Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For नित नया उन्मेष जिस मस्तिष्क का संधान है। वाचना के प्रमुख तुलसी का सकल अनुदान है। भाष्य-युग की शृंखला में एक नव्य प्रयोग है। राष्ट्रभाषा में विनिर्मित “भगवती" - अनुयोग है।। वाचना - प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक : भाष्यकार विआहपण्णत्ती (खण्ड-२) आचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भगवान् महावीर (इस्वी पूर्व ५९९-५२७) की वाणी द्वादशांगी में संकलित है। उस द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम हैविआहपण्णत्ती जो 'भगवती सूत्र' के नाम से सुप्रसिद्ध है। जैन साहित्य में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से भगवती को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है। इसमें दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र, जीवविद्या, लोकविद्या, सृष्टिविद्या, परामनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का समावेश है। प्रस्तुत खंड में पांच शतकों (३ से ७) के मूलपाठ, संस्कृत छाया तथा हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन विस्तृत भाष्य के साथ हुआ है। साथ में अभयदेवसूरि-कृत वृत्ति भी प्रकाशित है। इसमें भावितात्मा अनगार की वैक्रिय शक्ति के विविध पक्षों पर विमर्श किया गया है। इसका संबंध रहस्य-विद्या से है। स्वर्ग के इन्द्रों के विषय में भी इसमें कुछ वर्णन उपलब्ध है। दिन-रात के कालमान के विषय में अनेक कोणों से विचार किया गया है। कुमार श्रमण अतिमुक्तक की चंचलता और उसकी मुक्ति का संक्षिप्त वर्णन इसमें प्राप्त है। पापक्रिया, परमाणु, हेतुवाद, कर्मप्रकृतिबन्धन, तमस्काय एवं कृष्णराजि के बारे में अनेक सूचनाएं इस खंड में उपलब्ध है। गणनाकाल और औपमिक काल का उल्लेख भी इसमें किया गया है। एक जन्म के बाद दूसरे जन्म से पूर्व जीव की आहार की स्थिति का वर्णन भी इसमें प्राप्त है। हाथी और कुंथु के जीव की समानता, आधाकर्म, महाशिलाकंटकसंग्राम, रथमुसलसंग्राम, पंचास्तिकाय के बारे में अनेक सूचनाएं इस खंड से प्राप्त की जा सकती है। प्रस्तुत ग्रंथ को समग्र दृष्टि से भारतीय दार्शनिक वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ ग व ई विआहपण्णत्ती | खण्ड- २ | ( शतक ३, ४, ५, ६, ७ ) (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा अभयदेवसूरिकृत वृत्ति एवं परिशिष्ट - शब्दानुक्रम आदि सहित ) वाचना - प्रमुख आचार्य तुलसी जैन विश्व भारती लाडनूं, राजस्थान ३४१३०६ - संपादकः भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकः जैन विश्व भारती लाडनूं-३४१३०६ (राज.) © जैन विश्व भारती, लाडनूं ISBN-81-7195-049-3 सौजन्य : पूज्य पिताजी श्री संतोकचंदजी ललवानी की पुण्य स्मृति में उनके सुपुत्र श्री कमल किशोर ललवानी (नोखा, कलकत्ता) प्रथम संस्करणः दिसम्बर, २००० पृष्ठ संख्या : २० + ५७० मूल्य : ६९५.550 मूल्य : ६९५/ U.S.S50 मुद्रक: कला-भारती, नवीन शाहदरा, दिल्ली-३२ फोनः (०११)२२८०९०५ Jain Education Intemational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHAGAWAI VIAHAPANNATTI [Volume - II] (Shatak 3, 4, 5, 6, 7) (Prakrit Text, Sanskrit Renderings, Hindi Translation and Bhasya [Critical Annotations] with Vṛtti of Abhayadevasūri and Appendices - Indices etc.) Synod Chief (Vachana-pramukha) ACHARYA TULSI Editor and Annotator (Bhāṣyakāra) ACHARYA MAHAPRAJNA JAIN VISHVA BHARATI Ladnun, Rajasthan-341306 (INDIA) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers : Jain Vishva Bharati Ladnun-341306 (Raj.) © Jain Vishva Bharati, Ladnun ISBN-81-7195-049-3 Courtsey : Shri Kamal Kishore Lalwani (Nokha-Calcutta) in the auspicious memory of his adorable father Late Shri Santok Chandji Lalwani. First Edition : December, 2000 Pages : XX+570 Price : Rs. 695/ US $50 Printed by: KALA-BHARATI Navin Shahdara, Delhi-32 Phone: (011) 2280905 Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ॥१॥ पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥ जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से ।। ॥२॥ विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिंतन, जयाचार्य को विमल भाव से ।। ॥३॥ पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि । जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ।। विनयावनत आचार्य तुलसी Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भाष्य वन्दना वाणी-वन्दना सत्य की अभिव्यक्ति में अक्षर सहज अक्षर बना । वन्दना उस आप्त-वाणी की करें प्लकितमना । भारती कैवल्य-पथ से अवतरित अधिगम्य है। सुचिर-संचित तम-विदारक रम्य और प्रणम्य है ।। वीर-वन्दना पुरुष के पुरुषार्थ का अधिकृत प्रवक्ता जो रहा । चेतना-निष्णात हो जो कुछ हआ सबको सहा । समन्वय का सूत्र सम्यग् दृष्टि का पहला चरण । वीर प्रभु के चरण-चिह्नों का करें हम अनुसरण ।। भिक्षु-वन्दना अगम-आगम के पदों का काव्य था जिसने लिखा सहज प्रज्ञा से अपथ का पंथ था जिसको दिखा। भिक्षु का वर मार्गदर्शन भाग्य से उपलब्ध है। सूत्र-सम्पादन नियति का वह बना प्रारब्ध है ।। जय-कालु-वन्दना सुचिर पोषित आप्त-वाङ्मय-धेनु का दोहन किया मुनिप जय ने भिक्षु-गण में प्रवर सूर्योदय किया । उदय की इस उर्वरा का बीज हर आलेख है । पूज्य कालू के सुचिन्तन का नया अभिलेख है ।। वाचना-प्रमुख आचार्य तुलसी-वन्दना नित नया उन्मेष जिस मस्तिष्क का संधान है। वाचना के प्रमुख तुलसी का सकल अनुदान है । भाष्य-युग की शृंखला में एक नव्य प्रयोग है। राष्ट्रभाषा में विनिर्मित “भगवती"-अनुयोग है ।। विनयावनत आचार्य महाप्रज्ञ Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिञ्चित द्रुम-निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तुलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया। अत: मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है संपादक : भाष्यकार श्रुतलेखन एवं सम्पादन-सहयोगी - सहयोगी संस्कृत छाया, अनुवाद सहयोगी सम्पादन भाष्य आचार्य महाप्रज्ञ युवाचार्य महाश्रमण साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा मुनि हीरालाल मुनि महेन्द्र कुमार मुनि विमल कुमार संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिनने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभान समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने। आचार्य तुलसी Jain Education Intemational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय मुझे यह लिखते हुए अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि 'जैन विश्व भारती' द्वारा आगम-प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य संपन्न हुआ है, वह मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और बहुमूल्य बताया गया है। हम बत्तीस आगमों का पाठान्तर शब्दसूची तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सुसंपादित मूल पाठ प्रकाशित कर चुके हैं। उसके साथ-साथ आगम-ग्रन्थों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं प्राचीनतम व्याख्या-सामग्री के आधार पर सूक्ष्म ऊहापोह के साथ लिखित विस्तृत मौलिक टिप्पणों से मंडित संस्करण प्रकाशित करने की योजना भी चलती रही है। इस शृंखला में आठ आगम ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं १. दसवेआलियं २. उत्तरज्झयणाणि ३. सूयगडो ४. ठाणं ५. समवाओ प्रस्तुत आगम भगवई विआहपण्णत्ती उसी शृंखला का छठा आगम है। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख आचार्य श्री तुलसी एवं अप्रतिम विद्वान् संपादक-भाष्यकार आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जो श्रम किया है, वह ग्रन्थ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा। भगवई विआहपण्णत्ती खण्ड १ में प्रथम दो शतकों का प्रकाशन भाष्य-सहित सन् १९९४ में हो चुका है। प्रस्तुत खण्ड २ में तीसरे से सातवें शतक तक का समावेश है। भगवती-भाष्य के प्रथम खण्ड के प्रकाशन के पश्चात दो आगम और प्रकाशित हो चुके हैं ७. नन्दी ८. अनुओगदाराइ आयारो पर संस्कृत में आचारांग-भाष्यम् भी प्रकाशित हो चुका है। श्रद्धेय युवाचार्य श्री महाश्रमण के अतिरिक्त मुनि श्री हीरालालजी, मुनि श्री महेन्द्रकुमारजी और मुनि श्री विमलकुमारजी ने इसे सुसज्जित करने में अनवरत श्रम किया है। संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभा ने संपन्न किया है। ग्रंथ की पाण्डुलिपि तैयार करने में आदरणीय समणीवृन्द का बहुत सहयोग रहा है। प्रूफ-संशोधन में मुनिश्री अजितकुमारजी और मुनि श्री विनोदकुमारजी की भी सहभागिता रही है। ऐसे सुसम्पादित आगम ग्रन्थ को प्रकाशित करने का सौभाग्य जैन विश्व भारती को प्राप्त हुआ है। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। लाडनूं १ सितम्बर २००० श्रीचंद बैंगानी कुलपति, जैन विश्व भारती Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवई विआहपण्णत्ती का द्वितीय खंड पाठक के सम्मुख प्रस्तुत हो रहा है। इसके सम्पूर्ण मूलपाठ का सम्पादन अंगसुत्ताणि भाग २ में हो चुका है। हमने जो सम्पादन-शैली स्वीकृत की है, उसमें पाठ-शोधन और अर्थ-बोध दोनों समवेत हैं। अर्थ-बोध के लिए शुद्ध पाठ अपेक्षित है और पाठ-शुद्धि के लिए अर्थ-बोध अनिवार्य है। प्रस्तुत संस्करण अर्थ-बोध कराने वाला है। इसमें मूल पाठ के अतिरिक्त संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और सूत्रों का हिन्दी भाष्य समवेत है। पाठ-सम्पादन का काम जटिल है। अर्थ-बोध का काम उससे कहीं अधिक जटिल है। कथा-भाग और वर्णन-भाग में तात्पर्यबोध की जटिलता नहीं है। किन्तु तत्त्व और सिद्धान्त का खण्ड बहुत गम्भीर अर्थ वाला है। उसकी स्पष्टता के लिए हमारे सामने दो आधारभूत ग्रन्थ रहे हैं १. अभयदेव सूरिकृत वृत्ति-इसे अभयदेवसूरि ने स्वयं विवरण ही माना है और उसे पढ़ने पर वह विवरण-ग्रन्थ का बोध ही कराता है, व्याख्या-ग्रन्थ का बोध नहीं देता। २. भगवती जोड़-इसमें श्रीमज्जयाचार्य ने अभयदेवसूरि की वृत्ति का पूरा उपयोग किया है। 'धर्मसी का टबा' का भी अनेक स्थलों पर उपयोग किया है। इसके अतिरिक्त आगम और अपने तत्त्वज्ञान के आधार पर अनेक समीक्षात्मक वार्तिक लिखे हैं। हमने भाष्य के लिए आगम-सूत्रों, श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ साहित्य, वैदिक और बौद्ध परम्परा के अनेक ग्रन्थों का उपयोग किया है। 'आयारो' का भाष्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। भगवती का भाष्य हिन्दी में लिखा गया है। ठाणं, सूयगडो आदि की सम्पादन-शैली यह रही-मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा स्थान और अध्ययन की समाप्ति पर टिप्पण अथवा भाष्य। भगवती की सम्पादन-शैली में एक नया प्रयोग किया गया है। प्रत्येक सूत्र अथवा प्रत्येक आलापक (प्रकरण) के साथ भाष्य की समायोजना है। अन्त में छह परिशिष्ट हैं १. नामानुक्रम (क) व्यक्ति और स्थान (ख) देवलोक-संबंधी (ग) पशु-पक्षी २. भाष्यविषयानुक्रम ३. परिभाषिक शब्दानुक्रम ४. आधारभूत ग्रन्थ-सूची । ५. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति-शतक तीन से सात ६. चित्र प्रत्येक शतक के पहले एक आमुख है। पाद-टिप्पण में सन्दर्भ-वाक्य उद्धृत हैं। उपलब्ध आगम-साहित्य में भगवती सूत्र सबसे बड़ा ग्रन्थ है। तत्त्वज्ञान का अक्षयकोष है। इसके अतिरिक्त इसमें प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने वाले दुर्लभ सूत्र विद्यमान हैं। इस पर अनेक विद्वानों ने काम किया है। किन्तु जितने श्रम-बिन्द झलकने चाहिए, उतने नहीं झलक रहे हैं, यह हमारा विनम्र अभिमत है। गुरुदेव तुलसी की भावना थी कि भगवती पर गहन अध्यवसाय के साथ कार्य होना चाहिए। हमने उस भावना को शिरोधार्य किया है और उसके अनुरूप फलश्रुति भी हुई है। इसका मूल्यांकन गहन अध्ययन करने वाले ही कर पाएंगे। हमारा यह निश्चित मत है कि सभी परम्पराओं के ग्रन्थों के व्यापक अध्ययन और व्यापक दृष्टिकोण के बिना प्रस्तुत आगम के आशय को पकड़ना सरल नहीं है। Jain Education Intemational Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय सहयोगानुभूति जैन परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चुकी हैं। देवर्द्धिगणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उसके वाचना - काल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह सफल नहीं हो सका। अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, तटस्थ दृष्टि - समन्वित तथा सपरिश्रम होगी, तो वह अपने-आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारंभ हुआ। १२ भगवई हमारी इस वाचना के प्रमुख आचार्य श्री तुलसी रहे हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन कर्म के अनेक अंग हैं—पाठ का अनुसंधान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन आदि आदि। इन सभी प्रवृत्तियों में गुरुदेव का हमें सक्रिय योग, मार्ग-दर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है । यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्ति - बीज है । प्रस्तुत ग्रन्थ भगवती का सानुवाद और सभाष्य संस्करण है। प्रथम खण्ड में भगवती के प्रथम दो शतक व्याख्यात हैं। दूसरे खण्ड में तृतीय शतक से सप्तम शतक तक व्याख्यात हैं। मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य और उनके सन्दर्भ - स्थल तथा परिशिष्ट - ये सब प्रस्तुत संस्करण के परिकर हैं। भाष्य के श्रुत लेखन एवं सम्पादन में युवाचार्य महाश्रमण मेरे सहयोगी रहे हैं। संस्कृत छाया एवं अनुवाद कार्य साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी ने संपन्न किया है। शोध कार्य और सम्पादन में मुनि हीरालालजी, मुनि श्रीचन्दजी, मुनि महेन्द्रकुमारजी और मुनि विमलकुमारजी सहयोगी रहे हैं। वृत्ति का संपादन गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के सक्रिय सान्निध्य में मुनि हीरालालजी, साध्वी जिनप्रभाजी और साध्वी कल्पलताजी ने किया। अन्य परिशिष्टों के निर्माण में मुनि हीरालालजी ने विशेष श्रम किया है। पाण्डुलिपि के लेखन में अनेक समणियों ने निष्ठापूर्वक श्रम किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में अनेक साधु-साध्वियों का योग है। गुरुदेव के वरद हस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले हम सब संभागी हैं। फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं जिनका इस कार्य में स्पर्श हुआ है। आचार्य महाप्रज्ञ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-निदेशिका अंत.-अंतगडदसाओ अणु.-अणुओगदाराई अनुकम्पा.-अनुकम्पा की चौथाई अनु. चू.-अनुयोगद्वार चुर्णि अनु. म. वृ.-अनुयोगद्वार मलधारीयवृत्ति अनु. हा. वृ.-अनुयोगद्वार हारिभद्रीयवृत्ति अ.चि., अभि.-अभिधानचिन्तामणि नाममाला आ.चू.-आयार चूला आप्टे-Apte's Sanskrit English Dictionary आव. चू.-आवश्यक चूर्णि जै. आ. व. को.-जैन आगम वनस्पति कोश जै. सि. को.-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ज्ञाता. वृ.-ज्ञाताधर्मकथा वृत्ति त.भा.-तत्त्वार्थ भाष्य त. रा. वा.-तत्त्वार्थ राज वार्तिक त. सू.-तत्त्वार्थ सूत्र त. सू. भा. वृ.--तत्त्वार्थ सूत्राधिगम भाष्य वृत्ति ति. प.-तिलोय पण्णत्ति दशवै. जि. चू.-दशवकालिक जिनदास चूर्णि दसवे.-दसवेआलियं आव. नि. हा. वृ.-आवश्यकनियुक्ति हारिभद्रीयवृत्ति आ. वृ.--आचाराङ्ग वृत्ति उत्तर.-उत्तरज्झयणाणि नि. चू.-निशीथ चूर्णि नि. भा.--निशीथ भाष्य नि. भा. चू.-निशीथ भाष्य चूर्णि निसीह.-निसीहज्झययणं उत्तर. नि.-उत्तराध्ययन नियुक्ति उवा-उवासगदसाओ पं. सं.-पंचसंग्रह ओ. नि.-ओघनियुक्ति ओवा.--ओवाइय पं. सं. दि.-पंचसंग्रह दिगम्बर पज्जो.-पज्जोवसणाकप्पो पण्ण.-पण्णवणा पण्हा.-पण्हावागरणं पा. यो. द.-पातजल योग दर्शन क. पा.-कसाय पाहुड गो. सा. क.-गोम्मटसार कर्म काण्ड गो. सा. जी.-गोम्मटसार जीव काण्ड जंबु.-जंबुद्दीवपण्णत्ती जीवा. ---जीवाजीवाभिगमे जीवा. वृ.-जीवाजीवाभिगमवृत्ति पा. स. म.-पाइयसद्दमहण्णवो प्र. सा.-प्रवचन सारो प्र. सारो.--प्रवचनसारोद्धार Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत निदेशिका भगवई बृ. क. भा.-बृहत्कल्प भाष्य भ./भग.---भगवती सूय.-सूयगडो सूर.-सूरपण्णत्ति सूत्र. नि.-सूत्रकृताङ्ग नियुक्ति सूत्र. वृ.-सूत्रकृताङ्ग वृत्ति भ. चू.-भगवती चूर्णि भ. जो.-भगवती जोड़ भ. वि.-भगवई विआहपण्णत्ती अ.-अध्ययन उ.-उद्देशक भ. वृ.–भगवती वृत्ति राज. वृ., रा. वृ.-राजप्रश्नीयवृत्ति राय.-रायपसेणइयं ख. -खण्ड गा.–गाथा प.-पत्र वव.-ववहारो वि.भा.—विशेषावश्यक भाष्य व्य. भा. वृ.-व्यवहारभाष्य वृत्ति ष. ख./ष.-षट्खण्डागम सम.-समवाओ पु.-पुस्तक पू.-पूर्ति-स्थल पृ.-पृष्ठ (भा.)-भाष्य सम्मति.–सम्मति प्रकरण भा.-भाग स. सि.-सर्वार्थसिद्धि सू.-सूत्र स्था. वृ.-स्थानाङ्ग वृत्ति Jain Education Intemational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम तीसरा शतक ६४-६५ ६५-६९ ७०-७१ ७२-७५ ७५-७७ ७७-७९ ७९-८० ८१-८३ ७९-९६ असुर कुमार ८३-८६ ८६-८८ पृष्ठ सूत्र आमुख ३-४ १४०-१४२ क्रिया-वेदना-पद प्रथम उद्देशक १४३-१४८ अन्तक्रिया-पद संग्रहणी गाथा १४९-१५१ प्रमत्त-अप्रमत्त-काल-पद ०१-०३ उत्क्षेप-पद १५२,१५३ लवणसमुद्र-वृद्धि-हानि-पद ०४-२५ देव-विक्रिया-पद ०५-१८ चौथा उद्देशक २६-५३ तामलि का ईशानेन्द्र-पद १८-३२ १५४-१६३ भावितात्मा-पद ५४-७१ शक्रेशान-पद ३२-३५ १६४-१७१ वायुकाय-पद ७२-७६ सनत्कुमार-पद ३५-३७ १७२-१८२ बलाहक-पद दूसरा उद्देशक १८३-१८५ किलेश्योपपाद-पद ७७-७८ चमर का भगवान को वन्दन-पद ३८ १८६-१९३ भावितात्मा-विक्रिया-पद असुर कुमार वर्णक-पद ३८-४३ पांचवा उद्देशक ९७-९८ चमर का ऊर्ध्व-उत्पात-पद ४३ १९४-२०८ भावितात्मा विकुर्वणा-पद ९९-१०१ चमर का पूर्व भव में पूरण गृहपति ४३-४४ २०९-२२१ भावितात्मा-अभियोजना-पद का पद १०२-१०३ पूरण की दानामा प्रव्रज्या का पद । छठा-उद्देशक ४४-४५ १०४ पूरण का प्रायोपगमन-पद ४५ २२२-२४६ भावितात्मा-विक्रिया-पद १०५ भगवान की एकरात्रिकी महाप्रतिमा ४६-४७ सातवां उद्देशक का पद २४७-२४९ लोकपाल-पद १०६-१०८ पूरण का चमरत्व-पद ४७-४८ २५०-२५५ सोम-पद १०९-१११ चमर का कोप-पद ४८-५० २५६-२६० यम-पद ११२ चमर का भगवान की निश्रापूर्वक ५०-५३ । २६१-२६५ वरुण-पद शक्र की आशातना का पद २६६-२७१ वैश्रवण-पद ११३ शक्रेन्द्र द्वारा वज्र-प्रक्षेप-पद ५३-५४ ११४ चमर द्वारा भगवान की शरण का पद ५४-५५ आठवां उद्देशक ११५-११६ शक्र का वज्र-प्रतिसंहरण-पद ५५-५६ २७२-२७८ ११७-१२६ शक्र, चमर और वज्र का गति- ५६-५९ नवां उद्देशक विषयक-पद १२७-१३२ चमर की चिन्ता का पद ५९-६१ तीसरा उद्देशक दसवां उद्देशक १३३-१३९ क्रिया-पद २८०-२८१ ८९-९५ ९७-१०० १००-१०३ १०३-१०५ १०५-१०७ नाप-पद १०८-११० २७९ १११ ६२-६४ । ११२ Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम सूत्र आमुख १ से ४ था उद्देशक ०१-०५ ५ से ८ वां उद्देशक ०६ सूत्र आमुख प्रथम उद्देशक ०१-०३ ०४-१६ १७-२० २१-३० दूसरा उद्देशक ३१-५० ५१-५४ ५५,५६ तीसरा उद्देशक ६८-७१ ७२-७५ ७६, ७७ ७८-८२ ८३-८८ ८९-९२ ९३ संग्रहणी गाथा जम्बूद्वीप में सूर्यवक्तव्यता- पद जम्बूद्वीप में दिवस रात्रि वक्तव्यता- पद जम्बूद्वीप में अयनादि वक्तव्यता- पद लवणसमुद्रादि में सूर्यादि की वक्त व्यता का पद ५७,५८ ५९-६३ - चौथा उद्देशक ६४-६७ आयुष्य - प्रकरण - प्रतिसंवेदना-पद सायुष्यसंक्रमण पद १६ चौथा शतक पृष्ठ सूत्र नव उद्देशक महाशुक्र प्रश्न का पद देवों की नोसंयतवक्तव्यता का पद देवभाषा-पद ११५ छद्मस्थ और केवली द्वारा शब्दश्रवण-पद छद्मस्थ और केवली का हास्य-पद छदस्थ और केवली का निद्रा पद गर्भ-पद अतिमुक्तक-पद से समागत देवों द्वारा ११७-११८ ११९ १२५-१२६ वायु-पद १३६-१४० ओदन आदि किसके शरीर का पद १४०-१४२ लवण समुद्र-पद १४२ पांचवां शतक पृष्ठ सूत्र ९४-९९ १२७ १२७ १२८ १३२ १३२-१३३ १३३-१३५ १४३-१४५ १४५-१४८ १४९ - १५३ १५३-१५५ १५५-१५६ १५६-१५७ १५७-१५८ १५९-१६१ ०७ दसवां उद्देशक ८, ९ १६१-१६२ १६२-१६३ - पद ११०,१११ केवलियों की योग चंचलता पद ११२ ११४ चतुर्दशपूर्वियों का सामर्थ्य-पद पांचवां उद्देशक ११५ मोक्ष-पद ११६ १२१ एवंभूत-अनेवंभूत वेदना-पद १२२,१२३ कुलकर आदि पद छठा उद्देशक पृष्ठ छास्थ और केवली का ज्ञान-भेद १६३-१६४ -पद १६४-१६६ १०० - १०२ केवली के प्रणीत- मन-वचन- पद १०३-१०७ अनुत्तरोपपातिक देवों द्वारा केवली के १६६-१६८ १२४,१२५ अल्पायु-दीर्घायु-पद १२६, १२७ अशुभ- शुभ-दीर्घायु-पद १२८-१३२ क्रय-विक्रय क्रिया-पद १३३ १३४, १३५ १३६, १३७ १३८ १३९-१४६ साथ आलाप पद १०८-१०९ केवलियों के इन्द्रिय ज्ञान का निषेध- १६८-१६९ अग्निकाय में महाकर्म आदि-पद धनुः प्रक्षेप में क्रिया-पद भगवई अन्ययूथिक पद नैरयिक विक्रियापद पृष्ठ आराधनादि-पद आचार्य - उपाध्याय का सिद्धि-पद अभ्याख्यानी के कर्मबन्ध पद १४७ १४८, १४९ सातवां उद्देशक १५०-१५३ परमाणु-स्कन्धों का एजनादि पद १२० १२१ १७५ १७५-१७६ १७६-१७८ १७९ १७९-१८१ १८१-१८२ १८२-१८३ अधाकर्म आदि आहार के सम्बन्ध में १८३-१८५ १६९-१७० १७०-१७१ १७२ १७२-१७४ १७४ १८५ १८६ १८७-१८९ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७ विषयानुक्रम सूत्र पृष्ठ सूत्र पृष्ठ १५४-१५९ परमाणु-स्कन्धों का छेदन आदि-पद १८९-१९१ | आठवां उद्देशक १६०-१६४ परमाणु-स्कन्धों का सार्द्ध समध्या- १९१-१९२ | २००-२०७ निर्ग्रन्थीपुत्र-नारदपुत्र-पद २०५-२०९ -दि-पद २०८-२२४ जीवों की वृद्धि-हानि-अवस्थिति-पद २०९-२१३ १६५-१६८ परमाणु-स्कन्धों का परस्पर स्पर्शना- १९२-१९५ २२५-२३४ जीवों का सोपचय-सापचय-आदि-पद २१३-२१५ -पद नवां उद्देशक १६९-१७४ परमाणु-स्कन्धों की संस्थिति का पद १९५-१९७ २३५-२३६ “यह कौन राजगृह" का-पद १७५-१८० परमाणु-स्कन्धों का अन्तरकाल-पद १९७-१९९ २१६-२१७ २३७-२४७ उद्द्योत-अन्धकार-पद १८१ परमाणु-स्कन्धों का परस्पर अल्प- १९९ २१७-२१९ २४८-२५३ मनुष्य-क्षेत्र में समयादि-पद २१९-२२० बहुत्व-पद १८२-१९० जीवों का सारम्भ सपरिग्रह-पद २५४-२५७ पार्खापत्यीय-पद २२०-२२३ १९९-२०३ १९१-१९९ हेतु-पद २५८,२५९ देवलोक-पद २२३-२२४ २०३-२०४ दसवां उद्देशक २२५ २६० छठा शतक सूत्र पृष्ठ पृष्ठ सूत्र चौथा उद्देशक ५४-६३ काल की अपेक्षा सप्रदेश-अप्रदेश- २५५-२६६ -पद आमुख २२९-२३० प्रथम उद्देशक १-४ प्रशस्त निर्जरा का श्रेयस्त्व-पद २३१-२३४ ५-१४ करण-पद २३४-२३६ १५-१७ महावेदना-महानिर्जरा-चतुर्भङ्ग-पद २३६-२३७ संग्रहणी गाथा २३७ दूसरा उद्देशक २३८ १८-१९ तीसरा उद्देशक संग्रहणी-गाथा २३९ २०,२१ महाकर्म वाले आदि के पुद्गल- २३९-२४० -बन्ध-पद २२,२३ अल्पकर्म वाले आदि के पुद्गल- २४०-२४१ -भेद का पद २४-२६ कर्मोपचय-पद २४१-२४२ २७-२९ कर्मोपचय का सादि-अनादि-पद २४२-२४३ ३०-३२ जीवों की सादि-अनादिता पद २४४-२४५ ३३-५१ कर्म-प्रकृति-बंध-विवेचन-पद २४५-२५३ ५२,५३ वेदक-अवेदक जीवों का अल्प- २५३-२५४ -बहुत्व-पद ६४-६९ प्रत्याख्यानादि-पद २६७-२६८ पांचवा उद्देशक ७०-८८ तमस्काय-पद २६९-२७२ ८९-१०५ कृष्णराजि-पद २७२-२७५ १०६-११९ लोकान्तिक देव-पद २७५-२७९ छठा उद्देशक १२०-१२१ नैरयिक आदि के आवास-पद २८० १२४-१२८ मारणान्तिकसमुद्घात-पद २८०-२८३ सातवां उद्देशक १२९-१३१ धान्यों की योनि और स्थिति-पद २८४-२८६ १३२ गणना-काल-पद २८६-२८८ १३३,१३४ औपमिक-काल-पद २८८-२९६ १३५,१३६ सुषम-सुषमा में भारतवर्ष-पद २९६-२९७ आठवां उद्देशक १३७-१५० पृथ्वी आदि में गेह आदि की पृच्छा २९८-३०२ का पद Jain Education Intemational Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम सूत्र १५१-१५४ आयुष्बन्ध पद १५५-१६१ लवणादि समुद्र- पद नवां उद्देशक सूत्र आमुख प्रथम उद्देशक १६२ कर्म-प्रकृति-बन्ध पद १६३-१६७ महर्द्धिकदेव विक्रिया-पद १६८-१७० अविशुद्धलेश्या आदि देव का ज्ञान- ३०१-३१२ ३०७ ३०७-३०९ दर्शन-पद १ २ ३ ४, ५ ६, ७ ८, ९ १०.१५ १६-१९ २०,२१ २२-२६ संग्रहणी गाथा अनाहारक पद सर्व अल्पआहार-पद दूसरा उद्देशक २७,२८ २९-३५ ३६-५७ ६७-७३ ७४-९२ ९३-९६ सुप्रत्याख्यान दुष्यत्याख्यान- पद प्रत्याख्यान- पद प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी पद शाश्वत अशाश्वत पद ५८-६१ तीसरा उद्देशक ६२-६५ ६६ पृष्ठ वनस्पति- आहार पद अनन्तकाय-पद अल्पकर्म महाकर्म- पद वेदना निर्जरा पद शाश्वत अशाश्वत पद ३०२-३०४ ३०५-३०६ लोक-संस्थान पद श्रमणोपासक की क्रिया का पद श्रमणोपासक के अनावृत्ति हिंसा का पद श्रमण- प्रतिलाभ से लाभ-पद अकर्म की गति का पद दुःखी के दुःखस्पर्श आदि का पद ऐर्यापथिक-साम्परायिक क्रिया-पद ३३२-३३३ स- अंगार आदि दोष से दूषित पान ३३३३३८ -भोजन-पद ३२१-३२२ ३२३ ३२३-३२६ ३२६ ३२६ ३२८ ३२८ सातवां शतक पृष्ठ सूत्र चौथा उद्देशक ९७,९८ पांचवा उद्देशक ३२८-३२९ ३२९-३३१ ३३१-३३२ ३३९-३४१ ३४१-३४४ ३४४-३४८ ३४८-३४९ ३५०-३५२ ३५२-३५३ १८ ३५३-३५५ ३५५-३५७ ३५७-३५८ सूत्र दशवां उद्देशक १७१-१७३ सुख-दुःख- उपदर्शन-पद १७४- १८२ जीव चेतना पद वेदना-पद १८३-१८५ नैरविक आदि जीवों का आहार पद केवली का ज्ञान-पद १८६ १८७ - १८९ संसारस्थ जीव- पद १९,१०० छठा उद्देशकः योनिसंग्रह पद १०१-१०६ आयुष्क-प्रकरण-वेदना-पद १०७-११२ कर्कश अकर्कश वेदनीय पद ११३ ११६ सातासात वेदनीय पद ११७-१२४ दुःषम - दुःषमा- पद सातवां उद्देशक १५०-१५२ अकामनिकरण वेदना-पद १५३-१५५ प्रकामनिकरण वेदना पद आठवां उद्देशक १६० १६१ १६२ १६३, १६४ पृष्ठ ३१३-३१४ ३१४-३१६ ३१६-३१७ ३१७ ३१७-३१८ ३५९ ३६० भगवई १२५-१२६ संवृत का क्रिया-पद ३७१ ३७२-३७४ १२७-१४५ काम भोग-पद १४६ १४९ दुर्बलशरीर वाले का भोग परित्याग- ३७४-३७६ - पद १५६,१५७ मोक्ष-पद १५८,१५९ हस्ति और कुन्यु के जीव की समानता का पद सुख-दुःख- पद दशविधसंज्ञा-पद ३८३ नैरयिकों की दशविधवेदना का पद हस्ति और कुन्यु की अप्रत्याख्यान- ३८३ क्रिया का पद १६५, १६६ आधाकर्म आदि-पद ३६१-३६३ ३६३-३६४ ३६४-३६६ ३६६-३७० पृष्ठ ३७६ ३७७-३७८ ३७९ ३७९-३८१ ३८३ ३८१-३८२ ३८२-३८३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई विषयानुक्रम सूत्र पृष्ठ सूत्र नवां उद्देशक १६७-१७२ असंवृत अनगार की विक्रिया का ३८४-३८५ पद १७३-१८१ महाशिलाकंटक संग्राम-पद १८२-१९१ रथमुसलसंग्राम-पद १९२-२०३ नाग के धेवता वरुण का पद २०४-२११ नागनप्तृक वरुण के मित्र का पद ३८५-३८८ ३८८-३९१ ३९२-३९५ ३९५-३९६ दसवां उद्देशक २१२-२१६ कालोदायी प्रभृति का पञ्चास्तिकाय- ३९७-३९८ में सन्देह-पद २१७-२२१ कालोदायी का समाधानपूर्वक प्रव्र- ३९८-४०० -ज्या का पद २२२-२३३ कालोदायी की कर्म आदि के- ४००-४०३ विषय में प्रश्न (का) पद परिशिष्ट १-६ देखें विवरण पृष्ठ ४०५ Jain Education Intemational Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं सयं तीसरा शतक Jain Education Intemational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख हमारा दृश्य जगत् मनुष्य और तिर्यञ्च (पशु-पक्षी आदि) तक सीमित है। इन्द्रिय, मन और बुद्धि-यह हमारे ज्ञान की सीमा है। इस ज्ञान की सीमा ने ज्ञेय को भी सीमित बना दिया है। देव, नरक और सूक्ष्म जीवों का जगत् हमारे ज्ञान से परोक्ष है, इसलिए उनके विषय की प्ररूपणा संशय, विकल्प और विस्मय उत्पन्न कर देती है। आगम-साहित्य में देव, नरक और सूक्ष्म जीवों की चर्चा बहुलता से मिलती है। इसका हेतु है-प्रत्यक्ष दर्शन। प्रत्यक्षदर्शी आप्तपुरुष अपने अतीन्द्रिय ज्ञान (अवधिज्ञान अथवा केवलज्ञान) से अदृश्य जगत् का साक्षात्कार करते हैं और उसका प्रतिपादन करते हैं। वह प्रतिपादन हेतुगम्य नहीं होता,अतः हमारे लिये तर्क का विषय बनता है। परोक्ष दर्शन और प्रत्यक्ष दर्शन की समस्या को सामने रखकर आचार्य सिद्धसेन ने ज्ञेय वस्तु को दो भागों में विभक्त कर दिया-हेतुगम्य और अहेतुगम्य अथवा आगमगम्य। जो प्ररूपक हेतुगम्य सत्य की हेतुवाद के द्वारा और अहेतुगम्य पदार्थ की आगमवाद के द्वारा प्ररूपणा करता है, वह सम्यक् प्रज्ञापना करने वाला है।' तर्क और अतीन्द्रियज्ञान की सीमा को समझ लेने पर अन्धविश्वास और यथार्थ का अपलाप-इन दोनों से बचा जा सकता है। अग्निभूति गौतम ने देवों की वैक्रिय-शक्ति के विषय में कुछ प्रश्न पूछे, भगवान महावीर ने उनके उत्तर दिए। अग्निभूति ने वैक्रिय शक्ति का विवरण वायुभूति के सामने रखा। वायुभूति ने उनके वक्तव्य पर विश्वास नहीं किया। वे भगवान् महावीर के पास गए। भगवान् ने अग्निभूति के वक्तव्य का अनुमोदन किया। तब वायुभूति के मन में विश्वास हो गया। इस घटना का निष्कर्ष यह है-अहेतुगम्य सत्य की व्याख्या का प्रामाणिक आधार प्रत्यक्षदर्शी आप्तपुरुष ही हो सकता है और वही परोक्षदर्शी के लिए विश्वसनीय बन सकता है। भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों में प्रथम तीन गणधर-इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति गौतमगोत्रीय हैं। प्रस्तुत आगम में अधिकांश प्रश्न इन्द्रभूति गौतम के उपलब्ध होते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में यह उल्लेखनीय है कि अग्निभूति मुख्य प्रश्नकर्ता हैं तथा वायुभूति उनके संवाद में जुड़े हुए हैं। प्रस्तुत शतक के तीसरे उद्देशक में छठे गणधर मंडितपुत्र का उल्लेख भी मिलता है। आगमों में सामान्य रूप से गणधरों के संबंध में बहुत ही कम उल्लेख मिलता है। यद्यपि समवाओ में गणधरों के नाम, आयु आदि के विषय में कुछ स्फुट जानकारी उपलब्ध होती है, फिर भी जीवन के घटना-प्रसंगों का विशेष उल्लेख नहीं मिलता। इस दृष्टि से भगवती का प्रस्तुत शतक बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहां चार गणधरों के जीवन्त घटना-प्रसंग उल्लिखित हैं। यह भी एक विशेष बात है कि तात्त्विक विषयों के संबंध में इन्द्रभूति गौतम को भांति अग्निभूति, वायुभूति और मण्डितपुत्र भी जिज्ञासाशील थे। यहां प्रस्तुत वार्तालाप में यह तथ्य सामने आता है कि इनकी परस्पर सभी विषयों में समान धारणाएं नहीं थीं। भगवान् से उत्तर पाने के बाद उनकी धारणा एकरूप बनीं। गणधरवाद में उपलब्ध गणधरों का परिचय तथा उनकी पूर्व मान्यताओं संबंधी विवेचन उत्तरकालिक हैं। भगवती के प्रस्तुत प्रसंगों से गणधरों के ऐतिहासिक व्यक्तित्व की संपुष्टि होती है। प्रस्तुत शतक के दस उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक देवों की वैक्रिय शक्ति-विषयक जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है। वैक्रिय शक्ति के द्वारा रूप-परिवर्तन और नानारूपों का निर्माण किया जा सकता है। वह शक्ति सभी देवों में होती है, पर सबमें समान रूप से विकसित नहीं होती। इसकी बहुत अच्छी जानकारी प्रथम उद्देशक में मिलती है। तामली तापस का प्रकरण इस सत्य का साक्ष्य है कि जैन धर्म के सिद्धान्त आत्मवाद अथवा अध्यात्मवाद की पृष्ठभूमि पर विकसित हुए हैं, इसलिए वे सार्वभौम हैं, धर्म की सार्वभौमिकता के प्रतिपादक हैं। वे सांप्रदायिक संकीर्णता से प्रतिबद्ध नहीं हैं। तामली तापस अपने तपोबल से ईशानेन्द्र-द्वितीय कल्प ईशान का अधिपति बनता है। भविष्य में वह मुक्त होगा, यह स्वीकृति साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से नहीं हो सकती। शक्र और ईशानेन्द्र के पारस्परिक संबंधों का बहुत ही आकर्षक और व्यावहारिक वर्णन प्रस्तुत शतक में मिलता है।' देवलोक का मनुष्य-लोक के साथ प्रत्यक्ष संबंध परिलक्षित नहीं होता। उनमें परोक्ष संबंध है। इसका प्रमाण है-सनत्कुमार का प्रकरण। तीसरे स्वर्ग का अधिपति देवेन्द्र सनत्कुमार महावीर के धर्मशासन के प्रति आकृष्ट है। उसका हित चाहने वाला है। महावीर ने स्वयं इस रहस्यपूर्ण वार्ता का उल्लेख किया है।' १. सम्मति ३/४३, ४५ दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ या तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा।। जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धतविराहओ अन्नो।। २. भ. ३/८, १०॥ ३. वही, ३/५४-७१। ४. वही, ३/७२,७३। Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : आमुख भगवई भगवान् महावीर ने कहीं-कहीं अपने जीवन-प्रसंगों का उल्लेख किया है। भगवान् अपने साधनाकाल के ग्यारहवें वर्ष में थे, उस समय असुरेन्द्र चमर और देवेन्द्र शक्र का संघर्ष हुआ। चमर ने महावीर की शरण का उपयोग किया। यह बहुत ही रोमांचक घटनाक्रम है।' आधुनिक भौतिक विज्ञान के गति-सिद्धान्त (dynamics) के संदर्भ में शक्र, चमर और वज्र की सापेक्ष गति का अध्ययन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। वैक्रिय शक्ति का विकास देवों में जन्मना होता है, मनुष्यों में साधनाकृत होता है। भावितात्मा अनगार की वैक्रिय शक्ति के विविध पक्षों पर विमर्श किया गया है। इसका संबंध अध्यात्मविद्या अथवा रहस्यविद्या (Occult Sciences) से है। वर्तमान में भावितात्मा और वैक्रिय शक्ति के साधनासूत्र विस्मृत हो गए हैं । इन शक्ति-सूत्रों की संकलना भी भगवती का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। वायुकाय और बलाहक (बादल) में भी विक्रिया करने की शक्ति होती है। किंतु वह अल्पविकसित होती है। प्रस्तुत शतक में शक्र के चार लोकपालों का निरूपण एक विचित्र प्रश्न उपस्थित करता है। जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर विश्व-व्यस्था का नियन्ता नहीं है। प्राकृतिक घटनाएं अपने सार्वभौम नियमों से घटित होती हैं। क्या लोकपाल उनके नियन्ता हैं? लोकपाल के विवरण को पढ़ने से यह धारणा बनती है कि कुछ प्राकृतिक घटनाओं का लोकपाल तथा उनके सहयोगी देवों से संबंध है। हर प्राकृतिक घटना में उनका हस्तक्षेप नहीं है, किंतु प्राकृतिक घटनाएं उनकी जानकारी में रहती हैं, यह स्पष्ट है। भवनपति देव, ज्योतिष्क देव और व्यन्तर देव उनके आज्ञाकारी हैं। वे लोकपालों के निर्देशानुसार प्राकृतिक घटनाओं में परिवर्तन भी करते हैं। ये देव इन प्राकृतिक घटनाओं में परिवर्तन करते हैं-इसका मूलपाठ में कोई उल्लेख नहीं है। किंतु अन्य आगमिक स्रोतों से यह पता चलता है कि अल्पवृष्टि, महावृष्टि, बादलों की गर्जना, बिजली का कौंधना-ये देवकृत भी होते हैं। प्राचीनकाल में प्राकृतिक आपदाओं और रोगों को देवकृत माना जाता था। उनकी शान्ति के लिए देवों को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया जाता, उनकी पूजा और आराधना की जाती। क्या प्रस्तुत प्रकरण इन अवधारणाओं का प्रतिपादक है अथवा दिव्यशक्ति का हमारी भूमि पर घटित होने वाली कुछ घटनाओं पर नियन्त्रण है-इस सच्चाई को स्वीकृति देता है? निष्कर्ष यह है कि प्राकृतिक घटनाओं और रोगों पर किसी भी दिव्यशक्ति का सर्वथा नियन्त्रण नहीं है, किंतु कुछ स्थितियों में देव परिवर्तन कर सकते हैं, इसका अस्वीकार भी नहीं है। हमारी भूमि, मनुष्य और दिव्यशक्ति-तीनों में परस्पर संबंध है। इस सिद्धान्त को समझने के लिए प्रस्तुत आलापक बहुत उपयोगी है। प्रस्तुत शतक के तीसरे उद्देशक में छठे गणधर मण्डितपुत्र का प्रकरण मोक्ष की प्रक्रिया को समझने के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। एक साधक किस प्रकार सप्रकम्प से अप्रकम्प होता है और क्रिया के अंतिम छोर तक पहुंच कर अक्रिय बन जाता है। इस प्रकरण के 'एयति वेयति' 'नो एयति नो वेयति'ये सूत्र उपनिषद् के 'तदेजति, तन्नेजति' वाक्यांशों की स्मृति दिला देते हैं। प्रस्तुत शतक रहस्यवादी और परामनोवैज्ञानिक के लिए पठनीय और मननीय है। इसमें अनुसंधान करने के अनेक अवकाश-क्षेत्र हैं। १.भ.३/१०५-११६ । २.वही, ३/१५४-१६३, १८६-१६२, १६४-२२० । ३. वही, ३/१६४-१८२। ४. वही, ३/२४७-२७० । ५. ठाणं, ३/३५६, ३६०,७१,७०। ६. ईशावास्योपनिषद्,५ तदेजति तन्नेजति तद् दूरे तदान्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ Jain Education Intemational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं सयं : तीसरा शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा १. केरिसविउव्वणा २. चमर कीदृशविक्रिया-चमर३. किरिय ४,५.जाणित्थि ६.नगर ७. पाला य। क्रिया-यान-स्त्री-७८नगर-पालाश्च। ८. अहिवइ ६. इंदिय १०. परिसा, अधिपतिः इन्द्रियं परिषद, ततियम्मि सए दसुद्देसा ॥१॥ तृतीये शते दश उद्देशाः।। संग्रहणी गाथा चमर की कैसी विक्रिया, चमर का उत्पात, क्रिया, यान, स्त्री, नगर, लोकपाल, अधिपति, इन्द्रिय और परिषद्-तीसरे शतक में ये दश उद्देशक हैं। उक्खेव-पदं उत्क्षेप-पदम् उत्क्षेप-पद १. तेणं कालेणं तेणं समएणं मोया नामं नयरी तस्मिन् काले तस्मिन् समये मोका नाम नगरी १. उस काल और उस समय मोका नाम की नगरी थीहोत्था-वण्णओं॥ आसीद्-वर्णकः। नगर का वर्णन। २. तीसे णं मोयाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे तस्याः मोकायाः नगर्याः बहिः उत्तरपौरस्त्ये २. उस मोका नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा भाग में दिसीभागे नंदणे नामं चेइए होत्था-वण्णओ॥ दिगभागे नन्दनं नाम चैत्यम् आसीद्-वर्णकः। नन्दन नाम का चैत्य था-चैत्य का वर्णन। ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा निग्गच्छइ, पडिगया परिसा॥ तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समव- ३. उस काल और उस समय भगवान् महावीर समवसृत सृतः। परिषद् निर्गच्छति, प्रतिगता परिषद्। हुए। परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। परिषद्द्वापस नगर में चली गई। देवविकुब्वणा-पदं देवविक्रिया-पदम् देवविक्रिया-पद ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः ४. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूई नाम महावीरस्य द्वितीयः अन्तेवासी अग्निभूतिः दूसरे अन्तेवासी अग्निभूति नामक अनगार थे। उनका अणगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव नाम अनगारः गौतमः गोत्रेण सप्तोत्सेधः गौत्र गौतम था। उनकी ऊंचाई सात हाथ की थी।' पज्जुवासमाणे एवं वदासि-चमरे णं भंते! यावत् पर्युपासीनः एवमवादीत्-चमरः यावत् वे भगवान् की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार असुरिंदे असुरराया केमहिड्ढीए? केमहज्जु- भदन्त ! असुरेन्द्रः असुरराजः कियन्महर्द्धिकः? बोले-भन्ते! असुरेन्द्र असुरराज चमर कितनी महान् तीए? केमहाबले? केमहायसे? केमहासोक्खे? कियन्महाद्युतिकः? कियन्महाबलः? कियन्- ऋद्धि वाला, कितनी महान् धुति वाला, कितने महान् केमहाणुभागे? केवइयं च णं पभू विकु- महायशाः? कियन्महासौख्यः? कियनमहा- बल वाला, कितने महान् यश वाला, कितने महान् सुख वित्तए? नुभागः? कियच् च प्रभुः विकर्तुम्? वाला, कितनी महान सामर्थ्य वाला और कितनी विक्रिया करने में समर्थ है? गोयमा ! चमरे णं असुरिंदे असुरराया महि- गौतम ! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः महर्द्धिकः, गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला, ड्ढीए, महज्जुतीए, महाबले, महायसे, महा- महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महान् धुति वाला, महाबली, महायशस्वी, महासुखी सोक्खे, महाणुभागे। से णं तत्थ चोत्तीसाए महानुभागः। स तत्र चतुस्त्रिशद् भवना- और महान् सामर्थ्य वाला है। वह चमरञ्चा राजधानी भावणावाससयसहस्साणं, चउसट्ठीए समाणि- वासशतसहस्त्राणां, चतुःषष्ट्याः सामानिकसा- में चौंतीस लाख भवनावास, चौंसठ हजार सामानिक, यसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तावत्तीसगाणं, हस्याः, त्रयस्त्रिंशत् तावत्त्रिंशकानां, चतुर्णां तैंतीस तावत्त्रिंशक, चार लोकपाल, पांच सपरिवार Jain Education Intemational Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ.१ : सू.४ " चउन्हं लोगपालाणं, पंचण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिन्हं परिसानं सत्तण्हं अणि याणं, सत्तन्हं अभियाहिवईगं चउन्हं उसट्टीनं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं व बहूणं चमरच॑चारायहाणिवत्थव्वाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं आणा ईसर सेगावच्च कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनट्ट - गीय-वाइय-तंती- तलताल-तुडिय - घणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । एमहिडीए, एमजुतीए, एमहाबले एमडायसे एमटासोक्खे, एमहाणुभाने एवतियं च पभू विकुव्वित्तए । से जहानामए – जुवतिं जुवागे हत्येनं हत्थे गेण्डेजा, चक्करस वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव गोयमा चमरे असुरिंदे असुरराया वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहम्मद समोरणिता संखेन्जाई जोगाई दंड निसिरइ तं जहा स्वगाणं वयराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगव्याणं पुलगाणं सोगंधिवानं ओईरसाणं अंजणाणं अंजनपुलगाणं रवयानं जागरूवाणं अंकाण फलिहान रिद्वागं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिसाडेत्ता अहासुहुमे पोग्गले परियायद, परिवाइत्ता दोच्च पि चेउबिय समुग्धाएणं समोहण्णति । 7 पभू णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया केवलकणं जंबुद्दीव दीव बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थ संथ फुडं अवगाडावगाढं करेत्तए । अदुत्तरं च णं गोयमा । पभू चमरे असुरिंदे असुररावा तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे संथडे फुडे अवगादावगाढे करेत्तए । एस णं गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररणो अयया विसए विसयमेते बुझए, णो चैव णं संपत्तीए विकुविसु वा विकुव्वति वा विकुव्विसति वा ॥ ६ लोकपालानां पञ्चानाम् अग्रमहिषीणां स परिवाराणां तिसृणां परिषदां सप्तानाम् अनीकानां, सप्तानाम् अनीकाधिपतीनां चतुर्णा चतुःषष्टीनाम् आत्मरक्षदेवसाहस्याः अन्येषां व बहूनां चमरचज्वाराजधानी वास्तव्यानां देवानाञ्च देवीनाञ्च आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृत्व आज्ञेश्वर सैनापत्यं कारयन् पालयन् महताहतनाट्य गीत - वादित्र-तन्त्री-तल-ताल- त्रुटित धनमृदंगपटु-प्रवादितरवेण दिव्यान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहरति । इयन्महर्दिकः श्यन्महाद्युतिकः इयन्महावल यन्महायशाः इवमन्यनुभागः ॥ एतावच्च प्रभुः विकर्तुम् । तद् यथानाम - युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गृहीयात् चक्र वा नाभिः अरकायुक्ता स्याद् एवमेव गौतम! चमरः अमुरेन्द्रः असुरराजः वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते, समवहत्य संख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति, तद्यथा रत्नानां जणां वैर्याणां लोहिताक्षाणां मसारगल्लानां हंसगर्भाणां पुलकानां सौगन्धिकानां ज्योतिरसानाम् अब्जनानाम् अञ्जनपुलकानां रजतानां जातरूपाणाम् अह्कानां स्फटिकानां रिष्टानां यथावादरान् पुद्गलान् परिशाटयति, परिशाट्य यथासूक्ष्मान् पुद्गलान् पर्यादत्ते पर्यायय द्वितीयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते । प्रभुः गौतम ! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः केवलकल्यं जम्बूद्वीप द्वीप बहुभिः असुरकुमारैः देवैः देवीभिश्च आकीर्णं व्यतिकीर्णम् उपस्तृतं संस्तृतं स्पृष्टम् अवगाढावगाढं कर्तुम् । 'अदुत्तरं ' च गौतम ! प्रभुः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः तिर्यग असंख्येयान् द्वीप समुद्रान् बहुभिः असुरकुमारैः देवैः देवीभिश्च आकीर्णान् व्यतिकीर्णान् उपस्तृतान् संस्तृतान् स्पृष्टान् अवगाढावगाढान् कर्तुम् । एष गौतम! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य अयमेव एतद्रूपः विषयः विषयमात्रः उक्तः, नो चैव सम्प्राप्त्या व्यार्थी या विकरोति या विकरिष्यति वा । भगवई ६ पटरानियां, सीन परिषद स्वत सेनाएं सात सेनापति, दो लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देव और चमरचञ्चा राजधानी में रहने वाले अन्य अनेक देवों तथा देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व (पोषण) तथा आज्ञा देने में समर्थ और सेनापतित्व करता हुआ, अन्य देवों से आज्ञा का पालन करवाता हुआ वह आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए गए वादित्र, तन्त्री, तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग की महान् ध्वनि से युक्त दिव्य भोगाई भोगों को भोगता हुआ रहता है वह इतनी महान् ऋद्धि वाला, इतनी महान् द्युति वाला, इतने महान् बल वाला, इतने महान यश वाला, इतने महान् सुख वाला, इतनी महान् सामर्थ्य वाला है और इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। जैसे कोई युवक युवती का प्रगाढता से हाथ पकड़ता है अथवा गाड़ी के चक्के की नाभि जैसे अरों से युक्त होती है", उसी प्रकार गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर (अपनी विक्रिया से निर्मित एवं अपने शरीर से प्रतिबद्ध रूपों से जम्बूद्वीप को आकीर्ण करने के लिए) वैयि समुद्धात से समस्त होता है। १२ समवहत होकर वह अपने शरीर से संख्येय योजन सम्या दंड निकालता है। उसके पश्चात् वह रत्न, वज्र (हीरा), वैडूर्य (लहसुनिया), लोहिताक्ष ( लोहितक), मसारगल्ल (मसृणपाषाणमणि), हंसगर्भ (पुष्पराग), पुलक, सौगन्धिक (माणिक्य), ज्योतिरस (सफेद और लाल रंग से मिश्रित मणि) अम्जन (समीरक), अञ्जनपुलक, चांदी, स्वर्ण, अंक, स्फटिक और रिष्ट नामक मणि- इन रत्नों से स्कूल (असार) पुद्गलों को झटक देता है और सूक्ष्म (सार) पुद्गलों को ग्रहण करता है। उन्हें ग्रहण कर, वह फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है। गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को अनेक असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तृत (बिछौना - सा बिछाया हुआ), संस्तृत (भलीभांति बिछौना-सा बिछाया हुआ) स्पृष्ट (छूने) और अवगाढावगाढ (अत्यन्त सघन रूप से व्याप्त) करने में समर्थ है। और दूसरी बात, गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर तिरछे लोक के असंख्य द्वीप समुद्रों को अनेक असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तृत, संस्तृत स्पृष्ट और अवगाढावगाढ करने में समर्थ है। गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की विक्रिया-शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है । चमर ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की न करता है और न करेगा। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. उनकी ऊंचाई सात हाथ की थी द्रष्टव्य भ० १/६ का भाष्य । यह उल्लेखनीय है कि यहां 'हाथ' उत्सेध अंगुल के प्रमाण से बताया गया है। ' २. कितनी महान् ऋद्धि वाला (केमहिडीए) वृत्तिकार ने केमहिढीए पद की व्युत्पति दो प्रकार से की है— १. किस रूप में महर्द्धिक, २. कैसी महान ऋद्धि वाला एक मतान्तर का उल्लेख भी किया है। उसके अनुसार इसका अर्थ होता है— कितना महर्दिक।" भाष्य ३. सामानिक समृद्धि में इन्द्र के समकक्ष देव तत्त्वार्थ भाष्य के अनुसार इन्द्रत्व को छोड़कर शेष सब स्थितियों में वे इन्द्र के तुल्य होते हैं। सिद्धसेनगणी ने लिखा है - उनमें इन्द्रत्व नहीं होता, इन्द्र की भांति वे सम्पूर्ण देवलोक के अधिपति नहीं होते। वे पिता, गुरू, उपाध्याय आदि के समान आदरणीय होते हैं। * वृत्तिकार ने सामानिक का केवल व्युत्पत्तिजन्य अर्थ किया है। ४. तावत्रिंशक तत्त्वार्थ भाष्य में ' त्रायस्त्रिंश' शब्द का प्रयोग मिलता है। भाष्यानुसारिणी वृत्ति और तत्त्वार्थराजवार्त्तिक में भी वही प्रयोग प्राप्त है।" वे मंत्री और पुरोहित के समान होते हैं। मूलपाठ के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'तावत्रिंशक' होना चाहिए। बौद्ध साहित्य में भी तावतिंस का प्रयोग मिलता है। ५. लोकपाल तत्त्वार्थ भाष्य में लोकपाल की तुलना आरक्षक और अर्थचर से की गई है। अपने देश के सीमारक्षक आरक्षक कहलाते हैं।' चोरों से जनता की रक्षा करने वाले अर्थचर कहलाते हैं।" लोकपाल का विस्तृत वर्णन तीसरे शतक के सातवें उद्देशक में मिलता है। १. अणु. सू. ४०१1 २. भ. वृ. ३/४ - केन रूपेण महर्द्धिकः ? किंरूपा वा महर्द्धिरस्येति किंमहर्द्धिकः, कियन्महर्द्धिक इत्यन्ये । ३. त. भा. ४/४ – इन्द्रसमानाः सामानिकाः अमात्यपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवत् केवलमिन्द्रत्वहीनाः । ४. त. भा. ४/४ –सामानिकास्त्विन्द्रतुल्या भवन्त्यायुष्कादिभिः केवलमिन्द्रत्वं सकलकल्पाधिपत्वं नास्ति, शेषंक समानम्। ते चामात्यपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवद् द्रष्टव्याः, अमा सहार्थे, सह भवन्तीत्यमात्याः - कार्यालोचनसमर्थाः पिता गुरुरुपाध्यायो महत्तरश्च सर्व एते पूजनीयास्तद्वत् तेऽपि सामानिका इति । ५. भ. वृ. ३/४ - समानया - इन्द्रतुल्यया ऋद्ध्या चरन्तीति सामानिकाः । ६. त. भा. ४/४ - त्रयस्त्रिंशा मन्त्रिपुरोहितस्थानीयाः । ७. (क) त. सू. भा. वृ. ४/४ - त्रयस्त्रिंशाः । (ख) त. रा. वा. ४/४ - त्रयस्त्रिंशदेव त्रायस्त्रिंशा इति । ८. सभी जगह पालि त्रिपिटकों में तावतिंस शब्द का प्रयोग किया गया है। उदाहरणार्थ, ७ ६. सात सेनाएं, सात सेनापति इनकी विशद जानकारी के लिए द्रष्टव्य ठाणं, ७/११३-१२६६ श. ३ : उ.१ : सू. ४ ७. आत्मरक्षक इसकी तुलना शिरोरक्षक से की गई है। दे हाथ में शस्व लिये पीछे खड़े रहते हैं। देवजगत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर यह क्या अनावश्यक प्रयोग नहीं है? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि यह व्यवस्था बड़प्पन की मर्यादा है अथवा प्रति प्रकर्ष के लिए की गई है। " ८. आधिपत्य..... सेनापतित्व प्रस्तुत सूत्र में नेतृत्व के द्योतक पांच शब्द - १. आधिपत्य – अनुशासन -अग्रगामिता २. पौरपत्य ३. स्वामित्व - स्वामिभाव ४. भर्तृत्व - संरक्षण और पोषण ५. आज्ञा - ईश्वर - सेनापत्य -- आदेश निर्देश देने में समर्थ सेनापति । ६. आहत नाट्यों, गीतों आहत - वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिये हैं - १. आख्यानक ( कथानक ) प्रतिबद्धनाट्य और उसके उपयुक्त गीत २ अहत अव्याहत नाट्य और गीत । - प्रथम अर्थ वृद्ध व्याख्या के आधार पर किया गया है और दूसरा वृत्तिकार का अपना अभिमत है। १०. इतनी महान् ऋद्धि वाला (एमहिडीए) वृत्तिकार ने इसका रूप एवं महर्द्धिक किया है इवन्महर्द्धिक को मतान्तर माना है। १४ ११. युवक युवती का...... युक्त होती है। देखें दीघनिकाय, महावग्ग, पायसिराजञ्ज सुत्तं तावतिंसदेव उपमा, पृ० २४४ ( नालन्दा ६. त. भा. ४/४ - लोकपाला आरक्षकार्थचरस्थानीयाः । १० त. सू. भा. वृ. ४/४ - लोकपाला आरक्षकार्थचरस्थानीयाः स्वविषयसन्धिरक्षणनिरूपिता आरक्षकाः, अर्थचराश्चौरोद्धरणिकराजस्थानीयादयस्तत्सदृशा लोकपालाः । ११. (क) त. भा. ४/४ - आत्मरक्षाः शिरोरक्षास्थानीयाः । (ख) त. सू. भा. वृ. ४/४ - आत्मरक्षाः शिरोरक्षस्थानीयाः उद्यतप्रहरणा रौद्राः पृष्ठतोऽवस्थायिनः अपायाभावात् कल्पनावैयर्थ्यमिति चेत् तद् न स्थितिमात्रपरिपालनात् प्रतिप्रकर्षहेतुत्वाच्च । १२. भ. वृ. ३८४ तत्राधिपत्यम्-अधिपतिकर्म, पुरोवर्तित्वम् अग्रगामित्व, स्वमिलस्वस्वामित्वम्। १३. वही, ३/४ - 'आहय'त्ति आख्यानकप्रतिबद्धानीति वृद्धाः, अथवा 'अहय'त्ति अहतानि । १४. वही, ३/४ - एवमहिड्डिए त्ति एवं महर्द्धिक इव महर्द्धिकः, इयन्महर्द्धिक इत्यन्ये। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ.१ : सू. ४ वैक्रिय शक्ति द्वारा निर्मित रूपों की सघन व्याप्ति बताने के लिए सूत्रकार ने दो दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं- पहला दृष्टान्त युवक और युवती का है । जैसे कोई युवक कामोद्रेक की अवस्था में युवती का हाथ दृढ़ता के साथ पकड़ता है, हाथ की अंगुलियों को निश्छिद्र बना देता है, उसी प्रकार वैकिय शक्ति द्वारा निर्मित रूप निश्चित रूप से पूरे जम्बूद्वीप में फैल जाता है। दूसरा दृष्टान्त है गाड़ी के चक्के की नाभि का जैसे चक्के की नाभि अरों से व्याप्त होती है, वैसे ही पूरा जम्बूद्वीप किय रूपों से व्याप्त हो जाता है। वे सब रूप मूल शरीर से वैसे ही प्रतिबद्ध रहते हैं, जैसे अर नाभि से । वृत्तिकार ने वृद्ध व्याख्या का उल्लेख किया है। उसके अनुसार दोनों दृष्टान्तों का आशय इस प्रकार है - जैसे भीड़ में कोई युवती युवक के हाथ से प्रतिबद्ध होकर चलती है, वैसे ही क्रियशक्ति निर्मित रूप वैक्रियकर्ता से प्रतिबद्ध रहते हैं जैसे गड़ी की नाभि अरों से प्रतिबद्ध होकर निश्छिद्ध बन जाती है, वैसे ही वैक्रियकर्ता अपने शरीर के प्रतिबद्ध रूपों से पूरे क्षेत्र को भर देता है। ' 1 महर्षि पतञ्जलि ने वैक्रिय शक्ति को निर्माणचित्त कहा है। योगी अस्मितामात्र को ग्रहण कर निर्माणवितों का निर्माण कर सकता है। इसके पांच उपाय बतलाये गए हैं जन्म, औषधि, मंत्र, तप और समाधि या ध्यान योगसिद्ध पुरुष के बहुसंख्यक निर्माणचित्त होने पर भी उनका अस्मितामात्र एक ही रहता है, इसलिए वे सब एक ही जीव से प्रतिबद्ध रहते हैं । २ मुक्त पुरुष भी निर्माणचित्त का प्रयोग करता है। * १२. वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है - आत्मा शरीर में रहती है उसके असंख्यात प्रदेश (अवयव) होते हैं। विशेष परिस्थिति में वे प्रदेश शरीर से बाहर भी निकल जाते हैं। उनका बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है। समुद्घात के सात प्रकार निर्दिष्ट हैं१. वेदना समुद्घात, २ कषाय समुद्घात २. मारणान्तिक समुद्घात, ४. वैक्रिय समुद्घात, ५. तेजस समुद्घात, ६. आहारक समुद्घात, ७ केवली समुद्धात।" 9. 7 जब कोई अनेक रूपों का निर्माण करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग करता है, उस समय आत्मा के प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं। उस अवस्था में वह नाना रूपों का निर्माण करने वाला वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है यह वैकिय समुद्यात की प्रक्रिया का पहला चरण है। दूसरा चरण है दण्ड का निर्माण उसकी लम्बाई संख्येय योजन की होती है उसकी चौड़ाई और मोटाई शरीर- प्रमाण होती है। वह आत्मा के प्रदेश और कर्मपुद्गलों के योग से निर्मित होता है। तीसरा चरण है – रत्नों के असार पुद्गलों का परिशोधन कर सार पुद्गलों को ग्रहण करना। चौथे चरण में वैक्रिय-कर्ता - १. वही, ३/४ - यथा युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गृह्णाति कामवशाद्गाढतरग्रहणतो निरन्तरहस्ताङ्गुलितयेत्यर्थः । दृष्टान्तान्तरमाह 'चक्कस्से 'त्यादि, चक्रस्य वा नाभिः किंभूता?, 'अरगाउत्त'त्ति अरकैरायुक्ता - अभिविधिनाऽन्विता अरकायुक्ता 'सिय'त्ति 'स्यात्' भवेत्, अथवा ऽरका उत्तासिता - आस्फालिता यस्यां साऽरकोत्तासिता, 'एवमेव 'त्ति निरन्तरतयेत्यर्थः प्रभुर्जम्बूद्वीपं बहुभिर्देवादिभिराकीर्ण कर्तुमिति योगः, वृद्धैस्तु व्याख्यातं यथा यात्राादिषु युवतिर्यूनो हस्ते लग्ना प्रतिबद्धा गच्छति बहुलोकप्रचिते देशे, एवं यानि रूपाणि विकुर्व्वितानि तान्येकस्मिन् कर्तरि प्रतिबद्धानि यथा वा चक्रस्य नाभिरेका बहुभिररकैः प्रतिबद्धा घना निशिदा एवमात्मशरीरप्रतिदेवेश्वपूवैदिति । २. पा. यो. द. ४/४, ५, ६ । ご भगवई छित रूप निर्माण के लिए फिर दूसरी बार क्रिय समुद्घात का प्रयोग कर उस रूपका निर्माण करता है। नाना प्रकार के रूपों का निर्माण करने में अनेक मणियों के सूक्ष्म पुद्गलो का उपयोग किया जाता है। लेसर की किरणों का उपयोग आज वैज्ञानिक जगत् में भी प्रचलित है। वह भी मणि के सूक्ष्म पुद्गलों का एक प्रयोग है। वृत्तिकार ने इस विषय में प्रश्न उपस्थित किया है— मणियों के पुद्गल औदारिक (स्थूल) हैं फिर उनका वैकिय शरीर के निर्माण में कैसे उपयोग हो सकता है? वैक्रिय शरीर के निर्माण में वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों का ही ग्रहण होना चाहिए। इस प्रश्न का समाधान उन्होंने काव्य की भाषा में ही किया है। उनका मत है कि मणियों का उल्लेख सार पुद्गलों का प्रतिपादन करने के लिए किया गया है। इसलिए प्रस्तुत सूत्रांश का अर्थ रत्न, वज्र आदि मणि नहीं, किंतु उन मणियों के तुल्य सार पुद्गल हैं। वृत्तिकार ने मतान्तर का उल्लेख किया है। उसका अभिप्राय यह है कि वैक्रिय कर्ता वैक्रिय रूप निर्माण के समय औदारिक वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। तत्पश्चात् ये वैक्रिय के रूप में परिणत हो जाते हैं। मूल सूत्र- पाठ के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि मणियों के सूक्ष्म पुद्गल शरीर निर्माण के काम में लिये जाते हैं। इसलिए उनका वैक्रिय वर्गणा के रूप में परिणमन होना संभव लगता है। शब्द-विमर्श तंत्री - वीणा तल- हथेली ताल - संगीत में नियत मात्राओं पर हथेली से स्वर उत्पन्न करना। वृत्तिकार ने तल-ताल का अर्थ हस्तताल किया है। वैकल्पिक रूप में तल का अर्थ हस्त और ताल का अर्थ झांझ किया है। मृदंग-ढोल की तरह का एक बाजा, मुरज । वृत्तिकार ने पन मृदंग का अर्थ घनाकार मृदंग या मर्दल किया है।" नाभि - चक्रमध्य | वज्र -- वज्रमणि हीरा । कौटिल्य अर्थशास्त्र में इसके विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है। वैडूर्य - लहसुनिया | धूमिल रंग का एक मणि जो लाल, पीले और हरे रंग का भी होता है। लोहिताक्ष - किनारो की ओर लाल रंग वाला और बीच में काला। इसका एक नाम 'लोहितक' भी मिलता है। मसारगल्ल—मसृण पाषाणमणि ( चिकनी धातु)। इसका वर्ण मूंगे जैसा होता है। ३. पा. यो. द. १/२५ । ४. समुद्घात पर विस्तृत जानकारी के लिए देखें, भगवती (भाष्य), खण्ड १, पृ. २५२ । ५. भ. वृ. ३/४—इह च यद्यपि रत्नादिपुद्गला औदारिका वैक्रियसमुद्घाते च वैक्रिया एव ग्राह्या भवन्ति तथाऽपीह तेषां रत्नादिपुद्गलानामिव सारताप्रतिपादनाय रत्नानामित्याद्युक्तं, तच्च रत्नानामिवेत्यादि व्याख्येयम्, अन्ये त्वाहुः - औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैक्रियतया परिणमन्तीति । ६. वही, ३/४ -तलतालाः हस्ततालाः तला वा - हस्ताः, तालाः – कसिकाः । ७. वही, ३/४ - घनाकारो ध्वनिसाधर्म्याद्यो मृदङ्गो मर्दलः । कौटिल्य अर्थशास्त्र, २/११/२६| ८. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m भगवई श.३ : उ.१ : सू.४,५ हंसगर्भ-पुष्पराग, वैडूर्य का एक प्रकार।" पुलक यह बीच में काला होता है । कौटिल्य अर्थशास्त्र में मणियां की अठारह जातियां बताई गई हैं। उनमें एक पुलक भी है। सौगंधिक माणिक्य । कौटिल्य अर्थशास्त्र में माणिक्य की पांच जातियां बतलाई गई हैं। उनमें यह प्रथम जाति का है। ज्योतिरस-सफेद और लाल रंग से मिश्रित एक मणि। अंजन-समोरक-रत्नविशेष। अंजनपुलक-नीले और काले रंग से मिश्रित एक मणि। अंक-रत्न की एक जाति। स्फटिक-पारदर्शी मणि। रिष्ट-रलविशेष। आकीर्ण स्पष्ट-देखें भ. १/४७-५० का भाष्य विषय-वैक्रिय करने की शक्ति का सामर्थ्य क्षेत्र। सम्प्राप्ति-उक्त अर्थ का संपादन। वाली, महासुखी महान् युति वाल के सामानिक देव ५. जइ णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरराया दि भदन्त ! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः ५. भन्ते ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी महान् एमहिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू वि- इयन्महर्द्धिकः यावद् एतावच्च प्रभुः विकर्तुम्? ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, कुवित्तए, चमरस्य णं भंते ! असुरिंदस्स चमरस्य भदन्त! असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य तो भन्ते ! असुरेन्द्र असुराज चमर के सामानिक देव असुररण्णो सामाणिया देवा केमहिढीया? सामानिकाः देवाः कियन्महर्द्धिकाः यावत् कियच् कितनी महान् ऋद्धि वाले यावत् कितनी विक्रिया करने जाव केवइयं च णं पभू विकुवित्तए? च प्रभुः विकर्तुम्? में समर्थ हैं ? गोयमा ! चमरस्य असुरिंदस्स असुररण्णो गौतम! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव सामाणिया देवा महिढीया महज्जुतीया सामानिकाः देवाः महर्द्धिकाः महाद्युतिकाः महा- महान् ऋद्धि वाले, महान् द्युति वाले, महाबली, महामहाबला महायसा महासोक्खा महाणुभागा। बलाः महायशसः महासौख्याः महानुभागाः। ते यशस्वी, महासुखी और महान् सामर्थ्य वाले हैं। वे तेणं तत्थ साणं-साणं भवणाणं, साणं-साणं तत्र स्वेषां-स्वेषां भवनानां स्वेषां-स्वेषां वहां पर अपने-अपने भवनों का, अपने अपने सामाणियाणं, साणं-साणं अग्गमहिसीणं जाव सामानिकानां स्वेषां-स्वेषाम् अग्रमहिषीणां सामानिक देवों का और अपनी-अपनी पटरानियों का दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति। एम- यावद् दिव्यान् भोग्यभोगान् भुजानाः आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोगार्ह भोग भोगते हिड्ढीया जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए। विहरन्ति। इयन्महर्द्धिकाः यावद् एतावच् च हुए रहते हैं। वे इतनी महान ऋद्धि वाले हैं यावत् से जहानामए-जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे प्रभुः विकर्तुम्। तद् यथानाम-युवतिं युवा इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। जैसे कोई युवक गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता हस्तेन हस्ते गृहीयात्, चक्रस्य वा नाभिः युवती का प्रगाढ़ता से हाथ पकड़ता हैअथवा गाड़ी के सिया, एवामेव गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स अरकायुक्ता स्याद्, एवमेव गौतम! चमरस्य चक्के की नाभि जैसे अरों से युक्त होती है उसी प्रकार असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे वेउब्वियस- असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य एकः एकः सामानि- गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर का प्रत्येक सामानिक मुग्घाएणं समोहण्णइ जाव दोच्चं पिवेउब्बिय- कदेवः वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते यावद् देव वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है यावत् दूसरी समुग्घाएणं समोहण्इ। द्वितीयमपि वैक्रिसमुद्घातेन समवहन्यते। बार फिर वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है। पभू णं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुर- प्रभुः गौतम! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुर- गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर का प्रत्येक सामानिक रण्णो एगमेगे सामाणियदेवे केवलकप्पं जंबुद्दीवं राजस्य एकः एकः सामानिकदेवः केवलकल्पं देव सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को अनेक असुरकुमार देवों दीवं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि जम्बूद्वीपं द्वीपं बहुभिः असुरकुमारैः देवैः और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण।, उपस्तृत, संस्तृत, य आइण्णं वितिकिण्वत्थडं संथडं फुडं देवीभिश्च आकीर्ण व्यतिकीर्णम् उपस्तृतं स्पृष्ट और अवगाढावगाढ करने में समर्थ हैं। अवगाढावगाढं करेत्तए। संस्तृतं स्पृष्टम् अवगाढावगाढं कर्तुम्। अदुत्तरं च णं गोयमा! पभू चमरस्स अ- 'अदुत्तरं' च गौतम! प्रभुः चमरस्य असु- और दूसरी बात, गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर सुरिंदस्स असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे रेन्द्रस्य असुरराजस्य एकः एकः सामा- का प्रत्येक सामानिक देव तिर्यक् लोक के असंख्य तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे बहूहिं असुर- निकदेवः तिर्यग् असंख्येयान् द्वीप-समुद्रान् द्वीप-समुद्रों को अनेक असुरकुमार देवों और देवियों कुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णे वितिकिण्णे बहुभिः असुरकुमारैः देवैः देवीभिश्च आकीर्णान् से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तृत, संस्तृत, स्पृष्ट और उवत्थडे संथडे फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए। व्यतिकीर्णान् उपस्तृतान् संस्तृतान् स्पृष्टान् अवगाढावगाढ करने में समर्थ है। अवगाढावगाढान् कर्तुम्। एस णं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुर- एष गौतम! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुर- गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के प्रत्येक सामानिक रण्णो एगमेगस्स सामाणियदेवस्स अयमेया- राजस्य एकैकस्य सामानिकदेवस्य अयम् देव की विक्रिया शक्ति का यह इतना विषय केवल रूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं एतद्रूपः विषयः विषयमात्रः उक्तः, नो चैव विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है। उन देवों ने क्रियात्मक संपत्तीए विकुव्विंसु वा विकुव्वंति वा विकु- सम्प्राप्त्या व्यकार्युः वा विकुर्वन्ति वा वि- रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करते हैं और ३. वही, २/११/२६। १. उत्तर. ३६/७१-७७ का टिप्पण द्रष्टव्य है। २. कौटिल्य अर्थशास्त्र, २/११/२६। Jain Education Intemational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१ : सू.५-६ भगवई व्विस्संति वा॥ करिष्यन्ति वा। न करेंगे। ६. जइणं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो यदि भदन्त! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुर- ६. भन्ते ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक सामाणियदेवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च राजस्य सामानिकदेवाः इयन्महर्द्धिकाः यावद् देव इतनी महान् ऋद्धि वाले यावत् इतनी विक्रिया करने णं पभू विकचित्तए, चमरस्स णं भंते! एतावच् च प्रभुः विकर्तुं, चमरस्य भदन्त! में समर्थ हैं, तो भन्ते ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के असुरिंदस्स असुररण्णो तावत्तीसया देवा असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य तावत्त्रिंशकाः देवाः तावत्रिंशक देव कितनी महान ऋद्धि वाले हैं? केमहिड्ढीया? कियन्महर्द्धिकाः? जैसे सामानिक देवों की प्रज्ञापना है, वैसा ही तावत्तावत्तीसया जहा सामाणिया तहा नेयवा। तावत्त्रिंशकाः यथा सामानिकाः तथा नेतव्याः। त्रिंशक देवों के विषय में ज्ञातव्य है। लोकपाल का लोयपाला तहेव, नवरं-संखेज्जा दीव-समुद्दा लोकपालाः तथैव, नवरं-संख्येयाः द्वीप- प्रज्ञापन भी वैसा ही है,केवल इतना अन्तर है यहां भाणियव्वा ॥ समुद्राः भणितव्याः । द्वीप-समुद्र संख्येय कहने चाहिए। ७. जइ णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुर- यदि भदन्त ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुर- ७. भन्ते! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर के लोकपाल रण्णो लोगपाला देवा एमहिड्ढीया जाव राजस्य लोकपालाः देवाः इयन्महर्द्धिकाः यावद् इतनी महान् ऋद्धि वाले हैं यावत् इतनी विक्रिया करने एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, चमरस्स णं एतावच्च प्रभुः विकतुं, चमरस्य असुरेन्द्रस्य में समर्थ हैं, तो असुरेन्द्र असुरराज चमर की असुरिंदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीओ असुरराजस्य अग्रमहिष्यः देव्यः कियन्- पटरानियां कितनी महान् ऋद्धि वाली यावत् कितनी देवीओ केमहिड्ढियाओ जाव केवइयं च णं महर्द्धिकाः यावत् कियच्च प्रभुः विकर्तुम्? विक्रिया करने में समर्थ हैं? पभू विकुवित्तए? गोयमा ! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररण्णो गौतम ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की पटरानियां महान् अग्गमहिसीओ देवीओ महिढियाओ जाव अग्रमहिष्यः देव्यः महर्द्धिकाः यावन् महानु- ऋद्धि वाली यावत् महान् सामर्थ्य वाली हैं। वे महाणुभागाओ । ताओ णं तत्थ साणं-साणं भागाः । ताः तत्र स्वेषां-स्वेषां भवनानां अपने-अपने भवनों, अपनी-अपनी एक-एक हजार भवणाणं, साणं साणं सामाणिय-साहस्सीणं, सामानिक देवियों, अपनी-अपनी महत्तरिकाओं (प्रधान साणं-साणं महत्तरियाणं, साणं-साणं परिसाणं स्वासां महत्तरिकाणां, स्वासां-स्वासां परिषदां देवियों) और अपनी-अपनी परिषदों का आधिपत्य जाव एमहिड्ढीयाओ। अण्णं जहा लोग- यावद् इयन्महर्द्धिकाः । अन्यद् यथा लोक- करती हुई यावत् इतनी महान् ऋद्धि वाली हैं। उनका पालाणं अपरिसेसं ॥ पालानां अपरिशेषम्। शेष सारा प्रज्ञापन लोकपालों की तरह वक्तव्य है। ८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं दोच्चे तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त। इति भगवान् गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, द्वितीयः गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव तच्चे गोयमे वायु- नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव तृतीयः भूती अणगारे तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता गौतमः वायुभूतिः अनगारः तत्रैव उपागच्छति, तच्चं गोयमं वायुभूतिं अणगारं एवं वदासि- उपागम्य तृतीयं गौतमं वायुभूतिम् अनगारम् एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया एवमवादीद्-एवं खलु गौतम! चमरः एमहिड्ढीए तं चेव एवं सव् अपुट्ठवागरणं असुरेन्द्रः असुरराजः इयन्महर्द्धिकः तच्चैव नेयव्वं अपरिसेसियं जाव अग्गमहिसीणं एवं सर्वम् अपृष्टव्याकरणं नेतव्यं अपरिशेषितं वत्तव्वया समत्ता॥ यावद् अग्रमहिषीणां व्यक्तव्यता समाप्ता। ८. “भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है," इस प्रकार भगवान् द्वितीय गौतम अग्निभूति श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। वंदन-नमस्कार कर जहां तीसरे गौतम वायुभूति अनगार हैं, वहां आते हैं। वहां आकर तीसरे गौतम वायुभूति अनगार से इस प्रकार कहते हैं--गौतम! इस प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी महान ऋद्धि वाला है-यहां से लेकर पटरानियों की वक्तव्यता समाप्त होती है, वहां तक का समग्र विषय अग्निभूति ने बिना पूछे ही वायुभूति को बतला दिया। ६.तेणं से तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे तेन स तृतीयः गौतमः वायुभूतिः अनगारः ६.तीसरे गौतम वायुभूति अनगार दूसरे गौतम अग्निभूति दोच्चस्स अग्गिभूतिस्स अणगारस्स एवमा- द्वितीयस्य गौतमस्य अग्निभूतेः अनगारस्य अनगार के ऐसे आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण इक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स एवमाचक्षतः भाषमाणस्य प्रज्ञापयतः प्ररूपयतः पर न श्रद्धा करते हैं, न प्रतीति करते हैं और न रुचि परूवेमाणस्स एयमढें नो सद्दहइ नो पत्तियइ एतदर्थ नो श्रद्धते नो प्रत्येति नो रोचयति, करते हैं। वह इस तथ्य पर अश्रद्धा, अप्रतीति और नो रोएइ, एयमढे असद्दहमाणे अपित्तयमाणे एतदर्थ अश्रद्दधानः अप्रत्ययन् अरोचयन् अरुचि करते हुए उठने की मुद्रा में उठते हैं, उठ कर अरोएमाणे उठाए उट्टेइ, उद्वेत्ता जेणेव समणे उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय यत्रैव श्रमणः जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहा आते हैं, यावत् भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव पज्जु- भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति यावत् पर्युपासना करते हुए वे इस प्रकार बोले-भन्ते! दूसरे वासमाणे एवं वयासी-एवं खलु भंते! दोच्चे पर्युपासीनः एवमवादीद्-एवं खलु भदन्त ! गौतम अग्निभूति अनगार मेरे सामने इस प्रकार Jain Education Intemational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमे अग्निभूई अणगारे मम एवमाइक्खड़ भास पण्णवेइ पसवेइ – एवं खलु गोवमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया महिड्ढीए जाव महाभागे । सेणं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं तं चैव सव्वं अपरिसेसं भाणि यव्वं जाव अग्गमहिसीणं वत्तव्वया समत्ता ॥ १०. से कहमेयं भंते ! एवं? गोयगादि ! समणे भगवं महावीरे तच्च गोयमं वायुभूतिं अणगारं एवं वयासी - जं गं गोयमा ! तब दोच्चे गोयमे अग्निभूई अणगारे एवमाइक्खर भासइ पण्णवेइ प वेइ - एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया महिड्ढीए तं चैव सव्वं जाव अग्गमहिसीओ सच्चे गं एसम अहं पिगं गोयगा! एवमाइक्खामि भासामि पण्णवेमि परूवेगि — एवं खलु गोवमा चमरे असुरिंदे असुरराया महिद्दीए तं चैव जाव अग्गमहि सीओ। सच्चे णं एसमट्टे ॥ - ११. सेवं भंते! सेवं भंते! ति तच्चे गोयमे वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं बंद नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जेणेव दोच्चे गोवमे अग्गिभूई अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोच्चं गोयमं अग्गिमूई अणगारं बंद नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता एयमहं सम्म विण एणं भुज्जो - भुज्जो खामेइ ॥ १२. तए णं से तच्चे गोयमे वायुभूति अणगारे दोच्चे णं गोदमेणं अग्गिभूतिना अणगारेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद् जाव पन्जुवासमागे एवं क्यासीजइ णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरराया महिढी जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, बली णं भंते ! वइरोयणिंदे वइरोयणराया केमहिड्ढीए ? जाव केवइयं च णं पभू विकुबित्तए ? गोयमा ! बली णं वइरोयणिंदे वइरोयणराया माहिड्दीए जाव महाणुभागे। जहां चमरस्स तहा बलिस्स वि नेयव्वं नवरं सातिरेगं केवलकणं जंबुद्दीपं दीवं भाणियव्वं, सेसं तं " 99 द्वितीयः गीतमः अग्निभूतिः अनगारः मम एवमाख्याति भाषते प्रज्ञापयति प्ररूपयतिएवं खलु गौतम! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः महर्द्धिकः यावन् महानुभागः । तत्तत्र चतुस्त्रिंशद् भवनावासशतसहस्राणां तच्चैव सर्वम् अपरिशेषं भणितव्यं पायद् अग्रगतित्रीणां वक्तव्यता समाप्ता । - तत् कथमेतद् भवन्तः एवम् गोतम ! अनि ! श्रमणः भगवान् महावीरः तृतीयं गौतमं वायुभूतिं अनगारं एवमवादीद्यद् गौतम ! तव द्वितीयः गौतमः अग्निभूतिः अनगारः एवमाख्याति भाषते प्रज्ञापयति प्ररूपयति — एवं खलु गौतम ! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः महर्द्धिकः तच्चैव सर्वं यावद् अग्रमहिष्यः सत्यः एष अर्थः अहमपि गौतम! एवमाख्यामि भाषे प्रज्ञापयामि प्ररूपयामि-एवं खलु गौतम! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः महर्दिक तच्चेव यावद् अग्रमहिष्यः सत्यः एष अर्थः । तदेवं भदन्त तदेवं भदन्त इति तृतीयः गौतम वायुमृतिः अनगारः श्रमण भगवन्तं महावीर वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्त्विा यत्रैव द्वितीयः गौतमः अग्निभूतिः अनगारः तत्रैव उपागच्छति उपागम्य द्वितीयं गीतगं अग्निभूतिम् अनगारं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एतदर्थं सम्यक विनयेन भूयो भूयः क्षमयति। ततः सः तृतीय गौतमः वायुभूतिः अनगारः द्वितीयेन गौतमेन अग्निभूतिना अनगारेण सार्थ यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपा गच्छति यावत् पर्युपासीनः एवमादीद् – यदि भदन्त ! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः इयन्महर्द्धिकः यावद् एतावच्च प्रभुः विकर्तुं बलिः भदन्त ! वैरोचनेन्द्रः वैरोचनराजः कियन्महर्द्धिकः यावत् कियच् च प्रभुः विकर्तुम्? गौतम ! बलिः वैरोचनेन्द्रः वैरोचनराजः महजिंकः यावन् महानुभागः। यथा चमरस्य तथा क्लेरपि नेतव्यम्, नवरसातिरेक केवलकम्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं भणितव्यम् शेषं तच्चैव श. ३ : उ. १ : सू. ६-१२ अख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैंगौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला है यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। वह वहां पर चौंतीस लाख भवनावासों का आधिपत्य करता है। पटरानियों की वक्तव्यता समाप्त होती है, वहां तक का समग्र वक्तव्य यहां जानना चाहिए। १०. भन्ते ! यह कैसे है ? गौतम ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने तृतीय गीतम वायुभूति अणगार से इस प्रकार कहा - गौतम! द्वितीय गौतम अग्निभूि अनगार तुम्हारे सामने इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता है - गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर महान ऋद्धि वाला है। यहां पटरानियों तक का समग्र वक्तव्य पुनरावर्तनीय है । यह अर्थ सत्य है। गौतम ! मैं भी इसी प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता हूं - गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला है। भगवान् ने पटरानियों तक की समग्र वक्तव्यता दोहरा दी और अन्त में फिर कहा-यह अर्थ सत्य है । ११. “ भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है" इस प्रकार तृतीय गीतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन- नमस्कार कर वे जहां द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार हैं, वहां आते हैं, आकर द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार से वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन - नमस्कार कर वे इस अर्थ (उनकी पदार्थ वाणी पर विश्वास किया) के लिए सम्यक प्रकार से विनयपूर्वक बार-बार क्षमा याचना करते हैं। १२. वे तृतीय गीतम वायुभूति अनगार द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार के साथ जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आये यावत् पर्युपासना करते हुए • इस प्रकार बोले - भन्ते ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी महान ऋद्धि वाला है यावत इतनी विक्रिया करने में समर्थ है तो भन्ते ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि कितनी महान् ऋद्धि वाला है यावत् कितनी विक्रिया करने में समर्थ है ? गीतम। वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि महान ऋद्धि वाल है यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। जैसी चमर की वक्तव्यता है वैसी ही बलि की है। केवल इतना अन्तर है कि यहां कुछ अधिक जम्बूद्वीप द्वीप वक्तव्य है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१ : सू.१२-१५ १२ भगवई चेव निरवसेसं नेयव्वं, नवरं नाणत्तं जाणि- निरवशेषं नेतव्यं, नवरं-नानात्वं ज्ञातव्यं यव्वं भवणेहिं सामाणिएहि य ॥ भवनेषु सामानिकेषु च। शेष समूचा प्रकरण उसी प्रकार है। एक और अन्तर ज्ञातव्य है--भवन तीस लाख और सामानिक देवों की संख्या साठ लाख है। १३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति तच्चे गोयमे तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त! इति तृतीयः वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदति गौतमः वायुभूतिः अनगारः श्रमणं भगवन्तं नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासण्णे णाति- महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा दूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं नात्यासन्नं नातिदूरं शुश्रूषमाणः नमस्यन् पंजलियडे पज्जुवासइ ॥ अभिमुखः विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपासते। १३. "भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है" इस प्रकार तृतीय गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर न अति निकट न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करते हैं। १४. तते णं से दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे ततः सः द्वितीयः गौतमः अग्निभूतिः अनगारः १४. द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान् समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, महावीर को वन्दना-नमस्कार करते हैं, वन्दननमंसित्ता एवं वयासी-जइ णं भंते ! बली वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद्-यदि भदन्त! नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले---भन्ते! यदि वइरोयणिंदे वइरोयणराया एमहिड्ढीए जाव बलिः वैरोचनेन्द्रः वैरोचनराजः इयन्महर्द्धिकः वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि इतनी महान ऋद्धि वाला एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, धरणे णं यावद् एतावच्च प्रभुः विकर्तुं, धरणः भदन्त! है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते ! भंते ! नागकुमारिंदे नागकुमारराया,केमहि- नागकुमारेन्द्रः नागकुमारराजः कियन्महर्द्धिकः नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण कितनी महान् ड्ढीए? जाव केवइयं च णं पभू विकुवित्तए? यावत् कियच्च प्रभुः विकर्तुम् ? ऋद्धि वाला है यावत कितनी विक्रिया करने में समर्थ गोयमा! धरणे णं नागकुमारिंदे नागकुमार- गौतम! धरणः नागकुमारेन्द्रः नागकुमारराजः राया महिड्ढीए जाव महाणुभागे। से णं तत्थ महर्द्धिकः यावन् महानुभागः । स तत्र चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छह चत्वारिंशद् भवनावासशतसहस्राणां, षण्णां सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तावत्तीस- सामानिकसाहस्रयाः, त्रयस्त्रिंशत् तावत्गाणं, चउण्हं लोगपालाणं, छण्हं अग्गम- त्रिंशकानां, चतुर्णा लोकपालानां, षण्णाम् हिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अग्रमहिषीणां सपिरवाराणां, तिसृणां परिषदां, अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउव्वी- सप्तानाम् अनीकानाम्, सप्तानाम् अनीकाधिसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च जाव पतीना, चतुर्विंशतेः आत्मरक्षदेवसाहय्याः विहरइ। एवतियं च णं पभू विउवित्तए। से अन्येषाञ्च यावद् विहरति। एतावच् च प्रभुः जहानामए-जुवतिं जुवाणे जाव पभू केवल- विकर्तुम्। तद् यथानाम-युवतिं युवा यावत् कप्पं जंबुद्दीवं दीवं जाव तिरियं संखेज्जे दीव- प्रभुः केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं यावत् तिर्यक् समुद्दे बहूहिं नागकुमारीहिं जाव विकुब्बिस्सति संख्येयान् द्वीप-समुद्रान् बहुभिः नागकुमारीभिः वा॥ यावद् विकरिष्यति वा। गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। वह वहां चौवालीस लाख भवनावास, छह हजार सामानिक देव, तेतीस तावत्त्रिंशक देव, चार लोकपाल, छह सपिरवार पटरानियां, तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति, चौबीस हजार आत्मरक्षक देव तथा अन्य अनेक देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ रहता है। वह इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। जैसे कोई युवक युवती का प्रगाढ़ता से हाथ पकड़ता है यावत् सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप उसी प्रकार यावत् तिरछे लोक के संख्येय द्वीप समुद्रों को अनेक नागकुमार और नागकुमारियों से आकीर्ण करने में समर्थ है। यावत् क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। सामानिक, तावत्रिंशक, लोकपाल और पटरानियां उनकी विक्रिया की वक्तव्यता चमर के सामानिक, तावत्रिंशक, लोकपाल और पटरानियों के समान है। केवल इतना अन्तर है-ये संख्येय द्वीप-समुद्रों को अपने रूपों से आकीर्ण करने में समर्थ है। सामाणिया तावत्तीस-लोगपालग्गमहिसीओ य सामानिकाः तावत्रिंशक-लोकपालाग्रमहिष्यतहेव जहा चमरस्स, नवरं-संखेज्जे दीव- श्च तथैव यथा चमरस्य, नवरं-संख्येयाः समुद्दे भाणियब्वे ॥ द्वीप-समुद्राः भणितव्याः। १५.एवं जाव थणियकुमारा, वाणमंतरा,जोईसिया एवं यावत् स्तनितकुमाराः, वानमन्तराः, ज्योति- वि, नवरं-दाहिणिल्ले सव्वे अग्गिभूई काः अपि, नवरं-दाक्षिणात्यान् सर्वान् अग्नि- पुच्छइ,उत्तरिल्ले सब्वे वायुभूई पुच्छइ ॥ भूतिः पृच्छति, औत्तराहान् सर्वान् वायुभूतिः पृच्छति।। १५. इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार, वानमन्तर और ज्योतिष्क देवों के संबंध में भी ज्ञातव्य है। विशेष बात यह है कि दक्षिण दिशा के सब देवों के संबंध में अग्निभूति प्रश्न करते हैं और उत्तर दिशा के सब देवों के संबंध में वायुभूति प्रश्न करते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६. भंतेत्ति ! भगवं दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - जइ णं भंते! जो सिंदे जोइसराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं चणं पभू विकुव्वित्तए, सक्के णं भंते! देविंदे देवराया केमहिड्ढीए ? जाव केवतियं चणं पभू विकुव्वित्तए? गोयमा ! सक्के णं देविंदे देवराया महिड्ढीए जाव महाणुभागे । से णं बत्तीसार विमाणा - वाससय सहस्साणं, चउरासीय सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तावत्तीसगाणं, चउन्हं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिन्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं चउरासीर्ण आवरक्खसाहस्सीगं, अण्गेसिं च जाव विहरइ । एमहिड्ढए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए, एवं जहेब चमरस्स सहेब भाणियव्वं, नवरं - दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेसं तं चेव । १. सूत्र १५ प्रस्तुत सूत्र में संक्षिप्त वक्तव्यता है। इनके आवासों और सामानिक देवों की संख्या पण्णवणा में विस्तार से उपलब्ध है।' एस णं गोयमा ! सक्करस देविंदस्स देवरण्णो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुबिसु वा विकुब्वति वा विकु व्विस्सति वा ॥ १७. जइ भंते! सक्के देविदे देवराया एमहि ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वत्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी तीसए नामं अणगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विणीए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पा भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई अट्ठ संवच्छराई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासि याए लेहगाए अत्ताणं झूसेता, सहि भत्ताई अगसणाए देता आलोय पडिक्कं समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणि १. पण २/४०-४८ १३ भाष्य भदन्त ! अयि ! भगवान् द्वितीयः गौतमः अग्निभूतिः अनगारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद् – यदि भदन्त ! ज्योतिरिन्द्रः ज्योतीराजः इयन्महर्द्धिकः यावद् एतावच् च प्रभुः विकर्तुं शक्रः भदन्त ! देवेन्द्रः देवराजः कियन्महर्द्धिकः? यावत् किमच्च प्रभुः विकर्तुम्? गौतम ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः महर्द्धिकः यावन् महानुभागः । स द्वाविंशतिः विमानावासशतसहस्राणां चतुरशीतिः सामानिकसाहस्त्र्याः, त्रयस्त्रिंशत् तावत्त्रिंशकानां चतुर्णां लोकपालानां, अष्टानां अग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां परिषदां, सप्तानां अनीकानां, सप्तानां अनीकाधिपतीनां चतुर्णां चतुरशीतीनाम् आत्मरक्षसाहस्याः अन्येषाञ्च यावद् विहरति । इयन्महर्द्धिकः यावद् एतावच्च प्रभुः विकर्तुम् एवं यचैव धमरस्य तदेव भणितव्यं, नवरं - द्वौ केवलकल्पौ जम्बूद्वीपी द्वीपौ अवशेषं तच्चैव । एषः गौतम ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेव एतद्रूपः विषयः विषयमात्रः उक्तः, नो चैव सम्प्राप्या व्यकार्षीत् वा विकरोति वा विकरिष्यति वा ! यदि भदन्त ! शक देवेन्द्र देवराज इयन्महर्द्धिकः यावद् ! एतावच्च प्रभुः विकर्तुम्, एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी तिष्यकः नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः प्रकृत्युपशान्तः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभः मृदुमार्दवसम्पन्नः आलीनः विनीतः षष्टषष्टेन अनिक्षिप्तेन तपः कर्मणा आत्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णान् अष्ट संवत्सरान् श्रामण्यपर्यायं प्राप्य मासिक्या संलेखनवा आत्मानं जोषित्वा पष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित प्रतिमन्तः समा धिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मेल् स्वस्मिन् विमाने उपपातसभायाः देवशयनीये श. ३ : उ. १ : सू. १५-१७ १६. भन्ते ! इस सम्बोधन से संबोधित कर द्वितीय गोतम भगवान् अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दननमस्कार कर इस प्रकार बोले-भन्ते ! यदि ज्योतिरिन्द्र ज्योतीराज इतनी महान् ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते ! देवेन्द्र देवराज शफ कितनी महान ऋद्धि वाला है यावत् कितनी विक्रिया करने में समर्थ है ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र महान् ऋद्धि वाला है। यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। वह बत्तीस लाख विमानावास, चौरासी हजार सामानिक देव, तेतीस तावत्त्रिंशक देव, चार लोकपाल, आठ सपरिवार पटरानियां तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति, तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव तथा अन्य देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ रहता है वह इतनी महान ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। इस प्रकार जैसे चमर की वक्तव्यता है वैसे ही शक्र की है, केवल इतना अन्तर है दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को अपने रूपों से आकीर्ण कर सकता है, शेष वक्तव्यता उसी प्रकार है। गौतम देवेन्द्र देवराज शक की विक्रिया का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है, शक्र ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। १७. भन्ते | यदि देवेन्द्र देवराज शक्र इतनी महान ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते! तिष्यक देव केसी महान ऋद्धि वाला है? यह आपका अन्तेवासी तिष्यक नामक अनगार जो प्रकृति भद्र और प्रकृति से उपशान्त था, जिसकी प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु (पतले थे, जो मृदु-मार्दव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था। उसने अविच्छिन्न रूप से दो-दो दिन के उपवास से तपः- कर्म की साधना द्वारा आत्मा को भावित करते हुए पूरे साठ भक्तों को छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त हो गया । वह सौधर्म कल्प में अपने Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१ : सू.१७ ज्जसि देवदूतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइ भागमेत्तीए ओगाहणाए सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सामाणियदेवताए उबवण्णे । तणं तीस देवे अहुणोववण्णमेत्ते समाणे पंचविहाए पञ्चत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छद (तं जहा – आहारपज्जत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपज्जत्तीए, आणापाणुपज्जत्तीए, भासागणपतीए) तए णं तं तीसयं देवं पंचविहार पज्जतीए पज्जत्तिभावं गयं समाणं सामाणियपरिसोबवण्णया देवा करयतपरिग्गाहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धाविंति, वद्धावित्ता एवं वयासी अहो णं देवाप्पिएहिं दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णा गए। जारिसिया णं देवागुप्पिएहिं दिव्या देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए, तारिसिया गं सक्केण वि देविदेण देवरगा दिव्या देविड्डी जाव अभिसमण्णागए। जारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागए, तारिसिया णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागाए। से णं भंते! तीसए देवे केमहिडडीए जाव केवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए ? गोवमा ! महिडीए जाव महाणुभागे से गं तत्थ सयस्स विमाणस्स, चउन्हें सामाणियसाहस्सीणं, चउन्हं अग्ममहिसीन सपरिवा राणं, तिन्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसण्डं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च बहूणं वेमाणियाणं देवाणं, देवीण य जाव विहरइ । एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभू विकुव्वित्तए । से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थे हत्थे गेहेज्जा, जहेव सक्करस तहेव जाव एस णं गोयमा ! तीसयस्स देवस्य अयमेयारूवे विसए विसवमेत्ते बुझए, गो चैव णं संपत्तीए विकु व्विसु वा विकुव्वति वा विकुव्विस्सति वा ॥ १४ देवदूष्यान्तरिते अंगुलस्य असंख्येयतमभागमात्रा अवगाहनया शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सामानिकदेवत्वेन उपपन्नः । ततः तिष्यकः देवः अधुनोपपन्नमात्रः सन् पञ्चविधाया पर्वाच्या पर्याप्तिभावं गच्छति (तद् यथा - आहारपर्याप्त्या, शरीरपर्याप्त्या, इन्द्रियपर्याप्त्या, आनापानपर्याप्त्या, भाषामनः- पर्याया ततः तं तिष्यकं देवं पंचविधयाः पर्याप्तेः पर्याप्तिभावं गतं सन्तं सामानिकपरिषदुपपन्नकाः देवाः करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, वर्धापयित्वा एवमवादीद् अहो देवानुप्रियैः दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः । यादृशी देवानुप्रियैः दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः तादृशी श मापि देवेन्द्रेण देवराजेन दिव्या देवर्जिः यावद् अभिमन्यागताः। याडुशी शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन दिव्या देवखिः यावद अभिमन्दागतः तादृशी देवानुप्रियैः दिव्या देवर्द्धिः यावद् अभिसमन्यागतः । स भदन्त ! तिष्यकः देवः कियन्महर्द्धिकः यावत् कियच् च प्रभुः विकर्तुम् ? गीतम! महर्दिकः यावत् महानुभागः स तत्र स्वस्य विमानस्य चतसृणां सामानिकसाहस्याः, चतसृणां अपमहिषीणां सपरिवा राणां, तिसृणां परिषदां, सप्तानाम् अनीकानां, सत्तानाम अनीकाधिपतीनां षोडश आत्मरक्ष देवसाहस्याः, अन्येषां च बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च यावद् विहरति । इयन्महर्द्धिकः यावद् एतावच् च प्रभुः विकर्तुम् । तद् यथानाम युवतिं युवा हरतेन हस्ते गृहीयात्, यथैव शक्रस्य तथैव यावद् एष गौतम ! तिष्यकस्य देवस्य अयम् एतद्रूपः विषयः विषयमात्रः उक्तः, नो चैव सम्प्राप्त्या व्य कार्षीद वा विकरोति वा विकरिष्यति था। १. उपपात सभा के देवदूष्य से आच्छन्न देवशयनीय में जन्म के तीन प्रकार हैं- सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपात । देव उपपात भाष्य भगवई विमान में उपपात सभा के देवदूष्य से आच्छन्न देवशयनीय में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना से देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देव के रूप में उपपन्न हुआ। तिष्यक देव तत्काल उपपन्न होते ही पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होता है, जैसेआहार पर्याप्ति से, शरीर पर्याप्ति से, इन्द्रिय पर्याप्ति से, आनापान (श्वासोच्छ्वास) पर्याप्ति से और भाषा मन पर्याप्ति से । - सामानिक परिषद् में उपपन्न देव पांच पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त हुए उस तिष्यक देव को दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुटवाली दस नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय ध्वनि से वर्धापित करते हैं, वर्धापित कर इस प्रकार कहा - अहो ! आपने जैसी दिव्य देवर्जि दिव्य देवसुति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध किया है, प्राप्त किया है और वह भोग्य अवस्था में आया है, वैसी दिव्य देवर्द्धि देवेन्द्र देवराज शक्र ने उपलब्ध की है, प्राप्त की है यावत् वह भोग्य अवस्था में है। जैसी दिव्य देव देवेन्द्र देवराज शक ने उपलब्ध की है यावत् भोग्य अवस्था में आई है वैसी दिव्य देवर्द्धि आपने भी भलीभांति उपलब्ध की है यावत् वह भोग्य अवस्था में आई है। भन्ते ! वह तिष्यक देव कितनी महान् ऋद्धि वाला यावत् कितनी विक्रिया करने में समर्थ है? गीतम! वह महान ऋद्धि वाला यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। वह वहां पर अपने विमान, चार हजार सामानिक देव, चार सपरिवार पटरानियां तीन परिषद्, सात सेनाएं, सात सेनापति, सोलह हजार आत्मरक्षक देव और अन्य अनेक वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ रहता है। वह इतनी महान् ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है । जैसे कोई युवक युवती का प्रगाढ़ता से हाथ पकड़ता है, जैसी शक की वक्तव्यता है वही वक्तव्यता यहां जाननी चाहिए। गौतम ! तिष्यक देव की विक्रिया शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है । तिष्यक ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। जन्म से उत्पन्न होते हैं। उनके जन्म स्थान को उपपात सभा कहा जाता है। उस सभा में देवशय्या होती है। उस शय्या पर एक प्रच्छद-पट ( चादर) बिछा होता है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.३ : उ.१ : सू.१७-१६ वह शय्या देवदूष्य से ढकी हुई होती है। सिद्धसेन गणी के अनुसार प्रच्छदपट समस्या पर एक टिप्पणी की है। उसका आशय यह है कि यहां किसी कारणवश के ऊपर और देवदूष्य के नीचे इन दोनों के अन्तराल में वर्तमान वैक्रिय वर्गणा भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति का एकत्व विवक्षित है। इसमें कारण का के पुद्गलों को ग्रहण कर देव उत्पन्न होता है। वह प्रच्छदपट और देवदूष्य के स्पष्ट निर्देश नहीं है। मलयगिरी के अनुसार भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति पुद्गलों में अपने शरीर का निर्माण नहीं करता और न शुक्र और शोणित से । के रचनाकाल में अन्तर बहुत थोड़ा होता है। इसलिए उनके एकत्व की विवक्षा अपने शरीर का निर्माण करता है। उसके जन्म का हेतु 'उपपात सभा के की गई है। देवशयनीय क्षेत्र को प्राप्त होना' ही है।' पर्याप्तियों की रचना उत्पत्ति के प्रथम समय में ही प्रारंभ हो जाती हैं समाप्ति में काल का अन्तर होता है। आहार पर्याप्ति की रचना एक समय में ही २. अंगुल के असंख्यातवे भाग जितनी अवगाहना से सम्पन्न हो जाती है। शेष पांच पर्याप्तियों में से प्रत्येक का समाप्ति काल अन्तर्मुहूर्त उत्पत्ति के समय भ्रूण की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है। आचार्य नेमिचन्द्र के अनुसार यह समाप्ति-काल का नियम औदारिक शरीर जितनी होती है। उत्कृष्ट अवगाहना भिन्न-भिन्न प्रकार की है। जघन्य अवगाहना के लिए है। वैक्रिय शरीर के लिए समाप्ति का नियम भिन्न है। देवों के भाषा अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी ही होती है। पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति की रचना एक साथ निष्पन्न होती है। इसलिए उनका एकत्व विवक्षित है। ३. पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्ति-भाव को प्राप्त होता है इस विषय पर शरीर-शास्त्रीय दृष्टि से समीक्षा करना अपेक्षित है। स्वरयन्त्र और मानसिक क्रिया में परस्पर गहरा संबंध है। स्मृति, चिन्तन और पर्याप्ति का अर्थ है---जीवनीशक्ति का स्रोत। शरीर निर्माण के । कल्पना-मन की ये तीनों क्रियाएं भाषा के बिना नहीं हो सकती। मन के बिना प्रारंभ-काल में ही इनकी रचना हो जाती है। इनकी संख्या छह है--आहार भाषा हो सकती है, किंतु भाषा के बिना मन का कार्य-सम्पादन नहीं हो सकता। पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति, इस आधार पर भाषा और मन के एकत्व की विवक्षा की जा सकती है। देवों के मनः पर्याप्ति। देव संज्ञी (समनस्क) होते हैं। संज्ञी जीव में छहों पर्याप्तियों का । वैक्रिय शरीर में भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति के केन्द्र अधिक संबद्ध हो नियम है, फिर भी यहां पांच पर्याप्ति की प्राप्ति का उल्लेख है। वृत्तिकार ने इस सकते हैं। इसलिए उनके एकत्व की विवक्षा की जा सकती है। १८. जइ णं भंते ! तीसए देवे महिड्ढीए जाव यदि भदन्त ! तिष्यकः देवः महर्द्धिक यावद् एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, सक्कस्स णं एतावच्च प्रभुः विकर्तुं, शक्रस्य भदन्त ! भंते ! देविंदस्स देवरणो अवसेसा सामाणिया देवेन्द्रस्य देवराजस्य अवशेषाः सामानिकाः देवा केमहिड्ढीया? तहेव सव्वं जाव एस णं देवाः कियनमहर्द्धिकाः । तथैव सर्वं यावद् एष गोयमा ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो एग- गौतम! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य एकैकस्य मेगस्स सामाणियस्स देवस्स इमेयारूवे विसए सामानिकस्य देवस्य अयमेतद्रूपः दिषयः विसयमेते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए वि- विषयमात्रः उक्तः, नो चैव सम्प्राप्या व्यकार्षीद् कुविसु वा विकुव्वति वा विकुव्विस्सति वा विकरोति वा विकरिष्यति वा। १८. भन्ते ! यदि तिष्यकदेव महान् ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते! देवेन्द्र देवराज शक्र के शेष सामानिक देव कितनी महान् ऋद्धि वाले हैं? यह समग्र प्रकरण पूर्ववत् वक्तव्य है यावत् गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र के एक-एक सामानिक देव की विक्रिया-शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से ही प्रतिपादित है। किसी भी देव ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। तावत्रिंशक, लोकपाल और अग्रमहिषी की वक्तव्यता चमर की भांति ज्ञातव्य है। केवल इतना अन्तर है कि ये दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को अपने रूपों से आकीर्ण कर सकते हैं। शेष वक्तव्यता उसी प्रकार है। वा॥ तावत्तीसयलोगपालग्गमहिसणं जहेव चम- तावत्त्रिंशक-लोकपाल-अग्रमहिषीणां यथैव रस्स, नवरं-दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, चमरस्य, नवरं-द्वौ केवलकल्पो जम्बूद्वीपो अण्णं तं चेव ॥ द्वीपौ, अन्यत् तच्चैव। १६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति दोच्चे गोयमे जाव विहरइ ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति द्वितीयः गौतमः यावद् विहरति। १६. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार द्वितीय गौतम श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार करते हैं यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। १. त. सू. भा. वृ. पृ. १६०, सूत्र २/३२-उपपातक्षेत्रप्राप्तिमात्रनिमित्तं यज्जन्म । तदुपपातशब्देनोच्यते, नहि प्रच्छदपटदेवदूष्यपुद्गलानेवासौ शरीरीकरोति, नापि शुक्रादि- पुद्गलानाददान उत्पद्यते, तस्मात् प्रतिविशिष्टक्षेत्रप्राप्तिरेवास्य जन्मनो निमित्तं भवति। २. भ. वृ. ३/१७--पर्याप्तिः-आहारशरीरादीनामभिनिर्वृत्तिः, सा चान्यत्र पोढोक्ता, इह तु पञ्चधा, भाषामनःपर्याप्त्योबहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वविवक्षणात् । ३. जीवा. वृ. पृ. २४२-भाषामनःपर्याप्त्योः समाप्तिकालान्तरस्य प्रायः शेषपर्याप्ति कालान्तरापेक्षया स्तोकत्वादेकत्वेन विवक्षणम् । ४.प्र.सारो. प. २३२, गा. १३१७-१३१८ आहारसरीरिदिय पज्जत्ती आणपाण भासमणे। चत्तारि पंच छप्पिय एगिदिय-विगल-सन्नीणं ॥ पढमा समय पमाणा सेसा अंतोमुहुत्तिया य कमा। समगं पि हुंति नवरं पंचम छट्ठा य अमराणं ॥ Jain Education Intenational Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ उ.१ सू.२०-२१ २०. भंतेति ! भगवं तच्चे गोयमे वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंस, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासी - जइ णं भंते! सक्के देविंदे देवराया महिड्ढीए जाव एवइयं चणं पभू विकुव्वित्तए, ईसाणे णं भंते ! देविंदे देवराया केमहिड्ढीए ? एवं तहेव, नवरं - साहिए दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेसं तहेव ॥ २१. जइ णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च ण पभू विकु व्वित्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए अट्टमं अमेणं अभिक्खिणं, पारणाए आयविलपरिग्गरिएणं तवोकम्मेन उद्धं वाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आया भूमी आयावेमा बहुपडिपुणे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणित्ता, अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेता आलोइय-पटिक्कते समाहिपते कालमासे कालं किच्चा ईसाने कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयफिसि देवदूतरिए अंगुलस्स असंखेज्जभागमेतीए ओगाहणाए ईसाणस्स देविंदरस देवरष्णो सामाजियदेवत्ताए उबवण्णे जा तीस वत्तब्वया सच्चेव अपरिसेसा कुरुदत्तपुत्ते वि, नवरं - सातिरेगे दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेसं तं चैव । एवं सामाणिय- तावत्तीसग-लोगपाल-अग्गमहिसीणं जाव एस णं गोयमा ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो एगमेगाए अग्गमहिसीए देवीए अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुव्विसु वा विकुव्वति या विकुव्विस्सति वा ॥ १. आतापन- भूमी १६ भदन्त ! अयि । भगवान् तृतीयः गौतमः वायुभूतिः अनगारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद् – यदि भदन्त ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः महर्द्धिकः यावद् एतावच्च प्रभुः विकर्तुं, ईशानः भदन्त ! देवेन्द्रः देवराजः कियन्महर्द्धिकः ? एवं तथैव, नवरं - साधिको द्वी केवलकल्पी जम्बूडीपी द्वीपो अवशेष तथैव। यदि भदन्त ! ईशानः देवेन्द्रः देवराजः इयन्महर्द्धिकः यावद् एतावच्च प्रभुः विकर्तुम्, एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी कुरुदत्तपुत्रः नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः यावद् विनीतः अष्टमाष्टमेन अनिक्षिप्तेन, पारपके परिगृही ताचाम्लेन तपः कर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखः आतापनभूम्यां आतापयन् बहुप्रतिपूर्णान् षण्मासान् श्रामण्यपर्यायं प्राप्य, अर्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा, त्रिंशद् भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमा कालं कृत्या ईशाने कल्पे स्वस्मिन् विमाने उपपात सभायाः देवशयनीये देवदुष्पान्तरित अंगुलस्य असंख्येयभागमात्रपा अवगाहनया ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सामानिकदेवत्वेन उपपन्नः । या तिष्यके वक्तव्यता सा चैव अपरिशेषा कुरुदत्तपुत्रेऽपि, नवरं - सातिरेकौ द्वौ केवलकल्पौ जम्बूद्वीपी द्वीपौ, अवशेषं तच् चैव। एवं सामानिक तावत्रिंशक- लोकपाल-अप महिषीणां यावद् एष गौतम ! ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य एकैकस्याः अग्रमहिष्याः देव्याः अयमेतद्रूपः विषयः विषयमात्रः उक्तः, नो चेव सम्प्राप्त्या व्यकार्षीद् वा विकरोति वा, विकरिष्यति वा । आतापन- भूमी के लिए भ० २ / ६२ का भाष्य द्रष्टव्य है। भाष्य भगवई २०. भन्ते ! इस संबोधन से संबोधित कर तृतीय गौतम भगवान् वायुभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार करते हैं, वन्दन- नमस्कार कर उन्होंने इस प्रकार कहा - भन्ते ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र महान ऋद्धि वाला है यावत इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते ! देवेन्द्र देवराज ईशान कितनी महान् ऋद्धि वाला है? यह समग्र प्रकरण पूर्ववत् वक्तव्य है, केवल इतना अन्तर है- वह अपनी विक्रिया से कुछ अधिक सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप द्वीपों को आकीर्ण कर सकता है। शेष वक्तव्यता उसी प्रकार है। २१. भन्ते ! यदि देवेन्द्र देवराज ईशान इतनी महान् ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो आपका अंतेवासी कुरुदत्तपुत्र नामक अनगार जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था वह निरन्तर तेला-तेला (तीन-तीन दिन के उपवास) और पारणे में आचाम्ल की स्वीकृति रूप तपः - साधना करता था। वह आतापना- भूमी' में दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता था। उसने पूरे छह मास तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर पन्द्रह दिन की संलेखना (तपस्या) से अपने आपको कृश बनाया, अनशन के द्वारा तीस भक्तों का छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में काल- मास में काल को प्राप्त हो गया। वह ईशान कल्प में अपने विमान में उपपात सभा के देवदूष्य से आच्छन्न देवशयनीय में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना से देवेन्द्र देवराज ईशान के सामानिक देवरूप में उत्पन्न हुआ। तिष्यक के संबंध में जो वक्तव्यता है, वही समग्र रूप से कुरुदत्तपुत्र के प्रसंग में ज्ञातव्य है, केवल इतना अन्तर है कि वह कुछ अधिक सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप द्वीपों को आकीर्ण कर सकता है। शेष वक्तव्यता उसी प्रकार है। इसी प्रकार सामानिक, तावत्त्रिंशक, लोकपाल और पटरानियों के विषय में ज्ञातव्य है यावत् गीत ! देवेन्द्र देवराज ईशान की प्रत्येक पटरानी देवी की विक्रिया-शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है किसी भी पटरानी ने कियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की न करती है और न करेगी। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७ श.३ : उ.१ : सू.२२-२४ २२. एवं सणंकुमारे वि, नवरं-चत्तारि केवल- एवं सनत्कुमारेऽपि, नवरं-चतुरः केवल- कप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अदुत्तरं च णं तिरिय- कल्पान् जम्बूद्वीपान् द्वीपान, 'अदुत्तरं' च मसंखेजे। तिर्यक् असंख्येयान्। २२ इसी प्रकार सनत्कुमार के संबंध में ज्ञातव्य है केवल इतना अन्तर है-वह चार सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को आकीर्ण कर सकता है। और दूसरी बात वह तिरछे लोक के असंख्य द्वीप समुद्रों को आकीर्ण कर सकता एवं सामाणिय-तावत्तीसग-लोगपाल-अग्ग- एवं सामानिक-तावत्त्रिंशक-लोकपाल-अग्रमहिसीणं। असंखेज्जे दीव-समुद्दे सब्वे विकु- महिषीणाम्। असंख्येयान् द्वीप-समुद्रान् सर्वान् वंति, सणंकुमाराओ आरद्धा उवरिल्ला विकुर्वन्ति, सनत्कुमाराद् आरब्धाः उपरितनाः लोगपाला सव्वे वि असंखेज्जे दीव-समुद्दे लोकपालाः सर्वेऽपिअसंख्येयान् द्वीप-समुद्रान् विकुब्वंति॥ विकुर्वन्ति। इसी प्रकार सामानिक, तावत्त्रिंशक, लोकपाल और पटरानियां' ये सब ज्ञातव्य हैं। ये सब असंख्येय द्वीपसमुद्रों में विक्रिया करते हैं। सनत्कुमार से लेकर ऊपर के सभी लोकपाल असंख्य द्वीपसमूद्रों में विक्रिया करते हैं। भाष्य १. पटरानियां सौधर्म और ईशान-इन दो कल्पों में ही देवियां उत्पन्न होती हैं। सनत्कुमार तीसरा कल्प है। उसमें अग्रमहिषी का उल्लेख प्रासंगिक नहीं है। वृत्तिकार ने इस विषय में विमर्श किया है। उनके अनुसार सौधर्म कल्प में उत्पन्न देवियां सनत्कुमार कल्प में जाती हैं और सनत्कुमार वासी देवों के उपभोग में आती हैं। इस अपेक्षा से सनत्कुमार में अग्रमहिषियों का उल्लेख किया गया है।' वृत्तिकार ने यद्यपि पाठ की संगति बिठाने का प्रयत्न किया है, फिर भी यह विषय विमर्शनीय रह जाता है। यहां देवियों का उल्लेख नहीं है, अग्रमहिषी का उल्लेख है। इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि आदर्शों में 'अग्गमहिसीणं' पाठ प्रवाह रूप में आ गया। पूर्ववर्ती ईशान का आलापक यहां अनुकृत हो गया। वास्तव में प्रस्तुत सूत्र में ‘एवं सामाणियतावत्तीसगलोगपालाणं' पाठ होना चाहिए। पण्णवणा में अग्रमहिषी का वर्जन करने वाला पाठ उपलब्ध है। इससे हमारी संभावना और अधिक पुष्ट हो जाती है। जयाचार्य ने वृत्तिकार का अभिमत उद्धृत किया है तथा अपनी ओर से टिप्पणी की है-अग्रमहिषी का उल्लेख एक सामान्य सूत्र के रूप में हुआ है। अग्रवर्ती विशेष सूत्रों में उसका उल्लेख नहीं है। २३. एवं माहिंदे वि, नवरं-सातिरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे। एवं माहेन्द्रेऽपि, नवरं-सातिरेकान् चतुरः केवलकल्पान् जम्बूद्वीपान् द्वीपान्। एवं बंभलोए वि, नवरं-अट्ठ केवलकप्पे। एवं ब्रह्मलोकेऽपि, नवरम्-अष्टकेवलकल्पान्। २३. इसी प्रकार माहेन्द्र देवलोक के संबंध में ज्ञातव्य है। केवल इतना अन्तर है कि कुछ अधिक चार सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों से अधिक क्षेत्र आकीर्ण कर सकता है। इसी प्रकार ब्रह्मलोक के संबंध में ज्ञातव्य है, केवल इतना अंतर है कि वह आठ सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को आकीर्ण कर सकता है। इसी प्रकार लान्तक-कुछ अधिक आठ। महाशुक्र-सोलह, सहस्रार-कुछ अधिक सोलह। एवं लंतए वि, नवरं-सातिरेगे अट्ठ केवल- एवं लान्तकेऽपि, नवरं-सातिरेकान् अष्ट कप्पे। केवलकल्पान्। महासुक्के सोलस केवलकप्पे। सहस्सारे सा- महाशुक्रे षोडश केवलकल्पान् । सहस्रारे तिरेगे सोलस। सातिरेकान् षोडश। एवं पाणए वि, नवरं-बत्तीसं केवलकप्पे। एवं प्राणतेऽपि, नवरं-द्वात्रिंशत् केवल कल्पान्। एवं अच्चुए वि, नवरं सातिरेगे बत्तीसं एवं अच्युतेऽपि, नवरं-सातिरेकान द्वात्रिंशत् केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अण्णं तं चेव ॥ केवलकल्पान् जम्बूद्वीपान् द्वीपान् अन्यत् तच्चैव। प्राणत-बत्तीस। अच्युत-कुछ अधिक बत्तीस, सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को आकीर्ण कर सकता है। शेष सब उसी प्रकार है। २४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति तच्चे गोयमे तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति तृतीयः २४. भंते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस १. भ. वृ.३/३२-'अग्गमहिसीणं' ति यद्यपि सनत्कुमारे स्त्रीणामुत्पत्तिनास्ति तथाऽपि याः सौधर्मो त्पन्नाः समयाधिकपल्योपमादिदशपलयोपमान्तस्थितयोऽपरिगृहीतदेव्यस्ताः सनत्कुमारदेवानां भोगाय संपद्यन्ते इतिकृत्वाऽग्रमहिष्य, इत्युक्तमिति। २. पण्ण, २/५२- सेसं जहा सक्करस अग्गमहिसीवज्ज। ३. भ. जो. १/४६/३७-४१। Jain Education Intemational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ. : सू.२४-२६ १८ भगवई वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ जाव विहरइ॥ गौतमः वायुभूतिः अनगारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति यावद् विहरति। प्रकार तृतीय गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। २५. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ मोयाओ नयरीओ नंदणाओ चेइयाओ पडि- निक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ॥ ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा २५. श्रमण भगवान महावीर ने किसी समय मोका नगरी कदाचित् मोकायाः नगर्याः नन्दनाद् चैत्यात् और नन्दन चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिः जनपद- कर वे बाह्य जनपदों में विहार करने लगे। विहारं विहरति। तामलिस्स ईसाणिंद-पदं २६. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ जाव परिसा पज्जु- वासइ॥ तामलेः ईशानेन्द्र-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरम् आसीत्-वर्णकः यावत् परिषद् पर्युपास्ते। तामलि का ईशानेन्द्र-पद २६. उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर था-नगर का वर्णन (द्रष्टव्य-भ.१/४ का भाष्य) यावत् परिषद भगवान् की पर्युपासना करती है। २७. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे तस्मिन् काले तस्मिन् समये ईशानः देवेन्द्रः २७. उस काल और उस समय ईशान कल्प के ईशानादेवराया ईसाणे कप्पे ईसाणव.सए विमाणे देवराजः ईशाने कल्पे ईशानावतंसके विमाने वतंसक विमान में देवेन्द्र देवराज ईशान भगवान् जहेव रायप्पसेणइज्जे जाव दिव् देविििद यथैव राजप्रश्नीये यावत् दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां महावीर की वन्दना के लिए आया (पूरा प्रकरण दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं बत्तीस- देवद्युतिं दिव्यं देवानुभागं दिव्यं द्वात्रिंशत्बद्धं रायपसेणइयं के सूर्याभ देव की तरह ज्ञातव्य है।) इबद्धं नट्टविहिं उवदंसित्ता जाव जामेव दिसिं नाट्यविधिं उपदर्श्य यावत् यस्याः एव दिशः वह गौतम आदि मुनिगण को दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए ॥ प्रादुर्भूतः तस्यामेव दिशि प्रतिगतः। देवधुति, दिव्य देवसामर्थ्य और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्य-विधि दिखाकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में पुनः चला गया। २८. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं भदन्त! अयि! भगवान गौतमः श्रमणं भगवन्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा -अहो णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया एवमवादीद्-अहो भदन्त ! ईशानः देवेन्द्रः महिढीए जाव महाणुभागे। ईसाणस्स णं देवराजः महर्द्धिकः यावत् महानुभागः। ईशानभंते ! सा दिव्वा देविड्ढी दिव्या देवज्जुती स्य भदन्त ! सा दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्वे देवाणुभागे कहिं गते? कहिं अणुपविढे? दिव्यः देवानुभागः कुत्र गतः? कुत्र अनु प्रविष्टः? गोयमा ! सरीरं गते, सरीरं अणुपवितु ॥ गौतम ! शरीरे गतः, शरीरे अनुप्रविष्टः। २८. भन्ते ! इस संबोधन से संबोधित कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले-आश्चर्य है भन्ते! देवेन्द्र देवराज ईशान महान ऋद्धि वाला है यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। भन्ते! ईशान की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाग कहां गया? कहां प्रविष्ट हो गया? गौतम ! वह शरीर में गया, शरीर में प्रविष्ट हो गया। २६. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सरीरं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-शरीरे २६. भन्ते! यह किसी अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह गते, सरीरं अणुपविढे? गतः, शरीरे अनुप्रविष्टः? शरीर में गया, शरीर में प्रविष्ट हो गया? गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया गौतम ! अथ यथानाम कूटाकारशाला स्यात् गौतम ! जैसे कोई कूटागार (शिखर के आकार दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णि- द्विधा लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारा निवाता निवात- वाली) शाला' है। वह भीतर और बाहर दोनों ओर से वायगंभीरा। तीसे णं कूडागारसालाए अ- गंभीरा। तस्याः कूटाकारशालायाः अदूर- लिपी हुई, गुप्त, गुप्तद्वार वाली, पवन-रहित और दूरसामंते, एत्थ णं महेगे जणसमूहे एगं महं सामन्ते, अत्र महान् एकः जनसमूहः एक निवात गंभीर है। उस कूटागार शाला के पास एक अब्भवद्दलगं वा वासवद्दलगं वा महावायं वा महद् अभ्रवाईलकं वा वर्षावादलकं वा महावातं महान् जनसमूह है। वह आते हुए एक विशाल अभ्रएज्जमाणं पासति, पासित्ता तं कूडागारसालं वा आयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा तां कूटाकारशालां बादल, वर्षा-बादल, महावात को देखता है। देख कर अंतो अणुपविसित्ता णं चिट्ठइ। से तेणटेणं अन्तः अनुप्रविश्य तिष्ठति। तत् तेनाऽर्थेन उस कूटागार शाला के भीतर प्रविष्ट हो कर ठहर गोयमा ! एवं वुच्चति-सरीरं गते, सरीरं गौतम! एवमुच्यते-शरीरे गतः शरीरे अनु- जाता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा अणुपवितु ॥ प्रविष्टः । है-वह शरीर में गया, शरीर में प्रविष्ट हो गया। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. कूटागार शाला पण्डावागरणाई तथा दसाओ में 'कूटागार' शब्द का प्रयोग मिलता है।' प्रश्नव्याकरण की वृत्ति में कूटागार का अर्थ 'शिखरयुक्त भवन' किया गया है।२ निशीथ चूर्णि में कूटागार का अर्थ 'पर्वत के आकार वाला मकान जो ऊपर की भूमिका में होता है' किया गया है। भगवई और रायपसेणइयं में ''कूटागार शाला' शब्द मिलता है मलयगिरि और अभयदेव सूरि दोनों ने इसका अर्थ 'कूट के आकार वाली' किया है। मलयगिरी ने एक अर्थ और किया है: 'जिस भवन के ऊपर का आच्छादन शिखर के आकार का हो,' उसका नाम है कूटागारशाला । * चरक सूत्रस्थान ( १४ / २७) की व्याख्या में कूटागार का अर्थ ३०. ईसाने नं भंते! देविंदेनं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवा - णुभागे किष्णा तद्धे ? किण्णा पत्ते ? किण्णा अभिसमण्णागए? के वा एस आसि पुव्वभते ? किंनामए वा? किंगोत्ते वा ? कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा जाव सण्णिवेसंसि वा? किंवा दच्या? किं वा मोच्या? किंवा किच्चा? किं वा समायरित्ता ? कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म ? जं णं ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी दिव्या देवजुती दिव्वे देवाणुभागे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए? ३१. एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेगं समएणं इव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तामलित्ती नामं नयरी होत्था - वण्णओ ॥ १. (क) पहा. ४/७ । भाष्य १. सूत्र ३० देवराज ईशान को ऐसी दिव्य ऋद्धि कैसे मिली - इस विषयमें पांच प्रश्न पूछे गये हैं- १. क्या दिया? २. क्या खाया ? ३. क्या किया? ४. क्या आचरण किया? ५. क्या सुना? इन प्रश्नों का उत्तर वृत्तिकार ने दिया हैअशन आदि दिया, रुखा सुखा आहार खाया, शुभ ध्यान आदि किया और १६ ईशानेन भदन्त ! देवेन्द्रेण देवराजेन सा दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानुभागः कथं लब्धः ? कथं प्राप्तः कथं अभिसमन्यागतः ? को वा एष आसीत् पूर्वभवे ? किंनामकः वा? किंगोत्रः वा? कतरस्मिन् वा ग्रामे वा नगरे वा यावत् सन्निवेशे वा? किं वा दत्वा ? किं वा क्या? किं वा कृत्वा? किं वा समाचर्य? कस्य वा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा अन्तिके एकमपि आर्यं धार्मिकं सुवचनं श्रुत्वा निशम्य ? यत् ईशानेन देवेन्द्रेण देवराजेन सा दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानुभागः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः ? 'वर्तुलाकार गोल कमरा किया गया है। भगवई में कूटागार शाला का जो वर्णन है उससे इसका अर्थ यह फलित होता है- एक वह शाला जिसका ऊपर का भाग पर्वत के शिखर जैसा है; वह 'दुहओलित्ता' है - भीतर और बाहर दोनों ओर गोबर आदि से लिपी हुई है; वह गुप्त है—उसके बाहर परकोटा बना हुआ है। उसके द्वार गुप्त है, वह निवात है उसमें वायु के प्रवेश का अवकाश नहीं है। वह निवातगम्भीर है वह निवात और ऊंटी या विशाल है। तात्पर्य की भाषा में इसे छद्म गृह कहा जा सकता है जिसके ऊपर का भाग केवल शिखर जैसा प्रतीत होता है और भीतर गहरे में एक बड़ी शाला होती है। (आधुनिक 'बंकर' जैसा?) भाष्य (ख) दसाओ, १०/२४ | २. प्रश्न. वृ. प. ८२ - कूटागारनिभं सशिखरभवनतुल्यम् । ३. निशीथ सूत्रम्, भाग २, पृ. ४३३ - अधो विसालं उवरुवरिं संवह्नितं कूडागारं । ४. (क) रा.वृ. पृ. १५० / १५१ – कूटस्येव – पर्वतशिखरस्येव आकारो यस्याः सा कूटाकारायस्या उपरि आच्छादनं शिखराकारं सा कूटाकारा इति भावः कूटाकारा चासौ शाला च कूटाकारशाला । एवं खलु गीतम । तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे ताम्रलिप्तिः नाम नगरी आसीद्-वर्णकः । श.३ उ. १ सू.२६-३१ सामाचारी का आचरण किया।' इससे पुण्य का उपार्जन कर मनुष्य देव बनता है। तामलि ने तप तपा और वह ईशानेन्द्र बना यह किंकिच्या का निदर्शन है। सुबाहुकुमार की ऋद्धि किंदच्या का निदर्शन है। उसने सुमुख के भव में मुनि को विशुद्ध आहार दिया था। उस दान के कारण उसने मनुष्य-आयु का निबन्ध किया। ३०. ' भन्ते ! देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्या देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाग किस हेतु से उपलब्ध किया? किस हेतु से प्राप्त किया? और किस हेतु से अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया यह पूर्वभव में कौन था? इसका क्या नाम था ? क्या गोत्र था? किस ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश में रहता था ? इसने क्या दान दिया? क्या आहार किया? क्या तप किया? क्या आचरण किया तथा किस तथारूप श्रमण या माहन के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुना या अवधारण किया? जिससे देवेन्द्र देवराज ईशान ने यह दिव्या देवद्धिं दिव्य देवयुति और दिव्य देवानुभाग उपलब्ध किया है, प्राप्त किया है और अभिसमन्दागत किया है? ३१. गौतम ! उस देश काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में ताम्रलिप्ति नामक नगरी थीनगरी का वर्णन | ५. रा. बृ. पृ. १५१ – बहिर् अन्तश्च गोमयादिना लिप्ता गुप्ता वहिः प्राकारावृता गुप्तद्वारा द्वारस्थगनात् यदि वा गुप्तद्वारा केषांचिद् द्वाराणां स्थगितत्वात् केषांचिद् वा अस्थगितत्वाद् इति । निवाता वायोरप्रवेशात् किल महद् गृहं निवातं प्रायो न भवति, तत आह निवातगंभीरा-निवाता सती विशाला इत्यर्थः । ६. भ. वृ. ३/३० - इह दत्त्वाऽशनादि भुक्त्वाऽन्तप्रान्तादि कृत्वा तपः शुभध्यानादि समाचर्य च प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनादि, 'कस्स वे' त्यादि वाक्यस्य चान्ते पुण्यमुपार्जितामिति वाक्यशेषो दृश्यः । ७. विवागसुयं २/१/१५-२३। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ.१ : सू. ३२-३३ ३२. तत्य णं तागलित्तीए नगरीए तामली नागं मोरियपुत्ते गाहावई होत्था - अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभू यावि होत्था ॥ ३३. तए णं तस्स मोरियपुत्तस्स तामलिस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइ पुब्वरत्तावरत कालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स इमेारू अन्झथिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकष्ये समुप्यज्जित्था -- अत्थिता मे पुरा पौराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुगाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसे, जेणाहं हिरण्णेणं वद्धामि सुवन्गेणं वड्डामि, धणेणं वड्डामि, धण्णेनं वड्ढामि पुत्तेहिं वदामि पहिं वड्ढामि विपुलधण-कणग- रयण-मणि-मोत्तिव संखसिलप्पवाल- रत्तरयण-संतसारसावएज्जेण अतीव-अतीव अभिवामि तं किं गं अहं पुरा पोराणान सुविग्गाणं सुपरवकंताणं सुभागं कल्ताना कठाणं कम्माणं एगंतसो स्वयं उवैहमाणे विहरामि ? तंजावताव अहं हिरणेणं वदामि जाव अतीव अतीव अभिवद्दामि जावं च मे मित्त-नाति - नियग-सयण-संबंधि- परियणो आढाति परियाणाई सक्कारेइ सम्मानेइ कल्लानं मंगलं देवयं विषएणं चेइयं पज्जुवासद, तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणी जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणवरे तेयसा जलते संयमेव दारुणयं पडिग्गटगं करेत्ता विउलं असण- पाण- खाइम साइमं उक्खडावेत्ता मित्त-नाइ नियग-सयण-संबंधि- परियणं विउलेणं असण- पाणखाइम- साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालंकारेण य सक्कारेता सम्मानेता, तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पुरओ पुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता, तं मित्त-नाइ-नियम-सयण संबंधि परियणं जेङ्गपुत्तं च आपुच्छित्ता, सयमेव दारुमयं पडिग्गहगं गहाय मुंडे भविता पाणामाए पव्वज्जाए पव्वइत्तए । पव्यइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिरिसामि कप्पड़ मे जावज्जीवाए छछद्वेनं अणिविखत्तेगं तवोकम्मेणं उठ बाहाओ पगिन्द्रिय परिन्द्रिाय सूराभिमुहस्स पगिज्झिय-पगिज्झिय आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, छट्टस्स छस्स वि य णं पारणयंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुभित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहगं ग - , २० तत्र ताम्रलिप्यां नगर्यां तामतिः नाम मौर्यपुत्रः तत्र ताम्रलिप्त्यां नगर्यां तामलिः नाम मौर्यपुत्रः गाापतिः (गृहपतिः) आसीद् आवः दीप्तः यावद् बहुजनस्य अपरिभृतश्चापि आसीत्। ततः तस्य मौर्यपुत्रस्य तामलेः गाहापतेः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये कुटुम्ब जागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि अस्ति तावत् मे पुरा पुरागानां सुचीर्णानां सुपराक्रान्तानां शुभानां कल्याणानां कृतानां कर्मणां कल्याणरवृत्तिविशेषः, येनाहं हिरण्येन वर्षे, सुवर्णेन वर्चे, धनेन वर्धे, धान्येन वर्धे, पुत्रैः वर्षे, पशुभिः वर्धे, विपुलधन- कनक-रत्नमणि-मौक्तिक शंख-शिला-प्रवाल- रक्तरलसत्सारस्वापतेयेन अतीव-अतीव अभिवर्धे, तत् किम् अहं पुरा पुराणानां सुचीर्णानां सुपरक्रान्तानां शुभानां कल्याणानां कृतानां कर्मणां एकान्तशः क्षयं उपेक्षमाणः विहरामि ? तद् यावत् तावद् अहं हिरण्येन वर्षे याबद् अतीव अतीव अभिवर्धे, यावच्च मे मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनः आद्रियते परिजानाति सत्कारयति सम्मानयति कल्याणं मंगलं देवतं विनयेन चैत्यं पर्युपास्ते, तावत् मे श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभायां रजन्यां यावद् उत्थ सूरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा ज्वलति स्व यमेव दारुमयं प्रतिग्रहकं कृत्वा विपुलं अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यम् उपस्कार्य, मित्र-ज्ञाति- निजक- स्वजन-संबंधि-परिजनम् आमन्त्र्य, तं मित्र - ज्ञाति - निजक - स्वजन-संबंधि-परिजनं विपुलेन अशन-पान-खाद्य- स्वाद्येन वस्त्र-गन्ध- माल्यालंकारेण च सत्कृत्य संमान्य, तस्यैव मित्र - ज्ञाति - निजक- स्वजन-संबंधि-परिजनस्य पुरतः ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयित्वा तं मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनं ज्येष्ठपुत्रं च आपृच्छय, स्वयमेव दारुमयं प्रतिग्रहकं गृहीत्वा मुण्डः भूत्वा प्राणामया प्रव्रज्यया प्रब्रजितुम् । प्रव्रजितोऽपि च सन् एतमेतद्रूपम् अभिग्रहम् अभिग्रहिष्यामि कल्पते मे याव ज्जीवं षष्ठपष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपः कर्मणा ऊर्ध्वं याहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूराभिमुखस्य आताप्रगृह्य-प्रगृह्य पनभूम्यां आतापयतः विहर्तुम्, षष्ठस्यापि च पारणके आतापनमूम्याः प्रत्यवर स्वयमेव दारुमयं प्रतिग्रहकं गृहीत्वा ताम्रलिप्त्यां नगर्यां भगवई ३२. उस ताम्रलिप्ति नगरी में मौर्यपुत्र तामलि नामक गृहपति रहता था, वह समृद्ध, तेजस्वी यावत् अनेक लोगों द्वारा अपरिभूत था । ३३. " किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्बजागरिका करते हुए उस मौर्यपुत्र तामलि नामक गृहपति के मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ इस समय मेरे पूर्वकृत पुरातन सुआचरित, सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्मों का कल्याणकारी फल मिल रहा है, जिससे में चांदी, सोना, धन, धान्य, पुत्र, पशु तथा विपुल वैभव, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, पेनसिल, प्रवाल, लाल रत्न (पद्मरागमणि) और श्रेष्ठ सारइन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव - अतीव वृद्धि कर रहा हूं, तो क्या मैं पूर्वकृत पुरातन सुआचरित, सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्मों का केवल क्षय करता हुआ विहरण कर रहा हूं? इसलिए जब तक मैं चांदी से वृद्धि कर रहा हूं यावत् इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव- अतीव वृद्धि कर रहा हूं और जब तक मेरे मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजन मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी के रूप में स्वीकारते हैं, सत्कार-सम्मान देते है, कल्याणकारी मंगलकारी देवरूप और वित्ताहायक मानकर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हैं तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल उषाकाल के पौ फटने पर यावत् (भग. २.६६) सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदि और तेज से देदीप्यमान होने पर मैं स्वयं काष्ठमय पात्र का निर्माण कर, विपुल भोजन, पेय, खाद्य और स्वाद्य पदार्थ तैयार करवा कर मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजनों को आमन्त्रित कर उन्हें विपुल भोजन पेय, खाद्य, स्वाद्य पदार्थों से तथा वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकारों से सत्कृत- सम्मानित कर उन्हीं मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर उन मित्र, शाति, कुटुम्बी स्वजन संबंधी परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर स्वयं काष्ठमय पात्र ग्रहण कर मुण्ड हो कर प्राणामा प्रव्रज्या से प्रव्रजित होना मेरे लिए श्रेयस्कर है। प्रव्रजित हो कर मैं इस आकार वाला यह अभिग्रह स्वीकार करूंगा मैं जीवन भर निरन्तर वेले-बेले (दो-दो दिन के उपवास) की तपःसाधना करूंगा। मैं आतापना- भूमि में दोनों भुजाएं " Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २१ श.३ : उ.१ : सू.३३ हाय तामलित्तीए नयरीए उच्च-नीय-मज्झिमाइं उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता भिक्षार्चयया अटित्वा शुद्धोदनं प्रतिगृह्य तत् विहार करूंगा। बेले के पारणे में मैं आतापना-भूमि से सुद्धोदणं पडिग्गाहेत्ता तं तिसत्तक्खुत्तो उदएणं त्रिसप्तकृत्वः उदकेन प्रक्षाल्य ततः पश्चात् उतर कर स्वयं काष्ठमय पात्र ग्रहण कर ताम्रलिप्ति पक्खलेत्ता तओ पच्छा आहारं आहारित्तए आहारम् आहर्तुं इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य नगरी के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्प- कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् उत्थिते सूर्ये भिक्षाचरी के लिए पर्यटन कर केवल चावल ग्रहण भायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्स- सहमरश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति स्वयमेव कर उसे इक्कीस बार पानी से धो कर फिर आहार रस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते सयमेय दारुमयं प्रतिग्रहकं करोति, कृत्वा विपुलम् करूंगा। इस प्रकार सोच कर वह संप्रेक्षा करता है, दारुमयं पडिग्गहगं करेइ, करेत्ता विउलं अशन-पान-खाद्य स्वाद्यम् उपस्कारयति, संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर तेज से प्रज्वलित असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उपस्कार्य ततः पश्चात् स्नातः कृत-बलिकर्मा सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से उवक्खडावेत्ता ततो पच्छा ण्हाए कयबलिकम्मे कृतकौतुकमंगलप्रायश्चित्तः शुद्धप्रावेश्यानि देदीप्यमान होने पर स्वयमेव काष्टमय पात्रका निर्माण कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाइं मांगल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः अल्प- करता है, निर्माण कर विपुल भोजन, पेय, खाद्य और मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घा- महाभिरणालंकृतशरीरः भोजनवेलायां स्वाद्य पदार्थ पकवाता है, पकवाने के बाद वह स्नान, भरणालंकियसरीरे भोयणवेलाए भोयण- भोजनमण्डपे सुखासनवरगतः तेन मित्र-ज्ञाति- बलिकर्म (पूजा), कौतुक (तिलक आदि) इष्ट नमस्कार मंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्त-नाइ- निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनेन सार्द्ध तत् रूप मंगल और प्रायश्चित्त करके शुद्ध प्रवेश्य (सभा -नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं सद्धिं तं विपुलम् अशन-पान-खाद्य-स्वाधम् आस्वाद- में प्रवेशोचित) मांगलिक वस्त्र विधिवत् पहन कर, विउलं असण-पाण खाइम-साइमं आसादेमाणे मानः विस्वादमानः परिभाजयन् परिभुञ्जानः "अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को वीसादेमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ। विहरति। जेमितभुक्तोत्तरागतोऽपि च सन् सजा कर भोजन की बेला में भोजन-मंडप में सुखासन जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते आचान्तः चोक्षः परमशुचीभूतः तं मित्र- की मुद्रा में बैठा हुआ वह उन मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, चोक्ने परमसुइब्भूए तं मित्त-नाइ-नियग- -ज्ञाति-निजक-रवजन-संबंधि-परिजनं विपुलेन स्वजन, संबंधी और परिजनों के साथ उस विपुल सयण-संबंधि-परियणं विउलेणं असण- अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र-गन्ध- माल्या- भोजन, पेय, खाद्य और स्वाद्य का आस्वाद लेता हुआ पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालंका- लंकारेण च सत्कारयति सम्मानयति, तस्यैव विशिष्ट स्वाद लेता हुआ, बांटता हुआ और परिभोग रेणय सक्कारेइ सम्माणेइ, तस्सेव मित्त-नाइ- मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनस्य करता हुआ विहरण करता है। उसने भोजन कर नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पुरओ जेट्ठ- पुरतः ज्येष्ठपुत्र कुटुम्बे स्थापयति, स्थापयित्वा आचमन किया, आचमन कर वह स्वच्छ और परम पुत्तं कुटुंबे ठावेइ, ठावेत्ता तं मित्त-नाइ- तं मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनं शुचीभूत (सर्वथा साफ-सुथरा) हो गया। फिर वर अपने -नियग-सयण-संबंधि-परियणं जेट्टपुत्तं च ज्येष्ठपुत्रं च आपृच्छति, आपृच्छ्य मुण्डः भूत्वा बैठने के स्थान पर आया। वहां वह उन मित्रों, ज्ञातियों, आपुच्छइ, आपुच्छित्ता मुंडे भवित्ता पाणामाए प्राणामया प्रव्रज्यया प्रव्रजितः। प्रव्रजितोऽपि च कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों को पव्वज्जाए पब्वइए। पब्बइए वि य णं समाणे सन् एतमेतद्रूपम् अभिग्रहम् अभिगृह्णाति- विपुल भोजन, पेय, खाद्य, स्वाद्य पदार्थों से तथा वस्त्र, इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हिइ-कप्पइ कल्पते मे यावज्जीवं षष्ठषष्ठेन यावद् आहर्तुम् सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकारों से सत्कृतमे जावज्जीवाए छटुंछटेणं जाव आहारित्तए इति कृत्वा एतमेतद्रूपम् अभिग्रहम् अभिगृह्य -सम्मानित करता है। फिर उन्हीं मित्रों, ज्ञातियों, त्ति कटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता यावज्जीवं षष्टषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों के जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवो- ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखः आतापन- सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करता है, कम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय भूम्याम् आतापयन् विहरति। षष्ठस्यापि च स्थापित कर वह उन मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, सूराभिमुहे आयावणभमीए आयावेमाणे पारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्य- स्वजनों, संबंधियों, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र की विहरइ। छट्ठस्स वियणं पारणयंसि आयावण- वरुह्य स्वयमेव दारुमयं प्रतिग्रहकं गृहीत्वा ___ अनुमति लेता है। अनुमति ले कर मुण्ड हो कर प्राणामा भूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभित्ता सयमेव ताम्रलिप्त्यां नगर्याः उच्च-नीच-मध्यमानि प्रव्रज्या से प्रव्रजित हो जाता है। प्रव्रजित हो कर वह दारुमयं पडिग्गहगं गहाय तामलित्तीए नयरीए कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यया अटति, इस आकार वाला यह अभिग्रह स्वीकार करता है—मैं उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदाणस्स अटित्वा शुद्धौदनं प्रतिगृहाति, प्रतिगृह्य त्रि- जीवन भर बेले-बेले की तपः-साधना यावत् केवल भिक्खायरियाए अडइ, अडित्ता सुद्धोदणं सप्तकृत्वः उदकेन प्रक्षालयति, प्रक्षाल्य ततः चावल को इक्कीस बार पानी से धो कर फिर आहार पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेत्ता तिसत्तक्खुत्तो उदएणं पश्चाद् आहारम् आहरति। करूंगा। इस प्रकार सोच कर इस आकार वाला यह पक्खालेइ, पक्खालेत्ता तओ पच्छा आहार अभिग्रह ग्रहण कर वह जीवनभर निरन्तर बेले-बेले आहारेइ॥ की तपः-साधना करता है। वह आतापना-भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करता है। बेले के पारणे में आतापना-भूमि से उतरता है, उतर कर स्वयं काष्ठमय पात्र ग्रहणकर ताम्रलिप्ति नगरी के उच्च, नीच और मध्यम कुलों में Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१ : सू.३३,३४ २२ भगवई सामुदानिक भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करता है। पर्यटन कर केवल चावल ग्रहण करता है, ग्रहण कर उसे इक्कीस बार पानी से धोता है, धो कर फिर आहार करता है। भाष्य १. सूत्र ३३ प्रस्तुत सूत्र में पूर्वकृत कल्याणकारी कर्म और हिरण्य, सुवर्ण, धन सन्त-सत्-श्रेष्ठ। आदि की वृद्धि में संबंध स्थापित किया गया है। यह अभिमत तापस-परम्परा सार-चन्दन आदि सुगन्धित वर्ग का द्रव्य । आयुर्वेद के ग्रन्थों में का है। इसमें भगवान महावीर का अभिमत उल्लिखित नहीं है। सर्वसाधारण में सार 'सुगन्धित वस्तुओं के वर्ग' का नाम है। वृत्तिकार ने सन्त का अर्थ यह धारणा प्रचलित है कि धन-धान्य आदि पुण्य कर्म से उपलब्ध होते हैं। _ 'विद्यमान' और सार का अर्थ 'प्रधान' किया है। केवल क्षय-अर्जित सम्पत्ति का व्यय होता है और नई संपत्ति कर्मशास्त्रीय दृष्टि से इसकी मीमांसा नहीं की गई। का अर्जन नहीं होता, तो वह क्षीण होती चली जाती है । मौर्यपुत्र तामलि ने इसी शब्द-विमर्श युक्ति के आधार पर चिन्तन किया-में पुराकृत शुभ कर्मों को भोग रहा हूं और नए सिरे से उनका उपार्जन नहीं कर रहा हूं। क्या यह मेरे लिए हितकर होगा? मध्यरात्रि (पुव्वरत्तावरत्त)--भ. २/६६का भाष्य द्रष्टव्य है। यह चिन्तन सदाचार का एक पुष्ट आधार बनता है। तामलि को इसी आधार कुटुम्ब जागरिका-कुटुम्ब के विषय में अनुचिन्तन । पर तपस्वी जीवन जीने की प्रेरणा मिली। आध्यात्मिक""संकल्प-देखें भ.२/३१ का भाष्य। ज्ञाति-सजातीय। धन-मूल्यवान वस्तु। उसके चार प्रकार हैं-१. गणिम-जिनका निजक-गोत्रज संबंधी, मातृपक्षीय अथवा पितृपक्षीय। विक्रय गिनती से किया जाए। २. धणिम-जिनका विक्रय तोलकर किया परिजन–कर्मकर आदि। जाए। ३. मापिज्ज–जिनका विक्रय माप कर किया जाए। ४. परिच्छिज्ज चित्ताहादक (चेइयं) के लिए भ. १/५ का भाष्य द्रष्टव्य है। जिनका विक्रय परीक्षा कर किया जाए। परिजानाति-प्रस्तुत संदर्भ में इसका अर्थ है 'स्वामी रूप में रन अपनी-अपनी जाति में जो उत्कृष्ट होता है, वह रत्न कहलाता स्वीकारना। है। श्रेष्ठ पाषाण मनुष्य के मन को मोह लेते हैं, इसलिए वे रत्न कहलाते हैं शुद्धोदन-सूप, शाक आदि से वर्जित चावल आदि अन्न। जातौ जातौ यदुत्कृष्टं, तद्धि रत्नं प्रचक्षते। बलिकर्म......... प्रायश्चित्त-देखें भ.७/१७६ का भाष्य। रत्नं च वरपाषाणं, रमन्ते यत्र मानवाः ॥ आस्वादमान, विस्वादमान-वृत्तिकार ने इनका संस्कृत रूप मणि-चन्द्रकान्त आदि। 'आस्वादयन् विस्वादयन्' किया है। जो कि दशम गण की स्वद् अथवा स्वाद् शिला-प्रवाल-वृत्तिकार ने शिला-प्रवाल का अर्थ मूंगा किया है। धात से निष्पन्न होते हैं। वैकल्पिक रूप में शिला का अर्थ-राजपट्ट (घटिया जाति का हीरा) आदि किया परिभाजयन्-इसका अर्थ 'देना या विभाग करना' है। है और प्रवाल का अर्थ-मूंगा। शिला 'मैनसिल' (red arsenic) का भी एक जिमियभुत्तुत्तरागए-वृत्तिकार ने यहां प्रथमा के एकवचन का सेल के पर्यायवाची नाम ये हैं-मनःशिला, मनोहवा, मनोगुप्ता, लोप माना है। 'भुक्तोत्तर आगत' को स्वतंत्र पद माना है। यदि दोनों को समस्त नागजिला, नेपाली, कुण्ट, शिला दिव्यौषधि आदि।' पद माना जाए तो एकपद भी हो सकता है। लाल रत्न–पद्मराग आदि। पद्मराग माणिक्य का पर्यायवाची नाम प्राणामा-द्रष्टव्य भ. ३/३४ का भाष्य। ३४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पाणामा तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते--प्राणामा ३४. 'भन्ते ! इस प्रव्रज्या को प्राणामा प्रव्रज्या किस अपेक्षा पव्वज्जा? प्रव्रज्या? से कहा जाता है? गोयमा ! पाणामाए णं पव्वजाए पव्वइए समाणे गौतम ! प्राणामया प्रव्रज्जया प्रव्रजितः सन्! गौतम! प्राणामा प्रव्रज्या से प्रव्रजित होने वाला जहां जंजत्थ पासइ-इंदं वा खंदं वा रुई वा सिवं यः यत्र पश्यति- इन्द्रं वा स्कन्दं वा रुद्रं वा जिस इन्द्र, कार्तिकेय, रुद्र, शिव, वैश्रणव, आर्या कौट्टवा वेसमणं वा अज्जं वा कोट्टकिरियं वा रायं शिवं वा वैश्रवणं वा आर्यां वा कौट्टक्रियां वा क्रिया, राजा, युवराज, कोटवाल, मडम्बाधिपति, कौटुवा ईसरं वा तलवरं वा माडंबियं वा कोडुंबियं राजानं वा ईश्वरं वा तलवरं वा माडम्बिकं वा म्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, कौवा, कुत्ता १. अभि. चि. ४/१२५, १२६। २. भ. वृ. ३/३३-धनं गणिमादि रत्नानि-कर्केतनादीनि, मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः शिला- प्रवालानि विद्रुमाणि, अन्येत्याहुः-शिला-राजपट्टादिरूपाः प्रवालं-विद्रुम,रक्तरत्नानि । पद्मरागादीनि, एतद्रूपं यत् 'संत' ति विद्यमानं सारं-प्रधानं स्वापतेयं द्रव्यं तत्तथा। ३. वही, ३/३३-एकान्तेन अयं नवानां शुभकर्मणामनुपार्जनेन। ४. भ. वृ. ३/३३-ज्ञातयः-सजातीयाः निजका- गोत्रजाः सम्बन्धिनो-मातपक्षीयाः श्वसुर कुलीना वा परिजनो-दासादिः। ५. वही, ३/३३-सूपशाकादिवर्जितं कूरम् । ६. वही, ३/३३-'जिमिय' ति प्रथमैकवचनलोपात जेमितः- भक्तवान भत्तोत्तर' ति भुक्तोत्तरं-भोजनोत्तरकालम् 'आगए' त्ति आगतः उपवेशनस्थाने भुक्तोत्तरागतः । Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३ श.३ : उ.१ : सू.३३-३६ वा इब्मं वा सेटिं वा सेणावई वा सत्थवाहं वा कौटुम्बिकं वा इभ्यं वा श्रेष्ठिनं वा सेनापति काकं वा साणं वा पाणं वा-उच्चं पासइ वा सार्थवाह वा काकं वा श्वानं वा 'पाणं' वाउच्चं पणामं करेइ, नीयं पासइ नीयं पणामं उच्चं पश्यति उच्चं प्रणामं करोति, नीचं पश्यति करेइ, जं जहा पासइ तस्स तहा पणामं करेइ। नीचं प्रणामं करोति, यं यथा पश्यति तस्य तथा से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ पाणामा प्रणाम करोति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते । पव्वज्जा॥ प्राणामा प्रवज्या। अथवा चण्डाल को देखता है, वहीं उसको प्रणाम करता है। वह किसी उच्च (पूज्य) को देखता है तो अतिशाथी विनम्रता के साथ प्रणाम करता है, नीच (अपूज्य) को देखता है तो साधारण विनम्रता से प्रणाम करता है। जिसे जिस रूप में देखता है, उसे उसी रूप में प्रणाम करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से इस प्रव्रज्या को प्राणामा प्रव्रज्या कहा जाता है। भाष्य १. सूत्र ३४ आर्या--प्रशान्त रूपधर चण्डिका। प्रस्तुत सूत्र में 'पाणामा' प्रव्रज्या का स्वरूप निर्दिष्ट है वृत्तिकार ने कौट्टक्रिया-महिषासुर का मर्दन करती हुई चण्डरूपधर चण्डिका। इसका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ किया है-'जिस विधि में प्रणाम विधेय होता है, पाण-चाण्डाल। उसका नाम है प्राणामा।" ईश्वर से सार्थवाह तक के शब्दों के लिए भ० २/३० का भाष्य द्रष्टव्य है। शब्द-विमर्श इन्द्र-देवों का अधिपति। उच्च (पूज्य) को प्रणाम करता है, नीच (अपूज्य) को प्रणाम करता है-ये दोनों वाक्य प्रणाम की प्रक्रिया में भेद की सूचना दे रहे हैं। प्रणाम का स्कन्द-कार्तिकेय, महादेव का पुत्र। स्वरूप एक नहीं था। उच्च या पूज्य व्यक्ति को प्रणाम विशेष विनम्रता के साथ रुद्र-महादेव। शिव-यह महादेव का पर्यायवाची नाम है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया जाता था। नीच या अपूज्य व्यक्ति को प्रणाम करने में साधारण विनम्रता बरती जाती। इस विधि में विनम्रता की प्रधानता परिलक्षित नहीं होती। किंतु 'एक व्यन्तर देव' किया है। वैकल्पिक रूप में रौद्र मुद्राधर को 'रुद्र' और शान्त मुद्राधर को 'शिव' कहा जा सकता है। 'मुंह देखकर टीका करने' की मनोवृत्ति परिलक्षित होती है। वैश्रवण-उत्तर दिशा का लोकपाल। ३५. तए णं से तामली मोरियपुत्ते तेणं ओरालेणं ततः सः तामलिः मौर्यपुत्रः तेन 'ओरालेणं' ३५.' वह मौर्यपुत्र तामलि उस प्रधान, विपुल, अनुज्ञात लतवोकम्मेणं विपुलेन प्रत्तेन प्रगृहीतेन बालतपःकर्मणा शुष्कः और प्रगृहीत बालतपःकर्म से सूखा, रूखा, मांस-रहित सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठि-चम्मावणद्धे रूक्षः निर्मासः अस्थि-चावनद्धः किटिकिटि- चर्म से वेष्टित अस्थि वाला, उठते-बैठते समय किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए यावि काभूतः कृशः धमनिसन्ततः जातश्चापि आ- किट-किट शब्द से युक्त, कश और धमनियों का होत्था। जालमात्र हो गया। सीत्। .३६. तए णं तस्स तामलिस्स बालतवस्सिस्स ततः तस्य तामलेः बालतपस्विनः अन्यदा ३६. किसी एक दिन मध्यरात्रि में अनित्य जागरिका अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये अनित्य- करते हुए उस बालतपस्वी तामलि के मन में यह इस अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयासवे जागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं इस विशिष्ट रूप समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरा- –एवं खलु अहं अनेन 'ओरालेणं' विपुलेन वाले प्रधान, विपुल, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, लेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं प्रत्तेन प्रगृहीतेन कल्याणेन शिवेन धन्येन धन्य, मंगलमय, श्रीसम्पन्न, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं मांगल्येन सश्रीकेण उदग्रेण उदात्तेन उत्तमेन उत्तम और महान् प्रभावी तपःकर्म से सूखा, रूखा, उदत्तेणं उत्तमेण महाणुभागेणं तवोकम्मेणं महानुभागेन तपःकर्मणा शुष्कः रूक्षः यावद् यावत् धमनियों का जालमात्र हो गया हूं। अतः जब सुक्के लुक्खे जाव धमणिसंतए जाए, तं अत्थि धमनिसन्ततः जातः, तद् अस्ति यावन् मे तक मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारजाव मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार- उत्थानं कर्म बलं वीर्यं पुरुषाकार-पराक्रमः पराक्रम है, तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल परक्कमे तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए तावन् मे श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर रयणीए जाव उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि यावद् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर दिणयरे तेयसा जलते तामलित्तीए नगरीए ज्वलति ताम्रलिप्त्याः नगर्याः दृष्टाभाषितान् च ताम्रलिप्ति नगरी में जिन्हें देखा है, जिनके साथ १. भ. वृ. ३/३३- 'पाणामाए' त्ति प्रणामोऽस्ति विधेयतया यस्यां सा प्राणामा। ३. वही, ३/३४----आर्यां प्रशान्तरूपां चण्डिका, 'कोट्टकिरियं व' त्ति चण्डिकामेव रौद्ररूपां, २. वही, ३/३४- 'रूद्द वा' महादेवं 'सिवं व' त्ति व्यन्तरविशेषम्, आकारविशेषो दृश्यः महिषकुट्टनक्रियावतीमित्यर्थः। आकारविशेषधर वा रुद्धमेव। Jain Education Intemational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१ : सू.३५,३६ २४ भगवई दिट्ठाभट्टे य पासंडत्थे य गिहत्थे य पुब्ब- पाषण्डस्थान् च गृहस्थान् च पूर्वसांगतिकान् संगतिए य परियायसंगतिए य आपुच्छित्ता चपर्यायसांगतिकान्च आपृच्छ्य ताम्रलिप्त्याः तामलित्तीए नगरीए मज्झंमज्झेणं निग्गच्छित्ता नगर्याः मध्य-मध्येन निर्गम्य पादुका-कुण्डि- पादुग-कुंडिय-मादीयं उवगरणं दारुमयं च __ कादिकम् उपकरणं दारुमयं च प्रतिग्रहकम् पडिग्गहगं एगते एडित्ता तामलित्तीए नगरीए । एकान्ते एडयित्वा ताम्रलिप्त्याः नगर्याः उत्तरउत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए णियत्तणिय-मंडलं पोरस्त्ये दिग्भागे निवर्तनिक-मण्डलम् आआलिहित्ता संले हणा-झूसणा-झूसियस्स लिख्य संलेखना-जोषणा-जुषितस्य प्रत्याभत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स ख्यातभक्तपानस्य प्रायोपगतस्य कालम् अकालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु नवकांक्षतः विहर्तुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए संप्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वदिणयरे तेयसा जलंते तामलित्तीए नगरीए लति ताम्रलिप्त्याः नगर्याः दृष्टाभाषितान् च दिट्ठाभट्ठे य पासंडत्थे य गिहत्थे य पुब्ब- पाषण्डस्थान् पूर्वसांगतिकान् च पर्यायसंगतिए य परियायसंगतिए य आपुच्छइ, सांगतिकान् च आपृच्छति, आपृच्छ्य ताम्रआपुच्छित्ता तामलित्तीए नयरीए मज्झमज्झेणं लिप्याः नगर्याः मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पादुग-कुंडिय-मादीयं पादुकाकुण्डिकादिकम् उपकरणं दारुमयं च उवगरणं दारुमयं च पडिग्गहगं एगते एडेइ, प्रतिग्रहकम् एकान्ते एडयति, एडयित्वा ताम्रएडित्ता तामलित्तीए नगरीए उत्तरपुरत्थिमे लिप्त्याः नगर्याः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे निवदिसिभाए णियत्तणिय-मंडलं आलिहइ, आलि- तनिक-मण्डलम् आलिखति, आलिख्य संलेहित्ता संलेहणा-झूसणा-झूसिए भत्तपाण- खना-जोषणा-जुषितः प्रत्याख्यात-भक्तपानः पडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे ॥ प्रायोपगमनं निपन्नः'। बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों' (श्रमणों) और गृहस्थों, तापस जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों तथा तापस जीवन में परिचितों को पूछ कर ताम्रलिप्ति नगरी के मध्य भाग से गुजर कर पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण और काष्ठमय पात्र को एकान्त में छोड़ कर ताम्रलिप्ति नगरी के उत्तरपूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में निवर्तनिक मण्डल का आलेखन कर संलेखना की आराधना में लीन हो भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं-ऐसी संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर ताम्रलिप्ति नगरी में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों (श्रमणों) और गृहस्थों, तापस जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों और तापस जीवन में परिचितों को पूछता है, पूछकर ताम्रलिप्ति नगरी के मध्य भाग से निर्गमन करता है, निर्गमन कर वह पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण और काष्ठमय पात्र को एकान्त स्थान में छोड़ता है। छोड़ कर ताम्रलिप्ति नगरी के उत्तरपूर्व दिग्भाग में निवर्तनिक मण्डल का आलेखन करता है। आलेखन कर वह संलेखना-आराधना से युक्त हो कर भोजन-पानी का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन में उपस्थित हो गया। भाष्य १. सूत्र ३५,३६ द्रष्टव्य भ०२/६४ का भाष्य। २. बालतपःकर्म से, बालतपस्वी यहां 'बाल' शब्द का प्रयोग मिथ्यादर्शन और अविरति दोनों का सूचक है। जिस तपस्या के साथ सम्यग्दर्शन जुड़ा हुआ नहीं होता,उसे 'बालतप' । और उसके कर्ता को 'बालतपस्वी' कहा जाता है। देवलोक में उत्पन्न होने के चार कारण बतलाए गए हैं। उनमें तीसरा कारण बालतपः-कर्म है।' यद्यपि तामलि का तप निदान या आकांक्षा से मुक्त था, फिर भी सम्यग् दर्शन के अभाव में वह बालतप की भूमिका में ही रहा। ३. अनित्य-जागरिका पदार्थ का संयोग अनित्य है। इस अनित्यत्व का अनुचिन्तन। ५. पाषण्डस्थ श्रमण दीक्षा में दीक्षित। तामलि तपस्वी था। श्रमणों के पांच प्रकारों में एक प्रकार है तापस। इसलिए उनका पापण्डों-श्रमणों से सम्पर्क रहा। तामलि ने उन श्रमणों से पूछा जो दृष्टाभाषित थे। उन गृहस्थों से भी पूछा जो पूर्वसांगतिक यानी गृहस्थ-जीवन में परिचित थे तथा जो प्रव्रज्या-जीवन में परिचित थे यानी पर्यायसांगतिक थे। इससे एक निष्कर्ष निकलता है कि तामलि किसी गुरु के पास प्रव्रजित नहीं हुआ था। यदि कोई गुरु होता तो अनशन के लिए सबसे पहले उनकी स्वीकृति लेता। स्कन्दक ने अनशन किया, उससे पहले भगवान महावीर से स्वीकृति प्राप्त की। प्रस्तुत प्रकरण में किसी गुरु या आचार्य से स्वीकृति लेने का उल्लेख नहीं है। ४. प्रधान आदि ६. प्रायोपगमन अनशन में उपस्थित हो गया। द्रष्टव्य भ०२/४ का भाष्य। द्रष्टव्य भ. २/६४ का भाष्य। १.भ.८/४२८-देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएण? गोयमा! सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए देवाउयकम्मा- सरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। २. दसवे. हा. टी. प.६८। द्रष्टव्य दसवे. १/३ का टिप्पण, पृ. ११। Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई स्कन्दक और तामलि के प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने की प्रक्रिया में जो अन्तर है, वह इस प्रकार है स्कन्दक तामलि पृथ्वी शिलापट्ट पर डाभ का बिछौना निवर्तनिक मंडल का आलेखन पकासन में निषण्ण X दो नमोस्तु का प्रयोग X महाव्रतों का आरोपण X निर्वतन क्षेत्र का परिमाण है वृत्तिकार ने उसकी स्पष्ट परिभाषा नहीं दी है। उन्होंने एक मतान्तर का भी उल्लेख किया है उसके अनुसार अपने शरीर प्रमाण भूमि को नियर्तन कहा जाता है। आप्टे कोश के अनुसार २० दण्ड अथवा ८० हाथ का एक निवर्तन होता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार चार अरनि (बद्रमुष्टि हाथ) का एक दण्ड, १० दण्ड की एक रज्जु और तीन रज्जु का एक निवर्तन।' लीलावती के अनुसार दस हाथ का एक बांस और २० बांस का एक निवर्तन होता है।" इस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रदेशों में निवर्तन का माप भिन्न-भिन्न प्रकार का रहा है। तामलि तापस ने अपने अनशन के लिए एक निवर्तनिक मंडल ( १० हाथ से अधिक भूमि ) की सीमा निर्धारित ३७. तेण कालेन तेण समरणं बलिचंचा रायहाणी अनिंदा अपुरोहिया या वि होत्था ॥ १. इन्द्र और पुरोहित से रिक्त थी प्रस्तुत सूत्र में अनिन्द्र और अपुरोहित दो पदों का उल्लेख है। देवों के इस निकाय बतलाए गए हैं- इन्द्र, सामानिक, त्रयस्त्रिंश, पारिषय, आत्मरक्ष लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक। इनमें पुरोहित का उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थ भाष्यकार ने तावत्रिंशक या त्रायस्त्रिशक को पुरोहित स्थानीय बतलाया है।" वृत्तिकार ने पुरोहित का अर्थ 'शान्तिकर्मकारी' किया है। उनका अभिमत है कि पुरोहित इन्द्र के होता है। इन्द्र के अभाव में पुरोहित नहीं होता। इसलिए अनिन्द्र और अपुरोहित दोनों पदों का उल्लेख किया गया 原 प्रस्तुत प्रसंग में वृत्तिकार का तर्क विमर्शनीय है। यदि इन्द्र के अभाव में पुराहित न हो तो सामानिक आदि कैसे होंगे? अग्रमहिषियां कैसे होगी? यहां पुरोहित इन्द्र का ही एक विशेषण होना चाहिए। वे असुरकुमार देव १. भ. वृ. ३/३६ निवर्त्तनं - क्षेत्रमानविशेषस्तत्परिमाणं निवर्त्तनिकं, निजतनुप्रमाणमित्यन्ये । २. आप्टे निवर्तन - A measure of land (20 rods) २५ दण्ड - A measure of length equal to 4 Hastas ३. कौटिलीय अर्थशास्त्र पृ. ११५, अष्टत्रिंश प्रकरण, बीसवां अध्याय - चतुररनिर्दण्डी.... दश दण्डा रज्जुः । त्रिरज्जुकं निवर्तनम् । ४. लीलावती, परिभाषाप्रकरणम्, श्लोक ७--- तथा कराणां दशकेन वंशः, निवर्तनं विंशतिवंशसंख्यैः ॥ की थी। तस्मिन् काले तस्मिन् समये बलिचञ्चा राजधानी अनिन्द्रा अपुरोहिता चापि आसीत् । ७. निवण्ण वृत्तिकार ने निवरण का संस्कृत रूप 'निष्पन्न' किया है।" किन्तु 'निष्पन्न' का प्राकृत रूप 'निप्पण्ण' या 'निप्फण्ण' होना चाहिए। 'निवण्ण' का संस्कृत रूप 'निपन्न' हो सकता है। इसका अर्थ 'सोया हुआ है। स्कन्दक ने पर्यकासन की मुद्रा में बैठकर अनशन स्वीकार किया था हो सकता है तामलि ने लेटकर अनशन किया हो कायोत्सर्ग तीन मुद्राओं में किया जाता है-बड़े होकर, बैठकर और लेटकर । खड़े होकर अनशन करना संभव नहीं, बैठकर और लेटकर – इन दोनों मुद्राओं में किया जा सकता है। तपस्वियों में कायोत्सर्ग की शयन मुद्रा में अनशन करने की परम्परा रही है। कुण्डिका आदि शब्दों के लिए भ० २ / ३१ का भाष्य द्रष्टव्य है। शब्द-विमर्श भाष्य इन्द्र की अनुपस्थिति को प्रवत वेग के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। वे कह रहे हैं“हमारे यहां कोई इन्द्र नहीं है - अधिपतित्व करने वाला कोई नहीं है, पुरोहित नहीं है — अग्रस्थान पर स्थापित कोई नहीं है । ” इसलिए इन्द्र और पुरोहित ये दो नहीं है। इन्द्र के प्रसंग में पुरोहित की चर्चा करना प्रासंगिक भी नहीं है। ३८वें सूत्र के "इंदाहीणा, इंदाहिडिया, इंदाहीणकन्जा" ये तीन शब्द इसी तथ्य का समर्थन कर रहे हैं। श.३ उ. १ सू. ३५-३७ दिट्ठागड - दिट्ठ- जिनका साक्षात्कार हुआ है। आभट्ट - जिनके साथ वार्त्तालाप हुआ है 'आभट्ट' देशी शब्द है। ३७. उस काल और उस समय बलिचञ्चा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त थी।' वृत्तिकार ने पुरोहित का अर्थ 'शान्तिकर्मकारी' किया है। किंतु 'पुरोहित' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं -- Placed in front (आगे स्थापित) (२) appointed नियुक्त) (२) charged (दायित्व दिया गया) (४) one charged with a business, an agent (दलाल) (५) A familypriest, one who conducts all the ceremonial rites of the family. (परिवार पर पुजारी, वह व्यक्ति जो परिवार के धार्मिक क्रियाकाण्डों का संचालन करता है।) ५. भ. पृ. ३/३६ - निवण्णे' त्ति पादपोपगमनं 'निष्पन्नः' उपसंपन्न आश्रित इत्यर्थः । ६. त. सू. ४/४ इन्द्र सामानिकत्रायस्त्रिशपरिषद्यात्मरक्षलो कपालानीक प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः । ७. त. भा. ४/४ - त्रायस्त्रिशा मन्त्रिपुरोहितस्थानीयाः । ८. भ. वृ. ३/३७ - 'अनिंद' त्ति इन्द्राभावात् 'अपुरोहिय' त्ति शान्तिकर्मकारिरहिता अनिन्द्रत्वादेव पुरोहितो हीन्द्रस्य भवति तदभावे तु नासाविति । ६. आप्टे - पुरोहित शब्द। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१ : सू.३८ २६ भगवई ३८. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थबया बहवे ततः ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवः ३८. वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बाल- असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च तामलिं बाल- असुरकुमार देव और देवियां अवधिज्ञान से बाल तवस्सिं ओहिणा आभोएंति, आभोएत्ता तपस्विन अवधिना आभोगयन्ति, आभोग्य तपस्वी तामलि को देखते हैं। उसे देख कर वे परस्पर अण्णमण्णं सद्दावेंति,सद्दावेत्ता एवं वयासि- अन्योन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवम् अ- एक दूसरे को बुलाते हैं। उन्हें बुला कर वे इस प्रकार एवं खलु देवाणुप्पिया! बलिचंचा रायहाणी वदन्–एवं खलु देवानुप्रियाः ! बलिचञ्चा- बोले-देवानुप्रियो ! बलिचञ्चा राजधानी इन्द्र और अणिंदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवाणुप्पिया! राजधानी अनिन्द्रा अपुरोहिता, वयं च देवानु- पुरोहित से रिक्त है। देवानुप्रियो! हम इन्द्र के अधीन इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, अयं च प्रियाः। इन्द्राधीनाः इन्द्राधिष्ठता इन्द्राधीन- हैं, इन्द्र में अधिष्ठित हैं और हमारे सारे काम इन्द्र णं देवाणुप्पिया! तामली बालतवस्सी ताम- कार्याः, अयं च देवानुप्रियाः! तामलिः बाल- के अधीन हैं। देवानुप्रियो! यह बालतपस्वी तामलि लित्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसि- तपस्वी ताम्रलिप्त्याः नगर्याः बहिः उत्तरपोरस्त्ये ताम्रलिप्ति नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिग्भाग में भागे नियत्तणिय-मंडलं आलिहित्ता संले- दिग्भागे निवर्तनिक-मण्डलम् आलिख्य सं- निवर्तनिक मण्डल का आलेखन कर, संलेखना की हणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए लेखनाजोषणाजुषितः प्रत्याख्यातभक्तपानः आराधना से युक्त हो भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर पाओवगमणं निवण्णे, तं सेयं खलु देवाणु- प्रायोपगमनं निपन्नः, तत् श्रेयः खलु देवानु- प्रायोपगमन अनशन कर लेटा हुआ है। देवानुप्रियो! प्पिया! अम्हं तामलिं बालतवरिंस बलिचंचाए प्रियाः! अस्माकं तामलिं बालतपस्विनं बलि- हमारे लिये यह श्रेयस्कर है कि बालतपस्वी तामलि रायहाणीए ठितिपकप्पं पकरावेत्तए त्ति कटु चञ्चायै राजधान्य स्थिति-प्रकल्पं प्रकारयितुम् को बलिचचा राजधानी के लिए स्थिति-प्रकल्प' अण्णमण्णस्स अंतिए एयमटुं पडिसुणेति, इति कृत्वा अन्योन्यस्य अन्तिके एतदर्थं (विशेष संकल्प) करवाएं। ऐसा सोच कर वे एक दूसरे पडिसुणेत्ता बलिचंचाए रायहाणीए मज्झं- प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य बलिचञ्चायाः राज- के पास इस बात को स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर मज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छिता जेणेव रुय- धान्याः मध्यंमध्येन निर्गच्छन्ति, निर्गम्य यत्र बलिचञ्चा राजधानी के मध्य भाग से निगमन करते गिंदे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवा- रुचकेन्द्रः उत्पातपर्वतः तत्र उपागच्छन्ति, हैं। निर्गमन कर वह जहां रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत हैं, गच्छिता वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णंति, उपागम्य वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते, वहां आते हैं। वहां आ कर वैक्रिय-समुद्घात से समोहणित्ता जाव उत्तरवेउव्वियाई रुवाइं समवहत्य यावद् उत्तरवैक्रियाणि रूपाणि समवहत होते हैं। समवहत हो कर उत्तरवैक्रिय रूपों विकुव्वंति, विकुवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरि- विकुर्वते, विकृत्य तथा उत्कृष्टया त्वरितया का निर्माण करते हैं। निर्माण कर वे उत्कृष्ट, त्वरित, याए चवलाए चंडाए जइणाए छेयाए सीहाए चपलया चण्डया जविन्या छेकया सेंह्या शीघ्रया चपल, चण्ड, जविनी, छेकी, सैंही, शीघ्र, उद्धृत और सिग्धाए उद्धृयाए दिवाए देवगईए तिरियं उद्भुतया दिव्यया देवगत्या तिर्यग् असंख्येयानां दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप और असंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मझमज्झेणं द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन व्यतिव्रजन्तः-व्यति- समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहां जम्बूद्वीप द्वीप, वीईवयमाणा-वीईवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे व्रजन्तः यत्रैव जम्बूद्वीपः द्वीपः यत्रैव भारतः भारतवर्ष, ताम्रलिप्ति नगरी और मौर्यपुत्र तामलि है, दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्ती नगरी वर्षः यत्रैव ताम्रलिप्तिः नगरी यत्रैव तामलिः वहां आते हैं। आ कर बालतपस्वी तामलि के ठीक जेणेव तामली मोरियपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, मौर्यपुत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तामलेः ऊपर आकाश में स्थित हो कर दिव्य देवर्द्धि, दिव्य उवागच्छित्ता तामलिस्स बालतवस्सिस्स उपि बालतपस्विनः उपरि सपक्षं सप्रतिदिशं स्थित्वा देवद्युति, दिव्य देवानुभाग और बत्तीस प्रकार की दिव्य सपक्खि सपडिदिसिं ठिच्चा दिवं देविडिंढ दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवधुतिं दिव्यं देवानुभागं नाट्यविधियां दिखाते हैं। दिखा कर तामलि तापस दिव्वं देवज्जुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिब्बं दिव्यं द्वात्रिंशद्विधं नाट्यविधिम् उपदर्शयन्ति, को दांई ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेंति, उवदंसेत्ता उपदर्य तामलिं बालतपस्विनं त्रिकृत्वः आ- हैं। प्रदक्षिणा कर वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दनतामलिं बालतवस्सि तिक्खुत्तो आयाहिण- दक्षिण-प्रदक्षिणां कुर्वन्ति, कृत्वा वन्दन्ते नम- -नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! हम पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदति नमसंति, वंदित्ता स्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादिषुः- बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! एवं खलु देवानुप्रियाः! वयं बलिचञ्चाराज- देव और देवियां आपको वन्दन करते हैं, नमस्कार अम्हे बलिचंचारायहाणीवत्थव्वया बहवे धानीवास्तव्याः बहवः असुरकुमाराः देवाश्च करते हैं, सत्कृत और सम्मानित करते हैं। आप असुरकुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पियं देव्यश्च देवानुप्रियं वन्दामहे नमस्यामो सत्- कल्याणकारी, मंगलकारी, देवरूप और चित्ताहादक वंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कारयामः सम्मानयामः कल्याणं मंगलं दैवतं हैं; इसलिए हम आपकी पर्युपासना करते हैं। कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो। चैत्यं पर्युपास्महे। अस्माकं देवानुप्रियाः! बलि- देवानुप्रिय! हमारी बलिचञ्चा राजधानी इन्द्र और अम्हण्णं देवाणुप्पिया! बलिचंचा रायहाणी चञ्चा राजधानी अनिन्द्रा अपुरोहिता,वयं च पुरोहित से रिक्त हैं। देवानुप्रिय! हम इन्द्र के अधीन अणिंदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवाणुप्पिया! देवानुप्रिया! इन्द्राधीनाः इन्द्राधिष्ठिताः इन्द्रा- हैं, इन्द्र में अधिष्ठित हैं और हमारे सारे काम इन्द्र इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा, तं तुब्भे धीनकार्याः, तत् यूयं देवानुप्रियाः! बलिचञ्चा के अधीन हैं, इसलिए देवानुप्रिय! आप बलिचञ्चा णं देवाणुप्पिया! बलिचंचं रायहाणिं आढाह राजधानी आद्रियध्वम् परिजानीथ स्मरथ, राजधानी को आदर दें, उसमें ध्यान केन्द्रित करें, परियाणह सुमरह, अटुं बंधह, निदाणं पकरेह, अर्थ बध्नीत, निदानं प्रकुरुत, स्थितिप्रकल्पं उसकी स्मृति करें। उस प्रयोजन का निश्चय करें, ठितिपकप्पं पकरेह, तए णं तुब्मे कालमासे प्रकुरुत, ततः यूयं कालमासे कालं कृत्वा बलि- निदान करें और स्थिति-प्रकल्प (वहां उत्पन्न होने का कालं किच्चा बलिचंचाए रायहाणीए उवव- चञ्चायां राजधान्यां उपपत्स्यध्वे, ततः यूयम् संकल्प) करें। इससे आप मृत्यु के समय मृत्यु प्राप्त Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ज्जिस्सह, तए णं तुभे अम्हं इंदा भविस्सह, तए णं तुब्भे अम्हेहिं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणा विहरिस्सह । १. स्थिति - प्रकल्प बलिचञ्चा-विषयक स्थिति का संकल्प | " २. उत्कृष्ट, त्वरित..... दिव्य देव गति से देवगति के नी विशेषण उपलब्ध हैं। वृतिकार ने इनका शाब्दिक अर्थ किया है। इनके अर्थ की परम्परा प्राप्त नहीं है। २७ अस्माकं इन्द्रा भविष्यथ । ततः यूयं अस्माभिः सार्धं दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानाः विहरिष्यथ । ३. सपक्खि सपडिदिसिं ( ठीक ऊपर आकाश में स्थित हो कर ) एक व्यक्ति या वस्तु के ऊपर या नीचे दूसरा व्यक्ति या वस्तु ठीक सीध में होता है उस स्थान को सपक्ष और सप्रतिदिक् कहा जाता है। 'सपक्खि' शब्द में इकार प्राकृत के अनुसार हुआ है। ठाणं में अनेक बार इन दोनों पदो का प्रयोग हुआ है। * ३६. तए गं से तामली बालतवस्ती तेहिं बलिचंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य एवं वृत्ते समाणे एयम नो आढाइ, नो परियाणेइ, तुसिणीए संचिदुइ ॥ भाष्य ४. बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्य-विधियां नाट्य विधि के ३२ प्रकारों के लिए रायपसे पाइये (सूत्र ६५ ११८) द्रष्टव्य है। ४०. तसे बचिंचारायहाणिवत्यव्यया बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओ य तामलिं मोरियपुत्तं दोच्चं पि तच्चं पि तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति जाव अम्हं च णं देवा पिया ! बलिचंचा राहाणी अनिंदा अपुरो हिया, अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा इंदाहिट्टि इंदाहीणकज्जा, तं तुब्भे णं देवागुप्पिया! बलिचंच राहाणं आढाह परिमाण सुमरह, अहं बंध, निदाणं प करेह, ठितिपकणं पकरेह जाव दोच्चं पिराच्यं पि एवं बुत्ते समाणे एयम नो आढाइ, नो १. भ. वृ. ३/३८ स्थिती अवस्थाने बलिचञ्चाविषये प्रकल्पः- संकल्पः स्थिति-प्रकल्पः । २. भ. वृ. ३/३८ - 'उत्कृष्टया' उत्कर्षवत्या देवगत्येति योगः 'त्वरितया' आकुल (त) या न स्वभावजयेत्यर्थः, अन्तराकूततोऽप्येषा स्यादित्यत आह- 'चपलया' कायचापलोपेतया 'चण्डया' रौद्रया तथाविधोत्कर्षयोगेन 'जयिन्या' गत्यन्तरजेतृत्वात् 'छेकया' निपुणया उपायप्रवृत्तितः 'सिंहया' सिंहगतिसमानया श्रमाभावेन, 'शीघ्रया' वेगवत्या 'दिव्यया' प्रधानया 'उद्धृतया' ५. आढाह..... ठितिपकप्पं पकरेह - आदर दें, उसमें ध्यान केन्द्रित करें... स्थिति प्रकल्प करें इन छह पदों में संकल्प की प्रक्रिया निर्दिष्ट है। संकल्प का पहला सूत्र है आदर। जिसके प्रति आदर का भाव नहीं होता, उस विषय का संकल्प सिद्ध नहीं होता। श. ३ : उ. १ : सू. ३८-४० कर बलिचञ्चा राजधानी में उत्पन्न हो जायेंगे। आप हमारे इन्द्र बन जायेंगे और हमारे साथ दिव्य भोगाई भोगों को भोगते हुए विहरण करेंगे। इसका दूसरा तत्त्व है परिज्ञा-संकल्प विषय की धारणा । धारणा होने पर ही संकल्प की सिद्धि होती है। इसका तीसरा सूत्र है-स्मृति संकल्प-विषय की सतत् स्मृति संकल्प-सिद्धि के लिए आवश्यक है। इसका चौथा सूत्र 'है—अर्थबन्ध । संकल्प के प्रयोजन के साथ तादात्म्य स्थापित करने पर वह सिद्ध होता है। ततः स तामलिः बालतपस्वी तैः बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्यैः बहुभिः असुकुमारैः देवैः देवीभिश्च एवमुक्ते सति एतदर्थं नो आद्रियते, नो परिजानाति, तूष्णीकः सन्तिष्ठते । इसका पांचवा सूत्र है - निदान संकल्प विषय के प्रति तीव्र अभिलाषा सकल्प -सिद्धि के लिए आवश्यक होती है। असुरकुमार देवों और देवियों ने स्थिति-प्रकल्प की सिद्धि के लिए ये पांच उपाय बतलाए । स्वतः सूचना-पद्धति (auto-suggestology) अथवा संकल्प -सिद्धि (goal achievement) के लिए ये बहुत उपयोगी है। ततः ते बलिञ्चराजधानीवास्तव्याः बहवः असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च तामलिं मौर्यपुत्रं द्वितीयमपि तृतीयमपि त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणां कुर्वन्ति यावद् अस्माकं च देवानुप्रिय ! बलिचञ्चा राजधानी अनिन्द्रा अपुरोहिता, वयं च देवानुप्रिय ! इन्द्राधीनाः इन्द्राधिष्ठिताः इन्द्राधीनकार्याः, तत् यूयं देवानुप्रियाः ! बलिचञ्चां राजधानी आद्रियध्वम्, परिजानीत स्मरत, अर्थ बध्नीत, निदानं प्रकुरुत, स्थितिप्रकल्पं प्रकुरुत यावद् द्वितीयमपि तृतीयमपि एवमुक्ते सति एतदर्थ मो आद्रियते, नो परि ३८. वह बालतपस्वी तामलि उन बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देवों और देवियों के द्वारा ऐसा कहने पर उनकी बात को न आदर देता है और न उस पर ध्यान केन्द्रित करता है, मौन रहता है। ४०. बलिचञ्चाराजधानी में रहने वाले व अनेक असुरकुमार देव और देवियां मोर्यपुत्र तामलि को दूसरी आर भी, तीसरी बार भी दाई ओर से प्रारंभ कर तीन चार प्रदक्षिणा करते हैं यावत् (वे बोले – देवानुप्रिय हमारी बलिया राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त है । देवानुप्रिय ! हम इन्द्र के अधीन हैं, इन्द्र में अधिष्ठित है और हमारे सारे कार्य इन्द्र के अधीन है, इसलिए देवानुप्रिय ! आप बलिचञ्चा राजधानी को आदर दें, उस में ध्यान केन्द्रित करें, उसकी स्मृति करें, उस प्रयोजन का निश्चय करें, निदान करें और स्थिति-प्रकल्प (वहां उत्पन्न होने का संकल्प) करें यावत् या वादा ३. वही, ३/३८ -- 'सपक्खि' त्ति समाः सर्वे पक्षाः पार्थ्याः पूर्वापरदक्षिणोत्तरा यत्र स्थाने तत्सपक्षम्, इकारः प्राकृतप्रभवः समाः सर्वाः प्रतिदिशो यत्र तत्सप्रतिदिक् । ४. टाणं, ३/१३१, १३२, ४/४८२। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ. १ : सू. ४०-४५ परियाणे, तुसिणीए संवि ४१. तर ते बलिचारायानिवत्यव्यया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिणा बालतवरिसणा अणाढाइज्जमाणा अपरियाणिज्यमाणा जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पहिगया | ४३.तए णं से तामली बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई सट्ठि वाससहस्साइं परियागं पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता कालमासे कालं किच्या ईसाने कप्पे ईसानवडेंस विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए ईसाणदेविंदविरहियकालसमयंसि ईसाणदेविदत्ताए उववण्णे || ४२. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे कप्पे तस्मिन् काले तस्मिन् समये ईशानः कल्पः अणिंदे अपुरोहिये यावि होत्था ॥ अनिन्द्रः अपुरोहितश्चापि आसीत् । ४४.तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया अहुणोववण्णे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छड़, (वं जहा आहारपज्जत्तीए जाव भासा-गणपतीए ४५. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिं बालतवस्सिं कालगतं जाणित्ता, ईसाणे य कप्पे देविंदत्ताए उववण्णं पासित्ता आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा बलिचंचाए रायहाणी मज्झंमज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता ताए उक्किट्टाए जाव जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्ती नयरी जेणेव तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरए तेणेव उवागच्छंति, वामे पाए सुंबे बंधंति, तिक्खुत्तो मुहे निट्ठहंति, तामलित्तीए नगरीए सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- महापह-पहेसु आकड्ढविकड़िंढ करे माणा, महया - महया सद्देणं उपो सेमाना- उपोसेमाना एवं क्यासिकेसणं भो ! से तामली बालतवस्सी सयंगहियलिंगे पाणामा पव्वज्जा पव्वइए ? केस णं से ईसाणे कप्पे ईसाणे देविंदे देवराया ? -ति २८ जानाति, तूष्णीकः सन्तिष्ठते ॥ ततः ते बलिवस्वाराजधानीवास्तव्याः बहवः असुरकुमाराः देवाश्च देवयश्च तामलिना बालतपस्विना अनाद्रियमाणाः अपरिज्ञायमाणाः यस्यादिशः प्रादुरभूवन् तामेव दिशं प्रतिगताः। ततः सः तामलि बालतपस्वी बहुप्रतिपूर्णानि षष्टिं वर्षसहस्राणि पर्यायं प्राप्य द्विमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा, सविंशतिभक्तशतं अनशनेन छित्त्वा कालमासे कालं कृत्वा ईशाने कल्पे ईशानावतंसके विमाने उपपातसभायाः देवशयनीये देवदूष्यान्तरितः अंगुलस्य असंख्येयभागमात्रया अवगाहना ईशानदेवेन्द्रविरहितकालसमये ईशान देवेन्द्रत्वेन उपपन्नः । ततः सः ईशानः देवेन्द्रः देवराजः अधुनोपपन्नः पञ्चविधया पर्याप्तत्या पर्याप्तिभावं गच्छति, (तद् यथा - आहारपर्याप्त्या यावद् भाषामनःपर्याया ततः ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः वहवः असुरकुमाराः देवाश्व देव्यश्च तामलिं बालतपस्विनं कालगतं ज्ञात्वा ईशाने च कल्पे देवेन्द्रत्वेन उपपन्नं दृष्ट्वा आशुरुप्ताः रुष्टाः कुपिताः चाण्डिक्यिताः मिसिमिसिमानाः बलिचञ्चायाः राजधान्याः मध्यमध्येन निगच्छन्ति, निर्गम्य तया उत्कृष्टया यावद् यत्रेव भारत: वर्षः यत्रेव ताम्रलिप्तिः नगरी यत्रैव तामलेः बालतपस्विनः शरीरं तत्रैव उपागच्छन्ति, वामं पादं शुबेन बध्नन्ति, त्रिकृत्वः मुखे निष्ठीव्यन्ति ताम्रलिप्त्याः नगः शृंगाटकत्रिक-चतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख-महापथ-पधेषु आकर्ष- विकृष्टिं कुर्वन्तः महता-महता शब्देन उद्घोषयन्तः उद्घोषयन्तः एवमवादिषुः रु एष भो! स तामलिः बालतपस्वी स्वयं गृहीतलिंगः प्राणामायां प्रव्रज्यायां प्रव्रजितः ? क एष स ईशाने कल्पे ईशानाः देवेन्द्रः देवराजः ? इति भगवई दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा कहने पर वह न तो उनकी बात को आदर देता है और न उस पर ध्यान केन्द्रित करता है, मौन रहता है। ४१. वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां बालतपस्वी तागलि के द्वारा अनादृत और अस्वीकृत होकर जिस दिशा में आए थे, उसी दिशा में चले गए। ४२. उस काल और उस समय ईशान कल्प (दूसरा देवलोक ) इन्द्र और पुरोहित से रिक्त था। ४३. वह बालतपस्वी तामलि पूरे साठ हजार वर्ष के तापस पर्याय का पालन कर दो मास की संलेखना से अपने आपको कृश बना कर अनशन के द्वारा एक सौ बीस भक्तों का छेदन कर काल मास में काल को प्राप्त कर ईशान कल्प के ईशानावतंसक विमान में उपपात सभा के देवदृष्य से आच्छन्न देवशयनीय में अंगुल के असंख्येय भाग जितनी अवगाहना से ईशान देवेन्द्र से विरहित समय में ईशान देवेन्द्र के रूप में उपपन्न हो गया। ४४. वह तत्काल उपपन्न देवेन्द्र देवराज ईशान पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होता है, (जैसेआहारपर्याप्ति से यावत् भाषा मन पर्याप्ति से) ४५. ' बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां बालतपस्वी तामलि को मृत जान कर तथा ईशान कल्प में देवेन्द्र रूप में उपपन्न देख कर तत्काल आवेश में आ गए, रुष्ट हो गए, कुपित हो गए। उनका रूप रौद्र बन गया। वे क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठे। वे बलिचञ्चा राजधानी के मध्यभाग से निर्गमन करते हैं, निर्गमन कर उस उत्कृष्ट दिव्य देवगति से यावत् जहां भारतवर्ष है, जहां ताम्रलिप्ति नगरी है और जहां बालतपस्वी तामलि का मृत शरीर पड़ा हुआ है, वहां आते हैं। उसके बाएं पैर को रज्जु से बांधते हैं, तीन बार मुंह पर चूकते हैं और ताम्रलिप्त नगरी के दुराहों, तिराहों, चौराहों, चौक, चार द्वार वाले स्थानों, राजपथों और सामान्य मार्गों पर उसको घसीटते हुए बाढ़ स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार बोले- कौन है यह बालतपस्वी तामलि जो स्वयं ही तापस का लिंग धारण कर प्राणामा प्रव्रज्या में प्रव्रजित हुआ था? कौन है वह ईशान कल्प में देवेन्द्र देवराज Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६ श.३ : उ.१ : सू.४५,४६ कटु तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं कृत्वा तामलेः बालतपस्विनः शरीरकं हेलयन्ति हीलंति निंदति खिंसंति गरहंति अवमण्णंति निन्दन्ति 'खिसंति' गर्हन्ते अवमन्यन्ते तज्जेंति तालेंति परिवहति पव्वहेंति, आकड्ढ- तर्जयन्ति ताडयन्ति परिव्यथन्ते प्रव्यथन्ते विकडिंढ करेंति, हीलेत्ता निंदित्ता खिंसित्ता आकर्ष-विकृष्टिं कुर्वन्ति, हेलयित्वा निन्दित्वा गरहित्ता अवमण्णेत्ता तज्जेत्ता तालेत्ता परि- खिंसित्वा गर्हित्वा अवमत्य तर्जयित्वा ताडयित्वा वहेत्ता पन्चहेत्ता आकड्ढ-विकड्ढि करेत्ता परिव्यथ्य प्रव्यथ्य आकर्ष-विकृष्टिं कृत्वा एकाएगंते एडंति, एडित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया न्ते एडयन्ति, एडयित्वा यस्याः दिशः प्रादुरभूवन् तामेव दिसिं पडिगया । तास्यामेव दिशि प्रतिगताः। ईशान? ऐसा कहकर वे बालतपस्वी तामलि के शरीर की हेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्हा, अवमानना, तर्जना, ताड़ना, कदर्थना करते हैं, व्यथा (अथवा संचालन) उत्पन्न करते हैं और घसीटते हैं। हेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्हा, अवमानना, तर्जना, ताड़ना, कदर्थना कर और व्यथित कर, घसीट कर उसे एकान्त में डाल देते हैं। डाल कर जिस दिशा से आए उसी दिशा में चले गए। भाष्य १. सूत्र ४५ निठुहंति-थूकते हैं। वृत्तिकार ने उठुहंति पाठ की व्याख्या की है।' शब्द-विमर्श हीलंति...... आकड्ढ-विकट्टि करेंति-असुरकुमार देवों ने आसुरुत्त-- तत्काल आवेश में आ गए। इसका संस्कृत रूप तामलि के शरीर की अवज्ञा की। उसका चित्रण १० क्रियापदों में उपलब्ध आशुरुप्त होता है। रुप् धातु का क्त प्रत्यय का रूप ‘रुप्त' बनता है। 'रुप्' का है-हेलना, निन्दा, खिंसा, अवमानना, तर्जना, ताड़ना, परिव्यथा, प्रव्यथा और अर्थ आप्टे कोश में to disturb (बाधित करना) किया गया है। वृत्तिकार ने आकर्ष-विकृष्टि करना। इन सभी क्रियाओं द्वारा अवज्ञा का उत्कर्ष दिखलाया आसुरुत्त का अर्थ 'कोप से विमूढ़ मति वाला' किया है।' गया है। शब्द मीमांसा के अनुसार प्रत्येक शब्द का अपना स्वतंत्र अर्थहै। वृत्तिकार ने चंडिक्किय-रौद्ररूपधारी। इसका संबंध चंडिक्क शब्द से है। उसकी व्याख्या की है। भगवई (१२/१०३) में क्रोध के दस पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं। उनमें इनमें कुछ क्रियापद विमर्शनीय हैंएक 'चंडिक्क' है। यह देशी शब्द है।' खिंस--यह देशी धातु है। मिसिमिसेमाण-क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त। आप्टे ने 'मिश्' व्यथ-धातु के दो अर्थ हैं-भय और संचालन । व्यथा का अर्थ धातु का अर्थ क्रुद्ध होना भी किया है।' पीड़ा भी होता है। मृत शरीर को पीड़ा की अनुभूति नहीं होती, इसलिए यहां शुम्ब--- रज्जु। आप्टे ने कोश में 'शुम्ब' का अर्थ रस्सी (rope) इसका अर्थ 'संचालित करना' ही संगत लगता है। किया है। आकर्ष-विकृष्टि-- घसीटना। ४६. तएणं ते ईसाणकप्पवासी बहवे देमाणिया ततः ते ईशानकल्पवासिनः बहवः वैमानिकाः ४६. वे ईशान कल्पवासी अनेक वैमानिक देव और देवियां देवा य देवीओ य बलिचंचारायहाणिवत्थ- देवाश्च देव्यश्च बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्यैः बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार व्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि बहुभिः असुरकुमारेः देवेः देवीभिश्च तामलेः देवों और देवियों के द्वारा बालतपस्वी तामलि के शरीर य तामलिरस बालतवस्सिस्स सरीरयं ही- बालतपस्विनः शरीरकं हील्यमानं निन्द्यमानं की हेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्हा, अवमानना, तर्जना, लिज्जमाणं निंदिज्जमाणं खिंसिज्जमाणं गर- खिस्यमानं गर्यमाणम् अवमन्यमानं तर्प्यमानं ताड़ना, कदर्थना, व्यथा (संचालन) की जा रही है, हिज्जमाणं अवमण्णिज्जमाणं तज्जिज्जमाणं ताड्यमानं परिव्यथ्यमानं प्रत्यथ्यमानं आकर्ष- उसे घसीटा जा रहा है--यह देखते हैं। देख कर वे तालेज्जमाणं परिवहिज्जमाणं पव्वहिज्जमाणं विकृष्टिं क्रियमाणं पश्यन्ति, दृष्ट्वा आशुरुप्ताः तत्काल आवेश में आ जाते हैं यावत् क्रोध की अग्नि आकड्ढ विकडिंढ कीरमाणं पासंति, पासित्ता यावन् मिसिमिसिमानाः यत्रैव ईशानः देवेन्द्रः से प्रदीप्त हो जाते हैं। वे जहां देवेन्द्र देवराज ईशान हैं, आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाणे देवराजः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य करतल- वहां आते हैं। आ कर दोनों हथेलियों से निष्पन्न देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छंति, उवाग- परिगृहीतां दसनखां शिरसावर्तं मस्तके सम्पुटवाली दशनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख च्छित्ता करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, घुमा कर मस्तक पर टिका कर जय-विजय की ध्वनि मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वर्धापयित्वा एवमवादिषुः-- एवं खलु से उन्हें वर्धापित कर वे इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलुदेवाणुप्पिया! देवानुप्रियाः! बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुर- बहवः असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च देवानु- देव और देवियां आपको मृत जान कर तथा ईशानकल्प १. भ. वृ ३/४५.-'आसुरुत्ता'-शीघ्रकोपविमूढबुद्धयः । २ वही, ३/४५---चटिक्किय' त्ति प्रकटितरौद्ररूपः। ३. देशीशब्दकोश। ४. (क) भ. वृ. ३/४५-'मिसिमिसेमाणे' त्ति देदीप्यमानाः क्रोधज्वलनेनेति। ख) आप्रे-मिश्-to be angry. ५. भ. वृ. ३/४५- 'उठुहंति' त्ति अवष्ठीव्यन्ति-निष्ठीवनं कुर्वन्ति। ६. वही, ३/४५ 'हीलेंति' ति जात्याउदघाटनतः कृत्सन्ति, "निदंति ति चेतसा कत्सन्ति, 'खिसंति' नि स्वसमक्षं वचनैः कुत्सन्ति, 'गरहति' ति लोकसमक्ष कुत्सन्त्येव, 'अवमण्णंति' त्ति अवमन्यन्ते--अवज्ञाऽऽस्पदं मन्यन्ते, 'तज्जिति' ति सर्वतो व्यथन्ते कदर्थयन्ति, 'पन्चहति' त्ति प्रव्यथन्ते प्रकृष्टव्यथामिवोत्पादयन्ति, 'आकडविकहि' त्ति आकर्षविकर्षिकां। Jain Education Intemational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१ : सू.४६,४६ ३० भगवई कुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पिए कालगए प्रियं कालगतं ज्ञात्वा, ईशाने कल्पे इन्द्रत्वेन जाणित्ता ईसाणे य कप्पे इंदत्ताए उववण्णे उपपन्नं दृष्ट्वा आशुरुप्तः यावन् मिसिमिसि- पासेत्ता आसुरुत्ता जाव एगते एडेंति, एडेत्ता मानाः एकान्ते एडयन्ति, एडयित्वा यस्याः दिशः जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। प्रादुरभूवन् तास्यामेव दिशि प्रतिगताः। में इन्द्र के रूप में उपपन्न देखकर तत्काल आवेश में आ गए यावत् उस शरीर को घसीटते हुए एकान्त में डाल देते हैं। डाल कर जिस दिशा से आए उसी दिशा में चले गए। ४७. तए णं ईसाणे देविंदे देवराया तेसिं ईसाण- ततः ईशानः देवेन्द्रः देवराजः तेषाम् ईशान- ४७. देवेन्द्र देवराज ईशान उन ईशानकल्पवासी अनेक कप्पवासीणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य कल्पावासिनां बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां वैमानिक देवों और देवियों के पास यह बात सुन कर, देवीण य अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म च अन्तिके एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य आशुरुप्तः अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया यावत् क्रोध आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तत्थेव सय- यावत् मिसिमिसिमानः तत्रैव शयनीयवरगतः की अग्नि से प्रदीप्त हो गया। वह उसी शयनीय (शय्या) णिज्जवरगए तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहृत्य बलिचञ्चा- पर बैठा हुआ ललाट पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि' बलिचंचारायहाणिं अहे सपक्खिं सपडिदिसिं राजधानीम् अधः सपक्षं सप्रतिदिशं समभि- को चढ़ा कर अपने ठीक नीचे बलिचञ्चा राजधानी समभिलोएइ ॥ लोकते। को देखता है। भाष्य १. भृकुटी वृत्तिकार ने इसका अर्थ दृष्टि-विन्यास का एक प्रकार किया है।' भौंह को सिकोड़ना-यह दृष्टि-विन्यास का एक प्रकार है। ४८. तए णं सा बलिचंचा रायहाणी ईसाणेणं ततः सा बलिचञ्चा राजधानी ईशानेन देवेन्द्रेण देविदेणं देवरण्णा अहे सपक्खि सपडिदिसिं देवराजेन अधः सपक्षं सप्रतिदशिं समभि- सममिलोइया समाणी तेणं दिव्वप्पभावेणं लोकिता सती तेन दिव्यप्रभावेण अंगारभूता इंगालब्भूया मुम्मुरब्भूया छारियब्भूया तत्तक- मुर्मुरभूता क्षारभूता तप्तकवेल्लकभूता तप्ता वेल्लकन्भूया तत्ता समजोइन्भूया जाया यावि समज्योतिर्भूता जाता चापि आसीत्। होत्था ॥ ४८. वह बलिचञ्चा राजधानी देवेन्द्र देवराज ईशान के द्वारा अपने ठीक नीचे दृष्ट होने पर उस दिव्य प्रभाव से अंगारों, मुर्मरों (भरम-मिश्रित अग्निकणों), राख एवं तपे हुए तवे' के समान हो गई । वह ताप से तप्त और अग्नि तुल्य बन गई। भाष्य १. तवे कवेल्लक और कवेल्लुअ दोनों शब्द मिलते हैं। इनका अर्थ 'कड़ाही, तवा, खपरेल' है। २. ताप से तप्त और अग्नि तुल्य बन गई तत्ता समजोइन्भूया-प्रस्तुत पाठांश में 'तत्ता' पद स्वतंत्र और समजोइन्भूया पद समस्त किया गया है। सातवें शतक (सू० ११८) में तत्तसमजोतिभूया यह एक समास है। वृत्तिकार ने यहां इसका अर्थ 'अग्नि के समान बनी' किया है। सातवें शतक की वृत्ति में वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है-- 'वह ताप से अग्नि के समान बनी हुई। ठाणं में तत्ताणि पाठ स्वतंत्र है समजोतिभूताणि पाठ पृथक् है। स्थानाङ्ग की वृत्ति में भी यही अर्थ उपलब्ध है। ४६. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे ततः ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवः ४६. ' वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमारा देवा य देवीओ य तं बलिचंचं असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च तां बलिचञ्चां असुरकुमार देव और देवियां उस बलिचञ्चा राजधानी रायहाणिं इंगालब्भूयं जाव समजोइभूयं राजधानीम् अंगारभूतां यावत् समज्योतिर्भूतां को अंगारों के समान तप्त यावत् अग्नि-तुल्य देखते पासंति, पासित्ता भीआ तत्था तसिआ उन्वि- पश्यन्ति, दृष्ट्वा भीताः त्रस्ताः तृषिताः उद्विग्नाः हैं। देख कर भीत और प्रकम्पित हो गए। उनके कंठ ग्गा संजायभया सव्वओ समंता आधाति संजातभयाः सर्वतः समन्ताद् आधावन्ति प्यास से सूख गए। वे उद्विग्न और भय से व्याकुल १. भ. वृ. ३/४७---- 'भृकुटि' दृष्टिविन्यासविशेषं। २. आप्टे-भृकुटि---contraction of the eye-brows. ३. देशीशब्दकोश। ४. भ. वृ. ३/४८- 'समजोइभूय' त्ति समा ज्योतिषाऽग्निना भूता समज्योतिर्भूता। ५. वही, ७/११८- 'तत्तसमजोइभूय' त्ति तप्तेन--तापेन समा- तुल्या ज्योतिषावभिना, भूतानि-जातानि या सा तथा। ६.ठाणं, ८/१०। ७. स्था. वृ. प. ३६८-- तप्तानि-उष्णानि, समानि-तुल्यानि-जाज्वल्यमानत्वाज ज्योतिषा- वझिना भूतानि-जातानि यानि तानि समज्योतिर्भूतानि। Jain Education Intemational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३१ श.३ : उ.१ : सू.४६-५१ परिधावेंति, आधावेत्ता परिधावेत्ता अण्ण- प्रधावन्ति, आधाव्य प्रधाव्य अन्योन्यस्य कायं मण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा- समतुरंगेमाणा समाश्लिष्यन्तः-समाश्लिष्यन्तः तिष्ठन्ति। चिट्ठति ॥ होकर चारों ओर इधर-उधर दौड़ रहे हैं, दौड़कर वे परस्पर एक दूसरे के शरीर का आश्लेष कर रहे हैं। भाष्य १. सूत्र ४६ समतुरंगेमाण-यह देशी पद है। वृत्ति में इसका अर्थ 'समाश्लेष शब्द-विमर्श करता हुआ' है। वृद्ध व्याख्या में इसका अर्थ 'परस्पर एक दूसरे में अनुप्रवेश करता हुआ' किया गया है। तसिय-उनके कण्ठ प्यास से सूख गए। हस्तलिखित वृत्ति के आदर्शों में तसिय और सुसिय दोनों पाठ व्याख्यात हैं।' ५०. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे ततः ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवः ५०. बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंदं असुरकुमाराः देवाश्च देव्यश्च ईशानं देवेन्द्रं देव और देवियां देवेन्द्र देवराज ईशान को परिकुपित देवरायं परिकुवियं जाणित्ता ईसाणस्स देविं- देवराजं परिकुपितं ज्ञात्वा ईशानस्य देवेन्द्रस्य जान कर, देवेन्द्र देवराज ईशान की उस दिव्य देवर्द्धि, दस्स देवरण्णो तं दिव्वं देविड्ढि दिव् देवज्जुइं देवराजस्य तां दिव्यां देवद्धिं दिव्यां देवद्युति दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव और दिव्य तेजोलेश्या' दिव् देवाणुभागं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा दिव्यं देवानुभागं दिव्यां तेजोलेश्याम् असह- को सहन करने में असमर्थ हो कर वे सब ठीक सब्वे सपक्खि सपडिदिसं ठिच्चा करयल- मानाः सर्वे सपक्षं सप्रतिदिशं स्थित्वा करतल- देवराज ईशान की दिशा में खड़े हो कर, दोनों हथेलियों परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं परिगृहीतां दसनखां शिरसावर्ता मस्तके से निष्पन्न सम्पुटवाली दशनखात्मक अंजलि को सिर कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, के सम्मुख घुमा कर, मस्तक पर टिका कर जय-विजय एवं वयासी-अहो! णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा वर्धापयित्वा एवमवादिषुः-अहो! देवानुप्रियः ध्वनि से उन्हें वर्धापित करते हैं, वर्धापित कर वे इस देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिब्वे देवाणुभावे लद्धे दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवा- प्रकार बोले-अहो! आपने दिव्य देवर्द्धि, दिव्य पत्ते अभिसमण्णागए, तं दिट्ठा णं देवाणु- नुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः, तत् देवद्युति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध किया है, प्राप्त प्पियाणं दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे दृष्टा देवानुप्रियाणां दिव्या देवर्द्धिः दिव्या किया है, अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया है। देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए तं देवद्युतिः दिव्यः देवानुभावः लब्धः प्राप्तः आपने जो दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य खामेमो णं देवाणुप्पिया! खमंतु णं देवाणु- अभिसमन्वागतः, तत् क्षाम्यामः देवानुप्रियाः! देवानुभाव उपलब्ध किया है, प्राप्त किया है, अभिप्पिया! खंतुमरिहंति णं देवाणुप्पिया! णाइ क्षाम्यन्तु देवानुप्रियाः! क्षन्तुमर्हन्ति देवानु- समन्वागत किया है, वह हमने देख लिया है। इसलिए भुज्जो एवं करणयाए त्ति कटु एयमढें सम्मं प्रियाः! नापि भूयः एवं करणतया इति कृत्वा हम आपसे क्षमायाचना करते हैं, देवानुप्रिय! आप विणएणं भूज्जो-भुज्जो खामेंति ॥ एतदर्थं सम्यग् विनयेन भूयः भूयः क्षमयन्ति। हमें क्षमा करें, देवानुप्रिय! आप क्षमा करने में समर्थ हैं, देवानुप्रिय! हम पुनः ऐसा न करने के लिए संकल्प करते हैं। ऐसा कह कर वे इस बात के लिए सम्यक् प्रकार से विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना करते हैं। भाष्य १. तेजोलेश्या द्रष्टव्य भ०१/६का भाष्य। ५१.तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया तेहिं बलि- ततः सः ईशानः देवेन्द्रः देवराजः तेः बलि- ५१. वह देवेन्द्र देवराज ईशान उन बलिचञ्चा राजधानी चंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमा- चञ्चाराजधानीवास्तव्यैः बहुभिः असुरकुमारैः में रहने वाले अनेक असुरकुमार देवों और देवियों रेहिं देवेहिं देवीहि य एयमर्दु सम्मं विणएणं देवैः देवीभिश्च एतदर्थं सम्यग् विनयेन भूयः- के द्वारा इस बात के लिए सम्यक् प्रकार से विनयपूर्वक भुज्जो-भुज्जो खामिते समाणे तं दिलं देविडिंढ भूयः क्षामिते सति तां दिव्यां देवर्द्धि यावत् बार-बार क्षमायाचना करने पर उस दिव्य देवर्द्धि यावत् जाव तेयलेस्सं पडिसाहरइ। तप्पभितिं च णं तेजोलेश्यां प्रतिसंहरते । तत्प्रभृति च गौतम! तेजोलेश्या को पुनः अपने भीतर समेट लेता है। गोयमा! ते बलिचंचा-रायहाणिवत्थव्वया बहवे ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवः असुर- गौतम! उस दिन से वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंद कुमाराः देवाश्च देव्यश्च ईशानं देवेन्द्रं देवराजं वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां देवेन्द्र १ द्रष्टव्य अंगसुत्ताणि, भाग २, पृ० १३७ का पाद-टिप्पण। २. भ. वृ. ३/४६-'समतुरंगेमाण' ति समाश्लिष्यन्तः, अन्योऽन्यमनुप्रविशन्त इति वृद्धाः । Jain Education Intenational For Private & Personal use only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१ : सू.५१-५४ ३२ भगवई देवरायं आढ़ति परियाणंति सक्कारेंति सम्मा- आद्रियन्ते परिजानन्ति सत्कारयन्ति सम्मान- णेति कल्लाणं मंगलं देवयं विणएणं चेइयं यन्ति कल्याणं मंगलं दैवतं विनयेन चैत्यं पज्जुवासंति, ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो पर्युपासते, ईशानस्य च देवेन्द्रस्य देवराजस्य आणा-उववाय वयण-निद्देसे चिट्ठति। आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठन्ति। देवराज ईशान का आदर करते हैं, स्वामी के रूप में स्वीकार करते हैं, सत्कार-सम्मान देते हैं, कल्याणकारी, मंगलकारी, देव रूप और चित्ताहादक मानकर विनयपूर्वक पुर्यपासना करते हैं। वे देवन्द्र देवराज ईशान की आज्ञा,' उपपात (सेवा), आदेश और निर्देश में रहते एवं खलु गोयमा! ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा एवं खलु गौतम ! ईशानेन देवेन्द्रेण देवराजेन सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवा- सा दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवा- णुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। नुभावः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः । गौतम ! इस प्रकार देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध किया है प्राप्त किया है अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया है। भाष्य १. आज्ञा अर्थ किए जा सकते हैं। कर्त्तव्य का उपदेश। ३. आदेश (वचन) बलपूर्वक दिया गया अनुशासन। . २. उपपात सेवा, प्रादुर्भाव। 'उववाय' का संस्कृत रूप 'उपपात' किया जाता है। यदि 'उपपाद' किया जाए तो निकट जाना, बैठना, उपासना करना-ये ४. निर्देश प्रश्नित कार्य के विषय में दिया जाने वाला निश्चित उत्तर ।' ५२. भन्ते ! देवेन्द्र देवराज ईशान की स्थिति कितनी प्रज्ञप्त ५२. ईसाणस्स भंते! देविंदस्स देवरण्णो केवतियं ईशानस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य कियत् कालं ठिई पण्णत्ता? कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गोयमा! सातिरेगाई दो सागरोवमाइं ठिई गौतम! सातिरेको द्वो सागरोपमो स्थितिः पण्णत्ता॥ प्रज्ञप्ता। गौतम ! कुछ अधिक दो सागरोपम की स्थिति प्रज्ञप्त ५३. ईसाणे णं भंते! देविंदे देवराया ताओ ईशानः भदन्त! देवेन्द्रः देवराजः तस्माद् देव- ५३. भन्ते ! देवेन्द्र देवराज ईशान आयुक्षय भवक्षय और देवलोगाओ आउक्खएण भवक्खएणं ठिइ- लोकाद् आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर क्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति? अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति? कुत्र कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? कहिं उववज्जिहिति? उपपत्स्य ते? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झि- गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति 'बुज्झिस्सइ' गीतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त हिति मुच्चिहिति परिणिवाहिति सव्वदुक्खाणं मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं और परिनिर्वृत्त होगा, सब दुःखों का अन्त करेगा। अंतं काहिति॥ करिष्यति। सक्कीसाण-पदं शक्रेशान-पदम् शक्रेशान-पद ५४. सक्करस णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो शक्रस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमा- ५४. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज ईशान के विमान देवेन्द्र विमाणेहिंतो ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो नेभ्यः ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमानाः देवराज शक्र के विमानों से कुछ ऊंचे हैं? कुछ उन्नत विमाणा ईसिं उच्चतरा चेव ईसि उन्नयतरा ईषद् उच्चतराः चैव ईषद् उन्नततराः चैव? हैं? क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के उच्चतर, उन्नततर' चेव? ईसाणस्स वा देविंदस्स देवरण्णो ईशानस्य वा देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमानेभ्यः विमान देवेन्द्र देवराज ईशान के विमानों से कुछ नीचे विमाणे हितो सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमानाः ईषत् हैं? कुछ निम्न हैं? विमाणा ईसिं णीयतरा चेव ईसिं निण्णतरा नीचतराः चैव ईषत् निम्नतराः चैव ? चेव? हंता गोयमा! सक्कस्स तं चेव सव्वं नेयव्वं ॥ हन्त गौतम ! शक्रस्य तच्चैव सर्वं नेतव्यम्। हां, गौतम ! यह सब इसी प्रकार ज्ञातव्य है। १. भ. वृ. ३/५१ आज्ञा-कर्त्तव्यमेवेदमित्याद्यादेशः, उपपातः-- सेवा, वचनम्-अभियोगपूर्वक आदेशः, निर्देशः---प्रश्निते कार्य नियतार्थमुत्तरं। Jain Education Intemational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १ उच्चतर, उन्नततर साधारणतया उच्च और उन्नत का प्रयोग ऊंचाई के अर्थ में होता है। यहां दोनों पदों का प्रयोग एक साथ है। वृत्तिकार ने उच्चतर का अर्थ ५५. से कैण मंते! एवं वृच्चइ ? गोयमा से जहानामे करवले सिया देसे उच्चे देखे उन्नते देखे गए, देसे निष्गे से तेणद्वेषणं गोयमा ! सक्करस देविंदस्स देवरणे जाव ईसि निण्णतरा चेव ॥ ५६. प णं भंते । सक्के देविंदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरणो अंतिय पाउन्मवित्तए? हंता पभू ॥ ५७. से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पयू? गोवमा! आदामाणे पभू नो अगाडामागे पभू ॥ ५८. पभू णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया सक्कस देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउ ब्गवित्तए ? हंता प्रभु ॥ ६०. पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसाणं देविंद देवरायं सपक्खिं सपडिदिसिं समभिलोइत्तए? हंता पभू ॥ ६१. से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू? गोयमा ! आढामाणे पभू, नो अणाढामाणे पभू । ३३ भाष्य ६२. पभू णं भंते! ईसाणे देविदे देवराया सक्कं देविंद देवराव सपविखं सपदिसिं सममिलोइत ? 'प्रमाण की अपेक्षा से ऊंचा' और उन्नततर का अर्थ 'गुण की अपेक्षा से उन्नत' किया है। वैकल्पिक अर्थ है 'उच्चतर' प्रासाद की अपेक्षा से और 'उन्नततर' प्रासाद की पीठ की अपेक्षा से।' तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्चते? गौतम् तद् यथानाम करतलः स्यात् देशे ! उच्चः देशे उन्नतः । देशे नीचः देशे निम्नः । तत् तेनार्थेन गौतम शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यावद् ईशन् निम्नतराः चैव । ५६. से भंते ! किं आढामाणे पभू ? अणाढामाणे सः भदन्त ! किम् आद्रियमाणः प्रभुः ? अनापभू? द्वियमाणः प्रभुः गोयमा! आडामाणे विप, अगाढामाने वि गौतम आद्रियमाणोऽपि प्रभुः अनाद्रियपमू । मापि प्रभुः। प्रभुः भवन्त! शक: देवेन्द्रः देवराजः ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिके प्रादुर्भवितुम् हन्त प्रभुः । स भदन्त ! किम् आद्रियमाणः प्रभुः ? अनाद्रियमाणः प्रभुः ? गौतम! आदियमाणः प्रभुः नो अनाद्रियमाणः प्रभुः । प्रभुः भदन्त ! ईशानः देवेन्द्रः देवराजः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिके प्रादुर्भवितुम् ? हन्त प्रभुः । प्रभुः भदन्त ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः ईशानं देवेन्द्रं देवराजं सपक्षं सप्रतिदिशं समभिलोकितुम्? हन्त प्रभुः। सः भदन्त ! किम् आद्रियमाणः प्रभुः ? अनायिनागः प्रभुः? गौतम! आद्रियमाणः प्रभुः, नो अनाद्रियमाणः प्रभुः । श.३ उ. १ सू. ५४-६२ : ५५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? . गौतम ! जैसे हथेली का एक भाग ऊंचा और उन्नत होता है, एक भाग नीचा और निम्न होता है गोतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है— देवेन्द्र देवराज शक्र के विमान यावत् कुछ निम्न हैं। ५६ भन्ते क्या देवेन्द्र देवराज शक देवेन्द्र देवराज ईशान के पास प्रकट होने में समर्थ है ? हां, यह समर्थ है। ५७. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ समर्थ है ? अनादर करता हुआ समर्थ है ? गौतम वह आदर करता हुआ समर्थ है, अनादर करता हुआ समर्थ नहीं है। ५८. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज ईशान देवेन्द्र देवराज शक्र के पास प्रकट होने में समर्थ है ? हां, वह समर्थ है। ५६. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ समर्थ है? अनादर करता हुआ समर्थ है? गौतम! वह आदर करता हुआ भी समर्थ है, अनादर करता हुआ भी समर्थ है। प्रभुः भदन्त ईशान देवेन्द्रः देवराजः शक्रं देवेन्द्रं देवराजं सपक्षं सप्रतिदिशं समभि लोकितुम्? १. भ. वृ. ३ / २५ - 'उच्चतरा चेव त्ति उच्चत्वं प्रमाणतः 'उन्नततरा चेव' त्ति उन्नतत्वं गुणतः अथवा उच्चत्वं प्रासादापेक्षम्, उन्नतत्वं तु प्रासादपीठापेक्षमिति । ६० भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र देवेन्द्र देवराज ईशान को ठीक सीध में स्थित हो देखने में समर्थ है ? हां, वह समर्थ है। ६१. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ समर्थ है? अनादर करता हुआ समर्थ है? गौतम! वह आदर करता हुआ समर्थ है, करता हुआ समर्थ नहीं है। अनादर ६२. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज ईशान देवेन्द्र देवराज शक्र के ठीक सीध में स्थित हो देखने में समर्थ है ? Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ उ. १ सू. ६२-६६ हंता पभू ६३. से भंते! किं आढामाणे पभू ? अणाढामाणे पम् ? गोयमा ! आठामागे वि पशू, अणादामाने विपभू ६४. पमू गं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा सद्धिं आलावं वा संलावं वा करेत्तए? हंता पभू ६६. पशू णं भंते! ईसाणे देविंदे देवराया सक्केण देविंदेणं देवरण्णा सद्धि आलावं वा संलावं वा करेत्तए? हंता पमू ६५. से भंते! किं आढामाणे पभू ? अणाढामाणे सः भदन्त ! किम् आद्रियमाणः प्रभुः ? अनापभू? द्वियमाणाः प्रभुः? गोयमा ! आढामाने पण नो अणाढामाणे गौतम! आद्रियमाणः प्रभुः नो अनाद्रियमाणः पभू ॥ प्रभुः । ६८. अस्थि गं भंते! तेर्सि सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किच्चाई करणिज्जाई समुप्पज्जति ? हंता अत्थि ॥ ३४ ६६. से कहमिदाणिं पकरेंति ? गोयगा! ताहे चैव गं से सक्के देविदे देवराया ईसाणस्स देविंदरस देवरण्णो अंतियं पाउब्मवति, ईसा वा देविंदे देवराया सक्करस देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउन्गवति इति भो! सक्का देविंदा! देवराया! दाहिनड्डलोगाहिबई इति भो ! ईसाना देविंदा देवराया! उत्तरढतोगाहिबई इति भो ! इति भो! ति ते अण्णमण्णस्स किच्चाई करणिजाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति ॥ हन्त प्रभुः । सः भदन्त ! किम् आद्रियमाणः प्रभु ? अनाद्वियमाणः प्रभुः ? गौतम आद्रियमाणोऽपि प्रभु अनाद्रियमाणोऽपि प्रभुः । प्रभुः भवन्त! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः ईशानेन देवेन्द्रेण देवराजेन सार्धम् आलापं वा संताप वा कर्तुम्? हन्त पभुः ! ६७. से भंते! किं आढामाणे पभू ? अणाढामाणे सः भदन्त ! किम् आद्रियमाणः प्रभुः ? अनापभू? द्रियमाणः प्रभुः ? गोयमा ! आढामाणे वि पभू, अणाढामाणे गौतम! आद्रियमाणोऽपि प्रभुः, अनाद्रियमाणोवि पभू # पे प्रभुः । प्रभुः भदन्त ईशानः देवेन्द्रः देवराजः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन सार्धम् आलापं वा संलापं वा कर्तुम् ? हन्त प्रभुः । अस्ति भदन्त । तयोः शक्रशानयोः देवेन्द्रयोः देवराजयोः कृत्यानि करणीयानि समुत्पद्यन्ते? हन्त अस्ति । तत् कथमिदानीं प्रकुरुत ? गौतम तदा चैव स शक्रः देवेन्द्रः देवराजः ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिके प्रादुभवति, ईशानो दा देवेन्द्रः देवराजः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिके प्रादुर्भवति । इति भोः शक्र देवेन्द्र देवराज! दक्षिणार्धलोकाधिपते । इति भोः! ईशान! देवेन्द्र! देवराज! उत्तरार्द्धलोकाधिपते ! इति भोः । इति भोः । इति ती अन्योन्यं कृत्यानि करणीयानि प्रत्यनुभवन्ती विहरतः । भगवई हां, यह समर्थ है। ६३. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ समर्थ है ? अनादर करता हुआ समर्थ है ? गौतम! वह आदर करता हुआ भी समर्थ है, अनादर करता हुआ भी समर्थ है। ६४. भन्ते! क्या देवेन्द्र देवराज देवेन्द्र देवराज ईशान के साथ आलाप संलाप करने में समर्थ है ? हां वह समर्थ है। ६५. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ समर्थ है? अनादर करता हुआ समर्थ है ? गौतम! वह आदर करता हुआ समर्थ है, अनादर करता हुआ समर्थ नहीं है। ६६. भन्ते ! क्या देवेन्द्र देवराज ईशान देवेन्द्र देवराज शक्र के साथ आलाप संलाप करने में समर्थ है ? हां, वह समर्थ है। ६७. भन्ते ! क्या वह आदर करता हुआ समर्थ है ? अनादर करता हुआ समर्थ? गौतम! वह आदर करता हुआ भी समर्थ है, अनादर करता हुआ भी समर्थ है। ६८. भन्ते ! उन देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान के मध्य यह कार्य करणीय है - ऐसा विचार उत्पन्न होता है? हां, होता है। ६६. ऐसा होने पर वे उसे क्रियान्वित कैसे कर करते हैं? गौतम! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र के सामने कोई प्रयोजन उपस्थित होता है तो वह देवेन्द्र देवराज ईशान के पास प्रकट होता है और यदि देवेन्द्र देवराज ईशान के सामने कोई प्रयोजन उपस्थित होता है तो वह देवेन्द्र देवराज शक्र के पास प्रकट होता है। ईशान कहता है - है दक्षिणार्धलोकाधिपति देवेन्द्र देवराज शक्र ! इस समय यह कार्य करणीय है। शक्र कहता है- हे उत्तरार्धलोकाधिपति देवेन्द्र देवराज ईशान! इस समय यह कार्य करणीय है । ओ! यह करणीय है, ओ! यह करणीय है - इस प्रकार वे परस्पर एक दूसरे के करणीय कार्य का अनुभव करते हुए विहार करते हैं। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.३ : उ.१ : सू.७०-७२ ७०. अत्थिणं भंते! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं अस्ति भदन्त! तयोः शक्रेशानयोः देवेन्द्रयोः देवराईणं विवादा समुप्पजंति? देवराजयोः विवादाः समुत्पद्यन्ते? हंता अत्थि ॥ हन्त अस्ति। ७०, भन्ते! क्या उन देवेन्द्र देवराज शक और ईशान के मध्य कभी विवाद उत्पन्न होते हैं? हां, होते हैं। ७१. से कहमिदाणिं पकरेंति? तत् कथमिदानी प्रकुरुत? गोयमा! ताहे चेव णं ते सक्कीसाणा देविंदा गौतम! तदा चैव तौ शक्रेशानी देवेन्द्रौ देवराजौ देवरायाणो सणकुमारं देविदं देवरायं मणसी- सनत्कुमारं देवेन्द्रं देवराज मनीकुरुतः । ततः करेंति। तए णं से सणंकुमारे देविंदे देवराया सः सनत्कुमारः देवेन्द्रः देवराजः ताभ्यां शकेतेहिं सक्कीसाणेहिं देविंदे हिं देवराईहिं शानाम्यां देवेन्द्राभ्यां देवराजाभ्यां मनीकृते मणसीकए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं सति क्षिप्रमेव शक्रेशानयोः देवेन्द्रयोः देवदेविंदाणं देवराईणं अंतियं पाउन्भवति, जं से राजयोः अन्तिके प्रादुर्भवति, यत् सः वदति वदइ तस्स आणा-उववाय-वयण-निद्दे से तस्य आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठतः। चिट्ठति। ७१. ऐसा होने पर वे उसे कैसे सुलझाते हैं? गौतम! उस समय वे देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की मानसिक स्मृति करते हैं। उन देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान द्वारा मानसिक स्मृति करने पर शीघ्र ही वह देवेन्द्र देवराजसनत्कुमार उन देवेन्द्र देवराज शक्र और ईशान के पास प्रकट होता है। वह जो कहता है (उसे शिरोधार्य करते हैं), उसकी आज्ञा, उपपात (सेवा), आदेश और निर्देश का पालन करते हैं। भाष्य १. सूत्र ५६-७१ देवलोक के अधिपति सनत्कुमार की मानसिक स्मृति करते हैं। सनत्कुमार इस प्रकरण में शक्र और ईशान के पारस्परिक संबंधों का प्रतिपादन तत्काल उनके सामने उपस्थित हो जाता है। यह सारा कार्य मानसिक तरंगो के किया गया है। ये दोनों प्रायः समान भूमिका वाले इन्द्र हैं। फिर भी ईशान का संप्रेषण द्वारा होता है। नायाधम्मकहाओ में इसकी पूरी प्रक्रिया प्राप्त है। स्थान कुछ विशिष्ट है। इसलिए ईशान शक्र के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार कर उसके अनुसार मानसिक स्मृति द्वारा देव का आसन प्रकम्पित होता है। आसन सकता है। कभी-कभी इन दोनों में विवाद उत्पन्न हो जाता है। दोनों की सीमाएं प्रकम्पित होने पर वह देव अवधिज्ञान द्वारा स्मृति करने वाले को जान लेता है सटी हुई हैं। वह विवाद सीमा संबंधी भी हो सकता है, अन्य विषय का भी हो और वहां पहुंच जाता है। सकता है। वे आपस में विवाद को नहीं सुलझा पाते, उस स्थिति में तीसरे सणंकुमार-पदं सनत्कुमार-पदम् ७२. सणंकुमारे णं भंते! देविंदे देवराया किं सनत्कुमारः भदन्त! देवेन्द्रः देवराजः किं भवसिद्धिए? अभवसिद्धिए? सम्मद्दिट्ठी? भवसिद्धिकः? अभवसिद्धिकः? सम्यग्दृष्टिः? मिच्छदिट्ठी? परित्तसंसारिए? अणंतसंसारिए? मिथ्यादृष्टिः? परीतसंसारिकः? अनन्त- सुलभबोहिए? दुल्लभबोहिए? आराहए? संसारिकः? सुलभबोधिकः? दुर्लभबोधिकः? विराहए? चरिमे? अचरिमे? आराधकः? विराधकः? चरमः? अचरमः? गोयमा! सणंकुमारे णं देविंद देवराया भव- गौतम! सनत्कुमारः देवेन्द्रः देवराजः भवसिद्धिए, नो अभवसिद्धिए । सम्मद्दिट्ठी, नो सिद्धिकः, नो अभवसिद्धिकः। सम्यग्दृष्टिः, मिच्छदिट्ठी। परित्तसंसारिए, नो अणंत- नो मिथ्यादृष्टिः। परीतसंसारिकः, नो अनन्तसंसारिए। सुलभबोहिए, नो दुल्लभबोहिए। संसारिकः। सुलभबोधिकः, नो दुर्लभबोधिकः। आराहए, नो विराहए। चरिमे, नो अचिरमे॥ आराधकः, नो विराधकः । चरमः,नो अ चरमः। सनत्कुमार-पद ७२. 'भन्ते! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक (मुक्ति जाने के लिए योग्य) है? अभवसिद्धिक है? सम्यग्दृष्टि है? मिथ्यादृष्टि है? परीत संसारी हे? अनन्त संसारी है? सुलभवोधिक है? दुर्लभबोधिक है? आराधक है? विराधक है? चरम है? अचरम है? गोतम! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। सम्यग्दृष्टि है, मिथ्यादृष्टि नहीं है। परीतसंसारी है, अनन्तसंसारी नहीं है। सुलभबोधिक है, दुर्लभबोधिक नहीं है। आराधक है, विराधक नहीं है। चरम है, अचरम नहीं है। भाष्य १. सूत्र ७२ रायपसेणइयं में सूर्याभ देव के लिए छह प्रश्न पूछे गए हैं। प्रस्तुत सूत्र उसकी अनुकृति जैसा लगता है। भगवई में इस प्रकरण का संकलनकाल में प्रक्षेपण हुआ है-इस संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। १. नाया. १/१/५४-५६। शब्द-विमर्श भवसिद्धिक-भव्य परीतसंसारी-जन्म-मरण की परम्परा को परिमित करने वाला। सुलभबोधिक-जिसे बोधि की प्राप्ति सुलभ हो। Jain Education Intemational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१ : सू.७२-७४ ३६ भगवई आराधक--ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विधिवत् पालना करने संसारी दोनों प्रकार का हो सकता है, इसलिए तीसरा प्रश्न पूछा गया है। परीतवाला। संसारी जीव सुलभबोधि और दुर्लभबोधि दोनों प्रकार का हो सकता है, इसलिए चरम-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अप्राप्त मनुष्य भव चौथा प्रश्न पूछा गया है। सुलभबोधि जीव आराधक और विराधक दोनों प्रकार अंतिम भव होगा, इसलिए चरम अथवा यह देव भव अंतिम है।' देवराज का हो सकता है, इसलिए पांचवा प्रश्न पूछा गया है। आराधक जीव चरम और सनत्कुमार एक जन्म के पश्चात् मोक्षगामी हैं। अचरम दोनों प्रकार का हो सकता है, इसलिए छठा प्रश्न पूछा गया है। आचार्य भव्य जीव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार का होता है, मलयगिरि की वृत्ति में इसकी विस्तार से चर्चा है।' इसलिए दूसरा प्रश्न पूछा गया है। सम्यग्दृष्टि जीव परीतसंसारी और अनन्त ७३. से केणटेणं भंते! तत् केनार्थेन भदन्त! गोयमा! सणंकुमारे णं देविंदे देवराया बहूणं गौतम! सनत्कुमारः देवेन्द्रः देवराजः बहूनां समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं श्रमणानां बहूनां श्रमणीनां बहूनां श्रावकाणां बहूणं सावियाणं हियकामए सुहकामए पत्थ- बहूनां श्राविकाणां हितकामकः सुखकामकः कामए आणुकंपिए निस्सेयसिए हिय-सुह- पथ्यकामकः आनुकम्पिकः नैश्रेयसिकः हित-निस्सेसकामए। से तेणद्वेणं गोयमा! सणं- सुख-निश्रेयसकामकः। तत् तेनार्थेन गौतम! कुमारे णं देविंदे देवराया भवसिद्धिए, नो सनत्कुमारः देवेन्द्रः देवराजः भवसिद्धिकः, नो अभवसिद्धिए । सम्मट्ठिी, नो मिच्छदिट्ठी। अभवसिद्धिकः। सम्यग्दृष्टिः, नो मिथ्यापरित्तसंसारिए, नो अणंतसंसारिए। सुलभ- दृष्टिः। परीतसंसारिकः, नो अनन्तसंसारिकः। बोहिए, नो दुल्लभबोहिए। आराहए, नो सुलभबोधिकः, नो दुर्लभबोधिकः। आराधकः, विराहए। चरिमे, नो अचरिमे ॥ नो विराधकः। चरमः, नो अचरमः । ७३. ' भन्ते! यह किस अपेक्षा से (कहा जा रहा है)? गौतम! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार अनेक साधुओं, अनेक साध्वियों, अनेक श्रावकों और अनेक श्राविकाओं का हित चाहने वाला, सुख चाहने वाला, पथ्य चाहने वाला, अनुकम्पा करने वाला, निःश्रेयस्की दिशा में प्रेरित करने वाला है। हित, सुख और निःश्रेयस् चाहने वाला है। गौतम! इस अपेक्षा से देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। सम्यग्दृष्टि है मिथ्यादृष्टि नहीं है। परीतसंसारी है, अनन्तसंसारी नहीं है। सुलभबोधिक है, दुर्लभबोधिक नहीं है। आराधक है, विराधक नहीं है। चरम है, अचरम नहीं है। भाष्य १. सूत्र ७३ प्रस्तुत सूत्र में सनत्कुमार को छह विशेषणों से विशेषित किया गया है। इससे देवराज सनत्कुमार की भगवान महावीर के शासन के प्रति आस्था अभिव्यक्त होती है । इसका संबंध क्या है-इस विषय में कोई जानकारी न आगम-सूत्र में है, न चूर्णि और वृत्ति में है। निःश्रेयस- मोक्ष की ओर प्रेरित करने वाला। ____ निःश्रेयस चाहने वाला (निस्सेसकामए)-वृत्तिकार ने 'निस्सेस' का संस्कृत रूप निःशेष-सर्व किया है। किन्तु इसका संस्कृत रूप 'निःश्रेयस' होना चाहिए। निःश्रेयस के यकार का लोप करने पर 'निस्सेस' रूप बनता है। ठाणं में भी इसका प्रयोग प्राप्त है-तओ ठाणा ववसियस्स हिताए सुभाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भवंति। हित, सुख और निःश्रेयस ये तीनों संबन्धित हैं। देवराज सनत्कुमार वर्तमान में हित, सुख और पथ्य चाहने वाले हैं.----यह आगम की वक्तव्यता है। कुछ लोग मानते हैं कि सनत्कुमार ने अपने पिछले जन्म में चार तीर्थ का आहार आदि से पोषण किया था, उससे वह इन्द्र बना। जयाचार्य ने इस मान्यता का निरसन किया है। उन्होंने बतलाया कि हियकामए आदि विशेषण वर्तमान अवस्था से संबंध रखते हैं। इनका पूर्व जन्म से कोई संबंध नहीं है। शब्द-विमर्श हित चाहने वाला (हियकामए)–'हित' के अर्थ हैं-उपयोगी, कल्याणकारी, उपयुक्त, अनुकूल, लाभदायी आदि। वृत्ति में इसका अर्थ 'सुख की हेतुभूत वस्तु' किया गया है। पथ्य-पथ्य का अर्थ है दुःख से परित्राण। आनुकम्पिक-कृपालु। निःश्रेयस की दिशा में प्रेरित करने वाला (नैश्रेयसिक) ७४. सणंकुमारस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? सनत्कुमारस्य भदन्त! देवेन्द्रस्य देवराजस्य ७४. भन्ते! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की स्थिति कितने कियत्कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? काल की प्रज्ञप्त है? १. भ. वृ. ३/७२- 'चरमेति एव भयो यस्याप्राप्तस्तिष्ठति, देवभवो वा चरमो यस्य सः, चरमभवो वा भविष्यति यस्य स चरमः ।। २. रा. वृ. पृ. ११८। ३. भ.७३/७३-हियकामए' ति हितं-सुखनिबन्धनं वस्तु 'पत्थकामए'त्ति पथ्यं - दुःखत्राणं, करमादेवमित्यत आह -'आणुकंपिए'त्तिकृपावान्, अत एवाह-निस्सेयसिय'त्ति निःश्रेयस-मोक्षस्तत्र नियुक्त इव नैःश्रेयसिकः। ४. ठाणं, ३/५२४। ५. भ. वृ.३/७३-हितं यत्सुखम्-अदुःखानुबन्धमित्यर्थः तन्निःशेषाणां सर्वेषां कामयतेवाञ्छति यः स तथा। ६. म. जो. ५/३६-५४। Jain Education Intemational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३७ श.३ : उ.१ : सू.७४-७६ गोयमा! सत्त सागरोवमाणि ठिती पण्णत्ता॥ गौतम! सप्त सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। गौतम! सात सागरोपम की स्थिति प्रज्ञप्त है। ७५. से णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं स भदन्त। तस्माद् देवलोकाद् आयुःक्षयेण ७५. भन्ते! वह आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर कहां जाएगा? कहिं गच्छिहिइ? कहिं उववज्जिहिइ? कुत्र गमिष्यति? कुत्र उपपत्स्यते? कहां उपपन्न होगा? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झि- गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति 'बुज्झिहिति', गौतम! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त हिति मुच्चिहिति परिणिवाहिति सव्वदुक्खाणं मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानाम् अन्तं और परिनिर्वृत होगा, सब दुःखों का अन्त करेगा। अंतं करेहिति ॥ करिष्यति। ७६. सेवं भंते! सेवं भंते! तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! ७६. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है। संगहणी गाहा छट्ठट्ठममासो, अद्धमासो वासाइं अट्ठ छम्मासा। तीसग-कुरुदत्ताणं, तव-भत्तपरिण्ण-परियाओ ॥११॥ संग्रहणी गाथा षष्ठाष्टममासोऽर्द्धमासो वर्षाणि अष्ट षण्मासाः। तिष्यक-कुरुदत्तयोः, तप:-भक्तपरिज्ञा-पर्यायः ॥११॥ संग्रहणी गाथा तिष्यक मुनि की तपस्या निरन्तर दो-दो दिन का उपवास, अनशन एक महीने का और दीक्षापर्याय आठ वर्ष का था। कुरुदत्त मुनि की तपस्या निरन्तर तीन-तीन दिन का उपवास, अनशन पन्द्रह दिन का और दीक्षा पर्याय छह महीने का था। विमानों की ऊंचाई, इन्द्रों का परस्पर एक दूसरे के पास प्रकट होना, दर्शन, वार्तालाप, करणीय, विवादोत्पत्ति तथा सनत्कुमार की भव्यता आदि विषयों का वर्णन इस उद्देशक में हुआ है। उच्चत्त विमाणाणं, पाउब्भव पेच्छणा य संलावे। किच्च-विवादुप्पत्ती, सणंकुमारे य भवियत्तं ॥२॥ उच्चत्वं विमानानां, प्रादुर्भवः प्रेक्षणा च संलापः। कृत्य-विवादोत्पत्तिः, सनत्कुमारे च भव्यत्वम् ॥२॥ Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद चमरस्स भगवओ वंदण-पदं ७७. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था जाव परिसा पज्जुवासइ॥ चमरस्य भगवतः वंदन-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमासीत्, यावत् परिषत् पर्युपास्ते। चमर का भगवान को वन्दन-पद ७७. उस काल और उस समय राजगृह नामक नगर था, यावत् परिषद् पर्युपासना करती है। ७८. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे तस्मिन् काले तस्मिन् समये चमरः असुरेन्द्रः ७८. उस काल और उस समय असुरेन्द्र असुरराज चमर असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए असुरराजः चमरचञ्चायां राजधान्यां सभायां चमरचञ्चा राजधानी की सुधर्मा सभा में चमर सिंहासुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि, चउसट्ठीए सुधर्मायां, चमरे सिंहासने, चतुःषष्ट्या सामा- सन पर चौंसठ हजार सामानिक देवों से (परिवृत था) सामाणियसाहस्सीहिं जाव नट्टाविहिं उवदं- निकसाहस्रया यावत् नाट्यविधिम् उपदर्य यावत् भगवान् के सामने नाट्यविधि' का उपदर्शन सेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं यस्याः दिशः प्रादुरभूतः तस्यामेव दिशि प्रति- कर वह जिस दिशा से आया, उसी दिशा में चला गया। पडिगए॥ गतः। भाष्य १. नाट्यविधि इसकी जानकारी के लिए रायपसेणइयं, सू. ६५-११५ द्रष्टव्य है। असुरकुमार-वण्णग-पदं असुरकुमार-वर्णक-पदम् ७६. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं भदन्त! अयि! भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-- महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एवमवादीत्-अस्ति भदन्त! अस्याः रत्नअहे असुरकुमारा देवा परिवसंति? प्रभायाः पृथिव्याः अधः असुरकुमाराः देवाः परिवसन्ति? गोयमा ! णो इणढे समढे। गौतम! नायमर्थः समर्थः। असुरकुमार-वर्णक-पद ७६. भन्ते! इस सम्बोधन के साथ भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-भन्ते! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे असुरकुमार देव रहते हैं? गौतम! यह बात संगत नहीं है। ५०. एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स एवं यावद् अधःसप्तम्याः पृथिव्याः, सौधर्मस्य ८०. भन्ते! इसी प्रकार यावत् सातवीं पृथ्वी के नीचे कप्पस्स अहे जाव अत्थि णं भंते! इसि- कल्पस्य अधः यावद् अस्ति भदन्त! ईषत्- सौधर्म कल्प के नीचे यावत् भन्ते! क्या ईषत् प्राग्भारा प्पन्भाराए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा प्राग्भारायाः पृथिव्याः अधः असुरकुमाराः देवाः पृथ्वी के नीचे असुरकुमार देव रहते हैं? परिवसंति? परिवसन्ति? णो इणढे समढे। नायमर्थः समर्थः। यह बात संगत नहीं है। १ 'भन्ते! तो फिर असुरकुमार देव कहां रहते हैं? १. से कहिं खाइ णं भंते! असुरकुमारा देवा तत् कुत्र ‘खाइ' भदन्त! असुरकुमाराः देवाः परिवसंति? परिवसन्ति? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीतु- गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् अशीत्यु गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् अशीत्यु- त्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए एवं असुर- त्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायाम् एवम् असुर- गौतम! इस एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली रत्नप्रभा पृथ्वी में असुरकुमार देव रहते हैं। इस Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६ श.३ : उ.२ : सू.८१-८६ कुमारदेववत्तव्वया जाव दिव्वाइं भोगभोगाई कुमारदेववक्तव्यता यावद् दिव्यान् भोग्यभोगान् भुंजमाणा विहरंति ॥ भुञ्जानाः विहरन्ति। प्रकार असुरकुमार देवों की वक्तव्यता है, यावत् वे दिव्य भोगार्ह भोगों का भोग करते हुए रहते हैं। भाष्य १. सूत्र ८१ रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है।' एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे छोड़कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन में असुरकुमारों के आवास हैं। ८२. अत्थि णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं अहे अस्ति भदन्त! असुरकुमाराणां देवानां अधः ५२. भन्ते! क्या असुरकुमार देवों की गति का विषय नीचे गतिविसए? गतिविषयः? लोक में हैं? हंता अत्थि ॥ हन्त अस्ति। ५३. केवतियण्णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं कियान् भदन्त! असुरकुमारा देवानाम् अधः ८३. भन्ते! असुरकुमार देवों की गति का विषय नीचे अहे गतिविसए पण्णते? गतिविषयः प्रज्ञप्तः? लोक में कितना प्रज्ञप्त है? गोयमा! जाव अहेसत्तमाए पुढवीए । तच्चं गौतम! यावद् अधःसप्तम्याः पृथिव्याः। तृतीयां गौतम! उनकी गति का विषय अधःसप्तमी पृथ्वी तक पुण पुढविं गया य गमिस्संति य ॥ पुनः पृथिवीं गताः च गमिष्यन्ति च। है। तीसरी पृथ्वी तक वे गए हैं और जाएंगे। निय ८४. किंपत्तियण्णं भंते! असुरकुमारा देवा तच्चं किंप्रत्ययितं भदन्त! असुरकुमाराः देवाः तृतीयां पुढविं गया य गमिस्संति य? पृथिवीं गताः च गमिष्यन्ति च? गोयमा! पुब्बवेरियस्स वा वेदणउदीरणयाए, गौतम! पूर्ववैरिकस्य वा वेदनोदीरणया, पूर्व- पुव्वसंगतियस्स वा वेदणउवसामणयाए–एवं सांगतिकस्य वा वेदनोपशामनया-एवं खलु खलु असुरकुमारा देवा तच्चं पुढविं गया य असुरकुमाराः देवाः तृतीयां पृथिवीं गताः च गमिस्संति य॥ गमिष्यन्ति च। ८४.' भन्ते! असुरकुमार देव तीसरी पृथ्वी तक गए हैं और जाएंगे, इसका प्रत्यय क्या है? गौतम! पूर्व जन्म के वैरी की वेदना की उदीरणा करने के लिए अथवा पूर्वजन्म के मित्र की वेदना का उपशमन करने के लिए-इन दो प्रत्ययों से असुरकुमार देव तीसरी पृथ्वी तक गए हैं और जाएंगे। भाष्य १. सूत्र ८४ यह सिद्धान्त फलित होता है। आचार्य भिक्षु ने इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया थानारकीय जीवों की वेदना की उदीरणा सभी असुरकुमार नहीं करते, "मित्री तूं मित्रीपणो चलियो जावै, संक्लिष्ट परिणाम वाले असुरकुमार ही प्रथम तीन नरकभूमियों में जाकर वहां के नारकीय जीवों को दुःख देते हैं। ये परमाधार्मिक श्रेणी के असुरकुमार वैरी सूं वैरीपणो चलियो जावै। होते हैं। प्रस्तुत सूत्र में सामान्यतः वेदना देने की बात नहीं है। यहां केवल पूर्व अपना किया हुआ कर्म अपने को भोगना होता है, दूसरा व्यक्ति बैरी को दुःख देने के लिए तीसरी नरक तक जाने की व्यवस्था बतलाई है। उसको उत्तेजित या उपशान्त करने में निमित्त बन सकता है। असुरकुमार अपने पूर्व मित्रों की वेदना का उपशमन करने के लिए भी वहां प्रस्तुत सूत्र में निमित्त के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। जाते हैं। वैर या मैत्री दोनों का अनुबन्ध चलता रहता है-प्रस्तुत प्रकरण से ८५. अत्थि णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गतिविसए पण्णत्ते? हंता अस्थि ।। अस्ति भदन्त! असुरकुमाराणां देवानां तिर्यग् ८५. भन्ते! क्या असुरकुमार देवों की गति का विषय गतिविषयः प्रज्ञप्तः? तिरछे लोक में प्रज्ञप्त है? हन्त अस्ति। ८६. केवतियण्णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गतिविसए पण्णत्ते? गोयमा! जाव असंखेज्जा दीव-समुद्दा, नंदिसरवरं पुण दीवं गया य गमिस्संति य॥ कियान्! भदन्त! असुरकुमाराणां देवानां तिर्यग् ८६.'भन्ते! तिरछे लोक में असुरकुमार देवों की गति का गतिविषयः प्रज्ञप्तः? विषय कितना प्रज्ञप्त है? गौतम! यावद् असंख्येयाः द्वीप-समुद्राः नन्दी- गौतम! उनकी गति का विषय असंख्य द्वीप-समुद्रों श्वरवरं पुनः द्वीपं गताः च गमिष्यन्ति च। तक है। नन्दीश्वरवर द्वीप तक वे गए हैं और जाएंगे। १ (क) सर्वार्थसिद्धि, ३/५/२०६/३। (ख) ति. प. २/३४। ३४६। २. अनुकम्पा. ११/४५। Jain Education Intemational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ.२ : सू. ८६-६० 2 ८७. किंपत्तियष्णं भंते असुरकुमारा देवा नंदिस्सरवरं दीवं गया य गमिस्संति य? गोयमा! जे इमे अरहंत भगवंतो एएसि णं जम्मणमहेसु वा निक्खमणमहेसु वा, नाणुपायमहिमासु वा परिनिव्वाणमहिमासु वा - एवं खलु असुरकुमारा देवा नंदिस्सरवरं दीवं गया य गमिस्संति य ॥ १. सूत्र ८६, ८७ प्रस्तुत सूत्रों में नन्दीश्वर द्वीप तक जाने के चार हेतु बतलाए गए है— जन्म महोत्सव, अभिनिष्क्रमण महोत्सव, ज्ञानोत्पाद-महोत्सव और परि निर्वाण महोत्सव | यहां गर्भ महोत्सव का उल्लेख नहीं है। किं प्रत्यायितं भवन्त असुरकुमाराः देवाः नन्दीश्वरवरं द्वीपं गताश्च गमिष्यन्ति च ? गीतम। ये इमे अर्हन्तः भगवन्तः, एतेयं जन्ममहेषु वा, निष्क्रमणमहेषु वा ज्ञानोत्पादमहिमासु वा परिनिर्वाणमहिमासु वा एवं खलु असुरकुमाराः देवाः नन्दीश्वरवरं द्वीपं गताश्च गमिष्यन्ति च । जंबुद्दीवपण्णत्ती में भगवान् ऋषभ के दो महाथजन्ममहोत्सव और निर्वाण महोत्सव का उल्लेख मिलता है।' ठाणं में पदमप्रभ तीर्थकर के पांच विशेष प्रसंगों का उल्लेख है। चित्रा नक्षत्र में उनका गर्भ मे आगमन, उसी नक्षत्र में जन्म, उसी नक्षत्र में दीक्षा, उसी नक्षत्र में केवलज्ञान ४० भाष्य १. जंबु ५ वां वक्षस्कार २ / ८६ १२० । २. ठाणं ५/८४-६७। ३. जबुद्दीवपणती संगहो, १३/६३ ८८. अत्थि णं भंते असुरकुमाराण देवाणं उद्धं अस्ति भदन्त ! असुरकुमाराणं देवानाम् उर्ध्वं गतिविसिए? गतिविषयः ? हन्त ! अस्ति । हंता अत्थि ॥ ६. केवतियणं भंते! असुरकुमाराणं देवानं कियान् भदन्त । असुरकुमाराणां देवानाम् उर्ध्वं उड् गतिविस? गतिविषयः ? गोयमा ! जाव अच्चुतो कम्पो सोहम्मं पुण गीतम! यावद् अच्युतः कल्पः सौधर्म पुनः कप्पं गया य गमिस्संति य ॥ कल्पं गताश्च गमिष्यन्ति च । J की उत्पत्ति और उसी नक्षत्र में परिनिर्वाण हुआ था। इसी प्रकार कुछ अन्य तीर्थंकरों के भी पांच-पांच विशेष प्रसंग बतलाए गए हैं। पर यहां महोत्सव मनाने की बात उल्लिखित नहीं है। भगवई १४ / २४ में भी चार महोत्सवों का उल्लेख मिलता है। देवों द्वारा जन्म महोत्सव आदि को मनाने की बात दिगम्बर साहित्य में भी मिलती है।' बौद्ध साहित्य में भी बुद्ध के जन्म के अवसर पर देवों के आने और उनके जन्म को मनाने की बात मिलती है। भगवती सूत्र में इस विषय का प्रवेश उत्तरकाल में हुआ प्रतीत होता है। नन्दीश्वर द्वीप की जानकारी के लिए जीवाजीवाभिगने (३/८८०६२४) द्रष्टव्य है। ६०. किंपत्तियन्नं भंते! असुरकुमारा देवा किं प्रत्ययितं भदन्त असुरकुमाराः देवाः सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य? सौधर्म कल्पं गताश्च गमिष्यन्ति च। गोयमा ! तेसि णं देवाणं भवपच्चइए वेराणु गौतम! तेषां देवानां भवप्रत्ययिकः वैरानुबन्धः, बंधे, ते णं देवा विकुव्वेमाणा परियारेमाणा ते देवाः विकुर्वाणाः परिचारयन्तो वा आत्मवा आयर देवे वित्ताति अढालहुसगाई रक्षान् देवान् वित्रासयन्ति यथा लघुस्यानि रयणाई गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमंति॥ रत्नानि गृहीत्वा आदाय एकान्तमन्तम् अवक्रामन्ति । भगवई ८७. मन्ते! असुरकुमार देव नन्दीश्वरवर द्वीप तक गए हैं और जाएंगे, इसका प्रत्यय क्या है? गीतम! जो ये अर्हत् भगवान हैं, इनके जन्मोत्सव, अभिनिष्क्रमण-उत्सव, केवल ज्ञानोत्पत्ति-उत्सव अथवा परिनिर्वाण-उत्सव के अवसर पर इन चार प्रत्ययों से असुरकुमार देव नन्दीश्वरवर द्वीप तक गए हैं और जाएंगे। ८८. भन्ते ! क्या असुरकुमार देवों की गति का विषय ऊर्ध्वलोक में है ? हां, है । ८६. भन्ते! ऊर्ध्वलोक में असुरकुमार देवों की गति का विषय कितना है ? गौतम! अर्ध्वलोक में असुरकुमार देवों की गति का विषय अच्युत कल्प तक है। सौधर्म कल्प तक वे गए हैं और जाएंगे। ६०. भन्ते! असुरकुमार देव सौधर्म कल्प में गए हैं और जाएंगे - इसका प्रत्यय क्या है? गौतम! असुरकुमार देवों का सौधर्म कल्पवासी देवों के साथ भवप्रात्यधिक वैरानुबन्ध होता है वे असुरकुमार देव (सौधर्म कल्पवासी देवों को डराने के लिए) विशाल शरीर का निर्माण करते हैं, अन्य देवियों के साथ भोग करना चाहते हैं, आत्मरक्षक देवों को संत्रस्त करते हैं, छोटे, रत्नों को चुराकर स्वयं एकान्त स्थान में चले जाते हैं। गभावयारकाले जम्मणकाले तहेव णिक्खमणे । केवलणापणे परिणिव्वाणम्मि समयम्मि ॥ ४. जातक, अविदूरेनिदान, हिन्दी अनुवाद ( प्रथम खण्ड) पृ. ६६, ६७ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४१ श.३ : उ.२ : सू.६०-६३ भाष्य १. सूत्र ६० किया है। वैकल्पिक रूप में वृद्धों के मत का उल्लेख किया है। उसके अनुसार विकुब्वेमाणा-असुरकुमार देव सौधर्म कल्प तक जाने के लिए 'अलघु' शब्द है। उसका अर्थ है महान् या वरिष्ठ। लघुस्वक शब्द का प्रयोग वैक्रिय शक्ति का प्रयोग कर विशेष प्रकार के शरीर का निर्माण करते हैं। आगम के अन्य स्थलों में भी छोटे के अर्थ में मिलता है। रत्नद्वीप की देवी छोटे जयाचार्य के अनुसार वे सौधर्म कल्पवासी देवों को डराने के लिए भयानक रूप । से अपराध परकुपित हो जाती थी। का निर्माण करते हैं।' धन सार्थवाह के प्रकरण में भी 'लघूस्वका' का प्रयोग मिलता है।' परियारेमाणा-सौधर्म कल्प में जाने का एक हेतु यह है इसलिए वृत्तिकार का मत संगत है। दूसरे देवों की देवियों के साथ भोग करने की इच्छा से असुरकुमार देव सौधर्म असुरकुमार देवों का सौधर्म कल्पवासी देवों के साथ भवप्रत्ययिक कल्प में चले जाते हैं। (वर्तमान भव में जातिगत) वैरानुबन्ध है-यह वाक्य क्या सुर-असुर के संघर्ष आयरक्खे देवे वित्तासेंति-वे असुरकुमार देव आत्मरक्षक देवों की प्रतिध्वनि नहीं है? परिचारणा और रत्नों की चोरी-ये सब वृत्तियां इस को सन्त्रस्त करते हैं। आत्मरक्षक देव हाथ में शस्त्र लिए शिरोरक्षक के रूप में बात की सूचना है कि मनुष्य और देव दोनों ही आचरण की दृष्टि से बहुत भिन्न सदा पीछे खड़े रहते हैं। उन्हें सन्त्रस्त करने के लिए असुरकुमार देव सौधर्म नहीं हैं। मनुष्य हो चाहे देव-चरित्र का विकास साधना के द्वारा ही किया जा कल्प में जाते हैं। सकता है। अहालहुसगाई-वृत्तिकार ने यथालघुस्वक का अर्थ छोटा किया असुरकुमार देवों के सौधर्म कल्प में जाने के अन्य प्रत्यय की पर्चा है। बड़े रत्नों को वे ले जा नहीं सकते; इसलिए प्रकरणवश इसका अर्थ 'छोटा' भ०३/१३१ में की गई है। उसका भाष्य द्रष्टव्य है। ६१. भन्ते! क्या उन देवों के पास छोटे रत्न हैं? ६१. अत्थि णं भंते! तेसिं देवाणं अहालहुसगाइं रयणाइं? हंता अत्थि॥ अस्ति भदन्त! तेषां देवानां यथालघुस्वकानि रत्नानि? हन्त अस्ति। ६२. से कहमिदाणिं पकरेंति? तत् कथमिदानीं प्रकुर्वन्ति? तओ से पच्छा कायं पव्वहंति॥ ६२. ' असुरकुमार देव छोटे रत्नों को चुरा एकान्त में चले जाते हैं। तब वैमानिक देव क्या करते हैं? वैमानिक देव उन असुरकुमार देवों के शरीर को प्रव्यथित करते हैं-शस्त्र प्रहार से आहतकरडालते हैं। ततः तेषां पश्चात् कायं प्रव्यथन्ते। भाष्य १. सूत्र ६२ देवों के सुख ही होता है और नरक जीवों के दुःख ही होता है-यह सामान्य कथन है, किन्तु वास्तविका इससे भिन्न है। वेदना तीन प्रकार की होती है-सात वेदना, असात वेदना, सातासात वेदना। प्रश्न पूछा गया-भन्ते! नैरयिक जीव क्या सात वेदना का वेदन करते हैं? असात वेदना का वेदन करते हैं अथवा सातासात वेदना का वेदन करते हैं? उत्तर दिया गया-ये तीन ही प्रकार की वेदना का वेदन करते हैं। इससे फलित होता है कि देवों में भी असात या दुःख की वेदना होती है। रत्नों को चुराकर ले जाने वाले असुरकुमारों पर सौधर्मकल्पवासी देव प्रहार करते हैं। उससे उन्हें प्रचुर दुःखद वेदना होती है। वह वेदना जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः छह मास तक रह जाती ६३. पभू णं भंते! असुरकुमारा देवा तत्थ गया प्रभवः भदन्त! असुरकुमाराः देवाः तत्र गता- ६३. भन्ते! सौधर्म कल्प में गए हुए असुरकुमार देव उन चेव समाणा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाइं श्चैव सन्तः ताभिः अप्सरोभिः सार्धं दिव्यान् अप्सराओं के साथ दिव्य भोगार्ह भोग भोगने में समर्थ भोगभोगाइं मुंजमाणा विहरित्तए? भोग्यभोगान् भुजानाः विहर्तुम्? णो इणद्वे समढे। ते णं ततो पडिनियत्तंति, नायमर्थः समर्थः। ते ततः प्रतिनिवर्तन्ते, ततः यह बात संगत नहीं हैं। वे वहां से लौट आते हैं। वहां १. भ. जो. १/५६/२१ जिन कहै असुरवैमानिक सुर रे, भव-प्रत्यय जे वैरो। क्रोध करी महारूप विकुर्वे, तास डरावण केरो॥ २. भ. वृ. ३/९०-'अहालहुस्सगाई'त्ति 'यथेत्ति यथोचितानि लघुस्वकानि-अमहास्वरूपाणि, महतां हि तेषां नेतुं गोपयितुं वाऽशक्यत्वादिति यथालघुस्वकानि, अथा- लघूनि- महान्ति वरिष्ठानीति वृद्धाः। ३. नाया. १/६/२६॥ ४. नाया. १/२/३५॥ ५. पण.३५/-११ ६. भ. वृ. ३/६२- एषां रत्नादातृणामसुराणां 'कार्य' देहं 'प्रव्यथन्ते' प्रहारैर्मथ्नान्ति वैमानिका देवाः, तेषां च प्रव्यथितानां वेदना भवति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतः षण्मासान्! यावत्। Jain Education Intemational Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.३ : उ.२ : सू.६३-६५ ४२ ततो पडिनियत्तिता इहमागच्छंति। जइ णं प्रतिनिवृत्य इह आगच्छन्ति। यदि ताः अप्सरसः ताओ अच्छराओ आढायंति परियाणंति, पभू आद्रियन्ते परिजानन्ति, प्रभवः ते असुरणं ते असुरकुमारा देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कुमाराः देवाः ताभिः अप्सरोभिः सार्द्ध दिव्यान् दिव्वाइं भोगभोगाइं मुंजमाणा विहरित्तए। अह भोग्यभोगान् भुजानाः विहर्तुम्। अथ ताः णं ताओ अच्छराओ नो आदति, नो अप्सरसः न आद्रियन्ते, न परिजानन्ति, न परियाणंति, नो णं पभू ते असुरकुमारा देवा प्रभवः ते असुरकुमाराः देवाः ताभिः अप्सरोभिः ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाइं सार्द्ध दिव्यान् भोग्योनान् भुञ्जानाः विहर्तुम्। भुंजमाणा विहरित्तए। एवं खलु गोयमा! एवं खलु गौतम! असुरकुमाराः देवाः सौधर्मं असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमि- कल्पं गताश्च गमिष्यन्ति च। संति य॥ से लौट कर अपने असुरकुमार आवासों में आ जाते हैं। यदि वे अप्सराएं उनका आदर करती हैं और उन्हें स्वीकार करती हैं, तो वे असुरकुमार देव उन अप्सराओं के साथ दिव्य भोगार्ह भोग भोगने में समर्थ हैं। यदि वे अप्सराएं उनका आदर नहीं करती हैं और उन्हें स्वीकार नहीं करती हैं, तो वे असुरकुमार देव उन अप्सराओं के साथ दिव्य भोगार्ह भोग भोगने में समर्थ नहीं है। गौतम! इस प्रकार असुरकुमार देव सौधर्म कल्प में गए हैं और जाएंगे। ६४. केवइयकालस्स णं भंते! असुरकुमारा देवा कियत्कालेन भदन्त! असुरकुमाराः देवाः ६४. 'भन्ते! असुरकुमार देव कितने समय से ऊर्ध्वलोक उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मं कप्पं गया य ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति यावत् सौधर्मं कल्पं गताश्च में जाते हैं यावत् सौधर्म कल्प तक गए हैं और जाएंगे? गमिस्संति य? गमिष्यन्ति च? गोयमा! अर्णताहि ओसप्पिणीहिं, अणंताहि गौतम! अनन्ताभिः अवसर्पिणीभिः अनन्ताभिः गौतम! अनन्त अवसर्पिणी और अनन्त उत्सर्पिणी के उस्सप्पिणीहिं समतिक्कंताहिं अत्थि णं एस उत्सर्पिणीभिः समतिक्रान्ताभिः अस्ति एष भावः ____ व्यतीत होने पर लोक में आश्चर्यभूत यह भाव उत्पन्न भावे लोयच्छेरयभूए समुप्पज्जइ, जंणं असुर- लोके आश्चर्यकभूतः समुत्पद्यते यद् असुर- होता है कि असुरकुमार देव ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कुमाराः देवाः ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति यावत् सौधर्मः कल्प तक जाते हैं। कप्पो॥ कल्पः । भाष्य १. सूत्र ६४ ठाणं में दस आश्चर्य बतलाए गए हैं। उनमें असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के उत्पात का-सौधर्म कल्प में जाने का उल्लेख है। ये आश्चर्य इसलिए माने जाते हैं कि अनन्त काल से घटित होते हैं। ६५. किं निस्साए णं भंते! असुरकुमारा देवा किं निश्रित्य भदन्त! असुरकुमाराः देवाः ६५.' भन्ते! असुरकुमार देव किसकी निश्रा (आश्रय) से उड्ढं उपयंति जाव सोहम्मो कप्पो? ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति यावत् सौधर्मः कल्पः? ऊर्ध्वलोक में, यावत् सौधर्म कल्प तक जाते हैं? गोयमा! से जहानामए इहं सबरा इ वा बब्बरा गौतम! तद् यथानाम इह शबरा इति वा, बर्बरा गौतम ! जैसे कोई शबर, बर्बर, टंकण, चुचुक, पल्हव इ वा टंकणा इ वा चुचुया इ वा पल्हा इ वा इति वा टंकणा इति वा चुचुका इति वा पल्हा या पुलिन्द एक महान् अरण्य, गर्त, दुर्ग, दरी, विषम पुलिंदा इ वा एगं महं रणं वा गड्ढं वा दुग्गं इति वा पुलिन्दा इति वा एकं महत् अरण्यं वा अथवा पर्वत की निश्रा से एक विशाल अश्वसेना, वा दरिं वा विसमं वा पव्वयं वा नीसाए गर्त वा दुर्गं वा दरी वा विषमं वा पर्वतं वा हस्तिसेना, पदातिसेना अथवा धनुष्यबल को आन्दोलित सुमहल्लमवि आसबलं वा हत्थिबलं वा निश्रित्य सुमहदपि अश्वबलं वा हस्तिबलं वा कर देते हैं, इसी प्रकार असुरकुमार देव भी अर्हत्, जोहबलं वा धणुबलं वा आगलेंति, एवामेव योद्धबलं वा धनुर्बलं वा आकलयन्ति एवमेव अर्हत् चैत्य अथवा भावितात्मा अणगार की निश्रा से असुरकुमारा वि देवा नण्णत्थ अरहंते वा असुरकुमारा अपि देवाः नान्यत्र अर्हतो वा ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प तक जाते हैं। उनकी अरहंतचेतियाणि वाअणगारे वा भाविअप्पणो अर्हच्चैत्यानि वा अनगारान् वा भावितात्मनः निश्रा के बिना वे ऊर्ध्वलोक में नहीं जा सकते। निस्साए उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो॥ निश्रित्य ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति यावत् सौधर्मः कल्पः । भाष्य १. सूत्र ६५ प्रस्तुत सूत्र में निश्रा के तीन कारकों का उल्लेख हैं-१. अर्हत् २. अर्हत्-चैत्य ३. भावितात्मा अनगार। अर्हत् का अर्थ है तीर्थकर अथवा अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी। अर्हत-चैत्य के दो अर्थ हो सकते १.ठाणं, १०/१६०। Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ भगवई श.३ : उ.२ : सू.६५-१०० हैं-अर्हत् की प्रतिमा, अर्हत-मुनि। भावितात्मा अनगार का अर्थ हैं-वह मुनि लगता है। आशातना के प्रसंग में 'अरहंतचेइयाणि वा' पाठ नहीं है। इन जिसने ज्ञान, दर्शन आदि भावनाओं से अपने आपको भावित किया है। आधारों पर अरहंत चेइयाणि यह पाठ आलोचनीय है। वृत्तिकार ने 'नन्नत्थ' पद की व्याख्या दो प्रकार से की है-ननु+अत्र उवासगदसाओ (१/४५) में “अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि वा अथवा न अन्यन्त्र । दूसरी व्याख्या के प्रसंग में वृत्ति में 'अरहंते वा निस्साए अरहंतचेइयाइं"- यहां आलाप-संलाप और अशन-पान के दान की बात उडे उप्पयंति' यह पाठ उल्लिखित है। इससे यह प्रतीत होता है कि वृत्तिकार कही गई है। इसका संबंध प्रतिमा से नहीं, किसी व्यक्ति से हो सकता है। इस के सामने केवल एक ही पाठ रहा । पूरा प्रकरण महावीर से जुड़ा हुआ है। अर्हत् आधार पर प्रस्तुत प्रकरण में भी अर्हत्-चैत्य का अर्थ अर्हत्-मुनि किया जा की प्रतिमा चमर की सुधर्मासभा में भी मानी जाती है, फिर वह महावीर की सकता है। जयाचार्य ने इसका अर्थ छद्मस्थ तीर्थंकर किया है। उन्होने इस शरण लेने क्यों गया? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। चमर विषय की विस्तृत समीक्षा की है।' महावीर की शरण लेकर ही गया था, इसलिए वृत्ति में उद्धृत पाठ अधिक संगत ६६. सव्वे विणं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं सर्वे ऽपि भदन्त! असुरकुमाराः देवाः ऊर्ध्वम् ६६. भन्ते! क्या सभी असुरकुमार देव ऊर्ध्वलोक में उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो? उत्पतन्ति यावत् सौधर्मः कल्पः? यावत् सौधर्म कल्प तक जाते हैं ? गोयमा! णो इणढे समढे। महिड्ढिया णं गौतम! नायमर्थः समर्थः। महर्द्धिकाः असुर- गौतम! यह बात संगत नहीं है। महर्द्धिक असुरकुमार असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सो- कुमाराः देवाः ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति यावत् सौधर्मः देव ही ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प तक जाते हैं। हम्मो कप्पो । कल्पः । चमरस्स उड्ढं उप्पाय-पदं चमरस्य ऊर्बोत्पाद-पदम् चमर का ऊर्ध्व-उत्पाद-पद ६७. एस वियणं भंते! चमरे असुरिंदे असुरराया एषोऽपि च भदन्त! चमरः असुरेन्द्रः असुर- ६७. भन्ते! क्या यह असुरेन्द्र असुरराज चमर भी ऊर्ध्वउड्ढे उप्पइयपुब्वे जाव सोहम्मो कप्पो? राजः ऊर्ध्वम् उत्पतितपूर्वः यावत् सौधर्मः लोक में यावत् सौधर्म कल्प तक गया हुआ है? कल्पः? हंता गोयमा! एस वि य णं चमरे असुरिंदे हन्त गौतम! एषोऽपि च चमरः असुरेन्द्रः हां, गौतम! यह असुरेन्द्र असुरराज चमर भी ऊर्ध्वअसुरराया उड्ढं उप्पइयपुव्वे जाव सोहम्मो असुरराजः ऊर्ध्वम् उत्पतितपूर्वः यावत् सौ- लोक में यावत् सौधर्म कल्प तक गया हुआ है। कप्पो। धर्मः कल्पः। ६८. अहो णं भंते! चमरे असुरिंदे असुरराया अहो भदन्त! चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः महिड्ढीए महज्जुईए जाव महाणुभागे। चमर- महर्द्धिकः महाद्युतिकः यावन् महानुभागः। स्स णं भंते! सा दिव्या देविड्ढी दिव्वा देव- चमरस्य भदन्त! सा दिव्या देवर्द्धि: दिव्या ज्जुती दिव्वे देवाणुभागे कहिं गते? कहिं देवद्युतिः दिव्यः देवानुभागः कुत्र गतः? कुत्र अणुपविढे? अनुप्रविष्टः? कूडागारसालादिट्ठतो भाणियव्वो ॥ कूटागारशालादृष्टान्तः भणितव्यः। ६८. अहो भंते! असुरेन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला है, महान् द्युति वाला है यावत् महासामर्थ्य वाला है। भन्ते! चमर की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवानुभाग कहां गया? कहां प्रविष्ट हो गया? कूटागारशाला का दृष्टान्त वक्तव्य है। चमरस्स पुन्वभवे पूरणगाहावइ-पदं चमरस्य पूर्वभवे पूरणगृहपति-पदम्। चमर का पूर्वभव में पूरण गृहपति का पद ६६. चमरेणं भंते! असुरिंदेणं असुररण्णा सा चमरेण भदन्त! असुरेन्द्रेण असुरराजेन सा ६६ भन्ते! असुरेन्द्र असुरराज चमर ने वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्या देविड्ढी दिव्वा देवजुती दिव्वे देवाणु- दिव्या देवर्द्धि: दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानु- दिव्य देवधुति और दिव्य दुवानुभाग किस हेतु से भागे किण्णा लद्धे? पत्ते? अभिसमण्णागए? भागः कथं लब्धः? प्राप्तः? अभिसमन्वागतः? उपलब्ध किया? किस हेतु से प्राप्त किया? और किस हेतु से अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया? १००. एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं एवं खलु गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् समये १००. गौतम! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप इहे व जंबूदीवे दीवे भारहे वासे इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारतवर्षे विन्ध्यगिरि- द्वीप के भारतवर्ष में विन्ध्यपर्वत की तलहटी में बेभेल' बिंझगिरिपायमूले बेभेले नाम सण्णिवेसे पादमूले बेभेलः नाम सन्निवेशः आसीद्- नामक सन्निवेश था। सन्निवेश का वर्णन। होत्था-वण्णओ ॥ वर्णकः। १. भ. वृ. ३/६५- 'नण्णत्थ 'त्ति 'ननु' निश्चितम् 'अत्र' इहलोके, अथवा 'अरहते वा केवलज्ञान-सहित, ते अरिहंत पहिलो शरण। निस्साए उई उप्पयंति' 'नान्यत्र' तन्निश्रयादन्यत्र न, न तां विनेत्यर्थः । छद्मस्थ-जिन संगीत, चैत्य सामान्यज्ञानी तिको ॥ २. भ. ३/११५ ४. (क) भ. जो. १,५६/३७-४२। ३. भ. जो. १,५६/३६ (ख) प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, १० वां चमर अधिकार। Jain Education Intemational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३: उ. २ सू.१००-१०२ १. विन्ध्यपर्वत विन्ध्यपर्वत वर्तमान मध्यप्रदेश दक्षिणापथ की सीमा पर स्थित है। १०१. तत्य णं भेले सग्णिवेसे पूरणे नाम गाहावई परिवसई - अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभू या वि होत्था ॥ पूरणस्स दाणामा पवज्जा-पदं १०२. तए णं तस्स पूरणस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंब - जागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - अत्थिता मे पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसे से, जेणाहं हिरण्णेणं बडागि, सुवणेण वद्धामि धणं वड्ढामि, धणेणं वड्ढामि, पुत्तेहिं वामि पबिद्यामि, विपुलधण-कणगरयण-मणि- मोत्तिय संख-सिलप्पवालरत्तरय- संत सारसावएन्जेणं अतीव अतीव अभि वड्ढामि, तं किं णं अहं पुरा पोराणाणं सुचिणा जाव कडा कम्माणं एगंतसो खयं उवेहमाणे विहरामि ? तंजावताव अहं हिरण्णेणं वड्ढामि जाव अतीव अतीव अभिवामि जावं च मे मित्तनाति-नियम-सय-संबंध परियणो आदाति परियाणाइ सक्कारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं विगएणं चेयं जजुवासइ, तावता में सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियग्मि सूरे सहस्सरस्सिग्मि दिनयरे तेयसा जलते सयमेव उदयं दारुमयं पडिम्गहनं करेता, विउल असण-पान-खाइम साइमं उवक्खडावेत्ता, मित्त-नाइ - नियग-सयणसंबंधि-परिवणं आमंतेत्ता, तं मित्त-नाइ- नियग-सयण-संबंधि-परियणं विउलेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं वत्थ-गंधमल्लालंकारेण 'य सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता, तस्सेव मित्त-नाइ-नियग सयण संबंधि परियणस्स पुरओ जेद्पुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता, तं मित्त-नाइ - नियग-सयण संबंधि-परियणं जेपुतं च आपुच्छित्ता, सायमेव चडप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहगं गहाय मुंडे भवित्ता दाणामाए ४४ भाष्य २. बेभेल सन्निवेश अन्वेषणीय है। तत्र बेले सन्निवेशे पूरणो नाम गाहापतिः परिवसति आदयः दीप्तः याद बहुजनस्य अपरिभूतश्चापि आसीत् । + पूरणस्य दानमयी प्रव्रज्या-पदम् ततः तस्य पूरणस्य गृहपतेः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - अस्ति तावन् मम पुरा पुराणानां सुचीर्णानां सुपराक्रान्तानां शुभानां कल्याणानां कृतानां कर्मणां कल्याणफलवृत्तिविशेषः, येनाहं हिरण्येन बर्जे, सुवर्णेन करें, धनेन व धान्येन वर्चे, पुत्रे वर्द्धे, वर्द्धे वर्द्धे, पशुभिः वर्द्धे, विपुलधन-कनक-रत्नमणि-मौक्तिक- शंख-शिला- प्रवाल- रक्तरत्नसत्सारस्वापतेयेन अतीव अतीव अभिव तत् किम् अहं पुरा पुराणानां सुचीर्णानां यावत् कृतानां कर्मणां एकान्तशः क्षयम् उपेक्षमाणः विहरामि ? तद् यावत्तावद् अहं हिरण्येन वर्षे यावद् अतीव-अतीव अभिवर्धे, यावच्च मे मित्र-ज्ञाति-निजक- स्वजन-संबंधि-परिजनः आद्रियते परिजानाति सत्कारोति सम्मानयति कल्याणं मंगलं दैवतं विनयेन चैत्यं पर्युपास्ते, तावत् मे श्रेयः कल्पं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् उस्थिते सुरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा ज्वलति स्वयमेव चतुष्पुटकं दारुमयं प्रतिग्रहकं कृत्वा विपुलं अशन-पान खाद्य-स्वायम् उपस्कार्य, मित्र - ज्ञाति - निजक- स्वजन- संबंधि- परिजनम् आमन्त्र्य, तं मित्र ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजन विपुलेन अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र- गन्ध-माल्यालंकारेण च सत्कृत्य सम्मान्य, तस्यैव मित्र - ज्ञाति - निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनस्य पुरतः ज्येष्ठपुत्रं च कुटुम्बे स्थापयित्वा तं मित्र - ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनं ज्येष्ठपुत्रं च आपृच्छ्य, स्वयमेव चतुष्पुटकं दारुमयं प्रतिग्रहकं गृहीत्वा मुण्डो भूत्वा दानमय्या प्रव्रज्यया प्रव्रजितुम् । भगवई १०१. उस बेभेल सन्निवेश में पूरण नामक गृहपति रहता था। वह समृद्ध, तेजस्वी यावत् अनेक लोगों द्वारा अपरिभूत था सूरण की दानामा प्रव्रज्या का पद १०२. किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्बजागरिका करते हुए उस पूरण गृहपति के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक स्मृत्यात्मक अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ इस समय मेरे पूर्वकृत पुरातन सुआचरित सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्मों का कल्याणदायी फल मिल रहा है, जिससे मैं चांदी, सोना, धन, धान्य, पुत्र, पशु तथा विपुल वेगवरत्न, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, लालरत्न (पद्मरागमणि) और श्रेष्ठ सार-वैभवशाली द्रव्यों से अतीव अतीव वृद्धि कर रहा हूं, तो क्या मैं पूर्वकृत पुरातन सुआचरित, सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्म एकान्ततः क्षीण हो रहे हैं और मैं उन्हें देखता जा रहा हूं? -- इसलिए जब तक में चांदी से वृद्धि कर रहा हूं यावत् इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव अतीव वृद्धि कर रहा हूं और जब तक मेरे मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजन मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी के रूप में स्वीकारते हैं, सत्कार-सम्मान देते हैं, कल्याणकारी, मंगलकारी, देवरूप और चित्ताहादक मानकर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हैं तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि में कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर मैं स्वयं चतुष्पुट काष्ठमय पात्र का निर्माण कर, विपुल भोजन, पेय, स्वाय और खाद्य पदार्थ तैयार करवा कर मित्र, जाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजनों को आमन्त्रित कर उन्हें विपुल भोजन, पेय, खाद्य, और स्वाद्य पदार्थों से तथा बस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकारों से सत्कृतसम्मानित कर उन्हीं मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों संबंधियों और परिजनों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर, उन मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों, परिजनों और ज्येष्ठ . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४५ श.३ : उ.२ : सू.१०२-१०४ पव्वज्जाए पव्वइत्तए। पब्बइए वि यणं समाणे प्रव्रजितोऽपि सन् इममेतद्रूपम् अभिग्रहम् इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि- अभिग्रहिष्यामि-कल्पते मे यावज्जीवं षष्ठ- कप्पइ मे जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खि- षष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहून तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिल्झिय- प्रगृह्य-प्रगृह्य सूर्याभिमुखस्य आतापनभूम्याम् पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आतपतः विहर्तुम्। षष्ठस्यापि च पारणे आयावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्स वि य णं आतापनभूम्याः प्रत्यवरुह्य स्वयमेव चतुष्पुटकं पारणयंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुभित्ता दारुमयं प्रतिग्रहकं गृहीत्वा बेभेले सन्निवेशे सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहगं गहाय उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य बेभेले सण्णिवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं भिक्षाचर्यया अटित्वा यन् मे प्रथमे पुटके पतति, घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता जं मे कल्पते मे तत् पथि पथिकेभ्यः दातुम् । यन् पढमे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं पंथे पहियाणं मे द्वितीय पुटके पतति, कल्पते मे तत् काकदलइत्तए। जं मे दोच्चे पुडए पडइ, कप्पइ मे शुनकेभ्यः दातुम्। यन् मे तृतीये पुटके पतति, तं काग-सुणयाणं दलइत्तए। जं मे तच्चे पुडए कल्पते मे तन् मत्स्य-कच्छपेभ्यः दातुम्। यन् पडइ, कप्पइ मे तंमच्छ-कच्छभाणं दलइत्तए। मे चतुर्थे पुटके पतति, कल्पते मे तद् आत्मना जं मे चउत्थे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं अप्पणा आहारम् आहर्तुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, आहारं आहारेत्तए-त्ति कटु एवं संपेहेइ, संप्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां तच्चैव संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए तं चेव निरवशेषं यावद् यत् तस्य चतुर्थे पुटके पतति, निरवसेसं जाव जं से चउत्थे पुडए पडइ, तं तद् आत्माना आहारम् आहरति। अप्पणा आहारं आहारेइ ॥ पुत्र को पूछकर स्वयं चतुष्पुट काष्टमय पात्र ग्रहण कर, मुण्ड हो कर दानामा' प्रव्रज्या से प्रव्रजित होना मेरे लिए श्रेयस्कर है। प्रव्रजित हो कर में इस आकार वाला यह अभिग्रह स्वीकार करूंगा-मैं जीवन भर निरन्तर बेले-बेले (दो-दो दिन के उपवास) की तपःसाधना करूंगा। मैं आतापना-भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करूंगा। बेले के पारणे में मैं आतापना-भूमि में उतर कर स्वयं चतुष्पुट काष्ठमय पात्र ग्रहण कर बेभेल सन्निवेश के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचारी के लिए पर्यटन करूंगा। मेरे पात्र के प्रथम पुट में जो भिक्षा डाली जाएगी वह मार्ग में समागत पथिकों को दूंगा। मेरे पात्र के दूसरे पुट में जो भिक्षा डाली जाएगी वह मैं कौवों और कुत्तों को दूंगा। जो मेरे पात्र के तीसरे पुट में डाली जाएगी वह मछलियों और कछुओं को दूंगा। मेरे पात्र के चौथे पुट में जो डाली जाएगी वह आहार मेरे लिए कल्पनीय होगा। इस प्रकार सोच कर वह संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर उषाकाल में रात्रि के पौ फटने पर उस सम्पूर्ण पूर्वोक्त विधि का पालन करता हुआ यावत् उसके पात्र के चौथे पुट में जो भिक्षा डाली जाती है, उसका वह स्वयं आहार करता है। भाष्य १. दानामा गृहपति पूरण द्वारा स्वीकृत प्रव्रज्या। इसमें दान और आहार की विशेष विधि निर्दिष्ट है। दानामा प्रव्रज्या स्वीकार करने वाला चार पुट वाला काष्ट-पात्र अपने पास रखता है। पहले पुट में जो भिक्षा डालता है, उसे वह पथिकों को दे देता है। दूसरे पुट में डाली जाने वाली भिक्षा को वह कौवों और कुत्तों को दे देता है। तीसरे पुट में डाली जाने वाली भिक्षा को वह मत्स्य आदि कुत जन्तुओं को देता है। चौथे पुट में डाली जाने वाली भिक्षा को वह स्वयं खाता है। १०३. तए णं से पूरणे बालतवस्सी तेणं ओरालेणं ततः सः पूग्णः बालतपस्वी तेन 'ओरालेणं' विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं विपुलेन प्रदत्तेन प्रगृहीतेन बालतपःकर्मणा सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठि चम्मावणद्धे शुष्कः रूक्षः निर्मासः अस्थि-चावनद्धः किटिकिडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए यावि किटिकाभूतः कृशः धमनिसन्ततः जातश्चापि होत्था ॥ आसीत्। १०३. वह बालतपस्वी पूरण उस प्रधान, विपुल अनुज्ञात और प्रगृहीत बालतपः कर्म से सूखा, रूखा, मांस-रहित चर्म से वेष्टित अस्थि वाला, उठते-बैठते समय किटकिट शब्द से युक्त, कृश और धमनियों का जालमात्र हो गया। पूरणस्स पाओवगमण-पदं पूरणस्य प्रायोपगमन-पदम् पूरण का प्रायोपगमन-पद १०४. तए णं तस्स पूरणस्स बालतवस्सिस्स ततस्तस्य पूरणस्य बालतपस्विनः अन्यदा १०४. किसी एक दिन मध्यरात्रि में अनित्य-जागरिका अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये अनित्य- करते हुए उस बाल तपस्वी पूरण के मन में यह इस अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे जागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुद- मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं इस विशिष्ट रूप समुपज्जित्था-एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं पादि-एवं खलु अहम् अनेन 'ओरालेणं' वाले प्रधान, विपुल, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएण कल्लाणेणं सिवेणं विपुलेन प्रदत्तेन प्रगृहीतेन कल्याणेन शिवेन धन्य, मंगलमय, शोभायित, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, Jain Education Intemational Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ उ.२ सू. १०४, १०५ 4. धन्नेषं मंगल्लेणं सस्सिएणं उदग्गेणं उदत्तेनं उत्तमेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक् जाव धमणिसंत जाए, तं अत्थि जा में उड़ाने कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार परक्कमेतावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणी जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते वेमेलस्स सण्णिवेसस्स दिट्ठाभट्ठे य पासंडत्थे य गिहत्थे य पुव्वसंगतिए य परियायसंगतिए य आपुच्छिता बेमेतरस सष्णिवेसस्स ममन्येणं निग्गच्छित्ता, पादुग- कुंडिय-मादीयं उवगरणं चउप्पुडयं दारुमयं च पडिग्गहगं एगंते एडित्ता, बेभेलस्स सणिवेसस्स दाहिणपुरत्यिमे दिसीभागे अद्धनियत्तणिय-मंडलं आलिहित्ता संलेहणाझूसणा-झुसियस्स भत्तपाणपडियाक्खियरस पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए ति कट्टु एवं संपेढे, संपेता कल्लं पाउप्पभाषाए रवणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते बेभेले सष्णिवैसे विद्वाभय पासंहत्थे व गिहत्थे य पुव्वसंगतिए व परियावसंगतिए य आपुच्छ, आपुच्छित्ता बेभेलस्स सण्णिवेसस्स मज्झंमज्झेणं निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता पादुग-कुंडियमादीयं उवगरणं दारुमयं च परिग्गहगं एंगते एडेइ, एडित्ता बेभेलस सण्णिवेसस्स दाहिणपुरत्यिमे दिसीमागे अन्दनियत्तणियमंडल आलिहिता संलेहना झूसणा-सिए मत्तपाणपडियाइखिए पाओदवगमणं निवण्णे ॥ भगवओ एगराइया महापडिमा पर्द १०५. तेगं कालेणं तेणं समएणं अहं गोवमा! छउमत्थकालियाए एवकारसवासपरियाए छ छट्टेणं अणिक्खित्तेगं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाशुगामं दुइजमाणे जेणेव सुंसुगारपुरे नगरे जेणेव असोयसंडे उज्जाणे जेणेव असोयवरपायवे जेणेव पुढवीसिलावट्टए तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढवीसिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं पगिण्हामि दो वि पाए साहट्टु वग्घारियपाणी एगपोग्गल - निविट्ठदिट्ठी अणिमिसणयणे ईसिपब्भारगएणं ४६ धन्येन मांगल्येन सश्रीकेण उण उदात्तेन उत्तमेन महानुभागेन तपःकर्मणा शुष्कः रूक्षः यावद् धमनिसन्ततः जातः तद् अस्ति यावन् मे उत्थानं कर्म वलं दीर्य पुरुषकार पराक्रमः तावन् मे श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् उत्थिते सूर्ये सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति बेमेतस्य सन्निवेशस्य दृष्टाभाषितान् च पाषण्डस्थान् च गृहस्थान् च पूर्वसांगतिकान् च पर्यायसांगतिकान् च आपृच्छय बेमेत्तस्य सन्निवेशस्य मध्येमध्येन निर्गम्य पादुकाकुण्डिकादिकम् उपकरणं चतुष्पुटकं दारुमयं च प्रतिग्रहकम् एकान्ते एडयित्वा बेभेलस्थ सन्निवेशस्य दक्षिण- पीरस्त्ये दिग्भागे अर्द्धनिवर्तनिक- मण्डलम् आलिख्य संलेखना - जोषणा-भूषितस्य प्रत्याख्यात भक्तपानस्य प्रायोपगतस्य कालम् अनवकांक्षतः विहर्तुम् इति कृत्वा एवं सधते समय कल्पं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् उत्थिते सूर्ये सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा ज्वलति बेभेले सन्निवेशे दृष्टाभाषितान् च पाषण्डस्थान् च गृहस्थान् च पूर्वसांगतिकान् व पर्यायसांगतिकांश्च आपृच्छति, आपृच्छ्य बेभेलस्य सन्निवेशस्य मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य पादुका कुण्डिकादिकम् उपकरणं चतुपुटकं दारुमयं च प्रतिग्रहकम् एकान्ते एडयति एडयित्वा बेभेलस्य सन्निवेशस्य दक्षिण - पौरस्त्ये दिग्भागे अर्द्धनिवर्तनिकमण्डलम् आलिख्य संलेखना - जोषणा - जुषितः प्रत्याख्यात-भक्तपानः प्रायोपगमनं निपन्नः । भगवतः एकरात्रिकी महाप्रतिमा-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये अहं गौतम ! छद्मस्थकालिके एकादशवर्षपर्याये पष्ठ-षष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपः कर्मणा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं द्रवन् यत्रैव सुकुमारपुरं नगरं यत्रैव अशोकषण्डम् उद्यानं, यत्रैव अशोकवरपादपः यत्रैव पृथिवीशिलापट्टकः तत्रैव उपागच्छामि, उपागम्य अशोकवरपादपस्य अधः पृथिवीशिलापट्टके अष्टमभक्तं प्रगृहामि, द्वावपि पादौ संहृत्य 'वग्घारिय' पाणिः एकपुद्गलनिविष्टदृष्टिः अनिमिषनयनः ईषत्प्राग्भारगतेन कायेन यथा भगवई उत्तम और महान् प्रभावी तपः कर्म से सूखा, रूखा, यावत् धमनियों का जालमात्र हो गया हूं। अतः जब तक मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुष कार- पराक्रम है, तब तक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बेमेल सन्निवेश में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों (श्रमणों), गृहस्थों, तापस जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों तथा तापस जीवन में परिचितों को पूछ कर बेमेल सन्निवेश के मध्यभाग से गुजर कर पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण तथा चतुष्पुटक काष्ठमय पात्र को एकान्त में छोड़ कर बेमेल सन्निवेश के दक्षिण-पूर्व दिग्विभाग (आग्नेयकोण) में अर्ध निवर्तनिक मण्डल का आलेखन कर संलेखना ( अनशन से पूर्वकालिक तपस्या) की आराधना से युक्त हो कर, भोजन-पानी का त्याग कर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं, ऐसी संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहसारश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बेभेल सन्निवेश में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों (श्रमणो और गृहस्थों तापस जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों और तापस जीवन में परिचितों को पूछता है, पूछ कर बेभेल सन्निवेश के मध्यभाग से निर्गमन करता है, निर्गमन कर वह पादुका, कमण्डलु आदि और 'चतुष्पुटक काष्ठमय पात्र को एकान्त स्थान में छोड़ देता है, छोड़ कर बेभेल सन्निवेश के दक्षिण-पूर्व दिग्विभाग में अर्धनिवर्तनिक मण्डल का आलेखन करता है, आलेखन कर वह संलेखना- आराधना से युक्त हो कर भोजन-पानी का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन में उपस्थित हो गया। उपकरण भगवान की एकरात्रिकी महाप्रतिमा का पद १०५. गीतम उस काल और उस समय में छद्म' ! स्थ अवस्था की ग्यारह वर्षीय दीक्षा - पर्याय में था । तब मैं बिना विराम षष्ठ-भक्त तपःकर्म, संयम और तप से आत्मा को भावित करता हुआ क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन करता हुआ जहां सुंसुमारपुर, अशोकषण्ड उद्यान, प्रवर अशोक वृक्ष और पृथ्वीशिलापट्ट हैं, वहां आता हूं। वहां आ कर मैं प्रवर अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वी- शिलापट्ट पर तीन दिन का उपवास ग्रहण करता हूं। दोनों पैरों को सटा, दोनों हाथों को लम्बित कर एक पुद्गल पर दृष्टि टिका, नेत्रों को अनिमेश बना मुंह आगे की ओर झुका, , Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई काएणं, अहापणिहिएहिं गत्तेहिं, सव्विंदिएहिं गुतेहिं एगराइवं महापडिमं उपसंपन्जेत्ता नं विहरामि ॥ १. सूत्र १०५ महाप्रतिमा भगवती, ३/१०५ दोवि पाए साहट्टु वग्घारियपाणी एगपोग्गलनिविदिट्टी अणिमिसणयणे ईसि पब्भाएगएणं काएणं अहापणिहिएहिं गत्तेहिं सधिदिएहिं गुत्तेहिं । प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर द्वारा स्वीकृत महाप्रतिमा का उल्लेख पूरणस्स चमरत्त-पदं १०६. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहानी अनिंदा अपुरोहिया या वि होत्या । १०७. तए णं से पूरणे बालतवरसी बहुपडि पुण्णाई दुबालसवासाई परियागं पाणिता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, सट्ठि ४७ प्रणिहितैः गात्रैः सर्वेन्द्रियैः गुप्तैः एकरात्रिकीं महाप्रतिमाम् उपसंपद्य विहरामि । भगवान महावीर ने तेले (तीन दिन के उपवास) में एकरात्रिकी महाप्रतिमा स्वीकार की थी। मुनि गजसुकुमाल ने दीक्षा के प्रथम दिन महाकाल श्मशान में एकरात्रिकी महाप्रतिमा स्वीकार की थी दसाओ में 'महप्रतिमा' नाम निर्दिष्ट नहीं है। वहां एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा का निर्देश है। वह भी तेले में स्वीकार की जाती है। ऊपर की तालिका को देखने से ज्ञात होता है कि एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा और एकरात्रिकी महाप्रतिमा दोनों में केवल नाम-भेद है, स्वरूप भेद नहीं है। १. आयारो, ६/१/५ । २. अयोगव्यवच्छेदिका, २० २. एक पुद्गल पर दृष्टि टिका, नेत्रों को अनिमेष बना दृष्टि को निश्चल बनाना और उसे किसी एक पुद्गल पर निविष्ट करना इसे जैन ध्यान पद्धति में 'अनिमेष प्रेक्षा' कहा जाता है। भगवान् महावीर इसका बहुत प्रयोग करते थे।' तन्त्रशास्त्र और हठयोग में इसे त्राटक कहा जाता है। यहां पद्गल का अर्थ अपने शरीर का अवयव या बाहरी वस्तु हो ३. घेरण्डसंहिता, ३/६४ भाष्य है। अंतगडदखाओ में भी एक रात्रि की महाप्रतिमा का उल्लेख मिलता है। भिक्षु की बारह प्रतिमाओं में अहोरात्र की बारहवीं प्रतिमा है। इससे महाप्रतिमा की तुलना होती है। एक रात्रि की महाप्रतिमा अंतगडदसाओ, ३/८/८८ - ईसिं पब्भा रगएणं कारणं वग्घारियपाणी..... दोवि पाए साहट्टु अणिमिसणयणे सुक्कपोग्गलनिरु द्धदिट्टी । वपुश्च पर्यङ्कशयं श्लथं च दृशी च नासानियते स्थिरे च । न शिक्षितेयं परतीर्थनाथे, जिनेन्द्र मुद्रापि तवान्यदास्ताम् ॥ पूरणस्य चमरत्व-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये चमरचञ्चा राजधानी अनिन्द्रा अपुरोहिता चापि आसीत्। सकता है । नासाग्र या भृकुटि पर दृष्टि को अनिमेष करना ध्यान का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। आचार्य हेमचन्द्र ने नासाग्र पर अनिमेष दृष्टि को जिनेन्द्र मुद्रा का एक लक्षण माना है। भृकुटि पर अनिमेष दृष्टि टिकाने को शाम्भवी मुद्रा कहा जाता है। शब्द-विमर्श ततः स पूरणः बाल-तपस्वी बहुप्रतिपूर्णानि ततः स पूरणः बाल-तपस्वी बहुप्रतिपूर्णानि द्वादशवर्षाणि पर्याय प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषयित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन श.३ उ.२ सू. १०५-१०७ अवयवों को अपने-अपने स्थान पर सम्यक नियोजित कर सब इन्द्रियों को संवृत बना एक रात की महाप्रतिमा को स्वीकार कर विहरण करता है। अष्टमभक्त - तीन दिन का उपवास । वग्घारिय- यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है प्रलम्बित । इस अर्थ में 'वापारि' और 'वाघारिय' शब्द भी मिलते है।" ५ प्राग्भार ---अगला भाग, शिखर । वृत्तिकार ने इसका अर्थ अग्रतोमुख यानी अवनतत्व किया है।" यथाप्रणिहित - यथास्थान में नियोजित। भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा दसाओ, ७/३३ - दो वि पाए साहछु वग्घारियपाणिस्स एगपोग्गलनिरुद्ध - दिट्टिस्स अणिमिसणयणस्स ईसिं पब्भारगतेणं काएणं अहापणिहितेहिं गत्तेहिं सव्विदिएहिं गुत्तेहिं । ४. देशीशब्दकोष । पूरण का चमरत्व पद १०६. उस काल और उस समय चमरचञ्चा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त थी। नेत्रानं समालोक्य, आत्मारामं निरीक्षयेत् । सा भवेच्छाम्भवी मुद्रा, सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥ १०७. वह बालतपस्वी पूरण पूरे बारह वर्ष के लापस पर्याय का पालन कर एक मासकी संलेखना से अपने आपको कृश बना कर, अनशन के द्वारा साठ भक्तों ५. आप्टे प्रारभार - the front part fore part. top or summit of a mountain. ६. भ. वृ. ३/१०५ प्राग्भारः - अग्रतोमुखभवनतत्वम् । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.२ : सू.१०७-१०६ ४८ भगवई भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, कालमासे कालं छित्त्वा, कालमासे कालं कृत्वा चमरचञ्चायाः किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए राजधान्याः उपपातसभायां यावद् इन्द्रत्वेन जाव इंदत्ताए उववण्णे॥ उपपन्नः। को छेद कर कालमास में काल को प्राप्त कर चमरचञ्चा राजधानी की उपपात सभा में यावत् इन्द्र रूप में उपपन्न हो गया। १०८. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया ततः स चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः अधुनो- १०. वह तत्काल उपपन्न असुरराज असुरेन्द्र चमर पांच अहुणोववण्णे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्ज- पपन्नः पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावं प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होता है त्तिभावं गच्छइ, (तं जहा-आहारपज्जत्तीए गच्छति, (तद् यथा-आहारपर्याप्त्या यावद् (जैसे-आहार पर्याप्ति से यावत् भाषा-मनः पर्याप्ति जाव भास-मणपज्जत्तीए) ॥ भाषा-मनःपर्याप्त्या)। चमरस्स कोव-पदं चमरस्य कोप-पदम् चमर का कोप-पद १०६. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया पंच- ततः सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः पञ्च- १०६ वह असुरेन्द्र असुरराज चमर पांच प्रकार की विहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गए समाणे विधया पर्याप्या पर्याप्तिभावं गतः सन् ऊर्ध्व पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त हो, स्वाभाविक' उडुढं वीससाए ओहिणा आभोएइ जाव विस्रसया अवधिना आभोगयति यावत् सौधर्मः अवधिज्ञान द्वारा ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प सोहम्मो कप्पो, पासड़ य तत्थकल्पः पश्यति च तत्र तक ध्यान देता है। वहां वह देखता है-देवेन्द्र देवराज सक्कं देविंदं देवरायं, शक्र देवेन्द्रं देवराज, मघवा पाकशासन शतक्रतु सहस्राक्ष वज्रपाणि पुरन्दर मघवं पाकसासणं। मघवं पाकशासनम्। शक्र को। सयक्कतुं सहस्सक्खं, शतक्रतुं सहस्राक्षं, वज्जपाणिं पुरंदरं ॥ वज्रपाणिं पुरंदरम्॥ दाहिणड्ढलोगाहिवई बत्तीसविमाणसयस- दक्षिणार्धलोकाधिपतिं द्वात्रिंशत्शतसहस्र- दक्षिणार्धलोक का अधिपति, बत्तीस लाख विमानों का हस्साहिवइं एरावणवाहणं सुरिंदं अरयंबर- विमानाधिपतिम् ऐरावणवाहनं सुरेन्द्रम् अर- अधिपति, ऐरावण हाथी की सवारी करने वाला, वत्थधर आलइयमालमउडं नव-हेम-चारु- जोऽम्बरवस्त्रधरम् आलगितमालमुकुटं नव- देवताओं का स्वामी, आकाश के समान निर्मल-वस्त्र चित्त चंचल-कुंडल-विहिज्जमाणगंडं भासुर- हेम-चारुचित्र-चंचल-कुण्डल-विलिख्यमानगण्ड धारण करने वाला, मुकुट तक माला धारण करने बोंदि पलंबवणमालं दिव्वेणं वण्णेणं जाव भासुरबोंदि प्रलम्बवनमालं दिव्येन वर्णेन यावद् वाला, नए स्वर्णिम सुन्दर चित्रों से युक्त चंचल कुण्डलों दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं सोहम्मे दशदिशः उद्योतयन्तं प्रभासयन्तं सौधर्मे कल्पे से रेखाङ्कित कपोल वाला, दीप्तिमान् शरीर वाला, प्रलम्ब कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सौधर्मावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां शक्रे वनमाला धारण करने वाला, दिव्य वर्ण से यावत् दसों सक्कंसि सीहासणंसि जाव दिव्वाइंभोगभोगाइं सिंहासने यावद् दिव्यान् भोग्यभोगान् भुञ्जानं दिशाओं का उयोतित करने वाला, प्रभासित करने भुंजमाणं पासइ, पासित्ता इमयारूवे अज्झ- पश्यति, दृष्ट्वा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः, वाला है। उसे सौधर्म कल्प में सौधर्मावतंसक विमान थिए चिंतिए पत्थिरए मणोगए संकप्पे समुष्प- चिन्तितः, प्रार्थितः, मनोगतः संकल्पः, समुद- में सुधर्मा सभा के शक नामक सिंहासन पर यावत् ज्जित्था-केस णं एस अपत्थिपत्थए दुरंत- पादि-कः एष अप्राथितप्रार्थिकः दुरन्तप्रान्त- दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगते हुए देखता है, देख कर पंतलक्खणे हिरिसिरिपरिवज्जिए हीणपुण्ण- लक्षणः हीश्रीपरिवर्जितः हीनपुण्यचातुर्दशः, यन् असुरेन्द्र चमर के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, चाउद्दसे जं णं ममं इमाए एयारुवाए दिव्वाए मम अस्याम् एतद्रूपायां दिव्यायां देव: स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न देविड्ढीए दिव्वाए देवज्जुतीए दिवे देवाणुभावे दिव्यायां देवद्युतौ दिव्ये देवानुभावे लब्धे प्राप्ते हुआ-कौन है यह अप्रार्थनीयको चाहने वाला, दुखःद लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए उप् िअप्पुस्सुए अभिसमन्वागते उपरि अल्पोत्सुकः दिव्यान् अन्त और अमनोज्ञ लक्षणवाला, लज्जा और शोभा दिव्वाइं भोगभोगाई मुंजमाणे विहरइ–एवं भोग्यभोगान् भुजानः विहरति-एवं संप्रेक्षते, से रहित, हीनपुण्य-चतुर्दशी को जन्मा हुआ जो ऐसी संपेहेइ, संपेहेत्ता सामाणियपरिसोववण्णए देवे संप्रेक्ष्य सामानिकपरिषदुपपन्नकान् देवान् विशिष्ट प्रकार की दिव्य देवर्धि, दिव्य देवधुति और सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-केस णं एस शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्--कः स एष दिव्य देवानुभाव उपलब्ध करने, प्राप्त करने, अभिदेवाणुप्पिया! अपत्थियपत्थए जाव दिव्वाइं देवानुप्रियाः। अप्रार्थितप्रार्थकः यावद् दिव्यान् समन्वागत (विपाकाभिमुख) करने पर भी मेरे सिर भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ? भोग्यभोगान् भुजानः विहरति? पर बैठा हुआ, बड़े धैर्य के साथ दिव्य भोगार्ह भोग भोगता हुआ रहता है। ऐसा सोचता है, सोच कर सामानिक परिषद में उपपन्न देवों को आमन्त्रित करता है, आमन्त्रित कर इस प्रकार बोला-हे देवानुप्रियो! यह कौन है अप्रार्थनीय को चाहने वाला यावत् दिव्य भोगार्ह भोग भोगता हुआ रहता है ? Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भगवती वृत्ति मघवा - मघा महामेघास्ते यस्य वशे सन्त्यसौ मघवा । १. स्वाभाविक वीससा- (विस्रसा ) - स्वभाव | संस्कृत शब्द-कोश में यह वृद्धावस्था के अर्थ में मिलता है। आगम के व्याख्या-साहित्य में विस्रसा का अर्थ 'स्वभाव' और वैस्रसिक का अर्थ 'स्वाभाविक' प्राप्त है। पाकशासनः – पाको नाम बलवान् रिपुस्तं यः शास्ति - निराकरोत्यौ पाकशासनः । शतक्रतुः मतं कतुनां प्रतिमानामभिग्रहविशेषाणां श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कार्तिकश्रेष्ठभवापेक्षया यस्वासी शतक्रतुः। सहस्राक्षः सहस्रमक्षणां यस्यासौ सहस्राक्षः । इन्द्रस्य किल मन्त्रिणां पञ्चशतानि सन्ति तदीयानां चाणामिन्द्रप्रयोजनव्यापतत्तयेन्द्रसम्बन्धित्वेन विचक्षणात्तस्य सत्यमिति पुरन्दरः - असुरादिपुराणां दारणात् पुरन्दरः ।' भाष्य - ३. निर्मल वस्त्र धारण करने वाला अरयंबरवत्थधर - 'अरज' का अर्थ है – निर्मल। यहां 'अम्बर' का अर्थ है 'आकाश'। ये दोनों वस्त्र के विशेषण हैं। इसका अर्थ है 'निर्मल और स्वच्छता के कारण आकाश तुल्य वस्त्र धारण करने वाला'। यह वृत्ति की व्याख्या है। पहला विशेषण अरजस् है । फिर स्वच्छता की दृष्टि से आकाश तुल्य बतलाने की अपेक्षा क्या है? इसलिए अम्बर का अर्थ 'आकाश की भांति नील आभा वाला' अथवा 'आकाश की भांति सूक्ष्मता के कारण अदृश्य' किया जा सकता है। ४. हीन पुण्य चतुर्दशी को जन्मा हुआ हीणपुण्णचाउद्दस — यह आक्रोश-सूचकवाणी का प्रयोग है। वृत्तिकार के अनुसार जन्म के लिए चतुर्दशी पुण्यतिथि मानी जाती है। “तू चतुर्दशी को जन्मा हुआ नहीं है" यह आक्रोशपूर्ण अपशब्द है। जयाचार्य ने इसका अर्थ अमावस का जन्म हुआ किया है।" चातुदर्श का एक अर्थ राक्षस है। उस अर्थ १. भ. वृ. ३ / १०६ । २. भ. जो. १/५८ / २१ ४६ हीणपुण्य चउद्दशी नो ऊपनो, काली बूली अमावस जायो । जेह भणी भुझ एहवा, एहवे रूप करी युक्त तायो ॥ २. मधवापुरन्दर एक श्लोक में इन्द्र के नी पर्यायवाची नाम दिए गए हैं। वृत्ति में कुछ शब्दों के निरुक्त प्राप्त हैं। वे अन्यत्र प्राप्त निरुक्तों से भिन्न हैं। वृत्तिकार ने दशाश्रुतस्कन्ध की चूर्णि का आधार लिया है। द्रष्टव्य निरुक्त कोश, वे वे शब्द। श.३ उ.२ सू.१०६, ११० अन्य निरुक्त मघवा - धनवान्, हविष्मान् (सायणभाष्ये) माते पूज्यते इति मघवान् ( शब्दकल्पद्रुमे ) पाकशासनः - पाकं तन्नामकं दैत्यं शास्ति (वाचस्पतिकोश) शतक्रतुःशतकर्मा (सायणभाष्ये) -शतं क्रतवो ( यज्ञाः) यस्य (वाचस्पतिकोश) सहस्राक्षः --- अनन्तयालः- ( सायणमाप्ये) -हम् अक्षीणि यस्य सः (यावरपत्तिकोश ) पुरन्दरः- शत्रूणां पुरां दारयिता (सायणभाष्ये) ---शत्रूणां पुरः दारयति - नाशयति ( वाचस्पतिकोश) ११०. तए णं ते सामाणियपरिसोववण्णगा देवा ततः ते सामानिकपरिषदुपपन्नकाः देवाः चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा एवं वृत्ता चमरेण असुरेन्द्रेण असुरराजेन एवमुक्ताः समाणा तुवित्तमादिया गंदिया पीइमना सन्तः हृष्टतुष्टचित्तानन्दिताः नन्दिताः प्रीतिपरमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया मनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पद् को स्वीकृत करने पर प्रस्तुत वाक्यांश का अनुवाद इस प्रकार हो सकता है - " हीनपुण्य राक्षस"।" ५. बड़े धैर्य के साथ (अल्पोत्सुक) वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'अल्प' किया है का अर्थ 'त्वरा' या 'उतावलापन' है। जो अनुत्सुक हो, जिसमें उतावलापन या त्वरा न हो उसे अनुत्सुक या अनीत्सुक्य कया जा सकता है।" शब्द-विमर्श अपत्थियपत्थए- अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाला। श्रीमज्जयाचार्य ने इसका अर्थ 'मरण वांछक' किया है। देशी शब्द है। दुरंतपंतलक्खणे - जिसका अंत इसका अर्थ है- 'अमनोज्ञ' या 'अवांछनीय' । दुःखद ११०, असुरेन्द्र असर के द्वारा ऐसा कहने प वे सामानिक परिषद में उदेवष्टतुष्टचित्त वाले आनन्दित नन्दित प्रीतिपूर्ण मन वाले और परम सोमनस्य युक्त हो गए है। हर्ष से उनका हृदय फूल ३. आप्टे चातुर्दशम् -- A demon ( चतुर्दश्यां दृश्यते इति ) । ४. भ. जो. १/५८/२० कुण रे एह अपत्थिय- पत्थए, मरणवांछक विपरीत। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ. २ : सू.११०-११२ करयलपरिग्गहिय दसनहं सिरसावतं मत्यए अंजलि कट्टु एणं विजएणं वद्धावेंति, वृद्धावेत्ता एवं वयासी –एस णं देवाणुप्पिया! सक्के देविंदे देवराया जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमा विहरइ ॥ १११. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया तेसिं सामाणियपरिसोदवणगाणं देवाणं अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म आसुरुते रुट्ठे कुविए चडिक्किए मिसिमिसेमाणे ते सामाणियपरिसोववण्णगे देवे एवं वयासी - अण्णे खलु गो से सक्के देविंदे देवरावा, अग्गे खतु भो! से चमरे असुरिंदे असुरराया, महिड्ढीए खलु भो ! से सक्के देविंदे देवराया, अप्पि - डीए खतु भो से चमरे असुरिंदे असुरराया, तं इच्छामि णं देवाप्पिया ! सक्कं देविंद देवरायं सयमेव अच्चासात्तए ति कट्टु उ सिणे उसिए जाए यावि होत्या ॥ १. अति आशातना (अच्चासाइत्तए) शोभा या प्रतिष्ठा से च्युत करने के लिए। " चमरस्स भगवओ णीसापुव्वं सक्कस्स आसायण-पदं ११२. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया ओहिं परंजइ, परंजित्ता ममं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता इमेवारूवे अन्झत्थिए चितिए पत्थि मणोग संकप्पे समुप्पज्जित्था - एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबूदीवे दीवे भारहे वासे सुंसुमारपुरे नयरे असोगसंडे उज्जाणे असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि अट्टमभत्तं परिहित्ता एगराइयं महापडिमं उदसंपज्जिता णं विहरति तं सेयं खलु में समणं भगवं महावीर णीसाए सक्क देविंदं देवरायं सयमेव अवसादतए ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेत्ता सयणिज्जाओ अब्भुट्ठेइ, अद्वेत्ता देवदूतं परिहेइ परिहेत्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव चोष्णाले पहरणकोसे तेनेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता फलिहरयणं परामुसइ, एगे अबीए फलिहरयणमायाए महया १. भ. वृ. ३/१११ - अत्याशातयितुं छायाया भ्रंशयितुमिति । ५० हृदयाः करतलपरिगृहीतां दशनखां शिरसावतो मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, वर्धापयित्वा, एवमवादिषुः - एष देवानुप्रिय ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः यावद् दिव्यान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहरति । ततः सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः तेषां सामानिकपरिषदुपपन्नकानां देवानाम् अन्तिके एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य आशुरुप्तः रुष्टः कुपितः वाण्डिक्यतः मिसिमिसिमानः न सामानिकपरिषदुपपन्नकान् देवान् एवमवादीद् — अन्यः खलु भो! सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः, अन्य खलु भोः ! सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः, महकि खलु भोः सः शक्रः देवेन्द्रः देवराज अल्पर्दिकः खलु भोः! सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः तद् इच्छामि देवानुप्रियाः । शक्रं देवेन्द्रं देवराजं स्वयमेव अत्याशातयितुम् इति कृत्वा उष्णः उष्णभूतः जातस्यापि अभवत् । भाष्य भगवई गया। वे दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दशनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर मस्तक पर टिका कर असुरेन्द्र को जय-विजय ध्वनि से वर्धापित करते हैं। वर्धापित कर इस प्रकार बोलेदेवानुप्रिय ! यह देवेन्द्र देवराज शक्र है, यावत् दिव्य भोगार्ह भोग भोगता हुआ रहता है। -- १११ वह असुरेन्द्र असुरराज चमर सामानिक परिषद् में उपपन्न उन देवों के पास यह बात सुन कर, अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र बन गया, वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। उसने उन सामानिक देवों से इस प्रकार कहा - देवानुप्रियो ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र अन्य है, हमारा विरोधी है। वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अन्य है, उसका विरोधी है। वह देवेन्द्र देवराज शक्र महर्द्धिक है और वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अल्प ऋद्धि वाला है। इसलिए देवेन्द्र देवराज शक्र की मैं स्वयं अति आशातना' (उसे श्रीहीन) करना चाहता हूं, ऐसा कह कर वह तप्त हो गया, तापमय बन गया। चमरस्य भगवतः निश्रापूर्वं शक्रस्य चमर का भगवान की निश्रापूर्वक शक्र की आशाआशातन-पदम् तना का पद ततः सः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः अवधि प्रयुनक्ति, प्रयुज्य माम् अवधिना आभोगयति, आभोग्य (तस्य) अयमेतदुप आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - एवं खलु श्रमणः भगवान् महावीरः जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे सुसुमारपुरे नगरे अशोकषण्डे उद्याने अशोकवरपादपस्य अधः पृथिवीशिलापट्टके अष्टमभक्तं प्रगृह्य एकरात्रिकी महाप्रतिमाम् उपसंपद्य विहरति तत् श्रेयः खलु मम श्रमण भगवन्तं महावीरं निश्चित्व शक्रं देवेन्द्र देवराजं स्वयमेव आपाशातयितुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य शयनीयाद् अभ्युतिष्ठति, अभ्युत्थाय देवदूष्यं परिदधाति, परिधाय यत्रैव सभा सुधर्मा यत्रेव चतुष्पालः प्रहरणकोशः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य परिघरत्नं परामृशति, एकः अद्वितीयः स्फटिक ११२. वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अवधिज्ञान का प्रयोग करता है। प्रयोग कर अवधिज्ञान से मुझे (भगवान् महावीर को देखता है। देखने के बाद उसके यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ- इस समय श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में सुमारपुर नगर के अशोकखण्ड उद्यान में प्रवर अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्ट पर तीन दिन के उपवास का संकल्प ग्रहण कर एक रात की महाप्रतिमा स्वीकार कर ठहरे हुए हैं। मेरे लिए श्रमण भगवान् महावीर का सहारा लेकर देवेन्द्र देवराज शक्र की अतिआशातना करना श्रेयस्कर है, ऐसा सोच कर वह संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर शय्या से उठता है, उठ कर देवदूष्य धारण करता है, धारण कर जहां सुधर्मा सभा और चोप्पाल नामक शस्त्रागार है वहां आता है। आ कर परिघरत्न' को हाथ में लेता है, वह अकेला Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५१ श.३ : उ.२ : सू.११२ अमरिसं वहमाणे चमरचंचाए रायहाणए रत्नमादाय महद् अमर्ष वहन् चमरचञ्चायाः किसी दूसरे के सहारे की अपेक्षा नहीं रखता हुआ मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव राजधान्याः मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य वहां से परिघरत्न ले कर बहुत अधिक क्रोध करता तिगिछिकूडे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छइ, यत्रैव तिगिंछिकूटः उत्पातपर्वतः तत्रैव उपा- हुआ चमरचञ्चा राजधानी के ठीक मध्यभाग से उवागच्छित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, गच्छति, उपागम्य वैक्रियसमुद्घातेन सम- निर्गमन करता है। निर्गमन कर जहां तिगिञ्छिकूट समोहणित्ता जाव उत्तरवेउब्वियं रूवं विकुम्बइ, वहन्यते, समवहत्य यावद् उत्तरवैक्रियरूपं उत्पात पर्वत है, वहां आता है। आ कर वैक्रिय विकुवित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए विकुरुते, विकृत्य तया उत्कृष्टया त्वरया समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर यावत् चंडाए जइणाए छेयाए सीहाए सिग्घाए चपलया चण्डया जविन्या छेकया सैंया शीघ्रया उत्तरवैक्रिय रूप' का निर्माण करता है। निर्माण कर उद्धृयाए दिवाए देवगईए तिरियं असंखेज्जाणं उद्धृतया दिव्यया देवगत्या तिर्यग् असंख्येयानां उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल चण्ड, जविनी, छेक, सैंही, दीवसमुद्दाणं मझमज्झेणं वीईवयमाणे-वीई- द्वीप-समुद्राणां मध्यंमध्येन व्यतिव्रजन्-व्यति- शीघ्र, उद्धृत और दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में वयमाणे जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे व्रजन् यत्रैव जम्बूद्वीपः द्वीपः, यत्रैव भारतः असंख्य द्वीप-समुद्रों के मध्य भाग से गुजरता-गुजरता वासे जेणेव सुंसुमारपुरे नगरे जेणेव असोय- वर्षः यत्रैव सुंसुमारपुर नगरं, यत्रैव अशोक- जहां जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष सुसुमारपुर नगर, संडे उज्जाणे जेणेव असोयवरपायवे जेणेव षण्डम् उद्यानं, यत्रैव अशोकवरपादपः, यत्रैव अशोकषण्ड उद्यान, प्रवर अशोकवृक्ष और पृथ्वीशिला पुढविसिलावट्टए जेणेव ममं अंतिए तेणेव पृथिवीशिलापट्टकः, यत्रैव मम अन्तिकं, तत्रैव पट्ट है, जहां मेरा परिपार्श्व है, वहां आता है। आ कर उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो उपागच्छति, उपागम्य मम त्रिकृत्वः आदक्षिण- तीन बार दाई ओर से प्रारम्भ कर मेरी प्रदक्षिणा करता आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते, नमस्यति, है। प्रदक्षिणा कर वन्दन-नमस्कार करता है। वन्दननमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद्-इच्छामि नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! मैं आपकी इच्छामि णं भंते! तुम नीसाए सक्कं देविंदं भदन्त! तवां निश्रित्य शक्रं देवेन्द्रं देवराज निश्रा से देवेन्द्र देवराज शक की अति आशातना देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तर त्ति कटु स्वयमेव अत्याशातयितुम् इति कृत्वा उत्तर- करना चाहता हूं, ऐसा कह कर वह उत्तर-पौरस्त्य उत्तरपुरस्थिमं दिसीभार्ग अवक्कमेइ, अवक्क- पौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्रामति, अपक्रम्य दिग्भाग (ईशानकोण) में पहुंचता है। पहुंच कर वैक्रिय मेत्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णति, समो- वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते, समवहत्य समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर हणित्ता जाव दोच्चं पि वेउब्वियसमुग्घाएणं यावद् द्वितीयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समव- यावत् दूसरी बार फिर वैक्रिय समुद्धात से समवहत समोहण्णइ, एगं महं घोरं घोरागारं भीमं हन्यते, एकं महद्घोरं घोराकारं भीमं भीमाकारं होता है। एक महान् घोर, घोर आकार वाले, भयंकर, भीमागारं भासुरं भयाणीयं गंभीरं उत्तासणयं भासुरं भयानीकं गम्भीरं उत्त्रासनकं कालार्ध- भयंकर आकार वाले, भास्वर (चौंधियाने वाले) कालड्ढरत्त-मासरासिसंकासं जोयणसय- रात्र-माषराशिसंकाशं योजनशतसाहसिक भयानक", गंभीर, त्रास देने वाले, अमा की अर्धरात्रि साहस्सीयं महाबोंदि विउव्वइ, विउव्वित्ता महाबोंदि विकुरुते, विकृत्य आस्फोटयति और उरद की राशि जैसे काले एक लाख योजन की अप्फोडेइ वग्गइ गज्जइ, हयहेसियं करेइ, वल्गति गर्जति, हयहेषितं करोति, हस्ति- अवगाहना वाले महाशरीर का निर्माण करता है। हत्थिगुलगुलाइयं करेइ, रहघणघणाइयं करेइ, गुलगुलायितं करोति, रथघनघनायितं करोति, निर्माण कर हाथों को आकाश में उछालता है, कूदता पायदद्दरगं करेइ, भूमिचवेडयं दलयइ, सीह- पाददर्दरकं करोति, भूमिचपेटकं ददाति, है, गर्जन करता है, अश्व की भांति हिनहिनाता है, णादं नदइ, उच्छोलेइ पच्छोलेइ, तिवति छिंदइ, सिंहनादं नदति, उच्छलति प्रोच्छलति, त्रिपदी हाथी की भांति चिंघाड़ता है, रथ की भांति घनघनाहट वामं भुयं ऊसवेइ, दाहिणहत्थपदेसिणीए अंगु- छिनत्ति, वामं भुजं उच्छ्यति, दक्षिणहस्त- (घड़घड़ाहट) करता है, पैरों से भूमि पर प्रहार करता ट्ठणहेण य वितिरिच्छं मुहं विडंवेइ, महथा- प्रदेशिन्या अंगुष्ठनखेन च वितिर्यग् मुखं है, भूमि पर चपेटा मारता है, सिंहनाद करता है, -महया सद्देण कलकलरवं करेइ, एगे अबीए विडम्बयति, महता-महता शब्देन कलकलरवं कभी आगे की ओर चपेटा मारता है, कभी पीछे की फलिहरयणमायाए उड्ढं वेहासं उप्पइए- करोति, एकः अद्वितीयः परिधरत्नमादाय ओर, त्रिपदी का छेद करता है, बांई भुजा को ऊंचा खोभंते चेव अहेलोयं कंपेमाणे व मेइणीतलं ऊर्ध्वं विहायसि उत्पतितः- क्षोभयन् चैव उठाता है, दाएं हाथ की तर्जनी अंगुली और अंगूठे साकड्ढ़ते व तिरियलोयं, फोडेमाणे व अंबर- अधोलोकं कम्पयन् इव मेदिनीतलं समाकर्ष- के नख द्वारा मुंह को टेढ़ा कर विकृत करता है, तलं, कत्थइ गज्जते, कत्थइ विज्जुयायंते, यन् इव तिर्यग्लोक, स्फोटयन् इव अम्बरतलं, ऊंचे-ऊंचे शब्द से, कलकलरव करता है। (इस भयानक कत्थइ वासं वासमाणे, कत्थइ रयुग्घायं कुत्रापि गर्जन, कुत्रापि विद्युतयन्, कुत्रापि ___मुद्रा में) उसने अकेले, किसी दूसरे के सहारे की पकरेमाणे, कत्थइ तमुक्कायं पकरेमाणे, वर्षां वर्षयन्, कुत्रापि रजउद्घातं प्रकुर्वन् , अपेक्षा नहीं रखता हुआ परिघरत्न को ले कर ऊपर वाणमंतरे देवे वित्तासेमाणे-वित्तासेमाणे, कुत्रापि तमस्कायं प्रकुर्वन्, वानमन्तरान् दे- आकाश की उड़ान भरी। मानो अधोलोक को क्षुब्ध जोइसिए देवे दुहा विभयमाणे-विभयमाणे, वान् वित्रासयन्-वित्रासयन्, ज्योतिष्कान् देवान् कर रहा है, भूमितल को कम्पित कर रहा है, तिरछे आयरक्खे देवे विपलायमाणे-विपलायमाणे, द्विधा विभजन-विभजन, आत्मरक्षान् देवान् लोक को खींच रहा है, अम्बरतल का स्फोटन कर फलिहरयणं अंबरतलंसि वियट्टमाणे-वियट्ट- विपरायमानः विपरायमानः,परिधरत्नं अम्बर- रहा है, कहीं गरज रहा है, कहीं बिजली बन कौंध माणे, विउन्माएमाणे-विउब्भाएमाणे ताए तले व्यावर्तयन-व्यावर्तयन, व्युभ्राजमानः- रहा है, कहीं वर्षा बरसा रहा है, कहीं धूलि-विकिरण उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जइणाए व्युभ्राजमानः तया उत्कृष्टया त्वरितया कर रहा है, कहीं सघन अन्धकार कर रहा है, छेयाए सीहाए सिग्याए उद्धृयाए दिव्वाए चपलया चण्डया जविन्या छेकया सैंया शीघ्र- वानव्यन्तर देवों को संत्रस्त करता हुआ-संत्रस्त Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ उ.२ सू.११२ देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्मोन वीईक्यमाने चीयमाणे जेणेव सोहम्मे कप्पे, जेणेव सोहम्मवडेंसए विमाणे, जेणेव सभा सुम्मा तेणेव उवागच्छ एवं पायं पउमवरवेश्याए करेइ, एगं पायं सभाए सुहम्मा करेइ, फलिहरयणेणं महया - महया सद्देणं तिक्खुत्ती इंदकील आउछेद, आउटेसा एवं वयासी कहि गं भो! सक्के देविंदे देवराया? कहि णं ताओ चउरासीइसामाणियसाहस्सीओ ? कहि णं ते तायत्तीसयताबत्तीसगा? कहि नं ते चत्तारि लोगपाला? कहि णं ताओ अट्ठ अग्गमहिसीओ सपरिवा - राओ? कहि णं ताओ तिष्णि परिसाओ ? कहि ते सत्त अणिया ? कहि णं ते सत्त अणियाहिवई ? कहि णं ताओ चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ ? कहि णं ताओ अगाओ अच्छराकोटीओ ? अज्ज हणामि, अज्ज महेमि, अज्ज वहेमि, अज्ज ममं अवसाओ अच्छराओ वसमुवणमंतु त्ति कट्टु तं अणि अकंतं अप्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं फरुसं गिरं निसिरइ ॥ ५२ या उद्भुतया दिव्यया देवगत्या तिर्यग् असंख्येयानां द्वीप समुद्राणां मध्येमध्येन व्यति व्रजन् व्यतिव्रजन् यत्रैव सौधर्मः कल्पः, यत्रैव सौधर्मावतंसकः विमानः, यत्रेव सभा सुधर्मा तत्रैव उपागच्छति, एकं पादं पद्मवरवेदिकायां करोति, एकं पादं सभायां सुधर्मायां करोति, परिधरलेन महता महता शब्देन त्रिकृत्वः इन्द्रकीलं आकुटति आफुट्प एवं वदति“कुत्र भोः ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः ? कुत्र सा चतुरशीतिसामानिकसाहस्री ? कुत्र ते त्रयस्त्रिशत्तावलिकाः? कुत्र ते चत्वारः लोकपालाः ? कुत्र ताः अष्ट अग्रमहिष्यः सपरिवाराः ? कुत्र ताः तिस्रः परिषदः ? कुत्र तानि सप्त अनीकानि ? कुत्र ते सप्त अनीकाधिपतयः ? कुत्र ताः चतस्रः चतुरशीतिः आत्मरक्षदेवसाहस्री ? कुत्र ताः अनेकाः अप्सरस्कोटयः ? अद्य हन्मि अद्य मध्यामि अद्य व्यथयामि अद्य मम अवशाः अप्सरसः वशमुपनमन्तु,” इति कृत्वा ताम् अनिष्टाम् अकान्ताम्, अप्रियाम् अशुभाम् अमनोज्ञाम् 'अमणामं' परुषां गिरं निसृजति । भाष्य १. परिघरल आप्टे की संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी में 'परिघ' का अर्थ "An iron club in general" किया गया है। Club के शस्त्र-संबंधी निम्न अर्थ कोश में प्राप्त है गदा, मुद्गर, डण्डा, लाठी | २. तिगिंछिकूट उत्पातपर्वत चमर के उत्पात - पर्वत का वर्णन भ. २/ ११८ में आ चुका है। ठाणं में चमर आदि के अनेक उत्पात - पर्वतों का उल्लेख है।' ३. उत्तरवैक्रिय रूप वैमानिक आदि देव जब मनुष्य-लोक में आते हैं, तब मुनष्य-लोक के अनुरूप नए शरीर का निर्माण करते हैं। देवों के दो प्रकार का शरीर होता १. ठाणं, १०/४७-६१। २. भ. वृ. ३ / ११२ - पूर्ववैक्रियापेक्षयोत्तराणि - उत्तरकालभाविनि वैक्रियाणि उत्तरवैक्रियाणि । ३. (क) भ. ६/१६५। (ख) भ. वृ. ६ / १६५ - तत्र च स्वस्थान एव प्रायो विकुर्वन्ते यतः कृत्तोत्तरवैक्रियरूप एव है — भवधारणीय और उत्तरवेकिय वैवेयक और अनुत्तर विमान के देव उत्तरवेक्रिय नहीं करते, इसलिए उनके केवल भवधारणीय शरीर होता है। शेष देवों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय दोनों प्रकार का शरीर होता है। देवों और नारकीय जीवों के भवधारणीय शरीर को पूर्ववैक्रिय शरीर कहा जा सकता है। उनके नए शरीर का निर्माण होता है, वह उस शरीर की अपेक्षा उत्तरवैक्रिय शरीर कहलाता है। अभयदेवसूरि ने उत्तरवेकिय का अर्थ उत्तरकाल में होने वाला शरीर किया है। देव अपने भवधारणीय शरीर से प्रायः अन्यत्र नहीं जाते। भगवई करता हुआ, ज्योतिष्क देवों को दो भागों में विभक्त करता हुआ - विभक्त करता हुआ, आत्मरक्षक देवों में भगाता हुआ भगाता हुआ, परिघरत्न को आकाश घुमाता हुआ घुमाता हुआ, तिरस्कार करता हुआ - तिरस्कार करता हुआ उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जयिनी, छेक, रोटी, शीघ्र उद्धत और दिव्य देवगति से तिरछे लोक में असंख्य द्वीप- समुद्रों मध्यभाग से गुजरता - गुजरता जहां सौधर्म कल्प है, जहां सौधर्मावतंसक विमान है, जहां सुधर्मा सभा है वहां आता है। वहां वह अपने एक पांव को पदमवरवेदिका पर रखता है, एक पांव सुधर्मा सभा में रखता है और ऊंचा ऊंचा शब्द करता हुआ परिघरत्न से तीन बार इन्द्रकील पर प्रहार करता है। प्रहार कर इस प्रकार बोला- “कहां है वह देवेन्द्र देवराज शक्र ? कहां हैं वे चौरासी हजार सामानिक देव? कहां है वे तेतीस तावत्त्रिंशक देव? कहां हैं वे चार लोकपाल? कहां हैं वे सपरिवार आठ पटरानियां? कहां हैं वे तीन परिषदे? कहां है वे स्वत सेनाएं? कहां हैं वे सात सेनापति ? कहां हैं वे तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव? कहां हैं वे करोड़ों अप्सराएं? आज मैं उनको मारता हूं, मथता हूं, व्यथित करता हूं, अब तक जो अप्सराएं मेरे वश में नहीं थीं वे अब मेरे वश में हो जाएं," ऐसा कर वह उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय अशुभ, अमनोज्ञ मन को न भाने वाली, कठोर वाणी का प्रयोग करता है। , वे उत्तरवैक्रिय शरीर का अपने स्थान में ही निर्माण कर लेते हैं, फिर कहीं अन्यत्र जाते हैं। ४. भयानक भयाणीय भयानीत का प्राकृतीकरण है। वृत्तिकार ने इसके दो प्रायो ऽन्यत्र गच्छतीति नो इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय इत्याद्युक्तमिति । ४. भ. वृ. ३/११२ – 'भयाणीयं' त्ति भयमानीतं यया सा भयानीता ऽतस्ताम्, अथवा भयं भवत्पावनी परिवार सेवा भवानीका स्त Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई संस्कृत रूप दिए हैं- भवानीत, भयानीक। * ५. पैरों से भूमि पर प्रहार करता है इसका तात्पर्य है कभी आगे की ओर हाथों को उछालता है और कभी पीछे की ओर उछालता है। दद्दरग देशी शब्द हैं। इसका अर्थ हैआस्फोटन, आघात, प्रहार।" ६. कभी आगे की ओर चपेटा मारता है, कभी पीछे की ओर उच्छोले, पच्छोलेइये दोनों देशी क्रियापद है वृत्तिकार ने इनका अर्थ - 'आगे से चपेटा का प्रहार करना, पीछे से चपेटा का प्रहार करना' किया है। रायपसेणइयं में 'उच्छलेति पोच्छलेंति' पाठ मिलता है। इनका अर्थ है – 'उछलकूद करना।' यह पाठ स्वाभाविक लगता है। प्रस्तुत पाठ ‘उच्छोलेइ पच्छोलेइ' में वर्ण-परिवर्तन हुआ प्रतीत होता है। ७. त्रिपदी का छेद करता है वृत्तिकार ने बतलाया है जैसे मल्ल रंगभूमि में त्रिपदी का छेद करता है, वैसे ही चमर त्रिपदी का छेद कर रहा है। * वृत्ति की व्याख्या से सक्केंदस्स कज्जपक्स्त्रैव-पदं ११३. तए गं से सक्के देविदे देवराया तं अणि अणिट्ठ अनंतं अणियं असुभं अमनुष्णं अगणानं अस्सुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा निसम्म आसुकत्ते रुट्टे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमागे तिवलिगं भिउडिं निडाले साहटट्टु चमरं असुरिंदं असुररायं एवं वदासिहं भो ! चमरा! असुरिंदा! असुरराया! अपत्थिय पत्थया! दुरंतपंतलक्खणा ! हिरिसिरिपरि वज्जिया! हीणपुण्णचाउद्दसा! अन्न न भवसि नाहि ते सुहमत्थीति कट्टु तत्थेव सीहासनवरगए वज्जं परामुसद्द परामुखित्ता तं जलतं फुडंतं तडतडत उक्कासहरसाई विणिम्मुयमाणं- विणिम्मुयमाणं, जालासहस्साई पहुंचमाणं पहुंचमाणं, इंगालसहस्साई पविक्खिरमाणं विवित्वरमाणं, फुलिंगनाला मालासहस्सेहिं चक्खुविक्खेवदिट्ठपडिघातं पि पकरेमाणं हुयवहअइरेगतेयदिप्पंतं जइणवेगं फुल्लकिंसुयसमाणं महब्भयं भयंकरं चमरस्स असुरिंदरस असुरण्णो वहाए वज्जं निसिरई ॥ १. वही, ३/११२ - 'पायदद्दरगं 'ति भूमेः पादेनास्फोटनम् । द्रष्टव्य, देशीशब्दकोश 'दद्दरग' शब्द । २ वही, ३/११२ 'उच्छोलेइ 'त्ति अग्रतोमुखां चपेटां ददाति, 'पच्छोलेइ' ति पृष्ठतोमुखां चपेटां ददाति । ३. राय सू. २८१। ४. भ. वृ. ३/११२ - मल्ल इव रङ्गभूमी त्रिपदीच्छेदं करोति । ५. वही, ३/११२ - ' अप्फोडइ त्ति करास्फोट करोति । ५३ श. ३ : उ. २ : सू. ११२, ११३ त्रिपदी - छेद का अर्थ 'मल्ल कुश्ती का एक दांव' फलित होता है। कुश्ती के समय गर्दन पर कोई कपड़ा बांध लेते हैं; उसे फाड़ देना या सरका देना त्रिपदीछेद कहलाता है। पाइयसद्दमहण्णव के अनुसार त्रिपदी का अर्थ है 'भूमि में तीन बार पांव का न्यास' । शब्द-विमर्श अप्फोडेइ-करास्फोट करना। तात्पर्य है - हाथों को आकाश में उछालना । अमा की अर्धरात्रि (कालरत ) - श्रीमज्जाचार्य ने इसका अर्थ 'अमावस्या की अर्धरात्रि' किया है। विडंबई विकृत करता है। " विउगाएमाणे इसका संस्कृत रूप 'व्यपभ्राजमानः' है। वृत्तिकार ने इसके संस्कृत रूप व्युद्भ्राजमानः, विजृम्भमाणः, व्युद्भाजयन् किए हैं। इन्द्रकीलं -- वृत्तिकार ने इसका अर्थ गोपुर के दोनों कपाटों के सन्धि-स्थान पर लगाई जाने वाली कील किया है। ' चमर ने तीन बार इन्द्रकील पर प्रहार किया। इन्द्रकील का एक अर्थ 'इन्द्र का झण्डा' भी है।" यह अर्थ भी संगत हो सकता है। शक्रेन्द्रस्य वज्रप्रक्षेप-पदम् ततः सः देवेन्द्रः देवराजः तां अनिष्टाम् शक्रः असन्ताम् अप्रियाम् अशुभाम् अमनोज्ञाम् 'अमणामम्' अश्रुतपूर्वा परुषा गिरं श्रुत्वा निशम्य आशुरूतः रुष्टः कुपितः चाण्डविक्वतः मिसिमिसिमानः त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहृत्य चमरं असुरेन्द्रं असुरराजं एवमवादीत् भोः चमर! असुरेन्द्र! असुरराज! अप्रार्थितप्रार्थिक! दुरन्तप्रान्तलक्षण! ही श्रीपरिवर्जित! हीनपुष्पचातुर्दश! अद्य न भवसि न हि ते सुखमस्तीति कृत्वा तत्रैव सिंहासनवरगतः कनं परामृशति परामृश्य तं ज्वलन्तं स्फुटन्तं ततायन्तं उत्कासहस्राणि विनि मुञ्चन्तं विनिर्मुञ्चन्तम्, ज्वालासहस्राणि प्रभुज्वन्तं प्रमुञ्चन्तम्, अंगारसहस्राणि प्रवि किरन्तं प्रविकिरन्तं स्फुलिङ्गज्यालामालासहस्रचक्षुर्विक्षेपदृष्टिप्रतिघातमपि प्रकुर्वन्तं हुतवहातिरेकतेजोदीप्यमानं जविनवेगं फुल्लकिंशुकसमानं महाभयं भयंकरं चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य वधाय व निसृजति । शक्रेन्द्र द्वारा वज्र-प्रक्षेप-पद ११३. ' वह देवेन्द्र देवराज शक्र उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ मन को न भाने वाली, अश्रुतपूर्व, कठोर वाणी को सुन कर, अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र बन गया, वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। ललाट पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि को चढ़ा कर असुरेन्द्र असुरराज चमर से इस प्रकार बोला- हे अप्रार्थनीय को चाहने वाले ! दुःखद अंत और अपनो लक्षण वाले! लज्जा और शोभा से रहित! हीनपुण्य चतुर्दशी को जन्मे हुए! असुरेन्द्र! असुरराज! चमर! आज तू नहीं बचेगा, अब तुम्हें सुख नहीं होगा, ऐसा कह कर वहीं सिंहासन पर बैठे-बैठे वज्र को हाथ में लेता है। वह जाज्वल्यमान विस्फोटक, गड़गड़ाहट करता हुआ हजारों उल्काओं को छोड़ता हुआ, हजारों ज्वालाओं का प्रमोचन करता हुआ, हजारों अंगारों को बिखेरता हुआ, हजारों स्फुलिंगों और ज्वालाओं की माला से चक्षु-विक्षेप और दृष्टि का प्रतिपात करता हुआ, अग्नि से भी अतिरिक्त तेज से दीप्यमान, अतिशय ६. भ. जो. १/५८/५० ७. भ. वृ. ३ / ११२ - विडंबेइ' त्ति विकृतं करोति । ८. वही, ३ / ११२ -- विउज्झाएमाणे 'त्ति व्युद्भ्राजमानः - शोभमानो विजृम्भमाणो वा व्युद्भाजयन् वाऽम्बरतले परिघरत्नमिति योगः । ६. वही, ३/११२ – 'इंदकील त्ति गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानम्। १०. आप्टे इन्द्रकील - The banner of Indra Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.२ : सू.११३-११४ १. सूत्र ११३ शब्द-विमर्श चक्षुविक्षेप - चक्षु का भ्रम । ' दृष्टिप्रतिपात दर्शन का अवरोध।" जइणवेग-वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'दूसरे वेगों को जीतने वाला - चमरस्स भगवओ सरण-पदं - ११४. तए गं से चमरे असुरिंदे असुरराया वं जतं जाव भयंकरं वज्जमभिमुहं आवयमाणं पास, पासिता झिया पिहाड़, पिहाड़ शिवाई, झियायित्ता पिहाड़ता तहेव संभग्गमउडविडवे सालंवहत्याभरणे उपाए अहोसिरे कक्षानयसेयं पिव विगम्यमाणे विनिम्मुयमाणे चाए उक्विट्टाए जान तिरियमसंखेज्जाणं दीव समुद्दानं ममशेषणं वीईवयमाणे बीईय माणे जेणेव जंबूदीवे दीवे जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव मम अंतिए तेणेव उवागच्छद् उवागच्छित्ता भीए भयगग्गरसरे 'भंगवं सरणं' इति दुयमाणे ममं दोन्ह वि पायाणं अंतरंसि झत्ति वेगेणं सगोवडिए । , १. भ. वृ. ३/११३ – चक्षुर्विक्षेपश्च- चक्षुर्भ्रमः । २. वही, ३/ ११३ - दृष्टिप्रतिघातश्च - दर्शनाभावः । भाष्य १. चिन्तन में..... मूंद लेता है वृत्तिकार ने झियाइ का अर्थ 'चिन्तन करता है' तथा पिहाइ का अर्थ 'स्पृहा करता है' किया है। स्पृहा के दो विषय बतलाए हैं - ऐसा शस्त्र मेरे पास भी हो उसकी अभिलाषा अथवा में सुखपूर्वक अपने स्थान पर बला जाऊं उसकी अभिलाषा पिहाड़ का वैकल्पिक अर्थ 'निमीलन-आंख मूंदना' 3x23 चमरस्य भगवतः शरण-पदम् ततः सः चमरः असुरेन्द्र असुरराजः तं ज्वतं यावत् भयंकर अभिमुखम् आपतन्तं पश्यति दृष्ट्वा ध्यायति पिदधाति पिदधाति ध्यायति ध्यात्वा विधाय तथैव संभग्नमुकुटविटपः सालम्बहस्ताभरणः ऊर्ध्वपादः अधःशिराः कक्षागतस्येदमिव विनिर्मुज्यन्-विनि मुञ्चन् तथा उत्कृष्टया यावत् तियंग असंख्ये यानां द्वीप समुद्राणां मध्येमध्येन व्यतिव्रजन्व्यक्तिव्रजन वर्जव जम्बूद्वीपः द्वीपः पाद यत्रैव अशोकवरपादपः वचैव मम अन्तिकं तत्रेय यत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भीतः भयगद्गद्स्वरः 'भगवन् शरणम्' इति ब्रुवन् मम द्वयोरपि पादयोः अन्तः झगिति वेगेन समवपतितः । पूर्वक ध्यै धातु का अर्थ देखना होता है—निध्यानमवलोकनम् चमर वज्र की ओर देखता है और आंख मूंद लेता है। फिर आंख मूंदता है ओर खोलता ५४ भाष्य है। ३. वही, ३/११३ – 'जइणवेगं त्ति जयी शेषवेगवुद्वेगजयी वेगो यस्य तत्तथा । ४. वही, ३ / ११४ - झियाइ' त्ति 'ध्यायति' किमेतत् ? इति चिनतयति, तथा 'पिहाइ' ति 'स्पृहयति' यद्येवंविधं प्रहरणं ममापि स्यादित्येवं तदभिलषति स्वस्थानगमनं वाऽभिलषति, वेग' किया है। वृत्तिकार का यह अर्थ विमर्शनीय है। गति के वर्णन में एक विशेषण है 'जइणाए'। इसका संबंध 'जव' शब्द से है। यहां भी 'जइण' का संबंध जव से है। जइणवेग का अर्थ है अतिवेग वाला। फुल्लकिंसुयसमाणं - किंशुक के पुष्प गहरे लाल रंग के होते हैं, किंशुक का वर्ण दूर से आग जलने की सी भ्रांति पैदा करता है। शब्द-विमर्श भी किया है। इन दो क्रियाओं के द्वारा चमर की मानसिक व्याकुलता परिलक्षित होती है।' झियाइ का एक अर्थ 'देखना' भी किया जा सकता है। 'नि' उपसर्ग उसके हाथ के आभरण नीचे झुलने लग गए। भगवई वेग वाला, विकसित किंशुक ( टेसू) पुष्प के समान रक्त, महाभय उत्पन्न करने वाला, भयंकर वज्र हाथ में उठा शक्र ने असुरेन्द्र असुर - राज चमर का वध करने के लिए उसका प्रक्षेपण किया। चमर द्वारा भगवान् की शरण का पद ११४. वह असुरेन्द्र असुरराज चमर उस जाज्वल्यमान यावत् भयंकर यज्ञ को सामने आते हुए देखता है, देखकर चिन्तन में डूब जाता है, चिन्तन करते-करते आंखे मूंद लेता है। कुछ क्षणों बाद आंखे खोल फिर मूंद लेता है। आंखें मूंदे - मूंदे चिन्तन में डूब जाता है। इस व्याकुलता के क्षण में उसके मुकुट का विस्तार हो गया, उसके हाथ के आभरण नीचे लटक गए। पांव ऊपर और सिर नीचे किए हुए वह मानो काँख में से स्वेद-बूंदों को टपकाला हुआ उस उत्कृष्ट यावत् देवगति से तिरछे लोक में असंख्य द्वीप - समुद्रों के बीचो-बीच गुजरता हुआ जहां जम्बूद्वीप द्वीप है यावत् जहां प्रवर अशोकवृक्ष है, जहां मेरा पार्श्व है, यहां आता है आ कर भयभीत बना हुआ भय से घहराते हुए स्वर में बोला- 'भगवन्! आप शरण हैं' ऐसा कहता हुआ मेरे दोनों पांव के अन्तराल में शीघ्र ही अतिवेग से गिर गया। तहेव - चिन्तन के क्षण में । मउडविडबे – मुकुट - विटप - मुकुट का विस्तार । सालंबहत्थाभरणे – चमर शीर्षासन की मुद्रा में दौड़ रहा है, इसलिए कक्खागवसेयं पिव-देवों का शरीर शरीर है। उसमें पसीना नहीं होता। इसलिए 'इव' का प्रयोग किया गया है।" अथवा 'पिहाइ' त्ति अक्षिणी पिधत्ते - निमीलयति 'पिहाइ झियाइ' त्ति पूर्वोक्तमेव क्रियाद्वयं व्यत्ययेन करोति, अनेन च पतितोता। ५. अभि. चि. ३ / २४१ । ६. भ. वृ. ३/११४ - ' तहेव'त्ति यथा ध्यातवांस्तथैव तत्क्षण एवेत्यर्थः । ७. वही, ३/११४ - 'कक्खागयसेयं पिव' त्ति भयातिरेकात्कक्षागतं स्वेदमिव मुञ्चयन्, देवानां Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई सक्करस वज्ज -पडिसाहरण-पदं " ११५. तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकष्ये समुप्यज्जित्था – नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्वे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो अप्पणो निस्साए उड्ड उपइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो नष्णत्थ अरहंते वा, अरहंतचेइयाणि वा अणगारे वा भाविअप्पाणो नीसाए उड्ढं उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्खं धतु तहासवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए ति कट्टु जहिं पतंज, मम ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता हा! हा! अहो! हतो अहमंसि ति कट्टु ताए उनिकद्वाए जाव दिव्याए देवगईए वज्जस्स वीहिं अनुगच्छ माणे-अणुगच्छमाणे तिरियमसंखेज्जाणं दीव - समुदाणं मम जाव जेणेव असोगवर पायवे, जेणेव ममं अंतिए तेणेव उपागच्छद्द, उवागच्छित्ता ममं चउरंगुलमसंपत्तं वज्जं पडिसाहरइ, अवियाइं मे गोयमा! मुट्ठिवाएणं सगे वीथा ॥ ११६. तए णं से सक्के देविंदे देवराया वज्जं पडिसाहरिता ममं तिक्खुत्तो आवाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता बंद नस, वंदिता नमसत्ता एवं क्यासी एवं खलु भंते! अहं तुब्भं नीसाए चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा सयमेव अच्चसाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जे निसट्टे । तए णं ममं इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्वे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिं दस्स असुररष्णो अप्पणी निस्साए उड्ड उप्परता जाव सोहम्मो को नष्णत्य अरहंते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा भावि अप्पाणो नीसाए उड्ढं उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए ति कट्टु ओहि पउंजामि, देवाणु " किल स्वेदो न भवतीति संदर्शनार्थः पिवशब्दः । ५५ शक्रस्य वज्र प्रतिसंहरण-पदम् ततः तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेतद्रूपः आध्यात्मिक चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदयादि न खलु प्रभुः चमरः असुरेन्द्र असुराजः, नो खलु समर्थः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः, नो खलु विषयः चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य आत्मनः नित्रया ऊर्ध्वम् उत्पतितुं यावत् सौधर्मः कल्पः, नान्यत्र अर्हतो वा अहंच्चैत्यानि वा अनगारान् वा भावितात्मनः निश्रित्य ऊर्ध्वम् उत्पतति यावत् सौधर्मः कल्पः तन् महादुःखं खतु तथारूपाणाम् अर्हतां भगवताम् अनगाराणां च अत्याशा नया इति कृत्वा अवधि प्रयुनक्ति माम् अवधिना आभोगयति, आभोग्य हा! हा! अहो ! हतः अहमस्मि इति कृत्वा तया उत्कृष्टया यावद् दिव्यया देवगल्या वनस्य वीथिम् अनुगद्यान्- अनुगच्छन् तिर्यग् असंख्येयानां द्वीप-समुद्राणां मध्येमध्येन यावद् पत्रेय अशोकवरपादपः यत्रैव मम अन्तिकं तचैव उपागच्छति, उपागत्य मम चतुरङ्गलमसंप्राप्तं वज्रं प्रति संहरति, अपि च मम गौतम! मुष्टिवातेन केशाग्रान् अवीविजत् । ततः सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः वज्रं प्रतिसंहत्य मम त्रिकृत्वः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति कृत् बन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवं अवादीद् एवं खलु भदन्त अहं त्वां निश्रित्य चमरेण असुरेन्द्रेण असुरराजेन स्वयमेव अत्याशातितः । ततः मया परिकुपितेन सता चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य वधाय वज्रं निःसृष्टम् । ततः मम अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - नो खलु प्रभुः चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः, नो खलु समर्थः चमरः असुरेन्द्रः असुरराज, नोख विषयः चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य आत्मनः निश्रया ऊर्ध्वम् उत्पति यावत् सौधर्मः कल्पः नान्यत्र अर्हतो वा, अर्हच्चैत्यानि वा, अनगारान् वा, भावितात्मनः निश्रित्य ऊर्ध्वम् उत्पतति यावत् सौधर्मः कल्पः तन् महादुःखं खतु तथारूपाणाम् अर्हतां भगवताम् अनगाराणां च अत्याशातनया इति कृत्वा अवधिं प्रयुज्म, देवानुप्रियम् श.३ उ. २ सू. ११५, ११६ शक्र का वज्र - प्रतिसंहरण-पद ११५. उस देवेन्द्र देवराज शक्र के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मूल्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - असुरेन्द्र असुरराज चमर प्रभु नहीं है, असुरेन्द्र सुरराज चमर समर्थ नहीं है तथा असुरेन्द्र असुरराज चमर का विषय नहीं है कि वह अपनी निश्रा (शक्ति) से ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प तक आएं। वह अर्हत्, अर्हत चैत्य अथवा भावितात्मा अनगार की निश्रा के बिना ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प तक नहीं आ सकता । अतः मेरे लिए यह महान् कष्ट का विषय है कि मैंने तथारूप अर्हतु, भगवान और अनगारों की अति आशातना की है । ऐसा सोच कर वह अवधिज्ञान का प्रयोग करता है | अवधिज्ञान से मुझे देखता है। मुझे देख कर 'हा! हा! अहो ! मैं मारा गया' ऐसा कह कर वह उस उत्कृष्ट पावत् दिव्य देवगति से बज की वीधि का अनुगमन करता हुआ तिरछे लोक में असंख्य द्वीपसमुद्रों के ठीक मध्य भाग से गुजरता हुआ यावत् जहां प्रवर अशोक वृक्ष है, जहां मेरा पार्श्व है वहां आता है। आ कर मुझसे चार अंगुल दूर रहे वज्र को उसने पकड़ लिया और गौतम ! उसकी मुट्ठी से उठी हुई हवा से मेरे केशाग्र प्रकम्पित हो गए। — ११६. वह देवेन्द्र देवराज शक्र वज्र को पकड़कर तीन बार दांई ओर से प्रारम्भ कर मेरी प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दननमस्कार कर इस प्रकार बोलाभते असुरेन्द्र असुरराज चमर ने आपकी निश्रा से स्वयं ही मेरी अति आशातना की। तब मैंने कुपित हो कर असुरेन्द्र असुरराज चमर का वध करने के लिए वज्र का प्रक्षेपण किया। उस समय मेरे मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - असुरेन्द्र असुरराज चमर प्रभु नहीं है, असुरेन्द्र असुरराज चमर समर्थ नहीं है तथा असुरेन्द्र असुरराज चमर का विषय नहीं है कि वह अपनी मिश्रा (शक्ति) से ऊर्ध्वलोक में यावत् सोधर्म कल्प तक आए वह अर्हत, अर्हत् चेत्य अथवा भावितात्मा अनगार की निश्रा के बिना ऊर्ध्वलोक में यावत् सौधर्म कल्प तक नहीं आ सकता । अतः मेरे लिए यह महान् कष्ट का विषय है कि मैंने इन तथारूप अर्हत्, भगवान और अनगारों की अति आशातना की है। ऐसा सोच कर मैं अवधिज्ञान का प्रयोग करता Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ उ.२ सू. ११६-११६ पिए ओहिणा आभोएम, आभोएता हा हा! अहो! तो अहमंसि त्ति कट्टु ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव देवापि तेणेव उवागच्छामि, देवागुप्पियाणं चउरंगुलमसंपत्तं बजे पडि साहरामि वज्जपडिसाहरणट्टयाए णं इहमागए इह समोसढे इह संपत्ते इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ता णं विहरामि । तं खामेमि णं देवाणु पिया ! खमंतु णं देवाणुप्पिया ! खंतुमरिहंति णं देवाप्पिया! नाइ भुज्जो एवं करणयाए त्ति कट्टु ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता उत्तरपुरस्थि दिसीभागं अवक्कमइ, वामेण पादेणं तिक्खुत्तो भूमिं विदलेइ, विदलेत्ता चमरं असुरिंदं असुररायं एवं वदासि मुक्को सि णं भी चमरा! असुरिंदा! असुरराया। सममस्स भगवओ महावीरस्स पभावेण नाहि ते दाणिं ममातो भयमस्थि ति कट्टु जामेव दिसिं पाउन्ए तामेव दिसिं पडिगए । - सक्क- चमर-जाणं गइविसय-पदं ११७. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदर, नर्मस, वंदित्ता नगसित्ता एवं बदासीदेवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महाणुभागे पुव्यामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेवं अणु परियट्टित्ता णं हित्तए ? हंतापभू ११८. सेकेणणं भंते! एवं बुब्बइ-देवे णं महिड्ढीए जाव महाणुभागे पुव्वामेव पोग्गलं विवित्ता प तमेव अणुपरियट्टित्ता णं हित्तए ? गोयमा ! पोगग्गले णं खित्ते समाणे पुव्वामेव सिग्घगई भवित्ता ततो पच्छा मंदगती भवति, देवे नं महिडीए जाव महाणुभागे पुबि पि पच्छावि सीधे सीहगती चैव तुरिए तुरियमती वेव से तेणद्वेष जाव पभू गेण्डित्तए । ११६. जइ णं भंते! देवे महिड्ढीए जाव पभू तमेव अणुपरियट्टित्ताणं हित्तए, कम्हा णं भंते! सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा चमरे असुरिंदे असुरराया नो संचाइए साहत्यिं गेण्हित्तए? ५६ अवधिना आभोगयामि, आभोग्य हा! हा! अहो! हतः अहमस्मि इति कृत्वा तया उत्कृष्टया यावद् यत्रैव देवानुप्रियाः तत्रैव उपागच्छामि, देवानुप्रियाणां चतुरंगुलमसंप्राप्तं वज्रं प्रतिसंहरामि, वज्रप्रतिसंहरणार्थम् इहागतः इह समवसृतः इह संप्राप्तः इहैव अद्य उपसंपद्य विहरामि । तत् क्षाम्यामि देवानुप्रियाः ! क्षमन्ताम् देवानुप्रियाः ! क्षन्तुमर्हन्ति देवानुप्रियाः ! न च भूयः एवं करणतया इति कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्रामति, वामेन पादेन त्रिकृत्यः भूमिं विदलयति, विदल्य चमरम् असुरेन्द्रम् असुरराजम् एवमवादीत्-मुक्तोऽसि भोः चमर! असुरेन्द्र असुरराज! श्रमणस्य भगबतो महावीरस्य प्रभावेण नहि तव इदानी मत्तो भयमस्ति इति कृत्वा यस्या एवं दिशः प्रादुर्भूतः तस्यामेव दिशि प्रतिगतः । शक्र- चमर-वज्राणां गतिविषय-पदं भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति निमरिया एवमवादीद्देवः भदन्त ! महर्द्धिकः यावन् महानुभागः पूर्वमेव पुद्गलं चित्वा प्रभुः तमेव अनुपरियट्य ग्रहीतुम्? हन्त प्रभुः ! तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते देवः मह र्द्धिकः यावन् महानुभागः पूर्वमेव पुद्गलं क्षिप्त्वा प्रभुः तमेव अनुपरियट्य ग्रहीतुम् ? गौतम! पुद्गलः क्षिप्तः सन् पूर्वमेव शीघ्रगतिः भूत्वा ततः पश्चात् मन्दगतिः भवति, देवः महर्द्धिकः वाचन महानुभागः पूर्वमपि पश्चादपि शीघ्रः शीघ्रगतिश्चैव त्वरितः त्वरितगतिश्चैव । तत् तेनार्थेन पावत् प्रभुः ग्रहीतुम् । यदि भदन्त ! देवः महर्द्धिकः यावत् प्रभुः तमेव अनुपर्यट्य ग्रहीतुम्, कस्माद् भदन्त ! शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः नो संशकितः स्वहस्तेन ग्रहीतुम्? भगवई हूं, अवधिज्ञान से आपको देखता हूं। देख कर 'हा! हा! अहो ! मैं मारा गया ऐसा सोच कर उस उत्कृष्ट यावत् दिव्यगति से जहां आप है वहां आता हूं और आपसे चार अंगुल दूर रहे वन को पकड़ लेता हूं। मैं वज्र को पकड़ने के लिए यहां आया हूं, यहां समवसृत हुआ हूं, यहां सम्प्राप्त हूं और आज यहां आपके समीप आकर विहरण कर रहा हूं। इसलिए मैं आपसे मायाचना करता हूं। देवानुप्रिय! आप मुझे क्षमा करें। देवानुप्रिय ! आप क्षमा करने में समर्थ है। देवानुप्रिय ! मैं पुनः ऐसा न करने के लिए संकल्प करता हूं। ऐसा कह कर वह मुझे वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दननमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशा (ईशानकोण) में चला जाता है। वहां वह दाएं पांव से तीन बार भूमि का विदलन करता है और विदलन करके असुरेन्द्र असुरराज चमर से इस प्रकार बोला- हे असुरेन्द्र ! असुरराज! चमर! श्रमण भगवान महावीर के प्रभाव से अब तुम मुक्त हो गए हो, इस समय तुमको मुझसे भय नहीं है। ऐसा कह कर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। शक्र, चमर और वज्र का गतिविषयक पद ११७. भन्ते ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन- नमस्कार कर इस प्रकार बोलेभन्ते! महर्द्धिक यावत् महान् सामर्थ्य वाला देव पहले पुद्गल का प्रक्षेपण कर फिर उसका पीछा कर उसे पकड़ने में समर्थ है? हो है। -- ११८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैमहर्द्धिक यावत् महान् सामर्थ्य वाला देव पहले पुद्गल का प्रक्षेपण कर फिर उसका पीछा कर उसे पकड़ने में समर्थ है? गीतम! पुद्गल फेंके जाने पर वह पहले शीघ्र गति वाला होता है फिर मन्दगति वाला हो जाता है। महर्द्धिक या सामर्थ्य वाला देव पहले भी और पीछे भी शीघ्र और शीघ्र गति वाला और वरित गति वाला होता है । इस अपेक्षा से वह उसे पकड़ने में समर्थ है। ११६. ' भंते! यदि महर्द्धिक देव पीछा करके पहले फेंके गए पुद्गल को पकड़ने में समर्थ है तो देवेन्द्र देवराज शक असुरेन्द्र असुरराज चमर को अपने हाथ से क्यों नहीं पकड़ सका? Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमा ! असुरकुमाराणं देवानं अहे गइविसाए सीहे सीहे चैव तुरिए-तुरिए चैव, उद्धं गद्द विसए अप्पे अप्पे चैव मंद-मंदे चेव । वेमाणियाणं देवाणं उड्ढं गइविसए सीहे - सीहे चेव । तुरिए-तुरिए चेव, अहे गइविसए अप्पे अप्पे चैव गंदे-गंदे चैव जावतियं खेत्तं सक्के देविंदे देवराया उड्द्धं उप्पयइ एक्केणं समएणं, तं वज्जे दोहिं, जं बन्जे दोहिं तं चमरे तिहि सच्चत्थोवे सक्करस देविंदस्स देवरण्णो उड्ढलोयकंडए, अहे लोकंड संखेज्जगुणे । जावतियं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे ओवयइ एक्केणं समएण, तं सक्के दोहिं, जं सक्के दोहिं तं वज्जे तीहिं सव्वत्योचे चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो अहेलोयकंडए, उड्ढलोय-कंडए संखेज्जगुणे । T एवं खलु गोयमा सक्केणं देविदेणं देवरण्णा चमरे असुरिंदे असुरराया नो संचाइए साहत्थिं गेण्डित्तए | १२०. सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो उड्ढं अहे तिरियं च गविसयस्स कपर कयरेहिंतो अप्पे वा? बहुए वा? तुल्ले या? विसेसाहिए वा? गोयमा! सव्वत्थवं खेतं सके देवि देवराया अहे ओवयइ एक्केणं समएणं, तिरियं संखेज्जे भागे गच्छ, उह संखेने भागे गच्छ ॥ १२१. चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररण्णो उन्हें अहे तिरियं च मदविसयस्स कवरे करेहिंतो अप्पे वा? बहुए वा? तुल्ले वा ? विसेसाहिए वा? गोयमा! सव्वत्थोवं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया उड्ढं उप्पयइ एक्केणं समएणं, तिरियं संखेज्जे भागे गच्छइ, अहे संखेज्जे भागे गच्छइ ॥ १२२. वज्जरसनं भंते! उड्हें अहे तिरियं व ५७ गोत्तम! अमुरकुमाराणां देवानाम् अधोगतिविषयः शीघ्र शीघ्रश्वेव त्वरित त्वरितश्चैव ऊर्ध्वं गतिविषयः अल्पाल्पश्चैव मन्द-मन्दश्चैव । वैमानिकानां देवानाम् ऊर्ध्वं गतिविषयः शीघ्र - शीघ्रश्चैव त्वरित त्वरितश्चैव, अधोगतिविषयः अल्पाल्पश्चैव मन्द-मन्दश्चैव । यावत् क्षेत्रं शक्रः देवेन्द्रः देवराजः ऊर्ध्वम् उत्पतति एकेन समयेन, तद् वज्रं द्वाभ्यां यद् वज्रं द्वाभ्यां तत् चमरः त्रिभिः सर्वस्तोकः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य ऊर्ध्वलोककण्डकः, अधोलोककण्डकः संख्येयगुणः । यावत् क्षेत्रं चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः अधः अवपतति एकेन समयेन तत् शक्रः द्वाभ्यां यत् शक्रः द्वाभ्यां तद् वनं त्रिभिः सर्वस्तोकः चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य अधोलोककण्डकः, ऊर्ध्वलोकण्डकः संख्यगुणः । एवं खतु गीतम शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः नो संशकितः स्वहस्तेन ग्रहीतुम्॥ शक्रस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य ऊर्ध्वमधरितर्यक् च गतिविषयस्य कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा? को वा? तुल्यो का? विशेषाधिको या? गीतम! सर्वस्तोक क्षेत्र : देवेन्द्रः देवराजः अधः अवपतति एकेन समयेन तिर्यक संख्येयान् भागान् गच्छति, ऊर्ध्वं संख्येयान् भागान् गच्छति। चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् व गतिविषयस्य कतरः - रेभ्यः अल्पो वा? बहुको वा? तुल्यो वा ? विशेषाधिको वा? गौतम! सर्वस्तोक क्षेत्र चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः ऊर्ध्वम् उत्पतति एकेन समयेन, तिर्यक् संख्येयान् भागान् गच्छति, अधः संख्येयान् भागान् गच्छति । यमस्य भदन्त ऊर्ध्वमवस्तिर्यक च गति श.३ : उ.२ : सू. ११६-१२२ गीतम! असुरकुमार देवों का नीचे लोक में गति का विषय शीघ्र शीघ्र और त्वरित त्वरित है, ऊंचे लोक में उनकी गति का विषय अल्प- अल्प और मंद-मंद है। वैमानिक देवों का ऊंचे लोक में गति का विषय शीघ्रशीघ्र और त्वरित - त्वरित है, नीचे लोक में उनकी गति का विषय अल्प- अल्प और मंद-मंद है। देवेन्द्र देवराज शक्र ऊंचे लोक में एक समय में जितने क्षेत्र में चला जाता है, उतने क्षेत्र के अवगाहन में वज्र को दो समय लगते हैं। वज्र का जितने क्षेत्र के अवगाहन में दो समय लगते हैं, उतने क्षेत्र के अवगाहन में चमर को तीन समय लगते हैं। देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊर्ध्वलोक- कण्डक सबसे थोड़ा, अधोलोक - कण्डक उससे संख्या असुरेन्द्र असुरराज चमर नीचे लोक में एक समय में जितने क्षेत्र में चला जाता है, उतने क्षेत्र के अवगाहन में शक्र को दो समय लगते हैं। शक्र को जितने क्षेत्र के अवगाहन में दो समय लगते हैं उतने क्षेत्र के अवगाहन में वज को तीन समय लगते है। असुरेन्द्र असुरराज चमर का अधोलोक - कण्डक सबसे थोड़ा, ऊर्ध्वलोकause उससे संख्येयगुना । गौतम! इस प्रकार देवेन्द्र देवराज शक्र अपने हाथ से असुरेन्द्र असुरराज चमर को नहीं पकड़ सकता । १२०. गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र की ऊंची, नीची और तिरछी गति के विषय में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? गौतम देवेन्द्र देवराज शक एक समय में सबसे थोड़ा क्षेत्र अधोलोक को अवगाहित करता है। तिरछे लोक में वह उससे संख्येय भाग अधिक गति करता है और ऊर्ध्वलोक में उससे संख्येय भाग अधिक गति करता है। १२१ भन्ते! असुरेन्द्र असुरराज चमर की ऊंची, नीबी और तिरछी गति के विषय में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर एक समय में सबसे थोड़ा क्षेत्र ऊर्ध्वलोक को अवगाहित करता है। तिरछे लोक में वह उससे संख्येय भाग अधिक गति करता है और अधोलोक में उससे संख्येय भाग अधिक गति करता है। १२२ भन्ते वन की ऊंची, नीची और तिरछी गति के Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ.२ : सू.१२२-१२६ गइविसयस्स कयरे कयरेहिंतो अप्पे वा ? बहुए वा? तुल्ले वा? विसेसाहिए वा? गोवमा! सव्वत्योवं खेत्तं कन्जे अहे ओवय एक्केणं समएणं, तिरियं विसेसाहिए भागे गच्छइ, उड्ड विसेसाहिए भागे गच्छद १२३. सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो ओवयणकालस्स य, उप्पयणकालस्स य कयरे करेहिंतो अप्पे वा? बहुए वा? तुल्ले वा ? विसेसाहिए वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे सक्करस देविंदस्स देव रण्णो उपयणकाले ओवयणकाले संखेज्जगुणे ॥ १२४. चमरस्स वि जहा सक्कस्स, नवरंसव्वत्थोवे ओवयणकाले, उप्पयणकाले संखेगुणे ॥ - १२६. एयस्स णं भंते! वज्जस्स, वज्जाहिवइस्स, चमरस्स य असुरिंदस्स असुररण्णो ओवयणकालस्स य, उप्पयणकालस्स य कयरे कयरे हिंतो अप्पे वा? बहुए वा? तुल्ले वा ? विसेसाहिए वा ? गोयमा ! सक्कस्स य उप्पयणकाले, चमरस्स य ओवयणकाले एए णं दोण्णि वि तुल्ला सव्वत्थोवा । सक्करस य ओवयणकाले, वज्जरस य उप्पयणकाले - एस णं दोन्ह वि तुल्ले संखेज्जगुणे चमरस्त य उप्पयणकाले, वज्जरस य ओवयणकाले – एस णं दोण्ह वि तुल्ले विसेसाहिए | ५८ विषयस्य कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा? बहुको वा? तुल्यो वा ? विशेषाधिको वा ? गीत! सर्वस्तोकं क्षेत्र वनम् अधः अवपतति एकेन समयेन, तिर्यक् विशेषाधिकान् भागान् गच्छति, ऊर्ध्वं विशेषाधिकान् भागान् गच्छति । शक्रस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य अवपतनकालस्य च उत्पतनकालस्य च कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा? बहुको दा? तुल्यो वा ? विशेषाधिको वा? गौतम! सर्वस्तोकः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य उत्पतनकालः, अवपतनकालः संख्ययगुणः । १२५. वज्जस्स पुच्छा | वज्रस्य पृच्छा । गोयमा! सव्वत्थोवे उप्पयणकाले, ओवयण- गौतम! सर्वस्तोकः उत्पतनकालः, अवपतनकाले विसेसाहिए | कालः विशेषाधिकः । चमरस्यापि यथा शक्रस्य, नवरं - सर्वस्तोकः अवपतनकालः, उत्पतनकालः संख्येयगुणः । एतस्य भदन्त ! वज्रस्य, वज्राधिपतेः, चमरस्य च असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य अवपतनकालस्य च उत्पतनकालस्य च कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा? बहुको वा ? तुल्यो वा ? विशेषाधिको वा ? गौतम! शक्रस्य च उत्पतनकालः, चमरस्य च अवपतनकालः एतौ द्वावपि तुल्यौ सर्वस्तोकी । शक्रस्य च अवपतनकालः, वज्रस्य च उत्पतनकालः --- एष द्वयोरपि तुल्यः संख्येयगुणः । चमरस्य च उत्पतनकालः, वज्रस्य च अवपतनकालः - एष द्वयोरपि तुल्यः विशेषाधिकः । भाष्य १. सूत्र ११६ - १२६ गति के तीन प्रकार हैं-ऊर्ध्वगति, अधोगति और तिरछी गति । शक्र की गति तीन गतिक्षेत्रों में एक समान नहीं है। कहीं शीघ्र गति है, तो कही मंदगति । इसी प्रकार वज्र और चमर की गति भी तीन गतिक्षेत्रों में एक जैसी नहीं है। ऊर्ध्वगति, अधोगति और तिरछी गति इन गतिक्षेत्रों तथा शक्र, चमर और वज्र इन तीन गति करने वालों के विकल्प होते हैं: (क) एक समय (कालखण्ड) में अधोलोक में शक की गति सबसे कम है। है। भगवई विषय में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? गौतम! वन एक समय में सबसे थोड़ा क्षेत्र अधोलोक का अवगाहित करता है। तिरछे लोक में वह उससे विशेषाधिक भाग में गति करता है और ऊर्ध्वलोक में उससे विशेषाधिक गति करता है। १२३. भन्ते देवेन्द्र देवराज शक्र के नीचे जाने के समय और ऊपर जाने के समय में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? गौतम! देवेन्द्र देवराज शक्र के ऊपर जाने का समय सबसे थोड़ा है। नीचे जाने का समय उससे संख्येयगुना अधिक है। १२४. शक्र की भांति चमर की वक्तव्यता । केवल इतना अन्तर है— नीचे जाने का समय सबसे थोड़ा है। ऊपर जाने का समय उससे संख्येयगुना अधिक है। १२५. वज्र के विषय में (पृच्छा। गौतम! वज्र के ऊपर जाने का समय सबसे थोड़ा है, नीचे जाने का समय उससे विशेषाधिक है। १२६. भन्ते! वन, वनाधिपति शक्र और असुरेन्द्र असुरराज चमर के नीचे जाने के समय और ऊपर जाने के समय में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशोषाधिक है? गौतम! शक्र के ऊपर जाने और चमर के नीचे जाने के समय ये दोनों तुल्य हैं और सबसे अल्प हैं। शक्र के नीचे जाने और वज्र के ऊपर जाने का समयये दोनों तुल्य हैं और उससे संख्ययगुना अधिक हैं। चमर के ऊपर जाने और वज्र के नीचे जाने का समय- ये दोनों तुल्य हैं और उससे विशेषाधिक हैं। - (ख) तिरछे लोक में वह उससे संख्येय भाग अधिक गति करता है। और (ग) ऊर्ध्वलोक में वह उससे संख्येय भाग अधिक गति करता है। (घ) एक समय (कालखण्ड) में ऊर्ध्वलोक में चमर की गति सबसे कम (ङ) तिरछे लोक में वह उससे संख्येयगुनी (दो गुनी) गति करता है और (च) अधोलोक में वह उससे भी संख्येयगुनी गति करता है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५६ श.३ : उ.२ : सू.११६-१२८ (छ) एक समय (कालखण्ड) में अधोलोक में वज्र की गति सबसे कम है। (ज) तिरछे लोक में वह उससे विशेषाधिक गति करता है और (झ) ऊलोक में वह उससे विशेषाधिक गति करता है। गव्यूत की दृष्टि से शक्र, चमर और वज्र की गति इस प्रकार है शक्र एक समय में ऊंचा र गव्यूत, तिरछा ६ गव्यूत और नीचा ४ गव्यूत जाता है। चमर एक समय में ऊंचा २२ गव्यूत, तिरछा ५, गव्यूत और नीचा ८ गव्यूत जाता है। वज्र एक समय में ऊंचा ४ गव्यूत, तिरछा ३, गव्यूत और नीचा २२ गव्यूत जाता है। ___ अधिक सुगमता से समझने के लिए देखें यंत्र शक्र की ऊर्ध्वगति और चमर की अधोगति समान है-गव्यूत। वज्र की ऊर्ध्वगति और शक की अधोगति समान है-४ गव्यूत। चमर की ऊर्ध्वगति और वज्र की अधोगति समान है-२१ गव्यूत। वज्र की तिर्यगूगति से चमर की तिर्यगगति विशेष है। चमर की तिर्यग्गति से शक्र की तिर्यगगति विशेष है। सबसे अधिक गति एक समय में ८ गव्यूत की है। एक योजन के चार गव्यूत होते हैं। इसी माप के आधार पर यहां गति का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। वैसे एक मान्यता के अनुसार एक योजन के दो गव्यूत अथवा गव्यूति भी होती है। किंतु यहां एक योजन के चार गव्यूत किए गए हैं। एक गव्यूत के तीन भाग करने पर गव्यूत के ८४३=२४ भाग होते हैं। एक समय में सबसे अधिक गति गव्यूत के तीन भाग की अपेक्षा से होती है। पूर्णांक की दृष्टि से २४ भागों को लक्ष्य कर यंत्र इस प्रकार बनता है शक्र वज्र चमर शक्र ऊर्ध्व चमर ८ गव्यूत ४ गव्यूत २गव्यूत ऊर्ध्व २४ तिरछा ६ गव्यूत ३. गव्यूत २गव्यूत ५-गव्यूत ८ गव्यूत तिरछा अधो ४ गव्यूत अधो गति का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ये निष्कर्ष निकलते हैं चमरस्य चिंता-पदं चमरस्य चिन्ता-पदम् चमर की चिन्ता का पद १२७. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया वज्ज- ततः स चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः वज्रभय- १२७. असुरेन्द्र असुरराज चमर वज्र के भय से मुक्त हो भयविप्पमुक्के, सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा विप्रमुक्तः, शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन महता गया। किन्तु देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान महया अवमाणेणं अवमाणिए समाणे चमर- अवमानेन अवमानितः सन् चमरचञ्चायां से अपमानित बना हुआ चमरचञ्चा राजधानी की चंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि राजधान्यां सभायां सुधर्मायां चमरे सिंहासने सुधर्मा सभा में चमर सिंहासन पर बैठा हुआ, उपहत सीहासणंसि ओहयमणसंकप्पे चिंतासोय- उपहतमनःसंकल्पः चिन्ताशोकसागरसंप्र- मनः-संकल्प वाला, चिन्ता और शोक के सागर में सागरसंपविढे करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झा- विष्टः करतलपर्यस्तमुखः आर्तध्यानोपगतः निमग्न मुख हथेली पर टिकाए हुए, आर्तध्यान में णोवगए भूमिगयदिट्ठीए झियाति ॥ भूमिगतदृष्टिकः ध्यायति। लीन और दृष्टि को भूमि पर गाड़े हुए कुछ चिन्तन कर रहा था। १२८. तए णं चमरं असुरिंदं असुररायं सामा- ततः चमरम् असुरेन्द्रम् असुरराजं सामानिक- १२८. सामानिक परिषद् में उपपन्न देव उपहत मनः संकल्प णियपरिसोववण्णया देवा ओहयमणसंकप्पं परिषदुपपन्नकाः देवाः उपहतमनःसंकल्पं वाले यावत् चिन्तारत असुरेन्द्र असुरराज चमर को जाव झियायमाणं पासंति, पासित्ता करयल- यावत् ध्यायन्तं पश्यन्ति, दृष्ट्वा करतल- देखते हैं और देखकर दोनो हथेलियों से निष्पन्न परिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं परिगृहीतां दशनखां सिरसावर्ती मस्तके सम्पुटवाली दश नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, घुमाकर मस्तक पर टिका कर जय-विजय की ध्वनि से एवं वयासी-किं णं देवाणुप्पिया! ओहय- वर्धापयित्वा एवमवादिषुः किं देवानुप्रियाः! उसको वर्धापित करते है। वर्धापित कर इस प्रकार मणसंकप्पा चिंतासोयसागरसंपविट्ठा करयल- उपहतमनःसंकल्पाः चिन्ताशेकसागरसंप्रविष्टाः । बोले-देवानुप्रिय! आज उपहत मनः संकल्प वाले, पल्हत्थमुहा अट्टज्माणोवगया भूमिगय- करतलपर्यस्तमुखाः आर्त्तध्यानोपगताः भूमि- चिन्ता और शोक के सागर में निमग्न, मुख हथेली पर दिट्ठीया झियायह?॥ गतदृष्टिकाः ध्यायत? टिकाए हुए, आर्त्तध्यान में लीन और दृष्टि को भूमि पर गाड़े हुए आप क्या चिन्तन कर रहे हैं? १. अभि. चि. ३/५५१--गव्यूतं क्रोशः। वही, ३/५५१, ५५२--तौ द्वौ तु गोरुतम् ॥ गव्या गव्यूत गव्यूती चतुष्कोशन्तु योजनम्। २. आप्टे. गव्यूत, गव्यूतिः-१. A measure of length nearly equal to two miles or one krosa. २. A measure of distance equal to two krosas. Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.२ : सू.१२६-१३० भगवई १२६. तए णं से चमरे असुरिंदे असरराया ते ततः स चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः तान् सामाणियपरिसोववण्णए देवे एवं क्यासी- सामानिकपरिषदुपपन्नकान् देवान् एवम- एवं खलु देवाणुप्पिया! मए समणं भगवं वादीद्-एवं खलु देवानुप्रियाः! मया श्रमणं महावीरं नीसाए सक्के देविंदे देवराया सयमेव भगवन्तं महावीरं निश्रित्य शक्रो देवेन्द्रः अच्चासाइए। तए णं तेणं परिकुविएणं देवराजः स्वयमेव अत्याशातितः। ततः तेन समाणेणं ममं वहाए वज्जे निसट्टे । तं भद्दण्णं परिकुपितेन सता मम वधाय वज्रं निःसृष्टम्। भवतु देवाणुप्पिया! समणस्स भगवओ तद् भद्रं भवतु देवानुप्रियाः! श्रमणस्य भगवतो महावीरस्स जस्सम्हि पभावेणं अकिटे अव्वहिए महावीरस्य यस्यास्मि प्रभावेण अक्लिष्टः अपरिताविए इहमागए इह समोसढे इह संपत्ते अव्यथितः अपरितापितः इहागतः इह समइहेव अज्ज उवसंपिज्जत्ता णं विहरामि। तं वसृतः इह संप्राप्तः इहैव अद्य उपसंपद्य गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं विहरामि। तद् गच्छामः देवानुप्रियाः! श्रमणं वंदामो नमसामो जाव पज्जुवासामो त्ति कटु भगवन्तं महावीरं वन्दामहे नमस्यामो यावत् चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव सव्वि- पर्युपास्महे इति कृत्वा चतुःषष्ट्याः सामानिकडुढीए जाव जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं साहस्रयाः यावत् सर्वद्धर्या यावद् यौव अशोकअंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं वरपादपाः यत्रैव ममान्तिकं तत्रैव उपागच्छति, तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेत्ता वंदेत्ता उपागम्य मां त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणां कृत्वा नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते! मए वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद्-एवं खलु तुब्भं नीसाए सक्के देविंदे देवराया सयमेव भदन्त! मया युष्मान् निश्रित्य शक्रः देवेन्द्रः अच्चासाइए। तए णं तेणं परिकुविएणं देवराजः स्वयमेव अत्याशातितः। ततः तेन समाणेणं ममं वहाए वज्जे निसटे। तं भद्दण्णं परिकुपितेन सता मम वधाय वज्रं निःसृष्टम्। भवतु देवाणुप्पियाणं जस्सम्हि पभावेणं अकिटे तत् भद्रं भवतु देवानुप्रियाणां यस्यारिम प्रभावेण अव्वहिए अपरिताविए इहमागए इह समोसढे अक्लिष्टः अव्यथितः अपरितापितः इहागतः इह संपत्ते इह अज्ज उवसंपज्जित्ता णं इह समवसृतः इह संप्राप्तः इह अघ उपसंपद्य विहरामि। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! खमंतु विहरामि। तत् क्षमे देवानुप्रियाः! क्षमन्ताम् णं देवाणुप्पिया! खंतुमरिहंतिणं देवाणुप्पिया! देवानुप्रियाः! क्षन्तुमर्हन्ति देवानुप्रियाः! न भूय नाइ भुज्जो एवं करणयाए त्ति कटु ममं वंदइ एवं करणतेति कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं वन्दित्वा नमस्यित्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता जाव अपक्रामति, अपक्रम्य द्वात्रिंशद्बद्धं नाट्यबत्तीसइबद्धं नट्टविहिं उवदंसेइ, उवदंसेत्ता विधिम् उपदर्शयति, उपदर्थ्य यस्या एव दिशः जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए॥ प्रादुर्भूतः तामेव दिशि प्रतिगतः। १२६. असुरेन्द्र असुरराज चमर ने उन सामानिक परिषद् में उपपन्न देवों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! मैंने श्रमण भगवान् महावीर की निश्रा से देवेन्द्र देवराज शक्र की स्वयं ही अति आशातना की। इससे परिकुपित हो कर उसने मुझे मारने के लिए वज़ का प्रक्षेपण किया। देवानुपियो! भला हो श्रमण भगवान् महावीर का, जिनके प्रभाव से मैं अक्लिष्ट', अव्यथित और अपरितापित रह कर यहां आया हूं। यहां समवसृत हूं। यहां सम्प्राप्त हूं और आज इसी स्थान में उपसम्पन्न (प्रशान्त) अवस्था में विहरण कर रहा हूं। इसलिए देवानुप्रियो! हम श्रमण भगवान महावीर के पास चलें, उन्हें वन्दन-नमस्कार करें यावत् पर्युपासना करें, ऐसा सोचकर वह चौसठ हजार सामानिक देवों के साथ यावत् अपनी समग्र ऋद्धि के साथ यावत् जहां प्रवर अशोक वृक्ष है, जहां मेरा पार्श्व है, वहां आता है, आकर तीन बार दांई ओर से प्रारम्भ कर मेरी प्रदक्षिणा कर, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-मैंने आपकी निश्रा से देवेन्द्र देवराज शक्र की स्वयं अति आशातना की। उसने परिकुपित हो कर मुझे मारने के लिए वज्र का प्रक्षेपण किया। भला हो देवानुप्रिय! आपका जिनके प्रभाव से मैं अक्लिष्ट, अव्यथित और अपरितापित रह कर यहां आया हूं, यहां समवसृत हूं, यहां संप्राप्त हूं और आज इसी स्थान में उपसम्पन्न अवस्था में विहरण कर रहा हूं। देवानुप्रिय! मैं आपसे क्षमायाचना करता हूं, देवानुप्रिय! आप मुझे क्षमा करें; देवानुप्रिय! आप क्षमा करने में समर्थ हैं। मैं पुनः ऐसा कभी नहीं करूंगा। ऐसा कह कर वह मुझे वन्दननमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशाभागमें अवक्रमण करता हूं। अवक्रमण कर यावत् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि दिखाता है। दिखा कर जिस दिशा से आया, उसी दिशा में चला गया। भाष्य १. अक्लिष्ट २. अपरितापित अकिट्ठ-वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप किए हैं-अकृष्ट वज्र की सन्निधि से ताप की बहुत संभावना थी, फिर भी ताप नहीं और अक्लिष्ट। अकृष्ट-जिसका विलेखन या कृशीकरण न हुआ हो। हुआ। अक्लिष्ट-अबाधित। १३०. एवं खलु गोयमा! चमरेणं असुरिंदेणं एवं खलु गौतम! चमरेण असुरेन्द्रेण असुर- असुररण्णा सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देव- राजेन सा दिव्या देवर्द्धि: दिव्या देवद्युतिः दिव्यः ज्जुती दिव्वे देवाणुभागे लद्धे पत्ते अभि- देवानुभागः लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः। समण्णागए। ठिई सागरोवमं। महाविदेहे वासे स्थितिः सागरोपमम्। महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ ॥ यावद् अन्तं करिष्यति। १३०. गौतम! इस प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर ने वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध किया, प्राप्त किया, अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) किया। उसकी स्थिति एक सागरोपम की है वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई असुरकुमाराणं उद्ध-उप्पयणस्स हेउ-पदं ६१ श.३ उ.२ सू. १३१-१३२ असुरकुमाराणाम् उर्ध्वमुत्पतनस्य हेतु- असुरकुमारों का ऊर्ध्वलोक में जाने का हेतु-पद पदम् १३१. किंपत्ति में भंते! असुरकुमारा देवा उद्धं किंप्रत्ययितं भदन्त देवाः ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति ! उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ? यावत् सौधर्मः कल्पः ? गोयगा! तेसि णं देवाणं अहुणोचवण्णान गौतम! तेषां देवानाम् अधुनोपपन्नानां वा वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अज्झत्थिए चरमभवस्थानां वा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चितिए पथिए मनोगए संकणे समुष्यज्जइ- चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुत्पअहो! णं अम्हेहिं दिव्या देवडी जाव द्यते - अहो ! अस्माभिः दिव्या देवर्द्धिः यावद् अभिसमग्णागए, जारिसिया गं अम्हेहि दिव्या अभिसमन्वागता, यादृशी अस्माभिः दिव्या देविड्डी जाव अभिसमण्णागए, तारिसिया देवर्थिः यावद् अभिसमन्वागता, तादृशी शक्रेण णं सक्केणं देविंदेनं देवरगा दिव्या देवि देवेन्द्रेण देवराजेन दिव्या देवर्द्धिः यावद अभिजाव अभिसमण्णागए। जारिसिया णं सक्केणं समन्यागता यादृशी शक्रेण देवेन्द्रेण देवराजेन देविंदेणं देवरण्णा जाव अभिसमण्णागए, यावद् अभिसमन्यागता तादृशी अस्माभिरपि तारिसिया णं अम्हेहि विजाव अभिसणा- यावत् अभिसमन्वागता । तद् गच्छामः शक्रस्य गए। तं गच्छामो णं सक्कस्स देविंदरस देव देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकं प्रादुर्भवामः परण्णो अंतियं पाउब्भवामो पासामो ताव श्यामः तावत् शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सक्करस देविंदरस देवरनो दिव्वं देविडिंड दिव्यां देवर्द्धिं यावद् अभिसमन्वागतां, पश्यतु जाव अभिसमण्णागयं, पासउ ताव अम्ह वि तावद् अस्माकमपि शक्रः देवेन्द्रः देवराजः सबके देविंदे देवराया दिव्वं देविदिंद्र जाव दिव्यां देव यावद् अभिसमन्दागताम् । तज् अभिसमण्णागयं । तं जाणामो ताव सक्कस्स जानीमः तावत् शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं देविड्ढि जाव अभि- दिव्यदेववाद अभिसमन्वागताम् जानातु समण्णागयं, जाणउ ताव अम्ह वि सक्के तावद् अस्माकमपि शक्रः देवेन्द्रः देवराजः देविंदे देवराया दिव्वं देविड्ढि जाव अभि- दिव्यां देवद्धिं यावद् अभिसमन्वागताम् । समण्णागयं । एवं खलु गोयमा असुरकुमारा देवा उद्धं एवं खलु गीतम! असुरकुमाराः देवाः ऊर्ध्वम् ! उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ॥ उत्पतन्ति यावत् सौधर्मः कल्पः । भाष्य १. सूत्र १३१ इसी शतक के ६० वे सूत्र में असुरकुमार देवों के सौधर्म कल्प में जाने का एक प्रत्यय बतलाया है---भव्यधिक वैरानुबन्ध प्रस्तुत सूत्र में उसका दूसरा प्रत्यय निर्दिष्ट है, वह है कुतूहल या जिज्ञासा अथवा ऋद्धिविषयक तुलनात्मक दृष्टिकोण शक की ऋद्धि को साक्षात् देखना और अपनी ऋद्धि का उसे साक्षात् कराना | कुतूहल और प्रदर्शन की वृत्ति से देव भी मुक्त नहीं हैं। यह इस प्रकरण से फलित होता है। १३१. 'भन्ते असुरकुमार देव ऊर्ध्वलोकं में यावत् सौधर्मकल्प तक किस प्रत्यय से जाते हैं? प्रस्तुत सूत्र में ऋद्धि के दर्शन अथवा प्रदर्शन की उत्सुकता के दो बिन्दुओं का उल्लेख किया गया है उत्सुकता का पहला बिन्दु है अधुनोपपन्न की सूचना की गई है।" और दूसरा बिन्दु है चरमभवस्थ अधुनोपपन्न देव तत्काल उस अवस्था में १३२. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ तदेवं भदन्त ! तदवं भदन्त ! इति । १. भ. वृ. ३/१३१ - 'चरिमभवत्थाण व' त्ति भवचरमभागस्थानां च्यवनावसर इत्यर्थः । गौतम! तत्काल उपषन्न और जीवन के चरम भाग में अवस्थित देवों के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है-अहो! हमने ऐसी दिव्य देवद्धिं यावत् अभिसमन्वागत की है। हमने जैसी दिव्य देविर्द्ध यावत् अभिसमन्वागत की है, वैसी ही दिव्य देवर्द्धि यावत् देवेन्द्र देवराज शक्र ने अभिसमन्वागत की है जैसी दिव्य देवद्धिं यावत् देवेन्द्र देवराज शक ने अभि समन्यागत की है, हमने भी वैसी ही दिव्य देवद्धिं यावत अभि- समन्वागत की है; इसलिए हम देवेन्द्र देवराज शक्र के पास जाएं, वहां प्रकट हो कर देवेन्द्र देवराज शक्र ने दिव्य देवर्द्धि यावत् अभिसमन्वागत की है, उसे देखें। हमने दिव्य देवर्द्धि यावत् अभिसमन्वागत की है। उसे देवेन्द्र देवराज शक्र भी देखें । देवेन्द्र देवराज शक्र दिव्या देवद्धिं यावत् अभिसमन्यागत की है, उसे हम जानें हमने दिव्य देवर्द्धि यावत् अभिसमन्वागत की है, उसे देवेन्द्र देवराज शक भी जाने। आता है, इसलिए उसके मन में शक की ऋद्धि देखने की उत्सुकता होती है अथवा अपनी ऋद्धि शक्र को दिखाने की उत्सुकता होती है। इसी प्रकार जीवन की अंतिम अवस्था में भी वैसी उत्सुकता होती है वह सोचता है कि दूसरे जीवन में जाने से पहले-पहले मैं शक्र की ऋद्धि देख लूं अथवा अपनी ऋद्धि शक्र को दिखाऊं । शब्द-विमर्श इस प्रकार गौतम! असुरकुमार देव ऊर्ध्वलोक में यात् सौधर्म कल्प तक जाते हैं। चरमभवस्थ - यहां 'चरमभवस्थ' शब्द से जीवन के अंतिम भाग १३२. भन्ते वह ऐसा ही है भन्ते वह ऐसा ही है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल किरिया पर्व १३३. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्या जाव परिसा पडिगया। १३४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी मंडिअपुत्ते नाम अणगारे पगइभद्दए जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी कइ णं भंते! किरियाओ पण्णत्ताओ ? - मंडिअपुत्ता ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - काइया, अहिगरणिआ, पाओसिआ, पारियावणिआ, पाणाइवायकिरिया || तइओ उद्देसो तीसरा उद्देशक : संस्कृत छाया क्रिया-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमासीद यावत्परिषत् प्रतिगता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी मण्डितपुत्रः नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः यावत् पर्युपासमानः एवमवादीत् - कति भदन्त ! क्रियाः प्रज्ञप्ताः ? १३५. काइया णं भंते! किरिया कइविहा कायिकी भदन्त ! क्रिया कतिविधा प्रज्ञप्ता? पण्णत्ता ? मंडअपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहाअणुवरयकायकिरिया य, दुप्पउत्तकायकिरिया य ॥ - मण्डितपुत्रः पञ्चक्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथाकायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातक्रिया । मण्डितपुत्र! द्विधा प्रज्ञप्ता, तद् यथाअनुपरतकायक्रिया च दुष्प्रयुक्तकायक्रिया च । १३६. अहिगरणिआ णं भंते! किरिया कइविहा आधिकरणिकी भदन्त ! क्रिया कतिविधा पण्णत्ता ? प्रज्ञप्ता ? मंडअपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहासंजोयणाहिगरणकिरिया य, निवत्तणाहिगरणकिरिया य ॥ मण्डितपुत्र ! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद् यथासंयोजनाधिकरणक्रिया च निर्वर्तनाधिकरणक्रिया च । - १३७. पाओसिआ णं भंते! किरिया कइविहा प्रादोषिकी भदन्त ! क्रिया कतिविधा प्रज्ञप्ता ? पण्णत्ता ? मंडिअपुत्ता। दुविहा पण्णत्ता, तं जहाजीवपाओस व अजीवपाओसिजा य मण्डितपुत्रः द्विविधा प्रज्ञप्ता तद् यथाजीवप्रादोषिकी च अजीवप्रादोषिकी च। हिन्दी अनुवाद क्रिया-पद १३३. उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर था। भगवान् महावीर वहां पधारे। परिषद् आई यावत् धर्म सुनकर वापिस चली गई। १३४. " उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर का अन्तेवासी शिष्य मण्डितपुत्र नामक अनगार भगवान् के पास आया। वह प्रकृति से भद्र था यावत् भगवान् की पर्युपासना करता हुआ इस प्रकार बोला- भंते! कितनी क्रियाएं प्रज्ञप्त हैं? महितपुत्र पांच क्रियाएं प्रज्ञप्त हैं, जैसे कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी पारितापनिक और प्राणातिपात क्रिया । - १३५. भन्ते ! कायिकी क्रिया कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? मण्डितपुत्र ! वह दो प्रकार की प्रज्ञप्त हैं? जैसेअनुपातकायक्रिया विरतिरहित व्यक्ति की काया की प्रवृत्ति और दुष्प्रयुक्तकायक्रिया-इन्द्रिय और मन के विषयों में आसक्त व्यक्ति की काया की प्रवृत्ति । १३६. भन्ते ! आधिकरणिकी क्रिया कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? - मण्डितपुत्र ! वह दो प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे संयोजनाधिकरणक्रिया पूर्व निर्मित भागों को जोड़कर शस्त्र-निर्माण करने की क्रिया और निर्वर्तनाधिकरणक्रिया-नए सिरे से शस्त्र-निर्माण करने की क्रिया । १३७. भन्ते । प्रादोषिकी क्रिया कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? मण्डितपुत्र ! वह दो प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसेजीव-प्रादोषिकी और अजीव प्रादोषिकी। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३८. पारियावणिआ णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता? मंडिअपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तं जहासहत्थपारियावणिआ य, परहत्थपारियावणिआ य॥ श.३ : उ. ३: सू.१३४-१३६ पारितापनिकी भदन्त! क्रिया कतिविधा १३८. भन्ते! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की प्रज्ञप्ता? प्रज्ञप्त है? मण्डितपुत्र! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद् यथा- मण्डितपुत्र! वह दो प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसेस्वहस्तपारितापनिकी च परहस्तपारितापनिकी स्वहस्तपारितापनिकी और परहस्तपारितापनिकी। च। कइविहा पण्णत्ता? मंडिअपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सहत्थपाणाइवायकिरिया य, परहत्थपाणाइवायकिरिया य ॥ प्राणातिपातक्रिया भदन्त ! क्रिया कतिविधा १३६. प्राणातिपातक्रिया कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? प्रज्ञप्ता? मण्डितपुत्र! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद् यथा- मण्डितपुत्र! वह दो प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसेस्वहस्तप्राणातिपातक्रिया च परहस्तप्राणाति- स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया और परहस्तप्राणातिपापातक्रिया च। तक्रिया। भाष्य १. सूत्र १३४-१३६ से विचार करें, तो अनुपरत कायिकी क्रिया अविरत व्यक्ति के होती है। दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया अविरत और विरत दोनों के होती है, जैन धर्म निष्क्रिय धर्म नहीं है। उसमें सक्रियता और निष्क्रियता प्रमत्त संयति (छठे गुणस्थान के स्वामी) के भी होती हैं। दुष्प्रवृत्ति दोनों का संतुलन है। वह न केवल प्रवृत्तिवादी है और न केवल की दृष्टि से पुरुष निरन्तर सक्रिय रहता है। अविरति सूक्ष्म क्रिया निवृत्तिवादी। उसमें दोनों का समन्वय है। इन दोनों का प्रतिनिधित्व अचेतनस्तर की क्रिया है। दुष्प्रवृत्ति स्थूलक्रिया चेतनस्तर की क्रिया करने वाले दो तत्व हैं-आश्रव और संवर। आश्रव बंध का हेतु है. संवर मोक्ष का हेतु है। आश्रव का सम्बन्ध प्रवृत्ति से है और संवर क्रिया का दूसरा माध्यम है अधिकरण-यंत्र, शस्त्र आदि उसके का सम्बन्ध निवृत्ति से है। अध्यात्म-साधना के प्रारम्भकाल में प्रवृत्ति दो प्रकार हैं-१. संयोजनाधिकरण-यंत्र, शस्त्र आदि के पुजों को और निवृत्ति दोनों रहते हैं। उसका चरम बिन्दु प्राप्त होने पर प्रवृत्ति मिलाना। २. निर्वर्तनाधिकरण-यंत्र, शस्त्र आदि का नया निर्माण का वलय टूट जाता है। केवल निवृत्ति शेष रहती है। करना।' शस्त्र-निर्माण का हेतु अविरति और दुष्प्रवृत्ति दोनों हैं। यदि प्रवृत्ति के दो रूप बनते हैं-शुभ और अशुभ। प्रज्ञापना वृत्ति कायिकी क्रिया न हो, तो आधिकरणिकी क्रिया संभव नहीं होती। के अनुसार प्रस्तुत क्रिया-पञ्चक प्राणातिपात के निष्पादन में समर्थ शस्त्र-निर्माण की पृष्ठभूमि में है-अविरति और निर्माण की प्रक्रिया क्रिया-विशेष से संबंधित है।' क्रिया के प्रस्तुत वर्गीकरण का सम्बन्ध । है-दुष्प्रवृत्ति। अशुभ प्रवृत्ति से है। क्रिया का तीसरा प्रकार है-प्रदोष-क्रोधावेश। मनुष्य क्रिया का अर्थ है-कर्मबन्ध की हेतुभूत चेष्टा।' इसके अनेक नक क्रोधावेशजन्य क्रिया का प्रयोग कभी अपने पर, कभी दूसरे पर और वर्गीकरण हैं। कभी एक साथ दोनों पर करता है। यह है-जीवप्रादोषिकी क्रिया। क्रिया का मुख्य हेतु है-शरीर। इसलिए सबसे पहली क्रिया वृत्तिकार ने केवल क्रोधावेश को ही जीवप्रादोषिकी क्रिया माना है। कायिकी-शरीर से होने वाली प्रवृत्ति है। क्रिया का चिंतन आध्यात्मिक वह क्रोध का प्रयोग अचेतन पदार्थों पर भी करता है। यह दृष्टि से किया गया है। केवल स्थूल प्रवृत्ति ही क्रिया नहीं है, कार्य अजीव-प्रादोषिकी क्रिया है। वृत्तिकार ने केवल क्रोधावेश को भी करने का क्षण ही क्रिया नहीं है, किन्तु कार्य करने की जो रति, आन्तरिक अजीव-प्राटोषिकी क्रिया माना है।" इच्छा या आकांक्षा है, वह भी क्रिया है। प्रदोष के अग्रिम चरण दो हैं-परिताप और प्राणातिपात । इस आधार पर कायिकी क्रिया को दो भागों में विभक्त किया अविरति हिंसा का मौलिक आधार है। शस्त्र हिंसा का बाहरी कारण गया-अनुपरत कायिकी और दुष्प्रयुक्त कायिकी। स्वामित्व की दृष्टि है, प्रदोष हिंसा का आन्तरिक कारण है। परिताप और प्राणातिपात १. प्रज्ञा. बृ. प. ४४४-इह कायिकीनिया औदारिकादिक्रियाश्रिता प्राणातिपातनिर्वर्तनसमा प्रतिविशिष्टा परिग्रहाते, न या काचन कार्मणकायाश्रिता वा। २. भ. वृ. ३/१३४-करणं क्रिया कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टा। ३. द्रष्टव्य, ठाणं २/२-३७ तथा उनका टिप्पण। ४. भ. वृ. ३/१३५-अनुपरतः-अविरतस्तस्य कायक्रियाऽनुपरतकायक्रिया, इयमविरतस्य भवति, 'दुप्पउत्तकायकिरिया य' ति दुष्टं प्रयुक्तो दुःप्रयुक्तः स चासौ कायश्च दुःप्रयुक्तकायस्तस्य क्रिया दुःप्रयुक्तकायक्रिया अथवा दुष्टं प्रयुक्त प्रयोगो यस्य दुःप्रयुक्तस्तस्य कायक्रिया दुःप्रयुक्तकायक्रिया, इयं प्रमत्तसंयतस्यापि भवति, विरतिमतः प्रमाद सति कावदुष्टप्रयोगस्य सद्भावात्। ५. भ. वृ. ३/१३६-संयोजन-हल-गर-विष-कूटयंत्राद्यङ्गानां पूर्वनिर्वर्त्तितानां मीलनं तदेवाधिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया 'निव्बत्तणाहिगरणकिरिया य' ति, निर्वर्तनं-असिशक्तितोमरादीनां निष्पादनं तदेवाधिकरणक्रिया निवर्त्तनाधिकरणक्रिया। ६. भ. वृ. ३/१३७-जीवस्य-आत्मपरतदुभयरूपस्योपरि प्रदेषाद् या क्रिया प्रद्वेषकरणमेव था, 'अजीवपाउसिया यत्ति अजीवस्योपरि प्रद्वेषाद् या क्रिया प्रदेषकरणमेव वा। Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श.३ : उ.३ : सू. १३४-१४२ ये दोनों हिंसा के प्रकार हैं। पीड़ा देना परिताप है और प्राण-वियोजन करना प्राणातिपात है। मनुष्य अपने हाथ से स्वयं को पीड़ित करता है, दूसरे को पीड़ित करता है अथवा दोनों को पीड़ित करता है, यह स्वहस्तपारितापनिकी क्रिया है। कुछ चिंतकों का मत है-जैन लोग शरीर को सताते हैं और शरीर को पीड़ा देने में धर्म मानते हैं। यह मत समीचीन नहीं है। अपने शरीर को पीड़ा देना उतना ही अधर्म है जितना कि दूसरे के शरीर को पीड़ा पहुंचाना है। यह स्वहस्तपारितापनिकी क्रिया है। इससे अशुभ कर्म का बन्ध होता है। अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या करना अपने शरीर को परिताप देना नहीं है। जहां परिताप की अनुभूति हो वहां तपस्या का स्वरूप बदल जाता है। दूसरे के हाथ से स्वयं को, किसी दूसरे को अथवा दोनों को भगवई पीड़ा पहुंचाने का प्रयत्न परहस्तपारितापनिकी क्रिया है। अपने हाथ से अपना, दूसरों का या दोनों का प्राणवियोजन करना स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया है। दूसरे के हाथ से अपना, दूसरे का अथवा दोनों का प्राणवियोजन करना परहस्तप्राणातिपातक्रिया है। प्राणातिपातक्रिया की पृष्ठभूमि में भी प्रादोषिकी क्रिया है। कुछ लोग समाधिमरण के लिए किए जाने वाले अनशन को भी आत्महत्या बतलाते हैं, यह सम्यक् नहीं है। अनशन अपने हाथ से अपने प्राणों का वियोजन नहीं है। वह समाधि की साधना है। साधना करते-करते प्राण का वियोजन हो जाता है, किन्तु लक्ष्य नहीं है। आत्महत्या वह हो सकती है जिसके पीछे प्रादोषिकी क्रिया जुड़ी हुई है। किरिया-वेदणा-पदं क्रिया-वेदना-पदम् क्रिया-वेदना-पद १४०. पुट्विं भंते! किरिया, पच्छा वेदणा? १४०. पूर्वं भदन्त! क्रिया, पश्चाद् वेदना? १४०. 'भंते! क्या पहले क्रिया और पीछे वेदना पुट्विं वेदणा, पच्छा किरिया ? पूर्वं वेदना, पश्चात् क्रिया? होती है? अथवा पहले वेदना और पीछे क्रिया होती है? मंडिअपुत्ता! पुव्विं किरिया, पच्छा वेदणा। मण्डितपुत्र! पूर्व क्रिया, पश्चाद् वेदना। नो मण्डितपत्र! पहले क्रिया और पीछे वेदना होती णो पुट्विं वेदणा, पच्छा किरिया ॥ पूर्व वेदना, पश्चात् क्रिया। है। पहले वेदना और पीछे क्रिया नहीं होती। अस्ति भदन्त ! श्रमणैः निर्ग्रन्थैः क्रिया क्रियते? १४१. भन्ते! क्या श्रमण-निर्ग्रन्थों के क्रिया होती १४१. अत्थि णं भंते! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ? हंता अस्थि ॥ हन्त अस्ति। हां, होती है। १४२. कहण्णं भंते! समणाणं निग्गंथाणं कथं भदन्तः श्रमणेः निर्ग्रन्थेः क्रिया क्रियते? १४२. भन्ते! श्रमण-निर्ग्रन्थों के क्रिया कैसे होती किरिया कज्जइ? मंडिअपुत्ता! पमायपच्चया, जोगनिमित्तं च। मण्डितपुत्र! प्रमादप्रत्ययाद्, योगनिमित्तं च। मण्डितपुत्र! उसका प्रत्यय है-प्रमाद और उसका एवं खलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया एवं खल श्रमणे: निर्ग्रन्थैः क्रिया क्रियते।। निमित्त है योग। इस प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के कज्जइ ॥ प्रमाद और योग-इन दो हेतुओं से क्रिया होती भाष्य १. सूत्र १४०-१४२ क्रिया और वेदना में कार्य-कारण-भाव का सम्बन्ध है। वृत्तिकार ने क्रिया के दो अर्थ किए हैं-क्रिया से होने वाला कर्मबंध अथवा क्रिया को ही कर्मबंध कहा जा सकता है। वेदना का अर्थ है-क्रिया का अनुभव। अनुभव कर्मपूर्वक ही होता है। यदि कर्म नहीं है तो अनुभव किसको हो? प्रश्न यह है कि मंडितपुत्र ने यह जिज्ञासा क्यों की? क्रिया बीज है और वेदना उसका फल है। बीज के बिना फल कहां से १. भ. ७. ३/१४०-क्रिया करणं तज्जन्यत्वात्कापि क्रिया, अथवा क्रियत इति क्रिया कर्मव, वेदना तु कर्मणोऽनुभवः, सा च पश्चादेव भवति कर्मपूर्वकत्वात्तदनुभवनस्येति ॥ होगा? इस सचाई को एक सामान्य मनुष्य भी जानता है। इस जिज्ञासा के पीछे हेतु क्या है? “वेदना" शब्द के दो अर्थ हैं-दुःख और अनुभव। अहेतुक दुःखवादी हेतु के बिना ही दुःख का होना मानते हैं। परिस्थितिवादी दुःख को परिस्थितिजनित मानते हैं। इन विकल्पों को ध्यान में रखकर मंडितपुत्र ने प्रश्न किया-दुःख क्रियापूर्वक होता है या दुःख होने के पश्चात् कोई क्रिया होती है? भगवान् ने इसका उत्तर दिया-दुःख कार्य है, इसलिए वह पश्चात् होता है, क्रिया कारण है, इसलिए वह पूर्व होती है। Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६५ इसकी व्याख्या का दूसरा नय यह हो सकता है-क्रिया का अर्थ है-आश्रव और वेदना का अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का संबन्ध। आश्रव और कर्म का पौर्वापर्य जानने के लिए यह प्रश्न पूछा गया। उसके उत्तर में भगवान् ने कहा-पहले आश्रव होता है और फिर वेदना-कर्म-पुद्गलों के स्कन्ध का बंध होता है। धवला में वेदना श.३: उ.३ : सू. १४०-१४५ की व्युत्पत्ति वर्तमान और भविष्य दोनों काल-खण्डों में की है-जिसका वेदन किया जाता है अथवा जिसका वेदन किया जाएगा, वह है वेदना।' प्रमाद-प्रत्यय और योगनिमित्त की विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य भ. वि. खण्ड १,१/१४०-१४६ का भाष्य। अंतकिरिया-पदं १४३. जीवे णं भंते! सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ? अन्तक्रिया-पदम् जीवः भदन्त! सदा समितम् एजति व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं तं भावं परिणमति? अन्तक्रिया-पद १४३. भन्ते! क्या जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त होता है तथा उस भाव (परिणाम) में परिणत होता है? हाँ, मण्डितपुत्र! जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत होता है। हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं भंते! सया हन्त मण्डितपुत्र! जीवः सदा समितम् एजति समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति खुब्मइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ ॥ उदीरयति तं तं भावं परिणमति। १४४. जावं च णं भंते! से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ? यावच्च भदन्त! स जीवः सदा समितम् एजति व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं तं भावं परिणमति, तावच्च तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया भवति? १४४. भन्ते! जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत होता है तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया होती है? यह अर्थ संगत नहीं है। नो इणटे समटे ॥ नायमर्थः समर्थः । १४५. से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ-जावं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-यावच्च १४५. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति स जीवः सदा समितम् एजति व्येजति है-जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स तं भावं परिणमति, तावच्च तस्य जीवस्य प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में अंते अंतकिरिया न भवति? अन्ते अन्तक्रिया न भवति? परिणत होता है, तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती? मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया मण्डितपुत्र! यावच्च स जीवः सदा समितम् मण्डितपुत्र! जब वह जीव सदा एक साथ एजन, समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ एजति व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा खुन्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं उदीरयति तं तं भावं परिणमति, तावच्च को प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) च णं से जीवे-आरभइ सारभइ समारभइ, स जीवः-आरभते संरभते समारभते, आरम्भे में परिणत होता है तब वह जीव आरम्भ करता आरंभे वट्टइ सारंभे वट्टइ समारंभे वट्टइ, वर्तते संरम्भे वर्तते समारम्भे वर्तते, आरभमाणः है, संरम्भ करता है और समारंभ करता है। वह आरभमाणे सारभमाणे समारभमाणे, आरंभे संरभमाणः समारभमाणः, आरम्भे वर्तमानः आरम्भ में प्रवृत्त रहता है, संरम्भ में प्रवृत्त रहता वट्टमाणे सारंभे वट्टमाणे समारंभे वट्टमाणे संरम्भे वर्तमानः समारम्भे वर्तमानः बहूनां । है और समारम्भ में प्रवृत्त रहता है। वह आरम्भ बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानां दुक्खापनाय करता हुआ, संरम्भ करता हुआ और समारम्भ दुक्खावणयाए सोयावणयाए जूरावणयाए शोकापनाय जूरापनाय 'तिप्पावणयाए पिट्टा- करता हुआ, आरम्भ में प्रवृत्त रहता हुआ, संरम्भ तिप्पावणयाए पिट्टावणयाए परियावणयाए वणयाए' परितापनाय वर्तते। में प्रवृत्त रहता हुआ और समारम्भ में प्रवृत्त रहता वट्टइ। हुआ अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी बनाता है, शोकाकुल करता है, जुराता (शरीर को जीर्ण अथवा खेदखिन्न करता है, रुलाता है, पीटता है और परिताप देता है। १. ष. ख. धवला, पु. ११/ख ४/भा. २/सू. १०/पृ ३०२-वेद्यते वेदिष्यते इति वेदना शब्द: सिद्धः। अविहकम्मपोग्गल खंधो वेवणा। Jain Education Intemational ate & Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ भगवई श.३ : उ.३: सू.१४५-१४८ से तेणटेणं मंडिअपुत्ता! एवं बुच्चइ-जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति ॥ तत् तेनार्थेन मण्डितपुत्र! एवमुच्यते-यावच्च स जीवः सदा समितम् एजति व्येजति चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं तं भावं परिणमति, तावच्च तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया न भवति। मण्डितपुत्र! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जब तक जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त होता है तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत होता है, तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती। जीवः भदन्त! सदा समितम् न एजति न व्येजति न चलति न स्पन्दते न घटते न क्षुभ्यति न उदीरयति न तं तं भावं परिणमति? १४६. जीवे णं भंते! सया समितं नो एयति नो वेयति नो चलति नो फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ नो उदीरइ नो तं तं भावं परिणमइ? हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं सया समितं नो एयति नो वेयति नो चलति नो फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ नो उदीरइ नो तं तं भावं परिणमइ ॥ हन्त मण्डितपुत्र! जीवः सदा समितं न एजति न व्येजति न चलति न स्पन्दते न घटते न क्षुभ्यति न उदीरयति । तं तं भावं परिणमति। १४६. भन्ते! क्या जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत नहीं होता है? हां, मण्डितपुत्र! जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव (परिणाम) में परिणत नहीं होता है। १४७. जावं च णं भंते! से जीवे नो एयति यावच्च भदन्त! स जीवः न एजति न नो वेयति नो चलति नो फंदइ नो घट्टइ व्येजति न चलति न स्पन्दते न घटते न नो खुन्मइ नो उदीरइ नो तं तं भावं क्षुभ्यति न उदीरयति न तं तं भावं परिणमति, परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते ___तावच्च तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया अंतकिरिया भवइ? भवति? हंता मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे नो हन्त मण्डितपुत्र! यावच्च स जीवः न एजति एयति नो वेयति नो चलति नो फंदइ नो न व्येजति न चलति न स्पन्दते न घटते घट्टइ नो खुब्भइ नो उदीरइ नो तं तं भावं न क्षुभ्यति न उदीरयति न तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते परिणमति, तावच्च तस्य जीवस्य अन्ते अंतकिरिया भवइ ॥ अन्तक्रिया भवति। १४७. भन्ते! क्या जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्ये जन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव में परिणत नहीं होता, तब उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया हो जाती है? हां, मण्डितपुत्र! जब वह जीव एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता है तथा उस-उस भाव में परिणत नहीं होता, तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया हो जाती है। १४८. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-जावं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-यावच्च १४८. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा च णं से जीवे नो एयति नो वेयति नो स जीवः न एजति न व्येजति न चलति है-जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलति नो फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ नो न स्पन्दते न घटते न क्षुभ्यति न उदीरयति चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा को उदीरइ नो तं तं भावं परिणमइ, तावं च न तं तं भावं परिणमति, तावच्च तस्य प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव (परिणाम) णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ? जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया भवति? में परिणत नहीं होता, तब उस जीव के अन्तिम समय में अन्तक्रिया हो जाती है? मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया मण्डितपुत्र! यावच्च स जीवः सदा समितं । मण्डितपुत्र! जब वह जीव सदा प्रतिक्षण एजन, समितं नो एयति नो वेयति नो चलति न एजति न व्येजति न चलति न स्पन्दते व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा नो फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ नो उदीरइ न घटते न क्षुभ्यति न उदीरयति न तं को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव में नो तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं से तं भावं परिणमति, तावच्च स जीवः-नो परिणत नहीं होता, तब वह जीव न आरम्भ जीवे-नो आरभइ नो सारभइ नो समारभइ, 'आरभते नो संरभते नो समारभते, नो करता है, न संरम्भ करता है, न समारंभ करता नो आरंभे बट्टइ नो सारंभे वट्टइ नो आरम्भे वर्तते नो संरम्भे वर्तते नो समारम्भे है। वह न आरम्भ में प्रवृत्त होता है, न संरम्भ समारंभे वट्टइ, अणारभमाणे असारभमाणे वर्तते, अनारमभाणः असंरभमाणः असमार- में प्रवृत्त होता है, न समारम्भ में प्रवृत्त होता असमारभमाणे, आरंभे अवट्टमाणे सारंभे म्भमाणः, आरम्भेऽवर्तमानः संरम्भेऽवर्तमानः है। वह आरम्भ नहीं करता हुआ, संरम्भ नहीं अवट्टमाणे समारंभे अवट्टमाणे बहूणं पाणाणं समारम्भेऽवर्तमानः बहूनां प्राणानां भूतानां करता हुआ, समारम्भ नहीं करता हुआ, आरम्भ भूयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खावणयाए जीवानां सत्त्वानाम् अदुक्खापनाय अशोका- में अवर्तमान, संरम्भ में अवर्तमान, समारम्भ में असोयावणयाए अजूरावणयाए अतिप्पा- पनाय अजूरापनाय 'अतिप्पावणयाए अपिट्टा- अवर्तमान होकर अनेक प्राण, भूत, जीव और वणयाए अपिट्टावणयाए अपरियावणसाए वणयाए' अपरितापनाय वर्तते। सत्त्वों को दुःखी नहीं बनाता, शोकाकुल नहीं वट्टइ। Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ! से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयसि पविखज्जा से नूर्ण मडिअपुत्ता से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्यामेव मसमसाविज्ज हंता मसमसाविन्जइ । से जहानामए केइ पुरिसे तत्तख अपकवत्तंसि उदयबिंदु पविखवेज्जा से नूणं मंडिअपुत्ता से उदयबिंदू तत्तति अपकवल्लसि पक्विवेत्ते समाणे खिप्यामेव विद्धसमागच्छइ ? हंता विद्धसमागच्छर । से जहानामए हरए सिया पुष्णे पुण्णष्यमाणे बोलमाणे बोसट्टमाणे समभरघडत्ताए विद्वति । अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरयसि एवं महं नावं सतासवं सतच्छिदं ओगाज से नूणं मंडिअपुत्ता! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी- आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा बोलट्टमाणा वोखट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति ? हंता चिट्ठति । अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वओ समंता आसवदाराई पिहेड, पिठेत्ता नावा उचिणएणं उदयं उरिसचेन्जा से नूणं मंडिअपुत्ता! सा नावा तंसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणंसि खिप्पामेव उदाइ ? हंता उदाइ। एवामेव मंडिअपुत्ता! अत्तत्ता-संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स सणास मयस्स आयाणभंडमत्तनिक्खे वणासमियरस उच्चार पासवण खेल-सिंघाण- जल्ल-पारिट्ठवणियासमियस्स मणसमियस्स वइसमयस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वहगुत्तरस कायगुत्तस्स गुत्तस्स गुत्तिदियस्स गुत्तबं भयारिस्स, आउत्तं गच्छमाणस्स चिमाणस्स निसीयमाणस्स तुयमाणस्स आउत वत्थ पडिग्गह- कंबल पायपुंछणं गेहमाणस्स निक्खिवमाणस्स जाव चक्खुपम्हनिवायमवि वेमाया सुहुमा इरियावहिया किरिया कज्जइ-सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, बितियसमयवेइया, ततियसमयनिज्जरिया । सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया निज्जिण्णा ६७ तद् यथानाम कश्चित् पुरुषः शुष्कं तृणहस्तकं जाततेजसि प्रक्षिपेत् तन्नूनं मण्डितपुत्रः तत् शुष्कं तृणहस्तकं जाततेजसि प्रक्षिप्तं सत् क्षिप्रमेव मसमसायते? हन्त मसमसायते । ! तद्यथानाम कश्चित् पुरुषः तप्ते अयस्कपाले उदकविन्दु प्रक्षिपेत् तन्नूनं मण्डितपुत्र स उदकबिन्दुः तप्ते अवस्कपाले प्रक्षिप्तः सन् क्षिप्रमेव विध्वंसमागच्छति ? हन्त विध्वंसमागच्छति। तद् यथानाम हृदः स्वात् पूर्णः पूर्णप्रमाणः व्युपलोटन् विकसन्! समभरघटतया तिष्ठति । अथ कश्चित् पुरुषः तस्मिन् हदे एकां महतीं नावं शताखयां शतछिद्राम् अवगाहयेत् तन्नून मण्डितपुत्रः सा नीः तैः आस्रवद्वारैः आपूर्यमाणा आपूर्यमाणा पूर्णा पूर्णप्रमाणा व्युपलोटयन्ती विकसन्ती समभरघटतया तिष्ठति ? हन्त तिष्ठति । तद् कश्चित् पुरुषः तस्याः नावः सर्वतः समन्ताद् आखवद्वाराणि पिदधाति, विधाय नासेचनकेन उदकम् उत्सिंचेत् तन्नून मण्डितपुत्र ! सा नौः तस्मिन् उदके उत्सिक्ते सति क्षिप्रमेव उद्याति? हन्त उद्याति । एवमेव मण्डितपुत्र ! आत्मात्मसंवृतस्य अनगारस्य ईयसमितस्य भाषासमितस्य एषणासमितस्य आदानभाण्डामात्रनिक्षेपणा समितस्य उच्चारप्रस्रवण क्ष्वेड- सिंघाण 'जल्ल'- परिष्ठापनिकासमितस्य मनः समितस्य वाक्समितस्य कायसमितस्य मनोगुप्तस्य वाग्गुप्तस्य कायगुप्तस्य गुप्तस्य गुप्तेन्द्रियस्य गुप्तब्रह्मचारिणः आयुक्तं गच्छतः तिष्ठतः (चेष्टतः) निषीदत त्याग्वर्तयतः आयुक्त वस्त्र-प्रतिग्रह कम्बल पादप्रीञ्छन गृहतः निक्षिपतः यावत् चक्षुःपक्ष्मनिपातमपि विमात्रा सूक्ष्मम् ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते - सा प्रथमसमयबद्धस्पृष्टा, द्वितीयसमयवेदिता, तृतीयसमयनिर्जरिता । सा बद्धा स्पृष्टा उदीरिता वेदिता निर्जीर्णा एष्यत्काले अकर्म - श. ३ : उ. ३ : सू. १४८ करता, न जुराता (शरीर को जीर्ण अथवा खेदखिन्न नहीं करता) न रुलाता, न पीटता और न परिताप देता है। जैसे कोई व्यक्ति सूखे तृणपूले को अग्नि में प्रक्षिप्त करे, तो क्या मण्डितपुत्र वह सूखा तृणपूला अग्नि में प्रक्षिप्त होने पर शीघ्र ही जल जाता है? हां, वह शीघ्र ही जल जाता है। जैसे कोई पुरुष तपे हुए तवे पर जल-विन्दु गिराए, तो क्या मण्डितपुत्र ! वह जल-बिन्दु तपे हुये तवे पर गिरने पर शीघ्र ही विध्वंस को प्राप्त होता है ? हां, वह विध्वंस को प्राप्त होता है। मण्डितपुत्र ! जैसे कोई ग्रह (नद) जल से भरा हुआ, परिपूर्ण, छलकता हुआ, हिलोरे लेता हुआ, चारों ओर से जल जलाकार हो रहा है। कोई व्यक्ति उस ग्रह में एक बहुत बड़ी, सैंकड़ों आश्रवों और सैंकड़ों छिद्रों वाली नौका को उतारे तो क्या मण्डितपुत्र वह नौका इन आधव-द्वारों के द्वारा जल से भरती हुई - भरती हुई परिपूर्ण हो जाती है, भर जाती है ? छलकती हुई, हिलोरें लेती हुई चारों ओर से जल जलाकार हो जाती है? हां, हो जाती है। यदि कोई पुरुष उस नौका के आश्रवद्वारों को चारों ओर से रोक देता है। उन्हें रोक कर नौका के उत्सेचनक द्वारा जल को उलीच दे, तो क्या मण्डितपुत्र वह नौका उस पानी के बाहर निकल जाने पर शीघ्र ही ऊपर आ जाती है? हां आ जाती है। मण्डितपुत्र ! इसी प्रकार जो अनगार आत्मना संवृत है, विवेकपूर्वक चलता है, विवेकपूर्वक बोलता है, विवेकपूर्वक आहार की एषणा करता है, विवेकपूर्वक वस्त्र पात्र आदि को लेता और रखता है, विवेकपूर्वक मलमूत्र, श्लेष्मा, नाक के मेल, शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता है, मन की संगत प्रवृत्ति करता है, वचन की संगत प्रवृत्ति करता है, शरीर की संगत प्रवृत्ति करता है, मन का निरोध करता है, वचन का निरोध करता है, शरीर का निरोध करता है, अपने आप को सुरक्षित रखता है, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता है, उसके उपयोगपूर्वक चलते, खड़े रहते, बैठते और सोते तथा उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद- प्रछन लेते-रखते समय और यावत् उन्मेष-निमेष Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ श.३: उ.३ : सू. १४३-१४८ सेयकाले अकम्म वावि भवति। से तेणद्वेणं चापि भवति। तत् तेनार्थेन मण्डितपुत्र! मंडिअपुत्ता! एवं वुच्चइ-जावं च णं से एवमुच्यते-यावच्च स जीवः सदा समितं नो । जीवे सया समितं नो एयति नो वेयति एजति नो व्येजति नो चलति नो स्पन्दते नो चलति नो फंदई नो घट्टइ नो खुन्भइ नो घटते नो क्षुभ्यति नो उदीरयति नो तं नो उदीरइ नो तं तं भावं परिणमइ, तावं तं भावं परिणमति, तावच्च तस्य जीवस्य च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया अन्ते अन्तक्रिया भवति। भवइ॥ भगवई करते समय भी विविध मात्रा वाली सूक्ष्म ऐपिथिकी क्रिया होती है-वह प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट होती है, दूसरे समय में उसका वेदन होता है, तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाती है। वह बद्ध, स्पृष्ट, उदीरित, वेदित, निर्जीर्ण तथा अगले समय में अकर्म भी हो जाती है। मण्डितपुत्र! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जब जीव सदा प्रतिक्षण एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा नहीं करता तथा उस-उस भाव में परिणत नहीं होता, तब उस जीव के अंतिम समय में अन्तक्रिया होती है। भाष्य १. सूत्र १४३-१४८ होता है। उसकी स्थिति मात्र दो समय की होती है। प्रथम समय प्रथम शतक (सूत्र ३६१) में अन्तक्रिया का प्रयोग 'मोक्षगति' में सात वेदनीय कर्म का बंध होता है, दूसरे समय में उसका वेदन के अर्थ में किया गया है। वृत्तिकार ने यहां अन्तक्रिया का अर्थ 'जिसमें और तीसरे समय में उसका निर्जरण हो जाता है। आयस्थिति तक सब कर्मों का क्षय हो जाए वह अवस्था' किया है। इस पूरे आलापक यह क्रम चलता है; आयुस्थिति की सम्पन्नता के क्षणों में योग-निरोध में अंतक्रिया का स्वरूप निरूपित है। एक प्रश्न सर्वसाधारण है-क्रिया की स्थिति बनती है, अयोग-अवस्था का निर्माण होता है, उस अवस्था से कर्म का बंध होता है। जब तक बन्ध होता है. तब तक मोक्ष में कर्मबंध सर्वथा निरुद्ध हो जाता है। यह अन्तक्रिया का दसरा चरण नहीं हो सकता: इस अवस्था में मोक्ष कैसे होगा? प्रस्तत आलापक है। तीसरे चरण में अन्तक्रिया सम्पन्न हो जाती है। सब कर्मों से में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है-क्रिया और अन्तक्रिया के मध्य मुक्त अवस्था प्राप्त हो जाती है। एक अक्रिया की अवस्था है। क्रिया से अन्तक्रिया नहीं हो सकती, शब्द-विमर्श अक्रिया की स्थिति का निर्माण होने पर ही अन्तक्रिया (मोक्ष) हो सकती सदा समित-सर्वदा, प्रतिक्षण। इसकी मीमांसा भ. १/३१४-३१६ एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, क्षोभ और उदीरणा-ये के भाष्य में की जा चुकी है। 'समित' शब्द के चार अर्थ उपलब्ध सब क्रिया की विभिन्न अवस्थाएं हैं। इनके द्वारा जीव नाना रूपों होते हैंमें परिणत होता रहता है। यह क्रिया का चक्र चलता रहता है तब १. समित--सप्रमाण। तक जीवन के अन्तकाल में भी अन्तक्रिया नहीं होती। इसका हेतु २. समित-सम्यक् प्रवृत्त। यह है कि क्रिया में वर्तमान जीव आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ का ३. समित-संगठित। प्रयोग करता है, हिंसा में प्रवृत्त होता है, इसलिए उसकी अन्तक्रिया ४. समित-प्रतिक्षण। नहीं होती। प्रस्तुत प्रसंग में यद्यपि वृत्तिकार ने 'समित' का 'सप्रमाण' अर्थ एजन, व्येजन आदि क्रिया की निवृत्ति होने पर आरम्भ, संरम्भ किया है। किन्तु यहां 'प्रतिक्षण' अर्थ अधिक संगत लगता है। छठे और समारम्भ निवृत्त हो जाते हैं। इस स्थिति में पहले सूक्ष्म क्रिया शतक की वृत्ति में वृत्तिकार ने बतलाया है-सदा का अर्थ है सर्वदा। की अवस्था आती है और अन्त में अन्तक्रिया हो जाती है। किन्तु असातत्य में भी व्यवहार में 'सदा' शब्द का प्रयोग किया जाता एजन आदि प्रवृत्ति का निरोध करने पर जो कर्म का विलय है, अतः सातत्य को प्रकट करने के लिए नैरन्तर्यवाची ‘समित' शब्द होता है, उसे अग्नि में डाले हुए सखे तणपुलक, गरम तवे पर गिरे का प्रयोग किया गया है। हुए जल-बिंदु और निश्छिद्र नौका-इन तीन दृष्टान्तों द्वारा समझाया एजन-कम्पन। गया है। व्येजन-विशिष्ट या विविध कम्पन। अन्तक्रिया की प्रक्रिया का पहला चरण है-वीतराग-अवस्था। चलन-स्थानान्तर-गमन। वीतराग के कषाय नहीं होता, इसलिए उसके कषाय-जनित सांपरायिकी स्पन्दन-किञ्चित् चलन। कुछ आचार्यों ने इसका अर्थ 'किसी क्रिया समाप्त हो जाती है। केवल ऐपिथिकी क्रिया चालू रहती है। अन्य अवकाश में जाना, फिर वहीं लौट आना' किया है। उससे सात वेदनीय कर्म का बन्ध होता रहता है। यह बन्ध अल्पकालिक घट्टन-सब दिशाओं में चलना अथवा दूसरे पदार्थ का स्पर्श १. भ. वृ. ३/१४४-अंतकिरियत्ति सकलकर्मक्षयरूपा। ५. भ. वृ. ६/२०-'सया समिय'ति 'सदा' सर्वदा, सदात्वं च व्यवहारतोऽसातत्येऽपि २. भ. १८/१५६, १६०। स्यादित्यत समितं सन्ततम्।। ३. भ. वृ. ३/१४३-'समियंति सप्रमाणम्। ६. वही, ३/१४३-अन्यमवकाशं गत्वा पुनस्तत्रैवागच्छतीत्यन्ये। ४. द्रष्टव्य भ. १/३१४-३१६ का भाष्य। Jain Education Intemational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई करना। क्षोभ-किसी वस्तु में प्रवेश करना। उदीरणा-प्रेरणा। उदीरणा के पश्चात् विभिन्न रूपों में परिणमन की बात कही गई है। इससे यह कल्पना की जा सकती है कि एजन, व्येजन-ये सब परिणमन की पूर्व अवस्थाएं हैं। एजन से परिणमन का प्रारम्भ होता है, वह उदीरणा तक चलता है और इस अवस्था-सप्तक के पश्चात् एक परिणामान्तर होता है। पूर्ववर्ती परिणमन विसर्जित और उत्तरवर्ती परिणमन प्राप्त हो जाता है। यह परिणमन व्यञ्जन पर्याय है, जीव की पुद्गल सहचरित सक्रियता है। उस स्थिति में अन्तक्रिया नहीं होती। आरम्भ-वध अथवा प्रवृत्ति का प्रारम्भ । संरम्भ-वध का संकल्प। समारम्भ-परिताप ।' आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ में प्रवृत्त जीव दूसरे जीवों को नाना प्रकार का कष्ट देता है। दुःखापन-मारना अथवा इष्ट का वियोग कर दुःखित करना। शोकापन-शोक या दैन्य की अवस्था में डाल देना। जूरावण-खेदखिन्न कर देना अथवा शरीर को जीर्ण बना देना। संस्कृत में 'जूर' धातु है। उसका अर्थ है वयोहानि, बुढ़ापे की ओर जाना। आचार्य हेमचन्द्र ने 'खिद्' धातु को भी 'जूर' आदेश किया है। इसके आधार पर 'जूर' का अर्थ खेद उत्पन्न करना भी होता है। तिप्पावण-अश्रुमोचन करवाना। पिट्टावण-पीटना। परितावण-परिताप देना। तृण-हस्तक-तृण का पूला। यहां हस्तक शब्द समूह के अर्थ में है। मसमसाविज्जइ-यह देशी क्रियापद है। इसका अर्थ है 'शीघ्र जलाना'। अयकवल्ल-लोहे का तवा अथवा लोहे की कढ़ाई। वोलट्टमाणे वोसट्टमाणे-द्रष्टव्य भ. १३१३ का भाष्य। २. ऐर्यापथिकी क्रिया श.३ : उ.३ : सू.१४३-१४८ प्रस्तुत आगम में 'ऐपिथिकी क्रिया' का प्रयोग पन्द्रह स्थानों पर हुआ है। 'ईपिथबन्ध' का प्रयोग चार स्थानों पर हुआ है। वृत्तिकार ने ईर्यापथ का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ गमनमार्ग किया है। ऐपिथिकी अर्थात् गमन-मार्ग में होने वाली क्रिया। इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ 'केवल. (कषाय शून्य) योग से होने वाली क्रिया' किया है। इस क्रिया से केवल सात वेदनीय कर्म का बंध होता है। वृत्तिकार के अनुसार-उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली क्रमशः ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान के स्वामी (गुणस्थानत्रयवर्ती वीतराग) के ऐपिथिकी क्रिया होती है। वृत्तिकार के इस अर्थ का आधार सूत्र में प्राप्त यह कसौटी है- 'जस्स णं कोहमाणमायालोभा वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ ॥" व्यवच्छिन्न का अर्थ है-'क्षीण होना।' जयाचार्य ने इसका अर्थ 'उपशान्त होना' भी किया है। ग्यारहवें गुणस्थान में मोह उपशांत होता है। इसलिए वोच्छिण्ण का अर्थ केवल क्षीण होना ही नहीं किया जा सकता। ऐपिथिकी क्रिया का संबंध केवल गमन-मार्ग से नहीं है। चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना आदि स्थूल क्रिया और उन्मेष-निमेष अथवा पलक झपकने जैसी सूक्ष्म क्रिया के साथ भी इसका सम्बन्ध है, इसलिए ईर्यापथ का अर्थ व्यापक संदर्भ में करना चाहिए। ईर्यापथ अर्थात् जीवन-व्यवहार के लिए होने वाली क्रिया। उससे जो कर्म का बंध होता है, उसका नाम है ऐर्यापथिकी क्रिया। यह क्रिया विमात्र-विविधमात्रा वाली होती है। वृद्धव्याख्या में विमात्रा का अर्थ अल्पमात्रा किया गया ऐपिथिकी क्रिया में होने वाले कर्म-बन्ध की प्रक्रिया का निर्देश सूत्र में साक्षात् मिलता है-प्रथम समय में कर्म का बंध और स्पर्श होता है। कर्म-प्रायोग्य परमाणु-स्कन्धों का कर्म रूप में परिणमन होना 'बद्ध अवस्था' है। जीव-प्रदेशों के साथ उनका स्पर्श होना 'स्पृष्ट अवस्था' है। द्वितीय समय में बद्ध कर्म का वेदन होता है, तृतीय समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। सूत्रकार ने वाक्यान्तर में द्वितीय समय की अवस्था को उदीरिया वेइया इन दो शब्दों के द्वारा निर्दिष्ट किया १. (क) भ. वृ. ३/१४७ आह च 'संकप्पो संरंभो परितावकरी भवे समारंभो। आरंभों उद्दवओ सब्बनयाणं विसुद्धाणं ।' (ख) देखें-ठाणं ७/८४-८६ का टिप्पण। २. आप्टे-जूर-To grow old. ३. हेमशब्दानुशासनम्-८/४/१३२॥ ४. भ. १/४४, १४५: ३/१४८, ७/४, ५, २०, २१, १२५, १२६, १०/११, १४, १८/१५६, १६०। ५. भ. वृ. ३/१४८-'ईरियावहिय'ति ईपिथो-गमनमार्गस्तत्र भवा ऐयापथिकी केवलयोगप्रत्ययेति भावः। ६. वही ३/१४८-उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणगुणस्थानकत्रयवर्ती वीतरागोऽपि हि सक्रियत्वात्सातवेद्यं कर्म बघ्नातीति भावः। ७. भ. ७/१२६. ८. भ. जो. १२१/८-क्रोध मान माया लोभ ते, विच्छेद गया हे जास। उपशमन अथवा क्षय थया, इरियावहिया तास ॥ ६. (क) भ. वृ. ३/१४८-एतदेव वाक्यान्तरेणाह-सा बद्धा स्पृष्टा प्रथमे समये, द्वितीये तु 'उदीरिता' उदयमुपनीता, किमुक्तं भवति? वेदिता, न होकस्मिन् समये बन्ध उदयश्च संभवतीत्येवं व्याख्यातं। (ख) उत्तर. २६,७२-पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ? पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं नाणदंसणचरित्ताराहणयाए अब्भुटेइ । अढविहस्स कम्मस्स कम्मगंठिविमीयणयाए तप्पढमयाए जहाणपब्बिं अट्ठबीसइविहं मोहणिज्ज कम्मं उग्धाएइ, पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दंसणावरणिज्ज पंचविह अंतराय एए तिन्नि वि कम्मसे जुगवं खवेइ। तओ पच्छा अणुत्तरं अणंतं कसिणं पडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्ध लोगालोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं समप्पाडेड। जाव सजोगी भवइ ताव य इरियावहियं कम्मं बंधइ सुहफरिसं दुसमयठिइयं । तं पढमसमए बद्ध बिइयसमए वेइयं तइयसमए निज्जिण्णं तं बद्धं पुट्ठ उदीरियं वेइयं निजिषण सेयाले य अकम्म चावि भवइ। Jain Education Intemational Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३:उ.३ :सू.१४३-१५० ७० भगवई है। इसका तात्पर्य है कि कर्म का उदय और वेदन ये दोनों अवस्थाएं अकर्म हो जाता है, तब वह निर्जीर्ण होता है। यह निश्चय नय का द्वितीय समय में होती है। जिस समय में बंध होता हैं, उस समय अभिमत है। यहां सूत्रकार ने व्यवहार नय की दृष्टि से चतुर्थ समय में उदय नहीं होता। इसलिए उदय दूसरे समय में होता है। में अकर्म होने की बात कही है। एष्यत् काल (अगले क्षण) में वह अकर्म हो जाता है, यह ऐपिथिकी क्रिया आत्मसंवृत', संवृतः अवीचिपथ में स्थित सापेक्ष सूत्र है। वृत्तिकार के अनुसार तीसरे समय में कर्म अकर्म हो संवृत तथा भावितात्मा अनगार के होती है। इन सब का वर्णन और जाता है, फिर भी सूत्रकार ने अतीत और भविष्य की सन्निधि में विशेषण-समूह तुलनात्मक दृष्टि से मननीय है। एकता का उपचार कर चौथे समय में अकर्म होने की बात कही है। ऐपिथिकी क्रिया की स्थिति की कालावधि दो समय की है। प्रस्तुत आगम में वेदना और निर्जरा का एक प्रसंग है। वृत्तिकार ने स्थिति के विषय में कोई चर्चा नहीं की। जयाचार्य ने गौतम ने पूछा-भंते! क्या वेदना और निर्जरा एक है? भगवान् भी दो समय की स्थिति का उल्लेख किया है। तत्त्वार्थ भाष्यकार ने उत्तर में कहा-वेदना और निर्जरा एक नहीं है। वेदना कर्म की । ने इसकी स्थिति एक समय की मानी है। वृत्तिकार के अनुसार वेद्यमान होती है और निर्जरा नोकर्म की होती है। वेदना के पश्चात् कर्म कर्म-समय ही स्थिति-काल है।" पमत्तापमत्तद्धा-पदं प्रमत्ताप्रमत्ताद्धा-पदम् १४६. पमत्तसंजयस्स णं भंते! पमत्तसंजमे प्रमत्तसंयतस्य भदन्त! प्रमत्तसंयमे वर्तमानस्य वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं पमत्तद्धा सर्वापि च प्रमत्ताद्धा कालतः कियच्चिरं कालओ केवच्चिरं होइ? भवति? मंडिअपुत्ता! एगं जीवं पडुच्च जहण्णेणं मण्डितपुत्र! एक जीवं प्रतीत्य जघन्येन एक एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। समयम्, उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटी। नाना नाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धं ॥ जीवान् प्रतीत्य सर्वाद्धम्। प्रमत्त और अप्रमत्त के काल का पद १४६. " भंते! प्रमत्त संयम में वर्तमान प्रमत्त संयत (मुनि) के प्रमत्त अवस्था का काल काल की अपेक्षा कितना लम्बा होता है? मण्डितपुत्र! एक जीव की अपेक्षा जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः कुछ कम करोड़ पूर्व। अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल। १५०. अप्पमत्तसंजयस्स णं भंते! अप्पमत्त- अप्रमत्तसंयतस्य भदन्त! अप्रमत्तसंयमे वर्त- १५०. भंते! अप्रमत्त संयम में वर्तमान अप्रमत्त संयत संजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा मानस्य सर्वापि च अप्रमत्ताद्धा कालतः (मुनि) के अप्रमत्त अवस्था का काल काल की कालओ केवच्चिरं होइ? कियच्चिरं भवति? अपेक्षा कितना लम्बा होता है? मंडिअपुत्ता! एगं जीवं पडुच्च जहण्णेणं मण्डितपुत्र! एक जीवं प्रतीत्य जघन्येन मण्डितपुत्र! एक जीव की अपेक्षा जघन्यतः अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटी। अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कुछ कम करोड़ पूर्व । अनेक नाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धं ॥ नाना जीवान् प्रतीत्य सर्वाद्धम्। जीवों की अपेक्षा सर्वकाल । भाष्य १. सूत्र १४-१५० प्रस्तुत आलापक में मुनि की प्रमत्त संयम और अप्रमत्त संयम इन दो अवस्थाओं की कालावधि का विमर्श किया गया है। सातिरेक आठ वर्ष की अवस्था वाले बालक में मुनि बनने की अर्हता स्वीकार की गई है।" मनुष्य की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्व की है, इस आधार पर सामायिकचारित्र की अधिकतम कालावधि देशोन (नव वर्ष कम) एक करोड़ पूर्व की बतलाई गई है। उसकी न्यूनतम कालावधि एक समय की होती है। संयम स्वीकार करने के एक समय के अनन्तर मृत्यु होने की स्थिति में ही यह संभव बनती है। यह वृत्तिकार का अभिमत है। कर्मशास्त्रीय दृष्टि से यह सापेक्ष प्रतिपादन है। दीक्षा के प्रारम्भ में अप्रमत्त संयम प्राप्त होता है। उसके पश्चात् प्रमत्त संयम की प्राप्ति होती है। अप्रमत्त संयम से प्रमत्त संयम में आने के पहले समय में १. भ. वृ. ३/१४८-अकर्माऽपि च भवति इह च यद्यपि तृतीयेऽपि समये कर्माकर्म८. झीणी चर्चा, ढाल १७/२६भवति, तथाऽपि तत्क्षण एवातीतभावकर्मत्वेन द्रव्यकर्मत्वात् तृतीये निर्जीण कर्मति घणा समय स्थिति संपराय, बे समय इरियावहि...। व्यपदिश्यते, चतुर्थादिसमयेषु त्वकर्मेति। ६. त. भा. ६/६-अकषायस्येर्यापथस्यैवैकसमयस्थितेः। २. भ. ७/७४ ७५। १०. त. सू. भा. वृ. ६/६-वेद्यमानकर्मसमयो मध्यमः स एव स्थिति-कालः। आयो ३. वही, ३/१४८। बंधसमयस्तृतीयः परिशाटनसमय इति। ४. वही, ७/१२५, १२६ ॥ ११. ववहारो, १०/२२। ५. वही, १०/१३, १४। १२. भग. २५/५३३। ६. वही, १८/१५६, १६०। १३. भ. वृ. ३/१४६-'एक्कं समय' ति कथम्? उच्यते-प्रमत्तसंयमप्रतिपत्तिसमय७. उत्तर. २/७२-ताव य इरियाबहियं कम्मं बंधइ, सुहफरिसं दुसमयठिइय। समनन्तरमेव मरणात्। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई मृत्यु हो सकती है। इस अपेक्षा से प्रमत्त संयम की न्यूनतम कालावधि एक समय की मानी गई है।' उत्कृष्ट कालावधि के विषय में वृतिकार ने एक समीक्षा की है। उसके अनुसार प्रमत्त संयम निरन्तर नहीं रहता। बीच-बीच में अप्रमत्त संयम के क्षण आते रहते हैं। इस प्रकार अप्रमत्त संयम की निरन्तरता विच्छिन्न होती रहती है। उन सब प्रमत्त संयम की अवधियों को मिलाने पर उत्कृष्ट स्थिति बनती है । वृत्तिकार ने मतान्तर का उल्लेख किया है उसके अनुसार उत्कृष्ट कालावधि निरन्तर बने रहने वाले प्रमत्त संयम की अपेक्षा से विवक्षित है। * अप्रमत्त संयम की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रतिपादित है। वृत्तिकार के अनुसार अप्रमत्त संयम में वर्तमान मुनि की मृत्यु नहीं १५१. सेवं मंते सेवं भंते ति भगवं मंडिजपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीर वंदs नमस, वंदित्ता नमसित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥ लवणसमुह- वुटि - हाणि-पदं १५२. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसंइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं व्यासी- कम्हा णं भंते लवणसमुद्दे चाउदसमुद्विपुण्णमासिणीसु अतिरेगे वड्ढइ वा? हायइ वा? लवणसमुह्वत्तव्यवा नेया जाय लो भावे ॥ ७१ १५३. सेवं भंते! सेवं भंते ? त्ति जाव विहरति ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति भगवान् मण्डितपुत्रः अनगारः श्रमण भगवन्तं महावीर यन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्त्विा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति । लवणसमुद्र-वृद्धि-हानि-पदम् भदन्तेति ! भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्तं महावीर वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् - कस्मात् भदन्त ! लवणसमुद्रः चतुर्दश्यष्टमी उद्दिट्ठ पौर्णमासीषु अतिरेक वर्द्धते वा? हीयते वा? श.३ : उ. ३ : सू. १४६-१५३ होती इस नियम के आधार पर न्यूनतम कालावधि अन्तर्मुहूर्त की बताई गई है। चूर्णिकार का अभिमत है-प्रमत संयम से उत्तरवर्ती सभी अवस्थाओं में विद्यमान मुनि अप्रमत्त कहलाता है। क्योंकि उसमें प्रमाद नहीं होता । उपशम श्रेणी का आरोहण करने वाला मुहूर्त्त के भीतर मृत्यु को प्राप्त हो सकता है, इस अपेक्षा से अप्रमत्त संयम की न्यूनतम कालावधि अन्तर्मुहूर्त की बतलाई गई है। यहां उपशम श्रेणी का आरोहण करने वाले अप्रमत्त का ग्रहण करना इष्ट है। अन्य अप्रमत्त का ग्रहण इष्ट नहीं - यह जयाचार्य की व्याख्या है। अप्रमत्त संयम की उत्कृष्ट स्थिति केवली की अपेक्षा से प्रतिपादित है । सवा आठ वर्ष का बालक मुनि भी हो सकता है और साथ-साथ केवलज्ञानी भी हो सकता है। इस अपेक्षा से इस स्थिति का निर्देश है। लवणसमुद्रवक्तव्यता ज्ञातव्या यावत् सोकस्थितिः सोकानुभावतः । १. भ. चूर्णि पमत्तस्य जहणणो कालो समओ एसो य अपमत्तद्धाणातो चवमाणो पमत्तसंजतो कालं करेज्जा तस्य लब्भति । २. भ. वृ. ३ / १४६ - किल प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणे एव प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानके, ते च पर्यायेण जायमाने देशोनपूर्वकोटिं यावदुत्कर्षेण भवतः, संयमवतो हि पूर्वकोटिरेव परमायुः, स च संयममष्टासु वर्षेषु गतेष्वेव लभते महान्ति चाप्रमत्तान्तर्मुहूत्तपिक्षया प्रमत्तान्तर्मुहूर्त्तानि कल्प्यन्ते, एवं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणानां प्रमत्ताद्धानां सर्वासां मीलनेन देशोना पूर्वकोटी कालमानं भवति । ३. वही ३ / १४६ - अन्येत्वाहुः - अष्टवर्षोनां पूर्वकोटिं यावदुत्कर्षतः प्रमत्तसंयतता स्यादिति । ४. (क) भ. वृ. ३/१४६ - चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंयमवर्जः सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति यावद् १५३ भन्ते वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही विहरति । है- यह कह भगवान् गौतम संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे १५१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है एकसा कहकर भगवान् मण्डितपुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन- लमस्कार कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विहार कर रहें हैं। लवणसमुद्र-वृद्धि- हानि-पद १५२. भन्ते ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं। वन्दन- नमस्कार कर इस प्रकार बोले भन्ते! लवणसमुद्र चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या (उद्दिट्ठा) और पूर्णिमा को अतिरिक्त रूप से क्यों बढ़ता है? क्यों घटता है? यहां लवणसमुद्र की वक्तव्यता लोकस्थिति और लोकानुभाव (जीवा. ३ / ७२३-७६५) तक ज्ञातव्य है। उच्यते, प्रमादाभावात्, स चोपशम श्रेणी प्रतिपद्यमानो मुहूर्त्ताभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघन्यकालो लभ्यत इति । (ख) भ. चू. प ४- अप्पमत्तो जहण्णकालो उवसामगसेढी पडिवज्जमाणो मुहुत्तेभ्यंतरतो कालं करेमाणो होति । ५. भ. जो. १/६४/६५ का चार्तिक- ए अप्रभादी उपशम-श्रेणि चढे तिको जीव ग्रहिवो, जो आठमैं गुणठाणे उपशम-श्रेणि चढतो प्रथम समय मेरे तो पिण सातमैं गुणठा अप्रमत्तपणे अंतर्मुहूर्त रह्यो ते माटै जघन्य अंतर्मुहूर्त, इहां उपशम श्रेणि चढ़े तिको अप्रमत्त ग्रह्यो । पिण अन्य अप्रमत्त ग्रहण न कियो। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद भाविअप्प-पदं भावितात्म-पदम् भावितात्म-पद १५४. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा देवं अनगारो भदन्त! भावितात्मा देवं वैक्रिय- १५४. 'भन्ते! भावितात्मा अनगार वैक्रिय समुद्घात देउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं समुद्घातेन समवहतं यानरूपेण यान्तं से समवहत वैक्रिय विमान में बैठकर जाते हुए जामाणं जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति? देव को क्या जानता-देखता है? गोयमा! १. अत्येगइए देवं पासइ, नो गौतम! १. अस्त्येककः देवं पश्यति, नो यानं गौतम! १. कोई अनगार देव को देखता है, विमान जाणं पासइ। २. अत्थेगइए जाणं पासइ, पश्यति। २. अस्त्येककः यानं पश्यति, नो को नहीं देखता। २. कोई अनगार विमान को नो देवं पासइ। ३. अत्थेगइए देवं पि देवं पश्यति। ३. अस्त्येककः देवमपि पश्यति, देखता है, देव को नहीं देखता। ३. कोई अनगार पासइ, जाणं पि पासइ। ४. अत्थेगइए यानमपि पश्यति। ४. अस्त्येककः नो देवं देव को भी देखता है, विमान को भी देखता नो देवं पासइ, नो जाणं पासइ ॥ पश्यति, नो यानं पश्यति। है। ४. कोई अनगार न देव को देखता है और न विमान को देखता है। १५५. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा देविं अनगारो भदन्त! भावितात्मा देवीं वैक्रिय- १५५. भन्ते! भावितात्मा अनगार वैक्रिय समुद्घात वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहयं जाणरूवेणं समुद्घातेन समवहतं यानरूपेण यान्तीं से समवहत वैक्रिय विमान में बैठकर जाती हुई जामाणिं जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति? देवी को क्या जानता-देखता है? गोयमा! १. अत्थेगइए देविं पासइ, नो गौतम! १. अस्त्येककः देवीं पश्यति, नो यानं गौतम! १. कोई अनगार देवी को देखता है, जाणं पासइ। २. अत्थेगइए जाणं पासइ, पश्यति। २. अस्त्येककः यानं पश्यति, नो विमान को नहीं देखता। २. कोई अनगार विमान नो देविं पासइ। ३. अत्थेगइए देवि पि देवीं पश्यति। ३. अस्त्येककः देवीमपि पश्यति, को देखता है, देवी को नहीं देखता। ३. कोई पासइ, जाणं पि पासइ। ४. अत्थेगइए यानमपि पश्यति। ४. अस्त्येककः नो देवीं अनगार देवी को भी देखता है, विमान को भी नो देविं पासइ, नो जाणं पासइ॥ पश्यति, नो यानं पश्यति। देखता है। ४. कोई अनगार न देवी को देखता है और न विमान को देखता है। १५६. अणारे णं मंते! भाविअप्पा देवं अनगारो भदन्त! भावितात्मा देवं सदेवीकं १५६. भन्ते! भावितात्मा अनगार वैक्रिय समुद्घात सदेवीअं वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहयं वैक्रियसमुद्घातेन समवहतं यानरूपेण यान्तं से समवहत वैक्रिय विमान में बैठकर जाते हुए जाणरूवेणं जामाणं जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति? देवी-सहित देव को क्या जानता-देखता है? गोयमा! १. अत्थेगइए देवं सदेवीअं पासइ, गौतम! १. अस्त्येककः देवं सदेवीकं पश्यति, गौतम! कोई अनगार देवी-सहित देव को देखता नो जाणं पासइ। २. अत्येगइए जाणं नो यानं पश्यति। २. अस्त्येककः यानं पश्य- है, विमान को नहीं देखता। २. कोई अनगार पासइ, नो देवं सदेवीअं पासइ। ३. ति, नो देवं सदेवीकं पश्यति। ३. अस्त्येककः विमान को देखता है, देवी-सहित देव को नहीं अत्थेगइए देवं सदेवीअं पि पासइ, जाणं देवं सदेवीकमपि पश्यति, यानमपि पश्यति।। देखता। ३. कोई अनगार देवी-सहित देव को पि पासइ। ४. अत्थेगइए नो देवं सदेवीअं ४. अस्त्येककः नो देवं सदेवीकं पश्यति, नो भी देखता है, विमान को भी देखता है। ४. पासइ, नो जाणं पासइ ॥ यानं पश्यति। कोई अनगार न देवी-सहित देव को देखता है और न विमान को देखता है। १५७. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा रुक्खस्स किं अंतो पासइ? बाहिं पासइ? अनगारो भदन्त! भावितात्मा रूक्षस्य किम् १५७. भन्ते! भावितात्मा अनगार क्या वृक्ष के अन्तः पश्यति? बहिः पश्यति? अन्तर्वर्ती भाग को देखता है? बहिर्वर्ती भाग को देखता है? Jain Education Intemational Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ७३ श.३ : उ.४ : सू.१५४-१६३ गोयमा! १. अत्थेगइए रुक्खस्स अंतो गौतम! १. अस्त्येककः रूक्षस्य अन्तः पश्यति, पासइ, नो बाहिं पासइ। २. अत्थेगइए नो बहिः पश्यति। २. अस्त्येककः रूक्षस्य रुक्खस्स बाहिं पासइ, नो अंतो पासइ। बहिः पश्यति, नो अन्तः पश्यति। ३. ३. अत्थेगइए रुक्खस्स अंतो पि पासइ, अस्त्येककः रूक्षस्य अन्तोऽपि पश्यति, बहिरपि बाहिं पि पासइ। ४. अत्थेगइए रुक्खस्स पश्यति। ४. अस्त्येककः रूक्षस्य नो अन्तः नो अंतो पासइ, नो बाहिं पासइ ॥ पश्यति, नो बहिः पश्यति। गौतम! कोई अनगार वृक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को देखता है, बहिर्वर्ती भाग को नहीं देखता है। २. कोई अनगार वृक्ष के बहिर्वर्ती भाग को देखता है, अन्तर्वर्ती भाग को नहीं देखता। ३. कोई अनगार वृक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को भी देखता है, बहिर्वर्ती भाग को भी देखता है। ४. कोई अनगार न वृक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को देखता है और न ही बहिर्वर्ती भाग को देखता है। १५८ . अणगारे णं भंते! भाविअप्पा रुक्खस्स अनगारो भदन्त! भावितात्मा रूक्षस्य किं १५८. भन्ते! भावितात्मा अनगार क्या वृक्ष के मूल किं मूलं पासइ? कंदं पासइ? मूलं पश्यति? कन्दं पश्यति? को देखता है? कन्द को देखता है? गोयमा! १. अत्थेगइए रुक्खस्स मूलं गौतम! १. अस्त्येककः रूक्षस्य मूलं पश्यति, गौतम! १. कोई अनगार वृक्ष के मूल को देखता पासइ, नो कंदं पासइ। २. अत्थेगइए नो कन्दं पश्यति। २. अस्त्येककः रूक्षस्य । है, कन्द को नहीं देखता है। २. कोई अनगार रुक्खस्स कंदं पासइ, नो मूलं पासइ। ३. कन्दं पश्यति, नो मूलं पश्यति। ३. अस्त्येककः वृक्ष के कन्द को देखता है, मूल को नहीं देखता। अत्थेगइए रुक्खस्स मूलं पि पासइ, कंदं रूक्षस्य मूलमपि पश्यति, कन्दमपि पश्यति। ३. कोई अनगार वृक्ष के मूल को भी देखता पि पासइ। ४. अत्थेगइए रुक्खस्स नो मूलं ४. अस्त्येककः रूक्षस्य नो मूलं पश्यति, नो है, कन्द को भी देखता है। ४. कोई अनगार पासइ, नो कंदं पासइ ॥ कन्दं पश्यति? न वृक्ष के मूल को देखता है और न कन्द को देखता है। १५६. मूलं पासइ? खंधं पासइ? चउभंगो॥ मूलं पश्यति? स्कन्धं पश्यति? चतुर्भगः। १५६. क्या मूल को देखता है? स्कन्ध को देखता है? यहां भी चार भंग वक्तव्य हैं। १६०. एवं मूलेणं (जाव?) बीजं संजोएयव्वं॥ एवं मूलेन (यावद्?) बीजं संयोजयितव्यम्। १६०. इसी प्रकार मूल के साथ (यावत्) बीज का संयोग करने पर प्रत्येक के चार-चार भंग होते १६१. एवं कंदेण वि समं संजोएयव्वं जाव एवं कन्देनापि समं संयोजयितव्यम् यावद् १६१. इसी प्रकार कन्द के साथ भी यावत् बीज बीयं ॥ बीजम्। का संयोग करने पर प्रत्येक के चार-चार भंग होते हैं। १६२. एवं जाव पुप्फेण समं बीयं संजोए- यव्वं । एवं यावत् पुष्पेण समं बीजं संयोजयितव्यम्। १६२. इसी प्रकार यावत् पुष्प के साथ बीज का संयोग करने पर प्रत्येक के चार-चार भंग होते १६३. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा रुक्खस्स अनगारो भदन्त! भावितात्मा रूक्षस्य किं किं फलं पासइ? बीयं पासइ? चउभंगो॥ फलं पश्यति? बीजं पश्यति? चतुर्भगः। १६३. भन्ते! भावितात्मा अनगार क्या वृक्ष के फल को देखता है? बीज को देखता है? यहां भी चार भंग वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र १५४-१६३ द्वारा रूपान्तरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। उसका पहला बिन्दु है-एजन अध्यात्म और योग का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-भावना। इसका और अंतिम बिंदु है-तं तं भावं परिणमइ।' वृत्तिकार ने भावितात्मा अर्थ है-कुछ होने का निश्चय करना, फिर अभ्यास के द्वारा वैसा का अर्थ संयम और तप इन दो भावनाओं से भावित आत्मा वाला हो जाना। वासना, संस्कार-ये इसके पर्यायवाची शब्द हैं। भावना के किया है। उनके अनुसार भावितात्मा प्रायः अवधिज्ञान आदि लब्धियों १. भ.३/१४३ Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ उ. ४ सू. १५४-१६६ से सम्पन्न होता है। ध्यानशतक में चार भावनाओं का उल्लेख है -ज्ञान भावना, दर्शन भावना, चारित्र भावना और वैराग्य भावना ठाणं में भावितात्मा को 'ऋद्धिमानू' कहा गया है। प्रस्तुत आगम में भावितात्मा की ऋद्धि का विस्तृत विवरण मिलता है। सूयगडो में 'श्रुतभावितात्मा' का प्रयोग मिलता है । प्रस्तुत आगम में वीतराग के लिए भी भावितात्मा का प्रयोग किया गया है। इन सारे संदर्भों से यह निष्कर्ष निकलता है कि आगम-युग में भावितात्मा शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। महाभारत" और योगवाशिष्ठ में भी भावितात्मा का प्रयोग मिलता है। अवधिज्ञान विचित्र प्रकार का होता है, इसलिए सूत्र में चार विकल्पों का निर्देश किया गया है कोईभावितात्मा देव को देखता है, यान को नहीं देखता । २. कोई यान को देखता है, देव को नहीं देखता । ३. कोई देव और यान दोनों को देखता है। ४. कोई दोनों को नहीं देखता । सूत्र १५७ से १६३ तक भावितात्मा अनगार द्वारा वृक्ष, मूल, कन्द आदि को देखने का वर्णन है। इनके दो-दो के संयोग से ४५ भंग निष्पन्न होते हैं : १. मूल कंद २. मूल स्कन्ध वाउकाय-पदं १६४. पभू णं भंते! वाउकाए एवं महं इत्थिरूवं वा पुरिसरूवं वा (आसरूवं वा ? ) हत्यिरूवं वा जाणरुवं वा जुम्गरूवं वा गिल्लिरूवं वा थिल्लिरूवं वा सीयरूवं वा संदमाणियरूवं वा विउव्वित्तए ? गोयमा ! नो इणट्टे समट्ठे । वाउकाए णं विकुव्वमाणे एवं महं पडागासंठियं रूवं विकुब्बइ ॥ १६५. पभू णं भंते! वाउकाए एवं महं पडागासठियं रूवं विठव्वित्ता जगाई जोयणाई गमितए? हंता पभू ॥ १६६. से भंते! कि आइड्ढीए गच्छइ ? परिड्ढीए गच्छइ ? २. ध्यानशतक, ३० पुव्वकयभासो भावणाहिं झाणस्स जोग्गयमुवेइ । ताओ य नाणदंसणचरित्तवेरग्गनियताओ ॥ ३. ठाणं, ५/१६८ । ४. भ. १८ / १६१-१६५। ५. सूय. १/१३/१३ । ६. भ. १८/१५६, १६० । ३. मूल त्वक् १. भ. बृ. १५४ - भावितात्मा संयमतपोभ्यामेवंविधानामनगाराणां हि प्रायोऽवधिज्ञानादिलब्धयो भवन्तीति कृत्वा भावितात्मेत्युक्तं ... । ७४ ४. मूल शाखा ५. मूल प्रवाल ६. मूल पत्र ७. मूर्त पुण्य ८. मूल फल ६. मूल बीज १०. कंद स्कंध ११. कंद त्वक् १२. कंद शाखा १३. कंद प्रवाल १४. कंद पत्र १५. कंद पुष्प १६. कंद फल १७. कंद बीज शब्द-विमर्श वायुकाय-पदम् प्रभुः भदन्त वायुकायः एकं महत् स्त्रीरूपं वा पुरुषरूपं वा (अश्वरूपं वा ? ) हस्तिरूपं वा यानरूपं वा युग्यरूपं वा 'गिल्लि 'रूपं वा 'थिल्लि' रूपं वा शिबिकारूपं वा स्यन्दमानिकारूपं या विकर्तुम्? गौतम! नायमर्थः समर्थः । वायुकायः विकुर्वाणः एकं महत् पताकासंस्थितं रूपं विकुरुते । प्रभुः भदन्त ! वायुकायः एकं महत् पताकासंस्थितं रूपं विकृत्य अनेकानि योजनानि गन्तुम् ? हन्त प्रभुः । १८. स्कंध त्वक् १६. स्कंध शाखा २०. स्कंध प्रवाल २१. स्कंध पत्र २२. स्कंध पुष्प २३. स्कंध फल २४. स्कंध बीज २५. त्वक् शाखा २६. त्वक् प्रवाल २७. त्वक् पत्र २८. त्वक् पुष्प २९. त्वक् फल ३०. त्वक् बीज ३१. शाखा प्रवाल समवहत- जो उत्तरवैक्रिय शरीर की रचना कर चुका है। भगवई ७. महाभारत, स्वर्गारोहण पर्व, ५/३७ ३२. शाखा पत्र ३३. शाखा पुष्प ३४. शाखा फल ३५. शाखा बीज ३६. प्रवाल पत्र ३७. प्रवाल पुष्प ३८. प्रवाल फल ३६. प्रवाल बीज सर्वज्ञेन विधिज्ञेन धर्मज्ञानवता सता। अतीन्द्रियेण शुचिना, तपसा भावितात्मना ॥ ४०. पत्र पुष्प ' वायुकाय-पद १६४ भन्ते! क्या वायुकाय एक महान् स्त्रीरूप, पुरुषरूप, ( अश्वरूप), हस्तिरूप, यानरूप, युग्यरूप, अम्बाबाड़ी (हाथी का हौदा)-रूप, बधीरूप शिबिकारूप अथवा स्यन्दमानिकारूप का निर्माण करने में समर्थ है? ८. योगवाशिष्ठ, ४/११/५६, ६० ४१. पत्र फल ४२. पत्र बीज गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। वायुकाय विक्रिया करता हुआ एक महापताका के आकार वाले रूप की विक्रिया करता है। स भदन्तः किम् आत्मय गच्छति? परद्वर्या १६६. भन्ते क्या वायुकाय अपनी ऋद्धि से जाता गच्छति ? है अथवा पर ऋद्धि से जाता है ? यथैव भावयत्यात्मा सततं भविष्यति स्वयम् । तथैवापूर्यते शक्त्या शीघ्रमेव महानपि ॥ भाविता शक्तिरात्मानमात्मतां नयति क्षणात् । अनन्तमखिलं प्रावृट् मिहिका महती यथा ॥ ४३. पुष्प फल ४४. पुष्प बीज ४५. फल बीज १६५. भंते! क्या वायुकाय एक महापताका के आकार वाले रूप की विक्रिया कर अनेक योजन तक जाने में समर्थ है? हो, समर्थ है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ७५ गोयमा! आइड्ढीए गच्छइ, नो परिड्डीए गौतम! आत्मद्धर्या गच्छति, नो परद्धर्या गच्छइ ॥ गच्छति। श.३: उ.४:सू.१६४-१७१ गौतम! वह अपनी ऋद्धि से जाता है, पर-ऋद्धि से नहीं जाता। १६७. से भंते! किं आयकम्मुणा गच्छइ? पर- स भदन्त! किम् आत्मकर्मणा गच्छति? १६७. भन्ते! क्या वायुकाय अपनी क्रिया से जाता कम्मुणा गच्छइ? परकर्मणा गच्छति? है? परक्रिया से जाता है? गोयमा! आयकम्मुणा गच्छइ, नो परकम्मुणा गौतम! आत्मकर्मणा गच्छति, नो परकर्मणा गौतम! वह अपनी क्रिया से जाता है, परक्रिया गच्छइ॥ गच्छति। से नहीं जाता। १६८. से भंते! किं आयप्पयोगेण गच्छइ? स भदन्तः किम् आत्मप्रयोगेण गच्छति? १६८. भन्ते! क्या वायुकाय अपने प्रयोग से जाता परप्पयोगेण गच्छइ? परप्रयोगेण गच्छति? है? परप्रयोग से जाता है? गोयमा! आयप्पयोगेण गच्छइ, नो पर- गौतम! आत्मप्रयोगेण गच्छति, नो परप्रयोगेण गौतम! वह अपने प्रयोग से जाता है, परप्रयोग प्पयोगेण गच्छइ॥ गच्छति। से नहीं जाता। १६६. से भंते! किं ऊसिओदयं गच्छइ? स भदन्त! किं उच्छ्रितोदयं गच्छति? पतदुदयं- १६६. भन्ते! क्या वायुकाय ऊपर उठी हुई पताका पतोदयं गच्छइ? गच्छति? के रूप में जाता है अथवा नीचे गिरी हुई पताका के रूप में जाता है? गोयमा! ऊसिओदयं पि गच्छइ, पतोदयं गौतम! उच्छ्रितोदयमपि गच्छति, पतदुदय- गौतम! वह ऊपर उठी हुई पताका के रूप में पि गच्छइ॥ मपि गच्छति। भी जाता है और नीचे गिरी हुई पताका के रूप में भी जाता है। १७०. से भंते! किं एगओपडागं गच्छइ? दुह- स भदन्त! किम् एकतःपताकं गच्छति? १७०. भन्ते! क्या वायुकाय एक दिशा में पताका ओपडागं गच्छइ? द्विधापताकं गच्छति? के आकार में जाता है अथवा दो दिशाओं में पताका के आकार में जाता है? गोयमा! एगओपडागं गच्छइ, नो दुहओपडागं गौतम! एकतःपताकं गच्छति, नो द्विधा-पताक गौतम! वह एक दिशा में पताका के आकार गच्छइ ॥ गच्छति। में जाता है, दो दिशाओं में पताका के आकार में नहीं जाता। १७१. से भंते! किं वाउकाए? पडागा? स भदन्त! किं वायुकायः? पताका? १७१. भन्ते! क्या वह वायुकाय है अथवा पताका गौतम! वायुकायः सः, न खलु सा पताका। गौतम! वह वायुकाय है, पताका नहीं है। गोयमा! वाउकाए णं से, नो खलु सा पडागा ॥ भाष्य १. सूत्र १६४-१७७ देव और नरक-इन दो गतियों में वैक्रियशरीर जन्मजात होता है। समनस्क मनुष्य और समनस्क तिर्यंच में वह लब्धिजन्य होता है' वायुकाय में अपर्याप्त अवस्था में वह नहीं होता, पर्याप्त अवस्था होते ही वैक्रिय शरीर की प्राप्ति हो जाती है। धवला में पर्याप्त तेजस्कायिक जीवों के भी वैक्रिय शरीर होने का उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा में पर्याप्त वायुकाय जीवों के ही वैक्रिय शरीर माना गया है। वायुकाय में वैक्रिय शरीर संप्राप्त है। पर उसकी रूप-निर्माण करने की शक्ति बहुत कम है। वह पताका के रूप का निर्माण कर सकता है। उसका संस्थान पताका के आकार का है। वह विक्रिया के द्वारा अपने पताका वाले आकार को बड़ा बना सकता है। वायुकाय अपनी शक्ति, अपनी क्रिया और अपने प्रयोग से गति करता है। उसकी गति किसी के द्वारा ढेला के फेंके जाने जैसी १. त. सू. भा. वृ. २/४७, ४६। २. पण्ण. २१/५०। ३. प. खं. धवला, पु.४, खं.१, भा. ४, सू. ६६, पृ. २४६-तेउक्काइयपज्जत्ता चैव वेउब्बिय सरीरं उठावेंति अपज्जत्तेषु तदभावा (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ. ६१० से उद्धृत) ४. (क) पण्ण. २१/२६, ५७। (ख) भ. वृ. ३/१६५-महत् पूर्वप्रमाणापेक्षया पताकासंस्थितं स्वरूपेणेव वायोः पताकाकारशरीरत्वाद् वैक्रियावस्थायामपि तस्य तदाकारस्यैव भावादिति। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.४: सू.१६४-१७५ ७६ भगवई नहीं है। दर्शन-युग में इस विषय को तार्किक रूप में प्रस्तुत किया शिविका-पालकी!" गया है-वायुकाय जीव है क्योंकि किसी दूसरे की प्रेरणा के बिना अपनी स्यन्दमानिका-पुरुषप्रमाण लम्बाई वाली शिविका। यह बड़े ही शक्ति से तिरछी गति करता है।' व्यक्तियों के आवागमन के लिए काम में ली जाती थी। शब्द-विमर्श भ.वृ. में युग्य से स्यन्दमानिका के अर्थ प्रायः ये ही दिए युग्य-गोल्ल देश में प्रसिद्ध दो हाथ लम्बी, चौड़ी, चतुष्कोण उच्छ्रितोदय-गति का ऊपर की ओर होने वाला उदय-आयाम। वेदिका वाली शिविका। लाट देश में थिल्ल को युग्य कहा जाता है। पतत्-उदय-गति का नीचे की ओर होने वाला उदय-आयाम।" इसके चार दण्डे लगे रहते हैं, जिन्हें चार आदमी उठाते हैं।' एकतःपताक-जहां एक दिशा में पताका हो। डोली (गिल्ली)-दो व्यक्तियों द्वारा उठाई जाने वाली शिविका द्विधापताक-जहां दोनों दिशाओं में पताका हो। अथवा अम्बावाड़ी सहित हाथी का हौदा। शीलांकाचार्य के अनुसार-दो जयाचार्य ने द्विधापताक के विषय में एक मतान्तर का उल्लेख व्यक्ति कपड़े की झोली में किसी को उठाकर ले जाते हैं, वह झोली किया है-उस मत के अनुसार एक ही दिशा में दोनों पताकाओं गिल्ली कहलाती है। का होना द्विधापताक है। (देखें चित्र, पृष्ठ-५०२) वग्धी (थिल्लि)-दो खच्चरों की वग्धी। बलाहक-पदं बलाहक-पदम् बलाहक-पद १७२. पभू णं भंते! बलाहए एगं महं इत्थि- प्रभुः भदन्त! बलाहकः एक महत् स्त्रीरूपं १७२. भन्ते! क्या मेघ एक महान् स्त्रीरूप यावत् रूव वा जाव संदमाणियरूवं वा परिणामेत्तए? वा यावत् स्यन्दमानिकारूपं वा परिणमयितुम्? स्यन्दमानिका-रूप में परिणत होने में समर्थ है? हंता पभू ॥ हन्त प्रभुः। हां, समर्थ है। १७३. पभू णं भंते! बलाहए एगं महं इत्थि- प्रभुः भदन्त! बलाहकः एकं महत् स्त्रीरूपं रूवं परिणामेत्ता अणेगाई जोयणाई गमित्तए? परिणमय्य अनेकानि योजनानि गन्तुम्? हंता पभू ॥ हन्त प्रभुः। १७३. भन्ते! क्या मेघ एक महान् स्त्रीरूप में परिणत होकर अनेक योजन तक जाने में समर्थ है? हां, समर्थ है। १७४. से भंते! किं आइड्ढीए गच्छइ ? परि- स भदन्त! किम् आत्मद्धर्या गच्छति? परद्धर्या १७४. भन्ते! क्या मेघ अपनी ऋद्धि से जाता है ड्ढीए गच्छइ? गच्छति? अथवा पर-ऋद्धि से जाता है? गोयमा! नो आइड्ढीए गच्छइ, परिड्डीए गौतम! नो आत्मर्या गच्छति, परर्या गौतम! वह अपनी ऋद्धि से नहीं जाता, पर-ऋद्धि गच्छइ ॥ गच्छति। से जाता है। १७५. से भंते! कि आयकम्मुणा गच्छइ ? पर- स भदन्त! किम् आत्मकर्मणा गच्छति? १७५. भन्ते! क्या मेघ अपनी क्रिया से जाता है ? कम्मुणा गच्छइ? परकर्मणा गच्छति? परक्रिया से जाता है? गोयमा! नो आयकम्मुणा गच्छइ, पर- गौतम! नो आत्मकर्मणा गच्छति, परकर्मणा गौतम! वह अपनी क्रिया से नहीं जाता परक्रिया १. दशवै. जि. चू. पृ. १३६-सात्मको वायुः अपरप्रेरित तिर्यगनियमितनिर्गमनाद् गोवत्। २. (क) अनु. चू. पृ. ५३-गोलविषये जंपाणं द्विहत्थमात्रं चतुरस्र सवेदिकमुपशोभित जुग्गय, लाडाणं थिल्लि जुगये। (ख)-अनु. हा. वृ. पृ. ७६। (ग)-अनु. मल. वृ. प. १४६। ३. सूय. २/२/५८ का टिप्पण। ४. (क) अनु. वू. पृ. ५३-हस्तिन उपरि कोल्लरं गिलतीव मानुषं गिली। (ख) अनु. हा. वृ. पृ. ७६। (ग) अनु. मल. वृ. प. १४६। ५. सूत्र. वृ. प. ७३-पुरुषद्वयोत्क्षिप्ता झोल्लिका। ६. वही, प. ७३-वेगसरद्वयविनिर्मितो यानविशेषः । ७. (क) अनु. चू. पृ. ५४-उरि कूडागारछादिया सिबिया। (ख) अनु. हा. वृ. पृ. ७६। (ग) अनु. मल. वृ. प. १४६ । ८. (क) अनु. चू. पृ. ५४-दीहो जम्पाण विसेसो पुरिसस्स स्वप्रमाणावगासदाणत्तणओ स्यन्दमाणिं। (ख) अनु. हा. वृ. पृ. ७६ । (ग) अनु. मल. वृ. प. १४६ । ६, सूय. २/२/५८ का टिप्पण। १०. भ. वृ. ३/१६४-'जुग्गं'ति गोल्लविषयप्रसिद्ध जम्पानं द्विहस्तप्रमाणं वैदिकोपशोभित 'गिल्लि"त्ति हस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीव 'थिल्ली' ति लाटाना यदश्वपल्यानं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते 'सिय' ति शिबिका कुटाकाराच्छादिती जम्पानविशेषः 'संदमाणिय' ति पुरुषप्रमाणायामो जम्पानविशेषः । ११. वही ३/१६६-उच्छृत-ऊद्ध्वम् उदय-आयामो यत्र गमने तदुछितोदयम्, ऊध्वपताकमित्यर्थः क्रियाविशेषणं चेदं 'पतोदय'ति पतदुदयं पतितपताकं गच्छति। १२. भ. जो. १/६५/७६ दुहओ पडाग देख, ते दंड में बिहू दिशि विषै। केइ करै इम लेख, केइ कहै इक दिशि बेहुं ॥ Jain Education Intemational te & Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ७७ श.३ : उ.४ : सू.१७२-१८२ कम्मुणा गच्छइ ॥ गच्छति। से जाता है। १७६. से भंते! किं आयप्पयोगेणं गच्छइ? स भदन्त! किम् आत्मप्रयोगेण गच्छति? १७६. भन्ते! क्या मेघ अपने प्रयोग से जाता है? परप्पयोगेणं गच्छइ? परप्रयोगेण गच्छति? पर-प्रयोग से जाता है? गोयमा! नो आयप्पयोगेणं गच्छइ, परप्प- गौतम! नो आत्मप्रयोगेण गच्छति, परप्रयोगेण गौतम! वह अपने प्रयोग से नहीं जाता, पर-प्रयोग योगेणं गच्छइ ॥ गच्छति। से जाता है। १७७. से भंते! कि ऊसिओदयं गच्छइ? स भदन्त! किम् उच्छ्रितोदयं गच्छति? पतदुदयं १७७. भन्ते! क्या मेघ ऊपर उठी हुई पताका के पतोदयं गच्छइ? गच्छति? ___ रूप में जाता है अथवा नीचे गिरी हुई पताका के रूप में जाता है? गोयमा! ऊसिओदयं पि गच्छइ, पतोदयं गौतम! उच्छ्रितोदयमपि गच्छति, पतदुदयमपि गौतम! वह ऊपर उठी हुई पताका के रूप में पि गच्छइ ॥ गच्छति। भी जाता है और नीचे गिरी हुई पताका के रूप में भी जाता है। १७८. से भन्ते! किं बलाहए? इत्थी? गोयमा! बलाहए णं से, नो खलु सा स भदन्त! किं बलाहकः? स्त्री? गौतम! बलाहकः सः, न खलु सा स्त्री। १७८. भन्ते! क्या वह मेघ है अथवा स्त्री है? गौतम! वह मेघ है, स्त्री नहीं है। इत्थी ॥ १७६. एवं पुरिसे, आसे, हत्थी ॥ एवं पुरुषः, अश्वः, हस्ती। १७६. इसी प्रकार मेघ के साथ पुरुष, अश्व और हस्ती की वक्तव्यता। १८०. भन्ते! क्या मेघ एक महान यानरूप में परिणत होकर अनेक योजन तक जाने में समर्थ है? १८०. पभू णं भंते! बलाहए एगं महं प्रभुः भदन्त! बलाहकः एक महद् यानरूपं जाणरूवं परिणामेत्ता अणेगाइं जोयणाई परिणमय्य अनेकानि योजनानि गन्तुम्? गमित्तए? जहा इत्थिरूवं तहा भाणियव्वं ॥ यथा स्त्रीरूपं तथा भणितव्यम्। जैसे स्त्री-रूप की वक्तव्यता है, वैसे ही यान के विषय में वक्तव्य है। १८१. से भंते ! किं एगओचक्कवालं. गच्छइ? स भदन्त! किम् एकतश्चक्रवालं गच्छति? १८१. भन्ते! क्या मेघ एक ओर चक्राकार गति से दुहओचक्कवालं गच्छइ? द्विधाचक्रवालं गच्छति? जाता है अथवा दोनों ओर चक्राकार गति से जाता है? गोयमा! एगओचक्कवालं पि गच्छइ, गौतम! एकतश्चक्रवालमपि गच्छति, द्विधा- गौतम! वह एक ओर चक्राकार गति से भी जाता दुहओचक्कवालं पि गच्छइ ॥ चक्रवालमपि गच्छति। है तथा दोनों ओर चक्राकार गति से भी जाता १८२. जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीया-संदमाणिया युग्य-'गिल्लि'-'थिल्लि’-शिविका-स्यन्दमानिकाः १८२. इसी प्रकार युग्य, अम्बावाड़ी, बग्धी, शिबिका तहेव॥ तथैव। और स्यन्दमानिका के सम्बन्ध में वक्तव्य है। भाष्य १. सूत्र १७२-१८२ वायुकाय के विषय में रूप-निर्माण अथवा वैक्रिय शक्ति के प्रयोग का प्रश्न पूछा गया है और बादलों के लिए रूपों के परिणमन का प्रश्न पूछा गया है। इसका हेतु यह है कि बादल अचेतन होते हैं, इसलिए उनमें रूप-निर्माण करने की शक्ति नहीं होती। उनमें स्वाभाविक परिणमन होता है। वे अपनी ऋद्धि, क्रिया और प्रयोग से गति नहीं Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ भगवई श.३ : उ.४ : सू.१७२-१८५ करते वे वायु अथवा देव के द्वारा प्रेरित होकर चलते है।" ठाणं में वायु और देव के द्वारा बादलों की गति होने का उल्लेख है। शब्द-विमर्श चक्रवाल-चक्का। किंलेसोववाय-पदं किलेश्योपपात-पदम् किलेश्योपपाद-पद १८३. जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएसु जीवः भदन्त! यः भव्यः नैरयिकेषु उपपत्तुं १८३. भन्ते! जो जीव नैरयिकों में उपपन्न होने उववज्जित्तए, से णं भंते! किंलेस्सेसु स भदन्त! किलेश्येषु उपपद्यते? योग्य है, वह भंते! कौन-सी लेश्या वाले नैरयिकों उववज्जइ? में उपपन्न होता है? गोयमा! जल्लेस्साई दव्वाई परियाइत्ता कालं गौतम! यल्लेश्यानि द्रव्याणि पर्यादाय कालं गौतम! जो जीव जिस लेश्या वाले द्रव्यों को ग्रहण करेइ, तल्लेस्सेसु उववज्जइ, तं जहा- करोति, तल्लेश्येषु उपपद्यते, तद् यथा- कर मरता है, वह उसी लेश्या वाले नैरयिकों में कण्हलेस्सेसु वा, नीललेस्सेसु वा, काउलेस्सेसु कृष्णलेश्येषु वा, नीललेश्येषु वा, कापोत- उपपन्न होता है, जैसे-कृष्ण लेश्या वाले नैरयिकों वा। एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स लेश्येषु वा। एवं यस्य या लेश्या सा तस्य में अथवा नील लेश्या वाले नैरयिकों में अथवा भाणियव्वा। जावभणितव्या। यावत् कापोत लेश्या वाले नैरयिकों में। इस प्रकार जिसकी जो लेश्या हो, उसके लिए वह लेश्या वक्तव्य है। यावत् १८४. जीवे णं भंते! जे भविए जोइसिएसु जीवः भदन्त! यः भव्यः ज्योतिष्केषु उपपत्तुं १८४. भन्ते! जो जीव ज्योतिष्कों में उपपन्न होने उववज्जित्तए, से णं भंते! किंलेस्सेसु उव- स भदन्त! किलेश्येषु उपपद्यते? योग्य है, वह भंते! कौन-सी लेश्या वाले ज्योतिष्क वज्जइ? देवों में उपपन्न होता है? गोयमा! जल्लेस्साई दव्वाइं परियाइत्ता कालं गौतम! यल्लेश्यानि द्रव्याणि पर्यादाय कालं गौतम! जो जीव जिस लेश्या वाले द्रव्यों को ग्रहण करेइ, तल्लेस्सेसु उववज्जइ, तं जहा- करोति, तल्लेश्येषु उपपद्यते, तद् यथा- कर मरता है, वह उसी लेश्या वाले ज्योतिष्क तेउलेस्सेसु ॥ तेजोलेश्येषु। देवों में उपपन्न होता है, जैसे-तेजोलेश्या वालों १८५. जीवे णं भंते! जे भविए वेमाणिएसु जीवः भदन्त! यः भव्यः वैमानिकेषु उपपत्तुं १८५. भन्ते! जो जीव वैमानिकों में उपपन्न होने उववज्जित्तए, से णं भंते! किंलेस्सेसु उवव- स भदन्त! किलेश्येषु उपपद्यते? योग्य है, वह कौन-सी लेश्या वाले वैमानिक देवों ज्जइ? में उपपन्न होता है? गोयमा! जल्लेस्साई दव्वाइं परियाइत्ता कालं गौतम! यल्लेश्यानि द्रव्याणि पर्यादाय कालं गौतम! जो जीव जिस लेश्या वाले द्रव्यों का ग्रहण करेइ तल्लेस्सेसु उववज्जइ, तं जहा- करोति, तल्लेश्येषु उपपद्यते, तद् यथा- कर मरता है, वह उसी लेश्या वालों में उपपन्न तेउलेस्सेसु वा, पम्हलेस्सेसु वा, सुक्कलेस्सेसु तेजोलेश्येषु वा पद्मलेश्येषु वा शुक्ललेश्येषु होता है, जैसे-तेजोलेश्या के द्रव्यों को ग्रहण कर वा ॥ वा॥ मरने वाला तेजोलेश्या वालों में, पद्मलेश्या के द्रव्यों को ग्रहण कर मरने वाला पद्मलेश्या वालों में, शुक्ल लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण कर मरने वाला शुक्ल लेश्या वालों में। भाष्य १. सूत्र १८३-१८५ प्रस्तुत आलापक में लेश्या और पुनर्जन्म के सिद्धान्त का निर्देश है। लेश्या का एक नियम है कि जीवन के अंतिम समय में जो लेश्या होती है, मृत्यु के पश्चात् अगले जन्म में जीव उसी लेश्या वाले स्थानों में जन्म लेता है। उत्तरज्झयणाणि में इस नियम की विशेष जानकारी उपलब्ध है। पहले समय में परिणत सभी लेश्याओं में कोई भी जीव दूसरे भाव में उत्पन्न नहीं होता। अंतिम समय में परिणत सभी लेश्याओं में कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। लेश्याओं की परिणति १. भ. वृ. ३/१७२-१७४-बलाहकस्याजीवत्वेन विकुर्वणाया असंभवात् परिणामयितुमित्युक्तं, परिणामश्चास्य विश्रसारूपः 'नो आयडीए' ति अचेतनत्वान्मेघस्य विवक्षितायाः शक्तरभावान्नात्मद्धर्या गमनमस्ति, बायुना देवेन वा प्रेरितस्य तु स्यादपि गमनम्। २. टाणं, ३/३५६ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ७६ श.३ : उ.४ : सू.१८३-१८५ होने पर अन्तर्मुहूर्त बीत जाता है, अन्तमुहूर्त शेष रहता है, उस समय में जन्म लेना है। उदाहरण स्वरूप-ज्योतिष्क देवों में तेजोलेश्या है। जीव परलोक में जाते हैं।' जिस जीव ने ज्योतिष्क देव के आयुष्य का बंध किया है, वह मृत्यु इस नियम के साथ तीन तथ्य संबद्ध हैं-द्रव्य लेश्या, भाव के आसन्नकाल में तेजोलेश्या के द्रव्यों को ग्रहण कर उसके भाव में लेश्या और उत्पत्स्यमान स्थान में प्राप्त होने वाली लेश्या। वर्तमान परिणत हो मरेगा और मृत्यु के पश्चात् ज्योतिष्क देव के रूप में उत्पन्न जन्म में अगले जन्म के आयुष्य का बंध हो जाता है। मृत्यु के समय होगा। उसी लेश्या के द्रव्यों का ग्रहण किया जाता है, जिस लेश्या के स्थान चौबीस दण्डकों में लेश्या की प्राप्ति की जानकारी के लिए देखें यंत्र दण्डक-अंक जीव लेश्या पहला सात नारकी पहली, दूसरी तीसरी चौथी पांचवीं तीन प्रथम (कृष्ण, नील, कापोत) कापोत कापोत वाले अधिक, नील वाले कम नील नील वाले अधिक, कृष्ण वाले कम कृष्ण महाकृष्ण चार प्रथम (पद्म, शुक्ल छोड़कर) दूसरे से तेरहवां, सोलहवां छठी सातवीं दस भवनपति तथा पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय तेजस्काय, वायुकाय, तीन विकलेन्द्रिय तीन प्रथम चौदहवां, पन्द्रहवां, सत्रहवें से उन्नीसवें तक बीसवां तीन प्रथम छह असंज्ञी (अमनस्क) तिर्यंच पंचेन्द्रिय, संज्ञी (समनस्क) तिर्यंच पंचेन्द्रिय असंज्ञी मनुष्य, संज्ञी कर्मभूमिज मनुष्य, यौगलिक मनुष्य इक्कीसवां तीन प्रथम बाईसवां तेईसवां चौबीसवां व्यन्तर ज्योतिष्क प्रथम, द्वितीय स्वर्ग, प्रथम किल्विषिक, तृतीय, चतुर्थ, पंचम स्वर्ग तथा द्वितीय किल्विषिक, तृतीय किल्बिषिक, छठे स्वर्ग से अनुत्तरविमान चार प्रथम चार प्रथम एक-तेजस् एक-तेजस् एक-पद्म एक-शुक्ल ___ 'जल्लेसाई दव्वाइं परियाइत्ता' का अर्थ है जिस लेश्या संबंधी द्रव्यों (पुद्गलों) का ग्रहण कर, इस वाक्यांश में द्रव्य लेश्या अथवा पौद्गलिक लेश्या के ग्रहण की बात कही गई है। द्रव्य लेश्या के तीन अर्थ हो सकते हैं १. भाव लेश्या के लिए प्रयोजनीय पुद्गल, जिन्हें ग्रहण कर भाव लेश्या प्रवृत्त होती है। २. शरीर का वर्ण ३. आभावलय अथवा आभामण्डल प्रस्तुत प्रकरण में द्रव्य लेश्या का अर्थ भाव लेश्या के लिए प्रयोजनीय पुद्गल किया जा सकता है। इससे फलित होता है कि मृत्यु के आसन्न काल में भावी जन्म के अनुरूप द्रव्य और भाव लेश्या की परिणति हो जाती है। वृत्तिकार ने भी इस ओर इंगित किया है। १. उत्तर. ३४/५८-६० लेसाहि सव्वाहिँ पढ़मे समयम्मि परिणयाहिं तु। न वि कस्स वि उववाओ, परे भवे अस्थि जीवस्स ॥ लेसाहिँ सव्याहिं, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु। न वि कस्सवि उववाओ, परे भवे अस्थि जीवस्स ॥ अंतमुहुत्तम्मि गए, अंतमुत्तम्मि सेसए चेव। लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छति परलोयं ॥ २. भ. वृ. ३/१८३--'जल्नेसाइंति या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यल्लेश्यानि यस्या लेश्यायाः सम्बन्धीनीत्यर्थः, 'परियाइत्त'ति पर्यादाय परिगृह्य भावपरिणामेन काल करोति म्रियते तल्लेश्येषु नारकेषूत्पद्यते। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.४ : सू.१८६-१६० ८० भगवई भाविअप्प-विकुव्वणा-पदं भावितात्म-विक्रिया-पदम् भावितात्म-विक्रिया-पद १८६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १८६. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों पोग्गले अपरियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः वैभारं पर्वतम् का' ग्रहण किए बिना वैभार पर्वत का उल्लंघन उल्लंघेत्तए वा? पल्लंघेत्तए वा? उल्लंघयितुं वा? प्रलंघयितुं वा? (एक बार लांघना) और प्रलंघन (बार-बार लांघना) करने में समर्थ है? गोयमा! नो इणढे समढे ॥ गौतम! नायमर्थः समर्थः। गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। भाष्य १. बाहरी पुद्गलों का प्रस्तुत प्रकरण में बाहरी पुद्गलों का अर्थ वैक्रिय शरीर योग्य पुद्गल हैं।' वैभार पर्वत के उल्लंघन आदि की क्रियाएं वैक्रिय शरीर के द्वारा ही की जा सकती हैं; इसलिए यहां बाह्य पुद्गल वैक्रिय वर्गणा की पुद्गल-राशि के लिए विवक्षित है। १८७. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १८७. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों पोग्गले परियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः वैभारं पर्वतम् का ग्रहण कर वैभार पर्वत का उल्लंघन और उल्लंघेत्तए वा? पल्लंघेत्तए वा? उल्लंघयितुं वा? प्रलंघयितुं वा? प्रलंघन करने में समर्थ है? हंता पभू ॥ हन्त प्रभुः। हां, वह समर्थ है। १८८. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १८८. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों पोग्गले अपरियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे पुद्गलान् अपर्यादाय यावन्ति राजगृहे नगरे का ग्रहण किए बिना राजगृह नगर में जितने नगरे रूवाईं, एवइयाई विकुव्वित्ता वेभारं रूपाणि एतावन्ति विकृत्य वैभारं पर्वतम् ___रूप हैं, उतने रूपों की विक्रिया कर वैभार पर्वत पव्वयं अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समं वा अन्तः अनुप्रविश्य प्रभुः समं वा विषम के भीतर प्रविष्ट हो क्या उसके समभाग को विसमं करेत्तए? विसमं वा समं करेत्तए? कर्तुम्? विषमं वा समं कर्तुम् ? विषम करने में और विषम भाग को सम करने में समर्थ है? गोयमा! नो इणढे समढे ॥ गौतम! नायमर्थः समर्थः। गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। १८६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए अनगार: भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १८६. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों पोग्गले परियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे नगरे पुद्गलान् पर्यादाय यावन्ति राजगृहे नगरे का ग्रहण कर राजगृह नगर में जितने रूप हैं, रूवाई, एवइयाई विकुवित्ता वेभारं पव्वयं रूपाणि एतावन्ति विकृत्य वैभार पर्वतम् उतने रूपों की विक्रिया कर वैभार पर्वत के भीतर अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समं वा विसमं अन्तः अनुप्रविश्य प्रभुः समं वा विषमं प्रविष्ट हो क्या उसके समभाग को विषम करने करेत्तए? विसमं वा समं करेत्तए? कर्तुम्? विषमं वा समं कर्तुम्? में और विषम भाग को सम करने में समर्थ हंता पभू ॥ हन्त प्रभुः। हां, वह समर्थ है। १६०. से भंते! किं माई विकुव्वइ? अमाई स भदन्त! किं मायी विकरोति? अमायी १६०. भन्ते! मायी' विक्रिया (रूप-निर्माण) करता विकुव्वइ? विकरोति? है? अमायी' विक्रिया करता है? गोयमा! माई विकुब्वइ, नो अमाई विकुब्वइ॥ गौतम! मायी विकरोति, नो अमायी विकरोति। गौतम! मायी विक्रिया करता है? अमायी विक्रिया नहीं करता। भाष्य १. मायी, अमायी माया के अनेक अर्थ हैं-माया-वक्रता, कषाय का तीसरा प्रकार। तीन शल्य हैं। उनमें पहला शल्य है-माया। माया का एक अर्थ है-शाम्बरी विद्या, जादुगरी की विद्या। माया को जानने वाला मायाकार अथवा मायी कहलाता है। वृत्तिकार ने मायी का अर्थ मायावान्' उपलक्षण से 'सकषाय' या 'प्रमत्त' किया है। उनका अभिमत (ख) आप्टे.-माया.-श्रनहहसमतलए पजबी.बतजिए 'द पससनेपवद वा उहपब १. भ. ७.३/१८६-औदारिकशरीरव्यतिरिक्तान वैक्रियानित्यर्थः। २. (क) अभि. ३/५८६-माया तु शाम्बरी। Jain Education Intemational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई है कि अप्रमत्त वैक्रिय नहीं करता।" वृत्तिकार के इस अभिमत का संवादी पाठ साक्षात् उपलब्ध है-अमायी विक्रिया नहीं करता। यहां वृत्तिकार द्वारा किया हुआ 'मायी' शब्द का अर्थ विमर्शनीय है। अमायी भी वैक्रियलब्धि का प्रयोग करता है। यदि मायी का अर्थ प्रमत्त और अमायी का अर्थ अप्रमत्त किया जाए तो जमायी वैक्रिय शक्ति का प्रयोग कैसे कर सकता है ? सूत्र ३/२३१ से २३६ तक का पूरा आलापक अमायी द्वारा कृत विक्रिया से संबद्ध है। यहां मायी का अर्थ 'प्रमत्त' या 'कपायवान्' प्रासंगिक नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में मायी का अर्थ आभियोगिकी भावना से भावित मंत्र, यांग, भूतिकर्म आदि का प्रयोग करने वाला होना चाहिए। इसके समर्थन में भ. ३/२१६, २२० द्रष्टव्य हैं। मायी आभियोगिक १६१. से केणणं भंते! एवं वुच्चइ-माई विकुव्वद, नो अमाई विकुव्यद? गोयमा माई णं पणीयं पाण-भोयणं भोच्चा- भोच्चा वामेति तस्स णं तेण पणीएणं पाण-भोवणेणं अद्वि-अद्विमिंजा बहलीभवंति, पयणुए मंस - सोणिए भवति । जे वि य से अहाबायरा पोग्गला ते वि व से परिणमति तं जहा सोइदिवत्ताए चक्खिदियत्ताए घाणिदियत्ताए रसिदिवत्ताए फासिंदियत्ताए, अट्ठि - अट्ठिमिंज केस-मंसुरोम-महलाए, सुक्कत्ताए, सोणियताए , अमाई न त पाण-भोषणं भोच्चा-भोच्चा णो वामेह तस्स णं तेणं सुहेणं पाण -भोयणेण अद्वि-अमिंजा पयणूभवति, बहले मंस - सोणिए । जे वि य से अहाबायरा पोग्ला ते वि व से परिणमति तं जहा उच्चारत्ताए पासवणत्ताए खेलत्ताए सिंघाणत्ताए तत्ताए पित्तत्ताए पूयत्ताए सोणियत्ताए । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-माई विकुब्ब, नो अपाई विकुब्बह ८१ श.३ उ. ४ सू. ११० १११ देवलोकों में देव के रूप में उत्पन्न होता है और अमायी अनाभियोगिक देवलोकों में उत्पन्न होता है मंत्र, योग, भूतिकर्म आदि का प्रयोग करने वाला आभियोगिकी भावना करता है। यह उत्तरज्झयणाणि में स्पष्ट उल्लिखित है। यहां विक्रिया का अर्थ अभियोजन - विद्या मंत्र आदि के सामर्थ्य से किया जाने वाला परिवर्तन है। वृत्तिकार ने मावी अभिनुजई इस वाचना का उल्लेख किया है। अभियोग को भी विक्रिया माना है।" सूत्र २०६ और २१० में अभिजुंजित्तए तथा सूत्र २११ में अभिजित्ता का प्रयोग मिलता है। प्रस्तुत प्रकरण में अभिजुंजइ यह पाठ 'विउव्वइ' की अपेक्षा अधिक प्रासंगिक है। आभियोगिकी भावना की अभिव्यक्ति अभिजुंजई पाठ से होती है, वह विउव्वर पाठ से नहीं होती। तत् केनार्थेन भदन्त एवमुच्यते मायी विकरोति, नो अमायी विकरोति ? गीतम! मायी प्रणीतं पान - भोजनं भुक्त्वा - - भुक्त्वा वमति । तस्य तेन प्रणीतेन पानभोजन अस्थि-अस्थिमज्जा यहलीभवन्ति, प्रतनुकं मांस शोणितं भवति । येऽपि च तस्य यथा वादराः पुद्गलाः तेऽपि च तस्य परिणमन्ति तद्यथा श्रोत्रेन्द्रियतया चक्षुरिन्द्रियतया घ्राणेन्द्रियतया रसनेन्द्रियतया स्पर्शेन्द्रियतया, अस्थि- अस्थिमज्जा-केश--रोगनतया शुक्रतया, शोणित तया । T अमावी पान-भोजनं भुक्त्या मुक्त्वा नो वमति । तस्य तेन रुक्षेण पान भोजनेन अस्थि-अस्थिमज्जाः प्रतनुभवन्ति बहल मांस- शांणितम् । येऽपि च तस्य यथाबादराः पुद्गलास्तेऽपि च तस्य परिणमन्ति तद् यथा-उच्चारतया प्रस्रवणतया क्ष्वेलतया सिंहाणतया वान्ततया पित्ततया पूयतया शोणिततया । १. भ. वृ. ३८१६० मायी' ति मायावान् उपलक्षणत्वादस्य सकषायः प्रमत्त इति यावत्, अप्रमत्ती हि न वैक्रियं कुरुत इति । २. भग. ३/१६० ३. उत्तर. ३६/२६४ तद् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते मायी विकरोति, नो अमायी विकरोति । १६१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-मायी विक्रिया करता है, अमायी विक्रिया नहीं करता ? गौतम! मायी प्रणीत पान भोजन खा खा कर उसका वमन करता है। उस प्रणीत पान- भोजन से उसकी अस्थियां और अस्थिमज्जा सघन हो जाती हैं। मांस और शोणित पतला हो जाता है । वह जिन यथोचित बादर पुद्गलों को लेता है वे भी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, अस्थि, अस्थिमज्जा, केश, श्मश्रु, रोम, नख, शुक्र और शोणित-रूप में परिणत हो जाते हैं। अमायी रूक्ष पान - भोजन खा खा कर उसका वमन नहीं करता है। उस रूक्ष पान-भोजन से उसकी अस्थियां और अस्थिमज्जा पतली हो जाती है। मांस और शोणित सघन हो जाता है। वह जिन यथोचित बादर पुद्गलों को लेता है वे भी मल, मूत्र श्लेष्म, नासिकामल वमन, पित, पीय और शोणित रूप में परिणत हो जाते हैं। J गीतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-मायी विक्रिया करता है, अमायी विक्रिया नहीं करता। मंताजोगं काउं, भूईकम्मं च जे पउंजति । सायरसइडिहेउ, अभिओगं भावणं कुणइ ॥ ४. भ. वृ. ३/२१८ - माई विउब्वाइ' त्ति दृश्यते, तत्र चाभियोगोऽपि विकुर्वणेति मन्तव्यं, विक्रियारूपत्वात्तस्येति । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.४ : सू.१६१-१६३ ५२ भगवई भाष्य १. अस्थियां और अस्थिमज्जा सघन हो जाती हैं प्रस्तुत प्रकरण में विक्रिया की प्रक्रिया भी बतलाई गई है। अस्थि और अस्थिमज्जा-ये दोनों विक्रिया के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। विक्रिया की शक्ति इन्हीं में अर्जित होती है। बार-बार स्निग्ध भोजन करना और भोजन के बाद वमन कर देना-यह अस्थि और अस्थिमज्जा के स्नेहन की विधि है। इस विधि से अस्थि और अस्थिमज्जा-ये सघन हो जाते हैं। मांस और रक्त की सघनता कम हो जाती है। शेष आहार इन्द्रियों की शक्ति बढ़ाता है।' २. मल, मूत्र...परिणत हो जाते हैं प्रसंगवश रूक्ष भोजन की परिणति का भी विवरण मिलता है। रूक्ष भोजन का उच्चार (मल) आदि के रूप में अधिक परिणमन होता है। इससे अस्थि, अस्थिमज्जा और इन्द्रियों का संवर्धन यथेष्ट मात्रा में नहीं होता। १६२. माई णं तस्स ठाणस्स अणालोइय- मायी तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्तः १६२. मायी उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण पडिक्कते कालं करेइ, नत्थि तस्स कालं करोति, नास्ति तस्य आराधना। अमायी किए बिना काल को प्राप्त होता है, उसके आराहणा। अमाई णं तस्स ठाणस्स तस्य स्थानस्य आलोचित-प्रतिक्रान्तः कालं आराधना नहीं होती। अमायी उस स्थान की आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ, अत्थि करोति, अस्ति तस्य आराधना। आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल को प्राप्त तस्स आराहणा ॥ होता है, उसकी आराधना होती है।' भाष्य १. आराधना होती है प्रस्तुत सूत्र मायी से अमायी बने हुए मुनि के लिए विहित है। जो मुनि पहले मायी-अवस्था में प्रणीत भोजन और विक्रिया-दोनों का प्रयोग करता था, फिर उन दोनों का परित्याग कर अमायी हो गया तथा पूर्वकृत दोष की आलोचना और प्रतिक्रमण कर विशुद्ध हो गया, उस अवस्था में उसका मरण आराधक-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना से युक्त होता है। १६३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। १६३. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही १. भ. वृ. ३/१६१-यथोचितवादराः आहारपुद्गला इत्यर्थः परिणन्ति श्रोत्रेन्द्रियादित्वेन, अन्यथा शरीरस्य दायासम्भवात्। २. वही, ३/१६१-रूक्षभोजिन उच्चारादितयेवाहारादिपुद्गलाः परिणमन्ति अन्यथा शरीरस्यासारताऽनापत्तरिति। ३. वही, ३/१६२-'माई णमित्यादि', 'तस्स ठाणस्स'ति तस्मात्स्थानादिकुर्वणाकरणलक्षणात्प्रणीतभोजनलक्षणाद्वा, 'अमाई ण' मित्यादि, पूर्व मायित्वा वैक्रिय प्रणीतभोजनं वा कृतवान् पश्चाज्जातानुतापोऽमायी सन् तस्मात्स्थानादालोचितप्रतिक्रान्तः सन् कालं करोति यस्तस्यास्त्याराधनेति। Jain Education Intemational Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद भाविअप्प-विकुव्वणा-पदं भावितात्म-विकुर्वणा-पदम् भावितात्मा-विकुर्वणा-पद १६४. अणगारे णं मंते! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १६४. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एग महं इत्थीरूवं पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः एकं महत् स्त्रीरूपं पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एक महान स्त्रीरूप वा जाव संदमाणियरूवं वा विउवित्तए? वा यावत् स्यन्दमानिकारूपं वा विकर्तुम्? यावत् स्यन्दमानिका-रूप की विक्रिया करने में समर्थ है? नो इणढे समढे ॥ नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं हैं। १६५. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यकान् १६५. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः एकं महत् स्त्रीरूपं पुद्गलों का ग्रहण कर एक महान स्त्रीरूप यावत वा जाव संदमाणियरूवं वा विउव्वित्तए? वा यावत् स्यन्दमानिकारूपं वा विकर्तुम्? स्यन्दमानिका-रूप का निर्माण करने में समर्थ है? हंता पभू ॥ हन्त प्रभुः। हां, समर्थ है। १६६. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइयाइं अनगारः भदन्त! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः १६६. भन्ते! भावितात्मा अनगार कितने स्त्री-रूपों पभू इत्थिरूवाइं विकुवित्तए? स्त्रीरूपाणि विकर्तुम्? का निर्माण करने में समर्थ है? गोयमा! से जहानामए-जुवतिं जुवाणे गौतम! तद् यथानाम युवतिं युवा हस्तेन । गौतम! जैसे कोई युवक युवती का हाथ प्रगाढ़ता हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी हस्ते गृहीयात् चक्रस्य वा नाभिः अरकायुक्ता से पकड़ता है तथा गाड़ी के चक्के की नाभि अरगाउत्ता सिया, एवामेव अणगारे वि स्याद, एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा आरों से युक्त होती है, उसी प्रकार भावितात्मा भाविअप्पा वेउब्वियसमग्याएणं समोहण्णड वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति यावत प्रभुः अनगार वैक्रिय समदघात से समवहत होता है जाव पभू णं गोयमा! अणगारे णं भाविअप्पा गौतम! अनगारः भावितात्मा केवलकल्पं यावत् गौतम! वह भावितात्मा अनगार सम्पूर्ण केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहि इत्थिरूवेहि जम्बूद्वीपं द्वीपं बहुभिः स्त्रीरूपैः आकीर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को अनेक स्त्रीरूपों से आकीर्ण, आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थर्ड संथर्ड फुडं व्यतिकीर्णम् उपस्तृतं संस्तृतं स्पृष्टम् व्यतिकीर्ण, उपस्तृत (बिछौना-सा बिछाया हुआ), अवगाढावगाद करेत्तए। एस णं गोयमा! अवगाढावगाढं कर्तुम्। एष गौतम! अन- संस्तृत (भली-भांति बिछौना-सा बिछाया हुआ), अणगारस्स भाविअप्पणो अयमेयारूवे विसए. गारस्य भावितात्मनः अयमेतद्रूपः विषयः स्पृष्ट और अवगाढ़ावगाढ़ (अत्यन्त सघन रूप विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विषयमात्रम् उक्तम्, नो चैव सम्प्राप्त्या से व्याप्त) करने में समर्थ है। गौतम! भावितात्मा विउव्विंसु वा, विउव्वति वा, विउव्विस्सति व्यकार्षीद् वा, विकरोति वा, विकरिष्यति अनगार (की विक्रिया शक्ति) का यह इतना विषय वा। एवं परिवाडीए नेयव्वं जाव संद- वा। एवं परिपाट्या नेतव्यं यावत् स्यन्द- केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है। भावितात्मा माणिया ॥ मानिका। अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है, और न करेगा। इस परिपाटी से यावत् स्यन्दमानिका तक ज्ञातव्य है। १६७. से जहानामए केइ परिसे असिचम्मपायं तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः असिचर्मपात्रं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि गृहीत्वा गच्छेत्, एवमेव अनगारोऽपि भाविअप्पा असिचम्मपायहत्थकिच्चगएणं भावितात्मा असिचर्मपात्रहस्तकृत्यागतेन अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? आत्मना उर्ध्वं विहायः उत्पतेत् ? हंता उप्पएज्जा ॥ हन्त उत्पतेत्। १६७. जैसे कोई भी पुरुष तलवार और ढ़ाल ग्रहण कर जाए इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी क्या हाथ में तलवार और ढ़ाल ले कृत्यागत होकर (माया या विद्या का प्रयोग कर) ऊपर आकाश में उड़ता है? हां, उड़ता है। Jain Education Intemational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.५ सू. १६७-२०२ है १. तलवार... प्रयोग कर वृत्तिकार ने असिचर्मपात्र का अर्थ 'ढाल' किया है। वैकल्पिक रूप से असि का अर्थ 'तलवार' और चर्मपात्र के दो अर्थ किये हैं। 'ढाल अथवा म्यान' ।" असिचम्मपावहत्यकिच्चगएण के वृत्तिकार ने तीन अर्थ किए १६६. से जहानामए केइ पुरिसे एगओपडागं काउं गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा एगओपडागाहत्यकिच्चनएणं अप्पानेणं उड़ देहास उप्पएज्जा? हंता उप्पएज्जा ॥ १. कृत्य कृत्य अर्थात् संघ आदि के प्रयोजन के लिए हाथ १६८. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइयाई पभू अतिचम्म (पाय ?) हत्यकिव्यगवाई रुवाई विउब्वित्तए? गोवा से जहानामए जुवई जुवाने हत्येणं हत्थे गेण्हेज्जा, तं चेव जाव विउब्विंसु वा विउव्वति वा, विउव्विस्सति वा ॥ 1222 २०१. एवं दुहओपडागं पि भाष्य २०२. से जहानामए के पुरिसे एगओजणी वदतं कार्ड गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविजम्मा एवओोजण्णोवइतकिच्चनएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा ? हंता उप्पएज्जा ॥ २००. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइयाई पभू एनओपडागाहत्यकिच्चगयाई रुवाई विकुब्वित्तए? अनगारः भदन्त ! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः एकतः पताकाहस्तकृत्यागतानि रूपाणि विक तुम् " एवं चैव जाव विकुब्बिस्तु वा विकुष्यति एवं चैाव्यार्थी वा विकरोति वा वा, विकुव्विस्सति वा ॥ विकरिष्यति वा । अनगारः भदन्त ! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः असिचर्म (पात्र?) हस्त कृत्यागतानि रूपाणि विकर्तुम् गौतम तद्यथानाम युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गृहीयात्, तच्चैव यावद् व्यकार्षीद् वा, विकरोति वा विकरिष्यति वा में तलवार और ढाल को धारण करना । २. असिचर्मपात्रहस्तकृत्याकृतेन असिचर्मपात्र को करके, हाथ में प्राप्त कर लिया है जिसने । तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः एकतः पताकां कृत्वा गच्छेत्, एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा एकत पताकाहस्तकृत्यागतेन आत्मना ऊध्ये विहायः उत्पतेत् ? हन्त उत्पतेत् । एवं द्विधापताकम् अपि । ३. असिचर्मपात्र के हस्तकरण को प्राप्त करने वाला । यह पूरा आलापक माया का है। कृत्या का अर्थ है-माया, इन्द्रजाल, जादू-टोना आदि। इसलिए 'माया या विद्या का प्रयोग कर' - यह अर्थ प्रकरण-संगत है। १. भ. वृ. ३/१६७ - असिचर्मपात्र - स्फुरकः अथवाऽसिश्च खड्गः, चर्मपात्रं च स्फुरकः खड्गकोशको वा ॥ २. बही ३/१६७ - अतिवर्म्मपात्र हस्ते यस्य स तथा कृत्यं-संघादि प्रयोजनं गतः - आश्रितः कृत्यगतः ततः कर्मधारयः, अतस्तेनात्मना, अथवा असिचर्मपात्रं कृत्वा हस्ते कृतं येनासी तद्यथानाम कोऽपि पुरुषः एकतोयज्ञोपवीतं कृत्वा गच्छेत् एवमेव अनाभावितात्मा एकतीयज्ञोपवीतकृत्यागतेन आत्मना उ विहायः उत्पतेत् ? हन्त उत्पतेत्। भगवई १६८. भन्ते ! भावितात्मा अनगार हाथ में तलवार और ढाल ले कितने कृत्यागत रूपों की विक्रिया करने में समर्थ है ? गीतम जैसे कोई युवक युवती का हाथ प्रगाढ़ता से पकड़ता है, वही (सू. १९६) वक्तव्यता यावत् भावितात्मा अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की न करता है और न करेगा। १६६. जैसे कोई पुरुष एक हाथ में पताका लेकर जाए, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार क्या एक हाथ में पताका ले कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता है? हां, उड़ता है। २०० भन्ते भावितात्मा अनगार एक हाथ में पताका ले कितने कृत्यागत रूपों की विक्रिया करने में समर्थ है ? वही (सू. १६६) वक्तव्यता यावत् भावितात्मा अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की न करता है और न करेगा। २०१. इसी प्रकार दोनों हाथों में पताका लिए हुए पुरुष की वक्तव्यता । २०२. जैसे कोई पुरुष एक ओर यज्ञोपवीत धारण कर जाए, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी क्या एक ओर यज्ञोपवीत धारण किए हुए कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता है? हां, उड़ता है 1 अतिपातकृत्याकृ प्राकृतत्वाच्चैवं समासः अथवा असिचर्मपात्रस्य हस्तकृत्यां हस्तकरणं गतः प्राप्तो यः स तथा तेन । ३. आष्टे - कृत्या - Magic. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.३: उ.५ : सू.२०३-२०७ २०३. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइयाई अनगारः भदन्त! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः २०३. भन्ते! भावितात्मा अनगार एक ओर यज्ञोपवीत पभू एगओजण्णोवइतकिच्चगयाई रुवाई एकतोयज्ञोपवीतकृत्यागतानि रूपाणिवि- धारण किए हुए कितने कृत्यागत रूपों की विकुवित्तए? कर्तुम्? विक्रिया करने में समर्थ है? तं चेव जाव विकुव्विस्सु वा, विकुव्वति तच्चैव यावद् व्यकार्षीद् वा, विकरोति वा, वही (सू. १६६ की) वक्तव्यता यावत् भावितात्मा वा, विकुव्विस्सति वा। विकरिष्यति वा। अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। २०४. एवं दुहओजण्णोवइयं पि ॥ एवं द्विधायज्ञोपवीतमपि। २०४. इसी प्रकार दोनों ओर यज्ञोपवीत धारण किए हुए पुरुष की वक्तव्यता। २०५. से जहानामए केइ पुरिसे एगओपल्ह- तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः एकतःपर्यस्तिका २०५. भन्ते! जैसे कोई पुरुष एक (अर्ध) त्थियं काउं चिट्ठज्जा, एवामेव अणगारे वि कृत्वा तिष्ठेत, एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा पर्यस्तिका-आसन' में बैठता है, इसी प्रकार भाविअप्पा एगओपल्हत्थियकिच्चगएणं एकतःपर्यस्तिककृत्यागतेन आत्मना ऊर्ध्व भावितात्मा अनगार भी क्या एक पर्यस्तिका-आसन अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? विहायः उत्पतेत्? में बैठ कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता तं चेव जाव विकुच्विंसु वा, विकुव्वति वा, तच्चैव यावद् व्यकार्षीद् वा, विकरोति वा, विकुव्विस्सति वा ॥ विकरिष्यति वा। वही (सू. १६६ की) बक्तव्यता यावत् भावितात्मा अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। भाष्य १. पर्यस्तिका (पल्हत्थिय) 'हठयोगप्रदीपिका' में इसे स्वस्तिकासन के रूप में इस प्रकार व्याख्यापित किया गया है-दोनों जांघों और घुटनों के मध्य में दोनों पादतलों (तलवों) को रखकर त्रिकोणाकार-आसन बांधना तथा सरल भाव से बैठने को स्वस्तिकासन कहते हैं।' 'घेरण्डसंहिता' में भी यही व्याख्या उपलब्ध है। उत्तरज्झयणाणि (१/१६ का टिप्पण) में 'पल्हत्थियं' का दूसरा अर्थ दिया गया है। २०६. एवं दुहओपल्हत्थियं पि ॥ एवं द्विधापर्यस्तिकाम् अपि। २०६. इसी प्रकार द्वि (पूर्ण) पर्वस्तिकासन की वक्तव्यता। २०७. से जहानामए केइ पुरिसे एगओप- तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः एकतःपर्यत लियंक काउं चिद्वेज्जा, एवामेव अणगारे कृत्वा तिष्ठेत् एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा वि भाविअप्पा एगओपलियंककिच्चगएणं एकतःपर्यङ्ककृत्यागतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहायः अप्पाणेणं उड्ढे वेहासं उप्पएज्जा? उत्पतेत्? तं चेव जाव विकुव्विंसु वा, विकुब्वति वा, तच्चैव यावद् व्यकार्षीट् वा, विकरोति वा, विकुव्विस्सति वा ॥ विकरिष्यति वा। २०७. जैसे कोई पुरुष एक (अर्ध) पर्यकासन' में बैठता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी क्या एक पर्यकासन में बैठ कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता है? वही (सू. १६६ की) वक्तव्यता यावत् भावितात्मा अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। भाष्य १. पर्यंकासन-पर्यंकासन का अर्थ पद्मासन और अर्ध पर्यकासन का अर्थ अर्ध पद्मासन किया जाता है। कुछ आचार्य पर्यकासन की मुद्रा वज्रासन के रूप में उल्लिखित करते हैं पर्यक-दोनों जंघाओं के अधोभाग को दोनों पैरों पर टिकाकर २. घेरण्डसंहिता, २/१२। १. हठयोगप्रदीपिका, १/१६ जानूर्वोरन्तरे सम्यक् कृत्या पादतले उभे। ऋजुकायः समासीनः स्वस्तिकं तत् प्रचक्षते ॥ Jain Education Intemational Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ. ५ : सू.२०७-२११ बैठना । अर्धपर्यंक- एक जंघा के अधोभाग को पैर पर टिकाकर बैठना ।" आयंगार के अनुसार पर्यकासन की मुद्रा सुप्तयज्ञासन से कुछ भिन्न हैं- "केवल सिर के मुकुट को जमीन पर स्थित कर पीठ की मेहराब ऊपर बनाते हुए गर्दन और छाती को उठाएं। धड़ का कोई हिस्सा जमीन पर नहीं होना चाहिए।" २०८. एवं दुहओपलियंक पि ॥ भाविअप्प - अभिजुंजणा-पदं २०६. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोम्गले अपरियादत्ता पभू एवं नई आसरूवं वा हथिरूवं वा सीहरूवं वा विग्घरूवं वा विगरूवं वा दीवियरूवं वा अच्छरूवं वा तरच्छरूवं वा परासररूवं वा अभिजुंजित्तए ? नो इणट्टे समट्टे ॥ २१०. अणगारे णं भंते भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परिवाइत्ता पभू एवं महं आसरूवं वा हत्यिरूवं वा सीहरूवं वा विग्घरूवं वा विगरूवं वा दीवियरूवं वा अच्छरूवं वा तरच्छरूवं वा परासररूवं वा अभिजुंजित्तए ? हंता पभू ॥ १. बहिर्वर्ती पुद्गलों का सूत्र १६४ में बाहिरए पोग्गले पाठ है वहां वृत्तिकार ने इसका अर्थ वैक्रिय पुद्गल किया है। प्रस्तुत सूत्र में आए हुए बाहिरए पोग्गले का अर्थ 'विद्या आदि के सामर्थ्य से गृहीत बाह्य पुद्गल' किया है।" इसका हेतु यह है कि १६४वें सूत्र में वैक्रिय लब्धि द्वारा रूप निर्माण का विषय है। प्रस्तुत सूत्र में परकाय प्रवेश का विषय है। २११. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा ( पभू?) एगं महं आसरूवं वा अभिजुंजित्ता अणेगाईं जोयणाई गमित्तए? हंता पभू ॥ १. मूलाराधना, ३/२२४-२५ । २. योगदीपिका, पृ. ८६ । ३. द्रष्टव्य भ. ३/१६४ भाष्य । ८६ भगवई पर्यक का अर्थ पलंग अथवा सोफा है। सुप्तव्रजासन का आकार पलंग जैसा हो जाता है। इसलिए दुहओपलियंक का अर्थ 'सुप्तवज्रासन' किया जा सकता है। एगओपलियंक का अर्थ 'अर्धवज्रासन' - एक साथल (सक्थि) के अधोभाग को एक पैर पर टिका कर बैठना तथा दूसरे पैर को मोड़कर घुटने को ऊंचा रखकर बैठना 'पर्वकासन की विशेष जानकारी के लिए भ. २/६२ का भाष्य द्रष्टव्य है। 1 २०८. इसी प्रकार द्वि (पूर्ण) पर्यंकासन की वक्तव्यता । एवं द्विधापर्यङ्ककम् अपि । भावितात्म- अभियोजना-पदम् अनगारः भदन्त भावितात्मा बाह्यकान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः एक महदू अश्वरूपं वा हस्तिरूपं वा सिंहरूपं वा व्याघ्ररूपं वा वृकरूपं वा द्वीपिकरूपं वा ऋक्षरूपं वा तरक्षरूपं वा पराशररूपं वा अभियोक्तुम् ? नायमर्थः समर्थः भाष्य शब्द-विमर्श अनगारः भदन्त ! भावितात्मा बाह्यकान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः एकं महद् अश्वस्पं वा हस्तिरूपं वा सिंहरूपं वा व्याघ्ररूपं वा वृकरूपं वा द्वीपिकरूपं वा ऋक्षरूपं वा तरक्षरूपं वा पराशररूपं वा अभियोक्तुम् ? हन्त प्रभुः । भावितात्म-अभियोजना- पद २०६. भन्ते ! भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना क्या एक महान् अश्वरूप, हस्तीरूप, सिंहरूप, व्याघ्ररूप, भेड़िये का रूप, चीते का रूप, रींछ का रूप, तेंदुए का रूप अथवा अष्टापद रूप की अभियोजना ( उनके शरीर में अनुप्रविष्ट हो व्याप्त करने में समर्थ है? नहीं, यह अर्थ संगत नहीं है। वृक ( विग्ध) - भेड़िया द्वीपिक (दीविय) - चीता ॠक्ष (अच्छ) - रींछ तरक्ष (तरच्छ)- तेंदुआ पराशर - अष्टापद अनगारः भदन्त ! भावितात्मा (प्रभुः ? ) एकं महद् अश्वरूपं वा अभियुज्य अनेकानि योजनानि गन्तुम्? हन्त प्रभुः । २१०. भन्ते ! भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर क्या एक महान् अश्वरूप, हस्तीरूप, सिंहरूप, व्याघ्ररूप, भेड़िये का रूप, चीते का रूप, रीछ का रूप, तेंदुए का रूप अथवा अष्टापदरूप की अभियोजना में समर्थ है? हां, समर्थ है। २११. भन्ते भावितात्मा अनगार क्या एक महान् अश्वरूप की अभियोजना कर अनेक योजनों तक जाने में समर्थ है? हां समर्थ है। ४. म. . ३०२०९ अभियो विवादिनामानुप्रवेशे व्यापारवितुं यन् स्वस्यानुप्रवेशनेनाभियोजनं तद्विद्यादिसामर्थ्योपात्तबाह्यपुद्गलान् बिना न स्यादितिकृत्वा । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. अभियोजना कर भावितात्मा अनगार वैक्रिय लब्धि के द्वारा नए रूपों का निर्माण करता है और अभियोजन-शक्ति के द्वारा वह परकाय में प्रवेश कर उसे व्यापृत या संचालित करता है। उसका सम्बन्ध आभियोगिकी भावना-विद्या मंत्र आदि से है वृत्तिकार ने अभिजित पाठ का ८७ २१५. से भंते! किं ऊसिओदयं गच्छइ ? पतोदयं गच्छइ ? भाष्य २१२. से भंते! किं आइड्ढीए गच्छइ ? परिड्ढीए गच्छइ ? गोयमा ! आइड्ढीए गच्छइ, नो परिड्ढीए गौतम ! आत्मद्वर्या गच्छति, नो परर्या गच्छति । गच्छइ ॥ स भदन्त किम् आत्मकर्मणा गच्छति ? परकर्मणा गच्छति? २१३. से भंते! किं आयकम्मुणा गच्छइ ? परकम्मुणा गच्छइ ? गोयना आयकम्पुणा गच्छद, नो परकम्मुणा गौतम! आत्मकर्मणा गच्छति, नो परकर्मणा गच्छइ ॥ " गच्छति । २१६. से मंते किं अणगारे? आते? गोयमा! अणगारे णं से, नो खलु से आसे ॥ २१७. एवं जाव परासररूवं वा ॥ स भदन्त ! किम् आत्मप्रयोगेण गच्छति ? परप्रयोगेण गच्छति ? २१४ से भंते कि आयप्ययोगेणं गच्छद परप्ययोगेणं गच्छ ? गोयमा आयप्ययोगेण गच्छद्र, नो परप्य गीतम आत्मप्रयोगेण गच्छति नो पत्प्रयोगेण योगेणं गच्छइ ॥ गच्छति । अर्थ 'विद्या आदि के सामर्थ्य से अश्व आदि के शरीर में प्रविष्ट होकर उसे व्यापृत अथवा संचालित करना' किया है। उत्तरज्झयणाणि में आभियोगिकी भावना का उल्लेख है । उसका सम्बन्ध मंत्र, वशीकरण, योग आदि से है ।" १. उत्तर. ३६ / २६४ । स भदन्त ! किं आत्मद्धय गच्छति ? परद्वर्या २१२. भन्ते ! क्या भावितात्मा अनगार अपनी ऋद्धि गच्छति ? से जाता है? परमृद्धि से जाता है? गौतम! वह अपनी ॠद्धि से जाता है, पर ऋद्धि से नहीं जाता। गोयमाः ऊसिओदयं पि गच्छद, पत्तोदयं गौतम उच्छ्रितोदयमपि गच्छति, पतदुदयमपि पि गच्छइ ॥ गच्छति । २१८ से भंते किं मायी विकुव्वद ? अमावी स भदन्त किं मायी विकरोति? अमायी विकुब्बइ ? विकरोति ? नोयमा गायी विकुव्वद नो अमायी गौतम गायी विकरोति, नो अमायी विकरोति? विकुव्वइ ॥ श.३ : उ.५ : सू.२११-२१८ स भदन्त किम् अनगारः ? अश्वः ? गौतम! अनगारः सः, नो खलु स अश्वः । एवं यावत् पराशररूपं वा । स भदन्त ! किं उच्छ्रितोदयं गच्छति ? पतदुदयं २१५. भन्ते ! क्या भावितात्मा अनगार ऊपर उठी गच्छति ? हुई पताका के रूप में जाता है? नीचे गिरी हुई पताका के रूप में जाता है? गौतम ! वह ऊपर उठी हुई पताका के रूप में भी जाता है और नीचे गिरी हुई पताका के रूप में भी जाता है। २१३. भन्ते ! क्या भावितात्मा अनगार अपनी क्रिया से जाता है? परक्रिया से जाता है? गौतम! वह अपनी क्रिया से जाता है, परक्रिया से नहीं जाता। २१४. भन्ते ! क्या भावितात्मा अनगार अपने प्रयोग से जाता है? परप्रयोग से जाता है? गौतम! वह अपने प्रयोग से जाता है, परप्रयोग से नहीं जाता। २१६. भन्ते ! क्या वह अनगार है? अश्व है? गौतम ! वह अनगार है, अश्व नहीं है। २१७. इसी प्रकार यावत् अष्टापद रूप की अभियोजना के विषय में ज्ञातव्य है । २१८. भन्ते क्या मायी विक्रिया (रूप निर्माण) करता है?" अमायी विक्रिया करता है? गौतम! मायी विक्रिया करता है, अमायी विक्रिया नहीं करता। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.५:सू.२१८-२२१ ८८ भगवई भाष्य १. विक्रिया करता है सूत्र २१८ का पाठ अधिकृत वाचना के अनुसार 'विकुव्वइ' स्वीकार किया गया है। वृत्तिकार ने अभियोग ओर विक्रिया को एकार्थक बतलाया है। किन्तु वास्तव में ये दोनों एक नहीं होने चाहिए। सूत्र २११ के भाष्य में इनका भेद स्पष्ट किया जा चुका है। २१६. मायी णं भंते! तस्स ठाणस्स अणा- मायी भदन्त ! तस्य स्थानस्य अनालोचित- २१६. भन्ते! मायी उस स्थान की आलोचना और लोइयपडिक्कते कालं करेइ, कहिं उव- प्रतिक्रान्तः कालं करोति, कुत्र उपपद्यते? प्रतिक्रमण किए विना मरकर कहां उपपन्न होता वज्जइ? है? गोयमा! अण्णयरेसु आभियोगिएसु देव- गातम! अन्यतरेषु आभियोगिकेषु देवलोकेषु । गौतम! आभियोगिक देवलोंकों में से किसी एक लोगेसु देवत्ताए उववज्जइ ॥ देवतया उपपद्यते। देवलोक में देवरूप में उपपन्न होता है। २२०. अमायी णं भंते! तस्स ठाणस्स आलो- अमायी भदन्त! तस्य स्थानस्य आलो- २२०. भन्ते! अमायी उस स्थान की आलोचना और इय-पडिक्कते कालं करेइ, कहिं उववज्जइ? चित-प्रतिक्रान्तः कालं करोति, कुन उपपद्यते? प्रतिक्रमण के पश्चात् मरकर कहां उपपन्न होता गोयमा! अण्णयरेसु अणाभियोगिएसु गौतम! अन्यतरेषु अणाभियोगिकेषु देवलोकेषु देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ ॥ देवतया उपपद्यते। गीतम! अनाभियोगिक देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवरूप में उपपन्न होता है। २२१. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। २२१. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा इत्थी असी पडागा जण्णोवइए य होइ बोद्धव्वे। पल्हत्थिय पलियंके, अभिओग विकुव्वणा मायी ॥१॥ स्त्री असिः पताका, यज्ञोपवीतं च भवति बोद्धव्यम् । पर्यस्तिकापर्यङ्की, अभियोगो विक्रिया मायी ॥१॥ संग्रहणी गाथा स्त्री, तलवार, पताका, यज्ञोपवीत, पर्यस्तिका, पर्यक, अभियोग, विक्रिया और माया-इस उद्देशक में ये विषय वर्णित हैं। Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद भावियप्प-विकुव्वणा-पदं भावितात्म-विक्रिया-पदम् भावितात्मा-विक्रिया-पद २२२. अणगारे णं भंते! भावियप्पा मायी । अनगारः भदन्त! भावितात्मा मायी मिथ्या-- २२२. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो मायी, मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए दृष्टिः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः विभंग- मिथ्यादृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगनाणलद्धीए वाणारसिं नगरि समोहए, ज्ञानलब्धिकः वाराणसी नगरी समवहतः, विभंगज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह वाराणसी समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाई जाणइ- समवहत्य राजगृहे नगरे रूपाणि जानाति- नगरी में क्रियसमुद्घात का प्रयोग करता है, पासइ? पश्यति? प्रयोग कर राजगृह नगर में विद्यमान रूपों को जानता-देखता है? हंता जाणइ-पासइ ॥ हन्त जानाति-पश्यति। हां, जानता-देखता है। २२३. से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभाव जाणइ-पासइ? स भदन्तः किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २२३. भन्ते! क्या वह यथार्थभाव को जानता-देखता अन्यथाभावं जानाति-पश्यति? है? अन्यथा भाव (विपरीत-भाव) को जानता-देखता गोयमा! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ गौतम! नो तथाभावं जानाति-पश्यति, अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। गौतम! वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता है, अन्यथाभाव को जानता-देखता है। २२४. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-नो तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-नो तथाभावं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जानाति-पश्यति? अन्यथाभावं जानाति- जाणइ-पासइ? पश्यति? गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु गौतम! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहं अहं रायगिहे नगरे समोहए, समोहणित्ता राजगृहे नगरे समवहतः, समवहत्य वाराणस्यां वाणारसीए नगरीए रूवाइं जाणामि-पासामि। नगर्या रूपाणि जानामि-पश्यामि। स एष सेस दंसण-विवच्चासे भवइ। से तेणटेणं दर्शन-विपर्यासः भवति। तत्तेनार्थेन गीतम! गोयमा! एवं वुच्चइ-नो तहाभाव जाणइ- एवमुच्यते-नो तथाभावं जानाति-पश्यति, पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। २२४. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है? गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता है-मैंने राजगृह नगर में वैक्रियसमुद्घात का प्रयोग किया है, प्रयोग कर मैं वाराणसी नगरी में विद्यमान रूपों को जानता-देखता हूं। यह उसके दर्शन का विपर्यास है। गौतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानतादेखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है। २२५. अणगारे णं भंते! भावियप्पा मायी अनगारः भदन्त! भावितात्मा मायी मिथ्या- २२५. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो मायी, मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउब्वियलद्धीए दृष्टिः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः विभंग- मिथ्यादृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगनाणलद्धीए रायगिहे नगरे समोहए, ज्ञानलब्धिकः राजगृहे नगरे समवहतः, विभंगज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह राजगृह नगर समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाई। समवहत्य वाराणस्यां नगयाँ रूपाणि जानाति- में वैक्रियसमुद्घात का प्रयोग करता है, प्रयोग जाणइ-पासइ? पश्यति? कर वाराणसी नगरी में विद्यमान रूपों को जानता-देखता है? हंता जाणइ-पासइ ॥ हन्त जानाति-पश्यति। हां, जानता-देखता है। Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.६ : सू.२२६-२३० ६० भगवई २२६. से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ? स भदन्त! किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २२६. भन्ते! क्या वह यथार्थभाव को जानता-देखता अन्यथाभावं जानाति-पश्यति? है? अन्यथा भाव (विपरीत-भाव) को जानता-देखता गोयमा! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहा- गौतम! नो तथाभावं जानाति-पश्यति, भावं जाणइ-पासइ ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। गौतम! वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता है, अन्यथाभाव को जानता-देखता है। २२७. से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ-नो तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-नो तथाभावं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जानाति-पश्यति? अन्यथाभावं जानाति- जाणइ-पासइ? पश्यति? गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं गौतम! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए समोहए, समोहणित्ता वाराणस्यां नगर्या समवहतः, समवहत्य राजगृहे रायगिहे नगरे रूवाइं जाणामि-पासामि। नगरे रूपाणि जानामि-पश्यामि। स एष सेस दंसण-विवच्चासे भवति। से तेणटेणं दर्शन-विपर्यासः भवति। तत्तेनार्थेन गौतम! गोयमा! एवं वुच्चइ-नो तहाभाव जाणइ- एवमुच्यते-नो तथाभावं जानाति-पश्यति, पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। २२७. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता है, अन्यथाभाव को जानता-देखता? गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता है-मैंने वाराणसी नगरी में वैक्रियसमुद्घात का प्रयोग किया है, प्रयोग कर मैं राजगृह नगर में विद्यमान रूपों को जानता-देखता हूँ। यह उसके दर्शन का विपर्यास है। गौतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानतादेखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है। २२८. अणगारे णं भंते! भावियप्पा मायी अनगारः भदन्त ! भावितात्मा मायी मिथ्या- २२८. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो मायी, मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए दृष्टिः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः विभंग- मिथ्यादृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगनाणलद्धीए वाणारसिं नगरिं, राजगिह ज्ञानलब्धिकः वाराणसी नगरी, राजगृहं च विभंगज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह वाराणसी च नगरं, अंतरा एगं महं जणवयग्गं समो- नगरं, अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं समवहतः, नगरी और राजगृह नगर के अन्तराल में एक हए, समोहणित्ता वाणारसिं नगरि रायगिह समवहत्य वाराणसी नगरी राजगृहं च नगरं महान् जनपदाग्र का निर्माण करने के लिए वैक्रिय च नगरं अंतरा एगं महं जणवयग्गं जाणति- अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं जानाति-पश्यति? समुद्घात का प्रयोग करता है, प्रयोग कर -पासति? वाराणसी नगरी, राजगृह नगर और उनके अन्तराल में एक महान जनपदान को जानता-देखता है? हंता जाणति-पासति ॥ हन्त जानाति-पश्यति। हां, जानता-देखता है। २२६. से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ? स भदन्त! किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २२६. भन्ते! क्या वह यथार्थभाव को जानता-देखता अन्यथाभावं जानाति-पश्यति? है? अन्यथा भाव (विपरीत-भाव) को जानता-देखता गोयमा! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहा- गौतम! नो तथाभावं जानाति-पश्यति, भावं जाणइ-पासइ ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। गौतम! वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता है, अन्यथाभाव को जानता-देखता है। २३०. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-नो तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-नो तथाभावं तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभावं जानाति-पश्यति? अन्यथाभावं जानाति- जाणइ-पासइ? पश्यति? गोयमा! तस्स खलु एवं भवति-एस खलु गौतम! तस्य एवं भवति-एषा खलु वाराणसी वाणारसी नगरी, एस खलु रायगिहे नगरे, नगरी, एतत् खलु राजगृहं नगरम्, एतत् एस खलु अंतरा एगे महं जणवयग्गे, नो खलु अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं, नो खलु खलु एस महं वीरियलद्धी वेउव्वियलद्धी एषा मम वीर्यलब्धिः वैक्रियलब्धिः विभंगविभंगनाणलद्धी इड्डी जुती जसे बले वीरिए ज्ञानलब्धिः ऋद्धिः द्युतिः यशो बलं वीर्यं पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे पत्ते अभि- पुरुषकार-पराक्रमः लब्धः प्राप्तः अभिसमण्णागए। सेस दंसण-विवच्चासे भवति। समन्वागतः। स एष दर्शन-विपर्यासः भवति। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-नो तहाभावं तत्तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-नो तथाभावं २३०. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है? गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता है-यह वाराणसी नगरी है, यह राजगृह नगर है। यह इन दोनों के अन्तराल में महान् जनपदाग्र है। यह मेरी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि नहीं है। यह ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम मुझे लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) नहीं है। यह उसके दर्शन का विपर्यास है। गौतम! Jain Education Intemational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६१ जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ जानाति-पश्यति, अन्यथाभावं जानाति -पश्यति। श.३: उ.६ :सू.२२२-२३० इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को नहीं जानता-देखता, अन्यथाभाव को जानता-देखता है। भाष्य १. सूत्र २२२-२३० उमास्वाति के 'उन्मत्तवत्' इस वाक्यांश से प्रस्तुत विषय की प्रस्तुत प्रकरण में तीन आलापक हैं। इन तीनों में दर्शन-विपर्यय तुलना की जा सकती है। जैसे उन्मत्त व्यक्ति विपरीतग्राही होता है के तीन उदाहरण दिए गए हैं। रूप का निर्माण वैक्रिय-लब्धि से होता वह पत्थर के ढेले को सोना और सोने को पत्थर का ढेला मान लेता है। वीर्य-लब्धि उसकी सहायक है। प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ वीर्य-लब्धि है, वैसे ही मिथ्यादर्शन से उपहत मतिवाला व्यक्ति विषय का ग्रहण की अनिवार्यता है। पण्णवणा में कर्म-बंध के चार कारण निर्दिष्ट विपर्यय के साथ करता है। हैं-माया, लोभ, क्रोध और मान। ये चारों वीर्य का योग पाकर ही जयाचार्य ने विभंगज्ञान और दर्शन-विपर्यय इन दोनों की पृथक्ता कर्म-बंध के हेतु बनते हैं।' का सटीक प्रतिपादन किया है। उनका तर्क है-अनुओगदाराई में विभंगज्ञान-लब्धि वैक्रिय-लब्धि में सहायक नहीं है। वैक्रिय-लब्धि विभंगज्ञान को ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होने वाला बतलाया है जो के साथ इसका प्रयोग ज्ञान की दृष्टि से किया गया है। यहां वीर्य-लब्धि ज्ञानावरण का क्षायोपशमिक भाव है। वह विपरीतग्राही नहीं हो सकता, और वैक्रिय-लब्धि मुख्य प्रतिपाद्य नहीं है। मुख्य प्रतिपाद्य है-दर्शन इसलिए जो दर्शन-विपर्यय है, वह मोहकर्म के उदय से निष्पन्न है।' का विपयर्य। उसका संबन्ध विभंगज्ञान से है। विभंगज्ञान अतीन्द्रिय उनका दूसरा तर्क है-दिशामूढ़ व्यक्ति पूर्व को पश्चिम जानता है। यह ज्ञान है। सम्यग्दृष्टि का रूपिद्रव्यग्राही अतीन्द्रियज्ञान अवधिज्ञान औदयिक भाव है, क्षायोपशमिक भाव नहीं। चक्षु में रोग है और वह कहलाता है और मिथ्यादृष्टि का रूपिद्रव्यग्राही ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता दो चांद देखता है। इस द्विचन्द्र-दर्शन का हेतु चक्षु नहीं, किन्तु चक्षुगत है। विभंगज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। विपर्यय मिथ्यात्वमोह के उदय । रोग है। रोग औदयिक भाव है और चक्षुज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। से होता है। इसी प्रकार विभंगज्ञान क्षायोपशमिक भाव है और दर्शन-विपर्यय औदायक वृत्तिकार ने दर्शन-विपर्यय का अर्थ अन्यदीय रूप में अन्यदीय भाव है, ये दोनों पृथक-पृथक हैं। विकल्प करना किया है, जैसे दिग्मूढ़ व्यक्ति दिशा-मोह के कारण पूर्व प्रथम आलापक का विषय है वैक्रिय-शक्ति द्वारा वाराणसी नगरी को पश्चिम मान लेता है। का निर्माण, राजगृह में विद्यमान पदार्थों का विभंग द्वारा ज्ञान और जयाचार्य ने इस विषय का विस्तृत स्पष्टीकरण किया है। उनके दर्शन। इसमें दर्शन का विपर्यय इस प्रकार है-वह सोचता है मैंने अनुसार दर्शन-विपर्यय का सिद्धान्त प्रत्येक विभंगज्ञानी के साथ जुड़ा वैक्रिय शक्ति के द्वारा राजगृह नगर का निर्माण किया है और मैं वाराणसी हुआ नहीं है। उसका संबन्ध दिशामूढ़ व्यक्तितुल्य विभंगज्ञानी के में विद्यमान रूपों को जान-देख रहा हूं। साथ है दूसरे आलापक में केवल नगर के निर्माण और पदार्थ-दर्शन के नगर के नाम का परिवर्तन है। विभंग नाणी कोय, दिशामूढ जिम ते इस्यूं। तीसरे आलापक में वह वैक्रिय-शक्ति से वाराणसी नगरी, राजगृह सगला नै नहिं कोय, एवं इहां जणाय 0 ॥' १. पण्ण. २३/६। दर्शन विषे विचार विप्रयास आख्यो इहां। २. भ. वृ. ३/२२४-दर्शन विपर्यासो विपर्ययो भवति, अन्यदीय रूपाणामन्यदीयतया पिण दर्शन अवधि उदार क्षय-उपशम नहि विपर्यय ॥४०॥ विकल्पितत्वात, दिग्मोहादिणपूर्वामपि पश्चिमां मन्यमानस्येति। दर्शन विषेज ओर उदय भाव छ तेहनै। ३. भ. जो. ६८/३०। विप्रयास जे घोर, ते विपरीतपणो अछै ॥४१॥ ४. त. सू. भा. वृ. १३३-सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् । ६. वही, ६८/५२-५७ भाष्य-यथोन्मत्तः कर्मोदयादुपहतेन्द्रियमतिर्विपरीतग्राही भवति । सोऽश्वं गोरित्यध्यवस्यति दिशामूढ़ अवलोय, पूरब नै जाणे पछिम। गां चाश्व इति लोष्टं सुवर्णमिति, सुवर्ण लोष्ट इति लोष्टं च लोष्ट इति सवर्ण उदय भाव ए जोय, पिण क्षयोपशम भाव नहीं ॥५२॥ सुवर्णमिति तस्यैवमविशेषेण लोष्टं सुवर्ण सुवर्ण लोष्टमिति विपरीतमध्यवस्यतो है चक्षु मैं रोग, वे चंदा देखै प्रमुख। नियतमज्ञानमेव भवति । तद्वन्मिथ्यादर्शनोपहतेन्द्रियमतेर्मतिश्रुतावधयोऽप्यज्ञानं भवति।। ते छै रोग प्रयोग, तिम विपरीतज जाणवो ॥५३॥ ५. भ. जो. ६८/३६-४१ चक्षु रोग मिट जाय, तठा पछे देखे तिको। बलि अनुयोगज द्वार ज्ञानावरणी-कर्म नां। ए बिहुं जुदा कहाय, रोग अनै बल नेत्र ते ॥५४॥ क्षय-उपशम थी सार चिउं ज्ञान अज्ञान रू पूर्व श्रुत ॥३६॥ उदयभाव छै रोग चक्षु क्षयोपशम भाव छ। तिण कारण विपरीत, ते तो अन्य दीसे अछ। ए बिहुँ जुदा प्रयोग, तिण विध ए पिण जाणवो ॥५५॥ क्षायोपशम भाव प्रतीत ते तो उज्जल जीव छै ॥३७॥ छे क्षयोपशम-भाव विभंग नो दर्शण अवधि। अवधिज्ञान नों सार बलि विभंग-अन्नाण नों। विपरीतपणो कहाव, उदय-भाव कहिजे तसुं ॥५६॥ दर्शन अवधि उदार ते विपरीत हुवैज किम? ॥३८॥ ते माटे इहां एम, दाख्यो दर्शन नै विषे। मोह-कर्म उदय थी होय, उदय-भाव सावज तिको। विपरीतपणुं ज तेम, पिण ए दोनूं जूजुआ ॥७॥ पिण क्षयोपशम थी जोय, विपरीतज छै किण विधै? ॥३६॥ Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.३: उ.६:सू.२२२-२३४ ६२ नगर और उन दोनों के अन्तरालवर्ती जनपदाग्र का निर्माण करता है। किन्तु वह अपने द्वारा निर्मित नगरों को वास्तविक मान लेता है। उसे यह ज्ञान नहीं रहता कि यह सब मैंने अपनी वैक्रिय शक्ति के द्वारा निर्मित किया है। मिथ्यादृष्टि-अन्यतीर्थिक एकान्तदृष्टि का आग्रह रखने वाला। रूप-वस्तु और प्राणी। आयारो में भी इस अर्थ में 'रूप' शब्द का प्रयोग मिलता है।' तथाभाव-जैसी वस्तु वैसा भाव-यथार्थ । अन्यथाभाव-अयथार्थ। ऋद्धि-वैक्रिय-शक्ति का वैभव । द्युति-वैक्रिय-शक्ति की दीप्ति। यश-संयम, एकाग्रता या चित्त-वृत्ति का नियमन। शब्द-विमर्श अनगार-गृहवास को त्यागने वाला। भावितात्मा-भावना अथवा सम्मोहन की साधना किया हुआ। मायी-माया से अनुवासित। (द्रष्टव्य भ. ३/१६० का भाष्य) २३१. अणगारे णं भंते! भावियप्पा अमायी वियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए रायगिह नगरं समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाइं जाणइ-पासइ? अनगारः भदन्त! भावितात्मा अमायी २३१. "भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो अमायी, सम्यग्दृष्टि: वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः सम्यगदृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धिकः राजगृहं नगरं समवहतः, अवधिज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह राजगृह नगर समवहत्य वाराणस्यां नगर्या रूपाणि में वैक्रियसमुद्घात का प्रयोग करता है, प्रयोग जानाति-पश्यति? कर वाराणसी नगरी में विद्यमान रूपों को जानता-देखता है? हन्त जानाति-पश्यति। हां, जानता-देखता है। हंता जाणइ-पासइ ॥ २३२. से भंते! किं तहाभाव जाणइ-पासइ? अण्णहाभाव जाणइ-पासइ? स भदन्तः किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २३२. भन्ते! क्या वह यथार्थभाव को जानता- देखता अन्यथाभावं जानाति-पश्यति? है? अन्यथा भाव (विपरीत-भाव) को जानता-देखता गोयमा! तहाभाव जाणइ-पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ गौतम! तथाभावं जानाति-पश्यति, नो अन्यथाभा जानाति-पश्यति। गौतम! वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता। २३३. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अण्णहाभावं। जाणइपासइ? गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं रायगिहे नयरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाई जाणामि-पासामि। सेस दंसण-अविवच्चासे भवति । से तेणतुणं गोयमा! एवं वुच्चइ-तहाभावं जाणइ- पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-तथाभावं २३३. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा जानाति-पश्यति, नो अन्यथाभावं जानाति- है-वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अन्यथाभाव पश्यति? को नहीं जानता-देखता ? गौतम! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहं गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता राजगृहे नगरे समवहतः, समवहत्य वाराणस्यां है-मैंने राजगृह नगर में वैक्रियसमुद्घात का नगर्या रूपाणि जानामि-पश्यामि। स एष प्रयोग किया है, प्रयोग कर मैं वाराणसी नगरी दर्शन-अविपर्यासः भवति। तत्तेनार्थेन गोतम! में विद्यमान रूपों को जानता-देखता हूं। यह उसके एवमुच्यते-तथाभावं जानाति-पश्यति, नो दर्शन का अविपर्यास है। गौतम! इस अपेक्षा से अन्यथाभावं जानाति-पश्यति । कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता। २३४. अणगारे णं भंते! भावियप्पा अमायी अनगारः भदन्त ! भावितात्मा अमायी सम्यग्- २३४. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो अमायी, सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए दृष्टिः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः अवधि- सम्यग्दृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और ओहिनाणलद्धीए वाणारसिं नगरि समोहए, ज्ञानलब्धिकः वाराणसी नगरी समवहतः, अवधिज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह वाराणसी समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाई जाणइ- समवहत्य राजगृहे नगरे रूपाणि जानाति- नगरी में वैक्रियसमुद्घात का प्रयोग करता है, पासइ? - पश्यति? प्रयोग कर राजगृह नगर में विद्यमान रूपों को जानता-देखता है? हंता जाणइ-पासइ ॥ हन्त जानाति-पश्यति। हां, जानता-देखता है। १. भ. वृ. ३/२२८-२३०-वाणारसी राजगृहं तयोरेवं चान्तरालवतिनं 'जनपदवर्ग' देशसमूह समवहती विवितान् तथैव च तानि विभङ्गतो जानाति-पश्यति केवलं नो तथाभावं यतोऽसी चैक्रियाण्यपि तानि मन्यते स्वभाविकानि । २. वही, ३/२२२-रूपाणि पशुपुरुषप्रासादप्रभृतीनि। ३. आयारो, ३/५७-विराग रूबंहि गच्छेज्जा, महया खुदपहि वा। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.३:उ.६:सू.२३५-२३६ २३५. से भंते! कि तहाभावं जाणइ-पासइ? स भदन्तः किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २३५, भन्ते! क्या वह यथार्थभाव को जानताअण्णहाभावं जाणइ-पासइ? अन्यथाभावं जानाति-पश्यति? देखता है अथवा अन्यथाभाव (विपरीत-भाव) को जानता-देखता है? गोयमा! तहाभावं जाणइ-पासइ, नो गौतम! तथाभावं जानाति-पश्यति, नो गीतम! वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता। २३६. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-तहाभावं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-तथाभावं २३६. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा जाणइ-पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइ- जानाति-पश्यति? नो अन्यथाभावं जानाति- है-वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, पासइ? पश्यति? अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता? गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं गौतम! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहं गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता वाणारसी नगरी समोहए, समोहणित्ता वाराणसी नगरी समवहतः, समवहत्य राजगृहे है-मैंने वाराणसी नगरी में वैक्रियसमुद्घात का रायगिहे नगरे रूवाइं जाणामि-पासामि। नगरे रूपाणि जानामि-पश्यामि। स एष प्रयोग किया है, प्रयोग कर राजगृह नगर में सेस दंसण-अविवच्चासे भवइ । से तेणटेणं दर्शन-अविपर्यासः भवति । तत्तेनार्थेन गौतम! विद्यमान रूपों को जानता-देखता हूं। यह उसके गोयमा! एवं वुच्चइ-तहाभावं जाणइ-पासइ, एवमुच्यते-तथाभावं जानाति-पश्यति, नो दर्शन का अविपर्यास है। गौतम! इस अपेक्षा नो अण्णहाभावं जाणइ-पासइ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। से कहा जा रहा है-वह यथाथभाव को जानता-देखता है, अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता। २३७. अणगारे णं भंते! भावियप्पा अमायी अनगारः भदन्त! भावितात्मा अमायी २३७. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार जो अमायी, सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए सम्यग्दृष्टिः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः सम्यग्दृष्टि है, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और ओहिनाणलद्धीए रायगिह नगर, वाणारसिं अवधिज्ञानलब्धिकः राजगृहं नगरं, वाराणसी अवधिज्ञानलब्धि से सम्पन्न है, वह राजगृह नगर, च नगरिं, अंतरा एगं महं जणवयग्गं च नगरी, अन्तरा एक महज् जनपदाग्रं वाराणसी नगरी और उसके अन्तराल में एक समोहए, समोहणित्ता रायगिहं नगरं, समवहतः, समवहत्य राजगृह नगरं, वाराणसी महान् जनपदाग्र का निर्माण करने के लिए वैक्रिय वाणारसिं च नगरिं, अंतरा एगं महं जण- च नगरीम् अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं समुद्घात का प्रयोग करता है, प्रयोग कर राजगृह वयग्गं जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति? नगर वाराणसी नगरी और उनके अन्तराल में एक महान् जनपदान को जानता-देखता है? हंता जाणइ-पासइ॥ हन्त जानाति-पश्यति। हां, जानता-देखता है। २३८. से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? स भदन्त ! किं तथाभावं जानाति-पश्यति? २३८. भन्ते : क्या वह यथार्थभाव को जानता-देखता अण्णहाभावं जाणइ-पासइ? अन्यथाभावं जानाति-पश्यति? है? अथवा अन्यथाभाव (विपरीत-भाव) को जानता-देखता है। गोयमा! तहाभावं जाणइ-पासइ, नो गौतम! तथाभावं जानाति-पश्यति, नो गीतम! वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता। २३६. से केणटेणं भंते! एवं दुच्चइ-तहाभावं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-तथाभावं जाणइ-पासइ, नो अण्णहाभाव जाणइ- जानाति-पश्यति? नो अन्यथाभावं जानाति- पासइ? पश्यति? गोयमा! तस्स णं एवं भवति-नो खलु गौतम! तस्य एवं भवति-नो खलु एतत् रायगिहे नगरे, नो खलु एस वाणारसी राजगृह नगरं, नो खलु एषा वाराणसी नगरी, नगरी, नो खलु एस अंतरा एगे महं नो खलु एतद् अन्तरा एक महद् जनपदाग्रं, जणवयग्गे, एस खलु ममं वीरियलद्धी एषा खलु मम वीर्यलब्धिः, वैक्रियलब्धिः, वेउव्वियलद्धी ओहिनाणलद्धी इड्ढी जुती अवधिज्ञानलब्धिः ऋद्धिः द्युतिः यशो बलं जसे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे वीयं पुरुषकार-पराक्रमः लब्धः प्राप्तः ते अभिसमण्णागए। सेस दंसण-अवि- अभिसमन्वागतः । स एप दर्शन-अविपर्यासः बच्चासे भवइ। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं भवति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते २३६. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता? गौतम! उसके इस प्रकार का दृष्टिकोण होता है-यह राजगृह नगर नहीं है, यह वाराणसी नगरी नहीं है, यह इन दोनों के अन्तराल में महान जनपदान नहीं है। यह मेरी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि है। यह ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम मुझे लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) है। यह उसकं दर्शन का अविपर्यास है। गौतम! इस Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ भगवई श.३: उ.६:सू.२३१-२४५ वुच्चइ-तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ॥ तथाभावं जानाति-पश्यति, नो अन्यथाभावं जानाति-पश्यति। अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह यथार्थभाव को जानता-देखता है, अन्यथाभाव को नहीं जानता-देखता। भाष्य १. सूत्र २३१-२३६ प्रस्तुत प्रकरण का प्रतिपाद्य यथार्थ दर्शन है। इसलिए इसमें अनगार और भावितात्मा का अर्थ सम्यग दर्शन के सन्दर्भ में करणीय है। शब्द-विमर्श अनगार-अर्हत् की आज्ञानुसार गृहवास को त्यागनेवाला मुनि। भावितात्मा-ज्ञान, वैराग्य और तप आदि भावनाओं से अपने आपको भावित करने वाला। २४०. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एग महं गामरूवं वा नगररूवं वा जाव सण्णिवेसरूवं वा विउवित्तए? नो तिणटे समटे ॥ अनगारः भदन्त! भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः एक महद् ग्रामरूपं वा नगररूपं वा यावत् सन्निवेशरूपं वा विकर्तुम् ? २४०. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एक महान् ग्रामरूप अथवा नगररूप यावत सन्निवेशरूप की विक्रिया (निर्माण) करने में समर्थ है? यह अर्थ संगत नहीं हैं। नो तदर्थः समर्थः। २४१. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं गामरूवं वा नगररूवं वा जाव सण्णिवेसरूवं वा विउवित्तए? हंता पभू ॥ अनगारः भदन्त ! भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् । २४१, भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पर्यादाय प्रभुः एक महद् ग्रामरूपं वा नगररूपं पुद्गलों का ग्रहण कर एक महान् ग्रामरूप वा यावत् सन्निवेशरूपं वा विकर्तुम्? अथवा नगररूप यावत् सन्निवेशरूप की विक्रिया (निर्माण) करने में समर्थ है? हन्त प्रभुः। हां, समर्थ है। २४२. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइयाई पभू गामरूवाई विकुवित्तए? गोयमा! से जहानामए-जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा तं चेव जाव विकुव्विंसु वा, विकुव्वति वा, विकुव्विस्सति वा ॥ अनगारः भदन्त! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः २४२. भन्ते! भावितात्मा अनगार कितने ग्रामग्रामरूपाणि विकर्तुम् ? रूपों की विक्रिया करने में समर्थ है? गौतम! अथ यथानाम युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गौतम! जैसे कोई युवक युवती का हाथ गृह्णीयात् तच्चैव यावद् व्यकार्षीद् वा, विकरोति प्रगाढ़ता से पकड़ता है, वही (सू. १६६) वा, विकरिष्यति वा। वक्तव्यता यावत् भावितात्मा अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है, और न करेगा। २४३. एवं जाव सण्णिवेसरूवं वा ॥ एवं यावद् सन्निवेशरूपं वा। २४३. इसी प्रकार सन्निवेशरूप तक ग्रामरूप की भांति वक्तव्य है। आत्मरक्षक-पद २४४. भन्ते! असुरेन्द्र असुरराज चमर के आत्मरक्षक देव कितने हजार प्रज्ञप्त हैं? आयरक्ख-पदं आत्मरक्ष-पदम् २४४. चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुर- चमरस्य भदन्तः असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य कति रण्णो कइ आयरक्खदेवसाहस्सीओ आत्मरक्षदेवसाहय्यः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ताओ? गोयमा! चत्तारि चउसडीओ आयरक्ख- गौतम! चतस्रः चतुष्षष्ट्यः आत्मरक्षदेवसाहस्रयः देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। ते णं आय- प्रज्ञप्ताः। ते आत्मरक्षा:-वर्णकः । रक्खा-वण्णओ ॥ गौतम! उसके दो लाख छप्पन हजार आत्मरक्षक देव प्रज्ञप्त हैं। उन आत्मरक्षकों का वर्णन-(द्रष्टव्य रायपसेणइयं, सू. ६६४) २४५. एवं सव्वेसिं इंदाणं जस्स जत्तिया आयरक्खा ते भाणियव्वा ॥ एवं सर्वेषाम् इन्द्राणां यस्य यावन्तः आत्मरक्षाः ते भणितव्याः। २४५. 'इस प्रकार सब इन्द्रों के जिसके जितने आत्मरक्षक देव हैं, वे सब वक्तव्य हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६५ श.३ : उ.६:सू.२४५,२४६ भाष्य १. सूत्र २४५ आत्मरक्षक देव सामानिक से चार गुना होते हैं। देखें-यंत्र' : देव सामानिक आत्मरक्षक चमर बलि नौ निकाय प्रत्येक शक्र ६४००० ६०००० ६००० ८४००० ८०००० ७२००० ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म ७०००० ६०००० २५६००० २४०००० २४००० ३३६००० ३२०००० २८८००० २८०००० २४०००० २००००० १६०००० १२०००० ८०००० ४०००० लान्तक ५०००० शुक्र ४०००० ३०००० सहस्रार आनत, प्राणत आरण, अच्युत २०००० १०००० २४६. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त। इति। २४६. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही १. पण, पद २ (उवंगसुत्ताणि, खण्ड २, पृ. ६४) के आधार पर। Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूल लोगपाल पदं २४७. रायगि नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी सक्करस णं भंते देविंदस्स देवरण्णो कति लोगपाला पण्णत्ता? सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं गौतम ! चत्वारः लोकपालाः प्रज्ञप्ताः, तद् जहा- सोमे जमे वरुणे वेसमणे | यथा - सोमः यमः वरुणः वैश्रवणः । २४६. कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरणी सोमस्स महारण्णो संझप्पभे नामं महाविमाणे पण्णत्ते ? संस्कृत छाया १. लोकपाल देवनिकाय के दस प्रकार हैं-इन्द्र, सामानिक प्रायस्त्रिश पारिषय, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्ण, आभियोग्य और किल्विधिक गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय- गहगण- नक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणाई जाव पंच वडेंसया पण्णत्ता, तं जहा असोगवडेंसए सत्तवण्णवडेंसए चंपयवडेंसए, चूयवडेंसए, मज्झे सोहम्म इसए || लोकपाल-पदम् राजगृहे नगरे चावत् पर्युपासीनः एवमात् शक्रस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य कति लोकपालाः प्रज्ञप्ताः ? " २४८. एएसि णं भंते! चउन्हं लोगपालाणं एतेषां भदन्त ! चतुर्णां लोकपालानां कति कति विमाणा पण्णत्ता ? विमानानि प्रज्ञप्तानि ? गोयमा चत्तारि विमाणा पण्णत्ता तं गीतम् चत्वारि विमानानि प्रक्षप्तानि तद् जहा संयमे वरसि सयंजले बम्मू यथा-सन्ध्याप्रभं वरशिष्टं स्वयंज्वलं वल्गु । भाष्य १. त. सू. ४/४। २. त. सू. भा. वृ. ४/४ - लोकपाला आरक्षकार्थचरस्थानीयाः स्वविषयसंधिरक्षणनिरूपिता आरक्षकाः अर्थचराश्चोरोहन्द्धरणिकराजस्थानीयादवस्तत् सदृशा लोकपालाः । कुत्र भदन्त ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य सन्ध्याप्रभं नाम महाविमानं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसम - रमणीयाद् भूमिभागाद् ऊर्ध्वं चन्द्रमः-सूर्य-ग्रहगण-नक्षत्र-तारारूपाणां बहूनि योजनानि यावत् पंच अवतंसकाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथाअशोकावतंसकः सप्तपर्णा चम्पका सप्तपर्णावतंसकः, वतंसकः, चूतावतंसकः, मध्ये सौधर्मावतंसकः । हिन्दी अनुवाद इनमें लोकपाल का छट्टा स्थान है। वे आरक्षक (सीमा की सुरक्षा करने वाले) और अर्थचर (चौरों से जनता की रक्षा करने वाले) के समान होते हैं।" लोकपाल पद २४७. राजगृह नगर में भगवान् की पर्युपासना करते हुए गणधर गौतम इस प्रकार बोले- भन्ते ! देवेन्द्र देवराज शक्र के कितने लोकपाल प्रज्ञप्त हैं? गीतम के चार लोकपाल प्रतप्त है, जैसे-सोम, यम, वरुण और वैश्रवण । २४८. भन्ते । इन चार लोकपालों के कितने विमान प्रज्ञप्त हैं? गौतम! इनके चार विमान प्रज्ञप्त हैं, जैसेसन्ध्याप्रभ, वरशिष्ट, स्वयञ्ज्वल और वल्गु । २४६. भन्ते देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज सोम का सन्ध्याप्रभ नामक महाविमान कहां प्रज्ञप्त है? गौतम जम्बूदीप द्वीप के मेरु पर्वत के दक्षिण भाग में इसी रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रायः समतल और रमणीय भूभाग से ऊपर चांद, सूरज, ग्रहगण, नक्षत्र और ताराओं से बहुत योजन दूर यावत् पांच अवतंसक प्रज्ञप्त हैं, जैसे- अशोकावतंसक, सप्तपर्णावतंसक, चम्पकावतंसक, चूतावतंसक और मध्य में सौधमावतंसक । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६७ श.३: उ.७: सू.२५०-२७७ सोम-पदं सोम-पदम् सोम-पद २५०. तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स तस्य सौधर्मावतंसकस्य महाविमानस्य पौरस्त्ये २५०. 'उस सौधर्मावतंसक महाविमान के पूर्व में पुरथिमे णं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाइं सौधर्मे कल्पे असंख्येयानि योजनानि व्यति- सौधर्मकल्प में असंख्य योजन जाने पर देवेन्द्र जोयणाई वीइवइत्ता, एत्थ णं सक्कस्स व्रज्य, अत्र शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य देवराज शक्र के लोकपाल महाराज सोम का देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सोमस्य महाराजस्य सन्ध्याप्रभं नाम महा- सन्ध्याप्रभ नामक महाविमान प्रज्ञप्त है। उसकी संझप्पभे नामं महाविमाणे पण्णत्ते- विमानं प्रज्ञप्तम्-अर्द्धत्रयोदशयोजनशत- लम्बाई-चौड़ाई साढ़ा वारह लाख योजन है और अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई आयाम-वि- सहस्राणि आयाम-विष्कम्भेण, एको- परिधि उनचालीस लाख, बावन हजार आठ सो क्खंभेणं, उयालीसं जोयणसयसहस्साई नचत्वारिंशन योजनशतसहस्राणि द्विपञ्चाशच् अड़तालीस योजन से कुछ अधिक है। जो सूर्याभ बावन्नं च सहस्साई अट्ठ य अडयाले च सहस्राणि अष्ट च अष्टचत्वारिंशद्योजन- विमान की वक्तव्यता है, वह रामग्रतया अभिषेक जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं शतानि किञ्चिद् विशेषाधिक परिक्षेपेण तक यहां वक्तव्य है। केवल सूर्याभ के स्थान पण्णते। जा सूरियाभविमाणस्स वतव्वया प्रज्ञप्तम् । या सूर्याभविमानस्य वक्तव्यता सा पर सोमदेव वक्तव्य है। सा अपरिसेसा भाणियव्वा जाव अभिसेओ, अपरिशेषा भणितव्या यावद् अभिषेकः, नवरं-सोमो देवो ॥ नवरं-सोमः देवः। भाष्य १. सू. २५०-२७७ इस आलापक का भाष्य सू. २७७ के बाद दिया गया है। २५१. संझप्पभस्स णं महाविमाणस्स अहे, सन्ध्याप्रभस्य महाविमानस्य अधः सपक्षं, २५१. सन्ध्यप्रभ महाविमान के नीचे ठीक सीधे सपक्खिं, सपडिदिसिं असंखेज्जाइं जोयण- सप्रतिदिशं असंख्येयानि योजनसहस्राणि तिरछे लोक में असंख्येय हजार योजन का सहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं सक्कस्स अवगाह्य, अत्र शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अवगाहन करने पर देवेन्द्र देवराज शक्र के देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सोमा सोमस्य महाराजस्य सोमा नाम राजधानी लोकपाल महाराज सोम की सीमा नाम की नाम रायहाणी पण्णत्ता-एग जोयण- प्रज्ञप्ता-एक योजनशतसहस्रम् आयाम- राजधानी प्रज्ञप्त है। उसका लम्बाई-चौड़ाई, सयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं जंबु- विष्कम्भेण जम्बूद्वीपप्रमाणा। वैमानिकानां जम्बूद्वीप-प्रमाण एक लाख योजन है। इसके द्दीवप्पमाणा। वेमाणियाणं पमाणस्स अद्धं प्रमाणस्य अर्ध नेतव्यम्-यावद् उपकारि- प्रासाद आदि का प्रमाण सौधर्मवर्ती प्रासाद आदि नेयव्वं जाव ओवारियलेणं सोलस जोयण- कालयनं षोडशयोजनसहस्राणि आयाम- से आधा है यावत् पीठिका लम्बाई-चौड़ाई में सहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, पण्णासं विष्कम्भेण, पञ्चाशदु योजनसहस्राणि पञ्च सोलह हजार (१६०००) योजन और परिधि में जोयणसहस्साइं पंच य सत्ताणउए जोयणसते च सप्तनवति योजनशतं किञ्चिद् विशेषांनं पचास हजार पांच सौ सितानये (५०५६७) योजन किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्तं। परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम्। प्रासादानां चतस्रः से कुछ कम है। उसके प्रासादों की चार पंक्तियां पासायाणं चत्तारि परिवाडीओ नेयवाओ, परिपाट्यः नेतव्याः, शेषा नास्ति। हैं। शेष (सुधर्मा सभा) नहीं है। सेसा नत्थि ॥ २५२. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य २५२. 'देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज महारण्णो इमे देवा आणा-उववाय-वयण- महाराजस्य इमे देवाः आज्ञा-उपपात-वचन- सोम की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में -निद्देसे चिट्ठति, तं जहा-सोमकाइया इ -निर्देश तिष्ठन्ति, तद् यथा-सोमकायिका रहने वाले देव ये हैं-सोमकायिक, सोमदेवकायिक, वा, सोमदेवयकाइया इ वा, विज्जुकुमारा, इति वा, सोमदेवताकायिका इति वा, विद्युत्- विद्युत्कुमार, विद्युत्कुमारियां, अग्निकुमार, अग्निविज्जुकुमारीओ, अग्गिकुमारा, अग्गि- कुमाराः, विद्युत्कुमार्यः, अग्निकुमाराः, कुमारियां, वातकुमार, वातकुमारियां, चन्द्रमा, सूर्य, कुमारीओ, वायकुमारा, वायकुमारीओ, चंदा, अग्निकुमार्यः, वातकुमाराः, वातकुमार्यः, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप। इस प्रकार के जितने सूरा, गहा, णक्खत्ता, तारारूवा-जे यावण्णे चन्द्राः, सूराः, ग्रहाः, नक्षत्राणि, तारारूपा:-ये अन्य देव हैं, वे सब देवेन्द्र देवराज शक्र के तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, चापि अन्ये तथाप्रकाराः सर्वे ते तद्भक्तिकाः, लोकपाल महाराज सोम के प्रति भक्ति रखते हैं, तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो तत्पाक्षिकाः, तभार्याः शक्रस्य देवेन्द्रस्य उसके पक्ष में रहते हैं, उसके वशवर्ती रहते हैं सोमस्स महारण्णो आणा-उववाय-वयण- देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य आज्ञा- तथा उसकी आज्ञा, उपपात, बचन और निर्देश निद्देसे चिट्ठति ॥ -उपपात-वचन-निर्देश तिष्ठन्ति। में अवस्थित हैं। Jain Education Intemational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.७:सू.२५२-२५३ ६८ भगवई भाष्य १. शब्द-विमर्श तद्भक्तिक-सोम में भक्ति रखने वाले।' तत्पाक्षिक-सोम के पक्ष में रहने वाले सहायक। तद्भार्य-तब्भारिय शब्द के वृत्तिकार ने दो संस्कृत रूप किये हैं-तद्भार्य और तद्भारिक। वश्य और पोषणीय होने के कारण उन्हें “भार्य' कहा जाता है। वे सोम का भार वहन करते हैं, इसलिए उन्हें तारिक कहा जाता है।' २५३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य दक्षिणे यानि २५३. 'जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिण भाग णं जाइं इमाई समुप्पज्जति, तं जहा--गहदंडा इमानि समुत्पद्यन्ते, तद् यथा-ग्रहदण्डाः में जो ये स्थितियां उत्पन्न होती हैं, जैसे-ग्रहदण्ड, इ वा, गहमुसला इवा, गहगज्जिया इ इति वा, ग्रहमुसलानि इति वा, ग्रहगर्जितानि ग्रहमुशल, ग्रहगर्जित, ग्रहयुद्ध, ग्रहशृंगाटक, ग्रहों वा, गहजुद्धा इ वा, गहसिंघाडगा इ वा, इति वा, ग्रहयुद्धानि इति वा, ग्रहशृङ्गाटकानि का विरोधी दिशा में गमन, अभ्र, अभ्रवृक्ष, सन्ध्या, गहावसव्वा इ वा, अब्भा इ वा, अब्भरुक्खा इति वा, ग्रहापसव्यानि इति वा, अभ्राणि गन्धर्वनगर, उल्कापात, दिग्दाह, गर्जित्, विद्युत्, इवा, संझा इवा, गंधव्वनगरा इ वा, इति वा, अभ्रवृक्षाः इति वा, सन्ध्या इति पांशुवृष्टि, यूपक, यक्षोद्दीप्त, धूमिका, महिका, उक्कापाया इवा, दिसिदाहा इ वा, गज्जिया वा, गन्धर्वनगराणि इति वा, उल्कापाताः रजोद्घात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रमण्डल, इ वा, विज्जुया इ वा, पंसुवुट्टी इवा, इति वा, दिग्दाहाः इति वा, गर्जितानि इति सूर्यमण्डल, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य, जूवे इ वा, जक्खालित्तए त्ति वा, धूमिया वा विद्युत् इति वा, पांशुवृष्टिः इति वा यूपाः कपिहसित, अमोघा, पूर्वदिशा की वायु, पश्चिम इवा, महिया इ वा, रयुग्घाए त्ति वा, इति वा यक्षालिप्तानि इति वा, धूमिका इति दिशा की वायु, दक्षिण दिशा की वायु, उत्तर दिशा चंदोवरागा इ वा, सूरोवरागा इ वा, वा, महिका इति वा, रजउद्धातः इति वा, की वायु, ऊर्ध्वदिशा की वायु, अधो दिशा की चंदपरिवेसा इ वा, सूरपरिवेसा इवा, चन्द्रोपरागाः इति वा, सूरोपरागाः इति वा, वायु, तिरछी दिशा की वायु, विदिशा की वायु, पडिचंदा इ वा, पडिसूरा इ वा, इंदधणू चन्द्रपरिवेशाः इति वा, सूरपरिवेशाः इति वा, अनवस्थित वायु, वात-उत्कलिका, वात-मण्डलिका, इ वा, उदगमच्छा इ वा, कपिहसिया इ प्रतिचन्द्राः इति वा, प्रतिसूराः इति वा, उत्कलिका-वात, मण्डलिका-वात, गुञ्जावात, झंझावा, अमोहा इ वा, पाईणवाया इवा, इन्द्रधनुः इति वा, उदकमत्स्याः इति वा, वात, संवर्तक वात, ग्रामदाह यावत् सन्नि-वेश-दाह, पईणवाया इवा, दाहिणवाया इ वा, कपिहसिताः इति वा, अमोघाः इति वा, प्राण-क्षय, जन-क्षय, धन-क्षय, कुल-क्षय तथा और उदीणवाया इ वा, उड्ढवाया इ वा, प्राचीनवाताः इति वा, प्रतिचीनवाताः इति भी इस प्रकार की अनिष्ट आपदाएं, वे सब देवेन्द्र अहोवाया इवा, तिरियवाया इ वा, वा, दक्षिणवाताः इति वा, उदीचीनवाताः देवराज शक्र के लोकपाल महाराज सोम से तथा विदिसीवाया इ वा, वाउब्भामा इ वा, इति वा, ऊर्ध्ववाताः इति वा, अधोवाताः उन सोमकायिक देवों से अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, वाउक्कलिया इ वा, वायमंडलिया इ वा, इति वा, तिर्यग्वाताः इति वा, विदिग्वाताः अस्मृत और अविज्ञात नहीं होती। उक्कलियावाया इ वा, मंडलियावाया इ इति वा, वातोदभ्रमाः इति वा, वातोत्कलिकाः वा, गुंजावाया इवा, झंझावाया इवा, इति वा, वातमण्डलिकाः इति वा, संवट्टयवाया इवा, गामदाहा इ वा, जाव। उत्कलिकावाताः इति वा, मण्डलिकावाता: सण्णिवेसदाहा इवा, पाणक्खया, जणक्खया, इति वा, गुञ्जावाताः इति वा, झंझावाताः धणक्खया, कुलक्खया, वसणब्भूया मणा- इति वा, संवर्तकवाताः इति वा, ग्रामदाहाः रिया-जे यावण्णे तहप्पगारा ण ते सक्कस्स इति वा, यावत् सन्निवेशदाहाः इति वा, देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो प्राणक्षयाः, जनक्षयाः, धनक्षयाः, कुलक्षयाः, अण्णाया अदिट्ठा असुया अमुया अविण्णाया, व्यसनभूताः अनार्या:-ये चाप्यन्ये तथाप्रकाराः तेसिं वा सोमकाइयाणं देवाणं॥ न ते शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य अज्ञाताः अदृष्टाः अश्रुताः अस्मृताः अविज्ञाताः, तेषां वा सोमकायिकानां देवानाम्। १. भ. ब. ३/२५२-- 'तभत्तियत्ति तत्र सोमे भक्तिः-सेवा बहुमानो वा येषां ते तद्भक्तिकाः। २. वही, ३/२५२-'तप्पक्खिय'ति सोमपाक्षिकाः सोमस्य प्रयोजनेषु सहायाः। ३. वही, ३/२५२-'तब्भारिय'ति 'तभार्याः' तस्य सोमस्य भार्याः इव भार्या अत्यन्तं वश्यत्वात्पोषणीयत्वाच्चेति तद्धार्याः तद्भारो वा येषां वोढव्यतयाऽस्ति ते तदारिकाः। Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र २५३ शब्द-विमर्श ग्रहदण्ड- मंगल आदि तीन-चार ग्रहों की तिरछी लम्बी श्रेणी । " ग्रहमुशल- ग्रहों की ऊंची लम्बी श्रेणी । ग्रहगर्जित- ग्रहों के संचार से होने वाला शब्द । ग्रहयुद्ध - दो ग्रहों का आमने-सामने समश्रेणी में अवस्थान होना । जीवाजीवाभिगमवृत्ति के अनुसार एक ग्रह का दूसरे ग्रह के मध्य होकर जाना । ग्रहशृङ्गाटक - ग्रहों का सिंघाड़े के रूप में अवस्थित होना । ग्रहापसव्य - ग्रहों का प्रतिकूल दिशा में गमन । अभ्र - बादल । अभ्रवृक्ष-वृक्ष के रूप में परिणत बादल । गन्धर्वनगर - आकाश में होने वाले नगर के आकार में प्रतिबिम्व । * उल्कापात - उल्का (टूटा हुआ तारा) की वृष्टि। यह आकाश में एक प्रकाश-रेखा के रूप में दिखाई देती है। दिग्दाह - किसी दिशा में नीचे अन्धकार और ऊपर प्रकाश दिखाई दे, जो जलते हुए महानगर के प्रकाश जैसा प्रतीत हो। " यूपक शुक्ल पक्ष के प्रथम तीन दिनों में जिनसे सन्ध्या का विभाग आवृत हो जाता है, वे 'यूपक' कहलाते हैं।" जयाचार्य ने इसे 'सन्ध्या का फूलना' कहा है। निशीथ - चूर्णि के अनुसार सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रमा की प्रभा दोनों मिश्रित हो जाते हैं, उसका नाम यूपक है। यक्षोद्दीप्त- आकाश में होने वाला प्रकाश वृत्तिकार के अनुसार आकाश में व्यन्तर द्वारा कृत प्रकाश धूमिका, महिका - ये दोनों पाला या कुहासा के नाम हैं। इसमें धूमिका धूसर रंगवाली और महिका सफेद वर्णवाली होती है।" ६६ १. भ. वृ. ३/२५३ - दण्डा इव दण्डाः- तिर्यगायताः श्रेणयः ग्रहाणां मंगलादीनां त्रिचतुरादीनां दण्डा ग्रहदण्डाः । २. वही, ३/२५३ - ग्रहयुद्धानि ग्रहयोरेकत्र नक्षत्रे दक्षिणांतरेण समश्रेणितयाऽवस्थानानि । ३. जीवा, वृ. प. २८२ - ग्रहयुद्धं यदेको ग्रहोज्न्यस्य ग्रहस्य मध्येन याति । ४. भ. वृ. ३/२५३- गन्धर्वनगराणि' आकाशे व्यन्तरकृतानि नगराकारप्रतिविम्बानि । ५. वही ३/२५३- 'उल्कापाताः सरेखाः सोद्योता वा तारकस्येव पाताः । ६. वही ३ / २५३ - दिग्दाहा: ' अन्यतमस्यां दिशि अधोऽन्धकारा उपरि च प्रकाशात्मका दह्यमानमहानगरप्रकाशकल्पाः । ७. वही ३/२५३- 'जूवय'ति शुक्लपक्षे प्रतिपदादि दिनत्रयं यावयेः सन्ध्याछंदा आब्रियन्ते ते यूपकाः । ८. (क) भ. जो. १/६६ / ६१ शुक्लपक्ष रे मांय । पडवादिक जे दिन तिहुं संध्या फूले रे ते धूप कहाय ॥ भाष्य रज-उद्यात दिशाओं का रजोमय होना। चंद्र- परिवेश - चन्द्रमण्डल, चन्द्र के चारों ओर दिखलाई पड़ने वाला वलयाकार प्रकाश समूह । सूर्य परिवेश सूर्यमण्डल, सूर्य के चारों ओर दिखलाई पड़ने श. ३ : उ.७ सू.२५३ वाला वलयाकार प्रकाश समूह । प्रतिचन्द्र- द्वितीय चन्द्र । प्रतिसूर्य- द्वितीय सूर्य उदकमत्स्य- इन्द्रधनुष्य का एक खण्ड । कपिहसित - बिना बादलों के आकाश में बिजली का अकस्मात् कोंधना । मतान्तर के अनुसार बानरमुख के समान किसी विकृत मुख वाले का हंसना । अमोघा - सूर्य के उदय और अस्त के समय सूर्य की किरणों से होने वाले दण्ड । इनका आकार गाड़ी की 'ओधि' अथवा जूए के आकार के सदृश होता है, जिसका आगे का भाग संकड़ा और पीछे का भाग चौड़ा होता है। विस्तृत जानकारी के लिए द्रष्टव्य दसवे. ५/१/३ का टिप्पण। उनका वर्ण थोड़ा रक्त और श्याम होता है। वातोद्धम अनवस्थित वायु वातोत्कलिका समुद्र में हर जैसी वायु वातमंडलिका और वातावर्त उत्कलिकाबात जो वायु लहर बनाती हुई चलती है। मंडलिकावात - जो वायु वर्तुलाकार चलती है। गुज्जाबात जो वायु शब्द करती हुई चलती है। झंझावात वर्षा के साथ चलने वाली वायु वृत्तिकार ने इसका अर्थ अशुभ और निष्ठुर वायु लिया है। T संवर्तकवात-तृण आदि को उड़ा देने वाली वायु । व्यसनभूत- आपदारूप। अनार्य-अनिष्ट । अमुय - अस्मृत । (ख) स्था. वृ. प. ४५१ - स्थानांग वृत्ति में सन्ध्याप्रभा और चन्द्रप्रभा की युगपत् अवस्थिति को 'यूपक' कहा है। विशेष विस्तार के लिए ठाणं १०:२०, २१ का टिप्पण द्रष्टव्य है। ६. नि. नू. ७०३ - संझप्मभा चंदप्पभा य जेण जेण जुगवं भवति तेण जुगवी। १०. भ. वृ. ३/२५३ - जक्खलित्तय'ति' 'यक्षोद्दीप्तानि आकाशे व्यन्तरकृतज्वलनानि । ११. वही ३/२५३ - धूमिकामहिकयोर्वणकृती विशेषः तत्र धूमिका धूम्रवर्णा धूसरा इत्यर्थः महिका त्यापाण्डुति। १२. वही ३/२५३ - 'कविहसियत्ति अनश्रेया विद्युत् सहसा तत कपिहसितम् अन्य त्वाहुः - कपिहसितं नाम यदाकाशे वानरमुखसदृशस्य विकृतमुखस्य हसनम् । १३. वही, ३/२५३- अमोधा आदित्योदयास्तमययोरादित्यकिरणविकारजनिताः 'आताम्राः ' कृष्णाः श्यामा वा शकटोद्धिसंस्थिता दण्डा इति । १४. वही, ३/२५३- 'झञ्झावाता:' अशुभनिष्ठुराः । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.७ : सू.२५४-२५७ १०० भगवई २५४. सकस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य २५४. ये निम्नांकित देव देवेन्द्र देवराज शक्र के महारण्णो इमे देवा अहावच्चा अभिण्णाया महाराजस्य इमे देवाः यथाऽपत्या अभिज्ञाता: लोकपाल महाराज सोम के पुत्र के रूप में पहचाने होत्था, तं जहा-इंगालए वियालए लोहिय- अभवन्, तद् यथा-अङ्गारकः विकालकः जाते हैं, जैसे-अंगारक (मंगलग्रह), विकालक क्खे सण्णिच्चरे चंदे सूरे सूक्के बुहे बहस्सई लोहिताक्षः शनिश्चरः चन्द्रः सूरः शुक्रः बुधः (ज्यातिष्क देव की एक जाति) लोहिताक्ष (एक बृहस्पतिः राहुः। महाग्रह), शनिश्चर, चन्द्रमा, सूर्य, शुक्र, वुध, बृहस्पति और राहू। राहू॥ २५५. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य २५५. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल की स्थिति महारण्णो सतिभागं पलिओवमं ठिई महाराजस्य सत्रिभागं पल्योपमं स्थितिः त्रिभाग अधिक एक पल्यापम की प्रज्ञप्त है। पण्णत्ता। अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं प्रज्ञप्ता। यथापत्याभिज्ञातानां देवानाम् एक उसके पुत्र-रूप में पहचाने जाने वाले देवों की एगपलिओवमं ठिई पण्णत्ता। एमहिड्ढीए पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता। इयन्महर्द्धिकः । स्थिति एक पल्योपम की प्रज्ञप्त है। लोकपाल जाव महाणुभागे सोमे महाराया॥ यावन् महानुभाग: सोमः महाराजः । सोम ऐसी महान ऋद्धि वाला यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। भाष्य १.. सुत्र के रूप में पहचाने जाने वाले (यथापत्याभिज्ञात) पुत्र के रूप में अभिमत।' यम-पदं यम-पदम् यम-पद २५६. कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स । कुत्र भदन्त ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य २५६. भन्ते! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल देवरण्णो जमस्स महारण्णो वरसिट्टे नाम यमस्य महाराजस्य वरशिष्टं नाम महाविमानं महाराज यम का वरशिष्ट नाम का महाविमान महाविमाणे पण्णत्ते? प्रज्ञप्तम्? कहां प्रज्ञप्त है? गोयमा! सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस गीतम! सौधर्मावतंसकस्य महाविमानस्य गीतम! सौधर्मावतंसक महाविमान के दक्षिण भाग दाहिणे णं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाइं दक्षिणे सौधर्मे कल्पे असंख्येयानि योजन- में सौधर्मकल्प में असंख्य योजन जाने पर देवेन्द्र जोयणसहस्साई वीईवइत्ता, एत्थ णं सक्कस्स सहस्राणि व्यतिव्रज्य, अत्र शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराज शक्र के लोकपाल महाराज यम का देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो वरसिढे । देवराजस्य यमस्य महाराजस्य वरशिष्टं नाम वरशिष्ट नाम का महाविमान है। वह साढा-बारह नाम महाविमाणे पण्णत्ते-अद्वतेरसजोयण- महाविमानं प्रज्ञप्तम्-अर्द्धत्रयोदशयोजन- लाख योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाला है-सोम सयसहस्साइं-जहा सोमस्स विमाणं तहा शतसहस्राणि-यथा सोमस्य विमानं तथा के विमान तक जैसा वर्णन है, वैसा ही वर्णन जाव अभिसेओ। रायहाणी तहेव जाव। यावद् अभिषेकः। राजधानी तथैव यावत् । अभिषेक तक ज्ञातव्य है (सू. २५०)। राजधानी पासायपंतीओ। प्रासादपंक्तयः। का वर्णन भी प्रासाद-पंक्ति तक सोम की राजधानी की भांति ज्ञातव्य है। २५७. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य महाराजस्य २५७. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज महारण्णो इमे देवा आणा-उववाय- इमे देवाः आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे यम की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में -वयण-निद्देसे चिट्ठति, तं जहा-जमकाइया तिष्ठन्ति, तद् यथा-यमकायिकाः इति वा, रहने वाले देव ये हैं-यमकायिक, यमदेवकायिक, इ वा, जमदेवयकाइया इवा, पेतकाइया यमदेवताकायिकाः इति वा, प्रेतकायिकाः प्रेतकायिक, प्रेतदेवकायिक, असुरकुमार, असुरइ वा, पेतदेवयकाइया इ वा, असुर- इति दा, प्रेतदेवताकायिकाः इति वा, कुमारियां, कन्दर्प', नरकपाल और आभियोगिक'। कुमारा, असुरकुमारीओ, कंदप्पा, निरय- असुरकुमाराः, असुरकुमार्यः, कन्दर्पाः, नरक- इस प्रकार के जितने अन्य देव हैं, वे सब देवेन्द्र पाला, आभियोगा-जे यावण्णे तहप्पगारा पालाः, आभियोगा:-ये चापि अन्ये तथा- देवराज शक्र के लोकपाल महाराज यम के प्रति सव्ये ते तब्भत्तिगा, तप्पक्खिया, तब्भारिया प्रकाराः सर्वे ते तद् भक्तिकाः, तत्पाक्षिकाः, भक्ति रखते हैं, उसके पक्ष में रहते हैं, उसके सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स तद्भार्याः, शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य वशवर्ती रहते हैं तथा उसकी आज्ञा, उपपात, १. भ. वृ. ३/२५५- 'अहावच्च'त्ति यथाऽपत्यानि तथा ये ते यथाऽपत्यादेवाः पुत्रस्थानीया इत्यर्थः 'अभिण्णाय' त्ति अभिमता अभिमतवस्तुकारित्वादिति। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १०१ श.३ : उ.७ : सू.२५७-२५८ वचन और निर्देश में अवस्थित हैं। महारण्णो आणा-उववाय-वयण-निद्दे से चिटुंति॥ महाराजस्य आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठन्ति। भाष्य १. कन्दर्प कन्दर्पभावना से भावित होने के कारण कान्दर्पिक देवों में उत्पन्न, कन्दर्प या क्रीड़ा में निरत देव।' २. आभियोगिक अभियोगी भावना से भावित होने के कारण आभियोगिक देवों में उत्पन्न सेवक स्थानीय देव। २५८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य दक्षिणे २५८. 'जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिण भाम णं जाइं इमाइं समुप्पज्जति, तं जहा-डिंबा यानि इमानि समुत्पद्यन्ते, तद् यथा-डिम्बाः में जो ये स्थितियां उत्पन्न होती हैं, जैसे-डिम्ब इ वा, डमरा इ वा, कलहा इ वा, बोला इति वा, डमराः इति वा, कलहाः इति वा, (दंगा), उमर, कलह, बोल, मात्सर्य, महायुद्ध, इवा, खारा इवा, महाजुद्धा इवा, बोलाः इति वा, क्षाराः इति वा, महायुद्धानि महासंग्राम, महाशस्त्रनिपात, महापुरुषनिपात, महासंगामा इ वा, महासत्थनिवडणा इ वा, इति वा, महासंग्रामाः इति वा, महाशस्त्र- महारुधिरनिपात, टिड्डी आदि का उपद्रव, कुलरोग, महापुरिसनिवडणा इ वा, महारुहिरनिवडणा निपतनानि इति वा, महापुरुषनिपतनानि ग्रामरोग, मण्डलरोग, नगररोग, शिरोवेदना, इ वा, दुब्भूया इ वा, कुलरोगा इ वा, इति वा, महारुधिरनिपतनानि इति वा, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, नखवेदना, दन्तवेदना, गामरोगा इ वा, मंडलरोगा इ वा, नगररोगा दुर्भूताः इति वा, कुलरोगाः इति वा, ग्रामरोगा: इन्द्रग्रह, स्कन्धग्रह, कुमारग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह, इ वा, सीसवेयणा इ वा, अच्छिवेयणा इ इति वा, मण्डलरोगाः इति वा, नगररोगाः एकान्तर ज्वर, दो दिन से आने वाला ज्वर, तीन वा, कण्णवेयणा इ वा, नहवेयणा इ वा, इति वा, शीर्षवेदनाः इति वा, अक्षिवेदनाः दिन से आने वाला ज्वर, चार दिन से आने वाला दंतवेयणा इवा, इंदग्गहा इवा, खंदग्गहा इति वा, कर्णवदनाः इति वा, नखवेदनाः ज्वर, चोर आदि का उपद्रव, खांसी, श्वास, शोष, इ वा, कुमारग्गहा इ वा, जक्खग्गहा इ इति वा, दन्तवेदनाः इति वा, इन्द्रग्रहाः इति बुढ़ापा, दाह, कक्षाकोथ, अजीर्ण, पाण्डुरोग, मस्सा, वा, भूयग्गहा इ वा, एगाहिया इ वा, वा, स्कन्धग्रहाः इति वा, कुमारग्रहाः इति भगंदर, हृदय-शूल, मस्तक-शूल, योनि-शूल, बेहिया इ वा, तेहिया इ वा, चाउत्थया वा, यक्षग्रहाः इति वा, भूतग्रहाः इति वा, पार्श्व-शूल, कुक्षि-शूल, ग्राममारि. नगरमारि, खेटमारि, इवा, उव्वेयगा इ वा, कासा इ वा, सासा एकाहिकाः इति वा, यहिकाः इति वा, कर्वटमारि, द्रोणमुखमारि, मडम्बमारि, पत्तनमारि, इवा, सोसा इवा, जरा इवा, दाहा न्यहिकाः इति वा, चतुरहिकाः इति वा, आश्रममारि, संवाहमारि, सन्निवेशमारि, प्राणक्षय, इवा, कच्छकोहा इवा, अजीरगा इवा, उद्वेजकाः इति वा, कासाः इति वा. श्वासाः जनक्षय, धनक्षय, कलक्षय तथा और भी इस पंडुरोगा इवा, अरिसा इवा, भगंदला इति वा, शोषाः इति वा, ज्वराः इति वा, प्रकार की अनिष्ट आपदाएं, उन सब देवेन्द्र इ वा, हिययसूला इ वा, मत्थयसूला इ दाहाः इति वा, कक्षाकोधाः इति वा, देवराज शक्र के लोकपाल महाराज यम से तथा वा, जोणिसूला इ वा, पाससूला इ वा, अजीर्णकाः इति वा, पाण्डुरोगाः इति वा, उन यमकायिक देवों से अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, कुच्छिसूला इ वा, गाममारी इ वा, नगरमारी अर्शाः इति वा, भगन्दराः इति वा, हृदय- अस्मृत और अविज्ञात नहीं होती। इ वा, खेडमारी इ वा, कव्वडमारी इवा, शूलानि इति वा, मस्तकशूलानि इति वा, दोणमुहमारी इवा, मडंबमारी इ वा, योनिशूलानि इति वा, पार्श्वशूलानि इति वा, पट्टणमारी इ वा, आसममारी इ वा, कुक्षिशूलानि इति वा, ग्राममारिः इति वा, संवाहमारी इ वा, सण्णिवेसमारी इ वा, । नगरमारिः इति वा, खेटमारिः इति वा, पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कर्बटमारिः इति वा, द्रोणमुखमारिः इति वा, कुलक्खया, वसणभूया मणारिया-जे मडम्बमारिः इति वा, पट्टनमारिः इति वा, यावण्णे तहप्पगारा ण ते सक्कस्स देविंदस्स आश्रममारिः इति वा, सम्बाधमारिः इति वा, देवरण्णो जमस्स महारण्णो अण्णाया अदिट्ठा । सन्निवेशमारिः इति वा, प्राणक्षयाः, जनक्षयाः, असुया अमुया अविण्णाया, तेसिं वा। धनक्षयाः, कुलक्षयाः, व्यसनभूताः अनार्याः-ये जमकाइयाणं देवाणं॥ चाप्यन्ये तथाप्रकाराः न ते शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य महाराजस्य अज्ञाताः अदृष्टाः अश्रुताः अस्मृताः अविज्ञाताः, तेषां वा यमकायिकानां देवानाम् । Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.७:सू.२५८-२५६ १०२ भगवई भाष्य १. सूत्र-२५८ शब्द-विमर्श डिम्ब-दंगा।' डमर-अपने ही राज्य में राजकुमार आदि द्वारा किया गया उपद्रव। आप्टे के अनुसार-डिम्ब का अर्थ है-कलह, छोटा युद्ध, शस्त्रास्त्रों के बिना होने वाला युद्ध । डमर का अर्थ है-कलह, गांवों के बीच होने वाला कलह, शत्रु को भयभीत करने के लिए किया जाने वाला शब्द। बोल-अव्यक्त अक्षर वाले ध्वनि-समूह । खार-पारस्परिक मात्सर्य। महायुद्ध, महासंग्राम-साधारणतया ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। वृत्तिकार ने इन दोनों के बीच भेदरेखा खींची है। उनके अनुसार व्यवस्था-शून्य महारण का नाम 'महायुद्ध' और चक्रव्यूह आदि की रचना के साथ लड़ा जाने वाला महारण 'महासंग्राम' है।" दुर्भूत-ईति। धान्य आदि के लिए उपद्रव-भूत चूहों तथा टिड्डी आदि जीवों को दुर्भूत कहा गया है। इन्द्रग्रह-किसी शरीर में होने वाला इन्द्र का आवेश। स्कन्दग्रह-किसी शरीर में स्कन्द का आवेश। कुमारग्रह-स्कन्ध और कुमार-ये दोनों कार्तिकेय के नाम हैं। सूत्रकार के द्वारा 'कुमार' शब्द पृथक् रूप में विवक्षित है। यक्षग्रह-किसी शरीर में होने वाला यक्ष का आवेश। भूतग्रह-किसी शरीर में होने वाला भूत का आवेश । ये सब उन्माद के हेतु बनते हैं। भगवई के १४वें शतक में भी यक्षावेश-जनित उन्माद का उल्लेख मिलता है। ठाणं में यक्षावेश को उन्माद का एक हेतु बतलाया गया है।" उद्वेजक (उव्वेयग)-वृत्तिकार ने उव्वेयग के दो संस्कृत रूप किए हैं-१. उद्वेगक-इष्ट-वियोग आदि से होने वाला उद्वेग। २ उद्वेजक-लोगों में उद्वेग उत्पन्न करने वाले चीर आदि।" शोष-शरीर का सूखना, शारीरिक धातुओं की क्षीणता। राजयक्ष्मा। कक्षाकोथ-कांख का फोड़ा, कांख की सड़ान।" २५६. सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तं जहा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य महा- २५६. 'ये निम्नांकित देव देवेन्द्र देवराज शक्र के राजस्य इमे देवाः यथापत्याः अभिज्ञाताः लोकपाल महाराज यम के पुत्र के रूप में पहचाने अभवन्, तद् यथा जाते हैं संग्रहणी-गाथा संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा अंबे अंबरिसे चेव, अम्बः अम्बरिषश्चैव, सामे सबले त्ति यावरे। श्यामः सबल इति चापरः । रुद्दोवरुद्दे काले य, रुद्रोपरुद्रः कालश्च, महाकाले त्ति यावरे ॥१॥ महाकाल इति चापरः ॥१॥ असिपत्ते धणू कुंभे, असिपत्रो धनुः कुम्भो, वालुए वेतरणी त्ति य। बालुको वैतरणीति च। खरस्सरे महाघोसे, खरस्वरो महाघोषः, एते पण्णरसाहिया ॥२॥ एते पञ्चदशाऽऽख्याताः ॥२॥ अंब, अम्बरीष, श्याम, शवल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असिपत्र, धनु, कुम्भ, वालुक, वैतरणी, खरस्वर और महाघोष-ये पन्द्रह देव यम के पुत्रस्थानीय हैं। १. भ. वृ. ३/२५८-डिम्बा-विघ्नाः। २. वही, ३/२५८-'डमररति एकराज्ये एव राजकुमारादिकृतोपद्रवाः।। ३. आप्टे-डियः-१. Aliray. riot; डिम्बयुद्ध-Petty warfare, an aftray without weapons, skirmishi, sham-light: 34:-9. Riot, tumult, attray. 2. Petty wartare between villages. 