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अनुयोगहारमत्र विद्यमानम्, जितं-शन्दतोऽर्थतश्च परिचितम्-परिज्ञातम् । मितं-विज्ञातश्लोकपदवर्णादि संख्यामानम्. परिजितं-परि-समन्तात् सर्वप्रकारजितं-परिजितम, आनु पूर्व्या, अनानुपूर्या च पराः तितम, नामसमम्-नाम्ना समं यथा नामं न विस्मृतं
भवति, तथा रत् वदापि विरमृतं न भवति, तन्नामसमम, घोषसमं घोषा उदा त्ताद तैः समम, यथा गुरुणा घोपा उक्तास्तथा यत्र शिष्येणापि समुच्चार्यन्ते तद् घोपसमम् । अहीनाक्षरम् एकेनाप्यक्षरेण अहीनम् । अनत्यक्षरम्-एकव्यादिभिरक्षरे-धिक मत्यक्षम्, न अत्यक्षरं यत्र तदनत्यक्षरम-अधिकाक्षररहितमित्यर्थः, अव्याविद्धाक्षरम-विद्धानि-विपर्यस्तरत्नमालागतरत्नानीव विपर्यस्तानि अक्षराणि यस्मिस्तद् व्याविद्धाक्षरम्, न तथा अन्याविद्राक्षरम् व्याविद्धाक्षरत्वदोषतरह से अपने स्मृति पथ में उतारा है, (जियं) शब्द और अर्थ की अपेक्षा लेकर जिसने उसे अच्छी तरह से जान लिया है (मियं) जिसके श्लोकों की पदों की और वणों की संख्या का प्रमाण जिसे भली प्रकार अभ्यास किया हुआ है (परिजियं) आनुपूर्वी एवं अनानुपूर्वी से जिसने उसे सब तरफ से और सब प्रकार से आवर्तित किया है, (नामसमं) अपने नाम के समान जो कभी भी उसे अपने स्मृतिपथ से दूर नहीं करता है (घोससमं) जिस प्रकार से गुरु महाराज उदात्त आदि घोष स्वरों का उच्चारण किया है, उसी प्रकार से जो उसके घोषादि स्वरों का चारुरूप से उच्चारण करता है, तथा-(अही णवखरं) एक भी अक्षर की हीनता से रहित उसे जिसने सीखा है. (अणचवखरं) बोलते समय-पाठ करते समय जो अपनी तरफ से बोलता है-अर्थात् जैसा उसमें लिखा है वैसा ही उसे उच्चारण करता है (अ वाइद्धक्रनरं) जिसे स्मृतिपटसमा जतायु छ, (जिय) २४ भने अयनी अपेक्षा न तो सारी शते onell सीधेस छ, (मय) ना योनी, पहानी भने पनि सध्यान प्रमाणे सारी शते सम सीधु छ, (परिजियं) मानुषी भने मनानुनी पूर्व तेने गधी त२३थी भने अधा रे परावर्तित ४२ सीधु छ, (नामसमं) પિોતાના નામની જેમ જે તેને કદી પણ પિતાના સ્મૃતિપટમાંથી દૂર કરતો નથી, (घोससम) २ रीते शु३ भड़ा। हात्त माह धापस्वशनु श्या२५५ यु हाय, मे रे तेना धापा २१२नु सु२ रीते ७२या२९ ४२ता छाय, (अहीणवखरं) એક પણ અક્ષરની હીનતા ન રહે એવી રીતે જેણે તેનું અધ્યયન કર્યું છે, (अणच्चकखर) माती मते-48 ४२ता मते २ पोताना तथा मे ५ अक्षर તેમાં ઉમેરીને બોલતે નથીએટલે કે તેમાં જે પ્રમાણે લખ્યું હોય એ પમાણે જ તેનું ઉચ્ચારણ કરે છે.