर्मक्षयोपशमजन्या बोध्या। केवलज्ञानलब्धिस्तु तदावरण कर्मणः क्षय एवोत्पद्यते अतोऽत्र नोक्ता। तथा-क्षायोपशमिकी मत्यज्ञानलन्धिःअंशानं-कुत्सितं ज्ञानम्-भज्ञानम्, कुत्सार्थेऽपि नोवृत्तिः, कुत्सितं-शीलम्अशीलम् इत्यादौ तथा दृष्टत्वात् , मतिरेवाज्ञानं मत्यज्ञानं तस्य लब्धिः योग्यता स्वावरणक्षयोपशमेनैव निष्पद्यते । कुत्सितत्वं चास्य मिथ्यादर्शनोदयदक्षितत्वाद बोध्यम् । एवं क्षायोपशमिकी श्रुतज्ञानलब्धिरपि बोध्या। तथा-क्षायोपशमिकी विभङ्गमानलब्धिः भङ्गमकारो भेदइति पर्यायाः। भङ्गशब्दस्त्विह प्रक्रमादवधिवाचकः। ज्ञानालन्धि अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होती है, और मनापर्यवज्ञानलब्धि मनः पर्यवज्ञानावण कर्म के क्षयोपशम से होती है। इसलिये इन लब्धियों कोक्षायोपशमिक कहा है। केवलज्ञानलब्धि को सूत्रकार ने जो यहां नहीं कहा है उसका कारण यह है कि यह केबलज्ञानावरणकर्म के क्षय से होती है। (खओवसमिया मह अण्णाण लद्धी, खोवसमिया सुय अण्णाणलद्धी, खोवसमिया विभंगणाण. लद्धी) मतिअज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति अज्ञान, श्रुतअज्ञानाघरण के क्षयोपशम से श्रुतज्ञान, विभंगज्ञानावरण के क्षयोपशम से विभंगज्ञान की प्राप्ति होती है, इसलिये इन्हें क्षायोपशिमिकी मत्यज्ञान लब्धि, क्षायोपशमिकी श्रुताज्ञानालब्धि और क्षायोपशमिकी विभंग ज्ञान लब्धि कहा है । कुत्सित ज्ञान का नाम अज्ञान है । कुत्सित अर्थ में भी नव होता है। जैसे कुत्सितशील अशील आदि (खोवसमिया અવધિજ્ઞાન લબ્ધિની અને મન:પર્યવજ્ઞાનાવરણના ક્ષય પશમથી મન:પર્યવજ્ઞાન લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે. તે કારણે તે લબ્ધિઓને ક્ષયપશમિક કહેવામાં આવી છેઅહીં સૂત્રકારે કેવળજ્ઞાન લબ્ધિને ઉલ્લેખ કર્યો નથી, કારણ કે કેવળજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયથી જ કેવળજ્ઞાન લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, પશમથી તેની પ્રાપ્તિ થતી નથી.
(खोवसमिया मइ अण्णाणलद्धी, ख प्रोवसमिया सुय अण्णोणलद्धी, खोवसमिया विभंगणाणलद्धी) भति मज्ञाना२ना क्षयोपशमयी मति अज्ञान, શ્રતઅજ્ઞાનાવરણના ક્ષયોપશમથી શ્રતાજ્ઞાન અને વિસંગજ્ઞાનાવરણના ક્ષપશમથી વિર્ભાગજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે. તેથી તેમને ક્ષાપશમિકી મત્યજ્ઞાનલબ્ધિ, લાપશમિક કૃતાજ્ઞાનલબ્ધિ અને ક્ષાપશમિકી વિલંગણાનલબ્ધિ કહેવામાં આવેલ છે. કુત્સિત જ્ઞાનનું નામ અજ્ઞાન છે. કુત્સિતના અર્થમાં પણ न१ (२ वाय) । प्रयोग थाय छे. म है पुत्सिdula, Mala मालि.
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अनुयोगमा विरूपः कुत्सितो भङ्गो विभङ्गः, स एव ज्ञान-विभङ्गज्ञानम्-ज्ञानत्वं चास्य अर्थपरिया नात्मकत्वाद् बोध्यम् । मिथ्याष्टिदेवादेरवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानमुच्यते । विभज्ञानस्य लब्धिः विभङ्गज्ञानलब्धिः। इयमपि स्वावरणक्षयोपशमेनैव भवति, अतोऽस्या अपि क्षायोपशमिकीत्वं बोध्यम् । एवं मिथ्यात्वादिकर्मणः क्षयोपशमसाध्याः शेषा अपि सम्यग्दर्शनादिलब्धयो यथासम्भवं भावनीयाः। तथा-क्षायोपशमिकी वीर्यलन्धिःइयं हि वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमाद भवति। एवं-पण्डितवीर्यलब्धिः, बालवीर्यलन्धिः, चक्खुदंसणलद्धी) क्षायोपशमिकीचक्षुः दर्शन लन्धि, (अचक्खुदंसणालद्धी, ओहिदंसणलद्धी) अचक्षुदर्शनलब्धि अवधिदर्शनलब्धि है। इन में चक्षुर्दर्शनावरण के क्षयोपशम से चक्षुर्दर्शन लब्धि, अचक्षुर्दर्शनावरण के क्षायोपशम से अचक्षुर्दर्शनलब्धि और अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से अवधिदर्शनलब्धि होती है। (एवं सम्मदसणलद्धी, मिच्छादंसूणलद्धी सम्ममिच्छादसणलद्धी) इसप्रकार से सम्पदर्शनलब्धि, मिथ्या. दर्शनलब्धि (खोवसमिया सामाइयचरित्तलद्धी, एवं छेयोवट्ठावणलद्धी, परिहारविसुद्धिलद्धी सुहमसंपरायचरित्तलन्धि एवं चरित्ताचरित्तलद्धी) क्षायोपशमिकी सामायिक चरित्रलब्धि छेदोपस्थापनालन्धि, परिहारवि शुद्धिक लन्धि, सूक्ष्म संपरायचारित्रलब्धि, चारित्राचरित्रलब्धि (खओव समिया दाणलद्धी, एवं लाभलद्धी, भोगलद्धी, उपभोगलद्धी) क्षायोपश मिकी दानलब्धि लाभलब्धि, भोगलब्धि उपभोगलब्धि, (खोवसमिया
___ (खओवसमिया चखुदसणलद्धी) क्षायो५भिडी यक्ष: Aalou, (अवखुदसणलद्धी, ओहिदसणलद्धी) अयक्षुशनसधि भने साधन પણ ક્ષયોપશમ નિષ્પન્ન ક્ષાયોપથમિક ભાવરૂપ છે, કારણ કે ચક્ષુદર્શનાવરણ કમના ક્ષય પશમથી ચક્ષુદર્શનલબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, અચહ્યુશનાવરણ કર્મના ક્ષયે પશમથી અચક્ષુર્દશનલબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે અને અવધિદર્શના १२ना क्षयोपशमयी मधिशनल प्राप्ति थाय छे. (एव सम्मखणलद्धी, मिच्छादसणलद्धो, सम्ममिच्छादसणलद्धी) मे प्रभार सभ्ययन , मिथ्या नDिU, सभ्यभूमिथ्याशन, :(ख पोवसमिया सामाइयवरितलद्धी, एवं छेयोवद्रावणलद्धी, परिहारविसुद्धिउद्धो) क्षायो५मिती सामावि यारिधि , छे।५२थापनासन्धि, प२ि७२विशुद्धि04, (सुहमसंपराय चरितलद्धी, एवं चरित्ताचरित्तलद्धी) सुभ ५२॥4 Aaalou, यात्रा यात्रिalu, (ख ओवसमिया दाणलद्धी, एवं लाभलद्धी, भोगलद्धी, उपभोगली) શ્રાપથમિકી દાનલબ્ધિ, લાભલબ્ધિ, ભેગલબ્ધિ અને ઉપગલબ્ધિ (खभोवममिया वीरियलबी) क्षायति वाय', (एवं पंडियवीरियसनी,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम् ७२७ पालपण्डितवीर्यलब्धिरिति बोध्यम् । अयं भावः-पण्डिताः साधवः, बाला: अविरताः, बालपण्डिताः देशविरताः। एषां स्वस्ववीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमेन स्वस्ववीर्यलब्धिः प्रादुर्भवतीनि । तया-क्षायोपशमिकी श्रोत्रेन्द्रियलब्धिः यावत् सायोपशमिकी स्पर्शेन्द्रियलब्धिः। अत्र-इन्द्रियाणि लब्ध्युपयोगरूपाणि भावेन्द्रियाणि बोध्यानि, तेषां लब्धिा=मतिश्रतज्ञानचक्षुरचक्षुदर्शनावरणक्षयोपशमजन्यत्वात् क्षायोपशमिकीति बोध्यम्। तथा-क्षायोपशमिक आचाराङ्गधर इत्यारण्य क्षायोपशमिको वाचक इत्यन्तोऽपि श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमजन्यो बोध्यः । आचाराङ्गधरत्वादि पर्याया हि श्रुतज्ञानपभवाः, श्रुतज्ञानं च तदावरणकर्मक्षयोपशमेन निष्पद्यते, अत आचारागधरादयः क्षायोपशमिका चोध्या इति भावः । वीरियलद्धी) क्षायोपशमिकी वीर्यलब्धि, (एवं पंडियदीरियलद्धी) पंडित वीर्यलब्धि (बाल वीरियलद्धी) बालवीर्यलब्धि (पालपंडियबीरियलद्धी) बालपंडित वीर्यलब्धि (खोवसमिया सोइंदियलद्धी) क्षायोपशमिकी श्रोत्रेन्द्रियलब्धि (जाव) यावत् (खओयसमिया फोसिदियलद्धी) क्षायोपश. मिकी स्पर्शन इन्द्रिलब्धि (खभोवसमिए आयारंगधरे) क्षायोपशमिक आचारांगधारी, (एवं सुयगडंगधरे, ठाणंगधरे, ममवायंगधरे, विवाहपपणत्तिधरे, नायाधम्मकहाधरे सूत्रकृताधारी, स्थानांगधारी, समवायाङ्गधारी, विवाहप्रज्ञप्तिधारी ज्ञाताधर्मकथाधारी (उवासगदसाधरे) उपासकदशाधारी, (अंतगडदसाधरे) अन्तकृदशाधारी, (अणुत्तरोक्वाइयदसाघरे) अनुत्तरोपपातिक दशाधारी, (पण्हायागरणधरे) प्रश्नव्याकरणधारी, (विवाग सुयधरे) विपाक अतधारी (व भोवसमिए दिहिवायधरे) क्षायोपशमिक दृष्टिवादद्धारी (खओवसमिए णवपुव्वी) क्षायोपशमिक नव. बालवीरियलद्धी, बालपंडियवीरियलद्धी) क्षायो५मिती पतिवाय सध, na. વિર્ય લબ્ધિ અને બાલપંડિતવીર્ય લબ્ધિ.
(खोबसमिया सोइंदियलद्धी जाव खओवसमिया फासिदियलद्धी) क्षायो५. શમિકી શ્રોત્રેન્દ્રિયલબ્ધિથી લઈને ક્ષાપશમિકી સ્પર્શેન્દ્રિયલબ્ધિપર્યન્તની પાંચ प्रश्नी पि, (खओवसमिए आयारंगधरे) क्षाया५शमि मायासंगधारी, (एवं सुयगडंगधरे, ठाणंगघरे, समवायंगधरे, विवाह पण्णत्तिधरे, नायाधम्मकहाधरे, उवामगदसाधरे, अणुत्तरोववाइयदसाधरे, पण्हावागरणधरे, विवागसुयधरे,) मे प्रमाणे ક્ષાપશમિક સૂત્રકૃતાં.ધારી, સ્થાનાંગધારી, સમવાયાંગધારી, વિવાહપ્રજ્ઞપ્તિ (व्याभ्याप्रज्ञप्तिधारी, GIसशाधारी, मन्तकृताधारी, अनुत्तरी५५ति ६Aधारी, प्रश्नव्या२धारी विश्रुतधारी, (खओवसमिए दिद्विवायधरे)
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भनुयोगदारसूत्रे प्रकृतमुपसंहरन्नाह-स एष क्षायोपशमनिष्पन्न इति । क्षायोपचमिको भावः प्ररूपित इति सूचयितुमाह-स एष क्षायोपशमिक इति ॥सू० १५५॥ पूर्वधारी ( खओवसमिए आव चउदस पुव्वी) क्षायोपशमिक यावत् चतुर्दशपूर्वधारी (खओवसमिए गणी) क्षायोपशमिक गणी खाओव. समिए वायए) क्षायोपशमिकवाचक ( से तं खोवसम्मनिप्पण्णे ) इसप्रकार ये सब क्षायोपशम निष्पन्न हैं ( से तं खओवसमिए) यह वह क्षायोपशमिक है। - ___ भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने क्षायोपशमिक क्या है इसका विवेचन किया है। उन्होंने कहा है कि एक तोक्षायोपशम ही क्षायोपशमिक है और दूसरा क्षयोपशम निष्पन्न क्षायोपशमिक है। इनमें चार घातिक कर्मों का क्षय उपलक्षित जो उपशम है वह क्षायोपशमिक है। क्षायोपशमिक ज्ञान के आवारक जो कर्म है उनमें सर्वघातिस्पर्द्धक (कांश) और देशघातिस्पर्द्धक ये दोनों प्रकार के स्पर्द्धक पाये जाते हैं। इसलिये उनका क्षयोपशम होता है। नव नोकषायों में केवल देशघा. तिस्पर्द्धक ही पाये जाते हैं इसलिये उनका क्षयोपशम नहीं होता केवल ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों में केवल सर्वघातिस्पर्द्धक पाये जाते हैं क्षयोपशम टिपारी, (खओवसमिए णवपुव्वी) यापशभिः न१' पारीया as (खओवसमिए जाव चउद्दसपुव्वी) क्षाया५शभिः यो धारी ५-तना ७, (खोवसमिए गणी) क्षाया५शभि04, (खओयसमिए वायए) भने माया५शभि पाय (से तं खओवसमनिप्फण्णे) मा मया क्षाया. पशभनिन सा छे. (से तं खओवसमिए) क्षाया५शभिनु 40 प्रा२नु ११३५ छे.
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે લાપશમિક ભાવના સ્વરૂપનું વિવેચન કર્યું છે તેમાં તેમણે એવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે એક તે ક્ષાપશમ જ ક્ષાપશમિક છે અને બીજુ ક્ષયે પશમનિષ્પન્ન લાપશમિક છે. ચાર ઘાતિયા કર્મોનો ક્ષયથી ઉપલક્ષિત જે ઉપશમ છે, તેનું નામ ક્ષાપશમિક છે. સાપશમિક જ્ઞાનનું આવરણ કરનારા જે કર્મો છે તેમાં સર્વઘાતિ પદ્ધક અને દેશવાતિ સ્પદ્ધકે રૂ૫ બન્ને પ્રકારના સ્પદ્ધકે સદૂભાવ રહે છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम् ७२९ इसलिये उनका भी क्षयोपशम नहीं होता है। यद्यपि प्रत्याख्यानावरण
और अप्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाति ही हैं-किन्तु उन्हें अपेक्षाकृत देशघाति मान लिया जाता है इसलिये अनंतानुबंधी आदि का क्षयोपशम बन जाता है। अघातिया कर्मों में तो देशघाति और सर्वघाति यह विकल्प ही संभव नहीं, इसलिये उनके क्षयोपशम का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः सूत्रकारने यह तो क्षयोपशम की सामान्य योग्यता का विवेचन किया है। क्षयोपशम और उपशम में केवल अन्तर इतना ही है कि क्षयोपशम में कितनेक सर्वघातिस्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय रहता है और कितनेक उन्हीं सर्वघातिस्पर्द्धकों का सदवस्था रूप उपशम रहता है-तथा देशघातिस्पर्द्धकों का उदय रहता है। तप कि उपशम में किसी का भी उदय नहीं रहता है। सबका उपशम ही रहता है__ अब सूत्रकार यह कहते हैं कि किन २ कर्मों के क्षयोपशम से कौन २ से भाव प्रकट होते हैं-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण अवधिज्ञानावरण, और मनःपर्यवज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति, श्रुत, તેથી તેમને ક્ષયે પશમ થાય છે. નવ નેકષામાં કેવળ દેશઘાતિ સ્પ (કમંદલિએ)ને જ સદ્ભાવ હોય છે, તેથી તેમને ક્ષપશમ થતું નથી કેવળજ્ઞાનાવરણ આદિ પ્રકૃતિમાં કેવળ સર્વઘાતિ પદ્ધકોને જ સદભાવ હોય છે, તેથી તેમને પશમ પણ થતું નથી જે કે પ્રત્યાખ્યાનાવરણ અને અપ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાય સર્વઘાતિ જ છે, પરંતુ તેમને અપેક્ષાકૃત દેશઘાતિ માની લેવામાં આવેલ છે, તેથી અનંતાનુબંધી આદિને પશમ સંભવિત બની જાય છે. અઘાતિયા કર્મોમાં તે દેશઘાતિ અને સર્વથાતિ ૩૫ વિકપ જ સંભવી શક્તો નથી, તેથી તેમના પશમને તે પ્રશ્ન જ ઉ૬ભવ નથી આ પ્રકારે સૂત્રકારે ક્ષયે પશમની સામાન્ય ગ્યતાનું અહીં વિવેચન કર્યું છે ક્ષયપશમ અને ઉપશમ વચ્ચે નીચે પ્રમાણેનું અંતર સમજવુંલયોપશમમાં કેટલાક સર્વઘાતિ સ્પદ્ધકને ઉદયાભાવી ક્ષય રહે છે અને કેટલાક સર્વાતિ સ્પદ્ધકના સદવસ્થારૂપ ઉપશમ રહે છે તથા દેશવાતિ સ્પદ્ધકે ઉદય રહે છે પરંતુ ઉપશમમાં તેમને ઉદય રહેતો નથી પણ ઉપશમ જ રહે છે.
હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે કયાં કયાં કર્મોના સોપશમથી ક્યા કયા ભાવ પ્રકટ થાય છે–મતિજ્ઞાનાવરણ, શ્રુતજ્ઞાનાવરણુ, અવધિજ્ઞાનાવ. ૨ણ અને મન:પર્યવજ્ઞાનાવરણ કર્મોના ક્ષપિશમથી અનુક્રમે મતિજ્ઞાન, અત
अ० १२
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अनुयोगद्वारसूले अवधि और मनःपर्यवज्ञान प्रकट होते हैं। खत्र में लन्धि शब्द का अर्थ प्राप्ति है। यह स्त्रीलिङ्ग है इसलिये “क्षायोपशमिकी" शन्द भी जीलिङ्ग में व्यवहृत किया गया है। अपने २ आवारक कर्मों के क्षयोपशम से मतिज्ञानादिकों की प्राप्ति होती है। इसलिये यह प्राप्ति क्षायोपशमिकी है। केवलज्ञान को क्षयोपशमिक नहीं माना गया है। वह तो क्षायिक है। क्यों कि यह केवलज्ञानावरण के क्षय से होता है।
शंका-यदि केवलज्ञान, केवलज्ञानावरण कर्म के क्षय से होता हैतो फिर उसे ऐसा क्यों कहा जाता है कि यह ज्ञानावरण कर्म के क्षय से होता है?
उत्तर-आत्मा का स्वभाव केवलज्ञान है। इसे केवलज्ञानावरण आवृत किये हुए हैं। तथापि वह पूरा आवृत नहीं हो पाता, अतिमन्द ज्ञान प्रकट ही बना रहता है। जिसे मतिज्ञानावरण आदि कर्म आवृत करते हैं, इससे स्पष्ट है कि केवलज्ञान को प्रकट न होने देना ज्ञानावरण के पांचों मेदों का साक्षात् रोकता है और मतिज्ञानावरण आदि परंपरा से। इसलिये ज्ञानावरणकर्म के क्षय से केवलज्ञान होता है જ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યવજ્ઞાન પ્રકટ થાય છે. સૂત્રમાં જે “લબ્ધિ' પદ વપરાયું છે તેને અર્થ “પ્રાપ્તિ” સમજે “લબ્ધિ” પદ આલિંગમાં હોવાથી તેની સાથે “ક્ષાપશમિકી” આ પદને પણ સ્ત્રીલિંગમાં જ પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે મતિજ્ઞાન આદિની પ્રાપ્તિ ત્યારે જ થાય છે કે જ્યારે તે પ્રત્યેક જ્ઞાનના આવારક (આવરણ કરનારાં) કમને ક્ષય પશમ થાય છે. તેથી તેમની તે પ્રાપ્તિને ક્ષાયાપશમિકી કહી છે. કેવળજ્ઞાનને ક્ષયપથમિક ગણવામાં આવતું નથી, તેને તે ક્ષાયિક જ ગણવામાં આવે છે, કારણ કે કેવળજ્ઞાનાવરણ કર્મને ક્ષયથી જ કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે.
શંકા-જે કેવળજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયને લીધે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થતું હોય, તે એવું શા માટે કહેવામાં આવે છે કે જ્ઞાનાવરણ કર્મને ક્ષય થવાથી કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે?
ઉત્તર-આત્માને સ્વભાવ કેવળજ્ઞાન છે તેના ઉપર કેવળજ્ઞાનાવરણ કર્મનું આવરણ હોય છે છતાં પણ તે પૂરેપૂરું આવૃત થઈ શકતું નથી અતિ મદ જ્ઞાન પ્રકટ જ થતું રહે છે, કે જેને મતિજ્ઞાનાવરણ આદિ કમ આવૃત કરે છે. તેથી એ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે કેવળજ્ઞાનને પ્રકટ ન થવા દેવામાં જ્ઞાનાવરણના પાંચે ભેદે કારણભૂત બને છે કેવળજ્ઞાનાવરણ કમ કેવળજ્ઞાનને રાક્ષાત રૂપે રોકે છે અને મતિજ્ઞાનાવરણ આદિ ચાર કર્યો તેને પરંપરા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम् ऐसा कहा जाता है । मतिअज्ञानावरण, श्रुतअज्ञानावरण, और विभं. गज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मत्यज्ञान, श्रुनाज्ञान, और विभंगज्ञान प्रकट होते हैं। यहां अज्ञान से तात्पर्य ज्ञानाभाव से नहीं है, क्योंकि ज्ञानावरण रूप अज्ञान औदयिक भाव है। यह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है । किन्तु कुत्सित ज्ञान का नाम अज्ञान है । जब मनिज्ञान आदि मिथ्यादर्शन के उदय से दूषित होते तष वे कुत्सितज्ञान कहलाते हैं। विभंग में भंगशब्द प्रकरणवश अवधि वाचक है । वैसे तो यह प्रकार भेद-का वाचक है। और "वि" शब्द विरूप-कुत्सित अर्थ का वाचक है । इस तरह विरूपः भंगः विभंग: विभंग एव ज्ञानम्" ऐसी इसको व्युत्पत्ति है । इस विभंग में जो ज्ञान पना है, वह अर्थ परिज्ञानात्मक होने से है। मिथ्यादृष्टि देवादिकों का अवधिज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है। चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, और अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से चक्षुर्दर्शन अचक्षुर्दर्शन
और अवधिदर्शन प्रकट होते हैं । इसलिये क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन રૂપે રેકે છે. તેથી “જ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયથી કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે.” मे अपामा माय छे.
મતિઅજ્ઞાનાવરણ, શ્રત અજ્ઞાનાવરણ અને વિર્ભાગજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષપશમથી અનુક્રમે મત્યજ્ઞાન, શ્રતાજ્ઞાન અને વિર્ભાગજ્ઞાન પ્રકટ થાય છે. અહીં “અજ્ઞાન” પદ દ્વારા જ્ઞાનાભાવ સમજવાને નથી કારણ કે જ્ઞાનાભાવ રૂ૫ અજ્ઞાન તે ઔદયિક ભાવરૂપ છે, અને જ્ઞાનાવરણ કર્મના ઉદયથી તે ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ કુત્સિતજ્ઞાનને અજ્ઞાન કહે છે. જયારે મતિજ્ઞાન આદિ મિથ્યાદર્શનના ઉદયથી દૂષિત હોય છે, ત્યારે તેમને કુત્સિત જ્ઞાનરૂપ ગણવામાં આવે છે. “વિભંગ પદમાં જે “ભંગ પદ્ધ છે તે અહીં અવધિવાચક છે. આમ તો તે ૫૬ પ્રકારભેદનું વાચક ગણાય છે. અને “જિ” પદ વિરૂકુત્સિત અર્થનું વાચક છે. વિભળજ્ઞાનની વ્યુત્પત્તિ આ प्रभाये थाय छ-"विरूपः भंगः विभंगः विभंग एव ज्ञानं विभंगज्ञानम्" । વિલંગમાં જે જ્ઞાનપણુ છે તે અર્થપરિજ્ઞાનાત્મકતાની અપેક્ષાએ છે. મિથ્યાદષ્ટિ દેવદિકના અવધિજ્ઞાનને વિર્ભાગજ્ઞાન કહે છે. ચક્ષુદ્ર્શનાવરણુ, અચક્ષુ દર્શનાવરણ અને અવધિદર્શનાવરણ કર્મના ક્ષપશમથી અનુક્રમે ચહ્યુશન અચક્ષુદર્શન અને અવધિદર્શન પ્રકટ થાય છે. તેથી તેમને પણ ક્ષાપશમિક કહેવામાં આવેલ છે. મિથ્યાત્વકર્મના ક્ષયોપશમથી ક્ષયપશમિક સભ્ય
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अनुयोगद्वारसूत्रे की प्राप्ति मिथ्यात्व कर्म के क्षयोपशम से होती है। इसी प्रकार से और भी लब्धियों में यथासंभव क्षायोपशमिकता जान लेनी चाहिये । वीर्य लन्धि वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है। इसी प्रकार से पंडितवीर्य लब्धि बालवीर्य लब्धि, पालपंडितवीर्य लब्धि को भी जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि-पंडित से यहां साधुजन बाल से अधिरतिजन, और बालपंडित से देशविरतजन लिये गये हैं। इनको अपने २वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से अपनी २ वीर्यलब्धि प्रकट होती है। __ सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धि सम्यक्त्व का भेद है। इसलिये यह लब्धि मिथ्यात्वकर्म के क्षयोपशम से होती है। सामायिकचारित्रलब्धि, छेदोपस्थापनलब्धि, परिहारविशुद्धिकलब्धि, सूक्ष्म संपरायचारित्रलब्धि और चारित्राचारित्रलब्धि ये सब चारित्र. मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होती है इसीलिये इनमें क्षायोपशमिकता है। संयत के कर्मों को निवारण करने के लिये जो अन्तरंग और बहिरंग प्रवृति होती है वह चारित्र है-अर्थात् आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना ही चारित्र है। परिणाम शुद्धि के तरतम भाव की अपेक्षा और निमित्त भेद से દશનની પ્રાપ્તિ થાય છે. એ જ પ્રમાણે બીજી બધી સૂક્ત લબ્ધિઓમાં પણ યથાસંભવ ક્ષાપશમિકતા સમજી લેવી. વીર્યાન્તરાય કર્મના ક્ષ૫શમથી વીર્યલધિ પ્રકટ થાય છે. એ જ પ્રમાણે પંડિતવીર્ય લબ્ધિ, બાલ વીર્યલબ્ધિ અને બાલપંડિતવીર્ય લબ્ધિને પણ ક્ષાપશમિક જ સમજવી જોઈએ. પંડિત પદ અહીં સાધુજનનું, બાલપદ અવિરતયુક્તજનનું અને બાલપતિપદ દેશવિરત જનનું વાચક છે. તેમને પોતપોતાના વર્યાન્તરાય કર્મને પશમ થવાથી પતિવીર્ય લબ્ધિ આદિની પ્રાપ્તિ થાય છે.
સમ્યમિથ્યાદર્શન લબ્ધિ સમ્યકત્વના એક ભેદ રૂપ છે. તેથી મિથ્યા ત્વ કર્મના ક્ષપશમથી તે લબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે, સામાયિક ચારિત્ર લબ્ધિ, છેદેપસ્થાપનલબ્ધિ, પરિહાર વિશુદ્ધિક લબ્ધિ, સૂક્ષમ સંપરાય લબ્ધિ અને ચારિત્રાચારિત્ર લબ્ધિ, આ બધી લબ્ધિઓની પ્રાપ્તિ ચારિત્રમોહનીય કર્મના ક્ષપશમને લીધે થાય છે, તેથી તેમનામાં શપથમિકતા સમજવી જોઈએ. કર્મોનું નિવારણ કરવા માટે સંયત જે અન્તરંગ અને બહિરંગ પ્રવૃત્તિ કરે છે તેનું નામ ચારિત્ર છે. એટલે કે આમિક શુદ્ધ દશામાં સ્થિર રહેવાને પ્રયત્ન કરે તેનું જ નામ ચારિત્ર છે. પરિણામ શુદ્ધિના
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५५ क्षायोपशमिकभावनिरूपणम् ७३३ चारित्र के सामायिक आदि पांच विभाग किये गये हैं। विशेष खुलासा इस प्रकार से है-सामायिक का अर्थ है सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप इनके साथ ऐक्य स्थापित करने की अर्थात् समभाव में स्थिर रहने के लिये सम्पूर्ण अशुद्ध प्रवृत्तियों को त्याग करने की आत्मपरिणामों की वृत्ति बनाये रखना । इस सामायिक चारित्र की प्राप्ति सामायिक चारित्र लब्धि है। सामायिक चारित्र में रागद्वेष का निरोध कर के सब आवश्यक कर्तव्यों में समता बनाये रखना ही होता है। इसके नियतकाल और अनियतकाल ऐसे दो भेद होते हैं। जिनका समय निश्चित है ऐसे स्वाध्याय आदि नियतकाल सामायिक है । और जिन का समय नियत नहीं है ऐसे ईर्यापथ आदि अनियतकाल सामायिक है। जैसे अहिंसावत सब व्रतों का मूल है, वैसे ही सामायिक चारित्र सब चारित्रों का मूल है । मैं " सर्वसावद्ययोग से जीवन पर्यंत विरत हूँ" इस एक व्रत में समावेश हो जाने से एक सामायिक व्रत माना है और घही एक व्रत पांच रूप से विवक्षित होने के कारण छेदोपस्थापना चारित्र कहलाता है। प्रथम दीक्षा लेने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास તરતમ ભાવની અપેક્ષાએ અને નિમિત્ત ભેદની અપેક્ષાએ ચારિત્રના સામાયિક આદિ પાંચ વિભાગ પાડવામાં આવ્યા છે. તેનું વધુ સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છેસમ્યકત્વ, જ્ઞાન, સંયમ અને તપની સાથે અજ્ય સ્થાપિત કરવાની-એટલે કે સમભાવમાં સ્થિર રહેવાને માટે સમસ્ત અશુદ્ધ પ્રવૃત્તિઓને ત્યાગ કરવાની આત્મપરિણામોની વૃત્તિ રાખવી તેનું નામ સામાયિક છે આ સામાયિક ચારિત્રની પ્રાપ્તિનું નામ સામાયિક ચારિત્ર લબ્ધિ છે. સામાયિક ચારિત્રની આરાધનામાં રાગદ્વેષને નિરોધ કરીને સઘળાં આવશ્યક કતમાં સદા સમભાવ જ રાખવો પડે છે. તેના નિયતકાળ અને અનિયતકાળ રૂપ બે ભેદો છે જેમને સમય નિશ્ચિત છે એવાં સ્વાધ્યાય આદિને નિયતકાળ સામાયિક કહે છે. જેમને સમય નિયત નથી એવા ઈર્યાપથ આદિને અનિ. યતકાળ સામાયિક કહે છે. જેમ અહિંસાવ્રતને સઘળાં વ્રતનું મૂળ માનવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે સામાયિક ચારિત્રને સઘળાં ચારિત્રનું મૂળ માનવામાં આવે છે. “હું જીવનપર્યન્ત સર્વ સાવધેયોગથી વિરત થઉં છું” આ એક વ્રતમાં સમાવેશ થઈ જવાને કારણે સામાયિક વ્રતને એક જ વ્રત ગણવામાં આવ્યું છે. અને એજ એક વ્રત પાંચ રૂપે વિવક્ષિત થવાને કારણે છેદે સ્થાપના ચારિત્ર કહેવાય છે. પ્રથમ દીક્ષા લીધા બાદ વિશિ.
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अनुयोगद्वारसूत्रे कर चुकने पर विशेष शुद्धि के निमित्त जो जीवन पर्यन्त पुनः दीक्षा ली जाती है एवं प्रथम ली हुई दीक्षा का छेद करके फिर नयेसिरे से जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है-बह छेदोपस्थापन चारित्र है। जिसमें खास विशिष्ट प्रकार के तपः प्रधान आचार का पालन किया जाता है वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। जिसमें क्रोध आदि कषायों का तो उदय नहीं होता, सिर्फ लोभ का अंश अति सूक्ष्मरूप में रहता है, वह सूक्ष्म संपराय चारित्र है। यह चारित्र केवल दशवें गुणस्थान में होता है। चारित्राचारित्र का नाम देश चारित्र है । यह अनन्तानुबन्धी आदि अष्टविध कषाय के क्षयोपशम आदि से आविर्भूत होता है। तथा सर्वविरति रूप चारित्र अनन्तानुबन्धी आदि १२ प्रकार के कषाय के क्षायोपशम आदि से आविर्भूत होता है। दान, लोभ, भोग, उपभोग और वीर्य इनकी लन्धि वीर्यान्तराय कर्म के दानान्तराय आदि के क्षायोपशम आदि से होती है,, । श्रोत्रे न्द्रिय से लेकर जो स्पर्शनेन्द्रिय तक की लब्धियां कही हैं । वे द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा से नहीं कही हैं, किन्तु भावेन्द्रिय की अपेक्षा से कही हैं। શ્રતને અભ્યાસ કરી લીધા બાદ વિશેષશુદ્ધિને નિમિત્તે જે જીવનપર્યતની પુનઃ દીક્ષા લેવામાં આવે છે અને પ્રથમ લીધેલી દીક્ષાને છે કરીને (ત્યાગ કરીને) ફરી નવેસરથી જે દીક્ષાનું આરોપણ કરવામાં આવે છે, તેનું નામ છેદો પસ્થાપન ચરિત્ર છે. જેમાં વિશિષ્ટ પ્રકારના તપઃ પ્રધાન આચારનું પાલન કરવામાં આવે છે, તેનું નામ પરિહારવિશુદ્ધિ ચારિત્ર છે. જે ચારિત્રમાં ક્રોધાદિ કષાયોનો ઉદય રહે તે નથી, પરંતુ લોભને અંશ અતિ સૂક્ષમ પ્રમાણમાં બાકી રહી જાય છે એવા ચારિત્રનું નામ સૂણમ સંપરાય ચારિત્ર છે. દસમાં ગુણસ્થાનમાં જ આ ચારિ. ત્રને સદુભાવ રહે છે અંશતઃ ચારિત્ર અથવા દેશચારિત્રને ચારિત્રાચારિત્ર કહે છે. અનન્તાનુબંધી આદિ આઠ પ્રકારના કષાયના ક્ષયોપશમ આદિથી તેને આવિર્ભાવ થાય છે. સર્વવિરતિ રૂપે ચારિત્ર અનન્તાનુબંધી આદિ ૧૨ પ્રકારના કષાયના ક્ષપશમ આદિથી આવિબૂત (પ્રકટ) થાય છે. અન્તરાય કમના પ્રકાર રૂપ દાનાન્તરાય, લાભાન્તરાય, ભેગાન્તરાય, ઉપભોગાન્તરાય અને વર્યાન્તરાય કર્મના ક્ષયોપશમથી અનુક્રમે દાનલબ્ધિ, લાભલબ્ધિ, ઉપભોગલબ્ધિ અને વિર્યલબ્ધિની પ્રાપ્તિ થાય છે. એ જ પ્રમાણે શ્રોત્રેન્દ્રિયથી લઈને સ્પર્શેન્દ્રિયલધિ પર્વતની પણ પાંચ લબ્ધિઓ કહી છે. આ પાંચે લબ્ધિઓ કન્દ્રિયની અપેક્ષાએ કહી નથી, પણ ભારે
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५ पारिणामिकभावनिरूपणम् सम्पति पारिणामिकं नाम निरूपयति
मूलम्-से किं तं पारिणामिए ? पारिणामिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-साइपारिणामिए य अणाइपारिणामिए य। से कि तं साइपारिणामिए? साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते तं जहाजुण्णसुरा, जुण्णगुलो जुण्णघयं जुण्णतंदुला चेव । अब्भा य अब्भरुक्खा संझागंधवणगरा य ॥१॥ उक्कावाया दिसादाहा भावेन्द्रियलब्धि उपयोग के भेद से दो प्रकार की है । इनकी लब्धि मति ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, के क्षयोपशम से होती है । तात्पर्य यह है कि मतिज्ञानावरणीय कर्म आदि काक्षायोपशम जो एक प्रकार का आत्मिक परिणाम है वह लब्धीन्द्रिय हैं । और लब्धि, निवृत्ति, तथा उपकरण इन तीनों के मिलने से जो रूपादि विषयों का सामान्य और विशेषयोघ होता है वह उपयोगे न्द्रिय है। मतिज्ञान तथा चक्षु अचक्षुदर्शनरूप है। इसी प्रकार आचाराङ्ग, आदि १२ अंगों को धारण करने रूप तथा वाचकरूप पर्याये हैं वे सब श्रुतज्ञान प्रभव हैं । श्रुतज्ञान, श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है। इसलिये ये आचाराङ्गधर आदि पर्यायें क्षायोपशमिक हैं। इस प्रकार क्षायोपशम निष्पन्न क्षायोपशमिक भाव का स्वरूप है।सू०१५५॥ ન્દ્રિયની અપેક્ષાએ કહી છે ભાવેન્દ્રિયે લબ્ધિ ઉપયોગના ભેદથી બે પ્રકારની છે મતિજ્ઞાનાવરણ, શ્રુતજ્ઞાનાવરણ, ચક્ષુદર્શનાવરણ અને અક્ષરદર્શન નાવરણના ક્ષયોપશમથી તેમની લબ્ધિ થાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે મતિજ્ઞાનાવરણીય કર્મ આદિન ક્ષયોપશમ રૂપ જે એક પ્રકારનું આમિક પરિણામ છે, તે લબ્ધીન્દ્રિય રૂપ છે અને લબ્ધિ, નિવૃત્તિ તથા ઉપકરણ, આ ત્રણે મળવાથી રૂપાદિ વિષયે જે સામાન્ય અને વિશેષ બોધ થાય છે તે ઉપયોગેન્દ્રિય રૂપ છે ઉપયેગેન્દ્રિય મતિજ્ઞાન તથા ચક્ષુ અચક્ષુ દર્શનરૂપ છે એ જ પ્રમાણે આચારાંગ આદિ ૧૨ અંગને ધારણ કરવા રૂપ તથા વાચક રૂપ જે પર્યાયે છે તે શ્રતજ્ઞાન સ્વરૂપ છે શ્રુતજ્ઞાનાવરણ કર્મના
પશમથી શ્રુતજ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે, તેથી આચારાંગધર આદિ ૧૨ પર્યાયે પણ થાપશમિક છે. આ પ્રકારનું ક્ષયે પશમ નિષ્પન્ન ક્ષાપથમિક ભાવનું ૨વરૂપ છે. સૂ૦૧૫૫
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अनुयोगद्वार गज्जियं विज्जू णिग्धाया जूवया जक्खादित्ता धूमिया महिया रयुग्घाया चंदोवरागा सूरोवरागा चंदपरिवेसा सूर परिवेसा पडिचंदा पडिसूरा इंदधणू उदगमच्छा कविहसिया अमोहावासा वासधरा गामा नगरा घरा पइया पायाला भवणा निरया रयण पहा सक्करप्पा वालुयप्पहा पंकप्पहा धूम पहा तमप्पहा तमतमप्पहा सोहम्मे जाव अच्चुए गेवेज्जे अणुत्तरे ईसिप्पभारा परमाणुपोगले दुपए लिए जाव अनंतपएसिए । से तं साइपारिणामए । से किं तं अणाइपारिणाामए ? अनाइपारिणामिए धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पुग्गलत्थकाए अद्धासमए लोए अलोए भवसिद्धिया अभवसिद्धिया । से तं अणाइपारिणामिए । से तं पारिणामिए ॥सू०१५६ ॥
छाया - अथ कोऽसौ पारिणामिकः ? पारिणामिको द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथासादिपारिणामिकश्च अनादिपारिणामिकश्च । अथ कोऽसौ सादिपारिणामिकः सादिपारिणामिकः - अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा जीर्णसुरा जीर्णगुडः जीर्णघृतम् जीर्णतण्डुलाश्चैव । अभ्राणि च अभ्रवृक्षाः संध्या गन्धर्वनगराणि च ॥ १ ॥ उल्कापाताः, दिग्दाहाः, गर्जितं, विद्युत्, निर्घाताः, यूपकाः, यक्षा दोप्तकानि, धूमिका, मिहिका, रजउद्घाताः, चन्द्रोपरागाः, सूर्योपरागाः, चन्द्रपरिवेषाः, सूर्य परिवेषाः प्रतिचन्द्राः पतिसूर्याः, इन्द्रधनुः, उदकमत्स्याः, कपिहसितानि, अमोघा, वर्षाणि वर्षधराः, ग्रामाः, नगराणि, गृहाः, पर्वताः, पातालाः, भत्रनानि, निरया, रत्नप्रभा, शर्करामभा, वालुकाममा, पङ्कमभा, धूमममा, तमःप्रभा, तमस्तःप्रभा, सौधर्मो यावत् अच्युतः, ग्रैवेयकः, अनुत्तरः, ईषत्प्राग्भारा, परमाणु पुद्गलो, द्विप्रदेशिको, यावत् अनन्तप्रदेशिकः । सएष सादिपारिणामिकः । अथ कोsaf अनादिपारिणामिकः ? अनादिपारिणामिकः - धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः जीवास्तिकाय: पुद्गलास्तिकायः अद्धासमयः, लोका, अलोकः, भवसिद्धिकाः, अभवसिद्धिकाः, सएप अनादि पारिणामिकः । सएष पारिणामिकः । सू० १५६ ॥
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नंदुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५६ पारिणामिकभावनिरूपणम् टीका- ‘से किं त' इत्यादि
अथ कोऽसौ पारिणामिकः १ इति शिष्यपश्नः । उत्तरयति-पारिणामिकापरिणमनं सर्वथाऽपरित्यक्तपूर्वावस्थस्य यद्रूपान्तरेण भवनं स परिणामः, उक्तंच
"परिणामो ह्यन्तिरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् ।
न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः॥ इति । स एव तेन वा निवृत्तः परिणामिकः। स सादि पारिणामिकानादि पारिणामिकेति भेदस्यविशिष्टः। तत्र सादिपारिणामिकः अनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जीर्णमुरा, जीर्णगुडो,
अब सूत्रकार पारिणामिक भाव का निरूपण करते हैं"से किं तं पारिणामिए ?" इत्यादि । शब्दार्थः- (से किं तं पारिमाणामिए) हे भदन्त ! पारिणामिक भाष
क्या है?
उत्तर-(पारिणामिए, दुविहे पण्णत्ते) पारिणामिक भाव दो प्रकार का-कहा गया है । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(साइपारिणमिए य अणाइ पारिणामिए य सादि पारिणामिक और अनादि पारिणामिक । जिसमें द्रव्य की पूर्वअवस्था का तो सर्वथा परित्याग हो नहीं और एक अवस्था से दूसरी अवस्थाएँ होती रहें इसीका नाम परिणमन-परिणाम है। कहा भी है-"परिणामो" इत्यादि यही बात अन्यत्र कही है, कि एक अवस्था से दूसरी अवस्था का होना यही परिणाम है। अर्थात् स्व. रूप में स्थित रहकर उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है,सर्वथा व्यवस्थान
હવે સૂત્રકાર પરિણામિક ભાવના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે“से कि तं पारिणामिए" त्या:
Avail-(से कि तं पारिणामिए ?) 8 साप! पारिवामि सानु ५१३५ ४वुछ
उत्तर-(पारिणामिए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा) पारियाभि भावना नीय प्रभारी मेर ४ा छ-(साइ पारिणामिए य अणाइ पारिणामिए य) (१) साल पारि વામિક અને (૨) અનાદિ પરિણામિક જે પરિણામમાં દ્રવ્યની પૂર્વ અવસ્થાને સર્વથા પરિત્યાગ થતું ન હોય એવી રીતે એક અવસ્થામાંથી બીજી અવસ્થાઓ यती २७, सेवा परिमनने साहिरिएम छ । ५९४-"परिणामो" ઈત્યાદિ એજ વાત બીજી જગ્યાએ પણ આ પ્રમાણે જ કહી છે-એક અવસ્થામાંથી બીજી અવસ્થા રૂપ પરિણમન થવું તેનું નામ પરિણામ છે
अ० ९३
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अनुयोगदारसे या सर्वथा विनाश परिणाम नहीं है । परिणाम का दूसरा नाम पर्याय है। जिस द्रव्य का जो स्वभाव है उसी के भीतर उसका परिणमनपरिवर्तन होता है । जैसे मनुष्य पालक से और युवा युवा से वृद्ध होता है पर वह मनुष्यत्व का परित्याग नहीं करता, वैसे ही प्रत्येक द्रव्य अपनी मर्यादा के भीतर रहना हुआ ही परिवर्तन करता रहता है। बहन तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा क्षणिक ही। नैयायिक आदि मेदवादी दर्शन जो गुण और द्रव्य का सर्वथा-एकान्त-भेद मानते हैं जनके मन्तव्यानुसार द्रव्य तो सर्वथा अविकृत रहता है और गुण उसमें उत्पन्न विनष्ट होते रहते हैं यही वह परिणाम है । तथा बौद्धलोग वस्तुमात्र को क्षणस्थायी और निरन्वय विनाशी मानते हैं, उनके मतानुसार परिणाम का अर्थ उत्पन्न होकर वस्तु का सर्वथा नाश हो जाना ऐसा निकलता है। इन्ही मन्तव्यों का निराकरण करने के निमित्त "न च सर्वथा व्यवस्थानम्" न च सर्वथा विनाशः परिणामः" ऐसा कहा है। अतः 'अर्थान्तरगमनपरिणामः' यही परिणाम का लक्षण युक्ति युक्त है। ऐसा जो परिणाम है वही पारिणामिक है अथवा इस એટલે કે સ્વરૂપમાં સ્થિત રહિને ઉત્પન તથા નષ્ટ થવું તેનું નામ પરિણામ છે સર્વથા વ્યવસ્થાન અથવા સર્વથા વિનાશને પરિણામ કહી શકાય નહીં પરિણામનું બીજું નામ પર્યાય છે. જે દ્રવ્યને જે સ્વભાવ છે તે સ્વભાવમાં રહીને જ તેનું પરિણમન (પરિવર્તન) થાય છે. જેમ કે મનુષ્ય બાલકમાંથી યુવાન અને યુવાનમાંથી વૃદ્ધ બને છે, પરંતુ તે મનુષ્યત્વને પરિત્યાગ કરતું નથી. એ જ પ્રમાણે પ્રત્યેક દ્રવ્ય પિતાની મર્યાદામાં રહીને જ પરિણમન પામતું રહે છે. તે સર્વથા નિત્ય પણ નથી અને સર્વથા ક્ષણિક પણ નથી. નૈયાયિક આદિ ભેદવાદી દર્શન જે ગુણ અને દ્રવ્યને સર્વથા (એકાન્તત:) ભેદ માને છે તેમની માન્યતા પ્રમાણે દ્રવ્ય તે સર્વથા અવિકૃત જ રહે છે, અને તેમાં ગુણની ઉત્પત્તિ તથા વિનાશ થતા રહે છે. તેનું નામ જ પરિણામ છે. બૌદ્ધ મતવાદીએ વસ્તુ માત્રને ક્ષસ્થાયી અને નિરન્વય વિનાશી માને છે. તેમના મત પ્રમાણે પરિણામને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે-“ઉત્પન્ન થઈને વસ્તુને સર્વથા નાશ થઈ જ તેનું નામ પરિણામ છે” આ માન્યતાઓનું ખંડન કરવા માટે સૂત્રકારે અહીં આ પ્રકારનું કથન કર્યું છે"न च सर्वथा विनाशः परिणामः" तथा "अर्थान्तरगमनपरिणामः" मा પરિણામનું લક્ષણ જ યુક્તિયુક્ત લાગે છે. એવું જે પરિણામ છે, એજ પરિણમિક છે. અથવા તે પરિણામથી જે નિપન્ન છે, તેનું નામ જ પરિણામિક છે.
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५६ पारिणामिकभावनिरूपणम् जीर्णघृतं, जीर्णतण्डुला इति । अत्र जीर्णत्व परिणामस्य सादित्वात् सादिपारिणामिकता बोध्या मुरादि-द्रव्याणि नव्यजीणों भयावस्थयोरप्यनुगतानि । तत्र नव्यतायां निवृत्तायां जीर्णतारूपेग यः परिणामः स सुखावबोधो भवति, अतो जीणे ति विशेषणविशिष्टाः सुरादयः शब्दा उक्ताः । सुरादिद्रव्याणां तु नव्यावस्थायामपि सादि पारिणामिकत्वमस्त्येव । कारणद्रव्यस्यैव नूतनसुरादिरूपेण परिणमनाद, परिणाम से जो निर्वत्ति ( निष्पन्न ) है वह पारिणामिक है । (से किं तं साइपारिणामिए ? ) हे भदन्त ! सादिपारिणामिक क्या है ? ___ उत्तर-(साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते) सादि पारिणामिक अनेक प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) जैसे-(जुण्णसुरा जुण्णगुलो, जुण्णघयं, जुण्णतंदुला चेव) जीर्णसुरा, जीर्णगुड़, जीर्णघृत, जीर्णतंदुल, सुरा में, गुड़ में घृत में, एवं तंदुलों में जो जीर्णपर्यायरूप परिणाम आया है वह सादि है । क्योंकि जीर्णता के काल की पूर्वकोटि ज्ञात हो सकती है। सुरादि द्रव्य नव्य पर्याय और जीर्ण पर्याय इन दोनों अवस्थाओं में भी अनुगतरूप से रहते हैं। जब नव्य-नवीनता-पर्याय इनसे निवृत्त हो जाती है-तय जीर्णता पर्याय आजाती है यह बात सभी के लिये स्पष्ट है । इसी कारण सूत्रकार ने यहां जीर्ण विशेषण से विशिष्ट इन सुरा आदि शब्दों को रखा है।
शंका-यह बात हम मानते हैं कि सुरादिक द्रव्यों में जीण अवस्था में सादि पारिणामिकता है क्योंकि इनमें जीर्णअवस्था के समय की
प्रश्न-(से किं तं साइ पारिणामिए ?) 3 मापन ! पाहि पारिवामिन ११३५ ३ छ ?
उत्तर-(साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते) साह पारिवामि साप भने ना ४ह्यो छे. (तं नहा) भ -(जुण्णसुरा, जुण्णगुलो, जुण्णषय, जुण्णतंदुला चेव) सुश, गोण, घी, मने त . जूना સુરામાં, ગેળમાં, ઘીમાં અને તંદલમાં જે જીણું પર્યાય રૂપ પરિણામ આવ્યું છે, તે સાદિ પરિણામિક ભાવ રૂપ છે, કારણ કે જીર્ણતાના કાળની પૂર્વ કેટિ જાણી શકાય છે. સુરાદિ દ્રવ્ય નવી પર્યાય અને જીણું પર્યાય, એ બને અવસ્થામાં પણ અનુગત રૂપે રહે છે જ્યારે નવીનતા પર્યાય આ દ્રમાંથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે ત્યારે તે દ્રવ્યમાં જર્ણતા પર્યાય આવી જાય છે, આ વાત સૌને માટે સ્પષ્ટ છે. તે કારણે જ સૂત્રકારે જીર્ણ વિશેષણ યુક્ત સુરાદિક દ્રવ્યને સાદિ પરિણામિક ભાવના દૃષ્ટાન્ત રૂપે અહીં પ્રકટ કરેલ છે.
