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अनुयोगदान संपदापने॥१॥ पञ्चमी च अपादाने, षष्ठी लस्वामिवाचने । सप्तमी सविधानाएं, अष्टमी आमन्त्रणी भवेत् ॥२॥ तत्र प्रथमाविभक्तिः , निर्देशे स. अयम् महंस इति । द्वितीया पुनरुपदेशे भण कुरु इदम् वा तत् वा इति ॥३॥ तृतीया करणे कुता
शब्दार्थ-(से किं तं अट्ठनामे) हे भदन्त ! वह अष्ट नाम क्या है ? (अट्ट बिहा वयणविभत्ती पण्णत्ता)
उत्तर-आठ प्रकार की जो वचनविभक्ति है वह अष्ट नाम है। जो कहे जाते हैं, वे 'वचन' हैं। तथा कर्ता, कर्म आदिरूप अर्थ जिसके द्वारा प्रकट किया जाता है वह 'विभक्ति' है। वचनों-पदों, की जो विभक्ति है वह 'वचनविभक्ति' है। ऐसा तीर्थंकर एवं गणधरों ने कहा है। वचनविभक्ति से यहां पर सुबन्त रूप प्रथमा आदि विभक्तियों को कहनेवाली वचनविभक्ति गृहीत हुई है। तिङ्गन्तरूप आख्यात विभक्ति नहीं। (तंजहा) वचनविभक्ति के आठ प्रकार ये हैं-(निद्देसे पढमा होइ) (प्रातिपदिक अर्थमात्र का प्रतिपादन करना इसका नाम निर्देश है । इस निर्देश में "सु औ, जस्त्र" यह प्रथमा विभक्ति होती है। (उचएसणे विइया) किसी एक क्रिया में प्रवर्तन होने के लिये इच्छा के उत्पादन करने में “अम् औटू शम्" यह द्वितीया विभक्ति होती है।" उवएसण" यह पद उपलक्षण है। इससे “ग्रामं गच्छति" इत्यादि पद में इसके विना भी द्वितीया विभक्ति होती है। (करणम्मि
शाय-(से किं तं अदनामे) B ! I मनाम छ ? (अट्ठ विहा षयणविभत्ती पण्णत्ता.)
ઉત્તર-આઠ પ્રકારની જે વચન વિભક્તિ છે તે અણનામ છે. જે કહેવામાં આવે છે, તે વચન છે તેમજ કર્તા, કર્મ વગેરે રૂપ અર્થ જેના વડે પ્રકટ કરવામાં આવે છે તે વિભક્તિ છે. વચન-પદેની જે વિભતિ છે તે વચનવિભકિત છે. આમ તીર્થંકરાએ અને ગણધરોએ કહ્યું છે વનવિભકિતથી અહી સુબખ્ત રૂપ પ્રથમ વિભક્તિઓને પ્રકટ કરનારી વચન વિભકિત ગૃહીત થયેલી છે તિન્ત રૂ૫ આખ્યાત વિભકિત નથી (ગા) વચન વિભકિતના मा प्रा। मा प्रमाणे छे. (निदेसे पहमा होइ) प्रातिप िभय मात्र प्रतिपाइन ४२७ तेनु नाम निहुँ छ. म निथमा सुधौ जसू' मा प्रथम वित य छे. (उपसणे बिइया) १४ मे लियाwi पतित या माटे U२पन ४२वामा 'अम्, औद् शस्' मा वितीय Gिalsत होय. "पवएसण" ५६ Saag नाय "प्रामं गच्छवि रे पटोwi