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अनुयोगचन्द्रिका टीका-म.३७ भायश्रुतनिारपणाम्
अथ भव्य भुत निरूपयितुमाह-- __ मूलम्--से कि त भवियसरीरदव्वसुय ? भवियसरीरदव्वसुय जे जीवे जोणी जम्मण निकवते जहा दव्वावस्सए तहाभाणियव्वं जाव, से त भवियसरीदव्वसुय ॥सू० ३७ ॥
__ छाया--अथ किं तद् भव्यशरीरदव्यश्रुतम् ? भन्यसरीरद्र भुत यो जीवो योनिमन्मनिष्क्रान्तो यथा द्रव्यावश्यक तथा भणितव्यं यावत तदेतद् भव्यशरीगद्रव्यश्रुतम् ॥ ३७॥
अब मुत्रकार भव्य शरीर द्रव्यश्रुत का निरूपण करते हैं-- "से कि तं भवियसरीग्द-वसुयं" इत्यादि ।।। सूत्र ३७ ॥
शब्दार्थः-(से) हे भदन्त ! (त) पूर्वप्रकान्त (भवियसरीपदयमुयं) भन्यशरीरद्रव्यश्रुत का (किं) क्या विर? है ?
उत्तर:-(जे जीवे जो णीजम्मणनिक्वते) जो जीव उत्पत्तिस्थानरूप योनि से अपना समय पूर्ण करके निकला है-गर्भपात से उत्पन्न नहीं हुआ है किन्तु जन्मा है ऐसा वह जीव उस प्राप्त शरीर से जिनापदिष्टभाव के अनुसार श्रुत शब्द वाना आगम के अर्थ को भविष्य में भीखेगा--वर्तमानकाल में सीख नहीं रहा है एमा शरीर भयशरीर द्रव्यश्रुत है। (जहा द स्सए तहा भाणियव्वं जाब मे न भवियसरीग्दव्यमुयं) इस विषय से लगता हुआ वर्णन जिस प्रकार से व्यावश्यक के वर्णन में किया गया है उसी प्रकारका वर्णन यहां भी समझना चाहिये । और यह वर्णन यह "भव्यशरीर द्रव्यश्रत है।
एवं सुत्रा२ व्यश: तनु नि३५९५ ४२ छ
“से कि तं भवियसरीन्दव्यसुयं" त्या શબ્દાર્ધ–() શિષ્ય ગુરુને એવો પ્રશ્ન પૂછે છે કે () પ્રસ્તુત વિષય३५ (मवि सरीरदध्वसु) म८य१२द्रव्यश्रुतनु (f.) : २५३५ छ ?
____उत्तरे (जे जीव जोणीजम्मणनिक्वंतरी १ अत्यत्ति स्थान३५ योनिમાંથી પોતાનો સમય (૯. રહેવાના સવાય) પર કરીને નીકળે છે ગર્ભપાતથી ઉતપન થયા નવી એ તે જીવ તે કામ શરીર વડે વર્તમાનકાળે મૃત શબ્દવાન્ય આગમન અને રાખી રહ્યો નથી ! ભવયમાં અડવાના અને શીખવાને છે. એવા : જીવના શરીરને ભવ્ય શરીર શ્રત રૂપ ગણવામાં આવે छ. (जहा दवावस्सए नहा भाणिमर जाव से न भविणासरीर दम्य सुय) १८मा સૂત્રમાં દ્રવ્યાકના વિષયને અનુલક્ષીને જેવું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. એવું વર્ણન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. તેને વશરીર દ્રવ્યશ્રત કહે છે આ