શંકા–એ વાત તે અમે માની લઈએ છીએ કે સુરાદિક દ્રવ્યમાં જીર્વાવસ્થામાં સાદિ પારિણાધિકતા હોય છે, કારણ કે તે દ્વમાં છ
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अनुयोगद्वारस्ते अन्यथा कार्यानुत्पत्तिः पसज्येत । तया-अभ्राणि-मेघाः। अभ्रवृक्षाः वृक्षाकारण परिणतान्यभ्राण्येव । सन्ध्या-कृष्ण नीलाघाकाशपरिणतिमान् अहोरात्रसन्धिपूर्वकोटि ज्ञात हो जाती है। परन्तु इनकी जो नव्य अवस्था है उसमें सादिपारिणामिकता कैसे मानी जा सकती है ? क्योंकि उसके समय की पूर्वकोटि तो ज्ञात नहीं है ?
उत्तर-ऐसी बात नहीं है क्योंकि नव्य पर्याय के भी समय की पूर्वकोटि ज्ञात हो जाती है । वह इस प्रकार से-कि सुरादिरूप जो नव्य पर्याय है। वह सुरादिजनक कारण द्रव्यों से ही उद्भूत हुई है । अत: उसमें भी सादि पारिणामिकता है। तात्पर्य कहने का यह है, कि सुरादि जनक जो द्रव्य हैं वे हो सुरादिरूप परिणाम से परिणमित हो जाते हैं अतः यह सुरादिरूप पर्याय उनकी सादि पर्याय हैं और जब यह सादि. रूप पर्याय उनमें से कालान्तर में निवृत्त हो जाती है तब उसकी निवृत्ति होते ही उनमें जीर्णतारूप पर्याय आ जाती है । इस प्रकार सुरादिद्रव्यों में नव्यता जीर्णता सादि परिणाम है। यदि यह बात न मानी जावे कि उपादान कारण द्रव्य ही कार्यरूप से परिणमित होता है तो फिर कार्य की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है। અવસ્થાના સમયની પૂર્વકેટિ જ્ઞાત થઈ જાય છે, પરંતુ તેમની જે નવ્ય (નવીન) અવસ્થા છે, તેમાં સાદિ પારિણામિકતા કેવી રીતે માની શકાય તેમ છે? તેના સમયની પૂર્વકેટ તે જ્ઞાત હોતી નથી ?
ઉત્તર–એવી વાત શક્ય નથી, કારણ કે નવીન પર્યાયના સમયની પૂર્વ કેટિ પણ જ્ઞાત થઈ જાય છે. તે આ પ્રકારે સમજવું-સુરાદિ દ્રવ્ય રૂપ જે નવીન પર્યાય છે તે સુરાદિજનક કારણ દ્રામાંથી જ ઉદ્ભવી હોય છે. તેથી તેમાં પણ સાદિ પરિણામિકતાને સદૂભાવ રહે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે સુરાદિજનક જે દ્રવે છે તે જ સુરાદિરૂપ પરિણામમાં પરિણમિત થઈ જાય છે, તેથી તેમની આ સુરાદિરૂપ પર્યાય સાદિ પર્યાય રૂપ જ છે, અને જ્યારે કાલાન્તરે આ સાદિ રૂપ પર્યાય તે દ્રવ્યોમાંથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે, ત્યારે તેની નિવૃત્તિ થતાં જ તે દ્રવ્યમાં જીર્ણતા રૂપ પર્યાય આવી જાય છે, આ પ્રકારે સુરાદિ દ્રવ્યમાં નવીનતા (નવ્યતા) અને જીતા સાદિ પરિણામ રૂપ જ ગણી શકાય છે, જે એ વાત માનવામાં ન આવે કે ઉપાનકારણ દ્રવ્ય જ કાર્ય રૂપે પરિણમિત થાય છે, તે કાર્યની ઉત્પત્તિ જ થઈ શકે નહી
तया-(अन्भया य अन्भरुक्खा, संझा, गंधव्वणगरा य) म (मेघ),
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मधुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १५६ पारिणामिकभावनिरूपणम् कालः। गन्धर्व नगराणि-उत्तमोसम प्रासादोपशोभित नगराकृतितया परिणतास्त. थाविधनमःपुद्रलाः। उल्कापाता: आकाशपदेशतस्तेजः पुञ्जपतनानि । दिग्दाहाःअन्यतरस्यां दिशि नमानदेशे ज्वालामालाकरालित ज्वलनावमासनानि। तथा-गजितं विधुत् एतौ मसिदावेव। निर्घाता=विद्युत्पाताः। तथा-यूपका:-शुक्लपक्षीयदिनत्रयावस्थायिनः संध्याच्छेदावरणा बालचद्रेति प्रसिद्धाः ॥उक्तंचावश्यके
संशाच्छेयावरणो य ज्यओ मुक्कदिण तिन्नि" ॥ छाया-संध्याच्छेदावरणश्च यूपकः शुक्छे दिनानि त्रीणि-इति ॥ तया-यक्षादीप्तानि नभसि दृश्यमानाः पिशाचाकृतयोऽग्नयः धूमिका=नभसि रूक्षः प्रविरलो धूम इव दृश्यमानो 'धूमिका' इत्युच्यते। महिका-जलकणयुता
तथा-(अम्माय अन्भरुक्खा, संझा गंधवणगराय)अभ्र-मेघ अभ्र. वृक्ष-वृक्षाकार में परिणमित हुए मेघ, संध्या-अहोरात्रका संधिकाल कि जिसमें आकाश कृष्ण, नीलादिरूप में परिणत हो जाता है। गंधर्वनगर-उत्तमोत्तम प्रासाद से शोभित नगर की आकृति जैसे बने हुए आकाश पुद्गल (उक्कावाया) उल्कोपात आकाश प्रदेश से गिरता हुआ तेजः पुंज (दिसा दाहा) दिग्दाह-किसी एक दिशाकी ओर आकाश में जलती हुई अग्नि का आभास-(दिखलाई देना) होना (गज्जिया) गर्जित मेघ की गर्जना, (विज्जू ) विजली (णिग्धाया) निर्यात-विजली कापात (जूवया) यूपक-शुक्लपक्षसंबन्धी तीन दिनका बालचन्द्र, (जक्खादित्ता) यक्षदीप्त-अकाश में दिखलाई देती हुई पिशाचाकृति जैसी अग्नि (धमिया) धूमिका-आकाश में रूक्ष एवं विरल दिखलाई पड़ती हुई धूमकी तरह एक प्रकार की धूमस, (महिया) महिका-जलकण युक्त धूम जैसी भाप અજવૃક્ષ (વૃક્ષાકારે પરિણમિત થયેલા મેઘ) સંધ્યા (દિવસ અને રાત્રિને સંધિકાળ કે જેમાં આકાશ કૃષ્ણ, નીલાદિ રૂપે પરિમિત થઈ જાય છે, ગંધર્વનગર (ઉત્તમોત્તમ પ્રાસાદથી શોભતા નગરની આકૃતિ જેવાં બનેલાં भाग ), (उकावाया) Gestid (माशिममा स२४ते ). (दिसादाहा) is (BTS हिम मानी २ Haralad भनिना मामास वे!), (गज्जिया) मेघनी ना, (विजू) विजी, (णिग्याया), निर्यात (Areी ५४ी), (जूवया) यू५४ (शुस पक्षन। १ हिसन मासयन्द्र), (जम्खादित्ता) यक्षात (माशमा माता पियाति नेवी मनि), (धमिया) भूमिह (धूमस) (महिया) मलि (45 युत धुभा। । १७ एमस)
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मनुयोगद्वार सैष । रजउदाता: दिक्षु रजसामुत्थानानि। चन्द्रोपरागाः सूर्योपरागा:सूर्याणां राहुमहणानि । अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रवर्तिनोऽनेके चन्द्रसूर्याः सन्ति, अतः 'चन्द्रोपरागाः सूर्योपरागा' इति पदद्वयं बहुत्वेन निर्दिष्टम् । तया-चन्द्रपरिवेषा। सूर्यपरिवेषाः-चन्द्रसर्ययोः परितोवलयाकारपुदलपरिणामाः । प्रविचन्द्रः प्रतिसूर्य:उत्पातसूचकं द्वितीयचन्द्रादित्यदर्शनम् । इन्द्रधनुः नभसि नीलपीतादिवर्णविधि धनुराकारं यद् दृश्यते तदिन्द्रधनुरित्युच्यते । इदं च लोके प्रसिद्धम्।. उदकमत्स्याः इन्द्रधनुः खण्डानि। कपिहसितानि यदा कदाचिन्नमसि जायमाना अन्युप्रशब्दाः श्रूयन्ते, त एव कपिहसितान्युच्यन्ते। अमोघाः सूर्यस्य उदयास्तसमये तत्किरणैः समुत्पद्यमाना रेखाविशेषाः । वर्षाणि भरतादीनि। वर्षधराकुहरा-(रयुग्धाया) रज उद्घात-दिशाओं में धूलि का उड़ना, (चंदो. वराग-चन्द्रोपराग-चंद्रग्रहण (सूरोवरागा) सूर्यग्रहण (चंदपरिवेसा, खर. परिवेसा) चन्द्र परिवेष-चन्द्रमा की चारों ओर गोलाकार में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं का चक्रवाल (गोल मंडल) सूर्य की चारों ओर गोल चूड़ी के जैसे आकार में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं का चक्र. पाल (पडिचंदा) प्रतिचंद्र (पडिसूरा) प्रतिसूर्य-उत्पात सूचक वित्तीय चंद्र की ओर सूर्यका दिखलाई पड़ना (इंदधणू) इन्द्रधनुष-आकाश में नीलपीत आदि वर्ण विशिष्ट जो धनुष के आकार दिखलाई देता है वह कि जिसे भाषा में "मदान" कहते हैं (उदगमच्छा) उदक मत्स्य इन्द्र धनुष के खंड (कविहसिया) कपिहसित-यदा कदाचित्-जब कभी आकाश में सुनाई पड़नेवाले अत्युग्रशन्द (अमोहा) अमोध सूर्य के उदय और अस्त के समय में उसकी किरणोंद्वारा उत्पन्न रेखा विशेष-(वासा) भरत
(रयुग्घाया) यात (हशामा धूण 34 ) (चंदोवराग) यन्द्री५२।। (यन्द्र. 969), (सूरोवराग) सूर्य , (चंदपरिवेसा, सूरपरिवेसा) यन्द्र५श्वेिष (यन्दने ફરતું ગોળાકારમાં પરિણત થયેલા પુદ્ગલપરમાણુઓનું ગોળાકારનું મંડળ), સપરિવેષ (સૂર્યની આસપાસ ચારે દિશામાં ગોળ ચૂડલીના આકારે પરિણત थयेसो पुरस५२भार मानु नु भ3 (पडिचंद) प्रतियन्द्र (Guld सूयमान यन्द्रनुपायु), (पडिसूरा) प्रतिसूर्य (G.यात सूय भी स्य हमा), (इंदधणू) मेवधनुष (Aशमा यामासामा २ स२00 मही हभाय छ त), (उद्गमच्छा) Ges म२५ (मेघधनुष्याना ५७), (कविहसिया) पिसित ( शमाथी यारे सण. ति3 181), (अमोहा) અમલ (સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્ત વખતે સૂર્યના કિરણે દ્વારા ઉત્પન્ન થતી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५६ पारिणामिकभावनिरूपणम्
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हिमवदादयः पर्वताः । ग्रामादयः प्रसिद्धाः । पातालाः = पातालकळशाः । शेषा भवनाद्यनन्तमदेशिकान्ताः प्रसिद्धा एव । ननु वर्षधरादयः शाश्वताः, न ते कदाचिदपि स्वकीयं भावं मुञ्चन्ति तत्कथं पुनरेषां सादिपारिणामिकत्वमुक्तम् ? इति - चेदाह - वर्षभरादीनां शाश्वतत्वं तदाकारमात्रेणैवावतिष्ठमानत्वाद् बोध्यम् । पुद्गलाआदि क्षेत्र (वासरा) हिमवत् आदि पर्वत (गामा, नगरा, घरा, पव्वया, पायाला) ग्राम, नगर, घर, पर्वत, पातालकलश (भवणा) भवन (निरया) नरक, (रयणप्पा) रत्नप्रभा (सकर पहा) शर्करा प्रभा (वालुयपहा) बालु का प्रभा (पंकप्पा) पंक प्रभा (धूमप्पहा ) धूमप्रभा (तमप्यहा) तमः प्रभा (तम तमप्पहा) तमस्तमः प्रभा (सोहम्मे ) सौधर्म (जाव अच्चुए) यावत् अच्युत (गेवेज्जे अणुत्तरे) ग्रैवेयक, अनुत्तर, (इसिप्पन्भारा ) ईषत्प्राभारा (परमाणुपोग्गले) परमाणुपुद्गल (दुपए सिए) द्विप्रदेशिक (जाव अनंत एसिए) यावत् अनंतप्रदेशिक (से तं साइपारिणामिए) इस प्रकार वह यह सादि पारिणामिक है ।
शंका- वर्षधरादिक तो शाश्वत हैं। क्योंकि ये कभी भी अपने अस्तित्व का परित्याग नहीं करते हैं। फिर इन्हें सादि परिणामवाला कैसे सूत्रकारने कहा है ?
उत्तर - वर्षधरादिकों में जो शाश्वतपना कहा है वह " वे अपने आकार मात्र से ही सदा अवस्थित रहते हैं " इसी ख्याल से कहा गया रेमाविशेष), (वासा) भरत आहि क्षेत्र ( वासधरा) हिमवान् याहि पर्वत, (गामा, जगरा, घरा, पव्वया पायाला ) ग्राम, नगर, घर, पर्वत, पाताजासश, (भवणा) भवन, (निरया) न२४, ( रयणप्पभा) २त्नयला, (सकरप्पभा) शरायला, (वालुयपभा) वालुठायला, (पंकप्पाहा) पशुप्रभा (धूमप्पहा ) धूभअभा, (तमप्पा ) तभःप्रभा, ( तमतमप्पा ) तभस्तभ ः प्रभा ( सोहम्मे जाब अच्चुए) सौध - भथी सहने अभ्युत पर्यन्तना उयेो, (गेवेज्जे अणुत्तरे) ग्रैवेय है। अनुत्तर विभाना, (इचिप्पब्भारा) पत्प्राग्भारा, (परमाणु पोग्गले) परमाणु युद्धस (दुपएलिए जाव अनंत पविए) द्विप्रहेशिम्थी सहने मनतप्रदेशि पर्यन्तना सुधा, (सेतं साइ पारिणामिए) या मघाने साहियारिष्यामि भाव ३५ समभवा. શકા-વધર આદિ પવતા તા શાશ્વત છે, કારણ કે તેઓ કદી પણ પાતપેાતાના અસ્તિત્વને પરિત્યાગ કરતા નથી છતાં સૂત્રકારે તેમને સાઢિ પારિણામિક શા કારણે કહ્યા છે ?
ઉત્તર-વષધર આફ્રિકામાં જે શાશ્વતતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે તેનુ કારણ એ છે કે તેઓ તેમના આકાર માત્રની અપેક્ષાએ જ સદા અવસ્થિત
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अनुयोगद्वारस्ते स्तु असंख्येयकालाय परिणमन्त एव । साम्पति केषु वर्षधरादिषु ये पुद्गणः सन्ति ते चोत्कृष्टतोऽसंख्येयकालार्ध्वमपगमिष्यन्त्येव (१) उक्तंचात्रविषयेऽ. त्रैवमूत्रे-"णेगमववहाराणं आणुपुब्बीदवाई कालओ कियचिरं होइ ? एर्ग दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं" इति । सू० ६ पृ. ११३ मुद्रित पृष्ठ ५७ सू० ८५ तत्स्थाने अपरेऽपरे पुद्गलाः संगताः सन्तस्तद्भावेन परिणमिष्यन्ति, अतः पुद्गल परित्तिमादाय वर्षधरादीनां सादि पारिणामिकत्वं न विरुध्यते इति नास्ति दोषः। एतदुपसंहरबाहस एष सादिपारिणामिक इति । द्वितीय भेदविषये शिष्यः पृच्छति-अथ कोऽसौ अनादिपारिणामिकः ? इति । उत्तरयति-अनादिपारिणामिकः-धर्मास्तिकायाद्यहै। इसका तात्पर्य यह थोडे ही हो सकता है कि उनमें परिणमन नहीं होता है। वर्षधरादिक पौद्गलिक हैं । पुद्गल असंख्यातकाल के बाद परि.
मन करते हैं । इस समय के वर्षधरादिको में जो पुद्गल हैं वे वहां ज्यादा से ज्यादा असंख्यात काल तक रहेंगे-घाद में वहां से च्युत हो जावेंगे। यह बात इसी मूत्र के ८५ वे सूत्र में पहिले स्पष्ट ही की जा चुकी है कि नैगमव्यवहारनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य कालकी अपेक्षा आनुपूर्वी रूप में जघन्य से एक द्रव्यको आश्रित करके एक समय तक और उत्कृष्ट से असंख्यात काल तक रहते हैं। च्युत हुए उन पुगलों के स्थान में और दूसरे दूसरे पुद्गल संगत होकर उस रूप से परिणम जायेंगे। इसलिये पुद्गल की इस परिवृत्ति-परिणमन को लेकर के वर्षधरादिकों में सादि पारिणामिकता का कथन विरूद्ध नहीं पडना है। (से कि तं अणाइपारिणामिए) हे भवन्त ! वह अनादि पारिणामिक क्या है? રહે છે. તેનો અર્થ એ થતું નથી કે તેમનામાં પરિણમન જ થતું નથી તેમનામાં પરિણમન તે જરૂર થતું જ રહે છે વર્ષધરાદિક પૌલિક છે પુલે તે અસંખ્યાત કાળ બાદ પરિણમન કરે જ છે. હાલના વર્ષધર આદિકેમાં જે પદ્રલે હાલમાં છે. તેઓ ત્યાં વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ સુધી રાશે. ત્યાર બાદ તેઓ ત્યાંથી આવીને જશે આગળ ૮૫માં સૂત્રમાં આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે તે સૂત્રમાં એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે ગમવ્યવહાર નયસંમત આનુપૂવી દ્રવ્ય કાળની અપેક્ષાએ એક દ્રવ્યની રષ્ટિએ વિચાર કરવામાં આવે તે ઓછામાં ઓછા એક સમય સુધી અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ સુધી આનુપવી દ્રવ્ય રૂપે રહે છે.” ચવેલા થયેલા તે પુદ્ગલેને સ્થાને અન્ય પુલ સંગત થઈને તે રૂપે પરિણમી જશે તેથી અદલાની આ પરિવૃત્તિ (પરિણમન)ને કારણે વર્ષધરાદિકેમાં પણ સાદિ પારિવામિકતાનું કથન વિરૂદ્ધ પડતું નથી.
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मनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १५७ सान्निपातिकभावनिरूपणम् ७४५ भवसिद्धिकान्तो बोध्यः। धर्मास्तिकायादयोऽनादिकालादेष तत्तद्रूपतया परिणताः सन्ति, अत एषामनादिपारिणामिकत्वम् । एतदुपसंहरन्नाह-स एषोऽनादिपारिणामिक इति। पारिणामिको भावः प्ररूपित इति सूचयितुमाह-स एष पारिणामिक इति ।मु० १५६॥
अथ सान्निपातिकं नाम प्ररूपयति
मूलम्-से किं तं सण्णिवाइए ? सण्णिवाइए एएसिं थेव उदइय उवसमिय-खइय-खओव समियपारिणामियाणंभावाणं दुगसंजोएणं तियसंजोएणं चउक्कसंयोएणं पंचगसंजोएणं जे
उत्तर-(अणाइपारिणामिए धम्मत्यिकाए, अधम्मस्थिकाए, आगासस्थिकाए, जीवत्यिकाए, पुग्गलस्थिकाए, अद्धासमए, लोए, अलोए, भव. सिद्धिया अभवसिद्धिया) अनादि पारिणामिक धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धासमय, लोक, अलोक भवसिद्धिक अभवसिद्धिक है । (से तं अणाइपारिणामिए) यह अनादि पारिणामिक है । तात्पर्य इसका यह है कि धर्मास्तिकायादिक अनादि काल से ही उस २ रूप से परिणत हैं । इसलिये इनमें अनादि पारिणामिकता है। (से तं पारिणामिए) इसप्रकार पारिणामिक भाव का निरूपण है ॥ सू० १५६ ॥
प्रश्न-(से कि त अगाइ पारिणामिए?) 3 साप ! अन पारिभिः ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(अणाइ पारिणामिए धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, बागोसस्थिकाए, जीवत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, अद्धासमए, लोए, अलोए, भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया) धास्ताय, अपमास्तिय, भाशस्तिय, स्तिय, पुरमा Casinसद्धासमय (8), a, मसा, मसिद्धिअरे मससिद्धि આ ભાવે અનાદિ પરિણામિક છે ધર્માસ્તિકાય આદિ અનાદિ કાળથી જ ધર્માસ્તિકાય આદિ રૂપે પરિણત હોવાને કારણે તેમને અનાદિ પરિણામિક भाव ४ा छे. (से त अणाइ पारिणामिए) ! २नु मनाहि पारिभिः भानु २१३५ छे. (से त पारिणामिए) साहि पारिवामि भने सना R. કામિક ભાવનું નિરૂપણ સમાપ્ત થવાથી પારિણામિક ભાવનું કથન અહીં પૂરું થાય છે. સૂ૦૧૫દા
भ० ९४
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अनुयोगहारणे निप्फज्जइ सव्वे से सन्निवाइए नामे। तत्थ णं दस दुयसंजोगा, दसतियसंजोगा,पंच चउक्कसंजोगा,एगेपंचगसंजोगे॥सू.१५७॥ __छाया-अथ कोऽसौ सान्निपातिकः? सान्निपातिकः-एतेषामेव औदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकानां भावानां द्विकसंयोगेन त्रिकसंयोगेन चतुष्कसंयोगेन पञ्चकसंयोगेन यो निष्पयते सर्वःस सामिपातको नाम। तत्र खलु दश विकसंयोगाः, दश त्रिकसंयोगाः, पञ्चचतुष्कसंयोगाः, एकः पञ्चकसंयोगः।।सू.१५७॥
टीका-'से कि त' इत्यादि
अथ कोऽसौ सान्निपातिकः ? इति शिष्यप्रश्नः। उत्तरयति-सामिपातिक:सन्निपतनम् औदयिकादिभावानां द्वयादिसंयोगेन संयोजन सन्निपातः, स एवं तेन निवृत्तो वा सान्निपातिकः । अमुमेशर्थमाह-सूत्रकार:-'एएसिं चेव' इस्था. दिना । एतेषामेव औदयिकादीनां पश्चानां भावानां द्वित्रिकचतुष्कपश्चकसंयोगेन यो यो भावः सम्पद्यते स सर्वोपि भावः सान्निपातिको बोध्यः। स सामिपातिक भाव एवं सान्निपातिकनामेत्युच्यते। तत्र हि दश द्विकसंयोगा भवन्ति, दश त्रिकसंयोगाः, पश्च चतुष्कसंयोगाः, एकः पञ्चकसंयोग इति ॥सू. १५७॥
अव सूत्रकार सान्निपातिक भावकी प्ररूपणा करते हैं"से कि तं सण्णिवाइए" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं सण्णिवाइए ? ) हे भदन्त ! वह सानिपातिक मोव क्या है ? (सपिणवाइए एएसिंचेव उदइए उवसमिय-खइयखओवसमिय पारिणामियाणं भावाणं दुगसंजोएणं तिय संजोएणं चजएकसंजोएणं पंचकसंजोएणं जे निष्फज्जइ) ।
उत्तर-इन औयिक आदि पांच भावों के दो के, तीन के चार के और पांच के संयोग से जो जो भाव निष्पन्न होते हैं वे सब भी भाव सानिपातिक भाव है। इस सान्निपातिक भोवों में दश भाव द्विकसयोगज,
હવે સૂત્રકાર સાન્નિપાતિક ભાવની પ્રરૂપણ કરે છે– " से कितसण्णिवाइए" त्या:
Av४ाय - (से कि त' सण्णिवाइए १) उमापन ! प्रान्त सन्निपाति: guqg १३५ पुछ
उत्तर-(सण्णिवाइए एएसिं चेत्र उदइए उवसमिय-खइय-खओवस मियपारिणा मियाणं भावाणं दुगसंजोएणं, तियसंगोष्णं, चउक्क संजोएणं, पंचकसंजोएणं जे निष्फज्जइ) मोदय, शो५भि५. क्षामि, क्षाये.५शभि, भने पारि. વામિક, આ પાંય ભાવના દ્રિકસંચાગ, ત્રિકસંગ ચતુષ્કસંગ અને પચક સંયોગથી જે ભાવે નિષ્પન્ન થાય છે તે બધા ભાવેને સાન્નિપાતિક ભાવે કહે છે આ રીતે બ્રિકસંયોગ જન્ય ૧૦ ભાવે, વિક્સગ જન્ય ૧૦
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १५८ द्विकादिसंयोग निरूपणम्
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द्विकादि पञ्चकान्ताः संयोगा ससंख्यका उक्ताः । तत्र द्विकादिसंयोगाः के? इति तान् प्रदर्शयितुमाद
मूलम् - एत्थ णं जे ते दस दुगसंयोगा ते णं इमे - अस्थि णामे उदय उवसमियनिष्फण्णे ? अस्थि णामे उदइयखाइगनिष्फण्णै२, अस्थि णामे उदइयखओवसमियनिष्फण्णे ३, अस्थि नामे उदयपारिणामियनिष्कण्णे४, अस्थि णामे उवसमियखड्यनिष्कपणे५, अत्थि णामे उवसमिय खओवसमियनिष्क६, अस्थि णामे उव समियपारिणामियनिष्कण्णे७, अस्थि णामे खइयखओवसमियनिष्फण्णेट, अस्थि णामे खइयपारि - णामियन फ०९, अस्थि नामे खओवसमियपारिणामियनि फणे १० । कयरे से णामे उदय उवसमियनिष्फण्णे ? उदइय उवसमियनिष्कणे उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया । एस से णामे उदश्व उवसमियनिष्फण्णे ॥ १॥ कयरे से णामे उदइयखाइयनिष्फण्णे ? उदइयखाइयनिष्फण्णे - उदइएत्ति म स्ले खइयं सम्मत्तं । एस णं से णामे उदइयखइयणिफणणे ॥ २ ॥ कयरे से णामे उदयखओवस मियनिष्फण्णे ? उदइयखओव समियनिष्फणे - उदइएत्ति मणुस्से खओवसमियाई इंदिबाई । एस से णामे उदइयख भवसमियनिष्कण्णे ॥ ३॥ कयरे से
--
दशभाव त्रिकसंयोगज, पांचभाव चतुष्क संयोग, और एक भाव पंचक संयोगज बनते हैं । इस प्रकार ये २६ सान्निपातिक भाव हैं । ।। सू० १५७॥
ભાવેા, ચતુષ્કસ ચાગ જન્ય પાંચ લાવા અને પંચકસયેાગ જન્ય એક ભાવ નિષ્પન્ન થાય છે. આ પ્રકારે કુલ ૨૬ સાન્તિપાતિક ભાવા થાય છે. સૂ॰૧૫૭માં
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अनुयोगद्वारसूत्र गामे उदइयपारिणामियनिप्फण्णे? उदइयपारिणामियनिष्फण्णेउदइएत्ति मणुस्से पारिणामिए जीवे। एस णं से णामे उदइयपौरिणामियनिष्फण्णे ॥४॥ कयरे से गामे उवसमियखइयनिष्फपणे? उवसमियखइयनिप्फण्णे-उवसंता कसाया-खइयं सम्मत्तं। एस गं से णामे उवसमियखइयनिप्फण्णे॥५॥ कयरे से णामे उपसमियखओवसमियनिष्फण्णे ? उपसमियखओवसमियनिनिफण्णे-उवसंता कसाया खओवसमियाइं इंदियाई एस गं से णामे उपसमियखओवसमियनिष्फण्णे॥६॥ कयरे से गामे उपसमियपारिणामियनिप्फण्णे ? उपसमियपारिणामियनिष्फपणे-उवसंता कसाया पारिणामिए जीवे । एस णं से णामे उव. समियपारिणामियनिप्फण्णे॥७॥ कयरे से णामे खइयखओवसंमियनिष्फण्णे ? खइयखओवसमियनिष्फण्णे-खड्यं सम्मतं खओवसमियाइं इंदियाई। एस णं से णामे खइयखओवसमियमिफण्णे॥८॥ कयरे सेणामे खइयपारिणामियनिष्फण्णे ? खइयपारिणामियनिष्फण्णे-खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे। एसणं सेणामे खइयपारिणामियनिप्फण्ण॥९॥ कयरे से णामे खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे? खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे. खओवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे । एस णं णामे खोवसमियपारिणामियनिप्फण्णे॥१०॥॥सू० १५८॥ __छाया-पत्र खल ये ते दश द्विकसंयोगास्ते खलु इमे-अस्ति नाम औद. यिकौपशमिकनिष्पन्नम् ॥१॥ अस्ति नाम औदयिकक्षायिकनिष्पन्नम् ॥२॥ अस्ति नाम औदयिकक्षायोपशसिकनिष्पन्नम् ॥३॥ अस्ति नाम औदयिकपारिणामिक .
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५८ विकादिसंयोगनिरूपणम्
७९ निपमम्॥४॥ अस्ति नाम औपशमिकक्षायिकनिष्पानम्॥५॥ अस्ति नाम औपशमिकमायोपशमिकनिष्पन्नम्॥६॥ अस्ति नाम औपशमिकपारिणामिकनिष्पमम्॥७॥ बस्ति नाम क्षायिक क्षायापशमिकनिष्पन्नम्।।८।। अस्ति नाम क्षायिकपारिणामिक निष्पनम्॥९॥ अस्ति नाम क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्॥१०॥ कतरत्तन्नाम बौदयिकौपशमिकनिष्पन्नम् ? औदयिकमिति मानुष्यम् , उपशान्ताः कषायाः। एतत् खलु तन्नाम औदयिकौपशमिकनिष्पन्नम् ॥१॥ कतरत्तन्नाम औदयिकक्षायिकनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायिकनिष्पन्नम् औदयिकमितिमानुष्यं, क्षायिकं सम्यकत्वम् । एतत् खलु तन्नाम औदायिकक्षायिकनिष्पन्नम्॥२॥ कतरत्तन्नाम औदयिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-औदयिनमिति मानुष्यं क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि। एतत् खलु तन्नाम औदयिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्॥३॥ कतन्नामऔदयिकपरिणामिकनिष्पन्नम् ? औदयिकपारिणामिक निष्पन्नम् औदयिकमिति मनुष्यम् पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकपारिणामिकनिष्पन्नम्।।४। कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम् । औपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम्-उपशान्ताः कषायाः क्षायिकं सम्यक्त्वम् । एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम्॥५॥ कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायोपश्रमिकनिष्पन्नम् ? औपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-उपशान्ताः कषायाः क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि । एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्॥६॥ कतरत् तन्नाम औपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औपशमिकपारिणामिकनिष्पनम्-उपशान्ताः कषायाः, पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्॥७॥ कतरत् तन्नाम क्षायिक क्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ! सायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-क्षायिकं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि । एतत् खलु तन्नाम क्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्॥८॥ कतरत् तन्नाम क्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? क्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-क्षायिकं सम्यक्त्वं पारिगामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम क्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्।।९॥ फतरत तन्नाम क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? क्षायोपमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्सायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम भायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ॥१०॥मू०१५८।।
टीका-'एत्य णं' इत्यादिअन-सान्निपातिके भावे दश द्विकसंयोगा उक्ताः, ते दश द्विकसंयोगा।
दो दो भावों के संयोग से जो १० भाव निष्पन्न होते हैं। सूत्रः कार उन्हें कहते हैं-"एत्थ णं जे ते" इत्यादि
બએ ભાવોના સંયોગથી જે ૧૦ ભાવે નિષ્પન્ન થાય છે, તેમને सूबर ४८ रे -"एत्थणं जे ते." त्यालि
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अनुयोगद्वारले भना-'अस्त्ति नाम औदयिकौपशमिकनिष्पन्नम्' इत्यारभ्य 'अस्ति नाम 'अस्ति नाम क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्' इत्यन्ता बोध्याः। एषु प्रौदयिकेन सह औपशमिकादि भावचतुष्टयसंयोगात् चत्वारो भङ्गाः, औपशमिकेन सह क्षायिकादिभावत्रयस्य संयोगात् त्रयो भङ्गाः, क्षायिकेण सह क्षायोपशमिकादि भावद्वयसंयोगात् द्वौ भङ्गो, तथा-क्षायोपशमिकेन सह
शब्दार्थ-(एत्थ णं जे ते दस दुगसंयोगा, ते णं इमे) यहांजो दो दो
भावों के संयोग से भाव निष्पन्न-होते हैं वे इस प्रकार से है(अस्थिगामे उदय उवसमियनिफण्णे ? ) पहिला औदयिक और औप
शमिक के संयोग से निष्पन्न भाव एक, (अस्थिणामे उदइयखाहग. निफण्णे २) दूसरा औदपिक और क्षायिक के संयोग से निष्पन्न भाव (अस्थिणामे उदइयखोवसमनिष्फण्णे) तीसरा-औदयिक और क्षायोपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव (अस्थि णामे उदइयपारिणामियनिष्फण्णे) चौथा औदयिक और पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न भाव (अस्थि णामे उपसमियखड्य' निष्कणे) पांचवा-औपशमिक और क्षायिक के संयोग से निष्पन भाव (अस्थिणामे उवप्तमिय ख भोवप्तभियानकपणे) छठा-औपशमिक और क्षायोपशमिक के संयोग से निष्पन्न भाव (अस्थिणामे उपसमियपारिणामियनिष्फणे) सातवां-औपशमिक और पारिणामिक के संयोग से निष्पन्नभाव (अस्थिणामे खहय, ख भोवत्समियनिष्फणे) आठवां-क्षायिक और क्षायोपशमिक के संबन्ध से निष्पनभाव (अस्थिणामे खड्य पारि
शाय-(एत्थ णं जे ते दस दुगसंयोगा, तेणं इमे) भन्ने भावना सयार गयी २ इस भाव मि01-1 ५.५ छे ते नये प्रभारी -(अस्थिणामे उदय उवस मिय निष्फण्णे) (१) मौयि भने मोपशभिाना सयोगथानिपत भाव (अस्थिणामे सदइयखाइयनिष्फण्णे २) (२) मोहथिई भने क्षायिना सयाजयी नि-न ये भाव (अस्थिणामे उदइय खोवसमनिष्फणे३) (3) मोहरि अन क्षायो५मिना साथी नि०पन्न ये माप (अस्थिणामे उदय पारिणामिवनिष्फण्णे) (४) मोहयि भने पारिमिना साथी - माप (अत्थिणामे उवलमियखइयनिष्फण्णे) (५) भो५मि भने क्षायिना सयोगथी निपन्न माप (अस्थिण मे उवसमियख ओक्समियनिकणे) (6) मीपशभिः अ. क्षायो५मिनसयोगयी नि०५न्न थये। माप (अस्थिणामे उवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) (७) भोपशभि भने पारिवामिना सया. थी नि०पन्न साप (अत्थिणामे खइयख भोवसमियनिष्फण्णे) (८) क्षायिक
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७५१ पारिणामिकभावस्य संयोगादेको भङ्गः । इति दश भङ्गा बोध्याः। इत्थं सामान्यतो दश भङ्गान् ज्ञात्वा विशेषतस्तान जिज्ञापितुकामः शिष्यः पृच्छति-कतरतू तन्नाम
औदयिकोपशमिकनिष्प-नम्-औदयिकोपशमिकभावेन यन्निष्पद्यते तन्नाम किम् ? इति । उत्तरयति-औदायिकौपशमिकनिप्पानमे विज्ञेयम्-औदयिकमितिमानुष्यम्, जामियनिष्फणे) ९वां-क्षाइक और पारिणामिक के संयोग से निष्पन्न भाव (अस्थिणामे खोवसमियारिणामियनिष्फण्णे) १० वां-क्षायो. पशमिक और पारिणामिक के संयोग से निप्पन्न हुआ भाव । इस प्रकार ये औदायिक के साथ औपशमिक आदि चार भावों के संयोग से ४ भंग, औपशमिक के साथ क्षायिक आदि तीन भंगो के संयोग से तीनभंग, क्षायिक के माथ क्षायोपशमिक आदिदो भावों के सयोग से दो भंग तथा क्षायोपशामक के सोथ पारिणामिक भाव के संयोग से एक भंग ये दश भंग हो जाते हैं । इस प्रकार सामान्य से दश भंगों को जानकर विशेषरूप से शिष्य पूछता है। कि (कयरे से णामे उदय उवसमिय निष्फण्णे ? हे भदन्त ! औदयिक एवं औपशामिक भाव के संयोग से जो सान्निपातिक भावरूप भंग निष्पन्न होता है वह कैसा है ?
उत्तर-(उदहयउवसभियनिष्फण्णे) औदारिक एवं औपशमिक
भने योपशभिाना सयोगथी निपन्न माप (अस्थि ण मे व इय पारिण मियनिष्फण्णे) (6) क्षायि भने पारिवामिना सयोगी नियन्न माप (अस्थिणामे खोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) (१०) क्षाये ५३भि भने पारिवामिना સંગથી નિષ્પન્ન ભાવ આ પ્રકારે ઔદયિકની સાથે પશમિક આદિ ચારના સંગથી ૪ ભંગ, પશર્મિક ભાવની સાથે ક્ષાયિક આદિ ત્રણ ભાવના સંયોગથી ૩ ભંગ, ક્ષાયિકભાવની સાથે ક્ષાપશમિક આદિ બે ભાવના સંગથી ૨ ભંગ તથા ક્ષાયોપશમિકની સાથે પરિણામિક ભાવના સંયોગથી એક ભંગ બને છે આ રીતે બ્રિકસંગી કુલ ૧૦ ભંગ બને છે.
આ પ્રકારે આ ભંગેનું સામાન્ય કથન કરીને હવે સૂત્રકાર દરેક ભંગના સ્વરૂપનું વિવેચન કરે છે
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयउत्रसमियनिष्फण्णे?) 3 मापन! मी यि અને ઔપશમિક ભાવના સંયોગથી જે સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ ભંગ નિષ્પન્ન થાય છે, તેનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે?
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अनुयोगदारणे उपशान्ताः कषायाः, इति । अयं भावः-औदयिके भावे मनुष्यत्वं मनुष्यगवि. रुत्पद्यते । उपलक्षणमिदम्-तिर्यगादिगतिजातिशरीरनामादिकर्मणामपि, तेषामप्यत्र संभवात् । औपशमिके भावे तु कषाया उपशान्ता भवन्ति । इदमप्युदाहरण. मात्रम्-दर्शनमोहनीयनोकषायमोहनीयावपि औपशमि के भावे समुत्पद्यते। एकदुपसंहरन्नाह-एस गं' इत्यादि । एतत् अनन्तरोक्तं, 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे, तत्-प्रसिद्धम् औदयिकोपमिकनिष्पन्नं नाम बोध्यमिति प्रथमद्विकयोगे यदिदमुक्त तद् विवक्षामात्रम् । न पुनरीदृशो भङ्गः कचिज्जीवे संभवति तथाहि यस्य भाव के संयोग से जो सान्निपातिक भावरूप भंग उत्पन्न होता है वह ऐसा है-(उदाएत्तिमणुस्ते उवसंता कसाया) औदयिकभाव में मनुप्यत्वमनुष्यगति-उपशांत कषाय यहां "मणुस्से" यह पद उपलक्षण है, इससे तिर्यगादि चारों गतियां, जाति और शरीरनामादिकर्मों का भी ग्रहण हुआ है। क्योंकि यहां पर उनका भी सद्भाव पाया जाता है। औपशमिकभाव में कषाय उपशान्त होती है । सो यह भी-उदा. हरण मात्र है । क्योंकि औपशमिक भाव में दर्शनमोहनीय और नो कषायमोहनीय इन दोनों का भी उपशम रहता है । (एस णं से णामे उदइयउवसमियनिष्फण्णे) - इस प्रकार यह औदयिकौपशमिकनाम का प्रथम सान्निपातिकभावरूप भंग है। इस प्रथम भंगरूप सोन्निपातिक भाव में मनुष्यगति उपशांत कषाय ऐसा जो कहा है वह केवल विवक्षामात्र है। क्योंकि ऐसा सान्निपातिक भाव किसी भी जीव में
उत्तर-(उदइयउवममियनिष्फण्णे) मौयि: भने औपशभिः भावना સગથી જે સાન્નિપાતિક ભાવરૂપ ભંગ ઉત્પન્ન થાય છે તે આ પ્રકારને छ-(उदइएचि मणुस्से उवसंता कसाया) मौयि लामा भनुष्यत्व-मनुष्य. ગતિ અને ઓપશમિકભાવમાં ઉપશાન્ત કષાયને ગણાવી શકાય. અહીં મનુષ્યગતિ આ પદ ઉદાહરણ રૂપે વપરાયેલું હોવાથી તેના દ્વારા તિર્યંચ આદિ ચારે ગતિએ, જાતિ અને શરીરનામાદિ કર્મોને પણ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. કારણ કે અહીં તેમને પણ સદૂભાવ રહે છે પથમિક ભાવમાં કષાય ઉપશાન્ત હોય છે આ વાત પણ ઉદાહરણ રૂપે જ આપવામાં આવી છે, કારણ કે પશમિક ભાવમાં દર્શન મોહનીય અને નેકષાયમહનીય, भाम-२ २ना भनि५५ 8५शम २२ . (एसणं से णामे उदइय उपसमियनिष्फण्णे) मा २२ मा मोहयो ५५भि नामन। प्रथम सानि પાતિક ભાવ રૂપ ભંગ છે. આ પ્રથમ ભંગમાં “મનુષ્યગતિ અને ઉપશાન્ત કષાય” આ પ્રકારનું જે કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે કથન માત્ર વિવક્ષારૂપ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५८ द्विकादिसंयोगनिरूपणम्
७५३ जीवस्य औदयिकी मनुष्पगतिः, औपशमिकाः कषायाः भवन्ति, तस्य क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं जीवत्वं चापि भवन्ति । कस्यचित्तु क्षायिकं सम्य. कत्वमपि संभवति। एवं नवमभङ्गातिरिक्तसर्वेषु भङ्गेषु बोध्यम् । नवमो भास्तु सिद्धविषयो बोध्यः । सिद्धस्य क्षायिकं सम्यक्त्वं पारिणामिकं तु जीवत्वमित्येतद् भावद्वयं भवति । इतः परोन कोऽपि भावो भवति । तस्मात् सिद्धस्यायमेक एवं भङ्गो भवतीति बोध्यम् । नवमातिरिक्ता नव भङ्गास्तु प्ररूपणामात्रमेव । यतः सिद्धातिसंभवित नहीं होता है। जिस जीव को मनुष्यगति है और कषाय उपशमित हैं सो इस प्रकार से उसके औदयिक और औपशमिक इन दो भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिकोपशमिक नाम का प्रथम सान्निपातिक भाव माना जाता तब कि जब उसके और दूसरे भाव नहीं होते। औदयिकौपशमिकभाव के साथ वहां क्षायोपशमिक भाव रूप इन्द्रियां पारिणामिक भाव रूप जीवत्व भी है। किसी २ जीव को इस औदयिकौपशमिक के साथ क्षायिकसम्यक्त्व भी संभवित होता है इस प्रकार का विचार नौवें-भंग के सिवाय समस्त भंगो में जानना चाहिये । क्योंकि जो नौवां भंग है वह सिद्ध भगवान् की अपेक्षा से है। सिद्ध भगवान् में क्षायिक सम्यक्त्व और पारिणामिक भाव रूप जीवत्व रहता है। इनके अतिरिक्त और भाव वहां नहीं रहते हैं। इसलिये सिद्ध में यह नौवां भंगरूप एक सान्निपातिक भाव ही है। જ છે, કારણ કે એ સાન્નિપાતિક ભાવ કઈ પણ જીવમાં સંભવિત હેતે નથી જે જીવમાં મનુષ્યગતિ છે અને કષાય ઉપશમિત છે, આ પ્રકારે તેને ઔદયિક અને ઔપશમિક, આ બન્ને ભાના સંયેગથી નિષ્પન્ન દયિકપશમિક નામને પ્રથમ સાન્નિપાતિક ભાવ તે ત્યારે જ માની શકાય કે જ્યારે તે જીવમાં અન્ય કોઈ ભાવનો સદૂભાવ જ ન હોય દયિકોપથમિક ભાવની સાથે ત્યાં ક્ષાપશમિક ભાવ રૂ૫ ઈન્દ્રિય અને પરિણામિક ભાવ રૂપ જીવવનો પણ સભાવ રહે છે. કેઈ કઈ જીવમાં આ ઔદયિકીપશમિકની સાથે ક્ષાયિક સમ્યકત્વ પણ સંભવિત હોય છે. આ પ્રકારને વિચાર નવમાં ભંગ સિવાયના સમસ્ત ભંગમાં સમજવું જોઈએ, કારણ કે જે નવમો ભંગ છે તે સિદ્ધ ભગવાનની અપેક્ષાએ ગ્રહણ કરવાનું છે. સિદ્ધ ભગવાનમાં ક્ષાયિક સમ્યકત્વ અને પરિણામિક ભાવ રૂપ જીવત્વને સદુભાવ રહે છે. તે સિવાયના અન્ય ભાવેને તેમનામાં સદ્ભાવ હેતે નથી તેથી જ સિદ્ધ જેમાં નવમાં ભંગ રૂપ એક સામિનપાતિક ભાવને સદ્ભાવ કહ્યો છે તે સિવાયના જે નવ
अ० ९५
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अनुयोगद्वारसूत्रे रिक्तानामन्येषां जीवानां न्यूनतोऽपि औदयिकी गतिः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं तु जीवरम् , इत्येतद् भावत्रयं लभ्यते एवेति बोध्यम् । मृ० १५८॥ इसके अतिरिक्त और जो नौ भंग हैं वे केवल प्ररूपणा मात्र ही हैं । क्योंकि सिद्धों के सिवाय जितने भी संसारी जीव हैं, उनको कम से कम तीन भाव तो होते ही हैं। जिस गति में वे हैं एक तो वह, तथा इन्द्रियां और जीवत्वगति औदयिक भाव है। इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव है और जीवत्व पारिणामिक भाव है।
भावार्थ-सूत्रकारने दोभावों के संयोग होने पर जो दश सान्निपातिक भाव होते हैं उनके विषय में इस सूत्रद्वारा विवेचन किया है। इसमें जहां पर औदयिक भाव प्रत्येक संयोग में प्रधान रूप से रहता है, और शेष औपशमिक आदि में से एक २ छूटता चला जाता है वह पहिला द्वि भाव संयोगी भेद होता है । इसके चार भंग बनाये गये हैं। उनमें औदयिक औपशमिक-सान्निपातिक भाव नाम का पहिला भंग है। जैसे यह मनुष्य उपशांत कषाय है । अर्थात् यह मनुष्य उपशान्त क्रोधी यावत् मनुष्य उपशान्त लोभी है- यहां पर उपांत क्रोध होने से तो औपशमिक भाव और मनुष्य कहने से मनुष्यगति कर्म के उदय से ભંગે છે તેમને ઉલ્લેખ તે માત્ર પ્રરૂપણાની અપેક્ષાએ જ કરવામાં આવે છે, કારણ કે સિદ્ધ છ સિવાયના જે સંસારી જીવો છે તે જીમાં તે ઓછામાં ઓછા ત્રણ ભાવો અવશ્ય હોય છે. જે ગતિમાં તેમને સદ્ભાવ છે તે ગતિ તથા ઈન્દ્રિય અને છેવત્વગતિ ઔદયિક ભાવ છે ઈન્દ્રિ ક્ષાયોપથમિક ભાવ રૂપ અને જીવત્વ પરિણામિક ભાવ રૂપ છે.
ભાવાર્થ–બબે ભાવને સોગ થવાથી જે દસ સાન્નિપાતિક ભાવે નિષ્પન્ન થાય છે, તેમના વિષયમાં સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં વિવેચન કર્યું છે. પહેલા ચાર દ્વિભાવ સગી સાન્નિપાતિક ભામાં યિક ભાવ પ્રધાન રૂપે રહે છે. ઓયિક ભાવની સાથે ઔપશમિકથી લઈને પરિણામિક પર્યન્તના ચાર ભાવોને સોગ કરીને પહેલા ચાર ભંગ (ભાંગાઓ) બને છે. તેમાં ઔદયિક અને ઔપશમિક ભાવોના સંગથી પહેલું સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ ભંગ બને છે જેમ કે.. આ મનુષ્ય ઉપશાન કષાય છે. એટલે કે આ મનુષ્ય ઉપશાન્ત ક્રોધી, ઉપશાન્ત માની, ઉપરાન્ત માયી અને ઉપશાન્ત લેભી છે. આ પ્રકારનું કથન કરવાથી પહેલો સાન્નિપાતિક ભાવ આ પ્રકારે ગ્રહણ થાય છે અહીં ક્રોધ ઉપશાન્ત થયેલું હોવાથી ઔપશમિક ભાવને, અને મનુષ્ય
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अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १५८ विकादिसंयोगनिरूपणम् औदयिक भाव घटित होता है । इसी प्रकार से मनुष्य उपशांत मानी, मनुष्य उपशांत मायी और मनुष्य उपशांत क्रोधी इन इन वचनों में भी घटित कर लेना चाहिये। औदयिक क्षायिक सोन्निपातिक नाम का दूसरा भंग है-इसका द्रष्टान्त इस प्रकार से जानना चाहिये कि जैसे यह मनुष्य क्षीणकषायी है। औदयिक क्षायोपशमिक नाम का तीसरा साभिपातिक भंग है जैसे मनुष्य पंचेन्द्रिय है । औदयिक पारिणामिक नाम का चौथा सानिपातिक भंग है जैसे मनुष्य जीव हैं। जहां पर औदयिक भाव को छोड़ कर औपशमिक भाव के साथ क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावों का संयोग कर भंग बनाये जाते हैं वहां ५वां ६ ठा और सातवां ये सान्निपातिक भाव बनते हैं। उनमें औपशमिक क्षायिक यह सानिपातिक नाम का पहिला भंग है । जैसे यह उपशांत लोभी दर्शन मोहनीय के क्षीण होजाने से क्षायिक सम्यग्दृष्टि है। औपशमिक क्षायिक नामका दूसरा भंग है जैसे यह उपशांत मानी आभिनियोधिक ज्ञानी है । औपशमिक पारिणामिक नाम का तीसरा भंग है-जैसे उपशान्त मायाकषाय वाला भव्य । जहाँ पर औपशमिक કહેવાથી મનુષ્ય ગતિ કર્મના ઉદયને લીધે ઔદયિક ભાવને સદ્ભાવ બતાવ્યો છે. એ જ પ્રમાણે ઉપશાન્ત માની મનુષ્ય, ઉપશાન્ત માથી મનુષ્ય અને ઉપશોન્ત લેભી મનુષ્ય, આ ત્રણે પ્રકારના કથનમાં પણ ઔદયિક અને ઔપશમિક ભાવના સાગથી નિપન્ન સાન્નિપાતિક ભાવ જ ઘટિત થઈ જાય છે.