3. Terrifying an enemy by shouts and gestures. ४. द्रष्टव्य. सूय. २/१/१३ का टिप्पण। ५. भ, वृ. ३/२५६ -- 'बोल'त्ति अव्यक्ताक्षरध्वनिसमूहाः । ६. वही, ३/२५८-'खार'त्ति परस्परमत्सराः। ७. वही, ३/२५८ - महाजुद्ध'त्ति 'महायुद्धानि व्यवस्थाविहीनमहारणाः, 'महासंग्राम'त्ति सव्यवस्थचक्रादिव्यूहरचनोपेतमहारणाः। ८. वही, ३/२५८-'दुभूयत्ति दुष्टा-जनधान्यादीनामुपद्वहेतत्वाद् भूताः-सत्त्वाः यूकामत्कुणोन्दुरतिहप्रभृतयो दुर्भूता ईतय इत्यर्थः । ६. भ. १४/१६-२०। १०. ठाण-२/७५। ११. भ. वृ. ३/२५- 'उव्वयेगति उद्धेगका इष्टवियोगादिजन्या उदगाः उद्वेजका वा लोकोद्वेगकारिणश्चोरादयः। १२. आप्टे. शोषः-क्ततपदह नवा कतलदम 27 वपंजपवदा पाजीमतपदा नचए अग नसबदतन व्वदेनउचजपवद बत बदनउचजपवद पद हमदमतंस १३. आप्टे, कक्षा-arm-pit; कोथ-धनजतमजिपवदा हंदहतपदमण Jain Education Intemational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र २५६ जब आदि पन्द्रह प्रकार के देव आसुरनिकाय के अन्तर्वतीं हैं ये परमाथार्मिक कहलाते हैं। वृतिकार ने इनके अन्वर्य नाम की व्याख्या की है' १०३ १. अम्ब - जो नैरयिकों को आकाश में ले जाकर ऊपर से गिराता है। भाष्य २. अम्बरीष - जो नैरयिकों को कैंची आदि से खण्ड-खण्ड कर अम्बरीष भाण्ड में पकाने योग्य बनाता है, इसलिए अम्बरीस कहलाता है। ३. श्याम - जो नैरयिकों को शातना-उत्पीड़ा देता है, वर्ण से श्याम होता है, इसलिए श्याम कहलाता है। ४. शबल जो नैरयिकों के आंत, हृदय आदि को उखाड़ देता है और वर्ण से शबल (चितकबरा होता है, इसलिए शबल कहलाता है। ५. रौद्र - जो नैरयिकों को शक्ति, भाले आदि में पिरो देता है, वह अपनी रौद्रता के कारण रौद्र कहलाता है। ६. उपरौद्र - जो नैरयिकों के अंगोपांगों का भंग करता है, वह उपरौद्र कहलाता है। २६०. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो सतिभागं पलिओदमं ठिई पण्णत्ता, अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । एमडिए जाव महाणुभागे जमे महाराया ॥ ७. काल -जो नैरयिकों को हाण्डी आदि में पकाता है, वह काला होता है, इसलिए वह काल कहलाता है। वरुण-पदं २६१. कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देव रण्णो वरुणस्स महारण्णो सयंजले नामं महाविमाणे पणते ? गोयमा! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणसस्स पच्चत्थिमे णं जहा सोमस्स तहा विमाण - रायधाणीओ भाणियव्वा जाव पासादबर्डेसया, नवरं नामनाणतं ॥ १. भ. बृ. ३/२५६ – 'अम्ब' इत्यादयः पंचदश असुरनिकायान्तर्वत्तिनः परमाधार्मिकनिकायाः । २. भ. वृ. ३/२५६ । ८. महाकाल - जो नैरयिकों को चिकने मांस के टुकड़े खिलाता है और वर्ण से जो बहुत काले होते हैं, वह महाकाल कहलाता है। ६. धनु-जो धनुष्य से मुक्त अर्धचन्द्र आदि वाणों के द्वारा कान आदि का छेदन-भेदन आदि करता है, वह धनु कहलाता है। १०. असिपत्र - जो तलवार के आकार वाले पत्र की तरह विकुर्वणा करता है, वह असिपत्र कहलाता है । ११. कुम्भ - जो कुम्भ आदि में उन्हें पकाता है, वह कुम्भ कहलाता है। १२. बालुक - जो कदम्ब पुष्प आदि के आकार वाली बालु-धूलि में नैरयिकों को पकाता है, इसलिए वह बालुक कहलाता है। शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य महाराजस्य सत्रिभागं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ताः, यथापत्याऽभिज्ञातानां देवानाम् एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । इयन्महर्द्धिकः यावन् महानुभागः यमः महाराजः । श. ३ : उ.७ : सू. २५६-२६१ १३. वैतरणी - जो पीप, लोही आदि से भरी हुई वेतरणी नामक नदी का निर्माण करता है, वह वेतरणी कहलाता है। १४. खरस्वर - जो वज्र जैसे कांटों से आकुल शाल्मली वृक्ष का निर्माण कर उस पर नारकों को आरोपित कर, उन्हें चिल्लाते हुए खींचता है, वह 'खरस्वर' कहलाता है। १५. महाघोष-जी भयभीत होकर दौड़ते हुए नैरयिकों को महाघोष करता हुआ पशुओं की तरह बाड़ों में बांध देता है, वह 'महाघोष' कहलाता है।" देखें समवाओ, १५/१ का टिप्पण । वरुण-पदम् कुत्र भदन्त ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य स्वयंञ्जलं नाम महाविमानं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! तस्य सौधमार्वतंसकस्य महाविमानस्य पश्चिमे यथा सोमस्य तथा विमान-राजधान्यः भणितव्याः यावत् प्रासादावतंसकाः, नवरंनामनानात्वम् । २६०. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज यम की स्थिति त्रिभाग अधिक एक पल्योपम की प्रज्ञप्त है। उसके पुत्र रूप में पहचाने जाने वाले देवों की स्थिति एक पल्योपम की प्रज्ञप्त है। लोकपाल यम ऐसी महान ऋद्धि वाला यावत् महान सामर्थ्य वाला है । वरुण-पद २६१. भन्ते ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वरुण का स्वयञ्जल नाम का महाविमान कहां प्रज्ञप्त है? गौतम! उस सौधर्मावतंसक महाविमान के पश्चिम भाग में स्वयञ्जल नाम का महाविमान है। इसके विमान, राजधानी और प्रासादावतंसक तक का वर्णन सोम की भांति ज्ञातव्य है । केवल नामों की भिन्नता है। 1 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.७: सू.२६२-२६४ १०४ भगवई २६२. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वरुणस्य २६२. देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल महाराज महारण्णो इमे देवा आणा-उववाय- महाराजस्य इमे देवाः आज्ञा-उपपात- वचन- वरुण की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में -वयण-निद्देसे चिट्ठति, तं जहा-वरुणकाइया -निर्देशे तिष्ठन्ति, तद् यथा-वरुणकायिकाः रहने वाले देव ये हैं-वरुणकायिक, वरुणदेवइ वा, वरुणदेवयकाइया इ वा, नागकुमारा, इति वा, वरुणदेवताकायिकाः इति वा, कायिक, नागकुमार, नागकुमारियां, उदधिकमार, नागकुमारीओ, उदहिकुमारा, उदहिकुमारीओ, नागकुमाराः, नागकुमार्यः, उदधिकुमाराः, उदधि- उदधिकुमारियां, स्तनितकुमार और स्तनितकुमारियां। थणियकुमारा, थणियकुमारीओ-जे यावण्णे कुमार्यः, स्तनितकुमाराः, स्तनितकुमार्य:-ये इस प्रकार के जितने अन्य देव हैं, वे सब देवेन्द्र तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, चापि अन्ये तथाप्रकाराः सर्वे ते तद्भक्तिकाः, देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वरुण के प्रति तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो तत्पाक्षिकाः, तद्भार्याः शक्रस्य देवेन्द्रस्य भक्ति रखते हैं, उसके पक्ष में रहते हैं, उसके वरुणस्स महारण्णो आणा-उववाय-वयण- देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य आज्ञा- वशवर्ती रहते हैं तथा उसकी आज्ञा, उपपात, निद्देसे चिट्ठति ॥ -उपपात-बचन-निर्देश तिष्ठन्ति। वचन और निर्देश में अवस्थित हैं। २६३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे यानि २६३. ' जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिण भाग णं जाइं इमाइं समुप्पज्जति, तं जहा- इमानि समुत्पद्यन्ते, तद् यथा-अतिवाः में जो ये स्थितियां उत्पन्न होती हैं, जैसे-अतिवर्षा, अइवासा इवा, मंदवासा इ वा, सुवुट्ठी इति वा, मन्दवः इति वा, सुवृष्टिः इति मन्दवर्धा, सवृष्टि, दुर्वृष्टि, उदकोभेद (निर्झर) इवा, दुवुट्टी इवा, उदभेदा इ वा, वा, दुर्वृष्टिः इति वा, उदोभेदाः इति वा, उदकोत्पीड़ (पानी का अतिप्रवाह), अपवाह, प्रवाह, उदप्पीला इ वा, ओवाहा इ वा, पवाहा उदोत्पीडाः इति वा, अपवाहा: इति वा, ग्रामवाह, यावत् सन्निवेशवाह, प्राणक्षय, जनक्षय, इ वा, गामवाहा इ वा, जाव सण्णिवेसवाहा प्रवाहाः इति वा, ग्रामवाहाः इति वा, यावत् धनक्षय, कुलक्षय, तथा और भी इस प्रकार की इवा, पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, सन्निवेशवाहाः इति वा, प्राणक्षयाः, जनक्षयाः, अनिष्ट आपदाएं, वे सब देवेन्द्र देवराज शक्र के कुलक्खया, वसणब्भूया मणारिया जे यावण्णे धनक्षयाः, कुलक्षयाः, व्यसनभूताः, अनार्याः लोकपाल महाराज वरुण तथा उन वरुणकायिक तहप्पगारा ण ते सक्कस्स देविंदस्स देवरपणो ये चापि अन्ये तथाप्रकाराः न ते शक्रस्य देवों से अज्ञात अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृत और वरुणस्स महारण्णो अण्णाया अदिट्ठा असुया देवेन्द्रस्य देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य अविज्ञात नहीं होती। अमुया अविण्णाया, तेसिं वा वरुणकाइयाणं अज्ञाताः अदृष्टाः अश्रुताः अस्मृताः अविज्ञाताः, देवाणं॥ तेषां वा वरुणकायिकानां देवानाम् । भाष्य १. सूत्र २६३ शब्द-विमर्श सुवृष्टि-धान्य आदि की निष्पत्ति में हेतुभूत वर्षा । दुर्वृष्टि-जिस वर्षा से धान्य आदि की निष्पत्ति न हो। उदकोइँद (उदब्भेया)-झरणा। उदकोत्पीड़ (उदप्पील)-पानी का अतिप्रवाह ।' अपवाह (ओवाह)-पानी का मन्दप्रवाह । २६४. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स शक्रस्य देवेन्द्र देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य महारण्णो इमे देवा अहावच्चा-भिण्णाया। इमे देवाः यथापत्याभिज्ञाताः अभवन्, तद् होत्था, तं जहा यथाकक्कोडए कद्दमए, कर्कोटकः कर्दमकः अंजणे संखवालए पुंडे। अञ्जनः शङ्खपालकः पुंडः। पलासे मोए जए, पलाशः मोदः जयः दहिमुहे अयंपुले कायरिए ॥ दधिमुखः अयंपुलः कातरिकः ॥ २६४. ये निम्नांकित देव देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वरुण के पुत्र के रूप में पहचाने जाते हैं, जैसे-कर्कोटक, कदमक, अजन, शंखपालक, पुण्ड, पलाश, मोद, जय, दधिमुख, अयंपुल और कारिक। १. आपटे-उत्पीड-Overflows Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६५. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो देखूणाई दो पत्तिओवमाई लिई पणता अहावच्चामिण्णादाण देवाणं एवं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । एमहिड्ढीए जाव माहनुभागे वरुणे महाराया ॥ वेसमण-पदं २६६. कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो वग्गू नामं महाविमाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरे णं जहा सोमस्स विमाण रायहाणि बत्तव्यया तहा नेयव्या जाव पासादवडेंसया ॥ २६७. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो इमे देवा आणा-उववाय वयण- निद्देसे चिट्ठति, तं जहाबेसमणकाइया इ वा वेसमणदेवयकादया इवा, सुवण्णकुमारा, सुवण्णकुमारीओ दीवकुमारा, दीवकुमारीज, दिसाकुमारा, दिसाकुमारीओ वाणमंतरा, वाणमंतरीओ - जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो आणा- उववाय वयण निद्देसे चिट्ठति ॥ 1 २६८. जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्त दाहिणे णं जाई इमाई समुप्पज्जंति, तं जहाअयागरा इवा, तउयागरा इ वा, तंबागरा इवा, सीसागरा इ वा हिरण्णागरा इ वा, सुवण्णागरा इ वा, रयणागरा इवा, वइरागरा इवा, वसुहारा इ वा हिरण्णवासा इवा, सुवण्णवासा इवा, रयणवासा इ वा, वइरवासा इवा, आभरणवासा इ वा, पत्तवासा इवा, पुप्फवासा इवा, फलवासा इ वा, बीयवासा इवा, मल्लवासा इवा, वण्णवासा इवा, चुण्णवासा इवा, गंधवासा इ वा, वत्थवासा इवा, हिरण्णवुट्ठी इवा, सुवणबुडी इवा, रमणबुडी इ वा बहरवुट्टी इ वा आभरणबुडी इ वा पत्तबुद्धी इ वा पुप्फवुट्टी इ वा फलवुडी इवा, वीयवुट्ठी इ वा मल्लबुट्टी इ वा, 1 १०५ शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य देशोने द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता । यथापत्याभिज्ञातानां देवानाम् एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । इयन्महर्द्धिकः यावन् महानुभागः वरुणः महाराजः । वैश्रवण-पदम् कुत्र भदन्त शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैश्रवणस्य महाराजस्य वल्गु नाम महाविमानं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! तस्य सौधर्मावतंसकस्य महाविमानस्य उत्तरे यथा सोमस्य विमान राजधानी- वक्तव्यता तथा नेतव्या यावत् प्रासादावतंसकाः । शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैश्रवणस्य महाराजस्य इमे देवाः आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठन्ति तद् यथा - वैश्रवणकायिकाः इतिया देवकाः इति वा सुपर्णकुमाराः सुपर्णकुमार्यः दीपकुमाराः दीपकुमार्यः दिक्कुमाराः दिवकुमार्यः वानन्तराः वानमन्तर्यः ये चापि अन्ये तथाप्रकाराः सर्वे भक्तिकाः, तत्याक्षिकाः तद्भार्याः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैश्रवणस्य महाराजस्य आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठन्ति । जम्बूद्वीप द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य दक्षिणे यानि इमानि समुत्पद्यन्ते, तद् यथा अयआकराः इति वा, त्रपुआकराः इति वा, ताम्राऽऽकराः इति वा, सीसाऽऽकराः इति वा, हिरण्याऽऽकराः इति वा, सुवर्णाऽऽकराः इति वा, रत्नाऽऽकराः इति वा, बज्राऽऽकराः इति वा वसुधाराः इति वा हिरण्यवर्णाः इतिथा सुवर्णव इति वा, रत्नवर्षाः इति वा, वज्रवर्षाः इति वा आभरणवर्षाः इति वा पत्रवर्षाः इति वा पुण्यवः इति वा, फलवर्षाः इति वा, वीजवर्षाः इति वा, माल्यवर्षाः इति वा, वर्णवर्षाः इति वा, चूर्णवर्षाः इति वा, गन्धवर्षाः इति वा, वस्त्रवर्षाः इति वा, हिरण्यवृष्टिः इति वा, सुवर्णवृष्टिः इति वा, रत्नवृष्टिः इति वा, वज्रवृष्टिः इति वा, आभरणवृष्टिः इति वा पत्रकृतिया पुष्टिः इति श. ३ : उ.७ : सू.२६५-२६८ २६५. देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वरुण की स्थिति कुछ कम दो पल्योपम की प्रज्ञप्त है उसके पुत्र रूप में पहचाने जाने वाले देवों की स्थिति एक पल्योपम की प्रज्ञप्त हैं । लोकपाल वरुण ऐसी महान ऋद्धि वाला यावत् महान् सामर्थ्य वाला है। वैश्रवण-पद २६६. भन्ते! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वैश्रवण का वल्गु नामक महाविमान कहां प्रज्ञप्त है? गौतम! उस सौधर्मावितंसक महाविमान के उत्तर भाग में वैश्रवण का वल्गु नाम का महाविमान है इसके विमान राजधानी और प्रसादावतंसक तक की वक्तव्यता सोम की भांति ज्ञातव्य है । २६७. देवन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वैश्रवण की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में रहने वाले देव ये हैं- वैश्रवणकायिक, वैश्रवणदेवकायिक, सुपर्णकुमार, सुपर्णकुमारियां, दीपकुमार, दीपकुमारियां, दिकुमार दिक्कुमारियां, वानमन्तर, वानमन्तरियां। इस प्रकार के जितने अन्य देव हैं, वे सब देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वैश्रवण के प्रति भक्ति रखते है, उसके पक्ष में रहते हैं, उसके वशवर्ती रहते हैं तथा उसकी आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में अपस्थित है। 1 २६८. जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिण भाग में जो ये स्थितियां उत्पन्न होती हैं-लोहे की खान, रांगे की खान, ताम्बे की खान, सीसे की खान, चांदी की खान, सोने की खान, रत्नों की खान, वज्र की खान, वसुधारा, हिरण्यवर्षा, सुवर्णवर्षा, रत्नवर्षा वज्रवर्षा, आभरणवर्षा पत्रव पुष्पवर्षा व वीजवर्षा, माल्यवर्षा, वर्णवर्या, चूर्णवर्षा गन्धवर्षा, वस्त्रवर्षा, हिरण्यवृष्टि, सुवर्णवृष्टि, रत्नवृष्टि, वज्रवृष्टि, आभरणवृष्टि, पत्रवृष्टि, पुष्पवृष्टि, फलवृष्टि, दृष्टादृष्टि वर्णवृष्टि, चूर्णवृष्टि, गन्धवृष्टि, वस्त्रवृष्टि, भाजनवृष्टि, क्षीरवृष्टि, सुकाल, दुष्काल, अल्पार्घ्य, महार्घ्य, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्रय-विक्रय, सन्निधि, सॉनाच निधि निधान है-वे विरपुराण, अल्पस्वामित्व वाले हों, उनमें धन का न्यास करने वाले कम रहे हों, उन तक पहुंचने के मार्ग कम Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.७:सू.२६८ १०६ भगवई वण्णवुट्ठी इ वा, चुण्णवुट्ठी इ वा, गंधवुट्ठी फलवृष्टि इति वा, बीजवृष्टिः इति वा, माल्यवृष्टिः हों, वहां धन का न्यास करने वालों का गोत्रगृह इ वा, वत्थवुट्ठी इ वा, भायणवुट्ठी इ वा, इति वा, वर्णवृष्टिः इति वा, चूर्णवृष्टिः इति कम रहा हो, उनका स्वामित्व उच्छिन्न हो गया खीरवुट्ठी इ वा, सुकाला इ वा, दुक्काला वा, गन्धवृष्टिः इति वा, वस्त्रवृष्टिः इति वा, हो, उनमें धन का न्यास करने वाले उच्छिन्न इ वा, अप्पग्घा इ वा, महग्घा इ वा, भाजनवृष्टिः इति वा, क्षीरवृष्टिः इति वा, हो गए हों, (उन तक जाने वाले मार्ग उच्छिन्न सुभिक्खा इ वा, दुभिक्खा इ वा, सुकालाः इति वा, दुष्कालाः इति वा, अल्पायाः हो गए हों) वहां धन का न्यास करने वालों के कयविक्कया इ वा, सण्णिही इ वा, इति वा, महााः इति वा, सुभिक्षानि इति गोत्र-गृह उच्छिन्न हो गए हों। वहां जो दुराहे, सण्णिचया इ वा, निही इ वा, निहाणाइ वा, दुर्भिक्षानि इति वा, क्रयविक्रयाणि इति वा, तिराहे, चौराहे, चोक चारों ओर प्रवेशद्वार वाले वा-चिरपोराणाइ वा, पहीणसामियाइ वा, संनिधयः इति वा, संनिचयाः इति वा, निधयः स्थान, राजपथ और वीथियों में, नगर के जलनिर्गमन पहीणसेतुयाइ वा, पहीणमग्गाइ वा, इति वा, निधानानि वा-चिरपुराणानि वा, मार्गों में, श्मशानगृहों, गिरिगृहों, कन्दरागृहों, पहीणगोत्तागाराइ वा, उच्छण्णसामियाइ वा, प्रहीणस्वामिकानि वा, प्रहीणसेतुकानि वा, शांतिगृहों, शैलगृहों, उपस्थानगृहों और भवनगृहों उच्छण्णसेतुयाइ वा, (उच्छण्णमग्गा इ वा?) प्रहीणमार्गाणि वा, प्रहीणगोत्रागाराणि वा, में जो निधान निक्षिप्त हैं-वे देवेन्द्र देवराज शक्र उच्छण्णगोत्तागारा इ वा, सिंघाडग- उत्सन्नस्वामिकानि वा, उत्सन्नसेतुकानि वा, के लोकपाल महाराज वैश्रवण और वैश्रवणकायिक -तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु (उत्सन्नमार्गाणि इति वा?) उत्सन्नगोत्रागाराणि देवों से अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृत और वा, नगरनिद्धमणेसु वा, सुसाण-गिरि-कंदर- इति वा, शृंगाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख- अविज्ञात नहीं होती। -संति-सेलोवट्ठाण-भवणगिहेसु संनिक्खित्ताई -महापथ-पथेषु वा, नगरनिर्धमनेषु वा, श्मचिटुंति, न ताई सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो शान-गिरि-कन्दरा-शान्ति-शैलोपस्थानभवनगृहेषु वेसमणस्स महारण्णो अण्णायाई अदिवाइं संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, न तानि शक्रस्य देवेन्द्रस्य असुयाइं अमुयाई अविण्णायाई, तेसिं वा देवराजस्य वैश्रवणस्य महाराजस्य अज्ञातानि, वेसमणकाइयाणं देवाणं ॥ अदृष्टानि, अश्रुतानि, अस्मृतानि, अविज्ञातानि, तेषां वा वैश्रवणकायिकानां देवानाम् । भाष्य १. सूत्र २६८ वृत्तिकार ने पहीणसेउय का संस्कृत रूप 'प्रहीणसेचक' धन शब्द-विमर्श का प्रक्षेप करने वाला किया है।' प्रहीणगोत्रागार-जिस स्वामी के गोत्र और गृह नष्ट हो गए हों। वसुधारा-आकाश से गिरने वाली रत्नों की धारा। उच्छिन्न (उच्छण्ण)-ठाणं में इसी प्रसंग में उच्छिण्ण शब्द का वर्णवर्षा-चन्दन आदि की वर्षा । प्रयोग मिलता है। दोनों का अर्थ एक है। चूर्णवर्षा-गन्धद्रव्य-निष्पन्न चूर्ण की वर्षा । नगरनिद्धमण-निद्धमण देशी शब्द है। इसका अर्थ है 'जलथोडी वर्षा को वर्षा और अधिक वर्षा को वृष्टि कहा जाता है। निर्गमन का नाला। अल्पार्ध्य-अल्पमूल्य। श्मशानगृह-श्मशान में होने वाला गृह। महाग्रं-बहुमूल्य। गिरिगृह-पर्वत के ऊपर स्थित गृह। सन्निधि-घृत-गुड़ आदि का संग्रह। कन्दरगृह-गुफा। संनिचय-धान्य का संग्रह। शान्तिगृह-शान्ति कर्म करने का स्थान। निधि- धन का संग्रह। शैलगृह-पर्वत को उत्कीर्ण कर बनाया गया गृह 'लेणी' । निधान-भूमि में गाड़ा हुआ धन। उपस्थानगृह-सभामण्डप। प्रहीणसेतुक-जिसका सेतु या कारण नष्ट हो गया हो। भवनगृह-कुटुबियों के रहने का मकान ।' १. भ. ७.३/२६८.-'पहीणसेउयाइंति प्रहीणाः-अल्पीभूताः सतार:-सेचका:-धनप्रक्षेप्तारी येषां तानि तथा। २. वहीं, ३/२६८ - पहीणगोत्तागाराईति प्रहीणं विरलीभूतमानुपं गोत्रागार-तत्स्वामिगोत्रगृह येषां तानि तथा। ३. ठाणं, ५/२१,२२। ४. भ. वृ. ३/२६८.... 'नगरांनद्धवणेस' ति 'नगरनि मनेप' नगरजलनिर्गमनेष 'सुसाणगिरिकन्दरसतिसेलोवट्ठाणभवर्णागहेसु' ति गृहशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात् श्मशानगृहपितृवनगृहं, गिरिगृह-पर्वतोपरिगृहं, कन्दरगृह-गुहा, शांतिगृह-शांतिकर्मस्थान, शेलगृह-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतं, उपस्थानगृह-आस्थानमण्डपो, भवनगृह-कुटुम्बीवसनगृहमिति। Jain Education Intemational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.७: सू.२६६-२७१ १०७ भगवई २६६. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैश्रवणस्य २६६. ये निम्नांकित देव देवेन्द्र देवराज शक्र के वेसमणस्स महारण्णो इमे देवा अहा- महाराजस्य इमे देवाः यथापत्याभिज्ञाताः लोकपाल महाराज वेश्रवण के पुत्ररूप में पहचाने वच्चाभिण्णाया होत्था, तं जहा-पुण्णभद्दे अभवन्, तद् यथा-पूर्णभद्रः माणिभद्रः जाते हैं, जैसे-पूर्णभद्र, माणिभद्र, शालिभद्र, सुमनभद्र, माणिभद्दे सालिभद्दे सुमणभद्दे चक्करक्खे शालिभद्रः सुमनोभद्रः चक्ररक्षः पूर्णरक्षः चक्ररक्ष, पूर्णरक्ष, सव्यान, सर्वयश, सर्वकाम, समृद्ध, पुण्णरक्खे सव्वाणे सव्वजसे सव्वकामे समिद्धे सव्यानः सर्वयशाः सर्वकामः समृद्धः अमोहः अमोह और असंग। अमोहे असंगे॥ असंगः। २७०. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैश्रवणस्य २७०, देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल महाराज वेसमणस्स महारण्णो दो पलिओवमाई ठिई महाराजस्य द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता। वैश्रवण की स्थिति दो पल्योपम की प्रज्ञप्त है। पण्णत्ता। अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एगं यथापत्याभिज्ञातानां देवानाम् एकं पल्योपमं उनके पुत्ररूप में पहचाने जाने वाले देवों की पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । एमहिड्डीए जाव स्थितिः प्रज्ञप्ता। इयन्महर्द्धिकः यावन स्थिति एक पल्योपम की प्रज्ञप्त है। लोकपाल महाणुभागे वेसमणे महाराया ॥ महानुभाग: वैश्वणः महाराजः। वैश्रवण ऐसी महान् ऋद्धिवाला यावत् महान् सामर्थ्यवाला है। २७१. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। २७१. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही Jain Education Intemational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसो : आठवां उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद २७२. रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं राजगृहे नगरे यावत् पर्युपासीनः एवम- वयासी-असुरकुमाराणं भंते! देवाणं कइ वादीद्-असुरकुमाराणां भदन्त! देवानां कति देवा आहेवच्चं जाव विहरंति? देवाः आधिपत्यं यावद् विहरन्ति? २७२. राजगृह नगर में भगवान् गौतम भगवान महावीर की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भन्ते! कितने देव असुरकुमार देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं? गौतम! दस देव उनका आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं, जैसे-असुरेन्द्र-असुरराज-चमर, सोम, यम, वरुण, वैश्रवण। वैरोचनेन्द्र-वैरोचनराज-बली, सोम, यम, वैश्रवण और वरुण। गोयमा! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, गौतम! दश देवाः आधिपत्यं यावद् विहरन्ति, तं जहा-चमरे असुरिंदे असुरराया, सोमे, तद् यथा-चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः, सोमः, जमे, वरुणे, वेसमणे, बली वइरोयणिंदे यमः, वरुणः, वैश्रवणः, बली वैरोचनेन्द्रः वइरोयणराया, सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे॥ वैरोचनराजः, सोमः, यमः, वैश्रवणः, वरुणः। २७३. नागकुमाराणं भंते! देवाणं कइ देवा नागकमाराणां भदन्त! देवानां कति देवाः आहेवच्चं जाव विहरंति? आधिपत्यं यावद् विहरन्ति? गोयमा! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, गौतम! दश देवाः आधिपत्यं यावद् विहरन्ति, तं जहा-धरणे णं नागकुमारिंदे नागकुमार- तद् यथा-धरणः नागकुमारेन्द्रः नागकुमारराया, कालवाले, कोलवाले, सेलवाले, राजः, कालपालः, कोलपालः, शैलपालः, संखवाले, भूयाणंदे नागकुमारिंदे नागकुमार- शङ्खपालः, भूतानन्दः नागकुमारेन्द्रः नागकुमारराया, कालवाले, कोलवाले, संखवाले, राजः, कालपालः कोलपालः, शङ्खपालः, सेलवाले॥ शैलपालः। २७३. भंते! कितने देव नागकमार देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं। गोतम! दस देव उनका आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं, जैसे-नागकुमारेन्द्र-नागकुमारराज-धरण, कालपाल, कोलपाल, शैलपाल, शंखपाल। नागकुमारेन्द्रनागकुमारराज-भूतानन्द, कालपाल, कोलपाल, शंखपाल और शैलपाल । २७४. जहा नागकुमारिंदाणं एताए वत्तव्वयाए यथा नागकुमारेन्द्राणाम् अनया वक्तव्यतया २७४. नागकुमारेन्द्र की जो वक्तव्यता है, वही नीयं एवं इमाणं नेयव्वंनीतम् एवम् एषां नेतव्यम् वक्तव्यता निम्न निर्दिष्ट देवों की ज्ञातव्य हैसुवण्णकुमाराणं-वेणुदेवे, वेणुदाली, चित्ते, सुपर्णकुमाराणं-वेणुदेवः, वेणुदाली, चित्रः, सुपर्णकुमार देवों का आधिपत्य करने वाले विचित्ते, चित्तपक्खे, विचित्तपक्खे। विचित्रः, चित्रपक्षः, विचित्रपक्षः। देव-वेणुदेव, चित्र, विचित्र, चित्रपक्ष और विचित्रपक्ष। वेणुदाली, चित्र, विचित्र, चित्रपक्ष और विचित्रपक्ष। विज्जुकुमाराणं-हरिकत-हरिस्सह-पभ-सुप्पभ विद्युत्कुमाराणां-हरिकान्त-हरिस्सह-प्रभ-सुप्रभ- विद्युत्कुमार देवों का आधिपत्य करने वाले -पभकंत-सुप्पभकता। -प्रभकान्त-सुप्रभकान्ताः। देव-हरिकान्त, प्रभ, सुप्रभ, प्रभकान्त और सुप्रभकान्त। हरिस्सह, प्रभ, सुप्रभ, सुप्रभकान्त और प्रभकान्त। अग्गिकुमाराणं-अग्गिसिह-अग्गिमाणव- अग्निकुमाराणाम्-अग्निशिख-अग्निमाणव-तेजः- अग्निकमार देवों का आधिपत्य करने वाले -तेउ-तेउसिह-तेउकंत-तेउप्पभा। तेजःशिख-तेजःकान्त-तेजःप्रभाः। देव-अग्निशिख, तेजः, तेजःशिख, तेजस्कान्त और तेजःप्रभ। अग्निमानव, तेजः, तेजःशिख, Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.८ःसू.२७४-२७७ १०६ भगवई दीवकुमाराणं-पुण्ण-विसिट्ठ-रूय-रूयंस- द्वीपकुमाराणां-पूर्ण-विशिष्ट-रूप-रूपांश-रूयकंत-रूयप्पभा। -रूपकान्त-रूपप्रभाः। उदहीकुमाराण-जलकंत-जलप्पभ-जल- उदधिकुमाराणां-जलकान्त-जलप्रभ-जल-जल-जलरुय-जलकंत-जलप्पभा। -रुकू-जलकान्त-जलप्रभाः। दिसाकुमाराणं-अमितगति-अमितवाहण- दिक्कुमाराणाम्-अमितगति-अमितवाहन-तुरियगति-खिप्पगति-सीहगति-सीहवि- त्वरित-गति-क्षिप्रगति-सिंहगति-सिंहविक्रमक्कमगती। गतयः। तेजःप्रभ और तेजस्कान्त। द्वीपकुमार देवों का आधिपत्य करने वाले देव-पूर्ण, रूप, रूपांश, रूपकान्त और रूपप्रभ । विशिष्ट, रूप, रूपांश, रूपप्रभ और रूपकान्त। उदधिकुमार देवों का आधिपत्य करने वाले देव जलकान्त, जल, जलरूप, जलकान्त और जलप्रभ । जलप्रभ, जल, जलरूप, जलप्रभ और जलकान्त। दिक्कुमार देवों का आधिपत्य करने वाले देव-अमितगति, त्वरितगति, क्षिप्रगति, सिंहगति और सिंहविक्रमगति। अमितवाहन, त्वरितगति, क्षिप्रगति सिंहविक्रमगति और सिंहगति। वायुकुमार देवों का आधिपत्य करने वाले देव-वेलम्व, काल, महाकाल, अंजन और रिष्ट । प्रभञ्जन, काल, महाकाल, रिष्ट और अंजन। स्तनितकुमार देवों का आधिपत्य करने वाले देव-घोष, आवर्त्त, व्यावर्त्त, नन्द्यावर्त्त और महानन्द्यावर्त्त। महाघोष, आवर्त्त, व्यावतं, महानन्द्यावर्त्त और नन्द्यावर्त। इस प्रकार असुरकुमारों की भांति (३/२७२) वक्तव्यता। वाउकुमाराणं-वेलब-पभंजण-काल-महाकाल- वायुकुमाराणां-वेलम्ब-प्रभजन-काल-महा-अंजण-रिट्ठा। काल-अञ्जन-रिष्टाः। थणियकुमाराणं-घोस-महाघोस-आवत्त- स्तनितकुमाराणां-घोष-महाघोष-आवर्त्त-वियावत्त-नंदियावत्त-महानंदियात्ता। -व्यावर्त्त-नन्द्यावर्त्त-महानन्द्यावर्ताः । एवं भाणियव् जहा असुरकुमारा ॥ एवं भणितव्यं यथा असुरकुमाराः। २७५. पिसायकुमाराणं भंते! देवाणं कइ पिशाचकुमाराणां भदन्त! देवानां कति देवाः २७५. भन्ते! कितने देव पिशाचकुमार देवों का देवा आहेवच्चं जाव विहरंति? आधिपत्यं यावद् विहरन्ति? आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हए विहरण करते हैं? गोयमा! दो देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, गौतम! द्वौ देवी आधिपत्यं यावद् विहरन्ति, गीतम! दो देव उनका आधिपत्य करते हुए यावत् तं जहातद् यथा-- दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं, जैसे संगहणी गाहा काले य महाकाले, सुरूव-पडिरूव-पुण्णभद्दे य। अमरवई माणिभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे ॥१॥ किन्नर-किंपुरिसे खलु, सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे। अइकाय-महाकाए, गीयरई चेव गीयजसे ॥२॥ एते वाणमंतराणं देवाणं ॥ संग्रहणी गाथा कालश्च महाकालः, सुरूप-प्रतिरूप-पूर्णभद्राश्च। अमरपतिः माणिभद्रो, भीमश्च तथा महाभीमः ॥१॥ किन्नर-किंपुरुषौ खलु, सत्पुरुषः खलु तथा महापुरुषः। अतिकाय-महाकायौ, गीतरतिश्चैव गीतयशाः ॥२॥ एते वानमन्तराणां देवानाम्। संग्रहणी गाथा पिशाचों के-काल, महाकाल। भूतों के-सुरूप, प्रतिरूप। यक्षों के-पूर्णभद्र, माणिभद्र । राक्षसों के-भीम, महाभीम । किन्नरों के-किन्नर, किंपुरुष। किंपुरुषों के-सत्पुरुष, महापुरुष। महोरगों केअतिकाय, महाकाय। गन्धर्वो के-गीतरति और गीतयशा। ये वानमन्तर देवों का आधिपत्य करने वाले देव हैं। २७६. जोइसियाणं देवाणं दो देवा आहेवच्चं ज्योतिष्काणां देवानां द्वौ देवी आधिपत्यं जाव विहरंति, तं जहा-चंदे य, सूरे य॥ यावद् विहरन्ति, तद् यथा-चन्द्रः च, सूरः च। २७६. दो देव ज्योतिष्क देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं, जैसे-चन्द्रमा और सूर्य। २७७. सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु कइ २७७. सौधर्मेशानयोः भदन्त ! कल्पयोः कति २७७. भन्ते! कितने देव सौधर्म और ईशानकल्प Jain Education Intemational Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० भगवई श.३ : उ.८:सू.२५०-२७८ देवा आहेवच्चं जाव विहरंति? देवाः आधिपत्यं यावद् विहरन्ति? गोयमा! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा-सक्के देविंद देवराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे। ईसाणे देविंदै देवराया, सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे। गौतम! दश देवाः आधिपत्यं यावद् विहरन्ति, तद् यथा-शक्रः देवेन्द्रः देवराजः, सोमः, यमः, वरुणः, वैश्रवणः। ईशानः देवेन्द्रः देवराजः, सोमः, यमः, वैश्रवणः, वरुणः। में आधिपत्य करते हुए यावत दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं। गौतम! दस देव उनमें आधिपत्य करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विहरण करते हैं, जैसे-देवेन्द्र देवराज शक्र, सोम, यम, वरुण, और वैश्रवण। देवन्द्र देवराज ईशान, सोम, यम, वैश्रवण और वरुण। इस वक्तव्यता के अनुसार सभी कल्पों में ये लोकपाल वक्तव्य हैं जहां जो इन्द्र है वहां वह वक्तव्य है। एसा वत्तव्वया सव्वेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणियव्वा। जे य इंदा ते य भाणियव्वा ॥ एषा वक्तव्यता सर्वेषु अपि कल्पेषु एते चैव भणितव्याः। ये च इन्द्राः ते च भणितव्याः । भाष्य १. सूत्र २५०-२७७ यह आलापक सू. २५०-२७७ देववाद के सिद्धान्त के महत्त्वपूर्ण पक्ष को उजागर करता है। हमारी पृथ्वी के साथ उन देवों का क्या संबंध है, इस पर नया प्रकाश पड़ता है। प्रस्तुत आगम के १४वें शतक में भी इस विषय का उल्लेख मिलता है।" जैन दर्शन ईश्वरकर्तृत्त्ववादी और देवकर्तृत्त्ववादी नहीं है। प्रस्तुत आलापक में कर्तृत्त्व का उल्लेख नहीं है, किंतु देवों की अवबोधात्मक सहभागिता का पक्ष प्रस्तुत हुआ है। प्राकृतिक वातावरण और मानवीय-क्रियाकलापों में देव सहयोगी और सहभागी हो सकते हैं। इससे आत्म-कर्तृत्त्व का सिद्धान्त खण्डित नहीं होता। प्राकृतिक वातावरण में देवों का कर्तव्य भी हो सकता है। इसी प्रकार देव भी वर्षा और अन्य पौद्गलिक परिवर्तन करने में सक्षम हैं। इन्द्र और असुरकुमार देवों के द्वारा वृष्टि करने का उल्लेख प्रस्तुत आगम में अन्यत्र भी मिलता है। २७८. सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। २७८. भंते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है। १. भ. १४/११७-१२। २. वही, १४/२१-२४॥ Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद २७६. रायगिहे जाव एवं वयासी-कइविहे णं राजगृहे यावद् एवमवादीत्-कतिविधः भदन्त! २७६. राजगृह नगर में भगवान गौतम भगवान भंते! इंदियविसए पण्णत्ते? इन्द्रयविषय इन्द्रियविषयः प्रज्ञप्तः? महावीर की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार वोले-भन्ते! इन्द्रियों के विषय कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं: गोयमा! पंचविहे इंदियविसए पण्णत्ते, तं गौतम! पंचविधः इन्द्रियविषयः प्रज्ञप्तः, तद् गीतम! इन्द्रियों के विषय पाच प्रकार के प्रज्ञप्त जहा-सोतिदियविसए चक्खिदियविसए यथा-श्रोत्रेन्द्रिविषयः चक्षुरिन्द्रियविषयः हैं, जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय-विषय, चारिन्द्रिय-विषय, घाणिंदियविसए रसिदियविसए फासिंदिय- घ्राणेन्द्रियविषयः रसनेन्द्रियविषयः स्पर्श- घ्राणेन्द्रिय-विषय, रसनेन्द्रिय-विषय और स्पर्शनेन्द्रियविसए। जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ नेयव्वो नेन्द्रियविषयः । जीवाभिगमे ज्योतिष्कोद्देशकः विषय । जीवाभिगम में ज्यातिप्क-सम्बन्धी उद्देशक अपरिसेसो॥ नेतव्यः अपरिशेषः। यहां अविकल रूप से ज्ञातव्य है। Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद २८०. रायगिहे जाव एवं वयासी-चमरस्स राजगृहे यावद् एवमवादीच्-चमरस्य भदन्त! २८०. राजगृह नगर में भगवान् गातम भगवान णं भंते! असुरिंदस्स असुररण्णो कइ असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य कति परिषदः महावीर से इस प्रकार बोले-भन्ते! अरेन्द्र परिसाओ पण्णत्ताओ? प्रज्ञप्ताः ? असुरराज चमर के कितनी परिषद प्रज्ञप्त हैं: गोयमा! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं गौतम! तिस्रः परिषदः प्रज्ञप्ताः, तद् गौतम! तीन परिपदं प्रज्ञप्त हैं, जैसे-शमिता, जहा-समिया, चंडा, जाया। एवं जहाणु- यथा-शमिता, चण्डा, जाता। एवं यथानुपूर्व्या चण्डा और जाता। इस प्रकार क्रमशः अच्युतकल्प पुवीए जाव अच्चुओ कप्पो ॥ यावद् अच्युतः कल्पः। तक ज्ञातव्य है। २८१. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। २८१. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं सतं चौथा शतक Jain Education Intemational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख तीसरे शतक में शक्र के लोकपालों का वर्णन किया गया। प्रस्तुत शतक में ईशानेन्द्र के लोकपालों का संक्षिप्त निरूपण है। लोकपाल केवल भवनपति और वैमानिक देवनिकायों में होता है। व्यन्तर और ज्योतिष्क देव-निकायों में वे नहीं होते। शक्र के लोकपालों की भांति ईशानेन्द्र के लोकपालों का भी मनुष्य-लोक से संबंध रहता है। प्रस्तुत शतक का आकार बहुत छोटा है। इसके उद्देशक दस हैं। उनका विषय बहुत ही संक्षिप्त है। प्रथम आठ उद्देशक लोकपालों से संबंधित हैं। शेष दो उद्देशक पण्णवणा के लिए समर्पित हैं। अर्पणा की पद्धति ने कुछ प्रश्न उत्पन्न किए हैं। क्या अर्पित विषय पहले भगवई में थे अथवा पण्णवणा में अथवा दोनों में? यदि भगवई में होते तो उन्हें पण्णवणा के लिए अर्पित नहीं किया जाता। यदि पण्णवणा में थे तो उनका भगवई में प्रक्षेप किया गया है। यदि दोनों में थे तो भगवई का पाठ पण्णवणा के लिए अर्पित क्यों? इन प्रश्नों का निश्चयात्मक उत्तर देना कठिन है। एक अनुमान किया जा सकता है कि भगवई अंगप्रविष्ट सूत्र है, पण्णवणा अंगबाह्य सूत्र है। स्वतः प्रामाण्य अंगप्रविष्ट सूत्रों का होता है। अंगबाह्य सूत्रों का प्रामाण्य परतः होता है। पण्णवणा की रचना श्यामाचार्य ने की। उसकी प्रामाणिकता की पुष्टि के लिए भगवई में उसके विषय संदृब्ध किए गए। जीवाजीवाभिगमे, जुबुद्दीवपण्णत्ती आदि के पाठ भी भगवई में प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। भगवई पूर्ववर्ती रचना है तथा पण्णवणा, जीवाजीवाभिगमे, जंबुद्दीवपण्णत्ती आदि उत्तरवर्ती रचनाएं हैं। पूर्ववर्ती रचना में उत्तरवर्ती रचना के समर्पण-सूत्र का होना संभव नहीं। देवर्द्धिगणी ने वाचना के समय आगम के संस्करण निर्धारित किए, उस समय भगवई में उत्तरवर्ती आगमों के पाठों का प्रक्षेप किया है। इस संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 'संसारमंडलं नेयव्वं'२ ----- इस संक्षिप्त पाठ का मूल आधार समवाओ है।' समवाओ में भी यह पाठ प्रथमानुयोग से संग्रहित किया गया प्रतीत होता है। कालकाचार्य ने लोकानुयोग और गण्डिकानुयोग की रचना की थी। नंदी में अनुयोग के दो प्रकार बताए गए हैं—मूलप्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग' । मूलप्रथमानुयोग में तीर्थंकरों का जीवन-चरित वर्णित है। गण्डिकानुयोग में कुलकर आदि का वर्णन है।' कसायपाहुड के अनुसार दृष्टिवाद के पांच अर्थाधिकारों में तीसरा अर्थाधिकार प्रथमानुयोग है। प्रथमानुयोग के चौबीस अर्थाधिकार हैं। तीर्थंकर के पुराणों में सब पुराणों का अन्तर्भाव होता है, इसलिए उसमें गण्डिकानुयोग का पृथक् उल्लेख नहीं है।' मुनि कल्याणविजयी ने नंदी में आए हुए मूल' शब्द के आधार पर दो प्रथमानुयोग की संभावना की-नंदी सूत्र में मूलप्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग का उल्लेख मिल रहा है। वहां प्रथमानुयोग के साथ लगा हुआ 'मूल' शब्द नंदी के रचनाकाल में दो प्रथमानुयोगों के अस्तित्व की गूढ सूचना देता है।" कालकाचार्य ने अनुयोग की रचना की। उज्जैनी के शिष्यों ने उनके अनुयोग को मान्य नहीं किया। तब वे अपने प्रशिष्य सागर नामक श्रमण के पास सुवर्णभूमि में गए। वहां उनके अनुयोग मान्य हुए। उक्त संदर्भो के आधार पर इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता कि 'संसारमंडल' जैसे उत्तरवर्ती अनुयोग-सूत्रों की प्रामाणिकता के लिए अंगप्रविष्ट आगमों में उनका प्रक्षेप किया गया। यह प्रक्षेप क्षमाश्रमण देवर्द्धिगणी ने संकलनकाल में किया अथवा उनके परवर्ती किसी समर्थ आचार्य ने किया, इस विषय में अन्वेषण होना नितान्त आवश्यक है। इस प्रकार भगवई का वर्तमान आकार अनेक आगमों के संग्रहण और संकल्प से समृद्ध बना है। प्रस्तुत शतक को इतना छोटा आकार देने के पीछे आगमकार अथवा संकलनकार का क्या दृष्टिकोण रहा है, यह और अधिक गहराई से अन्वेषणीय है। १.त. सू. ४/५- त्रायविंशलोकपालवर्जा व्यन्तरज्योतिष्काः । २.भ.५/१२२॥ ३. सम.प. २१६-२४७/ ४. पञ्चकल्पभाष्य, सुवर्णभूमि में कालकाचार्य, पृ. ६, ७ ५. नंदी, सू. ११९ ६. नंदी, सू. १२०, १२० ७. क. पा. पृ. १४९, १५०, सू. ११५-दिठिवादे पंच अत्थाहियारा---परियम्म सुत्त पढमाणिओगो पुन्चगयं चूलिया चेदि। पढ़माणिओए चउदीस अत्थहियारा तित्थयरपुराणेसु सन्चपुराणाणमंतभावादो। ८. सुवर्णभूमि में कालकाचार्य, पृ. २५॥ ९.बृ.क. भा. भाग १ (पीठिका), पृ. ७३, भाष्य गाथा १३९--- सागारियमप्पाहण, सुवन्नसुयसिस्सखंतलक्खेण। कहणा सिस्सागमणं, धूली पुजोवमाणं च ।। तथा मलयगिरिवृत्ति, ब, क, भा. भाग १ (पीठिका), पृ. ७३,७४। Jain Education Intemational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं सतं : चौथा शतक पढमो, बिइओ, तइयो, चउत्थो उद्देसो : पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संगहणी गाहा चत्तारि विमाणे हिं चत्तारि य होंति रायहाणीहिं। नेरइए लेस्साहि य, दस उद्देसा चउत्थसए ॥१॥ संग्रहणी गाथा चत्वारो विमानैः चत्वारश्च भवन्ति राजधानीभिः। नैरयिको लेश्याभिश्च, दश उद्देशाश्चतुर्थशते।।१।। संग्रहणी गाथा चार विमान, चार राजधानियां, नैरयिक और लेश्या -चौथे शतक में ये दस उद्देशक हैं। १. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी-ईसाणस्स राजगृहे नगरे यावद् एवमवादीद् - ईशा- १. राजगृह नगर में भगवान गौतम भगवान महावीर की णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो कइ लोगपाला नस्य भदन्त! देवेन्द्रस्य देवराजस्य कति पर्युसराणा करते हुए इस प्रकार बोले-भंते! देवेन्द्र पण्णत्ता? लोकपालाः प्रज्ञप्ताः? देवराज ईशान के कितने लोकपाल प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं जहा गौतम! चत्वारः लोकपालाः प्रज्ञप्ताः, तद् गौतम! चार लोकपाल प्रज्ञप्त हैं, जैसे सोम, यम, -सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे॥ यथा-सोमः, यमः, वैश्रवणः, वरुणः। वैश्रवण और वरुण। भंते! इन लोकपालों के कितने विमान प्रज्ञप्त हैं? २. एएसि णं भंते! लोगपालाणं कइ विमाणा एतेषां भदन्त! लोकपालानां कति विमा- पण्णता? नानि प्रज्ञप्तानि? गोयमा! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! चत्वारि विमानानि प्रज्ञप्तानि, तद् सुमणे, सव्वओभद्दे, वगू, सुवग्गू॥ यथा-सुमनः, सर्वतोभद्रः, वल्गु, सुव- गौतम! इनके चार विमान प्रज्ञप्त हैं, जैसे- सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु और सवल्गु। भंते! देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल महाराज सोम का सुमन नाम का महाविमान कहां प्रज्ञप्त है? पण्णते? ३. कहिणं भंते! ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो कुत्र भदन्त! ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्स महारण्णो सुमणे नामं महाविमाणे सोमस्य महाराजस्य सुमन: नाम महाविमानं प्रज्ञप्तम् ? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स गौतम! जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे उत्तरे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः यावद् ईसाणे नामं कप्पे पण्णत्ते। तत्थ णं जाव पंच ईशानः नाम कल्पः प्रज्ञप्तः। तत्र यावत् पञ्च वडेंसया पण्णत्ता, तं जहा-अंकवडेंसए, अवतंसाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-अंकावत- फलिहवडेंसए, रयणवडेंसए, रूववडेंसए, सकः, स्फटिकावतंसकः, रत्नावतंसकः, मझे ईसाणवडेंसए।। जातरूपावतंसकः। मध्ये ईशानावतंसकः। गौतम! जम्बूद्वीप दीप में मेरु पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रायः समतल और रमणीय भूभाग से ऊपर यावत् ईशान नाम का कल्प प्रज्ञप्त है। वहां पांच अवतंसक प्रज्ञप्त हैं, जैसे--अंकावतंसक, स्फटिकावतंसक, रत्नावतंसक, जातरूपावतंसक और मध्य में ईशानावतंसक। ४. तस्स णं ईसाणवडेंसयस्स महाविमाणस्स तस्य ईशानावतंसकस्य महाविमानस्य ४. उस ईशानावतंसक महाविमान के पूर्व में तिरछी दिशा पुरत्थिमे णं तिरियमसंखेज्जाई जोयणसह- पौरस्त्ये तिर्यग् असंख्येयानि योजसहस्राणि में असंख्य हजार योजन जाने पर देवेन्द्र देवराज ईशान स्साई वीईवइत्ता, एत्थ णं ईसाणस्स देविं- व्यतिव्रज्य अत्र ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवरा- के लोकपाल महाराज सोम का सुमन नाम का Jain Education Intemational Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ११८ श.४: उ.१-४ : सू.४,५ दस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सुमणे नाम जस्य सोमस्य महाराजस्य सुमनो नाम महा- महाविमाणे पण्णत्ते अद्धतेरसजोयणस- विमानं प्रज्ञप्तम् अर्द्धत्रयोदशयोजनशतयसहस्साई, जहा सक्कस्स वत्तवव्या तइय- सहस्राणि, यथा शक्रस्य वक्तव्यता तृतीयशते सए तहा ईसाणस्स वि जाव अच्चणिया ईशानस्यापि यावद् अर्चनिका समाप्ता। समत्ता।। महाविमान प्रज्ञप्त है। उसकी लम्बाई-चौडाई साढे बारह लाख योजन है। तीसरे शतक में शुक्र की जैसी वक्तव्यता है वैसी ही वक्तव्यता यावत् अर्चनिका तक ईशान की भी है। ५. चउण्ह वि लोगपालाण विमाणे-विमाणे चतुर्णामपि लोकपालानां विमाने-विमाने ५. चारों ही लोकपालों के प्रत्येक विमान का एकउद्देसओ चऊसु वि विमाणेसु चत्तारि उद्देसा उद्देशकः, चतुर्षु अपि विमानेषु चत्वारः एक उद्देशक अविकल रूप से ज्ञातव्य है, केवल अपरिसेसा, नवरं—ठिईए नाणत्तं- उद्देशाः अपरिशेषाः नवरं—स्थितौ नाना- उनकी स्थिति में नानात्व है-- त्वम् संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा आदि दुय तिभागूणा, पलिया धणयस्स होंति दो चेवा। दो सतिभागा वरुणे, पलियमहावच्चदेवाण॥१॥ आद्यौ द्वौ त्रिभागोनौ। पल्योपमौ धनदस्य भवतः दो चैव। द्वौ सत्रिभागो वरुणे, पल्योपमं यथापत्यदेवानाम्।। संग्रहणी गाथा प्रथम दो लोकपालों की स्थिति एक तिहाई भाग कम दो पल्योपम की है। धनद (वेश्रवण) लोकपाल की स्थिति दो पल्योपम की है और वरुण की स्थिति एक तिहाई भाग अधिक दो पल्योपम (२.) की है। लोकपालों के पुत्र-रूप में पहचाने जाने वाले देवों की स्थिति एक पल्योपम की है। Jain Education Intemational Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो, छट्ठो, सत्तमो, अट्ठमो उद्देसो : पांचवा, छट्ठा, सातवां और आठवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद ६. रायहाणीसु वि चत्तारि उद्देसा भाणियव्वा राजधानीष्वपि चत्वारः उद्देशाः भणितव्याः ६. राजधानी के भी चार उद्देशक ज्ञातव्य हैं यावत् जाव एमहिड्ढीए जाव वरुणे महाराया॥ यावद् इयन्महर्द्धिकः यावद् वरुणः महाराजः। महाराज वरुण ऐसी महान् ऋद्धि वाला है। Jain Education Intemational Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद ७. नेरइए णं भंते! नेरइएसु उववज्जइ? अनेरइए नैरयिक: भदन्त! नैरयिकेषु उपपद्यते? अनै- नेरइएसु उववजह? रयिक: नैरयिकेषु उपपद्यते? पण्णवणाए लेस्सापए तइओ उद्देसओ प्रज्ञापनाया: लेश्यापदे तृतीय: उद्देशकः भाणियव्वो जाव नाणाई॥ भणितव्य: यावज् ज्ञानानि। ७. भंते! क्या नैरयिक नैरयिकों में उपपन्न होता है अथवा अनैरयिक नैरयिकों में उपपन्न होता है? यहां पण्णवणा के लेश्या-पद का तीसरा उद्देशक ज्ञान के प्रकरण तक वक्तव्य है। Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक मूल सस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद से नणं भंते! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तन्नूनं भदन्त! कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य ८. भंते! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या के योग्य पुद्गलों तारूवत्ताए, तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तद्रूपतया तद्वर्णतया तद्गन्धतया तद्रसतया को प्राप्त कर उसके रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में तारसत्ताए, ताफासत्ताए भुजो-भुजो ततस्पर्शतया भूयोभूयः परिणमति? बार-बार परिणत होती है? परिणमति? हंता गोयमा! कण्हलेसा नीललेसं पप्प हन्त गौतम! कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य हां गौतम! कृष्णलेश्या के योग्य पुद्गलों को प्राप्त कर तारूवत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए, तद्रूपतया, तद्वर्णतया, तद्गन्धतया, तद्रस- उसके रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में बार-बार ताफासत्ताए भुजो-भुजो परिणमति। एवं __तया, तत्स्पर्शतया भूयोभूयः परिणमति। परिणत होती है। इस प्रकार पण्णवणा के लेश्या-पद का चउत्थो उद्देसओ पण्णवणाए चेवलेस्सापदे एवं चतुर्थः उद्देशकः प्रज्ञापनायाश्चैव चौथा टेक ज्ञातव्य है। नेयम्वो जाव लेश्यापदे नेतव्यः, यावत् संगहणी गाहा परिणाम-वण्ण-रस-गंध-सुद्ध-अपसत्थसंकि- लिगुण्हा। गइ-परिणाम-पएसोगाह-वग्गणाठाणमप्पब- हुँ।।१।। संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा परिणाम-वर्ण-रस-गंध-शुद्धाप्रशस्तसं- परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, क्लिष्टोष्णाः। उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाहना, वर्गणा, स्थान गति-परिणाम-प्रदेशावगाहवर्गणास्थाना- और अल्पबहत्व। ल्पबहुत्वम् ।। भाष्य १. सूत्र ८ भावधारा में परिवर्तन होता रहता है। उसके अनुसार लेश्या और आभामण्डल में भी परिवर्तन होता है। जैसे सफेद वस्त्र रंग का योग पाकर नील, रक्त या पीत बन जाता है, वैसे ही कृष्ण लेश्या नील आदि लेश्या के पुद्गलवर्गणा का योग पाकर नील, कापोत आदि लेश्याओं में परिणत हो जाती है। ९. सेवं भंते! सेवं भंते! ति।। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ९. भंते ! वह ऐसा ही है, भंते ! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं सतं पांचवां शतक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत शतक का प्रारम्भ दिन-रात के कालमान से होता है। यह ज्योतिश्चक्र का विषय है। दिन और रात की अवधि न्यूनतम १२ मुहूर्त (= ९ घंटा, ३६ मिनट) और अधिकतम १८ मुहूर्त (= १४ घंटा, २४ मिनट) बतलाई गई है, वह क्षेत्र - सापेक्ष है। यह नियम भारत में लागू होता है, किन्तु यूरोप, अमेरिका, दक्षिणी ध्रुव आदि प्रदेशों में लागू नहीं होता। जैन खगोल के अनुसार मनुष्यलोक में सौरमण्डल गतिशील है। उससे आगे वह अवस्थित है। वहां दिन और रात का परिवर्तन नहीं हैजहां दिन है, वहां दिन है, जहां रात है, वहां रात है। वैशेषिक दर्शन में सृष्टि और प्रलय का सिद्धान्त मान्य है। सृष्टि और प्रलय का क्रम अनादि है। सृष्टि के पश्चात् प्रलय और प्रलय के पश्चात् सृष्टि होती रहती है। सृष्टि रचना के काल में चार भूतों के परमाणु फिर संहत हो जाते हैं। प्रलयकाल में परमाणु बिखर जाते हैं। आत्मा, परमाणु, काल, दिक और आकाश - ये प्रलयकाल में भी बने रहते हैं। जैन दर्शन में सृष्टि और प्रलय दोनों मान्य नहीं है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की सृष्टि और प्रलय से आंशिक रूप में तुलना की जा सकती है। अवसर्पिणी का छठा अर प्रलयकाल जैसा है। उत्सर्पिणी के दूसरे अर से विकास की प्रक्रिया शुरू होती है। यह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का क्रम कालचक्र कहलाता है। अवसर्पिणी के पश्चात् उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के पश्चात् अवसर्पिणी होती रहती है। यह कालचक्रगत परिवर्तन केवल पांच भरत और पांच ऐरावत में होता है। ' जैन दर्शन परिणामि नित्यवादी है। द्रव्य का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, इस अर्थ में वह नित्यवादी है। द्रव्य में परिणमन होता रहता है, इस अर्थ में वह परिणामवादी है। द्रव्य और परिणमन को पृथक् नहीं किया जा सकता। अतः उसे परिणामि नित्यवाद का सिद्धान्त मान्य है । इस सिद्धान्त को समझाने के लिए 'किंशरीरत्व' का पाठ' एक निदर्शन है। चावल वनस्पति-जीव का शरीर है। अग्नि पर पका लेने के पश्चात् वह अग्नि-जीव का शरीर हो जाता है। पूर्व परिणाम में वह वनस्पति जीव- शरीर था, उत्तर परिणाम में वह अग्नि जीव शरीर हो गया। उत्तर परिणाम में पूर्व परिणाम नहीं रहता। परिणाम का फल है- - भावान्तर हो जाना। लोहा पृथ्वी - जीव का शरीर है। हो जाते हैं। हड्डी त्रस जीव का शरीर है।" अग्निस्नात होने पर वे अग्नि- शरीर -- ६ प्रस्तुत शतक में छद्मस्थ और केवली का ज्ञान, आचरण और जीवनचर्या-विषयक अन्तर बहुत सरल पद्धति से समझाया गया है। छदमस्थ और केवली जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। केवलज्ञान ज्ञान का प्रकर्ष- बिन्दु है। उसकी उपलब्धि होने पर मनुष्य केवली बनता है। छद्मस्थ वीतराग हो सकता है। किन्तु उसका छद्म आवरण विलीन नहीं होता, इसलिए वह ज्ञान के चरमबिन्दु तक नहीं पहुंच सकता। सांख्य दर्शन में कैवल्य शब्द का प्रयोग मिलता है। महर्षि पतञ्जलि के अनुसार केवल चितिशक्ति रहती है, उसका बुद्धि के साथ संबंध शून्य हो जाता है, उस अवस्था का नाम कैवल्य है।" - 'क्रिया' जैन आचार का प्रमुख विषय है। प्रस्तुत शतक में क्रय-विक्रय आदि अनेक संदर्भों में उसकी चर्चा की गई है।' क्रियावाद के सिद्धान्त पर बहुत सूक्ष्मता से विचार किया गया है। जिन जीवों के शरीर से धनुष्य का निर्माण हुआ, धनुष्य के प्रयोगकाल में वे जीव भी चार क्रिया से पृष्ट होते हैं। यह हिंसाविषयक चिन्तन का अतिसूक्ष्म बिन्दु है। - १. भ. ५ / २७ जया णं भंते! दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी, तया णं उत्तरड्ढे वि, जया णं उत्तरड्ढे, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं नत्थि ओसप्पिणी जाव समणााउसो ? हंता गोयभा ! जाव समणाउसो । द्रष्टव्य - ५ /१९, २९| २. भ. ५/५११ ३. त. सू. भा. वृ. ५/२६ - पूर्वपरिणामोपमर्देन उत्तरपरिणामभवनम् तस्मिंश्चोत्तरपरिणामे पूर्वपरिणामस्यासम्भव एव भावान्तरापत्तिफलत्वात् परिणामस्य । ४. भ. ५/५२१ ५. भ. ५/५३| ६. भ. ५/६४-७५, ९४ १०२, १०८ १११ । ७. पा. यो. द. ४/३४——-पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । ८. भ. ५ / १२८-१३५ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५ : आमुख १२६ भगवई परमाणुवाद के प्रवर्तक के रूप में भारतीय दार्शनिकों में कणाद और पाश्चात्य दार्शनिकों में डेमोक्रीटस का नाम उल्लिखित होता है। डेमोक्रीटस का अस्तित्वकाल ईसा पूर्व ४६०-३७० माना जाता है। कणाद के वैशेषिक सूत्रों की रचना का समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है। भगवान महावीर का अस्तित्वकाल ईसा पूर्व ५९९-५२७ है। महावीर का परमाणुवाद अथवा पुद्गलवाद कणाद और डेमोक्रीटस से पूर्ववर्ती है, किन्तु दर्शन-साहित्य के लेखकों ने इस सच्चाई की उपेक्षा की। इसका हेतु पक्षपातपूर्ण दृष्टि है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसका मूल हेतु जैन साहित्य की अनुपलब्धि अथवा उसका अध्ययन न होना ही है। परमाणु अविभाज्य है- इस सिद्धान्त में जैनदर्शन और वैशेषिक दर्शन एकमत हैं। परमाणु निरवयव है— इस विषय में उन दोनों में मतभेद है। जैन दर्शन में द्रव्य परमाणु को निरवयव और भाव परमाणु को सावयव माना गया है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार परमाणु निरवयव होता है। वैशेषिक दर्शन में परमाणु के चार वर्गीकरण मिलते हैं. पार्थिव, जलीय, तैजस और वायवीय । जैन दर्शन में पुद्गल-स्कन्ध के आठ वर्गीकरण उपलब्ध हैं -१. औदारिक वर्गणा २. वैक्रिय वर्गणा ३. आहारक वर्गणा ४. तैजस वर्गणा ५. कार्मण वर्गणा ६. मनो वर्गणा ७. वचन वर्गणा ८. श्वासोच्छ्वास वर्गण| परमाणुवाद पुद्गलवाद का एक भाग है। जैन दर्शन में जीव और पुद्गल के संबंध का व्यापक विवेचन है।' जीव बढ़ते हैं, घटते हैं अथवा जितने हैं, उतने ही रहते हैं—यह मनुष्य की स्वाभाविक जिज्ञासा रही है। भगवान महावीर ने इस जिज्ञासा का समाधान विभज्यवादी दृष्टिकोण से किया है। जैनदर्शन में अंधकार को पौद्गलिक माना है। उत्तरवर्ती दार्शनिक सहित्य में यह विषय चर्चित रहा है। अंधकार प्रकाश का अभाव है। जैन दार्शनिक इससे सहमत नहीं रहे। उन्होंने अंधकार के पौद्गलिकत्व का युक्तिपूर्ण समर्थन किया। भगवान महावीर के समय में भी भगवान पार्श्व का शासन चल रहा था। भगवान महावीर के तीर्थ-प्रवर्तन के पश्चात् समय-समय पर पापित्यीय (पार्श्व-शासन के मुनि) महावीर अथवा उनके शिष्यों के पास आते रहते थे। भगवान महावीर भगवान पार्श्व के प्रति बहुत सम्मान प्रदर्शित करते थे। भगवान ने पापित्यीय स्थविरों के सम्मुख अर्हत् पार्श्व द्वारा सम्मत लोकविषयक अवधारणा प्रस्तुत की और उसे अपना समर्थन दिया। प्रस्तुत शतक दस उद्देशकों में विभक्त है। प्रत्येक उद्देशक मननीय सामग्री से परिपूर्ण है। १. स्याद्वादमंजरी, पृ. ३३०-यूई (Ui) वैशेषिक दर्शन की उत्पत्ति बुद्ध के समय और कम से कम ईसा की प्रथम शताब्दी के अन्त में वैशेषिक सूत्रों की रचना का समय मानते हैं। २. भ. ५/२०८-२३३॥ ३. इसका कुछ विवेचन भ. १/३१२, ३१३ में हो चुका है। ४.भ.५/२३७, २३८॥ ५. वै. सू. ९५/२/१९-द्रव्यगुणकर्मनिष्पत्तिवैधादभावस्तमः। ६. भ. ५/२५४,२५५/ Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं सतं : पांचवा शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा १. चंप-रवि २. अनिल ३. गंठिय १. चम्पा-रवि: २. अनिलो ३. ग्रंथिका ४. सद्दे ५-६. छउमाउ ७. एयण ८. नियंठे। ४.शब्द: ५-६. छद्यायुः ७. एजनं८. निर्ग्रन्थः। ९. रायगिहं १०. चंपा ९. राजगृहम् १०. चम्पाचंदिमा य दस पंचमम्मि सए॥१॥ चन्द्रमा: च दश पञ्चमे शते॥११॥ पांचवे शतक के दस उद्देशक हैं- चम्पानगरी में सूर्य, वायु, ग्रन्थिक, शब्द, छद्मस्थ, आयु, एजन, निर्ग्रन्थ, राजगृह और चम्पानगरी में चन्द्रमा। जंबुद्दीवे सूरिय-वत्तव्वया-पदं १. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नगरी होत्था—वण्णओ॥ जम्बूद्वीपे सूर्य-वक्तव्यता-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी आसीत्---वर्णकः। जम्बूद्वीप में सूर्य की व्यक्तव्यता का पद १. उस काल और उस समय चम्पा नाम की नगरी थीवर्णनवाची आलापका २. तीसे णं चंपाए नगरीए पुण्णभद्दे नाम चेइए तस्यां चम्पायां नगर्यां पूर्णभद्रं नाम चैत्यम् होत्था-वण्णओ। सामी समोसढे जाव आसीद्-वर्णकः । स्वामी समवसृतः परिसा पडिगया। यावत् परिषत् प्रतिगता। २. उस चम्पा नगरी में पूर्णभद्र नाम का चैत्य थावर्णनवाची आलापका भगवान महावीर पधारे यावत् परिषद् लौट गई। ३. तेणं कालेणं सगएणं समणस्स भगवओ तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्स महावीरस्स जेढे अंतेवासी इंदभूई नाम अण- भगवतो महावीरस्स ज्येष्ठः अन्तेवासी गारे गोयमे गोत्तेणं जाव एवं वयासी- इन्द्रभूति: नाम अनगारः गौतम: गोत्रेण जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उदीणपाई- यावद् एवमवादीद्-जम्बूद्वीपे भदन्त! णमुग्गच्छ पाईण-दाहिणमागच्छंति, पाईण द्वीपे सूर्यों उदीचीन-प्राचीनम् उद्गत्य -दाहिणमुग्गच्छ दाहिण-पडीणमागच्छंति, प्राचीन-दक्षिणम् आगच्छतः, प्राचीनदाहिण-पडीणमुग्गच्छ पडीण-उदीणमाग- दक्षिणम् उद्गत्य दक्षिण-प्रतीचीनम् च्छंति, पडीण-उदीणमुग्गच्छ उदीचि- आगच्छतः, दक्षिण-प्रतीचीनम् उद्गत्य पाईणामागच्छंति? प्रतीचीन-उदीचीनम् आगच्छतः, प्रतीचीन-उदीचीनम् उद्गत्य उदीचीन-प्राची नम् आगच्छतः। हंता गोयमा! जंबुद्दीवे ण दीवे सूरिया हन्त गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यो उदीउदीणपाईणमुग्गच्छ जाव उदीचिपाईण- चीन-प्राचीनम् उद्गत्य यावद् उदीचीनमागच्छति॥ प्राचीनम् आगच्छतः। ३. 'उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् इस प्रकार बोले भंते! इस जम्बूद्वीप द्वीप में दो सूर्य उत्तर और पूर्व के मध्य उदित हो कर पूर्व और दक्षिण के मध्य आते हैं। पूर्व और दक्षिण के मध्य उदित हो कर दक्षिण और पश्चिम के मध्य आते हैं। दक्षिण और पश्चिम के मध्य उदित हो कर पश्चिम और उत्तर के मध्य आते हैं। पश्चिम और उत्तर के मध्य उदित हो कर उत्तर और पूर्व के मध्य आते हैं? हां, गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप में दो सूर्य उत्तर और पूर्व के मध्य उदित हो कर यावत् उत्तर और पूर्व के मध्य आते हैं। Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५: उ. १: सू. ४-७ जंबुद्दीवे दिवसराई - वत्तव्वया-पदं ४. जया णं भंते जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्चयस्स दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तथा णं उत्तरेड्डे वि दिवसे भव; जया णं उत्तरेइडे दिवसे भवइ तथा नं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम- पच्चत्थिमे णं राई भवइ ? हंता गोया ! जाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिण - इढे दिवसे जाव पुरत्थिम-पच्चत्विमे णं राई भवइ ॥ ५. जया णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमे णवि दिवसे भवइ; जया णं पच्चत्थिमे णं दिवसे भवइ, तया णं जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्चयस्स उत्तर दाहिने गं राई भवइ? हंता गोयमा ! जया णं जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं दिवसे जाव उत्तर दाहिणे णं राई भवइ || ६. जया णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे वि उक्कोस अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ; जया उत्तरड्ढे उक्कोस अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ववस्त्र पुरत्थिम-पच्चत्विमे णं जह ण्णिवा दुवालसमुहुत्ता राई भवइ? हंता गोया ! जाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिड्ढे उक्कोस अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे जाव दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ॥ ७. जया णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे उक्कोसए अहारसमुहुत्ते दिवसे भवद, तया णं पच्चत्विमे वि उन कोसे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ; जया णं पच्चत्विमे णं उक्कोसए अङ्गारसमुहने दिवसे भवइ, तथा णं जंबुदीवे दीवे उत्तरदाहिने णं जहणिया दुबालसमुहुत्ता राई भवइ ? १२८ जम्बूद्वीपे दिवसरात्र - वक्तव्यता-पदम् यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणार्धे दिवसो भवति, तदा उत्तरार्धेऽपि दिवसो भवति ? यदा उत्तरार्थे दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्य - पश्चिमे रात्रिः भवति ? हन्त गौतम ! यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे दिवसः यावत् पौरस्त्य पश्चिमे रात्रिः भवति। यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये दिवसो भवति, तदा पश्चिमे अप दिवसो भवति ? यदा पश्चिमे दिवसो भवति, तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य उत्तरदक्षिणे रात्रिः भवति? हन्त गौतम ! यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये दिवस यावद् उत्तर-दक्षिणे रात्रिः भवति यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य दक्षिणार्धे उत्कर्षतः अष्टादशमुहूर्त: दिवस: भवति, तदा उत्तरार्धेऽपि उत्कर्षतः अष्टादशमुहूर्त: दिवसः भवति, यदा उत्तरार्धे उत्कर्षतः अष्टादशमुहूर्त्तः दिवसः भवति, तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्य - पश्चिमे जघन्यिका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः भवति ? हन्त गौतम ! यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्द्ध उत्कर्षतः अष्टादशमुहूर्त्तः दिवस: यावद् द्वादशमुहूर्ता रात्रिः भवति। यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये उत्कर्षतः अष्टादशमुहूर्त दिवसः भवति, तदा पश्चिमे अपि उत्कर्षेण अष्टादशमुहूर्त: दिवसः भवति ? यदा पश्चिमे उत्कर्षतः अष्टादशमुहूर्त दिवसः भवति, तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तर-दक्षिणे जयन्यिका द्वा दशमुहूर्त्ता रात्रिः भवति ? भगवइ जम्बूद्वीप में दिवस - रात्रि की वक्तव्यता का पद ४. भंते! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिणार्ध में दिन होता है, उस समय उत्तरार्ध में भी दिन होता है ? जिस समय उत्तरार्ध में दिन होता है उस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व-पश्चिम भाग में रात्रि होती है ? हां, गौतम ! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिणार्ध में दिन होता है यावत् उस समय पूर्व और पश्चिम भाग में रात्रि होती है। ५. भंते! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व भाग में दिन होता है, उस समय पश्चिम भाग में भी दिन होता है? जिस समय पश्चिम भाग में दिन होता है, उस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के उत्तर और दक्षिण भाग में रात्रि होती है? हां, गौतम ! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व में दिन होता है यावत् उस समय उत्तर और दक्षिण भाग में रात्रि होती है। ६. भंते! जिस समय जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिणार्द्ध अठारह मुहूर्त्त का उत्कृष्ट दिन होता है, उस समय उत्तरार्द्ध में भी अठारह मुहूर्त्त का उत्कृष्ट दिन होता है? जिस समय उत्तरार्द्ध में अठारह मुहूर्त का उत्कृष्ट दिन होता है, उस समय जम्बुद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व और पश्चिम भाग में बारह मुहूर्त्त की जघन्य रात्रि होती है? हां, गौतम! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिणार्द्ध में अठारह मुहूर्त का उत्कृष्ट दिन होता है यावत् उस समय पूर्व और पश्चिमी भाग में बारह मुहूर्त्त की जघन्य रात्रि होती है। ७. भंते! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व भाग में अठारह मुहूर्त का उत्कृष्ट दिन होता है, उस समय पश्चिम भाग में भी अठारह मुहूर्त का उत्कृष्ट दिन होता है? जिस समय पश्चिम भाग में भी अठारह मुहूर्त का उत्कृष्ट दिन होता है, उस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के उत्तर और दक्षिण भाग में बारह मुहूर्त की जघन्य रात्रि होती है ? Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई हंता गोयमा ! जाव भवइ ।। ८. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे वि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ; जया णं उत्तरड् ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? ९. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमे वि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ; जया णं पच्चत्थिमे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तदा णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर - दाहिणे णं साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे जाव राई हन्त गौतम ! यदा जम्बूद्वीपे यावद् रात्रिः भवइ || भवति। हंता गोयमा ! जाव भवइ ॥ १०. एवं एएणं कमेणं ओसारेयव्वं-सत्तरसमुहुत्ते दिवसे, तेरसमुहुत्ता राई । सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा तेरसमुहुत्ता राई । सोलसमुहुत्ते दिवसे चोदसमुहुत्ता राई । सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा चउसमुहुत्ता राई । परसमुहुत्ते दिवसे, पण्णरसमुहुत्ता राई । पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा पण्णरसमुहुत्ता राई । चोदसमुहुत्ते दिवसे, सोलसमुहुत्ता राई । चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा सोलसमुहुत्ता राई । तेरसमुहुत्ते दिवसे, सत्तरसमुहुत्ता राई । तेरस - मुहुत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा सत्तरसमुहुत्ता राई ॥ १२९ हन्त गौतम ! यावद् भवति। यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे अष्टादशमुहूर्त्तानन्तर: दिवसः भवति, तदा उत्तरार्धे अपि अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः दिवस: भवति ? यदा च उत्तरार्धे अष्टादशमुहूर्त्तानन्तर: दिवस: भवति, तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्य-पश्चिमे सातिरेका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः भवति ? यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः दिवसः भवति, तदा पश्चिमेऽपि अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः दिवस: भवति ? यदा पश्चिमे अष्टादशमुहूर्त्तानन्तरः दिवसः भवति, तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर-दक्षिणे सातिरेका द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः भवति ? हन्त गौतम ! यावद् भवति। एवमनेन क्रमेण अवसारयितव्यम् - सप्तदशमुहूर्त्तः दिवस:, त्रयोदशमुहूर्त्ता रात्रिः । सप्तदशमुहूर्त्तानन्तरः दिवसः, सातिरेका त्रयोदशमुहूर्त्ता रात्रिः । षोडशमुहूर्त्तः दिवसः, चतुर्दशमुहूर्त्ता रात्रिः । षोडशमुहूर्त्तानन्तर: दिवसः, सातिरेका चतुर्दशमुहूर्त्ता रात्रिः। पञ्चदशमुहूर्त: दिवसः, पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिः । पञ्चदशमुहूर्त्तानन्तरः दिवसः, सातिरेका पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिः। चतुर्दशमुहूर्त्तः दिवसः, षोडशमुहूर्त्ता रात्रिः । चतुर्दशमुहूर्त्तानन्तरः दिवसः, सातिरेका षोडशमुहूर्त्ता रात्रिः । त्रयोदशमुहूर्त : दिवसः, सप्तदशमुहूर्त्ता रात्रिः । त्रयोदशमुहूर्त्तानन्तरः दिवसः, सातिरेका सप्तदशमुहूर्त्ता रात्रिः। श. ५: उ. १ : सू. ७-१० हां, गौतम ! यह सब ऐसा ही है। ८. भंते! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिणार्द्ध भाग में अठारह मुहूर्त्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन होता है, उस समय उत्तरार्द्ध भाग में भी अठारह मुहूर्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन होता है ? जिस समय उत्तरार्द्ध भाग में अठारह मुहूर्त्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन होता है, उस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व-पश्चिम भाग में बारह मुहूर्त्त से कुछ अधिक परिमाण वाली रात्रि होती है? हां, गौतम ! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में यावत् बारह मुहूर्त से कुछ अधिक परिमाण वाली रात्रि होती है। ९. भंते! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व भाग में अठारह मुहूर्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन होता है, उस समय पश्चिम भाग में भी अठारह मुहूर्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन होता है ? जिस समय पश्चिम भाग में अठारह मुहूर्त्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन होता है, उस समय पश्चिम भाग अठारह मुहूर्त्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन होता है, उस समय जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के उत्तर और दक्षिण भाग में बारह मुहूर्त से कुछ अधिक परिमाण वाली रात्रि होती है? हां, गौतम ! यह सब ऐसा ही है। १०. इस प्रकार इसी क्रम से अवतरित करना चाहिए सतरह मुहूर्त्त का दिन और तेरह मुहूर्त्त की रात्रि। सतरह मुहूर्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन और तेरह मुहूर्त से कुछ अधिक परिमाण वाली रात्रि । सोलह मुहूर्त का दिन और चौदह मुहूर्त्त की रात्रि । सोलह मुहूर्त्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन और चौदह मुहूर्त से कुछ अधिक परिमाण वाली रात्रि । पन्द्रह मुहूर्त का दिन और पन्द्रह मुहूर्त्त की रात्रि । पन्द्रह मुहूर्त्त से कुछ कम परिणाम वाला दिन और पन्द्रह मुहूर्त से कुछ अधिक परिमाण वाली रात्रि । चौदह मुहूर्त का दिन और सोलह मुहूर्त की रात्रि । चौदह मुहूर्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन और सोलह मुहूर्त से कुछ अधिक परिमाण वाली रात्रि | तेरह मुहूर्त का दिन और सतरह मुहूर्त की रात्रि । तेरह मुहूर्त से कुछ कम परिमाण वाला दिन और सतरह मुहूर्त से कुछ अधिक परिमाण वाली रात्रि। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५ : उ.१: सू.३-१२ भगवई ११. जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य दक्षि- ११. भंते ! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के दाहिणड्ढे जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे णार्दै जघन्यकः द्वादशमुहूर्त: दिवस: भवति, दक्षिणार्द्ध भाग में बारह मुहूर्त का जघन्य दिन होता भवइ, तयाणं उत्तरड्ढे वि; जया णं उत्तरड्ढे, तदा उत्तरार्द्धऽपि, यदा उत्तरार्द्ध, तदा है, उस समय उत्तरार्द्ध भाग में भी बारह मुहर्त का दिन तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य पौरस्त्य- होता है? जिस समय उत्तरार्द्ध भाग में बारह मुहूर्त का पुरस्थिम-पच्चत्थिमे णं उक्कोसिया अट्ठारस- पश्चिमे उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्त्ता रात्रिः दिन होता है, उस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के मुहुत्ता राई भवइ? भवति। पूर्व और पश्चिम भाग में अठारह मुहूर्त की उत्कृष्ट रात्रि होती है? हंता गोयमा! एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव राई हंत गौतम! एवं चैव उच्चारयितव्यं यावद् हां, गौतम ! इस प्रकार पूर्ण पाठ वक्तव्य है यावत् भवइ ॥ रात्रिर्भवति। अठारह मुहूर्त की उत्कृष्ट रात्रि होती है। १२.जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य १२. भंते ! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के पव्वयस्स पुरथिमे णं जहण्णए दुवालसमुहुत्ते पौरस्त्ये जघन्यकः द्वादशमुहूर्तः दिवस: पूर्व भाग में बारह मुहूर्त का जघन्य दिन होता है, उस दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमे णवि; जया भवति, तदा पश्चिमेऽपि? यदा पश्चिमे तदा समय पश्चिम भाग में भी बारह मुहूर्त का जघन्य दिन णं पच्चत्थिमे, तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य उत्तर-दक्षिणे होता है? जिस समय पश्चिम भाग में बारह मुहूर्त का पव्वयस्स उत्तरदाहिणेण उक्कोसिया अट्ठार- उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिः भवति? जघन्य दिन होता है, उस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु समुहुत्ता राई भवई? पर्वत के उत्तर और दक्षिण भाग में अठारह मुहूर्त की उत्कृष्ट रात्रि होती है? हंता गोयमा! जाव राई भवइ । हंत गौतम ! यावद् रात्रि: भवति। हां, गौतम ! यावत् अठारह मुहूर्त की उत्कृष्ट रात्रि होती है। भाष्य १. सूत्र ३-१२ जंबूद्वीप द्वीप में सूर्य क्रमश: उत्तर पूर्व को जाकर (उदित होकर) पूर्व-दक्षिण को आता है, याने अस्त होता है। पूर्व-दक्षिण से दक्षिण पश्चिम को अस्त होता है। दक्षिण-पश्चिम से पश्चिम-उत्तर को अस्त होता है। पश्चिम-उत्तर से उत्तरपूर्व को अस्त होता है। दृश्यमान सूर्य जब अदृश्य होता है तब उसे व्यवहार में अस्त । कहते हैं। अदृश्य सूर्य जब दृश्य होता है तब उसे उदय कहते हैं। जंबूद्वीप में दो सूर्य होते हैं। जब एक सूर्य मेरु पर्वत की उत्तर दिशा । में होता है तब दूसरा सूर्य मेरु पर्वत की दक्षिण दिशा में होता है। उस समय मेरु पर्वत की उत्तर दिशा और दक्षिण दिशा में दिन होता है। मेरु पर्वत की पूर्व और पश्चिम दिशा में रात्रि होती है। जब मेरु की पूर्व और पश्चिम दिशा में दिन होता है तब उत्तर और दक्षिण दिशा में रात्रि होती है। उत्कृष्ट दिन १८ मुहूर्त का होता है उस समय रात्रि १२ मुहूर्त की होती है। क्योंकि एक अहोरात्र में ३० मुहर्त्त होते हैं। जघन्य दिन १२ मुहूर्त का होता है, तब रात्रि उत्कृष्ट १८ मुहूर्त की होती है। सूर्य ६० मुहूर्त में मंडल को पूरा करता है। उत्कृष्ट दिन १८ मुहूर्त का होता है इसलिए १८ मुहूर्त ६० का - भाग होता है। १८ मुहूर्त के दिन के समय जम्बूद्वीप के भाग को प्रत्येक सूर्य प्रकाशित करताहै। जंबूद्वीप की परिधि ३१६२२८ योजन की है। उसका भाग ३१६२२८४३ = ९४८६८ ४ योजन होता है। यह ताप क्षेत्र है। मेरु पर्वत का परिक्षेप ३१६२३ योजन का है। ताप क्षेत्र में भाग होता है इसलिए ३१६२३ x 1 = ९४६४ २. योजन तापक्षेत्र होता है। जघन्य दिन १२ मुहूर्त का होता है, वह ६० मुहूर्त का भाग होता है - । जम्बूद्वीप की परिधि ३१६२२८ योजन की है। जघन्य दिन में उसका भाग ३१६२२८ x 2 = ६३२४५६ योजन तापक्षेत्र होता है। मेरु पर्वत का परिक्षेप ३१६२३ योजन का है। जघन्य दिन का तापक्षेत्र ३१६२३ x = ६३२४६ योजन होता है। लंबाई से जंबूद्वीप में तापक्षेत्र ४५ हजार योजन का है और लवण समुद्र में ३३३३३. योजन का है। दोनों का योग करने से ४५००० + ३३३३३ = ७८३३३. योजन का होता है। जब दिन १८ मुहूर्त का उत्कृष्ट होता है, तब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल में रहता है। जब जघन्य दिन १२ मुहूर्त का होता है, तब वह सर्व बाह्य मंडल में होता है। सर्वाभ्यन्तर मंडल से सूर्य दक्षिण दिशा की ओर गति Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई प्रारम्भ करता है, तब उसे दक्षिणायन कहते हैं सर्वबाह्य मंडल से सूर्य जब उत्तर दिशा की ओर गति करता है, तब उसे उत्तरायण कहते हैं। एक अयन में सूर्य को १८३ मंडल पार करना होता है। उत्कृष्ट दिन और जघन्य दिन की दूरी १८-१२ = ६ मुहूर्त की होती है। सूर्य १८३ मंडलों में ६ मुहूर्त की दूरी पार करता है इसलिए एक मंडल में मुहूर्त या मुहूर्त्त चलता है। १८३ ६१ सर्वाभ्यन्तर मंडल से दूसरे मंडल में सूर्य आता २ १७५९ १८ मुहूर्त का हो जाता है। उधर रात्रि १२-१२ ६१ ६१ हो जाती है। जितना दिन घटता है, उतनी ही रात्रि बढ़ती है। क्योंकि दिन का ३ = रात्रि १३ मुहूर्त्त की होती है। ३० या बढ़ता रहता है । ३० - मंडल = २ है। मान और रात्रि का मान का योग ३० मुहूर्त्त होता है। प्रतिदिन मुहूर्त दिन घटता जाता है और रात्रि बढ़ती जाती है। जब दिन १७ मुहूर्त्त का होता है तब १३१ १३. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवाइ, तया णं उत्तरड्ढे वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ; जया णं उत्तरढे वासाणं पढने समए पडिवजह, तथा गं जंबुद्दीवे दीवे मंदरम्स पव्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं अनंतरपुरक्खडे समयंसि वासाणं पढमे सम पडिवचाई ? है, तब दिन २ मुहूर्त की मंडलों में गति करने से एक मुहूर्त्त घटता मंडला एक मंडल में मुहूर्त्त घटता ६१ = मंडल में – १ x १ मुहूर्त घटता है। इस क्रम से ज १७ मुहूर्त का दिन होता है तब रात्रि १३ मुहूर्त की होती है। जब १६ मुहूर्त दिन होता है, तब रात्रि १४ मुहूर्त की होती है। जब १५ मुहूर्त का दिन होता है तब रात्रि १५ मुहूर्त की होती है। जब १४ मुहूर्त का दिन होता है तब रात्रि १६ मुहूर्त की होती है। जब १३ मुहूर्त का दिन होता है, तब रात्रि १७ हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिगड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तह चैव जाव पडिवज्जइ ॥ १४. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं पच्चत्थिमे णवि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ; जया णं पच्चत्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं श. ५ : उ. १ : सू. ३ - १४ मुहूर्त की होती है। जब १२ मुहूर्त का दिन होता है तब रात्रि १८ मुहूर्त की होती है। उत्कृष्ट दिन १८ मुहूर्त्त का और जघन्य दिन १२ मुहूर्त का होता है। उसी क्रम में जघन्य रात्रि १२ मुहूर्त की और उत्कृष्ट रात्रि १८ मुहूर्त की होती है। आधुनिक मान्यता के अनुसार पृथ्वी के उत्तर गोलार्द्ध और दक्षिण गोलार्द्ध में दिन रात का परिमाण व्युत्क्रम से चलता है। जिस समय उत्तर गोलार्द्ध में उत्कृष्ट दिन का परिमाण होता है उस समय दक्षिण गोलार्द्ध में उत्कृष्ट रात्रि का परिमाण होता है। उदाहरणार्थ उत्तर गोलार्द्ध के भारत में जब दिन अठारह मुहूर्त का होता है तब दक्षिण गोलार्द्ध के अर्जेन्टिना में रात्रि अठारह मुहूर्त परिमाण वाली होती है। १. भ. वृ. ५/८ - अहारसमुहुत्ताणंतरे' त्ति यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरे मण्डले वर्त्तते सूर्यस्तदा मुहूर्त्तेकषष्टिभागद्वयहीनाष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, स चाष्टादशमुहूर्त्तादिवसादनन्तरोऽष्टादशमुहूर्त्तानन्तरमिति व्यपदिष्टः । शब्द विमर्श वि यह 'णं' और 'अवि' का संधिनिष्पन्न रूप है। -- अनन्तर- - सर्वाभ्यन्तर मण्डल के अनन्तर मण्डल में जब सूर्य आता है तब दिन का परिमाण अठारह मुहूर्त्त से कुछ कम होता है। यह कमी मुहूर्त की होती है। इसलिए 'अठारसमुहुत्ताणंतरे' का तात्पर्य है— अठारह मुहूर्त से कुछ कम परिमाण वाला। यहाँ 'अनन्तर' शब्द अनन्तर मण्डल में सूर्य की अवस्थिति को सूचित करने वाला है।" ६१ यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्द्धे वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, तदा उत्तरार्द्धेऽपि वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, यदा च उत्तरार्द्ध वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, तदा जम्बूदीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्वपश्चिमे अनन्तरपुरस्कृते समये वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते ? हन्त गौतम ! यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्द्ध वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, तथा चैव यावत् प्रतिपद्यते। यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, तदा पश्चिमेऽपि वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते; यदा पश्चिमे वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते, तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य १३. भंते! जिस समय जम्बूदीप द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिणार्द्ध में वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है, उस समय उत्तरार्द्ध में भी वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है, जिस समय उत्तरार्द्ध में वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है, उस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व-पश्चिम भाग में वर्षा के प्रथम समय के अनन्तर आने वाले समय में वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है? हां, गौतम ! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिणार्द्ध में वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है उस समय यावत् वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है। १४. भंते! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में गेरु पर्वत के पूर्व भाग में वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है, उस समय पश्चिम भाग में भी वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है, जिस समय पश्चिम भाग में वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है उस समय जम्बूद्वीप Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : ३. १ सू. १४-१८ जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पल्क्यस्स उत्तरदाहिणे णं अणंतरपच्छाकडसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवने भवइ? हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं एवं चैव उच्चारे यव्वं जाव पडिवन्ने भवइ || १५. एवं जहा समएणं अभिलावो भणिओ वासानं सहा अवलियाएव भाणियच्चो । आणापाणूणवि, थोवेणवि, लवेणवि, मुहुत्तेणवि, अहोरत्तेणवि, पक्खेणवि, मासेनवि, उऊनवि। एएसि सन्वेसिं जहा समयस्स अभिलावो तहा भाणियव्वो । १६. जया णं भंते । जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्डे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ, जहेव वासाणं अभिलावो तहेव हेमंताण वि, गिम्हाण विभागिय जाव उऊए एवं तिणि वि। एएसि तीसं आलावा भाणियव्वा ।। जंबुद्दीवे अयणादि-वत्तव्वया-पदं १७. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणट्टे पढमे अयणे पडि वज्जइ, तया णं उत्तरड्ढे वि पढमे अयणे पडिवजह, जहा समएवं अभिलावो तहेब अवमेण वि भाणियव्यो जाव अनंतर पच्छाकडसमयंसि पढमे अयणे पडिवन्ने भवइ ॥ १८. जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण विभाषियन्वो जुएण वि, वाससएण वि, वाससहस्त्रेण वि वासस्यसहस्सेण वि पुव्वंगेण. वि, पुव्वेण वि, तुडियंगेण वि, तुडिएण वि एवं पुव्वंगे, पुब्वे, तुडियंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अबवे, हने, हूहूए हूहूयंगे, उप्पलंगे, उप्पले, पडमंगे, पडणे, नलिणंगे, नलिणे, अत्थणिउरंगे, १३२ पर्वतस्य उत्तर - दक्षिणे अनन्तरपश्चात्कृतसमचे वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपन्नः भवति ? हन्त गौतम ! यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये एवं चैव उच्चारयितव्यं यावत् प्रतिपन्न भवति एवं यथा समयेन अभिलापः भणित: वर्षाणां तथा आवलिकयापि भणितव्यः । आनापानाभ्यामपि स्तोकेनापि, लवेनापि, मुहूर्त्तेनापि, अहोरात्रेणापि, पक्षेणापि मासेणापि ऋतुनापि एतेषां सर्वेषां यथा समयस्य अभिलाप: तथा भणितव्यः । " यदा भवन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणादों हेमन्तानां प्रथमः समय: प्रतिपद्यते, यथैव वर्षाणां अभिलाप:, तथैव हेमन्तानामपि ग्रीष्माणामपि भणितव्यो यावद् ऋतो एवं त्रयः अपि एतेषां त्रिंशद् आलापकाः भणितव्याः । जम्बूद्वीपे अनादि-वक्तव्यता-पदम् यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य यदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य दक्षिणाद्ध प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते, तदा उत्तरार्द्धेऽपि प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते, यथा समयेन अभिलाप तथैव अयनेनापि भणितव्यो यावद् अन्तरपश्चात्कृतसमये प्रथमम् अयनं प्रतिपन्नं भवति । - यथा अयनेन अभिलापस्तथा संवत्सरेणापि दधा अयनेन अभिलापस्तथा संवत्सरेणापि भणितव्यः युगेनापि वर्षशतेनापि, वर्षसहस्रेणापि वर्षशतसहस्रेणापि पूर्वांगे नापि, पूर्वेणापि, त्रुटितांगेनापि, त्रुटितेनापि एवं पूर्वाङ्गम् पूर्वम्, त्रुटिताङ्गम्, त्रुटितम् अटटाङ्गम्, अटटम्, अववाङ्गम्, अववम्, हूहूकान, कम् उत्पा उत्पलम्, पद्मानम्, पद्म, नलिनात्रम्, नलिनम्, अर्थनिकुराङ्गम्, अर्थनिकुरम्, भगवई द्वीप में मेरु पर्वत के उत्तर-दक्षिण भाग में वर्षा के पूर्व और अपर विदेह की वर्षा के प्रथम समय की अपेक्षा प्रथम समय के अनन्तर पश्चाद्वर्ती समय में वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है? हां, गौतम ! जिस समय जम्बूद्रीय द्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व भाग में वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है........ इस प्रकार पूर्ण पाठ वक्तव्य है यावत् प्रथम समय प्रतिपन्न होता है। १५. इस प्रकार जैसे समय के साथ वर्षा का अभिलाप कहा गया है, उसी प्रकार आवलिका के साथ भी वर्षा का अभिलाप वक्तव्य है। आनापान स्लोक, लव मुहूर्त्त, अहोरात्र, पक्ष, मास और ऋतु इन सबके साथ भी समय की भांति ही वर्षा का अभिलाप वक्तव्य है। - १६. भंते जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिणार्द्ध में हेमन्त का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है। जैसे समय के साथ वर्षा का अभिलाप है वैसे ही हेमन्त, ग्रीष्म यावत् ऋतु के साथ भी वक्तव्य है। तीन ऋतुओं में इसी प्रकार वक्तव्य है। इसके सीस आलापक होते हैं। जम्बूद्वीप में अयनादि की वक्तव्यता का पद १७. भंते । जिस समय जम्बूद्रीय द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिणार्द्ध में प्रथम अयन (दक्षिणायन) प्रतिपन्न होता है उस समय उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अयन प्रतिपन्न होता है, जिस प्रकार समय के साथ अभिलाप है, उसी प्रकार अयन के साथ भी वक्तव्य है। यावत् अनन्तर पश्चाद्वर्ती समय में प्रथम अयन प्रतिपन्न होता है। १८. जिस प्रकार अवन के साथ अभिलाप है उसी प्रकार संवत्सर के साथ भी अभिलाप वक्तव्य है। युग, सी वर्ष, हजार वर्ष, लाख वर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटि के साथ भी अभिलाप वक्तव्य है। इसी प्रकार पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म नलिनांग, नलिन, अर्धनिकुरांग, अर्धनिकुर, अयुतांग, आयुत, नवुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहे Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.५ : उ.१: सू.१८-२३ अत्थणिउरे, अउयंगे, अउए, णउयंगे, अयुताङ्गम्, अयुतम्, नयुताङ्गम्, नयुतम्, णउए, पउयगे, पउए, चूलियंगे, चूलिया, प्रयुताङ्गम्, प्रयुतम्, चूलिकाङ्गम्, चूलिका, सीसपहेलियंगे, सीसपहेलिया- पलि- शीर्षप्रहेलिकाङ्गम्,शीर्षप्रहेलिका—पल्योओवमेण, सागरोवमेण वि भाणियन्वो॥ पमेन, साागरोपमेनापि भणितव्यः। लिकांग, शीर्षप्रहेलिका तथा पल्योपम, सागरोपम के साथ भी अभिलाप वक्तव्य है। १९. जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स चदा भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्य पर्वतस्य पव्वयस्स दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी दक्षिणार्द्ध प्रथमाऽवसर्पिणी प्रतिपद्यते, तदा पडिवजइ, तया णं उत्तरड्ढे वि पढमा उत्तरार्द्धऽपि प्रथमाऽवसर्पिणी प्रतिपद्यते; ओसप्पिणी पडिवज्जइ; जया णं उत्तरड्ढे यदा उत्तरार्द्ध प्रथमाऽवसर्पिणी प्रतिपद्यते, पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तया णं तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम- पौरस्त्य-पश्चिमे नैवास्ति अवसर्पिणी, -पच्चत्थिमेणं नेवत्थि ओसप्पिणी, नेवत्थि नैवास्ति उत्सर्पिणी, अवस्थित: तत्र काल: उस्सप्पिणी, अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते प्रज्ञप्त: श्रमणाऽऽयुष्मन्? समणाउसो? हंता गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं जाव हन्त गौतम ! तच्चैव उच्चारयितव्यं यावत् समणाउसो॥ श्रमणाऽऽयुष्मन्! १९. भंते ! जिस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है, उस समय उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है; जिस समय उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है, उस समय जम्बूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत के पूर्व-पश्चिम भाग में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नहीं होती है, आयुष्मन् श्रमण ! वहां काल अवस्थित हां, गौतम ! पूर्ण पाठ प्रश्नवत् वक्तव्य है यावत् आयुष्मन् श्रमण! २०. जहा ओसप्पिणीए आलावओ भणिओ यथा अवसर्पिण्या आलापक: भणित: एवम् २०. जिस प्रकार अवसर्पिणी का आलापक कहा एवं उस्सप्पिणीए वि भाणियव्वो॥ उत्सर्पिण्यापि भणितव्यः। गया, उसी प्रकार उत्सर्पिणी का आलापक भी वक्तव्य है। लवणसमुद्दादिसु सूरियादि-वत्तव्वय- पदं लवणसमुद्रादिषु सूर्यादि-वक्तव्यता- लवणसमुद्रादि में सूर्यादि की वक्तव्यता का पदम् पद २१. लवणे णं भंते ! समुद्दे सूरिया उदीण- लवणे भदन्त ! समुद्रे सूर्याः उदीचीन- पाईणमुग्गच्छ पाईण-दाहिणमागच्छंति, प्राचीनमुद्गत्य प्राचीन-दक्षिणमागच्छन्ति, जच्चेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया सच्चेव या चैव जम्बूद्वीपस्य वक्तव्यता सा चैव सर्वा सव्वा अपरिसेसिया लवणसमुद्दस्स वि अपरिशेषिका लवणसमुद्रस्यापि भणि- भाणियव्वा, नवरं—अभिलावो इमो तव्या, नवरं—अभिलापोऽयम् ज्ञातव्यः। जाणियन्वो॥ २१. भंते ! लवण समुद्र में सूर्य उत्तर और पूर्व के मध्य उदित होकर पश्चिम और दक्षिण के मध्य आते हैं। जम्बूद्वीप में सूर्य की जो वक्तव्यता कही गई है, वह सारी अविकल रूप से लवण समुद्र के सन्दर्भ में भी वक्तव्य है। विशेषतः यह अभिलाप ज्ञातव्य है। २२. जया णं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे यदा भदन्त ! लवणसमुद्रे दक्षिणा दिवस: २२. भंते ! जिस समय लवण समुद्र के दक्षिणार्द्ध में दिवसे भवइ, तं चेव जाव तदा णं लवण- भवति, तच्चैव यावत् तदा लवणसमुद्रे पौर- दिन होता है। वही वक्तव्यता यावत् उस समय लवण समुद्दे पुरत्थिम-पच्चत्थिमे णं राई भवति।। स्त्य-पश्चिमे रात्रि: भवति। समुद्र के पूर्व-पश्चिम भाग में रात्रि होती है। २३. एएणं अभिलावेणं नेयव्वं जाव जया णं एतेन अभिलापेन नेतव्यं यावद् यदा भदन्त! २३. इस अभिलाप के अनुसार ज्ञातव्य है यावत् भंते ! भंते! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे पढमा लवणसमुद्रे दक्षिणाढे प्रथमा अवसर्पिणी जिस समय लवण समुद्र के दक्षिणार्द्ध में प्रथम ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्ढे प्रतिपद्यते, तदा उत्तरार्द्धऽपि प्रथमा अवविपढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ; जया णं सर्पिणी प्रतिपद्यते; यदा उत्तरार्द्ध प्रथमा भी प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है; जिस समय उत्तरड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ, अवसर्पिणी प्रतिपद्यते, तदा लवणसमुद्रे उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है उस तया णं लवणसमुद्दे पुरत्थिम-पच्चत्थिमे पौरस्त्य-पश्चिमे नैवास्ति अवसर्पिणी, समय लवण समुद्र के पूर्व-पश्चिम भाग में अव Jain Education Intemational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ उ. १ सू. २४-२९ णं नेवत्थि ओसप्पिणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो ? हंता गोयमा ! जाव समणाउसो ॥ २४. धायइसंडे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीण पाईमुग्गच्छ पाईण- दाहिणमागच्छंति, बहेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिवा सच्चेव धाइयसंडस्स वि भाणियव्वा, नवरं इमेणं अभिलावेणं सव्वे आलावगा भाणियव्वा ।। २५. जया णं भंते! धायइसंडे दीवे दाहिणड्डे दिवसे भवद्द, तदा षं उत्तरडे वि; जया णं उत्तरड्ढे, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरात्थिम- पच्चत्विमे णं राई भवइ ? हंता गोयमा ! एवं चैव जाव राई भवइ । २६. जया णं भंते ! धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्ववाणं पुरत्थिमे णं दिवसे भवद्द, तथा णं पच्चत्विमे पवि; जया णं पच्चत्विमे णं दिवसे भवइ, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं उत्तर दाहिणे णं राई भवइ ? हंता गोयमा ! जाव भवइ ।। २७. एवं एएणं अभिलावेणं नेयव्वं जाव जया णं भंते! दाहिणड्डे पदमा ओसप्पिणी, तया णं उत्तर वि; जया णं उत्तरड्डे, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्बयाणं पुरत्थिम-पच्चत्विमे णं नत्थि ओसप्पिणी जाव समणाउसो ? हंता गोयमा ! जाव समणाउसो ॥ २८. जहा लवणसमुद्दस्स वत्तव्वया तहा कालोदस्स वि भाणियच्या नवरं— कालोदस्स नामं भाणियव्वं । १३४ नैवास्ति उत्सर्पिणी, अवस्थितस्तत्र काल: प्रज्ञप्तः श्रमणाऽऽयुष्मन् ? हन्त गौतम! यावत् श्रमणाऽऽ दुष्मन् ! धातकीषण्डे भदन्त ! द्वीपे सूर्यः उदीचीनप्राचीनमुद्गत्य प्राचीन दक्षिणमागच्छन्ति, यथैव जम्बूद्वीपस्य वक्तव्यता भणिता सा चैव धातकीषण्डस्यापि भणितव्या, नवरं अनेन अभिलापेन सर्वे आलापकाः भणितव्याः। यदा भदन्त ! धातकीपण्डे द्वीपे दक्षिणा दिवसः भवति, तदा उत्तरार्द्धेऽपि ? यदा उत्तरार्द्धे, तदा धातकीषण्डे द्वीपे मन्दरयोः पर्वतयोः पौरस्त्व-पश्चिमे रात्रिः भवति ? हन्त गौतम ! एवं चैव यावद् रात्रिः भवति । यदा भदन्त ! धातकीषण्डे द्वीपे मन्दरयोः पर्वतयोः पौरस्त्वे दिवसः भवति, तदा पश्चिमेऽपि यदा पश्चिमे दिवसः भवति, तदा धातकीषण्डे द्वीपे मन्दरयोः पर्वतयोः उत्तर-दक्षिणे रात्रिः भवति ? हन्त गौतम ! यावद् भवति । एवमेतेन अभिलापेन नेतव्यम् यावद् यदा भदन्त ! दक्षिणार्द्धं प्रथमा अवसर्पिणी, तदा उत्तरार्द्धेऽपि ? यदा उत्तरार्द्धे, तदा घातकीपण्डे द्वीपे मन्दरयोः पर्वतवोः पौरस्त्य पश्चिमे नास्ति अवसर्पिणी यावत् श्रमणाऽऽयुष्मन् ? हन्त गौतम! यावत् श्रमणाऽऽ युष्मन् ! यथा लवणसमुद्रस्य वक्तव्यता तथा कालोदस्यापि भणितव्या, नवरं कालोदस्य नाम भणितव्यमा भगवई सर्पिणी और उत्सर्पिणी नहीं होती, आयुष्मन् श्रमण ! क्या वहां काल अवस्थित है? हां, गौतम ! यावत् आयुष्मन् श्रमण ! २४. भंते! धातकीपण्ड द्वीप में सूर्य उत्तर और पूर्व के मध्य उदित होकर पश्चिम और दक्षिण के मध्य आते हैं। जैसे जम्बूद्वीप की वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार धातकीषण्ड की वक्तव्यता है। इतना विशेष है कि सारे आलापक इस अभिलाप के अनुसार वक्तव्य है। २५. भंते! जिस समय घातकीपण्ड द्वीप के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है, उस समय उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है ? जिस समय उत्तरार्द्ध में दिन होता है, उस समय धातकीपण्ड द्वीप में मेरु पर्वतों के पूर्व पश्चिम भाग में रात्रि होती है? हां, गौतम ! ऐसा ही है यावत् रात्रि होती है। २६. भंते! जिस समय धातकीषण्ड द्वीप में मेरु पर्वतों पूर्व भाग में दिन होता है, उस समय पश्चिम भाग में भी दिन होता है? जिस समय पश्चिम भाग में दिन होता है उस समय धातकीपण्ड द्वीप में मेरु पर्वतों के उत्तर - दक्षिण भाग में रात्रि होती है ? हां, गौतम । यावद् रात्रि होती है। २७. इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार ज्ञातव्य है यावत् भंते! जिस समय दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है, उस समय उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है? जिस समय उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होती है, उस समय धातकीषण्ड द्वीप में मेरु पर्वतों के पूर्वपश्चिम भाग में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नहीं होती यावत् आयुष्मन् श्रमण ? हां, गौतम ! यावत् आयुष्मन् श्रमण ! २८. जिस प्रकार लवण समुद्र की वक्तव्यता है, उसी प्रकार कालोद समुद्र की भी व्यक्तव्यता है, इतनी विशेष है— लवण समुद्र के स्थान पर 'कालोद' नाम वक्तव्य है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३५ श.५: उ.१: सू.२९-३० २९. अभिंतरपुक्खरद्धे णं भंते ! सूरिया आभ्यन्तरपुष्करा॰ भदन्त ! सूर्या उदीचीन- २९. भंते ! आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध में सूर्य उत्तर और पूर्व उदीण-पाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिण- प्राचीनमुद्गत्य-प्राचीनदक्षिणम् आगच्छ- के मध्य उदित होकर पश्चिम और दक्षिण के मध्य मागच्छंति, जहेव धायइसंडस्स वत्तव्वया न्ति, यथैव धातकीषण्डस्य वक्तव्यता तथैव आते हैं। जिस प्रकार धातकीषण्ड की वक्तव्यता है तहेव अभिंतरपुक्खरद्धस्स वि भाणि- आभ्यन्तरपुष्करार्द्धस्यापि भणितव्या, नव- उसी प्रकार आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध की भी वक्तव्यता यव्वा, नवरं-अभिलावो जाणियव्वो जाव रम्-अभिलाप: ज्ञातव्य: यावत् तदा आ- है। विशेषत: यह अभिलाप ज्ञातव्य है। यावत् उस तया णं अभिंतरपुक्खरद्धे मंदराणं पुर- भ्यन्तरपुष्करार्द्ध मन्दरयोः पौरस्त्य-पश्चिमे समय आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध में मेरु पर्वतों के पूर्वत्थिम-पच्चत्थिमे णं नेवत्थि ओसप्पिणी, नैवास्ति अवसर्पिणी, नैवास्ति उत्सर्पिणी, पश्चिम भाग में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नहीं नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवट्ठिएणं तत्थ काले ___ अवस्थितस्तत्र कालः प्रज्ञप्त: श्रमणाऽऽ- होती। वहां अवस्थित काल होता है आयुष्मन् पण्णत्ते समणाउसो॥ युष्मन् ! श्रमण! ३०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।। ३०. भंते ! वह ऐसा ही है, भंते वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद वाउ-पदं वायु-पदम् ३१. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी—अत्थि राजगृहे नगरे यावद् एवमवादीद्-----अस्ति णं भंते ! ईसिं पुरेवाया पच्छा वाया मंदा भदन्त ! ईषत् पुरोवाता: पश्चाद्वाता: मन्दा: वाया महावाया वायंति? वाता: महावाता: वान्ति? वायु-पद ३१. 'राजगृह नगर में भगवान् गौतम भगवान महावीर की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भन्ते! ईषत् पुरोवात (पूर्वी वायु), पश्चाद्वात (पश्चिमी-वायु), मन्दवात और महावात चलते हैं? हां, गौतम!चलते हैं। हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। ३२. अत्थि णं भंते ! पुरत्थिमे णं ईसिं पुरेवाया अस्ति भदन्त ! पौरस्त्ये ईषत् पुरोवाता: ३२. भंते ! पूर्व में ईषत् पुरोवात, पश्चात्वात, मन्दवात पच्छा वाया मंदा वाया महावाया वायंति? पश्चाद् वाता: मन्दा: वाताः महावाता: और महावात चलते हैं? वान्ति? हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। हां, चलते हैं। ३३. एवं पच्चत्थिमे णं, दाहिणे णं, उत्तरे णं, एवं पश्चिमे, दक्षिणे, उत्तरे, उत्तर-पौरस्त्ये उत्तर-पुरस्थिमे णं, दाहिण-पच्चत्थिमे णं, दक्षिण-पश्चिमे, दक्षिण-पौरस्त्ये उत्तर- दाहिण-पुरत्थिमे णं, उत्तर-पच्चत्थिमे ण।। पश्चिमे। ३३. इसी प्रकार पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, उत्तर-पूर्व (ईशान कोण), दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण), दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) और उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) में वात चलते हैं। ३४. जया णं भंते ! पुरत्थिमे णं ईसिं पुरेवाया यदा भदन्त! पौरस्त्ये ईषत् पुरोवाता: पश्चाद् ३४. भंते! जिस समय पूर्व में ईषत् पुरोवात, पश्चाद्वात, पच्छा वाया मंदा वाया महावाया वायंति, वाता: मन्दा: वाता: महावाता: वान्ति, तदा मन्दवात और महावात चलते हैं, उस समय पश्चिम तयाणं पच्चत्थिमे णवि ईसिं पुरेवाया पच्छा पश्चिमेऽपि ईषत् पुरोवाता: पश्चाद् वाता: में भी ईषत् पुरोवात, पश्चाद्वात, मन्दवात और वाया मंदा वाया महावाया वायंति; जया मन्दा: वाता: महावाताः वान्ति? यदापश्चिमे महावात चलते हैं? जिस समय पश्चिम में ईषत् णं पच्चत्थिमे णं ईसिं पुरेवाया पच्छा वाया ईषत् पुरोवाता: पश्चाद् वाता: मन्दा: वाता: पुरोवात, पश्चाद्वात, मन्दवात और महावात चलते मंदा वाया महावाया वायंति, तया णं महावाता: वान्ति, तदा पौरस्त्येऽपि? हैं, उस समय पूर्व में भी चलते हैं ? पुरत्थिमे णवि? हंता गोयमा ! जया णं पुरत्थिमे णं ईसिं हन्त गौतम ! यदा पौरस्त्ये ईषत् पुरोवाता: हां, गौतम ! जिस समय पूर्व में ईषत् पुरोवात, पुरेवाया पच्छा वाया मंदा वाया महावाया पश्चाद् वाता: मन्दा: वाता: महावाता: पश्चाद्वात, मन्दवात और महावात चलते हैं, उस वायं ति, तया णं पच्चत्थिमे णवि ईसिं वान्ति, तदा पश्चिमेऽपि ईषत् पुरोवाता: समय पश्चिम में भी ईषत् पुरोवात, पश्चाद्वात, पुरेवाया पच्छा वाया मंदा वाया महावाया पश्चाद्वाता: मंदा: वाता: महावाता: वान्ति; मन्दवात और महावात चलते हैं; जिस समय पश्चिम में वायंति; जयाणं पच्चत्थिमेणं ईसिं पुरेवाया यदा पश्चिमे ईषत् पुरोवाता: पश्चाद् वाता: ईषत् पुरोवात, पश्चाद्वात, मन्दवात और महावात Jain Education Intemational ation Intermational For Private & Personal use only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३७ श.५: उ.२: सू.३४-४१ पच्छा वाया मंदा वाया महावाया वायंति, ___ मन्दा: वाता: महावाता: वान्ति, तदा पौर- तया णं पुरत्थिमे णवि ईसिं पुरेवाया पच्छा स्त्येऽपि ईषत् पुरोवाता: पश्चाद् वाता: मन्दाः वाया मंदा वाया महावाया वायंति॥ वाता: महावाता: वान्ति। चलते हैं, उस समय पूर्व में भी ईषत् पुरोवात, पश्चाद्वात, मन्दवात और महावात चलते हैं। ३५. एवं दिसासु, विदिसासु॥ एवं दिशासु, विदिशासु। ३५. इस प्रकार सब दिशाओं और सब विदिशाओं में वात चलते हैं। अस्ति भदन्त ! द्वैपिका: ईषत् पुरोवाता:? ३६. अत्थिणं भंते ! दीविच्चया ईसिं पुरेवाया? (पू.भ. ५/३१) हंता अत्थि॥ ३६. भंते ! द्वीपों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात चलते हैं? (५/३१ की तरह) हां, चलते हैं। हन्त अस्ति। अस्ति भदन्त ! सामुद्रिका: ईषत् पुरोवाता:? ३७. अत्थि णं भंते ! सामुद्दया ईसिं पुरेवाया? (पू.भ.५/३१) हंता अत्थि॥ ३७. भन्ते ! समुद्रों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात चलते हैं? (५/३१ की तरह) हां, चलते हैं। हन्त अस्ति। ३८. जया णं भंते ! दीविच्चया ईसिं पुरेवाया, यदा भदन्त ! द्वैपिका: ईषत् पुरोवाता:, तदा ३८. भंते ! जिस समय द्वीपों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात तया णं सामुद्दया वि ईसिं पुरेवाया, जया सामुद्रिका: अपि ईषत् पुरोवाता:? यदा सामु- चलते हैं, उस समय समुद्रों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात णं सामुद्दया ईसिं पुरेवाया, तयाणं दीवि- द्रिका: ईषत् पुरोवाता:, तदा द्वैपिका: अपि भी चलते हैं? जिस समय समुद्रों में उत्पन्न ईषत् च्चया वि ईसिं पुरेवाया? (पू. भ.५/३१) ईषत् पुरोवाता:? पुरोवात चलते हैं, उस समय द्वीपों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात भी चलते हैं? (५/३१ की तरह) णो इणढे समढे। नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। ३९. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ–जया णं तत्केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते यदा द्वैपिकाः ३९. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है दीविच्चया ईसिं पुरेवाया, णो णं तया ईषत् पुरोवाता:, नो तदा सामुद्रिका: ईषत् जिस समय द्वीपों में उत्पन्न ईषत् पूरोवात चलते हैं, सामुद्दया ईसिं पुरेवाया, जया णं सामुद्दया पुरोवाता: , यदा सामुद्रिका ईषत् पुरोवाता:, उस समय समुद्रों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात नहीं चलते? ईसिं पुरेवाया, णो णं तया दीविच्चया ईसिं नो तदा द्वैपिका: ईषत् पुरोवाता: ? जिस समय समुद्रों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात चलते हैं, पुरेवाया? (पू. भ. ५/३१) उस समय द्वीपों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात नहीं चलते? (५/३१ की तरह) गोयमा! तेसि णं वायाणं अण्णमण्ण- गौतम ! तेषां वातानाम् अन्योन्यविव्यत्यासेन गौतम ! द्वीपोत्पन्न और समुद्रोत्पन्न वात परस्पर विवच्चासेणं लवणसमुद्दे वेलं नाइक्कमइ। लवणसमुद्रः वेलां नातिक्रामति। विपरीत रूप से चलते हैं, इसीलिए लवण समुद्र वेला का अतिक्रमण नहीं करता। से तेणटेणं जाव णो णं तया दीविच्चया तत् तेनार्थेन यावन्नो तदा द्वैपिका: ईषत् पुरो- इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जिस समय ईसिं पुरेवाया पच्छा वाया मंदा वाया वाता: पश्चाद् वाता: मन्दा: वाता: महावाता: समुद्रों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात चलते हैं यावत् उस महावाया वायंति॥ वान्ति। समय द्वीपों में उत्पन्न ईषत् पुरोवात, पश्चाद्वात, मन्दवात और महावात नहीं चलते। ४०. अत्थि णं भंते ! ईसिं पुरेवाया पच्छा अस्ति भदन्त ! ईषत् पुरोवाता: पश्चाद् वाता: ४०. भन्ते ! क्या ईषत् पुरोवात्, पश्चाद्वात, मन्दवात वाया मंदा वाया महावाया वायंति? मन्दा: वाता: महावाता: वान्ति? और महावात चलते हैं? हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। हां, वे चलते हैं। ४१. कयाणं भंते! ईसिं पुरेवाया जाव वायंति? कदा भदन्त ! ईषत् पुरोवाता: यावद् वान्ति? ४१. भन्ते ! ईषत् पुरोवात यावत् कब चलते हैं? Jain Education Intemational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.२: सू.३१-४५ १३८ भगवई (पू. भ. ५/४०) गोयमा! जया णं वाउयाए अहारियं रियति, गौतम ! यदा वायुकायः यथेर्यं रीयते, तदा तया णं इसिं पुरेवाया जाव वायंति ॥ ईषत् पुरोवाता: यावद् वान्ति। (५/४० की तरह) गौतम ! जिस समय वायुकाय यर्यं (अपनी स्वाभाविक गति से) चलता है, उस समय ईषत् पुरोवात यावत् महावात चलते हैं। अस्तिभदन्त ! ईषत् पुरोवाता:? ४२. अत्थि णं भंते ! ईसिं पुरेवाया? (पू. भ. ५/४०) हंता अत्थि॥ ४२. भन्ते! क्या ईषत् पुरोवात आदि चलते हैं? (५/४० की तरह) हां, चलते हैं। हन्त अस्ति। कदा भदन्त ! ईषत् पुरोवाता:? ४३. कया णं भंते ! ईसिं पुरेवाया? (पू. भ.५/४०) गोयमा! जयाणं वाउयाए स्त्तरकिरियं रियइ, तया णं ईसिं पुरेवाया ज.व वायंति॥ (पू.भ.५/४०) गौतम ! यदा वायुकाय: उत्तरक्रियं रीयते, तदा ईषत् पुरोवाता: यावद् वान्ति। ४३. भन्ते ! ईषत् पुरोवात आदि कब चलते हैं। (५/४० की तरह) गौतम! जिस समय वायुकाय उत्तरक्रिया (वैक्रिय शरीर की गति) से चलता है, उस समय ईषत् पुरोवात यावत् महावात चलते हैं। (५/४० की तरह) अस्ति भदन्त ! ईषत् पुरोवाता:? ४४. अत्थि णं भंते ! ईसिं पुरेवाया? (पू. भ. ५/४०) हंता अत्थि॥ ४४. भन्ते ! ईषत् पुरोवात यावत् महावात चलते हैं? (५/४० की तरह) हां, चलते हैं। हन्त अस्ति। ४५. कया णं भंते ! ईसिं पुरेवाया पच्छा वाया? कदाभदन्त! ईषत् पुरोवाता: पश्चाद् वाताः? ४५. भन्ते ! ईषत् पुरोवात पश्चाद्वात आदि कब (पू. भ. ५/४०) चलते हैं? (५/४० की तरह) गोयमा ! जया णं वाउकुमारा, वाउकुमा- गौतम ! यदा वायुकुमारा:, वाायुकुमार्यो वा गौतम ! जिस समय वायुकुमार और वायुकुमारियां रीओ वा अप्पणो परस्स वा तदुभयस्स वा आत्मनः परस्य वा तदुभयस्य वा अर्थाय अपने लिए, औरों के लिए या दोनों के लिए वायुकाय अट्ठाए वाउकायं उदीरेंति तया णं ईसिं वायुकायम् उदीरयन्ति तदा ईगत् पुरोवाता: की उदीरणा करती हैं, उस समय ईषत् पुरोवात यावत् पुरेवाया जाव वायंति॥ (पू. भ. ५/४०) यावद् वान्ति। महावात चलते हैं। (५/४० की तरह) भाष्य पुरोवात- १. स्नेहयुक्तवायु, २. पूर्वीवायु। पथ्यवात-१. वनस्पति के लिए हितकर वायु, २. पश्चिमी वायु। १. सूत्र ३१-४५ प्रस्तुत आलापक में वायु के प्रकार, उनका गति-क्षेत्र और गति के नियमों का प्रतिपादन किया गया है। वायु के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं: पुरोवात – पूर्वी वायु। पश्चाद्वात-पश्चिमी वायु। मन्दवात-मन्दगति से चलने वाली वायु । महावात- तेज गति से चलने वाली वायु। अभयदेवसूरि ने पुरोवात का अर्थ 'स्नेह युक्त वायु' किया है। पच्छावायु-पच्छा शब्द के दो संस्कृत रूप हो सकते हैं—पश्चात् और पथ्या। प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में अभयदेवसूरि इसका अर्थ पथ्य-'वनस्पति आदि के लिए हितकर' करते हैं।' ज्ञाता. की वृत्ति में अभयदेवसूरि ने इन दोनों के दो-दो अर्थ किए हैं: प्रस्तुत आगम के कुछ आदर्शों में पत्था' पाठ मिलता है। अभयदेवसूरि ने भी इस पाठ के आधार पर पथ्य शब्द की व्याख्या की है। नायाधम्मकहाओ (१/११/२,४,६,८) में 'पच्छा' पाठ उपलब्ध है इसलिए उसका वैकल्पिक अर्थ 'पश्चात्' किया है। वास्तव में मूलपाठ पच्छा' ही होना चाहिए। इस वायु-चतुष्क में दो विपरीत युगल हैं। एक युगल है-पूर्वीवायु और पश्चिमी वायु। दूसरा युगल है-मन्दवायु और महावायु। पथ्य का अर्थ वनस्पति के लिए हितकर' किया गया है, वह विमर्शनीय है। नायाधम्मकहाओ के अनुसार द्वीप और समुद्र में चारों १. भ.वृ.५/३१- 'ईसिं पुरेवायत्ति' मनाक् सस्नेहवाता: पत्थावाय' त्ति पथ्या वनस्पत्यादिहिता वायवः। २. ज्ञाता. वृ.प.१७९ - ईषत् पुरोवाता:--मनाक सस्नेहवाता इत्यर्थ: पूर्वदिक संबंधिनो वा, पथ्यावाता-वनस्पतीनां सामान्येन हिता वायवः पश्चाद्वाता वा। Jain Education Intemational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.५: उ.२. सू.३५-४९ नहीं। प्रकार की वायु चलती है, तब समुद्र तटवर्ती 'दावद्दव' (दावद्रव) वृक्ष उसकी गति के तीन नियम हैंपत्रित, पुष्पित और फलित होते हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि वनस्पति के १. यथारीति गति-जब वह अपनी स्वाभाविक गति से चलती लिए चारों प्रकार की वायु हितकर होती है, इसलिए पथ्य' के अर्थ का कोई है। विशेष महत्त्व नहीं है। ‘पच्छा' के स्थान पर पत्था' पाठ के कारण ही यह २. उत्तरक्रिया गति-वायुकाय का मूल शरीर औदारिक है। अर्थविपर्यय हुआ है। प्राचीन लिपि में संयुक्तत्थ्' और संयुक्तच्छ' में प्राय: उसका उत्तर शरीर वैक्रिय है। जब वैक्रिय शरीर द्वारा गति होती है, वह उत्तर सादृश्य है। इसलिए पच्छा' के स्थान पर पत्था' पाठ होना आश्चर्य की बात क्रिया है।" ३. उदीरणाजनित गति- यह गति वायुकाय देवों द्वारा प्रेरित सूत्र ३२ से ३५ तक चार दिशाओं और चार विदिशाओं में वायु की होती है। गति का नियम प्रतिपादित है। वृत्तिकार ने वाचनान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार सूत्र ३६ से ३९ तक यह प्रतिपादित है--द्वीपों और समुद्रों में महावात की यथारीति गति नहीं होती, वह शेषत्रिक की होती है। मन्दवात चारों प्रकार की वायु होती है। किन्तु उन दोनों में एक साथ एक प्रकार की उत्तरक्रिया गति नहीं होती, शेषत्रिक की होती है। उदीरणाजनित गति की वायु नहीं चलती। द्वीप में यदि मंदवात चलता है तो समुद्र में महावात सबकी होती है।' चलेगा। इसी प्रकार द्वीप में यदि महावात चलता है तो समुद्र में मन्दवात वायुकाय में वैक्रिय शरीर का अस्तित्व स्वीकृत है। वैक्रिय शरीर चलेगा। इस विपरीत गति के कारण ही लवण समुद्र वेला का अतिक्रमण का अर्थ है विविध क्रियाएं करने वाला शरीर। किन्तु वायुकाय उसके द्वारा नहीं करता। विविध रूपों का निर्माण करने में समर्थ नहीं है। वह विविध प्रकार की गति सूत्र ४० से ४५ तक वायु की गति के नियम का प्रतिपादन है। करने में समर्थ है। ४६. वाउयाएणं भंते ! वाउयायं चेव आणमंति वायुकाय: भदन्त ! वायुकायं चैव आनन्ति ४६. भन्ते ! क्या वायुकायिक जीव वायुकाय का ही वा? पाणमंति वा? ऊससंति वा? नीससंति वा? प्राणन्ति वा? उच्छ्वसन्ति वा? नि:- आन, अपान तथा उच्छ्वास, नि:श्वास करते हैं? वा? श्वसन्ति वा? हंता गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए चेव हन्त गौतम ! वायुकाया: वायुकायान् चैव हां, गौतम! वायुकायिक जीव वायुकाय काही आन, आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा नि:- अपान तथा उच्छ्वास, नि:श्वास करते हैं। नीससंति वा॥ श्वसन्ति वा? ४७. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव अणेग- सयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति? हंता गोयमा! वाउयाए णं वाउयाए चेव अणेगसयसहस्स्खु त्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति।। वायुकाय: भदन्त ! वायुकाये चैव अनेक- ४७. भन्ते ! क्या वायुकायिक जीव वायुकाय में ही शतसहस्रकृत्वः अवद्राय -अवद्राय तत्रैव अनेक लाख बार मर-मर कर वहीं पुन:पुन: उत्पन्न भूयो-भूय: प्रत्यायाति? होता है? हन्त गौतम! वायुकाय: वायुकाये चैव अनेक- हां गौतम! वायुकायिक जीव वायुकाय में ही अनेक शतसहस्रकृत्व: अवद्राय-अवद्राय तत्रैव लाख बार मर-मर कर वहीं पुन:-पुन: उत्पन्न होता भूयो-भूयः प्रत्यायातिा ४८.से भंते ! किं पुढे उद्दाति? अपुढे उद्दाति? स: भदन्त ! किं स्पृष्ट : अवद्राति? अस्पृष्ट : ४८. भन्ते! क्या वायुकायिक जीव स्पृष्ट होकर मरता अवद्राति? है अथवा अस्पृष्ट होकर मरता है? गोयमा ! पुढे उद्दाति, नो अपुढे उद्दाति।। गौतम! स्पृष्ट : अवद्राति, नोअस्पृष्टः अवद्राति। गौतम ! वह स्पृष्ट होकर मरता है, अस्पृष्ट रहकर नहीं मरता। ४९. से भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ? असरीरी स: भदन्त ? किं सशरीरी निष्क्रामति? अशरी- ४९. भन्ते ! वायुकायिक जीव सशरीर निष्क्रमण करता निक्खमई? री निष्क्रामति? है अथवा अशरीर निष्क्रमण करता है? १. नाया. १/११/२। ४. भ.७.५/४३-वायुकायस्य हि मूलशरीरमौदारिकमुत्तरं तु वैक्रियमत उत्तरा-उत्तर२. भ.वृ. ५/३९–अन्योन्यव्यत्यासेन यदेके ईषत्पुरोवातादि विशेषेण वान्ति तदेतरे न तथाविधा शरीराश्रया क्रिया गतिलक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियमा वान्तीत्यर्थः, 'वेलं नाइक्कमई' त्ति तथाविधवातद्रव्यसामर्थ्याद् वेलायास्तथास्वभावत्वाच्चेति ५. भ.व.५/४३ वाचनान्तरे त्वाचं कारणं महावातवर्जितानां, द्वितीयं तु मन्दवातबर्जितानां. ३. भ.वृ.५/४१-चीतं रीति: स्वभाव इत्यर्थः तस्यानतिक्रमेण यथा रीतं 'रीयते' गच्छति यदा तृतीयं तु चतुर्णामप्युक्तमिति स्वाभाविक्या गत्या गच्छ तीत्यर्थः। ६. भ. २/१० Jain Education Intemational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय गौतम ! स्यात् सशरीरी निष्क्रामति, स्याद् असरीरी निक्खम || अशरीरी निष्क्रामतिः ५०. से केणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ — सिय ससरीरी निक्खमइ? सिय असरीरी निकखमइ ? गोयमा ! वाउयायस्स णं चत्तारि सरीरया पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए, वेउव्विए, तेवए, कम्मए। ओरालिय- वेउब्वियाई विप्पजहाय तेयय - कम्मएहिं निक्खमइ । से तेणद्वेणं गोयमा एवं बुच्चइ – सिय ससरीरी निक्खम, सिय असरीरी निक्ख -- मइ ॥ け १. सूत्र ४६-५० द्रष्टव्य भ. २/८-१२ का भाष्य । ओदणादीणं किंसरीरत-पदं ५१. अहणं भंते ओदणे, कुम्मासे, सुराएए णं किंसरीरा ति वतव्यं सिया ? गोयमा ! ओदणे, कुम्मासे, सुराए य जे पणे दव्वे एए णं पुब्वभावषण्णवणं पडुच्च वणस्सइजीवसरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया, सत्थपरिणामिया, अगणिज्झामिया, अगणिझसिवा, अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया। सुराए य जे दवे दव्वे - एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च आउजीवसरीरा । तओ पच्छा सथातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति बत्तन्वं सिया ।। ५२. अह णं भंते ! अये, तंबे, तउए, सीसए, उनले कसट्टिया एए णं किंसरीरा ति वतव्वं सिया ? गोयमा ! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया – एए णं पुल्वभावपण्णवणं पडुच्च पुढवीजीवसरीरा । तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया ।। १४० तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - स्यात् सशरीरी निष्क्रामति ? स्याद् अशरीरी निष्क्रामति? 1 गौतम ! वायुकायस्य चत्वारि शरीराणि प्रज्ञप्तानि तद् यथा -- औदारिकं, वैक्रिय, तैजसं, कर्मकम् औदारिक- वैक्रिये विप्रहाय तैजस-कर्मकाभ्यां निष्क्रामति । अथ तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते स्वात् सशरीरी निष्क्रामति, स्वात् अशरीरी निष्क्रामति। , भाष्य ओदनादीनां किंशरीरत्व-पदम् अथ भदन्त ! ओदनः, कुल्माष:, सुराएते किंशरीराः इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम! ओदने, कुल्माषे:, सुरायां च यानि घनानि द्रव्याणि तानि पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य वनस्पतिजीवशरीराणि तत् पश्चात् शस्त्रातीतानि शस्त्रपरिणामितानि, अग्नि"ज्झामिया' अमिषितानि अग्निपरिणामितानि अग्निजीवशरीराणि इति वक्तव्यं स्यात् । सुरायां च यानि द्रवाणि द्रव्याणि— एतानि पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य अजीबशरीराणि ततः पश्चात् शस्त्रातीतानि यावद अग्निजीवशरीराणि इति वक्तव्यं स्याता " अथ भदन्त ! अय:, ताम्रम् प्रपुः, सीसकम्, उपल, कपट्टिकाः एते किंशरीरा: इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम ! अय:, ताम्रम्, त्रपुः, सीसकम्, उपलाः कषपट्टिकाः एते पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य पृथिवीजीवशरीराः । ततः पश्चात् शस्त्रातीताः यावद् अग्निजीवशरीरा: इति वक्तव्यं स्यात्। श. ५: ३.२ सू.४६-५२ गौतम ! वह स्यात् सशरीर निष्क्रमण करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है। ५० भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैवायुकायिक जीव स्यात् सशरीर निष्क्रमण करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है। गौतम! वायुकायिक जीव के चार शरीर प्रज्ञप्त हैं, जैसे—औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण। वह औदारिक और वैक्रिय शरीर को छोड़कर तेजस ओर कार्मण शरीर के साथ निष्क्रमण करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है वह स्यात् सशरीर निष्क्रमण करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है। ओदन आदि 'किसके शरीर का पद ५१. 'भन्ते! ओदन, कुल्माष और सुरा इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है? गौतम ! ओदन, कुल्माष और सुरा में जो सघन द्रव्य हैं, वे पूर्व पर्याय- प्रज्ञापन की अपेक्षा से वनस्पतिजीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् वे शस्त्रातीत और शस्त्र - परिणत तथा अग्नि से श्यामल, अग्नि से शोषित और अग्नि रूप में परिणत होने पर उन्हें अभिजीवों का शरीर कहा जा सकता है। सुरा में जो द्रव द्रव्य हैं, वे पूर्व पर्याय प्रज्ञापन की अपेक्षा से जलजीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्नि रूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है। ५२. भंते! लोहा, ताम्बा, रांगा, सीसा, पाषाण और कसौटी- -इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है? गौतम ! लोहा, तांबा, रांगा, सीसा, पाषाण और कसौटी—ये पूर्व पर्याय- प्रज्ञापन की अपेक्षा से पृथ्वी जीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निरूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५२. अह पं भंते अड्डी, अडिन्झामे, चम्मे, चम्मज्झामे, रोमे, रोमज्झामे, सिंगे, सिंगज्झामे, खुरे, खुरज्झामे, नखे, नखज्झामे- - एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सियार - गोयमा ! अट्टी, चम्मे, रोमे, सिंगे, खुरे, नखे --- एए णं तसपाणजीवसरीरा अट्ठिज्झामे, चम्मज्झामे, रोमज्झामे, सिंगज्झामे, सुरज्झामे, खज्ञामे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च तसपाणजीवसरीरा । तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया ।। अथ भदन्त अक्कारः, क्षारकं, दुसं, गोमयम् , ५४. अह णं भंते! इंगाले, छारिए, भुसे, गोमएएए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा इंगाले छारिए, भुसे, गोगए— ! एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एगिंदियजीवसरीरप्पयोगपरिणामिया वि जाव पंचिदिवजीवसरीरययोगपरिणामिया विन्द्रियजीवशरीर प्रयोगपरिणामिताः अपि । एते किंशरीराः इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम! अकारः, क्षारकं, बुसं, गोमयम्एते पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य एकेन्द्रियजीवशरीरप्रयोगपरिणामिताः अपि यावत् पञ्चे तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया ।। १. प्र. सा. ८ परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं । १४१ अथ भदन्त ! अस्थि, अस्थि'ज्ज्ञामे', चर्म, चर्म 'ज्झामे', रोम, रोम 'ज्झामे', शृंगः, श्रृंग'ज्झामे', खुरं, खुर'ज्झामे', नखः, नख' ज्झामे' एते किंशरीरा: इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम ! अस्थि, चर्म, रोम, श्रृंगः, क्षुरं, नख:- • एते त्रसप्राणजीवशरीराः । अस्थि'ज्झामे', चर्म 'ज्झामे', रोम 'ज्झामे', श्रृंग ज्झामे', खुर' ज्झामे', नख'ज्झामे' - एतानि पूर्वभाव - प्रज्ञापनां प्रतीत्य त्रस - प्राणजीवशरीराणि ततः पश्चात् शस्त्रातीतानि यावद् अग्निजीव- शरीराणि इति वक्तव्यं स्यात् । - २. तवानुशासन, १९० १. सूत्र ५१-५४ प्रस्तुत आलापक में परिणामवाद अर्थात् तद्रूप अथवा तन्मय पर्यायवाद का निरूपण है। इस सिद्धान्त का प्रयोगदर्शन और ध्यान दोनों क्षेत्रों में होता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार द्रव्य जिस भाव में परिणत होता है, तत्काल वह तन्मय बन जाता है।' आत्मा जिस भाव में परिणत होता है, उस भाव के साथ तन्मय हो जाता है। यह ध्यान का सिद्धान्त है। वह पूर्व पर्याय में जो वनस्पति-जीव का शरीर था, वह अग्निरूप में परिणत होकर अग्नि-जीव का शरीर बन जाता है। यह उत्तरवर्ती पर्याय है। यह पर्याय- प्रवाह का एक निदर्शन है। कोई भी द्रव्य एक रूप में नहीं रहता। उसमें पर्याय का प्रवाह सतत् गतिशील है। इसी सिद्धान्त के अनुसार वनस्पतिजीव, अप्काय-जीव, पृथ्वी जीव और त्रसकाय जीव के शरीर अग्नि- जीव के शरीर-रूप में बदल जाते हैं। ततः पश्चात् शस्त्रातीताः यावद् अग्निजीवशरीराः इति वक्तव्यं स्यात् । भाष्य श. ५ : ३.२ : सू. ५१-५४ ! ५३. भन्ते । अस्थि, दग्ध अस्थि, चर्म, दग्ध धर्म, रोम, दध रोम, सींग, दग्ध सींग, खुर, दग्ध खुर, नख और दग्ध नख इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है? गौतम ! अस्थि, चर्म, रोम, सींग, खुर और नख ये प्राण जीवों के शरीर हैं। दग्ध अस्थि, दग्ध चर्म, दग्ध रोम, दग्ध सींग, और दग्ध दग्ध खुर नख - ये पूर्व पर्याय- प्रज्ञापन की अपेक्षा त्रस-प्राण जीवों के शरीर है। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अपि रूप में परिणत होने पर इन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है। - ५४. भंते! अंगार, राख, बुसा और गोबर इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है? गौतम! अंगार, राख, दुसा और गोबर ये पूर्वपर्याय- प्रज्ञापन की अपेक्षा से एकेन्द्रिय जीवों द्वारा भी शरीर प्रयोग में परिणमित भी है, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों द्वारा भी शरीर प्रयोग में परिचमित है उसके पश्चात् वे शस्त्रातीत यावत अग्नि रूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है। पर्याय- परिवर्तन से होने वाले भावान्तर की चर्चा न्याय और वैशेषिक दर्शन में भी मिलती है। अग्नि के संयोग से पृथ्वी में कुछ गुणविशेष का प्रादुर्भाव होता है। इसे 'पाकजगुण' कहा जाता है। उनके अनुसार जल, वायु और अग्नि में पाकज गुण नहीं होता। पाकज गुण परमाणुओं के भीतर पैदा होता है या अवयवी द्रव्य में? इस प्रश्न को लेकर नैयायिकों और वैशेषिकों में मतभेद है। वैशेषिकों का मत है कि अग्नि का संयोग होने पर घट के समस्त परमाणु पृथक्-पृथक् हो जाते हैं और फिर नवगुणोपेत होकर (पककर) वे संलग्न होते हैं। इस मत का नाम 'पीलुपाक' है। नैयायिक इस मत का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि यदि घट के सभी परमाणु अलग-अलग हो गये, तब तो घट का विनाश ही हो गया। दुबारा परमाणुओं के जुटने से एक दूसरे ही घट का अस्तित्व माना परिणमते येनात्मा भावेन सतेन तन्मयो भवति । अर्हद् ध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात् स्वयं तस्मात् ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.२: सू.५१-५६ १४२ भगवई पड़ेगा। किन्तु पक जाने पर घट के स्वरूप में रंग के सिवा और कोई अन्तर स्कन्धों में सभी वर्गों की सत्ता है, इसलिए काली मिट्टी के परमाणुओं से बना नहीं पाया जाता। उसे देखते ही हम तुरन्त पहचान जाते हैं। इसलिए घट का पात्र आग में पकाने पर लाल रंग का हो जाता है। इसकी व्याख्या के लिए नाश और घटान्तर का निर्माण नहीं माना जा सकता। घट-परमाणु उसी तरह किसी नए सिद्धान्त की स्थापना करना आवश्यक नहीं है। संलग्न रहते हैं, किन्तु उनके बीच-बीच में जो छिद्र-स्थल रहते हैं, उनमें शब्द-विमर्श विजातीय अग्नि का प्रवेश हो जाने के कारण घट का रूप परिवर्तन हो जाता पूर्वभाव प्रज्ञापना-अतीत पर्याय की प्ररूपणा है। इस मत का नाम 'पिठरपाक' है।' पडुच्च-अपेक्षा से जैनदर्शन में पर्यायान्तर अथवा परिणामान्तर का सिद्धान्त मान्य शस्त्रातीते-अग्नि-शस्त्र से अतिक्रान्त है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श पुद्गल के गुण हैं। इनमें प्रयोगजनित और शस्त्रपरिणामिते-अग्नि-शस्त्र के द्वारा नए पर्याय में परिणामिता स्वाभाविक दोनों प्रकार का परिवर्तन होता है। ओदन आदि में अग्नि के अगणिज्झामिये-अग्नि से श्यामल संयोग से होने वाला परिवर्तन प्रायोगिक परिवर्तन है। परमाणु तथा परमाणु लवणसमुद्द-पदं लवणसमुद्र-पदम् ५५. लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्क- लवणः भदन्त समुद्रः कियान् चक्रवाल- वालविक्खंभेणं पण्णते? विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः? एवं नेयव्वं जाव लोगट्ठिई, लोगाणुभावे॥ __एवं नेतव्यं यावल लोकस्थिति: लोकानु भावः। लवण समुद्र-पद ५५. भन्ते ! लवण समुद्र की चक्राकार चौड़ाई कितनी प्रज्ञप्त है? उसकी चक्राकार चौड़ाई दो लाख योजन की है यावत् जीवाभिगम (३/७०६-७९५) के लोकस्थिति लोकानुभाव तक वक्तव्य है। ५६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् गौतम: यावद् विहरति। ५६. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है, इस प्रकार कह कर भगवान् गौतम यावत् विहरण कर रहे १. भारतीय दर्शन परिचय, द्वितीय खण्ड, वैशेषिक दर्शन, पृ.१२१ Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद आउ-पकरण-पडिसंवेदण-पदं आयु:-प्रकरण-प्रतिसंवेदन-पदम् आयुष्य-प्रकरण-प्रतिसंवेदन-पद ५७. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति अन्ययूथिका: भदन्त! एवमाख्यान्ति भाष- ५७. 'भन्ते ! अन्ययूथिक ऐसा आख्यान, भाषण, भासंति पण्णवेंति परूवेंति-से जहानामए न्ते प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्ति–तद् यथानाम प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं जैसे कोई जालजालगंठिया सिया-आणुपुन्विगढिया जालग्रन्थिका स्याद्-आनुपूर्वीग्रथिता ग्रन्थिका हैं। उस जाल में क्रमपूर्वक गांठे दी हुई हैं। अणंतरगढिया परंपरगढिया अण्णमण्ण- अनन्तरग्रथिता परम्परग्रथिता अन्योन्य- एक के बाद एक किसी अंतर के बिना गांठे दी हुई हैं, गढिया, अण्णमण्णगरुयत्ताए अण्णमण्ण- ग्रथिता अन्यान्यगुरुकतया अन्योन्यभारि- परम्पर ग्रन्थियों के साथ गूंथी हुई हैं। सब ग्रन्थियां भारियत्ताए अण्णमण्णगरुय-संभारियत्ताए कतया अन्योन्यगुरुक-संभारिकतया अन्यो- परस्पर एक-दूसरी से गूंथी हुई हैं। वैसा जाल परस्पर अण्णमण्णघडताए चिट्ठइ, एवामेव बहूणं अन्योन्यघटतया तिष्ठति, एवमेव बहूनां विस्तीर्ण, परस्पर भारी, परस्पर विस्तीर्ण और परस्पर जीवाणं बहुसु आजातिसहस्सेसु बहूइं जीवानां बहुषु आजातिसहस्रेषु बहूनि । आउयसहस्साई आणुपुन्विगढियाई जाव आयुष्कसहस्राणि आनुपूर्वीग्रथितानि या- अवस्थित है। इसी प्रकार अनेक जीवों के अनेक हजार चिट्ठति। वत् तिष्ठन्ति। जन्मों के अनेक हजार आयुष्य क्रम से गूंथे हुए यावत् समुदाय-रचना के रूप में अवस्थित हैं। एगे वियणं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई एकोऽपि च जीव: एकेन समयेन द्वे आयुषी एक जीव एक समय में दो आयुष्यों का प्रतिसंवेदन पडिसंवेदेइ, तं जहा—इहभवियाउयं च, प्रतिसंवेदयति, तद् यथा-इहभविकायुष्कं करता है, जैसे-इस भव के आयुष्य का और परभव परभवियाउयं च। च परभविकायुष्कं च। के आयुष्य का। जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ, तं समयं यं समयम् इहभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति, जिस समय जीव इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन परभवियाउयं पडिसंवेदे। तं समयं परभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति। करता है, उसी समय वह परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। जं समय परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, तं समयं य समय परभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति, तं जिस समय वह परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ। समयम् इहभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति। करता है, उसी समय वह इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। इहभवियाउयस्स पडिसंवेदणयाए परभवि- इहभविकायुष्कस्य प्रतिसंवेदनायां परभवि- इसभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करने से वह परभव याउयं पडिसंवेदेइ। कायुष्कं प्रतिसंवेदयति। के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। परभवियाउयस्स पडिसंवेदणयाए इहभवि- परभविकायुष्कस्य प्रतिसंवेदनायाम् इह- पर भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करने से वह इस याउयं पडिसंवेदेइ। भविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति। भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउ- एवं खलु एक: जीव: एकेन समयेन द्वे इस प्रकार एक जीव एक समय में दो आयुष्यों का याई पडिसंवेदेइ, तं जहा- इहभवियाउयं आयुषी प्रतिसंवेदयति, तद् यथा-इह- प्रतिसंवेदन करता है, जैसे—इस भव के आयुष्य का च, परभवियाउयं च ।। भविकायुष्कं च परभविकायुष्कं च। और परभव के आयुष्य का। Jain Education Intemational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.३: सू.५७-५८ १४४ भगवई ५८. से कहमेयं भंते ! एवं? तत्कथमेतद् भदन्त! एवम्? ५८. भन्ते! यह इस प्रकार कैसे है? गोयमा ! जण्णं तं अण्णउत्थिया तं चेव गौतम ! यत्तद् अन्ययूथिका: तच्चैव यावत् गौतम ! अन्ययूथिक जो कहते हैं यावत् एक जीव जाव परभवियाउयं चा जे ते एवमाहंसु तं परभविकायुष्कं चा येते एवमाहुः तन्मिथ्या, एक समय में दो आयुष्यों का प्रतिसंवेदन करता मिच्छा, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि अहं पुनर्गौतम ! एवमाख्यामि भाषे प्रज्ञा- है, जैसे—इस भव के आयुष्य का और परभव के भासामि पण्णवेमि परूवेमि–से जहा- पयामि प्ररूपयामि तद् यथानाम जाल- आयुष्य का। जो ऐसा कहते हैं, वह मिथ्या है। नामए जालगंठिया सिया आणुपुब्विगढिया ग्रन्थिका स्याद्-आनुपूर्वीग्रथिता अनन्तर- गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन अणंतरगढिया परंपरगढिया अण्णमण्ण- ग्रथिता परम्परग्रथिता अन्योन्यग्रथिता और प्ररूपण करता हूँ-जैसे कोई जालग्रन्थिका गढिया, अण्णमण्णगरुयत्ताए अण्णमण्ण- अन्योन्यगुरुकतया अन्योन्यभारिकतया है। उस जाल में क्रमपूर्वक गांठे दी हुई हैं, एक के भारियत्ताए अण्णमण्णगरुय-संभारियत्ताए अन्योन्यगुरुकसंभारिकतया अन्योन्यघट- बाद एक किसी अन्तर के बिना परम्पर ग्रन्थियों अण्णमण्णघडताए चिट्ठति, एवामेव एग- तया तिष्ठति, एवमेव एकैकस्य जीवस्य के साथ गूंथी हुई हैं। सब ग्रन्थियां परस्पर एकमेगस्स जीवस्स बहूहिं आजातिसहस्सेहिं बहुभिः आजातिसहस्रः बहूनि आयुष्क- दूसरी से गूंथी हुई हैं। वैसा जाल परस्पर विस्तीर्ण, बहूई आउयसहस्साई आणुपुब्विगढियाइं सहस्राणि आनुपूर्वीग्रथितानि यावत् तिष्ठन्ति। परस्पर भारी, परस्पर विस्तीर्ण और भारी होने के जाव चिट्ठति। कारण परस्पर समुदाय रचना के रूप में अवस्थित है। इसी प्रकार एक-एक जीव के अनेक हजार जन्मों के अनेक हजार आयुष्य क्रम से गूंथे हुए यावत् समुदाय-रचना के रूप में अवस्थित हैं। एगे वियणं जीवे एगेणं समएणं एगआउयं एकोऽपिच जीव: एकेन समयेन एकम् आयुष्कं । एक जीव एक समय में एक आयुष्य का प्रतिसंवेदन पडिसंवेदेइ, तं जहा--इहभवियाउयं वा, प्रतिसंवेदयति, तद् यथा—इहभविकायुष्कं करता है, जैसे—इस भव के आयुष्य का अथवा परभवियाउयं वा। वा, परभविकायुष्कं वा। परभव के आयुष्य का। जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ, नो तं यं समयम् इहभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति, नो जिस समय वह इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ। तं समयं परभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति। करता है, उस समय परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता। जं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, नो तं यं समयम् परभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति, नो जिस समय वह परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ। तं समयम् इहभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति। करता है, उस समय इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता। इहभवियाउयस्स पडिसंवेदणाए, नो इहभविकायुष्कस्य प्रतिसंवेदनायां, नो पर- इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करने से वह परभवियाउयं पडिसंवेदेइ। भविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति। परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता। परभवियाउयस्स पडिसंवेदणाए, नो इह- परभविकायुष्कस्य प्रतिसंवेदनायां, नो इह- परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करने से वह इस भवियाउयं पडिसंवेदेइ। भविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति। भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता। एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं एवं खलु एको जीव: एकेन समयेन एकम् । इस प्रकार एक जीव एक समय में एक आयुष्य का आउयं पडिसंवेदेइ, तं जहा---इह- आयुष्कं प्रतिसंवेदयति, तद् यथा—इह- प्रतिसंवेदन करता है—इस लभव के आयुष्य का भवियाउयं वा, परभवियाउयं वा। भविकायुष्कं वा, परभविकायुष्कं वा। अथवा परभव के आयुष्य का। भाष्य १. सूत्र ५७, ५८ जैन दर्शन के अनुसार आठ कर्मों में एक कर्म का नाम आयुष्य प्रस्तुत आगम के प्रथम शतक (१/४२०-४२१) में एक साथ कम हा महाष पतञ्जालन कमाशय क तान विपाक बतलाए है—जाति, दो आयुष्य के बंध का और प्रस्तुत सूत्र में एक साथ दो आयुष्य के वेदनका . आयु और भोगा' सिद्धान्त प्रतिपादित है। आगम-युग में कर्म-सिद्धान्त बहुचर्चित विषय था। एक आयुष्य-काल में अनेक आयुष्यों का विपाकया वेदन होता आयु का सम्बन्ध कर्म के साथ है। है। यह आयुष्य-सम्बन्धी एक सिद्धान्त है। इसका हेतु है—जीवों के हजारों १. पा.यो.द. २/१३ –सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:। Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १४५ श.५ : उ.३ : सू.५७-६१ आयुष्य मत्स्य-जाल की गांठों की भांति परस्पर गूंथे हुए रहते हैं। इसलिए हो सकता है। एक जन्म में अनेक आयुष्यों का वेदन होता रहता है। व्यास-भाष्य में भी इस महावीर के अनुसार जाल-ग्रन्थिका एक शृंखला (सांकल) है। विषय की चर्चा है। भाष्य के अनुसार कर्माशय एकभविक–एक जन्म से उसकी सारी कड़ियां परस्पर प्रतिबद्ध हैं, वैसे ही आयुष्यों की एक श्रृंखला है। सम्बन्धित होता है। प्रस्तुत भाष्य में मत्स्य-जाल-ग्रन्थि का दृष्टान्त भी प्रत्येक जीव के वर्तमान आयुष्य से पूर्ववर्ती हजारों आयुष्य अतीत हो चुके मिलता है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि भगवती के पूर्व पक्ष । हैं। वर्तमान जन्म केवल वर्तमान आयुष्य से ही सम्पादित होता है। फलस्वरूप के रूप में योगदर्शन-सम्मत सिद्धान्त रहा है। एक जन्म में एक ही आयुष्य का प्रतिसंवेदन होता है।" भगवान् महावीर ने एक जन्म में दो आयुष्यों के प्रतिसंवेदन के सिद्धान्त को अमान्य किया। उनका सिद्धान्त है कि एक जन्म में एक आयुष्य शब्द-विमर्श का ही प्रतिसंवेदन होता है। यदि सब जीवों के सब आयुष्यों का संवेदन जालग्रन्थिका-जालिका, जाल। एक साथ हो तो एक जन्म में अनेक जन्मों के संवेदन का प्रसंग आ घटतया, घडत्ताए-घटा-समुदाय-रचना, घटतयाजाएगा। उन्होंने जालग्रन्थिका के दृष्टान्त की व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। समुदाय-रचना के रूप में। पूर्वपक्ष के अनुसार जैसे जाल की एक ग्रन्थि दूसरी ग्रन्थि से और दूसरी आजाति-जन्म। ग्रन्थि तीसरी ग्रन्थि से-इस प्रकार सब ग्रन्थियां परस्पर गूंथी हुई होती हैं, इहभविकायुष्क-वर्तमान जन्म की आयु । वैसे ही अनेक जीवों के अनेक जन्मों के साथ सम्बन्ध रखने वाले अनेक परभविकायुष्क-वर्तमान भव में निबद्ध परभवप्रायोग्य आयु, आयुष्य परस्पर गूंथे हुए हैं। फलस्वरूप एक जन्म में दो आयुष्यों का संवदेन जिसका वेदन परभव में किया जायेगा। साउयसंक्रमण-पदं ५९. जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उव वज्जित्तए, सेणं भंते ! किं साउए संकमइ? निराउए संकमइ? गोयमा ! साउए संकमइ, नो निराउए संकमइ॥ सायुष्कसंक्रमण-पदम् सायुष्यसंक्रमण-पद जीव: भदन्त ! यो भव्यो नैरयिकेषु उपपत्तुं, ५९. भंते! जो जीव नैरयिकों में उपपन होने वाला है, स भदन्त ! किं सायुष्क: संक्रामति? निरा- भन्ते! वह वहाँ आयुष्य-सहित संक्रमण करता है? युष्क: संक्रामति? आयुष्य-रहित संक्रमण करता है? गौतम ! सायुष्क : संक्रामति, नो निरायुष्कः । गौतम ! वह आयुष्य-सहित संक्रमण करता है, संक्रामति। आयुष्य-रहित संक्रमण नहीं करता। ६०.से णं भंते! आउए कहिं कडे? कहिं समा इण्णे? गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे॥ तद् भदन्त ! आयुष्कं कुत्र कृतम्? कुत्र समा- ६०. भंते ! उसने आयुष्य किस जन्म में अर्जित किया चीर्णम्? और किस जन्म में समाचीर्ण किया? गौतम ! पूर्वस्मिन् भवे कृतम् , पूर्वस्मिन् भवे गौतम ! पूर्व जन्म में अर्जित किया और पूर्व जन्म में समाचीर्णम्। समाचीर्ण किया। ६१. एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ। एवं यावद् वैमानिकानां दण्डकः। ६१. इस प्रकार यावत् वैमानिक देवों के दण्डक तक ज्ञातव्य है। वाता १. पा.यो.द. २/१३ (व्यास-भाष्य), पृ. १५१-तस्माज्जन्म-प्रायणान्तरे कृतः पुण्यापुण्यकर्माशयप्रचयो विचित्र: प्रधानोपसर्जनभावेनावस्थित: प्रायणाभिव्यक्त एक प्रघट्टकेन मिलित्वा मरणं प्रसाध्य संमूर्छित एकमेव जन्म करोति। तच्च जन्म तेनैव कर्मणा लब्धायुष्कं भवति, तस्मित्रायुषि तेनैव कर्मणा भोगः सम्पद्यत इति। असौ कर्माशयो जन्मायुर्भोगहेतुत्वात् त्रिविपाकोऽभिधीयत इति। अत: एकभविक: कर्माशय उक्त इति।। २. पा.यो.द. २/१३ (व्यास-भाष्य), पृ. १५१-- क्लेश कर्मविपाकानुभवनिमित्ताभिस्तु वासनाभिरनादिकालसम्मूर्छितमिदं चित्तं चित्रीकृतमिव सर्वतो मत्स्यजालं ग्रन्थिभिरिवाततमित्येता अनेकभवपूर्विका वासनाः। यस्त्वयं कर्माशय एष एवैकभविक उक्त इति। ३. भ.वृ. ५/५८-सर्वजीवानां सर्वायु: संवेदनेन सर्वभवभवनप्रसङ्ग इति। ४. वही, ५/५७ एकैकस्य जीवस्य न तु बहूनां बहुधा आजातिसहस्रेषु क्रमवृत्तिष्वतीतकालिकेषु तत्कालापेक्षया सत्सु बहून्यायुःसहस्राण्यतीतानि वर्तमानभवान्तानि। अन्यभविकमन्यभविकेन प्रतिबद्धमित्येवं सर्वाणि परस्परं प्रतिबद्धानि भविन्त न पुनरेकभव एव बहूति Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५: उ. ३ सू.५९-६१ १. सूत्र ५९-६१ प्रस्तुत आलापक में आयुष्य की क्रमशृंखला का प्रतिपादन है। कोई भी संसारी जीव आयुष्य के बिना एक क्षण भी नहीं रहता। मृत्यु के पश्चात् दूसरे जन्म से पूर्व का मध्यवर्ती क्षण अन्तराल गति का क्षण होता है। उसमें औदारिक और वैक्रिय शरीर नहीं होते। इस अपेक्षा से अन्तराल गति में १. निरुपक्रम आयुष्य वाला मनुष्य २. सोपक्रम आयुष्य वाला मनुष्य ३. असंख्येय वर्ष आयुष्य वाला मनुष्य ४. असंख्येय वर्ष आयुष्य वाला पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च ७. पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय यदि निरुपक्रम-आयुष्क है। , ८. पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, यदि सोपक्रम - आयुष्क है। वर्तमान जन्म ५. संख्येय वर्ष आयुष्य वाला पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, यदि निरुपक्रम आयुष्क है। ६. संख्येय वर्ष आयुष्य वाला पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, यदि सोपक्रम - आयुष्क है। ९. नैयिक भवनपति वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक १. भ. १ / ३४२, ३४३ । २. वही, १/३४०, ३४१ , आयुष्य बन्ध के विषय में दो मतान्तर मिलते हैं १. वर्तमान आयुष्य आवलिका के असंख्यातवें भाग जितना शेष रहता है, उस समय परभव-योग्य आयुष्य का बन्ध होता है। उस २. वर्तमान आयुष्य ' एक समयन्यून मुहूर्त्त ' जितना शेष रहता है,: समय परभव- योग्य आयुष्य का बन्ध होता है। ये दोनों मतान्तर गोम्मटसार की व्याख्या में उपलब्ध हैं। वर्तमान जीवन में वर्तमान आयुष्य का वेदन होता है। उस की समाप्ति के अनन्तर प्रथम समय में ही अगले जन्म के आयुष्य का वेदन प्रारम्भ हो जाता है। आयुष्य वेदन के इस नियम के आधार पर इस सिद्धान्त की स्थापना की गई— अन्तरालगति में जीव आयुष्य सहित संक्रमण करता है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने निश्चय ३. (क) पण्ण. ६ / ११४-११६ । (ख) त.सू.भा.वृ. २/५१, पृ. २१९ । ४. जै. सि.को. भाग १, पृ. २७१ । ५. वि.भा.गा. ३१६०-३१६५ । भाष्य जहिं बोंदिच्चाओ तदेव सिद्धत्तणं च जं चेह । तस्साहणं ति तो पुव्वभावनयओ इदं सिद्धी ।। ३१६० ।। जेण उन बोंदिकाले सिद्धो चायसमए य जंगमणं । पच्चुप्पण्णनयमयं सिज्झइ गंतूण तेणे || ३१६१ ॥ अत्थीसीयज्झारोवलक्खियं मणुयलोगपरिमाण। १४६ भगवई जीव को अशरीरी भी कहा गया है। ' शरीर के बिना पौद्गलिक इन्द्रियां भी नहीं होती, इस अपेक्षा से वह अनिन्द्रिय भी होता है। वह निरायु नहीं होता, अन्तराल गति में भी आयुष्य उसके साथ रहता है। अगले जन्म का आयुष्य वर्तमान जन्म में ही निश्चित हो जाता है। आयुष्य-बन्ध का नियम यह है : अग्रिम जन्म के आयुष्य का बंध-काल वर्तमान आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है। वर्तमान आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है, अथवा नौवां भाग शेष रहता अथवा सत्ताईसवां भाग शेष रहता है। वर्तमान आयुष्य के छह मास शेष रहते हैं। वर्तमान आयुष्य के छह मास शेष रहते हैं। वर्तमान आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है। वर्तमान आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है अथवा नौवां भाग शेष रहता है अथवा सत्ताईसवां भाग शेष रहता है। वर्तमान 'आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है। वर्तमान आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है अथवा नौवां भाग शेष रहता है अथवा सत्ताईसवां भाग शेष रहता है। वर्तमान आयुष्य के छह मास शेष रहते हैं। और व्यवहार दोनों नयों से अन्तराल गति के आयुष्य की विस्तृत चर्चा की है। " सिद्धसेनगणी ने उसका निष्कर्ष संक्षेप में प्रस्तुत किया है— ऋजुगति में जन्मस्थान जाने तक पूर्व जन्म का आयुष्य होता है। वक्रगति के पहले समय में पूर्व जन्म का आयुष्य होता है, दूसरे समय में अगले जन्म का आयुष्य प्रारम्भ हो जाता है।' जाचार्य ने इसी सिद्धान्त के आधार पर यह लिखा प्रथम समय नां सिद्ध च्यार कर्मीं नां अंश खपावै रै । चौथे ठाणे प्रथम उद्देशे, बुद्धिवंत न्याय मिलावे रे || 'इहं बोंदि चइता तत्व मंतॄण सिन्झई" उत्तरझवणाणि की इस गाथा में भी उक्त सिद्धान्त का समर्थन है। लोगग्गनभोभागो सिद्धिक्खेत्तं जिणक्खायं । । ३१६२ ।। देहत्तिभागो सुसिरं तप्पूरणओ तिभागहीणो त्ति। सो जोगनिरोहे च्चिय जाओ सिद्धो वि तदवत्थो ॥ ३१६३ ॥ संहारसंभवाओ पएसमेत्तम्मि किं न संठाइ ? समत्थाभावाओ सकम्मयाओ सहावाओ ।। ३१६४ ।। सिद्धो वि देहरहिओ सपयत्ताभावओ न संहर । अपयत्तस्स किह गई. नणु भणियाऽसंगयाईहिं ।। ३१६५ ॥ ६. त. सू. २/ २९ - जुगतौ पूर्वकमेवाऽऽयुर्भवति यावदुपपातदेशं प्राप्नोति, कुटिलगतौ याबद् वक्रं तावत् पूर्वकम्, तत्परतो भविष्यज्जन्मविषयमायुरुदेति । ७. झीणी चरचा, ढाल १७, गाथा १३ । ८. उत्तर. ३६ / ५६ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १४७ श.५: उ.३: सू.६२ ६२. से नणं भंते ! जे जे भविए जोणि उव- तन्नूनं भदन्त ! यो यस्यां भव्यो यौनौ उप- ६२. भंते ! जो जीव जिस योनि में उत्पन्न होने वाला वज्जित्तए, से तमाउयं पकरेइ, तं जहा- पत्तुम् , स तदायुष्कं प्रकरोति, तद् यथा- है, वह उसी का आयुष्य अर्जित करता है, जैसेनेरइयाउयं वा? तिरिक्खजोणियाउयं वा? नैरयिकायुष्कं वा? तिर्यग्योनिकायुष्कं वा? नैरयिक का आयुष्य? तिर्यग्योनिक कां आयुष्य? मणुस्साउयं वा? देवाउयं वा? मनुष्यायुष्कं वा? देवायुष्कं वा? मनुष्य का आयुष्य अथवा देव का आयुष्य? हंता गोयमा ! जे जं भविए जोणि उवव- हन्त गौतम! यो यस्यां भव्यो योनौ उपपत्तुं, हां गौतम! जो जीव जिस योनि में उत्पन्न होने वाला ज्जित्तए, से तमाउयं पकरेइ, तं जहा- स तदायुष्कं प्रकरोति, तद् यथा-नैरयि- है, वह उसी का आयुष्य अर्जित करता है, जैसे----- नेरइयाउयं वा, तिरिक्खजोणियाउयं वा, कायुष्कं वा तिर्यग्योनिकायुष्कं वा, मनुष्या- नैरयिक का आयुष्य, तिर्यग्योनिक का आयुष्य, मनुष्य मणुस्साउयं वा, देवाउयं वा। युष्कं वा, देवायुष्कं वा। का आयुष्य अथवा देव का आयुष्य। नेरइयाउयं पकरेमाणे सत्तविहं पकरेइ, तं नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन् सप्तविधं प्रकरोति, नैरयिक का आयुष्य अर्जित करने वाला जीव सात जहा–रयणप्पभापुढविनेरइयाउयं वा, तद्यथा-रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकायुष्कं वा प्रकार का आयुष्य अर्जित करता है, जैसे-रत्नसक्करप्पभापुढविनेरइयाउयं वा, बालुय- शर्कराप्रभापृथिवीनैरयिकायुष्कं वा, बा- प्रभापृथ्वी नैरयिक का आयुष्य, शर्कराप्रभापृथ्वी प्पभापुढविनेरइयाउयं वा, पंकप्पभा- लुकाप्रभापृथिवीनैरयिकायुष्कं वा, पङ्क- नैरयिक का आयुष्य, बालुकाप्रभापृथ्वी नैरयिक का पुढविनेरइयाउयं वा, धूमप्पभापुढवि- प्रभापृथिवीनैरयिकायुष्कं वा, धूमप्रभा- आयुष्य, पंकप्रभापृथ्वी नैरयिक का आयुष्य, धूमनेरइयाउयं वा, तमप्पभापुढविनेरइयाउयं पृथिवीनैरयिकायुष्कं वा, तम:प्रभापृथिवी- प्रभापृथ्वी नैरयिक का आयुष्य, तम:प्रभापृथ्वी वा, अहेसत्तमापुढविनेरइयाउयं वा। नैरयिकायुष्कं वा, अध:सप्तमीपृथिवी- नैरयिक का आयुष्य अथवा अध:सप्तमीपृथ्वी नैरयिकायुष्कं वा। नैरयिक का आयुष्य। तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे पंचविहं तिर्यग्योनिकायुष्कं प्रकुर्वन् पञ्चविध प्रक- तिर्यग्योनिक आयुष्य अर्जित करने वाला जीव पांच पकरेइ, तं जहा-एगिदियतिरिक्खजोणि- रोति, तद् यथा—एकेन्द्रियतिर्यग्योनि- प्रकार का आयुष्य अर्जित करता है, जैसे-एकेयाउयं वा, बेइंदियतिरिक्खजोणियाउयं कायुष्कं वा, द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकायुष्कं वा, न्द्रियतिर्यग्योनिक आयुष्य, द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिक वा, तेइंदियतिरिक्खजोणियाउयं वा, चउ- त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिकायुष्कं वा, चतुरिन्द्रिय- आयुष्य, त्रीन्द्रियतिर्यग्योनिक आयुष्य, चतुरिन्द्रियरिदियतिरिक्खजोणियाउयं वा, पंचिं- तिर्यग्योनिकायुष्कं वा, पंचेन्द्रियतिर्यग्यो- तिर्यग्योनिक आयुष्य अथवा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक दियतिरिक्खाजोणियाउयं वा। निकायुष्कं वा। आयुष्य। मणुस्साउयं दुविहं पकरेइ, तं जहा- मनुष्यायुष्कं द्विविधं प्रकरोति, तद् यथा- मनुष्य का आयुष्य अर्जित करने वाला जीव दो प्रकार सम्मुच्छिममणुस्साउयं वा, गब्भवक्कं- ___ सम्मूर्छिममनुष्यायुष्कं वा, गर्भव्युत्क्रान्ति- का आयुष्य अर्जित करता है, जैसे—संमूर्छिम तियमणुस्साउयं वा। कमनुष्यायुष्कं वा। मनुष्य का आयुष्य अथवा गर्भावक्रान्तिक मनुष्य का आयुष्य। देवाउयं चउन्विहं पकरेइ, तं जहा- देवायुष्कं चतुर्विधं प्रकरोति, तद् यथा- देव का आयुष्य अर्जित करने वाला जीव चार प्रकार भवणवासिदेवाउयं वा, वाणमंतरदेवाउयं भवनवासिदेवायुष्कं वा, वानमन्तरदेवायुष्कं का आयुष्य अर्जित करता है, जैसे-भवनवासी वा, जोइसियदेवाउयं वा, वेमाणियदेवाउयं वा, ज्यौतिषिकदेवायुष्कं वा, वैमानिक- देव का आयुष्य, वानमन्तर देव का आयुष्य, ज्योवा॥ देवायुष्कं वा। तिष्कदेव का आयुष्य अथवा वैमानिक देव का आयुष्य। भाष्य १. सूत्र ६२ योग्यता के कारणों का उल्लेख अनेक आगमों में मिलता है। प्रस्तुत सूत्र में आयुष्य का अर्थ है-आयुष्य कर्म के पुद्गल स्कन्धों की राशि। चारों गतियों के साथ ही आयुष्य का सम्बन्ध प्रदर्शित है। गति के बिना उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। जिस गति में जाने की वर्तमान जन्म में आयुष्य का बन्ध छह सन्दर्भो के साथ होता है:२ योग्यता अर्जित होती है, उसी गति के आयुष्य का बन्ध होता है। गतियां चार १. जातिनाम निधत्त आयुष्य-पांच जातियों में से एक जाति के हैं--१. नरकगति २. तिर्यञ्चगति ३. मनुष्यगति ४. देवगति। इनमें जाने की आयुष्य का निर्धारण। १. (क) भ.८/४२५-४२८ । २. पण्ण. ६/११८-१२३॥ (ख) ठाणं, ४/६२८-६३१ । Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : उ. ३ : सू. ६२, ६३ १४८ । २. गातिनाम निघत्त आयुष्यचार गतियों में से एक गति के शरीर में से किसी एक शरीर के साथ आयुष्य का निर्धारण । आयुष्य का निर्धारण । ५. प्रदेशनाम निघत्त आयुष्य – आयुष्य के प्रदेशों, परमाणु-स्कयों अथवा द्रव्यमान का निर्धारण । ३. स्थितिनाम निधत आयुष्य आयुष्य के कालमान का निर्धारण | ४. अवगाहनानाम निधत्त आयुष्य-औदारिक अथवा वैक्रिय ६३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ १. त. सू. भा. वृ. २/५१ । भगवई ६. अनुभागनाम निघत्त आयुष्य आयुष्य की विपाक-शक्ति (अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय) का निर्धारण।' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । ६३. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद छउमत्थ-केवलीणं सद्दसवण-पदं छदमस्थ-केवलिनो: शब्दश्रवण-पदम् छद्मस्थ और केवली द्वारा शब्दश्रवण का पद ६४. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से आउडिज्ज- छद्मस्थ: भदन्त ! मनुष्य: आकुट्यमानान् ६४.'भन्ते ! क्या छद्मस्थ मनुष्य (वाद्ययंत्रों को) पीटे माणाई सद्दाई सुणेइ, तं जहा—संखसद्दाणि शब्दान् शृणोति, तद् यथा-शङ्खशब्दान् जाने पर उत्पन्न शब्दों को सुनता है, जैसे- शंखवा, सिंगसद्दाणि वा, संखियसद्दाणि वा, वा, शृङ्गशब्दान् वा, शखिकाशब्दान् वा, शब्द, सींग-शब्द, छोटे शंख का शब्द, काहला का खरमुहीसद्दाणि वा,पोयासाणिवा, पिरिपिरि- खरमुखीशब्दान् वा, 'पोया'शब्दान् वा, शब्द, बड़ी काहला का शब्द, वीणा-शब्द, पणवयासद्दाणि वा, पणवसद्दाणि वा, पडहसद्दाणि __'पिरिपिरिया'शब्दान् वा, पणवशब्दान् वा, शब्द, पटह-शब्द, भंभा-शब्द, होरंभ (बड़े ढोल) वा, भभासद्दाणि वा, होरंभसद्दाणि वा, पटहशब्दान् वा, भंभाशब्दान् वा, हो- का शब्द, भेरी-शब्द, झल्लरी-शब्द, दुन्दुभि-शब्द, भेरिसद्दाणि वा, झल्लरीसद्दाणि वा, दुंदुभि- रंभशब्दान् वा, भेरीशब्दान् वा, झल्लरी- तत (वीणा आदि वाद्यों के शब्द), वितत (पटह आदि सद्दाणि वा, तताणि वा, वितताणि वा, शब्दान् वा, दुन्दुभिशब्दान् वा, ततानि वा, के शब्द), घन (कांस्य ताल आदि के शब्द) और घणाणि वा, झुसिराणि वा? विततानि वा घनानि वा शुषिराणि वा? शुषिर' (बांसुरी आदि के शब्द )? हंता गोयमा ! छउमत्थे णं मणुस्से आउडि- हन्त गौतम ! छद्मस्थो मनुष्य: आकु- हां गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य आकुट्यमान शब्दों को ज्जमाणाई सद्दाई सुणेइ, तं जहा—संख- ट्यमानान् शब्दान् शृणोति, तद् यथा- सुनता है, जैसे—शंख-शब्द यावत् शुषिर-शब्द। सद्दाणि वा जाव झुसिराणि वा। शङ्खशब्दान् वा यावत् शुषिराणि वा। ताई भंते! किं पुट्ठाई सुणेइ? अपुट्ठाई सुणेइ? तान् भदन्त ! किं स्पृष्टान् शृणोति? अस्पृष्टान् भंते ! क्या वह उन स्पृष्ट शब्दों को सुनता है अथवा शृणोति? अस्पृष्ट शब्दों को सुनता है? गोयमा ! पुट्ठाई सुणेइ, नो अपुट्ठाई सुणे।।। गौतम ! स्पृष्टान् शृणोति, नो अस्पृष्टान् गौतम ! वह स्पृष्ट शब्दों को सुनता है, अस्पृष्ट शब्दों शृणोति। को नहीं सुनता। जाई भंते ! पुट्ठाई सुणेइ ताई किं ओगाढाई भन्ते ! वह जिन स्पृष्ट शब्दों को सुनता है, क्या उन सुणेइ? अणोगाढाई सुणेइ? अवगाढान् शृणोति? अनवगाढान् शृणोति? अवगाढ़ शब्दों को सुनता है अथवा अनवगाढ़ शब्दों को सुनता है? गोयमा ! ओगाढाई सुणेइ, नो अणोगाढाई गौतम ! अवगाढान् शृणोति, नो अनवगाढान् गौतम ! वह अवगाढ़ शब्दों को सुनता है, अनवगाढ़ सुणे।। शृणोति? शब्दों को नहीं सुनता। जाई भंते ! ओगाढाई सुणेइ ताई किं अणंत- यान् भदन्त ! अवगाढान् शृणोति तान् किम् । भन्ते ! वह जिन अवगाढ़ शब्दों को सुनता है, क्या रोगाढाई सुणेइ? परंपरोगाढाई सुणेइ? अनन्तरावगाढान् शृणोति? परम्परावगाढान् । उन अनन्तरावगाढ़ शब्दों को सुनता है अथवा शृणोति? परम्परावगाढ़ शब्दों को सुनता है? गोयमा ! अणतरोगाढाई सुणेइ, नो परंपरो- गौतम ! अनन्तरावगाढान् श्रृणोति, नो पर- गौतम ! वह अनन्तरावगाढ़ शब्दों को सुनता है, गाढाई सुणेइ। म्परावगाढान् शृणोति। परम्परावगाढ़ शब्दों को नहीं सुनता। जाई भंते ! अणंतरोगाढाई सुणेइ ताई किं यान् भदन्त ! अनन्तरावगाढान् शृणोति तान् । भन्ते ! वह जिन अनन्तरावगाढ़ शब्दों को सुनता है, अणूई सुणेइ? बादराई सुणेइ ? किम् अणून शृणोति? बादरान् शृणोति? क्या उन अणु (सूक्ष्म) शब्दों को सुनता है अथवा बादर (स्थूल) शब्दों को सुनता है? गोयमा! अणूइं पि सुणेइ, बादराई पि सुणेइ। गौतम ! अणूनपि शृणोति, बादरानपि गौतम! वह अणु शब्दों को भी सुनता है, बादर शब्दों शृणोति। को भी सुनता है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५ : उ.४: सू.६४ १५० भगवई जाईभंते ! अणूइं पिसुणेइ बादराई पिसुणेइ, यान् भदन्त ! अणूनपि शृणोति बादरानपि भन्ते! वह जिन अणुशब्दों को सुनता है और बादर ताई किं उड्ढे सुणेइ? अहे सुणेइ? तिरियं शृणोति, तान् किम् ऊर्वं शृणोति?अधः शब्दों को भी सुनता है, क्या उन ऊर्ध्व क्षेत्र में विद्यमान सुणेइ? शृणोति? तिर्यक् शृणोति? शब्दों को सुनता है, अध: क्षेत्र में विद्यमान शब्दों को सुनता है अथवा तिरछे क्षेत्र में विद्यमान शब्दों को सुनता है? गोयमा ! उड्ढं पि सुणेइ, अहे वि सुणेइ, गौतम! अर्वमपि शृणोति, अधोऽपि शृणोति, गौतम! वह ऊर्व क्षेत्र में विद्यमान शब्दों को भी सुनता तिरियं पि सुणे।। तिर्यगपि शृणोति। है, अधः क्षेत्र में विद्यमान शब्दो को भी सुनता है और तिरछे क्षेत्र में विद्यमान शब्दों को भी सुनता है। जाई भंते ! उड्ढं पि सुणेइ, अहे वि सुणेइ यान् भदन्त ! ऊर्ध्वमपि शृणोति, अधोऽपि भन्ते ! वह जिन ऊर्ध्व क्षेत्र में विद्यमान शब्दों को तिरियं पिसुणेइ, ताई किं आइंसुणेइ? मज्झे शृणोति, तिर्यगपि शृणोति, तान् किम् आदौ सुनता है, अध: और तिरछे क्षेत्र में विद्यमान शब्दों सुणेइ? पज्जवसाणे सुणेइ? शृणोति? मध्ये शृणोति? पर्यवसाने शृणोति? । को सुनता है, क्या उनके आदि भाग को सुनता है, मध्यभाग को सुनता है अथवा पर्यवसान भाग को सुनता है? गोयमा ! आई पि सुणेइ, मझे पि सुणेइ, गौतम! आदावपि शृणोति, मध्येऽपि शृणोति, गौतम ! वह उनके आदि भाग को भी सुनता है, मध्य पज्जवसाणे वि सुणे।। पर्यवसानेऽपि शृणोति। भाग को भी सुनता है और पर्यवसान भाग को भी सुनता है। जाई भंते ! आई पि सुणेइ, मज्झे विसुणेइ, यान् भदन्त ! आदावपि शृणोति, मध्येऽपि भन्ते! वह जिन शब्दों के आदि भाग को भी सुनता पज्जवसाणे वि सुणेइ, ताई किं सविसए शृणोति, पर्यवसानेऽपि शृणोति, तान् किम् है, मध्य भाग को भी सुनता है और पर्यवसान भाग सुणेइ? अविसए सुणेइ? सविषयान् शृणोति? अविषयान् शृणोति? को भी सुनता है, क्या उन अपनी इन्द्रिय के विषयभूत शब्दों को सुनता है अथवा अपनी इन्द्रिय के अविषयभूत शब्दों को सुनता है? गोयमा! सविसए सुणेइ, नो अविसए सुणेइ। गोतम ! सविषयान् शृणोति, नो अविषयान् गौतम ! वह अपनी इन्द्रिय के विषयभूत शब्दों को शृणोति। सुनता है, अपनी इन्द्रिय के अविषयभूत शब्दों को नहीं सुनता। जाइं भंते ! सविसए सुणेइ, ताई किं आणु- यान् भदन्त ! सविषयान् शृणोति, तान् किम् । भन्ते ! वह अपनी इन्द्रिय के विषयभूत जिन शब्दों पुज्विं सुणेइ? अणाणुपुव्विं सुणेइ? आनुपुर्व्या शृणोति? अनानुपूर्व्या शृणोति? को सुनता है, क्या उन्हें क्रम से सुनता है अथवा अक्रम से सुनता है? गोयमा ! आणुपुब्विं सुणेइ, नो अणाणु- गौतम ! आनुपूर्व्या शृणोति, नो अनानुपूर्व्या गौतम ! वह क्रम से सुनता है, अक्रम से नहीं सुनता। पुब्बिं सुणे।। शृणोति? जाई भंते ! आणुपुग्विं सुणेइ, ताई किं ति- यान् भदन्त ! आनुपूर्व्या शृणोति, तान् किं भन्ते ! वह जिन शब्दों को क्रम से सुनता है, क्या दिसि सुणेइ जाव छद्दिसिं सुणेइ? त्रिदिशं शृणोति यावत् षड्दिशं शृणोति? उन्हें तीन दिशाओं से सुनता है यावत् छह दिशाओं से सुनता है? गोयमा ! नियमा छद्दिसिं सुणेइ। गौतम ! नियमात् षड्दिशं शृणोति। गौतम ! वह नियमत: छह दिशाओं से सुनता है। भाष्य १. सूत्र ६४ प्रस्तुत आलापक में शब्द सुनने की प्रक्रिया बतलाई गई है। इन्द्रियों के पांच विषय हैं-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द। स्पर्शन, रसन और घ्राण ये तीन इन्द्रियां बद्ध-स्पृष्ट विषयों को ग्रहण करती हैं। चक्षु इन्द्रिय अस्पृष्ट विषय का ग्रहण करती है, श्रोत्र इन्द्रिय स्पृष्ट विषय का ग्रहण करती १. नंदी, सू. ५४ गा. ४--- है। जैन न्याय में इस आधार पर प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी की व्यवस्था की गई है। चक्षु के साथ विषय का स्पर्श नहीं होता, इसलिए वह अप्राप्यकारी है—विषय का स्पर्श किए बिना ज्ञान करने वाला है। शेष चार इन्द्रियां विषय का स्पर्श कर ज्ञान करती है, इसलिए वे प्राप्यकारी हैं। श्रोत्र-इन्द्रिय में शब्द के परमाणु-स्कन्धों का स्पर्श होता है, किन्तु उनका संवेदन नहीं होता, शेष पुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासइ अपुढे तु। गंध रसं च फासं च, बद्धपुढे वियागरे।। Jain Education Intenational For Private & Personal use only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५१ श.५ : उ.४ : सू.६४ तीनों इन्द्रियों के विषयों का स्पर्श और संवेदन दोनों होते हैं। इस आधार पर ८. आनुपूर्वी --- श्रवण-क्षेत्र में क्रम से आने वाले शब्द को सुना इन्द्रियां दो श्रेणियों में विभक्त हैं—प्रथम तीन (स्पर्शन, रसन, घ्राण) इन्द्रियां जा सकता है, अक्रम अथवा व्युत्क्रम से आने वाले शब्द को नहीं सुना जा भोगी और शेष दो (चक्षु और श्रोत्र) इन्द्रियां कामी हैं।' सकता। सुनने की प्रक्रिया के मौलिक सूत्र ये हैं छहों (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधः) दिशाओं से १. स्पृष्ट-श्रवण-क्षेत्र में आत्म-प्रदेशों के साथ स्पृष्ट शब्द को आने वाले शब्द को सुना जा सकता है। इसका हेतु यह है कि लोक में त्रस सुना जा सकता है। जीवों का एक नियत क्षेत्र है, उसे त्रसनाडी कहा जाता है। भाषक त्रस प्राणी २. अवगाढ़-आत्म-प्रदेशों के साथ एक क्षेत्र में अवस्थित होता है, उसका अस्तित्व नियमत: त्रसनाडी में मिलता है। त्रसनाडी में छहों शब्द को सुना जा सकता है। दिशाओं से पुद्गल का ग्रहण किया जा सकता है। ३. अनन्तरावगाढ-आत्म-प्रदेशों के साथ अव्यवहित रूप में शब्द-विमर्श अवस्थित शब्द को सुना जा सकता है।' ४. अणु और बादर दोनों प्रकार के शब्दों को सुना जा सकता है। काहला (खरमुही)-फौजी ढोला १९ यहाँ अणु और बादर सापेक्ष शब्द हैं। भाषा वर्गणा के पुद्गल वीणा (पिरिपिरिया)-सितार जैसा एक बाजा, जिसके दोनों चतु:स्पर्शी होते हैं, उन्हें नहीं सुना जा सकता। वक्ता के मुंह से निकलने वाले सिरों पर तुम्बे लगे रहते हैं।१२ शब्द का विस्फोट होता है। उसमें अन्य अनन्तप्रदेशी स्कन्ध मिलकर शब्द दक्षिण भारतीय संगीत के वाद्यों में तंजोरी वीणा और तम्बूरा का को अष्टस्पर्शी बना देते हैं। वे अष्टस्पर्शी शब्द श्रोत्रेन्द्रिय के विषय बनते हैं। उल्लेख मिलता है। तंजोरी वीणा दक्षिणी कर्नाटक संगीत का एक प्रमुख तत यहां अणु का अर्थ सूक्ष्म-चतुःस्पर्शी नहीं है।' मलयगिरि ने सापेक्ष दष्टि वाद्य है। इस वाद्य में दो तुम्बे होते हैं। तम्बूरा दक्षिण में आधारस्वर देने के लिए को स्पष्ट करते हए अणु का अर्थ अल्पप्रदेशोपचय वाला और बादर का अर्थ प्रयोग में लाया जाता है। उत्तर भारत के तानपूरे से यह आकार में कुछ भिन्न प्रचुरप्रदेशोपचय वाला किया है। होता है। तम्बूरा में लौकिक तुम्बे के स्थान पर लकड़ी का तुम्बा होता है। ५. अर्ववर्ती, अधोवर्ती और तिर्यग्वर्ती तीनों प्रकार के शब्द को तानपूरा को कहीं-कहीं तम्बूरा भी कहा जाता है। दो तुम्बों वाला तानपूरा सुना जा सकता है। मद्रास के संग्रहालय में है।३ तानपूरे का तुम्बा नीचे गोल और आर कुछ ६. आदि, मध्य और पर्यवसान तीनों समयों में शब्द को सुना जा चपटा होता है। इसके अन्दर पोल होती है, जिसके कारण स्वर गुंजते हैं।१४ सकता है। भाषा-द्रव्य का ग्रहणोचित-काल उत्कर्षत: अन्तर्मुहूर्त है। उसके पणव (पणव)--- भाण्डों का ढोल, छोटा ढोला५ प्रथम समय, मध्य समय और पर्यवसान समय में शब्द श्रवण का विषय बन मृदंग के समान पणव भी भरत का अति प्राचीन अवनद्ध वाद्य है। सकता है। शब्द की तरंगें होती हैं। उनका प्रवाह होता है। एक तरंग आरम्भ महर्षि भरत ने (नाट्य-शास्त्र में) मृदंग के बाद अवनद्ध वाद्यों में पणव को ही होती है और कुछ दर जा पूरी हो जाती है। फिर उसी प्रकार दसरी तरंग का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। पणव के आकार के सम्बन्ध में उन्होंने आरम्भ और अन्त होता है। शब्द की तरंगों के आदि, मध्य और पर्यवसान कहा है—सोलह अंगुल लम्बा, मध्य भाग भीतर की ओर दबा जिसका तीनों को पकड़ा जा सकता है। विस्तार आठ अंगुल तथा जिसके दोनों मुख पांच अंगुल के हों, वह पणव है। ७. स्वविषय शब्द को सुना जा सकता है। पण्णवणा में श्रोत्रेन्द्रिय आधे अंगूठे के समान मोटाई वाला काठ होता है और भीतर का खोखला का विषय जघन्यत: अंगुल काअसंख्यातवां भाग एवं उत्कर्षत: बारह योजन भाग चार अंगुल के व्यास का होता है। पणव के दोनों मुख कोमल चमड़े से बतलाया गया है। मंढ़े जाते हैं जिन्हें सूतली से कसा जाता है। सूतलियों का यह कसाव कुछ मलयगिरि नेस्वविषयकाअर्थ स्पष्ट, अवगाढऔर अनन्तरावगाढ ढीला रखा जाता था।६ किया है। किन्तु प्रथम अर्थ अधिक संगत है। १. भ. ७/१३८, १३९१ २. प्रज्ञा, वृ.प. ३६३-स्पृष्टानि-आत्मप्रदेशसंस्पृष्टानि ३. वही, प. २६३ अवगाढानि-आत्मप्रदेशैः सह एक क्षेत्रावस्थितानि। ४. वही, प. २६३–अनन्तरावगाढानि-अव्यवधानेनावस्थितानि गृह्णाति न परम्परावगाढानि, किमुक्तं भवति? येष्वात्मप्रदेशेषु यानि भाषाद्रव्याण्यवगाढानि तैरात्मप्रदेशस्तान्येव गृह्णाति न त्वेकद्विव्यात्मप्रदेशव्यवहितानि।। ५. द्रष्टव्य भ. १/१९,२० का भाष्य । ६. प्रज्ञा. वृ.५ २६३-अणून्यपि - स्तोक प्रदेशान्यपि गृह्णाति बादराण्यपि - प्रभूतप्रदेशोपचितान्यपि, इहाणुत्वबादरत्वे तेषामेव भाषायोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकबाहुल्यापेक्षया व्याख्याते। ७. वही, प. २६३–यानि भाषाद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त यावद् ग्रहणोचितानि तानि ग्रहणोचित्त- कालस्य उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्यादावपि प्रथमसमये, मध्येपि-द्वितीयादिष्वपि समयेषु, पर्यवसानेपि—पर्यवसानसमयेपि गृह्णाति। ८. पण्ण, १५/४०॥ ९. प्रज्ञा. वृ.प. २६४-स्वविषयान् स्वगोचरान् स्पृष्टावगा नन्तराबगाढाख्यान् गृह्णाति। १०. वही, प. २६४-भाषको हि नियमात् त्रसनाइयां अन्यत्र त्रसकायासम्भवात् त्रसनाइयां च व्यवस्थितस्य नियमात् षड्दिगागतपुद्गलसम्भवात्। ११. भ.वृ. ५/६४-'खरमुहि' त्ति काहला। १२. (क) भ.वृ. ५/६४–'परिपिरिय' त्ति कोलिक पुटकावनध्दमुखो वाद्यविशेषः। (ख) आ.व.प. ३८०-कोलियकपुटावनद्धा वंशादिनलिका। १३. भारतीय संगीत में वाद्यवृन्द, पृ.८३, ८४, १६३। १४. संगीत विशारद, पृ.२८४॥ १५. भ.वृ. ५/६४-'पणव' त्ति भाण्डपटहो लघुपटहो वा। १६. भारतीय संगीत में वाद्यवृन्द, पृ.७१ Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : ३.४ : सू. ६४-६७ पटह (पड ह )—ढोला भंभा (भंभा ) ढक्का ।' अथवा जयढक्का।' ढक्का का अर्थ है। होरंभ ( होरंभ ) महाढक्का।' भेरी (भेरी) नगाड़ा, डंका प्यालीनुमा मिट्टी या लकड़ी की कुण्डी को चमड़े से मढ़कर नगाड़ा बनता है। दो नुकीली लकड़ियों से नगाड़ा वादन किया जाता है। इसे नक्कारा भी कहते हैं।" एक मत के अनुसार नगाड़ा मध्यकालीन वाद्य था। जिसका आकार गोल था और वह समान आकार वाले दो चौड़े बड़े लोहे के कटोरों, करे या भैंस की खाल से मढ़े होते हैं, से बनता है। ' झल्लरी (झल्लरी) झाँझ' यह लोकवाद्य है। दो बड़े चक्राकार चपटे टुकड़े जिनके मध्य भाग में छोटा-सा गड्ढा रहता है, आपस में टकराकर बजाए जाते हैं। दक्षिण भारत में इसे 'झालरा' कहते हैं। झालरा मंजीरे के समान पीतल या धातु का बना होता है। इसका आकार गोल होता है। बीच में एक छिद्र होता है जिसमें धागा या तांत पिरोकर दोनों हाथों के सहारे बजाते हैं। एक मत के अनुसार आठ से सोलह अंगुल व्यास तक के धातु के गोल टुकड़े झाँझ कहलाते हैं। इनके मध्य में डोरी निकालकर तथा उस पर कपड़ा ६५. छउमत्थे णं भंते! मणूसे किं आरगयाई साई सुइ ? पारगयाई सद्दाई सुणेइ ? ६६. जहा णं भंते! छउमत्वे मणूसे आरगयाई साई सुइ, नो पारगयाई सद्दाई सुणेइ, तहा णं केवली कि आरगयाई सदाई सुणे? पारगयाई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! केवली णं आरगयं वा, पारगयं वा सव्वदूर - मूलमणंतियं सदं जाणइ पास ॥ ६७. से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ – केवली णं आरमयं वा, पारगयं वा सव्वदूरमूल मणतियं सदं जाणइ पास? गोयमा ! आरगयाई सद्दाई सुणेइ, नो पार- गौतम ! आरगतान् शब्दान् शृणोति, नो गाई सद्दाई सुणे || पारगतान् शब्दान् शृणोति । १५२ भगवई बांधकर हाथ से पकड़ने योग्य कर लेते हैं और फिर एक-एक हाथ में एकएक टुकड़ा पकड़कर दोनों को एक दूसरे से आघात से बजाते हैं, जिससे मनचाही झंकार निकाली जाती है। प्रायः देवी-देवताओं की स्तुति के समय झांझ-मंजीरों का वादन किया जाता है। " ७. भारतीय संगीत में वाद्यवृन्द, पृ. १६७ । ८. भ. वृ. ५ / ६४ 'झल्लरि' ति वलयाकारो वाद्यविशेषः । ९. भारतीय संगीत में वाद्यवृन्द, पृ. ८६, १६६ १. (क) भ.जो. २ / ७९/५ -पडह अर्थ ढोल विशेषानी। (ख) आप्टे. परह A kettle-drum, a wat-drum, drum, tabor. २. (क) भ. वृ. ५ / ६४ - भंभत्ति' ढक्का; छद्मस्थः भदन्त ! मुनष्यः किम् आरगतान् शब्दान् शृणोति ? पारगतान् शब्दान् शृणोति ? (ख) आप्टे ढक्का -double drum. ३. अभि. (स्वोपज्ञ टीका) ३/३७६ - भम्भा जयढक्कैव सारमस्य भम्भासारः । ४. राज. वृ. पृ. १२६, जीवा.वृ. प. २६६ - होरंभा महाढक्का। ५. बृहत् हिन्दी कोश - 'भेरी' शब्दा ६. संगीत विशारद, पृ. ४३१। १२ दुन्दुभि (दुंदुभि ) एक प्रकार का बड़ा नगाड़ा | तत ....... शुषिर वाद्य चार प्रकार के होते हैं तत वीणा आदि वाद्यों के शब्द। वितत—पटह आदि के शब्द | घनकांस्य, ताल आदि के शब्द। शुषिर - बांसुरी आदि के शब्द। १३ तत्त्वार्थराजवार्तिक एवं तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की भाष्यानुसारिणी वृत्ति में उपर्युक्त तत और वितत की व्याख्या में परस्पर विपर्यास उपलब्ध होता है। १४ इन चारों शब्दों पर विस्तृत विवेचन के लिए ठाणं २/ २१२-२१९ तथा ४ / ६३२ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं। यथा भदन्त ! छद्मस्थः मनुष्यः आरगतान् शब्दान् शृणोति, नो पारगतान् शब्दान् शृणोति तथा केवली किम् आरगतान् शब्दान् शृणोति पारगतान् शब्दान् शृणोति ? गौतम ! केवली आरगतं वा पारगतं वा, सर्वदूर मूलमनन्तिकं शब्दं जानाति पश्यति। तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - केवली आरगतं वा पारगतं वा सर्वदूर मूलमनन्तिकं शब्द जानाति पश्यति? " - ६५. 'भन्ते ! छद्मस्थ मनुष्य आरगत (इन्द्रिय-विषय की सीमा में आने वाले) शब्दों को सुनता है या पारगत (इन्द्रिय-विषय की सीमा से परवर्ती) शब्दों को सुनता है? गौतम ! वह आरगत शब्दों को सुनता है, पारगत शब्दों को नहीं सुनता। ६६. भन्ते ! जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य आरगत शब्दों को सुनता है, पारगत शब्दों को नहीं सुनता, क्या उसी प्रकार केवल आरगत शब्दों को सुनता है अथवा पारगत शब्दों को सुनता है। गीतम! केवली आरगत अथवा पारगत, अतिदूर, अतिनिकट तथा मध्यवर्ती (न आसन्न न दूर) स्थित शब्द को जानता देखता है। ६७. भन्ते । यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैकेवल आरगत अथवा पारगत, अतिदूर, अतिनिकट तथा मध्यवर्ती (न आसन्न न दूर) स्थित शब्द को जानता देखता है? १०. संगीत विशारद, पृ. ४३२ ११. आप्टे दुन्दुभि - A sort of large kettle-drum. १२. (क) भ. वृ. ५ / ६४ - - ततानि वीणादिवाद्यानि तज्जनित शब्दा अपि तताः, एवमन्यदपि पदत्रयम्, नवरमयं विशेषस्ततादीनाम् - ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम्। घनं तु कांस्यातालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ।। (ख) अभि. २ / २००, २०१– ततं वीणा प्रभृतिकं, तालप्रभृतिकं घनम् । वंशादिकन्तु शुषिरं, आनद्धं मुरजादिकम्।। १३. (क) त. रा. वा. ५ / २४| (ख) त.सू.भा.वृ. ५ / २४/ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५३ श.५: उ.४ : सू.६५-६९ है। गोयमा! केवलीणं पुरत्थिमे णं मियं पि गौतम ! केवली पौरस्त्ये मितमपि जानाति, गौतम ! केवली पूर्व में परिमित को भी जानता है, जाणइ, अमियं पि जाणइ । एवं दाहिणे णं, अमितमपि जानाति। एवं दक्षिणे, पश्चिमे, अपरिमित को भी जानता है। इसी प्रकार दक्षिण, पच्चत्थिमेणं, उत्तरे णं, उड्ढे, अहे मियं पि उत्तरे, ऊर्ध्वं, अधो मितमपि जानाति, पश्चिम, उत्तर, ऊर्व और अध: दिशाओं में परिमित जाणइ, अमियं पि जाणइ। अमितमपि जानाति।। को भी जानता है और अपरिमित को भी जानता है। सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली। सर्वं जानाति केवली, सर्वं पश्यति केवली। केवली सबको जानता है, केवली सबको देखता है। सव्वओ जाणइ केवली, सव्वओ पासइ सर्वतो जानाति केवली, सर्वतः पश्यति केवली सब ओर से जानता है, केवली सब ओर से केवली। केवली। देखता है। सव्वकालं जाणइ केवली, सव्वकालं पासइ सर्वकालं जानाति केवली, सर्वकालं पश्यति । केवली सब काल में जानता है, केवली सब काल में केवली। केवली। देखता है। सव्वभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पासइ सर्वभावान् जानाति केवली, सर्वभावान् केवली सब भावों को जानता है, केवली सब भावों केवली। पश्यति केवली। को देखता है। अणंते नाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे केव- अनन्तं ज्ञानं केवलिन:, अनन्तं दर्शनं केवली का ज्ञान अनन्त है, केवली का दर्शन अनन्त लिस्सा केवलिनः। निव्वुडे नाणे केवलिस्स, निव्वुडे दंसणे निवृतं ज्ञानं केवलिनः, निवृतं दर्शनं केव- केवली का ज्ञान निरावरण है, केवली का दर्शन केवलिस्स। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ लिनः। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-- निरावरण है। गौतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा –केवलीणं आरगयं वा, पारगयं वा सव्व- केवली आरगतं वा पारगतं वा सर्वदूर- है—केवली आरगत अथवा पारगत, अतिदूर, अतिदूर-मूलमणंतियं सद्दे जाणइ-पासइ । मूलमनन्तिकं शब्दं जानाति-पश्यति। निकट तथा मध्यवर्ती (न आसन्न न दूर) स्थित शब्द को जानता-देखता है। भाष्य १. सूत्र ६५-६७ पारगत--इन्द्रिय-विषय की सीमा से परे अवस्थित। प्रस्तुत प्रकरण में छद्मस्थ और केवली के बीच एक भेद-रेखा अति दूर, अति निकट तथा मध्यगत (न आसन्न न दूर) खींची गई है। छद्मस्थ शब्द को सुनता है और केवली शब्द को जानता है। (सव्वदूर-मूलमणंतियं)--केवली निकटवर्ती, दूरवर्ती और मध्यवर्ती सब केवली इन्द्रियों से नहीं जानता', वह आत्मा से जानता है। वह शब्द की शब्दों को जानता है। इस एक ही विषय को 'सर्वदूरमूल' और 'अनन्तिक'ध्वनि-तरंगों को साक्षात् जान लेता है, कान से सुनने की कोई अपेक्षा नहीं इन दो पदों द्वारा कहा गया है। वृत्तिकार ने सर्वदूरमूल और अनन्तिक की होती। इसी आधार पर यह स्थापना की गयी—केवली आरगत और पारगत व्याख्या दो प्रकार से की है— १. क्षेत्र की अपेक्षा से यहाँ सर्वदूर का अर्थ दोनों प्रकार के शब्दों को जानता है। छद्मस्थ शब्द को कान से सुनता है, है—अतिदूर, सर्वमूल का अर्थ है—अतिनिकट। अनन्तिक का अर्थ इसलिए वह आरगत शब्द को ही सुन सकता है, पारगत शब्द को नहीं। है-न अतिदूर, न अति निकट अर्थात् मध्यवर्ती। २. काल की अपेक्षा शब्द-विमर्श से यहाँ सर्वदूरमूल का अर्थ है—अनादि और अनन्तिक का अर्थ हैआरगत-इन्द्रिय-विषय की सीमा में आया हुआ। अनन्ता निर्वृत (निव्वुडे)- निरावरण। छउमत्थ-केवलीणं हास-पदं छद्मस्थ-केवलिनो: हास-पदम् छद्मस्थ और केवली का हास्य-पद ६८. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से हसेज्ज वा? छद्मस्थ: भदन्त ! मनुष्य: हसेद्वा? उत्सुकायेत ६८. 'भन्ते ! छद्मस्थ मनुष्य हंसता है? उत्सुक उस्सुयाएज्ज वा? वा? होता है? हंता हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा।। हन्त ! हसेवा, उत्सुकायेत वा। हां, वह हंसता है, उत्सुक होता है। ६९. जहा णं भंते ! छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज यथा भदन्त ! छद्मस्थ: मनुष्य: हसेद् वा, ६९. भन्ते ! जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य हंसता है वा, उस्सुयाएज्ज वा, तहा णं केवली वि उत्सुकायेत वा, तथा केवली अपि हसेद् वा? और उत्सुक होता है, उस प्रकार केवली भी हसेज्ज वा? उस्सुयाएज्ज वा? उत्सुकायेत वा? हंसता है? उत्सुक होता है? १. भ.५/१०८ आसन्न तनिषेधादनन्तिकम् 'नजोऽल्पार्थत्वात्' नान्त्यन्तिकम् अदूरासन्नमित्यर्थः तद्योगाच्छब्दोपि २. भ.वृ. ५/६५----'सन्चदूरमूलमणतियं' ति सर्वथा दूरं विप्रकृष्टं मूलं च निकटं सर्वदूरमूलं च नन्तिकोऽतस्तम् अथवा सव्वंति अनेन 'सव्वओ समंता' इत्युपलक्षितम्। 'दूरमूलं' ति तद्योगाच्छब्दोऽपि सर्वदूरमूलोऽतस्ताम् अत्यर्थ दूरवर्त्तिनमत्यन्तासन्नं चेत्यर्थः अन्तिकम् - अनादिकमिति हृदयम्। 'अणंतियं' ति अनन्तिकमित्यर्थः। Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : उ. ४ : सू. ६८-७९ गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे ॥ ७०. से केणणं भंते! एवं वुच्चइ — जहा णं छउमत्वे मणुस्से हसेन्ज वा उस्सुवाएन्ज वा, नो णं तहा केवली हसेन्ज वा? उस्सुधाएज्ज वा? गोयमा । जं णं जीवा चरितमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं हसंति वा, उस्सुयायंति वा । सेणं केवलिस नत्थि । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वच्चइ – जहा णं छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा, नो णं तहा केवली हसेन्ज वा उस्सुदाएन्ज वा ॥ ७१. जीवे णं भंते ! हसमाणे वा, उस्सुयमाणे वा कई कम्मपगडीओ बंध? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा । एवं जाव वेमाणिए । पोहत्तएहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो ॥ १५४ गौतम ! नायमर्थः समर्थः । ....... तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते— यथा छद्मस्थः मनुष्यः हसेद् वा, उत्सुकायेत वा, नो तथा केवली हसेद् वा उत्सुकायेत वा? गौतम ! यज्जीवाश्चरित्रमोहनीयस्य कर्मणः उदयेन सन्ति वा उत्सुकायन्ते वा । तत्केवलिनो नास्ति। तत्तेनार्थेन गौतम । एवमुच्य ते — यथा छद्मस्थो मनुष्यो हसेद् वा, उत्सुकायेत वा, नो तथा केवली हसेद् वा, उत्सुकता १. सूत्र ६८-७१ चारित्र - मोहनीय की प्रकृतियों के दो वर्ग हैं— कषाय और नोकषाया नोकषाय का अर्थ है, ईषत् कषाय अथवा सहायक कषाय। नोकषाय का पहला प्रकार है— हास्या सिद्धसेनगणी ने हास्य के उत्प्रासन आदि अनेक प्रकार बतलाए - जीव: भदन्त ! हसन् वा, उत्सुकायमानो वा कति कर्मप्रकृतीर्बध्नाति ? गौतम ! सप्तविधबन्धको वा, अष्टविधबन्धको वा । एवं यावद् वैमानिकः । पृथक्त्वै जीवकेन्द्रियवर्जस्त्रिभंगः। तत्वार्धवार्तिक में भी उनका निर्देश है।' औत्सुक्य [रतिवेदनीय का एक प्रकार है। ' उत्तरज्झयणाणि का एक वक्तव्य है कि सुख का त्याग करने से अनुत्सुकता उत्पन्न होती है। उससे चारित्र मोह का क्षय होता है । " २. वह सात प्रकार की बंध करता है । भाष्य १. त.सू.भा.वृ. ६/१५ उत्प्रासनदीनाभिलाषिता कन्दर्पो पहासनबहुप्रलापहासशीलता हास्यवेदनीयस्याश्रवः । २. त. रा. वा. ६ / १४। भगवई गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ७०. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैजिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य हंसता है और उत्सुक होता है, उस प्रकार केवली न हंसता है और न उत्सुक होता है? गौतम ! जीव चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से हंसते हैं और उत्सुक होते हैं। वह केवली के नहीं होता। गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है— जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य हंसता और उत्सुक होता है, उस प्रकार केवली न हंसता है और न उत्सुक होता है। ७१. भन्ते ! जीव हंसता हुआ और उत्सुक होता हुआ कितनी कर्म - प्रकृतियों का बंध करता है। गौतम ! वह सात प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बन्धन करता है अथवा आठ प्रकार की कर्मप्रकृतियों का बन्धन करता है।' इस प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक यही वक्तव्यता है । पृथक्त्व सूत्रों (बहु-वचनान्तसूत्रों) में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर सर्वत्र तीन विकल्प होते हैं—सब जीव सात प्रकार की कर्म प्रकृतियों का बन्धन करते हैं। शेष सब जीव सात प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बन्धन करते हैं तथा एक जीव आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों का बन्धन करता है। कुछ जीव सात प्रकार की कर्म - प्रकृतियों का बन्धन करते हैं और कुछ जीव आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों का बन्धन करते हैं। बहुवचनान्त जीव और एकेन्द्रिय जीवों का केवल एक ही भंग होता है। वे सब सात प्रकार की और आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों का बन्धन करते हैं। सत्तविहबन्धए वा अट्ठविहबंधए वा कर्मबन्ध के ये दो विकल्प हैं। आयुष्य-कर्म का बन्ध जीवन में एक बार ही होता है, इसलिए सामान्यतः सप्तविध बन्धन यह विकल्प बनता है। आयुष्य-बन्ध के समय अष्टविध बन्धन का विकल्प बनता है। ३. पृथक्त्व सूत्रों पृथक्त्व सूत्र का अर्थ है बहुवचन वाला सूत्र । बहुवचनान्त सूत्रों में जीव पद और एकेन्द्रिय-पद (पृथ्वी, जल, अनि, वायु और वनस्पति के पांच दंडकों) को छोड़कर शेष उन्नीस दण्डकों में तीन भंग होते हैं। जीव पद और - ३. त. सू. भा. वृ. ६ / १५ – विचित्रपरिक्रीडनपरचित्तावर्जन बहुविधरमणपीडाभावदेशाद्यौत्सुक्यप्रीतीसञ्जननादीनि रतिवेदनीयस्य । ४. उत्तर. २९/३० | Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.५: उ.४: सू.६८-७५ पृथ्विी आदि पदों में जीव बहुत होते हैं, इसलिए उनमें एक ही भंग उपलब्ध होता है—अनेक सप्त-विधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक तीन भंग की योजना इस प्रकार है १. सब सप्तविधबन्धक २. अनेक सप्तविधबन्धक और एक अष्टविधबन्धक ३. अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक। पृथ्विी आदि एकेन्द्रिय जीवों में हास्य और औत्सुक्य का अस्तित्व होता है। वृत्तिकार के अनुसार ये पूर्वजन्म के परिणाम हैं। एकेन्द्रिय जीवों के वर्तमान जीवन में भी हास्य और औत्सुक्य अव्यक्त रूप में उपलब्ध हो सकते हैं। छउमत्थ-केवलीणं निद्दा-पदं ७२. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से निहाएज वा? पयलाएज वा? हंता निदाएज वा, पयलाएज वा ।। छद्मस्थ-केवलिनो: निद्रा-पदम् छद्मस्थ: भदन्त ! मनुष्य: निद्रायेत वा? प्रचलायेत वा ? हन्त ! निद्रायेत वा, प्रचलायेत वा॥ छद्मस्थ और केवली की निद्रा का पद ७२. 'भन्ते! क्या छद्मस्थ मनुष्य नींद लेता है? प्रचला लेता है? हां, वह नींद लेता है, प्रचला लेता है। ७३. जहाणं भंते ! छउमत्थे मणुस्से निदाएज्ज यथा भदन्त ! छद्मस्थ: मनुष्य: निद्रायेत वा, ७३. भंते ! जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य नींद लेता है, वा, पयलाएज्ज वा, तहा णं केवली वि प्रचलायेत वा, तथा केवली अपि निद्रायेत प्रचला लेता है, उस प्रकार क्या केवली भी नींद और निद्दाएज्ज वा, पयलाएज्जा वा? वा? प्रचलायेत वा? प्रचला लेता है? गोयमा ! णो इणढे समढे॥ गौतम ! नायमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। लेता? ७४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ–जहाणं तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते——यथा ७४. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जिस छउमत्थे मणुस्से निहाएज्ज वा, पयलाएज्ज छद्मस्थ: मनुष्य: निद्रायेत वा, प्रचलायेत प्रकार छद्मस्थ मनुष्य नींद लेता है, प्रचला लेता है, वा, नो णं तहा केवली निदाएज्ज वा? वा, नो तथा केवली निद्रायेत वा प्रचलायेत उस प्रकार केवली नींद नहीं लेता और प्रचला नहीं पयलाएज्ज वा? वा? गोयमा ! जंणं जीवा दरिसणावरणिज्जस्स गौतम ! यज्जीवा दर्शनावरणीयस्य कर्मणः गौतम ! जीव दर्शनावरणीय कर्म के उदय से नींद कम्मस्स उदएणं निद्दायंति वा, पयलायति उदयेन निद्रायन्ते वा, प्रचलायन्ते वा। तत् लेते हैं, प्रचला लेते हैं। वह (दर्शनावरणीय कर्म) वा। से णं केवलिस्स नत्थिा से तेणटेणं केवलिनो नास्ति। तत्तेनार्थेन गौतम ! एव- केवली के नहीं होता। गौतम ! इस अपेक्षा से यह गोयमा ! एवं वुच्चइ-जहा णं छउमत्थे मुच्यते—यथा छद्मस्थ: मनुष्य: निद्रायेत कहा जा रहा है-जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य नींद मणुस्से निदाएज्जवा, पयलाएज्ज वा, नोणं वा, प्रचलायेत वा, नो तथा केवली निद्रायेत लेता है, प्रचला लेता है, उस प्रकार केवली नींद तहा केवली निदाएज्ज वा, पयलाएज वा। वा, प्रचलायेत वा। नहीं लेता, प्रचला नहीं लेता। ७५. जीवे णं भंते ! निद्दायमाणे वा, पयलाय- जीवो भदन्त ! निद्रायमाणो वा प्रचलायमानो ७५. भन्ते ! जीव नींद लेता हुआ, प्रचला लेता हुआ माणे वा कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ? वा कति कर्मप्रकृतीर्बध्नाति? | कितनी कर्म-प्रकृतियों का बन्धन करता है? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए गौतम ! सप्तविधबन्धको वा अष्टविध- गौतम! वह सात प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बन्धन वा। एवं जाव वेमाणिए। पोहत्तिएसु जीवेगि- बन्धको वा । एवं यावद् वैमानिक:। पृथक्त्वेषु करता है अथवा आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों का दियवज्जो तियभंगो॥ जीवैकेन्द्रियवर्जस्त्रिभंगः। बन्धन करता है। इस प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक ज्ञातव्य है। पृथक्त्व सूत्रों (बहुवचनान्त सूत्रों) में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर सर्वत्र तीन विकल्प (सू.७१ की तरह) होते हैं। भाष्य १. सूत्र.७२-७५ प्रस्तुत आलापक में नींद के आधार पर छद्मस्थ और केवली के बीच भेदरेखा खींची गई है। कर्मशास्त्रीय विवेचना के अनुसार नींद का कारण दर्शनावरणीय कर्म का उदय है। चरक के अनुसार जब मन क्लान्त १.भ.वृ. ५/७१-पृथिव्यादीनां हास: प्राग्भविक तत्परिणामादवसेय इति। २. चरक, सूत्रस्थान, २१/३५ (निष्क्रिय) और इन्द्रियां क्रिया-रहित होकर अपने-अपने विषयों से निवृत्त हो जाती है उस समय मनुष्य सोता है। दर्शनावरणीय कर्म का काम है चक्षु आदि इन्द्रिय-दर्शनों को आवृत्त करना। उनके आवृत्त होने पर नींद की स्थिति बनती है। निद्रा-विषयक कर्मशास्त्रीय सिद्धान्त और चरक के सिद्धान्त में यदा तु मनसि क्लान्ते कर्मात्मान: क्लमान्विताः। विषयेभ्यो निवर्तन्ते तदा स्वपिति मानवः।। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.४: सू.७२-७७ १५६ भगवई सामञ्जस्य देखा जा सकता है। कारण भी व्यक्ति द्वारा सपने में देखी चीज का अनुसरण करना होता है पूरे निद्रा-समय को निद्रा-चक्रों में विभक्त किया जा सकता है। लेकिन मांसपेशियों की अति शिथिलता के कारण व्यक्ति स्वयं गति एक व्यक्ति का निद्रा-चक्र लगभग ९० मिनट में पूरा होता है। (८ घंटे नहीं कर पाता है। यह गहरी नींद वाली अवस्था है। इस नींद का स्मरणसोने पर ऐसे ५ चक्र होंगे) एक निद्रा-चक्र दो भागों में पूरा होता है। शक्ति की चकबंदी (कोन्सोलिडेशन) करने में महत्त्व माना जाता है। इसका ७०-८० प्रतिशत प्रथम भाग यानी लगभग ७० मिनट 'नोन एनआरईएम अवस्था में देखे गए सपने सामान्यत: याद नहीं रहते हैं, रैपिड आई मूवमेंट' में तथा लगभग २०-२५ प्रतिशत रहा शेष समय बल्कि आरईएम नींद में देखे गए सपने सामान्यत: याद रहते हैं। यानी लगभग २० मिनट 'रैपिड आई मूवमेंट' नींद में व्यतीत होता है। निद्रा उत्पत्ति की क्रियाविधि के बारे में कई मान्यताएं हैं। 'नोन रैपिड आई मूवमेंट' (एनआरईएम) नींद विश्राम की अवस्था मस्तिष्क के जालीनुमा उन्नति तंत्र (रेटिकुलर एक्टीविटी सिस्टम) की होती है जिसे चार अवस्थाओं में विभक्त किया जा सकता है। (१) चपलता की कार्य-क्रिया के कारण व्यक्ति जागरण अवस्था में रहता है। झपकी आने वाली अवस्था (२) असंदिग्ध स्पष्ट नींद (३) व (४) जब इस तंत्र की चपलता में कोई बाधा होती है तो नींद की अवस्था आ गहरी नींद की अवस्था होती है। रैपिड आई मूवमेंट' (आरईएम) नींद जाती है। साथ ही मस्तिष्क के कुछ हिस्सों के तंत्रिकातंतु जो कि को असत्यभासी या विरोधाभासी नींद भी कहते हैं क्योंकि इसमें 'सिरोटोनीन' नामक पदार्थ मुक्त करते हैं, के उत्तेजित होने पर नींद मस्तिष्क की अति सक्रियता व अति चपलता के बावजूद भी व्यक्ति आती है। आरईएम नींद का कारण मस्तिष्क के पोंस भाग में स्थित नींद की अवस्था में रहता है। इसमें आंखें तेजी से गति करती है। 'लोकस सेरूलियस' तथा इनके 'नारएड्रिनर्जिक' तंत्रिकातंतुओं के सामान्यत: इसी अवस्था में सपने देखे जाते हैं। आंखों की गति का उत्तेजित होने को माना जाता है। गब्भसाहरण-पदं गर्भसंहरण-पदम् गर्भ-संहरण-पद ७६. से नूणं भंते ! हरि-नेगमेसी सक्कदूए तन्नूनं भदन्त ! हरि-नैगमेषी शक्रदूत: स्त्रीगर्भ ७६. 'भन्ते ! शक्र का दूत हरि-नैगमैषी देव स्त्री के इत्थीगभं संहरमाणे किं गब्भाओ गब्भं संहरन् किं गर्भाद् गर्भ संहरति? गर्भाद् योनिं शरीर में से गर्भ का संहरण करता हुआ क्या गर्भ से साहरइ? गम्भाओ जोणिं साहरइ? जोणीओ संहरति? योनितो गर्भ संहरति? योनितः गर्भ में संहरण करता है? गर्भ से योनि में संहरण करता गन्भं साहरइ? जोणीओ जोणिं साहरइ? योनिं संहरति? है? योनि से गर्भ में संहरण करता है? योनि से योनि में संहरण करता है? गोयमा ! नो गब्भाओ गब्भं साहरइ, नो गौतम ! नो गर्भाद् गर्भ संहरति, नो गर्भाद् गौतम ! गर्भ से गर्भ में संहरण नहीं करता, गर्भ से गब्भाओ जोणिं साहरइ, नो जोणीओ जोणिं योनि संहरति, नो योनित: योनिं संहरति, योनि में संहरण नहीं करता, योनि से योनि में संहरण साहरइ, परामुसिय-परामुसिय अव्वाबाहेणं परामृश्य-परामृश्य अव्याबाधेन अव्याबाधं नहीं करता, किन्तु वह हाथ से स्पर्श कर-कर अव्वाबाहं जोणीओ गन्भं साहरहा। योनित: गर्भ संहरति। सुखपूर्वक योनि से गर्भ में संहरण करता है। ७७. पभूणं भंते ! हरि-नेगमेसी सक्कदूए इत्थी- प्रभु: भदन्त! हरि-नैगमेषी शक्रदूत: स्त्रीगर्भ गभं नहसिरंसि वा, रोमकूवंसि वा साहरित्तए नखशिरसो वा, रोमकूपाद् वा संहर्तुं वा वा? नीहरित्तए वा? निर्हर्तुं वा? हंता पभू, नो चेव णं तस्स गब्भस्स किंचि हन्त प्रभुः, नो चैव तस्य गर्भस्य किञ्चिद् आबाहं वा विबाह वा उप्पाएज्जा, छविच्छेदं आबाधां वा विबाधां वा उत्पादयेत्, छपुण करेज्जा। एसुहुमं च णं साहरेज्ज वा, विच्छेदं पुनः कुर्यात्। इयत्सूक्ष्मं च संहरेद् नीहरेज्ज वा॥ वा, नीहरेद् वा। ७७. भन्ते ! शक्र का दूत हरि-नैगमेषी देव स्त्री के गर्भ कानखके अग्रभागअथवा रोमकूपसे संहरण अथवा निर्हरण करने में समर्थ है? हां, समर्थ है। ऐसा करते समय वह गर्भ को किञ्चिद् भी आबाधा अथवा विबाधा उत्पन्न नहीं करता और न उसका छविच्छेद करता। वह इतनी सूक्ष्मता (निपूणता) के साथ उसका संहरण अथवा निर्हरण करता है। भाष्य १. सूत्र ७६,७७ प्रस्तुत आलापक में गर्भ-संहरण का उल्लेख है। अंतगडदसाओ के अनुसार सुलसा ने हरि-नैगमेषी की प्रतिमा बनाकर उसकी आराधना की थी। हरि-नैगमेषी ने सुलसा के मृत-पुत्रों को करतल-सम्पुट में उठाकर देवकी के पास रखा था और देवकी के पुत्रों को सुलसा के पास रखा था। इस घटना सेहरि-नैगमेषी का गर्भ और शिशु के साथ सम्बन्ध की जानकारी मिलती है। २. अंत. ३।३३-४१ । १. दैनिक भास्कर, जयपुर, ४ सितम्बर, १९९७, शुभकाम आर्य द्वारा लिखित लेख, नींद क्यों रात भर नहीं आती? Jain Education Intemational Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.५ : उ.४ : सू.७६-८० आयारचूला में महावीर के गर्भ-संहरण का उल्लेख है, किन्तु वहां हरि- शब्द-विमर्श नैगमेषी का नामोल्लेख नहीं है। पज्जोसणाकप्पो में महावीर ने गर्भ परामुसिय-संस्पर्श कर। संहरण का प्रसंग है। वहां हरि-नैगमेषी देव का उल्लेख है। अव्वावाहेणं अव्वाबाह----सुखपूर्वक। आयुर्वेद-साहित्य में मैगमेष का देव और ग्रह दोनों रूपों में उल्लेख नहसिरसिनख के अग्रभाग से। मिलता है देवताओं के 'अञ्जलि के दश नखों का उल्लेख' रायपसेणइयं में अजाननश्चलाक्षिभूः कामरूपी महायशाः। मिलता है। देवताओं के शरीर में केश का उल्लेख भी ओवाइयं तथा पण्णवणा बालं बालपिता देवो नैगमेषोऽभिरक्षतु ॥ में मिलता है। सुश्रुतसंहिता के अनुसार नैगमेष ग्रह पार्वती के द्वारा सृष्ट है। संहरण करने (साहरित्तए)-प्रवेश कराने के लिए। उसका मुख मेष के समान है। वह कुमार की रक्षा करने वाला है और कार्तिकेय निर्हरण करने (नीहरित्तए)-निकालने के लिए। देव का अभिन्न मित्र है। नैगमेष को पितृग्रह भी कहा गया है।' विबाधा (विबाह)-विशिष्ट बाधा। आयुर्वेद-साहित्य के आधार पर नैगमेष और बालक के सम्बन्ध छविच्छेद (छविच्छेदं)-अंग-भंग। को जाना जा सकता है। किन्तु नैगमेष के द्वारा गर्भके संहरण अथवा प्रत्यारोपण इतनी सूक्ष्मता के साथ (एसुहुम)—यह 'साहरेज्ज वा नीहरेज्ज वा' का क्रियाविशेषण है। इसका अर्थ है-'इतने हस्त लाघव से' अथवा 'हाथ की बात उसमें उपलब्ध नहीं है। आयुर्विज्ञान (Medical Science) के की इतनी निपुणता से। क्षेत्र में गर्भ-प्रत्यारोपण के प्रयोग चल रहे हैं। अइमुत्तग-पदं अतिमुक्तक-पदम् अतिमुक्तक-पद ७८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य ७८. 'उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अइमुत्ते नामं भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी अतिमुक्तो ___का अन्तेवासी अतिमुक्त नाम का कुमार श्रमण प्रकृति कुमार-समणे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइ- नाम कुमार-श्रमण: प्रकृतिभद्रकः प्रकृत्यु- से भद्र, प्रकृति से उपशान्त था। उसकी प्रकृति में पयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने पशान्तः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभ: क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु (पतले) थे। वह अल्लीणे विणीए॥ मृदुमार्दवसम्पन्न: आलीन: विनीतः। मृदुभाव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था। ७९. तएणं से अइमुत्ते कुमार-समणे अण्णया तत: स अतिमुक्त: कुमार-श्रमण: अन्यदा ७९. किसी समय बहुत तेज वर्षा हो रही थी। उस समय कयाइ महावुट्ठिकार्यसि निवयमाणंसि क- कदाचिद् महावृष्टिकाये निपतति कक्षा- कुमार श्रमण अतिमुक्त कांख में पात्र और रजोहरण क्खपडिग्गह-रयहरणमायाए बहिया संपट्ठिए प्रतिग्रह-रजोहरणमादाय बहि: संप्रस्थितो लेकर बहिर्भूमि जाने के लिए प्रस्थान करता है। विहाराए॥ विहाराय। ८०. तए णं से अइमुत्ते कुमार-समणे वाहयं ततः स अतिमुक्त: कुमार-श्रमण: वाहक वहमाणं पासइ, पासित्ता मट्टियाए पालिं वहमानं पश्यति, दृष्टवा मृत्तिकया पालि बंधइ, बंधित्ता ‘णाविया मे, णाविया मे' बध्नाति, बद्ध्वा नौका मम, नौका मम', नाविओ विव णावमयं पडिग्गहगं उदगंसि नाविक इव नौमयं प्रतिग्रहं उदके प्रवाहयन्- पन्वाहमाणे-पन्वाहमाणे अभिरम। तं च प्रवाहयन् अभिरमते। तं च स्थविरा: अद्राक्षुः। थेरा अद्दक्खु। जेणेव समणे भगवं महावीरे यत्रैव श्रमण: भगवान् महावीर: तत्रैव उपातेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं गच्छन्ति, उपागम्य एवमवादिषु: ८०. वह कुमार श्रमण अतिमुक्त बहते हुए जल-प्रवाह को देखता है, देख कर मिट्टी से पाल बांधता है। बांध कर फिर “यह मेरी नौका, यह मेरी नौका" इस विकल्प के साथ नाविक की भांति अपने नौकामय पात्र को जल में प्रवाहित करता हुआ क्रीड़ा कर रहा है। उसे क्रीड़ा करते हुए स्थविरों ने देखा। वे जहाँ श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां १. आ. चूला, १५/५६। २. पज्जो . सू. १५-१७। ३.सुश्रुत-संहिता, उत्तरतन्त्र, अध्याय ३६, श्लोक ११, पृ.६६८। उक्त श्लोक किञ्चिद् पाठ-भेद के साथ अष्टांग संग्रह में भी मिलता हैअजाननश्चलाक्षिभूः कामरूपी महायशा। बालं बालहितो देवो नैगमेषोऽभिरक्षतु ॥ (अष्टांग संग्रह, उत्तरस्थान, अध्याय ६, सूत्र २६, पृ, ६५७)। ४. सुश्रुत-संहिता, उत्तरतन्त्र, अध्याय ३७, श्लोक ६, पृ. ६६९ नैगमेस्तु पार्वत्या सृष्टो मेषाननो ग्रहः। कुमारधारी देवस्य गुहस्यात्मसमः सखा । ५.सुश्रुत-संहिता, उत्तरतन्त्र, अध्याय २७, श्लोक ५, पृ.६६० नवमो नैगमेषश्च यः पितृगृहसंज्ञितः। ६. राय सू. १०-दसणहं सिरसावत्तं । ७. (क) ओवा. ४७। (ख) पण्ण, २/३१॥ ८.भ.वृ.५/७७–संहर्तु-प्रवेशयितुम् । ९. वही, ५/७७–निर्हर्तु- निष्काशयितुम् । Jain Education Intemational Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : उ. ४ : सू. ७८-८२ वदासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अइमुत्ते नामं कुमार समणे, से णं भंते! अइमुत्ते कुमार-समणे कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सब्वदुक्खाणं अंत करेहिति ? - ८१. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वयासी – एवं खलु अज्जो ! ममं अंतेवासी अमुत्ते नामं कुमार - समणे पगइभद्दए जाव विणीए से णं अइमुत्ते कुमार-समणे इमेणं चैव भवग्गहणेणं सिज्झिहिति जाव अंत करेहिति । तं मा णं अज्जो ! तुब्भे अमुत्तं कुमार समणं हीलेह निंदह खिंसह गरहह अवमण्णह । तुब्भे पणं देवाप्पिया ! अमुत्तं कुमार-समणं अगिलाए संगिण्णहह, अगिलाए उवगिण्हह, अगिलाए भत्तेणं पाणेण विणणं वेयावडियं करेहा अमुत्ते णं कुमार समणे अंतकरे चैव, अंतिमसरीरिए चेव ॥ ८२. तए णं ते थेरा भगवंतो समणेणं भगवया महावीरेण एवं वृत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, अमुर्त कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हंति, अगिलाए उवगिण्हंत, अगिलाए भत्तेणं पाणेणं विणएणं वेयावडियं करेंति ॥ १५८ एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी अतिमुक्तः नाम कुमार श्रमण:, स भदन्त ! अतिमुक्तः कुमार श्रमणः कतिभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यति 'बुज्झिहिति' मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति ? १. सूत्र ७८-८२ २. अतिमुक्तक का जीवन-वृत्त अंतगडदसाओ में मिलता है। वहाँ पात्र को नौका बनाकर जल में तिराने की घटना का उल्लेख नहीं है। वृत्तिकार कुमार श्रमण की व्याख्या में लिखा है कि कुमार अतिमुक्तक छह वर्ष की अवस्था में प्रब्रजित हुआ था। इस घटना को उन्होंने आश्चर्यजनक माना है।' अंतगडदसाओ में दीक्षाकालीन अवस्था का उल्लेख नहीं है। कुमार ने माता-पिता के सामने दीक्षा लेने की इच्छा प्रगट की तब माता-पिता ने कहा — पुत्र ! अभी तुम बालक हो, असंबुद्ध हो, तुम धर्म को क्या जानते हो"तए णं तं अहमुतं कुमारं अम्मापियरो एवं क्यासी - आर्याः ! इति श्रमण भगवान् महावीरः तान् ८१. आर्यो ! श्रमण भगवान् महावीर ने उन स्थिविरों से स्थविरान् एवमवादीद् — एवं खलु आर्याः ! इस प्रकार कहा -आर्यो ! मेरा अन्तेवासी अतिमुक्त मम अन्तेवासी अतिमुक्तः नाम कुमार- नामक कुमार श्रमण जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत - भ्रमणः प्रकृतिभद्रकः याबद् विनीत, स है वह कुमार श्रमण अतिमुक्त इसी भव में सिद्ध होगा अतिमुक्त: कुमार- श्रमणः अनेन चैव भवयावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। आर्यों! इसलिए ग्रहणेन सेत्स्यति यावद् अन्तं करिष्यति । तुम कुमार श्रमण अतियुक्त की अवहेलना, निन्दा, तन्मा आर्या ! यूयम् अतिमुक्तं कुमार-श्रमणं तिरस्कार गर्हा और अवमानना मत करो। देवाहीलयत निन्दत खिंसत गर्हध्वम् अव- नुप्रियो ! तुम कुमार श्रमण अतिमुक्त को अग्लान मन्यध्वम् यूयम् देवानुप्रिया ! अतिमुक्तं भाव से स्वीकृत करो, अग्लान भाव से आलम्बन दो कुमार- श्रमणम् अग्लान्या संगृह्णीत, और अम्लान भाव से विनयपूर्वक भोजन पानी से अग्लान्या उपगृह्णीत, अग्लान्या भक्तेन उसकी वैयापृत्य करो। कुमार श्रमण अतिमुक्त संसार पानेन विनयेन वैवातृत्वं कुरुता अतिमुक्तः का अन्त करने वाला है और अन्तिमशरीरी है। कुमार श्रमणः अन्तकरश्चैव अन्तिमशरीरिकश्चैव । ततः ते स्थविरा: भगवन्त: श्रमणेन भगवता महावीरेण एवम् उक्ताः सन्तः श्रमण भगवन्तं महावीरं वदन्ते नमस्यन्ति, अतिमुक्तं कुमारश्रमणम् अग्लान्या संगृह्णन्ति, अग्लान्या उपगृह्णन्ति, अग्लान्या भक्तेन पानेन विनयेन वैवात्यं कुर्वन्ति । भाष्य १. अंत. ६ / १५ - २. भ. वृ. ५/७८ कुमारसमणे' त्ति षड्वर्षजातस्य तस्य प्रव्रजितत्वात् आह च- - "छव्वरिसो पव्वइओ निग्गंथं रोइऊण पावयणं" ति, एतदेव चाश्चर्यमिह अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रवज्या 9 भगवई आते हैं, आ कर इस प्रकार बोलेभन्ते! आपका अन्तेवासी अतिमुक्त नाम का कुमार श्रमण जो है । भन्ते ! वह कुमार श्रमण अतिमुक्त कितने जन्म लेकर सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिवृत्त होगा और सब दुःखों का अन्त करेगा ? स्यादिति । ३. अंत. ६/१५/९९/ बाले सिताब तुमं पुत्ता! असंबुद्धे, किं णं तुगं आणसि धम्मं ?"" अतिमुक्तक बालवय में दीक्षित हुए थे, यह असंदिग्ध है। शब्द-विमर्श ८२. श्रमण भगवान् महावीर द्वारा ऐसा कहे जाने पर वे स्थविर भगवान श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार करते हैं, कुमार श्रमण अतिमुक्त को अग्लान भाव से स्वीकार करते हैं, अग्लान भाव से आलम्बन देते हैं और अग्लान भाव से विनयपूर्वक भोजनपानी से उसकी वैयापृत्य करते हैं। अगिला — अग्लानि । संगिण्हड स्वीकार करो। उवगिण्हह — आलम्बन दो । अंतकर - जन्म-मरण का अंत करने वाला । अंतिमसरीरी चरम शरीरी इसी जन्म में मोक्ष जाने वाला। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई महासुक्कागयदेव पण्ह-पदं ८३. तेणं कालेणं तेषं समएणं महासुक्काओ कप्पाओ, महासामाणाओ विमाणाओ दो देवा महिड्ढिया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया तए णं ते देवा समणं भगवं महावीरं वदति नमंसंति, मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं पुच्छंति - ८४. कति णं भंते ! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिं ति? तए णं समणे भगवं महावीरे रोहिं वेहिं मणसा पुट्ठे तेसिं देवाणं मणसा चेव इमं एवारूवं वागरणं वागरे एवं खलु देवाप्पिया ! ममं सत्त अंतेवासीसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति । राणं ते देवा समनेषं भगवया महावीरणं मणसा पुट्ठेणं मणसा चैव इमं एयारूवं वागरणं नागरिया समाणा हतुचित मादिया गंदिया पी मणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया समणं भगवं महावीरं वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमसिता मणसा चैव सुस्सुसमाणा नम समाणा अभिमुहा विणएणं पंजलियडा पज्जुवासंति ॥ ८५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगव ओ महावीरस्स बेडे अंतेवासी इंदंभूई नाम अणगारे जाव अदूरसामंते उजाणू अहोसिरे झाणकोडोवगए संजणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर । तए णं तस्स भगवओ गोयमस्स झाणंतरियाए वमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्विए मनोगए संकष्ये समुप्प ज्जित्था — एवं खलु दो देवा महिड्ढिया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउब्भूया, तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि कयराओ कप्पाओ वा सग्गाओ वा विमाणाओ वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हव्वमागया? तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि १५९ महाशुक्रागतदेव प्रश्न-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये महाशुक्रात् तस्मिन् काले तस्मिन् समये महाशुक्रात् कल्पात् महासामानाद् विमानाद द्वौ देवी महर्द्धिकौ यावद् महानुभागौ श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं प्रादुर्भुतौ । ततः ती देवी श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्देते नमस्यतः, मनसा चैव इदम् एतद्रूपं व्याकरणं पृच्छतः कति भदन्त ! देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासिशतानि सेत्स्यन्ति यावदन्तं करिष्यन्ति ? ततः श्रमण भगवान् महावीरः ताम्यां देवाभ्यां मनसा पृष्टः तौ देवौ मनसा चैव इदम् एतद्रूपं व्याकरणं व्याकरोति एवं खलु देवानुप्रियो ! मम सप्त अन्तेवासिशतानि सेत्स्यन्ति यावदन्तं करिष्यन्ति। ततः तौ देवौ श्रमणेन भगवता महावीरण मनसा पृष्टेन मनसा चैव इदम् एतद्रूपं व्याकरणं व्याकृती सन्ती, हृष्टतुष्टचित्ती आनन्दिती नन्दितौ प्रीतिमनसौ परमसौमनस्थितौ हर्षवशविसर्पद् हृदयौ श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्देते नमस्यतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा मनसा चैव शुश्रूषमाणौ नमस्यन्तौ अभिमुखी विनयेन कृतप्राञ्जली पर्युपासते । " तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य ज्येष्टः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम अनगार: यावद अदूरसामन्तः अजानुः अधः शिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति । ततः तस्य भगवतः गौतमस्य ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थित: मनोगत: संकल्पः समुदपादि — एव खलु द्वौ देवौ महर्द्धिकी यावद् महानुभागो भ्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं प्रादुर्भूतौ, तन्नो खलु अहं तौ देवौ जानामि कतरस्मात् कल्पात् वा स्वर्गाद् वा विमानाद वा कस्य वा अर्थस्य अर्थाय इह 'हव्व' मागतौ ? तद् गच्छामि भ्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दे श. ५: उ. ४: सू. ८३-८५ महाशुक्र से समागत देवों द्वारा प्रश्न का पद ८३. उस काल और उस समय महाशुक्र कल्प के महासामान विमान से महर्द्धिक यावत् महान् सामर्थ्य वाले दो देव श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रगट हुए। वे देव श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करते हैं और मानसिक स्तर पर ही यह इस प्रकार का प्रश्न पूछते हैं. - ८४. भन्ते ! आपके कितने सौ अन्तेवासी सिद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे? उन देवों द्वारा मानसिक स्तर पर प्रश्न उपस्थित करने पर श्रमण भगवान् महावीर उन देवों को मानसिक स्तर पर ही यह इस प्रकार का उत्तर देते हैं— देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ अन्तेवासी सिद्ध होगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे। वे देव श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा मानसिक स्तर पर पूछे गए प्रश्नों का मानसिक स्तर पर ही इस प्रकार का उत्तर दिए जाने पर वे देव हृष्ट- तुष्ट चित्त वाले, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाले और परम सौमनस्य युक्त हो गए। हर्ष से उनका हृदय फूल गया। वे श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार करते हैं। वन्दन - नमस्कार कर मानसिक स्तर पर ही शुश्रुषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि हो कर पर्युपासना कर रहे हैं। ८५. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार भगवान महावीर के न अति दूर और न अति निकट, अर्ध्वजानु अधः सिर ( उकडू आसन की मुद्रा में) और ध्यानकोष्ट में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। ध्यानान्तरिका में वर्तमान उन भगवान गौतम के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ— महर्द्धिक यावत् महान् सामर्थ्यवान दो देव श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रगट हुए हैं, मैं नहीं ताकि वे देव किस कल्प, स्वर्ग अथवा विमान से किस प्रयोजन के लिए यहाँ आए हैं? इसलिए मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास जाऊं, उन्हें वन्दननमस्कार करूं यावत् पर्युपासना करूं और इन इस प्रकार के प्रश्नों को पूछूंगा, ऐसा सोच कर वे संप्रेक्षा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५ : उ.४: सू.८५-८८ १६० भगवई नमसामि जाव पज्जुवासामि, इमाइ च णं नमस्यामि यावत् पर्युपासे, इमानि च एतएयारूवाई वागरणाई पुच्छिस्सामि त्ति कटु द्रूपाणि व्याकरणानि प्रक्ष्यामि इति कृत्वा । एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता उठाए उढेइ, उठेत्ता एवं संप्रेक्षते, संपेक्ष्य उत्थया उत्तिष्ठति, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा- उत्थाय यत्रैव श्रमण: भगवान् महावीरः गच्छइ जाव पज्जुवासइ॥ तत्रैव उपागच्छति यावत् पर्युपास्ते। करते हैं, संप्रेक्षा कर उठने की मुद्रा में उठते हैं। उठ कर जहाँ श्रमण भगवान महावीर हैं, वहाँ आते हैं यावत् पर्युपासना करते हैं। ८६. गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गौतम ! अयि श्रमणो भगवान् महावीरः ८६. गौतम ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर श्रमण गोयमं एवं वयासी–से नूणं तव गोयमा! भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत्-तन्नूनं तव भगवान महावीर भगवान गौतम से इस प्रकार बोले झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे गौतम! ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य अय- -गौतम ! तुम ध्यानान्तरिका में वर्तमान थे तब अज्झत्थिए जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव मेतद्रुप: आध्यात्मिकः यावद् यत्रैव तुम्हारे यह इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत हव्वमागए, से नूणं गोयमा! अहे समढे? ममान्तिकं तत्रैव 'हव्व'मागत: तन् नूनं संकल्प उत्पन्न हुआ और तुम शीघ्र ही मेरे निकट आ गौतम ! अर्थ: समर्थ: ? गए, गौतम ! क्या यह अर्थ संगत है? हंता अत्थि। हन्त अस्ति। हां, यह संगत है। तं गच्छाहिणं गोयमा ! एए चेव देवा इमाई तद् गच्छ गौतम! एतौ चैव देवौ इमानि । गौतम ! जाओ, ये देव ही तुम्हें इन इस प्रकार के एयारूवाइं वागरणाई वागरेहिति॥ एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याक-रिष्यतः। प्रश्नों का उत्तर देंगे। ८७. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया ततो भगवान् गौतमः श्रमणेन भगवता महा- ८७. भगवान् गौतम श्रमण भगवान महावीर से अनुज्ञा महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणं भगवं वीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणं भगवन्तं प्राप्त होने पर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दनमहावीरं वंदइ नमसइ, जेणेव ते देवा तेणेव महावीरं वन्दते नमस्यति, यत्रैव तौ देवौ तत्रैव नमस्कार करते हैं, जहां वे देव हैं वहां जाने का संकल्प पहारेत्थ गमणाए॥ प्राधारयत् गमनाय। करते हैं। ८८. तए णं ते देवा भगवं गोयम एज्जमाणं ततस्तौ देवी भगवन्तं गौतमम् आयन्तं ८८. वे देव भगवान् गौतम को आते हुए देखते हैं। देख पासंति, पासित्ता हट्ठचित्तमाणंदिया णंदिया पश्यत: दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तौ आनन्दितौ कर वे हर्षित सन्तुष्ट चित्तवाले, आनन्दित, नन्दित पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविस- नन्दितौ प्रीतिमनसौ परमसौमनस्थितौ हर्ष- प्रीति-पूर्ण मन वाले, परम सौमनस्य और हर्ष से प्पमाणहियया खिप्पामेव अब्भुट्टेति, अब्भु- वशविसर्पहृदयौ क्षिप्रमेव अभ्युपगच्छतः उल्लसित हृदय होकर शीघ्रता से उठते हैं, उठ कर द्वेत्ता खिप्पामेव अब्भुवगच्छंति जेणेव भगवं यत्रैव भगवान् गौतमस्तत्रैव उपागच्छतः शीघ्रता से उनके सम्मुख आते हैं, जहाँ भगवान् गौतम गोयमे तेणेव उवागच्छंति जाव नमंसित्ता एवं यावन् नमस्यित्वा एवमवादिष्टाम्-एवं है, वहां उनके सम्मुख आते हैं, यावत् नमस्कार कर वयासी—एवं खलु भंते! अम्हे महा- खलु भदन्त ! आवां महाशुक्रात् कल्पात् इस प्रकार बोले-भते! महाशुक्र कल्प के महासामान सुक्काओ कप्पाओ महासामाणाओ विमा- महासामानाद् विमानाद् द्वौ देवौ महर्द्धिको विमान से हम दो देव जो महर्द्धिक यावत् महाप्रभावी णाओ दो देवा महिड्ढिया जाव महाणुभागा यावद् महानुभागौ श्रमणस्य भगवत: महा- हैं, श्रमण भगवान महावीर के निकट आए हैं। हम समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं वीरस्य अन्तिकं प्रादुर्भूतौ। तत: आवां श्रमणं श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार कर पाउन्भूया। तएणं अम्हे समणं भगवं महावीर भगवन्तं महावीर वन्दावहे नमस्याव:, मानसिक स्तर पर ये इस प्रकार के प्रश्न पूछते वंदामो नमसामो, वंदित्ता नमंसित्ता मणसा वन्दित्वा नमस्यित्वा मनसा चैव इमानि हैं-भन्ते ! आपके कितने सौ अन्तेवासी सिद्ध होंगे चेव इमाई एयारूवाई वागरणाई पुच्छामो- एतद्रूपाणि व्याकरणानि पृच्छावः-कति यावत् सब द:खों का अन्त करेंगे। हमारे द्वारा मानसिक कइ णं भंते ! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसयाई भदन्त ! देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासिशतानि स्तर पर पूछे गए प्रश्न का श्रमण भगवान महावीर हमें सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति? तए णं सेत्स्यन्ति यावद् अन्तं करिष्यन्ति? ततः । मानसिक स्तर पर यह इस प्रकार का उत्तर देते हैं समणे भगवं महावीरे अम्हेहिं मणसा पुढे श्रमण: भगवान् महावीर: आवाभ्यां मनसा -देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ अन्तेवासी सिद्ध होंगे अम्हं मणसाचेव इम एयारूवं वागरणं वागरेइ पृष्टः आवां मनसा चैव इदम् एतद्रूपं व्याकरणं यावत् सब दु:खों का अन्त करेंगे। हमारे द्वारा मानसिक —एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंते- व्याकरोति—एवं खलु देवानुप्रियौ ! मम स्तर पर पूछे गए प्रश्न का श्रमण भगवान महावीर वासीसयाइं जाव अंतं करेहिति। तएणं अम्हे सप्त अन्तेवासिशतानि यावदन्तं करिष्यन्ति। द्वारा मानसिक स्तर पर ही यह इस प्रकार का उत्तर समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा चेव पुढेणं तत: आवां श्रमणेन भगवता महावीरेण दिए जाने पर हम श्रमण भगवान महावीर को वन्दन Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.५ : उ.४: सू.८३-९० मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया मनसा चैव पृष्टेन मनसा चैव इदम् एतद्रूपं समाणा समणं भगवं महावीरं वंदामो व्याकरणं व्याकृतौ सन्तौ श्रमणं भगवन्तं नमंसामो जाव पज्जुवासामो त्ति कटु भगवं महावीरं वन्दावहे नमस्याव: यावत् पर्युपास्वहे गोयमं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता इति कृत्वा भगवन्तं गौतमं वन्देते नमस्यतः, जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडि- वन्दित्वा नमस्यित्वा यस्याः एव दिश: गया। प्रादुर्भूतौ तामंव दिशं प्रतिगतौ। नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करते हैं, ऐसा कह कर वे भगवान गौतम को वन्दन नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर वे जिस दिशा से आए उसी दिशा में चले गए। भाष्य १. सूत्र.८३-८८ मानसिक प्रश्न और मानसिक उत्तर—यह अतीन्द्रिय ज्ञान की क्रिया के रूप में होता है। मस्तिष्क के ज्ञानतंतु भी इसी ज्ञानात्मक क्रिया को विशेष प्रक्रिया है। कोई भी व्यक्ति मानसिक स्तर पर प्रश्न पूछ सकता है और सम्पादित करते हैं। क्रियावाही तन्त्रिकाएं मांसपेशियों के संचलन के माध्यम कोई भी व्यक्ति मानसिक स्तर पर उत्तर दे सकता है। इसमें कोई विशिष्ट बात से शरीर की विभिन्न क्रियात्मक प्रवृत्तियों का संचालन करती है। वाणी का नहीं। मन के स्तर पर पूछे गये प्रश्न को जान लेना और मन के स्तर पर दिये तंत्र भी स्वर-यन्त्र के स्पन्दनों से संचालित होता है, जिसमें क्रियावाही गये उत्तर को समझ लेना, यह विशिष्ट बात है। भगवान् केवलज्ञानी थे, इसलिए तन्त्रिकाएं यह कार्य करवाती हैं। मन के स्तर पर पूछे गए प्रश्न को जानना उनके रिए कठिन नहीं था। देवों के केवली जैसे इन्द्रियों के द्वारा ज्ञानात्मक क्रिया नहीं करते, उसी पास अवधिज्ञान था, इसलिए मन के स्तर पर दिए गए उत्तरों को समझ लेना प्रकार मन के द्वारा भी ज्ञानात्मक क्रिया नहीं करते। अतः उसमें ज्ञानात्मक मन उनके लिए संभव बना। के रूप में भाव मन का अभाव है। पर क्रियावाही तंत्र का प्रयोग केवली द्वारा भगवान केवली थे। केवली के ज्ञानात्मक मन (भावमन) नहीं किया जाता है—शरीर एवं वाणी का योग इसी की निष्पत्ति है। उसी प्रकार होता। उनके पौद्गलिक मन (द्रव्यमन) होता है। वे पौद्गलिक मन का उपयोग क्रियात्मक मन की प्रवृत्तियां भी केवली कर सकते हैं, क्योंकि उनमें मनोयोग करते हैं। जैन दर्शन में योग और उपयोग को अलग-अलग माना गया है। की प्राप्ति है। इस मनोयोग के निष्पादन में पौद्गलिक मन का प्रयोग भी होता योग मन, वचन, काया की क्रियात्मक प्रवृत्ति है, जबकि उपयोग चेतना की है। किन्तु यह ज्ञानात्मक भाव मन से भिन्न है। भ. ५/१००-१०२ का भाष्य ज्ञानात्मक प्रवृत्ति है। आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं के संदर्भ में इस भेद द्रष्टव्य है। को और अधिक स्पष्ट समझा जा सकता है। शब्द-विमर्श शरीर विज्ञान में तन्त्रिका-तन्त्र (nervous system) के दो प्रकार ध्यानान्तरिका (झाणंतरिया)-दो ध्यानों के बीच का समय। बताए गए हैं: एक ध्यान सम्पन्न कर दिया जाता है और दूसरे ध्यान का प्रारम्भ नहीं किया १. ज्ञानवाही तन्त्रिका (sensory nerve) जाता है, उस मध्यवर्ती समय को ध्यानान्तरिका कहा जाता है।' २. क्रियावाही तन्त्रिका (motor nerve) व्याकरण-प्रश्न और उत्तर। ज्ञानवाही तन्त्रिकाओं का अर्थ इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञानात्मक देवाणं नोसंजयवत्तव्वया-पदं देवानां नोसंयतवक्तव्यता-पदम् ८९. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं महावीर भदन्त ! इति भगवान् गौतम: श्रमणं भगवन्तं वंदति नमंसति जाव एवं वयासी-देवाणं महावीरं वन्दते नमस्यति यावद् एवमवादीद् भंते ! संजया ति वत्तव्वं सिया? -देवा: भदन्त ! संयता: इति वक्तव्यं स्यात्? देवों की नोसंयतवक्तव्यता का पद ८९. भन्ते ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवान गौतम श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार करते हैं यावत् इस प्रकार बोले--भंते ! देव संयत है, क्या ऐसा कहा जा सकता है? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। यह देवों के लिए अभ्याख्यान है—यथार्थ से परे है। गोयमा! णो तिणद्वे, समझे। अब्भक्खाणमेयं गौतम! नायमर्थ : समर्थः। अभ्याख्यानमेत- देवाणं। देवानाम्। ९०.देवाणं भंते ! असंजता ति वत्तव्वं सिया? देवा: भदन्त! असंयता इति वक्तव्यं स्यात्? ९०. भन्ते! देव असंयत है, क्या ऐसा कहा जा सकता १. भ.वृ. ५/८५, ८६-'झाणंतरियाए' ति अन्तरस्य–विच्छेदस्य करणमन्तरिका ध्यानस्यान्तरिका ध्यानान्तरिका-आरब्धध्यानस्य समाप्ति, पूर्वस्यानारम्भणमित्यर्थः। Jain Education Intemational Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ. ४: सू.८९-९३ १६२ भगवई गोयमा ! णो तिणढे समढे। निट्ठरवयणमेयं गौतम ! नायमर्थः समर्थ:। निष्ठरवचनमेतद्देदेवाण।। वानाम्। गौतम ! यह अर्थसंगत नहीं है। यह देवों के लिए निष्ठर वचन है। ९१. देवा णं भंते ! संजयासंजया ति वत्तव्वं देवा: भदन्त ! संयतासंयता: इति वक्तव्यं ९१. भन्ते ! देव संयतासंयत है, क्या ऐसा कहा जा सिया? स्यात्? सकता है? गोयमा ! णो तिणढे समढे। असन्भूयमेयं गौतम! नायमर्थः समर्थः। असद्भूतमेतद् गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। यह देवों के लिए देवाण। देवानाम्। असद्भूत वचन है—यथार्थ नहीं है। ९२. से किं खाइ णं भंते ! देवा ति वत्तव्वं तत् किं 'खाई' भदन्त ! देवा: इति वक्तव्यं ९२. भन्ते! फिर उन देवों को क्या कहा जा सकता है? सिया? स्यात्? गोयमा! देवाणं नोसंजया ति वत्तव्वं सिया।। गौतम ! देवा: नोसंयता: इति वक्तव्यं स्यात्। गौतम ! देव नोसंयत हैं, ऐसा कहा जा सकता है। भाष्य १. सूत्र ८९-९२ प्रस्तुत आलापक में वाणी के विवेक का निदर्शन है। संयम और असंयम के आधार पर मनुष्यों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है १. असंयत-संयम से रहित २. संयतासंयत—जिसमें असंयम के साथ आंशिक संयम हो। ३. संयत—पूर्ण संयमयुक्त। देव संयम और आंशिक संयम की भी आराधना नहीं करते, इसलिए इन्हें संयत अथवा संयतासंयत कहना यथार्थ वचन नहीं है। असंयत कहना निष्ठुर वचन है। एक नए शब्द की रचना की गई—देव नोसंयत हैं। यह प्रयोग यथार्थ से परे भी नहीं है और निष्ठुर भी नहीं है। देवभासा-पदं देवभाषा-पदं देवभाषा-पद ९३. देवा णं भंते ! कयराए भासाए भासंति? देवा: भदन्त ! कतरस्यां भाषायां भाषन्ते? ९३.'भन्ते ! देव किस भाषा में बोलते हैं? बोली जाती कयरा व भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति? कतरा च भाषा भाष्यमाणा विशिष्यते? हुई कौन-सी भाषा विशिष्ट होती है? गोयमा ! देवा णं अद्धमागहाए भासाए गौतम ! देवा: अर्धमागध्यां भाषायां भाषन्ते। भासंति। सा वि य णं अद्धमागहा भासा सापि च अर्धमागधी भाषा भाष्यमाणा भासिज्जमाणी विसिस्सति। विशिष्यते। गौतम ! देव अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं और वह अर्धमागधी भाषा बोली जाती हुई विशिष्ट होती है। भाष्य १. सूत्र ९३ हैं—प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश। वृत्तिकार भगवान महावीर अर्धमागधी भाषा में प्रवचन करते थे। तीर्थंकर के अनुसार जिस भाषा में प्राकत और मागधी दोनों के लक्षण मिलते हैं वह के चौतीस अतिशयों में कहा गया है-भगवान् अर्धमागधी भाषा में धर्म अर्धमागधी है। का आख्यान करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में देवों की भाषा को अर्धमागधी भाषा अर्धमागधी भाषा भाष्यमाण अवस्था में विशिष्ट होती है। वृत्ति में कहा है। वैदिक साहित्य में 'संस्कृत' को देवभाषा कहा गया है। इसका इसका स्पष्ट अर्थ उपलब्ध नहीं है। विशेषता का एक हेतु यह हो सकता है तात्पर्य यह होता है कि जिस परम्परा में जिस भाषा को महत्त्व दिया गया है, कि यह तीर्थंकर की भाषा है। तीर्थंकर की भाषा में अनेक भाषाओं में परिणमन उसी भाषा को देवभाषा कहा गया है। वृत्तिकार ने भाषा के छ: प्रकार बतलाए होने की क्षमता होती है। इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर की भाषा श्रोताओं १. ओवा. सू.७१-अद्धमागहाए भासाए भासइ-अरिहा धम्म परिकहेड़ा २. सम. ३४/११ ३. भ.वृ. ५/९३----'अद्धमागह' त्ति भाषा किल षड्विधा भवति, यदाह "प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषा च सौरेसेनी च। षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः॥" ४. वही, ५/९३-तत्र मागधभाषालक्षणं किञ्चित्किञ्चिच्च प्राकृतभाषालक्षणं यस्यामस्ति सार्द्ध मागध्या इति व्युत्पत्त्याऽर्द्धमागधीति। Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६३ श.५: उ.४ : सू.९३-९९ यह जनता की भाषा है। की अपनी-अपनी भाषा में बदल जाती है, श्रोता उसे अपनी-अपनी भाषा में सुन लेते हैं। दूसरी विशेषता—यह देवों की भाषा है। तीसरी विशेषता छद्मस्थ और केवली का ज्ञान-भेद-पद छउमत्थ-केवलीणं नाणभेद-पदं छद्मस्थ-केवलिनोनिभेद-पदम् ९४. केवली णं भंते ! अंतकरं वा, अंतिम- केवली भन्ते! अन्तकरं वा, अन्तिमशरीरिकं सरीरियं वा जाणइ-पासइ? वा जानाति-पश्यति? हंता जाणइ-पासइ॥ हन्त जानाति-पश्यति। ९४. 'भन्ते! केवली अन्तकर और अन्तिमशरीरी को जानता-देखता है? हां, जानता-देखता है। ९५. जहा णं भंते ! केवली अंतकरं वा, यथा भदन्त ! केवली अन्तकरं वा अन्तिम- ९५. भन्ते ! जिस प्रकार केवली अंतकर अन्तिम अंतिमसरीरियं वा जाणइ-पासइ, तहा णं शरीरिकं वा जानाति-पश्यति, तथा छद्म- शरीरी को जानता-देखता है, क्या उसी प्रकार छउमत्थे वि अंतकरं वा, अंतिमसरीरियं वा स्थोऽपि अन्तकरं वा, अन्तिमशरीरिक वा छद्मस्थ भी अंतकर और अन्तिमशरीरी को जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति? जानता-देखता है? गोयमा ! णो इणढे समढे। सोच्चा जाणइ- गौतम ! नायमर्थः समर्थः। श्रुत्वा जानाति- गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह सुनकर अथवा पासइ, पमाणतो वा॥ पश्यति, प्रमाणतो वा।। किसी प्रमाण से जानता-देखता है। ९६. से किं तं सोच्चा? अथ किं तत् श्रुत्वा? सोच्चा णं केवलिस्स वा, केवलिसावगस्स श्रुत्वा केवलिनो वा, केवलिश्रावकस्य वा, वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स केवलिश्राविकाया: वा, केवल्युपासकस्य वा, केवलिउवासियाए वा, तप्पक्खियस्स वा वा, केवल्युपासिकाया: वा, तत्पाक्षिकस्य तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्पक्खियसावि- वा, तत्पाक्षिकश्रावकस्य वा, तत्पाक्षिकयाए वा तप्पक्खियउवासगस्स वा तप्पक्खि- श्राविकाया: वा, तत्पाक्षिकोपासकस्य वा, यउवासियाए वा। से तं सोच्चा॥ तत्पाक्षिकोपासिकाया: वा। तस्य तत् श्रुत्वा। ९६. वह श्रुत्वा' (सुनकर) क्या है? छद्मस्थ पुरुष, केवली के श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के उपासक, केवली की उपासिका, स्वयंबुद्ध, स्वयंबुद्ध के श्रावक, स्वयंबुद्ध की श्राविका, स्वयंबुद्ध के उपासक अथवा स्वयंबुद्ध की उपासिका के पास जानता ९७. से किं तं पमाणे? अथ किं तत् प्रमाणम्? पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा—पच्च- प्रमाणं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम, तद् यथा-प्रत्य- क्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे, जहा अणु- क्षम् अनुमानम् औपम्यम् आगमः, यथा ओगदारे तहा नेयव्वं पमाणं जाव तेण परं अनुयोगद्वारे तथा नेतव्यं प्रमाणं यावत् तेन परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि नो अत्तागमे, नो सूत्रस्यापि अर्थस्यापि नो आत्मागमः, नो अणंतरागमे, परंपरागमे॥ अनन्तरागमः, परम्परागमः। ९७. वह प्रमाण क्या है? प्रमाण चार प्रकार का प्रज्ञप्त है—प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम। प्रमाण का विवरण अनुयोगद्वार की भांति ज्ञातव्य है यावत् गणधर के प्रशिष्यों के लिए सूत्रागम और अर्थागम दोनों न आत्मागम हैं, न अनन्तरागम हैं, किन्तु परम्परागम ९८. केवली णं भंते ! चरिमकम्मं वा, चरिम- केवली भदन्त ! चरमकर्म वा चरमनिर्जरांवा ९८. भन्ते ! केवली चरम कर्म और चरम निर्जरा को णिज्जरं वा जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति? जानता-देखता है? हंता जाणइ पासइ ।। हन्त ! जानाति-पश्यति॥ हां, जानता-देखता है। ९९. जहा णं भंते ! केवली चरिमकम्मं वा, यथा भदन्त ! केवली चरमकर्म वा, ९९. भन्ते ! जिस प्रकार केवली चरमकर्म और चरम चरिमणिज्जरं वा जाणइ-पासइ, तहा णं चरमनिर्जरा वा जानाति-पश्यति, तथा निर्जरा को जानता देखता है, क्या उसी प्रकार छउमत्थे वि चरिमकम्म वा, चरिमणिज्जरं छ्दमस्थोऽपि चरमकर्म वा चरमनिर्जरा वा छ्दमस्थ भी चरम कर्म और चरम निर्जरा को वा जाणइ-पासइ? जानाति-पश्यति? जानता-देखता है? १. ओवा. सू. ७१-सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो समासाए परिणामेणं परिणमा Jain Education Intemational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.४: सू.९४-१०१ १६४ भगवई गोयमा ! णो इणढे समढे। सोच्चा जाणइ- गौतम ! नायमर्थ: समर्थः। श्रुत्वा जानाति-पासइ, पमाणतो वा। जहा णं अंतकरेणं पश्यति, प्रमाणतो वा। यथा अन्तकरेण आलावगो तहा चरिमकम्मेण वि अपरि- आलापकः तथा चरमकर्मणाऽपि अपरिसेसिओ नेयव्वो॥ शिष्टः नेतव्यः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह सुन कर अथवा किसी प्रमाण से जानता-देखता है। जिस प्रकार अन्तकर का आलापक है, उसी प्रकार चरम कर्म का भी आलापक अविकल रूप से ज्ञातव्य है। भाष्य १. सू. ९४-९९ योजना आगम-संकलन-काल में हुई अथवा उससे पूर्व अथवा पश्चात् हुई, प्रस्तुत आलापक में भी केवली और छद्मस्थ के बीच भेदरेखा यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। यदि देवर्धिगणी के द्वारा यह पाठ खींची गई है।' छुदमस्थ अन्तकर, अन्तिम शरीरी, चरम कर्म और चरम प्रक्षिप्त होता. तो प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों का उल्लेख करते, जो निर्जरा वाले को नहीं जानता-देखता। केवली उसे जानता-देखता है। जैन प्रमाण-मीमांसा का मौलिक वर्गीकरण है। ___ छद्मस्थ केवली की भांति साक्षात् नहीं जानता-देखता किन्तु शब्द-विमर्श श्रवण और प्रमाण इन दो हेतुओं से जान सकता है: १. श्रवण केवली के पास सुन कर अथवा जिसने केवली के अन्तकर, अन्तिम शरीरी-द्रष्टव्यभ.५/७८-८२ का भाष्या पास सुना है, उससे सुन कर। चरम कर्म-चतुर्दश गुणस्थानवर्ती अयोगी (शैलेशी) अवस्था २. प्रमाण-आगम साहित्य में प्रमाण के दो वर्गीकरण मिलते के चरम समय में भोगा जाने वाला कर्म। चरम निर्जरा-चरम कर्म के अनन्तर समय में जीव-प्रदेशों से अणुओगद्दाराई में प्रमाण-चतुष्क (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, होने वाला कर्म का परिशाटन अथवा निर्जरण। आगम) का वर्गीकरण है। नंदी में प्रमाण-द्वय (प्रत्यक्ष और परोक्ष) का केवलि-श्रावक-केवली केपास सुनने वाला। वर्गीकरण है। प्रथम वर्गीकरण नैयायिक-सम्मत है। अणुओगद्दाराई के कर्ता केवलि-उपासक-सुनने के लक्ष्य के बिना केवली की उपासना आर्यरक्षित पहले न्याय-दर्शन के पण्डित थे। फिर जैन मुनि बने। उन्होंने करने वाला।' न्याय-दर्शन सम्मत प्रमाण-चतुष्टयी को जैन परम्परा में स्वीकृत कर लिया। तत्पाक्षिक-केवलिपाक्षिक, स्वयंबुद्ध । (द्रष्टव्य असोच्चा' प्रकरण, भ. ९/९-३२) आत्मागम, अनन्तरागम, परम्परागम-तीर्थंकर अर्थ का आगम के प्राचीन युग में पांच ज्ञान की व्यवस्था थी। प्रमाण की प्रतिपादन करते हैं, इसलिए अर्थ उनके आत्मागम, स्वोपज्ञ आगम होता है। व्यवस्था आगम के अर्वाचीन काल में विकसित हुई। प्रत्यक्ष और परोक्ष इस गणधर सूत्र का गुम्फन करते हैं; इसलिए सूत्र उनके आत्मागम होता है, अर्थ वर्गीकरण को उत्तरवर्ती सभी जैन दार्शनिकों ने अपनाया। तत्त्वार्थसूत्र में भी उनके अनन्तरागम-साक्षात् तीर्थंकर से प्राप्त आगम होता है। गणधर-शिष्यों यही प्रमाण-व्यवस्था सम्मत है। प्रमाण-चतुष्टय की व्यवस्था उत्तरवर्ती के लिए सूत्र और अर्थ दोनों ही न आत्मागम होते हैं, न अनन्तरागम, किन्तु दार्शनिक साहित्य में समादृत नहीं हुई। प्रस्तुत आगम में प्रमाण-चतुष्टय की परमपरागम होते हैं।' केवलीणं पणीय-मण-वइ-पदं केवलिनां प्रणीत-मनोवाक्-पदम् केवली के प्रणीत-मन-वचन-पद १००. केवली णं भंते ! पणीयं मणं वा, वईवा केवली भदन्त ! प्रणीतं मनो वा, वाचं वा १००. 'भन्ते ! क्या केवली प्रणीत मन और वचन को धारेज्जा? धारयेत् ? धारण करता है—उनका प्रयोग करता है? हंता धारेज्जा। हंत! धारयेत्। हां, धारण करता है। १०१. जण्णं भंते ! केवली पणीयं मणं वा, वइं यद् भदन्त ! केवली प्रणीतं मनो वा वाचं वा वा धारेज्जा, तण्णं वेमाणिया देवा जाणंति- धारयेत्, तद् वैमानिका: देवा: जानन्ति- -पासंति? - पश्यन्ति? १०१. भन्ते ! केवली प्रणीत मन और वचन को धारण करता है, इसे वैमानिक देव जानते-देखते हैं? १. द्रष्टव्य भ. ५/६८-७४। २.भ.प. ५/९८-चरमकर्म यच्छलेशीचरमसमयेऽनभयते, चरमनिर्जरा त यत्ततोऽनन्तरसमये जीवप्रदेशेभ्यः परिशटति। ३. वही. ५/९६-केवलिनभुपास्ते यः श्रवणानाकांक्षी तदुपासनमात्रपर: सन्नसौ केवल्युपासकः। ४. अणु. ५५१- अहवा आगमे तिविहे पण्णते. तं जहा- अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे। तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे। गणहराणं सत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे। गणहरसीसाणं स्त्तस्स अणंतरागमे, अत्थस्स परंपरागमे। तेण पर सुनस्स वि थिस्स वि नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे परंपरागमे। Jain Education Interational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमा । अत्येगतिया जाणंति पासंति, अत्येगतिया ण जागंति, ण पासंति १०२. से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ — अत्थे गतिया जाणंति - पासंति, अत्थेगतिया ण जाणंति, ण पासंति? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते — अस्त्येकके जानन्ति पश्यन्ति, अस्त्येकके न जानन्ति न पश्यन्ति? जहा - माइमिच्छादिट्ठीउववण्णगा अमाइसम्पदिडी उबवण्णगा व तत्व णं जे ते माइमिच्छादिट्ठीउववण्णगा ते ण जाणंति, ण पासंति। तत्थ णं जे ते अमाइसम्मदि ट्टीउववण्णगा ते णं जाणंति- पासंति । सेकेणणं ? गोयमा बेमाणिया देवा दुविहा पण्णत्ता, तं गौतम! वैमानिकाः देवाः द्विविधाः प्रज्ञप्ता, तद् यथा -- मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकाश्च अमाविसम्यग्दृष्टयुपपत्रकारचा तत्र ये एते मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नका ते न जानन्ति, न पश्यन्ति यत्र वे एते अमाविसम्बादृष्ट्युपपनका ते जानन्ति पश्यन्ति । तत् केनार्थेन? गोयमा ! अमाइसम्मदिडी दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा - अणंतरो ववण्णगा य, परंपरो गाय । तत्थ णं जे ते अणंतरोववण्णगा तेण जाणंति, ण पासंति । तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णमा ते णं जाणंति पासंति । सेकेण? य. गोयमा ! परंपरोववण्णगा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - अपज्जत्तगाय, पज्जत्तगाय । तत्थ जे ते अपज्जत्तगा ते ण जाणंति, ण पासंति। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं जाणंति पासंति जहा - अणुवउत्ता य उवउत्ता य। तत्थ णं जे अणुवत्ता ते जाणंति, ण पासंति। तत्थ णं जे ते उवउत्ता तेषं जाणंति पासंति से - तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ— अत्थे गतिया जाणंति- पासंति, अत्थेगतिया ण जाणंति, ण पासंति ॥ १६५ गीतम! अस्त्येकके जानन्ति पश्यन्ति, अस्त्येकके न जानन्ति, न पश्यन्ति। सेकेणणं ? गोदमा ! पज्जतगा दुबिहा पण्णत्ता, संगीतम! पर्याप्तकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा— अनुपयुक्ताश्च उपयुक्ताश्च । तत्र ये एते अनुपयुक्ताः ते न जानन्ति, न पश्यन्ति । तत्र ये एते उपयुक्ताः ते जानन्ति पश्यन्ति। तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते— अस्त्येकके जानन्ति पश्यन्ति । अस्त्येकके न जानन्ति, न पश्यन्ति । -- गौतम ! अमायिसम्यग्दृष्टयः द्विविधाः प्रज्ञप्ता: तद्यथा— अनन्तरोपपन्नकाश्च, परम्परोपपन्नकाश्च । तत्र ये एते अनन्तरोपपन्नकाः ते न जानन्ति, न पश्यन्ति। तत्र ये एते परम्परोपपन्नकाः ते जानन्ति पश्यन्ति । तत् केनार्थेन? गौतम ! परम्परोपपन्नकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा— अपर्याप्तकाश्च पर्याप्तकाश्चा तत्र वे एते अपर्याप्तकाः ते न जानन्ति न पश्यन्ति। तत्र ये एते पर्याप्तकाः ते जानन्तिपश्यन्ति । तत्केलान? १. सूत्र १००-१०२ मन क्षयोपशम (ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आंशिक विलय) से होने वाला ज्ञान है। केवली का ज्ञान क्षायिक होता है— ज्ञानावरण का सर्वधा विलय होने से होता है, इसलिए केवली को नोसंज्ञी नोअसंजी कहा है।' इसका तात्पर्य है कि केवली के संज्ञामन नहीं होता। प्रस्तुत आलापक भाष्य १. (क) पण्ण. ३१ / ४ मणूसा सण्णी वि असण्णी वि नो सण्णी नोअसण्णी वि। (ख) प्रज्ञा. वृ. प. ५३४ --- केवली हि यद्यपि मनोद्रव्यसम्बन्धभाक् तथापि न तैरसौ भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं करोति, किन्तु क्षीणसकलज्ञान-दर्शनावरणत्वात् श. ५: उ. ४: सू. १००-१०२ गौतम ! कुछ देव जानते देखते हैं, कुछ देव नहीं जानते-देखते। १०२. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है— कुछ देव जानते देखते हैं, कुछ देव नहीं जानते, नहीं देखते? गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे मायि मिध्यादृष्टि उपपत्रक और अमायि - सम्यक दृष्टि-उपपन्नक। इनमें जो मायि - मिथ्यादृष्टि - उपपन्नक हैं, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो अमाथि उपपन्नक हैं, वे जानते देखते 新 यह किस अपेक्षा से? गौतम! अमाथि सम्यकदृष्टि दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपन्नक। इनमें जो अनन्तरोपपन्नक हैं, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो परम्परोपपत्रक हैं, वे जानते देखते हैं। यह किस अपेक्षा से? गौतम ! परम्परोपपन्नक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे अपवप्तक और पर्याप्तक। इनमें जो अपर्याप्तक है, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो पर्याप्त हैं, वे जानते देखते हैं। यह किस अपेक्षा से? गौतम ! पर्याप्तक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे— अनुपयुक्त और उपयुक्त। इनमें जो अनुपयुक्त हैं, वे न जानते हैं, न देखते हैं। इनमें जो उपयुक्त हैं, वे जानतेदेखते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है कुछ देव जानते देखते हैं, कुछ देव नहीं जानते, नहीं देखते। में केवली में मन का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। मन दो प्रकार का होता है— द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमन पौगालिक होता है और भावमन ज्ञानात्मक होता है। केवली के भावमन नहीं होता, किन्तु द्रव्यमन होता है। यहाँ द्रव्यमन की अपेक्षा से ही केवली में मन पर्यालोचनमन्तरेणैव केवलज्ञानेन केवलदर्शनेन च साक्षात्समस्तं जानातिपश्यति च ततो न संज्ञी, नाप्यसंज्ञी | Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.४: सू.१००-१०५ १६६ भगवई का अस्तित्व बतलाया गया है। ___मन और वचन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसीलिए यह प्रश्न उपस्थित होता है कि केवली के मन नहीं है तो फिर वचन का प्रयोग कैसे होगा? विशेषावश्यक भाष्य में बताया गया है कि विशिष्ट वचन का प्रयोग मानसिक चिन्तनपूर्वक होता है। गोम्मटसार के अनुसार इन्द्रियज्ञानी का वचन मनपूर्वक होता है। केवली व अतीन्द्रिय-ज्ञानी में मन उपचार से स्वीकृत है। धवला में भी यह प्रश्न चर्चित है—यदि केवली में मन नहीं है तो मन के अभाव में उसके कार्यभूत वचन का अस्तित्त्व कैसे होगा? इसके उत्तर में आचार्य ने कहा-वचन ज्ञान का कार्य है-मन का कार्य नहीं।' इसलिए केवली में वचन का अस्तित्व हो सकता है। भ. ५/८३-८८ का भाष्य द्रष्टव्य है। र प्रणीत–प्रकृष्ट शुभा मायी मिथ्यादृष्टि, अमायी सम्यग्दृष्टि-द्रष्टव्य भ. १/१०१ का भाष्य। अणुत्तरोववाइयाणं केवलिणा आलाव- अनुत्तरोपपातिकानां केवलिना आ- अनुत्तरोपपातिक देवों द्वारा केवली के साथ पदं लाप-पदम् आलाप का पद १०३. पभू णं भंते! अणुत्तरोववाइया देवा प्रभव: भदन्त ! अनुत्तरोपपातिका: देवाः १०३. 'भंते ! अनुत्तरोपपातिक देव अपने विमानों में तत्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा तत्रगताश्चैव सन्तः इहगतेन केवलिना रहते हुए ही मनुष्य-लोक में स्थित केवली के साथ सद्धिं आलावं वा, संलावं वा करेत्तए? सार्द्धम् आलापं वा, संलापं वा कर्तुम्? आलाप अथवा संलाप करने में समर्थ हैं? हंता पभू॥ हन्त प्रभवः। हां, समर्थ हैं। १०४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ—पभू णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-प्रभवः, १०४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा अनुत्तरोपपातिका: देवाः तत्र गताश्चैव सन्तः अनुत्तरोपपातिक देव अपने विमानों में रहते हुए ही इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, संलावं इहगतेन केवलिना सार्द्धम् आलापंवा, संलापं मनुष्य-लोक में स्थित केवली के साथ आलाप वा करेत्तए? वा कर्तुम्? अथवा संलाप करने में समर्थ हैं? गोयमा ! जण्णं अणुत्तरोववाइया देवा गौतम ! यद् अनुत्तरोपपातिका: देवा: तत्र गौतम ! अनुत्तरोपपातिक देव अपने विमानों में रहते तत्थगया चेव समाणा अटुं वा हेउं वा पसिणं गताश्चैव सन्त: अर्थं वा हेतुं वा प्रश्न वा हुए ही जो अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण अथवा व्याकरण वा कारणं वा वागरणं वा पुच्छंति, तण्णं कारणं वा व्याकरणं वा पृच्छन्ति, तद् इहगत: पूछते हैं, मनुष्य-लोक में स्थित केवली अर्थ, हेतु, इहगए केवली अटुं वा हेउं वा पसिणं वा केवली अर्थं वा हेतुं वा प्रश्न वा कारणं वा प्रश्न, कारण अथवा व्याकरण का उत्तर देते हैं। गौतम ! कारणं वा वागरणं वा वागरेइ। से तेणतुणं व्याकरणं वा व्याकरोति। तत् तेनार्थेन गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-अनुत्तरोपपातिगोयमा ! एवं वुच्चइ-पभू णं अणुत्तरो- एवमुच्यते—प्रभव: अनुत्तरोपपातिका: देवाः क देव अपने विमानों में रहते हुए ही मनुष्य-लोक ववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा तत्रगताश्चैवसन्त: इहगतेन केवलिना सार्द्धम् में स्थित केवली के साथ आलाप-संलाप करने में इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, आलापं वा संलापं वा कर्तुम् । समर्थ हैं। संलावं वा करेत्तए। १०५. जण्णं भंते ! इहगए केवली अहँ वा हेडं यद्भदन्त ! इहगत: केवली अर्थं वा, हेतुं वा १०५. भन्ते! मनुष्य-लोक में स्थित केवली जिस अर्थ, वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा वागरेइ, प्रश्नं वा कारणं वा व्याकरणं वा व्याकरोति, हेतु, प्रश्न, कारण अथवा व्याकरण का उत्तर देते हैं, तण्णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव तद् अनुत्तरोपपातिका: देवा: तत्रगताश्चैव उसे अपने विमानों में रहते हुए अनुत्तरोपपातिक देव समाणा जाणंति-पासति? सन्त: जानन्ति-पश्यन्ति? जानते-देखते हैं? हंता जाणंति-पासंति॥ हन्त जानन्ति-पश्यन्ति। हां, जानते-देखते हैं। १०६. से केणतुणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-जण्णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते यद् १०६. भन्ते यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है१. वि.भा.गा. ३०७२ वृ.-मन:पूर्वकत्वात् विशिष्टवचसः। __उत्तो मणोवयारेणिदियणाणेण हीणम्मि॥ २. गो.सा.जी.गा.२२८ (जै.सि.को.भा. १, पृ.१६३) ३. प.खंधवला, पु. १, खं १, भा. १, सू. १२३, पृ.३६८-तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य मणसहियाणं वयणं दिडं तप्पुव्वमिदि सजोगम्हि। वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन् न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात्। Jain Education Intemational Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६७ श.५: उ.४: सू.१०३-१०७ इहगए केवली अह्र वा हेउं वा पसिणं वा इहगत: केवलीअर्थं वा हेतु वा प्रश्नं वाकारणं मनुष्य-लोक में स्थित केवली जिस अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारणं वा वागरणं वा वागरेइ, तण्णं अणु- वा व्याकरणं वा व्याकरोति, तद् अनुत्तरोपपा- कारण अथवा व्याकरण का उत्तर देते हैं, उसे अपने त्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा तिका: देवा: तत्र गताश्चैव सन्त: जानन्ति- विमानों में रहते हुए अनुत्तरोपपातिक देव जानतेजाणंति-पासंति? -पश्यन्ति? देखते हैं? गोयमा! तेसिं णं देवाणं अणंताओ मणो- गौतम ! तेषां देवानाम् अनन्ता: मनोद्रव्य- गौतम ! उन देवों को अनन्त मनोद्रव्य की वर्गणाएं दव्ववग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभि- वर्गणा: लब्धाः प्राप्ता: अभिसमन्वागताः लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हो जाती है। समण्णागयाओ भवंति। से तेणटेणं गोयमा! भवन्ति। तत्तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते—यद् गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—मनुष्यएवं वुच्चइ–जण्णं इहगए केवली अह्र वा इहगत: केवली अर्थंवा हेतुं वा प्रश्नवा कारणं __-लोक में स्थित केवली जिस अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण हेउं वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा वा व्याकरणं वा व्याकरोति, तद् अनुत्तरोप- अथवा व्याकरण का उत्तर देते हैं, उसे अपने विमानों वागरेइ, तण्णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थ- पातिका: देवा: तत्रगताश्चैव सन्त: जानन्ति- में रहते हुए अनुत्तरोपपातिक देव जानते-देखते हैं। गया चेव समाणा जाणंति-पासंति।। -पश्यन्ति। भाष्य १. सूत्र १०३-१०६ प्रस्तुत आलापक में मानसिक संप्रेषण का सिद्धान्त प्रतिपादित है। अनुत्तर विमान के देवों के मन में कोई प्रश्न उपस्थित होता है तो वे वहां बैठेबैठे मनुष्य-लोक में विद्यमान केवली के साथ मानसिक आलाप-संलाप करते हैं। केवली उनके प्रश्न को जानकर मानसिक स्तर पर उसका उत्तर देते हैं। वे प्रश्नकर्ता देव केवली की मनोद्रव्य-वर्गणा के आधार पर उसे जान लेते हैं। केवली के ज्ञानात्मक भावमन नहीं होता किन्तु योगरूप मानसिक प्रवृत्ति होती है। (भ. ५/१००-१०२ का भाष्य द्रष्टव्य है)। केवली कुछ कहना चाहते हैं तब उनके आत्म-प्रदेशों का स्पन्दन होता है। उससे मनोद्रव्य वर्गणा (मानसिक पुद्गल-स्कन्धों) का ग्रहण होता है। उन पुद्गलों को अनुत्तर विमान के देव ग्रहण कर जान लेते हैं। वृत्तिकार के अनुसार उनके अवधिज्ञान का विषय-क्षेत्र लोक-नाडी है। जिसका विषयक्षेत्र लोक का संख्येय भाग होता है, वह भी मनोद्रव्य-वर्गणा को जान लेता है तो जिसका विषय क्षेत्र लोक-नाडी है, वह मनोद्रव्य-वर्गणा को कैसे नहीं जानेगा? ___ जयाचार्य ने २१वें तीर्थंकर नमि की स्तुति में उक्त विषय को काव्य की भाषा में लिखा है सुर अनुत्तर विमाण ना सेवैरे, प्रश्न पूछ्या उत्तर जिन देवैरे। अवधिज्ञान करी जाण लेवै, प्रभु नमिनाथ जी मुझ प्यारा रे॥' १०७. अणुत्तरोववाइया भंते ! देवा किं उदिण्णमोहा? उवसंतमोहा? खीणमोहा? अनुत्तरोपपातिका: भदन्त ! देवाः किम् १०७. 'भन्ते! अनुत्तरोपपातिकदेव क्या उदीर्ण (उत्कट) उदीर्णमोहा:? उपशान्तमोहा:? क्षीणमोहा:? मोह वाले हैं? उपशान्त मोह वाले हैं? क्षीणमोह वाले हैं? गोयमा ! नो उदिण्णमोहा, उवसंतमोहा, नो गौतम ! नो उदीर्णमोहा:, उपशान्तमोहाः, खीणमोहा॥ नो क्षीणमोहा:। गौतम ! वे उदीर्ण मोह वाले नहीं है, उपशान्त मोह वाले हैं, क्षीणमोह वाले नहीं हैं? भाष्य १. सूत्र १०७ वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत सूत्र में 'मोह' शब्द वेदमोह के अर्थ उदय नहीं होता और वह क्षीण भी नहीं होता, किन्तु उपशान्त रहता है। में विवक्षित है। मोह की तीन अवस्थाएं होती हैं—उदय अवस्था, उपशान्त उमास्वाति ने ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देवों को अप्रवीचार बतलाया है। अवस्था और क्षीण अवस्था । अनुत्तर विमान के देवों में वेदमोह का उत्कट उनमें मोह अल्प होता है, इसलिए वे निरन्तर समाधि के सुख में लीन रहते १. प. खं. धवला पु.१/खं. १ भा. १ सू. १२३ पृ. ३६८-जीवप्रदेशपरिस्पन्दहेतुनो कर्म- संभित्रलोकनाडीविषयोऽसौ कथं न मनोद्रव्यग्राही भविष्यति? इष्यते च लोकसबयेयजनितशक्त्यस्तित्वापेक्षया वा तत्सत्त्वान्न विरोधः। भागावधेर्मनोद्रव्यग्राहित्वं, यदाह२.भ. वृ.५/१०६-यतस्तेषामवधिज्ञानं संभिन्नलोकनाडीविषयं, यच्च लोकनाडीग्राहकं तन्मनो- संखेज मणोदव्वे भागो लोगपलियस्स बोद्धव्वो। वर्गणाग्राहकं भवत्येव, यतो योऽपि लोकसङ्खयेयभाग विषयोऽवधिः सोऽपि मनोद्रव्यग्राही यः पुनः ३. छोटी चौबीसी, २१/५। Jain Education Intemational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.४ : सू.१०७-१०९ १६८ भगवई हैं। सहज ही परम सुख से तृप्त होते हैं। इसलिए रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द के भोग की आकांक्षा उत्पन्न नहीं होती। पण्णवणा में भी इसी मत का उल्लेख है। यहाँ 'उपशान्त मोह' पद सापेक्ष है। अनुत्तर विमान के देवों में मोह सर्वथा उपशान्त नहीं होता किन्तु वह उपशान्त रहता है। उसका सर्वथा उपशमन केवल उपशम श्रेणी की अवस्था में होता है।' केवलीणं इंदियनाण-निसेध-पदं केवलिनाम् इन्द्रियज्ञान-निषेध-पदम् केवलियों के इन्द्रिय-ज्ञान का निषेध-पद १०८. केवली णं भंते ! आयाणेहिं जाणइ- केवली भदन्त! आदानै: जानाति-पश्यति? १०८. 'भन्ते ! क्या केवली आदान (इन्द्रियों) के द्वारा पासइ? जानता-देखता है? गोयमा ! नो तिणढे समढे ॥ गौतम ! नायमर्थ: समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १०९. से केणटेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-केवली तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते—केवली १०९. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैणं आयाणेहिं ण जाणइ, ण पासइ? आदानै: न जानाति, न पश्यति? केवली आदान (इन्द्रियों) से न जानता है, न देखता है? गोयमा ! केवली णं पुरत्थिमे णं मियं पि गौतम ! केवली पौरस्त्यै मितमपि जानाति, गौतम ! केवली पूर्व दिशा में मित को भी जानता है, जाणइ, अमियं पि जाणइ। एवं दाहिणे णं, अमितमपि जानाति। एवं दक्षिणे, पश्चिमे, अमित को भी जानता है। इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, पच्चत्थिमे णं, उत्तरे णं, उड्ढे, अहे मियं पि उत्तरे, ऊर्ध्वम् अध: मितमपि जानाति, अ- उत्तर, अर्व और अधो दिशा में वह मित को भी जानता जाणइ, अमियं पि जाणइ। मितमपि जानाति। है, अमित को भी जानता है। सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली। सर्वम् जानाति केवली, सर्वम् पश्यति केवली सब को जानता है, सब देखता है। केवली। सव्वओ जाणइ केवली, सव्वओ पासइ सर्वत: जानाति केवली, सर्वतः पश्यति केवली सब ओर से जानता है, सब ओर से देखता केवली। केवली। सव्वकालं जाणइ केवली, सव्वकालं पासइ सर्वकालं जानाति केवली, सर्वकालं केवली सब काल को जानता है, सब काल को देखता केवली। पश्यति केवली। सव्वभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पासइ सर्वभावान् जानाति केवली, सर्वभावान् केवली सबभावों को जानता है, सबभावों को देखता केवली। पश्यति केवल अणते नाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे अनन्तं ज्ञानं केवलिन:, अनन्तं दर्शनं केवली का ज्ञान अनन्त है, केवली का दर्शन अनन्त केवलिस्स। केवलिनः। निव्वुडे नाणे केवलिस्स, निबुडे दंसणे निर्वृत्तं ज्ञानं केवलिन:, निर्वृत्तं दर्शनं केव- केवली का ज्ञान निरावरण है, केवली का दर्शन केवलिस्सा से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ लिन:। तत् तेनार्थेन, गौतम ! एवमुच्यते निरावरण है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा केवली णं आयाणेहिं ण जाणइ, ण —केवली आदानै: न जानाति, न पश्यति। है—केवली आदान (इन्द्रियों) से नहीं जानता, नहीं पासइ॥ देखता। भाष्य १. सू. १०८, १०९ अतीन्द्रिय-ज्ञान और अतीन्द्रिय-ज्ञानगम्य जगत् से परिचित नहीं है। हमारे ज्ञान का मुख्य स्रोत इन्द्रियां हैं। बाह्य जगत् स्पर्श, रस, अतीन्द्रिय-ज्ञान के तीन प्रकार हैं-अवधि, मन:पर्यव और गन्ध, रूप और शब्दात्मक है। उसका ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है। केवला अतीन्द्रिय ज्ञानी सीधा आत्मा से जानता है, उसे इन्द्रियों के माध्यम इसलिए हम इन्द्रिय-ज्ञान और इन्द्रिय-ज्ञानगम्य जगत् से परिचित हैं, की आवश्यकता नहीं होती। इन्द्रिय-ज्ञान आवरणयुक्त होता है। केवलज्ञान १. त.सू.भा.वृ. ४/१०–परे अप्रवीचारा:--अविद्यमानप्रवीचारा: अप्रवीचाराः, कल्पो- सुखमन्यनिवासेषु शब्दादि विषयनिरपेक्षत्वात् सहजम् अतस्तेनजन्मप्रभृत्या स्थितिक्षयात् पन्नेभ्यः परे ये देवा ग्रैवेयकवासिनोऽनुत्तरविमानवासिनश्चाप्रवीचारा भवन्ति, अल्प- सततमेव तृप्तास्त इति। सवलेशत्वाद्धेतोरन्त:शुद्धत्वात् च, ते स्वसमाधिजमेव सुखमुपभुजते, अधिकतरं चैषां तद् २. पण्ण, ३४/१८-वेज्जअणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा। भवत्यल्पमोहत्वात् कायक्लेशरहितम्, स्वस्थाः प्रतनुकमोहनीयकर्मपटलानुरञ्जित स्वरूपत्वात् ३. भ.वृ. ५/१०७–'उदिण्णमोह' त्ति उत्कटवेदमोहनीयाः ‘उवसंतमोह' ति अनुत्कटवेदमन्ददेवाग्नित्वाच्छीतीभूता:पञ्चविधाः प्रवीचारा: रूपरसगन्धस्पर्शशब्दा: प्रवीचाराहेतवो। मोहनीयाः परिचारणायाः कथञ्चिदप्यभावात्, न तु सर्वथोपशान्तमोहा: उपशमश्रेणेस्तेषामभावात् मनोहरा: कारणे कार्योपचाराध्यारोपादुक्ताः तत्समुदायजादपि सुखविशेषाद् परिमित- 'नो खीणमोह' ति क्षपकश्रेण्या अभावादिति। गुणप्रीतिप्रकर्षा बहुगुणप्रीतिप्रकर्षयुजः परमसुखतृप्ता एव भवन्ति। दुर्लभं हि तादृक् संसारे Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई निरावरण होता है। इसलिए वह मित-अमित दोनों को जानता है। केवलज्ञान का चार नयों से प्रतिपादन किया गया है। सव्वं जाणइ यह द्रव्य की अपेक्षा से है। -यह क्षेत्र की अपेक्षा से है। सव्वओ जाणइसव्वकालं जाणा-यह काल की अपेक्षा से है। सव्वभावे जाणइ यह भाव की अपेक्षा से है। तत्त्वार्थराजवार्तिक और धवला में एक प्रश्न उपस्थित किया गया— केवली में यदि ज्ञानेन्द्रियां (भावेन्द्रियां) नहीं हैं, तो उन्हें पंचेन्द्रिय केवलीणं जोगचंचलया - पदं ११०. केवली नं भंते! अस्सिं समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ॐ वा ओमाहिचाणं चिह्नति, पभू णं केवली सेकासि वि तेसु चेव आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहिताणं चित्रित? गोयमा ! णो तिणट्टे समट्टे ॥ १११. से केणणं भंते! एवं बुच्चइकेवली णं अस्सिं समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठति, णो णं पभू के वली सेकासि वि तेसु चेव आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठित्तर ? गोयमा ! केवलिस्स णं वीरिय-सजोगसद्दव्ययाए चलाई उपकरणाई भवंति चलोवकरणडवाए व णं केवली अस्सिं समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहिचाणं विद्यति, भूकेवल सेकालंसि वि तेसु चेव आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठित्तए । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्च — केवली णं अस्सिं समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्ठति भूकेवल से लंसि वि तेसु चेव " १६९ श. ५: उ. ४ सू. १०८-१११ कैसे कहा गया? इसका उत्तर है— केवली के ज्ञानेन्द्रियों की प्रवृत्ति नहीं है। उन्हें पौद्गलिक इन्द्रियों (द्रव्येन्द्रियों) की अपेक्षा से पञ्चेन्द्रिय कहा जा सकता है। ज्ञानेन्द्रियां और केवलज्ञान —— दोनों एक साथ नहीं हो सकते।' शब्द-विमर्श आदान—आदान शब्द के अनेक अर्थ होते हैं—आश्रव, परिग्रह आदि| इन्द्रियों के द्वारा विषय का ग्रहण किया जाता है, इसलिए उन्हें आदान कहा गया है। केवलिनां योग चंचलता-पदम् केवली भदन्त ! अस्मिन् समये येषु आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा बाहुं वा ऊरुं वा अवगाहा तिष्ठति, प्रभुः केवली एण्यत्काऽपि तेषु चैव आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा बाहुं वा ऊरुं वा अवगाह्य स्थातुम् ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते केवली अस्मिन् समये येषु आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा बाहुं वा ऊरुं वा अवगाह्य तिष्ठति, नो प्रभुः केवली एष्यत्कालेऽपि तेषु चै आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा बाहुं वा ऊरुं वा अवगाह्य स्थातुम् ? १. द्रष्टव्य, नंदी सू. ३३ । २. (क) त. रा. वा. १/३० - आर्षेहि सयोग्ययोगिके वलिनो: पञ्चेन्द्रियत्वं द्रव्येन्द्रियं प्रति उक्तं न भावेन्द्रियं प्रति । (ख) प. खं. धवला, पु. १. खं १, भा. १, सू. ३६, पृ. २६३ केवलिनां निर्मूलतो गौतम ! केवलिनः वीर्य-सयोग- - सद्द्रव्यतया चलानि उपकरणानि भवन्ति। चलोपकरणार्थतया च केवली अस्मिन् समये वेषु आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा बाहुं वा ऊरुं वा अवगाह्य तिष्ठति, नो प्रभुः केवली एष्यत्कालेऽपि तेषु चैव आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा बाहुं वा ऊरुं वा अवगाह्य स्थातुम् । तत्तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेकेवली अस्मिन् समये येषु आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा बाहुं वा ऊरुं वा अवगाह्य तिष्ठति, नो प्रभुः केवली एष्यत्कालेऽपि तेषु चैव आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा पादं वा बाहु केवलियों की योग चंचलता का पद ११०. 'भन्ते ! केवली इस समय (निर्दिष्ट वर्तमान समय) में जिन आकाश-प्रदेशों में हाथ, पांव, माहू अथवा सविध (साथल) को अवगाहित कर ठहरता है, वह भविष्य में भी उन्हीं आकाश-प्रदेशों में हाथ, पांव, बाहू या सक्थि को अवगाहित कर ठहरने में समर्थ हैं? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १११. भन्ते यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है केवली इस समय में जिन आकाश-प्रदेशों में हाथ, पांव, बाहू अथवा सक्धि को अवगाहित कर ठहरता है, वह भविष्य में भी उन्हीं आकाश-प्रदेशों में हाथ, पांव, बाहू अथवा सक्थि को अवगाहित कर ठहरने में समर्थ नहीं है? गौतम ! केवली का वीर्य योग (कायिक प्रवृत्ति) तथा द्रव्य (कायवगंगा प्रयोग) सहित होता है। इसलिए उसके उपकरण (हाथ पैर आदि अवयव) चल होते हैं। चल उपकरण के कारण केवली उस समय में जिन आकाश-प्रदेशों में हाथ, पांव, बाहू अथवा सक्थि को अवगाहित कर ठहरता है, वह भविष्य में भी उन्हीं आकाश-प्रदेशों में हाथ, पांव, बाहू अथवा सक्थि को अवगाहित कर ठहरने में समर्थ नहीं है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है— केवली इस समय में जिन आकाशप्रदेशों में हाथ पांव बाहू अथवा सविध को अवगाहित कर ठहरता है, वह भविष्य में उन्हीं आकाश-प्रदेशों " विनष्टान्तरङ्गेन्द्रियाणां प्रहतबाह्येन्द्रियव्यापाराणां भावेन्द्रिय-जनितद्रव्येन्द्रियसत्त्वापेक्षया पञ्चेन्द्रियत्वप्रतिपादनात्। ३. भ. वृ. ५/१०८ - आदीयते गृह्यतेऽर्थ एभिरित्यादानानि इन्द्रियाणि । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : ३.४ : सू. ११० १११ आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुं वा ओगाहित्ताणं चिट्टित्तए ।। चोदसपुब्बीणं सामत्य-पदं ११२. पभू णं भन्ते ! चोद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं, पढाओ पदसहस्सं कडाओ कडसहस्सं, रहाओ रहसहस्सं, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडाओ दंड सहस्सं अभिनिव्व ट्टेत्ता उवदंसेत्तए ? हंता पभू || १. सूत्र. ११०, १११ प्रस्तुत आलापक में ज्ञान और शक्ति का भेद समझाया गया है। केवली में अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति होती है। शक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम शरीर है। शरीर से वीर्य उत्पन्न होता है। वीर्य से योग ( मन, वचन, काया की प्रवृत्ति अथवा चञ्चलता) होता है। योग की प्रवृत्ति काय, वचन और मनोवर्गणा के द्वारा होती है। केवली जिस आकाश-प्रदेश पर हाथ, पैर आदि रखता है, उस स्थान को जानता है फिर भी वीर्य, योग और पौद्गलिक चञ्चलता के कारण दूसरी बार उसी स्थान पर हाथ, पैर आदि नहीं रख सकता हेराक्लाइट्स ने प्रवाह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उन्होंने कहा- 'उसी नदी में हम डुबकी लगाते हैं और हम डुबकी नहीं लगाते, क्योंकि कोई भी आदमी दो बार उसी नदी में प्रवेश नहीं कर सकता, वह लगातार अन्दर और बाहर बहती रहती है।'' । ११३. से केणट्टेणं पभू चोद्दसपुब्वी जाव उवदंसेत्तए? गोयमा ! चोट्सपुव्विस्स णं अणताई दव्वाई उक्कारियाभेएवं भिज्यमाणाई लढाई पत्ताई १. भ. १ / १४३, १४४ २. पाश्चात्य दर्शनका ऐतिहासिक विवेचन, पृष्ठ १९ १७० वा ऊरुं वा अवगाह्य स्थातुम् । यह प्रवाह का सिद्धान्त है किन्तु प्रस्तुत आलापक में शारीरिक योग और द्रव्य दोनों के साथ 'स' का प्रयोग प्रासंगिक है। भाष्य 7 चतुर्दशपूर्विणां सामर्थ्य-पदम् प्रभु भदन्त ! चतुर्दशपूर्वी घटात् घट सहस्रं पटात् पटसह कटात् कटसहस्रं रथात रथसहस्रं, छत्रात् छत्रसहस्रं, दण्डात् दण्डसहसम् अभिनित्यं उपदर्शवितुम् ? चञ्चलता का सिद्धान्त प्रतिपादित है। शब्द - विमर्श वीर्यं योग तथा द्रव्य सहित (वीरिय-संजोग सहव्वयाए ) - अभयदेवसूरि ने सदव्वयाए पद के तीन अर्थ किए हैं-१. विद्यमान जीव द्रव्य २. स्वद्रव्य ३. मन आदि की वर्गणा से युक्त । ** औदारिक शरीर प्रयोग बंध की चर्चा में 'वीरियसजोगसद्दव्ययाए' पाठ मिलता है।" वहां अभयदेवसूरि ने द्रव्य का अर्थ 'तथाविध पुद्गल' किया है। प्रस्तुत प्रकरण में द्रव्य का अर्थ पुदगल ही संगत है। तत्त्वार्थ भाव में 'अपायसद्रव्यतया' का प्रयोग मिलता है।' सिद्धसेनगणी ने सद्रव्य का अर्थ 'शोभन द्रव्य' - 'सम्यक्त्व दलिक' किया है। इसमें भी द्रव्य का अर्थ पुद्गल है।" सद्दव्व का अर्थ स द्रव्य भी किया जा सकता है। हन्त प्रभुः । तत् केनार्थेन प्रभुः चतुर्दशपूर्वी याबद् उपदर्शयितुम् ? 'Into the same river we go down and we do not go down, for into the same river no man can enter twice, ever it flows in and flows out."-Heraclitus ३. भ. वृ. ५/ १११ -- वीर्यं वीर्यान्तरायक्षयप्रभवाशक्ति: तत्प्रधानं सयोगं— मानसादिव्यापारयुक्तं यत्सद् — विद्यमानं द्रव्यं जीवद्रव्यं तत्तथा वीर्यसद्भावेऽपि जीवद्रव्यस्य योगान्विना चलनं न स्यादिति, सयोगशब्देन सद्द्रव्यं विशेषितं सदिति विशेषणं च तस्य सदा सत्तावधारणार्थं, अथवा स्वम् आत्मा, तद्रूपं द्रव्यं स्वद्रव्यं ततः कर्मधारयः, अथवा वीर्यप्रधानः गौतम चतुर्दशपूर्विणः अनन्ताणि द्रव्याणि उत्कारिकाभेदेन भिद्यमानानि लब्धानि भगवई में हाथ, पांव, बाहू अथवा सक्थि को अवगाहित कर ठहरने में समर्थ नहीं है। चतुर्दशपूर्वियों का सामर्थ्य-पद ११२. 'भन्ते ! चतुर्दशपूर्वी एक घड़े से हजार घड़े, एक वस्त्र से हजार वस्त्र, एक चटाई से हजार चटाइयां, एक रथ से हजार रथ, एक छत्र से हजार छत्र और एक दण्ड से हजार दण्ड उत्पन्न कर दिखाने में समर्थ हैं? हां समर्थ है। ११३. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है—-चतु देशपूर्वी यावत् एक दण्ड से हजार दण्ड उत्पन्न कर दिखाने में समर्थ है ? गौतम! चतुर्दशपूर्वी को उत्कारिका भेद से भिद्यमान अनन्त द्रव्य लब्ध प्राप्त और अभिसमन्वागत होते सयोगो— योगवान् बीर्यसयोगः स चासौ सद्द्रव्यश्च — मनः प्रभृति वर्गणायुक्तो वीर्यसयोगसद्द्रव्यस्तस्य भावस्तत्ता तया हेतुभूतया । ४. भ. ८/३६९ । ५. भ. वृ. ८ / ३६९ - सन्ति विद्यमानानि द्रव्याणि – तथाविधपुद्गला यस्य जीवस्यासौ सद्द्रव्यः वीर्यप्रधानः सयोगो वीर्यसयोगः । स चासौ सद्रव्यश्चेति विग्रहस्तद्भावस्तत्ता तया वीर्यसयोगसद्द्रव्य तथा, सवीर्यतया सयोगतया सद्द्रव्यतया जीवस्य । ६. त. भा. १ / ११ - निमित्तापेक्षत्वात् अपायसद्द्रव्यतया मतिज्ञानम्। ७. त. सू. १ / ११ -- सद्द्रव्यमिति शोभनानि द्रव्याणि सम्यक्त्वदलिकानि । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई अभिसमण्णागयाई भवंति से dj गोयमा ! एवं वुच्चइ - पभू णं चोदसपुब्वी घडाओ घडससहस्सं, पडाओ पडसहस्सं, कढाओ कडसहस्सं रहाओ रहसहस्सं, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडाओ दंडसहस्सं अभिनिव्वत्ता उवसेत्तए । १. " १७१ प्राप्तानि अभिमन्यागतानि भवन्ति तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते — प्रभुः चतुर्दशपूर्वी घटात् घटसहस्रं, पटातू पटसहस्रं कटात् कटसहस्रं रथात् रथसहस्रं छत्रात् छत्रसहस्रं, दण्डात् दण्डसहस्रम् अभिनिर्वत्र्त्य उपदर्शयितुम् । सूत्र ११२, ११३ प्रस्तुत आलापक में एक पदार्थ से उसके समान हजारों पदार्थ निर्माण करने की क्षमता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। बहुरूप निर्माण का सिद्धान्त है उत्कारिक - उत्कारिकाभेदा भाष्य पण्णवणा में पांच प्रकार के भेद बतलाए गए हैं— १. खण्ड भेद २. प्रतर भेद ३. चूर्णिका भेद ४. अनुतटिका भेद ५. उत्करिका भेदा जैसे एरण्ड का बीज उछलता है वैसे एक परमाणु स्कन्ध से दूसरे परमाणु-स्कन्ध का चटक कर उछलना उत्कारिका भेद है।' चतुर्दशपूर्वी को श्रुतज्ञान के द्वारा उत्कारिका भेद की प्रक्रिया ज्ञात होती है। उसके माध्यम से लब्धि सम्पन्न चतुर्दशपूर्वी एक पदार्थ के समान अनेक पदार्थों का निर्माण कर सकता है। ' पतञ्जलि ने अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यों का निरूपण किया है। * ११४. सेवं भंते! सेवं भन्ते ! ति ॥ १. भ. वृ. ५/११३- -इह चोत्कारिकाभेदग्रहणं तद्भिन्नानामेव द्रव्याणां विवक्षितघटादिनिष्पादन सामर्थ्यमस्ति नान्येषाम् । २. पण १११७३ ७९ । ३. भ. वृ. ११३ – तन्त्रोत्कारिकाभेदेन भिद्यमानानि 'लाई' त्ति लब्धिविशेषाद्ग्रहणविशयतां गतानि पत्ताई' त्ति तत एव गृहीतानि 'अभिसमन्नागयाई' त्ति घटादिरुदपेण परिणामयितुमारब्धानि हैं। १. अणिमा २. लघिमा ३. महिमा ४ प्राप्ति ५. प्राकाम्य ६. वशित्व ७. ईशितृत्व ८. यत्रकामावसायित्वा ईशितृत्व भौतिक पदार्थों के प्रभव, नाश और व्यूह में सक्षम होता है। ' अणिमा आदि ऐश्वर्यों की प्राप्ति भूत-जय की प्रक्रिया है— स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थवत्त्व। इन पांच प्रकार के भूतरूपों में संयम करना।' ५ शब्द-विमर्श तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । हो जाता है। श. ५: उ. ४ सू. ११२ ११४ हैं। -- गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैचतुर्दशपूर्वी एक घडे से हजार घड़े, एक वस्त्र से हजार वस्त्र, एक चटाई से हजार चटाइयां, एक रथ से हजार रथ, एक छत्र से हजार छत्र और एक दण्ड से हजार दण्ड उत्पन्न कर दिखाने में समर्थ है। लब्ध- उत्करिका भेद से भिद्यमान परमाणु-स्कन्ध ज्ञात हो जाते प्राप्त वे गृहीत हो जाते हैं। अभिसमन्वागत उनका घट आदि के रूप में परिणमन प्रारम्भ ११४. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है ततस्तैर्घट सहस्त्रादि निर्वर्त्तयति, आहारिक शरीरवत् निर्वर्त्य च दर्शयति जनानाम् । ४. पा.यो. द. ३ / ४५ - ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद् धर्मानभिघातश्च । ५. वही, ३ / ४५ भाष्य ईशितृत्वं तेषां प्रभवाप्यय व्यूहानामीष्टे । ६. वही, ३ / ४४ - स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद् भूतजयः । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद मोक्ष-पद मोक्ख-पदं मोक्ष-पदम् ११५. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तीयमणंत सा- छ्दमस्थ: भदन्त ! मनुष्य: अतीतम् अनन्तं सयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संव- शाश्वतं समयं केवलेन संयमेन, केवलेन रेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पव- संवरेण, केवलेन ब्रह्मचर्यवासेन, केवला- यणमायाहिं सिन्झिंसु? बुझिंसु? मुच्चिंसु? भि: प्रवचनमातृभिः असैत्सुः? 'बुझिसु? परिणिव्वाइंसु? सव्वदुक्खाणं अंतं करिसु? अमुचन्? परिनिरवासिषुः? सर्वदुःखाना- मन्तम् अकार्षुः? गोयमा! णो इणद्वे समठे। जहा पढमसए चउ- गौतम ! नायमर्थः समर्थः। यथा प्रथमशते त्थुद्देसे आलावगा तहा नेयन्वा जाव अलम- चतुर्थोद्देशे आलापका: तथा नेतव्या: यावद् त्थु त्ति वत्तव्वं सिया॥ अलमस्तु इति वक्तव्यं स्यात्। ११५. 'भन्ते! क्या छद्मस्थ मनुष्य इस अनन्त, शाश्वत अतीत काल में केवल संयम, केवल संवर,केवल ब्रह्मचर्यवास और केवल प्रवचनमाता की आराधना से सिद्ध हुआ? बुद्ध हुआ? मुक्त हुआ? परिनिवृत्त हुआ? और उसने सब दुःखों का अन्त किया? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में जिस प्रकार आलापक हैं उसी प्रकार यहाँ ज्ञातव्य हैं यावत् केवली समर्थ है, ऐसा कहा जा सकता भाष्य १. सूत्र ११५ द्रष्टव्य, भ. १/२००-२१० का भाष्या एवंभूय-अणेवंभूय-वेदणा-पदं एवंभूत-अनेवंभूत-वेदना-पदम् एवंभूत-अनेवंभूत-वेदना-पद ११६. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति अन्ययूथिका: भदन्त ! एवमाख्यान्ति यावत् ११६. 'भन्ते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते जाव परूवेंति-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे प्ररूपयन्ति–सर्वे प्राणा: सर्वे भूता: सर्वे हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं.-----सब प्राण, सब भूत, जीवा सव्वे सत्ता एवंभूयं वेदण वेदेति।। जीवा: सर्वे सत्त्वा: एवंभूतां वेदनां वेदयन्ति। सब जीव और सब सत्त्व एवंभूत (जिसमें जिस प्रकार कर्मों का बन्धन होता है उसी प्रकार कर्मों का वेदन करते हैं) वेदना का अनुभव करते हैं। ११७. से कहमेयं भंते! एवं? तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम्? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइ- गौतम ! यत्ते अन्ययूथिका: एवमाख्यान्ति क्खंति जावसव्वे सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति। यावत् सर्वे सत्त्वा: एवंभूतां वेदनां वेदयन्ति। जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु। अहं ये एते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः। अहं पुन: पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि गौतम ! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि —अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवं- अस्त्येकके प्राणा: भूता: जीवा: सत्त्वाः ११७. भन्ते ! यह वक्तव्य कैसा है? गौतम ! वे अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् सब सत्त्व भूत वेदना का अनुभव करते हैं। जो वे इस प्रकार कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम! मैं इस प्रकार आख्यान करता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ—कुछ एक प्राण, भूत, जीव और सत्त्व एवंभूत Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७३ श.