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अनुयोगचन्द्रिका टीका-नृ. २० लो केकद्रव्यावश्यनिरूपणम् इमे राजेश्वरतलः ग्माडम्बिककौटुग्विकम्यवेष्ठिसेनापतिसार्थवाहप्रभृतयः कल्पे प्रादुष्प्रभातायां रजन्यं मुविमलायां फुल्लोत्पलकमल कोमलोन्मीलिने यथापाण्डुरे प्रभान रक्ताशोकप्रकाशकिंशुकशुकमुग्वगुजार्द्धगगसदृशे कमलाकरनलिनीपण्डबोधके उत्थिते गये सहस्ररमो दिनकरे तेजसा ज्वलति मुग्वधावनदन्तप्रक्षालन किं) लौकिक व्यावश्यक प प्रथम भेद का का स्वरूप है ? (लो.यं दवावस्मयं) उत्तर-लौरिक दयावश्यक का ग्वरूप इन प्रकार से है-(जे इमे राईसर, तलवरमार्ड विय, कोइंघिय, इभ से ट्ठि, सेणावइ, सन्यवाहप्पभिओ) जो ये राजेश्वर-मांडलिकनन्पति, एश्वर्य संपन-यक्ति, लन्दर, माडंपिक कौटुम्बिक, भ्य. श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि मनु य (कल्लं) मान्य प्रभात के होने पर (पाउपभाछाए रणीए) प्रारंभिक अवस्था प्राप्त है प्रभान जिस में ऐसी रात्रि के होने पर (मुविमलाए, फुल्लुप लकमल कोमलुम्मिलियम्भि) तथा पूर्व की अपेक्षा म्फुटतर प्रकाश संपन्न गत्रि के होने पर विकसित कमल के पत्रों के और मृगविशेप के नयनों के सुकुमार उमाल वाले (अहापडुर) यथा योग्य पीतमिश्रित शुक्ल : पभाए) प्रभात के होने पर (रत्तासोगप्पगा कि सुयमुयमुहगु जद्धरागमरिस) तथा रक्त अशोकवृक्ष की कांनि के नया पलाश पुष्प, और शुक मुख एवं गुंजा के राग के सदृश (कमलागरण लिणि मंडवाहए) ३ मलों की उन्पत्त भृ मरूप हुदादिजलाशयों में पद्मानों के विकाशक (महम्मसिमि दवास्स किं ?) सौ. ६०या१५५४ ३५ ते प्रयन लहनु २१३५ छ ?
उत्तर--(लाइयं दवावास) alls F-१२यर्नु २१३५ २१॥ प्रानु
(जे इमे राईमर, तलवर, माडंविय, कोई विय, इन्भ, सेहि, सेणावइ, सत्थवाहप्पभिइओ) ने मारा ५२ (भाउ नपति- वपन्न यति), તલવ૨, માંડલિક, કૌટુંબિક, ઇભ્ય, શ્રેષ્ઠિી, સેનાપનિ, સાર્થવાહ અદિ મનુ (कल्लं) सामान्य प्रमात ४., (उपभायाए रयणीए) र व्यतीत हने हवनी प्रा लि १५२या३५ लात मा तi, (ममिल ए, पुत्लुपलकमलकोमलुम्मिलियग्मि) या ना ५सा२ ६ न पाहता तर પ્રકાશથી સંપન્ન, વિકસિત કમલપત્રથી સંપન અને મૃગવિશેષના નયનોના રસ્કાર G-भीसनथी युत, (अहापंडर) यथायाश्य पात1 शुस (गा. :) पमाए) प्रभात यता, (त्तासागपगामकिमय सुयमुहगुंनद्धगगसरिसे) तथा :वृक्षना સમાન, પલાશપુષ્પ સમાન તથા શુકન મુખ સમાન અને શું ન (ચણોઠીને અર્ધ
मा) समान सास, (कमलागरनलिणिसंडबोहए) ४मयोना उत्पत्ति स्थान३५ Rell reयोमा पन पनाने विसित ४२ना२, (सहस्सास्सिम्मि दिणयरे तेयसा