ઔદયિક ક્ષાયિક સાન્નિપાતિક ભાવ” નામના બીજા ભંગનું દૃષ્ટાન્ત નીચે प्रमाणे -" 4मनुष्य क्षीण उपाय छे."
“ઔદયિક ક્ષાપશમિક” નામના ત્રીજા સાન્નિપાતિક ભંગનું દાન“મનુષ્ય પંચેન્દ્રિય છે.” ઔદયિક પરિણામિક નામના ચોથા સાન્નિપતિ गनु हटान्त-" मनुष्य ७३ छे."
પશમિક ભાવની સાથે અનુક્રમે ક્ષાયિક, ક્ષાયોપથમિક અને પારિ. ગ્રામિક ભાવના સાગથી પાંચમાં, છઠ્ઠા અને સાતમાં સાનિપાતિક ભાવ રૂપ ત્રણ અંગે નિષ્પન્ન થાય છે.
"मौपशभिः क्षायि" नामना पांयम सानिपाति नुटान्त“આ ઉપશાન્ત ભી દર્શનમોહનીય કમને ક્ષય થઈ જવાથી ક્ષાયિક सभ्याट छ"
પશમિક ક્ષાપશમિક” નામના છઠા સાન્નિપતિક ભંગનું દષ્ટાન્ત-આ ઉપશાન માની આભિનિધિક જ્ઞાની છે.”
પથમિક પરિણામિક” નામના સાતમાં સાન્નિ પાતિક ભગનું दृष्टान्त-6५शन्त माया पायवाणी स५."
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अनुयोगद्वारसूत्रे
भाव भी छोड़ दिया जाता है। वहां क्षायिकभाव के साथ क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावका संबन्ध होनेपर तीसरा द्विभाव संयोगी भेद होता है - उसके दो भंग इसप्रकार से हैं उनमें क्षायिक क्षायोपशमिक प्रथम सान्निपातिकभाव है और दूसरा क्षांधिक पारिणामिक है। इनमें प्रथम का दृष्टान्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि श्रुतज्ञानी है और दूसरे का दृष्टान्त क्षीणकषायी भव्य है। जहांपर क्षायिक भाव का भी परित्याग हो जाता है केवल क्षायोपशमिक पारिणामिक रूप संयोग रहता है, वहां पर एक ही क्षायोपशमिक पारिणामिक ऐसा भंग होता है। इसका रष्टान्त - जैसे अवधिज्ञानी जीव है। इसप्रकार ये द्विभाव संयोगी भंग मिलकर १० हैं । इनमें जो नौवां भंग है कि जिसका नाम क्षायिक पारिणामिक है वह सिद्धजीवों की अपेक्षा से है और वही शुद्धनिर्दोष है बाकी के अवशिष्ट नौ भंग विवक्षा मात्र है- क्योंकि उनमें अन्य भावों का भी संबन्ध घटित होता है । जैसे यह मनुष्य उपशांत क्रोषी है यहां पर मनुष्य को मनुष्यगतिनाम कर्मको उदय है इसलिये औदयिक भाव है। क्रोध का उपशम है, इसलिये औपशमिक भाव है ।
ક્ષાયિક ભાવની સાથે અનુક્રમે ક્ષાાપશમિક અને પાણિામિક ભાવના સચાગ કરવાથી આઠમાં અને નવમાં સાન્તિપાતિક ભાવ રૂપ એ ભંગા બને છે. “ क्ष.यिक क्षायोपशमि” नामना आमां सान्निपाति लगनु दृष्टान्तસાયિક સમ્યગ્દષ્ટિ શ્રુતજ્ઞાની અને ‘શ્રીજીકષાયી ભવ્ય ' ક્ષાયિક પારિણામિક નામના નવમાં સાન્તિપાતિક ભગના દૃષ્ટાન્ત રૂપ છે.
ક્ષાચેાપશમિક ભાવ અને પારિણામિકભાવના સ`ચેાગથી ૧૦ મા સાન્નિપાતિક ભંગ અને છે, “ અવિધિજ્ઞાની જીવ, " मा लगना दृष्टान्त ३५ ४. આ પ્રકારે એ ભાવાના સયાગથી કુલ ૧૦ ભગ બને છે. તેમાં જે નવમા ભંગ (ક્ષાયિક પારિણામિક નામના ભંગ) છે, તે સિદ્ધ થવાને લાગૂ પડે છે, આ ભગ જ ખરી રીતે સરંભવી શકે છે તેથી આ ભંગ જ શુદ્ધ નિર્દોષ ભંગ રૂપ છે. બાકીના જે નવ ભગા છે તેમનું તે અહીં વિક્ષા માત્ર રૂપે જ (પ્રરૂપણા કરવા માટે જ) કથન કરવામાં આવ્યુ` છે, કારણ કે તે ભાવેશમાં અન્ય ભાવેાના સંબંધ પણ શકય હાય છે જેમ કે “ આ મનુષ્ય उपशान्त होधी छे." यहीं मनुष्यमां मनुष्यगति नामम्भ'नो हिय छे, तेथी તિથિક ભાવના સદ્ભાવ છે, અને ક્રોધના ઉપશમ હોવાથી ઔપશમિક ભાવના પણ સદ્ભાવ છે. પરન્તુ સાથે સાથે તે મનુષ્યમાં બીજા' ભાવે। પણ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम्
अथ त्रियोगान्निरूपयितुमाह
मूलम् -तरथ णं जे ते दस तिगसंजोगा ते णं इमे - अस्थि णामे उदइयउवसमियखइयनिप्फण्णे? अस्थि णामे उदइयउव समियखओवस मियनिष्फण्णेर, अस्थि णामे उदय उवसमियपारिणामियनिष्फण्णे३, अत्थि णामे उदइय खइयखओवसमियनिष्फण्णे४, अत्थि णामे उदइयखइयपारिणामियनिप्फण्णे५, अस्थि णामे उदइयखओवस मियपारिणामियनिष्कण्णे६, अस्थि णामे उवसमियखइयखओवसमियनिष्फण्णे७, अत्थि णामे उवसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णेट, अस्थि णामे उवसमिय खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे९, अत्थि णामे खइयख ओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे १० । कयरे से णामे उदइयउवसमियखइयनिष्फण्णे ? उदइय उवस मियखइय निष्फण्णे - उदइएत्ति मस्से उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं । एस णं से णामे उदइयउवसमियखइय निष्फण्णे ॥ १ ॥ कयरे से णामे उदइयउवसमियखओवसमियनिष्कपणे ? उदइयउवस मियखओवसमियनिष्कण्णेउदइपत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खओवसमियाई इंदियाई । एस णं से णामे उदइयउवस मियखओवसमियनिष्फण्णे॥२॥ कयरे से णामे उदय वसमियपारिणामियनिष्फण्णे ? उदइयउवसमियपारिणामियनिप्फणे - उदइएति मणुस्से उवसंता
परन्तु साथ २ उसके और भी भाव मौजूद हैं। क्योंकि समस्त संसारी जीवों में कम से कम तीन भाव तो होते ही हैं । ॥ सू० १५८ ॥
માજૂદ હાય છે, કારણ કે સમસ્ત સંસારી જીવામાં એાછામાં ભેછા ત્રણ ભાવાના તે અવશ્ય સદ્દભાવ હાય છે. પ્રસૂ॰૧૫૮ના
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७५८
अनुयोगद्वारसूत्रे कसाया पारिणामिए जीवे । एस णं से णामे उदइयउवसमियपारि णामियनिष्कण्गे ॥ ३ ॥ कयरे से णामे उदइयखइयखओवसमियनिफ में ? उदइयखइयखओवसमियनिष्कण्णे - उदइएत्ति मणुस्ले खइयं सम्मत्तं खओवसमियाई इंदियाई । एस णं से नामे उदइयखइयखओवसमियनिष्फण्णे ॥ ४ ॥ कयरे से णामे उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे ? उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे - उदइएति मणुस्से खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे । एस णं से णामे उदइएखइयपारिणामियनिष्कण्णे॥५॥ कयरे से नामे उदयखओवसमियपारिणामियनिष्कण्णे ? उदइयखओवसमियपारिणामियनिष्कपणे - उदइएत्ति मणुस्से खओवसमियाई इंदियाई पारिणामिए जीवे । एसणं से नामे उदइयखओवसमियपारिणामियनिष्णे ॥ ६ ॥ कयरे से णामे उवसमियखइयखओवसमियनिष्कपणे ? उत्रसमियखइय खओवसमियनिष्फण्णे-उवसंता कसाया खइयं सम्मतं खओवसमियाई इंदियाई। एसणं से नामे उवसमियखइयखओवस मियनिष्ण्णे॥७॥ कयरे से णामे उवसमियखइय पारिणामियनिष्कण्गे ? उवसमियखइयवारिणामियनिष्फण्णे-उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे । एस णं णामे उवसमियखइयपारिणामियनिष्फले॥८॥ कयरे से णामे उवसमियखओवसमिय पारिणामियनिष्कपणे ? उवसमियखओवस मियपारिणामियनिष्कपणे - उवसंता कसाया खओवसमियाई इंदियाई पारिणामिए जीवे । एस णं सेणा मे उव
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयगनिरूपणम् समियखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे॥९॥कयरेसे णामे खइय खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे? खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्गे-खइयं सम्मतं खओवसमियाइं इंदियाई परिणामिए जीवे। एस णं से णामे खइयखओवसमिय पारिणामियनिष्फण्णे॥१०॥सू०१५९॥
छाया-तत्र खलु ये ते दश त्रिकसंयोगास्ते खलु इमे-अम्ति नाम औदयिकौपशमिक क्षायिकनिष्पन्नम् १, अस्ति नाम औदायिकौपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् २ अस्ति नाम औदयिकौपशमिकारिणामिनिष्पन्नम् ३, अम्ति नाम औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्४, अस्ति नाम भौदयिकक्षायिऋपारिणामिकनिष्पन्नम्५, अस्ति नाम औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ६, अस्ति नाम औपश. मिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्७, अस्ति नाम औपश मकक्षाशिकपारिणामिकनिष्पन्नम्८, अस्ति नाम औपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्९, अस्ति नाम क्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् १०। कतरत् तन्नाम औदयिकौपथमिकतायिकनिष्पन्नम् ? औदयिकौपशमिकक्षायिकनिष्पन्नम्-औदायिकमिति मानुष्यम् उपशान्ताः कषायाः क्षायिकं सम्यक्त्वम् । एतखलु तन्नाम औदयिकौ. पशमिकक्षायिकनिष्पन्नम्॥१॥ कतरत् तन्नाम औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकनिपन्नम् ? औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् -औदक्किमिति मानुष्यं उपशान्ताः कषायाः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि । एतत्वलु त नाम औदायिकॉपशमिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्।।२॥ कतरत् तन्नाम औदयिकोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औदपिकौरशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-औदपिकमिति मानुष्पम् उपशान्ताः कषायाः पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकौपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्॥३॥ कतरत् खलु औदायिकक्षायिकक्षायोपशपिकनिष्पन्नम् ?
औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-औदयिकमिति मानुष्यम् , क्षायिक सम्यक्त्वं क्षायोपशमिझानीन्द्रियाणि । एतत् खलु तन्नाम औदायिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्।।४॥ कतरत् तन्नाम औदयिकक्षायिकपरिणामिकनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-ौदयिकमिति मानुष्यं क्षायिक सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवः। एतत् खलु तन्नाम औदायिकक्षायिकपारिपामिकनिष्रन्नम्॥५॥ कतरत् तन्नाम औदायिकक्षायोपशमिकपारिणामिनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायोपशमिकपारिणारिकनिष्पन्नम्-औदयिकमितिमानुष्यं क्षायोपशमिकानि
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भनुयोगदारसूले इन्द्रियाणि पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्॥६॥ कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ? औपशमिकक्षाषिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-उपशान्ताः कषायाः क्षायिक सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि। एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्।।७॥ कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औपशमिकक्षाधिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-उपशान्ताः कषायाः क्षायिकं सम्यक्त्वं पारिणामिको जीवः एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम्॥८॥ कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-उपशान्ताः कषायाः क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि पारिणामिको जीपः। एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायोपशमिक पारिणामि कनिष्पन्नम्॥९॥ कतरत् तन्नाम क्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? क्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-क्षायिक सम्यकत्वं क्षयोपशमिकानि इन्द्रियाणि पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम क्षाधिक क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् १०० १५९॥
टीका-'तत्थ णं जे ते दस' इत्यादि
त्रिक संयोगेऽपि दश भगा भवन्ति । तत्र आद्य मावद्वयं परिपाटया निक्षिप्य अवशिष्टानां त्रयाणां मध्ये क्रमेण एकैकस्य तत्र संयोगे कृते सति त्रयो भद्रा ___अब सूत्रकार तीन भावों के संयोग से जो सानिपातिक भाव बनते हैं उनका कथन करते हैं-"तस्थणं जेते" इत्यादि।
शब्दार्थ-(तत्थ णं जे ते दस तिग संजोगा ते णं इमे) इन सानिपा. तिक भावों में जो तीन २ भावों के संयोग से १० सानिपातिक भाव के दश भंग यनते हैं-वे इस प्रकार से हैं-(अस्थिणामे उदइयउवसमिय खइयनिष्फण्णे १) औदकि, औपशमिक, क्षायिक, इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिकोपशमिक क्षायिक सानिपातिक भाव एक (अस्थि णामे उदय उपसमियखओवसमियनिष्फण्णे २) दसरा
- બળ ભાવના સાથી જે સાન્નિપાતિક ભાવે બને છે તેમનું સૂત્રકાર 6 नि३५५ रे छे-“ तत्थ णं जे ते" UITE -
शहाथ-(तत्य णं जे ते दसतिगसंजोगा तेणं इमे...) त्रय भावना अयोगथी २ ४ सान्निपाति मा भने छ त नाचे प्रमाणे ठे-(अत्थिणामे उदइयण्वसमिय-खइयनिफण्णे १) (१) मोkिs, मोपशम भने સાયિક, આ ત્રણે ભાવોના સંગથી બનતો “ ઔદયિકીપશમિક ક્ષાયિક सानिपाति: लाप" (अस्थि णामे उदइयवसमियखोपसमियनिष्फण्णे) (२)
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम् औदयिक औपशमिक, एवं क्षायोपशमिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ औदयिकोपशमिक क्षायोपशमिक सानिपातिक भाव (अस्थिणामे उदय उवसमिय पारिणामिय निष्फण्णे) तीसरा-औदयिक,
औपशमिक और पारिणामिक, इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ औदयिक औपशमिक पारिणामिक सानिपातिक भाव (अत्थिणामे उदझ्यखझ्यखभोवसमियनिप्फण्णे) चौथा-औदयिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिक क्षायिक, क्षायोपशमिक सान्निपातिक भाव (अस्थिणामे उदइय खइय पारिणोमिय निष्फण्णे) पांचवां-औदयिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिक क्षायिक पारिणामिक सान्निपातिक भाष (अस्थि णामे उदइय खोवसमियपारिणामियनिप्फण्णे) छठा-औद. यिक क्षायोपशमिक और पोरिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिक सान्निपातिक भाव (अस्थिणामे उवसमियखझ्यखओवसमियनिप्फण्णे) सातवां-औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक नाम का सान्निपातिक भाव ઔદયિક, ઔપથમિક અને ક્ષાપશમિક, આ ત્રણ ભાવના સાગથી બનતે “ઔદયિકૌપથમિક ક્ષાપશમિક સાન્નિપાતિક ભાવ.”
(अत्थिणामे उदइयउवालमियपारिणामियनिष्फण्णे३) (3) मी यि४, भी५३મિક અને પરિણામિક આ ત્રણ ભાના સોગથી બનતે “ઔદયિકોપથમિક પરિણામિક સાતિપાતિક ભાવ.”
(भत्थि णामे उदइयखइयखओक्समियनिदफण्णे) (४) मोहयि४, क्षायि અને ક્ષાપશમિક સાન્નિપાતિક ભાવ.”
(अत्थि णामे उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे) (५) मौयि, क्षायि અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવના સાગથી નિષ્પન્ન થતે “ઔદયિક ક્ષાયિક પરિણામિક સાન્નિપાતિક ભાવ.”
(अत्थि णामे उदइयख ओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) (6) मोहयि, क्षायो. પથમિક અને પરિણાર્મિક ભાવના સાગથી બનતે “ઔદયિક ક્ષાપથમિક પરિણામિક સાન્નિપાતિક ભાવ.”
(अत्थि णामे उपसमियखइयखओवसमियनिष्फणे) (७) मो५मिड, ક્ષાયિક અને ક્ષાપથમિક, આ ત્રણ ભાના સંયોગથી બનતે “ઔપણ. 'મિક ક્ષાયિક ક્ષાપશમિક સાન્નિપાતિક ભાવ.”
अ० ९६
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अनुयोगद्वार (अस्थिणामे उवसमियनइयपारिणामियनिष्फण्णे) आठवां-औपशमिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न
औपशमिक क्षायिक पारिणामिक नाम का सान्निपातिक भाव (अस्थिगामे उवसमियखोवसमियपारिणामियनिफण्णे) नौवां-औपशमिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिक नाम कासान्निपातिक भाव, अत्थिणामे खहयखोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) दसवांक्षायिक, क्षायोपशमिक, और पारिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक नामका सान्निपातिक भाव । (कयरे से णामे उदइयउवसमियखइनिष्फण्णे)
प्रश्न-हे भदन्त ! औदयिकौपशमिक क्षायिक नाम का जो प्रथम त्रिक भाव संयोगी सान्निपातिक भाव है वह कैसा है ?
उत्तर-(उदइय उवसमियखझ्यनिष्फण्णे) औदयिकोपमिक क्षायिकनाम का जो प्रथम त्रिक संयोगी सान्निपातिक भाव है वह ऐसा है. उदाएत्तिमणुस्से उवसंता-कप्ताया खहयं संमत्तं) मनुष्यगति औदयिक भाव में है कषायों का उपशम औपशमिक भाव में हैं और क्षायिक
__ (अत्थि णामे उवसमियखइयारिणामियनिष्फण्णे) (८) भोपशभिड, ક્ષાયિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવોના સંગથી બનતે “ઓપશમિક ક્ષાયિક પારિણામિક નામનો સાન્નિપાતિક ભાવ.”
(अत्थिणामे उवसमिय खओवसमिय पारिणामिय निटकण्णे) (4) भोपामि, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવેના સંયોગથી બનતે “પશમિક શાયોપશમિક પરિણામિક નામને સાન્નિપાતિક ભાવ.”
(अत्थिणामे खइयखओवसमियपारिणामियनिफण्णे) (१०) यि, क्षाया५श. મિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવોના સંયોગથી બનતે “ક્ષાયિક ક્ષાયોપશમિક પરિણામિક નામને સાન્નિપાતિક ભાવ.”
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयउवसमियखइयनिष्फण्णे ?) ३ सन् ! ઔદયિકૌપથમિક ક્ષાયિક નામને જે પહેલે ત્રિકભાવ સગી સાન્નિપાતિક ભાવ છે તે કેવો છે?
उत्तर-(उदइयउवसमियखइयनिष्फण्णे) मौयि: भोपशभिः क्षायि: નામને જે પહેલો વિકભાવસંગી સાન્નિપાતિક ભાવ છે તે આ પ્રકારને
-(उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइयं संमत्त) मनुष्य गति मोहयि ભાવ છે, કષાયને ઉપશમ ઔપથમિક ભાવ છે અને ક્ષાયિક સમ્યકત્વ
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम्
७६३ सम्यक्त्व क्षायिक भाव में है-(एसणं से णामे उदइयउवसमियखहपनिफण्णे) इस प्रकार यह औदयिक औपशमिक क्षायिक निष्पन्न नाम सान्निपातिक भाव है। ( कयरे से जामे उदइयउवसमियखओव. समियनिष्फण्णे) हे भदन्त ! औदयिक क्षायोपशमिक सान्निपातिक भाव कैसा है ?
उत्तर-(उदइय उवसमियख ओवसमियनिप्फण्णे) औदयिक औप. शमिक क्षायोपशमिक नामको सान्निपातिकभाव ऐसा है (उदइए त्तिमणुस्से उवसंता कसाया ख मोवसमियाइं इंदियाई) मनुष्यगति औदयिक, उपशांतकषायें औपशमिक, और इन्द्रियाँ क्षायोपशमिक (एसणं से णामे उदइय उवसमियखओवसमियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिकौपशमिक क्षायोपमिक सान्निपतिक भाव है। (कयरे से णामे उदहपउवसमियपारिणामियनिष्फण्णे ?) हे भदन्त ! औदयिकोपशमिक पारिणामिक नाम का तीसरा सान्निपातिक भाव कैसा है ? (उदइय उवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) ___ उत्तर-औदयिकौपशमिक पारिणामिक नामका जो तीसरा सोन्नि. पातिक भाव है वह ऐसा है-(उदइयएत्ति मणुस्से उपसंता कसाया पारि. सायि माप छ. (एसणं से णामे उदइयउपसमियखइयनिष्फण्णे) मा प्रारना આ ઔદયિકૌપશમિક ક્ષાયિક નિષ્પન્ન નામને સાન્નિપાતિક ભાવ છે.
प्रश्न-कयरे से णामे उदइयउवसमियखओवसमियनिष्फण्णे ? उसन! ઔદયિકૌપશમિક સાન્નિપાતિક ભાવ કે છે?
उत्तर-(उदइयउवममियख ओवसमियनिष्कण्णे) मोहयो ५मि४-माया५शमिड नामन। सान्निपाति: साप ॥ ५॥२॥ छ- (उदएत्ति मणुस्से, उवसंताकमाया, खओवसमियाइं इंदियाइं) मनुष्य गति मोहयि भाव छ, शान्त पाया औ५शमि मा छ भने न्द्रिय क्षाया५शभि माप छ. (एसणं से णामे उदइय उवम्रमियख प्रोवनमियनिष्फण्णे) मा ४२ मा सोयिसमा ક્ષાપશમિક સાન્નિપાતિક ભાવ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उदय वसमियपारिणामियनिष्फण्णे १ उमापन। ઔદયિકૌપશમિક પરિણામિક નામને ત્રીજે સાન્નિપાતિક ભાવ કે છે?
उत्तर-(उदइय उवसमियपारिणामियनिष्फण्णे १) मौयिटीपथभिः पारिता भिड नाभना त्रीले सान्निपातिमाप मा प्रा२नो छे-(उदायएचि मगुस्से, उपसंता कसाया, पारिणामिए जोवे) मनुष्य गति मो.यि मा
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अनुयोगद्वारसूत्र णामिए जीवे) मनुष्यगति औदयिक भाव है कषायों की उपशांति औपशमिक भाव है और जीव पारिणामिक भाव है । (एसणं से णामे उदइयउवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिकोपशमिकपारिणामिक नाम का सान्निपातिक भाव है। (कयरे से णामेउदहयखायखओवसमियनिष्फण्णे ? ) हे भदन्त | औयिक क्षायिक
और क्षायोपशमिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ औदयिक क्षायिकक्षायोपशमिक नाम का सान्निपातिक भाव कैसा है ? ____उत्सर-(उदइयखइयखओवसमियनिफण्णे) औदयिक क्षायिक क्षायोपशमिक नाम का सान्निपातिक भाव ऐसा है
(उदएत्ति मणुस्से खइयं सम्मत्तं खओवसमियाइं इंदियाई) मनुष्य गति औदयिक भाव में है । क्षायिक सम्यक्त्व यह क्षायिकभाव में है, और इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव में हैं । (एसणं से णामे उदइयखाय खोयसमियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिकक्षायिकक्षायोपश. मिक नामका सान्निपातिक भाव है। (कयरे से णामे उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे?) हे भदन्त ! औदयिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ? (उदइयखहयपारिणामियनिष्फन्ने) કષાયની ઉપશાન્તિ ઔપશમિક ભાવ છે અને જીવ પરિણામિક ભાવ છે. (एसणं से णामे उदइयउत्समियपारिणामियनिष्फण्णे) ॥ प्रानुं मोहयिही५२મિક પરિણામિક નામના સાન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयखइयखओवसमियनिष्फण्णे) सपन। ઔદયિક ક્ષાયિક અને ક્ષાપશમિક આ ત્રણે ભાવના સંગથી બનતા ઔદયિક ક્ષાયિક ક્ષાપશમિક નામના ચોથા સાન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उदइयखइयखओवसमियनिष्फण्णे) मोह४ि क्षायि: क्षाया५शभि नामना यथा सान्निति सार्नु २१३५ २॥ २नु छ-(उदइए चि मणुस्से, खइयं सम्मत्तं, खओवस मियाइं इंदियाई) मनुष्य गति मोह४ि मा રૂપ છે, ક્ષાયિક સમ્યકત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને ઇન્દ્રિય ક્ષાપથમિક मा ३५ छे. (एसणं से णामे उदइयम्वइयख ओवसमियनिष्फण्णे) मा प्रानु ઔદયિક ક્ષાયિક ક્ષાપશમિક નામના સાન્નિપાતિક ભેદનું સ્વરૂપ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे १) ले सान् । દયિક, ક્ષાયિક અને પરિણામિક ભાવના સાગથી બનતા પાંચમાં ક્ષત્રિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम्
७६५ • ऊत्तर-औदयिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुमा सान्निपातिक नामका भाव इस प्रकार से है(उदइएत्ति मणुस्से खयं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे) मनुष्य गति यह
औदयिक भाव है, क्षायिक सम्यक्त्व यह क्षायिक भाव है और जीव यह पारिणामिक भाव है । (एसणं से णामे उदयखहयपारिणामियनिप्फण्णे) इसप्रकार यह औदयिक क्षायिक पारिणामिक नामका सान्निपातिक भाव है । (कयरे से णामे उदइय खओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे ?) हे भदन्त ! औदयिक क्षयोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ?
उत्तर-(उदइय खोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) औदयिक क्षायो पशमिक और पारिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भोव ऐसा है-(उदइएत्तिमणुस्से खोवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे) मनुष्यगति यह औदयिक भाव है। इन्द्रियां ये क्षायोपशमिक भाव हैं और जीव यह पारिणामिक भाव है। (एसणं से णामे उदयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार से यह औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिक नाम का सान्निपातिक भाव है।
उत्तर-(उदइयखइयपारिणामियनिष्फण्णे) भौयि क्षायि भने पार. શામિક, આ ત્રણ ભાના સયોગથી બનતે પાંચમો સાન્નિપાતિક ભાવ આ मारनेछ-(उदइए ति मणुस्से, खइयं सम्मत्तं, पारिणामिए जीवे) मनुष्य गति ઔદયિક ભાવ રૂ૫ છે, ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને જીવ पारिवामि मा ३५ छे. (एवगं से णामे खइयपारिणामियनिष्फण्णे) मा પ્રકારનું ઔદયિક ક્ષાયિક પરિણામિક નામના સાઘિપાતિક ભાવનું કવરૂપ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयख ओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे ?) 3 ભગવન્! ઔદયિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણે ભાવના સગથી બનતા છક્કા સાન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उदइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) मौयि, क्षायो५०. મિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવના સાગથી બનતા બદા સાન્નિપાતિક सावनु २१३५ मा प्रा२नु -(उदइए मणुस्से खोवसमिाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) मनुष्याति मोयि मा१३५ छ, धन्द्रिय क्षायो५मि भाप ३५ छ भने ७१ पारिवामि मा ३५ छ. (एसणं से णामे उपायखओव. समियपारिणामियनिष्फण्णे) रन मोहथि: क्षायापशभिः पारिवामि નામને સાન્નિપાતિક ભાવ છે.
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अनुयोगद्वार
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(करे से णामे उवसमियखइखओवस मियनिष्फण्जे १) हे भवन्त औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ?
उत्तर- ( उवसमिपखझ्यखओवस मियनिष्कण्णे ) औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक इन तीन भावों से निष्पन्न हुआ-सान्वि पातिकभाव इसप्रकार से है - ( उवसंता कसाया खइयं सम्मन्तं खओब समियाई इंदियाई) उपशमित हुई कषायें औपशमिक भाव है, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक भावरूप है और इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव है। (एस से णामे उवसमियखइयख ओवसमियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औपश मिक क्षायिक क्षायोपशमिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव है, ( कयरे से णामे उवसमिय खइयपारिणामित्र freeoणे) हे भदन्त ! औपशमिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ?
उत्तर- (उन समिघखइयपारिणामियनिष्कण्णे) औपशमिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्नि: पातिक भाव इसप्रकार से है । ( उवसंता कसाया, खयं सम्मत पारि
प्रश्न- ( कयरे से णामे उस मियखइयख ओस मियनिष्कण्णे १) हे भगवन् ! ઔપશમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાયેાપશમિક, આ ત્રણેના સચાગથી બનતા સાતમાં સાન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ કેવું છે?
Gत्तर- (उवमिय खइयखओवसमियनिष्कण्णे) भोपशमि, क्षायिक भने ક્ષાયેાપશમિક, આ ત્રણ ભાવેાના સચૈાગથી બનતા સાતમાં સાન્નિપાતિક भावनुं स्व३५ मा अडानु छे - ( उवसंता कसाया, खइथं सम्मत्तं, खओवस मियाई इंदिया इं) उपशमित थयेला उषायो औोपशमि लाव ३५ छे, क्षायिक સમ્યક્ત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને ઇન્દ્રિયા ક્ષચાપશમિક ભાવ રૂપ છે. (एस से णामे व मियखइ यख ओवस्वमियनिष्फण्णे?) या अमरनो भोषथः મિક ક્ષાયિક ક્ષાયેાપથમિક નામના સાન્નિપાતિક ભાવ હોય છે.
प्रश्न- (कयरे से णामे उबवमिय स्वइयपारिणामियनिष्कण्णे?) हे भगवन् ! ઔપશમિક, જ્ઞાયિક અને પારિણામિક, આ ત્રણ ભાવાના સમૈગથી બનતા ખ!ઠમાં સાન્નિપાતિક ભાવનુ સ્વરૂપ કેવુ` છે ?
उत्त२-(उवसमियखइयपारिणामियनिष्कण्णे ) औोपशमिठ, क्षायिष्ठ समुने પારિણામિક, આ ત્રણ ભાવાના સંચેગથી બનતા સાન્નિપાતિક ભાવ भारना है - (उबसंता कसाया, खइयं सम्मतं, पारिणामिए जीवे) उपसमित
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम् गमिए जीवे) उपशमित हुई कषायें औपशमिक भाव हैं क्षायिक सम्य. स्व क्षायिकभाव है और जीव पारिणामिकभाव है । (एसणं से णामे उवसमियखझ्यारिणामियनिप्फण्णे) इसप्रकार यह औपशमिकक्षायिक
और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हआ सन्निपातिकभाव है । (कयरे से णामे उवसमियख भोवसमिय पारिणामिय निप्फण्णे ? ) हे भदन्त ! औपशमिक क्षायोपशमिक और पोरिणामिक इनतीनों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिकभावकैसा है ?
उत्तर-(उवसमिय खओवसमियशरिणामियनिष्फण्णे) औपश. मिक, क्षायोपशमिक, और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सानिपातिक भाव इस प्रकार से है (उवमंना कमायाखओवसमियाइं इंदियाइं पारिणामिए जीवे) उपशमित कषाय औपशमिक भाव है,इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव हैं और जीव यह पारिणामिक भाव है। (एसणं से णामे उवसमियवओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औपशमिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव है। (कयरे से णामे खाय खोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) हे भदन्त ! क्षायिक क्षायोपशमिक થયેલા કષાયે ઔપશમિક ભાવ રૂપ છે, ક્ષાયિક સ ફ ક્ષયિક ભાવ રૂપ छ भने ७१ परिणामि मा ३५ छे. (एसणं से णमे उचसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे) मा रन मापशभि क्षायिर पारिवामिनामना સાઘિપતિક ભાવ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उवसमियखोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) હે ભગવન ! ઔપશમિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણ મિક, આ ત્રણ ભાવના સંગથી નિષ્પન્ન થતે નવમો સવિપતિક ભાવ કેવો છે ?
उत्तर-(उत्रसमिय खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) भोपशभिर, क्षायो५मि અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવેના સંગથી બનતે નવમો સાન્નિપાતિક ભાવ मा प्रहार छ-(उवसंता कसाया, खओवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) ઉપશમિત કષાયે ઔપશમિક ભાવ રૂ૫ છે, ઈન્દ્રિયો ક્ષાપશમિક ભાવ રૂપ छ भने ७१ पारिवामि मा ३५ छे. (एसणं से णामे उवसमियखओवन मियपारिणामियनिष्फण्णे) मा २ने। मोपभि क्षा५शमि भने पारिक्षा. મિક નામને સાન્નિપાતિક ભાવ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे १) है ભગવદ્ ! ક્ષાયિક, ક્ષાયોપથમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવના સંગથી બનતે દસમ સાન્નિપાતિક ભાવ કે છે?
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अनुयोगदारपणे और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव कैसा है ?
उत्तर-(खइयखोवसमिय पारिणामियनिष्फण्णे)क्षायिक क्षायो. पशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ सान्निपातिक भाव ऐसा है-(खइयं सम्मत्तं खोवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे) क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक भाव है, इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव हैं तथा जीव यह पारिणामिक भाव है । (एस णं से णामे खड्यखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों के संयोग से निष्पन हुआ क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक नामका सान्निपातिक भाव है
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा तीन भावों के संयोग से जो १० सान्निपातिक रूप भंग होते हैं उनका प्रदर्शन किया है। इनमें औदयिक और औपशमिक इन दो भावों को परिपाटी से निक्षिप्त कर के अवशिष्ट क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीनों भावों में से एक एक भाव का उनके साथ संयोग किया है । इस प्रकार करने से तीन भंग निष्पन्न होते हैं, इनमें औदयिकौपशमिक क्षायिक सान्निपातिक भाव इस प्रकार से घटित करना चाहिये कि यह मनुष्य उपशांत क्रोधादि कषायवाला होकर क्षायिक सम्यक दृष्टि है। मनुष्य से यहां
उत्तर-(खइय खओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) क्षायि, क्षयोपशभि અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવોના સંયોગથી બનતે દસમો સાન્નિપાતિક मा मा प्रारना -(खइयं सम्मत्तं, खोवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) क्षायि: सभ्यत्व क्षा४ि मा ३५ छ, घन्द्रियो सायोपशम साप ३५ छ भने १ पारियामि मा ३५ छे. (एसण से णामे खइय खओवमः मियपरिणामियनिष्फण्णे) मा प्रा२नुमाथि, आये।५शभि भने रियामिर, આ ત્રણ ભાના સંગથી બનતા દસમાં સન્નિપાતિક ભવનું સવરૂપ છે.
ભાવાર્થ-ત્રણ ભાવેના સંગથી જે દસ સાન્નિપાતિક ભાવ રૂ૫ ૧૦ ભંગ બને છે, તેમનું સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં નિરૂપણ કર્યું છે ઔદયિક અને
પશમિક ભાવોની સાથે અનુક્રમે ક્ષાયિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક ભાને સંગ કરવાથી પહેલા ત્રણ ભંગ બન્યા છે.
(१) "मोहयिठी पथभि सानिति ला" ३५ परसा मनु ઉદાહરણ આ પ્રમાણે છે-“આ મનુષ્ય ઉપશાન્ત ક્રોધાદિ કષાયવાળે છે અને ક્ષયિક સમ્યફદષ્ટિ છે. ” મનુષ્ય પદ અહીં મનુષ્યગતિનું વાચક છે. મનુષ્ય ગતિ ઔદયિક ભાવ રૂપ હોય છે, કારણ કે મનુષ્ય ગતિ નામકર્મના ઉદયથી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम् भवन्ति । तत आधं तृतीयं च परिपाट्या निक्षिप्य अवशिष्टयोद्धयोस्तत्र क्रमेण संयोगे माद्वयम् । ततः प्रथमचतुर्थपञ्चमभावानां संयोगे एको भाः । इत्यं पर मनाः। ततो द्वितीयं च भावपरिपाटया निक्षिप्य तत्र चतुर्थपञ्चमयोः क्रमेण योगे मजदयम् । ततो द्वितीयचतुर्थपश्चमभावानां च योगे एको भन्नः। तथा-तृतीयचतुः मनुष्यगति ली गई है। मनुष्यगति यह औदयिक भाव है। क्यों कि मनुष्यगति नामकर्म के उदय से मनुष्य होता है। उपशांत क्रोधादि कषायवाला कहने से औपशमिक भाव घटित होता है और क्षायिक सम्यमत्व से क्षायिक भाव । इसी प्रकार से शेष दो भंगों में-औदयिकौपशमिक क्षायोपशमिक साभिपातिक भाव में यह मनुष्य उपशान्त कषायवाला पंचेन्द्रिय है यथा औदायिकौपशमिक पारिणामिक सान्निपातिक भंग में यह मनुष्य उपशांत कषायवाला जीव है-घटित करलेना चाहिये। जहां पर औपशमिक भाव का परित्याग कर औदायिक और क्षायिक भाव का ग्रहण हो तथाक्षायोपशमिक एवं पारिणामिक भावों मे से एकर को ग्रहण हो वह दूसरा त्रिभाव संयोगी सानिपातिक भाव का भेद है-इसके दो भंग है-एक औदयिक क्षायिकक्षायोपशमिक और दूसरा औदयिक क्षायिक पारिणामिक, पहिलेका दृष्टान्त-क्षीण कषायी मनुष्य મનુષ્ય ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે. ઉપથાન્ત કોધાદિ કષાયવાળો કહેવાથી ઔપથમિક ભાવ ઘટિત થાય છે અને ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ યુક્ત કહેવાથી ક્ષાયિક ભાવ ઘટિત થાય છે એ જ પ્રમાણે બીજા અને ત્રીજા ભંગને ભાવાર્થ પણ સમજી શકાય એવે છે.
(२) "मौयिौपशभिक्षायोपशभि: सानिपाति: " ३५ ભંગનું ઉદાહરણ આ પ્રમાણે છે
“આ મનુષ્ય ઉપશાન્ત કષાયવાળો પંચેન્દ્રિય જીવ છે.” (૩) ઔદયિૌપથમિક પરિણામિક સાવિપાતિક ભંગનું ઉદાહરણ " मनुष्य अपशान्त पायवाणी १ छ."
ત્યાર પછીને ચેથા અને પાંચમો ભંગ આ પ્રમાણે બને છે–અહી ઔદયિકભાવની સાથે પરામિક ભાવ લેવાને બદલે ક્ષાયિક ભાવ લે અને ઔદયિક અને ક્ષાયિક ભાવની સાથે અનુક્રમે શ્રાપથમિક અને પરિણામિક ભાને સોગ કરવાથી ચેાથે અને પાંચમ ભંગ બને છે.
() ઔદયિક ક્ષાયિકક્ષાપશમિક સાવિપાતિક ભાવનું ઉદાહરણ "क्षीय पाथी मनुष्य श्रुतज्ञानि."
म. ९७
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अनुयोपहारस्ले पवमभावानां च योगे एको भङ्गः । इत्थं सर्वे भङ्गा दश संख्पका भवन्ति । एतेषामेव स्वरूपविवरणाय प्राह-'कयरे से णामे' इत्यादि । एषा व्याख्या पूर्ववद बोध्या। जन पञ्चमो भङ्गः केवलिना संभवति। केवलिनां हि-औदयिकी अतज्ञानी और दूसरे का दृष्टान्त जिसका दर्शन मोहनीयादि कर्म क्षीण हो गया है ऐसा वह मनुष्य जीव है । जहाँपर केवल औदयिक भावका ग्रहण है और औपशमिक एवं क्षायिक का परित्याग है वह तीसरा त्रिभाष संयोगी सान्निपातिकभाव है । उसका औदयिक क्षायोपशमिक पारिणामिक एक-ऐसा छठा भंग है। इसका दृष्टान्त-जिस प्रकार मनुष्य मनोयोगी जीव है । जहां पर औदायिक भाव को छोड़कर शेष औपशमिकादि चार भावों में एक २ का परित्याग किया जावे वह चौया त्रिभाव संपोगी भेद है और उसके इस प्रकार से चार भंग माने गये है-पहला भंग-औपशमित क्षायिक क्षायोपशमिक सान्निपातिक नाम का दूसरा भंग औपशमिक क्षायिकपरिणामिक सान्निपातिक नामको तीसरा भंग-औपशमिक क्षायोपशमिक पारिणामिक सान्निपातिक नाम का। चौथा-क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक सान्निपातिक नाम को इस प्रकार ये सब भंग १० हो जाते हैं। इनमें जो औदयिक क्षायिक एवं पारिणोमिक भावों के संयोग से निष्पन्न ५वा सानिपातिक भावका
(૫) ઔદયિક ક્ષાયિક પરિણામિક સાત્તિપાતિક ભાવનું દાન્ત-“જેના દશન મેહનીય આદિ કર્મ ક્ષીણ થઈ ગયાં છે એ મનુષ્ય જીવ.”
જે સાત્રિપાતિકભાવમાં દયિક ભાવની સાથે પરામિક અને ક્ષાયિક, આ બે ભાવને લેવાને બદલે બાકીના બે ભાગ લેવામાં આવે છે એવો છઠો ભંગ નીચે પ્રમાણે છે-“ઔદયિક ક્ષાયો શમિક પરિણામિક સાન્નિપાતિક ભાવ તેનું દૃષ્ટાન્ત નીચે પ્રમાણે છે-“મનુષ્ય મનાયેગી જીવ છે.”
બાકીના. ચાર ભંગ આ પ્રકારે બન્યા છે-આ ચારે ભંગમાં બૌદયિકભાવ સિવાયના ચાર ભામાંના ત્રણ ત્રણ ભાના સંયોગથી ચાર ભંગ બન્યા છે,
- પશમિક અને ક્ષાયિક, આ બે ભાવો સાથે લાપશમિક ભાવના સંયોગથી સાતમે ભંગ અને પરિણામિકભાવના સંયોગથી આઠમે ભંગ બન્યો છે. " નવમાં ભંગમાં ઔપશમિક શાયોપથમિક અને પારિવામિક ભાવોના સંયોગથી જે સાન્નિપાતિક ભાવ બને છે તે ગ્રહણ કરો અને દસમાં ભંગમાં ક્ષણિક લાયોપથમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાવોના સંયોગથી બનતે સન્નિપાતિક ભાવ ગ્રહણ થયો છે. આ પ્રકારે કુલ ૧૦ ભંગ બને છે. ... ઔદવિ ક્ષાયિક અને પરિણામિક ભાવના સંયોગથી નિષ્પન્ન પાંચમા સાન્નિપાતિક ભાવને તે માત્ર કેવલીઓમાં જે સાવ હોય છે, કારણ કે
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अनुयोगन्द्रिका टीका सूत्र १५९ त्रिकसंयोगनिरूपणम् मनुष्यगतिः क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि पारिणामिकं जीवत्वमिति "यों मावा भवन्ति । औपशमिकस्तु तेषु नास्ति, औपशमिकस्य मोहनीयाश्रयत्वाद, केवलिषु मोहनीयस्यासंभवात् । क्षायोपशमिको भावोऽप्येषां नास्ति, क्षायोपैश. मिकानि इन्द्रियादिपदार्थत्वेनाभिमताः, इन्द्रियादिपदार्थास्तु केवलिषु न सन्ति, वेषामतीन्द्रियत्वात् । उक्तंचापि-'अतीन्द्रियाः केवलिनः' इति । इत्यं च ौदयिकसायिकपारिणामिकेति भावत्रयनिष्पन्नः पश्चमो भगः केवलिनां संभवति । सो मस्तु नारकादिषु चतसृषु गतिषु बोध्यः । तथाहि-नारकाधन्यतमा गतिः औदभंग है वह केवलियों के संभवता है क्योंकि केवलियों के औदायिकमनुष्यगति है ज्ञानदर्शन और चारित्र ये क्षायिकरूप हैं । और पारिणा. मिक रूप जीवत्व है। वहां ये तीन भाव हैं। औपशमिक भाव उनमें नहीं है, क्योंकि औपशमिक मोहनीय के आश्रय से होता है। और मोह. नीय केवलियों में है नहीं । क्षायोपशमिक भाव भी केवलियों में नहीं होता है। क्योंकि क्षायोपशमिकभाव इन्द्रिय आदि पदार्थरूप माने गये हैं। इन्द्रियादिरूप पदार्थ केवलियों में नहीं है । क्यों कि वे इन्द्रियातीत हैं। "अतीन्द्रिया केवलिनः" ऐसा अन्यत्र कहा है । तात्पर्य इसका यह है कि केवलियों का ज्ञान इन्द्रियातीत-अतीन्द्रिय-है। इस प्रकार औद. यिक क्षायिक और पारिणामिक इन तीन भावों से निष्पन्न पंचम भंग केवलियों में संभवता है । तथा जो छठा औदयिक क्षायोपशमिक एवं કેવલીઓમાં મનુષ્ય ગતિ રૂપ ઔદયિક ભાવને, જ્ઞાનદશન રૂપ ક્ષાવિક ભાવને અને છેવત્વ રૂપ પરિણામિક ભાવને સદૂભાવ રહે છેઆ રીતે કેવલીઓમાં આ ત્રણ ભાવને જ સદ્ભાવ રહે છે. તેમનામાં પશર્મિક - ભાવને સદ્ભાવ હતો નથી કારણ કે ઔપશમિક ભાવ મોહનીય કર્મના ઉપશમ પર આધાર રાખે છે. કેવલીઓમાં મેહનીય કમને સદૂભાવે જ. હોતે નથી કેવલીઓમાં ક્ષાપશમિક ભાવનો પણ સદુભાવ તે નથી કારણ કે ક્ષાયોપથમિક ભાવ ઈન્દ્રિયાદિ પદાર્થ રૂપ મનાય છે છે ઈન્દ્રિયાદિ રૂપ પદાર્થ કેવલીઓમાં રહેતા નથી, કારણ કે तेन्द्रियातीत डाय छे. "अतीन्द्रिया केलिनः" मे सिद्धान्तयन . આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કેવલીઓનું જ્ઞાન ઇન્દ્રિયાતીત (અતીન્દ્રિય) હોય છે આ પ્રકારે ઔદથિક, ક્ષાયિક અને પરિણામિક, આ ત્રણે ભાન સંયોગથી નિષ્પન્ન થતે પાંચમે ભંગ માત્ર કેવલીઓમાં જ સંભવી શકે છે.
ઔદયિક, લાયોપથમિક અને પરિણમિક, આ ત્રણ ભાવોના સંયોગ્રંથી નિષ્પન્ન થતા સાન્નિપાતિક ભાવ રૂ૫ છો ભંગ નારકાદિ ચારે ગતિમાં
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मनुयोगदार यिकी, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वम्, इति औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकेति भावत्रयनिष्पन्नः षष्ठो भक्तो नारकादिगतिचतुष्टये संभवति । अत इतरेत्वष्टौ भङ्गाः प्ररूपणामात्रम्, तेषां वाऽप्यसंभवात् ॥सू.१५९॥
अथ चतुष्कसंयोगान्निरूपयितुमाह
मूलम्-तत्थ णं जे ते पंच चउक्कसंजोगा ते णं इमे-अस्थि णामे उदइय-उवसमिय-बइय-खओवसमियनिष्फण्णे? अस्थि णामे उदइय-उवसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे२, अस्थि णामे उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे३, अस्थि णामे उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे४, अस्थि णामे उवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे५। 'कयरे से णामे उदइयउवसमियखइयखओवसमियनिप्फण्णे ?, उदइयउवसमियखइयखओवसमियनिप्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से, पारिणामिक इन भावों से-निष्पन्न भंग है वह नारकादि चारों गतियों में होता है क्यों कि ये नारकादि गतियां औदयिकी मानी गई है और वहां जो इन्द्रियां हैं वे क्षायोपशमिक भावरूप है और जीवत्व वहां पारिणामिक भाव रूप है। इस प्रकार औदयिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों से निष्पम यह छठा भंग नारक आदि चारों गतियों में संभवता है। तथा इनसे अतिरिक्त और जो आठ भंग हैं वे केवल प्ररूपणा मात्र हैं। क्यों कि इन भंगों की कहीं पर भी संभावना नहीं है !॥सू०१५९।। સંભવી શકે છે, કારણ કે નારકાદિ ગતિએને ઔદયિક માનવામાં આવે છે. આ ગતિના જીવમાં જે ઇન્દ્રિયો હોય છે તે ક્ષાયોપથમિક ભાવ રૂ૫ ગણાય છે. અને છેવત્વ પરિણામિક ભાવ રૂપ ગણાય છે. આ રીતે ઔદથિક, સાયોપથમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાના સંયોગથી નિષ્પન્ન થતા છો ભંગ નારકાદિ ચાર ગતિઓમાં સંભવી શકે છે.
પાંચમાં અને છઠ્ઠા ભંગ સિવાયના આઠ અંગોની કેઈ પણ જગ્યાએ શકયતા હતી નથી તેથી માત્ર પ્રરૂપણ કરવા નિમિત્તે જ તે અંગેનું કથન અહીં કરવામાં આવ્યું છે, એમ સમજાસૂ૦૧૫લા
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मनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १६० चतुष्कसंयोगनिरूपणम् उवसंता कसाया, खइअं सम्मत्तं, खओवसमियाइं इंदियाइं। एस णं से णामे उदइयउवसमियखइयखओवसमियनिष्फण्णे ?, कयरे से गामे उदइयउपसमियखइयपरिणामियनिष्फण्णे?, उदइयउवसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं, पारिणामिए जीवे। एस गं से णामे उदइयउवसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे२। 'कयरे से णामे उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णेउदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिष्फन्ने उदइएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खओवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे । एस णं से णामे उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे३। कयरे से णामे उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फपणे? उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से, खइयं सम्मत्तं, खओवसमियाइं इंदियाइं, पारिणामिए जीवे। एस णं से नामे उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फपणे४। कयरे से नामे उवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फपणे?, उवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्गे-उवसंता कलाया, खइयं सम्मत्तं, खओवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे । एस णं से नामे उवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे५॥सू०१६०॥
छाया-तत्र खलु ये ते पञ्च चतुष्कसंयोगाः, ते खलु इमे-अस्ति नाम बौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ? अस्ति नाम औदपिकापशमिकक्षायिकपारिणामिकनिष्पन्नम् २, अस्ति नाम औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकपारिणा.
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अनुयोगद्वारसूत्रे मिकनिष्पन्नम्३. अस्ति नाम औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पनम्४, अस्ति नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणारिणामिकनिष्पन्नम्५, कतरद ___ अब सूत्रकार-चार भावों के संयोग से निष्पन्न सान्निपातिक भागों की प्ररूपगा करते हैं-" तस्य णं जे ते पंच" इत्यादि।
शब्दार्थ-(तस्थ णं जेते पंच च उक्कसंजोगा ते ण इमे) यहां जो चतुष्क संयोगी पांच भंग हैं वे इस प्रकार से हैं-(अस्थि णामे पदाय, उवसमिय-खाय-खोवसमियनिष्फण्णे१) औदयिक, औपशमिक क्षायिक और क्षायोगशमिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न पहिला भंग है। (अस्थि णामे उदहय-उवसमिय-खाय-पारिणामियनिष्फण्णे२)
औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक इन चार भायो के संयोग से निष्पन्न दूसरा भंग है । (अस्थिणामे उदइय उवसमिय, खओवसमिय-पारिणामिय निप्फण्णे ३) औदयिक, औपशमिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चारभावों के संयोग से निष्पन्न तीसरा भंग है। ( अस्थि णामे उदयवहयख ओवसमिय पारिणामियनिष्फण्णे ४)
औदयिक क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न चौथा भंग है (अस्थि णामे उवसमियखइयखभोव
ચાર ભાવના સંગથી નિપન્ન થતા સાન્નિપાતિક ભાવેનું સૂત્રકાર वे नि३५५ ४२ है-“तत्थणं जे ते पंच" त्याहि
शहाथ-(तत्थण जे ते पंच च उक्कसंजोगा ते णं इमे) या नावाना सयोगयी બનતા ચતુષ્કસંગી પાંચ ભંગ બને છે, તે ચતુષ્કસંયોગી પાંચ અંગે नीय प्रभार छ-(अस्थिणामे उदइय- उवस मिय-खाय - खओवसमि पनिफण्णे) પહેલે ભંગ-ઔદયિક, ઔપશમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાયે પશમિક, આ ચાર भावना सोयी मन सालिपाति १ (अत्थिणामे उदइय, उपसमिय, खइय, पारिणामिय, निफण्णे) भी A-मोयि, मो५भि, क्षायि भने પરિણામિક, આ ચાર ભાવેના સંયોગથી બનતે સાન્નિપાતિક ભાવ
(अत्थिणामे उदय - उवसमिय-खओवसमिय-पारिणामियनिष्फण्णे) तीन ભંગ-દયિક, ઔપશમિક, ક્ષયો પથમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાના સંગથી બનતે સાવિ પાતિક ભાવ.