५: उ.५: सू.११७-१२१ भूयं वेदेणं वेदेति, अत्थेगइया पाणा भूया एवंभूतां वेदनां वेदयन्ति, अस्त्येकके प्राणा: जीवा सत्ता अणेवंभूयं वेदणं वेदेति।। भूता: जीवा: सत्त्वा: अनेवंभूतां वेदनां वेद यन्ति वेदना का अनुभव करते हैं, कुछ एक प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अनेवंभूत (कर्मों के बन्धन में परिवर्तन लाकर) वेदना का अनुभव करते हैं। ११८. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थे- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अस्त्ये- ११८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-- गइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं कके प्राणा: भूता: जीवा: सत्त्वाः एवंभूतां कुछ एक प्राण, भूत, जीव और सत्त्व एवंभूत वेदना वेदेति, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता वेदनां वेदयन्ति, अस्त्येकके प्राणाः भूताः का अनुभव करते हैं, कुछ एक प्राण, भूत, जीव अणेवंभूयं वेदणं वेदेति? जीवाः सत्त्वा: अनेवंभूतां वेदनां वेदयन्ति? और सत्त्व अनेवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं? गोयमा ! जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा गौतम ! ये प्राणा: भूता: जीवा: सत्त्वा: यथा गौतम ! जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व जैसे कर्म कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति, ते णं पाणा कृतानि कर्माणि तथा वेदनां वेदयन्ति, ते किया वैसे ही वेदना का अनुभव करते हैं, वे प्राण, भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदेणं वेदेति। प्राणा: भूता: जीवा: सत्त्वाः एवंभूतां वेदनां । भूत, जीव और सत्त्व एवंभूत वेदना का अनुभव करते वेदयन्ति। जेणं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा ये प्राणा: भूता: जीवा: सत्त्वा: यथा कृतानि जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व जैसे कर्म किया वैसे नो तहा वेदणं वेदेति, ते णं पाणा भूया जीवा कर्माणि नो तथा वेदनां वेदयन्ति, ते प्राणा: ही वेदना का वेदन नहीं करते वे अनेवंभूत वेदना सत्ता अणेवंभूयं वेदणं वेदेति। से तेणटेणं भूताः जीवाः सत्त्वा: अनेवंभूता वेदनां का अनुभव करते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह गोयमा ! एवं वुच्चइ---अत्थेगइया पाणा वेदयन्ति। तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- कहा जा रहा है-कुछ एक प्राण, भूत, जीव और भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति, मुच्यते-अस्त्येकके प्राणा: भूता: जीवाः सत्त्व एवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं, कुछ एक अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवंभूयं सत्त्वा: एवंभूतां वेदनां वेदयन्ति, अस्त्येकके प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अनेवंभूत वेदना का वेदणं वेदेति । प्राणा: भूता: जीवाः सत्त्वा: अनेवंभूतां अनुभव करते हैं। वेदनां वेदयन्ति। ११९. नेरइया णं भंते ! किं एवंभूयं वेदणं नैरयिका: भदन्त ! किम् एवंभूतां वेदनां वेदेति? अणेवभूयं वेदणं वेदेति? वेदयन्ति? अनेवभूता वेदनां वेदयन्ति? गोयमा ! नेरइया णं एवभूयं पि वेदणं वेदेति, गौतम ! नैरयिकाः एवंभूतामपि वेदनां अणेवंभूयं पि वेदणं वेदेति। वेदयन्ति, अनेवंभूतामपि वेदनां वेदयन्तिा ११९. भन्ते ! नैरयिक एवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं अथवा अनेवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं? गौतम ! नैरयिक एवंभूत वेदना का भी अनुभव करते हैं और अनेवंभूत वेदना का भी अनुभव करते हैं। १२०. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते--नैरयि- १२०. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैणं एवंभूयं पि वेदणं वेदेति, अणेवंभूयं पि का: एवंभूताम् अपि वेदनां वेदयन्ति, अने- नैरयिक एवंभूत वेदना का भी अनुभव करते हैं और वेदणं वेदेति? वंभूताम् अपि वेदनां वेदयन्ति? अनेवंभूत वेदना का भी अनुभव करते हैं? गोयमा! जे णं नेरइया जहा कडा कम्मा गौतम ! ये नैरयिकाः यथा कृतानि कर्माणि गौतम ! जो नैरयिक जैसे कर्म किया, वैसे ही वेदना तहा वेदणं वेदेति, ते ण नेरइया एवंभूयं वेदण तथा वेदनां वेदयन्ति, ते नैरयिका: एवंभूतां का वेदन करते हैं, वे एवंभूत वेदना का अनुभव करते वेदेति। वेदना वेदयन्ति। जेणं नेरइया जहा कडा कम्मा नो तहा वेदणं ये नैरयिकाः यथा कृतानि कर्माणि नो तथा जो नैरयिक जैसे कर्म किया वैसे ही वेदना का वेदन वेदेति, ते णं नेरइया अणेवंभूयं वेदणं वेदेति। वेदनां वेदयन्ति, ते नैरयिका: अनेवंभूतां वेदनां । नहीं करते, वे अनेवंभूत वेदना का अनुभव करते हैं। से तेणटेणं। वेदयन्ति। तत् तेनार्थेन। इस अपेक्षा से कहा जा रहा है। १२१. एवं जाव वेमाणिया॥ एवं यावद् वैमानिकाः। १२१. इसी प्रकार वैमानिक तक सभी दंडकों में दोनों प्रकार की वेदना वक्तव्य है। Jain Education Intemational Education International Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.५: सू.११६-१२३ १७४ भगवई भाष्य १. सूत्र ११६-१२१ जैन कर्म-शास्त्र के अनुसार कर्म का वेदन एवंभूत और अनेवंभूत दोनों प्रकार से होता है। अभयदेवसूरि ने एवंभूत वेदना के सिद्धान्त की समीक्षा की है। उनके अनुसार दीर्घकाल में अनुभवनीय आयुष्य कर्म अल्पकाल में भोग लिया जाता है। अकाल मृत्यु सर्वजन-प्रसिद्ध है। यदि अकाल मृत्यु को मान्य न किया जाए तो महा संग्राम आदि में होने वाली लाखों मनुष्यों की मृत्यु की व्याख्या कैसे की जा सकती है? अनेवंभूत वेदना के समर्थन में उन्होंने आगमिक आधार प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार आगम में कर्म के स्थिति-घात और रस-घात का प्रतिपादन है। स्थितिघात का अर्थ है कर्म की स्थिति में परिवर्तन । रस-घात का अर्थ है कर्म के विपाक में परिवर्तन। यहाँ 'अन्ययूथिक' पद के द्वारा बौद्ध दर्शन विवक्षित है। उनके अनुसार कर्म का वेदन एवंभूत होता है। द्रष्टव्य भ. १/२३,२४ का भाष्य। कुलकर आदि-पद कुलगरादि-पदं १२२. संसारमंडलं नेयव्वं ।। कुलकरादि-पदम् संसार-मण्डलं नेतव्यम्। १२२. संसार-मण्डल ज्ञातव्य है। १. संसार-मंडल यह सांकेतिक पाठ है। समवाओ में इसका पूरा विवरण मिलता है। द्रष्टव्य-समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र २१८-२४७ । १२३.सेवं भंते! सेवं भंते ! तिजाव विहरइ ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद् विहरति। १२३. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है, इस प्रकार कह भगवान् गौतम यावत् विहार करते हैं। ५. भ.वृ. ५/११६ हि यथा बद्धं तथैव सर्वं कर्मानुभूयते, आयुः कर्मणो व्यभिचारात्, तथाहि---दीर्घकालानुभवनीयस्याप्यायु:कर्मणोऽल्पीयसाऽपि कालेनानुभवो भवति, कथमन्यथाऽपमृत्युल्यपदेश: सर्वजनप्रसिद्धः स्यात्? कथं वा महासंयुगादी जीवलक्षणामत्येक दैव मत्यरुपपद्यतेति? २. वही. ५/११७-यथा बद्ध कर्म नवभूता अनेवभूता अतस्ता श्रूयन्ते ह्यागमे कर्मण: स्थितिघातरसघातादय इति। Jain Education Intemational Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद अप्पायु-दीहायु-पदं अल्पायु-र्दीर्घायु:-पदम् १२४. कहण्णं भंते ! जीवा अप्पाउयत्ताए कथं भदन्त ! जीवा: अल्पायुष्यकतया कर्म कम्मं पकरेंति? प्रकुर्वन्ति? गोयमा ! पाणे अइवाएत्ता, मुसं वइत्ता, गौतम ! प्राणान् अतिपात्य, मृषां वदित्वा, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा अप्रासुकेन अणेसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइ- अनेषणीयेन अशन-पान-खाद्य-स्वाधेन मेणं पडिलाभेत्ता-एवं खल जीवा अप्पा- प्रतिलाभ्य-एवं खलु जीवा: अल्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति॥ युष्कतया कर्म प्रकुर्वन्ति। अल्पायु-दीर्घायु-पद १२४. 'भन्ते! जीव अल्प आयुष्य वाले कर्म का बन्ध कैसे करते हैं? गौतम ! प्राणों का अतिपात कर, झूठ बोल कर, तथारूप श्रमण अथवा माहन को अप्रासुक और अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित कर—इस प्रकार जीव अल्प आयुष्य वाले कर्म का बन्ध करते हैं। १२५. कहण्णं भंते! जीवादीहाउयत्ताए कम्मं कथं भदन्त ! जीवा: दीर्घायुष्कतया कर्म १२५. भन्ते ! जीव दीर्घ आयुष्य वाले कर्म का बन्ध पकरेंति? प्रकुर्वन्ति? कैसे करते हैं? गोयमा! नो पाणे अइवाएत्ता, नो मुसं वइत्ता, गौतम ! नो प्राणान् अतिपात्य, नो मृषां। गौतम ! प्राणों का अतिपात न कर ,झूठन बोल कर, तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं वदित्वा, तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा । तथारूप श्रमण अथवा माहन को प्रासुक और एषणीय एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं प्रासुकेन एषणीयेन अशन-पान-खाद्य अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करपडिलाभेत्ता-एवं खलु जीवा दीहाउयत्ताए -स्वाद्येन प्रतिलाभ्य—एवं खलु जीवा: इस प्रकार जीव दीर्घ आयुष्य वाले कर्म का बन्ध कम्म पकरेंति ॥ दीर्घायुष्कतया कर्म प्रकुर्वन्ति। करते हैं। असुभसुभ-दीहायु-पदं अशुभशुभ-दीर्घायु:-पदम् १२६. कहण्णं भंते ! जीवा असुभदीहाउयत्ताए कथं भदन्त ! जीवा: अशुभदीर्घायुष्कतया कम्मं पकरेंति? कर्म प्रकुर्वन्ति? गोयमा ! पाणे अइवाएत्ता, मुसं वइत्ता, गौतम ! प्राणान् अतिपात्य, मृषां वदित्वा, तहारूवं समण वा माहणं वा हीलित्ता निंदित्ता तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा हीलित्वा खिंसित्ता गरहित्ता अवमण्णित्ता अण्णयरेणं निन्दित्वा खिंसयित्वा गर्हित्वा अवमन्य अमणुण्णेणं अपीतिकारएणं असण-पाण- अन्यतरेण अमनोज्ञेन अप्रीतिकारकेन अ-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता–एवं खलु शन-पान-खाद्य-स्वाद्येन प्रतिलाभ्यजीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति॥ एवं खलु जीवा: अशुभदीर्घायुष्कतया कर्म प्रकुर्वन्ति। अशुभ-शुभ-दीर्घायु-पद १२६. भन्ते ! जीव अशुभ दीर्घ आयुष्य वाले कर्म का बन्ध कैसे करते हैं? गौतम ! प्राणों का अतिपात कर, झूठ बोल कर, तथारूप श्रमण अथवा माहन की अवहेलना, निन्दा, तिरस्कार, गर्दा और अवमानना कर तथा किसी प्रकार के अमनोज्ञ एवं अप्रीतिकर, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित कर जीव-इस प्रकार अशुभ दीर्घ आयुष्य वाले कर्म का बन्ध करते हैं। १२७. कहण्णं भंते ! जीवा सुभदीहाउयत्ताए कथं भदन्त! जीवा: शुभदीर्घायुष्कतया कर्म कम्म पकरेंति? प्रकुर्वन्ति? १२७. भन्ते ! जीव शुभ दीर्घ आयुष्य वाले कर्म का बन्धन कैसे करते है? Jain Education Interational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.६: सू.१२४-१२८ १७६ भगवई गोयमा! नो पाणे अइवाएत्ता, नो मुसं वइत्ता, गौतम ! नो प्राणान् अतिपात्य, नो मृषां तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमंसित्ता वदित्वा, तथारूपं श्रमणं वा, माहनं वा, जाव पज्जुवासित्ता अण्णयरेणं मणुण्णेणं वन्दित्वा नमस्थित्वा यावत् पर्युपास्य अपीतिकारएणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं न्यतरेण मनोज्ञेन प्रीतिकारकेण अशन-पानपडिलाभेत्ता- एवं खलु जीवा सुभदीहा- -खाद्य-स्वाद्येन प्रतिलाभ्य–एवं खलु उयत्ताए कम्मं पकरेंति।। जीवा: शुभदीर्घायुष्कतया कर्म प्रकुर्वन्ति। गौतम! प्राणों का अतिपात न कर, झूठ न बोल कर, तथारूप श्रमण अथवा माहन को वन्दन-नमस्कार कर यावत् उसकी पर्युपासना कर उसे किसी प्रकार के मनोज्ञ एवं प्रीतिकर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित कर-इस प्रकार जीव शुभ दीर्घ आयुष्य वाले कर्म का बन्ध करते हैं। भाष्य १. सूत्र १२४-१२७ आयुष्य-बन्ध के विषय में कर्मशास्त्रीय मत भ. आठवें शतक (सू. ४२५-४२८) में निदर्शित है। उसके अनुसार नरक आयुष्य के बन्ध में हिंसा का निर्देश है और तिर्यग्योनिक आयुष्य के बन्ध में मृषा-वचन का उल्लेख है। आहार-दान विषयक उल्लेख उनमें नहीं है। प्रस्तुत आलापक में अल्प आयुष्य और दीर्घ आयुष्य का स्पष्ट अर्थ उपलब्ध नहीं है। दुर्गति का दीर्घ आयुष्य अच्छा नहीं होता, अल्प आयुष्य अच्छा होता है। सुगति का अल्प आयुष्य अच्छा नहीं होता, दीर्घ आयुष्य अच्छा होता है। हिंसा, असत्य और अकल्पनीय वस्तु के दान से मनुष्य-गति और देवगति के आयुष्य का बन्ध नहीं होता। नरक गति में अल्प आयुष्य नहीं होता। तिर्यञ्च गति में अल्प आयुष्य होता है, इसलिए प्रस्तुत आलापक में अल्प आयुष्य का सम्बन्ध तिर्यञ्च गति के आयुष्य से होना चाहिए। अशुभ दीर्घ आयुष्य चारों गतियों में हो सकता है। शुभ दीर्घ आयुष्य (नरक गति को छोड़कर) तीनों गतियों में हो सकता है। यह पूरा आलापक ठाण में भी उपलब्ध है।२ प्रस्तुत आलापक में अप्रासुक और अनेषणीय दान के द्वारा अल्प आयु के बन्ध का निर्देश है और भ.८/२४६ में अप्रासुक और अनेषणीय दान के द्वारा निर्जरा का निर्देश है। यह विरोधाभास विमर्शनीय है। द्रष्टव्यभ. ८/२४५-२४७ का भाष्य। शब्द-विमर्श अप्रासुक-सचित्त, अनभिलषणीय (विशेष मीमांसा के लिए द्रष्टव्य भ. ११४३८, ४३९ का भाष्य)। अनेषणीय---- मुनि के लिए अकल्पनीय , अग्राह्य। कयविक्कए किरिया-पदं क्रयविक्रय-क्रिया-पदम् क्रय-विक्रय-क्रिया-पद १२८. गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्कि- गृहपते: भदन्त! भाण्डं विक्रीणानस्य कश्चिद् १२८. 'भन्ते! एक गृहपति भाण्ड बेच रहा है। उस समय णमाणस्स केइ भंड अवहरेज्जा, तस्स णं भाण्डम् आहरेत, तस्य भदन्त! भाण्डम् कोई व्यक्ति भाण्ड का अपहरण कर ले, उस अपहत भंते ! भंडं अणुगवेसमाणस्स किं आरंभिया अनुगवेषयत: किम् आरम्भिकी क्रिया भाण्डकी गवेषणा करते हुए गृहपति के क्याआरंभिकी किरिया कज्जइ? पारिग्गहिया किरिया क्रियते? पारिग्रहिकी क्रिया क्रियते? माया- क्रिया होती है? पारिग्रहिकी क्रिया होती है? कज्जइ? मायावत्तिया किरिया कज्जइ? प्रत्यया क्रिया क्रियते? अप्रत्याख्यानक्रिया मायाप्रत्यया क्रिया होती है? अप्रत्याख्यानक्रिया अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ? मिच्छा- क्रियते? मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया क्रियते? होती है? अथवा मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है? दसणवत्तियाकिरिया कज्जइ? गोयमा! आरंभिया किरिया कज्जइ, पारि- गौतम! आरम्भिकी क्रिया क्रियते, पारिग्रहि- गौतम! उसके आरंभिकी क्रिया होती है, पारिग्रहिकी ग्गहिया कि रिया कज्जइ, मायावत्तिया की क्रिया क्रियते, मायाप्रत्यया क्रिया क्रियते, क्रिया होती है, मायाप्रत्यया क्रिया होती है, अप्रत्याकिरिया कज्जइ, अपच्चक्खाणकिरिया अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते, मिथ्यादर्शन- ख्यानक्रिया होती है और मिथ्यादर्शन क्रिया कदाकज्जइ, मिच्छादसणकिरिया सिय कज्जइ, क्रिया स्यात् क्रियते, स्यान् नो क्रियते। चित् होती है, कदाचित् नहीं होती। सिय नो कज्जइ। अह से भंडे अभिसमण्णागए भवइ, तओ से अथ तद् भाण्डम् अभिसमन्वागतं भवति, जब वह अपहत भाण्ड मिल जाता है, तब वे सब पच्छा सव्वाओ ताओ पयणुईभवंति। तत: तस्य पश्चात् सर्वा: ता: प्रतनुकीभवन्तिा क्रियाएं पतली हो जाती हैं। १. द्रष्टव्य, भ. ८/४२७, ४२८॥ २. ठाणं, ३३१७-२० Jain Education Intemational Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवाई १२९. गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स कइए भंड साइज्जेजा, भंडे य से अणुवणीए सिया। गाहाबइस्स णं भंते ! ताओ भंडाओं किं आरंभिया किरिया कब? जावमिच्छा दंसणकिरिया कन्जह? कइयस्स वा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कन्जह? जाव मिच्छादंसणकिरिया कन्जइ ? गोयमा ! गाहावइस्स ताओ भंडाओ आरंभिया किरिया कज्जइ जाव अपच्चक्खाकिरिया कन्जर मिच्छादंसणकिरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ । कइयस्सणं ताओ सव्वाओ पणुईभवंति ॥ १३०. गाहाबहस्स णं भन्छे ! भं विक्किणमाणस्स कइए भंड साइज्जेजा, भंडे से उवणीए सिया । कइयस्स णं भंते ! ताओ भंडाओ कि आरंभिया किरिया कज्जह? जाव मिच्छादंसण किरिया कज्जइ ? गाहावइस्स वा ताओ भंडाओ कि आरंभिया किरिया कज्ज जाव मिच्छादंसणकिरियाकज्जइ ? गोयमा ! कइयस्स ताओ भंडाओ हेट्ठिल्लाओ बचारि किरियाओं कन्वंति मिच्छादंसणकिरिया भयणाए । गाहावइस्स णं ताओ सव्वाओ पयणुईभवंति । गृहपतेः ताः सर्वाः प्रतनुकीभवन्ति । गौतम ! क्रयिकस्य तस्माद् भाण्डाद् अधस्तना: चतस्रः क्रियाः क्रियन्ते । मिथ्यादर्शनक्रिया भजनया । 7 १३१. गाहावइस्स णं भंते! भंडं विक्किणमाणस्स कइए भंड साइज्जेचा धने व से अवणी सिया । कइयस्स णं भंते ! ताओ धणाओ कि आरं भिया किरिया कज्जइ ? जाव मिच्छादंसणकिरिया कज्जइ? गाहावइस्स वा ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया कन्ज? जावमिच्छादंसण किरिया कज्जइ ? गोयमा ! कइयस्स ताओ धणाओ हेट्ठिल्लाओ चत्तारि किरियाओ कज्जति । मिच्छादंसणकिरिया भयणाए । १७७ गृहपतेः भदन्त ! भाण्डं विक्रीणानस्य क्रयिकः भाण्डं स्वादयेत्, भाण्डं च तस्य अनुपनीतं स्यात्। गृहपतेः भदन्त ! तस्माद् भाण्डात् किम् आरम्भिकी क्रिया क्रियते ? यावन् मिथ्यादर्शनक्रिया क्रियते? क्रयिकस्य वा तस्माद् भाण्डत् किम् आरम्भिकी क्रिया क्रियते ? यावन मिथ्यादर्शनक्रिया क्रियते ? गौतम ! गृहपतेः तस्माद् भाण्डात् आरम्भिकी क्रिया क्रियते यावत् अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते मिथ्यादर्शनक्रिया स्यात् क्रियते, स्वाननो क्रियते। कायिकस्य ताः सर्वाः प्रतनुकीभवन्ति । । गृहपतेः भदन्त ! भाण्डं विक्रीणानस्य क्रयिकः भाण्डं स्वादयेत्, भाण्डं तस्य उपनीतं स्यात्। क्रयिकस्य भदन्त ! तस्माद् भाण्डात् किम् आरम्भिकी क्रिया क्रियते ? यावन् मिथ्यादर्शनक्रिया क्रियते ? गृहपतेर्वा तस्माद् भाण्डाद् किम् आरम्भि की क्रिया क्रियते यावन् मिथ्यादर्शनक्रिया क्रियते? गृहपतेः भदन्त भाण्डं विक्रीणानस्य क्रपिकः भाण्डं स्वादयेत् धनं च तस्य अनुपनीतं स्यात् । क्रयिकस्य भदन्त ! तस्माद् धनात् किम् आरम्भिकी क्रिया क्रियते ? यावन् मिथ्यादर्शनक्रिया क्रियते ? गृहपतेर्वा तस्माद् धनाद् किम् आरम्भिकी क्रिया क्रियते? बावन मिथ्यादर्शनक्रिया क्रियते ? गौतम ! क्रयिकस्य तस्माद्धनाद् अधस्तनाः चतलः क्रियाः क्रियन्ते मिथ्यादर्शनक्रिया भजनया । श. ५: उ. ६: सू.१२९-१३१ १२९ भन्ते ! एक गृहपति भाण्ड बेच रहा है, ग्राहक भाण्ड को वचनबद्ध होकर स्वीकार कर लेता है, किन्तु अभी तक उसने भाण्ड को ग्रहण नहीं किया है। भन्ते ! उस भाण्ड से गृहपति के क्या आरम्भिकी क्रिया होती है ? यावत् मिथ्यादर्शन क्रिया होती है? उस भाण्ड से ग्राहक के क्या आरम्भिकी क्रिया होती है? यावत् मिथ्यादर्शन क्रिया होती है? गौतम ! उस भाण्ड से गृहपति के आरम्भिकी क्रिया होती है यावत् अप्रत्याख्यान क्रिया होती है। मिथ्यादर्शन क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती है। ग्राहक के ये सब क्रियाएं पतली हो जाती हैं। ! १३० भन्ते एक गृहपति भाण्ड बेच रहा है, ग्राहक भाण्ड को वचनबद्ध होकर स्वीकार कर लेता है और उसे ग्रहण कर लेता है। भन्ते ! उस भाण्ड से ग्राहक के क्या आरम्भिकी क्रिया होती है? यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया होती है? उस भाण्ड से गृहपति के क्या आरम्भिकी क्रिया होती है? यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया होती है? गौतम ! उस भाण्ड से ग्राहक के प्रथम चार क्रियाएं होती है। मिथ्यादर्शनक्रिया की भजना है— कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती। गृहपति के वे सब क्रियाएं पतली हो जाती है। १३१. भन्ते ! एक गृहपति भाण्ड बेच रहा है ग्राहक भाण्ड को वचनबद्ध होकर स्वीकार कर लेता है, पर गृहपति ने धन ग्रहण नहीं किया है। भन्ते ! उस धन से ग्राहक के क्या आरम्भिकी क्रिया होती है? यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया होती है? उस धन से गृहपति के क्या आरम्भिकी क्रिया होती है ? यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया होती है ? गौतम ! उस धन से ग्राहक के प्रथम चार क्रियाएं होती हैं। मिथ्यादर्शनक्रिया की भजना है— कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.६: सू.१२८-१३२ १७८ भगवई गृहपति के वे सब क्रियाएं पतली हो जाती हैं। गाहावइस्स णं ताओ सव्वाओ पयणु- गृहपते: ता: सर्वाः प्रतनुकीभवन्ति। ईभवंति॥ १३२. गाहावइस्सणं भंते! भंडं विक्किणमाणस्स गृहपते: भदन्त ! भाण्डं विक्रीणानस्य क्रयिकः १३२. भंते ! एक गृहपति भाण्ड बैंच रहा है, ग्राहक कइए भंडं साइजेजा, धणे से उवणीए सिया। भाण्डं स्वादयेत् , धनं तस्य उपनीतं स्यात्। भाण्ड को वचनबद्ध हो कर स्वीकार कर लेता है गाहावइस्स णं भंते ! ताओ धणाओ किं गृहपतेः भदन्त ! तस्माद् धनाद् किम् आर- और गृहपति धन ग्रहण कर लेता है। आरंभिया किरिया कज्जइ? जाव मिच्छा- भिकी क्रिया क्रियते ? यावन् मिथ्यादर्शन- भन्ते! उस धन से गृहपति के क्या आरम्भिकी क्रिया दसणकिरिया कजइ ? क्रिया क्रियते? होती है? यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया होती है? " ! कइयस्स वा ताओ धणाओ किं आरंभिया क्रयिकस्य वा तस्माद् धनात् किम् आर- उस धन से ग्राहक के क्या आरम्भिकी क्रिया होती किरिया कज्जइ? जाव मिच्छादसणकिरिया भिकी क्रिया क्रियते ? यावन् मिथ्यादर्शन- है? यावत् मिथ्यादर्शनक्रिया होती है ? 4:45 कज्जइ? क्रिया क्रियते? गोयमा ! गाहावइस्स ताओ धणाओ आरं- गौतम ! गृहपतेः तस्माद् धनाद् आरम्भिकी। गौतम ! उस धन से गृहपति के आरम्भिकी क्रिया भिया किरिया कज्जइ जाव अपच्चक्खाण- क्रिया क्रियते यावद् अप्रत्याख्यानक्रिया खाण- क्रिया क्रियते यावद् अप्रत्याख्यानक्रिया होती है यावत् अप्रत्याख्यानक्रिया होती है। मिथ्याकिरिया कज्जइ । मिच्छादसणकिरिया सिय क्रियते । मिथ्यादर्शनक्रिया स्यात् क्रियते, दर्शनक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। कज्जइ, सिय नो कज्जइ। स्यान् नो क्रियते। कइयस्सणं ताओ सव्वाओ पयणुईभवंति॥ क्रयिकस्य ता: सर्वा: प्रतनुकीभवन्ति। ग्राहक के वे सब क्रियाएं पतली हो जाती हैं। भाष्य १. सूत्र १२८-१३२ है, उस समय उसके आरम्भिकी आदि चार क्रियाएं पुष्ट होती हैं। खोज करने प्रस्तुत आलापक में क्रिया के पांच सूत्र हैं। उनमें क्रिया की सघनता पर वह वस्तु मिल जाती है, तब वे क्रियाएं पतली हो जाती हैं। खोज के समय और विरलता का तुलनात्मक दृष्टि से निरूपण किया गया है। गृहपति में प्रयत्न अधिक होता है। वस्तु के मिल जाने पर प्रयत्न का विराम हो जाता है, आरम्भिकी आदि चारों क्रियाएं नियमत: होती हैं। मिथ्यादर्शन-प्रत्ययाक्रिया इसलिए वे क्रियाएं पतली (प्रतनु) हो जाती हैं। मिथ्यादर्शन में होती है, सम्यग्दृष्टि में नहीं होती, इसीलिए वह विकल्प रूप दूसरा सूत्र -खरीददार को खरीदी हुई वस्तुप्राप्त नहीं हुई इसलिए में निर्दिष्ट है: उसके तद्वस्तु विषयक क्रिया-चतुष्क प्रतनु होता है। बेची जाने वाली वस्तु १. आरम्भिकी क्रिया-जीवों के उपघात की प्रवृत्ति। अभी विक्रेता के अधिकार में है, इसलिए उसके क्रिया-चतुष्क पुष्ट होता है। २. पारिग्रहिकी क्रिया धन के अर्जन और रक्षण में मूर्छा की तीसरा सूत्र खरीददार को खरीदी हुई वस्तु प्राप्त हो गई, इसलिए उसके क्रिया-चतुष्क पुष्ट होता है, विक्रेता के क्रिया-चतुष्क प्रतनु ३. मायाप्रत्ययाक्रिया--मायात्मक प्रवृत्ति। हो जाता है। ४. अप्रत्याख्यान क्रिया-प्रत्याख्येय कषाय का प्रत्याख्यान न चौथा सूत्र खरीददार ने वस्तु खरीदने का वचन दे दिया, किन्तु करने की प्रवृत्ति विक्रेता को उसके लिए धन नहीं दिया, इस अवस्था में विक्रेता के क्रिया५. मिथ्यादर्शन क्रिया--मिथ्यादर्शनात्मक प्रवृत्ति। चतुष्क प्रतनु होता है। अभी 'धन' खरीददार के अधिकार में है, इसलिए उसके ये सब क्रियाएं कर्म के आश्रवण (बन्ध) की निमित्त बनती हैं। क्रिया-चतुष्क पुष्ट होता है। परिणाम की तीव्रता-मंदता आदि के कारण क्रिया की सघनता और विरलता पांचवा सूत्र विक्रेता को खरीददार से बेची हुई वस्तु का धन हो जाती है। उमास्वाति ने इसे विस्तार के साथ समझाया है मिल गया, इस अवस्था में विक्रेता के क्रिया-चतुष्क पुष्ट होता है। खरीददार “तीव्र मन्दज्ञाताज्ञातभाववीर्याधिकरणविशेषेभ्यस्तद् का उस धन पर अधिकार नहीं रहा, इसलिए उसके क्रिया-चतुष्क प्रतनु होता विशेषः।"" प्रस्तुत आलाप को इस सूत्र की व्याख्या के रूप में उद्धृत किया जा सकता है। पहला सूत्र—एक गृहपति अपनी चोरी गई वस्तु की खोज करता १. त.सू.भा.वृ. ६/६-भूम्यादिकायोपघातलक्षणा शुष्कतृणादिच्छेदलेखनादिका वा- ऽप्यारम्भक्रिया। प्रस्तुत आलापक का निष्कर्ष यह है कि वस्तु और धन जिसके अधिकार में होते हैं, उसके क्रिया सघन होती है, जिसके अधिकार में नहीं होते, उसके क्रिया प्रतनु होती हैं। २. वही, ६/६-बहूपायार्जनरक्षणमूर्च्छलक्षणा परिग्रहक्रिया। ३.त.सू. ६/७। Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७९ श.५: उ.६: सू.१३३,१३४ अगणिकाए महाकम्मादि पदं अग्निकाये महाकर्मादि-पदम् अग्निकाय में महाकर्म आदि-पद १३३. अगणिकाए णं भंते ! अहुणोज्जलिए अग्निकाय: भदन्त ! अधुनोज्ज्वलित: सन् १३३. 'भन्ते! तत्काल प्रज्वलित होता हुआ अग्निकाय समाणे महाकम्मतराए चेव, महाकिरिय- महाकर्मतरक: चैव, महाक्रियातरक: चैव, महाकर्म वाला, महाक्रिया वाला, महाआश्रव वाला तराए चेव, महासवतराए चेव, महावेदण- महासवतरकः चैव, महावेदनतरकः चैव और महावेदना वाला होता है और वह क्षण-क्षण तराए चेव भवइ। अहे णं समए-समए भवति। अथ समये-समये व्यपकृष्यमाण:- क्षीण होता हुआ अन्तिम समय में कोयला बन जाता वोक्कसिज्जमाणे-वोक्कसिज्जमाणे चरि- व्यपकृष्यमाण: चरमकालसमये अङ्गारभूत: है, मुर्मर बन जाता है, क्षार बन जाता है, क्या उसके मकालसमयंसि इंगालब्भूए मुमुरब्भूए छा- मुर्मुरभूत: क्षारिकाभूत: ततः पश्चात् पश्चात् वह अल्प कर्म वाला, अल्प क्रिया वाला, रियभूए, तओ पच्छा अप्पकम्मतराए चेव, अल्पकर्मतरकः चैव, अल्पक्रियातरक: अल्प आश्रव वाला और अल्प वेदना वाला होता अप्पकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव, चैव, अल्पास्रवतरकः चैव अल्पवेदनअप्पवेयणतराए चेव भवइ? तरकः चैव भवति? हंता गोयमा! अगणिकाए णं अहुणोज्जलिए हन्त गौतम ! अग्निकाय: अधुनोज्ज्वलितः हां, गौतम ! तत्काल प्रज्वलित होता हुआ अग्निसमाणे तं चेव॥ सन् तच्चैव। काय महाकर्म वाला यावत् क्षीण होता हुआ अल्प वेदना वाला होता है। भाष्य १. सूत्र १३३ अग्नि में ये सब अल्प होते हैं। कर्म और आश्रव की अधिकता दाह की प्रस्तुत सूत्र में अग्नि की दो अवस्थाओं का सापेक्ष प्रतिपादन है। अधिकता के कारण ही मानी गई है। दाह-क्रिया अल्प होने पर शेष सब तत्काल प्रज्वलित अग्नि में क्रिया-दाहात्मक क्रिया अधिक होती है। अपने आप अल्प हो जाते हैं। बुझती हुई अग्नि में क्रिया–दाहात्मक क्रिया—अल्प होती है। तत्काल वृत्तिकार ने अंगार और मुर्मुर के प्रसंग में अल्प शब्द का अर्थ प्रज्वलित अग्नि में दाहक्रिया अधिक होती है, इसलिए उसके कर्मबन्ध स्तोक' किया है। राख अचित्त हो जाती है, इस अपेक्षा से क्षार के प्रसंग में और आश्रव अधिक होते हैं। प्रज्वलन-अवस्था में अग्निकायिक जीवों में अल्प' शब्द का अर्थ अभाव किया है। परस्पर शरीर-संघर्षण से उत्पन्न वेदना अधिक होती है। बुझती हुई धणुपक्खेवे किरिया-पदं धनु:प्रक्षेपे क्रिया-पदम् १३४. पुरिसे णं भंते! धणुं परामुसइ, परामुसित्ता पुरुष: भदन्त ! धनु: परामृशति, परामृश्य इषु उसुं परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठिच्चा परामृशति, परामृश्य स्थाने तिष्ठति, स्थित्वा आयतकण्णायतं उसु करेति, उढं वेहासं आयतकर्णाऽऽयत्तम् इषु करोति, ऊर्ध्वं उसु उम्विहइ। विहायसि इषुम् उत्क्षिपति। तए णं से उसू उड्ढे वेहासं उविहिए समाणे तत: स इषु: ऊर्ध्वं विहायसि उत्क्षिप्तः सन् जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई ___ यान् तत्र प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् अभिहणइ वतेति लेसेति संघाएइ संघट्टेति अभिहन्ति वर्तयति श्लेषति संघातयति परितावेइ किलामेइ, ठाणाओ ठाणं संकामेइ, संघट्टयति परितापयति क्लमयति, स्थानात् जीवियाओ ववरोवेइ। तए ण भंते ! से पुरिसे स्थानं संक्रमयति जीविताद् व्यपरोपयति। कतिकिरिए? तत: भदन्त ! स पुरुष: कतिक्रियः? धनु:प्रक्षेप में क्रिया-पद १३४. ' भन्ते ! एक पुरुष धनुष हाथ में लेता है, लेकर बाण को धनुष पर चढ़ाता है, चढ़ा कर स्थान (वैशाख नाम युद्ध की मुद्रा) में खड़ा होता है, खड़ा हो कर बाण को कान की लम्बाई तक खींचता है और ऊपर आकाश की ओर उसे फेंकता है। ऊपर आकाश की ओर फेंका हुआ वह बाण, वहाँ जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व हैं, उनका अभिघात करता है, उनका वर्तुल बनाता है, उन्हें चोट पहुँचाता है, उनके अवयवों को संहत करता है, उन्हें संचालित करता है, परितप्त करता है, क्लान्त करता है, स्थानान्तरित करता है और उनका प्राण-वियोजन करता है। भन्ते ! उस बाण को फेंकने वाला पुरुष कितनी क्रिया से स्पृष्ट होता है? १. भ. वृ. ५/१३३---अंगाराद्यवस्थामाश्रित्य अल्पशब्द: स्तोकार्थः, क्षारावस्थायां त्वभावार्थः। Jain Education Intemational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.६:सू.१३४,१३५ १८० भगवई गोयमा! जावं चणं से पुरिसे धणुं परामुसइ, गौतम ! यावच् च स पुरुष: धनु: परामृशति उसुं परामुसइ, ठाणं ठाइ, आयतकण्णायतं इषु परामृशति, स्थाने तिष्ठति, आयत- उसुं करेंति, उद्धं वेहासं उसु उब्विहइ, तावं कर्णाऽऽयत्तम् इधुं करोति, ऊर्ध्व विहायति च णं से पुरिसे काइयाए अहिगरणियाए, इषुम् उत्क्षिपति, तावच् च स पुरुष: कायि- पाओसियाए, पारियावणियाए, पाणाइवाय- क्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारिकिरियाए---पंचहि किरियाहिं पुढे। जेसि पि तापनिक्या, प्राणातिपातक्रिययापञ्चभिः य णं जीवाणं सरीरेहिं धणू निव्वत्तिए ते वि क्रियाभिः स्पृष्टः। येषामपि च जीवानां यण जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं शरीरैः धनुः निर्वर्तितं तेऽपि च जीवा: पुट्ठा। एवं धणुपट्टे पंचहिं कि रियाहिं, जीवा कायिक्या यावत् पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः। पंचहि, हारू पंचहिं, उसू पंचहिं—सरे, एवं धनुःपृष्ठं पञ्चभिः क्रियाभिः, जीवा: पत्तणे, फले, हारू पंचहिं। पञ्चभिः, स्नायु: पञ्चभिः, इषुः पञ्चभिः —शरः, पत्रणं, फलं, स्नायु: पञ्चभिः। गौतम ! जिस समय वह पुरुष धनुष हाथ में लेता है, लेकर बाण को धनुष पर चढ़ाता है, चढ़ाकर स्थान (वैशाख नामक युद्ध की मुद्रा) में खड़ा होता है, खड़ा होकर बाण को कान की लम्बाई तक खींचता है और ऊपर आकाश की ओर उसे फेंकता है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया —इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से धनुष बना, वे जीव भी कायिकी यावत् पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। इसी प्रकार जिन जीवों के शरीर से धनु:पृष्ठ , प्रत्यञ्चा, स्नायु और बाण बने, वे जीव पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। शर, बाण का पक्ष, बाण काफलक और स्नायुये सब जिन जीवों के शरीर से बने हैं, वे जीव भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। १३५. अहे णं से उसू अप्पणो गुरुत्ताए, भारि- अथ स इषु: आत्मन: गुरुकतया, भारिकतया, १३५. वह बाण अपनी गुरुता से, भारीपन से, गुरुतम यत्ताए, गुरुसंभारियत्ताए अहे वीससाए गुरुसंभारिकतया अधो विस्रसात: प्रत्यवपतन् भारीपन से स्वाभाविक रूप से नीचे आता हुआ पच्चोवयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाव यान् तत्र प्राणान् यावज्जीविता व्यपरोपयति वहाँ रहे हुए प्राण यावत् सत्त्वों का प्राण-वियोजन जीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे तावच् च स पुरुष: कतिक्रियः? करता है, तब वह पुरुष कितनी क्रियाओं से स्पृष्ट कतिकिरिए? होता है? गोयमा! जावं चणं से उसू अप्पणो गुरुयत्ताए गौतम ! यावच् च स इषुः आत्मन: गुरुकतया गौतम ! जिस समय बाण अपनी गुरुता से यावत् प्राण जाव जीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से यावज् जीविताद् व्यपरोपयति तावच् च स का वियोजन करता है, तब वह पुरुष कायिकी यावत् पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढे। पुरुष: कायिक्या यावच् चतसृभिः क्रियाभिः चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर जेसि पियणं जीवाणं सरीरेहिंधणू निव्वत्तिए स्पृष्ट :। येषामपि च जीवानां शरीरैः धनुः ___ से धनुष, धनु:पृष्ठ , प्रत्यञ्चा और स्नायु बने हैं, वे ते विजीवा चउहि किरियाहिं, धणुपट्टे चउहिं, निर्वर्तितं तेऽपि जीवा: चतसृभिः क्रियाभिः जीव भी चार क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। बाण, शर, जीवा चउहि, हारू चउहिं, उसू पंचहिं- धनु:पृष्ठं चतसृभिः, जीवा: चतसृभिः, स्नायु: बाण का पक्ष, बाण काफलक और स्नायु-ये सब सरे, पत्तणे, फले, हारू पंचहि। जे वि य से चतसृभिः, इषुः पञ्चभिः-शर: पत्रणं, फलं जिन जीवों के शरीर से बने हैं, वे जीव पांच क्रियाओं जीवा अहे पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे वटुंति स्नायु: पञ्चभिः। येऽपि च तस्य जीवा: अधः से स्पृष्ट होते हैं। जो जीव नीचे गिरते हुए बाण के ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं प्रत्यवपतत: उपग्रहे वर्तन्ते तेऽपि च जीवा: आलम्बन बनते हैं, वे जीव भी कायिकी यावत् पांच किरियाहिं पुट्ठा। कायिक्या यावत् पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः। क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। भाष्य १. सूत्र १३४,१३५ कर्म का बन्ध हो तो मुक्त जीवों के शरीर से भी कर्म का बन्ध माना जाना बाण फेंक कर प्राणियों को परिताप देने वाला और उनका चाहिए। उनका शरीर भी प्राणातिपात का हेतु बन सकता है। जैसेधनुष्य आदि वध करने वाला पुरुष पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। यह विषय बुद्धिगम्य है। का शरीर क्रियाओं का हेतु बनता है, वैसे ही कुछ वनस्पति-जीवों के शरीर से किन्तु जिन जीवों के शरीर से धनुष्य, जीवा (प्रत्यञ्चा) आदि का निर्माण पात्र आदि उपकरणों का निर्माण होता है। वे जीव रक्षा के हेतु बनते हैं, हुआ है, वे जीव भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं, यह विषय बुद्धिगम्य नहीं इसलिए उनसे पुण्य कर्म का बन्ध होना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर है-बन्ध अविरति के परिणाम से होता है। अविरति का परिणाम जैसे पुरुष में है वैसा ही वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है कि यदि अचेतन शरीर से भी उन जीवों में है, जिनके शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण हुआ है। मुक्त जीवों Jain Education Intemational Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई में अविरति नहीं है, इसलिए उनका शरीर यदि प्राणातिपात का निमित्त बने, तो भी उनके कर्म-बन्ध नहीं होता। जिन जीवों के शरीर से पात्र आदि का निर्माण हुआ है, उनमें पुण्य का हेतुभूत विवेक नहीं है, इसलिए उनके पुण्य का बन्ध नहीं होता । वृत्तिकार ने अन्त में इस विषय को श्रद्धागम्य बतलाया है।" वृत्तिकार की समीक्षा में कुछ आलोचनीय है। अविरति का परिणाम बाण फेंकने वाले पुरुष और जिनके शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण हुआ है, उन जीवों में समान हो सकता है। किन्तु बन्ध का हेतु केवल अविरति का परिणाम ही नहीं है, शरीर और मन का दुष्प्रयोग भी है। कायिकी क्रिया के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं— अनुपरतकाय - क्रिया और दुष्प्रयुक्त काय-क्रिया। अनुपतकाय - क्रिया का सम्बन्ध अविरति से है। बाण फेंकने वाले पुरुष के का योग अशुभ होता है। इसलिए उसके अनुपरतकायिकी और दुष्प्रयुक्त काकी दोनों क्रियाएं होती हैं। किन्तु बाण निर्वर्त्तक शरीर वाले जीवों के केवल अनुपरतकाय क्रिया होती है, दुष्प्रयुक्तकाय क्रिया नहीं होती। शेष क्रियाएं भी उन जीवों के इसलिए होती हैं कि उनके परिताप आदि करने का प्रत्याख्यान नहीं है। बाण फेंकने वाले पुरुष का मनोयोग और काययोग दोनों परिताप आदि करने में प्रवृत्त हैं, इसलिए उसके अविरति और अशुभ योग ये दोनों क्रिया के हेतु बनते हैं। अविरति का परिणाम केवल उन जीवों में ही नहीं होता जिनके शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण हुआ है। यह उन जीवों में भी है जिनके शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण नहीं हुआ है। फिर उनके लिए ही क्रिया का उल्लेख क्यों? १८१ इस प्रश्न के उत्तर में दो संभावनाएं की जा सकती हैं। प्रथम संभावना यह है—एक सामान्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है— जिनके प्रत्याख्यान नहीं होता, अविरति का परिणाम होता है और अविरति परिणाम के कारण वे क्रिया से स्पृष्ट होते हैं। दूसरी संभावना-जिन जीवों के शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण हुआ है, उन जीवों का अपने-अपने शरीर के प्रति अण्णउत्थिय-पदं १३६. अण्णउत्थिया णं भंते! एवमातिक्खति जाव परूवेंति—से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी श. ५:३. ६: सू. १३४-१३६ ममत्व का अनुबन्ध होता है। इस अपेक्षा को ध्यान में रखकर उनके लिए क्रिया से स्पृष्ट होने का निर्देश किया गया है। इन दोनों संभावनाओं में क्रिया के स्पर्श का मुख्य कारण अविरति परिणाम ही माना जा सकता है। बाण अपने भारीपन के कारण नीचे जाता है। उससे प्राणियों का परिताप और वध होता है। इस घटना में बाण फेंकने वाले को गौण मानकर उसके चार क्रियाओं का स्पर्श बतलाया गया है। धनुष्य के निर्वर्तक शरीर वाले जीवों के पांच क्रियाओं के स्पर्श का प्रतिपादन किया गया है। शब्द-विमर्श १. भ. बृ. ५/१३४ - ननु पुरुषस्य पञ्च क्रिया भवन्तु, कायादिव्यापाराणां तस्य दृश्यमानत्वात्, धनुरादिनिर्वर्त्तकशरीराणां तु जीवानां कथं पञ्च क्रिया:? कायमात्रस्यापि तदीयस्य तदानीमचेतनत्वात् अचेतनकायमात्रादपि बन्धाभ्युपगमे सिद्धानामपि तत्प्रसन्नः तदीयशरीराणामपि प्राणातिपातहेतुत्वेन लोके विपरिवर्त्तमानत्वात् किञ्च यथा धनुरादीनि कायिक्यादिक्रियाहेतुत्वेन पापकर्मबन्धकारणानि भवन्ति तज्जीवानामेवं पात्रदण्डकादीनि जीवरक्षाहेतुत्वेन पुण्यकर्मनिबन्धनानि स्युः न्यायस्य समानत्वाद् इति, अत्रोच्यते, अविरतिपरिणामाद् बन्धः अविरतिपरिणामश्च यथा पुरुषस्यास्ति एवं धनुरादिनिर्वर्त्तकशरीरजीवानामपीति सिद्धानां तु नास्त्यसाविति न बन्धः, पात्रादि परामुसइ — स्पर्श करता है, हाथ में लेता है। ठाणं ठाइ – वैशाख नामक युद्ध की मुद्रा में खड़ा होता है। आयत प्रक्षेप के लिए फैलाया हुआ । -कान तक खींचा हुआ। कण्णायत बेहास विहायस, आकाश । पर फेंकना, बाँधना। अन्ययूथिक पदम् अन्ययधिकाः भदन्त ! एवमाख्यान्ति यावत् प्ररूपयन्ति तद् यथानाम युवतिं युवा हस्तेन हस्तं गृह्णीयात्, चक्रस्य वा नाभिः - - उच्चिहड़ बचेति गोलाकार करता है, दिशा परिवर्तन करता है। लेसेति — चोट पहुँचाता है। संघाएक-एक दूसरे के अवयवों को संहत करता है। संघट्टेति संचालित करता है। धणुपट्ट (धनुः पृष्ठ) धनुष का पृष्ठ भागा जीवा - प्रत्यञ्चा - धनुष की डोरी । हारू (स्नायु ) - पशु के स्नायु से बनने वाली धनुष की छोरी। सर—बाण | पत्तण (पत्रण ) - बाण का पंख या पक्ष फल- बाण का फलक । पच्चोवयमाण नीचे गिरते हुए । आलम्बन । उवग्गह (उपग्रह) अन्ययूथिक पद - १३६. 'भन्ते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं—जैसे कोई युवा युवती का हाथ अपने हाथ में पकड़ता है, जैसे चक्र की जीवानां च न पुण्यबन्धहेतुत्वं तद्धेतोर्विवेकादेस्तेष्वभावादिति, किञ्च सर्वज्ञवचनप्रमाण्याद्यथोक्तं तत्तथा श्रद्धेयमेवेत्ति । २. भ. ३/१३५ ३. भ. वृ. ५/ १३५ - इह धनुष्मदादीनां यद्यपि सर्वक्रियासु कथञ्चिन्निमित्तभावोऽस्ति तथाऽपि विवक्षितबन्धं प्रत्यमुख्यप्रवृत्तिकतया विवक्षितवधक्रियायास्तैः कृतत्वेनाविवक्षणाच्छेषक्रियाणां च निमित्तभावमात्रेणापि तत्कृतत्वेन विवक्षणाच्चतस्रस्ता उक्ता: । बाणादिजीवशरीराणां तु साक्षाद् वधक्रियायां प्रवृत्तत्वात्पञ्चेति । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५:३.६ : सू.१३६-१३८ अरगाउता सिवा, एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमाइणे मणुयलोए मणुस्सेहिं १३७. से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमातिक्खति जाव बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणुस्सेहिं । जे ते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परुवेगि― से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थे हत्थे गेहेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयसाई बहुसमाइणे निरयलोए नेरइएहिं ॥ नेरइयविवणापदं १३८. नेरइया णं भंते! किं एगत्तं पभू विउब्वितए? पुहत्तं पभू विउव्वित्तए ? १. सूत्र १३६-१३७ प्रस्तुत आलापक में विभंग ज्ञान के विपर्यय का निदर्शन है। विभंगज्ञानी नरक के स्थान पर मनुष्य लोक और नैरयिक के स्थान पर गोयमा ! एगत्तं पि पहू विउव्वित्तए, पुहत्तंपि पहू विउव्वित्तए । जहा जीवाभिगमे आलाant तहा नेयव्वो जाव विउव्वित्ता अण्णमण्णस्स कार्य अभिहणमाणा- अभिहणमाणा वेयणं उदीरेति उज्जलं विजलं गाढं कक्कसं कडु फस्सं निठुरं चंडं तिब्वं दुक्खं दुग्गं दुरहिया || - १८२ अरकायुक्ता स्याद् एवमेव यावच् चत्वारि पञ्च योजनशतानि बहुसमाकीर्णः मनुजलोकः मनुष्यैः । तत् कथमेतद् एवम्? गौतम! यत्ते अन्ययूथिकाः एवमाख्याति यावत् बहुसमाकीर्णः मनुजलोकः मनुष्यैः । ये एते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः। अहं पुनः गौतम! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामितद् यथानाम सुनतिं युवा हस्तेन हस्त गृह्णीयात्, चक्रस्य वा नाभि: अरकायुक्ता स्यात्, एवमेव यावच् चत्वारि पञ्च योजनशतानि बहुसमाकीर्णः निरयलोकः नैरयिकैः । भाष्य नैरयिकविकरण-पदम् नैरविका भदन्त किम् एकत्वं प्रभवः विकर्तुम् ? पृथक्त्वं प्रभवः विकर्तुम् ? गौतम ! एकत्वमपि प्रभवः विकर्तुम्, पृथक्त्वमपि प्रभवः विकर्तुमा यथा जीवाभिगमे आलापकः तथा नेतव्य: यावद् विकृत्य अन्योन्यस्व कार्य अभिघ्नन्त:- अभिघ्नन्तः वेदनाम् उदीरयन्ति उन्न्वतां विपुलां प्रगाढां कर्कशाम् कटुकां परुषां निष्ठुरां चण्डां तीव्रां दुःखां दुर्गां दुरध्यासाम्। भाष्य १. सूत्र १३८ प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक जीवों की विक्रिया का वर्णन है। नैरयिक जीवों का शरीर वैक्रिय होता है। वे अपनी वैक्रिय शक्ति के द्वारा एक या १. (क) जीवा. वृ. प. १२० संबद्धानि स्वात्मन: शरीरसंलग्नानि 'नासंबद्धानि' न स्वशरीरात् पृथग्भूतानि स्वशरीरात पृथग्भूतकरणे शक्त्यभावात् । (ख) द्रव्य भ. २/७४ का भाष्या मनुष्य को जान लेता है, यह उसका विपरीत ज्ञान है। द्रष्टव्य, भ. ३/२२२-२३९। भगवई नाभि आरों से युक्त होती है, इसी प्रकार यावत् चार सौ पांच सौ योजन वाला मनुष्य-लोक मनुष्यों से अत्यन्त आकीर्ण है। १३७. भन्ते! यह ऐसे कैसे है? गौतम ! वे अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं। यावत् मनुष्य लोक मनुष्यों से अत्यन्त आकीर्ण है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम मैं ऐसा आख्यान करता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँजैसे कोई युवा युवती का हाथ अपने हाथ में पकड़ता है, जैसे चक्र की नाभि आरों से युक्त होती है, इसी प्रकार यावत् चार सौ पांच सौ योजन वाला नरकलोक नैरयिकों से अत्यन्त आकीर्ण है। नैरयिकविक्रिया-पद १३८. ' भन्ते ! नैरयिक एक (शस्त्र) की विक्रिया करने में समर्थ है अथवा अनेक (शस्त्रों) की विक्रिया करने में समर्थ हैं? गौतम! एक (शस्त्र) की भी विक्रिया करने में समर्थ हैं, अनेक ( शस्त्रों) की भी विक्रिया करने में समर्थ है। जीवाजीवाभिगम में जैसा आलापक है, वैसा ही ज्ञातव्य है यावत् वे शस्त्रों की विक्रिया कर परस्पर एक-दूसरे के शरीर का अभिघात करते हुए उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, प्रचण्ड, तीव्र दुख, दुर्गम और दुःसह वेदना की उदीरणा करते हैं। अनेक शस्त्रों का निर्माण कर सकते हैं। उनमें अपने शरीर से भिन्न रूपों का निर्माण करने की शक्ति नहीं होती। १ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १८३ श.५: उ.६:सू.१३८-१४४ शब्द-विमर्श उज्ज्वल--अधिक प्रज्वलित, जिसमें सुख का लेश भी न हो। विपुल-शरीर -व्यापी कर्कश-अनिष्ट दुर्गम—जिसका पार पाना कठिन हो। दुःसह-जिसे सहन करना कठिन हो। आहाकम्मादिआहारे आराहणादि-पदं आधाकर्माद्याहारे-आराधनादि-पदम् आधाकर्म आदि आहार के सम्बन्ध में आरा धनादि-पद १३९. आहाकम 'अणवज्जे' त्ति मण आधाकर्म 'अनवद्यम्' इति मन: प्रधारयिता १३९. आधाकर्म अनवद्य है, इस प्रकार जो मानसिक पहारेत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स भवति, स तस्मात् स्थानाद् अनालोचित- प्रधारणा करता है, वह उस स्थान की आलोचना अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ----नत्थि प्रतिक्रान्त: कालं करोति-नास्ति तस्य और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त होता तस्स आराहणा। से णं तस्स ठाणस्स आराधना। स तस्मात् स्थाना आलोचित- है-उसके आराधना नहीं होती। वह उस स्थान की आलोइयपडिक्कते कालं करेइ-अत्थि प्रतिक्रान्त: कालं करोति-अम्ति तस्य आलोचना और प्रतिक्रमण कर कालधर्म को प्राप्त तस्स आराहणा। आराधना। होता है----उसके आराधना होती है! १४०. एएण गमेण नेयव्वं-कीयगडं, ठवियं, ___ एतेन गमेन नेतव्यं—क्रीतकृत, स्थापितं, १४०. इसी गमक के अनुसार क्रीतकृत, स्थापित, रइयं, कंतारभत्तं दुभिक्खभत्तं वद्दलिया- रचितं, कान्तारभक्तं, दुर्भिक्षभक्त, बार्दलि- रचित, कान्तार-भक्त, दुर्भिक्ष-भक्त, बार्दलिकाभत्त, गिलाणभत्तं, सेज्जायरपिंडं, रायपिंड। काभक्तं, ग्लानभक्तं, शय्यातरपिण्ड, राज- भक्त, ग्लान-भक्त, शय्यातरपिण्ड और राजपिण्ड पिण्डम्। ज्ञातव्य है। १४१. आहाकम्म 'अणवज्जे' ति सयमेव आधाकर्म अनवद्यमिति स्वयमेव परिभोक्ता १४१. आधाकर्म अनवद्य है, ऐसा सोचकर जो स्वयं परिभुंजित्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स भवति, स तस्मात् स्थानाद् अनालोचित- उसका परिभोग करता है, वह उस स्थान की आलो. अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ-त्थि प्रतिक्रान्त: कालं करोति-नास्ति तस्य चना और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त तस्स आराहणा। से णं तस्स ठाणस्स आराधना। स तस्मात् स्थानाद् आलोचित- होता है--उसके आराधना नहीं होती। वह उस स्थान आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ-अत्थि प्रतिक्रान्त: काल करोति-अस्ति तस्य की आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल-धर्म को तस्स आराहणा॥ आराधना। प्राप्त होता है--उसके आराधना होती है! १४२. एवं पि तह चेव जाव रायपिड।। एतदपि तथा चैव यावद् राजपिण्डम्। १४२. क्रीतकृत का परिभोग यावत् राजपिण्ड का परिभोग पूर्व सूत्र (१४०) की भांति वक्तव्य है। १४३. आहाकम्म अणवज्जे' त्ति अण्णमण्ण- आधाकर्म 'अनवद्यम्' इति अन्योन्यस्मै १४३. आधाकर्म अनवद्य है, ऐसा सोचकर जो परस्पर स्स अणुप्पदावइत्ता भवइ, सेणं तस्स ठाणस्स अनुप्रदापयिता भवति, स तस्मात् स्थानाद ____अनुप्रदान करता है, वह उस स्थान की आलोचना अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ-नत्थि अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति- और प्रतिक्रमण किए बिना काल-धर्म को प्राप्त होता तस्स आराहणा। से णं तस्स ठाणस्स नास्ति तस्य आराधना । स तस्मात स्थानाद् है.--- उसके आराधना नहीं होती। जो उस स्थान की आलोइय-पडिक्कंते कालं करेइ--अस्थि आलोचित-प्रतिक्रान्त: कालं करोति-... आलोचना और प्रतिक्रमण कर काल-धर्म को प्राप्त तस्स आराहणा॥ अस्ति तस्य आराधना। होता है उसके आराधना होती है। १४४, एवं पि तह चेव जाव रायपिंडं। एतद् अपि तथा चैव यावद् राजपिण्डम्। १४४. क्रीतकृत का परस्पर अनुप्रदान यावत् राजपिण्ड का परस्पर अनुप्रदान पूर्वसूत्र (१४३) की भांति वक्तव्य है। Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५: उ. ६ : सू. १३९-१४६ १४५. आहाकम्मं णं ‘अणवज्जे' त्ति बहुजणमज्झे पण्णवइत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेड़ —त्थि तस्स आराहणा । से णं तस्स ठाणस्स आलोय पहिक्कते कालं करेड़अत्थि तस्स आराहणा ।। १४६. एयं पि तह चैव जाव रायपिंडं || भगनई ५ / १३९, १४० आहाकम्म कीयगड ठविय रइय कंतारभत्त दुब्धिभत बद्दलिया भत्त गिलाणभत्त सेज्जारपिंड रायपिंड १. सूत्र ९३९-१४६ प्रस्तुत आलापक में आधाकर्म के विषय में चार सूत्र हैं१. आधाकर्म अनवद्य है— इस प्रकार की मानसिक अवधारणा करना । २. आधाकर्म को अनवद्य मानकर स्वयं उसका परिभोग करना। ३. आधाकर्म को अनवद्य मानकर उसे परस्पर लेना-देना । ४. आधाकर्म अनवद्य हैजनता के बीच इस प्रकार का प्रज्ञापन करना। इन चार दोषों का आचरण कर उसकी आलोचना न करना विराधना है। ये आचार-विषयक सूत्र हैं। आहार मुनि के आचार का एक अंग १. भ. ९/१७७, नाया. -१/१/११३. ठाणं ९/६२ आहाकम्मिय उद्देसिय मीसजाय अज्झोयरय पूतिय आधाकर्मम् 'अनवद्यम्' इति बहुजनमध्ये प्रज्ञापयिता भवति । स तस्मात् स्थानात् अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोतिनास्ति तस्य आराधना । स तस्मात् स्थानाद् आलोचित प्रतिक्रान्तः कालं करोतिअस्ति तस्य आराधना । एतद् अपि तथा चैव यावद् राजपिण्डमा फीत १८४ पामिन्स अच्छेज्ज अणिसट्ठ अभिव कंतारभत्त टुम्बिक्यात गिलाणभत्त बदलियाभत्त पाहुणभत्त भाष्य है। भगवान् महावीर ने मुनि के लिए निर्दोष आहार लेने का विधान किया। सदोष आहार को निर्दोष मानना यह आचार विषयक मिथ्या दृष्टिकोण है। सदोष आहार का परिभोग करना तथा उसका परस्पर लेन-देन करना आचार की मर्यादा का अतिक्रमण है। सदोष का निर्दोष के रूप में प्रज्ञापन करना आचार-विषयक मिथ्या धारणा का प्रसारण है। आगम साहित्य में आहार विषयक दोषों के अनेक वर्गीकरण मिलते हैं। देखें तालिका आहाकम्मिय उद्दे मीसजाय कीयगड पामिच्च असोज अगि अभिहड भगवई १४५. आधाकर्म अनवद्य है, इस प्रकार जो बहुजनों के बीच प्रज्ञापन करता है, वह उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना काल धर्म को प्राप्त होता है—उसके आराधना नहीं होती। जो उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर कालधर्म को प्राप्त होता है—उसके आराधना होती है। - १४६. क्रीतकृत का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन यावत् राजपिण्ड का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन पूर्व सूत्र (१४५ ) की भांति वक्तव्य है। आयारचूला १/२९ दसवे आलियं ३/२, ३, ५, ५/१/५५ उदेसिय कीड नियाग अभिहड रायविंड १ भगवती के नौवें शतक तथा नायाधम्मकहाओ में भी आधाकर्मिक आदि दोषों का उल्लेख मिलता है।' - किमचिम्भ सेज्जापरपिंड पूइकम्म अज्झोयर पामिच्च मीसजाय Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १८५ श.५: उ.६: सू.१३९-१४७ शब्द-विमर्श आधाकर्म-केवल साधु के लिए किया हुआ। द्रष्टव्य भ. १/४३६, ४३७ का भाष्य । क्रीतकृत-मुनि के लिए खरीदा हुआ। स्थापित-मुनि के लिए स्थापित किया हुआ। रचित-मुनि के लिए चूरमे से चूरमे का लड्डु बना देना। कान्तारभक्त अटवी में मुनि के निर्वाह के लिए बनाया हुआ भोजन । प्राचीनकाल में मुनियों का गमनागमन सार्थवाहों के साथ-साथ होता था। कभी वे अटवी में साधु पर दया ला कर उनके लिए भोजन बना कर दे देते थे। इसे कान्तारभक्त कहा जाता है। दुर्भिक्षभक्त-भयंकर दुष्काल होने पर राजा तथा अन्य धनाढ्य व्यक्ति श्रमणों के लिए भक्तपान तैयार कर देते थे, वह दुर्भिक्षभक्त कहलाता था। बादीलकाभक्त-आकाश में बादल छाए हुए हैं। वर्षा गिर रही है। ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा के लिए नहीं जा सकते। यह सोच कर गृहस्थ उनके लिए विशेषत: दान का निरूपण करता है—निर्माण करता है। यह बालिकाभक्त कहलाता है। ग्लानभक्त-इसके तीन अर्थ हैं१. ग्लान की नीरोगता के लिए दिया जाने वाला भोजन। २. भिक्षुक को देने के लिए बनाया हुआ भोजन।' ३. आरोग्यशाला (अस्पताल) में दिया जाने वाला भोजन।' शय्यातरपिण्ड-स्थानदाता के घर से भिक्षा लेना। राजपिंड-मूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा लेना। आयरिय-उवज्झायस्स सिद्धि-पदं आचार्योपाध्याययोः सिद्धि-पदम् आचार्य-उपाध्याय की सिद्धि का पद १४७. आयरिय-उवज्झाए णं भंते ! सविसयंसि आचार्योपाध्याय: भदन्त ! स्वविषये गणं १४७. भन्ते ! आचार्य और उपाध्याय अपने विषय गणं अगिलाए संगिण्हमाणे,अगिलाए उव- आलान्या संगृह्णन्, अग्लान्या उपगृह्णन् (अर्थदान और सूत्रदान) में अग्लान भाव से गण का गिण्हमाणे कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव कतिभि: भवग्रहणैः सिद्धयति यावत् सर्व- संग्रह करते हुए और अग्लान भाव से गण का उपग्रह सव्वदुक्खाणं अंतं करेति? दु:खानाम् अन्तं करोति? करते हुए कितने भवग्रहणों से सिद्ध होते हैं यावत् सब दु:खों का अन्त करते हैं ? गोयमा ! अत्थेगतिए तेणेव भवग्गहणेणं गौतम ! अस्त्येककः तेनैव भवग्रहणेन गौतम ! कुछ (आचार्य-उपाध्याय) उसी भव में सिद्ध सिज्झति, अत्थेगतिए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिद्धयति, अस्त्येककः द्वितीयेन भवग्रहणेन हो जाते हैं, कुछ दूसरे भव में सिद्ध हो जाते हैं, वे सिज्झति, तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमति। सिद्धयति, तृतीयं पुन: भवग्रहणं नाति- तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते-तीसरे भव में क्रामति वे अवश्य सिद्ध होते हैं। भाष्य १. सूत्र १४७ गण का संग्रह और उपग्रह करने वाला आचार्य-उपाध्याय बहुत निर्जरा करता है, इसलिए वह शीघ्र मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। मोक्ष-प्राप्ति की तीन काल-मर्यादाएं बतलाई गई हैं १. उसी जन्म में मोक्ष-प्राप्ति २. दूसरे जन्म में मोक्ष-प्राप्ति। इसका तात्पर्य है तीसरे जन्म में मोक्ष-प्राप्तिा यहां अन्तरालवर्ती देव जन्म गिना नहीं गया। ३. तीसरे जन्म में मोक्ष-प्राप्ति। इसका तात्पर्य है पांचवे जन्म में मोक्ष-प्राप्ति। शब्द-विमर्श आचार्य-उपाध्याय-आचार्य-सहित उपाध्याय। यह एक ही व्यक्ति प्रतीत होता है। वह आचार्य और उपाध्याय दोनों का कार्य करता है। व्यवहारसूत्र में तीन वर्ष के दीक्षा-पर्याय को उपाध्याय-पद की अर्हता माना गया है। पांच वर्ष के दीक्षा पर्याय को आचार्य-पद की अर्हता माना गया है। स्वविषय-आचार्य का विषय है अर्थ पढ़ाना। उपाध्याय का विषय है सूत्र पढ़ाना। अग्लानभाव-खेद-रहित अवस्था। 1 -ना १. व्य,भा.न.उ. ३, प. ३५-आधाकर्मिक यन्मूलत एव साधूनां कृते कृतम्।। २. वही, वृ. प. ३५-स्थापितं यत्संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने। ३. भ.७.५/१३९-लानस्य निरोगतार्थं भिक्षुकदानाय यत्कृतं भक्तम् तद् ग्लानकम्। ४. ठाणं ९/६२ का टिप्पण। ५. भ.व. ५/१४७-द्वितीयः तृतीयश्च भवो मनुष्यभवो देवभवान्तरितो दृश्यः, चारित्र- बतोऽनन्तरो देवभव एव भवति न च तत्र सिद्धिरस्तीति। ६. (क) भ.वृ. ५/१४७-आचार्येण सहोपाध्याय आचार्योपाध्यायः। (ख) भ.जो.८८/४१ जिन कहै केइ तिणहिज भव सीझै, जाव सर्व दुःख अंत करीजै।। ७. वव. ३/३ ८. वही, ३/५ Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५ : उ.६: सू.१४८,१४९ १८६ भगवई अब्भक्खाणिस्स कम्मबंध-पदं आभ्याख्यानिन: कर्मबन्ध-पदम् अभ्याख्यानी के कर्मबन्ध-पद १४८. जे णं भंते ! परं अलिएणं असब्भूएण यो भदन्त ! परम् अलीकेन असद्भूतेन अ- १४८. भन्ते ! जो पुरुष मिथ्या असद्भूत अभ्याख्यान अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाति, तस्स ण भ्याख्यानेन अभ्याख्याति, तस्य कथं प्रका- (दोषारोपण) के द्वारा दूसरे को आरोपित करता है, कहप्पगारा कम्मा कज्जति? राणि कर्माणि क्रियन्ते? । उसके किस प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है? गोयमा ! जे णं परं अलिएणं असंतएणं गौतम ! यः परम् अलीकेन असता अभ्या- गौतम! जो पुरुष मिथ्या, असदुद्भूत अभ्याख्यान के अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाति, तस्स णं ख्यानेन अभ्याख्याति, तस्य तथाप्रकाराणि द्वारा दूसरे को आरोपित करता है, उसके उसी प्रकार तहप्पगारा चेव कम्मा कज्जंति। जत्थेवणं चैव कर्माणि क्रियन्ते । यत्रैव अभिसमा- के कर्मों का बन्ध होता है। वह जहां उत्पन्न होता है, अभिसमागच्छति तत्थेव णं पडिसंवेदेति, गच्छति तत्रैव प्रतिसंवेदयति, ततः स वहीं उन कर्मों का प्रतिसंवेदन करता है, पश्चाद् उनका तओ से पच्छा वेदेति। पश्चाद् वेदयति। वेदन-निर्जरण करता है। भाष्य १. सूत्र १४८ प्रस्तुत सूत्र में कर्मशास्त्र का एक नियम प्रतिपादित है। वह नियम है-आचरण के अनुरूप कर्म का बन्ध और उसके फल का नियमन । मिथ्या आरोप लगाने वाला भविष्य में मिथ्या आरोप से आरोपित होता है। इसमें इस अनुश्रुति की प्रतिध्वनि है—“जैसा करोगे, वैसा भरोगे।" कर्म की शुद्धि के दो निमित्त हैं। एक प्रायश्चित्त और दूसरा उसके विपाक को भोग लेना। यहाँ केवल दूसरे प्रकार का निर्देश है। शब्द-विमर्श अलीक-असत्य। असद्भूत—जो नहीं है, उसका उद्भावन करना, जो चोर नहीं है उसको चोर कहना।। अभ्याख्यान-आरोप लगाना, दोष प्रगट करना। अभ्याख्याति-दोषारोपण करना। अभिसमागच्छति-उत्पन्न होता है। प्रतिसंवेदयति-प्रतिसंवेदन करता है, भोगता है। १४९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिा। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। १४९. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल परमाणु-खंधाणं एयणादि-पदं १५०. परमाणुपोग्गले णं भंते एयति वेयति ! चलति फंद पट्टा खुम्बइ उदीरख तं तं भावं परिणमति ? 1 गोमा ! सिय एयति वेयति जाव तं तं भावं परिणमति सिय नो एयति जाब नो तं तं भावं परिणमति ॥ गोमा ! सिय एयति जाव तं तं भावं परिजयति सिय नो एयति जाब नो तं तं भावं परिणमति । सिय से यति, देसे नो एयति ।। । सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक १५१. दुप्पएसिएनं भंते! खंधे एयति जाव तं द्विप्रदेशिकः भदन्त ! स्कन्धः एते यावत् तं भावं परिणमति ? तं तं भावं परिणमति ? १५२. तिप्पएसिए पं भंते । खंधे एयति? गोमा ! सिय एयति, सिय नो एयति । सिय देखे एयति नो देसे एयति सिय देखे एवति, । नो देसा एवंति सिव देखा एवंति नो देखे । एयति ॥ १५३. चएसिए णं भंते! खंधे एयति ? । गोवमा! सिव एवति, सिय नो एवति सिय देखे एवति, जो देसे एयता सिय देखे एयति नो देसा एवं ति] सिय देसा एवंति नो देसे एयति । सिय देसा एयंति, नो देसा एयंति। 3 संस्कृत छाया परमाणु -स्कन्धानाम् एजनादि-पदम् परमाणुपुद्गलः भदन्त ! एजते व्येजते चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं तं भावं परिणमति ? गौतम ! स्याद् एजते व्येजते यावत् तं तं भावं परिणमति स्यानो एजते यत्रो तं तं भावं परिणमति ! गौतम ! स्याद् एजते यावत् तं तं भावं परिणमति । स्यानो एजते यावन्नो से तं भावं तं परिणमति । स्याद् देशः एजते, देश: नो एजते। त्रिप्रदेशिक : भदन्त ! स्कन्ध: एजते ? गौतम ! स्याद् एजते, स्यान्नो एजते । स्याद् देश एजते नो देशः एते। स्याद् देशः एजते, नो देशा: एजन्ते। स्याद देशा: एजन्ते, नो देश: एजते । चतुःप्रदेशिका भदन्त । स्कन्धः एजते? " गीतम स्वाद एजते, स्यान्नो एजते। स्याद् ! देश: एजते नो देश एजते। स्याद देश: एजले, नो देशाः एजन्ते स्वाद देशाः एजन्ते, नो देश एजते। स्याद् देशा: एजन्ते नो 'देशा: एजन्ते। हिन्दी अनुवाद परमाणु-स्कन्धों का एजनादि पद १५०. 'भन्ते ! क्या परमाणु- पुद्गल एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, प्रकम्पन, क्षोभ और उदीरणा करता है, नए-नए भाव में परिणत होता है? गौतम! कदाचित् वह एजन, व्जन करता है यावत् नए-नए भाव में परिणत होता है, कदाचित यह एजन नहीं करता यावत नए-नए भाव में परिणत नहीं होता। १५१. भन्ते ! क्या द्विप्रदेशिक स्कन्ध एजन करता है यावत् नए-नए भाव में परिणत होता है? गौतम ! कदाचित् वह एजन करता है यावत् नए-नए भाव में परिणत होता है। कदाचित् वह एजन नहीं करता यावत् नए-नए भाव में परिणत नहीं होता। कदाचित् उसका एक देश एजन करता है, एक देश एजन नहीं करता । १५२. भन्ते ! क्या त्रिप्रदेशिक स्कन्ध एजन करता है? गौतम! कदाचित् वह एजन करता है, कदाचित् एजन नहीं करता । कदाचित् उसका एक देश एजन करता है, एक देश एजन नहीं करता। कदाचित् उसका एक देश एजन करता है, अनेक देश एजन नहीं करते। कदाचित उसके अनेक देश एजन करते हैं, एक देश एजन नहीं करता । १५३. भन्ते ! क्या चतुः प्रदेशिक स्कन्ध एजन करता है? गौतम! कदाचित वह एजन करता है, कदाचित एजन नहीं करता । कदाचित् उसका एक देश एजन करता है, एक देश एजन नहीं करता । कदाचित् उसका एक देश एजन करता है, अनेक देश एजन नहीं करते। कदाचित उसके अनेक देश एजन करते हैं. एक देश एजन नहीं करता। कदाचित् उसके अनेक देश एजन करते हैं, अनेक देश एजन नहीं करते। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.७: सू.१५०-१५३ १८८ भगवई जहा चउप्पएसिओ तहापंचपएसिओ, तहा जाव अणंतपएसिओ।। यथा चतु:प्रदेशिकः तथा पञ्चप्रदेशिकः, तथा जैसे–चतुःप्रदेशी स्कन्ध की प्ररूपणा है, वैसी ही यावद् अनन्तप्रदेशिकः। प्ररूपणा पंचप्रदेशी स्कन्ध की करणीय है। यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध की प्ररूपणा भी वैसी ही है। भाष्य चलती १. सूत्र १५०-१५३ जैन दर्शन के अनुसार गतिशील द्रव्य दो हैं—जीव और पुद्गल'; ‘परमाणु में एजन आदि क्रियाएं कदाचित् होती है, कदाचित नहीं इसलिए एजन अथवा प्रकम्पन इन दो ही द्रव्यों में होता है। जीव में एजन होता होती'-यह सापेक्ष वचन है। उत्पाद और व्यय-यह क्रिया इसमें निरन्तर है। इसका निरूपण भगवती ३/१४३-१४८ में किया गया है। चलती है। इस क्रिया का सम्बन्ध स्वभाव पर्याय से है। एजन आदि क्रियाओं परमाणु पुद्गल की सबसे छोटी इकाई है। उसका स्वरूप का सम्बन्ध विशिष्ट परिणमन से है। परमाणु का स्कन्ध के रूप में परिणमन भगवती २०/२६ में निरूपित है। उसके अनुसार परमाणु में एक वर्ण, एक एजन आदि क्रियाओं से ही होता है। इसका आधारभूत सूत्र है---तीसरे गन्ध, एक रस और दो स्पर्श शतक का आलापक। उसका प्रतिपाद्य है कि एजन आदि क्रिया करने वाला १. शीत और स्निग्ध पुरुष विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होता है, आरम्भ, सभारम्भ करता है। २. अथवा शीत और रुक्ष एजन आदि क्रिया नहीं करने वाला पुरुष विभिन्न अवस्थाओं में परिणत नहीं ३. अथवा उष्ण और स्निग्ध होता, आरम्भ सभारम्भ नहीं करता। ४. अथवा उष्ण और रुक्ष परमाणु और स्कन्ध का भी यही नियम है—उसमें एजन आदि होते हैं। क्रियाएं होती हैं, तो वह विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होता है—'तं तं परमाणु के योग से स्कन्ध का निर्माण होता है। दो परमाणुओं का भावं परिणमति ।' एजन आदि क्रियाओं के अभाव में वह विभिन्न अवस्थाओं योग द्विप्रदेशी स्कन्ध, तीन परमाणुओ का योग त्रिप्रदेशी स्कन्ध यावत् अनन्त में परिणत नहीं होता- 'नो तं तं भावं परिणमति।' परमाणुओं का योग अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कहलाता है। स्कन्ध का कारण है परमाणु और स्कन्ध के अवस्था-परिवर्तन का नियम इसी शतक परमाणु। नयचक्र में परमाणु का कारण' और 'कार्य' दोनों रूपों में निर्देश के १७९ वें सूत्र में प्रतिपादित है। किया गया है। परमाणु के योग से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है, अत: परमाणु अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद जैन दर्शन का ध्रुव सिद्धान्त है। स्कन्ध का कारण है। स्कन्ध के टूटने से परमाणु अपने मूल रूप में चला 'सिय' का संस्कृत रूप 'स्यात्' होता है। इसके अनेक अर्थ हैं, जैसे--- जाता है, अत: परमाणु स्कन्ध का कार्य है। संशय, कथंचित् , कदाचित्, अनेकान्त आदि।' नयचक्र के अनुसार स्यात्' तत्त्वार्थसूत्र में भेद का उल्लेख परमाणु के कारण-रूप में मिलता शब्द एकान्त नियम को अस्वीकार करता है और सापेक्ष को सिद्ध करता है।" है। स्कन्ध की उत्पत्ति भेद और संघात दोनों कारणों से होती है। अभयदेवसूरि ने यहां स्यात्' का अर्थ 'कदाचित्' किया है। उनके अनुसार चतुःप्रदेशी स्कन्ध का भेद होने पर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध बन जाते परमाणु और स्कन्ध में एजन आदि क्रियाएं कादाचित्क होती हैं।' हैं। यह भेद से उत्पन्न है। चार परमाणुओं का योग होने पर चतुःप्रदेशी स्कन्ध १. परमाणु के दो विकल्पबन जाता है। यह संधात से होने वाला स्कन्ध है। स्कन्ध की अवस्था में १. स्यात् एजन परमाणु की संज्ञा प्रदेश हो जाती है। २.स्यात् अनेजन १. ठाण, १०/१॥ २. नयचक्र (माइल्ल धवल), श्लोक २९ - जो खलु अणाइणिहणो, कारणरूबो हु कज्जरूबो वा। परमाणुपोग्गलाणं सो दल सहावपज्जाओ। ३. त.सू. ५/२७-भेदादणुः। ४. त.सू. ५/२६-भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते । १. भ. ३/५४३-१४८ । ६. (क) त.रा.वा. ४/४२ – स्यात् शब्दोऽनेकान्तार्थस्य द्योतकः। (ख) आप्तमीमांसा, १०३, १०४ - वाक्यप्वनेकान्तद्योती गम्य प्रतिविशेषण। स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि । स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किं वृत्तचिद्विधः। सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ।। ७. नयचक्र (माइल्ल धवल),२५३ नियमणिसेहनसीलो णिपादणादो,य, जो हु खलु सिद्धो। सो सियसद्दो भणिओ, जो सावेक्ख पसाहेदि ।। ८. भ.बृ. ५/१५०-कदाचिदेजते, कदाचित्कत्वात्सर्वपुद्ग्लेष्वेजनादिधर्माणाम्। Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १८९ श.५: उ.७: सू.१५०-१५७ २.द्विप्रदेशी स्कन्ध के तीन विकल्प१. स्यात् एजन २. स्यात् अनेजन ३. स्यात् देश में एजन, देश में अनेजन। ३. त्रिप्रदेशी स्कन्ध के पांच विकल्प १. स्याद् एजन २. स्याद् अनेजन ३. स्यात् एक देश में एजन, एक देश में अनेजन ४. स्यात् एक देश में एजन, दो देशों में अमेजन ५. स्यात् दो देशों में एजन, एक देश में अनेजन। ४. चतुःप्रदेशी स्कन्ध के छह विकल्प १-५ पूर्ववत् ६. स्यात् दो देशों में एजन, दो देशों में अनेजन। परमाणु-खंघाण छेदादि-पदं परमाणु-स्कन्धानां छेदादि-पदम् १५४. परमाणुपोग्गले णं भंते ! असिधारं वा परमाणुपुद्गल: भदन्त ! असिधारांवा क्षुर- खुरधारं वा ओगाहेज्जा? धारां वा अवगाहेत? हंता ओगाहेज्जा। हन्त अवगाहेत। से णं भंते ! तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज स भदन्त ! तत्र छिद्देत वा भिद्येत वा? वा? गोयमा ! नो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ गौतम! नायमर्थः समर्थः। नो खलु तत्र शस्त्रं सत्थं कमइ॥ क्रामति परमाणु-स्कन्धों का छेदन आदि-पद १५४. 'भन्ते! क्या परमाणु-पुद्गल तलवार की धारा अथवा छुरे की धारा पर अवगाहन कर सकता है? हां, अवगाहन कर सकता है। भन्ते ! क्या वह (परमाणु-पुद्गल) वहां छिन्न अथवा भिन्न होता है? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। परमाणु-पुद्गल पर शस्त्र नहीं चलता। १५५. एवं जाव असंखेज्जपएसिओ। एवं यावद् असंख्येयप्रदेशिकः। १५५. इसी प्रकार यावत् असंख्येयप्रदेशिक स्कन्ध वक्तव्य है। १५६. अणतपएसिए णं भंते ! खंधे असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा? अनन्तप्रदेशिक: भदन्त ! स्कन्धः असिधारा १५६. भन्ते ! क्या अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध तलवार की वा क्षुरधारां वा अवगाहेत? धारा अथवा छुरे की धारा पर अवगाहन कर सकता हां, अवगाहन कर सकता है। भन्ते ! क्या वह वहां छिन्न अथवा भिन्न होता है? हंता ओगाहेज्जा। हन्त अवगाहेत। से णं भन्ते ! तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज स भदन्त ! तत्र छिद्येत वा भिद्येत वा? वा? गोयभा! अत्थेगइए छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज गौतम ! अस्त्येककः छिद्येत वा भिद्येत वा, वा, अत्थेगइए नो छिज्जेज्जवानो भिज्जेज्ज अस्त्येकक: नो छिद्येत वा नो भिद्येत वा। गौतम ! कुछ स्कन्ध छिन्न-भिन्न होते है, कुछ स्कन्ध छिन्न अथवा भिन्न नहीं होते। वा।। १५७. परमाणुपोग्गले ण भंते ! अगणिकायस्स परमाणुपुद्गल: भदन्त ! अग्निकायस्य १५७. भन्ते ! क्या परमाणु-पुद्गल अग्निकाय के मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा? मध्यंमध्येन व्यतिव्रजेत्? बीचोबीच से जा सकता है? हंता वीइवएज्जा। हन्त व्यतिव्रजेत्। हां, वह जा सकता है। से ण भंते ! तत्थ झियाएज्जा? स भदन्त! तत्र ध्यायेत? भन्ते ! क्या वह वहाँ पर जलता है? गोयमा! नो इणद्वे समढे, नोखलु तत्थ सत्थं गौतम! नायमर्थ: समर्थः, नोखलु तत्र शस्त्रं गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है, परमाणु-पुद्गल पर कमइ। क्रामति। शस्त्र नहीं चलता। से ण भंते ! पुक्खलसवट्टास्स महामेहस्स स भदन्त ! पुष्करसंवर्तकस्य महामेघस्य । भन्ते ! क्या वह पुष्कर संवर्तक महामेघ के बीचोबीच मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा? मध्यंमध्येन व्यतिव्रजेत्? से जा सकता है? हंता वीइवएज्जा। हन्त व्यतिव्रजेत्। हां, वह जा सकता है। से णं भंते ! तत्थ उल्ले सिया? स भदन्त ! तत्र आईः स्यात्? भन्ते ! क्या वह वहां पर आर्द्र होता है? Jain Education Intemational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : उ. ७ : सू. १५७-१५९ गोमा! नो इण सम, मो खलु तत् सत्यं गौतम! नायमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं क्रामति । स भदन्त ! गंगाया: महानद्या: प्रतिस्रोतं 'हव्वं' आगच्छेत्। कमइ । से मं भंते! गंगाए महानदीए पडिसोयं हव्वमागच्छेज्जा ? हंता हव्वमागच्छेज्जा । से णं भंते! तत्थ विणिहावभावज्जेज्जा गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थं हन्त 'हवं' आगच्छेत् । स भदन्त तत्र चिनिपातं आपद्येत? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं क्रामति । कमइ । से णं भंते ! उदगावत्तं वा उदगबिंदु वा ओ सभदन्त ! उदकावर्त्तं वा उदकबिन्दुं वा अवमाहेज्जा? गाहेत? हंता ओगाहेज्जा । हन्त अवगाहत । से णं भंते! तत्थ परियावज्जेज्या? स भदन्त ! तत्र पर्यापद्येत? गोयमा ! नो इणट्ठे समट्टे, नो खलु तत्थ गौतम ! नायमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्र सत्थं कमइ । कामति । १५८. एवं जाव असंखेज्जपएसिओ।। १५९. अणतपएसिए णं भंते ! खंधे अगनिकायसमणं वा? १९० हंता वीइवएज्जा । से णं भंते । तत्थ उल्ले सिया ? गोयमा ! अत्येगइए उल्ले सिया, अत्येगइए नो उल्ले सिया । से णं भंते! गंगाए महानईए पडिसोयं हत्वमागच्छेज्जा ? हंता हव्वमागच्छेज्जा । से णं भंते! तत्य विणिहायमा? गोयमा ! अत्थेगइए विणिहायमावज्जेज्जा, अत्वेगइए नो विणिहायमाबन्जेज्जा । से णं भंते! उदगावतं वा उदगबिंदु वा ओगाहेजा? एवं यावद असंख्येयप्रदेशिकः । हंता वीइवएज्जा । स भदन्त ! तत्र ध्मायेत? से णं भंते । तत्व झियाएज्या ? गोवमा ! अत्थेमइए झियाएन्जा, अत्येगइए नो झियाएज्जा । गौतम अस्त्येककः ध्यायेत, अस्त्येककः नो ध्मायेत । से णं भंते ! पुक्खलसंवट्टगस्स महामेहस्स स भदन्त ! पुष्करसंवर्त्तकस्य महामेघस्य मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा ? मध्यंमध्ये व्यजेत? हन्त व्यतिव्रजेत । स भदन्त ! तंत्र आर्द्रः स्यात् ? गौतम ! अस्त्येकक आई: स्यात् अस्त्ये ककः नो आर्द्रः स्यात् । स भदन्त ! गंगाया: महानद्या: प्रतिस्रोतं 'हवं' आगच्छेत् ? हन्त 'हव्वं' आगच्छेत् । सभदन्त । तत्र विनिघात आपोत? गौतम ! अस्त्येककः विनिघातम् आपद्येत, अस्त्येककः नो विनिधातम् आपद्येत । स भदन्त ! उदकावर्त्तं वा उदकबिन्दु वा अवगाहेत? अनन्तप्रदेशिकः भदन्त ! स्कन्धः अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ? हन्त व्यतिव्रजेत् । हंता ओगाहेज्जा | हन्त अवगाहेत । से णं भंते ! तत्थ परियावज्जेज्जा ? स भदन्त ! तत्र पर्यापद्येत? गोयमा ! अत्थेगइए परियावज्जेज्जा, अत्थे - गौतम ! अस्त्येककः पर्यापद्येत, अस्त्येककः गइए नो परियावज्जेज्जा | नोपपद्येत भगवई गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है, परमाणु-पुद्गल पर शस्त्र नहीं चलता। भन्ते ! क्या वह गंगा महानदी के प्रतिस्रोत में शीघ्र ही आ सकता है ? हां, वह शीघ्र ही आ सकता है। भन्ते ! क्या वह वहां विनिघात को प्राप्त होता है? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है, परमाणु- पुद्गल पर शस्त्र नहीं चलता । भन्ते ! क्या वह जल के आवर्त्त या जल की बूंद पर अवगाहन कर सकता है? हां, वह अवगाहन कर सकता है। भन्ते ! क्या वह वहाँ पर पर पीड़ित होता है ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है, परमाणु- पुद्गल पर शस्त्र नहीं चलता। १५८. इसी प्रकार यावत् असंख्येयप्रदेशिक स्कन्ध पर शस्त्र नहीं चलता। १५९. भन्ते ! क्या अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध अग्निकाय के बीचोबीच जा सकता है? हां, वह जा सकता है। भन्ते ! क्या वह वहां पर जलता है? गौतम ! कुछ एक स्कन्ध जलते हैं, कुछ एक स्कन्ध नहीं जलते हैं। भन्ते ! क्या वह अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध पुष्कर संवर्त्तक महामेघ के बीचोबीच से जा सकता है? हां, वह जा सकता है। भन्ते ! क्या वह वहाँ पर आर्द्र होता है? गौतम! कुछ एक स्कन्ध भाई होते हैं, कुछ एक स्कन्ध आर्द्र नहीं होते। भन्ते ! क्या वह गंगा महानदी के प्रतिसोत में शीघ्र ही आ सकता है? हां, वह शीघ्र ही आ सकता है। भन्ते ! क्या वह वहां विनिघात को प्राप्त होता है? गौतम ! कुछ एक स्कन्ध विनिघात को प्राप्त होते हैं, कुछ एक स्कन्ध विनिघात को प्राप्त नहीं होते। भन्ते ! वह जल के आवर्त या जल की बूंद पर अवगाहन कर सकता है? हां, वह अवगाहन कर सकता है। भन्ते ! क्या वह वहां विनष्ट होता है? गौतम ! कुछ एक स्कन्ध विनष्ट होते हैं, कुछ एक स्कन्ध विनष्ट नहीं होते। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १९१ श.५ : उ.७ : सू.१५४-१६३ भाष्य १. सूत्र १५४-१५९ होता। व्यावहारिक परमाणु सूक्ष्म परिणति वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध है। 'अणुओगदाराई' में परमाणु के दो प्रकार बतलाए गए हैं– अणुओगदाराई के अनुसार वह असिधारा से छिन्न-भिन्न नहीं होता।" सूक्ष्म और व्यावहारिक । व्यावहारिक परमाणु अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के आधुनिक विज्ञान का पहले यह मत था कि परमाणु का विभाजन समुदाय से निष्पन्न होता है। निश्चयनय की अपेक्षा से वह अनन्तप्रदेशी नहीं होता किन्तु अब उसका विभाजन किया गया है। जैनदर्शन के अनुसार स्कन्ध है। व्यवहारनय की अपेक्षा से उसे व्यावहारिक परमाणु कहा गया है। विज्ञान-सम्मत अणु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध है। व्यावहारिक परमाणु भी शस्त्र से . परमाणु के लिए जो नियम निर्दिष्ट है, असंख्यप्रदेशी स्कन्ध के नहीं टूटता। इस विषय में एक प्रश्न उपस्थित होता है-आगम-साहित्य में लिए भी वही नियम निर्दिष्ट है। अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के लिए दो विकल्प हैं असिधारा से परमाणु छिन्न-भिन्न नहीं होता, यह कहा गया है। असि की धारा -कोई एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध असिधारा से छिन्न-भिन्न होता है. कोई बहुत स्थूल होती है, इसलिए उससे परमाणु का विभाजन नहीं होता, यह सही एक नहीं होता। इसका हेतु यह है स्थूल परिणति वाला असिधारा से है। आधुनिक विज्ञान ने बहुत सूक्ष्म उपकरण विकसित किए हैं। उनसे छिन्न-भिन्न हो जाता है। सूक्ष्म परिणति वाला असिधारा से छिन्न-भिन्न नहीं व्यावहारिक परमाणु के विभाजन की संभावना की जा सकती है। परमाण-खंधाण सअडढसमज्झादि-पदं परमाणु-स्कन्धानां सार्द्ध-समध्यादि- परमाण-स्कन्धों का सार्द्ध समध्यादि-पद पदम् १६०. परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सअड्ढे परमाणुपुद्गल: भदन्त ! किं सार्ध: समध्य: १६०. 'भन्ते ! परमाणु-पुद्गल क्या स-अर्ध, स-मध्य समझे सपएसे? उदाहु अणड्ढे अमज्झे सप्रदेश:? उताहो अनर्ध: अमध्य: अ- और स-प्रदेश है? अथवा अनर्ध, अ-मध्य और अपएसे? प्रदेश:? अप्रदेश है? गोयमा ! अणड्ढे अमज्झे अपएसे, नो गौतम! अनर्ध: अमध्य: अप्रदेश:, नो सार्ध: गौतम ! परमाणु-पुद्गल अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश सअड्ढे नो समझे नो सपएसे।। नो समध्य: नो सप्रदेशः। है, स-अर्ध, स-मध्य और स-प्रदेश नहीं है। १६१. दुप्पएसिए ण भंते ! खंधे किं सअड्ढे द्विप्रदेशिक: भदन्त ! स्कन्धः किं सार्ध: १६१. भन्ते ! द्विप्रदेशी स्कन्ध क्या स-अर्ध, स-मध्य समझे सपएसे? उदाहु अणड्ढे अमज्झे समध्य: सप्रदेश: ? उताहो अनर्धः अमध्यः और सप्रदेश है? अथवा अनर्ध, अमध्य और अपएसे? अप्रदेशः? अप्रदेश है? गोयमा! सअड्ढे अमज्झे सपएसे, नो अण- गौतम! सार्ध: अमध्य: सप्रदेशः, नो अनर्ध: ड्ढे नो समझे नो अपएसे।। नो समध्य: नो अप्रदेश: गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्ध स-अर्ध, अ-मध्य और सप्रदेश है, अनर्ध, स-मध्य और अ-प्रदेश नहीं है। १६२. तिप्पएसिए ण भन्ते ! खंधे पुच्छा। त्रिप्रदेशिक: भदन्त ! स्कन्धः पृच्छा। गोयमा! अणड्ढे समज्झे सपएसे, नो सअड्ढे नो अमज्झे नो अपएसे।। गौतम! अनर्ध: समध्य: सप्रदेश:, नो सार्ध: नो अमध्य: नो अप्रदेश:। १६२. भन्ते ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध क्या स-अर्ध, स-मध्य और स-प्रदेश है? अथवा अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश है? गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध अनर्ध, स-मध्य और सप्रदेश है, स-अर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है। १६३. जहा दुप्पएसिओ तहा जे समाते भाणि- यथा द्विप्रदेशिक: तथा ये समा: ते भणि- १६३. समसंख्या वाले (चतुःप्रदेशी, षट्प्रदेशी आदि) २. वही, सू. ३९८। ३, अनु, म.यू.प. ५४८—ततोऽसीनिश्चयतः स्कन्धोऽपि व्यवहारनयमतेन व्यावहारिक: परमाणुरुक्तः। ४. भ.व. ५/१५६-अत्थेगइए नो छिज्जेज्जत्ति सूक्ष्मपरिणामत्वात् । ५.(क) अणु, सू. ३९८ । (ख) अनु म.व.प. १४८-- इदमुक्तं भवति ----यद्यप्यनन्तैः परमाणुभिर्निष्पन्ना: काष्ठादय: शस्वछेदादिविषया दृष्टास्तथाप्यनन्तकस्याप्यनन्तभेदत्वात् तावत् प्रमाणेनैव परमाण्वनन्तकेन निष्पन्नोऽसौ व्यावहारिक: परमाणुर्गाद्यो यावत् प्रमाणेन निष्पन्नोद्यापि सूक्ष्मत्वानशस्त्रच्छेदादिविषयतामासादयतीति भावः। Jain Education Intemational Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५ : उ.७: सू.१६०-१६५ १९२ भगवई यव्वा, जे विसमा ते जहा तिप्पएसिओ तहा तव्याः, ये विषमा: ते यथा त्रिप्रदेशिक: तथा । भाणियब्वा।। भणितव्याः। स्कन्ध द्विप्रदेशी स्कन्ध की भांति वक्तव्य हैं। विषम संख्या वाले स्कन्ध (पञ्चप्रदेशी सप्तप्रदेशी आदि) त्रिप्रदेशी स्कन्ध की भांति वक्तव्य हैं। १६४. संखेज्जपएसिए णं भन्ते ! खंधे किं संख्येयप्रदेशिक: भदन्त ! स्कन्धः किं सार्ध:? १६४. भन्ते ! संख्येयप्रदेशी स्कन्ध क्या स-अर्ध, ससअड्ढे ? पुच्छा। पृच्छा। मध्य और स-प्रदेश है अथवा अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश है? गोयमा ! सिय सअड्ढे अमज्झे सपएसे, गौतम! स्यात् सार्ध: अमध्य: सप्रदेश:, स्यात् गौतम ! संख्येय प्रदेशी स्कन्ध कथंचित् स-अर्ध, सिय अणड्ढे समज्झे सपएसे। अनर्ध: समध्यः सप्रदेशः। अ-मध्य और स-प्रदेश है। कथंचित् अनर्ध, स मध्य और स-प्रदेश है। जहा संखेज्जपएसिओ तहा असंखेज्ज- यथा संख्येयप्रदेशिकः तथा असंख्येयप्रदे- असंख्येयप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध संख्येपएसिओ वि, अणंतपएसिओ वि॥ शिकोऽपि, अनन्तप्रदेशिकोऽपि। यप्रदेशी स्कन्ध की भांति वक्तव्य है। भाष्य १. सूत्र १६०-१६४ परमाणु विशुद्ध रूप में अकेला होता है। वह अपनी स्वतन्त्र अवस्था कहा जा सकता है। जो अप्रदेश होता है, उसका अर्ध नहीं होता और में अप्रदेश-प्रदेश शून्य होता है। किसी दूसरे के साथ योग होने पर वह उसमें मध्य भी नहीं होता। स्कन्ध रूप में बदल जाता है। जिस स्कन्ध के प्रदेश समान होते हैं उसका अर्ध होता है और परमाणु अप्रदेश है-यह वचन द्रव्य की अपेक्षा से है। काल और जिसके प्रदेश विषम होते हैं उसमें मध्य होता है। संख्येय, असंख्येय और भाव की अपेक्षा परमाणु सप्रदेश भी हो सकता है। प्रस्तुत आगम में परमाणु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध दोनों प्रकार के होते हैं—समप्रदेशिक और विषमचार लार के बतलाए गए हैं-द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु प्रदेशिक । समप्रदेशिक स्कन्ध का अर्थ होता है। उसमें मध्य नहीं होता। और भाव परमाणु। सिद्धसेनगणी के अनुसार भाव परमाणु सावयव और द्विप्रदेशिक स्कन्ध समप्रदेशिक है, इसलिए उसमें अर्ध होता है, मध्य नहीं द्रव्य परमाणु निरवयव होता है। होता। त्रिप्रदेशिक स्कन्ध विषमप्रदेशिक है, इसलिए उसका अर्ध नहीं है, एक परमाणु में एक वर्ण होता है। उस वर्ण की मात्राएं अनेक होती मध्य है। अर्ध और मध्य दोन्में एक साथ नहीं हो सकते। समप्रदेशिक स्कन्धों हैं। कभी वह परमाणु एक गुण काला होता है, कभी दो गुण काला, कभी की वक्तव्यता द्विप्रदेशी-स्कन्ध के समान है, विषम प्रदेशी स्कन्धों की संख्यात गुण काला, कभी असंख्यात गुण काला और कभी अनन्त गुण वक्तव्यता त्रिप्रदेशिक स्कन्ध के समान है। काला। इस प्रकार गन्ध, रस और स्पर्श में भी गुण-भेद अथवा मात्रा-भेद ठाणं के अनुसार परमाणु अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य, अनर्ध, होता है। इस गुण-भेद की अपेक्षा परमाणु को अनेक अवयव वाला अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य होता है।' परमाणु-खंधाणं परोप्परं फुसणा-पदं परमाणु-स्कन्धानां परस्परं स्पर्शना- परमाणु-स्कन्धों का परस्पर स्पर्शना-पद पदम् १६५. परमाणुपोग्गले ण भंते ! परमाणुपोग्गलं परमाणुपुद्गल: भदन्त ! परमाणुपुद्गल १६५. 'भन्ते ! परमाणु-पुद्गल परमाणु-पुद्गल का फुसमाणे किं -- स्पृशन् किं-१.देशेन देशम् स्पृशति २.दे- स्पर्श करता हुआ क्या-१. एक देश से एक देश १. देसेणं देंसं फुसइ २. देसेणं देसे फुसइ शेन देशान् स्पृशति ३. देशेन सर्वं स्पृशति का स्पर्श करता है? २. एक देश से अनेक देशों का ३. देसेणं सव्वं फुसइ ४. देसेहिं देस फुसइ ४. देशै: देशंस्पृशति ५. देशै: देशान् स्पृशति स्पर्श करता है? ३. एक देश से सर्व का स्पर्श करता १. प्रज्ञा. वृ.प. २०२,३-परमाणुर्हि अप्रदेशो गीयते, द्रव्यरूपतया साशो न भवतीति, ननु कालभावाभ्यामपि "अपएसो दब्बठ्याए" इति वचनात् । ततः कालभावाभ्यां सप्रदेशत्वेपि न कश्चिद्दोषः। २. भ. २०/३७-४१ ३. त.सू.भा.वृ. ५/१-ननु चैकोऽपि परमाणुः पुद्गलद्रव्यमेव स कथ बह्ववयवो भवेत्? किमत्र प्रतिपाद्यम्? ननु प्रसिद्धमेवेदमेकरसगन्धवों द्वि स्पर्शश्चाणुर्भवति, भावावयवै: सावयवो द्रव्यावयवैर्निरवयव इति। ४. ठाणं, ३/३२९-३३५ Jain Education Intemational Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५. देसेहिं देसे फुसइ ६. देसेहिं सव्वं फुसइ ७. सव्वेणं - देस - फुसइ ८. सव्वेणं देसे फुसह ९ सव्वेणं सव्वं फुस ? गोयमा १. नो देसेणं देस फुस २. नो देसेणं देसे फुसइ ३. नो देसेणं सव्वं फुसइ ४. नो देसेहिं देसं फुसइ ५. नो देसेहिं देसे फुसइ ६. नो देखेहिं सव्वं फुसइ ७. नो सव्वेणं देतं फुस ८. नो सन्वेणं देसे फुस ९ सव्वेणं सव्वं फुसइ ॥ - परमाणुपोगले तिप्पएसियं फुसमाणे निप च्छिमहिं तिहिं फुस १६६. परमाणुयोग्गले दुप्पएसिवं फुलमाणे परमाणुपुद्गलः द्विप्रदेशिकं स्पृशन् सप्तम सत्तम णवमेहिं फुसइ । -नवमाभ्यां स्पृशति जहा परमाणुपोगले तिप्पएसियं फुसाविओ एवं फुसावेयव्वो जाव अणतपएसिओ ॥ १६७. दुप्पएसिए णं भंते! खंधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे किं देसेणं देस फुस ? पुच्छा ततिय-नवमेहिं फुसइ । दुप्पएसओ दुप्पएसियं फुसमाणे पढम- ततिय-सत्तम-नवमेहिं फुसइ । १९३ . ६. देशैः सर्वं स्पृशति ७. ६. देश सर्व स्पृशति ७. सर्वेण देशं स्पृशति ८. सर्वेण देशान् स्पृशति ९ सर्वेण सर्व स्पृशति ? गौतम ! १. नो देशेन देशं स्पृशति २. नो देशेन देशान् स्पृशति ३. नो देशेन सर्वं स्पृशति ४. नो देश : देशं स्पृशति ५. नो देश देशान् स्पृशति ६. नो देशे सर्व स्पृशति ७. नो सर्वेण देशं स्पृशति ८. नो सर्वेण देशान् स्पृशति ९. सर्वेण सर्व स्पृशति । : परमाणुपुद्गलः त्रिप्रदेशिकं स्पृशन् नि पश्चिमकैस्त्रिभिः स्पृशति । यथा परमाणुपुद्गलः त्रिप्रदेशिकं स्पर्शितः एवं स्पर्शक्तिव्यः यावद् अनन्तप्रदेशिकः । द्विप्रदेशिकः भदन्त ! स्कन्ध परमाणुपुद्गल स्पृशन् किं देशेन देशं स्पृशति ? पृच्छा । तृतीय- नवमाभ्यां स्पृशति । हिप्रदेशिकः द्विप्रदेशिकं स्पृशन् प्रथमतृतीय सप्तम नवमैः स्पृशति । दुप्पएसओ तिप्पएसियं फुसमाणे आदि ल्लएहि य, पच्छिल्लएहि य तिहिं फुसइ, मन्झिमएहिं तिहिं विपडिसेहेयव्वं । दुप्पएसओ जहा तिप्पएसियं फुसाविओ एवं द्विप्रदेशिकः यथा त्रिदेशिकं स्पर्शितः एवं फुसावेन्बो जान अनंतपएसिवं ।। द्विप्रदेशिकः त्रिप्रदेशिकं स्पृशन् आदिमकैश्च, पश्चिमकैश्च त्रिभिः स्पृशति, मध्यमकैः त्रिभिः विप्रतिषेद्धव्यम् । स्पर्शयितव्यः यावद् अनन्तप्रदेशिकम्। श. ५: उ. ७ : स. १६५-१६७ है? ४. अनेक देशों से एक देश का स्पर्श करता है? ५. अनेक देशों से अनेक देशों का स्पर्श करता है? ६. अनेक देशों से सर्व का स्पर्श करता है? ७. सर्व से एक देश का स्पर्श करता है? ८. सर्व से अनेक देशों का स्पर्श करता है? ९. सर्व से सर्व का स्पर्श करता है? गौतम । १. परमाणु-पद्गल एक देश से एक देश का स्पर्श नहीं करता । २. एक देश से अनेक देशों का स्पर्श नहीं करता । ३. एक देश से सर्व का स्पर्श नहीं करता। ४. अनेक देशों से एक देश का स्पर्श नहीं करता। ५. अनेक देशों से अनेक देशों का स्पर्श नहीं करता। ६. अनेक देशों से सर्व का स्पर्श नहीं करता। ७. सर्व से एक देश का स्पर्श नहीं करता। ८. सर्व से अनेक देशों का स्पर्श नहीं करता । ९. सर्व से सर्व का स्पर्श करता है। १६६. परमाणु- पद्गल द्विप्रदेशिक स्कन्ध का स्पर्श करता हुआ सातवें और नौवें विकल्प (सर्व से एक देश और सर्व से सर्व का) का स्पर्श करता है। परमाणु - पुद्गल त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का स्पर्श करता हुआ अन्तिम तीन विकल्पों (सर्व से एक देश, सर्व से अनेक देशों और सर्व से सर्व) का स्पर्श करता है। जिस प्रकार परमाणु- पुद्गल का त्रिप्रदेशिक स्कन्ध से स्पर्श कराया गया है, इस प्रकार चतुःप्रदेशिक स्कन्ध से लेकर यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध तक स्पर्श कराया जाए। ! १६७. भन्ते द्विप्रदेशिक स्कन्ध परमाणु- पुद्गल का स्पर्श करता हुआ क्या एक देश से एक देश का स्पर्श करता है? पृच्छा । तीसरे और नौवें विकल्प ( एक देश से सर्व और सर्व से सर्व का) का स्पर्श करता है। द्विप्रदेशिक स्कन्ध द्विप्रदेशिक स्कन्ध का स्पर्श करता हुआ पहले, तीसरे, सातवें और नौवें (एक देश से एक देश, एक देश से सर्व सर्व से एक देश और सर्व से सर्व का) विकल्प का स्पर्श करता है। द्विप्रदेशिक स्कन्ध त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का स्पर्श करता हुआ तीन प्रथम और तीन अन्तिम विकल्पों का स्पर्श करता है । मध्यवर्ती तीन विकल्प प्रतिषिद्ध है। जिस प्रकार दिप्रदेशिक स्कन्ध का त्रिप्रदेशिक स्कन्ध से स्पर्श कराया गया है, इस प्रकार चतुः Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५ : उ.७ : सू.१६५-१६८ १९४ भगवई प्रदेशिक स्कन्ध से लेकर यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध तक से स्पर्श कराया जाए। १६८. तिपएसिएणं भंते ! खंधे परमाणुपोग्गलं त्रिप्रदेशिक: भदन्त ! स्कन्धः परमाणुपुद्गलं १६८. भन्ते ! त्रिप्रदेशिक स्कन्ध परमाणु-पुद्गल का फुसमाणे पुच्छा। स्पृशन् पृच्छा। स्पर्श करता हुआ क्या एक देश से एक देश का स्पर्श करता है? पृच्छा । ततिय-छट्ठ-नवमे हिं फुसइ। तृतीय-षष्ठ-नवमैः स्पृशति। वह तीसरे, छठे और नौवें विकल्प का स्पर्श करता है। तिपएसिओ दुपएसियं फुसमाणे पढमएणं, त्रिप्रदेशिक: द्विप्रदेशिकं स्पृशन् प्रथमेन, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध द्विपदेशिक स्कन्ध का स्पर्श ततिएणं, चउत्थ-छट्ठ-सत्तम-नवमेहिं फुसइ। तृतीयेन, चतुर्थ-षष्ठ-सप्तम-नवमैः स्पृशति। करता हुआ पहले, तीसरे, चौथे, छठे, सातवें और नौवें विकल्प का स्पर्श करता है। तिपएसिओ तिपएसियं फुसमाणे सव्वेसु वि त्रिप्रदेशिकः त्रिप्रदेशिकं स्पृशन् सर्वेष्वपि त्रिप्रदेशिक स्कन्ध त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का स्पर्श ठाणेसु फुसइ। स्थानेषु स्पृशति। करता हुआ सब स्थानों का स्पर्श करता है। जहा तिपएसिओ तिपएसियं फुसाविओ एवं यथा त्रिप्रदेशिक: त्रिप्रदेशिकं स्पर्शितः एवं जिस प्रकार त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का त्रिप्रदेशिक तिप्पएसिओ जाव अणंतपएसिएणं संजो- त्रिप्रदेशिक: यावत् अनन्तप्रदेशिकेन संयोज- स्कन्धसे स्पर्श कराया गया है, उस प्रकार त्रिप्रदेशिक एयव्वो । यितव्यम्। स्कन्ध का चतुःप्रदेशिक स्कन्ध से लेकर यावत् अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध के साथ संयोग कराया जाए। जहा तिपएसिओ एवं जाव अणंतपएसिओ यथा त्रिप्रदेशिकः एवं यावद् अनन्तप्रदेशिक: जिस प्रकार त्रिप्रदेशिक स्कन्ध की वक्तव्यता है। भाणियन्वो॥ भणितव्यः। वही वक्तव्यता चतुःप्रदेशिक से यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध की है। भाष्य १. सूत्र १६५-१६८ एक परमाणु जब दूसरे परमाणु का स्पर्श करता है तब वह आधे अंश से करता है या सर्वात्मना करता है? इस जिज्ञासा के आधार पर नौ विकल्प प्रस्तुत किए गए हैं। भगवान् महावीर ने आठ विकल्पों को अस्वीकार कर दिया। केवल नौवें विकल्प को स्वीकृति दी। इसका हेतु यह है कि परमाणु निरंश होता है। इसलिए एक परमाणु दूसरे परमाणु के साथ सर्वात्मना सम्पर्क स्थापित करता है। उसमें देश-अंश या देशों-अंशों की कल्पना नहीं की जा सकती। नौ विकल्पों की स्थापना इस प्रकार है: वृत्तिकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है - एक परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ यदि 'सर्वेण सर्वम्' स्पर्श होता है, तो दो परमाणुओं में एकत्व हो जाएगा। इस प्रकार अन्यान्य परमाणुओं के योग से घट आदि स्कन्धों का निर्माण नहीं हो सकेगा। इसका उत्तर यह है -दो परमाणु परस्पर संलग्न होते हैं, तो अर्ध अंशों से नहीं होते। दो का योग होता है, एकत्व नहीं होता। घट आदि स्कन्धों के निर्माण का अभाव परमाणुओं के एक हो जाने पर हो सकता है, किन्तु उनके योग में निर्माण के अभाव की कल्पना नहीं की जा सकती। परमाणु द्विप्रदेशी स्कन्ध का स्पर्श करता है, उसके दो विकल्प बनते हैं-'सर्वेण देशं' और 'सर्वेण सर्वम्'। जब द्विप्रदेशी स्कन्ध आकाश के दो प्रदेशों में अवस्थित होता है, तब परमाणु सर्वात्मना द्विप्रदेशी स्कन्ध के देश का स्पर्श करता है। वह द्विप्रदेशी स्कन्ध जब परिणति की सूक्ष्मता के कारण आकाश के एक प्रदेश में स्थित होता है, तब 'सर्वेण सर्वम्' यह विकल्प बनता है। परमाणु के त्रिप्रदेशी स्कन्ध के स्पर्श में तीन विकल्प बनते हैं-- १. सर्वेण देशम् २. सर्वेण देशौ ३. सर्वेण सर्वम्। १. | देशेन | देशैः । सर्वेण देशं देशं । देश देशान् देशान् देशान् सर्वम् । सर्वम् । सर्वम् १. भ.बृ. ५/१६५-अत्रच सर्वेण सर्वमित्येक एवं घटते, परमाणोर्निरंशत्वेन शेषाणामसम्भवात्। २. भ.वृ.५/१६५-ननु यदि सर्वेण सर्वम् स्पृशतीत्युच्यते तदा परमाण्वोरेकत्वापत्तेः कथमपरापरपरमाणुयोगेन घटादिस्कन्ध निष्पत्तिः इति, अत्रोच्यते,सर्वेण सर्वम् स्पृशतीतिकोऽर्थः स्वात्मना तावन्योऽन्यस्य लगतो, न पुनर द्यशेन अादिदेशस्य तयोरभावात्. घटाद्यभावापत्तिस्तु तदैव प्रसज्येत यदा तयोरेकत्वापत्तिः, न च तयोः सा, स्वरूपभेदात् । Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई त्रिप्रदेशी स्कन्ध आकाश के तीन प्रदेशों में स्थित होता है, तब परमाणु सर्वात्मना उसके एक देश का स्पर्श करता है। जब उसके दो प्रदेश आकाश के एक देश में तथा एक प्रदेश आकाश के दूसरे प्रदेश में स्थित होता है, उस अवस्था में 'सर्वेण देशों' का विकल्प बनता है--परमाणु सर्वात्मना आकाश के एक प्रदेश में स्थित स्कन्ध के दो परमाणु रूप दो देशों का स्पर्श करता है। जब वह सूक्ष्मपरिणति के कारण आकाश के एक प्रदेश में स्थित होता है तब सर्वेण सर्वम् का विकल्प बनता है। त्रिप्रदेशी स्कन्ध एक अवयवी है। इसलिए एक आकाश-प्रदेश में स्थित उसके दो परमाणुओं को दो देश माना जा सकता है। द्विप्रदेशी स्कन्ध दिप्रदेश मात्र अवयवी है। इसलिए यह 'सर्वेष देशों' का विकल्प उसमें घटित नहीं होता। त्रिप्रदेशी स्कन्ध त्रिप्रदेशात्मक अवयव है। इसलिए एक अवयवी के दो देशों का स्पर्श घटित होता है, किन्तु द्विप्रदेशी स्कन्ध में दो ही प्रदेश होते हैं, इसलिए परमाणु किस अवयवी के दो प्रदेशों का स्पर्श करेगा? त्रिप्रादेशिक स्कन्ध के दो प्रदेशों का स्पर्श करने पर एक अवशिष्ट रह जाता है, इसलिए 'सर्वेण देशों' का विकल्प घटित होता है। - द्विप्रदेशी स्कन्ध परमाणु का स्पर्श करता है, तब दो विकल्प बनते हैं- "देशेन सर्वम्" और "सर्वेण सर्वम्" । द्विप्रदेशी स्कन्ध आकाश के परमाणु - खंघाणं संठिइ-पदं १६९. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा ! जहणणेणं एवं समयं उनकोसेणं असंखेज्वं काली एवं जाव अणतपएसओ १७०. एगपएसोगाढे णं भंते! पोग्गले सेए तम्मि वा ठाणे, अण्णम्मि वा ठाणे कालओ केवच्चिरं होई? गोयमा ! जहणणेणं एवं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं । एवं जाव असंखेज्जपएसो गाढे ॥ १९५ श. ५ : उ. ७ : सू. १६८-१७१ दो प्रदेशों में स्थित होता है, तब वह अपने देश से सर्व परमाणु का स्पर्श करता है। वह आकाश के एक प्रदेश में अवस्थित होता है, तब 'सर्वेण सर्वम्' यह विकल्प घटित होता है। द्विप्रदेशी स्कन्ध का द्विप्रदेशी स्कन्ध से स्पर्श होता है तब चार विकल्प बनते हैं- १. दोनों द्विप्रदेशी स्कन्ध आकाश के दो प्रदेशों में अवस्थित हैं, तब 'देशेन देशम्' यह विकल्प बनता है। २. दो आकाश-प्रदेशों में स्थित द्विप्रदेशी स्कन्ध एक आकाशप्रदेश में स्थित द्विप्रवेशी स्कन्ध का स्पर्श करता है, तब 'देशेन सर्वम्' विकल्प पटित होता है। ? गोयमा ! जहणणेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । एवं जाव असंखेज्जपएसोगाढे ॥ ३. एक आकाश-प्रदेश में स्थित द्विप्रदेशी स्कन्ध दो आकाशप्रदेशों में स्थित द्विप्रदेशी स्कन्ध का स्पर्श करता है, तब 'सर्वेष देशम् ' विकल्प बनता है। ४. आकाश के एक-एक प्रदेश में स्थित दोनों द्विप्रदेशी स्कन्धों का स्पर्श होता है तब 'सर्वेन सर्वम्' विकल्प बनता है। इसी पद्धति से त्रिप्रदेशी स्कन्ध की वक्तव्यता जाननी चाहिए। परमाणु स्कन्धानां संस्थिति पदम् - परमाणुपुद्गलः भदन्त ! कालत: कियच्चिरं भवति? गौतम । जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् एवं यावद् अनन्तप्रदेशिकः। एक प्रदेशावगाढः भदन्त ! पुद्गलः सैज: तस्मिन् वा स्थाने, अन्यस्मिन् वा स्थाने कालतः कियच्चिरं भवति ? १७१. एगपएसोगाढे णं भंते ! पोग्गले निरेए एक प्रदेशावगाढः भदन्त ! पुद्गलः निरेज: कालओ केवच्चिरं होइ ? कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन एक समयम, उत्कर्षेण आवलिकयाः असंख्येयभागम्। एवं यावद् असंख्येयप्रदेशावगाढः। गीतम जपन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । एवं यावद् असंख्येयप्रदेशावगाढः। परमाणु स्कन्धों की संस्थिति का पद १ १६९, भन्ते ! परमाणु-पुद्गल काल की दृष्टि से (परमाणु-पुद्गल के रूप में) कितने समय तक रहता 87 गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः असंख्येय काल इसी प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध तक वही कालावधि है। १७०. भन्ते ! आकाश के एक प्रदेश में अवगाढ़ प्रकम्प पुद्गल उस अधिकृत स्थान में अथवा किसी दूसरे स्थान में काल की दृष्टि से कितने समय तक रहता है? गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः आवलिका का असंख्यातवां भाग । इसी प्रकार यावत् असंख्य प्रदेशावगाढ संप्रकम्प पुद्गल की यही कालावधि है। १७१. भन्ते ! आकाश के एक प्रदेश में अवगाढ़ अप्रकम्प पुद्गल काल की दृष्टि से कितने समय तक रहता है? गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः असंख्येय काल । इसी प्रकार यावत् असंख्य प्रदेशावगाढ़ अप्रकम्प पुद्गल की यही कालावधि है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.७: सू.१६९-१७४ १९६ भगवई १७२. एगगुणकालएणं भंते ! पोग्गले कालओ एकगुणकालक: भदन्त ! पुद्गल: कालत: १७२. भन्ते ! एक गुण कृष्ण वर्ण वाला पुद्गल काल केवच्चिर होइ? कियच्चिरं भवति? की दृष्टि से (एक गुण कृष्ण-वर्ण के रूप में) कितने समय तक रहता है? गोयमा ! जहण्णेणं एग समय, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण । गौतम ! जघन्यत: एक समय, उत्कर्षत: असंख्य असंखेज्जं काला एवं जाव अणंतगुणकालए। असंख्येयं कालम्। एवं यावद् अनन्तगुण- काल। इसी प्रकार यावत् अनन्त-गुण कृष्ण वर्ण कालकः। वाले पुद्गल की यही कालावधि है। एवं वण्ण-गंध-रस-फास जाव अणंतगुण- एवं वर्ण-गंध-रस-स्पर्शम् यावद् अनन्तगुण- इसी प्रकार वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श यावत् अनन्त गुण लुक्खे। एवं सुहुमपरिणए पोग्गले, एवं बादर- रूक्षः। एवं सूक्ष्मपरिणत: पुद्गल:, एवं बादर- रूक्ष पुद्गल की कालावधि वक्तव्य है। इसी प्रकार परिणए पोग्गले।। परिणत: पुद्गलः। सूक्ष्म परिणति में परिणत पुद्गल तथा बादर परिणति में परिणत पुद्गल की कालावधि वक्तव्य है। १७३. सद्दपरिणए णं भंते ! पोग्गले कालओ शब्दपरिणत: भदन्त ! पुद्गल: कालत: कि- १७३. भंते ! शब्द-परिणति में परिणत पुद्गल काल केवच्चिरं होइ? यच्चिरं भवति? की दृष्टि से शब्द-परिणति के रूप में कितने समय तक रहता है? गोयमा ! जहण्णेणं एग समयं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण । गौतम ! जघन्यत: एक समय, उत्कर्षत: आवलिका आवलियाए असंखेज्जइभाग। आवलिकाया: असंख्येयभागम्। के असंख्यातवें भाग तक रहता है। १७४. असद्दपरिणए णं भंते ! पोग्गले कालओ अशब्दपरिणतः भदन्त ! पुद्गल: कालत: १७४. भन्ते! अशब्द-परिणति में परिणत पुद्गल काल केवच्चिरं होइ? कियच्चिरं भवति? की दृष्टि से अशब्द-परिणति के रूप में कितने समय तक रहता है? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षण गौतम ! जघन्यत: एक समय, उत्कर्षत: असंख्य असंखेज्जं कालं॥ असंख्येयं कालम्। काल। भाष्य १. सूत्र १६९-१७४ प्रस्तुत आलापक में पुद्गल से सम्बन्धित कुछ सार्वभौम नियमों २.सप्रकम्प और अप्रकम्प पुद्गल का एक स्थान में अवस्थान का प्रतिपादन है। का नियम-जघन्यत: एक समय, उत्कर्षत: आवलिका का असंख्येय भागा १. एक रूप में अवस्थान का नियम-पुद्गल-द्रव्य के दो। ३. तीसरे नियम का सम्बन्ध गुणांश के परिवर्तन से हैरूप हैं--परमाणु और स्कन्ध। परमाणु मिलकर स्कन्ध का निर्माण करते हैं। ___ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के गुण हैं। काला वर्ण एक गुण स्कन्ध का विघटन होने पर वे फिर परमाणु बन जाते हैं। यह परिवर्तन-चक्र (quality) है। उसमें अनन्त गुणांश (units) सम्भव हो सकते हैं। प्रस्तुत चलता रहता है। परमाणु का परमाणु के रूप में अधिकतम अवस्थान प्रकरण में 'गुण' शब्द का प्रयोग 'गुणांश' के अर्थ में किया गया है। असंख्येयकाल तक होता है। उसके पश्चात् वह स्कन्ध रूप में बदल जाता किसी काले वर्ण वाले परमाणु के काले वर्ण के गुणांशों में परिवर्तन है। कोई भी पुद्गल एक ही रूप में स्थित नहीं रहता। इनके परिवर्तन की होता रहता है। कभी वह एक गणांश काला होता है. कभी दो गणांश. कभी तीन न्यूनतम सीमा बहुत छोटी है—एक समय है। एक समय और असंख्यकाल गुणांश यावत् कभी अनन्त गुणांश काला होता है। प्रत्येक गुणांशअनन्त अविभागी की सीमा के मध्य जितना काल है उतने ही विकल्प बन जाते हैं। प्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है। एक गुण काला' जघन्य गुण काला कहलाता है। यह नियम परमाणु की भांति स्कन्ध पर भी लागू होता है। अविभागी प्रतिच्छेद की वृद्धि होने पर क्रमश: दो गुण, तीन गुण, चार गुण १.भ.न.५/१६९ असंखेन्जं कालं त्ति असंख्येयकालात्परः पुद्गलानामेकरूपेण स्थित्यभावात्। २. आवलिका के लिए द्रष्टव्य भ. ६/१३२॥ ३. अविभागी प्रतिच्छेद का अर्थ है--- शक्ति -अंश । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई इस प्रकार अवस्था भेद होता रहता है।' गुण में गुणांश सदा एक रूप नहीं रहता। वह बदलता रहता है। प्रस्तुत आलापक में उसके एक रूप में रहने की कालमर्यादा का नियम निर्दिष्ट है— जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः असंख्येय काला यह नियम वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन गुणों के सभी गुणांशों पर लागू होता है। सूक्ष्म परिणति और बादर परिणति वाले पुद्गलों के लिए भी यही नियम निर्दिष्टि है। ४. चौथे नियम का सम्बन्ध शब्द-परिणत और अशब्द परिणत परमाणु - खंघाणं अंतरकाल पदं १७५. परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होड़? परमाणु - स्कन्धानाम् अन्तरकाल-पदम् परमाणुपुद्गलस्य भदन्त ! अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? गोयमा जहणेणं एवं समयं उक्कोसेणं गौतम । जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । असंखेज्जं कालं || १७७. एगपएसोगास्स मं भंते! पोग्गलस्स सेक्स्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होड़? गोयमा ! जहणेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । एवं जाव असंखेज्ज परसोगाढे ॥ १७६. दुप्पएसियस्स णं भंते ! खंधस्स अंतरं द्विप्रदेशिकस्य भदन्त ! स्कन्धस्य अन्तरं कालओ केवच्चिरं होइ ? कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालम् एवं यावद् अनन्तप्रदेशिकः । गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अनंत काली एवं जाव अनंतपएसओ ।। १७८. एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स निरेयस्स अंतर कालओ केवच्चिरं होड़? 7 गोयमा ! महणणेणं एवं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जभागं एवं जाव असंखेज्जपएसोगाढे। वण्ण-गंध-रस- फास - सुहुमपरिणयबायरपरिणयाणं एतेसिं जं चैव संचिट्टणा तं चैव अंतरं पि भाणियव्वं ॥ १९७ - पुद्गलों के साथ है। एकप्रदेशावगाढ़ परमाणु के सप्रकम्प और अप्रकम्प रहने का नियम पुद्गल सप्रकम्प अधिक समय तक रह नहीं सकता। उसके सप्रकम्प रहने का कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः आवलिका का असंख्यातवां भाग है। पुद्गल अप्रकम्प अधिक समय तक रह सकता है— जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः असंख्येय काल । पच्चीसवें शतक में परमाणु के सप्रकम्प और अप्रकम्प होने का कालमान निर्दिष्ट है। २ एकप्रदेशावगाढस्य भदन्त पुद्गलस्य सैजस्य अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम । जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् । एवं यावद् असंख्येयप्रदेशावगाढ़ः । एकप्रदेशावगाढस्य भदन्त ! पुद्गलस्य निरेजस्य अन्तरं कालत: कियच्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण आवलिकायाः असंख्यभागम्। एवं यावद् असंख्येयप्रदेशावगाढः । वर्ण- गन्ध-रस स्पर्श- सूक्ष्मपरिणतबादरपरिणतानाम् — एतेषां यच्चैव संस्थानं तच्चैव अन्तरमपि भणितव्यमा १७९. सपरिणयस्स णं भंते! पोग्गलस्स अंतरं शब्दपरिणतस्य भवन्त ! पुद्गलस्य अन्तरं १. ष. खं. धवला, पु. १४, खं. ५, भा. ६, सू. ५३९, पृ. ४५० तथा सू. ५४० पृ. ४५१ । २. भ. २५/१८९, २०० । श. ५: उ. ७: सू. १६९-१७९ परमाणु - स्कन्धों का अन्तरकाल-पद १७५. भन्ते! परमाणु-पुद्गल में (पुनः परमाणु-रूप में परिणत होने में ) कालकृत अन्तर कितना होता है? गौतम जपन्यतः एक समय, उत्कर्षतः असंख्येय ! काल । १७६. भंते द्विप्रदेशिक स्कन्ध में कालकृत अन्तर कितना होता है ? गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः अनन्त काल । इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध में कालकृत अन्तर वक्तव्य है । १७७. भन्ते ! आकाश के एक प्रदेश में अवगाढ़ सप्रकम्प पुद्गल में कालकृत अन्तर कितना होता है? गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः असंख्य काल इसी प्रकार यावत् असंख्य प्रदेशावगाढ़ प्रकम्प पुद्गल में कालकृत अन्तर वक्तव्य है। १७८. भन्ते ! आकाश के एक प्रदेश में अवगाढ़ अप्रकम्प पुद्गल में कालकृत अन्तर कितना होता है? गौतम! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः आवलिका का असंख्यातवां भाग। इसी प्रकार यावत् असंख्यप्रदेशावगाढ़ अप्रकम्प पुद्गल में कालकृत अन्तर वक्तव्य है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सूक्ष्म परिणति में परिणत तथा बादर परिणति में परिणत- इन पुद्गलों का जो अवस्थान-काल है, वही कालकृत अन्तर है। १७९. भन्ते शब्द परिणति में परिणत पुद्गल में Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : उ. ७ : सू. १७५-१८० कालओ केववि होइ? कालतः किच्चिरं भवति ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण असंखेज्जं कालं || असंख्येयकाला १८०. असद्दपरिणयस्स ण भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होड़? गोयमा ! जहोणं एवं समयं उक्कोसेनं आवलियाए असंखेज्जइभागं ।। " १. २. ३. १. सूत्र १७५-१८० पूर्व आलापक में परमाणु और स्कन्ध के अवस्थान-काल-विषयक नियमों का प्रतिपादन किया गया है। प्रस्तुत आलापक में उनके अन्तरकालविषयक नियमों का प्रतिपादन है। अन्तरकाल का अर्थ है वर्तमान परिणति और भविष्य में उसी रूप में होने वाली परिणति का मध्यवर्ती काला मध्यवर्ती परिणति पूर्व परिणति से भिन्न प्रकार की होती है, जैसे – एक परमाणु, परमाणुअवस्था को छोड़कर स्कन्ध-रूप में परिणत होता है, पुन: वह परमाणु-रूप में परिणत होगा, उसका मध्यवर्ती काल स्कन्ध-रूप में परिणत होने का का है। एक द्विप्रदेश स्कन्ध त्रिप्रदेशी आदि स्कन्ध तथा परमाणु के रूप में परिणत होकर पुनः द्विप्रदेशी स्कन्ध के रूप में परिणत होता है। उसका मध्यवर्ती ४. ५. ६. ७. ८. नाम परमाणु- पुद्गल द्विप्रदेशी स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध एकप्रदेशावगाढ पुद्गल सैज यावत् असंख्य प्रदेशावगाढ एकप्रदेशावगाट यावत् असंख्यप्रदेशावगाढ पुद्गल निरेज अशब्दपरिणतस्य भदन्त ! पुद्गलस्य अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण आवलिकाया असंख्येयभागम एक गुणकाला पुद्गल यावत् अनन्त गुण काला पुद्गल इसी प्रकार सभी वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, सूक्ष्म परिणत बादर परिणत शब्द- परिणत पुद्गल अशब्द- परिणत पुद्गल भाष्य जघन्य एक समय एक समय एक समय अवस्थान-काल एक समय १९८ एक समय एक समय १. भ. वृ. ५/ १७६ - स च तेषामनन्तत्वात् प्रत्येकं चोत्कर्षतोऽसंख्येयस्थितिकत्वादनन्तः । एक समय एक समय काल द्विप्रदेशी स्कन्ध का अन्तरकाल है। स्कन्ध द्विप्रदेशी से लेकर अनन्तप्रदेशी तक होते हैं- ( अर्थात् स्कन्धों की संख्या अनन्त है।) प्रत्येक स्कन्ध की उत्कृष्ट स्थिति असंख्य काल तक की है। इसलिए द्विप्रदेशी स्कन्ध का अन्तर- काल अनन्त काल है। १ उत्कृष्ट असंख्य का असंख्य काल अप्रकम्प पुद्गल का जो अवस्थान-काल है, वह सप्रकम्प पुद्गल का अन्तर- काल है। तथा सप्रकम्प पुद्गल का जो अवस्थान- काल है, वह अप्रकम्प पुद्गल का अन्तर- काल है। एक गुण काला वर्ण, गन्ध आदि का जो अवस्थान-काल है, वही उनका अन्तर काल है। देखें यन्त्र असंख्य काल कालकृत अन्तर कितना होता है? गौतम! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षत: असंख्य काला आवलिका का असंख्यातवां भाग असंख्य काल असंख्य काल १८०. भन्ते ! अशब्द- परिणति में परिणत पुद्गल में कालकृत अन्तर कितना होता है? गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः आवलिका का असंख्यातवां भाग। आवलिका का असंख्यातवां भाग असंख्य काल जघन्य एक समय एक समय एक समय एक समय एक समय एक समय एक समय एक समय अन्तर काल भगवई उत्कृष्ट असंख्य काल असंख्य काल अनन्त काल आवलिका का असंख्यातवां भाग असंख्य काल असंख्य काल असंख्य काल आवलिका का असंख्यातवां भाग Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १९९ श.५: उ.७: सू.१८१,१८२ परमाणु-खंधाणं परोप्परं अप्पाबहुयत्त-पदं परमाणु-स्कन्धानां परस्परम् अल्प- परमाणु-स्कन्धों का परस्पर अल्पबहुत्व-पद बहुत्व-पदम् १८१. एयस्स णं भंते ! दव्वट्ठाणाउयस्स, एतस्य भदन्त ! द्रव्यस्थानायुष्कस्य क्षेत्र- १८१. 'भन्ते! इस द्रव्यस्थान आयु, क्षेत्रस्थान आयु, खेत्तट्ठाणाउयस्स, ओगाहणट्ठाणाउयस्स, स्थानायुष्कस्य, अवगाहनस्थानायुष्कस्य, अवगाहनस्थान आयु और भावस्थान आयु में कौन भावट्ठाणाउयस्स कयरे कयरेहिंतो अप्पा भावस्थानायुष्कस्य कतरे कतरेभ्य: अल्पा: किनसे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? बहुका: वा? तुल्या: वा? विशेषाधिका वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे खेत्तट्ठाणाउए, ओगा- गौतम! सर्वस्तोक: क्षेत्रस्थानायुष्कः, अव- गौतम! क्षेत्रस्थान आयु सबसे थोड़ा है, अवगाहनाहणट्ठाणाउए असंखेज्जगुणे, दव्वट्ठाणाउए गाहनस्थानायुष्यक: असंख्येय गुणः, द्रव्य- स्थान आयु उससे असंख्येयगुना, द्रव्यस्थान आयु असंखेज्जगुणे, भावट्ठाणाउए असंखेज्ज- स्थानायुष्कः असंख्येयगुणः, भावस्थाना- उससे असंख्येयगुना और भावस्थान आयु उससे युष्क: असंख्येयगुणः। असंख्येयगुना अधिक होता है। वा? गुणे। संगहणी गाहा खेत्तोगाहणदव्वे, भावट्ठाणाउयं च अप्प-बहु। खेते सव्वत्थोवे, सेसा ठाणा असंखेज्जगुणा ॥१॥ संग्रहणी गाथा क्षेत्रावगाहनद्रव्ये, भावस्थानायुष्कं च अल्प-बहु। क्षेत्रसर्वस्तोक, शेषाणि स्थानानि असंख्येयगुणानि । संग्रहणी गाथा क्षेत्र, अवगाहना, द्रव्य और भावस्थान आयु का अल्पबहुत्व विमर्शनीय है। क्षेत्र का आयु सबसे थोड़ा है, शेष तीनों का आयु क्रमश: असंख्येयगुना है। भाष्य १. सूत्र १८१ वह संकुचित हो जाता है और कभी फैल जाता है। संकोच और विकोच के प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य, क्षेत्र, अवगाहन और भाव-इन चार नयों साथ अवगाहना बदल जाती है। किन्तु द्रव्यमान चिरकाल तक नहीं बदलता। से पुद्गल के आयुमान अथवा अवस्थिति-मान की अल्पता और बहुता का विवक्षित स्कन्ध में जितनी द्रव्यराशि थी, उतनी चिरकाल तक रह जाती है। तुलनात्मक प्रतिपादन किया गया है। इस अपेक्षा से द्रव्यस्थानायु अवगाहनास्थानायु से असंख्येय गुना अधिक १. क्षेत्र-स्थानायु-क्षेत्र (आकाश) अमूर्त होता है, इसलिए उसके होता है। साथ मूर्त (पुद्गल) द्रव्य का विशिष्ट बन्ध नहीं होता, फलस्वरूप एक क्षेत्र ४. संघात और भेद के कारण स्कन्ध की द्रव्यराशि में अन्तर आ में पुद्गल चिरकाल तक नहीं रहता, अत: क्षेत्र-स्थानायु सबसे अल्प होता जाता है। उसके उपरान्त भी भाव, वर्ण आदि पर्यायों में अन्तर आना निश्चित नहीं है। इसलिए भावस्थानायु द्रव्यस्थानायु से असंख्यगुना अधिक है। २. अवगाहना विवक्षित क्षेत्र से अन्यत्र भी होती है। इसलिए अभयदेवसूरि ने अल्पबहुत्व की व्याख्या के लिए १५ गाथाएं उद्धृत अवगाहना-स्थानायु क्षेत्र-स्थानायु से असंख्येय गुना अधिक होता है। की हैं। उनमें अल्पबहुत्व की न्यायशास्त्रीय मीमांसा उपलब्ध है। ३. पुद्गल-द्रव्य में संकोच और विकोच दोनों होते हैं-कभी जीवाणं सारंभ-सपरिग्गह-पदं जीवों का सारम्भ-सपरिग्रह-पद १८२. नेरइया णं भंते ! कि सारंभासपरिग्गहा? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा? जीवानां सारंभ-सपरिग्रह-पदम् नैरयिका:भदन्त ! किंसारम्भा: सपरिग्रहा:? उताहो अनारम्भा: अपरिग्रहा:? १८२. 'भन्ते! नैरयिक जीव क्या आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं? अथवा आरम्भ और परिग्रह से मुक्त होते हैं? १. भ..५/१८१-ननु क्षेत्रस्यावगाहनायाश्च को भेद:? उच्यते, क्षेत्रमवगाढमेव, अवगाहना तु विवक्षितक्षेत्रादन्यत्रापि पुद्गलानां तत्परिमाणावगाहित्वमिति । Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.७: सू.१८२-१८७ २०० भगवई गोयमा ! नेरझ्या सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा। गौतम ! नैरयिका: सारम्भाः सपरिग्रहाः, नो अनारम्भा: अपरिग्रहा:। गौतम ! नैरयिक जीव आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं होते। १८३. से केणतुणं भन्ते ! एवं वुच्चइ–नेर- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैर- इया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अ- यिका: सारम्भा: सपरिग्रहाः, नो अनारम्भा: परिग्गहा? अपरिग्रहा:? गोयमा ! नेरइया णं पुढविकायं समारंभंति, गौतम ! नैरयिका: पृथिवीकार्य समारभन्ते, आउकायं समारंभंति, तेउकायं समारंभंति, अप्कायं समारभन्ते, तेजस्कायं समारभन्ते, वाउकायं समारंभंति, वणस्सइकायं समारं- वायुकायं समारभन्ते, वनस्पतिकायं समा- भंति, तसकायं समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया रभन्ते, त्रसकायं समारभन्ते, शरीराणि परिभवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति, सचित्ता- गृहीतानि भवन्ति, कर्माणि परिगृहीतानि चित्त-मीसयाई दवाइं परिग्गहियाई भवंति। भवन्ति, सचित्ताचित्त-मिश्रकाणि द्रव्याणि से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–नेरइया परिगृहीतानि भवन्ति। तत् तेनार्थेन गौतम ! सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरि- एवमुच्यते-नैरयिका: सारम्भा: सपरिग्गहा॥ ग्रहाः, नो अनारम्भा: अपरिग्रहा:। १८३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैनैरयिक जीव आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं होते? गौतम ! नैरयिक जीव पृथ्वीकाय का समारम्भ करते हैं, अप्काय का समारम्भ करते हैं, तेजस्काय का समारम्भ करते हैं, वायुकाय का समारम्भ करते हैं, वनस्पतिकाय का समारम्भ करते हैं और त्रसकाय का समारम्भ करते हैं। नैरयिक जीवों के शरीर का परिग्रह होता है, कर्म का परिग्रह होता है तथा सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का परिग्रह होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-नैरयिक जीव आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं होते। १८४. असुरकुमारा णं भंते ! किं सारंभा? असुरकुमारा: भदन्त! किंसारम्भा:? पृच्छा:। १८४. भन्ते! असुरकुमार देव क्या आरम्भ और परिग्रह पुच्छा । से युक्त होते हैं? पृच्छा गोयमा ! असुरकुमारा सारंभा सपरिग्गहा, गौतम ! असुरकुमारा: सारम्भा: सपरिग्रहा:, गौतम ! असुरकुमार देव आरम्भ और परिग्रह से युक्त नो अणारंभा अपरिग्गहा। नो अनारम्भाः अपरिग्रहाः। होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं होते। १८५. से केणटेणं? गोयमा! असुरकुमारा णं तत् केनार्थेन? गौतम! असुरकुमारा: पृथिवी- १८५. यह किस अपेक्षा से? गौतम! असुरकुमार देव पुढविकायं समारंभंति जाव तसकायं समा- कार्य समारभन्ते यावत् त्रसकार्य समारभन्ते, पृथ्वीकाय का समारम्भ करते हैं यावत् त्रसकाय का रंभंति, सरीरा परिग्गहिया भवंति, कम्मा शरीराणि परिगृहीतानि भवन्ति, कर्माणि समारम्भ करते हैं। असुरकुमार देवों के शरीर का परिग्गहिया भवंति, भवणा परिग्गहिया परिगृहीतानि भवन्ति, भवनानि परिगृहीतानि परिग्रह होता है, कर्म का परिग्रह होता है, भवनों का भवंति, देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ भवन्ति, देवा: देव्य: मनुष्या: मानुष्य: तिर्यग्- परिग्रह होता है, देवो, देवियों, मनुष्यों, मानुषियों, तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ प- योनिका: तिर्यग्योनिन्य: परिगृहीता: भवन्ति, नरतिर्यञ्चों और स्त्री-तिर्यञ्चों का परिग्रह होता है, रिग्गहिया भवंति, आसण-सयण-भंड- आसन-शयन-भाण्डामत्रोपकरणानि परि- आसन, शयन, भाण्ड, पात्र तथा अन्य उपकरणों मत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति, सचित्ता- गृहीतानि भवन्ति, सचित्ताचित्तमिश्रकाणि का परिग्रह होता है, सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों चित्त-मीसयाई दवाइं परिग्गहियाई भवंति। द्रव्याणि परिगृहीतानि भवन्ति। तत् तेनार्थेन का परिग्रह होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-असुर- गौतम! एवमुच्यते-असुरकुमारा: सारम्भा: जा रहा है-असुरकुमार देव आरम्भ और परिग्रह कुमारा सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा सपरिग्रहाः, नो अनारम्भा: अपरिग्रहाः। से युक्त होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त नहीं अपरिग्गहा। होते। १८६. एवं जाव थणियकुमारा। एगिदिया जहा एवं यावत् स्तनितकुमारा:। एकेन्द्रिया: यथा १८६. इसी प्रकार स्तनिक कुमार देवों तक आरम्भ नेरइया। नैरयिकाः। और परिग्रह की वक्तव्यता। एकेन्द्रिय जीव नैरयिक जीवों की भांति ज्ञातव्य हैं। १८७. बेइंदिया णं भंते ! किं सारंभा सपरि- द्वीन्द्रिया: भदन्त ! किंसारम्भा: सपरिग्रहा:? १८७. भन्ते ! द्वीन्द्रिय जीव क्या आरम्भ और परिग्रह गगहा? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा? उताहो अनारम्भा: अपरिग्रहा:? से युक्त होते हैं? अथवा आरम्भ और परिग्रह से मुक्त Jain Education Intemational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २०१ श.५: उ.७: सू.१८७-१९० तंचेव बेइंदिया णं पुढविकायं समारंभंति जाव तच्चैव द्वीन्द्रिया: पृथिवीकार्य समारभन्ते तसकायं समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया यावत् त्रसकायं समारभन्ते, शरीराणि परि- भवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति, बाहिरा गृहीतानि भवन्ति, कर्माणि परिगृहीतानि भंड-मत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति, सचि- भवन्ति, बाह्यानि भाण्डामत्रोपकरणानि परि- ताचित्त-मीसयाई दवाई परिग्गहियाई गृहीतानि भवन्ति, सचित्ताचित्त-मिश्रकाणि भवंति॥ द्रव्याणि परिगृहीतानि भवन्ति। होते हैं ? नैरयिक जीवों की भांति द्वीन्द्रिय पृथ्वी काय का समारम्भ करते है, द्वीन्द्रिय जीवों के शरीर का परिग्रह होता है, कर्म का परिग्रह होता है, बाह्य भाण्ड, पात्र तथा अन्य उपकरणों का परिग्रह होता है, सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का परिग्रह होता है। १८८. एवं जाव चउरिदिया। एवं यावत् चतुरिन्द्रिया:। १८८. इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक आरम्भ और परिग्रह की वक्तव्यता। १८९. पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! किं पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिका: भदन्त ! किंसारम्भा: १८९. भन्ते ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिक जीव क्या सारंभा सपरिग्गहा? उदाह अणारंभा अपरि- सपरिग्रहा:? उताहो अनारम्भा: अपरिग्रहा:? आरम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं अथवा आरम्भ गहा? और परिग्रह से मुक्त होते हैं? तं चेव जाव कम्मा परिग्गहिया भवंति, टंका तच्चैव यावत् कर्माणि परिगृहीतानि भवन्ति, नैरयिक जीवों की भांति तिर्यपंचेन्द्रिययोनिक कूडा सेला सिहरी पब्भारा परिग्गहिया भवंति, टंका: कूटा: शैला शिखरिण: प्रागभारा: जीवों के यावत् कर्म का परिग्रह होता है (यह वक्तव्य जल-थल-बिल-गुह-लेणा परिग्गहिया परिग्रहीता: भवन्ति, जल-स्थल-बिल- है, इतना विशेष है)-टंक, कूट, शैल, शिखरी और भवंति, उज्झर-निज्झर-चिल्लल-पल्लल- -गुहा-लयनानि परिगृहीतानि भवन्ति, उज्- प्राग्भार (झूके हुए पर्वत प्रदेश) का परिग्रह होता है। -वप्पिणा परिग्गहिया भवंति, अगड-तडाग- झर-निर्झर-'चिल्लल'-पल्वल-वप्पिणा' जल, स्थल, बिल, गुफा और लयन (पर्वत में उकेरा -दह-नईओ वावी-पुक्खरिणी-दीहिया परिगृहीतानि भवन्ति,अगड-तडाग-द्रह- हुआ गृह) का परिग्रह होता है। उज्झर, निर्झर, तलैया, गुजालिया सरा सरपंतियाओ सरसरपंति- नद्यः वापी-पुष्करिणी-दीर्घिका: गुजा- जल का छोटा गढा, जल-प्रणाली का परिग्रह होता याओ बिलपंतियाओ परिगहियाओ भवंति, लिका: सरांसि सर:पंक्तिका: सरस्सर:- है। कुआ, तालाब, द्रह, नदी, बावड़ी, पुष्करिणी, आरामुज्जाण-काणणा वणा वणसंडा वण- पंक्तिका: बिलपंक्तिका: परिगृहीता: भवन्ति, नहर, वक्राकार नहर, सर, सरपंक्ति, सरसरपंक्ति और राईओ परिग्गहियाओ भवंति, देवउल-सभ- आरामोद्यान-काननानि वनानि वनषण्डानि बिलपंक्ति का परिग्रह होता है। आराम, उद्यान, कानन, -पव-थूभ-खाइय-परिखाओ परिग्ग- वनराजय: परिगृहीता: भवन्ति, देवकुल- वन, वनषण्ड और वनराजि का परिग्रह होता है। देवल, हियाओ भवंति, पागार-अट्टालग-चरिय- -सभा-प्रपा-स्तूभ-खातिका-परिखा: परि- सभा, प्रपा, स्तूप, खाई और परिखा का परिग्रह होता -दार-गोपुरा परिग्गहिया भवंति, पासाद- गृहीताः भवन्ति, प्राकाराट्टालक-चरिका- है। प्राकार, अट्टालक, चरिका, द्वार और गोपुर का -घर-सरण-लेण-आवणा परिग्गहिया भ- -द्वार-गोपुराणि परिगृहीतानि भवन्ति, प्रा- परिग्रह होता है। प्रासाद, घर, शरण,लयन और आपण वंति, सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- साद-गृह-शरण-लयनापणाः परिगृहीताः का परिग्रह होता है। दुराहे, तिराहे, चौराहे, चौक, -चउम्मुह-महापह-पहा परिग्गहिया भवंति, भवन्ति, शृंगाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर- चौहट्टे, महापथ और पथ का परिग्रह होता है। शकट, सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि- चतुर्मख-महापथ-पथा: परिगृहीता: भवन्ति, रथ, यान, युग्य, डोली, बग्घी, शिबिका और स्यन्द-सीय-संदमाणियाओ परिग्गहियाओ शकट-रथ-यान-युग्य-'गिल्लि'-थिल्लि- मानिका का परिग्रह होता है। तवा, लोहकटाह, करछी भवंति, लोही-लोहकडाह-कडुच्छया -शिबिका-स्यन्दमानिका: परिगृहीता: भव- का परिग्रह होता है। भवन का परिग्रह होता है। देवों, परिग्गहिया भवंति, भवणा परिग्गहिया न्ति, लौही-लोहकटाह-'कडुच्छया' परि- देवियों, मनुष्यों, मानुषियों, नर-तिर्यञ्चों और स्त्रीभवंति, देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ गृहीताः भवन्ति, भवनानि परिगृहीतानि तिर्यञ्चों का परिग्रह होता है। आसन, शयन, स्तम्भ, तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ परि- भवन्ति, देवा: देव्य: मनुष्या: मानुष्य: तिर्यग्- भांड, सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का परिग्रह म्गहिया भवंति, आसण-सयण-खंभ-भंड- योनिका: तिर्यग्योनिन्यः परिगृहीता: भवन्ति, होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा -सचित्ताचित्त-मीसयाई दव्वाइं परिग्गहियाई आसन-शयन-स्तम्भ-भाण्ड-सचित्ताचित्त- है-पंचेद्रिय तिर्यग्योनिक जीव आरम्भ और परिभवंति। से तेणटेणं॥ -मिश्रकाणि द्रव्याणि परिगृहीतानि भवन्ति। ग्रह से युक्त होते हैं, आरम्भ और परिग्रह से मुक्त तत् तेनार्थेन। नहीं होते। १९०. जहा तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा वि यथा तिर्यग्योनिकाः तथा मनुष्याः अपि १९०. जिस प्रकार तिर्यग्योनिक जीवों की वक्तव्यता भाणियव्वा। वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया भणितव्याः। वानमन्तर-ज्योतिष्क-वैमानि- है, उसी प्रकार मनुष्यों के आरम्भ और परिग्रह Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : ३.७ : सू. १८२-१९० जहा भवणवासी तहा नेयव्वा । १. सूत्र १८२-१९० आरम्भ और परिग्रह--- ये दोनों जीव की मौलिक प्रवृत्तियां हैं। ये नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव-सभी जीवों में उपलब्ध होती हैं। जीवों के छह निकाय हैं— पृथ्वीकाय, अपूकाय, तेजस्काय, वायुकाय वनस्पतिकाय और उसका नैरयिक पजीवनिकाय के जीवों की हिंसा करता है, इसलिए वह सारम्भ (स आरम्भ, हिंसा सहित) होता है। ठाणं में परिग्रह के तीन प्रकार निर्दिष्ट है—शरीर, कर्म और उपधि (पौद्गलिक द्रव्य पदार्थ)। काः यथा भवनवासिनः तथा नेतव्याः । प्रस्तुत आलापक में परिग्रह के तीनों प्रकार निर्दिष्ट हैं- “सरीरा परिगरिया भवति, कम्मा परिगडिया भवंति सचिताचित मीराबाई दव्वाइं परिग्गहियाइं भवंति ।" नैरयिक के पास तीनों प्रकार का परिग्रह होता है, इसलिए वह सपरिग्रह है। ठाणं में नैरयिक और एकेन्द्रिय के पास तीसरे प्रकार के परिग्रह पदार्थ का निषेध किया गया है। भाष्य भाण्ड - मिट्टी का पात्र । उपकरण—तवा, कड़छी आदि । टंक पहाड़ी की ढाल, दरार। २०२ प्रस्तुत आलापक में परिग्रह का तीसरा प्रकार दो भागों में विभक्त हैं - १. भवन, आसन, शयन, पात्र आदि। २. आहार के लिए उपयुक्त सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्य नैरयिक सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्य रूप परिग्रह का उपयोग करता है, किन्तु उसके पास भवन, स्त्री, आसन, शयन आदि का परिग्रह नहीं होता। देव के प्रसंग में भवन, आसन, शयन आदि तथा सचित, अचित, मिश्र द्रव्य इन दोनों विधाओं का उल्लेख है। १. ठाणं, ३ / ९५ - विविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तंजहा— कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे। एवं असुरकुमाराणं । एवं एगिंदियणेरइयवज्जं जाव वैमाणियाणं । २. वही, ३ / ९५ - अहवा -- तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा—सचित्ते, अचित्ते, मीसए। एवं रइयाण निरंतर जाव वेमाणियाणं । ३. भ. वृ. ५/१८७ -- तत्कृतगृहकादीन्यवसेयानि। ४. प्राकृत व्याकरण १ / ९८ - वा निर्झरे ना। ५. भ. वृ. ५ / २३८ – 'सर' त्ति सरांसि स्वयंसंभूत जलाशय - - विशेषाः । कूट पर्वत की चोटी । शैल-शिखर- रहित पर्वत ! शिखरी— चोटी वाला पर्वत । प्राग्भार कुछ झुका हुआ पर्वत प्रदेश । लयन पर्वत में उत्कीर्ण गृह । उज्झर — पर्वतीय तट से जल का नीचे गिरना । निर्झर झरना । आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण में निर्झर के निज्झर और ओज्झर दोनों रूप सिद्ध किए हैं। ४ चिल्लल-कर्दमयुक्त तालाव । पल्वल छोटा तालाव । वप्पिण— क्यारी युक्त खेत। - भगवई वक्तव्य हैं। वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों की वक्तव्यता भवनवासी देवों की भांति ज्ञातव्य है। उद्यान — पहाडी भूमि पर होने वाला बगीचा । कृतिकार ने इसका अर्थ 'फूलों से लदे हुए वृक्षों से संकुल बगीचे' २ द्रष्टव्य सूत्र, १८४,९८५ । एकेन्द्रिय की वक्तव्यता नैरयिक के समान है— द्रष्टव्य सूत्र १८६। सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य - रूप परिग्रह नैरयिक और एकेन्द्रिय में होता है—यह ठाणं में भी स्वीकृत है। इसलिए किया है, जो उत्सव के अवसर पर बहुत जनों के उपयोग में आते हैं। प्रस्तुत आलापक और ठाणं की वक्तव्यता में कोई विरोध नहीं है । द्वीन्द्रिय जीव बाह्य पदार्थों का संग्रह करते हैं। वे अपने लिए घर-मिट्टी के परोन्दे भी कानन- नगर के निकट होने वाला उपवन। बना लेते हैं। इसलिए उनकी वक्तव्यता एकेन्द्रिय से भिन्न है। शब्द-विमर्श अगड-कुआ । पुष्करिणी— वर्तुलाकार बावड़ी, कमल-युक्त जलाशय । सारिणी सोता, जल-प्रणाली । गुंजालिका– वक्र जल-प्रणाली । सर—वह तालाव जिसके जल का सोता भीतर होता है। सरपंक्ति-पंक्तिबद्ध नैसर्गिक जलाशय । सरसरपंक्ति-तालावों की वह श्रेणी जिसमें एक तालाव का पानी ६ संचरण द्वार से दूसरे तालाव में जाता है।' बिल पंक्ति गहरे और लंबे गढे की श्रेणि । आराम—उपवन, बगीचा । वन नगर के दूरवर्ती वृधा संकुल प्रदेश। वनषण्ड —एक जाति के वृक्ष वाला वन वनराज वृक्ष - पंक्ति । ११ देवकुल देवल देव मंदिर। सभा— ग्राम पंचायत का स्थल, न्यायालय । प्रपा-प्याऊ । स्तूप ईंट आदि से बना हुआ विशेष प्रकार का स्तम्भ । ६. भ. बृ. ५ / १८९ - - ' सरपंतियाओ' ति सर: पंक्तय: 'सरसरपंतियाओ' ति यासु सरः पंक्तिसु एकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन्नन्यस्मादन्यत्र एवं सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरतिताः सरःसरः पंक्तयः । ७. वही, ५ / १८९ - उद्यानानि पुष्पादिमद् वृक्षसंकुलानि उत्सवादी बहुजनभोग्यानि । ८. वही, ५ / १८९ – काननानि सामान्यवृक्षसंयुक्तानि नगरासन्नानि। ९. वही, ५ / ९८९ - वनानि नगरविप्रकृष्टानि । १०. वही, ५ / १८९ - वनषण्डाः एक जातीयवृक्षसमूहात्मकाः । १९. वही, ५११८९ - वनराजयो वृक्षपंक्तय: । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २०३ श.५: उ.७: सू.१८२-१९७ खातिका वह खाई जो ऊपर से चौड़ी और नीचे से संकड़ी होती परिखा-वह खाई जो ऊपर और नीचे समान रूप से खोदी गई है। नगर या दुर्ग को दुर्गम बनाने के लिए उसके चारों ओर खोदी जाने वाली खाई। प्राकार--परकोटा, नगर या कीले के चारों ओर रक्षा के लिए बनाई जाने वाली दीवार। अट्टालक-कीले का बुर्ज, प्राकार पर बनाया जाने वाला आश्रयस्थान। चरिका गृह और प्राकार का मध्यवर्ती भाग।' गोपुर-नगर का मुख्य द्वार। प्रासाद—देव अथवा राजा का भवन अथवा बहुमंजिला भवन। सरण घास की झोंपड़ी। आपण दुकान। शृंगाटक आदि शब्दों के लिए द्रष्टव्य भ. २/३० का भाष्य। युग्य आदि शब्दों के लिए द्रष्टव्य भ. ३/१६४ का भाष्या लौही तवा लोहकडाह—लौह की कड़ाई। कडुच्छुय-करछी। ' हेउ-पदं हेतु-पदम् १९१. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा—हेउं जाणइ, पंच हेतवः प्रज्ञप्ता:, तद् यथा-हेतुं जा- हेउं पासइ, हेउं बुज्झइ, हेउं अभिसमा- नाति, हेतुं पश्यति, हेतुं बुध्यते, हेतुम् गच्छइ, हेउं छउमत्थमरणं मरइ।। अभिसमागच्छति, हेतुं छद्मस्थमरणं म्रियते। हेतु-पद १९१. ' हेतु के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-हेतु को जानता है, हेतु को देखता है, हेतु पर सम्यक् श्रद्धा करता है, हेतु को प्राप्त करता है और सहेतुक छदम्स्थ मरण से मरता है। १९२. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा-हे उणा पंच हेतव: प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-हेतुना जा- जाणइ जाव हेउणा छउमत्थमरणं मरहा। नाति, यावत् हेतुना छद्मस्थमरणं म्रियते। १९२. हेतु के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—हेतु से जानता है यावत् सहेतुक छद्मस्थमरण से मरता है। १९३. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा–हेउं ण पंच हेतवः प्रज्ञप्ता:, तद् यथा-हेतुं न जाणइ जाव हे अण्णाणमरणं मरइ ।। जानाति यावत् हेतुम् अज्ञानमरणम् म्रियते। १९३. हेतु के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-हेतु को नहीं जानता यावत् सहेतुक अज्ञानमरण से मरता है। १९४. पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा—हेउणा ण पंच हेतवः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा हेतुना न जाणइ जाव हेउणा अण्णाणमरणं मरइ॥ जानाति यावत् हेतुना अज्ञानमरणं म्रियते। १९४. पांच प्रकार के हेतु (हेतु-पुरुष) प्रज्ञप्त हैं, जैसे—हेतु से नहीं जानता है, यावत हेत से अज्ञानमरण से मरता है। १९५. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा—अहेउं पंच अहेतव: प्रज्ञप्ता:, तद् यथा--अहेतुं जाणइ जाव अहेउं केवलिमरणं मरइ॥ जानाति यावद् अहेतुं केवलिमरणं म्रियते। १९५. पांचप्रकार के अहेतुक प्रज्ञप्त हैं, जैसे-निर्हेतुक पदार्थ को जानता है और निर्हेतुक केवलिमरण से मरता है। १९६. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा—अहेउणा पंच अहेतवः प्रज्ञप्ता:, तद् यथा-अ- जाणइ जाव अहेउणा केवलिमरणं मरइ॥ हेतुना जानाति यावद् अहेतुना केवलि- मरणं म्रियते। १९६. पांच प्रकार के अहेतु प्रज्ञप्त हैं, जैसे-अहेतु से जानता है यावत् निर्हेतुक केवलिमरण से मरता है। १९७. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा–अहेउं न जाणइ जाव अहेउं छउमत्थमरणं मरइ॥ पंच अहेतवः प्रज्ञप्ता:, तद् यथा-अहे- तुं न जानाति यावद् अहेतुं छद्मस्थमरणं म्रियते। १९७. पांच प्रकार के अहेतु प्रज्ञप्त हैं, जैसे-अहेतु को नहीं जानता यावत् निर्हेतुक छद्मस्थमरण से मरता १. भ.वृ. ५/१८९-'खातिका:' उपरिविस्तीर्णाध: संकटखातरूपाः। २. वही, ५/१८९–परिखा अध उपरिच समखातरूपा:। ३. वही, ५,१८९–'अट्टालगा' त्ति प्राकारोपर्याश्रयविशेषाः। ४. वही, ५/१८९-चरिका गृहप्राकारान्तरो हस्त्यादिप्रचारमार्गः। ५. वही, ५/१८९प्रासादा देवानां राज्ञां च भवनानि, अथवा उत्सेधबहुला:-प्रासादाः। ६. वही, ५/१८९-शरणानि तृणमयावसरिकादीनि। ७. वही, ५/१८९-लौहि - मण्डकादिपचनिका। ८. वही, ५/१८९-लोहकडाहिति कवेल्ली। ९. वही, ५/१८९–कडुच्छुयत्ति परिवेषणाद्यर्थों भाजनविशेष:। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.७ : सू.१९१-१९९ २०४ भगवई १९८.पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेउणा पंच अहेतव: प्रज्ञप्ता:, तद् यथा-अहेतुना १९८. पांच प्रकार के अहेतु प्रज्ञप्त हैं, जैसे- अहेतु न जाणइ जाव अहेउणा छउमत्थमरणं मरइ॥ न जानाति यावद् अहेतुना छद्मस्थमरणं से नहीं जानता है यावत् निर्हेतुक छद्मस्थमरण से म्रियते। मरता है। भाष्य १. सूत्र १९१-१९८ मरण के अध्यवसान आदि सात हेतु निर्दिष्ट हैं। यहां कार्य-कारण में प्रस्तुत आलापक में चार सूत्र हेतु और चार सूत्र अहेतु से सम्बन्ध अभेदोपचार कर हेतु के कार्य को भी हेतु कहा गया है। है। हेतु का अर्थ है साध्य की सिद्धि का निश्चित साधन, कारण अथवा गमका' समवाओ में निर्दिष्ट मरण के १७ प्रकारों में छद्मस्थ मरण और यह अनुमान का एक अंग है। वैशेषिक दर्शन में हेतु के पर्यायवाची नाम ये हैं केवली मरण का उल्लेख है। उनमें अज्ञानमरण का उल्लेख नहीं है। भगवती, हेतु, अपदेश, लिंग, प्रमाण और करण। प्रस्तुत प्रकरण में हेतु शब्द का मूलाराधना और उत्तराध्ययननियुक्ति में प्राप्त मरण के वर्गीकरणों में भी प्रयोग हेतु का प्रयोग करने वाले, हेतुगम्य पदार्थ और हेतु-इन तीनों अर्थ इसका उल्लेख नहीं है। में किया गया है। हेतु को जानने वाला पुरुष उसका ज्ञान करते समय उससे प्रस्तुत प्रकरण में अज्ञान मरण का अर्थ अध्यवसान-राग-द्वेष अभिन्न हो जाता है। इसलिए वह हेतु कहलाता है। की तीव्रता से होने वाला मरण होना चाहिए। इसीलिए अज्ञानमरण को सिद्धसेन दिवाकर ने ज्ञान के आधार पर ज्ञेय की दो कोटिया बत- सहेतुक ही बतलाया गया है। छद्मस्थमरण सहेतुक और अहेतुक दोनों लाई हैं—हेतुगम्य और अहेतुगम्य। परोक्ष पदार्थ को जानने के लिए हेतु का प्रकार का हो सकता है। केवली में रागद्वेषात्मक अध्यवसान नहीं होता, प्रयोग किया जाता है, इसलिए वह हेतुगम्य कहलाता है। प्रत्यक्ष पदार्थ अथवा इसलिए उनका मरण अहेतुक ही होता है। आप्त पुरुष के वचन के आधार पर ज्ञात पदार्थ अहेतुगम्य कहलाता है। हेतु और अहेतु के पांच-पांच प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें चार हेतुं जाणइ, हेउणा जाणई'ये दो सूत्र सम्यक् दृष्टि की अपेक्षा का सम्बन्ध ज्ञान से है और पांचवे हेतु का सम्बन्ध मरण से है। जानता है, से हैं देखता है-इन दो क्रिया-पदों का अर्थ स्पष्ट है। बुध्यते, अभिसमागच्छति १. सम्यग्दृष्टि पुरुष कार्य के साथ-साथ उसके हेतु को भी जानता- - इन दो क्रियापदों के प्रतिपाद्य पर विमर्श आवश्यक है। बुध्यते इस देखता है। क्रियापद का अर्थ बोधि होता है। बोधि का सम्बन्ध ज्ञान, दर्शन और चारित्र २. वह हेतुगम्य पदार्थ को हेतु के द्वारा जानता-देखता है। तीनों से है।" ३. मिथ्यादृष्टि पुरुष कार्य को जानता है, देखता है उसके हेतु को 'अभिसमागच्छति' क्रियापद का सम्बन्ध प्राप्ति या संतुष्टि से नहीं जानता-देखता। है। बोधि के पश्चात् छद्मस्थ मनुष्य हेतु को प्राप्तकर दान, उपादान और ४. वह हेतुगम्य पदार्थ को हेतु के द्वारा नहीं जानता-देखता। माध्यस्थ फल को प्राप्त होता है। केवली अहेतु को अभिसमागत कर केवल ५. केवली अहेतु-अहेतुगम्य पदार्थ को जानता-देखता है माध्यस्थ-फल को प्राप्त होता है। अथवा अहेतुक-स्वाभाविक परिणमनों को जानता-देखता है। प्रस्तुत आलापक का तात्पर्यार्थ यह है—द्रव्य दो प्रकार के होते हैं ६. वह अहेतु केवलज्ञान के द्वारा जानता-देखता है। -मूर्त और अमूर्ती मूर्त द्रव्य हेतु के द्वारा जाना जा सकता है। अमूर्त द्रव्य ७. छद्मस्थ–क्षायोपशमिक ज्ञान का स्वामी अहेतुगम्य पदार्थ हेतु के द्वारा नहीं जाना जा सकता। वह अहेतु-केवलज्ञान के द्वारा जाना को नहीं जानता-देखता। जा सकता है। द्वितीयान्त हेतु' शब्द के द्वारा द्रव्य की द्विविधता की सूचना ८. वह अहेतु—केवलज्ञान के द्वारा नहीं जानता-देखता। मिलती है। तृतीयान्त हेतु' पद के द्वारा ज्ञान की द्विविधता की सूचना मिलती मरण दो प्रकार का होता है-सहेतुक और अहेतुक। ठाणं में है। द्रष्टव्य ठाणं, ७/७५ से ८२, व उनका टिप्पण, पृ. ६२३, ६२४। १९९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। १९९. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। १.भ.वृ. ५/१९१ हेतुं साध्याबिनाभूत साध्यनिश्चयार्थम्। २. वैशेषिक सूत्र ९/२/४-हेतुरपदेशो लिंग प्रमाणं करणमित्यनर्थान्तरम् । ३. भ.वृ. ५/१९१-इह हेतुषु वर्तमान: पुरुषो हेतुरेव —तदुपयोगान्यत्वात् । ४. सम्मति. ३/४३-दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य। तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा ।। ५. ठाणं,७/७२-सत्तविधे आउभेदे पण्णत्ते,तं जहा-- अन्झवसाण-णिमित्ते, आहारे वेयणापराघाते। फासे आणापाणू सत्तविधं भिज्जए आउं । ६. सम. १७/९/ ७. भ.२/४९ । ८. मूलाराधना, १/२५ विजयोदया वृत्ति प.८६ । ९. उत्तर. नि. गा. २१२-२१४ । १०. ठाणं, ३/१७६। Jain Education Intemational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम उद्देसो : आठवां उद्देशक संस्कृत छाया निर्ग्रन्थीपुत्र नारदपुत्र-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये यावत् पर्षत् प्रतिगता । मूल नियंठिपुत्त - नारयपुत्त - पदं २००. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव परिसा पहिगया || २०१. ते कालेणं देणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी नारयपुत्ते नामं अणगारे पगड़भए बाब विहरति तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी नियंठिपुत्ते नाम अगारे पगइभद्दए जाव विहरति । तएषं नियंठिपुते अणगारे जेणमेव नारयपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता नारयपुढं अनगारं एवं क्यासी— सव्व पोग्गला ते अज्जो ! किं सअड्ढा समज्झा सपएसा? उदाहु अणड्ढा अमज्झा अपएसा ? अज्जो ! ति नारवपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं क्यासी – सन्यपोग्ला मे अज्जो ! सअड्ढा समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा । २०२. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी— जइ णं ते अज्जो ! सव्वमोग्गला सअद्धा समज्झा सपएसा वो अणड्ढा अमज्झा अपएसा, किं तस्मिन् काले तस्मिन् समये भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी नारदपुत्रो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः यावद् विहरति। तस्मिन् काले तस्मिन् समये भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी निर्ग्रन्धीपुत्र नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः यावद विहरति ततः स निर्ग्रन्थीपुत्रः अनगारः यत्रैव नारदपुत्र: अनगार तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य नारदपुत्रम् अनगारम् एवमवादीत्-सर्वपुद्गलाः ते आर्य ! किं सार्द्धाः समध्या: सप्रदेशाः ? उताहो अनर्द्धा अमध्या: अप्रदेशा: ? आर्य अवि नारदपुत्रः अनगारः निर्य ! न्धीपुत्रम् अनगारम् एवमवादीत् सर्वपुद्गलाः मे आर्य ! सार्द्धाः समध्याः सप्रदेशा:, नो अनर्द्धा अमध्या: अप्रदेशाः । ततः निर्ग्रन्थीपुत्रः अनगारः नारदपुत्रम् अनगारम् एवमादीद् – यदि ते आर्य ! सर्वपुद्गलाः सार्द्धाः समध्याः सप्रदेशाः, नो अनर्द्धाः अमच्या अप्रदेशा:, किं हिन्दी अनुवाद निर्ग्रन्थीपुत्र नारदपुत्र-पद २००. उस काल और समय राजगृह नाम का नगर थानगर का वर्णन यावत् (पू.भ. १/४) परिषद् वापस नगर में चली गई। २०१. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर का अन्तेवासी नारदपुत्र नाम का अनगार था। वह प्रकृति से भद्र और उपशान्त था। उसके क्रोध, मान, माया व लोभ प्रतनु (पतले ) थे, वह मृदु- मार्दव- सम्पन्न था, आलीन संयतेन्द्रिय और विनीत था । वह श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर न अति निकट, 'ऊजानु अधः सिर' इस मुद्रा में और ध्यान कोष्ठ में लीन होकर संयम तथा तपस्या से अपने आपको भावित करता हुआ विहार कर रहा है। उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर का अन्तेवासी निर्ग्रन्थीपुत्र नाम का अनगार था। वह प्रकृति भद्र यावत् विहार कर रहा है। निर्ग्रन्थीपुत्र अनगार जहां पर नारदपुत्र अनगार था, वहां पहुंचता है। वहां पहुंचकर उसने नारदपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा—आर्य ! तुम्हारे मत में सब पुद्गल क्यास अर्ध, स-मध्य और स- प्रदेश है, अथवा अनर्ध, अ-मध्य और अ- प्रदेश हैं ? अनगार नारदपुत्र ने अनगार निर्ग्रन्थीपुत्र से इस प्रकार कहा—आर्य! मेरे मत में सब पुद्गल सअर्थ स मध्य और स प्रदेश हैं, अनर्थ, अमध्य और अप्रदेश नहीं है। २०२. अनगार निर्ग्रन्थीपुत्र ने अनगार नारदपुत्र से इस प्रकार कहा—आर्य ! यदि तुम्हारे मत में सब पुद्गल स अर्थ, समय और सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं, तो क्या Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.८: सू.२०२-२०३ २०६ भगवई आर्य ! द्रव्य की अपेक्षा से सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं? आर्य ! क्षेत्र की अपेक्षा से सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं? आर्य ! काल की अपेक्षा से सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य ओर सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश दव्वादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा द्रव्यादेशेन आर्य ! सर्वपुद्गलाः सार्धाः समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा समध्या: सप्रदेशाः, नो अनर्धा; अमध्या: अपएसा? अप्रदेशा:? खेत्तादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा क्षेत्रादेशेन आर्य ! सर्वपुद्गलाः सार्दाः समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा समध्या: सप्रदेशा:, नो अनर्धः अमध्या: अपएसा? अप्रदेशा:? कालादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा कालादेशेन आर्य ! सर्वपुद्गला: सार्द्धाः समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा समध्या: सप्रदेशाः, नो अनर्धाः अमध्या: अपएसा? अप्रदेशा:? भावादेसेणं अज्जो! सव्वपोग्गला सअड्ढा भावादेशेन आर्य ! सर्वपुद्गला: सार्द्धाः । समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा समध्या: सप्रदेशाः, नो अनाः अमध्या: अपएसा? अप्रदेशा:? तए ण से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं ततः स नारदपुत्र: अनगार: निर्ग्रन्थीपुत्रम् अणगारं एवं वयासी—दव्वादेसेण वि मे अनगारम् एवमवादीद्-द्रव्यादेशेनापि मे अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा आर्य ! सर्वपुद्गलाः सार्धा: समध्या: ससपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा, प्रदेशाः, नो अनर्धा: अमध्या: अप्रदेशाः। खेत्तादेसेण वि, कालादेसेण वि, भावादेसेण क्षेत्रादेशेनापि, कालादेशेनापि, भावादेशे- नापि। नहीं हैं? आर्य ! भाव की अपेक्षा से सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं? अनगार नारदपुत्र ने अनगार निर्ग्रन्थीपुत्र से इस प्रकार कह्य-आर्य! मेरे मत में द्रव्य की अपेक्षा भी सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं। इसी प्रकार क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा भी सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश है, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं। वि॥ २०३. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं ततः स निर्ग्रन्थीपुत्र: अनगार: नारदपुत्रम् अणगारं एवं वयासी-जइ णं अज्जो ! अनगारम् एवमवादीद्----यदि आर्य ! दन्वादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा द्रव्यादेशेन सर्वपुद्गला: सार्द्धाः समध्या: सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा, एवं सप्रदेशाः, नो अनर्धा: अमध्या: अप्रदेशा:, ते परमाणुपोग्गले विसअड्ढे समज्झे सप- एवं ते परमाणुपुद्गलोऽपि सार्द्धः समध्य: एसे, नो अणड्ढे अमज्झे अपएसे। सप्रदेश:, नो अनर्द्ध: अमध्य: अप्रदेशः। जइणं अज्जो! खेत्तादेसेण वि सव्वपोग्गला यदि आर्य ! क्षेत्रादेशेनापि सर्वपुद्गला: सअड्ढा समज्झा सपएसा, एवं ते एग- सार्द्धाः समध्या: सप्रदेशाः, एवं ते एकपएसोगाढे वि पोग्गले सअड्ढे समज्झे प्रदेशावगाढोऽपि पुद्गल: सार्द्धः समध्य: सपएसे। सप्रदेश:। २०३. अनगार निर्ग्रन्थीपुत्र ने अनगार नारदपुत्र से इस प्रकार कहा–आर्य ! यदि द्रव्य की अपेक्षा से सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं- अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं, तो इस प्रकार तुम्हारे मत में परमाणु-पुद्गल भी स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश है, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है। आर्य ! यदि क्षेत्र की अपेक्षा से भी सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य ओर सप्रदेश हैं, (अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं) तो इस प्रकार तुम्हारे मत में एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल भी स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश है, (अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है।) आर्य! यदि काल की अपेक्षा से सब पुद्गल सअर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं (अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं), तो इस प्रकार तुम्हारे मत में एक समय की स्थिति वाला पुद्गल भी स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश है, (अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं जइ णं अज्जो ! कालादेसेणं सव्वपोग्गला यदि आर्य! कालादेशेन सर्वपुद्गला: सार्द्धाः सअड्ढा समज्झा सपएसा, एवं ते एग- समध्या: सप्रदेश:, एवं ते एकसमयस्थितिसमयद्वितीए वि पोग्गले सअड्ढे समज्झे कोऽपि पुद्गल: सार्द्धः समध्य: सप्रदेशः। सपएसे। जइ णं अज्जो ! भावादेसेणं सव्वपोग्गला यदि आर्य ! भावादेशेन सर्वपुद्गला: सार्द्धाः सअड्ढा समज्झा सपएसा, एवं ते एग- समध्या: सप्रदेशाः, एवं ते एकगुणकाल- गुणकालए वि पोग्गले सअड्ढे समझे कोऽपि पुद्गल: सार्द्धः समध्य: सप्रदेशः। सपएसे। आर्य ! यदि भाव की अपेक्षा से सब पुद्गल सअर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, (अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं) तो इस प्रकार तुम्हारे मत में एक कृष्ण गुण वाला पुद्गल भी स-अर्ध, समध्य और Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई अह ते एवं न भवति तो जं वयासी 'दव्वादेसेण वि सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा, एवं खेत्ता - देसेण वि, कालादेसेण वि, भावादेसेण विं' तं णं मिच्छा ॥ २०४. तएषं से नारयपुते अणगारे नियंठि पुत्तं अणगारं एवं वयासीनो खलु एवं देवा - णुप्पिया ! एयमहं जाणामो- पासामो। जइ णं देवाणुप्पियानो गिलायंति परिक हित्तए, तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म जाणित्तए । २०५. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी - दव्वादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएसा वि अनंता । खेत्तासेण वि मे अज्जो ! सव्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएसा वि - अनंता । कालादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएसा वि अनंता । भावादेसेण वि मे अज्जो ! सव्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएसा वि अनंता । जे दव्वओ अपएसे से खेत्तओ नियमा अपसे, कालओ सिय सपएसे, सिय अपएसे भावओ सिय सपएसे, सिय अपएसे 7 जे खेत्तओ अपएसे से दव्वओ सिय सपएसे, सिय अपएसे, कालओ भयणाए, भावओ भयणाए । जहा खेत्तओ एवं कालओ, भावओ । २०७ अथ ते एवं न भवति ततो यद् वदसि 'द्रव्यादेशेनापि सर्वपुद्गलाः सार्द्धाः समध्याः सप्रदेशाः, नो अनर्द्धा: अमध्या: अप्रदेशा:, एवं क्षेत्रादेशेनापि, कालादेशेनापि, भावादेशेनापि तन्मिथ्या । ततः स नारदपुत्रः अनगारः निर्ग्रन्धीपुत्रम् अनगारम् एवमवादीद् – नो खलु एवं देवानुप्रिया ! एवमर्थम् जानीमः पश्यामः । यदिदेवानुप्रियाः न ग्लायन्ति परिकथयितुम्, तद् इच्छामि देवानुप्रियाणाम् अन्ति एतमर्थम् श्रुत्वा निशम्य ज्ञातुम् । ततः स निर्ग्रन्थीपुत्रः अनगारः नारदपुत्रम् अनगारम् एवमवादीद् — द्रव्यादेशेनापि मे आर्य ! सर्वे पुद्गलाः सप्रदेशा: अपि, अप्रदेशाः अपि — अनन्ताः । क्षेत्रादेशेनापि मे आर्य ! सर्वे पुद्गला: सप्रदेशाः अपि अप्रदेशाः अपि-अनन्ता: । कालादेशेनापि मे आर्य ! सर्वे पुद्गलाः सप्रदेशाः अपि अप्रदेशाः अपि— अनन्ता: । - भावादेशेनापि मे आर्य ! सर्वे पुद्गलाः सप्रदेशाः अपि, अप्रदेशाः अपि-अनन्ताः । यो द्रव्यत: अप्रदेश : स क्षेत्रत: नियमात् अप्रदेश:, कालतः स्यात् सप्रदेशः, स्याद् अप्रदेश, भावतः स्यात् प्रदेशः स्याद अप्रदेशः ॥ यथा क्षेत्रत: एवं कालतः, , यः क्षेत्रतः अप्रदेश: स द्रव्यत: स्यात् सप्रदेशः, स्याद् अप्रदेशः, कालतः भजनया, भावत: भजनया । भावतः । श. ५:३.८ : सू.२०३-२०५ तो तुम सप्रदेश है, (अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है।) यदि तुम्हारे मत में ऐसा नहीं होता है, जो कहते हो कि द्रव्य की अपेक्षा से भी सब पुद्गल स - अर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं है, इसी प्रकार क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से सब पुद्गल स-अर्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं, तो तुम्हारा मत मिथ्या है। २०४. अनगार नारदपुत्र ने अनगार निर्ग्रन्थीपुत्र से इस प्रकार कहा— देवानुप्रिय ! यदि आपको यह अर्थ बता में किसी प्रकार की ग्लानि न हो, तो मैं देवानुप्रिय के पास इस अर्थ को सुनकर निश्चयपूर्वक जानना चाहता हूँ। २०५. अनगार निर्ग्रन्थीपुत्र ने अनगार नारदपुत्र से इस प्रकार कहा—आर्य! मेरे मत में द्रव्य की अपेक्षा से भी सब पुद्गल सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं— ऐसे पुद्गल अनन्त हैं। आर्य! मेरे मत में क्षेत्र की अपेक्षा से भी सब पुद्गल सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं ऐसे पुद्गल अनन्त हैं। आर्य! मेरे मत में काल की अपेक्षा से भी सब पुद्गल सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं ऐसे पुद्गल अनन्त हैं। आर्य! मेरे मत में भाव की अपेक्षा से भी सब पुद्गल सप्रदेश भी हैं और अप्रदेश भी हैं ऐसे पुद्गल अनन्त हैं। जो पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से अप्रदेश है, वह क्षेत्र की अपेक्षा से नियमतः अप्रदेश हैं। काल की अपेक्षा से वह स्वात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। भाव की अपेक्षा से वह स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। जो पुद्गल क्षेत्र की अपेक्षा से अप्रदेश है, वह द्रव्य की अपेक्षा से स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। काल की अपेक्षा से भजना है- - वह स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। भाव की अपेक्षा से भजना है - वह स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। जैसे क्षेत्र की दृष्टि से अप्रदेश की वक्तव्यता है, वैसे ही काल और भाव की दृष्टि से भी अप्रदेश की वक्तव्यता है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५:उ.८:सू.२०१-२०७ २०८ भगवई जे दव्वओ सपएसे से खेत्तओ सिय सपएसे, य: द्रव्यत:सप्रदेश:सक्षेत्रत :स्यात् स-प्रदेश:, सिय अपएसे। एवं कालओ, भावओ वि। याद् अप्रदेशः। एवं कालतः,भावत: अपि। जे खेत्तओ सपएसे से दव्वओ नियमा स- य: क्षेत्रत: सप्रदेश: स द्रव्यत: नियमात् पएसे, कालओ भयणाए, भावओ भय- सप्रदेश:, कालत: भजनया, भावत: भजनया। णाए। जो पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से सप्रदेश है, वह क्षेत्र की अपेक्षा से स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। इसी प्रकार काल और भाव की अपेक्षा से भी वह स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। जो पुद्गल क्षेत्र की अपेक्षा से सप्रदेश है, वह द्रव्य की अपेक्षा से नियमत: सप्रदेश है। काल की अपेक्षा से भजना है-वह स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। भाव की अपेक्षा से भजना है— स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। जैसे द्रव्य की दृष्टि से सप्रदेश की वक्तव्यता है, वैसे ही काल और भाव की दृष्टि से सप्रदेश की वक्तव्यता जहा दव्वओ तहा कालओ, भावओ वि॥ यथा द्रव्यत: तथा कालत:, भावत: अपि। वा? २०६. एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं दव्वादेसेणं, एतेषां भदन्त ! पुद्गलानां द्रव्यादेशेन, २०६. भन्ते ! इन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा खेत्तादेसेणं, कालादेसेणं, भावादेसेण क्षेत्रादेशेन, कालादेशेन, भावादेशेन सप्रदे- से सप्रदेश और अप्रदेश पुद्गलों में कौन किससे सपएसाणं अपएसाण य कयरे कयरेहिंतो शानाम् अप्रदेशानां च कतरे कतरेभ्यः अल्पा: कम हैं, अधिक हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं? अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसे- वा? बहुका: वा? तुल्याः वा? विशेषाधिका: साहिया वा? नारयपुत्ता ! सव्वत्थोवा पोग्गला भावा- नारदपुत्र ! सर्वस्तोका: पुद्गला: भावादेशेन नारदपुत्र! भाव की अपेक्षा से अप्रदेश पुद्गल सबसे देसेणं अपएसा, कालादेसेणं अपएसा अप्रदेशाः, कालादेशेन अप्रदेशाः अल्प है, काल की अपेक्षा से अप्रदेश पुद्गल उनसे असंखेज्जगुणा, दव्वादेसेणं अपएसा असंख्येयगुणाः, द्रव्यादेशेन अप्रदेशा: असंख्येयगुना अधिक हैं, द्रव्य की अपेक्षा से अप्रदेश असंखेज्जगुणा, खेत्तादेसेणं अपएसा असंख्येयगुणाः, क्षेत्रादेशेन अप्रदेशाः पुद्गल उनसे असंख्येयगुना अधिक हैं, क्षेत्र की असंखेज्जगुणा, खेत्तादेसेणं चेव सपएसा असंख्येयगुणाः, क्षेत्रादेशेन चैव सप्रदेशा: अपेक्षा से अप्रदेश पुद्गल उनसे असंख्येयगुना असंखेजगुणा, दव्वादेसेणं सपएसा असंख्येयगुणाः, द्रव्यादेशेन सप्रदेशाः अधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से सप्रदेश पुद्गल उनसे विसेसाहिया, कालादेसेणं सपएसा विशेषाधिकाः, कालादेशेन सप्रदेशा: असंख्येयगुना अधिक हैं, द्रव्य की अपेक्षा से सप्रदेश विसेसाहिया, भावादेसेणं सपएसा विशेषाधिकाः, भावादेशेन सप्रदेशा: पुद्गल उनसे विशेषाधिक हैं, काल की अपेक्षा से विसेसाहिया॥ विशेषाधिका:। सप्रदेश पुद्गल उनसे विशेषाधिक हैं, भाव की अपेक्षा से सप्रदेश पुद्गल उनसे विशेषाधिक हैं। २०७. तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं ततः स नारदपुत्र: अनगार: निर्ग्रन्थीपुत्रम् अणगार वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अनगारं वन्दते नमस्यति, बन्दित्वा नमस्यित्वा एयमहँ सम्मं विणएणं भुज्जो-भुज्जो एतमर्थम् सम्यग् विनयेनभूयो-भूय: क्षमयति, खामेति, खामेत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं क्षमयित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् भावेमाणे विहरइ॥ विहरति। २०७. अनगार नारदपुत्र अनगार निर्ग्रन्थीपुत्र को वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर इस अर्थ-बोध को देने में हुई परिश्रान्ति के लिए सम्यक् विनयपूर्वक बार-बार क्षमा-याचना करता है। क्षमायाचना कर संयम और तप से अपने आपको भावित करता हुआ विहरण कर रहा है। भाष्य १. सूत्र २०१-२०७ —नयों से विमर्श किया गया हैभ. ५/१६०-१६४ में परमाणु और स्कन्ध के स-अर्ध, स द्रव्यादेश-द्रव्य की अपेक्षा से एक परमाणु अप्रदेश और मध्य और सप्रदेश होने के विषय में विमर्श हुआ है। प्रस्तुत आलापक में उसी द्विप्रदेशी आदि स्कन्ध सप्रदेश होते हैं। विषय पर द्रव्यादेश, क्षेत्रादेश, कालादेश और भावादेश—इन चार दृष्टियों क्षेत्रादेश-क्षेत्र की अपेक्षा से एकप्रदेशावगाढ पुद्गल Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २०९ श.५ : उ.८: सू.२०१-२०८ अप्रदेश और अनेक-प्रदेशावगाढ पुद्गल सप्रदेश होता है। है। जो भाव की अपेक्षा से अप्रदेश है, वह द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा से कालादेश-काल की अपेक्षा से एक समय की स्थिति वाला स्यात् अप्रदेश है और स्यात् सप्रदेश। पुद्गल अप्रदेश और अनेक समय की स्थिति वाला पुद्गल सप्रदेश १. द्रव्य की अपेक्षा से सप्रदेश और अप्रदेश का नियम होता है। द्रव्य की अपेक्षा जो सप्रदेश है उसका आकाश के एक प्रदेश में भी भावादेश–एक गुण वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाला पुद्गल अप्रदेश अवगाहन हो सकता है, अनेक प्रदेशों में भी अवगाहन हो सकता है, अत: क्षेत्र , और अनेक गुण, वर्ण गन्ध, रस, स्पर्श वाला पुद्गल सप्रदेश होता है। की अपेक्षा से वह स्यात् अप्रदेश है, स्यात् सप्रदेश है। परिमाण की दृष्टि से ये सभी अनन्त हैं। काल और भाव की अपेक्षा से वह सप्रदेश और अप्रदेश दोनों १. द्रव्य की अपेक्षा से अप्रदेश और सप्रदेश का नियम प्रकार का हो सकता है। (क) द्रव्य की अपेक्षा से जो अप्रदेश है, वह क्षेत्र की अपेक्षा से २. क्षेत्र की अपेक्षा से सप्रदेश और अप्रदेश का नियम नियमत: अप्रदेश होगा। इसका हेतु यह है कि परमाणु आकाश के एक प्रदेश द्रव्य की अपेक्षा से अप्रदेश-परमाणु का आकाश के दो तथा दो से का ही अवगाहन करता है। अधिक प्रदेशों में अवगाहन नहीं हो सकता, इसलिए जो क्षेत्र की अपेक्षा से (ख) काल की अपेक्षा से वह एक समय की स्थिति वाला और सप्रदेश है, वह द्रव्य की अपेक्षा से नियमत: सप्रदेश होगा। अनेक समय की स्थिति वाला दोनों प्रकार का हो सकता है, इसलिए वह ३,४. काल और भाव की अपेक्षा से सप्रदेश और अप्रदेश स्यात् अप्रदेश और स्यात् सप्रदेश है। का नियम (ग) भाव की अपेक्षा से वह एक गुण वर्ण आदि वाला तथा अनेक काल और भाव की वक्तव्यता द्रव्य के समान है। गुण वर्ण आदि वाला दोनों हो सकता हैं, इसलिए वह स्यात् अप्रदेश और सप्रदेश और अप्रदेश का अल्प-बहुत्व स्यात् सप्रदेश है। १. एक गुण वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले पुद्गल बहुत अल्प २. क्षेत्र की अपेक्षा से अप्रदेश और सप्रदेश का नियम होते हैं। अत: भाव की अपेक्षा से अप्रदेश पुद्गल सबसे अल्प होते हैं। (क) एक आकाश प्रदेश में एक परमाणु का भी अवगाहन हो २. काल की अपेक्षा से एक समय-स्थिति वाले पुद्गल अनेक सकता है तथा द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का भी अवगा- परिणमन-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संघात, भेद, सूक्ष्मत्व, बादरत्व आदि हन हो सकता है, इसलिए वह स्यात् अप्रदेश और स्यात् सप्रदेश है। परिणमन वाले होते हैं। प्रत्येक परिणमन में एक समय की स्थिति की अपेक्षा (ख, ग) काल और भाव की वक्तव्यता द्रव्य के समान है। आकाश से अप्रदेश होते हैं अत: भावादेश की अपेक्षा कालादेश के अप्रदेश के एक प्रदेश में अवगाढ पुद्गल काल की अपेक्षा से एक समय की स्थिति असंख्येयगुना होते हैं।' वाला भी हो सकता है और अनेक समय की स्थिति वाला भी हो सकता है। ३. द्रव्य की अपेक्षा से परमाणु अप्रदेश है। एक गुण वर्ण आदि भाव की अपेक्षा से वह एक गुण वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाला भी वाले परमाणुओं की अपेक्षा अनेक गुण वर्ण आदि वाले परमाणु अधिक हो सकता है अनेक गुण वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाला भी हो सकता है। होते हैं। इस अपेक्षा से द्रव्यादेश वाले अप्रदेश असंख्येयगुना अधिक हैं। ३,४. काल और भाव की अपेक्षा से अप्रदेश और सप्रदेश 'प्रदेश' शब्द का प्रयोग सबसे छोटी इकाई परमाणु तुल्य भाग के का नियम अर्थ में और स्कन्ध के अर्थ में भी होता है। स्कन्ध में संलग्न एक परमाणु काल और भाव की वक्तव्यता क्षेत्र के समान है। जो काल की प्रदेश कहलाता है। आकाश का परमाणु-तुल्य भाग प्रदेश कहलाता है। काल अपेक्षा से अप्रदेश है, वह द्रव्य की अपेक्षा स्यात् अप्रदेश आर स्यात् सप्रदेश और भाव के सन्दर्भ में भी 'प्रदेश' का प्रयोग किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में स्कन्ध के अर्थ में भी 'प्रदेश' शब्द का प्रयोग किया गया है। क्षेत्र और भाव की अपेक्षा से भी स्यात् अप्रदेश और स्यात् सप्रदेश जीवाणं वुढि-हाणि-अवट्ठिइ-पदं जीवानां वृद्धि-हानि-अवस्थिति- जीवों की वृद्धि-हानि-अवस्थिति-पद पदम् २०८. भंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त ! अयि! भगवान गौतमः श्रमणं २०८. 'भन्ते ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवान महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा गौतम श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार वयासी-जीवा ण भते ! कि वड्ढति? नमस्यित्वा एवमवादीज-जीवा: भदन्त! करते है, वन्दन-नमस्कार कर उन्होंने इस प्रकार कहा १. भ.वृ. ५/२०५–'अणंत' ति तत्परिमाणज्ञापनपरं तत् स्वरूपाभिधानम्। २. भ.वृ. ५/२०६-द्रव्ये प्रायेणद्वयादिगुणा अनन्तगुणान्ता: कालकत्वादया भवन्ति एक- गुणकालकादयस्त्वल्पा इति भावः। अयमर्थ:-योहि यस्मिन् समये यद्वर्णगन्धरसस्पर्श- सहातभेदसूक्ष्मत्वबादरत्वादिपरिणामान्तरमापन्नः स तस्मिन् समये तदपेक्षया कालतोऽप्रदेश उच्यते, तत्र चैकसमयस्थितिरित्यन्ये, परिणामश्च बहव इति प्रतिपरिणामं कालापदेशसंभवात्तद्वलत्वमिति। एतदेवभाव्यते-भावतो येऽप्रदेशा एक गुणकालत्वादयो भवन्ति ते कालतो द्विविधा अपि भवन्ति--सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेत्यर्थः। ३.त.सू. २/३९–प्रवृद्धो देश: प्रदेश:, अनन्ताणस्कन्धः प्रदेशोऽत्राभिधीयते। Jain Education Intemational Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : ३.८ : सु. २०८-२१६ हायंति? अवडिया? किं वर्धन्ते? हीयन्ते? अवस्थिताः ? " गोयमा ! जीवा नो वर्द्धति, नो हायंति, गीतम! जीवा नो वर्धन्ते नो हीयन्ते, अवप्रिया ॥ अवस्थिताः । २०९. नेरइया णं भंते! किं वर्द्धति ? हायंति ? नैरयिका: भदन्त ! किं वर्धन्ते ? हीयन्ते ? अवट्ठिया? अवस्थिताः ? गोयमा ! नेरइया वड्ढति वि, हायंति वि, गौतम ! नैरयिकाः वर्धन्तेऽपि, हीयन्तेऽपि, अवट्टिया वि ।। अवस्थिताः अपि । २१०. जहा रया एवं जाव वैमाणिया । यथा नैरयिका एवं यावद् वैमानिकाः ॥ २११. सिद्धा णं भंते! पुच्छा । गोयमा सिद्धावति, नो हाति अब द्विया वि ॥ २१२. जीवा णं भंते ! केवतियं कालं अवडिया? गोवमा ! सव्चयं ॥ २१० 9 २१६. एवं सतसु वि पुढवीसु 'वड्ढति, हायति' भाणियन्वं नवरं अवडिएस इमं नाणत्तं तं जहा - रयणप्पभाए पुढवीए अडयालीसं मुहुत्ता, सक्करप्पभाए चोद्दस इंदिया, वालुयप्पा मासं पंकप्पभाए दो मासा, धूमप्पभाए चत्तारि मासा, तपाए २१३. नेरइया णं भन्ते ! केवतियं कालं नैरयिका: भदन्त ! कियन्तं कालं वर्धन्ते ? बद्धति ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं ॥ २१४. एवं हायंति वि ॥ सिद्धा: भदन्त ! पृच्छा । गौतम ! सिद्धाः वर्धन्ते, नो हीयन्ते, अवस्थिताः अपि । - जीवा: भदन्त ! कियन्तं कालम् अवस्थिताः ? गौतम ! सर्वाद्धा । २१५. नेरइया णं भंते! केवतियं कालं अवशिवा? नैरयिका: भदन्त ! कियन्तं कालम् अवस्थिताः ? गोयमा ! जहणेणं एगं समयं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण चउवींस मुहुत्ता ॥ चतुर्विशंति मुहूर्त्तान् । गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण आवलिकायाः अवेयभागम् । एवं हीयन्तेऽपि । एवं सप्तसु अपि पृथिवीषु 'वर्धन्ते, हीयन्ते' भणितव्यम् नवरं अवस्थितेषु इदं नानात्वं, तद् यथा - रत्नप्रभायां पृथिव्याम् अष्टचत्वारिंशत् मुहूर्त्तान्, शर्कराप्रभायां चतुर्दश रात्रिंदिनानि, बालुकाप्रभायां मासम्, पङ्कप्रभायां द्वौ मासौ, धूम्रप्रभायां चतुर: मासान्, 7 भगवई — भन्ते ! क्या जीव बढ़ते हैं? घटते हैं? अथवा अवस्थित हैं? गौतम! जीवन बढ़ते हैं, न घटते हैं? अवस्थित हैं। २०९. भन्ते! क्या नैरयिक जीव बढ़ते हैं? घटते हैं? अथवा अवस्थित हैं ? गौतम! नैरयिक जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी हैं। २१०. जैसी वक्तव्यता नैरयिक जीवों की है वैसी ही वक्तव्यता यावत् वैमानिक देवों तक की है। २११. भन्ते सिद्धों की पृच्छा गौतम ! सिद्ध जीव बढ़ते हैं, घटते नहीं हैं, अवस्थित भी हैं। २१२. भन्ते ! जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं? गौतम! सर्वकाल में जीव अवस्थित रहते हैं। २१३. भन्ते ! नैरयिक जीव कितने काल तक बढ़ते हैं? गौतम ! जघन्यतः वे एक समय तक बढ़ते हैं, उत्कर्षतः आवलिका के असंख्यातवें भाग तक। २१४. इसी प्रकार जीव घटते भी हैं। ( जघन्यतः एक समय तक, उत्कर्षतः आवलिका के असंख्यातवें भाग तक) । २१५. भंते! नैरयिक जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं? गौतम ! जघन्यत: एक समय तक उत्कर्षत: चौबीस मुहूर्त्त तक । २१६. इसी प्रकार सातों पृथ्वियों में नैरयिक जीवों की वृद्धि और हानि वक्तव्य है। विशेष अवस्थिति में यह नानात्व है, जैसे- रत्नप्रभा पृथ्वी में अड़तालीस मुहूर्त शर्कराप्रभा पृथ्वी में चौदह दिन-रात, वालुकाप्रभा पृथ्वी में एक मास, पंकप्रभा पृथ्वी में दो मास, धूमप्रभा पृथ्वी में चार मास, तमा पृथ्वी में Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २११ श.५ : उ.८ : सू.२१६-२२२ अट्ठमासा, तमतमाए बारस मासा ।। तमायाम् अष्टमासान, तमतमायां द्वादश, मासान्। आठ मास और तमतमा पृथ्वी में बारह मास तक अवस्थित रहते हैं। २१७. असुरकुमारा वि वड्दति, हायंति जहा असुरकुमारा: अपि वर्धन्ते, हीयन्ते यथा २१७. असुरकुमार देव भी नैरयिक जीवों की भांति नेरइया। अवट्ठिया जहण्णेणं एक्कं समयं, नैरयिकाः। अवस्थिता: जघन्येन एकं सम- बढ़ते-घटते हैं उक्कोसेणं अट्ठचत्तालीस मुहत्ता। यम्,उत्कर्षेण अष्टचत्वारिंशत् मुहुर्तान्। अड़तालीस मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। २१८. एवं दसविहा वि॥ एवं दशविधा अपि। २१८. इसी प्रकार दस प्रकार के भवनपति देवों का वृद्धिहानि- और अवस्थिति-काल वक्तव्य है। २१९. एगिदिया वड्ढेति वि, हायंति वि, एकेन्द्रिया: वर्धन्तेऽपि, हीयन्तेऽपि, अव- २१९. एकेन्द्रिय जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवट्ठिया वि। एएहिं तिहि विजहण्णेणं एक्कं स्थिता: अपि। एतैस्त्रिभिरपि जघन्येन एकं अवस्थित भी हैं। इन तीनों की वृद्धि, हानि और समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखे- समयम्, उत्कर्षेण आवलिकाया: असंख्ये- अवस्थिति का काल जघन्यत: एक समय और ज्जइभागं ॥ यतम भागम्। उत्कर्षत: आवलिका का असंख्यातवां भाग है। २२०. बेइंदिया वड्दति, हायति तहेव, द्वीन्द्रिया: वर्धन्ते हीयन्ते तथैव, अवस्थिताः २२०. द्वीन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय जीवों की भांति बढ़तेअवट्ठिया जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण द्वौ अन्त- घटते हैं। वे जघन्यत: एक समय और उत्कर्षत: दो दो अंतोमुहुत्ता ॥ र्मुहूर्तों। अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। २२१. एवं जाव चउरिदिया। एवं यावच् चतुरिन्द्रिया:। २२१. चतुरिन्द्रिय जीवों तक वृद्धि, हानि और अवस्थिति का यही क्रम ज्ञातव्य है। २२२. अवसेसा सव्वे 'वड्दति, हायंति' तहेव, अवशेषाः सर्वे 'वर्धन्ते हीयन्ते' तथैव, २२२. अवशेष सब जीव एकेन्द्रिय जीवों की भांति अवट्ठियाणं नाणतं इम, तं जहा—संमु- अवस्थितानां नानात्वम् इदम्, तद् यथा बढ़ते-घटते हैं। अवस्थिति का नानात्व इस प्रकार है, च्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो अंतो- -सम्मूर्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां ___जैसे-सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-दो मुहुत्ता, गब्भवक्कंतियाणं चउव्वीस मुहुत्ता, द्वौअन्तर्मुहौ, गर्भव्यत्क्रान्तिकानां चतुर्विं- अन्तमुहूर्त, गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक-चौबीस संमुच्छिममणुस्साणं अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, शति: मुहूर्ताः, सम्मूर्च्छिममनुष्याणां अष्ट- मुहूर्त, सम्मूर्छिम मनुष्य-अड़तालीस मुहूर्त, गर्भज गब्भवक्कं तियमणुस्साणं चउवीसं मुहुत्ता, चत्वारिंन्दमुहूर्ताः, गर्भव्युत्क्रान्तिक मनु- मनुष्य-चौबीस मुहूर्त, वानमन्तर, ज्योतिष्क, वाणमंतर-जोतिसिय-सोहम्मीसाणेसु अट्ठ- ष्याणां चतुर्विशंति: मुहर्ता:, वानमन्तर- सौधर्म और ईशान देवलोक में अड़तालीस मुहूर्त, चत्तालीसं मुहत्ता, सणंकुमारे अट्ठारस राई- ज्योतिष्क-सौधर्मेशानेषु अष्टचत्वारिंश- सनत्कुमार देवलोक में अठारह दिन-रात और चालीस दियाइं चत्तालीस य मुहुत्ता, माहिंदे चउवीसं न्मुहूर्ताः, सनत्कुमारे अष्टादश रात्रिंदिवानि ____ मुहर्त, माहेन्द्र देवलोक में चौबीस दिन-रात और बीस राइंदियाई वीस य मुहुत्ता, बंभलोए पंच- चत्वारिंशच्च मुहूर्ताः, माहेन्द्रे चतुर्विशंतिः मुहूर्त, ब्रह्मलोक देवलोक में पैंतालीस दिन-रात, चत्तालीस राइंदियाई, लंतए नउई राई- रात्रिंदिवानि विंशतिश्च मुहूर्ताः, ब्रह्मलोके लान्तक देवलोक में नव्वे दिन-रात । महाशुक्र देवलोक दियाई, महासुक्के सट्टि राइंदियसयं, सह- पंचचत्वारिंशद् रात्रिंदिवानि, लान्तके में एक सौ साठ दिन-रात, सहस्रार देवलोक में दो सौ स्सारे दो राइंदियसयाई, आणयपाणयाणं नवतिः रात्रिंदिवानि, महाशुक्रे षष्टिः रात्रिं- दिन-रात, आनत और प्राणत देवलोकों में संख्येय संखेज्जा मासा, आरणच्चुयाणं संखेज्जाई दिवशतं, सहस्रारे द्वे रात्रिंदिवशते, आनत- मास, आरण और अच्युत देवलोकों में संख्येय वर्ष, वासाई, एवं गेवेज्जदेवाणं, विजय-वेजयंत- प्राणतयो: संख्येया: मासा:, आरणाच्युतयोः इसी प्रकार ग्रैवेयक देवों या देवलोकों में, विजय, जयंत-अपराजियाणं असंखेज्जाई वासस- संख्येयानि वर्षाणि, एवं ग्रैवेयकदेवानां, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवलोकों में हस्साई, सव्वट्ठसिद्धे पलिओवमस्स संखे- विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजितानाम् असं- असंख्येय हजार वर्ष तथा सर्वार्थसिद्ध में पल्योपम ज्जइभागो। ख्येयानि वर्षसहस्राणि, सर्वार्थसिद्धे पल्यो- का संख्यातवां भाग अवस्थिति-काल है। पमस्य संख्येयभागः। Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : उ. ८ : सू. २०८-२२४ एवं भाणियव्वं वड्ढति, हायंति जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असं खेज्जइभागं, अवट्ठियाणं जं भणियं ॥ २२३. सिद्धा गं भंते । के वहां कालं वर्द्धति? गोयमा ! जहणणेणं एक्कं समयं, उनकोसेणं अट्ठ समया ॥ सिद्धाः भदन्त ! कियन्तं कालं वर्धन्ते ? गौतम! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण अष्ट समयान् । २२४. के वइयं कालं अवडिया? कियन्तं कालम् अवस्थिताः ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण " छम्मासा ॥ षण्मासान् । - नाम रत्नप्रभा शर्कराप्रभा १. सूत्र २०८-२२४ जीव मौलिक द्रव्य है। जीव- अजीव नहीं बनता और अजीव जीव नहीं बनता—यह लोकस्थिति का शाश्वत नियम है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि न कोई नया जीव उत्पन्न होता है और न किसी जीव का अस्तित्व समाप्त होता है। जीव अवस्थित है— जितने जीव थे, उतने ही हैं और उतने ही रहेंगे। बालुकाप्रभा पंक प्रभा २१२ एवं भणितव्यम् - वर्धन्ते, हीयन्ते जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण आवलिकायाः असंख्येयभागम अवस्थितानां वद् भणितम् । नैरयिक आदि चौबीस दण्डक जीव द्रव्य के पर्याय अथवा अवस्था विशेष हैं। इसलिए उनमें हानि-वृद्धि होती रहती है। अवस्थिति भी - प्रत्येक नरक का अवस्थिति-काल भिन्न-भिन्न प्रकार का है. धूमप्रभा तमः प्रभा तमस्तमा: प्रभा समुच्चयप्रभा भाष्य विरह-काल २४ मुहूर्त्त ७ दिन-रात अर्धमास १ मास २ मास ४ मास ६ मास १२ मुहूर्त १. ठाण, १०/१ २. पण्ण. ६/१.६ ३. भ. वृ. ५/२१५ - सप्तस्वपि पृथिवीषु द्वादश मुहूर्त्तान् यावत्र कोऽप्युत्पद्यते वा, उत्कृष्ट तो विरहकालस्यैवरूपत्वात्, अन्येषु पुनर्द्वादशमुहूर्तेषु यावन्त उत्पद्यन्ते तावन्त एवोद्वर्तन्त इत्येवं चतुर्विंशतिमुहूर्त्तान् यावन्नारकाणामेकपरिमाणत्वादवस्थितत्वं वृद्धिहान्योरभाव इत्यर्थः । भगवई यह पूरा प्रकरण इस प्रकार वक्तव्य है— जीवों की वृद्धि और हानि का क्रम जघन्यतः एक समय और उत्कर्षतः आवलिका का असंख्यातवां भाग है। अवस्थिति-काल (सभी का जघन्यतः एक समय उत्कर्षतः) जो ऊपर बताया गया, वैसा ही है। २२३. भन्ते ! सिद्ध कितने काल तक बढ़ते हैं? गौतम! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः आठ समय । २२४, भन्ते सिद्ध कितने काल तक अवस्थित रहते हैं? गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षत: छह मास तक । सापेक्ष है— विरह काल तथा उत्पत्ति और उद्वर्तन के समीकरण की अपेक्षा से है। पण्णवणा के अनुसार सातों नरक-पृथ्वियों में बारह मुहूर्त्त का विरह काल होता है! उस अवधि में न कोई नैरयिक उत्पन्न होता है और न कोई उद्वर्तन करता- - बाहर निकलता है।' • उससे अगला बारह मुहूर्त का काल समीकरण का है। उस अवधि में जितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं उतने ही निकल जाते हैं। इस प्रकार सातों नरक - पृथ्वियों का अवस्थिति काल चौबीस मुहूर्त्त का है। इस अवधि में नैरयिक जीवों की वृद्धि हानि नहीं होती ।' समीकरण काल २४ मुहूर्त्त ७ दिन-रात अर्धमास १ मास २ मास ४ मास ६ मास १२ मुहूर्त्त अवस्थिति काल ४८ मुहूर्त १४ दिन-रात १ मास २ मास ४ मास ८ मास १२ मास २४ मुहूर्त ४. भ. वृ. ५/२४५ एवं रत्नप्रभादिषु यो यत्रोत्पादोद्वर्ननाविरहकालश्चतुर्विंशतिमुहूर्त्तादिको व्युत्क्रान्तिपदेऽभिहितः स तत्र तेषु तत्तुल्यस्य समसयानामुत्पादोद्वर्त्तनाकालस्य मीलनादू द्विगुणितः सन्नवस्थितकालोऽपटचत्वारिंशन्मुहूर्त्तादिक: सूत्रोक्ते भवति, विरहकालश्च प्रतिपदमवस्थानकालार्द्धभूतः स्वयमभ्युहा इति । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २१३ श. ५: उ.८: सू.२०८-२२६ एकेन्द्रिय जीव प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं। इसलिए उनका विरह-काल नहीं होता। एकेन्द्रिय जीव जब बहुतर उत्पन्न होते हैं और अल्पतर उद्वर्तन करते हैं तब उनकी वृद्धि होती है। जब बहुतर उद्वर्तन करते हैं और अल्पतर उत्पन्न होते हैं तब उनकी हानि होती है। उत्पाद और उद्वर्तन सम होते हैं, तब उनकी अवस्थिति होती है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूर्छिम पञ्चेन्द्रिय का विरह-काल एक अन्तर्मुहूर्त और समीकरण-काल एक अन्तर्मुहूर्त इस प्रकार अवस्थिति-काल दो अन्तर्मुहर्त्त का होता है। शेष जीवों का विरह-काल इस प्रकार है जीव विरह-काल गर्भज तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय १२ मुहूर्त सम्मूर्छिम-मनुष्य २४ मुहूर्त गर्भज-मनुष्य १२ मुहूर्त भवनपति, वानमन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म, ईशान २४ मुहूर्त सनत्कुमार ९ दिन-रात और २० मुहूर्त माहेन्द्र १२ दिन-रात और १० मुहूर्त २२ दिन-रात लान्तक ४५ दिन-रात महाशुक्र ८० दिन-रात सहस्रार १०० दिन-रात आनत-प्राणत संख्येय मास आरण-अच्युत संख्येय वर्ष अधस्तन ग्रैवेयक संख्येय सौ वर्ष मध्यम ग्रैवेयक संख्येय हजार वर्ष उपरितन ग्रैवेयक संख्येय लाख वर्ष चार अनुत्तर विमान असंख्येय हजार वर्ष सर्वार्थ सिद्धि विमान पल्योपम का संख्यातवां भाग छह मास जितना विरह-काल है, उतना ही समीकरण-काल है। दोनों का योग होने पर अवस्थिति-काल बन जाता है। सिद्ध जीवाणं सोवचय-सावचयादि-पदं २२५. जीवा णं भंते ! किं सोवचया? सावच- या? सोवचय-सावचया? निरुवचय-निरव- चया? गोयमा ! जीवा नो सोवचया, नो सावचया, नो सोवचय-सावचया, निरुवचय-निरवचया। एगिदिया ततियपदे, सेसा जीवा चउहिं वि पदेहिं भाणियव्वा।। जीवानां सोपचय-सापचयादि-पदम् जीवा: भदन्त ! किं सोपचया:? सापचया:? सोपचय-सापचया:? निरुपचय-निरप- चया:? गौतम ! जीवा: नो सोपचयाः, नो सापचया:, नो सोपचय-सापचया:, निरुपचय-निरपचया:। एकेन्द्रिया: तृतीयपदे, शेषा: जीवा: चतुर्भिरपि पदैः भणितव्याः। जीवों का सोपचय-सापचय-आदि पद २२५. 'भंते ! क्या जीव उपचय-सहित है? अपचय सहित हैं? उपचय-अपचय-सहित हैं? अथवा उपचय और अपचय से रहित हैं? - गौतम ! जीव न उपचय-सहित हैं, न अपचयसहित हैं, न उपचय-अपचय-सहित हैं वे उपचय और अपचय से रहित हैं। एकेन्द्रिय जीव तीसरे पद में सोपचय-सापचय हैं। शेष जीव चारों पदों में वक्तव्य हैं। २२६. सिद्धाणं भन्ते ! पुच्छा। सिद्धा: भदन्त ! पृच्छा २२६. भन्ते ! सिद्धों की पृच्छा। १.पण्ण.६/१९॥ Jain Education Intemational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.८:सू.२२६-२३३ २१४ भगवई गोयमा ! सिद्धा सोवचया, नो सावचया, नो गौतम ! सिद्धासोपचया:, नो सापचयाः, नो सोवचय-सावचया, निरुवचय-निरवचया।। सोपचय-सापचया:, निरुपचय-निरपचयाः। गौतम ! सिद्ध उपचय-सहित हैं, अपचय-सहित नहीं है, उपचय-अपचय-सहित नहीं है, उपचय और अपचय से रहित हैं। २२७. जीवा णं भंते ! केवतियं कालं निरुव- जीवा: भदन्त ! कियन्तं कालं निरुपचय- २२७. भन्ते ! जीव कितने काल तक उपचय और चय-निरवचया? निरपचया:? अपचय से रहित होते हैं? गोयमा! सव्वद्ध। गौतम ! सर्वाद्धा। गौतम ! सर्वकाल। २२८. नेरइया णं भंते ! केवतियं कालं सोव- नैरयिका: भदन्त ! कियन्तं कालं सोपचया:? २२८. भन्ते ! नैरयिक जीव कितने काल तक उपचयचया? सहित होते हैं? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षत: आवलिका आवलियाए असंखेज्जइभागं । आवलिकाया: असंख्येयभागम् । के असंख्यातवें भाग तक। २२९. केवतियं कालं सावचया? कियन्तं काल सापचया:? २२९. भन्ते ! नैरयिक जीव कितने काल तक अपचयसहित होते हैं? जघन्यतः एक समय, उत्कर्षत: आवलिका के असंख्यातवें भाग तक। एवं चेव॥ एवं चैव। २३०. केवतियं कालं सोवचय-सावचया? कियन्तं कालं सोपचय-सापचया:? २३०. भन्ते ! नैरयिक जीव कितने काल तक उपचय और अपचय से सहित होते हैं? जघन्यत: एक समय, उत्कर्षत: आवलिका के असंख्यातवें भाग तक। एवं चेव॥ एवं चेव। २३१. केवतियं कालं निरुवचय-निरवचया? कियन्तं कालं निरुपचय-निरपचया:? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं गौतम! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण द्वादश बारस मुहुत्ता। मुहुर्तान्। एगिदिया सव्वे सोवचय-सावचया सव्वद्ध। एकेन्द्रियाः सर्वे सोपचय-सापचया: सर्वाद्धा। सेसा सव्वे सोवचया वि, सावचया वि, शेषा: सर्वेसोपचया: अपि, सापचयाः अपि, सोवचय-सावचया वि, जहण्णेणं एक्कं सोपचय-सापचया: अपि, जघन्येन एक समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखज्ज- समयम्, उत्कर्षेण आवलिकाया: असंख्येयइभाग। अवट्टिएहिं वक्कं तिकालो भाणि- भागम्। अवस्थितै: व्युत्क्रान्तिकाल: भणियन्वो॥ तव्यः । २३१. भन्ते ! नैरयिक जीव कितने काल तक उपचय और अपचय से रहित होते हैं? गौतम ! जघन्यत: एक समय, उत्कर्षत: बारह मुहूर्त तक। सभी एकेन्द्रिय जीव सब काल में उपचय- और अपचय-सहित होते हैं। शेष सभी जीव उपचयसहित भी हैं, अपचय-सहितभी हैं, उपचय-अपचय-सहित भी हैं। इसकी कालावधि-जघन्यत: एक समय, उत्कर्षत: आवलिका का असंख्यातवां भाग। अवस्थित रहने का काल विरह-काल (सू.५/२२२) की भांति वक्तव्य है। २३२. सिद्धा णं भंते ! केवतियं कालं सोव- सिद्धा: भदन्त ! कियन्तं कालं सोपचया:? २३२. भन्ते ! सिद्ध कितने काल तक उपचय-सहित होते हैं? गोयमा ! जहण्णेणं एग समय, उक्कोसेणं गौतम! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण अष्ट गौतम ! जघन्यत: एक समय,उत्कर्षत: आठ समय अट्ठसमया। समयान्। तक। चया? २३३. केवतियं कालं निरुवचय-निरवचया? कियन्तं कालं निरुपचय-निरपचया:? २३३, भन्ते ! सिद्ध कितने समय तक उपचय-अपचय Jain Education Intemational Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २१५ श.५: उ.८: सू.२२५-२३४ से रहित होते हैं? जघन्यत: एक समय, उत्कर्षत: छह मास । जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं छ मासा ॥ जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण षण्मासान्। भाष्य १. सूत्र २२५-२३३ प्रस्तुत आलापक में जीवों के उपचय और अपचय से सम्बन्धित चार विकल्पों का निर्देश है। उपचय का अर्थ है वृद्धि, अपचय का अर्थ है हानि। उपचय, अपचय दोनों का न होना अवस्थिति है। फिर पूर्व आलापक और इसमें क्या अन्तर है? वृत्तिकार ने यह प्रश्न उपस्थित कर उसका समाधान भी दिया है। उनके अनुसार वृद्धि, हानि का सम्बन्ध परिमाण से है और उपचय, अपचय का सम्बन्ध उत्पाद और उद्वर्तन से है। इसीलिए तृतीय भंग (सोपचय-सापचय) में वृद्धि, हानि और अवस्थिति—ये तीनों समाहित हैं। बहुतर का उत्पाद होने पर वृद्धि, बहुतर का उद्वर्तन होने पर हानि तथा सम उत्पाद और उद्वर्तन होने पर अवस्थिति होती है। एकेन्द्रिय जीव तृतीय पद में वक्तव्य हैं। उनमें एक साथ उत्पाद और उद्वर्तन होता रहता है। केवल उत्पाद, केवल उद्वर्तन और विरहकाल नहीं होता, इसलिए शेष तीन पद उनमें संभव नहीं हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर सभी जीवों में पण्णवणा में प्रतिपादित विरहकाल (वक्कंति-काल) वक्तव्य है। यह अवस्थिति-काल अथवा निरुपचय-निरपचय-काल है। इस अवस्था में उपचय, अपचय दोनों नहीं होते। सिद्ध एक समय से लेकर आठ समय तक निरन्तर उत्पन्न हो सकते हैं। उसके पश्चात् उनका विरह-काल होता है। उसकी अवधि जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह मास होती है। २३४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। २३४. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। १. भ.वृ. ५/२२५--ननूपचयो वृद्धिरपचयस्तु हानि:, युगपवयमद्यं वाऽवस्थित्वं, एवं च शब्दभेदव्यतिरेकेण कोऽनयोः सूत्रयोर्भेद:? उच्यते, पूर्वत्र परिमाणमभिप्रेतम्, इह तु तदन- पेक्षमुत्पादोद्वर्त्तना मात्र ततश्चेह तृतीयभनके पूर्वोक्तवृद्ध्यादि विकल्पानां त्रयमपि स्यात् तथाहि- बहुतरोत्पादे वृद्धिर्बहुतरोद्वर्त्तने च हानि:, समोत्पादोद्वर्तनयोश्चावस्थितत्वमित्येवं भेद इति। २. वही, ५/२२५ ---'एगिंदियातइयपए' ति सोपचयसापचया इत्यर्थः युगपदुत्पादोद्वर्तनाभ्यां वृद्धिहानिभावात्, शेषभनकेषु तु ते न संभवन्ति, प्रत्येकमुत्पादोद्वर्तनयोस्तद्विरहस्य चाभावादिति। ३. वहीं, ५/२३१-निरुपचयनिरपचयेषु 'वक्तंतिकालो भाणियचो त्ति विरहकालो वाच्यः। Jain Education Intemational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद किमिदं रायगिह-पदं किमिदं राजगृह-पदम् “यह कौन राजगृह" का पद २३५. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं तस्मिन् काले तस्मिन् समये यावद् २३५. उस काल और उस समय राजगृह नाम का वयासी-किमिदं भंते ! नगरं रायगिहं ति एवमवादीत्-किमिदं भदन्त ! नगरं नगर था यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहापवुच्चइ? किं पुढवी नगरं रायगिह ति राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं पृथिवी नगरं भन्ते ! यह कौन राजगृह नगर कहलाता है? क्या पृथ्वी पवुच्चइ? किं आऊ नगरं रायगिह ति राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं आप: नगरं राजगृह नगर कहलाती है? क्या जलात्मक नगर पवुच्चइ? किं तेऊ वाऊ वणस्सई नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं तेजांसि राजगृह कहलाता है? क्या अग्नि, वायु और वनरायगिह ति पवुच्चइ? किं टंका कूडा सेला वायवः वनस्पतय: नगरं राजगृहम् इति स्पत्यात्मक नगर राजगृह कहलाता है? क्या टंक, कूट, सिहरी पन्भारा नगरं रायगिह ति पवुच्चइ? प्रोच्यते? किं टड्स: कूटा: शैला: शिखरिण: शैल, शिखरी और प्रारभारात्मक नगर राजगृह किं जल-थल-बिल-गुह-लेणा नगरं राय- प्राग्भारा: नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं कहलाता है? क्या जल, स्थल, बिल, गुफा और गिहं ति पवुच्चइ? किं उन्झर-निज्झर- जल-स्थल-बिल-गुहा-लयानानि नगरं लयनात्मक नगर राजगृह कहलाता है? क्या उज्झर, चिल्लल-पल्लल-वप्पिणा नगरं रायगिह ति राजगृहम् इति प्रोच्यते? किम् उज्झर- निर्झर, तलैया, जल का छोटा गड्ढा और जलपवुच्चइ? किं अगड-तडाग-दह-नईओ निर्झर- 'चिल्लल'-पल्वल-वप्पिणा' प्रणाली-रूप नगर राजगृह कहलाता है? क्या कुंआ, वावी-पुक्खरिणी-दीहिया गुंजालिया सरा नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किम् अगड - तालाव, हृद, नदी, बावडी, पुष्करिणी, नहर, सरपंतियाओ सरसरपंतियओ बिलपंति- -तडाग-द्रह-नद्यः वापी-पुष्करिणी- वक्राकार नहर, सर, सरपंक्ति, सरसरपंक्ति, बिलपंक्तियाओ नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ? किं दीर्घिका: गुञ्जालिका: सरांसि सर:- रूप नगर राजगृह कहलाता है? क्या आराम, उद्यान, आरामुज्जाण-काणणा वणा वणसंडा पंक्तिका: सरस्सर:पंक्तिका: बिलपंक्तिका: कानन, वन, वनषंड और वनराजि-रूप नगर राजगृह वणराईओ नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ? किं नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किम् कहलाता है? क्या देवल, सभा, प्रपा, स्तूप, खाई देवउल-सभ-पव-थूभ-खाइय-परिखाओ आरामोद्यान-काननानि वनानि वनषण्डानि और परिखात्मक नगर राजगृह कहलाता है? क्या नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ? किं पागार- वनराजयः नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? प्राकार, अट्टालक, चरिका, द्वार और गोपुरात्मक नगर -अट्टालग-चरिय-दार-गोपुरा नगरं रायगिह किं देवकुल-सभा-प्रपा-स्तूप-खाति- राजगृह कहलाता है? क्या प्रासाद, घर, शरण, लयन ति पवुच्चइ? किं पासाद-घर-सरण-लेण- का-परिखा: नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? और आपण-रूप नगर राजगृह कहलाता है? क्या -आवणा नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ? किं किं प्राकाराट्टालक-चरिका-द्वार-गोपुराणि दुराहे, तिराहे, चौराहे, चौक, चोहट्टे महापथ और सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं प्रासाद- पथात्मक नगर राजगृह कहलाता है? क्या शकट, -महापह-पहा नगरं रायगिह ति पवुच्च- -गृह-शरण-लयनापणा: नगरं राजगृहम् रथ,यान, युग्य, डोली, बग्घी, शिविका और स्यन्दइ? किं सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लि- इति प्रोच्यते? किं शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क मानिका-रूप नगर राजगृह कहलाता है? क्या तवा, थिल्लि-सीय-संदमाणियाओ नगर राय- -चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथाः नगरं लोह, कटाह और करछी-रूप नगर राजगृह कहलाता गिह ति पवुच्चई? किं लोही-लोहकडाह- राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं शकट-रथ- है? क्या भावनात्मक नगर राजगृह कहलाता है? -कडुच्छया नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ? किं -यान-युग्य-गिल्ली'-'थिल्लि'-शिविका- क्या देव, देवी, मनुष्य-मानुषी, नर-तिर्यञ्च और भवणा नगरं रायगिह ति पवुच्चइ? किं देवा -स्यन्दमानिका: नगरं राजगृहम् इति प्रो- स्त्री-तिर्यञ्च-रूप नगर राजगृह कहलाता है? क्या देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ तिरिक्ख- च्यते? किं लौही-लोहकटाह-'कडुच्- आसन, शयन, स्तम्भ, भाण्ड, सचित्त, अचित्त और Jain Education Intemational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.५: उ.९: सू.२३५-२३९ मिश्र द्रव्य-रूप नगर राजगृह कहलाता है? जोणिया तिरिक्खजोणिणीओ नगरं रायगिहं छया' नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं ति पवुच्चइ? किं आसण-सयण-खंभ- भवनानि नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किं -भंड-सचित्ताचित्तमीसयाई दव्वाइं नगरं देवा: देव्यः मनुष्याः मानुष्य: तिर्यग्योनिका: रायगिहं ति पवुच्चइ? तिर्यग्योनिन्य: नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते? किम् आसन-शयन-स्तम्भ-भाण्ड-सचित्ता-चित्त-मिश्रकाणि-द्रव्याणि नगरं राज गृहम् इति प्रोच्यते? गोयमा! पुढवी वि नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ गौतम ! पृथिव्यपि नगरं राजगृहम् इति जाव सचित्ताचित्त-मीसयाई दवाई नगरं प्रोच्यते यावत् सचित्ताचित्त-मिश्रकाणि रायगिह ति पवुच्चइ।। द्रव्याणि नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते। गौतम ! पृथ्वी भी राजगृह नगर कहलाती है यावत् सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्यों को भी राजगृह नगर कहा जाता है। २३६. से केणटेणं? तत् केनार्थेन? गोयमा ! पुढवी जीवा इ य, अजीवा इ य गौतम ! पृथिवी जीवा इति च, अजीवा इति नगरं रायगिह ति पवुच्चइ जाव सचित्ताचित्त- च नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते यावत् मीसयाई दन्वाइं जीवा इ य, अजीवा इ य सचित्ताचित्त-मिश्रकाणि द्रव्याणि जीवा इति नगरं रायगिह ति पवुच्चइ। से तेणटेणं तं च, अजीवा इति च नगरं राजगृहम् इति चेव ॥ प्रोच्यते। तत् तेनार्थेन तच्चैवा २३६. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! जीवाजीवात्मक पृथ्वी राजगृह नगर कहलाती है, यावत् जीवाजीवात्मक सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्यों को राजगृह नगर कहा जाता है। यह इस अपेक्षा से। भाष्य १. सूत्र २३५, २३६ के द्रव्यों से निर्मित होता है। विस्तार की दृष्टि से जलाशय, प्रासाद, मार्ग, नगर की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्याएं मिलती हैं। मनुष्य, पशु-पक्षी आदि के समुदाय से नगर निर्मित होता है। राजगृह नगर के द्रष्टव्य-भ. १/४९, ५० का भाष्या विषय में प्रश्न पूछा गया और उत्तर में महावीर ने कहा—राजगृह किसी एक प्रस्तुत प्रकरण में नगर की तत्त्व-परक व्याख्या की गई है। किसी द्रव्य का नाम नहीं है, किन्तु सजीव, अजीव और मिश्र-इन सभी द्रव्यों के एक द्रव्य से नगर का निर्माण नहीं होता। वह अनेक द्रव्यों के समुदाय से समुदाय का नाम है। टंक, कूट आदि-आदि शब्दों की जानकारी के लिए निर्मित होता है। संक्षिप्त दृष्टि से वह सचित्त, अचित्त, मिश्र-इन तीन प्रकार देखें भ.५/१८२-१९० तक का भाष्या उज्जोय-अंधयार-पदं उद्द्योतान्धकार-पदम् उद्द्योत-अन्धकार-पद २३७. से नूणं भंते ! दिया उज्जोए? राई तन् नूनं भदन्त ! दिवा उद्द्योत:? रात्रौ अन्ध- २३७. १ भंते ! क्या दिन में उद्द्योत और रात्रि में अंधयारे? अन्धकार है? हंता गोयमा! दिया उज्जोए, राई अधयारे॥ हन्त गौतम! दिवा उद्द्योत:, रात्रौ अन्धकारः। हां, गौतम ! दिन में उद्द्योत और रात्रि में अन्धकार कार:? २३८. से केणटेणं? तत् केनार्थेन? गोयमा ! दिया सुभा पोग्गला सुभे पोग्गल- गौतम! दिवा शुभा: पुद्गला: शुभ: पुद्गल- परिणामे, राई असुभा पोग्गला असुभे परिणाम: , रात्रौ अशुभा: पुद्गला: अशुभ: पोग्गलपरिणामे। से तेणतुण।। पुद्गलपरिणाम:। तत् तेनार्थेन। २३८. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! दिन में शुभ पुद्गल होते हैं और पुद्गलों का परिणमन शुभ होता है। रात्रि में अशुभ पुद्गल होते हैं और पुद्गलों का परिणमन अशुभ होता है —यह इस अपेक्षा से। २३९. नेरइयाणं भंते ! किं उज्जोए? अंधयारे? नैरयिकाणां भदन्त ! किम् उद्द्योतः? अन्ध- २३९. भन्ते! नैरयिक जीवों के क्या उद्द्योत होता है? कार:? अथवा अन्धकार? गोयमा! नेरइयाणं नो उज्जोए, अंधयारे।। गौतम ! नैरयिकाणांनो उद्द्योतः, अन्धकारः। गौतम ! नैरयिक जीवों के उद्द्योत नहीं होता, अन्धकार होता है। Jain Education Interational Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.९: सू.२३७-२४७ २१८ भगवई २४०. से केणटेणं ? तत् केनार्थेन? गोयमा ! नेरइयाणं असुभा पोग्गला असुभे गौतम ! नैरयिकाणाम् अशुभा: पुद्गला: पोग्गलपरिणामे। से तेणटेणं॥ अशुभ: पुद्गलपरिणाम:। तत् तेनार्थेन । २४०. यह किस अपेक्षा से? गौतम! नैरयिक जीवों के अशुभ-पुद्गल होते हैं और पुद्गलों का परिणमन अशुभ होता है—यह इस अपेक्षा से। २४१. असुरकुमाराणं भंते! किं उज्जोए? अंध- यारे? असुरकुमाराणां भदन्त ! किम् उद्द्योत:? २४१. भंते! असुरकुमार देवों के क्या उद्द्योत होता अन्धकार:? है? अथवा अन्धकार? गौतम! असुरकुमाराणाम् उद्द्योतः, नो गौतम ! असुरकुमार देवों के उद्द्योत होता है, अन्धकारः। अन्धकार नहीं होता। गोयमा ! असुरकुमाराणं उज्जोए, नो अंधयारे॥ २४२. से केणटेणं? तत् केनार्थेन? गोयमा ! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला सुभे गौतम ! असुरकुमाराणां शुभाः पुद्गला: पोग्गलपरिणामे। से तेणटेणं । जाव थणिय- शुभ: पुद्गलपरिणाम:। तत् तेनार्थेन । यावत् कुमाराणं । स्तनितकुमाराणाम्। २४२. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! असुरकुमार देवों के शुभ पुद्गल होते हैं, और पुद्गलों का परिणमन शुभ होता है—यह इस अपेक्षा से। यावत् स्तनितकुमार देवों तक यही वक्तव्यता है। २४३. पुढविक्काइया जाव तेइंदिया जहा ने- पृथिवीकायिका: यावत् त्रीन्द्रियाः यथा २४३. पृथ्वीकायिक यावत् त्रीन्द्रिय जीवों की वक्तव्यता रइया। नैरयिकों की भांति ज्ञातव्य है। नैरयिका २४४. चउरिदियाणं भंते! किं उज्जोए? अंध- चतुरिन्द्रियाणां भदन्त ! किम् उद्योतः? २४४. भंते! चतुरिन्द्रिय जीवों के क्या उद्योत होता यारे? अन्धकार:? है? अथवा अन्धकार? गोयमा ! उज्जोए वि, अंधयारे वि॥ गौतम ! उद्द्योतोऽपि, अन्धकारोऽपि। गौतम ! उद्द्योत भी होता है, अन्धकार भी होता है। २४५. से केणद्वेणं? तत् केनार्थेन? गोयमा! चउरिदियाणं सुभासुभा य पोग्गला गौतम ! चतुरिन्द्रियाणां शुभाशुभाश्च पुद्- सुभासुभे य पोग्गलपरिणामे। से तेणटेणं ।। गला: शुभाशुभश्च पुद्गलपरिणामः। तत् तेनार्थेन। २४५. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीवों के शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के पुद्गल होते हैं और पुद्गलों का परिणमन शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है—यह इस अपेक्षा से। २४६. एवं जाव मणुस्साणं॥ एवं यावन् मनुष्याणाम्। २४६. इसी प्रकार यावत् मनुष्यों की वक्तव्यता। २४७. वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा वानमन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकाः यथा २४७. वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की असुरकुमारा॥ असुरकुमाराः। वक्तव्यता असुरकुमारों की भांति ज्ञातव्य है। भाष्य १. सूत्र २३७-२४७ उद्द्योत और अन्धकार दोनों पुद्गल के विशेष परिणमन हैं। पुद्गलों के शुभ परिणमन को प्रकाशात्मक होने के कारण उद्द्योत और उनके अशुभ परिणमन को तमोमय होने के कारण अन्धकार कहा गया है। दिन में सूर्यरश्मियों के सम्पर्क से पुद्गलों का परिणमन शुभ होता है। इसलिए दिन में उद्योत होता है। रात्रि में सूर्य-रश्मि तथा अन्य प्रकाशक वस्तुओं के अभाव में पुद्गलों का परिणमन अशुभ हो जाता है। प्रस्तुत आलापक में उद्योत और अन्धकार का अनेक अपेक्षाओं से १. भ.वृ. ५/२३८-दिवसे शुभा: पुद्गला भवन्ति, किमुक्तं भवति? -शुभः पुद्गलपरिणाम: स चार्ककरसम्पर्कात् । Jain Education Intemational Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २१९ श.५: उ.९: सू.२३७-२५१ निरूपण किया गया है। नरक में पुद्गलों का अशुभ परिणमन होने के कारण निरन्तर अन्धकार रहता है। वृत्तिकार के अनुसार पुद्गल की शुभ परिणति के निमित्तभूत सूर्य-किरण आदि प्रकाशक वस्तु का वहां अभाव है। पण्णवणा में उल्लेख है कि नरक-पृथ्वियों में सौरमण्डल नहीं होता। देवों के भवन और विमान पुद्गलों के शुभ परिणमन के कारण निरन्तर भास्वर रहते हैं। भवनों और विमानों के आकाश में सौरमण्डल नहीं होता। वे रत्नों के प्रभामण्डल से निरन्तर प्रभास्वर रहते हैं। वहां दिन और रात का विभाग नहीं है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवों के निरन्तर अन्धकार रहता है। यह चक्षु-सापेक्ष अन्धकार का निरूपण है। इन जीवों को सूर्य-रश्मि का प्रकाश उपलब्ध होता है, किन्तु चक्षु-इन्द्रिय के अभाव में उन्हें निरन्तर अन्धकार का संवेदन होता है। चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य में चक्षु-इन्द्रिय का विकास होता है। वे सूर्य के सम्पर्क में भी आते हैं, इसलिए उनमें उद्योत होता है। वे रात्रि का अनुभव करते हैं, इसलिए अन्धकार भी होता है। मणुस्सखेत्ते समयादि-पदं __मनुष्यक्षेत्रे समयादि-पदम् २४८. अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं ___ अस्ति भदन्त ! नैरयिकाणां तत्रगतानाम् एवं एवं पण्णायए, तंजहा--समया इ वा, प्रज्ञायते, तद् यथा—समया इति वा, आ- आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा, वलिका इति वा यावद् अवसर्पिणी इति वा, उस्सप्पिणी इवा? उत्सर्पिणी इति वा? णो तिणढे सम8|| नायमर्थ: समर्थः। मनुष्य-क्षेत्र में समयादि-पद २४८.'भंते ! नैरयिक मनुष्य-लोक (समयक्षेत्र) के बाहर स्थित है, इसलिए उनके विषय में क्या ऐसा प्रज्ञापन हो सकता है, जैसे—समय, आवलिका यावत् अवसर्पिणी अथवा उत्सर्पिणी होते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। २४९. से केणतुणं भन्ते ! एवं दुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैर- नेरइयाणं तत्थगयाणं नो एवं पण्णायए, तं यिकाणां तत्रगतानां नो एवं प्रज्ञायते, तद् जहा--समया इ वा, आवलिया इ वा जाव यथा-समया इति वा, आवलिका इति वा, ओसप्पिणी इ वा, उस्सप्पिणी इ वा? यावद् अवसर्पिणी इति वा, उत्सर्पिणी इति वा? गोयमा ! इह तेसिं माणं, इहं तेसिं पमाणं, गौतम ! इह तेषां मानम्, इह तेषां प्रमाणं, इह इह तेसिं एवं पण्णायए, तं जहा–समया इ तेषाम् एवं प्रज्ञायते, तद् यथा—समया इति वा जाव उस्सप्पिणी इ वा। से तेणटेणं जाव वा यावद् उत्सर्पिणी इति वा। तत् तेनार्थेन नो एवं पण्णायए, तं जहा—समया इ वा यावन् नो एवं प्रज्ञायते, तद् यथा—समया जाव उस्सप्पिणी इ वा॥ इति वा यावद् उत्सर्पिणी इति वा। २४९. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नैरयिक मनुष्य-लोक के बाहर स्थित है, इसलिए उनके विषय में ऐसा प्रज्ञापन नहीं हो सकता, जैसे —समय, आवलिका यावत् अवसर्पिणी अथवा उत्सर्पिणी होते हैं? गौतम ! समय आदि का मान और पमाण मनुष्यलोक में होता है। मनुष्य-लोक में ही उनका इस प्रकार प्रज्ञापन हो सकता है, जैसे—समय यावत् उत्सर्पिणी होते हैं। इस अपेक्षा से यावत् नैरयिक मनुष्य-लोक के बाहर स्थित हैं, इसलिए उनके विषय में ऐसा प्रज्ञापन नहीं हो सकता, जैसेसमय यावत् उत्सर्पिणी होते हैं। २५०. एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण|| एवं यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्। २५०. इसी प्रकार यावत् मनुष्य-लोक के बाहर स्थित पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के विषय में ज्ञातव्य २५१. अत्थि णं भंते ! मणुस्साणं इहगयाणं एवं पण्णायते, तं जहा-समया इ वा जाव अस्ति भदन्त ! मनुष्याणाम् इहगतानाम् एवं प्रज्ञायते, तद् यथा—समया इति वा यावद् २५१. भन्ते ! मनुष्य-लोक में स्थित मनुष्यों के लिए क्या ऐसा प्रज्ञापन हो सकता है, जैसे—समय यावत् १. भ., ५/२४० तत्क्षेत्रस्य पुद्गलशुभतानिमित्तभूतरविकरादिप्रकाशकवस्तुवर्जितत्वात्। २. पण्ण, २/२० ते णं नरगा.... णिच्चंधयारतमसा ववगयगह-चंद-सूर-णक्खत्त-जोइसपहा। ३. (क) पण्ण, २/३० ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो समचउरंसा अहे पुक्खरकणियासंठाण- संठिता उक्किण्णंतरविउलगंभीर-खात-परिहा पागारट्टालय-कवाड-तोरणपडिदुवारदेसभागा जंत-सयग्धि-मुसल-मुसुंढिपरिवारिया अओज्झा सदाजता सदागुत्ता अडयालकोटगरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदण्डोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितला उवचियवंदणकलसा बंदणघडसुकततोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवद्वग्धारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिया कालागरु-पबरकुंदुरुक्क-तुरुक्क धूवमघमघेत-गंधुद्धयाभिरामा सुगन्ध-वर-गंध-गंधिया गंधवट्टिभूता अच्छरगण-संघ संविगिण्णा दिव्वतुडित-सद्दसंपणदिता सल्चरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पहा सस्सिरीया समिरीया सउज्जोया। (ख) पण्ण. २/४९—तेणं विमाणा सव्वरतणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला नियंका निक्कं कडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया। ४. भ.वृ. ५/२४३-रविकरादि संपर्के सत्यपि एषां चक्षुरिन्द्रियाभावेन दृश्यवस्तुनो दर्शनाभावाच्छुभपुद्गलकार्याकरणेनाशुभा: पुद्गला उच्यन्ते ततश्चैषामन्धकारमेवेति । Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ उ. ९ सू. २४८-२५४ उस्सप्पिणी इ वा ? हंता अत्वि || २५२. से के? गोयमा ! इहं तेसिं माणं, इहं तेसिं पमाणं, इहं चैव तेसिं एवं पण्णायते तं जहा समया इ वा जाव उस्सप्पिणी इ वा । से टेण्डेणं ॥ २५३. वाणमंतर - जोइस वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं || पासावच्चिज्ज -पदं २५४. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासा वच्च्ज्जा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी से नूणं भंते! असंखेन्जे लोए अनंता राहंदिया उपज्जि वा, उप्पल्यति उप्पन्निस्संति वा? विगच्छिं २२० उत्सर्पिणी इति वा? हन्त अस्ति! वा, वा तत् केनार्थेन? गौतम ! इहं तेषां मानम्, इह तेषां प्रमाणम्, इचैव तेषां एवं प्रज्ञायते तद् यथा-समया इति वा यावद् उत्सर्पिणी इति वा । तत तेनार्थेन। > १. सूत्र २४८ - २५३ इस विश्व में दो प्रकार के क्षेत्र हैं—समयक्षेत्र और समयातीत क्षेत्रा मनुष्य लोक जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और अर्धपुष्कर द्वीप वह अढाई द्विप समयक्षेत्र है। नरकलोक, देवलोक तथा अढाई द्वीप के आगे का क्षेत्र समयातीत क्षेत्र है। वहां समय का विभाग नहीं होता। अढाई द्वीप के बाहर सौरमण्डल गतिशील नहीं है— जहां सूर्य है, वहां सूर्य है, जहां चन्द्र है, वहां चन्द्र है, सब अवस्थित हैं। इसलिए वहां भी काल का विभाग नहीं है। काल का विभाग मनुष्य के लिए है। मनुष्य ही अपने काल-प्रमाण के आधार पर नरक गति, तिर्यञ्च और देवगति के आयुष्य आदि की कालमर्यादा का निर्धारण करता है। वानमन्तर - ज्योतिष्क- वैमानिकानां यथा नैरयिकाणाम् । १. उत्तर. २८/१० - वत्तणा लक्खणो कालो । २. त. सू. ५ / २२ - वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्या भाष्य ३. ठाणं २/३८७-३८९ - समयाति वा आवलियाति वा जीवाति या अजीवाति या पवच्चति । आणापाणूति वा थोविति वा जीवाति या अजीवाति या पवुच्चति। खणाति वा लवाति वा जीवाति या अजीवाति या पच्चति एवंमुहुत्ताति वा अहोरत्ताति वा पक्खाति वा मासाति वा उऊति वा अयणाति वा संवच्छराति वा जुगाति वा वासस्याति वा वाससहस्साइ वा वाससतसहस्साई वा वासकोडी वा पुब्बंगाति वा पुव्वाति वा तुडियंगाति वा तुडियाति वा अडडंगाति वा अडडाति अवगति वा अववाति वा हूहूअंगाति वा हूहूयाति वा उप्पलंगाति वा उप्पलाति वा पउमंगाति पावपत्यीय पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्वापत्ययाः स्थविरा: भगवन्तो यत्रैव श्रमण भगवान् महावीरः रात्रेच उपागच्छन्ति, उपागम्ब श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्ते स्थित्वा एवमवादिषुः तन् नूनं भगवन् ! असंख्येये लोके अनन्तानि रात्रिंदिवानि उदपादिषुः वा, उत्पद्यन्ते वा, उत्पत्स्यन्ते वा? व्यगमनू वा, विगच्छन्ति वा विग उत्सर्पिणी होते हैं? हां, ऐसा हो सकता है। भगवई २५२. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! समय आदि का मान और प्रमाण मनुष्यलोक में ही होता है। मनुष्य-लोक में ही समय यावत् उत्सर्पिणी होते हैं। यह इस अपेक्षा से १ काल के दो प्रकार हैं-नैश्चयिक और व्यावहारिक। नैश्चयिक काल का लक्षण है वर्तना । उत्तरज्झयणाणि में काल का यही लक्षण निर्दिष्ट है। तत्त्वार्थसूत्र में काल के पांच लक्षण बतलाए गए हैं—वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्वा इनमें वर्तना और परिणाम का सम्बन्ध नैश्चयिक काल से तथा क्रिया, परत्व और अपरत्व का सम्बन्ध व्यावहारिक काल से है। ठाणं में व्यावहारिक काल जीव, अजीव दोनों रूप में वर्णित है। ३ २५३. धानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों की भांति वक्तव्यता । अकलंक के अनुसार मनुष्य क्षेत्रवर्ती समय, आवलिका आदि व्यावहारिक काल के द्वारा ही सभी जीवों की कर्म स्थिति, भवस्थिति और काय स्थिति आदि का परिच्छेद होता है। संख्येय, असंख्येय और अनन्त इस काल-गणना का आधार भी व्यावहारिक काल है।' पाश्वचित्सीय पद २५४. उस काल और उस समय पाश्र्वापत्यीय स्थविर भगवान् जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं। वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर न अति निकट स्थित होकर इस प्रकार बोले-भन्ते ! क्या इस असंख्येय प्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे? व्यतीत हुवे हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होगे ? परीत (परिमित) रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, वा पउमाति वा णलिणंगाति वा णलिणाति वा अत्थणिकुरंगाति वा अत्थणिकुराति वा अउअंगाति वा अति वाण अंगाति वा णउआति वा पतंगाति वा पउताति वा चूलियंगाति वा चूलियाति वा सीसपहेलियंगाति वा सीसपहेलियाति वा पतिओवमाति वा सागरोवमाति वा ओसप्पिणीति वा उस्सप्पिणीति वा जीवाति या अजीवाति या पवुच्चति । ४. त. रा. वा. ५ / २२ – मनुष्यक्षेत्रसमुत्थेन ज्योतिर्गतिसमयावलिकादिना परिच्छिन्नेन क्रियाकलापेन कालवर्तनया कालाख्येन ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च प्राणिनां संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तानन्तकालगणनाप्रभेदेन कर्मभवकायस्थितिपरिच्छेदः सर्वत्र जघन्यमध्यमोत्कृष्टावस्थः क्रियते । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२१ श.५: उ.९:सू.२५४-२५६ उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे? व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होंगे? विगच्छंति वा, विगच्छिस्सति वा? परित्ता मिष्यन्ति वा? परीतानि रात्रिंदिवानि उद- राइंदिया उप्पज्जिंसु वा, उप्पज्जंति वा, पादिषुः वा, उत्पद्यन्ते वा, उत्सत्स्यन्ते वा? उप्पज्जिस्संति वा? विगच्छिंसु वा, व्यगमन् वा, विगच्छन्ति वा, विगमिष्यन्ति विगच्छंति वा, विगच्छिस्संति वा? वा? हंता अज्जो ! असंखेज्जे लोए अणंता राई- हन्त आर्याः! असंख्येये लोके अनन्तानि दिया तं चेव॥ रात्रिंदिवानि तच्चैव। हां, आर्यो ! इस असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होंगे। इसी प्रकार परीत रात-दिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। व्यतीत हुए हैं, व्यतीत होते हैं और व्यतीत होंगे। २५५. से केणटेणं जाव विगच्छिस्संति वा? तत् केनार्थेन यावद् विगमिष्यन्ति वा? से नूण भे अज्जो! पासेणं अरहया पुरिसा- तन् नूनं भवताम् आर्या: ! पार्बेन अर्हता दाणिएणं सासए लोए बुइए-अणादीए पुरुषादानीयेन शाश्वत: लोकः उक्त:अणवदणे परित्ते परिवुडे हेट्ठा विच्छिण्णे, अनादिक: अणवदग्गे' परीतः परिवृत: अध: मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले, अहे पलि- विस्तीर्णः, मध्ये संक्षिप्तः, उपरि विशाल:, यंकसंठिए, मज्झे वरवइरविगहिए, उप्पिं अध: पल्यासंस्थित: मध्ये वरवज्रविग्रहिक: उद्धमुइंगाकारसंठिए। तेसिं च णं सासयंसि उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थितः। तस्मिंश्च लोगसि अणादियंसि अणवदगंसि परित्तंसि शाश्वते लोके अनादिके 'अणवदगंसि' परीते परिवुडंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि, मज्झे संखि- परिवृते अध: विस्तीर्णे, मध्ये संक्षिप्ते, उपरि तंसि, उप्पिं विसालंसि, अहे पलियंकसंठि- विशाले, अध: पल्यसंस्थिते, मध्ये वरयंसि, मझे वरवइरविग्गहियंसि, उप्पिं उद्ध- वज्रविग्रहिके, उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थिते मुइंगाकारसंठियंसि अणंता जीवघणा उप्प- अनन्ता: जीवघना: उत्पद्य-उत्पद्य निलीयन्ते, जित्ता-उप्पज्जित्ता निलीयंति, परित्ता जीव- परीता: जीवघना: उत्पद्य-उत्पद्य निलीयन्ते। घणा उप्पज्जित्ता-उप्पज्जित्ता निलीयंति।से स भूत: उत्पन्न: विगत: परिणत:, अजीवैः भूए उप्पण्णे विगए परिणए, अजीवेहिं लोक- लोक्यते-प्रलोक्यते, य: लोक्यते, सलोकः। कइ पलोक्कइ, जे लोक्कइ से लोए? २५५. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है—असंख्येय प्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न हुए हैं यावत् व्यतीत होंगे? हे आर्यो! आपके पूर्ववर्ती पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है. अनादि, अनन्त, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में विस्तीर्ण मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्न भाग में पर्यंक के आकारवाला, मध्य में उसकी आकृति श्रेष्ठ वज्र जैसी है और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। उस शाश्वत, अनादि, अनन्त, परीत, अलोक से परिवृत, निम्न भाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, निम्न भाग में पर्यंक आकार वाले, मध्य में श्रेष्ठ वज्र और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में अनन्त जीवघन उत्पन्न हो-होकर निलीन हो जाते हैं। परीत जीवघन उत्पन्न हो-होकर निलीन हो जाते हैं। वह लोक सद्भूत, उत्पन्न, विगत और परिणत है। अजीव-पुद्गल आदि के विविध परिणामों के द्वारा जिसका लोकन किया जाता है, प्रलोकन किया जाता है, वह लोक हंता भगवं! हन्त भगवन् ! से तेणटेणं अज्जो ! एवं वुच्चइ-असं- तत् तेनार्थेन आर्याः। एवमुच्यते--असंख्येये खेज्जे लोए अणंता राइंदिया तं चेव। लोके अनन्तानि रात्रिंदिवानि तच्चैव। हां, भगवन्। आर्यो ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—इस असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न होते हैं—पूर्ण वक्तव्यता। उस समय से पापित्यीय स्थविर भगवान् श्रमण भगवान् महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में पहचानते हैं। तप्पभिई च णं पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो तत्प्रभुति च ते पापित्यीयाः स्थविरा: समण भगवं महावीरं पच्चभिजाणंति सव्व- भगवन्त: श्रमणं भगवन्तं महावीरं प्रत्यभिण्णू सव्वदरिसी॥ जानन्ति सर्वज्ञः सर्वदर्शी। २५६. तए ण ते थेरा भगवतो समण भगवं ततः ते स्थविरा: भगवन्तः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वदति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता महावीरं वंदन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नम- २५६. वे स्थविर भगवान् श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर इस Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५:३९: सू. २५४-२५७ एवं वयासी— इच्छामिषं भंते! तुन्भं अंतिए चाउन्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरि - त्तए । अहासु देवाणुप्पिया ! मा पहिबंध २५७. तरणं ते पासावच्चिज्जा घेरा भगवंतो चाउज्जमाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं स पडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरति जाव चरिमेहिं उस्सास - निस्सासेहिं सिद्धा बुद्धा मुक्का परिनिव्बुडा सव्वदुक्खप्पहीणा । अत्थेगतिया देवलो एसु उववण्णा ॥ २२२ स्थित्वा एवमवादिषुः इच्छामः भगवन् ! युष्माकम् अन्तिके चातुर्यामाद् धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकं सप्रतिक्रमणं धर्मम् उपसंपद्य विहर्तुम् । यथासुखं देवानुप्रियाः। मा प्रतिबन्धमा ततः ते पाश्यपत्यीया: स्थविरा: भगवन्तः चातुर्यामाद् धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकम् सप्रतिक्रमणं धर्मम् उपसम्पद्य विहरन्ति बावच् चरमैः उच्छवास - निःश्वासैः सिद्धाः 'बुद्धा' मुक्ताः परिनिर्वृताः सर्वदुखप्रहीणाः । अस्त्येकके देवलोकेषु उपपन्नाः। भाष्य १. सूत्र २५४-२५७ १ अर्हत् पार्श्व जैन परम्परा के २३ वे तीर्थंकर थे। उनका अस्तित्वकाल भगवान् महावीर से २५० वर्ष पूर्ववर्ती है। डॉ. याकोबी ने जैन आगमों और बौद्ध-पिटकों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर पार्श्व की ऐतिहासिकता को स्थापित किया। भगवान महावीर के माता-पिता पावपित्यिक (पार्श्व के अनुयायी थे। भगवान् महावीर के समय पार्श्वनाथ की परम्परा चल रही थी। पार्श्व के शिष्य भगवान् महावीर तथा गौतम के पास आते और तत्त्वचर्चा करते, ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं ૩ १. पाश्र्वपत्यीय कालासवेसियपुर महावीर के स्थिविरों के पास आते हैं और सामायिक आदि के विषय में तात्विक चर्चा करते हैं। अन्त में महावीर के शासन में दीक्षित हो जाते हैं। ३ २. तुंगिया नगरी के श्रावकों ने पाश्र्वपत्नीय स्थविरों से तत्त्वचर्चा की स्थविरों ने जो उत्तर दिए, उनका महावीर ने समर्थन किया। वे स्थविर महावीर के शासन में दीक्षित हुए, इसका कोई उल्लेख नहीं है। ४ ३. पाश्र्वापत्यीय स्थविर भगवान् महावीर के पास आते हैं और परिमित लोक में अनन्त रात-दिन के विषय में प्रश्न पूछते हैं। भगवान् महावीर पार्श्वनाथ के सिद्धान्त को उद्धृत कर उनके प्रश्न का समाधान करते हैं। वे स्थविर महावीर की सर्वज्ञता के विषय में विश्वस्त होकर उनके शासन में दीक्षित होते हैं। ५. ४. पार्श्वपत्यीय गांगेय नामक अनगार वाणिज्यग्राम नामक नगर में आकर जीवों की उत्पत्ति और उद्वर्तन के विषय में प्रश्न पूछते हैं। महावीर उनका उत्तर देते हैं। इस प्रसंग में भी पार्श्व के लोक-विषयक सिद्धान्त को उद्धृत करते हैं। महावीर की सर्वज्ञता के प्रति विश्वस्त होकर गांगेय अनगार १. Sacred Books of the East, vol. XLV, Introduction, २. आ. चू. १५/२५/ ३. भ. १ / ४२३-४३३॥ ४. वही, २ / ९२-११० भगवई प्रकार बोले—भन्ते! हम आपके पास चातुर्याम धर्म से सप्रतिक्रमण पांच महाव्रत-रूप धर्म की उपसंपदा प्राप्त कर विहरण करना चाहते हैं। देवानुप्रियो ! तुम्हे जैसा सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। २५७. वे पार्वापत्यीय स्थविर भगवान चातुर्याम धर्म सेसप्रतिक्रमण पांच महाव्रत रूप धर्म की उपसम्पदा प्राप्त कर विहरण कर रहे हैं। यावत् चरम उच्छ्वासनिःश्वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिवृत और सब दुःखों से प्रहीण हुए। उनमें से कुछ एक स्थविर देवलोकों में उपपन्न हुए। ६ उनके शासन में दीक्षित हो जाते हैं। ५. सूयगडो के नालंदीय अध्ययन के अनुसार पार्श्वोपत्यिक उदक पेढाल नालन्दा में गौतम के पास आते हैं और व्रत दिलाने की पद्धति के विषय में विस्तृत चर्चा करते हैं। चर्चा के पश्चात् वे महावीर के शासन में दीक्षित हो जाते हैं। १७ ८ ६. उत्तरज्झयणाणि में पाश्र्वापत्यीय कुमार श्रमण केशी का उल्लेख है। वे श्रावस्ती में गौतम स्वामी के पास आते हैं। उन दोनों में एक लम्बा संवाद चलता है। अन्त में कुमार श्रमण केशी महावीर के शासन में दीक्षित होते हैं। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के केवली हो जाने पर भी पार्श्व की परम्परा स्वतन्त्र रूप से चलती थी। उसी पार्श्व की परम्परा के स्थविर भगवान् महावीर के पास आए और उन्होंने पूछा-भन्ते । परिमित लोक में अनन्त रात-दिन उत्पन्न और विगत होते हैं अथवा परिमित रात-दिन उत्पन्न और विगत होते हैं। भगवान महावीर ने दोनों विकल्पों को स्वीकार किया। यदि अनन्त हैं, तो परिमित कैसे? और यदि परिमित हैं, तो अनन्त कैसे ? इस विरोध का परिहार सापेक्ष दृष्टि से किया गया। इस जगत में दो प्रकार के जीव हैं—- साधारण शरोरी और प्रत्येक शरीरी । साधारण शरीरी की अवस्था में अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। प्रत्येक शरीरी की अवस्था में परिमित जीव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। काल जीव का एक स्थिति लक्षण वाला पर्याय है। साधारण शरीरी जीवों की अपेक्षा से अनन्त रात-दिन उत्पन्न होते हैं और बीत जाते हैं। प्रत्येक शरीरी जीवों की अपेक्षा से परिमित रात-दिन उत्पन्न होते हैं और बीत जाते हैं। इस प्रकार ये दोनों वक्तव्य परस्पर विरोधी नहीं, किन्तु सापेक्ष हैं। असंख्येय ५. वही, ५ / २५४-२५७/ ६. वही, ९/७७-१३५ । ७. सूर्य. २/७/८-३८ । ८. उत्तर. अ. २३ । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२३ श.५ : उ.९ : सू.२५४-२५८ प्रदेश वाले लोक में अनन्त रात-दिन अथवा अनन्त जीवों का होना असम्भव गौणरूप में यह स्वत:सिद्ध है कि लोक अशाश्वत भी है। लोक शाश्वत है—इस नहीं है। आकाश में अवगाहन की क्षमता है और जीवों में परिणति की सूक्ष्मता निरूपण में लोक अशाश्वत है-यह गम्य है, इसलिए उक्त दोनों निरूपणों में है। अत: असंख्येय प्रदेशात्मक लोक में अनन्त जीवों का होना सम्भव है। कोई विरोध नहीं है। भगवान् महावीर ने अर्हत् पार्श्व के सिद्धान्त को उद्धृत करते हुए अर्हत् पार्श्व और भगवान् महावीर के शासन में भेदरेखा खींचने असंख्येय प्रदेशात्मक लोक के स्वरूप का प्रतिपादन किया। वह लोक वाले दस कल्प निर्दिष्ट हैं। इनमें व्रत छठा और प्रतिक्रमण आठवां कल्प है। भूत-यथार्थ है। वह उत्पन्न होता है, विगत होता है और परिणत होता है। प्रस्तुत प्रकरण में इन्हीं दो कल्पों का उल्लेख है। पार्श्वनाथ की व्रत-व्यवस्था यहां उत्पत्ति और व्यय परिणति अथवा पर्यायान्तर की दृष्टि से विवक्षित हैं, में चातुर्याम का विधान था। भगवान् महावीर की व्रत-व्यवस्था में पांच महाव्रतों असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश विवक्षित नहीं है। का विधान था। अर्हत् पार्श्व के शासन में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य नहीं अजीव द्रव्य-पुद्गल की उत्पत्ति, व्यय और परिणति प्रत्यक्षतः था, कोई प्रमाद होता तो प्रतिक्रमण कर लिया जाता, अन्यथा नहीं। महावीर दिखाई दे रही है। जो दिखाई दे रहा है, वह लोक है। पुद्गल द्रव्य मूर्त है, के शासन में प्रतिक्रमण अनिवार्य था। इसलिए उसकी उत्पत्ति, व्यय और परिणति दिखाई दे रही है। शेष द्रव्य अमूर्त शब्द-विमर्श है, इसलिए उनकी उत्पत्ति, व्यय और परिणति दिखाई नहीं दे रही है। इसलिए परीत-परिमित। लोक का निर्वचन प्रत्यक्ष-भूत पुद्गल द्रव्य के द्वारा किया गया है। पुरुषादानीय जनता द्वारा आदेय, लोकमान्य। प्रस्तुत प्रकरण में अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है, यह अगवदग्ग–अनन्त उल्लेख है। भगवान महावीर ने लोक को शाश्वत और अशाश्वत दोनों पर्यंक आकार वाले—पर्यंकासन अथवा पद्मासन में संस्थित, बतलाया है। ऊपर संकड़ा, नीचे विस्तृत। इन दोनों निरूपणों में विवक्षा-भेद है, विरोधाभास नहीं है। वरवज्रविग्रहिक – वज्र जैसी शरीर रचना वाला , मध्य में द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से लोक शाश्वत है, पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से पतला। लोक अशाश्वत है। द्रव्यार्थिक नय मुख्य वृत्ति से अभेद को स्वीकार करता है। उर्ध्वमृदंग के आकार वाला – मल्लक सम्पुट के आकार वह भेद को अस्वीकार नहीं करता, किन्तु उसे गौण कर देता है। इसी प्रकार वाला। पर्यायार्थिक नय मुख्यवृत्ति से भेद को स्वीकार करता है। वह अभेद को जीवधन-अनन्त पर्याय समूह युक्त होने के कारण जीवके लिए अस्वीकार नहीं करता, किन्तु उसे गौण कर देता है। जीवधन का प्रयोग किया गया है। द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से लोक को शाश्वत कहा गया है, वहां सद्भूत (भूत)- यथार्थी देवलोय-पदं देवलोक-पदम् २५८. कइविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता? कतिविधा: भदन्त ! देवलोका: प्रज्ञप्ता:? गोयमा ! चउन्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं गौतम ! चतुर्विधा: देवलोका: प्रज्ञप्ता:, तद् जहा—भवणवासी-वाणमंतर-जोतिसिय- यथा—भवनवासि-वानमन्तर-ज्यौतिषिक-वेमाणियभेदेणं। भवणवासी दसविहा, -वैमानिकभेदेन। भवनवासिनः दशविधाः, वाणमंतरा अट्ठविहा, जोतिसिया पंचविहा, वानमन्तरा: अष्टविधाः, ज्यौतिषिका: वेमाणिया दुविहा। पञ्चविधाः, वैमानिका: द्विविधा। देवलोक-पद २५८. भन्ते ! देवलोक के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! देवलोक के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेभवनवासी, वानमन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक। भवनवासी के दश प्रकार, वानमन्तर के आठ प्रकार, ज्यौतिषिक के पांच प्रकार और वैमानिक के दो प्रकार संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा किमिदं रायगिह ति य, उज्जोए अंधयार-समए या संग्रहणी गाथा किमिदं राजगृहमिति च, उद्द्योतोऽन्धकार-समयौ च। यह राजगृह क्या है? उद्द्योत और अन्धकार कहां है? समय आदि को कौन जानता है? पापित्यीय १. भ.वृ. ५/२५४–इहायमभिप्राय:---यद्यनन्तानि तानि तदा कथं परीत्तानि? इति विरोध:, अत्र हन्तेत्यागुतरं, अब चायमभिप्राय:-.-असंख्यातप्रदेशेऽपि लोकेऽनन्ता जीवा वर्तन्ते, तथाविधस्वरूपत्वाद्, एकत्राश्रये सहस्रादि संख्यप्रदीपप्रभा इव, ते चैकत्रैव समयादिके कालेऽनन्ता उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, स च समयादि कालस्तेषु साधारण-शरीरावस्थायामनन्तेषु प्रत्येकशरीरावस्थायां च परीत्तेषु प्रत्येक वर्तते, तत् स्थितिलक्षणपर्यायरूपत्वात्तस्य, तथा च कालोऽनन्तः परीतश्च भवतीति, एवं चासंख्येयेऽपि लोके रात्रिन्दिवान्यनन्तानि परीत्तानि च कालत्रयेऽपि युज्यन्त इति । २.भ.९/२३३ ३. द्रव्यानुयोगतर्कणा, ५/२,३-- द्रव्यार्थिकनयो मुख्यवृत्त्या भेदं वदस्त्रिषु । अन्योन्यमुपचारेण तेषु भेदं दिशत्यलम् ॥२॥ पर्यायार्थिक एवापि मुख्यवृत्त्यात्र भेदताम् । उपचारानुभूतिभ्यां मनुतेऽभेदतां त्रिषु ॥३॥ ४. ठाणं, ६/१०३ का टिप्पण। ५. भ. २/११८ का भाष्य। Jain Education Intemational Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.९: सू.२५९ २२४ भगवई पासंतिवासिपुच्छा, रातिंदिय देवलोगा य|शा पार्वान्तेवासि-पृच्छा, रात्रिंदिवा देवलोकाश्च ॥१॥ स्थविरों की पृच्छा, लोक में होने वाले रात-दिन और देवलोकों का वर्णन—इस उद्देशक में है। २५९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। २५९. भंते ! यह ऐसा ही है, भंते ! यह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल २६०. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नगरी, जहा पढमिल्लो उद्देसओ तहा नेयव्वो एसो वि, नवरं चंदिमा भाणियव्वा ।। दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक संस्कृत छाया तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी, यथा प्रथम उद्देशक तथा नेतव्यः एषोऽपि नवरं - चन्द्रमाः भणितव्यः । हिन्दी अनुवाद २६०. उस काल और उस समय चम्पा नाम की नगरी थी। प्रथम उद्देशक में जो सूर्य की वक्तव्यता है, वह यहां ज्ञातव्य है। उसमें और इसमें इतना विशेषसूर्य के स्थान पर चन्द्रमा वक्तव्य है। - Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8 सयं छठा शतक Jain Education Intemational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख कर्मविद्या जैन तत्त्व-विद्या का प्रमुख अंग है। कर्म की विविध अवस्थाओं को जानने के लिए 'वेदना' और 'निर्जरा' का उद्देशक प्रस्तुत शतक का प्रथम उद्देशक अध्यवसाय-पूर्वक मननीय है। सामान्य अवधारणा है— जितना अधिक कष्ट सहन, उतनी अधिक निर्जरा। इस अवधारणा में सत्यांश नहीं है यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु सत्यांश की आधारभूमि समझे बिना कर्मविद्या का रहस्य पकड़ में नहीं आता। कर्म की मुख्यतः दो अवस्थाएं होती हैं—गाढीकृत और शिथिलीकृत । कर्म की गाढीकृत अवस्था में अधिक कष्ट सहने पर भी निर्जरा अल्प होती है। कर्म की शिथिलीकृत अवस्था में अल्प कष्ट सहन करने पर भी निर्जरा अधिक हो जाती है। इससे यह सिद्धान्त फलित होता है कि निर्जरा की अल्पता और अधिकता के पीछे कष्ट सहन गौण कारण है, मुख्य कारण है कर्म की गाढीकृत और शिथिलीकृत अवस्था । इसे इस प्रकार कहा जा सकता है कर्म गाढीकृत शिथिलीकृत शिथिलीकृत शिथिलीकृत वेदना महावेदना महावेदना अल्पवेदना अल्पवेदना १. पा.यो. द. २/११ २. भ. ६ / २०-२३ ३. वही, ६ / २४-२९ निर्जरा अल्पनिर्जरा महानिर्जरा पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार क्लेश हानि की तीन अवस्थाएं फलित होती हैं - १. तनूभाव २ व्यभाव ३. सम्यक् प्रणाश। क्रियायोग के द्वारा क्लेश का तनूभाव होता है। प्रसंख्यान के द्वारा उसका दग्धबीज भाव होता है। चित्तप्रलय के द्वारा उसका सम्यक् प्रणाश होता है। इसकी तुलना अल्पनिर्जरा और महानिर्जरा से की जा सकती है। साधना की प्रत्येक पद्धति में विशुद्धि की प्रक्रिया का निर्देश अनिवार्य है। अध्यात्मविद्या में आभामण्डल एक चर्चित विषय है। आगम साहित्य में यह द्रव्यलेश्या के रूप में चर्चित है। प्रत्येक प्राणी का अपना आभामण्डल होता है। केवल प्राणी में ही नहीं अचेतन पदार्थ का भी आभामण्डल होता है। अचेतन पदार्थ का आभामण्डल नियत होता है। प्राणी का आभामण्डल अनियत होता है। वह बदलता रहता है। प्रस्तुत शतक में बदलने के चार हेतु बतलाए गए हैं : १. कर्म २. क्रिया ( प्रवृत्ति आचरण) ३. आश्रव ४. वेदना । कर्म का विपाक अशुभ, क्रिया अशुभ, आश्रव आत्मा का परिणाम अशुभ और अशुभ पुद्गलों का ग्रहण तथा वेदना अशुभ ये - ये प्रकृष्ट अवस्था में होते हैं, तब आभामण्डल मलिन हो जाता है। उसके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श अनिष्ट हो जाते हैं, मानसिक संक्लेश बढ़ जाते हैं। -- अल्पनिर्जरा महानिर्जरा उक्त चारों हेतु शुभ होते हैं, तब आभामण्डल निर्मल हो जाता है। उसके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इष्ट हो जाते हैं, मानसिक सुख का निर्झर सतत प्रवाही हो जाता है। आभामण्डल का प्रभाव शरीर पर भी होता है। सिद्धान्त को उदाहरण के द्वारा सरल बनाकर समझाना प्रस्तुत आगम की रचनाशैली की विशेषता है। कर्म का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता इस सिद्धान्त को वस्त्र के उदाहरण द्वारा समझाया गया है। जीव के सादित्व और अनादित्व के लिए भी वस्त्र का उदाहरण प्रदत्त है। प्रस्तुत आगम में कर्मशास्त्र प्रकीर्ण रूप में उपलब्ध है। यदि उसे एकत्र संकलित किया जाये तो पूरा ग्रन्थ बन सकता है। प्रस्तुत शतक का तीसरा उद्देशक कर्मशास्त्र का ही एक प्रकरण है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई आगम- साहित्य का बहुत बडा भाग विस्मृति में चला गया। उसकी अगाध ज्ञानराशि में जो शेष रहा, उसमें प्रस्तुत आगम का विशेष महत्त्व है। इसमें तमस्काय, कृष्णराज जैसे लोकविद्या के महत्त्वपूर्ण विषय वर्णित हैं। वर्तमान वैज्ञानिकों ने कृष्ण विवर (Black Hole) को खोजा है। तमस्काय को अष्कायिक तथा कृष्णराजी को पृथ्वीकायिक परिणमन बताया गया है। 'वरमूदा त्रिकोण' (त्रिनिडाड समुद्र तट) के रहस्यमय क्षेत्र में यात्रा करने वालों ने जो जानकारी दी है, वह तमस्काय का आभास देने वाली है। घटना ८ अगस्त १९५६ की है— T कोष्टार्ड का एक खोजी और तार बिछाने वाला जहाज 'यामाक्रा' सरगासो समुद्र क्षेत्र की ओर बढ़ रहा था। सरगासो समुद्र क्षेत्र, बरमूदा त्रिकोण के बाहमास क्षेत्र के उत्तर में समुद्री पास, जालों से भरा जलक्षेत्र माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस जलक्षेत्र के नीचे 'गल्फ स्ट्रीम' तथा अन्य प्रवाही धाराएं सक्रिय हैं जहाजों, नौकाओं आदि के लिए यह क्षेत्र वर्जित और बेहद जोखिम भरा माना जाता है। कहा तो यहां तक जाता है कि बरमूदा त्रिकोण में रहस्यमय ढंग से गायब अथवा नष्ट होने वाले जलयानों, नौकाओं आदि की समाधि इसी जल-क्षेत्र में लगी है। तो यामाक्रा खुले समुद्र में आगे बढ़ रहा था कि अचानक राडार संचालक ने पाया कि जहाज के ठीक सामने अट्ठाइस तीस मील दूर तक एक बहुत बडा मिट्टी का ढेर-सा खड़ा है। उसने अपने अफसर को इसकी सूचना दी। अफसर ने उस ढेर और अपने दिशासूचक यन्त्रों को देखा तो उसे भी लगा कि कुछ गड़बड़ है। जहाज के कैप्टन को भी इस सम्बन्ध में सूचित किया गया, पर उसने जहाज की दिशा नहीं बदली और जहाज आगे बढ़ता गया। कुछ ही घण्टों में जहाज उस मिट्टी के ढेर के बहुत करीब पहुंच गया। पर अब मिट्टी का आभास तो होता था, लेकिन ढेर जैसी ऊंचाई नहीं थी । रोचक और दिलचस्प बात यह थी कि जहाज के शक्तिशाली राडार और सर्चलाइटें यहां बेअसर साबित हो रहे थे। सच तो यह था कि मिट्टी या जमीन भी नहीं थी, लेकिन यह पानी की ऐसी विचित्र सतह थी, जो उत्तर-पूर्व से दक्षिणपूर्व की ओर ऊंचे उठते हुए जमीन के टुकड़े या मिट्टी के ढेर जैसे मालूम दे रही थी। सूनी, ठण्डी मौत की जीतीजागती अनुभूति थी वह। लेकिन 'यामाक्रा' के कप्तान और चालक दल ने विलक्षण साहस का परिचय देते हुए जहाज को आगे बढ़ाना जारी रखा। प्रबंचना भरे इस जल क्षेत्र में प्रवेश करते ही जहाज की तमाम बत्तियां गुल हो गई। ऐसा घना, ठोस अंधेरा कि बेहद तेज जलने वाली कार्बन आर्क बत्तियां भी एक बुझती चिनगारी से ज्यादा चमकदार नहीं रह गई थी। चालक दल के सदस्यों में खांसी का ऐसा दौर चला कि रोके नहीं रुका। जहाज के इंजन में 'स्टीम प्रेशर' खत्म होने लगा। हारकर कैप्टन को जहाज मोड़ने और लौट चलने का आदेश देना पड़ा। अनुमान से सब काम किया गया लेकिन कई घण्टे जीवन-मृत्यु से जूझते इस जहाज के लोगों को जब सुबह की रोशनी मिली तब उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही कि दूर दराज तक उस प्रवंचना का कोई नामों निशान नहीं था । " श. ६ : आमुख मृत्युकालीन अनुभवों का संकलन परामनोविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। इस सन्दर्भ में मारणान्तिक समुद्घात का सिद्धान्त अनुसन्धेय है। उससे अनेक रहस्य अनावृत होते हैं। २३० गणनाकाल, गणनातीतकाल, कालचक्र, वैक्रियशक्ति द्वारा रूप निर्माण आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषय प्रस्तुत शतक में निरूपित हैं। प्रस्तुत आगम की रचना-शैली से पता चलता है कि देवर्धिगणी के समय में इसमें अनेक पाठ संकलित किए गए। कुछ सूत्र अक्षरश: पुनरावृत्त हैं केवली इन्द्रियों से नहीं जानता देखता यह पांचवे शतक में भी है।' तत्त्वज्ञान के गंभीर प्रतिपादन की दृष्टि से प्रत्येक शतक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। ---- १. साप्ताहिक हिन्दुस्तान, ९ सितम्बर, १९७९ में 'बरमूदा त्रिकोण नए पुराने कितने कोण' लेख, लेखक सुधीर सैन। २. भ. ६ / १२२-१२७ ३. वही, ५/१०८, १०९ ६ / १८७, १८८ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा १. वेदण २. आहार ३. महस्सवे य ४. सपदेश ५. तमुए ६. भविए। ७. साली ८. पुढ वी ९. कम्म १०.अण्णउत्थि दस छट्ठगम्मि सए॥ वेदनाहार-महास्रवाश्च सप्रदेश तमस् भव्यः। शालि: पृथिवी कर्माऽन्ययूथिका दश षष्ठके शते।। वेदना, आहार, महाश्रव, सप्रदेश, तमस्काय, भव्य, शालि, पृथ्वी, कर्म और अन्ययूथिक-छठे शतक के दस उद्देशकों के ये प्रतिपाद्य हैं। पसत्थनिज्जराए सेयत्त-पदं प्रशस्तनिर्जराया: श्रेयस्त्व-पदम् १. से नूर्ण भंते ! जे महावेदणे से महानिज्जरे? तन् नूनं भदन्त ! य: महावेदन: स: महा- जे महानिज्जरे से महावेदणे? महावेदणस्य निर्जर:? य: महानिर्जर: स: महावेदनः? य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थ- महावेदनस्य च अल्पवेदनस्य च स: श्रेयान् निज्जराए? य: प्रशस्तनिर्जराक:? प्रशस्त निर्जरा का श्रेयस्त्व-पद १. 'भन्ते! क्या जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है? क्या जो महानिर्जरा वाला है, वह महावेदना वाला है ? महावेदना वाले और अल्पवेदना वाले में क्या वह श्रेयान् है जो प्रशस्त निर्जरा वाला है? हंता गोयमा ! जे महावेदणे से महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेदणे, महावेदणस्य य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थनिज्ज- हन्त गौतम ! य: महावेदन: स: महानिर्जर:, य: महानिर्जर: स: महावेदनः, महावेदनस्य च अल्पवेदनस्य च स: श्रेयान् य: प्रशस्तनिर्जराकः। हां, गौतम ! जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है? जो महानिर्जरा वाला है, वह महावेदना वाला है। महावेदना वाले और अल्पवेदना वाले में वह श्रेष्ठ है, जो प्रशस्त निर्जरा वाला है। २. छट्ठ-सत्तमासु णं भंते ! पुढ वीसु नेरइया षष्ठी-सप्तम्यो: भदन्त! पृथिव्यो: नैरयिकाः २. भन्ते ! छठी और सातवीं पृथ्वियों के नैरयिक क्या महावेदणा? महावेदना:? महादेदना वाले हैं? हंता महावेदणा॥ हन्त महावेदनाः। हां, महावेदना वाले हैं। ३. ते णं भंते ! समणेहितो निग्गंथेहिंतो महा- ते भदन्त ! श्रमणेभ्यो निर्ग्रन्थेभ्यो महा- ३. भन्ते ! क्या वे श्रमण-निर्ग्रन्थों से महानिर्जरा वाले निज्जरतरा? निर्जरतरा:? गोयमा! नो इणढे समढे॥ गौतम ! नायमर्थ: समर्थः। गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। ४. से केणं खाइ अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ- तत् केन 'खाई' अर्थेन भदन्त ! एवमुच्यते जे महावेदणे से महानिज्जरे? जे महानिज्जरे -य: महावेदन: स: महानिर्जर:? य: से महावेदणे? महावेदणस्य य अप्पवेदणस्स __महानिर्जर: स: महावेदन:? महावेदनस्य च य से सेए जे पसत्थनिज्जराए? अल्पवेदनस्य च स: श्रेयान् यः प्रशस्तनिर्जराक:? ४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है? जो महानिर्जरा वाला है, वह महावेदना वाला है? महावेदना वाले और अल्पवेदना वाले में वह श्रेष्ठ है जो प्रशस्त निर्जरा वाला है? Jain Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.१:सू.४ २३२ भगवई गोयमा ! से जहानामए दुवे वत्था सिया- गौतम ! तद् यथानाम द्वे वस्त्रे स्याताम्- गौतम! जैसे कोई दो वस्त्र हैं—एक वस्त्र कर्दम-राग एगे वत्थे कद्दमरागरत्ते, एगे वत्थे खंजण- एकं वस्त्रं कर्दमरागरक्तम् , एकं वस्त्रं से रंगा हुआ है और एक वस्त्र खंजनराग से रंगा हुआ रागरते। एएसि णं गोयमा ! दोण्हं वत्थाणं खञ्जनरागरक्तम्। एतयो: गौतम ! द्वयोः है। गौतम! इन दोनों वस्त्रों में कौन-सा वस्त्र कठिनता कयरे वत्थे दुद्धोयतराए चेव, दुवामतराए वस्त्रयो: कतरद् वस्त्रं दुर्धीततरकं चैव, सेधुलता है? किस वस्त्रकाधब्बा कठिनता से उतरता चेव, दुपरिकम्मतराए चेव; कयरे वा वत्थे दुर्वाम्यतरकं चैव, दुष्परिकर्मतरकं चैव; है और किस वस्त्र का परिकर्म सम्यक् प्रकार से नहीं सुद्धोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरि- कतरद् वा वस्त्रं सुधौततरकं चैव, होता? कौन-सा वस्त्र सरलता से धुलता है ? किस कम्मतराए चेव; जे वा से वत्थे कद्दमरागरते? सुवाम्यतरकं चैव, सुपरि-कर्मतरकं चैव; यद् । वस्त्र का धब्बा सरलता से उतरता है? और किस जे वा से वत्थे खंजणरागरत्ते? वा तद् वस्त्रं कर्दमरागरक्तम्? यद्वा तद् वस्त्रं वस्त्र का परिकर्म सम्यक् प्रकार से होता है? वह जो खञ्जनरागरक्तम्? वस्त्र कर्दमराग से रंगा हुआ है अथवा वह जो वस्त्र खंजनराग से रंगा हुआ है? भगवं! तत्थ णं जे से कद्दमरागरत्ते, से णं भगवन् ! तत्र यत् तत् कर्दमरागरक्तं, तद् भगवन् ! जो वस्त्र कर्दमराग से रंगा हुआ है, वह वत्थे दुद्धोयतराए चेव, दुवामतराए चेव, वस्त्रं दुर्धीततरकं चैव, दुर्वाम्यतरकं चैव, कठिनता से धुलता है, उसके धब्बे कठिनता से उतरते दुप्परिकम्मतराए चेव, एवामेव गोयमा ! दुष्परिकर्मतरकं चैव, एवमेव गौतम ! हैं और उसका परिकर्म सम्यक् प्रकार से नहीं नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई, नैरयिकाणां पापानि कर्माणि गाढीकृतानि, होता। गौतम ! इसी प्रकार नैरयिक जीवों के पापकर्म चिक्कणीकयाई, सिलिट्ठीकयाई, खिली- चिक्कणी-कृतानि, श्लिष्टीकृतानि, खिली- गाढ़ रूप में किए हुए होते हैं, चिकने किए हुए होते भूताई भवंति। संपगाढं पि य णं ते वेदणं भूतानि भवन्ति। संप्रगाढामपि च ते वेदनां हैं, संसृष्ट किए हुए होते हैं और अलंघ्य होते हैं। वे वेदेमाणा नो महानिज्जरा, नो महापज्जव- वेदयन्त: नो महानिर्जरा: नो महापर्यवसाना: प्रगाढ़ वेदना का वेदन करते हुए भी महानिर्जरा साणा भवंति। भवन्ति। वाले नहीं होते, महापर्यवसान वाले नहीं होते। से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरणिं आउडेमाणे तद् यथा वा कोपि पुरुष: अधिकरणीम् जैसे कोई पुरुष अहरन (निहाई) को तेज शब्द, तेज महया-महया सद्देणं, महया-महया घोसेणं, आकुट्टयन् महता-महता शब्देन, महता- घोष और निरन्तर तेज आघात के साथ हथौडे से महया-महया परंपराघाएणं नो संचाएइ तीसे महता घोषेण, महता-महता परम्पराघातेन पीटता हुआ उस अहरन के स्थूल पुद्गलों का अहिगरणीए के अहाबायरे पोग्गले परि- नो शक्नोति तस्याः अधिकरण्याः कानपि परिशाटन करने में समर्थ नहीं होता, गौतम ! इसी साडित्तए, एवामेव गोयमा! नेरइयाणं पावाई यथाबादरान् पुद्गलान् परिशाटयितुम्, प्रकार नैरयिक जीवों के पापकर्म गाढ़रूप में किए कम्माई गाढीकयाई, चिक्कणीकयाई, एवमेव गौतम ! नैरयिकाणां पापानि कर्माणि ___हुए होते हैं, चिकने किए हुए होते हैं, संसृष्ट किए हुए सिलिट्ठीकयाई, खिलीभूताइं भवंति। संपगाढं गाढीकृतानि, चिक्कणीकृतानि, श्लिष्टी- होते हैं और अलंघ्य होते हैं। वे प्रगाढ़ वेदना का पि य णं ते वेदणं वेदेमाणा नो महानिज्जरा, कृतानि, खिलीभूतानि भवन्ति। संप्रगाढामपि वेदन करते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं होते, नो महापज्जवसाणा भवंति। च ते वेदनां वेदयन्त: नो महानिर्जरा: नो महापर्यवसान वाले नहीं होते। महापर्यवसाना: भवन्ति। भगवं! तत्थ जे से खंजणरागरत्ते, से णं वत्थे भगवन् ! तत्र यत् तत् खञ्जनरागरक्तं, तद् भगवन् ! जो वस्त्र खंजन राग से रंगा हुआ है, वह सुद्धोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरि- वस्त्रं सुधौततरकं चैव, सुवाम्यतरकं ___सरलता से धुलता है। उसके धब्बे सरलता से उतरते कम्मतराए चेव, एवामेव गोयमा! समणाणं चैव,सुपरिकर्मतरकं चैव, एवमेव गौतम ! है, उसका परिकर्म सम्यक् प्रकार से होता है। गौतम! निग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई सिढिली- श्रमणानां निर्ग्रन्थानां यथाबादराणि कर्माणि इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के शिथिल रूप में किए कयाई, निट्ठियाई कयाई, विप्परिणामियाई शिथिलीकृतानि, निष्ठितानि कृतानि, हुए निःसत्त्व किए हुए और विपरिणमन को प्राप्त खिप्पामेव विद्धत्थाई भवंति। जावतियं विपरिणामितानि क्षिप्रमेव विध्वस्तानि किए हुए स्थूल कर्म-पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो तावतियं पिणं ते वेदणं वेदेमाणा महा- भवन्ति। यावतिकां तावतिकामपि ते वेदनां । जाते हैं। वे जिस-तिस मात्रा में भी वेदना का वेदन निज्जरा, महापज्जवसाणा भवंति। वेदयन्त: महानिर्जरा: महापर्यवसाना: करते हुए महानिर्जरा वाले और महापर्यवसान वाले भवन्तिा होते हैं। से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं तद् यथानाम कोऽपि पुरुष: शुष्कं तृणहस्तकं । गौतम ! जैसे कोई पुरुष सूखे घास के पूलों को अग्नि जायतेयंसि पक्खिवेज्जा, से नूणं गोयमा ! जाततेजसि प्रक्षिपेत्, तन् नूनं गौतम ! तत् में डालता है। वह अग्नि में डाला हुआ सुखा घास से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते शुष्कं तृणहस्तकं जाततेजसि प्रक्षिप्तं सत् का पूल शीघ्र ही भस्म हो जाता है? समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जति? क्षिप्रमेव 'मसमसाविज्जति? Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३३ श.६ : उ.१: सू.१-४ हता मसमसाविज्जति। हन्त 'मसमसाविज्जति'। एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहा- एवमेव गौतम ! श्रमणानां निर्ग्रन्थानां यथा- बायराई कम्माई, सिढिलीकयाई, निट्ठियाइं बादराणि कर्माणि, शिथिलीकृतानि, निष्ठिकयाई, विप्परिणामियाई खिप्पामेव विद्ध- तानि कृतानि विपरिणामितानि क्षिप्रमेव त्थाई भवंति। जावतियं तावतियं पिणं ते विध्वस्तानि भवन्ति । यावतिकां तावतिवेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा, महापज्ज- कामपि ते वेदनां वेदयन्त: महानिर्जरा; महावसाणा भवंति। पर्यवसाना: भवन्ति। हां, भस्म हो जाता है। गौतम! इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के शिथिल रूप में किए हुए, नि:सत्त्व किए हुए और विपरिणमन को प्राप्त किए हुए स्थूल कर्म-पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। वे जिस-तिस मात्रा में भी वेदना का वेदन करते हुए महानिर्जरा वाले और महापर्यवसान वाले होते हैं। गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपे हुए लोहे के तवे पर पानी की बूंद गिराता है। वह तपे हुए लोहे के तवे पर गिराई हुई पानी की बूंद शीघ्र ही विध्वस्त हो जाती है? से जहानामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकव- तद् यथानाम कोऽपि पुरुष: तप्ते अयस्कपाले ल्लंसि उदगबिंदु पक्खिवेज्जा, से नूणं उदकबिन्दं प्रक्षिपेत्, तन् नूनं गौतम ! स गोयमा! से उदगबिंदू तत्तंसि अयकवल्लंसि उदकबिन्दुः तप्ते अयस्कपाले प्रक्षिप्त: सन् पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव विद्धंसमा- क्षिप्रमेव विध्वंसमागच्छति? गच्छइ? हंता विद्धंसमागच्छइ। हन्त विध्वंसमागच्छति। एवामेव गोयमा ! समणाणं निगंथाणं अहा- एवमेव गौतम ! श्रमणानां निर्ग्रन्थानां यथा- बायराई कम्माई, सिढिलीकयाई, निट्ठियाई बादराणि कर्माणि, शिथिलीकृतानि, निष्ठि- कयाई, विप्परिणामियाई खिप्पामेव विद्ध- तानिकृतानि, विपरिणामितानि क्षिप्रमेव त्थाई भवंति। जावतियं तावतियं पिणं ते विध्वस्तानि भवन्ति। यावतिका तावति- वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा, महापज्जव- कामपि ते वेदनां वेदयन्त: महानिर्जराः साणा भवंति। से तेणटेणं जे महावेदणे से महापर्यवसाना: भवन्ति। तत् तेनार्थेन य: महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेदणे, महावेदन: स महानिर्जरः, य: महानिर्जर: स महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे महावेदनः, महावेदनस्य च अल्पवेदनस्य च पसत्थनिज्जराए। स: श्रेयान् य: प्रशस्तनिर्जराकः। हां, विध्वस्त हो जाती है। गौतम ! इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के शिथिल रूप में किए हुए, निःसत्त्व किए हुए और विपरिणमन को प्राप्त किए हुए स्थूल कर्म-पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। वे जिस-तिस मात्रा में भी वेदना का वेदन करते हुए महानिर्जरा वाले और महापर्यवसान वाले होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है, जो महानिर्जरा वाला है, वह महावेदना वाला है। महावेदना वाले और अल्पवेदना वाले में वह श्रेष्ठ है जो प्रशस्त निर्जरा वाला है। भाष्य १. सूत्र १-४ प्रस्तुत आलापक में वेदना और निर्जरा के सम्बन्ध पर विमर्श किया गया है। इस विमर्श में तीन सूत्र प्रस्तुत हैं १. महावेदना और महानिर्जरा। २. वेदना महान हो या अल्प, जो प्रशस्त निर्जरा है, वह श्रेष्ठ है। ३. कर्म गाढीकृत होता है, तो महावेदना होने पर महानिर्जरा नहीं होती, जैसे-छठी और सातवीं पृथ्वियों के नैरयिकों के महावेदना होती है, पर महानिर्जरा नहीं होती। श्रमण-निर्ग्रन्थ के अल्पवेदना होने पर भी महानिर्जरा होती है। इसका हेतु है कर्म का शिथिलीकृत स्वरूप। ___ 'महावेदना और महानिर्जरा'यह सामान्य नियम है। 'अल्पवेदना और महानिर्जरा'यह इसका अपवाद सूत्र है। निर्जरा का मूल हेतु है-प्रशस्त अध्यवसाय एवं शुभयोगा निर्जरा की अत्पता या बहुता उसी पर निर्भर है। उमास्वाति ने अध्यवसाय की प्रकर्षता के आधार पर निर्जरा के तारतम्य का प्रतिपादन किया है १. सम्यग्दृष्टि से श्रावक के असंख्येयगुना निर्जरा २. श्रावक से विरत के असंख्येयगुना निर्जरा ३. विरत से अनन्तवियोजक के असंख्येयगुना निर्जरा ४. अनन्तवियोजक से दर्शनमोहक्षपक के असंख्येयगुना निर्जरा ५. दर्शनमोह क्षपक से मोहोपशमक के असंख्येयगुना निर्जरा ६. मोहोपशमक से उपशान्तमोह के असंख्येयगुना निर्जरा ७. उपशान्तमोह से मोहक्षपक के असंख्येयगुना निर्जरा ८. मोहक्षपक से क्षीणमोह के असंख्येयगुना निर्जरा ९. क्षीणमोह से जिन के असंख्येयगुना निर्जरा। शान्तमोहक्षपकगणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा:।। १. त.रा.वा. ९/४५-अध्यवसायविशुद्धि प्रकर्षादसंख्येयगुणनिर्जरात्वं दशानाम्। २, त.सू. ९/४७–सम्यगदृष्टि श्रावकविरतानन्तविमोजक-दर्शनमोहक्षपकोपशमकोप Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. १: सू. १-७ तत्त्वार्थ भाष्यकार ने निर्जरा के दो भेद किए हैं अबुद्धिपूर्वा ओर कुशलमूला । नरक आदि में जो कर्म-फल विपाकजा निर्जरा होती है, वह अबुद्धिपूर्वा है। 'मैं कर्म का शाटन करूं इस प्रकार की बुद्धि नहीं होती, केवल कर्म का विपाक होने पर उसकी निर्जरा होती है, इसलिए वह अबुद्धिपूर्वा है। इस निर्जरा को अकुशलानुबन्धा कहा गया है। तप और परिषह जय से होने वाली लोह का शलाका-कलाप । निर्जरा कुशलमूला होती है। प्रशस्तनिर्जरा की कुशलमूला निर्जरा से तुलना की जा सकती है। अभयदेवसूरि ने प्रशस्त निर्जरा का अर्थ 'कल्याणानुबन्ध निर्जरा किया है। तत्त्वार्थ भाष्य में कुशलमूला निर्जरा के दो प्रकार बतलाये गए हैं— शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा। जिस निर्जरा का फल स्वर्ग आदि सुगति हो वह शुभानुबन्धा निर्जरा है। जो निर्जरा साक्षात् मोक्ष का कारण बने, से ऊपर होने वाली चोट । वह निरनुबन्धा निर्जरा है।' २ प्रस्तुत प्रकरण की विस्तृत व्याख्या इसी शतक के १५, १६ वें सूत्र में प्राप्त है। शब्द-विमर्श २३४ करण- पर्द ५. कतिविहे णं भंते करणे पणते? गोयमा ! चउव्विहे करणे पण्णत्ते, तं जहामणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे ॥ ६. नेरइयाणं भंते! कतिविहे करणे पण्णते? गोयमा! चउब्विहे पण, तं जहा-मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे ॥ जैसे—सन के सूत्र से गाढ रूप में बंधा हुआ सूत्र- कलापा चिकने किए हुए सूक्ष्म कर्म-स्कन्ध— जो परस्पर गाढ रूप में संबद्ध होने के कारण दुर्भेद्य बन जाएं, जैसे मृत्पिण्ड । संसृष्ट किए हुए — निधत्त, जैसे सूत्र से बंधा हुआ अनित r अलंघ्य (खिलीभूताइं ) -- जिस कर्म का निश्चित रूप में विपाकोदय हो वह कर्म, निकाचित कर्म । महापर्यवसानवाले जिस निर्जरा का फल निर्वाण हो। निरन्तर तेज आघात (परंपराघाएणं ) — परम्पराघात अहरन (अहिगरणी ) — निहाई; 'एरण' । ' स्थूलकर्मपुद्गल (अहाबायराई ) कर्दमराग से रंगा हुआ गाढे चिकने पंक से लिप्त । खंजनराग से रंगा हुआ-सामान्य पंक से लिप्त । गाढरूप में किए हुए -----आत्मप्रदेशों के साथ गाढ रूप में बद्धकर्म, और रसघात में परिवर्तन किया गया हो। असार पुद्गल । १. (क) त.सू. भा. बृ. ९/४७- स द्विविधः इति विपाकाभिसम्बन्धः निर्जरया सहैकार्थत्वाद। तद् दैविध्यप्रदर्शनामाह--अबुद्धीत्यादि। तत्राबुद्धिपूर्वः बुद्धिः पूर्वा यस्य कर्म शाटयामीत्येव लक्षणा बुद्धिः प्रथमं यस्य विपाकस्य स बुद्धिपूर्वः न बुद्धिपूर्वाऽबुद्धिपूर्वः, तत्र तयोर्विपाकयोरयं तावदबुद्धिपूर्वः नरक तिर्यङ्मनुष्यामरेषु कर्म ज्ञानावरणादि । तस्य यत् फलमाच्छादकादिरूपं तद्विपाकः - तदुदयस्तस्मात् कर्मफलाद् विपच्यमानाद् यो विनिर्जरणलक्षणो विपाकः । सति तस्मिन् कर्मफले विपच्यमाने स भवत्यबुद्धिपूर्वकः । ..... तपः परीषहजयकृतः कुशलमूलः । (ख) त. रा. वा. ९ / ४५ – सा द्वेधा चेति — अबुद्धिपूर्वी कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाका अबुद्धिपूर्वा, सा अकुशलानुबन्धा। परीषहजये कृते कुशलमूला, सा शुभानुबन्धा करण-पदम् कतिविधं भदन्त ! करणं प्रज्ञप्तम् ? गीतम! चतुर्विधं करणं प्रज्ञप्तं तद्यथामनः करणं, वाक्करण, कायकरणं, कर्मकरणम्। शिथिल रूप में किए हुए जिसका विपाक मन्द किया गया हो। नि:सत्त्व किए हुए- -जो कर्म निःसत्ताक बना दिया गया हो। विपरिणमन को प्राप्त किए हुए जिस कर्म के स्थितिघात - नैरयिकाणां भदन्त कतिविधं करणं प्र ज्ञप्तम् ? 7 गौतम! चतुर्विधं प्रज्ञप्तं तद्यथा मनः करणं, वाक्करणं, कायकरणं, कर्मकरणम्। ७. एवं पंचिंदियाणं सन्वेसिं चउन्विहे करणे एवं पंचेन्द्रियाणाम् सर्वेषां चतुर्विधं करणं पण्णत्ते । एगिंदियाणं दुविहे - कायकरणे य, कम्म भगवई प्रज्ञप्तम्। एकेन्द्रियाणां द्विविधम्- कायकरणं च • ऊपर स्थूलतर कर्म- पुद्गल, करण-पद ५. ' भन्ते ! करण के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! करण के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेमनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण । ६. भन्ते ! नैरयिक जीवों के करण कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! उनके चारों प्रकार के करण प्रज्ञप्त हैं, , जैसे -मनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण । ७. इस प्रकार सब पंचेन्द्रिय जीवों के चारों प्रकार के करण प्रज्ञप्त हैं। एकेन्द्रिय जीवों के करण दो प्रकार के हैं निरनुबन्धा चेति । २. भ. वृ. ६ / १ - प्रशस्त निर्जराक: कल्याणानुबन्धनिर्जरः । ३. त.सू.भा.वृ. ९/७, पृ. २२० - तादृशो विपाकः शुभमनुबध्नाति, अमरेषु तावदिन्द्रसामानिकादिस्थानानि अवाप्नोति । मनुष्येषु च चक्रवर्तिबलमहामण्डलिकादिपदानि लब्ध्वा ततः सुखपरम्परया मुक्तिमवाप्स्यतीतिशुभानुबन्धोनिरनुबन्धो वेति । वा शब्दः पूर्वविकल्पापेक्षः । तपः परीषहजयकृतो विपाकः सकलकर्मक्षयलक्षणः साक्षान्मोक्षायैव कारणीभवतीति । ४. आप्टे. खिलीभू— To become impassable. ५. अंग्रेजी में anvil. ६. भ. ६ / ४ की वृत्ति । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई करणे व विगलिंदियाणं तिविहे -- वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे ॥ ८. नेरइया णं भंते! किं करणओ असायं वेदणं वेदेति? अकरणओ असावं वेदनं वेदेति ? गोयमा ! नेरइया णं करणओ असायं वेदणं वेदेति, नो अकरणओ असावं वेदनं वेदेति । ९. से केणद्वेणं ? गोयमा ! नेरइयाणं चउव्विहे करणे पण्णत्ते, तं जहा—मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे इच्चेएणं चव्विशेषं असुभेनं करणेणं नेरइया करणओ अस्सायं वेदणं वेदेति नो अकरणओ। " से तेणद्वेणं ।। १०. असुरकुमारा रणओ? गोयमा ! करणओ, नो अकरणओ णं किं करणओ? अक ११. सेकेण्डेणं? 1 गोयमा ! असुरकुमाराणं चउव्विहे करणे पण्णत्ते तं जहामणकरणे, बड़करणे, कायकरणे, कम्मकरणे । इच्चे एणं सुभेणं करणेणं असुरकुमारा करणओ सातं वेदणं वेदेति, नो अकरणओ।। २३५ कर्मकरणं च । विकलेन्द्रियाणां त्रिविधं वाक्करणं, कायकरणं, कर्मकरणम्। नैरयिकाः भदन्त ! किं करणतः असातां वेदनां वेदयन्ति ? अकरणतः असातां वेदनां वेदयन्ति? गौतम ! नैरयिका: करणतः असातां वेदनां वेदयन्ति नो अकरणतः असातां वेदनां वेदयन्ति। सत् केवार्थेन? गौतम ! नैरयिकाणां चतुर्विधं करणं प्रज्ञप्तं, तद् यथा— मनः करणं, वाक्करणं, कायकरणं, कर्मकरणम् इत्वेतेन चतुर्विधेन अशुभेन करणेन नैरयिका: करणत: असातां वेदनां वेदयन्ति, नो अकरणतः। तत् सेनार्थेन। असुरकुमाराः किं करणतः ? अकरणतः ? गौतम ! करणतः, नो अकरणतः । तत् केनार्थेन गौतम ! असुरकुमाराणां चतुर्विधं करणं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा मनः करणं, वावरणं, कायकरणं, कर्मकरणम् । इत्येतेन शुभेन करणेन असुरकुमाराः करणतः सातां वेदनां वेदयन्ति नो अकरणतः | एवं बावत् स्तनितकुमाराः । १२. एवं जाव थणियकुमारा।। १३. पुढवीकाइयाणं एवामेव पुच्छा, नवरं पृथ्वीकायिकानाम् एवमेव पृच्छा, नवरं इच्चेणं सुभासुभेणं करणेणं पुढविक्काइया इत्येतेन शुभाशुभेन करणेन पृथ्वीकायिकाः करणओ वेमाया वेदणं वेदेंति, नो अकरण- करणत: विमात्रया वेदनां वेदयन्ति, नो ओ ॥ अकरणतः। - श. ६ : उ. १: सू. ७-१३ कायकरण और कर्मकरणा विकलेन्द्रिय जीवों के करण तीन प्रकार के हैं वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण । ८. भन्ते ! क्या नैरयिक जीव करण से असात वेदना का वेदन करते हैं अथवा अकरण से असातवेदना का वेदन करते हैं? गौतम ! नैरविक जीव करण से असातवेदना का वेदन करते हैं, अकरण से असातवेदना का वेदन नहीं करते। ९. यह किस अपेक्षा से? गौतम! नैरयिक जीवों के चार प्रकार के करण प्रज्ञप्त हैं, जैसे—मनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरणा इस चतुर्विध अशुभकरण के आधार पर यह कहा जाता है—नैरयिक जीव करण से असात वेदना का वेदन करते हैं, अकरण से असात वेदना का वेदन नहीं करते। इस अपेक्षा से। १०. असुरकुमार देव क्या करण से वेदना का वेदन करते हैं? अथवा अकरण से? गौतम ! वे करण से वेदना का वेदन करते हैं, अकरण से वेदना का वेदन नहीं करते ११. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! असुरकुमार देवों के करण चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-मनकरण, वचनकरण, कायकरण और कर्मकरण। इस शुभ करण के आधार पर कहा जाता है—असुरकुमार देव करण से सातवेदना का वेदन करते हैं, अकरण से सात वेदना का वेदन नहीं करते। - १२. इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देवों की वक्तव्यता | १३. पृथ्वीकायिक जीवों की पृच्छा इसी प्रकार है, केवल इतना अन्तर है इस शुभाशुभ करण के आधार पर कहा जाता है— पृथ्वीकाविक जीव करण से विमात्र -कभी सात कभी असात वेदना का वेदन करते हैं, अकरण से विमात्र वेदना का वेदन नहीं करते । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.१ : सू.५-१५ २३६ भगवई १४. ओरालियसरीरा सव्वे सुभासुभेणं वेमा- याए। देवा सुभेणं साय।। औदारिकशरीरा: सर्वे शुभाशुभेन विमात्रया। १४. औदारिक शरीर वाले सभी जीव शुभ और अशुभ करण से विमात्र वेदना का वेदन करते हैं। देवा: शुभेन साताम्। देव शुभ करण से सात वेदना का वेदन करते हैं। भाष्य १. सूत्र ५-१४ निमित्त बनने वाला जीव का वीर्य कर्मकरण कहलाता है। 'करण' शब्द का शाब्दिक अर्थ है साधन । कार्य की सिद्धि में जो प्रस्तुत आलापक में सातवेदन और असातवेदन तथा करण का साधकतम होता है वह, करण कहलाता है। अभयदेवसूरि ने करण का अर्थ सम्बन्ध प्रदर्शित किया गया है। मन,वाक्, काय और कर्म-ये करण अशुभ 'जीव-वीर्य किया है। इस आधार पर मन, वाक् और शरीर की प्रवृत्ति के होते हैं उस अवस्था में असात का वेदन होता है और ये शुभ होते हैं उस हेतुभूत जीववीर्य को क्रमश: मनकरण, वाक्करण और कायकरण कहा जा अवस्था में सात का वेदन होता है। अशुभ मन दु:ख का संवेदन उत्पन्न करता सकता है। अभयदेवसूरि की व्याख्या का मूल आधार तत्त्वार्थसूत्र की है, मानसिक चिकित्सा की दृष्टि से यह उल्लेखनीय सूत्र है। भाष्यानुसारिणी टीका है। उसके अनुसार करण का अर्थ है पर्याप्ति! नारक और देव के वैक्रिय शरीर होता है। शेष सब जीवों के कायवर्गणा के योग्य पुद्गलों से कायकरण (शरीरपर्याप्ति) निष्पन्न होता है। औदारिक शरीर होता है। औदारिक शरीर वाले जीव शुभ करणों से सुखात्मक इसी प्रकार भाषावर्गणा के योग्य पुद्गलों से वाक्करण (भाषापर्याप्ति) और संवेदन करते हैं और अशुभ करणों से दु:खात्मक संवेदन करते हैं। नारक मनोवर्गणा के योग्य पुद्गलों से मनकरण (मन:पर्याप्ति) निष्पन्न होता है। अशुभ करणों से दु:ख का संवेदन करते हैं। देव शुभ करणों से सुख का कायकरण, वाक्करण और मनकरण—ये तीनों जीव के वीर्य की परिणति के संवेदन करते हैं। ये दोनों सूत्र प्रायिक हैं, बहुलता की अपेक्षा से है। वास्तव साधन बनते हैं। इसलिए इनकी करण संज्ञा उपयुक्त है। मनन करना मनयोग में नारक और देव में सात, असात और सातासात तीनों प्रकार की वेदना का है, बोलना वचनयोग है और गमन आदि करना काययोग है। मनन, भाषण उल्लेख मिलता है। नरक में भी कदाचित् शुभ करण और सुख का संवेदन और गमन में साधन बनने वाले पुद्गल भी मनकरण, वाक्करण और कायकरण हो सकता है। देवों में भी कदाचित् अशुभ करण और असुख का संवेदन हो सकता है। कर्म-प्रकृति में कर्म के आठ करण बतलाए गए हैं—बन्धन, ठाणं में कर्मकरण का उल्लेख नहीं है। वहां मनकरण, वाक्करण संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचना और कायकरण के अतिरिक्त करण के दो वर्गीकरण और मिलते हैं। गोम्मटसार में करण के दस प्रकार मिलते हैं। उनमें आठ पूर्वोक्त ही हैं, सत्व शब्द-विमर्श और उदय-ये दो अतिरिक्त हैं। विमात्र–विविध मात्रा, कभी सुख का संवेदन, कभी दु:ख का बन्धन, संक्रमण आदि कर्म की अवस्थाओं के घटित होने में संवेदन। कहलाते हैं। महावेदणा-महानिज्जरा-चउभंग-पदं महावेदना-महानिर्जरा-चतुर्भंग-पदम् महावेदना-महानिर्जरा-चतुर्भंग-पद १५. जीवा णं भंते ! किं महावेदणा महा- जीवा: भदन्त ! किंमहावेदना: महानिर्जरा:? १५. ' भन्ते ! क्या जीव महावेदना और महानिर्जरा निज्जरा? महावेदणा अप्पनिज्जरा? अप्प- महावेदना: अल्पनिर्जरा:? अल्पवेदनाः वाले हैं? महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं? वेदणा महानिज्जरा? अप्पवेदणा अप्प- महानिर्जरा:? अल्पवेदना: अल्पनिर्जरा:? अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं? अल्पवेदना निज्जरा? और अल्पनिर्जरा वाले हैं? गोयमा ! अत्थेगतिया जीवा महावेदणा गौतम ! अस्त्येकके जीवा: महावेदनाः । गौतम ! कुछ जीव महावेदना और महानिर्जरा वाले महानिज्जरा, अत्थेगतिया जीवा महावेदणा महानिर्जरा:, अस्त्येकके जीवा: महावेदनाः । हैं, कुछ जीव महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, अप्पनिज्जरा, अत्थेगतिया जीवा अप्प- अल्पनिर्जराः, अस्त्येकके जीवा: अल्प- कुछ जीव अल्पवेदना ओर महानिर्जरा वाले हैं, कुछ वेदणा महानिज्जरा, अत्थेगतिया जीवा वेदना: महानिर्जराः, अस्त्येकके जीवाः जीव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं। अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा। अल्पवेदना: अल्पनिर्जरा:। १. भ.वृ.६/५–करणं जीववीर्यम् । कर्मकरणम्। २. त.सू.भा.वृ.-८/१२। ७. भ. ६/१८५1 ३. वही, ६/१॥ ८. भ.३/९२ का भाष्य। ४. द्रष्टव्य, भ. १/२३, २४ का भाष्य। ९.(क) ठाणं, ३/१६-तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा–आरंभकरणे, संरभकरणे, समारंभकरणे ५. गो. क. गा. ४३७१ (ख) ठाणं, ३/५०६-तिविहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-धम्मिए करणे, अधम्मिए करणे, ६. भ.वृ. ६/५–'कम्मकरणं' त्ति कर्मविषयं करणं जीववीर्य बन्धनसंक्रमणादिनिमित्तभूतं धम्मियाधम्मिए करणे। Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३७ श.६ : उ.१ : सू.१५-१७ १६. से केणटेण? तत् केनार्थेन? गोयमा! पडिमापडिवनए अणगारे महावेदणे गौतम ! प्रतिमाप्रतिपन्नक: अनगार: महा- महानिज्जरे। छट्ठ-सत्तमासु पुढवीसु नेरइया वेदन: महानिर्जर:। षष्ठीसप्तमयो:पृथिव्योः महावेदणा अप्पनिज्जरा। सेलेसिं पडिवन्नए नैरयिका: महावेदना: अल्पनिर्जरा:। अणगारे अप्पवेदणे महानिज्जरे। अणुत्तरोव- शैलेशी प्रतिपन्नक; अनगार: अल्पवेदन: वाइया देवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा॥ महानिर्जरः। अनुत्तरोपपातिका: देवाः अल्पवेदना: अल्पनिर्जरा:। १६. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं। छठी-सातवीं मरक भूमियों के नैरयिक जीव महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं। शैलेशी अवस्था को प्रतिपन्न अनगार अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं। अनुत्तरोपपातिक देव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं। भाष्य १. सूत्र १५, १६ निर्जरा महान् होती है। प्रथम आलापक (सू. १-४) में महावेदना और महानिर्जरा आदि अनुत्तर विमान के देवों के वेदना भी अल्प और निर्जरा भी अल्प का विमर्श प्रशस्त निर्जरा के आधार पर किया गया है। प्रस्तुत आलापक में होती है। महावेदना और महानिर्जरा आदि का विमर्श उदाहरणपूर्वक किया गया है। इन चारों उदाहरणों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर एक निष्कर्ष भिक्षु के लिए बारह प्रतिमाओं का निर्देश है। प्रतिमा प्रतिपन्न भिक्षु अनेक और निकलता है कि जिनमें निर्जरा करने का प्रयत्न होता है, उनके अविपाकी प्रकार के कष्टों को सहन करता है। इसलिए उसके वेदना महान् होती है। वह निर्जरा होती है। वे उदीरणा कर अविपक्व कर्मों को उदय में लाकर निर्जीण प्रशस्त अध्यवसाय युक्त होता है, वेदना को सहने में समभाव रखता है, कर देते हैं। प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार और शैलेशी-प्रतिपन्न अनगार—ये दो इसलिए उसके निर्जरा भी महान् होती है। छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक इस कोटि के उदाहरण हैं। छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक और अनुत्तरविमान क्षेत्रजनित महावेदना का अनुभव करते हैं। उनके निर्जरा अल्प होती है। उक्त के देव—ये विपाकी निर्जरा के उदाहरण हैं। उनमें निर्जरा का प्रयत्न नहीं दोनों सूत्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि होता। अशुभ और शुभ कर्म उदयावली में प्रविष्ट होकर अपना फल देकर महानिर्जरा का आधार वेदना की अल्पता या अधिकता नहीं है। निर्जरा की निवृत्त हो जाते हैं। अल्पता या अधिकता का कारकतत्त्व वेदना को सहन करने की पद्धति है। शब्द-विमर्श प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार महावेदना को समभाव से सहन करता है, इसलिए उसके महानिर्जरा होती है। प्रतिमा-प्रतिपन्नक-प्रतिमा-साधना का विशेष प्रयोग, विशेष छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक महावेदना को समभाव से सहन प्रकार का अभिग्रह और संकल्प। प्रतिमा को स्वीकार करने वाला प्रतिमानहीं करते, इसलिए उनके निर्जरा अल्प होती है। प्रतिपन्नक कहलाता है। शैलेशी अवस्था को प्रतिपन्न अनगार के वेदना अल्प होती है, शैलेशी-चौदहवें गुणस्थान की अवस्था इसमें योग का सर्वथा किन्तु समभाव अधिकतम होता है, इसलिए अल्पवेदना की अवस्था में भी निरोध हो जाता है, इसलिए यह मेरु की भांति अप्रकम्प होती है। १७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। १७. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। संगहणी गाहा महावेदणे य वत्थे, कद्दम-खंजणकए य अहिगरणी। तणहत्थे य कवल्ले, करण-महावेदणा जीवा॥ संग्रहणी गाथा महावेदनश्च वस्त्रं कर्दम-खञ्जनकृतं चाधिकरणी। तृणहस्तश्च कवल्ले, करण-महावेदना: जीवाः।। संग्रहणी गाथा महावेदना, कर्दम और खञ्जन से रंगा हुआ वस्त्र, अहरन, पूला, लोह का तवा, करण ओर महावेदना वाले जीव-प्रथम उद्देशक में ये विषय वर्णित हैं। १. दसाओ, ७/१-३५॥ २. (क) द्रष्टव्य, भ.६/१-४ का भाष्य (ख) त.सू. सर्वार्थसिद्धि, ८/२३॥ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १८. रायगिह नगरं जाव एवं वयासी- आहारुद्देसओ जो पण्णवणाए सो सन्वो निरवसेसो नेयव्वो॥ राजगृह नगरं यावद् एवमवादीद्-आहारोद्देशक: य: प्रज्ञापनायां स सर्वः निरवशेष: नेतव्यः। १८. राजगृह नाम का नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-पण्णवणा का जो आहार उद्देशक' है, वह यहां अविकल रूप से ज्ञातव्य है। भन्ते ! नैरयिक जीव क्या सचित्त आहार वाले हैं, अचित्त आहार वाले हैं अथवा मिश्र आहार वाले भाष्य १. आहार-उद्देशक नहीं है। केवल आहारोद्देशक-इतना संकेत है। आहार-पद के दो उद्देशक पण्णवणा का अट्ठाईसवां पद आहार-पद है। उसमें जीव किस हैं। पहले उद्देशक का विषय आहार है। दूसरे उद्देशक का विषय आहारक प्रकार का—सचित्त, अचित्त या मिश्र आहार करते हैं? उनमें आहार की और अनाहारक है। यहां 'आहार' पद का प्रथम उद्देशक ही वक्तव्य है। इच्छा उत्पन्न होती है? वे कितनी कालावधि के पश्चात् आहार करते हैं? भगवती के प्रथम शतक में प्रथम आहारोद्देशक' का उल्लेख भी मिलता आदि-आदि विषयों का विमर्श किया गया है। है-'आहारो वि-जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देसए तहा आहारुद्देसओ—यहां पण्णवणा के प्रथम उद्देशक का उल्लेख भाणियन्वो'। १९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। १९. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। १. भ. १/३२॥ Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसो : तृतीय उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संगहणी गाहा १. बहुकम्म २. वत्थपोग्गलपयोगसा-वीससा य ३. सादीए। ४. कम्मट्ठिति ५. त्थि ६. संजय ७. सम्मदिट्ठी य ८. सन्नी य ॥१॥ ९. भविए १०. दंसण ११. पज्जत्त १२. भासय १३. परित्ते १४. नाण १५. जोगे य। १६, १७. उवओगाहारग १८. सुहुम १९. चरिमबधे य २०. अप्पबहुं ॥२॥ संग्रहणी गाथा १. बहुकर्म २. वस्त्र-पुद्गलप्रयोग-विस्रसा च: ३. सादिकः। ४. कर्मस्थिति : ५. स्त्री ६. संयत; ७. सम्यग्दृष्टि च ८. संज्ञी च ॥१॥ ९. भविक: १०. दर्शनं ११. पर्याप्त: १२. भाषक: १३. परीत: १४. ज्ञानं १५. योग:चा १६-१७. उपयोग: आहारक: १८. सूक्ष्म । १९. चरमबन्धःच २०. अल्पबहु ॥२॥ संग्रहणी गाथा बहुकर्म, प्रयोग और स्वभाव से वस्त्र का उपचय -वस्त्र में पुद्गल के उपचय का सादित्व, कर्मस्थिति, स्त्री, संयत, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी, भव्य, दर्शनी, पर्याप्तक, भाषक, परीत, ज्ञानी, योगी, उपयोगी, आहारक, सूक्ष्म, चरम बन्ध और अल्पबहुत्व। तीसरे उद्देशक में ये विषय प्रतिपाद्य हैं। महाकम्मादीण पोग्गलबंधादि-पदं महाकर्मादीनां पुद्गलबन्धादि-पदम् महाकर्म वाले आदि के पुद्गल-बन्ध-पद २०. से नूणं भंते ! महाकम्मस्स, महाकिरिय- तन् नूनं भदन्त ! महाकर्मणः, महाक्रियस्य, २०. ' भन्ते ! क्या महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव स्स, महासवस्स, महावेदणस्स सव्वओ महास्रवस्य, महावेदनस्य सर्वतः, पुद्गला: और महावेदना वाले पुरुष के सब ओर से पुद्गलों पोग्गला बझंति, सव्वओ पोग्गला बध्यन्ते, सर्वत: पुद्गला: चीयन्ते, सर्वतः का बन्ध होता है? सब ओर से पुद्गलों का चय चिजति, सव्वओ पोग्गला उवचिजंति; पुद्गला: उपचीयन्ते; सदा समितं पुद्गला: होता है? सब ओर से पुद्गलों का उपचय होता है? सया समियं पोग्गला बझंति, सया समियं बध्यन्ते, सदा समितं पुद्गला: चीयन्ते, सदा प्रतिक्षण पुद्गलों का बंध होता है? सदा पोग्गला चिझंति, सया समियं पोग्गला सदा समितं पुद्गला: उपचीयन्ते; सदा प्रतिक्षण पुद्गलों का चय होता है? सदा प्रतिक्षण उवचिजंति; सया समियं च णं तस्स आया समितं च तस्य आत्मा 'दुरूवत्ताए', पुद्गलों का उपचय होता है? उस पुरुष की आत्मा दुरूवत्ताए दुवण्णत्ताए दुगंधत्ताए दुरसताए दुर्वर्णतया, दुर्गन्धतया, दूरसतया, दुःस्पर्श- (शरीर) सदा प्रतिक्षण बीभत्स दुर्वर्ण, दुर्गन्ध, दूरस, दुफासत्ताए, अणिठ्ठत्ताए अकंतताए तया, अनिष्टतया अकान्ततया अप्रियतया दु:स्पर्श, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अप्पियत्ताए असुभत्ताए अमणुण्णत्ताए अशुभतया अमनोज्ञतया 'अमणामत्ताए', अमनोज्ञ, अकमनीय, अवांछनीय, अलोभनीय अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अभिज्झि- अनीप्तिसतया अभिध्यततया अधस्तया और जघन्य रूप में—न ऊर्ध्वरूप में, दुःखरूप यत्ताए अहत्ताए-नो उड्ढत्ताए, दुक्खताए ___-नो ऊर्ध्वतया, दु:खतया—नो सुख- में--न सुख रूप में बार-बार परिणत होती है। -नो सुहत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमति? । हंता गोयमा ! महाकम्मस्स तं चेव ।। हन्त गौतम ! महाकर्मण: तच्चैव। हां, गौतम ! महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव और महावेदना वाले पुरुष की आत्मा (शरीर) का परिणमन ऐसा ही होता है। २१. से केणटेणं ? तत् केनार्थेन? गोयमा! से जहानामए वत्थस्स अहयस्स वा, गौतम! तद् यथानाम वस्त्रस्य अहतस्य वा, २१. यह किस अपेक्षा से? गौतम! जैसे कोई वस्त्र अपरिभुक्त है, प्रक्षालित है Jain Education Intemational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.३: सू.२०-२३ २४० भगवई धोयस्स वा, तंतुग्गयस्स वा आणुपुन्वीए धौतस्य वा, तन्त्रोद्गतस्य वा आनुपूर्व्या परिभुज्जमाणस्स सव्वओ पोग्गला बझंति, परिभुज्यमानस्य सर्वत: पुद्गला: बध्यन्ते, सव्वओ पोग्गला चिजंति जाव परिणमति। सर्वत: पुद्गला: चीयन्ते यावत् परिणमति। से तेणटेणं॥ तत् तेनार्थेन। अथवा तन्त्र (करघा) से तत्काल निकला हुआ है। वह पहना जा रहा है तब कालक्रम से उसके सब ओर से पुद्गलों का बन्ध होता है, सब ओर से पुद्गलों का चय होता है यावत् परिणमन होता है। यह इस अपेक्षा से। अप्पकम्मादीण पोग्गलभेदादि-पदं अल्पकर्मादीनां पुद्गलभेदादि-पदम् अल्पकर्म वाले आदि के पुद्गल-भेद का पद २२. से नूर्ण भंते ! अप्पकम्मस्स, अप्पकिरि- तन् नूनं भदन्त ! अल्पकर्मणः, अल्पक्रिय- २२. भंते ! क्या अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पआश्रव यस्स, अप्पासवस्स, अप्पवेदणस्स सव्वओ स्य, अल्पास्रवस्य, अल्पवेदनस्य सर्वतः और अल्पवेदना वाले पुरुष के सब ओर से पुद्गलों पोग्गला भिज्जंति, सव्वओ पोग्गला छिज्ज- पुद्गला: भिद्यन्ते, सर्वत: पुद्गलाः का भेदन होता है? सब ओर से पुद्गलों का छेदन ति, सव्वओ पोग्गला विद्धंसंति, सव्वओ छिद्यन्ते, सर्वतः पुद्गलाः विध्वस्यन्ते, होता है? सब ओर से पुद्गलों का विध्वंस होता है? पोग्गला परिविद्धंसंति; सया समियं पोग्गला सर्वतः पुद्गला: परिविध्वस्यन्ते; सदा सब ओर से पुद्गलों का परिविध्वंस होता है? सदा भिज्जंति, सया समियं पोग्गला छिज्जंति, समितं पुद्गला: भिद्यन्ते, सदा समितं पुद्- प्रतिक्षण पुद्गलों का भेदन होता है? सदा प्रतिक्षण सया समियं पोग्गला विद्धस्संति, सया समियं गला: छिद्यन्ते, सदा समितं पुद्गला: विध्व- पुद्गलों का छेदन होता है? सदा प्रतिक्षण पुद्गलों पोग्गला परिविद्धंस्संति; सया समियं च णं स्यन्ते, सदा समितं पुद्गला: परि- का विध्वंस होता है? सदा प्रतिक्षण पुद्गलों का तस्स आया सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए सुगंधत्ताए विध्वस्यन्ते; सदा समितं च तस्य आत्मा परिविध्वंस होता है? उस पुरुष की आत्मा सदा सुरसत्ताए सुफासत्ताए इठ्ठत्ताए कंतताए पिय- सुरूपतया सुवर्णतया सुगन्धतया सुरसतया प्रतिक्षण सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध, सुरस, सुस्पर्श, इष्ट, ताए सुभत्ताए मणुण्णत्ताए मणामत्ताए इच्छि- सुस्पर्शतया इष्टतया कान्ततया प्रियतया कान्त,प्रिय, शुभ, मनोज्ञ, कमनीय, वांछनीय, यत्ताए अणभिज्झियत्ताए उड्ढत्ताए-नो सुभतया मनोज्ञतया ‘मणामत्ताए' ईप्सिततया । लोभनीय और ऊर्ध्वरूप में न जघन्य रूप में, अहत्ताए, सुहत्ताए–नो दुक्खत्ताए भुज्जो- अनभिध्यिततया ऊर्ध्वतया-नो अधस्त- सुखरूप में न दुःखरूप में बार-बार परिणत होती भुज्जो परिणमति? या, सुखतया—नो दु:खतया भूयो-भूयः । परिणमति? हंता गोयमा ! जाव परिणमति। हन्त गौतम ! यावत् परिणमति। हां, गौतम ! यावत् परिणत होती है। २३. से केणटेणं? तत् केनार्थेन? २३. यह किस अपेक्षा से? गोयमा! से जहानामए वत्थस्स जल्लियस्स गौतम ! तद् यथानाम वस्त्रस्य ‘जल्लियस्स' गौतम ! जैसे कोई वस्त्र शरीर के मल, आर्द्रमल, वा, पंकियस्स वा, मइल्लियस्स वा, वा, पङ्कितस्य वा, मलिनितस्य वा, रजस्वतो कठिनमल और रजकणों से सना हुआ हो उसका रइल्लियस्स वा आणुपुवीए परिकम्मिज्ज- वा आनुपूर्व्या परिकर्नामाणस्य शुद्धेन वारिणा परिकर्म करने पर और शुद्ध जल से धोने पर कालक्रम माणस्स सुद्धेणं वारिणा धोब्वेमाणस्स धाव्यमानस्य सर्वत: पुद्गला: भिद्यन्ते यावत् । से उसके सब ओर से पुद्गलों का भेदन होता है, सव्वओ पोग्गला भिज्जति जाव परिणमति। परिणमति । तत् तेनार्थेन। यावत् शुद्धरूप में परिणमन होता है। यह इस अपेक्षा से तेणटेणं॥ से। भाष्य १. सूत्र २०-२३ जाता है, इसलिए वह भी प्रचुर कर्म-पुद्गलों का बन्ध करता है। क्रिया और प्रस्तुत आलापक में कर्मबन्ध के हेतु और कर्मबन्ध के निमित्त का आश्रव ये दोनों कर्मबन्ध के हेतु हैं, साधन हैं। प्राणातिपात आदि क्रिया प्रतिपादन किया गया है। महाकर्म और महावेदन-ये दो कर्मबन्ध के निमित्त वास्तव में योग आश्रव के ही प्रकार हैं। तत्त्वार्थसूत्र में साम्परायिक आश्रव हैं। जिस प्राणी के ज्ञानावरण और मोहनीय कर्म प्रबल होता है, उसके कर्म- के ३९ भेद बतलाए गए हैं—पांच इन्द्रिय, चार कषाय, पांच अव्रत और पुद्गलों का अधिक बन्ध होता है। महावेदना वाले व्यक्ति का ध्यान आर्त बन पच्चीस क्रियाएं आश्रव के मौलिक भेद पांच हैं-मिथ्यात्व, अविरति, १. त.रा.वा. ६/५-योगत्रयस्य एकोनचत्वारिंशत्प्रभेदाः सर्वात्मकार्यत्वात् संसारिणां सर्वेषां साधारणा:! २. त.सू. ६/५-इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्च चतुः पञ्च पञ्चविंशति संख्या: पूर्वस्य भेदाः। Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २४१ श.६ : उ.३ : सू.२०-२६ प्रमाद, कषाय और योगा महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव और महावेदना वाला जीव अशुभ योग में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सब (छहों) दिशाओं से कर्म-पुद्गलों का बन्ध, चय और उपचय करता है। यह कर्म-पुद्गलों का बंध, चय और उपचय निरन्तर होता रहता है। कर्म-पुद्गलों के बंध से कार्मण (सूक्ष्मतर) शरीर पुष्ट होता है। उसका प्रभाव औदारिक (स्थूल) शरीर और आभामण्डल पर भी होता है। प्रचुर कर्म-बंध करने वाले व्यक्ति का शरीर अनिष्ट पुद्गलों से आक्रान्त होकर रुग्ण बन जाता है तथा आभामण्डल मलिन हो जाता है। अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पआश्रव और अल्पवेदना वाला जीव शुभयोग में प्रवृत्त होता है, इसलिए उसके सर्वत: कर्म-पुद्गलों की निर्जरा होती है। निर्जरा से कार्मण शरीर का विशोधन होता है, साथ-साथ औदारिक शरीर और आभामण्डल का रंग-रूप भी सुन्दर हो जाता है। शरीर स्वस्थ और सुखद बन जाता है तथा आभामण्डल निर्मल हो जाता है। आध्यात्मिक चिकित्सा की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र है। भाव और आचरण की अशुद्धि शरीर को कान्तिहीन और रुग्ण बनाती है। भाव और आचरण की शुद्धि शरीर को कान्तियुक्त और स्वस्थ बनाती है। तेरापंथ के अष्टम आचार्य पूज्य कालूगणी इसके निदर्शन है। भाव और आचरण की विशुद्धि जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे उनका शरीर कान्ति-सम्पन्न और वर्ण सुन्दर होता गया। महाकर्म और अल्पकर्म----इन दोनों अवस्थाओं को दो दृष्टान्तों से समझाया गया है—१. जैसे नया वस्त्र पहनने पर धीमे-धीमे मलिन होता जाता है, वैसे ही महान् आश्रव वाला व्यक्ति अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा मलिन होता रहता है। २. जैसे मलिन वस्त्र धोने पर उजला हो जाता है, वैसे ही अल्प आश्रव वाला व्यक्ति शुभ प्रवृत्ति के द्वारा निर्मल होता रहता है। कर्म, क्रिया, आश्रव और वेदना-इन चारों पदों का प्रयोग कर सूत्रकार ने उनका आन्तरिक सम्बन्ध दिखलाया है। कर्म का संचय महान् है, इस अवस्था में क्रिया, आश्रव और वेदना—ये भी महान् होंगी। कर्म-बन्ध की अल्पता की अवस्था में क्रिया, आश्रव और वेदना—ये भी अल्प होंगी। शब्द-विमर्श आत्मा (आया)-शरीर, आभामण्डल बंध-आत्मा के साथ शुभ, अशुभ कर्मों का सम्बन्ध, कर्म-ग्रहण। चय, उपचय-वृद्धि, अतिवृद्धि। देखें भ. १/१९-२४ का भाष्य। सदा, प्रतिक्षण (सया समियं)–विस्तृत मीमांसा के लिए द्रष्टव्य भ.३/१४३-१४८ का भाष्य। अलोभनीय रूप में (अभिज्झियत्ताए)—'भिध्या' का अर्थ है -लोभ । भिध्यित अर्थात् लोभनीय। अभिध्यित = अलोभनीय। अपरिभुक्त (अहय)-जो अभी तक परिभुक्त नहीं है। तंतुग्णय-तंत्र से उद्गत, करघा से तत्काल निकाला हुआ। शरीर का मल (जल्लिय)-गाढ़े मैल से युक्त। आर्द्रमल (पंकिय)-गीले मैल से युक्त। कठिन मल (मइल्लिय)-मैला। रजकणों से सना हुआ (रइल्लिय)-रजयुक्त । कम्मोवचय-पदं २४. वत्थस्सणं भते! पोग्गलोवचए किं पयोगसा? वीससा? गोयमा ! पयोगसा वि, वीससा वि।। कर्मोपचय-पदम् वस्त्रस्य भदन्त ! पुद्गलोपचय: किं प्रयोगे- ण? विस्रसा? गौतम ! प्रयोगेणापि, विस्रसाऽपि। कर्मोपचय-पद २४. ' भन्ते ! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय क्या प्रयोग से होता है? अथवा स्वभाव से होता है? गौतम ! प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है। २५. जहा णं भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए यथा भदन्त ! वस्त्रस्य पुद्गलोपचयः २५. भंते ! जैसे वस्त्र के पुद्गलों का उपचय प्रयोग से पयोगसा वि, वीससा वि, तहा णं जीवाणं प्रयोगेणाऽपि, विस्रसाऽपि, तथा जीवानां भी होता है और स्वभाव से भी होता है, उसी प्रकार कम्मोवचए किं पयोगसा? वीससा? कर्मोपचय: किं प्रयोगेण? विस्रसा? जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है? अथवा स्वभाव से होता है? गोयमा ! पयोगसा, नो वीससा। गौतम ! प्रयोगेण, नो विस्रसा। गौतम ! प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता। २६. से केणटेणं? तत् केनार्थेन? गोयमा! जीवाणं तिविहे पयोगे पण्णत्ते, तं गौतम ! जीवानां त्रिविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः, २६. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग प्रज्ञप्त हैं १. भ.व. ६/२०-आत्मा बाह्यात्मा शरीरमित्यर्थः २. वही, ६/२०-'सया समिय' त्ति सदा सर्वदा सदात्वं च व्यवहारतोऽसातत्येऽपि स्यादित्यत आह—'समित' सन्तत। ३. वही, ६/२०–'अज्झियत्ताए'त्ति भिध्या-लोभः सा संजाता यत्र सो भिध्यितो न भिध्यितोऽभिध्यितस्तद्भावस्तत्ता तथा। ४. वही, ६/२०-'अहयस्सव' ति अपरिभुक्तस्य। ५. वही, ६/२०-तंत्रात् ---- तुरीवेमादेरपनीतमात्रस्य । Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.३:सू.२४-२७ २४२ भगवई जहा–मणप्पयोगे, वइप्पयोगे, कायप्प- तद् यथा—मन:प्रयोग:, वाक्प्रयोगः, काययोगे। इच्चेएणं तिविहेणं पयोगेणं जीवाणं प्रयोग:। इत्येतेन त्रिविधेन प्रयोगेण जीवानां कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा। कर्मोपचय: प्रयोगेण, नो विस्रसा! एवं सर्वेषां । एवं सन्वेसिं पंचिंदियाणं तिविहे पयोगे पंचेन्द्रियाणां त्रिविधः प्रयोगः भणितव्यः। भाणियब्वे। पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पयोगेणं, एवं जाव पृथ्वीकायिकाना एकविधेन प्रयोगेण, एवं वणस्सइकाइयाणी यावद् वनस्पतिकायिकानाम्। जैसे मन-प्रयोग, वचन-प्रयोग और काय-प्रयोग। इस त्रिविध प्रयोग के आधार पर जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता है। इसी प्रकार सब पंचेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग वक्तव्य है। पृथ्वीकायिक जीवों के एक प्रकार के प्रयोग से कर्मों का उपचय होता है। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता। विकलेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार का प्रयोग वक्तव्य है -वचन-प्रयोग और काय-प्रयोग। इस द्विविध प्रयोग के आधार पर विकलेन्द्रिय जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता। इस प्रकार यावत् वैमानिक, देवों तक जिसके जो प्रयोग है उससे कर्मों का उपचय वक्तव्य विगलिंदियाणं दुविहे पयोगे पण्णत्ते, तं जहा विकलेन्द्रियाणां द्विविध: प्रयोग: प्रज्ञप्तः, तद् —वइपयोगे, कायपयोगे य। यथा-वाक् प्रयोगः, काय प्रयोग: च। इच्चेएणं दुविहेणं पयोगेणं कम्मोवचए, इत्येतेन द्विविधन प्रयोगेण कर्मोपचयः प्र- पयोगसा, नो वीससा। से तेणद्वेणं गोयमा ! योगेण, नो विस्रसा। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवं वुच्चइ—जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, एवमुच्यते-जीवानां कर्मोपचयः प्रयोगेण, नो वीससा। एवं जस्स जो पयोगो जाव नो विस्रसा। एवं यस्य यः प्रयोग: यावद् वेमाणियाणं ।। दैमानिकानाम्। भाष्य १. सूत्र २४-२६ पुद्गल-ग्रहण का सामान्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार कर्म के __ कर्म आत्मकृत होता है, अकृत नहीं होता। यदि कर्म का बन्ध पुद्गलों का ग्रहण काययोग से होता है। शरीर नामकर्म के द्वारा कर्म-पुद्गलों अकृत हो तो कोई भी जीव कर्म से मुक्त हो नहीं सकता और कर्ममुक्त रह नहीं का जीव-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है। वह सम्बन्ध एक प्रकार सकता। कर्म-वर्गणा के पुद्गल पूरे लोक में फैले हुए हैं और वे आत्म प्रदेशों का नहीं होता। उसमें तारतम्य होता है। मन, वचन और काया का प्रयोग के अनन्तरावगाढ भी हैं, फिर भी जीव उनको ग्रहण करने के लिए अपना तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम तथा मन्द, मन्दतर और मन्दतम होता है। वैसा ही प्रयोग नहीं करता, तब तक उसका उपचय अथवा बन्ध नहीं होता। प्रस्तुत कर्म-बन्ध हो जाता है। आलापक में कर्म-वर्गणा के पुद्गलों के बन्ध की प्रक्रिया बतलाई गई है। शब्द-विमर्श जीव का प्रयोग तीन प्रकार का होता है-मानसिक प्रयोग, वाचिक प्रयोग विस्रसा (वीससा)-स्वभाव, स्वाभाविक परिणमन, जो प्रयोग और कायिक प्रयोग। अथवा प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रखता। सब प्रकार के पुद्गलों का ग्रहण काययोग के द्वारा होता है। यह । द्रष्टव्य भ.१/१३३-१३५ का भाष्य। कम्मोवचयस्स सादि-अनादित्त-पदं कर्मोपचयस्य साधनादित्व-पदम् कर्मोपचय का सादि-अनादि-पद २७. वत्थस्सणं भंते! पोग्गलोवचए किं सादीए वस्त्रस्य भदन्त ! पुद्गलोपचय: किं सादिक: २७. 'भंते ! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय सादि सपज्जवसिए? सादीए अपज्जवसिए? अणा- सपर्यवसित:? सादिक: अपर्यवसित:? सपर्यवसित है? सादि-अपर्यवसित है? अनादिदीए सपज्जवसिए? अणादीए अपज्जवसिए? अनादिक: सपर्यवसित:? अनादिक: अ- सपर्यवसित है? अनादि-अपर्यवसित है? पर्यवसित:? १. ठाणं, ३/३३६-से णं भंते ! दुक्खे केण कडे? जीवेणं कडे पमादेण। टीका--संज्ञानामन्वर्थ सर्वकर्मणामुक्त ज्ञानावरणाद्यन्तरायपर्यवसानं तस्य प्रत्ययाः २. त.सू.भा.वृ. ८/२५-नामकर्मण उत्तरप्रकृतिः शरीरनामान्तर्गता बन्धननाम तत्प्रत्ययाः किल -कारणानीति षष्ठी समासः। पुद्गला इति। तच्च गृहीतगृह्यमाणपुद्गलानामन्यशरीरपुद्गलैर्वा सम्बन्धो यस्य कर्मण उदयाद् न हि तानन्तरेण तदाख्योदयादि सम्भवो मुक्तस्येवात्मनः संसारिणः प्रथमप्रश्नः। एवं भवति, काष्ठद्वयभेदैकध्यकरणे जतुवदिति। द्वितीयविकल्प: किंप्रत्यया वेति द्वितीयभेदाश्रयणेन भाष्यम्-नाम प्रत्यय एषां ते इमे नाम प्रत्यया ३. वही, ८/२५-नाम प्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेष इति बहुव्रीहिः अन्यपदार्थश्च, गतिजात्यादिभेदं नामकर्म। औदारिकशरीरादयो योगाः कर्मणो अनन्तानन्तप्रदेशा:। निमित्ततां प्रतिपद्यन्ते पारम्पर्येण गत्यादयोऽपीत्यतो नामकर्मकरणा: पुद्गला बध्यन्त इति। भाष्य-नामप्रत्ययाः पुद्गला: बध्यन्ते। नामप्रत्यथ एषां ते इमे नामप्रत्ययाः। नामनिमित्ता ४. वही, ५/१२४-विश्रसा-स्वभावः प्रयोगनिरपेक्षो विश्रसाबन्धः। नामहेतुका नामकारणा इत्यर्थः। Jain Education Intemational Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २४३ श.६ : उ.३ : सू.२७-२९ गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए सादीए गौतम ! वस्त्रस्य पुद्गलोपचय: सादिकः सपज्जवसिए, नो सादीए अपज्जवसिए, नो सपर्यवसित:, नो सादिक: अपर्यवसित:, नो अणादीए सपज्जवसिए, नो अणादीए अपज- अनादिक: सपर्यवसित:, नो अनादिक: वसिए॥ अपर्यवसित:। गौतम ! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय सादि-सपर्यवसित है, सादि-अपर्यवसित नहीं है, अनादि-सपर्यवसित नहीं है, अनादि-अपर्यवसित नहीं है। २८.जहा णं भन्ते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए यथा भदन्त ! वस्त्रस्य पुद्गलोपचयः २८. भन्ते ! जैसे वस्त्र के पुद्गलों का उपचय सादिसादीए सपज्जवसिए, नो सादीए अपज्ज- सादिकः सपर्यवसितः, नो सादिक: अ- सपर्यवसित है, सादि-अपर्यवसित नहीं है, अनादिवसिए, नो अणादीए सपज्जवसिए, नो पर्यवसितः, नो अनादिक: सपर्यवसित:, नो सपर्यवसित नहीं है, अनादि-अपर्यवसित नहीं है, उसी अणादीए अपज्जवसिए, तहा ण जीवाणं अनादिक: अपर्यवसित:, तथा जीवानां प्रकार जीवों के कर्मोपचय के सम्बन्ध में प्रश्न है। कम्मोवचए पुच्छा। कर्मोपचये पृच्छा। गोयमा! अत्थेगतियाणं जीवाणं कम्मोवचए गौतम ! अस्त्येककेषां जीवानां कर्मोपचयः गौतम ! कुछ जीवों के कर्मों का उपचय सादिसादीए सपज्जवसिए, अत्थेगतियाणं सादिकः सपर्यवसितः, अस्त्येककेषां अना- -सपर्यवसित है, कुछ जीवों के कर्मों का उपचय अणादीए सपज्जवसिए, अत्थेगतियाणं दिकः सपर्यवसित:, अस्त्येककेषां अनादि- अनादि-सपर्यवसित है, कुछ जीवों के कर्मों का अणादीए अपज्जवसिए, नो चेव णं जीवाणं क:अपर्यवसितः, नो चैव जीवानां कर्मो- उपचय अनादि-अपर्यवसित है, पर जीवों के कर्मों कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिए।। पचय: सादिक: अपर्यवसितः। का उपचय सादि-अपर्यवसित नहीं होता। २९. से केणटेणं? तत् केनार्थेन? गोयमा ! इरियावहियबंधयस्स कम्मोवचए गौतम ! ईर्यापथिकबन्धकस्य कर्मोपचय: सादीए सपज्जवसिए, भवसिद्धियस्स कम्मो- सादिकः सपर्यवसित:, भवसिद्धिकस्य वचए अणादीए सपज्जवसिए, अभवसिद्धि- कर्मोपचय: अनादिकः सपर्यवसित:, यस्स कम्मोवचए अणादीए अपज्जवसिए। अभवसिद्धिकस्य कर्मोपचय: अनादिकः से तेणटेणं॥ अपर्यवसित:। तत् तेनार्थेन। २९. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! ईर्यापथिक कर्म बांधने वाले के कर्मों का उपचय सादि-सपर्यवसित है, भवसिद्धिक जीवों के कर्मों का उपचय अनादि-सपर्यवसित है, अभवसिद्धिक जीवों के कर्मों का उपचय अनादिअपर्यवसित है। इस अपेक्षा से। भाष्य १.सूत्र २७-२९ कर्म के विषय में एक जिज्ञासा प्राचीन काल से होती रही है - पहले कौन, जीव अथवा कर्म ? इसका उत्तर है—जीव और कर्म में पौर्वापर्य नहीं है। कर्म के बिना जीव संसार में रहता नहीं और जीव के बिना कर्म का बन्ध होता नहीं। इसकी फलश्रुति है कि जीव और कर्म दोनों अनादि हैं। प्रस्तुत आलापक में कर्म के अनादित्व पर सापेक्ष दृष्टि से विमर्श किया गया है। अनादित्व और सादित्व को चार भंगों में विभक्त कर समझाया गया है १. सादि सपर्यवसित वीतराग के ईर्यापथिक कर्म का बन्ध होता है। उसकी अवधि दो समय की है। पहले समय में कर्म बन्ध होता है, दूसरे समय में परिभुक्त होता है और तीसरे समय में निर्जीर्ण होता है। वीतराग अवस्था से पहले इसका बन्ध नहीं होता, इसलिए यह सादि है। अयोगी अवस्था में इसका बन्ध रुक जाता है, इसलिए यह सपर्यवसित है, सान्त है।' २,३. अनादि-सपर्यवसित, अनादि-अपर्यवसित-अवीतराग अवस्था में सभी जीवों के कर्म का बन्ध अनादि होता है। अनादित्व की दृष्टि से दूसरा और तीसरा भंग समान है। भव्य जीव में मोक्ष-गमन की अर्हता होती है, उनमें से जो कर्म-बन्ध का अन्त कर देता है, इस आधार पर दूसरा भंग बनता है अनादि-सपर्यवसित । अभव्य जीव में मोक्ष-गमन की अर्हता नहीं होती; इसलिए उसके कर्म-बन्ध का कभी अन्त नहीं होता; इस आधार पर अनादि-अपर्यवसित भंग बनता है। ४. सादि-अपर्यवसित-यह चतुर्थ भंग शून्य है। कर्म-बन्ध का अनादित्व निरपेक्ष है और सादित्व सापेक्ष है। केवल ईर्यापथिकी क्रिया की अपेक्षा कर्मबन्ध का सादित्व है। ईर्यापथिकी क्रिया केवल वीतराग के ही होती है और वीतराग निश्चित रूप से कर्म-बन्ध का समापन कर मुक्त होता है। अत: सादि-अपर्यवसित भंग शून्य है। १. (क) भ. १/२९१ (ख) आचार्य भिक्षु द्वारा रचित तेरह द्वार, द्वार - २ २. भ.वृ. ६/२९- ऐपिथिककर्मणो हि अबद्धपूर्वस्य बन्धनात् सादित्वम्, अयोग्यवस्थायां श्रेणिप्रतिपति वाऽबन्धनात् सपर्यवसितत्वम्। Jain Education Intemational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ.३ : सू.३०-३२ २४४ भगवई जीवाणं सादि-अनादित्त-पदं ३०. वत्थे णं भंते ! किं सादीए सपज्जवसिए -चउभंगो? जीवानां साधनादित्व-पदम् वस्त्रं भदन्त ! किं सादिकं सपर्यवसितम्- चतुर्भङ्गाः? जीवों की सादि-अनादिता का पद ३०. भन्ते ! क्या वस्त्र सादि-सपर्यवसित है? सादि अपर्यवसित है? अनादि-सपर्यवसित है? अथवा अनादि-अपर्यवसित है? गौतम ! वस्त्र सादि-सपर्यवसित है। शेष तीनों भंग (विकल्प) प्रतिषेधनीय है—सादि-अपर्यवसित नहीं है, अनादि-सपर्यवसित नहीं है और अनादि-अपर्यवसित नहीं है। गोयमा! वत्थे सादीए सपज्जवसिए, अवसेसा तिण्णि वि पडिसेहेयव्वा । गौतम ! वस्त्रं सादिकं सपर्यवसितम्, अवशेषाः त्रयोऽपि प्रतिषेधयितव्याः। ३१. जहाणं भंते! वत्थे सादीए सपज्जवसिए, यथा भदन्त ! वस्त्रं सादिकं सपर्यवसितं, नो नो सादीए अपज्जवसिए, नो अणादीए सादिकम् अपर्यवसितं, नो अनादिकं स- सपज्जवसिए, नो अणादीए अपज्जवसिए, पर्यवसितं, नो अनादिकम् अपर्यवसितं, तथा तहा णं जीवा किं सादीया सपज्जवसिया? जीवा: किं सादिका: सपर्यवसिता:? चतुचउभंगो-पुच्छा। भङ्गा:-पृच्छा। ३१. भंते ! जैसे वस्त्र सादि-सपर्यवसित है, सादि अपर्यवसित नहीं है, अनादि-सपर्यवसित नहीं है और अनादि-अपर्यवसित नहीं है, वैसे ही क्या जीव भी सादि-सपर्यवसित है? सादि-अपर्यवसित है? अनादि-सपर्यवसित है? अथवा अनादि-अपर्यवसित है? गौतम ! कुछ जीव सादि-सपर्यवसित है। कुछ जीव सादि-अपर्यवसित है। कुछ जीव अनादि-सपर्यवसित है। कुछ जीव अनादि-अपर्यवसित हैं। गोयमा ! अत्थेगतिया सादीया सपज्ज- गौतम ! अस्त्येकके सादिका: संपर्यवसिताः वसिया–चत्तारि वि भाणियव्वा।। -चत्वारोऽपि भणितव्याः। ३२. से केणटेणं? तत् केनार्थेन? गोयमा! नेरतिय-तिरिक्खजोणिय-मणु- गौतम ! नैरयिक-तिर्यग्योनिक-मनुष्य- -स्स-देवा गतिरागतिं पडुच्च सादीया स- -देवा: गत्यागती प्रतीत्य सादिका: सपर्यपज्जवसिया, सिद्धा गतिं पडुच्च सादीया वसिताः, सिद्धा गतिं प्रतीत्य सादिका: अपज्ज्वसिया, भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अपर्यवसिता:, भवसिद्धिका: लब्धिं प्रतीत्य अणादीया सपज्जवसिया, अभवसिद्धिया अनादिकाः सपर्यवसिताः, अभवसिद्धिका: संसारं पडुच्च अणादीया अपज्जवसिया से संसारं प्रतीत्य अनादिका: अपर्यवसिताः। तत् तेणद्वेणं॥ तेनार्थेन। ३२. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव गति-आगति की अपेक्षा सादि-सपर्यवसित है। सिद्ध गति की अपेक्षा सादि अपर्यवसित है। भवसिद्धिक जीव भव्यत्व-लब्धि की अपेक्षा अनादि-सपर्यवसित है, अभवसिद्धिक जीव संसार (जन्म-मरण) की अपेक्षा अनादि-अपर्यवसित हैं। इस अपेक्षा से। भाष्य १. सूत्र ३०-३२ से उसका सपर्यवसित्व है। सादित्व और अनादित्व का विमर्श अनेक अपेक्षाओं से किया जा २. सिद्ध जीव का शुद्ध स्वरूप है। वह स्वरूप पहले कभी उपलब्ध सकता है। प्रस्तुत आलापक में जीव-पर्याय आत्मा का स्वरूप स्वाभाविक नहीं हुआ, इसलिए सिद्धि-गति की अपेक्षा सिद्ध का सादित्व है। आत्मा का योग्यता और अयोग्यता-इन अपेक्षाओं से सादित्व और अनादित्व की स्वरूप उपलब्ध होने पर फिर कभी उसका विलोप नहीं होता, इसलिए वह संबोधि दी गई है। अपर्यवसित है। १. नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव—ये चारों जीव के योगदर्शन में मुक्त और ईश्वर इन दो अवस्थाओं को भिन्न माना पर्याय हैं। प्रत्येक पर्याय की आदि होती है और उसका अन्त भी होता है। गया है। उसके अनुसार मुक्त जीव बन्धनों का छेदन कर कैवल्य को प्राप्त उदाहरण स्वरूप-मनुष्य-गति में उत्पन्न होना मनुष्य का आदि बिंदु है। होता है। ईश्वर सदा-सर्वदा बन्धनों से मुक्त होता है। फलत: मुक्त सादि होता मनुष्य-जीवन की आयु समाप्त कर देना उसका पर्यवसान है। अत: मनुष्यगति है और ईश्वर अनादि। जैन दर्शन में अनादिसिद्धत्व का सिद्धान्त स्वीकार्य में आने की अपेक्षा से मनुष्य का सादित्व और वहां से चले जाने की अपेक्षा नहीं है। सापेक्ष दृष्टि से सिद्धों को अनादि बतलाया गया है, किन्तु निरपेक्ष १. (क) पा.यो.द. व्यास-भाष्य, १/२४-कैवल्यं प्राप्तास्तर्हि संति च बहवः केवलिनः, ते हि नवमीश्वरस्य स तु सदैव मुक्तः सदैवेश्वर इति । त्रीणि बन्धनानि छित्वा कैवल्य प्राप्ताः, ईश्वरस्य च तत्सबंधो न भूतो न भावी। यथा मुक्तस्य पूर्वा (ख) देखें भ. १/२८८-३०७ का भाष्य । बन्धकोटिः प्रज्ञायते नैवमीश्वरस्य, यथा वा प्रकृतिलीनस्य उत्तरा बन्धकोटि: सम्भाव्यते Jain Education Intemational Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. ६ : उ. ३ : सू. ३० - ३४ दृष्टि से उनका अनादित्व नहीं है। उत्तरायणाणि में प्रतिपादित है— प्रत्येक की अपेक्षा से सिद्ध सादि और अनंत है, बहुत्व ( सन्तति - प्रवाह) की अपेक्षा वे अनादि और अनंत है। यहां अनादित्य योगदर्शन के प्रतिपाद्य से भिन्न है। जैनदर्शन के अनुसार जो भी मुक्त हुआ है वह कर्मबंधन का छेदन कर मुक्त हुआ है। प्रत्येक सिद्ध प्रथम है, कोई भी अप्रधम नहीं है। सिद्ध को 'अनादि-अनन्त' काल की अपेक्षा से कहा गया है। जाएगा। सिद्ध अपर्यवसित हैं—यह वाक्य इस सिद्धान्त की ओर संकेत करता है कि जीव मुक्त होने के पश्चात् फिर कभी संसार में जन्म नहीं लेगा। ३. भवसिद्धिक जीवों में भव्यत्व नाम की लब्धि अनादिकाल से है। इस लब्धि की अपेक्षा से वे अनादि है। मुक्त होने के समय वह लब्धि परिसम्पन्न हो जाती है। इस अपेक्षा से भवसिद्धिक जीव सपर्यवसित है। भवसिद्धिक जीव ही सिद्ध होते हैं। किन्तु जिनके काललब्धि का परिधाक हो जाता है, वे ही भवसिद्धिक जीव सिद्ध होते हैं, सब नहीं होते। इसलिए भगवान् महावीर जयन्ती के प्रश्न के उत्तर में बतलाया—यह लोक कभी भी भवसिद्धिक जीवों से शून्य नहीं होगा। सिद्ध अपर्यवसित होते हैं। कुछ दार्शनिक मुक्त जीव का पुनरवतार मानते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने परिमित जीववाद के सिद्धान्त में दो त्रुटियां बतलाई हैं। यदि जीव परिमित हैं तो सभी जीव मुक्त हो जाऐंगे, इस अवस्था मुक्त ४. अभवसिद्धिक जीवों में मुक्त होने की अर्हता नहीं होती, इसलिए 'जीव का पुनरवतार होगा अथवा किसी दिन संसार जीव-शून्य हो वे संसार जन्म-मरण की अपेक्षा से अनादि और अपर्यवसित होते हैं। में कम्मपगडी-बंध - विवेयण-पदं ३३. कति णं भंते! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा १. नाणावर णिज्वं २. दरिसणावणिज्जं ३. वेदणिज्वं ४. मोहणिज्जं ५. आउगं ६. नाम ७. गोयं ८. अंतराइयं ।। ३४. नाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं बंधती पण्णत्ता? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेषं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिष्णिय वाससहस्साई अवाहा, अबाहूनिया कम्म द्विती- कम्मनिसेओ । दरिसणावरणिज्जं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहस्साई अवाहा, अवाहूणिया कम्महिती— कम्मनिसेओ । वेदणिज्जं जहणणेणं दो समया, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिष्णि य वाससहस्साई अवाहा, अवाहूणिया कम्मद्विती- कम्मनिसेओ । १. उत्तराः ३६ / ६५ एगतेण साईया, अपज्जवसिया विय। पुहतेण अणाईया, अपज्जवसिया वि य ।। २. भ. १८ / २ - सिद्धे णं भंते! सिद्ध भावेणं किं पढमे? अपढमे? गोयमा ! पढमे, नो अपढमे । ३. अन्ययोगव्यवच्छेदिका. २९ २४५ कर्मप्रकृति-बंध - विवेचन-पदम् कति भदन्त ! कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! अष्ट कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा १. ज्ञानावरणीयं २. दर्शनावरणीयं ३. वेदनीयं ४. मोहनीयम् ५. आयुष्कं ६. नाम ७. गोत्रम् ८. अन्तरायिकम्। ज्ञानावरणीयस्य भदन्त ! कर्मणः कियन्तं कालं बन्धस्थिति: प्रज्ञप्ता? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण त्रिंशत् सागरोपमकोटिकोटी, त्रीणि च वर्षसहस्राणि अबाधा, अवाधोनिका कर्मस्थि तिः - कर्मनिषेकः । दर्शनावरणीयं जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटी:, त्रीणि च वर्षसहस्राणि अवामा अवाधोनिका कर्मस्थितिः कर्मनिषेकः । वेदनीयं जघन्येन द्वौ समयौ, उत्कर्षेण त्रिंशत् सागरोपमकोटिकोटी:, त्रीणि च वर्षसहस्राणि अबाधा, अबाधोनिका कर्मस्थितिः — कर्मनिषेकः ॥ कर्म-प्रकृति-बंध - विवेचन - पद ३२. १ भन्ते ! कर्म-प्रकृतियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम! आठ कर्म प्रकृतियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अन्तराय । , ३४. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म की बंध स्थिति कितने काल की प्रज्ञप्त है ? गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः तीस कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अबाधा-काल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक ( कर्म- दलिकों के अनुभव के लिए होने वाली विशिष्ट प्रकार की रचना) का काल है। दर्शनवरणीय कर्म की बंध- स्थिति जघन्यतः अन्तमुहूर्त, उत्कर्षतः तीस कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अवाधाकाल जितनी न्यून कर्म स्थिति कर्मनिषेक का काल है। वेदनीय कर्म की बन्ध-स्थिति जघन्यतः दो समय, उत्कर्षत: तीस कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अबाधाकाल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक का काल है। मुक्तोपि वाभ्येतु भवं भवो वा भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे । षड्जीवकार्य त्वमनन्तसंख्यमाख्यस्तथा नाथ ! यथा न दोष: ॥ ४. भ. वृ. ६ / २९ - भवसिद्धिकानां भव्यत्वलब्धि: सिद्धत्वेऽपेतीति कृत्वाऽनादिः सपर्यवसिता चेति । ५. भ. १२/५०-५२ । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.३: सू.३३,३४ २४६ भगवई मोहणिज्जं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं मोहनीयं जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ, सत्त य सप्तति सागरोपमकोटिकोटी:, सप्त च वाससहस्साणि अबाहा, अबाहूणिया कम्म- वर्षसहस्राणि अबाधा, अबाधोनिका कर्म- द्विती-कम्मनिसेओ। स्थिति:-कर्मनिषेक:। आउगं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं आयुष्कं जघन्येन अन्तर्मुहर्त्तम् उत्कर्षेण तेत्तीसं सागरोवमाणि पुन्वकोडितिभाग- त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि पूर्वकोटि-त्रिभा- मन्भहियाणि, कम्मट्टिती-कम्मनिसेओ। गाभ्यधिकानि कर्मस्थिति:-कर्मनिषेकः। मोहनीय कर्म की बंध-स्थिति जघन्यत: अन्तमुहूर्त, उत्कर्षतः सत्तर कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल सात हजार वर्ष का है। अबाधाकाल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक का काल है। आयुष्य-कर्म की बंध-स्थिति जघन्यत: अन्तमुहूर्त, उत्कर्षतः कोटिपूर्व का एक तिहाई भाग अधिक तेतीस सागरोपम है। कर्मस्थिति घटाव पूर्वकोटि का तीसरा भाग (यानि तेतीस सागर) कर्म-निषेक का काल है। नाम और गोत्र कर्म की बंध-स्थिति जघन्यत: आठ मुहूर्त, उत्कर्षत: बीस कोटाकोटि सागरोपम है। उनका अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है। अबाधाकाल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक का काल है। अन्तराय कर्म की बंध-स्थिति जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षत: तीस कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अबाधाकाल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक का काल है। नाम-गोयाणं जहण्णेणं अट्ठमुहत्ता, उक्को- नाम-गोत्रयोर्जघन्येन अष्ट मुहूर्त्तानि, उत्कर्षण सेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, दोण्णि विंशति: सागरोपमकोटिकोटी:, द्वे च वर्ष- य वाससहस्साणि अबाहा, अबाहूणिया सहस्र अबाधा, अबाधोनिका कर्मस्थिति: कम्मट्टिती-कम्मनिसेओ। -कर्मनिषेकः। अंतराइयं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अन्तरायिकं जघन्येन अन्तर्मुहर्त्तम्, उत्कर्षेण तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य त्रिंशत् सागरोपमकोटिकोटी:, त्रीणि च वर्षवाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्म- सहस्राणि अबाधा, अबाधोनिका कर्महिती-कम्मनिसेओ। स्थिति:-कर्मनिषकः। भाष्य १. सूत्र ३३,३४ इनमें पहला प्रकार प्रकृति-बंध है। सिद्धसेन गणी ने इसे कर्म के भेदों विश्व के परिवर्तन में वर्गणा का मुख्य स्थान है। वर्गणाएं आठ हैं- का मूल कारण माना है, जैसे—मिट्टी के घट आदि अनेक रूप बनते हैं, वैसे १. औदारिक शरीर वर्गणा २. वैक्रिय शरीर वर्गणा ३. आहारक शरीर वर्गणा ही एक रूप में ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गलों के प्रकृति द्वारा अनके रूप बन ४. तैजस शरीर वर्गणा५. भाषा वर्गणा ६. श्वासोच्छ्वास वर्गणा७. मनोवर्गणा जाते हैं। प्रकृति का दूसरा अर्थस्वभाव है। प्रकृति-बंध द्वारा प्रत्येक विभाग ८. कार्मण वर्गणा। का स्वभाव-निर्धारण होता है। ज्ञानावरण का स्वभाव है-ज्ञान को आवृत्त ___ कर्म-वर्गणा के पुद्गल जीव को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। करना, दर्शनावरण का स्वभाव है-दर्शन को आवृत्त करना। दर्शनावरण शरीर, भाषा, मन और श्वासोच्छ्वास-इन सबका कर्म के साथ सम्बन्ध के उदय से विषय का आलोचन अथवा दर्शन नहीं होता। ज्ञानावरण के उदय है। ये सब कर्म के उपजीवी हैं। जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध होने पर शरीर से अर्थ का अवगम नहीं होता। पहले आलोचन होता है और फिर अवगम। आदि होते हैं। जीव से कर्म का असम्बन्ध हो जाने पर ये नहीं होते। ज्ञानमीमांसा का यह क्रम है। वेदनीय कर्म का स्वभाव है-सुख-दु:ख का कर्मपारिभाषिक शब्द है। इसकी परिभाषा है—जीव अपनी आश्रव- संवेदन। मोह का स्वभाव है—तात्त्विक मूढ़ता और चारित्र-मूढ़ता।आयुष्य शक्ति से कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वे पुद्गल कर्मरूप में का स्वभाव है-जन्म का निर्धारण। नामकर्म का स्वभाव है-जीव का परिणत होकर जीव के प्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं। इस अवस्था में उन मूर्तीकरण-जीव को नाना आकृतियों में परिणत करना । गोत्रकर्म का कर्म-वर्गणा के पुद्गलों की संज्ञा 'कर्म' हो जाती है। कर्म-प्रायोग्य पुद्गल स्वभाव है-हीनता और उच्चता की स्थिति में प्रतिष्ठित करना। अन्तराय निर्विभाग होते हैं। उनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण—इस प्रकार विभाग नहीं कर्म का स्वभाव है—क्रियात्मक वीर्य अथवा शक्ति में बाधा डालना। होता। जीव जिस अध्यवसाय के द्वारा कर्म-पुद्गलों का ग्रहण करता है, उस कर्म की मौलिक प्रकृतियां आठ ही क्यों? इस प्रश्न का समाधान अध्यवसाय से सामान्य रूप से गृहीत कर्म-पुद्गलों का ज्ञानावरण, जीव के आत्मिक स्वरूप और पौद्गलिक व्यक्तित्व पर विचार करने से दर्शनावरण आदि विभाग के रूप में परिणमन होता है। बंध के चार प्रकार हैं प्राप्त होता है। ज्ञान, दर्शन आत्मरमण अथवा आनन्द और वीर्य—यह जीव -प्रकृति-बंध, स्थिति-बंध, अनुभाग-बंध, प्रदेश-बंध। का चतुर्गुणात्मक स्वरूप है। चार कर्म आत्मा के स्वरूप को प्रभावित करते १. त.सू.भा.वृ. ८/२५-ननु चैकाकारा एव पुद्गला: समादीयन्ते न तु ज्ञानावरणादिविशिष्टाः प्रक्रियन्तेऽस्य सकाशादिति अकर्तरीत्यनुवृत्तेरपादानसाधना प्रकृतिः। केचिद् बहिः सन्तीति उच्यते--सत्यमेतत्। वयं त्विदमभिध्महे-ज्ञानावरणादिकानां सर्वासां ३. वही, ८/४-स्वभाववचनो वा प्रकृतिशब्दः। दुष्टप्रकृतिर्दुष्टस्वभाव इति प्रसिद्धः। ज्ञानावरणं मूलप्रकृतीनां कर्म-भेदानां सामर्थेऽन्ये न योगानां कर्मवर्गणानां ग्रहणमाम्नायते। ततः सामान्य- ज्ञानाच्छादनस्वभावं मौलभेदतः, एवं दर्शनावरणादावपि योज्यम्। स्वभाववचनत्वे च भावगृहीतानामध्यवसायविशेषात् पृथक्-पृथक् ज्ञानावरणादिभेदत्वेन परिणमयत्यात्मेति ॥ साधनः प्रकृतिशब्दः। २. वही, ८/४-तत्र प्रकृतिौलं कारणं मृदिव घटादिभेदानामेकरूपपुद्गलग्रहणम्, अत: Jain Education Intemational Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण- ये दो कर्म आवारक है — आत्मा की ज्ञान और दर्शन की शक्ति को आवृत्त करते हैं। मोहनीय कर्म विकारक है। वह आत्मा की दृष्टि और चारित्र में विकृति उत्पन्न करता है। अन्तराय कर्म प्रतिरोधक है। वह आत्मा के वीर्य का प्रतिघात करता है। आत्म-स्वरूप को प्रभावित करने वाले कर्म घातिक कर्म कहलाते हैं। चार कर्म पौद्गलिक व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। उसका मुख्य अंग है— अमूर्त का मूर्त रूप में बने रहना, शरीर धारण । इस कार्य का संपादन नाम कर्म करता है। जीवन की सीमा का निर्धारण आयुष्य कर्म से होता है। सुख-दुःख के संवेदन का हेतु है। — वेदनीय कर्म प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा का हेतु बनता है— गोत्र कर्म पौगलिक व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले चार कर्म अधातिक कर्म कहलाते है। १ इन आठ मूल प्रकृतियों में जीवन के मौलिक पक्षों की व्याख्या हो जाती है। शेष पक्षों का संपादन उत्तरप्रकृतियों के द्वारा होता है। बंध का दूसरा प्रकार स्थितिबंध है। इसके द्वारा कर्म की स्थिति का निर्धारण होता है। प्रत्येक कर्म अपनी काल मर्यादा के अनुसार जीव के साथ बद्ध रहता है। उसके सम्पन्न होते ही वह उदय में आकर निर्जीर्ण हो जाता है। कर्म बंध की अवस्था में आते ही अपना फल नहीं देता। वह विपक्व होकर ही फल देना प्रारम्भ करता है। बंध और उदय के मध्य अवेद्यमान अवस्था होती है। उसका नाम अबाधाकाल है। इस प्रकार कर्म के स्थितिबंध की दो अवस्थाएं फलित होती हैं—१. अबाधाकाल २. बाधाकाल । संख्या १ २ ३ ४ ६ ८ कर्म ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय आयुष्य नाम गोत्र अन्तराय जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त २ समय अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त ८ मुहूर्त ८ मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त २४७ मोत्तूण सगमबाहं पढमाए ठिईए बहुतरं दव्वं । सेसे विसेसणही जा उक्कोसंति सव्वासिं।। १. त. रा. वा. ८ / २३ - ताः पुनः कर्म प्रकृतियो द्विविधाः घातिका अघातिकश्चेतिः । तत्र ज्ञान दर्शनावरण मोहान्तरायाख्या घातिकाः । इतरा अघातिकाः। ३. कर्म प्रकृति, बंधनकरण, गाथा ७४ उत्कृष्ट स्थिति ३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर ३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर ३० क्रोडाक्रोड सागर ७० क्रोक्रो २. भ. वृ. ६ / ३४ - अबाधया उक्तलक्षणया ऊनिका अबाधोनिका कर्म्मस्थिति: कर्मा वस्थानकाल उक्तलक्षणः कर्म- निषेको भवति। तत्र कर्मनिषेको नाम कर्मदलिकस्यानुभवनार्थं रचनाविशेषः । तत्र च प्रथमसमये बहुकं निषिञ्चन्ति द्वितीयसमये विशेषहीणं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदुकृष्टस्थितिकं कर्मदलिकं तावद् विशेषहीनं निषिञ्चति । तथा चोक्तम् श. ६ : उ. ३ सू. ३३,३४ अबाधाकाल में कर्म का वेदन नहीं होता । बाधाकाल में कर्म का वेदन प्रारंभ हो जाता है। इस प्रकार कर्म की स्थिति — कालावधि और उसका अनुभव काल समान नहीं होता। अबाधाकाल के सम्पन्न होने पर कर्म निषेक की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। बद्धकर्म एक साथ ही उदय में नहीं आता। उनका उदय क्रमशः होता है। क्रम-अवस्था की दृष्टि से उनके अनेक वर्ग बन जाते हैं। वे कर्म-निषेक कहलाते हैं। प्रथम समय के कर्म निषेक में कर्म पुद्गलों का निषेचन अधिक होता है। दूसरे समय में वह निषेचन विशेष हीन हो जाता है। इस प्रकार कर्मफल देने की अवधि तक वह उत्तरोत्तर विशेष हीन होता चला जाता है। - २ ३३ सागर १/३ पूर्वकोटि अधिक २० क्रोड़ाक्रोड़ सागर २० क्रोक्रो सागर ३० क्रोडाको सागर प्रस्तुत आलापक में अन्य सात कर्म- प्रकृतियों के अबाधाकाल निर्दिष्ट हैं। आयुष्य के अबाधाकाल का निर्देश नहीं है। कर्म-प्रकृति में आयुष्य ४ अबाधाकाल का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार अपनी वर्तमान आयु का तीसरा भाग आयुष्य का अबाधाकाल होता है। पञ्चसंगह में आयुष्य का उत्कृष्ट अबाधाकाल पूर्वकोटि वर्ष का तीसरा भाग बतलाया गया है।" अभयदेवसूरि ने आयुष्य का अबाधाकाल पूर्वकोटि का तीसरा भाग बतलाया है। उसका निषेक-काल तेतीस सागर का होता है। भगवती के मूल पाठ में आयु के अबाधाकाल का उल्लेख नहीं है। पण्णवणा के मूल पाठ में भी नहीं है। आयुष्यकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर और पूर्वकोटि का तीसरा भाग बतलाई गई है। वह सापेक्ष है। बध्यमान आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है। पूर्वकोटि का तीसरा भाग भुज्यमान आयुष्य है। उसे बध्यमान आयुष्य के साथ मिलाने पर आयुष्य की स्थिति पूर्वकोटि त्रिभाग अधिक अबाधाकाल ३ हजार वर्ष ३ हजार वर्ष ३ हजार वर्ष ७ हजार वर्ष - २ हजार वर्ष २ हजार वर्ष ३ हजार वर्ष ४. पं. सं. पृ. २४४, गाथा ३९३ निषेककाल ३ हजार वर्ष न्यून ३ हजार वर्ष न्यून आउकुक्कोल् सेसाण पुब्वकोडि, साउतिभागो अवाहासिं।। ३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर ३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर ३ हजार वर्ष न्यून ३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर ७ हजार वर्ष न्यून ७० क्रोडाक्रोड सागर ३३ सागर २ हजार वर्ष न्यून २० कोड़ाक्रोड़ सागर २ हजार वर्ष न्यून २० कोड़ाक्रोड़ सागर ३ हजार वर्ष न्यून ३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर स्समयं अबाहाकोडाकोडी ठिदिस्स जलहीणं । सहं कम्म आउस दुपुव्वकोडित अंसो || ५. भ.वृ. ६ / ४८ - नवग्मायुषि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि निषेक: पूर्वकोटी त्रिभागश्चबाधाकाल इति । ६. पण २३ / ७८-८० 1 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.३: सू.३३-३८ २४८ भगवई तेतीस सागर की होती है। भगवतीवृत्ति तथा शतक (पंच संग्रह) की कर्मस्थिति कर्म-निषेक का काल बतलाया गया है। आयुष्य कर्म का चूर्णि में पूर्व कोटि का तीसरा भाग अबाधाकाल तथा अबाधाकाल-ऊन उत्कृष्ट निषेक-काल तेतीस सागर का है। देखे यंत्र—(पृ. २४७) ३५. नाणावरणिज्जणं भंते ! कम्मं किं इत्थी ज्ञानावरणीयं भदन्त! कर्म किं स्त्री बध्नाति? ३५.१ भन्ते! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या स्त्री करती बंधइ? पुरिसो बंधइ? नपुंसओ बंधइ? पुरुष: बध्नाति? नपुंसक: बध्नाति? नोस्त्री है? पुरुष करता है? नपुंसक करता है? नोस्त्रीनोइत्थी नोपुरिसो नोनपुंसओ बंधइ? नोपुरुष: नोनपुंसक: बध्नाति? -नोपुरुष-नोनपुंसक करता है? गोयमा ! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि बंधइ, गौतम ! स्त्री अपि बध्नाति, पुरुषोऽपि बध्ना- गौतम ! स्त्री भी ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करती है, नंपुसओ वि बंधइ। नोइत्थी नोपुरिसो ति, नपुंसकोऽपि बध्नाति। नोस्त्री नोपुरुषः पुरुष भी करता है, नपुंसक भी करता है; नोस्त्रीनोनपुंसओ सिय बंधइ, सिय नो बंधइ। नोनपुंसक: स्यात् बध्नाति, स्यान् नो बध्नाति। ___-नोपुरुष-नोनपुंसक स्यात् बंध करता है, स्यात् बंध नहीं करता। एवं आउगवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ। एवम् आयुष्यकवर्जा: सप्त कर्मप्रकृतयः। इसी प्रकार आयुष्य को छोड़कर सातों ही कर्म प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता करें। ३६. आउगं णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ? आयुष्कं भदन्त ! कर्म किं स्त्री बध्नाति? ३६. भन्ते ! आयुष्य कर्म का बंध क्या स्त्री करती है? पुरिसो बंधइ? नपुंसओ बंधइ? नोइत्थी पुरुषः बध्नाति? नपुंसक: बध्नाति? नोस्त्री ___पुरुष करता है? नपुंसक करता है? नोस्त्री-नोपुरुषनोपुरिसो नोनपुंसओ बंधइ? नोपुरुष: नोनपुंसक : बध्नाति? -नोनपुंसक करता है? गोयमा ! इत्थी सिय बंधइ, सिय नो बंध। गौतम ! स्त्री स्यात् बध्नाति, स्यान् नो गौतम ! आयुष्य कर्म का बंध स्त्री स्यात् करती है, पुरिसो सिय बंधइ, सिय नो बंधइ। नपुंसओ बध्नाति। पुरुष: स्यात् बध्नाति, स्यान् नो स्यात् नहीं करती। पुरुष स्यात् करता है, स्यात् नहीं सिय बंधइ, सिय नो बंधइा नोइत्थी नोपुरिसो बध्नाति। नपुंसक: स्यात् बध्नाति, स्यान् नो करता। नपुंसक स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। नोनपुंसओ न बंध।। बध्नाति। नोस्त्री नोपुरुष: नोनपुंसक: न नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक आयुष्य कर्म का बंध बध्नाति। नहीं करता। ३७. नाणावरणिज्जणं भंते ! कम्मं किं संजए ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं संयतः ३७. भन्ते! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या संयत करता बंधइ? अस्संजए बंधइ? संजयासंजए बंधइ? बध्नाति? असंयत: बध्नाति? संयतासंयत: है? असंयत करता है? संयतासंयत करता है? नोसंजए नोअसंजए नोसंजयासंजए बंधइ? बध्नाति? नोसंयत: नोअसंयत: नो संयता- नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत करता है? संयत: बध्नाति? गोयमा! संजए सिय बंधइ, सिय नो बंधइ। गौतम ! संयत: स्यात् बध्नाति, स्यान् नो गौतम! संयत ज्ञानावरणीय कर्म का बंधस्यात् करता अस्संजए बंधइ, संजयासंजए वि बंध। बध्नाति। असंयत: बध्नाति, संयतासंयत: है, स्यात् नहीं करता। असंयत बंध करता है, नोसंजए नोअस्संजए नोसंजयासंजए,न बं- अपि बध्नाति। नोसंयत: नोअसंयत: नोधइ। संयतासंयत: न बध्नाति। -नोसंयतासंयत बंध नहीं करता। एवं आउगवज्जाओ सत्त वि। आउगे हेट्ठि- एवम् आयुष्यकवर्जानि सप्त अपि। आयु- इसी प्रकार आयुष्य को छोड़कर सातों ही कर्मल्ला तिण्णि भयणाए, उवरिल्ले न बंधइ। ष्यकम् अधस्तना: त्रयो भजनया, उपरितन: प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता। प्रथम तीनोंन बध्नाति। संयत, असंयत और संयतासंयत आयुष्य कर्म का बंध स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। चौथा भंगनोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत नहीं करता। ३८. नाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं सम्यग्दृष्टि : ३८. भन्ते! ज्ञानावरणीय कर्म का बंधसम्यग्दृष्टि करता सम्मदिट्ठी बंधइ? मिच्छ दिट्ठी बंधइ? सम्मा- बध्नाति? मिथ्यादृष्टि : बध्नाति? सम्यग्- है? मिथ्यादृष्टि करता है? सम्यग्मिथ्यादृष्टि करता मिच्छ दिट्ठी बंधइ? मिथ्यादृष्टि : बध्नाति? १. प.सं.पू.२४६-देवणिरयाउगाणं उक्कोसगो ठिइबंधो तेत्तीस सागरोपमाणि पुन्व- कोडि तिभागहियाणि, पुनकोडि तिभागो अबाहा अबाहाए विणा कम्मट्टिई कम्मणिसेगो।। २. वही, गाथा ३९५ अबाधूणडि दी, कम्मनिसेओ होइ सत्तकम्माणा ठिदिमेव णिया सव्वा, कम्मणिसेओ य आउस्स ।। Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोमा ! सम्मदिट्ठी सिय बंधइ, सिय नो बंध | मिच्छदिट्ठी बंधड़, सम्मामिच्छदिट्ठी बंधड़ । एवं आगवन्जाओ सत वि आउगे हे डिल्ला दो भयणाए सम्मामिच्छदिट्टी न बंध।। ३९. नाणावरणिज्जं मं भंते! कम्मं किं सनी बंध? असण्णी बंधइ ? नोसण्णी नो असण्णी बंध ? गोवमा ! सण्णी सिय बंधड़, सिग जो बंध असण्णी बंधइ । नोसण्णी नोअसण्णी न बंधइ । एवं वेदणिन्वागकन्याओ छ कम्मरपगडीओ | वेदणिज्जं हे द्विल्ला दो बंधंति, उवरिल्ले भयणाए । आउगं हेट्ठिल्ला दो भयणाए, उवरिल्ले न बंधइ ॥ ४०. नाणावरणिन्वं णं भंते कम्मं किं भवसिद्धिए बंधइ ? अभवसिद्धिए बंधइ ? नोभवसिद्धिए नोअभवसिद्धिए बंधइ ? गोयमा ! भवसिद्धिए भवणाए, अभवसिद्धिए बंधइ । नोभवसिद्धिए नोअभवसिद्धिए न एवं आवज्जाओ सत्त वि। आउगं हेट्ठिल्ला दो भयणा । उवरिल्ले न बंधइ ॥ ४१. नाणावरणिज्जं णं भंते! कम्पं किं चक्खु दंसणी बंधइ ? अचक्खुदंसणी बंध ? ओहि - दंसणी बंध? केवलदंसणी बंधइ ? गोयमा ! हेडिला तिष्णि भयणाए, उवरिल्ले नबंध | २४९ गौतम ! सम्यग्दृष्टिः स्यात् बध्नाति, स्यान् नो बध्नाति । मिथ्यादृष्टिः बध्नाति, सम्यग्मिध्यादृष्टिः बच्नाति । एवम् आयुष्कवर्णानि सप्त अपि । आयुष्कम् अधस्तनी ही भजनया सम्यगृमिध्यादृष्टिः नबध्नाति । ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं संज्ञी बध्नाति ? असंज्ञी बध्नाति ? नोसंज्ञी नोअसंज्ञी बध्नाति ? 2 गौतम संज्ञी स्यात् बध्नाति स्यान् नो बध्नाति । असंज्ञी बध्नाति नोसंज्ञी नोअसंज्ञी नबध्नाति । एवं वेदनीयायुष्ककर्जाः षट्कर्म प्रकृतीः वेदनीयं अधस्तनौ द्वौ बध्नीतः, उपरितनः भजनया। आयुष्कम् अधस्तनौ द्वौ भजनया, उपरितनः न बध्नाति । ज्ञानावरणीयं भदन्त कर्म किं भवसिद्धिकः बध्नाति ? अभवसिद्धिकः बध्नाति ? नोभवसिद्धिकः नोअभवसिद्धिकः बध्नाति ? गौतम । भवसिद्धिकः भजनया, अभवसिद्धिकः बध्नाति । नोभवसिद्धिक: नोअभवसिद्धिकः न बध्नाति । एवं आयुष्कवर्जीनि सप्त अपि । आयुष्कम् अधस्तनौ द्वौ भजनवा, उपरितन: न बध्नाति । ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं चक्षुर्दर्शनी बध्नाति ? अचक्षुर्दर्शनी बध्नाति ? अवधिदर्शनी बध्नाति ? केवलदर्शनी बध्नाति ? गौतम! अधस्तना: त्रयः भजनवा, उपरितनः नबध्नाति । श. ६ : उ. ३ : सू. ३८-४१ गौतम ! सम्यग्दृष्टि ज्ञानावरणीय कर्म का बंध स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता, मिथ्यादृष्टि बंध करता है, सम्यमिध्यादृष्टि बंध करता है। इसी प्रकार आयुष्य को छोड़ कर सातों ही कर्म- प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता । प्रथम दोनोंसम्यदृष्टि और मिथ्यादृष्टि आयुष्य कर्म का बन्ध स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं करता। ३९. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध क्या संजी (समनस्क) करता है? असंज्ञी (अमनस्क) करता है? नोसंज्ञी नोअसंडी (केवली और सिद्ध) करता है? गौतम ! संज्ञी ज्ञानावरणीय कर्म का बंध स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। असंज्ञी बन्ध करता है। नोसंज्ञीनोअसंज्ञी बन्ध नहीं करता । इसी प्रकार वेदनीय और आयुष्क को छोड़ कर छह कर्म - प्रकृतियों के बन्ध की वक्तव्यता । प्रथम दोनोंसंज्ञी और असंज्ञी वेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं; तीसरा नोसंज्ञी नोअसंज्ञी स्वात् बन्ध करता है, स्यात् नहीं करता। प्रथम दोनों— संज्ञी और असंज्ञी आयुष्य कर्म का बन्ध स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। तीसरा नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी बन्ध नहीं करता । --- ४०. भंते! ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध क्या भवसिद्धिक करता है ? अभवसिद्धिक करता है? नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक करता है? गौतम भवसिद्धिक ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। अभवसिद्धिक बंध करता है। नो भवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक बन्ध नहीं करता। इसी प्रकार आयुष्य को छोड़ कर सातों ही कर्मप्रकृतियों के बंध की वक्त व्यता । प्रथम दोनों— भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक आयुष्य कर्म का बन्ध स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। नोभवसिद्धिकनोभवसिद्धिक बन्ध नहीं करता । ४१. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध क्या चक्षुदर्शनी करता है? अवशुदर्शनी करता है? अवधिदर्शनी करता है ? केवलदर्शनी करता है ? गौतम ! प्रथम तीनों दर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करता केवलदर्शनी बन्ध नहीं करता। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.३ : सू.४१-४५ २५० भगवई एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्त वि। वेदणिज्जं हेट्ठिल्ला तिण्णि बंधंति, केवलदसणी भय- णाए।। एवं वेदनीयवर्जानि सप्त अपि। वेदनीयम् अधस्तना:त्रय: बध्नन्ति, केवलदर्शनी भज- नया। इसी प्रकार वेदनीय कर्म को छोड़ कर सातों ही कर्म-प्रकृतियों के बन्ध की वक्तव्यता। प्रथम तीनों वेदनीय कर्म का बंध करते हैं। केवलदर्शनी स्यात् बंध करता है, स्यात् नहीं करता। ४२. नाणावरणिज्जणंभंते ! कम्मं किं पज्जत्तए ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं पर्याप्तकः ४२. भन्ते ! ज्ञानावरणाीय कर्म का बन्ध क्या पर्याप्तक बंधइ? अपज्जत्तए बंधइ? नोपज्जत्तए बध्नाति? अपर्याप्तक: बध्नाति? नो- करता है? अपर्याप्तक करता है? नोपर्याप्तकनोअपज्जत्तए बंधइ? पर्याप्तक: नोअपर्याप्तक: बध्नाति? -नोअपर्याप्तक करता है? गोयमा ! पज्जत्तए भयणाए, अपज्जत्तए गौतम ! पर्याप्तक: भजनया, अपर्याप्तक: गौतम ! पर्याप्तक ज्ञानावरणीय कर्म का बंध स्यात् बंधइ। नोपज्जत्तए नोअपज्जत्तए न बंधइ। बध्नाति। नोपर्याप्तक: नोअपर्याप्तक: न करता है, स्यात् नहीं करता। अपर्याप्तक करता है। बध्नाति। नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक नहीं करता। एवं आउगवज्जाओ सत्त वि। आउगं एवं आयुष्कवर्जानि सप्त अपि। आयुष्कम् इसी प्रकार आयुष्क को छोड़ कर सातों ही कर्महेछिल्ला दो भयणाए, उवरिल्ले न बंधइ।। अधस्तनौ द्वौ भजनया, उपरितन: नो -प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता। आयुष्य कर्मका बध्नाति बंध प्रथम दोनों-पर्याप्तक और अपर्याप्तक स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। नोपर्याप्तक नोअपर्याप्तक नहीं करता। ४३. नाणावरणिज्जंणं भंते ! कम्मं किं भासए ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं भाषक: ४३. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध क्या भाषक बंधइ? अभासए बंधइ? बध्नाति? अभाषक: बध्नाति? (भाषा पर्याप्ति-सम्पन्न) करता है? अभाषक करता गौतम ! द्वौ अपि भजनया। गोयमा ! दो वि भयणाए। एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्त वि। वेदणिज्जं भासए बंधइ, अभासए भयणाए। गौतम ! दोनों ही स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। इसी प्रकार वेदनीय को छोड़ कर सात कर्म-प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता। वेदनीय कर्म का बन्ध भाषक करता है। अभाषक स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। भाषक: बध्नाति, अभाषक: भजनया। ४४. नाणावरणिज्जणं भंते ! कम्मं किं परित्ते ज्ञानावरणीय भदन्त! कर्म किं परीत: ४४. भंते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध क्या परीत बंधइ? अपरित्ते बंधइ? नोपरिते नोअपरित्ते बध्नाति? अपरीत: बध्नाति? नोपरीत: करता है? अपरीत करता है? नोपरीत-नोअपरीत बंधइ? नोअपरीत: बध्नाति? करता है? गोयमा ! परिते भयणाए, अपरिते बंध। गौतम! परीत: भजनया, अपरीत: बध्नाति। गौतम! परीत ज्ञानावरणीय कर्म का बन्धस्यात् करता नोपरित्ते नोअपरित्ते न बंधइ। नोपरीत: नोअपरीत: न बध्नाति। है, स्यात् नहीं करता। अपरीत करता है। नोपरीत -नोअपरीत नहीं करता। एवं आउगवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ। एवं आयुष्कवर्जा: सप्त कर्मप्रकृती:। आयुष्कं इसी प्रकार आयुष्य को छोड़ कर सातों ही कर्म आउयं परित्ते वि, अपरित्ते वि भयणाए, परीत: अपि, अपरीत: अपि भजनया, नोप- प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता। आयुष्क कर्म का नोपरित्ते नोअपरिते न बंध।। रीत: नोअपरीत: न बध्नाति बंध परीत और अपरीत दोनों ही स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। नोपरीत-नोअपरीत नहीं करता। ४५. नाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं ज्ञानावरणीयं भदन्त! कर्म किं आभिनिबो- ४५. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध क्या आभि आभिणिबोहियनाणी बंधइ? सुयनाणी धिकज्ञानी बध्नाति? श्रुतज्ञानी बध्नाति? निबोधिकज्ञानी करता है? श्रुतज्ञानी करता है? बंधइ? ओहिनाणी बंधइ? मणपज्जवनाणी अवधिज्ञानी बध्नाति? मन:पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी करता है? मन:पर्यवज्ञानी करता है? बंधइ? केवलनाणी बंधइ? बध्नाति? केवलज्ञानी बध्नाति? केवलज्ञानी करता है? गोयमा! हेट्ठिल्ला चत्तारि भयणाए। केवल- गौतम ! अधस्तना: चत्वारः भजनया। गौतम ! प्रथम चारों आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुत Jain Education Intemational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई नाणी व बंध एवं वेदणिज्जवन्जाओ सत वि। वेदणिज्जं हेडिल्ला चत्तारि बंधति, केवलनाणी भवणाए|| ४८. नाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं सागारोवडते बंध ? अणागारोवडले बंध ? गोमा ! असु वि भयणाए । २५१ केवलज्ञानी न बध्नाति । ४६. नाणावरणिज्वं णं भंते । कम्मं किं मइअण्णाणी बंध? सुयअण्णाणी बंधइ ? विभंगनाणी बंधइ ? गोयमा आउगवन्याओ सत्त वि बंधति, गौतम! आयुष्कवर्णानि सप्त अपि वनआउगं भयणाए । न्ति, आयुष्कं भजनवा! ५०. नाणावरणिज्जं णं भंते! कम्मं किं सुहुमे बंध ? बादरे बंध? नोहुमे नोबादरे बंध ? एवं वेदनीयवर्णानि सप्त अपि वेदनीयम् अधस्तनाः चत्वारः बध्नन्ति, केवलज्ञानी भजनया। ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं मत्यज्ञानी बध्नाति ? श्रुताज्ञानी बध्नाति ? विभङ्गज्ञानी बध्नाति ? ४७. नाणावरणिज्जं णं भंते । कम्मं किं मणजोगी बंधइ ? वइजोगी बंधइ ? कायजोगी बंध ? अजोगी बंध? गोयमा ! हेडिल्ला तिण्णि भयणाए, अजोगी गौतम ! अधस्तनाः त्रयः भजनया, अयोगी न बघा न बध्नाति । एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्त वि। वेदणिज्जं डिल्ला बंघति, अजोगी न पड़ा। ज्ञानावरणीयं भदन्त कर्म किं मनोयोगी बध्नाति ? वाग्योगी बध्नाति ? काययोगी बध्नाति ? अयोगी बध्नाति ? एवं वेदनीयवर्णानि सप्त अपि । वेदनीयम् अधस्तनाः बध्नन्ति, अयोगी न बध्नाति । ४९. नाणावर णिज्जं मं भंते! कम्मं किं आहारए ज्ञानावरणीयं भदन्त । कर्म किम् आहारकः बध्नाति ? अनाहारक: बध्नाति ? गौतम ! द्वौ अपि भजनया। एवं वेदनीयायुष्कवनां षण्णाम् वेदनीयम् आहारकः बध्नाति, अनाहारक: भजनया । आयुष्कम् आहारकः भजनया, अनाहारक: नबध्नाति बंध ? अणाहारए बधं ? गोयमा ! दो वि भयणाए । एवं वेदणिज्जाउगवाणं छह वेदणिज्जं आहारए बंधइ, अणाहारए भयणाए । आउए आहारए भयणाए, अणाहारए न बंध ।। ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं साकारोपयुक्त: बध्नाति ? अनाकारोपयुक्तः बध्नाति ? गौतम ! अष्टसु अपि भजनया। ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं सूक्ष्मः बध्नाति? बादर: बध्नाति ? नोसूक्ष्मः नोबादरः श. ६ : उ. ३ : सु. ४५-५० ज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनः पर्यवज्ञानी स्यात् ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करते हैं, स्यात् नहीं करते। केवलज्ञानी बंध नहीं करता।. इसी प्रकार वेदनीय कर्म को छोड़ कर सातों ही कर्म- प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता । वेदनीय कर्म का बन्ध प्रथम चारों करते हैं । केवलज्ञानी स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। ४६. भन्ते! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या मति अज्ञानी करता है? श्रुत- अज्ञानी करता है? विभंगज्ञानी करता है ? गीतम! आयुष्यकर्म को छोड़ कर सातों ही कर्मप्रकृतियों का बन्ध वे करते हैं, आयुष्य कर्म का बंध स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। ४७. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या मनयोगी करता है? वचनयोगी करता है? काययोगी करता है? अयोगी करता है? गौतम ! प्रथम तीनों स्यात् ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करते हैं, स्यात् नहीं करते। अयोगी नहीं करता । इसी प्रकार वेदनीय को छोड़ कर सातों ही कर्म-प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता वेदनीय कर्म का प्रथम तीनों करते हैं, अयोगी नहीं करता। ४८. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या साकार उपयोग वाला करता है? अनाकार उपयोग वाला करता है? गौतम! आठों ही कर्म-प्रकृतियों का बंध वे स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। ४९. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या आहारक करता है? अनाहारक करता है? गौतम ! दोनों ही स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। इसी प्रकार वेदनीय और आयुष्य को छोड़ कर छह कर्म प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता वेदनीय कर्म का बंध आहारक करता है। अनाहारक स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। आयुष्य कर्म का बंध आहारक स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। अनाहारक नहीं करता। ५०. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या सूक्ष्म करता है ? बादर करता है? नोसूक्ष्म-नोबादर करता है? Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.३: सू.३५-५१ २५२ भगवई बध्नाति? गोयमा ! सुहमे बंधइ, बादरे भयणाए। नो- गौतम ! सूक्ष्म: बध्नाति, बादर: भजनया। सुहमे नोबादरे न बंधइ। नोसूक्ष्म: नोबादर: न बध्नाति। एवं आउगवज्जाओ सत्त वि। आउगं सु- एवं आयुष्कवर्जानि सप्त अपि। आयुष्कं हमे बादरे भयणाए। नोसुहमे नोबादरे न सूक्ष्म: बादर: भजनया नोसूक्ष्म: नोबादर:न बंधइ॥ बध्नाति। गौतम ! सूक्ष्म बंध करता है। बादर स्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। नोसूक्ष्म-नोबादर नहीं करता। इसी प्रकार आयुष्य को छोड़कर सातों ही कर्म-प्रकृतियों के बंध की वक्तव्यता। आयुष्य कर्म का बंध सूक्ष्म और बादर स्यात् करते हैं, स्यात् नहीं करते। नोसूक्ष्म-नोबादर नहीं करता। ५१. नाणावरणिज्जणं भंते ! कम्मं किं चरिमे बंधइ? अचरिमे बंधइ? गोयमा ! अट्ठ वि भयणाए। ज्ञानावरणीयं भदन्त ! कर्म किं चरमः ५१. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या चरम करता बध्नाति? अचरम: बध्नाति? है? अचरम करता है? गौतम! अष्ट अपि भजनया। गौतम! आठों ही कर्म-प्रकृतियों का बंधस्यात् करता है, स्यात् नहीं करता। भाष्य १. सूत्र ३५-५१ संज्ञी वीतराग संज्ञी के ज्ञानावरण कर्म का बन्ध नहीं होता, सराग संज्ञी के सवेद-अवेद होता है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी केवली और सिद्ध होते हैं। उनके ज्ञानावरणीय का बन्ध नौवें गुणस्थान के प्रारम्भ तक जीव सवेद (वेद-सहित) होता हैं। नहीं होता। संज्ञी और असंज्ञी वेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं। केवली के वेदनीय का नौवें गुणस्थान के उत्तरभाग में वह अवेद (वेद-रहित) हो जाता है। अवेद बन्ध होता है, सिद्ध के नहीं होता, इसलिए तृतीय विकल्प में भजना का निर्देश है। अवस्था में दसवें गुणस्थान तक ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है। उसके आगे ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण कर्म का बंधनहीं होता। भवसिद्धिक भवसिद्धिक के दो प्रकार हैं-वीतराग भवसिद्धिक और सराग भवसातवें गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में आयुष्य का बंध नहीं होता, इसलिए सिद्धिक। वीतराग भवसिद्धिक ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करता, सराग भवसिद्धिक अवेद जीव आयुष्य का बंध नहीं करता। आयुष्य का बंध जीवन में केवल करता है, इसलिए भजना का निर्देश है। तृतीय विकल्प का स्वामी सिद्ध है, उसके एक बार होता है, इसलिए आयु-बन्ध की भजना का निर्देश है। बन्ध-काल कर्म का बन्ध नहीं होता। में उसका बंध होता है, अबंध-काल में नहीं होता। आयुबन्ध के योग्य काल का विवेचन भ. ५/५९-६१ का भाष्य द्रष्टव्य। दर्शन वीतराग छद्मस्थ ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करते, शेष करते हैं; इसलिए नौवें गुणस्थान तक ज्ञानावरणीय का बन्ध होता है। उससे आगे के चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी औरअवधिदर्शनी में भजना का निर्देश है। सयोगी केवलगुणस्थानों में नहीं होता, इसलिए भजना का निर्देश है। दर्शनी के वेदनीय का बन्ध होता है, अयोगी केवली और सिद्ध के नहीं होता, संयत-असंयत इसलिए भजना का निर्देश है। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध होता है। उसके कर्मबन्ध .. का काइ हतु नहा है, इसालए वह ज्ञानावरण कम का बन्ध नहा करता। वीतराग पर्याप्तक ज्ञानावरण कर्म का अबन्धक है। सराग पर्याप्तक दर्शनावरण आदि छह कर्मों की वक्तव्यता ज्ञानावरण के समान है। संयत, उसका बन्ध करता है। इसलिए भजना का निर्देश है। ततीय विकल्प का स्वामी असंयत और संयतासंयत के आयुष्य का बंध स्यात् होता है, स्यात् नहीं होता सिद्ध है। वह कर्म का अबन्धक है। है। सिद्ध के आयुष्य का बन्ध नहीं होता। भाषक सम्यग्दृष्टि वीतराग भाषक ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करता, सराग करता है। द्वितीय सम्यग्दृष्टि के दो प्रकार हैं-सराग सम्यग्दृष्टि और वीतराग सम्यग्- विकल्प के स्वामी चार हैं-अयोगी केवली, सिद्ध, एकेन्द्रिय और विग्रहगतिदृष्टि। सराग सम्यग्दृष्टि के ज्ञानावरण का बन्ध होता है, वीतराग सम्यग्दृष्टि के नहीं समापनक जीव। इनमें अयोगी केवली और सिद्ध ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करते, होता। एकेन्द्रिय और विग्रहगति-समापन्नक जीव करते हैं, इसलिए भजना का निर्देश है। १. भ.जो. ९९/७०-७३। अबंधकाले तु न बध्नाति, आयुष: सकृदेवैकत्र भवे बन्धात्, निवृत्तस्त्र्यादिवेदस्तु न बध्नाति, २. भ.बृ. ६/३६-तत्र स्त्र्यादित्रयमायुः स्याद्बध्नाति स्यान्न बनाति, बन्धकाले बध्नाति निवृत्तिबादरसम्परायादि गुणस्थानकेष्वायुर्बन्धस्य व्यवच्छिन्नत्वात्। Jain Education Intemational Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५३ श.६: उ.३: सू.३५-५२ अयोगीकेवली और सिद्ध वेदनीय कर्म के अबन्धक हैं, एकेन्द्रिय और विग्रहगति सराग आहारक के उसका बन्ध होता है। केवलिसमुद्घात के तीसरे, चौथे और समापन्नक जीव उसका बंध करते हैं। पांचवे समय में केवली अनाहारक होता है, वह ज्ञानावरण कर्म का अबन्धक है। विग्रहगति में समापनक अनाहारक जीव उसका बन्ध करता है। समुद्घातगत परीत-अपरीत केवली और विग्रहगति-समापन्नक जीव अनाहारक अवस्था में वेदनीय कर्म का परीत के दो अर्थ हैं—प्रत्येक शरीरी जीव और परिमित संसार (जन्म बन्ध करते हैं, अयोगी केवली और सिद्ध के उसका बंध नहीं होता। मरण) वाला जीव। अपरीत का अर्थ है साधारण शरीर वाला जीव और अनन्त । संसार वाला जीव। वीतराग परीत ज्ञानावरण का अबन्धक है, सराग परीत उसका सूक्ष्म-बादर बन्धक है। __एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म और बादर दोनों प्रकार के होते हैं, शेष जीव ज्ञान केवल बादर होते हैं। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से सूक्ष्म जीवों की शारीरिक रचना आभिनिबोधिक ज्ञानी आदि चार विकल्पों में यदि वीतराग है, वह । बहुत सूक्ष्म होती है। उनके शरीर समुदित होकर भी (चाक्षुक) दृष्टिगोचर नहीं अबन्धक है; यदि सराग है, वह बन्धक है। पांचवें विकल्प के स्वामी तीन हैं बनते। वीतराग बादर जीव ज्ञानावरण कर्म का अबन्धक है। सराग बादर जीव सयोगी केवली, अयोगी केवली और सिद्ध । सयोगी केवली बन्धक है, शेष दो उसका बन्धक है। नो सूक्ष्म-नो बादर सिद्ध होता है, वह अबन्धक है। अबन्धक हैं। वीतराग और सयोगी केवली ज्ञानावरण का बन्ध नहीं करते, इसलिए भजना का निर्देश है। चरम-अचरम जिसका भव चरम होगा, वह चरम है। जिसका भव चरम नहीं होगा, साकार-अनाकार (उपयोग) वह अचरम है। सयोगी चरम यथायोग आठों कर्मों का बन्ध करता है। अयोगी साकार और अनाकार उपयोग वाले सयोगी जीव कर्म का बन्ध करते चरम अबन्धक होता है, इसलिए भजना का निर्देश है। संसारी अचरम जीव आठों हैं। साकार-अनाकार उपयोग वाले अयोगी जीव कर्म का बन्ध नहीं करते। कर्मों का बन्ध करता है, मुक्त जीव का पुनर्भव नहीं होता, इस अपेक्षा से वह भी आहारक-अनाहारक अचरम है, वह कर्म का अबन्धक होता है, इसलिए अचरम में भी भजना का वीतराग और केवली आहारक के ज्ञानावरण कर्म का बन्ध नहीं होता, निर्देश है। वेदगावेदगाण जीवाणं अप्पाबहयत्त-पदं वेदकावेदकानांजीवानाम् अल्पबहु- वेदक-अवेदक जीवों का अल्पबहुत्व-पद त्व-पदम् ५२. एएसि णं भंते ! जीवाणं इत्थीवेदगाणं एतेषां भदन्त! जीवानां स्त्रीवेदकानां, पुरुष- ५२.१ भन्ते! स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक और पुरिसवेदगाणं, नपुंसगवेदगाणं, अवेदगाण य वेदकाना, नपुंसकवेदकानाम् अवेदकानां अवेदक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा? बहुया वा? चकतरे कतरेभ्य: अल्पा: वा? बहुका: वा? अथवा विशेषाधिक हैं? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? तुल्याः वा? विशेषाधिका: वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, गौतम ! सर्वस्तोका: जीवा: पुरुषवेदकाः, गौतम ! पुरुषवेदक सबसे अल्प हैं, स्त्रीवेदक उनसे इत्थिवेदगा संखेज्जगुणा, अवेदगा अणंतगु- स्त्रीवेदका: संख्येयगुणाः, अवेदका: संख्येयगुना हैं, अवेदक उससे अनन्तगुना हैं, नपुंसक णा, नपुंसगवेदगा अणंतगुणा। अनन्तगुणा:, नपुंसकवेदका: अनन्तगुणाः। वेदक उनसे अनन्तगुना हैं। एएसि सव्वेसिंपदाणं अप्प-बहुगाइं उच्चारे- __ एतेषां सर्वेषां पदानाम् अल्प-बहुकानि इन सब पदों (संयत आदि) का अल्पबहुत्व उच्चारयव्वाई जाव सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा, उच्चरीयतव्यानि यावत् सर्वस्तोका: णीय है यावत् अचरम जीव सबसे अल्प हैं, चरम चरिमा अणतगुणा।। जीवा: अचरमा:, चरमा: अनन्तगुणाः। उनसे अनन्तगुना हैं। भाष्य १. सूत्र ५२ वेद के भाव और अभाव की अवस्था में जीवों के चार वर्गीकरण होते हैं-१. स्त्रीवेदक २. पुरुषवेदक ३. नपुंसकवेदक ४. अवेदक। इस सूत्र तथा अन्य सूत्रों (सूत्र ३५-५१) के पदों का अल्पबहुत्व इस प्रकार १.वेदक पुरुषवेदक स्त्रीवेदक अवेदक नपुंसकवेदक सवेदक सर्वस्तोक संख्यातगुना अनन्तगुना अनन्तगुना विशेषाधिक १. भ७/१—विग्रहगति में जीव एक अथवा दो समय अनाहारक रहता है। Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.३ : सू.५२,५३ २५४ भगवई सर्वस्तोक असंख्यातगुना २. संयत संयत संयतासंयत नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत असंयत ९. परीत परीत नोपरीत-नोअपरीत - अपरीत - सर्वस्तोक अनन्तगुना अनन्तगुना अनन्तगुना अनन्तगुना - ३. दृष्टि सम्यक्मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि - १०. ज्ञानी मन:पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी सर्वस्तोक अनन्तगुना अनन्तगुना सर्वस्तोक असंख्यातगुना परस्पर तुल्य एवं अवधिज्ञानी से विशेषाधिक अनन्तगुना केवलज्ञानी ४. संज्ञी संज्ञी नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी - असंज्ञी सर्वस्तोक अनन्तगुना अनन्तगुना ११. अज्ञानी विभंगअज्ञानी मतिश्रुतअज्ञानी सर्वस्तोक परस्पर तुल्य एवं अनन्तगुना ५. भवसिद्धिक अभवसिद्धिक नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक - भवसिद्धिक सर्वस्तोक अनन्तगुना अनन्तगुना १२. योगी मनोयोगी वाग्योगी अयोगी काय योगी सयोगी ।। । । । सर्वस्तोक असंख्यातगुना अनन्तगुना अनन्तगुना विशेषाधिक ६. दर्शनी अवधिदर्शनी चक्षुदर्शनी केवलदर्शनी अचक्षुदर्शनी सर्वस्तोक असंख्यातगुना संख्यातगुना अनन्तगुना १३. आहारक अनाहारक आहारक ।। सर्वस्तोक असंख्यातगुना ७. पर्याप्तक नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक अपर्याप्तक पर्याप्तक सर्वस्तोक अनन्तगुना संख्यातगुना १४. सूक्ष्म नोसूक्ष्म-नोबादर बादर । । । सर्वस्तोक अनन्तगुना असंख्यातगुना सूक्ष्म ८.भाषक भाषक अभाषक १५. चरम अचरम सर्वस्तोक अनन्तगुना सर्वस्तोक अनन्तगुना चरम ५३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त! इति। ५३. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद कालादेसेणं सपदेस-अपदेस-पदं कालादेशेन सप्रदेशाप्रदेश-पदम् काल की अपेक्षा सप्रदेश-अप्रदेश-पद ५४. जीवे णं भंते ! कालादेसेणं किं सपदेसे? जीव: भदन्त ! कालादेशेन किं सप्रदेश:? ५४. १ भन्ते ! जीव काल की अपेक्षा क्या सप्रदेश है? अपदेसे? अप्रदेश:? अप्रदेश है? गोयमा ! नियमा सपदेसे। गौतम ! नियमात् सप्रदेशः। गौतम ! नियमत: सप्रदेश है। ५५. नेरइएणं भंते ! कालादेसेणं किं सपदेसे? अपदेसे? गोयमा ! सिय सपदेसे, सिय अपदेसे।। नैरयिक: भदन्त ! कालादेशेन किं सप्रदेश:? ५५. भन्ते ! नैरयिक जीव काल की अपेक्षा क्या सप्रदेश अप्रदेश:? है? अप्रदेश है? गौतम ! स्यात् सप्रदेश:, स्याद् अप्रदेशः। गौतम! स्यात् सप्रदेश है, स्यात् अप्रदेश है। ५६. एवं जाव सिद्धे। एवं यावत् सिद्धः। ५६. इसी प्रकार यावत् सिद्ध की वक्तव्यता। ५७. जीवाणं भंते! कालादेसेणं किं सपदेसा? अपदेसा? गोयमा! नियमा सपदेसा।। जीवा: भदन्त ! कालादेशेन किं सप्रदेशा:? ५७. भन्ते ! जीव काल की अपेक्षा क्या सप्रदेश हैं? अप्रदेशा:? अप्रदेश हैं? गौतम ! नियमात् सप्रदेशा:। गौतम! नियमत: सप्रदेश हैं। ५८. नेरइया णं भंते ! कालादेसेणं किं सपदेसा? नैरयिका: भदन्त ! कालादेशेन किं सप्रदे- ५८. भन्ते ! नैरयिक जीव काल की अपेक्षा क्या सप्रदेश अपदेसा? शा:? अप्रदेशा:? हैं? अप्रदेश हैं? गोयमा ! १. सव्वे वि ताव होज्जा सपदेसा गौतम ! १. सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सप्रदेशाः गौतम ! १. सभी जीव सप्रदेश हैं २. अथवा अनेक २.अहवा सपदेसा य अपदेसे य ३. अहवा २.अथवा सप्रदेशाश्च अप्रदेशश्च ३.अथवा जीव सप्रदेश हैं और एक जीव अप्रदेश है ३. अथवा सपदेसा य अपदेसा य|| सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्चा अनेक जीव सप्रदेश हैं और अनेक जीव अप्रदेश हैं। ५९. एवं जाव थणियकुमारा। एवं यावत् स्तनितकुमारा: ५९. इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देवों की वक्तव्यता। ६०. पुढविकाइया णं भंते ! किं सपदेसा? पृथिवीकायिकाः भदन्त ! किं सप्रदेशा:? ६०. भंते ! पृथ्वीकायिक जीव क्या सप्रदेश हैं? अप्रदेश अपदेसा? अप्रदेशा:? गोयमा ! सपदेसा वि, अपदेसा वि।। गौतम ! सप्रदेशा: अपि, अप्रदेशा: अपि। गौतम ! सप्रदेश भी हैं, अप्रदेश भी हैं। ६१. एवं जाव वणप्फइकाइया।। एवं यावद् वनस्पतिकायिका:। ६१. इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता। ६२. सेसा जहा नेरइया तहा जाव सिद्धा। शेषा: यथा नैरयिका: तथा यावत् सिद्धाः। ६२. शेष सिद्धों तक सभी जीव नैरयिक जीवों की भांति वक्तव्य हैं। Jain Education Intemational Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.४ : सू.६३ २५६ भगवई ६३. आहारगाणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। आहारकाणां जीवैकेन्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः। ६३. आहारक जीवों में जीव-पद और एकेन्द्रिय-पद अणाहारगाणं जीवेगिंदियवज्जा छन्भंगा अनाहारकाणां जीवैकेन्द्रियवर्जा: षड्भङ्गाः को छोड़कर तीन भंग होते हैं। अनाहारक जीवों में एवं भाणियव्वा-१. सपदेसा वा २. अप- एवं भणितव्या:--१. सप्रदेशा: वा २. अप्र- बहुवचनान्त जीव-पद और एकेन्द्रिय-पद को देसा वा ३. अहवा सपदेसे य अपदेसे य देशा: वा ३. अथवा सप्रदेशश्च अप्रदेशश्च छोड़कर छह भंग इस प्रकार हैं—१. अनेक जीव ४. अहवा सपदेसे य अपदेसा य ५. अहवा ४. अथवा सप्रदेशश्च अप्रदेशाश्च ५. अ- सप्रदेश हैं २. अनेक जीव अप्रदेश हैं ३. अथवा सपदेसा य अपदेसे य ६. अहवा सपदेसा य थवा सप्रदेशाश्च अप्रदेशश्च ६. अथवा एक जीव सप्रदेश हैं, एक जीव अप्रदेश है। ४. अथवा अपदेसा या सिद्धेहिं तियभंगो। सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्च । सिद्धेषु त्रिकभङ्गः। एक जीव सप्रदेश है, अनेक जीव अप्रदेश हैं। ५. अथवा अनेक जीव सप्रदेश है, एक जीव अप्रदेश है। ६. अथवा अनेक जीव सप्रदेश हैं, अनेक जीव अप्रदेश है। सिद्ध जीवों में तीन भंग होते हैं। भवसिद्धिया, अभवसिद्धिया जहा ओहिया। भवसिद्धिकाः, अभवसिद्धिका: यथा औघि- भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीव औधिक जीवों नोभवसिद्धिय-नोअभवसिद्धिय-जीवसिद्धे- का:। नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक- की भांति वक्तव्य हैं। नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक हिं तियभंगो। -जीव-सिद्धयोः त्रिकभङ्गः। जीव और सिद्ध के तीन-तीन भंग होते हैं। सण्णीहिं जीवादिओ तियभंगो। असण्णीहिं संशिषु जीवादिक: त्रिकभङ्गः। असंज्ञिषु एके- जीव आदि पदों (जीव तथा नैरयिक आदि दण्डकों) एगिदियवज्जो तियभंगो। नेरइयदेवमणुएहिं न्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः। नैरयिक-देव-मनुजेषु में संज्ञी जीवों के तीन भंग होते हैं। असंज्ञी जीवों में छन्भंगो। नोसण्णि-नोअसण्णि-जीव- षड्भङ्गः। नोसंज्ञि-नोअसंज्ञि-जीव-मनुज- एकेद्रिय को छोडकर तीन भंग होते हैं। नैरयिक, देव -मणुय-सिद्धेहिं तियभंगो। -सिद्धेषु त्रिकभङ्गः। और मनुष्यों में छह भंग होते हैं। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों में जीव, मनुष्य और सिद्ध के तीन-तीन भंग होते हैं। सलेसा जहा ओहिया। कण्हलेस्सा, नील- सलेश्या: यथा औधिकाः। कृष्णलेश्या:, लेश्या-युक्त जीवों की भंग-व्यवस्था औधिक जीव लेस्सा, काउलेस्सा जहा आहारओ, नवरं नीललेश्या:, कापोतलेश्या: यथा आहार- की भांति वक्तव्य है। कृष्ण लेश्या वाले, नील लेश्या -~-जस्स अत्थि एयाओ। तेउलेस्साए जीवा- कः, नवरं—यस्य सन्ति एताः। तेजोलेश्या- वाले और कापोत लेश्या वाले जीवों की भंगदिओ तियभंगो, नवर—पुढविक्काइएसु, यां जीवादिक: त्रिकभङ्ग, नवरं—पृथिवी- व्यवस्था आहारक की भांति वक्तव्य है। केवल इतना आउवणप्फतीसु छन्भंगा। पम्हलेस्ससुक्क- कायिकेषु, अब्वनस्पतिषु षड्भङ्गाः। पद्म- विशेष है—जिन दण्डकों में ये लेश्याएं उपलब्ध हैं। लेस्साए जीवादिओ तियभंगो। अलेसेहिं लेश्यशुक्ललेश्यो: जीवादिकः त्रिकभङ्गः। तैजस लेश्या वाले जीवों के जीव आदि पदों (नारक, जीव-सिद्धेहिं तियभंगो। मणुएसु छब्भंगा। अलेश्येषु जीव-सिद्धेषु त्रिकभङ्गः। मनुजेषु तेजो, वायु, विकलेन्द्रिय और सिद्ध को वर्ज कर) में षड्-भङ्गाः। तीन भंग होते हैं। केवल इतना विशेष है—पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में छह भंग होते हैं। पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले जीवों के जीव आदि पदों (पंचेन्द्रिय तिर्यक् , मनुष्य और वैमानिक पदों) में तीन भंग होते हैं। लेश्या-रहित जीव और सिद्धों में तीन भंग होते हैं। मनुष्यों में छह भंग होते हैं। सम्मद्दिट्ठीहिं जीवादिओ तियभंगो। विग- सम्यग्दृष्टिषु जीवादिक: त्रिकभङ्गः। विकले- सम्यग्दृष्टि जीवों के जीव आदि पदों में तीन भंग लिदिएसु छन्भंगा। मिच्छदिट्ठीहिं एगिदिय- न्द्रियेषु षड्भङ्गाः। मिथ्यादृष्टिषु एकेन्द्रियवर्ज: होते हैं। विकलेन्द्रिय जीवों में छह भंग होते हैं। वज्जो तियभंगो। सम्मामिच्छदिट्ठीहिं छब्भं- त्रिकभङ्गः। सम्यमिथ्यादृष्टिषु षड्भङ्गाः। मिथ्यादृष्टि जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग गा। होते हैं। सम्यमिथ्यादृष्टि जीवों में छह भंग होते हैं। संजएहिं जीवादिओ तियभंगो। अस्संजएहिं संयतेषु जीवादिकः त्रिकभङ्गः। असंयतेषु । संयत जीवों के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। एगिदियवज्जो तियभंगो । संजयासंजएहिं एकेन्द्रियवर्जः त्रिकभङ्गः। संयतासंयतेषु असंयत जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग तियभंगो जीवादिओ। नोसंजय-नोअसंजय- त्रिकभङ्ग: जीवादिक। नोसंयत-नोअसंयत- होते हैं। संयतासंयत जीवों के जीव आदि पदों में -नोसंजयासंजय-जीव-सिद्धेहिं तियभंगो। -नोसंयतासंयत-जीव-सिद्धेषु त्रिकभङ्गः। तीन भङ्ग होते हैं। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयता Jain Education Intemational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई सकसाईहिं जीवादिओ तियभंगो एगिदिए अभंगकं । कोहकसाईहिं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो देवेहिं तब्भंगा माणकसाई मायाकसाईंहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो नेरइय-देवेहिं छब्भंगा। लोभकसाईहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। नेरइएसु छब्भंगा । अकसाई जीव-माणुएहिं सिद्धेहिं तियांगो ओहियनाणे, आभिणिलोहियनाणे, सुयनाणे वादितियभंग । विगलिंदिएहिं छब्भंगा । ओहिनाणे मणपज्जवनाणे केवलनाणे जीवादिओ तियभंगो। ओहिए अण्णाणे, मइअण्णाणे, सुयअण्णाणे एगिंदियवज्जो तियभंगो। विभंगनाणे जीवादिओ तिवगंगो सजोगी जहा ओहिओ। गणजोगी, वइजोगी, कायजोगी जीवादिओ तियभंगो, नवरं - कायजोगी एगिदिया, ते अभंगयं । अजोगी जहा अलेस्सा। सवेदगा जहा सकसाई इत्थिवेदक पुरिस वेदग-नपुंसगवेदगेसु जीवादिओ तियभंगो, नवरं – नपुं सगवेदे एगिंदिए अभंगयं । अवेदगा जहा अकसाई । ससरीरी जहा ओहिओ । ओरालियवेडव्वियसरीराणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। आहारगसरीरे जीव- मणुएसु छब्भंगा, तेयगकम्मगाई जहा ओहिया । असरीरेहिं जीवसिद्धेहिं तियभंगो। आहारपज्जतीए, सरीरपज्जतीए, इंदिय पज्जत्तीए, आणापाणपज्जत्तीए जीवेगिंदियबन्यो तियभंगो, भासामणपज्जतीए जहा सण्णी । आहार- अपज्जत्तीए जहा अणा २५७ सागारोवउत्त- अणागारोवउत्तेहिं जीवेगिंदि- साकारोपयुक्त-अनाकारोपयुक्तेषु जीवैकेयवज्जो तियांगो न्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः । सवेदका यथा सकषायः स्त्रीवेदक-पुरुषवेदक - नपुंसकवेदकेषु जीवादिकः, त्रिकभङ्गः, नवरं – नपुसंकवेदे एकेन्द्रियेषु अभङ्गकम् । अवेदका: यथा अकषायः । सकषायेषु जीवादिकः त्रिकभङ्गः । एकेन्द्रियेषु अभंगकम्। क्रोधकषाविषु जीवकेन्द्रियवर्जः त्रिकभनः । देवेषु षड्भकाः मानकषायि मायाकषायिषु जीवकेन्द्रियवर्गः त्रिकभङ्गः। नैरयिक- देवेषु षड्भङ्गाः । लोभकषायिषु जीवै केन्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः । नैरयिकेषु षभाः। अकषायि जीव-मनुजेषु सिद्धेषु त्रिकभङ्गः । औधिकज्ञाने, आभिनिबोधिकज्ञाने, श्रुतज्ञाने जीवादिक: त्रिकभङ्गः। विकलेन्द्रियेषु षड्भङ्गाः । अवधिज्ञाने, मनः पर्यवज्ञाने, केबलवाने जीवादिक: त्रिकभतः । औधिके अज्ञाने, मत्त्वज्ञाने, श्रुताज्ञाने, एकेन्द्रियवर्ज: त्रिकभङ्गः । विभज्ञाने जीवादिक: त्रिकभङ्गः । " सयोगी यथा औधिकः ॥ मनोयोगी, वाम्योगी, काययोगी जीवादिकः त्रिकभत्र: नवकाययोगी एकेन्द्रिया:, तेषु अभत्रकम् । अयोगी यथा अलेश्याः ॥ सशरीरी यथा औधिकः । औदारिक-वैक्रियशरीराणां जीवैकेन्द्रियवर्ज: त्रिकभतः आ हारकशरीरे जीव - मनुजेषु षड्भङ्गाः, तैजसकर्मके यथा औधिकः। अशरीरेषु जीव- सिद्धेषु त्रिकभङ्गः । आहारपर्याप्ती, शरीरपर्याप्ती, इन्द्रियपर्याप्तौ, आनापानपर्याप्तौ जीवैकेन्द्रियवर्जः त्रिकभत्र, भाषा मनः पर्याप्तौ यथा संज्ञी। आहार अपर्याप्तौ यथा अनाहारकाः, श. ६ : उ. ४ : सू. ६३ संयत, जीव और सिद्धों में तीन भंग होते हैं। सकषायी जीवों के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में कोई भंग नहीं होता। क्रोध कषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। देवों में छह भंग होते हैं। मानकषायी और मायाकषायी जीवों में जीव तथा एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं नैरयिकों में और देवों में छह भंग होते हैं। लोभ-कषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। नैरयिकों में छह भंग होते हैं। अकषायी जीव और मनुष्यों तथा सिद्धों में तीन भंग होते हैं। औधिकज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। विकलेन्द्रिय जीवों में छह भंग होते हैं। अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। औधिक अज्ञानी, मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। विभंगज्ञानी के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। सयोगी औधिक जीव की भांति वक्तव्य है। मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी के जीव आदि पदों के तीन भंग होते हैं। केवल इतना विशेष है— काययोगी एकेन्द्रिय जीवों में कोई भंग नहीं होता। अयोगी लेश्या रहित जीवों की भांति वक्तव्य है। साकारोपयोग वाले और अनाकारोपयोग वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। सवेदक सकषाय जीवों की भांति वक्तव्य है। स्वीवेदक, पुरुषवेदक और नपुंसकवेदक जीवों के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। केवल इतना विशेष है: नपुंसकवेदक एकेन्द्रिय जीवों में कोई भंग नहीं होता। अवेदक अकषायी की भांति वक्तव्य है। सशरीर औधिक जीव की भांति वक्तव्य है। औदारिक और वैक्रिय शरीरी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। आहारक शरीरी जीव और मनुष्यों में छह भंग होते हैं। तैजस और कर्मक शरीरी औधिक जीव की भांति वक्तव्य है। अशरीर जीव और सिद्धों में तीन भंग होते हैं। आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और आनापान पर्याप्ति वाले जीवों में जीव तथा एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। भाषा और मन पर्याप्ति वाले जीव संझी जीव की भांति वक्तव्य हैं। आहार Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. ४ : स. ५४-६३ हारमा, सरीर अपज्जतीए, इंदिय अपज्ज त्तीए, आणापाण- अपज्जत्तीए जीवेगिंदिववज्जो तियभंगो, नेरइय-देवं मनुएहिं छब्धंगा, भासा पण अपन्नत्तीए जीवादिओ तियभंगो, नेरइय- देव मणुएहिं तब्भंगा। - संगहणी गाहा सपदेसाहारग भविय सण्णि-लेस्सा-दिवि संजय कसाए नाणे जोगुवओगे, वेदे य सरीर पज्जत्ती ॥ १ ॥ - २५८ - शरीर अपर्याप्ती, इन्द्रिय- अपर्याप्ती, आनापान- अपर्याप्तौ जीवैकेन्द्रियवर्ज: त्रिकभन्न:, नैरविक देव-मनुजेषु षड्भवाः, भाषामनः अपर्याप्तौ जीवादिक: त्रिकभवः, नैरदिक देव मनुजेषु पद्मन्त्राः। संग्रहणी गाथा सप्रदेशाहारक- भविक - संज्ञि लेश्या दृष्टि संयत-कषायाः । ज्ञानं योगोपयोगी वेदश्च शरीर पर्याप्ती ॥ १ ॥ भाष्य १. सूत्र ५४ ६३ २ सप्रदेश और अप्रदेश सापेक्ष शब्द हैं। इस पर अनेक नयों से विमर्श किया गया है। प्रस्तुत आलापक में काल की दृष्टि से सप्रदेश- अप्रदेश का विमर्श किया गया है, जिसे उत्पन्न हुए एक समय बीता है, वह अप्रदेश और जिसकी स्थिति दो तथा उससे अधिक समय की है वह सप्रदेश कहलाता है।' जीव और नैरयिक के उदाहरण से इस विषय को समझाया गया है। जीव अनादि होने के कारण अनन्त समय की स्थिति वाला है; इसलिए वह नियमत: सप्रदेश है। उसे अनन्त भागों में विभक्त किया जा सकता है। इस प्रकार काल की अपेक्षा उसका व्यक्तित्व अनन्त खण्ड वाला हो जाता है। इसका समर्थन उत्तरायणाणि के इस सूत्र से होता है संतई पप्पऽनाईया।' ३ नैरयिक, मनुष्य यावत् सिद्ध सप्रदेश व अप्रदेश दोनों होते हैं। जो प्रथम समय में उत्पन्न हैं, वे अप्रदेश होते हैं। जिनका उत्पत्तिकाल दो समय तथा उससे अधिक समय की स्थिति का हो, वे सप्रदेश होते हैं। अनेक जीवों की अपेक्षा विचार करने पर समुच्चय में जीव नियमतः सप्रदेश हैं। बहुवचन में नैरयिक के तीन विकल्प बनते हैं: १. उपपात के विरह काल में पूर्वोत्पन्न सभी नैरयिक सप्रदेश होते हैं। २. पूर्वोत्पन्न नैरयिकों के मध्य एक नैरयिक उत्पन्न होता है, उस स्थिति में अनेक सप्रदेश और एक अप्रदेश होता है। ३. पूर्वोत्पन्न नैरयिकों के मध्य अनेक नैरयिक एक साथ उत्पन्न होते हैं, तब तीसरा विकल्प बनता है— अनेक सप्रदेश और अनेक अप्रदेश। एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर शेष सभी जीवों तथा सिद्धों के वे तीन-तीन विकल्प होते हैं। एकेन्द्रिय जीव सप्रदेश व अप्रदेश दोनों होते हैं १. द्रष्टव्य भ. ५/२०१२०७ का भाष्या २. भ. वृ. ६ / ५४ - यो ह्येकसमयस्थितिः सोऽप्रदेश: द्वयादिसमयस्थितिस्तु सप्रदेश, इह चानया गाथया भावना कार्या भगवई अपर्याप्त वाले जीव अनाहारक जीव की भांति वक्तव्य हैं। शरीर अपर्याप्त वाले, इन्द्रिय अपर्याप्त और आनापान अपर्याप्ति वाले जीवों में जीव तथा एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग होते हैं। नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग होते हैं। भाषा और मनअपर्याप्ति वाले जीवों के जीव आदि पदों में तीन भंग होते हैं। नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग होते हैं। संग्रहणी गाथा वे १. जिनका उत्पत्तिकाल दो तथा उससे अधिक समय का हो गया, सब सप्रदेश होते हैं। २. एकेन्द्रिय में प्रति समय अनेक जीव उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिए वे अप्रदेश भी हैं। प्रदेश आहारक, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संवत, " कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति — उक्त दस सूत्रों (५४-६३) में ये विषय वर्णित हैं। बहुवचन में छह भंग भी बनते हैं असंज्ञी से उत्पन्न बहुवचनान्त नारक के छह विकल्प इस प्रकार बनते हैं— १. उपपात के विरह - काल में पूर्वोत्पन्न सभी नैरयिक सप्रदेश होते हैं। २. कुछ जीव एक साथ उत्पन्न हुए, उत्पत्ति के प्रथम समय में वे सब अप्रदेश होते हैं। ३. उत्तर. ३६ / ७९/ ४. पण्ण. ६ / ६२, ६३१ ३. असंज्ञी से नरक में उत्पन्न होने वालों में द्वितीय आदि समयवर्ती एक जीव सप्रदेश तथा प्रथम समयवर्ती एक जीव अप्रदेश होता है। ४. असंज्ञी से नरक में उत्पन्न होने वालों में द्वितीय आदि समयवर्ती एक जीव सप्रदेश है, प्रथम समयवर्ती अनेक जीव अप्रदेश हैं। ५. असंज्ञी से नरक में उत्पन्न होने वालों में द्वितीय आदि समयवर्ती अनेक जीव सप्रदेश एवं प्रथम समयवर्ती एक जीव अप्रदेश हैं। ६. असंज्ञी से नरक में उत्पन्न होने वाले जीवों में द्वितीय आदि समयवर्ती अनेक जीव सप्रदेश एवं प्रथम समयवर्ती अनेक जीव अप्रदेश हैं। शब्द-विमर्श सप्रदेश – सावयव, सविभाग अप्रदेश - निरवयव, अविभाग - जो जस्स पढमसमय बट्टति भावस्स सो उ अपदेसो । अण्णम्मि वट्टमाणो कालाएसेण सपएसो Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५९ श.६: उ.४: सू.५४-६३ देखें तालिका १. कालादेश से सप्रदेश व अप्रदेश भंग १. एक जीव २. एक नारक यावत् एक सिद्ध ३. अनेक जीव ४. अनेक नारक तथा एकेन्द्रिय-वर्जित शेष दंडक और सिद्ध नियमत: सप्रदेश स्यात् सप्रदेश, स्यात् अप्रदेश नियमत: सप्रदेश १. सर्व सप्रदेश २. अथवा अनेक सप्रदेश, एक अप्रदेश ३. अथवा अनेक सप्रदेश, अनेक अप्रदेश। सप्रदेश भी, अप्रदेश भी। ५. एकेन्द्रिय २. आहारक भंग ६. एक जीव, एक नारक यावत् एक वैमानिक ७. अनेक जीव और अनेक एकेन्द्रिय ८. अनेक नारक यावत् अनेक वैमानिक स्यात् सप्रदेश,स्यात् अप्रदेश सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ३. अनाहारक भंग ९. एक जीव, एक नारक यावत् सिद्ध १०. अनेक जीव और अनेक एकेन्द्रिय ११. अनेक नारक तथा एकेन्द्रिय-वर्जित शेष दंडक स्यात् सप्रदेश, स्यात् अप्रदेश सप्रदेश भी, अप्रदेश भी १. सर्व सप्रदेश २. सर्व अप्रदेश ३. अथवा एक सप्रदेश, एक अप्रदेश ४. अथवा एक सप्रदेश, अनेक अप्रदेश ५. अथवा अनेक सप्रदेश, एक अप्रदेश ६. अथवा अनेक सप्रदेश, अनेक अप्रदेश । १२. अनेक सिद्ध ३ ४. भव्य-अभव्य भंग १३. एक जीव १४. एक नारक यावत् एक वैमानिक १५. अनेक जीव १६. अनेक नारक तथा एकेन्द्रिय-वर्जित शेष दंडक १७. अनेक एकेन्द्रिय नियमत: सप्रदेश स्यात् सप्रदेश, स्यात् अप्रदेश नियमत: सप्रदेश सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ५. नोभव्य-नोअभव्य भंग स्यात् सप्रदेश, स्यात् अप्रदेश १८. एक जीव/एक सिद्ध १९. अनेक जीव/अनेक सिद्ध Jain Education Intemational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६: उ. ४: सू. ५४-६३ २६० भगवई ६. संज्ञी भंग २०. अनेक जीव और एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-वर्जित शेष दंडक ७. असंज्ञी सप्रदेश भी, अप्रदेश भी भंग २१. अनेक एकेन्द्रिय २२. तीन विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय एवं मनुष्य ३ २३. असंज्ञी से उत्पन्न होने वाले अनेक नारक, भवनपति, ६ व्यंतर और मनुष्य ८. नोसंज्ञी नोअसंज्ञी भग २४. अनेक मनुष्य, अनेक सिद्ध ३ ९. सलेश्य भंग २५. एक जीव २६. एक नारक यावत् एक वैमानिक २७. अनेक जीव २८. एकेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक यावत् अनेक वैमानिक २९. अनेक एकेन्द्रिय नियमत: सप्रदेश स्यात् सप्रदेश, स्यात् अप्रदेश नियमत: सप्रदेश ३ सप्रदेश भी, अप्रदेश भी १०. कृष्ण-, नील-, कापोत-लेश्यी भंग स्यात् सप्रदेश, स्यात् अप्रदेश सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ३०. एक जीव, एक नारक यावत् एक व्यंतर ३१. अनेक जीव और अनेक एकेन्द्रिय ३२. अनेक नारक, भवनपति, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और व्यंतर ११. तेजोलेश्यी भंग ३३. अनेक भवनपति, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक ३४. अनेक पृथ्वी, अप्, वनस्पति Jain Education Intemational Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६१ श.६:उ.४: सू.५४-६३ १२. पालेश्यी-शुक्ललेश्यी भंग ३५. अनेक जीव, अनेक तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और वैमानिक १३. अलेश्यी ३६. अनेक जीव, अनेक सिद्ध ३७. अनेक मनुष्य १४. सम्यग्दृष्टि भंग ३ ३८. अनेक जीव, एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-वर्जित शेष दंडक ३९. अनेक विकलेन्द्रिय १५. मिथ्यादृष्टि सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ४०. अनेक एकेन्द्रिय ४१. एकेन्द्रिय-वर्जित शेष दंडक १६. सम्यगमिथ्यादृष्टि भंग ४२. एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक आदि १६ दंडक १७. संयत भंग ४३. अनेक जीव, अनेक मनुष्य १८. असंयत सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ४४. अनेक एकेन्द्रिय ४५. अनेक जीव एकेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. ४ : सू. ५४-६३ ४६. अनेक जीव, अनेक तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य ४७. अनेक जीव अनेक सिद्ध ४८. अनेक जीव, एकेन्द्रिय वर्जित अनेक नारक आदि उनीस दंडक ४९. एकेन्द्रिय ५०. अनेक जीव, अनेक एकेन्द्रिय ५१. अनेक नारक, तीन विकलेन्द्रिय तिर्दच पंचेन्द्रिय और मनुष्य ५२. अनेक भवनपति, व्यंतर ज्योतिष्क, वैमानिक ५३. अनेक जीव, अनेक एकेन्द्रिय ५४. अनेक विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य ५५. अनेक नारक, भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक ५६. अनेक जीव, अनेक एकेन्द्रिय ५७. अनेक नारक ५८. नारक एकेन्द्रिय वर्जित अनेक भवनपति आदि अठारह दंडक ५९. अनेक जीव, अनेक मनुष्य, अनेक सिद्ध २६२ १९. संयतासंयत भंग ३ २०. नोसंयत नोअसंयत भंग ३ २१. सकषाय भंग ३ २२. क्रोधकषायी भंग ३ ६ २३. मानकषायी मायाकषायी भंग ३ ६ २४. लोभकषायी भंग सप्रदेश भी अप्रदेश भी २५. अकषाय भंग ३ प्रदेश भी, अप्रदेश भी सप्रदेश भी अप्रदेश भी " सप्रदेश भी अप्रदेश भी " भगवई Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६०. अनेक जीव, एकेन्द्रिय - विकलेन्द्रिय वर्जित शेष सोलह दण्डक ६१. विकलेन्द्रिय ६२. अनेक जीव, एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय वर्जित अनेक भवनपति आदि सोलह दंडक ६३. अनेक जीव, अनेक मनुष्य | ६४. अनेक जीव, अनेक मनुष्य, अनेक सिद्ध २६. ज्ञानी औधिक ज्ञानी मति श्रुत ज्ञानी भंग ६५. अनेक जीव, एकेन्द्रिय वर्जित उन्नीस दंडक ६६. अनेक एकेन्द्रिय ६७. अनेक जीव एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय वर्जित शेष सोलह दंडक - ६८. एक जीव ६९. एक नारक आदि २४ दंडक ७०. अनेक जीव ७१. एकेन्द्रिय वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक २६३ ३ - ६ २७. अवधिज्ञानी ३०. अज्ञानी औधिक अज्ञानी मति भंग ३ २८. मनः पर्यवज्ञानी भंग ३ २९. केवलज्ञानी भंग ३ भंग ३ ३१. विभंगज्ञान भंग ३ ३२. सयोग भंग - श्रुत- अज्ञानी सप्रदेश भी अप्रदेश भी नियमतः सप्रदेश स्यात् सप्रदेश, स्यात् अप्रदेश नियमतः सप्रदेश श. ६ : उ. ४ : सू. ५४-६३ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.४: सू.५४-६३ २६४ भगवई ३३. मनयोगी भंग ७२. अनेक जीव, एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-वर्जित सोलह उंडक ३४. वचनयोगी भंग ७३. अनेक जीव, एकेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक ३५. काययोगी भग ७४. अनेक जीव, एकेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक ७५. अनेक एकेन्द्रिय सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ३६. अयोगी भंग ७६. अनेक जीव, अनेक सिद्ध ७७. अनेक मनुष्य | ३७. साकार-अनाकारोपयुक्त सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ७८. अनेक जीव, अनेक एकेन्द्रिय ७९. एकेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक, अनेक सिद्ध m ३८. सवेद भंग ३ ८०. अनेक जीव, एकेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक ८१. अनेक एकेन्द्रिय सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ३९. स्त्रीवेदी-पुरुषवेदी भंग ८२. अनेक जीव, अनेक भवनपति, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक Jain Education Intemational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६५ श.६ : उ.४ : सू.५४-६३ ४०. नपुंसकवेदी भंग ३ ८३. अनेक जीव, एकेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक ८४. अनेक एकेन्द्रिय सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ४१. अवेदी WE. ८५. अनेक जीव अनेक मनुष्य अनेक सिद्ध ४२. सशरीर नियमत: सप्रदेश ८६. एक जीव, अनेक जीव ८७. एकेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक ८८. अनेक एकेन्द्रिय सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ४३. औदारिकशरीरी भंग सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ८९. अनेक जीव, अनेक एकेन्द्रिय ९०. अनेक विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य ४४. वैक्रियशरीरी भंग सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ९१. अनेक जीव, अनेक वायुकायिक ९२. अनेक नारक, भवनपति, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक ४५. आहारकशरीरी भंग ९३. अनेक जीव, अनेक मनुष्य ४६. तैजसशरीरी-कार्मणशरीरी भंग ९४. एक जीव, अनेक जीव ९५. अनेक एकेन्द्रिय ९६. एकेन्द्रिय-वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक नियमत: सप्रदेश सप्रदेश भी, अप्रदेश भी ३ Jain Education Intemational Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. ४ सू. ५४-६३ १७. अनेक जीव अनेक सिद्ध ९८. अनेक जीव, अनेक एकेन्द्रिय ९९. एकेन्द्रिय वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक - १००. अनेक जीव एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय वर्जित सोलह दंडक १ ४७. ४८. आहार - शरीर- इन्द्रिय- आनापान पर्याप्ति प्रतिपन्न जीव १०१. अनेक जीव, अनेक एकेन्द्रिय १०२. एकेन्द्रिय वर्जित अनेक नारक आदि उन्नीस दंडक १०३. अनेक जीव अनेक एकेन्द्रिय १०४. अनेक विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय ४९. भाषा - मन पर्याप्ति प्रतिपन्न भंग ३ 7 १०५. अनेक नारक, भवनपति, मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक २६६ अशरीर भंग ५०. आहार अपर्याप्ति वाला भंग १०६. अनेक जीव अनेक एकेन्द्रिय 7 १०७. अनेक जीव अनेक तिर्यच पंचेन्द्रिय 1 १०८. अनेक नारक भवनपति, मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक ३ - भंग ५१. शरीर - इन्द्रिय- आनापान अपर्याप्ति वाला भंग १. अभयदेवसूरि ने भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति के एकत्व का समर्थन किया है। उनके सामने बहुश्रुत मान्यता की परम्परा रही है। इस आधार पर केवल पंचेन्द्रिय का ग्रहण किया गया है। भाषा और मनः पर्याप्ति को स्वतन्त्र मानने पर भी त्रिभंग की व्यवस्था में कोई फर्क नहीं पड़ता। विकलेन्द्रिय जीवों में भाषा पर्याप्ति है उनमें भी तीन भंग प्राप्त होते हैं और मनः पर्याप्ति वाले जीवों में भी तीन भंग होते हैं। भ. वृ. ६ / ६३ - भाषामनसोः पर्याप्तिर्भाषामन: पर्याप्ति:, भाषामनः पर्याप्त्योस्तु बहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वं विवक्षितं, ततश्च तया पर्याप्तका यथा ३ ६ ५२. भाषा - मन- अपर्याप्ति वाला भंग - ३ ६ सप्रदेश भी, अप्रदेश भी सप्रदेश भी, अप्रदेश भी सप्रदेश भी, अप्रदेश भी २ सप्रदेश भी अप्रदेश भी , भगवई सझिनस्तथा सप्रदेशादितया वाच्या, सर्वपदेसु भङ्गकत्रयमित्यर्थः, पंचेन्द्रियपदान्येव चेह वाच्यानि । २. अभयदेवसूरि ने भाषा-अपर्याप्ति, मन अपर्याप्ति में एकेन्द्रिय को समाविष्ट करते हुए लिखा है — भ. वृ. ६ / ६३ - भाषामनोऽपर्याप्त्याऽपर्याप्तकास्ते येषां जातितो भाषामनोयोग्यत्वे सति तदसिद्धिः, ते च पञ्चेन्द्रिया एव। यदि पुनर्भाषामनसोरभावमात्रेण तदपर्याप्तका अभविष्यंस्तदैकेन्द्रिया अपि तेऽभविष्यंस्ततश्च जीवपदे तृतीय एव भन्नः स्यात् । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६७ श.६ : उ.४ : सू.६४-६८ पच्चक्खाणादि-पदं प्रत्याख्यानादि-पदम् प्रत्याख्यानादि-पद ६४. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणी? अ- जीवा: भदन्त ! किं प्रत्याख्यानिन:? अप्र- ६४. भंते ! क्या जीव प्रत्याख्यानी हैं? अप्रत्याख्यानी पच्चखाणी? पच्चक्खाणापच्चक्खाणी? त्याख्यानिनः? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्या- हैं? प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी हैं? निनः? गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि, अपच्च- गौतम ! जीवा: प्रत्याख्यानिन: अपि, अप्र- गौतम ! जीव प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी क्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि॥ त्याख्यानिन: अपि, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्या- हैं और प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी भी हैं। निन: अपि। ६५. सव्वजीवाणं एवं पुच्छा। सर्वजीवानाम् एवं पृच्छा। गोयमा ! नेरइया अपच्चक्खाणी जाव चउ- गौतम ! नैरयिका: अप्रत्याख्यानिन: यावच् रिंदिया (सेसा दो पडिसेहेयव्वा)। पंचिंदिय- चतुरिन्द्रिया: (शेषौ द्वौ प्रतिषेद्धव्यौ) पंचेतिरिक्खजोणिया नो पच्चक्खाणी, अपच्च- न्द्रियतिर्यग्योनिका: नो प्रत्याख्यानिन:, क्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि। अप्रत्याख्यानिन: अपि, प्रत्याख्यानाप्रत्या- मणूसा तिण्णि वि। सेसा जहा नेरइया। ख्यानिन: अपि। मनुष्या: त्रयोऽपि। शेषा: यथा नैरयिकाः। ६५. इस प्रकार सब जीवों की पृच्छा। गौतम ! नैरयिक जीव अप्रत्याख्यानी हैं यावत् चतुरिन्द्रिय जीव अप्रत्याख्यानी हैं। (इनमें शेष दो प्रत्याख्यानी तथा प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी प्रतिषेधनीय है।) पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक प्रत्याख्यानी नहीं है, अप्रत्याख्यानी भी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी भी हैं। मनुष्य तीनों ही हैं। शेष सभी जीव नैरयिक जीवों की भांति वक्तव्य हैं। ६६. जीवा णं भंते! किं पच्चक्खाणं जाणंति? जीवा: भदन्त ! किं प्रत्याख्यानं जानन्ति? ६६. भन्ते ! क्या जीव प्रत्याख्यान को जानते हैं? अप्र अपच्चक्खाणं जाणंति? पच्चक्खाणा- अप्रत्याख्यानं जानन्ति ? प्रत्याख्यानाप्रत्या- त्याख्यान को जानते हैं? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को पच्चक्खाणं जाणंति? ख्यानं जानन्ति ? जानते हैं? गोयमा! जे पंचिदिया ते तिण्णि वि जाणंति, गौतम! ये पञ्चेन्द्रियाः ते त्रीणि अपि जानन्ति, गौतम ! जो पंचेन्द्रिय जीव हैं, वे तीनों को जानते हैं। अवसेसा पच्चक्खाणं न जाणंति, अप- अवशेषा: प्रत्याख्यानं न जानन्ति, अप्रत्या- अवशेष जीव प्रत्याख्यान को नहीं जानते, अप्रत्याच्चक्खाणं न जाणंति, पच्चक्खाणापच्च- ख्यानं न जानन्ति, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानं ख्यान को नहीं जानते, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को क्खाणं न जाणंति।। न जानन्ति। नहीं जानते। ६७. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणं कुव्वंति? जीवा: भदन्त ! किं प्रत्याख्यानं कुर्वन्ति? ६७. भन्ते! क्या जीव प्रत्याख्यान करते हैं? अप्रत्याख्यान अपच्चक्खाणं कुव्वंति? पच्चक्खाणापच्च- अप्रत्याख्यानं कुर्वन्ति ? प्रत्याख्याना- करते हैं? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान करते हैं? क्खाणं कुव्वंति? प्रत्याख्यानं कुर्वन्ति? जहा ओहिओ तहा कुव्वणा॥ यथा औधिक: तथा करणम्। प्रत्याख्यान करने का औधिक सूत्र (६४, ६५) की भांति वक्तव्य है। ६८. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणनिव्व- जीवा: भदन्त ! किं प्रत्याख्याननिर्वर्तिता- ६८. भन्ते! क्या जीव प्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले त्तियाउया? अपच्चक्खानिव्वत्तियाउया? युष्का:? अप्रत्याख्यान-निर्वर्तितायुष्का:? हैं? अप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले हैं? प्रत्यापच्चक्खाणापच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्याननिर्वर्तितायुष्का:? ख्यानाप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले हैं? गोयमा ! जीवा य, वेमाणिया य पच्चक्खा- गौतम ! जीवाश्च वैमानिकाश्च प्रत्याख्या- गौतम ! जीव और वैमानिक देव प्रत्याख्यान से बद्ध णनिव्वत्तियाउया, तिण्णि वि। अवसेसा अप- ननिर्वर्तितायुष्काः, त्रयोऽपि। अवशेषा: अ- आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले च्चखाणनिव्वत्तियाउया। प्रत्याख्याननिर्वर्तितायुष्का:। हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले भी हैं। अवशेष जीव अप्रत्याख्यान से बद्ध आयुष्य वाले हैं। Jain Education Intemational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६:उ.४: सू.६४-६९ २६८ भगवई भाष्य १. सूत्र ६४-६८ करने की क्षमता उत्पन्न नहीं होती, उसका हेतु प्रत्याख्यानावरण मोह का उदय प्रति+आ+ख्या धातु के अनेक अर्थ होते हैं—परित्याग करना, अप्रत्याख्यानावरण मोह का क्षयोपशम होने पर अंशत: प्रत्याख्यान सावध आचरण से निवृत्त होना, अस्वीकार करना निषेध करना। और प्रत्याख्यानावरण मोह का क्षयोपशम होने पर सर्वतः प्रत्याख्यान करने प्रस्तुत प्रकरण में प्रत्याख्यान' पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ की क्षमता उत्पन्न होती है। इसका तात्पर्यार्थ यह है कि मानसिक विकास है—सर्व सावद्य प्रवृत्ति का परित्यागा इस आधार पर प्रत्याख्यानी का अर्थ और चारित्र मोह कर्म का क्षयोपशम—दोनों का योग होने पर ही होता है-सर्व सावध प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान करने वाला, सर्वविरत अथवा आंशिक अथवा पूर्ण प्रत्याख्यान की चेतना जागृत होती है। महाव्रती। सबसमनस्क जीव (नैरयिक, देव, तिर्यंच और मनुष्य) प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानी का अर्थ होगा-अविरत, जिसने कोई भी व्रत को जान सकते हैं। अमनस्क जीवों में उसे जानने की क्षमता नहीं होती। स्वीकार न किया हो। प्रत्याख्यान करने की क्षमता कुछ जीवों में होती है, कुछ जीवों में प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी का अर्थ होगा—देश विरत-बारह व्रती नहीं होती-इसकी वक्तव्यता ऊपर की पंक्तियों में की जा चुकी है। श्रावक-जिसने महाव्रत स्वीकार न किया हो। प्रत्याख्यान की योग्यता सब जीवों में समान नहीं होती, उसके प्रत्याख्यान आयुष्य-बंध का हेतु भी बनता है। उसकी मीमांसा इस अनेक हेतु हैं। नैरयिकों में असात का संवेदन अधिक होता है; इसलिए उनमें प्रकार है—सामान्य जीव-पद में प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान की चेतना नहीं जागती। प्रत्याख्यान-इन तीनों आयुष्य-बंध में हेतु बनते हैं। वैमानिक देव का देवों में सात का संवेदन अधिक होता है, अत: उनमें प्रत्याख्यान आयुष्य-बंध भी इन तीनों के होता है। शेष तेईस दंडकों (वैमानिक को छोड़ के प्रति आकर्षण उत्पन्न नहीं होता। कर) के आयुष्य का बंध अप्रत्याख्यानी जीव ही करते हैं। साधु प्रत्याख्यानी निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है—अत्यन्त दु:खी और और श्रावक प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी होते हैं, इसलिए उनके वैमानिक के अत्यन्त सुखी दोनों ही व्रतस्वीकार करने में सक्षम नहीं होते। व्रत की आराधना अतिरिक्त किसी अन्य आयुष्य का बंध नहीं होता। जयाचार्य ने इसका स्पषट उल्लेख किया हैवही व्यक्तिकर सकता है जो अति दुःखी और अति सुखी न हो। एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव अमनस्क होते हैं। पूर्व कह्या पचखाण, ते आयू बंधण तणां । हेतू पिण 8 जाण, आयु-सूत्र कहियै हिवै॥ मानसिक विकास के बिना व्रत स्वीकार कने का संकल्प जागृत नहीं होता। जीव प्रभु ! पचखाण करै स्यूं आयु बांधै निपजावै? समनस्क पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों में मानसिक चेतना का सीमित विकास होता है; इसलिए उनमें आंशिक प्रत्याख्यान स्वीकार करने की क्षमता उत्पन्न हो अपचखाण करि आयु बांधै, पचखाणापचखाण स्यूं थावै? जिन कहै जीवा पचखाण करिकै, अपचखाण करि सोय। जाती है। मनुष्य में मानसिक विकास पर्याप्त मात्रा में होता हैइसलिए बलि पचखाणापचखाण करिकै, आयु-बंध अवलोय ॥ वैमानिक देवता नो आउखो, पचखाणी पिण बांधै। उसमें आंशिक प्रत्याख्यान तथा पूर्ण प्रत्याख्यान करने का संकल्प हो सकता अपचखाणवंत पिण बांधै, बलि पचखाणापचखाणी सांधै ।। कर्मशास्त्रीय दृष्टि से अप्रत्याख्यान जीव की एक सामान्य अवस्था शेष तेवीस दंडक नो आउखो, अपचखाणी बांधै। है। इसका हेतु अप्रत्याख्यान मोह का उदय है। जिन जीवों में पूर्ण प्रत्याख्यान पचखाणी नै पचखाणापचखाणी नरकादिक आयु न सांधै॥ संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा १. पच्चक्खाणं २. जाणइ, १. प्रत्याख्यानं २. जानाति, १. प्रत्याख्यानी २. प्रत्याख्यान को जानना। ३. प्रत्या३. कुव्वइ ४. तिण्णेव आउनिव्वत्ती। ३. करोति ४.त्रीण्येव आयुर्निर्वृत्तिा ख्यान करना और ४. तीनों से आयुष्य का निबन्ध सपएसुद्देसम्मि य, सप्रदेशोद्देशे च, -इस प्रकार सप्रदेश के उद्देशक में ये चार दण्डक एमेए दंडगा चउरो ॥१॥ एवमेते दण्डकाश्चत्वारः||१॥ और प्रतिपादित हैं। ६९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ६९. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। १. आप्टे-प्रत्यारूया-Todeny २. वही, प्रत्याख्या -To decline, refuse, reject ३. भ.वृ. ६/६४-पच्चक्खाणि' त्ति सर्वविरता: 'अपच्चक्खाणि' त्ति अविरताः, 'पच्च क्खाणापच्चक्खाणि' त्ति देशविरता इतिः। ४. भ. जो. २/१०२/१८-२२॥ Jain Education Intemational Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक मल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद तमुक्काय-पदं तमस्काय-पदम् ७०. किमियं भंते! तमुक्काए त्ति पन्वुच्चति? किमयं भदन्त ! तमस्काय: इति प्रोच्यते? किं किं पुढवी तमुक्काए त्ति पब्बुच्चति? आऊ । पृथिवी तमस्काय: इति प्रोच्यते? किम् आप: तमुक्काए ति पव्वुच्चति? तमस्काय: इति प्रोच्यते? गोयमा ! नो पुढवि तमुक्काए त्ति पव्वु- गौतम! नो पृथिवी तमस्काय: इति प्रोच्यते, च्चति, आऊ तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति।। आप: तमस्काय: इति प्रोच्यते? तमस्काय-पद ७०.भन्ते! तमस्काय किसे कहा जाता है? क्या पृथ्वी को तमस्काय कहा जाता है? क्या जल को तमस्काय कहा जाता है? गौतम ! पृथ्वी को तमस्काय नहीं कहा जाता, जल को तमस्काय कहा जाता है। ७१. से केणटेणं? गोयमा ! पुढविकाए णं अत्थेगइए सुभे देसं पकासेइ, अत्थेगइए देसं नो पकासेड़ा से तेणद्वेण ॥ तत् केनार्थेन? गौतम ! पृथिवीकायः अस्त्येकक: शुभः देशं प्रकाशयति, अस्त्येकक: देशं नो प्रकाशयति। तत्तेनार्थेन। ७१. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! कुछेक शुभ (भास्वर) पृथ्वीकाय विवक्षित क्षेत्र के देश को प्रकाशित करता है और कुछेक पृथ्वीकाय विवक्षित क्षेत्र के देश को प्रकाशित नहीं करता। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैपृथ्वीकाय तमस्काय नहीं है। ७२. तमुक्काए णं भंते ! कहिं समुट्ठिए? कहि तमस्काय: भदन्त! कुत: समुत्थितः? कुत्र संनिट्ठिए? संनिष्ठित:? गोयमा! जंबूदीवस्स दीवस्स बहिया तिरिय- गौतम! जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहिः तिर्यग- मसंखेज्जे दीव-समुद्दे वीईवइत्ता, अरुण- संख्येयान् द्वीप-समुद्रान् व्यतिव्रज्य, अवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ रुणवरस्य द्वीपस्य बाह्याद् वेदिकान्ताद् अरुणोदयं समुई बायालीसं जोयणसह- अरुणोदयं समुद्र द्विचत्वारिंशद् योजन- स्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ सहस्राणि अवगाह्य उपरितनाद् जलान्ताद् एगपएसियाए सेढीए-एत्थ णं तमुक्काए एकप्रदेशिक्या: श्रेण्या:-अत्र तमस्काय: समुट्ठिए। सत्तरस-एक्कवीसे जोयणसए उड्ढे समुत्थितः। सप्तदशैकविंशतियोजनशतानि उप्पइत्ता तओ पच्छा तिरिय पवित्थरमाणे- ऊर्ध्वम् उत्पत्य, तत: पश्चात् तिर्यक् प्र- पवित्थरमाणे सोहम्मीसाण-सणकुमारमाहिंदे विस्तरन्-प्रविस्तरन् सौधर्मेशान-सनत्चत्तारि वि कप्पे आवरित्ता णं उड्ढे पि य णं ___ कुमार-माहेन्द्रान् चतुरोऽपि कल्पान् आवृत्य जाव बंभलोगे कप्पे रिट्ठविमाणपत्थडं संपत्ते ऊर्ध्वमपि च यावद् ब्रह्मलोके कल्पे रिष्ट—एत्थ ण तमुक्काए संनिट्ठिए॥ विमानप्रस्तरं संप्राप्त:-अत्र तमस्काय: संनिष्ठितः। ७२. भन्ते ! तमस्काय कहां से उठता है? और कहां समाप्त होता है? गौतम ! जम्बुद्वीप से बाहर तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर अरुणवर द्वीप के बहिर्वर्ती वेदिका के छोर से आगे जो अरुणोदय समुद्र है, उसमें बयालीस हजार योजन अवगाहन करने पर जल के ऊपर के सिरे से एक प्रदेश वाली (सममिति आकार वाली) श्रेणी निकली है। यहां से तमस्काय उठता है। वह सतरह सौ इक्कीस योजन ऊपर जाता है। उसके पश्चात् तिरछा फैलता हुआ सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र-इन चारों कल्पों (स्वर्गलोकों) को घेर कर ऊपर ब्रह्मलोक कल्प के रिष्ट विमान के प्रस्तर तक पहुंच जाता है। यहां तमस्काय समाप्त होता है। ७३. तमुक्काए ण भंते! किंसंठिए पण्णत्ते? गोयमा ! अहे मल्लग-मूलसंठिए, उप्पिं तमस्काय: भदन्त ! किंसंस्थित: प्रज्ञप्तः? ७३. भन्ते ! तमस्काय का संस्थान कैसा है? गौतम! अध: 'मल्लग'मूलसस्थितः, उपरि गौतम! नीचे से शराव के तल का संस्थान है और Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.५: सू.७३-७७ २७० भगवई कुक्कुडग-पंजरगसंठिए पण्णत्ते॥ कुर्कुटक-पञ्जरकसंस्थितः प्रज्ञप्तः। ऊपर मुर्गे के पिंजरे का संस्थान है। ७४. तमुक्काए णं भंते ! केवतियं विक्खं- तमस्काय: भदन्त! कियान् विष्कम्भेण, ७४. भन्ते ! तमस्काय का विष्कम्भ (चौडाई) कितना भेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पण्णते? कियान् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः। और परिक्षेप (परिधि) कितना प्रज्ञप्त है? गोयमा! दुविहे पण्णते, तं जहा–संखे- गौतम ! द्विविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा--संख्ये- गौतम ! तमस्काय दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेज्जवित्थडे य, असंखेज्जवित्थडे या तत्थ यविस्तृतश्च, असंख्येयविस्तृतश्च। तत्र य: संख्यात योजन विस्तृत और असंख्यात योजन णं जे से संखेज्जवित्थडे, से णं संखेज्जाइं एष: संख्येयविस्तृत: स: संख्येयानि योजन- विस्तृत। जो संख्यात योजन विस्तृत है, उसका जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, असंखेज्जाइं सहस्राणि विष्कम्भेण, असंख्येयानि योजन- विष्कम्भ संख्यात हजार योजन और उसका परिक्षेप जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते। सहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः। असंख्यात हजार योजन प्रज्ञप्त है। तत्थ णं जे से असंखेज्जवित्थडे, से णं तत्र य: एष: असंख्येयविस्तृत: स असंख्येअसंखेज्जाइं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, यानि योजनसहस्राणि विष्कम्भेण, असंख्येअसंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं यानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः। पण्णत्ते॥ जो असंख्यात योजन विस्तृत है, उसका विष्कम्भ असंख्यात हजार योजन और उसका परिक्षेप असंख्यात हजार योजन प्रज्ञप्त है। ७५. तमुक्काए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते? तमस्काय: भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः? ७५. भन्ते ! तमस्काय कितना बड़ा प्रज्ञप्त है? गोयमा! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव- गौतम! अयं जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीप- गौतम ! यह जम्बूद्वीप द्वीप सब द्वीपसमुद्रों के मध्य समुद्दाणं सन्वब्भंतराए जाव एणं जोयजण- समुद्राणां सर्वाभ्यन्तरक: यावद् एकं में अवस्थित है यावत् एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा सयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि योजनशतसहस्रम्, आयाम-विष्कम्भेण, और उसका परिक्षेप तीन लाख, सोलह हजार, दो जोयणसयसहस्साई सोलससहस्साई दोण्णि त्रीणियोजन-शत-सहस्राणि षोडशसहस्राणि सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अठाईस य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे द्वे च सप्तविंशति योजनशते त्रीणि च धनुष और साढ़ा तेरह अंगुल से कुछ अधिक प्रज्ञप्त अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई क्रोशान् अष्टाविंशति च धनुशतं त्रयोदश है। कोई महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् अनुभाव अद्धंगुलगं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं अंगुलानि अर्धांगुलकं च किंचिद् वाला देव 'यह रहा-यह रहा' इस प्रकार कहकर पण्णत्ते। देवे णं महिड्ढीए जाव महाणुभावे विशेषाधिकः परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः। देवः सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप में तीन बार चुटकी बजाने जितने इणामेव-इणामेवत्ति कट्ट केवलकप्पं महर्द्धिक: यावत् महानुभावः इदमेव- समय में इक्कीस बार घूमकर शीघ्र ही आ जाता है, जंबूदीवं दीवं तिहिंअच्छरानिवाएहिं इदमेवेति कृत्वा केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं वह देव उस उत्कृष्ट त्वरित यावत् दिव्य देव गति से तिसत्तक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्व- त्रिभिः 'अच्छरा निपातैः त्रिसप्तकृत्व: ___परिव्रजन करता हुआ-परिव्रजन करता हुआ यावत् मागच्छिज्जा, से णं देवे ताए उक्किट्ठाए अनुपर्यट्य हव्वं' आगच्छेत्, स देव: तया तुरियाए जाव दिव्वाए देवगईए वीईवय- उत्कृष्टतया त्वरितया यावद् दिव्यया देव- तक परिव्रजन करे तो किसी (संख्यात योजन विस्तार माणे-वीईवयमाणे जाव एकाहं वा, दुयाहं गत्या व्यतिव्रजन्-व्यतिव्रजन् यावद् एकाहं वाले) तमस्काय का अतिक्रमण कर जाता है और वा, तियाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासे वा यह वा त्र्यहं वा उत्कर्षेण षण्मासान् किसी (असंख्यात योजन विस्तार वाले) तमस्काय वीईवएज्जा, अत्थेगतियं तमुक्कायं व्यतिव्रजेत, अस्त्येकक: तमस्कायं व्यति- का अतिक्रमण नहीं कर पाता। गौतम ! तमस्काय वीईवएज्जा, अत्थेगतियं तमुक्कायं नो व्रजेत, अस्त्येकक: तमस्कायं नो व्यति- इतना बड़ा प्रज्ञप्त है। वीईवएज्जा। एमहालए णं गोयमा! व्रजेत्। इयन्महान् गौतम ! तमस्काय: तमुक्काए पण्णत्ते ॥ प्रज्ञप्तः। ७६. अत्थि णं भंते ! तमुक्काए गेहा इ वा? गेहावणा इ वा? णो तिणढे समढे॥ अस्ति भदन्त ! तमस्काये गेहानि इति वा? गेहापणा : इति वा? नायमर्थः समर्थः। ७६. भन्ते ! तमस्काय में क्या घर है? गृह-आपण (दुकानें) हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। ७७. अत्थि णं भते ! तमुक्काए गामा इ वा? अस्ति भदन्त ! तमस्काये ग्रामा इति वा? ७७. भन्ते! तमस्काय में क्या गांव हैं? यावत् सन्निवेश Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७१ श.६: उ.५: सू.७५-८५ जाव सण्णिवेसा इति वा? णो तिणढे समढे॥ यावत् सन्निवेशा इति वा? नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। ७८. अत्थि णं भंते ! तमुक्काए ओराला अस्ति भदन्त ! तमस्काये 'ओराला' ७८. भन्ते! तमस्काय में क्या बड़े मेघ संस्विन्न होते हैं? बलाहया संसेयंति? सम्मुच्छंति? वासं वासं- बलाहका: संस्विद्यन्ति? सर्मूच्छन्ति? वर्षाः संमूर्छित होते हैं? (मेघ का आकार लेते है) बरसते वर्षन्ति? हंता अत्थि।। हन्त आस्ति। हां, ऐसा होता है। ति? ७९. तं भंते ! किं देवो पकरेति? असुरो तद् भदन्त ! किं देव: प्रकरोति? असुरः पकरेति? नागो पकरेति? प्रकरोति? नाग: प्रकरोति? गोयमा ! देवो विपकरेति, असुरो वि गौतम ! देवोऽपि प्रकरोति, असुरोऽपि पकरेति, नागो विपकरेति।। प्रकरोति, नागोऽपि प्रकरोति। ७९. भन्ते ! क्या वह संस्वेदन सम्मूर्च्छन, वर्षण कोई देव करता है? असुर करता है? नाग करता है? गौतम ! देव भी करता है, असुर भी करता है, नाग भी करता है। ८०. अत्थि णं भंते ! तमुक्काए बादरे थणिय- सद्दे? बादरे विज्जुयारे? हंता अत्थि।। अस्ति भदन्त! तमस्काये बादर: स्तनि- ८०. भन्ते ! तमस्काय में क्या बादर (स्थूल) गर्जन का तशब्द:? बादर: विद्युत्कार:? शब्द है? बादर विद्युत् है। हन्त अस्ति। ८१. तं भंते ! किं देवो पकरेति? असुरो पकरेति? नागो पकरेति? तिण्णि वि पकरेंति।। तद् भदन्त ! किं देवः प्रकरोति? असुरः प्रकरोति? नागः प्रकरोति? त्रयोऽपि प्रकुर्वन्ति। ८१. भन्ते ! क्या वह (गर्जन का शब्द और विद्युत्) कोई देव करता है? असुर करता है? नाग करता है? तीनों ही करते हैं। ८२. अत्थि णं भंते! तमुक्काए बादरे पुढविकाए? बादरे अगणिकाए? णो तिणढे समढे, नण्णत्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं॥ आस्ति भदन्त! तमस्काये बादर: पृथिवी- ८२. भन्ते! तमस्काय में क्या बादर पृथ्वीकाय हैं? बादर काय:? बादर: अग्निकाय:? अग्निकाय हैं? नायमर्थः समर्थः नान्यत्र विग्रहगतिसमा- यह अर्थ संगत नहीं है, विग्रहगति (अन्तरालगति) पन्नकात्। करते हुए जीवों को छोड़ कर । ८३. अत्थिणं भंते ! तमुक्काए चंदिम-सूरिय- अस्ति भदन्त ! तमस्काये चन्द्र-सूर्य- ८३. भन्ते ! तमस्काय में चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र -गहगण-नक्खत्त-तारारूवा? -ग्रहगण-नक्षत्र-तारारूपा? और तारारूप हैं? णो तिणढे समढे, पलियस्सओ पुण अत्थि।। नायमर्थः समर्थः, परिपार्श्वत: पुन: अस्ति। यह अर्थ संगत नहीं है। उसके परिपार्श्व में चन्द्रमा आदि पांचों हैं। ८४. अत्थि ण भंते ! तमुक्काए चंदाभा ति वा? सूराभा ति वा? णो तिणढे समढे, कादूसणिया पुण सा।। अस्ति भदन्त ! तमस्काये चन्द्राभा इति वा? ८४. भन्ते ! तमस्काय में क्या चन्द्रमा की आभा है? सूराभा इति वा? सूर्य की आभा है? नायमर्थः समर्थः, कदूषणिका पुन: सा। यह अर्थ संगत नहीं है। पार्श्ववर्ती चन्द्र, सूर्य की प्रभा तमस्काय में आ कर धुंधली बन जाती है। ८५. भन्ते ! तमस्काय वर्ण से कैसा प्रज्ञप्त है? पण्णते? ८५. तमुक्काए णं भंते ! केरिसए वण्णएणं तमस्काय: भदन्त ! कीदृशक: वर्णकेण प्रज्ञप्त:? गोयमा ! काले कालोभासे गंभीरे लोम- गौतम! काल: कालाभास: गम्भीर: लोम- हरीसजणणे भीमे उत्तासणए परमकिण्हे हर्षजनन: भीम: उत्तासनक: परमकृष्ण: वण्णेणं पण्णत्ते। देवे विणं अत्थेगतिए जेणं वर्णेन प्रज्ञप्तः। देवोऽपि अस्त्येकक: य: गौतम ! वह वर्ण से काला, कृष्ण अवभासवाला, गम्भीर, रोमाञ्च उत्पन्न करने वाला, भयंकर, उत्त्रासक और परम कृष्ण प्रज्ञप्त है। कोई एक देव भी Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.५ : सू.८५-९० २७२ भगवई तप्पढमयाए पासित्ता णं खुभाएज्जा, अहेणं तत्प्रथमतया दृष्ट्वा क्षुभ्येत्, अध: अभिअभिसमागच्छेज्जा तओ पच्छा सीहं-सीहं समागच्छेत् तत: पश्चात् शीघ्र-शीघ्रं त्वरितंतुरियं-तुरियं खिप्पामेव वीतीवएज्जा। -त्वरितं क्षिप्रमेव व्यतिव्रजेत् ।। उसे देखकर प्रथम दर्शन में क्षुब्ध हो जाता है; यदि वह उसमें प्रविष्ट हो जाता है तो उसके पश्चात् अतिशीघ्रता और अतित्वरा के साथ झटपट उसके बाहर चला जाता है। ८६. तमुक्कायस्स णं भंते ! कति नामधेज्जा तमस्काय भदन्त ! कति नामधेयानि प्रज्ञ- ८६. भन्ते ! तमस्काय के कितने नाम हैं? पण्णता? प्तानि? गोयमा ! तेरस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! त्रयोदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद् गौतम ! तमस्काय के तेरह नाम प्रज्ञप्त हैं, जैसे –तमे इ वा, तमुक्काए इ वा, अंधकारे इ यथा-तम: इति वा, तमस्काय: इति वा, तम, तमस्काय, अन्धकार, महान्धकार, लोकावा, महंधकारे इ वा, लोगंधकारे इ वा, अन्धकारः इति वा, महान्धकारः इति वा, न्धकार, लोकतमिस्र, देवान्धकार, देवतमिस्र, देवालोगतमिसे इवा, देवंधकारे इवा, देवतमिसे लोकान्धकारः इति वा, लोकतमिस्रम् इति रण्य, देवव्यूह, देवपरिघ, देवप्रतिक्षोभ, अरुणोदक इ वा, देवरण्णे इ वा, देववूहे इ वा, देव- वा, देवान्धकारः इति वा, देवतमिस्रम् इति समुद्रा फलिहे इवा, देवपडिक्खोभे इवा, अरुणोदए वा, देवारण्यम् इति वा, देवव्यूह: इति वा, इ वा समुद्दे॥ देवपरिघ : इति वा, देवप्रतिक्षोभ: इति वा, अरुणोदय: इति वा समुद्रः। ८७. तमुक्काए णं भंते ! किं पुढविपरिणामे? तमस्काय: भदन्त ! किं पृथिवीपरिणाम:? ८७. भन्ते ! तमस्काय क्या पृथ्वी का परिणमन है? आउपरिणामे? जीवपरिणामे? पोग्गल- अप्परिणामः? जीवपरिणाम:? पुद्गल- जल का परिणमन है? जीव का परिणमन है? पुद्गल परिणाम? परिणाम:? का परिणमन है? गोयमा! नो पुढविपरिणामे, आउपरिणामे गौतम ! नो पृथिवीपरिणाम: अप्परि- गौतम ! तमस्काय पृथ्वी का परिणमन नहीं है, जल वि, जीवपरिणामे वि, पोग्गलपरिणामे वि॥ णाम:अपि, जीवपरिणाम: अपि, पुद्गल- का परिणमन भी है, जीव का परिणमन भी है, पुद्गल परिणाम:अपि। का परिणमन भी है। ८८. तमुक्काए णं भंते ! सव्वे पाणा भूया तमस्काये भदन्त ! सर्वे प्राणा: भूता: जीवा: ८८. भन्ते ! क्या तमस्काय में सब प्राण, भूत, जीव जीवा सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव तस- सत्त्वा: पृथिवीकायिकतया यावत् त्रस- और सत्त्व पृथ्वीकाय रूप में यावत् त्रसकाय रूप में काइयत्ताए उववन्नपुवा? कायिकतया उपपन्नपूर्वा:? उपपन्न पूर्व हैं? हंता गोयमा! असतिं अदुवा अणंतक्खुत्तो, हन्त गौतम ! असकृद् अथवा अनन्तकृत्व:, हां, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न नो चेव णं बादरपुढविकाइयत्ताए, बादर- नो चैव बादरपृथिवीकायिकतया, बादराग्नि- हुए हैं, पर बादर पृथ्वीकायिक और बादर अग्निअगणिकाइयत्ताए वा। कायिकतया वा। कायिक के रूप में उपपन्न नहीं हुए। कण्हराइ-पदं कृष्णराजि-पदम् ८९. कइणं भंते ! कण्हरातीओ पण्णत्ताओ? कति भदन्त ! कृष्णराजय: प्रज्ञप्ता:? गोयमा! अट्ठ कण्हरातीओ पण्णत्ताओ॥ गौतम ! अष्ट कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः। कृष्णराजि-पद ८९. भन्ते ! कृष्णराजियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! आठ कृष्णराजियां प्रज्ञप्त हैं। ९०. कहिणं भंते ! एयाओ अट्ठ कण्हरातीओ कुत्र भदन्त ! एता: अष्ट कृष्णराजय: प्रज्ञ- ९०, भन्ते ! ये आठ कृष्णराजियां कहां प्रज्ञप्त हैं? पण्णत्ताओं? प्ता:? गोयमा ! उप्पिं सणंकुमार-माहिंदाणं गौतम ! उपरि सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्प- गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प से ऊपर कप्पाणं, हव्विं बंभलोए कप्पे रिठे यो: 'हव्विं ब्रह्मलोके कल्पे रिष्टे विमान- ब्रह्मलोक कल्प में रिष्ट विमान प्रस्तर के समानान्तर विमाणपत्थडे, एत्थ णं अक्खाडग- प्रस्तटे, अत्र अक्षपाटक-समचतुरस्र- आखाटक के आकार वाली समचतुरस्र संस्थान से -समचउरंस-संठाण-संठियाओ अट्ठ कण्ह- -संस्थान-संस्थिताः अष्ट कृष्णराजय: प्र- संस्थित आठ कृष्णराजियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-दो पूर्व रातीओ पण्णत्ताओ, तं जहा–पुरत्थिमे णं ज्ञप्ताः, तद् यथा—पौरस्त्ये द्वे, पश्चिमे द्वे, में, दो पश्चिम में, दो दक्षिण में और दो उत्तर में। पूर्व Jain Education Intemational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७३ श.६: उ.५: सू.९०-९२ दो, पच्चत्थिमे णं दो, दाहिणे ण दो, उत्तरे दक्षिणे द्वे, उत्तरे द्वे। पौरस्त्याभ्यन्तरा णं दो। पुरत्थिमन्भंतरा कण्हराती दाहिण- कृष्णराजि: दक्षिण-बाह्यां कृष्णराजिं बाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा, दाहिणभंतरा स्पृष्टा, दक्षिणाभ्यन्तरा कृष्णराजि: कण्हराती पच्चत्थिम-बाहिरं कण्हरातिं पश्चिम-बाह्यां कृष्णराजिं स्पृष्टा, पुट्ठा, पच्चत्थिमन्भंतरा कण्हराती उत्तर- पश्चिमाभ्यन्तरा कृष्णराजि: उत्तर-बाह्यां बाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा, उत्तरम्भंतरा कृष्णराजिं स्पृष्टा, उत्तराभ्यन्तरा कृष्णराजिः कण्हराती पुरत्थिम-बाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा। पौरस्त्य-बाह्यां कृष्णराजिं स्पृष्टा। दो पुरत्थिम-पच्चत्थिमाओ बाहिराओ द्वे पौरस्त्यपश्चिमे बाह्ये कृष्णराजी षडझे, कण्हरातीओ छलंसाओ, दो उत्तरदाहि- द्वे उत्तर-दक्षिणे बाह्ये कृष्णराजी त्र्यो, द्वे णाओ बाहिराओ कण्हरातीओ तंसाओ, दो पौरस्त्य-पश्चिमे आभ्यन्तरे कृष्णराजी पुरत्थिम-पच्चत्थिमाओ अब्भंतराओ चतुरस्रे, द्वे उत्तर-दक्षिणे आभ्यन्तरे कृष्णकण्हरातीओ चउरंसाओ, दो उत्तर-दा- राजी चतुरस्रे। हिणाओ अब्भतराओ कण्हरातीओ चउरंसाओ। दिशा की भीतरी कृष्णराजि दक्षिण दिशा की बाहरी कृष्णराजि का स्पर्श करती है। दक्षिण दिशा की भीतरी कृष्णराजि पश्चिम दिशा की बाहर कृष्णराजि का स्पर्श करती है। पश्चिम दिशा की भीतरी कृष्णराजि उत्तर दिशा की बाहरी कृष्णराजि का स्पर्श करती है। उत्तर दिशा की भीतरी कृष्णराजि पूर्व दिशा की बाहरी कृष्णराजि का स्पर्श करती है। दो पूर्व और पश्चिम की बाहरी कृष्णराजियां षट्कोण हैं, दो उत्तर और दक्षिण की बाहरी कृष्णराजियां त्रिकोण हैं, दो पूर्व और पश्चिम की भीतरी कृष्णराजियां चतुष्कोण हैं, दो उत्तर और दक्षिण के भीतरी कृष्णराजियां चतुष्कोण हैं। संगहणी गाहा पुवावरा छलसा, तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा। अभंतरा चउरसा, सव्वा वि य कण्हरातीओ॥१॥ संग्रहणी गाथा पूर्वापरे षडझे, त्र्यो पुन: दक्षिणोत्तरे बाह्ये। अभ्यन्तरा: चतुरस्राः, सर्वा अपि च कृष्णराजयः।।१।। संग्रहणी गाथा पूर्व और पश्चिम की बाहरी कृष्णराजियां षट्कोण हैं, दक्षिण और उत्तर की बाहरी कृष्णराजियां त्रिकोण हैं और सभी भीतरी कृष्णराजियां चतुष्कोण हैं। जशप्तह! ९१. कण्हरातीओ णं भंते ! केवतियं आया- कृष्णराजय: भदन्त ! कियत्य: आयामेन? ९१. भन्ते! कृष्णराजियों का आयाम (लम्बाई) कितना, मेणं? केवतियं विक्खंभेणं? केवतियं परि- कियत्य: विष्कम्भेण? कियत्य: परिक्षेपेण विष्कम्भ (चौड़ाई) कितना और परिक्षेप (परिधि) क्खेवेणं पण्णत्ताओ? प्रज्ञप्ता:? कितना प्रज्ञप्त है? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं गौतम! असंख्येयानि योजनसहस्राणि गौतम ! उनका आयाम असंख्येय हजार योजन, आयामेणं, संखेज्जाइं जोयणसहस्साई आयामेन, संख्येयानि योजनसहस्राणि विष्कम्भ संख्येय हजार योजन और परिक्षेप असंख्येय विक्खंभेणं, असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई विष्कम्भेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि हजार योजन प्रज्ञप्त हैं। परिक्खेवेणं पण्णत्ताओ॥ परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः । ९२. कण्हरातीओ णं भंते ! केमहालियाओ कृष्णराजय: भदन्त ! कियन्महत्य: प्रज्ञ- ९२. भन्ते ! कृष्णराजियां कितनी बड़ी प्रज्ञप्त हैं? पण्णत्ताओ? प्ता:? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे जाव देवे णं गौतम ! अयं जम्बूद्वीप: द्वीप: यावद् देव: गौतम ! यह जम्बूद्वीप द्वीप यावत् कोई महान् ऋद्धिमहिढीए जाव महाणुभावे इणामेव-इणामेव महर्द्धिक: यावन् महानुभाव: इदमेव-इदमेव वाला यावत् महान् अनुभाव वाला देव 'यह रहा, यह त्ति कटु केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं तिहिं इति कृत्वा केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं त्रिभिः रहा'-इस प्रकार कह कर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप में अच्छरानिवाएहिं तिसत्तक्खुत्तो अणुपरि- 'अच्छ।' निपातैः त्रिसप्तकृत्व: अनुपर्यट्य तीन बार चुटकी बजाने जितने समय में इक्कीस बार यट्टित्ता णं हव्वमागच्छिज्जा, से णं देवे ताए ‘हब्वं' आगच्छेत्, स देव: तया उत्कृष्टया घूम कर शीघ्र ही आ जाता है। वह देव उस उत्कृष्ट, प्रकिटातीय जात दिलाए देवाईए त्वरितया यावद दिव्यया देवगत्या व्यतित- त्वरित यावत दिव्य देवगति से परिव्रजन करता हुआ वीईवयमाणे-वीईवयमाणे जाव एकाहं वा, जन्-व्यतिव्रजन् यावद् एकाहं वा, यह वा, -परिव्रजन करता हुआ यावत् एक दिन, दो दिन, तीन दुयाहं वा, तियाहं वा, उक्कोसेणं अद्धमासं त्र्यहं वा, उत्कर्षेण अर्द्धमासं व्यतिव्रजेत् । दिन अथवा उत्कर्षत: पन्द्रह दिन परिव्रजन करे तो वीईवएज्जा, अत्थेगइयं कण्हरातिं वीई- अस्त्येककां कृष्णराजिंव्यतिव्रजेत्, अस्त्ये-- किसी कृष्णराजि का अतिक्रमण कर जाता है और वएज्जा, अत्थेगइयं कण्हरातिं णो वीईव- कका: कृष्णराजिनो व्यतिव्रजेत्। इयन्महत्यः किसी कृष्णराजि का अतिक्रमण नहीं कर पाता। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.५:सू.९२-१०० २७४ भगवई गौतम ! कृष्णराजियां इतनी बड़ी प्रज्ञप्त हैं। एज्जा। एमहालियाओ णं गोयमा! कण्हरा- गौतम ! कृष्णराजः प्रज्ञप्ताः। तीओ पण्णत्ताओ। ९३. अत्थि णं भंते ! कण्हरातीसु गेहा इवा? गेहावणा इवा? णो इणठे समढे॥ अस्ति भदन्त ! कृष्णराजिषु गेहानि इति ९३. भन्ते ! कृष्णराजियों में क्या घर हैं? गृह-आपण वा? गेहापणा: इति वा? (दुकानें) हैं? नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। ९४. अत्थिणं भंते! कण्हरातीसुगामा इवा? जाव सण्णिवेसा इवा? णो इणढे समढे॥ अस्तिभदन्त! कृष्णराजिषु ग्रामा: इति वा? ९४. भन्ते! कृष्णराजियों में क्या गांव हैं यावत् सन्निवेश यावत् सन्निवेशा: इति वा? नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं हैं। ९५. अत्थि णं भंते ! कण्हरातीसु ओराला अस्ति भदन्त ! कृष्णराजिषु 'ओराला' ९५. भन्ते ! कृष्णराजियों में क्या बड़े मेघ संस्विन्न होते बलाहया संसेयंति? सम्मुच्छंति? वासं बलाहका: संस्विद्यन्ति? संमूर्च्छन्ति? वर्षाः हैं? संमूर्छित होते हैं ? (मेव का आकार लेते हैं) वासंति? वर्षन्ति? बरसते हैं? हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। हां, ऐसा होता है। ९६. तं भंते ! किं देवो पकरेति? असुरो पकरेति? नागो पकरेति? गोयमा! देवो पकरेति, नो असुरो, नो नागो पकरेति॥ तद् भदन्त ! किं देवः प्रकरोति? असुरः प्रकरोति? नाग: प्रकरोति? गौतम ! देव: प्रकरोति, नो असुरः, नो नाग: प्रकरोति। ९६. भन्ते ! क्या वह (संस्वेदन, संमूर्च्छन, वर्षण) कोई देव करता है? असुर करता है? नाग करता है? गौतम ! देव करता है, असुर नहीं करता है, नाग नहीं करता है? ९७. अत्थि णं भंते ! कण्हरातीसु बादरे थणियसद्दे? बादरे विज्जुयारे? हंता अत्थि।। अस्ति भदन्त! कृष्णराजिषु बादर: स्तनित- ९७. भन्ते ! कृष्णराजियों में क्या बादर (स्थूल) गर्जना शब्द:? बादर: विद्युत्कारः? का शब्द है? बादर विद्युत् है? हन्त अस्ति। हां, है। .. ९८. तं भंते ! किं देवो पकरेति? असुरो तद् भदन्त ! किं देव: प्रकरोति? असुरः ९८. भन्ते ! क्या वह (गर्जन का शब्द और विद्युत) पकरेति? नागो पकरेति? प्रकरोति? नाग: प्रकरोति? कोई देव करता है? असुर करता है, नाग करता है? गोयमा! देवो पकरेति, नो असुरो, नो नागो गौतम! देव: प्रकरोति, नो असुरः, नो नाग: गौतम ! देव करता है। असुर नहीं करता, नाग नहीं पकरेति॥ प्रकरोति। करता। ९९. अस्थि णं भंते ! कण्हरातीसु बादरे अस्ति भदन्त ! कृष्णराजिषु बादर: अप्- ९९. भन्ते ! कृष्णराजियों में क्या बादर अप्काय हैं? आउकाए? बादरे अगणिकाए? बादरे वण- कायः? बादर: अग्निकाय:? बादर: वन- बादर अग्निकाय है? बादर वनस्पतिकाय है? प्फइकाए? स्पतिकायः? णो तिणढे समढे, नण्णत्थ विग्गहगति- नायमर्थः समर्थः, नान्यत्र विग्रहगतिसमा- यह अर्थ संगत नहीं है। विग्रहगति (अन्तरालगति) समावन्नएणं॥ पन्नकात्। करते हुए जीवों को छोड़कर १००. अत्थि णं भंते ! कण्हरातीसु चंदिम- -सूरिय-गहगण-नक्खत्त-तारारूवा? णो तिणढे समढे॥ अस्ति भदन्त ! कृष्णराजिषु चन्द्र-सूर्य-ग्रह- १००. भन्ते ! कृष्णराजियों में क्या चन्द्रमा, सूर्य, गण-नक्षत्र-तारारूपा:? ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप हैं? नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। १०१. अत्थि णं भंते ! कण्हरातीसु चंदाभा अस्ति भदन्त ! कृष्णराजिषु चन्द्राभा इति १०१. भन्ते ! कृष्णराजियों में क्या चन्द्रमा की आभा Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ति वा? सूराभाति वा? जो तिड़े समहे ॥ १०२. कण्हरातीओ पं भंते! केरिसियाओ कृष्णराजयः भदन्त ! कीदृश्यः वर्णेन प्रज्ञवण्णेणं पण्णत्ताओ? प्ता: ? गोयमा ! कालाओ कालोभासाओ गंभीराओ लोमहरिसजणणाओ भीमाओ उत्तासणाओ परमकिण्हाओ वण्णेणं पण्णत्ताओ। देवे वि अत्गतिए जेणं तप्पढमयाए पासित्ताणं सुभाएज्जा, अहेणं अभिसमागच्छेज्जा तओ पच्छा सीहं सीहं तुरियं तुरियं खिप्पामेव बीतीवजा ॥ गौतम ! कालाः कालावभासाः गम्भीराः लोमहर्षजनन्य भीमाः उत्त्रासनाः परमकृष्णाः कर्णेन प्रज्ञप्ताः। देवोऽपि अस्त्येककः यः तत्प्रथमतया दृष्ट्वा क्षुभ्येद् अधः अभिसमागच्छेत् ततः पश्चात् शीघ्रं शीघ्रं त्वरितं त्वरितं क्षिप्रमेव व्यतिव्रजेत् । - - १०४. कण्हरातीओ णं भंते! किं पुढवीपरिणामाओ ? आउपरिणामाओ ? जीव परिणामाओ? पोग्गलपरिणामाओ? गोयमा ! पुढविपरिणामाओ, नो आउपरिणामाओ, जीवपरिणामाओ वि, पोग्गलपरिणामाओ वि॥ १०५. कहराती ते सव्ये पाणा भूया जीवा सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव तस काइयत्ताए उबवण्णपुत्रा? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतक्खुत्तो; नो चेव णं बादरआउकाइयत्ताए, बादरअगणिकाइयत्ताए, बादरवणप्फइकाइयत्ताए वा ।। २७५ लोगंतियदेव पदं १०६. एएसि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं असु ओवासंतरेसु अट्ट लोगंतिगविमाणा पण्णत्ता, तं जहा - १. अच्ची २. अच्चिमाली ३. वइरोयणे ४. पभंकरे ५. चंदाभे ६. सूराभे ७. सुक्काभे ८. सुइट्टाभे, मज्झे रिट्ठा || बा? सूराभा इति बारे नायमर्थः समर्थः । १०३. कण्हराती णं भंते! कति नामधेज्जा कृष्णराजीनां भदन्त ! कति नामधेयानि १०३. भन्ते ! कृष्णराज के कितने नाम हैं? पण्णत्ता ? प्रज्ञप्तानि ? गोयमा ! अट्ठ नामघेज्जा पण्णत्ता, तं जहा - कण्हराती इ वा, मेहराती इवा, मघा इ वा, मापवई इ वा नावफलिहावा, वायपलिक्खोभा इवा, देवफलिहा इ वा देवपलिक्खोभा इ वा ॥ 1 गौतम ! अष्टनामधेयानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा कृष्णराजिः इति वा, मेघराजिः इति वा, मघा इति वा मायवती इति वा वातपरिया इतिवा, वातप्रतिक्षोभा इति वा, देवपरिया इति वा देवप्रतिक्षोभा इति वा । कृष्णराजयः भदन्त ! किं पृथिवीपरिणामाः ? अपपरिणामाः ? जीवपरिणामा ? पुद्गलपरिणामा ? गौतम ! पृथिवीपरिणामाः, नो अपूपरिपामा, जीवपरिणामाः अपि पुनरि णामाः अपि| कृष्णराजिषु भदन्त ! सर्वे प्राणाः भूताः जीवाः सत्त्वाः पृथ्वीकायिकतया यात् इसकायिकतथा उपपन्त्रपूर्वा ? हन्त गौतम ! असकृद् अथवा अनन्तकृत्वः, नो चेव बादराकायिकतया, बादराग्निकायिकतया, बादरवनस्पतिकाविकतया वा । लोकान्तिक देव-पदम् एतासाम् अष्टानां कृष्णराजीनाम् अष्टसु अवकाशान्तरेषु अष्ट लोकान्तिकविमानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा १. अर्चिः २. अर्चिमालि: ३. वैरोचन: ४. प्रभङ्करः ५. चन्द्राभः ६. सूराभ: ७. शुक्लाभः ८. सुप्रतिष्ठाभ:, मध्ये रिष्टाभः । श. ६ : उ. ५: सू. १०१-१०६ है? सूर्य की आभा है? यह अर्थ संगत नहीं है। १०२. भन्ते ! कृष्णराजियां वर्ण से कैसी प्रज्ञप्त हैं ? गौतम । वे वर्ण से काली, कृष्ण अवभासवाली, ! गम्भीर रोमाञ्च उत्पन्न करने वाली, भयंकर, उत्पासक और परमकृष्ण प्रज्ञप्त है। कोई एक देव भी उनके प्रथम दर्शन में क्षुब्ध हो जाता है। यदि वह उनमें प्रविष्ट हो जाता है तो उसके पश्चात् अतिशीघ्रता और अतित्वरा के साथ झटपट उसके बाहर चला जाता है। गीतम! कृष्णराज के आठ नाम प्रज्ञप्त कृष्णराजि, मेराज, मघा, माघवती वातपरिम, वातप्रतिक्षोभ, देवपरिषदेप्रतिक्षोभ - १०४. भन्ते ! कृष्णाराजयां क्या पृथ्वी के परिणमन हैं? जल के परिणमन हैं? जीव के परिणमन हैं? पुद्गल के परिणमन हैं? गौतम ! कृष्णराजियां पृथ्वी के परिणमन हैं, जल के परिणमन नहीं है, जीव के परिणमन भी हैं और पुद्गल के परिणमन भी हैं। १०५. भन्ते ! क्या कृष्णराजियों में सब प्राण, भूत जीव और सत्त्व पृथ्वीकाय-रूप में यावत् सकाय रूप में उपपन्नपूर्व हैं? हां गीतम! अनेक बार अथवा अनन्त बार उपपन्न हुए हैं। पर बादर अपकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वनस्पतिकायिक रूप में उपपन्न नहीं हुए। लोकान्तिक देव-पद १०६. इन आठ कृष्णराजियों के आठ अवकाशान्तरों में आठ लोकान्तिक विमान प्रज्ञप्त हैं, जैसे-१. अर्थ २. अर्थिगाली ३ वैरोचन ४. प्रभंकर ५. चन्द्राभ ६. सूराभ ७. शुक्लाभ ८. सुप्रतिष्ठाभ और मध्य में रिष्टाभ। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.५: सू.१०७-११४ २७६ भगवई १०७. कहिणं भंते ! अच्चि-विमाणे पण्णत्ते? कुत्र भदन्त ! अर्चि-विमानं प्रज्ञप्तम्? गोयमा ! उत्तर-पुरत्थिमे थे। गौतम ! उत्तर-पौरस्त्ये। १०७. भन्ते ! अर्चि-विमान कहाँ प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! उत्तरपूर्व (ईशान कोण) में। १०८. कहि णं भंते ! अच्चिमाली विमाणे कुत्र भदन्त ! अर्चिमालि विमानं प्रज्ञप्तम्? १०८. भन्ते ! अर्चिमाली विमान कहाँ प्रज्ञप्त हैं? पण्णते? गोयमा ! पुरथिमे णं। एवं परिवाडीए नेयव्वं गौतम ! पौरस्त्ये। एवं परिपाट्या ज्ञातव्यम् गौतम ! पूर्व दिशा में हैं। इस प्रकार परिपाटी से जावयावत् ज्ञातव्य है। यावत् १०९. कहि णं भंते ! रितु विमाणे पण्णत्ते? गोयमा ! बहुमज्झदेसभाए। कुत्र भदन्त ! रिष्टं विमानं प्रज्ञप्तम्? गौतम ! बहुमध्यदेशभागे। १०९. रिष्ट विमान कहाँ प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! कृष्णराजियों के प्राय: मध्यदेश भाग में। ११०. एएसु णं अट्ठसु लोगंतियविमाणेसु एतेषु च अष्टसु लोकान्तिकविमानेषु अष्ट- ११०. इन आठों लोकान्तिक विमानों में आठ प्रकार अट्ठविहा लोगंतिया देवा परिवसंति, तं विधा: लोकान्तिका: देवा: परिवसन्ति, तद् के लोकान्तिक देव निवास करते हैं, जैसेजहा यथा संगहणी गाहा सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया या तुसिया अव्वावाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य॥१॥ संगहणी गाथा सारस्वतादित्या:, वह्रयो वरुणा: च गर्दतोया: चा तुषिता: अव्याबाधा:, आग्नेया: चैव रिष्टा: च ॥१|| संग्रहणी गाथा सारस्वत, आदित्य,वह्नि, वरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और आग्नेया रिष्टविमान में रिष्ट नामक देवा १११. भन्ते ! सारस्वत देव कहाँ निवास करते हैं? १११. कहि णं भंते ! सारस्सया देवा परि- कुत्र भदन्त ! सारस्वता: देवा: परिवसन्ति? वसंति? गोयमा! अच्चिम्मि विमाणे परिवति। गौतम ! अर्चिषि विमाणे परिवसन्ति। गौतम ! अर्चि विमान में निवास करते हैं। ११२. कहिणं भंते ! आइच्चा देवा परिवसंति? कुत्र भदन्त ! आदित्या: देवा: परिवसन्ति? ११२. भन्ते ! आदित्य देव कहाँ निवास करते हैं? गोयमा ! अच्चिमालिम्मि विमाणे। एवं गौतम ! अर्चिमालौ विमाने। एवं ज्ञातव्यं गौतम! अर्चिमाली विमान में निवास करते हैं। इस नेयव्वं जहाणुपुव्वीए जावयथानुपूर्व्या यावत् प्रकार क्रमश: ज्ञातव्य है यावत् ११३. कहि णं भंते ! रिट्ठा देवा परिवसंति? गोयमा ! रिट्ठम्मि विमाणे। कुत्र भदन्त ! रिष्टा: देवा: परिवसन्ति? गौतम ! रिष्टे विमाने। ११३. भन्ते ! रिष्ट देव कहाँ निवास करते हैं? गौतम ! रिष्ट विमान में। ११४. सारस्सयमाइच्चाणं भंते ! देवाणं कति सारस्वतादित्यानां भदन्त ! देवानां कति ११४. भन्ते ! सारस्वत और आदित्य देवों के कितने देवा, कति देवसया पण्णत्ता? देवाः, कति देवशतानि प्रज्ञप्तानि? देव हैं? और कितने सौ देवों का परिवार है? गोयमा ! सत्त देवा, सत्त देवसया परिवारो गौतम! सप्त देवाः, सप्त देवशतानि परिवार: गौतम ! सात देव और सात सौ देवों का परिवार पण्णत्तो। प्रज्ञप्तः। प्रज्ञप्त है। वण्ही-वरुणाणं देवाणं चउद्दस देवा, चउद्दस वह्नि-वरुणानां देवानां चतुर्दश देवाः, चतुर्दश वह्नि और वरुण देवों के चौदह देव और चौदह हजार देवसहस्सा परिवारो पण्णत्तो। देवसहस्राणि परिवार: प्रज्ञप्तः। देवसहस्राणि पर देवों का परिवार प्रज्ञप्त है। गद्दतोय-तुसियाणं देवाणं सत्त देवा, सत्त गर्दतोय-तुषितानां देवानां सप्त देवाः, सप्त गर्दतोय और तुषित देवों के सात देव और सात हजार देवसहस्सा परिवारो पण्णत्तो। देवसहस्राणि परिवार: प्रज्ञप्तः। देवों का परिवार प्रज्ञप्त है। अवसेसाणं नव देवा, नव देवसया परिवारो अवशेषाणां नव देवाः, नव देवशतानि परि- अवशेष देवों के नौ देव और नौ सौ देवों का परिवार पण्णत्तो। वार: प्रज्ञप्तः। प्रज्ञप्त है। Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७७ श.६: उ.५:सू.७०-११८ संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा पढम-जुगलम्मि सत्तओ, सयाणि बीयम्मि चउद्दससहस्सा। तइए सत्तसहस्सा , नव चेव सयाणि सेसेसु ॥१॥ प्रथम-युगले सप्त, शतानि द्वितीये चतुर्दशसहस्राणि तृतीये सप्तसहस्राणि, नव चैव शतानि शेषेषु ॥१॥ संग्रहणी गाथा प्रथम युगल में सात सौ, दूसरे युगल में चौदह हजार, तीसरे युगल में सात हजार और शेष में नौ सौ देवों का परिवार है। ११५. लोगंतिगविमाणा णं भंते! किंपइट्ठिया लोकान्तिकविमानानि भदन्त ! किंप्रतिष्ठि- ११५. भन्ते ! लोकान्तिक-विमान किस पर प्रतिष्ठित पण्णत्ता? तानि प्रज्ञप्तानि? गोयमा! वाउपइट्ठिया पण्णत्ता। एवं नेयव्वं गौतम ! वायुप्रतिष्ठानि प्रज्ञप्तानि। एवं गौतम ! वे वायु पर प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार सभी विमाणाण पइट्ठाणं, बाहुल्लुच्चत्तमेव सं- ज्ञातव्यं विमानां प्रतिष्ठानं, बाहुल्योच्च- विमानों का प्रतिष्ठान वायु पर ज्ञातव्य है। इन विमानों ठाणं, बंभलोयवत्तव्वया नेयव्वा जाव- त्वमेव संस्थानं, ब्रह्मलोकवक्तव्यता ज्ञात- की मोटाई,ऊँचाई और संस्थान ब्रह्मलोक के विमानों व्या यावत् की वक्तव्यता के अनुसार ज्ञातव्य है, यावत् ११६. लोयंतियविमाणेसु ण भंते ! सव्वे लोकान्तिकविमानेषु भदन्त ! सर्वे प्राणाः ११६. भन्ते ! लोकान्तिक विमानों में सब प्राण, भूत, पाणा भया जीवा सत्ता पुढविकाइयत्ताए, भूता: जीवा: सत्त्वा: पृथिवीकायिकतया जीव और सत्त्व पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्आउकाइयत्ताए,तेउकाइयत्ताए, वाउकाइय- ___ अप्कायिकतया तेजस्कायिकतया, वायु- कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, देव और ताए, वणप्फइकाइयत्ताए, देवत्ताए, देवि- कायिकतया, वनस्पतिकायिकतया, देव- देवी के रूप में उपपन्नपूर्व हैं? ताए उववण्णपुव्वा? तया, देवीतया उपपन्नपूर्वा:? हंता गोयमा! असई अदुवा अणंतक्खुत्तो, हन्त गौतम! असकृद् अथवा अनन्तकृत्व:, हाँ, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार । पर वे नो चे णं देवित्ताए। नो चैव देवीतया। देवी के रूप में उपपन्न नहीं होते। ११७. लोगंतियदेवाणं भंते ! केवइयं कालं लोकान्तिकदेवानां भदन्त ! कियन्तं कालं ११७. भन्ते ! लोकान्तिक देवों की स्थिति कितने काल ठिती पण्णता? स्थिति: प्रज्ञप्ता? की प्रज्ञप्त है? गोयमा! अट्ठ सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता।। गौतम ! अष्ट सागरोपमानि स्थिति: प्रज्ञप्ता। गौतम ! उनकी स्थिति आठ सागरोपम की प्रज्ञप्त है। ११८. लोगंतियविमाणेहिंतोणं भंते ! केवतियं लोकान्तिकविमानेभ्य: भदन्त ! कियत्या ११८. भन्ते ! लोकान्तिक विमानों से लोकान्त कितने अबाहाए लोगते पण्णत्ते? अबाधया लोकान्त: प्रज्ञप्तः? अन्तर (दूरी) पर प्रज्ञप्त है? गोयमा! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अ- गौतम! असंख्येयानि योजनसहस्राणि अ- गौतम ! लोकान्त लोकान्तिक विमानों से असंख्येय बाहाए लोगते पण्णत्ते॥ बाधया लोकान्त: प्रज्ञप्त:। हजार योजन के अन्तर पर प्रज्ञप्त है। भाष्य १. सूत्र ७०-११८ तमस्काय और कृष्णराजि की तुलना तमस्काय और कृष्णराजि में कुछ समानता भी है और कुछ विषमता भी है। समानताएं १. दोनों में वर्ण काला, कृष्ण अवभास वाला, गम्भीर, रोमाञ्च उत्पन्न करने वाला, भयंकर, उत्त्रासक और परम कृष्ण है। (सू. ८५,१०२) इसका तात्पर्य हुआ कि ये दोनों ऐसे पुद्गल-स्कन्धों से निर्मित हैं, जिनमें से प्रकाश की एक भी किरण बाहर नहीं जा सकती। इस तथ्य की वैज्ञानिक व्याख्या यह है कि उन पुद्गलों का घनत्व इतना अधिक है कि उनमें से प्रकाश-अणु जैसे सूक्ष्म पुद्गल भी बाहर नहीं आ सकते। इस माने में विज्ञान के 'कृष्ण विवर' के साथ इनकी समानता है। २. परिमाण की समानता—विष्कम्भ की अपेक्षा से--तमस्काय दो प्रकार का होता है—संख्यात हजार योजन वाला तथा असंख्यात हजार योजन वाला, कृष्णराजि केवल संख्यात हजार योजन वाली होती है। ३. परिधि की अपेक्षा से दोनों असंख्यात हजार योजन वाले Jain Education Intemational Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.५ : सू.७०-११८ २७८ भगवई है। होते हैं। या आकाशीय पिण्ड उसके निकट आएगा तो वह अपनी ओर उसे खींच लेगा ४. आयाम की अपेक्षा से----कृष्णराजि असंख्य हजार योजन और अपने में आत्मसात कर लेगा। वाली होती है। तमस्काय का आयाम निर्दिष्ट नहीं है। ५. वहाँ गृह आदि का अभाव-तमस्काय और कृष्णराजि दोनों कृष्ण विवर की उत्पत्ति रिक्त स्थान हैं-वहां न घर हैं, न दुकानें, न सन्निवेश। __ वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार जब किसी तारे के भीतर का ईंधन समाप्त हो जाता है, तब उस तारे का ताममान क्रमश: घटता जाता है और विषमताएं उसके परिमाण का संकुचन होता जाता है। संकुचन के साथ-साथ तारे का १. तमस्काय और कृष्णराजि में मुख्य फर्क यह है कि तमस्काय घनत्व बढ़ता जाता है। उसकी सतह का गुरुत्वाकर्षण-बल भी उसकी घनत्व मुख्य रूप में अप्कायिक (जल) है, जबकि कृष्णराजि मुख्यत: पृथ्वीकायिक की वृद्धि के अनुपात में बढ़ता जाता है। बढ़ते-बढ़ते वह इतना अधिक हो (पृथ्वी) है। जाता है कि उसकी सतह से किसी भी पदार्थ का मुक्त होना कठिन हो जाता २. तमस्काय में बादर पृथ्वीकाय और बादर अग्निकाय नहीं है, है। अन्ततोगत्वा उसका घनत्व इतना अधिक हो जाता है कि प्रकाश के अणु कृष्णराजि में बादर अप्काय, बादर अग्निकाय एवं बादर वनस्पतिकाय नहीं जैसा सूक्ष्म पदार्थ भी फिर उससे बाहर भाग नहीं सकता। जो भी पदार्थ उसके गुरुत्व-क्षेत्र की सीमा में आ जाता है, उसे भी वह अपनी ओर लेता है। ३. तमस्काय और कृष्णराजि दोनों में चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण, कृष्ण विवर सही अर्थ में पूर्णरूपेण कृष्ण होने से किसी भी साधन नक्षत्र एवं तारा-रूप का पूर्ण अभाव है, किन्तु जहाँ तमस्काय के परिपार्श्व में के द्वारा दिखाई नहीं दे सकता। फिर भी उसके गुरुत्वाकर्षण-बल का अनुभव चन्द्रमा आदि पांचों होते हैं तथा पार्श्ववर्ती चन्द्र, सूर्य की प्रभा तमस्काय में किया जा सकता है। आकाश में विद्यमान तारे आदि प्रकाशित पिण्डों से घिरा आकर धुंधली बन जाती है, वहाँ कृष्णराजि में चन्द्रमा, सूर्य की आभा का हुआ यह पिण्ड एक प्रकार का गड्ढा (विवर) है, जिसमें गिरने वाला पदार्थ सर्वथा अभाव है। वापिस बाहर नहीं निकल सकता। इस रूप में कृष्ण विवर' की संज्ञा बिल्कुल ४. दोनों में बड़े मेघ संस्विन्न होते हैं, संमूर्च्छित होते हैं और सार्थक है। बरसते हैं तथा वह (संस्वेदन, समूर्च्छन, वर्षण) देव, नाग और असुर भी वैज्ञानिक धारणा के अनुसार ऐसे कृष्ण विवरों की संख्या अनेक करते हैं; पर तमस्काय में जहां स्थूल गर्जन और विद्युत देव, असुर और नाग हैं। संभवत: इनमें से एक कृष्ण विवर का अस्तित्त्व हमारी आकाश-गंगा तीनों करते हैं, वहां कृष्णराजि में केवल कोई देव करता है, असुर और नाग (गेलेक्सी) के भीतर है, जिसे 'सिग्नसएक्स-१' की संज्ञा दी गई है। नहीं करते। कृष्ण विवर के साथ तुलना विज्ञान में कृष्ण विवर' (Black Hole) उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि लोक में नए कृष्ण विवर आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार प्रकाश के अणुओं की उत्पत्ति होती रहती हैं, पर तमस्काय, कृष्णराजि के वर्णन से ऐसा लगता है (जिन्हें फोटोन' कहा जाता है) पर भी गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव होता है। कि ये एक रूप में शाश्वत पदार्थ हैं; इनकी नई उत्पत्ति नहीं होती। तात्पर्य यह अत: प्रकाश की गति भी इससे प्रभावित होती है। सामान्य स्थिति में ताराओं हुआ कि यद्यपि कृष्णराजि और कृष्ण विवर में समानताएं हैं, फिर भी दोनों से प्रकाश निकलता रहता है और चारों ओर फैलता है किन्तु कुछ तारे ऐसे एक नहीं है। होते हैं जिनमें द्रव्यमान या सहति (Mass) अत्यन्त अधिक मात्रा में तथा उपर्युक्त वर्णन से यह भी स्पष्ट होता है कि जहां तमस्काय और सघन रूप में होती है। उनका प्रकाश उनके गुरुत्वाकर्षण के कारण उनसे बाहर कृष्णराजि—ये दोनों ही रोमाञ्च उत्पन्न करने वाली, भयंकर, उत्त्रासक निकल कर फैल नहीं सकता। उनकी सतह से जो भी प्रकाश बाहर फैलने की और क्षुब्ध करने वाली हैं जिससे कि देव आदि आकाशगामी जीव उनसे दूर कोशिश करता है, तो उसे भी थोड़ी दूर पहुंचने पर ही तारे के भीतर का रहने की कोशिश करते हैं, वहां कृष्ण विवर के विषय में वैज्ञानिकों की भी गुरुत्वाकर्षण पुन: खींच लेता है। इसकी वजह से वह तारा 'कृष्ण' वर्ण वाला यही धारणा है कि कोई भी आकाशीय पिण्ड या प्रकाश-पिण्ड उसके पास से दिखाई देता है। विज्ञान ने ऐसे तारे को 'कृष्ण विवर' (ब्लैक होल) की संज्ञा दी गुजर नहीं सकता। यदि गुजरता है, तो उस गड्ढे में गिर जाता है, उसमें विलीन है। जब प्रकाश जैसे अति सूक्ष्म अणुओं को भी कृष्ण छिद्र अपने चंगुल से हो जाता है। निकलने नहीं देता, तब यह स्पष्ट है कि यदि कोई भी अन्य भौतिक पदार्थ कृष्णराजि का आकार त्रिकोण, चतुष्कोण अथवा षट्कोण है, १. यहाँ प्रदत्त कृष्ण-विवर विषयक जानकारी का आधार हैA Brief History of Time by Stephen W. Hawking, 1988, २. किसी भी दो भौतिक पदार्थों के बीच एक आकर्षण का बल विद्यमान रहता है, जिससे हल्का पदार्थ भारी पदार्थ की ओर आकृष्ट होता है, इसे गुरुत्वाकर्षण का बल कहा जाता है। ३. तारे के भीतर रही हुई हाइड्रोजन नामक वायु लगातार आण्विक प्रक्रिया के द्वारा हिलियम नामक वायु में परिणत होती रहती है और उसके परिणाम स्वरूप प्रकाश एवं ताप उत्पन्न होते रहते हैं। जब सुदीर्घ अवधि में सारे हाइड्रोजन का हिलियम में रूपान्तरण हो जाता हे तब यह प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, तब कहा जाता है कि ईधन समाप्त हो गया। Jain Education Intemational Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७९ श.६ : उ.५ : सू.७०-११९ वहां तमस्काय का आकार प्रारम्भ में एक प्रदेश-श्रेणी-रूपरेखात्मक है विवर का आकार पूर्ण वृत्त का होता है। और ऊपर उठ कर वह मुर्गे के पिंजरे की भांति आकार वाला अर्थात् देखें-कृष्णराजी व तमस्काय के चित्र-परिशिष्ट -६ चतुरस्रात्मक हो जाता है। वृत्ति के अनुसार प्रदत्त स्थापना से यह अनुमान तमस्काय की जानकारी के लिए द्रष्टव्य-भगवई, १४। २५ से लगाया जा सकता है। २७। वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार स्थिर होने के पश्चात् कृष्ण ११९. सेवं भंते ! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ११९. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसो : छट्ठा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद नैरयिक आदि के आवास-पद नेरइयादीणं आवास-पदं नैरयिकादीनाम् आवास-पदम् १२०. कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? कति भदन्त ! पृथिव्य: प्रज्ञप्ता:? गोयमा! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा गौतम ! सप्त पृथिव्य: प्रज्ञप्ताः, तद् यथा -यणप्पभा जाव अहेसत्तमा। -त्नप्रभा यावत् अध:सप्तमी। रयणप्पभाईणं आवासा भाणियव्वा जाव रत्नप्रभादीनाम् आवासा: भणितव्या: यावद् अहेसत्तमाए। एवं जत्तिया आवासाते भाणि- अधःसप्तम्याः। एवं यावन्त: आवासा: ते यव्वा जाव भणितव्या: यावत् १२०. 'भन्ते! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! पृथ्वियां सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे–रत्नप्रभा यावत् अध:सप्तमी। रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी के आवास वक्तव्य हैं। इस प्रकार जितने आवास हैं, वे सब वक्तव्य हैं, यावत् १२१. कतिणं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णता? गोयमा! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता, तं जहा—विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए सव्वट्ठसिद्धे॥ कतिभदन्त! अनुत्तरविमानानि प्रज्ञप्तानि? १२१. भन्ते ! अनुत्तरविमान कितने प्रज्ञप्त है? गौतम ! पंच अनुत्तरविमानानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! अनुत्तरविमान पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसेतद् यथा-विजयः, वैजयन्त:, जयन्तः, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वाअपराजितः, सर्वार्थसिद्धः। र्थसिद्ध। मारणंतियसमुग्घाय-पदं मारणान्तिकसमुद्घात-पदम् मारणान्तिकसमुद्घात-पद १२२. जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं जीव: भदन्त ! मारणान्तिकसमुद्घातेन १२२. भन्ते ! जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे समवहतः, समवहत्य य: भव्य: अस्यां होता है। समवहत हो कर जो भव्य इस रत्नप्रभा पृथ्वी रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावा- रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् निरयावास- के तीस लाख नरकावासों में से किसी एक नरकावास ससयसहस्सेसु अण्णयरंसि निरयावासंसि शतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् निरयावासे नैरयि- में नैरयिक के रूप में उत्पन्न होने वाला है, भन्ते! वह नेरइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! तत्थ- कतया उपपत्तुम्, स भदन्त ! तत्रगतश्चैव जीव वहां नरकावास में जाते ही क्या पुद्गलों का गए चेव आहारेज्ज वा? परिणामेज्ज वा? आहरेद् वा? परिणमयेद् वा? शरीरं वा आहरण करता है? उनका परिणमन करता है? उनसे सरीरं वा बंधेज्जा? बध्नीयात्? शरीर का निर्माण करता है? गोयमा! अत्थेगतिएतत्थगए चेव आहारेज्ज गौतम ! अस्त्येककः तत्रगतश्चैव आहरेद् गौतम! कोई जीव वहां नरकावास में जाते ही पुद्गलों वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्जा; वा, परिणमयेद् वा, शरीरं वां बध्नीयाद्; का आहरण करता है, उनका परिणमन करता है और अत्थेगतिए तओ पडिनियत्तति, ततो पडि- अस्त्येकक: तत: प्रतिनिवर्तते, तत: प्रतिनि- उनसे शरीर का निर्माण करता है। कोई जीव वहां से नियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता दोच्चं वृत्य इह आगच्छति, आगत्य द्वितीयमपि लौट आता है। लौट कर यहां अपने वर्तमान शरीर पि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समो- मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहन्ति, सम- में आ जाता है। आ कर फिर दूसरी बार मारणान्तिक हणित्ता इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए। वहत्य अस्या रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर इस निरयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि निर- निरयावासशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् निरया- रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से किसी यावासंसि नेरइयत्ताए उववज्जित्तए, तओ वासे नैरयिकतया उपपत्तुम् , तत: पश्चाद् एक नरकावास में नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। पच्छा आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं आहरेवा, परिणमयेद्वा, शरीरं वा बध्नी- उसके पश्चात् पुद्गलों का आहरण करता है, उनका वा बंधेज्जा। एवं जाव अहेसत्तमा पुढवी॥ याद्। एवं यावद् अध:सप्तमी पृथिवी।। परिणमन करता है और उनसे शरीर का निर्माण करता है। इस प्रकार अध:सप्तमी पृथ्वी तक ज्ञातव्य है। Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १२३. जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए, समोहणित्ता जे भविए चउसट्ठीए असुरकु मारावाससयसहस्सेसु अण्णवरंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारत्ताए उवबज्जित्तर, जहा नेरड्या तहा भाषियन्वा जाव कुमारा । १२५. से णं भंते! तत्थगए चेव आहारेज्ज वा? परिणामेन वा? सरीरं वा बंधेज्जा ? १२४. जीवे णं भंते! मारणंतियसमुग्धारणं समोहए, समोहणित्ता जे भविए असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे णं केवइयं गच्छेज्जा? केवइयं पाठज्वा? गोवमा ! लोयतं गच्छेज्जा, लोयंतं पाउने गौतम! लोकान्तं गच्छेत्, लोकान्तं प्राप्नुज्जा।। यात् । गोयमा अत्येगतिए तत्थगए चेव आहारेज्ज ! वा, परिणामेज्ज वा सरीरं वा बंधेज्जा अत्वेगतिए तओ पडिनियत्त, पडिनियत्तित्ता इहमागच्छ, दोच्चं पि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहण, समोहणित्ता मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्विमे णं अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेतं वा संखेज्जइभागमे तं वा, बालगं वा, वालग्गपुहत्तं वा; एवं लिक्ख जूय-जय - अंगुल जाव जोवनकोडिं वा, जोयणकोडाकोडिं वा संखेज्जेसु वा असंखेज्जेसु वा जोयणसहस्से, लोगंते वा एगपएसियं सेविं मोत्तूण असंखेज्जे पुढविकाइया वाससयसहस्सेसु वाससयस हस्सेसु अण्णयरंसि पुढविकाइया वासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जेता, तओ पच्छा आहारेज्ज वा परिणामेज्ज वा सरीरं वा बंधेज्जा । २८१ - जीव: भदन्त ! मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः, समवहत्य यः भव्यः चतुष्षष्ट्याम् असुरकुमारावासशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् असुरकुमारावासे असुरकुमारतया उपपत्तुम्, यथा नैरयिका: तथा भणितव्याः यावत् स्तनितकुमाराः । जीव भदन्त ! मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः, समवहत्य यः भव्यः असंख्येयेषु पृथिवीकायिकावासशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् पृथिवीकायिकावासे पृथिवीकायिकतया उपपत्तुम्, स भदन्त ! मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये कियद् गच्छेद् ? कियत् प्राप्नुयात् ? स भदन्त ! तत्रगतश्चैव आहरेद् वा ? परिणमयेद् वा? शरीरं वा बध्नीयाद् ? गौतम ! अस्त्वेककः तत्रगतश्चैव आहरेद् वा, परिणमयेद वा शरीरं वा बच्नीयादः अस्त्येककः ततः प्रतिनिवर्तते, ततः प्रतिनिवृत्य इह आगच्छति, द्वितीयमपि मारणान्तिकसमुद्रघातेन समवहन्ति, समवहत्य मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये अंगुलस्य असंख्येयभाग- मात्रं वा संख्येयभागमात्रं वा, बालाग्रं वा, बालाग्रपृथक्त्वं वा एवं लिक्षा दूका यवा मुलाबाबद योजनकोटिया, योजनकोटिकोटिं वा संख्येयेषु वा असंख्येयेषु वा योजनसह सेषु, लोकान्ते वा एक्प्रदेशिकां श्रेण मुक्त्वा असंख्येयेषु पृथ्वीकायिकावासशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् पृथिवीकायिकावासे पृथिवीकायिकतया उपपद्य, ततः पश्चाद् आहरेद्वा परिणमयेद वा शरीरं वा वघ्नीवाद। - श. ६ : उ. ६ : सू. १२३-१२५ १२३. भन्ते जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर जो भव्य चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से किसी एक असुरकुमारावास में असुरकुमार के रूप में उपपन्न होता है, उसकी वक्तव्यतानैरयिक की भांति (सू. १२२) ज्ञातव्य है। असुरकुमार से स्तनिक कुमार तक यही वक्तव्यता । १२४. भन्ते जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर जो भव्य असंख्य लाख पृथ्वीकायिक आवासों में से किसी एक पृथ्वीकायिक- आवास में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होता है, भन्ते वह जीव मेरू पर्वत के पूर्व में कितनी दूर जाता है? कितनी दूर प्राप्त करता है ? गौतम ! वह लोकान्त तक जाता है, लोकान्त को प्राप्त करता है। १२५. भन्ते ! वह वहां पृथ्वीकायिक आवास में जाते ही क्या पुद्गलों का आहरण करता है? उनका परिणमन करता है? उनसे शरीर का निर्माण करता है? गीतम! कोई जीव वहां पृथ्वीकाविक आवास में जाते ही पुद्गलों का आहरण करता है, उनका परिणमन करता है, उनसे शरीर का निर्माण करता है । कोई जीव वहां से लौट आता है, लौट कर यहां अपने वर्तमान शरीर में आता है, आ कर फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर मेरुपर्वत के पूर्व में अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र, संख्यातवें भाग मात्र, बाला, बाला पृथक्त्व ( अनेक बाला), इसी प्रकार लीख, जूं, यव, अंगुल यावत् कोटि योजन कोटिकोटियोजन, संख्येय हजारयोजन और असंख्येय हजारयोजन में अथवा लोकान्त में एक प्रदेशात्मक श्रेणी को छोड़ कर पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्य लाख पृथ्वीकायिक आवासों में से किसी एक पृथ्वीकायिक आवास में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होता है, उसके पश्चात् पुद्गलों का आहरण करता है, उनका परिणमन करता है, उनसे शरीर का निर्माण करता है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. ६: सू. १२०-१२७ जहा पुरत्थिमे णं मंदरस्स पव्वयस्स आलावओ भणिओ, एवं दाहिणे णं, पच्चत्थिमे णं, उत्तरे णं, उड्ढे, अहे ॥ जहा पुढविकाइया तहा एगिंदियाणं सव्वेसिं एक्के वकस्स छ आलावगा भाणिबच्चा । १२६. जीवे नं भंते! मारणंतियसमुग्याएणं समोहम्मद, समोहणिता जे भविए असंखे जे बेइंदियावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि बेदियावासंसि बेदियत्ताए उववज्जिए, से भंते! तत्यगए चेव आहारेज्ज वा? परि णामेज्ज वा ? सरीरं वा बंधेज्जा ? हारइया, एवं जाव अणुत्तरोववाइया । १२७. जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए, समोहणित्ता जे भविए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महाविमाणेसु अण्णयरंसि अणुत्तरविमाणंसि अणुत्तरोववाइयदेवताए उनवज्जित्तर से णं भंते! तत्थगए चेव आहारेज्ज वा ? परिणामेज्ज वा? सरीरं वा बंधेज्जा ? तं चैव जान आहारेज्ज वा परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेजा। २८२ यथा पौरस्त्ये मन्दरस्य पर्वतस्य आलापकः भणितः, एवं दक्षिणे, पश्चिमे, उत्तरे, ऊ, अधः । Jain Education Intemational यथा पृथ्वीकायिका तथा एकेन्द्रियाणां सर्वेषाम् एकैकस्य षड् आलापका : भणि तव्या: । जीव भदन्त ! मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहन्ति, समवहत्य यः भव्यः असंख्येयेषु द्वीन्द्रियावासशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् द्वीन्द्रियावासे द्वीन्द्रियतया उपपम् सभदन्त तत्रगतश्चैव आहरेद् वा? परिणमवेद् वा? शरीरं वा वनीवाद? यथा नैरयिका:, एवं यावद् अनुत्तरौपपातिकाः। जीवः भदन्त ! मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः, समवहत्य यः भव्यः पंचसु अनुत्तरेषु महतिमहत्सु महाविमानेषु अन्यतरस्मिन् अनुत्तरविमाने अनुत्तरौपपातिक देवतया उपपत्तुम्, सभदन्त ! तत्रगतश्चैव आहछेद वा? परिणमयेद् वा ? शरीरं वा बध्नीयात् ? तच्चैव यावद् आहरेद् वा, परिणमयेद् वा, शरीरं वा वस्नीयाता १. द्रष्टव्य भ. २/७४ का भाष्य २. Life after Death, pp. 51-53 ( Out of Body, Ch. III) १. सूत्र १२०-१२७ सात पृथ्वियों और अनेक आवासों का विस्तृत निरूपण शतक १, सूत्र २१२-२१५ में हो चुका है। प्रस्तुत प्रकरण में इनका पुनः उल्लेख मारणान्तिक समुद्घात के सन्दर्भ में किया गया है। १ मारणान्तिक समुद्घात करने वाला जीव अपने भावी जन्म स्थान तक पहुंचकर लौट आता है—यह परामनोविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण रहस्य है। इस रहस्य की चर्चा ईसा की बीसवीं शताब्दी में वैज्ञानिक स्तर पर बहुत हुई है। ''Life after Death" पुस्तक में वर्णित Dr. George Ritchie भाष्य भगवई जिस प्रकार मेरु पर्वत के पूर्व में इतने दूर जाने से सम्बन्धित) आलापक कहा गया है, इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व और अधो दिशा में वक्तव्य है। जैसे पृथ्वीकायिक जीवों के आलापक कहे गए हैं, वैसे ही शेष सब एकेन्द्रिय जीवों में से प्रत्येक के छह-छह आलापक वक्तव्य हैं। ! १२६, भन्ते जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर जो भव्य असंख्येय लाख द्वीन्द्रिय आवासों में से किसी एक द्वीन्द्रियावास में द्वीन्द्रिय के रूप में उपपन्न होता है, भन्ते ! वह वहां द्वीन्द्रियावास में जाते ही पुद्गलों का आहरण करता है ? उनका परिणमन करता है? उनसे शरीर का निर्माण करता है? नैरयिक जीवों की भांति वक्तव्यता। इस प्रकार यावत् अनुत्तरौपपातिक की वक्तव्यता । १२७. भन्ते ! जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है। समवहत होकर जो भव्य पांच अनुत्तर महति महान महाविमानों में से किसी एक अनुत्तर विमान में अनुत्तरौपपातिक देव के रूप में उपपन्न होता है, भन्ते ! वह वहां अनुत्तरौपपातिक विमान में जाते ही पुद्गलों का आहरण करता है? उनका परिणमन करता है? उनसे शरीर का निर्माण करता है? यह पूर्ववत् ज्ञातव्य है यावत् वह पुद्गलों का आहरण करता है, परिणमन करता है, उनसे शरीर का निर्माण करता है। २ की घटना इस सन्दर्भ में मननीय है। गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- भंते! मारणान्तिक समुद्घात करने वाला जीव अपने भावी जन्मस्थान तक पहुंच कर क्या आहार ग्रहण करता है? उसका परिणमन करता है? नए शरीर का निर्माण करता है? इन तीनों प्रश्नों के उत्तर में भगवान ने कहा मारणान्तिक समुद्घात का प्रयोग जीवन में दो बार होता है। कुछ जीव मारणान्तिक समुद्घात का प्रयोग कर अपने उत्पत्ति-स्थान में जन्म ले लेते हैं। वे जन्म के पहले समय में आहार ग्रहण करते हैं, उसका परिणमन करते हैं और शरीर निर्माण का क्रम Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई प्रारम्भ कर देते हैं। कुछ जीव मारणांतिक समुद्घात के द्वारा अपने भावी जन्मस्थान तक पहुंचकर लौट आते हैं। वे वहां आहार ग्रहण, उसका परिणमन और शरीर निर्माण नहीं करते। दूसरी बार मारणांतिक समुद्घात का प्रयोग करने वाले वहां जन्म लेकर आहार ग्रहण, उसका परिणमन और शरीर का निर्माण करते हैं। यह नियम नरक के आवासों से लेकर अनुत्तर विमान तक के सभी जन्म स्थानों में समान है । द्वीन्द्रिय आदि जीवों के आवास स्थान लोक के एक भाग में हैं। एकेन्द्रिय के आवास स्थान सम्पूर्ण लोक में है, इसलिए वे जीव लोकान्त तक उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक जीव का १ १२८. सेवं भंते सेवं भंते । ति ॥ तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त १. उत्तर. ३६ / १२० २. भ.जो. २/१०५ / ३३-३८- सुहुमा सव्व लोगम्मि, लोगदेसे य बायरा ॥ असंख्यातपरदेश, अवगाहै आकाश नैं । जीव स्वभाव विशेष, तिण प्रकार करिकै इहां ॥ एक प्रदेश नीं श्रेण, खंध जीव नु नां रहे। पाठ जीवेणं तेण, रहे अनेक प्रदेश में ।। वयों एक प्रदेश, प्रतिपक्ष इक शब्द नुं । २८३ श. ६ : उ. ६ सू. १२० १२८ आकाश के असंख्य प्रदेशों में अवगाहन होता है, इसलिए वह एक प्रदेशात्मक आकाश श्रेणी को छोड़कर अनेक प्रदेशात्मक — असंख्य प्रदेशात्मक आकाश श्रेणी में उत्पन्न होता है। जयाचार्य ने एक का प्रतिपक्ष 'अनेक' बतलाया है। उनके मतानुसार 'अनेक' असंख्य के अर्थ में विवक्षित है। शब्द - विमर्श - बालाग्र - बालाग्र आदि शब्दों की जानकारी के लिए द्रष्टव्य भ. ६ / १३४ का भाष्य । इति । १२८. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। अनेक कहिय शेष, तेह विषे रहै जीवड़ो ।। अनेक शब्दे ताहि, प्रदेश असंख्य लीजिये । उणां प्रदेशां मांहि, खंध जीव नो नहिं रहै ॥ दशवैकालिक देख, जीव अनेक पृथ्वी मझे। चउथै अध्येन पेख, तेह असंखिज्ज जाणवा || तिम इहां पिण अवलोय, एक शब्द करि वर्जिया । अनेक रह्या सुजोय, असंखिज्ज इहां पिण अछे ।। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद धन्नाणं जोणि-ठिइ-पदं धान्यानां योनि-स्थिति-पदम् धान्यों की योनि और स्थिति का पद १२९. अह भंते ! सालीणं, वीहीणं, गो- अथभदन्त! शालीनां, व्रीहीणां, गोधूमानां, १२९. 'भन्ते! शालि, व्रीहि, गेहूं, जौ तथा यवयवधूमाणं, जवाणं, जवजवाणं-एएसि णं यवानां, यवयवानाम् एतेषां धान्यानां इनधान्यों को कोठे, पल्य, मचान और माल में डाल धन्नाणं कोट्ठाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचा- कोष्ठागुप्तानां पल्यागुप्तानां मञ्चागुप्तानां कर उनके द्वार-देश को लीप देने, चारों ओर से लीप उत्ताणं मालाउत्ताणं ओलिताणं लित्ताणं मालागुप्तानाम् अवलिप्तानां लिप्तानां देने, ढक्कन से ढक देने, मिट्टी से मुद्रित कर देने पिहियाणं मुद्दियाणं लंछियाणं केवतियं । पिहितानां मुद्रितानां लाञ्छितानां कियन्तं । और रेखाओं से लांछित कर देने पर उनकी योनि कालं जोणी संचिट्ठइ? . कालं योनि: सन्तिष्ठते? (उत्पादक-शक्ति) कितने काल तक रहती है? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण तिण्णि संवच्छराई। तेण परं जोणी पमिलायइ, त्रीणि संवत्सराणि। तत: परं योनि: प्रम्ला- तेण परं जोणी पविद्धंसइ, तेण परं बीए अबीए यति, ततः परं योनिः प्रविध्वंसते, तत: परं भवति, तेण परं जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते सम- बीजम् अबीजं भवति, तत: परं योनि- णाउसो! व्युच्छेदः प्रज्ञप्त: आयुष्मन् श्रमण! गौतम ! जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षत: तीन वर्ष। उसके बाद योनि म्लान हो जाती है, प्रविध्वस्त हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है, योनि का विच्छेद हो जाता है, आयुष्मन् श्रमण! १३०. अह भंते ! कल-मसूर-तिल-मुग्ण- अथ भदन्त! कलाय-मसूर-तिल-मुद्ग- -मास-निप्फाव-कुलत्थ-आलिसंदग-सतीण- -मास-निष्पाव-कुलत्थ-आलिसं दग-पलिमंथगमाईण एएसिणं धन्नाणं कोट्ठा- -सतीण-परिमन्थकादीनाम्-एतेषां धा- उत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं माला- न्यानां कोष्ठागुप्तानां पल्यागुप्तानां मञ्चाउत्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं पिहियाणं मुद्दि- गुप्तानां मालागुप्तानाम् अवलिप्तानां याणं लंछियाणं केवतियं कालं जोणी संचि- लिप्तानां पिहितानां मुद्रितानां लाञ्छितानां कियन्तं कालं योनिः सन्तिष्ठते? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण पंच संवच्छराई। तेण परं जोणी पमिलायइ, पञ्च संवत्सराणिा तत: परं योनिः प्रम्ला- तेण परं जोणी पविद्धंसइ, तेण परं बीए अबीए यति, ततः परं योनिः प्रविध्वंसते, ततः परं भवति, तेण पर जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते सम- बीजम् अबीजं भवति, ततः परं योनि- णाउसो! व्युच्छेदः प्रज्ञप्त: आयुष्मन् श्रमण! १३०. मटर, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, निष्पाव (सेम), कुलथी, चवला, मटर का एक भेद और काला चना आदि-इन धान्यों को कोठे, पल्य, मचान और माल में डाल कर उनके द्वार-देश को लीप देने, चारों ओर से लीप देने, ढक्कन से ढ़क देने, मिट्टी से मुद्रित कर देने और रेखाओं से लांछित कर देने पर उनकी योनि कितने काल तक रहती है? गौतम ! जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टत: पाँच वर्ष। उसके बाद योनि म्लान हो जाती है, प्रविध्वस्त हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है, योनि का विच्छेद हो जाता है, आयुष्मन् श्रमण! ठत १३१. अह भंते ! अयसि-कुसुंभग-कोद्दव- अथ भदन्त! अतसि-कुसुम्भक-कोद्रव- १३१. अलसी, कुसुम्भ, कोदव, कंगु, चीना धान्य, -कंगु-वरग-रालग-कोदूसग-सण-सरि- -क्वङ्गु-वरक-रालक-कोदूषक- सण- दाल, कोदव की एक जाति, सन, सरसों, मूलक सव-मूलाबीयमाईणं-एएसि णं धन्नाणं -सर्षप-मूलकबीजादीनाम् एतेषां धा- बीज-इन धान्यों को कोठे, पल्य, मचान और माल कोट्ठाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं माला- न्यानां कोष्ठागुप्तानां, पल्यागुप्तानां में डाल कर उनके द्वार-देश को लीप देने, चारों ओर Jain Education Interational Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई उत्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं पिहियाणं मुद्दियाणं लंछियाणं केवतियं कालं जोणी संचिट्ठइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुतं, उसेणं सत्त संवच्छराई। तेण परं जोणी पमिलायइ, तेण परं जोणी पविद्धंसर, तेण परं बीए अबीए भवति, तेण परं जोणीवोच्छेदे पण्णत्ते समणाउसो ! १. सूत्र १२९-१३१ प्रस्तुत आलापक के तीन सूत्रों में धान्य के हैं— प्रथम वर्ग खाद्यान्न का है; दूसरा वर्ग दलहन का है; का है। मञ्चागुप्तानां मालागुप्तानाम् अवलिप्तानां लिप्तानां पिहितानां मुद्रितानां लाञ्छितानां कियन्तं कालं योनिः सन्तिष्ठते ? गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण सप्त संव्वत्सराणि ततः परं योनिः प्रम्लायति, ततः परं योनिः प्रविध्वंसते, ततः परं बीजम् अवीजं भवति, ततः परं योनिव्युच्छेदः प्रज्ञप्तः आयुष्मन् श्रमण! २८५ प्रथम वर्ग के धान्यों में उत्पादक शक्ति तीन वर्ष तक, द्वितीय वर्ग धान्यों में पांच वर्ष तक और तृतीय वर्ग के धान्यों में सात वर्ष तक रहती है। यह उनकी उत्कृष्ट अवधि है। उनकी जघन्य अवधि अन्तर्मुहूर्त की है। उनकी उत्पादक शक्ति संरक्षण के प्रबंध पर निर्भर है। संरक्षण की व्यवस्था अच्छी होती है, तो वे धान्य अपनी उत्पादक शक्ति को वर्षों तक बनाए रख लेते हैं। उसके अभाव में उत्पादक शक्ति शीघ्र नष्ट हो जाती है। प्रस्तुत आलापक में धान्यों को संरक्षित रखने की प्राचीन काल की पद्धति का उल्लेख किया गया है। धान्यों को संरक्षित रखने के लिए कोठे, पल्य, मञ्च और 'माल' बनाए जाते थे। उनमें धान्यों को डालकर उनके द्वार - मुख पर ढक्कन लगा गोबर आदि से लीप देते। उस पर चपड़ी लगा देते और उसे रेखांकित कर देते। १. शालिग्राम निघण्टु भूषणम्; भाग ७, ८, पृ. ६०४, धान्य वर्ग शालिधान्यं ब्रीहि धान्यं, शुक धान्यं तृतीयकम् । शिम्बीधान्यं क्षुद्रधान्यमित्युक्तं धान्यपंचकम् ॥ शालयोरक्त शाल्याद्या, व्रीहय: षष्टिकादयः एकलाई । कंगवादिकं क्षुद्रधान्यं, तृणधान्यं च तत्स्मृतम् ॥ २. जै. आ. व. को. पृ. २८५, २८६ । ३. वही, पृ. २६६ । ४. वही, पृ. ११६-११७/ भाष्य आयुर्वेद में पांच प्रकार के धान्य बतलाए गए हैं—शालि धान्य, ब्रीहि धान्य, शूक धान्य, शिम्बी और क्षुद्र धान्य । रक्त शालि आदि को शालि धान्य, साठी आदि को ब्रीहि धान्य, जौ आदि को शूक धान्य, मूंग आदि को शिम्बी धान्य और कंगुनी आदि धान्य को क्षुद्र धान्य अथवा धान्य कहते हैं। १ शब्द-विमर्श २ शाली (सालीण ) - शालिधान्य ( चावल का एक प्रकार) तीन वर्ग किये गये तीसरा वर्ग तिलहन श. ६ : उ.७ : सू.१२८-१३१ से लीप देने, ढक्कन से ढक देने, मिट्टी से मुद्रित कर देने और रेखाओं से लांछित कर देने पर उनकी योनि कितने काल तक रहती है ? " गीतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतः सात वर्ष उसके बाद योनि म्लान हो जाती है. प्रविष्वस्त हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है, योनि का विच्छेद हो जाता है, आयुष्मन् श्रमण व्रीहि (वीहीणं ) - षष्टि धान्य ? गोधूम (गोधूमाणं) हूं यव (जवाणं ) — जौ ४ यवयव (जवजवाणं) – जई (जव का एक प्रकार) कल -मटर मसूर मसूर तिल-तिल मुग- मुंग मास - उड़द निप्फाव राजशिम्बी के बीज कुलत्थ — कुलथी आलिसंदग—चवला सतीण - मटर का एक भेद (वृत्ति में तूवर अर्थ भी किया है।) पलिमंग काला चना कुसुंभग-वरट्टिका धान्य (वृत्ति में कुसुम्भ अर्थ भी किया है।) कोद्दव कोदों कंगु — कंगुनी वर—चीना धान्य - राग - कंगु धान्य का एक प्रकार कोदूसग — कोदव की एक जाति सण सन सरिसव-सरसों मूलाबीय मूलक बीज ५. जै. आ.व.को. पृ. २७२ - 'सतीन' ६. वही, पृ. २६१ 'वर' शब्दा ७. भ. वृ. ६ / १३०,१३१-- 'कल' त्ति कलाया वृत्तचनका इत्यन्ये, 'मसूर' त्ति मिलन: चनकिका इत्यन्ये, 'निप्फव' त्ति वल्ला: 'कुलत्थ' त्ति चवलिकाकाराः चिपिटिका भवन्ति, 'आलीसंदग' त्ति चवलकप्रकाराः चवलका एवान्ये, 'सईण' त्ति तुवरी, 'पलिमंधग' त्ति वृत्तचनकाः कालचनका इत्यन्ये, 'अयसि' त्ति भनी, 'कुसुंभंग' त्ति लट्टा, 'वरग' त्ति वरट्टो, 'रालग'त्ति कंगुविशेष:, 'कोदूसग' त्ति कोद्रवविशेष:, 'सण' त्ति त्वक्प्रधाननालो धान्यविशेष:, 'सरिसव' त्ति सिद्धार्थकाः, 'मूलगबीय' त्ति मूलकबीजानि शाकविशेषबीजानीत्यर्थ । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६:३७: सु. १२९-१३२ गोलाकार घेरा । पल्य (पल्ल) इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं--पल्ल और पल्या पल्य का अर्थ अनाज डालने का बोरा और पल्ल का अर्थ धान्य रखने का बड़ा कोठा, बडा धान्यागार है। प्राकृत का पाठ 'पल्ल' है । व्याख्याकारों ने पल्ल का संस्कृत रूप 'पल्य' किया है। आगम में पल्ल का माप एक योजन बतलाया गया है। इस विशाल 'पल्ल' की संगति पल्य के साथ नहीं बैठती। मथान (मंच ) अनाज को रखने के लिए बनाया हुआ मचाना माल (माल) दूसरी मंजिल पर बना हुआ पर। गाहा कोष्ठ ( कोड) कोठा, अनाज रखने के लिए बनाया गया - १. हट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरु किस्स जंतुणो । एगे ऊसास - नीसासे, एस पाणु ति वच्च ||१| सतपाई से धोबे, सत्र घोवाई से लवे। लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुते विवाहिए ||२॥ तिष्णि सहस्सा सत्त य, सयाइं तेवत्तरिं च ऊसासा । एस मुहुत्ती दिडो, सव्वेहिं अनंतनाणीहिं ॥३॥ २८६ एएवं मुहुत्तपमाणेणं तीसमुहता अहोरतो, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो, दो मास उड़, तिणि उडू अयणे, दो अयणा संवछरे, पंच संवच्छराई जुगे, बीस जुगाई वासस, दस वाससयाई बाससहस्सं सवं 1 गणना-काल-पदं गणना-काल-पदम् १३२. एगमेगस्स णं भंते ! मुहुत्तस्स केवतिया एकैकस्य भदन्त ! मुहूर्त्तस्य कियन्तः उच्छूऊसासद्धा वियाहिया ? वासाद्धा व्याहृता: ? गोयमा ! असंखेज्जाणं समयाणं समुदय-समिति-समागमेणं सा एगा आवलिय त्ति पवुच्चइ, संखेज्जा आवलिया ऊसासो, संखेज्जा आवलिया निस्सासो । गौतम ! असंख्येयानां समयानां समुदयसमिति समागमेन सा एका आवलिका इति प्रोच्यते, संख्येया: आवलिका: उच्छूवासः, संख्येया: आवलिकाः निःश्वासः । गाथा: (क) आप्टे पल्यं - A sack for corn. पल्लः -- A large granary. (ख) भ.वृ. ६ / १२९ इह पल्यो वंशादिमयो धान्याधारविशेषः । डाल कर (आगुत्ताणं) संरक्षित अवलिप्त— द्वार - देश पर गोवर आदि से लीपा हुआ लिप्त सर्वतः गोवर आदि से लीपा हुआ पिडित ढकन दिया हुआ - मुद्रित - मुद्रा — मोहर लगा हुआ लांछित - चिह्नित योनि - अंकुर उत्पत्ति का हेतु उत्पादक शक्ति अबीज जिसकी उत्पादक शक्ति नष्ट हो गई हो जो बीज बोने पर भी अंकुर उत्पन्न न करे योनि - विच्छेद- उत्पादक शक्ति का नाश । हृष्टस्याऽनवकल्यस्य, निरुपक्लिष्टस्य जन्तोः । एक उच्छ्वास - नि:श्वासः, एष प्राण इति प्रोच्यते ॥ १ ॥ सप्त प्राणाः स स्तोक:, सप्त स्तोकाः स लव: ! लवानां सप्तसप्ततिः, एष मुहूर्तो व्याहतः || २ || त्रीणि सहस्राणि सप्त च, शतानि त्रिसप्ततिश्वोच्छ्वासाः। एष मुहूर्तो दृष्टः, सर्वरनन्तज्ञानिभिः ॥ ३॥ एतेन मुहूर्तप्रमाणेन त्रिंशन्मुहूर्त: अहोरात्रः, पञ्चदश अहोरात्रा: पक्ष, द्वौ पक्षौ मासः, द्वौ मासौ ऋतु, त्रयः ऋतवः अयनं, द्वे अयने संवत्सरः, पञ्चे संवत्सराः दुर्गा, विंशतिः युगानि वर्षशतम्, दश वर्षशतानि वर्षसहस्रं, भगवई २. भ. बृ. ६ / १२८ – मञ्चमालयोर्भेद:"अकुडो होइ मंचो, मालो य घरोवरिं होंति । गणना-काल-पद १३२. भन्ते ! प्रत्येक मुहूर्त्त का उच्छ्वास - काल कितना होता है? गौतम असंख्य समयों के समुदय, समिति और समागम से एक आवलिका होती है। देव आबलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है। संख्येय आवलिकाओं का एक नि:श्वास होता है। गाथाएं हृष्ट, नीरोग और मानसिक क्लेश से मुक्त प्राणी का एक उच्छ्वास- नि:श्वास प्राण कहलाता है, सात प्राण का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव और सतहत्तर लबों का एक मुहूर्त होता है। तीन हजार सात सौ तिहत्तर (३७७३) उच्छ्वासों का एक मूहूर्त्त होता है- -यह सब अनन्त ज्ञानियों द्वारा दृष्ट है। इस मुहूर्त - प्रमाण से तीस मुहूर्त का एक दिन-रात, पंद्रह दिन-रात का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक अयन, दो अयन का एक संवत्सर, पांच संवत्सर का एक युग, बीस युग की एक शताब्दी, दस शताब्दियों की एक सहस्राब्दी, सौ सहस्त्राब्दियों का एक लाख वर्ष, चौरासी लाख वर्ष का एक पूर्वांग, चौरासी लाख पूर्वांगों का एक पूर्व होता है। इसी प्रकार (पूर्वोक्त क्रम से) त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अववांग, अब कांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्यांग पद्म नलिनांग, नलिन, अर्धनिकुरांग, अर्धनिकुर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, , Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई वाससहस्साणं वाससयसहस्सं, चउरासीइं वाससयसहस्माणि से एगे पुव्वंगे, चउरासीइं पुब्वंगा सयसहस्साइं से एगे पुब्वे, एवां तुडियंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अववे, हूहूयंगे, हूहूए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे पठमे, नलिणंगे, नलिणे, अत्यनिउरंगे, अत्थनिउरे, अउयंगे, अउए, नउयंगे, नउए, पउयंगे, पउए, चूलियंगे, चूलिया, सीरापहेलियंगे, सीसपहेलिया । एतावताव गणिए, एताव ताव गणियस्स विसए, तेण परं ओमिए । १. सूत्र १३२ समय असंख्य समय संख्येय आवलिका संख्येय आवलिका एक उच्छ्वास- नि:श्वास सात प्राण सात स्तोक सतहत्तर लव अथवा अड़चास मिनट तीस मुहूर्त पंद्रह अहोरात्र दो पक्ष दो मास 8 गोदारा में प्रमाण के चार प्रकार बतलाए गए हैं— द्रव्य प्रमाण, क्षेत्र प्रमाण, काल प्रमाण और भाव प्रमाण काल प्रमाण दो प्रकार का है— प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न विभागनिष्पन्न काल का आदि बिन्दु 'समय' है और 'पुद्गल परावर्तन उसका अंतिम बिन्दु है। प्रस्तुत सूत्र में गणित काल (संख्येय काल) का निरूपण है। इसमें समय का उल्लेख नहीं है। गणित काल का प्रारम्भ 'समय' से होता है। देखें यंत्र तीन ऋतु दो अयन पांच संवत्सर बीस युग = परम सूक्ष्म काल = एक आवलिका = एक उच्छ्वास एक निःश्वास = एक प्राण = एक स्तोक = एक लव = एक मुहूर्त = एक अहोरात्र = एक पक्ष = एक मास = एक ऋतु = एक अयन = एक संवत्सर = = शतं वर्षसहस्राणां वर्षशतसहस्रं, चतुरशीतिः वर्षशतसहस्राणि तदेकं पूर्वाङ्गम्, चतुरशीतिः पूर्वाजानि शतसहस्राणि तदेकं पूर्वम्, एवं त्रुटिताङ्गम्, त्रुटितम्, अटटाङ्गम्, अटटम्, अववाङ्गम्, अववम्, हूहूकाङ्गम्, हूहूकम्, उत्पलाङ्गम्, उत्पलम्, पद्माङ्गम्, पद्मन्, नलिनाङ्गम्, नलिनम्, अर्थनिकुराङ्गम्, अर्थनिकुरम् अयुताङ्गम्, अयुतम्, नयुताङ्गम्, नयुतम् प्रयुताङ्गम्, प्रयुतम् चूलिकाङ्गम्, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाङ्गम्, शीर्षप्रहेलिका । एतावत्तावद् गणितम् एतावान् तावान् गणितस्य विषयः, ततः परम् औपमिकम् । एक युग सौ वर्ष २८७ १. अणु. सू. ३६९ - पमाणे चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा-- १. दव्वप्पमाणे २. खेत्तप्पमाणे ३. कालप्पमाणे ४. भावप्पमाणे । भाष्य श. ६ : उ. ७: सू. १३२ चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका यहां तक गणित है. यहां तक गणित का विषय है। इसके बाद औपमिक काल प्रवृत्त होता है। चौरासी लाख वर्ष = एक पूर्वांग पूर्व - चौरासी लाख वर्षों को चौरासी लाख से गुणन करने पर जो संख्या प्राप्त हो ( सत्तर लाख करोड़, छप्पन हजार करोड़ वर्ष ) = ७०५६०००००००००० वर्ष । त्रुटितांग एक पूर्व को चौरासी लाख वर्षों से गुगन करने पर जो संख्या प्राप्त होती हो । त्रुटितांग से आगे शीर्षप्रहेलिका तक जितनी संख्या है वह उत्तरोत्तर चौरासी लाख से गुणित होने पर प्राप्त होती है। शीर्षप्रहेलिका की संख्या अंको में इस प्रकार है - ७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७९७३ ५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ इस संख्या के आगे १४० शून्य होते हैं। यह पूरी संख्या १९४ अंकों की है। इसमें ५४ अंक और उसके ऊपर १४० शून्य हैं। शीर्षप्रहेलिका के विषय में दो अभिमत उपलब्ध हैं—माथुरी वाचना के अनुसार शीर्षप्रहेलिका की संख्या में अंक ५४ और शून्य १४०, पूर्ण संख्या १९४ की है। वल्लभी वाचना के अनुसार अंक ७० और शून्य १८०, पूर्ण संख्या २५० की है। प्रस्तुत आलापक में शीर्षप्रहेलिका का पाठ माधुरी वाचना का अनुसारी है। ठाणं, अणुओगदाराई और जंबुद्दीवपण्णत्ती में माथुरी वाचनानुसारी संख्या ही मिलती है। वल्लभी वाचनानुसारी संख्या 'ज्योतिष्करण्ड' में उपलब्ध है। इसकी विशद जानकारी के लिए ठाणं २/३८१-३८९ का टिप्पण द्रष्टव्य है। पूर्व श्रुत के पारगामी मुनि इसका विभिन्न प्रयोजनों से उपयोग करते थे। अनुयोगद्वार की चूर्णि में इस संख्या के उपयोग के दो कोण बतलाए गए हैं— अन्तर्मुहूर्त से पूर्व कोटि तक की संख्या का उपयोग मनुष्यों और तिर्यच्चों के धर्माचरणकाल के सन्दर्भ में आयुष्य परिमाण के लिए किया जाता था। किसी मनुष्य का जीवन काल करोड़ पूर्व का हो और वह नौ वर्ष की 2 - २. वही. सू. ४९३-४१५ ३. लोक प्रकाश, काललोक, सर्ग २९, श्लोक १२, २१ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६:उ.७: सू.१३२-१३४ २८८ भगवई अवस्था में मुनि बने तो वह कुछ न्यून करोड़ पूर्व तक धर्म की आराधना करता त्रुटित से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक की संख्या का उपयोग नरक, भवनपति और व्यन्तर देवों का आयुष्य-परिमाण करने के लिए किया जाता था। (देखें, इसी शतक के सूत्र १३४ का भाष्य) शब्द-विमर्श समुदय-समिति-समागम होने पर जो कालमान होता है, उसका नाम 'आवलिका' है। हृष्ट-संतुष्ट अनवकल्य-नीरोग, जो वार्धक्य से रहित है।' निरुपक्लिष्ट-मानसिक क्लेश से मुक्त, जो कभी व्याधि से ग्रस्त नहीं हुआ है। ___ मानसिक संताप (Tension), मानसिक क्लेश और रुग्ण अवस्था में श्वास की संख्या बढ़ जाती है. इसलिए वैसे व्यक्ति का श्वास प्रमाण नहीं होता। यह तथ्य काल-गणना और प्रेक्षा-ध्यान दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। समदय-समिति-समागम-समुदय का अर्थ है समूह। अनेक समुदय मिलकर समिति का निर्माण करते हैं। समागम का अर्थ है संयोग। अनेक समितियों का संयोग समागम कहलाता है। असंख्यात समयों का ओवमिय-काल-पदं १३३. से किं तं ओवमिए? ओवमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पलिओवमे य, सागरोवमे य॥ औपमिक-काल-पदम् अथ किं तद् औपमिकम्? औपमिकं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद् यथापल्योपमं च, सागरोपमं च। औपमिक-काल-पद १३३. वह औपमिक क्या है? औपमिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—पल्योपम और सागरोपम। १३४. वह पल्योपम क्या है? वह सागरोपम क्या है? गाथासुतीक्ष्ण शस्त्र से भी जिसका छेदन-भेदन नहीं किया जा सकता, उस (व्यावहारिक) परमाणु को सिद्ध पुरुष (केवली) प्रमाणों का आदि बतलाते हैं। १३४. से किंतं पलिओवमे? से किं तं साग- अथ किं तत् पल्योपमं? अथ किं तत् रोवमे? सागरोपमम्? गाहा गाथासत्थेण सुतिक्खेण वि, शस्त्रेण सुतीक्ष्णेनापि, छेत्तुं भेत्तुं व जं किर न सका। छेत्तुं भेत्तुं च यं किल न शक्ताः। तं परमाणु सिद्धा, तं परमाणु सिद्धाः, वदंति आदि पमाणाणं ॥१॥ वदन्ति आदि प्रमाणानाम् ॥१॥ अणंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदय-समि- अनन्तानां परमाणुपुद्गलानां समुदय-समिति-समागमेणं सा एगा उस्सण्हसण्हिया इ ति-समागमेन सा एका उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका वा, सहसण्हिया इ दा, उड्ढरेणू इ वा, इति वा, श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका इति वा, ऊर्ध्वतसरेणू इ वा, रहरेणू इ वा, वालग्गे इ वा, रेणुः इति वा, त्रसरेणु: इति वा, रथरेणुः इति लिक्खा इ वा, जूया इ वा, जवमझे इ वा, वा, बालाग्रम् इति वा, लिक्षा इति वा, यूका अंगुले इ वा। अट्ठ उस्सण्हसण्हियाओ सा इति वा, यवमध्यम् इति वा, अङ्गुलः इति एगासण्हसण्हिया, अट्ठसण्हसण्हियाओ सा वा। अष्ट उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाः सा एका एगा उड्ढरेणू, अट्ठ उड्ढरेणूओ सा एगा श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, अष्ट श्लक्ष्णश्लक्ष्णितसरेणू, अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, का: सा एका ऊर्ध्वरेणुः, अष्ट ऊर्ध्वरेणव: अट्ठ रहरेणूओ से एगे देवकुरु- उत्तरकुरुगाणं सा एका त्रसरेणुः, अष्ट त्रसरेणव: सा एका मणुस्साणं वालगे; एवं हरिवास-रम्मग- रथरेणुः, अष्ट रथरेणवः तद् एकं देवकुरु-हेमवय-एरन्नवयाणं, पुव्वविदेहाणं मणु- उत्तरकुरुजाणां मनुष्याणां बालाग्रम् एवं स्साणं अट्ठ वालग्गा सा एगा लिक्खा, अठ्ठ हरिवर्ष-रम्यग्-हैमवत-हैरण्यवतां, पूर्व- लिक्खाओ सा एगा जूया, अट्ठ जूयाओ से विदेहानां मनुष्याणां अष्ट बालाग्राणि सा एका अनन्त व्यावहारिक परमाणु-पुद्गलों के समुदय, समिति और समागम से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, (परिपाटी के अनुसार) श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, ऊध्र्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु बालाग्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य और अंगुल होता है। आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका का एक ऊध्वरेणु, आठ ऊध्र्वरेणु का एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु, आठ रथरेणु का देवकुरु उत्तरकुरु के मनुष्यों का एक बालाग्र, देवकुरु उत्तरकुरु के मनुष्यों के आठ बालाग्र का हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष के मनुष्यों का एक बालाग्र, हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष के मनुष्यों के आठ बालाग्र का हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्यों का एक बालाग्र, हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्यों के आठ बालाग्र का पूर्व १. अनु. चू. पृ. ५७ अंतोमुहत्तादिया जाव पुव्वकोडीएत्ति, एतानि धम्मचरणकालं पडुच्च णरतिरियाण आउपरिमाणकरणे उवजुज्जति, णारगभवणवंतराणं दसवरिससहस्सादि उवजुज्जति, आउयचिंताए तुडियादिया सीसपहेलियंता एते पायसो पुबगतेसु जविएसु आउयसेढीए उबजुज्जति। २. भ.वृ. ६/१३२-असंख्यातानां समयानां सम्बन्धिनो ये समुदाया-वृन्दानि तेषां या: समितयो-मीलनानि तासां य: समागमः-संयोगः। समुदयसमितिसमागमस्तेन यद् कालमानं भवतीति गम्यते सैकाऽऽवलिकेति प्रोच्यते। ३. वही, ६/१३२-हष्टस्य-तुष्टस्य। ४. वही, ६/१३२-अनवकल्यस्य जरसाऽनभिभूतस्य । ५. वही, ६/१३२—निरुपक्लिष्टस्य व्याधिना प्राक् साम्प्रतं चानभिभूतस्य । Jain Education Intemational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई एगे जवमज्झे, अट्ठ जवमज्झा से एगे अंगुले । लिक्षा, अष्ट लिक्षाः सा एका यूका, अष्ट यूका:, तद् एकं यवमध्यम्, अष्ट दवमध्यानि स एकः अङ्गुलः । eri अंगुलपमाणे छ अंगुलाणि पादो, बारस अंगुलाई विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, छन्नउति अंगुलानि से एगे दंडे इवा, घणू इवा, जूए इवा, नालिया इ वा अक्खे इवा, मुसले एतेन अङ्गुलप्रमाणेन षड् अङ्गुला: पाद:, द्वादश अञ्जुला: वितस्तिः, चतुर्विशंतिः अङ्गुला : रत्निः, अष्टचत्वारिशद् अङ्गुलानि कुक्षिः, षण्णवतिः अङ्गुलानि स एकः दण्डः इति वा, धनुः इति वा, युगम् इति वा, नालिका इति वा, अक्ष इति वा, मुसलम् इति वा । एएणं धनुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साइं गाउयं एतेन धनुष्प्रमाणेन द्वे धनुःसहस्रे गव्यूतं, चत्तारि गाउयाई जवणं। इ वा । 7 चत्वारि व्यूतानियोजनमा एएवं जोयणप्पमाणेणं जे पल्ले जोवणं आ याम विक्खंभेणं, जोयणं उद्धं उच्चतेणं, तं तिउणं, सविसेसं परिरएणं, से णं गाहा एगाहिय- बेहिस- तेहिय, उनको सत्तरत्तप्परूद्धाणं। संमट्ठे संनिचिए, भरिए वालग्नकोढीगं ॥२॥ णं वाग्गेनो अग्गी दहेज्जा, नो वातो हरेज्जा, नो कुच्छेज्जा, नो परिविद्धसेज्जा, नो पूतित्ताए हव्वमागच्छेज्जा । तओ णं वाससए - वाससए गते एगमेगं वालगं अवहाय जावतिएणं कालेणं से पल्ले खीने निरए निम्मले निद्रिए निवे अव विसुद्धे भवइ । से तं पलिओवमे । गाहा एएसिं पत्ताणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ एक्कस्स भवे परिमाणं ॥ ३ ॥ सागरोवमपमाणे १. चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम सुसमा २. तिणि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा ३. दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम - दूसमा ४. एगा सागरोवम- कोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो एतेन योजनप्रमाणेन यत् पल्यं योजनम् आयाम-विष्कम्भेण योजनम् ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन तत् त्रिगुणं, सविशेषं परिरवेण स " गाथा २८९ एकाहिक व्यहिक व्यहिकाणाम् उत्कर्षेण सप्तरात्रप्ररूढानाम् । - गाथा एतेषां पल्यानां - संमृष्टः संनिचित:, भूतः बालायकोटिभिः ||२|| तानि बालाग्राणि नो अग्निः दहेत्, नो वात: हरेत्, नो कुथ्येयुः, नो परिविध्वंस्येरन्, नो पूतितया 'ह' आगच्छेयुः । ततः वर्षशते वर्षशते गते एकैकं बालाग्रम् अपहृत्य यावता कालेन स पल्यः क्षीणः नीरजा: निर्मलः निष्ठित: निर्लेपः अपहृतः विशुद्धः भवति । तत् तत् पल्योपमम् । 7 कोटि-कोटि : भवेद् दशगुणिता । तत् सागरोपमस्य तु, एकस्य भवेत् परिमाणम्॥ ३॥ एतेन सागरोपमप्रमाणेण - १. चतस्रः सागरोपमकोटिकोट्यः कालः सुषम- सुषमा २. तिस: सागरोपमकोटिकोट्यः कालः सुषमा ३ द्वे सागरोपमकोटिकोटी काल: सुषम- दुःषमा ४. एका सागरोपमकोटिकोटि: द्विचत्वारिंशतावर्षसहस्रैरूनिता काल: दुःषम श. ६ : उ. ७: सू. १३४ विदेह (और अपर विदेह) के मनुष्यों का एक बालाग्र, पूर्व - विदेह और अपर- विदेह के मनुष्यों का आठ बाला की एक लक्षा, आठ लिक्षा की एक यूका, आठ यूका का एक यवमध्य और आठ यवमध्य का एक अंगुल होता है। इस अंगुल - प्रमाण से छह अंगुल का पाद, बारह अंगुल की वितस्ति, चौबीस अंगुल की रनि, अड़तालीस अंगुल की कुक्षि, छियानवे अंगुल का एक दंड, धनुष, यूग, नालिका, अक्ष अथवा मुसल होता है। इस धनुष प्रमाण से दो हजार धनुष का एक गव्यूत (कोश) और चार गव्यूत का एक योजन होता है। इस योजन- प्रमाण से कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊँचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है। वह गाथा एक, दो, तीन यावत् उत्कर्षत: सात रात के बढे हुए करोड़ों बालाग्रों से ठूंस-ठूंस कर घनीभूत कर भरा हुआ है। बाला न अग्नि से जलते हैं, न हवा से उड़ते हैं, न असार होते हैं, न विध्वस्त होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं। उस कोठे से सौ-सौ वर्ष के बीत जाने पर एक-एक बालाग्र को निकालने से जितने समय में वह कोठा खाली, रजरहित, निर्मल और निश्चित होता है, निर्लेप होता है, सब बालानों के निकल जाने पर विशुद्ध (सर्वाखाली हो जाता है, वह (व्यावहारिक) पल्योपम है। गाथा इन दस कोडाकोडि पल्यों से एक (व्यावहारिक) सागरोपम होता है। ― इस सागरोपम प्रमाण से - १. सुषम सुषमा का कालमान चार सागरोपम कोठाकोड़ि है २. सुषमा का कालमान तीन सागरोपम कोड़ाकोड़ि है। ३. सुषम दुःषमा का कालमान दो सागरोपम कोड़ाकोड़ि है । ४. दुःषम - सुषमा का कालमान बयालीस हजार वर्ष न्यून एक सागरोपम कोड़ाकोड़ि है । ५. दुःषमा Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.७: सू.१३३,१३४ २९० भगवई का कालमान इक्कीस हजार वर्ष है। ६. दु:षमदु:षमा का कालमान इक्कीस हजार वर्ष हैं। दूसम-सुसमा ५. एक्कवीसं वाससहस्साई. सुषमा ५. एकविंशति: वर्ष सहस्राणि काल: कालो दूसमा ६. एक्कवीसं वाससहस्साई दुःषमा ६. एकविंशतिः वर्षसहस्राणि काल: कालो दूसम-दूसमा। दु:षम-दुषमा। पुणरवि उस्सप्पिणीए १. एक्कवीसं वाससह- पुनरपि उत्सर्पिण्याम्---१. एकविंशतिः स्साई कालो दूसम-दूसमा २. एक्कवीसं वर्षसहस्राणि कालः दु:षम- दु:षमा वाससहस्साई कालो दूसमा ३. एगा साग- २.एक-विंशतिः वर्षसहस्राणि काल: रोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं दु:षमा ३.एका सागरोपमकोटिकोटिः द्विऊणिया कालो दूसम-सुसमा ४.दो सागरो- चत्वारिंशता वर्षसहस्रैरूनिता काल: वमकोडाकोडीओ कालो सुसम-दूसमा दुःषम-सुषमा ४. द्वे सागरोपमकोटिकोटी ५. तिण्णि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो काल: सुषम-दु:षमा ५. तिस्रः सागरोपमसुसमा ६. चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कोटिकोट्य: काल: सुषमा ६.चतस्रः कालो सुसम-सुसमा। सागरोपमकोटिकोट्य: काल: सुषम सुषमा। दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओस- दश सागरोपमकोटिकोट्य: काल: अवसप्पिणी, दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो र्पिणी, दश सागरोपमकोटिकोट्य: काल: उस्सप्पिणी, वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ उत्सर्पिणी, विंशति: सागरोपमकोटिको- कालो ओसप्पिणी उस्सप्पिणी य॥ ट्य: काल: अवसर्पिणी उत्सर्पिणी चा पुन: उत्सर्पिणी में-१. दु:षम-दु:षमा का कालमान इक्कीस हजार वर्ष हैं। २. दु:षमा का कालमान इक्कीस हजार वर्ष हैं। ३. दु:षम-सुषमा का कालमान बयालीस हजार वर्ष न्यून एक सागरोपम कोड़ाकोड़ि है। ४. सुषम-दुःषमा का कालमान दो सागरोपम कोड़ाकोड़ि है। ५. सुषमा का कालमान तीन सागरोपम कोडाकोड़ि है। ६. सुषम-सुषमा का कालमान चार सागरोपम कोड़ाकोड़ि है। अवसर्पिणी का कालमान दस सागरोपम कोडाकोड़ि है। उत्सर्पिणी का कालमान दस सागरोपम कोड़ाकोड़ि है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों का समन्वित कालमान बीस सागरोपम कोड़ाकोड़ि है। भाष्य १. सूत्र १३३,१३४ सकता। विस्तृत विवरण के लिए अणुओगदाराई, सू. ३९६-३९१ द्रष्टव्य शीर्षप्रहेलिका तक का काल गणित का विषय है-गणितप्रमेय है। अभयदेवसूरि ने लिखा है कि शस्त्र से छेदन-भेदन नहीं किया जा है। इससे अधिक काल का ज्ञान उपमा के द्वारा किया जाता है। इसलिए उसे सकता—यह लक्षण नैश्चयिक परमाणु में भी घटित होता है। यहां प्रमाण के 'औपमिक काल' कहा जाता है। औपमिक काल के दो प्रकार हैं—पल्योपम अधिकार में व्यावहारिक परमाणु विवक्षित है। और सागरोपम। औपमिक काल का प्रारम्भ-बिन्दु परमाणु है। वह दो प्रकार प्रस्तुत आगम में 'अणंताणं परमाणुपोग्गलाणं' पाठ है। और का होता है—सूक्ष्म परमाणु और व्यावहारिक परमाणु। प्रस्तुत प्रसंग में सूक्ष्म अणुओगदाराई में 'अणंताणं ववहारियपरमाणुपोग्गलाणं' पाठ है। परमाणु विवक्षित नहीं है। अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं से एक व्यावहारिक परमाणु अभयदेवसूरि ने परमाणु का अर्थ 'व्यावहारिक परमाणु' किया है। भगवती निष्पन्न होता है। उसका सुतीक्ष्ण शस्त्र के द्वारा छेदन-भेदन नहीं किया जा और अणुओगदाराइं की तुलना यहां तालिका में दी जा रही है भगवती६/१३४ अनन्त परमाणुपुद्गलो की एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका ८ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका = एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका ८ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका = एक ऊर्ध्वरेणु ८ ऊर्ध्वरेणु = एक त्रसरेणु ८ त्रसरेणु = एक रथरेणु ८ स्थरेणु = देवकुरु- उत्तरकुरु के मनुष्यों का एक बालाग्र इसी प्रकार-हरिवर्ष-रम्यक्-हैमवत हैरण्यवत -पूर्वविदेह-अपरविदेह' । के मनुष्यों का ८ बालाग्र = एक लिक्षा __ अणुओगदाराई सू. ३९९, ४०० अनन्त व्यावहारिक परमाणुपुद्गलों की एक उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका ८ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका = एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका ८ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका - एक ऊर्ध्वरेणु ८ ऊर्ध्वरेणु = एक त्रसरेणु ८ त्रसरेणु = एक रथरेणु ८ रथरेणु = देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों का एक बालाग्र देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों के ८ बालाग्र = हरिवर्ष - रम्यक्वर्ष के मनुष्यों का एक बालान १. भ.वृ. ६/१३४-यद्यपि च नैश्चयिकपरमाणोरपीदमेव लक्षण तथाऽपीह प्रमाणा- धिकाराद्व्यावहारिकपरमाणुलक्षणमिदमवसेयम् । २.अणु.सू. ४१८-४३२ । भ, मूलपाठ में एरण्णवयाणं है, पर ठाणं और अनु.में हेरण्णवयाणं है। ३. भ. मूलपाठ में अपरविदेह नहीं है, छूट गया है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २९१ श.६ : उ.७: सू.१३३,१३४ हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष के मनुष्यों के ८ बालाग्र = हैमवत्-हैरण्यवत् के मनुष्यों का एक बालाग्र हैमवत्-हैरण्यवत् के मनुष्यों के ८ बालाग्र = पूर्वविदेह-अपरविदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र पूर्वविदेह-अपरविदेह मनुष्यों के ८ बालाग्र = भरत ऐवत के मनुष्यों का एक बालाग्र भरत-ऐरवत मनुष्यों के ८ बालाग्र = एक लिक्षा भरत-ऐश्वत के मनुष्यों का ८ बालाग्र = एक लिक्षा ८ लिक्षा = एक यूका ८ लिक्षा = एक यूका ८ यूका = एक यवमध्य ८ यूका = एक यवमध्य ८ यवमध्य = एक अंगुल ८ यवमध्य = एक उत्सेध अंगुल ६ अंगुल = एक पाद ६ अंगुल = एक पाद १२ अंगुल = एक वितस्ति १२ अंगुल = एक वितस्ति २४ अंगुल = एक रत्नि २४ अंगुल = एक रत्नि ४८ अंगुल = एक कुक्षि ४८ अंगुल = एक कुक्षि ९६ अंगुल = एक दंड , धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मुसल ९६ अंगुल = एक दंड , धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मुसल २,००० धनुष = एक गव्यूत २,००० धनुष = एक गव्यूत ४ गव्यूत = एक योजन ४ गव्यूत = एक योजन ___एक पल्य जो एक योजन लम्बा, चौड़ा व एक योजन ऊंचा, वह आवलिका : जघन्य-युक्त असंख्यात समयों की एक आवलिका एक से सात दिन के शिशु के केशों से भरा हुआ है। सौ-सौ वर्ष से एक-एक होती है। जघन्य-युक्त असंख्यात का मान जघन्य-परीत-असंख्यात को केश निकालने पर वह पल्य खाली हो, उतना काल एक व्यावहारिक पल्योपम जघन्य-परीत-असंख्यात से अभ्यास गुणित करने पर आता है। कहलाता है। पल्य की विस्तृत चर्चा के लिए अणुओगदाराई द्रष्टव्य है। प्राण (उच्छ्वास-नि:श्वास) : ४४४६ ३७७३ आवलिकाओं अभयदेवसूरि ने भी व्यावहारिक और सूक्ष्म पल्योपम की चर्चा की है। का एक प्राण होता है। निरोगी, बलवान्, युवक पुरुष के एक उच्छ्वास विश्वप्रहेलिका' में कालमान का तुलनात्मक अध्ययन किया नि:श्वास की क्रिया में लगने वाला काल १ प्राण है। गया है संख्यात काल-मान कोष्ठक १ समय काल का सूक्ष्मतम अंश जघन्य-युक्त असंख्य समय - १ आवलिका ४४४६ ३४७६ १ अडड १अववांग १ अवव १ हूहूकांग आवलिका प्राण = स्तोक - लव घड़ी मुहूर्त अहोरात्र - मास = वर्ष = पूर्वांग = १प्राण १स्तोक १लव १घड़ी १ मुहूर्त (=४८ मिनट) १ अहोरात्र १ मास १ वर्ष १ पूर्वांग १ पूर्व १ त्रुटितांग त्रुटित १अडडांग अडडांग = अडड = अववांग = अवव = हूहूकांग = हूहूक उत्पलांग = उत्पल = पद्मांग = पद्म = नलिनांग = नलिन = अर्थनिपुरांग = ८४००००० १ उत्पलांग १उत्पल १ पांग १ पद्म १ नलिनांग १ नलिन १ अर्थनिपुरांग १ अर्थनिपुर पूर्व त्रुटितांग = त्रुटित = १. लेखाक-मुनि श्री महेद्र कुमारजी 'द्वितीय',प्र. झवेरी प्रकाशन, बंबई, १९६८-पृ. २४२-२५२ Jain Education Intemational Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.७ : सू.१३३,१३४ २९२ भगवई अर्थनिपुर = अयुतांग = अयुत - प्रयुतांग = प्रयुत = १ अयुतांग १अयुत १प्रयुतांग नयुतांग = १ नयुत नयुत = १ चूलिकांग चूलिकांग = १ चूलिका चूलिका = १शीर्षप्रहेलिकांग शीर्षप्रहेलिकांग% १शीर्षप्रहेलिका १नयुतांग यह कोष्ठक श्वेताम्बर-परम्परा के आधार पर दिया गया है। दिगम्बर-परम्परा में वर्ष के बाद के मान निम्न रूप से मिलते हैं: = १ पूर्वांग १ पूर्व १ पर्वांग ८४००००० वर्ष ८४००००० पूर्वांग ८४ पूर्व ८४००००० पर्वांग ८४ पर्व ८४००००० नयुतांग ८४ नयुत ८४००००० कुमुदांग ८४ कुमुद ८४००००० पद्मांग ८४ पद्म ८४००००० नलिनांग ८४ नलिन ८४००००० कमलांग ८४ कमल १ नयुतांग ८४००००० त्रुटितांग ८४ त्रुटित ८४००००० अटटांग ८४ अटट ८४००००० अममांग ८४ अमम ८४००००० हाहांग ८४ हाहा ८४००००० हूहांग १ त्रुटित १ अटटांग १अटट १अममांग १ अमम १ हाहांग १हाहा १ हूहांग १नयुत १ कुमुदांग १ कुमुद १पद्मांग १पद्म १ नलिनांग १ नलिन १ कमलांग १कमल १ त्रुटितांग ८४००००० लतांग ८४ लता ८४००००० महालतांग ८४००००० महालता ८४००००० श्रीकल्प ८४००००० हस्त-प्रहेलित १लतांग १ लता १महालतांग १ महालता १ श्रीकल्प १ हस्त-प्रहेलित १अचलात्म श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार उत्कृष्ट संख्यात काल-मान शीर्षप्रहेलिका है, जिसका मूल्य है: (८४०००००)२८ = (८४८ x १०१४०) दिगम्बर-परम्परा के अनुसार उत्कृष्ट संख्यात काल-मान 'अचलात्म' है, जिसका मूल्य है: (८४१ x १०९०) असंख्यात काल-मान समय से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक के काल-मान संख्या के द्वारा निर्दिष्ट हो सकते हैं, इसलिये ये संख्यात काल-मान' माने गये हैं। वास्तविक दृष्टि से तो 'संख्या' का विषय 'शीर्षप्रहेलिका' से आगे भी है, किन्तु व्यावहारिक गणित की मर्यादा के बाहर होने के कारण शीर्षप्रहेलिका' को उत्कृष्ट संख्यात काल-मान माना गया है। असंख्यात काल-मानों की परिभाषाएं उपमा के द्वारा दी गई हैं। इनके मुख्य दो भेद हैं: १. पल्योपम २. सागरोपम पल्योपम बेलनाकार खड्डे या कुएं को 'पल्य' कहा जाता है। 'पल्य' की उपमा से बताया गया मान 'पल्योपम' है। श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्पराओं में इसका वर्णन भिन्न-भिन्न रूप से मिलता है। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार: एक बेलनाकार वर्तुल का व्यास उत्सेध अंगुल प्रमाण से १ योजन है। बेलन की ऊंचाई भी १ योजन है। इस कुएं को देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्यों के केशारों से सम्पूर्ण भरा जाता है, जिससे कि बेलन का समग्र आकाश केशानों से व्याप्त हो जाए। बेलन में समाहित केशाग्रों की संख्या निकालने के लिए पहले बेलन का घनफल निकालना आवश्यक है। १. देखें अनुयोगद्वार सूत्र: समय का विषय; लोक-प्रकाश, सर्ग २८-२९: भगवती सत्र. ४. तिलोयपण्णती में 'नियुतांग' और 'नियुत' हैं। ५. आदिपुराण और लोक विभाग में यहां शिरःप्रकम्पित है। ६. यह मूल्य वालभ्य वाचना के आधार पर है। माथुरी वाचना के आधार पर इसका मूल्य (८४०००००) होता है। २. तिलोयपण्णती, ४-२९३ से ३०७; आदिपुराण, ३-२१८,२२७; लोकविभाग, ५ -१३९-१४८ ३. ये दो नाम तिलोयपण्णती में छूट गए हैं, ऐसा लगता है। Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई बेलन का आधार वर्तुल है। इस वर्तुल का क्षेत्रफल = 7 (त्रिज्या) ' बेलन का घनफल = (त्रिज्या ) x ऊंचाई इस समीकरण में का मान लिया गया है।' क्षेत्र मान कोष्ठक के आधार पर १ योजन मान क्षेत्र के ७६८००० उत्सेध - अंगुल होते हैं । १ उत्सेध - अंगुल के ८५ देवकुरु- उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्यो के बालाग्र होते हैं; अतः १ योजन = ८० X ७६८००० देवकुरु- उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्यों के वालाग्र* व्यास = ८७ x ७६८००० .. त्रिज्या - ८ x ७६८००० दे.उ.क्षे.म. बालाग्र २ ऊंचाई = ८० X ७६८००० दे. उ. क्षे. म. बालाग्र अतः बेलन का घनफल - (2) (८' x ७६८०००) ' = • ३३०, ७६२, १०४, २४६, ५६२, ५४२, १९९, ६०९, ७५३, ६००,०००,०००,० घन दे. उ. क्षे. म. बालाग्र = ३.३० x १० घन दे. उ. क्षे. म. बालाग्र लगभग इस प्रकार बेलन में समाहित बालाग्र की संख्या = ३.६ x १०३६ हैं। ये बाला चार प्रकार से बाहर निकाले जाते हैं, जिसके फलस्वरूप चार प्रकार के पल्योपम होते हैं: १. बादर उद्धार पल्योपम --- प्रति समय एक बालाग्र कुएं में से बाहर निकाला जाए। जितने काल में वह खड्डा खाली हो जाए, उतने काल को बादर उद्धार पल्योपम कहते हैं। बादर उद्धार पल्योपम केवल औपचारिक पल्योपम है, क्योंकि इसका मान संख्यात समयों का है। प्रति समय एक बालाग्र बाहर निकालने पर, ३.३x १०५ समयों में कुआं खाली हो जायेगा। इस प्रकार एक बादर उद्धार पल्योपम ३.३ X १०३६ समय २. सूक्ष्म उद्धार पल्योपम — पूर्वोक्त बालाग्रों में से प्रत्येक बालाग्र के 'असंख्य' खण्ड किये जाते हैं। प्रत्येक खण्ड केवल चक्षु द्वारा देखे जाने वाले २९३ १. इसका विवेचन परिशिष्ट - ३ में किया गया है। २. अनुयोगद्वार सूत्र, उपमा विषय तथा लोकप्रकाशः १-६८ से १२१ के आधार पर । ३. वर्तुल की परिधि को वर्तुल के व्यास का भाग देने पर आने वाली संख्या को कहते हैं। Π इसका संख्यात्मक मूल्य निकालने के लिए अति प्राचीन काल से प्रयत्न किया गया है। जैन आगमों में के लिए 'तीन से कुछ अधिक' ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं— (देखें, अनुयोगद्वार सूत्र, 元 ११ ६ उपमा विषय) आगमेतर जैन ग्रन्थों में इसका मूल्य १० अथवा लिया गया है। (देखें त्रिलोकसार, गाथा १७; तिलोयपण्णती, १-११७; लोकप्रकाश, १-७)। जैनेतर प्राचीन ग्रन्थों में भी के लिए V१० का उपयोग हुआ है। (देखें, प्राचीन भारत में गणित का योग, पृ. ८) षट्खण्डागम पर वीरसेनाचार्य ( ई. सन् ८१६) रचित धवला टीका में दिये गए एक श्लोक के १६ १६ अनुसार ग का मूल्य (३+ : + 2) होता है। देखें, षट्खण्डागम, १-३-२ में ११३ ११३ X व्यास श्लोक १४, पुस्तक ४, पृ. ४२। इसमें प्रथम पद में स्थित संख्या का मान ३.१४१५९२९२...... सूक्ष्मतम पदार्थ से भी असंख्य गुना छोटा होता है। इस प्रकार के बालाग्र-खण्डों में से प्रति समय एक बालाग्र खण्ड कुएं में से बाहर निकालने पर जितने काल में समग्र कुंआ रिक्त हो जाता है, उतने काल को 'सूक्ष्म उद्धार पत्यो (सू.उ. प.) कहते हैं। इस प्रकार १ सू.उ. प. = { ( ३.३ x १० ) x असंख्यात} समय ३. बादर अद्धा पल्योपम — पूर्वोक्त रीति से बालाओंों से भरे हुए कुंएं में से प्रति १०० वर्ष में एक बालाग्र निकालने पर जितने काल में समग्र कुंआं रिक्त हो जाता है, उतने काल को 'बादर अद्धा पल्योपम' कहते हैं। संख्यात वर्षों का मान होने के कारण यह भी केवल औपचारिक पल्योपम है। प्रति १०० वर्ष में १ केशाग्र बाहर निकालने पर, १०० X ३.३ X १० वर्षों श. ६ ३.७: सू. १३३,१३४ : में कुंआं रिक्त हो जाता है। इस प्रकार एक बादर अद्धा पल्योपम = १०० x ३.३ X १० वर्ष ३. ३ X १० वर्ष ४. सूक्ष्म अद्धा पल्योपम—सूक्ष्म उद्धार पल्योपम की तरह प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड किये जाते हैं। प्रति १०० वर्ष में एक बालाग्र खण्ड बाहर निकालने पर जितने काल में कुंआ रिक्तहो जाता है, उतने काल को 'सूक्ष्म अद्धा पत्योपम' (सू.अ.प.) कहते हैं। इस प्रकार, असंख्यात काल मान कोष्ठक - १ सू.अ.प. = { ( ३.३. x १०६ ) x १०० x असंख्यात) वर्ष = { ( ३.३x १० ) x असंख्यात वर्ष - १ सूक्ष्म अद्धा पल्योपम = ३. ३ X १०" असंख्यात समय १ सूक्ष्म उद्धार पल्योपम = ३.३ X १०८ असंख्यात वर्ष दिगम्बर- परम्परा के अनुसार " श्वेताम्बर - परम्परा में बताये गये कुंएं के वर्णन में जो योजन उत्सेधअंगुल से निष्पन्न था, वह वहां प्रमाणांगुल से निष्पन्न माना गया है। १ प्रमाणांत के ५०० उत्सेध - अंगुल होते हैं। अतः १ योजन = (७६८००० x ५००x८५ ) उत्तम भोग भूमि के बालाग्र अतः बेलन का घनफल = Xx (७६८००० x ५००X८७ ) ० ४१३, ४५२, ६३०, ३०८, २०३, १७७, ७४९, ५१२, १९२,०००,०००,०००,०००,०००,००० घन उत्तम भोग भूमि बालाग्र = आता है। आधुनिक गणित शास्त्र के अनुसार का मूल्य निम्न श्रेणी से व्यक्त होता है: १ १ १ १ T = ४ (१..) इसका मूल्य १४ दशमलेवे स्थान तक निकालने पर, ५ ३ ७ ११ | = ३.१४१५९२६५३८९७९ आता है। (देखें, ज्योमेट्री, ले. चार्ल्स एफ बूमफिल्ड, रोबर्ट आईकोल्फ और मेरील ई. शान्कस, पृ. २०४ २०५ ) | ३६ ५. ग. का मूल्य ३.९४९५ लेने पर इस संख्या का मूल्य ३.०६ x १० आता है। ६. वस्तुतः तो छः प्रकार से निकाले जाते हैं, किन्तु अंतिम दो प्रकार प्रस्तुत पुस्तक में उपयोगी नहीं होने के कारण नहीं दिये गये हैं। ७. तिलोयपणती, १-११९ से १३० के आधार से। ८. यहां पर भी का मूल्य १९/६ लिया गया है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. ७: सू. १३३,१३४ = ४.१३ x १०४ घन उत्तम भोग भूमि के बालाग्र लगभग ' इस प्रकार पल्य (कुंएं) में समाहित बालाग्र की संख्या = ४.१३ X १०४ है । इन बालानों को बाहर निकालने के प्रकारों के आधार पर तीन प्रकार के पल्योपम होते है । १. व्यवहार पल्योपम - प्रति १०० वर्ष में १ बालाग्र बाहर निकालने पर जितने काल में सम्पूर्ण कुंआं रिक्त होता है, उतने काल को व्यवहार प कहते हैं। व्यवहार पल्योपम औपचारिक पल्योपम है; क्योंकि इसका मान संख्यात वर्षों का है। प्रति १०० वर्षों में एक बालाग्र बाहर निकालने पर, ४.१३ X १० x १०० वर्षों में कुंआ रिक्त हो जायेगा; अतः १ व्यवहार - पल्योपम= ४.१३ X १०४६ x १०० वर्ष २. उद्धार - पल्योपम-व्यवहार पल्य के बालाग्रों में से प्रत्येक के असंख्यात करोड़ वर्षों के जितने समय होते हैं, उतने खण्ड किये जाते हैं और इन खण्डों से पूर्वोक्त कुंआं भरा जाता है। जितने काल में कुंआं रिक्त हो जाता है, उतने काल को उद्धार पल्योपम कहा जाता है। इस प्रकार १ उद्धार पल्योपम = (४.१३ X १०४ ) x ( असंख्यात करोड़ वर्षों के समयों की संख्या) समय यदि १ वर्ष के समय की संख्या 'अ ' हो और 'असंख्यात' वर्ष 'अ' हो तो १ उद्धार पल्योपम = (४.१३ X १० X अ X अ, x १०५) समय किन्तु अ समय - १ वर्ष अतः १. उद्धार पल्योपम = * (४.१३ X १०५ x १०० x अ . ) वर्ष = ( १०' x अ ) व्यवहार पल्योपम ३. अद्धा पल्योपम - उद्धार पल्य के बालाग्र-खण्डों में से प्रत्येक के असंख्यात वर्षों के जितने समय होते हैं, उतने खण्ड किये जाते हैं। पूर्वोक्त प्रकार के कुएं को इन खण्डों से सम्पूर्णतया भरा जाता है। प्रति समय एक खण्ड बाहर निकालने पर जितने काल में कुंआं रिक्त होता है, उतने काल को अद्धा पल्योपम कहते हैं। इस प्रकार, कुएं में रहे खण्डों की संख्या - ( ४.१३ X १०५ x अ, x अ x १०) x ( असंख्यात वर्षों के समयों की संख्या) यदि असंख्यात वर्ष अ. हो, अ) समय १ अद्धा पल्योपम = (४.१३ X १० अ X अ, X १० अ x २ = (४.१३ x १०४ x अ, अ, अ, X १००) वर्ष -- (४.१२ x १०१) अ अ अ वर्ष = १ २ ४४ १. ग. का मूल्य ३.९४१५ लेने पर, यह संख्या ४.०७ X १० २. 'लघुगणक' की व्याख्या : यदि लघु = अहो य = क होता है। 'य' को 'स्थापना' (Base) कहते हैं। २९४ य तो अ लगभग आती है। अर्धच्छेद का अर्थ होता है 'स्थापना दो के लघुगणक' (Logaritham to the base, ) और इसका संज्ञा में 'लघु' (log) लिखा जाता है। वास्तव में किसी संख्या के अर्धच्छेद उस संख्या के बराबर होते हैं, जितने बार कि हम उसका अर्धीकरण कर सकें। अर्थात् • १०५ अ, अ, अ, व्यवहार पल्योपम यदि हम अ, = अ, मान लें, तो १ अद्धा पल्योपम पल्योपम काल-मान कोष्ठक (१ व्यवहार पल्योपम= ४.१३ X १०४५ वर्ष) १ उद्धार पल्योपम = (१०५ x अ ) व्यवहार पल्योपम १ अद्धा पल्योपम = अ, अ, उद्धार पल्योपम = १० अ (अ.) व्यवहार पत्योपम (अ. अ. ) उद्धार पल्योपम १. काल- मान और क्षेत्र मानों का परस्पर सम्बन्ध २ काल- मान और क्षेत्र - मानों के परस्पर सम्बन्ध को सूचित करने वाले दो समीकरण दिगम्बर - परम्परा में मिलते हैं। इन समीकरणों में 'अर्धच्छेदों' का उपयोग हुआ है। छेदागणित का आधुनिक नाम 'लघुगणक (लोगरीद्म) है। प्रथम समीकरण में सूची अंगुल और अद्धा पल्योपम का सम्बन्ध इस प्रकार दिया गया है: ' 'अद्धा पल्योपम के जितने अर्धच्छेद हों, उतनी जगह पल्य को रख कर परस्पर में गुणन करने पर जो राशि उत्पन्न हो, उसे 'सूची अंगुल' कहते हैं।" संज्ञा में (लघु, अद्धापल्य) सूची अंगुल (अद्धापल्य) = यदि सूची अंगुल अ प्रदेश और अद्धापल्य = प समय हो, . (लघु प) अ = प भगवई यहां पर सूची अंगुल और अद्धापल्य कौनसे मान में होने चाहिए, इसका उल्लेख नहीं है; फिर भी अनुमान से ये मान क्रमशः 'प्रदेश' और 'समयच्च में है, ऐसा 'लगता है; क्योंकि 'प्रदेश' और 'समय' क्रमश: क्षेत्र और 'काल' के इकाई मान हैं। इस प्रकार तो = यदि किसी राशि क के अर्धच्छेद अ प्राप्त करने हों तो अ = क के अर्धच्छेद = लघु, क होता है। अर्थात् अ क होना चाहिए। दूसरा समीकरण जगश्रेणी और अद्धापल्य के सम्बन्ध का है। “अद्धापल्य की अर्धच्छेद राशि के असंख्यातवें भाग प्रमाण घनांगुल को रख कर उनके परस्पर गुणन करने पर जो राशि उत्पन्न हो, उसे जगश्रेणी कहते हैं। " संज्ञा में : लघु, अद्धा असंख्यात जगश्रेणी = (घनांगुल) यहां पर 'घनांगुल' का अर्थ 'सूची अंगुल' का घन है अर्थात् सूचीअंगुल के प्रदेशों की संख्या का घन । इसलिये यदि जगश्रेणी = ज प्रदेश और असंख्यात = अ हो, तो ३. तिलोयपणती, १-१३१। ४. श्री लक्ष्मीचन्द जैन ने भी तिलोयपण्णती का गणित में यही निरूपण किया है। देखें, जम्बूद्वीपपणत्ति संगहो की प्रस्तावना, पृ.१०१, १०४ ५. वही, १-१३१। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई इन दो समीकरणों के मिलाने से, ज = प शब्द-विमर्श ज= (अं) (पु.) अर २ १. १ कोटाकोटि = १० ३ (लघु प अ प ज प सागरोपम—१० कोटाकोटि पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। पल्योपम के सूक्ष्म- बादर, उद्धार और अद्धा तथा व्यवहार, उद्धार और अद्धा होते हैं उसी प्रकार सागरोपम के हैं। श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार १० कोटाकोटि बादर उद्धार पल्योपम = १ बादर उद्धार सागरोपम १० कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धार पल्योपम = १ सूक्ष्म उद्धार सागरोपम • कोटाकोटि बादर अद्धा पल्योपम = १ बादर अद्धा सागरोपम १० कोटाकोटि सूक्ष्म अद्धा पल्योपम = १ सूक्ष्म अद्धा सागरोपम दिगम्बर- परम्परा के अनुसार १० १० कोटाकोटि व्यवहार पल्योपम = १ बादर व्यवहार सागरोपम १० • कोटाकोटि उद्धार पल्योपम = १ उद्धार सागरोपम १० कोटाकोटि अद्धा पल्योपम १ अद्धा सागरोपम १. सुषम- सुषमा २. सुषमा १४ } ३ लघु २ 2.) जंबुद्दीपण्णत्ती के अनुसार वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संहनन, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम में अनन्तगुना वृद्धि और हास होता है। अकलंक ने इस परिवर्तन को कालहेतुक बतलाया है। किन्तु इससे प्रश्न का समाधान नहीं होता, वास्तव में भौगोलिक स्थिति, पृथ्वी का वातावरण और सौरमण्डल का विकिरण— ये सब परिवर्तन के हेतु बनते हैं। क्षेत्र और काल (वातावरण) तीन प्रकार का होता है - १. स्निग्ध २. रूक्ष ३. स्निग्धरूक्ष । निशीथ चूर्णिकार ने लिखा है— देवकुरू और उत्तरकुरु में क्षेत्र की स्निग्धता के कारण तथा सुषमसुषमा में काल की स्निग्धता के कारण आयुष्य लम्बा होता है । ghaण्णत्ती के अनुसार जब समय रूक्ष होता है, उस स्थिति में चन्द्रमा की सर्दी और सूर्य का ताप बढ़ जाता है। भगवान् ऋषभ से पूर्व स्निग्ध-काल था इसलिए अग्नि पैदा नहीं हुई । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार — स्निग्धरूक्ष काल के आने पर अग्नि की उत्पत्ति हुई।" काल की स्निग्धता और रूक्षता की परिवर्तनशीलता के आधार पर भरत, ऐरावत क्षेत्र में क्रम चलता है। इस क्रम को अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के बारह काल-खण्डों में प्रदर्शित किया गया है। कालखण्ड की संज्ञा अर (आरा) है। जैसे चक्र के आरे होते हैं, वैसे ही अवसर्पिणी उत्सर्पिणी रूपक कालचक्र के बारह अर हैं। अवसर्पिणी के छह अरों में विकास से ह्रास का क्रम चलता है। उत्सर्पिणी के छह अरों में ह्रास से विकास का क्रम चलता है। - डार्विन आदि विकासवादी वैज्ञानिकों ने सृष्टि विकास के सिद्धान्त का न असार होते हैं (नो कुच्छेज्जा ) —— पल्य से भरे हुए बालाग्र कुथित प्रतिपादन किया। आगमकारों को केवल विकास का सिद्धान्त मान्य नहीं है, • अथवा असार नहीं होते। वृत्तिकार ने उसके दो कारण बतलाए हैं विकास और ह्रास दोनों का सिद्धान्त मान्य है। देखें कोष्ठक सिद्ध--- प्रस्तुत प्रसंग में सिद्ध का अर्थ केवली है।' समुदय समिति-समागम - पुद्गल में एकीभाव हो सकता है, इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में समागम का अर्थ परिणमन से होने वाला एकीभाव है।' संमृष्टपूर्ण भरा हुआ। संनिचित — सघन किया हुआ । २९५ श. ६ : उ. ७ : सू. १३३, १३४ १. बालाग्रों का प्रचय सघन होने के कारण उसमें छिद्र नहीं होता। २. वायु का प्रवेश संभव नहीं होता, इसलिए वे असार नहीं होते।' कालचक्र—व्यावहारिक काल (सूर्य और चन्द्रमा की गति से होने वाला काल ) पूर्ण मनुष्य-लोक (अढ़ाई द्वीप और समुद्र) में होता है। मनुष्यलोक के कुछ क्षेत्र (भरत और ऐरावत) सौरमण्डल से अधिक प्रभावित होते हैं। वे सदा एकरूप नहीं रहते। उसमें हास और विकास का चक्र चलता है। अकलंक के अनुसार अनुभव, आयुष्य का कालमान शरीर की लम्बाई आदि में वृद्धि और ह्रास होता रहता है।' २. अणु. वृ. ४१८४३२ ३. भ. वृ. ६ / १३४ – 'सिद्धत्ति' ज्ञानसिद्धा केवलिन इत्यर्थः न तु सिद्धा सिद्धिगता, एतेषां वदनस्यासंभवादिति । ४. वही, ६/१३४ — समुदयाः दुव्यादिसमुदायास्तेषां समितयो — मीलनानि, तासां समागमः - परिणामवशादेकीभवनं, समुदयसमितिसमागमास्तेन या परिमाणमात्रेति गम्यते । ५. वही, ६ / १३४ - न कुथ्येयुः प्रचयविशेषादेव शुषिराभावाद् वायोरसम्भवाच्च नासारतां गच्छेयुः। ६. त.सू. ३/२७ – भरतैरावतयोर्वृद्धिहासो षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् । अवसर्पिणी - विकास से ह्रास की ओर विकास - ह्रास एकान्त विकास का कालखण्ड विकास का कालखण्ड कालमान चार कोटिकोटि सागर तीन कोटिकोटि सागर ७. त. रा. वा. ३/२७ - अनुभवः उपयोगपरिभोगसम्पत्, आयुर्जीवितपरिमाणं, प्रमाणं शरीरोत्सेध इत्येवमादिकृती मनुष्याणां वृद्धिहासौ प्रत्येतव्यौ । ८. जंबु. २/५१, १३८ । ९. त. रा. वा. ३/२७ किंहेतुकौ पुनस्तौ, कालहेतुकौ । १०. नि. चू.भाग ३, भा,गा. ३५४१ की चूर्णि - यथा देवकुरोत्तरासु क्षेत्रस्य स्निग्धगुणत्वादायुषो दीर्घत्वं, सुमसुमायां च कालस्य स्निग्धत्वाद्दीर्घत्वमायुषः । ११. जंबु. २ / १३१ - समयलुक्खयाए णं अहियं चंदा सीयं मोच्छिहिंति, अहियं सूरिया तविस्संति। १२. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रथम पर्व, श्लोक ९४४ – स्वाम्यप्यूचे स्निग्धरूक्षकालदोषोऽग्निरुत्थितः। नैकान्तरूक्षे नैकान्तस्निग्धे काले भवत्यसौ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.७: सू.१३५ २९६ भगवई ३. सुषम-दुःषमा विकास की प्रधानता और ह्रास की अल्पता ४. दु:षम-सुषमा वाला कालखण्ड हास की प्रधानता और विकास की अल्पतावाला कालखण्ड दो कोटिकोटि सागर एक कोटिकोटि सागर में बयालीस हजार वर्ष कम इक्कीस हजार वर्ष इक्कीस हजार वर्ष ह्रासका कालखण्ड ५. दु:षमा ६. दु:षम-दु:षमा एकान्त हास का कालखण्ड उत्सर्पिणी-हास से विकास की ओर अर विकास-हास कालमान एकान्त ह्रास का कालखण्ड १. दुःषम-दुःषमा २. दुःषमा ३. दु:षम-सुषमा हास का कालखण्ड हास की प्रधानता और विकास की अल्पतावाला कालखण्ड विकास की प्रधानता और ह्रास की अल्पता वाला कालखण्ड इक्कीस हजार वर्ष इक्कीस हजार वर्ष एक कोटिकोटि सागर में बयालीस हजार वर्ष कम दो कोटिकोटि सागर ४. सुषम-दु:षमा ५. सुषमा विकास का कालखण्ड तीन कोटिकोटि सागर चार कोटिकोटि सागर ६. सुषम-सुषमा एकान्त विकास का कालखण्ड सुषम-सुषमा में भरतवर्ष-पद १३५. 'भन्ते ! जम्बूद्वीप द्वीप में इस अवसर्पिणी के सुषम-सुषमा काल की प्रकृष्ट अवस्था में भरतवर्ष के आकार और भाव का अवतरण कैसा था? सुसम-सुसमाए भरहवास-पदं सुषम-सुषमायां भरतवर्ष-पदम् १३५. जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पि- जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे अस्याम् अवसर्पि- णीए सुसम-सुसमाए समाए उत्तिमट्ठपत्ताए, ण्याम् सुषम-सुषमायां समायां उत्तमार्थ- भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडो- प्राप्तायां भरतस्य वर्षस्य कीदृश: आकारयारे होत्था? भावप्रत्यवतारः अभवत्? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, गौतम! बहुसमरमणीय भूमिभाग: अभवत्, से जहानामए-आलिंगपुक्खरे ति वा, एवं तद् यथानाम---आलिङ्गपुष्करः इति वा, उत्तरकुरुवत्तव्वया नेयव्वा जाव-तत्थ णं एवम् उत्तरकुरुवक्तव्यता ज्ञातव्या यावत् तत्र बहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओ य आसयति बहव: भारता: मनुष्या: मानुष्य: च आसयंति चिट्ठति निसीयंति तुयटॅति हसंति रमंति श्रयन्ति शेरते तिष्ठन्ति निषीदन्ति त्वग्वललंति। तीसे णं समाए भारहे वासे तत्थ- तयन्ति हसन्ति रमन्ते ललन्ते। तस्यां समायां तत्थ देसे-देसे तहिं-तहिं बहवे उद्दाला को- भारते वर्षे तत्र-तत्र देशे-देशे तत्र-तत्र बहवः द्दाला जाव कुस-विकुस विसुद्धरुक्खमूला जाव 'उद्दाला' 'कोद्दाला' यावत् कुश-विकुशछविहा मणुस्सा अणुसज्जित्था, तं जहा-- -विशुद्धक्षमूलानि यावत् षड्विधाः मनुपम्हगंधा, मियगंधा, असमा, तेतली, सहा, ध्या: अनुषक्तवन्त: तद् यथा—पद्मसणिचारी। गन्धयः, मृगगन्धय: अममाः, तेजस्तलिनाः, सहा:, शनैश्चारिणः। गौतम! उस समय का भूमिभाग समतल और रमणीय था जैसे मुरज (वाद्य) का मुखपुटा इस प्रकार उत्तरकुरु क्षेत्र की वक्तव्यता ज्ञातव्य है यावत् भरतवर्ष में रहने वाले अनेक भारतीय मनुष्य और स्त्रियां उस भूमिभाग पर आश्रय लेती हैं, सोती हैं, ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट लेती हैं, हंसती है, क्रीडा करती हैं, खेलती हैं। उस समय भारत वर्ष के खण्ड-खण्ड, प्रदेशप्रदेश और इधर-उधर अनेक उद्दाल, कोद्दाल यावत् दर्भ और बल्वज आदि तृणों से रहित मूल वाले वृक्ष हैं यावत् छह जाति के मनुष्यों की परम्परा चल रही थी, जैसे—पद्मगन्ध, मृगगंध, अमम, तेतली, सह, शनैश्चारी। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र ९३५ प्रस्तुत आलापक में अवसर्पिणी के सुषमसुषमा नामक अर की स्थिति का चित्रण किया गया है। उस समय भूमिभाग पूर्ण समतल था । शब्द - विमर्श प्रकृष्ट अवस्था (उत्तिम ) प्राप्त आयुष्य आदि का उत्कर्षकाल भ. ६/९९७ में उत्तमकडपत्ता प्रयोग मिलता है। २९७ भाष्य आकार और भाव में अवतरण (आगारभावपडोयारे)आकृति और भाव (पर्याय) का अवतरण प्राय: समतल और रमणीय ( बहुसमरमणिज्ज ) – वृत्तिकार 'बहु' का अर्थ 'अत्यन्त' किया है। किन्तु आलिंग के संदर्भ में इसका अर्थ 'प्राव' उचित लगता है। मुरज (वाद्य) का मुखपुट (आलिंगपुक्खरे) मृदंग तीन प्रकार का होता है — १. अंकी २. आलिंगी ३. ऊर्ध्वक । अंकी मृदंग हरीतकी 1 (हरे) के आकार के समान अर्थात् बीच में मोटा तथा दोनों छोर में पतला होता है। आलिंगी मृदंग गोपुच्छ के आकार के समान एक भाग में मोटा और दूसरे भाग में क्रमश: पतला होता है। ऊर्ध्वक मृदंग यव (जौ) के आकार के समान होता है। 'पुष्कर' का अर्थ मृदंग का मुख है। अभयदेवसूरि ने आलिंगपुष्कर का अर्थ ' मृदंग का मुखपुट' किया है।" ३. वही, ६ / १३५ - - बहुसमः — अत्यन्तसमः । ४. वही, ६ / १३५ - 'आलिंगपुक्खरे' त्ति मुरजमुखपटम् । ५. जै. आ.व. को । १३६. सेवं भंते सेवं भंते! ति।। १. भ. वृ. १३५ - उत्तमान् — तत्कालापेक्षयोत्कृष्टानर्थान् आयुष्यकादीन् प्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ता उत्तमकाष्ठां प्राप्ता वा प्रकृष्टावस्थां गता तस्याम् । २. वही, ६ / १३५ - आकारस्य - आकृतेर्भावाः पर्यायाः, अथवाऽऽकाराश्च भावाश्च आकारभावास्तेषां प्रत्यवतारः — अवतरणमाविर्भाव आकारभावप्रत्यवतार: । उद्दाल-वृक्षविशेष | लीसोड़ा वृच्चा ढा कोद्दाल-वृक्षविशेष | कोविदार । ' कुस - दर्भ (घास ) । श. ६ : उ. ७: सू. १३५-१३६ विकुस - बल्वज नाम की घास । विसुद्ध यहाँ प्रकरणवश 'विशुद्ध' का अर्थ 'रहित है। 'कुस - विकुस' विसुद्ध — इसका अर्थ है कुश - विकुश नामक घास से रहित। - परम्परा चल रही थी ( अणुसज्जित्था ) - पूर्वकाल से कालान्तर में अनुवृत्त हो रहे थे। २. पद्मगन्ध (पम्हगंधा) शनैश्चारी (सणिचारी) पद्मगन्ध से लेकर शनैश्चारी तक मनुष्यों की छह जातियां हैंपद्मगन्ध — इस जाति के मनुष्यों के शरीर में कमल के समान गन्ध होती है। ....... मृगगन्ध — इस जाति के मनुष्यों के शरीर में कस्तूरी के समान गन्ध होती है। अमम- -इस जाति के मनुष्य ममत्व रहित होते हैं। तेतली — इस जाति के मनुष्य तेजस्वी और रूपवान् होते हैं। सह- इस जाति के मनुष्य सहिष्णु और शक्तिशाली होते हैं। शनैश्चारी — इस जाति के मनुष्यों में उत्सुकता जनित त्वरा नहीं होती । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । ६. वही, ७. भ. बृ.६ / १३५ - कुशा: - दर्भाः विकुशा - बल्वजादय: तृणविशेषास्तैर्विशुद्धानि - तदपेतानि वृक्षमूलानि तदधोभागा येषां ते तथा । ८. वही, ६ / १३५ अनुसक्तवन्तः पूर्वकालात् कालान्तरमनुवृत्तवन्तः । ९. वही, ६/१३५ -- ' 'पम्हगन्ध' त्ति पद्मसमगन्धयः 'मियगंध' त्ति मृगमदगन्धयः । 'अमम ति ममकाररहिता: 'तेयतलि' त्ति तेजश्च तलं च रूपं येषामस्ति ते तेजस्तलिनः । 'सह' त्ति सहिष्णवः समर्था: । 'सणिचारे 'त्ति शनैः मन्दमुत्सुकत्वाभावाच्चरन्तीत्येवंशीलाः शनैश्चारिणः । १३६, भन्ते । वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पुढवी- आदिसु गेहादिपुच्छा-पदं १३७. कति णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा अपुढवीओ पण्णताओ, तं जहा - रयणप्पभा जाव ईसीपब्भारा।। १३८. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे गेहा इ वा ? गेहावणा इ वा ? गोयमा ! णो इणट्टे समट्ठे ॥ १३९. अत्थि ण भंते! इमीसे रयणप्पभाए अहे गामा इ वा ? जाव सण्णिवेसा इ वा ? णो इणजे समझे । १४०. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे ओराला बलाच्या संसेयंति? संमुच्छंति? वासं वासंति ? हंता अत्थि । अमो उद्देसो : आठवां उद्देशक (६.७९) तिणि वि करेंति — देवो वि पकरेति असुरो विपकरेति नागो वि पकरेति ॥ 7 १४१. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बादरे धणियसदे? हंता अत्थि (६.८१) तिण्णि वि पकरेंति । १४२. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे बादरे अगणिकाए ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, नन्नत्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं ॥ संस्कृत छाया पृथिव्यादिषु गेहादिपृच्छा-पदम् कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ता: ? गौतम ! अष्ट पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-रत्नप्रभा यावद् ईषत्प्राग्भारा: । अस्ति भदन्त ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथि - व्याः अधः गेडाः इति वा? गेहापणाः इति वा? गौतम ! नायमर्थः समर्थः । अस्ति भदन्त ! अस्याः रत्नप्रभायाः अधः ग्रामाः इति वा यावत सन्निवेशा: इति वा? नायमर्थः समर्थ । अस्ति भदन्त ! अस्याः रत्नप्रभाया: पृथिव्याः अधः उदाराः बलाहकाः संस्विद्यन्ति ? संमूर्च्छन्ति? वर्षां वर्षन्ति? हन्त अस्ति । त्रयोऽपि प्रकुर्वन्ति — देवोऽपि प्रकरोति, असुरोऽपि प्रकरोति, नागोऽपि प्रकरोति । हन्त अस्ति । त्रयोऽपि प्रकुर्वन्ति। अस्ति भदन्त ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः अधः बादर: अग्निकाय: ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, नान्यत्र विग्रहगतिसमापन्नकात्। हिन्दी अनुवाद पृथ्वी आदि में गेह आदि की पृच्छा का पद १३७. 'भन्ते! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! आठ पृथ्वियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रत्नप्रभा यावत् ईषत् प्रागभारा ॥ १३८. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे घर हैं? घर की आपण हैं ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १३९. भन्ते ! इस रत्नप्रभा (पृथ्वी) के नीचे क्या गांव हैं यावत सन्निवेश हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। अस्ति भदन्त । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां १४१. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में क्या बादर (स्थूल) बादरः स्तनितशब्दः ? गर्जन का शब्द है ? १४०. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या बड़े घ संस्विन्त्र होते हैं? सम्मूर्च्छित होते हैं? बरसते हैं? हां, ऐसा होता है। यह क्रिया तीनों ही करते हैं—देव भी करता है, असुर भी करता है, नाग भी करता है। हां है। यह क्रिया तीनों ही करते हैं। १४२. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या बादर अग्निकाय है? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है, विग्रह गति करते हुए जीवों को छोड़कर। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २९९ श.६ : उ.८: सू.१४३-१५० १४३. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए अस्तिभदन्त! अस्या: रत्नप्रभायाः पृथिव्याः १४३. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या चन्द्रमा, पुढवीए अहे चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्ख- अध: चन्द्र-सूर्य-ग्रहगण-नक्षत्र-तारारूपा:? सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप हैं? त-तारारूवा? णो इणढे सम8।। नायमर्थ: समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। १४४. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए अस्तिभदन्त ! अस्या: रत्नप्रभायाः पृथिव्याः १४४. भन्ते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या चन्द्रमा पुढवीए अहे चंदाभा ति वा? सूराभा तिवा? अध: चन्द्राभा इति वा? सूराभा इति वा? की आभा है? सूर्य की आभा है? णो इणढे समढे। नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। एवं दोच्चाए पुढवीए भाणियव्वं, एवं तच्चाए एवं द्वितीयायाः पृथिव्याः भणितव्यम् , एवं इसी प्रकार दूसरी पृथ्वी के विषय में वक्तव्य है। इसी वि भाणियन्वं, नवरं-देवो वि पकरेति, तृतीयायाः अपि भणितव्यम्, नवरम्- प्रकार तीसरी पृथ्वी के विषय में भी वक्तव्य है। केवल असुरो वि पकरेति, नो नागो पकरेति। देवोऽपि प्रकरोति, असुरोऽपि प्रकरोति, नो इतना विशेष है—देव भी करता है, असुर भी करता चउत्थीए वि एवं, नवरं-देवो एक्को नाग: प्रकरोति। चतुर्थ्या: अपि एवं, नवर- है, नाग नहीं करता। चौथी पृथ्वी के विषय में भी पकरेति, नो असुरो, नो नागो। एवं हेछिल्लासु म्-देव: एक: प्रकरोति, नो असुरः, नो इसी प्रकार वक्तव्यता। केवल इतना विशेष हैसव्वासु देवो पकरेति॥ नागः। एवम् अधस्तनासु सर्वासु देवः अकेला देव करता है, असुर नहीं करता, नाग भी प्रकरोति। नहीं करता। इसी प्रकार नीचे की सभी पृथ्वियों में अकेला देव करता है। १४५. अत्थि णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं अहे गेहा इ वा? गेहावणा इवा? णो इणढे समहे॥ अस्तिभदन्त! सौधर्मेशानयो: कल्पयो: अधः १४५. भन्ते ! सौधर्म और ईशान कल्प के नीचे क्या गेहा: इति वा? गेहापणा: इति वा? घर हैं? घर की आपण हैं? नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। १४६. अत्थि णं भंते ! ओराला बलाहया? अस्ति भदन्त ! उदारा: बलाहका:? हंता अत्थि। हन्त अस्ति। देवो पकरेति, असुरो विपकरेति, नो नाओ। देव: प्रकरोति, असुरोऽपि प्रकरोति, नो नाग:। १४६. भन्ते ! वहां बड़े मेघ हैं? हाँ, हैं। उसे देव करता है, असुर भी करता है, नाग नहीं करता। इसी प्रकार गर्जन शब्द की वक्तव्यता। एवं थणियसद्दे वि॥ एवं स्तनितशब्दः अपि। १४७. अत्थि णं भंते ! बादरे पुढवीकाए? बादरे अगणिकाए? णो इणढे समढे, नन्नत्थ विग्गहगतिसमावनएणं॥ अस्ति भदन्त ! बादरः पृथिवीकाय:? बादरः १४७. भन्ते ! वहाँ क्या बादर पृथ्वीकाय है? बादर अग्निकाय:? अग्निकाय है? नायमर्थः समर्थः, नान्यत्र विग्रहगतिसमा- यह अर्थ संगत नहीं है, विग्रह गति करते हुए जीवों पन्नकात्। को छोड़ कर। १४८. अत्थिणं भंते ! चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्खत्त-तारारूवा? णो इणहे समठे। अस्ति भदन्त ! चन्द्र-सूर्य-ग्रहगण-नक्षत्र- १४८. भंते ! वहाँ चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और -तारारूपा:? तारारूप हैं? नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। १४९. अत्थि णं भंते ! गामा इ वा? जाव सण्णिवेसा इवा? णो इणढे समहे॥ अस्ति भदन्त! ग्रामाः इति वा? यावत् सन्नि- १४९. भन्ते! वहाँ क्या गांव हैं? यावत् सन्निवेश हैं? वेशा: इति वा? नायमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। १५०. अत्थि णं भंते ! चंदाभा ति वा? सूराभा अस्ति भदन्त! चन्द्राभा इति वा? सूराभा इति १५०. भंते ! क्या वहाँ चन्द्रमा की आभा है? सूर्य की Jain Education Intemational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.८: सू.१३७-१५० ३०० भगवई ति वा? वा? गोयमा ! णो इणढे समढे। गौतम ! नायमर्थः समर्थः। एवं सणंकुमार-माहिंदेसु, नवरं-देवो एगो एवं सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः, नवरम्—देवः । पकरेति। एवं बंभलोए वि। एवं बंभलोगस्स एकः प्रकरोति। एवं ब्रह्मलोकेऽपि। एवं उवरिं सव्वेहिं देवो पकरेति। पुच्छियव्वो य ब्रह्मलोकस्य उपरि सर्वेषु देव: प्रकरोति। बादरे आउकाए, बादरे अगणिकाए, बादरे प्रष्टव्यश्च बादर: अप्काय:, बादर: अग्नि- वणस्सइकाए। अण्णं तं चेव।। काय:, बादर: वनस्पतिकाय:। अन्यत् तच्चैव। आभा है? गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों की वक्तव्यता। केवल इतना विशेष है—अकेला देव करता है। इसी प्रकार ब्रह्मलोक की वक्तव्यता। इसी प्रकार ब्रह्मलोक से ऊपर सर्वत्र (अच्युत कल्प तक) देव करता है। बादर अप्काय, बादर अग्निकाय और बादर वनस्पतिकाय प्रष्टव्य है—इनका निषेध है। शेष सब पूर्ववत् वक्तव्य हैं। संगहणी गाहा तमुकाए कप्पपणए, अगणी पुढवी य अगणि पुढवीसु। आऊ तेऊ वणस्सई, कप्पुवरिमकण्हराईस ॥१॥ संग्रहणी गाथा तमस्काये कल्पपञ्चके, अग्निः पृथिवी च अग्निः पृथिवीषु। आपस्तेजो वनस्पति, कल्पोपरिमकृष्णराजीषु ॥१॥ संग्रहणी गाथा तमस्काय और पांच कल्पों-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्म में बादर अग्निकाय और बादर पृथ्वीकाय का सूत्र विवक्षित है। रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में बादर अग्निकाय का सूत्र विवक्षित है। उपरितन कल्पों और कृष्णराजियों में बादर अप्काय, बादर तेजस्काय और बादर वनस्पतिकाय का सूत्र विवक्षित नहीं है। भाष्य १. सूत्र १३७-१५० का निषेध भी वक्तव्य है। फिर भी सूत्र में उसका निषेध नहीं किया गया है। रत्नप्रभा पृथ्वी सात पृथ्वियों में पहली पृथ्वी है। उसका बाहल्य अभयदेवसूरि ने इस विषय में लिखा है—जो जहाँ नहीं है, उसके निषेध का (मोटाई) एकलाख अस्सी हजार योजन का है। उसके नीचे गृह और गृहापण प्रतिपादन अनिवार्य नहीं है।' नहीं है, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा नहीं है, चन्द्र और सूर्य की सौधर्म और ईशान के प्रकरण में बादर अग्निकाय के साथ बादर आभा भी नहीं है, बादर अग्निकाय नहीं है। इसका अपवाद सूत्र है- पृथ्वीकाय का भी उल्लेख है। अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्विकायिक जीव शर्कराप्रभा पृथ्वी के पूर्ववर्ती ठाणं में अल्पवृष्टि और महावृष्टि के तीन-तीन कारण निर्दिष्ट हैं। चरमान्त में समवहत होकर समयक्षेत्र (मनुष्यलोक) में अपर्याप्त बादर उनमें एक कारण देव, नाग, यक्ष और भूत है। नव ग्रैवेयक और अनुत्तरविमान अग्निकाय के रूप में उत्पन्न होता है। इस अपेक्षा से रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे में वर्षा, स्तनित करने वाले देव भी नहीं जा सकते, इसलिए वहाँ देवकृत वर्षा बादर अग्निकाय का अस्तित्व बतलाया गया है। और स्तनित संभव नहीं है। रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे बादर अग्निकाय की भांति बादर पृथ्वीकाय निम्न प्रदत्त यन्त्र में सात पृथ्वियों के अधोभाग तथा बारह देवलोक, नव ग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तर के अधोभाग में होने वाली वर्षा, स्तनित एवं उसके कर्ता के सम्बन्ध में विवरण हैपृथ्वी/स्वर्ग स्तनित कर्ता रत्नप्रभा का अधोभाग देव, असुर, नाग शर्कराप्रभा का अधोभाग देव, असुर, नाग वर्षा I the the १. जीवा. ३/५-इमा णं रयणप्पभा पुढवी असिउत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेण पण्णत्ता। २. भ. ३४/१२–अपज्जतासुहमपुढवीकाइए णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्ताबादरतेउक्काइयत्ताए उबब्वज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं-पुच्छा। गोयमा ! दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा ।। ३. भ.वृ. ६/१४२-ननु यथा बादराग्नेर्मनुष्यक्षेत्र एवं सद्भावानिषेध इहोच्यते। एवं बादरपृथिवीकायस्यापि निषेधो वाच्यः स्यात् पृधिव्यादिष्वेव स्वस्थानेष तस्य भावादिति। सत्यं, किन्तु नेह यद्यत्र नास्ति तत्तत्र निषिध्यते मनुष्यादिवत् । विचित्रत्वात् सूत्रगतेरतोऽसतोऽपीह पृथिवीकायस्य न निषेध उक्तः। ४. भ. ६/१४७। ५. ठाण ३/३५९,३६० Jain Education Intenational Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई पृथ्वी / स्वर्ग बालुकाप्रभा का अधोभाग पंकप्रभा का अधोभाग धूमप्रभा का अधोभाग तमः प्रभा का अधोभाग तमस्तमप्रभा का अधोभाग सौधर्म का अधोभाग ईशान का अधोभाग सनत्कुमार का अधोभाग माहेन्द्र का अधोभाग ब्रह्म का अधोभाग लान्तक का अधोभाग शुक्र का अधोभाग सहस्रार का अधोभाग आनत का अधोभाग प्राणतज का अधोभाग आरण का अधोभाग स्वर्ग सौधर्म का अधोभाग ईशान का अधोभाग सनत्कुमार का अधोभाग माहेन्द्र का अधोभाग ब्रह्म का अधोभाग लान्तक का अधोभाग शुक्र का अधोभाग सहस्रार का अधोभाग आनत का अधोभाग प्राणतज का अधोभाग आरण का अधोभाग अच्युतका अधोभाग नव ग्रैवेयक पांच अनुत्तर वर्षा o ११ " " 33 ० बादर अप्काय है 35 35 י, 55 अच्युतका अधोभाग नव ग्रैवेयक पांच अनुत्तर इस तालिका में बारह स्वर्गादि में बादर पृथ्वीकाय आदि के अस्तित्व या अभाव को दर्शाया गया है— पृथ्वीका बादर अग्निकाय " " 39 " ३०१ יי स्तनित है the ११ 39 55 55 יי 52 " 29. 33 27 ० ० ० बादर वायुकाय है 959 " ११ 35 23 יי " श. ६ : उ. ८ : सू. १३७-१५० 33 कर्ता देव, देव " 99 33 to: देव, असुर 35 देव असुर RRRRRRR पहला और दूसरा स्वर्ग मनोदधि पर प्रतिष्ठित है, इसलिए वहाँ जल और वनस्पति दोनों का अस्तित्व है। वायु सर्वत्र व्याप्त है।' १. भ. वृ. ६ / १४४- तथाऽब्वायुवनस्पतीनामनिषेधोऽपि सुगम एव, तयोरुदधिप्रतिष्ठितत्वेनान्वनस्पतिसम्भवाद् वायोश्च सर्वत्र भावादिति । बादर वनस्पतिकाय ११ 95 " ० Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.८:सू.१३७-१५१ ३०२ भगवई तीसरा, चौथा और पांचवां स्वर्ग धनवात-प्रतिष्ठित हैं। उनके नीचे जल और वनस्पति कैसे हो सकते हैं? वृत्तिकार के अनुसार तमस्काय के कारण उनमें बादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय का अस्तित्व संभव है। छठा, सातवां और आठवां-ये तीन स्वर्ग अप् और वायुघनोदधि और घनवात-प्रतिष्ठित हैं। नवें स्वर्ग से लेकर शेष अठारह स्वर्ग आकाश-प्रतिष्ठित हैं। उनके नीचे बादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय नहीं हैं।' छठा, सातवां और आठवां--ये तीन स्वर्ग घनोदधि और घनवात-प्रतिष्ठित हैं तब उनके नीचे बादर अप्काय और बादर वनस् पतिकाय का निषेध कैसे हो सकता है? अभयदेवसूरि और जयाचार्य ने इसके समाधान में लिखा है—इन तीनों स्वर्गों के नीचे अनन्तर रूप में घनवात विद्यमान है, फिर घनोदधि है। इस घनवात की अपेक्षा से तीन स्वर्गों के नीचे बादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय का निषेध किया गया है। प्रवचनसारोद्धार में विमान के प्रतिष्ठान का वर्णन मिलता है घनोदधिप्रतिष्ठाना विमाना: कल्पयोर्द्वयोः । त्रिषु वायु प्रतिष्ठानास्त्रिषु वायूदधिस्थिताः ॥५३॥ ते व्योम विहितस्थाना: सर्वेप्युपरिवर्तिनः । इत्यूद्धर्वलोकविमानप्रतिष्ठानविधिः स्मृतः ॥५४॥ आउयबंध-पदं १५१. कतिविहे णं भंते ! आउयबंधे पण्णते? आयुष्कबन्ध-पदम् आयुष्कबन्ध-पद कतिविध: भदन्त ! आयुष्कबन्ध: प्रज्ञप्तः? १५१. 'भन्ते! आयुष्य का बन्ध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त गोयमा! छविहे आउयबंधे पण्णत्ते, तं जहा गौतम ! षड्विधः आयुष्कबन्धः प्रज्ञप्त:, -जातिनामनिहत्ताउए, गतिनामनिहत्ता- तद्यथा--जातिनामनिधत्तायुष्कः, गतिउए, ठितिनामनिहत्ताउए, ओगाहणानाम- नामनिधत्तायुष्कः, स्थितिनामनिधत्तानिहत्ताउए, पएसनामनिहत्ताउए, अणुभाग- युष्कः, अवगाहनानामनिधत्तायुष्कः, प्रदेशनामनिहत्ताउए। दंडओ जाव वेमाणियाणं॥ नामनिधत्तायुष्कः, अनुभागनामनिधत्ता युष्कः। दण्डक: यावद् वैमानिकानाम् । गौतम ! आयुष्य का बन्ध छह प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-जातिनामनिषिक्तायुष्य, गतिनामनिषिक्तायुष्य, स्थितिनामनिषिक्तायुष्य, अवगाहनानामनिषिक्तायुष्य, प्रदेशनामनिषिक्तायुष्य और अनुभागनामनिषिक्तायुष्य नरक से लेकर वैमानिक तक सभी दंडको में छह प्रकार के आयुष्य का बन्ध होता है। भाष्य १. सूत्र १५१ कर्म आठ हैं। उनमें पांचवां कर्म है आयुष्या इसके पुद्गलों से जीवनी-शक्ति का निर्माण होता है। अगले जन्म के आयुष्य का बन्धवर्तमान में हो जाता है। आयुष्य के बन्ध-काल में छह अन्य कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध होता है। उनसे जीवन के विभिन्न पक्ष निर्धारित होते हैं। जाति नाम कर्म से यह निर्धारण होता है कि जन्म लेने वाला एकेन्द्रिय होगा यावत् पंचेन्द्रिय होगा। गति नाम कर्म से यह निर्धारण होता है कि जन्म लेने वाला नरक गति में उत्पन्न होगा यावत् देवगति में उत्पन्न होगा। स्थिति नाम कर्म से जन्म लेने वाले की जीवन की कालावधि का निर्धारण होता है। अवगाहना नाम कर्म से औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर का निर्धारण होता है। प्रदेश नाम कर्म से आयुष्य कर्म के पुद्गलों का परिमाण निर्धारित होता है। अनुभाग नाम कर्म से आयुष्य कर्म के पुद्गलों का विपाक निर्धारित होता है। आयुष्य कर्म के उदय का पहला क्षण नए जीवन का पहला क्षण होता है। उसके साथ ही जाति नाम, गति नाम आदि का उदय प्रारंभ हो जाता है। आयुष्य कर्म के साथ जाति, गति आदि का सहचारी भाव है। आयुष्य के उदय के साथ इनका उदय होता है और आयुष्य के विराम के साथ इनका विराम हो जाता है। गति-नाम के साथ नाम कर्म की अन्य प्रकृतियों का भी बन्ध होता है। उनका विस्तृत विवरण शतक में उपलब्ध है। कर्म-बन्ध के क्षण में आयुष्य के साथ जाति नाम आदि का १. (क) भू. व.६/१५०-इहातिदेशतो बादराबवनस्पतीनां सम्भवोऽनुमीयते, स च तमस्कायसद्भावतोऽवसेय इति। (ख) भ. जो. २/१०८/४०-४१ तृतीय तुर्य ब्रह्म सोय,घनवाय आधारे अछ। तसु तल अप किम होय? बनस्पति वलि किम हुवै?| संभव तास जणाय, तमस्काय सद्भाव थी। अतिदेश थकी कहिवाय, वृत्ति विषे ए न्याय छै॥ २. भ. जो. २/१०८/४५,४७। ३. (क) भ. व. ६/१५०-इह च ब्रह्मलोकोपरितनस्थानानामधो योऽब्वनस्पतिनिषेधः स यान्यब्वायुप्रतिष्ठातानि तेषामध आनन्तर्येण वायोरेव भावादाकाशप्रतिष्ठितानामाकाशस्यैव भावादवगन्तव्यः । (ख) भ. जो. २/१०८/५८,५९ लंतक प्रमुखज तीन, अपवायु आधार छै। तो किण न्याय सुचीन, बर्जी अप मैं वणस्सई ?॥ त्रिहुं कल्प तल वाय, अंतर-रहित अछै तिही तसु तल अप इण न्याय, अप वणस्सई निषेध वै ।। ४. प्र. सारो. प. १६०॥ ५. पण्ण. ६/११४-१२३ ६.प.सं.दि. शतक, गा. २६२-२८८ । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई निधत्त अथवा निषिक्त होता है, इसलिए आयुष्य का एक प्रकार बन गयाजातिनामनिषिक्त आयुष्य। दूसरा प्रकार — गतिनामनिषिक्त आयुष्य, तीसरा प्रकार — अवगाहनानामनिषिक्त आयुष्या स्थिति, प्रदेश और अनुभागबंध के अंश हैं। इनका सम्बन्ध प्रत्येक कर्म के बन्ध के साथ है। कर्म के उदय की एक विशेष व्यवस्था है। सभी कर्म - पुद्गल एक साथ उदय में नहीं आते। यदि सब कर्म - पुद्गल एक साथ उदय में आ दूसरा क्षण कर्मविपाक से शून्य हो सकता है। इस अवस्था में स्थितिबन्ध की व्यर्थता हो जाएगी। कर्म के उदय की प्राकृतिक व्यवस्था यह है— विपाक में आने वाले पुद्गलों के निषेक बन जाते हैं, प्रतिसमय अनुभव में आने योग्य कर्म - पुद्गलों की विशिष्ट रचना होती है। उसकी संज्ञा " निषेक" है। विपाक की पूर्ववर्ती अवस्था में निषेक की द्रव्यराशि अधिक होती है, १५२. जीवा णं भंते! किं जातिनामनिहत्ता ? गतिनामनिहत्ता? ठितिनामनिहता? ओ गाणानामनिहत्ता? परसनामनिहता? अणुभावनामनिहता? गोयमा ! जातिनामनिहत्ता वि जाव अणुभागनामनिहता वि दंडओ जाव वेगाणि याणं ।। 1 १५३. जीवा णं भंते! किं जातिनामनिहत्ता उया? जाव अणुभागनामनिहत्ताउया ? गोवमा ! जातिनामनिहत्ताउया वि जाव अणुभागनामनिहत्ताउया वि । दंडओ जाव वैमानियाणं ॥ १५४. एवं एए दुवालस दंडगा भाणियव्वाजीवा णं भंते! किं १. जातिनामनिहत्ता ? २. जातिनामनिहत्ताउवा ? जीवा णं भंते! किं ३ जातिनामनिउता? ४. जातिनामनिउत्ताउया? ३०३ श. ६ : उ. ८ : सू. १५१-१५४ उत्तर अवस्था में वह कम होती जाती है। कर्म की स्थिति की समाप्ति के क्षण तक निषेक-व्यवस्था सक्रिय रहती है । आयुष्य के उक्त छह प्रकारों में जाति और गति दे दो नामकर्म की उत्तर प्रकृतियां हैं । अवगाहना का नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों में उल्लेख नहीं है। अभयदेवसूरि ने अवगाहना का अर्थ 'शरीर' किया है। इस प्रकार अवगाहना नाम कर्म की उत्तरप्रकृति शरीर नाम कर्म है। जाति आदि छहों वाक्यों में 'नाम' शब्द का प्रयोग है। अभयदेवसूरि ने 'नाम' पद के दो अर्थ किए हैं—१. परिणाम, २. नाम कर्म । यद्यपि स्थिति, प्रदेश और अनुभाग का नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों में उल्लेख नहीं है। किन्तु नाम कर्म की निर्दिष्ट उत्तर प्रकृतियों के अतिरिक्त अन्य अनेक उत्तर प्रकृतियां हो सकती हैं। जीवाः भदन्त ! किं जातिनामनिधत्ता: ? गतिनामनिधत्ताः ? स्थितिनामनिधताः ? अवगाहनानामनिधता ? प्रदेशनामनिधताः ? अनुभागनामनिधता ? गौतम ! जातिनामनिधत्ता: अपि, यावद् अनुभागनामनिधताः अपि दण्डकः यावद् वैमानिकानाम् । १. ठाण, ६ / ११६ का टिप्पण २. भ. वृ. ६ / १५१ - निषेकश्च कर्मपुद्गलानां प्रतिसमयमनुभवनार्थं रचनेति। ३. प.सं. दि. शतक, गा. ३९५ की संस्कृत टीका, पृ. २४६— परत: परत: स्तोक: पूर्वतः पूर्वतो बहुः । समये समये ज्ञेयो यावत् स्थितिसमापनम् ॥ जीवाः भदन्त ! किं जातिनामनिधत्तायुष्काः ? यावद् अनुभागनाम निघतायुष्काः ? गौतम ! जातिनामनिधत्तायुष्काः अपि यावद् अनुभागनामनिधत्तायुष्काः अपि । दण्डकः यावद्वैमानिकानाम्। एवं ऐते द्वादश दण्डकाः भणितव्या:जीवा भदन्त ! किं १. जातिनामनिधत्ता: ? २. जातिनामनिधानुष्का? जीवा भदन्त किं ३. जातिनामनियुक्ताः ? ४. जातिनामनियुक्तायुष्काः ? ४. पण्ण. २३/३८ । ५. भ. बृ. ६ / १५१ - अवगाहते यस्यां जीवः साऽवगाहना— शरीरं औदारिकादि, तस्या १५२. 'भन्ते ! क्या जीव जाति नाम का निषिक्त (विशिष्ट बंध) किए हुए हैं? गति नाम का निषिक्त किए हुए हैं? स्थिति नाम का निषिक्त किए हुए हैं? अवगाहना नाम का निषिक्त किए हुए हैं? प्रदेशनाम का निषिक्त भी किए हुए हैं? अनुभाग नाम निषिक्त किए हुए हैं? गौतम ! जीव जाति-नाम का निषिक्त भी किए हुए हैं। यावत् अनुभाग- नाम का निषिक्त भी किए हुए हैं। नरक से लेकर वैमानिक तक सभी दण्डकों में छह प्रकार का निषिक्त (विशिष्ट बंध) होता है। १५३. भन्ते ! क्या जीव जाति - नाम - निषिक्तायुष्क है ? यावत् अनुभाग-नाम निषिक्तायुष्क हैं ? गौतम ! जीव जाति-नाम- निषिक्तायुष्क भी यावत् अनुभाग- नाम निषिक्तायुक्तायुष्क भी हैं। नरक से लेकर वैमानिक तक सभी दण्डक जाति-नाम-निषिक्तायुष्क यावत् अनुभाग-नाम- निषिक्तायुष्क हैं। - १५४. इसी प्रकार ये बारह दण्डक वक्तव्य हैंभन्ते! क्या जीव १. जाति-नाम का निषिक्त (विशिष्ट बन्ध) किए हुए हैं ? २. जाति - नाम - निषिक्तायुष्क हैं ? भन्ते ! क्या जीव ३. जाति नाम नियुक्त-जातिनाम के वेदन में नियुक्त हैं? ४. जाति-नामनियुक्तायुष्क-जाति- नाम के साथ आयुष्य का नाम — औदारिकादिशरीरनामकर्मेत्यवगाहनानाम अवगाहनारूपो वा नाम- परिणामोऽवगाहनानाम तेन सह यत्रिधत्तमायुस्तदवगाहनानामनिधत्तायुः । अथवेह ६. वही, ६ / ९५१ - नामेति नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा । . सूत्रे जातिनामगतिनामावगाहनानामग्रहणाज्जातिगत्यवगाहनानां प्रकृतिमात्रमुक्तं, स्थितिप्रदेशानुभागनामग्रहणात्तु तासामेवं स्थित्यादय उक्तास्ते च जात्यादिनामसम्बन्धित्वान्नामकर्मरूपा एवेति नामशब्दः सर्वत्र कर्मार्थो घटत इति स्थितिरूपं नाम नामक स्थितिनाम | ....... Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६:उ.८: सू.१५२-१५४ ३०४ भगवई जीवा णं भंते ! किं ५. जातिगोयनिहत्ता? जीवा: भदन्त ! किं ५. जातिगोत्रनिधत्ताः? ६. जातिगोयनिहत्ताउया? ६. जातिगोत्रनिधत्तायुष्का:? जीवा णं भंते ! किं ७. जातिगोयनिउत्ता? जीवा: भदन्त ! किं ७. जातिगोत्रनियुक्ता:? ८. जातिगोयनिउत्ताउया? ८. जातिगोत्रनियुक्तायुष्का:? जीवाणं भंते ! किं ९. जातिनामगोयनिहत्ता? जीवा: भदन्त ! किं ९. जातिनामगोत्रनि१०. जातिनामगोयनिहत्ताउया? धत्ता:? १०. जातिनामगोत्रनिधत्तायुष्का:? वेदन आरम्भ किए हुए हैं? भन्ते ! क्या जीव ५. जाति-गोत्र का निषिक्त किए हुए हैं? ६. जाति-गोत्र-निषिक्तायुष्क हैं? भन्ते ! क्या जीव ७. जाति-गोत्र-नियुक्त हैं? ८. जाति-गोत्र-नियुक्तायुष्क हैं? भन्ते ! क्या जीव ९. जाति-नाम-गोत्र का निषिक्त किए हुए हैं? १०. जाति-नाम-गोत्र-निषिक्तायुष्क जीवा णं भंते ! किं ११. जातिनाम- जीवाः भदन्त ! किं ११. जातिनामगोत्र- भन्ते ! क्या जीव ११. जाति-नाम-गोत्र-नियुक्त हैं? गोयनिउत्ता? १२. जातिनामगोयनिउत्ताउया? नियुक्ता:? १२. जातिनामगोत्रनियुक्तायु- १२. जाति-नाम-गोत्र-नियुक्तायुष्क हैं? यावत् ७२. जाव ७२. अणुभागनामगोयनिउत्ताउया? का: ? यावद् ७२. अनुभागनामगोत्र- अनुभाग-नाम-गोत्र-नियुक्तायुष्क हैं? नियुक्तायुष्का:? गोयमा ! जातिनामगोयनिउत्ताउया वि जाव गौतम ! जातिनामगोत्रनियुक्तायुष्काः अपि । गौतम ! जीव जाति-नाम-गोत्र-नियुक्तायुष्क भी हैं अणुभागनामगोयनिउत्ताउया वि। दंडको जाव यावद् अनुभागनामगोत्रनियुक्तायुष्का; अपि। यावत् अनुभाग-नाम-गोत्र-नियुक्तायुष्क भी हैं। नरक वेमाणियाण॥ दण्डक: यावद् वैमानिकानाम्। से लेकर वैमानिक तक सभी दण्डकों में सभी भंग प्राप्त होते हैं। भाष्य १. सूत्र १५२-१५४ साथ निधत्ति अथवा निषेचन करने वाले जीव जाति-नाम-निधत्त, गतिकर्म के आठ करण होते हैं-बंधन, संक्रमण, उद्वर्तना, नाम-निधत्त कहलाते हैं। अपवर्तना, उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचना। इनमें सातवां करण नियुक्त—अभयदेवसूरि ने इसका अर्थ निकाचित' किया है। यह निधत्ति है। इसका अर्थ है कर्म-स्कन्धों को उद्वर्तना और अपवर्तना के कर्म की गाढ़तम बन्धन वाली अवस्था है। जाति, गति, अवगाहना, गोत्र और अतिरिक्त शेष करणों के अयोग्य कर देना। इस व्यवस्था में कर्म-स्कन्ध आयुष्य-ये जन्म-मरण के मुख्य घटक हैं। इसलिए इनके आधार पर जीवों संक्रमण आदि से प्रभावित नहीं होते। जाति, गति आदि कर्म-प्रकृतियों के के ७२ विकल्प किए गए हैं। १. कर्मप्रकृति, पृ. ४८, श्लोक २ २. भ.वृ. ६/१५४-नियुक्तं -नितरां युक्तं -संबद्ध निकाचितं वेदने वा नियुक्तं वैस्ते ___बंधणसंकमणुव्वट्टणा य अववट्टणा उदीरणया। जातिनामनियुक्ताः। उवसामणा निहत्ती निकायणा चत्ति करणाई॥ ३. अंगसुत्ताणि, भाग २ (भगवई), पृ. २६३, सू. ६/१५४ का पादटिप्पण-एतत् पदं त्रयोदशभंगात् द्वासप्ततितमपर्यन्तानां भंगानां संग्राहकमस्तिजीवा णं भंते ! किं १३. गतिनामनिहत्ता? १४. गतिनामनिहत्ताउया? जीवा ण भंते ! किं १५. गतिनामनिउत्ता? १६. गतिनामनिउत्ताउया? जीवाणं भंते ! किं १७. गतिगोयनिहत्ता? १८. गतिगोयनिहत्ताउया? जीवाणं भते! किं १९. गतिगोयनिउत्ता? २०. गतिगोयनिउत्ताउया? जीवाणं भंते ! किं २१. गतिनामगोयनिहत्ता? २२. गतिनामगोयनिहत्ताउया? जीवाणं भंते! किं २३. गतिनामगोयनिउत्ता? २४. गतिनामगोयनिउत्ताउया? जीवा णं भंते ! किं २५. ठितिनामनिहत्ता? २६. ठितिनामनिहत्ताउया? जीवाणं भंते ! किं २७. ठितिनामनिउत्ता? २८. ठितिनामनिउत्ताउया? जीवा णं भंते ! किं २९. ठितिगोयनिहत्ता? ३०. ठितिगोयनिहत्ताउया? जीवाणंभंते ! किं ३१. ठितिगोयनिउत्ता? ३२. ठितिगोयनिउत्ताउया? जीवाण भंते ! कि ३३. ठितिनामगोयनिहत्ता? ३४. ठितिनामगोयनिहत्ताउया? जीवा ण भंते ! किं ३५. ठितिनामगोयनिउत्ता? ३६. ठितिनामगोयनिउत्ताउया? जीवा ण भंते ! किं ३७. ओगाहणानामनिहत्ता? ३८. ओगाहणानामनिहत्ताउया? जीवा णभंते ! किं ३९. ओगाहणानामनिउत्ता? ४०, ओगाहणानामनिउत्ताउया? जीवा णं भंते ! किं ४१. ओगाहणागोयनिहता? ४२. ओगाहणागोयनिहत्ताउया? जीवा णं भंते ! किं ४३. ओगाहणागोयनिउत्ता? ४४. ओगाहणागोयनिउत्ताउया? जीवाणंभंते ! किं ४५. ओगाहणानामगोयनिहत्ता? ४६. ओगाहणानामगोयनिहत्ताउया? Jain Education Intemational Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई लवणादिसमुद्द-पदं १५५. लवणे णं भंते! समुद्दे किं उस्सिओदए ? पत्थsोदए ? खुभियजले ? अखुभियजले ? गोयमा ! लवणे णं समुदे उस्सिओदए नो पत्थडोदए, खुभियजले, नो अखुभियजले ॥ १५६. जहा णं भंते! लवणसमुद्दे उस्सिओदए, नो पत्थडोदर खुभयजले, नो अभियजले; तहाणं बाहिरगा समुद्दा किं उस्सिओ दगा? पत्थढोदगा? खुभियजला? अभियजला? गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा जो उस्सिओदगा, पत्थडोदगा नो खुभिजला, अनुभियजला पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलवट्टमाणा वोसट्टमाणा समरघडत्ता चिट्ठति ॥ १५७. अत्थि णं भंते! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाहया संयंति ? संमुच्छंति ? वासं वासंति? हंता अत्थि ॥ १५८. जहा पं भंते! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाया संसेयंति, संमुच्छंति, वासं वासंति, तहाणं बाहिरगेसु वि समुदेसु बहवे ओ राला बलाहवा संसेति संमुच्छंति? वासं वासंति? जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवाणं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं जीवा णं भंते! किं ३०५ लवणादिसमुद्र-पदम् लवण: भदन्त ! समुद्रः किं उच्छ्रितोदकः ? प्रस्तृतोदकः? क्षुभितजलः ? अक्षुभितजलः ? गौतम ! लवण समुद्रः उच्छ्रितोदकः, नो प्रस्तृतोदकः, क्षुभितजलः, नो अक्षुभितजलः । " यथा भदन्त ! लवणसमुद्रः उच्छ्रितोदकः नो प्रस्तृतोदकः, क्षुभितजलः, नो अक्षुभितजल:, तथा बाह्यकाः समुद्राः किं उच्छ्रितोदकाः? प्रस्तृतोदकाः? क्षुभितजला ? अक्षुभितजला: ? गौतम बाह्यकाः समुद्राः नो उच्छ्रितोदकाः, ! प्रस्तृतोदकाः, नो क्षुभितजला:, अक्षुभितजला: पूर्णाः पूर्णप्रमाणाः, व्यपलोटन्तः विकसन्तः समभरघटतया तिष्ठन्ति । अस्ति भदन्त ! लवणसमुद्रे बहव: 'ओराला' बलाहकाः संस्विद्यन्ति ? सम्मूर्च्छन्ति ? वर्षां वर्षन्ति ? हन्त अस्ति दथा भदन्त ! लवणसमुद्रे बहवः 'ओराला' बलाहकाः संस्विद्यन्ति, सम्मूर्च्छन्ति, वर्षां वर्षन्ति तथा बाह्यकेषु अपि समुद्रेषु बहवः 'ओराला' बलाहकाः संस्विद्यन्ति ? सम्मूचर्च्छन्ति? वर्षा वर्षान्ति? ४७. ओगाहणानामगोयनिउत्ता? ४९. पएसनामनिहत्ता ? ५१. पएसनामनिउत्ता ? ५३. पएसगोयनिहत्ता ? ५५. पएसगोयनिउत्ता ? ५७. पएसनामगोयनिहत्ता? ५९. पएसनामगोयनिउत्ता? ६१. ६३. अणुभागनामनिउत्ता? ६५. अणुभागगोयनिहत्ता ? ६७. अणुभागगोयनिउत्ता? ६९. अणुभागनामगोयनिहत्ता ? ७१. अणुभागनामगोयनिउत्ता? श. ६ : उ. ८ : स. १५५-१५८ लवणादि समुद्र-पद १५५. भंते! क्या लवण समुद्र ऊंचे जलस्तर वाला है ? सम जलस्तर वाला है? क्षुब्ध जल वाला है? अक्षुब्ध जल वाला है? गौतम ! लवण समुद्र ऊंचे जलस्तर वाला है, सम जलस्तर वाला नहीं है। क्षुब्ध जल वाला है, अक्षुब्ध जल वाला नहीं है। १५६. भंते । जिस प्रकार लवण समुद्र ऊंचे जलस्तर वाला है, सम जलस्तर वाला नहीं है, क्षुब्ध जल वाला है, अक्षुब्ध जल वाला नहीं है। उसी प्रकार अढ़ाई द्वीप से बहिर्वर्ती समुद्र क्या ऊंचे जलस्तर वाले हैं? सम जलस्तर वाले हैं? क्षुब्ध जल वाले हैं? अन्य जल वाले हैं? गौतम अढ़ाई द्वीप से बहिर्वर्ती समुद्र ऊंचे जलस्तर वाले नहीं हैं, सम जलस्तर वाले हैं। क्षुब्ध जल वाले नहीं है, अक्षुब्ध जल वाले हैं। वे जल से भरे हुए, परिपूर्ण, छलकते हुए, हिलोरे लेते हुए, चारों ओर से जलजलाकार हो रहे हैं। १५७. भन्ते ! लवण समुद्र में क्या अनेक बड़े घ संस्विन्न होते हैं? सम्मूर्च्छित होते हैं? बरसते हैं? हाँ, ऐसा होता है। १५८. भन्ते ! जिस प्रकार लवण समुद्र में अनेक बड़े मेघ संस्विन्न होते हैं, सम्मूर्च्छित होते हैं, बरसते हैं, उसी प्रकार अढ़ाई द्वीप से बहिर्वर्ती समुद्रों में भी अनेक बड़े मेघ संस्विन होते हैं? सम्मूर्च्छित होते हैं? बरसते हैं? ४८. ओगाहणानामगोयनिउत्ताउया? ५०. पएसनामनिहत्ताउया? ५२. पएसनामनिउत्ताउया? ५४. गएसगोयनिहत्ताउया? ५६. पएसगोयनिउत्ताउया? ५८. पएसनामगोयनिहत्ताउया? ६०. पएसनामगोयनिउत्ताउया? ६२. अणुभागनामनिहत्ताउया? ६४. अणुभागनामनिउत्ताउया? ६६. अणुभागगोयनिहत्ताउया? ६८. अभागगोयनिउत्ताउया? ७०. अणुभागनामगोयनिहत्ताउया? ७२. अमावा? Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.८: सू.१५५-१६१ ३०६ भगवई नो इणढे समढे॥ नायमर्थ: समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। १५९. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ–बाहि- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते बाह्यकाः १५९. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैरगा णं समुद्दा पुण्णा जाव समभरघडत्ताए पूर्णा: यावत् समभरघटतया तिष्ठन्ति? अढ़ाई द्वीप से बहिर्वर्ती समुद्र पूर्ण है यावत् चारों चिट्ठति? ओर से जलजलाकार हो रहे हैं? गोयमा! बाहिरगेसु णं समुद्देसु बहवे उदग- गौतम ! बााकेषु समुद्रेषु बहवः उदक- गौतम ! अढ़ाई द्वीप से बहिर्वर्ती समुद्रों में अनेक जोणिया जीवायपोग्गला य उदगत्ताए वक्क- योनिका: जीवाश्च पुद्गलाश्च उदकतया उदकयोनिक जीव और पुद्गल उदक-रूप में उत्पन्न मंति, विउक्कमंति, चयंति, उववज्जति। से अपक्रामन्ति, व्युत्क्रामन्ति, च्यवन्ते, उप- होते हैं और विनष्ट होते हैं, च्युत होते हैं और उत्पन्न तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–बाहिरया पद्यन्ते। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते होते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है णं समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा -बाह्य: समुद्रा: पूर्णाः पूर्णप्रमाणा: व्यप- –अढ़ाई द्वीप से बहिर्वर्ती समुद्र जल से भरे हुए वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति, संठा- लोटन्त: विकसन्तः समभरघटतया तिष्ठन्ति, परिपूर्ण, छलकते हुए, हिलोरे लेते हुए, चारों ओर णओ एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेग- संस्थानत: एकविधिविधाना: विस्तारत: से जलजलाकार हो रहे हैं। उनका संस्थानगत स्वरूप विहिविहाणा, दुगुणादुगुणप्पमाणा जाव अ- अनेकविधिविधाना: द्विगुणद्विगुणप्रमाणा: एक प्रकार-चक्रवाल के आकार का है। विस्तार स्सिं तिरियलोए असंखेज्जा दीव-समुद्दा यावद् अस्मिन् तिर्यग्लोके असंख्येया: की दृष्टि से वे अनेक प्रकार के हैं। वे क्रमश: पूर्ववर्ती सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणा- द्वीप-समुद्रा: स्वयम्भूरमणपर्यवसाना: प्रज्ञ- से उत्तरवर्ती द्विगुण-द्विगुण हैं। यावत् इस तिरछे लोक उसो! प्ता: आयुष्मन् श्रमण! में असंख्येय द्वीप तथा स्वयम्भूरमण अवसान वाले समुद्र प्रज्ञप्त हैं, आयुष्मन् श्रमण! १६० टीव-समहाणं भंते ! केवतिया नामधे- द्वीप-समुद्राः भदन्त ! कियन्त: नामधेयैः १६०. भन्ते ! कितने द्वीप और समुद्र नामों से प्रज्ञप्त हैं? ज्जेहिं पण्णता? प्रज्ञप्ता:? गोयमा ! जावतिया लोए सुभा नामा, सुभा गौतम ! यावन्त: लोके शुभानि नामानि, गौतम ! लोक में जितने शुभ नाम, शुभ रूप, शुभ रूवा, सुभा गंधा, सुभा रसा, सुभा फासा, शुभानि रूपाणि, शुभा: गन्धाः, शुभाः गन्ध, शुभ रस और शुभ स्पर्श हैं उतने द्वीप और एवतिया णं दीव-समुद्दा नामधेज्जेहिं पण्ण- रसा:, शुभा: स्पर्शाः, एतावन्त: द्वीप- समुद्र नामों से प्रज्ञप्त हैं। इस प्रकार शुभ नाम, ता। एवं नेयव्वा सुभा नामा, उद्धारो, परि- समुद्रा: नामधेयैः प्रज्ञप्ताः। एवं नेतव्यानि उद्धार, परिणाम और द्वीप-समुद्रों में सब जीवों का णामो, सव्वजीवाणं (उप्पाओ?)॥ शुभानि नामानि, उद्धारः, परिणाम:, उत्पाद ज्ञातव्य है। सर्वजीवानाम् (उत्पादः)। भाष्य १. सूत्र १५५-१६० जैन भूगोल के अनुसार मध्यलोक (तिरछे लोक) में असंख्य समुद्र हैं। उनमें प्रथम लवण समुद्र है और पर्यन्तवर्ती स्वयम्भूरमण समुद्र है। लवण समुद्र में जलस्तर उन्नत होता है और उसका जल क्षुब्ध रहता है- उसमें ज्वारभाटा आता रहता है। समयक्षेत्र से बाह्यवर्ती समुद्रों का जलस्तर समान रहता है। उनका जल क्षुब्ध नहीं होता-उनमें ज्वारभाटा नहीं आता। लवण समुद्र में वर्षा होती है, बाह्यवर्ती समुद्रों में वर्षा नहीं होती। उनमें उदकयोनिक जीव जन्म लेते और मरते रहते हैं। तिरछे लोक में जो असंख्य द्वीप और समुद्र हैं, उनकी विस्तृत जानकारी के लिए जीवाजीवाभिगमे (३/ ९७२) द्रष्टव्य है। वोलट्टमाण आदि शब्दों के लिए देखें भ. १/३१२,३१३ का भाष्य। १६१. सेनं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । १६१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational ation Intermational For Private & Personal use only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद कम्मप्पगडिबंध-पदं कर्मप्रकृति-बन्ध-पदम् कर्मप्रकृति-बन्ध-पद १६२. जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्जं कम्मं जीव: भदन्त ! ज्ञानावरणीयं कर्म बध्नन् कति १६२. भन्ते! जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करता बंधमाणे कति कम्मप्पगडीओ बंधति? कर्मप्रकृती: बध्नाति? हुआ कितनी कर्म-प्रकृतियों का बन्ध करता है? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए. गौतम ! सप्तविधबन्धको वा, अष्टविध- गौतम ! सात प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध करता है। वा, छविहबंधए वा। बंधुद्देसो पण्णवणाए बन्धको वा, षड्विधबन्धको वा। बन्धोद्देश: अथवा आठ प्रकार की कर्म-प्रकृतियों का बन्धन नेयव्वो॥ प्रज्ञापनाया: नेतव्यः। करता है। अथवा छह प्रकार की प्रकृतियों का बन्ध करता है। यहां पण्णवणा का बन्ध-उद्देशक (पद २४) ज्ञातव्य है। भाष्य १. सूत्र १६२ बन्ध जीवन में एक बार होता है। आयुष्य के अबन्ध-क्षण में ज्ञानावरण का कर्म की मूल प्रकृतियां आठ हैं। इनका बन्ध एक साथ होता है। बन्ध करने वाला जीव सप्तविधबन्धक होता है। आयुष्य-बन्ध के क्षण में वह अथवा स्वतन्त्र रूप में होता है? पण्णवणा के २४ वें पद में इसका विवेचन अष्टविधबन्धक होता है। सूक्ष्म सम्पराय अवस्था (दसवें गुणस्थान) में मोह किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में इसका संक्षिप्त निर्देश किया गया है। आयुष्य का और आयुष्य दोनों का बन्ध नहीं होता। महिड्ढीयदेव-विकुव्वणा-पदं महर्द्धिकदेव-विकरण-पदम् महर्द्धिक देव की विक्रिया का पद १६३. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे देव: भदन्त ! महर्द्धिक: यावन् महानुभाग: १६३. भन्ते! क्या महान् ऋद्धि यावत्' महान् शक्ति बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं बाह्यकान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभु: एक- से सम्पन्न देव बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एगरूवं विउवित्तए? वर्णम् एकरूपं विकर्तुम्? एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ हैं? गोयमा ! नो इणहे समढे॥ गौतम ! नायमर्थ: समर्थः। गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। १६४. देवेणं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउन्वित्तए? हंता पभू॥ देव: भदन्त ! बाह्यकान् पुद्गलान् पर्यादाय १६४. भन्ते ! क्या देव बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर प्रभु: एकवर्णम् एकरूपं विकर्तुम्? एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ हैं? हन्त प्रभुः। हां, समर्थ है। १६५. से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता सः भदन्त ! किम् इहगतान् पुद्गलान् १६५. भन्ते! क्या वह प्रज्ञापक-स्थानवर्ती पुद्गलों का विउव्वति? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता वि- पर्यादाय विकरोति? तत्रगतान् पुद्गलान् ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता उन्वति? अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता पर्यादाय विकरोति? अन्यत्रगतान् पुद्गलान् है? अथवा स्वस्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक विउव्वति? पर्यादाय विकरोति? वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है? अथवा इन १. भ. वृ. ६/१६२–'सत्तविहबंधए' आयुरबन्धकाले, 'अट्ठविहबंधए' त्ति आयुर्बन्धकाले, 'छविबंधए' त्ति सूक्ष्मसम्परायावस्थायां मोहायुषोरबन्धकत्वात्। Jain Education Intemational Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.९: सू.१६५-१६७ ३०८ भगवई गोयमा! नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउ- गौतम ! नो इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय व्वति, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति, विकरोति, तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय नो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति। विकरोति, नो अन्यत्रगतान पुद्गलान् पर्यादाय विकरोति। दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है? गौतम ! वह प्रज्ञापक-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण नहीं करता, स्वस्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है, इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण नहीं करता। इस प्रकार इस गमक से अन्य विकल्प भी ज्ञातव्य हैं यावत् १. एक वर्ण और एक रूप का निर्माण २. एक वर्ण और अनेक रूप का निर्माण ३. अनेक वर्ण और एक रूप का निर्माण तथा ४. अनेक वर्ण और अनेक रूप का निर्माण-यह चौभंगी है। एवं एएणं गमेणं जाव १. एगवण्णं एगरूवं एवम् अनेन गमेन यावद् १. एकवर्णम् एक- २. एगवण्णं अणेगरूवं ३. अणेगवण्णं एग- रूपम् २. एकवर्णम् अनेकरूपम् ३. अनेकरूवं ४. अणेगवणं अणेगरूवं-चउभंगो॥ वर्णम् एकरूपम् ४. अनेकवर्णम् अनेकरूपम् --चतुर्भङ्गः। १६६. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे देव: भदन्त ! महर्द्धिक: यावन् महानुभाग: १६६, भन्ते ! क्या महान् ऋद्धि यावत् महान् शक्ति से बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू कालगं बाह्यकान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः कालकं सम्पन्न देव बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना पोग्गलं नीलगपोगलत्ताए परिणामेत्तए? नी- पुद्गलं नीलकपुद्गलतया परिणमयितुम्? कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल को नील वर्ण वाले पुद्गल लगं पोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणा- नीलकं पुद्गलं वा कालकपुद्गलतया परि- के रूप में परिणत करने में समर्थ हैं? अथवा नील मेत्तए? णमयितुम्? वर्ण वाले पुद्गल को कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ हैं? गोयमा ! नो इणढे समढे। परियाइत्ता पभू॥ गौतम ! नायमर्थ: समर्थः। पर्यादाय प्रभुः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह बहिर्वर्ती पुद् गलों का ग्रहण कर वैसा करने में समर्थ है। १६७. से ण भंते! किं इहगए पोग्गले परि- स: भदन्त ! किम् इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय १६७. भन्ते ! क्या वह प्रज्ञापक-स्थानवर्ती पुद्गलों याइत्ता परिणामेति? तत्थगए पोग्गले परि- परिणमयति? तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय का ग्रहण कर परिणत करता है? अथवा स्वस्थानयाइत्ता परिणामेति? अण्णत्थगए पोग्गले परिणमयति? अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है? परियाइत्ता परिणामेति? परिणमयति? अथवा इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है? गोयमा! नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता गौतम ! नो इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय परि- गौतम ! वह प्रज्ञापक-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण परिणामेति, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता णमयति, तत्रगतान पुद्गलान् पर्यादाय परिण- कर परिणत नहीं करता, स्वस्थानवर्ती पुद्गलों का परिणामेति, नो अण्णत्थगए पोग्गले परि- मयति, नो अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय ग्रहण कर परिणत करता है, इन दोनों से भिन्न याइत्ता परिणामेति। परिणमयति। किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत नहीं करता। एवं कालगपोग्गलं लोहियपोग्गलत्ताए। एवं एवं कालकपुद्गलं लोहितपुद्गलतया। एवं इसी प्रकार कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल को लाल वर्ण कालएणं जाव सुक्किलं। एवं नीलएणं जाव कालकेण यावत् शुक्लम्। एवं नीलकेन वाले पुद्गल के रूप में परिणत करता है। इसी सुक्किलोएवं लोहिएणं जाव सुक्किलं। एवं यावत् शुक्लम्। एवं लोहितेन यावत् शुक्लम्।। प्रकार कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल से यावत् शुक्ल वर्ण हालिद्दएणं जाव सुक्किली एवं एयाए परि- एवं हारिद्रेण यावत् शुक्लम्। एवं अनया वाले पुद्गल तक के परिणमन की वक्तव्यता। इसी वाडीए गंध-रस-फासा। परिपाट्या गन्ध-रस-स्पर्शाः। प्रकार नील वर्ण वाले पुद्गल से यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गल के परिणमन की वक्तव्यता। इसी प्रकार लोहित वर्ण वाले पुद्गल से यावत् शुक्ल वर्ण वाले Jain Education Intemational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३०९ श.६ : उ.९ : सू.१६३-१६८ नील रक्त कृष्ण तिक्त पुद्गल के परिणमन की वक्तव्यता। इसी प्रकार पीत वर्ण वाले पुद्गल से यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गल के परिणमन की वक्तव्यता। इसी प्रकार इस परिपाटी से गन्ध-रस और स्पर्श की परिणमन की वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र १६३-१६७ वैक्रिय करने वाला तत्र-स्थित पुद्गलों के ग्रहण कर विक्रिया प्रस्तुत आलापक में वैक्रिय (विविध रूप-निर्माण) की शक्ति और करता है—नाना रूपों का निर्माण करता है। विक्रिया से किए जाने वाले उसके नियमों का वर्णन उपलब्ध है। देवों का शरीर वैक्रिय होता है। वे वैक्रिय विविध रूपों को चार विकल्पों में इस प्रकार रखा जा सकता है.-- शरीर के द्वारा नाना रूपों का निर्माण कर सकते हैं, किन्तु बाहरी पुद्गलों १. एक वर्ण एक रूप (वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों) का ग्रहण किए बिना नहीं कर सकते। द्रष्टव्य भ. २. एक वर्ण अनेक रूप ३/१८६-१९२ का भाष्य। ३. अनेक वर्ण एक रूप बाहरी पुद्गलों के विषय में तीन विकल्प हो सकते हैं ४. अनेक वर्ण अनेक रूप १. इहगत-प्रज्ञापक के पार्श्ववर्ती क्षेत्र में स्थित वैक्रिय वर्गणा परिणमन स्वभाव से भी होता है और प्रयोग से भी होता है। कृष्ण के पुद्गल। वर्ण स्वभाव से नीलवर्ण में परिवर्तित हो जाता है। नील वर्ण रक्त वर्ण में बदल २. तत्रगत-वैक्रिय करने वाले के पार्श्ववर्ती क्षेत्र में स्थित वैक्रिय जाता है। सूर्य-विज्ञान की विद्या में भी वर्ण, गन्ध तथा आकार को बदलने की वर्गणा के पुद्गल। प्रक्रिया निर्दिष्ट है। उसका आधार प्रस्तुत सूत्र में उपलब्ध है। ३. अन्यत्रगत–प्रज्ञापक और वैक्रिय-कर्ता दोनों के स्थान पर्याय-परिवर्तन के विविध विकल्प प्रस्तुत तालिका में दिए गये से किसी अन्य स्थान में स्थित वैक्रिय वर्गणा के पुद्गल। १. कृष्ण - नील, कृष्ण १४. तिक्त - अम्ल, अम्ल - तिक्त २. कृष्ण - १५. तिक्त - मधुर, मधुर - ३. कृष्ण - कृष्ण १६. कटुक - कषाय, कषाय कटुक ४. कृष्ण - शुक्ल, शुक्ल १७. कटुक - अम्ल, अम्ल कटुक ५. नील - रक्त, रक्त नील १८. कटुक मधुर, मधुर कटुक पीत नील १९. कषाय अम्ल, अम्ल कषाय शुक्ल, नील २०. कषाय मधुर, कषाय ८. रक्त - २१. अम्ल - मधुर, मधुर अम्ल शुक्ल, शुक्ल रक्त २२. कर्कश - मृदु, मृदु कर्कश १०. पीत - शुक्ल, शुक्ल पीत २३. गुरु ११. दुर्गन्ध- सुगन्ध, सुगन्ध दुर्गन्ध २४. शीत - उष्ण, उष्ण शीत १२. तिक्त - कटुक, कटुक - २५. स्निग्ध रूक्ष, स्निग्ध १३. तिक्त - कषाय, कषाय - तिक्त २. यावत् यावत् की पूर्ति के लिए भ. ३/४ द्रष्टव्य है। अविसुद्धलेसादि देवाणं जाणणा-पासणा- अविशुद्धलेश्यादि-देवानां ज्ञान-द- अविशद्ध लेश्या आदि वाले देव का ज्ञान र्शन-पदम् -दर्शन-पद १६८. १. अविसुद्धलेसे णं भंते ! देवे असमो- १. अविशुद्धलेश्य: भदन्त ! देव: असम- १६८. 'भन्ते!१. अविशुद्ध लेश्यावाला देव असमवहत हएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं, देविं, वहतेन आत्मना अविशुद्धलेश्यं देवं अण्णयरं जाणइ-पासइ? देवीम्, अन्यतरं जानाति-पश्यति? अथवा अन्य किसी को जानता-देखता है ? णो तिणढे समढे। नायमर्थ: समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। एवं–२. अविसुद्धलेसे देवे असमोहएणं एवं–२. अविशुद्धलेश्य: देव: असम- इसी प्रकार--२. अविशुद्ध लेश्या वाला देव असमअप्पाणेणं विसद्धलेसं देवं ३. अविसुद्धलेसे वहतेन आत्मना विशुद्धलेश्यं देवम् ३. वहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को रक्त, पीत, पीत कृष्ण पीत, शुक्ल FF मधुर पीत, पीत अम रक्त । । । । । । । । । । लधु, लघु तिक्त पद Jain Education Intemational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.९:सू.१६८-१६९ ३१० भगवई देवे समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं अविशुद्धलेश्य: देवः समवहतेन आत्मना ४. अविसुद्धलेसे देवे समोहएणं अप्पाणेणं अविशुद्धलेश्यं देवम् ४.अविशुद्धलेश्य: देवः विसुद्धलेसं देवं ५. अविसुद्धलेसे देवे समो- समवहतेन आत्मना विशुद्धलेश्यं देवम् हयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ५.अविशुद्धलेश्य देवः समवहतासमवहतेन ६. अविसुद्धलेसे देवे समोहयासमोहएणं आत्मना अविशुद्धलेश्यं देवम् ६. विशुद्धअप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं ७. विसुद्धलेसे देवे लेश्य: देव: समवहतासमवहतेन आत्मना । असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं विशुद्धलेश्यं देवम् ७. विशुद्धलेश्य: देव: ८. विसुद्धलेसे देवे असमोहएणं अप्पाणेणं असमवहतेन आत्मना अविशुद्धलेश्यं देवम् विसुद्धलेसं देवं ॥ ८. विशुद्धलेश्य: देव: असमवहतेन आत्मना विशुद्धलेश्यं देवम्। ३. अविशुद्ध लेश्या वाला देव समवहत आत्मा के द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को ४. अविशुद्ध लेश्या वाला देव समवहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को ५. अविशुद्ध लेश्या देव समवहत-असमवहत आत्मा के द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को ६. अविशुद्ध लेश्या वाला देव समवहत-असमवहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को ७. विशुद्ध लेश्या वाला देव असमवहत आत्मा के द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को ८. विशुद्ध लेश्या वाले देव असमवहत आत्मा के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को नहीं जानता-देखता। १६९. ९. विसुद्धलेसे णं भंते ! देवे समोहएणं ९. विशुद्धलेश्य: भदन्त ! देव: समवहतेन १६९. भन्ते ! ९. विशुद्धलेश्या वाला देव समवहत अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं जाणइ-पासइ? आत्मना अविशुद्धलेश्यं देवं जानाति आत्मा के द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को पश्यति? जानता-देखता है? हंता जाणइ-पासइ। हन्त जानाति-पश्यति। हां, जानता-देखता है। एवं–१०.विसुद्धलेसे देवे समोहएणं एवम्-१०. विशुद्ध लेश्य: देव: समवहतेन इसी प्रकार-१०. विशुद्ध लेश्या वाला देव समवहत अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं ११. विसुद्धलेसे आत्मना विशुद्धलेश्यं देवम् ११. विशुद्ध- आत्मा के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को ११. देवे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसु- लेश्य: देव: समवहतासमवहतेन आत्मना विशुद्ध लेश्यावाला देव समवहत-असमवहत आत्मा द्धलेसं देवं १२. विसुद्धलेसे देवे समोह- अविशुद्धलेश्यं देवम् । १२. विशुद्धलेश्य: के द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को १२. विशुद्ध यासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं ॥ देवः समवहतासमवहतेन आत्मना विशुद्ध- लेश्या वाला देव समवहत-असमवहत आत्मा के लेश्यं देवम्। द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को जानता-देखता है। भाष्य १. सूत्र १६८,१६९ अभयदेवसूरि ने 'समवहत' का अर्थ 'वैक्रिय शरीर का निर्माण किया हुआ _ वृत्तिकार ने 'अविशुद्ध लेश्य' का अर्थ 'विभंग ज्ञान वाला' किया किया है। मलयगिरि के अनुसार 'समवहत' का अर्थ 'वेदना आदि समुद्घात है। मलयगिरि ने 'अविशुद्ध लेश्या' का अर्थ 'कृष्ण आदि लेश्या वाला' में गया हुआ' और असमवहत का अर्थ 'वेदना आदि समुद्घात-रहित है।" किया है। ठाणं के अनुसार कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं जो व्यक्ति वेदना आदि समुद्घात की क्रिया में आविष्ट है, किन्तु उस क्रिया अविशुद्ध हैं। इस आधार पर मलयगिरि का अर्थ मूलस्पर्शी प्रतीत होता है। को पूर्ण नहीं कर पाया, वह 'समवहतासमवहत' हैं। अभयदेवसूरि ने इस प्रकरण में 'समवहत' का अर्थ 'उपयुक्त ठाण में समवहत और विउव्वित दोनों पाठ संलग्न हैं। स्थानांग (उपयोग-सहित), असमवहत' का अर्थ अनुपयुक्त (उपयोग-रहित) तथा की वृत्ति में अभयदेवसूरि ने समवहत का अर्थ वैक्रिय अथवा अन्य समवहतासमवहत का अर्थ 'उपयुक्त अनुपयुक्त किया है। प्रस्तुत आगम में समुद्घात में प्रविष्ट तथा असमवहत का अर्थ समुद्घात-रहित किया है। वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं पाठांश मिलता है। उसकी वृत्ति में समवहतासमवहत को इनकी व्याख्या के रूप में प्रतिपादित किया है १. भ.वृ. ६/१६८-अविशुद्धलेश्यो विभंगज्ञानो देवः। २. जीवा. वृ.प. १४२–अविशुद्धलेश्यः कृष्णादिलेश्यः। ३. ठाण, ३/५१७। ४. (क) भ.वृ. ६/१६८-'असमोहएणं अप्पाणेणं' ति अनुपयुक्तेनात्मना। (ख) वही, ६/१६९-सम्यग्दृष्टित्वादुपयुक्तत्वानुपयुक्तत्वाच्च जानाति उपयोगानुपयोगपक्षे उपयोगांशस्य सम्यग्ज्ञानहेतुत्वादिति। ५. भ. ३/१५४-१५६। ६. भ. वृ. ३/१५४–'विउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं' ति विहितोत्तरवैक्रियशरीरमित्यर्थः। ७. जीवा. वृ.प. १४२-असमवहतः वेदनादिसमुद्घातरहितः, समवहत: वेदनादिसमुद्घाते गतः। ८. वही, वृ. प. १४२ -समवहतासमवहतो नाम वेदनादि समुद्घातक्रियाविष्टो न तु परिपूर्णसमवहतो नाप्यसमवहतः सर्वथा। ९. ठाणं, २/१९३-२००। Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.६: उ.९: सू.१६८,१६९ नियत क्षेत्र को जानने वाला अवधिज्ञानी कदाचित् समुद्घात करके जानता अनुसार इसका अर्थ है जो वैक्रिय समुद्घात के द्वारा वैक्रिय शरीर का निर्माण है और कदाचित् समुद्घात किए बिना ही जान लेता है। समवहतासमवहत कर चुका है। का यह अर्थ मलयगिरि के अर्थ से भिन्न है। ठाणं में अविशुद्धलेश्य और प्रस्तुत आगम में ज्ञान, दर्शन के सन्दर्भ में अविशुद्धलेश्य के छह विशुद्धलेश्य का उल्लेख नहीं है। समवहत और असमवहत के साथ कर्ता के और विशुद्धलेश्य के छह-इस प्रकार बारह भंग बनते हैं। जीवाजीवाभिगमे रूप में अधोऽवधि आत्मा का उल्लेख है। प्रस्तुत प्रकरण में मलयगिरि का अर्थ में भी ये बारह भंग उपलब्ध हैं। प्रस्तुत आगम के अनुसार आठ भंग वाले अधिक उपयुक्त है। नहीं जानते-देखते। जीवाजीवाभिगमे के अनुसार शेष छह भंग वाले जानतेठाणं में समवहत के अनन्तर विउब्विय का आलापक है। वृत्ति के देखते हैं। देखे यंत्र भगवई १.अविशुद्धलेश्य असमवहत नहीं जानता-देखता " समवहत 63) समवहत-असमवहत अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को ७. विशुद्धलेश्य असमवहत समवहत जानता-देखता है समवहत-असमवहत अविशुद्धलेश्य असमवहत नहीं जानता-देखता समवहत समवहत-असमवहत जीवाजीवाभिगमे अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य असमवहत जानता-देखता है १ समवहत समवहत-असमवहत १. स्था. व. प. ५७–'समवहतेन' वैक्रियसमुद्घातगतेनात्मना-स्वभावेन, समुद्घातान्तरगतेन वा, असमवहतेन त्वन्यथेति, एतदेव व्याख्याति-'आहोही' त्यादि यत्प्रकारोऽवधेरस्येति यथाविधिः, आदिदीर्घत्वं प्राकृतत्वात् परमावधेर्वाऽधोव_वधिर्यस्य सोऽधोऽवधिरात्मा -नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी स कदाचित् समवहतेन कदाचिदन्यथेति समवहतासमवहतेनेति। २. वही, वृ. प. ५७–'विउब्बिएणं' ति कृतवैक्रियशरीरेण । ३. भ. ६१६८,१६९। ४. जीवा. ३३१९८-२०९ Jain Education Intemational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. ९ : सू. १६८-१७० अभयदेवसूरि के अनुसार छह भंगों को जानने वाला मिथ्यादृष्टि होता है, इसलिए वह नहीं जानता। विशुद्धलेश्या वाले दो भंगों में जानने वाला सम्यग्दृष्टि होता है फिर भी उपयोग शून्य होने के कारण नहीं जानता' । मलयगिरि के अनुसार विशुद्ध लेश्या वाला ज्ञाता यथावस्थित ज्ञानदर्शन के कारण जानता देखता है। समुद्घात जानने देखने में अवरोध उत्पन्न नहीं करता' । प्रस्तुत आगम में विशुद्ध लेश्या वाले दो भंगों में ज्ञान, दर्शन का ३१२ १७०. सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति ॥ १. भ. वृ. ६ / १६८ - एतैरष्टभिर्विकल्पैर्न जानाति, तत्र षड्भिर्मिथ्यादृष्टित्वात् द्वाभ्यां त्वनुपयुक्तत्वादिति । २. जीवा. वृ. प. १४२ – विशुद्धलेश्याकतया यथाऽवस्थितज्ञानदर्शनभावात् आह च मूल भगवई निषेध और जीवाजीवाभिगमे में ज्ञान, दर्शन का स्वीकार एक उल्लेखनीय वाचना-भेद है। विशुद्ध श्या वाले प्रथम दो भंग नहीं जानते-देखते, शेष चार भंग वाले जानते देखते हैं। इसका कारण खोजना एक पहेली है। इस पहेली को बुझाने के लिए ही संभवतः अभवदेवसूरि ने असमवहत का अर्थ "अनुपयुक्त किया है। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। १७०. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है। टीकाकार:- “शोभनस्य शोभनं वा वस्तु यथावद्विशुद्धलेश्यो जानातीति, समुद्घातोऽपि च तस्याप्रतिबन्धक एव, न च तस्य समुद्घातोऽत्यन्तशोभनो भवति, उक्तं च मूलटीकायाम् — "समुद्घातोऽपि तस्याप्रतिबन्धक एवे" त्यादीति । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सुह दुह उवदंसण-पदं 7 १७१. अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाइक्वंति जाव परूवेंति — जावतिया रायगिहे नयरे जीवा एवइवाणं जीवाणं नो चक्किया केंद्र सुहं वा दुहं वा जाव कोलट्ठिगमायमवि, निप्फावमायमवि, कलमायमवि, मासमायमवि, मुग्गमायमवि, जूयामायमवि, लिक्खामायमवि अभिनिवट्टेत्ता उवदंसेत्तए । १७२. से कहमेवं भंते । एवं? गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाक्खामि जाव परूवेमि सव्वलो वि य णं सव्वजीवाणं नो चक्किया सुहं वा दुहं वा जाव कोलट्ठिगमायमवि, निष्फा-वमायमवि, कलमायमवि, मासमा यमवि, मुग्गमायमवि, जूयामायमवि, लिकखामाय-मवि अभिनिवट्टेत्ता उवसेत्तए । १७३. से केणट्टेणं? गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते देवे नं महिड्ढी जाव महाणुभागे एगं महं सविलेवणं गंधा गहाय तं अवदालेति, अवदा जाव इणामेव कट्टु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसतखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छेज्जा । से नूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे ? दसमो उद्देसो : दशवां उद्देशक संस्कृत छाया सुख-दुःखोपदर्शन-पदम् अन्ययूथिकाः भदन्ते ! एवमाख्याति यावत् प्ररूपयन्ति यावन्तः राजगृहे नगरे जीवाः, एतावतां जीवानां नो शक्नुयात् कोऽपि सुखं वा दुःखं वा यावद कोलास्थिकमात्रमपि, निष्पावमात्रमपि, कलायमात्रमपि, माषमात्रमपि, मुद्गमात्रमपि, यूकामात्रमपि, लिक्षामात्रमपि अभिनिर्वृत्य उपदर्शयितुम् । तत् कथम् एतद् भदन्त ! एवम् ? गौतम ! यत् अन्ययूथिका: एवमाख्यान्ति यावन् मिथ्या ते एवमाहुः, अहं पुनर्गौतम ! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि सर्व लोकेऽपि च सर्वजीवानां नो शक्नुयात् कोऽपि सुखं वा दुःखं वा यावत् कोलास्थिकमात्रमपि, निष्पावमात्रमपि, कलायमात्रमपि, माषमात्रमपि, मुद्गमात्रमपि, यूकामात्रमपि लिक्षामात्रमपि अभिनिर्वृत्य उपदर्शयितुम् । केनार्थेन? गौतम! अयं जम्बूद्वीप द्वीप: यावद् विशेषाधिक: परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । देवः महर्द्धिकः यावन् महानुभाग: एकं महत् सविलेपनं गन्धसमुद्गकं गृहीत्वा तम् अवदारयति, अवदार्य यावद् इदमेव कृत्वा केवलकल्प जम्बूद्वीपं द्वीपं त्रिभि: ' अच्छरानिवाएहिं' त्रिसप्तकृत्वः अनुपर्यट्य 'हव्वं' आगच्छेत् । तनू नूनं गौतम ! स: केवलकल्प: जम्बूद्वीपः द्वीपः तैः प्राण- पुद्गलैः स्पृष्टः ? हिन्दी अनुवाद सुख-दुःख- उपदर्शन-पद १७१ भन्ते । अन्ययूधिक इस प्रकार आख्यान करते ' ! है यावत् प्ररूपणा करते हैं-राजगृह नगर में जितने जीव हैं, इतने जीवों के सुख अथवा दुःख को यावत् बेर की गुठली जितना भी सेम जितना भी, मटर जितना भी उड़द जितना भी, मूंग जितना भी, जूं जितना भी और लीख जितना भी निष्पन्न करके दिखाने में कोई भी समर्थ नहीं है। १७२. भन्ते ! इस प्रकार का वक्तव्य कैसे है ? गौतम वे अन्ययूथिक जो ऐसा आख्यान करते हैं। यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान करता हूं यावत् प्ररूपणा करता सर्व लोक के सब जीवों के सुख अथवा दुःख को यावत् बेर की गुठली जितना भी सेम जितना भी, मटर जितना भी, मूंग जितना भी, जूं जितना भी और लीख जितना भी निष्पन्न करके दिखाने में कोई भी समर्थ नहीं है। १७३. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! यह जम्बूद्वीप द्वीप एक लाख योजन लम्बाचौड़ा यावत् उसका परिक्षेप तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढा तेरह अंगुल से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है। महान् ऋद्धि वाला यावत् कोई महान् सामर्थ्य वाला देव विलेपन सहित पिटक को ले कर उसे खोलता है, खोल कर यावत् यह रहा, यह रहा, इस प्रकार कह कर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप में तीन बार चुटकी बजाने जितने समय में इक्कीस बार घूम कर शीघ्र ही आ जाता है। गौतम ! क्या Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६: उ. १० सू. १७१-१७५ हंता फुडे । चक्किया णं गोयमा ! केइ तेसिं घाणपोग्गलाणं कोलड्डि मायमवि निष्फाव मायमवि, कलमायमवि, मासमायमवि, मुग्णमायमवि, ज्यामायमवि लिक्खा मायमवि अभिनिवट्टेत्ता उवदंसेत्तए? नो तिज समझे से तेलेनं गोयमा एवं वुच्चइनो चक्किया केइ सुहं वा जाव उत्तए । - जीव चेयना-पदं १७४. जीवे णं भंते! जीवे ? जीवे जीवे ? ३१४ १. सूत्र १७१-१७३ सुख और दुःख संवेदन है। उन्हें पौद्गलिक पदार्थ के समान प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। राजगृह में कुछ दार्शनिक इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहे थे—राजगृह में जितने जीव हैं, उनके सुख-दुःख को बेर की गुठली जितना रूप देकर भी दिखाया नहीं जा सकता। हन्त स्पृष्टः । शक्नुयाद् गौतम ! कोऽपि तेषां घ्राणपुद्गलानां कोलास्थिमात्रमपि निष्पाव मात्रमपि कलायमात्रमपि माषमात्रमपि, मुद्गमात्रमपि, यूकामात्रमपि लिक्षामात्रमपि अभिनिर्वर्त्य उपदर्शयितुम्? नायमर्थः समर्थः तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते नो शक्नुयात् कोऽपि सुखं वा यावत् उपदर्शयितुम् । गौतम ने इस प्रतिपादन के विषय में भगवान् महावीर से पूछा, तब भगवान् ने कहा- केवल राजगृह के जीवों का प्रश्न नहीं है, सब जीवों के सुख-दुःख को भी बेर की गुठली जितने आकार में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। इसका हेतु यह है कि संवेदन जीव को होता है, वह पदार्थ से भिन्न है। पदार्थ दृश्य हो सकता है; ज्ञान, संवेदन और अनुभव -- ये जीव के लक्षण हैं, इसलिए दृश्य नहीं बनते। सुख-दुःख के संवेदन से शारीरिक प्रतिक्रियाओं को मनोविज्ञान, प्रत्यक्ष दर्शन, अनुमान और सूक्ष्म छायांकन (Photography) के द्वारा जाना जा सकता है, किन्तु उन्हें पदार्थ के आकार में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। इस सिद्धान्त को प्राण - पुद्गल - विकिरण के उदाहरण द्वारा १. आप्टे कोलम् – A kind of berry कोला - बदरी भाष्य समझाया गया है। कोई देव एक लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाले जम्बूद्वीप में तीन चुटकी बजाए इतने (लगभग एक सेकण्ड) समय में इक्कीस बार चक्कर लगाता है। उस समय में वह एक डिबिया में रखे हुए सुगन्धी चूर्ण को पूरे जम्बूद्वीप में बिखेर देता है। उस सुगन्धी चूर्ण को आकार में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार सुख-दुःख को भी प्रदर्शित नहीं किया जा सकता । शब्द-विमर्श जीव-चेतना-पदम् जीव: भदन्त ! जीवः ? जीव: जीवः ? गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि गौतम ! जीवस्तावन् नियमाज् जीव:, जीवोनियमा जीवे ॥ ऽपि नियमाद् जीवः। १७५. जीवे णं भंते । नेरइए? नेरइए जीवे? जीव: भदन्त ! नैरयिकः ? नैरयिको जीवः ? " गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवे जीवे पुन गौतम! नैरयिकः तावन् नियमाज् जीवः, सिय नेरइए, सिय अनेरइए | जीवः पुनः स्याद् नैरयिकः, स्याद् अनैरयिकः । भगवई वह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप उन नासिकाग्राह्य पुद्गलों से स्पृष्ट हुआ? हां स्पृष्ट हुआ। गौतम ! उन नासिकाग्राह्य पुद्गलों को बेर की गुठली जितना भी, सेम जितना भी, मटर जितना भी, उड़द जितना भी, मूंग जितना भी, जूं जितना भी और लीख जितना भी निष्पन्न कर क्या कोई दिखाने में समर्थ हैं ? कोलस्थिग (कोलट्ठिग) — कोल + अस्थिग—बेर की गुठली । संस्कृत शब्दकोश में कोला का अर्थ 'बदरी' तथा कोल का अर्थ 'बदर' और 'बदरी' दोनों मिलते हैं । वृत्तिकार ने कोलडिंग का संस्कृत रूप कुवलात्थिक किया है । निष्फाव, मास आदि शब्दों के लिए देखें भ. ६/ १२६-१३१ का भाष्य । यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम इसीलिए यह कहा जा रहा है— जीव के सुख अथवा दुःख को यावत् दिखाने में कोई भी समर्थ नहीं है। अच्छरानिवाएहिं – चुटकी । - जीव चेतना पद १७४. भन्ते क्या जीव जीव (चैतन्य) है ? भन्ते! क्या जीव (चैतन्य) जीव है? गौतम जीव नियमतः जीव चैतन्य है। जीव (चैतन्य) भी नियमतः जीव है। १७५. भन्ते ! क्या जीव नैरयिक है ? क्या नैरयिक जीव 8? गौतम ! नैरयिक नियमतः जीव है, जीव स्यात् नैरयिक है, स्यात् नैरविक नहीं है। २. भ. बृ. ६/१७११ – तत्र कुवलास्थिक— बदरकुलका ३. जीवा. वृ. प. १०९ – अप्सरो निपातो नाम चप्पुटिका Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७६. जीवेनं भंते । असुरकुमारे? असुरकुमारे जीवः भदन्त ! असुरकुमारः ? असुरकुमारः जीवे ? जीव: ? गोयमा ! असुरकुमारे ताव नियमा जीवे जीवे पुण सिय असुरकुमारे, सिय नोअसुरकुमारे ॥ गौतम! असुरकुमारः तावन् नियमाज् जीवः, जीवः पुनः स्याद् असुरकुमारः स्यान् नोअसुरकुमारः। १७७. एवं दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणि- एवं दण्डकः भणितव्य: यावद् वैमानि - याणं ॥ कानाम्। १७८. जीवति भंते ! जीवे? जीवे जीवति ? गोयमा ! जीवति ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवति, सिय नो जीवति ॥ १७९. जीवति भंते! नेरइए ? नेरइए जीवति ? गोयमा ! नेरइए ताब नियमा जीवति जीवति गौतम! नैरयिकस्तावन् नियमाज् जीवति, पुण सिय नेरइए, सिय अनेरइए || जीवति पुनः स्यान् नैरयिकः, स्याद् अनैरयिकः। १८०. एवं दंडओ नेब्बो जाव बेमाणियाणं ।। एवं दण्डकः नेतव्य: यावद् वैमानिकानाम् १८१. भवसिद्धिए णं भंते ! नेरइए ? नेरइए भवसिद्धिकः भदन्त ! नैरयिकः ? नैरयिकः भवसिद्धिए ? भवसिद्धिकः ? गौतम । भवसिद्धिकः स्यान नैरयिकः स्या अनैरयिकः । नैरयिकोऽपि च स्याद् भवसिद्धिकः स्वाद् अभवसिद्धिकः । एवं दण्डकः यावद् वैमानिकानाम्। 9 गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अइए। रइए विसिय भवसिद्धीए, सिय अभवसिद्धीए ॥ १८२. एवं दंडओ जाव वैमाणियाण ३१५ जीवति भदन्त ! जीव: ? जीव: जीवति ? गौतम ! जीवति तावन् नियमाज् जीवः, जीवः पुनः स्याज्जीवति, स्यान् नो जीवति । जीवति भदन्त ! नैरयिकः ? नैरयिकः जीवति? भाष्य १. सूत्र १७४-१८२ जीवद्रव्य है, गुणी है और चैतन्य उसका गुण है। गुणी गुण का आश्रय होता है। गुण और गुणी में अविनाभाव ( व्याप्ति) सम्बन्ध है । जीव द्रव्य है और चैतन्य उसका गुण है, इसलिए वे अभिन्न है। गुण गुणी से कभी भिन्न नहीं होता। द्रव्य में अनेक गुण होते हैं। चैतन्य जीव द्रव्य का एक गुण है। उसके आधार पर जीव का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित है। चैतन्य गुण केवल जीव में है, अन्य किसी द्रव्य में नहीं है, इसीलिए जीव द्रव्य अन्य श. ६:३.९०: सू. १७४-१८२ १७६. भन्ते ! क्या जीव असुरकुमार है? क्या असुरकुमार जीव है? गौतम ! असुरकुमार नियमतः जीव है। जीव स्यात् असुरकुमार है, स्यात् असुरकुमार नहीं है। १७७. इस प्रकार वैमानिक देवों तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं। १७८. भन्ते ! क्या जो जीता है, वह जीव है? अथवा जो जीव है वह जीता है? गौतम! जो जीता है, वह नियमतः जीव है और जीव स्वात् जीता है, स्यात् नहीं जीता। १७९. भन्ते ! क्या जो जीता है, वह नैरयिक है? अथवा , वह जीता है? गौतम! नैरयिक नियमतः जीता है और जो जीता है, वह स्यात् नैरयिक है, स्यात् नैरयिक नहीं है। १८०. इस प्रकार वैमानिक तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं। १८१. भन्ते ! क्या जो भवसिद्धिक है, वह नैरविक है? अथवा जो नैरयिक है, वह भवसिद्धिक है? गौतम ! जो भवसिद्धिक है, वह स्यात् नैरयिक है, स्यात् नैरविक नहीं है। नैरदिक भी स्यात् भवसिद्धिक है, स्यात् भवसिद्धिक नहीं है। १८२. इसी प्रकार वैमानिक तक सभी दण्डक वक्तव्य है। द्रव्यों से भिन्न है। गुण- गुणी-भाव की दृष्टि से जीव और चैतन्य भिन्न भी है। अनेकान्त की भाषा में कहा जा सकता है कि जीव और चैतन्य कथंचित् अभिन्न हैं और कथंचित् भिन्न हैं। प्रस्तुत आलापक में जीव और चैतन्य के अविनाभाव-सम्बन्ध का निरूपण किया गया है— जीव नियमतः चैतन्य है और चैतन्य नियमतः जीव है। मनुष्य तिर्यञ्च देव और नारक " जीव के क्रमभावी पर्याय Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६:उ.१०:सू.१७४-१८५ भगवई हैं, इसलिए इनके साथ जीव का अविनाभाव-सम्बन्ध नहीं होता। मनुष्य कर्म। अजीव के आयुष्य कर्म नहीं होता, इसलिए उसमें जीवन भी नहीं होता। जो नियमत: जीव होता है, किन्तु जीव नियमत: मनुष्य नहीं होता है। वह कभी जीव है, वह स्यात् जीता है, स्यात् नहीं भी जीता। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव मनुष्य होता है, कभी देव, कभी तिर्यञ्च और कभी नारका -इन चार गति के जीव जीते हैं। सिद्ध नहीं जीते-उनके प्राण नहीं होते। मनुष्य दूसरे प्रश्न में जीव और जीवन का सम्बन्ध बतलाया गया है। जो जीता नियमत: जीता है। किन्तु जो जीता है वह केवल मनुष्य नहीं है, वह मनुष्य भी है है—प्राण धारण करता है वह नियमत: जीव है-जीवन का मूल आधार है आयष्य और अमनुष्य भी है-नरक तिर्यञ्च और देव भी है।' वेदणा-पदं वेदना-पदम् वेदना-पद १८३. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति अन्ययूथिका: भदन्त ! एवमाख्यान्ति यावत् १८३. 'भन्ते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते जाव परूवेंति—एवं खलु सव्वे पाणा भूया प्ररूपयन्ति—एवं खलु सर्वे प्राणा: भूताः हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं सब प्राण, भूत, जीव जीवा सत्ता एगतदुक्खं वेदणं वेदेति ।। जीवा: सत्त्वा: एकान्तदु:खां वेदनां वेदयन्ति। और सत्त्व एकान्त दु:खमय वेदना का वेदन करते १८४. से कहमेयं भंते ! एवं? तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम्? गोयमा! जणं ते अण्णउत्थिया जाव मिच्छं गौतम ! यत्ते अन्ययूथिका: यावन् मिथ्या ते ते एवमासु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइ- एवमाहुः, अहं पुन: गौतम ! एवमाख्यामि क्खामि जाव परूवेमि–अत्थेगइया पाणा यावत् प्ररूपयामि-अस्त्येकके प्राणा: भूताः भूया जीवा सत्ता एगंतदुक्खं वेदणं वेदेति, जीवा: सत्त्वा: एकान्तदु:खां वेदनां वेदयन्ति, आहच्च सायं। अत्थेगइया पाणा भूया जीवा आहत्य सातम्। अस्त्वेकके प्राणा: भूताः सत्ता एगंतसायं वेदणं वेदेति, आहच्च जीवा: सत्त्वा: एकान्तसातां वेदनां वेदयन्ति, अस्सायं। अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता आहत्य असातम्। अस्त्येकके प्राणा: भूता: वेमायाए वेदणं वेदेति—आहच्च साय- जीवाः सत्त्वाः विमात्रया वेदनां वेदयन्ति मसाय॥ आहत्य सातामसाताम्। १८४. भन्ते! इस प्रकार का वक्तव्य कैसे है? गौतम ! जो अन्ययूथिक ऐसा आख्यान करते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान करता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूं-कुछ प्राण, भूत, जीव, और सत्त्व एकान्त दु:खमय वेदना का वेदन करते हैं और कभी-कभी सुख का वेदन करते हैं। कुछ प्राण, भूत, जीव और सत्त्व एकान्त सुखमय वेदना का वेदन करते हैं और कभी-कभी दु:ख का वेदन करते हैं। कुछ प्राण, भूत, जीव और सत्त्व विमात्रा से वेदना का वेदन करते हैं-कभी सुख का वेदन करते हैं, कभी दु:ख का वेदन करते हैं। १८५. से केणटेण? तत् केनार्थेन? गोयमा ! नेरइया एगतदुक्खं वेदणं वेदेति, गौतम ! नैरयिका: एकान्तदुःखां वेदनां आहच्च सायं। भवणवइ-वाणमंतर-जोइस- वेदयन्ति, आहत्य साताम्। भवनपति- -वेमाणिया एगंतसायं वेदणं वेदेति, आहच्च वानमन्तर-ज्यौतिष-वैमानिका एकान्तसाता अस्सायं। पुढविक्काइया जाव मणुस्सा वेदनां वेदयन्ति, आहत्य असाताम्। पृथिवीवेमायाए वेदणं वेदेति-आहच्च साय- कायिका: यावत् मनुष्या: विमात्रया वेदनां मसायं। से तेणटेणं॥ वेदयन्ति--आहत्य सातामसाताम्। तत् तेनार्थेन। १८५. यह किस अपक्षा से? गौतम ! नैरयिक एकान्त दुःखमय वेदना का वेदन करते हैं, कभी-कभी सुख का वेदन करते हैं। भवनपति, वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एकान्त सुख का वेदन करते हैं, कभी-कभी दु:ख का वेदन करते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर मनुष्य तक सभी जीव विमात्रा से वेदना का वेदन करते हैं -कभी सुख का वेदन करते हैं, कभी दु:ख का वेदन करते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जाता है। भाष्य १. सूत्र १८३-१८५ करता है। बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्यों में दुःख पहला आर्यसत्य है। उसके भारतीय दर्शन के क्षेत्र में कुछ दार्शनिक दुःखवादी रहे हैं। 'दुःखमेव अनुसार पूरा संसार आग में झुलस रहा है, सुख का कोई अवसर ही नहीं है। सर्वं विवेकिनः।-पतञ्जलि का यह सूत्र सांख्य दर्शन का दृष्टिकोण प्रस्तुत सांख्य, जैन और बौद्ध—ये तीनों श्रमण-परम्परा के दर्शन हैं और तीनों ही १.भ.बृ. ६/१७८-जीवति प्राणान धारयति य स: जीव: उत यो जीव: स जीवति? इति प्रश्नः, सद्भावादिति। उत्तरं तु यो जीवति स तावनियमाज्जीव: अजीवस्यायुः काभावेन जीवनाभावात्, जीवस्तु २. पा. यो. द. २/१५ । स्याज्जीवति स्यान्न जीवति, सिद्धस्य जीवनाभावादिति; नारकादिस्तु नियमाज्जीवति, संसारिणः ३. धम्मपद, १४६ । सर्वस्य प्राणधारणात्मकत्वात्, जीवतीति पुन: स्यात्रारकादिः स्यादनारकादिति, प्राणधारणस्य सर्वेषां Jain Education Intemational Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३१७ श.६ : उ.१० : सू.१८३-१८८ दु:खवादी है। ___जैन दर्शन सापेक्ष दु:खवादी है—दुःख को एकान्तत: स्वीकार नहीं करता। प्रस्तुत आलापक में दु:ख-वेदना का विभज्यवादी दृष्टिकोण से विमर्श किया गया है। नरक के जीव दु:ख का संवेदन करते हैं, किन्तु कभी- कभी वे सुख का संवेदन करते हैं। देव सुख का संवेदन करते हैं, कभी-कभी दु:ख का संवेदन भी करते हैं। तिर्यञ्च और मनुष्य के जीव में सुख और दुःख का संवेदन विमात्रा से होता है-कभी वे दुःख का संवेदन करते हैं, कभी सुख का संवेदन करते हैं। नेरइयादीणं आहार-पदं नैरयिकादीनाम् आहार-पदम् नैरयिक आदि जीवों के आहार का पद १८६. नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले अत्तमायाए नैरयिका: भदन्त ! यान् पुद्गलान् आत्मना १८६. 'भन्ते ! नैरयिक जीव जिन पुद्गलों को आत्मा आहारेंति तं किं आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्ग- आदाय आहरन्ति तत् किं आत्मशरीर- से ग्रहण कर आहार करते हैं, क्या अपने शरीर के ले अत्तमायाए आहारेति? अणंतरखेत्तोगाढे क्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आत्मना आदाय क्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों को आत्मा से ग्रहण कर पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति? परंपरखेत्तो- आहरन्ति? अनन्तरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आहार करते हैं? क्या अनन्तर क्षेत्र में अवगाढ़ गाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति? आत्मना आदाय आहरन्ति? परंपरक्षेत्रा- पुद्गलों को आत्मा से ग्रहण कर आहार करते हैं? वगादान पुद्गलान् आत्मना आदाय आहार- क्या परम्पर क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों को आत्मा से न्ति? ग्रहण कर आहार करते हैं? गोयमा! आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्त- गौतम ! आत्मशरीरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् गौतम ! वे अपने शरीर के क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों मायाए आहारेंति, नो अणंतरखेत्तोगाढे पो- आत्मना आदाय आहरन्ति, नो अनन्तर- को आत्मा से ग्रहण कर आहार करते हैं, अनन्तर ग्गले अत्तमायाए आहारेंति, नो परंपर- क्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आत्मना आहरन्ति, क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों को आत्मा से ग्रहण कर खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति। नो परम्परक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आत्म- आहार नहीं करते, परम्पर क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों ना आदाय आहरन्ति। को आत्मा से ग्रहण कर आहार नहीं करते। जहा नेरइया तहा जाव वेमाणियाणं दंडओ॥ यथा नैरयिका: तथा यावद् वैमानिकानां नैरयिक जीवों की भांति वैमानिक तक सभी दण्डक दण्डकः। वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र १८६ जीव प्रत्येक प्रवृत्ति के लिए पुद्गलों का आहरण करता है। इस विषय में जिज्ञासा है कि वह पुद्गलों का आहरण कहां से करता है? पुद्गलों की अवस्थिति के तीन क्षेत्र हैं-१. स्वशरीर-क्षेत्र २.अनन्तर क्षेत्र-स्वशरीर- -क्षेत्र से अव्यवहित क्षेत्र ३.परम्पर क्षेत्र अनन्तर क्षेत्र से आगे का क्षेत्र। आहरण का नियम यह है कि जीव स्वशरीर-क्षेत्रावगाढ पुद्गलों का आहरण करता है, वह अनन्तर-क्षेत्रावगाढ़ और परम्पर-क्षेत्रावगाढ पुद्गलों का आहरण नहीं कर सकता। केवलिस्स नाण-पदं १८७. केवली णं भंते ! आयाणेहिं जाणइपासइ? गोयमा! नो इणढे समहे ।। केवलिनो ज्ञान-पदम् केवली के ज्ञान का पद केवली भदन्त ! किम् आदानै: जानाति- १८७. 'भन्ते ! क्या केवली इन्द्रियों से जानता-देखता पश्यति? गौतम ! नायमर्थ: समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १८८. से केणटेणं? तत्केनार्थेन? गोयमा ! केवली णं पुरत्थिमे णं मियं पि गौतम! केवली पौरस्त्येन मितमपि जानाति, जाणइ, अभियं पि जाणइ जाव निव्वुडे दंसणे अमितमपि जानाति यावत् निर्वतं दर्शनं केवलिस्स। से तेणटेणं ।। केवलिनः। तत्तेनार्थेन। १८८. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! केवली पूर्व दिशा में परिमित को भी जानता है, अपरिमित को भी जानता है, यावत् केवली का दर्शन निरावरण है इस अपेक्षा से। भाष्य १. सूत्र १८७, १८८ द्रष्टव्य भ. ५/१०८,१०९ का भाष्य। Jain Education Intemational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ.१०:सू.१८८-१८२ ३१८ भगवई संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा जीवाण य सुहं दुक्खं, जीवे जीवति तहेव भविया य। एगंतदुक्खं वेयण, अत्तमायाय केवली॥शा जीवानां च सुखं दु:खं, जीवो जीवति तथैव भव्याश्च। एकान्तदु:खां वेदनाम्, आत्मनादाय केवली॥१॥ संग्रहणी गाथा जीवों का सुख और दुःख, जीव और जीना, भवसिद्धिक, एकान्त दु:खमय वेदना, आत्मा से आहार ग्रहण का विषय और केवली का जानना-देखनादसवें उद्देशक में प्रतिपादित विषय ये हैं। १८९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। १८९. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं सयं सातवां शतक Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख भागवती का प्रत्येक शतक प्रकीर्ण ज्ञान का पुज है इसकी रचना प्रश्नोत्तर-प्रधान है। यह किसी एक विषय पर लिखा हुआ ग्रंथ नहीं है। प्रस्तुत शतक में तत्त्व-विद्या, लोक-विद्या, आचार- शास्त्र, कर्म-शास्त्र, अनेकांत आदि अनेक विद्या-शाखाओं के विषय में जिज्ञासा और समाधान उपलब्ध हैं। जिज्ञासा और समाधान के कुछ महत्त्वपूर्ण उल्लेख इस प्रकार हैं: गति का माध्यम है शरीर। मुक्त जीव अशरीर होकर मोक्ष जाता है। अशरीर की गति कैसे होती है ? और उसका हेतु क्या है? यह दार्शनिक जग बहुत बड़ी समस्या है। इसका समाधान प्रस्तुत शतक और तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उपलब्ध है। प्रस्तुत शतक में मुक्त जीव की गति के छह हेतु बतलाए गए हैं और उनकी स्पष्टता के लिए कुछ दृष्टान्तों का निर्देश किया गया है । तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में अशरीर की गति के चार हेतुओं का उल्लेख है और स्पष्टता के लिए चार दृष्टांत भी निर्दिष्ट हैं।' जैन दर्शन आत्मा को देह-परिमाण मानता है, इसलिए मुक्त जीव की गति की समस्या पर विचार करना उसके लिए अनिवार्य है। न्याय-वैशेषिक आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं इसलिए मुक्त जीव की गति पर विचार करना उसके लिए अनिवार्य है।" दार्शनिक जगत में नित्य और अनित्य की प्रतिपतियां भिन्न-भिन्न है। सांख्य दर्शन के अनुसार जीव कूटस्थ नित्य है बौद्ध दर्शन के अनुसार जीव अनित्य है भगवान् महावीर ने जीव का निरूपण अनेकांत दृष्टि से किया है। इन दोनों की स्वीकृति दो नयों के आधार पर की। द्रव्य अथवा अस्तित्व की दृष्टि से जीव शाश्वत है और परिणमन की दृष्टि से वह अशाश्वत है। इस प्रकार दो नय-दृष्टियों से नित्यवाद और अनित्यवाद का समन्वय कर दार्शनिक जगत् में समन्वय की परंपरा स्थापित की गई है। वेदान्त का सिद्धान्त है— सारा जगत् ब्रह्म का प्रपञ्च है। प्रत्यग् आत्मा विश्वक आत्मा का विस्तार है। जैन दर्शन ईश्वरवादी, ब्रह्मवादी अथवा एकात्मवादी नहीं है, इसलिए वह सब आत्माओं को किसी एक आत्मा का प्रपंच नहीं मानता, किंतु समन्वय का बिन्दु यह है - मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सब पर्याय हैं, विवर्त हैं, अस्तित्व नहीं हैं। ये सब प्रवाह की दृष्टि से शाश्वत हैं, व्यक्ति की दृष्टि से शाश्वत नहीं है। ' प्रस्तुत शतक में अवसर्पिणी के दुःषम दुःषमा काल के विषय में जो भविष्यवाणी है, वह पर्यावरणीय प्रदूषण से उत्पन्न समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट करती है। कुंदु बहुत छोटा जंतु हे और हाथी बहुत विशालकाय दोनों में जीव है सहज प्रश्न होता है कुंधु का जीव हाथी के समान है अथवा छोटा है। यह आकार की भिन्नता जीव के परिमाण की भिन्नता का प्रश्न उपस्थित करती है। जैन दर्शन का एक सिद्धांत है- प्रत्येक जीव के असंख्य प्रदेश होते हैं। दूसरा सिद्धांत-संसारी जीव देह-परिमाण है। तीसरा सिद्धांत-जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार होता है। कुछ दार्शनिक आत्मा को व्यापक (विभु) मानते हैं। कुछ दार्शनिक अणु अथवा अंगुष्ठप्रमाण वाला मानते हैं। आत्मा का देह-परिमाण होना दार्शनिक चर्चा का विषय रहा है। माध्वाचार्य ने जीव के देह-परिमागत्य की मीमांसा की है। मीमांसा के मुख्य तर्क दो हैं १. योगी एक साथ अनेक शरीर धारण करते हैं। इस अवस्था में देह - परिमाणत्व का सिद्धांत संगत नहीं है। २. मनुष्य के शरीर का परिमाण रखने वाला जीव पुनर्जन्म में हाथी के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता। हाथी के बड़े शरीर को छोड़ कर चींटी के शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता। यदि माध्वाचार्य के सामने वैक्रिय शरीर और समुद्घात" का सिद्धांत होता तो जीव के देह परिमाणत्व का खंडन प्रस्तुत तकों के आधार पर नहीं किया जाता। जीव के प्रदेशों में संकोच और विस्तार की शक्ति है, इसीलिए वह छोटे अथवा बड़े शरीर को अपने आत्म-प्रदेशों से सचित्त बना देता है । " वैशाली गणतंत्र के प्रमुख महाराज चेटक और कोणिक का युद्ध इतिहास का अछूता पहलू है। इस युद्ध के वर्णन का निष्कर्ष युद्ध को प्रोत्साहन देने वाली अवधारणा के विरोध में है। युद्ध में मरने वाला स्वर्ग में जाता है। इस अवधारणा के स्थान पर प्रस्तुत प्रकरण का वक्तव्य है- 'युद्ध स्वर्ग का हेतु नहीं है। १२ ईश्वरवादी चिन्तन की एक धारणा है मनुष्य के अच्छे या बुरे कर्म का फल ईश्वर देता है। जैन दर्शन ईश्वरवादी नहीं है। उसके सामने समस्या थी— यदि ईश्वर नहीं है तो कर्म का फल कैसे होगा? कोई भी मनुष्य बुरे कर्म का फल स्वयं भुगतना नहीं चाहता। इस प्रश्न का उत्तर है-स्वभाव। आंतरिक क्रिया स्वतः १. (क) त. सू. भा. वृ. १०/६ - पूर्वप्रयोगात् असंगत्वात् बंधच्छेदात् तथागतिपरिणामाच्च। (ख) त. रा. वा. - १०/ ६, ७ पूर्वप्रयोगात् असंगत्वात् बंधच्छेदात् तथागतिपरिणामाच्च। आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतले पालाबूवदेरण्डवीजवदग्निशिखावच्च । २. द्रष्टव्य भ. ७/१० का भाष्य । ३. भ. ७/५८-६०। ४. वही, ७/६३-६५। ५. वही, ७/११७-११। ६. ठाणं, ४/४६५ । 1७ जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. २४। ८. छान्दोग्य उपनिषद्, ५/१८/१ ६. सर्वदर्शनसंग्रह, १५८, १५६ तथा जीवस्य देहानुरूप परिमाणस्यांगीकारे योगबलादनेकदेहपरिग्राहकयोगिशरीरेषु प्रतिशरीरं जीवविच्छेदः प्रसज्येत। मनुजशरीरपरिमाणो जीवो मतङ्गजदेहं कृत्सनं प्रवेष्टुं न प्रभवेत्। किं च गजादिशरीरं परित्यज्य पिपीलिका- शरीरं विशतः प्राचीनशरीरसन्निवेशविनाशोपि प्राप्नुयात् । १०. भ. २/७४ का भाष्य । ११. वही, ७ १५८ - १५६ । १२ वही ७ / १८१ । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ७ : आमुख भगवई चालित होती है। नाडीतंत्र के दो भाग हैं इच्छा-चालित और स्वतःचालित कर्मभोग भी स्वतःचालित किया है। कालोदायी के प्रश्न पर भगवान् महावीर ने उदाहरण के द्वारा इस विषय को स्पष्ट किया। भगवान् ने कहा- कालोदायी ! कोई पुरुष अठारह व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन करता है। वह प्रारंभ में अच्छा लगता है किंतु जैसे-जैसे विष का परिणमन होता है वैसे-वैसे मारक बनता है। कालोदायी! हिंसा आदि जितने पाप कर्म हैं वे प्रारंभ में अच्छे लगते है-किंतु परिणमन में अनिष्ट फल में बदल जाते हैं। कोई पुरुष अठारह व्यंजनयुक्त औषधिमिश्रित भोजन करता है। वह प्रारंभ में अच्छा लगता है और परिणाम में भी अच्छा होता है। जैसे विषमिश्रित और औषिधिमिश्रित भोजन का फल स्वतः प्राप्त होता है, वैसे ही बुरे और अच्छे कर्म का फल स्वतः होता है। इसमें किसी बाहरी हस्तक्षेप की अपेक्षा नहीं होती।' इस प्रकार प्रस्तुत शतक में अनेक सिद्धांत प्रतिपादित हैं। उनसे तत्त्वविद्या के रहस्य अनावृत होते हैं। १. भ. ७/२२३-२२६ । ३२२ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं सयं : सातवां शतक पढमो उद्देसो : प्रथम उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संगहणी गाहा १. आहार २. विरति ३. थावर, ४. जीवा ५. पक्खी य ६.आउ७. अणगारे। ८. छउमत्थ ६. असंवुड, १०. अण्णउत्थि दस सत्तमंमि सए ॥१॥ संग्रहणी गाथा १. आहारो २. विरतिः ३. स्थावरः, ४. जीवाः ५. पक्षी च ६. आयुः ७.अनगारः। ८. छद्मस्थः ६. असंवृतः, १०. अन्ययूथिकः दश सप्तमे शते ॥ संग्रहणी गाथा सप्तम शतक के दस उद्देशक हैं-१. आहार-आहारक और अनाहारक की वक्तव्यता, २. विरतिप्रत्याख्यान की वक्तव्यता, ३. स्थावर-वनस्पति की वक्तव्यता, ४. जीव-संसारी जीवों की वक्तव्यता, ५.पक्षी-पक्षी की वक्तव्यता, ६.आयुष्य-आयुष्य की वक्तव्यता, ७. अनगार--अनगार की वक्तव्यता, ८. छद्मस्थ-छद्मस्थ मनुष्य की वक्तव्यता, ६.असंवृत-असंवृत अनगार की वक्तव्यता, १०. अन्ययूथिक-कालोदायी आदि अन्यतीर्थिकों की वक्त व्यता। अनाहारक-पद अणाहारग-पदं अनाहारक-पदम् १. तेणं कालेणं तेण समएणं जाव एवं वदासी- तस्मिन् काले तस्मिन् समये यावद् एवम- जीवे णं भंते! के समयमणाहारए भवइ? वादीत्—जीवः भदन्त! कं समयम् अनाहारकः भवति? गोयमा ! पढमे समए सिय आहारए सिय गौतम! प्रथमे समये स्याद् आहारकः स्याद् अणाहारए, बितिए समए सिय आहारए सिय अनाहारकः, द्वितीये समये स्याद् आहारकः अणाहारए, ततिए समए सिय आहारए सिय स्याद् अनाहारकः, तृतीय समये स्याद् आअणाहारए, चउत्थे समए नियमा आहारए। हारकः स्याद् अनाहारकः, चतुर्थे समये एवं दंडओ-जीवा य एंगिदिया य चउत्थे नियमाद् आहारकः। एवं दण्डकः-जीवाश्च समए, सेसा ततिए समए ॥ एकेन्द्रियाश्च चतुर्थे समये, शेषास्तृतीये समये। १. 'उस काल और उस समय गणधर गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार कहा-भन्ते! जीव किस समय अनाहारक होता है? गौतम! जीव प्रथम समय में स्यात् आहारक होता है, स्यात् अनाहारक, दूसरे समय में स्यात् आहारक होता है, स्यात् अनाहारक, तीसरे समय में स्यात् आहारक होता है, स्यात् अनाहारक, चौथे समय में नियमतः आहारक होता है। इस प्रकार चौबीस दण्डक वक्तव्य हैं। जीव और एकेन्द्रिय ये दोनों चौथे समय में नियमतः आहारक होते हैं, शेष सब तीसरे समय में नियमतः आहारक होते हैं। भाष्य १. सूत्र १ आहार के चार प्रकार हैं-ओज आहार, लोम आहार, प्रक्षेप आहार और मनोभक्ष्य आहार।' आहार का ग्रहण करने वाला आहारक और उसको १. द्रष्टव्य भ. १/२० का भाष्य । ग्रहण न करने वाला अनाहारक कहलाता है। ओज आहार का ग्रहण जन्म के प्रारम्भ में अन्तर्मुहूर्त तक किया जाता है। उसके पश्चात् लोम आहार का ग्रहण जीवन के अंतिम क्षण तक किया जाता है। प्रक्षेप आहार का ग्रहण भोजन-काल Jain Education Interational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.१ : सू.१ ३२४ भगवई योना। में किया जाता है। प्रत्येक शरीरधारी प्राणी सयोग-अवस्था में निरन्तर आहार गति में दो समय लगते हैं। (चित्र ३) उत्पत्ति-स्थान उभयतः वक्र श्रेणी में होता लेता है। आहार का ग्रहण भोजन-काल में किया जाता है। उसके बिना जीवन-क्रिया है तो अन्तरालगति में तीन समय लगते हैं। (चित्र ४) अन्तरालगति चार समय का संचालन नहीं होता। की भी होती है। (चित्र ५) अनाहारक होना आपवादिक अथवा विशेष स्थिति है। इसके दो १. जीव ऋजुगति से उत्पत्ति-स्थान तक जाता है तब वह परभवप्रसंग है-अन्तरालगति और केवली समुद्घात। जीव मृत्यु के पश्चात् भावी आयुष्य के प्रथम समय में आहारक होता है। विग्रहगति से उत्पत्ति के स्थान तक जन्मस्थल तक जाता है। दोनों के मध्यवर्ती गति का नाम अन्तरालगति है। जाने वाला जीव प्रथम समय में अनाहारक होता है। उक्त दोनों संदर्भो के प्रस्तुत सूत्र में आहारक और अनाहारक का प्रज्ञापन अन्तरालगति के संदर्भ में आधार पर यह सिद्धांत फलित होता है—प्रथम समय में स्यात् आहारक, किया गया है। अन्तरालगति दो प्रकार की होती है-ऋजु और वक्र। जो जीव स्यात् अनाहारक । ऋजु-आयत श्रेणी में उत्पन्न होता है, वह एक समय में उत्पत्ति-स्थान में चला २. कोई जीव दो समय और एक वक्र वाली विग्रह-गति से जाता है। (चित्र १, २) उत्पत्ति स्थान एकतः वक्रश्रेणी में होता है, तो अन्तराल उत्त्पत्ति-स्थान में जाता है, तब वह प्रथम समय में अनाहारक और द्वितीय समय में आहारक होता है। उत्पत्ति स्थान उत्पत्ति स्थान च्यवन स्थान च्यवन स्थान चित्र चित्र तृतीय वक. उत्पत्ति स्थान उत्पत्ति स्थान उत्पत्ति स्थान द्वितीय वक्र ATI T2 प्रथम वक्र प्रथम वक्र | T2 TI प्रथम वक्र द्वितीय वक्र च्यवन स्थान चित्र ३ चित्र ४ चित्र ५ १.त. सू. भा. व. २/३१-तत्रीजआहारोऽपर्याप्तकावस्थायां कार्मणशरीरेणाम्बुनिक्षिप्ततप्त- भाजनवत् पुद्गलादानं सर्वप्रदेशैर्यत् क्रियते जन्तुना प्रथमोत्पादकाले योनौ अपूपेनेव प्रथमकालप्रक्षिप्तेन घृतादेरिति, एष च आन्तर्मुहूर्तिकः। लोमाहारस्तु पर्याप्तकावस्थाप्रभृति यत् त्वचा पुद्गलोपादानमाभवक्षयाच्च सः। प्रक्षेपाहारः ओदनादिकवलपानाभ्यवहारलक्षणः । २. भ. ३४/२,३,। ३. वही, ३४/१४ । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३२५ श.७ : उ.१ : सू.१ दो वक्र और तीन समय वाली विग्रह गति से उत्पन्न होने वाला जीव दोनों परम्पराओं में भिन्न है-एक द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः (तत्त्वार्थराजवार्तिक प्रथम और द्वितीय समय में अनाहारक होता है तथा तृतीय समय में आहारक २/३०) होता है। अकलंक ने विग्रहगति के प्रथम, द्वितीय और तृतीय तीनों समयों को उक्त दोनों संदों के आधार पर यह सिद्धांत फलित होता है- अनाहारक बतलाया है। द्वितीय समय में स्यात् आहारक, स्यात् अनाहारक। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार सूत्रपाठ इस प्रकार है३. कोई जीव तीन समय और दो वक्र वाली गति से उत्पत्ति-स्थान एकं द्वौ वाऽनाहारकः (तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्सभाष्य टीका, २/३१) तक जाता है तब वह प्रथम और द्वितीय समय में अनाहारक होता है तथा तृतीय सिद्धसेनगणी ने इस सूत्र की व्याख्या में लिखा है-दो वक्र वाली समय में आहारक होता है। तीन समय की गति में मध्यवर्ती समय अनाहारक है तथा तीन विग्रह और चार तीन वक्र और चार समय वाली विग्रहगति से उत्पत्ति-स्थान तक समय वाली गति में मध्यवर्ती दो समय अनाहारक होते हैं।" जाने वाला जीव प्रथम समय में आहारक, द्वितीय और तृतीय समय में अनाहारक जयाचार्य ने अभयदेवसूरि के मत की समीक्षा की है तथा अनाहारक होता है। के दो समय के सिद्धान्त का समर्थन किया है।" उक्त दोनों संदों के आधार पर यह सिद्धान्त फलित होता है- ... पण्णवणा और जीवाजीवाभिगमे में अनाहारक के दो समयों का तृतीय समय में स्यात् आहारक, स्यात् अनाहारक। उल्लेख है। अभयदेवसूरि ने वक्रगति के प्रथम, द्वितीय और तृतीय-तीनों इन दोनों सूत्रों के टीकाकार मलयगिरि हैं। उनके अनुसार यह सूत्र समयों में जीव को अनाहारक बतलाया है।' मतान्तर के अनुसार पांच समय सापेक्ष है। बहुलतया दो समय या तीन समय की विग्रहगति होती है। वाली अन्तरालगति में अनाहारक रहने के चार समयों का उल्लेख है। इस अपेक्षा से अनाहारक अवस्था के दो समयों का उल्लेख किया गया है। अनाहारक विषयक तत्वार्थाधिगम का सूत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर उक्त चर्चा का निष्कर्ष जानने के लिए देखें यंत्रग्रन्थ नाम एक समय की गति । दो समय की गति तीन समय की गति चार समय की गति अनाहारक आहार | अनाहारक आहारक अनाहारक आहारक अनाहारक ____ आहारक १ भगवती वृत्ति आहारक प्रथम प्रथम, द्वितीय तृतीय प्रथम, द्वितीय,तृतीय | चतुर्थ २ भगवती जोड़ द्वितीय,तृतीय प्रथम, चतुर्थ ३ प्रज्ञापना तथा प्रज्ञापना वृत्ति ४ जीवाजीवाभिगम तथा जीवाजीवाभिगम वृत्ति ५ तत्वार्थभाष्य टीका प्रथम,द्वितीय द्वितीय प्रथम, तृतीय द्वितीय, तृतीय प्रथम,चतुर्थ ६ तत्त्वार्थराजवार्तिक | प्रथम द्वितीय प्रथम,द्वितीय तृतीय प्रथम,द्वितीय, तृतीय चतुर्थ द्वितीय १.भ. वृ.७/१--- (क) यदा तु विग्रहगत्या गच्छति तदा प्रथमसमये वक्रे ऽनाहारको भवति, उत्पत्तिस्थानानवाप्तो तदाहारणीयपुद्गलानामभावात्। (ख) यदेकेन वक्रेण द्वाभ्यां समयाभ्यामुत्पद्यते तदा प्रथमेऽनाहारको द्वितीया त्वाहारकः। (ग) यदा वकद्वयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदाऽऽद्ययोरनाहारकरततीये त्वाहारकः।। (घ) यदा तु वक्रत्रयेण चतुर्भिः समयैरुत्पद्यते तदाद्ये समयत्रयेऽनाहारकश्चतुर्थे तु नियमादाहारकः । २. वही, ७/१-- अन्ये त्वाः --वक्रचतुष्टयमपि संभवति, यदा हि विदिशो विदिश्येवोत्पद्यते तत्र समयत्रयं प्राग्वत्, चतुर्थे समये तु नाडीतो निर्गत्य समणि प्रतिपद्यते, पञ्चमेन तृत्पतित्तस्थानं प्राप्नोति, तत्र चाद्ये समयचतुष्टये चक्रचतुष्टयं स्यात, तत्र चानाहारक इति, इंद च सूत्रे न दर्शितम्। प्रायेणेत्थमनुत्पत्तेरिति। ३. त. रा. वा. २/३०-पाणिमुक्तायामेकविग्रहायां द्विसमयायां प्रथमे समयेऽनाहारकः। लाङ्गलिकायां द्विविग्रहायां त्रिसमयाया प्रथमद्वितीययोः समययोरनाहारकस्तृतीये आहारकः। गोमूत्रिकायां त्रिविग्रहायां चतुःसमयायां चतुर्थसमये आहारक इतरेष्वनाहारकः। ४.त. सू. भा. वृ.२/३१, (खं १) पृ. १८७-तत्र द्विविग्रहायामेक समय मध्यमं त्रिविग्रहायां द्वो समयावनाहरको मध्यमो भवति। ५. भ. जो. २/१११/१३-१७ त्रिण वक्र करि धार, च्यार समय करि उपजे। प्रथम चरम बे आर, समय मज्झिम वे आर नहि ॥ वृत्ति मझे इम वाय, अन्य आचार्य इम कहै। पंच समय उपजाय, सूत्रे कथन न इम कहयं ॥ अणाहारक नां जेड, समय जीन केई कहै।। पाठ मझे नहिं तेह, बुद्धिवंत न्याय विचारियै ॥ पन्नवण में तहतीक, अठारमा पद ने विषे। छद्मस्थ अणाहारीक, स्थिति कही बे समय नीं ॥ तिण सूं सूत्रे वाय, आखी तेहिज सत्य छै। विरूद्र बहु वृत्ति मांय, ते किण रीते मानिये॥ ६.(क) पण्ण, १८/६८/ (ख) जीवा. ६/४३। ७, (क) प्रज्ञा. वृ. प. ३१३-इह यद्यपि चतुःसामयिकी पञ्चसामयिकी च विग्रिहगतिभवति, आह च उजुया य एकवंका, दुहतो वंका गति विणिदिवा। जुज्जइ तिचउर्वकावि, नाम चउपंचसमयाओ ||१|| तथापि बाहुल्येन द्विसामयिकी त्रिसामयिकी वा प्रवर्तते न चतःसामयिकी पञ्चसामयिकी वा प्रवर्तते ततो न ते विवक्षिते, तत्रोत्कर्षतस्त्रिसामयिक्यां विग्रहगती ।। (ख) जीवा. वृ. प. ४४१-जघन्यत एक समयं जघन्याधिकाराद् द्विसामयिकी विग्रहगतिमपेक्ष्यैतदवसातव्यं, उत्कर्षतो द्वौ समया त्रिसामयिक्या एव विग्रहगते बर्बाहल्येणाश्रयणात. आह च चूर्णिकृत्-यद्यपि भगवत्यां चतुःसामयिकोऽनाहारक उक्तस्तथाप्यत्र नाङ्गीक्रियते, कदाचित्को ऽसौ भावो येन, बाहुल्यमेवाङ्गीक्रियते, बाहुल्याच्च समयद्वयमेवेति द्वावाधी समयावनाहारकः। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.१ : सू.१-३ ३२६ भगवई पण्णवणा और जीवाजीवाभिगमे में अनाहारक के दो समयों का उल्लेख है। इस आधार पर सिद्धसेनगणी और जयाचार्य ने चार समय की विग्रह गति में प्रथम समय को आहारक बतलाया। किंतु अभयदेवसूरि ने जो तर्क प्रस्तुत किया है, उसका समाधान सरल नहीं है। उनका तर्क है कि उत्पत्तिस्थान तक पहुँचे बिना अन्तरालगति में आहार-योग्य पुद्गलों का अभाव है, इसलिए विग्रह गति का पहला समय अनाहारक होगा। दो और तीन समय वाली गति में यदि प्रथम समय अनाहारक हो, तो चार समय की गति में प्रथम समय आहारक कैसे होगा? सिद्धसेनगणी ने विग्रहगति के सभी प्रकारों में प्रथम समय को आहारक माना है। यह एकरूपता की दृष्टि से तर्क-संगत है। किंतु प्रस्तुत सूत्र से इसकी संगति नहीं है। प्रस्तुत सूत्र के अनुसार प्रथम समय अनाहारक भी होता है। अभयदेवसूरि ने उत्पत्तिस्थान के पूर्ववर्ती सभी समयों को अनाहारक माना है। यह तार्किक दृष्टि से संगत है। दो समय और तीन समयों की अन्तरालगति में प्रथम समय को अनाहारक माना जाए तथा चार समय की अन्तरालगति में प्रथम समय को आहारक माना जाए-यह क्यों? इसके पीछे कोई तर्क नहीं है। केवल आगम का यह वचन है कि अन्तरालगति में जीव दो समय से अधिक अनाहारक नहीं रहता। मलयगिरि ने इस समस्या को सापेक्षता से सुलझाया है, इसलिए इस सापेक्ष दृष्टिकोण को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। सव्वप्पाहारग-पदं सर्वाल्पाहारक-पदम् सर्वअल्प आहार-पद २. जीवे णं भंते! कं समयं सवप्पाहारए भवति? जीवः भदन्त ! कं समयं सर्वाल्पाहारकः भवति? २. 'भन्ते ! जीव सबसे अल्प आहार किस समय करता गोयमा! पढमसमयोववन्नए वा चरिमसमय- गौतम! प्रथमसमयोपपन्नको वा चरमसमयभवत्थे वा, एत्थ णं जीवे सव्वप्पाहारए भवति! भवस्थो वा, अत्र जीवः सर्वाल्पाहारकः भवति! दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियाणं ॥ दण्डकः भणितव्यः यावद् वैमानिकानाम् । गौतम ! उत्पत्ति के प्रथम समय और जीवन के अन्तिम समय में जीव सबसे अल्प आहार करता है। वैमानिक तक सभी दण्डकों में यह वक्तव्यता । भाष्य १. सूत्र २ आत्म-प्रदेशों का संहरण हो जाता है, वे संकुचित होकर शरीर के अल्प अवयवों जन्म का पहला समय और चरम समय-इन दोनों समय में जीव पन में रह जाते हैं, इसलिए जीवन के अन्तिम क्षण में भी वह सबसे अल्प आहार करता है। मध्यवर्ती समय में वह अधिक आहार का ग्रहण करता है। सबसे अल्प आहार का ग्रहण करता है। प्रथम समय में स्थूल शरीर का निर्माण नहीं होता, इसलिए वह सबसे अल्प आहार करता है। जीवन के चरम समय में लोगसंठाण-पदं लोकसंस्थान-पदम् ३. किंसंठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते? किंसंस्थितः भदन्त! लोकः प्रज्ञप्तः? गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पण्णत्ते–हेट्ठा गौतम! सुप्रतिष्ठकसंस्थितः लोकः प्रज्ञप्तविच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले; अहे अधस्तात् विस्तीर्णः, मध्ये संक्षिप्तः, उपरि पलियंकसंठिए, मज्झे वरवइरविग्गिहिए, उपिं विशालः; अधः पर्यड्कसंस्थितः, मध्ये वरवज्रउद्धमुइंगाकारसंठिए। विग्रहिकः, उपरि ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थितः। लोक-संस्थान-पद ३. 'भन्ते ! लोक किस संस्थान से संस्थित है? गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक संस्थान से संस्थित है। वह निम्न भाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्न भाग में पर्यंक के आकार वाला, मध्य में श्रेष्ठ वज्र के आकार वाला और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। उस शाश्वत लोक के निम्न भाग में विस्तीर्ण यावत् ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में उत्पन्नज्ञानदर्शन का धारक अर्हत, जिन, केवली जीव को भी जानता है, देखता है, अजीव को भी जानता है, देखता है, उसके पश्चात् वह सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और . परिनिर्वृत होता है तथा सब दुःखों का अन्त करता है। तंसि चणं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि तस्मिन् च शाश्वते लोके अधस्तात् विस्तीर्णे जाव उपिं उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पण्ण- यावद् उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थिते, उत्पन्न-नाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे -ज्ञान-दर्शनधरः अर्हत् जिनः केवली जीवान् वि जाणइ-पासइ, अजीवे वि जाणइ-पासइ, अपि जानाति-पश्यति, अजीवान् अपि तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ जानाति-पश्यति, ततः पश्चात् सिद्ध्यति सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ॥ 'बुज्झइ' मुच्यते परिनिर्वाति सर्वदुखानाम् अन्तं करोति। भाष्य १. सूत्र ३ द्रष्टव्य भ.५/२५४,२५५ का भाष्य। Jain Education Intemational Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३२७ श.७ : उ.१ : सू.४-५ समणोवासगस्स किरिया-पदं श्रमणोपासकस्य क्रिया-पदम् श्रमणोपासक की क्रिया का पद ४. समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स श्रमणोपासकस्य भदन्त ! कृतसामायिकस्य ४.' भन्ते ! जो श्रमणोपासक सामायिक की साधना में है समणोवस्सए अच्छमाणस्स तस्स णं मंते ! श्रमणोपाश्रये आसीनस्यः तस्य भदन्त ! किम्। और श्रमणों के उपाश्रय में बैठा हुआ है, उसके क्या किं रियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते? साम्परायिकी क्रिया ऐर्यापथिकी क्रिया होती है अथवा साम्परायिकी क्रिया किरिया कज्जइ? क्रियते? होती है? गोयमा ! नो रियावहिया किरिया कज्जइ, गौतम ! नो ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, साम्प- गौतम! ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती, साम्परायिकी संपराइया किरिया कज्जइ ॥ रायिकी क्रिया क्रियते। क्रिया होती है। ५. से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-नो रिया- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-नो ऐर्या- वहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया पथिकी क्रिया क्रियते? साम्परायिकी क्रिया कज्जइ? क्रियते? गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाइयकडस्स गौतम! श्रमणोपासकस्य कृतसामायिकस्य समणोवस्सए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी श्रमणोपाश्रये आसीनस्य आत्मा अधिकरणी भवइ, आयाहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो भवति, आत्माधिकरणप्रत्ययं च तस्य नो रियावहिया किरिया कन्जइ, संपराइया ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते, साम्परायिकी क्रिया किरिया कज्जइ । से तेणटेणं ॥ क्रियते। तत् तेनार्थेन । ५. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-श्रमणो पासक के ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती, साम्परायिकी क्रिया होती है? गौतम ! जो श्रमणोपासक सामायिक की साधना में है और श्रमणों के उपाश्रय में बैठा हुआ है, उसकी आत्मा अधिकरणी होती है, आत्मा अधिकरण है, इस कारण उसके ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती, साम्परायिकी क्रिया होती है। यह इस अपेक्षा से कहा जाता है। भाष्य १. सूत्र ४,५ ऐर्यापथिकी क्रिया का विधान करने वाले तीन सूत्र है। 'संवृत' सूत्र का प्रतिपाद्य है कि समित, गुप्त और आयुक्त मुनि के ऐपिथिकी क्रिया होती है।' 'अनायुक्त' सूत्र का प्रतिपाद्य है कि वीतराग के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है और अवीतराग के साम्परायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र गति करने वाले के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है और उत्सूत्र गति करने वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है। भ० ६/१२५, १२६ के 'संवृत' सूत्र में पूर्ववर्ती दोनों सूत्रों का समन्वय मिलता है। ___अवीतराग मुनि के भी ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती, उस स्थिति में गृहस्थ में उसकी सम्भावना भी नहीं है। फिर यह प्रश्न क्यों ? सूत्रकार ने प्रश्न की पृष्ठभूमि का निर्देश किया है। उस पृष्ठभूमि में यह प्रश्न हो सकता है। एक मनुष्य श्रमणोपासक है, घर के वातावरण से दूर श्रमणों के उपाश्रय में बैठ कर सामायिक की साधना कर रहा है। स्थान, सन्निधि और साधना तीनों कषाय को शान्त किए हुए हैं, उस स्थिति में यह प्रश्न पूछना सम्भव है कि उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है अथवा साम्परायिकी क्रिया होती है ? भगवान महावीर ने इसका उत्तर अधिकरण के आधार पर दिया। यद्यपि वर्तमान में उसका कषाय शान्त है फिर भी वह अधिकरण से युक्त है। अधिकरण- युक्त आत्मा के साम्परायिकी क्रिया ही होती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती। अभयदेव सूरि ने अधिकरण का अर्थ हल, शकट आदि किया है। ये कषाय के आश्रयभूत होते हैं। श्रमणोपासक सामायिक में बैठा है, फिर भी उसका अधिकरण के साथ संबंध विच्छिन्न नहीं होता, इसलिए उसकी आत्मा अधिकरणी है। अधिकरणी के ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती। अधिकरणी की व्याख्या अविरति के आधार पर की जा सकती है। वह अधिक प्रासंगिक है। गौतम ने पूछा-भन्ते ! जीव अधिकरणी है अथवा अधिकरण है? भगवान ने उत्तर दिया-अविरति की अपेक्षा वह अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है। सामायिक के क्षण में भी श्रमणोपासक के अविरिति रहती है, इसलिए उसकी आत्मा अधिकरणी और अधिकरण दोनों है। अधिकरण की अवस्था में ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं हो सकती। जयाचार्य ने अधिकरण की विशद समीक्षा की है। प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्यार्थ यह है कि अध्यात्म के निर्णय बाह्य दशा के आधार पर नहीं होते। उसके निर्णय का आधार आन्तरिक स्पन्दन बनते हैं। श्रमणोपासक बाहर से पूर्ण शान्त हो कर बैठा है, किंतु उसके आन्तरिक अध्यवसायों में अव्रत और कषाय के स्पन्दन विद्यमान हैं। इसलिए अध्यात्म की भाषा में वह उपशान्तकषाय अथवा क्षीणकषाय नहीं है। जो उपशान्तकषाय अथवा क्षीणकषाय नहीं है, उसके ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती। १भ.३/१४८। २. वही, ७/२० । ३. भ. वृ.७/४-आत्मा--जीवः अधिकरणानि-हलशकटादीनि कषायाश्रयभूतानि यस्य सन्ति सोऽधिकरणी। ततश्च 'आयाहिकरणवत्तियं च णं, त्ति आत्मनोऽधिकरणानि आत्मा- धिकरणानि तान्येव प्रत्ययः-करणं यत्र क्रियाकरणे तदात्माधिकरणप्रत्ययं साम्परायिकी क्रिया क्रियत इति योगः। ४. भ. १६/६ । ५.भ. जो. २/१११/३६-६८। Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.१ : सू.६-८ ३२८ भगवई समणोवासगस्स अणाउट्टिहिंसा-पदं श्रमणोपासकस्य अनावृत्ति-हिंसा-पदम् श्रमणोपासक के अनावृत्ति हिंसा का पद ६. समणोवासगस्स णं मंते ! पुव्वामेव तसपाण- श्रमणोपासकस्य भदन्त ! पूर्वमेव त्रसप्राण- ६.'भन्ते ! श्रमणोपासक के पहले ही त्रस-प्राण का समारम्भ समारंभे पच्चक्खाए भवइ, पुढविसमारंभे समारम्भः प्रत्याख्यातः भवति। पृथ्वीसमारम्भः (हिंसा) का प्रत्याख्यान किया हुआ है, पृथ्वीकायिक अपच्चक्खाए भवइ। से य पुढविं खणमाणे अप्रत्याख्यातः भवति, स च पृथिवीं खनन् जीव के समारम्भ का प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं हैं। अण्णयरं तसं पाणं विहिंसेज्जा, से णं भंते! __ अन्यतरं त्रसं प्राणं विहिंस्याद्, स भदन्त ! वह पृथ्वीकाय का खनन करता हुआ किसी त्रस प्राणी तं वयं अतिचरति? तद् व्रतं अतिचरति? की हिंसा करे, भन्ते ! क्या ऐसा करता हुआ वह उस व्रत का अतिचरण करता है? नो इणढे समढे, नो खलु से तस्स अतिवायाए नायमर्थः समर्थः, नो खलु स तस्य अतिपाताय यह अर्थ संगत नहीं है, क्योंकि वह उस त्रस प्राणी के आउट्टति॥ आवर्त्तते। वध के संकल्प से प्रवृत्ति नहीं करता। ७. समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव वणप्फइ- श्रमणोपासकस्य भदन्त ! पूर्वमेव वनस्पति- ७.भन्ते ! श्रमणोपासक के पहले ही वनस्पति-जीवों के समारंभे पच्चक्खाए। से य पुढविं खणमाणे समारम्भः प्रत्याख्यातः। स च पृथिवीं खनन् समारम्भ का प्रत्याख्यान किया हुआ है। वह पृथ्वी का अण्णयरस्स रुक्खस्स मूलं छिंदेज्जा, से णं अन्यतरस्य रुक्षस्य मूलं छिन्द्यात् स भदन्त ! खनन करता हुआ किसी वृक्ष की जड़ का काट दे, भंते ! तं वयं अतिचरति? तद्वतं अतिचरति? भन्ते ! क्या ऐसा करता हुआ वह उस व्रत का अतिचरण करता है? नो इणढे समढे, नो खलु से तस्स अतिवायाए नायमर्थः समर्थः, नो खलु स तस्य अतिपाताय यह अर्थ संगत नहीं है। क्योंकि वह वनस्पति जीव के आउट्टति ॥ आवर्तते। वध के संकल्प से प्रवृत्ति नहीं करता। भाष्य १. सूत्र ६,७ अतिक्रमण हुआ? इसके उत्तर में कहा गया-उसके व्रत का अतिक्रमण नहीं हिंसा के अनेक विकल्प होते हैं। उनमें प्रथम दो विकल्प मुख्य हैं हुआ। वह संकल्प-हिंसा से निवृत्त हुआ था। मिट्टी खोदते समय किसी वृक्ष की १. आभोग-जनित हिंसा-संकल्प पूर्वक की जाने वाली हिंसा । जड़ कट गई, वह अनाभोग जनित हिंसा है। संकल्प पूर्वक की गई हिंसा नहीं है, २. अनाभोग-जनित हिंसा-अनजान में होने वाली हिंसा। इसलिए उसके व्रत का अतिक्रमण नहीं है। जिज्ञासा की पृष्ठभूमि यह है-एक श्रावक ने संकल्पपूर्वक त्रस अनाभोग-जनित वध भी हिंसा है। अनजान में त्रस जीव का वध जीव के वध का प्रत्याख्यान किया। वह खदान में मिट्टी खोद रहा था। मिट्टी हुआ या वृक्ष कट गया-यह हिंसा ही है। किंतु इस हिंसा से व्रत का अतिक्रमण खोदते समय कोई त्रस जीव मर गया। इस घटना-प्रसंग को लेकर प्रश्न पूछा इसलिए नहीं हुआ कि यह संकल्प पूर्वक की हुई हिंसा नहीं है। गया-क्या उसके व्रत का अतिक्रमण नहीं हुआ? इसके उत्तर में कहा गयाउसके व्रत का अतिक्रमण नहीं हुआ। वह संकल्प-वध से निवृत हुआ था। मिट्टी . शब्द-विमर्श खोदते समय कोई त्रस जीव मर गया, वह अनाभोग जनित वध है, संकल्प समारंभ-हिंसा । द्रष्टव्य भ.३/१४५ का भाष्य पूर्वक किया हुआ वध नहीं है, इसलिए उसके व्रत का अतिक्रमण नहीं है। अतिचरण-अतिक्रमण इसी प्रकार एक श्रावक ने संकल्प पूर्वक वृक्ष काटने का प्रत्याख्यान अतिपात-वध किया। वह खदान में मिट्टी खोद रहा था। मिट्टी खोदते समय किसी वृक्ष की जड़ आउट्टति-संकल्पपूर्वक प्रवृत्ति करना कट गई । इस घटना-प्रसंग को लेकर प्रश्न पूछा गया क्या उसके व्रत का समणपडिलाभेण लाभ-पदं श्रमण-प्रतिलाभेन लाभ-पदम् ८. समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा श्रमणोपासकः भदन्त ! तथारूपं श्रमणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण- माहनं वा प्रासु-एषणीयेन अशन-पान-खाद्य- -खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणे किं लब्भइ? -स्वाद्येन प्रतिलाभयन् किं लभते ? गोयमा ! समणोवासए णं वहारूवं समणं वा गौतम ! श्रमणोपासकः तथारूपं श्रमणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण- माहनं वा प्राशुकैषणीयेन अशन-पान-खाद्य-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणे तहारुवस्स -स्वायेन प्रतिलाभयन् तथारूपस्य श्रमणस्य समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति, वा माहनस्य वा समाधिम् उत्पादयति, समाधिसमाहिकारए णं तामेव समाहिं पडिलभइ॥ कारकः तामेव समाधिं प्रतिलभते। श्रमण-प्रतिलाभ से लाभ-पद ८. 'भन्ते ! श्रमणोपासक तथारूप श्रमण अथवा माहन को अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से प्रतिलाभित करता हुआ क्या प्राप्त करता है ? गोतम ! श्रमणोपासक तथारूप श्रमण अथवा माहन को अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाध से प्रतिलाभित करता हुआ तथारूप श्रमण अथवा माहन के समाधि उत्पन्न करता है। समाधि देने वाला व्यक्ति उसी समाधि को प्राप्त करता है। Jain Education Intemational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६. समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण- पाण-खाइम साइमेणं पडिला भेमाणे किं चयति ? गोयमा जीवियं चयति दुच्चयं चयति, दुक्करं करेति, दुल्लह लहइ, बोहिं बुज्झइ, तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति ॥ अकम्मस्स गति-पदं १०. अत्थि णं भंते! अकम्मस्स गती पण्णायति ? हंता अत्थि ॥ १. सूत्र ८, ६ प्रस्तुत आलापक में संयमी दान का प्रसंग है। दाता श्रमणोपासक है। देय वस्तु शुद्ध और एषणीय है लेने वाला श्रमण है। इस विशुद्ध दान के विषय में जिज्ञासा है उसका उत्तर है-श्रमणोपासक अपने विशुद्ध दान के द्वारा श्रमण के मन में समाधि उत्पन्न कर रहा है। समाधि देने का प्रतिफल है कि उसे भी वैसी ही समाधि प्राप्त होती है। 'समाधि' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं।' प्रस्तुत प्रकरण में उसके ये अर्थ घटित हो सकते हैं मन की स्वस्थता, शांति, सहारा । प्रस्तुत प्रकरण में चयइ धातु का प्रयोग है। वृत्तिकार ने उसके दो ११. कहण्णं भंते! अकम्मस्स गती पण्णायति ? गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गतिपरिणामेणं, बंधणछेदणयाए, निरिंधणयाए, पुव्यप्पओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ॥ १२. कण्णं भंते निस्संगवाए निरंगणयाए, गतिपरिणामेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ? से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तुंबं निच्छिड्डं निरुवहयं आणुपुब्बीए परिकम्मेमाणे- परि कम्मेमागे दमेहिं व कुसेहि य वेढे वेढेता अट्ठहिं मट्टियालेवेहिं लिंपइ, लिंपित्ता उन्हे दलपति मूर्ति मूर्ति सुक्कं समाणं अत्या हमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा, से नू गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियावाणं गुरुयत्ताए भारित्ताए गुरुसंभारियत्ताए सलिलतलमतिवइत्ता अहे धरणितलपइट्ठाणे भवइ ? ३२६ श्रमणोपासकः भदन्त ! तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा प्रासु एषणीयेन अशन-पान-खाद्यस्वाद्येन प्रतिलाभयन् किं त्यजति ? गौतम जीवितं स्वजति दुस्त्यजं त्यजति, दुष्करं करोति, दुर्लभं लभते चोथिं बुध्यते, ततः पश्चात् सिद्ध्यति यावद् अन्तं करोति । भाष्य अर्थ किए हैं—देना और विरहित करना । 'त्याग' शब्द के दोनों अर्थ होते हैं—त्यागना और देना आहार जीवन का हेतु है; इसलिए जो आहार देता है, वह जीवन देता है - ऐसा कहा जा सकता है। इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि अन्न आदि पदार्थ जीवन की भांति प्रिय होते है। उन्हें देना ऐसा लगता है मानो अपना जीवन दे रहा है। इसलिए इसे दुस्यन और दुष्कर का गया। शब्द-विमर्श १. आप्टे समाधि - collecting, profound or abstract meditation, intentness, penance, obligation, etc. २. भ. वृ. ७/६ - किं चयइ' त्ति किं ददातीत्यर्थः 'जीवियं चयइ' त्ति जीवितमिव ददाति, अकर्मणः गति-पदम् अस्ति भदन्त अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । हन्त अस्ति । फासु - प्रासु । भ० १/४३८ का भाष्य द्रष्टव्य है। अकर्म की गति का पद १०. ' भन्तो! क्या अकर्म के गति होती है? हाँ, होती है। कथं भदन्त ! अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते ? गौतम ! निःसङ्गतया निरञ्जनतया गतिपरिणामेन बन्धनछेदनतया निरिन्धनतया, पूर्वप्रयोगेण अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । कथं भदन्त निःसङ्गतया, निरञ्जनतया गतिपरिणामेन अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते ? तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः शुष्कं तुम्बं निशिछद्रं निरुपहतम् आनुपूर्व्या परिकर्मयन्परिकर्मयन् दर्भश्च कुशैश्च वेष्टयति वेष्ट यित्वा अष्टभिः मृत्तिकालेपैः लिम्पति, लिम्पित्वा उष्णे ददाति भूर्ति-भूर्ति शुष्कः सन् अस्ताधमतारम् अपौरुषिके उदके प्रक्षिपेत, सः नूनं गौतम ! सः तुम्बः तेषाम् अष्टानां मृत्तिकालेपानां गुरुकतया भारिकतया गुरुसम्भारिकतया सलिलतलमतिपत्य अधः धरणितलप्रतिष्ठानः भवति ? श. ७: उ.१: सू. ६-१२ ६. भन्ते ! श्रमणोपासक तथारूप श्रमण अथवा माहन को अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाय से प्रतिताभित करता हुआ क्या देता है ? गौतम ! वह जीवन देता है, दुस्त्यज को त्यागता है, दुष्कर करता है, दुर्लभ को पाता है, बोधि का अनुभव करता है, उसके पश्चात् सिद्ध हो जाता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। ११. भन्ते ! अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम निस्संगता, निरञ्जनता, गति-परिणाम, ! वन्धन छेदन, निरिन्धन्ता और पूर्व प्रयोग-इन कारणों से अकर्म के गति होती है। १२. भन्ते! निरसंगता, निरज्जनता और गति परिणामइन कारणों से अकर्म के गति कैसे होती है ? जैसे कोई पुरुष सूखे, निश्छिद्र और निरुपहत तुम्बे का पहले परिकर्म करता है, फिर दर्भ और कुश से उसका वेष्टन करता है, वेष्टित कर आठ मिट्टी के लेपों से लीपता है, लीपकर धूप में रख देता है, प्रभूत शुष्क होने पर उसे अवाह, अत्तरणीय, पुरुष से अधिक परिमाण वाले जल में प्रक्षिप्त कर देता है। गौतम ! क्या वह तुम्बा उन आठ मिट्टी के लेपों की गुरुता से, भारीपन से, अत्यन्त भारीपन से जल के तल तक पहुँचकर नीचे धरातल पर प्रतिष्ठित होता है? अन्नादि द्रव्यं यच्छन् जीवितस्यैव त्यागं करोतीत्यर्थः जीवितस्येवान्नादिद्रव्यस्य दुस्त्यजत्वात्, एतदेवाह - 'दुच्चयं चयइ 'त्ति दुस्त्यजमेतत्, त्यागस्य दुष्करत्वात्, एतदेवाह - दुष्करं करोतीति, अथवा किं त्यजति किं विरहयति ? उच्यते, जीवितमिव जीवितं कर्म्मणो दीर्घा स्थितिं । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.१ : सू. १०-१५ हंता भवइ । अहे णं से तुबे तेसिं अट्टन्हं महियालेवाणं परिक्खणं धरणितलमतिवइत्ता उप्पिं सलिलतलपट्टाणे भवइ ? हंता भवइ । एवं खलु गोयमा निस्संगवाए निरंगणयाए गतिपरिणामेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ॥ १३. कहणं भंते! बंधणदणयाए अकम्पस्स गती पण्णायति ? गोयमा से जहानामए कलसिंबलिया वा मुग्गसिंबलिया इ वा माससिंवलिया इ वा सिंबलिसिंगलिया इवा, एरंडमिंजिया इवा उन्हें दिन्ना सुक्का सगाणी फुडित्ता नं एगत तं गच्छइ । एवं खलु गोयमा ! बंधणछेदणयाए अकम्मस्स गती पण्णायति ॥ गोयमा से जहानामए धूमस्स इंधनविण्य मुक्कस्स उड्ढं वीससाए निव्वाघाएणं गती पवत्तत्ति । एवं खलु गोयमा निरिंधणयाए अकम्मस्स गती पण्णायति ॥ १४. कण्णं भंते! निरिंधणयाए अकम्मस्स गती कवं भदन्त निरिन्धनतया अकर्मणः गतिः पण्णायति ? प्रज्ञायते ? गोयमा ! से जहानामए कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खामिमुही निव्वाघाएणं गती पवत्त एवं खलु गोयमा ! पुव्वप्यओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति । एवं खलु गोयमा निस्संगयाए, निरंगगयाए गतिपरिणामेणं, बंधणछेदणयाए, निरिंधण याए, पुब्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पण्णायति ॥ हन्त भवति । अधः सः तुम्बः तेषाम् अष्टानां मृत्तिकालेपानां परिक्षयेण धरणितलमतिपत्य उपरि सलिलतलप्रतिष्ठानः भवति ? हन्त भवति । एवं खलु गौतम! नितया निरङ्गतया गतिपरिणामेन अकर्मणः गतिः प्रजायते । १. भ. ७/१५६ । कथं भवन्त ! बन्धनछेदनतया अकर्मणः गति प्रज्ञायते ? गीतम। तद् यथानाम कलशिम्बलिका इति वा, मुद्गशिम्बलिका इति था, माषशिम्बलिका इति वा, शिम्बलिशिम्बलिका इति वा, एरण्डमिज्जिका इति था, उगे दत्ता, शुष्क सती स्फुटित्वा एकान्तमन्तं गच्छति । एवं खलु गौतम! बन्धनछेदनतया अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । ३३० ! । १५. कहण्णं भंते ! पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स कथं भदन्त ! पूर्व प्रयोगेण अकर्मणः गतिः गती पण्णायति ? प्रज्ञायते ? गौतम ! तद् यथानाम धूमस्य इन्धनविप्रमुक्तस्य ऊर्ध्वं विस्रसातः निर्व्याघातेन गतिः प्रवर्तते एवं खलु गौतम! निरिन्धनत्तया अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । गौतम ! तद् यथानाम काण्डस्य कोदण्डविप्रमुक्तस्व लक्ष्याभिमुखी निर्व्यापातेन गतिः प्रवर्तते। एवं खलु गीतम। पूर्वप्रयोगेण अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । १. सूत्र १०-१५ सांख्य दर्शन में आत्मा को सर्वव्यापी माना गया है। नैयायिक और वैशेषिक भी आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं। नैयायिक दर्शन के अनुसार आत्मा अणु परिमाण और मध्यम परिमाण वाला नहीं है। वह आकाश की तरह विभु है वेदान्त के अनुसार पारमार्थिक सत्ता एक ब्रह्म है और वह व्यापक है। एवं खलु गौत्तम निस्सङ्गतया निरणतया, गतिपरिणामेन, बंधनछेदनतया, निरिन्धनतया पूर्वप्रयोगेण अकर्मणः गतिः प्रज्ञायते । भाष्य भगवई हाँ होता है। क्या वह तुम्बा मिट्टी के आठों लेपों के उतर जाने पर धरातल से ऊपर उठकर सलिल-तल पर प्रतिष्ठित होता है ? हाँ, होता है। गौतम ! इसी प्रकार निस्संगता, निरञ्जनता और गति - परिणाम- इन कारणों से अकर्म के गति होती है। १३. भन्ते ! बन्धन का छेद होने से अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम! जैसे कोई गोल चने की फली, मूंग की फली, उड़द की फली, शाल्मली की फली और एरण्ड फल धूप लगने पर सूख जाता है और उसके बीज प्रस्फुटित हो ऊपर की ओर उछल जाते हैं, गौतम! इसी प्रकार बन्धन का छेदन होने पर अकर्म के गति होती है। १४. भन्ते ! निरिन्धन होने के कारण अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम! जैसे इंधन से मुक्त धुएं की गति स्वभाव से ही किसी व्याघात के बिना ऊपर की ओर होती है। गोतम ! इसी प्रकार निरिन्धन होने के कारण अकर्म के गति होती है। १५. भन्ते ! पूर्व प्रयोग से अकर्म के गति कैसे होती है ? गीतम! जैसे कोई धनुष से छूटे हुए बाग की किसी व्याघात के बिना लक्ष्य की ओर गति होती है। गौतम! इस प्रकार पूर्व प्रयोग से अकर्म के गति होती है। गौतम ! इसी प्रकार निस्संगता, निरञ्जनता, गतिपरिणाम, बन्धन-छेदन, निरिन्धनता और पूर्व प्रयोग -इन कारणों से अकर्म के गति होती है। इसलिए इन दर्शनों में मुक्त आत्मा की गति के विषय में चिन्तन करने के लिए कोई अवकाश नहीं है। बौद्ध दर्शन में आत्मा अव्याकृत है। इसलिए वहाँ मुक्त आत्मा की गति का कोई प्रश्न ही नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा शरीरव्यापी है।' मोक्ष लोक के अन्त भाग में है। आत्मा मनुष्यलोक में -लोक में मुक्त होती है और मुक्त होने के पश्चात् लोक के अन्त अथवा अग्र भाग तक जाकर Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३१ श.७ : उ.१ : सू.१०-१६ सिद्ध होती है। इस स्थिति में जैन दर्शन के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ ४. पूर्व प्रयोग-आत्मा की गति काययोग द्वारा होती है। मुक्त होने गति का प्रेरक है शरीर। शरीर से मुक्त होने के पश्चात् आत्मा की गति कैसे हो के पूर्व चतुर्दश गुणस्थान में अयोग अवस्था आ जाती है, काययोग समाप्त हो सकती है? इस प्रश्न के समाधान में सूत्रकार ने चार हेतु प्रस्तुत किये हैं---१. जाता है। फिर भी उसकी प्रेरणा रहती है। उससे मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति निस्संगता, निरंजनता, गति-परिणाम, २. बन्धन-छेदन, ३. निरिन्धनता, ४. होती है। पूर्व प्रयोग के लिए सूत्रकार ने धनुष से मुक्त बाण का दृष्टान्त दिया है। पूर्व प्रयोग। तत्त्वार्थभाष्य तथा तत्त्वार्थराजवार्तिक में कुलालचक्र का दृष्टान्त दिया गया १.निस्संगता-निस्संगता, निरंजनता और गति-परिणाम को तुम्बे है। जैसे पुरुष के प्रयत्न से कुलालचक्र चालित हो गया। पुरुष का प्रयत्न बंद के दृष्टांत द्वारा समझाया गया है। सूखा तुम्बा मिट्टी के संग से नीचे जल के तल हो जाने पर भी वह पूर्व प्रयोग कुछ समय तक घूमता रहता है, वैसे ही पूर्व प्रयोग में चला जाता है। संगमुक्त होने पर वह जल के ऊपर आ जाता है। इसी प्रकार से मुक्त आत्मा की गति होती है। कर्म के संग से मुक्त होने पर जीव लोक के अग्रभाग तक चला जाता है। उमारवाति ने मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति के चार हेतुओं का उल्लेख शब्द-विमर्श किया है। उनमें चौथा हेतु 'तथागतिपरिणाम' है। भाष्यकार ने एक सार्वभौम अकर्म-कर्ममुक्त नियम का निर्देश किया है-गतिमान् द्रव्य दो हैं-पुद्गल और जीव। पुद्गल निस्संगता-असंग, निर्लेप की स्वाभाविक गति नीचे की ओर होती है। आत्मा की स्वाभाविक गति ऊपर निरञ्जन-मल-रहित, राग-रहित अथवा रंग-रहित" 'संखे इव की ओर होती है। कर्म-युक्त आत्मा नीची, तिरछी अथवा ऊँची गति करती हैं। निरंगणे'-इस उपमा का मुनि के लिए अनेक आगमों में प्रयोग हुआ है। कर्ममुक्त आत्मा की केवल ऊर्ध्वगति होती है। इसलिए गति-परिणाम यह मुक्त आगमों में निरङ्गण और निरञ्जन दोनों पदों का प्रयोग मिलता है। मूल शब्द आत्मा की ऊर्ध्वगति का मुख्य हेतु है। 'निरंजण' है। जकार को गकार का वर्णादेश करने पर 'निरङ्गण' रूप बनता है। २. बन्धन-छेदन-कर्म के कारण से आत्मा की नीची, तिरछी या परिकर्म-संस्कार ऊर्ध्व गति होती है। बंधन के टूटने पर उसकी गति ऊपर की ओर हो जाती है। प्रभूत (भूतिं भूति)-बहुत अधिक। वृत्तिकार ने इसका अर्थ सूत्रकार ने इसके लिए फली और एरण्ड फल के दृष्टान्त का प्रयोग किया है। ___ 'भूयो भूयः'-बार-बार किया है। तत्त्वार्थ भाष्य में 'पेटा' (पेटी) का दृष्टान्त भी प्रयुक्त है। पुरुष से अधिक प्रमाण वाला (अपोरिसिय) पुरुष-ऊचाई या . ३. निरिन्धनता-निरिन्धनता के लिए धूम का दृष्टान्त प्रस्तुत है। गहराई का एक प्राचीन माप जो पुरुष या १२० अंगुल के बराबर होता था। तत्त्वार्थसूत्र में निरिन्धनता का उल्लेख नहीं है। इसकी तुलना 'तथागतिपरिणाम' । एरण्ड-फल (एरंडमिंजिया)-मिंजा का अर्थ है-हाड के बीच का से की जा सकती है। सर्वार्थसिद्धि तथा तत्त्वार्थराजवार्तिक में 'तथागति अवयव विशेष। मिंजिया का अर्थ है-मध्यवर्ती अवयव। इस आधार पर परिणाम' के लिए अग्निशिखा का दृष्टान्त दिया गया है। जैसे प्रदीपशिखा एरंडमिंजिया का अर्थ एरण्ड फल किया गया है। एरंड का फल पकने पर धूप स्वभाव से ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही मुक्त आत्मा भी स्वभाव से ऊपर की की गर्मी से फट जाता है और बीज ऊपर की ओर उछल जाते हैं।" ओर जाती है। प्रस्तुत आगम में धूम का दृष्टान्त है। इन्धन-रहित-निरिन्धन । दुक्खिस्स दुक्खफासादि-पदं दुःखिनः दुःखस्पर्शादि-पदम् दुःखी के दुःखस्पर्श आदि का पद १६. दुक्खी भंते! दुक्खेणं फुडे? अदुक्खी दुक्खेणं दुःखी भदन्त! दुःखेन स्पृष्टः? अदुःखी दुःखेन १६.' भन्ते ! दुःखी व्यक्ति दुःख से स्पृष्ट होता है ? स्पृष्टः? अथवा अदुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है? गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी गौतम ! दुःखी दुःखेन स्पृष्टः, नो अदुःखी गौतम ! दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी दुःख दुक्खेणं फुडे ॥ दुःखेन स्पृष्टः। से स्पृष्ट नहीं होता। १. उत्तर.३६/५६ अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्ठिया। इहं बोदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई ॥ २.त. सू-१०/६ पूर्व प्रयोगाद्, असंगत्वाद, बन्धच्छेदात् तथा गतिपरिणामाच्च तद्गतिः॥ ३. त. सू. भा. वृ. १०/६-पुद्गलानां जीवानां च गतिमत्त्वमुक्तं, नान्येषां द्रव्याणाम् । तत्राधो गौरवधर्माणः पुद्गलाः ऊर्ध्व गौरवधर्माणो जीवाः । एष स्वभावः। ४. वही, १०/६–बन्धच्छेदात्। यथा रज्जुबन्धच्छेदात् पेडाया बीजकोशबन्धनच्छेदाच्चैरण्ड बीजादीनां गतिर्दृष्टा तथा कर्मबन्धनच्छेदात् सिध्यमानगतिः। ५. स. सि. १०/६, ७, त. रा. बा. १०/६, ७–पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागति- परिणामाच्च॥६॥ आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाबूवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ॥७॥ ६.(क) त. भा. १०/६। (ख) त. रा. वा. १०/७। ७.स्था. वृ. प. ४४०-'संखे इव निरङ्गणे ' रङ्गणं-रागाद्युपरञ्जनं तस्मान्निर्गत इत्यर्थः । ८. नाया. १/५/३५-संखो इव निरङ्गणे। पण्हा. १०/११-संखेविव निरंगणे। ओवा. २७, राय. /३-संखे इव निरंगणे। दसाओ /७५-संखो इव निरंजणे। जंबु. २/६८-संखमिव निरंजणे। सूय. २/२/६४-संखो इव निरंजणा। ६. भ. वृ.७/१२–'भूई भूइन्ति भूयो भूयः । १०.पा. स. म.-मिंज, मिजिया, एरंडमिजिया। ११ जै. आ. व. को-एरंड। Jain Education Intemational Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.१ : सू.१६-२१ ३३२ भगवई १७. दुक्खी भंते ! नेरइए दुक्खेणं फुडे ? अदुक्खी दुःखी भदन्त ! नैरयिकः दुःखेन स्पृष्टः? १७. भन्ते ! दुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है ? नेरइए दुक्खेणं फुडे ? अदुःखी नैरयिकः दुःखेन स्पृष्टः? अथवा अदुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है ? गोयमा ! दुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे, नो। गौतम ! दुःखी नैरयिकः दुःखेन स्पृष्टः, नो गौतम ! दुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी अदुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे ॥ अदुःखी नैरयिकः दुःखेन स्पृष्टः। नैरयिक दुःख से स्पृष्ट नहीं होता । १८. एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं ॥ एवं दण्डकः यावद् वैमानिकानाम्। १८. वैमानिक तक सभी दण्डक इसी प्रकार वक्तव्य हैं। १६. एवं पंच दंडगा नेयव्वा-१. दुक्खी दुक्खेणं एवं पञ्च दण्डकाः नेतव्याः-१. दुःखी दुःखेन १E. इस प्रकार पांच दण्डक ज्ञातव्य हैं-१. दुःखी दुःख फुडे २. दुक्खी दुक्खं परियायइ ३. दुक्खी स्पृष्टः २. दुःखी दुःखं पर्याददाति ३. दुःखीसे स्पृष्ट होता है, २. दुःखी दुःख का ग्रहण करता है, दुक्खं उदीरेइ ४. दुक्खी दुक्खं वेदेति ५. दुःखम् उदीरयति ४. दुःखी दुःखं वेदयति ५. ३. दुःखी दुःख की उदीरणा करता है, ४. दुःखी दुःख दुक्खी दुक्खं निज्जरेति ॥ दुःखी दुःखं निर्जरयति। का वेदन करता है, ५. दुःखी दुःख की निर्जरा करता भाष्य १. सूत्र १६-१६ कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों हैं और इसलिए है कि वह अपने सहज शुद्ध रूप सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा कूटस्थ नित्य है। उसमें कोई परिणमन को उपलब्ध नहीं है। वह कर्म का बन्ध करती है और उसका फल भोगती है। अथवा परिवर्तन नहीं होता। सांख्यकारिका में उसके अकर्तृत्व का सिद्धान्त इस आधार पर इस सिद्धान्त की स्थापना की गई-दुःखी ही दुःख से स्पृष्ट स्वीकार कर उसके भोक्तृत्व का प्रतिपादन किया गया है।' सहज ही प्रश्न होता होता है। है ---जो कूटस्थ नित्य है, अकर्ता है वह सुख-दुःख का भोक्ता कैसे हो सकता दुःख के दो अर्थ हैं-१. पापकर्म २. अप्रिय संवेदन। अभयदेवसरि है? इस दार्शनिक पृष्ठभूमि में ही गौतम ने प्रश्न पूछा- भन्ते ! क्या दुःखी दुःख के अनुसार कर्म दुःख का निमित्त बनता है, इसलिए कर्म दुःख कहलाता है से स्पृष्ट होता है अथवा अदुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है ? और कर्मयुक्त जीव दुःखी कहलाता है। भगवान ने इसके उत्तर में कहा--दुःखी ही दुःख से स्पृष्ट होता है। १. दुःखी दुःख का पर्यादान करता है। इस उत्तर का आधार परिणामिनित्यत्ववाद है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा २. दुःखी दुःख की उदीरणा करता है। परिणामिनित्य है। आत्मा सदा ही आत्मा रहेगी-इस दृष्टि से वह नित्य है। ३. दुःखी दुःख का वेदन करता है। उसके पर्याय परिवर्तन होता रहता है-इस दृष्टि से वह परिणामी है, अनित्य है। ४. दुःखी दुःख की निर्जरा करता है। दुःखी होना आत्मा का स्वरूप नहीं है। वह पर्याय है। आत्मा में यसब 'दुःखा दुःख से स्पृष्ट होता है'-इस स्थापना के ही उत्तरवर्ती सत्र हैं। इरियावहिय-संपराइय-किरिया-पदं ऐर्यापथिक-साम्परायिक-क्रिया-पदम् २०. अणगारस्स णं भंते ! अणाउत्तं गच्छमाणस्स अनगारस्य भदन्त ! अनायुक्तं गच्छत : वा, वा, चिट्ठमाणस्स वा, निसीयमाणस्स वा, तिष्ठतः वा, निषीदतः वा, त्वग्वर्तयतः वा, तुयट्टमाणस्स वा, अणाउत्तं वत्थं पडिग्गहं अनायुक्तं वस्त्रं प्रतिग्रह, कम्बलं, पाद-प्रौञ्छनं कंबलं पायपुछणं गेण्हमाणस्स वा, निक्खि- गृहतः वा, निक्षिपतः वा, तस्य भदन्त ! किम् वमाणस्स वा तस्स णं भंते ! किं रियावहिया ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते? साम्परायिकी क्रिया किरिया कज्जइ? संपराइया किरिया कज्जइ? क्रियते ? गोयमा ! नो रियावहिया किरिया कज्जइ, गौतम ! नो ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, साम्पसंपराइया किरिया कज्जइ ।। रायिकी क्रिया क्रियते। ऐर्यापथिक-साम्परायिक-क्रिया-पद २०. ' भन्ते ! जो अनगार अनायुक्त दशा में (दत्चित्त न होकर) चलता है, खड़ा होता है, बैठता है, लेटता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद-प्रौंछन लेता अथवा रखता है। भन्ते ! क्या उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है ? अथवा साम्परायिकी क्रिया होती है ? गौतम ! उसके ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती, साम्परायिकी क्रिया होती है। २१. से केणद्वेणं? तत् केनार्थेन ? गोयमा !, जस्स णं कोह-माण-माया लोभा गौतम ! यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः व्युच्छि- वोच्छिण्णा भवंति तस्सणं रियावहिया किरिया न्नाः भवंति, तस्य ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, कज्जइ,जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा यस्य क्रोध-मान-माया लोभाः अव्युच्छिन्नाः २१. यह किस अपेक्षा से? गौतम! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न हो जाते हैं, उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न नहीं होते, ३. भ. वृ.७/१६-दुःखं कर्मतद्वान् जीवो दुःखी। १ सांख्यकारिका, १६, १७ । २. भ.७/१६०। Jain Education Intemational Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३३ श.७ : उ.१ : सू.२०-२१ अवोच्छिण्णा भवंति तस्स णं संपराइया भवन्ति तस्य साम्परायिकी क्रिया क्रियते । यथाकिरिया कज्जइ। अहासुत्तं रीयमाणस्स रिया- सूत्रं रियतः ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, उत्सूत्र वहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स रियतः साम्परायिकी क्रिया क्रियते । स उत्सूत्र- संपराइया किरिया कज्जइ। से णं उस्सुत्तमेव मेव रियति। तत् तेनार्थेन । रीयती । से तेणटेणे॥ उसके साम्परायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र-सूत्र के अनुसार चलने वाले के ऐपिथिकी क्रिया होती है, उत्सूत्र-सूत्र के विपरीत चलने वाले के.साम्परायिकी क्रिया होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न नहीं होते) उत्सूत्र ही चलता है। यह इस अपेक्षा से कहा जाता है। भाष्य १. सूत्र २०,२१ है। इसके समर्थन में उन्होंने ओघनियुक्ति की १' गाथा उद्धृत की है। प्रस्तुत आगम में ऐपिथिक और सांपरायिक क्रिया की चर्चा अनेक ओघनियुक्ति की वृत्ति में द्रोणाचार्य ने लिखा है जो मुनि ज्ञानी है, अप्रमत्त है, उसके काययोग से कोई प्राणी मर जाता है, उसके साम्परायिक कर्म का बंध कोणों से की गई है। इसमें मुनि से संबंध रखने वाले पांच उल्लेख हैं नहीं होता, ईर्याप्रत्ययिक कर्म का बंध होता है। १. आत्मत्व संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया होती है..... यह सूत्रकार ने क्रोध, मान, माया, और लोभ के लिए 'ब्युच्छिन्न' तथा ३/१४८ का प्रतिपाद्य है। २. अनायुक्त गति करने वाले अनगार के साम्परायिक क्रिया होती 'अव्युच्छिन्न' शब्द का प्रयोग किया है। यहाँ 'क्षीण' शब्द का प्रयोग नहीं है। 'व्युच्छिन्न' शब्द विमर्शनीय है। पतञ्जलि ने क्लेश की चार अवस्थाएं बतलाई है-यह ६/२० का प्रतिपाद्य है। ३. संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया होती है-यह ७/१२५ का हैं.---प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार। क्लेश समय-समय पर विच्छिन्न होता रहता है। वह सदा लब्धवृत्ति अथवा उदित अवस्था में नहीं रहता। अभयदेवसूरि प्रतिपाद्य है। ४. वीचिमार्ग में स्थित संवृत अनगार के साम्परायिकी क्रिया होती ने भी 'वोच्छिन्न' का अर्थ 'अनुदित किया है। इन व्युच्छिन्न और अव्युच्छिन्न पदों के आधार पर ओघनियुक्तिकार और सिद्धसेनगणि का मत विमर्श योग्य है-यह १०/ ११, १२ का प्रतिपाद्य है। ५. अवीचिमार्ग में स्थित संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया होती सिद्धसेनगाण और द्रोणाचार्य के मतानुसार सराग के भी कषाय की है-यह १०/१३,१४ का प्रतिपाद्य है। जिसके क्रोध, मान, माया, लोभ व्युच्छिन्न होते हैं, उसके ऐपिथिकी . व्युच्छिन्न अवस्था में ऐपिथिकी क्रिया हो सकती है। यह मतान्तर विमर्श के क्रिया होती है। जिसके क्रोध, मान, माया, और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते, उसके ___ रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत सूत्रों की रचना से भी कुछ प्रश्न उभरते हैंसाम्परायिकी क्रिया होती है। इस सूत्र के आधार पर यह सिद्धान्त स्थापित हुआ है-अवीतराग के साम्परायिकी क्रिया होती है और वीतराग (उपशान्त मोह, १. अनायुक्त-प्रमत्त अवस्था में चलने वाले अनगार के साम्पक्षीणमोह और सयोगी केवली) के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है। रायिकी क्रिया होती है। कोई अनगार आयुक्त-अप्रमत्त अवस्था में चलता है उमास्वाति ने सकषाय के साम्परायिकी क्रिया और अकषाय के उसके भी साम्परायिकी क्रिया होती है, तो फिर गौतम के प्रश्न और महावीर के ऐर्यापथिकी क्रिया का विधान किया है। अकषाय अथवा वीतराग के ऐर्यापथिकी उत्तर का तात्पर्य क्या है? क्रिया होती है-यह निश्चित सिद्धान्त है। जयाचार्य ने भी सराग के साम्परायिकी २. यथासूत्र----आगम-निर्दिष्ट विधि के अनुसार चलने वाले के और वीतराग के ऐपिथिकी क्रिया का प्रतिपादन किया है। अवीतराग के ऐ.पथिकी क्रिया होती है। उत्सूत्र-आगम-निर्दिष्ट विधि के प्रतिकूल चलने ऐपिथिकी क्रिया होती है या नहीं होती-यह विमर्शनीय है। सिद्धसेनगणि ने वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है। क्या सभी सराग अनगार उत्सूत्र ही चलते अकषाय के दो प्रकार किए हैं—वीतराग और सराग । वीतराग अकषाय के तीन प्रकार हैं-उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली। कषाय का उदय न हो ये प्रश्न सिद्धसेनगणि के मत पर विचार करने के लिए संप्रेरित उस अवस्था में संज्वलन कषाय वाला भी अकषाय होता है। वह सराग अकषाय करते हैं। १.भ. १/४४४, ४४५, ६/२६, ८/३०२-३१४,७/२०,२१,७/४,५, ३/१४८,७/१२५, १२६, १०/११-१४, १८/१५६, १६० । २.त. सू ६५-सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः । .३.त. रा. वा. ६/४–उपशान्तक्षीणकषाययोः योगिनश्च योगवशादुपात्तं कर्म कषायाभावात् बन्धाभावे शुष्ककुड्यपतितलोष्टवद् अनन्तरसमये निवर्तमानमीर्यापथमुच्यते । ४. भ. जो. २/११३/२१-२३ ५.त.मू भा वृ६/५-अकषायो वीतरागः सरागश्च। तत्र वीतरागस्त्रिविधः-उपशान्तमोह एकः क्षीणमोहकेवलिनौ च कारन्येनोन्मूलितकर्मकदम्बको, सरागः पुनः संज्वलनकषायवानपि अविद्यमान उदयो ऽकषाय एव मन्दानुभावत्वमनुदराकन्यानिर्देशवद्, अतश्चोपपन्नमिद-- "उच्चालियम्मि पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरेज्ज जोगमासज्ज ॥” (ओघनियुक्तिी गा० ७४७) "न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहमोवि देसितो समए।" (ओघनियुक्ती गा०७४E) ६. ओ. नि. पृ. ४६-तस्य एवंप्रकारस्य ज्ञानिनः कर्मक्षयार्थमभ्युद्यतस्य असंचेतयतः' अजानानस्य, किं? सत्वानि, कथं?-प्रयत्नवतोऽपि कथमपि न दृष्टः प्राणी व्यापादितश्च, तथा 'संवेतयतः' जानानस्य कथमरत्यत्र प्राणी ज्ञातो दृष्टश्च न च प्रयत्नं कुर्वतोऽपि रक्षित पारितः, ततश्च तस्यैवंविधस्य यानि सत्त्वानि 'योग' कायादि प्राप्य विनश्यन्ति यत्र नास्ति तस्य साधोर्हिसाफल --साम्पराविक संसारजननं दुःखजननमित्यर्थः, यदि परमीर्याप्रत्ययं कर्म भवति, तच्चकस्मिन् समये बद्धमन्यस्मिन समये क्षपयति। ७. पा. यो. द. २/४-विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मना पुनः समुदाचरन्तीति विच्छिन्नाः कथम्? रागकाले क्रोधस्यादर्शनात्, न हि रागकाले क्रोधस्समुदाचरति, रागश्च क्वचिद् दृश्यमानो न विषयान्तरे नास्ति; लेकरयां स्त्रियां चैत्रो रक्त इत्यन्यासु स्वीषु विरक्त इति; कितु तत्र रागो लब्धवृत्तिरन्यत्र भविष्यवृत्तिरिति। ८.भ..६/२६२-वोच्छिन्नेत्ति अनुदिताः । Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ उ. १ सू.२२-२३ सईगालादिदोसदुद्ध पाणगोयण-पदं २२. अह भंते! सईगालस्स, सधूमस्स, संजोयणा- दोसदुस्स पाण- भोयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते? गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा निगगंथी वा फासु- एस णिज्जं असण- पाण- खाइम साइमं पडि माता मुछिए गिद्धे गढिए अन्झोवबन्ने आहारमाहारेड, एस णं गोवमा सइंगाले पाण- भोयणे । जेणं निग्थे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असण- पाण- खाइम - साइमं पडिग्यात्ता महया अप्पत्तियं कोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! सधूमे पाण - भोयणे । जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता गुणुप्पायणहेउं अण्णदव्वेणं सद्धिं संजोएता आ हारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! संजोयणादोस दुद्वे पाण-भोषणे। एस णं गोयमा ! सइंगालस्स, सधूमस्स, संजोयणादोसदुस्स पाण- भोयणस्स अहे पण्णतेव २३. अह भंते ! वीतिंगालस्स, वीयधूमस्स, संजोयणादोसविप्पमुक्कस्स पाण- भोयणस्स के अद्रे पष्णते ? गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु- एसणिज्जं असण- पाण खाइम साइमं पडिग्गाहेत्ता अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेड़, एस गं गोयमा। वीलिंगाले पाण- भोयणे । जेणं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असण- पाण- खाइम - साइमं पडिग्गाहेत्ता णो महया अप्पत्तियं कोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ एस णं गोयमा ! वीयधूमे पाण। भोयणे। जेणं निग्गंचे वा निग्गंधी वा फासु-एसणिज्जं असण- पाण- खाइम - साइमं पडिग्गाहेत्ता जहा लखं तहा आहारमाहारेइ, एस नं नोयमा ! संजोयणादीसविणमुक्के पाण-भोयगे । एस गं गोयमा । वीलिंगालस्स, बीयधूमस्स संजोयणादोसविप्पमुक्कस्स पाण- भोयणस्स अट्टे पण्णत्ते । ३३४ साङ्गरादिदोषदुष्ट- पानभोजन-पदम् अथ भदन्त ! साङ्गारस्य, सधूमस्य, संयोजनादोषदुष्टस्य पान- भोजनस्य को ऽर्थः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा प्रासुएषणीयम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यं प्रतिगृह्य मूर्च्छितः गृद्धः प्रथितः अभ्युपपन्नः आहारमाहरति एतद् गौतम साझार पान- भोजनम्। यः निर्मन्थः वा निर्मन्धी वा प्रासु एषणीयम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यं प्रतिगृह्य महदप्रत्ययिकं क्रोधक्लमं कुर्वन् आहारमाहरति, एतद् गीतम! सधूमं पान- भोजनम्। यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा प्रासु - एषणीम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यं प्रतिगृह्य गुणोत्पादनहेतुम् अन्यद्रव्येण सार्धं संयोज्य आहारमाहरति, एतद् गौतम ! संयोजनादोषदुष्टं पान-भोजनम्। एष गौतम ! साङ्गारस्य, सधूमस्य, संयोजनादोषतुष्टस्य पान भोजनस्य अर्थः प्रज्ञप्तः । अथ भदन्त ! वीताङ्गारस्य, वीतधूमस्य, संयोजनादोषविप्रमुक्तस्य पान - भोजनस्य को ऽर्थः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा प्रासु- एषणीयम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यं प्रतिगृह्य अमूर्च्छितः अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्नः आहारमाहरति एतद् गौतम बीताक्षर पान- भोजनम्। ', यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा प्रासु एषणीयम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यं प्रतिगृह्य नो महदप्रत्ययिकं क्रोध क्लामं कुर्वन् आहारमाहरति, एतद् गौतम! वीतधूमं पान भोजनम् । - यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा प्रासु एषणीयं अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य प्रतिगृह्य यथा लब्धं तथा आहारमाहरति । एतद् गौतम ! संयोजनादोषविप्रयुक्तं पान भोजनम् । एष गौतम वीताङ्गारस्य वीतधूगस्य संयो जना दोषविप्रमुक्तस्य पान - भोजनस्य अर्थः प्रज्ञप्तः । भगवई स- अंगार आदि दोष से दूषित पान - भोजन-पद २२. भन्ते ! अंगार, सधूम और संयोजन दोष से दूषित पान- भोजन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त है ? गौतम जो निर्बंध अथवा निर्बन्धी अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रतिग्रहण कर उसमें मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त हो कर आहार करता है, गौतम ! वह पान - भोजन स-अंगार है। जो निर्मन्थ अथवा निर्मन्धी अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रतिग्रहण कर महती अप्रीति और क्रोध-जनित क्लेश करता हुआ आहार करता है, गौतम! वह पान- भोजन सधूम है। जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अभिलषनीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रतिग्रहण कर उसे अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए दूसरे पदार्थ के साथ मिला कर आहार करता है, गौतम ! वह पान - भोजन संयोजना- दोष से दूषित है। गीतम! स-अंगार, सधूम और संयोजना- दोष से दूषित पान - भोजन का यह अर्थ प्रज्ञप्त है। २३. भन्ते ! अङ्गारमुक्त, धूममुक्त और संयोजना दोष-विप्रमुक्त पान- भोजन का क्या अर्थ प्राप्त है ? गौतम ! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रतिग्रहण कर उसमें अमूर्च्छित, अमृद्ध, अग्रथित और अनासक्त हो कर आहार करता है, गौतम ! यह अङ्गारमुक्त पान- भोजन है। जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अभिलषणीय और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रतिग्रहण कर महती अप्रीति तथा क्रोध-जनित कलेश न करता हुआ आहार करता है, गीतम। वह धूममुक्त पान भोजन है। जो निर्वन्ध अथवा निर्ग्रन्थी अभिलषणीय और एक अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रतिग्रहण कर जैसा मिला है उसे उसी रूप में खाता है, गौतम ! वह संयोजना- दोष - विप्रमुक्त पान-भोजन है। गौतम ! अङ्गारमुक्त, धूममुक्त और संयोजना दोषविप्रमुक्त पान - भोजन का यह अर्थ प्रज्ञप्त है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३५ श.७ : उ.१ : सू.२२-२४ भाष्य १. सूत्र २२, २३ । मनोज्ञ भोजन पर राग और अमनोज्ञ भोजन पर द्वेष नहीं करना चाहिए। ३. संयोजना-भोजन को सरस बनाने के लिए द्रव्यों का मिश्रण शरीर धारण करने के लिए आहार आवश्यक है; इसीलिए छह करना । यह अस्वाद की साधना का विधान है। कारणों से आहार करने का निर्देश हैं ।' मुनि के लिए आहार संबंधी तीन एषणाएं बतलाई गई हैं-गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगेषणा। परिभोगैषणा के पांच दोष हैं-१. अंगार, २. धूम, ३. संयोजना, ४. प्रमाणातिक्रान्त ५. का शब्द-विमर्श रण। क्रोध जनित क्लेश (कोहकिलाम)-क्रोध से होने वाला शारीरिक १. सअंगार-मूर्छासहित आहार करना। प्रस्तुत आलापक में श्रम । इसकी व्याख्या की गई है। सू० २२, २३ में प्रथम तीन बिंदु की चर्चा है। अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए (गुणुप्पायण)-विशेष रसों २. सधूम-क्रोध करते हुए आहार करना। को उत्पन्न करना। इन दोनों का फलितार्थ यह है कि आहार करते समय मुनि को २४. अह भंते! खेत्तातिक्केतस्स, कालातिक्कं- अथ भदन्त! क्षेत्रातिक्रान्तस्य कालातिक्रान्तस्य २४. 'भन्ते ! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, माईतिक्रान्त तस्स, मग्गातिक्कंतस्स,पमाणातिक्कंतस्स मार्गातिक्रान्तस्य प्रमाणातिक्रान्तस्य पान- और प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन का क्या अर्थ है। पाण-भोयणस्स के अटे पण्णते? -भोजनस्य कः अर्थः प्रज्ञप्तः? गोयमा ! जे ण निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु- गौतम ! यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा प्रासु- गौतम ! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अभिलषणीय और -एसणिज्जं असण-पाण-खाइम-साइमं अणु- ___ -एषणीयम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यम् अनुद्- एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का सूर्योदय से ग्गए सूरिए पडिग्गाहेत्ता उग्गए सूरिए आहार- गते सूर्ये प्रतिगृह्य उद्गते सूर्ये आहारमाहरति, पहले प्रतिग्रहण कर सूरज के उगने पर आहार करता माहारेइ, एस णं गोयमा! खेत्तातिक्कंते एतद् गौतम ! क्षेत्रातिक्रान्तं पान-भोजनम्। है, गौतम ! यह क्षेत्रातिक्रान्त पान-भोजन है। पाण-भोयणे । जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा प्रासु-एषणीयम् जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अभिलषणीय और एषणीय असणं-पाणं-खाइम-साइमं पढमाए पोरिसीए अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यं प्रथमायां पौरुष्यां अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रथम प्रहर में पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्ता प्रतिगृह्य पश्चिमां पौरुषीम् उपादाय आहार- प्रतिग्रहण कर अन्तिम प्रहर आने पर आहार करता आहारमाहारेइएस णं गोयमा! कालातिक्कते माहरति, एतद् गौतम ! कालातिक्रान्तं पान- है, गौतम ! यह कालातिक्रान्त पान-भोजन है। पाण-भोयणे । भोजनम्। जे णं निग्गथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा प्रासु-एषणीयम् जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अभिलषणीय और एषणीय असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता परं अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यं प्रतिगृह्य पराम् अर्द्ध- अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रतिग्रहण कर आधे अद्धजोयणमेराए वीइक्कमावेत्ता आहार- योजनमर्यादां व्यतिक्रम्य आहारमाहरति, योजन (दो कोश) की मर्यादा का अतिक्रमण कर आहार माहारेइ, एस णं गोयमा ! मग्गातिक्कते पाण- एतद् गौतम ! मार्गातिक्रान्तं पान-भोजनम्। करता है, गौतम ! यह मार्गातिक्रान्त पान-भोजन है। भोयणे । जे ण निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा प्रासु-एषणीयम् जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अभिलषणीय और एषणीय असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता परं अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यं प्रतिगृह्य परं द्वात्रिं- अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रतिग्रहण कर मुर्गी बत्तीसाए कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ताणं कवला- शत् कुक्कुट्यण्डकप्रमाणमात्राणां कवलानां के अंडे के प्रमाण जितने बत्तीस कवल से अधिक णं आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा! पमाणा- आहारमाहरति, एतद् गौतम! प्रमाणातिक्रान्तं आहार करता है, गौतम ! यह प्रमाणातिक्रान्त पानतिक्कते पाण-भोयणे । पान-भोजनम्। भोजन है। अट्ठ कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहार- अष्ट कुक्कुट्यण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् मुर्गी के अण्डे जितने आठ कवल का आहार करने माहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस कुक्कुडि- आहारमाहरन् अल्पाहारः, द्वादश कुक्कुटु- वाला अल्पाहारी कहलाता है, मुर्गी के अण्डे जितने अंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे यण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् बारह कवल का आहार करने वाला अपार्द्ध-अवअवड्ढोमोयरिए, सोलस कुक्कुडिअंडगपमाण अपार्द्धवमोदरिकः, षोडश कुक्कुट्यण्डक- मोदरिक कहलाता है, मुर्गी के अण्डे जितने सोलह मेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे दुभागप्पत्ते, प्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरन् द्विभाग- कवल का आहार करने वाला द्विभाग-प्राप्त कहलाता चउव्वीसं कुक्कुडिअंडगपमाण मेत्ते कवले प्राप्तः, चतुर्विंशतिं कुक्कुट्यण्डक-प्रमाण- है। मुर्गी के अण्डे जितने चौबीस कवल का आहार १. उत्तर. २६/३१,३२। २. वही, २४/११, १२। Jain Education Intemational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.१ : सू.२४ ३३६ भगवई आहारमाहारेमाणे ओमोदरिए, बत्तीसं कुक्कु- मात्रान् कवलान् आहारमाहरन् अवमोदरिकः, डिअंडगपमाणमेते कवले आहारमाहारेमाणे द्वात्रिं-शत् कुक्कुट्यण्डक प्रमाणमात्रान् कवपमाणपत्ते, एत्तो एक्केण वि घासेणं ऊणगं लान् आहारमाहरन् प्रमाणप्राप्तः एतस्माद् आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामर- एकेनापि ग्रासेण ऊनकम् आहारमाहरन् सभोईति वत्तव्वं सिया। श्रमणः निर्ग्रन्थः नो प्रकामरसभोजीति वक्तव्यं स्यात् । एस णं गोयमा ! खेत्तातिक्कंतस्स, काला- एष गौतम ! क्षेत्रातिक्रान्तस्य, कालातितिक्कंतस्स, मग्गातिक्कंतस्स, पमाणा- क्रान्तस्य, मार्गातिक्रान्तस्य, प्रमाणातिक्रान्तस्य तिक्कंतस्स पाण-भोयणस्स अट्ठे पण्णत्ते ॥ पान-भोजनस्य अर्थः प्रज्ञप्तः । करने वाला अवमोदरिक कहलाता है और मुर्गी के अण्डे जितने बत्तीस कवल का आहार करने वाला प्रमाणप्राप्त कहलाता है। इससे एक ग्रास भी कम आहार करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकामरस-भोजी नहीं कहलाता। गौतम ! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन का यह अर्थ है। भाष्य १. सूत्र २४ की दृष्टि से किया गया है। निशीथ भाष्य में पश्चिम प्रहर का अर्थ 'चरम प्रहर' अतिक्रमण के चार प्रकार बतलाए गए हैं किया गया है। निशीथ चूर्णिकार ने 'चरम' का अर्थ 'चतुर्थ' किया है। वैकल्पिक १. क्षेत्रातिक्रान्त-मूरज उगने के पहले आहार ग्रहण कर सूरज रुप में प्रथम प्रहर की अपेक्षा द्वितीय प्रहर पश्चिम, द्वितीय प्रहर की अपेक्षा उगने के बाद खाना। कप्पो (बृहत्कल्प)' और निसीहज्झयण' में कालातिक्रान्त तृतीय प्रहर पश्चिम और तृतीय प्रहर की अपेक्षा चतुर्थ प्रहर को पश्चिम बतलाया तथा क्षेत्रातिक्रान्त-इन दो पदों का उल्लेख है, मार्गातिक्रान्त का पृथक् उल्लेख गया है। बृहत्कल्प भाष्य और मलयगिरि-वृत्ति में भी इन दोनों मतों का नहीं है। बृहत्कल्प भाष्य में अर्धयोजन की सीमा से आगे लाए गए भोजन को उल्लेख है। क्षेत्रातिक्रान्त बतलाया गया हैं। भगवती तथा कप्पो (बृहत्कल्प) और ३. मार्गातिक्रान्त-अर्ध योजन (यानी २ कोश) से अधिक दूरी निसीहज्झयणं में विद्यमान यह मत-भिन्नता विमर्शनीय है। अभयदेवसरि ने तक आहार ले जा कर वहां उसे खाना, मागातिक्रान्त अतिक्रमण है। क्षेत्र का अर्थ 'तापक्षेत्र'-दिन किया है। सूर्योदय से पहले ले कर सूर्योदय के ४. प्रमाणातिक्रान्त- मनुष्य की प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है। पश्चात् आहार करना-इसका संबंध 'कालातिक्रान्त' के साथ होना चाहिए। उसके आधार पर आहार की मात्रा भी भिन्न-भिन्न होती है; सबकी समान नहीं इस विषय में कप्पो (बृहत्कल्प) का रात्रिभोजन का आलापक तथा । होती। फिर भी एक सामान्य अनुपात बतलाया जाता है। बत्तीस कवल खाना निसीहज्झयणं' का 'दिवारात्रि भोजन' आलापक द्रष्टव्य है। आहार का समुचित प्रमाण है। इससे अधिक खाना प्रमाणातिक्रान्त आहार है। २. कालातिक्रान्त-प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार पश्चिम कवल का प्रमाण भी स्पष्ट किया गया है। ओवाइयं में आहार के प्रमाण द्रव्य प्रहर में खाना 'कालातिक्रान्त' होता है। कालातिक्रान्त भोजन का निषेद्य संचय अवमोदरिका के प्रसंग में बतलाए गए हैं।१० १ कप्पो, ४/१२, १३ । २. निसीह. १२/३१, ३२ । ३.बृ.क. भा. भाग ५, गा. ५२६३, पृ. १४०० भावस्स उ अतियारो, मा होज्ज इती तु पत्थुते सुत्ते । कालस्स य खेत्तस्स य, दुवे उ सुत्ता अणतियारे ॥ ४. भ. वृ. ७/२४-क्षेत्रं-सूर्यसम्बन्धी तापक्षेत्रं दिनमित्यर्थः । ५. कप्पो, ५/६-६ ६. निसीह०११/७५-७६ । ७. भ. वृ. ७/२४-कालं दिवसस्य प्रहरत्रयलक्षणमतिक्रान्तं कालातिकान्त। ८.नि. भा. चु. गा. ४१४१ ---दिवसस्स पढमपोरिसीए भत्तपाण धेत्तुं चरिमं ति चउत्थपोरिसी तं जो संपावेति तस्स चउलहुं आणादिया य दोसा । चिट्ठतु ताव चउत्थपोरिसी, पढमातो बीया चरिमा, वितियाओ ततिया चरिमा, ततियाओ चउत्थी चरिमा। ९.बृ. क. भा. भाग ५, गा. ५२६४-६५ वितियाउ पढम पुट्विं, उवातिणे चउगुरुं च आणादी। दोसा संचय संसत्त दीह, साणे य गोणे य॥ अगणि गिलाणुच्चारे, अब्भुट्ठाणे य पाहुण णिरोधे। सन्झाय विणय काइय, पयलंत पलोट्टणे पाणा ॥ आस्ता तावत् पश्चिमा चतुर्थी पीरुषी किंतु द्वितीयायाः पीरुष्याः प्रथमाऽपि पूर्वा भाष्यते प्रथमायाश्च द्वितीया पाश्चात्या, एवं तृतीयाया द्वितीया पूर्वा द्वितीयायास्तृतीया पाश्चात्या, चतुर्थ्यास्तृतीया पूर्वा तृतीयस्याश्चतुर्थी पश्चिमा। ततः प्रथमायाः पीरुष्या द्वितीयायामशनादिकमतिकामयतश्चतुर्गरुकम, आज्ञादयश्य दोषाः। १० .ओवा. सू. ३३-से किं तं ओमोदरियाओ ? ओमोदरियाओ दुविहा पण्णत्ताओ, तं जहा- दब्बोमोदरिया य भावोमोदरिया य। से किं तं दब्बोमोदरिया? दब्बोमोदरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवगरणदव्योमोदरिया य भत्तपाणदब्बोमोदरिया य। __से किं तं उदगरणदव्योमोदरिया उवगरणदव्योमोदरिया तिविहा पण्णता, तं जहाएगे बत्थे, एगे पाए, चियत्तोवकरणसाइज्जणया। से तं उवगरणदब्बोमोदरिया। से कि त भत्तपाणदव्योमोदरिया ? भत्तपाणदव्योमोदरिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहांअठ्ठ कुक्कडअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस कुक्कुडअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अवड्ढोमोदरिए, सोलस कुक्कुडअंडगप्पमाणमेते कवले आहारमाहारेमाणे दुभागपत्तोमोदरिए, चउवीस कुक्कुडअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पत्तोमोदरिए, एक्कतीसं कुक्कुडअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे किंचूणोमोदरिए, बत्तीस कुक्कुडअंडगणमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणपत्ते, एत्तो एगेण वि घासेणं ऊणय आहारमाहारेमाणे समणे णिगंथे णो पकामरसभोइ ति बत्तव्व सिया। से तं भत्तपाणदव्योमोदरिया। से तं दव्योमोदरिया। से किं तं भावोमोदरिया ? भावोमोदरिया अणेगविहा पण्णता, तं जहा-अप्पकोहे, अप्पमाणे, अप्पमाए, अप्पलोहे, अप्पसदे, अप्पझंझे। से तं भावोमोदरिया। से तं ओमोदरिया ॥ Jain Education Intemational Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५. अह भंते ! सत्यातीतस्स, सत्यपरिणामियस्स, एसियस्स, वेसियस्स, सामुदाणिवस्स पाण- भोयणस्स के अड़े पण्णले ? गोयमा ! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा निक्खित्तसत्थमुसले ववगयमालावण्णगविलेवणे ववगयय-चय- चत्तदेहं जीव - विप्पजढं, अकयं, अकारियं, असंकप्पियं, अणाहूयं, अकीकडं, अणुद्दिट्ठ, नवकोडीपरिसुद्धं, दसदोसविप्यमुक्कं उग्गमुप्पायणेसनासु परिसुद्धं, वीलिंगाल, वीतधूमं संजोयणादोसविप्पमुक्कं, असुरसुरं, अचवचवं, अदुयं अविलंबियं, अपरिसाडिं, अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयं, संजमजायामायावत्तियं, सं " भारवहण या बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! सत्यातीतस्स, सत्यपरिणामियस्स एसियस्स, वेसियस्स, सामुदाणियस्स पाण- भोयणस्स अरे पण्णते । ३३७ अथ भदन्त ! शस्त्रातीतस्य, शस्त्रपरिणामितस्य, एषितस्य, वैशिकस्य, सामुदानिकस्य पान - भोजनस्य कः अर्थः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! यः निर्ग्रन्थः वा निर्ग्रन्थी वा निक्षिप्तशस्त्रसतः व्यपगतमालावर्णकवलेपन: व्यप गत-च्युत-च्यावित- त्यक्तदेहं, जीव- विप्रत्यक्तं, अकृतम्, अकारितम्, असंकल्पितम्, अनाहूतम् अक्रीतकृतम्, अनुद्दिष्टं, नवकोटिपरिशुद्धं दशदोषविप्रमुक्तं उद्गमोत्पादनेपणाभ्यः परिशुद्धं, बीताङ्गार, बीतधूमं संयो जनादोषविप्रमुक्तम्, असुरसुरम्, अचपचपम्, अद्भुतम् अविलम्बितम्, अपरिशाटितम्, अक्षोपाज्जन व्रणानुलेपनभूतं संयमयात्रामात्रावृत्तिकं, संयमभारवहनार्थाय बिलमिव पन्नगभूतेन आत्मना आहारमाहरति, एष गौतम ! शस्त्रातीतस्य, शस्त्रपरिणामितस्य, एषितस्य, वैशिकस्य, सामुदानिकस्य, पान- भोजनस्य अर्थः प्रज्ञप्तः । भाष्य १. सूत्र २५ प्रस्तुत सूत्र में आहार करने वाला, आहार का प्रकार, आहार करने की विधि, आहार की मात्रा और आहार का लक्ष्य इस पञ्चक का प्रतिपादन किया गया है। १. आहार करने वाला - आहार करने वाले निर्ग्रन्थ की दो विशेषताएं बतलाई गई हैं - १. वह अपने लिए भोजन नहीं पकाता। प्राचीन काल में रसोई के दो मुख्य घटक थे- अग्नि और मूसल मुनि इनका प्रयोग नहीं करता। २. वह पुष्पमाला, सुगन्धी चूर्ण-प्रयोग और चन्दन के विलेपन से रहित होता है। २. आहार के प्रकार-निर्ग्रन्थ के लिए वही आहार वांछनीय होता है जो जीव-रहित हो । अन्न आदि स्वयं जीव-रहित हो गया हो अथवा पाक-क्रिया द्वारा जीव-रहित किया गया हो। निर्ग्रन्थ के लिए निष्पन्न न किया गया हो और न कराया गया हो । गृहस्थ द्वारा अपने लिए भोजन पकाते समय निर्ग्रन्थ के लिए बनाने का संकल्प न किया गया हो। आहूत न हो- आप सदा मेरे घर से आहार ले, इस प्रकार का आमन्त्रण न दिया गया हो। निर्ग्रन्थ के लिए खरीदा हुआ न हो। निर्ग्रन्थ के उद्देश्य से बनाया गया न हो। नवकोटि परिशुद्ध हो दस दोष-विप्रमुक्त, उद्गम, उत्पादन और उद्गम 19. आधाकर्म २. औद्देशिक एषणा से परिशुद्ध हो उद्गम के सोलह, उत्पादन के सोलह और एषणा के दस दोषों की तालिका इस प्रकार है ३. पूतिकर्म ४. मिश्रजात ५. स्थापना ६. प्राकृतिक ७. प्रादुष्करण ८. क्रीत ६. प्रामित्य १०. परिवर्त ११. अभिहत १२. उदभिन्न १३. मालापहृत १४. आच्छेद्य १५. अनिसृष्ट १६. अध्यवतरक श. ७ : उ.१ : सू. २५ २५. 'भन्ते ! शस्त्रातीत, शस्त्र परिणामित एषणा से प्राप्त, साधुवेश से लब्ध और सामुदानिक पान - भोजन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त है ? गौतम! शस्त्र (चाकु आदि) और मूसल का प्रयोग न करने वाला, पुष्पमाला और चन्दन के विलेपन से रहित निर्मन्थ अथवा निर्मन्थी जो आहार च्युत-व्यक्ति और त्यक्त जीव- शरीर वाला, जीव-रहित, साधु के निमित्त न किया गया, न कराया गया, न संकल्पित किया गया, आमन्त्रण - रहित, साधु के निमित्त न खरीदा गया, साधु को उद्दिष्ट कर न बनाया गया, नवकोटि से परिशुद्ध, दस दोष से विप्रमुक्त, उद्गम, उत्पादन और एषणा से परिशुद्ध, अंगार, धूम और संयोजनादोष से विप्रमुक्त है। वैसा आहार करता है तथा 'सुरसुर' और 'बदचव' शब्द न करते हुए, न अधिक शीघ्रता से और न अधिक विलम्ब से भूमि पर नहीं गिराते हुए, गाड़ी के पहिए की धूरी पर किए जाने वाले प्रक्षण और व्रण पर किए जाने वाले अनुलेप की भांति संयम यात्रा के लिए अपेक्षित मात्रा वाला, संयम का भार वहन करने के लिए जैसे सर्प बिल में प्रवेश करते समय सीधा होता है वैसे ही स्वाद लिए बिना सीधा खाने वाला - जो इस विधि से आहार करता है, गौतम! यह शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित, एषित, वैशिक और समुदानिक पान- भोजन का अर्थ प्रज्ञन्त है। उत्पादन १. धात्री २. दूती ३. निमित्त ४. आजीव ५. वनीपक ६. चिकित्सा ७. क्रोध ८. मान माया ६. १०. लोभ ११. पूर्व-पश्चात् संस्तव १२. विद्या १३. मंत्र १४. चूर्ण १५. योग १६. मूलकर्म एषणा १. शंकित २. प्रक्षित २. निक्षिप्त ४. पिहित ५. संहत ६. दायक ७. उन्मिश्र C. अपरिणत ६. लिप्त १०. छर्दित Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.१ : सू.२५,२६ ३३८ भगवई ये ४२ दोष आगम-साहित्य में एकत्र कहीं भी वर्णित नहीं है, किंतु वैशिक- 'वेसिय' पद के दो संस्कृत रूप हो सकते हैं-वैशिक प्रकीर्ण रूप में मिलते हैं। श्रीमज्जयाचार्य ने उनका अपुनरुक्त संकलन किया और व्येषित। मुनिवेश के निमित्त से जो भिक्षा प्राप्त होती है, उसे वैशिक' कहा है। आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूतिकर्म, क्रीत-कृत, प्रामित्य, जाता है। विशेष अथवा विविध प्रकार की एषणा से प्राप्त 'व्येषित' कहलाती है। आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्याहृत—ये ठाणं, ६/६२ में बतलाए गए हैं। वृत्ति में 'व्येषित' मूल रूप में और 'वैशिक' वैकल्पिक रूप में धाबीपिण्ड, दूतीपिण्ड, निमित्तपिण्ड, आजीवपिण्ड, वनीपकपिण्ड, चिकित्सापिण्ड, व्याख्यात है। क्रोधपिण्ड, मानपिण्ड, मायापिण्ड, लोभपिण्ड, विद्यापिण्ड, मंत्रपिण्ड, योगपिण्ड, सामुदानिक-माधुकरी वृत्ति से प्राप्त भिक्षा। चूर्णपिण्ड और पूर्व-पश्चात्-संस्तव-ये निसीहज्झयणं, १३/६१-७५ में शस्त्र-प्रसंगवश यहाँ 'शस्त्र' का अर्थ 'अग्नि' होना चाहिए। बतलाए गए हैं। परिवर्त का उल्लेख आयारचूला, १/२१ में मिलता है। मूलकर्म वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'खड्ग' आदि किया है।' पण्हावागरणाइं, संवर १/१५ में है। उद्भिन्न, मालापहृत, अध्यवतर, व्यपगत-स्वयं पृथग्भूत शंकित, मक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और च्युत-मृत। छर्दित-ये दसवेआलियं के पिण्डैषणा अध्ययन में मिलते हैं। च्यावित–'चाइय' शब्द के दो संस्कृत रूप हो सकते हैं-च्यावित ३. आहार करने की विधि-आहार करते समय अमूर्छा, अक्रोध और त्याजित।' और अस्वाद का प्रयोग किया जाए। 'सुरसुर' 'चवचव' इस प्रकार का शब्द न। अनाहूत-वृतिकार ने इसका अर्थ अनित्यपिण्ड किया है। आप हो। बहुत शीघ्रता से न खाए और बहुत मन्थरगति से भी न खाए। खाते समय मेरे घर से नित्य आहार लें-इस प्रकार आमन्त्रणपूर्वक लिया जाने वाला भोजन की सीथों को नीचे न गिराए। भोजन आहूत अथवा नित्यपिण्ड कहलाता है। और आमन्त्रणरहित भोजन ४. आहार की मात्रा-जैसे गाड़ी की धूरी पर अञ्जन लगाया अनाहूत। जाता है और व्रण पर लेप किया जाता है, आहार करते समय वैसी दृष्टि रखें; नवकोटिपरिशुद्ध-ठाणं' में भिक्षा की नौ कोटियां बतलाई गई संयम यात्रा के लिए जितना आवश्यक हो, उतना भर खाए। हैं-जीवों का वध न करना, न कराना, करने वाले का अनुमोदन न करना। ५. आहार करने का लक्ष्य-आहार करने का लक्ष्य है- भोजन न पकाना, न पकवाना और न पकाने वाले का अनुमोदन करना। आने संयम-भार का निर्वाह। लिए न मोल लेना, न लिवाना और न लेने वाले का अनुमोदन करना। विषय के निगमन का निष्कर्ष यह है कि निर्ग्रन्थ अस्वाद वृत्ति से गाड़ी के पहिए की धुरी पर किए जाने वाले म्रक्षण (अक्खोआहार करे जैसे सर्प बिल में प्रवेश करते समय पार्श्वभाग को छुए बिना सीधा वंजण)-अक्ष-गाड़ी की धुरी। उपाञ्जन-म्रक्षण करना, खञ्जन लगाना। चला जाता है, वैसे ही निर्ग्रन्थ खाद्य वस्तु को स्वाद के लिए इधर-उधर घुमाए (द्रष्टव्य सूय. २/२/५०) बिना सीधा खाए। संयमयात्रामात्रवृत्तिक (संजमजायामायावत्तियं) अभयदेवसरि ने मात्रा का अर्थ 'आलम्बन-समूह का अंश' किया है। 'वत्तिय' पाठांश के दो शब्द-विमर्श अर्थ किए हैं-वृत्तिक और प्रत्यया शस्त्रातीत-शस्त्र-अग्नि आदि से उत्तीर्ण।' शीलांकसूरि ने ‘मात्रा' का संबंध आहार के साथ बतलाया है। आहार की जितनी मात्रा से संयम-यात्रा चल सके उतनी वृत्ति करने वाला 'संयमशस्त्रपरिणामित-शस्त्र-योग से अचित्त किया हुआ। एषित-एषणा की विधि से गवेषित। यात्रामात्रवृत्तिक' होता है। २६. सेव भंते ! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। २६. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। १. द्रष्टव्य, सूय. २/१/६६ और उसके टिप्पण। अनित्यपिण्डोऽभ्याहतो वेत्यर्थः। स्पर्द्धा वाऽऽहूतं तन्निषेधादनाहूतो, दायकेनास्पर्द्धया २. वही, २/२/५०। दीयमानमित्यर्थः, अनेन भावतोऽपरिणताभिधानएषणादोषनिषेध उक्तोऽतस्तम् । ३. भ. वृ.७/२५---विशेषेण विविधैर्वा प्रकाररेषितं-व्येषितं ग्रहणेषणा ग्रासैषणाविशोधितं । ७. ठाणं, ६/३०। तस्य। अथवा वेषो-मुनिनेपथ्यं स हेतुर्लाभे यस्य तद्वैषिकम्-आकारमात्रादर्शनादवाप्तं न । ८. भ. दृ. ७/२५-संयमयात्रा-संयमानुपालनं सैव मात्रा-आलम्बनसमूहांशः संयमत्वावर्जनया। यात्रामात्रा तदर्थं वृत्तिः-प्रवृत्तियत्राहारे स संपमयात्रामात्रावृत्तिको ऽतस्तं। संयमयात्रा४. वही, ७/२५-त्यक्तखड्गादि शस्त्रमुसलः। मात्रावृत्तिकं यथा भवति संयमयात्रामात्राप्रत्ययो वा यत्र स तथाऽतस्तं संयमयात्रामात्राप्रत्ययं ५. द्रष्टव्य दसवे. २/२-'नित्याग' का टिप्पण। वा यथा भवति। ६. भ. वृ.७/२५---न च विद्यते आहूतम् -- आहानमामन्त्रणं नित्यं मद्गृहे पोषमात्रामन्नं ६, सूय.२/२/५०, वृ. प. ४०-संयमयात्रायां मात्रा संयमयात्रामात्रा, यावत्याहारमात्रया गाह्यमित्येवरूपं कामकरायाकारणं वा साध्वर्थ स्थानान्तरादन्नाद्यानयनाय यत्र सोऽनाहूतः- संयमयात्रा प्रवर्तते सा तथा, तया संयमयात्रामात्रया वृतिर्यस्य तत्तथा। Jain Education Intemational Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सुपच्चक्खाण दुपच्चक्खाण-पदं २७. से नूणं भंते! सव्वपाणेहिं सब्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपच्चवखायं भवति ? दुपच्चवखायं भवति ? गोयमा सव्वपाणेहिं जाव सव्वसतेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सिव सुपच्चक्वायं भवति, सिय दुपच्चक्खायं भवति ॥ 7 - २८ सेकेणद्वेगं भंते! एवं दुच्च सव्वपार्टिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सिय सुपव्यवखायं भवति ? सिया दुपव्यवखायं भवति ? । गोयमा जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसतेहिं ! पच्चक्खायमिति वदमाणस्स गो एवं अभिसमन्नागयं भवति – इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे धावरा, तस्स गं सव्वपाणेर्हि जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वदमाणस्स नो सुपच्चवखायं भवति, दुपच्चवखायं भवति । एवं खलु से दुपच्चक्लाई सव्वपानेहिं जाव सव्वसतेहिं पच्चक्खायमिति वदमाने नो सच्च भासं भासइ, मोसं मासं भासइ एवं खलु से मुसावाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं असंजय - विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतवाले यावि भवति । जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्वायमिति वदमाणस्स एवं अभिसमन्नागयं बीओ उद्देसो दूसरा उद्देशक संस्कृत छाया सुप्रत्याख्यान- दुष्प्रत्याख्यान-पदम् तन्नूनं भदन्त सर्वप्राणिभिः सर्वभूतः सर्वजीवे सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदतः सुप्रत्याख्यातं भवति ? दुष्प्रत्याख्यातं भवति ? " गीतम! सर्वपाणैः यावत् सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदतः स्यात् सुप्रत्याख्यातं भवति, स्यात् दुखत्याख्यातं भवति । तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते-सर्वप्राणिभिः यावत् सर्वसत्त्वैः प्रत्याख्यातमिति वदतः स्यात् सुप्रत्याख्यातं भयाति? स्यात् दुष्प्रत्याख्यातं भवति तम यस्य सर्वप्राणिभिः यावत् सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदतः नो एवं अभिसमन्वागतं भवति इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे असाः, इमे स्थावराः, तस्य सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदतः नो सुप्रत्याख्यातं भवति दुष्प्रत्याख्यातं भवति । एवं खलु स दुष्प्रत्याख्याची सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वः प्रत्याख्यातमिति वदन् नो सत्यां भाषां भाषते, मृषां भाषां भाषते । एवं खलु समृषावादी सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्वैः त्रिविध-त्रिविधेन असंयत-विरत प्रतिहत-प्रत्याख्यात- पापकर्मा, सक्रियः, असंवृत्तः, एकान्तदण्डः, एकान्तबालः चापि भवति । यस्य सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वैः प्रत्याख्यातमिति वदतः एवं अभिसमन्वागतं भवति — हिन्दी अनुवाद सुप्रत्याख्यान- दुष्प्रत्याख्यान पद २७. ' कोई पुरुष कहता है- मैंने सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है । भन्ते ! उसका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यात होता है ? अथवा दुष्प्रत्याख्यात होता है ? गौतम ! जो पुरुष कहता है - मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है। उसका वह प्रत्याख्यान स्यात् सुप्रत्याख्यात होता है, स्यात् दुष्प्रत्याख्यात होता है। २८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जो पुरुष कहता है - मैंने सब प्राण यावत् सब सत्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, उसका वह प्रत्याख्यान स्यात् सुप्रत्याख्यात होता है, स्यात् दुष्प्रत्याख्यात होता गौतम! जो पुरुष कहता है-- मैंने सब प्राण यावत् सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है और जिसे यह ज्ञात नहीं होता कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं; ये त्रस हैं ये स्थावर हैं, उसके सब प्राण यावत् सब सत्वों के वध का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यात नहीं होता, दुष्प्रत्याख्यात होता है। इस प्रकार वह दुष्प्रत्याख्यानी कहता है मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, वह सत्य भाषा नहीं बोलता है, मृषा भाषा बोलता है। इस प्रकार वह मृषावादी मनुष्य सब प्राण यावत् सब सत्वों के प्रति तीन योग और तीन करण से असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाला, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाला होता है। वह कायिकी आदि क्रिया से युक्त, असंवृत, एकान्तदण्ड और एकान्तबाल भी होता है। जो पुरुष कहता है - मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, और जिसे यह ज्ञात Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.२ : सू.२७,२८ ३४० भवति-इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे जीवाः, इमे अजीवाः, इमे त्रसाः, इमे इमे थावरा, तस्स णं सब्वपाणेहिं जाव स्थावराः, तस्य सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वैः सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स प्रत्याख्यात-मिति वदतः सुप्रत्याख्यातं भवति सुपच्चक्खायं भवति, नो दुपच्चक्खायं भवति। नो दुष्प्रत्याख्यातं भवति। भगवई होता है कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं। ये त्रस हैं ये स्थावर हैं, उसके सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यात होता है, दुष्प्रत्याख्यात नहीं होता। एवं खलु से सुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव एवं खलु स सुप्रत्याख्यायी सर्वप्राणः यावत् । सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणे सच्चं सर्वसत्त्वैः प्रत्याख्यातमिति वदन् सत्यां भाषां भासं भासइ, नो मोसं भासं भासइ। एवं खलु भाषते, नो मृषां भाषां भाषते। एवं खलु स से सच्चवादी सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं सत्यवादी सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वैः त्रिविधतिविहं तिविहेणं संजय-विरय-पडिहय-पच्च- त्रिविधेन संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातक्खाय-पावकम्मे, अकिरिए, संवुडे, एगंत- पापकर्मा, अक्रियः, संवृतः, एकान्तपण्डितः पंडिए यावि भवति। से तेणटेणं गोयमा! एवं चापि भवति। तत्तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते--- वुच्चइ-सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्च- सर्वप्राणैः यावत् सर्वसत्त्वैः प्रत्याख्यातमिति क्खायमिति वदमाणस्स सिय सुपच्चक्खायं वदतः स्यात् सुप्रत्याख्यातं भवति, स्यात् भवति, सिय दुपच्चक्खायं भवति ॥ दुष्प्रत्याख्यातं भवति। इस प्रकार वह सुप्रत्याख्यानी कहता है-मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, वह सत्य भाषा बोलता है, मिथ्या भाषा नहीं बोलता। इस प्रकार वह सत्यवादी मनुष्य सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के प्रति तीन योग और तीन करण से संयत, विरत, अतीत के पाप कर्म का प्रतिहनन करने वाला, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान करने वाला होता है, वह कायिकी आदि क्रिया से मुक्त, संवृत और एकान्तपण्डित भी होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जो पुरुष कहता है मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, उसका वह प्रत्याख्यान स्यात् सुप्रत्याख्यात होता है, स्यात् दुष्प्रत्याख्यात होता है। भाष्य १. सूत्र २७, २८ भगवान महावीर ने वस्तु-सत्य का प्रतिपादन नय अथवा सापेक्ष दृष्टि के आधार पर किया था। इसलिए उसमें ऐकान्तिक आग्रह नहीं है, सत्य का संस्पर्श है। प्रत्याख्यान को निरपेक्ष दृष्टि से समीचीन अथवा असमीचीन कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उसे समीचीन और असमीचीन सापेक्ष दृष्टि के आधार पर कहा गया है। कोई व्यक्ति जीव और अजीव को नहीं जानता। वह सब जीवों के वध का प्रत्याख्यान करता है। जीव-विषयक उसका ज्ञान स्पष्ट नहीं है। उस अवस्था में वह सब जीवों के वध के प्रत्याख्यान का पालन कैसे कर सकेगा? अभयदेवसूरि ने लिखा है-जीव और अजीव के ज्ञान के अभाव में प्रत्याख्यान का यथावत् पालन नहीं किया जा सकता। इस अपेक्षा से अज्ञानी का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं हैं।' । जयाचार्य ने अपेक्षा-दृष्टि को विकसित किया है। उनके अनसार १. भ. वृ७/२८-ज्ञानाभावेन यथावदपरिपालनात् सुप्रत्याख्यानत्वाभावः । २. भ जो. २/११५/१६-२६-- इहां जाण्यां विण जीव, त्याग किया थी तेहना। दुपचखाण कहीव, जाण्यां विण किम पालियै ।। •जीव त्रसादिक देह, जाणी तसु हणवा तणां। जो पचखाण करेह, पिण समदृष्टि ते नहीं। संवर आश्री तास, दुपचखाण कहीजिये। संवर गुण सुविमास, कर्म रोकण नो तसु नहीं ॥ हिंसादिक पहिछाण, त्यागी मिथ्याती तणे । निर्जरा लेखे जाण, सुध पचखाण कही जियै ॥ सप्तम उत्तरज्झयण, वर गाथा जे बीस मी। धुर गुणटाणे वयण, कह्यो सुब्बए स्वामजी ॥ जीव-अजीव को नहीं जानता, वह मिथ्यादृष्टि है। वह सब जीवों को नहीं जानता और उन्हें जाने बिना सब जीवों को मारने का प्रत्याख्यान करता है वह अज्ञान की अपेक्षा दुष्प्रत्याख्यान है। जो मिथ्यादृष्टि त्रस अथवा स्थावर जीव को जानकर उसके वध का प्रत्याख्यान करता है, उसका प्रत्याख्यान संवर की अपेक्षा दुष्प्रत्याख्यान है, किंतु निर्जरा की अपेक्षा वह दुष्प्रत्याख्यान नहीं है, सुप्रत्याख्यान है। इसके समर्थन में उन्होंने आगम के अनेक संदर्भ प्रस्तुत किये हैं। प्रत्याख्यान की प्रथम अर्हता है-सम्यग् दर्शन। जो जीव और अजीव का भेद नहीं जानता, उसे सम्यग् दर्शन उपलब्ध नहीं होता। उसके अभाव में वह मुनि की भूमिका में नहीं जा सकता। तिविहं तिविहेणं-तीन योग-कृत, कारित और अनुमोदन, तीन करण-मन, वचन और शरीर से सब जीवों के वध का प्रत्याख्यान करना-यह मुनि की भूमिका है। सम्यग् दर्शन की भूमिका पर आरोहण किए बिना मुनि की भूमिका पर आरोहण करने का प्रत्याख्यान मिथ्या प्रत्याख्यान है। यह प्रस्तुत आलापक का प्रतिपाद्य है। कुछ अन्यतीर्थिक देश आराधक जाण धुर गुणठाणां नों धणी। अष्टम शतक पिछाण, दशम उदेशे भगवती ॥ सूत्र विपाक मझार, सुमुख दान दे मुनि भणी। कियो परित्त संसार, मनुष्य आउखो बांधियो । गज भव मेघकुमार, परित्त संसार दया थकी। धुर गुणठाणे धार, नर आयू बंध्यो तिणे॥ असोच्चा अधिकार, प्रथम गुणठाणे जिन कह्यो। अपोह अर्थ विचार, धर्म ध्यान परिणाम शुभ ॥ इत्यादिक अवलोय पहिला गणठाणां तणी। निरवद करणी जोय ते छै आज्ञा माहिली ॥ ते गाटै पहिछाण तेहना दुपचखाण ते। संवर आश्री जाण निर्जरा आश्री छै नहीं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई सम्यक्-दर्शन के अभाव में भी तीन योग, तीन करण से सब जीवों के वध का प्रत्याख्यान करते थे, उन्हीं को लक्ष्य में रखकर इस सूत्र की रचना की गईयह संभावना की जा सकती है। दुष्प्रत्याख्यान मिथ्या दर्शन तीन करण तीन योग से प्रत्याख्यान इसका फलित है - मिथ्या प्रत्याख्यान पच्चक्खाण-पदं २६. कतिविहे णं भंते! पच्चक्खाणे पण्णत्ते? गोयमा ! दुविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा मूलगुणपच्चक्खाणेय, उत्तरगुणपच्चक्खाणे य ॥ मिथ्या प्रत्याख्यान करने वाला साधु कहलाने पर भी वास्तव में साधु नहीं होता। वह असंयत, अविरत, अप्रतिहत-पाप-कर्म तथा अप्रत्याख्यात-पाप सुप्रत्याख्यान सम्यग् दर्शन तीन करण तीन योग से प्रत्याख्यान इसका फलित है -- सम्यग् प्रत्याख्यान ३४१ श.७ : उ.२ : सू.२७-३३ - कर्म वाला, सक्रिय, असंवृत - एकान्तदण्ड और एकान्त बाल होता है। वह वास्तव में साधु नहीं है और अपने आपको साधु कहता है । इसीलिए उसके वचन को असत्य वचन कहा गया है। सम्यक् प्रत्याख्यान करने वाला वास्तव में साधु होता है, इसलिए उसके सर्व जीवों के वध के प्रत्याख्यान का वचन सत्य होता है। वह संयत, विरत, प्रतिहत पाप कर्म तथा प्रत्याख्यात पाप-कर्म वाला, अक्रिय, संवृत्त और एकान्त पण्डित होता है। शब्द-विमर्श ३२. देसमूलगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पणते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - थूलाओ पाणावायाओ वेरमणं, धूलाओ मुसावायाओ वेरगणं, धूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमण, धूलाओ मेहुणाओ वेरमणं, धूलाओ परिग्गहाओ वेरमणं ॥ - ३०. मूलगुणपच्चक्खाणे णं भंते! कतिविहे मूलगुत्याख्यानं भदन्त! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? पण्णत्ते ? गोयमा दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सच्च- गतम! द्विविधं प्रज्ञप्तम् तद् यथा-सर्वमूलगुणपच्चक्खाणे य, देसमूलगुणपच्चक्खाणे मूलगुणप्रत्याख्यानं च, देशमूलगुणप्रत्याख्यानं य ॥ च। प्रत्याख्यान पदम् कतिविधं भदन्त ! प्रत्याख्यानं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! द्विविधं प्रत्याख्यानं प्रज्ञाप्तम्, तद् यथा - मूलगुणप्रत्याख्यानं च, उत्तरगुणप्रत्याख्यानं च। एकान्तदण्ड--सर्वथा दूसरे जीवों का वध करने वाला एकान्तबाल-सर्वथा विरति-शून्य एकान्तपण्डित सर्वथा विरति सम्पन्न महाती ३१. सव्वमूलगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे सर्वगुणमूलप्रत्याख्यानं भदन्त ! कतिविधं पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तम? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा सब्बाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओं वेरमणं, सब्बाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं ॥ गौतम पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणम्, सर्वस्मान् गृपावादाद् विरमणम्, सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमणम्, सर्वस्मान् मैथुनाद् विरमणम्, सर्वस्मात् परिग्रहाद् विरमणम् । च। देशमूलगुणप्रत्याख्यानं भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्, तद् यथास्थूलात् प्राणातिपाताद् विरमणम्, स्थूलान् मृषावादाद् विरमणम्, स्थूलाद् अदत्तादानाद् विरमगम्, स्थूलान् मैथुनाद् विरमगम्, स्थूलात् परिग्रहात् विरमणम्। ३३. उत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते! कतिविहे उत्तरगुणप्रत्याख्यानं भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञपुष्णते? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सब्बुत्तरगुणपच्चक्खाणे व देसुत्तरगुणपव्यवधाने प्तम् ? गौतम! द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद् यथा - सर्वोतरगुणप्रत्याख्यानं च, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं य ॥ प्रत्याख्यान-पद २६. ' भन्ते ! प्रत्याख्यान के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! प्रत्याख्यान के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-मूलगुणप्रत्याख्यान, उत्तरगुणप्रत्याख्यान । ३०. भन्ते! मूलगुण प्रत्याख्यान के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम! दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान, देशमूलगुणप्रत्याख्यान । ३१. भन्ते! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे---सर्वप्राणातिपातविरमण, सर्वमृषावादविरमण, सर्वअदत्तादानविरमण, सर्वमैथुनविरमण, सर्वपरिग्रहविरमण । ३२. भन्ते! देशमूलगुणप्रत्याख्यान के कितने प्रकार प्रज्ञप्त है ? गौतम! पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- स्थूलप्राणातिपातविरमण, स्थूलमृषावादविरमण, स्थूलअदत्तादानविरमण, स्थूलमेथुनविरमण, स्थूलपरिग्रहविरमण ३३. भन्ते! उत्तरगुणप्रत्याख्यान के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गीतम! दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- सर्वउत्तरगुणप्रत्या ख्यान, देशउत्तरगुणप्रत्याख्यान । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ उ.२ सू.२६-३५ भगवई ! ३४. सन्दुत्तरगुणपव्यवखाणे णं भंते! कतिविहे सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं भवन्तं ! कतिविधं ३४. भन्ते सर्वउत्तरगुप्रत्याख्यान के कितने प्रकार पण्णत्ते ? प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते, तं जहा प्राप्तम् ? गौतम! दशविधं प्रज्ञप्तम्, तद् यथा गौतम ! दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे गाथा गाहा १,२. अणागयमइक्कंतं ३. कोडीसहियं ४. नियंटियं चेव । ५,६. सागारमणागारं ७. परिमाणकडं ८. निरवसेसं । ६. संकेयं चेव १०. अद्धाए, पच्चक्खाणं भवे दसहा ||१|| ३४२ ३५. देसुत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते! कतिविहे देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? पण्णत्ते ? गोयमा! सत्ताविहे पण्णत्ते, तं जहां १. दिसि व्वयं २. उवभोगपरिभोगपरिमाणं ३. अणत्थदंडवेरमणं ४. सामाइयं ५. देसावगासियं ६. पोसहोववासी ७. अतिहिसंविभागों अपच्छिममारणंतियसंलेहणासणाराहणता। गीतम! सप्तविधं प्राप्तम् तद्यथा - 1. दिग् व्रतम् २. उपभोगपरिभोगपरिमाणम् ३. अनर्थदण्टविरमणम् ४. सामायिकम् ५. देशाव काशिकम् ६. पीषधोपवासः ७. अतिथिसंविभागः । अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजूवणाराधनता १. २. अनागतमतिक्रान्तं, ३. कोटिसहित ४. नियन्त्रितं चैव । ५.६. सागारमनागारं ७. परिमाणकृतं निरवशेषं । ६. संकेतं चैव १०. अद्धातः प्रत्याख्यानं भवेद् दशधा ||१|| १. (क) प्र. सा. २०८, २०६ वदसमिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । (ख) मूलाधार मूलगुणाधना २३ पंच य महव्वयाई समिदीओ पंच जिणवरुद्दिट्ठा । १. सूत्र २६-३५ साधना के क्षेत्र में दो प्रकार के गुणों की व्यवस्था की गई -- मूलगुण और उत्तरगुण । साधना के लिए जो अनिवार्य हैं, वे मूलगुण कहलाते हैं । साधना के विकास के लिए किए जाने वाले ऐच्छिक प्रयोग उत्तरगुण कहलाते हैं प्रस्तुत आलापक के अनुसार मुनि के लिए मूलगुण पांच और उत्तरगुण दल बतलाए गए हैं श्रावक के लिए अंशतः मूलगुण पांच और उत्तरगुण सात बतलाए गए हैं। दिगम्बर परम्परा में मूलगुणों का वर्गीकरण भिन्न प्रकार का है। वहां मुनि के लिए मूलगुण अट्ठाईस बतलाए गए हैं--पांच महाव्रत, पांच समितियां, पांच इन्द्रिय-निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षिति-शयन, अदन्त-घषर्ण - दंतोन न करना, स्थिति - भोजन -खड़े-खड़े भोजन करना, एक भक्त - दिन में एक बार भोजन करना । भाष्य मूलगुणों की संख्या का विकास किस आधार पर किया गया - यह अन्वेषण का विषय है। पांच महाव्रत मूलगुण हैं - यह तर्क-संगत तत्त्व है। उनके होने पर मुनित्व होता है; उनके अभाव में मुनित्व नहीं होता; इसलिए उन्हें मूलगुण कहा जा सकता है। क्षिति-शयन आदि उत्तर गुण हैं। इस प्रकार गाथा अनागत, अतिक्रान्त, कोटि-सहित, नियन्त्रित साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, संकेत, अध्वाइस प्रकार प्रत्याख्यान दस प्रकार का होता है। ३५. भन्ते । देशउत्तरगुणप्रत्याख्यान के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं। गौतम ! सात प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- १. दिग्व्रत, २. उपभोग-परिभोग- परिमाण, ३. अनर्थदण्ड- विरमण, ४. सामायिक, ५. देशावकाशिक, ६. पौषधोपवास, ७. अतिथिसंविभाग। अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषणा - आराधना । के गुणों की संख्या और अधिक मिल सकती है। श्रावक के लिए भी मूल पांच ही है। दिगम्बर परम्परा में श्रावक के मूलगुण आठ बतलाए गए हैं-पांच अणुव्रत तथा मद्य, मांस और मधु का परित्याग ।' यह उत्तरकालीन विकास है। वस्तुतः मूलगुण पांच अणुव्रत ही होने चाहिए। ठाणं में जो दस प्रत्याख्यान बतलाए हैं, वे मुनि के लिए उत्तरगुणप्रत्याख्यान होने चाहिए, जैसा कि भ ७/३३ के पाठ से स्पष्ट है। १. अनागत प्रत्याख्यान -भविष्य में करणीय तप को पहले करना। २. अतिक्रांत प्रत्याख्यान - वर्तमान में करणीय तप नहीं किया जा सके, उसे भविष्य में करना। ३. कोटि सहित प्रत्याख्यान - एक प्रत्याख्यान का अन्तिम दिन और दूसरे प्रत्याख्यान का प्रारम्भिक दिन हो, वह कोटि-सहित प्रत्याख्यान हैं। ४. नियन्त्रित प्रत्याख्यान - निरोग या ग्लान अवस्था में भी मैं “ अमुक प्रकार का तप अमुक-अमुक दिन अवश्य करूंगा” इस प्रकार का प्रत्याख्यान करना । ५. साकार प्रत्याख्यान - अपवाद सहित प्रत्याख्यान । पंचेविंदियरोध छप्पि य आवासया लोचो ॥ अच्चेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चैव ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठावीसा दु ॥ २. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ६६ मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम्। अष्टीला Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ भगवई श.७ : उ.२ : सू.२६-३५ ६. अनाकार प्रत्याख्यान-अपवाद-रहित प्रत्याख्यान। उसने अपनी पौषधशाला में सर्व पौषध अथवा प्रतिपूर्ण पोषध के प्रति ७. परिमाण कृत प्रत्याख्यान-दत्ति, कवल, भिक्षा, गृह, द्रव्य जागरणा की। आदि के परिमाण-युक्त प्रत्याख्यान। द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि (द्वितीय संस्करण) ५/२३ का टिप्पण। ८. निरवशेष प्रत्याख्यान-अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का अतिथि संविभाग-यह श्रावक का १२ वां व्रत है। इसे सम्पूर्ण परित्याग-युक्त प्रत्याख्यान। यथासंविभाग भी कहा जाता है। इसका अर्थ है-आत्मानुग्रह की बुद्धि से ६ संकेत प्रत्याख्यान-संकेत या चिन्ह-सहित किया जाने वाला आहार आदि एषणीय वस्तुओं का संयमी को संविभाग देना। प्रत्याख्यान। अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना-शरीर और कषाय को कृश १०. अध्वा प्रत्याख्यान-मुहूर्त, पौरुषी आदि कालमान के आधार करने के लिए की जाने वाली तपस्या संलेखना कहलाती है। उसका प्रयोग पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान।' समाधिमरण तक चलता है, इसलिए उसे पश्चिम मारणांतिक संलेखना कहा नियुक्ति काल में उत्तरगुण का दूसरा वर्गीकरण मिलता हैं। उसके जाता है। वृत्तिकार का मत है कि अमंगल का परिहार करने के लिए पश्चिम के अनुसार बारह प्रकार का तप उत्तरगुण है। शीलांक सूरि ने सूयगडो की स्थान पर अपश्चिम का प्रयोग किया गया है। उसकी प्रीतिपूर्वक अथवा वृत्ति में एक गाथा उद्धृत की है। उसमें तीसरा वर्गीकरण है और बहुत निष्ठापूर्वक आराधना करना अभीष्ट है। विकसित है। संलेखना का विधान मुनि और श्रावक दोनों के लिए है। यह दिग्वत आदि मूलगुण के विशेष प्रयोग हैं। इसलिए उन्हें उत्तरगुण समाधि-मरण की विधि है। मरण की कला सिखाने वालों में भगवान महावीर कहा गया है। अग्रणी हैं। दिग्व्रत-उर्ध्व, नीचे और तिरछी दिशा में जाने का परिमाण। संलेखना मृत्यु के भय से मुक्त होने की साधना है। भगवान महावीर उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत-जिनका एक बार भोग किया जा ने धार्मिक पुरुष को अभय और पराक्रमी होने का मंत्र दिया। संलेखना उसी सके, वे अशन, पान आदि वस्तुएं उपभोग कहलाती हैं। जिनका बार-बार भोग मंत्र-सिद्धि का उपाय है। संलेखना उत्तरगुण है। उसका संबंध देशोतर गुण किया जा सके वे आसन, शयन, वस्त्र आदि वस्तुएं परिभोग कहलाती हैं। और सर्वोत्तर गुण दोनों से है श्रावक के लिए यह देशोत्तर गुण है।" अनर्थदण्डविरमण-अपध्यान, प्रमाद, मारक शस्त्र देना आदि । संलेखना की विधि के लिए आयारो /८/१,३ का तथा आचरणों से विरत होना। उत्तरज्झयणाणि ३०/१२,१३ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं। सामायिक-एक मुहूर्त तक सावद्य प्रवृत्ति का त्याग और निरवद्य __पांच अणुव्रत देशतः मूलगुण बतलाए गए हैं। सात व्रत देशतः प्रवृत्ति का परिसेवन । उत्तरगुण बतलाए गए हैं। तत्त्वार्थ भाष्य में सात व्रतों के लिए उत्तरगुण के देशावकाशिक-दिग्वत की निर्धारित सीमा का अल्पकाल के लिए स्थान पर उत्तरव्रत का प्रयोग मिलता है।२ पुनः संकोच करना। अन्यत्र कहीं उत्तरगुण और 'उत्तरव्रत' का प्रयोग उपलब्ध नहीं ____ मुख्यतः इसका संबंध दिग्व्रत के साथ है। हरिभद्रसूरि ने वृद्ध परम्परा हुआ है। का उल्लेख किया है। उसके अनुसार 'आजीवन स्वीकृत अणुव्रतों की सीमा का उवासगदसाओ में पांच अणुव्रतों के पश्चात् अनर्थदण्ड के प्रत्याख्यान और अधिक संकोच करना'। का विधान है। अतिचार के प्रकरण में इच्छा-परिमाण के अणुव्रत के पश्चात् पौषधोपवास-आहार, शरीर-संस्कार, सावध व्यापार का त्याग दिग्व्रत, उपभोग-परिभोग-परिमाण, अनर्थदण्डविरमण, सामायिक, देशावऔर ब्रह्मचर्य के पालन-पूर्वक एक दिन-रात तक साधना का विशेष प्रयोग। यह काशिक, पौषधोपवास, यथासंविभाग का उल्लेख है। इन बारह व्रतों के दो प्रकार का होता है-देश पौषध और सर्व पोषध । देश पौषध अल्पकालिक पश्चात् मारणांतिक संलेखना का उल्लेख है।" भी होता है। उसमें आहार वर्जित नहीं होता। शंख प्रमुख श्रमणोपासकों ने देश उवासगदसाओ में श्रावक के मूलगुण और उत्तरगुण का विभाग पौषध करने का संकल्प किया था। श्रमणोपासक शंख का चिंतन बदल गया। नहीं है, वहां बारह व्रतों के दो विभाग उपलब्ध हैं-पांच अणुव्रत और सात १. ठाणं, १०/१०१। दस प्रत्याख्यानों की व्याख्या के लिए इस सूत्र का टिप्पण द्रष्टव्य है। स्थानं प्रतिदिनं प्रमाणकरणं देशावकाशिकम्, दिग्व्रतगृहीतदिक्परिमाणस्यैकदेशः-अंशः २. सूत्र. नि. १/१४/१२६ तस्मिन्नवकाशः-- गमनादि चेष्टा स्थान देशावकाशस्तेन निर्वृतं देशावकाशिकम, एतच्चाणु मूलगुणे पंचविहो उत्तरगुण बारसविहो उ । व्रतादिगृहीतदीर्घतरकालावधिविरतिरपि प्रतिदिनं संक्षेपोपलक्षणमिति पूज्या वर्णयन्ति। ३. सूत्र. वृ. प. २४७ ८. भ. १२/४,५,१४। पिंडस्स जा विसोही समिईओ भावणा तवो दुविहो। वही, १२/६, १३॥ पडिमा अभिगाहाविय उत्तरगुणओ वियाणाहि॥ १०. भ. वृ. ७/३५–पश्चिमैवामंगलपरिहारार्थमपश्चिमा । ४. भ. बृ. ७/३५-उपभोगः-सकृद् भोगः, स चाशनपानानुलेपनादीना, परिभोगस्तु पुनः ११. वही, ७/३५-इह च सप्त दिव्रतादयो देशोत्तरगणा एव. संलेखनात भजनया तथाहिपुनर्भोगः, स चासनशयनवसनवनितादीनाम्।। सा देशोत्तरगुणवतो देशोत्तरगुणः आवश्यके तथाऽभिधानात, इतरस्य तु सर्वोत्तरगुणः साकारा५. आव. चू. (जिनदास), उत्तरार्ध, पृ.२६९-सामातिय नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं नाकारादि प्रत्याख्यानरूपत्वादिति संलेखनामविगणय्य सप्त देशोत्तरगुणा इत्युक्तम्। अस्याणिरवज्जजोगपरिसेवणं च। श्चैतेषु पाठो देशोत्तरगुणधारिणाऽपीयमन्ते विधातव्य इत्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थ इति ।। ६. वही, पृ. ३०२-पूर्व दिक्खु तं बहणि जोयणाणि आसि, इदाणिं दिवसे दिवसे ओसारेति। १२. त. स. भा. ७/१६-एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरततः सम्पन्नोऽगारी व्रती भवति। ७. आव. नि. हा. ७. पृ. २३०-गृहीतस्य दिक्परिमाणस्य दीर्घकालस्य यावज्जीव- १३. उवा. १/३०॥ संवत्सर-चतुर्मासादिभेदस्य योजनशतादिरूपत्वात् प्रत्यहं तावत् परिमाणस्य गन्तुमशक्यत्वात् १४. वही, १/३७-४३। प्रतिदिनं प्रतिदिवसमित्येतच्च प्रहरमुहूर्ताद्युपलक्षणं प्रमाणकरण दिवसादिगमनयोग्यदेश- १५. वही, १/४४। Jain Education Intemational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.२ : सू.२६-४० शिक्षावत आवश्यक चूर्ण में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिधावतये तीन विभाग मिलते हैं। उसमें उवासगदसाओ में उपलब्ध सात शिक्षाव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत- इन दो भागों में विभक्त हो गए। प्रतीत होता है कि गुणव्रत और शिक्षाव्रत का विभाग तत्त्वार्थ सूत्र की रचना के उत्तरकाल में विकसित हुआ है तत्त्वार्थ भाष्य में यह विभाग उपलब्ध नहीं है। सिद्धसेन गणी ने इनका उल्लेख किया है। सर्वार्थसिद्धि और भगवती आराधना में भी तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का विभाग मिलता है किंतु व्रतों की संख्या का क्रम भिन्न है उनके अनुसार दिव्रत, देशावकाशिक और अनर्थदण्ड ये तीन गुणव्रत हैं। सिद्धसेनगणि के अनुसार पच्चक्खाणि अपव्यवखाणि पदं ३६. जीवा णं भंते! किं मूलगुणपच्चक्खाणी? उत्तरगुणपच्चक्खाणी? अपव्यवखाणी? गोयमा ! जीवा मूलगुणपच्चक्खाणी वि, उत्तरगुणपचखाणी वि, अपच्यवखानी वि ३७. नेरइया णं भंते! किं मूलगुणपच्चक्खाणी? पुच्छा। गोयमा ! नेरइया नी मूलगुणपच्चक्खाणी, नो उत्तरगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी ॥ ३८. एवं जाव चउरिंदिया ॥ ३६. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा व जहा जीवा, वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया ॥ ४०. एएसि णं भंते जीवाणं मूलगुणपच्च क्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणीणं, अपच्चक्खाणीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया या? गोवमा ! सव्वधोवा जीवा मूलगुणपच्च क्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी अनंतगुणा ॥ ३४४ भगवई दिग्वत उपभोग परिभोग परिमाण और अनर्थदण्ड विरमण-पे तीन गुणवत हैं। महापुराण में इस मतभेद का उल्लेख मिलता है' चारित्रपाहुड़ और वसुनन्दी श्रावकाचार में मारणातिक संलेखना को शिक्षाव्रत की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है। प्रथम आठ व्रत यावज्जीवन के लिए होते हैं और अन्तिम चार शिक्षाव्रत अल्पकालिक होते हैं।" संभावना की जा सकती है कि सात शिक्षाव्रतों में से प्रथम तीन यावज्जीवन के लिए स्वीकृत किए जाते हैं और चार अल्पकाल के लिए इस कालावधि-भेद के आधार पर प्रथम तीन शिक्षाव्रतों को तीन गुणव्रत के रूप में स्थापित कर दिया गया। प्रत्याख्यानि - अप्रत्याख्यानि -पदम् जीवाः भदन्त ! किं मूलगुणप्रत्याख्यानिनः ? उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः ? अप्रत्याख्यानिनः ? गौतम! जीवाः मूलगुणप्रत्याख्यानिनः अपि, उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः अपि अप्रत्याख्यानिनः अपि । नैरयिकाः भदन्त । किं मूलगुणप्रत्याख्यानिनः ? पृच्छा। गौतम! नैरयिकाः नो मूलगुणप्रत्याख्यानिनः, नो उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः, अप्रत्याख्यानिनः । एवं यावच् चतुरिन्द्रियाः। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः मनुष्याश्च यथा जीवाः, वानमन्तर- ज्यौतिष्क- वैमानिकाः यथा नैरयिकाः । १. त. सू. भा. वृ. ७/१६ -- तत्र गुणव्रतानि त्रीणि दिग्भोगपरिभोगपरिमाणानर्थदण्डविरतिसंज्ञान्यनुव्रतानां भवभूतिय यावज्जीवं भावनीयानि । शिक्षापदवतानि - सामायिकदेशावकाशिकपौषधोपवासातिथिसंविभागाख्यानि चत्वारि । एतेषां भदन्त जीवानां मूलगुणप्रत्याख्यानिनाम्, उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनाम्, अप्रत्याख्यानिनां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? गीतम! सर्वस्तोकाः जीवा मूलगुणप्रत्याख्यानिनः, उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः असंख्येयगुणाः, •अप्रत्याख्यानिनः अनन्तगुणाः । २. (क) सर्वार्थसिद्धि ७/२१ - दिग्विरतिः देशविरतिः अनर्थदण्डविरतिरिति एतानि त्रीणि गुणव्रतानि । (ख) भगवती आराधना, २०८१ - जं च दिसावेरमणं अणत्थदंडेहिं जं च वेरमणं। देसावासि पि य गुणव्वयाइं भवे ताई । ३. देखें, ऊपर पाद-टिप्पण नं. १1 ४. महापुराण, १०/१६५ प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी पद ३६. ' भन्ते ! जीव क्या मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं ? उत्तरगुणप्रत्याख्यानी हैं ? अप्रत्याख्यानी हैं? गौतम जीव मूलगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं। ३७. भन्ते! नैरयिक क्या मूलगुणप्रत्याख्यानी है? पृच्छा गौतम! नैरमिक मूलगुणप्रत्याख्यानी नहीं है, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी नहीं हैं, अप्रत्याख्यानी है। ३८. चतुरिन्द्रिय जीवों तक इसी प्रकार वक्तव्य है। ३६. पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक और मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य है ानमन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव नैरयिक की भांति वक्तव्य है। ४०. भन्ते! इन मूलगुणप्रत्याख्यानी उत्तरगुणप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी जीवों में कौन किनसे अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिः स्यादणुव्रतम् । भोगोपभोगसंख्यानमप्याहुस्तद् गुणव्रतम् ॥ ५. चारित्रपाहुड, गा. २६ गीतम ! मूलगुणप्रत्याख्यानी जीव सबसे अल्प हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी जीव उनसे असंख्येयगुना अधिक हैं, अप्रत्याख्यानी जीव उनसे अनन्तगुना अधिक हैं। सामाइयं च पढमं, बिदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं च अतिहिपुञ्ज, चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥ ६. वसुनन्दी श्रावकाचार, गा. २१७, २१८, २७०। ७. आव. चू. भाग २, पृ. ३०७ - एमेवेसो दुवालसविहो गिहत्थधम्मो एत्थ पंच अणुब्वया तिष्णि गुणव्वया, एएसिं दोन्हवि थिरीकरणानि चत्तारि सिक्खावयाणि इत्तिरियाणि, सेसाणि अट्ठवि आवकहियाणि णायव्वाणि । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३४५ श.७ : उ.२ : सू.३६-४५ ४१. एएसिणं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं एतेषां भदन्त ! पंचेन्द्रितिर्यग्योनिकानां पृच्छा। ४१. भन्ते ! इन पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों में पृच्छा। पुच्छा। गोयमा! सव्वत्थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया गौतम! सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः गौतम! पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिक जीवों में सबसे अल्प मूलगुणपच्चक्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी मूलगुणप्रत्याख्यानिनः उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी उनसे असंखेन्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्ज- __ असंख्येयगुणाः, अप्रत्याख्यानिनः असंख्येय- असंख्येयगुना अधिक हैं, अप्रत्याख्यानी उनसे गुणा॥ गुणाः। असंख्येयगुना अधिक हैं। ४२. एएसि णं भंते! मणुस्साणं मूलगुणपच्च- एतेषां भदन्त! मनुष्याणां मूलगुणप्रत्याख्या- ४२. भन्ते! इन मूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्यों में पृच्छा। क्खाणीणं पुच्छा। निनां पृच्छा। गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सा मूलगुणपच्च- गौतम! सर्वस्तोकाः मनुष्याः मूलगुणप्रत्या- गौतम! मूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य सबसे अल्प हैं, क्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी संखेज्जगुणा, ख्यानिनः,उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः संख्येय- उत्तरगुणप्रत्याख्यानी उनसे संख्येयगुना अधिक हैं, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा ॥ गुणाः, अप्रत्याख्यानिनः असंख्येयगुणाः। अप्रत्याख्यानी उनसे असंख्येयगुना अधिक हैं। भाष्य १. सूत्र ३६-४२ अल्प-बहुत्व मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में चार प्रकृतियां ऐसी हैं, जिनका अभयदेवसूरि ने लिखा है-सर्वविरत मुनियों में जो उत्तरगुण वाले तीव्र विपाक होने पर प्रत्याख्यान का परिणाम उत्पन्न नहीं होता; उनकी संज्ञा हैं वे निश्चित ही मूलगुण वाले है। मूलगुण वालों में उत्तरगुण वाले होते भी हैं है-अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क। कुछ मनुष्य और कुछ पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्च अपने और नहीं भी होते। यहां वे मूलगुण वाले विवक्षित हैं, जो उत्तरगुण वाले नहीं हैं। प्रशस्त अध्यवसायों के द्वारा अप्रत्याख्यानावरण के विपाक को मंद कर देते हैं, अधिक मुनि उत्तरगुण-युक्त होते हैं, इसलिए केवल मूलगुण वालों की अपेक्षा इसलिए उनमें मूलगुणप्रत्याख्यान अथवा उत्तरगुणप्रत्याख्यान के परिणाम उत्पन्न उत्तरगुण वाले संख्यातगुना अधिक हैं। हो जाते हैं। नैरयिक जीव बहुत आर्त्त होते हैं। वे निरन्तर दुःख से पीडित रहते देशविरत श्रावकों में मूलगुण वालों से भिन्न उत्तरगुण वाले अधिक हैं; देव बहुत सात वेदनीय का अनुभव करते हैं; वे सुख में अधिक लीन होते हैं; मिलते हैं। उन देशविरत मूलगुण वालों की अपेक्षा केवल उत्तरगुण वाले असंख्याइसलिए उन दोनों में अप्रत्याख्यानावरण के विपाक को मंद करने का पुरुषार्थ तगुना अधिक हैं।' प्रकट नहीं होता। शेष सब जीव अमनस्क होने के कारण वैसे पुरुषार्थ का मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-गर्भज और सम्मूर्छिम । गर्भज मनुष्य संकल्प ही नहीं करते, इसलिए वे अप्रत्याख्यानी होते हैं। संख्येय ही होते हैं। सम्मूर्छिम मनुष्य असंख्येय होते हैं। उनकी अपेक्षा से ही अप्रत्याख्यानी मनुष्य को असंख्येयगुना अधिक कहा गया है। ४३. जीवा णं भंते ! किं सव्वमूलगुणपच्चक्खा- जीवाः भदन्त ! किं सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानिनः? ४३. ' भन्ते ! जीव क्या सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं? णी? देसमूलगुणपच्चक्खाणी? अपच्चक्खा- देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः? अप्रत्याख्यानिनः? देशमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं? अप्रत्याख्यानी हैं? णी? गोयमा! जीवा सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी वि, गौतम! जीवाः सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानिनः गौतम ! जीव सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, देशमूलगुणदेसमूलगुणपच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी अपि, देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः अपि, अ- प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं । प्रत्याख्यानिनः अपि। वि। ४४. नेरइयाणं पुच्छा। नैरयिकाणां पृच्छा। गोयमा ! नेरइया नो सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी, गौतम! नैरयिकाः नो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानो देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी॥ निनः, नो देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः, अप्रत्या- ख्यानिनः। ४४. नैरयिकों की पृच्छा। गौतम! नैरयिक सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी नहीं हैं, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी नहीं हैं, अप्रत्याख्यानी हैं। ४५. एवं जाव चउरिंदिया ॥ एवं यावच् चतुरिन्द्रियाः। ४५. चतुरिन्द्रिय जीवों तक इसी प्रकार वक्तव्य है। १. भ. वृ.७/४०-इह च सर्वविरतेषु ये उत्तरगुणवन्तस्तेऽवश्यं मूलगुणवन्तः, मूलगुणवन्तस्तु स्यादुत्तरगुणवन्तः स्यात्तद्विकलाः, य एव च तद्विकलास्त एवेह मूलगुणवन्तो ग्राह्याः, ते चेतरेभ्यः स्तोका एव, बहुतरयतीनां दशविधप्रत्याख्यानयुक्तत्वात्, तेऽपि च मूलगुणेभ्यः सङ्ख्यातगुणा एवं नासङ्ख्यातगुणाः, सर्वयतीनामपि सङ्ख्यातत्वात, देशविरतेषु पुनर्मूलगुणवद्भ्यो भिन्ना अप्युत्तरगुणिनो लभ्यन्ते, ते च मधुमांसादिविचित्राभिग्रहवशाबहुतरा भवन्तीतिकृत्वा देशविरतोत्तरगुणवतोऽधिकृत्योत्तरगुणवतां मूलगुणवद्भयोऽसङ्घयातगुणत्वं भवति। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.७ : उ.२ : सू.४६-५२ ३४६ ४६. पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा। गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया नो सव्व- गौतम! पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः नो सर्व- मूलगुणपच्चक्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी, मूलगुणप्रत्याख्यानिनः, देशमूलगुणप्रत्याख्याअपच्चक्खाणी वि॥ निनः, अप्रत्याख्यानिनः अपि। ४६. पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीवों की पृच्छा। गौतम! पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी नहीं है, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं। ४७. मणुस्सा णं भंते! किं सव्वमूलगुणपच्च- मनुष्याः भदन्त! किं सर्वमूलगुणप्रत्याख्या- ४७. भन्ते! मनुष्य क्या सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं? क्खाणी? देसमूलगुणपच्चक्खाणी? अपच्च- निनः? देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः ? अप्रत्या- देशमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं? अप्रत्याख्यानी हैं? क्खाणी? ख्यानिनः? गोयमा! मणुस्सा सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी वि, गौतम! मनुष्याः सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानिनः गौतम! मनुष्य सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान भी हैं, देशमूलगुणदेसमूलगुणपच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी अपि, देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः अपि, अप्रत्या- प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं। ख्यानिनः अपि। वि॥ ४८. वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा नेरइया। वानमन्तर-ज्यौतिष-वैमानिकाः यथा नैर- ४८. वानमन्तर, ज्योतिष्त और वैमानिक देव नैरयिक यिकाः। जीवों की भांति वक्तक ४६. एएसि णं भंते! जीवाणं सव्वमूलगुण- एतेषां भदन्त! जीवानां सर्वमूलगुणप्रत्याख्या- ४६. भन्ते! इन सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी, देशमूलगुणप्रत्यापच्चक्खाणीणं, देसमूलगुणपच्चक्खाणीणं, निनां, देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनाम्, अप्रत्या- ख्यानी और अप्रत्याख्यानी जीवों में कौन किनसे अल्प, अपच्चक्खाणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा ख्यानिनां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सव्वमूलगुणपच्च- गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः सर्वमूलगुणप्रत्या- गौतम! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी जीव सबसे अल्प हैं, क्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी असंखे- ख्यानिनः, देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः असंख्ये- देशमूलगुणप्रत्याख्यानी उनसे असंख्येयगुना अधिक हैं, ज्जगुणा, अपच्चक्खाणी अणंतगुणा ॥ यगुणाः, अप्रत्याख्यानिनः अनन्तगुणाः। अप्रत्याख्यानी उनसे अनन्तगुना अधिक हैं। ५०. एएसिणं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं एतेषां भदन्त! पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां ५०. भन्ते! इन पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों में पृच्छा । पुच्छा। पृच्छा। गोयमा! सव्वत्थोवा पंचिदियतिरिक्खजोणिया गौतम! सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः गौतम! देशमूलगुणप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी अ- देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः, अप्रत्याख्यानिनः, जीव सबसे अल्प हैं, अप्रत्याख्यानी उनसे असंख्येयसंखेज्जगुणा ॥ असंख्येयगुणाः । गुना अधिक है। ५१. एएसि णं भंते! मणुस्साणं सव्वमूलगुण- एतेषां भदन्त! मनुष्याणां सर्वमूलगुणप्रत्या- ५१.भन्ते! इन सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्यों की पृच्छा। पच्चक्खाणीणं पुच्छा। ख्यानिनां पृच्छा। गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सा सव्वमूलगुण- गौतम! सर्वस्तोकाः मनुष्याः सर्वमूलगुण- गौतम! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य सबसे अल्प पच्चक्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी संखे- प्रत्याख्यानिनः, देशमूलगुणप्रत्याख्यानिनः हैं, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य उनसे संख्येयगुना ज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा ॥ संख्येयगुणाः, अप्रत्याख्यानिनः असंख्येय- अधिक हैं, अप्रत्याख्यानी मनुष्य उनसे असंख्येयगुना अधिक हैं। गुणाः। ५२. जीवाणं भंते! किं सबुत्तरगुणपच्चक्खाणी? जीवाः भदन्त! किं सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः? ५२. भन्ते! जीव क्या सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी हैं ? देशो देसुत्तरगुणपच्चखाणी? अपच्चक्खाणी? देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः? अप्रत्याख्यानिनः? तरगुणप्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी हैं ? गोयमा! जीवा सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणी वि, गौतम! जीवाः सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः गौतम! जीव सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, देशोत्तरदेसुत्तरगुणपच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी अपि, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानिनः अपि, अ- गुण प्रत्याख्यानी भी है, अप्रत्याख्यानी भी हैं। वि। प्रत्याख्यानिनः अपि। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य एवं चेव। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः मनुष्याश्च एवं चैव। पंचेन्द्रियतिर्यगयोनिक जीव और मनुष्य इसी प्रकार सेसा अपच्चक्खाणी जाव वेमाणिया ॥ शेषाः अप्रत्याख्यानिनः यावद् वैमानिकाः। वक्तव्य हैं। वैमानिक देवों तक शेष सभी जीव अ प्रत्याख्यानी हैं। Jain Education Intemational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३४७ श.७ : उ.२ : सू.४३-५७ ५३. एएसि णं भंते! जीवाणं सबुत्तरगुण- एतेषां भदन्त! जीवानां सर्वोत्तरगुणप्रत्या- ५३. भन्ते! इन सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी, देशोत्तरगुणपच्चक्खाणीणं अप्पाबहुगाणि तिण्णि वि जहा ख्यानिनाम् अल्पबहुकानि त्रीणि अपि, यथा प्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी जीवों में कौन किनसे पढमे दंडए जाव मणुस्साणं॥ प्रथमे दण्डके यावन् मनुष्याणाम् । अल्प, अधिक, तुल्य विशेषाधिक है ? प्रथम दण्डक की भांति तीनों हैं । (सू० ४०-४२) यावत् मनुष्यों तक वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र ४३-५३ सर्वमूलगुण का प्रत्याख्यान केवल मनुष्य के होता है, तिर्यञ्च के नहीं होता। इस अपेक्षा से पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च को देशमूलगुणप्रत्याख्यानी कहा है। ५४. जीवा णं भंते ! किं संजया ? असंजया? जीवाः भदन्त ! किं संयताः? असंयताः? ५४.' भन्ते! जीव क्या संयत हैं ? असंयत हैं ? संयतासंयत संजयासंजया ? संयतासंयताः? गोयमा! जीवा संजया वि, असंजया वि, गौतम! जीवाः संयताः अपि, असंयताः अपि, गौतम! जीव संयत भी हैं, असंयत भी हैं, संयतासंयत संजयासंजया वि । एवं जहेव पण्णवणाए तहेव संयतासंयताः अपि। एवं यथैव प्रज्ञापनायां भी हैं। इस प्रकार वैमानिक जीवों तक पण्णवणा की भाणियव्वं जाव वेमाणिया। अप्पाबहुगं तहेव तथैव भणितव्यं यावद् वैमानिकाः। अल्प- भांति वक्तव्य हैं। तीनों का अल्प-बहुत्व भी प्रथम दण्डक तिण्ह वि भाणियव्वं ॥ बहुकं तथैव त्रयाणामपि भणितव्यम् । (सूत्र ४०-४२) की भांति वक्तव्य है। ५५. जीवाणं भंते! किं पच्चक्खाणी? अपच्च- जीवाः भदन्त! किं प्रत्याख्यानिनः ? अप्रत्या- ५५. भन्ते! जीव क्या प्रत्याख्यानी हैं ? अप्रत्याख्यानी हैं ? क्खाणी? पच्चक्खाणापच्चक्खाणी? ख्यानिनः? प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानिनः? प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी हैं ? गोयमा! जीवा पच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी गौतम! जीवाः प्रत्याख्यानिनः अपि, अप्रत्या- गौतम! जीव प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं, वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि ॥ ख्यानिनः अपि, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानिनः प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी भी हैं। अपि। ५६. एवं मणुस्साण वि। पंचिंदियतिरिक्ख- एवं मनुष्याणामपि। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ५६. इसी प्रकार मनुष्यों की वक्तव्यता। पंचेन्द्रिय तिर्यगजोणिया आदिल्लविरहिया। सेसा सव्वे अप- आदिमविरहिताः। शेषाः सर्वे अप्रत्याख्यानिनः योनिक जीव प्रत्याख्यानी नहीं हैं। वैमानिक देवों तक च्चक्खाणी जाव वेमाणिया ॥ यावद् वैमानिकाः । शेष सभी जीव अप्रत्याख्यानी हैं। ५७. एएसि णं भंते! जीवाणं पच्चक्खाणीणं एतेषां भदन्त! जीवानां प्रत्याख्यानिनाम् ५७. भन्ते! इन प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्या अपच्चक्खाणीणं पच्चक्खाणापच्चक्खाणीण अप्रत्याख्यानिनां प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानिनां च ख्यानी-अप्रत्याख्यानी जीवों में कौन किससे अल्प, य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा? कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा ? अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? तुल्याः वा ? विशेषाधिकाः वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा पच्चक्खाणी, गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः प्रत्याख्यानिनः, गौतम! प्रत्याख्यानी जीव सबसे अल्प हैं, प्रत्याख्यानीपच्चक्खाणापच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानिनः असंख्येयगुणाः, अप्रत्याख्यानी जीव उनसे असंख्येयगुना अधिक हैं, अपच्चक्खाणी अणंतगुणा। अप्रत्याख्यानिनः अनन्तगुणाः। अप्रत्याख्यानी जीव उनसे अनन्तगुना अधिक हैं। पंचिंदियातिरिक्खजोणिया सव्वत्थोवा पच्च- पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः सर्वस्तोकाः प्रत्या- पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों में सबसे अल्प प्रत्याख्याक्खाणापच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी अ- ख्यानाप्रत्याख्यानिनः, अप्रत्याख्यानिनः नी-अप्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी उनसे असंख्येयसंखेज्जगुणा। असंख्येयगुणाः । गुना अधिक हैं। मणुस्सा सव्वत्थोवा पच्चक्खाणी, पच्च- मनुष्याः सर्वस्तोकाः प्रत्याख्यानिनः, प्रत्या- मनुष्यों में प्रत्याख्यानी सब से अल्प हैं, प्रत्याख्यानीक्खाणापच्चक्खाणी संखेज्जगुणा, अपच्च- ख्यानाप्रत्याख्यानिनः संख्येयगुणाः, अप्रत्या- अप्रत्याख्यानी उनसे संख्येयगुना अधिक है, अप्रत्याक्खाणी असंखेज्जगुणा ॥ ख्यानिनः असंख्येगुणाः। ख्यानी उनसे असंख्येयगुना अधिक है। Jain Education Intemational Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.२: सू.५४-६० ३४८ भगवई भाष्य १. सूत्र ५४-५७ असंयत-जो सावध आचरणों का प्रत्याख्यान नहीं करता। संयम और प्रत्याख्यान के आधार पर सब जीव तीन श्रेणियों में . संयतासंयत-जो सावध आचरणों का अंशतः प्रत्याख्यान करता वर्गीकृत होते हैं१. संयत २. असंयत ३. संयतासंयत अल्पबहुत्व१, प्रत्याख्यानी २. अप्रत्याख्यानी ३. प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मेथुन और परिग्रह अथवा अठारह १. जीवपाप-इन सावध प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान करने वाला प्रत्याख्यानी कहलाता है।' संयत सबसे अल्प संयतासंयत संयम का अर्थ है-सावद्य प्रवृत्ति से विरत होना। मन, वाणी और असंख्येयगुना अधिक शरीर-इन तीनों का संयम करने वाला संयत कहलाता है। जिस व्यक्ति में असंयत अनंतगुना अधिक संयम के परिणाम उत्पन्न होते हैं वह सावद्य प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान करता है। २. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चसंयम का परिणाम पूर्व क्रिया है और प्रत्याख्यान उत्तरक्रिया हैं। प्रत्याख्यान के संयतासंयत सबसे अल्प द्वारा संयम का परिणाम पुष्ट होता है। अतीत के पाप की गर्दा करना संयम है। असंयत असंख्येयगुना अधिक अनागत में होने वाले सावद्य आचरणों का त्याग करना भी संयम हैं संयम वर्तमान क्षण में होता है। अतीत के सावध आचरणों की गर्दा, अनागत के ३. मनुष्यसावध आचरणों का प्रत्याख्यान-ये दोनों संयम के सेतु हैं। संयत सबसे अल्प संयतासंयत सख्येयगुना अधिक शब्द-विमर्श असंयत असंख्येय गुना अधिक संयत-जो सावध आचरणों का सर्वथा प्रत्याख्यान करता है। प्रत्याख्यानी-त्रिक का अल्पबहुत्व संयत-त्रिक की भांति वक्तव्य है। सासय-असासय-पदं शाश्वत-अशाश्वत-पदम् शाश्वत-अशाश्वत-पद ५८. जीवा णं भंते ! किं सासया ? असासया? जीवाः भदन्त्! किं शाश्वताः अशाश्वताः? ५८. ' भन्ते! जीव क्या शाश्वत हैं ? अशाश्वत हैं ? गोयमा! जीवा सिय सासया, सिय असासया। गौतम! जीवाः स्यात् शाश्वताः, स्याद् अशा- गौतम! जीव स्यात् शाश्वत हैं, स्यात् अशाश्वत हैं। श्वताः । ५६. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-जीवा सिय तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-जीवाः ५६. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीव सासया ? सिय असासया? स्यात् शाश्वताः? स्याद् अशाश्वताः? स्यात् शाश्वत हैं, स्यात् अशाश्वत हैं ? गोयमा! दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असा- गौतम! द्रव्यार्थतया शाश्वताः, भावार्थतया गौतम! द्रव्यार्थता (द्रव्यराशि) की अपेक्षा जीव शाश्वत गौतम! द्रव्या सया। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ- अशाश्वताः। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमु- हैं, भावार्थता (पर्याय) की अपेक्षा जीव अशाश्वत हैं। जीवा सिय सासया, सिय असासया ॥ च्यते-जीवाः स्यात् शाश्वताः, स्याद् अ- गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीव शाश्वताः। स्यात् शाश्वत हैं, स्यात् अशाश्वत हैं। ६०. नेरइया णं भंते ! किं सासया? असासया? नैरयिकाः भदन्त! किं शाश्वताः? अशाश्- ६०. भन्ते! नैरयिक क्या शाश्वत है? अशाश्वत हैं? वताः? एवं जहा जीवा तहा नेरइया वि। एवं जाव एवं यथा जीवाः तथा नैरयिकाः अपि। एवं जिस प्रकार जीव की वक्तव्यता, उसी प्रकार नैरयिकों वेमाणिया सिय सासया, सिय असासया ॥ यावद् वैमानिकाः स्यात् शाश्वताः, स्याद् अ- की वक्तव्यता। इस प्रकार वैमानिक देवों तक सभी शाश्वताः। जीव स्यात् शाश्वत हैं, स्यात् अशाश्वत हैं। भाष्य १. सूत्र ५८-६० दर्शन विशुद्ध रूप से उच्छेदवाद का प्रवक्ता है। सांख्य दर्शन में शाश्वतवाद और अशाश्वतवाद दोनों की प्रतिष्ठा है। उसके अनुसार पुरुष शाश्वत है, कूटस्थ भारतीय तत्त्वचिंतन में शाश्वत और अशाश्वत का प्रश्न निरन्तर चर्चित रहा है। वेदाना दर्शन केवल शाश्वतवाद का निरूपक है, तो बौद्ध नित्य है। प्रकृति की विकृति अशाश्वत है। जैन दर्शन ने शाश्वतवाद और १. भ.७/३१,२/६८। Jain Education Intemational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३४६ श.७ : उ.२ : सू.५८-६१ अशाश्वतवाद दोनों को मान्य किया। उसके अनुसार केवल शाश्वत अथवा केवल अशाश्वत जैसा कोई द्रव्य नहीं हैं। प्रत्येक द्रव्य शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। शाश्वत और अशाश्वत का सिद्धान्त अनेकान्त का मुख्य आधार है। द्रव्य की संरचना के दो पक्ष हैं--१. प्रदेश-राशि २. भाव अथवा । पर्याय। प्रत्येक द्रव्य की द्रव्यराशि-प्रदेश-राशि निश्चित है। उसका एक प्रदेश अथवा परमाणु भी न्यूनाधिक नहीं होता। वह अतीत में जितनी थी, वर्तमान में उतनी ही है और भविष्य में उतनी ही रहेगी। इस प्रदेश-राशि की अपेक्षा द्रव्य शाश्वत होता है। जीव एक द्रव्य है, इसलिए वह भी शाश्वत है। प्रत्येक द्रव्य में परिणमन अथवा परिवर्तन होता रहता है।' स्वाभाविक परिवर्तन सभी द्रव्यों में होता है। वैभाविक परिवर्तन देहधारी जीव और पुद्गल में होता है। इस भाव अथवा पर्याय की अपेक्षा से द्रव्य अशाश्वत है। द्रव्य शाश्वत और आशाश्वत दोनों हैं, किंतु दोनों का आधार एक नहीं है। शाश्वत का आधार है प्रदेश-राशि और अशाश्वत का आधार है भाव अथवा पर्याय। जीव की भांति परमाणु भी शाश्वत और अशाश्वत दोनों हैं। द्रव्य की अपेक्षा परमाणु शाश्वत है। परमाणु का अस्तित्व त्रैकालिक है। इसका द्रव्यत्व कभी विनष्ट नहीं होता। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदलते रहते हैं, इसलिए पर्याय की अपेक्षा वह अशाश्वत है। शाश्वत और अशाश्वत की विवक्षा प्रवाह अथवा निरन्तरता की अपेक्षा से भी की गई है। नैरयिक अव्युच्छित्ति नय की अपेक्षा शाश्वत है और व्युच्छित्ति नय की अपेक्षा अशाश्वत है। यह द्रव्य-विषयक शाश्वत-अशाश्वतवाद नहीं है। नरक में नैरयिक निरन्तर विद्यमान रहते हैं। इस अपेक्षा से नैरयिक शाश्वत हैं। प्रत्येक मैरयिक अपनी आयु की अवधि पूर्ण होने पर मनुष्य अथवा तिर्यञ्च बन जाता है। इस व्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा वह अशाश्वत है। ६१. सेवं भंते! सेवं भंते ! ति ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। ६१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है। १. भ. १/४४०। २. वही, १४/१६,५01 ३.वही,७/६३,६४ Jain Education Intemational Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद वणस्सइ-आहार-पदं वनस्पति-आहार-पदम् वनस्पति-आहार-पद ६२. वणस्सइक्काइया णं भंते! कं कालं सब्बप्पा- वनस्पतिकायिकाः भदन्त! कं कालं सर्वाल्पा- ६२. ' भन्ते ! वनस्पतिकायिक जीव किस समय सबसे हारगा वा, सव्वमहाहारगा वा भवंति? हारकाः वा, सर्वमहाहारकाः वा भवन्ति? अल्प आहार करते हैं और किस समय सबसे अधिक आहार करते हैं ? गोयमा ! पाउस-वरिसारत्तेसु णं एत्थ णं गौतम ! प्रावृड्-वर्षारात्रेषु अत्र वनस्पति- गौतम ! प्रावृट् और वर्षाऋतु में वनस्पतिकायिक जीव वणस्सइकाइया सव्वमहाहारगा भवंति, तदा- कायिकाः सर्वमहाहारकाः भवन्ति, तदनन्तरं सबसे अधिक आहार करते हैं, तदनन्तर शरद् ऋतु णंतरं च णं सरदे, तदाणंतरं च णं हेमंते, च शरदि, तदनन्तरं च हेमन्ते, तदनन्तरं च में उससे अल्प, हेमन्त ऋतु में उससे अल्प, बसन्त तदाणंतरं च णं वसंते, तदाणंतरं च णं गिम्हे। वसन्ते, तदनन्तरं च ग्रीष्मे। ग्रीष्मेषु वनस्प- ऋतु में उससे अल्प और ग्रीष्म ऋतु में उससे अल्प गिम्हासु णं वणस्सइकाइया सव्वप्पाहारगा तिकायिकाः सर्वाल्पाहारकाः भवन्ति। आहार करते हैं। ग्रीष्म ऋतु में वनस्पतिकायिक जीव भवंति॥ सबसे अल्प आहार करते हैं। । मास भाष्य १. सूत्र ६२ अभयदेवसूरि ने प्रावृट् ऋतु का प्रथम मास श्रावण और वर्षा ऋतु ऋतुएं छह होती हैं। ठाणं में उनका क्रम इस प्रकार है-प्रावृट, का प्रथम मास आश्विन बतलाया है।' जंबुद्दीवपण्णत्ती के अनुसार मास का वर्षा, शरद, हेमन्त, बसन्त, ग्रीष्म।' सूरपण्णत्ती में भी छह ऋतुओं का यही प्रारम्भ श्रावण से होता है। इस प्रसंग में ठाणं ६/६५ का टिप्पण द्रष्टव्य है। प्राचीन जैन ज्योतिष में तीन ऋतुएं ही मानी गई हैं। महावीर का क्रम उपलब्ध है। जंबुद्दीवपण्णत्ती के अनुसार ऋतु का प्रारम्भ प्रावृट् ऋतु से होता है। 'शार्ङ्गधर संहिता' के अनुसार एक वर्ष में सूर्य का मेष, वृष आदि जन्म ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास-चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को हुआ। भगवान् बारह राशियों पर संक्रमण होने के कारण ऋतुएं छह होती हैं। देखें तालिका ऋषभ को केवलज्ञान हेमन्त ऋतु के चतुर्थ मास फाल्गुन कृष्णा एकादशी को हुआ। सूरपण्णत्ती में भी चार-चार मास की ऋतुओं का उल्लेख मिलता है। राशियों पर सूर्य का संक्रमण ऋतु प्रावृट् और वर्षा-आषाढ़ से आश्विन तक के समय में वर्षा होती है, इसलिए वनस्पति को जल का आहार अधिक उपलब्ध होता है। इस १. मेष और वृष राशि पर ग्रीष्म वैशाख और ज्येष्ठ दृष्टि से इन दो ऋतुओं में वनस्पति को सर्वाधिक आहार करने वाला कहा गया २. मिथुन और कर्क राशि पर | प्रावृट् आषाढ़ और श्रावण है। शेष ऋतुओं में क्रमशः जल की अल्पता होती है और उस आधार पर ३. सिंह और कन्या राशि पर वर्षा भाद्रपद और आश्विन आहार की भी अल्पता होती है। ४. तुला और वृश्चिक राशि पर शरद् कार्तिक और मार्गशीष ५. धनु और मकर राशि पर । हेमन्त पौष और माघ ६. कुम्भ और मीन राशि पर बसन्त | फाल्गुन और चैत्र १. ठाणं, ६/६५/ (वर्षारात्र का अर्थ वर्षा ऋत है) सिंहकन्ये स्मृता वर्षातुलावृश्चिकयोः शरद् । २. सूर. १२/१४। धनुाही च हेमन्तो वसन्तः कुम्भमीनयोः ।। ३. जंबु. ७/१२६-'पाउसाइया उऊ। ५. भ. वृ. ७/६२-प्रावृट् श्रावणादिर्वर्षारात्रोऽश्ययुजादिः । ४. शाईधर संहिता, पूर्व खण्ड, भेषज्याख्यानक प्रकरण, शलोक ३५.३६ ६. जंबु. ७/१२६-सावणाइया मासा । ऋतुषट्कं तदाख्यातं रवेः राशिषु संक्रमात् । ७. आ. चू. १५/८। ग्रीष्मो मेषवृषी प्रोक्ती प्रावृण्मिथुनकर्कयोः ॥ ८. पज्जो . सू. १६६ । ६.सूर. १०/६३-७४ । Jain Education Intemational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ भगवई श.७: उ.३ :सू.६३-६५ ६३. जइणं भंते ! गिम्हासु वणस्सइकाइया सव- यदि भदन्त! ग्रीष्मेषु वनस्पतिकायिकाः सर्वा- ६३. ' भन्ते ! यदि वनस्पतिकायिक जीव ग्रीष्म ऋतु में प्पाहारगा भवंति, कम्हा णं भंते ! गिम्हासु ल्पाहारकाः भवन्ति, कस्मात् भगवन्! ग्रीष्मेषु सबसे अल्प आहार करते हैं, तो भन्ते ! क्या कारण बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया, पुफिया, बहवः वनस्पतिकायिकाः पत्रिताः, पुष्पिताः, है-ग्रीष्म ऋतु में अनेक वनस्पतिकायिक जीव पत्रों फलिया, हरियगरेरिज्जमाणा, सिरीए अतीव- फलिताः, हरितकरेरीज्यमाणाः, श्रिया अतीव- और पुष्पों से आकीर्ण, फलों से लदे हुए, हरितिमा से अतीव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिटुंति? अतीव उपशोभमानाः-उपशोभमानाः तिष्ठ- दीप्यमान और वनश्री से अतीव-अतीव उपशोभमान उपशोभमान होते हैं ? गोयमा ! गिम्हासु णं बहवे उसिणजोणिया गौतम! ग्रीष्मेषु बहवः उष्णयोनिकाः जीवाश्च गौतम! ग्रीष्म ऋतु में अनेक उष्णयोनिक जीव और जीवा य, पोग्गला यवणस्सइकाइयत्ताए वक्क- पुद्गलाश्च वनस्पतिकायिकतया अवक्रामन्ति, पुद्गल वनस्पतिकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होते हैं मंति, विउक्कमंति, चयंति, उववज्जति। एवं व्युत्क्रान्ति, च्यवन्ति, उपपद्यन्ते । एवं खलु और विनष्ट होते हैं, च्युत होते हैं और उत्पन्न होते खलु गोयमा! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया गौतम! ग्रीष्मेषु बहवः वनस्पतिकायिकाः हैं। गौतम ! इस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में अनेक पत्तिया, पुफिया, फलिया, हरियगरेरिज्ज- पत्रिताः, पुष्पिताः, फलिताः, हरितकरेरीज्य- वनस्पतिकायिक जीव पत्रों और पुष्पों से आकीर्ण, फलों माणा, सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणा- माणाः श्रिया अतीव-अतीव उपशोभमानाः- से लदे हुए, हरितिमा से दीप्यमान और वनश्री से उवसोभेमाणा चिट्ठति॥ उपशोभमानाः तिष्ठन्ति। अतीव-अतीव उपशोभमान-उपशोभमान होते हैं। भाष्य १. सूत्र ६३ नहीं है। उत्पत्ति की दृष्टि से वनस्पति अनेक प्रकार की होती है। कुछ पौधे । उष्णयोनिक होते हैं, वे ग्रीष्म प्रदेश में जल न मिलने पर भी फलते-फूलते हैं। राम इसलिए सबसे अल्प आहार मिलने पर भी उनका फलना-फूलना अस्वाभाविक रेरिज्जमाण-दीप्यमान । रेज धातु का अर्थ 'दीपना' है।' ६४. से नूणं भंते ! मूला मूलजीवफुडा, कंदा तन्नूनं भदन्त ! मूलानि मूलजीवस्फुटानि, ६४. 'भन्ते ! क्या मूल मूल के जीव से स्पृष्ट, कंद कंद के कंदजीवफुडा, खंधाखंधजीवफुडा, तया तया- कन्दाः, कन्दजीवस्फुटाः, स्कन्धाः स्कन्ध- जीव से स्पृष्ट, स्कन्ध (तना) स्कन्ध के जीव से स्पृष्ट, जीवफुडा, साला सालजीवफुडा, पवाला जीवस्फुटाः, त्वचः त्वग्जीवस्फुटाः सालाः, त्वचा (छाल) त्वचा के जीव से स्पृष्ट, शाखा शाखा के पवालजीवफुडा, पत्ता पत्तजीवफुडा, पुष्फा सालाजीवस्फुटाः, प्रवालाःप्रवालजीवस्फुटाः, जीव से स्पृष्ट, प्रवाल (कोंपल) प्रवाल के जीव से पुष्फजीवफुडा, फला फलजीवफुडा, बीया पत्राणि पत्रजीवस्फुटाानि, पुष्पाणि पुष्पजीव- स्पृष्ट, पत्र पत्र के जीव से स्पृष्ट, पुष्प पुष्प के जीव से बीयजीवफुडा? स्फुटानि, फलानि, फलजीवस्फुटानि, बीजानि स्पृष्ट, फल फल के जीव से स्पृष्ट और बीज बीज के बीजजीवस्फुटानि? जीव से स्पृष्ट है ? हंता गोयमा! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया हन्त गौतम! मूलानि मूलजीवस्फुटानि यावत् हां, गौतम ! मूल मूल के जीव स्पृष्ट यावत् बीज बीज बीयजीवफुडा॥ बीजानि बीजजीवस्फुटानि। के जीव स्पृष्ट है। ६५. जइ णं भंते ! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया यदि भदन्त ! मूलानि मूलजीवस्फुटानि यावत् ६५. भन्ते! यदि मूल मूल के जीव से स्पृष्ट यावत् बीज बीयजीवफुडा, कम्हा णं मंते ! वणस्सइकाइया बीजानि बीजजीवस्फुटानि, कस्माद् भदन्त ! बीज के जीव से स्पृष्ट है तो भन्ते! वनस्पतिकायिक आहारेंति ? कम्हा परिणामेंति? वनस्पतिकायिकाः आहरन्ति ? कस्मात् जीव कैसे आहार करते हैं और कैसे उसे परिणत परिणमयन्ति? करते हैं ? गोयमा! मूला मूलजीवफुडा पुढवीजीवपडि- गौतम! मूलानि मूलजीवस्फुटानि पृथ्वीजीव- गौतम! मूल मूल के जीव से स्पृष्ट और पृथ्वी के जीव बद्धा, तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति। प्रतिबद्धानि, तस्माद् आहरन्ति तस्मात् परि- से प्रतिबद्ध होते हैं। इस हेतु से वे आहार करते हैं कंदा कंदजीवफुडा मूलजीवपडिबद्वा, तम्हा णमयन्ति। कन्दाः कन्दजीवस्फुटाः मूलजीव- और उसे परिणत करते हैं। कंद कंद के जीव से स्पृष्ट आहारेंति, तम्हा परिणामेंति। एवं जाव बीया प्रतिबद्धाः, तस्माद् आहरन्ति, तस्मात् परिण- और मूल के जीव से प्रतिबद्ध होते हैं । इस हेतु से वे बीयजीवफुडा फलजीवपडिबद्धा तम्हा आ- मयन्ति। एवं यावत् बीजानि बीजजीवस्फुटानि, आहार करते हैं और उसे परिणत करते हैं। इस प्रकार हारेति तम्हा परिणामेंति ॥ फलजीवप्रतिबद्धानि तस्माद् आहारन्ति, यावत् बीज बीज के जीव से स्पृष्ट और फल के जीव तस्मात् परिणमयन्ति। से प्रतिबद्ध होते हैं। इस हेतु से वे आहार करते हैं और उसे परिणत करते हैं। १. आप्टे०रेज-Toshine Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.३ : सू.६४-६६ ३५२ भगवई भाष्य १. सूत्र ६४,६५ कहां से लेता है ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार ने जो बताया है, वह वृक्ष के दस अंग होते हैं-मूल, कंद, स्कन्ध, छाल, शाखा, प्रवाल, सामुदायिक जीवन-प्रणाली का महत्त्वपूर्ण मंत्र है। मूल का जीव जो आहार पत्र, पुष्प, फल और बीजा लेता है, कंद उसमें से अपना आहार ग्रहण कर लेता है। स्कंध कंद से, छाल मूल का संबंध भूमि के साथ है, इसलिए वह भूमि से अपना आहार स्कन्ध से, शाखा छाल से, प्रवाल शाखा से, पत्र प्रवाल से, पुष्प पत्र से, फल खींच लेता है। किंतु कंद का संबंध सीधा भूमि से नहीं है। वह अपना आहार पुष्प से और बीज फल से अपना आहार ग्रहण करता है। यह पारस्परिक सहयोग की वृत्ति उनके जीवन का मौलिक आधार है। अणंतकाय-पदं अनन्तकाय-पदम् अनन्तकाय-पद ६६. अह भंते ! आलुए, मूलए, सिंगबेरे, हिरिलि, अथ भदन्त ! आलुकं, मूलक, शृङ्गवेरं, ६६.' भन्ते ! क्या आलु, मूला, अदरक, हिरिलि, सिरिलि, सिरिलि, सिस्सिरिलि, किट्ठिया, छिरिया, 'हिरिली', 'सिरिली', 'सिस्सिरिली', कृष्टिका सिस्सिरिली, वाराही कंद, भूखर्जूर, क्षीरविदारी, कृष्णछीरविरालिया, कण्हकंदे, वज्जकंदे, सूरण- (क्लिष्टिका), क्षीरिका, क्षीरविडालिका, कंद, वज्रकंद, सूरणकंद, केलूट, भद्रमुस्ता, पिण्डहरिद्रा, कंदे, खेलूडे, भद्दमोत्था, पिंडहलिद्दा, लोही, कृष्णकंदः, वज्रकंदः, सूरणकंदः, केलूटः, रोहीतक, त्रिधारा थूहर, थीहू, स्तबक, शाल, अडूसा, णीहू, थीहू, थिभगा, अस्सकण्णी, सीहकण्णी, भद्रमुस्ता, पिण्डहरिद्रा, लोही, ‘णीहू', 'थीहू' कांटा-थूहर, काली मूसली इस प्रकार के अन्य वनसिउंढी, मुसंढी, जेयावण्णे तहप्पगारा सब्वे स्तबकम्, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, 'सिउंढी'; स्पतिकायिक जीव हैं, वे सब अनन्त जीव वाले हैं? ते अणंतजीवा विविहसत्ता? 'मुसंढी', ये चापि अन्ये तथाप्रकाराः सर्वे ते उनका सत्त्व विविध प्रकार का है ? अनन्तजीवाः विविधसत्त्वाः? हंता गोयमा ! आलुए, मूलए जाव अणंतजीवा हन्त गौतम ! आलुकं, मूलकं यावद् अनन्त- हां, गौतम! आलु, मूला, यावत् अनन्त जीव वाले हैं। विविहसत्ता॥ जीवाः विविधसत्त्वाः । उनका सत्त्व विविध प्रकार का है। भाष्य १. सूत्र ६६ विषयक वर्गीकरण में इनका उल्लेख नहीं है। पण्णवणा में इन्हें प्रत्येक शरीर बादर वनस्पति के दो प्रकार हैं-१. प्रत्येक शरीरवाली, २. साधारण वाले जीवों की कोटि में रखा गया है। शरीरवाली। जिसके एक शरीर में एक जीव होता है वह वनस्पति 'प्रत्येक शरीर इस सूत्र में आया आलुए (आलुकम्) शब्द विमर्शनीय है। इसका वाली' कहलाती है। जिसके एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं वह वनस्पति वास्तविक अर्थ 'आलुक' या 'आलु' है, जो आलू या potato नहीं है। क्योंकि'साधारण शरीर वाली' कहलाती है। अनन्त जीव वाली वनस्पति का वर्ग भगवई, १. आलू या potato नामक पौधा भारतीय नहीं है; इसे भारत में पण्णवणा, जीवाजीवाभिगमे और उत्तरज्झयणाणि-इन चार आगमों में पूर्तगाली लोग लाए थे। मूलतः इसे दक्षिणी अमरीका से यूरोप ले गए थे। इसकी मिलता है। देखें तालिका (पृ. २५३ पर)। मूल उत्पत्ति चिली (द. अमरीका) है। इस स्थिति में इसका संबंध प्रस्तुत सूत्र भगवती के २३ वें शतक में भी अनेक नामों का उल्लेख है- के 'आलुए' के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। २३/१-आलुय-मूलग-सिंगबेर-हलिद्दा-रुरु-कंडरिय-जारु-छीरबिराली २. आप्टेकृत संस्कृत-अंग्रेजी कोष के अनुसार 'आलु-an -किट्ठी-कुंदु-कण्हाकडभु-मधु-पुयलइ-महुसिंगि-निरुहा-सप्पसुगंधा छिण्ण- esculent root (not applied to potato etc.) अर्थात् एक ऐसा खाद्य रुह-बीयरुह। मूल (जो आलू (potato) का द्योतक नहीं है। २३/२-लोही णीहू-थीहू-थिभगा-अस्सकण्णी-सीहकण्णी-सीउंढी-मुसंढी। ३. निघण्टुआदर्श, पृ० १६४, १६५ में लिखा है२३/४-आय-काय-कुहुण-कुंदुरुक्क-उव्वेहलिया-सफा-सज्जा छत्तावंसाणियकुरा । “३७७ आलू (बटाटा) २३/६-पाढा-मियवालुंकि-मधुरसा-रायवल्लि-पउमा-मोढरि-दंति-चंडि। नाम-आलू (हिंदी); बटाटा, बटाटा (गु०); potato पोटेटो (अं०); २३/८-मासपण्णी-मुग्गपण्णी-जीवग-सरिसव-करेणुय-काओलि-खीर- Solanum Tuberosum सोलेनम् टयूबरोजम् (ले०)। काकोलि-भंगि-णहि किमिरासि-भद्दमुत्थ-णंगलइ-पयुय-किण्हा-पउल-हढ- “परिचय-वर्णन और गुण-आलू की जन्मभूमि तो दक्षिण अमेरिका -हरेणुया-लोही। है। तो भी संस्कृत में आये हुए 'आलूनि' यह शब्द आलू अर्थात् बटाटा के उत्तरज्झयणाणि के वर्गीकरण में प्याज और लहसुन को अनन्त लिये आया है, ऐसा मानकर कुछ लोग इस शाक को भारत की उपज बताने का जीव की कोटि में रखा गया है। भगवई और जीवाजीवाभिगमे के अनन्तजीव- जोरदार शब्दों में प्रतिपादन करते हैं। हमारा मत है कि शास्त्र में अनेक प्रकार १.पण्ण. १/३२। २. पण्ण. १/४८ गा. ४३ । 3. See Encyclopaedia Britanica--Potato. Jain Education Intemational Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३५३ श.७: उ.३:सू.६६-६८ के 'आलू' का वर्णन उपलब्ध है और वे सब डायोस्कोरिया-Dioscoria- वर्ग के अर्थात् रेतालवर्ग के कन्दशाक है। निघण्टुकारों ने अनेक प्रकार के आलूओं का उल्लेख किया है। “आलू जमीन के अन्दर होते हैं, तो भी वस्तुतः इसको कन्द कहना ठीक नहीं है। मूंगफली जमीन के अन्दर होती है, तो भी हम उसे कन्द की गणना में नहीं मानते। इसी प्रकार आलू भी जमीन में होने पर भी कन्द नहीं है। इसके पौधे में से डंडी बनती है, इस डंडी में से शाखायें निकलती हैं और वे शाखायें जमीन में घुस जाती हैं और फिर कन्द के समान फूलती हैं। अर्थात आलू तो Stem tuber स्टेमटयूबर है, Root tuber रूट टयूबर नहीं है। कुछ जैन लोग आलू को कन्द मानकर उसका उपयोग नहीं करते, अतः इतना स्पष्टीकरण उचित प्रतीत हुआ है। खाना न खाना यह उनकी इच्छा का सवाल है। परन्तु आलू कन्दमूल नहीं है।" शब्द-विमर्श क्षीरविदारी-सफेद और अधिक दूध वाली विदारी। कृष्णकन्द-वत्सनामविष। केलुट-कौटुम्बकन्द। भद्रभुस्ता-मोथा, नागरमोथा। पिण्डहरिद्रा-गोल गांठ वाली हरिद्रा। सीहुण्ड-दुधिया थोहर। | भग. ७/६६ । पण्ण. १/४८ गा.१से ७ उत्तर. ३६/६६-६ | आलु आलु आलु मूला मूली मूली अदरक हिरिलि सिरिलि सिस्सिरिली वाराही कंद भूखर्जूर क्षीर विदारी कृष्णकंद वज्रकंद सूरणकंद केलूट भद्रमुस्ता पिण्डहरिद्रा रोहीतक त्रिधाराथूहर अदरक हिरिलि सिरिलि सिस्सिरिली वाराही कंद भूखजूर क्षीर विदारी कृष्णकंद वज्रकंद सूरणकंद केलूट भद्रमुस्ता पिण्डहरिद्रा रोहीतक त्रिधारा थूहर १शैवाल २ काइ ३ सेवार ४ रोहीतक ५तिधाराथोहर ६ थिहु ७ स्तबककंद ८शाल ६अडूसा १० कांटा थूहर ११ काली मसली १२ वन रोहेडा १३ अत्यम्लवर्णी १४ जारुल १५ घोडवेल १६ वाराही कंद १७ हल्दी १८ अदरक १६ आलु २० मूली २१ शंखपुष्पी २२ कटभी २३ कृष्ण पुष्पावली २४ जल महुआ २५ पोवलइ २६ गुडमार २७ तेलिया कंद २८ नाकुली २६ गिलोयपद्म ३० शालिषाष्टिक ३१ पाठा ३२ बडी इद्रायण ३३ मुलहठी ३४ करेली ३५ स्थल कमल ३६ अतिविषा ३७ लघुदंती ३८ शिवलिंगी ३६ दूसरा वाराही ४६ क्षीरकाकोली ४७ भांग ४८ नाही कंद ४६ माजूफल ५० मोथा ५१ कलिकारी ५२ सनजाति का पौधा ५३ किण्ह ५४ बिदारी ५५ जल कुंभी ५६ रेणुका ५७ नोनीशाक ५८ रक्त उत्पल कंद ५६ वज्रकंद ६० सूरणकंद ६१ कौटुम्बकंद अदरक हिरिली कंद सिरिली कंद सिस्सिरिली कंद जावई कंद केद कंदली कंद प्याज लहसुन कन्दली कुस्तुम्बक लोही कंद थीहू थीहू स्तिभु कुहुक कृष्ण वज्र कंद सूरण कंद अश्वकर्णी सिंहकर्णी मुसुंढी शाल ४० जंगली उडद ४१वनमूंग ४२ डोडीशाक ४३ ऋषभक ४४ संभालु के बीज ४५काकोली स्तबक शाल अडूसा कांटा थूहर काली मूसली अडूसा कांटा थूहर काली मूसली हरिद्रा अप्पकम्म-महाकम्म-पदं अल्पकर्म-महाकर्म-पदम् अल्पकर्म-महाकर्म-पद ६७. सिय भंते ! कण्हलेसे नेरइए अप्प- स्याद् भदन्त ! कृष्णलेश्यः नैरयिकः अल्प- ६७.'भन्ते । स्यात् (कदाचित्) कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कम्मतराए? नीलेसे नेरइए महाकम्मतराए? कर्मतरकः? नीललेश्यः नैरयिकः महाकर्म- अल्पतर कर्म वाला और नील लेश्या वाला नैरयिक तरकः? महत्तर कर्म वाला हो सकता है? हंता सिय॥ हन्त स्यात्। हां, स्यात् हो सकता है। ६८. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-कण्हलेसे तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते--कृष्ण- ६८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कृष्ण Jain Education Intemational Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.७ : उ.३ : सू.६७-७३ ३५४ नेरइए अप्पकम्मतराए? नीललेसे नेरइए महा- लेश्यः नैरयिकः अल्पकर्मतरकः? नीललेश्यः कम्मतराए? नैरयिकः महाकर्मतरकः? गोयमा ! ठितिं पडुच्च । से तेणद्वेणं गोयमा! गौतम ! स्थितिं प्रतीत्य । तत् तेनार्थेन गौतम! जाव महाकम्मतराए॥ यावन् महाकर्मतरकः। लेश्या वाला नैरयिक अल्पतर कर्म वाला और नीललेश्या वाला नैरयिक महत्तर कर्म वाला हो सकता है ? गौतम ! स्थिति की अपेक्षा से। गौतम ! इसलिए यह कहा जा रहा है यावत् नील लेश्या वाला नैरयिक महत्तर कर्म वाला हो सकता है। ६६. सिय भंते! नीललेसे नेरइए अप्पकम्मतराए? स्याद् भदन्त ! नीललेश्यः नैरयिकः अल्पकर्म- ६६. भन्ते ! स्यात् नीललेश्या वाला नैरयिक अल्पतर कर्म काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए? तरकः? कापोतलेश्यः नैरयिकः महाकर्म- वाला और कापोत लेश्या वाला नैरयिक महत्तर कर्म तरकः? वाला हो सकता है? हंता सिय॥ हन्त स्यात् । हाँ, स्यात् हो सकता है। ७०. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नीललेसे तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नीललेश्यः ७०. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है- नील नेरइए अप्पकम्मतराए ? काउलेसे नेरइए महा- नैरयिकः अल्पकर्मतरकः ? कापोतलेश्यः लेश्या वाला नैरविक अल्पतर कर्म वाला और कापोत कम्मतराए ? नैरयिकः महाकर्मतरकः? लेश्या वाला नैरयिक महत्तर कर्म वाला हो सकता है ? गोयमा ! ठितिं पडुच्च। से तेणटेणं गोयमा ! गौतम ! स्थितिं प्रतीत्य । तत् तेनार्थेन गौतम! गौतम ! स्थिति की अपेक्षा से। गौतम ! इसलिए यह जाव महाकम्मतराए ॥ यावन् महाकर्मतरकः। कहा जा रहा है यावत् कापोतलेश्या वाला नैरयिक महत्तर कर्म वाला हो सकता है। ७१. एवं असुरकुमारे वि, नवरं-तेउलेसा अ- एवंअसुरकुमारेऽपि, नवरं-तेजोलेश्या अभ्य- ७१. असुरकुमार की वक्तव्यता भी इसी प्रकार है। विशेष महिया। एवं जाव वेमाणिया। जस्स जइ धिका। एवं यावद् वैमानिकाः। यस्य यावत्यः यह है कि असुरकुमार में तेजोलेश्या वक्तव्य है। इस लेस्साओ तस्स तत्तिया भाणियवाओ। जोइ- लेश्याः तस्य तावत्यः भणितव्याः। ज्योति- प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। जिसमें जितनी सियस्स न भण्णइ जावषिकस्य न भण्यते यावत् लेश्याएं हैं, उतनी वक्तव्य हैं। ज्योतिष्क देवों में केवल तेजोलेश्या होती है, इसलिए वह इस प्रकरण में वक्तव्य नहीं है। यावत् ७२. सिय भंते ! पम्हलेस्से वेमाणिए अप्प- स्याद् भदन्त ! पद्मलेश्यः वैमानिकः अल्प- ७२. भन्ते ! स्यात् पद्मलेश्या वाला वैमानिक अल्पतर कम्मतराए ? सुक्कलेस्से वेमाणिए महा- कर्मतरकः? शुक्ललेश्यः वैमानिकः महाकर्म- कर्म वाला और शुक्ल लेश्या वाला वैमानिक महत्तर कम्मतराए? तरकः? कर्म वाला हो सकता है? हंता सिय॥ हन्त स्याद् । हां, स्यात् हो सकता है। ७३. से केणद्वेणं? गोयमा ! ठितिं पडुच्च। से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव महाकम्मतराए॥ तत् केनार्थेन? गौतम ! स्थितिं प्रतीत्य । तत् तेनार्थेन गौतम! यावन् महाकर्मतरकः । ७३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से? गौतम ! स्थिति की अपेक्षा से । गौतम ! इसलिए यह कहा जा रहा है। यावत् शुक्ललेश्या वाला वैमानिक महत्तर कर्म वाला हो सकता है। भाष्य तृतीय कापोत वाले अधिक और नील वाले अल्प चतुर्थ नील १. सूत्र ६७-७३ लेश्या के दो प्रकार हैं--द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या ।' द्रव्य लेश्या पौद्गलिक है; अतः वह वर्ण, गंध, रस और स्पर्शयुक्त होती है। प्रस्तुत आलापक में द्रव्य लेश्या विवक्षित है। नरक में लेश्या-प्राप्ति का क्रम इस प्रकार है पंचम नील वाले अधिक, कृष्ण वाले अल्प कृष्ण परम कृष्ण सप्तम नरक लेश्या प्रथम,द्वितीय कापोत देवों में लेश्या-प्राप्ति का क्रम इस प्रकार है १. भग, १/३७-३८, १/६०-१००, १/१०२ का भाष्य द्रष्टव्य है। २. जीवा. ३/६८-१०२॥ Jain Education Intemational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई देव भवनपति व्यन्तर ज्योतिष्क प्रथम, द्वितीय कल्प तृतीय, चतुर्थ, पंचम कल्प षष्ठ स्वर्ग से ग्रैवेयक अनुतर विमान लेश्या प्रथम चार " तेजस पद्म शुक्ल परम शुक्ल लेश्या और कर्म का परस्पर संबंध है। महाकर्म की अवस्था में श्या अविशुद्ध होती है और अल्पकर्म की अवस्था में लेश्या विशुद्ध होती है। गो इगड़े समझे ॥ ७५. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जा वेदणा न सा निज्जरा ? जा निज्जरा न सा वेदणा ? गोमा ! कम्मं वेदणा, नोकम्मं निज्जरा । से तेगद्वेणं गोवमा ! एवं बुच्चइजा वेदणा न सा निम्नरा जा निम्नरा न सा वेदणा ॥ १. पण्ण. १७/५१-५३। वेदणा - निज्जरा-पदं वेदना-निर्जरा-पदम् ७४. से नूणं भन्ते ! जा वेदणा सा निज्जरा ? तन्नूनं भदन्त ! या वेदना सा निर्जरा ? या जा निज्जरा सा वेदणा ? निर्जरा सा वेदना ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः । गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे ॥ २ ७७. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - नेरइयाणं जा वेदणा न सा निज्जरा ? जा निज्जरा न सा वेदना ? ३५५ श. ७: उ. ३ : सू. ६७-७६ कृष्ण लेश्या वाला नैरयिक महाकर्म और नीललेश्या वाला नैरयिक अल्पकर्म होता है। प्रस्तुत आलापक में इस नियम के अपवाद बतलाएं गए हैं। कृष्ण वाला नैरयिक बहुत पुराना है वह अपनी आयु अवधि को बहुत पार कर चुका है। नील लेश्या वाला नैरयिक अभी-अभी उत्पन्न हुआ है। आयुष्य की स्थिति - कालमान की अपेक्षा कृष्ण लेश्या वाला नैरयिक अल्पकर्म वाला और नील लेश्या वाला नैरयिक महाकर्म वाला होता है। यह स्थिति सापेक्ष नियम सब पर लागू होता है। प्रस्तुत प्रकरण में महाकर्म और अल्पकर्म का प्रयोग सापेक्ष है। इनका संबंध मुख्यतः आयुष्य और वेदनीय कर्म तथा आयुष्य के सहवर्ती गति, जाति आदि से है। ७६. नेरइयाणं भंते ! जा वेदना सा निज्जरा ? नैरविकाणां भवन्त ! या वेदना सा निर्जरा ? जा निज्जरा सा वेदणा ? या निर्जरा सा वेदना ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे ॥ गौतम ! नायमर्थः समर्थः । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते -या वेदना न सा निर्जरा ? या निर्जरा न सा वेदना ? गौतम ! कर्म वेदना, नोकर्म निर्जरा ! तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते या वेदना न सा निर्जरा, या निर्जरा न सा वेदना । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - नैरयिकाणां या वेदना न सा निर्जरा ? या निर्जरा न सा वेदना ? गौतम नैरयिकाणां कर्म वेदना, नोकर्म निर्जरा । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यतेनैरयिकाणां या वेदना न सा निर्जरा, या निर्जरा न सा वेदना । वेदना - निर्जरा-पद ७४. भन्ते ! क्या जो वेदना है, वह निर्जरा है, जो निर्जरा है वह वेदना है ? गीतम! यह अर्थ संगत नहीं है। गोयमा ! नेरयाणं कम्मं वेदना, नोकम्मं निज्जरा | से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइनेरझ्याणं जा वेदणा न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेदणा ॥ गौतम ! नैरयिकों के वेदना कर्म की होती है, निर्जरा नोकर्म की होती है। गौतम इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है— नैरयिकों के जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं है, जो निर्जरा है वह वेदना नहीं है। ७८. एवं जाव वैमाणियाणं ॥ एवं यावद् वैमानिकानाम् । ७८. इसी प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता । ७६. से नूणं भंते ! जं वेदेंसु तं निज्जरेंसु ? जं तन्नूनं भदन्त ! यद् अवेदिषुः तन्निरजारिषुः ? ७६ भन्ते ! क्या जिसकी वेदना की, उसकी निर्जरा की ? निज्जरेंसु तं वेदेंसु ? जिसकी निर्जरा की, उसकी वेदना की ? ऐस हो सकता यन्निरजारिषुः तद् अवेदिषुः ? है ? नायमर्थः समर्थः । यह अर्थ संगत नहीं है। ७५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं है ? जो निर्जरा है वह वेदना नहीं है? गौतम ! वेदना कर्म की होती है, निर्जरा नो-कर्म की होती है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - जो वेदना है वह निर्जरा नहीं है, जो निर्जरा है वह वेदना नहीं है। ७६. भन्ते ! क्या नैरयिकों के जो वेदना है, वह निर्जरा है? जो निर्जरा है, वह वेदना है ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ७७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैनैरयिकों के जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं है ? जो निर्जरा है वह वेदना नहीं है ? २. जीवा. ३/११०१-११०४ । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.३ : सू.८०-८६ ३५६ भगवई १०. से केणटेण मंते ! एवं वुच्चइ-जं वेदेंसु तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-यद् ८०. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैनो तं निज्जरेंसु ? जं निज्जरेंसु नो तं वेदें? अवेदिषुः नो तन् निरजारिषुः? यन् निरजारिषुः जिसकी वेदना की, उसकी निर्जरा नहीं की ? जिसकी नो तद् अवेदिषुः। निर्जरा की, उसकी वेदना नहीं की? गोयमा ! कम्मं वेदेंसु, नोकम्मं निज्जरेंसु । गौतम ! कर्म अवेदिषुः, नोकर्म निरजारिषुः । गौतम ! वेदना कर्म की की और निर्जरा नोकर्म की से तेणटेणं गोयमा । जाव नो तं वेदेंसु ॥ तत् तेनार्थेन गौतम! यावत्नो तद् अवेदिषुः । की। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् जिसकी निर्जरा की, उसकी वेदना नहीं की। १. एवं नेरइया वि, एवं जाव वेमाणिया॥ एवं नैरयिकाः अपि, एवं यावद् वैमानिकाः। ८१. इसी प्रकार नैरयिक यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता। १२. से नूणं भंते । जं वेदेति तं निज्जरेंति? तन्नूनं भन्दत ! यवेदयन्ति तन् निर्जरयन्ति? जं निज्जरेंति तं वेदेति? यन् निर्जरयन्ति तद् वेदयन्ति? २. भन्ते ! क्या जिसकी वेदना करते हैं, उसकी निर्जरा करते हैं, जिसकी निर्जरा करते हैं, उसकी वेदना करते गोयमा ! णो इणढे समढे ॥ गौतम ! नायमर्थः समर्थः । गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। ६३. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव नो तं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-यावन् नो वेदेति? तद् वेदयन्ति? गोयमा ! कम्मं वेदेति, नोकम्मं निज्जरेंति। गौतम ! कर्म वेदयन्ति, नोकर्म निर्जरयन्ति। से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेति ॥ तत् तेनार्थेन गौतम ! यावन् नो तद् वेदयन्ति। ८३. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-यावत् जिसकी निर्जरा करते हैं उसकी वेदना नहीं करते? गौतम ! वेदना कर्म की करते हैं, निर्जरा नोकर्म की करते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा हैयावत् जिसकी निर्जरा करते हैं, उसकी वेदना नहीं करते। ८४. एवं नेरइया वि जाव वेमाणिया ॥ एवं नैरयिकाः अपि यावद् वैमानिकाः। ८४. इसी प्रकार नैरयिकों यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता। ८५. से नूणं भंते ! जं वेदिस्संति तं निज्ज- तन्नूनं भदन्त ! यद् वेदिष्यन्ति तन् निर्जरिष्य- ८५. भन्ते! क्या जिसकी वेदना करेंगे, उसकी निर्जरा रिस्संति? जं निजरिस्संति तं वेदिस्संति? न्ति ? यन् निर्जरिष्यन्ति तद् वेदिष्यन्ति ? करेंगे, जिसकी निर्जरा करेंगे, उसकी वेदना करेंगे? गोयमा ! णो इणढे समढे ॥ गौतम ! नायमर्थः समर्थः । गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १६. से केणटेणं जाव नो तं वेदिस्संति? तत् केनार्थेन यावन् नो तद् वेदिष्यन्ति? गोयमा ! कम्मं वेदिस्संति, नोकम्म निज्ज- गौतम ! कर्म वेदिष्यन्ति, नोकर्म निर्जरि- रिस्संति । से तेणटेणं जाव नो तं निज्ज- ष्यन्ति। तत् तेनार्थेन यावन् नो तन् निर्जरि- रिस्संति ॥ ष्यन्ति । ८६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है--यावत् जिसकी निर्जरा करेंगे, उसकी वेदना नहीं करेंगे? गौतम ! वेदना कर्म की करेंगे, निर्जरा नोकर्म की करेंगे। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् जिसकी वेदना करेंगे, उसकी निर्जरा नहीं करेंगे। १७. एवं नेरइया वि जाव वेमाणिया ॥ एवं नैरयिकाः अपि यावद् वैमानिकाः। ८७. इसी प्रकार नैरयिक यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता। ५८. से नूणं भंते ! जे वेदणासमए से निज्ज- तन् नूनं भदन्त ! यः वेदनासमयः सः निर्जरा- १८. भन्ते ! क्या जो वेदना का समय है, वही निर्जरा का रासमए ? जे निज्जरासमए से वेदणासमए? समयः? यः निर्जरासमयः सः वेदनासमयः? समय है ? जो निर्जरा का समय है, वही वेदना का समय है? णो इण्टे समढे ॥ नायमर्थः समर्थः । यह अर्थ संगत नहीं है। ८६.से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जे वेदणा- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-यः वेदना- ८६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जो समए न से निज्जरासमए ? जे निज्जरासमए समयः न सः निर्जरासमयः ? यः निर्जरा- वेदना का समय है, वह निर्जरा का समय नहीं है ? जो न से वेदणासमए? समयः न सः वेदनासमयः? निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं है ? गोयमा ! जं समयं वेदेति नो तं समयं गौतम ! यं समयं वेदयन्ति नो तं समय गौतम ! जिस समय वेदना करते हैं, उस समय निर्जरा निज्जरेंति, जं समयं निज्जरेंति नो तं समयं निर्जरयन्ति, यं समयं निर्जरयन्ति नो तं समयं नहीं करते । जिस समय निर्जरा करते हैं, उस समय Jain Education Intemational Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३५७ वेदेति--अण्णम्मि समए वेदेति, अण्णम्मि वेदयन्ति-अन्यस्मिन् समये वेदयन्ति, अन्यसमए निज्जरेंति । अण्णे से वेदणासमसए, स्मिन् समये निर्जरयन्ति । अन्यः तस्य वेदनाअण्णे से निज्जरासमए । से तेणद्वेणं जाव न समयः, अन्य तस्य निर्जरासमयः। तत् से वेदणासमए, न से निज्जरासमए । तेनार्थेन यावन् न सः वेदनासमयः, न सः निर्जरासमयः । श.७: उ.३ :सू.७४-६४ वेदना नहीं करते-अन्य समय में वेदना करते हैं, अन्य समय में निर्जरा करते हैं। वेदना का समय अन्य है, निर्जरा का समय अन्य है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् जो निर्जरा का समय है; वह वेदना का समय नहीं है। जो वेदना का समय है, वह निर्जरा का समय नहीं है। ६०. नेरइयाणं भंते ! जे वेदणासमए से निज्ज- नैरयिकाणां भदन्त ! यः वेदनासमयः सः १०. भन्ते ! क्या नैरयिकों के जो वेदना का समय है वही रासमए ? जे निज्जरासमए से वेदणासमए ? निर्जरासमयः? यः निर्जरासमयः सः वेदना- निर्जरा का समय है, जो निर्जरा का समय है वही समयः? वेदना का समय है। गोयमा ! णो इणढे समढे ॥ गौतम ! नायमर्थः समर्थः ॥ गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६१. से केणटेणं भंते ! एव वुच्चइ-नेरइया णं जे वेदणासमए न से निज्जरासमए ? जे निज्जरासमए न से वेदणासमए? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाणां ६१. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है- नैरयिकों यः वेदनासमयः न स निर्जरासमयः ? यः के जो वेदना का समय है वह निर्जरा का समय नहीं निर्जरासमयः न स वेदनासमयः ? है? जो निर्जरा का समय है वह वेदना का समय नहीं गोयमा ! नेरइया णं जं समयं वेदेति नो तं गौतम ! नैरयिकाः यं समयं वेदयन्ति नो तं समयं निज्जरेंति, जं समयं निज्जरेंति नो तं समयं निर्जरयन्ति, यं समयं निर्जरयन्ति नो समयं वेदेति-अण्णम्मि समए वेदेति, अण्ण- तं समयं वेदयन्ति । अन्यस्मिन् समये वेदम्मि समए निज्जरेंति। अण्णे से वेदणासमए, यन्ति, अन्यस्मिन् समये निर्जरयन्ति । अन्यः अण्णे से निज्जरासमए। से तेणटेणं जाव न स वेदनासमयः, अन्यः स निर्जरासमयः । तत् से वेदणासमए॥ तेनार्थेन यावन् न स वेदनासमयः। गौतम ! नैरयिक जिस समय वेदना करते हैं उस समय निर्जरा नहीं करते, जिस समय निर्जरा करते हैं उस समय वेदना नहीं करते है-अन्य समय में वेदना करते हैं, अन्य समय में निर्जरा करते हैं। वेदना का समय अन्य है, निर्जरा का समय अन्य है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं है। ६२. एवं जाव वेमाणियाणं ॥ एवं यावद् वैमानिकानाम्। ६२. इसी प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र ७४-६२ पश्चात् कर्म नोकर्म बन जाता है। प्रस्तुत आलापक में वेदना और नोकर्म का अन्तर बतलाया गया है। वेदना कर्म की होती है, निर्जरा कर्म की नहीं होती। वेदना और निर्जरा फल-विपाक के पश्चात् कर्म की फलदान-शक्ति समाप्त हो जाती है। वह फिर कर्म की अनेक अवस्थाएं हैं। उनमें प्रथम अवस्था है बंध और कर्म नहीं रहता, नोकर्म बन जाता है। उसकी निर्जरा होती है, इसलिए वेदना अन्तिम अवस्था है उदय। उदयकाल में कर्म का वेदन होता है।' वेदन के । का समय पृथक् होता है और निर्जरा का समय पृथक् । सासय-असासय-पदं शाश्वत-अशाश्वत-पदम् शाश्वत-अशाश्वत-पद ६३. नेरइया णं भंते ! किं सासया? असासया? नैरयिकाः भदन्त ! किं शाश्वताः? अशाश्वताः? ६३.' भन्ते ! क्या नैरयिक शाश्वत है ? अशाश्वत है ? गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया ॥ गौतम ! स्यात् शाश्वताः, स्याद् अशाश्वताः। गौतम ! स्यात् (किसी अपेक्षा से) शाश्वत हैं, स्यात् अशाश्वत हैं। ६४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ६४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैसिय सासया ? सिय असासया? स्यात् शाश्वताः? स्याद् अशाश्वताः? नैरयिक स्यात् शाश्वत हैं ? स्यात् अशाश्वत् हैं ? गोयमा ! अब्दोच्छित्तिनयट्ठयाए सासया, गौतम! अव्युच्छित्तिनयार्थतया शाश्वताः व्यु- गौतम ! अव्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा शाश्वत हैं, वोच्छित्तिनयट्ठयाए असासया। से तेणटेणं जाव च्छित्तिनयार्थतया अशाश्वताः । तत् तेनार्थेन व्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा अशाश्वत हैं, इस अपेक्षा से १. भ. वृ.७/७५-उदयप्राप्तं कर्म वेदना धर्मधर्मिणोरभेदविवक्षणात् । २. वही, ७/७५-वेदितरसं कर्म नोकर्म । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.३:सू.६३-६६ ३५८ भगवई सिय सासया, सिय असासया ॥ यावत् स्यात् शाश्वताः, स्याद् अशाश्वताः । यह कहा जा रहा है यावत् नैरयिक स्यात् शाश्वत हैं, स्यात्-अशाश्वत हैं। ६५. एवं जाव वेमाणिया जाव सिय असासया॥ एव यावद् वैमानिकाः यावत् स्याद् अशाश्वताः। ६५. इसी प्रकार यावत् वैमानिक यावत् स्यात् अशाश्वत भाष्य १. सूत्र ६३-६५ प्रवाह की दृष्टि से नैरयिक शाश्वत हैं और एक-एक व्यक्ति की अपेक्षा वह अशाश्वत है। जैन दर्शन के अनुसार मूल द्रव्य दो हैं-जीव और अजीव । नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव सब जीव के पर्याय हैं। नैरयिक जीव द्रव्य की दृष्टि से भ. ७/६० में नैरयिक शाश्वत हैं या अशाश्वत-इस प्रश्न पर द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से विचार किया गया है। प्रस्तुत शाश्वत है और नैरयिक-पर्याय की दृष्टि से अशाश्वत है। प्रकरण में अव्युच्छित्ति-नय और व्युच्छित्ति-नय की अपेक्षा से शाश्वत और इसकी व्याख्या का दूसरा नय भी है । प्रत्येक नैरयिक एक निश्चित अशाश्वत का विचार किया गया है। यहां व्याख्या का दूसरा नय प्रासंगिक है। अवधि तक नैरयिक रहता है, उसके पश्चात् वह तिर्यञ्च अथवा मनुष्य की व्याख्या के प्रथम नय का सम्बन्ध भ.७/६० के साथ है। पर्याय में चला जाता है। नरक कभी भी नैरयिकों से शून्य नहीं होता । अतः । ६६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति। ६६. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संसारत्थजीव-पदं संसारस्थजीव-पदम् संसारस्थ-जीव-पद ६७. रायगिहे नयरे जाव एवं वयासि-कतिविहा राजगृहे नगरे यावत् एवमावादीत्-कति- ६७. ' राजगृह नगर में महावीर का समवसरण यावत् णं भंते ! संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता? विधाः भदन्त! संसारसमापन्नकाः जीवाः गौतम ने कहा-भन्ते ! संसारसमापन्नक जीव कितने प्रज्ञप्ताः ? प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! छव्विहा संसारसमावन्नगा जीवा गौतम ! षड्विधाः संसारसमापन्नकाः जीवाः गौतम ! संसारसमापन्नक जीव छह प्रकार के प्रज्ञप्त पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया जाव तस- प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-पृथ्वीकायिकाः यावत् हैं, जैसे-पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक। इस काइया। एवं जहा जीवाभिगमे जाव एगे जीवे त्रसकायिकाः । एवं यथा जीवाभिगमे यावद् प्रकार यह प्रकरण जीवाभिगम की भांति वक्तव्य एगेणं समएणं एगं किरियं पकरेइ, तं जहा- एकः जीवः, एकेन समयेन एकां क्रियां प्र- है यावत् एक जीव एक समय में एक क्रिया करता सम्मत्तकिरियं वा, मिच्छत्तकिरियं वा॥ करोति, तद्यथा-सम्यक्त्वक्रियां वा, मिथ्या- है, जैसे- सम्यक्त्व-क्रिया अथवा मिथ्यात्व-क्रिया। त्वक्रियां वा। भाष्य १. सूत्र ६७ प्रस्तुत सूत्र जीवाजीवाभिगमे के २६ (३/१८३-२११) सूत्रों का संक्षेप है। अविशुद्ध लेश्या और विशुद्ध लेश्या के बारह सूत्र भगवई, ६/१६८,१६६ में आ चुके हैं। अन्तिम सूत्र सम्यक्त्व-क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया से संबंधित है-अन्यतीर्थिकों के अनुसार एक जीव एक समय में दो क्रियाएंसम्यक्त्व-क्रिया और मिथ्यात्व-क्रिया करता है। भगवान महावीर ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने प्रतिपादन किया-एक समय में एक जीव सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों क्रियाएं नहीं करता। ६५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ८. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद जोणीसंगह-पदं योनिसंग्रह-पदम् ६६.रायगिहे जाव एवं वयासी-खहयरपंचिंदिय- राजगृहे यावद् एवमवादीत्-खेचरपञ्चे- तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कतिविहे जोणी- न्द्रिय-तिर्यग्योनिकानां भदन्त ! कतिविधः संगहे पण्णते? योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः? गोयमा! तिविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते, तं गौतम! त्रिविधः योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः, तद् जहा-अंडया, पोयया, संमुच्छिमा । एवं जहा यथा-अण्डजाः, पोतजाः, सम्मूर्छिमाः । एवं जीवाभिगमे जाव नो चेव णं ते विमाणे यथा जीवाभिगमे यावन् नो चैव तानि विमानानि वीतीवएज्जा, एमहालया णं गोयमा! ते व्यतिव्रजेयुः, इयन्महन्ति गौतम! तानि विमाविमाणा पण्णत्ता॥ नानि प्रज्ञप्तानि। योनिसंग्रह-पद ६६. 'राजगृह नगर में महावीर का समवसरण यावत् गौतम ने कहा-भन्ते ! खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों का योनि-संग्रह कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम ! तीन प्रकार का योनि-संग्रह प्रज्ञप्त है, जैसे--- अण्डज, पोतज, सम्मूर्छिम। इस प्रकार यह प्रकरण जीवाभिगम की भाति वक्तव्य है यावत् वे उन विमानों का अतिक्रमण नहीं करते । गौतम! वे विमान इतने महान् प्रज्ञप्त हैं। भाष्य १. सूत्र ६६ संक्षेप है। इसके अन्तिम सूत्र में अनुत्तरविमान के विमानों की विशालता का प्रस्तुत सूत्र जीवाजीवाभिगमे के ३६ (३/१४७-१८२) सूत्रों का . प्रतिपादन किया गया है। १००. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । १००. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद आउयपकरण-वेयणा-पदं आयुष्क-प्रकरण-वेदना-पदम् १०१. रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवे णं भंते! राजगृहे यावद् एवमवादी–जीवः भदन्त! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! यः भव्यः नैरयिकेषु उपपत्तुं, स भदन्त ! किं इहगए नेरइयाउयं पकरेइ? उववज्जमाणे किम् इहगतः नैरयिकायुः प्रकरोति? उप- नेरइयाउयं पकरेइ? उववन्ने नेरइयाउयं पक- पद्यमानः नैरयिकायुः प्रकरोति ? उपपन्नः नैरयिकायुः प्रकरोति? आयुष्क-प्रकरण वेदना-पद १०१. ' राजगृह नगर में महावीर का समवसरण यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भन्ते ! जो भविक जीव नैरयिक-रूप में उपपन्न होने वाला है, भन्ते ! क्या वह यहां रहता हुआ नैरयिक आयुष्य का बंध करता है? उपपन्न होता हुआ नैरयिक आयुष्य का बंध करता है? उपपन्न होने पर नैरयिक आयुष्य का बंध करता है ? गौतम ! वह यहां रहता हुआ नैरयिक आयुष्य का बंध करता है, उपपन्न होता हुआ नैरयिक आयुष्य का बंध नहीं करता, उपपन्न होने पर नैरयिक आयुष्य का बंध नहीं करता। असुरकुमारों के लिए भी यही नियम है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों के लिए भी यही नियम है। गोयमा ! इहगए नेरइयाउयं पकरेइ, नो गौतम ! इहगतः नैरयिकायुः प्रकरोति, नो उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववन्ने उपपद्यमानः नैरयिकायुः प्रकरोति, नो उपनेरइयाउयं पकरेइ । एवं असुरकुमारेसु वि, पन्नः नैरयिकायुः प्रकरोति। एवं असुर- एवं जाव वेमाणिएसु॥ कुमारेषु अपि, एवं यावद् वैमानिकेषु। भाष्य १. सूत्र १०१ ___ परलोक-विद्या का महत्त्वपूर्ण प्रश्न है-पुनर्जन्म के आयुष्य का निर्धारण। इसी विषय को लेकर गौतम ने जिज्ञासा की और महावीर ने उसका उत्तर दिया। आयुष्य का निर्धारण वर्तमान जीवन में हो जाता है। उसी के आधार पर जीव परलोक की यात्रा शुरु करता है। आयुष्य का निर्धारण न होने पर जीव परलोक की यात्रा का प्रारम्भ नहीं कर सकता। इसलिए उपपद्यमान और उपपन्न-ये दोनों अवस्थाएं आयुष्य-निर्धारण के लिए अनुपयुक्त है। वर्तमान जीवन की आयु की सम्पन्नता और मृत्यु दोनों समानार्थक हैं। पुनर्जन्म के लिए यात्रा करने वाला जीव अपनी यात्रा सायुष्क अवस्था में प्रारम्भ करता है।' यह नियम वर्तमान सूत्र के प्रतिपाद्य का संवादी है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भ०५/५६-६१ का भाष्य । उपपद्यमान और उपपन्न के मध्य में भेदरेखा क्या है? इसका प्राचीन ग्रन्थ में कोई समाधान उपलब्ध नहीं है। अनुमान के आधार पर यह समाधान प्रस्तुत किया जा सकता है-अपर्याप्त अवस्था उपपद्यमान अवस्था है और पर्याप्त अवस्था उपपन्न अवस्था है। १०२. जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु जीवः भदन्त ! यः भव्यः नैरयिकेषु उपपत्तुं, उववज्जित्तए, से णं भंते ! किं इहगए नेर- स भदन्त ! किम् इहगतः नैरयिकायुः प्रति- इयाउयं पडिसंवेदेइ ? उववज्जमाणे नेरइयाउयं संवेदयति? उपपद्यमानः नैरयिकायुः प्रतिपडिसंवेदेइ? उववन्ने नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ? संवेदयति? उपपन्नः नैरयिकायुः प्रति- संवेदयति? १०२. 'भन्ते! जो भविक जीव नैरयिक-रूप में उपपन्न होने वाला है, भन्ते ! क्या वह यहां रहता हुआ नैरयिक-आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है? उपपन्न होता हुआ नैरयिक आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है? उपपन्न होने पर नैरयिक आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता गोयमा ! नो इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, गौतम ! नो इहगतः नैरयिकायुः प्रतिउववज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने संवेदयति, उपपद्यमानः नैरयिकायुः प्रति गौतम ! वह यहां रहता हुआ नैरयिक आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता, उपपन्न होता हुआ नैरयिक १.भ.५/५६-६२। Jain Education Intemational ucation Intemational For Private & Personal use only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ श.७ : उ.६ : सू.१०२-१०५ वि नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ । एवं जाव वेमा- णिएसु । संवेदयति, उपपन्नः अपि नैरयिकायुः प्रतिसंवेदयति। एवं यावद् वैमानिकेषु। भगवई आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उपपन्न होने पर भी नैरयिक आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों के लिए यही नियम है। भाष्य १. सूत्र १०२ प्रत्येक जीव वर्तमान जीवन में ही भवसंबंधी आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। भावी जीवन के आयुष्य का वर्तमान जीवन में प्रतिसंवेदन नहीं करता। उपपद्यमान और उपपन्न दोनों अवस्थाएं वर्तमान जीवन की हैं । इसलिए उन दोनों अवस्थाओं में वर्तमान आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है। द्रष्टव्य भ०५/५७-५८ का भाष्य । १०३. जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उवव- जीवः भदन्त! यः भव्यः नैरयिकेषु उपपत्तुं, १०३. ' भन्ते ! जो भविक जीव नैरयिक रूप में उपपन्न ज्जित्तए, से णं भंते ! किं इहगए महावेदणे? सभदन्त! किम् इहगतः महावेदनः? उपपद्य- होने वाला है, भन्ते! क्या वह यहां रहता हुआ (मृत्युक्षण उववज्जमाणे महावेदणे? उववन्ने महावेदणे? मानः महावेदनः ? उपपन्नः महावेदनः ? में) महावेदना वाला होता है ? उपपन्न होता हुआ महावेदना वाला होता है ? उपपन्न होने पर महावेदना वाला होता है? गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्प- गौतम! इहगतः स्यान् महावेदनः स्याद् गौतम! वह यहां रहता हुआ स्यात् महावेदना वाला वेदणे, उववज्जमाणे सिय महावेदणे सिय अल्पवेदनः, उपपद्यमानः स्यात् महावेदनः होता है, स्यात् अल्पवेदना वाला होता है। उपपन्न होता अप्पवेदणे, अहे णं उववन्ने भवइ तओ पच्छा स्याद् अल्पवेदनः, अथ उपपन्नः भवति हुआ स्यात् महावेदना वाला होता है, स्यात् अल्पवेदना एगंतदुक्खं वेदणं वेदेंति, आहच्च सायं ॥ ततः पश्चाद् एकान्तदुक्खां वेदनां वेदयति, वाला होता है। उपपन्न होने के पश्चात् एकान्त दुःखद आहत्य साताम्। वेदना का वेदन करता है और कदाचित् सात वेदना का वेदन करता है। १०४. जीवे णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु जीवः भदन्त! यः भव्यः असुरकुमारेषु उप- १०४. भन्ते ! जो भविक जीव असुरकुमारों में उपपन्न उववज्जित्तए, पुच्छा। पत्तुं, पृच्छा! होने वाला है, पृच्छा। गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्प- गौतम! इहगतः स्यान् महावेदनः स्याद् गौतम ! वह यहां रहता हुआ स्यात् महावेदना वाला वेदणे, उववज्जमाणे सिय महावेदणे सिय अल्पवेदनः, उपपद्यमानः स्यान् महावेदनः होता है, स्यात् अल्पवेदना वाला होता है। उपपन्न होता अप्पवेदणे, अहे णं उववन्ने भवइ तओ पच्छा स्याद् अल्पवेदनः, अथ उपपन्नः भवति ततः हुआ स्यात् महावेदना वाला होता है, स्यात् अल्पवेदना एगंतसातं वेदणं वेदेति, आहच्च असायं । पश्चाद् एकान्तसातां वेदनां वेदयति, आहत्य वाला होता है, उपपन्न होने के पश्चात् एकान्त सुखद एवं जाव थणियकुमारेसु॥ असाताम्। एवं यावत् स्तनितकुमारेषु। वेदना का वेदन करता है और कदाचित् असात वेदना का वेदन करता है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों के लिए यही नियम है। १०५. जीवे णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु जीवः भदन्त! यः भव्यः पृथिवीकायिकेषु १०५. भन्ते ! जो भविक जीव पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न उववज्जित्तए, पुच्छा। उपपत्तुं, पृच्छा। होने वाला है, पृच्छा। गोयमा! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्प- गौतम! इहगतः स्यान् महावेदनः स्याद् गौतम ! वह यहां रहता हुआ स्यात् महावेदना वाला वेदणे, एवं उववज्जमाणे वि, अहे णं उववन्ने अल्पवेदनः, एवं उपपद्यमानः अपि, अथ होता है, स्यात् अल्पवेदना वाला होता है। इसी प्रकार भवइ तओ पच्छा वेमायाए वेदणं वेदेति। एवं उपपन्नः भवति ततः पश्चाद् विमात्रया वेदनां उत्पन्न होता हुआ भी स्यात् महावेदना वाला होता है, जाव मणुस्सेसु। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणि- वेदयति। एवं यावद् मनुष्येषु। वानमन्तर- स्यात् अल्पवेदना वाला होता है, उत्पन्न होने के पश्चात् एसु जहा असुरकुमारेसु॥ -ज्योतिषिक-वैमानिकेषु यथा असुरकुमारेषु। विभिन्न मात्रा वाली वेदना का वेदन करता है। इसी प्रकार यावत् मनुष्यों के लिए यही नियम है। व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में असुरकुमार के समान वक्तव्यता। Jain Education Intemational Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६३ श.७: उ.६:सू.१०३-१०६ भाष्य दण्डक इहगत नारक १. सूत्र १०३-१०५ प्रस्तुत आलापक में वर्तमान जीवन तथा भावी जीव की उपपद्यमान और उपपन्न-इन दोनों अवस्थाओं में होने वाली वेदना का विमर्श किया गया है देखें यंत्र। वेदनावाद के विस्तृत विवेचन के लिए देखें भ०१/६०-१०० का भाष्य। देवों के तेरह दण्डक उपपद्यमान उपपन्न स्यात् महावेदना स्यात् महावेदना | एकान्त दुःखवेदन स्यात् अल्पवेदना स्यात् अल्पवेदना कदाचित् सुखवेदन एकान्त सुखवेदन कदाचित् दुखःवेदन विमात्रा से वेदन कदाचित् सुखवेदन कदाचित् दुःखवेदन शेष सभी दण्डक १०६. जीवाणं भंते ! किं आभोगनिव्वत्तियाउया? जीवाः भदन्त ! किम् आभोगनिवर्तितायुष्काः? १०६. 'भन्ते ! क्या जीव ज्ञात अवस्था में आयुष्य का बंध अणाभोगनिव्वत्तियाउया ? अनाभोगनिवर्तितायुष्काः? करते हैं ? अथवा अज्ञात अवस्था में आयुष्य का बंध करते है। गोयमा ! नो आभोगनिव्वत्तियाउया, अणा- गौतम! नो आभोगनिर्वर्तितायुष्काः, अना- गौतम ! जीव ज्ञात अवस्था में आयुष्य का बंध नहीं भोगनिव्वत्तियाउया । एवं नेरइया वि, एवं भोगनिर्वर्तितायुष्काः। एवं नैरयिकाः अपि, एवं करते, अज्ञात अवस्था में आयुष्य का बंध करते हैं। जाव वेमाणिया ॥ यावद् वैमानिकाः। इसी प्रकार नैरयिक यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। भाष्य का बंध करता है। ४. एक जीव एक साथ एक आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है।" ५. आयुष्य बंध के साथ जाति आदि छह विषयों का निर्धारण होता १. सूत्र १०६ आयुष्य के विषय में कुछ नियमों का निर्देश पूर्व शतकों में हो चुका है। उदाहरणस्वरूप - १. परलोक में जाने वाला जीव आयुष्य का बंध करके जाता है।' २. आयुष्य का बंध पूर्व जन्म-भावी जन्म की अपेक्षा पूर्व अर्थात् वर्तमान में होता है। ३. जीव को जिस योनि में उत्पन्न होना है, उसी से संबद्ध आयुष्य प्रस्तुत सूत्र में 'आयुष्य का बंध अज्ञात अवस्था में होता है' इस नियम का निर्देश है। आयुष्य का बंध कब होता है, इसकी जानकारी उसे नहीं होती, जिसके आयुष्य-बंध हो रहा है, हो चुका है अथवा होगा। कक्कस-अक्कसवेयणीय-पदं कर्कश-अकर्कश-वेदनीय-पदम् कर्कश-अकर्कश-वेदनीय-पद १०७. अत्थि णं भंते ! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा अस्ति भदन्त! जीवानां कर्कशवेदनीयानि १०७. 'भन्ते ! क्या जीवों के कर्कशवेदनीय कर्म होते हैं? कम्मा कज्जति? कर्माणि क्रियन्ते? हां, होते हैं। हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। १०८. कहण्णं भंते ! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कथं भदन्त! जीवानां कर्कशवेदनीयानि कर्माणि १०८. भन्ते ! जीवों के कर्कशवेदनीय कर्म किस कारण से कम्मा कज्जंति? क्रियन्ते? होते हैं? गोयमा ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसण- गौतम ! प्राणातिपातेन यावत् मिथ्यादर्शन- गौतम! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से होते सल्लेणं-एवं खलु गोयमा! जीवाणं कक्कस- शल्येन–एवं खलु गौतम! जीवानां कर्कश- हैं। गौतम ! इस प्रकार जीवों के कर्कश वेदनीय कर्म -वेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ॥ वेदनीयानि कर्माणि क्रियन्ते। होते हैं। १०६. भन्ते ! क्या नैरयिकों के कर्कशवेदनीय कर्म होते १०६. अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं कक्कसवेय- णिज्जा कम्मा कज्जति? १.भ.५/५६ २. वही, ५/६०। ३. वही, ५/६२। अस्ति भदन्त ! नैरयिकाणां कर्कशवेदनीयानि कर्माणि क्रियन्ते? ४. वही, ५/५। ५. वही, ६/१५११ Jain Education Intemational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.६ :सू.१०७-११३ ३६४ भगवई । एवं चेव । एवं जाव वेमाणियाणं ॥ एवं चैव ! एवं यावद् वैमानिकानाम् । हां, होते हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों के कर्कशवेदनीय कर्म होते हैं। ११०. अत्थि णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवे- अस्ति भदन्त ! जीवानाम् अकर्कशवेदनीयानि ११०.भन्ते ! क्या जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म होते हैं ? यणिज्जा कम्मा कज्जति? कर्माणि क्रियन्ते? हंता अत्थि ॥ हन्त अस्ति। हां, होते हैं। १११. कहण्णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कथं भदन्त! जीवानाम् अकर्कशवेदनीयानि १११. भन्ते! जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म किस कारण कम्मा कज्जति? कर्माणि क्रियन्ते? से होते हैं ? गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गह- गौतम ! प्राणातिपातविरमणेन यावत् परिग्रह- गौतम! प्राणतिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण और वेरमणेणं, कोहविवेगेणं जाव मिच्छादसण- विरमणेन, क्रोधविवेकेन यावन् मिथ्यादर्शन- क्रोध विवेक यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक से होते सल्लविवेगेणं-एवं खलु गोयमा ! जीवाणं शल्यविवेकेन–एवं खलु गौतम ! जीवानाम् हैं। गौतम ! इस प्रकार जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म अक्ककसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ॥ अकर्कशवेदनीयानि कर्माणि क्रियन्ते। होते हैं। ११२. अत्थि णं भंते! नेरइयाणं अकक्कसवेय- णिज्जा कम्मा कज्जति? णो इणढे समढे। एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं -मणुस्साणं जहा जीवाणं ॥ अस्ति भदन्त ! नैरयिकाणाम् अकर्कशवेदनी- ११२. भन्ते ! क्या नैरयिकों के अकर्कशवेदनीय कर्म होते यानि कर्माणि क्रियन्ते? नायमर्थः समर्थः । एवं यावद् वैमानिकानाम्, यह अर्थ संगत नहीं है। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों नवरं-मनुष्याणां यथा जीवानाम्। के लिए यही नियम है। विशेष यह है-मनुष्यों की वक्तव्यता जीवों के समान है। भाष्य १. सूत्र १०७-११२ और असातवेदनीय का बंध सभी दण्डकों के होता है। प्रस्तुत आलापक में कर्म के दो वर्गीकरण किए गए हैं--कर्कशवेदनीय । प्राणातिपात कर्म-बंध का हेतु है, यह सही है। किन्तु प्राणातिपात का कर्म और अकर्कशवेदनीय कर्म । इसके अग्रिम आलापक में सातवेदनीय कर्म विरमण संवर है, कर्म-निरोध का हेतु है। वह अकर्कश वेदनीयकर्म के बन्ध का और असातवेदनीय कर्म का विमर्श किया गया है। कर्कशवेदनीय और हेतु कैसे बन सकता है ? इस समस्या से एक नया निष्कर्ष निकलता है कि जहां अकर्कशवेदनीय का संबंध केवल वेदनीय कर्म से नहीं है। उनका संबंध अनेक संवर है, वहां शुभ योग की प्रवृत्ति का नियम है; जहां शुभयोग की प्रवृत्ति है, वहां कर्मों के वेदन से है। सात वेदनीय और असातवेदनीय का सम्बन्ध वेदनीय कर्म निर्जरा का नियम है; जहां निर्जरा है, वहां तेरहवें गुणस्थान तक पुण्य-बन्ध का से है। कर्कशवेदनीय कर्म बंध के हेतु प्राणातिपात आदि अठारह पाप है। नियम है। संयमी के संवर-सहचारी शुभयोग से जो पुण्य-बंध होता है, वह असातवेदनीय कर्म-बन्ध के हेतु दूसरे को दुःख देना, परिताप देना आदि हैं। अकर्कशवेदनीय कर्म-बंध का हेतु अठारह पापों से विरत होना है। सातवेदनीय अकर्कशवेदनीय होता है। अकर्कशवेदनीय का संबंध केवल अघात्यकर्म के साथ ही नहीं है, कर्म-बंध का हेतु प्राणी की अनुकम्पा है। इन बंध-हेतुओं की भिन्नता के आधार पर कर्कश-अकर्कश एवं सात-असात का भेद स्पष्ट होता है। उसका संबंध घात्य कर्म से भी है। संयमी के कषाय-आश्रव के निमित्त से अभयदेवसूरि ने 'विरमण' का अर्थ 'संयम' किया है।' 'अविरमण' ज्ञानावरण अदि घात्य कर्मों तथा अशुभ अघात्य कर्मत्रिक का निरन्तर बन्ध होता रहता है, किन्तु प्राणातिपात का विरमण होने के कारण वह अकर्कशवेदनीय का अर्थ है-असमय। असंयम नैरयिक आदि सभी दण्डकों में उपलब्ध होता है, इसलिए कर्कश वेदनीय कर्म का बन्ध सभी जीवों के होता है। संयम (पूर्ण होता है। अकर्कशवेदनीय पुण्य कर्म पापानुबन्धी नहीं होता, संसार-परिभ्रमण विरति) का अधिकारी केवल मनुष्य ही है, इसलिए अकर्कश वेदनीय कर्म का . का हेतु नहीं होता । इसी प्रकार अकर्कशवेदनीय पाप कर्म भी संसार-चक्र की बंध केवल मनुष्य के ही होता है, अन्य किसी दण्डक के नहीं होता। सातवेदनीय था " वृद्धि का हेतु नहीं बनता । वह सरलता से मुक्त होकर निर्जीर्ण हो जाता है। सायासाय-वेयणीय-पदं सातासात-वेदनीय-पदम् ११३. अत्थि णं भंते ! जीवाणं सातावेयणिज्जा अस्ति भदन्त ! जीवानां सातावेदनीयानि कम्मा कज्जति? कर्माणि क्रियन्ते? सातासात-वेदनीय-पद ११३. ' भन्ते ! क्या जीवों के सात वेदनीय कर्म होते हैं? १. भ. वृ.७/१०६ 'पाणाइवायवेरमणेणं' ति संयमेनेत्यर्थः। Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६५ श.७ : उ.६ :सू.११३-११६ हंता अत्थि ॥ हन्त अस्ति। हां, होते हैं। ११४. कहण्णं भंते ! जीवाणं सातावेयणिज्जा कथं भदन्त ! जीवानां सातवेदनीयानि कर्माणि ११४. भन्ते ! जीवों के सात वेदनीय कर्म का बंध किस कम्मा कति? क्रियन्ते? कारण से होता है। गोयमा ! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए, गौतम ! प्राणानुकम्पया, भूतानुकम्पया, जीवा- ___गौतम ! प्राणों की अनुकम्पा, भूतों की अनुकम्पा, जीवों जीवाणुकंपयाए, सत्ताणुकंपयाए, बहूणं नुकम्पया, सत्त्वानुकम्पया, बहूनां प्राणानां की अनुकम्पा, सत्त्वों की अनुकम्पा, अनेक प्राण, भूत, पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खणयाए भूतानां जीवानां सत्त्वानाम् अदुक्खनतया जीव और सत्त्वों को दुःखी न बनाना, शोकाकुल न असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अशोचनतया, अखेदनतया, 'अतिप्पणयाए' करना, न जुराना (शरीर को जीर्ण अथवा खेद खिन्न अपिट्टणयाए अपरियावणयाए एवं खलु 'अपिट्टणयाए' अपरितापनतया-एवं खलु न करना) न रुलाना, न पीटना, न परिताप देनागोयमा ! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा गौतम! जीवानां सातवेदनीयानि कर्माणि गौतम! इस प्रकार की अनुकम्पा वृत्ति से जीवों के कजंति। एवं नेरइयाण वि, एवं जाव क्रियन्ते। एवं नैरयिकाणाम् अपि, एवं यावद् सातवेदनीय कर्म का बंध होता है। इसी प्रकार नैरयिक वेमाणियाणं ॥ वैमानिकानाम्। यावत् वैमानिकों के सात वेदनीय कर्म का बंध होता ११५. अत्थिणं भंते ! जीवाणं असातायणिज्जा अस्ति भदन्त ! जीवानाम् असातावेदनीयानि ११५. भन्ते ! क्या जीवों के असात वेदनीय कर्म होते हैं ? कम्मा कज्जति? कर्माणि क्रियन्ते? हंता अस्थि ॥ हन्त अस्ति। हां, होते हैं। ११६. कहण्णं भंते ! जीवाणं असातावेयणिज्जा कथं भदन्त ! जीवानाम् असातावेदनीयानि कम्मा कज्जति? कर्माणि क्रियन्ते? गोयमा ! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, गौतम! परदुक्खनतया, परशोचनतया, परपरजूरणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, खेदनतया, 'परतिप्पणयाए', 'परपिट्टणयाए', परपरियावणयाए, बहूणं पाणाणं भूयाणं परपरितापनतया, बहूनां प्राणानां भूतानां, जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए, सोयणयाए, जीवानां सत्त्वानां दुक्खनतया, शोचनतया, जूरणयाए, तिप्पणयाए, पिट्टणयाए, परिया- खेदनतया, 'तिप्पणयाए', 'पिट्टणयाए', परिवणयाए एवं खलु गोयमा! जीवाणं असाता- तापनतया एवं खलु गौतम! जीवानाम् वेयणिज्जा कम्मा कज्जंति। एवं नेरइयाण वि, असातावेदनीयानि कर्माणि क्रियन्ते। एवं एवं जाव वेमाणियाणं॥ नैरयिकाणाम् अपि, एवं यावद् वैमानिकानाम्। ११६. भन्ते! जीवों के असातवेदनीय कर्म का बंध किस कारण से होता है ? गौतम! दूसरों को दुःखी बनाना, शोकाकुल बनाना, जुराना (शरीर को जीर्ण और खेद खिन्न करना) रुलाना, पीटना, परिताप देना गौतम ! अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी बनाना, शोकाकुल करना, जुराना, रूलाना, पीटना, परिताप देना- इस प्रकार की क्रूर वृत्ति से जीवों के असातवेदनीय कर्म का बंध होता है-इसी प्रकार नैरयिक यावत् वैमानिकों के असात वेदनीय कर्मका बंध होता हैं। भाष्य १. सूत्र ११३-११६ अनुकम्पा के दो रूप होते हैं-विधेयात्मक और निषेधात्मक । भगवान महावीर ने अहिंसा के संयमस्वरूप को मान्य किया है।' अनुकम्पा अहिंसा का ही एक अवान्तर प्रकार है, इसलिए उसका सीमा-स्तम्भ संयम ही हो सकता है। सूत्रकार ने अनुकम्पा की प्रयोगात्मक व्याख्या में 'दुःख न देना'इसका निर्देश किया है, सुख देना-इसका निर्देश नहीं किया है। सुखात्मक अनुकम्पा समाज की प्रकृति के अनुकूल हो सकती है, किंतु संयम-धर्म की प्रकृति के अनुकूल नहीं हो सकती । मनुष्य आरम्भ में प्रवृत्त होकर दूसरों को दुःख देता है। अनुकम्पा का भाव जागृत होने पर वह आरम्भ का संयम करता है, इसलिए वह दूसरों को दुःख नहीं देता। अनुकम्पा का यह स्वरूप सार्वभौम है, सार्वकालिक और सार्वदेशिक है और सर्वथा निर्दोष है। भ.३/१४५ में दुक्खावणयाए-इस प्रकार का पाठ मिलता हैंप्रस्तुत प्रकरण में दुक्खणयाए पाठ है। शब्द-विमर्श के लिए द्रष्टव्य भ. ३/१४५ का भाष्य। उमास्वाति ने सात वेदनीय कर्म-बंध के अनेक कारण बतलाएं हैं१. भूतानुकम्पा २. व्रती-अनुकम्पा ३. दान ४. सराग संयम आदि-सराग संयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा, बाल तप ५. योग ६. क्षान्ति ७. शौचा प्रस्तुत आगम (भगवती) में आठ कर्मों के बंध के कारण बतलाए गए हैं। उनमें भी केवल अनुकम्पा का ही उल्लेख है। शेष कारणों का उल्लेख उमारवाति ने किस आधार पर किया है, यह १. दसवे. ६/८ अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो। २. भ.३/१४५ ३. त. सू. ६/१३-भूतव्रत्यनुकम्पादनं सरागसंयमादिः क्षान्तिः शौचमिति एतवेद्यस्य। ४. भ. ८/४२२। Jain Education Intemational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ७: उ. ६ : सू. ११३-११७ अन्वेषण का विषय है। सिद्धसेनगणि ने इस सूची को और अधिक लम्बा बना दिया है। भगवती का पाठ प्राचीन प्रतीत होता है तत्वार्थ सूत्र का विकास उत्तरकालीन है। अकलंक ने अनुकम्पा की व्याख्या इस प्रकार की है - जिसका चित्त अनुग्रह से भीगा हुआ है तथा पर पीड़ा को अपनी पीड़ा की भांति अनुभव करने के कारण जो अनुकम्पन होता है, उसका नाम अनुकम्पा है। २ उमास्वाति ने असातावेदनीय कर्म-बन्ध के छह हेतु बतलाएं हैं। वे भगवती में निर्दिष्ट हेतुओं के समान ही है। देखें, तालिका दुस्समदुस्समा-पदं ११७. जंबुद्दीवे षणं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए दुस्सम- दुस्समाए समाए उत्तमक पत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! कालो गविस्सा हाहामूए, मंगल्यूए कोलाहलए । समाणभावेण य णं खर-फरस-धुलिमइला दुव्विसहा वाउला भंयकरा वाया सवट्टगा य वाहिंति । इह अभिक्खं धूमाहिति य दिसा समंता रउस्सला रेणु-कलुस -तगपडल-निरालोगा समयवखयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छंति । अहियं सूरिया तवइस्संति । अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेा विरसमेढा खारमेटा खत्तमेहा अग्निमेहा विज्जुमेहा विसमेहा असगिमेहाअपिवणिज्जोदगा, वाहिरोगवेदणोदीरणा--परिणामसलिला, अमणुण्णपाणियगा चंडा - निल-पहयतिक्खधारा - निवायपउरं वासं वासिहिंति, जेणं भार वासे गामागर-नगर-खेड-कब्बड- महंब- दोणमुह- पट्टणासममयं जणवयं, चउप्पयगवेलए, खहयरे य पक्खिसंघे, गामारण्ण-पयारनिरए तसे य पाणे, बहुप्पगारे रुक्ख-गुच्छ - गुम्म-लय- वल्लि-तणपव्वग- हरितो सहि पवालंकुर-मादीए य तन- वणरसइकाइए विद्धसेहिंति, पव्वय - गिरि- डोंगरुत्थल- भट्टिमादीए वेयड्ढगिरिवज्जे विरावेहिंति सलिलबिल- गहू- दुग्ग-विसम निष्णुन्नयाई च गंगा-सिंधुवज्जाई समीकरेहिंति ॥ ३६६ भगवती तत्वार्थ सूत्र १. दुःख दुःख २. शोक शेक २. जूरण (शरीर को जीर्ण अथवा खेद खिन्न करना) ४. अश्रुमोचन ताप आक्रन्दन वध परिवेदन ५. पीटना ६. परिताप देना अकलंक ने असातावेदनीय कर्मबन्ध की सूची में अनेक प्रवृत्तियों की वृद्धि की है।" दुःषम-दुःषमा-पदम् जम्बूद्वीपे भवन्त ! द्वीपे अस्याम् अवसर्पिण्यां दुःषम- दुःषमायां समायाम् उत्तमकाष्ट (कष्ट)प्राप्तायां भरतस्य वर्षस्य कीदृशः आकारभावप्रत्यवतारः भविष्यति ? गौतम ! कालः भविष्यति हाहाभूतः भम्भाभूतः, कोलाहलभूतः । समानुभावेन च खर- परुष-धूलिमलिनाः दुर्विसहाः वातूलाः भंयकराः वाताः संवर्तकाश्च वास्यन्ति । इह अभीक्ष्णं धूमायिष्यन्ति च दिशः समन्ताद् रजस्वलाः रेणु कलुष-तमःपटल निरालोकाः। समयरूक्षतया च अधिकं चन्द्राः शीतं मोक्षयन्ति । अधिकं सूर्याः तापयिष्यन्ति । 'अदुत्तरं ' च अभीक्ष्णं बहवः अरसमेषाः विरसमेधाः क्षारमेघाः 'खत्त' मेघाः अग्निमेघाः विद्युन्मेघाः विषमेघाः अशनिमेघाः – अपानीयोदकाः, व्याधिरोगवेदनोदीरणा-परिणामसलिलाः, अमनोज्ञपानीयकाः चण्डानिल-प्रहततीक्ष्णधारा-निपातप्रचुरां वर्षां वर्षिष्यन्ति, येन भारते वर्षे ग्रामाकर-नगर- खेट-कट-मडम्ब-द्रोणमुख-पत्तनाश्रमगतं जनपदं, चतुष्पद-गवेलकान् खेचरांश्च पक्षिसंघान् ग्रामारण्य-प्रचारनिरतान्त्रांश्च प्राणान् बहुप्रकारान् रुक्ष-गुच्छ गुल्म लता वल्लि तृण पर्वक हरितौषधि-प्रवालाङ्कुरादींश्च तृण-वनस्पतिकायिकान् विध्वंसिष्यन्ति, पर्वत- गिरि-'डोंगरो' -त्स्थल-‘भट्ठि’आदीन् वैताढ्यगिरिवर्जान् 'विरावेहिंति' सलिलबिल गर्त्त-दुर्ग-विषमनिम्नोन्नतानि च गङ्गा-सिंधुवर्णानि समीकरष्यन्ति । भगवई १. त. सूः भा. वृ. ६ / १३ - धर्मानुरागः धर्मनिषेवणशीलव्रतपौषधोपवासरतितपो ऽनुष्ठान बालवृद्धतपरिचतानवेदावृत्त्यानुष्ठानधर्माचार्थमातृपितृभक्तिपूजा शुभपरि ३. वही, ६ / ११, पृ० ५२१ । णामश्च सवेद्यस्याश्रवा भवन्तीति । दुःखम- दुःषमा पद ११७. 'भन्ते ! जम्बूद्वीप द्वीप में इस अवसर्पिणी का दुःषम-दुषमा अर पराकाष्ठा पर होगा, तब भरतक्षेत्र के आकार- पर्याय का अवतरण कैसा होगा? गौतम! वह काल हाहाकारमय होगा, पशुओं का 'भाँ भाँ' इस प्रकार का आर्त्तस्वर तथा पीड़ित पक्षियों का कोलाहल होगा । उस काल के प्रभाव से खर पुरुष धूलि से मटमैले दुःसह वातुल (बवण्डर) तथा भयंकर प्रलयंकारी हवाएं चलेंगी दिशाएं बार-बार धूमिल रजकणों से व्याप्त तथा धूल भरी आंधियों से अन्धकारमय हो जाएंगी। 'समय' की रूक्षता के कारण चांद अधिक शीतल होगे। सूर्यों का ताप अधिक उपेगा। अरस जल वाले मेघ, विरस जल वाले मेघ, क्षार जल वाले मेघ, खाद के समान रस वाले मेघ, अग्नि की भांति दाहक जल वाले मेघ, विद्युत् निपात करने वाले मेघ, विषयुक्त जल वाले मेघ, ओला वृष्टि वाले मेघइस प्रकार के अनेक मेघ बार-बार बरसेंगें। उनका जल पीने योग्य नहीं होगा। वह व्याधि, रोग, वेदना को उभारने वाला होगा। वह अमनोज्ञ होगा और वर्षा भी प्रचण्ड वायु के आघात से प्रेरित हो मूसलाधार होगी। उस वर्षा के कारण भरत क्षेत्र में गांव, आकर, नगर, खेट, कब्बड, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टण, आश्रम आदि जनपदों, गाय, भेड़ आदि पशुओं, आकाशविहारी पक्षी समूहों, गांव और जंगल में घूमने वाले प्राणियों और बहुत प्रकार के वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बल्लि, तृण, पर्व, हरित, औषधि, प्रवाल- अंकुर आदि तृण वनस्पतिकाय का विध्वंस हो जायेगा वैताढ्य पर्वत को छोड़कर शेष सारे पर्वत, गिरि, डूंगर, टीले, पठार नष्ट हो जायेंगे। गंगा और सिंधु नदी को छोड़ कर शेष सारे भूमि-निर्झर, गढे, दुर्ग, विषम प्रदेश और २.रा.६१२-अनुपाकृतचेतसः परमात्ममिव कुर्वतोऽनुपमनुकम्पा Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ श.७: उ.६:सू.