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अनुयोगद्वारसूत्रे सयन यूखम् । अतोदाहरणमाह-रौद्रो रसो यथा-भृकुटीविडम्बितमुखः-भ्रुकुटि:
कोषादिना ललाटसंकोचनं तया विडम्बितं=विकृती-भृतं मुखं यस्य स तथा, पुनश्च-सन्दष्टौष्ठ:-सन्दष्टः दन्तै-र्दष्ट ओष्ठो येन स तथाभूतः, इति=अतश्चनपराकीर्णः-रुधिरैः आकीर्णः-शोणितसंकुलो हे मीमरसिता-भीमं भयंकर रसित यस्य तत्संबुद्धौ, हे भयजनकशब्दकारिन् ! त्वम् असुरनिभ -दैत्य इव पशुं
स, अतो हे अतिरौद्र अतिशयरौद्ररूपधारिन् ! त्वं रौद्रोऽसिौद्रपरिणामयुक्तो. ऽसीति नरकनिगोदादिदुःखं भोक्ष्यसे ॥सू० १७३॥ हरण तो अपने आप जान लेना चाहिये । रौद्ररस का ज्ञान जिसप्रकार के हो सकता है सूत्रकार (रोद्दो रसो जहा) इन पदोंद्वारा उसी प्रकार के उदाहरणद्वारा प्रकट करते हैं-जैसे-(भिउडी विडम्बियमुहो संदहोइय रहिरमाकिरणो) पशुहिंसा में निरत बने हुए किसी हत्यारे मनुष्य से कोई धर्मात्मा मनुष्य यह कह रहा है कि अरे ! यह तेरा मुख इस संमय भुकुटी से विकरालबना हुआ है । क्रोधादिक के आवेग से तेरे ये दति अधरोष्ठ को डस रहे हैं । खून से तेरा शरीर लथ पथ हो रहा
भीमरसिय) जो तेरे मुख से शब्द निकल रहे हैं, बड़े भयावने हैं। अतः महाभयजनक शब्द बोलने वाले तुम (असुरनिभो) असुर जैसे बने हुए हो और (पसुहणसि) पशुकी हत्या कर रहे हो । अतः (अइरोह) अतिशय रौद्ररूपधारी तुम (रोदोऽसि) रौद्रपरिणामों से युक्त होने के कारण रौद्ररस रूप हो-सो याद रखो, नरकनिगोद आदि के दुःखों को भोगोंगे । सू० १७३ ॥ ઉદાહરણ તે પિતાની મેળે જ જાણી લેવું જોઈએ. જે રીતે રૌદ્ર ५सनु ज्ञान य श छे वे सूत्रा२ (रोहोरसो जहा) प्रभाएर पहे। प? हा प्रस्तुत श२ १५०४ ४२ छ. २म 3-(भिउडी विडंबियमुहो सैदेवीदइयरुहिरमांकिण्णो) ५४ डिसा माटे त५२ ये बात માણેસને કોઈ ધર્માત્મા પુરૂષ આ પ્રમાણે કહે કે અરે! આ તારૂં મેં હમણાં ભ્રકુટીએથી વિકરાલ બની રહ્યું છે-ક્રોધ વગેરેના આવેગથી તારા દાંત अधष्ठान ली सी २हा छ तो शरीर बहाथी ५२७६ रघु छे. (भीमरसिय) । क्यने भती भयोत्पाई छ. मेथी महालयन शो मतनार, (असुरनिभो) असुर २ थ६ गया है। अन (पसुं हणसि) पशुनी
त्या ॥ २wो छ।. मेथी (अइरोह) अतिशय रौद्र ३५ पारीतु (रोहोऽसि) રિદ્વ-પરિણામથી યુક્ત લેવા બદલ રૌદ્રરસ રૂપ છે તે તું યાદ રાખ કે નરક નિવેદ વગેરેના દુઃખ ભોગવવા પડશે. સૂ૦૧૭૩