यो। -(अस्थिणामे उदय-खड्य-ख भोवसमिय-पारिणामियनिष्फण्णे) દયિક, ક્ષાવિક, લાપશમિક અને પારિણબિક, આ ચાર ભાના સંયેગથી નિષ્પન્ન થતા સાન્નિપાતિક ભાવ.
पायी A1- (अस्थिणामे उवमभिय-खाय खोवसमिय-पारिणामिय
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योगन्द्रिका टीका सूत्र १५४ चतुष्कसंयोगनिरूपणम् तन्नाम औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ? औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम्-ौदयिकमिति मानुष्यम्, उपशान्ताः कषायाः क्षायिकं सम्यक्त्वं, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि । एतत् खलु तमाम औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् ? । कतरत् तन्नाम औदयिकोपशमिक क्षायिकसमिय-पारिणामियनिष्फण्णे ?) औपशमिक क्षायिक, क्षायोपशमिक
और पारिणामिक इन चार भावो के संयोग से निष्पन्न ५वां भंग है। (कयरे से नामे उदइय उवसमियखइयख भोवसमियनिप्फण्णे) हे भदन्त !
औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक इन चार भंगो के संयोग से जो सानिपातिक भाव रूप भंग निष्पन्न होता है वह कैसा है ?
उत्तर-(उदय उवसमियखायखोवसमिनिफण्णे ) औदयिक औपमिक-क्षायिक और क्षायोपशमिक इन चार भावों के संयोग से जो सानिपातिक भाव निष्पन्न होता है वह ऐसा है-(उदइएत्ति मणुस्से अवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खोवसमियाई इंदियाइं) यहां मनुष्य गति यह औदयिक भावरूप है, उपशांत कषाय ये औपशमिक भावरूप है, क्षाधिक सम्यक्त्व यह क्षायिक भावरूप है, इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव रूप हैं । (एस ण से णामे उदइयउवसमिय, खहयखओवसमिय. निप्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिकौपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक नाम का इन भावों से निष्पन्न सान्निपातिक भाव का प्रथम भंग है। निष्फण्णे) सौपशभिड, क्षायि, क्षायोपशभिमने पारिवामि, मा यार ભાના સંયોગથી બનતે સાન્નિપાતિક ભાવ,
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयउपसमियखइयखओवसमियनिष्फण्णे?) 3 ભગવન! ઔદયિક, ઔપશમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાયોપથમિક, આ ચાર ભાવના સંયોગથી બનતા સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ પહેલા ભંગનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उदइय उवममियखइयत्रओवसमियनिष्फण्णे) मौयि, मौ५શમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાયોપથમિક, આ ચાર ભાવોના સંયોગથી જે સાત્તિ. पातिकमा ३५ बने छ । प्रारो छे-(उदइएत्ति मणुस्से, उपसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं, खओवसमियाइं इंदियाई) मा सानितिमामा मनुष्य ગતિ ઔદયિક ભાવ રૂ૫ છે, ઉપશાન્ત કષાય ઔપથમિક ભાવ રૂપ છે, ક્ષાયિક સમ્યકૂવ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને ઇન્દ્રિયો ક્ષાયોપથમિક ભાવરૂપ છે. (एस ण से णामे उदय असमियखइयन ओवसमियनिप्फण्णे) मानो તે ઓયિક, ઔપશમિક, ક્ષાયિક અને ક્ષાયોપથમિક, આ ચાર ભાવના સંયોગથી બનતે સાન્નિપાતિક ભાવ છે,
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मनुयोगद्वार
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पारिणामिक निष्पन्नम् ? औदथिकोपशमिकक्षायिकपारिणामिक निष्पन्नम् - औदयिकमिति मानुष्यं, उपशान्ताः कषायाः, क्षायिकं सम्यक्त्वं, पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औदयिकौपशमिकक्षायिकपारिणामिक निष्पन्नम् २, कतरत् तन्नाम औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिक निष्पन्नम् ?, औदयिक पशु(करे से नामे उदउवस मियख इयपारिणामियनिष्फण्णे १) हे भदन्त ! औदयिक औपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न जो सान्निपातिक भाव रूप भंग है वह कैसा है ? उत्तर- (उदय उपसमियखझ्यपारिणामियनिष्कण्णे) औदपिक औपशमिक, क्षायिक, एवं पारणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ अंग ऐसा है - ( उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया, खइयं सम्मतं पारिणामिए जीवे) यहां मनुष्यगति यह औदधिक है, उपशांत हुई कषायें औपशमिक भावरूप है, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिकरूप है । तथा जीवश्व यह पारिणामिक रूप है । (एसणं से णामे उदइयवस मिथ खइयपारिणामियनिष्फoणे) इस प्रकार औदयिक, औपशमिक, क्षापिक और परिणामिक इन चार भंगों से निष्पन्न हुआ इस नाम का यह द्वितीय अंग है । ( कयरे से णामे उदय उपसमियखओवसमिपारिणामियनिष्कण्णे ? ) हे भदन्त । औदयिक, औपशमिक, क्षायो
प्रश्न - ( कयरे से णामे उदइय उवस मियखइयपारिणामियनिटफण्णे) डे ભગવન્ ! ઔદિયક, ઔપશમિક, ક્ષયિક અને પારિણામિક, આ ચાર ભાવાના સચેાગથી નિષ્પન્ન થતા જે સાન્નિપાતિક ભાવરૂપ ખીન્ને ભ ગ છેતેનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर- (उदइयउत्रस्रमियख इय गरिणामियनिष्फण्णे) मोहयिक, भोप મિક ક્ષાયિક અને પારિણામિક, આ ચાર ભાવેના સચેાગથી બનતા सान्निपात भावनुं स्व३५ मा प्रहार छे - ( उदद्दए त्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं, पारिणामिए जीवे) या सान्नियातिः भावभां मनुष्यगति थोड યિક ભાવરૂપ છે, ઉપશાન્ત કષાયે ઓપશમિક ભાવ રૂપ છે, સાયિક સમ્યક્ત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે અને જીવત પરિણામિક ભાવરૂપ છે. (एसणं से णामे उदय असमियखइय पारिणामियनिष्कण्णे) या अारनु मोहयि ઔપમિક ક્ષાયિક અને પારિણામિક આ ચાર ભાવાના સયાગથી બનેલા સાન્નિપાતિક ભાવ રૂપ મીમા ભંગનું સ્વરૂપ છે,
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मनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १६० चतुष्कसंयोगनिरूपणम् मिकक्षायोपमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्-औदयिकमितिमानुष्यम् , उपशान्ताः कषायाः, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम. औदयिकोपमिक क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्३ । कतरत् तन्नाम औदायिक शायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ? औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपशमिक, और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ भंग कैसा है ?
उत्तर-( उदय उपसमियखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न तीसरा भंग ऐसा है-(उदएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खोवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) मनुष्य गति यह औदायिक भावरूप है, उपशांत हुई कषायें औपशमिक भाव हैं, इन्द्रियां क्षायोपशमिक भाव रूप है और जीवस्व यह पारिणामिक भाव रूप है । (एस ण से णामे उदय उवसमियखओवस मिय पारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह औदयिक, औपशमिक और पारिणा. मिक इन चारभावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नामका तृतीय भंग है। (कयरे से णामे उदइय खहयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे ?) हे भदन्त ! औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चोर भावों के संयोग से निष्पन्न भंग कैसा है ?
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयउवसमियखओवरमियपारिणामियनिष्फन्ने) है ભગવન! ઔદયિક, ઔપશમિક, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાના સંગથી બનતા સાન્નિપાતિક ભાવ રૂ૫ ત્રીજા ભંગનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) मोहयि, भी५. શમિક ક્ષય શમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવના સંગથી मनतो त्रीने सान्निति भा१ मा मारने। छ-(उदइएत्ति मणुस्से, उवसंता कसाया, खओवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) alon १२ना सान्निपाતિક ભાવમાં મનુષ્યગતિ ઔદયિક ભાવ રૂપ છે, ઉપશાન્ત કષા ઓપશમિક ભાવ રૂપ છે, ઇન્દ્રિય ક્ષાપશમિક ભાવ રૂપ છે અને છેવત્વ પારિણામિક
१ ३५ छे. (एसणं से णामे उसइयवममियख ओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) આ પ્રકારને આ “દયિકોપથમિક ક્ષાપશમિક પરિણામિક ” નામને त्री छे.
प्रश्न-(कयरे से णामे उदइयखइयख ओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे १) હે ભગવન્! ઔદયિક, ક્ષાયિક ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાના સગથી બનતા થા પ્રકારના સાન્નિપાતિક ભાવનું કવરૂપ કેવું છે.
म. ९८
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अनुयोगबारसूत्रे पारिणामिकनिष्पन्नम्-औदयिकमिति मानुष्यं, क्षायिकं सम्यक्त्वं, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिको जीवः। एतत् खलु तन्नाम औदयिकक्षायिक क्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्। कतरत् तन्नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकनिष्पन्नम् !, औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम्उपशान्ताः कषायाः, क्षायिकं सम्यक्त्वं, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणा
(उदइय खइयस्वओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक-और पारिणामिक इन चार भावो के संयोग से निष्पन्न-हुआ भंग ऐसा है-(उदइएत्ति मणुस्से खइयं सम्मतं, खओवसमियाई इंदियाई, पारिणामिए जीवे) मनुष्यगति यह औदयिक भावरूप है, क्षायिक सम्यक्त्व यह क्षायिक भावरूप है, इंद्रियां ये क्षायोपशमिक भावरूप है और जीवत्व यह पारिणामिक भावरूप है । (एस गं से नामे उदय खहयखोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) इस प्रकार यह
औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इनचार भावों से निष्पन्न हुआ इस नामका चतुर्थ भंग है । (कयरे से नामे उवसमिय खडयखओवसमियपारिणामियनिफण्णे ?) हे भदन्त | औपशमिक' क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ पांचवां भंग कैसा है ?
उत्तर-( उवसमियखइयखभोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे)
उत्तर-(उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) मी4ि8, 4, ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવના સાગથી બનતા સાન્નિપાતિક ભાવનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે, એટલે કે ચે ભંગ આ પ્રકારને छ-(उदइए त्ति मणुस्से, खइयं सम्मत्तं, खोवसमियाइं इंदियाई, पारिणामिए जीवे) मा यथा प्रा२ना सान्निपाति: Iqwi मनुष्याति मोहयि भाव રૂપ છે, ક્ષાયિક સમ્યકત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂ૫ છે, ઈન્દ્રિય ક્ષાયોપશમિક ભાવ३५ छ भने ५ परिणाम मा ३५ छ. (एस णं से णामे उदइयत्रइयखभोवसमियपारिणामियनिष्फण्णे) ॥ ५२नु मौयि४, यि, क्षाया५शમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવના સાગથી બનતા “ઔદયિક ક્ષાયોપથમિક પરિણામિક” નામના ચોથા ભંગનું સ્વરૂપ છે.
प्रश्न-(कयरे से णामे उवसमियखइयन ओवसमियपारिणामियविष्फने?) હે ભગવન્! પથમિક, ક્ષાયિક ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાના સાગથી બનતે પાંચમાં પ્રકારને સાન્નિપાતિક ભાવ કેવો છે?
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६० चतुष्कसंयोगनिरूपणम् ७७९ मिको जीवः । एतत् खलु तन्नाम औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ५ ॥५० १६०॥
टीका-'तत्थ णं जे ते पंच' इत्यादि
पञ्चसु भावेषु पञ्चमं भावं परिहाय अनिशिष्ट भावनिष्पन्नत्वेन प्रथमो मही बोध्यः। चतुर्थ परिहाय शेषनिष्पन्नत्वेन द्वितीयो भङ्गः । तृतीयं परिहाय शेष
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ भंग ऐसा है-(उवसंता कसोया, खइयं सम्मतं, खओवसमियाइं इंदियाई पारिणामिए जीवे) उपशांत हुई कषायें औपशमिकभाव है, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक भाव रूप है, इन्द्रियां क्षायोपशमिक भावरूप है, और जीवत्व यह पारिणामिक भाव रूप है (एस णं से नामे उपसमिय खहयख ओवसमियपारिणामियनिष्फणे) इस प्रकार यह औपशमिकक्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नामका पांचवां भंग है।
भावार्थ-इस सूत्रद्वारा सूत्रकारने चार २ भावों के संयोग से ५ भंग निष्पन्न हुए हैं वे कहे हैं। इनमें पांचवां भाव जो पारिणामिक भाव है उसे छोड़कर बाकी के चार भावों के संयोग से प्रथम भंग निष्पन्न हुआ है। चौथा भाव जो क्षायोपशमिक भाव है उसे छोड़कर शेष चारभावों के संयोग से द्वितीय भंग निष्प
उत्तर-( उपसमियखइयख भोवसभियपारिणामियनिष्फण्णे ) सो५मिन, ક્ષાયિક, ક્ષાપથમિક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવના સાગથી બનતે पाय 1 मा ४२ने। छ-(वसंता कसाया, खइयं सम्मत्वं, खओवसमियाई इंदियाई' पारिणामिए जीवे) मा सान्निति म.भi G५शत पाये।
પશમિક ભાવ રૂ૫ છે, ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે, ઈન્દ્રિ क्षायो५मि मा ३५ छ भने ७११ पारिभिड ला ३५ छ. (एसणं से नामे उपसमियखइयख भोपसमिय, पारिणामियन फण्णे) मा मारना
પશમિક, ક્ષાયિક, લાયોપશીર્ષક અને પરિણામિક, આ ચાર ભાવોના સંગથી બનતે “ઔપથમિક ક્ષાયિક ક્ષાયોપથમિક પરિણામિક” નામને પાંચમે ભંગ સમજ.
ભાવાર્થ–ચાર ચાર ભાવેના સંયોગથી બનતા પાંચ અંગેનું સૂત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા નિરૂપણ કર્યું છે. પહેલે ભંગ આ પ્રકારે બન્યો છે—પાંચ ભાવે.માંના કેટલા પરિણામિક ભાવ સિવાયના સંગથી પહેલો ભંગ બન્યો છે.
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अनुयोगद्वार
निष्पन्नत्वेन तृतीयो भङ्गः । द्वितीयं परिहाय शेषनिष्पन्नत्वेन चतुर्थो भङ्गः । प्रथमं परिहाय अवशिष्टभाव चतुष्टय निष्पन्नत्वेन पञ्चमश्व भङ्गो बोध्यः । एवान् पञ्च भङ्गान् विवरीतुमाह- 'कयरे से णामे' इत्यादि । एषां व्याख्या पूर्ववद् बोध्या । एषु पञ्चसु भङ्गेषु तृतीयो भङ्गो नारकादिगतिचतुष्टये भवति । तथाहिऔदयिकी नरकाद्यन्यतमा गतिः, नारकतिर्यग्देवगतिषु प्रथमसम्यक्त्वलाभकाले एव उपशमभावो भवति, मनुष्यगतौ तु तत्रोपशमश्रेण्यां चौपशमिकं सम्यक्त्वम्, क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणी, पारिणामिकं जीवत्वम् इत्येवमयं भङ्गकः सर्वासु
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न्म हुआ है। तृतीय भाव जो क्षायिक भाव है उसे छोड़कर बाकी के चार भावों के संयोग से तृतीय भंग निष्पन्न हुआ है। द्वितीय जो पशमिक भाव है उसे छोड़कर शेष भावों के संयोग से चतुर्थ भंग निष्पन्न हुआ है । प्रथम भाव जो औदयिक भाव है उसे छोड़कर शेष - भावों के संयोग से पंचम भंग निष्पन्न हुआ है । इन पांच भंगों में से जो औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक इन चार भावोंके संयोग से निष्पन्न तृतीयभंग है वह नारक आदि चारगतियों में होता है । वहाँ विवक्षितगति औदयिकी है । इनमें प्रथम सम्यक्त्व के लाभकाल में ही उपशमभाव होता है। मनुष्यगति में उपशमश्रेणी में औपशमिक सम्यक्त्व होता है। इंद्रियां यहां क्षायोपशमिक भावरूप हैं। जीवत्व पारिणामिक भाव है इस प्रकार यह तृतीयभंग सर्व गतियो ખીજો ભંગ–ક્ષાયે પશમિક ભાવ નામના ચોથા ભાવને છોડીને બાકીના ચાર ભાવાના સયાગથી ખીજો ભંગ બન્યા છે.
ત્રીજો ભગ-ક્ષાયિક ભાગ નામના ત્રીજા ભાવ સિવાયના ચારે ભાવાના સયેાગથી ત્રીજો ભંગ મન્યા છે.
ચાથેા ભંગ-ઔપમિક નામના બીજા ભાવને છેડી દઇને બાકીના ચાર ભાવાના સયોગથી ચાથેા ભંગ બન્યા છે.
પાંચમા ભ'ગ-ઔદિયેક નામના પહેલા ભાવને છેડી દઈને માકીના ચાર ભાવાના સાગથી પાંચમા ભંગ બન્યા છે.
ઔયિક, ઔપમિક, ક્ષાાપશમિક અને પારિણામિક, આ ચાર ભાવાના સયાગથી જે ત્રીજો ભંગ અને છે-જે ત્રીજા પ્રકારના સાન્નિપાતિક ભાવ નિષ્પન્ન થાય છે તેના નારક આદિ ચાર ગતિઓમાં સદ્ભાવ હાય છે ત્યાં નારક આદિ ગતિ ઔયિક ભાવરૂપ છે. આ ગતિમાં પ્રથમ સમ્યક્ ત્વના પ્રાપ્તિ કાળે જ ઉપશમ ભાવના સદ્ભાવ હાય છે, મનુષ્ય ગતિમાં તા ઉપશમ શ્રેણીમાં ઔપમિક સમ્યક્ત્વના સદ્ભાવ ડાય છે ઇન્દ્રિયા ક્ષાયેાપ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६० चतुष्क संयोगनिरूपणम्
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मतिपुपलभ्यते । यदिह मत्रे - ' उदइएति मणुस्से उसंता कसाया' इत्युक्तम्, तन्मनुष्यगत्यपेक्षयोक्तम् । उपशमश्रेण्यां मनुष्यत्वोदयः कश्योपशमश्च भवतः । मूळोक्तं तूपलक्षणं बोध्यम् । एवम् औदयिकक्ष विकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नश्वतुर्थभङ्गोऽपि नारकादिगतिचतुष्टयत्रिषयो बोध्यः । तृतीयभङ्गवदेवात्रापि भावना कर्तव्या । विशेषस्त्वयमेव तृतीयभङ्गे यदुपशमसम्यक्त्वमुक्तं तत्स्थाने त्विह क्षायिक सम्यक्त्वं वाच्यम्। क्षायिकसम्यक्त्वं तु सर्वास्वपि गतिषु जायते । नारकतिर्यग्देवगतिषु पूर्वप्रतिपन्नस्य प्रतिपद्यमानस्य चापि क्षायिक सम्यकरवं
में पाया जाता है। जो इस सूत्र में "उदइएंत्ति मणुस्से उवसंता कसाया" ऐसापाठ कहा है वह मनुष्यगति की अपेक्षा से कहा है । उपशमश्रेणी में मनुष्यत्व का उदय और कषायों का उपशम होता है । मूलोक्तपाठ उपलक्षण है ऐस जानना चाहिये । इसीप्रकार औदयिक क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इनचार भावों के संयोग से चौथा भंग बना है, वह भी नारक आदि चारगतियों में होता है ऐसा जानना चाहिये। तृतीय भंग की तरह ही यहां पर भी कथन समझना चाहिये । परन्तु इसमें विशेषता इतनी ही है कि तृतीय भंग में उपशम सम्यत्व कहा है सो उसके स्थान में यहां क्षायिक सम्यक्त्व समझना चाहिये । क्षायिकसम्यतव चारों गतियों में होता है । नारक, तिर्यक् और देव इन गतियों मेंपूर्व प्रतिपन्न जीव को ही क्षायिक सम्पत्व होता है। और मनुष्यगति
મિક ભાવ રૂપ અને જીવત્વ પારિણામિક ભાવરૂપ હોય છે. આ પ્રકારે त्रीले लौंग अघी गतिमां राज्य भने छे. या सूत्रभां उदइएत्ति मणुस्से ख्वसंता कस्नाया ” मा प्रहारनो के पाठ भावामां आव्यो छे ते मनुष्य ગતિની અપેક્ષાએ આપવામાં આવ્યા છે. ઉપશમ શ્રેણીમાં મનુષ્યત્વના ઉદય અને કષાયેના ઉપશમ હોય છે. મૂલેાક્ત પાઠ ઉપલક્ષણ છે એવુ' સમજવુ' જોઇએ. એજ પ્રમાણે ઔદયિક, ક્ષાયિક, ક્ષાયેાપશમિક અને પારિણામિક, આ ચાર ભાવાના સયાગથી જે ચેાથે। ભંગ અને છે, તેને પણ નારક આદિ ચારે ગતિમાં સંભવ હોય છે, એમ સમજવુ' ત્રીજા ભંગના જેવું" જ કથન અહી' પણ સમજવું જોઈએ, પરન્તુ ત્રીજા ભંગમાં જે ઉપશમ સમ્યક્ત્વ કહ્યું છે તેને બદલે અહીં ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ સમજવુ જોઇએ ચારે ગતિમાં ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વના સદ્ભાવ સભવી શકે છે. નારક, તિર્યંચ અને દેવ, આ ત્રણ ગતિમાં પૂર્વપ્રતિપન્ન જીવમાં જ ક્ષાયિક સમ્યક્ હૈ.ય છે. પરન્તુ મનુષ્યગતિમાં તે પૂ`પ્રતિપન્નમાં અને પ્રતિપદ્મમાનમાં ક્ષાયિક
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अनुयोगद्वारसूत्र भवति । इत्थं चात्र तृतीयचतुर्थ भगौ एव वस्तुगतत्वेन संभवतः । इतरे भारत प्रदर्शनमात्रम् । तद्रूपेण तेषां वस्तुन्यसंभवादिति ॥१० १६०॥
अथ चकसंयोग निरूपयति___ मूलम्-तत्थं गंजे से एके पंचगसंजोए से णं इमे-अस्थि नामे उदइय उपसमिय खइयखओवसमियपारिणामियनिष्फणे? कयरे से नामे उदइयउवसमियखइयखओक्समियपारिणामियनिष्फण्णे?, उदइय उपसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खओवासमियाइं इंदियाइं पारिणामिए जीवे। एस णं से णामे जाव पारिणामियनिष्फण्णे। से तं सन्निवाइए। से तं छपणामे ॥सू०१६१॥ ___ छाया-तत्र खलु यः स एकः पञ्चकसंयोगः स खलु अयम्-अस्ति नाम औदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकनिष्पन्नम् ?। कतरत् तन्नाम में पूर्व प्रतिपन्न को और प्रतिपथमान को भी होता है । इसप्रकार तृतीय और चतुर्थ ये दो भंग ही वास्तविक रूप में वस्तुगत संभवित होते हैं । इतर शेष-तीन भंग नहीं पाये जाते हैं ।सू०१६०॥
अब सूत्रकार पांच भावों के संयोग से जो-भंग निष्पन्न होता है उसकी प्ररूपणा करते हैं-"तस्थ णं जे से एक्के" इत्यादि।
शब्दार्थ-(तस्थ णं जे से एक्के पंचक संयोगे से णं इमे) पांचोंभावों के संयोग से जो एक भंग उत्पन्न होता है वह इस प्रकार से हैસમ્યક્ત્વ હોય છે. આ પ્રકારે અહીં ત્રીજે અને એથે, આ બે ભંગ જ વાસ્તવિક રૂપે વસ્તુગત સંભવિત હોય છે બાકીના ત્રણ ભંગે વાસ્તવિક રૂપે તે સંભવિત જ નથી છતાં પ્રરૂપણ કરવાના હેતુથી જ અહી તે અંગેનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. સૂ૦૧૬ના
પાંચ ભાવોના સંયોગથી જે સાન્નિપાતિક ભાવ નિષ્પન્ન થાય છે. તેની सार वे ५३५९। ४२ छ-" तत्थ णं जे से एक्के" त्याल
शाय-(तत्थणं जे से एक्के पंचगसंजोगे से गं इमे) पांये सावन अयोगयी २ मे मन छ त प्रभार छ-(अत्थिणामे उदइयउवस.
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६१ पञ्चमसंयोगनिरूपणम्
औदयिकौ पशमिकक्षाधिकक्षायोपशमिकपारिणामिक निष्पन्नम् ?, औदयिकौपशमिकक्षायिक क्षायोपशमिकपारिणामिक निष्पन्नम् औदयिकमितिमानुष्यम्, उपशान्ताः कषायाः, क्षायिकं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिको जीवः ।
૯૮૩
(अत्थिणामे उदय उबस मियखइयखओवस मियपारिणामियनिष्कण्णे?) औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पांचों भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ औदयिकौपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक इस नामका सान्निपातिक भाव है । ( कयरे से नामे उदय समियखइद्यख ओवसमियपरिणामियनिष्कण्णे ?) हे भदन्त ! औदयिकौपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक पारिणामिक नाम का जो पांचों भावों के संयोग से निष्पन्न सान्निपातिक भाव वह कैसा है ?
उत्तर- (उदय उवसमियत इयखओवस मिय पारिणामियनिष्कण्णे) औदयिक, औपशमिक क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पांचों भावों के संयोग से जो सान्निपातिक भाव निष्पन्न होता है वह ऐसा है - ( उदइति मणुस्से उबसंता कसाया खइयं सम्मतं खओवसमियाई इंदियाई पारिणामिए जीवे) यहां इस सान्निपातिक भाव में मनुष्य गति यह औदयिकी है, उपशमित कषायें औपशमिक भाव है क्षायिक सम्पत्व क्षायिकभाव है इन्द्रियां क्षायोपशमिकभाव है जीवत्व
मिय खइयस्खओवसमियपारिणामियनिष्कण्णे) मोहयि, औोपशमि, क्षायिक, ક્ષાયેાપશમિક અને પારિણામિક, આ પાંચે ભાવાના સયોગથી મનતે ઔયિકીપશમિક ક્ષાયિક ક્ષાયેાપશમિક” નામના સાન્નિપાતિક ભાવ, આ
એક જ ભંગ અને છે.
66
હૈ
प्रश्न- (कयरे से णामे उदइय उत्र समियख इय व ओश्खमियपारिणामियन फण्णे ) भगवन् ! मोहयि, औपशभिङ, क्षायिक, क्षायोपशमि भने पारिसि આ પાંચે ભાવેાના સયાગથી નિષ્પન્ન થતા સાન્નિપાતિક ભાવ કેવા છે ? उत्तर-(उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिष्कण्णे) ઔપશમિક, ક્ષાયિક, ક્ષાયે પશમિક અને પારિણામિક, આ પાંચે ભાવેાના मोहयिक, सयोगधी निष्पन्न थतो सान्नियातिङ लाव या प्रअरना छे - ( उदइत्ति मणस्से, उवसंता कसाया, खइयं सम्मत्तं, खओवसमियाई इंदियाई, पारिणामिए શ્રીને) આ સાન્તિપાતિક ભાવમાં મનુષ્યગતિ ઔયિક ભાવ રૂપ છે, ઉપશાન્ત કષાયે ઔપમિક ભાવ રૂપ છે, ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ ક્ષાયિક ભાવ રૂપ છે, ઇન્દ્રિયા ક્ષાાપશમિક ભાવ રૂપ છે અને જીવ પારિજ઼ામિક ભાવ રૂપ છે,
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अनुयोगद्वारसूत्रे एष खलु तन्नाम यावत् पारिणामिकनिष्पन्नम्। स एष सान्निपातिकः । तदेतत् षण्णाम ॥मू० १६१॥
टीका-'तत्थ णं' इत्यादि
व्याख्या सुगमा । अयं पञ्चक संयोगस्तस्यैव संभवति यः क्षायिकसम्यग्दृष्टिः सन् उपशमश्रेणि प्रतिपद्यते । अन्यस्य तु न संभवति । अन्यत्र हि समुदितभावपञ्चकस्यास्यासंभवादिति। अत्रेदं बोध्यम्-एकः क्षायिकपारिणामिकभावद्वयनिष्पन्नरूपो नमो भगो द्विकसंयोगे, औदायिकक्षायिकपारिणामिक भावत्रर्यानष्पन्नरूपः पञ्चमः, औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिक भावत्रयनिष्पन्नयह पारिणामिक भाव है । (एसणं से जामे जाव पारिणामियनिष्फण्णे, से तं सन्निवाइए से तं छण्णामे) इस प्रकार यह पांच भावों के संयोग से निष्पन्न हुए इस नाम के सान्निपातिक भाव का स्वरूप है। यहां तक औदयिक भाव से लेकर पारिणामिक भाव तक के पांच भावों के संयोगसे जीतने सान्निपातिक भाव निष्पन्न होते हैं उनका प्रतिपादन कियाइस प्रकार यह छह प्रकार के नामका स्वरूप कथन समाप्त हुआ।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस नूत्रद्वारा पांचोभावों के संयोग से निष्पन्न हुए सान्निपातिक भाव का कथन किया है । यह पंचक संयोग रूप सान्निपातिक भाव उसी को संभवित होता है, जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर उपशम श्रेगी पर चढता है । अन्यजीव को नहीं क्योंकि उस को इस समुचित भाव पंचकरूप सान्निपातिक भाव का अभाव होता है। यहां पर इस प्रकार से जानना चाहिये-द्विक संयोग में क्षायिक और (एस णं से णामे जाव एरिणामियनिष्फण्णे, से तं सन्निवाइए, से तं छण्णामे) मा પ્રમાણે આ પાંચે ભાવના સાગથી નિષ્પન્ન થયેલ આ નામનું સાન્નિપાતિક સ્વરૂપ છે અહીં સુધી આંદયિક ભાવથી માંડીને પરિણામિક ભાવ સુધીના પાંચ ભાવોના સંગથી જેટલા સાન્નિપાતિક ભાવે નિપાન થાય છે. તેમનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. આ પ્રમાણે આ છ પ્રકારના નામનું સ્વરૂપ४यन ५३ थयु छे.
ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર વડે પાંચે ભાવેના સંયોગથી નિષ્પન્ન થયેલ સાનિતિક ભાવનું કથન કર્યું છે. આ પંચક સ થે ગ રૂપ સાન્નિપાતિક ભાવ તેમને જ સંભવે છે કે જે ક્ષયિક સમ્યગ્દષ્ટિ થઈને ઉપશમ શ્રેણી પર ચઢે છે. બીજાને નહિ કારણ કે તેમને આ સતિભાવ પંચક રૂપ સાન્નિપાતિક ભાવનો અભાવ હોય છેઅહીં એમ સમજવું જોઈએ કે ત્રિકસંગમાં ક્ષાયિક અને પરિણામિક આ બે ભાવેના સંયોગથી નિપન્ન
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६१ पञ्चमसंयोगनिरूपणम् पष्ठति द्वौ भनौ त्रिकसंयोगे, औदयिकौपशमिक क्षायोपशमिकपारिणामिक भाव चतुष्टयनिष्पन्नरूपस्वतीयः, औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावचतुष्टय निष्पन्नरूपश्चतुर्थश्चेति द्वौ भङ्गौ चतुष्कसंयोगे, भावपञ्चकरूप एको भङ्गः पञ्चक संयोगे। इत्येवमेते षड्भङ्गाः सम्भाव्यत्वेन बोध्याः। इतोऽपरेविंशतिभङ्गास्तु संभाव्यत्वरहिता अपि योगपदर्शनार्थमेव मोक्ताः। षण्णामसूत्रे ये द्विकसंयोगपारिणामिक, इन दो भावों के संयोग से निष्पन्न हुभा जो इस नाम का नौवां भंग है वह, तथा त्रिक संयोग में औदयिक, क्षायिक और पारिणामिक, इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नाम का पांचवां-भंग और औदयिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक, इन तीन भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नामका छठा भंग, तथा चतष्क संयोग में औदयिक, औपशमिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नाम का तृतीय भंग, और
औदयिक क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ इस नाम का चौथा भंग तथा पांचो भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ एक इस नाम का भंग ये छह भंग जीवों में वास्तविकरूप से पाये जाते हैं और इनसे अतिरिक्त जो २० भंग; वे वास्तविक रूप से-नहीं पाये जोते हैं। ऐसा, जानना चाहिये। २० भंग जब कि भव्यत्व रहित है तो फिर ये क्यों कहे गये हैं ? तो इस થયેલ જે આ નવમ ભંગ છે તે તેમજ વિકસંગમાં ઔદયિક ક્ષાયિક અને પરિણામિક આ ત્રણ ભાના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ આ નામને પાંચમે ભંગ અને ઔદયિક, લાપશમિક અને પરિણામિક એ ત્રણ ભાના સંયોગથી નિષ્પન્ન થયેલ છેઠે ભંગ તેમજ ચતુષ્ક સંયોગમાં ઔદ. યિક, ઔપથમિક, ક્ષાપશમિક અને પાણિમિક આ ચાર ભાવોના સંયેગથી નિષ્પન્ન થયેલ આ નામનો ત્રીજો ભંગ અને ઔદયિક, ક્ષાયિક, લાપશમિક અને પરિણામિક આ ચાર ભાના સગથી નિષ્પન્ન થયેલ આ નામે ચોથો ભંગ તથા પાંચ ભાના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ એક આ નામ ભંગ એ છ અંગે જેમાં વાસ્તવિક રૂપે મળે છે અને એમના સિવાય જે ૨૦ ભંગ છે. તે વાસ્તવિક રૂપે પ્રાપ્ત થતા નથી આમ સમજવું જોઈએ ૨૦ ભંગ જ્યારે ભવ્યત્વ રહિત છે તે પછી એમનું કથન શા માટે કરવામાં આવ્યું છે ? આ શંકાનું નિરાકરણ આ પ્રમાણે છે કે આ ૨૦
भ० ९९
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अनुयोगदारसूर्य त्रिकसंयोगचतुष्कसंयोगपश्चकसंयोगलक्षणा भङ्गास्ते किळ सिद्धकेलिगतिचतुष्टः योपशान्तमोहमनुष्यविषया विज्ञेयाः। इयमत्रभावना-द्विकसंयोगमङ्गेष्वेकः क्षायिकपारिणामिकभावद्वयनिष्पन्नरूपो नवको भङ्गः सिद्धेषु भवति । त्रिकसंयोगभङ्गेषु औदयिकक्षायिकपरिणामिकमावत्रयनिष्पन्नरूपः पञ्चमो मङ्गः केवलिषु, औद. यिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावत्रयनिष्पन्नरूपः षष्ठो भङ्गो गतिचतुष्टये भवति । चतुकसंयोगभङ्गेषु-औदायिकौपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावचतुशंका का समाधान यह है कि-ये २०बीसभंग योग प्रदर्शन के निमत्त ही कहे गये हैं अर्थात् इन पांच भावों के योग से किस २ प्रकार से कितने भंग बन सकते हैं ? यह प्रकट करने के अभिप्राय से कहे गये हैं। षण्णाम मूत्र में जो द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग, चतुष्कसंयोग और पंचकसंयोग रूप भंग हैं, वे सिद्धों में, केवलियों में, चारों गतियों में,
और उपशांत मोहमनुष्यों में पायेजाते हैं। ऐसा जानना चाहिये-अर्थात शिकसंयोगवाले अंगों में जो क्षायिक पारिणामिक भावद्वय से निष्पन्न नौषां भंग है, वह सिद्धों में पाया जाता है । त्रिकसंयोगवाले भंगों में जो औदधिक, क्षायिक और पारिणामिक, इन तीन भावों के संयोग से निप्पन्न हुआ पंचम भंग है, वह केवलियों में पाया जाता है। औदयिक क्षायोपशमिक, और परिणामिक इन तीन भावों के संयोग से जन्य छठा भंग चार गतियों-में पाया जाता है। चतुष्क संयोगवाले भंगों में औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक-इन ભંગ યોગ પ્રદર્શનના નિમિત્તથી કહેવામાં આવ્યા છે. એટલે કે આ પાંચ ભાવોના વેગથી કેવી રીતે કેટલા ભંગ થઈ શકે છે? આ સ્પષ્ટ કરવાના ઉદેશથી જ કહેવામાં આવ્યાં છે. “ષણામ” સૂત્રમાં જે બ્રિકસરયોગ, ત્રિકસંયોગ, ચતુષ્ક સંયોગ અને પંચક સંયોગ રૂ૫ ભાગે છે તે સિદ્ધોમાં કેવલિઓમાં, ચારે ગતિઓમાં અને ઉપશાંત મેહવાળા માણસોમાં મળે છે. આમ સમજવું જોઈએ એટલે કે બ્રિકસંયોગવાળા ભંગોમાં જે ક્ષાયિક પારિ. ગ્રામિક ભાવદ્વયથી નિષ્પન્ન નવમો ભંગ છે. તે સિદ્ધોમાં પ્રાપ્ત થાય છે. ત્રિકસંગવાળા ભાગોમાં જે ઔદયિક, ક્ષાયિક અને પરિણામિક આ ત્રણ ભાવોના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ પંચમ ભંગ છે, તે કેવલિઓમાં પ્રાપ્ત થાય છે. દયિક, લાપશમિક અને પરિણામિક આ ત્રણ ભાના સંયેગથી નિપાન છો ભંગ ચાર ગતિઓમાં પ્રાપ્ત થાય છે ચતુષ્ક સંયોગવાળા ભગોમાં ઔદયિક ઓપશમિક-ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક આ ચાર ભાના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ ત્રીજો ભંગ તેમજ ઔદયિક, ક્ષયિક,
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فيق
अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६१ पञ्चमसंयोगनिरूपणम् ध्यनिष्पन्नरूपस्तृतीयः, औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावचतुष्टयनिष्पन्नरूपचतुर्थश्चेत्येतावपि द्वौ मङ्गो गतिचतुष्टयेऽपि लम्येते । भावपञ्चकनिष्पन्नरूप एको मा उपशान्तमोहमनुष्येष्वेव लभ्यते। विस्तरवस्तु स्वस्वभास्वरूपे विलोकनीयम् । प्रकृतमुपसंहरन्नाह-स एष सान्निपातिक इति । इत्थमुक्तः सानि. पातिको भावः । उक्त तस्मिथोक्ताः षडपि भावाः। ते च तद्वाचकैर्नामभिर्विना प्ररूपयितुं न शक्यन्ते इति तद्वाचकान्यौदयिकादीनि नामान्यप्युक्तानि । एतैश्च पदमिरपिधर्मास्तिकायादेः समस्तस्यापि वस्तुनो ग्रहणात् इदं षट् प्रकारकं सत् समस्तस्यापिवस्तुनो नाम षण्गामेत्युच्यते । एतदेवोपसंहरन्नाह-तदेतत् षण्णामेति।स.१६१।। चारभावों के संयोग से निष्पन्न हुआ तृतीयभंग तथा औदयिक क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं-पोरिणामिक इन चार भावों के संयोग से निष्पन्न हुआ चौथा भंग चारों गतियों में पाये जाते हैं, तथा पांचों भावो के संयोग से-निष्पन्न हुआ चौधाभंग ये दोनों भी भंग चारों गतियों में पाये जाते हैं तथा पांचों भावों के संयोग से-निष्पन्न हुआ एकभंग उप. शांतमोही मनुष्यों में ही पाया जाता है । विस्तार पूर्वक इनका कथन अपने २ भंग-स्वरूप में देखलेना चाहिये। इसप्रकार सान्निपातिकमाव का कथन है-इम भाव के कथित होने पर अब छहों भाव कथित हो चुके । इन भावोंका कथन उनके वाचक नामों के विना हो नहीं सकता है इसलिये उन भागों के वाचक औदयिक आदि नामों को-भी यहां कहा गया है। इन छह नामों से भी धर्मास्तिकायादिक समस्त वस्तुओं का ग्रहण हो जाता है, इसलिये ये समस्त वस्तु के नाम छह प्रकार के होने से छह नाम इस प्रकार से कहलाये हैं। स१६१॥ ક્ષાપશમિક અને પરિણામિક આ ચાર ભાવના સાગથી નિષ્પન્ન થયેલ ચોથો ભંગ આ બન્ને ભંગ પણ ચારે ગતિઓમાં પ્રાપ્ત થાય છે. તેમજ પાંચે ભાવોના સંગથી નિષ્પન્ન થયેલ એક ભંગ ઉપશાંત મહી માણસોમાં જ પ્રાપ્ત થાય છે. આ વિષે સવિસ્તર વિવેચન પિતા પોતાના ભંગ-વરૂપમાં જોઈ લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે સાન્નિપાતિક ભાવનું કથન છે. આ ભાવને કહ્યા બાદ છએ છ ભાવે કથિત થઈ ગયા. આ ભાવનું કથન તેમના વાચકના વગર સંભવે જ નહિ એટલા માટે તે ભાવના વાચક ઇયિક વગેરે નામોનું પણ અહીં કથન થયું છે. આ છ નામથી પણ ધમસ્તિકાયાદિક સમસ્ત વસ્તુઓનું ગ્રહણ થઈ જાય છે એટલા માટે આ બધી વસ્તુઓના છ પ્રકારના નામે લેવાથી છ નામ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યાં છે. ૧૬૫
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अथ सप्तनाम प्ररूपयति
मूळम् से किं तं सत्त नामे ? सत्तनामे-सत्त सरा पण्णत्ता, तं जहा - सजे रिसहे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे । धेवए चैव निस्साए [सरा सत्त वियाहिया ॥ १ ॥ सू०१६२ ॥
छाया
-अथ किं
तत् सप्त नाम ? सप्त नाम - सप्त स्वराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाषड्जः ऋषभः गान्धारः मध्यमः पञ्चमः स्वरः । चैवतश्चैव निषादः स्वराः सप्त
-
व्याख्याताः ।। १ ।। मू० १६२॥
अनुयोगद्वार
,
टीका -' से किं तं सत्तनामे' इत्यादि -
अथ किं तत् सप्तनाम ? इति शिष्यप्रश्नः । उत्तरयति - सप्तनाम - सप्तविधं नाम सप्तनाम, तच्च - सप्त सप्त संख्यकाः स्वराः = ध्वनिविशेषाः प्रज्ञप्ताः । तानेव स्पष्टयति-तद्यथा-षड्ज ऋषभ इत्यादिना । तत्र - षड्जः - नासिकाकंठोरस्तालुजिह्वादन्तेति षट्स्थानसंजातस्त्रात् अयं स्वरः षड्ज इत्युच्यते । उक्तंच -
હવે સૂત્રકાર સસનામની પ્રરૂપણા કરે છે.
" से किं तं सत्तनामे १" इत्यादि
अब सूत्रकार सप्त नाम की प्ररूपणा करते हैं" से कि तं सतनामे ?" इत्यादि ।
शब्दार्थ - (से कि तं सतना मे ?) हे भदन्त ! सप्तनाम क्या है ? उत्तर-(सत्तनाम) सप्त प्रकार रूप जो सप्तनाम है वह (सत्तसरापण्णत्ता) सातस्वर स्वरूपप्रज्ञत हुआ है । अर्थात् सातस्वर ही सप्तनाम हैं । (तं जहा ) वे सात स्वर इस प्रकार से हैं - ( सज्जे रिसहे गंधारे, मज्झिमे, पंचमे सरे । धेवए- चेव निस्साए सरा सन्त विद्याहिया षड्ज ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत, और निषाद । नासिका, कंठ, उरस्थल, तालु, जिह्वा और दन्त इन छह स्थानों से उत्पन्न होने के कारण प्रथम स्वर 'षडूज' कहलाता है। उक्तांच करके "नासां कण्ठ"
शब्दार्थ - ( से किं तं सत्तना मे ?) डे महत ! सप्तनाम शु छे ? ते मतातांडे छे ते ( खत्त खरा पण्णत्त ) सात स्वर स्व३५ प्रज्ञप्त थयेस छे. भेटखे है सात स्वर ०४ सप्तनाभा छे. (तंजहा) ते सात स्वरे। या प्रमाये छे (खज्जे रिस्महे, गंधारे, मज्झिमे, पंचमे, सरे । घेवए चैव निस्साए खरा सत्त वियाहिया ) षडून ऋषल, गांधार, मध्यम, पंथम चैवत अने निषाद, नासिका, ॐ, उरस्थान, તાલુ, જિહ્વા અને દાંત આ છ સ્થાનેથી ઉત્પન્ન થવાના કારણથી પ્રથમ સ્વર
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६२ सप्तस्वरनामनिरूपणम्
" नासां कण्ठमुरस्तालुं जिहांदन्ताश्च संश्रितः । षभिः संजायते यस्मात्तस्मात् षड्ज इति स्मृतः ॥ इति ॥ तथा-ऋपभो-वृषभः, तद्वद् यो वर्तते स ऋपभः । उक्तंचास्य लक्षणम्"वायुः समुस्थितो नाभेः, कण्ठशीर्ष समाइतः ।
नईन वृषभवद यस्तत्, तस्मात , वृषभ उच्यते ।। इति । तथा-गान्धारः-गन्धम् इयेति-प्राप्नोतीति गन्धारः, सएव गान्धारः गन्धमापकः स्वर विशेषः । उक्तंच -
वायुः समुत्थितो नाभे-हृ दिकण्ठे समाहतः ।
नानागन्धवहः पुण्यो गान्धारस्तेन हेतुना ॥ इति ।। इत्यादि श्लोक द्वारा यही बात कही गई है। ऋषभनाम बैल का है। बैल के स्वर के जैसे जो स्वर होता है, उसका नाम ऋषभ है। इसका लक्षण इस प्रकार कहा हुआ है-नाभि से जो वायु उठता है, वह कण्ठ
और शीर्ष में जाकर टकराता है। इससे बैल के स्वर के जैसे आवाज होती है। इसलिये इस स्वर का नाम ऋषभ है ! गंध को जो स्वर प्राप्त करता है उसका नाम 'गांधार' स्वर है। इस का लक्षण इस प्रकार कहा गश है-जो वायु नाभि से उन्धित होकर हृदय और कंठ में टकराना है तथा नाना प्रकार के गंधों को वहन करता है इसलिये हृदय
और कंठ से टकराने पर जो आवाज उत्पन्न होता है, उसका नाम 'गान्धार' है। शरीर के बीच में जो स्वर होता है, उमका नाम 'मध्यम' स्वर है। इसका लक्षग इस प्रकार से है-नाभिप्रदेश से उत्पन्न हुआ
५.० ४उपाय छ तय पछी " नासा कण्ठ" पोरे । ५: अरा पात સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. ત્રષભ બળદનું નામ છે. બળદના સ્વરની જેમ જે સ્વર હોય છે તેનું નામ અષમ છે. આનું લક્ષણ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે-નાભિસ્થાનથી જે વાયુ ઉપર ઉઠે છે તે કંડ અને શીર્ષમાં જઈને અથડાય અને તેથી બળદની જેમ અવાજ થાય છે. એટલા માટે જ આ સ્વરનું નામ ઋષભ છે. ગંધને જે સ્વર પ્રાપ્ત કરે છે તેનું નામ “ગાંધાર” સ્વર છે. આનું લક્ષણ આ પ્રમાણે સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. જે વાયુ નાજિસ્થાનથી ઉપર ઉઠીને હદય અને કંઠ સ્થાનમાં અથડાય છે તેમજ વિવિધ જાતના ગંધનું વહન કરે છે એટલા માટે હદય અને કંઠને અથડાયા પછી જે સવર ઉત્પન્ન થાય છે તેનું નામ ગાન્ધાર છે. શરીરની વચ્ચે જે સ્વર હોય છે તેનું નામ મધ્યમ સ્વર છે આનું લક્ષણ આ પ્રમાણે છે નાભિસ્થાનથી ઉત્પન્ન થયેલ વાયુ
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अनुयोगद्वारसूत्रे
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तथा - मध्यमः - मध्ये कावस्य मवो मध्यमः । उक्तंचवायुः समुत्थितो नाभेरू हृदि समाप्तः ।
नाभि प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्नुते ||
यद्वा-" तद्वदेवोत्थितो वायु रुरः कण्ठसमाहतः । नाभिं प्राप्तो महानादो मध्यस्थस्तेन मध्यमः ॥ इति ॥
तथा - पश्चमः-पञ्चानां=पइजादिस्वरानुसारेण पश्चसंख्यकानां स्वराणां पूरणः स्वरः पञ्चमः । यद्वा-पञ्चसु नाभ्यादि स्थानेषु मातीति पञ्चमः । उक्तंच"बायुः समुद्गतो नामे रुरो हत्कण्ठमूर्ध ।
विचरन् पञ्चमस्थानमाप्त्या पञ्चम उच्यते" ।। इति ।।
वायु उरस्थल और हृदय में टकराता है और फिर नाभिस्थान में आकर वडी आवाज उत्पन्न करता है - इसलिये इस स्वर का नाम मध्यम स्वर है । अथवा उसी प्रकार से उस्थित हुआ वायु उरस्थल और कण्ठ में टकराता है फिर नाभिस्थल में पहुँच कर बडे भारी शब्द को उत्पन्न करता है । इस प्रकार मध्यस्थ होने से यह स्वर मध्यम कहा गया है । पद्म आदि स्वरों की यह स्वर पांचवी संख्या की पूर्ति करता है इसलिये इस स्वर का नाम 'पंचम' स्वर हुआ है । अथवा नाभि आदि पांच स्थानों में यह स्वर समा जाता है इसलिये यह-स्वर पंचम स्वर कहलाया है। इस का लक्षण इस प्रकार से कहा गया हैनाभिस्थान से जो वायु उत्पन्न होता है, वह वक्षस्थल हृदय कंठ और मस्तक में टकराता हुआ पंचमस्थान में उत्पन्न होता है । इसलिये इस
ઉસ્થળ અને હૃશ્યમાં અથડાય છે અને પછી નામિસ્થાનમાં આવીને મેટ અવાજ ઉત્પન્ન કરે છે, એટલા માટે આ સ્વરનું નામ મધ્યમસ્ત્રર છે. અથવા પહેલાની જેમ જ ઉપરની તરફ ઉડતા વાયુ ઉસ્બળ અને કંઠમાં અથડાય છે પછી નાભિધાનમાં પાંચીને બહુ માટે અવાજ ઉત્પન્ન કરે છે. આ પ્રમાણે મધ્યસ્થ હાવા બદલ આ સ્વર મધ્યમ કહેવાય છે, ષડ્ જ વગેરે સ્વશમાં આ સ્વર પાંચમી સખ્યાને પૂરે છે એટલા માટે આ સ્વરનું નામ પંચમસ્વર છે. અથવા નાભિ વગેરે પાંચ સ્થાનામાં આ સ્તર સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે. એથી આ ત્રર પંચમસ્વર કહેવાય છે આનું લક્ષશુ આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યુ છે. નાભિસ્થાનમાંથી જે વાયુ ઉત્પન્ન થાય છે તે વક્ષસ્થળ હૃદય કંઠ અને મસ્તકમાં અથડાઇને પંચમસ્થાનમાં ઉપન્ન થાય છે. એટલા માટે આનું નામ આ પ્રમાણે રાખવામાં આવ્યું છે, જે સ્વર ખામી રહેલા
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७९१ अनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १६२ सप्तस्वरनामनिरूपणम् तथा-धैवता-अभिसन्धयते अनुसन्धयति शेषम्वनिति धैवतः। यद्वा-धीमतामयं धैवतः । पक्षद्वयेऽपि पृषोदरादिन्वात् साधुत्वम् । उक्त चास्य लक्षणम्
"अभिसन्धयते यस्मादेतान् पूर्वोदितान् स्वरान् ।
तरमादस्य स्वरस्यापि, धैवतत्वं विधीयते" ॥ इति । तथा-निषादः-निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः । उक्त चापि--
"निषीदन्ति स्वराः यस्मि,-निषादस्तेन हेतुना।।
सर्वाश्चाभि भवत्येष, यदादित्योऽस्य दैवतम्" ।। इति। तदेवं सप्त-सप्तसंख्यकाः स्वराः जीवाजीवाश्रयाः स्वराः व्याख्याता विविधप्रकारेण तीर्थङ्करगणधरैः कथिताः। ननु कार्य हि कारणायत्तं, तच्च कारणं कार्यभूतानां स्वराणां जिहादिकं, तानि च द्वीन्द्रियादि उसजीवानामसंख्येयत्वादसंख्येयानि किमुताजीवनिमृतानां ततः कथं स्वराणां सप्तसंख्यकत्वं न विरुध्यते ? उच्यतेका नाम ऐसा कहा गया है। जो स्वर शेष स्वरों का अनुसंधान करता है वह 'धैवत' है । अथवा संगीत विशारदों का जो स्वर है वह 'धैवत' है। इस का लक्षण इस प्रकार से कहा है-" अभिसंधयते" इत्यादि इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट है। जिस में स्वर ठहरता है उसका नाम निषाद स्वर है। यह स्वर समस्त स्वरां का पराभव करता है क्योंकि इसका देव आदित्य है। ये जो मान स्थर हैं वे जीव और अजीव दोनों के आश्रय रहते हैं। ऐसा नोधैकर भगवंतोने कहा है। __ शंका-कार्य कारणो के आधीन होता है । इन मात्र स्वरस्वरूप कार्य के कारण जिहया आदिक हैं। ये जिया आदि कारण हीन्द्रिय आदि उस जीवों के असंख्यात होने से असंख्यात है। अजीव निमृत स्वरों के विषय की तो बात ही क्या है! इसलिये म्वरों का सात प्रकार का कहना ठीक नहीं है। વરાનું અનુસંધાન કરે છે તે પૈવત” છે. અથવા સંગીત વિશારદે જે. વર છે. તે પૈવત છે આનું લક્ષણે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે. “ अभिमन्यते इत्यादि " मा ने। २५४ ॥ छ. २मा २१२ स्थिर થાય છે તેનું નામ નિષાદ સ્વર છે. આ સ્વર બધા સ્વરાને પરત કરે છે કેમ કે આને દેવ આદિત્ય છે જે આ સાત વર છે તે જીવ અને અજીવ બને ને આશ્રિત રહે છે. આમ તીર્થકર ભગવતે કહ્યું છે.
