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बोनचन्द्रिका टीका सूत्र १०० क्षेत्रानुपूर्वीनिरूपणम् इत्वं द्रन्यानपूर्तीस्था सम्पति क्षेत्रानुपूर्वीमाह
मूत्रम्-से किं तं खेत्ताणुपुत्वी ? खेत्ताणुपुटवी दुविहा पण्ण. चा, तं जहा-ओवणिहिया य अणोवणिहिया य। तत्थ णं जा सा ओषणिहिया सा ठप्पा। तत्थणं जासा अणोवणिहिया सा दुविहा पष्णता, तं जहा-णेगमवहागणं १, संगहस्स २ य ॥सू०१००॥
छाया-अथ का सा क्षेत्रानुपूर्वी ? क्षेत्रानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथामौषनिधिको च अनौपनिधिकी च । तत्र खलु या सा औपनिधिकी सा स्थाप्या। द्रव्यों में द्रव्य बहुलता नहीं है। जीवास्तिकाय में यद्यपि द्रव्य बाहुल्य हैपरन्तु पुद्गल की तरह वह द्रव्य बाहुल्य एक २ जीव द्रव्य में क्रमशः नहीं है, क्योंकि प्रत्येक जीवद्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं। इस प्रकार इस कथन के समाप्त होते ही नो आगम की अपेक्षा लेकर द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप कथन समाप्त हो जाता है ॥ सू० ९९॥
अब सत्रकार क्षेत्रानुपूर्वी का कथन करते हैं"से कि तं खेत्ताणुपुव्वी" इत्यादि ।
शब्दार्थ- ( से किं तं खेत्ताणुपुव्वी) हे भदन्त ! क्षेत्रानुपूर्वी का क्या स्वरूप है ?
उत्तर-(खेताणुपुव्वी दुविहा पण्णत्ता) क्षेत्रानुपूर्वी दो प्रकार की कही गई है। (तं जहा) जैसे (ओवणिहिया यभणोवणिहिया य)१ औपनिधिको દ્રવ્યબાપલ્યનો અભાવ છે. જીવાસ્તિકાયમાં જે કે દ્રવ્યબાહુલ્ય છે ખરું, પરતુ પુદ્ગલની જેમ તે વ્યબાહુલ્ય એક એક છવદ્રવ્યમાં ક્રમશઃ નથી, કારણ કે જીવદ્રવ્ય અસંખ્યાત પ્રદેશ છે. આ રીતે આ કથન સમાપ્ત થઈ જતા નેઆગમની અપેક્ષાએ દ્રવ્યાનુપૂવીના સ્વરૂપનું કથન સમાપ્ત થઈ જાય છે. સૂ૦૯લા
હવે સૂત્રકાર ક્ષેત્રાનુપૂર્વીનું નિરૂપણ કરે છે – " से किं त खेत्ताणुपुबी" त्याह
शा-(से किंव खेवाणुपुन्बी) ३ मापन् । क्षेत्रानुपूतीन કવરૂપ કેવું છે?
उत्तर-(खेत्तागुपुब्बी दुविहा पण्णत्ता) क्षेत्रानुभूती मे १२नी - (वंजहा) ते २ मारे। नाय प्रभा -(गोवणिहिया य अणोवणिहिया) (1)