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मानुयोग बिहीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा नैषेधिगतं वा सिद्धशिलातलगत:वा दृष्टा खलु कापि भणेत्-अहो ! अनेन शरीरसमुच्छ्येण जिन दृष्टेन भावन अ: श्यकेतिपदम आपवितं प्रज्ञापितं प्ररूप्तिं दर्शितं निदर्शितम् उ दर्शितम् ।
उत्तर-(आवरसएत्ति पयस्थाहिगारंजाणयरस जं सरीरं) आवश्यक पदाच्य आगम के अर्थरूप अधिकार के ज्ञाता का-अति आवः। कम्त्र के अर्थ को जाननेवाले साधु आदि का-ऐसा शरीर कि जो (वयगय चुयचवियचत्तदेह) व्यपगत चैतन्यपर्षय से रहित है, च्युत-बलिष्ठ आयुक्षय के कारणों से प्राण रहित है रक्तदेह-आहारपरिणति जनित वृद्धि जिससे सर्वथा निकलचुकी है (जाणयसरीरदवायरसय) ज्ञायक शरीर द्रः यावश्यक है। इसी अर्थ का स्पष्ट ज्ञान होने के लिये सूत्रकार शदातर से इसका वर्णन करते है (जीवविप्पजढं सिज्जागयं वा संथाग,यं वा निसीहियागयं वा सिसिलातलग वा पासित्ता णं कोई भाणेज्जा) वे कहते हैं कि जब इस प्रकार के प्राण रहित शरीर को शय्या पर देखर रके, संस्तारगत देखकरके साध्यायभूमि अथवा स्मशानभृमि गत देखकरके या सिद्ध शिलालगत देखकरके वे कहते हैं कि (अहो) अहो ! (इमेणं) इस (सरीरसमुस्सएणं) शरीररूप पुद्गल संघात ने (जिनविटेणं भावेणं) तीर्थ करों द्वारा मान्य हुए कर्म निर्जरण के अभिप्राय से अथवा तदावरण के क्षय, क्षयोपशमरूप भाव से अर्थात् ज्ञानावरणीयप में के क्षय
____उत्त२-(आवस्सए त एयत्वाहिगारं जाणयस्स जं सीर) ११३५४ ५४ाશ્ય આગમના અર્થરૂપ અધિકારના જ્ઞાતાનું એટલે કે આવશ્યકસૂત્રના અર્થને જાણુना॥ साधु सानु मे शरी२ ३२ (ववगयचुयचावियचत्तदेहं) ०५५। 1ચૈતન્ય પર્યાયથી રહિત છે, ચુત દસ પ્રકારના પ્રાણોથી પરિવર્જિત (રહિત) છે, त्यति गाड२५रिणति नित वृद्धि की संपूर्ण नlsil युटी छ, (जाणय सरीग्दव्यावस्मयं) मेवा शश२२ "शाय शरी२ द्र०यावश्य” हे, सा अर्थना વધુ સ્પષ્ટ ખ્યાલ આપવાના હેતુથી સૂત્રકાર અન્ય શબ્દો દ્વારા તેનું વર્ણન કરે છે–
(मीर विप्पज सिज्जागयं वा, संवारगयं वा, निकी हगायं बा, सिद्धमिलातलगयं वा पासित्ताणं कोइ भणेज्ना) 240 3:२॥ प्र.६२हित शरीरने शय्या પર દેખીને, સસ્તારગત દેખીને, સ્વાધ્યાયભૂમિ અથવા સ્મશાનભૂમિગત દેખીને अथवा सि.शिलात भान तयार छ -(अहो) अ ! (इमेणं सरीरसमस्सएणं) मा शश२ ३५ पुस धाते (जिनदिटेणं भावेणं) ताय ४२ • भगवान। દ્વારા માન્ય યેલા કર્મનિર્જ રણના અભિપ્રાયથી અથવા તદાણના ક્ષય,ક્ષેપમાં '३५ माया मेरो ज्ञानावरणीय माना क्षय क्षयोपशम अनुसार .(आवासए त्तपन)