શંકા-કાર્ય કારણેને અધીન હોય છે. આ સાત સ્વર રૂપ કાર્યના કારણે જિલ્લા વગેરે છે. આ જિ હા વગેરે કારણે હીન્દ્રિય વગેરે ત્રસ જીવે અસંખ્યાત હોવાથી અસંખ્યાત છે અજીવ નિવૃત સ્વરાના વિષયની તે વાત જ શી કરવી? એટલા માટે સવારના સાત પ્રકારે કહેવાય નહિ.
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अनुयोगद्वार
विशेषमाविश्या संख्येया अपि स्वराः सामान्येन सर्वेऽपि सप्तस्वान्तर्भवति । यहा सूत्रे स्वराणां यत् सप्तसंख्यकत्वमुक्तं तत् स्थूलस्वरान् गीतं वाश्रित्य प्रोस्त, सर्वेषां स्वराणां सप्तस्वरानुपातित्वादतो नास्ति कोsपि स्वराणां सप्तसंख्यागणने दोष इति । सू० १६२ ॥
इत्थं स्वरान्नामतो निरूप्य संप्रति तानेव कारणत आह
मूलम् - एएसिं णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरद्वाणा पण्णत्ता, तं जहा -सजं च अग्गजीहाए, उरेण रिसहं सरं । कंठुग्गएण गंधारं, मज्झजीहाए मज्झिमं ॥ १ ॥ नासाए पंचमं बूया, दंतोद्वेण य धेवयं । मुद्धाणेण य णेसायं, सरद्वाणा वियाहिया ॥ ३ ॥ सतसरा जीवणिस्सिया पण्णत्ता, तं जहा-सजं वइ मऊरो, कुक्कुडो रिसभं सरं । हंसो वइ गंधारं, मज्झिमं च गवेलंगा ||४|| अह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं सरं । छहं च सरसा कोंचा, नेसायं सत्तमं गया ॥ ५ ॥ सत्तसरा अजीवनिस्सिया पण्णत्ता, तं जहा - सजे रवइ मुयंगो, गोमुही रिसहं सरं । संखो रवइ गंधारं,
उत्तर - विशेष की अपेक्षा लेकर स्वर यद्यपि असंख्यात हैं परन्तु, ये सब असंख्यात स्वर सामान्यरूप से इन सात स्वरों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । अथवा सूत्रकारने जो "सात स्वर हैं " ऐसा सूत्र कहा है, वह स्थूल स्वरों से एवं गीत को लेकर कहा है ऐसा जानना चाहिये । क्योंकि और जितने भी स्वर हैं, वे सब इन्हीं सात स्वरों में समा जाया करते हैं। इसलिये स्वर सात हैं इस प्रकार के कथन में कोई दोष नहीं है। सू० १६२ ॥
ઉત્તર-વિશેષની અપેક્ષાથી સ્વર એ કે અસખ્યાત છે છતાં એ આ બધા અસંખ્યાત સ્વરો સામાન્ય રૂપથી આ સાત સ્વરીમાં જ અન્તભૂત થઈ જાય છે, અથવા સૂત્રકારે જે ‘સાત સ્વરા છે' આમ કહ્યું તે સ્થૂલ સ્વરો અને ગીતને લઈને કહ્યું છે આમ જાણવુ' જોઈએ કેમ કે બીજા જેટલા સ્વરા છે તે બધા એજ સાત સ્વરામાં સમાવિષ્ટ થઈ જાય છે એટલા માટે સ્વર સાત છે મા જાતના કથનમાં કોઈ પણ જાતના દ્રષ નથી.
।।સૂ૦૧૬૨)
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६३ कारणतो स्वरनिरूपणम् मज्झिमं पुण झल्लरी ॥६॥ चउचरणपइट्ठाणा, गोहिया पंचमं सरं। आडंबरो धेवइयं, महाभेरी य सत्तमं ॥७॥सू०१६३॥
छाया-एतेषां खलु सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरस्थानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाषड्ज च अग्रजिया, उरसा ऋषभं स्वरम् । कण्ठाग्रेण गान्धारं, मध्ये जिया मध्य. पम् ॥२॥ नासिकया पञ्चमं ब्रयात, दन्तोष्ठेन च धैवतम् । मृi च निषादम्, स्वरस्थानानि व्याख्यातानि ॥३॥ सप्तस्वराः जीवनिश्रिताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-षड्ज
इस प्रकार नाम से स्वरों का कथन करके अब सूत्रकार उन्हीं स्वरों का कारण की अपेक्षा लेकर कथन करते हैं'एएसिं णं सत्तण्हं' इत्यादि ।
शब्दार्थ-(एएसिणं) इन (सत्तसराणं) सात स्वरों के (सप्त)सात (सरहाणा) स्वरस्थान (पण्णत्ता) कहे गये हैं। (तं जहा) वे इस प्रकार से हैं।-(सज्जं च अग्गजीहाए) जिह्वा के अग्र भाग से षड्ज स्वर बोलना चाहिये (उरेण रिसहं सरं) वक्षस्थल से ऋषभस्वर बोलना चाहिये (कंटुग्गएणं गंधारं) कण्ठ के अग्रभाग से गांधार स्वर षोलना चाहिये । (मज्झजीहाए मज्झिमं) जिहवा के मध्य भाग से मध्यम स्वर बोलना चाहिये । (नासाए पंचम) नासिका से पंचम स्वर पोलना चाहिये (दंतोटेण य घेवयं ) दन्तोष्ठ से धैवत स्वर बोलना चाहिये ( मुद्धाणेणं य णेसायं बूया) और मूर्धा से निषाद स्वर बोल.
આ પ્રમાણે સ્વરનું નામની અપેક્ષાએ કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેજ સ્વારનું કારણની અપેક્ષાએ કથન કરે છે
"एएसिणं सत्तण्हं" त्याह
शा-(एएसिं णं) । (सत्तसराणं) सात स्परेशना (सत्त) सात (सर. दाणा) ११२स्थान। (पण्णत्ता) उपामा मा०यां छे. (तंजहा) . प्रमाणे (सज्जं च अग्गजीहाए) मना अमाथी १३ २१२नुं यार ४२ नये (उरेणं रिसहं सरं) पक्षस्यथा अपम २१२नु स्यार ४२वु नये. (कंठुग्गएणं गंधारं) न समाथी आधार २१२नु स्या२९५ ४२मध्ये (मज्झजीहाए मज्झिम) मना मध्यभागी मध्यम १२नु न्या२५ ४२७ न. (नासाए पंचम) नाथी पंयम:५२नु यार ४२वु नये. (दंतोटेण य घेवयं) इन्त४िथा धैवत २१२ २२।२५५ ४२ मध्ये (मुद्धाणेणं य णेसायं बूया) भने भूर्धाधा निष: २१२नु स्या२५ ४२ . (सरदाणा वियाहिया) मा प्रमाणे सात १२ स्थानानु ४थन ४२पामा मा०युछे.
अ० १००
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CO
अनुयोगद्वारसूत्र
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रौसि मयूरः, कुक्कुटः ऋषभं स्वरम् । हंसो रौति गान्धारं, मध्यमं च गवेलकः (मेषाः) ॥ ४ ॥ अथ कुसुमसंभवे काले, कोकिलाः पञ्चम स्वरम्। षष्ठं च सारसाः क्रौंचाः, निषादं सप्तमं गजाः ||५|| सप्तम्वराः अजीवनिश्रिताः प्रज्ञप्ताः तद्यथाषड्जं रौति मृदङ्गो, गोमुखी ऋषभं स्वरं । देखो रौति गन्धार, मध्यमं पुनर्झहरी ॥ ६ ॥ चतुश्चरणमतिष्ठाना, गोधिका पञ्चमं स्वरं। आडम्बरो धैवतकं, महाभेरीश्च सप्तमम् || सू० १६३ ॥
ना चाहिये । ( सरद्वाणा वियाहिया) इस प्रकार से सात स्वरस्थान व्याख्यात किये हैं । (सत्तसरा जीवणिस्त्रिया पण्णत्ता ) सात स्वर जीवनिश्रित कहे गये हैं । (तंजहा ) वे इस प्रकार से हैं - ( सज्जं रवह मरो) षड्जस्वर मयूर बोलता है (कुक्कुडो रिसहं सरं) कुक्कुट - ऋषभस्वर बोलता है | ( हंसो रवइ गंधारं ) हंस गांधार स्वर बोलता है ( मज्झिमं च गवेलगा) गवेलक- मेष बोलते हैं । (अह कुसुमसंभवे काले कोइला पंचमं सरं ) पुष्पोत्पत्तिकाल में कोयल पंचम स्वर बोलती है (छटुं च सारसा का छठा धैवत स्वर सारस और क्रौंच पक्षी बोलते हैं। (सत्तमं नेसायं गया) सातवां जो निषाद स्वर है उसे गज बोलते है। (सत सरा अजीवनिस्सिया पण्णत्ता) सात स्वर अजीवनिश्रित कहे
मध्यम-स्वर
गये हैं- (नं जहा ) वे इस प्रकार से हैं - ( सज्जं रवह मुयंगो) षड्ज मृदंग बोलता है (गोमुही रिसहं सरं) गोमुखी - वाद्यविशेष- ऋषभ स्वर बोलता है । (संखो गंधारं रवइ) शंख - गांधार स्वर बोलता है । (झल्लरीमज्झिम) झल्लरी मध्यमस्वर बोलता है । (चउचरणपट्टाणा गोहिया)
(तसरा जीवणिस्त्रिया पण्णत्ता) सात स्वरे। भवनिश्रित हेवामां माव्या (जहा) ते या प्रभा छे - ( सज्जं वइ मउरो) षडू ४ स्वर मयूर - भोर-माले छे. (कुक्कुडो रिसहं सरं) । ऋषभ स्व२ मासे छे. (मज्झिमं य गवेलगा) श्वेत- मेष- मध्यम स्वर से छे (अह कुसुमसंभवे काले कोइला पंचमं खरं ) पुण्योत्पत्ति सभां-यस पयमस्वर बोले छे. (छहूंच सारखा कोंचा) छ । धैवत स्वर सारस भने-डौंयपक्षी विशेष मासे छे. (वत्तमं नेसायं गया) सातमेो निषाद स्वर हाथी मोसे छे (प्रत्तसरा अजीवनिस्सिया पण्णत्ता) सात स्वरे। अभूव निश्रित उडेवामां आव्या छे (तंजहा) ते या प्रमाणे - सज्जं वह मुयंगो) षडू ४ स्वर भृहगमांथी नाणे छे. (गोमुही रिसहं खरं ) आभुमी - वाद्य विशेषभांथी ऋषभ स्वर नाम्जे छे. (संखो गंधारं खइ ) शमभांथी गांधार स्वर नीउणे छे. (झल्लरी मज्झिमं) जासरमांथी मध्यम स्वर नीडजे छे. (चरचरणपट्टाणा गोहिया) न्यारे पग लेना भीन पर भूरवामां
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मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६३ कारणतो विरनिरूपणम् टीका-'एएसि गं' इत्यादि
एतेषां सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरस्थानानि प्रज्ञशानि, अयं भावः एते षड्जादि सप्तस्वरा यस्मात् यस्मात् स्थानात् समुत्पद्यते तानि जिह्वाग्रभागादिस्वरस्था. नान्यपि सप्तसंख्यकानि सन्ति । नाभेरुत्थितोऽविकारी स्वर आभोगतोऽनाभोगतो वा जिहादिस्थानं प्राप्य विशेषमासादयतीति तत् स्वरस्योपकारकमतस्तत् स्वरस्थानमुच्यते, इति । तान्येव स्थानानि दर्शयति-तद्यथा-पड्ज स्वरम् अग्रजिह्वयाअग्रभूता जिह्वा-अग्रजिह्वा, तया जिह्वाग्रभागेन ब्रयात् । षड्जस्वरस्य स्थानं जिह्वायचारोंपैरों से जमीन ऊपर रखी गई ऐसो गोधिका-वाद्यविशेष-(पंचम सरं) पंचम स्वर को बोलनी है (आडंबरोधेवयं) आडंबर धेवत स्वर को बोलता है (महाभेरीय सत्तम) और महाभेरी सप्तम जो निषाद स्वर है, उसे बोलती है।
भावार्थ - इस स्त्र द्वारा सूत्रकारने सात स्वरों के सात स्थानों का कथन किया है । षड्ज आदि सात स्वर जिल २ स्थान से उत्पन्न होते हैं, वे जिह्वाग्रभाग आदि स्वरोत्पादक स्थान सात हैं। नाभिस्थान से उत्थित अविकारी स्वर आभोग (अनजान) से जिह्वा आदि स्थान को प्राप्त हो करके अपने में विशेषता प्राप्त कर लेता है, इसलिये वह जिहवा आदि स्थान उस स्वर का उपकारक होता है। अतः वह उस स्वर का स्थान कहा जाता है। सूत्रकारने इन्हीं सात स्वर स्थानों को यहां दिख. लाया है । षड्ज स्वर जिह्वाग्रभाग से योला जाता है। इसलिये उसका स्थान जिह्वाग्रभाग है।
भाव छ. सनी गाधिरा-वाघ विशेषमाथी (पंचमं सरं) ५यम २१२ नाणे (आडंबरो घेवयं) मामाथी घेत २५२ नीचे छ. (महाभेरीय मत्तम) २ મહાભેરીમાંથી સાતમે જે નિષાદ નામે સ્વર છે કે નીકળે છે.
ભાવાર્થ-આ સૂત્ર વડે સૂત્રકારે સાત વરેના સ્થાનેનું કથન કર્યું છે. ષડૂજ વગેરે સાત વાર જે જે સ્થાન વિશેષથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે જિહાગ્ર ભાગ વગેરે સાત સ્વરેત્પાદક સ્થાને છે નાભિરથાનથી ઉસ્થિત થયેલ અશિ કારી સ્વર આગ (જાણ) થી કે અનાભોગ (અજા)થી જિહા વગેરે સ્થાન સુધી પહોંચીને પોતાની જાતમાં એક વિશેષતા મેળવી લે છે. એટલા માટે જિહા વિગેરે સ્થાન તે સ્વર માટે ઉપકારક હોય છે. એથી તે તે રવરનું સ્થાન કહેવાય છે. સૂત્રકારે એજ સાત સ્વર સ્થાનેનું અહીં સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે ષડૂ જ સ્વર જિલ્લા ભાગથી ઉચ્ચરિત કરવામાં આવે છે તેથી તેનું નામ જિહાશ ભાગ છે.
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मनुयोगद्वारी भाग इत्यर्थः । ननु षड्जस्वरोच्चारणे कण्ठादीन्यपि स्थानान्याश्रीयन्ते, अप्रजिहाचस्वरान्तरेष्वप्याश्रीयते तत्कथं षड्नादिवेकैकस्य स्वरस्य अप्रजिहादिरूपमेकै स्थानमुच्यते ? इति चेदाह-यद्यपि षड्नादयः सर्वेऽपि स्वराः निह्वाग्रभागादीनि सर्वाण्यपि स्थानान्यपेक्षन्ते, तथापि विशेषत एकैकस्वरो निहायभागादिष्वेकैकं स्थानमादायैव व्यज्यते । अतस्तत्तत्स्वरस्य तत्तत्स्थानमुक्तमिति बोध्यम् । तथा-उरसाबक्षसा ऋषभं स्वरं ब्रूयात् । ऋषमस्वरस्य स्थानं वक्षो बोध्यम् । तथा-कण्ठोद्गतेन कष्ठादुद्गतम्-उद्गतिः-स्वरनिष्पत्तिहेतुभूताक्रिया तेन गान्धारं स्वरं ब्रूयात् । गान्धार
शंका-षड्ज स्वर के उच्चारण करने में कण्ठोदिक स्थानों का भी सहारा लेना पड़ता है, तथा अग्रजिह्वा दूसरे स्वरों में भी उपयुक्त होती है, तो फिर षडूज-आदि स्वरों में से एक २ स्वर का अग्रजिह्वा आदि रूप एक २ स्थान प्रतिनियत कैसे कहा जा सकता है ?
उत्तर-यद्यपि षड्ज आदि समस्त भी स्वर जिहूवाग्रभाग आदि रूप समस्त स्थानों की अपेक्षा करते हैं, तो भी विशेष रूप से एक २ स्वर जिहवाग्रभागादिक रूप स्थानो में से एक २ स्थान को आश्रित करके ही अभिव्यक्त (प्रकट ) होता है। इसलिये उस २ स्वर का वहवह स्थान कहा जाता है। इसी अभिप्राय को लेकर यहां सूत्रकारने एक २ स्वर का एक एक स्थान कहा है। वक्षस्थल से ऋषभ स्वर बोलना चाहिये इस कथन से यही जाना जाता है कि-'ऋषभ स्वर का वक्ष. स्थल स्थान है । स्वर की निष्पत्ति की हेतुभूत जो क्रिया कंठ से होती
શંકા-ષડૂ જ સ્વરને ઉચ્ચાર કરતાં કંઠ વગેરે સ્થાને ના પણ આધાર દેવા પડે છે. તેમજ અજિહા બીજા પણ કેટલાક સ્વરના ઉચ્ચારણ માટે સહાયબત હોય છે. તે પછી ષડૂ જ વગેરે સ્વરમાંથી એક એક સ્વરનું અજિહા વગેરે રૂપ એક એક સ્થાન પ્રતિનિયત કેવી રીતે કહેવાય?
ઉત્તર-જે કે ષડૂ જ વગેરે બધા વરે જિલ્લા ભાગ વગેરે બધાં સ્થાને ઉપયોગ કરે છે. છતાં એ વિશેષ રૂપથી દરેક સ્વર જિહાગ્ર ભાગાદિક સ્થાનેમાંથી કોઈ એક સ્થાનને સમાશ્રિત કરીને જે ૨ક્ત (ઉચ્ચરિત) થાય છે. એટલા માટે તે સ્વરનું તે સ્થાન કહેવાય છે એ જ અભિપ્રાયને લઈને અહીં સૂત્રકારે દરેક સ્વરનું એક એક સ્થાન કર્યું છે. વક્ષસ્થળથી જ સ્વરનું ઉચ્ચારણ કરવું જોઈએ આ કથનથી એજ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે ત્રણ વરનું સ્થાન વક્ષસ્થળ છે વરની નિષ્પત્તિમાં હેતભૂત જે ક્રિયા કંઠથી થાય છે,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६३ कारणतो स्वरनिरूपणम् स्वरस्य स्थानं कण्ठो बोध्यम्' तथा-मध्य जिह्वयाजिह्वाया मध्यो भागो मध्यजिह्वा, तया-मध्यमं वरं वयात् । जिह्वाया मध्यभागो मध्यमस्वरस्य स्थानमितिभावः। तथा-नासया-नासिकया पञ्चमं स्वरं ब्रूयात् । पश्चमस्वरस्य स्थानं नासिकेत्यर्थः। तथा दन्तोष्ठेन-दन्तोष्ठक्रियया धैवतं स्वरं ब्रूयात् । धैवतस्वरस्य स्थानं दन्तोष्ठं बोध्यम् । तथा-मूनां मूर्धस्थानेन निषादं स्वरं ब्रूयात् । निषादस्वरस्य स्थानं मूर्धा बोध्यम् । एतानि जिह्वाग्रभागादीनि सप्त स्वरस्थानानि भगवता व्याख्यातानि। इत्यं स्वरस्थानान्युक्त्वा सम्पति 'को जीवः कं स्वरं ब्रूते' इति दर्शयति-'सत्त सरा जीवनिस्तिया' इत्यादिना ‘णिसायं सत्तमं गया इत्यन्तेन । अर्थः स्पष्टः। नवरम्-गावश्च-एलकाश्चेति गवेलकाः, यद्वा गवेलकाः-मेषा एव। कुसुमसंभवेहै, उसका नाम 'कंठोद्गत' है इससे गांधार स्वर बोला जाता है, अतः गांधार स्वर का स्थान -कंठ है । जिह्वा का जो मध्य भाग है-उससे मध्यम स्वर बोला जाता है। इस कारण मध्यम स्वर का स्थान जिह्वा का मध्य भाग है। 'नासिका से पंम स्वर बोलना चाहिये' इस कथन से यही जाना जाता है-कि 'पंचम स्वर का स्थान नासिका है।' 'दन्तो. ष्ठ क्रिया से धैवत स्वर को बोलना चाहिये' इस कथन से यही स्पष्ट होता है कि 'धैवत स्वर का स्थान दन्तोष्ठ है । 'मूर्धा से निषाद स्वर बोलना चाहिये' इससे यही जाना जाता है कि 'निपाद स्वर का स्थान मूर्धा है ।' ये जिह्वाग्रभागादिक ससस्थरस्थान भगवान् ने कहे हैं। इस प्रकार सात स्वरों के स्थान कहकर सूचकारने पुनः यह बतलाया है कि-कौन २ जीव किस २ स्वर को पोलता है-? "गवेलक" में गौ और एलक ये दो प्राणी आये हैं। अथवा गवेलक का अर्थ मेष તેનું નામ કઠોદ્દગત છે. એનાથી ગાંધાર સ્વર ઉચ્ચરિત થાય છે એથી ગાંધાર સ્વરનું નામ કંઠ છે. જિહાના મધ્ય ભાગથી મધ્યમ સ્વરનું ઉચ્ચારણ થાય છે. એથી જિલ્લાને મધ્ય ભાગ મધ્યમ સ્વરનું સ્થાન છે નાકથી પંચમ સ્વરનું ઉચ્ચારણ કરવું જોઈએ આ કથનથી આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે પંચમ વરનું સ્થાન નાસિકા છે. દત્તેષ્ટિ ક્રિયાથી ધિવત સ્વર બેલ જોઈએ આ કથનથી એજ વાત જણાય છે કે દૈવત સ્વરનું સ્થાન દન્તક છે મૂર્ધાથી નિષાદ સ્વર બેલ જોઈએ એથી એ વાત જણાય છે કે, નિષાદ જવરનું સ્થાન મૂર્ધા છે એ જિહાગ્ર ભાગ વગેરે સમસ્વર સ્થાનો ભગવાને કહ્યા છે.
આ પ્રમાણે સપ્તસ્વરાના સ્થાન વિષે માહિતી આપીને સૂત્રકાર કરી એ બતાવે છે કે-કયા કયા છો કયા કયા સ્વરથી બોલે છે? “ ગવેલકમાં ગ અને એલક એ બે પ્રાણુઓ છે અથવા ગલકનો અર્થ મેષ પણ છે.
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काले बसन्तसमये । अथ यस्मात् यस्मात् वायाद् यो यः स्वरो निर्गन्छास, तं तमाह-तद्यथा-तदर्शयति-'सत्त सरा अजीवनिस्सिया' इत्यादिना 'महाभेसे य सत्तमं' इत्यन्तेन । अर्थः स्पष्टः। नवरं-गोमुखी यस्या मुखे गोशृङ्गादि वस्तु स्थाप्यते सा 'काइला' इत्यपरनाम्ना प्रसिद्धा। चतुश्चरणमतिष्ठाना गोधिकार चतुर्भिश्चरणैः प्रतिष्ठानं भुवि यस्याः सा तथाभूता गोधिका-गोधैव गोपिका चर्मावनद्धा दर्दरिकेत्यपरनाम्ना पसिद्धा वायविशेषः। आडम्बर:=पटहः । सप्तमंझ निषादम् । अत्रेदं बोध्यम्-यद्यपि मृदङ्गादि जनितेषु स्वरेषु नाभ्युरःकण्ठायुस्पद्य मानरूपो व्युत्पत्त्यर्थों न घटते, तथापि-मृदङ्गादि वाद्येभ्यः षड्जादिस्वरसाः स्वरा उत्पद्यन्ते । अतएव तेषां मृदङ्गाधनीवनिश्रितत्वमुक्तम् ।।मू०१६३॥
संपति एषां सप्तस्वराणां लक्षणान्याह__ मूलम्-ए एसिं णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरलक्खणा पण्णत्ता, तं जहा-सजेण लहई वित्ति, कयं च न विणस्सइ । गावो पुसा य मित्ता य, नारीणं होइ वल्लहो।।१॥ रिसहेण उ एसजं, सेणाभी है । कुसुमसंभवकाल का तात्पर्य वसन्त ऋतु से है। जिसके मुख पर गोश्रृंग आदि स्थापित किया जाता है तथा जिसका दूसरा नाम 'काहला' है, वह वाद्यविशेष 'गोमुखी' कहलाता है । चतुश्चरण प्रति. ठाना गोधिका भी एक प्रकार का वाद्यविशेष होता है इस का नाम 'दर्दरिका' है। यह चमड़े से मढा हुआ होता है । 'आडम्बर' पयह को कहते हैं । यद्यपि मृदङ्ग आदि जनित स्वरों में नाभि उरस् कण्ठ आदि से उत्पन्न होना रूप व्युत्पत्यर्थ घटित नहीं होता है, तो भी मृदंग आदि वायों से षड्ज आदि स्वरों के सदृश स्वर उत्पन्न होते हैं, इसलिये उन्हें मृदंगरूप अजीव से निश्रित कहा है ॥सू०१६३॥ કસમ સંભવકાલ એટલે વસંત ઋતુ છે જેનાં મુખ પર ગોવંગ, વગેરે
સ્થાપિત કરવામાં આવે છે તેમજ જેનું બીજું નામ “કાહલા” છે તે વાવવિશેષ “ગોમુખી' કહેવાય છે ચતુશ્ચરણ પ્રતિષ્ઠાના ગાધિકા પણ એક વાદ્ય વિશેષ છે એનું નામ “દર્દરિકા” છે. એ ચામડીથી બનાવેલું હોય છે “આડંબર” પટને કહે છે. જો કે મૃદંગ વગેરેથી ઉત્પન્ન સ્વરમાં નાભિ, ઉરસ, કંઠ વગેરેથી ઉત્પત્તિ રૂપ વ્યુત્પત્યર્થ નીકળતું નથી, છતાં એ મુહંગ વગેરે વાઘોથી ષડ્રજ વગેરે સવની જેમ જ સવર ઉપન થાય છે. એથી તેમને મૃદંગ રૂપ અછવથી નિશ્રિત કથા છે. સૂ૦૧૬૩
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७९९ मनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६४ सप्तस्वरलक्षणनिरूपणम् वच्चं धणाणि य । वाथ गंधमलंकारं, इथिओ सयणाणि या॥२॥ गंधारे गीयजुत्तिण्णा, वज्जवित्ती कलाहिया। हवति कइणो पण्णा, जे अण्णे सत्थपारगा॥३॥ मज्झिमस्सरसंपन्ना, हवंति सुहजीविणो । खायई पियई देई, मज्झि मस्सरमस्सिओ॥४॥ पंचमस्सरसंपन्ना हवंति पुढवीवई । सूरा संगहकत्तारो अणेगगणनायगा॥५॥धेवयस्सरसंपन्नावंति कलहप्पिया। साउणिया वग्गुरिया, सोयरिया मच्छबंधा य ॥६|| चंडाला मुट्रिया मेया, जे अन्ने पावकामिणो। गोघातगा य जे बोरा, णिसायं सरमस्सिया ॥७॥सू०१६४॥
छाया-एतेषां खलु सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरलक्षमानि प्रज्ञशानि, तद्यथाषड्जेन लभते वृति, कृतं च न विनश्यति । गावः पुत्राश्च मित्राणि च, नारीणां
अब सूत्रकार इन सात स्वरों के लक्षणों को कहते हैं"एएसि णं सत्तण्हं" इत्यादि।
शब्दार्थ-(एएसिं सत्तण्हं सराणं इन सात स्वरों के (सरलकवणा स्वर लक्षण-तत् तत्-फल की प्राप्ति के अनुसार वरव-सत्त) सात (पण्णत्ता) कहे गये हैं। (तंजहा) वे इस प्रकार से है-(सम्जेण वित्तिलहई) षहज स्वर से मनुष्य-आजीविका प्राप्त करता है। (कयं च ण विण
सड) तथा षड्ज स्वरवाले व्यक्ति का कृतकर्म नष्ट नहीं होता है। (गावो पुत्ता य मित्ता य नारीण होइ वल्लहो) इस को गायें पुत्र और
હવે સૂત્રકાર એ સાત સ્વરેના લક્ષણ કરે છે– “एएसि णं सत्तण्हं" याह
शहाथ-(एएसिणं सत्तण्डं सराणं) से सात स्वराना (सरलक्खणा) ५१२३क्षय-ते तानी प्रासिनी अपेक्षा ११२तत्व (मत्त) सात (पण्णत्ता) 3. qui माया छे (तंजहा) ते मे मा प्रमाणे छ (सज्जेण वित्तं लइई) ५३४ स्वरथी भारस माविध प्रासरे छे (कयंच ण विणस्सइ) तेभर ५३०४ २१२पाणी व्यति साना तिनाथ पामता नथी अर्थात् । सिद्ध ४२ छे. (गावो पुत्ता य मित्ता य नारीर्ण होइ वल्लहो) मान आये पुत्र मन भित्र डाय छे. श्रीमान से हर
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भवति वल्लभः॥१॥ ऋषमेण तु ऐश्वर्य सेनापत्यं धनानि च । वस्त्रगन्धम् अलंकार, स्त्रियः शयनानि च ॥२॥ गान्धारे गीतयुक्तिज्ञाः वयवृत्तयः कलाधिकाः। भवन्ति कवयो प्राज्ञाः, ये अन्ये शास्त्रपारगाः ॥३॥ मध्यम स्वरसम्पमा भवन्ति-सुखजीविनः । खादति पिबति ददाति, मध्यमस्वरमाश्रितः ॥४॥ पञ्चमस्वरसम्पमा मित्र होते हैं। यह स्त्रियों को बहुत प्यारा होता है। (रिसहेण उ एसज्ज) ऋषभ स्वर से मनुष्य ऐश्वर्य-ईशनशक्तिवाला-होता है (सेणाबच्चं धणाणिय) इस स्वर के प्रभाव से वह सेनापतित्व को धन को, (वस्थगंधमलंकारं इत्यिो सयणाणि य) वस्त्रों को गंधपदार्थों को, असं कारों को, स्त्रियों को, और शयनों को पाता है। (गंधारे गीयजुक्लिपणा) गान्धार स्वर से गाना गानेवाले मनुष्य (वजवित्ती कलाहिया) श्रेष्ठ आजीविकावाले होते हैं तथा कलाओं के ज्ञाताओं में शिरोमणि होते हैं। (कइणो पण्णा हवंति) कवि-काव्यकर्त्ता-होते हैं अथवा-"कहणोकृतिनः" इस छाया पक्ष में कर्तव्यशील होते हैं। प्राज्ञः-सदरोध संपन्न-होते हैं । (जे अण्णे सत्यपारगा) तथा जो पूर्वोक्त गीत युक्तिज्ञ
आदि कों से जो भिन्न होते हैं-वे, सकलशास्त्रों में निष्णात होते हैं। (मज्झिमस्सरसंपन्ना) जो मध्यम स्वर से युक्त होते हैं, वे (सुहजीविणो हवंति) सुखजीवि होते हैं । (खापई पियई देई मज्झिमस्सरमस्सिओ) सुखजीवि कैसे होते हैं ? इसी बात को सूत्रकार कहते हैं कि वे सुस्वादु भोजन को मनमाना खाते हैं, दुग्धादि का पान करते हैं। दूसरों को प्रिय खाय छ (रिसहेण उ एसिज्ज) ७५२१२थी भास भैश्य-शन शस्त सप-न-डाय छे. (सेणावच्चं धणाणि य) मा ५१२ना प्रभाथी सेनापतिपन, धनने, (वत्थगंधमलंकार इथिओ सयणाणिय) पसी, भार्थी, मरे, श्रीशा, तमल शयनाने मेवे छे. (गंधारे गीय जुत्तिण्णा) गान्धार २१२थी गाना। भाणुसे। (वज्जवित्ती कलाहिया) श्रेष्ठ माविमा य छ तर
साविमा श्रे०४ गाय छे. (कइणोवण्णा हवंति) १०२ हाय छ अथवा 'कइणो-कृतिनः' मा छाया पक्षमा ४०laसाय छे प्राज्ञ:-सहाय अप हाय छे. (जे अण्णे सत्यपारगा) तम पूजित त युतिश वगेरेकी
भिन्न डाय छ त। स शालोम नित छ. (मज्झिममरसंपन्ना) २। मध्यम २१२ स५-- य छे ते (सुहजीविणो हति) सुमलव हाय छे. (वायई पियई देई, मज्झिमस्सरमस्सिओ) सुभटरी છે? એજ વાતને સૂત્રકાર હવે સ્પષ્ટ કરે છે–કે તેઓ પિતાની ઈચ્છા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६४ सप्तस्वरलक्षणनिरूपणम् भवन्ति पृथिवीपतयः । शूराः संग्रहकर्तारः, अनेकगणनायकाः ॥५॥ धैवतस्वरसम्पन्ना भवन्ति कलहपियाः । शाकुनिका वागुरिकाः सौकरिका मत्स्यबन्धाश्च ॥६॥ चाण्डालामौष्टिकाः सेया ये अन्ये पापकर्माणः । गोघातकाश्च ये चोरा निषादं स्वरमाश्रिताः ॥ ७॥ सू० १६४ ॥ भी इसी प्रकार से खिलाते पिलाते रहते हैं । (पंचमस्सरसंपन्ना हवंति पुढवीवई) जो पंचमस्वर से युक्त होते हैं वे पृथिवीपति होते हैं। (सूरा संगहकत्तारो अणेगगणनायगा) शूरवीर होते हैं, संग्रह करनेवाले होते हैं और अनेक गणों के नायक होते हैं। तथा जा (धेवयस्सरसंपन्ना हवंति कलहप्पिया) जो धैवतस्वरवाले होते हैं वे कलहप्रिय होते हैं-लड़ाई झगडा करना उन्हें बहुत पसन्द आता है। (साउणियावग्गुरिया सोयरिया, मच्छयंधा य) शाकुनिक-पक्षियों का शिकार करनेवाले, होते हैं, वागुरिक-हरिणों की हत्या करनेवाले होते हैं, सौकरिक-सुअरों का शिकार करनेवाले, होते हैं, और मत्स्यबंधमछलियों को मारनेवाले, होते हैं ! (चंडाला) तथा जो चांडाल-रौद्रकर्मा हैं (मुट्ठिया) मुष्टि से प्रहार करनेवाले हैं (सेया) अधम जातीय हैं-(जे अन्ने पावकस्मिणो) तथा इनसे भिन्न जो पाप कर्मों में परायण बने हुए प्राणी हैं, तथा जो (गोघातगा) गोघात करनेवाले हैं (जे चोरा) जो चोरी करनेवाले हैं (णिसायं सरमस्सिया)वे सय निषाद स्वर से आश्रित મુજમ તૃપ્તિદાયક સુસ્વાદુ ભોજન મેળવે છે. દૂધ વગેરે પીવે છે. બીજાઓને ५ मेवी शत माता पी.पता २ छे. (पंचमस्सरसंपन्ना हवंति पुढवीवई) २॥ ५यम २१२ सपन्न य छ त पृथ्वीपति डाय: छे. (सूरा संगहकत्तारो अणेगगणनायगा) शूरवी२ सय छ, सह ४२ना२ डाय छ भने । गाना नेता डाय छे (धेवयस्सरसंपन्ना) तेभ रे धैवत २१२. पापाय छे. (हवंति कलहप्रिया) ते ४ प्रिय हाय छ , स, त:२१२ तेभने म गमे छे. (साउणिया वग्गुरिया सोयरिया, मन्बंधा य) - નિક-પક્ષીઓને શિકાર કરનાર હોય છે વારિક-હરણની હત્યા કરનારા હોય છે સૌકરિકસૂવરનો શિકાર કરે છે અને મત્સ્ય બંધ-માછલીઓને भारना२ डाय छे. (चंडाला) तम यांस-शा -छ, (मुद्रिया) भुष्टिपार ४२ना२। डाय छे. (सेया) अधम त डाय छ (जे अन्ने पावकम्मिणो) तमन मेमनाथी मिन्न २ ५।५ मा २१ २२ छ तया २ (गोघातगा) गो१५ ४२ना२ डाय छे (जे चोरा) २॥ योरी ४२ना। 2. (णिखाय 'सर
अ० १०१
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मनुयोगहाररणे टीका-'एएसिण' इत्यादि
एतेषां सप्तानां स्वराणां सप्त स्वरलक्षणानितत्तत्फलप्राप्त्यनुसारीणि स्वरसच्चानि कथितानि । तान्येव फळत आह-तद्यथा-षड्जेन लभते वृत्तिम्' इत्यादिभिः सप्तभिः श्लोकः । तथाहि-षड्जेन स्वरेण जनो वृति जीविकां लभते। तथा षड्नस्वरवतो जनस्य कृतं कर्म विनष्टं न भवति सफलमेव भवतीत्यर्थः। तस्य गावः पुत्रा मित्राणि च भवन्ति । तथा स स्त्रीणां वल्लभः प्रियश्च भवति । ऋषमेण स्वरेण तु ऐश्वर्यम् ईशनशक्तिमत्त्वं, सेनापत्यं-सेनापतित्वं, धनानि, वस्त्रगन्धम् वस्त्राणि गन्धांश्च, अलंकारं स्त्रियः शयनानि च लभते । तथा-गान्धारे गान्धारस्वरे गीतयुक्तिज्ञाः गीतयोजनावेत्तारः-गान्धारस्वरगानकार इत्यर्थः, वर्यवृत्तयः-वर्याः श्रेष्ठा वृतिः जीविका येषां ते तथा-श्रेष्ठजीविकावन्तः, कलाधिका:-कलाभिरधिका कलाज्ञेषु मुर्धन्याश्च भवन्ति । तथा-कवयः काव्यकारः, 'कृतिनः' इतिच्छायापक्षे- कत्तव्यशीलाः, प्राज्ञासबोधाश्च भवन्ति । ये अन्ये पूर्वोक्तभ्यो गीतयुक्तिज्ञादिभ्यो ये भिन्ना भवन्ति ते शास्त्रपारगाः सकल शास्त्र. निष्णाता भवन्ति । तया-मध्यमस्वरसम्पन्नास्तु सुखजीविनः=सुखेन जीवितुं शीला भवन्ति । सुखजीवित्वमेव प्रकटयति मध्यमस्वरमाश्रितो जनो हि खादति-सुस्वादु भोजनं भुङ्क्ते, पिबति दुग्धादिपानं करोति, ददाति अन्यानपि भोजयति पायपति च । पञ्चमस्वरसम्पन्नास्तु पृथिवीपतयो भवन्ति, तथा-शुराः संग्रहकर्तारः अनेकगणनायकाच भवन्ति । तथा-धैवतस्वरसम्पन्नास्तु कलहप्रिया:-क्लेशकारका भवन्ति तथा-शकुनिकाः-शकुनेन श्येनेन पर्यटन्ति, शकुनान्=पक्षिणो घ्नन्ति वा शकुनिका: पक्षिघातका लुब्धकविशेषाः । वागुरिका:-वागुरा-मृगबन्धिनी, तया चरन्तीति वागुरिकाः हरिणघातका लुब्धकविशेषाः, सौकरिकाः सूकरेणसूकरवधार्थ चरन्ति, सूकरान् घ्नन्ति वा सौकरिकाःकरघातका लुब्धकविशेषाः, तथा-मत्स्यबन्धाः मत्स्यघातिनश्च भवन्तीति । तथा-ये चाण्डाला: चाण्डकर्माणः, मौष्टिकः-मुष्टिः प्रहरणं येषां ते तथा, मुष्टिभिः पहरणशीला इत्यर्थः, सेयाः अधमजातीया मनुष्याश्च सन्ति, एभ्योऽन्ये च ये पापकर्माणः= पापकर्मपरायणाः सन्ति, तथा च ये गोघातकाः सन्ति, ये च चौराः सन्ति, ते सर्वे निषादस्वरमाश्रिता विज्ञेयाः इति । एष पाठः स्थानागानुसारेण व्यख्यातो पृहीतश्च ॥सू० १६४॥ है, ऐसा जानना चाहिये । यह पाठ स्थानाङ्ग के अनुसार व्याख्यात किया है-और वहीं से किया है। सू०१६४॥ मस्सिओ) a निभा २५२नु स्या२५ ४३ छ स्थाना प्रभार मा 48 मही વ્યાખ્યાત કરવામાં આવ્યું છે–અને ત્યાંથી જ લેવામાં આવ્યો છે. સૂ૧૬૪
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भनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६५ स्वराणां ग्रामान मूर्च्छनांश्चनिरूपणम् ८०३ अथैषां स्वराणां ग्रामान् एकैकग्रामस्य मूछनाश्चाह
मूलम्-एएसिं गं सत्तण्हं सराणं तओ गामा पण्णत्ता, तं जहा-सजगामे मज्झिमगामे गंधारगामे। सजगामस्सणं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-मंगीकोरवीया हरी य, रयणी य सारकंता य। छट्ठी य सारसी नाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा॥१॥ मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-उत्तर मंदा रयणी, उत्तरा उत्तरा समा। समोकंता य सोवीरा, अभीरू हवइ सत्तमा ॥२॥ गंधारगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-नंदी य खुड्डिया पूरिमा य, चउत्थी य सुद्धगंधारा । उत्तरगंधारा वि य, पंचमिया हवइ मुच्छा उ॥३॥ सुदुत्तर मायामा, सा छट्ठी नियमसो उ णायव्वा। अह उत्तरायया कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा ॥४॥सू०१६५॥
छाया-एतेषां खलु सप्तानां स्वराणां त्रयो ग्रामा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा षड्ज: प्रामः मध्यमग्रामः गान्धारग्रामः । षड्जग्रामस्य खलु सप्त मूच्र्छनाः प्रज्ञप्ता,
अब सूत्रकार इन स्वरों के ग्रामों को और एक एक ग्राम की मूळ. नाओं को कहते हैं-"एएसिं णं सत्तण्हं सराणं" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(एएसि णं सत्तण्हं सराणं) इन सातस्वरों के (तओ गामा पण्णत्ता) तीन ग्राम कहे गये हैं । (तं जहा) वे इसप्रकार हैं-(सज्जगोमे, मझिमगामे गंधारगामे) १ षड्ज ग्राम, २, मध्यमग्राम, ३ गान्धारग्राम, । (सज्जगामस्स णं सत्तमुच्छणाओ पण्णताओ) षड्ज-ग्राम की सात
હવે સૂવકાર આ સ્વરના ગ્રામ અને દરેકે દરેક ગ્રામની મચ્છનાઓ विष प्रयन रे ठे-" एएसिं णं सत्तण्हं सराणं "त्याह
साथ-(एएसि णं सत्तण्हं सराणं) मा सात १शना (तओ गामा पण्णचा) १ आभा उपाय छे (तंजहा) ते मा प्रभारी छ. (सज्जगामे, मनिममगामे गंधारगामे) १५० ग्राम, २ मध्यम श्राम, 3 गान्धाराम. (सन्ज. गामस्म णं सत्तमुच्छणा ओ पगत्ताओ) पर आमनी सात भूछना। .
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अनुयोगद्वारस्ये तद्यथा -मङ्गी कौरवीया हरिश्च, रजनी च सारकान्ता च । षष्ठी च सारसीनाम, शुद्धषड्जा च सप्तमी ॥१॥ मध्यमग्रामस्य खलु सप्त मूर्च्छनाः प्रज्ञताः, तद्यथाउत्तरमन्दा रजनी उत्तरा उत्तरसमा । समवक्रान्ता च सौवीरा, अमीरुभवति सप्तमी ॥२॥ गान्धारग्रामस्य खलु सप्तमूर्च्छनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-नन्दी च क्षुद्रिका पूरिमा च चतुर्थी च शुद्धगान्धारा । उत्तरगान्धाराऽपि च सा पञ्चमिका भवति मृ. ॥३॥ सुष्ठूत्तरायामा सा षष्ठी नियमशस्तु ज्ञातव्या । अथ उत्तरायता कोटिमा च सा सप्तमीमूर्छा ॥४॥त्र०१६५॥ मूर्छनाएँ कही हैं। (तं जहा) वे इसप्रकार से हैं-(मंगी कोरव्वीया हरी य, रयणीय सारकंताय छट्ठी य सारसीनाम सुद्धसज्जाय सत्तमा)१ मंगी, २ कौरवीया, ३ हरि, ४ रजनी, ५ सारकान्ता, छठीसारसी और सातवीं शुद्ध षड्जा । (मज्झिमगामस्त णं सत्तमुच्छणाओ पण्णत्ताओ) मध्यम ग्राम की सात मूर्छनाएँ कही हैं । (तं जहा) वे इस प्रकार से हैं-(उत्तरमंदा रयणी उत्तरा उत्तरा समा समोकंता य सोवीरा, अभीरू हवइ सत्तमा) १ उत्तर मंदा, २ रजनी, ३ उत्तरा ४ उत्तरसमा, समवक्रान्ता, ६सौवीरा
और सातवीं अभीरू । (गंधारगामस्स णं सत्तमुच्छणाओ पण्णत्ताओ) गांधार ग्रामकी सात मुर्छनाएँ कही हैं। (तं जहा-) वे इसप्रकार से हैं. (नंदीय खुड्डिया, पूरिमा य, चउत्थीय सुद्धगंधारा । उत्तरगंधारा विय पंचमिया हवइ मुच्छाउ) नन्दी, क्षुदिका, पूरिमा, चौथी, शुद्ध गान्धारा, पांचवीं उत्तरगांधारा (सुटु त्तरमायासा छट्ठी नियमसो उ णा
मा भावी छ. (तंजहा) ते भा प्रभारी छ (मंगी कोरव्वीया हरी य, रयणीय मारकंता य छट्ठीय सारसी नाम सुद्धमज्जा य सत्तमा) १ मा, २ १२वीया, ३७२, ४ २गनी ५ सान्ता , ६ सरसी भने ७ शुद्धघडू (मझिम मामस्प णं सत्तमुच्छणाओ पण्णताओ) मध्यम प्रामनी सात भूछना। ४उपाय छे. (तंजहा) ते 41 प्रमाणे छे (उत्तर-मंदा रयणी उत्तरा उत्तरा समा समोकंता य सोवीरा, अभीरू हवइ सत्तमा) १ उत्तरमा, २ २०४नी, 3 ઉત્તરા, ૪ ઉત્તરસમા, ૫ સમવક્રાંતા ૬ સૌવીરા, ૭ અને અભીરું (गंधारग्रामस्सणं सत्तमुच्छणाओ पण्णत्ताओ) गांधार श्रामनी सात भूछ. नाम उपामा माकी छे. (तजहा) a मा प्रमाणे छ:-(नंदी य खुड्डिया, पूरिमा य, च उत्यीय, सुद्धगंधारा उत्तरगंधारा वि य पंचमिया हवइ मुच्छा)
नही, २६द्रिा, 3 ५RI, ४ शुद्ध धा२, ५त्तर गांधा। (सुठुत्तरयामा सा छट्ठी नियमसो उ णायव्वा अहं उत्तरायया कोडिमा यसा खत्तमी मुच्छा) ૬ સુડુત્તરાયામ અને ૭ મૂછ ઉત્તરાયતા કટિમા.
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भोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६५ स्वराणां ग्रामान मूर्च्छनांश्च निरूपणम् ८०५ टीका- एएसिप' इत्यादि
व्याख्या स्पष्टा।-अयं भावः-मूर्च्छनानां ससमूहः षड्जादिविधा ग्रामो विशेयः । एकैकस्मिन् ग्रामे तु सप्तसप्तमूर्च्छना भवन्ति । ततः सप्तस्वराणामन्यान्यस्वरविशेषान् उत्पादयतो गायकस्य एकविंशतिर्मुर्छना भणिताः । कर्ता च . मूछित इत्र ताः करोतीति मूर्च्छना उच्यन्ते, मूर्च्छनिव वासकर्ता ताः करोतीति मुर्छना उच्यन्ते इति । मङ्गीप्रभृतीनामेकविंशतिमूर्च्छनानां स्वरविशेषाः पूर्वगतस्वरमाभृते भणिता;। इदानीं ते . तद्विनिर्गतेभ्यो भरतादिनिर्मितशास्त्रेभ्यो विझेयाः ॥०१६५॥
पव्वा । अह उत्तरायया कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा) छठी सुष्ठूत्तरायामा और सातवीं मुर्छा उत्तरायता कोटिमा।
भावार्थ-इसका भाव यह है कि मूछनाओं का जो समूह है उस समूह से युक्त जो षडूज आदि ग्राम है, और वे तीन प्रकार के हैं। एक २ ग्राम में सात २ मूर्छनाएँ होती हैं । इस कारण सात स्वरों के अन्य अन्य विशेष स्वरों को उत्पन्न करने वाले गायक की २१ मुर्छ. नाएँ कही गई हैं गायनकर्ता मूच्छित हुए अथवा मानों के जैसा मूच्छित सा होकर-उन्हे करता है इसलिये मूर्च्छना कहलाती हैं। मंगी आदि२१ मूर्च्छनाओं के स्वर विशेष पूर्व संबन्धी स्वर प्राभृत में कहे हुए है। इस समय वे, स्वर प्रामृत से निर्गत हुए शास्त्रों से जिन्हे कि भरत आदि-नाटयकारों ने बनाये हैं । उनसे जाने जा सकते हैं ॥सू० १६५॥ | ભાવાર્થ-એને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે મૂછનાઓને જે સમૂહ છે અને તે સમયથી યુક્ત જે ષજ વગેરે ગામો છે તે ત્રણ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે દરેકે દરેક ગામમાં સાત મૂચ્છનાઓ હોય છે. એથી સાતસ્વરના જુદા જુદા વિશેષ સ્વરોને ઉત્પન્ન કરનારા ગાયકની જેમ ૨૧ મૂરછનાઓ કહેવામાં આવી છે. ગાયક મૂછિત (બેભાન) થયેલાની જેમ અથવા જાણે કે મૂછિતની જેમ થઈને તમને કહે છે. એટલા માટે એઓ મૂચ્છનાઓ કહેવાય છે મંગી વગેરે ૨૧ મૂચ્છનાઓના સ્વર વિશેષ પૂર્વસંબંધી સ્વર પ્રાભૃતમાં કહેવામાં આવ્યા છે. હમણા તે વર પ્રાભૂતથી નિર્ગત થયેલા શાસ્ત્રો વડે-કે જેમને ભારત વગેરે નાટ્યશાસ્ત્રકારોએ બનાવ્યા છે જાણી શકાય છે. સૂ૧૬૫
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मनुयोगद्वार एते सप्तस्वराः कुतो भवन्ति ? इत्यादि प्रश्नचतुष्टयपूर्वाणि तदुत्तराणि प्रोच्यन्ते
मूलम्-सत्त सरा कओ संभवंति ? गीयस्त का हवंति जोणी? कइ समया उस्सासा ? कइ वा गीयस्स आगारा ? ॥१॥ सत्त सरा नाभीओ हवंति, गीयं च रुइयजोणियं । पायसमा ऊसासा, तिण्णि य गीयस्स आगारा ॥२॥ आइमिउ आरभंता समुन्वहंता य मज्झगारंमि। अवसाणे तज्जवितो, तिन्नि य गीयस्स आगारा ॥३॥सू०१६६॥
छाया- सप्त स्वराः कुतः संभवन्ति ? गीतस्य का भवन्ति योनयः ? कति समया उच्छ्वासाः ? कति वा गीतस्य आकाराः ॥१॥ सप्तस्वरा नाभितो, भवन्ति, गीतं च रुदितयोनिकम् । पादसमाउच्छ्वासाः, त्रयश्च गीतस्य आ
ये सात स्वर कहां से होते हैं इत्यादि जो चार प्रश्न हैं उनका उद्भा वन करते हुए सूत्रकार उनका उत्तर देते हैं
"सत्तसरा कओ" इत्यादि।
शब्दार्थ-(सत्तसरा को संभवंति) प्रश्न-सात स्वर कहां से उत्पन्न होते है ? (गीयस्त का हवंति जोणी) गीत की जातियां क्या है ? (का समया उस्सासा?) गीत के उच्छ्वास कितने समय के प्रमाणवाले होते हैं (कति वा गीयस्स आगारा) गीत के आकार कितने होते है ?
उत्तर-(सत्तसरनाभीओ हवंति) सात स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। (गीयं च रुपजोणियं) गीत रुदितयोनिक होता है। (पायसमा ऊसासा) पाद सम उच्छ्वास होते हैं । (गीयस्स तिणि आगारा) गीत के तीन
એ સાત સ્વરે કયાંથી પ્રગટ થાય છે વગેરે જે ચાર પ્રશ્નો છે તેમનું ઉદ્દભાવન કરતાં સૂત્રકાર તેમના જવાબમાં કહે છે કે
" सत्तसरा कओ" त्याह
शहाथ-(सत्तसरा कओ संभवंति) प्रश्न सात-१२। याथी पन याय छ १ (गीयास का हवंति जोणी) ताना अपत्ति स्थान या छ १ (कइसमया उस्सासा) जीतना वास सा समयना प्रमाणाणाय १(कति वागीयस्स आगारा) भीतना मा२। 2 डाय छे ?
उत्तर-(सत्त सर नाभोओ हवंति) सात २५२। नालियाची पन्न या ७. (गीयं च रुयजोणियं) भात उहित निसय छ (पायसमा उसासा)
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बसुबोगन्द्रिका टीका सूत्र १६६ स्वरोत्पत्तिनिरूपणम् काराः ॥२॥ आदिमृदुम् आरममाणाः समुदहन्तश्च मध्यकारे । अवसाने क्षपयन्तः, प्रयोऽपि गीतस्य आकाराः॥३॥ स१६६॥
टोका-'सत्त सरा' इत्यादि
एते षड्जादिसप्तस्वराः कुतः संभवन्ति उत्पधन्ते ? तथा-गीतस्य का योनयो-जातयो भवन्ति ? तथा गीतस्य कति समया=कियत्काल प्रमाणा उच्छ्वासा भवन्ति ? तथा-गीतस्य कति वा=कियन्तो वा आकारा:= आकृतयः-स्वरूपाणि भवन्ति ? इति चत्वारः प्रश्नाः। उत्तरयति-षड्जादयः सप्त स्वरा नामितो भवन्ति-जायन्ते। गीतं च रुदितयोनिकम्-रुदितं पोनिः समानरूपतया जाति यस्य तत्तथाविधं भवति, गीतं रोदनसमानं भवती त्यर्थः । उच्छनासाश्च पादसमा भवन्ति । यावता समयेन वृत्तस्य पादः समाप्यते आकार होते हैं। (आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मझगारंमि, अवसाणे तजवितो तिन्निय गीयस्स आगारा) सर्वप्रथम गीत मृदुध्वनिवाला होता है । मध्यभाग में वह तेजध्वनिवाला और अन्त में मन्द्रध्वनिवाला होता हैं। ___ भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा " षड्ज आदि सात स्वर कहां से उत्पन्न होते हैं ? गीत की जातियां क्या है ? गीत के उच्छवासों के समय का प्रमाण कितने हैं, और गीत किस आकार का होता है ?" इन चार प्रश्नों के उत्तर दिये हैं । इसमें उन्हों ने यह प्रकट किया है कि-ये पूर्वोक्त षडूज आदि सात स्वर नाभिस्थान से उत्पन्न होते हैं। गीत रोने की जाति के जैसा होता है। यहां योनि शब्द का अर्थ जाति है। छन्द का पाद जितने समय में समाप्त होता है उतना ही समय गीत के पास २३१ास डाय छे. (गीयस्स तिण्णि आगारा) गीतना ३ भार डाय छे. (आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मजमगारंमि अवसाणे तज्जवितो तिन्निय गीयस्स आगाग) स प्रथम गीत पनि युक्त हाय छे. मध्यભાગમાં તે તીવ્રધ્વનિ યુક્ત હોય છે અને છેવટે મન્દ્રધ્વનિ યુક્ત હોય છે.
सापाय-सूत्रमारे सा सूत्र १ " षड्ज" मेरे सात ११२। ज्यांचा ઉત્પન થયા છે? ગીતના ઉત્પત્તિ સ્થાન ક્યાં છે? ગીતના ઉચ્છવાસોનું પ્રમાણ કેટલું છે? અને ગીતને આકાર કઈ જાતને છે? એ ચાર પ્રશ્નોના જવાબ આપવામાં આવ્યા છે. આમાં તેમણે સ્પષ્ટ
એ છે કે પૂર્વોક્ત ષડજ વગેરે સાત વાર નાભિસ્થાનમાંથી ઉપન થયા છે ગીતની જ્ઞાતિ રુદન જેવી હોય છે. અહીં નિ શબ્દને
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भयोगशपये तावत्समया गीते उच्छ्वासा भवन्तीत्यर्थः । तथा-गीतस्य आकाराश्च को भवन्ति । ताने वाह-भादिम आदौ पारम्भे मृदुं गीतध्वनिमारभमाणाः, मध्यकारे मध्यभागे समुद्वहन्तः=महती गीतध्वनि कुर्वन्तः, च-पुनः अवसाने अन्ते क्षपयन्तःगीतध्वनि मन्द्रोकुर्वन्तश्च गायका गीतं गायन्ति । अतो गाने स्वर: आदौ मृदुः, मध्ये तारः, अन्ते च मन्द्रो भवति । ततश्च मृदुतारमन्द्रध्वनिरूपात्रय आकारा गीतस्य विज्ञेयाः॥१०॥१६॥ सम्पति गोते हेयोपादेयादिकं प्रवक्तुमुपक्रमते
मूलम्-छद्दोसे अढगुणे, तिणि य वित्ताइं दो य भणिईओ। जाणाहिइ सोगाहिइ, सुसिक्खिओ रंगमॉमि॥१॥ भीयं दुयं रहस्सं, गायंतो माय गाहि उत्तालं । काकस्प्तरमणुणासं, चं होंति गीयस्स छद्दोसा॥२॥ पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहा अविघुटुं। महुरं समं सुललियं अटुगुणा होति गीयस्स॥३॥ उरकंठसिरपतत्थं, गिज्जइ मउयरिभियपदबद्धं । समतालपडु. क्खेवं, सत्तस्सरसीभरं गीयं॥४॥ निदोसं सारमंतंच, हेउजुत्तमलं. कियं। उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य॥५॥ समं अद्धउच्छ्वासों का है। गानेवाले सबसे पहिले गीत को मृध्वनि मे प्रारंभ करते हैं, फिर बीच में उसे जोर की आवाज में गाते हैं बाद में अन्त में मन्द्रध्वनि से उसे समाप्त करते हैं। इसलिये गाने में स्वर आदि में मृदु, मध्य में तार, और अन्त में मंद होता है-अतः मृदु, तार, और मन्द्र इन तीन ध्वनिरूप आकार गाने के जानने चाहिये ॥सू०१६६ ॥ અર્થ જાતિ છે. છન્દને પાદ (ચરણ) જેટલા સમયમાં સમાપ્ત થાય છે તેટલે જ સમય ગીતના ઉછૂવાને છે ગાયકે સૌ પહેલાં ગીતને મૃદુદ્ધતિથી પ્રારંભ કરે છે. પછી મધ્યમાં મોટા સ્વરે તેને ગાય છે ત્યાર પછી અa મંદ્રવૃનિમાં તેને સમાપ્ત કરે છે. એટલા માટે ગાતી વખતે અરજમાં મુદ મયમાં સ્વર તાર અને અંતમાં વર મંદ હોય છે એથી મૃ, તા અને મન્દ્ર આ ત્રણ ઇવનિ રૂપ આકાર ગીતને સમજવું જોઈએ, પન્નવલકg
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम्
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समं चेत्र, सव्वत्थ विसमं च जं । तिणि वित्तपयाराई, चउत्थं नोवलब्भइ ॥ ६॥ सक्कया पायया चेव, दुहा भणिईओ आहिया । सरमंडलंमि गिजंते, पसत्था इसि भासिया ॥७॥ केसी गायइ महुरं केसी गायइ खरं च रुक्खं च । केसी गायइ चउरं, केसी य विलंबियं दुतं केसी ?॥८॥ विस्तरं पुण केरिसी - सामा गायइ महुरं, काली गाय खरं च रुक्खं च। गोरी गायइ चउरं, काणाविलम्बं दुतं च अंधा ॥ ९ ॥ विस्सरं पुण पिंगला, तंतिसमं तालसमं, पायसमं लयसमं गहसमं च । नीससिऊस सियसमं, संचारसमं सरा सन्त ॥ १०॥ सतसरा तओ गामा मुच्छणा एकवीसई | ताणा एगूणपण्णासं, सम्मत्तं सरमंडलं ॥११॥ से तं सत्तनामे ॥ सू० १६७॥
छाया - षड्दोषान् अष्टगुणान् त्रीणि च वृत्तानि च भणिती । ज्ञास्यति स गास्यति सुशिक्षितो रङ्गमध्ये ॥ १ ॥ भीतं द्रुतं ह्रस्वं गायन् मा च गाय उत्तालम् । काकस्वरमनुना च भवन्ति गेयस्य षड्दोषाः || २ || पूर्णे रक्तं च अलंकृतं च व्यक्तं तथा अविघुष्टम् | मधुरं समं सुललितम् अष्टगुणा भवन्ति गेयस्य || ३ || उरः कण्ठशिरः प्रशस्तं च गीयते मृदुक - रिभित- पदबद्धम् । समताल प्रत्युत्क्षेपं सप्तस्वरसीभरं गीतम् ||४|| निर्दोषं सारखच्च हेतुयुक्तमलंकृतम् । उपनीतं सोपचारं च, मितं मधुरमेव च ॥ ५ ॥ समम् अर्धसमं चैत्र, सर्वत्र विषमं च यत् । त्रयो वृत्तप्रकाराः, चतुर्थः नोपलभ्यते ॥ ६॥ संस्कृताः प्राकृताश्चैव द्विविधा भगितय आख्याताः । स्वरमण्डले गीयन्ते प्रशस्ता ऋषिभाषिताः ॥ ७ ॥ कीदृशी गायति मधुरं ? कीदृशी गायति खरं च रूक्षं च १ ॥ कीदृशी गायति चतुरं ? कीदृशी च विलम्बितं द्रुत कीदृशी ? ॥८॥ विस्वरं पुनः कीदृशी ? श्यामा गायति मधुरं काली गायति खरं च रूक्षं च । गौरी गायति चतुरं काणा विलम्बं तं च अन्धा ||९|| विश्वरं पुनः पिङ्गला । तन्त्रीसमं तालसमं पादसमं लवसमं ग्रहसमं च । निःश्वसितोच्छवसितसमं संचारसमं स्वराः सप्त ॥ १२ ॥ सप्तस्वराः त्रयो ग्रामा पूर्च्छनाः एकविंशति । ताना एकोनपञ्चाशत् समाप्तं स्वर मण्डम् ॥ ११ ॥ तदेतत् सप्तनाम || सू० १६७॥
अ० १०२
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भनुयोगद्वारब टीका-'छद्दोसे' इत्यादि
गीते हि षड् दोपाः, अष्टगुणाः, त्रीमि तानि, द्वे भणिती च भवन्ति । यो जन एतान् यथावद् ज्ञाप्त्यति स एव मुशिक्षितः सन् मध्ये नाटयशालायां गास्यति ॥संप्रति ताताह 'भीयं' इत्यादिना । हे गायक ! गीतं गाय च त्वं भीतंभयपूर्वकं च मा गायकानं मा कुए, द्रुतं त्वरितं च मानाय, हस्वा अल्पस्वरेण च मा गाय, ॥३॥ उत्तालम्-उद्गत =औगिन्याय गतसालो यत्र तत् उत्तालम्अतितालमस्थानतालं चेत्यर्थः, तथा मा गाय। तालस्तु कांस्यादिशब्दो बोध्यः।
अथ सूत्रकार गीत में हेय और उपादेय आदि को कहते हैं"छद्दोसे अट्ठगुणे" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(छद्दोसे अट्टगुणे तिण्णिय वित्ताई दो य भणिईओ) छह दोषों को, आठगुणों को, तीन वृत्तों को और दो भणितियों को (जाणाहिद) जो यथावत् जानेगा (सो) वही (सुनिग्विओ) सुशिक्षित-गान कला में निपुण हुआ व्यक्ति (रंगमज्झमि) रंगशाला में (गाहिइ) गावेगा-। गीत के छहदोष-इस प्रकार से हैं (भीयं दुयं रहस्सं गायतो मा य गाहि उत्तालं, कागस्सरमणुणासंच हों ति गीयस्स छद्दोसा) जब गायक गाना गाने को तैयार होने लगता है, तब उससे कहा जाता है कि-'हे गायक ! तुम गीत गाओ तो सही-परन्तु भीत-भयभीत होकर मत गाना, गाने में उनावली मत करना, अर्थात् जल्दी २ से मत गाना, अल्प स्वर से मत गाना-उत्ताल मत गाना-अर्थात् अतितोल होकर
હવે સૂત્રકાર ગીતમાં હેય અને ઉપાદેય વગેરેનું કથન કરે છે“ छरोसे अद्वगुणे" याla
शाय-(दोसे अद्वगुणे तिष्णिय वित्ताइं दो य भणिईओ) ७ होषान, भ ने, तर वृत्तीने मन मे भातियाने (जाणाहिइ) सारी शत शे (सो) ते (सुसिरिखओ) सुशिक्षित- मानतामा निपुण थये ४४२ (रंगममंमि)
Hi (गाहिइ) 0 जातभा छ होषी मा प्रभाए छ. (भीयं दुयं रहस्सं गायंतो माय गाहि उत्तालं कागस्सरमणुणासं च होंति गीयस्म छहोसा) જ્યારે ગાયક ગાવા માટે પ્રસ્તુત થાય છે ત્યારે તેને કહેવામાં આવે છે કે
ગાયક! તમે ગીત ગાવો તે બરાબર છે પણ તમે બીતા બીતા ગાશે નહિ ગાવામાં બેટી ઉતાવળ કરશો નહિ એટલે કે જલદી જલદી ગાશે નહિ, અ૫ સ્વરમાં ગાશો નહિ, ઉત્તરાલ (તાલવગર) ગાશે નહિ, એટલે કે અતિતાલ થઈને કે અસ્થાનતાલ થઈને ગાશો નહિ. કાગડાના સ્વર જેવા સ્વરથી ગીત
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अनुरोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् स्था-काकस्वर-काकस्य स्वरइव स्वरो यस्मिन् गीते तद, श्लक्ष्णाश्रयस्वरमि त्पा, क्या मा गाय । अनुनासम्-सानुनासिकं च मा गाय । यत एते मीतादया षट् गेयस्य दोषा भवन्तीति । इत्थं दोषानुक्त्वा सम्पति गुणानाह-'पुण' इत्याग दिना । पूर्णम्-यत्र गीते सर्वाः स्वरकलाः गायकैः प्रदर्श्यन्ते तत्र 'पूर्ण' नामा गुमो भवति ॥१॥ रक्तम्-गायको गीतरागेण रक्ताम्भावितः सन् यद् मौत गायति तत्र 'रक्त' नामा गुणो भवति॥२॥ अलङ्कृतम्-यत्र गाने गायकोऽन्यान्य स्फुटशुमस्वरविशेषैर्गीतमलङ्करोति तत्र 'अलङ्कृत'-नामको गुणः।।३।। व्यक्तम् । यत्र गाने गायकोऽक्षरान् स्वरांश्च स्फुटतयोच्चारयति तत्र 'व्यक्त'-नामा गुणः॥४॥ अविघुष्ठम्-विक्रोशनमित्र यद्विस्वरं भवति तद् विघुष्ट-मुच्यते, यत्र विघुष्टं न या अस्थानताल होकर नहीं गाना, काक के स्वर के समान स्वर वाले होकर गान को मत गाना, सानुनासिक मत गाना । क्योंकि ये भीत आदि छ गान के दोष हैं।
इस प्रकार दोष को कहकर अब गुणों को सूत्रकार कहते हैं(पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहा अविघुटं, महुरं समं सुललियं, अट्ठगुणा होति गीयस्स) जिस गीत में समस्त स्वरकलाएँगीतकार गायन कला को दिख लाते हैं, वहां पूर्ण नामका गुण होता है। गायक गीतरागसे भावित होता हुआ जिस गीत को गाता है वहां 'रक्त' नामका गुण होता है। जिस गान में गायक अन्य अन्य स्फुटस्वर विशेषों द्वारा गीत को सजाता है, वहां 'अलंकृत' नाम का गुण होता है ।जिस गान में गायक अक्षरों एवं स्वरों को स्फुटरूप से उच्चारित करता है, वहां 'ब्यक्त' नाम का गुण होता है। विक्रोशन-गुस्से में आये हुए व्यक्ति के स्वर के जैसा अथवा चिल्लाते हुए व्यक्ति के स्वर के जैसा ગાશે નહિ નાકમાં ગાશે નહિ કેમકે આ જીત વગેરે છ ગીતના દે છે. આ પ્રમાણે ગીતના દેનું સ્પષ્ટીકરણ કરીને હવે સૂત્રકાર ગુણે વિષે કહે છે કે (पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहा अविघुटुं, महुरं समं सुललियं अट्ट गुणाहोति गीयस्व) २ तमi ol२ समरत गायन जानु प्रशन रे छ તે પૂર્ણ નામે ગુણ કહેવાય છે. ગાયક ગીત રાગથી ભાવિત થઈને જે ગીતને ગાય છે, તે રક્ત નામે ગુનું કહેવાય છે. જે ગીતમાં ગાયક બીજા વિશેષ રૂટ સ્વરેથી ગીતને અલંકૃત કરે છે, તે અલંકૃત ગુણ કહેવાય છે. જે ગીતમાં ગાયક અક્ષરે અને સ્વરેને ફુટ રૂપમાં ઉચ્ચારે છે તે વ્યક્ત નામે ગુરુ કહેવાય છે વિકેશનગુસ્સામાં ભરેલી વ્યક્તિની જેમ અથવા તે ઘાંટા પાડતી વ્યક્તિના સ્વરની જેમ જે ગાનારને વર હોય તે ગાન “વિઘુણ” કહેવાય છે. જે ગાનમાં વિઘઈ ન
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भनुयोगद्वारस्ये भवति तत्र ‘अविघुष्ट' नामा गुगो बोध्यः।।५।। मधुरम्-मधुमत्त कोकिलकल काफकीरत यत्र गाने गायकस्य मधुरः सारो भवति तत्र 'मधुरघर'-नाना गुणः॥६॥ समम्-तालवंशस्वरादिसमनुगतो यत्र स्वरो भवति, तत्र 'सम'-नामको गुणः।।७॥ मुगलितम्-स्वरघोलनाप्रकारेण शुद्धातिशयेन शब्दस्पर्शनेन श्रोत्रन्द्रियस्य मुखो. त्पादनाद् वा, ललतीव यत् तत् मुललितम्-सुकुमारमित्यर्थः, अयं गेयस्याष्टमो गुणः॥८॥ एते अष्ट गुणा गीतस्य भवन्ति । एतद्विरहितं गीतं तु गोतमेव न भगति । तत्तु गीताभासं विज्ञेयम् ॥ इतोऽन्येऽपि गीतगुणाः सन्ति, तान प्रदर्शयितुमाह-'उरकंठ' इत्यादि। च-पुनः उरकण्ठशिरःप्रशस्तम्-उरकण्ठसिरसा द्वन्द्वः, ततः प्रशस्तेन सह तृतीयातत्पुरुषः। एवं च-उरः प्रशस्तं कण्ठपशस्तं शिरा प्रशस्तमिति शुद्धमिति पदत्रयं लभ्यते । तत्र-उरसि यदा विशालः स्वरो भवति, जो गान स्वर विहीन होता है, वह 'विघुष्ट' गान कहलाता है ! जिस गान में विघुष्ट नहीं होता वहां, 'अविघुर' नाम का यह गुण होता है। वसन्त में मत्त कोकिलाकी कलकाकली के जैसा जिस गान में गायक का स्वर मधुर होता है, उस गान में 'मधुर' स्वर नाम का गुण होता है। जिस गान में ताल, वंश-स्वर आदि से समनुगत स्वर होता है उस गान में 'सम' नामका गुण होता है। स्वर घोलना प्रकार से शुद्धाति. श्य से अथवा शब्दस्पर्शन से जो श्रोत्रेन्द्रिय को सुखोत्पादक होता है और इसी कारण जो विशेष प्रिय लगता है वह सुललित है-यह गान का अष्टमगुण है। इस प्रकार ये गीत के ८ गुण हैं । इन गुणों से रहित
मा गीत (गान) गीत ही नहीं कहलाता है। वह तो गीताभास है। इन गुणों से अन्य और भी गीत के गुग हैं, जो इस प्रकार से हैं (उरकंठसिरपसस्थं) उरःप्रशस्त कंठप्रशस्त और शिरःप्रशस्त, गान का હોય ત્યાં “અવિઘુષ્ટ' નામક ગુણ કહેવાય છે. વસન્તમાં મત્ત કોયલની કલકાકલીની જેમ જે ગીતમાં ગાયકને સ્વર મધુર હોય છે, તે ગીતમાં મધુર સ્વર નામે ગુણ હોય છે જે ગીતમાં તાલ, વંશ, સ્વર વગેરેથી સમગત સ્વર હોય છે તે ગીતમાં “સમ” નામક ગુણ હોય છે. સ્વરલના પ્રકારથી, શ્રદ્ધાતિશયથી અથવા શબ્દ સ્પર્શનથી જે શ્રોત્રેન્દ્રિયને સુખ આપે છે અને એથી જે વિશેષ પ્રિય લાગે છે તે સુલલિત છે આ ગીતને આઠ ગુણ છે આ પ્રમાણે આ ગીતના આઠ ગુણ છે. આ ગુણેથી હીન ગીત ગીત કહી શકાય જ નહીં તે તે ગીતાભાસ છે. આ ગુણેની સાથે સાથે બીજા પણ यातना शुधे छ मा प्रभारी है-(उरकंठसिरपपत्य) 6:प्रशस्त, કંઠપ્રશસ્ત અને શિરપ્રશસ્ત ગીતને વિશાળ સવર જ્યારે વક્ષસ્થળમાં પરિવ
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चन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेय निरूपणम्
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वृंदा - उरःप्रशस्तं विज्ञेयम् । यदा च कण्ठे स्त्ररो वर्तितोऽतिस्फुटितश्च तदा कण्ठ मस्तम् । यदा च शिरसि प्राप्तः स्वरः स चेदानुनासिक्यरहितस्तदा शिरःप्रशस्वम् । यद्वा-उरः कण्ठशिरस्तु कफर हितेषु सत्सु यन् प्रशस्तं गीतं भवति तत्-उरः कण्ठशिरः प्रशस्तम् । तथा मृदुकरिभितपदबद्धम् - मृदुना = कोमलेन स्वरेण यद् गीयते तद् मृदुकम्, यत्र अक्षरेषु घोलनया संचरन् स्वरो रङ्गती तद् घोलनाबहुलं रिभितम् पदे = गेयपदेः बद्धम् = विशिष्ट रचनया रचितं - पदबद्धम् । पदत्रयस्य कर्मधारयः । तथा च - समतालप्रत्युत्क्षेपम् - उालः - हस्ततालसमुत्यः शब्दः प्रत्युविशालस्वर जब वक्षःस्थल में भर जाता है तब वह उरःप्रशस्त गान कहलाता है, गान का यह उरःप्रशस्त गुण है । गान का स्वर जब कंठ में भर जाता है और वह अतिस्फुट होता है तब वह कण्ठ प्रशस्त गान कहलाता है। गान का यह कण्ठप्रशस्त गुण है। जब गान का स्वर शिर में जाकर यदि अनुनासिक से वह रहित हो जाता है तब वह गान शिरःप्रशस्त कहलाता है । गान का यह शिर:प्रशस्त गुण है । अथवा कफ रहित होने पर उर, कंठ और शिर ये सब प्रशस्त रहते हैं, उस समय गाया गया गीत भी प्रशस्त होता है । ऐसा गीत उरः कंठ शिरः प्रशस्त कहलाता है । (मउयरिभियपदबद्धं) तथा मृदुक रिभित और पदबद्ध, भी गान के ३ तीन गुण हैं- जो गान कोमल स्वर से गाया जाता है, 'मृदुक' गुणवाला गाना है। जहां अक्षरों में घोलना से संचार करता हुआ स्वर चलता रहता है ऐसा वह घोलना बहुल गान 'रिभित' गुणवाला गान कहा जाता है। जिस गान
થઈ જાય છે ત્યારે તે ઉરઃપ્રશસ્ત ગીત કહેવાય છે. ગીતના આ ઉર:શસ્ત ગુણુ છે ગાનના સ્વર જ્યારે કૅપ્રદેશમાં ભરાઈ જાય છે અને તે અતિસ્કુટ હાય છે ત્યારે તે કઠપ્રશસ્ત ગીત કહેવાય છે ગાન ના આ કંઠપ્રશસ્ત ગુણુ છે. જ્યારે ગાનના સ્વર મસ્તકમાં જઈને તે અનુનાસિક વિનાના થઈ જાય છે ત્યારે તે ગાન શિરઃપ્રશસ્ત કહેવાય છે ગાનના આ શિરઃપ્રશસ્ત ગુણ છે. અથવા કફ રહિત હૈાવા ખાદ ઉર, કઠ, અને શિર આ બધા પ્રશસ્ત રહે છે તે વખતે ગવાયેલ ગીત પણ પ્રશસ્ત હે!ય છે એવુ' ગીત ઉર: કંઠ, शिरःप्रशस्त उडेवाय छे. ( मउयरिभियपदबद्धं) तेन भृहुई रिक्षित भने પદ બદ્ધ આ પ્રમાણે પણ ગીતના ત્રણ ગુગૢા છે જે ગાન કામળ સ્વરમાં ગવાય છે તે મૃદુક ગુણુ યુક્ત ગાન કહેવાય છે જ્યાં અક્ષરામાં ઘાલનાથી સચરણુ કરતા સ્વર ચાલતા રહે છે એવુ' તે ઘેાલન મહુલ ગીત ‘ રિભિત ’ગુરુ યુક્ત ગીત કહેવાય છે જે ગીતમાં પદોની રચના વિશિષ્ટ હાય છે, તે
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अनुयोगद्वारके
रक्षेपः- मुरजक/स्वादीनां गीतोपकारकाणां ध्वनिः, नर्तकीपद प्रक्षेपलक्षणो वा समौ वालप्रत्युत्क्षेप यत्र तत् । तथा सप्तस्वरसीभरम् - सप्त स्वगः सीभरन्ति = अक्षरादिभिः सह समा यत्र भवन्ति तत् । एवं विधं यद् गीतं गीयते तदेव सुगीतं भवति । इत्थं च उरःकण्ठ शिरः प्रशस्तस्वादयोऽपि गीतगुणा बोध्याः 'सप्तस्वरसीमरम्' इत्युक्तं, तत्र ये सप्त स्वरास्ते क्वचित् एवमुक्ताः
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" अक्वरसमं पदसमं तालसमं च लयसमं गहसमं नीससिओसलियसमं संचारसमं सरा सत्त ॥
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छाया - अक्षरसमं पदसमं तालसमं च लयसमं ब्रहममम् । निःश्वसितोच्छ्वसितसमं सञ्चारसमं स्वराः सप्त | इति ॥ अयमर्थः - अक्षरसनम् - यत्र दीर्घेऽक्षरे दीर्घो गीतस्वरः क्रियते, हस्वे हवा, प्लुते प्लुतः, सानुनासिके सानुनासिकः, तदक्षरसमम् ॥१॥ पदसमम् - यत् पदं = गीतमें पदों की रचना विशिष्ट होती है, वह 'पबद्ध ' गान है । (समतालपड़ खेत्रं) जिस गान में ताल हस्ताल से उत्पन्न हुआ शब्द और प्रत्यु-मृदंग कांस्य आदि का जो कि गीत के उपकारक होते है arit safar अथवा नर्तकीजन का पादप्रक्षेप ये दोनों जिस में एक साथ होते है वह समताल प्रत्युत्क्षेप गान है । यह गान का गुण है । (सत्तहमरसी भरं गीयं) जिस गान में सात स्वर अक्षरों के साथ समान होते हैं वह गान रसभर ' कहलाता है। इस प्रकार का जो गाना गाया जाता है वही सुगीत ( गीत ) कहलाता है । सप्तस्वर सीभर में जो सात स्वर कहे गये हैं, वे कहीं२ पर इस प्रकार से कहे गये हैं- अक्षरसम१, पदसम२, तालसम३, लयसम४, ग्रहसम५, निःश्वसितोच्छ्रवसितसम६, और संचारसम ७, जिस गान में दीर्घ अक्षर पर दीर्घ स्वर, ह्रस्व अक्षर पर ह्रस्व स्वर प्लुत अक्षर पर प्लुत स्वर और सानुनासिक जद्ध' गीत छे. (समताल पडुक् चैवं ) ने गीतमां तास - इस्तता थी उत्पन्न થયેલ શબ્દ અને પ્રત્યુત્સેપ-મૃદંગ કાંસ્ય વગેરેના કે જે ગીતના માટે ઉપકારક ડાય છે તેમના નેિ અથવા નર્તકીઓનુ પાદપ્રક્ષેપણ એ બન્ને જેમાં એકી સાથે હાય છે તે સમતાલ પ્રત્યુત્શેષ ગીત છે. આ ગીતના ગુણ છે. ( सत्तर सरसी भरं गीयं ) ने गीतमां सातस्वर अक्षरानी साथै समान हाय छे તે ગીત ‘સપ્તસ્વર સીભર' કહેવાય છે. આ પ્રમાણે જે ગીત ગવાય છે તે सुगीत ( गीत ) ठडेवाय छे સપ્તસ્વર : સીભર’માં જે સાત સ્વરે કહેલા છે તેઓ કોઈક સ્થાને આ પ્રમાણે પણ કહેવામાં આવ્યા છે-૧ અક્ષરસમ, ૨ पढसम, 3 ताससम, ४ सयसम, प असम, ६ निःश्वसितसतसम અને ૭ સંચારસમ, જે ગીતમાં દીર્ઘ અક્ષર પર દીઘ્ર સ્વર, હ્રસ્વઅક્ષર પર હસ્વસ્વર, દ્યુત અક્ષર પર શ્રુતસ્વર અને સાનુનાસિક પર સાનુનાસિક સ્વર
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युगन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् पदम् यत्र स्वरे अनुगति भवति तत्तत्रैव यदा गीयते तदा पदसमं भवति॥२॥ सालसमम्-यत् परस्परामिहतहस्ततालस्वरानुसारिणा स्वरेण गीयते तत्ताल. समम् ॥३॥ लयसमं शृङ्ग-दाधिन्यतमवस्तुमयेनालीकोशेन समाइते तन्त्र्यादौ यस्तत्स्वरपकारः स लयः, तमनुसरता स्वरेण यद् गीयते तद्लयसमम् ॥४॥ प्रहसमम्-प्रथमतो वंशतन्त्र्यादिभिर्यः स्वरो गृहीतः स ग्रहः, तत्समेन स्वरेण यद् गीयते तद् ग्रहसमम् ॥५॥ निःश्वसितोच्छ्वसितसमम्-निःश्वसितोच्छ्वसितमानमनतिक्रमतो यद् गेयं तद् निःश्वसितोसितसमम् ॥६॥ संचारसमम्-वंशतन्त्र्यादिष्वेव अङ्गुलीसंचारसमं यद् गीयते तत् संचारसमम् । एवमेते सप्तस्वरा भवन्ति । पर सानुनासिक स्वर होता है वह अक्षरसम है। जिस स्वर में जो गीतपद अनुपाती होता है, वह गीत पद जय वहीं पर गागा जाता है तष पदसमस्वरवाला गीत होता है । जो गाना परस्पराभिहत हस्ततल के तालस्वर के अनुमारवाले स्वर से गाया जाता है वह गाना तालसम स्वरवाला कहलाता है। शृंग अथवा दारु काष्ठ आदि किसी एक वस्तु के बने हुए अंगुली कोश से तंत्री आदि के बजाने पर जो ध्वनि निकलती है, उसका नाम लय है । उस लय का अनुसरण करनेवाले स्वर से जो गाना गाया जाता है वह लयममस्वरवाला गाना कहलाता है। वंशतंत्री आदिकों द्वारा जो स्वर पहिले से गृहीत कर लिया जाता है उसका नाम ग्रह है। इस ग्रह के समान स्वर से जो गीत गाया जाता है वह ग्रहसम स्वरवाला गीत कहलाता है। निःश्वास उच्छवास के प्रमाणानुसार जो गानागाया जाता है वह निश्वसितोच्छ्वसित सम है। वंशतंत्री आदि कों હોય છે તે અક્ષરસમ છે. જે સ્વરમાં જે ગીત પદ અનુપાતી હોય છે, તે ગીત પદ જ્યારે ત્યાંજ ગાવામાં આવે છે, ત્યારે પદ સમસ્વરવાળું ગીત કહેવાય છે. જે ગીત પર સ્વરહિત હસ્તતલના તાલસ્વર ને અનુસરતા વરથી ગવાય છે. તે ગીત તાલસમ સ્વરવાળું કહેવાય છે શૃંગ અથવા દારુ-કાષ્ટ વગેરે કોઈ પણ એક વસ્તુના બનેલા અંગુલી કેશથી તંત્રી વગેરે વગાડવાથી જે વનિ નીકળે છે તેનું નામ લય છે. તે લયને અનુસરનાર સ્વરથી જે ગીત ગવાય છે તે લયસમસ્વરવાળું ગીત કહેવાય છે. વંશ તંત્રી વગેરે વડે જે સ્વર પહેલાથી જ ગૃહીત કરવામાં આવે છે તેનું નામ ગ્રહ છે. આ ગ્રહના સમાન સ્વરથી જે ગીત ગવાય છે તે ગ્રહમ સ્વર યુક્ત ગીત કહેવાય છે. નિઃશ્વાસ ઉચ્છવાસના પ્રમાણ મુજબ જે ગીત ગવાય છે તે નિ:સિતેચ્છુ
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अनुयोगद्वारबारे अत्रेदं बोध्यम्- एकोऽपि गीतस्वरोऽक्षरपदादिभिः सप्तभिः स्थानैः सह समत्वं पतिपद्यमानः सप्तधात्वं भजते, अतोऽक्षरसमादयः सप्तस्वरा भवन्तीति । अत्र तु सूत्रोपान्ते ' तंतिसमं तालसमं' इति गाथया सप्तस्वरा उच्यन्ते इति बोध्यम् । तथा गीते यः सूत्रबन्धः सोऽष्टगुण एव कर्तव्य इति तानाह-'निदोसं' इत्यादि। निर्दोषम् 'अलियमुबघायजणयं' इत्यादि द्वात्रिंशदोषरहितम् १, सारवत्-विशिष्टा र्थयुक्तम् २ हेतुयुक्तम्-गोतानामर्थबोधोऽनायासेन श्रोतॄणां भवत्विति हेतुमुपलक्ष्य यद् रचितं गीतं तत् , पासादगुणयुक्तमित्यर्थः३, अलङ्कृतम्-उपमाघलङ्कारयुक्तम्४, के ऊपर ही जो अंगुली के संचार के साथ २ गाना गाया जाता है, वह संचारसम है। इस प्रकार ये सात स्वर होते हैं। यहां पर ऐसा जानना चाहिये कि-एक ही गीत स्वर अक्षर पद् आदि सात स्थानों के साथ उनकी समानता को पाता हुआ सात प्रकार का हो जाता है। इसलिये अक्षरसम आदि सात स्वर होते हैं । यहां तो सूत्र के उपान्त में "तं. तिसमं, तालसमं" इस गाथा द्वारा सातस्वर कहे गये हैं । तथा गीत में जो सूत्रबंध-किया जावे वह आठ गुणवाला ही किया जाना चाहिये। आठ गुण इस प्रकार से हैं-(निदोसं सारमंतंच हेउजुत्तमलंकियं उब. णीयं सोवयारंच मियं महुरमेव य) निर्दोष-अलीक, उपघात जनक इत्यादि ३२ दोषों से रहित होना इसका नाम 'निर्दोष' है । सारवत्विशिष्ट अर्थ से युक्त होना इसका नाम 'सोरवान्' है । श्रोताजनों को अनायास ही गीत के अर्थ का बोध हो जावे, इस हेतु को ध्यान में रख कर जो गीत रचा गया हो वह हेतुयुक्त' है । तात्पर्य यह है कि સિત સમ છે વશ તંત્રી વગેરેની ઉપર જ જે આંગળીના સંચારની સાથે સાથે ગવાય છે તે “સંચારસમ” છે. આ પ્રમાણે આ બધા સાત થાય છે. અહીં એમ સમજવું જોઈએ કે દરેક ગીત સ્વર અક્ષર પદ વગેરે સાત સ્થાની સાથે સાથે તેમની સમાનતા મેળવતું સાત પ્રકારનું થઈ જાય છે. અહીં सूत्रन पान्तमा “ तंतिसम तालसमं" आया १3 सात १२॥ ४ामां આવ્યા છે, તેમજ ગીતમાં જે સૂત્રબંધ કરવામાં આવે તે આઠ ગુણ યુક્ત १ डावन माह शुऐ। प्रमाणे छे-(निहोसं सारमंतं च हे जुत्तमलं. कियं उवणीय सोवयार' च मिय महुरमेवयं) निषि-मदी, Galaris વગેરે બત્રીશ દેષ રહિત થવું તે નિર્દોષ છે. સારવત-વિશિષ્ટ અર્થથી યુક્ત હોય તે સારવત્ છે. સાંભળનારાઓને અનાયાસ જ ગીતના અર્થનું જ્ઞાન થાય એ વાતને ધ્યાનમાં રાખીને જે ગીતની રચના કરવામાં આવે છે તે હેતુયુક્ત” કહેવાય છે. મતલબ એ છે કે ગીત પ્રાસાદ ગુણ યુક્ત હોવું જોઈએ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् उपनीतम्-उपनपनिगमनयुक्तम्-उपसंहारयुक्तमित्ययः५, सोपचारम्-लिष्टविरुद्धलज्जास्पदार्थावाचकं सानुपासं वा गीतम् ६, मितम्-अतिवचनविस्तररहितं, संक्षिप्ताक्षरमित्यर्थः७, तथा-मधुरम्-माधुर्यगुणसमन्वितं-सुश्रव्यशब्दार्थयुक्तमित्यर्थः८, एतादृशं यत् गीतं तदेव गानयोग्यं भवति । अथ यदुक्तं त्रीणि वृत्तानीति तान्याह-'समं' इत्यादि । यत्र वृत्ते चतुर्वपि चरणेषु समानि अक्षराणि भवन्ति, तद् वृत्तं समम् । यत्र प्रथम तृतीययोद्वितीयचतुर्थयोश्च चरणयोः सामान्याक्षराणि भवन्ति तदर्धसमम् । तथा-यत्र=वृत्ते सर्वत्र-चतुर्षपि चरणेषु अक्षराण गीत को प्रासाद गुण युक्त होना चाहिये । उपमा आदि अलंकारों से जो गीत सजा हुआ होता है वह गीत 'अलंकृत गुण वाला कहलाता है जो गीत उपसंहार से युक्त हो जाता है वह उपनीत गुण युक्त गीत माना जाता है । जो गीत क्लिष्ट विरुद्ध एवं लज्जास्पद पदार्थ का वाचक नहीं होता अथवा अनुप्रास युक्त होता है वह 'सोपचार' गीत कहलाता है । जिस गीत में वचनों का विस्तार अधिक नहीं होता है अर्थात् जो .गीत संक्षिप्त अक्षरों वाला होता है, वह 'मित' गुण वाला गान है। जो गान सुश्राव्य शब्द और अर्थ वाला होता, है वह मधुर गुण युक्त गान कह लाता है। ऐसा जो गान - होता है वही गान योग्य होता है। गीत की तीन भणितियां इस प्रकार से हैं-(समं अद्धसमं चेव सम्वत्थविसमं च यं, तिणि वित्तपयाराई चउत्थं नोवलब्भह) जिस वृत्त में चारों चरणों में समान अक्षर होते है, वह 'समवृत्त' है। जिस वृत्त में प्रथम तृतीय पादों में और दि. तीय चतुर्थ पादों में समान अक्षर होते हैं वह अर्द्ध समवृत्त है। तथा ઉપમા વગેરે અલંકાથી જે ગીત અલંકૃત હોય છે તે ગીત અલંકૃત ગુણવાળું કહેવાય છે. જે ગીત ઉપસંહારથી યુક્ત હોય છે તે ઉપનીત ગુણ યુક્ત ગીત કહેવાય છે જે ગીત ફિલષ્ટ, વિરૂદ્ધ, અને લજજાસ્પદ પદાર્થ વાચક ન હોય અને અનુપ્રાસ યુક્ત હોય છે તે સોપચાર ગીત કહેવાય છે. જે ગીતમાં વચનવિસ્તાર વધારે ન હોય એટલે કે જે ગીત સંક્ષિપ્ત અક્ષરે યુક્ત હોય छ, ते भित' अश्युत भात छ. २ का सुश्राव्य शम अने अथवा હોય છે તે મધુર ગુણ યુક્ત ગીત કહેવાય છે. એવું જે ગીત હોય છે તેજ जीत पाय डाय के गीतनी र समितीम। ॥ प्रभार छ-(सम अद्धसम चेव सम्वत्थ विसमं च यं, तिण्णि विसपयाराई चउत्थं नोवलब्भइ) જે વૃત્તમાં ચારે ચરણોમાં સમ અક્ષરે હોય છે તે “સમવૃત છે જે વૃતમાં પ્રથમ-તૃતીય પાદમાં અને દ્વિતીય ચતુર્થ પામાં સમાન અક્ષર હોય છે તે
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मपोगदारी वैपायं तवृत्तं विषमम् । एते त्रय एव वृत्तप्रकारा भवन्ति, चतुर्ये वृत्तं तु नोपलभ्यते। बथा-भणितयः भाषाः संस्कृताः प्राकृताश्च द्विविधा द्विपकारका एव भाख्याता:= उक्ताः। एता ऋषिभाषिता अतएव प्रशस्ता भाषा बोध्याः। अत एव एताः स्वरमण्डले षड्जादि स्वरसमूहे गीयन्ते । अत्र गीतविचारः प्रस्तुतः, अत: किोशी स्त्री कथं गायति ?' इति पृच्छति-'केसी गायइ' इत्यादिना-कीदृशी
त्री मधुरं मधुरस्वरेण गायति ? च-पुनः कीदृशी स्त्री खरं-खरस्वरेण रूक्षं सक्षस्वरेण च गायति ? कीदृशी स्त्री चतुरं-चातुर्येण-गीतशास्त्रोक्तयथाविधि जिस वृत्त में चारों ही पादों में अक्षरों की विषमता रहती है, वह 'विषमवृत्त' है। ये तीन वृत्तों के प्रकार हैं और चतुर्थ प्रकार वृत्त का कोई नहीं है । (सक्कया पापया चेव दुहा भणिईओ आहिया। सरमंड. लंमि गिज्जंते पसत्था इसिभासिया) तथा-भणिति-भाषा-संस्कृत और प्राकृत के भेद से दो प्रकार की ही कही गई है। ये ऋषिजनों द्वारा भाषित हुई हैं, इसलिये इन्हें प्रशस्त भाषा जानना चाहिये । प्रशस्त भाषा होने के कारण ही ये दोनों प्रकार की भाषाएँ षड्ज आदि स्वर समूह में गाई जाती हैं। यहां पर गीत का विचार चल रहा है इसलिये पूछा जा रहा है कि-कैसी स्त्री किस प्रकार से गाती है ? इसी बात को सूत्रकार-अप प्रकट कर रहें हैं-(केसी गायह महुरं) कैसी स्त्री गीत को मधुर स्वर से गाती है ? (केसी गाय खरं च रुक्खं च) कैसी स्त्री गीत को खर स्वर से गाती है ? कैसी स्त्री गीत को रूक्षस्वर से गाती है? (केसी गायइ चउरं ? केसी य विलंबियं दुतं केसी ?) कैसी स्त्री चतुराई
અદ્ધ-સમવૃત્ત” છે તેમજ જે વૃત્તમાં ચારેચાર ચરણમાં અક્ષરાની વિષમતા રહે છે તે “વિષમવૃત્ત' છે આ ત્રણે વૃત્તોના પ્રકાર છે એ શિવાય वृत्तन था। प्रा२ नथी. (सक्कया पायया चेव दुहा भणिईओ आहिया। सरमडलमि गिज्जवे पसत्था इसिभासिया) ar शिति-भाषा-सस्कृत અને પ્રાકૃતના ભેદથી બે પ્રકાર ની કહેવામાં આવી છે એ અષિઓ વડે ભાષિત થયેલી છે એથી તેને પ્રશસ્ત ભાષા જાણવી જોઈએ એ પ્રશસ્ત ભાષા હોવા બદલ જ આ બને જાતની ભાષાએ પજ વગેરે સ્વર સમૂહમાં ગવાય છેઅહીં ગીત સંબંધી પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે એથી આ પ્રમાણે પછવામાં આવી રહ્યું છે કે કઈ સ્ત્રી કેવી રીતે ગાય છે? એજ વાતને સૂત્ર१२ ३ ४८ ४३ छे. (केसी गायइ महुर) व श्री मधुर स्वरे गीत आय २१ (केसी गायइ खरच रुक्खं च) श्री गीतने १२ २१२वी गाय छ ।
श्री क्षया गीत आय छ १ (केसी गायइ चउर? केसी विलंबिय
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६७ गीते हेयोपादेयनिरूपणम् स्वरविधानेन गायति ? कोस्थी च स्त्री विलम्बित मन्थर (मन्द) स्वरेण गावति। कीशी स्त्री दुतं-छुतस्वरेण गायति ? तथा-कीदृशी च स्त्री विस्वर-विकृतं स्वयं कृत्वा गायति ? उत्तरयति-'सामा' इत्यादिना । व्याख्या स्पष्टा । नवरं-पिङ्गलाकपिला । 'सप्तसीभरम्' इति यदुक्तम् , तत्र सप्त सराः के ? इति दर्शयति'तंतीसमं' इत्यादि-तन्त्रीसमम्-तन्त्री-वीणा, तस्याः शब्देन समं तुल्यं मिलितं से अर्थात् गीत शास्त्र में कथित विधि के अनुसार स्वरविधान से गाती है ? कैसी स्त्री विलम्बित-मन्धर स्वर-से गाती है ? कैसी स्त्री द्रुतस्वर से गाती है ? (विस्सरं पुण केरिसी) और कैसी स्त्री विकृत स्वर से गाती है अर्थात् स्वर को विकृत कर गाती है ?
उत्तर-(सामा गायइ महुरं) श्यामा-पोडशवार्षिकी-स्त्री मधुर. स्वर से गाती है (काली गाय खरं च रुक्खंच) काली कृष्णरूपवाली स्त्री गीत को खर से और रूक्ष स्वर से गाती है । (गोरी गायह चउर) गौरवर्णसंपन्ना स्त्री गीत को चतुराई से गाती है । (काणा विलम्ब दुतंच अंधा) काणी स्त्री-एकाक्षी नारी गीत को मंद स्वर से गाती है। अंधी स्त्री गीत को द्रुतस्वर से गाती है। (विस्सरं पुण पिंगला) और जो कपिला-कपिल वर्ण वाली स्त्री होती है वह गीत को विकृत स्वर से गाती है । (तंतिसमं, तालसमं, पायसमं, लयसमं, गहसमं च नीससिऊस. सियसमं संचारसमं सरा सत्त) तंत्रीसम-तंत्री-वीणा के समान दुत केसी ?) ४६ श्री यतुरताथी थेट 3 oilawi थित विधि भुकम સ્વરવિધાનથી ગાય છે? કઈ સ્ત્રી વિલંબિત-મજૂર-સ્વરથી ગીત ગાય છે?
श्री तत२ २१२थी गीत गाय छे ? (विस्सर' पुण केरिसी) अने। श्री વિકૃત સ્વરથી ગીત ગાય છે એટલે કે સ્વરને વિકૃત કરીને ગાય છે?
उत्तर-(सामा गायइ महुरं) श्यामा-श पी मेट श्री मधु२ २१२थी गीत गाय छे. (काली गायइ खरं च रुक्खं च) जी ४० ३५वाजी-मानी -श्री ५२ भने ३६ २१२थी गाय छे. (गोरी गायइ चउरं) गौरव सपन्न। मेट गरी श्री यतुरायी गीत गाय छे. (काणा विलम्ब दुतं च अंधा) sted श्री-मे ivवाणी-श्री मा २१२था गीत गा५ छ सांधणी श्री १२थी- थी-गीत आय छे. (विस्सरं पुण पिंगग) અને જે કપિલા કપિલવવાળી સ્ત્રી હોય છે તે વિકૃત સ્વરથી ગીત ગાય છે. (तंतिसमं तालसमं, पायसमं, लयसमं गहसमं च नीससिउससियसमं संचार सम सरा सत्त)-तत्री सम-तत्री वीणा- श य अथवा तना पर
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मनुयोगदार बा मेयम् । एवमग्रेऽपि गेयमिति संबन्धनीयम् । 'तालसमम्' इत्यारभ्य संघारसमम् इत्यन्तं पदषट्कं पूर्व व्याख्यातम् । गेयस्वरयोरनन्तरत्वादाह-'सत्त सरा' इति । इत्थं स्वरा बोध्या इति भावः । सम्मति समस्तं स्वरमण्डलं संक्षेपेणाहपहजादयः सप्त स्वरा विज्ञेयाः, ग्रामाश्च त्रयः, मूर्च्छनाश्च एकविंशतिः तता, तन्त्री, तान इति पर्यायाः भण्यन्ते, तत्र पडूजादिषु स्वरेषु प्रत्येकं सप्तभिस्तान गीयते इत्यतः सप्त तन्त्रिकायां वीणायामेकोनपश्चाशत्ताना भवन्ति । एवमेव एकतन्त्रिकायां वितन्त्रिकायां वा वीणायां कण्ठेनापि वा गीयमाना एकोनपश्चाशु. अथवा उसके साथ मिला हुआ जो स्वर आता है , वह तंत्री समस्वर है। इसी प्रकार से ताल सम आदि के साथ भी "गेय" इसका संबंध कर लेना चाहिये । गेय और स्वर में अर्थ भेद नहीं है। इसलिये गेय से यहाँ स्वर लेना चाहिये । इस प्रकार ये सात स्वर हैं । तालसम से लेकर संचारसम तक के ६ पदों की व्याख्या पहिले करदी गई है। (सत्तसरा तओ गामा मुच्छणा एकवीसई, ताणा एगणपण्णासं सम्मत्तं सरमंडलं) इस प्रकार संक्षेपसे समस्तस्वर मंडल सातस्वर, तीन ग्राम इक्कीस मूर्छना और ४९ तान इस प्रकार से हैं । तता, तंत्री, तान, ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । षड्ज आदि सात स्वरों में से प्रत्येक स्वर सात तानों से गाया जाता है। इसलिये सप्त तंत्रिका वाली वीणा में ४९ ताने होती हैं। इसी प्रकार एक तंत्रिका वाली अथवा त्रितंत्रिकावाली वीणा में कंठ से भी गाई गई ताने ४९ ही होती हैं । इस प्रकार सात. સાથે મિશ્રિત થયેલે જે સ્વર છે તે “તંત્રીસમ સ્વર' છે આ પ્રમાણે તાલ-સમ વગેરે માટે પણ “ma” શબ્દને સંબંધ સમજવું જોઈએ ગેય અને સ્વરમાં અર્થ–ભેદ નથી એટલા માટે ગેયથી અહીં સ્વર લેવું જોઈએ આ પ્રમાણે સ્વરે સાત છે “તાલ સમથી લઈને “સંચાર સમ' સુધીનું છે पहानी व्याभ्या ५७ ४२पामा मापी छे. (सत्तसरा तओ गामा मुच्छणा एकबीसई, ताणा एगूणपण्णासं सम्मत्तं सरमंडल) मा प्रभारमा समस्त २१२મંડળ-સાતસ્વર, ત્રણગ્રામ, એકવીશ મૂચ્છને અને ૪૯ તાન-આ પ્રમાણે છે તતા-તંત્રી, તાન, આ બધા પર્યાયવાચી શબ્દ છે ષડૂજ વગેરે સાત
વરોમાંથી દરેકે દરેક સાત તાનેથી ગવાય છે. એથી સસ તંત્રિકા યુક્ત વિણામાં ૪૯ તાનો હોય છે આમ એક તંત્રિકા યુક્ત વીણા અથવા ત્રિતંત્રિકાવાળી વીણામાં કંઠથી ગવાયેલ તાને પણ ૪૯ હોય છે આ પ્રમાણે સાત
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८२१ मनुयोगवन्द्रिका टीका सूत्र १६८ अष्टनामनिरूपणम् देव ताना भवन्ति । इत्थं षड्जादिमिः सप्तभि नामभिः सर्वस्यापि स्वरमण्डलस्य ग्रहणादिदं सप्तनामेत्युच्यते । इदमेवोपमहरन्नाह-'तदेतत् सप्तनामे ति॥मू. १६७॥
अथाष्टनाम निरूपयितुमाह--
मूलम्-से किं तं अटूनामे ? अट्रनामे अटविहा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तं जहा-निद्देसे पढमा होइ, बिइया उवएसणे। तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपयावणे॥१॥ पंचमी य अवायाणे, छट्टी सस्सामिवायणे। सत्तमी सपिणहाणत्थे, अट्ठमाऽऽमंतणी भवे॥२॥ तत्थ पढमा विभत्ती, निदेसे सो इमो अहं वत्ति । बिइया पुण उवएसे भण कुणसु इमं व तंवत्ति ॥३॥ तइया करणंमि कया, भणियं च कयं च तेण व मए वा। हंदि णमो साहाए, हवइ चउत्थी पयामि॥४॥ अवणय गिण्ह य एत्तो, इउत्ति वा पंचमी अवायाणे। छट्टी तस्स इमस्त व गयस्स वा सामिसंबंधे॥५॥ हवइ पुण सत्तमी तं, इमंमि आहारकालभावे य । आमंतणे भवे अट्ठमी उ जहा हे जुवाणत्ति॥६॥ से तं अट्ठणामे ॥सू०१६८॥ __ छाया-अथ किं तत् अष्टनाम ? अष्टनाम-अष्टविधा वचनविभक्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-निर्देशे प्रथमा भवति, द्वितीया उपदेशने । तृतीया करणे कृता, चतुर्थी नामों से समस्त भी स्वरमंडल का ग्रहण हो जाता है। इसलिये यह सतनाम ऐसा कहा जाता है। (सेत्तं सत्तनामे) इस प्रकार से यह सप्तनाम है । ।।सू० १६७ ॥
अब सूत्रकार अष्ट नाम का निरूपण करते हैं
"से किं तं अटुनामे" इत्यादि । નામોથી આખા સ્વરમંડળનું ગ્રહણ સમજવું જોઈએ એથી “સતનામ' આમ उपाय छे. (सेत सत्तनामे) मा प्रभार मा ससनामा छ ।सू०१६७।
હવે સૂત્રકાર અષ્ટ નામનું નિરૂપણ કરે છે– " से कि सं अटुनामे" त्याल
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अनुयोगदान संपदापने॥१॥ पञ्चमी च अपादाने, षष्ठी लस्वामिवाचने । सप्तमी सविधानाएं, अष्टमी आमन्त्रणी भवेत् ॥२॥ तत्र प्रथमाविभक्तिः , निर्देशे स. अयम् महंस इति । द्वितीया पुनरुपदेशे भण कुरु इदम् वा तत् वा इति ॥३॥ तृतीया करणे कुता
शब्दार्थ-(से किं तं अट्ठनामे) हे भदन्त ! वह अष्ट नाम क्या है ? (अट्ट बिहा वयणविभत्ती पण्णत्ता)
उत्तर-आठ प्रकार की जो वचनविभक्ति है वह अष्ट नाम है। जो कहे जाते हैं, वे 'वचन' हैं। तथा कर्ता, कर्म आदिरूप अर्थ जिसके द्वारा प्रकट किया जाता है वह 'विभक्ति' है। वचनों-पदों, की जो विभक्ति है वह 'वचनविभक्ति' है। ऐसा तीर्थंकर एवं गणधरों ने कहा है। वचनविभक्ति से यहां पर सुबन्त रूप प्रथमा आदि विभक्तियों को कहनेवाली वचनविभक्ति गृहीत हुई है। तिङ्गन्तरूप आख्यात विभक्ति नहीं। (तंजहा) वचनविभक्ति के आठ प्रकार ये हैं-(निद्देसे पढमा होइ) (प्रातिपदिक अर्थमात्र का प्रतिपादन करना इसका नाम निर्देश है । इस निर्देश में "सु औ, जस्त्र" यह प्रथमा विभक्ति होती है। (उचएसणे विइया) किसी एक क्रिया में प्रवर्तन होने के लिये इच्छा के उत्पादन करने में “अम् औटू शम्" यह द्वितीया विभक्ति होती है।" उवएसण" यह पद उपलक्षण है। इससे “ग्रामं गच्छति" इत्यादि पद में इसके विना भी द्वितीया विभक्ति होती है। (करणम्मि
शाय-(से किं तं अदनामे) B ! I मनाम छ ? (अट्ठ विहा षयणविभत्ती पण्णत्ता.)
ઉત્તર-આઠ પ્રકારની જે વચન વિભક્તિ છે તે અણનામ છે. જે કહેવામાં આવે છે, તે વચન છે તેમજ કર્તા, કર્મ વગેરે રૂપ અર્થ જેના વડે પ્રકટ કરવામાં આવે છે તે વિભક્તિ છે. વચન-પદેની જે વિભતિ છે તે વચનવિભકિત છે. આમ તીર્થંકરાએ અને ગણધરોએ કહ્યું છે વનવિભકિતથી અહી સુબખ્ત રૂપ પ્રથમ વિભક્તિઓને પ્રકટ કરનારી વચન વિભકિત ગૃહીત થયેલી છે તિન્ત રૂ૫ આખ્યાત વિભકિત નથી (ગા) વચન વિભકિતના मा प्रा। मा प्रमाणे छे. (निदेसे पहमा होइ) प्रातिप िभय मात्र प्रतिपाइन ४२७ तेनु नाम निहुँ छ. म निथमा सुधौ जसू' मा प्रथम वित य छे. (उपसणे बिइया) १४ मे लियाwi पतित या माटे U२पन ४२वामा 'अम्, औद् शस्' मा वितीय Gिalsत होय. "पवएसण" ५६ Saag नाय "प्रामं गच्छवि रे पटोwi
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अनुचोगवन्द्रिका का सूत्र १६८ अष्टनामनिरूपणम् मणितं च कृतं च तेन वा मया वा । हन्दि नमः स्वाहायै भवति चतुर्थीपदाने॥४॥ अपनय गृहाण च अस्मात् इतः इति वा पञ्चमी अपादाने । षष्ठी तस्य अस्य व गतस्य वा स्वामिसम्बन्धे॥५॥ भवति पुनः सप्तमी सा अस्मिन् आधारकालभावे च । आमन्त्रणे भवेत् अष्टमी तु यथा हे युवन् इति॥६॥ तदेतद् अष्टनाम|मु.१६८॥
टीका-से किं तं' इत्यादि--
अथ किं तत् अष्टनाम ? इति शिष्य प्रश्नः। उत्तरयति-अष्टनाम-अष्टविध नाम-अष्टनाम, तथाहि-अष्टविधा अष्टप्रकारा वचनविभक्तिः-उच्यन्ते इति वचनानि पदानि, विभज्यते-प्रकटी क्रियते कर्तृकर्मादिरूपोऽर्थोऽनयेति विभक्तिः, वचनानां विभक्तिः-वचनविभक्तिः प्रज्ञप्ता कथिता तीर्थकरगणधरैः। वचनविभतल्या कया) करण में "टा, भ्याम् भिस्" यह तृतीया विभक्ति होती है। (संपयावणे चउत्थी) संपदान में चतुर्थी के, भ्याम् भ्यम्-यह विभक्ति होती है। (अवायाणे पंचमीच) अपादान में उसि भ्याम् भ्यम्, "यह पंचमी विभक्ति होती है। (सरसामिवायणे छट्ठी) स्व स्वामी संबंध प्रतिपादन करने में " डस् ओस् आम्" यह षष्टी विभक्ति होती है। (सण्णिहाणत्थे सत्तमी) सन्निधान अर्थ में "डि ओम् सुप्" यह सप्तमी विभक्ति होती है। (आमंतणी अट्ठमा भवे) सन्मुख करने के अर्थ में संबोधनरूप आठवीं विभक्ति होती है। तात्पर्य कहने का यह है कि-'यहां पर सूत्रकार ने अष्ट नाम क्या है ? यह कहा है। नाम के विचार का प्रस्ताव होने से प्रथमादि विभक्त्यन्त नाम का ही ग्रहण किया गया है। यह नाम विभक्ति के भेद से आठ
सेना १५२ ५५ द्वितीय Als डेय छे. (करणम्मि तइया कया) ४२१मां "टा, भ्याम्, भिस्" । तृतीया nिlsd डाय छ (संपयावणे चउत्थी)
प्रहानमा यतुर्थी “के, भ्याम्, भ्यस् " मा य छे. (अवायाणे पंचमी च) अपानमा " सि, भ्याम् भ्यसू," मा पायभी विताय (सस्वामिवायणे छट्ठी) २१ स्वामी संध प्रतिपान ४२वामा ‘सू ओस आम्' ५४ी nिlsd .य छे. (मण्णिहाणत्थे सत्तमी) सन्निधान सभा 'डिओसू, सुर' मा सतभी nिlsd 3.4 छ. (आमंतणी अमामवे) અભિમુખ કરવાના અર્થમાં સંબોધન રૂપ આઠમી વિભકિત હોય છે મતલબ આ છે કે “અહીં સૂત્રકારે અણનામ એટલે શું? આ કહ્યું છે નામવિચાર વિષે જ પ્રસ્તાવ હોવા બદલ પ્રથમા વગેરે વિભકૃત્યંત નામનું જ ગ્રહણ કર. વામાં આવ્યું છે આ નામ વિભક્તિ ભેદથી આ પ્રકારના હોય છે. પ્રથમ
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क्तिस्तु नामविभक्तिः सुबन्तरूपा प्रथमादिका बोध्या, म तु विन्तरूपा-बाला विभक्तिः। अष्टप्रकारां वचनविभक्तिमेवाह-तद्यथा-निर्देशे-मातिपदिकार्थमाघस्स प्रतिपादनं निर्देशस्तस्मिन् 'म ओ जम्' इति प्रथमा विभक्तिर्मवति । उपदेने अन्यतरक्रियायां प्रवचनेच्छोत्पादने 'अम् नौट शम्' इति द्वितीया विमकि भवति । उपदेशनमित्युपलक्षणम् , तेन ग्राम गच्छतीत्यादौ तदन्तरेणापि भवति। करणे 'टा भ्यां भिम् ' इतितृतीया विभक्ति भवति । बत्र करण शब्दस्तन्वेष निर्दिष्टः । तेनात्र कर्तरि क्रियायां स्वातन्येण विवक्षितेऽर्थे देवदत्तादौ करणे क्रियासिद्धौ प्रकृष्टोपकारके च तृतीयाविभक्ति भवति । करोतीति करणा, 'कृत्यल्युटो बहुल' मिति वाहुलकात् कर्तरि ल्युट्। क्रियतेऽनेनेति. करणम् , करने प्रकार का होता है । प्रथमा विभक्ति द्वितीया विभक्ति आदि के मेद से विभक्तियां आठ हैं। इनमें प्रातिपादिकार्थ मात्र के प्रतिपादन में प्रथमा विभक्ति होती है । संस्कृत में कारक विभक्तियों को प्रकट करने के लिये सु औ जस् आदि २१ विभक्तियां-प्रत्यय, हैं। ये सुए. प्रत्यय कह लाते हैं । ये सुप्प्रत्यय जिन शब्दों में जुड़ते हैं उन्हें 'पातिपदिक' कहते हैं। सुप्प्रत्यय जुड़ने पर ही प्रातिपादिक शब्दों का वाक्य में प्रयोग हो सकता है। करण में तृतीया विभक्ति होती है। ऐसा जो कहा है वह तंत्र ( १ ) से कहा है । इसलिये तृतीया विभिक्तिकर्ता मेंक्रिया में स्वतंत्ररूप से विवक्षित देवदत्त आदि रूप अर्य में-एवं करण में-क्रिया की सिद्धि में प्रकृष्टतम उपकारक में-होती है। “कृस्यल्युटो बहुलम्" इस सूत्र के अनुसार कृत्य और ल्युट्प्रत्यय कर्ता और વિસતિ દ્વિતીયા વિભક્તિ વગેરેના ભેદથી વિભકિતએ આઠ છે આમાં ફકત પ્રાતિપદિકાર્થના પ્રતિપાદનમાં પ્રથમ વિભક્તિ હોય છે સંસ્કૃતમાં કારક વિભતિઓને પ્રકટ કરવામાં માટે સુ, ઓ, જસ વગેરે ૨૧ વિભકિતના પ્રત્ય છેછે એ સુપ પ્રત્ય કહેવાય છે એ સુપ પ્રત્યય જે શબ્દોમાં ઉમેરાય છે તે પ્રાતિપદિક કહેવાય છે સુ પ્રત્યય ઉમેરાયા પછી જ પ્રાતિપદિક શૉને વાક્યમાં પ્રયોગ થઈ શકે છે. કરણમાં તૃતીયા વિભક્તિ હોય છે, એવું છે કહેવામાં આવ્યું છે તે તંત્ર (સિદ્ધાંત)થી કહેવામાં આવ્યું છે એટલા માટે તૃતીયા વિભક્તિ ક7માં, ક્રિયામાં સ્વતંત્ર રૂપથી વિવશ્ચિત દેવદત્ત વગેરે રૂ૫ અર્થમાં અને કરણમાં ક્રિયાની સિદ્ધિમાં પ્રકૃeતમ ઉપકારક હોય છે. 'कृत्यल्युटो बहुलम्' मा सूत्र भुरण मृत्य' भने 'यु' प्रत्यय ने १२५ गन्ना आय छ मा प्रमाणे 'करोति इति करणम्, किसके
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मागोगादा का सूत्र १६८ अष्टनामनिरूपणम् न्युट् । संपदापने-संमदाने-दानस्य कर्मणा योऽमितस्तस्मिन् 'के भ्याम् भ्या! इति चतुर्थी विभक्ति भाति । अपादाने-अपायावधिभूते 'ङसि भ्याम् भ्यस्' इति पञ्चमी विभक्ति भवति । स्वस्वामिवाचने-स्वम्-भृत्यादि, स्वामी-राजादिस्तयों बांचने-तत्सम्बन्धपतिपादने 'डम ओम् आम्' इति षष्ठी विभक्ति मवति । सनि पानार्थे वाच्ये 'कि ओस् सप्' इति सप्तमी विभक्ति भवति। तथा-अष्टमीसंबोधनविभक्तिः आमन्त्रणी अभिमुखी करणार्या भवति । इत्थं सामान्येनोवा सम्मति सोदाहरणमाह-निर्देशे प्रथमा, विभक्ति भवति, यथा-सः अयम् अहं वेति। उपदेशे पुनः द्वितीया विभक्ति भवति । यथा-'भण कुरु इदं वा तवेति इथं प्रत्यक्ष यत् श्रुतं तद् भण, इदं प्रत्यक्ष कार्य कुरु, तत्-परोक्ष वा यत् श्रुतं तद् करण इन दोनों में होते हैं । इस प्रकार करोति इति करणः क्रियतेऽने नेति करणम् "यहां दोनो जगह ल्युट प्रत्यय हुआ है। दान रूप क्रिया के कर्म का जिसके साथ संबन्धकर्ता को इष्ट हो उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है । अपाय की अवधिभूत पदार्थ का नाम अपादान है। इसमें पंचमी विभक्ति होती है। स्वस्वामी संबंध में सेव्य सेवक आदि भाव लिया गया है । स्व का तात्पर्य सेवक, भृत्यादि से है और स्वामी का सेव्य राजादि से । सविधान और आमन्त्रणी इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट है। इस प्रकार सामान्य से कह कर अब सूत्रकार इस अष्ट नाम को उदाहरण देकर समझाते है-(तत्य निहेमे पढमा विभत्ती) निर्देश में प्रथमा विभक्ति होती है-जैसे (सो इमो अहं वत्ति) वह यह अथवा में। (विहया पुण उवएसे) उपदेश में द्वितीयाविभक्ति होती है जैसे-(भण कुणसु इमं व तं वत्ति) जो तुमने प्रत्यक्ष में सुना है, उसे कहो, इस सामने के काम को करो, जो परोक्ष में तुमने सुना है उसे कहो अथवा उस अनेन इति करणम्' मही' बन्ने स्थाने युट प्रत्यय ये छे. हान३५ ક્રિયાના કર્મને જેની સાથે સંબંધ કર્તાને ઈષ્ટ હોય તેમાં ચતુર્થી વિભકિત થાય છે. અપાય (જુદા થવું)ની અવધિભૂત પદાર્થનું નામ અપાદાન છે આમાં પંચમી વિભકિત થાય છે સ્વ સ્વામી સંબંધમાં સેવ્ય સેવક વગેરે ભાવ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે ત્વનું તાત્પર્ય સેવક નૃત્ય વગેરેથી છે અને સ્વામીનું સેવ્ય રાજા વગેરેથી સન્નિધાન અને આમન્ત્રણ આ સંબંધન શબ્દનો અર્થ સ્પષ્ટ છે.
આ પ્રમાણે સૂત્રકાર સામાન્ય રૂપમાં ઉલેખ કરીને હવે આ અષ્ટनामन सोही २९ समनवे छ. (तत्थ निदेसे पदमा विभत्ति) निशा प्रथम Gिalsa डाय छे. रेभ (सो इमो अहं वचि) 'ते,'' ' ' (विइया पुण सवएसे) Gपहेशमा भील dिalsa य छे. २ (भण कुणस इम व तबत्ति) २ तमे प्रत्यक्षमा सन्यु छे, तर ४, मा सामेनु म
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मात्र, तह-परोक्षं कार्य वा कुरु इति। तृतीया विभक्तिः करणे-कर्तरिकरणे । सति । यथा-भणितं च कृतं च तेन वा मया वेति, कर्तरीदमुदाहरणम् । करणेतु स्थेन याति' इत्यादिकं स्वबुद्धया विभावनीयम् । संप्रदाने चतुर्थी विभक्ति भवति, सूध-मुनये दानं ददाति । नमः शब्दयोगेऽपि चतुर्थी विभक्ति भवति, यथा'मन्दि | नमो जिनेश्वराय' इति । 'इन्दि' हति कोमलामन्त्रणे। अपादाने पंचमी भवति, यथा-'उपनय गृहाण एतस्मादितो वे'ति । स्वामिसम्बन्धे-स्वस्वामि भावसंबन्धे वाच्ये षष्ठी भवति, तथा-'गतस्य तस्य, गतस्य अस्य वा इदमस्ति' परोक्ष कार्य को करो। (तइया करणंमि-कया) तृतीया विभक्ति करण कर्ता और करण में होती हैं जैसे-(भणियं च कयं च तेण मएवा) उसने और मैंने कहा अथवा उसने और मैंने किया। यह उदाहरणकर्ता में हैं । करण में उदाहरण " वह रथ से जाता है" आादि हैं। ऐसे उदाहरण अपनी बुद्धी से और भी कल्पित कर लेना पाहिये । (चउत्थी संपयाणंमि हवह) चतुर्थी विभक्ति संपदान में होती हैजैसे (हंदि णमो सहाए) हन्दि ! जिनेश्वर के लिये नमस्कार हो, अग्नि के लिए स्वाहा हो (यहां पर 'हन्दि ' यह शब्द कोमलामंत्रण में आया है। इसी प्रकार से 'दा' धातु के योग में चतुर्थी होती है-जैसे वह मुनि के लिये दान देता है। (अवायाणे पंचमी) अपादान में पंचमी होती हैजैसे (अवणय गिण्ह य एत्तो ई उत्तिवा) इससे दूर करो अथवा इससे लेलो (सामि संबंधे) जहां स्व-स्वामी संबन्ध वाच्य होता है यहां पर षष्ठी विभक्ति होती है, जैसे (गयस्स तस्स गयस्स इमस्स व) गये हुए કવિ જે પક્ષમાં તમે સાંભળ્યું છે તેને કહે અથવા તે પક્ષકામને કરે. (वइया करणंमि कया) त्री विमति ४२५ त्ता भने ४२६मा डाय छ । (भणिय च कयं तेण मएवा) ते अने में प्रयुं भाते मन में ४ मा हा. હરણ કર્તામાં છે કરણમાં ઉદાહરણ આ પ્રમાણે છે-તે રથથી જાય છે વગેરે છે એવા Gsp। पातानी भुद्धिथी पित ४श से (चउत्थि संपयामि हाइ) यर्थी Gिalsत सहानमा य छ २म है (हंदि णमो सहाए) न्हि ! જિનેશ્વર માટે મારા નમસ્કાર અગ્નિ માટે સ્વધા અહીં “હન્દિ” આ શબ્દ કામલામંત્રણ માટે આવે છે આ પ્રમાણે “રા' ધાતુના વેગમાં ચતુર્થી बाय २ ते मुनि भोट हान भाषेछ. (अवायाणे पंचमी) अाहानमा पंचमी डायरेम (अवणय गिह य एत्तो इ उत्तिवा) माने ६२ ४२। यसनाथी as al. (मामि सबंधे) न्यो २१ मि समय पाया
पी Gिalsa थाय छ भ है (गयस्स तस्स गयस्स इमस्लव) गये
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १६८ अष्टनामनिरूपणम्
२० इति । आधारकालभावे-आधारे काले भावे च सप्तमी भवति, यथा-'तत् अस्मि' न्निति, अस्मिन् कुण्डादौ तद् वदरादिकं तिष्ठति, इत्यर्थः। अत्राधारे सप्तमी बोध्या। काले यथा-'मौ रमते' भावे तु-'चारित्रेऽवतिष्ठते' इति। आमन्त्रणे तु अष्टमी विभक्ति भवति । यथा-'हे यु'-निति । अत्र च नामविचारपस्तावाव प्रथमादि विभक्त्यन्तं नामैत्र गृह्यते । तथा चाष्ट विभक्तिभेदादष्टविधमिदं भवति । न च प्रथमादि विभक्त यन्तनामाष्टकमन्तरेणाऽपरं नामास्ति, अतोऽनेन नामाष्टकेने सर्वस्य वस्तुनोऽभिधानद्वारेण सङ्ग्रहादष्टनामेत्युच्यते, इति भावार्थः। एतदुप संहरबाह-तदेतदष्टनामेति ॥मू० १६८॥ उसको अथवा गये हुए इसकी यह वस्तु है। (आहारकालभाधे य सत्समी पुण हवइ) आधार में, काल में और भाव में सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-तं इमम्मि) इस कुण्ड आदि में यदरादि फल हैं। यह आधार में सप्तमी विभक्ति को दृष्टांत है। काल में सप्तमी विभक्ति का दृष्टान्त "मधौ रमते" कोयल वसन्त में आनंद पाती है, यह है । भाव में सप्तमी विभक्ति का दृष्टान्त- 'चारित्रेऽवतिष्ठते" यह साधु अपने चारित्र में उहरा हुआ है-यह है । (आमंतणे अट्ठमी भवे) आमंत्रण अर्थ में अष्टमी विभक्ति होती है । (जहा)-जैसे-(हे जुवाणत्ति) ये युवन्तरुण ! यहां पर नाम के विचार का प्रस्ताव होने से प्रथमादि विभक्त्या. न्त नाम ही ग्रहण किया गया है। इस प्रकार आठ प्रकार की विस. क्तियों के भेद से नाम आठ प्रकार का होता है। प्रथमादि विभक्त्यन्त नामाष्टक के विना और दूसरा नाम नहीं है । इसलिये इस नामाष्टक तनी भया येस सानी L१तु छ. (आहार कालभावे य सत्तमी पुण हवंह) આધારમાં, કાળમાં અને ભાવમાં સપ્તમી વિભકિત હોય છે જેમ કેइमम्मि) 0 3 पोरेमा म४२ वगेरे । छ मा आधारमा सभी GR.
तनु ७२ छ सभा सभी नितिनु हा २५ " मधौ रमते" કોયલ વસંતમાં આનંદ માણે છે ભાવમાં સપ્તમી વિભક્તિનું ઉદાહરણ " चारित्रेऽवतिष्ठते” ! साधु पोताना यात्रिमा स्थिर छे. (आमंतणे अटूमी) भाभत्र अर्थमा भाभी दिलत डोय छे. (जहा) रेभ (हे जा. णत्ति !) 3 युवन् ! तर ! मी नामपियार प्रस्ताव की प्रथमा परे વિભફયંત નામ જ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે આ પ્રમાણે આઠ પ્રકારની વિભક્તિના ભેદથી નામ આઠ પ્રકારના હોય છે પ્રથમા વગેરે વિભકત્યંત
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अनुयोगद्वारा अथ नवनाम निर्दिशति
मूलम्-से किं तं नवनामे?, नवनामे-णव कबरसा पण्णत्ता, तं जहा-वीरो सिंगारो अब्भुओ य रोदो य होइ बोद्धव्यो । वेलणओ बीभच्छो, हासो कलुणो पसंतो य॥१॥सू०१६९॥
छाया-अथ किं तत् नव नाम ? नवनाम-नव काव्यरसाः प्रनताः, तद्यथा-वीरः शृङ्गारः अद्भुतश्च रौद्रश्च भवति बोद्धव्यः। ब्रीडनको बीभत्सो हास्यः करुणः प्रशान्तश्च ॥ १॥मू० १६९॥ से समस्तवस्तुओं के कथन का संग्रह हो जाता है-अतः यह अष्ठमाम ऐसा कहा गया है। ( से तं अट्ठणामे ) इस प्रकार यह अष्ट माम है।॥ सू० १६८॥
अब सूत्रकार नव नामका कथन करते हैं"से किं तं नवनामे ?" इत्यादि ।
शब्दार्थ-(से किं तं नव नामे ? ) हे भदन्त ! वह नव प्रकार का माम क्या है ?
उत्तर-(नव नामे) नव नाम इस प्रकार से है-(णव कबरसा पण्णत्ता) काव्य के जो नौ रस हैं, वे ही नव नाम रूप से प्रज्ञप्त हुए हैं। (तं जहा) वे मौरस ये हैं-(वीरो सिंगारो, अन्भुभो य रोहो य होइ बोद्धव्यो। वेलजओ बीभच्छो हासो कलुणो पसंतोय) वीररस, शृंगाररस, अद्भुतरस रौद्ररस, वीडनकरस, बीभत्सरस, हास्यरस, करुणरस, और प्रशान्तरस। નામાષ્ટક સિવાય બીજું નામ નથી એટલા માટે આ નામાષ્ટકથી બધી વસ્તુઓને
6 यय . मेथी मा मनाम माम अपामा मा०यु छ (सेत भदृणामे) माम मा मनामे छे. ॥सू०११८॥
वे सूत्र॥२ नप नामनु ४थन ४२ छ-. " से कि त नवनामे ?" त्याहशहाथ-(से कि त नवनामे !) 3 महन्त ! नानु नाम शु.छ?
उत्तर-(नवनामे) न१ नाम मा प्रमाणे छे. (गव कचरसा पण्णत्ता) કાવ્યના જે નવ રસ છે તેજ નવા નામથી પ્રજ્ઞપ્ત થયેલ છે. (રંગ) તે નવ नामा ॥ प्रभारी छ. (वीरो सिंगारो, अब्भुमो य रोदो य होइ बोद्धव्वो। वेलगयो बीभच्छो हासो कलुणो पसंतो य) वा२२स, ॥२२स, अद्भुतरस, रौद्ररस, વીડનકાસ, બીભત્સરસ, હાસ્યરસ, કરુણરસ અને પ્રશાન્તરસ,
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प्रमुबोगचन्द्रिको टीका सूत्र १६९ नवनामनिरूपणे, टीका-'से कि तं' इत्यादि
अय किं तत् नव नाम ? इति शिष्य प्रश्नः । उत्तरयति-नवनाम-नवविधं मवनाम-नवसंख्यकाः काव्यरसा:-कवेः कर्म काव्यम्, रस्यन्ते-अन्तरात्मनाऽनु. सूयन्ते इति रसाः, तत्तत्सहकारि कारणसामीप्यात्समुद्भूताश्चित्तोत्कर्षविशेषा इत्यर्थः, उक्तं च
"वायाालम्बनो यस्तु, मूल्लसो मानसो भवेत् ।।
स भावः कथ्यते सद्भिस्तस्योत्कर्षों रसः स्मृतः॥" इति॥ -काव्ये समुपनिबद्धा रसाः काव्यरसाः प्रज्ञप्ताः कथिताः। तानेवाह-'वीरः
कारः' इत्यादिना-वीरयति-विक्रमयुक्तं करोति त्यागतपः-कर्म शत्रनिग्रहेषु प्रेरयति जनमिति वीरः-उत्तम प्रकृति पुरुष-चरितश्रवणादि हेतु समुद्भूतो दाना___ कवि के कर्मका नाम 'काव्य' है । अन्तरात्मा से जिनका अनुभव किया जाता है उनका नाम रस है। ये रस तत्तत्सहकारी कारणों की समीपता से चित्तमें जो उत्कर्ष विशेष उत्पन्न होते हैं उनरूप होते हैं। कहो भी है-"बाह्यार्थ इत्यादि-बाह्यार्थ के अवलम्बन से जो मानसिक उल्लास होता है वह 'भाव' है। इस भाव का उत्कर्ष रस है। काव्य मे उपनिषद्ध हुए रस काव्यरस शब्द के वाच्यार्थ हैं । जो रस मनुष्य को विक्रम युक्त करता है-अर्थात् त्याग में शत्रुओं के निग्रह करने में प्रेरित करता है-वह वीररस है । तात्पर्य कहने का यह है कि-रस का जो वीर यह वीशेषण है वह अन्यरसों की अपेक्षा इसमें यही विशेषता प्रकट करता है, कि इसरस के सद्भाव में त्याग में तपश्चरण में, और कर्मरूप शत्रु के निग्रह करने में विक्रमयुक्त आत्मपारिणाम होता કવિકર્મ કાવ્ય કહેવાય છે. અન્તરાત્માથી જે અનુભવાય છે તે રસ કહેવાય છે એ રસ તત્તત્સહકારી કારની સમીપતાથી ચિત્તમાં જે ઉત્કર્ષ વિશેષ ઉત્પન્ન કરે
ते अनु३५ डाय छे ५ है-" बाह्यार्थ इत्यादि-" माना અવલંબનથી જે માનસિક ઉલ્લાસ હોય છે તે “ભાવ” છે. તે ભાવને ઉત્કર્ષ રસ છે કાવ્યમાં ઉપનિબદ્ધ થયેલ રસ કાવ્ય રસ શબને વાચ્યાર્થ છે જે રસ માણસને વીરત્વપૂર્ણ કરે છે એટલે કે ત્યાગમાં, તપમાં અને કર્મ૫ શત્રુઓના નિગ્રહ કાર્યમાં પ્રેરિત કરે છે તે વીર રસ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે રસનું જે વીર વિશેષણ છે તે બીજા રસો કરતાં આમાં એજ વિશેષતા પ્રકટ કરે છે કે આ રસના સદૂભાવમાં, ત્યાગમાં, તપશ્ચરણમાં અને કર્મરૂપ શત્રુનિગ્રહમાં વીરત્વપૂર્ણ આત્મપરિણામ હોય છે. અને
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भनुयोगदारको द्यत्साहप्रकरमको रसः । रस इति सर्वत्र योजनीयः ॥२॥ शृङ्गारः शृप्रा. धान्यम् इति-गच्छतीति-शृङ्गारः । अतएव
"शृङ्गार -हास्यकरुण,-रौद्र-वीर भयानकाः ।
बीभत्साऽद्भुनशान्ताच, नव नाटये रसाः स्मृताः ॥ इत्यत्र शृङ्गारस्यैव प्रथममुपादानं कृतम्। अत्र तु वीररसस्य प्रथमत उपादानम् । अत्रायं हेतुः-त्यागतपःकर्मनिग्रहगुणो वीररसे भवति । अतोऽस्य सर्वरसप्रधानत्वम् । उक्तं च-"त्यागेन कर्ममलमेति लयं समस्तं, त्यागेन निर्मळतरस्वमुपैति जीवः । त्यागेन केवलमवाप्य समेति सिद्धिं, त्यागो गुणो गुणशतादधिको मतो मे"॥१॥ है। और वह परिणाम उस मनुष्य को उस ओर बढ़ने के लिये प्रेरणा देता है। इस प्रकार के परिणाम की-उदभूति के कारण उत्तम प्रकृतिवाले सत्पुरुषों के चरित्र श्रवण वगैरह हैं। इसलिये यह रस दानादिको में उत्साह का प्रकर्ष होने रूप है 'रस शब्द का संबन्ध सर्वत्र वीर, शृंगार आदि के साथ लगा लेना चाहिये " शृंगप्राधान्यं इयति गच्छनि इति शृंगारः " जो रस प्रधान रूप से विषयों को ओर प्रेरित करता है वह रस शृंगार है। इसलिये-"श्रृंगार हास्य-काग" इत्यादि इलोक में इस शृंगार रसका प्रथम उपादान किया गया है। परन्तु यहां मूत्र में वीररस का प्रम पाठ रखा है सो उप्तका कारण यह है कि लोग में, तप में एवं कर्मनिग्रह करने में प्रेरणा देना रूप जो गुग है वह एक इस वीरग्म में है। इसलिये इसमें सर्व रसों की अपेक्षा प्रधानना है कहा भी है " स्यागेन इत्यादि "તે પરિગુમ તે માણસને તે તરફ આગળ વધવામાં પ્રેરણા આપે છે. આ જાતના પરિગામની ઉદ્બતિમાં ઉત્તમ પ્રકૃતિ (સ્વભાવવાળ) સંતના ચરિત્ર શ્રવણ વગેરે જ કારણ છે. એટલા માટે આ રસ દાન વગેરેમાં ઉત્સાહના-કર્ષ માટે છે વીર, પગાર વગેરે રસોની સાથે પણ રસ શબ્દને સંબંધ બાં ans . (शृंग-प्राधान्य इर्यति गच्छति इति शृंगार:-२ २ प्रधानता विषय त२६ पाणे ते २४ ॥२ छे. मेथी । " श्रृंगारहास्यकरुण" “ વગેરે લોકમાં આ શૃંગાર રસનું સૌથી પહેલા ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. પણ અહીં સૂત્રમાં વીરરસને પાઠ પહેલાં રાખવામાં આવ્યું છે. તેનું કારણ એ છે કે લોકોને તપ અને કમનિગ્રહ કરવામાં જે પ્રેરગાત્મક ગુણ હોય છે તે આ ફક્ત વીરરસમાં જ હોય છે. એટલા માટે આમાં બધાં २सानी अपेक्षा प्राधान्य छे. युं ५५ छे “त्यागेन इत्यादि " पाया
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अनुगमनका टीका सूत्र १६९ नवनामनिरूपणम् ति, 'परलोकाविगं धाम तपः श्रुतम्' इति च । तपः श्रुतं चे त्यपि मोक्षमापकमि स्यर्थः मोऽत्र वीररसस्य प्रथममुगदानम् ॥२॥ अद्भुत:-श्रुतं शिल्पं त्यागतपः शौर्यकर्मादि वा यस्य सकल ननातिगमस्ति, तदेवंविधमपूर्व किमपि वस्तु अद्भुतमित्युच्यते । तदर्शनश्रवणजो रसोऽप्युाचाराद् विस्मयरूपोऽदभुतः ॥३॥ रौद्रः रोदयति-प्रतिदारुणतया अणि मोचयतीति रौद्रम्-शत्रजन-महारण्य-गाढतिमिरादि, तदर्शनाशुद्भवो विकृताध्यवसायरूपो रसोऽपि रौद्रः ॥४॥ वीडयतित्याग से कर्मरूप मैल विलय-विनाश-को प्राप्त होता है, त्याग से जीव निर्मलता को प्राप्त करता है, त्याग से ही केवलज्ञान को पाकर के आत्मा सिद्धि को पाता है। इसलिये सैंकडों गुणो से अधिक एक त्याग गुण माना गया है। तथा-"परलोकातिगं धाम तपः श्रुतम्" अर्थात् तप और श्रुत ये भी मोक्ष को प्राप्त करानेवाले हैं " इसलिये यहां सूत्र में वीर रस का सर्व प्रथम उपादान किया गया है। श्रुत, शिल्प, अथवा त्याग, तप, शौर्य कर्म आदि जिसके सकल जनों की अपेक्षा अधिक हैं इस प्रकार की वह कोई भी अपूर्व वस्तु अद्भुत कहलाती है। उस अपूर्ववस्तु के दर्शन से या श्रवण से जो रस उत्पन्न होता है, वह रस भी उपचार से ' अद्भुत रस' कहलाता है। यह विस्मय रूप होता है। जो अतिदारण होने के कारण रूलाता है-अर्थात् अश्रुओं को निकलपाता है वह 'रौद्र' है। शत्रु, जन, महाअरण्य गाढतिमिर आदि रौद्ध है। इनके दर्शन आदि से अद्भुत हुआ विकृत अध्यवसाय-परिणाम કર્મરૂપ માલિન્ય વિલય-વિનાશને પામે છે. ત્યાગથી છવ નિર્મળ થાય છે. ફત ત્યાગથી જ કેવળજ્ઞાનને મેળવીને આત્મા સિદ્ધિ પામે છે. એટલા માટે હજારો ગુણે કરતાં પણ વધારે પડતે ત્યાગગુણ મનાય છે. તેમજ " परलोकातिगं धाम तपःश्रुतम् " मेटले त५ भने श्रुत ५५ मोक्ष मापનારા છે એથી અહીં સૂત્રમાં વીરરસનું સર્વપ્રથમ ઉપાદાન કરવામાં આવ્યું છે શ્રત, શિલ૫, અથવા ત્યાગ, તપ શૌર્ય કમ વગેરે જેના સૌ કરતાં વધારે છે, એવી ગમે તે વસ્તુ હોય-તે તે પણ અદ્ભુત કહેવામાં આવશે જ એ પૂર્વ વસ્તુના દર્શનથી કે શ્રવણથી જે રસ ઉદ્ભવે છે તે રસ પણ ઉપચારથી અદ્દભુત રસ કહેવાય છે. આ વિસ્મય રૂપ હોય છે. જે અતિદાસણ હોવા બદલ રડાવે છે એટલે કે અશ્ર વહેવડાવે છે તે રીદ્ર છે. શત્રએ. મહારશ્ય, ગાઢતિબિર, વગેરે રૌદ્ર છે. એમના દર્શન વગેરેથી ઉદ્દભવેલ વિકત અધ્યવસાય-પરિણામ રૂપ રસ પણ રૌદ્ર છે જે લજાજનક છે તે.
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लज्नामुत्पादयतीति वीडनकः-लज्जास्पदवस्तुदर्शनादि-जन्यो मनोग्लानादि रूपोऽयं रसः । अस्य स्थानेऽन्यत्र भयानको रसः प्रोक्तः । अयं हि-भयजनक संग्रामादि दर्शनेन जायते । अस्य रौद्ररसेऽन्तर्भावनादत्र नायं पृथगुक्तः ॥५॥ बीभत्सः-शुकशोणितोच्चारप्रस्त्रवणाधनिष्टोद्वेगजनकवस्तुदर्शनश्रवणादिजो जुगुप्सापकर्षों रसो बीभत्सः ॥६॥ हास्यः-हास्यास्पदविकृताऽसम्बद्धपरवचनवेषालङ्कारादिश्रवणदर्शनजो मनःप्रकर्षादि चेष्टात्मको रसो हास्यरसः॥७॥ करुणःप्रियविषयोगादि दुःखहेतुसमुद्भवः शोकप्रकर्षस्वरूपो रसः करुणरसः । कुत्सित रूप रस भी रौद्र है । जो लज्जा को उत्पन्न करता है वह 'वीडनक' है। यह रस लज्जास्पद वस्तु के देखने आदि से उत्पन्न मनोग्लानि आदि रूप होता है । इसके स्थान में दूसरी जगह भयानक रस कहा गया है । यह भय जनक संग्राम आदि के देखने से उत्पन्न होता है। इसका अन्तर्भाव रौद्र रस में करलिया है, इसलिये उसे यहां पृथक नहीं कहा गया है। शुक्र, शोणित, उच्चार-विष्टा, प्रस्रवण-पेशाव, मूत्र, आदि जो अनिष्ट एवं उद्वेग जनक वस्तुएँ हैं, उनके देखने से, सुनने आदि से जो जुगुप्सा का प्रकर्ष होता है वही जुगुजुप्ता प्रकर्ष विभत्स रस कहलाता है। हास्यास्पद, विकृत एवं असंबद्ध ऐसे दूसरों के वचन सुनने से, वेष अलंकार आदि के देखने से जो मनप्रकर्ष आदि केचेष्टात्मक रस होता है वह 'हास्य रस है। मिय पदार्थ के वियोग से जन्य दुःख आदि हेतु से उद्भूत हुआ शोक प्रकर्ष स्वरूप जो रस है वह 'करुणरस' है । जीससे प्राणी बुरी तरह से रोता है अथवा जिसके વીડનક છે. આ રસ લજજાજનક વસ્તુ જેવા વગેરેથી ઉત્પન્ન થયેલ મને ગ્લાનિ વગેરે રૂપ હોય છે. એના સ્થાને બીજી જગ્યાએ ભયાનક રસ કહેવામાં આવ્યું છે. આ ભયાનક રસ સંગ્રામ વગેરે જેવાથી ઉત્પન્ન થાય છે અને અન્તર્ભાવ રૌદ્ર રસમાં જ કરવામાં આવ્યું છે. એથી અહીં પૃથક કથન કર્યું નથી શક, શોણિત, ઉચ્ચાર–મલવિષ્ટા, પ્રસવણ-મૂત્ર વગેરે જે અનિષ્ટ અને ઉછે. ગજનક વસ્તુઓ છે એમને જેવાથી, સાંભળવા વગેરેથી જે જુગુપ્સાત્મક ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તેજ જુગુપ્સાપ્રકર્ષ રસ બીભત્સ રસ કહેવાય છે. હાસ્યજનક, વિકૃત અને અસંબદ્ધ એવા બીજા માણસના વચન સાંભળવાથી વેષ અલકાર વગેરે જેવાથી જે મન:પ્રકર્ષ વગેરે ચેષ્ટાત્મક રસ હોય છે તે હાસ્ય રસ છે. પ્રિયપદાર્થના વિયેગથી જન્ય દુઃખ વગેરે હેતુથી ઉદ્ભૂત થયેલ શોક પ્રાર્થ સ્વરૂપે જ રસ છે તે કરૂણ રસ છે જેનાથી પ્રાણી ભયંકર રીતે રડે છે અથવા
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७० सलक्षणवीररसनिरूपणम् ८३३ रौत्यनेनेति करुणास्पदत्वाद् वा करुणः, इत्युभयविधाऽपि करुणशब्दव्युत्पत्तिबोध्या ।।८। प्रशान्तःपरमगुरुनचाश्रवणादि हेतुसमुद्भव उपशमप्रकर्षात्मको रसः पशान्त रसः। प्रशाम्यति-क्रोधादिजनितचित्तविक्षेपादिरहितो भवत्यनेनेति प्रशान्तशब्दव्युत्पत्तिर्बोध्या ॥९॥ मू० १६९ ॥
एतानेव रसान् लक्षणादि द्वारेण विवक्षुः प्रथमं तावद् वीररसं लक्षणनिर्देशपुरस्सरं निरूपयति
मूलम्-तत्थ परिच्चायमि य, तवचरणसत्तुजणविणासे य। अणणुसयधिइपरक्कम-लिंगो वीरो रसो होइ॥१॥ वीरोरसो जहा-सो नाम महावीरो, जो रजं पयहिऊणपव्वइओ। कामकोहमहासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणइ॥२॥सू०१७०॥ ___ छाया-तत्र-परित्यागे च तपश्चरणे शत्रुजनविनाशेच। अननुशयधृतिपराक्रमकारण प्राणी करुणा का आस्पद (स्थान) बनता है, वह रस 'करुणरस' है। करुणशब्द की दोनों प्रकार की यह व्युत्पत्ति संगत जाननी चाहिये। परमगुरूओं के वचन श्रवणादिरूप हेतु से उद्भूत जो उपशम की प्रकपतारूपरस है, वह 'प्रशान्तरस है। जिसके द्वारा प्राणी क्रोध आदिसे जनित-चित्त विक्षेप आदि से विहीन बन जाता है ऐसी यह प्रशान्त शब्द की व्युत्पत्ति है । ॥ सू० १६९ ॥
अब सूत्रकार इन्हीं रसों को लक्षणोदि द्वारा कहने की इच्छा से सर्व प्रथम लक्षण निर्देश पुरस्सर वीररस का कथन करते हैं।
"तत्थ परिच्चायंमि" इत्यादि।
शब्दार्थ-(तत्थ) इन नवरसों के बीच में (परिच्चायंमिय तव चरण. જેનાથી પ્રાણી કરૂણા પૂર્ણ થઈ જાય છે તે રસ કરૂણ રસ છે. કરૂણ શબ્દની આ બન્ને પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ એગ્ય જ કહેવાય પરમગુરૂજનના વચન શ્રવણ વગેરે રૂપ હેતુથી ઉદ્ભૂત જે ઉપશમની પ્રકર્ષતા રૂપ રસ છે તે પ્રશાન્ત રસ છે. જેના વડે પ્રાણી ક્રોધ વગેરેથી ઉદ્ભવેલ ચિત્તવિક્ષેપાદિથી વિહીન થઈ જાય છે પ્રશાન્ત શબ્દની આ વ્યક્તિ છે. સૂ૦૧૬લા
હવે સૂત્રકાર એજ રસોને લક્ષણે વગેરે દ્વારા સ્પષ્ટ કરવાની અપેક્ષાથી અહીં સર્વ પ્રથમ વીર રસનું કથન લક્ષણ નિર્દેશ પુરસ્સર કરે છે – ___ “तत्थ परिच्चायमि" त्या:
शाय-(तत्थ) मा न१ २सोमi (परिचायमि य तवचरणसत्तुजण अ० १०५
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भनुयोगवार लिङ्गो वीरो रसो भवति ॥१॥ वीरो रसो यथा-स नाम महावीरो यो राज्यं प्रहाय मनजितः। कामक्रोधमहाशत्रुपक्षनिर्यातनं करोति ॥रा सू० ॥१७० ॥
टीका-'तत्थ' इत्यादि
तत्र तेषु नव रसेषु मध्ये परित्यागे च तपश्चरणे च शत्रुजनविनाशे अननु. शयधृतिपराक्रमलिङ्गो वीरो रसो भवति । अयं भावः-परित्यागे-दाने अननुशय. लिङ्ग:-अनुशयः-गर्वः पश्चात्तापो वा, स लिङ्गंलक्षणं यस्य सोऽनुशयलिङ्गः, न अनुशयलिग अननुशयलिङ्गः-दानं दत्वाऽहकारं पश्चात्तापं वा न करोति तदा वीरो रसो बोध्यः । तपश्चरणे =तपसि धृतलिङ्गः धैर्यचिहातपश्चर्यायां धैर्यमेव करोति न पश्चात्तापं तदा वीरो रसो भवति । शत्रुविनाशे शत्रूणामुन्मूलने पराक्रमलिङ्ग सत्तुजणविणासेय) परित्याग करने में, तपश्चरण करने में और शत्रुजन के विनाश करने में अणणुसयधिइपरक्कम-लिंगो वीररसो होइ) अननुशय धृति, पराक्रम इन चिन्हों वाला वीररस होता है। अनुशय शब्द का अर्थ गर्व अथवा पश्चात्ताप है। यह जिसका लक्षण है, वह अनुशयलिङ्ग है यह लिङ्ग जिसमें नहीं होता वह अननुशय लिङ्ग है दान देकर के जो अहंकार या पश्चात्ताप नहीं करता है, उससमय वीररस होता है । तपश्चर्या करने में जो धैर्यरखता है-पश्चात्ताप नहीं करता है वह वीररस का काम है। "शत्रुजन के विनाश करने में जो पराक्रमका अवलम्बन करता है वैक्लब्य-विकलता कमजोरी हृदय में नहीं लाता है, यह सब वीररस के द्वारा होता है। इन अननुशय, धैय और पराक्रम लक्षणों से यह जाना जाता है कि 'यह मनुष्य वीररस में वर्तमान है। इसीप्रकार से अन्यत्र भी समझना विणासे य) परित्या ४२वामा, तपश्व२५ ४२i, भने शत्रुभाना विनाश ४२पामा (अणणुमयधिइपरक्कमलिंगो वीररसो होइ) अननुशय, पति, ५२१કમ આ લક્ષણવાળો રસ વીરરસ કહેવાય છે. અનુશય શબ્દને અર્થ ગર્વ–અથવા પશ્ચાત્તાપ છે. આ જેનું લક્ષણ છે, તે અનુશય લિંગ છે. એ જેમાં તે નથી. તે અનનુશય લિંગ છે. દાન આપીને જે અહંકાર કે પશ્ચાત્તાપ કરતું નથી તે વીરરસ કહેવાય છે. તપશ્ચર્યામાં જે છે રાખે છે–પશ્ચાત્તાપ કરતું નથી તે વીરરસને લીધે જ. શત્રુજનના વિનાશાથે જે પરાક્રમ બતાવે છેલવ્ય-વિકલતા-નબળાપણું બતાવતું નથી તે વીર રસને લીધે જ. આ સર્વે અનન્શય, ધૈર્ય અને પરાક્રમના લક્ષણેથી એમ જણાય છે કે આ માણસ વીરરસ યુક્ત છે. આ પ્રમાણે બીજે પણ સમજવું જોઈએ,
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७० सलक्षणवीररसनिरूपणम् ८३५ पराक्रमचिह्नः परक्रमते न तु वैक्लव्यमवलम्बते तदा च वीरो रसो भवति । एतैत्रिभिलक्षणे ओते यदयं जनो वीरे रसे वर्तते इति। एवमन्यत्रापि बोध्यम् । सम्मति उदाहरणं दर्शयितुमाह -वीरो रसो यथा यथा येन प्रकारेण वीरो रसो ज्ञायतेतथीच्यतेऽनुपदवक्ष्यमाणया गाथया 'सो नाम' इत्यादि रूपया। यो राज्यं परित्यज्य प्रबजितः सन् कामक्रोधरूपमहाशत्रुपक्षस्य निर्यातनं विनाशं करोति स नाम निश्चयेन महावीरो भवति । वीररसे यथा पुरुषचेष्टापतिपाद्यते तथैवैवंविधेषु काव्येषु पुरुषचेष्टापतिपादनात् वीरो रसो बोध्यः । तथा चात्र मोक्षप्रतिपादके प्रस्तुतशास्त्रे महापुरुषविजेतव्यकामक्रोधादिमावशत्रु नयेनैव वीररसोदाहरणम् । मा. चाहिये । अब सत्रकार (वोरो रसो जहा) वीररस जिस प्रकार के दृष्टान्त से जाना जाता है, उस प्रकार के दृष्टान्त को इस गाथा द्वारा प्रकट करते हैं-(सो नाम महावीरो जो रज्ज पयहिऊण पव्वहओ, काम कोह. महासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणइ ) 'जो राज्य का परित्याग करके दीक्षित होता है और दीक्षित होकर जो-कोम क्रोध रूप महाशत्रु के पक्षका विनाश करता है वह निश्चय से महावीर होता है। वीररस में जैसी पुरुष चेष्टा कही जाती है वैसी ही पुरुष चेष्टा इस प्रकार के काव्यों में प्रकट की जाती है अर्थात् वर्णित की जाती है-इसलिये वहां वीररस जानना चाहिये । यह प्रस्तुत शास्त्र मोक्ष का प्रति. पादन करने वाला है । इसलिये इसमें महा पुरुष द्वारा विजेतव्य जो कोम क्रोध आदि भावशत्रु हैं, उनके जीतने से ही वीररस का उदा. हरण कहा गया है। साधारण मनुष्पद्वारा साध्य-ऐसे संसार का कारण
वे सूत्र.२ मा (वीरो रसो जहा) वी२२० २ आना al નથી જાણવામાં આવે છે તે પ્રકારના દૃષ્ટન્તને આ ગાથા વડે २५५८ ४रे छ-(सो नाम महावीरो जो रज्जं पयहिऊग पव्वदओ, कामकोह महासत्तुपक्खनिग्धायणं कुणइ) २ शयना पैसपने त्यने ही असर કરે છે અને દીક્ષિત થઈને જે કામ-ક્રોધ રૂપ મહાશત્રુનાં પક્ષને વિનષ્ટ કરે છે, તે ચક્કસ મહાવીર હોય છે. વીરરસમાં જેવી પુરૂષ–ચેષ્ટા કહેવામાં આવે છે તેવી પુરૂષચેષ્ટા આ જાતના કાવ્યોમાં પ્રકટ કરવામાં આવે છે એટલે કે વર્ણવવામાં આવે છે. એથી ત્યાં વીરરસ જાથ જોઈએ આ પ્રસ્તુતશાસ્ત્ર મોક્ષપ્રતિપાદક છે. એટલા માટે આ શાસ્ત્રમાં મહાપુરૂષ વડે વિજેતવ્ય કામ, ક્રોધ વગેરે શત્રુભાવે છે, તેમને જીતવાના જ વીરરસના ઉદાહરણે પ્રસ્તુત आता मा०य छे. सामान्य माणुस, १९ मे) ARUsna
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अनुयोगद्वारसूत्रे कृतमनुजसाध्यसंसारकारणद्रव्यशत्रुनिग्रहस्यापस्तुतत्वान्न तयाधिोदाहरणमत्र दत्तम् । एवमन्यत्रापि बोध्यम् ।।मू० १७०।।
अथ द्वितीयं शृङ्गाररसं सलक्षणं निरूपयति___मूलम्-सिंगारो नाम रसो रतिसंजोगाभिलाससंजणणो। मंडणविलासविडोयहासलीलारमणलिंगो॥॥ सिंगारो रसो जहा महुरविलाससलियं हियउम्मादणकरं जुवाणाणं। सामा सदुद्दामं दाएती मेहलादामं॥५॥ धी धीमं सिंगारे, साहणं जो उवजियवो य। मोक्खगिहअगला सो, नायरियबो य मुणिहि इमो॥६॥सू० १७१॥ ___ छाया- शृङ्गारो नामरसो रतिसंयोगाभिलाषसंजननः । मण्डनविलास वि. मोक हास्य लोलारमणलिङ्गोः ॥४॥ शृङ्गारो रसो यथा-मधुरविलाससुललितं हृद. योन्मादनकरं यूनाम् । श्यामा शब्दोद्दामं दर्शयति मेखलादाम।।५। घिधिग् इमं शृङ्गारं, साधूनां यस्तु वर्जितव्यश्च । मोक्षगृहार्गला सः, नाचरितव्यश्च मुनिभिरयम् ॥६॥ सू०१७१।।
टीका -'सिंगारो' इत्यादि
शृङ्गारो नाम रसो हि-रतियोगाभिलाषसंजनना-तिः रतिकारणानि ललनादीनि गृह्यन्ते कार्य कारणोपचारात्, तत्संयोगामिलापस्य-ललनाभिः सह भुत जो द्रव्य शत्रु का निग्रह करना है वह यहां अप्रस्तुत है । इसलिये 'सूत्रकारने इस प्रकार का उदाहरण यहां नहीं दिया है इसी प्रकार से अन्यत्र भी जानना चाहिये ॥ सू० १७०॥
अप सूत्रकार लक्षण सहित शृंगार रस का निरूपण करते हैं"सिंगारो नाम रसो" इत्यादि ।
शब्दार्थ- (सिंगारो नाम रसो रतिसंजोगाभिलास-संजणणो) शृङ्गार नामक रस रतिसंयोगाभिलाष जनक होता है। रति से જે દ્રવ્યશત્રુનું દમન કરવું તે અહીં અપ્રસ્તુત છે. એથી જ સૂત્રકારે આ જાતનું "ઉદાહરણ અહીં આપ્યું નથી આ પ્રમાણે બીજે પણ જાણવું જોઈએ. સૂ૦૧૭ના
હવે સૂત્રકાર લક્ષણસહિત શૃંગારરસનું નિરૂપણ કરે છે– " सिंगारो नाम रसो" त्यालि
शा-(सिंगारो नाम रसो रतिसंजोगाभिलाससंजणणो) भार २४ રતિસાગાભિલાષજનક હોય છે. અહી રતિથી કાર્યમાં કારણના ઉપચારત્રી
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७१ सलक्षणशृङ्गाररसनिरूपणम्
રૂ
सङ्गमेच्छायाः संजननः = समुत्पादकः तथाच मण्डनविकास विन्चोक हास्य रमणलिङ्गः- मण्डनम् - अलङ्कारैर्गात्रालङ्करणम्, विलासः - प्रियसमीपगमने यः स्थानासंनगमनविकि तेषु विकारोऽकस्मान्न क्रोधस्मित चमत्कारमुखविक्लवनं स विलासः, विश्वोकः = अभिमतप्राप्तोपि गदनादः, सापराधस्य सक्चन्दनादिना संयमनं ताडनं च, हास्यम् = पतीतार्थम्, लीळा = कामगमन भाषितादि रमणीयचेष्टा, अलब्धप्रियसमागमया स्त्रिया स्वचित्तविनोदार्थे प्रियस्य या वेषगतिदृष्टिह सितमणितैरनुकृतिः क्रियते सा वा लीला, रमणं क्रीडनम् एतानि त्रि-चिह्नं यस्य स तथाविधो भवति । उदाहरणमाह- शङ्कारो रसो यथा श्यामा - षोडशवर्षदे
"
यहां पर कार्य में कारण के उपचार से रति के कारणभूत जो ललना आदि पदार्थ हैं, वे ग्रहण किये गये हैं। उनके साथ संगम की इच्छा का जनक यह शृङ्गार रस होता है । ( मंडणाविलासविषोय, लीलारमण लिंगो) अलंकारों से शरीर को सज्जित = अलंकृत, करना इसका नाम 'मण्डन' है । प्रिय के समीप जाने में जो स्थान, आसन, गमन, एवं विलोकन में विकार और अकस्मात क्रोध, स्मित, चमत्कार, मुख विक्लवन होता है, वह विलास है। अभिमत की प्राप्ति में भी गर्व (अहंकार) से अनादर करना और अपराधसहित का स्रक - माला चंदन आदि से संयमन करना, ताडन करना, यह विश्वोक है । हास्य - हँसना । सकाम गमन एवं भाषित आदि जो रमणीय चेष्टाएँ हैं, वे 'लीला' हैं । अथवा जिस स्त्री को प्रिय का समागम अलब्ध हो रहा है, वह जो अपने चित्त को विनोदित करने के लिये प्रिय के वेष
રતિના કારણુ જે તવના વગેરે પદાર્થો છે તેમનુ` ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે, તેમની સાથે સંગમની ઇચ્છાનેા ઉભાવક આ શુ′ગાર રસ હાય છે. (મંગળविलास्वविब्वोय, ह्रास, लीला रमणलिंगो) असारथी शरीरने सुबित
शङ्कृत-१२वु तेनु' नाम 'भ'उन' छे. प्रियनी पासे तां के स्थान, आसन, शमन भने विखेोउन विहार तेभन सोयिता- डोध, स्मित, यमકાર, મુખવિજ્ઞવન હોય છે, તે વિશ્વાસ છે અભિમતની પ્રાપ્તિમાં પણ ગવ (अडडा२) थी मनाह२ ४२वा, तेमन अपराधीनु स्त्र-भाषा-यहन वगेरेथी સચમન કરવું, તાડન કરવુ' વિખ્ખાક છે. હાસ્ય-હસવુ. સકામ ગમન અને लावित ? रमणीय येष्टाओ छे, ते 'सीसा' हे अथवा ने श्री प्रियसभाગમ મેળવી શકી નહી' તેવી સ્ત્રી પાતાના ચિત્તને પ્રસન્ન કરવા માટે પ્રિયના बेष गतिनु दृष्टिनुं, हास्यनुं, वाणीतुं भानुम्र मेरे छे, ते 'बीसा' छे.
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अनुयोगद्वारसूत्रे शीया-स्त्री, 'इशमा षोडशबाविकी' इत्यभिधानात् , शन्दोदाम-शदउद्दामा प्रचुगे र तत्-किङ्किणी मुखरम् 'उदाम' शब्दम्ग निपात आर्ष वात् ,अत एव यूना=रुणानां हृदयो माइक भवलत्मरप्रजटी. व हृदयोन्मनता विधायकं स्वकीयं मेखलादाम अटिसूत्रं मधु विलापललिधुरैः कामिजनहृदया. हादकतया माधुर्यमुरगतैः येलासः सकामचेष्टाविशेौ. गुललितम् अतिशयमनोहारि यथास्यात्तथा दर्शयति । शृङ्गारप्रधानचेष्टापतिपादनादयं शृङ्गारो रसः , का, गति का, दृष्टि का, हास्य का, षोली का अनुकरण करती है, वह 'लीला' है। क्रीडा करना इसका नाम रमण है । इस शृङ्गार रस के मंडन, विलास , विबोक, हास्य, लोला और रमण ये चिह्न हैं।
अब सूत्रकार (सिंगारो रसो जहा) यह शृङ्गार रस जिस प्रकार से जाना जाता है, उस प्रकार को इस गाथा द्वारा प्रकट करते हैं-(सामो) "श्यामा षोडशवार्षिकी" इस कथनानुसार कोई षोडशवर्षदेशीयासोलह वर्ष की अवस्था वाली तरुण वयस्का-स्त्री (मदुद्दाम) क्षुद्रघंटिकाओं के शब्द से मुखरित अतएव (जुवाणाणं) युवा पुरुषों के (हियउम्मादणकरं) हृदय को प्रबलस्मरकी पीड़ा उत्पन्न करने से उन्मत्त करने वाले ऐसे (मेहलादाम ) अपने कटिसूत्र को (महुरविलाससुललियं) कामिजनों के हृदय को आहादक होने के कारण मधुर लगने पाले विलासों-सकाम चेष्टा विशेषों-से अतिशय मनोहारी जैसे यह होता है उस प्रकार से (दाएती) दिखलाते है इस शृंगाररस में श्रृंगारप्रधान चेष्टाओं का प्रतिपादन होता है इसलिये इसे 'शृंगाररस' કીડા કરવી તે રમણ કહેવાય છે મંડન, વિલાસ, વિબેક, હાસ્ય, લીલા તેમજ રમણ આ સર્વે શુંગાર રસના ચિહ્નો છે.
व सत्र (सिंगारो रसो जहा) ॥२२ नाथा gru तनु मा ॥ १ ४थन रे छे. (सामा) " श्यामा षोडशवार्षिकी " मा अयन भुराम । सो नी भयावामी त२५१५२४-1 (सदुद्दाम) क्षुद्रटिसाथी भुमारित तथी (जुवाणाणं) युवा (हियउम्मादणकर) याने प्र. सतम भ२ पा७.थी युक्त रीने जन्मत्त ४२नार (मेहला दाम) पाताना टि. सूत्रने (महरविलाससुललिय) भुना हुयने माह ६४ 3.41 ४१ मधुर લાગે તેવા વિલાસો-સકામ ચેષ્ટા વિશેથી અતિશય મહારી લાગે તેમ (दाएती) तर मताव छ. मा ॥२ २४ ॥२ प्रधान येण्यासानु प्रतिपादन या५ छ मेथी मान ॥२ २ मा भाव 2. (धी भीम
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७२ सलक्षणमद्भुतरसनिरूपणम् इति बोध्यम् ॥इमं =पूर्वोक्तस्वरूपं गृहारं शृङ्गाररसं धिर धिग़-धिगस्तु यस्तु साधूनां माविरतिमतां मुनीनां वर्जितव्यः । स शृङ्गारः मोक्षग्रहार्गला=मोक्षद्वारस्यार्गलाभूतोऽतोऽसौ शङ्गाररसः मुनिभिर्नावरितव्यः न सेवनीयः॥६॥मू०१७१॥ ____ अथ तृतीयमद्भुतरसं सलक्षणह
मूलम्-विम्हयकरो अपुवो, अनुभूयपुवो य जो रसो होई। हरिसविसा उप्पत्ति,-लक्खणो अब्भुओ नाम ॥६॥ अब्भुओ रसो जहा-अब्भुयतरमिहएत्तो अन्नं किं अस्थि जीवलोगंमि। जं जिणवयणे अत्था तिकालजुत्ता मुणिजति ? ॥७॥सू०१७२॥ ___ छोया-विस्मयकरः अपूर्वः अनुभूपूर्वश्च यो रसो भवति । हर्षविषादोत्यत्तिलक्षणः अद्भुतो ना: ॥ अद्भुतो रसो यथा-अभुतरमिह एतस्मात् अन्यत् किमस्ति जीवलोके । यत् निनववने अर्थाः त्रिकालयुक्ता ज्ञायन्ते ॥३० १७२॥
टीका-'विम्हयकरो' इत्यादि
अर्वः अननुभूतपूर्वः, अनुभूतपूर्वः-पूर्वमनुभूतो वा विस्मयकर:-कस्मिश्विदद्भुते पदार्थ दृष्टे यदाचर्य जायते , अतः स पदा विस्मयकर उच्यते, कहा है। (धी धीमंशृंगारं) इसपूर्वोक्त स्वरूपवाले शृंगारस-को धिक्कार हो धिक्कार हो (जो उ) क्योंकि यह (साहूणं) साधुजनों को (वज्जियन्वो) छोड़ने योग्य कहा गया है । कारण इसका यह है कि यह (मोक्खगिह अग्गलाओ) मोक्ष रूपी घरकी अर्गला रूप है । अतः (मुणिहि इमो नायरियव्वो) मुनि जनों को इसका सेवन नहीं करना चाहिये ॥सू० १७१॥
अब सूत्रकार लक्षणनिर्देश पुरस्सर तीसरे अद्भूत रस का कथन करते हैं।-"विम्हय करो अपुवो अनुभूयपुवो" इत्यादि।
शब्दार्थ-(अपुष) पूर्व में कभी अनुभव मे नहीं आये अथवा(अनु. सिंगार') मा उपरात २१३५१ाणा श्रृंगार २सने ४ि२, घिसार छे. (जो उ) भ मे (साहूणं) साधु सनाने सर्प पिति सपन्न मुनिजनाना भाटे (विवज्जियव्वो) त्यालय ४ामा भाच्या छे. भ ३ मा (मोक्खगिहअगलाओ) मोक्ष३पी १२नी मा छे. मेथी (मुणिहि इमो नायरियबो) મુનિજનો આ રસનું સેવન કરે નહીં. Hસૂ૦૧૭ના
હવે સૂત્રકાર લક્ષણ સહિત ત્રીજા અદ્ભુત રસનું કથન કરે છે– "विम्हयकरो अपुवो अनुभूयपुव्वो" त्याहApt-(अपुव्व) पूर्व ।। ५५ हिसे न अनुभवेद म त
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. अनुपगमारा तदर्शनोद्भवो रसोऽपि विस्मयकरो बोध्यः एतादृशो यो रसो भवति स हर्षविषा दोत्पत्तिलक्षणः आश्चर्यमये शुभे वस्तुनि दृष्टे हर्षोत्पत्तिः ,तथैवाशुभे वस्तुनि दृष्टे विषादोत्पत्तिः, एतदुभयचिह्नः अद्भुतो नाम रसो बोध्यः । उदाहरणमाह-असतो रसो यथा-इह-अस्मिन् जीवलोके-संसारे इतोऽन्यत्-अस्मात्परम् भरततरम् आचर्यतरम् किमस्ति ?=न किंचिदप्यस्ति । कुतो न ? इत्याह-यत्-यस्मात् कारणात् जिनवचने त्रिकालयुक्ताः अतीतानागतवर्तमानरूपत्रिकालयुक्ता अपि अर्थाः= जीवादयः सूक्ष्मव्यवहिततिरोहितातीन्द्रिया मूर्तादिस्वरूपा ज्ञायन्ते इति।।मू०१७२॥ भूयपुग्यो) अनुभव में भी आये हुए ऐसे (विम्हयकरो) किसी अद्भुत पदार्थ के देखने पर जो आश्चर्य होता है, उस आश्चर्य का जनक वह पदार्थ विस्मय कर कहलाता है तथा उससे जो रस उत्पन्न होता है, वह रस-भी विस्मयकर कहा जाता है । इस अद्भूत रस का- लक्षण हर्ष और विषाद की उत्पत्ति होना है। आश्चर्य जनक किसी शुभवस्तु के देखने पर हर्षोत्पत्ति होती है, और अशुभवस्तु देखने पर विषादो. त्पत्ति होती है। अतः यह अद्भूत रस इन दोनों चिद वाला होता है, ऐसा जानना चाहिये। अय सूत्रकार इस रस को जानने के लिये उदा. हरण कहते हैं। वे कहते हैं कि (अब्भुओ रसो) 'यह अदभूत रस इमप्रकार से है (जहा) जैसे-(अब्भुयतरमिह एत्तो अन्नं कि अधिजीवलोगंमि) इस-जीवलोक में इससे अधिक और दूसरा आश्चर्यक्या है? (जिगवयणे तिकालजुत्ता अत्था मुणिज्जति) जो जिन वचन में स्थित त्रिकाल-अतीत -अनागत-और वर्तमान कालवर्ती समस्त (अनुभूयपुव्वो) अनुभव (विम्हयकरो) ७ ५५ अभुत ५४.थन न જે આશ્ચર્ય થાય છે, તે આશ્ચર્યને ઉત્પન્ન કરનાર તે પદાર્થ વિસ્મયકારી કહેવાય છે. તેમજ તેના વડે જે રસ ઉત્પન્ન થાય છે, તે રસ પણ વિસ્મય. કર કહેવાય છે આ અદ્ભુત રસનું લક્ષણ હર્ષ અને વિષાદની ઉત્પત્તિ થવી તે છે આશ્ચર્યોત્પાદક કંઈ શુભ વસ્તુને જેવાથી હર્ષ ઉત્પન્ન થાય છે. અને અશુભ વસ્તુને જેવાથી વિષાદની ઉત્પત્તી થાય છે. એથી આ અદૂભુત રસ આ બન્ને ચિહ્નો યુક્ત હોય છે. હવે સૂત્રકાર આ રસને गए। भाटे GIRQ। प्रस्तुत ४२ छे. तया ४ छ है (अन्भुओ रम्रो) भा महमुत २ . प्रमाणे छे-(जहा) म है (अब्भुयतरमिह एत्तो अन्नं किं अस्थि जीवलोगंमि) मा भय सेना Rai पी0 ४ नपा पमा तवी पात छ. ३ (जं जिगरयणे तिकाल जुत्ता अत्था मुणिज्जति) २ જિન વચનમાં સ્થિત ત્રિકાલ-અતીત-અનાગત અને વર્તમાનકાલીન સર્વ
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७३ सलक्षणरौद्ररसनिरूपणम्
अथ चतुर्थे रौद्ररसं लक्षणमाह
मूलम् - भयजणणरूवसद्दंधयारचिंताकहा समुप्पण्णो । समोहसंभमविसायमरणलिंगो रसो रोद्दो ॥८॥ रोद्दो रसो जहा- भिउडी विडंवियमु हो संदट्ठोड इयरुहिरमा किष्णो । हणसि पसुं असुरपिसे भीमरसिय अइरोद्द ! रोद्दोऽसि ॥९॥सू० १७३॥
छाया - भयजनन रूपशब्दान्धकारचिन्ताकथासमुत्पन्नः । सम्मोहसंभ्रमन्दषादमरणलिङ्गो रसो रौद्रः ॥ रौद्रो रसो यथा - भ्रुकुटिविडम्बितमुखः संदष्टम् इति रुधिरमाकीर्णः । इंसि पशुम् असुरनिभो भीमरसित अक्सैिद्ध रौद्रोऽसि । सू० १७३ ॥
टीका- 'भयजणण' इत्यादि
=
भयजननरूपशब्दान्धकारचिन्ताकथासमुत्पन्नः - रूपं शत्रुपिशाचादीनामाकृतिः, सूक्ष्म व्यवहित एवं तिरोहित पदार्थ जान लिये जाते हैं। स्वभाव दि कृष्ट परमाणु आदि पदार्थ सूक्ष्म हैं। काल विप्रकृष्ट- राम-रावण आदि आदि पदार्थ व्यवहित हैं देश विप्रकृष्ट- सुमेरु पर्वत आदि पद्म तिरोहित हैं। इस प्रकार अतीन्द्रिय एवं अमूर्त स्वरूप जितने भी आगड़कथित त्रिकालवर्ति जीवादिक पदार्थ हैं, वे सब जिनबचन के प्रभाव से प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से जानलिये जाते हैं । सू० १७२ ॥
अब सूत्रकार चौथा रौद्र रस का लक्षण निर्देशपूर्वक कथ करते हैं- "भयजणणरुव" इत्यादि
शब्दार्थ –(भयजणणरूवसघयार चिंता कहा समुप्पण्णो ) भय,
સૂક્ષ્મ વ્યવહિત અને તિરાહિત પદાર્થો જાણી લેવાય છે સ્વભાવ વિપ્રકૃષ્ટ પરમાણુ વગેરે પદાર્થો સૂક્ષ્મ છે. કાલવિપ્રકૃષ્ટ રામ-રાવણુ વગેરે પદાર્યા વ્યવહિત છે, દેશવિપ્રકૃષ્ટ સુમેરુપર્યંત વગેરે પદાર્થો તિરોહિત છે. આ પ્રમાણે જેટલાં આગમ કથિત ત્રિકાલવર્તી અતીન્દ્રિય અને અમૂર્ત સ્વરૂપ જીવાદિ પદાર્થો છે, તે સર્વે જિન વચનના પ્રભાવથી પ્રત્યક્ષ તેમજ પરાક્ષ રીતે જાણી લેવાય છે. સૂ૦૧૭૨ા
હવે સૂત્રકાર ચતુર્થી રૌદ્ર રસનું લક્ષણ સહિત કથન કરે છે— भयजणणरूव " इत्यादि—
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शब्दार्थ-(भयजणणरूव सधयार चिंता कहा समुप्पण्णो ) भयोत्पाद४ ३५, अ० १०६
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अनुयोगद्वारसूने भन्दा तेषामेव शत्रुपिशाचादीनां शब्दः, अन्धकारः-निविडतमः, एतेषां द्वन्द्वः, भवजननाः भयोत्पादका ये रूपशब्दान्धकाराः-तेषां चिन्ता तत्स्वरूपपर्यालो. चनरूपा स्मृतिः, कथा-स्वरूपप्रकथनं च, उपलक्षण वाद दर्शनमपि बोध्यम् , ततः समुत्पन्ना=संजातः, तथा-संमोहसंभ्रमविषादमरणलिङ्गः-संमोहः विवेकराहित्यम् , संभ्रमाच्याकुलता, विषादः ममाऽत्रप्रदेशे समागमनमशोभनमित्येवं शोकः, मरण भयोद्विग्नस्य गजसुकुमालहन्तुः सोमिलब्राह्मणस्येव झटिति प्राणोत्क्रमणम्, सानि लिहानि-चिह्नानि यस्य स तथाभूतो रौद्रो रसो भवति । नन्वयं भयजनअस्मादि स्मरणकथनदर्शनसमुत्पन्नः सम्मोहादिलक्षणो भयानक एव भवति, बयमस्य रौद्ररसत्वमभिहितम् ? इति चेदाह-यद्यप्ययं भवत्कथनानुसारेण भयानक जनक रूप, शब्द और अंधकार की स्वरूपपर्यालोचनारूप स्मृति से स्वरूप कथनरूप कथा से ' दर्शन से उत्पन्न हुआ (संमोहसंभमविसायमरणलिंगो) तथा विवेकरहितपना रूप समोह व्याकुलतारूप संभ्रम शोक रूप विषाद और प्राणविसर्जन रूप मरण इन-लिङ्गो चिह्नों वाला (रोदो रसो) रौद्र रस होता है । तात्पर्य कहने का यह है कि यह रौद्र रस भयजनक रूपादिकों के स्मरण आदि से उत्पन्न होता है और यह संमोह चिह्नों से जाना जाता है मेरा इस प्रदेश में समागमन ठीक नहीं है, इस प्रकार से शोक करने का नाम विषाद है । गज सुकुमाल को मारने वाले सोमिल ब्राह्मण की तरह भयोद्विग्न व्यक्ति के जो जल्दी से प्राणों का उत्क्रमण है वह मरण है।
शंका-भयजनक रूपादिकों के स्मरण से,कथन से एवं दर्शन से,શખ અને અંધકારની સ્વરૂપ પર્યાલચના રૂપ સ્મૃતિથી, સ્વરૂપ કથન રૂપ ध्यायी नयी उत्पन्न येत (संमोहसंभमविसायमरणलिंगो) तमन વિવેકરાહિત્ય રૂપ સંમેહ, વ્યાકુલતા રૂપ સંભ્રમ, શેકરૂપ વિષાદ અને प्राय विसन ३५ भ२५ मा थिही युत (रोदो रसो) शैद्र २स हाय . તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે આ રદ્ર રસ ભત્પાદક રૂપ વગેરેના સ્મરણથી ઉત્પન્ન થાય છે. આ સંમોહન ચિહ્નોથી જાણવામાં આવે છે મારું આ પ્રદેશમાં સમાગમન ઉચિત નથી, આ પ્રમાણે ચિંતા કરવી તે વિષાદ છે. ગજસુકમાલને મારનાર સમિલ બ્રાહ્મણની જેમ ભદ્વિગ્ન વ્યક્તિના પ્રાણનું જે જલ્દી ઉત્ક્રમણ છે, તે મરણ છે.
શંકા-ભત્પાક રૂપાદિકને સ્મરણથી, કથનથી અને દર્શનથી ઉત્પન્ન
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १७३ सलक्षणरोदर सनिरूपणम् एन, तथाऽपि पिशाचादिरौद्रवस्तुसंजात वादस्य रौद्रत्वं विवक्षितम्। अतो न कश्चिद्दोपः। किं च शत्रुजनादिदर्शने तच्छिरच्छेदने समुद्युक्तानां छागशूकरकरण वधादिमवृत्तानां च यो रौद्राध्यवसायात्मको भृकुटीभङ्गादिलिङ्गो रौद्रो रसोऽप्युपलक्षणत्वादत्रैव बोध्यः । अन्यथा स निरास्पद एव स्यात् । अत एवात्र रौद्रपरिणामवत्पुरुपचेष्टाप्रतिपादकमेवोदाहरणं वक्ष्यति । भयत्रस्तचेष्टापतिपादकमुदाहरणं उत्पन्न हुआ संमोहादिलक्षणोंवाला भयानक रसही होता है, फिर इसे रौद्ररस रूप कैसे कहा ? ___उत्तर-यद्यपि यह आपके कथनानुसार भयानक रस ही है-तो भी पिशाच आदि रौद्र वस्तु के देखने आदि से यह उत्पन्न होता है, इस. लिये इसमें रौद्रेता विवक्षित हुई है । किंच-शत्रुजन आदि के दर्शन होनेपर उनके शिरच्छेद करने में कटिबद्ध हुए व्यक्तियों के और बकरा, शकर एवं कुरंग-हिरण-आदि जानवरों की हिंसा करने में प्रवृत्त हुए व्यक्तियों के जो रौद्र परिणाम होते हैं, कि जो भृकुटी भंग आदि चिह्नो से जाने जाते हैं वे भी रौद्ररस स्वरूप ही होते हैं । अतः उपल. क्षण से रौद्ररस यहां पर जानना चाहिये । नहीं तो, रौद्राध्यवसाय रूप-रौद्ररस निराश्रय मानना पड़ेगा। इसीलिये रौद्रपरिणाम युक्त पुरुष की चेष्टाओं का प्रतिपादक ही उदाहरण यहां सूत्रकार ने कहा है। भय से त्रस्त हुए व्यक्तियों की चेष्टाओं का प्रतिपादन करने वाला उदा. થયેલ હાદિ લક્ષણવાળા ભયાનક રસ જ હોય છે, ત્યારે એને રો રસ રૂપ શા માટે કહેવામાં આવ્યું છે?
ઉત્તર-જો કે તમારા કહ્યા મુજબ તે આ ભયાનક રસ જ છે છતાં એ પિશાચ વગેરે રૌદ્ર વસ્તુને જેવા વગેરેથી તે ઉત્પન્ન થાય છે, એથી આમાં રૌદ્ધત્વ વિવક્ષિત છે. કિચ શત્રુજન વગેરેના દર્શનથી, તેમનું શિરચ્છેદન કરવા માટે તત્પર થયેલ વ્યક્તિઓને અને બકરા, સૂકર તેમજ કરંગ-હિરણ વગેરે જાનવરોની હિંસા કરવા માટે પ્રવૃત્ત થયેલ વ્યકિતઓના જે રૌદ્ર રસ પરિણામ હોય છે અને જે ભ્રકુટી-ભંગ વગેરે ચિહ્નોથી જાણવામાં આવે છે તે પણ આ રૌદ્રરસ સ્વરૂપ જ હોય છે. માટે ઉપલક્ષણથી રૌદ્રરસ અહીં જ જાણવો જોઈએ નહિતર, દ્રાઘવસાય રૂ૫ રૌદ્રરસ નિરાશ્રય માન પડશે એથી રૌદ્ર પરિણામ યુક્ત પુરૂષની ચેષ્ટાઓનું પ્રતિપાદક ઉદાહરણ જ અહીં સૂત્રકારે કહ્યું છે. ભય સંત્રસ્ત વ્યક્તિની ચેષ્ટાઓનું પ્રતિપાદન કરનાર
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अनुयोगद्वारसूत्रे सयन यूखम् । अतोदाहरणमाह-रौद्रो रसो यथा-भृकुटीविडम्बितमुखः-भ्रुकुटि:
कोषादिना ललाटसंकोचनं तया विडम्बितं=विकृती-भृतं मुखं यस्य स तथा, पुनश्च-सन्दष्टौष्ठ:-सन्दष्टः दन्तै-र्दष्ट ओष्ठो येन स तथाभूतः, इति=अतश्चनपराकीर्णः-रुधिरैः आकीर्णः-शोणितसंकुलो हे मीमरसिता-भीमं भयंकर रसित यस्य तत्संबुद्धौ, हे भयजनकशब्दकारिन् ! त्वम् असुरनिभ -दैत्य इव पशुं
स, अतो हे अतिरौद्र अतिशयरौद्ररूपधारिन् ! त्वं रौद्रोऽसिौद्रपरिणामयुक्तो. ऽसीति नरकनिगोदादिदुःखं भोक्ष्यसे ॥सू० १७३॥ हरण तो अपने आप जान लेना चाहिये । रौद्ररस का ज्ञान जिसप्रकार के हो सकता है सूत्रकार (रोद्दो रसो जहा) इन पदोंद्वारा उसी प्रकार के उदाहरणद्वारा प्रकट करते हैं-जैसे-(भिउडी विडम्बियमुहो संदहोइय रहिरमाकिरणो) पशुहिंसा में निरत बने हुए किसी हत्यारे मनुष्य से कोई धर्मात्मा मनुष्य यह कह रहा है कि अरे ! यह तेरा मुख इस संमय भुकुटी से विकरालबना हुआ है । क्रोधादिक के आवेग से तेरे ये दति अधरोष्ठ को डस रहे हैं । खून से तेरा शरीर लथ पथ हो रहा
भीमरसिय) जो तेरे मुख से शब्द निकल रहे हैं, बड़े भयावने हैं। अतः महाभयजनक शब्द बोलने वाले तुम (असुरनिभो) असुर जैसे बने हुए हो और (पसुहणसि) पशुकी हत्या कर रहे हो । अतः (अइरोह) अतिशय रौद्ररूपधारी तुम (रोदोऽसि) रौद्रपरिणामों से युक्त होने के कारण रौद्ररस रूप हो-सो याद रखो, नरकनिगोद आदि के दुःखों को भोगोंगे । सू० १७३ ॥ ઉદાહરણ તે પિતાની મેળે જ જાણી લેવું જોઈએ. જે રીતે રૌદ્ર ५सनु ज्ञान य श छे वे सूत्रा२ (रोहोरसो जहा) प्रभाएर पहे। प? हा प्रस्तुत श२ १५०४ ४२ छ. २म 3-(भिउडी विडंबियमुहो सैदेवीदइयरुहिरमांकिण्णो) ५४ डिसा माटे त५२ ये बात માણેસને કોઈ ધર્માત્મા પુરૂષ આ પ્રમાણે કહે કે અરે! આ તારૂં મેં હમણાં ભ્રકુટીએથી વિકરાલ બની રહ્યું છે-ક્રોધ વગેરેના આવેગથી તારા દાંત अधष्ठान ली सी २हा छ तो शरीर बहाथी ५२७६ रघु छे. (भीमरसिय) । क्यने भती भयोत्पाई छ. मेथी महालयन शो मतनार, (असुरनिभो) असुर २ थ६ गया है। अन (पसुं हणसि) पशुनी
त्या ॥ २wो छ।. मेथी (अइरोह) अतिशय रौद्र ३५ पारीतु (रोहोऽसि) રિદ્વ-પરિણામથી યુક્ત લેવા બદલ રૌદ્રરસ રૂપ છે તે તું યાદ રાખ કે નરક નિવેદ વગેરેના દુઃખ ભોગવવા પડશે. સૂ૦૧૭૩
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अनुयोगचन्द्रिका टोका सूत्र १७५ सलक्षणवीडनकरसनिरूपणम् अथ पञ्चमं ब्रीडनकरसं सलक्षणं निरूपयति
मूलम्-विणओवयारगुज्झगुरुदारमेरावइवइक्कमुप्पण्णो। वेलणओ नाम रसो, लज्जामंकाकरणलिंगो॥१०॥ वेलणओ रसो जहा-किं लोइयकरणीओ लजणी अतरंति लजयामुत्ति। वारिजम्मि गुरुयणो परिवंदइ जं वहुप्पोत्तं ॥११॥सू०१७४॥
छाया-विनयोपचारगुह्य गुरुदारमर्यादाव्यतिक्रमोत्पन्नः। वीडनको नाम रसो लज्जाशङ्काकरणलिङ्गः।। वीडनको रसो यथा-कि लौकिककरण्या लज्जनीव. तरं लज्जयामीति । वारिज्जे गुरुजनः परिवन्दते यत् वधूपोतम् ॥सू० १७४॥ टीका-'विणओ' इत्यादि
विनयोपचारगुह्यगुरुद्वारमर्यादाव्यतिक्रमोत्पन्नः-विनयोपचार:-विनय. योग्ये-मातापित्रादिगुरुजने विनयकरणम् , गुह्यं-रहस्यम् , गुरुद्वारमर्यादा पित-- व्यकलाचार्यादि गुरुजनभार्याभिः सह औचित्येन वर्तनम् , एतेषां द्वन्द्वः, से व्यतिक्रमः विपर्ययस्तस्मादुत्पन्नः-संजातः, तथा-लज्जाशङ्काकरणलिङ्ग:-मा
अब सूत्रकार पांचवे वीडनक रस का लक्षण को कहते हुए कथन करते हैं-"विणओवयार गुज्झ" इत्यादि। __ शब्दार्थ-(विणभोवयारगुज्झगुरुदार मेरावइक्कमुप्पण्णो) विनय करने के योग्य माता पिता आदि गुरु जनों की विनय के व्यतिकमउल्लंघन-से मित्रादिजनों की गुप्त वार्ता आदि रूप रहस्य को अन्यजनों के समक्ष प्रकट करने से तथा पितृव्य-चाचा, एवं कलाचार्य आदि मान्यजनों की धर्मपत्नियों के साथ औचित्यपूर्ण व्यवहार का प्रतिक करने से वीडनक रस उत्पन्न होता है । ( लज्जासंकाकरणलिंगो)
હવે સૂત્રકાર પાંચમા વીડક રસનું લક્ષણસહિત કથન કરે છે– "विणओवयारगुज्झ" त्याह
शहाथ-(विणओवयारगुज्झगुरुदारमेरावइक्कमुप्पण्णो) विनय ४२१५ યોગ્ય માતાપિતા વગેરે ગુરુઓની સાથે અવિનયપૂર્ણ વ્યવહાર કરવાથી, મિત્ર વગેરેની ગુપ્ત વાત વગેરે રૂપ રહસને બીજાની સામે પ્રકટ કરવાથી તેમજ પિતૃન્ય (કાકા) અને કલાચાર્ય વગેરે માન્યજનેની ધર્મપત્નીઓ સાથે ઔચિત્યપૂર્ણ વ્યવહારના અતિક્રમ કરવાથી આ વીડનક રસ ઉત્પન્ન થાય छ. (लज्जा संका करणलिंगो) Horon मने A Gपन्न यी तमा २४
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अनुयोगद्वारसूत्र शिरोऽधोऽननमनादिरूपा, शङ्का-मां न कश्चित् किञ्चिद् वदे ? दितिरूपा, तयोः करगंविधानं लिङ्ग-लक्षणं यस्य स तथाभूतो वीडनको नाम रसो भवति । अयं भावः-विनययोग्यानां मातापित्रादिपूज्यजनानां विनयोपचारव्यतिक्रमे सति सम्जनस्य पश्चाद् ब्रीडा प्रादुर्भवति-अहो ! मया कथं मातापित्रादीनामपमाना कृतः ? इति, तथा-सुहृदां रहस्यस्य अन्यजनसन्निधौ कथने पश्चाद् सज्जनस्य बीडा भवति-कथं मया सुहृदो रहस्यमन्यजनसन्निधौ निवेदितम् ? इति, तथातपा-पितृव्यकलावार्यादिगुरुजनानां भार्याणां शीलभङ्गे कृते सति पश्चाद् ब्रीडा समुत्परते अहो ! मया दुरात्मना किमिदं दुष्कृतं कृतम् ? इति इत्येवं रूपेण 'पीडनको रसः समुत्पद्यते। तथा च-शिरोऽधोऽवमनगात्रसंकोचस्पा सज्जा, मां लज्जा और शंकाकरना ये इस रस के चिह्न होते हैं । ऐसा (वेलणओ माम रसो) यह वीडनक नाम का रस होता है । तात्पर्य इसका यह है कि-'विनय योग्य पूज्य माना पिता आदि गुरुजनों का यथायोग्य विनयोपचार जब उलंधित हो जाता है, तष सज्जन पुरुषों को बाद में लज्जा आती है । वे विचारते हैं कि अरे ! हमने क्यों माता पिता
आदि जनों का अपमान किया है ? तथा अपने मित्रजनों का रहस्य जब-दूसरे व्यक्तियों के पास प्रगट करता है, तष बाद में उस उद्घाटनकर्ता सज्जन को लज्जा आती है और वह सोचता है कि
क्या मैने दमरों के समक्ष अपने मित्र के रहस्य का उद्घाटन किया। नया-पितृव्य , कलाचार्य आदि गुरुजनों की भार्याओं का शीलभंग कर
ने पर मनुष्य को बाद में ब्रीडा उत्पन्न होती है। वह सोचता है-मुझ दुसत्मा ने यह दुष्कृत क्यों किया ? इस प्रकार से यह बोडनेक रस उत्पन्न होता है । शिर को नीचा नमाना शरीर को संकुचित करना इस ચિહન છે. એવે વીડનક નામે રસ હોય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે વિનય
પૂજ્ય માતાપિતા વગેરે ગુરૂજને સાથે ઉચિત વિનોપચાર જ્યારે સજજનો વડે ઉ૯લંધિત થાય છે ત્યારે તેમને લજજાની અનુભૂતિ થાય છે. તેઓ વિચાર કરે છે, કે “અરે ! અમે માતાપિતા વગેરેનું અપમાન કર્યું છે. તેમજ માણસ પોતાના મિત્રોની ગુપ્ત વાત જ્યારે બીજાને કહે છે ત્યારે ને ગુપ્ત વાત કહ્યા બાદ લજજાની અનુભૂતિ થાય છે અને તે વિચાર કરે છે કે અરે! મેં દુરાત્માએ આ કામ શું કામ કર્યું ?' આ પ્રમાણે તે કીડનાક રસ ઉત્પન્ન થાય છે લજજામાં મસ્તક નીચે થવું અને શરી૨ સંકુચિત
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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७४ सलक्षणत्रीडनकर सनिरूपणम्
कश्चित् कचित् किमपि कथयिष्यति तु न ? इत्येवं सर्वत्र या मनसोऽभिशङ्कना सा शङ्का, तयोः करणं = निष्पादनमेवास्य लक्षणमिति । अस्योदाहरणमाह-व्रीडनको रसो यथा - लौकिक करण्याः = ौकिक क्रियायाः परं लज्जनीयतरम् = अतिशय लज्जास्पदं किमस्ति ? नातः परं किमपि लज्जास्पदमस्तीत्यर्थः इत्यतोऽहं छज्जे । लज्जायां हेतुमाह यत् यस्मात् कारणात् वारिज्जम्मि देशी शब्दोऽयम्, विवाहे वधूवरयोः प्रथमसंगमे जाते 'वारिज्जमि विवाहे इत्यर्थः गुरुजनः म श्वश्रूश्वशुरादिः वधूपोतं = स्नुषापरिधानवस्त्रं परिवन्द ते = नमस्करोति । अस्य गाथाया अत्रतरणमेवं बोध्यम् - कस्मिंश्चिद् देशेऽयं व्यवहारडोस्ति, यत् वधूवरयोः प्रथमरूप 'लज्जा' होती है । 'मुझसे कोई कुछ कहेगा तो नहीं ?' इस प्रकार सर्वत्र जो मन में आशंका बन जाती है उसका नाम 'शंका' है । लज्जा और शंका इनका उत्पन्न करना ही इस व्रीडनक रस के लक्षण हैं । इसका ज्ञान जिस प्रकार से होता है, सूत्रकार उस प्रकार को (वेलणओ रसो जहा) इन पदों द्वारा प्रकट करने की सूचना देते हैं। वे कहते हैं कि - 'यह व्रीडनक रस इस प्रकार से है । ' जैसे - ( किं लोइयकरणीओ लज्जणीअतरं ति लज्जया मुक्ति ) इस लौकिकक्रिया से अधिक और लज्जास्पद बात क्या हो सकती है ? मैं तो इससे बहुत लजाती हूँ। ( वारिज्जम्मि गुरुजणो परिबंदइ जं बहुप्पोर्स) वधूवर के प्रथम संगम होनेपर गुरुजन-सास ससुर आदि-जी बधूपोत को- - बहु द्वारा परिघृत वस्त्र की प्रशंसा करते हैं । इस गाथा का अबतरण इसप्रकार से है - किसी देश में ऐसे चाल है कि 'जब वधूवर का કરવું થાય છે ‘મને કાઈ કઈ કહેશે તે નહીં ?' આ પ્રમાણે મનમાં જે આશકાઓ ઉત્પન્ન થાય છે તે ‘ શકા છે. લજ્જા અને શકા ઉત્પન્ન થવી તેજ ત્રીડનક રસનું લક્ષણ છે હાય છે, સૂત્રકાર તે વિષયમાં કહે છે કે આ મીડનકરસ આ પ્રમાણે ४. प्रेम है ( कि छोइय करणीओ लज्जणीअतरंति लज्जया मुत्ति) मा जोडि વ્યવહારથી વધારે કઈ લજ્જાસ્પદ વાત થઈ શકે છે ? મને તેા એનાથી अहुन शरभ आवे छे.' ( वारिज्जम्मि गुरुजणो परिबंदइ जं बहुप्पोतं) भने तो स्यानाथी जडुन शरभ भावे छे ( वारिज्जम्मि गुरुजणो परिवंदइ जं बहुप्पोत्त) વધૂ-વરના પ્રથમ-સમાગમ પછી ગુરૂજને—સાસુસસરા વગેરે-વહુએ પહેરેલા વસના વખાણ કરે છે. આ ગાથાનું અવતરણ આ પ્રમાણે છે-ફાઈ એક
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આ રસનું જ્ઞાન કેવુ'
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________________ अनुयोगद्वारसूत्रे पाने यदि पध्वा निवसनं शोणिताभिषिक्त भवति, तदा सा पूर्वमकृतसंगमाऽतः श्री पर्वते इति लोका मन्यन्ते / तस्यास्तद्रक्तारुणितं वसनं तत्सतीत्वख्यापनार्य प्रतिराहे भ्राम्यते / तस्याः श्वशुरादयो गुरुजना बहुमानपुरस्सरं तद्वखं वन्दते / देशाचारमनुसृत्य कस्याश्चिद्वधास्तथाविधं निवसनं प्रतिगृहं नीयते गुरुजनैश्व तबन्यते। तद्दृष्ट्वा वधूः स्वस वीं वदति 'किलोइयकरणीओ' इत्यादि॥.१७४॥ इतिश्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपदभूषित बालब्रह्मचारी 'जैनाचार्य' पूज्यश्री घासीलालबतिविरचिता "अनुयोगद्वारसूत्रस्य" अनुयोगचन्द्रिकाख्यायां टीकायां प्रथमो भागः समाप्तः सुहागरात्रि में प्रथम संगम होता-है-तब उस संगम में-यदि वधूका पहिरा हुआ वस्त्र-खून से युक्त होता तो, उससे वह ऐसी जानी जाती है कि-'यह पहिले अकृतसंगमा रही है अतः सती है / ऐसा लोग जानते हैं। उसके उस मधिररक्त--वन्त्र को हर एक घर में उसके सतीत्व स्थापन के लिये घुमाया जाता है / उसके श्वशुर आदि गुरुजन मान पुरस्सर उस वस्त्र की प्रशंसा करते हैं। इसी देशाचार को कर किसी वधु के उस प्रकार के वस्त्र को गुरुजनों द्वारा वंदित होता FAT देख-कर किसी वधू ने अपनी सखी से ऐसा कहा है-कि" कि बेचकरणीओ इत्यादि / // सू० 174 // जैनाचार्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'अनुयोगद्वार' सूत्र की अनुयोगचन्द्रिकाटीका का प्रथम भाग समाप्त રામાં એવી પ્રથા છે કે જ્યારે સુહાગરાત્રિમાં વધુવરને પ્રથમ-સમાગષ જાય છે ત્યારે તે સંગમમાં જે વધૂએ પહેરેલું વસ્ત્ર લેહીવાળું થઈ જાય 8 તો તેથી એમ માનવામાં આવે છે કે તે સ્ત્રી પહેલા અકૃતસંગમાં રહી છે. શ્રેણી તે સતી છે. એવું કે માને છે તેથી વધુના તે લેહીથી ખરડાયેલા અને તેના સતીત્વની પ્રસિદ્ધિ માટે દરેકે દરેક ઘરમાં બતાવવામાં આવે છે તેના સુર વગેરે ગુરૂજને ભારે સન્માનપૂર્વક તે વસ્ત્રોના ખૂબ જ વખાણ કરે છે. આ જાતના લેટાચારને અનુલક્ષીને કોઈ એક વધુના વસ્ત્રને ગુરૂજનો છે પ્રશંસિત થતું જોઈને તે વધૂએ પિતાની સખીને આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે" लोइयकरणीओ इत्यादि" ॥सू०१७४॥ વાચાર્ય શ્રી વાસીલાલજીમહારાજકૃત “અનુગદ્વાર સૂત્ર' ની અનુયોગ ચન્દ્રિકાટીકાને પહેલે ભાગ સમાપ્ત.