११७-११६ निम्नोन्नत प्रदेश समतल हो जायेंगे। ११८. तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स तस्यां भदन्त! समायां भरतस्य वर्षस्य भूमेः ११८. भन्ते ! उस काल में भरत क्षेत्र की भूमि के आकार भूमीए केरिसए आगारभाव-पडोयारे भवि- कीदृशः आकारभाव-प्रत्यावतारः भविष्यति? और भाव का अवतरण कैसा होगा? स्सति? गोयमा! भूमी भविस्सति इंगालब्भूया मुम्मु- गौतम! भूमिः भविष्यति अंगारभूता मुर्मुरभूता गौतम ! उस काल में भरत क्षेत्र की भूमि अंगारों, रत्भूया छारियभूया तत्तकवेल्लयब्भूया तत्त- क्षारिकभूता तप्तकवेल्लकभूता तप्तसम- मुसुरों (भरममिश्रित-अग्निकणों), तपी हुई राख एवं समजोतिभूया धूलिबहुला रेणुबहुला पंक- ज्योतिर्भूता धूलिबहुला रेणुबहुला पड्कबहुला तपे हुए तवे के समान हो जाएगी। वह ताप से तप्त बहुला पणगबहुला चलणिबहुला बहूणं पनकबहुला चलनीबहुला बहूनां धरणीगोच- और अग्नि तुल्य हो जाएगी। वह बहुल धूलवाली, धरणिगोयराणं सत्ताणं दुन्निक्कमा यावि राणां सत्त्वानां दुनिष्कमा चापि भविष्यति। बहुल रजवाली बहुल पंकवाली, बहुल सघन कीचड़ भविस्सति । वाली और बहुल चरण प्रमाण कीचड़ वाली हो जायेगी। भूमि पर चलने वाले अनेक प्राणियों के लिए उस पर चलना कठिन हो जाएगा। ११६. तीसे णं भंते! समाए भरहे वासे मणुयाणं तस्यां भदन्त! समायां भरते वर्षे मनुजानां ११६. भन्ते! उस काल में भरत क्षेत्र के मनुष्यों का आकार केरिसए आगारभाव-पडोयारे भविस्सइ? कीदृशः आकारभाव-प्रत्यावतारः भविष्यति? और भाव का अवतरण कैसा होगा? गोयमा! मणुया भविस्संति दुरूवा दुवण्णा गौतम ! मनुजाः भविष्यन्ति 'दुरूवा' दुर्वर्णाः गौतम! उस काल में भरतक्षेत्र के मनुष्य दुःस्वभाव दुग्गंधा दुरसा दुफासा अणिट्ठा अकंता अप्पिया दुर्गन्धाः दूरसाः दुःस्पर्शाः अनिष्टाः अकान्ताः वाले, दुर्वर्ण, दुर्गन्ध, दूरस, दूःस्पर्श, अनिष्ट, अकान्त, असुभा अमणुण्णा अमणामा हीणस्सरा दीण- अप्रियाः अशुभाः अमनोज्ञाः 'अमणामा' हीन- अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अकमनीय, तथा हीन स्वर, स्सरा अणिट्ठस्सरा अकंतस्सरा अप्पियस्सरा स्वराः दीनरवराः अनिष्टस्वराः अकान्तस्वराः दीन स्वर, अनिष्ट स्वर, अकान्त स्वर, अप्रिय स्वर, असुभस्सरा अमणुण्णस्सरा अमणामस्सरा अप्रियस्वराः अशुभस्वराः अमनोज्ञस्वराः अशुभ स्वर, अमनोज्ञ स्वर, अकमनीय स्वर वाले अणादेज्जवयण-पच्चायाया, निल्लज्जा, कूड- 'अमणामस्सरा' अनादेयवचन-प्रत्याजाताः, होंगे । उनका वचन दूसरों द्वारा आदेय नहीं होगा। वे -कवड-कलह-वह-बंध-वेरनिरया, मज्जाया- निर्लज्जाः , कूट-कपट-कलह-वध-बन्ध- निर्लज्ज तथा कूट, कपट, कलह, वध, बंध और वैर तिक्कमप्पहाणा, अकज्जनिच्चुज्जता, गुरु- -वैरनिरताः, मर्यादातिक्रमप्रधानाः, अकार्य- में संलग्न रहेंगे। वे मर्यादा का अतिक्रमण करने में नियोग-विणयरहिया य, विकलरूवा, परूढ- नित्योद्यताः, गुरुनियोग-विनयरहिताः च, मुखिया, अकरणीय करने में सदा उद्यत, बड़ों के प्रति नह-केस-मंसु-रोमा, काला, खर-फरुस- विकलरूपाः, प्ररूढनख-केश-श्मश्रु-रोमाः अवश्य करणीय विनय से शून्य होंगे। उनका रूप विकल -झाम-वण्णा, फुट्टसिरा, कविलपलियकेसा, कालाः,खर-परुष-'झाम'-वर्णाः,'फुट्ट' शिरसः, होगा, उनके नख, केश, श्मश्रु, रोम बढे हुए होंगे, वे बहुण्हारुसंपिणद्ध-दुईसणिज्जरूवा, संकुडित- ___ कपिलपलितकेशाः, बहुस्नायुसंपिनद्ध- काले वर्ण वाले होंगे, वे अत्यन्त रूक्ष और मटमैले वर्ण वली-तरंगपरिवेढियंगमंगा, जरापरिणतव्व -दुर्दर्शनीयरूपाः, संकुटितवलि-तरङ्गपरिवेष्टि- वाले, फटे हुए सिर वाले, पीले और सफेद केश वाले थेरगनरा, पविरलपरिसडियदंतसेढी, उन्भ- ताङ्गाङ्गाः, जरापरिणता इव स्थविरकनराः, बहुत स्नायुओं से गूंथे हुए होने के कारण दुर्दर्शनीय डघडामुहा विसमणयणा, वंकनासा, वंक- प्रविरलपरिशटितदन्तश्रेणयः, उद्भटघट- रूप वाले, सिकुडी हुई वलि-तरंगों (झुर्रियों) से वलीविगय-भेसणमुहा, कच्छु-कसराभिभूया, मुखाः विषमनयनाः वकणसाः, वक्रवलि- परिवेष्टित प्रत्येक अंग वाले, जरा-परिणत वृद्ध मनुष्यों खरतिक्खनखकंडूइय-विक्खयतणू, ददु- विगत-भेषणमुखाः, कच्छू-'कसरा'भिभूताः, के समान, संख्या में स्वल्प और सड़ी हुई दांतों की -किडिभ-सिब्म-फुडियफरुसच्छवी, चित्तलंगा, खरतीक्ष्णनखकण्डुयित-विक्षततनवः, दद्रु- श्रेणी वाले, घड़े के मुख की भांति छोटे होठ वाले, तुच्छ टोलगति-विसमसंधिबंधण-उक्कुडुअट्ठि- किटिभ-सिध्म-स्फुटितपरुषच्छवयः, चित्र- मुख, विषम नेत्र, टेढी नाक, टेढे और झुर्रियों से विकृत गविभत्त-दुब्बला कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसं- लाङ्गाः 'टोल गति-विषमसन्धिबन्धन-उत्कु- बने हुए भयानक मुख वाले, कच्छू (खुजली) और कसर ठिया, कुरूवा, कुट्ठाणासण-कुसेज्ज-कुभो- टुकास्थिकविभक्त-दुर्बलाः कुसंहनन-कु- (गीली खुजली) से अभिभूत, खर-तीक्ष्ण नखों से इणो, असुइणो, अणेगबाहिपरिपीलियं- प्रमाण-कुसंस्थिताः, कुरूपाः, कुस्थानासन- खुजलाने के कारण क्षत-विक्षत बनें हुए शरीर वाले, गमंगा, खलंत विब्भलगती, निरुच्छाहा, सत्त- -कुशय्या-कुभोजिनः, अशुचयः, अनेकव्याधि- दाद, कुष्ठ और सेंहुआ रोग से फटी और रूखी चमड़ी परिवज्जिया, विगयचेट्ठनट्ठतेया, अभिक्खणं परिपीडिताङ्गाङ्गाः, स्खलद्-विहलगतयः, वाले चितकबरे अंग वाले, टिड्डे की जैसी टेढ़ी-मेढ़ी सीय-उण्ह-खर-फरुसवाय-विज्झडियमलिण- निरुत्साहाः, सत्त्वपरिवर्जिताः, विगतचेष्टा- गति, टेढ़े-मेढ़े सन्धिबन्धन, हड्डियों की अव्यवस्थित पंसुरउग्गुंडियंगमंगा, बहुकोह-माण-माया, नष्टतेजसः, अभीक्ष्णं शीतोष्ण-खर-परुष- रचना और दुर्बल शरीर वाले, दोषपूर्ण संहनन, शरीरबहुलोभा, असुह-दुक्खभागी,उस्सण्णं धम्म- वात 'विज्झडिय' मलिनपांशुरजो 'उग्गुंडिय'- प्रमाण और संस्थान वाले, कुरूप, कुत्सित आसन, सण्णसम्मत्तपरिभट्ठा, उक्कोसेणं रयणिप्प- अङ्गाङ्गाः, बहुक्रोध-मान-मायाः, बहुलोभाः, कुत्सित शय्या और कुत्सित भोजन वाले, शुचि न करने माण मेत्ता, सोलसवीसतिवासपरमाउसो, पुत्त- अशुभ-दुक्खभागिनः 'उस्सण्णं' धर्मसंज्ञा- वाले, अनेक व्याधियों से पीड़ित प्रत्येक-अंग वाले, Jain Education Intemational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.६:सू.११६-१२३ ३६८ भगवई नत्तुपरिवाल-पणयबहुला, गंगा-सिंधूओ महा- सम्यक्त्वपरिभ्रष्टाः, उत्कर्षेण रत्निप्रमाणनदीओ, वेयड्ढं च पव्वयं निस्साए बावत्तरि मात्राः, षोडशविंशतिवर्षपरमायुषः, पुत्रनप्तृनिओदा बीयं बीयमेत्ता बिलवासिणो भवि- परिवार-प्रणयबहुलाः, गङ्गा-सिंधू महानद्यौ, स्संति॥ वैताढ्यं च पर्वतं निश्रित्य द्विसप्ततिः निगोदाः बीजं बीजमात्राः बिलवासिनः भविष्यन्ति। स्खलित और विहल गति वाले, निरुत्साह, सत्त्व से रहित, चेष्टा-शून्य, तेज-शून्य, बार-बार सर्दी-गर्मी, रूक्ष और कठोर वायु से व्याप्त होने वाली मलिन धूलि और रजकणों से भरे हुए प्रत्येक अंग वाले होंगे। उनका क्रोध, मान, माया और लोभ प्रबल होगा। उनका दुःख दुःखानुबन्धी होगा। वे प्रायः धर्म-संज्ञा से शून्य और सम्यक्त्व-रहित होंगे। उनका शरीर रत्नि (बंधी मुट्ठी वाला हाथ) जितना होगा। उनकी उत्कृष्ट आयु सोलह अथवा बीस वर्ष की होगी। वे पुत्र-पौत्र आदि में बहुत स्नेह रखने वाले होंगे। वे गंगा, सिंधु दो महानदियों तथा वैताढ्य पर्वत के परिपार्श्व में होने वाले कुछ बिलों अथवा गुफाओं के आश्रय में रहेंगे। उनके बहत्तर कुटुम्ब आगामी मनुष्य-जाति के लिए बीज और बीजमात्र बचेंगे। १२०. ते णं भंते ! मणुया कं आहारं आहारे- ते भदन्त! मनुजाः कम् आहारम् आहा- १२०. भन्ते ! वे मनुष्य किसका आहार करेंगे? हिंति? रिष्यन्ति? गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगा- गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् समये गङ्गा- गौतम ! उस काल और उस समय गंगा और सिंधु-दो सिंधूओ महानदीओ रहपहवित्थराओ अक्ख- सिन्धू महानद्यौ रथपथविस्तरे अक्षस्रोत- महानदियों का विस्तार रथ के पथ जितना होगा। उनमें सोयप्पमाणमेत्तं जलं वोज्झिहिंति, से विय प्रमाणमात्रं जलं वक्ष्यतः,तद् अपि च जलं पहिये की धुरी के प्रवेश-छिद्र जितना जल बहेगा। वह णं जले बहुमच्छकच्छभाइण्णे, णो चेव णं बहुमत्स्यकच्छपाकीर्णम्, नो चैव अब्बहुलं जल अनेक मछलियों और कछुओं से आकीर्ण होगा। आउबहुले भविस्सति। तए णं ते मणुया सूरु- भविष्यति। ततः ते मनुजाः सूरोद्गमनमुहूर्ते उसमें जल की मात्रा कम होगी। वे मनुष्य सूर्य के ग्गमणमुहुत्तंसि य सूरत्थमणमुहुत्तंसिय बिले- च सूरास्तमनमुहूर्तेच बिलेभ्यः निर्धाविष्यन्ति, उदयकाल और अस्तकाल के समय अपने-अपने बिलों हिंतो निद्धाहिति, निद्धाइत्ता मच्छ-कच्छभे निर्धाव्य मत्स्यकच्छपान् स्थलानि गाहिष्यन्ति, से निकलेंगे, निकल कर मछलियों और कछुओं को थलाई गाहेहिंति, गाहेत्ता सीतातवतत्तएहिं गाहित्वा शीतातपतप्तैः मत्स्यकच्छपैः एक- स्थल पर लाएंगे, ला कर उन्हें सर्दी के दाह और गर्मी मच्छ-कच्छएहिं एक्कवीसं वाससहस्साइं वित्तिं विंशति वर्षसहस्राणि वृत्तिं कल्पमानाः विहरि- के ताप में पकाएंगे। इक्कीस हजार वर्ष तक इस कप्पेमाणा विहरिस्संति ॥ ष्यन्ति। प्रकार जीविका का निर्वाह करेंगे। १२१. ते णं भंते! मणुया निस्सीला निग्गुणा ते भदन्त ! मनुजाः निश्शीलाः निर्गुणाः निर्मेराः १२१. भन्ते! वे शील-रहित, गुण-रहित, मर्यादा-रहित, निम्मेरा निप्पच्चक्खाणपोसहोववासा, उस्स- निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासाः, 'उस्सण्णं' पौषघोपवास- और प्रत्याख्यान-रहित तथा प्रायः ण्णं मंसाहारा मच्छाहारा खोद्दाहारा कुणिमा- मांसाहाराः मत्स्याहाराः क्षौद्राहाराः 'कुणिमा'- मांस-मछली खाने वाले, क्षुद्र-भोजी तथा शवों को खाने हारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति? हाराः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यन्ति? वाले मनुष्य कालमास में काल कर कहां जायेंगे ? कहां कहिं उववज्जिहिंति? कुत्र उपपत्स्यन्ते? उत्पन्न होंगे। गोयमा! उस्सण्णं नरग-तिरिक्खजोणिएसु गौतम! 'उस्सणं' नरक-तिर्यग्योनिकेषुः उप- गौतम! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्च-योनि में उत्पन्न उववज्जिहिंति ॥ पत्स्यन्ते। होंगे। १२२. ते णं भंते! सीहा, वग्धा, वगा, दीविया, ते भदन्त ! सिंहाः, व्याघ्राः, वृकाः, द्वीपिनः, १२२. भन्ते ! वे शील-रहित सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, चीता अच्छा, तरच्छा, परस्सरा निस्सीला तहेव जाव ऋक्षाः, तरक्षाः, पराशराः निश्शीलाः तथैव (चितिदार तेंदुआ) रीछ, तेंदुआ (लक्कडबग्घा या कहिं उववज्जिहिंति? यावत् कुत्र उपपत्स्यन्ते? hynea), अष्टापद (भालू की प्रजाति का जानवर या wombat) यावत् कालमास में काल कर कहां उत्पन्न होंगे? गोयमा ! उस्सण्णं नरग-तिरिक्खजोणिएसु गौतम! 'उस्सण्णं' नरक-तिर्यग्योनिकेषु उप- गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्च-योनि में उत्पन्न उववज्जिहिंति ॥ पत्स्यन्ते। होंगे। १२३. ते णं भंते ! ढंका, कंका, विलका, मदुगा, ते भदन्त! 'ढंका', कड्काः , विलकाः, मद्- १२३. भन्ते ! वे शील-रहित ढंक (द्रोण-काक या बडे Jain Education Intemational Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६६ सिही निस्सीला तहेव जाव कहिं उववज्जि- गुकाः, शिखिनः निश्शीलाः तथैव यावत् कुत्र हिंति ? उपपत्स्यनते ? गोयमा ! उस्सण्णं नरम-तिरिक्खजोगिएसु गोवमा 'उस्सण्ण' नरक- तिर्यग्योनिकेषु उच्चन्निर्हिति ॥ उपपत्स्यन्ते । १. सूत्र ११७- १२३ पत्ती में कालचक्र का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। प्रस्तुत आगम में यह वर्णन वहीं से उद्धृत प्रतीत होता है। आगम-वाचना के किसी चरण में इस आलापक का प्रक्षेप हुआ-यह स्वीकार करने में कोई बाधक कारण नहीं है। भगवती की संवादात्मक तथा सूत्रात्मक रचना - शैली के साथ इस विवरणात्मक शैली का संगतिपूर्ण संबंध भी नहीं है। दुःषम- दुःषमा काल में होने वाली पर्यावरणीय परिस्थिति का विवेचन इस प्रकार है १. प्रलयंकर वायु चलेगी। २. दिशाएं धूमिल हो जाएंगी। ३. चन्द्रमा से अधिक ठण्ड़ निकलेगी। ४. सूर्य अधिक तपेगा। ५. वर्षा वैसी होगी, जिसका पानी व्याधि पैदा करने वाला होगा एवं पीने योग्य नहीं होगा। २. बिलो ६. वर्षा तूफानी हवा के साथ इतनी तेज बरसेगी, जिससे ग्राम नगर, पशु-पक्षी तथा वनस्पति जगत् का विध्वंस हो जाएगा। ७. वैतायगिरि को छोड़ शेष पर्वत, डूंगर नष्ट हो जायेंगे। ८. गंगा, सिन्धू को छोड़ शेष नदियां समतल बन जाएंगी। ६. भूमि अंगारे की भांति तप्त, भूति बहुल हो जाएगी एवं निवास योग्य नहीं रहेगी। १०. मनुष्य सौन्दर्य, सदाचार और शक्ति से हीन हो जाएगा। ११. मनुष्य के शरीर की ऊंचाई एक रत्निप्रमाण' हो जाएगी। १२. कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) प्रबल हो जाएगा। १३. भोजन पोषणहीन होगा और रोग बढ़ जायेंगे। १४. आयुष्य का कालमान १६ से २० वर्ष जितना होगा। इन बिलों की संख्या ७२ बताई गई है। शब्द-विमर्श सू० ११७ भाष्य १. भ. ६/१३४ । २. भ. जो. २/ १२०/८१-८३ गंगा सिंधु महानदी वेताढनीं नेश्राय । बोहिंतर बिल-वासीनां कुटुंब निगोदा कहाय ॥ ८१ ॥ गंगा नदि जिहां उत्तर दिशि वैताढरे, नीचे प्रवेश करे तिहां बिहु पासै धरै । पराकाष्ठा पर होगा ) ( उत्तमक पत्ताए ) - पराकाष्ठा को प्राप्त ( होगा ) । भ० ६/१३५ में 'उतिमडुपत्ताए' प्रयोग मिलता है। आकार पर्याय का अवतरण - आकार ( बाह्य स्वरूप) और भाव (पर्याय) का अवतरण अथवा आविर्भाव । श.७:उ.६ ः सू.११७-१२३ कौए) कंक (सफेद कौआ), बिलक (सुनहरा नील पक्षी या नीलक), जलवायस (पन्नडूबी या बानकी), मोर या कुक्कुट (मुर्गा) यावत् कहां उपपन्न होंगे ? गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होंगे। अर (समा ) --काल, समय, कालचक्र का एक भाग 'अर' है । काल के प्रभाव से (समानुभाव ) - समा- काल; अनुभव -सामर्थ्य खर परुष - अत्यन्त कठोर वातुल वातुल और वातूल ये दोनों शब्द संस्कृत कोश- सम्पत हैं। इनका अर्थ है 'वायु का समूह', आंधी, बवण्डर। वृत्तिकार ने बाउल का अर्थ व्याकुल असमंजस किया है। किंतु यहां व्याकुल का अर्थ संगत नहीं लगता। खर- परुष-धूलिमइला-दुव्विसहाये वाउला के विशेषण हैं। प्रलयंकारी हवाएं (संवर्तक) तृण, काष्ठ आदि को उड़ा देने वाली वायु वाले मेघ । 'भयंकरा' - यह संवर्त्तक बात का विशेषण है। अंधकारमय (निरालोक) - आलोक -रहित । समय की रूक्षता - यहां 'समय' शब्द 'वातावरण' का वाचक है। काल औपचारिक द्रव्य है। वह स्निग्ध अथवा रूक्ष नहीं हो सकता । क्षार जल वाले मेघ -सज्जी क्षार के समान रस वाले मेघ । खाद के समान रस वाले मेघ - गोबर की खाद के समान रस गवेत्तय-गाय, भेड़ आदि पशु वृक्ष (रुख) - आम आदि वृक्ष । गुच्छ - वृन्ताकि आदि पौधा । गुल्म - जिसका स्कन्ध छोटा हो और कांड, पत्र, पुष्प तथा फल अधिक हो वह गुल्म है। लता -- जिसके स्कन्ध प्रदेश से ऊपर एक शाखा के अतिरिक्त दूसरी शाखा न निकले। वल्ली-बेल, ककडी आदि की बेल तण - वीरण आदि घास । नव नव बिल छै एम अठारै बिल थया, इम गंगा दक्षिण वैताढ कनै कहया ॥८२॥ उत्तर दिशि में अठार अठार दक्षिण दिशे, - एवं बिल षट तीस तिहां जंतू वसे । इम सिंधू बिहू पास छतीस पिछाणियै बोहितर बिल एम सर्व ही जाणियै ॥८३॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.६:सू.११७-१२४ ३७० भगवई पर्वग-जिसके मध्य में गांठे हों, जैसे इक्षु आदि। दाद, कुष्ठ, सेंहुआ, (दुद्दु-किडिभ-सिब्म)-आयुर्वेद में कुष्ठ हरित-दूब आदि। के अठारह प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें सिध्म और किटिभ-ये दोनों औषधि-धान्य (शाली आदि) कफवातज बतलाए गए हैं। दद्रु भी कुष्ट का एक प्रकार है। उसे कफपित्तज प्रवाल-पल्लवांकुर। बतलाया गया है। तृण वनस्पतिकाय-बादर वनस्पति। छवि-त्वचा। डूंगर (डोंगर)-छोटी पहाड़ी । यह देशी शब्द है। चित्रल-चितकबरा। टीले (उत्थल)–बालु के टीले टोलगति–टोल का अर्थ है--टिड्डा। टिड्डे की तरह टेढ़ी-मेढ़ी पठार (भट्ठी)-पठार भूमि (धूलरहित मार्ग) गति। वृत्ति में इसका अर्थ किया है-ऊंट जैसी गति वाला। विकल्प में अर्थ भूमि निर्झर (सलिलबिल)-भूमि से नीचे से ऊपर की ओर किया है-अप्रशस्त आकार वाला। निकलती जलधारा, जलोच्छ्वास। उक्कुडअद्विग-जिसकी हड्डियां यथास्थान निविष्ट नहीं है। विरावेहिति-विराय (विरात)-यह देशी धातु है। यहाँ इसका विज्झडिय-यह देशी पद है। इसका अर्थ है-'मिश्रित', 'व्याप्त'। अर्थ है-विलीन। उग्गुंडिय-यह देशी पद है। इसका अर्थ है 'धूल से भरा हुआ'। असुहदुक्खभागी-दुःखानुबन्धी दुःखभागी। सू. ११८ रलि-बंधी मुट्ठी वाला हाथ। तत्तकवेल्लयब्भूया, तत्तसमजोतिभूया-द्रष्टव्य भ० ३/४८ निगोद-कुटुम्ब । का भाष्य। चलणी-चरण-प्रमाण कर्दम ।' जीवाजीवाभिगम वृत्ति में इसका सू० १२० अर्थ 'चरणमात्रस्पर्शी कर्दम' किया गया है। रहपह-रथ के दोनों चक्कों की दूरी जितना मार्ग। अक्खसोयपमाणमेत्तं पहिये की धूरी के प्रवेश-छिद्र जितना।" सू. ११६ अनादेयवचन-जिसका वचन दूसरों के द्वारा आदेय, ग्राह्य अथवा सू० १२१ मान्य न हो वह 'अनादेयवचन' कहलाता है। प्रस्तुत सूत्र में 'मांसाहार' और 'कुणिमाहार' दोनों का प्रयोग प्रत्यायात-जन्म। 'पच्चायाय' के संस्कृत रूप दो हो सकते हैं- हुआ है। कुणिम का अर्थ है-शव। मांसाहार के साथ शव-मृतशरीर खाने प्रत्यायात और प्रत्याजात । वृत्तिकार ने प्रत्याजात का अर्थ 'जन्म' किया का भी उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि मांसाहार और शव का आहार दानों एक कोटि के नहीं हैं। मांसाहार की अपेक्षा शव के आहार में अधिक क्रूरता की नियोग-विधि, अवश्य करणीय।' मनोवृत्ति होती है। दग्ध (झाम)-'झाम' देशी पद है। इसका अर्थ है-—'दग्ध।' फुट्टसिरा-फटे हुए अथवा विदीर्ण सिर वाले । वृत्तिकार ने सू० १२२ इसका अर्थ 'विकीर्ण बाल वाला' किया है।' ___ सू० ११७ में बतलाया गया है कि चतुष्पदों का विध्वंस हो जाएगा। कच्छुकसराभिभूय-कच्छु' और 'कसर' दोनों खुजली के प्रकार वह प्रायिक वचन है। प्रस्तुत सूत्र में बचे हुए चतुष्पदों का उल्लेख है। हैं। वृत्तिकार ने कच्छू का अर्थ 'पामा' और कसर का अर्थ 'खशर' किया है। शब्द-विमर्श के लिए द्रष्टव्य भ०३/२०९-२२० का भाष्य । १२४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। १२४. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है। १. भ. वृ.६/११८-चलनप्रमाणः कर्दमश्चलनीत्युच्यते । २.जीवा. व. प. २४२ चलणीति वा, चलनी-चरणमात्रस्पीकर्दमः । ३. भ.वृ.७/११६-प्रत्याजातन्तु जन्म। 8. अभिधान चिन्तामणि, ६/१५६-नियोगे विधिसंप्रेषो। ५. भ. वृ. ७/११६- 'फुट्टसिर'त्ति विकीर्णशिरोजा इत्यर्थः । ६. वही, ७/११६-कच्छूकसराभिभूया कच्छू:--पामा तथा कशरेश्च-खशरैरभिभूताः व्याप्ता येते तथा। ७. शार्ङ्गधरसंहिता पूर्वखण्ड, रोग गणना प्रकरण, पृ. १४८ । ८. भ. वृ. ७/११६-टोलेत्यादि, टोलगतयः-उष्ट्रादिसमप्रचाराः पाठान्तरेण टोलाकृतयः-- ____ अप्रशस्ताकाराः । ६. वही, ७/१२०--रथपथः-शकटचक्रद्वयामितो मार्गः । १०. वही, ७/१२०- अक्षश्रोतः-चक्रधुरः प्रवेशरन्धं तदेव प्रमाणमक्षश्रोतः प्रमाणं तेन मात्रा परिमाणमवगाहतो यस्य तत् । Jain Education Intemational Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संवुडस्स किरिया-पदं संवृतस्य क्रिया-पदम् संवृत का क्रिया-पद १२५. संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स आउत्तं संवृतस्य भदन्त ! अनगारस्य आयुक्तं गच्छतः, १२५.' भन्ते ! जो संवृत अनगार आयुक्त दशा में (दत्तचित्त गच्छमाणस्स, आउत्तं चिट्ठमाणस्स, आउत्तं आयुक्तं तिष्ठतः, आयुक्तं निषीदतः, आयु- होकर) चलता है, खड़ा होता है, बैठता है, लेटता है, निसीयमाणस्स, आउत्तं तुयट्टमाणस्स, आउत्तं क्तं त्वग्वर्तयतः, आयुक्तं वस्त्र प्रतिग्रह वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद-प्रोञ्छन लेता अथवा वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुंछणं गेण्हमाणस्स कम्बलं पादप्रोञ्छनं गृहन्तो वा निक्षिपतो वा, रखता है, भन्ते ! क्या उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है वा निक्खिवमाणस्स वा, तस्स णं भंते ! किं तस्य भदन्त ! किम् ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते? अथवा साम्परायिकी क्रिया होती है ? इरियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया साम्परायिकी क्रिया क्रियते ? किरिया कज्जइ? गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गौतम ! संवृतस्य अनगारस्य आयुक्तं गौतम ! संवृत अनगार आयुक्त दशा में चलता है गच्छमाणस्स जाव तस्स णं इरियावहिया गच्छतः यावत् तस्य ऐर्यापथिकी क्रिया यावत् उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, साम्परायिकी किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ॥ क्रियते, नो साम्परायिकी क्रिया क्रियते । क्रिया नहीं होती। १२६. से केणतुणं भंते ! एवं बुच्चइ-संवुडस्स तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-संवृतस्य णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव नो अनगारस्य आयुक्तं गच्छतः यावन् नो संपराइया किरिया कज्जइ? साम्परायिकी क्रिया क्रियते? गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा गौतम ! यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः व्यु- वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया च्छिन्नाः भवन्ति, तस्य ऐर्यापथिकी क्रिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोह-माण-माया- क्रियते, यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः अव्यु-लोभा अवोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं संपराइया छिन्नाः भवन्ति, तस्य साम्परायिकी क्रिया किरिया कज्जइ। अहासुत्तं रीयमाणस्स इरिया- क्रियते । यथासूत्रं रियतः ऐपिथिकी क्रिया वहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स क्रियते, उत्सूत्रं रियतः साम्परायिकी क्रिया संपराइया किरिया कज्ज्इ। से णं अहासुत्तमेव क्रियते । सः यथासूत्रमेव रियति। तत् तेनार्थेन रीयइ। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ- गौतम ! एवमुच्यते-संवृतस्य अनगारस्य संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स आयुक्तं गच्छतः यावन् नो साम्परायिकी क्रिया जाव नो संपराइया किरिया कज्ज्छ । क्रियते। १२६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है---- संवृत अनगार आयुक्त दशा में चलता है यावत् साम्परायिकी क्रिया नहीं होती? गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया, और लोभ व्यवच्छिन्न हो जाते हैं, उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न नहीं होते, उसके साम्परायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र--- सूत्र के अनुसार चलने वाले के ऐपिथिकी क्रिया होती है, उत्सूत्र--सूत्र के विपरीत चलने वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया, और लोभ व्यवच्छिन्न होते हैं) यथासूत्र ही चलता है। गौतम! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है--संवृत अनगार जो आयुक्त दशा में चलता है यावत् साम्परायिकी क्रिया नहीं होती। भाष्य १. सूत्र १२५, १२६ द्रष्टव्य भ. ७/२० का भाष्य । संवृत के लिए द्रष्टव्य भ. १/४४-४७ का भाष्य । dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ७: उ.७ : सू.१२७-१३८ काम भोग- पदं १२७. रूवी भंते ! कामा? अरूवी कामा? गोयमा ! रूवी कामा, नो अरूवी कामा ॥ १२८. सचित्ता भंते ! कामा ? अचित्ता कामा? गोयमा ! सचित्ता वि कामा, अचित्ता वि कामा॥ १२६. जीवा भंते! कामा? अजीवा कामा ॥ गोयमा ! जीवा वि कामा, अजीवा वि कामा॥ १३१. कतिविहा णं भंते ! कामा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा कामा पण्णत्ता, तं जहासद्दा य, रूवा य ॥ १३२. रूवी भंते भोगा ? अरुदी भोगा ? गोयमा ! रूवी भोगा, नो अरूवी भोगा ॥ १३३. सचित्ता भंते ! भोगा ? अचित्ता भोगा? गोयमा ! सचित्ता वि भोगा, अचित्ता वि भोगा। १३०. जीवाणं भंते! कामा ? अजीवाणं कामा? जीवानां भदन्त ! कामाः ? अजीवानां कामाः ? गोयमा ! जीवानं कामा, नो अजीवाणं कामा॥ गीतम! जीवानां कामाः, नो अजीवानां कामाः । कतिविधाः भदन्त ! कामाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्विविधाः कामाः प्रज्ञप्ताः तद् यथाशब्दाः च रूपाणि च । १३४. जीवा भंते! भोगा ? अनीवा भोगा? गोयमा जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा। ३७२ १३७. कत्तिविहा णं भंते ! काम भोगा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा काम - भोगा पण्णत्ता, तं जहा - सद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा ॥ १३८. जीवा णं भंते ! किं कामी ? भोगी ? काम-भोग-पदम् रूपिणः भदन्त ! कामाः ? अरूपिणः कामाः ? गौतम ! रूपिणः कामाः, नो अरूपिणः कामाः । सचित्ताः भदन्त ! कामाः ? अचित्ताः कामाः ? गौतम ! सचित्ताः अपि कामाः अचित्ताः अपि कामाः । जीवाः भदन्त ! कामाः ? अजीवाः कामाः ? गौतम ! जीवाः अपि कामाः, अजीवाः अपि कामाः । जीवाः भदन्त ! भोगाः ? अजीवाः भोगाः ? गौतम जीवाः अपि भोगाः, अनीवाः अपि भोगाः । १३५. जीवाणं मंते ! भोगा ? अजीवाणं भोगा ? जीवानां भदन्त ! भोगाः अजीवानां भोगाः ? गोयमा ! जीवाणं भोगा, नो अजीवाणं भोगा ॥ गौतम ! जीवानां भोगाः, नो अजीवानां भोगाः । १३६. कतिविहानं भंते । भोगा पण्णता ? गोयमा ! तिविहा भोगा पण्णत्ता, तं जहागंधा, रसा, फासा ॥ कतिविधाः भदन्त ! भोगाः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! त्रिविधाः भोगाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथागन्धाः, रसाः, , स्पर्शाः । रूपिणः भदन्त ! भोगाः ? अरूपिणः भोगाः ? गोतम रूपिणः भोग, नो अरूपिणः भोगाः। सचित्ताः भदन्त ! भोगाः ? अचिता भोगाः ? गौतम ! सचित्ताः अपि भोगाः, अचित्ताः अपि भोगाः । कतिविधाः भदन्त ! काम-भोगाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पंचविधाः काम भोगाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा - शब्दाः, रूपाणि, गन्धाः, रसाः, स्पर्शाः । जीवाः भदन्त ! किं कामिनः ? भोगिनः ? काम-भोग-पद १२७. ' भन्ते ! काम रूपी हैं अथवा अरूपी ? गीतम काम रूपी हैं, अरूपी नहीं हैं। भगवई १२८. भन्ते ! काम सचित्त हैं अथवा अचित्त ? गौतम ! काम सचित्त भी हैं और अचित्त भी हैं। १२६. भन्ते ! काम जीव हैं अथवा अजीव ? गौतम ! काम जीव भी हैं और अजीव भी हैं। १३०. भन्ते ! काम जीवों के होते हैं अथवा अजीवों के होते हैं ? गौतम ! काम जीवों के होते हैं, अजीवों के नहीं होते । १३१. भन्ते ! काम कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! काम दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- शब्द और रूप । १३२. भन्ते ! भोग रूपी हैं अथवा अरूपी हैं ? गौतम ! भोग रूपी हैं, अरूपी नहीं हैं। १३३. भन्ते ! भोग सचित्त हैं अथवा अचित्त ? गौतम । भोग सचित भी है और अधित भी है। १३४. भन्ते ! भोग जीव हैं अथवा अजीव ? गौतम ! भोग जीव भी हैं और अजीव भी हैं। १३५, भन्ते । भोग जीवों के होते हैं अथवा अजीवों के होते हैं ? गौतम ! भोग जीवों के होते हैं, अजीवों के नहीं होते । १३६. भन्ते ! भोग कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! भोग तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--गन्ध, रस और स्पर्श १३७. भन्ते ! काम भोग कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! काम भोग पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेशब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श । १३८. भन्ते ! क्या जीव कामी हैं अथवा भोगी ? Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३७३ श.७ : उ.७ : सू.१३८-१४५ गोयमा ! जीवा कामी वि, भोगी वि॥ गौतम ! जीवाः कामिनः अपि, भोगिनः अपि। गौतम ! जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। १३६. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जीवा कामी तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जीवाः १३६ भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीव वि? भोगी वि? कामिनः अपि ? भोगिनः अपि? कामी भी हैं और भोगी भी हैं? गोयमा ! सोइंदिय-चक्खिदियाइं पडुच्च कामी, गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिये प्रतीत्य गौतम ! श्रोत्र-इन्द्रिय और चक्षु-इन्द्रिय की अपेक्षा जीव घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियाइं पडुच्च कामिनः, घ्राणेन्द्रिय-जिहेन्द्रिय-स्पर्शनेन्द्रियाणि कामी हैं। घ्राण-इन्द्रिय, जिह्य-इन्द्रिय और स्पर्शनइन्द्रिय भोगी। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- प्रतीत्य भोगिनः। तत् तेनार्थेन गौतम! एव- की अपेक्षा जीव भोगी हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह जीवा कामी वि, भोगी वि॥ मुच्यते-जीवाः कामिनः अपि, भोगिनः अपि। कहा जा रहा है-जीव कामी भी हैं, और भोगी भी १४०. नेरइया णं भंते ! किं कामी ? भोगी? एवं चेव जाव थणियकुमारा ॥ नैरयिकाः भदन्त ! कि कामिनः? भोगिनः? एवं चैव यावत् स्तनितकुमाराः । १४०. भन्ते ! नैरयिक कामी है अथवा भोगी? नैरयिक से लेकर स्तनितकुमार तक जीव की भांति वक्तव्य है। १४१. पुढविकाइयाणं-पुच्छा। गोयमा ! पुढविकाइया नो कामी, भोगी॥ पृथ्वीकायिकानां-पृच्छा। गौतम ! पृथ्वीकायिकाः नो कामिनः, भोगिनः। १४१. पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में पृच्छा। गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव कामी नहीं हैं, भोगी हैं। १४२. से केणटेणं जाव भोगी? तत् केनार्थेन यावद् भोगिनः? गोयमा ! फासिंदियं पडुच्च। से तेणटेणं जाव गौतम ! स्पर्शनेन्द्रियं प्रतीत्य । तत् तेनार्थेन भोगी। एवं जाव वणस्सइकाइया। बेइंदिया एवं यावद् भोगिनः। एवं यावद् वनस्पतिकायिचेव, नवरं-जिभिदिय-फासिंदियाइं पडुच्च। काः। द्वीन्द्रियाः एवं चैव, नवरं जिहेन्द्रियतेइंदिया वि एवं चेव, नवरं-घाणिंदिय-जिन्मि- -स्पर्शनेन्द्रिये प्रतीत्य । त्रीन्द्रियाः अपि एवं दिय-फासिंदियाइं पडुच्च ॥ चैव, नवरं-घ्राणेन्द्रिय-जिहेन्द्रिय-स्पर्शनेन्द्रियाणि प्रतीत्य। १४२. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीव किस अपेक्षा से भोगी है? गौतम ! स्पर्शन इन्द्रिय की अपेक्षा से। उनमें स्पर्शनइन्द्रिय है, इसलिए वे भोगी हैं। अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता पृथ्वीकायिक जीवों के समान है। द्वीन्द्रिय जीवों के विषय में यही वक्तव्यता है, केवल इतना विशेष है-वे जिह्म और स्पर्शन-इन दो इन्द्रियों की अपेक्षा से भोगी हैं। त्रीन्द्रिय जीवों के विषय में भी यही वक्तव्यता है, केवल इतना विशेष है-वे घ्राण, जिह्म और स्पर्शन-इन तीन इन्द्रियों की अपेक्षा से भोगी १४३. चउरिंदियाणं-पुच्छा। गोयमा ! चउरिंदिया कामी वि, भोगी वि॥ चतुरिन्द्रियाणां-पृच्छा। गौतम ! चतुरिन्द्रियाः कामिनः अपि, भोगिनः अपि। १४३. चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में पृच्छा। गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीव कामी भी हैं और भोगी भी १४४. से केणटेणं जाव भोगी वि? तत् केनार्थेन यावद् भोगिनः अपि? गोयमा ! चक्खिदियं पडुच्च कामी, घाणिंदिय- गौतम! चक्षुरिन्द्रियं प्रतीत्य कामिनः, घ्राणे-जिब्मिदिय-फासिंदियाई पडुच्च भोगी। से न्द्रिय-जिलेन्द्रिय-स्पर्शनेन्द्रियाणि प्रतीत्य भोगितेणद्वेणं जाव भोगी वि। अवसेसा जहा जीवा नः। तत् तेनार्थेन यावद् भोगिनः अपि। अवजाव वेमाणिया॥ शेषाः यथा जीवाः यावद् वैमानिकाः। १४४. भन्ते ! चतुरिन्द्रिय जीव किस अपेक्षा से कामी भी हैं, भोगी भी हैं ? गौतम! वे चक्षु-इन्द्रिय की अपेक्षा से कामी हैं, घ्राण, जिह्य और स्पर्शन-इन्द्रियों की अपेक्षा से भोगी हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से वे कामी भी हैं, भोगी भी है। अवशिष्ट वैमानिक तक सभी दण्डकों की वक्तव्यता जीव के समान है। १४५. एएसि णं भंते ! जीवाणं कामभोगीणं, एतेषां भदन्त ! जीवानां कामभोगिनां नोका- १४५. भन्ते ! कामभोगी, नो कामी, नो भोगी और भोगीनोकामीणं, नोभोगीणं, भोगीण य कयरे कयरे- मिना, नो भोगिनां, भोगिनां च कतरे कतरेभ्यः इन जीवों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य हिंतो अप्पा वा ? बहुया वा? तुल्ला वा? अल्पाः वा ? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषा- और विशेषाधिक हैं? विसेसाहिया वा? धिकाः वा? Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.७ : सू.१२७-१४७ गोगमा ! सव्वत्योवा जीवा कामभोगी, नोका मी, नोभोगी अनंतगुणा, भोगी अनंतगुणा ॥ दुब्बलसरीरस्स भोगपरिव्वाय-पदं १४६. छउमत्ये णं भंते ! मणूसे जे भविए अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए, से नूणं भंते! से खीणभोगी नो पभू उट्ठाणेणं, कम्मेणं, वलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार - परक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरितए ? से नृणं मंते एयगद्वं एवं वयह? गोयमा ! णो तिगड़े समड़े पभू नं से उद्धानेन वि, कम्मेण वि, बलेण वि वीरिएन वि, पुरि सक्कार- परक्कमेण वि अण्णयराइं विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे, महापज्जवसा भवइ ॥ १. सूत्र १२७-१४५ - प्रस्तुत आलापक में इन्द्रिय और इन्द्रिय - विषय के संबंध की मीमांसा की गई है। पांच इन्द्रियां हैं— श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसन और स्पर्शन । इनके पांच विषय है शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श दर्शन युग में इन्द्रियों के प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी होने की चर्चा विस्तार से हुई है। नैयायिक-वैशेषिक सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अनुसार चक्षु और श्रोत्र प्राप्यकारी नहीं हैं। जैन दर्शन में केवल चक्षु को अप्राप्यकारी माना गया है। यह ज्ञानमीमांसा का विषय है। काम और भोग की मीमांसा ज्ञानमीमांसा से भिन्न है। काम और भोग की मीमांसा में श्रोत्र और चक्षु - - ये दो इन्द्रियां कामी हैं, शेष तीन इन्द्रियां भोगी हैं। जिन विषयों की कामना की जाती है, किंतु संवेदन या अनुभव नहीं होता, वे काम कहलाते हैं। शब्द और रूप ये दो काम हैं जो विषय संवेदन उत्पन्न करते हैं, जिनका अनुभव होता है, वे भोग कहलाते हैं। गंध, रस और स्पर्श-ये तीन भोग हैं। काम और भोग पोद्गलिक हैं, इसलिए वे रूपी हैं। चैतन्य-युक्त शब्द और रूप सचित्त तथा चैतन्य-रहित शब्द और रूप अचित्त हैं। वृत्तिकार ने सचित्त- अचित्त की व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। उनके अनुसार समनस्क प्राणी का रूप सचित्त काम और अमनस्क प्राणी का रूप अचित्त काम है।' किंतु यह विमर्शनीय है। आगम-साहित्य में समनस्क के १४७. आहोरिए णं भंते मनुझे जे भविए अण्णवरे देवलोएस देवत्ताए उववजित्तए, से नूणं भंते! से खीणभोगी जो पनू उड्डाणे‍, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार ३७४ गीतम! सर्वस्तोका जीवाः कामभोगिनः, नोकामिनः, नोभोगिनः अनन्तगुणाः, ' , भोगिनः अन्नतगुणाः भाष्य लिए संज्ञी और अमनस्क के लिए असंज्ञी का प्रयोग मिलता है। 'सचित्त' का प्रयोग सभी चेतनावान् प्राणियों के लिए हुआ है और 'अचित्त' का प्रयोग चेतना शून्य वस्तु के लिए हुआ है। सजीव शरीर के रूप की अपेक्षा तथा जीव-शब्द की अपेक्षा काम जीव भी हैं। चित्र, पुतली आदि के रूप की अपेक्षा तथा अजीव - शब्द की अपेक्षा काम अजीव भी हैं। भोग का विषय काम की भांति ही वक्तव्य है। जीव कामी ओर भोगी दोनों प्रकार के होते हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीव केवल भोगी होते हैं। चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव कामी और भोगी दोनों प्रकार के होते हैं। भगवई गौतम ! कामभोगी जीव सबसे अल्प हैं। नोकामी, नोभोगी उनसे अनन्तगुना अधिक हैं। भोगी उनसे अनन्तगुना अधिक हैं। कामी और भोगी जीव सबसे अल्प हैं। इसका हेतु यह है चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव सबसे अल्प होते हैं। सिद्ध जीव नोकामी और नोभोगी हैं। वे चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा अनन्तगुना अधिक है। भोगी जीव सिद्धों से भी अनन्तगुना अधिक हैं। भोगी की कोटि में जीवों के तीन वर्ग हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय । वनस्पति में अनन्त जीव होते हैं, इस अपेक्षा से भोगी जीव सिद्धों की अपेक्षा अनन्तगुना अधिक हैं। प्रस्तुत आलापक में काम और भोग का निश्चित वर्गीकरण है। व्याख्या - साहित्य में उस का निर्वाह नहीं हुआ है। दुर्बलशरीरस्य भोग- परित्याग-पदम् छद्मस्थः भदन्त ! मनुष्यः यः भव्यः अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तुं तन् नूनं भदन्त ! स क्षीणभोगी नो प्रभुः उत्थानेन, कर्मणा, बलेन वीर्येण पुरुषकार- पराक्रमेण विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् ? तन् नूनं भदन्त ! एतमर्थम् एवं वदथः ? गौतम नो अयमर्थः समर्थः प्रभुः सः उत्थानेन अपि कर्मणा अपि बलेन अपि वीर्येण अपि, पुरुषकार- पराक्रमेण अपि अन्यतरान् विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम्, तस्माद् भोगी, भोगान् परित्यजन् महानिर्जरः महापर्यवसानः भवति । 7 आधोवधिकः भदन्त ! मनुष्यः यः भन्य अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तुं तन् नूनं भदन्त स क्षीणभोगी नो प्रभुः उत्थानेन, कर्मणा, बलेन, वीर्येण, पुरुषकार- पराक्रमेण ! दुर्बल शरीर वाले का भोग परित्याग-पद १४६, भन्ते छद्मस्थ मनुष्य जो किसी देवलोक में देव के रूप में उपपन्न होने के योग्य है, भन्ते ! वह क्षीणभोगी दुर्बल शरीर वाला है वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ नहीं है भन्ते क्या आप भी इस अर्थ को इस प्रकार कहते हैं ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ है, इसलिए वह भोगी है। वह भोगों का परित्याग करता हुआ महानिर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त होता है। १४७. भन्ते! आधोवधिज्ञानी मनुष्य जो किसी देवलोक में देव के रूप में उपपन्न होने के योग्य है, भन्ते ! वह क्षीणभोगी दुर्बल शरीर वाला है वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से विपुल भोग्य १. भ. वृ. ६ / १२८ - सचित्ता अपि कामाः समनस्कप्राणिरूपापेक्षया अचित्ता अपि कामा भवंति शब्दद्रव्यापेक्षयाऽसंज्ञिजीवशरीररूपापेक्षया चेति । - Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई 1 -परक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्ताए ? से नूनं भंते । एवमहं एवं वयह? गोयमा ! णो तिणट्ठे समट्ठे। पभू णं से उट्ठाणेण दि, कम्मेण दि, बलेण वि वीरिएण वि, पुरिसक्कार परक्कमेण वि अष्णयराई विपु लाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिव्ययमाणे महानिज्जरे, महाजवसाने भवइ ॥ १४८. परमाोहिए गं भंते । मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंत करेत्तए, से नूणं भंते ! से खीणभोगी नो पशू उद्वाणेणं, कम्गेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरि सवकार-परवकमेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? से नूणं भंते ! एयमहं एवं वयह ? गोयमा ! णो तिगडे समडे पशू गं से उाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि वीरिएण वि, पुरि सक्कार-परक्कमेण वि अण्णयराइं विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे, महापज्जबसाणे भवड़ १४६. केवली णं भंते ! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंतं करेत्तए, से नृणं भंते से खीणभोगी नो पभू उट्ठागेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार- परक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? से नूणं भंते ! एयमद्वं एवं वयह? गोयमा ! णो तिट्टे समट्टे । पभू णं से उट्ठाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरिएण वि पुरिसक्कार-परक्कमेण वि अण्णयराइं विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे, महापज्ज्वसाणे भवति ॥ ३७५ विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् ? तन् नूनं मदन्त । एतमर्थम् एवं वद ? गौतम! नो अयमर्थः समर्थः । प्रभुः सः उत्थानेन अपि कर्मणा अपि बलेन अपि वीर्येण अपि पुरुषकार-पराक्रमेण अपि अन्यतरान् विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम्, तस्माद् भोग भोगान् परित्यजन् महानिर्जरः महापर्यवसानः भवति । परमाधो ऽवधिकः भदन्त ! मनुष्यः यः भव्यः तेनैव भवन सेद्धुं यावद् अन्तं कर्तुम्, तन् नूनं भदन्त ! स क्षीणभोगी नो प्रभुः उत्थानेन कर्मणा, बलेन वीर्येण, पुरुषकार-पराक्रमेण विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् ? तन् नूनं भदन्त ! एतमर्थम् एवं वदथ ? गौतम! नो अयमर्थः समर्थः प्रभु सः उत्था नेन अपि कर्मणा अपि बलेन अपि वीर्येण अपि पुरुषकार- पराक्रमेण अपि अन्यतरान् विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम्, तस्माद् भोगी, भोगान् परित्यजन् महानिर्जरः, महापर्यवसानः भवति । केवली भदन्त ! मनुष्यः यः भव्यः तेनैव भवग्रहणेन सेद्धुं यावद् अन्तं कर्तुम्, तन् नूनं भदन्त ! स क्षीणभोगी नो प्रभुः उत्थानेन, कर्मणा, बलेन, वीर्येण, पुरुषकार- पराक्रमेण विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् ! तन् नूनं भदन्त ! एतमर्थम् एवं वदथ ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः । प्रभुः स उत्थानेन अपि, कर्मणा अपि, बलेन अपि, वीर्येण अपि पुरुषकार-पराक्रमेण अपि अन्यतरान् विपुलान् भोग्यभोगान् भुञ्जानः विहर्तुम् तस्माद् भोगिनः भोगान् परित्यजन् महानिर्जरः महापर्यवसानः भवति । भाष्य १. सूत्र १४६-१४६ प्रश्न उपस्थित किया गया जो भोगी नहीं है, यह त्यागी नहीं होता । त्यागी नहीं है, वह महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला नहीं हो सकता। विशिष्ट निर्जरा के बिना वे विशिष्ट पुण्य का बंध नहीं होता। जैसे—एक पुरुष दुर्बल शरीर वाला है। उसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार- पराक्रम नहीं है। वह भोग भोगने में समर्थ नहीं हो सकता, फिर त्याग कैसे ? इस प्रश्न का समाधान उत्थान, कर्म आदि के मात्रा भेद और उनके श. ७: उ. ७: सू. १४६-१४६ भोगों का भोग करने में समर्थ नहीं है भन्ते क्या आप भी इस अर्थ को इस प्रकार कहते हैं ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ है, इसलिए वह भोगी है। वह भोगों का परित्याग करता हुआ महानिर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त होता है। १४८. भन्ते ! परम अवधिज्ञानी मनुष्य, जो उसी भव में सिद्ध होने यावत् सब दुःखों का अन्त करने में योग्य हैं, भन्ते ! वह क्षीणभोगी दुर्बल शरीर वाला है। वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ नहीं है। भन्ते ! क्या आप भी इस अर्थ को इस प्रकार कहते हैं? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह उत्थान, कर्म, बल, चीर्य और पुरुषकार पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ है इसलिए वह भोगी है। यह भोगों का परित्याग करता हुआ महानिर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त होता है। १४६. भन्ते ! केवलज्ञानी मनुष्य जो उसी भव में सिद्ध हो यावत् सब दुःखों का अन्त करने के योग्य है, भंते! वह क्षीणभोगी दुर्बल शरीर वाला है। यह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार- पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ नहीं है भन्ते ! क्या आप भी इस अर्थ को इस प्रकार कहते हैं ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से विपुल भोग्य भोगों का भोग करने में समर्थ है, इसलिए वह भोगी है। वह भोगों का परित्याग करता हुआ महानिर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त होता है। प्रर्वतक अध्यवसाय-भेद के आधार पर किया गया है। दुर्बल शरीर वाला व्यक्ति विषय का भोग करने में अधिक उत्थान, कर्म आदि का प्रयोग नहीं कर सकता, किंतु अल्प उत्थान, कर्म आदि का प्रयोग कर सकता है; इसलिए वह विषय का भोग करने में सर्वथा असमर्थ नहीं है। दुर्बल शरीर वाला व्यक्ति भी अध्यवसाय के स्तर पर विषय का भोग कर सकता है; इस अपेक्षा से भी वह विषय का भोग करने में असमर्थ नहीं है। वह भोग करने में समर्थ है इसलिए उनका परित्याग करने के कारण वह त्यागी भी हो सकता है। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.७: सू.१४६-१५२ ३७६ भगवई एकेन्द्रिय जीव भी प्रशस्त अध्यवसाय से मनुष्य के आयुष्य का बंध को भी भोगी कहा गया है। इसका तात्पर्य है कि वे दुर्बल शरीर वाले होने के करते हैं। फिर दुर्बल मनुष्य प्रशस्त अध्यवसाय से निर्जरा और देव-आयुष्य का कारण जीवन-यात्रोपयोगी वस्तु या पदार्थ का भोग करने में सर्वथा असमर्थ नहीं बंध क्यों नहीं कर सकता? प्रत्येक मनुष्य में उत्थान, कर्म आदि एक जैसे नहीं हैं इसलिए वे भोगी हैं। भोगी हैं, अतः त्यागी भी हैं और महानिर्जरा- महापर्यवसान होते। 'ध्यानविचार' में वीर्य, पराक्रम आदि के बारह-बारह प्रकार बतलाए वाले भी हैं। गए हैं।' एक व्यक्ति निर्जरा के लिए शरीर की शुभ प्रवृत्ति अधिक नहीं कर शब्द-विमर्श सकता, किंतु ध्यान में वीर्य का प्रयोग अधिक कर सकता है। ध्यानात्मक वीर्य शरीर की शुभ प्रवृत्ति से अधिक निर्जरा का हेतु बन सकता है। ध्यानविचार में छद्मस्थ-आवृत ज्ञान वाला। वीर्य को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-'ध्यान की अग्नि में जीव-प्रदेशों आधोवधिक, परमाधोवधिक-द्रष्टव्य भ. १/२००-२१० का भाष्य। के द्वारा कर्मों को जला डालने वाली शक्ति वीर्य है। इसलिए दुर्बल शरीर केवली-अनावृत ज्ञान वाला, सर्वज्ञ। वाला व्यक्ति भी भोग का परित्याग कर महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला महानिर्जरा-जिसके कर्म का महान् निर्जरण हुआ है। हो सकता है। महापर्यवसान-जिसका पर्यवसान स्वर्ग अथवा मोक्ष की प्राप्ति में हो। प्रस्तुत आलापक में अवधिज्ञानी, परमावधिज्ञानी और केवलज्ञानी अकामनिकरण-वेदणा-पदं अकामनिकरण-वेदना-पदम् अकामनिकरण-वेदना-पद १५०. जे इमे मंते ! असण्णिणो पाणा, तं जहा- ये इमे भदन्त ! असंज्ञिनः प्राणाः, तद् यथा १५०. 'भन्ते ! जो ये अमनस्क प्राणी, जैसे-पृथ्वीकायिक पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया, छट्ठा य -पृथिवीकायिकाः यावद् वनस्पतिकायिकाः, यावत् वनस्पतिकायिक (पांच स्थावर) छठे वर्ग के कुछ एगतिया तसा-एए णं अंधा, मूढा, तमं- षष्ठाः च एकके त्रसाः-एते अन्धाः, मूढाः, त्रस जीव हैं ये अन्ध हैं, मूढ़ हैं, अन्धकार में प्रविष्ट पविट्ठा, तमपडल-मोहजाल-पडिच्छन्ना अ- तमःप्रविष्टाः, तमःपटल-मोहजाल-प्रति- हैं, तमपटल और मोहजाल से आच्छादित हैं, अकामकामनिकरणं वेदणं वेदेंतीति वत्तव्यं सिया? च्छन्नाः अकामनिकरणां वेदनां वेदयन्तीति निकरण-अज्ञानहेतुक वेदना का वेदन करते हैं, वक्तव्यं स्यात् ? क्या यह कहा जा सकता है? हंता गोयमा ! जे इमे असण्णिणो पाणा जाव हन्त गौतम ! ये इमे असंज्ञिनः प्राणाः यावद् हां, गौतम ! जो ये अमनस्क प्राणी यावत् अकामवेदणं वेदेंतीति वत्तव्वं सिया॥ वेदनां वेदयन्तीति वक्तव्यं स्यात् । निकरण वेदना का वेदन करते हैं यह कहा जा सकता है। १५१. अत्थि णं भंते ! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदति? हंता! अत्थि ॥ अस्ति भदन्त ! प्रभुः अपि अकामनिकरणां १५१, भन्ते ! क्या प्रभु-समनस्क भी अकामनिकरण वेदनां वेदयति? वेदना का वेदन करता है? हन्त ! अस्ति। हां, करता है। १५२. कहण्णं भंते ! पभू वि अकामनिकरणं कथं भदन्त ! प्रभुः अपि अकामनिकरणां १५२. भन्ते ! प्रभु भी अकामनिकरण वेदना का वेदन वेदणं वेदेति? वेदतां वेदयति? कैसे करता है? गोयमा ! जे णं नो पभू विणा पदीवेणं अंध- गौतम! यः नो प्रभुः बिना प्रदीपेन अन्धकारे गौतम ! जो दीप के बिना अन्धकार में रूपों को देखने कारंसि रूवाई पासित्तए, जे णं नो पभू पुरओ रूपाणि द्रष्टुं, यः नो प्रभुः पुरतः रूपाणि में समर्थ नहीं है, जो अपने सामने के रूपों को भी चक्षु रूवाइं अणिज्झाइत्ता णं पासित्तए, जे णं नो अनिध्याय द्रष्टुं, यः नो प्रभुः ‘मग्गओ' रूपाणि का व्यापार किए बिना देखने में समर्थ नहीं है, जो पभू मग्गओ रूवाइं अणवयक्खित्ता णं पासि- अनवेक्ष्य द्रष्टुं, यः नो प्रभु पार्श्वतः रूपाणि अपने पृष्ठवर्ती रूपों को पीछे की ओर मुड़े बिना देखने त्तए, जे णं नो पभू पासओ रूवाइं अण- अनवलोक्य द्रष्टुं, यः नो प्रभुः ऊर्ध्वं रूपाणि में समर्थ नहीं है, जो अपने पार्श्ववर्ती रूपों का वलोएत्ता णं पासित्तए, जे णं नो पभू उड्ढं अनालोक्य द्रष्टुं, यः नो प्रभुः अधः रूपाणि अवलोकन किए बिना देखने में समर्थ नहीं है, जो रूवाइं अणालोएत्ता णं पासित्तए, जे णं नो अनालोक्य द्रष्टुं, एष गौतम! प्रभुः अपि अपने ऊर्ध्ववर्ती रूपों का अवलोकन किए बिना देखने पभू अहे रूवाई अणालोएत्ता णं पासित्तए, एस अकामनिकरणां वेदनां वेदयति । में समर्थ नहीं है, जो अपने अधोवर्ती रूपों का णं गोयमा! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं अवलोकन किए बिना देखने में समर्थ नहीं है, गौतम ! वेदेति॥ यह प्रभु भी अकामनिकरण वेदना का वेदन करता है। २. ध्यानविचार, पृ. १६८-वीर्यम्-जीवप्रदेशैः कर्मणः प्रेरणं ध्यानाग्नौ चेटिकयेव कचवरस्य। १. ध्यानविचार, पृ.१६६ जोगो विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा। सती सामत्थं चिय चउगुण बारट्ठ छन्नउई॥ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३७७ श.७: उ.७: सू.१५०-१५४ पकामनिकरण-वेदना-पदं १५३. अत्थि णं भंते ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति? हंता अत्थि॥ प्रकामनिकरण वेदना-पदम् प्रकामनिकरण-वेदना-पद अस्ति भदन्त ! प्रभुः अपि प्रकामनिकरणां १५३. भन्ते ! क्या प्रभु प्रकामनिकरण-प्रज्ञानहेतुक वेदना वेदनां वेदयति? का वेदन करता है? हन्त अस्ति। हाँ, करता है। १५४. कहण्णं भंते ! पभू वि पकामनिकरणं कथं भदन्त । प्रभु अपि प्रकामनिकरणां वेदनां वेदणं वेदेति? वेदयति? गोयमा ! जे णं नो पभू समुद्दस्स पारं गमित्तए, गौतम! यः नो प्रभुः समुद्रस्य पारं गन्तुं, यः जे णं नो पभू समुदस्स पारगयाइं रूवाइं नो प्रभुः समुद्रस्य पारगतानि रूपाणि द्रष्टुं, पासित्तए, जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए, जे यः नो प्रभुः देवलोकं गन्तुं, यः नो प्रभुः देवणं नो पभू देवलोगगयाइं रूवाइं पासित्तए, लोकगतानि रूपाणि द्रष्टुं, एष गौतम! प्रभुः एसणं गोयमा ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं अपि प्रकामनिकरणां वेदनां वेदयति। वेदेति ॥ १५४. भन्ते ! प्रभु भी प्रकामनिकरण वेदना का वेदन कैसे करता है? गौतम! जो समुद्र के उस पार जाने में समर्थ नहीं हैं, जो समुद्र के पारवर्ती रूपों को देखने में समर्थ नहीं है, जो देवलोक में जाने में समर्थ नहीं है, जो देवलोकवर्ती रूपों को देखने में समर्थ नहीं हैं, गौतम! यह प्रभु भी प्रकामनिकरण वेदना का वेदन करता है। भाष्य १. सूत्र १५०-१५४ मन और वचन होता है ? भगवान-नहीं होता, किंतु वे इष्ट और अनिष्ट प्रस्तुत आलापक में अमनस्क और समनस्क श्रेणी के जीवों की वेदना स्पर्श का संवेदन करते हैं। पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीव छह स्थानों का का विमर्श किया गया है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और समूर्च्छिम अनुभव या संवेदन करते हैं।-१. इष्ट-अनिष्ट स्पर्श, २. इष्ट-अनिष्ट गति, पञ्चेन्द्रिय-ये सब असंज्ञी-अमनस्क होते हैं। इनकी अज्ञान-अवस्था को ३. इष्ट अनिष्ट स्थिति, ४. इष्ट-अनिष्ट लावण्य, ५. इष्ट-अनिष्ट यशःकीर्ति,६. अंध आदि चार विशेषणों के द्वारा व्यक्त किया गया है। इन जीवों में मन का इष्ट-अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम। ज्ञान नहीं होता, फिर भी संवेदन होता है। संज्ञा-सिद्धान्त के अनुसार इनमें भय, इन संदर्भो से स्पष्ट है कि मन-रहित जीवों में भी संवेदन होता है। क्रोध, लोभ आदि संवेगों से उत्पन्न संवेदन होता है।' इस प्रसंग में प्रो० मर्किल, वोगल तथा क्ली वैक्स्टर द्वारा पौधों पर किए गए गौतम ने पूछा-भन्ते ! पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों में 'हम प्रयोग उल्लेखनीय हैं। पेड़-पौधों के संवेदना-तंत्र की घटनाएं भी वैज्ञानिक इष्ट और अनिष्ट स्पर्श का संवेदन कर रहे हैं'-क्या इस प्रकार की संज्ञा, प्रज्ञा, अनुसंधान का विषय बन रही है।' १. ठाणं, १०/१०५-१०७। प्राप्त निष्कर्षों को जब वनस्पति विज्ञानियों के एक सम्मेलन में रखा तब कई वैज्ञानिकों ने इन प्रयोगों २.भ.१६/१४,२०/३-६। में रुचि दिखाई। एक वनस्पति विज्ञानी डा० सिलेम जोन्स ने स्वयं इस प्रयोग को अपने हाथों से ३. वही, १४/६३। किया और संतोषजनक परिणाम प्राप्त किया। एक बार जब जोन्स ने वोगल की प्रयोगशाला में प्रवेश ४. तीर्थंकर, जनवरी ८६ : लेखक डॉ० अवधेश शर्मा किया तब एक पौधे ने कंपन देना एकदम बंद कर दिया। वोगल ने जोन्स से विचार पूछे तब उन्होंने ___ "पेड़-पौधे न केवल अपने आस-पास आने वाले व्यक्तियों के भले-बुरे भावों को पहचान बताया कि इस पौधे की तुलना वे अपने पौधे से कर रहे थे, जो हरा-भरा है। वोगल के उस पौधों लेते हैं, बल्कि वे उन भावनाओं से प्रभावित भी होते हैं। प्रो० वोगल ने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया। ने दो सप्ताह तक कोई कंपन अंकित नहीं किया। मशीन काम कर रही थी, फिर कंपन अंकित क्यों कि पौधे उन्हें उखाड़ने या नष्ट करने के विचार मात्र से पूरी तरह आंतकित हो जाते हैं। यह सिद्ध नहीं हुआ? इसका उत्तर देते हुए वोगल ने कहा कि जोन्स ने अपने मन में पौधे के प्रति जो भाव करने के लिए उन्होनें एक मित्र विवियन विले के सहयोग से एक प्रयोग की योजना बनायी । इसके लाये थे और उसके प्रति जो हीनता की भावना व्यक्त की थी, उससे पौधे की भावनाओं को बड़ी ठेस लिए उन्होंने गमलों में लगे दो पौधों को चुना। इन्हें दोनों ने अपने-अपने शयन कक्षों में रखा। दोगल पहुंची थी, इसी कारण कोई बात करने-प्रतिक्रिया व्यक्त करने से उसने इन्कार कर दिया था। ने जो पौधा अपने शयन कक्ष में रखा था, जब भी वे वहां जाते तब पौधे के बारे में अच्छे भाव और पौधों की संवेदनशीलता को न्यूयार्क के प्रसिद्ध वनस्पति-विज्ञानी क्ली वैक्स्टर ने भी सिद्ध शुभ विचार लाते । इधर विले अपने शयन-कक्ष में पौधे के पास जब भी जाते तब पौधे को उखाड़ने कर दिखाया है। उन्होंने कंपन अंकित करने के लिए गेल्वेनो मीटर का इस्तेमाल किया और सुई की या नष्ट करने का विचार करते । दोनों मित्र प्रातःकाल जब उठते, तब उसी प्रकार के विचार करते। जगह पेन का प्रयोग किया। क्ली वैक्स्टर ने पेड़ की एक पत्ती को जुड़ी हालत में ही कॉफी की प्याली ____एक माह बाद देखा गया तो वोगल वाला पौधा अधिक हरा-भरा था और विले वाला पौधा में डाला, लेकिन कोई प्रतिक्रिया अंकित नहीं हुई, उन्होंने पुनः विचार करके कि पत्ती को जला देंगे, पहले की अपेक्षा सूखकर पीला पड़ने लगा था। दोनों को जो खाद-पानी दिया गया था, वह एक ही तरह माचिस की तीली को ज्यों ही हाथ लगाया गेल्वेनोमीटर ने पेड़ के कंपनों को तेजी से अंकित करना का था। संभव है यह मात्र संयोग ही रहा हो; यह सोचकर वोगल तथा विले पहले के भावों के विपरीत आरंभ कर दिया। इस प्रयोग को उन्होंने कई बार दोहराया और ग्राफों को सुरक्षित रख लिया। यही भावनाएं जगाने लगे। महीने भर बाद देखा गया कि वोगल वाला पौधा सूखने लगा तथा विले वाला प्रयोग पच्चीस तरह के भिन्न भिन्न पौधों पर दोहराया गया, जो देश के विभिन्न क्षेत्रों से मंगवाए गए पौधा हरा-भरा रहने लगा। थे। सभी पौधों पर विचारों के होने वाले प्रभावों को अलग-अलग गेल्वेनोमीटर से आंका गया तो वे इन लम्बे प्रयोगों के बाद वोगल ने कुछ और भी प्रयोग किए। उन्होंने अपनी प्रयोगशाला में ही परिणाम सामने आये जो पहले आये थे। इन कंपनों को ध्वनि-तरंगों में रूपान्तरित किया गया। एक पौधे को एक ऐसे यंत्र से जोड़ा जो पौधे की आन्तरिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों को कंपन जब ध्वनियों को सुना गया, तो उनमें से कहीं भय, कहीं प्रसन्नता, कहीं हर्ष, तो कहीं उल्लास की के रूप में अंकित करता था। पीधे को इस यंत्र से जोड़ने के बाद वोगल ने अपनी हथेलियों को ध्वनियां निकली। पौधों के चारों ओर सटाया तथा साथ ही अपने मन में पौधे के प्रति मित्रता के भाव भी जगाने लगे। भयभीत होने, प्रसन्नता व्यक्त करने तथा शत्रु को पहचानने में समर्थ होने के अतिरिक्त वोगल ने देखा कि पोधे के साथ लगे यंत्र ने कागज पर एक ग्राफ खींच दिया है। इस प्रयोग को उन्होंने पेड़-पौधे गर्मी-सर्दी भी महसूस करते हैं। उन्हें प्यास भी लगती है। यह खोज रूस के सुप्रसिद्ध कई बार दोहराया और लगभग एक ही समान ग्राफ प्राप्त किया। प्रोफेसर वोगल ने इन प्रयोगों से वनस्पति-शास्त्री लियोनिडए पनिशकिन तथा कैरो मोनव ने की है। उन्होंने एक विशेष यंत्र को एक Jain Education Intemational Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.७ : सू.१५०-१५५ ३७८ भगवई समनस्क पञ्चेन्द्रिय के लिए 'प्रभु' शब्द का प्रयोग किया गया है। पर भी ज्ञान और क्रिया की असमर्थता में होने वाला। प्रभु अकाम-निकरण और प्रकाम-निकरण दोनों प्रकार की वेदनाओं का संवेदन प्रस्तुत प्रकरण में काम का अर्थ है 'ज्ञान'। ऐतरेय उपनिषद में करता है। अकाम-निकरण संवेदन ज्ञानशक्ति की विकलता के कारण करता है प्रज्ञान के सोलह पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं। उनमें एक है-काम।' काम ओर प्रकाम-निकरण संवेदन ज्ञानशक्ति एवं क्रियात्मक सामर्थ्य की विकलता का 'अभिलाषा' अर्थ प्रसिद्ध है, किंतु प्रस्तुत संदर्भ में वह संगत नहीं है। यहां के कारण होता है। 'ज्ञान' अर्थ संगत है। इस आधार पर अकाम-निकरण का अर्थ 'अज्ञानहेतुक' और प्रकाम-निकरण का अर्थ 'प्रज्ञानहेतुक' होता है। शब्द-विमर्श अभयदेवसूरि ने अकाम का अर्थ 'अनिच्छा' एवं प्रकाम का अर्थ अकाम निकरण-(१) अनाभोग-प्रत्यय अज्ञान अवस्था में होने ‘प्रकृष्ट इच्छा' किया है। वाला। मग्गओ-यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है-पीठ पीछे । मराठी (२) ज्ञान की साधन-सामग्री के अभाव में होने वाला। में 'मागे' का अर्थ है--- पीछे । प्रकाम निकरण–प्रज्ञानहेतुक, मानसिक ज्ञान का विकास होने प्रभु-समनस्क होने के कारण जानने में समर्थ । १५५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । १५५. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है। सेम के पोधे से जोड़ा। जब भी पौधे को पानी की जरूरत पड़ती, तब वह यन्त्र पर एक विशिष्ट पौधे विजली के संदेश उसी तरह प्रयोग करते हैं जैसे स्नायु-कोशिकाओं में पशु-पक्षी करते हैं। प्रक्रिया द्वारा संकेत देता। यह संकेत देखकर पोधे को एक विशेष विधि से पानी दिया जाता। देखा जानवरों में संदेश-तरंगे बहुत तेजी से मस्तिष्क और शरीर के बीच आती-जाती है, जबकि पौधों में गया कि पहले दो मिनटों तक पौधे ने पानी लिया; किंतु फिर उसने पानी के प्रति अनिच्छा व्यक्त संदेश बिल्कुल कछुआ चाल से चलते हैं। की । इसके धण्टे भर बाद पौधे ने पुनः पानी का संकेत दिया। ब्रिटिश वैज्ञानिकों की टीम अभी भी यह मालम करने की कोशिश कर रही है कि ऐसी कौन "अब तक तो यही सोचा जाता था कि पेड-पौधों में कोई संवेदन-तंत्र नहीं होता, क्योंकि सी कोशिकाएं है जो इन विद्युत-संदेशों को पैदा करती हैं और किस तरह से पोधे पर लगने वाली चोट जानवरों की तरह उनमें कोई स्नायु (नव) नहीं होते, लेकिन पूर्वी इंग्लैण्ड स्थित नार्विक रिसर्च पार्क से यह संदेश स्वतः पैदा हो जाते हैं।" में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक जब टमाटर के पत्ते को कीड़े काटते हैं, तो पत्ता तुरन्त विजली १ऐतरेय उपनिषद, ३/२ संज्ञानं आज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृष्टिः धृतिः मतिः मनीषा जुतिः के चेतावनी संदेश पूरे पौधे में भेज देता है। वाकी के साबुत पत्तों को यह संदेश प्राप्त होते ही वे ऐसे स्मृतिः संकल्पः ऋतुः असुः कामः वशः सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवंति।। सुरक्षात्मक रसायन बनाना शुरू कर देते हैं, जिन्हें पचाना मुश्किल हो जाता है। २. भ. वृ.७/१५१,१५३-अकामेन-अनिच्छया निकरणं क्रियाया इष्टार्थप्राप्तिलक्षणाया अभावो यह अध्ययन ईस्ट एग्लिया विश्वविद्यालय और जान इन्स सेंटर के वैज्ञानिकों ने न्यूजीलैंड यत्र वेदने तत्तथा। के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर किया है। प्रकामः-ईप्सितार्थाप्राप्तितः प्रवर्द्धमानतया प्रकृष्टोऽभिलाषः। स एव निकरणं कारणं जान इन्स सेंटर में कोशिका विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो० कीथ राबटर्स का कहना है कि यत्र वेदने तत्तथा। Jain Education Intemational Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसो : आठवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद मोक्ख-पदं मोक्ष-पदम् मोक्ष-पद १५६. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तीयमणंतं सासयं छद्मस्थाः भदन्त ! मनुष्याः अतीतम् अनन्तं १५६. 'भन्ते ! क्या छद्मस्थ मनुष्य निरन्तर गतिशील अनन्त समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, शाश्वतं समयं केवलेन संयमेन, केवलेन अतीत समय में केवल संयम, केवल संवर, केवल केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पवयण- संवरेण, केवलेन ब्रह्मचर्यवासेन, केवलाभिः ब्रह्मचर्यवास, केवल प्रवचनमाता की आराधना के द्वारा मायाहिं सिन्झिसु? बुझिसु? मुच्चिसु? परि- प्रवचनमातृभिः असैत्सुः? "बुझिसु'? अ- सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत हुए? सब दुःखों णिब्वाइंसु? सव्वदुक्खाणं अंतं करिंसु? मुक्षत? परिनिरवासिषु? सर्वदुक्खानाम् का अन्त किया? अन्तम् अकार्षुः? गोयमा! नो इणढे समढे जाव गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः यावत्- गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। १५७. से नूणं भंते! उप्पण्णणाण-दंसणधरे अरहा तन् नूनं भदन्त ! उत्पन्नज्ञान-दर्शनधरः १५७. भन्ते ! क्या उत्पन्न-ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हत् जिणे केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया? अर्हन् जिनः केवली अलमस्तु इति वक्तव्यं जिन और केवली को ‘अलमस्तु' ऐसा कहा जा सकता स्यात् ? हंता गोयमा ! उप्पण्णणाण-दसणधरे अरहा हन्त गौतम ! उत्पन्नज्ञान-दर्शनधरः अर्हन् हां, गौतम! उत्पन्न-ज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हत, जिन जिणे केवली अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया ॥ जिनः केवली अलमस्तु इति वक्तव्यं स्यात्। और केवली को 'अलमस्तु' ऐसा कहा जा सकता है। भाष्य १. सूत्र १५६,१५७ द्रष्टव्य भ. १/२००-२१० का भाष्य। तुलना भ. १/२००-२१० तथा ५/११५ । हत्थि-कुंथु-जीव-समाणत्त-पदं हस्ति-कुन्थु-जीव-समानत्व-पदम् हस्ति और कुन्थु के जीव की समानता का पद १५८. से नूणं भंते ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे तन् नूनं भदन्त ! हस्तिनः च कुन्थोः च समः १५८. 'भन्ते ! हाथी का जीव और कुन्थु का जीव एक चेव जीवे ? चैव जीवः ? समान है? हंता गोयमा ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव हन्त गौतम! हस्तिनः च कुन्थोः च समः चैव हां, गौतम ! हाथी का जीव और कुंथु का जीव दोनों जीवे। जीवः। समान है। से नूणं भंते ! हत्थीओ कुंथू अप्पकम्मतराए तन् नूनं भदन्त ! हस्तिनः कुन्थुः अल्पकर्म- भन्ते क्या ! हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर कर्म, चेव अप्पकिरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव तरकः चैव अल्पक्रियातरकः चैव अल्पास्रव- अल्पतर क्रिया, अल्पतर आश्रव, अल्पतर आहार, एवं अप्पाहारतराए चेव अप्पनीहारतराए चेव तरकः चैव एवम् अल्पाहारतरकः चैव अल्प- अल्पतर नीहार, अल्पतर उच्छ्वास, अल्पतरे निःश्वास, अप्पुस्सासतराए चेव अप्पनीसासतराए चेव नीहारतरकः चैव अल्पोच्छ्वासतरकः चैव अल्पतर ऋद्धि, अल्पतर महिमा और अल्पतर द्युति अप्पिढितराए चेव अप्पमहतराए चेव अप्प- अल्पनिःश्वासतरकः चैव अल्पर्धितरकः चैव वाला है? ज्जुइतराए चेव? अल्पमहस्तरकः चैव अल्पद्युतितरकः चैव? Jain Education Intemational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ७ : उ. ८ : सू. १५८-१५६ कुंथूओ हत्थी महाकम्मतराए चैव महाकिरियतराए चैव महासवतराए चैव महाहारतराए चेव महानीहारतराए चेव महाउस्सासतराए चैव महानीसासतराए चैव महिदितराए चैव महामहतराए चेव महज्जुइतराए चेव ? हंता गोयमा हल्थीओ कुंयू अप्यकम्मतराए चैव कुंयूओ वा हत्थी महाकम्मतराए चैव, हत्थीओ कुंथू अप्पकिरियतराए चेव कुंथूओ वा रुत्थी महाचिरियतराए चेव, हत्थीओ कुंथू अप्पासवतराए चेव कुंथूओ वाहत्थी महासवतराए चेव, एवं आहार-नीहार उस्सास नीसास-इदिड महज्जुइएहिं हत्थीओ कुंथू अप्पतराए चेव कुंथूओ वा हत्थी महातराए चैव ॥ १५६. से केणद्वेणं मंते ! एवं वुच्चइ-हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चैव जीवे ? यमा! से जहानामए कूडागारसाला सिया - दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा निवाया निवाय गंभीरा अहन के पुरिसे जोई व । दीवं व गहाय तं कूडागारसालं अंतो- अंतो अणुपविस, तीसे कूडागारसालाए सव्वतो समंता घण-निचिय - निरंतर निच्छिड्डाई दुवार चयणाई पिति, तीसे कूडागारसालाए बहु मज्झसभाए तं पईवं पलीवेज्जा । तणं से पईवे तं कूडागारसालं अंतो-अंतो ओभासद उज्जोवे तवति पभासेड़, नो चेव णं बाहिं । अह में से पुरिसे तं पई दहरएन पिहेन्जा, तए णं से पईवे तं इडरयं अंतो-अंतो ओमासेइ उज्जोवे तवति पभासेड़, नो चेव णं इङ्गरगरस वाहि नो चेव गं कूटागारसाल, नो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं । + एवं - गोकिलिंजेणं पच्छियापिडएणं गंडमाणिया आढएणं अद्धाढएणं पत्थएणं अद्धपत्थएणं कुलवेणं अद्धकुलवेणं चाउब्भाइयाए अट्टभाइवाएं सोलसियाए बत्तीसियाए चउसडियाए । ३८० कुन्थोः हस्ती महाकर्मतरकः चैव महाक्रियातरकः चैव महास्रवतरकः चैव महाहारतरकः चैव महानीहारतरकः चैव महोच्छ्वासतरकः चैव महानिः श्वासतरकः चैव महर्धितरकः चैव महामहस्तरकः चैव महाद्युतितरकः चैव ? हन्त गौतम ! हस्तिनः कुन्धुः अल्पकर्मतरकः चैव कुन्धोः वा हरती महाकर्मतरकः चैव, हस्तिनः कुन्थुः अल्पक्रियातरकः चैव कुन्थोः या हस्ती माक्रियारकः चैव, हस्तिनः कुन्थुः अल्पास्रवतरकः चैव कुन्थोः वाहस्ती महास्रावतरकः चैव, एवम् आहार-नीहार-उच्छवास निःश्वास ऋद्धि-महोद्युतिभिः हस्तिनः कुन्थुः अल्पतरकः चैव कुन्थो वा हस्ती महत्तरकः चैव । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते — हस्तिनः च कुन्योः च समः चैव जीवः ? । गौतम! तद् यथानाम कूटाकारशाला स्यात्द्वितः लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारा निर्वाता निर्वात गम्भीरा अब कश्चित् पुरुषः ज्योतिर्वा दीपं वा गृहीत्वा तां कूटाकारशालाम् अन्तः-अन्तः अनुप्रविशति, तस्याः कूटाकारशालायाः सर्वतः समन्तात् घन - निचित- निरन्तर - निश्छिद्राणि द्वार वचनानि पिदधाति तस्याः कूटाकारशालायाः बहुमध्यदेश भागे तं प्रदीपं प्रदीपयति। ततः स प्रदीपः तां कूटाकारशालाम् अन्तःअन्तः अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति, नो चैव बहिः । अथ स पुरुष तं प्रदीपम् 'इहरणं पिदध्यात्, ततः स प्रदीपः तद् 'इडुरयं' अन्तः-अन्तः अवमासयति उद्योतयति तापयति प्रमासयति नो चैव 'इहरगरस' यहिः, नो चैद कुटाकारशाला, नो चैव कूटाकारशालायाः बहिः । एवं- गोकिलिञ्जेन पक्षिकापिटकेन 'गण्डमाणियाए' आढकेन अर्द्धाढकेन प्रस्थकेन अर्द्धप्रस्थकेन कुडवेन अर्द्धकुडवेन चातुभगिक्या अष्टभागिक्या षोडशिक्या द्वात्रिंशिक्या चतुष्टिक्या अह गं पुरिसे तं पईव दीवचंपणं पिज्जा अन्य पुरुषः तं प्रदीपं दीपचम्पकेन पियत्। । भगवई कुन्यु की अपेक्षा हाथी महत्तर फर्म, महत्तर क्रिया, महत्तर आश्रव, महत्तर आहार, महत्तर नीहार, महत्तर उच्छ्वास, महत्तर निःश्वास, महत्तर ऋद्धि, महत्तर महिमा और महत्तर द्युति वाला है ? हां, गौतम ! हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर कर्म वाला है और कुन्थु की अपेक्षा हाथी महत्तर कर्म वाला है; हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर क्रिया वाला है और कुन्दु की अपेक्षा हाथी महत्तर किया वाला है; हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर आश्रव वाला है और कुन्धु की अपेक्षा हाथी महत्तर आश्रव वाला है; इसी प्रकार हाथी की अपेक्षा कुन्थु अल्पतर आहार, नीहार, उच्चश्वास, निःश्वास, ऋद्धि, महिमा और बुति वाला है और कुन्धु की अपेक्षा हाथी महत्तर आहार, नीहार, उच्छ्वास, निःश्वास, ऋद्धि, महिमा और ति वाला है। १५६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - हाथी का जीव और कुन्थु का जीव समान है ? गौतम ! जैसे कोई कूटाकार (शिखर के आकार वाली) शाला है। वह भीतर और बाहर दोनों ओर से लीपी हुई, गुप्त, गुप्त द्वार वाली, पवन-रहित और निवातगंभीर है। कोई पुरुष ज्योति अथवा दीप को लेकर उस कूटाकार शाला के चारों ओर से सघन, निचित, अन्तरऔर छिद्र-रहित किवाड़ों को बंद कर देता है और उस कूटाकार शाला के प्रायः मध्यभाग में उस प्रदीप को प्रदीप्त करता है। वह प्रदीप उस कूटाकार शाला के भीतरी भाग को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है, बाहर के भाग में उसका प्रकाश नहीं फैलता । वह पुरुष उस प्रदीप को एक बड़े पिटक से ढांक देता है, तब वह प्रदीप उस बड़े पिटक के भीतरी भाग को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है, उसके बाहर प्रकाश नहीं फैलता, न कूटाकार शाला में और न कूटाकार शाला के बाहर । इसी प्रकार - गोकिलिञ्ज, पिटारा, डालिया, आढक, अर्धआढक, प्रस्थ, अर्धप्रस्थ, कुडव, अर्धबुडव, चतुर्भागिका (कुडव का चौथा भाग), अष्टभागिका (कुडव का आठवां भाग), षोडशिका (कुडव का सोलहवां) भाग), द्वात्रिंशिका (कुडव का बत्तीसवां भाग), चतुःषष्टिका (कुडव का चौसठवां भाग ) से ढांकने पर प्रदीप का प्रकाश उनके भीतर ही फैलता है, बाहर नहीं फैलता । वह पुरुष उस प्रदीप को दीपचंपक ( दीये का ढक्कन) Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३८१ श.७ : उ. ८: सू. १५८-१६० तए णं से पदीवे दीपचंपगस्स अंतो-अंतो ततः स प्रदीपः दीपचम्पकस्य अन्तः-अन्तः ओभासति उज्जोवेइ तवति पभासेइ, नो चेव अवमासयति उद्द्योतयति तापयति प्रभासणं दीवचंपगस्स बाहिं, नो चेव णं चउसट्ठियाए यति, नो चैव दीपचम्कस्य बहिः, नो चैव बाहिं, नो चेव णं कूडागारसालं, नो चेव णं चतुःषष्ट्या बहिः, नो चैव कूटाकारशाला, नो कूडागारसालाए बाहिं। चैव कुटाकारशालायाः बहिः। एवामेव गोयमा ! जीवे वि जं जारिसयं पुव- एवमेव गौतम ! जीवः अपि यद् यादृक् पूर्वकम्मनिबद्धं बोंदि निव्वत्तेइ तं असंखेज्जेहिं कर्मनिबद्धं 'बोंदि' निर्वर्तयति तद् असंख्येयैः जीवपदेसेहिं सचित्तीकरेइ-खुड्डियं वा महा- जीवप्रदेशैः सचित्तीकरोति-क्षुल्लिका वा लियं वा। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- महालयां वा। तत् तेनार्थेन गौतम! एवहत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे। मुच्यते-हस्तिनः च कुन्थोः च समः चैव जीवः । से ढांक देता है, तब वह प्रदीप दीपचंपक के भीतरी भाग को अवभासित, उयोतित, तप्त और प्रभासित करता है, उसके बाहर प्रकाश नहीं फैलता, न चतुःषष्टिका के बाहर, न कूटाकार शाला में और न कूटाकार शाला के बाहर। गौतम ! इसी प्रकार जीव भी पूर्व कर्म के अनुसार जैसे शरीर का निर्माण करता है, उस शरीर को अपने असंख्य प्रदेशों से सचित्त बना देता है-वह शरीर छोटा हो अथवा बड़ा । गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-हाथी और कुंथु का जीव समान है। भाष्य १. सूत्र १५८, १५६ चैतन्य जीव का सामान्य लक्षण है।' उसकी दृष्टि से सब जीव समान होते हैं, किंतु उसका विकास सब में समान नहीं होता। उसका हेतु है-आवरण का तारतम्य । चैतन्य की दृष्टि से सब जीव समान हैं और कर्मजनित तारतम्य की दृष्टि से वे असमान हैं-यह प्रस्तुत आलापक का प्रतिपाद्य है। जीवत्व की दृष्टि से हाथी और कुंथु की समानता का प्रतिपादन कर तारतम्य के दस बिंदु बतलाए गए हैं। प्रश्न उपस्थित हुआ-हाथी और कुंथु का जीव चैतन्य की दृष्टि से समान है-यह कैसे संभव है ? कुंथु अपने छोटे शरीर को चैतन्यमय बनाता है और हाथी अपने विशाल शरीर को चैतन्यमय बनाता है, फिर दोनों का चैतन्य समान कैसे? इस प्रश्न का समाधान प्रकाश और ढक्कन के उदाहरण से दिया गया है-दीये पर ढक्कन छोटा होता है तो वह छोटे भाग को प्रकाशित करता है, ढक्कन बड़ा होता है तो वह बड़े भाग को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार जीव पूर्वकृत कर्म के अनुसार जिस प्रकार के शरीर का निर्माण करता है, उसे अपने असंख्य आत्म प्रदेशों से चैतन्यमय बनाता है, फिर वह छोटा हो अथवा बड़ा । शरीर का भेद चैतन्य की सत्ता में भेद नहीं डालता। उससे चैतन्य का प्रसार-क्षेत्र छोटा-बड़ा हो सकता है। शब्द-विमर्श कूडागारसाला-द्रष्टव्य भ. ३/२६ का भाष्य इड्डरअ-बड़ा पिटक । द्रष्टव्य देशी शब्द कोश। गोकिलिञ्ज-बांस का बड़ा पात्र। उसे देशी भाषा में 'डल्ला', बंगाली भाषा में 'डाला' और राजस्थानी भाषा में 'खारियो' कहा जाता है। पच्छियापिडअ-बांस से बना हुआ पात्र, पिटारा। गंडमाणिया-बांस से बना हुआ पात्र, 'डालिया' जो 'डल्ला' से छोटा होता है। आढक, प्रस्थक आदि पात्र उत्तरोत्तर छोटे होते हैं। दीवचंपअ-दीये का ढक्कन । आढक से चतुःषष्टिका-द्रष्टव्य अणुओगदाराई, सू. ३७७ सुह-दुक्ख-पदं सुख-दुःख-पदम् सुख-दुःख-पद १६०. नेरइयाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे,जे नैरयिकाणां भदन्त ! पाप कर्म यच् च कृतं, १६०. 'भन्ते ! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म कृत है, जो य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सब्वे से दुक्खे, यच्च क्रियते, यच्च करिष्यते सर्वं तद् दुःखं, किया जा रहा है, जो किया जाएगा, क्या वह सब दुःख जे निज्जिण्णे से सुहे ? यद् निर्जीर्णं तत् सुखम्? है ? जो पाप कर्म निर्जीर्ण है, क्या वह सुख है ? हंता गोयमा ! नेरइयाणं पावे कम्मे जे य हन्त गौतम ! नैरयिकाणां पापं कर्म यच् च हां, गौतम । नैरयिकों द्वारा जो पाप कर्म कृत है, जो कडे, जे य कज्जइ, जे य कज्जिस्सइ सव्वे से कृतं, यच् च क्रियते, यच् च करिष्यते सर्व किया जा रहा है, जो किया जाएगा, वह सब दुःख है। दुक्खे, जे निज्जिण्णे से सुहे । एवं जाव तद् दुःखं, यद् निर्जीर्णं तत् सुखम् । एवं यावद् जो पाप कर्म निर्जीर्ण है, वह सुख है। इसी प्रकार वेमाणियाणं। वैमानिकानाम्। वैमानिक तक के सभी दण्डकों की वक्तव्यता । भाष्य १. सूत्र १६० दुःख और सुख की परिभाषा अनेक कोणों से की गई है। सामान्यतः अनुकूल वेदनीय को सुख और प्रतिकूल वेदनीय को दुःख कहा जाता है। इस परिभाषा का संबंध संवेदन से है। प्रस्तुत सूत्र में सुख और दुःख की आध्या १. भ. २/१३६,१३७। Jain Education Intemational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ७: उ. ८ : सू. १६०-१६१ त्मिक परिभाषा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'आत्मा स्वयं सुख है' – इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उन्होंने लिखा है -- यदि दृष्टि स्वयं तिमिर को दूर करने वाली है, फिर दीप का क्या प्रयोजन ? आत्मा स्वयं सुख है, फिर इन्द्रिय-विषयों का क्या प्रयोजन ?" प्रस्तुत सूत्र में दुःख सुख की परिभाषा पाप कर्म के बंध और निर्जरण दसविहसन्ना-पदं १६१. कति णं भंते ! सन्गाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! दस सम्मओ पण्णत्ताओ, तंजा आहारसण्णा, भवसण्णा, मेहुणसण्णा, परि ग्गहसण्णा, कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा एवं जाव वेमाणियाणं ॥ १. आहार २. भय ३. मैथुन ४. परिग्रह ५. क्रोध ६. मान ७. माया ८. लोभ ६. लोक १०. ओघ - १. सूत्र १६१ संज्ञा जैन मनोविज्ञान का बहुचर्चित शब्द है नन्दी में तीन प्रकार के संत्री बतलाए गए हैं. कालिकोपदेश २. हेतूपदेश ३. दृष्टिवादोपदेश २ इनके आधार पर तीन संज्ञाएं फलित होती हैं-1. कालिकोपदेशिकी २. हेतूपदेशिकी ३. दृष्टिवादोपदेशिकी। इनके आधार पर समनस्क और अमनस्क की व्यवस्था की गई है। ये संज्ञाएं ज्ञानात्मक हैं। प्रस्तुत प्रकरण में निर्दिष्ट दस संज्ञाएं केवल ज्ञानात्मक नहीं हैं। वे ज्ञानात्मक और संवेगात्मक दोनों हैं। वृत्तिकार ने इस का निर्देश किया है। संज्ञा कर्म १. प्रवचनसार, गा. ६७ ३८२ भगवई के आधार पर की गई है। पाप कर्म का बंध दुःख का हेतु है और सहज सुख के अनुभव में बाधा उपस्थित करता है, इसलिए वह दुःख ही है। उसका निर्जरण सहज सुख के अनुभव का हेतु बनता है, इसलिए पाप कर्म की निर्जरा को सुख बतलाया गया है। दशविधसंज्ञा-पदम् कति भदन्त ! संज्ञाः प्रज्ञप्तः ? गौतम! दश संज्ञाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा, ओघसंज्ञा एवं यादवैमानिकानाम्। क्षुधावेदनीय का उदय भयमोहनीय का उदय वेदमोहनीय का उदय भाष्य ओघ संज्ञा का अर्थ दर्शनोपयोग और लोक संज्ञा का अर्थ ज्ञानोपयोग किया गया है, यह विमर्शनीय है। सिद्धसेन गणी ने ओघ संज्ञा का अर्थ अनिन्द्रिय तिमिरहरा जड़ दिट्ठी, जणस्स दीवेण णत्थि कादव्वं । तच्च सोक्खं सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति ? लोभमोहनीय का उदय क्रोधवेदनीय का उदय मानवेदनीय का उदय मायावेदनीय का उदय लोभवेदनीय का उदय मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम २. नंदी, ६१ । ३. भ. वृ. ६/ १६१ - तत्र संज्ञानं संज्ञा - आभोग इत्यर्थः मनोविज्ञानमित्यन्ये संज्ञायते वाऽनयेति संज्ञा वेदनीयमोहनीयोदयाश्रया ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया च विचित्रहारादिप्राप्तये क्रियैवेत्यर्थः । दशविधसंज्ञा-पद १६१. 'भन्ते ! संज्ञा के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! संज्ञा के दश प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मान संज्ञा, माया संज्ञा, सोभ संज्ञा, लोक संज्ञा, ओप संज्ञा वैमानिक तक के सभी दण्डकों में दशों संज्ञाएं होती है। वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से होने वाली चेतना का नाम है संज्ञा । इनमें प्रथम आठ संज्ञाएं संवेगात्मक अथवा संवेदनाप्रधान हैं। शेष दो संज्ञाएं ज्ञानात्मक हैं वृत्तिकार ने संज्ञा की व्यवहारपरक व्याख्या की है।" उसकी तुलना व्यवहार - मनोविज्ञान से की जा सकती है। वृत्तिकार ने मतान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार ओघ का अर्थ है - 'सामान्य प्रवृत्ति' और लोक का अर्थ है 'विशेष प्रवृत्ति' । ' शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों की जानकारी के लिए देखें यन्त्र शारीरिक-मानसिक क्रिया और परिवर्तन हाथ से कोर लेना, मुख का संचलन आदि, आहार की खोज उद्घान्त दृष्टि, वचनविकार, रोमाञ्च आदि अंगों का अवलोकन, स्पर्श, कम्पन आदि आसक्तिपूर्वक द्रव्यों का ग्रहण और संग्रह नेत्रों की रूक्षता, दांत और होंठों की फड़कन आदि अहंकारपूर्वक शरीर की अकड़न संक्लेशपूर्वक मिथ्या भाषण छिपाने आदि की क्रिया लोभपूर्वक द्रव्य के ग्रहण और संग्रह की अभिलाषा । विशेष अवबोध की क्रिया सामान्य अवबोध की क्रिया ज्ञान किया है जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के बिना सामान्य चेतना से होता है, वह ओघ संज्ञा है। यह ज्ञान पेड़-पौधों और छोटे जीव-जन्तुओं में भी होता है। ४. वही, ६ / १६११ ५. वही, ७/१६११ ६. त. सू. भा. वृ. १/१४, पृ. ७८ ओघः - सामान्य अप्रविभक्तरूपं यत्र न स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि तानि मनोनिमित्तिमा श्रीयन्ते, केवलं मत्यावरणीयक्षयोपशम एव तस्य ज्ञानस्योत्पत्ती निमित्तम्, यथा वल्ल्यादीनां नीवाद्यभिसर्पणज्ञानं न स्पर्शननिमित्तं न मनोनिमित्तमिति, तस्मात् तत्र मत्यज्ञानावरण-क्षयोपशम एव केवलो निमित्तीक्रियते ओघज्ञानस्य । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३८३ श.७ : उ. ८ : सू. १६१-१६६ वे प्रकम्पनों के आधार पर दूर तथा भविष्य में होने वाली घटना को जान लेते हैं। आदि जीवों में केवल कर्मोदयरूप होती है। वर्तमान वैज्ञानिकों ने यन्त्रों के लोक-परम्परा अथवा वंश-परंपरा से होने वाली संज्ञा 'लोक संज्ञा' है। वृत्तिकार माध्यम से पेड़-पौधो में इन संज्ञाओं का अध्यापन किया है, इसलिए एकेन्द्रिय ने लिखा है कि ये संज्ञाएं स्पष्ट रूप में पञ्चेन्द्रिय जीवों में होती हैं, एकेन्द्रिय आदि जीवों में यह स्पष्ट विज्ञात हो रही हैं। नेरइयाणं दसविहवेदणा-पदं नैरयिकाणां दशविधवेदना-पदम् नैरयिकों की दशविध वेदना का पद १६२. नेरइया दसविहं वेयणं पच्चणुभवमाणा नैरयिकाः दशविधां वेदनां प्रत्यनुभवन्तः वि- १६२. 'नैरयिक दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते विहरंति, तं जहा-सीयं, उसिणं, खुह, पि- हरन्ति, तद् यथा-शीतम्, उष्णं, क्षुधां खहं. पि- हरन्ति. तद यथा-शीतम, उष्णं, क्षधां रहते हैं,जैसे-सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, खुजली, परवासं, कंडु, परझं, जरं, दाहं, भयं, सोगं ॥ पिपासां, कंडूं, 'परज्झं', ज्वरं, दाहं, भयं, शो- वशता, ज्वर, दाह, भय और शोक। कम्। भाष्य १. सूत्र १६२ __ का उल्लेख है। ये सब दुःखद वेदनाएं हैं। नारकीय जीव प्रायः इनका अनुभव प्रस्तुत सूत्र में नारकीय जीवों की शारीरिक और मानसिक वेदना करते हैं। उनमें सुखद वेदना का अनुभव कदाचित् होता है। हत्थि-कुंथूणं अपच्चक्खाणकिरिया-पदं हस्ति-कुन्थोः अप्रत्याख्यानक्रिया-पदम् हस्ती और कुन्थु की अप्रत्याख्यानक्रिया का पद १६३. से नूणं मंते! हत्थिस्स य कुंथुस्स यसमा तन् नूनं भदन्त ! हस्तिनः च कुन्थोः च समा १६३. भन्ते ! क्या हाथी और कुंथु के अप्रत्याख्यानक्रिया चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ? चैव अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते ? समान होती है? हंता गोयमा ! हत्थिस्स य कंथुस्स य समा हन्त गौतम ! हस्तिनःच कुन्थोः च समा चैव हाँ, गौतम ! हाथी और कुंथु के अप्रत्याख्यानक्रिया चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ ॥ अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते। समान होती है। १६४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-हत्थिस्स तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हस्तिनः १६४, भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैय कुंथुस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया च कुन्थोः च समा चैव अप्रत्याख्यानक्रिया हाथी और कुन्थु के अप्रत्याख्यानक्रिया समान होती कज्जइ ? क्रियते ? गोयमा! अविरति पडुच्च । से तेणटेणं गौतम! अविरतिं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन गौतम ! अविरति की अपेक्षा से । गौतम ! इस अपेक्षा गोयमा! एवं वुच्चइ--हत्थिस्स य कुंथुस्स य गौतम! एवमुच्यते-हस्तिनः च कुन्थोः च से कहा जा रहा है-हाथी और कुन्थु के अविरति की समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ॥ समा चैव अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते । क्रिया समान होती है। चिणाइ? अहाकम्मादि-पदं आधाकर्मादि-गदम् आधाकर्म आदि-पद १६५. अहाकम्मं णं भंते ! भुंजमाणे किं आधाकर्म भदन्त ! भुजानः किं बध्नाति? १६५. 'भन्ते ! 'आधाकर्म' भोजन करता हुआ श्रमणबंधइ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ ? किं उव. किं प्रकरोति ? किं चिनोति ? किम् उप- निर्गन्थ क्या बांधता है ? क्या करता है? क्या चय चिनोति? करता है? क्या उपचय करता है? गोयमा ! अहाकम्मं णं मुंजमाणे आउय- गौतम! आधाकर्म भुञ्जानः आयुर्वर्जा सप्त गौतम ! आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ वज्जाओ सत्त कम्म्प्पगडीओ सिढिलबंधण- कर्म-प्रकृतीः शिथिलबन्धनबद्धाः ‘धणिय'- आयुष्य कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की शिथिल बद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ जाव। बन्धन-बद्धाः प्रकरोति यावत् शाश्वतः बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ़ बन्धनबद्ध करता है सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं ॥ पंडितः, पंडितत्वम् अशाश्वतम् । यावत् (पू. भ. १/४३६-४४०) पण्डित शाश्वत है, पंडितत्व अशाश्वत है। भाष्य १. सूत्र १६५ द्रष्टव्य भ. १/४३६-४४० का भाष्य । १६६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त! इति । १६६. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। १. भ. वृ.७/१६१। २. द्रष्टव्य भ. ६/१८५ का भाष्य । STARPRAD2 Jain Education Intemational Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल असंवुड - अणगारस्स विउव्वणा-पदं १६७. असंबुडे गं मंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए? जो इट्टे समझे ॥ १६८. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउव्वित्तए ? हन्त भू । १६६. से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकु ? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्यई? अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्बइ ? गोयमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, नो तत्थगए पोम्गले परिवाइत्ता विकुव्वाइ, नो अण्णत्यगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्बइ। एवं २. एगवण्णं अनेगरूवं ३. अणेगवण्णं एमरूवं ४. अणेगवण्णं अणेगरूवं - चउभंगो ॥ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक संस्कृत छाया असंवृतानगारस्य विक्रिया-पदम् असंवृतः भवन्तः ! अनगार बाह्यकान् पुद गलान् अपर्यादाय प्रभुः एकवर्णम् एकरूपं विकर्तुम? नो अयमर्थः समर्थः । असंवृतः भदन्त । अनगारः बाह्यकान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः एकवर्णम् एकरूपं विकर्तुम् ? हन्त प्रभुः । स भदन्त ! किम् इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते ? तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते ? अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते ? गौतम ! इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते नो तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते नो अन्यान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुरुते । एवम् २. एकवर्णम् अनेकरूपम् ३. अनेकवर्णम् एकरूपम् ४. अनेकवर्णम् अनेकरूपम् — चतुर्भगः । १७०. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरिवाइत्ता पशू कालगं पोग्गलं नीलगपोग्गलाए परिणामेत्तए ? नीलगं पोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत? असंवृतः भदन्त ! अनगारः बाह्यकान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः कालकं पुद्गलं नीलकपुद्गलत्वेन परिणामयितुं ? नीलकं पुद्गलं वा कालकपुद्गलत्वेन परिणामयितुम्? गोयमा । नो इण समट्टे। परियाइत्ता पभू गीतम ! नो अयमर्थः समर्थः । पर्यादाय प्रभुः हिन्दी अनुवाद असंवृत अनगार की विक्रिया का पद १६७. 'भन्ते ! क्या असंवृत अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ है ? यह अर्थ संगत नहीं है। १६८ भन्ते ! क्या अंसकृत अनगार महिती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करने में समर्थ है ? हाँ, समर्थ है। १६६. भन्ते ! क्या वह मनुष्य-लोक में स्थित पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है ? अथवा गन्तव्यस्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है ? अथवा इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुदगलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है? गौतम ! वह मनुष्य-लोक में स्थित पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण करता है, गन्तव्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक वर्ण और एक रूप का निर्माण नहीं करता, इन दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर निर्माण नहीं करता। इस प्रकार २. एकवर्ण और अनेक रूप का निर्माण ३. अनेक वर्ण और एक रूप का निर्माण ४. अनेक वर्ग और अनेक रूप का निर्माण – यह धीमंगी है। १७०. भन्ते ! क्या असंवृत अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल को नील वर्ण वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है? अथवा नील वर्ण वाले पुद्गल को कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है । वह बहिर्वर्ती Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३८५ श.७:उ.६:सू.१६७-१७३ जाव यावत पुद्गलों का ग्रहण कर वैसा करने में समर्थ है यावत् १७१. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले असंवृतः भदन्त ! अनगारः बाह्यकान् पुद्ग- १७१. क्या असंवृत अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण अपरियाइत्ता पभू निद्धपोग्गलं लुक्खपोग्गल- लान् अपर्यादाय प्रभुः स्निग्धपुद्गलं रूक्ष- किए बिना स्निग्ध स्पर्श वाले पुद्गल को रूक्ष स्पर्श ताए परिणामेत्तए ? लुक्खपोग्गलं वा निद्ध- पुद्गलत्वेन परिणामयितुम् ? रूक्षपुद्गल वा वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है? पोग्गलत्ताए परिणामेत्तए? स्निग्धपुद्गलत्वेन परिणामयितुम् ? अथवा रूक्ष स्पर्श वाले पद्गल को स्निग्ध स्पर्श वाले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है? गोयमा! नो इणढे समढे । परियाइत्ता पभू॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । पर्यादाय प्रभुः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर वैसा करने में समर्थ है। १७२. से णं भंते किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता स भदन्त ! किम् इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय १७२. भन्ते ! क्या वह मनुष्य-लोक में स्थित पुद्गलों का परिणामेति ? तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणमयति ? तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय ग्रहण कर परिणत करता है ? अथवा गन्तव्य स्थानवर्ती परिणामेति? अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणमयति? अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है ? अथवा इन परिणामेति? परिणमयति? दोनों से भिन्न किसी अन्य स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत करता है? गोयमा! इहगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेति, गौतम ! इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय परिणम- गौतम ! वह मनुष्य-लोक में स्थित पुद्गलों का ग्रहण नो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेति, नो यति, नो तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय परि- कर परिणत करता है, गन्तव्यस्थानवर्ती पुद्गलों का अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता परिणामेति॥ णमयति, नो अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय ग्रहण कर परिणत नहीं करता, इन दोनों से भिन्न परिणमयति। किसी अन्य-स्थानवर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर परिणत नहीं करता। भाष्य १. सूत्र १६७-१७२ द्रष्टव्य भ.६/१६३-१६७ का भाष्य । महासिलाकंटयसंगाम-पदं महाशिलाकंटकसंग्राम-पदम् १७३. नायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णा- ज्ञातमेतद् अर्हता, श्रुतमेतद् अर्हता, विज्ञात- यमेयं अरहया---महासिलाकंटए संगामे। मेतद् अर्हता-महाशिलाकंटकः संग्रामः। महासिलाकंटए णं भंते ! संगामे वट्टमाणे के महाशिलाकंटके भदन्त ! संग्रामे वर्तमाने कः जइत्था? के पराजइत्था? अजैषीत् ? कः पराजेष्ट? गोयमा ! वज्जी, विदेहपुत्ते जइत्था, नव मल्लई, गोतम ! वजी, विदेहपुत्रः अजैष्टाम्, नव नव लेच्छई-कासी कोसलगा अट्ठारस वि मल्लई', नव 'लेच्छई'--काशीकौशलकाः गणरायाणो पराजइत्था॥ अष्टादश अपि गणराजाः पराजेषत । महाशिलाकंटक संग्राम-पद १७३ 'यह अर्हत् के द्वारा ज्ञात है, यह अर्हत् के द्वारा स्मृत है, यह अर्हत् के द्वारा विज्ञात है-महाशिलाकंटक संग्राम। भदन्त ! महाशिलाकंटक संग्राम में कौन जीता? कौन हारा? गोतम ! वज्री (इन्द्र) और विदेहपुत्र (कूणिक) जीते। नौ मल्ल नौ लिच्छवी-काशी कौशल के अट्ठारह गणराज हारे। भाष्य १. सूत्र १७३ संग्राम का उल्लेख नहीं है। चेटक और कोणिक (कूणिक) के युद्ध का वर्णन भगवती' और बौद्ध साहित्य में मगध सम्राट अजातशत्रु विदेहिपुत्र और वज्जी निरयावलियाओ-इन दो आगमों में मिलता है। भगवती में युद्ध की पृष्ठभूमि गणराज्य के बीच युद्ध का वर्णन प्राप्त होता है, किन्तु वहां पर चेटक के नाम वर्णित नहीं है, केवल महाशिलाकंटक और रथमुसल इन दो युद्धों का वर्णन है। का उल्लेख नहीं मिलता। निरयावलियाओ में युद्ध की पृष्ठभूमि का विशद वर्णन है। उसमें महाशिलाकंटक आश्चर्य है कि वैदिक साहित्य में इसका कोई उल्लेख नहीं है। १.भ.७/१७३-२१०। ३.(क) बुद्धचर्या-महापरिनिव्वाणसुत्त, पृ०४५४-४५७। २.निरया. १/E४-१४१॥ (ख) दीघनिकाय, महावग्गट्टकथा, २/३, पृ०६५,६६। Jain Education Intemational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.६ : सू. १७३-१७५ ३८६ भगवई लौकिक साहित्य में भी इस युद्ध का कोई उल्लेख नहीं है। मगध और वैशाली प्रदेश में इतनी बड़ी सेना का समावेश कैसे हुआ, यह भी एक विमर्शनीय प्रश्न है। महाशिलाकंटक संग्राम में चौरासी लाख तथा रथमुसल संग्राम में छियानवें लाख–कुल मिलाकर एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्य मारे गये । तत्कालीन आबादी और प्रदेश की छोटी सीमा दोनों दृष्टियों से यह संख्या विस्मयकारक है। हो सकता है संख्या के संकेत किसी भिन्न गणना पद्धति से संबद्ध हो। प्रस्तुत दो युद्धों के वर्णन के निष्कर्ष ये हैं१. कोणिक का सामन्तवादी दृष्टिकोण युद्ध का हेतु बना। २. शरणागत की रक्षा को उस समय प्राथमिकता दी जाती थी। ३. युद्धकाल में भी विशेष मर्यादाओं का पालन किया जाता था। ४. जिते च लभ्यते लक्ष्मीः मृते चापि सुराङ्गना। क्षणभंगुरको देहः का चिन्ता मरणे रणे ॥ --इस अवधारणा का निरसन । १७४. तए णं से कोणिए राया महासिलाकंटगं ततः स कोणिकः राजा महाशिलाकंटकं संग्रा- १७४. महाशिलाकंटक संग्राम उपस्थित हो गया है-यह संगामं उवट्ठियं जाणित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दा- मम् उपस्थितं ज्ञात्वा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्द- जानकर राजा कोणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, वेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो यति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भोः बुलाकर कहा-देवानुप्रियो! शीघ्र ही हस्तिराज उदाई देवाणुप्पिया! उदाई हत्थिरायं पडिक्प्पेह, देवानुप्रियाः! उदायिनं हस्तिराज प्रतिकल्पयत, को सज्ज करो, अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं हय-गज-रथ-प्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिणी युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध करो, सन्नद्ध कर सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पा- सेनां सन्नह्यत, सन्नह्य मम एतामाज्ञप्तिं क्षिप्र- शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा का प्रत्यर्पण करो। मेव पच्चप्पिणह ॥ मेव प्रत्यर्पयत। १७५. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रण्णा ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः कोणिकेन राज्ञा एवम् १७५. कौटुम्बिक पुरुष कोणिक राजा के द्वारा इस प्रकार एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया जाव उक्ताः सन्तः हृष्टतुष्टचित्ताः आनन्दिताः का निर्देश प्राप्त कर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित चित्त मत्थए अंजलिं कटु एवं सामी! तहत्ति आणाए यावन मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं स्वामिन् ! वाले हुए यावत् अञ्जलि को भाल पर टिका कर विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता तथेति आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति, बोले-स्वामिन् ! जैसा आपका निर्देश है वैसा ही खिप्पामेव छेयायरियोवएस-मति-कप्पणा- प्रतिशृत्य क्षिप्रमेव छेकाचार्योपदेश-मति-कल्प- होगा, यह कह कर विनयपूर्वक वचन को स्वीकार विकप्पेहिं सुनिउणेहिं उज्जलणेवत्थ-हब्ब- ना-विकल्पैः सुनिपुणेः उज्जवलनेपथ्य-'हव'- किया, स्वीकार कर शीघ्र ही कुशल आचार्य के उपदेश परिवच्छियं सुसज्जं जाव भीमं संगामियं -परिपक्षितं सुसज्जं यावद् भीमं सांग्रामिकम् से उत्पन्न मति, कल्पना और विकल्पों तथा सुनिपुण अओझं उदाइं हत्थिरायं पडिकप्पेंति, अयोध्यम् उदायिनं हस्तिराजं प्रतिकल्प- व्यक्तियों द्वारा निर्मित उज्ज्वल नेपथ्य से युक्त, सुसज्ज हय-गय-रह पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं यन्ति, हय-गज-रथ-प्रवरयोधकलितां चतुर- थावत् भीम, सांग्रामिक, अयोध्य-जिसके सामने कोई सण्णाति, सण्णाहेत्ता जेणेव कूणिए राया ङ्गिणी सेनां सन्नह्यन्ति, सन्नह्य यत्रैव कोणिकः लड़ने में समर्थ न हो-हस्तिराज उदाई को सज्ज किया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरि- राजा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य करतल- अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरङ्गिणी ग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट परिगृहितंदशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं सेना को सन्नद्ध किया, सन्नद्ध कर जहां राजा कूणिक कूणियस्स रण्णो तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति॥ कृत्वा कोणिकस्य राज्ञः ताम् आज्ञप्तिं प्रत्य- है वहां आए, आ कर दोनों हथेलियों से निष्यन्न सम्पुट र्पयन्ति। वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर मस्तक पर टिका कर राजा कूणिक को उस आज्ञा का प्रत्यर्पण किया। भाष्य १. कुशल आचार्य रूप-परिपक्षित है। छेक-नुिपण, आचार्य-शिल्प का उपदेशदाता । नायाधम्मकहाओ में परिवस्थिय पाठ है। ओवाइयं में भी परिवत्थिय पाठान्तर है। उसके आधार पर 'उज्ज्वल परिधान को धारण कर' अर्थ घटित होगा। 'हव्व' के स्थान पर 'वत्थ' भी मिलता है। २. उज्ज्वल नेपथ्य से युक्त उज्ज्वल परिधान' को शीघ्र परिगृहीत कर । परिवच्छिय का संस्कृत १. आप्टे. नेपथ्य- attired २. नाया. १/१६/२४७–तयाणंतरं च णं छेयायरिय-उवदेस-मइ-कप्पणा-विकप्पेहिं सुणिउणेहिं उज्जल-णेवस्थि-हत्थ परिवस्थियं ... । ३. ओवा. सू ५७ (तेरापंथी महासभा का संस्करण) ४. नाया. १/१६/२४७ (देखें इसी पृष्ठ का पाद टिप्पण २) Jain Education Intemational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७६. तणं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरं तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मज्ज्णघरं अणुप्पविसइ, अणुष्पविसित्ता हाए कयबलिकम्मे कयको उय-मंगलपायच्छिते सव्वालं कारविभूसिए सण्ण-ब-वम्मियकवए उपीलियारासणपट्टिए पिणगेदेज्य-विमल वरकद्धविंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे सकोरेंट मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमागेणं चउचामरबालवीजियंगे मंगलजयसहकवालोए जाव जेणेव उदाई हत्थराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उदाई हत्थिरायं दुरूढे ॥ १. बलिकर्म प्रायश्चित भ. २/६६ का भाष्य द्रष्टव्य है। ३८७ ततः स कोणिकः राजा यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य मज्जनगृहं अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुक - मंगल- प्रायश्चित्तः सर्वालंकारविभूपितः सन्नर्मितवचः उत्पीडित शरासनपट्टिकः पिन्वेय- विमलवरबद्धचिह्नपट्टः गृहीतायुधप्रहरणः सकोरण्टमात्यदाम्ना छत्रेण धियमाणेन चतुश्चामरबालवीजिताङ्गः मङ्गलजयशब्दकृतालोकः यावद् यत्रैव उदायी हस्तिराजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य उदायिनं हस्तिराजम् आरूढः । भाष्य २. लोहकवच को धारण किया सण्णद्धबद्धवम्मिय ( सन्नद्धबद्धवर्मित) में सन्नाह और वर्म दोनों कवच के पर्यायवाची नाम है। कवच पहने हुए योद्धा के लिए सन्नद्ध, बद्ध और वर्मित शब्दों का प्रयोग किया गया है। ३. कलई पर चमड़े की पट्टी बांधी उप्पीलियस रासणपट्टिए (उत्पीडितशरासनपट्टिका) में उत्पीडित का अर्थ है-खींचकर बांधी हुई शरासनपट्टिका का अर्थ है- धनुष की डोरी के आघात से रक्षा के लिए कलई पर बांधी जाने वाली चमड़े की पट्टी । ४. गले का सुरक्षाकवच पहना १७७. तए णं से कूणिए राया हारोत्थय-सुकय-रइयवच्छे जाव सेयवरचामराहिं उद्धु व्वमाणीहिं-उद्धुव्वमाणीहिं हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महयामडचडनरविंदपरिक्खित्ते जेणेव महासिलाकंटए संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासिलाकंटगं संगामं ओयाए । पुरओ य से सक्के देविंदे देवराया एवं महं अभेज्जकवयं वइरपडिरूवगं विउब्वित्ता चि । एवं खलु दो इंदा संगामं संगामेंति, तं जहा- देविंदे य, मणुइंदे य । एगहत्थिणा विणं पभू कृषिए राया दत्तए, एगहत्थिना विणं पभू कूणिए राया पराजिणित्तए । १. भ. वृ. ७/१७६ - ग्रेवेयकं ग्रीवाभरणां । वृत्तिकार ने वैवेयक का अर्थ ग्रीवाभरण किया है। किंतु यह अर्थ विमर्शनीय है। श. ७: उ. ६: सू. १७६ - १७७ १७६. राजा कूणिक जहां मज्जनघर है, वहां आया, आ कर मज्जनघर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक. (तिलक आदि ) मंगल (दधि, अक्षत आदि) और प्रायश्चित्त' किया, सब अलंकारों से विभूषित हुआ, लोहकवच को धारण किया, कलई पर चमड़े की पट्टी बांधी, गले का सुरक्षाकवच पहना, विमलवर चिप बांधे, आयुध और प्रहरण लिए उसने कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया, जिसके दोनों ओर दो-दो चामर डुलाए जा रहे थे । उसको देखते ही जनसमूह मंगल जय - निनाद करने लगा। यावत् जहां हस्तिराज उदाई था, वहां आया। आकर हस्तिराज उदाई पर आरूढ हो गया। - सव्वालंकारविमूसिए इस पाठ में अलंकृत होने का निर्देश है। इसके पश्चात् युद्ध के लिए सन्नद्ध होने का वर्णन है। प्रवेषक बाँधने और योद्धा के उपयुक्त चित्रपट्ट लगाने का पाठ संयुक्त है, अतः वेयकका प्रासंगिक अर्थ है - ' ग्रीवा की सुरक्षा का उपकरण'। जैसे सिर, पेट, जंघा, बाहु और अंगरक्षा के लिए पृथक-पृथक कवच पहने जाते थे वैसे ही ग्रीवा की रक्षा के लिए ग्रैवेयक नामक कवच पहना जाता होगा। ५. विमलवरचिह्नपट्ट... प्रहरण लिए चिपट्ट (विधपट्टे) – योद्धा की पहचान कराने वाला विरूपट्ट गृहीतायुधप्रहरण (गहियाउहप्पहरणे) में गृहीत का अर्थ है - ग्रहण किया हुआ | आयुध अर्थात् अक्षेप्य शस्त्र प्रहरण का अर्थ है - प्रक्षेपास्त्र - बाण आदि । ततः स कूणिकः राजा हारोपस्तृत सुकृतरचितवक्षाः यावत् श्वेतवरचामराभिः उद्धूयमानाभिः - उद्धूयमानाभिः हय- गज-रथप्रवरयोधकलितया चतुरङ्गिण्या सेनया सार्धं संपरिवृतः महद्भटचटकरवृन्दपरिक्षिप्तः यत्रैव महाशिलाकण्टकः संग्रामः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य महाशिलाकण्टकं संग्रामं उपयातः । पुरतश्च स शक्रः देवेन्द्रः देवराजः एक महद् अभेद्यकवचं वज्रप्रतिरूपकं विकृत्य तिष्ठति । एवं खलु द्वौ इन्द्रौ संग्रामं संग्रामयतः, तद् यथा - देवेन्द्रश्च मनुजेन्द्रश्च । एकहस्तिनापि प्रभुः कृषिकः राजा जेतुम् एक हस्तिनापि प्रभुः कूणिकः राजा पराजेतुम् । १७७. राजा कूणिक का वक्षहार के आच्छादन' से सुशोभित हो रहा था यावत् वह डुलाए जा रहे श्वेतवर चामरों से युक्त, अश्व, गन, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना से परिवृत, महान् सुभटों के सुविस्तृत वृन्द से घिरा हुआ जहां महाशिलाकंटक संग्राम की भूमि थी, वहां आया, आकर महाशिलाकंटक संग्राम में उतर गया। उसके पुरोभाग में देवेन्द्र देवराज शक्र. एक महान् वज्रतुल्य अभेद्य कवच का निर्माण कर उपस्थित हैं। इस प्रकार दो इन्द्र संग्राम कर रहे हैं, जैसे देवेन्द्र और मनुष्येन्द्र । राजा कूणिक एकहस्तिका ' से भी जीतने में समर्थ है। राजा कूणिक एकहस्तिका से भी दूसरों को पराजित करने में समर्थ है। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ७: उ. ६ : सू. १७७-१८२ १. आच्छादन 'उपस्तृत' का अर्थ है आच्छादित । २. वज्रतुल्य हैतुल्या १७८. तए णं से कूणिए राया महाशिलाकंटगं संगाम संगामेमाणे नव मल्लई, नव लेच्छईकासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो हय-महिय पवरवीर घाइय-विवडिवविधद्धयपडाने किच्छपाणगए दिसोदिसिं पडिसेहित्या || वइरपडिरूवग में वइर का अर्थ है - वज्र, पडिरूवग का अर्थ गोयमा ! महासिलाकंटए णं संगामे वट्टमाणे जे तत्थ आसे वा हत्थी वा जोहे वा सारही वा तणेण वा कट्टेण वा पत्तेन वा सक्कराए वा अभिहम्मति, सब्बे से जाणेड़ महासिलाए अहं अभिहए। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वच्चइमहासिलाकंटए संगामे ॥ १८०. महासिलाकंटए णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कति जणसयसाहस्सीओ वहियाओ ? गोयमा! चउरासीइं जणसयसाहस्सीओ वहियाओ || १८१. ते णं भंते ! मणुया निस्सीला निग्गुणा निम्मेरा निव्वाणपोसोक्वासा रुद्रा परिकुविया समरवहिया अणुवसंता कालमासे कालं किच्चा कहिं गया ? कहिं उदवण्णा ? १७६. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - महासिला- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - महाशिला - कंटए संगामे ? कण्टकः संग्रामः ? गौतम! महाशिलाकण्टके संग्रामे वर्तमाने यो यत्र अश्वो वा हस्ती वा योधो वा सारथी वा तृणेन वा काष्ठेन वा पत्रेण वा शर्करा वा अभिहन्यते सर्वः स जानाति महाशिलया अहम् अभिहतः । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते -महाशिलाकण्टकः संग्रामः । गोयमा! उसणं नरम-तिरिक्धजोगिएसु उबवण्णा ॥ शब्द-विमर्श ३८८ भाष्य रहमुसलसंगाम-पदं १८२. नायमेयं अरहवा, सुवमेवं अरया, विष्णा १. भ. वृ. ७/१७७ - एगहत्थिणा वित्ति - एकेनापि गजेन । ३. एकहस्तिका वृत्तिकार ने हस्ति का अर्थ हाथी किया है किंतु महाशिलाकण्टक संग्राम के प्रकरण में यह विमर्शनीय है। महाशिलाकण्टक संग्राम में फेंका हुआ एक बालू का कण भी शिला जैसी चोट करता है। इसलिए यहां हस्ति का अर्थ 'हस्तिका' नामक उपकरण है, जिसके द्वारा कंकड़ आदि फेंके जाते हैं। * ततः सकृषिक राजा महाशिलाकण्टकं संग्राम संग्रामयन् नव 'मल्लाई' नव 'तेच्छई'काशी- कौशलकान् अष्टादश अपि गणराजान् हत मधित घातितप्रवरवीर- विपतित-चिह्न ध्वजपताकान् कृच्छ्रप्राणगतान् दिशोदिशं प्रत्यसीषिधत् । महाशिलाकण्टके भदन्त ! संग्रामे वर्तमाने कति जनशतसाहस्त्र्यः हताः ? गौतम ! चतुरशीतिः जनशतसाहस्र्यः हताः । ते भदन्त ! मनुजाः निश्शीला निर्गुणाः निमर्यादा निष्पत्याख्यानपोषधीः रुष्टाः परिकुपिताः समरहताः अनुपशान्ताः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गताः ? कुत्र उपपन्नाः ? गौतम ! 'उस्सणं' नरक- तिर्यग्योनिकेषु उपपन्नाः । उस्सण्ण - प्रायः | यह देशी शब्द है । भ. ७/१६० का भाष्य भी द्रष्टव्य है। भाष्य रथमुसलसंग्राम-पदम् ज्ञातमेतत् अर्हता, श्रुतमेतद् अर्हता, वि भगवई १७८. राजा कृणिक ने महाशिलाकंटक संग्राम लड़ते हुए नौ मल्ल और नौ लिच्छवी - काशी- कौशल के अट्ठारह गणराजों को हत-प्रहत कर दिया, मथ डाला, प्रवर योद्धाओं को मार डाला, चिह्न-ध्वजापताका को गिरा दिया, उनके प्राण संकट में पड़ गए, उन्हें पीछे की ओर ढकेल दिया। १७६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है कि वह महाशिलाकण्टक संग्राम है ? गीतम महाशिलाकंटक संग्राम चल रहा था। यहां विद्यमान अश्व, हाथी, योद्धा अथवा सारथी पर तृण, काष्ठ, पत्र अथवा शर्करा (कंकर) का प्रहार किया तब वे सब अनुभव करते कि उन पर महाशिला से प्रहार किया जा रहा है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है महाशिलाकंटक संग्राम है। १८० भन्ते महाशिलाकण्टक संग्राम में कितने लाख मनुष्य मारे गए ? गौतम ! चौरासी लाख मनुष्य मारे गए। १८१ भन्ते । उस संग्राम में मारे जाने वाले मनुष्य शील, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और पौषघोपवास से रहित, रुष्ट और परिकुपित थे। उनका क्रोध उपशान्त नहीं था। वे मृत्यु के समय में मर कर कहां गए? कहाँ उत्पन्न हुए? गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यक् योनि में उपपन्न हुए। २. आप्टे हस्तिका - A kind of stringed instrument रथमुसलसंग्राम-पद १८२. यह अर्हत् के द्वारा ज्ञात हैं, यह अर्हत् के द्वारा Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३८६ यमेयं अरहया-रहमुसले संगामे। रहमुसले ज्ञातमेतद् अर्हता-रथमुसलः संग्रामः। रथणं भंते ! संगामे वट्टमाणे के जइत्था ? के मुसले भदन्त ! संग्रामे वर्तमाने कः अजैषी? पराजइत्था? कः पराजेष्ट ? गोयमा ! वज्जी, विदेहपुत्ते, चमरे असुरिंदे गौतम ! वजी, विदेहपुत्रः, चमरः असुरेन्द्रः असुरकुमारराया जइत्था, नव मल्लई, नव असुरकुमार राजा अजैषुः, नव 'मल्लई' नव लेच्छई पराजइत्था ॥ 'लेच्छई' पराजेषत। श.७:उ.६:सू. १८२-१८५ स्मृत है, यह अर्हत् के द्वारा विज्ञात है-रथमुसल संग्राम! भन्ते ! रथमुसालसंग्राम में कौन जीता? कौन हारा? गौतम ! वज्री (इन्द्र) विदेहपुत्र (कोणिक) और असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर जीते । नी मल्ल और नी लिच्छवी हारे। १८३. तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगामं ततः स कूणिकः राजा रथमुसलं संग्रामम् उवट्ठिए जाणित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, उपस्थितं ज्ञात्वा कौटिम्बिकपुरूषान् शब्दयति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु- शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भोः देवानुप्पिया! भूयाणंदं हत्थिरायं पडिकप्पेह, हय- प्रियाः! भूतानन्दं हस्तिराजं परिकल्पयत, -गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं हय-गज-रथ-प्रवर-योधकलितां चतुरङ्गिणी सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं सेनां सन्नह्यत, सन्नह्य मम एतामाज्ञप्ति खिप्पामेव पच्चप्पिणह ॥ क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयत। १८३. रथमुसल संग्राम उपस्थित हो गया है- यह जान कर राजा कोणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुला कर कहा-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही हस्तिराज भूतानन्द को सज्ज करो, अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध करो, सन्नद्ध कर शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा का प्रत्यर्पण करो। १८४. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कोणिएणं रण्णा ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः कूणिकेन राज्ञा १८४. कौटुम्बिक पुरुष कोणिक राजा के द्वारा इस प्रकार एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया जाव' एवमुक्ताः सन्तः हष्टतुष्टचित्ताः आनंदिताः का निर्देश प्राप्त कर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित चित्त मत्थए अंजलिं कटु एवं सामी ! तहत्ति यावत् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं स्वामिन्। वाले हुए यावत् अञ्जलि को मस्तक पर टिका कर आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडि- तथेति आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिश्रुण्वन्ति, बोले-स्वामिन् ! जैसा आपका निर्देश है, वैसा ही सुणित्ता खिप्पामेव छेयायरियोवएसमति- प्रतिश्रुत्य क्षिप्रमेव छेकाचार्योपदेश-मति- होगा, यह कह कर विनयपूर्वक वचन को स्वीकार कप्पणा-विकप्पेहिं सुनिउणेहिं उज्जलणेवत्थ- -कल्पना-विकल्पैः सुनिपुणैः उज्ज्वलनेपथ्य- किया, स्वीकार कर शीघ्र ही कुशल आचार्य के उपदेश -हव्वपरिवच्छियं सुसज्जं जाव भीमं संगामियं -'हब्ब'परिपक्षितं सुसज्जं यावद् भीमं सांग्रा- से उत्पन्न मति, कल्पना और विकल्पों तथा सुनिपुण अओझं भूयाणंदं हत्थिरायं पडिकति, मिकम् अयोध्यं भूतानन्दं हस्तिराज परि- व्यक्तियों द्वारा निर्मित उज्ज्वल नेपथ्य से युक्त, हय गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं ___ कल्पयन्ति, हय-गज-रथ-प्रवरयोधकलितां सुसज्ज यावत् भीम, सांग्रामिक, अयोध्य-जिसके सण्णाति, सण्णाहेत्ता जेणेव कूणिए राया ___ चतुरङ्गिणी सेनां सन्नमन्ति, सन्नह्य यत्रैव सामने कोई लड़ने में समर्थन हो-हस्तिराज भूतानन्द तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल- कूणिकः राजा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य को सज्ज किया; अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध किया, सन्नद्ध कर कटु कूणियस्स रण्णो तमाणत्तियं पच्च- अञ्जलिं कृत्वा कूणिकस्य राज्ञः ताम् आज्ञप्ति जहां राजा कूणिक है वहां आए, आ कर दोनों हथेलियों प्पिणंति॥ प्रत्यर्पयन्ति। से निष्पन्न सम्पुट वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर, मस्तक पर टिका कर राजा कूणिक को उस आज्ञा का प्रत्यर्पण किया। १८५. तए णं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरं ततः सः कूणिकः राजा यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैव तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मज्जणघरं उपागच्छति, उपागम्य मज्जनगृहम् अनुअणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता बहाए कयबलि- प्रविशति, अनुप्रविश्य स्नातः कृतबलिकर्मा कम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वा- कृतकौतुक-मंगल-प्रायश्चितः सर्वालंकारवि- लंकारविभूसिए सण्णद्ध-बद्ध-वम्मियकवए भूषितः सन्नद्ध-बद्ध-वर्मितकवचः उत्पीडितउप्पीलियसरासण-पट्टिए पिणद्धगेवेज्ज- शरासन-पट्टिकः पिनद्धग्रैवेय-विमलवरबद्धविमलवरबद्धचिंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे स- चिह्नपट्ट: गृहीतायुधप्रहरणः सकोरण्टमा- कोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चउ- ल्यदाम्ना छत्रेण धियमाणेन चतुश्चामरबालचामरबालवीजियंगे, मंगलजयसद्दकयालोए वीजिताङ्गः मंगलजयशब्दकृतालोकः यावद् जाव जेणेव भूयाणंदे हत्थिराया तेणेव उवा- यत्रैव भूतानन्दः हस्तिराजः तत्रैव उपागच्छति, गच्छइ, उवागच्छित्ता भूयाणंदं हत्थिरायं उपागम्य भूतानन्दं हस्तिराजम् आरूढः । १८५. राजा कूणिक जहां मज्जनघर है, वहां आया, आ कर मज्जनघर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (तिलक आदि) और प्रायश्चित्त किया, सब अलंकारों से विभूषित हुआ, लोह कवच को धारण किया, कलई पर चमड़े की पट्टी बांधी, गले का सुरक्षाकवच पहना, विमलवर चिह्नपट्ट बांधे, आयुध और प्रहरण लिए। उसने कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया, जिसके दोनों ओर दो-दो चमर डुलाए जा रहे थे। उसको देखते ही जनसमूह मंगल जय-निनाद करने लगा यावत्, जहां हस्तिराज भूतानन्द है, वहां आया। आ कर हस्तिराज भूतानन्द पर आरूढ़ हो गया। दुरुढे॥ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७:उ.६:सू.१८६-१८८ ३६० भगवई १८६. तए णं से कूणिए राया हारोत्थय-सुकय- ततः स कूणिकः राजा हारोपस्तृत-सुकृत- १८६. 'राजा कूणिक का वक्ष हार के आच्छादन से -रइयवच्छे जाव सेयवरचामराहि उद्भूबमाणी- -रचितवक्षाः यावत् श्वेतवरचामराभिः उद्भूय- सुशोभित हो रहा था यावत् वह डुलाए जा रहे हिं-उद्धव्वमाणीहिं हय-गय-रह-पवरजोह- मानाभिः-उद्धूयमानाभिः हय-गज-रथ- श्वेतवर चमरों से युक्त; अश्व, गज, रथ और प्रवर कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडे -प्रवरयोधकलितया चतुरङ्गिण्या सेनया सार्धं योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना से परिवृत, महान् महयाभडचडगरविंदपरिक्खित्ते जेणेव रह- संपरिवृतः महद्भटचटकरवृन्दपरिक्षिप्तः यत्रैव सुभटों के सुविस्तृत वृन्द से परिक्षिप्त हो कर जहां मूसले संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रथमुसलः संग्रामः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य रथमुसल संग्राम की भूमि थी, वहां आया। आ कर रहमुसलं संगामं ओयाए। पुरओ य से सक्के रथमुसलं संग्रामम् उपयातः । पुरतः च स रथमुसल संग्राम में उतर गया। उसके पुरोभाग में देविंदे देवराया एगं महं अभेज्जकवयं वइर- शक्रः देवेन्द्रः देवराजः एक महद् अभेद्य कवचं देवेन्द्र देवराज शक्र एक महान् वज्र तुल्य अभेद्य पडिरूवगं विउव्वित्ता णं चिट्ठइ। मग्गओ य से वज्रप्रतिरूपकं विकृत्य तिष्ठति। 'मग्गओ' च कवच का निर्माण कर उपस्थित है। उसके पृष्ठभाग में चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं स चमरः असुरेन्द्रः; असुरकुमारराजा एक असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर एक महान् लोह का आयसं किढिणपडिरूवगं विउव्वित्ता णं चिट्ठइ। महद् आयसं 'किढिण'प्रतिरूपकं विकृत्य तापस-पात्र-तुल्य पात्र' निर्मित कर उपस्थित है। इस एवं खलु तओ इंदा संगामं संगामें ति, तं तिष्ठति। एवं खलु त्रयः इन्द्राः संग्राम सं- प्रकार तीन इन्द्र संग्राम कर रहे हैं, जैसे–देवेन्द्र, जहा–देविंदे य, मणुइंदे य, असुरिंदे य। ग्रामयन्ति, तद् यथा देवेन्द्रः च, मनुजेन्द्रः च, मनुष्येन्द्र और असुरेन्द्र। राजा कूणिक एकहस्तिका से एगहत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया जइत्तए, असुरेन्द्रः च। एकहस्तिनापि प्रभुः कूणिकः भी जीतने में समर्थ है। राजा कूणिक एकहस्तिका से एगहत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया पराजि- राजा जेतुम्, एकहस्तिनापि प्रभुः कूणिकः भी दूसरों को पराजित करने में समर्थ है। णित्तए॥ राजा पराजेतुम्। भाष्य १. सूत्र १८६ तापस-पात्र-तुल्य पात्र (किढिणपडिरूवग)-'किढिण' का अर्थ शब्द-विमर्श है--बांस से बना हुआ पात्र। जिसका उपयोग तापस किया करते थे। 'किढिण' देशी शब्द है। प्रतिरूपक का अर्थ है-उसके आकार वाला पात्र।' ___ मग्गओ-यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है 'पीठ पीछे'। मराठी में हस्तिका-प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त हस्तिका का भाष्य किया जा मागे का अर्थ है-पीछे। चुका है। १८७. तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगाामं ततः स कूणिकः राजा रथमुसलं संग्रामं १८७. राजा कूणिक ने रथमुसल संग्राम लड़ते हुए नौ संगामेमाणे नव मल्लई, नव लेच्छई-कासी- संग्रामयन् नव मल्लई नव 'लेच्छई'-काशी- मल्ल और नौ लिच्छवी-काशी-कोशल के अठारह कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो हय-महिय- -कौशलकान् अष्टादशापि गणराजान् हत- गणराजों को हत-प्रहत कर दिया, मथ डाला, प्रवर -पवरवीर-घाइय-विवडियचिंध-द्धयपडागे कि- -मथित-घातित-प्रवरवीर-विपतितचिह्न-ध्वज- योद्धाओं को मार डाला, ध्वजा-पताका को गिरा दिया, च्छपाणगए दिसोदिसिं पडिसेहित्था ॥ पताकान् कृच्छ्रप्राणगतान् दिशोदिशं प्रत्य- उनके प्राण संकट में पड़ गए, उन्हें पीछे की ओर सीषिधत्। ढकेल दिया। १५८. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-रहमुसले तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-रथमुसलः १८८.'भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-वह संगामे? संग्रामः? रथमुसल संग्राम है? गोयमा! रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे गौतम ! रथमुसले संग्रामे वर्तमाने एको रथः गौतम ! रथमुसल संग्राम चल रहा था। उस समय एक अणासए, असारहिए, अणारोहए, समुसले अनश्वकः, असारथिकः, अनारोहकः, स- रथ जिसमें घोड़े जुते हुए नहीं थे, कोई सारथि उसे महया जणक्खयं, जणवहं, जणप्पमई, जण- मुसलः महद् जनक्षयं जनवधं, जनप्रमर्द, चला नहीं रहा था। जिसमें कोई योद्धा नहीं बैठा था, संवट्टकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सवओ समंता जनसंवर्तकल्पं रुधिरकर्दमं कुर्वाणः सर्वतः उसमें एक मुसल था, वह रथ योद्धाओं का क्षय, वध परिधावित्था। से तेणद्वेण गोयमा ! एवं समन्तात् पर्यधाविष्ट। तत् तेनार्धन गौतम! और प्रमर्दन करता हुआ, योद्धाओं के लिए प्रलयपात वुच्चइरहमुसले संगामे। एवमुच्यते-रथमुसलः संग्रामः । के समान बना हुआ, युद्धभूमि पर रक्त का कीचड़ फैलाता हुआ चारों तरफ दौड़ रहा था। गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-रथमुसल संग्राम है। १. भ. वृ. ६/१८६-किदिनं वंशमयस्तापससंबंधी भाजनविशेषस्तत् प्रतिरूपकं-तदाकारं वस्तु। २. देखें, भ.७/१७७ का भाष्य । Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६१ श.७:उ.६:सू.१८८-१९१ भाष्य १. सूत्र १८८ संचालित था जो शत्रु सेना का क्षय, वध और प्रमर्दन करता था। प्रस्तुत सूत्र में स्वतःचालित रथ और स्वतःचालित शस्त्र का उल्लेख इसकी तुलना आधुनिक स्वचालित शस्त्रास्त्रों से की जा सकती है। है। ये दोनों असुरेन्द्र चमर के द्वारा निर्मित थे। रथ स्वतःचालित था। इसके प्रतिपादक तीन पद हैं—वह अश्वरहित (अणासए), सारथिरहित (असारहिए) . शब्द-विमर्श और आरोहक---योद्धारहित (अणारोहए) था। इसी प्रकार ‘मुसल' भी स्वतः संवर्त (संवट्ट)-प्रलय। १८६. रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कति रथमुसले भदन्त ! संग्रामे वर्तमाने कति १८६. भन्ते ! रथमुसलसंग्राम में कितने लाख मनुष्य मारे जणसयसाहस्सीओ वहियाओ? जनशतसाहस्रयः हताः? गोयमा! छण्णउतिं जणसयसाहस्सीओ गौतम ! षण्णवतिः जनशतसाहस्यः हताः। गौतम ! छियानवें लाख मनुष्य मारे गए। वहियाओ॥ १६०. ते णं भंते! मणुया निस्सीला निग्गुणा ते भदन्त ! मनुजाः निश्शीलाः निर्गुणाः नि- १६०. भन्ते ! उस संग्राम में मारे जाने वाले मनुष्य शील, निम्मेरा निप्पच्चक्खाणपोसहोववासा रुट्ठा मर्यादाः निष्प्रत्याख्यानपोषधोपवासाः रुष्टाः गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास से रहित, परिकुविया समरवहिया अणुवसंता कालमासे परिकुपिताः समरहताः अनुपशान्ताःकालमासे रुष्ट और परिकुपित थे। उनका क्रोध उपशान्त नहीं कालं किच्चा कहिं गया ? कहिं उववन्ना? कालं कृत्वा कुत्र गताः ? कुत्र उपपन्नाः ? था। वे मृत्यु के समय में मरकर कहां गए? कहां उपपन्न हुए? गोयमा! तत्थ णं दससाहस्सीओ एगाए गौतम ! तत्र दशसाहस्यः एकस्याः मत्स्याः गौतम ! उनमें से दस हजार मनुष्य एक मछली की मच्छियाए कुच्छिसि उववन्नाओ। एगे देव- कुक्षौ उपपन्नाः। एकः देवलोकेषूपपन्नः । एकः कुक्षि में उपपन्न हुए। एक देवलोक में उपपन्न हुआ। लोगेसु उववन्ने। एगे सुकुले पच्चायाए। सुकुले प्रत्यायातः । अवशेषाः उस्सणं' एक अच्छे मनुष्य कुल में उत्पन्न हो गया । शेष सब' अवसेसा उस्सण्णं नरग-तिरिक्खजोणिएसु नरक तिर्यग्योनिकेषु उपपन्नाः। नरक और तिर्यक्-योनि में उपपन्न हुए। उववन्ना ॥ भाष्य १. शेष सब 'शेष सब' किया गया है। द्रष्टव्य भ. ७/१८१ का भाष्य । उस्सण्णं का अर्थ 'प्रायः' है। यहां 'अवसेसा उस्सण्णं' का अर्थ १६१. कम्हा णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया, कस्माद् भदन्त ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः १६१. भन्ते ! देवेन्द्र देवराज शक्र और असुरेन्द्र असुर चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स चमरश्च असुरेन्द्रः असुरकुमारराजः कूणिकाय कुमारराज चमर ने राजा कूणिक को साहाय्य किस रण्णो साहेज्जं दलइत्था ? राज्ञे साहाय्यं अदात्? कारण से दिया? गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया पुव्वसंगतिए, गौतम ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः पूर्वसांगतिकः, गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र राजा कूणिक का पूर्व चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियाय- चमरः असुरेन्द्रः असुरकुमारराजः पर्याय- जन्म का मित्र था', असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर संगतिए । एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे सांगतिकः । एवं खलु गौतम ! शक्रः देवेन्द्रः उसका दीक्षा-पर्याय का साथी था। गौतम ! इस प्रकार देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया देवराजः, चमरः च असुरेन्द्रः असुरकुमारराजः देवेन्द्र देवराज शक और असुरेन्द्र असुरकुमारराज कूणियस्स रण्णो साहेज्जं दलइत्था ॥ कूणिकाय राज्ञे साहाय्यं अदात् । चमर ने राजा कूणिक को साहाय्य दिया । भाष्य १. पूर्वजन्म का मित्र (पुव्वसंगतिए) २. दीक्षा पर्याय का साथी (परियायसंगतिए) कार्तिक सेठ की अवस्था में कूणिक का जीव शक्र का मित्र था, पूरण तापस के जीवन-काल में कूणिक का जीव तापस-पर्याय में था इसलिए शक्र को कूणिक का पूर्वसांगतिक बतलाया गया है।' और वह पूरण तापस का मित्र था, इसलिए उसे पर्यायसांगतिक कहा गया है। द्रष्टव्य भ. १८/४०-५३। द्रष्टव्य भ. ३/१०१-१०७। १. भ. वृ.७/१६१-कार्तिकश्रेष्ठ्यवस्थायां कूणिकजीवो मित्रमभवत्। २.वही, ७/१६१-पूरणतापसावस्थायां चरमस्यासी तापसपर्यायवर्ती मित्रमासीदिति। Jain Education Intemational Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ. ६ सू.१६२-१६५ वरुण-नागनत्तुय-पदं १६२. बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ जाव परूबेड़ एवं खलु बहवे मणुस्सा अण्णयरेसु उच्चावसु संगामेसु अभिगुहा चैव पया समाणा कालमा काल किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववतारो भवति ॥ १६३. से कहमेयं भंते! एवं ? गोयमा ! जण्णं से बहुजणे अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ - एवं खलु बहवे मनुस्सा अण्णवरेसु उच्चावसु संगामेसु अभिमुहा चैव पहया समाणा कालमासे कालं किच्या अण्णयरेसु देवलोएस देवत्ताए उदयतारो भवति, जे ते एवमाहं मिच्छेते एवमासु । अहं पुण गोया ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि - एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नामं नगरी होत्था - वण्णओ । तत्थ णं वेसालीए नगरीए वरुणे नामं नागनत्तुए परिवसइ–अड्ढे जाव अपरिभूए, समणोवासए, अभिगयजीवाजीवे जाव समणे निग्गंथे फा-एस णिज्जेणं असण- पाण- खाइम-साइ मेणं नृत्य-पडिग्गह कंवल पायपीट- फलग - सेज्जा - संथारएणं ओसहभेसज्जेणं पडिलामेमाणे छट्ठछट्टेणं अणिखित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥ १६४. तए णं से वरुणे नागनत्तुए अण्णया कयाइ रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं रहमुसले संगामे आणते समाने छट्टभत्तिए अट्ठमभत्तं अणुवट्टेति, अणुवट्टेत्ता कोडुंबिय - पुरिसे सहावे, सहावेत्ता एवं व्यासीखिप्पामेव भो देवाणुपिया ! चाउट आसरहं जुत्तामेव उवावेह, हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेह, सण्णाहेत्ता मम एवमाणत्तियं पच्चपिमह ॥ १६५. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सच्छतं सज्झयं जाव चाउघंट आसरहं जुत्तामेव उद्वावेति, हम-गय-रह- पवरजोहकलियं चाउरंगिण सेणं सण्णाहेंति, सणात्ता जेणेव वरुणे नागनत्तुए तेणेव उवा ३६२ वरुण-नागनप्तृक-पदम् बहुजनः भदन्त ! अन्योन्यस्य एवमाचक्षते यावत् प्ररूपयति एवं खलु बहवः मनुष्याः अन्यतरेषु उच्चावचेषु संग्रामेषु अभिमुखाः चैव प्रहताः सन्तः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वेन उपपत्तारो भवन्ति । तत् कथमेतत् भदन्त ! एवम् ? गौतम! यत् स बहुजनः अन्योन्यस्य एवमाचक्षते यावत् प्ररूपयति - एवं खलु वहवः मनुष्याः अन्यतरेषु उच्चावचेषु संग्रामेषु अभिमुखाः चैव प्रहताः सन्तः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वेन उपपन्नारो भवन्ति, ये ते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः । अहं पुनः गौतम! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि एवं खलु गौतम! तरिमन् काले तरिमन् समये वैशाली नाम नगरी आसीद्-वर्णकः । तत्र वैशाल्यां नगर्या वरुणो नाम नागनप्तृकः परिवसति — आढ्यः यावद् अपरिभूतः, श्रमणोपासकः अभिगतजीवाजीवः यावत् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् प्रासु एषणीयेन अशन- पान - खाद्य- स्वाद्येन वस्त्र - प्रतिग्रह - कम्बल- पादप्रोञ्छनेन पीठ फलक- शय्या-संस्तारकेण औषध-मेषज्येन प्रतिलाभयन् षष्ठषष्ठेण अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा आत्मानं भावयन् विहरति । ततः सः वरुणः नागनप्तृकः अन्यदा कदाचिद् राजाभियोगेन, गणाभियोगेन बलाभियोगेन रथमुसले संग्रामे आज्ञप्तः सन् षष्ठभवत्या अष्टमभक्तं अनुवाति, अनुवार्य कीटम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्चिप्रमेव भोः देवानुप्रियाः चतुर्घष्टम् अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापयत, हय- गज-रथ-प्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिणीं सेनां सन्नात, सन्ना मम एतामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पयत । ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रतिश्रुत्य ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रतिश्रुत्य विप्रमेव सच्च सध्वजं यावच्चतुर्घण्टम् अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापयन्ति, हव- गज-रथ-प्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिणीं सेनां सन्नह्यन्ति, सन्ना यत्रैव करुणः नागनप्तृकः भगवई नाग के धेवता वरुण का पद १६२. भन्ते ! बहुत लोग परस्पर ऐसा आख्यान कर रहे हैं यावत् प्ररूपणा कर रहे हैं अनेक मनुष्य छोटे-बड़े किसी भी संग्राम में लड़ते हुए प्रत्त हो मृत्यु के समय में मरकर किसी देवलोक में देव के रूप में उपपन्न होते है। १६३. भन्ते ! यह कैसे है ? गौतम ! बहुत लोग परस्पर ऐसा आख्यान कर रहे हैं। यावत् प्ररूपणा कर रहे हैं-अनेक मनुष्य छोटे-बड़े किसी भी संग्राम में लड़ते हुए प्रस्त हो मृत्यु के समय में मरकर किसी देवलोक में देव के रूप में उपपन्न होते हैं जो ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं। गीतम! में ऐसा आख्यान करता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूंगौतम ! उस काल और उस समय वैशाली नाम की नगरी थी वर्णन उस वैशाली नगरी में नागनक ( नाग का धेवता ) वरुण रहता था - वह सम्पन्न यावत् अपरिभवनीय था। वह श्रमणों की उपासना करने वाला, जीव- अजीव को जानने वाला, यावत् श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्राशुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पाद- प्रोञ्छन, पीठ-फलक, शय्यासंस्तारक और औषध-मेज्य का दान देने वाला निरन्तर वेले देले के तप:कर्म द्वारा आपने आपको भावित करता हुआ बिहरण कर रहा है। १६४. युद्ध का प्रसंग उपस्थित होने पर राजाभियोग, गणाभियोग, बलाभियोग के द्वारा नागनप्तृक वरुण रथमुसल संग्राम में जाने की आज्ञा प्राप्त हुई। उस दिन वह बेला (दो दिन का उपवास) की तपस्या में था। उसने तेला (तीन दिन का उपवास) कर लिया, तप सम्पन्न कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुला कर कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घण्टाओं वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित करो; अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध करो, सन्नद्ध कर शीघ्र ही मेरी इस आज्ञा का प्रत्यर्पण करो। १६५. कीटुम्बिक पुरुषों ने यावत् स्वीकार कर शीघ्र ही छत्र और ध्वजायुक्त यावत् चार घण्टाओं वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित किया तथा अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध किया, सन्नद्ध कर जहां नागनप्तृक वरुण Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६३ श.७: उ. ६ : सू.१६५-२०० गच्छंति उवागच्छित्ता जाव तमाणत्तियं पच्च- तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य यावत् तामाज्ञप्ति प्पिणंति॥ प्रत्यर्पयन्ति। था वहां आए, आ कर यावत् उस आज्ञा का प्रत्यर्पण किया। १६६. तए णं से वरुणे नागनत्तुए जेणेव मज्जण- ततः सः वरुणः नागनप्तृकः यत्रैव मज्जनगृहं १६६. नागनतृक वरुण जहां मज्जनघर है वहां आया, घरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मज्जण- तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य मज्जनगृहं अनु- आ कर मज्जनघर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर घरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता प्रहाए प्रविशति, अनुप्रविश्य स्नातः कृतवलिकर्मा उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (तिलक कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते कृतकौतुक-मंगल-प्रायश्चित्तः सर्वालंकार- आदि) मंगल (दधि, अक्षत आदि) और प्रायश्चित किया; सव्वालंकारविभूसिए सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिय- विभूषितः सन्नद्ध-बद्ध-वर्मित कवचः सको- सब अलंकारों से विभूषित हुआ, लोहकवच को धारण -कवए सकोरेंटमल्ल दामेणं छत्तेणं धरिज्ज- रण्टमाल्य-दाम्ना छत्रेण धियमाणेन अनेक- किया, कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त माणेणं, अणेगगणनायग-दंडनायग-राईसर- गणनायक-दण्डनायक-राजेश्वर-तलवर- छत्र धारण किया। अनेक गणनायक, दण्डनायक, राजे, -तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्म-सेट्ठि-से- -माडम्बिक-कौटुम्बिक-इम्य-श्रेष्ठि-सेनापति- ईश्वर, तलवर, (कोटवाल) माडम्बिक, कौटुम्बिक, णावइ सत्थवाह-दूय-संधिपालसद्धिं संपरिवुडे -सार्थवाह-दूत-सन्धिपालैः सार्द्ध संपरिवृतः इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपालों मज्जणघराओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्ख- मज्जनगृहात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य के साथ उनसे घिरा हुआ मज्जनघर से बाहर निकला, मित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव यत्रैव बाह्यका उपस्थानशाला, यत्रैव चतुर्घण्टम् निकल कर जहां बाहरी उपस्थानशाला है, जहां चार चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवाग- अश्वरथः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य चतु- घण्टाओं वाला अश्वरथ है, वहां आया। आ कर चार च्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता धण्टम् अश्वरथम् आरोहति, आरुह्य हय- घण्टाओं वाले अश्वरथ पर आरूढ हुआ, आरूढ़ हो हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए -गज-रथ-प्रवरयोधकलितया चतुरङ्गिण्या कर अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धा से युक्त सेणाए सद्धिं संपरिडे, महयाभडचडगरविंद- सेनया सार्द्ध संपरिवृतः महद्भटचटकरवृन्द- चतुरंगिणी सेना से परिवृत, महान् सुभटों के सुविस्तृत परिक्खित्ते जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव परिक्षिप्तः यत्रैव रथमुसलः संग्रामः तत्रैव वृन्द से परिक्षिप्त हो कर जहां रथमुसल संग्राम की उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहमुसलं संगाम उपागच्छति, उपागत्य रथमुसलं संग्रामम् भूमि थी वहां आया। आ कर रथमुसल संग्राम में उतर ओयाए॥ उपयातः। गया। १६७. तए णं से वरुणे नागनत्तुए रहमुसलं संगामं ततः स वरुणः नागनतृकः रथमुसलं संग्रामम् १६७. नागनप्तृक वरुण ने रथमुसल संग्राम में उतरने के ओयाए समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभि- उपयातः सन् इममेतद्रूपं अभिगृहम् अभि- साथ-साथ इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार कियागेण्हइ-कप्पति मे रहमुसलं संगाम संगामे- गृहाति कल्पते मे (मम) रथमुसलं संग्रामं रथमुसल संग्राम करते समय जो मुझ पर पहले प्रहार माणस्स जे पुट्विं पहणइ से पडिहणित्तए, संग्रामयतः यो पूर्वं प्रहन्ति तं प्रतिहन्तुम, करता है उस पर मैं प्रहार करूंगा, दूसरों पर प्रहार अवसेसे नो कप्पतीति; अयमेयारूवं अभिग्गहं अवशेषान्न कल्पते इति; इममेतद्रूपं अभिग्रहम् । नहीं करूंगा। इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार किया, अभिगेण्हइ,अभिगेहेत्ता रहमुसलं संगाम अभिगृह्णाति, अभिगृह्य रथमुसलं संग्राम स्वीकार कर रथमुसल संग्राम में संलग्न हो गया। संगामेति ॥ संग्रामयति। १६८. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स रह- ततः तस्य वरुणस्य नागनतृकस्य रथमुसलं मुसलं संगामं संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरि- संग्राम संग्रामयतः एकः पुरुषः सदृशकः सदृ- सए सरित्तए सरिव्वए सरिसभंडमत्तोवगरणे क्त्वक् सदृग्वयाः सदृग्भाण्डामात्रोपकरणः रहेणं पडिरहं हव्वमागए । रथेन प्रतिरथं 'हब्ब'आगतः । १६८. वह नागनप्तृक वरुण रथमुसल संग्राम में युद्ध कर रहा था, उस समय एक रथारोही पुरुष प्रतिरथी के रूप में उसके सामने आया जो उसके जैसा ही लग रहा था-समान त्वचा वाला, समान वय वाला और समान युद्धोपयोगी साधन सामग्री वाला। १६६. तए णं से पुरिसे वरुणं नागनत्तुयं एवं ततः सः पुरुषः वरुणं नागनप्तृकं एवम- १६६. उस पुरुष ने नागनप्तृक वरुण से इस प्रकार कहावदासी-पहण भो वरुणा! नागनत्तुया! पहण वादीत्-प्रजहि भो वरुण! नागनप्तृक! प्र- हे नागनप्तृक वरुण ! प्रहार करो । नागनतृक वरुण! भो वरुणा ! नागनत्तुया ! जहि भो वरुण! नागनप्तृक ! प्रहार करो। २००. तए णं से वरुणे नागनत्तुए तं पुरसं एवं ततः सः वरुणः नागनप्तृकः तं पुरुषम् एव- २००. नागनतृतक वरुण ने उस पुरुष से इस प्रकार वदासी-नो खलु मे कप्पइ देवाणुप्पिया ! पुदि मवादीत्-नो खलु मे (मम) कल्पते देवानुप्रिय! कहा-देवानुप्रिय ! जो पहले मुझ पर प्रहार नहीं अहयस्स पहणित्तए, तुमं चेवणं पुचि पहणा- पूर्वम् अघ्नतः प्रहन्तुम्, त्वं चैव पूर्वं प्रजहि। करता, उस पर मैं प्रहार नहीं कर सकता । तू ही पहले मुझ पर प्रहार करो। हि॥ Jain Education Intemational Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.६: सू.२०१-२०३ २०१. तए णं से पुरिसे वरुणेणं नागनत्तुएणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे धणुं परागुसइ, परामुसित्ता उस परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाति, ठिच्चा आययकरणाय उसुं करेइ, करेत्ता वरुणं नागनत्यं गाढप्पहारीकरेइ ॥ २०२. तए णं से वरुणे नागनत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीक सगाणे आसुरुते रुद्धे कुविए चडिक्किए मिसिमिसेमागे धणु परामुस, परामुसित्ता उसे परामुस, परामुसित्ता आवयकणाय उसुं करे करेजा व पुरिसं एगाहयं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवेड़ ॥ २०३. तए गं से वरुणे नागनत्तुए तेनं पुरिसेगं गाढपहारीक समाणे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट्टु तुरए निमिन्ट, निगिन्हित्ता रहे परावत्ते, परावत्तेत्ता रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता एगंतमंतं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिच्हित्ता रहे वेद, उवेशा रहाओ पच्चीरुहइ पच्चोरुहित्ता तुरए मोएइ, मोएत्ता तुरए विसज्जे, विसज्जेता दमसंचार संघ संथ रित्ता दव्णसंधारणं दुरुहइ, दुरुहिता पुरया भिमुहे संपलियंकनिसणे करयल परिग्गाहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी- नमोत्यु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमोत्थु णं सममस्स भगवओ महावीररस आदिगरस्स जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविजकामस्स नम धम्मायरियस धम्मोवदेसगस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे से भगवं तत्थगए इहगयं ति कट्टु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - पुव्विं पिणं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए यूलए पाणाड्याए पव्यवखाए जावन्जीवार एवं जाय थूलए परिग्गहे पचखाए जावज्जीवाए, इवाणि पच्चक्खाए पिणं अहं तस्सेव भगवओ महावीरस्स अँतिए ३६४ ततः स पुरुषः वरुणेन नागनप्तृकेण एवम् उक्तः सन् आशुरुप्तः रुष्टः कुपितः चाण्डिस्थितः मिसिमिसिमानः धनुः परामृशति परामृश्य इषु परामृशाते, परामृश्य स्थाने तिष्ठति, स्थित्वा आयतकर्णायतम् इषु करोति, कृत्वा वरुणं नागनप्तृकं गाढप्रहारीकरोति । ततः सः वरुणः नागनप्तृकः तेन पुरुषेण गाठप्रहारीकृतः सन् आशुतः रुष्टः कुपितः चाण्डस्थित मिसिमिसिमानः धनुः परामृशति, परामृश्य इषु परामृशति, परामृश्य आयतकर्णायतम् इषु करोति कृत्वा तं पुरुषम् "एका कूडाच्च जीविताद् व्यपरोपयति । ततः स वरुणः नागनप्तृकः तेन पुरुषेण गाड प्रहारीकृतः सन् अस्थामः अवतः अवीर्यः अपुरुषकारपराक्रमः अधारणीयमिति कृत्वा तुरंगी निगृहाति निगृह्य स्वं परावर्तयति, परावर्त्य रथमुसलात् संग्रामात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य एकान्तमन्तम् अपक्रामति, अपक्रम्य तुरगो निगृहाति, निगृहा रथं स्थापयति, स्थापयित्वा रथात् प्रत्यवरोहति प्रत्यरूह्य तुरगौ मोचयति, मोचयित्वा तुरगौ विसृजति विसृज्य दर्भसंस्तारक संस्तृणोति, संस्तुत्य दर्भसंस्तारकं आरोहति, आरुब पूर्वाभिमुखः सपर्यनिषण्णः करतलपरि गृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अम्नलि कृत्वा एवमवादी नमो भग वद्भ्यः यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेभ्यः नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय आदिकराय यावत् सिद्धिगतिनामधेय स्थानं संप्राप्तुकामाय मम धर्माचार्याय धर्मोपदेशकाय वन्दे भगवन्तं तत्रगतम् इहगतः, पश्यतु मां, स भगवान् तत्रगतः इहगतम् इति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् पूर्वमपि मया श्रमगस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके स्कूलकः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातः यावज्जीवम् एवं यावत् स्थूलक परिग्रहः प्रत्याख्यातः यावज्जीवम् इदानीम् } भगवई २०१ नागनप्तृक वरुण के द्वारा ऐसा कहने पर वह पुरुष तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र बन गया। वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। इस अवस्था में वह धनुष हाथ में लेता है, ले कर बाण को धनुष्य पर चढ़ाता है, चढ़ा कर स्थान (वैशाख नामक युद्ध की मुद्रा) में खड़ा होता है। खड़ा हो कर बाण को कान की लंबाई तक खींचता है, खींच कर वह नागनप्तृक वरुण पर गाढ प्रहार करता है। २०२. नागनप्तृक वरुण उस प्रतिरथी पुरुष के द्वारा गाढ़ प्रहार किये जाने पर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र बन गया। वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। इस अवस्था में वह धनुष हाथ में लेता है, ले कर बाण को धनुष्य पर चढ़ाता है, चढ़ा कर बाण को कान की लम्बाई तक खींचता है, खींच कर उस पुरुष को कूट के प्रहार की भांति एक ही प्रहार में जीवन-शून्य बना देता है। २०३. नागनप्तृक वरुण उस पुरुष के द्वारा गाढ प्रहार किये जाने पर प्राण, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम रहित हो गया। शरीर अब टिक नहीं पाएगा, यह चिन्तन कर घोड़ों की लगाम खींची, खींच कर रथ को मोड़ा, मोड़ कर रथमुसल संग्रामभूमि से बाहर आ गया, बाहर आ कर एकान्त भूमिभाग में पहुंचा, पहुंच कर घोड़ों की लगाम को खींचा, खींच कर रथ को ठहराया, ठहरा कर रथ से नीचे उतरा, उतर कर घोड़ों को मुक्त कर दिया, मुक्त कर उन्हें विसर्जित कर दिया, विसर्जित कर दर्भ का बिछौना किया, बिछौना कर उस पर चला गया। जा कर पूर्व की ओर मुंह कर पर्यकासन में बैठ दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर भाल पर टिका कर इस प्रकार बोला- 'नमस्कार हो अर्हत् भगवान को यावत् जो सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं, नमस्कार हो आदिकर्त्ता श्रमण भगवान महावीर को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने के इच्छुक है, जो मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक हैं। वहां विराजित भगवान यहां स्थित मुझे देखे, ऐसा सोच कर वह वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दन- नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला- 'मैंने पहले भी श्रमण भगवान् महावीर के पास जा कर जीवनभर के लिए स्थूल प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था। इस समय भी मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास जीवनभर के लिए सर्व प्राणातिपात यावत् मिथ्या Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६५ श.७ : उ.६:सू.२०३-२०६ सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए जाव अपि अहं तस्यैव भगवतो महावीरस्य अन्ति- मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। के सर्वं प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि यावज्जीवं सव्वं असण-पाण-खाइम-साइमं-चउविहं पि यावन् मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यानि यावआहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जं पि य ज्जीवम् । सर्वम् अशन-पान-खाद्य-स्वायंइमं सरीरं इटुं कंतं पियं जाव मा णं वाइय- चतुर्विधमपि आहारं प्रत्याख्यामि यावज्जीवम्। -पित्तिय सेंभिय-सण्णिवाइय विविहा रोगायंका यदपि च इदं शरीरम् इष्टं कान्तं प्रियं यावन् परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कटु एयं पिणं मा वातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिक-सन्निपातिकाः चरिमेहिं ऊसास-नीसासेहिं वोसिरिस्सामि त्ति विविधाः रोगातकाः परीषहोपसर्गाः स्पृशन्तु कटु सण्णाहपढें मुयइ, मुइत्ता सल्लुद्धरणं इति कृत्वा एतदपि चरमैः उच्छ्वास-निःश्वासैः करेइ, करेत्ता आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते व्युत्सृजामि इति कृत्वा सन्नाहपढें मुञ्चति, आणुपुवीए कालगए॥ मुक्त्वा शल्योद्धरणं करोति, कृत्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः प्राप्तसमाधिः आनुपूर्व्या कालगतः। दर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हूं। मैं जीवन भर के लिए सर्व अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इस चार प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूं। यद्यपि मेरा यह शरीर मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय थावत् वात, पित्त श्लेष्म और सन्निपातजनित बहुत से रोग और आतंक तथा परीषह ओर उपसर्ग इसका स्पर्श न करें, इसलिए इसको भी मैं अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास तक छोड़ता हूं, ऐसा कर कवच खोला, खोलकर बाण को निकाला, निकाल कर आलोचना की, प्रतिक्रमण किया, समाधि में लीन हो गया, कुछ समय पश्चात् मृत्यु को प्राप्त हुआ। वरुणनागनत्तुय-मित्त-पदं वरुणनागनतृक-मित्र-पदम् नागनप्तृक वरुण के मित्र का पद २०४. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स एगे ततः तस्य वरुणस्य नागनप्तृकस्य एकः २०४. उस नागनतृक वरुण का प्रिय बालसखा रथमुसल पियबालवयंसए रहमुसलं संगामं संगामेमाणे प्रियबालवयस्यः रथमुसलं संग्राम संग्रामयन् संग्राम में लड़ रहा था, एक पुरुष के द्वारा गाढ़ प्रहार एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे एकेन पुरुषेण गाढप्रहारीकृतः सन् अस्थामः किये जाने पर वह प्राण, बल, वीर्य, पुरुषकार और अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अबलः अवीर्यः अपुरुषकारपराक्रमः अधार- पराक्रमरहित हो गया। शरीर अब टिक नहीं पाएगा, अधारणिज्जमिति कटु वरुणं नागनत्तुयं णीयमिति कृचा वरुणं नागनातृकं रथमुसलात् यह चिन्तन कर रहा था। उसने देखा-नागनतृक रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खममाणं संग्रामात् प्रतिनिष्कामन्तं पश्यति, दृष्ट्वा तुरंगी वरुण रथमुसल संग्राम की भूमि से लौट रहा है, यह पासइ, पासित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता निगृहाति, निगृह्य यथा वरुणः यावत् तुरगी देख कर उसने घोड़ों की लगाम खींची, खींच कर जहा वरुणे जाव तुरए विसज्जेति, पडसंथारगं विसृजति, पटसंस्तारकम् आरोहति, आरुह्य वरुण की भांति यावत् घोड़ों को विसर्जित किया, वस्त्र दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंक- पूर्वाभिमुखः संपर्यङ्कनिषण्णः करतलपरिगृहीतं के बिछौने पर गया, जा कर पूर्व की ओर मुंह कर, निसण्णे करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं दशनखं शिरसावर्तं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा पर्यकासन में बैठ दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट मत्थए अंजलिं कटटु एवं वयासी-जाइ णं एवमवादीद्-यानि भदन्त ! मम प्रियबाल- वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा भंते! मम पियबालवयंसस्स वरुणस्स नाग- वयस्य वरुणस्य नागनप्तृकस्य शीलानि व्रतानि कर भाल पर टिका कर इस प्रकार बोला-मेरे प्रिय नत्तुयस्स सीलाई वयाइं गुणाई वेरमणााइं गुणाः विरमणानि प्रत्याख्यानपोषधोपवासाः, बालसखा नागनप्तृक वरुण के जो शील, व्रत, गुण, पच्चक्खाण-पोसहोववासाई, ताइ णं मम पि तानि ममापि भवन्तु इति कृत्वा सन्नाहपढें विरमण, प्रत्याख्यान और पौषघोपवास हैं वे सब मुझे भवंतु त्ति कटु सण्णाहपढें मुयइ, मुइत्ता मुञ्चति, मुक्त्वा शल्योद्धरणं करोति, कृत्वा भी उपलब्ध हो। यह कह कर कवच को खोला, खोल सल्लुद्धरणं करेइ, करेत्ता आणुपुब्बीए काल- आनुपूर्व्या कालगतः। कर बाण को निकाला, निकाल कर कुछ समय पश्चात् मृत्यु को प्राप्त हुआ। गए॥ २०५. तए णं तं वरुणं नागनत्तुयं कालगयं ततः तं वरुणं नागनप्तृकं कालगतं ज्ञात्वा २०५. नागनप्तृक वरुण को दिवंगत हुआ जान कर जाणित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं यथासन्निहितैः वाणमन्तरैः देवैः दिव्यानि पार्श्ववर्ती वाणमन्तर देवों ने दिव्य सुरभि गंध वाला दिव्वे सुरभिगंधोदगवासे बुढे, दसद्धवण्णे सुरभिगन्धोदकवासांसि वृष्टानि (वर्षितानि) जल बरसाया, पांच वर्ण के फलों की वर्षा की, दिव्य कुसुमे निवातिए, दिव्वे य गीय-गंधव्वनिनादे दशार्द्धवर्णानि कुसुमानि निपातितानि, दिव्यश्च गीत गाए और गन्धर्व-निनाद किया। कए या वि होत्थ ॥ गीत-गन्धर्वनिनादः कृतश्चापि अभूत्। २०६. तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स तं ततः तस्य वरुणस्य नागनप्तृकस्य तां दिव्यां २०६. नागनतृक वरुण की वह दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य दिव्वं देविडिंढ दिव्वं देवज्जुतिं दिव्वं देवाणुभागं देवद्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभागं श्रुत्वा देव-द्युति और दिव्य देव-सामर्थ्य के संवाद को सुन सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अण्णमण्णस्स च दृष्ट्वा च बहुजनः अन्योन्यस्य एवमाचक्षते कर देख कर बहुत जनों ने परस्पर इस प्रकार एवमाइक्खइ जाव परुवेइ–एवं खलु देवाणु- यावत् प्ररूपयति–एवं खलु देवानुप्रियाः! आख्यान किया यावत् प्ररूपणा की-देवानुप्रियो ! प्पिया! बहवे मणुस्सा अण्णयरेसु उच्चावएसु बहवः मनुष्याः अन्यतरेषु उच्चावचेषु संग्रामेषु बहुत मनुष्य नाना प्रकार के संग्रामों में अभिमुख रहते संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा काल- अभिमुखां चैव प्रहताः सन्तः कालमासे कालं हुए प्रहत हुए हैं, वे काल मास में काल (मृत्यु) को Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.६:सू.२०६-२११ ३६६ भगवई मासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वेन उपपत्तारो देवत्ताए उववत्तारो भवंति ॥ भवन्ति। प्राप्त कर किसी भी देवलोक में देव के रूप में उपपन्न हुए हैं। २०७. वरुणे णं भंते ! नागनत्तुए कालमासे कालं वरुणः भदन्त ! नागनप्तृकः कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने? कृत्वा कुत्र गतः ? कुत्र उपपन्नः ? गोयमा ! सोहम्मे कप्पे, अरुणाभे विमाणे गौतम ! सौधर्मे कल्पे, अरुणाभे विमाने देव- देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं अत्थेगतियाणं त्वेन उपपन्नः। तत्र अस्त्येककेषां देवानां देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता। चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र तत्थ णं वरुणस्स वि देवस्स चत्तारि पलि- वरुणस्य अपि देवस्य चत्वारि पल्योपमानि ओवमाइं ठिती पण्णत्ता॥ स्थितिः प्रज्ञप्ता। २०७. भन्ते ! नागनतृक वरुण कालमास में काल को प्राप्त कर कहां गया है ? कहां उपपन्न हुआ है ? गौतम ! वह सौधर्म कल्प में अरुणाभ विमान में देवरूप में उपपन्न हुआ है। वहां कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम की प्रज्ञप्त है। वहां नागनाप्तृक वरुण देव की स्थिति भी चार पल्योपम की प्रज्ञप्त है। २०८. भन्ते ! वह वरुण देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? २०८. से णं भंते ! वरुणे देवे ताओ देवलोगाओ स भदन्त ! वरुणः देव तस्माद् देवलोकात् आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं आयुःक्षयेण, भवक्षयेण, स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति ? कहिं उव- च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति? कुत्र उपपत्स्यते? वज्जिहिति? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झि- गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति बुज्झिहिति' हिति मुच्चिहिति परिणिवाहिति सब्बदुक्खाणं मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुक्खानाम् अन्तं अंतं करेहिति ॥ करिष्यति। गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत होगा, सब दुःखों का अन्त करेगा। २०६. वरुणस्स णं भंते! नागनत्तुयस्स पियबाल- वरुणस्य भदन्त ! नागनप्तृकस्य प्रियबाल- २०६. भन्ते ! नागनप्तृक वरुण का प्रिय बालसखा वयंसए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? वयस्य कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गतः? कुत्र कालमास में काल को प्राप्त कर कहां गया है ? कहां कहिं उववन्ने? उपपन्नः? उपपन्न हुआ है ? गोयमा ! सुकुले पच्चायाते ॥ गौतम ! सुकुले प्रत्यायातः। गौतम ! वह अच्छे मनुष्यकुल में उत्पन्न हुआ है। पत्स्य ते? २१०. से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता स भदन्त ! तस्माद् अनन्तरं उद्वर्त्य कुत्र २१०, भन्ते ! वह उस जन्म के अनन्तर उद्वर्तन कर कहां कहिं गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गमिष्यति? कुत्र उपपत्स्यते? जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं गोतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावद् अन्तं गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों काहिति ॥ करिष्यति। का अन्त करेगा। २११. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। २११. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। Jain Education Intemational Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद कालोदाइ-पभितीणं पंचत्थिकाए संदेह-पदं कालोदायि-प्रभृतीनां पञ्चास्तिकाये कालोदायी प्रभृति का पञ्चास्तिकाय में सन्देह-पद संदेह-पदम् २१२. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम २१२. ' उस काल और उस समय राजगृह नामक नगर नगरे होत्था–वण्णओ। गुणसिलए चेइए- नगरम् आसीद्-वर्णकः । गुणशिलकं चैत्य- था-नगर का वर्णन । गुणशिलक नामक चैत्य-वर्णन। वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं म्-वर्णकः यावत् पृथिवीशिलापट्टकः। तस्य यावत् पृथ्वीशिलापट्ट। उस गुणशिलक चैत्य के न बहुत गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे गुणशिलकस्य चैत्यस्य अदूरसामन्ते वहवः दूर न बहुत निकट अनेक अन्ययूथिक निवास करते अण्णउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, अन्ययूथिकाः परिवसन्ति, तद् यथा-का- थे, जैसे कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदक. सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, लोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदयः, नामोदक, नर्मोदक, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक अण्णतालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी नामोदयः, नर्मोदयः अन्नपालकः, शैलपालकः, और सुहस्ती गृहपति। गाहावई॥ शङ्खपालकः, सुहस्ती गृहपतिः। २१३. तए णं तेसिं अण्णउत्थियाणं अण्णया कयाइ ततः तेषाम् अन्ययूथिकानाम् अन्यथा कदाचिद् २१३. वे अन्ययूथिक किसी समय अपने अपने आवासएगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिविट्ठाणं एकत्र सहितानां समुपागतानां सन्निविष्टानां गृहों से निकल कर एकत्र हुए, एक स्थान पर बैठे। सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे सन्निषण्णानाम् अयमेतदरूपः मिथःकथा- उनमें परस्पर इस प्रकार का समुल्लाप प्रारंभ हुआसमुप्पज्जित्था एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच समुल्लापः समुदपद्यत-एवं खलु श्रमणः श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों की प्रज्ञापना करते अस्थिकाए पण्णवेति, तं जहा-धम्मत्थिकायं ज्ञातपुत्रः पञ्च अस्तिकायान् प्रज्ञापयति, तद् हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय। जाव पोग्गलत्थिकायं। यथा-धर्मास्तिकायं यावत् पुद्गलास्ति कायम्। तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए तत्र श्रमणः ज्ञातपुत्रः चतुरः अस्तिकायान् उनमें श्रमण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकायों को अजीवकाय अजीवकाए पण्णवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, अजीवकायान् प्रज्ञापयति, तद् यथा-धर्मा- बतलाते हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकार्य, पोग्गलत्थि- स्तिकायम, अधर्मास्तिकायम, आकाशास्ति- आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। श्रमण ज्ञातपुत्र कायं । एगं च ण समणे नायपुत्ते जीवत्थिकायं कायं पुद्गलारितकायम्। एकंच श्रमणः ज्ञात- एक जीवास्तिकाय को, जो अरूपीकाय है, जीवकाय अरुविकायं जीवकायं पण्णवेति। पुत्रः जीवास्तिकायम् अरूपिकायं जीवकायं बतलाते हैं। प्रज्ञापयति। तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए तत्र श्रमणः ज्ञातपुत्रः चतुरः अस्तिकायान् उनमें श्रमण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकायों को अरूपीकाय अरूविकाए पण्णवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, अरूपिकायान् प्रज्ञापयति, तद् यथा-धर्मा- बतलाते हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवत्थिकायं। स्तिकायम्, अधर्मास्तिकायम्, आकाशा- आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय । श्रमण ज्ञातपुत्र एगं च णं समणे नायपुत्ते पोग्गलत्थिकायं रूवि- स्तिकायम, जीवास्तिकायम्। एकं च श्रमणः एक पुद्गलास्तिकाय को रूपीकाय अजीवकाय बतलाते कायं अजीवकायं पण्णदेति। से कहमेयं मण्णे ज्ञातपुत्रः पुदगलारितकार्य रूपिकायम अ- हैं। क्या यह ऐसा है ? एवं? जीवकायं प्रज्ञापयति। अथ कथमेतद् ‘मण्णे' एवम्? २१४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् २१४. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.१०:सू.२१४-२१७ ३६८ भगवई महावीरे जाव गुणसिलए चेइए समोसढे जाव महावीरः यावद् गुणशिलके चैत्ये समवसृतः परिसा पडिगया॥ यावत् परिषत् प्रतिगता। यावत् गुणशिलक चैत्य में समवसृत हुए यावत् परिषद् आई, धर्मोपदेश सुन चली गई। २१५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो २१५. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर भगवओ महावीरस्स जेतु अंतेवासी इंदभूई महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्री इन्द्रभूति नामक अनगार नामं अणगारे गोयमे गोत्तेणं जाव भिक्खा- अनगारः गौतमः गोत्रेण यावद् भिक्षाचर्यायाम् यावत् भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए आवश्यकतानुसार यरियाए अडमाणे अहापज्जत्तं भत्त-पाणं अटन् यथापर्याप्तं भक्त-पानं प्रतिगृह्य राज- पर्याप्त भक्त-पान ग्रहण कर राजगृह नगर से बाहर पडिग्गाहित्ता रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्ख- गृहान् नगरात् प्रतिनिष्कामति, अत्वरित- आते हैं । त्वरा-, चपलता- और संभ्रम-रहित होकर मइ, अतुरियमचवलमसंभंतं जुगंतरपलो- मचपलमसम्भ्रान्तं युगान्तरप्रलोकनया दृष्ट्या युग-प्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्यासमिति यणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे-सोहेमाणे पुरतः ईयाँ शोधयन्-शोधयन् तेषाम् अन्य- का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए उन अन्यतेसिं अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीई- यूथिकानाम् अदूरसामन्तेन व्यतिव्रजति।। यूथिकों के न अति दूर और न अति निकट से जा रहे वयति ॥ २१६. तए णं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं ततः ते अन्ययूथिकाः भगवतं गौतमम् अ- अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं पासंति, पासित्ता दूरसामन्तेन व्यतिव्रजन्तं पश्यन्ति, दृष्ट्वा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी- अन्योन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवादिषुःएवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हइमा कहा अविष्ण- एवं खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकम् इयं कथा कडा, अयं च णं गोयमे अम्हं अदूरसामतेणं अविप्रकटा अयं च गौतमः अस्माकम् अदूरवीईवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सामन्तेन व्यतिव्रजति, तत् श्रेयः खलु देवानुगोयमं एयमट्ठ पुच्छित्तए त्ति कटु अण्ण- प्रियाः । अस्माकं गौतमम् एवम् अर्थं प्रष्टुम मण्णस्स अंतिए एयमढे पडिसुणंति, पडि- इति कृत्वा अन्योन्यस्य अन्तिके एतमर्थ सुणित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य यत्रैव भगवान् गौतमः उवागच्छित्ता भगवं गोयमं? एवं वयासी एवं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य भगवन्तं गौतमम् खलु गोयमा ! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए एवमवादिषुः-एवं खलु गौतम! तब धर्मासमणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पण्णवेति, तं चार्यः धर्मोपदेशकः श्रमणः ज्ञातपुत्रः पञ्च जहा-धमत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं । तं अस्तिकायान् प्रज्ञापयति, तद्यथा-धर्माचेव जाव रूविकायं अजीवकायं पण्णवेति।से स्तिकायं यावत् पुद्गलास्तिकायम्। तच्चैव कहमेयं गोयमा ! एवं? यावद् रूपिकायम् अजीवकायं प्रज्ञापयति। अथ कथमेतद् गौतम ! एवम् ? २१६. वे अन्ययूथिक भगवान् गोतम को न अति दूर ओर न अति निकट से जाते हुए देखते हैं, देख कर परस्पर एक-दूसरे को बुलाते हैं, बुला कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! यह कथा-अस्तिकाय की वक्तव्यता हमारे लिए अप्रकट है-अस्पष्ट है और यह गौतम हमारे पार्श्ववर्ती मार्ग से जा रहा है। देवानुप्रियो ! हमारे लिए श्रेय है कि हम यह अर्थ गौतम से पृछे, यह चिन्तन कर वे एक दूसरे के पास जा इस विषय का प्रतिश्रवण (विचार-विनियम) करते हैं, प्रतिश्रवण कर जहागवान गौतम है, वहां आए, आ कर भगवान् गौतम से इस प्रकार बोले-गोतम ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों का प्रज्ञापन करते हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय। पूर्ववत् वक्तव्यता यावत् रूपीकाय अजीवकाय का प्रज्ञापन करते हैं। गौतम ! यह इस प्रकार की वक्तव्यता कैसे संगत है? कालोदाइस्स समाहाणपूव्वं पव्वज्जा-पदं कालोदायिनः समाधानपूर्वं प्रव्रज्या- कालोदायी का समाधानपूर्वक प्रव्रज्या का पद पदम् २१७. तए णं से भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए ततः स भगवान गौतमः तान अन्ययुथिकान २१७. भगवान गौतम ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार एवं वयासी-नो खलु वयं देवाणुप्पिया ! एवमवादीत-नो खल वयं देवानप्रियाः । कहा-देवानुप्रियो ! हम अस्तित्व को नास्ति (नहीं अस्थिभावं नत्थि त्ति वदामो, नत्थिभावं अत्थि अस्तिभावं नास्ति इति वदामः, नास्तिभावं है) ऐसा नहीं कहते । नास्तित्व को अस्ति (है) ऐसा त्ति वदामो। अम्हे णं देवाणुप्पिया! सव्वं अस्ति इति वदामः। वयं देवानुप्रियाः ! सर्वम् नहीं कहते । देवानुप्रियो ! हम सर्वं अस्तित्व को 'अस्ति' अस्थिभावं अत्थि त्ति वदामो, सव्वं नत्थिभावं अस्तिभावम् अस्ति इति वदामः, सर्वं (है) ऐसा कहते हैं, सर्वं नास्तित्व को 'नास्ति' (नहीं नत्थि त्ति वदामो। तं चेयसा खलु तुब्भे नास्तिभावं नास्ति इति वदामः । तच् चेतसा है) ऐसा कहते हैं। देवानुप्रियो ! तुम अपनी चेतना से देवाणुप्पिया! एयम४ सयमेव पच्चुवेक्खह त्ति खलु यूयं देवानुप्रियाः! एतमर्थं स्वयमेव स्वयं इसका प्रत्युपेक्षण करो-गौतम ने अन्ययूथिकों कटु ते अण्णउत्थिए एवं वदासी, वदित्ता प्रत्युपेक्षध्वम् इति कृत्वा तान् अन्ययूथिकान् से इस प्रकार कहा, कह कर जहां गुणशिलक चैत्य है, जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं एवमवादीद, उदित्वा यत्रैव गुणशिलकं चैत्यं, जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आते हैं यावत् महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव भत्त-पाणं यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपा- भक्त-पान दिखलाते हैं, दिखला कर श्रमण भगवान पडिदंसेति, पडिदंसेत्ता समणं भगवं महावीरं गच्छति यावद् भक्त-पानं प्रतिदर्शयति, महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासण्णे प्रतिदर्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते- कर न अति निकट न अति दूर यावत् पर्युपासना करते Jain Education Intemational Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६६ श.७: उ.१०:सू.२१२-२१६ जाव पज्जुवासति ॥ हैं। नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा नात्यासन्नः यावत् पर्युपासते। भाष्य १. सूत्र २१२-२१७ संबद्ध है। अन्यतीर्थिकों (अपर दार्शनिकों) के लिए पञ्चास्तिकाय का सिद्धान्त प्रस्तुत प्रकरण से यह फलित होता है कि भगवान महावीर ने नया था, इसलिए उनमें यह चर्चा का विषय बना हुआ था। मद्दुक के प्रकरण से पञ्चास्तिकाय का प्रतिपादन किया था। षड्द्रव्य का प्रस्थान उत्तरकाल में हुआ। भी इसकी पुष्टि होती है। गौतम स्वामी ने अन्यतीर्थिकों की जिज्ञासा का पञ्चास्तिकाय में काल की परिगणना नहीं है। ठाणं से ज्ञात होता है कि काल समाधान करते हुए कहा-हम अस्ति को नास्ति नहीं कहते और नास्ति को जीव और अजीव का एक पर्याय है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। अरूपी अस्ति नहीं कहते । हम अस्तित्व को अस्ति कहते हैं और नास्तित्व को नास्ति अथवा अमूर्त और रूपी अथवा मूर्त का विभाग भी पञ्चास्तिकाय के साथ कहते हैं। तुम स्वयं अपनी चेतना से इसकी प्रत्युपेक्षा करो। भ० १/१३३ का भाष्य द्रष्टव्य है। २१८. 'उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर महाकथाप्रतिपन्न विशाल परिषद में प्रवचन कर रहे थे। कालोदायी उस प्रवचन सभा में आ गया, श्रमण भगवान् महावीर ने कालोदायी को संबोधित कर कहा-हे कालोदायी ! किसी समय तुम लोग अपनेअपने आवासगृहों से निकल कर एकत्र हुए, एक स्थान पर बैठे। तुम लोगों में परस्पर इस प्रकार का समुल्लाप प्रारम्भ हुआ-श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों की प्रज्ञापना करते हैं, पूरी वक्तव्यता। यावत् क्या यह ऐसा है? कालोदायी ! क्या यह अर्थ संगत २१८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् महावीरे महाकहापडिवण्णे या वि होत्था। महावीरः महाकथाप्रतिपन्नः चापि अभृत् । कालोदाई य तं देसं हव्वमागए। कालोदाईति! कालोदायी च तं देशम् ‘हव्वं'आगतः। कालोसमणे भगवं महावीरे कालोदाइं एवं वयासी- दायिन्निति ! श्रमणः भगवान् महावीरः कालोसे नणं भे कालोदाई! अण्णया कयाइ दायिनं एवमवादीत्-तन् नूनं युष्माकंकालोएगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिविट्ठाणं दायिन् ! अन्यदा कदाचिद् एकत्र सहितानां सण्णिसण्णाणं अयमेयासवे मिहोकहा- समुपागतानां संनिविष्टिानां सन्निषण्णानां समुल्लावे समुष्पज्जित्था एवं खलु समणे अयमेतद्रूपः मिथः कथासमुल्लापः समुदपनायपुत्ते पंच अत्थिकाए पण्णवेति तहेव जाव । द्यत-एवं खलु श्रमण: ज्ञातपुत्रः पञ्च अस्तिसे कहमेयं मण्णे एवं ? से नूणं कालोदाई ! । कायान् प्रज्ञापयति तथैव यावद् अथ कथमेतद् अत्थे समत्थे? 'मण्णे' एवम् ? तन् नूनं कालोदायिन् ! अर्थः समर्थः? हंता अस्थि । तं सच्चे णं एसमढे कालोदाई! हन्त अस्ति । तत् सत्यः एष अर्थः कालोदायिन्! अहं पंचत्थिकायं पण्णवेमि, तं जहा- अहं पञ्चास्तिकायं प्रज्ञापयामि, तद् यथाधम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं। धर्मास्तिकायं यावत् पुद्गलास्तिकायम् । तत्थ णं अहं च तारि अत्थिकाए अजीवकाए तत्र अहं चतुरः अस्तिकायान् अजीवकायान् पण्ण्वेमि, तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्म- प्रज्ञापयामि, तद् यथा-धर्मास्तिकायम्, अत्थिकायं, आगासत्थिकायं, पोग्गलत्थिकायं। धर्मास्तिकायम् आकाशास्तिकार्य, पुद्गलाएगं चणं अहं जीवत्थिकायं अस्वीकार्यजीव- स्तिकायम्। एकं च अहं जीवास्तिकायम् कायं पण्णवेमि। अरूपिकायं जीवकायं प्रज्ञापयामि। तत्थ णं अहं चत्तारि अस्थिकाए अस्वीकाए तत्र अहं चतुरः अस्तिकायान् अरूपिकायान् पण्णवेमि, तं जहा-धम्मत्थिकायं अध- प्रज्ञापयामि, तद् यथा-धर्मास्तिकायम्, अम्मत्थिकायं,आगासत्थिकायं, जीवत्थिकायं। धर्मास्तिकायम, आकाशास्तिकायं, जीवास्तिएगं च णं अहं पोग्गलत्थिकायं रूविकायं कायम्। एकं च अहं पुद्गलारितकायं रूपिकायं पण्णवेमि॥ प्रज्ञापयामि। हां, संगत है। कालोदायी ! यह अर्थ सत्य है। मैं पञ्चास्तिकाय का प्रज्ञापन करता हूं, जैसे-धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय।। उनमें चार अस्तिकायों को में अजीवकाय बतलाता हूं, जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। एक जीवास्तिकाय को मैं अरूपीकाय जीवकाय बतलाता हूं। उनमें चार अस्तिकायों को मैं अरूपीकाय बतलाता हूं, जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय। एक पुद्गलास्तिकाय को में रूपीकाय बतलाता हूं। २१६. तए णं से कालोदाई समणं भगवं महावीरं ततः सः कालोदायी श्रमणं भगवन्तं महावीरं २१६. कालोदायी ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार एवं वदासी-एयंसि णं भंते ! धम्मत्थि- एवमवादीद्-एतस्मिन् भदन्त ! धर्मास्तिकाये कहा-भन्ते! इस धर्मास्तिकिाय, अधर्मास्तिकाय, कायंसि, अधम्मत्थिकायंसि, आगासत्थि- अधर्मास्तिकाये आकाशास्तिकाये अरूपिकाये आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय, जो अरूपीकाय कार्यसि अरूविकायंसि अजीवकायंसि अजीवकाये शक्ताः केऽपि आसितुं वा? शयितुं हैं, में क्या कोई प्राणी रुक सकता है ? सो सकता है? चक्किया केइ आसइत्तए वा? सइत्तए वा? वा? स्थातुं वा? निषनु वा? त्वग्वर्तयितुं वा? खड़ा रह सकता है? बैठ सकता है ? करवट ले सकता १. ठाण,२/३८७-३६० २ भ १८/१३४-१४७। Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.१०:सू.२१८-२२३ ४०० भगवई चिट्ठइत्तए वा? निसीइत्तए वा? तुयट्टित्तए वा? णो तिणढे समटे । कालोदाई ! एगंसि णं नो तदर्थः समर्थः। कालोदायिन् ! एकस्मिन् पोग्गलत्थिकार्यसि रूविकायंसि अजीवकायंसि पुद्गलास्तिकाये रूपिकाये अजीवकाये शक्ताः चक्किया केइ आसइत्तए वा, सइत्तए वा, केऽपि आसितुं वा, शयितुं वा, स्थातुं वा, चिट्ठइत्तए वा, निसीइत्तए वा, तुयट्टित्तए वा॥ निषत्तुं वा, त्वग्वर्तयितुं वा । कालोदायी! यह अर्थ संगत नहीं है। केवल एक पुद्गलास्तिकाय, जो रूपीकाय और अजीवकाय है, में कोई प्राणी रुक सकता है, सो सकता है, खड़ा रह सकता है, बैठ सकता है, करवट ले सकता है। २२०. एयंसि णं भंते ! पोग्गलत्थिकायंसि एतस्मिन् भदन्त ! पुद्गलास्तिकाये रूपिकाये २२०. भन्ते ! इस पुद्गलास्तिकाय, जो रूपीकाय अजीव रूविकायंसि अजीवकायंसि जीवाणं पावा कम्मा अजीवकाये जीवानां पापानि कर्माणि पाप- काय है, में क्या जीवों के पापकर्म पापफल विपाक पावफलविवागसंजुत्ता कज्जति? फलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते? संयुक्त होते हैं ? णो तिणढे समढे। कालोदाई ! एयंसि णं नो तदर्थः समर्थः । कालोदायिन् ! एतस्मिन् । कालोदायी ! यह अर्थ संगत नहीं है। केवल एक जीवत्थिकायंसि अरूविकायंसि जीवाणं पावा जीवास्तिकाये अरूपिकाये जीवानां पापानि जीवास्तिकाय, जो अरूपीकाय है, में जीवों के पापकर्म कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जति । एत्थ कर्माणि पापफलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते ! पापफल विपाकसंयुक्त होते हैं। इस संवाद से कालोदायी णं से कालोदाई संबुद्धे समणं भगवं महावीरं अत्र सः कालोदायी संबुद्धः श्रमणं भगवन्तं संबुद्ध हो गया; वह श्रमण भगवान महावीर को वन्दनवंदइनमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार इच्छामि णं भंते ! तुन्भं अंतियं धम्मं निसा- एवमवादीद्-इच्छामि भदन्त! तव अन्तिके बोला-'भन्ते ! मैं आपके पास धर्म सुनना चाहता मेत्तए । एवं जहा खंदए तहेव पव्वइए, तहेव धर्म निशमितुम् । एवं यथा स्कन्दकः तथैव हूं।' महावीर ने धर्म का उपदेश दिया और वह प्रव्रजित एक्कारस अंगाई अहिज्जइ जाव विचितेहिं । प्रवजितः तथैव एकादश अङ्गानि अध्येति हो गया। स्कन्दक (भ.२/५०-६३) की भांति पूरी तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ॥ यावद् विचित्रैः तपःकर्मभिः आत्मानं भावयन् वक्तव्यता । कालोदायी ने ग्यारह अंगों का अध्ययन विहरति। किया यावत् वह नाना प्रकार के तपःकर्मों से आत्मा को भावित करता हुआ विहरण कर रहा है। भाष्य १. सूत्र २१८-२२० इस सिद्धान्त को ध्यान में रख कर कालोदायी ने पूछा-क्या पुद्गलास्तिकाय कालोदायी की जिज्ञासा और अधिक प्रबल हो उठी। भगवान महावीर में पापकर्म का विपाक होता है ? भगवान ने इस जिज्ञासा के समाधान में कहा-"कालोदायी ! संसारस्थ जीव सर्वथा शुद्ध नहीं होता, बन्ध और मोक्ष के समवसरण में आया और भगवान से पञ्चास्तिकाय के सिद्धान्त का श्रवण । जीव में ही घटित होते हैं। पाप कर्म का विपाक जीव में ही होता है।" किया। पञ्चास्तिकाय के सिद्धान्त को समझ कर कर्मविषयक एक प्रश्न उपस्थित किया। सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा के कर्म का बंध और मोक्ष नहीं होता। २२१. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा २२१. श्रमण भगवान महावीर किसी समय राजगृह नगर रायगिहाओ नगराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ, कदाचिद् राजगृहान् नगराद्-गुणशिलाच् और गुणशिलक चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिः निष्क्रमण कर नगर से बाहर जनपद-विहार कर रहे जणवयविहारं विहरइ॥ जनपदविहारं विहरति। हैं। कालोदाइस्स कम्मादिविसए पसिण-पदं कालोदायिनः कर्मादिविषये प्रश्न-पदम् कालोदायी का कर्म आदि के विषय में प्रश्न का २२२. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, नगरे गुणसिलए चेइए। तए णं समणे भगवं गुणशिलकं चैत्यम् । ततः श्रमणः भगवान् महावीरे अण्णया कयाइ जाव समोसढे,परिसा महावीरः अन्यदा कदाचिद् यावत् समवसृतः, जाव पडिगया। परिषद् यावत् प्रतिगता। २२२. उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर और गुणशिलक नाम का चैत्य। श्रमण भगवान महावीर किसी समय वहां समवसृत हुए, परिषद् आई, धर्म सुना और वापिस चली गई। २२३. तए णं से कालोदाई अणगारे अण्णया कयाइ ततः स कालोदायी अनगारः अन्यदा कदाचिद् २२३. किसी समय अनगार कालोदायी जहां भगवान श्रमण जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपा- महावीर हैं वहां आता है, आ कर श्रमण भगवान् उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ गच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं महावीर को वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४०१ श.७: उ.१०:सू.२२३-२२७ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-अस्थि वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमणं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफल- वादीद्-अस्ति भदन्त! जीवानां पापानि विवागसंजुत्ता कज्जति? कर्माणि पापफलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते? हंता अत्थि ॥ हन्त अस्ति। कर इस प्रकार बोला-भन्ते ! क्या जीवों के पापकर्म पापफलविपाकसंयुक्त होते हैं ? हां, होते हैं। २२४. कहण्णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पाव- कथं भदन्त! जीवानां पापानि कर्माणि पाप- २२४. भन्ते ! जीवों के पापकर्म पापफलविपाकसंयुक्त फलविवागसंजुत्ता कज्जति? फलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते? कैसे होते हैं ? कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं कालोदायिन् ! तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ स्थालीपाकथालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं विससंमिस्सं मनोज्ञं स्थालीपाकशुद्धम् अष्टादशव्यंजनाकुलं शुद्ध (हंडिया में पका हुआ) अठारह प्रकार के व्यञ्जनों भोयणं मुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाए विषसम्मिश्रं भोजनं भुञ्जीत, तस्य भोजनस्य से युक्त विषमिश्रित भोजन करता है, उस भोजन का भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे- आपातः भद्रकः भवति, ततः पश्चात् परिण- आपात भद्र होता है-खाते समय वह सरस लगता है, परिणममाणे दुरूवत्ताए, दुवण्णत्ताए, दुगंधत्ताए मत्-परिणमत् 'दूरुवत्ताए' दुर्वर्णतया, दुर्गन्ध- उसके पश्चात् जैसे-जैसे उसका परिणमन होता है, जाव दुक्खत्ताए-नो सुहत्ताए भुज्जो-भुज्जो तया यावद्दुःखतया-नो सुखतया भूयो-भूयः वैसे-वैसे वह दुरूप, दुर्वर्ण, दुर्गन्ध यावत् दुःखरूप परिणमति । एवामेव कालोदाई ! जीवाणं परिणमति। एवमेव कालोदायिन् ! जीवानां में-न सुखरूप में बार-बार परिणत होता है। कालोपाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्स णं प्राणातिपातः यावन् मिथ्यादर्शनशल्यं, तस्य दायी इसी प्रकार जीवों के अठारह पाप होते हैंआवाए भद्दए भवइ, तओ पच्छा विपरिण- आपातः भद्रकः भवति, ततः पश्चाद् विपरिण- प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य। उस पापवर्ग का ममाणे-विपरिणममाणे दुरूवत्ताएदुवण्णत्ताए मन्-विपरिणमन् 'दुरूवत्ताए' दुर्वर्णतया दुर्ग- आपातभद्र होता है-करते समय वह अच्छा लगता दुगंधत्ताए जाव दुक्खत्ताए-नो सुहत्ताए न्धतया यावत् दुःखतया–नो सुखतया भूयो- है, उसके पश्चात् जैसे-जैसे उसका विपरिणमन होता भुज्जो-भुज्जो परिणमति । एवं खलु कालो- ___ भूयः परिणमति । एवं खलु कालोदायिन् ! है, वैसे-वैसे वह दुरूप, दुर्वर्ण, दुर्गन्ध यावत् दुःखरूप दाई! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग- जीवानां पापानि कर्माणि पापफलविपाक- में न सुखरूप में बार-बार परिणत होता है । कालोसंजुत्ता कज्जति। सुंयुक्तानि क्रियन्ते। दायी ! इसी प्रकार जीवों के पापकर्म पापफलविपाक संयुक्त होते हैं। २२५. अत्थि णं भंते! जीवाणं कल्लाणा कम्मा अस्ति भदन्त ! जीवानां कल्याणानि कर्माणि २२५. भन्ते ! क्या जीवों के कल्याणकर्म कल्याणफलकल्लाणफलविवागसंजुत्ता कज्जंति? कल्याणफलविपाकानि क्रियन्ते? विपाक संयुक्त होते हैं ? हंता अस्थि ।। हन्त अस्ति। हां, होते हैं। २२६. कहण्णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कथं भदन्त ! जीवानां कल्याणानि कर्माणि २२६. भन्ते! जीवों के कल्याण कर्म कल्याणफलविपाक कल्लाणफलविवागसंजुता कज्जति? कल्याणफलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते? संयुक्त कैसे होते हैं ? कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं कालोदायिन् ! तद् यथानाम कोऽपि पुरुषः कालोदायी! जैसे कोई मनुष्य मनोज्ञ स्थालीपाक शुद्ध थालीपागसुद्धं अट्टारसवंजणाकुलं ओसहमिस्सं मनोज्ञं स्थालीपाकशुद्धं अष्टादशव्यञ्जनाकुलं अठारह प्रकार के व्यञ्जनों से युक्त औषधमिश्रित भोयणं भुजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाए औषधमिश्रं भोजनं भुञ्जीत, तस्य भोजनस्य भोजन करता है, उस भोजन का आपात भद्र नहीं नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे- आपातः नो भद्रकः भवति, ततः पश्चात् होता-खाते समय वह नीरस लगता है, उसके पश्चात् परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए जाव परिणमत्-परिणमत् सुरूपतया सुवर्णतया जैसे-जैसे उसका परिणमन होता है, वैसे-वैसे वह सुहत्ताए-नो दुक्खत्ताए भुज्जो-भुज्जो यावत् सुखतया-नो दुःखतया भूयो-भूयः सुरूप, सुवर्ण यावत् सुखरूप में-न दुःखरूप में परिणमति । एवमेव कोलादाई! जीवाणं परिणमति एवमेव कालोदायिन् ! जीवानां बार-बार परिणत होता है। कालोदायी ! इसी प्रकार पाणाइवायवे रमणे जाव परिग्गहवेरमणे प्राणातिपातविरमणं यावत् परिग्रहविरमणं जीवों के प्रातणातिपापविरमण यावत् परिग्रहविरमणकोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे, तस्स क्रोधविवेकः यावन् मिथ्यादर्शनशल्यविवेकः, क्रोध- विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक होते हैं। णं आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा तस्य आपातः नो भद्रकः भवति, ततः पश्चात् उस विरमण और विवेक का आपात भद्र नहीं होतापरिणममाणेपरिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्ण- परिणमन्-परिणमन् सुरूपतया सुवर्णतया प्रारम्भ में वह नीरस लगता है, उसके पश्चात् जैसे-जैसे ताए जाव सुहत्ताए-नो दुक्खत्ताए भुज्जो- यावत् सुखतया-नो दुःखतया परिणमति। उसका परिणमन होता है वैसे-वैसे वह सुरूप, सुवर्ण भुज्जो परिणमइ। एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं एवं खलु कालोदायिन् ! जीवानां कल्याणानि यावत् सुखरूप में न दुःखरूप में बार-बार परिणत कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कर्माणि कल्याणफलविपाकसंयुक्तानि क्रि- होता है। कालोदायी ! इसी प्रकार जीवों के कल्याणकर्म कज्जति॥ यन्ते? कल्याणफलविपाकसंयुक्त होते हैं। २२७. दो भंते! पुरिसा सरिसया सरित्तया द्वौ भदन्त! पुरुषौ सदृशकौ सदृक्त्वचौ स- २२७. भन्ते! दो पुरुष जो एक जैसे समान त्वचा वाले, Jain Education Intemational Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७:उ.१०:सू.२२७,२२८ ४०२ भगवई सरिया सरिसभंडमत्तोवगरणा अण्णमण्णेणं दृग्वयसौ सदृशभाण्डामत्रोपकरणौ अन्योन्यं सद्धिं अगणिकायं समारंभंति । तत्थ णं एगे सार्द्धम् अग्निकार्य समारभेते । तत्रा एकः पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, एगे पुरिसे पुरुषः अग्निकायम् उज्ज्वलयति, एकः पुरुषः अगणिकायं निव्वावेइ। एएसिणं मंते! दोण्हं अग्निकार्य निर्वापयति। एतयोः भदन्त ! द्वयोः पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्भतराए चेव? पुरुषयोः कतरः पुरुषः महाकर्मतरकः चैव? महाकिरियतराए चेव? महासवतराए चेव? महाक्रियातरकः चैव? महास्रवतरकः चैव? महावेयणतराए चेव? कयरे वा पुरिसे अप्प- महावेदनतरकः चैव? कतरो वा पुरुषः कम्मतराए चेव? अप्पकिरियतराए चेव ? अल्पकर्मतरकः चैव? अल्पक्रियातरकः चैव? अप्पासवतराए चेव? अप्पवेयणतराए चेव? अल्पास्रवतरकः चैव? अल्पवेदनतरकश्चैव? जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, जे वा यो वा सः पुरुषः अग्किायं उज्ज्वलयति यो वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ ? सः पुरुषः अग्निकार्य निर्वापयति? समान वय वाले और समान भाण्ड, पात्र, उपकरण वाले हैं, परस्पर मिलकर अग्निकाय का समारम्भ करते हैं। उनमें एक पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है और दूसरा पुरुष उसे बुझाता है। भन्ते ! इन दोनों पुरुषों में कौन-सा पुरुष महत्तर कर्म वाला होता है ? महत्तर क्रिया वाला होता है ? महत्तर आश्रव वाला होता है ? महत्तर वेदना वाला होता है ? और कौन-सा पुरुष अल्पतर कर्म वाला होता है ? अल्पतर क्रिया वाला होता है? अल्पतर आश्रव वाला होता है ? अल्पतर वेदना वाला होता है ? जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है तथा जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं कालोदायिन् ! तत्रयः एषः पुरुषः अग्निकायम् उज्जालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, उज्ज्वलयति, सः पुरुषः महाकर्मतरकः चैव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महाक्रियातरकः चैव, महास्रवतरकः चैव, महावेयणतराए चेव। तत्थ णं जे से पुरिसे महावेदनतरकः चैव, तत्र यः एषः पुरुषः अगणिकायं निव्वावेइ, से णं पुरिसे अप्प- अग्निकार्य निर्वापयति, सः पुरुष अल्पकर्मकम्मतराए चेव, अप्पकिरियतराए चेव तरकःचैव, अल्पक्रियातरकः चैव अल्पास्रवअप्पासवतराए चेव, अप्पवेयणतराए चेव॥ तरकः चैव, अल्पवेदनतरकः चैव । कालोदायी ! उनमें जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है, वह पुरुष महत्तर कर्म, महतर क्रिया, महत्तर आश्रव और महत्तर वेदना वाला होता है। जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह पुरुष अल्पतर कर्म, अल्पतर क्रिया अल्पतर आश्रव और अल्पतर वेदना वाला होता है। २२८. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तत्थ णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-तत्र यः जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं एषः पुरुषः अग्निकायम् उज्ज्वलयति, सः पुरिसे महाकम्मतराए चेव? महाकिरियतराए पुरुषः महाकर्मतरकः चैव, महाक्रियातरकः चेव? महासवतराए चेव? महावेयणतराए चेव? चैव, महास्रवतरकः चैव, महावेदनतरकः तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, चैव? तत्र यः एषः पुरुषः अग्निकार्य निर्वासे णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव ? अप्प- पयति सः पुरुषः अल्पकर्मतरकः चैव, अल्पकिरियतराए चेव ? अप्पासवतराए चेव ? क्रियातरकः चैव, अल्पास्रवतरकः चैव, अल्पअप्पवेयणतराए चेव? वेदनतरकः चैव। कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं कालोदायिन् ! तत्र यः एषः पुरुषः अग्निकायम् उज्जालेइ, से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविक्कायं उज्ज्वलयति, सः पुरुषः बहुतरकं पृथ्वीकार्य समारभति, बहुतरागं आउक्कायं समारभति, समारभते, बहुतरकम् अप्कायं समारभते, अप्पतरागं तेउक्कायं समारभति, बहुतरागं अल्पतरकं तेजस्कायं समारभते, बहुतरक वाउकायं समारभति, बहुतरागं वणस्सइकायं वायुकायं समारभते बहुतरकं वनस्पतिकायं समारभति, बहुतरागं तसकायं समारभति। समारभते, बहुतरकं त्रसकाय समारभते। २२८, भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्ज्वलित करता है, वह पुरुष महत्तर कर्म वाला होता है ? महत्तर क्रिया वाला होता है? महत्तर आश्रव वाला होता है ? महत्तर वेदनावाला होता है? जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह पुरुष अल्पतर कर्म वाला होता है ? अल्पतर क्रिया वाला होता है ? अल्पतर आश्रव वाला होता है ? अल्पतर वेदना वाला होता है? कालोदायी ! जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है, वह पुरुष बहुतर पृथ्वीकाय का समारम्भ करता है, बहुतर अप्काय का समारम्भ करता है, अल्पतर तेजस्काय का समारम्भ करता है, बहुतर वायुकाय का समारम्भ करता है, बहुतर वनस्पतिकाय का समारम्भ करता है, बहुतरत्रसकाय का समारम्भ करता तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, तत्र यः एषः पुरुषः अग्निकार्य निर्वापयति, से णं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारभति, सः पुरुषः अल्पतरकं पृथ्वीकार्य समारभते, अप्पतरागं आउक्कायं समारभति, बहुतरागं अल्पतरकम् अपकायं समारभते, बहुतरक तेउक्कायं समारभति, अप्पतरागं वाउकायं तेजस्कायं समारभते, अल्पतरकं वायुकायं समारमति, अप्पतरागं वणस्सइकायं समार- समारभते, अल्पतरकं वनस्पतिकायं समारभति, अप्पतरागं तसकायं समारभति। भते, अल्पतरकं त्रसकायं समारभते । से तेणटेणं कालोदायी ! एवं वुच्चइ-तत्थ तत् तेनार्थेन कालोदायिन् ! एवमुच्यते-तत्र णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं यः एषः पुरुषः अग्निकायम् उज्ज्वलयति, सः पुरिसे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए पुरुषः महाकर्मतरकः चैव, महाक्रियातरकः चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव। चैव, महास्रवतरकः चैव, महावेदनतरकः चैव। जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह पुरुष अल्पतर पृथ्वीकाय का समारम्भ करता है, अल्पतर अपकाय का समारम्भ करता है, बहुतर तेजस्काय का समारम्भ करता है, अल्पतर वायुकाय का समारम्भ करता है, अल्पतर वनस्पतिकाय का समारम्भ करता है. अल्पतर त्रसकाय का समारम्भ करता है। कालोदायी! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है--जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्ज्वलित करता है, वह पुरुष महत्तर कर्म, महत्तर क्रिया, महत्तर आश्रव, महत्तर वेदना वाला होता है। जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चैव, अप्पकिरियतराए चैव, अण्णास्वतराए चैव, अन्यवेयणतराए चैव ॥ २२६. अत्थि नं भंते! अच्चित्ता दि पोग्गला ओभासंति ? उज्जोवेंति ? तवेंति ? पभासेंति? हंता अत्थि ॥ २३०. कयरे णं भंते ! ते अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासति ? उन्नोवेति ? तवेति ? पमासेति? कालोदाई ! कुद्धस्स अणगारस्स तेय-लेस्सा निसट्टा समाणी दूरं गता दूरं निपतति, देसं गता देसं निपतति, जहिं जहिं च णं सा निपतति तहिं तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति । एतेण कालोदाई ! ते अचिता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति ॥ २३१. लए गं से कालोदाई अणगारे समर्ण भगवं महावीरं वंदइ नमस, वंदिता नमसित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्टम - दसम दुवालसेहिं, मासद्धमास खमणेहिं विचित्तेहि तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ २३२. एणं से कालोदाई ! अणगारे जाव चरमेहिं उस्सासनीसासेहि सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिबुडे सव्वदुक्खप्पहीणे । । २३३ सेवं भते । सेवं भते । ति ॥ ४०३ तत्र यः एषः पुरुषः अग्निकायं निर्वापयति, सः पुरुषः अल्पकर्मतरकः चैव, अल्पक्क्रियातरकः चैव, अल्पास्रवतरक : चैव, अल्पवेदनतरकः चैव । अस्ति भदन्त ! अचित्ताः अपि पुद्गलाः अव भासन्ते? उद्योतन्ति ? तापयन्ति ? प्रभासन्ति? हन्त अस्ति । कतरे भदन्त ! ते अचित्ताः अपि 'पुद्गलाः अवभासन्ते ? उदद्योतन्ति ? तापयन्ति ? प्रभासन्ति ? कालोदायिन् ! क्रुद्धस्य अनगारस्य तेजोलेश्या निःसृष्टा सती दूरं गता दूरं निपतति, देशं गता देशं निपतति, यत्र यत्र च सा निपतति, तत्रतत्र च ते अचित्ताः अपि पुद्गलाः अवभासन्ते, उद्योतन्ते, तापयन्ति, प्रभासन्ते एतेन कालोदायिन् ! ते अचित्ताः अपि पुद्गताः अबभासन्ते, उद्योतन्ते, तापयन्ति, प्रभासन्ते । ततः स कालोदायी अनगारः श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति बन्दित्वा नमस्यित्वा बहुभिः चतुर्थ- षष्ठाष्टम- दशम- द्वादशैः मासार्द्धमासक्षपणे विचित्रैः तप कर्मभिः आत्मानं भावयन् विहरति । ततः स कालोदायी अनगारः यावच् चरमैः उच्छ्वास- निश्वासैः सिद्धः बुद्धः मुक्तः परिनिर्वृतः सर्वदुप्रक्षीणः। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । श. ७: उ. १०: सू.२२८-२३३ है, वह पुरुष अल्पतर कर्म, अल्पतर क्रिया, अल्पतर आश्रव और अल्पतर वेदना वाला होता है। २२६. भन्ते ! क्या अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं ? उद्योतित करते हैं ? तप्त करते हैं ? प्रभासित करते हैं ? करते हैं। २३०. भन्ते ! वे कौन से अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं? उद्योतित करते है ? तन्त करते है? प्रभासित करते हैं? कालोदायी ! क्रुद्ध अनगार ने तेजोलेश्या का निसर्जन किया, वह दूर जाकर दूर देश में गिरती है, पार्श्व में जाकर पार्श्व देश में गिरती है। वह जहां-जहां गिरती है, वहां-वहां उसके अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं रात करते हैं और प्रभासित करते हैं। कालोदायी ! इस प्रकार वे अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं, तप्त करते हैं और प्रभासित करते हैं। २३१. कालोदायी अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार करता है, वन्दन नमस्कार कर अनेक चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, अर्धमास और मासक्षपण - इस प्रकार विचित्र तपःकर्म द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ विहार कर रहा है। २३२. कालोदायी अनगार यावत् चरम उच्छ्वास-निःश्वासों के साथ सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों का नाश करने वाला हो गया। २३३. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. नामानुक्रम (क) व्यक्ति और स्थान (ख) देव (ग) पशु-पक्षी २. भाष्यविषयानुक्रम ३. पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४. आधारभूत ग्रन्थ-सूची ५. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति शतक ३, ४, ५, ६, ७ ६. चित्र पृष्ठ ४०७-४१० ४११-४१६ ४१७-४१८ ४१९-४२८ ४२९-४७९ ४८१-४९० ४९१-५६५ ५६७-५७० Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (क) नामानुक्रम : व्यक्ति और स्थान उदक पेढाल :/२५४-२५७ उमारवाति (सारे अंक भाष्य के हैं)३/२२२-२३०५/१०७, १२८-१३२: ६/१-४७/१०-१५,२०,२१,११३-११६ ऋ ऋषभ ३/८६-८७;६/१३३,१३४७/६२ ऐरावण (हाथी) ३/१०९ ऐरावत ५ आमुख; ६/१३३,१३४ अकलंक ६/१३३-१३४ ('भा.);७/१,११३-११६ (भा.) अग्निभूति ३ आमुख, ४, ८-१२,१४-१६ अजातशत्रु ७/१७३ अढाईद्वीप ५/२४८-२५३; ६/१५६,१५६ अतिमुक्त ५/७८-८२,७५-८२ (भा.) अपर विदेह ५/१४,६/१३४ अभयदेव सूरि (सारे अंक भाष्य के हैं) ३/२६,११२५/३१-४५,११०,१११, ११६-१२१, १८१६/१-४,५-१४,३३,३४,१३३, १३४,१३५,१३७-१५०, १५१, १६८-१६६७/१,४,५,१६-१६,२०,२१,२४,२७,२८, ३६-४२,६२, १०७-११२,१५०-१५४ अमेरिका ५ आमुख अर्जेन्टिना ५/३-१२ अर्धपुष्कर द्वीप ५/२४८-२५३ अशोकषण्ड ३/१०५, ११२ आकर ७/११७ आग्नेय ६/११७ आचार्य कुन्दकुन्द (सारे अंक भाष्य के हैं) ५/५१-५४,७/१६० आचार्य नेमिचन्द्र ३/१७ (भा.) आचार्य सिद्धसेन ३ आमुख (भा.) आभ्यन्तरपुष्करार्ध ५/२६ आयंगार ३/२०७ (भा.) आर्यरक्षित ५/६४-६E (भा.) आश्रम ७/११७ कणाद ५ आमुख कब्बड ७/११७ कल्याण विजय जी ४ आमुख कार्तिक सेठ ७/१६१ कालकाचार्य ४ आमुख कालासवेसिय पुत्र ५/२५४-२५७ कालोद समुद्र ५/२८ कालोदायी ७ आमुख, २१२,२१८-२२०,२१८-२२०(भा.), २२३,२२४, २२६-२२८,२३०-२३२ कालूगणी ६/२०-२३ (भा.) काशी७/१७३, १७८, १८७ कुमार श्रमण केशी ५/२५४-२५७ (भा.) कुरुदत्त ३/७६ कुरुदत्तपुत्र ३/२१ कूणिक ७/१७५-१७८,१८५-१८७,१६०,१६१ कोणिक ७/१७३-१७५,१७३(भा.),१८२-१८४ कोष्टगार्ड ६ आमुख कोणिक ७ आमुख कौशल ७/१७३,१७८,१८७ क्ली वैक्स्टर ७/१५०-१५४ इन्द्रभूति ५/३, ८५;७/२१५ ईसा ५ आमुख उज्जैनी ४ आमुख उत्तरकुरु ६/१३४ उत्तर भारत ५/६४ उत्पातपर्वत ३/३८,११२ उदक ७/२१२ खेट ७/११७ गंगा ७/११७,११९,१२० Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ (क) नामानुक्रमः व्यक्ति और स्थान - गंगा महानदी ५/१५७, १५६ राजकुमा३/१०५ गणराज ७/१७३-१७८, १८७ गल्फस्ट्रीम ६ आमुख गांगेय ५/२५४-२५७ गाँव ७/११७ गुणशिलक (चैत्य) ७/२१२, २१४, २१७, २२१, २२२ गोल्ल देश ३ / १६४ - १७१ गौतम ३ आमुख, ४-१४,१६ - २१, २४, २७-२६, ३१,३४, ५१-५५, ५७,५६, ६१,६३,६५,६६,७१७५, ७६, ८३, ८४, ८६-६०, ६३, ६७, १००, १०५, ११५, ११७, १२३, १२५, १२६, १३०, १३१, १४३-१४८, १५२ १५८, १६४-१७१, १७४ १७८, १८३-१८६, १८८, १६०, १६१, १६६, १६८, २१२-२१६, २२३,२२४,२२६, २२७, २२६, २३०, २३२, २३३, २३५, २३६,२३८, २३८, २४२, २४४, २४७-२४६, २७२, २७३, २७५, २७७, २७६, २८० ४/१-३,८, ५/४-६, ११, १२, १६, २३, २५-२७, ३१, ३४, ३६, ४१, ४३, ४५-५४, ५६, ५८-६०, ६२, ६४-६७, ६६-७१, ७३-७५, ८५-६३, ६५,६६,१०१, १०२, १०४, १०६-१११, ११३, ११५, ११७-१२०, १२३-१३५, १३७, १३८, १४७, १४८, १५०-१५४, १५६, १५७, १५६-१६२, १६४, १६५, १६६-१८५, २०८, २०६, २११-२१३, २१५, २२३-२२८, २३१, २३२, २३५-२४२, २४४, २४५, २४६, २५२, २५४-२५८; ६/१,३, ८- ११, १५, १६, २१-५२, ५४, ५५, ५७, ५८, ६०, ६४-६६, ६८, ७०-७५, ७, ८५, ६२, ६६, ६८, १०२-१०५, १०७-१०६, १११-११८, १२०-१२२, १२४, १२५, १२६-१३२, १३५, १३७, १३८, १४२, १५०-१५६, १५६, १६०, १६२, १६३, १६५-१६७, १७२ १७६, १७८, १७६, १८१, १८.४, १८८, ७/१-५, ८, ६, ११-१७, २०-२५, २७-३७, ४०-४४, ४६, ४७, ४६-५२,५४,५५, ५७-५६, ६२-६६, ६८, ७०,७३-७७, ८०, ८२, ८३, ८५,८६,८६-६१,६३,६४, ६७, ६६, १०१-१०६, १०८, १११, ११४, ११६- १२३, १२५-१३६, १४१-१५०, १५२, १५४ १६१, १६३-१६५, १६६ - १७३, १७६ १८२, १८८-१६१, १६३, २०७-२१०, २१६ गीतम (गोत्र, गोत्री) ५/३७/२१५ ग्राम ३/३० चम्पा ५/१, २६० चरक ५/७२-७५ (भा.) चेटक ७ आमुख, १७३ (भा.) चोप्पाल ३ / ११२ च ४०८ ज जनपद ७/११७ जम्बूद्वीप ३ / ४, ५, १२, १४, १६, १८, २०, २१, २२, २३,३१,३८, ४/३; ५/३-६, ३-१२ (भा.), ११-१४, १६, १७, १६, २१, २४, २४८-२५३ ६/७२,७५, ६२,१३५, १७३, ७/११७ जयन्ती ६ / ३०-३२ जयाचार्य (सारे अंक भाष्य के है)३/२२,७२,६०,६५,१०६, ११२, १४३-१४८, १४९, १५०, १६४-१७१,२२२-२३०५/५६-६१,१०३-१०६; ६/६४-६८, १२०-१२७, १३७-१५०,७ / १, ४, ५, २०, २१, १६४-१७१, २२२-२३० जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ५/५६-६१ (भा.) ज्योर्ज रिटिशे ६ / १२०-१२६ (भा.) ज्ञातपुत्र ७/२१३, २१५, २१६ डार्विन ६ / १३३, १३४ (भा.) डेमोक्रीट्स ५ आमुख तामली तापस ३ आमुख तामलि ३/३०, ३२, ३३, ३५, ३६, ३८-४१, ४३, ४५, ४६ । ताम्रलिप्त ३/३१,३२,३३,३६,३८, ४५ तुंगिया ५/२५४-२५७ द्रोणमुख७/११७ द्रोणाचार्य ७ / २०, २१ दक्षिण भारतीय ५ / ६४ (भा.) दक्षिणी कर्नाटक ५ / ६४ (भा.) दक्षिणी ध्रुव ५ आमुख द्वीप ३ / ४, ५, ६, १२, १४, १६, १८, २०, २१, २२, २३, ३१,३८, ४/३; ५/३-६, ११-१४, १६, १७, १६, २४, २७, ३६, ३८, ३६, ६/७२,७५,६२, १३५, १५६, १६०, १७३; ७/११७ देवकी ५/७६,७७ ड देवकुल ६ १३४ देवर्धिगणी (सारे अंक भाष्य के हैं) ४ आमुख; ५/६४-६६; ६ आमुख त नरकपाल ३/२५७ नर्मोदक ७/२१२ धन सार्थवाह ३ / ६० धातकी षण्ड (खण्ड) ५/२४-२७, २९, २४८, २५३ नागनप्तृक ७/१९३-२०७ नामोदक ७/२१२ नारदपुत्र ५/२०१-२०७ नालंदा ५/२५४-२५७ भगवई न नगर ३/३०, ५/३१, २०१, २३५, २५४-२५७, २६० ६ / १८, १७१; ७/६७,६६, १०१,११७, २१२,२२१,२२२ नगरी ५/१, २५४ - २५७, २६०; ७ / १६३ नदी ५/११०, १११ नन्दन (चैत्य) ३/२,२५ नन्दीश्वर द्वीप ३/८६,८७ नमिनाथ ५/१०३-१०६ (भा.) ध Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४०९ परिशिष्ट-१ (क) नामानुक्रमः व्यक्ति और स्थान निर्ग्रन्थीपुत्र ५/२०१-२०५, २०७ पट्टण ७/११७ पद्मप्रभ ३/८६-८७(भा.) पार्वती ५/७६, ७७ पार्श्व (नाथ) ५ आमुख,२५५,२५४-२५७ (भा.) पूर्णभद्र (चैत्य) ५/२ पूरण ३/१०१-१०४, १०६,१०७७/१६१ पूर्व (विदेह) ५/१४; ६/१३४ २०,२१,२७,२८,२६-३५,६२,६७,६६,१०१,११३-११६,२०३, २१४, २१७-२२४,२३१ माध्वाचार्य ७ आमुख मेरु (पर्वत) ४/३; ५/४-६,११,१४,१६,१७,१६,२५,२६,२७,२६%; ६/१२४, १२५ मोका ३/१, २, २५ मौर्यपुत्र ३/३२, ३३, ३५,३८, ४० यामाका (जहाज) ६ आमुख (डॉ०) याकोबी ५/२५४-२५७ (भा.) यूरोप ५ आमुख र बरमूदा त्रिकोण (त्रिनिडाड समुद्रतट)६ आमुख बुद्ध ३/८६-८७ (भा.) बेभेल ३/१००,१०१,१०२,१०४ बाहमास क्षेत्र ६ आमुख रत्नप्रभा पृथ्वी (देखें परिशिष्ट ३) रम्यक्वर्ष ६/१३४ राजगृह ३/२६,७७, १२३, १८८,१८६,२२२,२२४,२२५,२२७, २२८,२३०,२३१,२३२,२३३,२३४,२३६,२३७,२३८,२४७,४/१; ५/१,३१,२०१,२३५,२५८, ६/१८,१७१; ७/६७,६६, १०१, २१२, २२१, २२२ भरत ५ आमुख; ६/१३३, १३४ भरतक्षेत्र ७/११७, ११८, ११ भारत ५ आमुख, ३-१२,६४ भारतवर्ष ३/३१,३८,४५, ६/१३५ भिक्षु (आचार्य) ३/५४ (भा.) भीम ३/२७५ भूतानन्द (हाथी) ७/१८३-१८५ लवण समुद्र ५/३-१२,२०-२३,२८,३६६/१५५-१५८ लाट देश ३/१६४-१७१ (भा.) लिच्छवी ७/१७३,१७८,१८२,१८७ मण्डितपुत्र ३ आमुख, १३४-१४०,१४३,१४५-१५१ मगध ७/१७३ मघवा ३/१०६ मडम्ब ७/११७ मद्रास ५/६४ (भा.) मलयगिरि (सारे अंक भाष्य के हैं) ३/१७,२६,७२,५/६४,६/१६८,१६६; ७/१ (प्रो०) मर्किल ७/१५०-१५४ (भा.) मल्ल ७/१७३,१७८,१८२,१८७ महुक ७/२१२-२१७ मनुष्यलोक ५ आमुख,१०३-१०६,१३६,१३७ महर्षि पतञ्जलि (सारे अंक भाष्य के हैं)३/४५ आमुख, ५७,५८,११२,११३; ७/२०,२१ महर्षि भरत ५/६४ (भा.) महाविदेह क्षेत्र ३/५३;७/२०८, २१० महावीर ३ आमुख, ३,४,८,१०,१२,१३,१६,१६,२०,२४,२५,२८,३३, ३५, ३६,७६,६५,१०५,११२,११६,११७,१२६,१३३,१३४,१५१, १५२,२७२,२७७,२८०४/%; आमुख, २,५७,५८,७६,७७,७८, ८०-८६, ६३, १३९-१४६,१६५-१६८, २०१,२०२,२३५,२३६, २५४,२५६,६/३०-३२,१२०-१२७,१७१-१७३; ७ आमुख, १,४,५, वज्रपाणि ३/१०६ वज्र ३/११३-११६,११६,१२२,१२५,१२६,१२८,१२६ वज्राधिपति ३/१२६ वचन ३/२५२, २५७, २६२,२६७ वायुभूति ३ आमुख, ८-१३,१५,२०,२४ वाणिज्य ग्राम ५/२५४-२५७ वाराणसी ३/२२२,२२४,२२५,२२७,२२८,२३०,२३१,२३३,२३४, २३६, २३७,२३६ विध्यगिरि ३/१०० विदेह(हि)पुत्र कूणिक ७/१७३-१८२ वीरसेनाचार्य ६/१३३-१३४ (भा.) वैतरणी ३/२५६ वैताढ्य पर्वत ७/११७,११६ वैशाली ७ आमुख, १७३, १६३ वोगल ७/१५०-१५४ (भा.) व्यावर्त्त ३/२७४ शंख ७/२६-३५ शीलांकाचार्य (शीलांक सूरि) (सारे अंक भाष्य के हैं) ३/१६४-१७१; ७/२५, २६-३५ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (क) नामानुक्रमः व्यक्ति और स्थान ४१० भगवई शैवालोदायी ७/२१२ शेलोदायी ७/२१२ शैलपाल ३/२७३ श्यामाचार्य ४ आमुख श्रावस्ती ५/२५४-२५७ सुमुख ३/३० (भा.) सुलसा ५/७६-७७ (भा.) सुवर्णभूमि ४ आमुख सुहस्ती ७/२१२ स्कन्दक (सारे अंक भाष्य के हैं) ३/३५,३६,७/२२० स्वयम्भूरमण ६/१५६ स्वर्गलोक ६/७२ समुद्र ३/४,५,६,१४,२२,३८, ५/३७-३६ ६/७२,७५, १५६-१६०, ७/१५४ सरगासो समुद्र क्षेत्र ६ आमुख सागर ४ आमुख सिद्धसेनगणी (सारे अंक भाष्य के हैं)३/४, १७; ५/५६-६१, ६८-७१,११०, १११,१६०-१६४, ६/३३,३४,७/१,२०,२१,२६-३५,११३-११६,१६१ सिद्धसेन दिवाकर ५/१६१-१६८ (भा.) सुंसुमारपुर ३/१०५, ११२ सुबाहु कुमार ३/३०(भा.) हरिभद्रसूरि ७/२६-३५ (भा.) हरिवर्ष ६/१३४ हेमचन्द्राचार्य (सारे अंक भाष्य के हैं )३/१०५, १४३-१४८; ५/१८२-१६०; ६/३०-३२,१३३,१३४ हेराक्लाइटस ५/११०,१११ (भा.) हैमवत ६/१३४ हैरण्यवत ६/१३४ Jain Education Intemational Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (ख) नामानुक्रम : देव अंकावतंसक ४/३ अंगारक (मंगलग्रह)३/२५४ अंजन ३/२६४, २७४ अंब ३/२५६ अम्बरीष ३/२५६ अग्रमहिषी ३/१८,२२,२२ (भा.),३७ अग्निकुमार ३/२५२, २७४ अग्नि कुमारियां ३/२५२ अग्निमानव ३/२७४ अग्निशिख ३/२७४ अच्युत (कल्प) ३/२३,८६,२४५,२८०, ५/२२२; ६/१५० अतिआशातना ३/१११,११२,११५,११६,१२९ अतिकाय ३/२७५ अनाभियोगिक देवलोक ३/१६०, २२० अनीक (सेना) ३/११२, २४७ अनीकाधिपति (सेनापति) ३/११२ अधस्तन ग्रेवेयक ५/२०८-२२४ अधुनोपपन्न (देव) ३/१३१ (भा.) अनिन्द्र ३/३७ अनीक ३/३७ अनुत्तर ६/१२७, १३७-१५० अनुत्तर विमान ३/११२,१८३-१८५:५/१०३-१०६,१०७, १०७ (भा.), २०८-२२४; ६/१५, १६,१२१,१२७,१३७-१५०; ७/६७-७३,६६ अनुत्तरोपपातिक देव ५/१०३-१०६,१०७; ६/१६,१२६,१२७ अन्नपालक ७/२१२ अपराजित ५/२२२; ६/१२१ अप्सरा ३/८३,११२ अपुरोहित ३/३७ अभिषेक ३/२५०, २५६ अमितगति ३/२७४ अमितवाहन ३/२७४ अमोह ३/२६६ अयंपुल ३/२६४ अरुण ७/२०७ अरुणवर ६/७२ अरुणोदय ६/७२ अर्चनिका ४/४ अर्चि ६/१०६, १०७, १११ अर्चिमाली ६/१०६,१०८,११२ अर्चिष्मती ६/१०६,१०८,११२ अवतंसक ३/२४६,२५१ अव्याबाध६/११० अवतसक४/३ अशोकावतंसक ३/२४६ असंग ३/२६६ असिपत्र ३/२५६ असुर ६/७६,८१,६६,६८,१४०,१४४ असुरकुमार ३/४,५,३८-४१,४५,४६,४६.५१,७६-६०,६२,६६, ११६, १३१,१३१(भा.),२५७,५/१८४,१८५,२१७,२४१,२४२, ६/१०,११,१२३, १७६७/७१,१०१,१०४,१०५ असुरकुमार राज ३/६४,७/१८२,१८६,१६१ असुरकुमारवास ६/१२३ असुरकुमारियां ३/२५७ असुरराज ३/४-१०,१२,७८,६७-६६,१०८-११६,११६,१२१,१२४, १२६-१३०,२४४,२४५,२७२,२८० असुरेन्द्र३/४-१०,१२,७८,६७-६६,१०४-११६,११६,१२१,१२४,१२६-१३०, २४४,२४५,२७२,२८०, ७/१८२,१८६,१६१ अस्मृत ३/२५३,२५८,२६३,२६६ आ आग्नेय ६/११० आच्छन्न ३/१७,२१,४३ आज्ञा ३/४,४ (भा.),५१,२५२,२५७,२६२,२६७ आत्मरक्षक ३/४,४ (भा.),१४,१६,१७,३७,६०,११२,२४४,२४५,२४७ आदित्य ६/११०,११२,११४ आदेश ३/५१,५१ (भा.) आधिपत्य ३/४,४ (भा.),५,७,८,१४,१६,२७२,२७७ आनत ५/२२२, ६/१३७-१५०(भा.) आभा ६/८४, १०१, १४४, १५० आभियोगिक ३/२५७,२५७ (भा.) आभियोगिक देवलोक ३/१६०,२१६ Jain Education Intemational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (ख) नामानुक्रम देव ४१२ भगवई आभियोग्य ३/३७,२४७ आरण ६/१३७-१५० (भा.) आर्या ३/३४ आवर्त ३/२७४ आवास ३/१५,८१,६३ किल्बिषिक ३/३७,१८३,१८५,२४७ कुम्भ ३/२५६ कोट्टकिया ३/३४ कोलपाल ३/२७३ क्षिप्रगति ३/२७४ खरस्वर ३/२५६ इन्द्र ३/४, ३४,३४(भा.),३६ (भा.),३७,३८,४०,४२,४६, ७६,१०६, १०७,२४५,२४७,२७७ इन्द्रत्व ३/४ इन्द्रकील ३/११२ ईशान ३ आमुख, २०-२२,२७,२८,३०,४३-४८,५०-५४,५६, ५८,४/१,३, ४;५/२२२; ६/७२,१४५ ईशानकल्प ३/२१,२७,४२,४३,४५,४६,२७७ ईशानकल्पवासी ३/४६, ४७ ईशानावतंसक ३/२१,४३, ४/३,४ ईशानेन्द्र ३ आमुख, ३०; ४ आमुख ईश्वर ३/४ (भा.) गन्धर्व ३/२७५ गर्दतोय ६/११०,११४ गीतयशा ३/२७५ गीतरति ३/२७५ ग्रह ५/७६,७७ ग्रहगण ३/२४६; ६/८३,१००,१४३,१४८ ग्रेवेयक ५/१०७,२२२; ६/१३७-१५०(भा.);७/६७-७३ घोष ३/२७४ उत्तरवैक्रिय ३/११२ -रूप ३/११२ - शरीर ३/११२,१५४-१६३ उदधिकुमार ३/२६२,२७४ उदधिकुमारियां ३/२६२ उपपात ३/५१; २५२,२५७,२६२,२६७ -सभा ३/१७,२१,४३ उपपाद ३/५१ उपासना ३/५१ उपरितन 7वेयक ५/२०८-२२४ उपरुद्र ३/२५६ चक्ररक्ष३/२६६ चण्डा ३/२८० चण्डिका ३/३४ चन्द्र ५/२४८-२५३; ६८४, १३७-१५० चन्द्रमा ५/१,१६०, ६/८३,८४,१००,१०६,१३३,१३४,१४३,१४४,१४८,१५०; ७/११७-१२३ चन्द्राभ ६/१०६ चम्पकावतंसक ३/२४६ चमर (इन्द्र) ३ आमुख, १,४-१०,१२,१६,१८,२१,७८,६८-६६, १०८-११६,११६,१२१,१२४,१२६-१३०,२४४,२४५,२६२; ७/१८२, १८६,१६१ चमरचञ्चा ३/४,१८,७८,१०६,१०७,११२,१२७ चाँद ३/२४६७/११७ चित्र ३/२७४ चित्रानक्षत्र ३/८६,८७ चूतावतंसक ३/२४६ कन्दर्प ३/२५७ कर्कोटक ३/२६४ कर्दमक ३/२६४ कल्प ३ आमुख, १७, २१, २२, ४/३; ५/८३, ८५, ८८,२७७, ६/७२, ६०,१४५,१५०; ७/६७-७३ कातरिक ३/२६४ कान्दर्पिक ३/२५७ कार्तिकेय ३/३४, ५/७६,७७ काल ३/२५६, २७४, २७५ कालपाल ३/२७३ किन्नर ३/२७५ किंपुरुष ३/२७५ जय ३/२६४ जयन्त ५/२२२, ६/१२१ जल ३/२७४ जलकान्त ३/२७४ जलप्रभ ३/२७४ जलरूप ३/२७४ जातरूपावतंसक ४/३ जाता ३/२८० ज्योतिश्चक्र ५आमुख Jain Education Intemational - Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४१३ परिशिष्ट-१ (ख) नामानुक्रमः देव ज्योतिषराज ३/१६ ज्योतिषेन्द्र ३/१६ ज्योतिष्क ३ आमुख,१५,११२,१८३-१८५,२७६,२७६;४ आमुख; ५/५६-६१, ६२,१८०,२२२,२४७,२५३;६/५४-६३,१८५७/३६,४८,७१,१०५ ज्योतिषिक ५/२५८ ज्ञापनीय (शय्या) ३/४७ तत्पाक्षिक ३/२५२,२५२ (भा.),२५७, २६२, २६७ तद्भक्तिक ३/२५२,२५२ (भा.),२५७,२६२, २६७ तद्भार्य ३/२५२,२५२(भा.),२५७, २६२, २६७ तभारिक ३/२५२,२५२ (भा.), त्वरित गति ३/२७४ तारा ३/२४९ तारारूप ६/८३,१००,१४३,१४८ तावत्त्रिंशक ३/४,४ (भा.)४६,१४,१६,१८,२१,२२,३७ तिष्यक ३/१७,१८,२१,७६ तुषित ६/११०, ११४ त्रायस्त्रिंशक ३/४,४ (भा.)३७ तेजः ३/२७४ तेजःप्रभ ३/२७४ तेजस्कान्त ३/२७४ तेज-शिख ३/२७४ २६७-२७०,२७२-२७७,४/५,५/६१,६२,७६,७७,८३-६३,१०१-१०७, १४७,१८४, १८५,२१०,२१७,२१८,२४१,२४२,२४३, ६/१०-१२, १५,१६,२६,३२,५६,६८,७५,७६,८१,८५,६२,६६,६८,१०२, ११०,११३, ११४,११६,११७,१२७,१३२,१४०,१४४,१४६,१५०,१६३,१६४, १६६,१६८,१६६,१७७,१८५७/३६,४८,५२,५४,५६,६०,७१, १०३-१०५, १४६,१४७,१६२,२०५,२०६,२०७ देवगति ५/६२,१२४-१२७,२४८-२५३; ६/१५१ देवजगत ३/४ देवता ३/१०६५/६४,७६,७७ देवदूष्य ३/१७,२१,४३,११२ देवनिकाय ४ आमुख देवराज ३/१६-१८,२०,२१,२७,२८,३०,४४-४८,५०-५४,५६, ५८,६०, ६२,६४,६६,६८-७४,१०९-११३,११५,११६,११६,१२०,१२३, १२७,१२६, १३१,२४७,२४६-२७०,२७७; ४/१,३,४,७/१७७, १८६,१६१ देवरूप ३/३८,५१,२१६,२२०; ७/२०७ देवलोक ३ आमुख, ४,२३,३६,४२,५३,७५,२१६,२२०; ५/२२२, २४८-२५३,२५७,२५८; ७/१४८,१४६,१५४,१६०,१६२,२०६,२०८ देववाद ३/२५०-२७७ देवशय्या ३/१७ देवशयनीय ३/१७,२१,४३ देवी ३/४,५,७,१७,२१,२२,३८-४१,४५-४७,४६-५१,६०,१५५, १५६; ५/६४, १८५,६/११६,१६८ देवेन्द्र ३ आमुख,१६-१८,२०,२१,२७,२८,३०,४३-४८, ३/५०-५४,५६, ५८,६०,६२,६४,६६,६८,७४,१०६-११३,११५,११६,११६,१२०,१२३, १२७,१२६,१३१,२४७,२४६-२७०,२७७,४/१,३,४,७/१७७,१८६,१६१ धनद ४/५ धनु ३/२५६ धरण ३/१४,२७३ दक्षिणार्धलोकाधिपति ३/६९,१०९ दधिमुख ३/२६४ दिक्कुमार ३/२६७, २७४ दिक्कुमारियां ३/२९७ दिव्य ३/४,५,३८,८१,६३,६८,६६,१०६,११०,१३०,१३१ -देवगति ३/३८,४५,११५ -देवर्द्धि ३/१७,२७,२८,३०,३८,५०,५१,६८,६६,१३०,१३१ -देवधुति ३/१७,२७,२८,३०,३८,५०,५१,६६,१३० - देवानुभाग ३/२८,३०,३८,६६,१३० - देवानुभाव ३/१७,५०,५१,१०६ -देवसामर्थ्य ३/२७ -तेजोलेश्या ३/५०,५१ - नाट्यविधि ३/२७, ३८ -प्रभाव ३/४८ -भोग ३/२७२-२७७ देव ३/४,७,१४-१८,२१,२२,२७,३०,३४,३६-४१,४५-४६,४६,५०,५१,७२, ७८-६६,१०६-११२,११७-११६,१२८,१२,१३१, १५४-१५६, १६४-१७१, १७२-१६२,१६०,२४४,२४५,२५०-२५५,२५७-२६०,२६२-२६५, नन्द्यावर्त्त ३/२७४ नक्षत्र ३/२४६,२५२, ६/८३,१००,१४३,१४८ नाग ६/७६,८१,६६,६६,१४०,१४४,७/१६३ नागकुमार ३/१४,२६२,२७३ नागकुमारियां ३/१४,२६२ नागकुमार राज ३/१४,२७३ नागकुमारेन्द्र ३/१४,२७३,२७४ निकाय (नौ) ३/२४५,२४५ (भा.) निकाय (दश) ३/३७,२४७,२४७(भा.) निर्देश ३/५१,२५२,२५७,२६२,२६७ नैगमेष ५/७६,७७, -ग्रह ५/७६,७७ Jain Education Intemational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (ख) नामानुक्रमः देव ४१४ भगवई भवनपति ३ आमुख; ४ आमुख; ५/५६-६१,६२,२१७, ६/५४-६३, १३२, १८५७/६७-७३ भवनवासी ५/१६०-२५८, ३/४, १४ भर्तृत्व (पोषण) ३/४ भूत ३/२७५,६/१३७-१५० भूतग्रह ३/२५८ भूतानन्द ३/२७३ पटरानी ३/४,५,७,८,६,१०,१४,१६,१७,२१,२२ परमाधार्मिक ३/८४,२५६ परिघरत्न ३/११२ परिचारणा ३/६० परिधि ३/२५१ परिषद् ३/४,७,१४,१६,१७,३१,१०८-११२,१२८,१२६, २८० पारिषद्य ३/३७,२४७ पितृग्रह ५/७६,७७ पिशाच३/२७५ पीठ ३/५४ पीठिका ३/२५१ पुण्ड्र ३/२६४ पुत्र-रूप ४/५ पुरन्दर ३/१०६ पुरोहित ३/४, ३७, ३८,४०,४२ पूर्ण ३/२७४ पूर्णभद्र ३/२६६,२७५ पूर्णरक्ष ३/२६६ पोरपत्य ३/४,४(भा.) प्रकीर्ण (क) ३/३७,२४७ प्रच्छद-पट ३/१७ प्रतिरूप ३/२७५ प्रभंकर ६/१०६ प्रभ ३/२७४ प्रभञ्जन ३/२७४ प्रभा ६/८४,८७ प्रस्तर ६/७२,६० प्राणत ३/२३,२४५,५/२२२, ६/१३७-१५० प्रासाद ३/५४,२५१ प्रासाद-पंक्ति ३/२५६ प्रासादावतंसक ३/२६१, २६६ प्रेतदेवकायिक ३/२५७ प्रेतकायिक ३/२५७ मण्डल ५/३-१२ मध्यम त्रैवेयक ५/२०८-२२४ महत्तरिका ३/७ महर्द्धिक (देव) ६/१६३-१६७ (भा.) महाकाल ३/२५६, २७४, २७५ महाकाल श्मशान ३/१०५ महाकाय ३/२७५ महाघोष ३/२५४,२७४ महादेव ३/३४ महानन्द्यावर्त ३/२७४ महापुरुष ३/२७५ महाभीम ३/२७५ महाराज ३/२४६-२७०; ४/३,४,६ महाविमान ३/२४६-२५१,२५६,२६१,२६६,४/३,४,५/८३,८८; ६/१२७; महाशुक्र ३/२३,५/८३,८८,२२२ महोरग ३/२७५ मणिभद्र ३/२६६, २७५ माहेन्द्र ३/२३,२४५:५/२२२; ६/७२,६०,१५० मोद ३/२६४ यक्ष ३/२७५६/१३७-१५० यम ३/२४७,२५६-२६०,२७२,२७७, ४/१ यमकायिक ३/२५७, २५८ यमदेवकायिक ३/२५७ बलि ३/१२,१४५,२७२ बलिचञ्चा ३/३७-४१,४५-५१ बालुक३/२५६ बुध३/२५४. बृहस्पति३/२५४ ब्रह्म (लोक) ३/२३,२४५, ५/२२२, ६/७२, ६०, ११५, १५० भ भवन ३/५,७,१२,५/१८५,२३७-२४७ राक्षस ३/२७५ राजधानी ३/२५१, २५६, २६१, २६६ राहू ३/२५४ रत्नावतंसक ३/४ रिष्ट (विमान देव) ३/२७४; ६/७२,६०,१०६,११०,११३ रिष्टाभ ६/१०६ रुचकेन्द्र ३/३८ रुद्र ३/३४,२५६ Jain Education Intemational Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई रूप ३/२७४ रूपकान्त ३/२७४ रूपप्रभ ३/२७४ रूपांश ३/२७४ ल लान्तक ३/२३, २४५ ५ / २२२ ६/१३७-१५० लोकपाल ३ आमुख, १,४४ (भा.), ६, ७, १४, १६, १८, २१,२२,३४,३७,११२, २४७-२७१,२४७ (भा.), २७७ ४ आमुख, १५ कान्तिक (देव) ६/११० लोकान्तिक विमान ६/ १०६, ११०, ११५-११८ लोहिवताथ (एक महाग्रह) ३/२५४ व वनी (इन्द्र) ७/१७३, १८२ वरशिष्ट ३ / २४८, २५६ वरुण ३/२४७, २६१-२६५, २७२, २७७ ४ / १, ५, ६, ६ / ११०, ११४; ७/१६३-२०७ वल्गू ३ / २४८, २५६, ४/२ वहि ६/११०, ११४ वरुण ६ / ११०, ११४ वरुणकायिक ३/२६२, २६३ वरुणदेव कायकि ३/२६२ वानमन्तर ३/१५, ११२, २६७, २७५ ५/५६-६१,६२, १६०, २२२, २४७, २५३, २५८ ६/१८५ ७/३६, ४८, २०५ वानमन्तरियां ३ / २६७ वायु (वात) कुमार ३ / २५२, २७४ ५/४५ वायु (वात) कुमारी ३/२५२; ५/४५ विकालक (ज्तोतिष्क देवकी जाति) ३/२५४ विचित्र ३/२७४ विचित्रपक्ष ३/२७४ ४१५ विजय ५ / २२२; ६ / १२१ विद्युत कुमार ३ / २५२, २७४ विद्युतकुमारियां ३/२५२ विमान ३/१७,२१,२७,४३,५४,७६, १०६, ११२, १५४-१५६, २४८, २५६, २६१, ४/१, २, ५ ५/८३, ८५, ८८, १०३ २०८-२२४, २३७-२४७; ६/७२, ६०, ११०, १११, ११३, ११५, ११८, १३७-१५०; ७/६६, २०७ विमानावास ३/१६ विशिष्ट ३/२७४ वेणुदाली ३/२७४ वेणुदेव ३/२७४ वेलम्ब ३/२७४ वैमानिक ३/१७,४६, ४७,६२, ११२, ११६, १८५, ४ आमुख; ५ / ६१,६२,७१, १०१, १०२, १२१, १६०, २१०, २४७, २५३, २५८ ६ / २६, ५४-६३, ६८, १०६, १५१,१५४, १७७, १८०, १८२, १८५, १८६ ७/२, १८, ३६, ४८, ५२, ५४, ५६, ६०,७१,७२,७३,७८,८१,८४,८७,६२, ६५, १०१, १०५, १०६, १०६, ११२, ११४, ११६, १४४, १६०, १६१ वैजयन्त ५ / २२२; ६ / १२१ वैरोचन ६/ १०६ वैरोचनराज ३ / १२, १४, २७२ वैरोचेनेन्द्र ३/१२,१४ वैश्रवण ३/३४, २४७, २६६-२७०, २७२, २७७ - कायिक ३/२६७, २६८ - -देवकायिक ३/२६७ शंखपाल ३/२७३ शंखपालक ३ / २६४ वैश्रमण ४/१,५ व्यन्तर ३ आमुख, ३४, १८३-१८५ ४ आमुख; ६/५४-६३, १३२; ७/६७-७३, १०५ व्यावर्त ३/२७४ शतक्रतु ३/१०६ शनिश्चर ३ / २५४ शबल ३/२५६ शमिता ३ / २८० शक्र ३ / आमुख १६-१८, २०, ५४-५६, ५८,६०,६२,६४,६६, ६८-७२, १०६-११३, ११५, ११६, ११६, १२०, १२३, १२४, १२६, १२७, १२६, १३१, २४५, २४६-२७०, २७७ ४ आमुख, ४ ५/७६ ७७ ७/१७७, १८६, १६१ शय्या ३/१७ शयनीय ( शय्या) ३/४७ शान्तिकर्मकांक्षी ३/३७ शालिभद्र ३/२६६ शिव ३/३४ परिशिष्ट १ (ख) नामानुक्रमः शुक्ला ६/१०६ शुक्र ३ / १७, २४५, २५४; ६ / १३७-१५० स ६/७२,६०,१५० सप्तपर्णावतसक ३/२४६ श सभा ३/१७ समिता ३ / २८० समृद्ध ३ / २६६ सर्व४/२ सर्वामण्डल ५/३-१२ देव सन्ध्याप्रभ ३ / २४८- २५१ सन्निवेश २०३० सत्पुरुष ३/२७५ सनत्कुमार ३ आमुख, २२,७२-७४,७६, २४५ ५/२२२ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ (ख) नामानुक्रमः देव · सर्वार्थसिद्ध ५/२२२ ६/१२१ सर्वाभ्यन्तर मण्डल ५/३-१२ सव्यान ३/२६६ सहस्राक्ष ३ / १०६ सहस्रार ३ / २३, ५ / २२२ ६/ १३७-१५० सामानिक ३/४ ७, ४ ( भा. ) १३-१८, २१, २२, २७, ३७, ७८, १०६, १११, ११२,१२८, १२६, २४५, २४५, (भा.), २४७ सारस्वत ६/११०, १११, ११४ सिंहगति ३/२७४ संह विक्रमगति ३ / २७४ सिंहासन ३ / ७८, ११३, १२७ सुधर्मा सभा ३ / ७८, १०६, ११२, १२७, २५१ सुपर्णकुमार ३/२६७,२७४ सुपर्णकुमारियां ३/२६७ सुप्रतिष्ठाभ ६/१०६ सुप्रभकान्त ३/२७४ सुमन ४/२, ३, ४ सुर ५/१०३-१०६ सुर-असुर ३/६० सुरूप ३/२७५ सुवल्ग ४/२ सूरज ३/२४६ सूराभ ६/१०६ सूर्य ३/२१,३२,३३,३६; ५/१, ३-१२, ३-१२ (भा.), २१, २४,२६,२३७-२४७, २४८-२५३, ६/८३, ८४, १००,०१, १३३, १३४, १४३, १४४, १४८, १५०; ७८११७, १२० - की अवस्थिति ५/३-१२ सूर्य किरण ५/२३७-२४७ ४१६ सूर्य-रश्मि ५/२३७-२४७ सूर्याभ (देव)३/२७ सूर्या विमान ३/२५० सेना ३/४, १४, १६, १७ सेनापति ३ / ४, ४ (भा.), १४, १६, १७ सेनापतित्व ३ / ४, ४ (भा.) सोम ३/२४७, २४६-२५६, २६१, २६६, २७२, २७७ ४/१, ३, ४ सोमकायिक ३/२२२, २५३ सोमदेवकायिक ३/२५२ भगवई सोमा ३/२५१ सौधर्मकल्प ३ / १७,२२,८०, ८६, ६०, ६३, ६७, १०६, ११२, ११५, ११६, १३१, १३१ (भा.), २५०, २५६, २७५ ५/२२२६ / ७२,१४५ ७/२०७ सौधर्मकल्पवासी ३/६० सौधर्मवर्ती ३/२५१ सौधर्मावतंसक ३/१०६, ११२, १४६, २५०, २५६, २६१,२७६ सौरमण्डल ५ आमुख २३७-२४७, २४८-२५३६/१३२,१३४ स्कन्द ३/३४ (भा.) स्तनितकुमार ३/१५,२६२, २७४ ५/१८६, २४२, ६ / १२, ५६, १२३; ७/१०४, १४० स्तनितकुमारियां ३/२६२ स्फटिकावतंसक ४/३ स्वयञ्जल ३ / २४८, २६६ स्वर्ग ३ आमुख ५/५ ६/१-४,१३७-१५०, ७/६७-७३, १४६-१४६ स्वर्गलोक ६/७२ स्वामित्व ३/४ हरि-नैगमेषी ५/७६,७७ (भा.) हरिरसह ३/२७४ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. ३. ४. ५. ७. ८. अच्छ (ऋक्ष) ३/ २०१-२१० Sloth Bear रीछ ६. आ आस (अश्व) ३/६५, २०६-२१० Horse-arşı अ House Crow कौवा, देशीकौवा, घरेलू कौवा ६. कुंथु (कुंथु) ७/१५८, १५८- १५६ (भा.) Very Very Small Insect क कंक (कड़) ७/१२३ White Bellied Sea Eagle कोहासा, सफेद चील, फंक कच्छभ (कच्छप ) ३/१०२, ७ / १२० Tortoise, turtle कछुआ (क) ३/१०२ गय (गज) ७/१७७, १८४ Elephant हाथी कुक्कुट (कुक्कुट) ७/२४ Gray Jungle Fowl मुर्गा, जंगली मुर्गा, घुसरवन, कुक्कुट ख खंजन (खंजन) ६४ Largepied Wagtail- मग्मुला, खंजन, बृहत्-शल खंजन ग ज १०. जूया (यूका ) ६ / १२५, १३४, १७१,१४२ Louse परिशिष्ट-१ (ग) पशु-पक्षी ढ ११. ढंक ( ढंक) ७/१२३ Jungle Crow जंगली कौवा, डाल कौवा, द्रोण काक, ढींकड़ा (राज०) बड़ा काक त १२. तरच्छ (तरक्ष) ३ / २०६-२१० Hyena लकडबग्घा द १३. दीविग (द्विपिक) ३ / २०६-२१० Leopard चित्तीदार तेंदुआ १४. दीविय (द्विपिक) ३/२०६-२१० Spotted Dove चित्रक, पारावत, चित्ता पाखता, प प १५. परस्सर (पराशर) ७/१२२ Wombat - वाम्बेट, पराशर १६. परासर (पराशर) ३ /२०६-२१० A fabulous animal-अष्टापद, शरभ, पराशर, म १७. मग्गुक ( मद्गुक) ७/१२३ Snake-bird or Darter जलीय जंतु, जलकाक, पनडुब्बी, बानकी १८. मच्छ ( मत्स्य) ३/१०२; ७/१२० Fish - मत्स्य १६. मिय (मृग ) भग० ६ / १३५ Dear - सामान्य हिरण ल २०. लिक्ख (तिथा ६/१२५, १३४ Lesser Florican-लिख, खरमोर लिक्ख (लिक्ष) ६ / १२५,१३४ Anit, A Tiny Louse लिक्ष व २१. वग्घ (व्याघ्र ) ३ / २०६-२१० Tiger- बाघ २२. विग (वृक) ३ / २०६-२१० Wolf-भेडिया २३. विलय (विलय) भग० ७ / १२३ Golden Oriole-पीलक स २४. सिहि (शिखिन् ) ७/१२३ Common Peacock मोर २५. सिद्धि (शिखिन् ७/१२३ Red Jungle Fowl-gat परिसर Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (ग) नामानुक्रमः पशु-पक्षी ४१८ भगवई २६. सीह (सिंह) ३/११२, २०६, २१० Lion-शेर, सिंह २७. सुणय (शुनक) ३/१०२ Dog-कुत्ता २८. हत्थि (हस्तिन्) ३/६५,११२;७/१५८,१५६,१५८-१५६ (भा.) Elephant-Eteft २६. हय (हय) ७/१७७, १८४ Horse-घोड़ा Jain Education Intemational Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ भाष्य-विषयानुक्रम अंक ३/४ अंजण ३/४ अंजणपुलक ३/४ अंतक्रिया ३/१४३-१४८ अंतकर ५/७६.८२ अंतकर, अन्तिम शरीरी ५/६४-६६ अंतिमसरीरिय ५/७६-८२ अंधकारमय (निरालोक) ७/११७ अकर्म ७/१०-१५ - की गति ७/१०-१५ अकाम-निकरण ७/१५०-१५४ अकिट्ठ ३/१२६ अक्खसोयपमाणमेतं ७/१२० अगड ५/१८२-१० अगिला ५/७८-८२ अग्नि की दो अवस्थाओं का सापेक्ष प्रतिपादन ५/१३३ अग्रमहिषी (अग्गमहिसी) ३/२२ अग्लान भाव ५/१४७ अच्चासायित्तए ३/११२ अच्छ ३/२०९-२२० अच्छरानिवाएहिं ६/१७१-१७३ अट्टालक ५/१८२-१९० अणवदग्ग ५/२५४-२५७ अणिच्चजागरिया ३/३६ अतिचरण ७/६,७ अतिपात ७/६,७ अतिमुक्तक का जीवन-वृत्त ५/७८-८२ अनगार ३/२२२-२३०,२३१-२३६ अनन्तर ५/३-१२ अनवकल्प६/१३२ अनादेय वचन ७/११६ अनार्य ३/२५३ अनाहूत ७/२५ अनुत्तरोपपातिक देव, उपशान्त मोह ५/१०७ अनेषणीय ५/१२४-१२७ अन्यथाभाव ३/२२२-२३० अपत्थियपत्थए ३/१०६ अपने वीर्य ५/११०,१११ अपरिभुक्त (अहय) ६/२०-२३ अपवाद ३/२६३ अप्राशुक ५/१२४-१२७ अप्फोडइ ३/११२ अबीज ६/१२९-१३१ अभिसमन्वागत ५/११२,११३ अभिसमागच्छति ५/१४८ अभ्याख्यान ५/१४८ अभ्याख्याति ५/१४८ अभ्याख्यानी के कर्म-बन्ध ५/१४८ अभ्र ३/२५३ अभ्रवृक्ष ३/२५३ अमनस्क-समनस्क जीवों की वेदना ७/१५०-१५४ अमुय ३/२५३ अमोघा ३/२५३ अयकवल्ल ३/१४३-१४८ अर (समा) ७/११७ अरयंबरवत्थधरं ३/१०६ अलंघ्य (खिलीभूताई) ६/१-४ अलीक ५/१४८ अलोभनीय रूप में (अभिज्झियत्ताए) ६/२०-२३ अल्प आयुष्य और दीर्घ आयुष्य का बन्ध ५/१२४-१२७ अल्प आहार ७/२ अल्पोत्सुक ३/१०६ अवलिप्त ६/१२६-१३१ अविशुद्ध लेश्या आदि देव का ज्ञान-दर्शन ६/१६८,१६६ अव्यथाभाव ३/२२२-२३० अष्टममक्त ३/१०५ असंयत ७/५४-५७ असंवृत अनगार द्वारा विक्रिया ७/१६७-१७२ असद्भूत ५/१४८ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य-विषयानुक्रम ४२० भगवई आस्वादमान, विस्वादमान ३/३३ आहत नाट्यों, गीतों ३/४ आहार-उद्देशक ६/१८ आहारक-अनाहारक ७/१ इड्डरअ ७/१५८-१५६ इन्द्र ३/३४ - और पुरोहित से रिक्त थी (अजिंदा अपुरोहिया) ३/३६ - कील ३/११२ - के विविध नाम-मघवा, पुरन्दर ३/१०६ - ग्रह ३/२५८ इन्द्रिय और इन्द्रिय-विषय ७/१२७-१४५ इन्द्रिय-ज्ञान और केवली ५/१०६-१०६; ६/१८७,१८८ इन्धन-रहित ७/१०-१५ इह-पर-भविक आयुष्य का वेदन ५/५७,५८ ईर्यापथिकी क्रिया ३/१४३-१४८ असारगल्ल ३/४ असुरकुमार देवों के सौधर्म कल्प में जाने का हेतु ३/१३१ असुहदुक्खभागी ७/११६ अहरन (अहिरगणी) ६/१-४ अहालहुस्सगाई ३/९० आ आइण्ण ३/४ आउट्टति ७/६,७ आकडविकढिहिं ३/४५ आकार और भाव में अवतरण (आगारभावपडोयारे) ६/१३५ आकार-पर्याय का अवतरण ७/११७ आचार्य-उपाध्याय ५/१४७ आचार्य-उपाध्याय की सिद्धि ५/१४७ आच्छादन ७/१७७ आज्ञा ३/५१ आज्ञा-ईश्वर-सेनापत्य ३/४ आढाह ठितिपकप्पं पकरेह ३/३८ आत्मरक्षक ३/४ - देव सामानिक से चारगुना ३/२४५ आत्मा (आया)६/२०-२३ आत्मागम, अनन्तरागम, परम्परागम ५/६४-६६ आदान ५/१०८,१०६ आदेश (वचन)३/५१ आधाकर्म ५/१३९-१४६,७/१६५ - आदि आहार ५/१३६-१४६ आधिपत्य ३/४ आधोवधिक, परमाधोवधिक ७/१४६-१४६ आनुकम्पिक ३/७३ आपण ५/१८२-१६० आभियोगिक ३/२५७ आयत ५/१३४-१३५ आयुष्य-बन्ध ६/१५१ आयुष्य का प्रतिसंवेदन वर्तमान जीवन में ७/१०२ आयुष्य का बन्ध किस अवस्था में ७/१०६ आयुष्य की क्रम-श्रृंखला ५/५६-६१ आयुष्य-बन्ध का निर्धारण ७/१०१ आरगत ५/६५-६७ आरम्भ ३/१४३ से १४८ आराधक ३/७२ आराम ५/१८२-१६० आर्द्रमल (पंकिय) ६/२०-२३ आर्या ३/३४ आलिसंदग ६/१२-१३१ आसुरुत्त ३/४५ उक्कुडुअट्ठिग ७/११६ उग्गुंडिय ७/११६ उच्चं पणामं करेइ, नीयं पणामं करेइ ३/३४ उच्चतर, उन्नततर ३/५४ उच्छोलेइ पच्छोलेइ ३/११२ उच्छन्न ३/२६८ उच्छ्तिोदय ३/१६४-१७१ उज्ज्वल ५/१३८ - नेपथ्य से युक्त ७/१७५ उज्झर ५/१८२-१६० उत्कलिकावात ३/२५३ उत्तरवेउव्वियं रूवं ३/११२ उदकमत्स्य ३/२५३ उदकोत्पीड ३/२६३ उदकोझेद (उदब्भेया) ३/२६३ उदीरणा ३/१४३-१४८ उद्दाल६/१३५ उद्द्योत और अन्धकार ५/२३७-२४७ उद्वेजक (उज्वेयग) ३/२५८ उपकरण ५/१८२-१९० उपपात ३/५१ उल्कापात ३/२५३ उवग्गह (उपग्रह) ५/१३४-१३५ उवगिण्हह ५/७८-८२ उव्वहइ ५/१३४,१३५ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४२१ भाष्य-विषयानुक्रम उस्सण्ण ७/१८१ ऊर्ध्व मृदंग के आकार वाला ५/२५४-२५७ ऋ ऋद्धि ३/२२२-२३० एक पदार्थ से हजारों पदार्थ निर्माण करने की क्षमता ५/११२,११३ एक पुद्गल पर दृष्टि टिका, नेत्रों को अनिमेष बना (एगपोग्गलनिविट्ठदिट्ठी अणिमिसणयणे) ३/१०५ एकत: पताक ३/१६४-१७१ एक युवती का................गाड़ी की नाभि (जुवती जुवाणे चक्कस्स वा नाभी) ३/४ एक समय में एक ही क्रिया ७/६७ एकहस्तिका ७/१७७ एकान्त दण्ड ७/२७-२८ एकान्त पण्डित ७/२७-२८ एकान्त बाल ७/२७-२८ एगन्तसो खयं (केवल क्षय)३/३३ एजन ३/१४३-१४८ एमहिड्ढिए ३/४ एवंभूत अनेवंभूत वेदना का वेदन ५/११६-१२१ एषित ७/२५ कर्म का बन्ध किसके होता है ६/३५-५१ कर्म का सादि-अनादित्व ६/२७-२६ कर्म के करण ६/१५२-१५४ कर्म-प्रकृति-बन्ध ६/१६२ कर्म-प्रकृति-बन्ध-विवेचन ६/३३,३४ कर्म-बन्ध के हेतु और निमित्त ६/२०-२३ कल (धान्य) ६/१२६-१३१ कलई पर चमड़े की पट्टी बांधी ७/१७६ कवेल्लक ३/४८,७/११८ कानन ५/१८२-१६० कान्तार-भक्त ५/१३६-१४६ काल की अपेक्षा सप्रदेश-अप्रदेश ६/५४-६३ काल के प्रभाव से ७/११७ काल-चक्र ६/१३३,१३४ कालोदायी की जिज्ञासा ७/२१८-२२० काहला (खरमुही) ५/६४ कितनी महान ऋद्धिवाला (केमहिड्डिए) ३/४ कुटुम्बजागरिका ३/३३ कुणिमाहार ७/१२१ कुमारग्रह ३/२५८ कुलत्थ ६/१२६-१३१ कुशल आचार्य ७/१७५ कुस ६/१३५ 'कुस-विकुस'-विसुद्ध ६/१३५ कुसुंभग ६/१२६-१३१ कूट ५/१८२-१६० कूटागारशाला (कूडागारसाला)३/२६७/१५८,१५६ कृष्ण कन्द ७/६६ केलूट ७/६६ केवल क्षय ३/३३ केवलि-उपासक ५/६४-६६ केवलि-श्रावक ५/६४-६६ केवली ७/१४६-१४६ केवली के मन का अस्तित्व ५/१००-१०२ कोट्ट क्रिया ३/३४ कोद्दव ६/१२६-१३१ कोसग ६/१२६-१३१ कोद्दाल ६/१३५ कोलस्थिग (कोलट्ठिग) ६/१७१-१७३ कोष्ठ (कोट्ठ) ६/१२६-१३१ क्रिया ३/१३४-१३६ - की सघनता और विरलता का निरूपण ५/१२८-१३२ - और वेदना ३/१४०-१४२ क्रीतकृत ५/१३६-१४६ क्षार जल वाले मेघ ७/११७ ऐर्यापथिकी, साम्परायिकी क्रिया किस के हो ७/२०,२१,१२५,१२६ एरण्ड फल ७/१०-१५ औ औपमिक काल ६/१३३,१३४ औषधि ७/११७ कंगु ६/१२६-१३१ कक्खागयसेयं पिव ३/११४ कक्षा-कोथ ३/२५८ कच्छुकसराभिभूय ७/११६ कठिन मल (मइल्लिय) ६/२०-२३ कडुच्छ्य ५/१८२-१६० कण्णायत ५/१३४,१३५ कन्दर्प ३/२५७ कन्दराग्रह ३/२६८ कपिहसित ३/२५३ करण ६/५-१४ कर्कश ५/१३८ - अकर्कश वेदनीय कर्म ७/१०७-११२ कर्दम राग से रंगा हुआ ६१-४ कर्म आत्म कृत ६/२४-२६ Jain Education Intemational Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य-विषयानुक्रम ४२२ भगवई क्षीरविदारी ७/६६ क्षेत्रातिक्रान्तादि पान-भोजन ७/२४ ख खंजन राग से रंगा हुआ ६/१-४ खर-परुष ७/११७ खातिका ५/१८२-१६० खाद के समान रस वाले मेघ ७/११७ खार ३/२५८ - भवस्थ ३/१३१ चरिका ५/१८२-१६० चलन ३/१४३-१४८ चलणी (चरण-प्रमाण कर्दम)७/११८ चंडिक्किय ३/४५ चारों गतियों के साथ आयुष्य का सम्बन्ध ५/६२ चारित्र मोह की प्रकृति-कषाय और नोकषाय ५/६८-७१ चिकने किए हुए ६/१-४ चित्रल ७/११६ चिन्तन में ३/११४ चिल्लल ५/१८२-१६० चूर्णवर्षा ३/२६८ चेटक और कोणिक का युद्ध ७/१७३ चौबीस दण्डकों में उपचय, अपचय, उपचय-अपचय ५/२२५-२३३ चौबीस दण्डकों में वृद्धि, हानि, अवस्थिति ५/२०४-२२४ च्यावित ७/२५ च्युत ७/२५ गंडमाणिया ७/१५८-१५६ गन्धर्वनगर ३/२५३ गणनाकाल ६/१३२ गर्भ-संहरण की प्रक्रिया ५/७६-७७ गले का सुरक्षा-कवच पहना ७/१७६ गवेलय ७/११७ गाडी के पहिए की धुरी पर किए जाने वाले प्रक्षण ७/२५ गाढ़रूप में किए हुए ६/१-४ गिरिगृह ३/२६८ गिल्ली ३/१६४-१७१ गुंजालिका ५/१८२-१६० गुञ्जावात ३/२५३ गुच्छ ७/११७ गुल्म ७/११७ गोकिलिंञ ७/१५८,१५६ गोधूम (गोधूमाणं) ६/१२६-१३१ गोपुर ५/१८२-१६० ग्रहगर्जित ३/२५३ ग्रहदण्ड ३/२५३ ग्रहमुशल ३/२५३ ग्रहयुद्ध ३/२५३ ग्रहसिंघाटक ३/२५३ ग्रहापसव्य ३/२५३ ग्लान-भक्त ५/१३६-१४६ छद्मस्थ ७/१४६-१४E - और केवली के बीच जानने-देखने में भेदरेखा ५/६४-६६ - और केवली के बीच नींद के आधार पर भेदरेखा ५/७२-७५ - और केवली के बीच शब्द सुनने में भेदरेखा ५/६५-६७ छवि ७/११६ जइणवेग ३/११३ जम्बूद्वीप में सूर्य-वक्तव्यता ५/३-१२ जिमियभुत्तुत्तरागय ३/३३ जीवधन ५/२५४-२५७ जीव और चैतन्य ६/१७४-१८२ जीव का सादि-अनादित्व ६/३०-३२ जीवाजीवाभिगमे के ३६ सूत्रों का संक्षेप ७/६६ जीवा-प्रत्यञ्चा ५/१३४,१३५ जीवों की प्रवृत्ति-आरम्भ और परिग्रह ५/१८२-१६० जूरावण ३/१४३-१४८ जोईरस ३/४ ज्ञाति ३/३३ ज्ञान और शक्ति का भेद ५/११०,१११ घट्टन ३/१४३-१४८ चंद्र-परिवेश ३/२५३ चक्रवाल ३/१७२-१८२ चक्षुविक्षेप ३/११३ चय-उपचय ६/२०-२३ चरम ३/७२ - कर्म ५/६४-६६ - निर्जरा ५/६४-६६ झञ्झावत ३/२५३ झल्लरी (झल्लरी) ५/६४ to टंक ५/१८२-१६० टीले (उत्थल) ७/११७ टोलगति ७/११६ Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ठाणं ठाइ ५/१३४, १३५ णवि ५/३-१२ हारू (स्नायु) ५/१३४, १३५ डमर ३ / २५८ डाल कर (आगुत्ताणं) ६ / १२६-१३१ डिंब ३/२५८ डूंगर (डोंगर) ७/११७ तंतुग्गव ६/२०-२३ तंत्री ३/४ 5 वनस्पतिकायिक ७/११७ - हस्तक ३/१४३-१४८ त्रपु - आकार (तउयागरा) ३ / २६८ त्रिपदी का छेद करता है ३/११२ ड तत, वितत, घन, शुषिर ५ / ६४ तत्तकव्वेलयभूया ३ / ४८; ७ /११८ तत्तसमजोतिभूया ३ / ४८; ७ /११८ तत्पाक्षिक (तप्पक्खिय) ३ / २५२ तत्पाक्षिक ५/६४-६६ भक्ति (तमत्तिए) ३/२५२ तदभा (तभारिए) ३/२५२ थिल्ली ३ / १६४ - १७१ तथाभाव ३ / २२२-२३० तमस्काय और कृष्णराज ६/७०-११८ दग्ध (झाम) ७/११६ दद्दुकिडिभसिभ ७/११६ दर्शन विपर्यय ३/२२२-२३० ण तरच्छ ३ / २०६ -२२० तसिय ३/४६ तहेब ३/११४ तापस-पात्र तुल्य पात्र (किढिणपडिरूवग) ७/१८६ ताल ३/४ तावत्त्रिंशक ३/४ तिगिंछिकूडे उप्पायपव्वए (तिगिंछिकूट उत्पातपर्वत) ३ / ११२ तिप्पावण ३/१४३ - १४८ तिल ६/१२६-१३१ तुरियाए ..... उद्ध्याए ३/३८ तृण ७/११७ त थ द ४२३ ! दानामा ३ / १०२ दिग्दाह ३ / २५३ दिडा ३/३६ दीक्षा पर्याय का साथी (परियायसंगतिए) ७/१९१ दीवचंप ७ / १५८, १५६ दीविय ३/ २०६ - २२० दुन्दुभि (दुंदुभि) ५/६४ दुर्गम ५/१३८ दुर्बल शरीर वाले का भोग परित्याग ७/१४६-१४६ दुर्भिक्ष भक्त ५/१३६ - १४६ दुर्भूत ३/२५८ दुर्दृष्टि ३/२६२ दुःखवाद ६/१८३-१८५ दुःखापन ३/१४३-१४८ दुःखी के दुःख का स्पर्श आदि ७/१६-१६ दुःषम - दुःषमा काल में होनेवाली पर्यावरणीय परिस्थिति ७/११७-१२३ दुःसह ५/१३८ दृष्टिप्रतिघात ३/११३ देवकुल ५१८२ - १६० देवराज ईशान को दिव्य ऋद्धि कैसे प्राप्त ३/३० देववाद का सिद्धान्त ३ / २५०-२७७ ति ३/२२२-२३० द्विधा पताक ३/१६४-१७१ भाष्य-विषयानुक्रम धन ३/३३ धणुपद्ध (धनु: पृष्ठ) ५/१३४, १३५ धान्दों की योनि और स्थिति ६ / १२६-१३१ धूमिका, महिका ३/२५३ ध्यानान्तरिका ५/८३-८८ ध न न असार होते हैं (नो कुच्छेज्जा ६/१३२,१३४ नगर की तत्त्वपरक व्याख्या ५/२३५, २३६ नगरनिद्धमण ३/२६८ नन्दीश्वर द्वीप पर जाने के हेतु ३/८६,८७ नवकोटिपरिसुद्ध ७/२५ नाट्यविधि ३ / ७८ नाभि ३/४ नारकीय जीवों की वेदना ३/६२ नारकीय जीवों को वेदना कौन देता है ३/८४ नारकीय जीवों की वेदना ७/१६२ निःसत्य किए हुए ६/१-४ निगोद ७/११६ निजक ३/३३ निद्रुहंति ३/४५ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य-विषयानुक्रम ४२४ भगवई निप्फाव ६/१२६-१३१ निधान ३/२६८ निधि ३/२६८ नियोग ७/११६ निरञ्जन ७/१०-१५ निरन्तर तेज आघात (परंपराघाएणं) ६/१-४ निरुपक्लिष्ट ६/१३२ निर्जर ५/१८२-१९० निर्देश ३/५१ निवण्ण ३/३६ निश्रा के तीन कारक ३/६५ निस्संगता ७/१०-१५ निस्सेसकामए ३/७३ नैरयिक आदि के आवास व मारणान्तिक समुद्घात ६/१२०-१२८ नैरयिक जीवों की विक्रिया ५/१३८ नैश्रेयसिक ३/७३ पच्चोवयमाण ५/१३४,१३५ पच्छियापिडअ ७/१५८-१५६ प्रभु ७/१५०-१५४ पञ्चास्तिकाय ७/२१२-२१७ पटह (पडह) ५/६४ पठार (भट्टी) ७/११७ पणव (पणव) ५/६४ पणामा प्रव्रज्या ३/३४ पतद् उदय ३/१६४-१७१ पत्तण (पत्रण) ५/१३४,१३५ पथ्य ३/७३ पद्मगंध (पम्हगंधा)..... शनैश्चारी (सणिंचारी) ६/१३५ पन्द्रह परमाधार्मिक ३/२५६ परमाणु व स्कन्ध का अन्तरकाल ५/१७५-१८० परमाणु व स्कन्ध का छेदन आदि ५/१५४-१५६ परमाणु व स्कन्ध का द्रव्यादेश आदि ५/२०१-२०७ परमाणु व स्कन्ध का पस्पर अल्पबहुत्व ५/१८१ परमाणु व स्कन्ध का सार्द्ध आदि ५/१६०-१६४ परमाणु व स्कन्ध की पस्पर स्पर्शना ५/१६५-१६८ परमाणु व स्कन्ध की संस्थिति ५/१६६-१७४ परमाणु व स्कन्ध में एजन आदि ५/१५०-१५३ पराकाष्ठा पर होगा ७/११७ परामुसइ ५/१३४,१३५ परिखा ५/१८२-१६० परिणामवाद-तद्प/तन्मय पर्यायवाद का निरूपण ५/५१-५४ परिजन ३/३३ परिजानाति ३/३३ परितावण ३/१४३-१४८ परिभाजयन ३/३३ परियारेमाणा ३/६० परीत ५/२५४-२५७ परीत-संसारी ३/७२ पर्यंकासन ३/१६४-२०८ पर्वग ७/११७ पलिमंथग ६/१२६-१३१ पल्य (पल्ल)६/१२६-१३१ पल्वल ५/१८२-१६० पाण ३/३४ पायदद्दरगं (पैरों से भूमि पर प्रहार करता है)३/११२ पारगत ५/६५-६७ पापित्यीय स्थविर ५/२५४-२५७ पाषण्डस्थ ३/३६ पिट्टावण (पीटना) ३/१४३-१४८ पिण्डहरिद्रा ७/६६ पिहित ६/१२६-१३१ पुद्गलों का आहरण कहां से ६/१८६ पुरुषादानीय ५/२५४-२५७ पुलग (पुलक) ३/४ पुष्करणी ५/१८२-१६० पूर्व जन्म का मित्र (पुव्वसंगतिए) ७/१६१ पृथक्त्व सूत्रों ५/६८-७१ पृथ्वी आदि में गेहा आदि ६/१३७-१५० पौरपत्य ३/४ प्रकाम-निकरण ७/१५०-१५४ प्रकृष्ट अवस्था (उत्तिमट्ठपत्त) ६/१३५ प्रणीत ५/१००-१०२ प्रतिचन्द्र ३/२५३ प्रतिमा-प्रतिपत्रक ६/१५,१६ प्रतिसंवेदयति ५/१४८ प्रतिसूर्य ३/२५३ प्रत्याख्यान ६/६४-६८ प्रत्याख्यात ७/११ प्रपा ५/१८२-१६० प्रभूत ७/१०-१५ प्रमत्त संयम, अप्रमत्त संयम ३/१४६-१५० प्रवाल ७/११७ प्रशस्त निर्जरा का श्रेष्ठत्व ६/१-४ प्रहीणसेतुक ३/२६८ प्रहीणगोत्रागार (पहीणगोत्तागार) ३/२६८ प्राकार ५/१८२-१६० Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४२५ भाष्य-विषयानुक्रम प्राग्भार ३/१०५, ५/१८२-१६० प्राप्त ५/११२-११३ प्राय: समतल और रमणीय (बहुसमरमणिज्ज) ६/१३५ प्रासाद ५/१८२-१६० फल ५/१३४,१३५ फलिह ३/४ फासु ७/८,६ फुट्टसिरा ७/११६ फुल्लकिंसुअसमाणं (विकसित किंशुक (टेसू) पुष्प के समान रक्त) ३/११३ बंध ६/२०-२३ बत्तीसविहं नट्टविहिं (बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियां) ३/३८ बलिकर्म ....... प्रायश्चित ७/१७६ बादर वनस्पति के दो प्रकार ७/६६ बाण फेंकने वाले व जिन जीवों के शरीर से बाण, जीवा आदि का निर्माण हुआ वे जीव कितनी क्रियाओं से स्पृष्ट ५/१३४,१३५ बार्दलिका-भक्त ५/१३६-१४६ बालतवोकम्मेणं, बालतवस्सी ३/३५,३६ बाहरी पुद्गलों का ३/१८६, २०६-२२० बिलपंक्ति ५/१८२-१६० बिलों ७/११६ बेभेल सन्निवेश ३/१०० बोल ३/२५८ मग्गओ ७/१५०-१५४,७/१८६ मचान (मंच) ६/१२६-१३१ मणि ३/३३ मसमसाविज्जइ ३/१४३-१४८ मसारग्गल्ल (मसृण पाषाणमणि) ३/४ मसूर ६/१२६-१३१ महानिर्जरा ७/१४६-१४६ महर्द्धिक देव द्वारा विक्रिया ६/१६३-१६७ महापर्यवसान ६/१-४;७/१४६-१४६ महायुद्ध, महासंग्राम ३/२५८ महार्घ्य ३/२६८ महावेदना-महानिर्जरा ६/१५,१६ मांसाहार ७/१२१ मानसिक प्रश्न और मानसिक उत्तर ५/८३-८८ मानसिक संप्रेषण ५/१०३-१०६ मायी ३/२२२-२३० - मिथ्यादृष्टि, अमायी सम्यग् दृष्टि ५/१००-१०२ माल (माल) ६/१२६-१३१ मास ६/१२६-१३१ मिथ्यादृष्टि ३/२२२-२३० मिसिमिसेमाण (क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त)३/४५ मुग्ग (मूंग) ६/१२६-१३१ मुद्रित ६/१२६-१३१ मुरज (वाद्य) का मुखपुट (आलिंगपुक्खरे) ६/१३५ मूलगुण प्रत्याख्यान-उत्तरगुण प्रत्याख्यान ७/२६-३५ मूलगुण प्रत्याख्यानी-उत्तरगुण प्रत्याख्यानी ७/३६-४२ मूलाबीय (मूलक बीज) ६/१२६-१३१ मृदंग ३/४ मोक्षवाद ५/११५;७/१५६-१५७ भंभा (भंभा) ५/६४ भगवान महावीर का अर्ध मागधी भाषा में प्रवचन ५/६३ भगवान महावीर द्वारा स्वीकृत प्रतिमा ३/१०५ भद्रमुस्ता ७/६६ भयंकरी ७/११७ भयाणीय (भयानक) ३/११२ भर्तृत्व ३/४ भवनगृह ३/२६८ भवसिद्धिक ३/७२ भावितात्मा ३/१५४-१६३,२२२-२३०,२३१-२३६ भाण्ड ५/१८२-१६० भूतग्रह ३/२५८ भूमि-निर्झर ७/११७ भृकुटी ३/४७ भेरी (भेरी) ५/६४ यक्षग्रह ३/२५८ यथापत्याभिज्ञात (अहावच्चाभिण्णाय) ३/२५५ यथाप्रणिहित ३/१०५ यथोद्दीप्त ३/२५३ यव (जवाणं) ६/१२६-१३१ यवयव (जवजवाणं) ६/१२६-१३१ यश ३/२२२-२३० यावत् ६/१६३-१६७ युग्य ३/१६४-१७१ युवक युवती का ........... गाड़ी की नाभि (जुवती जुवाणे........ चक्कस्स वा नाभि) ३/४ यूपक ३/२५३ योनि ६/१२-१३१ मंडलिकावात ३/२५३ मउडविडवे (मुकुट-विटप)३/११४ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य-विषयानुक्रम ४२६ भगवई योनि-विच्छेद ६/१२६-१३१ रक्तरत्न ३/३३ रचित ५/१३६-१४६ रज उद्घात ३/२५३ रजकणों से सना हुआ (रइल्लिय) ६/२०-२३ रत्न ३/३३ ___ -प्रभा पृथ्वी ३/८१ रनि ७/११ रहपह (रथपथ) ७/१२० राजपिंड ५/१३६-१४६ रालग (कंगु धान्य का एक प्रकार) ६/१२६-१३१ रिट्ट (रिष्ट) ३/४ रुद्र ३/३४ रूप ३/२२२-२३० रेरिज्जमाण (दीप्यमान) ७/६३ लता ७/११७ लब्ध ५/११२-११३ लयन ५/१८२-१६० लवणादि समुद्र ६/१५५-१६० लांछित ६/१२६-१३१ लिप्त ६/१२६-१३१ लेश्या और पुनर्जन्म ३/१८३-१८५ लेश्या का परिवर्तन ४/५ लेश्या के दो प्रकार-द्रव्य व भाव ७/६७-७३ लेसेति (चोट पहुंचाता है) ५/१३४,१३५ लोक का संस्थान ७/३ लोकपाल ३/४,२४७ लोह कवच को धारण किया ७/१७६ लोह कडाह ५/१८२-१६० लोहियक्ख (लोहिताक्ष) ३/४ लौही ५/१८२-१६० वग्धारिय (प्रलम्बित) ३/१०५ वज्रतुल्य ७/१७७ वत्तेति (वर्तुल बनाता है) ५/१३४,१३५ वन ५/१८२-१६० - राजि ५/१८२-१६० वनषण्ड ५/१८२-१६० वनस्पतिकायिक जीवों का आहार और ऋतुएं ७/६२ वनस्पतिकायिक जीवों का ग्रीष्म ऋतु में फलना-फूलना ७/६३ वप्पिण (क्यारी-युक्त खेत) ५/१८२-१६० वयर (वज्र) ३/४ वरग (चीना धान्य) ६/१२६-१३१ वरवज्रविग्रहिक ५/२५४-२५७ वर्णवर्षा ३/२६८ वर्तमान व भावी जीवन की वेदना ७/१०३-१०५ वल्ली (बेल) ७/११७ वसुधारा ३/२६८ वाणी का विवेक ५/६६-६२ वातमंडलिका ३/२५३ वातुल ७/११७ वातोत्कलिका ३/२५३ वातोद्धाम ३/२५३ वायुकायिक जीवों का आन, अपान, उच्छ्वास-नि:श्वास, कायस्थिति, सशरीर-अशरीर निष्क्रमण ५/४६-५० वायु के प्रकार, गति-क्षेत्र और गति ५/३१-४५ विकुव्वेमाणा ३/६० विकुस ६/१३५ विग्घ ३/२०९-२२० विज्झडिय ७/११६ विउभाएमाणे ३/११२ वितिकिण्ण ३/४ विडंवइ ३/११२ विन्ध्यगिरि (विंझगिरि) ३/१०० विपरिणमन को प्राप्त किए हुए ६/१-४ विपुल ५/१३८ विभंगज्ञान का विपर्यय ५/१३६-१३७ विमलवर चिह्नपट्ट बांधे, आयुध और प्रहरण लिए ७/१७६ विमात्र ६/५-१४ विरावहिंति-विराय (विरात) ७/११७ विसय (विषय) ३/४ विसुद्ध ६/१३५ विस्रसा (वीससा) (स्वाभाविक) ३/१०६६/२४-२६ वीणा (पिरिपिरिया) ५/६४ वृक्ष (रुक्ख) ७/११७ - के दस अंग व परस्पर स्पृष्ट व आहार ७/६४,६५ वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणइ (वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है)३/४ वेदक आदि जीवों का अल्पबहुत्व ६/५२ वेदना और निर्जरा ७/७४-६२ वेरुलिय (वैडुर्थ) ३/४ वेहास (विहायस, आकाश) ५/१३४,१३५ वैक्रिय शक्ति और उसके नियमों का वर्णन ६/१६३-१६७; ७/१६७-१७२ वैक्रिय शरीर ३/१६४-१७१ वैशिक ७/२५ वैश्रवण ३/३४ व्येजन ३/१४३-१४८ Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४२७ भाष्य-विषयानुक्रम व्यपगत ७/२५ व्यसनभूत ३/२५३ व्याकरण ५/८३-८८ व्रीहि (वीहीणं) ६/१२६-१३१ शक्र और ईशान के पारस्परिक संबंध ३/५६-६१ शक्र की ऊर्ध्व, अधो, तिरछी गति ३/११६-१२६ शब्द सुनने की प्रक्रिया ५/६४ शय्यातर पिण्ड ५/१३-१४६ शर ५/१३४,१३५ शरीर का मल (जल्लिय) ६/२०-२३ शस्त्र ७/२५ - परिणामित ७/२५ शस्त्रातीत ७/२५ शस्त्रातीतादि पान-भोजन ७/२५ शान्तिगृह ३/२६८ शाली (सालीणं) ६/१२६-१३१ शाश्वत-अशाश्वत-द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से ७/६३-६५ शाश्वत-अशाश्वत-अव्युच्छित्ति-व्युच्छित्ति नय की अपेक्षा से ७/५८-६० शिखरी ५/१८२-१९० शिथिलरूप में किए हुए ६/१-४ शिला-प्रवाल ३/३३ शिव ३/३४ शिविका ३/१६४-१७१ शुद्धोदन ३/३३ शुम्ब ३/४५ शेष सब ७/१६० शैल ५/१८२-१६० - गृह ३/२६८ शैलेशी ६/१५,१६ शोकापन ३/१४३-१४८ शोष ३/२५८ श्मसानगृह ३/२६८ श्रमणोपासक के अनावृत्ति हिंसा ७/६,७ श्रमणोपासक के ऐर्यापथिक व साम्परायिकी क्रिया ७/४,५ संयत ७/५४-५७ _ -असंयत-संयतासंयत ७/५४-५७ संयतासंयत ७/५४-५७ संयमयात्रामात्रवृत्तिक ७/२५ संयमी दान ७/८,६ संरम्भ ३/१४३-१४८ संवर्त (सवट्ट)७/१८८ संवर्तकवात ३/२५३ संवृत ७/१२५,१२६ संसार मंडल ५/१२२ संसृष्ट किए हुए ६/१-४ स-अंगारादि दोष से दूषित पान-भोजन ७/२२,२३ सण ६/१२६-१३१ सदा, प्रतिक्षण (सया समियं) ६/२०-२३ सद्भूत (भूत) ५/२५४-२५७ सन्त ३/३३ सनिचय ३/२६८ सन्निधि ३/२६८ सपक्खि सपडिदिसिं (ठीक ऊपर आकाश में स्थित होकर) ३/३८ सभा ५/१८२-१६० समजोइन्भुया (अग्नि-तुल्य बन गई) ३/४८ समतुरंगेमाणा (समाश्लेष करता हुआ) ३/४६ समय की रुक्षता ७/११७ समय क्षेत्र और समयातीत क्षेत्र ५/२४८-२५३ समारंभ ३/१४३-१४८,७/६,७ समुदय-समिति-समागम ६/१३२,१३३,१३४ सर ५/१८२-१६० सरण ५/१८२-१६० सरपंक्ति ५/१८२-१६० सरसरपंक्ति ५/१८२-१६० सरिसव (सर्षप) ६/१२६-१३१ सर्व-देश-मूल-उत्तर गुण प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी ७/४३-५३ सात-असात वेदनीय कर्मबंध के कारण ७/११३-११६ सात प्रकार की प्रकृतियों का अथवा आठ प्रकार की प्रकृतियों का बंधन करता है ५/६८-७१ सामानिक ३/४ सामुदानिक ७/२५ सार ३/३३ सारिणी ५/१८२-१६० सालंबहत्थाभरणे (उसके हाथ के आभरण नीचे लटक गए) ३/११४ सिंह, व्याघ्र आदि चतुष्पद ७/१२२ सिद्ध ६/१३३-१३४ सीहुण्ड (दुधिया थोहर)७/६६ सुख,दुःख की परिभाषा ७/१६० संगिण्हह (स्वीकार करो) ५/७६.८२ संघट्टेति (संचालित करता है) ५/१३४,१३५ संघाएइ (एक दूसरे के अवयवों को संहत करता है) ५/१३४,१३५ संज्ञा ७/१६१ संदमाणिया (शिविका) ३/१६४-१७१ संनिचित ६/१३३,१३४ संपत्ती (संप्राप्ति) ३/४ संमृष्ट ६/१३३,१३४ Jain Education Intemational Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य-विषयानुक्रम सुख-दुःख उपदर्शन ६/१७१-१७३ सुप्रत्याख्यात- दुष्प्रत्याख्यात ७/२७, २८, सुलभबोधिक ३/७२ सुवृष्टि ३ / २६३ सुषम- सुषमा ६/१३५ सूर्यपरिवेश ३ / २५३ सोगंधिय (सौगंधिक, माणिक्य) ३/४ स्कन्द ३/३४ - ग्रह ३/२५८ स्तूप ५/१८२ - १६० स्थापित ५/ १३६ - १४६ स्थितिप्रकल्प ३/३८ स्थूल कर्म पुद्गल (अहावायराई) ६१-४ स्पन्दन ३/१४३-१४८ ४२८ स्वतःचालित रथ व शस्त्र ७/१८८ स्वविषय ५/१४७ स्वामित्व ३/४ हंसगब्भ (पुष्पराग) ३/४ हरित ७/११७ हाथी व कुंथु का जीव समान ७ / १५८, १५६ हियकामए (हित चाहने वाला) ३/७३ ह हृष्ट ६/१३२ हेतु अहेतु ५/१६१-१६८ हीणपुण्णचाउस (हीनपुष्य चतुर्दशी को जन्मा हुआ) ३/१०६ हीति निर्देति खिंतित अवति तज्जेति ताणोति परिवहति पव्वर्हेति पव्वहंति ३/४५ भगवई Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ३ पारिभाषिक शब्दानुक्रम अंक (रत्न) ३/४,४ (भा.) अंग ६/१३३,१३४ (भा.) -- प्रविष्ट ४ आमुख - बाह्य ४ आमुख अंगार ५/५४७/२२,२३,२५ अङ्गारमुक्त ७/२३ अंगुल ३/४,१७,२१,४३,५/६४;६/७५,१२५,१३४,१७३;७/१०-१५(भा.) अंगुष्ठ प्रमाण ७ आमुख, , अंगूठा ५/६४ अंजन ३/४,४ (भा.) - पुलक ३/४,४ (भा.) अंडज ७/EE अंतक्रिया ३/१४४,१४५,१४७.१४८.१४३-१४८(भा.) अंतर ५/१७५-१८०; ६/१३,११८ अंतरक ५/७८,८१-८२ (भा.), ९४,९५,९९,९४-९९ (भा.) अंतराय ६/३३,३४,३३-३४(भा.) __-कर्म ६/३३,३४ अंतराल ३/२२८,२३०,२३७,२३९ -गति ५/५६-६१ (भा.); ६/८२,६६;७/१ -- वर्ती ५/१४७ अंतर्भाव ४ आमुख अंतर्मुहूर्त ३/१५०,१८३-१८५(भा.), ५/६४,२२०,२२२, ६/३४, १२६-१३१; ७/१ अंतिमशरीरी ५/८१,७८-८२ (भा.), ९४,९५,९४-९९ (भा.) अंतेवासी ३/४,१६,२१,१३४; ५/३,७८,८०,८१,८४-८६,८८,२०१; ७/२१५ अंधकार (मय) ५/२३७-२४७ (भा.) ६/८६;७/११७,११७ (भा.) अंबरतल ३/११२ अ-करण ६/८-११,१३ अकर्कश ७/१०७-११२ - वेदनीय ७/१०७-११२ अकर्ता ७/१६-१६ अकर्तृत्व ७/१६-१६ अकर्म ३/१४३-१४८,७/१०-१५ (भा.) - की गति ७/१०-१५ (भा.) अकल्पनीय ५/१२४-१२७ (भा.) अकषाय ६/५४,६३,७/२० अकषायी ६/६३ अक्ष६/१३४ अक्षत ३/३३; ७/१७६ अकामनिकरण ७/१५०-१५२,१५०-१५४ (भा.) अकाम निर्जरा ७/११३-११६ (भा.) अकाल-मृत्यु ५/११६-१२१(भा.) अक्टयमान ५/६४ अकुशलानुबन्धा ६/१-४(भा.) अकृत ६/२४-२६ (भा.) अकृष्ट (अकिट्ठ) ३/१२९ अक्षस्रोतप्रमाणमात्र ७/१२०,१२० (भा.) अक्रम ५/६४ अक्रिय ३ आमुख अक्रिया ३/१४३-१४८(भा.) अक्लिष्ट ३/१२९ अगड (कुआ)4/१८९,१८२-१९० (भा.) अग्नि ३/४५,४६,४८,४९, ५ आमुख,५१-५४(भा.) ६८-७१(भा.), १३३,२३५, ६/४,१३४७/११७,२०१, २०२ -काय५/१३३,१५७.१५९: ६/८२,९९,१४२,१४७,१५०; ७/२२७,२२८ - कायिक ५/१३३,६/८८.१०५ - की दो अवस्थाए 4/१३३ (भा.) - जीव ५/५१-५४,५१-५४(भा.) - जीव का शरीर ५ आमुख • रूप ५/५१-५४,५१-५४ (भा.) - शरीर ५ आमुख - से शोषित ५/५१ - से श्यामल ५/५१ - स्नात ५ आमुख अग्रिमचरण ३/१३४-१३९(भा.) अग्रगामिता ३/४ अग्रस्थान ३/३७ अग्राह्य ५/१६०-१६४.१६०-१६४ (भा.) अग्लान ५/८१,८२,७८-८२ (भा.) Jain Education Intemational Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम भाव (अगिला ) ५/८१,८२, ७८-८२ (भा.) अघातिक कर्म ६ / ३३, ३४ (भा.) अघात्यकर्म ७ / १०७-११२ (भा.) अचक्षुदर्शनी ६/४१,५२ अचरम ३ / ७२,७३; ६/५१,५२ अचलात्म ६ / १३१,१३४ अचित्त ५/१३३, १८३, १८५, १८७, १८६, २३५, २३६; ६/१८ ७/१२८, १३३ - आहार ६/१८ - पुद्गल ७/२२९,२३० अचेतन ३/१३४-१३९, १७२-१८२: ५/१३४, १३५ - स्तर की क्रिया ३/१३४-१३९ अच्छेज्ज ५/१३९-१४६ (भा.) अजीव ५/२०८-२२४, २४८-२५३ ६/१७४- १८२; ७/२८, ६३-६५, १२८, १३०, १३४, १३५, १६३, २१२-२१७ काय ७/२१३, २१६,२१८,२२० प्रादोषिकी ३/१३७ अज्झोयर ५/ १३६ - १४६ (भा.) अज्झोयर ५/ १३६ - १४६ (भा.) अश्रुत ३/२५३, २५८, २६२, २६६ अज्ञात ३/२५३, २५८, २६२, २६८ अज्ञात अवस्था ७/१०६ अज्ञान ७/२७, २८, १५०, १५४ मरण ५ / १९३, १९४ - हेतुक ७/१५० अज्ञानी ६ / ५२, ५४-६३, ७/२७, २८ अटट ५/१८, ६/१३२, १३३, १३४ (भा.) अटटांग ५/१८, ६/१३२, १३३,१३४ (भा.) अट्टालक ५/१८९, १८२-१९० (भा.) अडड ६ / १३३,१३४ (भा.) अडडांग ६ / १३३,१३४ (भा.) अढाई द्वीप ६ / १५६, १५८, १५९ अनगार ३/११५, ११६,१३४,१५१,१५४-१५८, १६३,२१६ अणिमा ५/ ११२-११३ (भा.) आणि ५०१३-१४६ (भा.) अणु ६ / ७०-११८ (भा.); ७ आमुख, १०-१५ (भा.) व्रत ७/२९-३५ (भा.) अणु (सूक्ष्म) ५/६४ अतिक्रमण ७/६, ७,२६ अतिक्रान्त ७/३, ४ अतिचरण ७/६, ७, ६-७ (भा.) अतिचार ७/२६,३५ अतिविसंविभाग ७/३५ अतिपात ७/६, ७, ६-७ (भा.) अतिशय ५ / ९३ ४३० अतिसूक्ष्म ५ आमुख अतीत ७/५४, ५६, १५६ - काल ५/११५ अतीन्द्रिय ज्ञान ३ आमुख, २२२-२३० (भा.), ५/८३-८८ (भा.), १०८. १०९ (भा.) - गम्यजगत् ५ / १०८ १०९ (भा.) अतीन्द्रिय ज्ञानी ५/१००-१०२ (भा.), १०८ १०९ (भा.) अदत्तादान ७/५४-५७ (भा.) अदन्त घर्षण ७ / २६-३५ (भा.) अदाह्य ५/१६०-१६४ अदु:खी (७/१६, १७, १६ अदृश्य जगत् ३ आमुख अदृष्ट ३/२५३, २५८, २६३, २६८ अद्धा पल्योपम ६/१३३-१३४(भा.) अधर्म ३/१३४- १३९ (भा.) अधर्मास्तिकाय ७/२१३, २१८, २१६ अधिकरण ३ / १३४-१३९ (भा.); ७/५ अधिकरणी ७०४५ अधिकृत वाचना ३ / २१८ अधिष्ठित ३/३८, ४० अधीन ३/३८, ४० अधः क्षेत्र ५ / ६४ अधोगति ३ / ११९ १२६ (भा.) अधो लोक ३/११२, १२०-१२२ (भा.) - कण्डक३/११९ अधोऽवधि ६ / १६८, १६६ अधोवर्ति ५ / ६४ अधः सप्तमी ६ / १२०, १२२ - पृथ्वी ३/८३, ५/६२ अध्ययन ३/४ ५ / २५४-२५७ (भा.) ७/२२० अध्यवतरक ७/२५ अध्यवसान ५ / १९१-१९८ (भा.) अध्यवसाय ६ / १-४,३३, ३४, ७/४, ५, १४६ - १४६ (भा.) • की प्रकर्षता ६/१-४ (भा.) - - पूर्वक ६ आमुख अध्यात्म ३/१५४-१६३ (भा.); ७/४, ५ - विद्या, ३ आमुख, ६ आमुख - साधना ३/१३४-१३९ (भा.) अध्यापन ७ / १६१ अध्वा ७/३४ भगवई अनगार ३ आमुख, ४, ८ - १४, १६, १७, २०, २१, २४, ११५, ११६, १३४,१५१, १५४-१५८, १६३, २१६ ५/३, ८५, २०१-२०५, २०७, २२२-२३० (भा.) २३१-२३९ (भा.) २५४-२५७, ६/१६; ७/१,२०, १२५, १२६, १६७, १६८, १७०-१७१, १६७१७२ (भा.), २१५, २२३,२३०, २३१,२३२ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भावितात्मा - देखें भावितात्मा अनगार अनन्त ३/६४ ५ / ६७, १०६, १०६, ११५, १६०-१६४(भा.), २०५, २४८२५३ (भा.), २५४, २५५ ६/३०-३२, ५४-६३, ८८, १०५, ११६, १३४; ७/१२७-१४५ (भा.) - काल ५/१७६ - क्षेत्र ६ / १८६ - - गुण ५/१०२ - गुना ६/५२, १३३, १३४ ७/४०, ४६, ५६, १४५ जीव ७/६६ ज्ञानी ६/१३२ - प्रदेशी (शिक) स्कन्ध ५/६४, १५३, १५६, १५९, १६४, १६६ १६९ (भा.), १७५-१८० (भा.), १७६, २०१ २०७ (भा.) वियोजक ६/१-४ - संसार ६ / ३५-५१ संसारी ३ / ७२, ७३ अनन्तर ३ / ५३, ७५, ५/३-१२ (भा.) पश्चावर्ती ५/१७ . अनन्तरागम ५/६८, ६४-६६ (भा.) अनन्तिक ५/६७ अनर्थदण्डविरमण ७/३५ अनर्थ ५ / १६० १६२, १६४, २०१-२०३ अनवकल्प ६/ १३२ (भा.) अनवगाढ ५ / ६४ अनवद्य ५/१३६, १४१, १४३, १४५ अनन्तरावगाढ ५ / ६४ अनन्तरोपपत्रक ५/१०२ अनशन ३/१७, २१, ३६, ३८, ४३, ७६, १०७, १३४ १३९ अनाकार ६ / ३५-५१, ७/३४ उपयोग ६/४८, ६३ अनाकारोपयुक्त ६/५४-६३ (भा.) अनागत ७/३४,५४-५७ (भा.) अनात्मवादी ७ आमुख अनादर ३ / ४७,४९ अनादि ५ आमुख, ६७,२५५, ६/२७-२६ (भा.), ३०-३२,५४-६३(भा.) अनादृत ३/४१ अनादेय (वचन) ७/ ११९ (भा.) अनाभोग जनित ७/६, ७ अनाभोग प्रत्यय ७/१५०-१५४ (भा.) ४३१ अनायुक्त ७/४,५,२० अनार्य ३ / २५३, २५३ (भा.) अनावृत ज्ञान ७/१४६-१४६ (भा.) अनावृत्ति (अणाट्टि) हिंसा ७ ६, ७, ६-७ (भा.) अनाहारक ६/१८,४८,५२, ६३, ७/१ अनाहूत ७/२५ (भा.) अनित्य ३/३५, ३६, ७ आमुख, १६-१६ त्व ३/३५, ३६ वाद ७ आमुख अनिन्द्रिय ५/५६-६१ (भा.) - ज्ञान ७/१६१ अनिमेष नेत्र (प्रेक्षा) ३/१०५ (भा.) जागरिका ३/३६, ३६ (भा.), १०४ अनिष्ट पुद्गल ६ / २०-२३ अनिसृष्ट ७/२५ अनुकम्पन ७/११३-११६ अनुकम्पा ३/७३, ७/१०७-११२ (भा.), ११४ - वृत्ति ७/११४ अनुकृत ३/२२ अनुज्ञात ३/३५,३६ अनुचिन्तन ३/३३,३५,३६ अनुज्ञा ५/८६ अनुतटिका भेद ५/११२, ११३ अनुदित ७/२०, २१ पारिभाषिक शब्दानुक्रम अनुपयुक्त ५/१०२ ६/१६८, १६६ अनुपरतकाय क्रिया ३/१३५, ५/१३४, १३५ अनुपरतकायिकी ३/१३४-१३६ (भा.); ५/१३४,१३५ अनुबंध ३/८४ अनुप्रवेश ३/४९ अनुभव ६/१७११७३ (भा.); ७/१२७-१४५ (भा.), १६२ अनुभाग ६५५१ - नाम कर्म ६/१५१ • नाम का निषिक्त ६/१५२ - नाम गोत्र नियुक्तायुष्क ६/१५४ नामनिधत्त आयुष्य ५ /६२ - नाम निषिक्तायुष्क ६/१५३ - नाम निषिक्तायुष्य ६/१५१ बन्ध ६ / ३३, ३४ अनुमान ४ आमुख ५/९७,१९१-१९८ (भा.) अनुमोदन ७/२७, २८ अनुयोग ४ आमुख - सूत्र ४ आमुख अनुशासन ३/४ अनुसंधान ३ आमुख अनेक गुण ५/२०१-२०७(भा.) अनेक रूप ६ / १६५ ७ / १६६ अनेक वर्ण ६ / १६५, ७/१६६ अनेकान्त ५ आमुख, ५८-६०, १५०-१५३(भा.); ६ / १७४-१८२; ७ आमुख Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४३२ भगवई - दृष्टि ७ आमुख - वाद ५/१५०-१५३ (भा.) अनेवंभूत वेदना ५/११-१२० (भा.) अनेषणीय ५/१२४-१२७ (भा.) - दान ५/१२४-१२७(भा.) अनैरयिक ४/७ अन्यतीर्थिक ७/१,२७,२८,६७,२१२-२१७ (भा.) अन्यथा भाव ३/२२३,२२४,२२६,२२७,२२९,२३०,२२२-२३० (भा.) २३२,२३३,२३५,२३६,२३८,२३९ अन्यदीय ३/२२२-२३० अन्यत्रगत ६/१६३-१६७ अन्ययूथिक ५/५७,५८,११६,११७,१३६,१३७; ६/१, १७१,१७२,१८३,१८४; ७/१,२१२,२१३,२१५-२१७ अन्वय ५/११२,११३ अन्वेषण ४ आमुख अंवेषणीय ४ आमुख अपचय ५/२२५-२३३,२२५-२३३ (भा.) - सहित ५/२२५,२२६,२२९,२३१,२२५-२३३ (भा.) अपदेश ५/१९१-१९८ (भा.) अपध्यान ७/२६-३५ अपनी ऋद्धि ३/१६६,१७४,२१२ अपनी क्रिया ३/१६७,१७५,२१३ अपने प्रयोग ३/१६८,१७६,२१४ अपभ्रंश ५/९३ अपने वीर्य ५/११०,१११ (भा.) अपरत्व ५/२४८-२५३ (भा.) अपर दार्शनिकों ७/२१२-२१७(भा.) अपर विदेह ६/१३४ अपरिणत ७/२५ अपरितापित ३/१२९ अपरित्याग ६/६४-६८ अपरिभुक्त (अय) ६/२०-२३ (भा.) अपरिभूत ३/३२ अपरिमित ५/६७,६/१८८ अपरीत ६/४४,५२ अपर्यवसित ६/२७,२८,३०-३२ अपर्याप्त ३/१६४-१७१; ६/१३७-१५०(भा.); ७/१०१ अपर्याप्तक ५/१०२, ६/४२,५२ अपर्याप्ति ६/६३ अपवर्तना ६/१५४ अपवाद ३/२६३ (भा.) अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना ७/२६-३५(भा.) - जोषणाराधना ७/३५ अपान ५/४६,४६-५०(भा.) अपार्द्ध-अवमोदरिक ७/२४ अपायसद्रव्यतया ५/१११ अ-पुद्गल ५/२५५ - द्रव्य ५/२५४-२५७ (भा.) अपोरिसिय ७/१०-१५ अप् ६/१३७-१५० -काय ३/१८३-१८५(भा.); ५/१०३,१८३, ६/६६,१५० - काय जीव ५/५१-५४(भा.) - कायिक ६ आमुख, ६३,१०५,११६७/१४२ अप्रकट ७/२१६ अप्रकम्प ३ आमुख;, ५/१७१,१७८; ६/१५,१६ अप्रतीति ३/९ अप्रत्याख्यान ६/६६,६७,६८ - मोह ६४-६८ - क्रिया ५/१२८,१२६; ७/१६३,१६४ - आवरण ७/३६-४२ - आवरण मोह ६/६४-६८(भा.) अप्रत्याख्यानी ६/६४,६५७/३६,३७,४०-४४,४६,४७,४६-५३,५५-५७ अप्रथम ६/३०-३२(भा.) अप्रदेश ५/१६०-१६२,१६४,२०१-२०३,२०५,२०६; ६/५४,५५,५७, ५८,६०,६३,५४-६३ (भा.) अप्रमत्त ३/१४९,१५०,१९०, ७/२०,२१ - अवस्था ३/१५० - संयत ३/१५०,१४९-१५० (भा.) - संयम में ३/१५० अप्रवीचार ५/१०७ अप्रशस्त ४/८ अप्राप्यकारी ५/६४;७/१२७-१४५(भा.) अप्रार्थनीय ३/१०९ अप्राशुक ५/१२४,१२४-१२७ (भा.) अबन्धक ६/३५-५१(भा.) अबन्ध काल ६/३५-५१ (भा.) अबन्ध क्षण ६/१६२ अबाधाकाल ६/३८ अबीज ६/१२९-१३१ (भा.) अबुद्धिपूर्वा ६/१-४ अभय ७/२६-३५ अभवसिद्धिक ३/७२,७३, ६/२६,३२,४०,५२,६३ अभव्य ६/२७-२६,५४-६३(भा.) अभाषक ६/४३,५२ अभिग्रह ३/३३,१०२,६/१५,१६ ;७/१६७ अभिनिष्क्रमण-उत्सव ३/८६,८७ _ - महोत्सव ३/८६,८७ अभिन्न ६/१७४-१८२(भा.) Jain Education Intemational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई अभिपक्व कर्म ६ / १५, १६ अभिमत ३/२२,३३,३६ अभियोग ३ / १९०, २१८, २२१ अभियोगी भावना ३/२५७ अभियोजन ३ / १९० - शक्ति ३/२११ अभियोजना ३ / २०९-२११, २१७ - शक्ति ३/२११ अभिलषणी ८.९.२२.२४ अभिलाषा ३/३८ अभिलाषात्मक ३/३३, ३६, १०२, १०४, १०९, ११२, ११५, ११६, १३१ अभिसमन्वागत ३ / १७,३०, ५०, ५१, ५ / १०६.११३११२/११३ (भा.) अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) ३/९९,१०९.१३०,१३१,२३०,२३९ अभिहत (अभिहड ) ५ / १३९ - १४६ (भा.); ७/२५ अभयाख्यान ५/८९, ८४ (भा.) अभेद ५/२५४-२५७ (भा.) अभेदोपचार ५ / १९१-१९८ (भा.) अभेद्य ५/१६० ०-१६४ अभ्र ३ / २५३ (भा.) - वृक्ष ३ / २५३ (भा.) अमंगल ७/२६-३५ अमध्य ५ / १६० १६२, १६४, २०१-२०३ अमन ६ / १६३-१६७ (भा.) अमनस्क ६ / ३६, ६४-६८ ७/३६-४२, १२७-१४५ (भा.), १५०, १५०-१५४ (भा.) १६१ अमनुष्य ६/१७४- १८२ (भा.) अमनोज्ञ ३/१०९ अमम (संख्या) ६/१३३, १३४ (भा.) अमम (मनुष्य की एक जाति) ६/१३५, १३५ (भा.) अममांग ६ / १३३, १३४ (भा.) अमायी ३ / १९०-१९२, २१८, २२०, २३१,२३४, २३७ सम्यग्दृष्टि ५/१०२, १००-१०२ (भा.) अमावस्या ३/१५२ अमित ५/१०६ अमूर्त ५/१९१-१९८ (भा.), २५४-२५७ (भा.); ७ / २१२-२१७ (भा.) अमोघा ३ / २५३, २५३ (भा.) अय आकार (अयागर) – देखें लोहे की खान अयन ५/१७,१८, ६/१३२ अयुत ५/१८, ६/१३२, १३३, १३४ (भा.) अयुतांग ५/१८, ६/१३२, १३३, १३४ (भा.) अयोग ५/६४-६६ (भा.); ७ / १०-१५ (भा.) - अवस्था ३/१४३-१४८ (भा.) अयोगी ६/२७ - २६, ४७,५२, ६३ ४३३ केवली ६ / ३५ - ५१ (भा.) अर (आरा) ६ / १३३, १३४, १३५, ७/११७ (भा.) अजम्बरवस्वधर ३/१०९ (भा.) अरत्नि (बद्धमुष्टि हाथ) ३/३५, ३६ अरुचि ३/९ अरुणवर ६/७२ अरुणोदकसमुद्र (तमस्काय का नाम) ६ / ८६ अरुणोदय ६/७२ अरूपी ७/१२७, २१२-२१७(भा.) काय ७/२१३, २१८, २१६ अर्थ ५/६४-६६, १०४ - १०६ ; ७/२१६, २१८ - अधिकार ४ आमुख आगम ५/६७ चर ३/४ (भा.), २४७ (भा.) दान ५/१४७ निकुर ५/१८ ६ / १३२ - निकुरांग ५/१८, ६/१३२ निपुर ६/१३३,१३४ - निपुरांग ६ / १३२,१३३ - बद्ध ३/३८ बोध ५/२०७ अर्ध ५/६४-६६, १०४-१०६ · आढक ७/१५६ कृत्व ५/११२, ११३ - कुडव ७/१५६ च्छेदक ६/१३३,१३४ निवर्तनिक मण्डल ३/१०४ पद्मासन ३ / २०७ पर्यंक ३/२०७ • पर्यंकासन ३ / २०७ - प्रस्थ ७/१५६ मागधी (भाषा) ५ / ९३ मास ७/२३१ - वज्रासन ३/२०७ अर्पणा की पद्धति ४ आमुख पारिभाषिक शब्दानुक्रम अर्पित ४ आमुख अर्हत् ३/८७,९५, ११५, ११६, २३१-२३९ (भा.); ५ आमुख, २५५, ७/३, १५७, १७३, १८२, २०३ - की प्रतिमा ३ / ९५ - चैत्य ३/९५,११५, ११६ - मुनि ३/९५ अर्हता ६/२७-२६ अलंघ्य ६/४, १-४ (भा.) अलमस्तु ७/१५७ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४३४ भगवई अलघु (महान् या वरिष्ठ) ३/९० अलीक ५/१४८,१४८ (भा.) अलेश्यी ६/५४-६३ अलोक ५/२५५ अल्प - आयुष्य ५/१२४,१२४-१२७ (भा.) - आश्रव ५/१३३:६/२२ - आहार ७/२ (भा.) - उत्सुक ३/१०९ (भा.) - कर्म ५/१३३:६/२२; ७/६७-७३(भा.) - कालिक ७/२६-३५(भा.) - क्रिया ५/१३३६/२२ -निर्जरा ६ आमुख, १५,१६ - प्रदेशोपचय ५/६४ - बहुत्व ४/८:६/२०-५२(भा.): ७/३६-४२(भा.).५४ - वेदना ५/१३३, ६ आमुख, ४,१५,१६,२२; ७/१०३. १०५ अल्पतर - अप्काय ७/२२८ -आश्रव ७/१५८,२२७,२२८ -आहार ७/१५८ - उच्छ्वास ७/१५८ • ऋद्धि ७/१५८ - कर्म ७/६७-७०,७२,७३,१५८,२२७,२२८ - क्रिया ७/१५८,२२७,२२८ - तेजस्काय ७/२२८ -वस काय ७/२२८ - द्युति ७/१५८ - निःश्वास ७/१५८ - निहार ७/१५८ - पृथ्वीकाय ७/२२८ - महिमा ७/१५८ - वनस्पतिकाय ७/२२८ - वायुकाय ७/२२८ - वेदना ७/२२७, २२८ अल्पाहारी ७/२४ अवकाश-क्षेत्र ३ आमुख अवकाशांतर ६/१०६ अवगम ६/३३,३४ अवगाढ ५/१६४,१७०,१७१,१७७,१७८; ६/१८६ अवगाढावगाढ ३/४,५,१९६ अवगाहन ३/११९,२५१; ५/१५७,१५९,२०१,२०७,२५४२५७(भा.); ६/७६ - नामनिधत्त आयुष्य ५/६२ - स्थान अणु ५/१८१ अवगाहना ३/१७,२१,४३,११२, ४,१८, ६/१५१,१५४ - नाम कर्म ६/१५१ - नाम का निषिक्त ६/१५२ - नाम निषिक्तायुष्य ६/१५१ अवगाहित ३/१२०-१२२(भा.) अवतरण ७/११७,११८,११६ अवतरित ५/१० अवधारण ३/३०,४७ अवधारणा ३ आमुख, ६ आमुख अवधिज्ञान ३ आमुख, ३८,५६-७१,१०९,११२,११५,१५८,१६३, २२२-२३०(भा.); ५/८३-८८(भा.),१०३-१०६(भा.),१०८,१०६ - लब्धि ३/२३१,२३४,२३७,२३९ अवधिज्ञानी ३/९५, ६/४५,५२,१६८,१६६७/१४८ अवधिदर्शनी ६/४१,५२ अवमोदरिक ७/२४ अवबोधात्मक सहभागिता ३/२५०-२७७ (भा.) अवयव ३/३,४ अवयवी द्रव्य ५/५१-५४(भा.) अवलिप्त ६/१२९-१३१ (भा.) अवलोकन ७/१५२ अवव ५/१८६/१३२,१३३,१३४ (भा.) अववांग ५/१८६/१३२,१३३,१३४ (भा.) अवसर्पिणी ३/९४;५ आमुख, १६,२०,२३,२७,२६,२०१-२०७(भा.), २३७-२४७(भा.),२४८,२४६,२५४-२५७ (भा.); ६/१३४,१३५७ आमुख, ११७ - प्रलय के साथ आंशिक तुलना ५ आमुख अवस्था (आठ वर्ष की) ३/१५० अवस्था-परिवर्तन ५/१५०-१५३ (भा.) अवस्था-सप्तक ३/१४३-१४८ (भा.) अवस्थान (संचिट्ठणा) ५/१६९-१७४ (भा.), १७८ अवस्थित ५ आमुख,१६,२६,२०८,२०६,२११,२१२,२१५-२१७,२१६,२२०, २२४ अवस्थिति ५/२१६,२१८,२२१,२२२,२२५-२३३ (भा.) - काल ५/२१८,२२२,२२५-२३३(भा.) - मान ५/१८१ अवान्तर प्रकार ७/११३-११६(भा.) अविकल ३/२७९; ४/५, ६/१८ अविच्छिन्न ३/१७ अविज्ञात ३/२५३,२५८,२६३,२६८ अविनाभाव (व्याप्ति) सम्बन्ध ६/१७४-१८२(भा.) अविपाकी निर्जरा ६/१५,१६ अविभाग ६/५४-६३(भा.) अविभागी प्रतिच्छेद ५/१६९-१७४ (भा.) Jain Education Interational Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई अविभाज्य ५ आमुख, १६० - १६४ ( भा.) अविरत ३/१३४-१३९ ( भा. ६/६४-६८ (भा.); ७/२८ अविरति ३/३५, ३६; ६/२०-२३ (भा.); ७/४, ५, १६४ की क्रिया ३/१३४- १३९ (भा.); ७/१६४ परिणाम ५ / १३४, १३५ अविशुद्ध ६ / १६८, १६६ - लेश्या ६/१६८, १६९, १६८-१६९ (भा.); ७ /६७ अविषयभूत ५ / ६४ अवीतराग ६ / २७ - २६; ७/४, ५, २०, २१ अवस्था ६/२७-२९ अवीचिमार्ग ७/२०,२१ अवेद ६/३५-५१ (भा.) अवेदक ६/५२,६३ अवेदी ६/५४-६३ (भा.) अवेद्यमान अवस्था ६ / ३३,३४ अव्यथाभाव ३ / २२२-२३० (भा.) अव्यथित ३ / १२९ अव्यवहित क्षेत्र ६ / १८६ अव्याकृत ७/१०-१५ (भा.) अव्याहत ३/४ अव्युच्छित्ति नय ७/५८-६०,६४ अव्युच्छित्र ७/२०,२१ अव्रत ६/२०-२३; ७/४, ५ अशन ३/३०, ७/८, ६, २२, २३, २४, २६-३५, १६३, २०३ अशब्द ५/१७४, १८१ अशरीर ५/४६,५०,४६-५० (भा.) ६६२७ आमुख अशरीरी ५/५६-६१ अशाश्वत ५ / २५४-२५७ ७ आमुख, ५८-६०, ६३-६५, १६५ वाद ७/५८-६० अशुभ ५/१३४-१३५; ६/५-१४ • करण ६/९,५-१४ - कर्म ३/१३४-१३९: ६/१५, १६, २०-२३ (भा.) - दीर्घ आयुष्य ५ / १२६ पुद्गल ६ आमुख मन ६/५-१४ • प्रवृत्ति ६ / २० - २३ - • योग ५/१३४, १३५; ६/२०-२३ (भा.) अशोकखण्ड ३/१०/५११२ " अश्रद्धा ३/९ अश्रुत ३/२५३, २५८, २६२,२६६ अष्टप्रदेशी ५/६४ ४३५ अष्टमभक्त (तीन दिन का उपवास) ३/१०५, १०५ (भा.), ११२; ७ / २३१ अष्टमी ३/१५२ अष्टभागिका ७ / १५६ अष्टविधबन्धक ५/६८-७१ (भा.), ७५; ६/१६२ अष्टापद रूप ३ / २०९ असंख्य ३ / ४, ५, २२, ३८, ८६, ११२, ११४, ११५, २५०, २५६; ४/४,५/१७१, १७७, १७८ ६/७१, १२४, १२५, १३२, १५५-१६० (भा.); ७ आमुख, १५८, १५६ असंख्य - काल ५/१७१, १७२, १७४, १७५, १७७, १७६ - गुना ७/५७ - प्रदेश ७/१५९ असंख्यात ३, ४, ५ / १६०-१६४, ६ / ७४, ७५, १३२, १३३, १३४ - गुना ६/५२; ७/३६-४२ - वें भाग ३ / १७, २१, ५/५८-६१,६४, १७०, १७३, १७८, १८०, २१३, २१४, २१९,२२८-२३१; ६ / १२५ असंख्येय ३/२५१ ५/५६ - ६१,२२२, २४८-२५३ ६ / ६१, ११८, १२२, १२६, १३२, १५६; ७/३६-४२ (भा.) - गुना (णा) ५/१८१-२०६ (भा.); ७ / ४०-४२ (भा.), ४९५१ (भा.), ५७ प्रदेश ५/२५४-२५७ प्रदेशात्मक लोक ५ / २५४,२५५ प्रदेशी ( शिक) स्कन्ध ५/१५५,१५८, १६४ • भाग ३/४३ असंज्ञी (अमनस्क) ६/३८,५२, ६३, ७/१२७-१४५ (भा.), १५०-१५४ (भा.) -तियंचपंचेन्द्रिय ३/१८३-१८५ (भा.) पंचेन्द्रिय ६ / ६४-६८ (भा.) • मनुष्य३/१८३-१८५ (मा.) असंबुद्ध ५ / ७८-८२ असंयत ५ / ९०; ६/३७,५२, ६३, ७/२८,५४, ५४-५७ (भा.) असंयम ५/८९ - ९२; ७/११०-११२ पारिभाषिक शब्दानुक्रम असंवृत ७/१, २८, १६७, १६८, १७०, १७१, १६७-१७२ (भा.) असत् ५/२५४-२५७ (भा.) असद्भूत ५/१४८, १४८ (भा.) वचन ५ / ९१ असमवहत ६ / १६८ असात ६/५-१४,६४-६८ ७/१०४, १०७-११२ (भा.) वेदना ६/८, ६, १३ - वेदनीय ७/१०७-११२, ११५, ११६ असारगल्ल ३ / ४४ (भा.) असिचर्मपात्र३/१९७ असुख ६/५-१४ - दुःख ७/११९,११९ (भा.) अस्त ५/३-१२ अस्ति ७/२१७ - काय ७/२१३, २१६, २१८ त्व ४ आमुख; ५ आमुख; ७ आमुख, २१७ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४३६ भगवई - त्वकाल, ५ आमुख, २५४-२५७ (भा.) अस्नान ७/२६-३५ अस्पष्ट ७/२१६ अस्पृष्ट ५/४८,६४ अस्मिता मात्र ३/४ अस्वीकृत ३/४१ अहरन ६/१-४ (भा.) अहिंसा ७/११३-११६(भा.) अहेतु ५/१९५-१९८ अहेतुक ३/१४०-१४२:५/१९१-१९८ अहेतुगम्य ३ आमुख; ५/१९१-१९८ (भा.) अहोरात्र ५/३-१२,१५, ६/१३२,१३३,१३४ आ आउखो ६/६४-६८ आकार ६/१३५ (भा.) - पर्याय ७/११७,११७ (भा.) - भाव ६/१३५(भा.); ७/११८ - वाला ३/३३ आकाश ३/३८,११२; ५ आमुख, १३४,१६५-१६८(भा.),१७०, १७१,१७७,१७८; ७/१०-१५ - अस्तिकाय ७/२१३,२१८,२१६ - गंगा (गेलेक्सी) ६/७०-११८(भा.) - गामी ६/७०-११८, ७/१ - प्रदेश ५/११०,१११,१६५-१६८ (भा.) - श्रेणी ६/१२०-१२८; ७/१ आकृति-विकृति ३/४५ आकाशीय पिण्ड ६/७०-११८(भा.) आकीर्ण ३/४,४ (भा.) ५,१४,१६,१८,२०,२१,१९६ आख्यानक (कथानक) ३/४ आक्रन्दन ७/११३-११६ आगम ३/१४३-१४८.१५४-१६३,२५०-२७७(भा.); ४ आमुखः ५/३१-४५(भा.),५७,५८,६२,६७,११६-१२१(भा.),१६०-१६४(भा.); ६ आमुख,१३३,१३४,१६८,१६६;७/१,१०-१५,१६-१६,२०,२१,२७,२८,६६, ११३-११६(भा.),११७-१२३(भा.),१७३ - कार ४ आमुख • का व्याख्या साहित्य ३/१०९ -के अर्वाचीन काल ५/९४-९९(भा.) - के प्राचीन युग ५/९४-९९(भा.) - के संस्करण ४ आमुख - गम्य ३ आमुख - युग ३/१५४-१६३(भा.); ५/५७,५८ - रचनाशैली ६ आमुख • वाचना ७/११७-१२३(भा.) - वाद ३ आमुख - संकलनकार ४ आमुख - संकलन काल ५/९४-९९(भा.) - साहित्य ३ आमुख: 4/९८-९९(भा.),१३८-१४५(भा.), १५४-१५९(भा.); ६ आमुख : ७/२५.१२७-१४५(भा.) - सूत्र ३/७३ आगमिक ३ आमुख, ५/११६-१२१(भा.) आघात ६/१-४ आचरण ३/३०५आमुख,१४८६ आमुख,२०-२३(भा.),६४-६८ (भा.); ७/२६-३५(भा.),५४-५७(भा.) आचाम्ल ३/२१ आचार ५/१३६-१४६(भा.) - की मर्यादा ५/१३९-१४६(भा.) - विषयक सूत्र ५/१३९-१४६(भा.) - शास्त्र, ७ आमुख आचार्य ३/३५,३६,२०७;४ आमुख; ५/१००-१०२(भा.),१४७,१४७ (भा.); ६/२०-२३ - कुशल ७/१७५ (भा.) आचेलक्य ७/२९-३५(भा.) आच्छन्न ३/१७,२१ आच्छादन ३/२९; ७/१७७ (भा.) आजाति ५/५७,५८ आजीव ७/२५ -पिण्ड ७/२५ आच्छेद्य ७/२५ आज्ञा ३/५१,७/१७४,१७५,१८३,१८४,१४,१६५ आढक ७/१५६ आणुगामियत्ताए ३/७३ आण्विक ६/७०-११८(भा.) आतापना ३/२१,३३ - भूमि ३/२१,२३,१०२ आत्म-कर्तृत्त्व का सिद्धान्त ३/२५०-२७७(भा.) आत्मकृत ६/२४-२६(भा.) आत्मत्व ७/२०,२१ आत्मना (संवृत) ३/१४८ आत्मप्रदेश ५/६४,१०३-१०६, ७ आमुख २,१५८,१५६ आत्मरमण६/३३,३४ आत्मलीन ३/१७; ५/७८ आत्मवाद ३ आमुख आत्मसंवृत ३/१४३-१४८(भा.) आत्मस्वरूप ६/३३,३४ आत्महत्या ३/१३४-१३९(भा.) आत्मा ३/४,१०५,१५५,१५४-१६३ (भा.);५ आमुख,५१-५४,१०८, १०९: ६ आमुख,२०,२२,२०-२३(भा.)३०-३२,३४,१६८,१६९,१८६, १८८: ७ आमुख,५,१०-१५,१६०,२२० Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४३७ पारिभाषिक शब्दानुक्रम आत्मागम ५/६७,६४-६६ (भा.) आत्मिक ६/३३,३४ आदर ३/३८-४०,५१,५७,५९ आदान (इन्द्रिय) ५/१०८-१०६ (भा.) आदि-भाग ५/६४ आदेय ५/२५४-२५७ आदेश (वचन) ३/५१ (भा.) आधाकर्म ५/१३६,१४१,१४२,१४५,१३६-१४६(भा.);७/२५,१६५,१६५(भा.) आधाकर्मिक ५/१३-१४६(भा.) आधिकरणिकी ३/१३४,१३६:५/१३४ -क्रिया ३/१३४-१३९: ५/१३४ आधुनिक मान्यता ५/३-१२(भा.) आधुनिक विज्ञान ५/१५४-१५९ (भा.) आधुनिक वैज्ञानिक ५/८३-८८(भा.) आधोऽवधिज्ञानी ७/१४७,१४६-१४६ (भा.) आध्यात्मिक ३/३३,३६,१०२,१०४,१०९,११२,११५,११६,१३१, १३४-१३९(भा.) - चिकित्सा ६/२०-२३(भा.) - परिभाषा ७/१६० आन ५/४६,४६-५० (भा.) आनापान (श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति) ३/१७, ५/१५ - पर्याप्ति ६/६३ - अपर्याप्ति ६/६३ आनुकम्पिक ३/७३ (भा.) आन्तरिक - अध्यवसाय ७/४.५ - इच्छा (आकांक्षा) ३/१३४-१३९(भा.) - क्रिया ७ आमुख - स्पन्दन ७/४,५, आपण ५/१८९,१८२-१९० (भा.) आपातभद्र ७/२२४,२२६ आप्तपुरुष ३ आमुख; ५/१६१-१६८(भा.) आभामण्डल (आभावलय) ३/१८३-१८५(भा.);४/८;६आमुख, २०-२३ | (भा.) अभिनिबोधिकज्ञानी ६/४५,६३ आभियोगिकी भावना ३/१९०,२११ आभोग-जनित ७/६,७ आमन्त्रण ७/२५ आयाम ६/६१,१७१-१७३(भा.) आयु ५/१,५७,५८,६/३०-३२,६४,६८७/५८-६०,१०१ - अवधि ७/६७,९३ • क्षय ३/५३,७५,७/२०५ -बन्ध ६/३५-५१(भा.),६४-६८(भा.),१५१ - सूत्र ६/६४-६८(भा.) - स्थिति ३/१४३-१४८(भा.) आयुक्त ७/४,५,२०,२१,१२५,१२६ आयुध ७/१७६,१७६(भा.),१८५ आयुमान ५/१८१ आयुर्विज्ञान (मेडिकल साइंस) ५/७२-७५(भा.),७६-७७(भा.) आयुर्वेद-साहित्य ५/७६-७७ (भा.) आयुष्मन् ५/१६,२३,२७,२६,८१, ६/१५६ आयुष्य ५/५७,५८,५९,६०,५९-६१(भा.),६२,६२(भा.)२४८२५३(भा.) ६/३३,३४,३५,३७,४०,४२,४४,४६,५०,६८,१३३,१३४,१३५, १५१,१५१ (भा.), १५४,१६२, ७/१,६७-७३,१०१,१०२,१०६ -कर्म ५/५७,५८,६२,११६-१२१(भा.); ६/३३,३४,३५, ३६,३७-४०,४२,४४,४६,४९,५०,१५१,१७४-१८२:७/१६५ - का बन्ध ५/५७,५८,५९,१२४-१२७(भा.);६/६४, ६८,१५१,१५१(भा.),१६२:७/१०६,१०६ (भा.) १४६-१४८ - काल ५/५७,५८ -का वेदन ५/५७.५८ - आयुष्य- की क्रम-श्रंखला ५/५९-६१ (भा.) - क्रम ५/५७,५८ - परिमाण ६/१३२ -बंध का निर्धारण ७/१०१,१०१(भा.) - रहित ५/५९,६० - सहित ५/५९ आरंभ ३/१४५,१४३-१४८ (भा.);५/१५०-१५३(भा.),१८२-१८५(भा.), १८२-१६० (भा.); ७/११३-११६ (भा.) आरंभिकी क्रिया ५/१२८-१३२ आरक्षक ३/४,२४७ आरगत ५/६५-६७(भा.) आराधक ३/७२,७२(भा.) ७३,१९२ आराधना ३ आमुख, ३६,३८,१९२: ५/११५,१३६,१४१,१४३,१४५, ६/६४-६८,१३२,७/१५६ आराम ५/१८९,१८२-१९०(भा.) आर्त ६/२०-२३(भा.); ७/३६-४२(भा.) आर्द्रमल (पंकिय) ६/२०-२३ (भा.) आर्य ३/३०, ५/८१,२०१-२०३,२०५,२५४,२५५ - सत्य ६/१८३-१८५ आर्या ३/३४(भा.) आलिसंदग-देखें चवला आलीन ५/२०१ आलेखन ३/३६,३८ आलोचन ६/३३,३४ आलोचना३/१६,२१,१९२,२१९,२२०:५/१३६-१४५(भा.);७/२०३ आवरण ७/१५८,१५६ - युक्त ५/१०८,१०६ आवलिका ५/१५,५९-६१,१७०,१७३,१७८,१८०,२१३,२१४, Jain Education Intemational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम २१९,२२८-२३१ ( भा.), २४८, २४९; ६ / १३२ आवश्यक ७/२६-३५ (भा.) आवारक ६/३३, ३४ आवास ६ / १२० - गृह ७/२१३,२१८ आवृतज्ञान ७/१४६-१४६ (भा.) आशातना ३ / ९५ आशुरुप्त (आसुरुत्त) ३ / ४५, ४५ (भा.) आश्चर्यभूत ३/२८,९४ आश्रव ३ / १३४ १३९ (भा.), १४०-१४२ (भा.), १४८:५/१०८, १०६, १३३; ६ आमुख २०-२३ ७/१०७-११२ (भा.) - शक्ति ६/३३,३४ आश्रवण (बन्ध) ५/१२८-१३२ (भा.) आसक्त ३/१३५ आसुरुत - देखें आशुरुप्त आस्वादमान ३/३३ (भा.) आहत नाट्यों, गीतों ३/४ (भा.) आहरण ६ / १८६ आहार ३/३०,३३,१४८, ५/१३६- १४६ (भा.); ६/१, १८, १२०-१२८, १८६१८८ ७/१२, २२, २३, २४, २५, २६-३५,६२,६३,६५,६४-६५ (भा.) १६१,२०२ - उद्देशक ६/१८ - पद ६/१८ - पर्याप्ति ३/१७,४४,१०९ - विषयक दोष ५/१३९- १४६ (भा.) संज्ञा ७/१६१ आहारक ६/१८, २०, ४८,५२, ६३, ७/१ • वर्गणा ५ आमुख - शरीर वर्गणा ६ / ३३, ३४ शरीरी ६/६३ समुद्घात ३/४ आहूत ७/२५ इंधन-रहित देखें निधन इच्छाचालित ७ आमुख इच्छा-परिमाण ७/२६-३५ इतनी सूक्ष्मता (एसुहुमं) ५/१७६, १७७ इन्द्र ७/१७७, १८६ इ - कील ३/११२ (भा.) • ग्रह ३/२५८, २५८ (भा.) • जाल ३ /१९७ इन्द्रिय ३ आमुख १,१०५, १३५, १४८, १९१, ५/६४,८३-८८ (भा.), ४३८ १०८, १०६; ६ आमुख २०-२३,८७ ७/१२७-१४५, (भा.) १६१ - अपर्याप्ति ६/६३ ज्ञान ५/१०८ - १०९ (भा.); ६ / १८७ - १८८ (भा.) ज्ञान गम्य जगत् ५ / १०८, १०९ ज्ञानी ५ / १०० १०२ (भा.) दर्शन ५ / ७२-७५ (भा.) निरोध ७/२६-३५ (भा.) - पर्याप्ति ३/१० : ६/६३ - विषय ३/२७९ : ५/६५-६७: ७/१२७-१४५ (भा.) इभ्य ३/३४, ७/१६६ इहगत ६/१६३-१६७, ७/१०३-१०५ इहभव के आयुष्य ५/५७, ५८, ५७-५८ (भा.) ई ईथर ७ आमुख, १८६ ईर्यापथ ३/१४३-१४८ - बन्ध ३ / १४३-१४८ पथिक ६/२६; ७/२०, २१ ईपिथिकी क्रिया (देखें पथिक क्रिया) प्रत्ययिक कर्म ७/२०.२१ ईसिमित ७/२१५ ईशितृत्व ५/११२, ११३ ईश्वर ३ / ४, ४ (भा) ३४; ६ / ३०-३२ (भा.); ७ आमुख, १९६ • कर्तृत्ववादी ३/२५०-२७७ (भा.) वादी ७ आमुख ईषत् ५/३१,२२,२४,३६-४५ प्राग्भारा पृथ्वी ३/७९ ६/१३५ 3 उच्चतर ३ / ५४,५४ (भा.) १९१ उच्छन्न ३ / २६८ (भा.) उच्छ्वास ५/४६; ६/१३२, १३३, १३४, ७ /१५८ - निश्वास ५/४६, ४६-५० (भा.); ७/२०३, २३२ उच्छेदवाद ७/५८-६० (भा.) उच्छ्रितोदय ३ / १६४१७१(भा.) उज्ज्वल (नेपथ्य) ७/ ११५ (भा.) उज्ज्वल (वेदना) ५/१३८, १३८ (भा.) उल्करिका ५/११२, ११३ भेद ५/११२, ११३ उत्कलिकावात ३/२५२, २५३ (भा.) उत्कुटुकास्थिक (उक्कुडअस्थिग) ७/ ११९, ११२ (भा.) उत्तम ३/३६ भोग भूमि ६ / १३३,१३४ भगवई उत्तर ५ / ३, ५, ७, ९, १४ काल ७/२६-३५,२१२-२१७ (भा.) क्रिया ५/४३ ७/५४-५७ (भा.) गुण ७/२६,३३,३६-४२ (भा.) गुण प्रत्याख्यान ७/२९,३३,२९-३५ (भा.) ३६-४२ (भा.) Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४३९ पारिभाषिक शब्दानुक्रम - गुण प्रत्याख्यानी ७/३६,३७,४०-४२,३६-४२ (भा.) • गोलार्ध ५/३-१२ (भा.) - परिणाम ५ आमुख - पूर्व ३/११६,१२९ - पौरस्त्य ३/११२ - प्रकृति ६/३३,३४,१५१ - वर्ती ४ आमुख - वी पर्याय ५/५१-५४ (भा.) - रचना ४ आमुख - व्रत ७/२६-३५ - वैक्रिय ३/३८;७/५४-५७ - वैक्रिय शरीर ३/११२,११२ (भा.), १५४-१६३ - कुरु ६/१२४ उत्तरार्द्ध ५/४,६,१३,१७.१९,२३,२५,२७ उत्तरायन ५/३-१२ (भा.) उत्थल-देखें टीले उत्थान ३/२६,१०४:७/१४६-१४६,१५०-१५४ उत्पत्ति ५/२०८-२२४(भा.),२५४-२५७७/२ - स्थान ७/१ - काल ६/५४-६३(भा.) उत्पन्न ज्ञानदर्शन के धारक ७/३,१५८ उत्पल ५/१८; ६/१३२,१३३,१३४ उत्पलांग ५/१८;६/१३२,१३३,१३४ उत्पात ३/१ उत्पाद ५/१५०-१५३(भा.),२०८-२२४(भा.),२२५-२३३(भा.) उत्पादन ७/२५ उत्प्रासन ५/६८-७१(भा.) उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका ६/१३४ उत्सर्पिणी ३/६४५ आमुख,१९,२०,२३,२७,२९,२४८,२४९,२५१, २५२६/१३४ - सृष्टि के साथ आंशिक तुलना ५ आमुख उत्सूत्र ७/४,५,२१,१२६ उत्सेध ३/४ - अंगुल ६/१३३,१३४ उदक ६/१५६ - मत्स्य ३/२५३,२५३ (भा.) - योनिक ६/१५६ उदकोत्पीड ३/१६३ (भा.) उदकोदभेद ३/२६३ (भा.) उदय ३/१४३-१४८, २२२-२३०; ५/३-१२(भा.),७०,७४,१०७: ६/५-१४,१५,१६,३३,३४, ६४-६८, १५१; ७/२०,२१,७४-६२(भा.), १६१ - काल ७/७४-९२ उदयावली ६/१५,१६ उदार ३/३६,७/२०,२१ उदित ५/३,२१,२४,२९,७/२०,२१ उदीरणा ३/१४३-१४८,१४३-१४८ (भा.),१५४-१६३ (भा.);4/ ४५.१३८,१५०-१५३,१५०-१५३(भा.); ६/५-१४,१५,१६,१५४; ७/१६ उदीरित ३/१४८ उदीर्ण (उत्कट) मोह ३/१०७ उद्गम ७/२५ उद्दिठ्ठा (अमावास्या) ३/१५२ उद्दिष्ट ७/२५ उद्देशक ३ आमुख ७६,२२१,२७९: ४ आमुख,१.५.६.८:५ आमुख, ११५,२५८.२६०: ६ आमुख १,१७,१८,२०,६८, १८८७/१ उद्देश्य ७/२५ उद्देसिय ५/१३६-१४६ उयोत ५/१३७-२४७ (भा.) उद्धार ६/१६० - पल्योपम ६/१३३,१३४ उद्धृत-देखें गति उद्भिन्न ७/२५ उद्यान ३/१०५, ११२ उद्वर्तन ५/२०८-२२४(भा.),२२५-२३३(भा.),२५४-२५७(भा.);७/२१० उदवर्तना६/१५४ उद्वेजक ३/२५८ (भा.) उन्नततर ३/५४,५४ (भा.) उन्मत्तवत् ३/२२२-२३० उन्मिश्र७/२५ उन्मेष-निमेष ३/१४८ उपकरण ३/३६,१०४:५/१३४,१३५,१८२-१६०(भा.);७/२२७ उपग्रह ५/१३४-१३५ (भा.) उपचय ५/२२५-२३३,२२५-२३३ (भा.);६आमुख,२०,२४-२६, २७-२९,७/१६४ - अपचय-सहित ५/२२५,२२६,२३०,२३४ - और अपचय से रहित ५/२२५-२२७,२३१,२३३ - सहित ५/२२५,२२६,२२८,२३१,२३२,२२५-२३३ (भा.) उपजीवी ६/३३,३४ उपनिषद् ३ आमुख उपदेश ७/२२० उपधि ५/१८२-१९० उपपद्यमान ७/१०१-१०५ उपपन्न ३/१७,२१,४३,४६,५३,७५,१०७,१०८,१०९,११०, १११,१२८,१२९,१३१,१८३-१८५,२१९,२२०:४/७:५/५९, २५७: ६/८८, १०५,१२२, १२४-१२६;७/१०१-१०५,१४६,१४७,१८१, १६०, १६२,१६३, २०६-२१० उपपत्रक ५/१०२ Jain Education Intemational Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम उपपात ३/१७,५१ (भा.); ६/५४-६३ - सभा ३/१०७ उपपाद ३/५१ उपभोग ७/२६-३५ परिभोग परिमाण ७/३५ उपमा ६/ १३३,१३४ उपमान ५ / ९४ ९९ (भा.) उपयुक्त ५ / १०२ ६/१६८, १६६ उपयोग ३/१४८ : ५/८३-८८ (भा.) ६/३५-५१,६३,१६८, १६६ - रूप ५/१००-१०२, १०३ १०६ उपयोगी ६/२० उपलब्ध ३ / १७,३०, ५०, ५१ उपवास ३/१७,२१,३३,७६ ७/१६४ उपशमन ३/८४ : ५/१०७ उपशम श्रेणी ३/१४९-१५०: ५/१०७ उपशान्त ३/१७,८४, १४३-१४८: ५/१०७, १०७ (भा.): ७/१८१,१६० - मोह ३/१४३-१४८ (भा.); ५/१०७, ६/१-४; ७ / २०, २१ उपशामना ६/५-१४, १५४ उपसम्पदा ५/२५६, २५७ उपसम्पन्न (प्रशान्त) ३ / १२९ उपस्तृत ३/४, ५, १९६ उपस्थान शाला ७ / १६६ उपसर्ग ७ / २०३ उपार्जन ३/३० उपहत ३/१२७.१२८ • मतिवाला ३ / २२२-२३० उपादान ५/१६१-१६६ (भा.) उपाध्याय ५/१४७, १४७ (भा.) उपाश्रय ५/४, ५ उपासना ७/१६३ उभयतः वक्रश्रेणी ७/१ उल्कापात ३/२५३, २५३ (भा.) उल्लंघन (एक बार लांघना) ३/१८६, १८७ उष्ण ४/८, ५/१५०-१५३ योनिक ७/६३ उस उस भाव में (परिणाम) ३/१४३-१४८ ऊ ४४० -क्षेत्र ५०६४ ऊर्ध्व-गति ३/११९-१२६ (भा.) ऊर्ध्वजानु अधः सिर ५/८५,२०१ ऊर्ध्वरेणु ६ / १३४ ऊर्ध्वलोक ३/८८,८९,९४-९८, १०९, ११५, ११६, ११९, १२०-१२२, १३१ - • कण्डक ३/११९ ऊर्ध्ववर्ती ५/६४ झुजु ७/१ ऋ आयत श्रेणी ७/१ - गति ५/५६-६१; ७/१ ऋतु ५/१५, १६; ६/१३२; ७/१, ६२ ऋद्धि ३/१५४-१६३,२३०, २२२-२३० (भा.), २३९ मान ३/१५४-१६३ ए एक (अर्थ) पर्यकासन३/२०७ एक (अर्ध) पर्यस्तिका - आसन ३/२०५ एकगुण ५/१७२,२०१-२०७ एकत: पत्ताक ३/१६४ - १७१ (भा.) एकत: वक्रश्रेणी ७/१ एकपुद्गलनिविष्टदृष्टि ३/१०५ एक भक्त ७/२६-३५ एकभविक ५/५७,५८ एक रात्रि की महाप्रतिमा ३/१०५, ११२ एक रात्रि की भिक्षु प्रतिमा ३/१०५ एक रूप ५/५१-५४ ६/१६३-१६६ ७/१६७-१६६ एकवर्ण ६/१६३-१६५; ७ / १६७-१६६ एक समय में एक क्रिया) ७/२७(भा.) एक सौ बीस भक्त ३ / ४३ एकहस्तिका ७/१७७, ११७ (भा.), १८६ एकाग्रता ३/२२२-२३० (भा.) एकात्मवादी ७ आमुख एकान्त • दण्ड ७/२८, २७-२८ (भा.) - दुःखद ७/१०३ - दुःखमय ६/१८३-१८५, १८८ - पण्डित ७/२८, २७-२८ (भा.) - बाल ७/२८,२७-२८ (भा.) सुख ६/१८५ सुखद ७/१०४ - सुखमय ६/१८४ एकार्य ३/२१८ एकेन्द्रिय ५७११८२१६० (.); ६७,३५-५१ (भा.), ६३,६४-६८ (भा.), १२५, १५१, ७/१, १२७-१४५, १५०-१५४, १६१ भगवई - जीव ५/५४, १८६, २१९,२२०, २२२, २२५, २३१ एजन ३/१४३-१४८, १४३-१४८ (भा.), १५४-१६३ (भा.); ५/ १,१५०-१५३,१५०-१५३ (भा.) एरण्ड फल ७ / १०-१५ (भा.) एरण्ड मिंजिया ७ /१०-१५ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४४१ पारिभाषिक शब्दानुक्रम एवंभूत-वेदना ५/११६-१२०,११६-१२१ (भा.) एषणा ३/१४८: ७/२२,२३,२५ एषणीय ५/१२५; ७/८,६,२२,२३,२४,१६३ एषित ७/२५,२५ (भा.) ऐयापथिकी ३/१४३-१४८ - क्रिया ३/१४८,१४३-१४८(भा.);६/२६-२८७/४,५, ४-५(भा.),२०,२१,१२५,१२६ ऐष्यत् काल ३/१४३-१४८ ओघ संज्ञा ७/१६१ ओज आहार ७/१ ओदन ५/५१ औधिक ६/६३,६७ - ज्ञानी ६/६३ औदयिकभाव ३/२२२-२३० औदारिक (स्थूल) ३/४; ५/३१-४५,५०,५६-६१; ६/६३,१५१ - वर्गणा ३/४; ५ आमुख औदारिक शरीर-प्रयोग बंध ५/१११ - शरीर ६/१४, २०-२३ - शरीर वर्गणा ६/३३,३४ - शरीरी ६/५४-६३ औद्देशिक ७/२५ औपमिक ६/१३३ -काल ६/१३१, १३३-१३४ (भा.) औपम्य ५/६७ औषधि ३/४; ७/११७ (भा.) - (औषध) मिश्रित ७ आमुख, २२६ कमल ६/१३३,१३४ कमलांग ६/१३३,१३४ करण ६/५-११,५-१४ (भा.) १७,१५४७/२८ करोड़ पूर्व ३/१४९,१५० कर्क (राशि) ७/६२ कर्कश ७/१०७-११२ - वेदनीय ७/१०७-१०९,१०७-११२ (भा.) कर्दम राग ६/१-४ (भा.) कर्म ३/३३,३६,१०४,१४०-१४२,१४८:५/५७,५८,७०,७४, ६४-६६,११६,११७,१२०,१२८-१३२, १४८,१८३, १८५,१८७,१८६६ आमुख, १,५-१४,२०,२५,२६,२६,२७-२६ (भा.)३३,३४,६४,६८, १३३,१३४,१५१, १५४, १६२७ आमुख,१०-१५, १६-१६,६७-७३,७५,७७, ८०,८३, ८६, १०७-११६,१४६-१४८, १५०-१५४,१५८, १५६,१६५ - आत्मकृत ६/२४-२६ (भा.) - करण ६/५-७,९,१५२-१५४ (भा.) - का उदय ३/१४३-१४८ (भा.) - का विपाक ६ आमुख १-४, -जनित ७/१५८,१५९ - दलिक ६/३४ - निरोध ७/१०७-११२ - निषेक ६/३४ - पुद्गल ३/४,१४०-१४२:६/२०-२३,३३,३४,१५१ - पूर्वक ३/१४०-१४२ - प्रकृति ५/७१-७५,६८-७१(भा.); ६/३३,३४,३३-३४(भा.), ३५,३७-५१,१५१,१५४,१६२ - प्रायोग्य ३/१४३-१४८(भा.): ६/३३,३४ - फल ६/१-४,३३,३४ -बन्ध ३/१३४-१३९,१४०-१४२,१४३-१४८,२२२-२३०; ६/२०-२३(भा.),३५-५१(भा.),१५१,१५४:७/१०७-११२,११४,११६, २१८-२२० - भोग ७ आमुख - मुक्त ६/२४-२६:७/१०-१५ - वर्गणा ६/२४-२६,३३, ३४ - विद्या ६ आमुख - विपाक ६/१५१ -विषयक ७/२१८-२२० - शास्त्र ५/१४८: ६ आमुख: ७ आमुख - शास्त्रीय ३/३३,१४९-१५०(भा.); ५/७२-७५(भा.),१२४. १२७(भा.); ६/६४-६८(भा.) - सिद्धान्त ५/५७,५८ - स्कन्ध ६/१५४ - स्थिति ६/२०, ३४ - स्पर्श ३/१४३-१४८ (भा.) कर्मक (कार्मण) शरीर ६/६३ क कंगु (धान्य)६/१३१,१२९-१३१ (भा.) कंदराग्रह ३/२६८,२६८ (भा.) कंदर्पक ३/२५७ कंदर्प ३/२५७ (भा.) कक्षाकोथ ३/२५८ (भा.) कक्षागतस्वेदमिव (कक्खागयसेयमिव) ३/११४ (भा.) कच्छुकसराभिभूत (कच्छुकसराभिक्षुम) ७/११९ (भा.) कटुक ६/१६३-१६७ कठिन मल (मइल्लिय)६/२०-२३(भा.) कथंचित् ६/१७४-१८२ कदाचित् ७/१०३-१०५,१६२ कन्या (राशि) ७/६२ कपिहसित ३/२५३ Jain Education Intemational Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४४२ भगवई कर्माशय ५/५७,५८ कल्पना ३/१७ कर्मोदय रूप ७/१६१ कल (धान्य) १३१,१२९-१३१ (भा.) कलकलरव ३/११२ कल्पनीय ३/१०२ कल्पवासी ३/९० कल्याण ३/३६ - कर्म ७/२२५,२२६ - कारी ३/३३,३८,५१ - दायी ३/३३ - फल विपाक संयुक्त ७/२२५,२२६ कल्याणानुबन्ध निर्जरा ६/१-४(भा.) कवल ७/२४,२६-३५(भा.) कषाय ३/१४३-१४८(भा.),१९०: ५/६८-७१ (भा.); ६/२०-२३,६३; ७/४,५, २०,२१,२६-३५ - आश्रव ७/१०७-११२(भा.) - जनित (साम्परायिकी क्रिया) ३/१४३-१४८ (भा.) - वान् ३/१९० - समुद्घात ३/४ कषाय (रस) ६/१६३-१६७(भा.) कसौटी ५/५२ कांस्य ताल ५/६४ कांतार-भक्त ५/१४०,१३६-१४६ (भा.) कानन ५/१८९,१८२-१९० (भा.) कापोत (लेश्या) ४/८६/६३,१६८,१६६७/६७-७३(भा.),६६,७० - लेश्या ६/६३, ७/६९,७० - लेश्यी ६/६३ काम ६/८२,६६,१४२,१४७,१५०; ७/१२७-१३१(भा.),१५०-१५४(भा.) -भोग ७/१३७ -भोगी ७/१४५ कामना ७/१२७-१४५ कामी ५/६४,७/१३८-१४१,१४३ कायिक प्रयोग ६/२४-२६ (भा.) कायिक प्रवृत्ति ५/११०,१११ कायोत्सर्ग ३/३५,३६ कारक तत्त्व ६/१५,१६ कारण ५/१०४-१०६(भा.),१५०-१५३(भा.),१६१-१६८(भा.); ७/२२,२३ कारित ७/२७,२८ कार्बन आर्क बत्ति ६ आमुख कार्मण ५/५० - वर्गणा ५ आमुख; ६/३३,३४ - शरीर ६/२०-२३(भा.) कार्य ५/१५०-१५३(भा.) - कारण ५/१६१-१९८(भा.) -कारण-भाव ३/१४०-१४२(भा.) काल ३/१७,२१,४३,१४९,१५०; ५ आमुख, १,३,१६,२६,६४,६७, १६०-१६४(भा.),१६६-१७४(भा.),२२७-२३३(भा.); ६/३०-३२(भा.), ३३,३४,१३२,१३५,७ आमुख, ११७-११६,२०६,२०७,२०६,२१२-२१७ (भा.) - कर ७/१२१,१२२ - का प्रभाव ७/११७ (भा.) - का विभाग ५/२४८-२५३(भा.) - की अपेक्षा ५/२०२,२०३,२०५,२०६६/५४,५५, ५७,५८,६०,५४-६३(भा.) - की दृष्टि ६/५४-६३(भा.) - कृत ५/१७५-१८०(भा.) - के दो प्रकार नैश्चयिक और व्यावहारिक ५/२४८-२५३(भा.) -क्रम ६/२१,२३ - खण्ड ३/१४०-१४२; ६/१३३,१३४ - गणना ५/२४८-२५३(भा.);६/१३२ - चक्र ५ आमुखः ६ आमुख १३३,१३४,१३३-१३४(भा.); ७/११७-१२३ - धर्म ५/१३९, १४१, १४३, १४५ - परमाणु ५/१६०-१६४(भा.) - प्रमाण ५/२४८-२५३(भा.);६/१३२ • मर्यादा ५/१६६-१७४(भा.),२४८-२५३(भा.); ६/३३-३४ (भा.) - मान ५/१६६-१७४(भा.);६/१३२,१३४:७/२९-३५,६७७३(भा.) - मास ३/१७,२१,४३,१०६:७/१२१,१२२,२०६,२०७,२०९ - लब्धि ६/३०-३२(भा.) काल (मृत्यु) ३/१९२ कालातिक्रान्त ७/२४ कालादेश ५/२०१-२०७(भा.); ६/५४-६३(भा.) कालावधि ३/१४३-१४८(भा.),१४९,१५०:५/१६६-१७२,२३१; ६/१८,१५१ काय • करण ६/५,६,७,९ - प्रयोग ६/२६ - योग ५/१३४,१३५,६/५-१४ (भा.) - योगी ६/४७,६३ - वर्गणा ६/५-१४ (भा.) -स्थिति ५/४६,४६-५० (भा.),२४८-२५३ (भा.) काया ३/१३५:५/८३-८८,११०,१११ ___ • का योग ५/११०,१११,१३४,१३५ कायिकी ३/१३४,१३५: ५/१३४,७/२८ - क्रिया ५/१३४-१३९ Jain Education Intemational Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४४३ पारिभाषिक शब्दानुक्रम कालिकोपदेश ७/१६१ कालिकोपदेशिकी ७/१६१ काष्ठमय पात्र ३/३३,३६ काहला (खरमुही) ५/६४,६४ (भा.) किंकिच्चा ३/३० किंदच्चा ३/३० किंशरीरत्व ५ आमुख किंशुक (टेसू) पुष्प ३/११३ किढिणपडिरूवग (तापस-पात्र तुल्य पात्र)-देखें परिशिष्ट - २ किमिच्छिय ५/१३६-१४६(भा.) कीय ५/१३-१४६(भा.) कुक्षि ६/१३४ कुच्छेज्जा (असार होना) ६/१३३,१३४ कुटुम्बजागरिका ३/३३,३३ (भा.)१०२ कुडव ७/१५६ कुणिमाहार ७/१२१, ७/१२१(भा.) कुथित ६/१३३,१३४ कुमारग्रह ३/२५८,२५८ (भा.) कुमार-श्रमण ५/७८-८२ कुमुद ६/१३३,१३४ कुमुदांग ६/१३३,१३४ कुम्भ (राशि) ७/६२ कुलत्थ ६/१३०,१२९-१३१ (भा.) कुल्माष ५/५१ कुशलमूला ६/१-४(भा.) कुस ६/१३५,१३५(भा.) कुसुम्भ (धान्य)६/१३१,१२९-१३४(भा.) कूट ५/१८९-१८२-१९० (भा.) कूटस्थनित्य ७ आमुख, १६-१६(भा.),५८-६०(भा.) कूटाकार शाला ७/१५८, १५६ कूटागारशाला ३/२९,२९(भा.) ९८ कूडागारशाला ७/१५८,१५९,१५८-१५९(भा.) कृष्ण ६/१६७.१६३-१६७(भा.); ७/६७-७३ -कंद ७/६६,६६ (भा.) - छिद्र ६/७०-११८ - राजि ६ आमुख,७०-११८(भा.)८९-९५,९७,९९-१०६, १०९,१५० - लेश्या ३/१८३: ४/८:६/६३: ७/६७-६८ - लेश्यी ६/५४-६३(भा.),१६८-१६९ - वर्ण ६/१६३-१६७(भा.); ७/१७० - विवर (Black hole) ६ आमुख,७०-११८(भा.) कृत ७/२७,२८ कृत्या ३/१९७ कृत्यागत ३/२०२,२०३,२०५,२०७ केलुट ७/६६,६६(भा.) केवल ३/४,१३४-१३९,१४३-१४८(भा.).१९६,२६१:५/१०८,१०६ - ज्ञान ३ आमुख, ८६-८७: ५ आमुख, १०८, १०६, १६१-१६८; ७/६२,१४६ - ज्ञानी ३/९५,१४९,१५०: ५/८३,८८, ६/४५-६३(भा.) - दर्शनी ६/४१,५२ - प्रवचन माता ७/१५६ - ब्रह्मचर्यवास ७/१५६ - संयम ७/१५६ - संवर ७/१५६ केवलि-मरण ५/१६५,१६६ केवलिसमुद्घात ३/४;६/३५-५१(भा.);७/१ केवली ३/१४९,१५०५ आमुख,६६,६७,६५-६७ (भा.) ६६,७०,७३, ७४,७२-७५(भा.),८३-८८,६४-६६,६४-६६(भा.),६८-१०१,१०३-१०६, १०३-१०६(भा.)१०८-१११,१०८-१०६(भा.),११५,१६१-१६८,२५४-२५७ (भा.); ६/३६,१३४,१८७,१८८,१८७-१८८(भा.); ७/३,१४६-१४६ (भा.)१५७ -का मन ५/१००-१०२ (भा.) - के उपासक ५/९६,९४-९९ (भा.) - की उपासिका ५/९६ - पाक्षिक ५/९४-९९,९४-९९ (भा.) - की श्राविका ५/९६ - के श्रावक ५/९६,९४.९९ (भा.) केशान ६/१३३,१३४ कैवल्य ५ आमुख; ६/३०-३२ कोटवाल ३/२४ कोटाकोटि ६/३४,१३३,१३४ कोटि ६/१२५ - कोटि ६/१२५,१३३,१३४ - पूर्व ६/३४ - सहित ७/३४ कोट्टक्रिया ३/३४ (भा.) कोठा ६/१३४ कोडाकोडि ६/१३४ कोद्दव (धान्य) ६/१३१,१२९-१३१ (भा.) कोद्दाल (वृक्ष) ६/१३५,१३९ (भा.) कोद्दषक (धान्य) ६/१३१,१२९-१३१(भा.) कोश६/१३४,७/२४ कोष्ठ ६/१२९-१३१ (भा.) कोलस्थिग ६/१७१-१७३ (भा.) कोस ६/७५,१७३ कौटुम्बिक ३/३४;७/१७४,१७५,१८३,१८४,१६४,१६५,१६६ कौतुक ३/३३; ७/१७६ क्रमभावीपर्याय ६/१७४-१८२ Jain Education Intemational Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४४४ भगवई क्रय-विक्रय ५ आमुख क्रिया ३ आमुख १,१७,४५,१३४-१३९(भा.),१४०-१४२,१४८: ५ आमुख | ३१-४५,८३-८८,१२८,१३४,१३५,१३४-१३५ (भा.),१५०-१५३, २४८-२५३; | ६ आमुख, २०-२३, ७ आमुख, २८,६७,१५०-१५४ - और वेदना ३/१४०-१४२ (भा.) - कांड ३/३८ -की विभिन्न अवस्थाएं ३/१४३-१४९(भा.) - की सघनता, विरलता 4/१२८-१३२ (भा.) - पञ्चक ३/१३४-१३९ - पद ३/४५,११२:५/१६१-१८(भा.) - पूर्वक ३/१४०-१४२(भा.) - योग ६ आमुख - वाद ५ आमुख - वाही तन्त्रिका (Motor Nerve)4/८३-८८(भा.) - विशेष ३/१३४-१३९(भा.) - प्रवृत्ति ५/८३-८८(भा.) - वीर्य ६/३३-३४(भा.) क्रीडा ३/२५७ क्रीत ५/१४०, १४२,१४४,१४६,७/२५ -कृत ७/२५,२५ (भा.) क्रोध ३/१७,४५,४६,१३४-१३९, २२२-२३०७/२१,२२,२५,१२६, १५०-१५४,१६१,१८१,१६०,२०१,२०२ - कषायी ६/६३ - पिण्ड ७/२५ - विवेग ७/१११ - वेदनीय ७/१६१ - संज्ञा ७/१६१ क्रूर वृत्ति ७/११६ २०,२१ क्षीरविदारी (वनस्पति)७/६६,६६ (भा.) क्षुधा वेदनीय ७/१६१ क्षेत्र ३/५३,११९-१२२,१३०; ५/२४८-२५३; ६/७१,१८६;७/२४ - अतिक्रान्त ७/२४,२४ (भा.) - आदेश ५/२०१-२०७(भा.) - की अपेक्षा ५/२०२, २०३, २०५, २०६ - जनित ६/१५,१६ - परमाणु ५/१६०-१६४(भा.) - प्रमाण ६/१३२ - मान ६/१३३-१३४(भा.) - सापेक्ष ५ आमुख - स्थान आयु ५/१८१ क्षोभ ३/१४३-१४८,१४३-१४८ (भा.),१५४-१६३(भा.); 4/१५०१५३,१५०-१५३(भा.) खंजन राग ६/१-४ (भा.) खर-परुष ७/११७,११७-१२३ (भा.) खरमुही-देखें काहला खातिका ५/१८९,१८२-१९० (भा.) खाद ७/११७,११७ (भा.) खण्डभेद ५/११२,११३ खाद्य ७/८,६,२२,२३,२४,२६-३५,१६३,२०३ खार ३/२५८,२५८ (भा.) खुर ५४५३ खेचर ७/६६ खेदखिन्न ७/११४,११६ क्षमा ३/५०.११६,१२९ - याचना ३/११,५०,११६,१२९:५/२०७ क्षय ३/३३,१४८,५/६८-७१ क्षयोपशम ३/२२२-२३०:५/१००-१०२ (भा.); ६/६४-६८(भा.); ७/१६१ क्षान्ति ७/११३-११६(भा.) क्षायिक ५/१००-१०२(भा.) क्षायोपशमिक ज्ञान ५/१६१-१९८(भा.) क्षायोपशमिक भाव ३/२२२-२३०(भा.) क्षार जल (वाले मेघ) ७/११७,११७ (भा.) क्षिति-शयन ७/२६-३५(भा.) क्षीण ५/१०७-१३३(भा.); ७/२०,२१ - कषाय ७/४,५ - भोगी ७/१४६-१४६(भा.) - मोह ३/१४३-१४८(भा.); /१०७: ६/१-४(भा.); ७/ गंध ४/८५/५१-५४(भा.),६४,१०७,१०६,१५०-१५३(भा.),१६०-१६४ (भा.),१७२,१७८,२०१-२०७; ६आमुख,१३३,१३४,१६७; ७/५८-६० (भा.),६७-७३(भा.),१३६,१३७ गंधर्व नगर ३/२५३,२५३ (भा.) गंधर्व-निनाद ७/२०५ गण्डिकानुयोग ४ आमुख गंडमाणिया ७/१५९,१५८-१५९ (भा.) ग्रन्थ ६ आमुख ग्रन्थि ५/५७,५८ ग्रन्थिक ५/१ गण का उपग्रह ५/१४७ गण का संग्रह ५/१४७ गणतन्त्र ७ आमुख गणधर ३ आमुख,२४७:४ आमुख; ५/६७७/१ गणनायक ७/१६६ गणना-काल ६ आमुख, १३२ (भा.) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गणनातीत काल ६ आमुख गणना-पद्धति ७/१७३ गणाभियोग ७ / १६४ गणित ६ / १३२,१३३,१३४ - काल ६/१३२ - प्रमेय ६ / १३३ - १३४ शास्त्र ६ / १३३ - १३४ (भा.) गति ३/१२०, १६४-१७१ (भा.); ४/८; ५/३१-४५ (भा.), ६२, १२४-१२६ (भा.); ६/५७, १५१,१५४; ७ आमुख, १,४,५,९०-१५,२०,२१,६७-७३, १५०-१५४ (भा.) अधो ३/११९-१२६ (भा.) , उत्कृष्ट ३/३८,४५, ११२ ६/७५,९२ 7 - उत्तर क्रिया ५ / ३१-४५ , उदीरणाजनित ५/३१-४५ उद्भुत ३/३८, ११२ • का विषय ३/८२-८६,८८ • के नियम ५/३१-४५ (भा.) - - 3 3 3 1 3 1 क्षेत्र ३/११९-१२६ : ५/३१-४५ चंड ३/३८, ११२ नाम ६/१५१ नाम कर्म ६/१५१ • नाम का निषिक्त ६ / १५२ नाम निधत्त ६ / १५४ - नाम निधत आयुष्य ५ / ६२ नामनि ६/१५१ - परिणाम ७/११, १२, १५ यथारीति ५/३१-४५ , चपल ३/३८, ११२ छेक ३/३८, ११२ जविनी ३/३८, ११२ त्वरित ३/३८, ११२, ६/७५, ९२ दिव्य ३/३८: ६/७५, ९२ देव ३/३८ शीघ्र ३/३८.११२ " - शील ५ आमुख, ५१-५४ (भा.), १५०-१५३ (भा.): ७/१५६ - सिद्धान्त ३ आमुख सैंही ३/३८, ११२ गमक ५/१४०, १६१-१६८ (भा.); ६/१६५ गमन ६/५-१४ - मार्ग ३/१४३-१४८ (भा.) - गम्य ५/२५४-२५७ गर्भ ३/१७ - प्रत्यारोपण ५/७६,७७ महोत्सव ३/८६-८७ (भा.) ४४५ - • संहरण ५/७६,७७,७६-७७ (भा.) • गर्भावक्रान्तिक मनुष्य ५/६२ - गर्भज ७/३६-४२ तिर्यत्रा पञ्चेन्द्रिय ५/२०८-२२८ (भा.) पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक ५/२२२ - मनुष्य ५/२२२: ७/३६-४२ (भा.) गवेलक (गवेलय) ७/११७ (भा.) गवेषणा ७/२२, २३ गवेषित ७/२५ गव्यूत ३/११९-१२६ (भा.): ६ / १३४ गव्यूति ३/११९ १२६ (भा.) गाढबन्धनबद्ध ७/१६५ गाढरूप ६/४, १-४ (भा.) गुच्छ ७/११७,११७ (भा.) गुंजालिका ५/१८९, १८२-१९० (मा.) गुंजावात ३/२५३,२५३ (भा.) गाढीकृत ६ आमुख, १-४ (भा.) गिरिगृह ३ / २६८, २६८ (भा.) गिल्ली ३/१६४ - १७१ (भा.) गीत ३/४ (भा.) गुण ३/५४ : ५/१६०-१६४, १७२, १७५-१८०, २०३६/१७४-१८२, ७/ २६-३५, १२१, १८१,१६०, २०४ पारिभाषिक शब्दानुक्रम - गुणी-भाव ६/१७४- १८२ - बन्धनबद्ध ७/१६५ - व्रत ७/२६-३५ - स्थान ३/१४३-१४८ (भा.): ६ / १५, १६, ३५-५१ (भा.), १६२; _७/१०-१५ (भा.), १०७-११२ (भा.) गुणांश ५/१६६ - १७४ (भा.) गुणी ६/१७४- १८२ (भा.) गुप्त ७/४, ५ गुरु ३/३५, ३६; ६/१६३-१६७ (भा.) त्वाकर्षण ६ / ७०-११८ (भा.) गुल्म ७ /११७,११७ (भा.) गूढ सूचना ४ आमुख गृह ७/२६-३५ आपण (दुकान) ६/७६, ६३ - पति ३/३२,३३,१०१, १०२ : ५/१२८-१३२ (भा.) - वास ३ / २३१-२३९ (भा.) - स्थ ३/३६, ७/४, ५, २५ गेहा ६ / १३७ - १५० (भा.) गोकिंलिज्ज ७ /१५६, १५८-१५६ (भा.) गोत्र ३ / ४ ६ / ३३-३४, १५४ - कर्म ६/३३,३४ गोत्रीय ५/३ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४४६ भगवई गोधूम ७/१२९,१२९-१३१ (भा.) गोपुर ५/१८९,१८२-१९०(भा.) गोबर ५/५४ गौण ५/२५४-२५७(भा.) - रूप ५/२५४-२५७(भा.) गौतम (गोत्र) ३ आमुख, ४,१४; ७/२१५ ग्यारह-अंग ७/२२०(भा.) ग्रह ३/२५३ (भा.) - गर्जित ३/२५३,२५३ (भा.) - दण्ड ३/२५३,२५३ (भा.) - मुशल ३/२५३,२५३ (भा.) - युद्ध ३/२५३,२५३ (भा.) - शृंगारक ३/२५३,२५३ (भा.) ग्रहण ७/१६ ग्रहणैषणा ७/२२,२३ ग्रहणोचित ५/६४ ग्रहापसव्य ३/२५३,२५३ (भा.) ग्राम ६/७७,१३६,१४८ ग्रामानुग्राम ३/१०५ ग्रास ७/२४ ग्रीष्म ५/१६ - ऋतु ७/६२,६३ - प्रदेश ७/६३ ग्लान-भक्त ५/१४०,१३६-१४६ (भा.) ग्लानि ५/२०४ चंडिक्किय ३/४५,४५ (भा.) चंद्रपरिवेश ३/२५३,२५३ (भा.) चक्रवाल ३/१७२-१८२(भा.); ६/१५६ चक्राकार गति ३/१८१ चक्षु ३/२२२-२३०(भा.): ५/६४,७२-७५,७/१५२ - इन्द्रिय ३/१६१; ५/६४,२३७,२४७;७/१३६,१४५ - इन्द्रिय-विषय ३/२७९ - ज्ञान ३/२२२-२३०(भा.) - दर्शनी ६/४१ - विक्षेप ३/११३,११३ (भा.) - सापेक्ष ५/२३७-२४७(भा.) चतुरिन्द्रिय ५/१८८,२२६,२४४,२४५, ६/६५, ७/३८,४५,१४३,१४४, १५०-१५४(भा.) चतुर्थ भक्त ७/२३१ चतुर्दश गुणस्थान ५/६४-६६ चतुर्दशपूर्वी ५/११२,११३ चतुर्दशी ३/१५२ चतुर्भागिका ७/१५६ चतुष्कोण ६/६० चतुष्पुटक ३/१०२ चतु:प्रदेशी (शिक) स्कन्ध ५/१५३,१६३,१६६-१६८ चतुःस्पर्शी ५/६४ चपल-देखें गति चय ६/२०,२१; ७/१६५ - उपचय ६/२०-२३ (भा.) चरम ३/७२,७२ (भा.),७३,१३१,१३४,१३९: ६/२०,५१,५२; ७/२,२४ - उच्छ्वास-निःश्वास ५/२५७ - कर्म ५/९८,९९,९४-९९ (भा.) - निर्जरा ५/९८,९९,९४-९९(भा.) - बिन्दु ५ आमुख - भवस्थ ३/१३१,१३१ (भा.) - समय ५/९८,९९,९४.९९(भा.) चरमान्त ६/१३७-१५० चरिका ५/१८९,१८२-१९० (भा.) चरित्र ३/९० चर्चा ७/२१२-२१७(भा.) चर्म ५/५३ चलन ३/१४३-१४८,१४३-१४८ (भा.), १५४-१६३ (भा.);4/ १५०-१५३,१५०-१५३ (भा.) चलनी ७/११८ (भा.) चवचव ७/२५ चवला (आलिसंदग) ६/१३०,१२९-१३१ (भा.) चांदी की खान ३/२६८ घ घंटा ५ आमुख घट्टन ३/१४३-१४८ (भा.) घडी ६/१३३,१३४ घन ५/६४ - त्व ६/७०-११८(भा.) - फल ६/१३३-१३४(भा.) - वात ६/१३७-१५०(भा.) घनीभूत ६/१३४ घनोदधि ६/१३७-१५०(भा.) घरोन्दे ५/१८२-१६०(भा.) घातिक कर्म ६/३३-३४(भा.) घात्यकर्म ७/१०७-११२(भा.) घ्राणेन्द्रिय ३/१९१: ५/६४,७/१३६,१४२,१४४ -विषय ३/२७९ घ्राण-पुद्गल-विकिरण ६/१७१-१७३(भा.) चण्ड-देखें गति Jain Education Intemational Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४४७ पारिभाषिक शब्दानुक्रम छठा अर ५ आमुख छद्म-आवरण ५ आमुख छद्मगृह ३/२९ छद्मस्थ ५ आमुख, १,६४-६६,६५-६७ (भा.)६८-७४,७२-७५(भा.) ६६,६६,६४-६६ (भा.),११५,१६१-१९८,१६१,१६२,१६७,१६८७/१, १४६,१५६ - अवस्था ३/१०५ - तीर्थंकर ३/९५ - मरण ५/१९१,१९२,१९७,१९८ छर्दित ७/२५(भा.) छवि ७/११९(भा.) छविच्छेद ५/७७ छेकी-देखें गति छेदकर ३/१०७ छेदन ३/१७,२१,४३; ६/२२ छेदागणित ६/१३३-१३४(भा.) छोटे शंख ५/६४ चाक्षुक ६/३५-५१(भा.) चातुर्याम ५/२५६,२५७ चार गतियां ५/६२ (भा.) चार द्वार वाले स्थान ३/४५ चार भूत ५ आमुख चारित्र ३/१९२:५/१६१-१६८(भा.) - मूढ़ता ६/३३,३४ - मोह ५/६८-७१(भा.);६/६४-६८(भा.) - मोह की प्रकृति ५/६८-७१(भा.) - मोहनीय ५/७० चारित्र भावना ३/१५४-१६३(भा.) चिंतन ३/१७,११४ (भा.) चिकने ६/४,१-४ (भा.) चिकित्सा ७/२५ - पिण्ड ७/२५ चित्तवृत्ति का नियमन ३/२२२-२३०(भा.) चितिशक्ति ५ आमुख चित्त प्रलय ६ आमुख चित्ताह्लादक ३/३८,५१ चित्रल ७/११९,११७-१२३ (भा.) चिल्लल ५/१८९,१८२-१९० (भा.) चिह्नपट ७/१७६,१७६ (भा.) १८५ चीना धान्य (वरग) ६/१३१,१२९-१३१ (भा.) चुटकी (अच्छरानिवाए) ६/१७१-१७३ (भा.) चूर्णिका भेद ५/११२,११३ चूर्ण ७/२५ - पिण्ड ७/२५,२५ (भा.) - वर्षा ३/१६८,१६८ (भा.) चूर्णि ३/७३ - कार ७/२४ चूलिका ५/१८, ६/१३२,१३३,१३४ चूलिकांग ५/१८; ६/१३२,१३३,१३४ चेतन स्तर की क्रिया ३/१३४-१३९(भा.) चेतना ५/८३-८८;७/१६१,२१७ - वान् ७/१२७-१४५(भा.) - शून्य ७/१२७-१४५(भा.) चैतन्य ६/१७४,१७४-१८२ (भा.); ७/१२७-१४५(भा.),१५८,१५६ - मय ७/१५८,१५९ चौक ३/४५ चौबीस दण्डक ५/२०८-२२४ (भा.), २२५-२३३ (भा.) चौराहों ३/४५ च्यवन ३/५३,७५ च्यवित ७/२५,२५ (भा.) च्युत ७/२५,२५ (भा.) जइण वेग ३/११३,११३ (भा.) जगत ५/२५४-२५७(भा.) जगश्रेणी ६/१३३-१३४(भा.) जघन्य परीत असंख्यात ६/१३३-१३४(भा.) जघन्य युक्त असंख्यात ६/१३३-१३४(भा.) जनपद ३/२७ ___- विहार ७/२२१ जनपदाग्र ३/२२८,२३०,२३७,२३९ जनसमूह ३/२९ जन्म ३/४,१७, ५/५७,५८,६०,१४७; ६/३३,३४,१२०-१२८(भा.),१५१; ७/१ - जात ३/१६४-१७१(भा.) - मरण ६/३०-३२,३५-५१(भा.),१५४ - स्थल ७/१ - स्थान ३/१७ जन्मोत्सव ३/८७ • महोत्सव ३/८७ जम्बूद्वीप ३/१००,११२,११४,१४६,२४९,२५१,१५३ जयन्ती ६/३०-३२ जल ५/५१-५४(भा.); ६/७०,७१,८७,१०४,१५५,१५६,७/६२,६३ - क्षेत्र ६ आमुख - यान ६ आमुख - स्तर ६/१५५,१५६ जलात्मक ५/२३५ जलीय ५ आमुख Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४४८ भगवई जविनी-देखें गति जाति ५/५७,५८,६/१५१,१५४;७/६७-७३(भा.),१०६ - गोत्र का निषिक्त ६/१५४ - गोत्रनियुक्त ६/१५४ - गोत्र नियुक्तायुष्क ६/१५४ - गोत्र निषिकायुष्क ६/१५४ - नाम ६/१५१,१५४ • नाम कर्म ६/१५१ - नाम का निषिक्त ६/१५२,१५४ - नाम गोत्र का निषिक्त ६/१५४ - नामगोत्र नियुक्त ६/१५४ - नामगोत्र नियुक्तायुष्क ६/१५४ • नामगोत्र निषिक्तायुष्क ६/१५४ - नाम निधत्त ५/६२, ६/१५२-१५४ - नाम नियुक्त ६/१५४ - नाम नियुक्तायुष्क ६/१५४ - नाम निषिक्तायुष्क ६/१५३,१५४ - नाम निषिक्तायुष्य ६/१५१ जादुगरी विद्या ३/१९० जादू-टोना ३/१९७ जानता-देखता ३/१५४-१५६,२२२-२३९: ५/६६,६७,६४,६५,६८, ६६,६४-६६ (भा.), १०१,१०२, १०५, १०६, १०८; ६/१६८,१६६,१८७ जाल ५/५७,५८ - ग्रन्थि ५/५७,५८ जिन ६/१-४७/३,१५६ जिनेन्द्रमुद्रा ३/१०५ जिह्वा-इन्द्रिय ७/१३६,१४२,१४४ जीर्ण ७/११४,११६ जीव ३/४.१४५,१४८.१४९,१५०,१६४-१७१(भा.),१८३-१८५(भा.); ५आमुख,४६-५४(भा.),५७-५६,७०,७१,७५,११६-११८,१३३-१३५, १५०-१५३,२०९-२१३,२१५-२१७,२२५,२२७-२३१,२३६,२४०, २४३-२४५, २४८-२५३,२५४-२५७; ६/७-६, १३-१६,१७,२५,२६, २८, २६,३१,३२,३०-३२,५४,५५,५७,५८,६०-६८,८७,८८,१०४,१०५, ११६,१२५, १४२, १४७, १५२-१५४,१५६, १७१-१७६,१७४-१८२ (भा.) १७८, १८३, १८४, १८६, १८८, ७ आमुख, १-३, ६,७,१०-१५,२५,२७, ३६,३९-४१, ४५,४७,४८,५०,५२-६०,६२-६६,६७,६६,१०१-१०८,११०-११६,११६, १२६,१३०,१३४,१३५,१३८-१४५,१५८,१५६,१६१,१६२,१६१,१६३, २२०,२२५-२२७ - काय ७/२१३,२१८ - का वीर्य ६/५-१४ - का शरीर ५ आमुख - का सादित्व ६/३०-३२ (भा.) - की प्रवृत्ति ५/१८२-१९० (भा.) - घन ५/२५५,२५४-२५७ (भा.) -त्व ७/१५८,१५६ - द्रव्य ५/१११ - पद ५/६८-७१ - पर्याय ६/३०-३२ - प्रदेश ३/१४३-१४८(भा.): ५/६४-६६ - प्रादोषिकी ३/१३७ - वाद ६/३०-३२ - वीर्य ६/५-१४ जीवन ६/१७४-१८२७/२,१०१ - काल ७/१९१ - क्रिया ७/१ - चरित ४ आमुख - चर्या ५ आमुख - प्रणाली ७/६४,६५ - व्यवहार ३/१४३-१४८(भा.) - शून्य ७/२०२ जीवनी-शक्ति ३/१७ जीवा ५/१३४,१३५,१३४-१३५ (भा.) - प्रत्यञ्जा ५/१३४-१३५ (भा.) जीवाजीवात्मक ५/२३५,२३६ जीवास्तिकाय ७/२१३,२१८,२१६ जुराना ७/११४,११६ जूं ६/१२५,१७१ जूरावण ३/१४३-१४८ (भा.) जैन ३/१३४-१३९(भा.); ६/१८३-१८५(भा.) - आगम ५/२५४-२५७(भा.);६/१३३-१३४(भा.) - आचार ५ आमुख - कर्म-शास्त्र ५/११६-१२१(भा.) - खगोल ५ आमुख - ग्रन्थ ६/१३३-१३४ (भा.) - ज्योतिष ७/६२(भा.) - तत्त्वविद्या ६ आमुख - दर्शन ३ आमुख,२५०-२७७(भा.); ५ आमुख, ५१-५४ (भा.),५७,५८,८३-८८(भा.),१५०-१५३,१५४-१५९,१९१-१९९(भा.): ६/३०-३२,१८३-१८.५: ७ आमुख,१०-१५(भा.),१६-१९(भा.),५८६०(भा.),९३.९५(भा.),१२७-१४५(भा.) - दार्शनिक ५ आमुख, ९४.९९(भा.) -धर्म ३ आमुख १३४-१३९(भा.) - न्याय ५/६४ - परम्परा ५/९४-९९(भा.) - प्रमाण मीमांसा ५/९४-९९(भा.) - भूगोल ६/१44(भा.),१६०(भा.) - मनोविज्ञान ७/१६१ Jain Education Intemational Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई साहित्य ५ आमुख जैनेतर ६ / १३३ - १३४ (भा.) ज्ञात ७/१७३, १८२ अवस्था ७/१०६ व्य ३/६ ज्ञाता ६/१६८, १६६ ज्ञाति ३/३३, ३३ (भा.) ज्ञान ३ आमुख, ९५,१९२, २२२-२३० (भा.), २३१-२३९ (भा.): ४ आमुख, ५ आमुख ६४, ६७, १००-१०२, १०६-१११, ११०-१११ (भा.), १३६, १३७,१६१ - १६८, ६ / ३३, ३४, ६३, १३३, १३४, १६८, १६६, १७१-१७३; ७ आमुख, २७, २८, १५०, १५४ - दर्शन ६/१६८, १६९, १६८ - १६९ (भा.) - भावना ३/१५४-१६३ (भा.) - मीमांसा ६/३३, ३४:७/१२७-१४५ (भा.) राशि ६ आमुख - शक्ति ७/१५०-१५४ (भा.) - वाही तन्त्रिका (Sensory nerve) ५/८३- ८८ (भा.) ज्ञानात्मक ५/१००-१०२ (भा.), १०३-१०६ (भा.), १०६ ; ७/१६१ क्रिया ५/८३-८८ (भा.) - • प्रवृत्ति ५/८३- ८८ (भा.) - मन (भाव मन) ५/८३-८८(भा.) ज्ञानावरण (कर्म) ३/२२२-२३० (भा.); ५/१००-१०२, ६/२०-२३, ३३, ३४, ३५-५१ (भा.), १६२; ७/१०७-११२ (भा.), १६१ ज्ञानी ६/२०,५२, ५४-६४) ७/२०२१ ज्ञानेन्द्रिय ५/१०८ १०६ (भा.) ज्ञानोत्पत्ति-उत्सव ३/८७ ज्ञानोत्पाद- महोत्सव ३/८६,८७ ज्ञानोपयोग ७/१६१ ज्ञेय ३ आमुख; ५/१६१-१६६ (भा.) ज्योतिरस ३ / ४, ४ (भा.) ज्वार भाटा ६/१५५-१६० (भा.) झंझावात ३ / २५३, २५३ (भा.) झल्लरी ५ / ६४,६४ (भा.) झांझ ५/६४ झाम- देखें दग्ध झालरा ५/६४ ट टंक ५/१८९, १८२-१९० (भा.) टीले (उत्थल) ७/११७,११७- १२३ (भा.) टोलगति ७/११९, ११७- १२३ (भा.) ड डमर ३ / २५८, २५८ (भा.) झ ४४९ डिंब ३ / २५८, २५८ (भा.) डूगर (डोंगर) ७/११७,११७-१२३ (भा.) ढ ढक्का ५/६४ ढोल ५/६४ मावि ५/३-१२ (भा.) महारु (स्नायु) ५/१३४, १३५ निस्साए ३/७३ तंजोरी वीणा ५/६४ तंतुग्गव ६/२०-२३ (भा.) तंत्री ३/४ तटवर्ती ५/३१-४५ (भा.) तत ५/६४ तत्त्व-चिन्तन ७/५८-६० (भा.) तत्त्व-चर्चा ५/२५४-२५७ (भा.) तन्नेजति ३ आमुख तद्भक्ति (तमत्तिए) ३/२५२ सभार्य (तारिय) ३/२५२ तत्त्वज्ञान ६ आमुख तत्त्व-विद्या ७ आमुख तत्त्वार्थभाष्यकार ३/१४३-१४८ (भा.); ६/१-४ (भा.) तत्पाक्षिक (तत्पक्खिए) ३/२५२, ५ / ९४-९९ (भा.) तत्रगत ६ / १६३-१६७ तथागति परिणाम ७/१०-१५ (भा.) तथाभाव ३/२२२-२३० (भा.) तथारूप ३/३०, ५/१२४-१२७ ७/८, ६ तथाविध पुद्गल ५/१११ देवति ३ आमुख तद्रूप ५/५१-५४ तनु ७/२०, २१ ण - • भाव ६ आमुख त पारिभाषिक शब्दानुक्रम तन्त्रशास्त्र ३/१०५ तन्त्रिका तन्त्र (Nervous system) ५/८३-८८ (भा.) तन्मय ५/५१-५४ (भा.) तप ३/१०५, १५१, १५३ १५४ १६३ (भा.), २३१-२३९ (भा.); ५/८५,२०७; ६/१४ (भा.), ७/२६-३५ (भा.) • कर्म ३/१७,३६,१०४-१०५, ७/१६३,२२० - साधना ३/२१,३३,१०२ स्या ३ / ७६, १३४- १३९ (भा.); ५/२०१ - स्वी ३/३३,३५,३६ - तपोबल ३ आमुख, ३० Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४५० भगवई तिल ६/१३०,१२९-१३१(भा.) - तमा पृथ्वी ५/२१६; ६/१३७-१५०(भा.) तीन दिन का उपवास-देखें अष्टमभक्त तमस्काय ६ आमुख, १,७०,७१,७२-७८,८०,८२-८८,१५०,७०-११८ | तीर्थ ३/७३ (भा.) - प्रवर्तन, ५ आमुख तमःप्रभापृथ्वी ५/६२, ६/१३७-१५०(भा.) तीर्थंकर ३/८६,८७,९५; ५/८५,६४-६६(भा.),२५४-२५७(भा.) तमा पृथ्वी ५/२१६ तीव्र विपाक ७/३६-४२(भा.) तमोमय ५/२३७-२४७ (भा.) तीसभक्त ३/२१ तरच्छ-देखें परिशिष्ट-१ (ग) तीसरी पृथ्वी ३/८३-८४(भा.) तर्क ३ आमुख,३८ तृतीयान्त ५/१६१-१९८(भा.) तलवर (कोटवाल) ७/१६६ तुरियाए (त्वरित गति) ३/३८ तसिय-देखें परिशिष्ट - २ तुलनात्मक अध्ययन ६/१५,१६(भा.) तहेव (चिन्तन के क्षण में) ३/११४ तुला (राशि) ७/६२ तांबे की खान ३/२६८ तृण ७/११७ तात्त्विक चर्चा ५/२५४-२५७(भा.) - वनस्पतिकायिक ७/११७ तात्विक मूढ़ता ६/३३-३४(भा.) - हस्तक ३/१४८,१४३-१४८(भा.) तादात्म्य ३/३८ तेजस् ५/५०; ६/६३;७/६७-७३(भा.) तानपूरा ५/६४ - काय ५/१८३ ताप-क्षेत्र ५/३-१२; ७/२४ - कायिक ३/१६४-१७१; ६/११६;७/१४२ तापमान ६/७०-११८(भा.) - वी ३/३२ तापस ३/३६,१०४,१०७; ७/१६१ - लेश्या ३/१८५,१८३-१८५(भा.); ७/७१,२३० - परम्परा ३/३३ - लेश्यी ३/१८४.१८५, ६/५४-६३(भा.) - पर्याय ३/४३:७/१९१ तेतली (मनुष्य की एक जाति) ६/१३५ - पात्र ७/१८६ तेरापंथ ६/२०-२३ - लिंग ३/४५ तेला ३/१०५; ७/१६४ तारतम्य ६/१-४(भा.) - तेला ३/२१ तार्किक रूप ३/१६४-१७१(भा.) तैजस ५ आमुख; ६/६३ ताल ३/४ - वर्गणा ५ आमुख तिरछा (तिर्यग्) - शरीर वर्गणा ६/३३-३४(भा.) -क्षेत्र ५/६४ - शरीरी ६/५४-६३(भा.) - गति ३/११९-१२६(भा.),१२०-१२२,१६४-१७१(भा.) - लेश्या ६/६३ - दिशा ३/३८,११२, ४/४; ६/७२ त्यक्त ७/२५ - योनिक ५/६२,१२४-१२७,१८५,१६०; ६/३२; ७/१८१,१६० त्याग ७/८,६,२६-३५(भा.),१४६-१४६(भा.) - वर्ती ५/६४ त्यागी ७/१४६-१४E (भा.) - लोक में ३/४,५,१४,२२,८५,८६,११२,११४,११५, १२०- त्वरित-देखें गति १२२,२५१ त्रपु-आकार (तउयागरा) तिगिञ्छिकूट ३/११२ - देखें रांगे की खान तिप्पावण-देखें परिशिष्ट - २ त्रस ७/६,२८,१५० तिराहा ३/४५ - काय ५/१८३,१८४,१८७: ६/८८,१०५ तिलक ३/३३;७/१७६ - कायिक ७/९७ तिर्यञ्च ५/१८५; ६/६४-६८(भा.),१३२,१७४-१८२(भा.);७/४३-५३(भा.), - जीव का शरीर ५ आमुख ५८-६०(भा.), ६३-६५(भा.) - प्राण ७/६ - गति ५/६२,१२४-१२७(भा.),२४८-२५३(भा.) - प्राण जीव ५/५३ - पञ्चेन्द्रिय ५/२३७-२४७(भा.); ६/५४-६३(भा.) - रेणु ६/१३४ - योनि ७/१२१-१२३ त्राटक ३/१०५ Jain Education Intemational Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४५१ पारिभाषिक शब्दानुक्रम त्रिकोण ६/० त्रिज्या ६/१३३-१३४(भा.) त्रिकोणाकार -आसन ३/२०५ त्रिपदी ३/११२ -का छेद करता है ३/११२(भा.) - छेद ३/११२ त्रिप्रदेशात्मक ५/१६५-१६८ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध ५/१५२,१६२,१६३,१६६-१६७,१७५-१८' त्रिभाग ३/२५४,२६० त्रीन्द्रिय ५/२४३७/१४२,१५०-१५४ - तिर्यग्योनिक ५/६२ त्रुटित ५/१८; ६/१३२,१३३,१३४ त्रुटितांग ५/१८; ६/१३२,१३३,१३४ थिल्ली-देखें परिशिष्ट-२ दंड ३/४,३५,३६;६/१३४ - नायक ७/१६६ दंडक ५/६१,६८-७१,१२१,६/६३,६४-६८,१५१-१५४,१७७, १८०,१८२; ७/१,२,१८,१६,५३,५४,१०३-१०५,१६०,१६१ दक्षिण ५/३,५,६,१४ - गोलार्ध ५/३-१२ - भाग ३/२४९,२५३,२५६ दक्षिणापथ ३/१०० दक्षिणायन ५/३-१२,१७ दक्षिणार्द्ध ५/४,६,१३,१६,१७,१६,२२,२३,२५,२७ दग्ध (झाम) ५/५३; ७/११९ - अस्थि ५/५३ - खुर ५/५३ - चर्म ५/५३ - नख ५/५३ - बीजभाव ६ आमुख - भाव ६ आमुख - रोम ५/५३ - सींग ५/५३ दत्ति ७/२६-३५ दधि ३/३३; ७/१७६ दर्शन ३/९५,१९२; ५/५१-५४,६७,१०८,१०६,१६१-१६८(भा.), ६/३३,३४,३५-५१(भा.),१६८, १६६,१८३-१८५,१८८, ७/१०-१५(भा.) - का अविपर्यास ३/२३३,२३६,२३९ - का विपर्यास ३/२२४,२२७,२३० - भावना ३/१५४-१६३(भा.) - मोहक्षपक ६/१-४ (भा.) - युग ३/१६४-१७१(भा.); ७/१२७-१४५(भा.) - विपर्यय ३/२२२-२३० (भा.) - विपर्यास ३/२२४,२२७,२३० दर्शनावरण ५/७४,१००-१०२; ६/३३,३४,३५-५१(भा.); ७/१६१ दर्शनी ६/२०,५२ दर्शनोपयोग ७/१६१ दशमभक्त ७/२३१ दशमलव ६/१३३,१३४ दस कल्प ५/२५४-२५७ दान ३/३०, ५/१४८, ७/११३-११६(भा.),१६३ दानामा ३/१०२ दायक ७/२५ दार्शनिक ६/३०-३२(भा.),१७१-१७३(भा.),१८३-१८५(भा.); ७/१६-१६ (भा.) - जगत् ७ आमुख - साहित्य ५/६४-६६(भा.) दिक् (ग्) ५ आमुख - दाह ३/२५२ - मूढ़ ३/२२२-२३०(भा.) -व्रत ७/३५ दिगम्बर ६/१३३,१३४;७/१ - परम्परा ७/१, २९-३५(भा.) - साहित्य ३/८६-८७(भा.) दिट्ठाभट्ठ ३/३६ दिन ५ आमुख, ४-१२,२२,२५,२६,२३७,२३८,२५४; ६/६२ - रात ५/२२२; ६/१३२, ७/२६-३५(भा.) दिवारात्रिभोजन ७/२४ दिव्य ७/२०५ -- देव ऋद्धि ७/२०६ - देवगति ३/३८ - देव द्युति ७/२०६ - देव सामर्थ्य ७/२०६ - नाट्यविधियां ३/३८,१२९ - भोग ३/२७२-२७७ - शक्ति ३ आमुख दिशा ३/१७०; ५/६४,६७,८८ - मूढ़ ३/२२२-२३०(भा.) - मोह ३/२२२-२३०(भा.) - सूचक यंत्र ६ आमुख दीक्षा ३/३५,३६,८६-८७,१०५,१४९,१५०:५/७८-८२(भा.) ___-पर्याय ३/७६,१०५; 4/१४७: ७/१६१ दीक्षित ३/३५,३६, ५/७८-८२,२५४-२५७ (भा.) दीपचंपक (दीये का ढक्कन) ७/१५९,१५८-१५९(भा.) दीर्घ आयुष्य ५/१२४,१२४-१२७ (भा.) दीविय-देखें परिशिष्ट-१-ग Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४५२ भगवई दुःख ६/५-१४,१७१-१७३,१८४,१८५,१८८ ७/१६,१७,१६,३६-४२, | देव कर्तृत्ववादी ३/२५०-२७७(भा.) १०७-११२,११३-११६,११६,२०२,२१०,२३२ देवकूल ५/१८२-१९०(भा.) - उपदर्शन ६/१७१-१७३(भा.) देवगति ३/३८, ५/६२,१२४-१२७ (भा.) - की परिभाषा ७/१६०(भा.) देव-तमिस्र ६/८६ - द ७/१६२(भा.) देववाद ३/२५०-२७७(भा.),२६८ - रूप ७/२२४,२२६ देवव्यूह ६/८६ - वाद ६/१८३-१८५ (भा.) देवारण्य ६/८६ - वादी ३/१४०-१४२(भा.); ६/१८३-१८५(भा.) देवान्धकार ६/८६ दुःखात्मक ६/५-१४ देवभाषा ५/६३ दु:खानुबन्धी ७/११६ देवानुप्रिय ३/३८,४०,४६,५०,१०९-१११,११६,१२८, १२९; दुःखापन ३/१४३-१४८ ५/८१,८४,८८,२०४; ७/१७४,२००,२०६,२१६,२१७ दुःखी ७/१६,१७,१६,११४-११६(भा.) देश ५/१५१-१५३,१६५-१६८, ६/७२ दुःषम-दु:षमा ६/१३४;७ आमुख,११७,११७-१२३ (भा.) - उत्तरगुण ७/२९-३५ दुःषम-सुषमा ६/१३४ - उत्तरगुणप्रत्याख्यान ७/३३,३५ दु:षमा ६/१३४ - उत्तरगुणप्रत्याख्यानी ७/५२,५३,४३-५३(भा.) दुःसह ५/१३८ - तः ७/२६-३५ दुन्दुभि ५/६४ - पौषध ७/२९-३५ दुराहों ३/४३ - मूलगुणप्रत्याख्यान ७/३०,३२ दुर्गध ६/१६३-१६७(भा.) - मूलगुणप्रत्याख्यानी ७/४३,४४,४६,४७,४९-५१,४३. दुर्गम ५/१३८ ५३(भा.) दुर्बल शरीर वाला ७/१४६-१४९(भा.) - विरत ७/३६-४२ दुर्भिक्षभक्त ५/१४०,१३६-१४६ (भा.) - व्रत ६/६४-६८ दुर्भूत ३/२५८ देशावकाशिक ७/३५ दुर्लभ बोधिक ३/७२,७३ देशी क्रियापद ३/११२,१४३-१४८ (भा.) दुवृष्टि ३/२६३ देशी धातु ३/४५ दुष्पत्याख्यात ७/२७,२८,२७-२८ (भा.) देशी पद ३/४९ दुष्प्रत्याख्यानी ७/२८ देशी भाषा ७/१५८-१५६(भा.) दुष्पयुक्त काय-क्रिया ५/१३४,१३५ देशी शब्द ३/३५(भा.),३६(भा.),४५(भा.),११२(भा.);७/१८१(भा.), दुष्प्रयुक्तकायिकी ३/१३४-१३९:५/१३४,१३५ १८६(भा.) दूत ७/१६६ ___ - कोश ७/१५८-१५६(भा.) दुती ७/२५(भा.) देह-परिमाण ७ आमुख - पिण्ड ७/२५(भा.) देह-परिमाणत्व ७ आमुख दूषित ७/२२,२३,२२-२३ (भा.) देहधारी ७/५८-६०(भा.) दूसरा अर ५ आमुख दो आयुष्य ५/५७ दृश्य जगत् ३ आमुख दो-दो दिन का उपवास ३/१७,७६ दृष्टान्त ३/१४३-१४८(भा.) दो प्रकार के क्षेत्र दृष्टाभाषित ३/३५,३६ - समय क्षेत्र ५/२४८-२५३(भा.) दृष्टि (नय) ३/१२७.१२८,१३४-१३९(भा.),२२२-२३०(भा.); - समयातीत क्षेत्र ५/२४८-२५३(भा.) ५/२०१-२०७(भा.),२५४-२५७(भा.); ६/५२,६३,६४ दोष ७/२२,२३,२२-२३ (भा.),२५,२५(भा.) दृष्टिकोण ३/२२४,२२७,२३०,२३३, २३६,२३९ धुति ३/२३०,२२२-२३०(भा.),२३९ दृष्टि प्रतिघात ३/११३ द्रव द्रव्य ५/५१ दृष्टि-विन्यास ३/४७ द्रव्य ५ आमुख,५१-५४(भा.),११०,१११,१५०,१५३,१६०-१६४(भा.), दृष्टिवादोपदेश ७/१६१ १८३,१६१-१६८(भा.),२३५,२३६,२५५-२५७(भा.); ६/१७४-१८२(भा.); दृष्टिवादोपदेशिकी ७/१६१ ७ आमुख, २६-३५(भा.),५८-६०(भा.),६३-६५(भा.) Jain Education Intemational Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई. ४५३ पारिभाषिक शब्दानुक्रम - अवमोदरिका ७/२४ - इन्द्रिय ५/१०८-१०९ - की अपेक्षा ५/२०२, २०३, २०५, २०६ - त्व ७/५८-६० - परमाणु ५ आमुख ५/१६०-१६४(भा.) -प्रमाण ६/१३२ - मन ५/१००-१०२(भा.) - मान ६/७०-११८ - राशि ६/१५१:७/५९ - लेश्या ३/१८३-१८५: ६ आमुख; ७/६७-७३ (भा.) - स्थान आयु ५/१८६ द्रव्य (पुद्गल) ३/१८३.१८५ द्रव्य (काय वर्गणा प्रयोग) ५/१११ द्रव्यों के समुदाय ५/२३५,२३६ द्रव्यादेश ५/२०१-२०७ द्रव्यार्थता ७/५६ द्रव्यार्थिक नय ५/२५४-२५७(भा.);७/६३-६५(भा.) द्रह ३/१४८ द्वात्रिंशिका ७/१५६ द्वादश भक्त ७/२३१ द्विचन्द्र-दर्शन ३/२२२-२३०(भा.) द्वितीयान्त ५/१६१-१६८(भा.) द्विधापताक ३/१७०,१६४-१७१ (भा.) द्वि (पूर्ण) पर्यस्तिका-आसन ३/२०५ द्वि (पूर्ण) पर्यंकासन ३/२०८ द्विप्रदेशिक (प्रदेशी) स्कन्ध ५/१५१,१६१,१६३,१६६-१६८,१७६,२०१-२०७ द्विभाग-प्राप्त ७/२४ द्विविधता ५/१६१-१६८(भा.) द्रीन्द्रिय (जीव) ५/१८७,२२०,२२५-२३३(भा.),२३७-२४७(भा.); ६/१२६; ७/१४२, १५०-१५४(भा.) - आवास ६/१२६ - तिर्यग्योनिक ५/६२ द्वीप ३/८६,८७, १००, ११२, ११४, १९६, २४९; ६/७१,७२,७५, ६२,१३५,१५६,१६०,१७३ - समुद्र ३/८६,११२,११४, ११५ द्वेष ७/२२,२३ - संज्ञा ७/११९ धर्माचरण काल ६/१३२ धर्माचार्य ७/२०३,२१६ धर्मास्तिकाय ७/२१३,२१६,२१८,२१६ धर्मोपदेश ७/२१३ - क ७/२०३,२१६ धातु ३/४५ धात्री ७/२५ - पिण्ड ७/२५ धान्यों की योनि और स्थिति ६/१२९-१३१ (भा.) धारणा ३/३९ धार्मिक ३/३०,३८ धूम ७/२२,२३,२५. - मुक्त ७/२३ - प्रभा ६/१३७-१५० - प्रभा पृथ्वी ५/६२,२१६ धूमिका (महिका) ३/२५२ ध्यान ३/४,३८-४०(भा.),१०५,१०९:५/५१-५४(भा.),८३-८८(भा.); ६/२०-२३(भा.),७/१४६-१४E(भा.) -कोष्ठ ५/८५, २०१ - पद्धति ३/१०५ ध्यानात्मक वीर्य ७/१४६-१४६ ध्यानान्तरिका ५/८५,८६,८३-८८ (भा.) धूलि-विकिरण ३/११२ ध्रुव सिद्धान्त ५/१५०-१५३ ध्वंस ६/२२ नंदीश्वर द्वीप ३/८६-८७ नक्षत्र ३/८६-८७ नख ५/५३ नगर ३/११२,१३३,१८८,१८९,२२२,२२४,२२५,२२७,२२८.२३०, २३१,२३३,२३४,२३६,२३७,२३९,२७२,२७९,२८०:५/२३५,२३६; ६/१८,१७१ ___- की तत्त्व-परक व्याख्या ५/२३५,२३६ (भा.) नगरी ३/२२२,२२४,२२५,२२७,२२८,२३०,२३१,२३३,२३४, २३६, २३७,२३९ नगाड़ा ५/६४ नपुंसक ६/३५,३६ - वेदक ६/५२,६३ - वेदी ६/५४-६३ (भा.) नमोऽस्तु ३/३५,३६ नय ३/१४०-१४२(भा.): ५/१०८,१०६,१८१,२०१-२०७(भा.); ६/६३, ७/२७,२८,६३-६५(भा.) • दृष्टि ७ आमुख धन ३/३३ धन (राशि) ७/६२ धनुष ६/७५,१३४,१७३ धनु:पृष्ठ ५/१३४,१३५ धन्य ३/३६ धर्म ३/१३४-१३९: ५/७८-८२,६३,२५६,६/१३२,७/२२०,२२२ - शासन ३ आमुख Jain Education Intemational Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४५४ भगवई नयुत ५/१८, ६/१३२,१३३,१३४ नयुतांग ५/१८६/१३२,१३३,१३४ नरक ३ आमुख, ८४,१६४-१७१(भा.); ५/२३७-२४७(भा.); ६/१-४ (भा.),६४-६८(भा.),१३२,१५१-१५४(भा.),१७४-१८२(भा.); ७/५८-६०(भा.),६७-७३(भा.),६३-६५(भा.),१२१-१२३(भा.),१८१,१६० - आयुष्य ५/१२४-१२७(भा.) - आवास ६/१२२ - गति ५/६२,१२४-१२७(भा.),१४८-१५३(भा.); ६/१५१ - जीव ३/९२ - पृथ्वी ५/२०-२२४(भा.),२३७-२४७(भा.) - भूमी ३/८४:६/१६ - लोक ५/१३७,२४८-२५३(भा.) नलिन ५/१८, ६/१३२,१३३,१३४ नलिनांग ५/१८, ६/१३२,१३३,१३४ नवकोटि (परिशुद्ध) ७/२५ नवगुणोपेत ५/५१-५४(भा.) नाट्य-विधियां (बत्तीस प्रकार की) ३/३८,१२९ नाट्य-शास्त्र ५/६४ नाड़ी-तन्त्र ७ आमुख नानात्व ४/५ नाभि ३/४ नाम ६/३३,३४,१५१ - कर्म ६/३३,३४,३५-५१(भा.),१५१ नारक ६/५-१४,६३, १७४-१८२(भा.); ७/१०३-१०५(भा.) नारकीय ३/८४: ७/१६२ - जीवों की वेदना ३/८४,९२, ७/१६२ नालंदीय अध्ययन ५/२५४-२५७ (भा.) नालिका ६/१३४ नास्ति ७/२१७ -त्व ७/२१७ निकाचना ६/५-१४(भा.),१५४ निकाचित ६/१५४ निक्षिप्त ७/२५ निगोद ७/११९ निजक ३/३३ नित्य ७ आमुख - वाद ७ आमुख - वादी ५ आमुख निदर्शन. ३/३० निदान ३/३५,३६,३८,४० निद्रा ५/७२-७५ निधत्त ६/१५१;७/१५१ निधत्ति ६/५-१४,१५४;७/५-१४,१५४ निधान ३/२६८ निपन्न ३/३५,३६ निप्पण्ण ३/३५,३६ निष्फण्ण ३/३५,३६ निप्फाव ६/१२९-१३१(भा.) निबंध ३/३० निमित्त ३/१४२७/२५ - पिण्ड ७/२५ निमीलन ३/११४ नियन्त्रित ७/३४ नियम ७/१०७-११२(भा.) -त: ५/१२८-१३२(भा.); ६/५४-६३(भा.),१७४-१७६(भा.), १७८,१७६;७/१ नियाग ५/१३९-१४६(भा.) नियोग ७/११९ निरञ्जन (ता) ७/१०-१५ (भा.)११,१२,१५ निरनुबन्धा ६/१-४(भा.) निरन्तरता ७/५८-६०(भा.) निरपेक्ष दृष्टि ७/२७,२८ निरवद्य ७/२६-३५(भा.) निरवयव ५ आमुख; ६/५४-६३(भा.) निरवशेष ७/३४ निरायु ५/५९-६५ निरालोक ७/११७,११७ (भा.) निरावरण ५/६७,१०८,१०६; ६/१८८ निरिन्धन ७/१४,१०-१५ (भा.) - ता ७/११,१५ निरुक्त ३/१०९ निरुपक्रम आयुष्य (क) ५/५६-६१(भा.) निरुपक्लिष्ट ६/१३२ निरुपचय-निरपचय काल ५/२२५-२३३(भा.) निरूपण ५/२५४-२५७(भा.) निरोध ६/१५,१६ निर्ग्रन्थ ३/१४२:५/१६/३,४,७/२२-२५,१६५,१६३ निर्ग्रन्थी ७/२२-२५ निर्जरण ३/१४३-१४८(भा.): ५/६४-६६(भा.);७/१४६-१४६(भा.),१६० निर्जरा ३/१४३-१४८(भा.);५/१२४-१२७(भा.),१४७; ६ आमुख,१५,१६, २०-२३; ७/१६,२७,२८,७४-७७(भा.),७६,८०,८२,८३,८५,८६, ८८ ६१(भा.),१०७-११२(भा.),१४६-१४६(भा.),१६० निर्जीर्ण ३/१४८:६/१५,१६,२७-२९(भा.),३३,३४,७/१०७-११२(भा.), १६० निर्भर ५/१८९,१८२-१९०(भा.) निर्माल ६/१३४ निर्माण ३/१३४-१३९(भा.) - चित्त ३/४ Jain Education Intemational Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४५५ पारिभाषिक शब्दानुक्रम निलेप ६/१३४ निर्वर्तनाधिकरण ३/१३४-१३९(भा.) -क्रिया ३/१३६ निर्वाण-महोत्सव ३/८६-८७ निर्हेतुक ५/१६५ निलीन ५/२५५ निवण्ण ३/३५,३६ निवर्तन ३/३५,३६ निवर्तनिकमण्डल ३/३६,३८ निवात ३/२९ - गम्भीर ३/२९ निवृत्त ६/६४-६८ निवृत्ति ३/१३४.१३९(भा.) - वादी ३/१३४-१३९(भा.) निश्चय नय ३/१४३-१४८(भा.): ५/१५४-१५६(भा.) निश्रा ३/९५,११२,११५,११६,१२९ निःश्रेयस ३/७३ नि:श्वास ५/४६,६/१३२,१३३,१३४ निषिक्त ६/१५१,१५२ निषेक ६/१५१ - काल ६/३३, ३४ निषेचन ६/३३,३४,१५४ निषेधात्मक ७/११३-११६(भा.) निष्क्रमण ५/४६,५०, ४६-५०(भा.);७/२२१ निष्क्रिय ३/१३४-१३९ - ता ३/१३४-१३९(भा.) निष्ठित ६/१३४ निष्पादन ३/१३४.१३९(भा.) निष्पन्न ३/३५,३६ निसर्जन ७/२३० निःसत्त्व ६/१-४(भा.) निस्संगता ७/११,१२,१५,१०-१५ (भा.) नींद ५/७२-७५ (भा.) नीचे लोक में ३/८२,८३,११९ तथा देखें अधोलोक नील ४/८७/६७-७२,६७-७३ (भा.) - लेश्या ४/८; ६/६३; ७/६७-७०(भा.) - लेश्यी ६/६३ - वर्ण (वर्णी लेश्या) ६/१६६,१६३-१६७(भा.); ७/१७० नेपथ्य ७/१७७ (भा.) नैयायिक देखें न्याय नैरयिक ३/९२,१८३:४/७; ५/५६,६२,११६,१२०,१३७,१३८,१८२,१८३, १८६,१८७,१८६,२०६,२१०,२१३-२१७,२२८-२३१,२३६,२४०, २४३,२४८,२४६-२५३; ६/२,४,६,८,६,१५,१६,३२,५५,५८,६०,६३, ६५,१२२,१२३,१२६,१७५,१७६,१८१,१८५,१८६; ७/१७,३७,३६, ४४,४८,६०,६७-७०,७६,७७,८१,८४,८७,६०,६१,६३-६५,१०१,१०३, १०६,१०६,११२,११४,११६,१४०,१६०,१६२ -के आवास ६/१२०-१२८(भा.) . - जीवों की विक्रिया ५/१३८ नैश्चयिक ६/१३४ - काल ५/२४८-२५३(भा.) - परमाणु ६/१३३-१३४(भा.) नैश्रेयसिक ३/७३ नोकर्म ३/१४३-१४८:७/७५,७७,८०,८३,८६ नोकषाय ५/६८-७१(भा.) नोकामी ७/१४५ नोपरीत-नोअपरीत ६/४४,५२ नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक ६/४२,५२ नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक ६/४०,५२,६३ नोभव्य-नोअभव्य ६/५४-६३(भा.) नोभोगी ७/१४५ नोसंज्ञी ५/१००-१०२(भा.) नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी ६/३६,५२,६३ नोसंयत ५/६२ नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत ६/३७,५२,६३ नोसूक्ष्म-नोबादर ६/५०,५२ नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक ६/३५,३६ नौका ३/१४८: ६ आमुख न्याय (नैयायिक) ५/५१-५४, ७ आमुख, १०-१५,१२७-१४५ - दर्शन ५/९४.९९ ७/१०-१५ - शास्त्रीय ५/१८१ - सम्मत ५/९४-९९ पंकप्रभा पृथ्वी ५/६२,२१६; ६/१३७-१५० पंकिय–देखें आर्द्रमल पंचप्रदेशी स्कन्ध ५/१५३,१६३ पंच महाव्रत ५/२५४-२५७ पंचास्तिकाय ७/२१२-२१७ (भा.),२१८ पंचेन्द्रिय ५/१०८,१०६; ६/२६,५४-६३(भा.),६६,१५१; ७/१२७-१४५ (भा.),१६१ - जीव ५/५४ - तिर्यंच ५/५६-६१ - तिर्यग्योनिक ५/६२,८६,२५०; ६/६५,७/३६,४१,४६,५०, ५२,५६,५७,६६ पंडित ७/१६५ -त्व ७/१६५ पक्ष ५/१५,६/१३२ पक्षी ७ आमुख १ पच्छ्यिापिटक ७/१५६ पटरानी ३/११२ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम पटह ५/६४ पठनीय ३ आमुख पठार (भट्टी) ७/११७ पणव ५/६४ पणामा प्रव्रज्या ३/३४ पतत्-उदय ३/१६४-१७१ (भा.) पतन ३/१४३-१४८ (भा.) पत्तण (पत्रण) ५ / १३४, १३५ पथ्य ३ / ७३ पद ३/३८, ५४ ५/६८-७१ (भा.), २२५; ६/१८,५२, ६३, १६२ पदार्थ ३ आमुख, ३५, ३६, ५/१६५, ६/१७१-१७३ (भा.) निर्माण की क्षमता ५ / ११२-११३ (भा.) पद्म ५/१८ ६ / १३२, १३३, १३४, ७/६७-७३ - गंध (मनुष्य की एक जाति) ६ /१३५ - लेश्या ३/१८५: ६ / ६३, ७/७२ लेश्यी ६/५४-६३ वरवेदिका ३ / ११२ पद्मांग ५/१८ ६/१३२, १३३, १३४ पद्मासन ५/२५४-२५७ (भा.) परंपरा ५ / २५४ २५७ (भा.) परंपरागम ५/६७, ६४-६७ (भा.) परंपरावगाढ ५/६४ परंपरोपक५/१०२ पर-ऋद्धि ३/१६६, १७४२१२ परकाय प्रवेश ३ /२०९,२११ पर-क्रिया ३/१६७, १७५, २१३ परत: ४ आमुख - ६/१३४ प्रामाण्य ४ आमुख परत्व ५/२४८-२५३ (भा.) पर- प्रयोग ३/१६८. १७६, २१४ परभव ७/१ के आयुष्य ५/५७,५८ योग्य आयुष्य ५/५६-६१(भा.) परम कृष्ण ६/८५, १०२; ७/६७-७३ (भा.) परम शुक्ल ७/६७-७३ (भा.) परमाणु ५ आमुख, ५१-५४, १५० - १५३, १५४-१५६ (भा.), १६०-१६४, १६५-१६ ८ (भा.), १६९-१७४ (भा.), २०१२०७ (भा.); ६ / १३३, १३४; ७/५८-६० - पुद्गल ५/१५०, १५४, १५७, १६०, १६५-१६८, १६६, १७५, २०३; - वाद ५ आमुख • स्कन्ध ३/१४३-१४८ (भा.): ५/५१-५४ (भा.), ६४, ११२, ११३ परमाधोवाधिक ७ / १४६ - १४९ (भा.) ४५६ परमावधिज्ञानी ७ / १४६-१४६ (भा.) परम्पर क्षेत्र ६ / ९८६ परलोक ३/१८३-१८५: ७ /१०१, १०६ -विद्या ७/१०१(भा.) परहस्तपारितानिकी ३/१३८ परहस्त प्राणातिपातक्रिया ३/१३९ पराकाष्ठा ७/११७ परामनोवैज्ञानिक है आमुख परिकर्म ६/४, २३ परिक्षेप (परिधि ) ५/३-१२, ६ / ७४, ७५,६१,१७३ परिखा ५ / ९८२ - १९० (भा.) परिगणना ७ / २१२-२१७ (भा.) परिग्रह ५/१०८, १०६, १८२-१८५, १८२-१६० (भा.) • विरमण ७/२२६ - संज्ञा ७/१६१ परिच्छेद ५/२४८-२५३ (भा.) परिजन ३/३३ परिज्ञा ३/३८ परिणत ३/४, १४३-१४८: ४/८ ५/१७२-१७४, १७८-१८०,२५५, ६/३३, ३४, १६६, १६७, ७/६५, १७०-१७२, २२४, २२६ परिणति ५/१७२-१७४ : १७८-१८० परिणमन ३/४, १४३-१४८: ५ आमुख ६ आमुख, २०-२३,३३,३४, ८७,१०४, १२२, १२५-१२७, १६७ ७ आमुख, १६-१६, ५८-६०, २२४, २२६ परिणमित ५/५४ परिणाम ४ / ८; ५ आमुख, २४८-२५३, २५५; ६ / १५१,१६०, ७/३६-४२, ५४-५७ • वाद ५/५१-५४ (भा.) • वादी ५ आमुख परिणामान्तर ३/१४३-१४८ (भा.) ५/५१-५४(भा.) परिणामिनित्य ७/१६-१६ वाद ५ आमुख; ७/१६-१९ (भा.) • वादी ५ आमुख - भगवई परिणामी ७ / १६-१६ परिताप ३ / १३४- १३९ (भा.), १४८: ७/१०७-११२ (भा.), ११४, ११६ परितावण ३/१४३-१४८ परित्याग ६ / ६४-६८ ७/२६-३५, १४६-१४६ (भा.) परिधि ६/१३४ परिध्वंस ६ / २२ परिनिर्वाण ३/८६-८७ - उत्सव ३/८६, - महोत्सव ३/८६ परिनिर्वृत्त ३ / ५३ ५/८०, ११५, २५७, ७/३, १५६, २०८, २३२ परिपाटी ३ / १९६ परिभाषा ३/३५,३६ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४५७ पारिभाषिक शब्दानुक्रम परिभाषित ७/१४६-१४६(भा.) परिभोग ७/२६-३५(भा.) परिभोगैषणा ७/२२,२३ परिमाण ३/३५,३६,६/१५१७/२६-३५(भा.) - कृत ७/३४ परित्याग ३/१९२ परिमित ५/६७,२५४-२५७(भा.); ६/३०-३२(भा.),१८८ ___- संसार ६/३५-५१(भा.) परियुक्त ६/२७-२६ परिवर्त ७/२५ परिवर्तन ४/८, ७/१६-१६,५८-६०(भा.) परिवेदन ७/११३-११६ परिव्रजन ३/१०५ परिशाटन ६/४ परिशुद्ध ७/२५ परिशोधन ३/४ परिश्रम ५/१३४,१३५ परिषद् ३/७७,१३३,५/२ परिषह ७/२०७ ___-जय ६/१-४(भा.) परिष्ठापन ३/१४८ परिसेवन ७/२६-३५(भा.) परिस्थितिवादी ३/१४०-१४२(भा.) परीत (परिमित) ५/२५४,२५५,२५४-२५७ (भा.); ६/२०,४४,५२ - संसारी ३/७२,७३ परोक्ष ३आमुख; ५/६८-६६ - दर्शन ३ आमुख पर्यंक ३/२०७,२२१ -आसन ३/३५,३६,१९४-२०८(भा.),२०७: ५/२५४-२५७; ७/२०३,२०४ पर्यटन ३/३३ पर्यवसान ६/३०-३२,७/१४६-१४६ - भाग ५/६४ पर्यस्तिका ३/२०५,२२१ पर्यादान ७/१६-१६ पर्याप्त ३/१६४-१७१(भा.);७/१०१,२१५ -क५/१०२,६/२०,४२,५२ - भाव ३/१७.४४,१०८,१०९ पर्याप्ति ३/१७,४४,१०८,१०९: ६/५-१४(भा.),६३,१६३ - भाव ३/१७,१०९ पर्याय ३/१०७:५/२५४-२५७ (भा.); ६/३०-३२;७ आमुख,१६-१६(भा.), ५६,६३-६५(भा.),२१२-२१७ (भा.) - परिवर्तन ५/५१-५४(भा.);७/१६-१९(भा.) - प्रवाह ५/५१-५४(भा.) - वाची ३/३३,४५,१५४-१६३(भा.); ५/१६१-१६६(भा.) - वाद ५/५१-५४(भा.) - सांगतिक ३/३५,३६, ७/१६१ पर्यायान्तर ५/५१-५४(भा.),२५४-२५७(भा.) पर्यायार्थिक नय ५/२५४-२५७ (भा.);७/६३-६५(भा.) पर्यावरणीय ७/११७-१२३(भा.) - प्रदूषण ७ आमुख पर्युपासना ३/४,९,१२,१३,२६,३३,३८,५१,१०२,१२९,१३४,२४७ २७२,२७९: ४/१; ५/३१,८४,८५,८८,७/२१७ पर्व ६/१३३,१३४ पर्वग ७/११७ पर्वांग ६/१३३,१३४ पल्य ६/१२६-१३१,१३४ पल्योपम ३/२५४,२६०,२६५,२७०: ४/५,५/१८,२२२,६/१३३, १३४;७/२०७ पल्वल ५/१८२-१९० (भा.) पशु ७ आमुख पश्चातवात ५/३१,३२,३४,४० पश्चिम ३/२२२-२३०(भा.); ५/३-६,१४;७/२६-३५ - भाग ३/२६१ - मारणांतिक संलेखना ७/२९-३५(भा.) पांच महाव्रत ५/२५६,२५७ पाकजगुण ५/५१-५४(भा.) पाठ ३/२२,४८;४ आमुख; ५ आमुख, १४,१६, ६/१६८,१६६ ७/ ११३-११६ (भा.) पाठांश ३/४८; ६/१६८,१६६ पाण ३/३४ पात्र ३/१०२; ५/७६,८०,१३४,१३५ पाद६/१३४ पान ७/८,६,२२,२४,२६-३५,१६३,२०३ - भोजन ३/१९१; ७/२२-२५,२२-२३(भा.), २४(भा.),२५ (भा.) पाप ७/५४-५७,१०७-११२,२२४ .कर्म ६/४७/१६-१९,२८,१०७-११२,१६०,२२०, २२३,२२४ - फलविपाकसंयुक्त ७/२२०,२२३,२२४ पापानुबन्धी ७/१०७-११२ पामिच्च (प्रामित्य) ५/१३६-१४६,७/२५ पारगत ५/६५-६७ पारगामी ६/१३२ पारण ३/२१ पारमार्थिक सत्ता ७/१०-१५(भा.) पारिग्रहिकी क्रिया ५/१२८ पारितापनिकी ३/१३४,१३८:५/१३४ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४५८ भगवई - क्रिया १३४-१३९ (भा.) पारिभाषिक ५ आमुख पार्थिव ५ आमुख पापित्यिक ५/२५४-२५७ (भा.) पापित्यीय ५ आमुख, २५४,२५७,२५८ - स्थविरों ५ आमुख, २५४-२५७ (भा.) पाश्चात्य दार्शनिक ५ आमुख पाषण्डस्थ ३/३६,१०४ पाषाण ५/५२ पाहुण-भत्त ५/१३६-१४६ (भा.) पिण्डहरिद्रा ७/६६ पिंडैषणा अध्ययन ७/२५(भा.) पिटक ७/१५६ पित्त ५/६४ पिरिपिरिया ५/६४ पिहित ६/१२९-१३१(भा.); ७/२५ पीटना ७/११४,११६ पिट्टावण३/१४३-१४८ (भा.) पीठ ३/५४ पीठरपाक ५/५१-५४(भा.) पीत ६/१६३-१६७ (भा.) - वर्ण ६/१६७(भा.) पीलुपाक ५/५१-५४(भा.) पुट ३/१०२ पुण्य ३/३०; ५/१३४,१३५, ७/१४६-१४६(भा.) - कर्म ३/३०; ७/१०७-११२(भा.) - बन्ध ७/१०७-११२(भा.),१४६-१४८(भा.) पुद्गल ३/१७.१०५,११७-११९,१४०-१४२,१४३-१४८.१८३-१८६; . ४/८५ आमुख, ५१-५४,६४,१०३-१०६,१११,१५०,२४२,२४५, २५५,२५४-२५७(भा.)६/४,५-१४,२०-२३,२४,२५,२७,२८,३३, ३४, ८७,१०४,१२२,१२५-१२७,१५१,१५६,१६३-१६७,१७३,१८६; ७/१, १०-१५,५८-६०,६३, १६७-१७२ - परावर्तन ६/१३२ - राशि ३/१८६ - वर्गणा ४/८ - स्कन्ध ६/७०-११८ पुद्गलास्तिकाय ७/२१३,२१६,२१८,२२० पुनरवतार ६/३०-३२ पुनर्जन्म ३/१८३-१८५ (भा.), ७ आमुख, १०१ पुनर्भव ६/३५-५१ पुराकृत ३/३३ पुराण ४ आमुख पुरातन ३/३३ पुरुष ५/६६,६/२०,२२,३५,३६,७/२७,२८ - वेदक ६/५२, ६३ - वेदी ६/५४-६३ पुरुषकार-पराक्रम ३/३६,१०४,२३०,२३९; ६/१३३,१३४:७/ १४६-१४६,१५०-१५४,२०३,२०४ पुरुषादानीय ५/२५५ पुरोवात ५/३१,३२,३४,३६-४५ पुलग ३/४ पुष्कर संवर्तक महामेघ ५/१५७,१५६ पुष्करणी ५/१८२-१९०(भा.) पूइकम्म ५/१३६-१४६(भा.) पूतिकर्म ७/२५(भा.) पूतिय ५/१३६-१४६(भा.) पूर्णिमा ३/१५२ पूर्व ३/२२२-२३०(भा.); ५/३-६,१४; ६/१३२,१३३,१३४ - उत्पन्न ६/५४-६३(भा.) - कर्म ७/१५६ - कृत ३/३३ - कृत दोष ३/१९२ - कोटि ६/३३,३४,१३२ - क्रिया ७/५४-५७ - जन्म ३/१८३-१८५(भा.); 4/६०,६८-७१(भा.); ७/१०६, १६१ - पक्ष ५/५७,५८ - परिणाम ५ आमुख - पर्याय ५/५१-५४(भा.) - पश्चात् संस्तव ७/२५(भा.) - प्रज्ञापन ५/५१-५४(भा.) - प्रयोग ७/११,१५ - भव ३/३० - वर्ती रचना ४ आमुख . - विदेह ६/१३४ - वैक्रिय शरीर ३/११२ - श्रुत ६/१३२ - सांगतिक ३/३५,३६, ७/१६१ पूर्व (समय) ५/१८ पूर्वांग ५/१८; ६/१३२,१३३,१३४ पृथक्त्व ६/१२५ - सूत्र ५/७१,६८-७१ (भा.),७५ पृथ्वी ३/७९,८०,२५०,२७७:५/३-१२,५१-५४,६८-७१,२१६,२३५; ६/१,२,१५,१६,७०, ६७,१०४,१२०,१२२,१३३,१३४,१३७-१४४, १३७-१५० (भा.);७/७ - काय ३/१८३-१८५: ५/१८३,१८५,१८७: ६/७१,८२, ८८.१०५,१४७:७/६ - कायिक ५/२४३:६ आमुख, १३,२६,६०,६३,८८,११६, Jain Education Intemational Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४५९ पारिभाषिक शब्दानुक्रम १२४,१२५,१८५:७/६,९७,१०५,१४१,१४२,१५० - कायिक आवास ६/१२४,१२५ - शिलापट्ट ३/३५,३६,१०५.११२:७/२१२ पृष्ठभूमि ३/१३४-१३९ पैशाची ५/६३ पोतज ७/९९ पौद्गलिक ५ आमुख, १००-१०२, ६/३३,३४,७/६७-७३(भा.),१२७१४५(भा.) - इन्द्रियां ५/५९-६१(भा.),१०८,१०९ - चंचलता ५/११०,१११ - त्व ५ आमुख - पदार्थ६/१७१-१७३ (भा.) - परिवर्तन ३/२५०-२७७(भा.) - मन (द्रव्यमन) 4/८३-८८(भा.) - लेश्या ३/१८३-१८५(भा.) पौरुषी ७/२९-३५(भा.) पौर्वापर्य ३/१४०-१४२:६/२७-२६(भा.) पौषधोपवास ७/३५,१२०,१८१,१९०,२०४ पौषधशाला ७/२९-३५ प्रकम्पन ३/१४३-१४८,१४३-१४८(भा.),१५४-१६३(भा.); ५/ | १५०-१५३,१५०-१५३(भा.);७/१६१ प्रकरण ४/७ प्रकर्ष बिन्दु ५ आमुख प्रकाम निकरण ७/१५३,१५४,१५०-१५४ (भा.) प्रकामरस-भोजी ७/२४ प्रकाश ६/७०-११८(भा.) - अणु ६/७०-११८(भा.) -पिण्ड ६/७०-११८(भा.) प्रकाशात्मक ५/२३७-२४७(भा.) प्रकाशित ५/३-१२(भा.) प्रकीर्ण ६ आमुख प्रकृति ६/३३,३४,१५१,१६२; ७/३६-४२(भा.),५८-६०(भा.),११३-११६ (भा.),१६५ -बंध६/३३,३४ - में क्रोध, मान, माया, लोभ प्रतनु ५/७८. २०१ - से उपशान्त ५/७८, २०१ - से भद्र ५/७८, २०१ प्रकृष्ट अवस्था ६/१३५ प्रक्रिया ३/४,३८; ५ आमुख प्रक्षिप्त ४ आमुख प्रक्षेप ४ आमुख - आहार ७/१ प्रक्षेपण ३/११७.११८,१२९ प्रगाढ़ वेदना ६/४ प्रगृहीत ३/३५,३६ प्रचला ५/७२-७५(भा.) प्रचुरप्रदेशोपचय ५/६४ प्रज्ञा ७/१५०-१५४(भा.) प्रज्ञान हेतुक ७/१५३ प्रज्ञापक ६/१६३-१६७(भा.) ___ - स्थानवर्ती ६/१६५,१६७ प्रज्ञापना ३ आमुख, ६,७,९,१०५/२४०,२४६,२५१;७/१,२१३,२१६, २१८ प्रणाम ३/३४ प्रणीत ३/१९१: ५/१००-१०२ - मन और वचन ५/१००,१०१ प्रतर-भेद ५/११२,११३ प्रतिक्रमण ३/१७,२१,१९२,२१९,२०२:५/१३६,१४१,१४३,१४५, २५४-२५७;७/२०३ प्रतिग्रहण ७/२२,२३,२४ प्रतिचंद्र ३/२५२ प्रतिनिधित्व ३/१३४-१३९(भा.) प्रतिनिष्क्रमण ३/२५ प्रतिपति ७ आमुख प्रतिपन्न ६/१६,१५-१६ (भा.) प्रतिपादन ३ आमुख,८४,२२२-२३०(भा.):६आमुख,१-४,१७१-१७३ (भा.) ७/९७.१५८,१५९,१६०,२१२-२१७(भा.) प्रतिपादित ३/४,५,१६,१७,१८,२१,१९६:६/१६८,१६९,१८८ प्रतिपाद्य ३/२२२-२३०(भा.): ६/१,२०:७/४,५,२६,२८.१०१,१५८. १५९ प्रतिपूर्ण पौषध ७/२६-३५(भा.) प्रतिबद्ध ७/६५ प्रतिमा ६/१५,१६ - प्रतिपन्न ६/१६ प्रतिलाभित ७/८.९ प्रतिश्रवण (विचार-विनिमय)७/२१६ प्रतिष्ठान ६/१३७-१५०(भा.) प्रतिष्ठित ६/१३७-१५०(भा.) प्रतिसंवेदन ५/५७,५८,१४८;७/१०२,१०६ प्रतिसूर्य ३/२५२ प्रतिस्रोत ५/१५७,१५६ प्रतिहनन ७/२८ प्रतीति ३/९ प्रत्यक्ष ३ आमुख; ५/६७ - त: ५/२५४-२५७(भा.) - दर्शन ३ आमुख - दर्शी ३ आमुख - पदार्थ ५/१९१-१९९(भा.) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४६० भगवई - भूत ५/२५४-२५७(भा.) प्रत्यग् ७ आमुख प्रत्यय ३/८४.९०.१३१,१४२,७/२५ प्रत्यर्पण ७/१७४,१७५,१८३,१६४,१६५ प्रत्याख्यात ७/११९ (भा.) प्रत्याख्यान ३/३६,३८,१०४:५/१२८-१३२(भा.),१३४,१३५; ६/६६-६८,६४-६८ (भा.);७/१,६,७,२७-२९,३४,३६-४२,५४. ५७.१२०, १८१,१९०,२०३,२०४ - अप्रत्याख्यान ६/६६-६८ प्रत्याख्यानावरण मोह ६/६४-६८(भा.) प्रत्याख्यानी ६/६४,६५,७/५५-५७(भा.) - अप्रत्याख्यानी ६/६४,६५,७/५७.७५ प्रत्याख्येय कषाय ५/१२८-१३२(भा.) प्रत्युपेक्षा ७/२१२-२१७(भा.) प्रत्येक शरीर ७/६६ प्रत्येक शरीरी ५/२५४-२५७(भा.); ६/३५-५१(भा.) प्रथम ६/३०-३२ प्रथमानुयोग ४ आमुख प्रदक्षिणा ३/३८,४०,११२,११६,१२९ प्रदेश ३/४,३५,३६, ४/८; ५ आमुख, १५०-१५३,१६०-१६४,१७०, | १७१,१७७,१७८,६/३३,३४,७२,१३३,१३४,१५१;७ आमुख, ५८-६०, १४६-१४६ - नामकर्म निषिक्त ६/१५२ - नामनिधत्त आयुष्य ५/६२ - नामनिषिक्तायुष्क ६/१५१ - बन्ध ६/३३,३४ - निष्पन्न ६/१३२ - राशि ७/५८-६०(भा.) प्रदेशात्मक ६/१२५ प्रदोष ३/१३४-१३९(भा.) प्रधान ३/३५,३६ प्रपंच ७ आमुख प्रपा ५/१८२-१९० (भा.) प्रशस्तनिर्जरा ६/१-४(भा.),१५,१६ प्रभामण्डल ५/२३७-२४७(भा.) प्रभार ३/११६ प्रभास्वर ५/२३७-२४७(भा.) प्रभु ३/११५.११९(भा.);७/१५०-१५४(भा.). प्रभूत ७/१०-१५(भा.) प्रमत्त ३/१९०७/२०,२१ - अवस्था ३/१४९ - संयत ३/१४९, - संयम ३/१४९,१४९-१५० (भा.) - संयति ३/१३४-१३९ प्रमाण ३/४,५४; ५/६७,६६,१६१-१६८,२४६; ६/१३२,१३४ - चतुष्क ५/९४-९९ (भा.) __ - प्राप्त ७/२४ प्रमाणांगुल ६/१३३,१३४ प्रमाणातिक्रांत ७/२२,२३,२४ प्रमाद ३/१४२,१४९,१५०:५/२५४-२५७(भा.); ६/२०-२३(भा.); ७/२६-३५(भा.) प्रयुत ५/१८, ६/१३२,१३३,१३४, प्रयुतांग ५/१८, ६/१३२,१३३,१३४ प्रयोग ५/५४; ६/२०,२४-२६(भा.),१६३-१६७(भा.) -जनित ५/५१-५४(भा.) प्रयोजन ३/३८,४० प्ररूपक ३ आमुख प्ररूपण ३ आमुख, ९,१० प्रलंधन ३/१८६,१८७ प्रयोगात्मक ७/११३-११६(भा.) प्रलय ५ आमुख प्रलोकन ५/२५५ प्रवंचना ६ आमुख प्रवचन ७/२१८ - सभा ७/२१८ प्रवर अशोक वृक्ष ३/१०५,११२,११४,११५,१२९ प्रवर्तक अध्यवसाय ७/१४६-१४६(भा.) प्रवाल ७/११७ प्रवाह ७/५८-६०(भा.) ___ - का सिद्धांत ५/११०,११ ___- रूप ३/२२ प्रवाही धारा ६ आमुख प्रवृत्ति ३/१३४-१३९(भा.),१४८:६/६४-६८(भा.);७/५४-५७(भा.), १०७-११२(भा.) - वादी ३/१३४-१३९(भा.) प्रवेश्य ३/३३ प्रव्यथित ३/१२ प्रव्रजित ३/३३,३४,४५,१०२:५/७८-८२(भा.);७/२२० प्रव्रज्या ३/३३,३६,१०२ प्रशस्त अध्यवसाय ६/१-४(भा.),१५,१६ : ७/३६-४०(भा.),१४६१४९(भा.) प्रशस्त निर्जरा ६/१-४,१५,१६ प्रशान्त ४ आमुख; ३/५३,७५,५/८०७/३,१५६,२०८,२३२ प्रशिष्य ५/७ प्रश्न ५/१०४-१०६(भा.) प्रश्नित ३/५१ प्रसंख्यान ६ आमुख प्रसार-क्षेत्र ७/१५८,१५६ Jain Education Intemational Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४६१ पारिभाषिक शब्दानुक्रम प्रासाद ५/१८२-१९०(भा.) प्रेक्षा-ध्यान ६/१३२ फल ५/१३४-१३५ (भा.) - दान ७/७४-९२(भा.) ___- विपाक ७/७४-९२(भा.) फलिह ३/४ फासु-देखें प्राशुक फुटसिरा ७/११९ फोटोन ६/७०-११८(भा.) प्रसुप्त ७/२०,२१ प्रस्तर ६/७१,७२,९० प्रस्थ ७/१५६ प्रस्थान ७/२१२-२१७(भा.) प्रहर ७/२४ प्रहरण ७/१७६,१७६(भा.),१८५ प्रहीणगोत्रागार ३/२८६,२८६ (भा.) - प्रहीणसेतुक ३/२८६,२८६ (भा.) प्राकार ५/१८२-१९०(भा.) प्राकृत ३/३८, ५/६३ - रूप ३/३५,३६ प्राकृतिक ३ आमुख प्राकृतीकरण ३/११२ प्राग्भार ३/१०५:५/१८२-१९०(भा.) प्राचीन काल ३ आमुख प्राचीन ग्रंथ ७/१०१ प्राण ३/१३४-१३९(भा.),१४५,१४८: ५/११६-११८(भा.), १२४-१२७ (भा.),१३४,१३५, ६/८८,१०५,११६,१३२,१३३,१३४,१७४-१८२,१८३, १८४७/२७,२८,११४,११६,१७८,१८७,२०३,२०४ - वियोजन ३/१३४-१३९(भा.) प्राणतज ६/१३७-१५०(भा.) प्राणातिपात ३/१३४-१३९(भा.);५/१३४-१३५(भा.);६/२०-२३(भा.); ७/५४-५७(भा.),१०८,२२४ - क्रिया ३/१३४-१३९(भा.) - विरमण ७/१११.१०७-११२ (भा.) प्राणी ६आमुख,२०-२३(भा.);७/१,६,२०,२१,१०७-११२(भा.),१२७-१४५ (भा.),२१६ प्रादुष्करण ७/२५ प्रादोषिक ५/१३४ प्रादोषिकी ३/१३४,१३७ -क्रिया ३/१३४-१३९(भा.) प्राप्त ३/१७,३०,४४,४५,५१,२३०:५/१०६,११३,११२-११३(भा.), ११ प्राप्यकारी ५/६४७/१२७-१४५(भा.) प्राभृतिक ७/२५ प्रामाणिकता ४ आमुख प्रायश्चित्त ३/३३;७/१७६,१८५,१९६ प्रामित्य-देखें पामिच्च प्रायोगिक ५/५१-५४(भा.) प्रायोग्य ६/३३,३४ प्रायोपगमन अनशन ३/३६,३८,१०४ प्रारम्भकाल ३/१३४-१३९(भा.) प्रावृट् ऋतु ७/६२ प्राशुक (फासु) ५/१२५; ७/८,६,१६३ प्रासंगिक ३/३७ बंगाली भाषा ७/१५८,१५९ बड़ी काहला ५/६४ बद्ध ३/१४८: ६/३३,३४ - अवस्था ३/१४३-१४८ (भा.) - कर्म ३/१४३-१४८(भा.); ६/३३,३४ - स्पृष्ट ३/१४८: ५/६४ बध्यमान आयुष्य ६/३३,३४ बंध ३/१३४-१३६(भा.),१४०-१४२(भा.),१४३-१४८(भा.); ५/६८७(भा.),१२४-१२७(भा.),१३४,६/२०,२१,२३,२०-२३ (भा.),२४-२६, २७-२६,३३,३४,३५-५१(भा.),१५१,१५२१५४,१६२; ७/२०,२१, ७४-६२(भा.),१०६,१६०,२१८-२२० - उद्देशक ६/१६२ - काल ६/३५-५१(भा.),१५१ - स्थिति ६/३४ बन्धक ६/३५-५१(भा.) बन्धन ५/७१,६८-७१(भा.),७५, ६/५-१४,१५४,१६२ - का छेद ७/१३ - छेदन ७/११ बल ३/३६,१०४,२३०,२३९: ६/१३३,१३४; ७/१४६-१४६(भा.), १५०-१५४(भा.),२०३,२०४ बलाभियोग ७/१९४ बलाहक ३ आमुख बलिकर्म ३/३३; ७/१७६,१७६(भा.),१८५,१९६ बहिर्भूमि ५/७E बहिर्वर्ती पुद्गल ३/१८६(भा.), १८६-१८९,१९४,१९५,२०९,२१०, २०९-२२०(भा.) २४०,२४१ बहुकर्म ६/२० बहुतर - अप्काय ७/२२८ - तेजसकाय ७/२२८ - पृथ्वीकाय ७/२२८ - वनस्पतिकाय ७/२२८ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४६२ भगवई बुसा ५/५४ बेलनाकार ६/१३३-१३४(भा.) बेला ३/३३,५/३६७/१९४ बेले-बेले ३/३३,१०२:७/१९३ बोधि ५/१६१-१६८७/८ बोल ३/२५८, २५८(भा.) बौद्ध ६/१८३-१८५ - दर्शन ५/११६-१२(भा.); ६/१८३-१८५(भा.); ७ आमुख, १०-१५(भा.),५८-६०(भा.),१२७-१४५(भा.) - पिटक ५/२५४-२५७(भा.) - साहित्य ३/८६-८७(भा.): ७/१७३(भा.) ब्रह्म ७ आमुख, १०-१५(भा.) - चर्य ३/१४८: ७/२९-३५(भा.) - वादी ७ आमुख - वायुकाय ७/२२८ -वसकाय ७/२२८ बहुत्व ६/३०-३२ बहुसमरमणिज्ज ६/१३५ बहुरूप-निर्माण ५/११२,११३ बहुवचन ६/५४-६३ बहुश्रुत मान्यता ६/५४-६३ बांस ३/३५,३६ बांसुरी ५/६४ बाण ५/१३४,१३५,१३४-१३५ (भा.) बादर (स्थूल) ५/६४,१६६-१७४(भा.); ६/५०,५२,८०,८२,८८,६७,६६, १०५,१४१,१४२,१४७ - अग्निकाय ६/१३७-१५०(भा.) - अद्धा पल्योपम ६/१३३-१३४(भा.) - अद्धा सागरोपम ६/१३३-१३४(भा.) -अप्काय ६/१३०-१५० - उद्धार पल्योपम ६/१३३-१३४(भा.) - उद्धार सागरोपम ६/१३३-१३४(भा.) - त्व ५/२०१-२०७(भा.) - पुद्गल ३/१९१ - पृथ्वीकाय ६/१३७-१५०(भा.) - वनस्पतिकाय ६/१३०-१५०(भा.); ७/६६ - वायुकाय ६/१३७-१५०(भा.) - व्यवहार पल्योपम ६/१३३-१३४(भा.) बाधाकाल ६/३३,३४ बारह प्रतिमा ६/१५,१६ बारहव्रती श्रावक ६/६४-६८ बार्दलिका-भक्त ५/१४०,१३६-१४६ (भा.) बाल ३/३५,३६ - तप ३/३५,३६: ७/११३-११६(भा.) - तपःकर्म ३/३५,३६,३५-३६ (भा.),१०३ - तपस्वी ३/३६,३५-३६(भा.)३८,३९,४१,४३,४५,४६, १०३,१०४,१०७ बालाग्र ६/१२५,१३४ बालुकाप्रभा (पृथ्वी) ५/६२,२१६, ६/१३०-१५०(भा.) बाहरी पुद्गल-देखें बहिर्वर्ती पुद्गल बाह्य जगत् ५/१०८,१०६ बाह्य पुद्गल-देखें बहिर्वर्ती पुद्गल बिल ७/११९,११९(भा.),१२० -पंक्ति ५/१८२-१९०(भा.) बीज ७/११९ - मात्र ७/११९ बुद्धि ३ आमुख; ५ आमुख, ६/१-४(भा.) बुध ५/२५७ भंभा ५/६४ भंग (विकल्प)३/१५७-१६३(भा.); ६/२७-२६(भा.),३०,६३, १६८,१६६ भक्त-पान ३/३६,३८,७/२१५,२१७ भजना ५/१३०-१३२(भा.); ३५-५१(भा.) भद्रमुस्ता ७/६६ भय ७/१५०-१५४, १६१ - मोहनीय ७/१६१ - संज्ञा ७/१६१ भयंकरी ७/११७(भा.) भर्तृत्व ३/४(भा.) भव ३/३०; ५/८६,१४७; ७/१४८,१४९ - क्षय ३/५२,५३,७५:७/२८ - ग्रहण ५/१४७ - धारणीय ३/११२ - धारणीय शरीर ३/११२ - प्रत्ययिक ३/९०, १३१ - संबंधी ७/२०२ - सिद्धिक ३/७२,७३, - स्थिति ५/२४८-२५३(भा.);६/२६,३२,४०,४२,५२,६३, १८१,१८८ भवन ३/२९ - गृह ३/२६८ (भा.) भविक ७/१०१-१०५ भव्य ३/७२;६/१,२०,२७-२६,६३,१२२-१२४ - ता ३/७६ - त्व ६/३०-३२ - त्व लब्धि ६/३२ भाण्ड ५/१८९,१८२-१९० (भा.) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भारतवर्ष ३/१००, ११२ भारतीय ७/५८-६० (भा.) दर्शन ६/१८३-१८ (भा.) दार्शनिक ५ आमुख भाव ५/५१-५४ (भा.), १५०, १५१, १६० - १६४ (भा.); ६ / २०-२३ (भा.); ७/५८-६० (भा.) आदेश ५/२०१२०७ (भा.) इन्द्रिय ५/१०८, १०९ की अपेक्षा ५/२०२,२०३,२०५,२०६ धारा ४/८ परमाणु ५ आमुख, १६० १६४ - - प्रमाण ६/१३२ - मन ५ / १०० - १०२ (भा.), १०३-१०६ (भा.) • लेश्या ३/१८३-१८५ (भा.): ७/६७-७३(भा.) - स्थान आयु ५ / १८१ भावना ३ / ९५, १५४-१६३ (भा.), २३१-२३९ (भा.) भावादेश - देखें भाव भावान्तर ५ आमुख, ५१-५४ (भा.) भावार्थता ७/५९ भाविक ७/१०१-१०५ (भा.) भावित ३/१७, १९, २४, ९५, १०४, १५१, १५३, १५४-१६३ (भा.), १९०, २३१-२३९ (भा.), २५७: ५/८५, २०१, २०७, ७/१९३, २२० भावितात्मा ३ आमुख, १५४ १६३, १५४ १६३ (भा.) अनगार ३ / ९५, ११६, १४३-१४८, १५४-१५८,१६३, १८६, १८९, १९४-२००,२०२, २०३, २०५, २०७, २०९-२१५, २२२, २२५,२२८,२३१,२३४, २३७, २४०-२४२, भावी जन्म ३ / १८३-१८५: ७/१०६ भावी जीवन ७/१०२, १०३-१०५ (भा.) भावी स्थान ६ / १२०-१२८ (भा.) भाषक ६/२०, ४३, ५२ भाषण ६/५-१४ भाषा ३/१७; ५ / ६३, ६/३३,३४,६३ - अपर्याप्ति ६/६३ - द्रव्य ५/६४ - पर्याप्ति ३/१७; ६/५-१४,४३ मन पर्याप्ति ३/१७,४४,१०९ • वर्गणा ५ / ६४, ६ / ३३, ३४, ६३ भाष्य ५/५७-५८ (भा.) ४६३ • कार ७/१०-१५ (भा.) भिक्षा ३/१०२ : ५/१३६-१४६ (भा.); ७/२५, २९-३५ (भा.) • चरी ३/३३,१०२ - चर्या ७/२१५ भिक्षु (भिक्षुक) ५/१३९-१४६ (मा.), ६/१५,१६ की बारहवीं प्रतिमा ३/१०५ भिन्न ६/१७४- १८२ (भा.) भुक्त] ७/१०७-११२ (भा.) भुज्यमान आयुष्य ६ / ३३, ३४ भूत ३/१४५, १४८ : ५/११६-११८, १३४, ६/८८, १०५, ११६, १८३, १८४; ७/२७, ११४,११६ अनुकम्पा ७/११३-११६ (भा.) ग्रह ३ / २५८, २५८ (भा.) जय ५ / ११२, ११३ यथार्थ ५/२५४-२५७((भा.) रूप ५ / ११२, ११३ भूतिकर्म ३/१५० भूमितल ३/११२ भूमि-निर्झर ७/११७ भृकुटि ३/४७ भेद ५ / २०१ -२०७ (भा.), २५४-२५७ (भा.) भेदन ६/२२,२३ भेरी ५/६४ - भोक्तृत्व ७/१६-१९ भोग ३/४,५,३८,८१,९०,९३,१०९, ११०: ५/५७,५८: ७/१३२-१३६ (भा.), १४६ - १४९ (भा.) भोगाई ३/४, ५,३८,८१,९३,१०९, ११० भोगी ५ / ६४, ७/१३८-१४५, १४६ भोग्य ७/१४६ - १४९ अवस्था ३/१७ भोजन - पानी ३/३६ भौतिक पदार्थ ६/७०-११८ (भा.) भौतिक विज्ञान ३ आमुख भ्रूण ३/१७ मंगल ३/३३ कारी ३/३३,३८, ५१ मय ३ / ३६ मंडलिकावात ३ / २५२, २५२ (भा.) मंत्र ७/२५, २९-३५ - पिण्ड ७/२५ - सिद्धि ७/२९-३५ मंत्री ३/४ मंद ७/३६-४२ पारिभाषिक शब्दानुक्रम म - • वात ५ / ३१,३२,३४, ४० मकर (राशि) ७/६२ मघा ६ / १०३ मचान (मंच) ६ / १२९-१३१ (भा.) मडम्बाधिपति ३/३४ मणि ३/३३ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४६४ भगवई मत ३/१३४-१३९(भा.); ५/२०१-२०२(भा.),२०५ मतान्तर ५/४,३५,३६,५६-६१(भा.);७/२०,२१ मतिज्ञानावरण ७/१६१ मतिअज्ञानी ६/४६,५२,६३ मतिज्ञानी ६/५२ मधुर ६/१६३-१६७ मध्य भाग ३/११२,५/६४ मन (नो) ३ आमुख,१७.३६,१३५,१४८: ५/८३-८८(भा.),१००-१०२, ११०,१११; ५/१००-१०२(भा.); ६/५-१४(भा.),३३,३४७/२७.२८,५४५७(भा.),१५०-१५४(भा.),१६१ - अपर्याप्ति ६,६३ - और वचन १००,१०१ - करण ६/५,६,९ - गत ३/३३,३६,१०२,१०४,१०९,११२,११५.११६,१३१ - (द्रव्य) वर्गणा ५ आमुख, १०६,११०,१११; ६/५-१४(भा.), ३३,३४ - पर्यव ५/१०८,१०६ - पर्यवज्ञानी ३/९५; ६/४५,५२,६२ - पर्याप्ति ३/१७: ६/५-१४,६२ - पूर्वक ५/१००-१०२ - प्रयोग ६/२६ - भक्ष्य आहार ७/१ - योग ५/८३-८८: ६/५-१४ - योगी ६/४७,५२,६३ - वर्गणा ६/५-१४ (भा.),३३-३४ (भा.) - विज्ञान ६/१७१-१७३ -संकल्प ३/१२७,१२८ मन (भाव मन) ५/८३-८८ मनन ६/५-१४ मननीय ३ आमुख मनुष्य ३ आमुख,३०,९०: ५/५६-६१,६२,६४-७४,११५,१०६-१२१, १३६,१३७,२३५,२४६,२५१,२५२; ६/३२,६३,६५,१३२,१३४,१३५, १७४-१८२,१८५७ आमुख १,४,५,२८,३९,४२,४७,५१-५३,५६,५७, ५८-६०,९३-९५,११२-११६,११९-१२१,१४६-१४९,१५६,१७३, १८०,१८१,१८९,१९०,२२६ - आयु ३/३० - कुल ७/२०९, १६९,१७२ - गति ५/६२,१२४-१२७; ६/३०-३२ - लोक ३ आमुख ११२, ४ आमुखः ५/१०३-१०६,१३६,१३७, २४८-२५२, ६/१३३, १३४, १३७-१५०७/१०-१५,१६९, १७२ मनुष्येन्द्र ७/१७७,१८६ मरण ३/१९२: ५/१६१-१६८ मर्यादा ३/४:७/१२०,१७३,१८१,१९० मल्ल ३/११२ मसमसाविज्जइ ३/१४३-१४८(भा.) मसारग्गल ३/४ मसूर ६/१२९-१३१ (भा.) महत्तर - आश्रव ७/१५८, २२७, २२८ • आहार ७/१५८ - उच्छवास ७/१५८ -कर्म ७/६७-७०,७२,७३,१५८,२२७,२२८ - क्रिया ७/१५८, २२७, २२८ - द्युति ७/१५८ - निहार ७/१५८ - निःश्वास ७/१५८ - महिमा ७/१५८ - वेदना ७/२२७, २२८ महर्द्धिक ३/९६,१११,११७-११९:५/८३,८५,८८;६/१६३-१६७(भा.) महा - अनुभव ६/७५,९२ -आश्रव ५/१३३:६/२० - ऋद्धि ३/४-९,१२,१४,१६-१८,२०,२१,२८,९८, २५५,२६०,२६५,२७०, ६/१५,९२,१६२,१६३-१६७(भा.), १६६,१७३; - कथा प्रतिपन्न ७/२१८ - कर्म ५/१३३; ६/२०; ७/६७-७३(भा.) - काल श्मसान ३/६५ - क्रिया ५/१३३,६/२० - ढक्का ५/६४ - द्युति ३/४,५,९८ -निर्जरा ६ आमुख १,३,४,१५,१६,१५-१६(भा.): ७/१४६१४९(भा.) - पर्यवसान ६/४,१-४(भा.), ७/१४६-१४९(भा.) - प्रतिमा ३/१०५ - प्रभावी ५/३६,८८ - बंधकार ६/८६ - बल ३/४ - बलि ३/४,५ - यश ३/४ - यशस्वी ३/४,५ - युध्द ३/२५८,२५८(भा.) - लता ६/१३३,१३४ - लतांग ६/१३३,१३४ - वात ५/३१,३२,३४,४०,४१,४३-४५ - विदेह ३/५३,७५,१३० - वेदना ५/१३३, ६ आमुख, १,२,४,१५-१७,१६-१७ (भा.),२०: ७/१०३-१०५ Jain Education Intemational Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई व्रत ३/३५, ३६, ६/६४-६८ ७/२९-३५ - व्रती ६/६४-६८ - शक्ति ६ / १६२,१ - शरीर ३/११२ - • शिला ७/१७८ • शिला कंटक ७/१०३, १७७-१८० शरीर३/१९२ श्रमण ६/१ संग्राम ३ / २५८, २५८ (भा.); ५/११६-१२१ सामर्थ्य ३ / ४, ५, ७, ९, १२, १४, १६, १७, २८; ९८, ११७-११९,२५५, २६०, २६५, २७० : ५/८३, ८५, ६/१७३ सुख ३/४,५ • सुखी ३/४, ५ महा ३ / २६८ महिमा ५/११२, ११३ महोत्सव ३/८६-८७ (भा.) मांसाहार ७ / १२१ मागधी ५/६३ माघवती ६ / १०३ माहम्बिक ७/१९६ माथुरी वाचना ६ / १३२ माध्यस्थ फल ५/१६१-१६८ मान ३/१७,२२२-२३० (भा.); ५/२४६, ७/२१, २५, १२६,१६१ - पायी ६/६३ - पिण्ड ७/२५ - वेदनीय ७/१६१ - संज्ञा ७/१६१ मानसिक ५/८३, ८४, ८८, १०३-१०६, ७/१६१, १६२ आलाप संलाप ५ / १०३ १०६ (भा.) - उत्तर ५/८३-८६ (भा.) क्रिया ३/१७ ७/१६१ • क्लेश ६/१३२ - चिकित्सा ६/५-१४ (भा.) - ज्ञान ७/१५०-१५४ (भा.) - तरंगों ३ /७१ - प्रयोग ६ / २४-२६ प्रश्न ५/८३-८८ (भा.) - योग ६ / २४-२६ (भा.) • संताप (tension) ६ / १३२ - संप्रेषण ५/१०३-१०६ (भा.) • स्मृति ३/७१ मानुषी ५/२३५ माया ३/१७, १९०,२२२-२३०७/२१,२५,१२६, १६१ -रुपायी ६/६३ ४६५ कार ३/१९० - पिण्ड ७/२५ - प्रत्यया क्रिया ५/१२८- १३२ (भा.) - वान् ३ /१९० • वेदनीय ७/१६१ • संज्ञा ७/१६१ मायि - मिथ्यादृष्टि ३/२२२, ५/१०२, १००-१०२ (भा.) मायी ३ / १९०-१९२, २१८,२१९, २२१, २२२, २२५, २२८, २२२-२३० (भा.) - अवस्था ३ / १९२ (भा.) मारणांतिक संलेखना ७/२९-३५ मारणांतिक समुद्घात ३ / ४, ६ / १२२-१२७, १२०-१२७ (भा.) मार्गात ७/२४ मार्दव ३/१७ ५/२०१ माल ६ / १२५, १२९ - १३१ (भा.) मालापहृत ७/२५ पारिभाषिक शब्दानुक्रम मास ५/१५,५६ - ६१,२१६, २२४, २३३, ६/१३२,१३३,१३४ - क्षपण ७/२३१ मास (धान्य) १२९-१३१ ( भा.), माहन ३/३० ५/१२४-१२७, ७/८, ९ मित ५/१०६ मिथुन (राशि) ७/६२ मिथ्या ५/५८, ११७,१३७, १३६ - १४६ (भा.), १४८, २०३ ६/१७२, १८४ - त्व ६/२०-२३ ७/९७ - त्व क्रिया ७/९७ - त्व मोह ३/२२२-२३० (भा.) - दर्शन ३/३५, ३६, २२२-२३० (भा.); ५/१२८-१३२ (भा.); ७/२७,२८ - दर्शन क्रिया ५/१२८-१३२ (भा.) दर्शन प्रत्यया क्रिया ५/ १२८- १३२ (भा.) • दर्शन शल्य ७ / १०८, २०३, २२४ दर्शन शल्य विवेग ७ /१११,२२६ दर्शनात्मक ५/ १२८ - १३२ (भा.) दृष्टि ३/७२,७३,२२२, २२५, २२८, २२२-२३० (भा.); ५/१६१-१६६; ६/३८, ५२, ६३, १६८, १६९: ७/२७, २८ - प्रत्याख्यान ७/२७, २८ मिनट ५ आमुख मिश्र ५/१३५, १३६, ६/१८ आहार ६/१८ • जात ७/२५ मीन (राशि) ७/६२ मीमांसा ३/३३, ६/६४-६८ (भा.); ७ आमुख, १२७ - १४५ (भा.) मीसजाय ५/ १३६ - १४६ (भा.) मुक्त ३ आमुख, ३५, ३६, ५३, ७५, ११६, १२७, १४३-१४८ (भा.): ५/८०, Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४६६ भगवई मैथुन ७/५४-५७(भा.) - संज्ञा ७/१६१ मोक्ष ३ आमुख, ७३,१३४-१३९(भा.).१४३-१४८(भा.); ५/१४७;६/ १-४(भा.):७ आमुख.१०-१५,१४६-१४९(भा.),२१८,२२० - गति ३/१४८ - गमन ६/२७-२९(भा.) - गामी ३/७२ - वाद ५/११५(भा.); ७/१५६-१५७ (भा.) मोह ५/१०७६/३३,३४,१६२ - जाल ७/१५० मोहनीय ६/२०-२३, ३३, ३४ - कर्म ७/३६-४२, १६१ - क्षपक ६/१-४(भा.) मोहोपशमक ६/१-४(भा.) मौन ३/३९,४० म्रक्षण ७/२५(भा.) मेक्षित ७/२५(भा.) २५७ ; ६/२७-२९,३०-३२: ७ आमुख ३, १०-१५, २९-३५, १५६, २०८,२३२ -आत्मा ७/१०-९५ -जीव ५/१३४,१३५ मुक्ति ३/७२ मुकुट-विटप (मउडविडवे) ३/११४ मुख्यवृत्ति ५/२५४-२५७(भा.) मुण्ड ३/३३,१०२ मुद्रा ३/३५,३६,२०७:५/२०१ मुद्रित ६/१२९-१३१ (भा.) मुनि ३/१०५,१४९,१५०,१९२:५/१२४-१२७,१३६-१४५(भा.);६/१३२ ७/४,५,२०,२१,२२,२३,२५,२७,२८,२९-३५(भा.),३६-४२(भा.) - गण ३/२७ -त्व ७/२९-३५(भा.) मुरज (वाद्य)६/१३५ मुसल ६/१३४ मुहूर्त ३/१४९,१५०; ५ आमुख, ६-१२,१५,५६-६१,१३२,१३३,१३४, २१५-२१७,२२२; ७/२९-३५(भा.) मूंग (मुग्ग) ६/१३०,१२९-१३१(भा.) मूर्त ५/१६१-१६८,२५४-२५७; ७/२१२-२१७ मूर्धाभिषिक्त राजा ५/१३६-१४६(भा.) मूल ४ आमुख - कर्म ७/२५ - गुण ७/२९-३५,३६-४२ - गुण प्रत्याख्यान ७/२९,३०,२९-३५ (भा.), ३६-४२ - गुण प्रत्याख्यानी ७/३६, ३७.४०-४२,३६-४२ (भा.) - पाठ ३ आमुख; ६/३३,३४ - प्रकृति ६/३३,३४,१६२ - प्रथमानुयोग ४ आमुख - स्पर्शी ६/१६८,१७९ मूलकबीज (मूलाबीय) ६/१३१,१२९-१३१ (भा.) मृगगन्ध (मनुष्य की एक जाति) ६/१३५ मृत शरीर ३/४५,४६ मृत्यु ३/३६,३८,१४९,१५०,१८३-१८५(भा.); ५/५६-६१(भा.), ११६-१२१(भा.); ७/२९-३५(भा.),२०३ मदंग ५/६४ मृदु ३/१७; ५/२०१६/१६३-१६७(भा.) - भाव ५/७८ मृषा भाषा ७/२८ मृषावादी ७/२८ मृषावाद ७/५४-५७(भा.) मृषा-वचन ५/१२४-१२७(भा.) मेरु पर्वत ३/२४९,२५३,२५८,२६३,२६८:६/१५,१६,१२४,१२५ मेष (राशि) ७/६२ यक्षग्रह ३/२५८ यत्रकामावसायित्व ५/११२,११३ यथापत्याभिज्ञात (अहावच्चाभिण्णाय) ३/२५५,२५५(भा.) यथाप्रणिहित ३/१०५ यथालघुस्वक ३/९०,९० (भा.) यथार्थदर्शन ३/२३१-२३९ यथार्थभाव ३/२२३,२२४,२२६,२२७,२२९,२३०,२३२,२३३,२३५, २३६,२३८,२३९ यथावस्थित ६/१६८,१६६ यथासंविभाग ७/२९-३५(भा.) यथासूत्र ७/४,५,२१,१२६ - गति ७/१२६ यथेर्यं ५/४१ यथोद्दीप्त ३/२५२ यव ६/१२६,१२६-१३१ (भा.) - मध्य ६/१३४ यवयव६/१२९,१२९-१३१ (भा.) यश ३/२३०,२२२-२३० (भा.) यशःकीर्ति ७/१५०-१५४ यान ३/१५४-१६३ यावज्जीवन ७/२९-३५ युग ५/१८, ६/१३२ - प्रमाण भूमि ७/२१५ युग्य ३/१६४-१७१ (भा.) युवराज ३/३४ यूका ६/१३४ Jain Education Intemational Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४६७ पारिभाषिक शब्दानुक्रम यूप ६/१३४ ६७-७३(भा.),१३६,१३७ यूपक ३/२५२ रसनेन्द्रिय ३/१९१: ५/६४ योग ३/१४२,१५४.१६३,१९०,२११,२२२-२३०:५/८३-८८,१०७. -विषम ३/२७९ ११०,१११:६/१५,१६,२०-२३, ६३,७/२५,२८,११३-११६ रहस्य -आश्रव ६/२०-२३(भा.) - मय क्षेत्र ६ आमुख - दर्शन ५/५७.५८ - वादी ३ आमुख -निरोध ३/१४३-१४८(भा.) - विद्या ३ आमुख - पिण्ड ७/२५ रांगा ५/५२ - रूप ५/१००-१०२(भा.),१०३-१०६(भा.) रांगे की खान ३/२६८ - सिद्ध पुरुष ३/४ राख ५/५४ योगी ३/४; ६/२०,५२, ७ आमुख राग ७/२२,२३, योजन ३/४,८१,११२,११९-१२६(भा.),१६५,१७३,१८०,२११,२४९ - द्वेष की त्रीवता ५/१६१-१६८(भा.) २५१,२५६: ४/४:५/३-१२,५५,१३६,१३७, ६/७२,७४,७५,६१,११८, - द्वेषात्मक अध्यवसान ५/१६१-१६८(भा.) १२५,१२६-१३१, १३४,१३७-१५०,१७३७/२४ राजधानी ३/७८,१०६,१०७,११२,१२७ योनि ५/६२, ६/१२६-१३१(भा.); ७/१०६ राजपथ ३/४५ - विच्छेद ६/१२९-१३१ (भा.) राजपिण्ड ५/१४०,१४२,१४४,१४६,१३६-१४६ (भा.) - संग्रह ७/९९ राजा ७/१९६ यौगलिक मनुष्य ३/१८३-१८५ राजाभियोग ७/१९४ राडार संचालक ६ आमुख रक्त (वर्ण) ६/१६३-१६७ रात ५ आमुख २५४ रक्तरत्न ३/३३,३३(भा.) - दिन ५ आमुख, २५४,२५८ रचना-काल ४ आमुख रात्रि ५/४-१२,३-१२ (भा.),२२,२५,२६,२३७,२३८ रचना-शैली ७/११७-१२३(भा.) - भोजन ७/२४ रचित ५/१४०,१३-१४६ (भा.) रालग (धान्य) ६/१३१ रज-उद्घात ३/२५२ राशि ५/६२, ७/६२ रजकरण ६/२०-२३ (भा.) रिष्ट (रत्न) ३/४ रजोहरण ५/७६ रुचि ३/९ रज्जु ३/३५,३६,४५ रुलाना ७/११४, ११६ रडार ६ आमुख रूक्ष ५/१५०-१५३,१७२; ६/१३३,१३४,१६३-१६७ रतिवेदनीय ५/६८-७(भा.) - ता ६/१३३,१३४ रत्न ३/३३,३३(भा.),९०,९१,९२ - स्पर्श ७/१७१ - द्वीप ३/९० रूप ३/४,१२,१४,१६,१८,२२२-२३०(भा.);४/८; ५/६४,१०७, १०६; -प्रभा पृथ्वी ३/७९,८१,८१ (भा.),२४९:४/३:५/६२,२१६, ६/१६५-१६७(भा.); ७/१३१,१३७,१७०,१७१ ६/१२०, १२२,१३७-१४४,१५० - निर्माण ३/४,१९०६आमुख,१६३-१६७(भा.) रत्नाकार (रयणागर)- देखें रत्नों की खान -- परिवर्तन ३ आमुख रत्नि ६/१३४;७/११९ (भा.) रूपी ७/१२७, १३२, २१२-२१७(भा.) रत्नों की खान ३/२६८ - काय ७/२१२,२१६,२१८,२१९ रथपथ ७/१२०,११७-१२० (भा.) - द्रव्यग्राही ३/२२२-२३०(भा.) रथ मुशल (संग्राम) ७/१७३,१८२,१८३,१८७,१८९.१९४,१९६-१८८, रोम ५/५३ २०३,२०४ रौद्र रूपधारी ३/४५ रथरेणु ६/१३५ रमणीय ६/१३५ लघिमा ५/११२,११३ रस ४/८; ५/५१-५४(भा.),६४,१०७,१०६,१५०,१५३,१६०-१६४(भा.), लघुगणक (लोगरिदम) ६/१३३,१३४ १७२,१७८,२०१,२०७; ६ आमुख, १३३,१३४,१६७; ७/५८-६०(भा.), | लघुस्वक ३/९० Jain Education Intemational Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४६८ भगवई लोहकवच ७/१७६,१७६ (भा.) लोहकडाह ५/१८२-१९० (भा.) लोहा ५/५२ लोहे की खान (अयागरा) ३/२६८ लोहित वर्ण ६/१६७ लोहिताक्ष (लोहियक्ख) ३/४ (भा.) लौकिक साहित्य ७/१७३ लौही ५/१८२-१९० (भा.) व लता ६/१३३,१३४ लब्ध ३/२३०; ५/१०६,११३,११२-११३ (भा.) - वृत्ति ७/२०,२१ लब्धि ३/१५४-१६३(भा.): ६/३०-३२(भा.) -जन्य ३/१६४-१७१(भा.) - सम्पन्न ५/११२,११३ लयन ५/१८२-१९० (भा.) लव ५/१५,६/१३२,१३३,१३४ लवण समुद्र ३/१५२ लता (संख्या) ६/१३३,१३४ लता (वनस्पति) ७/११६ (भा.) लतांग ६/१३३,१३४ लिंग ५/१६१-१६६(भा.) लांछित ६/१२९-१३१ (भा.) लाल वर्ण ६/१६७ लावण्य ७/१५०-१५४(भा.) लिक्षा ६/१३४ लिप्त ६/१२९-१३१,१२९-१३१(भा.): ७/२५ लीख ६/१२५,१७१ लेश्या ३/१८३-१८५ (भा.): ४/१,८, ८(भा.); ६/५४-६३,१६८-१६६; ७/७१,७२,६७-७३(भा.) - पद ४/८ लेसर की किरण ३/४ लोक ३/९४:५/१०३-१०६,२५५,२५८,६/३०-३२७/३,१०-१५,१६१ - अनुभाव ३/१५२:५/५५ - अन्त ६/११८,१२४,१२५ - अन्धकार ६/८६ - तमिस्र ६/८६ - नाडी ५/१०३-१०६ - परम्परा ७/१६१ - मान्य ५/२५४-२५७(भा.) - विद्या ७ आमुख - संज्ञा ७/१६१ - संस्थान ७/३ (भा.) - स्थिति ३/१५२:५/५५,२०८-२२४(भा.) लोकन ५/२५५ लोच ७/२९-३५(भा.) लोभ ३/१७,२२२-२३०(भा.);७/२१,२५,१२६,१६१ - कषायी ६/६३ - पिण्ड ७/२५ - मोहनीय ७/१६१ - वेदनीय ७/१६१ - संज्ञा ७/१६१ लोम आहार ७/१ वंश-परम्परा ७/१६१ वक्कंति-काल ५/२२५-२३३(भा.) वक्र ७/१ - गति ५/५६-६१(भा.) वग्घारिय पाणि ३/१०५ वचन ३/१४८: ५/८३-८८,१००-१०२,११०,१११;७/२७,२८, १५०१५४ - करण ६/५-७,९ - प्रयोग ६/२६ - योग ६/५-१४ - योगी ६/४७,६३ - वर्गणा ५ आमुख वज्र ३/४,४ (भा.) - तुल्य ७/१७७ (भा.) वज्रासन ३/२०७ वध ७/६,७,२७,२८,११३-११६ वनस्पति ५/३१-४५,६८-७१,७/१,६,७,६२,६६,१२७-१४५(भा.) - काय ३/१८३-१८५:५/१८३:७/११७ - कायिक ६/२६,६१,६३,६६,१०५,११६,१५०; ७/६२,६३, ६५.६६,१४२,१५० -जगत ७/११७-१२३(भा.) - जीव ५/५१,१३४,१३५ - जीव का शरीर ५ आमुख वनीपक ७/२५ - पिण्ड ७/२५ वन ५/१८९,१८२-१९० (भा.) - राजि ५/१८९,१८२-१९० (भा.) - षण्ड ५/१८९,१८२-१९० (भा.) वनस्पत्यात्मक ५/२३५ वपिण ५/१८९,१८२-१९० (भा.) वरवज्रविग्रहिक ५/२५४-२५७ (भा.) वर्ग ६/३३,३४ वर्गणा ४/८; ५/१११; ६/३३,३४ वर्गीकरण ३/१३४-१३९(भा.): ५/६-१४(भा.) वर्गीकृत ७/५४-५७ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४६९ पारिभाषिक शब्दानुक्रम वर्ण ४/८; ५/५१-५४,१५०-१५३,१६०-१६४,१७२,१७८,२०१-२०७; - विक्रिया ३/१,४,७१२,१४,१६,२०,२१,२२,१६४, १६५, १८८६ आमुख,८५,१०२,१३३,१३४:७/५८-६०,६७-७३(भा.) १९२,१९८,१९६,१९९,२००,२०३,२०५,२०७.२१८,२२१,२४०,२४१: वर्णनवाची ५/१,२ ५/१३८: ६/१६३-१६७; ७/१६७-१७२ (भा.) वर्णवर्षा ३/२६८ • शक्ति ३/४,१६,१८,१९६ (देखें वैक्रिय-शक्ति) वर्ण्य विषय ४ आमुख विगत ५/२२५ वर्तनी ५/२४८-२५३ (भा.) विग्रह-गति ७/१ वर्तमान जीवन ७/१०२,१०३-१०५ (भा.) ___ - समापनक ६/३५-५१,८२,८६,१४२,१४७ वर्तमान वैज्ञानिक ७/१६१ विचरण ३/१०५ वर्तुल ३/२९; ६/१३३,१३४ विच्छिन्न ७/२०,२१ वर्धापित ३/४६,५० विज़म्भमाण ३/११२ वर्ष ३/१४९-१५० ५/५६-६१,२२२, ६/३४,१३२,१३३-१३४, ७/६२ विज्ञात ७/१६१,१७३,१८२ वर्षा ३/२५०-२७७:५/१३-१६,१८ विज्ञान ५/१५४-१५६(भा.), ६/७०-११८(भा.) -ऋतु ७/६२ वितत ५/६४ वल्लभी वाचना ६/१३२ वितस्ति ६/१३४ वल्ली ७/११७,११७(भा.) विद्या ३/१९०,२०९,२११:७ आमुख २५ वशित्व ५/११२ - पिण्ड ७/२५ वशीकरण ३/२११ विद्युत ६/८०,८१ वसुधारा ३/२६८,२६८(भा.) विधेय ३/३४ व्रत ५/१५४-२५७(भा.) विधेयात्मक ७/११३-११६(भा.) वाक् ६/५-१ विनम्रता ३/४ -- करण ६/५-१४(भा.) विनयपूर्वक ३/५०,५१ - योगी ६/५२ विनाश ५/२५४-२५७(भा.) वाचना ३/१९०: ४ आमुख विनीत ३/१७,२१, ५/७८,२०१ -- भेद ६/१६८,१६६ विन्ध्यपर्वत ३/१०० वाचिक प्रयोग ६/२४-२६ विन्ध्याचल ३/१०० वाणी ५/८३-८८,८६-२ (भा.); ७/५४-५७ विपरिणमन ६/४७/२२४ - का तंत्र ५/८३-८८(भा.) विपरीतग्राही ३/२२२-२३०(भा.) वात ५/३६ विपरीत भाव-देखें अन्यथाभाव - परिक्षोभ ६/१०५ विपर्यय ३/२२२-२३०:५/१३६,१३७,१३६-१३७ (भा.) - मंडलिका ३/२५३ विपाक ५/५७,५८,१४८; ६/१५१; ७/३६-४०(भा.),२१८-२२०(भा.) वातुल ७/११७ -जा ६/१-४ वातोत्कालिका ३/२५३ - अभिमुख ३/१७,३०,५०,५१ वातोद्घाम ३/२५३ विपाकी निर्जरा ६/१५,१६ वाद ५ आमुख विपुल ३/३५,३६ वायवीय ५ आमुख विप्रमुक्त ७/२५ वायु ३/१७२-१८२: ५/१,३१-४५,५१-५४,६८-७१,२३५, ६/६३,११५, विभंग १३३,१३४,१३७-१५०(भा.) - ज्ञान ३/२२२-२३० (भा.); ५/१३६,१३७,१३६-१३७ - काय ३ आमुख, १६४-१७१,१७२-१८२,१८३-१८५; | (भा.); ६/१६८,१६६ ५/४१,४५,४६,४७ - ज्ञानलब्धि ३/२२२,२२५,२२८,२३० - कायिक ५/४६-५० (भा.);६/११६, ७/१४२ - ज्ञानी ३/२२२-२३०(भा.); ५/१३६,१३७; ६/४६,५२,६३ विउव्वित ६/१६८,१६६ विभज्यवादी ५ आमुख; ६/१८३-१८५(भा.) विकलेन्द्रिय ३/१८३-१८५: ५/५६-६१,६/७,२६,६३ विभागनिष्पन्न ६/१३२ विकल्प ३ आमुख विभिन्न-मात्रा ७/१०५ विकुस ६/१३५,१३५(भा.) विभु ७/१०-१५(भा.) Jain Education Intemational Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४७० भगवई विमर्श ६/१८,२७-२६,३०-३२,५४-६३,१८३-१८५७/२०,२१,१५०१५४ __-नीय ७/१२७-१४५, १६१, १७३ विमात्र ६/१३,१४,५-१४ (भा.) विमात्रा ३/१४३-१४८; ६/१८४-१८५ वियोजन ३/१३४-१३९(भा.) विरत ३/१३४-१३९(भा.); ६/१-४(भा.): ७/२८,२९,३५,३६-४२(भा.), ५४-५६(भा.),१०७-११२(भा.) विरति ७/१,२७,२८,१०७-११२(भा.) विरमण ७/१०७-११२(भा.),२०४,२२६ विरह-काल ५/२०-२२४(भा.),२३१; ६/५४-६३(भा.) विराधक ३/७२,७३ विरोधाभास २५४-२५७(भा.) विवक्षा ३/१७ - भेद ५/२५४-२५७(भा.) विवक्षित ३/१८ विवर ६आमुख विवरणात्मक ७/११७-१२३(भा.) विवर्त ७ आमुख विवेक ७/२२६ विशुद्ध (सर्वथा खाली) ६/१३४ विशुद्ध ३/१९२ -आधार ३/३० - लेश्य ६/१६८, १६९ - लेश्या ६/१६८,१६६७/६७ विशुद्ध (रहित) ६/१३५,१३५ (भा.) विशेषण-समूह ३/१४३-१४८ (भा.) विशेषाधिक ६/५२ - भाग ३/२२२ विशोधन ६/२०-२३(भा.) विश्वक् ७ आमुख विषम प्रदेशित ५/१६०-१६४(भा.) विषम भाग ३/१८८,१८९ विषय ३/४,५,१६,१८,२१, ५/६४ विश्व ५/२४८-२५३, ६/३३,३४ - व्यवस्था ३ आमुख विषमिश्रित ७ आमुख, २२४ विषय (वैक्रिय करने की शक्ति का सामर्थ्य-क्षेत्र) ३/४,४ (भा.) विषय क्षेत्र ५/१०३-१०६ विष्कम्भ ६/७४,६१,६७,६८,१७१-१७३(भा.) विस्तृत ६/७४ विश्वादमान ३/३३ (भा.) विस्रसा ३/१०९; ६/२४-२६ (भा.) विहरण ३/१९,२४,३३,३८, ७/१९३,२२० विहार ३/२५,३३,१५१,१५३ विहित ७/२५ वीचिमार्ग ७/२०,२१ वीणा (पिरिपिरिया) ५/६४ वीतराग ३/१४३-१४८(भा.); ५ आमुख: ६/२७-२६(भा.),३५,५१; ७/४,५ - अवस्था ३/१४३-१४८ (भा.) वीर्य ३/३६,१०४,२२२-२३०,२३९;५/११०,१११; ६/३३,३४,१३३, १३४; ७/१४६-१४९,१५०-१५४,२०३,२०४ - की परिणति ६/५-१४ - योग (कायिक प्रवृत्ति) ५/११०.१११ - लब्धि ३/२२२,२२५,२२८,२३० वृक्ष (रुक्ख) ७/६४,६५,६४-६५ (भा.), ११६ (भा.) वृत्ति ३/४८,७३,१०९ - कार (सभी अंक भाष्य के हैं) ३/४,१७,२२,३०,३४,३८.४५, ४७.४८.९५:७/२९-३५,१२७,१४५,१६१ वृत्तिक ७/२५ वृत्तियां ३/९० वृद्ध परम्परा ७/२९-३५(भा.) वृद्धमत ३/९० वृद्ध व्याख्या ३/४,४९ वृद्धि-हानि (कहीं बढ़ते-घटते) ५/२१८,२१६,२२१,२०४-२२४ (भा.) वृष (राशि) ७/६२ वृश्चिक (राशि) ७/६२ वृष्टि ३/२५०-२७७(भा.) वेद ५/११२,११३, ६/३५-५१(भा.),६३ - भोग ५/१०७ - मोहनीय ७/१६१ वेदक ६/५२,५२ (भा.) वेदन ३/१४०-१४२,१४८: ५/५७,५८,११६-१२०,१४८; ६/४,८,६,१०, ११,१३,१४,१५४,१८३-१८५;७/१९,७४-९२,७४-९२ (भा.)१०३,१०५, १५०-१५४ वेदना ३/८४,९२,१४०,१४३-१४९:५/१२०,१२१,१३८,६/१,४,१५, १६, १६८,१६६,१८३-१८५,१८८;७/७४-७७.७८.७९,८०,८२,८३,८४,८६, ८८-९१,७४.९२(भा.),१०३-१०५,१४०-१४२ (भा.),१५०-१५४ (भा.), १६२(भा.) , असात ३/९२ , उज्ज्व ल ५/१३८,१३८ (भा.) -का उपशमन ३/८४ - की उदीरणा ३/८४ - वाद ७/१०३-१०५(भा.) , विपुल ५/१३८ - समुद्घात ३/४ , सात ३/९२ Jain Education Interational Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४७१ पारिभाषिक शब्दानुक्रम , सातासात ३/९२ व्यंजन ७ आमुख, २२४, २२६ वेदनीय ६/३३,३४,३६,४१,४३,४५,४७,४८; ७/१६०,१६१ -- पर्याय ३/१४३-१४८(भा.) -कर्म ३/१४३-१४८:६/३३,३४,४३,४५,४७,४९:७/६७- व्यतिकीर्ण ३/४,५,१९६ ७३(भा.),१०७-११२(भा.) व्यपभ्राजमान ३/११२ वेदान्त ७ आमुख, १०-१५(भा.) व्यवच्छिन्न ३/१४३-१४८(भा.);७/२१,१२६ वेदिका ६/७१ व्युच्छित्ति-नय ७/५८-६०(भा.),९४ वेद्यमान (कर्म-समय) ३/१४३-१४८ (भा.) व्युत्पत्ति ३/४,२४,१४०-१४२(भा.) वेरानबन्ध ३/९०.१३१ व्यवहारनय ५/१५४-१५६(भा.) वेसिय (वैशिक) ७/२५ व्यवहार पल्योपम ६/१३३-१३४(भा.) वेहास (आकाश) ५/१३४-१३५ (भा.) व्यवहार-मनोविज्ञान ७/१६१ (भा.) वैक्रिय ३/९०.१९०: ५/३१-४५,५०,५६-६१,१३८, ६/१६३-१६७ व्यसनभूत ३/२५३ - कर्ता ३/४ व्याकरण ५/८३-८८ (भा.),१०४-१०६(भा.) - पुद्गल ३/२०९ व्याख्या ३/२९,४५, ६/१-४(भा.); ७/९३-९५(भा.),११३-११६ - वर्गणा ३/४,१७,१८६५ आमुखः ६/१६३-१६७ (भा.),१६१ - विमान ३/१५४-१५६ -- साहित्य ७/१२७-१४५(भा.) -लब्धि ३/१९०,२०९,२११,२२२,२२५,२२८,२३०,२३१, व्यापक (विभु) ७ आमुख, १०-१५(भा.) २३४,२३७,२३९ व्यावहारिक ३ आमुख; ५/१५४-१५६(भा.); ६/१३३-१३४ - शक्ति ३ आमुख,४,९०,१७२-१८२,१९०,२२२-२३०; -काल ५/२४८-२५३ (भा.) ६ आमुख,१६७,१६३-१६७(भा.): ७/१६७-१७२ (भा.) (देखें विक्रिया - पल्योपम ६/१३३-१३४(भा.) शक्ति) - परमाणु ५/१५४-१५९ (भा.); ६/१३३-१३४(भा.) - शरीर ३/४,१७,११४.१६४-१७१(भा.),१८६:५/३१-४५, व्यास ६/१३३,१३४ ६/५-१४ (भा.),६३,१५१,१६३-१६७,१६८,१६९: ७ आमुख व्युच्छिन्न ७/२०,२१ - शरीर वर्गणा ६/३३,३४, व्युभ्राजमान ३/११२ - समुद्घात ३/४,४ (भा.) ५,३८,११२,१५४-१५६,१९६, व्युद्मजयन् ३/११२ २२२,२२४,२२५,२२७,२२८,२३१,२३३,२३४,२३६,२३७: ६/१६८, व्युत्पत्ति ३/४,२४,१४०-१४२(भा.) १६९ - लभ्य ३/१४३-१४८(भा.) वैज्ञानिक ६/७०-११८(भा.),१३३-१३४(भा.) व्येजन ३/१४३-१४८,१४३-१४८ (भा.);५/१५०-१५३,१५०-१५३(भा.) - अनुसंधान ७/१५०-१५४ (भा.) व्येषित ७/२५(भा.) - जगत ३/४(भा.) व्रत ६/६४-६८ ७/६,७,२९-३५(भा.),२०४ - मान्यता ६/७०-११८(भा.) - व्यवस्था ५/२५४-२५६ (भा.) - व्याख्या ६/७०-११८(भा.) व्रतीअनुकम्पा ७/११३-११६(भा.) वैज्ञानिकों ६ आमुख व्रीहि ६/१२९.१२९-१३१ (भा.) वैडूर्य (वेरुलिय) ३/४,४(भा.) वैदिक-साहित्य ५/६३; ७/१७३ शंकित ७/२५(भा.) वैभार पर्वत ३/१८६-१८९ शंख ५/६४ वैभाविक ७/५८-६० शक्ति ५/११०,१११,११०-१११ (भा.), १३६, ६/३३,३४ वैयावृ(पृ)त्य ५/८१,८२ शतक ३ आमुख, १,४,४८.१३१,१४८,२५०-२७७(भा.); ४ आमुख, वैराग्य ३/२३१-२३९(भा.) १,४: ५ आमुख,१,५७,५८,११५,१२४-१२७(भा.), १३६-१४६(भा.), -भावना ३/१५४-१६३(भा.) १५०-१५३(भा.); ६ आमुख, १,१८,१२०-१२८(भा.); ७ आमुख,१,६६, वैशिक देखें वेसिय १०६ वैशेषिक (दर्शन) ५ आमुख, ५१-५४(भा.); ७ आमुख,१०-१५(भा.), | शनैश्चारी (मनुष्य की एक जाति) ६/१३५ १२७-१४५(भा.) शताब्दी ६/१३२ -सूत्र ५ आमुख शब्द ५ आमुख, १,६४,६४ (भा.), ६७,६५-६७ (भा.),१०७,१७२,१७६; वैससिक ३/१०९ ७/१३१,१३७ Jain Education Interational Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम - की ध्वनि तरंग ५/६७ मीमांसा ३/४५ शब्दात्मक ५/१०८, १०६ शयन मुद्रा ३/३५,३६ शरणागत ७/१७३ शरीर ३/४,१७,२८,२९,४५ ५/३१-४५ (भा.), ५०-५४ (भा.), ५९-६१ (भा.), ८३-८८ (भा.), १३४ - १३९, १३८, १४८, १८३, १८५, १८७, २०९, २११,६/५-१४,२०,२०-२३ (भा.), ३३, ३४,६३,१२२.१२५-१९२७,१५२,१८६७ आमुख, २,२२,२३,२५, २६, २७, २८, ५४-५७, ६६, १४६-१४९, १५९, २०३ - अपर्याप्ति ६/६३ - का मल (जल्लिय) ६/२०-२३ ( भा.) - का वर्ण ३/१८३-१८५ - - धारी ७/१ • नाम कर्म ६/१५१ निर्माण ३ / १७ पर्याप्ति ३ / १७ ६/५-१४,६३ प्रमाण भूमि ३/३५, ३६ रूप ५/५१-५४ - विज्ञान ५/८३-८८ - व्यापी ७/१०-१५ शास्त्रीय ३/१७ - संस्कार ७/२९-३५ शय्यातर पिण्ड ५/१४०, ५ / १३९-१४६ (भा.) शरदऋतु ७/६२ शर्करा प्रभा पृथ्वी ५ / ६२,२१६; ६/१३७-१५० शल्य ३ / १९० शस्त्र ७/२५ परिणामित ५/५१ - ५४ (भा.); ७/२५ (भा.) - प्रहार ३ / ९२ शस्त्रागार ३ / ११२ शस्त्रातीत ५/५१-५४(भा.); ७/२५,२५ (भा.) शांतिगृह ३ / २६८, २६८ (भा.) शाटन ६/१-४ (भा.) शाम्बरी विद्या ३ / १९० शाम्भवी मुद्रा ३/१०५ शारीरिक (वेदना) १६२ (भा.) शालि (ली) ६/१ (सं.गा), १२९,१२९-१३१ (भा.) शाश्वत १/११५, २५५ ७ आमुख, ३, ५८-६० (भा.), ९३, ९४, १६५ वाद ७/५८-६० (भा.) - अशाश्वतवाद ७/५८-६० (भा.), ९३-९५ (भा.) शिक्षाव्रत ७/२९-३५ (भा.) शिखरयुक्त भवन ३/२७ शिखरी ५/१८२-१९० (भा.) ४७२ शिथिल बन्धन बद्ध ७/१६५ शिथिल रूप ६/४; ६/१-४ (भा.) शिथिलीकृत ६ आमुख, १-४ (भा.) शिरोरक्षक ३/४ शिला- प्रवाल ३/३३, ३३ (भा.) शिव (महादेव) ३/३६ शिव ३/३४ शिविका ३/१६४-१७१ (भा.) शिष्य ३/१३४ : ४ आमुख, ५ / २५४-२५७ (भा.) शीघ्र - देखें गति शीत ५/१५०-१५३ (भा.); ६ / १६३-१६७(भा.) शीर्षप्रहेलिका ५ / १८ ६/१३२, १३३, १३४ प्रहेलिकांग६/१३२,१३३,१३४ शीर्षासन की मुद्रा में दौड़) ३/११४ (भा.) शील ७/१२१, १८३, १८१,१९०, २०४ शुक्ल ६ / १६३-१६७ (भा.); ७ /६७-७३ (भा.) लेश्या ६ / ६३, ५४-६३ (भा.) वर्ण ६/१६७ - शुद्ध ४/८ शुद्धोदन (भोजन) ३/३३, ३३ (भा.) शुभ ६/१४, १५, १६, २०-२३ करण ६/११, १४ कर्म ३/३३ गन्ध ६ / १६० जन्य ६ / १६० ध्यान ३/३० नाम ६/१६० प्रवृत्ति ६/२०-२२ (भा) ७/१४६-१४९ (भा.) • योग ६/१-४,२०-२३ (भा.); ७/१०७-११२ (भा.) - रस ६/१६० रूप ६/१६० स्पर्श ६ / १६० शुभ (भास्वर) ६/७१ शुभ (दीर्घ) ५/१२७ शुभानुबंधा ६/१-४ (भा.) शुभाशुभ करण ६ / १३ शुम्ब (रज्जु) ३ / ४५, ४५ (भा.) शुषिर ५ / ६४ शुश्रूषा ३/१३ शून्य ६ / २७-२९ (भा.) शैल ५/१८९, १८२-१९१० (भा.) गृह ३ / २६८, २६८ (भा.) शैलेशी (अवस्था) ५/६४-६६, ६/१५-१६ (भा.) शोकाकुल ७/११४ भगवई Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४७३ पारिभाषिक शब्दानुक्रम शोकापन ३/१४३-१४८ (भा.) । घोडशिका ७/१५९ शोणित ३/१७ शोष (राज्यक्ष्मा) ३/२५८,२५८ (भा.) संकलित ६ आमुख शौच ७/११३-११६ संकल्प ३/३३,३६,३८,५०,१०२,१०४,१०९,११२,११५, शौरसेनी ५/६३ ११६,१३१:६/१५,१६ श्मशानगृह ३/२६८,२६८ (भा.) - पूर्वक ७/६,७ श्रद्धा ३/९ - सिद्धि ३/३८ - गम्य ५/१३४,१३५ - हिंसा ७/६,७ श्रमण ३/४.८.१०.१२,१३,१६,१९,२०,२४,२५,२८,३०,३६,९,११२, संकल्पित ७/२५(भा.) ११७.१२९.१३४,१४२,१५१,१५२, ४ आमुख: ५/३,१६,२३,२७, संकेत ७/३४ ७८,८०-८६,१२४-१२७,२४४-२५६,६/३,४,१५६;७/४.५,८,९,२४, संक्रमण ५/५६६/५-१४,१५४ १५९,१६५,१९३,२०३,२१३-२२४,२३१ संक्लिष्ट ३/८४:४/८ - परम्परा ६/१८३-१८५(भा.) संक्षिप्त पाठ ४ आमुख श्रमणोपासक ७/४,६,७,६-७ (भा.),९,२९.३५ संख्यात ५/१६०-१६५, ६/७४,७५,१३३,१३४ श्रवण-क्षेत्र ५/६४,६४-६६(भा.) ___- गुना ६/५२, ७/३६-४२ श्रामण्य पर्याय ३/१७,२१ - वां भाग ५/२२२, ६/१२५ श्रावक ३/७३: ५/२४५-२५६(भा.); ६/१-४(भा.),६४-६८(भा.); ७/ संख्यात्मक ६/१३३,१३४ ६,७,२९-३५(भा.),३६-४२(भा.) संख्येय ३/४,६,१४; ५/५८-६१,१६०-१६४,२२२,२४८-२५३; ६/६१, श्राविका ३/७३ १२५,१३२, ७/३६-४२ श्रीकल्प ६/१३३-१३४(भा.) -- गुना ३/११९, १२४:१२६ श्रीसंपन्न ३/३६ - भाग ३/१२०,१२१,११९-१२६ (भा.):५/१०३-१०६ श्रुतज्ञान ५/११२-११३(भा.) संघ ३/१९७ श्रुतज्ञानावरण ७/१६१ संघट्टेति ५/१३४,१३४-१३५ (भा.) श्रुतभावितात्मा ३/१५४-१६३(भा.) संघाएइ १३४,१३४-१३५ (भा.) श्रुता ५/६६ संघात ५/२०१-२०७ श्रेणी ६/७१,१२५ संचलन ३/४५,४६ श्रेयस्कर ३/३८,११२ श्रेयान् ६/१ संचालित ३/४५ श्रेष्ठ ६/१,४ संज्ञा ६/५-१४; ७/३६-४२,११६, १५०-१५४,१६१ श्रेष्ठी ३/३४; ७/१९६ - मन ५/१००-१०२ श्रोता ५/६३ - सिद्धान्त ७/१५०-१५४ श्रोत्र ५/६४ संज्ञी (समनस्क) ३/१७: ६/२०,३९,५२,६३;७/१२७-१४५(भा.), श्रोत्रेन्द्रिय ३/१९१:५/६४ - विषय ३/२७९ - तिर्यंच पंचेन्द्रिय ३/१८३.१८५(भा.) श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिका ६/१३४ - कर्मभूमिजमनुष्य ३/१८३-१८५(भा.) श्वासोच्छ्वास ६/३३-३४(भा.) संज्वलन-कषाय ७/२०, २९ - वर्गणा ५ आमुख; ६/३३,३४ सन्त ३/३३,३३(भा.) श्वेताम्बर ७/१(भा.) सन्तति-प्रवाह ६/३०-३२(भा.) -- परम्परा ६/१३३-१३४(भा.);७/१(भा.) संतुलन ३/१३४-१३९(भा.) संदृब्ध ४ आमुख षट्कोण ६/९० संधिनिष्पन्न ५/३-१२(भा.) षट् प्रदेशी ५/१६३ सन्धिपाल ७/१९६ षड् जीवनिकाय ५/१८२-१९०(भा.) सनिचय ३/२६८,२६८ (भा.) षड्द्रव्य ७/२१२-२१७(भा.) संनिचित ६/१३४,१३३-१३४ (भा.) षष्ठ भक्त ३/१०५:७/२३१ सन्निधि ३/२६८,२६८ (भा.);७/४.५ Jain Education Intemational Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४७४ भगवई सन्निवेश ३/१००,१०१,१०४:६/७७,६४,१३६,१४६ - चक्र ७/१०७-११२(भा.) संप्राप्ति ३/४ - परिभ्रमण ७/१०७-११२(भा.) संप्रेक्षा ३/३३,३६,१०२,११२:५/५८ • मण्डल ४ आमुख; ५/१२२ संबुद्ध ७/२२० -स्थ ७/२१८-२२०(भा.) संबोधि ६/३०-३२(भा.) - समापन्नक ७/९७ संभ्रम-रहित ७/२१५ संसार (जन्म-मरण) ६/२७-२९(भा.),३२ संमूर्च्छित ६/७८,६५,१४०,१५७,१५८ संसारी-जीव ७ आमुख,१ संमृष्ट ६/१३४,१३३-१३४ (भा.) संसृष्ट ६/४,१-४ (भा.) सम्मूर्छन ६/७६,६६ संस्कृत ३/३५-३६(भा.),४५(भा.),५१(भा.); ५/६३(भा.) संयत ५/८१६/२०,३६,५२,६३, ७/२८,५४,५४-५७(भा.) - रूप ३/११२(भा.) संयतासंयत ५/६१; ६/३७,५२,६३, ७/५४, ५४-५७ (भा.) - शब्दकोश ६/१७१-१७३(भा.);७/११७-१२३(भा.) संयतेन्द्रिय ५/२०१ संस्तृत ३/४,५,१९६ संयम ३/१९,२४,१०५,१४९,१५०,१५१,१५३,१५४-१६३(भा.), २२२- संस्थान ३/१६४-१७१(भा.); ६/७३,११५;७/३,११९ २३०(भा.); ५/८५-८६(भा.),६२,११२,११३,२०१,२०७:७/१,२,२५,५४. - गत ६/१५९ ५६,९७.१०७-११२(भा.),११३-११६(भा.),१५६ संस्थित ६/६०७/२ - धर्म ७/११३,११६ संस्वित्र ६/७८,६५,१४०,१५७,१५८ - भार ७/२५ संस्वेदन ६/७६,६६,१७१-१७३(भा.) .- यात्रा ७/२५ संहत ५ आमुख - यात्रामात्रावृत्तिक ७/२५,२५ (भा.) संहति (Mass) ६/७०-११८(भा.) संयमासंयम ७/११३-११६(भा.) संहनन ६/१३३,१३४; ७/११८ संयमी ७/१०७-११२(भा.) संहरण ७/२ -दान ७/८,९,८-९(भा.) संहृत ७/२५(भा.) संरक्षण ३/४ स-अर्ध ५/१६०-१६२,१६४,१६०-१६४ (भा.),२०१-२०३,२०५, संयोजना ७/२२, २३, २५ २०६,२०१-२०७ (भा.) संयोजनाधिकरणक्रिया ३/१३६ स-इंगाल (स-अंगार) ७/२२,२२-२३ (भा.) संरम्भ ३/१४५,१४३-१४८ (भा.) स-द्रव्य ५/१११ संलेखना ३/१७,२१,३६,३८,४३,१०७:७/२९-३५(भा.) स-धूम ७/२२ -आराधना ३/१०४ स-प्रदेश ५/१६०-१६२,१६४,२०१-२०२,२०५,२०६,२०१संवत्सर ५/१८,६/१३२ २०७(भा.); ६/१,५४,५५,५७,५८,६०,६३,५४-६३(भा.),६८ संवर ३/१३४-१३९(भा.);७/२७,२८,१०७-११२(भा.) स-मध्य ५/१६०-१६२,१६४,२०१,२०२,२०३,२०१-२०७ (भा.) - सहचारी ७/१००-११२(भा.) सकषाय ३/१९०६/६३:७/२०,२१ संवर्त (संवट्ट) ७/१८८.१८८ (भा.) सकषायी ६/६३ संवर्तकवात २/२५३,२५३ (भा.) सक्रिय ३/१३४-१३९(भा.) संवाद ७/२२० - ता ३/१३४-१३९(भा.),१४३-१४८(भा.) संवादात्मक ७/११७-१२३(भा.) सघन द्रव्य ५/५१ संवृत ३/१०५,१४८: ७/४,५,२०,२१,२८,१२५,१२६,१२५-१२६ सचित्त ५/१२४-१२७(भा.),१८३,१८५,१८७,१८६; ६/१८; ७/१२८, (भा.) १३३,१५६ संवेग ७/१५०-१५४(भा.) __- आहार ६/१८ संवेगात्मक ७/१६१ सजीव ७/१२७-१४५(भा.) संवेदन ५/६४,६/५-१४,३३,३४,६४-६८(भा.),१७१-१७३(भा.), १८३-१८५ | सतह ६ आमुख (भा.); ७/१२७-१४५(भा.),१५०-१५४(भा.),१६०-१६१ सत् ५/२५४-२५७(भा.) संवेदना-तंत्र ७/१५०-१५४(भा.) सत्यभाषा ७/२८ संशय ३ आमुख सत्यभाषी ७/२८ संसार ६/३५-५१(भा.) सत्त्व ३/१४५,१४८:५/११६,११८,१३४,१३५, ६/५-१४ (भा.), Jain Education Intenational Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४७५ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ८८,१०५,११६,१८३,१८४; ७/२७,२८,६६,११४,११६ सदा प्रतिक्षण ३/१४३-१४८(भा.); ६/२०,२२,२०-२३ (भा.) सदा-समित ३/१४३-१४८(भा.) सद्भूत ५/२५५,२५४-२५७ (भा.) सद्-द्रव्य ५/१११ सन (सण) ६/१२९-१३१ (भा.) सपक्ष (सप्रतिदिश) ३/३८,३८ (भा.) सपर्यवसित ६/२७-२६,३०-३२ सप्त प्रदेशी ५/१६३ सप्तविधबन्धक ५/६८-७(भा.),७५, ६/१६२ सप्रकम्प ५/१७०-१७७(भा.) सप्रतिक्रमण ५/२५६ सप्रतिदिक् ३/३८ सब ओर से ५/१०९ सब काल ५/१०९ सब भावो ५/१०९ सभा ५/१८९,१८२-१९०(भा.) समचतुरस्र संस्थान ६/६० समतल (प्रायः)६/१३५ समन्वय ३/१३४-१३९(भा.) समनस्क ३/१७: ६/३९,६४-६८(भा.); ७/१२७-१४५(भा.),१५१, १५०-१५४ (भा.) - तिर्यञ्च ३/१६४-१७१(भा.) - मनुष्य ३/१६४-१७१(भा.) - पञ्चेन्द्रिय ७/१५०-१५४(भा.) समप्रदेशिक ५/१६०-१६४(भा.) समभाव (अधिकतम)६/१५,१६ सममिति ६/७२ समय ३/१७,११९-१२६(भा.),१४८.१४९,१५०,१८३-१८५(भा.):५/१, ३-६,१३-१६,२३,२५,२६,५७,६१,६४,८३-८८,११०,१११,१६६-१८० (भा.),२०३,२१३-२१५,२१७,२१६,२२०,२२२-२२४(भा.),२२८-२३३ (भा.),२४८,२४६,२५१,२५२,२५८; ६/२७-२६(भा.),३८,५४-६३(भा.), १३२,१३३,१३४ - की रूक्षता ७/११७ (भा.) - क्षेत्र ५/२४०,२४८-२५३ (भा.); ६/१३७-१५०(भा.),१६० समयातीत क्षेत्र ५/२४८-२५३ (भा.) समर्पण सूत्र ४ आमुख समवसरण ७/९७,९९,१०१,११८-१२० समवसृत ३/३,११६,१२९, ७/२१४,२२२ समवहत ३/४,५,३८,११२,१५४-१५६,१९६: ६/१२२-१२७(भा.), १३७-१५०(भा.),१६८,१६६ समवहतासमवहत ६/१६८,१६६ समागम ६/१३२,१३४,१३३-१३४ (भा.) समाधान ५/२५४-२५७(भा.); ७/२१८-२२०(भा.) समाधि ३/४; ५/१०७; ६ आमुख; ७/८,२०३ की साधना ३/१३४-१३९(भा.) - पूर्ण ३/१७,२१ - मरण ३/१३४-१३९(भा.): ७/२९-३५(भा.) समारम्भ ३/१४५,१४३-१४८ (भा.); ५/१५०-१५३,१५६,१८३,१८५, १८७७/६,७,६-७(भा.) २२७,२२८ समित ७/४,५ समिति ६/१३२,१३४:१३३-१३४ (भा.) ७/२९-३५(भा.) समीकरण काल ५/२०८-२२४(भा.) समीक्षा ३/१७ समुदय ६/१३२,१३४,१३३-१३४ (भा.) समुदाय ५/२३५,२३६ - रचना ५/५७,५८ समुद्र ६ आमुख, ७२,७५,१५६-१६० समुद्री घास ६ आमुख समुद्घात ३/४; ६/१६८,१६६७ आमुख __ - गत ६/३५-५१(भा.) समुल्लाप ७/२१३,२१८ सम्मूर्छन ३/१७ सम्मूर्छिम ७/३६-४२(भा.),९९ • मनुष्य ५/६२,२२२; ७/३६-४२(भा.) ___- पञ्चेन्द्रिय ५/२०८-२२४ (भा.): ७/१५०-१५४(भा.) सम्यक् ३/११.१३४-१३९(भा.) - दर्शन ३/३५,३६,२३१-२३९(भा.);७/२७,२८ - दृष्टि ३/७२,७३,२२२-२३०,२३१,२३४,२३७ः ५/१२८-१३२,१६१-१६६;६/१-४,२०,३८,५२,६३,१६८ -प्रकार ३/५०,५१:६/४ - प्रज्ञापना ३ आमुख - प्रणाश ६ आमुख - प्रत्याख्यान ७/२७, २८ - मिथ्यादृष्टि ६/३८, ५२,६३ - विनयपूर्वक ५/२०७ - श्रद्धा ५/१६१ सम्यक्तव ७/९७,११९ -क्रिया ७/९७ - दलिक ५/१११ सयोग ६/५४-६३, ७/१ सयोगी ६/३५-५१,५२,६२ - केवली ३/१४३-१४८:७/२०,२१ सर ५/१८९,१८२-१९०(भा.) सरण ५/१८९,१८२-१९०(भा.) सरपंक्ति ५/१८९,१८२-१९०(भा.) सरसरपंक्ति ५/१८९,१८२-१९०(भा.) सराग ६/३५-५१:७/२०-२१ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४७६ भगवई -संयम ७/११३-११६(भा.) सर्चलाईट ६ आमुख सर्व ५/१६५-१६४ - अदत्तादान विरमण ७/३१ - उत्तर गुण ७/२९-३५ - उत्तरगुण प्रत्याख्यान ७/३३,३४ - उत्तरगुणप्रत्याख्यानी ७/५२,५३,४३-५३ (भा.) - काल ३/१४९,१५०; ५/२१२,२२७,२३१ - ज्ञ ५/२५५ -ज्ञता ५/२५४-२५७(भा.) - दर्शी ५/२५ - दूर-मूल ५/६५-६७(भा.) - परिग्रह विरमण ७/३९ - प्राणातिपात ७/२०३ - प्राणातिपात विरमण ७/३१ - पौषध ७/२९-३५ - मूल ५/६५-६७ - मूलगुण प्रत्याख्यान ७/३०,३१ - मूलगुणप्रत्याख्यानी ७/४३,४४,४६,४७,४९,५१,४३५३(भा.) - मृषावाद विरमण ७/३१ - मैथुन विरमण ७/३१ - विरत ६/६४-६८;७/३६-४२ - व्यापी ७आमुख,१०-१५(भा.) - स्तोक ६/५२ सर्षप ६/१३१,१२९-१३१(भा.) सलेश्य ६/५४-६३(भा.) सविनय ३/१३ सविभाग ६/५४-६३(भा.) सवेद ६/३५-५१,५४-६३(भा.) - क ६/५२-६३(भा.) सशरीर ५/४८,५०, ४६-५० (भा.); ६/६३ सह (मनुष्य की एक जाति) ६/१३५ सह-चरित ३/१४३-१४८(भा.) सहचारी भाव ६/१५१ सहेतुक ५/१६१-१६४(भा.) सांख्य दर्शन ५ आमुख; ६/१८३-१८५(भा.);७ आमुख,१०-१५(भा.), १६-१९(भा.),५८-६०(भा.),२१८-२२०(भा.) सांप्रदायिक दृष्टिकोण ३ आमुख साकार ६/३५-५१(भा.).५४-६३(भा.); ७/३४ - उपयोग ६/४०,६३ सागर ३/१२७,१२८:६/३३,३४ सागरोपम ३/५२,७४,१३०: ५/१८; ६/३४,११७,१३३,१३४ साठ भक्त ३/१७.१०७ सात ७/१०३,१०७-११२(भा.) -असात ३/९२ (भा.) - वेदनीय कर्म ३/१४३-१४८(भा.); ६/१३,६४-६८(भा.); ७/३६-४२(भा.),१०७-११४(भा.) सादि ६/२७-२६,३०-३२ - अपर्यवसित ६/२७,२८,३०-३२ - सपर्यवसित ६/२७-३२(भा.) - त्व ६ आमुख,२०,२७-२९(भा.),३०-३२(भा.) साधकतम ६/५-१४ साधन ५/१६१-१६६(भा.); ६/५-१४(भा.) साधना ३/१७,१३४-१३९:७/४,५,२२,२३,२९-३५(भा.) साधारण शरीर ६/३५-५१(भा.); ७/६६ साधारण शरीरी ५/१५४-१५७(भा.) साधु ३/७३, ६/६४-६८(भा.);७/२५ साध्य की सिद्धि ५/१६१-१९६(भा.) साध्वी ३/७३ सान्त ६/२७-२६ सापेक्ष ५/१५०-१५३(भा.),२५४-२५७(भा.) - दुःखवादी ६/१८३-१८५(भा.) - दृष्टि ५/२५४-२५७ (भा.): ७/२७.२८ सामंतवादी ७/१७३ सामाचारी ३/३० सामायिक ५/२५४-२५७(भा.); ७/४,५,३५ -चारित्र ३/१४९,१५० सामुदानिक ३/३३,१०२:७/२५,२५ (भा.) साम्परायिक आश्रव ६/२०-२३(भा.) साम्परायिकी ७/२०,२१ - कर्म ७/२०,२१ - क्रिया ३/१४३-१४८: ७/४,५,४-५ (भा.)२०,२१,२०२१(भा.),१२५,१२६,१२५-१२६ (भा.) सार (रत्न) ३/३३ (भा.) सार पुद्गल ३/४ सारम्भ ५/१८२-१६०(भा.) सारिणी ५/१८९,१८२-१९० (भा.) सार्वकालिक ७/११३-११६(भा.) सार्वदेशिक ७/११३-११६(भा.) सार्थवाह ३/३४; ५/१३६-१४६(भा.); ७/१९६ सार्वभौम ३ आमुख, ७/११३-११६(भा.) सावध ६/६४-६८;७/८,९,२२,२३,२४,२९-३५(भा.),५४-५७(भा.), १९३,२०३ - प्रवृत्ति ७/५४-५७(भा.) सावयव ५ आमुख; ६/५४-६३(भा.) सावेदक ६/५२,६३ सिंधु नदी ७/११७,११६,१२० Jain Education Intemational Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई सिंह (राशि) ७/६२ सिंहनाद ३ / ११२ सिग्नसएक्स ६७०-११८ (भा.) सिद्ध ३/३०,५०,५३,७५, १३०:५/८०-८१,८४,८८, ११, १४७, २११, २२३, २२४,२२६,२३२, २३३, २५७, ६/३२, ३६, ५६, ६२, ६३, १३३-१३४ (भा.) १७४- १८२ (भा.); ७/३, ८, १०-१५, १२७-१४५ (भा.), १५६, २०३, २१० - पुरुष ६/१३४ गति ६/३०-३२; ७/२०३ सिद्धान्त ३ आमुख, ८४, २२२-२३० (भा.), २५०-२७७(भा.); ५ आमुख, ५१-५४(भा.),५७,५८,७२-७५ (भा.), २५४-२५७ (भा.); ६ आमुख, ३०-३२ (भा.), १३३, १३४,१७१-१७३ (भा.): ७ आमुख, १, १६-१९ (भा.), २०, २१, ५८-६० (भा.), १६०, २१२-२१५ (भा.), २१८-२२० (भा.) सिद्धि ३/३८ ६/५-१४ (भा.) सिय ५/१५०-१५३ (भा.) सींग ५/५३,६४ सीमारक्षक ३/४ सीसा ५/५२ सीसाकर (सीसागर) — देखें सीसे की खान सीसे की खान ३ / २६८ सु-आचरित ३/३३ सुख ६/५-१४ (भा.), १७१-१७३(भा.), १८४, १८५, १८८, ७/३६-४२ (भा.), ११३-११६ (भा.), १६० - उपदर्शन ६/१७१-१७३ (भा.) - की परिभाषा ७ / १६० - द ७/१६२ मय ६/१८४ रूप ७/२२६ सुखात्मक ७/११३-११६ (भा.) सुखासन की मुद्रा ३/३३ सुगन्ध ६ / १६३-१६७(भा.) सुगति ६१-४ सुपराक्रान्त ३/३३ सुप्तवज्रासन ३/२०७ सुप्रतिष्ठक ७/३ सुप्रत्याख्यात ७/२७, २८, २७-२८ (भा.) सुप्रत्याख्यानी ७/२८ सुभाए ३/७३ सुरक्षाकवच ७/१७६ (भा.) सुरसुर ७/२५ सुरा ५/५१ सुलभबोधिक ३७२७२ (भा. ७३ ४७७ सुवचन ३/३० सुवर्णाकर (सुवण्णागर) – देखें सोने की खान सुवृष्टि ३ / २६३, २६३ (भा.) सुषमा ६/ १३४ सुषम- सुषमा ६ / १३४, १३५, १३५ (भा.) सुषम- दुःषमा ६/१३४ सूक्ष्म ५/११२, ११३, १५४-१५६, १६६-१७४, १७८, ६/ २०, ५०, ५२ - अणु ६/७०-११८ (भा.) - क्रिया ३/१३४-१३९ (भा.), १४३-१४८ (भा.) छायांकन (Photography) ६/१७१ १७३ (भा.) • जीव ३ आमुख तम ६ / १३३, १३४ तर ६/२०,५०,५२ त्व ५/२०१-२०७ (भा.) - ता ५ आमुख, २५४-२५६ (भा.) - परमाणु ५/१५४-१५९ (भा.); ६ / १३३, १३४ पृथ्वीका ६ / १३७ - १५० (भा.) संपराय ६ / १६२ - - (सार) पुद्गल ३/४ सूचना-पद्धति ३/३८ सूची अंगुल ६/१३३-१३४(भा.) सूत्र ३/१५, २२, २३, ३४, ३७, ३८, १४३-१४८ (भा.), १५४-१६३ (भा.); ४ आमुख: ५/६२, ४-६ ( भा.), १०७, १४८६ आमुख, १-४ ( भा.), ५-१४(भा.), २०-२३(भा.), ५२,६३,१२०-१२८(भा.), १३२,१५०, १६२, १८३-१८५ (भा.); ७/१,४,५, २०, २१, २७, २८,९७,९९, १२६ अंश ३/४ आगम ५/६७ आत्मक ७ /११७-१२३ - कार ७/४,५,१०-१५ (भा.), २०, २१,६४,६५, ११३ ११६ (भा.) दान ५/१४७ पाठ ३/४, ७/१ सृष्टि ५ आमुख - रचना ५ आमुख • विकास ६ / १३३-१३४ (भा.) सेना ३/११२: ७/१७३ - पति ३/३४: ७/१९६ पत्य ३ / ४, ४ (भा.) सी- देखें गति पारिभाषिक शब्दानुक्रम सोने की खान ३ / २६८ सोपक्रम आयुष्य (क) ५/१८-६१ सोपचय सापचय ५/२२५ सौगन्धिक ३/४, ४ (भा.) स्कन्ध ३/१४०-१४२: ५/५१-५४,६४, ११२, ११३, १५०-१५३, १५६, १५६,१५४-१५६ (भा.), १६३, १६०-१६४ (भा.), १६५-१६८, १६६-१७४ (भा.), १७५-१८० (भा.), १८१, २०१ २०७ (भा.) स्तूप ५ / १८९, १८२-१९० (भा.) स्तोक ६/१३२,१३३,१३४ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४७८ भगवई स्त्री ६/२०,३५,३६ १५३,१५०-१५३ (भा.) - वेदक ६/५२,६३ स्पर्श ३/१४३-१४८: ४/८:५/५१-५४,६४,१०७,१०६,१३५,१५०,१५३; - वेदी ६/५४-६३ ६आमुख, १३३,१३४,१६०,१६७७/५८-६०(भा.),६७-७३(भा.),१३६, स्थान ४/८:७/४,५ १३७,१५०-१५४(भा.),२०३ स्थान (वैशाख नाम युद्ध की मुद्रा) ५/१३४ स्पर्शनेन्द्रिय ३/१९१:५/६४,७/१३७,१४२ स्थान (आलोच्य स्थान) ५/१३६,१४२,१४३,१४५ -विषय ३/२७९ स्थापना ७/२५ स्पृष्ट ३/४,५,१७.१४८.१९६:५/४८,६४,१३४,१३५,७/१६,१७,१९, स्थापित ५/१४०, १३६-१४६ (भा.) ६४,६५ स्थालीपाक शुद्ध७/२२४,२२६ -अवस्था ३/१४३-१४८(भा.) स्थावर ५/५८-६१; ७/१,२८,१५० स्मृत ७/१७३,१८२ स्थिति ३/५२.१४९,१५०: ४/५: ५/२४८-२५३(भा.); ६/३३,३४, स्मृति ३/१७,३८,४० ५४-६३(भा.),११७, १५१;७/६८,७०,७३,१५०-१५४(भा.),२०७ स्मृत्यात्मक ३/३३,३६,१०२,१०४,१०९,११२,११५.११६,१३१ - काल ३/१४३-१४८ (भा.) स्पन्दन ३/१४३-१४८ (भा.) -क्षय ३/५२,५३,७५:७/२०८ स्पृहा ३/११४ - नाम कर्म ६/१५१ स्यन्दमानिका (संदमाणिया) ३/१६४,१६४-१७१(भा.) - नाम का निषिक्त ६/१५२ स्यात् ५/४६,५०,१५०-१५३,२०५, ६/३५,५१-५४(भा.) ६३,१७५,१७६, - नामनिधत्त आयुष्य ५/६२ १७८,१७६,१८१; ७/१,२८,५८-६०,६७,६९,७२,९३-९५,१०३- नाम निषिक्तायुष्य ६/१५१ १०५ - प्रकल्प (विशेष संकल्प) ३/३८,३८ (भा.), ४० स्याद्वाद ५/१५०-१५३(भा.) - बन्ध ६/३३, ३४,१५१ स्वत:चालित (रथ व शस्त्र)७ आमुख,१८८ (भा.) - भोजन ७/२९-३५(भा.) स्वत:प्रामाण्य ४ आमुख - लक्षण ५/२५४-२५७(भा.) स्वत:सिद्ध ५/२५४-२५७(भा.) स्थूल ५/११२,११३; ६/२०-२३(भा.) स्वद्रव्य ५/१११ - अदत्तादान विरमण ७/३२ स्वभाव ६ आमुख, २०,२४-२६,३३,३४ - (असार) पुद्गल ३/४ स्वयंबद्ध ५/६६ - कर्म पुद्गल ६/४,१-४ (भा.) - की उपासिका ५/९६ - क्रिया ३/१३४-१३९(भा.).१४३-१४८(भा.) - की श्राविका ५/९६ - परिग्रह ७/२०३ - के उपासक ५/९६ - परिग्रह विरमण ७/३२ - के श्रावक ५/९६ - परिणति ५/१५४-१५९ (भा.) स्वर-यन्त्र ३/१७, ५/८३-८८(भा.) - पुद्गल ६/४ स्वरूप ५/१२,११३ - प्राणातिपात ७/२०३ स्वविषय ५/१४७,१४७ (भा.) - प्राणातिपात विरमण ७/३२ रवशरीर क्षेत्र ६/१८६ - मृषावाद विरमण ७/३२ स्वस्तिकासन ३/२०५ - मैथुन विरमण ७/३२ स्वहस्रपारितापनिकी ३/१३८ . - शरीर ७/२ स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया ३/१३९ स्नायु-देखें छहारु स्वाभाविक ३/१०९; ५/५१-५४,७८,२०१-२०७; ६/३०-३२; . स्निग्ध ५/१५०-१५३,६/१३३,१३४,१६३-१६७(भा.) ७/५८-६० - काल ६/१३३,१३४ - परिणमन ५/१९१-१९८ (भा.) - ता ६/१३३,१३४ स्वामित्व ३/४,४ (भा.) - रूक्ष ६/१३३,१३४ स्वोपज्ञ आगम ५/६८-६६ - स्पर्श ७/१७१ स्नेहयुक्त वायु ५/३१-४५(भा.) हंसगर्भ ३/४,४ (भा.) स्पन्दन ३/१४३-१४८.१४३-१४८ (भा.).१५४-१६३ (भा.); ५/१५०- | हठयोग ३/१०५ Jain Education Intemational Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई हरित ७/११७, ११७ (भा.) हस्तक ३/१४३-१४८ हस्तकृत्य ३ / १९७ हस्त-कृत्यागत ३ / १९७-२०० हस्त-कृत्या ३ /१९७ हस्त कौशल ३ / १९७ हस्त-प्रहेलित ६/१३३-१३४ (भा.) हस्त- लाघव ३ / १९७ हस्ते कृत्वा ३ / १९७ हाइड्रोजन ६०७०-११८ (भा.) हाथ ३ / ४,३५,३६ हानि ५/२००-२२४ (ना.) तथा देखें वृद्धि हानि हास्य ५/६८-७१ हाहा ६/१३३, १३४ हाहांग ६/१३३, १३४ हिंसा ३/१३४- १३९ (भा.), १४३.१४८ (भा.): ५/१२४-१२७ (भा.), १८२-१६० (भा.); ७/६ हित ३/७३ • कामए ३/७३,७३ (भा.) ४७९ हिलाए २/७३ हिरण्याकर (हिरण्णागर देखें चांदी की खान) हिलियम ६७०-१८८(भा.) हीनपुण्य चतुर्दशी का जन्मा हुआ ३/१०९, १०९ (भा.) हूहू ६/१३३,१३४ हूहांग ६/१३३,१३४ हूहूक ५/१८, ६/१३२,१३३,१३४ हूहूकांग ५/१८, ६/१३२, १३३,१३४ पारिभाषिक शब्दानुक्रम हृष्ट ६/१३२, १३२ (भा.) हेतु ३ आमुख, ३०, १४२: ५/१०४-१०६, १६१-१६४, १६१-१६८ (भा.) • अहेतु ५/१९१-१९८ (भा.) गम्य ३ आमुख - भूत ३/१३४-१३९ (भा.) लभ्य ५/१६१- १६८ (भा.) वाद ३ आमुख हेतूपदेश ७ / १६१ हेतुपदेशिकी ७/१६१ हेमन्त ऋतु ५/१६७/६२ (मा.) होरंभ ५ / ६४,६४ (भा.) Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ आधारभूत ग्रन्थसूची ग्रन्थ का नाम संस्करण लेखक / सम्पादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि प्रकाशक भाष्य में प्रयुक्त स्थल सन् १६७४ ३/१०५; ५/७६, ७७,७८-८२ १. अंतगडदसाओ अंगसुत्ताणि भाग-३ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) सन् १६६६ वा. प्र. गणाधिपति तुलसी सं. आचार्य महाप्रज्ञ २. अणओगदाराई मूल पाठ संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा तुलनात्क टिप्पण जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं (राजस्थान) ३/४; १/६४-६६, १५४-१५६; ६/१३२७/१५८,१५६ ३. अनुकम्पा की चौपाई भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर, प्रथम खण्ड रचयिता--आचार्य भिक्षु सं. आचार्य तुलसी प्रथमावृत्ति सन् १९६० जैन श्वेताम्बर तेरापंथ महासभा, ३/६४ कलकत्ता ४. अनुयोग द्वार चूर्णि कर्ता--जिनदास महत्तर सन् १६२८ ३/१६४-१७१; ६/१३२ श्री ऋषभ देवजी केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था रतलाम (मालवा) ५. अनुयोगद्वारवृत्ति कर्ता-मलधारी हेमचन्द्र सूरि सन् १६३६ केशरदेवी ज्ञान मन्दिर (पाटन) ३/१६४-१७१; ५/१५४-१५६, ६/१३३, १३४ ६. अनुयोगद्वारवृत्ति कर्ता-हरिभद्र देखें अनुयोगद्वार चूर्णि ३/१६४-१७१ ७. अन्ययोगव्यवच्छेदिका कर्ता-हेमचन्द्राचार्य सन् १६७E ६/३०-३२ श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास कर्ता-आचार्य हेमचन्द्र वि. सं. २०२० चोखम्बा विद्याभवन (वाराणसी) ८. अभिधान चिन्तामणि (नाममाला) ३/३३,११४,११६-१२६,१६०; ५/६४,७/११६ ६. अयोगव्यवच्छेदिका कर्ता-हेमचन्द्राचार्य सन् १९७६ ३/१०५, श्री परम श्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास १०. आचारांगवृत्ति कर्ता-श्री शीलांकाचार्य सन् १६३५ श्रीसिद्ध चक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई ११. आप्तमीमांसा ५/१५०-१५३ सन् १६७४ १२.आयार चूला अंगसुत्ताणि भाग-१ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) ५/७६, ७७, १३-१४६, २५४-२५७; ७/२५, ६२ Jain Education Intemational Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ४८२ भगवई ग्रन्थ का नाम संस्करण भाष्य में प्रयुक्त स्थल लेखक/सम्पादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. विवेचक मुनि नथमल १३.आयारो (मूलपाठ, अनुवाद तथा टिप्पण) वि. सं. २०३१ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) ३/१०५, २२२-२३०, ७/२६-३५ १४. आवश्यक चूर्णि कर्ता-श्री जिनदासगणि सन् १ERE ७/२E-३५ श्री ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) १५. आवश्यक नियुक्ति कर्ता--भद्रबाहु ७/२६-३५ वि. सं. २०३८ श्री भेरुलाल कनैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, आर. आर. ठक्कर मार्ग, बम्बई। १६. ईशावास्योपनिषद् ३ आमुख १७. उत्तरज्झयणाणि (मूलपाठ, संस्कृत छाया) हिन्दी अनुवाद तथा तुलनात्मक टिप्पण वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. विवेचक युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वितीय संस्करण जैन विश्व भारती संस्थान सन् १६६२ लाडनूं (राजस्थान) ३/१४३-१४५, १८३-१८५, १६०, २११; ५/५६-६१, ६८-७१,२४८-२५३, २५४-२५७; ६/३०-३२, ५४-६३.१२०-१२८७/१०-१५, २२,२३,२६-३५,६६ १८. उत्तराध्ययन नियुक्ति कर्ता--भद्रबादु सन् १८१७ ५/१६१-१९८ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई सन् १६७४ ७/२६-३५ १६. उवासगदसाओ (अंगसुत्ताणि, भाग ३) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल जैन विश्वभारती, लाडनूं (राजस्थान) २०.ऐतरेयउपनिषद् ७/१५०-१५४ नियुक्तिकार-भद्रबाहु सन् १६१६ ७/२०,२१ २१. ओघनियुक्ति (भाष्य एवं द्रोणाचार्यकृत-वृत्ति सहित) आगमोदय समिति, मेहसाणा (गुजरात) सन् १९८७ ५/७६,७७, ८३;७/१०,१५,२४ २२.ओवाइयं (उवंगसुत्ताणि, भाग४, खण्ड१) वा.प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) २३. ओवाइयं वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल जैन श्वताम्बर तेरापंथी महासभा, ७/१७५ कलकत्ता २४.कयो (नवसुत्ताणि, भाग ५) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं.युवाचार्य महाप्रज्ञ सन् १९८७ ७/२४ जैन विश्व भारती, लाडनूं राजस्थान २५ कर्म प्रकृति ६/३३,३४ श्रीमद् शिवशर्मसूरि विरचित तत्त्वावधान-आचार्य श्री नानेश सं. देवकुमार जैन प्रथम संस्करण श्री गणेश स्मृति ग्रन्थमाला, सन् १९८२ बीकानेर २६.कसाय पाहुडं सन् १६४४ ४ आमुख सं. पं. फूलचंद्र, पं. महेन्द्र कुमार, पं. कैलाशचन्द्र भा. दि. जनसंघ चौरासी, मथुरा Jain Education Intemational Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४८३ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ग्रन्थ का नाम प्रकाशक भाष्य में प्रयुक्त स्थल लेखक/सम्पादक/अनुवादक/ संस्करण वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि रचयिता कौटिल्याचार्य सन् १९६० २७.कौटिल्य अर्थशास्त्र ३/४,३५, ३६ बम्बई विश्वविद्यालय, बम्बई भारतीय ज्ञानपीट प्रकाशन, बम्बई २८.गोम्मटसार ५/१००-१०२, ६/५-१४ कर्ता-श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती सन् १८७६ सं. डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये २६.घेरण्ड संहिता भाष्यकार श्रीस्वामी जी महाराज ३/१०५, २०५ वि. सं. २०२१ श्रीपीताम्बर पीठ संस्कृत परिषद् दतिया, मध्यप्रदेश ३०.चरक संहिता चतुर्दश संस्करण चौखम्भाभारती अकादमी, वाराणसी ३/२६; ५/७२,७५ ३१.चारित्तपाहुड ६/२६-३५ वि. सं. २०२१ माणिक चन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई वि. सं. २०१३ गीताप्रेस, गोरखपुर ३२.छान्दोग्यउपनिषद् भाष्यकार शङ्कराचार्य ७ आमुख ३३.छोटी चौबीसी (आराधना) रचयिता श्रीभद् जयाचार्य सन् १६८१ ५/१०३-१०६ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) ३४. जंबुद्दीवपण्णत्ती (उवंग सुत्ताणि, भाग-४, खण्ड-२) वा. प्र आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सन् १६८६ ३/८६, ८७,४ आमुख; ६/१३३, १३४, ७/१०-१५, ६२ ३५. जंबुद्दीवषण्णत्तीसंगहो सन् १६५८ ३/८६, १७ आचार्य पद्मनन्दि सं. अनु. डा० ए. एन. उपाध्ये डा० हीरालाल जैन जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर ३६. जातक, अविदूरेनिदान अनु भदन्त आनन्द कौशल्यायन सन् १९८५ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग ३/८६, १७ ३७.जीवाजीवाभिगमवृत्ति कर्ता-मलयगिरि सन् १८१६ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई ३/२५३; ५/६४, १३८; ६/१६८, १६६, १७१-१७३;७/१,६७-७३, ११८ सन् १९८७ ३८.जीवाजीवाभिगमे (उवंगसुत्ताणि, भाग-४, खण्ड-१ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान ४ आमुख; ५/५५,६/१५५-१६०, १६८, १६६७/१६७, १६९ ३६.जैन आगम वनस्पतिकोश सन् १९६६ वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रधान सं. आचार्य महाप्रज्ञ सं. मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान ६/१२६-१३१, १३५,७/१०-१५ ४०.जेन दर्शन: मनन और मीमांसा ७ आमुख ले. आचार्य महाप्रज्ञ सं. मुनि दुलहराज चतुर्थ संस्करण आदर्श साहित्य संघ, सन् १६६५ चुरु (राजस्थान) ४१. जनेन्द्र सिद्धान्तकोश सं. क्षु. जिनेन्द्रवर्णी सन् १६४४ भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ३/१६४-१७१, ५/५६-६१ ४२.ज्ञाताधर्म कथा वृत्ति कर्ता-अभयदेव सूरि सन् १६५२ ५/३१-४५ श्रीसिद्ध चक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ४८४ भगवई ग्रन्थ का नाम संस्करण प्रकाशक भाष्य में प्रयुक्त स्थल लेखक / सम्पादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि ४३. झीणी चरचा सन् १९८५ जैन विश्व भारती, लाडनूं ३/१४३-१४८, ५/५६-६१ रचयिता जयाचार्य, प्रवाचक आचार्य तुलसी प्रधान सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं. साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा वि. सं. २०३३ जैन विश्व भारती, लाडनूं ४४.ठाणं (मूलपाठ, संस्कृत वा. प्र. आचार्य तुलसी छाया, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण) सं. विवेचक मुनि नथमल ३ आमुख, ४,४६, ५६-७१,७३, ८६, ८७,६४, ११२, १३४-१३६, १४३-१४८, १५४-१६३, १७२१८२, २५३, २५८, २६३,५/६२, १२४-१२७, १३६-१४६, १५०१५३, १६०-१६४, १८२-१९०, १६१-१९८, २०६-२२४, २४-२५३, २५४-२५७; ६/५-१४, २४-२६, १५१, १६८, १६६७/ आमुख, २५, २६-३५, ६२, १५०-१५४,२१२-२१७ ४५.तत्त्वानुशासन कर्ता-आचार्य रामसेन माणिकचन्द्र दि० जैन, बम्बई ५/५१-५४ ४६.तत्त्वार्थ भाष्य कर्ता --उमास्वाति देखें तत्त्वार्थ सूत्र ३/४,३७, १४३-१४८५/११०, १११;७/१०-१५, २६-३५ वि. सं.२००६ ४७.तत्त्वार्थवार्तिक (राजवार्तिक) कर्ता-भट्ट अकलंक देव सं. पं. महेन्द्र कुमार जैन भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गा कुण्ड रोड, बनारस ४ ३/४५/६४,६८-७१, १०८, १०६, १५०-१५३, २४५-२५३; ६/१-४,२०-२३,३३,३४, १३३, १३४;७ आमुख, १, १०-१५, २०, २१, ११३-११६ ३/३७,२४७,४ आमुख; ५/११०, १११, १२८-१३२, १५०-१५३, २०१-२०७,२४८-२५३;६/१-४, २०-२३, १३३, १३४,७/१०-१५, २०, २१, १/३-११६ कर्ता-उमास्वाति ४८.तत्त्वार्थ सूत्र (सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र) वि. सं. १९८६ सेठ मणीलाल रेवाशंकर जगजीवन जौहरी, बम्बई-२ ४६.तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि कर्ता-पूज्यपाद सन् १९५५ ५०.तत्त्वार्थसूत्राधिगम-भाष्यवृत्ति टीकाकार सिद्धसेन गणि भारतीय ज्ञानपीठ, ६/१५,१६ बनारस देवचंद्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ३/४,१७,१४३-१४८, १६४-१७१, फण्ड, बम्बई २२२-२३०,२४७; ५ आमुख, ५६-६१,६२, ६४,६८-७१, १०७, १०८,१०६, १२८-१३२, १६०-१६४,६/१-४,५-१४, २४-२६, ३३, ३४७ आमुख, १,१०-१५,२०,२१,२६-३५, ११३-११६, १६२ ५१.तिलोयपण्णत्ति कर्ता-यति वृषभाचार्य वि. सं. १EE जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर ३/६४ Jain Education Intemational Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४८५ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ग्रन्थ का नाम संस्करण प्रकाशक भाष्य में प्रयुक्त स्थल लेखक/सम्पादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि सं. नेमिचंद जैन ५२.तीर्थंकर (मासिक) जनवरी १६८६ हीराभैया प्रकाशन (इंदौर) ७/१५०-१५४ ५३.तेरह द्वार रचयिता-आचार्य भिक्षु ६/२७-२६ ५४.त्रिषष्टिश्लाकापुरुषचरित्र ले. हेमचन्द्राचार्य ६/१३३, १३४ वि. सं. १६६२ श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर (काठियावाड) ५५. दशवैकालिक चूर्णि कर्ता-जिनदास महत्तर सन् १६३३ ३/१६४-१७१ ५६.दशवैकालिक वृत्ति कर्ता-हरिभद्रसूरि श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम देवचन्द्र लाल भाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड ३/३५, ३६ सन् १६७४ ५/१३६-१४६७/२५, ११३-११६ ५७.दसवेआलियं (मूलपाठ, संस्कृत वा. प्र. आचार्य तुलसी छाया, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण) सं. विवेचक मुनि नथमल जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान सन् १६८७ ५८.दसाओ (नवसुत्ताणि, भाग-५) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान ३/२६, १०५६/१५, १६; ७/१०-१५ ५६.दीघनिकाय, महावग्गट्ठकथा सं. भिक्षु जगदीश काश्यप सन् १६५६ नवनालंरा महाविहार, (नालंदा) ७/१७३ ६०.देशीशब्द कोश सन् १६८८ जैन विश्व भारती, लाडनूं ३/४५, ४८, १०५ वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रधान सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ६१.द्रव्यानुयोग तर्कणा श्रीमद्भोज कवि विरचित सन् १९७७ ५/२५४-२५७ श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास ६२.धम्मपद सन् १६२४ ६/१८३-१८५ सं. धर्मानन्द कौसम्बी, सं. रामनारायण वि पाठक गुजरात पुरातत्त्व मंदिर, अहमदाबाद ६३.ध्यान विचार ७/१४६-१४६ रचयिता-हरिभद्रसूरि सन् १६७६ ३/१५४-१६३ ६४.ध्यान शतक (ध्यान शतक तथा ध्यानस्तव) वीरसेवामन्दिर, दरियागंज, दिल्ली सन् १६८७ जैन विश्व भारती, लाडनूं ६५. नंदी (नवसुत्ताणि, भाग ५) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ४ आमुख; ५/६४, १०८, १०९, ७/१६१ ६६.नय चक्र सन् १६७१ भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ५/१५०-१५३ ले. माइल्ल धवल, सं. अनुवाद- पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री ६७.नायाधम्मकहाओ (अंगसुत्ताणि, भाग ३) वा. प्रा. आचार्य तुलसी सं. मूनि नथमल सन् १६८१ जैन विश्व भारती, लाडनूं राजस्थान ३/५६-७१,८१,५/३१-४५, १३६, १४६,७/१०-१५, १७५ सन् १९८६ ७/१७३ ६८.निरयावलियाओ (उवंगसुत्ताणि, भाग-४, खण्ड-२) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती, लाडनूं राजस्थान Jain Education Intemational Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ग्रन्थ का नाम ६६. निशीथसूत्र (भाष्य व चूर्णि सहित ) ७०. निसीहज्झयणं (नवसुतापि, भाग-५) ७१. पंचसंग्रह (दिगम्बर) ७२. पज्जोसवणा कप्पो ( नवसुत्ताणि, भाग ५) ७३. पञ्चकल्प भाष्य ७४. पण्णवणा ( उवंगसुत्ताणि, भाग ४ खण्ड २ ) ७५. पहावागरणाई अंगमुत्तागि, भाग ३ ७६. पातञ्जलयोगदर्शनम् (व्यास भाष्य सहित) ७७. पाण ७८. पाश्चात्य दर्शन का ऐतिहासिक विवेचन ७६. प्रज्ञापनावृत्ति ८०. प्रवचनसार ८१. प्रवचनसारोद्धार ८२ प्रकरणवृत्ति लेखक / सम्पादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं. कीरालाल जैन वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं. उपाध्याय कवि श्री अगरमुनि सन् १६८२ मुनि श्री कनैयालाल "कमल" वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल कर्ता - महर्षि पातञ्जलि व्याख्याकार- श्रीमत् स्वामी हरिहरानन्द आरण्य स्व० पंडित हरगोविंद दास त्रिकमचंद सेठ ले. राम नाथ शर्मा कर्ता - श्रीमन्मलयगिर्याचार्य रचयिता – कुन्दकुन्दाचार्य ४८६ रचयिता - श्रीमन्नेमिचन्द्रसूरि टीका० श्री सिद्धसेन सूरि फर्ता - अभयदेवसूरि संस्करण सन् १६८७ सन् १६८७ सन् १६८६ वि. सं. २०१७ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी जैन विश्व भारती, राजस्थान सन् १६७४ सन् १६७४ प्रकाशक सन् १६१८ सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी, आगरा सन् १६४८ जैन विश्वभारती, लाडनूं. राजस्थान सन् १६१६ लाडनूं, जैन विश्वभारती, लाडनूं राजस्थान द्वितीय संस्करण प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी सन् १९६३ जैन विश्वभारती, लाडनूं राजस्थान मोती लाल बनारसी दास, दिल्ली-पटना-वाराणसी आगमोदय समिति, मेहसाणा, गुजरात श्री जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ, सौराष्ट्र- (गुजरात) आगमोदय समिति, मेहसाणा (गुजरात) भाष्य में प्रयुक्त स्थल ३/२५३, ६/१३३, १३४ ७/२४, २५ सन् १६८३-८४ केदारनाथ रामनाथ कालेज रोड, ५०११०, १११ मेरठ ६/३३, ३४, ५१ ५/७६ ७७ ७/६२ ४ आमुख ३/१५, २२, ६२, १६४ १७१, २२२-२३० ४ आमुख, ७, ८, ५/६२, ६४, ७६, ७७, १००-१०२, १०७, ११२, ११३, २०८-२२४, २३७-२४८; ६/५४-६३, १५१, १७१-१७३ ७/१, ८, ६, ६६, ६७-७३ भगवई ३/२६ ७/१०-१५, २५ ३/४ ५ आमुख, ५७ ५८, ११२, ११३; ६ आमुख, ३०-३२; १८३-१८५ ७/२०, २१ ७८१०-१५ प्रथम संस्करण देवचन्द्र लाल भाई जैन पुस्तकोद्धार ६ / १३७ - १५० बम्बई फण्ड, ३/१३४-१३६; ५/६४, १००-१०२, १६० १६४; ७/१ ५/५१-५४; ७/२६-३५, १६१ ३/२६ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४८७ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ग्रन्थ का नाम संस्करण प्रकाशक लेखक/सम्पादक/ अनुवादक वाचनाप्रमुख /प्रवाचक आदि भाष्य में प्रयुक्त स्थल ८३.प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध ३/६५ . रचयिता-जयाचार्य प्रवाचक-आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रथम संस्करण सन् १९८८ जैन विश्व भारती, लाडनूं राजस्थान ५/१८२-१९० ८४.प्राकृतव्याकरण (तुलसी मंजरी) कर्ता-हेमचन्द्र (व्याख्याकार-आचार्य महाप्रज्ञ) सन् १६९० जैन विश्व भारती, लाडनूं ८५.बुद्धचर्या-महपरिनिव्वाणसुत्त ले. राहुल सांकृत्यायन सन् १६५२ ७/१७३ महाबोधिसभा (सारनाथ), बनारस कर्ता-स्थविर आर्यभद्रबाहु ८६.बृहत्कल्पसूत्रम् (स्वोपज्ञनियुक्ति, संघदासगणि संकलित भाष्य आदि सहित) जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर गुजरात ४ आमुख; ७/२४ ८७.बृहत् हिन्दी कोश ५/६४ सं. कालिकाप्रसाद रामबल्लभसहाय, सन् १९E२ मुकुन्दी लाल श्रीवास्तव ज्ञान मण्डल लि०, विक्रम भवन, लंका, वाराणसी ५८.भगवती आराधना रचयिता-आचार्य श्री शिवार्य सन् १९३५ ७/२६-३५ सखाराम दोशी, सोलापुर महाराष्ट्र हस्तलिखित ८६.भगवती चूर्णि कर्ता-जिनदास महत्तर ३/१४६, १५० ६० भगवती जोड़ (खण्ड १-७) कर्ता-जयाचार्य प्रवाचक आचार्य तुलसी प्रधान सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं. साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा प्रथम संस्करण जैन विश्व भारती, लाडनूं सन् १९८१ से राजस्थान १६६७ ३/२२,७३, ९०,६५,१०६,११२, १४३-१४८,१४६,१५०, १६४-१७१, २२२-२३०, २५३; ५/५६-६१,६६,१४७; ६/६४-६८, १३७-१५०,७/१,२,५,२०,२१, २७,२८,११६ कर्ता-अभयदेवसूरि सन् १६१६ आगमोदय समिति, बम्बई ६१.भगवती वृत्ति (प्रस्तुत खण्ड का पांचवा परिशिष्ट) अनेक स्थल ले. प्रोफेसर हरिमोहन झा पुस्तक भण्डार, लहेटियासराय ५/५१-५४ ६२.भारतीय दर्शन परिचय (द्वितीय खण्ड वैशेषिक दर्शन) ६३.भारतीय संगीत में वाध वृन्द ले. डा० कविता चक्रवर्ती सन् १६८० राजस्थानी ग्रन्थागार, सोजती गेट ५/६४ के बाहर, जोधपुर (राज.) ६४. महापुराण भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ७/२६-३५ ६५.महाभारत गीताप्रेस, गोरखपुर ३/१५४-१६३ ६६.मूलाचार रचयिता-श्रीमद् वट्टकेराचार्य सन् १९८४ भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ७/२६-३५ वृत्तिकार-अपराजितसूरि सोलापुर (महाराष्ट्र) ६७.मूलाराधना विजयोदया वृत्ति ३/२०७५/१६१-१६८ Jain Education Intemational Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ४८८ भगवई ग्रन्थ का नाम संस्करण प्रकाशक लेखक / सम्पादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि भाष्य में प्रयुक्त स्थल ६८.योगदीपिका ले. वी. के. एस. आयंगर सन् १६८८ ओरियन्ट लाँग्मैन, हैदराबाद ३/२०७ ६६. योगवाशिष्ठ ३/१५४-१६३ १००. रत्नकरण्ड श्रावकाचार कर्ता-स्वामी समन्तभद्र ७/२६-३५ १०१. राजप्रश्नीय वृत्ति कर्ता-मलयगिरि वि. सं. १६८२ माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई वि. सं. १६६४ शंभुलाल जगशीशाह, गुर्जर ग्रन्थ- रत्न कार्यालय, अहमदाबाद सन् १९८७ जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान ३/२६, ७३; ५/६४ ३/२७,७८, ११२,५/७६,७७ १०२. रायपसेणइयं (उवंगसुत्ताणि भाग ४, खण्ड १) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ १०३. लीलावती भास्कराचार्य विरचित ३/३५,२६ सन् १६३७ __ आनन्दाश्रम मुद्रणालय, पुणे (महाराष्ट्र) वि. सं. १६६० श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, अहमदाबाद रचयिता-विनय विजय गणि ६/१३२ १०४. लोकप्रकाश (तीन खण्ड) सन् १९८७ १०५. ववहारो (नवसत्ताणि, भाग ५) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ३/१४६, १५०,५/१४७ जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान १०६. वसुनन्दि श्रावकाचार ७/२६-३५ आचार्य वसुनन्दि, सं. पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री वि. सं. २००६ भारतीय ज्ञान पीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-४ सन् १६७४ ३/३० १०७. विवाग सुयं (अंगसुत्ताणि, भाग ३) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान १०८. विशेषावश्यक भाष्य ५/५६-६१ कर्ता-श्री जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण वि. सं. २४८६ दिव्य दर्शन कार्यालय, कालुशा नी पोल, कालुपुर रोड, अहमदाबाद १०६. विश्वप्रहेलिका ले. मुनि महेन्द्र कुमार सन् १६६९ ६/१३३, १३४ जवेरी प्रकाशन, माटुंगा, बम्बई, (प्राप्तिस्थान-जैन विश्व भारती, लाडनूं) ११०. वैशेषिक सूत्र ५ आमुख, १६१-१९८ सं. मुनि माणेक सन् १६२८ वकील त्रिकमलाल अगरचन्द्र ५/१३६-१४६ १११. व्यवहार सूत्र (भाष्य एवं मलयगिरि विरचित वृत्ति-सहित) ११२. शाईधर संहिता शार्ङ्गधराचार्य विरचित सन् १६८४ श्री बैद्यनाथ आयुर्वेद भवन लिमिटेड ७/६२, ११६ ११३. शालिग्रामं निघण्टुभूषणम् शालिग्राम वैश्वकर्म विरचित प्रथम संस्करण सन् १९८१ खेमराज श्री कृष्णदास, बम्बई ६/१२६-१३१ सन् १६४२ ११४. षटखण्डागम धवला टीका-सहित कर्ता-पुष्पदन्त भूतबलि, वीरसेनाचार्य कृत धवला टीका सहित, सं० हीरालाल जैन सेठ शीतलराय लक्ष्मीचन्द्र अमरावती (महाराष्ट्र) ३/१४०-१४२, १६४-१७१; ५/१००-१०२, १०३-१०६, १०८, १०६, १६६-१७१ Jain Education Intemational Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४८९ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ग्रन्थ का नाम संस्करण प्रकाशक भाष्य में प्रयुक्त स्थल लेखक/सम्पादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख /प्रवाचक आदि ११५. संगीत विशारद ले. वसन्त सन् १६६१ संगीत कार्यालय, हाथरस (उ० प्र०) ५/६४ सन् १९८४ ११६. समवाओ (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण आदि) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. विवेचक युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती, लाडनूं राजस्थान ४ आमुख; ५/६३, १२२, १६१-१८ ११७. सम्मति प्रकरण कर्ता- सिद्धसेन दिवाकर सं. दलसुखभाई मालवणिया ज्ञानोदय ट्रस्ट, अनेकान्त बिहार, ३ आमुख; ५/१६१-१६८ श्रेयान्स कालोनी के पास, अहमदाबाद ११८. सर्वदर्शनसंग्रह सन् १६२४ ले. सायन माधवाचार्य, टीका. महामोहोपाध्याय प्राच्य विद्याशास्त्री अभयंकर संशोधन मंदिर, पूना (महाराष्ट्र) ७ आमुख ११६. सर्वार्थसिद्धि भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ३/८४७/१०-१५, २६-३५ कर्ता-आ. पूज्यपाद; सं. पं. फूलचन्द्र १६७१ सिद्धान्त शास्त्री १२०. सांख्यकारिका चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी ७/१६-१६ कर्ता-ईश्वरकृष्ण, टीका. माध्वाचार्य १२१, साप्ताहिक हिन्दुस्तान ६ सितम्बर १६७६ दिल्ली ६ आमुख १२२. सुवर्णभूमि में कालकाचार्य ४ आमुख १२३. सुश्रुत-संहिता अनु. अत्रिदेव सन् १६७५ मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली ५/७६, ७७ १२४. सुत्रकृताङ्ग नियुक्ति कर्ता-भद्रबाहु देखें सूत्रकृताङ्ग वृत्ति ७/२६-३५ १२५. सूत्रकृताङ्ग वृत्ति कर्ता-श्री शीलांकाचार्य प्रथम-सन् १६५० श्रीगोडी जी पार्श्वनाथ- जैन द्वितीय-सन् १६५३ देरासर पेढी, बम्बई ३/१६४-१७१; ७/२६-३५ १२६. सूयगडो (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण तथा परिशिष्ट) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. विवेचक युवाचार्य महाप्रज्ञ भाग १ सन् १९८४ जैन विश्व भारती, लाडनूं, भाग २ सन् १९८६ राजस्थान ५/२५४-२५७; ७/१०-१५,२५ सन् १६८९ ७/६२ १२७. सूरपण्णत्ती (उवंगसुत्ताणि, भाग ४, खण्ड २) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती, लाडनूं, राजस्थान १२८. स्थानाङ्ग वृत्ति कर्ता-अभयदेवसूरि सन् १६३७ सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद ३/४६, २५३; ६/१६८, १६६; ७/१०-१५ १२६. स्याद्वादमंजरी सन् १९६२ श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास ५आमुख कर्ता-मल्लिषेण अनु. सं. डॉ० जगदीशचन्द्र जैन सं.स्वात्माराम योगीन्द्र गुजरात १३०. हठयोगप्रदीपिका ३/२०५ सन् १९८८ खेमराज श्रीकृष्ण दास अध्यक्ष, श्री वेन्कटेश्वर प्रेस, बम्बई वि. सं. २००७ छगनीराम अमरचन्द्र शिरोलिया, १३१. हेमशब्दानुशासनम् कर्ता-आचार्य हेमचन्द्र ३/१४३-१४६ Jain Education Interational Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत प्रन्थ-सूची ग्रन्थ का नाम लेखक / सम्पादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि 938. Sacred Books of the East Translated by Hermann Jacobi 12. Sanskrit English Dictionry V. S. Apte ४९० १३२. A Brief History of Time By Stephen W. Howking सन् १६८८ १३३. Life after Death संस्करण प्रकाशक सन् १८६५ Revised and Enlarged Edition सन् १६५७ उज्जैन Oxford Prasad Prakashan, Pune भाष्य में प्रयुक्त स्थल ६/७६-११६ ६/१२०-१२८ ५/२५४-२५७ भगवई ३/३५, ३६, ३७, ४५, ४८, १०५, १०६, ११२, ११६- १२६, १४३-१४८६ १६०-१६७, २५८, २६३, ५ / ६४; ६/१४, ६४-६६, १२६-१३१; ७/६३, १७५, १७७ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ अभयदेवसूरि-कृता भगवती-वृत्तिः सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसङ्गमयं, सार्वीयमस्मरमनीशमनीहमिद्धम् । सिद्धं शिवं शिवकरं करणव्यपेतं, श्रीमाज्जिनं जितरिपं प्रयतः प्रणौमि ॥१॥ नत्वा श्रीवर्द्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे । सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा ॥२॥ एतट्टीकाचूर्णी जीवाभिगमादिवृत्तिलेशांश्च । संयोज्य पञ्चमा विवृणोमि विशेषतः किञ्चित् ॥३॥ अथ तृतीयं शतकम् प्रथम उद्देशकः ३/१ ३/४ व्याख्यातं द्वितीयशतम्, अथ तृतीयं व्याख्यायते। अस्य चायमभिसंबन्धः-अनन्तरशतेऽस्तिकाया उक्ताः, इह तु तविशेषभूतस्य जीवास्तिकायस्य विविधधर्मा उच्यन्ते, इत्येवं सम्बन्धस्यास्य तृतीयशतस्योद्देशकार्थसंग्रहायेयं गाथा'केरिसेत्यादि'... तत्र 'केरिसविउव्वणे' त्ति कीदृशी चमरस्य विकुर्वणाशक्तिरित्यादिप्रश्ननिर्वचनार्थः प्रथम उद्देशकः। 'चमरे' त्ति चमरोत्पाताभिधानार्थो द्वितीयः। 'किरिय' त्ति कायिक्यादिक्रियाद्यर्थाभिधानार्थस्तृतीय :। 'जाण' त्ति यानं देवेन वैक्रियं कृतं जानाति साधुरित्याद्यर्थनिर्णयार्थश्चतुर्थः। 'इत्थि' त्ति साधुर्बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः स्त्रयादिरूपाणि वैक्रियाणि कर्तुमित्याद्यर्थनिर्णयार्थः पञ्चमः। 'नगर' त्ति वाराणस्यां नगर्या कृतसमुद्घातोऽनगारो राजगृहे रूपाणि जानातीत्याद्यर्थनिश्चयपर: षष्ठ :। 'पाला य' ति सोमादिलोकपालचतुष्टयस्वरूपाभिधायकः सप्तमः। 'अहिवइ' त्ति असुरादीनां कति देवा अधिपतयः? इत्याद्यर्थपरोऽष्टमः। 'इंदिय' त्ति इन्द्रियविषयाभिधानार्थो नवमः। 'परिस' त्ति चमरपरिषदभिधानार्थो दशमः इति। तत्र कीदृशी विकुर्वणेत्याद्यर्थस्य प्रथमोद्देशकस्येदं सूत्रम्तेणं कालेण' मित्यादि सुगम, नवरं । 'के महिड्डिए' त्ति केन रूपेण महर्द्धिक:? किंरूपा वा महर्द्धिरस्येति किंमहर्द्धिकः। कियन्महर्द्धिक इत्यन्ये। 'सामाणियसाहस्सीणं' ति समानया-इन्द्रतुल्यया ऋद्ध्या चरन्तीति सामानिकाः। 'तायत्तीसाए' ति त्रयस्त्रिंशतः। 'तावत्तीसगाणं' ति मन्त्रिकल्पानाम्। यावत्करणादिदं दृश्यं 'चउण्हं लोगपालाणं', पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं चउसट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं चमरचंचारायहाणिवत्थव्वाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं आणाईसरसेणावच्चं Jain Education Intemational Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.१: सू.४-१५ ४९२ भगवती वृत्ति कारेमाणे पालेमाणे महयाऽऽहयनट्टगीयवाइतंतीतलतालतुडिय-घणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे' ति। तत्राधिपत्यम्-अधिपतिकर्म। पुरोवर्तित्वम् -अग्रगामित्वं, स्वामित्वं-स्वस्वामिभावं, भर्तृत्वंपोषकत्वम्, आज्ञेश्वरस्य-आज्ञाप्रधानस्य सतो यत्सेनापत्यं तत्तथा तत्कारयन् अन्यैः पालयन् स्वयमिति। तथा महता रवेणेति योगः। 'आहय' त्ति आख्यानकप्रतिबद्धानीति वृद्धाः। अथवा 'अहय' ति अहतानि–अव्याहतानि नाट्यगीतवादितानि, तथा तन्त्रीवीणा तलताला:-हस्तताला: तला वा हस्ता: ताला:कंसिका: 'तुडिय' त्ति शेषतूर्याणि, तथा घनाकारो ध्वनिसाधाद्यो मृदंगो-मर्दलः। पटना-दक्षपुरुषेण प्रवादित इत्येतेषां द्वन्द्वोऽत एषां यो रवः स तथा। तेन 'भोगभोगाई' ति भोगार्हान् शब्दादीन्। ‘एवं महिड्डिए' त्ति एवं महर्द्धिक: इव महर्द्धिक: इयन्महर्द्धिक इत्यन्ये। से 'जहानामए' इत्यादि, यथा युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गृह्णाति, कामवशाद् गाढतरग्रहणतो निरन्तर-हस्तांगुलितयेत्यर्थः। दृष्टान्तान्तरमाह-'चक्कसे' त्यादि, चक्रस्य वा नाभिः किंभूता? 'अरगाउत्त' त्ति अरकैरायुक्ता-अभिविधिनाऽन्विता अरकायुक्ता। 'सिय' ति स्यात् भवेत्। अथवा अरका उत्तासिता—आस्फालिता यस्यां सा अरकोत्तासिता। 'एवमेव' त्ति निरन्तरतयेत्यर्थः। प्रभुः। जम्बूद्वीप बहुभिर्देवादिभिराकीर्णं कर्तुमिति योग:। वृद्धस्तु व्याख्यातं यथा यात्रादिषु युवति'नो हस्ते लग्ना-प्रतिबद्धा गच्छति बहुलोकप्रचिते देशे, एवं यानि रूपाणि विकुर्खितानि तान्येकस्मिन् कर्तरि प्रतिबद्धानि। यथा वा चक्रस्य नाभिरेका बहुभिररकैः प्रतिबद्धा घना निश्छिद्रा, एवमात्मशरीरप्रतिबद्धैरसुरदेवैर्देवीभिश्च पूरयेदिति। 'वेउब्वियसमुग्धाएणं' ति वैक्रियकरणाय प्रयत्नविशेषेण 'समोहण्णइ' त्ति समुपहन्यते समुपहतो भवति, समुपहन्ति वा–प्रदेशान् विक्षिपतीति। तत्स्वरूपमेवाह-'संखेज्जाई' इत्यादि, दण्ड इव दण्ड :- ऊर्ध्वाधआयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशकर्मपुदगलसमूहः। तत्र च विविधपुद्गलानादत्त इति दर्शयन्नाह-तद्यथा-'रत्नानां' कर्केतनादीनाम्, इह च यद्यापि रत्नादिपुद्गला औदारिका वैक्रियसमुद्घाते च वैक्रिया एव ग्राह्या भवन्ति, तथाऽपीह तेषां रत्नादिपुद्गलानामिव सारता प्रतिपादनाय रत्नानामित्याधुक्त तच्च रत्नानामिवेत्यादि व्याख्येयम्। अन्ये त्वाहु : औदारिका अपि ते गृहीता: सन्तो वैक्रियतया परिणमन्तीति। यावत्करणादिदं दृश्यम्-'वइराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगब्भाणं पुलयाणं सोगंधियाणं जोतीरसाणं अंकाणं अंजणाणं रयणाणं जायरूवाणं अंजणपुलयाणं फलिहाणं' ति, किम्? अत आह–'अहाबायरे' त्ति यथाबादरानसारान् पुद्गलान् परिशातयति दण्डनिसर्गगृहीतान्। यच्चोक्तं प्रज्ञापनाटीकायां-“यथा स्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयती' ति, तत्समुद्घातशब्दसमर्थनार्थमनाभोगिक वैक्रियशरीरकर्मनिर्जरणमाश्रित्येति। 'अहासहमे' त्ति यथासूक्ष्मान् सारान्। 'परियाइयति' पर्यादत्ते, दण्डनिसर्गगृहीतान् सामस्त्येनादत्त इत्यर्थः। 'दोच्चंपि' त्ति द्वितीयमपि वारं समुद्घातं करोति, चिकीर्षितरूपनिर्माणार्थ, ततश्च ‘पभु' त्ति समर्थः। 'केवलकप्पं' ति केवल:परिपूर्ण: कल्पत इति कल्पः-स्वकार्यकरणसामोपेत: तत: कर्मधारयः, अथवा 'केवलकल्प': केवलज्ञानसदृश: परिपूर्णतासाधर्म्यात्, सम्पूर्णपर्यायो वा केवलकल्प शब्द इति। 'आइण्ण' मित्यादय एकार्था अत्यन्तव्याप्तिदर्शनायोक्ता: ‘अदुत्तरं च णं' ति अथाऽपरं च, इदं च सामर्थ्यातिशयवर्णनम्। 'विसए' त्ति गोचरो वैक्रियकरणशक्तेः, अयं च तत्करणयुक्तोऽपि स्यादित्यत आह'विसयमेत्ते' ति विषय एव विषयमात्रं-क्रियाशून्यम्। 'बुइए' ति उक्तम्, एतदेवाह-'संपत्तीए' त्ति यथोक्तार्थसंपादनेन 'विउव्विंसु वा' विकुर्वितवान् विकुर्वति वा, विकुर्विष्यति वा विकुर्व इत्ययं धातः सामयिकोऽस्ति, विकुर्वणेत्यादिप्रयोगदर्शनादिति। 'नवरं संखेज्जा दीवसमुद्द' त्ति लोकपालादीनां सामानिकेभ्यः अल्पतरर्द्धिकत्वेनाल्पतरत्वाद् वैक्रियकरणलब्धेरिति। ३/८. 'अपुट्ठवागरणं' ति अपृष्टे सति प्रतिपादनम्। ३/१२. 'वइरोयणिंदे' त्ति दाक्षिणात्यासुरकुमारेभ्य: सकाशाद् विशिष्टं रोचनं-दीपनं येषामस्ति ते वैरोचना औदिच्या असुरास्तेषु मध्ये इन्द्रः-परमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः। 'साइरेगं केवलकप्पं' ति औदिच्येन्द्रत्वेन बलेर्विशिष्टतरलब्धिकत्वादिति। ३/१५ ‘एवं जाव थणियकुमार' त्ति धरणप्रकरणमिव भूतानन्दादिमहा घोषान्तभवनपतीन्द्रप्रकरणान्यध्येयानि। तेषु च इन्द्रानामान्येतद्गाथानुसारतो वाच्यानि"चमरे१ घरणे २ तह वेणुदेव३ हरिकंत४ अग्गिसीहे५ य। पुण्णे जलकंतेवि७ य अमिय८ विलंबे९ य घोसे१० य॥" एते दक्षिणनिकायेन्द्राः इतरे तु - "बलि१भूयाणंदेश्वेणुदाली३हरिस्सहे ४ऽग्गिमाणव५वसिढे६ । 3/R १. एमहिड्डिए' त्ति अंगसुत्ताणौ Jain Education Intemational Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति जलप्पभे७ अमियवाहणे८ पभंजण ९ य महाघोसे १० ।। " एतेषां च भवनसंख्या 'चउतीसा चउचत्ता' इत्यादि पूर्वोक्तगाथाद्वयादवसेया, सामानिकात्मरक्षसंख्या चैवम्— "चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च सहस्सा उ असुरवज्जाणं । सामाणिया उ एए चउग्गुणा आयरक्खाओ ।" अग्रमहिष्यस्तु प्रत्येकं धरणादीनां षट्, सूत्राभिलापस्तु धरणसूत्रवत्कार्य: । 'वाणमंतरजोइसियावि' त्ति व्यन्तरेन्द्रा अपि धरणेन्द्रवत्सपरिवारा वाच्याः । एतेषु च प्रतिनिकायं दक्षिणोत्तरभेदेन द्वौ द्वौ इन्द्रौ स्याताम् । तद्यथा- "काले य महाकाले १ सुरूव पडिरूव २ पुण्णभद्दे य । अमरवइ माणिभद्दे३ भीमे य तहा महाभीमे४ ॥ किंनर किंपुरिसे५ खलु सप्पुरिसे चेव तहा महापुरिसे६ । अइकाय महाकाए७ गीयरई चेव गीयजसे८ || " एतेषां ज्योतिष्काणां च त्रायस्त्रिंशा लोकपालाश्च न सन्तीति ते न वाच्याः सामानिकास्तु चतुःसहस्त्रसंख्याः । एतच्चतुर्गुणाश्चात्मरक्षा : अग्रमहिष्यश्चतस्त्र इति एतेषु च सर्वेष्वपि दाक्षिणात्यानिन्द्रानादित्यं च अग्निभूतिः पृच्छति । औदीच्यांश्चन्द्रं च वायुभूतिः, तत्र च दाक्षिणात्येष्वादित्ये च केवलकल्पं संस्तृतमित्यादि, औदीच्येषु च चन्द्रे च सातिरेकं जम्बूद्वीपमित्यादि च वाच्यम्। यच्चेहाधिकृतवाचनायामसूचितमपि व्याख्यातं तवाचनान्तरमुपजीव्येति भावनीयमिति । तत्र कालेन्द्रसूत्राभिलाप एवम्- 'काले णं भंते!' पिसाइंदे पिसायराया केमहिड्डीए....... केवइयं च णं पभु विउव्वित्तए ? गोयमा ! काले णं महिड्डीए...... से णं तत्थ असंखेज्जाणं नगरवाससयसहस्साणं चउन्हं सामाणियसाहस्सीणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं चउन्हं अग्गमहिसणं सपरिवाराणं अन्नेसिं च बहूणं पिसायाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव विहरइ, एमहिड्डिए..... एवतियं च णं पभू विडव्वित्तए जाव केवलकप्पं जंबूद्दीवं दीवं जाव तिरियं संखेज्जे दीवसमुद्दे इत्यादि । ३ / १६ शक्रप्रकरणे 'जाव चउण्हं चउरासीण' मित्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम् — अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चउन्हं लोगपालाणं तिन्हं परिमाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं' ति। शक्रस्य विकुर्वणोक्ता, अथ तत्सामानिकानां सा वक्तव्या, तत्र च स्वप्रतीतं सामानिकविशेषमाश्रित्य तच्चरितानुवादतस्तान् प्रश्नयन्नाह - ३/१७ 'एवं खलु' इत्यादि, एवं इति वक्ष्यमाणन्यायेन सामानिक देवतयोत्पन्न इति योगः । ४९३ श. ३ : उ. १ : सू. १५-२३ 'तीसए' त्ति तिष्यकाभिधानः । 'सयंसि' त्ति स्वके विमाने । 'पंचविहाए पज्जत्तीए' त्ति पर्याप्तिः- आहारशरीरादीनामभिनिर्वृत्तिः, सा चान्यत्र षोढोक्ता, इह तु पञ्चधा, भाषामन: पर्याप्त्योर्बहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वविवक्षणात्। 'लद्धे' त्ति जन्मान्तरे तदुपार्जनापेक्षया । 'पत्ते' त्ति प्राप्ता देवभवापेक्षया। ‘अभिसमण्णागए' त्ति तद्भोगापेक्षया ।' जहेव चमरस्स' त्ति अनेन लोकपालाग्रमहिषीणाम्। 'तिरियं संखेज्जे दीवसमुद्दे' त्ति वाच्यमिति सूचितम् । ३ / २० 'ईसाणे णं भंते' इत्यादि, ईशानेन्द्रप्रकरणम् । इह च ' एवं तहेव' त्ति अनेन यद्यपि शक्रसमानवक्तव्यमीशानेन्द्रप्रकरणं सूचितं, तथाऽपि विशेषोऽस्ति । उभयसाधारणपदापेक्षत्वादतिदेशस्येति । स चायम् —' से णं अट्ठावीसाए विमाणावाससयसहस्साणं असीईए सामाणियसाहस्सीणं जाव चउन्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं' ति । ईशानवक्तव्यतानन्तरं तत्सामानिकवक्तव्यतायां स्वप्रतीतं तद् विशेषमाश्रित्य तच्चरितानुवादतः प्रश्नयन्नाह— ३/२१ ‘एवं खलु' इत्यादि, 'उड्डुं बाहाओ पगिज्झिय' त्ति प्रगृह्यविधायेत्यर्थः ३ / २२ 'एवं सणकुमारेवि' त्ति अनेनेदं सूचितम् - 'सणंकुमारेणं भंते! देविंदे देवराया केमहिड्डिए.... केवइयं च णं प्रभू विउव्वित्तए ? गोयमा ! सणकुमारे णं देविंदे देवराया महिड्डिए 'से णं बारसहं विमाणावाससयसाहस्सीणं बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं जाव चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं' मित्यादीति । 'अग्गमहिसीणं' ति यद्यपि सनत्कुमारे स्त्रीणामुत्पत्तिर्नास्ति तथाऽपि याः सौधर्मोत्पन्नाः समयाधिकपल्योपमादिदशपल्योपमान्तस्थितयोऽपरिगृहीतदेव्यस्ताः सनत्कुमारदेवानां भोगाय संपद्यन्ते इति कृत्वाऽग्रमहिष्य, इत्युक्तमिति । ३ / २३ एवं माहेन्द्रादिसूत्राण्यपि गाथानुसारेण विमानमानं सामानिकादिमानं च विज्ञायानुसन्धानीयानि गाथाश्चैवम् 'बत्तीस अट्ठवीसा बारस अट्ठ य चउरो सयसहस्सा । आरेण बंभलोया विमाणसंखा भवे एसा ॥ पण्णासं चत्त छच्चेव सहस्सा लंतसुक्कसहस्सारे । सयचउरो आणयपाणएसु तिष्णारण्णच्चुयओ ॥ " सामानिकपरिमाणगाथा - "चउरासीड़ असीई बावत्तरि सत्तरी यसट्ठी य। पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥" इह च शक्रादिकान् पञ्चैकान्तरितानग्निभूतिः पृच्छति, Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ. १ : सू. २३-३३ ४९४ ईशानादींश्च तथैव वायुभूतिरिति । इन्द्राणां वैक्रियशक्तिप्ररूपणप्रक्रमादीशानेन्द्रेण प्रकाशितस्यात्मीयस्य वैक्रियरूपकरण सामर्थ्यस्य तेजोलेश्यासामर्थ्यस्य चोपदर्शनायेद माह ---- ३/२७ 'ते' मित्यादि ' जहेव रायप्पसेणइज्ज' त्ति यथैव राजप्रश्नीयाख्येऽध्ययने सूरिकाभदेवस्य वक्तव्यता तथैव चेहेशानेन्द्रस्य, किमन्तेत्याह- 'जाव दिव्वं देविड्डि' मिति, सा चेयमर्थसंक्षेपतः – सभायां सुधर्मायामीशाने सिंहासने अशीत्या सामानिकसहस्त्रैश्चतुर्भिलोकपालैः अष्टाभिः सपरिवाराभिरग्रमहिषीभिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः चतसृभिश्चाशीतिभिरात्मरक्षदेवसहस्राणाम् अन्यैश्च बहुभिर्देवैर्देवीभिश्च परिवृतो महताऽऽहतनाट्यादिरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुंजानो विहरति स्म । इतश्च जम्बूद्वीपमवधिनाऽऽलोकयन् भगवन्तं महावीरं राजगृहे ददर्श, दृष्ट्वा च ससंभ्रममासनदुत्तस्थौ, उत्थाय च सप्ताष्टानि पदानि तीर्थंकराभिमुखमाजगाम ततो ललाटतटघटितकरकुड्मलो ववन्दे, वन्दित्वा चाभियोगिकदेवान् शब्दयाञ्चकार, एवं च तानवादीत् गच्छत भो ! राजगृहं नगरं महावीरं च भगवन्तं वन्दध्वं, योजनपरिमण्डलं च क्षेत्रं शोधयत, कृत्वा चैवं मम निवेदयत, तेऽपि तथैव चक्रुः, ततोऽसौ पदात्यनीकाधिपतिं देवमेवमवादीत् — भो ! भो! देवानां प्रिये ईशानावतंसके विमाने घण्टामास्फालयन् कुरु यदुत गच्छति भो ! ईशानेन्द्रो महावीरस्य वन्दनाय ततो यूयं शीघ्रं महर्द्धया तस्यान्तिकमागच्छत, कृतायां च तेन तस्यां बहवो देवाः कुतूहलादिभिस्तत्समीपमुपगता: तैश्च परिवृतोऽसौ योजनलक्षप्रमाणयानविमानारूढोऽनेकदेवगणपरिवृतो नन्दीश्वरद्वीपे कृतविमानसंक्षेपो राजगृहनगरमाजगाम, ततो भगवन्तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य चतुर्भिरंगुलैर्भुवमप्राप्तं विमानं विमुच्य भगवत्समीपमागत्य भगवन्तं वन्दित्वा पर्युपास्ते स्म, ततो धर्मं श्रुत्वैवमवादीत् - भदन्त ! यूयं सर्वं जानीथ पश्यथ, केवलं गौतमादीनां महर्षीणां दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयितुमिच्छामीत्यभिधाय दिव्यं मण्डपं विकुर्वितवान्, तन्मध्ये मणिपीठिकां तत्र च सिंहासनं ततश्च भगवन्तं प्रणम्य तत्रोपविवेश, ततश्च तस्य दक्षिणाभुजादष्टोत्तरं शतं देवकुमाराणां वामाच्च देवकुमारीणां निर्गच्छति स्म, ततश्च विविधातोद्यरवगीतध्वनिरंजितजनमानसं द्वात्रिंशद्विधं नाट्यविधिमुपदर्शयामासेति । 'तए से ईसा देविंदे देवराया तं दिव्वं देविड्डि' यावत्करणादिदमपरं वाच्यं यदुत 'दिव्वं देवज्जुइं दिव्वं देवाणुभावं पडिसाहरइ पडिसाहरित्ता खणेणं जाए एगभूए। तए णं ईसाणे देविंदे देवराया समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता Jain Education Intemational भगवती वृत्ति नियगपरियालसंपरिवुडे' त्ति 'परियाल' त्ति परिवारः । 'कूडागारसालादिट्टंतो' त्ति कूटाकारेण – शिखराऽऽकृत्योपलक्षिता शाला या सा तथा तया दृष्टान्तो यः स तथा । ३ / २८ स चैवं - भगवन्तं गौतम एवमवादीत् — ईशानेन्द्रस्य सा दिव्या देवर्द्धिः क्व गता ? गौतम ! शरीरकमनुप्रविष्टा । ३ / २९ अथ केनार्थेनैवमुच्यते ? गौतम! यथा नाम कूटाकारशाला स्यात्, तस्याश्चादूरे महान् जनसमूहस्तिष्ठति, स च महाभ्रादिकमागच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा च तां कूटागारशालामनुप्रविशति, एवमीशानेन्द्रस्य सा दिव्या देवर्द्धिः शरीरकमनुप्रविष्टेति। ३/३० 'किणे' ति केन हेतुना? किं वा दच्चे' त्यादि, इह दत्त्वाऽशनादि भुक्त्वाऽन्तप्रान्तादि कृत्वा तपः शुभध्यानादि समाचर्य च प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनादि, ‘कस्स वे' त्यादि वाक्यस्य चान्ते पुण्यमुपार्जितमिति वाक्यशेषो दृश्यः 'जण्णं' ति यस्मात् पुण्यात् णमिति वाक्यालंकारे । ३/३३ 'अत्थि ता मे पुरा पोराणाण' मित्यादि पुरा - पूर्वं कृतानाि योग:, अत एव 'पोराणाणं' ति पुराणानां 'सुचिण्णाणं' ति दानादिसुचरितरूपाणां ‘सुपरक्कंताणं' ति सुष्ठु पराक्रान्तं— पराक्रमस्तपःप्रभृतिकं येषु तानि तथा तेषां शुभानामर्थावहत्वेन कल्याणानामनर्थोपशमहेतुत्वेनेति, कुतोऽस्ति ? इत्याह 'जेणाह' मित्यादि, पूर्वोक्तमेव किंचित्सविशेषमाह'विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतेज्जेणं' ति, इह धनं - गणिमादि रत्नानि - कर्केतनादीनि मणयः - चन्द्रकान्ताद्याः शिलाप्रवालानि - विद्रुमाणि, अन्ये त्वाहु: - शिला - राजपट्टादिरूपा: प्रवालं – विद्रुमं रक्तरत्नानि - पद्मरागादीनि, एतद्रूपं यत् 'संत' त्ति विद्यमानं सारं — प्रधानं स्वापतेयं — द्रव्यं तत्तथा तेन 'एगंतसो 'खयं' ति एकान्तेन क्षयं, नवानां शुभकर्म्मणामनुपार्जनेन । 'मित्ते' त्यादि, तत्र मित्राणि – सुहृदो ज्ञात्यः सजातीयाः निजकाः - गोत्रजाः सम्बन्धिनो मातृपक्षीयाः श्वसुरकुलीना वा परिजनो - दासादिः, 'आढाइ' त्ति अद्रियते 'परिजाणइ' त्ति परिजानाति स्वामितया 'पाणामाए' त्ति प्रणामोऽस्ति विधेयतया यस्यां सा प्राणामा तया, 'सुद्धोयण' ति सूपशाकादिवर्जितं कूरं 'तिसत्तखुत्तो' त्ति त्रिसप्तकृत्वः, एकविंशतिवारानित्यर्थः, 'आसाएमाणे' त्ति ईषत्स्वादयन्, 'वीसाएमाणे' त्ति विशेषेण स्वादयन् स्वाद्यविशेषं ‘परिभाएमाणे' त्ति ददत् 'परिभुंजेमाणे ' त्ति भोज्यं परिभुंजानः, 'जिमियभुत्तुत्तरागए' त्ति 'जिमिय' त्ति प्रथमैकवचनलोपात् जिमितः — भुक्तवान् 'भुत्तुत्तर' त्ति भुक्तोत्तरं --भोजनोत्तरकालं, 'आगए' त्ति आगतः उपवेशनस्थाने Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४९५ श. ३ : उ.१: सू.३३-५४ भुक्तोत्तरागतः, किंभूतः सन्? इत्याह-'आयंते' त्ति आचान्त:-शुद्धोदकयोगेन 'चोक्खे' त्ति चोक्ष: लेपसिक्था द्यपनयनेन, अतएव परमशुचिभूत इति। ३/३४ ‘जं जत्थ पासई' त्ति यम्-इन्द्रादिकं यत्र देशे काले वा पश्यति तस्य तत्र प्रणामं करोतीति वाक्यशेषो दृश्य:, 'खंदं व' त्ति स्कन्दं वा-कार्तिकेयं 'रुदंवा' महादेवं 'सिवं व' त्ति व्यन्तरविशेषम्, आकारविशेषो दृश्यः, आकारविशेषधरं वा रुद्रमेव, 'वेसमणं व' त्ति उत्तरदिक्पालम् 'अज्जं व' त्ति आर्यां प्रशान्तरूपां चण्डिकां 'कोट्टकिरियं वत्ति चण्डिकामेव रौद्ररूपां, महिषकुट्टनक्रियावतीमित्यर्थः, 'रायं' वा इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्-'ईसरं वा तलवरं वा माडंबियं वा कोइंबियं वा सेलुि वा' इति 'पाणं व' त्ति चण्डालं 'उच्चं' ति पूज्यम् 'उच्चं पणाम' ति अतिशयेन प्रणमतीत्यर्थः 'नीय' ति अपूज्यं 'नीयं पणाम' ति अनत्यर्थं प्रणमतीत्यर्थ, एतदेव निगमयन्नाह–'जं जहे' इत्यादि यं पुरुषपश्वादिकं यथा-यत्प्रकारं पूज्यापूज्यस्वभावं तस्य-पुरुषादेः तथा पूज्यापूज्योचिततया। ३/३६ 'अणिच्चजागरियं' ति अनित्यचिन्तां 'दिट्ठा भटे य' त्ति दृष्टाभाषितान् 'पुव्वसंगतिए' त्ति पूर्वसंगतिकान् गृहस्थत्वे परिचितान् ‘नियत्तणियमंडलं' ति निवर्त्तनं क्षेत्रमानविशेषस्तत्परिमाणं निवर्तनिकं, निजतनप्रमाणमित्यन्ये, 'पाओवगणमं' निवण्णे' त्ति पादपोपगमनं। 'निष्पन्नः' उपसंपन्न आश्रित इत्यर्थः। ३/३७ 'अणिंद' ति इन्द्राभावात् 'अपुरोहिय ' त्ति शान्तिकर्मकारिरहिता अनिन्द्रत्वादेव, पुरोहितो हीन्द्रस्य भवति , तदभावे तु नासाविति। ३/३८ 'इंदाहीण' त्ति इन्द्राधीना इन्द्रवश्यत्वात् 'इंदाहिट्ठिय' त्ति 'इंद्राधिष्ठितास्तद्युक्तत्वात् अत एवाह-'इन्दाहीणकज्ज' त्ति इन्द्राधीनकार्याः 'ठितिपकप्पं' ति स्थितौ-अवस्थाने बलिचंचाविषये प्रकल्प:- संकल्प: स्थितिप्रकल्पोऽतस्तं 'ताए उक्किट्ठाए' इत्यादि, तया विवक्षितया 'उत्कृष्टतया' उत्कर्षवत्या देवगत्येति योग: 'त्वरितया' आकुलया न स्वभावजयेत्यर्थः, अन्तराकूतताऽभिप्राय: स्यादित्यत आह —'चपलया' कायचापलोपेतया 'चण्डया' रौद्रया तथाविधोत्कर्षयोगेन ‘जयिन्या' गत्यन्तरजेतृत्वात् 'छेकया' निपुणया उपायप्रवृत्तितः 'सिंहया' सिंहगतिसमानया श्रमाभावेन 'शीघ्रया' वेगवत्या 'दिव्यया' प्रधानया 'उद्भूतया' वस्त्रादीनामुद्भूतत्त्वेन, उद्धतया वा सदर्पया, 'सपक्खि' ति समाः सर्वे पक्षा: पार्वाः पूर्वापरदक्षिणोत्तरा यत्र स्थाने तत्सपक्षम्. इकार: प्राकृतप्रभवः, समा:- सर्वाः प्रतिदिशो यत्र तत्सप्रतिदिक, 'बत्तीसतिविहं नट्टविहिं' ति द्वात्रिंशद्विधं नाट्यविधि, नाट्यविषयवस्तुनो द्वात्रिंशद्विधत्वात्, तच्च यथा राजप्रश्नीयाध्ययने तथाऽवसेयमिति। 'अटुं बंधह' त्ति प्रयोजननिश्चयं कुरुतेत्यर्थ: 'निदान' प्रार्थनाविशेषम्। एतदेवाह -ठिइपकप्पं ति प्राग्वत्। ३/४५ 'आसुरुत्त, त्ति आसुरुत्ताः' शीघ्र कोपविमूढबुद्धयः अथवा स्फुरितकोपचिह्ना: 'कुविय' त्ति जातकोपोदया: 'चंडिक्किय' त्ति प्रकटितरौद्ररूपाः 'मिसिमिसेमाणे' ति देदीप्यमानाः क्रोधज्वलनेनेति। 'सुबेणं' ति रज्वा 'उट्ठहति' त्ति अवष्ठीव्यन्ति, निष्ठीवनं कुर्वन्ति ‘आकट्टविकट्ट' ति आकर्षविकर्षिकां, 'हीलेंति' त्ति जात्याधुद्घाटनत: कुत्सन्ति 'निंदंति' त्ति चेतसा। कुत्सन्ति 'खिंसंति' ति स्वसमक्षं वचनैः कुत्सन्ति 'गरहंति' त्ति लोकसमक्षं कुत्सन्त्येव 'अवमण्णंति' त्ति अवमन्यन्ते - अवज्ञाऽऽस्पदं मन्यन्ते 'तज्जिंति' ति अंगुलीशिरश्चालनेन 'तालेति' ताडयन्ति हस्तादिना 'परिवति' त्ति सर्वतो व्यर्थते कदर्थयन्ति 'पव्वहंति' त्ति प्रव्यथन्ते प्रकृष्टव्यथामेवोत्पादयन्ति। ३/४७ 'तत्थेव सयणिज्जवरगए' त्ति तत्रैव शयनीयवरे स्थितः इत्यर्थ। 'तिवलियं' ति त्रिवलिकां 'भृकुटिं' दृष्टिविन्यासविशेषम्। ३/४९ ‘समजोइभूय' ति समा ज्योतिषा - अग्निना भूता समज्योतिर्भूताः 'भीय' त्ति जातभयाः। 'तत्थ' त्ति त्रस्ता: भयाज्जातोत्कम्पादिभयभावा: 'सुसिय' त्ति शुषिताऽऽनन्दरसा: 'उब्विग्ग' त्ति तत्त्यागमानसा: किमुक्तं भवतीत्याह-संजातभया, 'आधावन्ति' ईषद्धावन्ति ‘परिधावन्ति' सर्वतो धावन्तीति 'समतुरंगेमाण' त्ति समाश्लिष्यन्तः, अन्योऽन्यमनुप्रविशन्त इति वृद्धाः। ३/५० 'नाइ भुज्जो एवं करणयाए' ति नैवं भूयं एवंकरणाय संपत्स्यामहे इति शेषः। ___३/५१ 'आणाउववायवयणनिद्देसे' त्ति आज्ञा–कर्त्तव्यमेवेदमित्याद्या देश: उपपात:-सेवा वचनम्-अभियोगपूर्वक आदेश: निर्देश:-प्रश्निते कायें नियतार्थमुत्तरं तत एषां द्वन्द्वस्ततस्तत्र। ईशानेन्द्रवक्तव्यताप्रस्तावात्तद्वक्तव्यतासंबद्धमेवोद्देशकसमाप्ति यावत् सूत्रवृन्दमाह३/५४ 'सक्कस्से' त्यादि। 'उच्चतरा चेव' त्ति उच्चत्वं प्रमाणत: 'उन्नततरा चेव' त्ति उन्नतत्वं गुणतः अथवा उच्चत्वं प्रासादापेक्षम्, उन्नतत्वं तु प्रासादपीठापेक्षमिति, यच्चोच्यते १. स प्रतो, अंगसुत्ताणों-अन्तराकूलतया अन्तराकूततोऽप्येषा इति वा पाठः २. स प्रतौ 'उतत्थ' त्ति। ३. अंगसुत्ताणौ 'तसिया' Jain Education Intemational Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.१ः सू.५४-उ.२: सू.१०९ ४९६ भगवती वृत्ति 'पंचसयउच्चत्तेणं आइमकप्पेस होति उ विमाण' त्ति तत्परिस्थूलन्यायमंगीकृत्यावसेयं तेन किंचिदुच्चतरत्वेऽपि तेषां न विरोध इति। ३/५५. 'देसे उच्चे देसे उन्नए' त्ति प्रमाणतो गुणतश्चेति। ३/६६ 'आलावं वा संलावं व' त्ति 'आलाप:' संभाषणं संलापस्तदेव पुनः पुनः। ३/६८ 'किच्चाई' ति प्रयोजनानि 'करणिज्जाई' ति विधेयानि। ३/६९ से कहमियाणिं पकरेंति' त्ति अथ कथम् 'इदानीम्' अस्मिन् काले कार्यावसरलक्षणे प्रकुरुत:? कार्याणीति गम्यम्। 'इति भो' त्ति इति एतत्कार्यमस्ति, भोशब्दश्चामंत्रणे 'इति भो इति भोत्ति' त्ति परस्परालापानुकरणम्। ३/७१ "जं से वयइ तस्स आणाउववायवयणनिद्देसे' त्ति यदाज्ञादिकमसौ वदति तत्राज्ञादिके तिष्ठत इति वाक्यार्थः तत्राज्ञादयः पूर्व व्याख्याता एवेति। ३/७२ 'आराहए' त्ति ज्ञानादीनामाराधयिता 'चरिमे' ति चरम एव भवो यस्याप्राप्तस्तिष्ठति, देवभवो वा चरमो यस्य सः चरमभवो वा भविष्यति यस्य स चरमः। ३/७३ ‘हियकामए' त्ति हितं-सुखनिबन्धनं वस्तु 'सुहकामए' त्ति सुख-शर्म ‘पत्थकामए' त्ति पथ्यं-दुःखत्राणं, कस्मादेवमित्याह—'आणुकंपिए' त्ति कृपावान्, अत एवाह'निस्सेयसिय' त्ति निःश्रेयसं-मोक्षस्तत्र नियुक्त इव नै:श्रेयसिकः 'हियसुहनिस्सेसकामए' ति हितं यत्सुखमदुःखानुबन्धमित्यर्थः तनि:शेषाणां--सर्वेषां कामयते---वांछति यः स तथा। पूर्वोक्तार्थसंग्रहाय गाथे३/७६ 'छट्टे' त्यादि, इहाद्यगाथायां पूर्वार्द्धपदानां पश्चार्द्धपदैः सह यथासंख्यं सम्बन्ध: कार्यः, तथाहि-तिष्यककुरुदत्तसाध्वोः क्रमेण षष्टमष्टमं च तप: तथा मासोऽर्द्धमासश्च। 'भत्तपरिण' त्ति अनशनविधिः, एकस्य मासिकमनशनमन्यस्य चार्द्धमासिकमिति भावः। तथैकस्याष्ट वर्षाणि पर्याय:, अन्यस्य च षण्मासा इति। द्वितीया गाथा गतार्था। 'मोया समत्त' त्ति मोकाभिधाननगर्यामस्योद्देशकार्थस्य कीदृशी विकुर्वणा? इत्येतावद्रूपस्योक्तत्वान्मोकैवायमुद्देशक उच्यते। मसुरकुमाराणां गतिशक्तिप्ररूपणायेदमाह३/७७ 'तेण' मित्यादि ३/७८ ‘एवं असुरकुमारे' त्यादि ‘एवम्' अनेन सूत्रक्रमेणेति। ३/८१ स चैवम्-‘उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोसटुिं भवणवाससयसहस्सा भवंतीति अक्खाय' मित्यादि। ३/९० 'विउव्वेमाणा व ति संरभेण महद्वैक्रियशरीरं कर्वन्तः 'परियारेमाणा व' त्ति परिचारयन्त: परकीयदेवीनां भोगं कर्तकामा इत्यर्थः 'अहालहुस्सगाई' ति 'यथे' ति यथोचितानि लघुस्वकानि -अमहास्वरूपाणि महता हि तेषां नेतुं गोपयितुं वाऽशक्यत्वादिति यथालघुस्वकानि, अथालघूनि–महान्ति वरिष्ठानीति च वृद्धाः। 'आयाए' त्ति आत्मना स्वयमित्यर्थः 'एगंतं' ति विजनम् 'अंत' ति देशम्। ३/९२ 'से कहमियाणिं पकरेंति' त्ति अथ किमिदानी रत्नग्रहणानन्तरमेकान्तापक्रमणकाले प्रकुर्वन्ति वैमानिका रत्नाऽऽदातृणामिति। 'तओ से पच्छा कार्य पव्वहंति' त्ति ततो रत्नादानात् 'पच्छ' त्ति अनन्तरं 'से' त्ति एषां रत्नाऽऽदातृणाम् असुराणां 'कार्य' देहं प्रव्यथन्ते, प्रहारैर्मध्नंति वैमानिका देवाः। तेषां च प्रव्यथितानां वेदना भवति जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतः षण्मासान् यावत्।। ३/९५ ‘सबरा' इ वा इत्यादौ शबरादयोऽनार्यविशेषा: 'गड्ढे व' त्ति गर्ती 'दुग्गं व' त्ति जलदुर्गादि 'दरिं व' त्ति दरी पर्वतकन्दरां 'विसमं व' ति विषमं गरौतर्वाद्याक्लं-भूमिरूपं 'निस्साए' त्ति निश्रया आश्रित्य 'धणुबलं व' ति धनुर्द्धरबलम् 'आगलेंति' त्ति आकलयन्ति जेष्याम इत्यध्यवस्यन्तीति। 'नण्णत्थ' त्ति ननु निश्चितं 'अत्र' इहलोके, अथवा 'अरहंते वा निस्साए उड़े उप्पयंति' नान्यत्र तन्निश्रयाऽन्यत्र न, न तां विनेत्यर्थः। ३/१०२ 'दाणामाए' त्ति दानमय्या। ३/१०५ 'छउमत्थकालियाए' त्ति छद्मस्थकाल एव छद्मस्थकालिका तस्यां 'दोवि पाए साहट्ट' त्ति संहत्य संहृतौ (संहतौ) कृत्वा जिनमुद्रयेत्यर्थः 'वग्घारियपाणि' त्ति प्रलम्बितभुजः 'ईसिपब्भारगएणं' ति प्राग्भार:-अग्रतोमुखमवनतत्वम्। 'अहापणिहिएहिं गत्तेहिं' ति यथाप्रणिहितैः यथास्थितैः। ३/१०९ 'वीससाए' त्ति स्वभावत एव। 'पासइ य तत्थ' ति पश्यति च, तत्र-सौधर्मेकल्पे, 'मघवं' ति मघा-महामेघास्ते यस्य वशे सन्त्यसौ मघवानतस्तं 'पागसासणं' ति पाको नाम तृतीयशते प्रथमोद्देशकः।। द्वितीय उद्देशकः प्रथमोद्देशके देवानां विकर्वणोक्ता, द्वितीये त् तद्विशेषाणा Jain Education Intemational Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४९७ श.३ : उ.२.सू.१०९-११६ बलवान् रिपुस्तं यः शास्ति-निराकरोत्यसौ पाकशासनोऽतस्तं 'सयक्कडं' ति शतं क्रतूनां--प्रतिमानामभिग्रहविशेषाणां श्रमणोपासकपंचमप्रतिमारूपाणां वा, कार्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्यासौ शतक्रतुरतस्तं 'सहस्सक्खं' ति सहस्रमक्षणां यस्यासौ सहस्राक्षोऽतस्तम्, इन्द्रस्य किल मंत्रिणां पंच शतानि सन्ति, तदीयानां चाक्ष्णामिन्द्रप्रयोजनव्याप्ततया इन्द्रसम्बन्धित्वेन विवक्षणात्तस्य सहस्त्राक्षत्वमिति 'पुरंदरं' ति असुरादिपुराणां दारणात् पुरन्दरस्तं 'जाव दस दिसाओ' त्ति इह यावत्करणात् 'दाहिणड्डलोगाहिवई बत्तीसविमाणसयसहस्साहिवई एरावणवाहणं सुरिंदं अरयंबरवत्थधरं' अरजांसि च तानि अम्बरवस्त्राणि च तानि स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पवसनानि अरजोऽम्बरवस्त्राणि तानि धारयति य: स तथा तम्, 'आलाइयमालमउडं' आगलितमालं मुकुटं यस्य स तथा तं 'नवहेम-चारुचित्तचंचल-कुण्डलविलिहिज्जमाणगंडं' नवाभ्यामिव हेम्न: सत्काभ्यां चारुचित्राभ्यां चंचलाभ्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानौ गण्डौ यस्य स तथा तम्, इत्यादि तावद् वाच्यम् 'जाव दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए' त्ति अथ यत्र यत्परिवारं यत्कुर्वाणं च तं पश्यति तथा दर्शयितुमाह'सोहम्मे' त्यादि 'अपत्थियपत्थए' त्ति अप्रार्थितं प्रार्थयते यः स तथा। 'दुरंतपंतलक्खणे' ति हीनायां पुण्यचतुर्दश्यां जातो हीनपुण्यचातुर्दशः, किल चतुर्दशी तिथि: पुण्या जन्माश्रित्य भवति, सा च पूर्णा अत्यन्तभाग्यवतो जन्मनि भवति। आक्रोशता उक्तं-हीणपुण्णचाउद्दसे' त्ति 'जण्णं ममं त्ति मम 'अस्याम्' एतद्पायां दिव्यायां देवर्द्ध तथा दिव्यायां देवद्युतौ सत्यां तथा दिव्ये देवानुभागे लब्धे प्राप्ते अभिसमन्वागते सति 'उप्पिं' ति ममैव अप्पुस्सुए' ति अल्पौत्सुक्यः। ३/१११ 'अच्चासाइत्तए' ति 'अत्याशातयित्' छायाया भ्रंशयितमिति। 'उसिणे' त्ति उष्ण: कोपसन्तापात् , कोपसन्तापजं चोष्णत्वं कस्यचित्स्वभावतोऽपि स्यादित्याह-'उसिणभूए' त्ति अस्वाभाविकमौष्ण्यं प्राप्त इत्यर्थः। ३/११२ ‘एगे' त्ति सहायाभावात, एकत्वं च बहुपरिवारभावेऽवि विवक्षितसहायाभावाद् व्यवहारतो भवतीत्यत आह–'अबिइए' त्ति अद्वितीयो डिम्बरूपमात्रस्यापि द्वितीयस्याभावादिति। 'एगं महं' ति एका महतीं बोन्दीमिति योग: 'घोरं, ति हिस्रां, कथम्? यतो 'घोराकारां' हिस्राकृतिं 'भीमं ' ति 'भीमां' विकरालत्वेन भयजनिकां कथम्? यतो 'भीमाकारां भयजनकाकृतिं 'भासुरं' ति भास्वरां 'भयाणीयं' ति भयमानीतं यया सा भयानीताऽतस्ताम्, अथवा भयं भयहेतुत्वादनीकंतत्परिवार-भूरामुल्कास्फुलिंगादि सैन्यं यस्याः सा भयानीकाऽतस्तां 'गंभीर' ति गंभीरां विकीर्णावयवत्वात् 'उत्तासणयं' ति उत्त्रासनिकां 'त्रसी उद्वेगे' इति वचनात् स्मरणेनाप्युद्वेगजनिकाम्। 'महाबोंदि' ति महाप्रभावतनुम् 'अप्फोडेइ' त्ति करास्फोटं करोति ‘पायदद्दरगं' ति भूमेः पादेनास्फोटनम् ‘उच्छोलेइ' त्ति अग्रतोमुखां चपेटां ददाति 'पच्छोलेइ' त्ति पृष्ठतोमुखां चपेटां ददाति 'तिवई छिंदइ' ति मल्लं इव रंगभूमौ त्रिपदीच्छेदं करोति। 'ऊसवेइ' त्ति उच्छृतं करोति 'विडंबेइ' त्ति विवृतं (विकृतं) करोति 'साकदंतेव' त्ति समाकर्षयत्रिव 'विउब्भाएमाणे' त्ति व्युभ्राज-मान:-शोभमानो विजृम्भमाणो वा व्युद्धाजयन् वाऽम्बरतले परिघरत्नमिति योगः। 'इंदकील' त्ति गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवेश-स्थानम् । ३/११३ 'नाहि ते' त्ति नैव तव। ‘फुलिंगजाले' त्यादि स्फुलिंगानां ज्वालानां च या मालास्तासां च यानि सहस्राणि तानि तथा तै:, चक्षुर्विक्षेपश्च-चक्षुर्धम: दृष्टिप्रतिघातश्च-दर्शनाभाव: चक्षुर्विक्षेपदृष्टिप्रतिघातं तदपि कुर्वत्, अपि विशेषणसमुच्चये 'हतवहे' त्यादि हुतवहातिरेकेण यत्तेजस्तेन दीप्यमानं यत्तत्तथा 'जइणवेगं' ति जयी शेषवेगवद्वेगजयी वेगो यस्य तत्तथा 'महब्भयं' ति महतां भयमस्मादिति महद्भयं, कस्मादेवमित्यत आह—'भयंकर' भयकर्तृ। ३/११४. 'झियाइ' ति ध्यायति, किमेतदिति चिन्तयति, यथा 'पिहाइ' त्ति स्पहयति यद्येवंविधं प्रहरणं ममापि स्यादित्येवं तदभिलषति, स्वस्थानगमनं वाऽभिलषति, अथवा 'पिहाइ' ति अक्षिणी पिधत्ते-निमीलयति, 'पिहाइ झियाइ' त्ति पूर्वोक्तमेव क्रियाद्वयं व्यत्ययेन करोति, अनेन च तस्यातिव्याकुलतोक्ता , 'तहेव' त्ति तथा ध्यातवांस्तथैव तत्क्षण एवेत्यर्थः 'संभग्गमउडविडवे' त्ति संभग्नो मकटविटप: शेखरकविस्तारो यस्य स तथा। 'सालंबहत्थाभरणे' त्ति सह आलम्बन–प्रलम्बेन वर्तन्ते सालम्बानि तानि हस्ताभरणानि-यस्याधोमुखगमनवशादसौ सालम्बहस्ताभरणः, 'कक्खागयसेयंपिव' ति भयातिरेकात्कक्षागतं स्वेदमिव मञ्चयन, देवानां किल स्वेदो न भवतीति संदर्शनार्थः पिव शब्दः। 'झत्ति वेगेणं' ति वेगेन समवपतितः, कथं? 'झगिति' झटितिकृत्वा । ३/११५ 'पभु' त्ति शक्तः 'समत्थे' त्ति संगतप्रयोजन: 'हा हा' इत्यादे: संस्कारोऽयं हा हा अहो! हतोऽहमस्मीतिकृत्वा, व्यक्तं चैतत्। 'अवियाई' ति अपि चेति अभ्युच्चये, 'आई' ति वाक्यालंकारे 'मुट्ठिवाएणं' ति अतिवेगेन वज्रग्रहणाय यो मुष्टेबन्धने वात उत्पन्नोऽसौ मुष्टिवातस्तेन मुष्टिवातेन 'केसग्गे' त्ति केशाग्राणि 'वीइत्थां' वीजितवान्। ३/११६ ‘इहमागए' ति तिर्यक्लोके 'इहसमोसढे' ति सुसमारपुरे 'इह संपत्ते' ति उद्याने 'इहैवोद्याने 'अज्जे' त्ति 'अद्य' अस्मिनहनि Jain Education Intemational Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ. २ : सू. ११६-१२१ अथवा हे आर्य! पापकर्मबहिर्भूत! आर्य! वा स्वामिन्! 'उवसंपज्जित्ता णं' ति 'उपसंपद्य' उपसंपन्नो भूत्वा 'विहरामि' वर्त्ते 'नाइभुज्जो' ति नैव भूयः 'एवं पकरणयाए' त्ति एवं प्रकरणतायां वर्त्तिष्य इति शेषः, 'दाणिं' ति इदानीं साम्प्रतमित्यर्थः । इह लेष्ट्वादिकं पुद्गलं क्षिप्तं गच्छन्तं क्षेपकमनुष्यस्तावद्ग्रहीतुं न शक्नोतीति दृश्यते, देवस्तु किं शक्नोति ? येन शक्रेण वज्रं क्षिप्तं संहृतं च तथा वज्रं चेद् गृहीतं चमरः कस्मान्न गृहीत इत्यभिप्रायतः । प्रस्तावनोपेतं प्रश्नोत्तरमाह ३/११८ ‘भंते! इत्यादि, ‘सीहे' त्ति शीघ्रो वेगवान्, स च शीघ्रगमनशक्तिमात्रापेक्षयाऽपि स्यादत आह— 'सीहगई चेव' त्ति शीघ्रगतिरेव नाशीघ्रगतिरपि एवं भूतश्च कायापेक्षयाऽपि स्यादत आह- 'तुरिय' त्ति त्वरितः त्वरावान्, सच गतेरन्यत्रापि स्यादित्यत आह- 'तुरियगइ' त्ति 'त्वरितगतिः मानसौत्सुक्यप्रवर्त्तितवेगवद्गतिरिति, एकार्था वैते शब्दाः । ३ / ११९ 'संचाइए' त्ति शकित: 'साहित्थिं' ति स्वहस्तेन । 'गइविसए' त्ति इह यद्यपि गतिगोचरभूतं क्षेत्रं गतिविषयशब्देनोच्यते तथाऽपि गतिरेवेह गृह्यते, शीघ्रादिविशेषणानां क्षेत्रेऽयुज्यमानत्वादिति, 'सीहे सीहे चेव' त्ति शीघ्रो वेगवान्, स चानैकान्तिकोऽपि स्यादित्याह --'सीहे' चेव त्ति शीघ्र एव एतदेव प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय पर्यायान्तरेणाहत्वरितस्त्वरितश्चैवेति, 'अप्पे अप्पे देव' त्ति अतिशयेनाल्पोऽतिस्तोक इत्यर्थः । 'मंदे मंदे चेव' त्ति अत्यन्तमन्दः एतेन च देवानां गतिस्वरूपमात्रमुक्तम् । एतस्मिंश्च गतिस्वरूपे सति शक्रवज्रचमराणामेकमाने ऊर्ध्वादौ क्षेत्रे गन्तव्ये यः कालभेदो भवति तं प्रत्येकं दर्शयन्नाह - 'जावइय' मित्यादि अथेन्द्रस्योर्ध्वाधः क्षेत्रगमने कालभेदमाह - 'सव्वत्थोवे सक्कस्से' त्यादि 'सर्वस्तोकं' स्वल्पं शक्रस्य ऊर्ध्वलोकगमने कण्डकं— कालखण्डम् ऊर्ध्वलोककण्डकम् ऊर्ध्वलोकगमनेऽतिशीघ्रत्वात्तस्य, अधोलोकगमने कण्डकं-कालखण्डमधोलोककण्डकं संख्यातगुणम् ऊर्ध्वलोककण्डकापेक्षया द्विगुणमित्यर्थः । अधोलोकगमने शक्रस्य मंदगतित्वात्, द्विगुणत्वं च 'सक्कस्स उप्पयणकाले चमरस्स य ओवयण'काले एएणं दोण्णिवि तुल्ला' तथा 'जावतियं खेत्तं' चमरे असुरिंदे असुरराया अहे ओवयइ इक्केणं समएणं तं सक्के दोहिं' ति वक्ष्यमाणवचनद्वयसामर्थ्याल्लभ्यमिति, 'जावइय' मित्यादिसूत्रद्वयमधः क्षेत्रापेक्षं पूर्वदद् व्याख्येयम् एवं खलु इत्यादि च निगमनम्। अथ शक्रादीनां प्रत्येकं गतिक्षेत्रस्याल्पबहुत्वोपदर्शनाय सूत्रत्रयमाह १. अप्रतौ प्रश्तावेनोपेतं Jain Education Intemational. ४९८ भगवती वृत्ति ३ / १२० 'सक्कस्से' त्यादि, तत्र ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च यो गतिविषयोगतिविषयभूतं क्षेत्रमनेकविधं तस्य मध्ये कतरो गतिविषयः कतरस्माद्गतिविषयात्सकाशादल्पादि : ? इति प्रश्नः, उत्तरं तु सर्वस्तोकमधः क्षेत्रं समयेनावपतति, अधो मंदगतित्वाच्छक्रस्य । 'तिरियं संखेज्जे भागे गच्छइ' 'ति' कल्पनया किलैकेन समयेन योजनमधो गच्छति शक्रः तत्र च योजने द्विधाकृते द्वौ भागौ भवतः, तयोश्चैकस्मिन् द्विभागे मीलिते त्रयः संख्येया भागा भवन्ति, अतस्तान् तिर्यग् गच्छति, सार्द्धयोजनमित्यर्थः, तिर्यग्गतौ तस्य शीघ्रगतित्वात् 'उड्डुं संखेज्जे भागे गच्छइ' यान् किल कल्पनया त्रीन् द्विभागांस्तिर्यग्गच्छति तेषु चतुर्थेऽन्यस्मिन् द्विभागे मीलिते चत्वारो द्विभागरूपाः संख्यातभागाः संभवन्ति अतस्तान् ऊर्ध्वं गच्छति' अथ कथं सूत्रे संख्यातभागमात्रग्रहणे सतीदं नियतभागव्याख्यानं क्रियते ? उच्यते 'जावइयं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे ओवयइ एक्केणं समएणं तं सक्के दोहिं' तथा 'सक्कस्स उप्पयणकाले चमरस्स ओवयणकाले एतेणं वि दो (वि) ण्णिवि तुल्ला' इति वचनतो निश्चीयते शक्रो यावदधो द्वाभ्यां समयाभ्यां गच्छति तावदूर्ध्वमेकेनेति द्विगुणमध: क्षेत्रादूर्ध्वक्षेत्रम्, एतयोश्चापान्तरालवर्त्ति तिर्यक्क्षेत्रमतोऽपान्तरालप्रमाणेनैव तेन भवितव्यमित्यधः क्षेत्रापेक्षया तिर्यक्क्षेत्रं सार्द्धं योजनं भवतीति व्याख्यातम् । आह च चूर्णिकारः 'एगेणं समएणं ओवयइ अहे जोयणं एगेणेव समएणं तिरियं दिवङ्कं गच्छइ, उड्ड दो जोयणाणि सक्को त्ति'। ३/१२१ ‘चमरस्स ण' मित्यादि 'सव्वत्थोवं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया उड् उप्पयइ एक्केणं समएणं' ति ऊर्ध्वगतौ मंदगतित्वात्तस्य, तच्च किल कल्पनया त्रिभागन्यूनं गव्यूतत्रयं ‘तिरियं संखेज्जे भागे' त्ति तस्मिन्नेव पूर्वोक्ते त्रिभागन्यूनगव्यूतत्रये द्विगुणिते ये योजनस्य संख्येया भागा भवन्ति तान् गच्छति, तिर्यग्गतौ शीघ्रतरगतित्वात्तस्य, 'अहे संखेज्जे भागे गच्छइ' ति पूर्वोक्ते त्रिभागद्वयन्यूने गव्यूतषट्के त्रिभागन्यूनगव्यूतत्रये मीलिते ये संख्येयभागा भवन्ति तान् गच्छति, योजनद्वयमित्यर्थः । अथ कथं संख्यातभागमात्रोपादाने नियतसंख्येयभागत्वं व्याख्यायते ? उच्यते शक्रस्योर्ध्वगतेश्चमरस्य चाधोगतेः समत्वमुक्तं शक्रस्य चोर्ध्वगमनं समयेन योजनद्वयरूपं कल्पितमतश्चमरस्याधोगमनं समयेन योजनद्वयमुक्तं, तथा 'जावइयं सक्के देविंदे देवराया उ उप्पयइ एगेणं समएणं तं वज्जं दोहिं जं वज्जं दोहिं तं चमरे तिहिं ति वचनसामर्थ्यात् प्रतीयते शक्रस्य यदूर्ध्वं Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४९९ श.३: उ.२ः सू.१२१-उ.३: सू.१३४ गतिक्षेत्रं तस्य विभागमात्ररूपं चमरस्योर्ध्वगतिक्षेत्रमतो व्याख्यातं त्रिभागन्यूनत्रिगव्यूतमानं तदिति, ऊर्ध्वक्षेत्राधोगतिक्षेत्रयोश्चापान्तरालवर्ति तिर्यक्षेत्रमितिकृत्वा विभागद्वयन्यूनषड्गव्यूतमानं तद्व्याख्यातमिति। यच्च चूर्णिकारेणोक्तं 'चमरो उड़े जोयण' मित्यादि, तनावगतम्। ३/१२२ 'वज्जं जहा सक्कस्स तहेव' त्ति वज्रमाश्रित्य गतिविषय स्याल्पबहुत्वं वाच्यं यथा शक्रस्य तथैव, विशेषद्योतनार्थं त्वाह-'नवरं विसेसाहियं कायव्वं' ति, तच्चैवम्-वज्जस्स णं भंते! उड्डे अहे तिरियं च गइविसयस्स कयरे कयरेहितो अप्पं वा बहं वा? गोयमा! सव्वत्थोवं खेत्तं वज्जे अहे ओवयइ एक्केणं समएणं तिरियं विसेसाहिए भागे गच्छइ उ8 विसेसाहिए भागे गच्छइ' त्ति वाचनान्तरे तु एतद्साक्षादेवोक्तमिति। अस्यायमर्थ:-सर्वस्तोकं क्षेत्रं वज्रमधो व्रजत्येकेन समयेन, अधो मंदगतित्वात्तस्य वज्रस्य, तच्च किल कल्पनया त्रिभागन्यूनं योजनं, तिर्यक् च विशेषाधिकौ भागौ गच्छति, शीघ्रतरगतित्वात्। तौ च किल योजनस्य द्वौ त्रिभागौ विशेषाधिकौ सत्रिभागं गव्यूतत्रयमित्यर्थः। तथा ऊर्ध्वं विशेषाधिकौ भागौ गच्छति, यौ किल तिर्यविशेषाधिको भागौ गच्छति, तावेवोर्ध्वगतौ किंचिद्विशेषाधिकौ, ऊर्ध्वगतौ शीघ्रतमगतित्वात्परिपूर्ण योजनमित्यर्थः। अथ कथं सामान्यतो विशेषाधिकत्वेऽभिहिते नियतभागत्वं व्याख्यायते? उच्यते 'जावइयं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे ओवयइ एक्केणं समएणं तावइयं सक्के दोहिं जं सक्के दोहिं तं वज्जे तिहिं' ति वचनसामर्थ्याच्छक्राधोगत्यपेक्षया वज्रस्य त्रिभागन्यूनाधोगतिर्लब्धेति त्रिभागन्यूनं योजनमिति सा व्याख्या। तथा 'सक्कस्स ओवयणकाले वज्जस्स य उप्पयणकाले एस णं दोण्हवि तुल्ले' इति वचनादवसीयते यावदेकेन समयेन शक्रोऽधो गच्छति तावद्वज्रमज़, शक्रश्चैकेनाध: किल योजनं एवं वज्रमूर्ध्वं योजनमिति कृत्वा ऊर्ध्वं योजनं तस्योक्तम्, ऊर्ध्वाधोगत्योश्च तिर्यग्गतेरपान्तरालवर्तित्वात्तदपान्तरालवत्त्येव सत्रिभागगव्यूतत्रयलक्षणं तिर्यग्गतिप्रमाणमुक्तमिति अनन्तरगतिविषयस्य क्षेत्रस्याल्पबहत्वमुक्तं, अथ गतिकालस्य तदाह३/१२३-१२५ ‘सक्कस्स ण' मित्यादि सूत्रत्रयम्। शक्रादीनां गतिकालस्य प्रत्येकमल्पबहुत्वमुक्तम्। अथ परस्परापेक्षया तदाह - ३/१२६ 'एयस्स णं भंते! वज्जस्से' त्यादि ‘एए णं बेण्णिवि तुल्ल' त्ति शक्रचमरयोः स्वस्थानगमनं प्रति वेगस्य समत्वादुत्पतनावपतनकालौ तयोस्तुल्यौ परस्परेण, 'सव्वत्थोव' त्ति वक्ष्यमाणापेक्षयेति, तथा 'सक्कस्से' त्यादौ 'एस णं दोण्हवि तुल्ले' त्ति उभयोरपि तुल्यः शक्रावपतनकालो वज्रोत्पातकालस्य तुल्य: वज्रोत्पातकालश्च शक्रावपतनकालस्य तुल्य इत्यर्थः । 'संखेज्जगुणे' त्ति शक्रोत्पातचमरावपातकालापेक्षया। एवमनन्तरसूत्रमपि भावनीयम्। ३/१२६ 'ओहयमणसंकप्पे' त्ति उपहतो-ध्वस्तो मनस: संकल्पो - दर्पहर्षादिप्रभवो विकल्पो यस्य स तथा 'चिंतासोगसागरमणुपविढे' ति चिन्ता-पूर्वकृतानुस्मरणं शोकोदैन्यं तावेव सागर इति विग्रहोऽतस्तं 'करतलपल्हत्थमुहे' त्ति करतले पर्यस्तम्-अधोमुखतया न्यस्तं मुखं येन स तथा। ३/१२९ 'जस्सम्हि पभावेणं' ति यस्य प्रभावेण इहागतोऽस्मि भवामीति योगः, किंभूतः सन्नित्याह 'अकिट्टे' त्ति अकृष्टः अविलिखित: अक्लिष्टो वा-अबाधितो निवेदनमित्यर्थः, एतदेव कथमित्याह-'अव्वहिए' त्ति अव्यथितः, अताडित: अताडितत्वेऽपि ज्वलनकल्पकुलिशसत्रिकर्षात्परिताप: स्यादतस्तं निषेधयन्नाह-'अपरिताविए' त्ति, 'इहमागए' त्यादि विवक्षया पूर्ववद्व्याख्येयम् ‘इहेव अज्जे' त्यादि इहैव स्थाने अद्य अस्मिन्नहनि उपसंपद्य प्रशान्तो भूत्वा विहरामीति । पूर्वमसुराणां भवप्रत्ययो वैरानुबन्धः सौधर्मगमने हेतुरुक्तः। अथ तत्रैव हेत्वन्तराभिधानायाह३/१३१ 'किं पत्तियं ण' मित्यादि तत्र 'किं पत्तियं' ति कः प्रत्ययः कारणं यत्र तत् किं प्रत्ययम् 'अहुणोववण्णाणं' ति उत्पन्नमात्राणाम्। चरिमभवत्थाण व त्ति भवचरमभागस्थानाम्? च्यवनावसर इत्यर्थः। ।। तृतीयशते द्वितीयोद्देशकः ।। तृतीय उद्देशकः द्वितीयोद्देशके चमरोत्पात उक्तः स च क्रियारूप: अतः क्रियास्वरूपाभिधानाय तृतीयोद्देशक: ३/१३३ 'तेणं कालेण' मित्यादि। ३/१३४ तत्र 'पंच किरियाओ' त्ति करणं क्रिया कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टेत्यर्थः। 'काइय' ति चीयत इति, काय:-शरीरं तत्र भवा तेन वा निर्वत्ता कायिकी, 'अहिगरणिय' ति अधिक्रियते नरकादिष्वात्माऽनेनेत्यधिकरणम्-अनुष्ठानविशेष:। बाह्यं वा वस्तु चक्रखड्गादि । तत्र भवा तेन वा निर्वृत्ता इत्याधिकरणिकी। ‘पाउसिय' ति प्रद्वेषो-मत्सरस्तत्र भवा तेन वा निर्वृत्ता स एव वा प्राद्वेषिकी। ‘पारितावणिय' त्ति परितापनं परिताप:पीडाकरणं तत्र भवा तेन वा निर्वत्ता तदेव वा पारितापनिकी। Jain Education Intemational Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.३ : सू.१३४-१४६ ५०० भगवती वृत्ति 'पाणातिवायकिरिय' त्ति प्राणातिपात:--प्रसिद्धस्तद्विषया क्रिया प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणातिपातक्रिया। ३/१३५ 'अणुवरयकायकिरिया य' ति अनुपरत:-अविरतस्तस्य कायक्रियाऽनुपरतकायक्रिया, इयमविरतस्य भवति। 'दुप्पउत्तकायकिरिया य' त्ति दुष्टं प्रयुक्तो दुःप्रयुक्तः स चासौ कायश्च दुःप्रयुक्तकायस्तस्य क्रिया दुःप्रयुक्तकायक्रिया, इयं प्रमत्तसंयतस्यापि भवति, विरतिमत: प्रमादे सति कायदुष्ट प्रयोगस्य सद्भावात्। ३/१३६ 'संजोयणाहिगरणकिरिया य' त्ति संयोजनं- हलगरविष कूटयंत्राद्यंगानां पूर्वनिर्वर्तितानां मीलनं तदेवाधिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया। 'निव्वत्तणाहिगरणकिरिया य' त्ति निवर्तनम्-असिशक्तितोमरादीनां निष्पादनं तदेवाधिकरणक्रिया निर्वर्तनाधिकरणक्रिया। ३/१३६ 'जीवपाओसिया य' त्ति जीवस्य-आत्मपरतदुभयरूपस्योपरि प्रद्वेषाद् या क्रिया प्रद्वेषकरणमेव वा। 'अजीवपाउसिया य' त्ति अजीवस्योपरि प्रद्वेषाद् या क्रिया प्रद्वेषकरणमेव वा। ३/१३८ 'सहत्थपारितावणिया य' ति स्वहस्तेन स्वस्य परस्य तदुभयस्य वा परितापनाद्-असातोदीरणाद् या क्रिया परितापनाकरणमेव वा सा स्वहस्तपारितापनिकी एवं परहस्तपारितापनिक्यपि। ३/१३९ एवं प्राणातिपातक्रियाऽपि। उक्ता क्रिया। अथ तज्जन्यं कर्म तवेदनां चाधिकृत्याह३/१४० 'पुन्नि भंते!' इत्यादि क्रिया-करणं तज्जन्यत्वात्कर्मापि क्रिया, अथवा क्रियत इति क्रिया कर्मैव, वेदना तु कर्मणोऽनुभव:, सा च पश्चादेव भवति, कर्मपूर्वकत्त्वात्तदनुभवनस्येति। अथ क्रियामेव स्वामिभावतो निरूपयन्नाह--- ३/१४१ 'अत्थि ण' मित्यादि, अस्त्ययं पक्षो यदुत क्रिया क्रियते क्रिया भवति। ३/१४२ प्रमादप्रत्ययात् यथा दुःप्रयुक्तकायक्रियाजन्यं कर्म, योगनिमित्तं च यथा ऐापथिकं कर्म। क्रियाधिकारादिदमाह३/१४३ 'जीवे ण' मित्यादि, इह जीवग्रहणेऽपि सयोग एवासौ ग्राह्यः अयोगस्यैजनादेरसंभवात्। 'सदा नित्यम्। 'समियं' ति सप्रमाणम्। 'एयइ' त्ति एजते-कम्पते 'एजु कम्पने' इति वचनात्। वेयइ' त्ति 'व्येजते' विविधं कम्पते। 'चलइ' त्ति स्थानान्तरं गच्छति। ‘फंदइ' ति स्पंदते किंचिच्चलति 'स्पदि किंचिच्चलने' इति वचनात् अन्यमवकाशं गत्वा पुनस्तत्रैवागच्छतीत्यन्ये। 'घट्टई' त्ति सर्वदिक्षु चलति पदार्थान्तरं वा स्पृशति। 'खुबभइ' त्ति क्षुभ्यति पृथिवीं प्रविशति, क्षोभयति वा पृथिवीं बिभेति वा। 'उदीरइ' ति प्राबल्येन प्रेरयति पदार्थान्तरं प्रतिपादयति वा। शेषक्रियाभेदसंग्रहार्थमाह-'तं तं भावं परिणमइ' त्ति उत्क्षेपणावक्षेपणाकञ्चनप्रसारणादिकं परिणाम यातीत्यर्थः। एषां चैजनादिभावानां क्रमभावित्वेन सामान्यत: सदेति मन्तव्यं न तु प्रत्येकापेक्षया, क्रमभाविनां युगपद्भावादिति। ३/१४४ 'तस्स जीवस्स 'अंते' त्ति मरणांते 'अंतकिरिय' त्ति सकलकर्मक्षयरूपा। ३/१४५ 'आरभइ' त्ति आरभते पृथिव्यादीनपद्रवयति। 'सारभइ' त्ति संरभते तेषु विनाशसंकल्पं करोति, 'समारभइ' त्ति समारभते तानेव परितापयति, आह च"संकप्पो संरंभो परितावकरो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवओ सव्वनयाणं विसुद्धाणं॥" इदं च क्रियाक्रियावतो कथंचिभेद इत्यभिधानाय तयो. समानाधिकरणत: 'सूत्रमुक्तम् । अथ तयोः कथंचिद्भेदोऽप्यस्तीति दर्शयितुं पूर्वोक्तमेवार्थं व्यधिकरणत आह—'आरंभे' इत्यादि आरंभे—अधिकरणभूते वर्त्तते जीव:, एवं संरम्भे समारंभे च, अनन्तरोक्तवाक्यार्थद्वयानुवादेन प्रकृतयोजनमाह-आरंभमाण: संरभमाण: समारंभमाणो जीव इत्यनेन प्रथमो वाक्यार्थोऽनूदित: आरंभे वर्तमान इत्यादिना तु द्वितीयः ‘दुक्खावणयाए' इत्यादौ ताशब्दस्य प्राकृतप्रभवत्त्वात् 'दु:खापनायां' मरणलक्षणदुःखप्रापणायाम् अथवा इष्टवियोगादि दुःखहेतुप्रापणायां वर्तत इति योगः। तथा 'शोकापनायां' दैन्यप्रापणायाम्। 'जूरावणयाए' त्ति शोकातिरेकाच्छरीरजीर्णताप्रापणायाम्। 'तिप्पावणयाए' त्ति तेपापनायां 'तिपृष्टेप क्षरणार्थी' इति वचनात् शोकातिरेकादेवाश्रुलालादिक्षरणप्रापणायां 'पिट्टावणयाए' त्ति पिट्टनप्रापणायां ततश्च परितापनायां शरीरसन्तापे वर्त्तते, क्वचित् पठ्यते 'दुक्खणयाए' इत्यादि, तच्च व्यक्तमेव, यच्च तत्र 'किलामणयाए उद्दावणयाए' इत्यधिकमभिधीयते। तत्र 'किलामणयाए' त्ति ग्लानिनयने 'उद्दावणयाए' त्ति उत्त्रासने ।। उक्तार्थविपर्ययमाह३/१४६ ‘जीवे ण' मित्यादि। ‘णो एयई' त्ति शैलेशीकरणे योगनिरोधान्नो एजत इति। एजनादिरहितस्तु नारंभादिषु वर्त्तते तथा च न प्राणादीनां दुःखापनादिषु। ३/१४६ तथाऽपि योगनिरोधाभिधानशक्लध्यानेन सकलकर्मध्वं सरूपाऽन्तक्रिया भवति तत्र दृष्टान्तद्वयमाह---- १. स प्रतौ चक्ररथखड्गादि Jain Education Intemational Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५०१ श.३ : उ.३: सू.१४८-१५२ ३/१४८ ‘से जहा' इत्यादि 'तणहत्थयं' ति तृणपूलकं 'जायतेयंसि' त्ति वह्यौ । 'मसमसाविज्जइ' त्ति शीघ्रं दह्यते। इह च दृष्टान्तद्वयस्याप्युपनयनार्थ: सामर्थ्यगम्यो, यथा एवमेजनादिरहितस्य शुक्लध्यानचतुर्थभेदानलेन कर्मदाह्यदहनं स्यादिति। अथ निःक्रियस्यैवान्तक्रिया भवतीति नौदृष्टान्तेनाह-'से जहाणामए' इत्यादि, इह शब्दार्थः प्राग्वत्रवरम् 'उद्दाइ' त्ति उद्याति जलस्योपरि वर्त्तते 'अत्ततासंवुडस्स' ति आत्मन्यात्मना संवृतस्य प्रतिसंलीनस्येत्यर्थ, एतदेव ‘इरियासमियस्से 'त्यादिना प्रपंचयति-'आउत्तं' ति आयुक्तमुपयोगपूर्वकमित्यर्थः 'चक्खुपम्हनिवायमवि' त्ति किंबहुना आयुक्तगमनादिना स्थूलक्रियाजालेनोक्तेन? यावच्चक्षुःपक्ष्मनिपातोऽपि, प्राकृतत्वाल्लिंगव्यत्ययः, उन्मेषनिमेषमात्रक्रियाऽप्यस्ति आस्तां गमनादिका तावदिति शेषः। 'वेमाय' त्ति विविधमात्रा, अन्तर्मुहूर्तादेर्देशोनपूर्वकोटीपर्यन्तस्य क्रियाकालस्य विचित्रत्वात्, वृद्धा: पुनरेवमाहुः-यावता चक्षुषो निमेषोन्मेषमात्राऽपि क्रिया क्रियते तावताऽपि कालेन विमात्रया स्तोकमात्रयाऽपीति, क्वचिद्विमात्रेत्यस्य स्थाने 'सपेहाए' त्ति दृश्यते तत्र च स्वप्रेक्षया स्वेच्छया चक्षुःपक्ष्मनिपातो न तु परकृत: 'सुहम' त्ति सूक्ष्मबन्धादिकाला। 'ईरियावहिय' त्ति ईर्यापथोगमनमार्गस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी केवलयोगप्रत्ययेति भावः। 'किरिय' त्ति कर्मसातवेदनीयमित्यर्थः ‘कज्जइ' ति क्रियते भवतीत्यर्थः, उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगीकेवलिलक्षणगुणस्थानकत्रयवर्ती वीतरागोऽपि हि सक्रियत्वात्सातवेद्यं कर्म बघ्नातीति भावः। 'से ति ईर्यापथिकी क्रिया ‘पढमसमयबद्धपटु' त्ति बद्धा कर्मतापादनात् स्पृष्टा जीवप्रदेश: स्पर्शनात्तत: कर्मधारये तत्पुरुषे च सति प्रथमसमयबद्धस्पृष्टा, तथा द्वितीयसमये वेदिता-अनुभूतस्वरूपा, एवं तृतीयसमये निर्जीर्णा अनुभूतस्वरूपत्वेन जीवप्रदेशेभ्य: परिशाटितेति, एतदेव वाक्यान्तरेणाह-सा बद्धा स्पृष्टा प्रथमे द्वितीये तु 'उदीरिता' उदयमुपनीता, किमुक्तं भवति? वेदिता, न होकस्मिन् समये बन्ध उदयश्च संभवतीत्येव व्याख्यातम्। तृतीये तु निर्जीर्णा, ततश्च 'सेयकाले ति एष्यत्काले 'अकम्मं वावि' ति अकर्माऽपि च भवति, इह च यद्यपि तृतीयेऽपि समये कर्म अकर्म भवति तथाऽपि तत्क्षण एवातीतभावकर्मत्वेन द्रव्यकर्मत्वात् तृतीये निर्जीणं कमेंति व्यपदिश्यते, चतुर्थादिसमयेषु त्वकर्मेति 'अत्तत्तासंवुडस्से' त्यादिना चेदमुक्तं—यदि संयतोऽपि साश्रव: कर्म बध्नाति तदा सुतरामसंयतः, अनेन च जीवनाव: कर्मजलपूर्यमाणतयार्थतोऽधोनिमज्जनमुक्तं, सक्रियस्य कर्मबन्धभणनाच्चाक्रियस्य तद्विपरीतत्वात्कर्मबन्धाभाव उक्तः, तथा च जीवनावोऽनाश्रवतायामूर्ध्वगमनं सामर्थ्यादुपनीतमवसेयमिति। अथ यदुक्तं श्रमणानां प्रमादप्रत्यया क्रिया भवतीति तत्र प्रमादपरत्वं तद्विपक्षत्वात्तदितरत्वं संयतस्य कालतो निरूपयन्नाह३/१४९ ‘पमत्ते' त्यादि 'सव्वावि य णं पमत्तद्ध, ति सर्वाऽपि च सर्वकालसंभवाऽपि च प्रमत्ताद्वा प्रमत्तगुणस्थानककालः कालत: प्रमत्ताद्वासमूहलक्षणं कालमाश्रित्य 'कियच्चिरं' कियन्त कालं यावद् भवतीति प्रश्न: ननु कालत इति न वाच्यं कियच्चिरमित्यनेनैव गतार्थत्वात्, नैवं, क्षेत्रत इत्यस्य व्यवच्छेदार्थत्वात्, भवति हि क्षेत्रत: कियच्चिरमित्यपि प्रश्नः' यथाऽवधिज्ञानं क्षेत्रत: कियच्चिरं भवति? त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, कालतस्तु सातिरेका षट्षष्टिरिति, 'एक्कं समयं' ति कथम्? उच्यते, प्रमत्तसंयमप्रतिपत्तिसमयसमनन्तरमेव मरणात्। 'देसूणा पुव्वकोडि' ति किल प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणे एव प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानके, ते च पर्यायेण जायमाने देशोनपूर्वकोटिं यावदुत्कर्षेण भवतः, संयमवतो हि पूर्वकोटिरेव परमायुः, स च संयममष्टासु वर्षेषु गतेष्वेव लभते, महान्ति चाप्रमत्तान्तर्मुहूर्तापेक्षया प्रमत्तान्तर्मुहूर्त्तानि कल्प्यन्ते। एवं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणानां प्रमत्ताद्धानां सर्वासां मीलनेन देशोना पूर्वकोटी कालमानं भवति। अन्ये त्वाह:-अष्टवर्षोनां पूर्वकोटि यावदुत्कर्षतः प्रमत्तसंयतता स्यादिति। ३/१५० एवमप्रमत्तसूत्रमपि, नवरं 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' ति किल अप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्यान्तर्मुहूर्त्तमध्ये मृत्युर्न भवतीति। चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंयतवर्ज: सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त उच्यते, प्रमादाभावात्। स चोपशमश्रेणी प्रतिपद्यमानो मुहूर्ताभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघन्यकालो लभ्यत इति । देशोनपूर्वकोटी तु केवलिनमाश्रित्येति। ‘णाणाजीवे पडूच्च सव्वद्ध' मित्युक्तम्। अथ सर्वाद्धाभाविभावान्तरप्ररूपणायाह३/१५२ 'भंते! त्ति' इत्यादि ‘अतिरेग' ति तिथ्यन्तरापेक्षया अधिकतरमित्यर्थः 'लवणसमद्दवत्तव्वया-नेयव्व' ति जीवाभिगमोक्ता, कियद्दरं यावदित्याह-'जाव लोयट्ठी' त्यादि. सा चैवमर्थत:-कस्माद् भदन्त! लवणसमुद्रश्चतुर्दश्यादिष्वतिरेकेण वर्द्धते वा हीयते वा? इह प्रश्ने उत्तरंलवणसमुद्रस्य मध्यभागे दिक्षु चत्वारो महापातालकलशा योजनलक्षप्रमाणाः सन्ति, तेषां चाधस्तने त्रिभागे वायुर्मध्यमे वायुदके उपरितने तूदकमिति। तथाऽन्ये क्षुद्रपातालकलशा योजनसहस्रप्रमाणाश्चतुरशीत्युत्तराष्टशताधिकसप्तसहस्रसंख्या १. स प्रतौ तथापि च। अ प्रतौ तथा च २.स प्रतौ स्तोकया मात्रया ३. अ. स. प्रतौ न ह्येकस्मिन् समये उदीरणा उदयश्च संभवतीति Jain Education Intemational Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ. ३ : सू. १५२- उ. ४: सू. १७० वाय्वादियुक्तत्रिभागवन्तः सन्ति तदीयवातविक्षोभवशाज्जलवृद्धिहानी अष्टम्यादिषु स्यातां, तथा लवणशिखाया दशयोजनानां सहस्राणि विष्कम्भ: षोडशः उच्छ्रयो योजनार्द्धमुपरि वृद्धिहानी इत्यादि। अथ कस्माल्लवणो जम्बूद्वीपं नोत्प्लावयति ? अर्हदादिप्रभावाल्लोकस्थितिर्वेषा इति । एतदेवाह - 'लोयट्ठिइ' त्ति लोकव्यवस्था 'लोयाणुभावे' त्ति लोकप्रभाव इति । ।। तृतीयशते तृतीयोद्देशकः । । चतुर्थ उद्देशकः अनन्तरोद्देशके क्रियोक्ता, सा च ज्ञानवतां प्रत्यक्षेति तमेव क्रियाविशेषमाश्रित्य विचित्रतया दर्शयंश्चतुर्थोद्देशकमाहतस्य चेदं सूत्रम् ३ / १५४ 'अणगारे ण' मित्यादि, तत्र 'भावियप्प' त्ति भावितात्मा संयमतपोभ्याम् एवंविधानामनगाराणां हि प्रायोऽवधिज्ञानादिलब्धयो भवन्तीति कृत्वा भावितात्मेत्युक्तम्। 'विउव्वियसमुग्धाएणं समोहयं' ति विहितोत्तरवैक्रियशरीरमित्यर्थः । 'जाणरूवेणं' ति यानप्रकारेण शिबिकाद्याकारवता वैक्रियविमानेनेत्यर्थः । 'जामाणं' ति यान्तं गच्छन्तम् । 'जाणइ' त्ति ज्ञानेन 'पास' त्ति दर्शनेन ? उत्तरमिह चतुर्भंगी, विचित्रत्वादवधिज्ञानस्येति । ३/१५६ 'अंतो' त्ति मध्यं काष्ठसारादि 'बाहिं' ति बहिर्वर्त्ति त्वक्पत्रसंचयादि । ३/१५८-१६३ ‘एवं मूलेण' मित्यादि 'एव' मिति मूलस्कन्दसूत्राभिलापेन मूलेन सह कन्दादिपदानि वाच्यानि यावद्बीजपदम् । तत्र मूलं १ कन्दरः स्कन्ध३ : त्वक्४ शाखा५ प्रवालं६ पत्रं७ पुष्पं फलं९ बीजं १० चेति दशपदानि । एषां च पंचचत्वारिंशद्द्विकसंयोगाः एतावन्त्येवेह चतुर्भंगीसूत्राण्यध्येयानीति। एतदेव दर्शयितुमाह - ' एवं कंदेण वी' त्यादि चौभंगी यंत्र १. मूल कंद २. मूल-स्कन्ध ३. मूल- त्वचा ४. मूल - शाखा ५. मूल-प्रवाल ६. मूल-पत्र ७. मूल-पुष्प ८. मूल-फल ९. मूल-बीज १. कंद - स्कन्ध २. कंद - त्वचा ३. कंद- शाखा ४. कंदप्रवाल ५. कंद - पत्र ६. कंद- पुष्प ७. कंद-फल ८. कंदबीज १. स्कंध - त्वचा २. स्कन्ध-शाखा ३. स्कन्ध- प्रवाल ४. स्कन्धपत्र ५. स्कन्ध- पुष्प ६. स्कन्ध-फल ७. स्कन्ध-बीज १. त्वचा शाखा २. त्वचा - प्रवाल ३. त्वचा-पत्र ४. त्वचा १. अ प्रतौ विक्रियावत् ५०२ Jain Education Intemational पुष्प ५. त्वचा - फल ६ त्वचा - बीज १. शाखा- प्रवाल २ शाखा पत्र ३ शाखा पुष्प ४. शाखाफल ५. शाखा- बीज १. प्रवाल- पत्र २. प्रवाल- पुष्प ३ प्रवाल- फल ४. प्रवाल- बीज १. पत्र- पुष्प २. पत्र - फल ३ पत्र - बीज १. पुष्प - फल २. पुष्प - बीज १. फल- बीज 'देवं विउव्वियसमुग्धाएणं समोहयं' ति प्रागुक्तमतो वैक्रियाधिकारादिदमाह ३ / १६४ 'पभूण' मित्यादि 'जाणं' ति शकटं 'जुग्गं' ति गोल्लविषयप्रसिद्धं जम्पानं द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशोभितं 'गिल्ली' त्ति हस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीव । 'थिल्लि' त्ति लाटानां यदश्वपल्यानं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते 'सिय' त्ति शिबिका कूटाकाराच्छादितो जम्पानविशेष:, 'संदमाणिय' त्ति पुरुषप्रमाणायामो जम्पानविशेषः । ' एगं महं पडागासंठियं' ति महत् पूर्वप्रमाणापेक्षया पताकासंस्थितं स्वरूपेणैव वायोः पताकाकारशरीरत्वाद् वैक्रियावस्थायामपि तस्य तदाकारस्यैव भावादिति । ३ / १६६ 'आइड्डिए' त्ति आत्मर्द्धाय स्वशक्त्या स्वलब्ध्या वा ३/१६७ 'आयकम्मुण' त्ति आत्मक्रियया ३/१६८ 'आयप्पओगेणं' ति न परप्रयुक्त इत्यर्थः 'ऊसिओदयं त उच्छृत — ऊद्धर्वम्, उदय — आयामो यत्र गमने तदुच्छ्रितोदयम् ऊर्ध्वपताकमित्यर्थः क्रियाविशेषणं चेदम्। 'पतोदयं' पतदुदयं - पतितपताकं गच्छति, ऊर्ध्वपताका स्थापना चेयम् पतितपताकास्थापना त्वियम् भगवती वृत्ति ३ / १७० 'एगओपडागं' ति एकत: - एकस्यां दिशि पताका यत्र तदेकतः पताकं स्थापनात्वियम् 'दुहओपडागं' ति द्विधापताकं स्थापना त्वियम् रूपान्तरक्रियाधिकाराद्बलाहकसूत्राणि - Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५०३ श.३: उ. ४:सू.१७२-१९२ ३/१७२ 'बलाहए' त्ति मेघ: ‘परिणामेत्तए' त्ति बलाहकस्याजीवत्वेन विकुर्वणाया असंभवात् परिणामयितुमित्युक्तं परिणामश्चास्य विश्रसारूपः। ३/१७४ 'नो आयड्डीए' त्ति अचेतनत्वान्मेघस्य विवक्षिताया: शक्तेरभावान्नात्मा गमनमस्ति, वायना देवेन वा प्रेरितस्य तु स्यादपि गमनमतोऽभिधीयते–'परिड्डीए' त्ति। ३/१७९ एवं 'पुरिसे आसे हत्थि' त्ति स्त्रीरूपसूत्रमिव पुरुषरूपाश्व रूपहस्तिरूपसूत्राण्यध्येतव्यानि, यानरूपसूत्रे विशेषोऽस्तीति तदर्शयति३/१८० 'पभू णं भंते! बलाहए एगं महं जाणरूवं परिणामेत्ता' इत्यादि 'पतोदयंपि गच्छइ' इत्येतदन्तं स्त्रीरूपसूत्रसमानमेव, विशेष: पुनरयम्३/१८१ से भंते! किं एगओचक्कवालं दहओचक्कवालं गच्छइ? गोयमा! एगओचक्कवालंपि गच्छइ दुहओचक्कवालंपि गच्छइ' त्ति। अस्यैवोत्तररूपमंशमाह-नवरं 'एगओ' इत्यादि, इह यानं-शकटं, चक्रवालं-चक्रं, शेषसूत्रेषु त्वयं विशेषो नास्ति, शकट एव चक्रवालसद्भावात्, ततश्च युग्यगिल्लिथिल्लिशिबिकास्यन्दमानिकारूपसूत्राणि स्त्रीरूपसूत्रवदध्येयानि, एतदेवाह३/१८२ 'जुग्गगिल्लिथिल्लिसीयासंदमाणियाणं तहेव' त्ति। परिणामाधिकारादिदमाह३/१८३ 'जीवे ण' मित्यादि, 'जे भविए' त्ति यो योग्य: "किंलेसेस' त्ति का कृष्णादीनामन्यतमा लेश्या येषां ते तथा तेषु किं लेश्येषु मध्ये, 'जल्लेसाई' ति या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यल्लेश्यानि, यस्या लेश्यायाः सम्बन्धीनीत्यर्थ: 'परियाइत्त' त्ति पर्यादाय-परिगृह्य भावपरिणामेन कालं करोति म्रियते तल्लेश्येषु नारकेषूत्पद्यते, भवन्ति चात्र गाथा:"लेसाहिं सव्वाहि पढमे समयंमि परिणयाहिं तु। नो कस्सवि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स। लेसाहिं सव्वाहि चरमे समयंमि परिणयाहिं तु। नो कस्सवि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स ।। अंतमुहुत्तंमि गए अंतमुहुत्तंमि सेसए चेव। लेस्साहिं परिणयाहिं जीवा गच्छंति परलोयं ।।" - उत्तरज्झयणाणि ३४/५८,५९,६० चतुर्विंशतिदण्डकस्य शेषपदान्यतिदिशन्नाह–'एव' मित्यादि एवमिति नारकसूत्राभिलापेनेत्यर्थः 'जस्स' त्ति असुरकुमारादेर्या लेश्या कृष्णादिका सा लेश्या तस्यासुरकुमारादेर्भणितव्येति। नन्वतावतैव विवक्षितार्थसिद्धेः किमर्थं भेदेनोक्तं जाव ३/१८४-१८५ जीवे णं भंते! इत्यादि? उच्यते, दण्डकपर्यवसान सूत्रदर्शनार्थम्। एवं तर्हि वैमानिकसूत्रमेव वाच्यं स्यान्न तु ज्योतिष्कसूत्रमिति, सत्यं, किन्तु ज्योतिष्कवैमानिका: प्रशस्तलेश्या एव भवन्तीत्यस्य दर्शनार्थं तेषां भेदेनाभिधानं, विचित्रत्वाद् वा सूत्रगतेरिति। देवपरिणामाधिकारादनगाररूपद्रव्यदेवपरिणामसूत्राणि३/१८६,१८७ 'बाहिरए त्ति औदारिकशरीरव्यतिरिक्तान् वैक्रियानित्यर्थ: 'वेभारं' ति वैभाराभिधानं राजगृहक्रीडापर्वतम्। उल्लंपित्तए वे' त्यादि तत्रोल्लंघनं सकृत् प्रल्लंघनं पुन: पुनरिति, ‘णो इणद्वे समढे' त्ति वैक्रियपुद्गलपर्यादानं विना वैक्रियकरणस्यैवाभावात् बाह्यपुद्गलपर्यादाने त् सति पर्वतस्योल्लंघनादौ प्रभुः स्यात्, महत: पर्वतातिक्रामिणः शरीरस्य संभवादिति। ३/१८८ 'जावइयाई इत्यादि यावन्ति रूपाणि पशुपुरुषादिरूपाणि 'एवइयाई' ति एतावंति 'विउविरा' त्ति वैक्रियाणि कृत्वा वैभारं पर्वतं समं सन्तं विषमं तु समं कर्तुमिति सम्बन्धः। किं कृत्वेत्याह-अन्त: मध्ये वैभारस्यैवान्प्रविश्य। ३/१९० 'मायी' त्ति मायावान् उपलक्षणत्वादस्य सकषाय: प्रमत्तः इति यावत्, अप्रमत्तो हि न वैक्रियं कुरुत इति। ३/१९१ "पणीय' त्ति प्रणीतं गलत्स्नेहबिन्दुकं 'भोच्चा भोच्चा वामेति' वमनं करोति विरेचनां वा करोति वर्णबलाद्यर्थं यथा प्रणीतभोजनं तद्वमनं च विक्रियास्वभावं मायित्वाद् भवति एवं वैक्रियकरणमपीति तात्पर्य 'बहलीभवन्ति' घनीभवन्ति, प्रणीतसामर्थ्यात् ‘पयणुए' त्ति अघनम् 'अहाबायर' त्ति यथोचितबादरा: आहारपुद्गला इत्यर्थः परिणमन्ति श्रोत्रेन्द्रियादित्वेन अन्यथा शरीरस्य दायासंभवात्, 'लूह' ति रूक्षम् अप्रीणितं 'नो वामेइ' त्ति अकषायितया विक्रियायामनर्थित्वात्, 'पासवणत्ताए' इह यावत्करणादिदं दृश्यम् – खेलत्ताए सिंघाणत्ताए वंतत्ताए पित्तताए पूयत्ताए' त्ति रूक्षभोजिन उच्चारादितयैवाहारादिपुद्गलाः परिणमन्ति अन्यथा शरीरस्यासारताऽनापत्तेरिति। अथ माय्यमायिनो: फलमाह३/१९२ 'माई ण' मित्यादि 'तस्स ठाणस्स' ति तस्मात्स्थानाद्विकर्वणा करणलक्षणात्प्रणीतभोजनलक्षणाद् वा! 'अमाई ण' मित्यादि, पूर्वं मायित्वाद् वैक्रियं प्रणीतभोजनं वा कृतवान् पश्चाज्जातानुतापोऽमायी सन् तस्मात्स्थानादालोचितप्रतिकान्तः सन् कालं करोति यस्तस्यास्त्याराधनेति। ॥ तृतीयशते चतुर्थोद्देशकः।। १. अंगसुत्ताणौ 'माई विकुव्वई' त्ति Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ३ : उ. ५ : सू. १९४ - उ. ६ : सू. २४४ पंचम उद्देशकः चतुर्थोद्देशके विकुर्वणोक्ता, पञ्चमेऽपि तामेव विशेषत आह— ३ / १९४ 'अणगारे ण' मित्यादि 'असिचम्मपायं गहाय' त्ति असिचर्मपात्रं - स्फुरकः अथवाऽसिश्च – खड्गः चर्मपात्रं च - स्फुरकः खड्गकोशको असिचर्म्मपात्रं तद् गृहीत्वा ३/१९७ 'असिचम्मपायहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं' ति असिचर्म्मपात्रं हस्ते यस्य स तथा । कृत्यं - संघादिप्रयोजनं गतः - आश्रितः कृत्यगतः, ततः कर्मधारयः अतस्तेनात्मना अथवा असिचर्मपात्रं कृत्वा हस्ते कृतं येनासौ असिचर्मपात्रहस्तकृत्वाकृतस्तेन प्राकृतत्वाच्चैवं समास: अथवा असिचर्मपात्रस्य हस्तकृत्यां - हस्तकरणं गतः - प्राप्तो यः स तथा तेन । ३/२०७ 'पलियंकं' ति आसनविशेषः प्रतीतश्च ३ / २०९ 'विग' त्ति वृकः 'दीविय' त्ति चतुष्पदविशेष: ' अच्छ' त्ति ऋक्षः 'तरच्छ' त्ति व्याघ्रविशेष: 'परास' त्ति सरभः इहान्यान्यपि शृगालादिपदानि वाचनान्तरे दृश्यन्ते । 'अभिजुंजित्तए' त्ति अभियोक्तुं विद्यादिसामर्थ्यतस्तदनुप्रवेशेन व्यापारयितुं, यच्च स्वस्थानुप्रवेशनेनाभियोजनं तद्विद्यादिसामर्थ्योपात्तबाह्यपुदगलान् विना न स्यादितिकृत्वोच्यते— 'नो बाहिरए पुग्गले अपरियाइत्त' त्ति। ३/२१६ 'अणगारे णं से' त्ति अनगार एवासौ तत्त्वतोऽनगारस्यैवाश्वाद्यनुप्रवेशेन व्याप्रियमाणत्वात्। ५०४ ३/२१८ 'माई अभिजुंजइ' त्ति कषायवानभियुंक्ते इत्यर्थः अधिकृतवाचनायां 'माई विउव्वइ' त्ति दृश्यते । तत्र चाभियोगोऽपि विकुर्वणेति मन्तव्यं, विक्रियारूपत्वात्तस्येति । ३ / २१९ 'अण्णयरेसु' त्ति अभियोगिकदेवा भवन्तीतिअच्युतान्ता कृत्वाऽन्यतरेष्वित्युक्तं, केषुचिदित्यर्थः उत्पद्यते चाभियोगभावनायुक्तः साधुराभियोगिकदेवेषु करोति च विद्यादिलब्ध्युपजीविकोऽभियोगभावनां यदाह "मंता जोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजेति । सायरसइड्डिहेउं अभिओगं भावणं कुणइ ।। " - उत्तरज्झयणाणि ३६ / २६४ ३/२२१ 'इत्थी' त्यादिसंग्रहगाथा गतार्था । ॥ तृतीयशते पञ्चमोद्देशकः || षष्ठ उद्देशकः विकुर्वणाऽधिकारसंबद्ध एव षष्ठ उद्देशकः तस्य चादिसूत्रम् — भगवती वृत्ति ३ / २२२ 'अणगारे ण' मित्यादि अनगारो गृहवासत्यागाद् भावितात्मा स्वसमयानुसारिप्रशमादिभिः मायीत्युपलक्षणत्वात्कषायवान्, सम्यग्दृष्टिरप्येवं स्यादित्याह – मिथ्यादृष्टिरन्यतीर्थिक इत्यर्थ: वीर्यलब्ध्यादिभिः करणभूताभिः 'वाणारसिं नगरिं समोहए' त्ति विकुर्वितवान्, राजगृहे नगरे रूपाणि पशुपुरुषप्रासादप्रतीनि जानाति पश्यति विभंगज्ञानलब्ध्या ३ / २२३ 'नो तहाभावं' ति यथा वस्तु यथा भावोभिसन्धिर्यत्र ज्ञाने तत्तथाभावं अथवा यथैव संवेद्यते तथैव भावो - बाह्य वस्तु यत्र तत्तथाभावं, अन्यथा भावो यत्र तदन्यथाभावं क्रियाविशेषणे चेमे स हि मन्यते ३ / २२४ अहं राजगृहं नगरं समवहतो वाराणस्यां रूपाणि जानामि पश्यामीत्येवं 'से' त्ति तस्यानगारस्येति 'से' त्ति असौ दर्शने विपर्यासो विपर्ययो भवति, अन्यदीयरूपाणामन्यदीयतया विकल्पितत्वात्, दिग्मोहादिव पूर्वामपि पश्चिमां मन्यमानस्येति, क्वचित् 'से से दंसणे विवरीए विवच्चासे' त्ति दृश्यते । तत्र च तस्य तद्दर्शनं विपरीतं क्षेत्रव्यत्ययेनेतिकृत्वा विपर्यासोमिथ्येत्यर्थः । ३/२२५-२२७ एवं द्वितीयसूत्रमपि । ३/२२८-२३० तृतीये तु वाणारसिं नगरिं रायगिहं च नगरं अंतराय एगं महं जणवयवग्गं समोहए' त्ति वाणारसी राजगृहं तयोरेव चान्तरालवर्त्तिनं जनपदवर्ग देशसमूहं समवहतो विकुर्व्वितवान् तथैव च तानि विभंगतो जानाति पश्यति केवलं नो तथाभावं, यतोऽसौ वैक्रियाण्यपि तानि मन्यते स्वाभाविकानीति 'जसे' त्ति यशोहेतुत्वाद्यशः ३/२४०-२४४ ‘नगररूवं वा' इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'निगमरूवं वा रायहाणिरूवं वा खेडरूवं वा कब्बडरूवं वा मडंबरूवं वादोमुहरू वा पट्टणरूवं वा आगररूवं वा आसमरूवं वा संवाहरूवं व' त्ति विकुर्व्वणाधिकारात्तत्समर्थदेवविशेषप्ररूपणाय सूत्राणि - ३ / २४४ 'वण्णओ' त्ति आत्मरक्षदेवानां वर्णको वाच्यः, स चायम् 'सन्नद्धबद्धवम्मियकवया - उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगेवेज्जाबद्ध आबद्धविमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा ति याणि ति-संधियाइं वयरामयकोडीणि धणूइं अभिगिज्झ पयओ परिमाइयकंडकलावा नीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो एवं चारुचावचम्मदंडखग्गपासपाणिणो नीलपीयरत्तचारुचावचम्मदंडखग्गपासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूया इव चिट्ठति' ति । अस्यायमर्थ: Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति सन्नद्धाः - संनिहतिकया कृतसन्नाहाः, बद्धः कशाबद्धनतः, वर्मितश्च — वर्मीकृत: शरीरारोपणतः, कवच: कंकटो यैस्ते तथा, ततः सन्नद्धशब्देन कर्मधारयः, तथोत्पीडिता प्रत्यञ्चारोपणेन शरासनपट्टिका — धनुर्यष्टिर्यैस्ते तथा अथवा उत्पीडिता - बाहौ बद्धा शरासनपट्टिका - धनुर्धरप्रतीता यैस्ते तथा, तथा पिनद्धं परिहितं ग्रैवेयकं — ग्रीवाभरणं यैस्ते तथा, तथा ग्रन्थिदानेन आविद्धश्च शिरस्यारोपणेन विमलो वरश्च चिह्नपट्टो - योधतासूचको नेत्रादिवत्ररूपः सौवर्णो वाट्टो यैस्ते तथा, तथा गृहीतान्यायुधानि प्रहरणाय यैस्ते तथा, अथवा गृहीतान्यायुधानि -- क्षेप्यास्त्राणि, प्रहरणानि चतदितराणि यैस्ते तथा, 'त्रिनतानि मध्यपार्श्वद्वयलक्षणे स्थानत्रयेऽवनतानि, ‘त्रिसन्धितानि ' त्रिषु स्थानकेषु कृतसंधिकाि नैकांगिकानीत्यर्थः, वज्रमयकोटीनि धनूंषि अभिगृह्य पदत:मुष्टिस्थाने तिष्ठन्तीति सम्बन्धः, परिमात्रिक :- सर्वतो मात्रावान् काण्डकलापो येषां ते तथा, नीलपाणय इत्यादिषु नीलादिवर्णपुंखत्वान्नीलादयो बाणभेदाः संभाव्यन्ते, चारूचापपाणय इत्यत्र चापं -- धनुरेवानारोपितज्यमतो न पुनरुक्तता, चर्मपाणय इत्यत्र चर्म्मशब्देन स्फुरकः उच्यते, दण्डादयः प्रतीताः, उक्तमेवार्थं संग्रहेणाह — 'नीलपीए' त्यादि, अथवा नीलादीन् सर्वानेव युगपत्केचिद्धारयन्ति देवशक्तेरिति दर्शयन्नाह — 'नीलपीए' त्यादि, ते चात्मरक्षा न संज्ञामात्रेणैवेत्याह- आत्मरक्षा: स्वाम्यात्मरक्षा इत्यर्थः त एव विशेष्यन्ते —– रक्षोपगता: रक्षामुपगताः सततप्रयुक्तरक्षा' इत्यर्थः, एतदेव कथमित्याह -- गुप्ताः अभेदवृत्तयः, तथा 'गुप्तपालीकार:' तदन्यतो व्यापृतमनोवृत्तिकाः मण्डलीका: युक्ताः परस्परसंबद्धाः युक्तपालीकाः निरन्तरमण्डलीका : प्रत्येकमेकैकशः समयतः - पदातिसमाचारेण विनयतो - विनयेन किंकरभूता इव - प्रेष्यत्वं प्राप्ता इवेति, अयं च पुस्तकान्तरे साक्षाद् दृश्यत एवेति । ३/२४५ एवं सव्वेसिमिंदाणं ति एवमिति - चमरवत् सर्वेषामिन्द्राणां ते चार्थतः एवं सर्वेषामिन्द्राणां आत्मरक्षा वाच्या:, सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षा:, तत्र चतुःषष्टिः सहस्त्राणि चमरस्येन्द्रसामानिकानां बलेस्तु षष्टिः शेषभवनपतीन्द्राणां प्रत्येकं षट्सहस्त्राणि शक्रस्य चतुरशीति: ईशानस्याशीतिः, सनत्कुमारस्य द्विसप्ततिः, माहेन्द्रस्य सप्तप्तिः, षष्टिः लान्तकस्य, पंचाशत् शुक्रस्य चत्वारिंशत् सहस्रारस्य, त्रिशंत् प्राणतस्य, विशंति: अच्युतस्य, दशसहस्राणि सामानिकानामिति । यदाह १. स प्रतौ सतत प्रयुक्त रक्षा' २. जीवाभिगमे वृत्तौ 'गुप्तपालिका' Jain Education Intemational ५०५ श. ३ : उ. ६ : सू. २४४- उ. ७ : सू. २५२ "चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च सहस्सा उ असुरवज्जाणं । सामाणिया उ एए चउग्गुणा आयरक्खा उ ॥. चउरासीइ असीई बावत्तरि सत्तरी य सट्ठी य । पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्स त्ति । " ॥ तृतीयशते षष्ठोद्देशकः ॥ सप्तम उद्देशकः षष्ठोद्देशके इन्द्राणामात्मरक्षा उक्ताः। अथ सप्तमोद्देशके तेषामेव लोकापालान् दर्शयितुमाह ३ / २४७ 'राहगिहे ' इत्यादि ३/२४८ ‘बहूइं जोयणाई' इह यावत्करणादिदं दृश्यं -- 'बहूइं जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साइं बहूई जोयणसयसहस्साइं बहूओ जोयकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडीओ उड्डुं दूरं वीईवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे णामं कप्पे पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिन्ने अर्द्धचंदसंठाणसंठिए अच्चिमालिभासरासिवनाहे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं एत्थ णं सोहम्माणं देवाणं बत्तीसं विमाणवासयसहस्साइं भवन्तीति अक्खाया, ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा जीवा पडिरूवा ।' ३/२५० ‘तस्स णं सोहम्मकप्पस्स बहुमज्झदेसभाए' इति । 'वीईवइत्त' त्ति व्यतिव्रज्य व्यतिक्रम्य 'जा सूरियाभविमाणस्स' त्ति सूरिकाभविमानं राजप्रश्नीयोपांगोक्तस्वरूपं तद्वक्तव्यतेह वाच्या। तत्समानलक्षणत्वादस्येति, कियती सा वाच्या? इत्याह - 'यावदभिषेकः' अभिनवोत्पन्नस्य सोमस्य राज्याभिषेकं यावदिति, सा चेहातिबहुत्वान्न लिखितेति । ३/२५१ 'अहे' इति तिर्यग्लोके 'वेमाणियाणं पमाणस्स' त्ति वैमानिकानां सौधर्मविमानसत्कप्रासाद-प्राकारद्वारादीनां प्रमाणस्येह नगर्यामर्द्ध ज्ञातव्यम् 'सेसा नत्थि' त्ति सुधर्मादि (का) सभा इह न सन्ति, उत्पत्तिस्थानेष्वेव तासां भावात् । ३/२५२ 'सोमकाइय' त्ति सोमस्य कायो – निकायो येषामस्ति ते सोमकायिका: – सोमपरिवारभूताः 'सोमदेवयकाइय' ति सोमदेवताः- तत्सामानिकादयस्तासां कायो येषामस्ति ते सोमदेवताकायिकाः सोमसामानिकादिदेवपरिवारभूता इत्यर्थः । 'तारारूव' त्ति तारकरूपा: 'तब्भत्तिय' त्ति तत्र सोमे भक्ति: Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३: उ.७:सू.२५२-२५८ ५०६ भगवती वृत्ति सेवा बहुमानो वा येषां ते तद्भक्तिका:। 'तप्पक्खिय' त्ति सोमपाक्षिका: सोमस्य प्रयोजनेषु सहाया: 'तब्भारिय' त्ति तद्भार्याः तस्य सोमस्य भार्या इव भार्या अत्यन्तं वश्यत्वात्पोषणीयत्वाच्चेति तद्भार्याः, तद्भारो वा येषां वोढव्यतयाऽस्ति ते तद्भारिका। ३/२५३ 'गहदंड' त्ति दण्डा इव दण्डा:-तिर्यगायता: श्रेणय: ग्रहाणां -मंगलादीनां त्रिचतुरादीनां दण्डा ग्रहदण्डाः, एवं ग्रहमुशलादीनि' नवरमूर्बीयताः श्रेणय: 'गहगज्जिय' त्ति ग्रहसंचालादौ गर्जितानि—स्तनितानि ग्रहगर्जितानि, ग्रहयुद्धानि ग्रहयोरेकत्र नक्षत्रे दक्षिणोत्तरेण समश्रेणितयाऽवस्थानानि ‘ग्रहसिंघाटकानि' ग्रहाणां सिंघाटकफलाकारेणावस्तिानानि 'ग्रहापसव्यानि' ग्रहाणामपसव्यगमनानि प्रतीपगमनानीत्यर्थः,अभ्रात्मका वृक्षा अभ्रवृक्षाः, गन्धर्वनगराणि आकाशे व्यन्तरकृतानि नगराकारप्रतिबिम्बानि 'उल्कापाता:' सरेखा: सोद्योता वा तारकस्येव पाता: 'दिग्दाहाः' अन्यतमस्यां दिशि अधोऽन्धकारा उपरि च प्रकाशात्मका दह्यमानमहानगरप्रकाशकल्पा: 'जूवय' त्ति शुक्लपक्षे प्रतिपदादिदिनत्रयं यावद्यैः संध्याछेदा आब्रियन्ते ते यूपकाः। 'जक्खालित्तय' त्ति यक्षोद्दीप्तानि आकाशे व्यन्तरकृतज्वलनानि धूमिकामहिकयोर्वर्णकृतो विशेषः, तत्र धूमिकाधूम्रवर्णा धूसरा इत्यर्थः, महिका-त्वापाण्डुरेतिर, 'रउग्घाय' त्ति दिशां रजस्वलतानि 'चंदोवरागा सूरोवरागा' चन्द्रसूर्याग्रहणानि 'पडिचंद' त्ति द्वितीयचन्द्रा: 'उदगमच्छ' त्ति इन्द्रधनु:खण्डानि, 'कविहसिय' त्ति अनभ्रे या विद्युत्सहसा तत् कपिहसितम् , अन्ये त्वाहु:-कपिहसितं नाम यदाकाशे वानरमुखसदृशस्य विकृतमुखस्य हसनम् 'अमोह' त्ति अमोघा आदित्योदयास्तसमययोरादित्यकिरणविकारजनिता: 'आताम्राः' कृष्णाः श्यामा वा शकटोद्धिसंस्थिता दण्डा इति, 'पाईणवाय' त्ति पूर्वदिग्वाता: 'पईणवाय' त्ति प्रतीचीनवाता: यावत्करणादिदं दृश्यम् 'दाहिणवायाइ वा उदीणवायाइ वा उड्ढवायाइ वा अहोवायाइ वा तिरियवायाइ वा, विदिसीवायाइ वा वाउब्भामाइ वा वाउक्कलियाइ वा वायमंडलियाइ वा उक्कलियावायाइ वा मण्डलियावायाइ वा गुंजावायाइ वा झंझावायाइ व' त्ति इह वातोद्धामा: अनवस्थिता वाताः, वातोत्कलिकाः समुद्रोत्कलिकावत् , वातमण्डलिका वातोल्य:, उत्कलिकावात्ता: उत्कलिकाभिर्ये वान्ति, मण्डलिकावाता: मण्डलिकाभिर्ये वान्ति, गुञ्जावाता: गुञ्जन्त: सशब्दं ये वान्ति, 'झञ्झावाता:' अशुभनिष्ठुराः निष्टुराः, संवर्तकवाता: तृणादि संवर्तनस्वभावा इति। अथानन्तरोक्तानां ग्रहदण्डादीनां प्रायिकफलानि दर्शयन्नाह'पाणक्खय' त्ति बलक्षयाः 'जणक्खय' त्ति लोकमरणानि, निगमयन्नाह-वसणब्भूया-मणारिया जे यावन्ने तहप्पगार' त्ति इहैवमक्षरघटना-न केवलं प्राणक्षयादय एव, ये चान्ये एतद्व्यतिरिक्तास्तत्प्रकारा:-प्राणक्षयादितुल्या: 'व्यसनभूताः आपद्पा ' 'अनार्या:' पापात्मका न ते अज्ञाता इति योग: 'अण्णाय' त्ति अनुमानतः ‘अदिट्ठ' त्ति प्रत्यक्षापेक्षया 'असुय' त्ति परवचनद्वारेण 'अमुय' त्ति अस्मृता मनोऽपेक्षया 'अविण्णाय' त्ति अवध्यपेक्षयेति। ३/२५४ 'अहावच्च' त्ति यथाऽपत्यानि तथा ये ते यथाऽपत्या देवाः पुत्रस्थानीया इत्यर्थः । अभिण्णाय' त्ति अभिमता अभिमतवस्तुकारित्वादिति होत्थ' त्ति अभवन् उपलक्षणत्वाच्चास्य भवन्ति भविष्यन्तीति द्रष्टव्यम्। 'अहावच्चाभिण्णायाणं' त्ति यथा अपत्यमेव अभिज्ञाता—अवगता यथाऽपत्याभिज्ञाताः, अथवा यथाऽपत्याश्च तेऽभिज्ञाताश्चेति कर्मधारयः ते चांगारकादय: पूर्वोक्ताः। ३/२५५ एतेषु च यद्यपि चन्द्रसूर्ययोर्वर्षलक्षाद्यधिकं पल्योपमं तथाऽप्याधिक्यस्याविवक्षित्वादंगारकादीनां च ग्रहत्वेन पल्योपमस्यैव सद्भावात् पल्योपममित्युक्तमिति। ३/२५६ 'पेतकाइयं' ति प्रेतकायिका: व्यन्तरविशेषाः ‘पेतदेवयकाइय' त्ति प्रेतसत्कदेवतानां सम्बंधिन: 'कंदप्प' त्ति ये कन्दर्पभावनाभावितत्वेन कान्दर्पिकदेवेषूत्पन्ना: कन्दर्पशीलाश्च, कन्दपश्च-अतिकेलि: 'आहियोग' त्ति येऽभियोगभावनाभावितत्वेनाभियोगिकदेवेषूत्पन्ना अभियोगवर्तिनश्च अभियोगश्च आदेश इति। ३/२५८ 'डिंबाइ व' त्ति डिम्बा–विघ्नाः, 'डमर' ति एकराज्ये एव राजकुमारादिकृतोपद्रवा: 'कलह' त्ति वचनराटय: 'बोल' त्ति अव्यक्ताक्षरध्वनिसमूहा: 'खार' त्ति परस्परमत्सरा: ‘महायुद्ध' त्ति महायुद्धानि व्यवस्थाविहीनमहारणा: 'महासंगाम' त्ति सव्यवस्थचक्रादिव्यूहरचनोपेतमहारणाः, महाशस्त्रनिपातनादयस्तु त्रयो महायुद्धादिकार्यभूताः 'दुब्भूय' त्ति दुष्टाजनधान्यादीनामुपद्रवहेतुत्वतात्, भूताः-सत्वा : यूकामत्कुणोन्दुरतिड्डप्रभृतयो दूर्भूता ईतय इत्यर्थः। १ अप्रतौ 'ग्रहमुशलानि २ अ प्रतौ 'चापाण्डुरेति' ३ अप्रतौ 'आदित्योदयास्तमनयो .....' क्वचित् 'आदित्योदयास्तमययो...... ४. अ. स प्रतौ 'आभियोगदेवषूत्पन्ना' इति Jain Education Intemational Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५०७ श.३: उ.७: सू.२५८-२६८ इन्द्रग्रहादय: उन्मत्तताहेतवः एकाहिकादयो ज्वरविशेषाः। 'उव्वेयग' त्ति उद्वेगका इष्टवियोगादिजन्या उद्वेगा: उद्वेजका वा लोकोद्वेगकारिणश्चौरादयः 'कच्छकोह' त्ति कक्षाणांशरीरावयवविशेषाणां वनगहनानां वा कोथा:-कुथितत्वानि शटितानि वा कक्षाकोथा: कक्षकोथा वा। ३/२५९ 'अम्ब' इत्यादयः पञ्चदश असुरनिकायान्तर्वर्तिनः परमाधार्मिकनिकायाः, तत्र१. यो देवो नारकानम्बरतले नीत्वा विमुञ्चत्यसौ अम्ब इत्यभिधीयते। २. यस्तु नारकान् कल्पनिकाभि: खण्डश: कृत्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोतीत्यसौ अम्बरीषस्य-भ्राष्ट्रस्य सम्बन्धादंबरीष एवोच्यते। ३. यस्तु तेषां शातनादि करोति वर्णतस्तु श्याम: स श्याम इति। ४. 'सबले त्ति यावरे' त्ति शबल इति चापरो देव इति प्रक्रम: स च तेषां अन्त्रहृदयादीन्युत्पाटयति वर्णतश्च शबल: कर्बुर इत्यर्थः। ५. य: शक्तिकुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्र इति। ६. यस्तु तेषामेवांगोपांगानि भनक्ति सोऽत्यन्त-रौद्रत्वादुपरौद्र इति। ७. यः पुन: कण्ड्वादिषु पचति वर्णतश्च काल: स काल इति। ८. 'महाकाले त्ति यावरे' त्ति महाकाल इति चापरो देव इति प्रक्रमः, तत्र य: श्लक्ष्णमांसानि खण्डयित्वा खादयति वर्णतश्च महाकाल: स महाकाल इति ९. 'असी य' त्ति यो देवोऽसिना तान् छिनत्ति सोऽसिरेव। १०. 'असिपत्ते' त्ति अस्याकारपत्रवद्वनविकुर्वणादसिपत्रः। ११. 'कुंभे' त्ति कुंभादिषु तेषां पचनात्कुम्भः। क्वचित् पठ्यते 'असिपत्ते धणू कुंभे' त्ति तत्रासिपत्रकुम्भौ पूर्ववत्, ‘धणु' त्ति यो धनुर्विमुक्तार्द्धचन्द्रादिभिर्बाणैः कर्णादीनां छेदन-भेदनादि करोति स धनुरिति। १२. 'वालु' त्ति कदम्बपुष्पाद्याकारवालुकासु य: पचति स वालुक इति। १३. 'वेयरणी इ य' त्ति वैतरणीति च देव इति प्रक्रमः। तत्र पूयरुधिरादिभृतवैतरण्यभिधाननदीविकुर्वणाद्वैत-रणीति। १४. 'खरस्सर' त्ति यो वज्रकण्टकाकुलशाल्मलीवृक्ष-मारोप्य नारकं खरस्वरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कर्षत्यसौ खरस्वरः। १५. 'महाघोसि' त्ति यस्तु भीतान् पलायमानान्नारकान् पशूनिव वाटेषु महाघोषं कुर्वन्निरुणद्धि स महाघोस इति। 'एए पन्नरसाहिय' त्ति ‘एवम् उक्तन्यायेन' एते यमयथाऽप त्यदेवाः पञ्चदश आख्याता इति। ३/२६३ 'अतिवास' ति अतिशयवर्षा वेगववर्षणानीत्यर्थ: 'मंदवास' त्ति शनैर्वर्षणानि 'सुवुट्ठी' त्ति धान्यादिनिष्पत्तिहेतु: 'दुव्बुट्ठि' त्ति धान्याद्यनिष्पत्तिहेतु: 'उदब्भेय' त्ति उदकोभेदा: गिरितटादिभ्यो जलोद्भवा: 'उदप्पील' त्ति उदकोत्पीला:-तड़ागादिषु जलसमूहाः 'ओवाह' त्ति अपकृष्टान्यल्पान्युदकवहनानि, तान्येव प्रकर्षवन्ति प्रवाहा: इह प्राणक्षयादयो जलकृता द्रष्टव्याः। ३/२६४ 'कक्कोडए' त्ति ककोंटकाभिधानोऽनुवेलन्धरनागराजावासभूत: पर्वतो लवणसमुद्रे ऐशान्यां दिश्यस्ति तन्निवासी नागराज: कर्कोटकः, 'कद्दमए' त्ति आग्नेय्यां तथैव विद्युत्प्रभपर्वतस्तत्र कर्दमको नाम नागराज: 'अंजणे' त्ति वेलम्बाभिधानवायुकुमारराजस्य लोकपालोऽञ्जनाभिधान: 'संखवालए' त्ति धरणाभिधाननागराजस्य लोकपाल: शंखपालको नाम, शेषास्तुः पुण्ड्रादयोऽप्रतीता इति। ३/२६८ 'वसुहाराइ व' त्ति तीर्थकरजन्मादिषु आकाशाद्रव्यवृष्टिः 'हिरण्णवास' त्ति हिरण्यं-रूप्यं घटितसुवर्णमित्यन्ये, वर्षोऽल्पतरो वृष्टिस्तु महतीति वर्षवृष्ट्यो दः, माल्यं तु ग्रथितपुष्पाणि वर्ण:-चन्दनं चूर्णो गन्धद्रव्यसम्बन्धी गन्धा:कोष्ठपुटपाका: ‘सुभिक्खाइ व' त्ति सुकाले दुःकाले वा भिक्षुकाणां भिक्षासमृद्धय: दुर्भिक्षास्तूक्तविपरीता: 'संनिहि' त्ति घृतगुडादिस्थापनानि 'संनिचय' त्ति धान्यसञ्चया: 'निहीइ व' त्ति लक्षादिप्रमाणद्रव्यस्थापनानि 'निहाणाई व' त्ति भूमिगतसहस्त्रादिसंख्यद्रव्यस्य संचयाः, किंविधानि? इत्याह'चिरपोराणाई' ति चिरप्रतिष्ठितत्वेन पुराणानि चिरपुराणानि अतएव 'पहीणसामियाई' ति स्वल्पीभूतस्वामिकानि 'पहीणसेउयाई ति प्रहीणा:-अल्पीभूता: सेक्तार:-सेचका: धनप्रक्षेप्तारो येषां तानि तथा, प्रहीणमार्गाणि वा, ‘पहीणगोत्तागाराई' ति प्रहीणं-विरलीभूतमानुषं गोत्रागारंतत्स्वामिगोत्रगृहं येषां तानि तथा 'उच्छिण्णसामियाई' ति निःसत्ताकीभूतप्रभूणि, 'नगरनिद्धवणेसु' त्ति नगरनिर्द्धवनेषु नगरजलनिर्गमनेषु 'सुसाणगिरिकंदरसंतिसेलोवट्ठाणभवनगिहेसु ति गृहशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् श्मशानगृहं-पितृवनगृहं, गिरिगृह-पर्वतोपरिगृहं, कन्दरगृहं -गुहा, शान्तिगृहंशान्तिकर्मस्थानं, शैलगृह-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतं उपस्थानगृहं आस्थानमण्डपो भवनगृहं-कुटुंबिवसनगृहमिति। ॥ तृतीयशते सप्तमोद्दशकः ।। Jain Education Intemational Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.८: सू.२७७-उ.१० सू.२८० ५०८ भगवती वृत्ति परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा! इत्यादि। ‘सुब्भिणो' त्ति इदं सूत्रं पुनरेवम्-‘से णूणं भंते! सुब्भिसद्दपोग्गला दुब्बिसद्दत्ताए परिणमंति? हंता, गोयमा! इत्यादीति । तृतीयशते नवमोद्देशकः ।। अष्टम उद्देशकः देववक्तव्यताप्रतिबद्ध एवाष्टमोद्देशकः, स च सुगम एव, नवरं-सो. का. चि. प्प. ते. रु. ज. तु. का. आ इत्यनेनाक्षरदशकेन दक्षिणभवनपतीन्द्राणां प्रथमलोकपालनामानि सूचितानि। वाचनान्तरे त्वेतान्येव गाथायां सा चेयम् - "सोमे य कालवाले चित्त प्पभ तेउ तह रुए चेव। जल तह तुरियगई य, काले आउत्त पढमा उ॥" एवं द्वितीयादयोऽप्यभ्यूह्याः। इह च पुस्तकान्तरे अयमों दृश्यते-दाक्षिणात्येषु लोकपालेषु प्रतिसूत्रं यौ तृतीयचतुर्थी तावौदीच्येषु चतुर्थतृतीयाविति। ३/२७७ 'एसा वत्तव्वया' सव्वेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणियव्व' त्ति एषा सौधर्मशानोक्ता वक्तव्यता सर्वेष्वपि कल्पेषु इन्द्रनिवासभूतेषु भणितव्या---सनत्कुमारादीन्द्रयुग्मेषु पन्द्रापेक्षयोत्तरेन्द्रसम्बन्धिनां लोकपालानां तृतीयचतुर्थयोव्यत्ययो वाच्य इत्यर्थः तथैत एव सोमादयः प्रतिदेवलोकं वाच्या न तु भवनपतीन्द्राणामिवापरापरे, 'जे य इंदा ते य भाणियव्वा' शक्रादयो दशेन्द्रा वाच्याः। अन्तिमे देवलोकचतुष्टये इन्द्रद्वयभावादिति। ॥ तृतीयशते अष्टमोद्देशकः ॥ दशम उद्देशकः प्रागिन्द्रियाण्युक्तानि तद्वन्तश्च देवा इति देववक्तव्यताप्रतिबद्धो दशम उद्देशकः। स च सुगम एव, नवरं३/२८० 'समिय' त्ति समिका उत्तमत्वेन स्थिरप्रकृतितया समवती, स्वप्रभोर्वा कोपौत्सुक्यादिभावान् शमयत्युपादेयवचनतयेति, शमिका शमिता वा-अनुद्धता। 'चंड' त्ति तथाविधमहत्त्वाभावनेषत् कोपादिभावाच्चण्डा 'जाय' त्ति प्रकृतिमहत्त्ववर्जितत्वेनाऽस्थानकोपादीनां जातत्वाज्जाता, एषा च क्रमेणाभ्यन्तरा मध्यमा बाह्या चेति। तत्राभ्यन्तरा समुत्पन्नप्रयोजनेन प्रभुणा गौरवार्हत्वादाकारितैव पार्वे समागच्छति तां चासौ अर्थपदं पृच्छति, मध्यमा तूभयथाऽप्यागच्छति अल्पतरगौरवविषयत्वात्, अभ्यन्तरया चादिष्टमर्थपदं तया सह प्रबध्नाति—ग्रन्थिबन्धं करोतीत्यर्थः, बाह्या त्वनाकारितैवागच्छति अल्पतमगौरवविषयत्वात्, तस्याश्चार्थपदं वर्णयत्येव, तत्राद्यायां चतुर्विंशतिर्देवानां सहस्राणि द्वितीयायामष्टाविंशतिः तृतीयायां द्वात्रिंशदिति, तथा देवीशतानि क्रमेणाध्युष्टानि, त्रीणि, साढे च द्वे इति, तथा तद्देवानामायुः क्रमेणार्द्धतृतीयानि पल्योपमानि, द्वे सार्द्ध चेति, देवीनां तु सार्द्ध एकं तदर्द्ध चेति, एवं बलेरपि नवरं देवप्रमाणं तदेव चतुश्चतुःसहस्रहीनं देवीमानं तु शतेन शतेनाधिकमिति, आयुर्मानमपि तदेव नवरं पल्योपमाधिकमिति, एवमच्युतान्तानामिन्द्राणां प्रत्येकं तिस्रः पर्षदो भवन्ति। नामतो देवादिप्रमाणत: स्थितिमानतश्च क्वचित्किंचिद्भेदेन भेदवत्यस्ताश्च जीवाभिगमादवसेया इति। ॥ तृतीयशते दशमोद्देशकः॥ नवम उद्देशकः देवानां चावधिज्ञानसद्भावेऽपीन्द्रियोपयोगोऽप्यस्तीत्यत इन्द्रियविषयं निरूपयन्नवमोद्देशकमाह३/२७९ 'रायगिहे' इत्यादि 'जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ णेयव्वो' त्ति, स चायम् 'सोइंदियविसए जाव फासिंदियविसए। सोइंदियविसए णं भंते! पोग्गलपरिणामे कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा–सुब्भिसद्दपरिणामे य दुब्भिसद्दपरिणामे य' शुभाशुभशब्दपरिणाम इत्यर्थः। चक्खिंदियविसए पुच्छा, गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा -सुरूवपरिणामे य दुरूवपरिणामे या धाणिंदियविसए पुच्छा, गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुब्भिगंधपरिणामे य दुनिभगंधपरिणामे य, एवं जिब्भिंदियविसए सुरसपरिणामे य दुरसपरिणामे या फासिंदियविसए सुहफासपरिणामे य दुहफासपरिणामे य' इत्यादि, वाचनान्तरे च इंदियविसए उच्चावयसुब्मिणो' त्ति दृश्यते। तत्रेन्द्रियविषयसूत्रं दर्शितमेव, उच्चावयसूत्रं त्वेवम्—'से णूणं भंते! उच्चावएहिं सद्दपरिणामेहिं ॥ समाप्तं च तृतीयशतकम् ॥ श्रीपंचमांगस्य शतं तृतीयं व्याख्यातमाश्रित्य पुराणवृत्तीः । शक्तोऽपि गन्तुं भजते हि यानं, पान्थः सुखार्थं किमु यो न शक्तः ।। १. अप्रतौ 'उदकोत्पीडा' इति Jain Education Intemational Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५०९ श.४ : उ.१: सू.१ - उ.१०: सू.८ ११. पुव्वेण ऊ अतिविसाला उ दाहिणे पासे। सेज्जप्पभाऽवरेणं अमुया पुण उत्तरे पासे।।'' इति। इह च ग्रन्थे सौधर्मावतंसकादीशानावतंसकाच्चासंख्येया योजनकोटी~तिक्रम्य प्रत्येकं पूर्वादिदिक्षु स्थितानि यानि सन्ध्याप्रभादीनि सुमनःप्रभृतीनि च विमानानि तेषां अधोऽसंख्याता योजनकोटीरवगाह्य प्रत्येकमेकैका नगर्युक्ता तत: कथं न विरोध: इति? अत्रोच्यते अन्यास्ता नगर्यो या: कुण्डलेऽभिधीयन्ते एताश्चान्या इति, तथा शक्रेशानाग्रमहिषीणां नन्दीश्वरद्वीपे कुण्डलद्वीपे चेति। ॥ चतुर्थशते अष्टमोद्देशकः ॥ ४/७ अथ चतुर्थशतकम् प्रथमः- चतुर्थ उद्देशकः तृतीयशते प्रायेण देवाधिकार उक्तोऽतस्तदधिकारवदेव चतुर्थ शतम्। तस्य पुनरुद्देशकार्थाधिकारसंग्रहाय गाथा४/१ 'चत्तारीत्यादि व्यक्तार्था ४/४ 'अच्चणिय' ति सिद्धायतने जिनप्रतिमाद्यर्चनमभिनवोत्पन्नस्य सोमाख्यलोकपालस्येति। ४/५ चतुर्थशते चत्वारः ॥ चतुर्थशते चतुर्थोद्देशकः ॥ पञ्चमः- अष्टम उद्देशकः ४/६ 'रायहाणीस चत्तारि उद्देसया भाणियव्वा' ते चैवम्—'कहिं णं भंते! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो सोमानामं रायहाणी पण्णत्ता? गोयमा! सुमणस्स महाविमाणस्स अहे सपक्खिं इत्यादिपूर्वोक्तानुसारेण जीवाभिगमोक्तविजयराजधानीवर्णकानुसारेण चैकैक उद्देशकोऽध्येतव्य इति। नन्वेता राजधान्य: किल सोमादीनां शक्रस्येशानस्य च सम्बन्धिनां लोकपालानां प्रत्येकं चतस्त्र एकादशे कुण्डलवराभिधानद्वीपे द्वीपसागरप्रज्ञप्त्यां श्रूयन्ते, उक्तं हि तत्संग्रहिण्याम्१. "कुण्डलनगस्स अभिंतरपासे होंति रायहाणीओ। सोलस्स उत्तरपासे सोलस पुण दक्खिणे पासे ॥ २. जा उत्तरेण सोलस ताओ ईसाणलोगपालाणं। सक्कस्स लोगपालाण दक्खिणे सोलस हवंति॥" एताश्च सोमप्रभयमप्रभवैश्रमणप्रभवरुणप्रभाभिधानानां पर्वतानां प्रत्येकं चतसृषु दिक्षु भवन्ति, तत्र वैश्रमणनगरीरादौ कृत्वाऽभिहितम्३. 'मज्झे होइ चउण्हं वेसमणपभो नगुत्तमो सेलो। रइकरयपव्वयसमो उव्वेहुच्चत्तविक्खंभे।। ४. तस्स य नगुत्तमस्स उ चउद्दिसिं होंति रायहाणीओ। जंबूद्दीवसमाओ विक्खंभायामओ ताओ । ५. पुव्वेण अयलभद्दा समक्कसा रायहाणि दाहिणओ। अवरेण उ कुबेरा धणप्यभा उत्तरे पासे । ६. एएणेव कमेणं वरुणस्सवि होति अवरपासंमि। वरुणप्पभसेनस्सवि चउद्दिसिं रायहाणीओ॥ ७. पुव्वेण होइ वरुणा वरुणपभा दक्खिणे दिसीभाए। अवरेण होति कुमुया उत्तरओ पुंडरीगिणीया।। ८. एएणेव कमेणं सोमस्सवि होति अवरपासंमि। सोमप्पभसेलस्सवि चउद्दिसिं रायहाणीओ॥ ९. पुव्वेण होइ सोमा सोमप्पभा दक्खिणे दिसीभाए। सिवपागारा अवरेण होइ नलिनाय उत्तरओ। १०. एएणेव कमेणं अंतकरस्सवि य होंति अवरेणं। समवित्तिप्पभसेलस्स चउद्दिसिं रायहाणीओ। १. अ स प्रतो 'अयलनद्दा' इति नवम उद्देशकः अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ताऽथ वैक्रियशरीरसाधान्नारकवक्तव्यताप्रतिबद्धो नवमोद्देशक उच्यते, तत्रेदमादिसूत्रम्'नेरइए ण' मित्यादि ‘लेस्सापए' त्ति सप्तदशपदे 'तइओ उद्देसओ भाणियब्वो' ति क्वचिद् द्वितीय इति दृश्यते स चापपाठ इति स चैवम्-गोयमा! नेरइए नेरइएसु उववज्जइ नो अणेरइय नेरइएसु उववज्जइ इत्यादि। अयं चास्यार्थ:नैरयिको नैरयिकेषूत्पद्यते न पुनरनैरयिकः, कथं पुनरेतत् ? उच्यते, यस्मान्नारकादिभवोपग्राहकमायुरेवातो नारकाद्यायुःप्रथमसमयसंवेदनकाल एवं नारकादिव्यपदेशो भवति ऋजुसूत्रनयदर्शनेन यत उक्तं-नयविद्भिर्ऋजुसूत्रस्वरूपनिरूपणं कुर्वद्भिः१. "पलालं न दहत्यग्निर्भिधते न घटः क्वचित् । न शून्यान्निर्गमोऽस्तीह न च शून्यं प्रविश्यते॥ २. नारकव्यतिरिक्तश्च नरके नोपपद्यते। नरकान्नारकश्चास्य न किंचिद् विप्रमुच्यते॥" इत्यादीनि 'जाव नाणाई' ति अयमुद्देशको ज्ञानाधिकारावसानोऽध्येतव्यः स चायम्-'कण्हलेस्से णं भंते! जीवे कयरेसु णाणेसु होज्जा? गोयमा! दोसु वा तिसु वा चउसु वा णाणेसु होज्जा। दोसु होज्जमाणे आभिणिबोहियसुयणाणेसु होज्जा, इत्यादि। ॥ चतुर्थशते नवमोद्देशकः ॥ दशम उद्देशकः लेश्याधिकारात्तद्वत एव दशमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम्'से नूण' मित्यादि ‘तारूवत्ताए' त्ति तद्रूपतया-नीललेश्यास्वभावेन, एतदेव व्यनक्ति–'तावण्णत्ताए' त्ति तस्या इवनीललेश्याया इव वणे यस्याः सा तद्वर्णा तद्भावस्तत्ता तया तद्वर्णतया ‘एवं चउत्थो उद्देसओ' इत्यादि वचनादेवं ४/८ Jain Education Intemational Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.३ : उ.१०: सू.८ भगवती वृत्ति सायनिबन्धनानि कृष्णादिद्रव्यवृन्दानि तानि चासंख्येयानि अध्यवसायस्थानानामसंख्यातत्वादिति। 'अप्पबहु' ति लेश्यास्थानानामल्पबहुत्वं वाच्यं, तच्चैवम्-'एएसिणं भंते! कण्हलेसाठाणाणं जाव सुक्कलेसाठाणाणं य जहण्णगाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वपएसट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा.... तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेसाठाणा दव्वट्ठयाए, जहण्णगा नीललेसाठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा कण्हलेसाठाणा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा तेउलेसाठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा पम्हलेसाठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा सुक्कलेसाठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा इत्यादीनि। ॥ चतुर्थशते दशमोद्देशकः ॥ समाप्तं चतुर्थं शतम् स्वतः सुबोधेऽपि शते तुरीये, व्याख्या मया काचिदियं विदृब्धा। दुग्धे सदा स्वादुतमे स्वभावात्, क्षेपो न युक्तः किमु शर्करायाः?।। द्रष्टव्यम्-तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति? हंता गोयमा! कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए ........... भुज्जो भुज्जो परिणमति। अयमस्य भावार्थ:यदा कृष्णलेश्यापरिणतो जीवो नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा कालं करोति तदा नीललेश्यापरिणत उत्पद्यते 'जल्लेसाई दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसे उववज्जइ' ति वचनात्। अत: कारणमेव कार्यं भवति। 'कण्हलेसा नीललेसं पप्पे' त्यादि तु कृष्णनीललेश्ययो)दपरमपचारादुक्तमिति । 'से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ किण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए ....... भुज्जो भुज्जो परिणामइ। गोयमा! से जहाणामए–खीरे दूसिं पप्प तक्रमित्यर्थः सुद्धे वा वत्थे रागं पप्प तारूवत्ताए...... भुज्जो भुज्जो परिणमइ। से एएणद्वेणं गोयमा! एवं वच्चइ-कण्हलेसे त्यादि। एतेनैवाभिलापेन नीललेश्या कापोती, कापोती तैजसी, तैजसी पद्मा, पद्मा शुक्लां प्राप्य तद्पत्वादिना परिणमतीति वाच्यम्। अथ कियद्दरमयमुद्देशको वाच्यः? इत्याह-'जावे' त्यादि ‘परिणाम त्यादिद्वारगाथोक्तद्वारपरिसमाप्तिं यावदित्यर्थः, तत्र परिणामो दर्शित एव तथा 'वण्ण' त्ति कृष्णादिलेश्यानां वों वाच्यः, स चैवम्-कण्हलेसा णं भंते! केरिसिया वण्णेणं पण्णत्ते? त्यादि उत्तरं तु कृष्णलेश्या कृष्णा जीमूतादिवत्, नीललेश्या नीला शृंगादिवत् कापोती कापोतवर्णा खदिरसारादिवत् तैजसी लोहिता शशकरक्तादिवत्, पद्मा पीता चम्पकादिवत्, शुक्ला शुक्लाशंखादिवदिति। तथा 'रस' त्ति रसस्तासां वाच्यः, तत्र कृष्णा तिक्तरसा निम्बादिवत्, नीला कटुकरसा नागरवत्, कापोती कषायरसा अपक्वबदरवत्, तेजोलेश्या आम्लमधुरा पक्वाम्रा देफलवत्, पद्मलेश्या कटुककषायमधुररसा चन्द्रप्रभासुरादिवत् शुक्ललेश्या मधुररसा गुडादिवत् 'गंध' त्ति लेश्यानां गन्धो वाच्यः तत्राद्यास्तिस्रो दुरभिगन्धाः अन्त्यास्तु तदितरा: ‘सुद्ध' त्ति अन्त्याः शुद्धा आद्यास्त्वितरा: 'अपसत्थ' त्ति आद्या अप्रशस्ता अन्त्यास्तु प्रशस्ता: 'संकिलिट्ठ' त्ति आद्याः संक्लिष्टा अन्त्यास्त्वितरा: 'उण्ह' ति अन्त्या उष्णा: स्निग्धाश्च आद्यास्तु शीता रूक्षाश्च 'गति' ति आद्या दुर्गतिहेतवोऽन्त्यास्तु सुगतिहेतवः 'परिणाम' त्ति लेश्यानां कतिविधः परिणामः? इति वाच्यं, तत्रासौ जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदास्त्रिधा उत्पातादिभेदाद्वा विधेति ‘पएस' त्ति आसां प्रदेशा वाच्यास्तत्र प्रत्येकमनन्तप्रदेशिका एता इति 'ओगाह' त्ति अवगाहना आसां वाच्या तत्रैता असंख्यातक्षेत्रप्रदेशावगाढा: 'वग्गण' त्ति वर्गणा आसां वाच्याः। तत्र वर्गणाः कृष्णलेश्यादियोग्यद्रव्यवर्गणाः ताश्चानन्ता औदारिकादिवर्गणावत् 'ठाण' त्ति तारतम्येन विचित्राध्यव Jain Education Intemational Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५/३ अथ पञ्चमं शतकम् प्रथम उद्देशकः चतुर्थशतान्ते लेश्या उक्ताः, पञ्चमशते तु प्रायो लेश्यावन्तो निरूप्यन्ते इत्येवंसम्बन्धस्यास्योद्देशकसंग्रहाय गाथेयम्'चंपे' त्यादि, तत्र चंपायां रविविषयप्रश्ननिर्णयार्थ : प्रथम उद्देशक:, 'अनिल' त्ति वायुविषयप्रश्ननिर्णयार्थो द्वितीयः, 'गंठिय' त्ति जालग्रन्थिकाज्ञातज्ञापनीयार्थनिर्णयपरस्तृतीयः, 'सदे' त्ति शब्दविषयप्रश्ननिर्णयार्थश्चतुर्थः, 'छउम'' त्ति छद्मस्थवक्तव्यतार्थः पञ्चमः, 'आउ' त्ति आयुषोऽल्पत्वादिप्रतिपादनार्थः षष्ठः, 'एयण' त्ति पुद्गलानामेजनाद्यर्थप्रतिपादकः सप्तमः, 'नियंठे' त्ति निर्ग्रन्थीपुत्राभिधानानगारविहितवस्तुविचारसारोऽष्टमः, 'रायगिहं' ति राजगृहनगर विचारणपरो नवमः 'चंपाचंदिमा' य त्ति चम्पायां नगर्यां चन्द्रमसो वक्तव्यतार्थो दशमः । तत्र प्रथमोद्देशके किञ्चिल्लिख्यते 'सूरिय' त्ति द्वौ सूर्यौ, जम्बूद्वीपे द्वयोरेव भावात् 'उदीणपाईणं' ति उदगेव उदीचीनं प्रागेव प्राचीनम् उदीचीनं च तदुदीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च तत्प्राच्याः प्रत्यासन्नत्वाद् उदीचीनप्राचीनं — दिगन्तरं क्षेत्रदिगपेक्षया पूर्वोत्तरदिगित्यर्थः । ‘उग्गच्छ' त्ति उद्गत्य क्रमेण तत्रोद्गमनं कृत्वेत्यर्थः 'पाईणदाहिणं' ति प्राचीनदक्षिणं दिगन्तरं पूर्वदक्षिणामित्यर्थः । 'आगच्छंति' त्ति आगच्छतः क्रमेणैवास्तं यात इत्यर्थः, इह चोद्गमनमस्तमनं च द्रष्टृलोकविवक्षयाऽवसेयं, तथाहि — येषामदृश्यौ सन्तौ दृश्यौ तौ स्यातां ते तयोरुद्गमनं व्यवहरन्ति येषां तु दृश्यौ सन्तावदृश्यौ स्तस्ते तयोरस्तमयं व्यवहरन्तीत्यनियतावुदयास्तमयौ, आह च- १. "जह जह समए समए पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे । तह तह इओवि नियमा जायइ रयणी य भावत्थो । २. एवं च सइ नराणं उदयमत्थमणाई होतऽनिययाई । सइ देसभए कस्सइ किंची ववदिस्सए नियमा || ३. सइ चेव य निद्दिट्ठो भद्दमुहुत्तो कमेण सव्वेसिं । सिंचीदापि य विसयपमाणे रवी जेसिं ॥ " इत्यादि, अनेन च सूत्रेण सूर्यस्य चतसृषु दिक्षु गतिरुक्ता, ततश्च ये मन्यन्ते सूर्यः पश्चिमसमुद्रं प्रविश्य पातालेन १. अ. स प्रतौ 'छउमत्थ' त्ति २. स प्रतौ 'चोद्गमनमस्तमयम्' ३. स प्रतौ 'होंतिऽनियया' ५११ Jain Education Intemational श. ५: उ. १: सू. ३-७ गत्वा पुनः पूर्वसमुद्रमुदेतीत्यादि तन्मतं निषिद्धमिति । इह च सूर्यस्य सर्वतो गमनेऽपि प्रतिनियतत्वात्तत्प्रकाशस्य रात्रिदिवसविभागोऽस्तीति तं क्षेत्रभेदेन दर्शयन्नाह५/४,५. ‘जया ण’ मित्यादि इह सूर्यद्वयभावादेकदैव दिग्द्वये दिवस उक्तः, इह च यद्यपि दक्षिणार्द्धे तथा उत्तरार्द्धे इत्युक्तं, तथाऽपि दक्षिणभागे उत्तरभागे चेति बोद्धव्यं, अर्द्धशब्दस्य भागमात्रार्थत्वात् यतो यदि दक्षिणा उत्तरार्द्धे च समग्र एव दिवसः स्यात्तदा कथं पूर्वेणापरेण च रात्रिः स्यादिति वक्तुं युज्येत, अर्द्धद्वयग्रहणेन सर्वक्षेत्रस्य गृहीतत्वात्, इतश्च दक्षिणार्द्धादिशब्देन दक्षिणादिदिग्भागमात्रमेवावसेयं न त्वर्द्धम् ५/६, ७ अतो यदापि दक्षिणोत्तरयोः सर्वोत्कृष्टो दिवसो भवति, तदाऽपि जम्बूद्वीपस्य दशभागत्रयप्रमाणमेव तापक्षेत्रं तयोः प्रत्येकं स्याद्, दशभागद्वयमानं च पूर्वपश्चिमयोः प्रत्येकं रात्रिक्षेत्रं स्यात्, तथाहि – षष्ट्या मुहूर्तेः किल सूर्यो मण्डलं पूरयति, उत्कृष्टदिनं चाष्टादशभिर्मुहूर्तेरुक्तम्, अष्टादश च षष्टेर्दशभागत्रितयरूपा भवन्ति, तथा यदाऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा रात्रिर्द्वादशमुहूर्त्ता भवति । द्वादश च षष्टेर्दशभागद्वयरूपा भवन्तीति, तत्र च मेरुं प्रति नव योजनसहस्त्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च दश भागा योजनस्येत्येतत्सर्वोत्कृष्टदिवसे दशभागत्रयरूपं तापक्षेत्रप्रमाणं भव ९४८६ कथम् ? मन्दरपरिक्षेपस्य किञ्चिन्नयूनत्रयो विंशत्युत्तरषट्शताधिकैकत्रिंशद्योजनसहस्रमानस्य ३१६२३ दशभिर्भागे हृते यल्लब्धं ३१६२ तस्य त्रिगुणितत्वे एतस्य भावादिति। तथा लवणसमुद्रं प्रति चतुर्नवतिर्योजनानां सहस्राणि अष्टौ शतान्यष्टषष्ट्यधिकानि चत्वारश्च दशभागा योजनस्येत्येतदुत्कृष्टदिने तापक्षेत्रप्रमाणं भवति ९४८६२ कथम्? जम्बूद्वीपपरिधेः किंचिन्न्यूनाष्टविंशत्युत्तरशतद्वयाधिकषोडशसहस्त्रोपेतयोजनलक्षत्रयमानस्य ३१६२२८ दशभिर्भागे हृते यल्लब्धं तस्य त्रिगुणित्वे एतस्य भावादिति । जघन्यरात्रिक्षेत्रप्रमाणं चाप्येवमेव, नवरं परिधेर्दशभागो द्विगुणः कार्यः, तत्राद्यं षड् योजनानां सहस्त्राणि त्रीणि शतानिचतुर्विंशत्यधिकानि षट् च दशभागा योजनस्य ६३२४ ६ द्वितीयं तु त्रिषष्टिः सहस्राणि द्वे पंचचत्वारिंशदधिके योजनानां शते षट् च दशभागा योजनस्य ६३२४५ सर्वलघौ च दिवसे तापक्षेत्रमनन्तरोक्तरात्रिक्षेत्रतुल्यं रात्रिक्षेत्रं त्वनन्तरोक्ततापक्षेत्रतुल्यमिति । आयामतस्तु तापक्षेत्रं जम्बूद्वीपमध्ये पंचचत्वारिशद्योजनानां सहस्त्राणीति, लवणे च Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ. १: सू.७-उ.२ सू.३१ ५१२ भगवती वृत्ति त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रिभागश्च योजनस्य ३३३३३ १, उभयमीलने त्वष्टसप्ततिः सहस्त्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनविभागश्चेति ७८३३३ । 'उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति' त्ति इह किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं भवति, तत्र किल जम्बूद्वीपमध्ये पंचषष्टिर्मण्डलानि भवन्ति, एकोनविंशत्यधिक च तेषां शतं लवणसमुद्रस्य मध्ये भवति। तत्र च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा वर्तते सूर्यस्तदाऽष्टादशमुहूतों दिवसो भवति, कथम् ? यदा सर्वबाह्ये मण्डले वर्ततेऽसौ तदा सर्वजघन्यो द्वादश मुहूत्र्तो दिवसो भवति, ततश्च द्वितीयमण्डलादारभ्य प्रतिमण्डलं द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां दिनस्य वृद्धौ त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले षड् मुहूर्ता वर्धन्ते इत्येवमष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, अतएव द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भ वति, त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्य। ५/८,९ 'अट्ठारसमुहत्ताणंतरे' ति यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरे मण्डले वर्त्तते सूर्यस्तदा मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयहीनाष्टादशमुहूतों दिवसो भवति, स चाष्टादशमुहूर्तादिवसादनन्तरोऽष्टादशमुहूर्त्तानन्तरमिति व्यपदिष्टः ‘सातिरेगा दुवालसमुहुत्ता राइ' ति द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहूर्ता 'राई भवति' त्ति रात्रिप्रमाणं भवतीत्यर्थः, यावता भागेन दिनं हीयते तावता रात्रिर्वर्द्धते, त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्येति। ५/१० ‘एवं एएणं कमेणं' एवमित्युपसंहारे 'एतेन' अनन्तरोक्तेन 'जया णं भंते! जंबूद्दीवे दीवे दाहिणड्डे' इत्यनेनेत्यर्थः 'ओसारेयव्वं' ति दिनमानं ह्रस्वीकार्य, तदेव दर्शयति'सत्तरसे' त्यादि। तत्र सर्वाभ्यान्तरमण्डलानन्तरमण्डलादारभ्यैकत्रिंशत्तममण्डला यदा सूर्यस्तदा सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति, पूर्वोक्तहानिक्रमेण त्रयोदशमुहूर्ता च रात्रिरिति। 'सत्तरसमुहुत्ताणंतरे' त्ति मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयहीनसप्तदशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसः। अयं च द्वितीयादारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डलार्द्ध भवति। एवमनन्तरत्वमन्यत्राप्यूह्यं 'साइरेगतेरसमुहुत्ता राइ' त्ति मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयेन सातिरेकत्वम्, एवं सर्वत्र ‘सोलसमुहुत्ते दिवसे' ति द्वितीयादारभ्यैकषष्टितममण्डले षोडशमुहूत्तों दिवसो भवति। ‘पन्नरसमुहत्ते दिवसे' त्ति द्विनवतितममण्डलार्द्ध वर्त्तमाने सूर्ये 'चोद्दसमुहुत्ते दिवसे' त्ति द्वाविंशत्युत्तरशततमे मण्डले, 'तेरसमुहुत्ते दिवसे' त्ति सार्धद्विपंचाशदुत्तरशततमे मण्डले, 'बारसमुहत्ते दिवसे' ति त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले सर्वबाह्य इत्यर्थः। कालाधिकारादिदमाह५/१३ 'जया णं भंते! जंबूद्दीवे द्दीवे दाहिणड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ' इत्यादि वासाणं' ति चतुर्मासप्रमाणवर्षाकालस्य सम्बन्धी 'प्रथम:' आद्यः 'समय:' क्षण: 'प्रतिपद्यते' संपद्यते भवतीत्यर्थ:-'अणंतरपुरक्खडे समयंसि' त्ति अनन्तरो--- निर्व्यवधानो दक्षिणार्द्ध वर्षाप्रथमतापेक्षया स चातीतोऽपि स्यादत आह--पुरस्कृत:-पुरोवर्ती भविष्यन्नित्यर्थः। समय: प्रतीतः, तत: पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तत्र । ५/१४ 'अणंतरपच्छाकडसमयंसि' त्ति पूर्वापरविदेहवर्षाप्रथमसमयापेक्षया योऽनन्तरपश्चात्कृतोऽतीत: समयस्तत्र दक्षिणोत्तरयोर्वर्षा कालप्रथमसमयो भवतीति। ५/१५ ‘एवं जहा समएण' मित्यादि आवलिकाऽाभलापश्चैवम् 'जया णं भंते! जंबूद्दीवे दीवे दाहिणड्डे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जति तया णं उत्तरड्डेवि, जया णं उत्तरड्डे वासाणं पढमावलिया पडिवज्जति तया णं जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं अणंतरपुरक्खड़समयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ? हंता गोयमा! इत्यादि। एवमानप्राणादिपदेष्वपि आवलिकाद्यर्थः पुनरयम्-आवलिका -असंख्यातसमयात्मिका आनप्राण:- उच्छ्वासनिःश्वासकाल: स्तोकः-सप्तप्राणप्रमाण: लवस्तु–सप्तस्तोकरूप: मुहूर्त: पुनर्लवसप्तसप्ततिप्रमाण: ऋतुस्तु मासद्वयमानः। ५/१६ 'हेमंताणं' ति शीतकालस्य 'गिम्हाण व' त्ति उष्णकालस्य ५/१७, १८ ‘पढमे अयणे' त्ति दक्षिणायनं श्रावणादित्वात्संवत्सरस्य 'जुएणविं' त्ति युगं पञ्चसंवत्सरमानं 'पुव्बंगेणवि' त्ति पूर्वाङ्ग चतुरशीतिवर्षलक्षाणां 'पुव्वेण वि' त्ति पूर्वपूर्वांगमेव चतुरशीतिवर्षलक्षेण गुणितमा एवं चतुरशीतिवर्षलक्षगुणितमुत्तरोत्तरं स्थानं भवति। चतुर्नवत्यधिकं चांकशतमन्तिमे स्थाने भवतीति। ५/१९ 'पढमा ओसप्पिणि' त्ति अवसर्पयति भावानित्येवंशीलाऽवसर्पिणी तस्याः प्रथमो विभागः प्रथमावसर्पिणी। 'उस्सप्पिणि' त्ति उत्सर्पयति भावानित्येवंशीला उत्सर्पिणी ति। ॥ पञ्चमशते प्रथमोद्देशकः ॥ द्वितीय उद्देशकः प्रथम उद्देशके दिक्ष दिवसादिविभाग उक्तः, द्वितीये तु तास्वेव वातं प्रतिपिपादयिषुर्वातभेदांस्तावदभिधातुमाह५/३१ 'रायगिहे' इत्यादि, 'अत्थि' त्ति अस्त्ययमर्थों-यदुत वाता वान्तीति योगः, कीदृशाः? इत्याह-'ईसिं पुरेवाय' त्ति मनाक सत्रेहवाता:। 'पत्थावाय' त्ति पथ्या वनस्त्पत्यादिहिता वायवः, 'मंदावाय' त्ति मन्दाः शनैः संचारिणोऽमहावाता इत्यर्थः। 'महावाय' त्ति उद्दण्डवाता अनल्पा इत्यर्थः। Jain Education Intemational Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श.५: उ.२: सू.३२-५४ ५/३२ 'पुरच्छिमेणं' ति सुमेरो: पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः ५/३३ 'एवमेतानि दिगविदिगपेक्षयाऽष्टौ सूत्राणि । उक्तं दिग्भेदेन वातानां वानम्, अथ दिशामेव परस्परोपनिबन्धेन तदाह-- ५/३४ 'जया ण' मित्यादि। इह च द्वे दिक्सूत्रे द्वे विदिक्सूत्रे इति । अथ प्रकारान्तरेण वातस्वरूपनिरूपणसूत्रं, तत्र५/३६ “दीविच्चग' त्ति द्वैप्याद्वीपसम्बन्धिनः ३/३७ 'सामुद्दय' त्ति समुद्रस्यैते सामुद्रिकाः ५/३९ 'अण्णमण्णविवच्चासेणं' ति अन्योऽन्यव्यत्यासेन यदैके ईषत्पुरोवातादिविशेषणा वान्ति तदेतरे न तथाविधा वान्तीत्यर्थः, 'वेलं नाइक्कमइ' त्ति तथाविधवातद्रव्यसामर्थ्याद् वेलायास्तथास्वभावत्वाच्चेति। अथ वातानां वाने प्रकारान्तरेण वातस्वरूपत्रयं सूत्रत्रयेण दर्शयन्नाह५/४० 'अत्थि ण' मित्यादि, इह च प्रथमवाक्यं प्रस्तावनार्थमिति न पुनरुक्तमित्याशंकनीयम् ५/४१ 'अहारियं रियंति' ति रीतं रीति: स्वभाव इत्यर्थः तस्यानतिक्रमण यथारीतं 'रीयते' गच्छति यदा स्वाभाविक्या गत्या गच्छतीत्यर्थः ५/४३ 'उत्तरकिरियं' ति वायुकायस्य हि मूलशरीरमौदारिकमुत्तरं तु वैक्रियमत उत्तरा-उत्तर-शरीराश्रया क्रिया गतिलक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियम्। तद्यथा भवतीत्येवं रीयते गच्छति, इह चैकसूत्रेणैव वायुवानकारणत्रयस्य वक्तुं शक्यत्वे यत्सूत्रत्रयकरणं तद्विचित्रत्वात्सूत्रगतेरिति मन्तव्यं, वाचनान्तरे त्वाद्यं कारणं महावातवर्जितानां, द्वितीयं तु मन्दवातवर्जितानां, तृतीयं तु चतुर्णामप्युक्तमिति। वायुकायाधिकारादेवेदमाह५/४६ 'वाउयाए ण' मित्यादि 'जहा खंदए' इत्यादि, तत्र प्रथमो दर्शित एव ५/४७ 'अणेगे' त्यादिर्द्वितीयः, स चैवम्-'वाउयाए' णं भंते! वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाइ ? हंता गोयमा!' ५/४८ 'पुढे उद्दाइ' त्ति तृतीयः स चैवम्-'से भंते! किं पुढे उद्दाइ अपुढे उद्दाइ?' - गोयमा! पुढे उद्दाइ नो अपुढे', ५/४९ ‘ससरीरी' त्यादि: चतुर्थः, स चैवम्—'से भंते! किं ससरीरी निक्खमइ असरीरी? गोयमा! सिय ससरीरी' त्यादि। वायुकायश्चिन्तितः, अथ वनस्पतिकायादीन् शरीरतश्चिन्त यन्नाह५/५१ 'अहे' त्यादि 'एए णं' ति एतानि णमित्यलंकारे 'किंसरीर' त्ति केषां शरीराणि किंशरीराणि? 'सराए य जे घणे' त्ति सुरायां द्वे द्रव्ये स्यातां-घनद्रव्यं द्रवद्रव्यं च, तत्र यद् घनद्रव्यम्। 'पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च' त्ति अतीतपर्यायप्ररूपणामंगीकृत्य वनस्पतिशरीराणि, पूर्वं हि ओदनादयो वनस्पतयः 'तओ पच्छ' ति वनस्पतिजीव-शरीरवाच्यत्वानन्तरमग्निजीवशरीराणीति वक्तव्यं स्यादिति सम्बन्धः, किं भूतानि संति? इत्याह-'सत्यातीय' त्ति शस्त्रेण-उद्खलमुशलयंत्रकादिना करणभूतेन अतीतानि-अतिक्रान्तानि पूर्वपर्यायमिति शस्त्रातीतानि 'सत्थपरिणामिय' त्ति शस्त्रेण परिणामितानि–कृतानि नवपर्यायाणि शस्त्रपरिणमितानि ततश्च–'अगणिज्झामिय' त्ति वह्मिना ध्यामितानि-श्यामीकृतानि स्वकीयवर्णत्याजनात्, तथा अग्निना झोषितानि पूर्वस्वभावक्षपणात् , अग्निना सेवितानि वा 'जुषी प्रीतिसेवनयो: इत्यस्य धातोः प्रयोगात् 'अगणिपरिणामियाई ति' सजाताग्निपरिणामानि उष्णयोगादिति। अथवा 'सत्थातीता' इत्यादी शस्वमग्निरेव, 'अगणिज्झामिया' इत्यादि तु तद्व्याख्यानमेवेति । ५/५२ 'उवले' त्ति इह.दग्धपाषाण: 'कसट्टिय' ति कट्टः। ५/५३ 'अट्टिज्झामि' ति अस्थि च तद्ध्यामं च-अग्निना ध्यामलीकृतम्-आपादितपर्यायान्तरमित्यर्थः ५/५४ 'इंगाले' इत्यादि अंगार: निलितेन्धनं, 'छारिए' त्ति क्षारकं भस्म ‘भुसे' त्ति बुसं 'गोमयं' त्ति छगणम् , इह च बुसगोमयौ भूतपर्यायानुवृत्या दग्धावस्थौ ग्राह्यौ अन्यथाऽग्निध्यामितादिवक्ष्यमाणविशेषणानामनुपपत्तिः स्यादिति। एते पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्यैकेन्द्रियजीवैः शरीरतया प्रयोगेण-स्वव्यापारेण परिणाभिता ये ते तथा एकेन्द्रियशरीराणीत्यर्थ: अपि समुच्चये, यावत्करणाद् द्वीन्द्रियजीवशरीरप्रयोगपरिणामिता अपीत्यादि दृश्यम्, द्वीन्द्रियादिजीवशरीरपरिणतत्वं च यथासंभवमेव न तु सर्वपदेष्विति। तत्र पूर्वमंगारो भस्म चैकेन्द्रियादिशरीररूपं भवति, एकेन्द्रियादिशरीराणामिन्धनत्वात्। बुसं तु यवगोधूमहरितावस्थायामेकेन्द्रियशरीरम् गोमयस्तु तृणाद्यवस्थायमेकेन्द्रियशरीरम्। द्वीन्द्रियादीनां तु गवादिभिर्भक्षणे द्वीन्द्रियादिशरीरमिति। पृथिव्यादिकायाधिकारदप्कायरूपस्य लवणोदधे: स्वरूपमाह १. स प्रती कृताभिनवपर्यायाणि २. क्वचित् अग्निना शोषितानि Jain Education Intemational Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५: उ.२: सू.५५-उ.४: सू.६४ ५१४ भगवती वृत्ति ५/५५ 'लवणे ण' मित्यादि। ‘एवं णेयव्वं' ति उक्ताभिलापानुगुणतया नेतव्यं, जीवाभिगमोक्तं लवणसमुद्रसूत्रम्। किमन्तमित्याह'जाव लोगे त्यादि, तच्चेदम्-केवइयं परिक्खेवेणं? गोयमा! दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस सयसहस्साई एक्कासीयं च सहस्साई सयं च इगुणयालं किंचिविसेसूणं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' इत्यादि, एतस्य चान्ते कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे जंबूद्दीवं दीवं नो उव्वीलेइ इत्यादौ प्रश्ने गोयमा! जंबूद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु अरहंता चक्कवट्टी' त्यादेरुत्तरग्रन्थस्यान्ते 'लोगट्ठिई' इत्यादि द्रष्टव्यमिति। ॥ पञ्चमशते द्वितीयोद्देशकः ॥ तृतीय उद्देशकः अनन्तरोक्तं लवणसमुद्रादिकं सत्यं सम्यग्ज्ञानिप्रतिपादित्वात् , मिथ्याज्ञानिप्रतिपादितं त्वसत्यमपि स्यादिति दर्शयंस्तृतीयोद्देशक स्यादिसूत्रमिदमाह५/५७ 'अण्णउत्थियाण' मित्यादि 'जालगंठिय' त्ति जालं मत्स्यबन्धनं तस्येव ग्रन्थयो यस्यां सा जालग्रन्थिकाजालिका, किंस्वरूपा सा? इत्याह-'आणुपुट्विंगढिय' त्ति आनुपूर्व्या-परिपाट्या ग्रथिता-गुम्फिता आधुचितग्रन्थीनामादौ विधानाद् अन्तोचितानां च क्रमेणान्त एव करणात्। एतदेव प्रपञ्चयन्नाह–'अनन्तरगढिय' त्ति प्रथमग्रन्थीनामन्तरव्यवस्थापितैन्थिभिः सह ग्रथिता अनन्तरग्रथिता, एवं परम्परैःव्यवहितैः सह ग्रथिता परम्परग्रथिता, किमुक्तं भवति? 'अण्णमण्णगढिय' त्ति अन्योऽन्यं—परस्परेण एकेन ग्रन्थिना सहान्यो ग्रन्थिरन्येन च सहान्य इत्येव ग्रथिता अन्योऽन्यग्रथिता एवं च 'अण्णमण्णगरुयत्ताए' त्ति अन्योऽन्येन ग्रन्थनाद् गुरुकता–विस्तीर्णता अन्योऽन्यगुरुकता तया, 'अण्णमण्णभारियत्ताए' त्ति अन्योऽन्यस्य यो भारः स विद्यते यत्र तदन्योऽन्यभारिकं तद्भावस्तत्ता तया, एतस्यैव प्रत्येकोक्तार्थद्वयस्य संयोजनेन तयोरेव प्रकर्षमभिधातुमाह-'अण्णमण्णगरुयसंभारियत्ताए' त्ति अन्योऽन्येन गुरुकं यत्सम्भारिकं च तत्तथा सद्भावस्तत्ता तया अण्णमण्णघडताए' त्ति अन्योऽन्यं घटा-समुदायरचना यत्र तदन्योऽन्यघटं तद्भावस्तत्ता तया 'चिट्ठई' त्ति आस्ते इति दृष्टान्तोऽथ दार्टान्तिक उच्यते—'एवामेव' त्ति अनेनैव न्यायेन बहूनां जीवानां सम्बन्धीनि। 'बहूसु आजाइसहस्सेसु' त्ति अनेकेषु देवादिजन्मसु प्रतिजीवं क्रमप्रवृत्तेष्वधिकरणभूतेषु बहून्यायुष्कसहस्त्राणि ततस्वामिजीवानामाजातीनां च बहुशतसहस्रसंख्यत्वात् , आनुपूर्वीग्रथिता नीत्यादि पूर्ववद्व्याख्येयं नवरमिह भारिकत्वं कर्मपुद्गलापेक्षया वाच्यम्। अथैतेषामायुषां को वेदनविधिः? इत्याह--‘एगेऽवि ये' त्यादि, एकोऽपि च जीव आस्तामनेक: एकेन समयेनेत्यादि प्रथमशतकवत् । अत्रोत्तरं५/५८ 'जे ते एवमाहंसु' इत्यादि, मिथ्यात्वं चैषामेवम्-यानि हि बहूनां जीवानां बहून्यायूंषि जालग्रन्थिकावत्तिष्ठन्ति तानि यथास्वं जीवप्रदेशेषु संबद्धानि स्युरसंबद्धानि वा? यदि संबद्धानि तदा कथं भिन्नभिन्नजीवस्थितानां तेषां जालग्रंथिककल्पना कल्पयितुं शक्या? तथाऽपि तत्कल्पने जीवानामपि जालग्रन्थिकाकल्पत्वं स्यात्तत्संबद्धत्वात् , तथा च सर्वजीवानां सर्वायुःसंवेदनेन सर्वभवभवनप्रसंग इति। अथ जीवानामसंबद्धान्यायूंषि तदा तद्वशाद्देवादिजन्मेति न स्यादसंबद्धत्वादेवेति। यच्चोक्तं एको जीव एकेन समयेन द्वे आयुषी वेदयति तदपि मिथ्या, आयुट्टयसंवेदने युगपद्भवद्वयप्रसंगादिति। अहं पुण गोयमे' त्यादि इह पक्षे जालग्रन्थिका–संकलिकामात्रम् , 'एगमेगस्से' त्यादि एकैकस्य जीवस्य न तु बहूनां बहुधा आजातिसहस्रेषु क्रमवृत्तिष्वतीतकालकेषु तत्कालापेक्षया सत्सु बहून्यायु: सहस्राण्यतीतानि वर्तमानभवान्तानि अन्यभविकमन्यभविकेन प्रतिबद्धमित्येवं सर्वाणि परस्परं प्रतिबद्धानि भवन्ति न पुनरेकभव एव बहूनि- 'इहभवियाउयं व' त्ति वर्तमानभवायु: ‘परभवियाउयं व' त्ति परभवप्रायोग्य यद्वर्त्तमानभवे निबद्धं तच्च परभवे गतो, यदा वेदयति तदा व्यपदिश्यते 'परभवियाउयं व' त्ति। आयुः प्रस्तावादिदमाह५/५९ 'जीवे ण' मित्यादि, से णं भंते! त्ति अथ तद्भदन्त!' ५/६० 'कहिं कडे' त्ति क्व भवे बद्धं 'समाइण्णे' त्ति समाचरितं तद्धेतुसमाचरणात्। ५/६२ 'जे जंभविए जोणिं उववज्जित्तए' त्ति विभक्तिपरिणामाद्यो यस्यां योनावुत्पत्तुं योग्य इत्यर्थः ‘मणुस्साउयं दुविहं' ति संमूर्छिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदाविधा 'देवाउयं चउव्विहं' ति भवनपत्यादिभेदादिति। ॥ पञ्चमशते तृतीयोद्देशकः ।। चतुर्थ उद्देशकः अनन्तरोद्देशकेऽन्ययूथिकछद्मस्थमनुष्यवक्तव्यतोक्ता, चतुर्थे तु मनुष्याणां छद्मस्थानां केवलिनां च प्रायः सोच्यते इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्५/६४ 'छउमत्थे ण' मित्यादि 'आउडिज्जमाणाई' ति जुड बन्धने इति वचनाद् 'आजोड्यमानेभ्यः' संबध्यमानेभ्यो मुखहस्त Jain Education Intemational Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५१५ श.५:उ.४ःसू.६४-७६ दण्डादिना सह शंखपटहझल्लर्यादिभ्यो वाद्यविशेषेभ्य आकुट्यमानेभ्यो वा एभ्य एव ये जाता: शब्दास्ते आजोड्यमाना आकुट्यमाना एव वोच्यन्तेऽतस्तान् आजोड्यमानानाकुट्यमानान् वा शब्दान् शृणोति इह च प्राकृतत्वेनशब्दशब्दस्य नपुंसकनिर्देश: अथवा 'आउडिज्जमाणाई' ति आकुट्यमानानि परस्परेणाभिहन्यमानानि 'सद्दाई' ति शब्दानि शब्दद्रव्याणि शंखादय: प्रतीता: नवरं 'संखिय' त्ति शंखिका ह्रस्व: शंख: 'खरमुहि' त्ति काहला 'पोया' महती काहला ‘परिपिरिय' त्ति कोलिकपुटकावनद्धमुखो वाद्यविशेष: ‘पणव' त्ति भाण्डपटहो लघुपटहो वा तदन्यस्तु पटह इति। 'भंभ' त्ति ढक्का 'होरंभ' त्ति रूढिगम्या 'भेरि' ति महाढक्का 'झल्लरि' त्ति वलयाकारो वाद्यविशेष: ‘दुंदुहि' त्ति देववाद्यविशेषः। अथोक्तानुक्तसंग्रहद्वारेणाह—'तताणि वे' त्यादि ततानि वीणादिवाद्यानि तज्जनितशब्दा अपि तता:, एवमन्यदपि पदत्रयं, नवरमयं विशेषस्ततादीनाम्"ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम्। घनं तु कांश्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम्॥" इति 'पुट्ठाई सुणेइ' इत्यादि तु प्रथमशते आहाराधिकारवदवसेयमिति। ५/६५ 'आरगयाइं ति आराद्भागस्थितानिन्द्रियगोचरमागतानित्यर्थः । 'पारगयाई' ति इन्द्रियविषयात्परतोऽवस्थितानिति, 'सव्वदूरमूलमणंतियं' ति सर्वथा दूरं-विप्रकृष्टं मूलं च निकटं सर्वदूरमूलं तद्योगाच्छब्दोऽपि सर्वदूरमूलोऽतस्तम् अत्यर्थ दूरवर्त्तिनमत्यन्तासन्नं चेत्यर्थः अन्तिकम्-आसन्नं तन्निषेधादनन्तिकम् 'नञोऽल्पार्थत्वात् नात्यन्तमन्तिकम् अदूरासन्नमित्यर्थः तद्योगाच्छब्दोऽप्यनन्तिकोऽतस्तम् अथवा 'सव्व' त्ति अनेन 'सव्वओ समंता' इत्युपलक्षितं, 'दूरमूलं' ति अनादिकमितिहृदयम्। 'अणंतियं' त्ति अनन्तिकमित्यर्थः ५/६७ 'मियंपि' त्ति परिमाणवद् गर्भजमनुष्यजीवद्रव्यादि। 'अमियंपि' त्ति अनन्तमसंख्येयं वा वनस्पतिपृथिवीजीवद्रव्यादि । 'सव्वं जाणइ' इत्यादि द्रव्याद्यपेक्षयोक्तम्। अथ कस्मात् सर्वं जानाति केवलीत्याधुच्यते? इत्यत आह - 'अणंते' इत्यादि, अनन्तं ज्ञानमनन्तार्थविषयत्वात् तथा 'निव्लुडे नाणे केवलिस्स' त्ति 'निर्वृतं निरावरणं ज्ञानं केवलिन: क्षायिकल्वात् शुद्धमित्यर्थः वाचनान्तरे तु 'निव्वुडे वितिमिरे विसद्धे' त्ति विशेषणत्रयं ज्ञानदर्शनयोरभिधीयते। तत्र च निर्वतं निष्ठागतं 'वितिमिरं' क्षीणावरणम् अतएव विशुद्धमिति। अथ पुनरपि छद्मस्थमनुष्यमेवाश्रित्याह५/६८ 'छउमत्थे' त्यादि 'उस्सुयाएज्ज' त्ति अनुत्सुक उत्सुको भवेदुत्सकायेत, विषयादानं प्रत्यौत्सुक्यं कुर्यादित्यर्थ : । ५/७० 'जं णं जीव' ति यस्मात् कारणाज्जीव: ‘से णं केवलिस्स णत्थि' त्ति तत्पुनश्चारित्रमोहनीयं कर्म केवलिनो नास्तीत्यर्थः । ५/७१ ‘एवं जाव वेमाणिए' त्ति एवमिति जीवाभिलापवन्नारकादिर्दण्डको वाच्यो याववैमानिक इति, स चैवम्-'नेरइए णं भंते! हसमाणे वा उस्सुयमाणे वा, कइ कम्मपयडीओ बंधइ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा' इत्यादि। इह च पृथिव्यादीनां हास: प्राग्भविकतत्परिणामादवसेय इति। 'पोहत्तिएहिं' ति पृथक्त्वे सूत्रेषु-बहुवचनसूत्रेषु 'जीवा णं भंते! हसमाणा वा उस्सुयमाणा वा कइ कम्मपयडीओ बंधंति? गोयमा! सत्तविहबंधगावि अट्टविहबंधगावि, इत्यादिषु 'जीवेगिदिए' त्यादि जीवपदमेकेन्द्रियपदानि च पृथिव्यादीनि वर्जयित्वाऽन्येष्वेकोनविंशतौ नारकादिपदेषु ‘त्रिकभंगः' भंगत्रयं वाच्यं, यतो जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च बहुत्वाज्जीवानां सप्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबन्धकाश्चेत्येवमेक एव भंगको लभ्यते, नारकदिषु तु त्रयं तथाहि- सर्व एव सप्तविधबन्धका: स्युरित्येकः, अथवा सप्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबंधकश्चेत्येवं द्वितीयः अथवा सप्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबन्ध-काश्चेत्येवं तृतीयः इति अत्रैव छद्मस्थकेवल्यधिकारे इदमपरमाह५/७२ 'छउमत्थे' त्यादि ‘णिद्दाएज्ज व' त्ति निद्रां-सुखप्रतिबोध लक्षणां कुर्यात् निद्रायेत, 'पयलाएज्ज 'व' त्ति प्रचलाम्ऊर्वस्थितनिद्राकरणलक्षणां कुर्यात् प्रचलायेत्। केवल्यधिकारात्केवलिनो महावीरस्य संविधानकमाश्रित्येदमाह५/७६ 'हरी' त्यादि, इह च यद्यपि महावीरसंविधानाभिधायकं पदं न दृश्यते तथाऽपि हरिनैगमेषीति वचनात्तदेवानुमीयते। हरिनैगमेषिणा भगवतो गर्भान्तरे नयनात्। यदि पुन: सामान्यतो गर्भहरणविवक्षाऽभविष्यत्तदा 'देवे णं भंते!' इति वक्ष्यदिति, तत्र हरि:-इन्द्रस्तत्सम्बन्धित्वात् हरिनैगमेषीति नाम। 'सक्कदूए' त्ति शक्रदूतः शक्रादेशकारी पदात्यनीकाधिपतिर्येन शक्रादेशाद् भगवान महावीरो देवानन्दागर्भात् त्रिशलागर्भे संहृत इति। 'इत्थीगभं' ति स्त्रिया: सम्बन्धी गर्भ: सजीवपुद्गलपिण्डक: स्त्रीगर्भस्तम्। 'संहरमाणे' त्ति अन्यत्र नयन् इह चतुर्भगिका तत्र गर्भाद् गर्भाशयादवधे: गर्भ-गर्भाशयान्तरं 'संहरति' प्रवेशयति गर्भ सजीवपुद्गलपिंडलक्षणमिति प्रकृतिमित्येकः। २. तथा गर्भादवधे: योनिं गर्भनिर्गमद्वारं संहरति योन्या उदरान्तरं प्रवेशयतीत्यर्थः ३. योनिद्वारेण गर्भ संहरति गर्भाशयं प्रवेशयतीत्यर्थः १. अ प्रतौ जीव इत्यादि। Jain Education Intemational Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.४: सू.७६-९६ ५१६ भगवती वृत्ति ४. योनेः सकाशाद्योनि 'संहरति' नयति योन्या उदरान्निष्काष्य योनिद्वारेणैवोदरान्तरं प्रवेशयतीत्यर्थः।। एतेषु शेषनिषेधेन तृतीयमनुजानन्नाह-'परामुसिए' त्यादि परामृश्य परामृश्य, तथाविधकरणव्यापारेण संस्पृश्य संस्पृश्य स्त्रीगर्भम् 'अव्याबाधमव्याबाधेन' सुखंसुखेनेत्यर्थः। योनीत: योनिद्वारेण निष्काश्य गर्ने गर्भाशयं संहरति गर्भमिति प्रकृतम्। यच्चेह योनीतो निर्गमनं स्त्रीगर्भस्योक्तं तल्लोकव्यवहारानुवर्तनात्, तथाहि-निष्पन्नोऽनिष्पन्नो वा गर्भ: स्वाभावाद्योन्यैव निर्गच्छतीति अयं च तस्य गर्भसंहरणे आचार उक्तः, अथ तत्सामर्थ्य दर्शयन्नाह५/७७ 'पभू ण' मित्यादि 'नहसिरंसि' त्ति नखाये 'साहरित्तए' त्ति संहर्तुं—प्रवेशयितुं 'नीहरित्तए' ति विभक्तिपरिणामेन नखशिरसो रोमकूपाद् वा निर्हर्तुं निष्काशयितुं ‘आबाह' ति ईषद्बाधां 'विबाह' ति विशिष्टबाधां 'छविच्छेद' ति शरीरच्छेदं पुनः कुर्यात्, गर्भस्य हि छविच्छेदमकृत्वा नखाग्रादौ प्रवेशयितुमशक्यत्वात्। ‘एसुहुम च णं' ति इति सूक्ष्ममिति एवं लध्विति। अनन्तरं महावीरस्य सम्बन्धि गर्भान्तरसंक्रमणलक्षण माश्चर्यमुक्तम्, अथ तच्छिष्यसम्बन्धि तदेव दर्शयितुमाह५/७८ तेण' मित्यादि ‘कुमारसमणे' त्ति षड्वर्षजातस्य तस्य प्रव्रजितत्वात् आह च'छव्वरिसो पव्वइओ निग्गंथं रोइऊण पावयणं' ति एतदेव चाश्चर्यमिह, अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति। ५/७९ 'कक्खपडिग्गहरयहरणमायाए' त्ति कक्षायां प्रतिग्रहकं रजोहरणं चादायेत्यर्थः। ५/८० ‘णाविया में' त्ति नौका द्रोणिका में ममेयमिति विकल्पवन्निति गम्यते। 'नाविओ विव नावं' ति नाविक इव-नौवाहक इह 'नावं' द्रोणीम् 'अयं' ति असावतिमुक्तकमुनिः प्रतिग्रहकं प्रवाहयन्नभिरमते, एवं च तस्य रमणक्रिया बालावस्थाबलादिति 'अद्दक्खु' त्ति अद्राक्षुः दृष्टवन्तः, ते च तदीयामत्यन्तानुचितां चेष्टां दृष्ट्वा तमुपहसन्त इव भगवन्तं पप्रच्छु:, एतदेवाह ‘एवं खलु' इत्यादि ५/८१ 'हीलेह' त्ति जात्याधुघट्टनत: 'निंदह' त्ति मनसा 'खिंसह' त्ति जनसमक्षं 'गरहह' त्ति तत्समक्षम् 'अवमण्णह' त्ति तदुचितप्रतिपत्यकरणेन ‘परिभवह' त्ति क्वचित् पाठस्तत्र परिभव:--समस्तपूर्वोक्तपदाकरणेन 'अगिलाए' त्ति अग्लान्या अखेदेन 'संगिण्हह' त्ति संगृणीत स्वीकुरुत 'उवगिण्हह' त्ति उपगृहणीत उपष्टम्भं कुरुत एतदेवाह-'वेयावडियं' ति वैयावृत्यं कुरुतास्येति शेष: 'अंतकरे चेव' त्ति भवच्छेदकरः स च दूरतरभवेऽपि स्यादत आह-'अंतिमसरीरिए चेव' त्ति चरमशरीर इत्यर्थ। यथाऽयमतिमुक्तको भगवच्छिष्योऽन्तिमशरीरोऽभवत् एवमन्ये पि यावन्तस्तच्छिष्या अन्तिमशरीराः संवृत्तास्तावतो दर्शयितुं प्रस्तावनामाह५/८३ 'तेण' मित्यादि 'महाशुक्रात् सप्तमदेवलोकात् ५/८६ 'झाणंतरियाए' त्ति अन्तरस्य–विच्छेदस्य करणमन्तरिका ध्यानस्यान्तरिका ध्यानान्तरिका-आरब्धध्यानस्य समाप्तिपूर्व स्यानारंभणमित्यर्थः अतस्तस्यां वर्तमानस्य ५/८८ 'कप्पाओ' त्ति देवलोकात् 'सग्गाओ' त्ति स्र्वगाद्, देवलोकदेशात्प्रस्तटादित्यर्थः। विमाणाओ' त्ति प्रस्तटैकदेशादिति 'वागरणाई' ति व्याक्रियन्त इति व्याकरणा:-प्रश्नार्थाः अधिकृता एव कल्पविमानादिलक्षणाः। देवप्रस्तावादिदमाह५/८९ 'देवा ण' मित्यादि ५/९२ 'से किं खाइ णं भंते! देवाइं वत्तव्वं सिय' त्ति 'से' इति अथार्थः किमिति प्रश्नार्थः। णं वाक्यालंकारार्थः 'देवा' इति यद्वस्तु तद्वक्तव्यं स्यादिति। 'नोसंजया इ वत्तव्वं सिय' त्ति नो संयता इत्येतद्वक्तव्यं स्यात् , असंयतशब्दपर्यायत्वेऽपि नोसंयतशब्दस्यानिष्ठुरवचनत्वान्मृतशब्दापेक्षया परलोकीभूतशब्दवदिति। देवाधिकारादेवेदमाह५/९३ 'देवा ण' मित्यादि 'विसिस्सइ' त्ति विशिष्यते विशिष्टो भवतीत्यर्थः, 'अद्धमागह' त्ति भाषा किल षड्विधा भवति, यदाह"प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषा च सौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो, देशविशेषादपभ्रंशः॥" तत्र मागधभाषालक्षणं किंचित्किंचिच्च प्राकृतभाषालक्षणं यस्यामस्ति सार्द्ध मागध्या इति व्युत्पत्त्याऽर्द्धमागधीति। केवलिछद्मस्थस्य वक्तव्यताप्रस्ताव एवेदमाह५/९४ 'केवली' त्यादि यथा जानाति तथा छदमस्थो न जानाति, कथंचित्पुनर्जानात्यपीति एतदेव दर्शयन्नाह५/९६ 'सोच्चे' त्यादि 'केवलिस्स' त्ति केवलिन: जिनस्यायमन्तकरो भविष्यतीत्यादि वचनं श्रुत्वा जानातीति, 'केवलिसावगस्स १. अस प्रतौ 'व्याकरणान्याः ' Jain Education Intemational Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५१७ श.५: उ.४: सू.९६-११२ व' ति जिनस्य समीपे यः श्रवणार्थी सन् शृणोति तद्वाक्यान्यसौ केवलिश्रावक: तस्य वचनं श्रुत्वा जानाति, स हि किल जिनस्य समीपे वाक्यान्तराणि शृण्वन् अयमन्तकरो भविष्यतीत्यादिकमपि वाक्यं शृणुयात् ततश्च तद्वचनश्रवणाज्जानातीति, 'केवलिउवासगस्स' त्ति केवलिनमुपास्ते यः श्रवणाऽनाकांक्षी तदुपासनमात्रपर: सन्नसौ केवल्युपासकः तस्य वच: श्रुत्वा जानाति, भावना प्राय: प्राग्वत् 'तप्पक्खियस्स' त्ति केवलिपाक्षिकस्य स्वयंबुद्धस्येत्यर्थः, इह च श्रुत्वेति वचनेन प्रकीर्णकं वचनमात्र ज्ञाननिमित्ततयाऽवसेयं, न त्वागमरूपं, तस्य प्रमाणग्रहणेन गृहीष्यमाणत्वादिति । ५/९७ ‘पमाणे' ति प्रमीयते येनार्थस्तत्प्रमाणं प्रमितिर्वा प्रमाणं 'पच्चक्खें' त्ति अक्षं-जीवम् अक्षाणि वेन्द्रियाणि प्रति-गतं प्रत्यक्षम्। 'अणुमाणे' ति अनु–लिंगग्रहणसम्बन्धस्मरणादेः पश्चान्मीयतेऽनेनेत्यनुमानम् ‘ओवम्मे' त्ति उपमीयते-सदृशतया गृह्यते वस्त्वनयेत्युपमा सैव औपम्यम् 'आगमे' त्ति आगच्छति गुरुपारम्पर्येणेत्यागमः, एषां स्वरूपं शास्त्रलाघवार्थमतिदेशत आह—'जहे' त्यादि, एवं चैतत्स्वरूपं-द्विविधं प्रत्यक्षमिन्द्रियनोइन्द्रियभेदात् तत्रेन्द्रियप्रत्यक्षं पञ्चधा-श्रोत्रादीन्द्रियभेदात् , नोइन्द्रियप्रत्यक्षं त्रिधा–अवध्यादिभेदादिति, त्रिविधमनुमानं-पूर्ववच्छेषवदृष्टसाधर्म्यवच्चेति। तत्र पूर्ववत् पूर्वोपलब्धासाधारणलक्षणान्मात्रादि प्रमातुः पुत्रादिपरिज्ञानम्। शेषवत् यत्कार्यादिलिंगात्परोक्षार्थज्ञानं यथा मयूरोऽत्र केकायितादिति, दृष्टसाधर्म्यवत् यथैकस्य कार्षापणादेर्दर्शनादन्येऽप्येवंविधा एवेति प्रतिपत्तिरित्यादि औपम्यं यथा गौर्गवयस्तथेत्यादि, आगमस्तु द्विधा-लौकिकलोकोत्तरभेदात्, विधा वा सूत्रार्थोभयभेदात्, अन्यथा वा त्रिधा-आत्मागमानन्तरागमपरम्परागमभेदात्, तत्रात्मागमादयोऽर्थतः क्रमेण जिनगणधरतच्छिष्यापेक्षया द्रष्टव्याः, सूत्रतस्तु गणधरतच्छिष्यप्रशिष्यापेक्षयेति । एतस्य प्रकरणस्य सीमा कुर्वन्नाह— 'जावे' त्यादि ‘तेण परं' ति गणधरशिष्याणां सूत्रतोऽनन्तरागमोऽर्थतस्तु परम्परागम: ततः परं प्रशिष्याणामित्यर्थः। केवलीतरप्रस्ताव एवेदमपरमाह५/९८ 'केवली ण' मित्यादि चरमकर्म यच्छैलेशीचरमसमयेऽनुभूयते, चरमनिर्जरा तु यत्ततोऽनन्तरसमये जीवप्रदेशेभ्य: परिशटतीति। ५/१०० ‘पणीय' त्ति प्रणीतं शुभतया प्रकृष्टं 'धारेज्ज' त्ति धारयेद् व्यापारयेदित्यर्थः। ५/१०२ ‘एवं अणंतरे' त्यादि, अस्यायमर्थः यथा वैमानिका द्विविधा उक्ता: मायिमिथ्यादृष्टीनां च ज्ञाननिषेधः एवममायिसम्यग्दृष्टयोऽनन्तरोपपन्नपरम्परोपपन्नकभेदेन द्विधा वाच्याः अनन्तरोपपन्नकानां च ज्ञाननिषेधः तथा परम्परोपन्नका अपि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विधा वाच्या: अपर्याप्तकानां च ज्ञाननिषेधः, तथा पर्याप्तको उपयुक्तानुपयुक्तभेदेन द्विधा वाच्या: अनुपयुक्तानां च ज्ञाननिषेधश्चेति। . वाचानान्तरे त्विदं सूत्रं साक्षादेवोपलभ्यते इति। ५/१०३ 'आलावं व' ति सकृज्जल्पं 'संलावं' व त्ति महर्मुहर्जल्पं मानसिकमेवेति। ५/१०६ 'लद्धाओ' ति तदवधेर्विषयभावं गताः ‘पत्ताओ' त्ति तदवधिना सामान्यत: प्राप्ताः परिच्छिन्ना, इत्यर्थः 'अभिसमण्णागयाओ' त्ति विशेषत: परिच्छिन्नाः यतस्तेषामवधिज्ञानं संभिन्नलोकनाडीविषयं, यच्च लोकनाडीग्राहकं तन्मनोवर्गणाग्राहक भवत्येव यतो योऽपि लोकसंख्येयभागविषयोऽवधिः सोऽपि मनोद्रव्यग्राही यः पुनः संभिन्नलोकनाडीविषयोऽसौ कथं न मनोद्रव्यग्राही भविष्यति? इष्यते च लोकसंख्येयभागावधेर्मनोद्रव्यग्राहित्वं यदाह-संखेज्ज मणोदव्वे भागो लोगपलियस्स बोद्धब्वो' त्ति । अनुत्तरसुराधिकारादिदमाह५/१०७ 'अमुत्तरे' त्यादि ‘उदिण्णमोह' त्ति उत्कटवेगमोहनीयाः 'उवसंतमोह' त्ति अनुत्कटवेदमोहनीयाः, परिचारणायाः कथंचिदप्यभावात् , न तु सर्वथोपशान्तमोहा: उपशमश्रेणेस्तेषामभावात् 'नो खीणमोह' त्ति क्षपकश्रेण्या अभावादिति।। पूर्वतनसूत्रे केवल्याधिकारादिदमाह५/१०८ 'केवली' त्यादि 'आयाणेहिं' ति 'आदीयते-गृह्यतेऽर्थः एभिरित्यादानानि-इन्द्रियाणि तैर्न जानाति 'केवलित्वात्। ५/११० 'अस्सि समयंसि' त्ति अस्मिन् वर्तमाने समये 'ओगाहिताणं' ति अवगाह्य आक्रम्य 'सेयकालंसिवि' त्ति एष्यत्कालेऽपि ५/१११ वीरियसजोगसद्दव्वयाए' त्ति वीर्य-वीर्यन्तरायक्षयप्रभवा शक्तिः तत्प्रधानं सयोगं-मानसादिव्यापारयुक्तं यत्सद्-विद्यमानं द्रव्यं-जीवद्रव्यं तत्तथा, वीर्यसद्भावेऽपि जीवद्रव्यस्य योगान्विना चलनं न स्यादिति सयोगशब्देन सद्रव्य विशेषितं, सदिति विशेषणं च तस्य सदा सत्तावधारणार्थ अथवा स्व-आत्मा तद्रूपं द्रव्यं स्वद्रव्यं तत: कर्मधारयः अथवा वीर्यप्रधान: सयोगो-योगवान् वीर्यसयोगः, स चासौ सद्रव्यश्च-मन:प्रभृतिवर्गणायुक्तो वीर्यसयोगसव्व्यस्तस्य भावस्तत्ता तया हेतुभूतया 'चलाई ति अस्थिराणि' 'उवकरणाई' त्ति अंगानि 'चलोवगरणट्ठयाए' त्ति चलोपकरणलक्षणो योऽर्थस्तद्भावश्चलोपकरणार्थता तया, चशब्दः पुनरर्थः। केवल्यधिकारात् श्रुतकेवलिनमधिकृत्याह५/११२ ‘घडाओ घडसहस्सं' ति घटादवधेर्घटं निश्रां कृत्वा घटसहस्रं Jain Education Intemational Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५ : उ. ४ : सू. ११२-उ. ६ : सू. १२४ 'अभिनिव्वट्टित्ता' इति योग: 'अभिनिव्वट्टित्ता' अभिनिर्वर्त्य विधाय श्रुतसमुत्थलब्धिविशेषेणोपदर्शयितुं प्रभुरितिप्रश्नः। ५/११३ ‘उक्कारियाभेएणं' ति इहं पुद्गलानां भेदः पञ्चधा भवति, खण्डादिभेदात्, तत्र खण्डभेद: खण्डशो यो भवति लोष्टादेरिव प्रतरभेदोऽभ्रपटलानामिव चूर्णिकाभेदस्तिलादिचूर्णवत् अनुतटिकाभेदोऽवटतटभेदवत् उत्कारिकाभेद एरण्डबीजानामिवेति, उत्कारिकाभेदेन भिद्यमानानि 'लद्धाई' ति लब्धिविशेषाद्ग्रहणविषयतां गतानि 'पत्ताई' ति तत एवं गृहीतानि 'अभिसमण्णागयाई' ति घटादिरूपेण परिणमयितुमारब्धानि ततस्तैर्घटसहस्त्रादि निर्वर्त्तयति, आहारकशरीरवत्, निर्वर्त्य च दर्शयति जनानाम्, इह चोत्कारिकाभेदग्रहणं तद्भिन्नानामेव द्रव्याणां विवक्षितघटादिनिष्पादनसामर्थ्यमस्ति नान्येषामितिकृत्वेति।। ॥ पंचमशते चतुर्थोद्देशकः ॥ ग्रन्थाय परिमाण ५००० ५१८ पञ्चम उद्देशकः अनन्तरोद्देशके चतुर्दशपूर्वविदो महानुभावतोक्ता, स च महानुभावत्वादेव छद्मस्थोऽपि सेत्स्यतीति कस्याप्याशंका स्यादतस्तदपनोदाय पंचमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम् ५/ ११५ 'छउमत्थे ण' मित्यादि 'जह पढमसए' इत्यादि, तत्र च छद्मस्थः आधोऽवधिकः परमाधोऽवधिकश्च केवलेन संयमादिना न सिद्धयतीत्याद्यर्थपरं तावन्नेयं यावदुत्पन्नज्ञानादिधर केवली अलमस्त्विति वक्तव्यं स्यादिति, यच्चेदं पूर्वाधीतमपीहाधीतं तत्सम्बन्धविशेषात्, स पुनरुद्देशकपातनायामुक्त एवेति।। स्वयूथिकवक्तव्यताऽनन्तरमन्ययूथिकवक्तव्यतासूत्रम्—तत्र च ५/ ११६ 'एवंभूयं वेयणं' ति यथाविधं कर्म निबद्धं एवंभूतामेवंप्रकारतयोत्पन्नां 'वेदनाम्' असातादिकमोंदयं 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, मिथ्यात्वं चैतद्वादिनामेवं न हि यथा बद्धं तथैव सर्वं कर्मानुभूयते आयुः-कर्मणा-व्यभिचारात्', तथाहि— दीर्घकालानुभवनीयस्याप्यायुः - कर्मणोऽल्पीयसाऽपि कालेनानुभवो भवति, कथमन्यथाऽपमृत्युव्यपदेश: सर्वजन - प्रसिद्धः स्यात् ? कथं वा महासंयुगादौ जीवलक्षाणामप्येकदैव मृत्युरुपपद्येतेति ? ५/११७ ‘अणेवंभूयंपि’ त्ति यथा बद्धं कर्म नैवंभूता अनेवंभूता अतस्तां श्रूयते ह्यागमे कर्म्मणः स्थितिघातरसघातादय इति। १. स प्रतौ आयुकर्मणो व्यभिचारात् क्वचितमपि Jain Education Intemational भगवती वृत्ति ५/ १२१ 'एवं जाव वेमाणिया । ५/ १२२ 'संसारमंडलं नेयव्वं' त्ति एवम् उक्तक्रमेण वैमानिकावसानं संसारिजीवचक्रवालं नेतव्यमित्यर्थः अथ चेह स्थाने वाचनान्तरे कुलकरतीर्थकरादिवक्तव्यता दृश्यते, ततश्च संसारमण्डलशब्देन पारिभाषिकसंज्ञया सेह सूचितेति संभाव्यत इति । || पंचमशते पञ्चमोद्देशकः ॥ षष्ठ उद्देशकः अनन्तरोद्देशके जीवानां कर्मवेदनोक्ता, षष्ठे तू कर्म्मण एव बन्धनिबन्धनविशेषमाह, तस्य चादिसूत्रमिदम् ५/१२४ ‘कहण्ण’ मित्यादि ‘अप्पाउयत्ताए' त्ति अल्पमायुर्यस्यासावल्पायुष्कस्तस्य भावस्तत्ता तस्यै अल्पायुष्कतायै अल्पजीवितव्यनिबन्धनमित्यर्थः अल्पायुष्कतया वा 'कर्म' आयुष्कलक्षणं 'प्रकुर्वन्ति' बध्नंति ? 'पाणे अइवाएत्त' त्ति प्राणान् जीवान् अतिपात्य विनाश्य ‘मुसं वइत्त' त्ति मृषावादमुक्त्वा 'तहारूवं' ति तथाविधस्वभावं भक्तिदानोचितपात्रमित्यर्थः 'समणं व' त्ति श्राम्यते— तपस्यतीति श्रमणोऽतस्तं 'माहणं व' त्ति मा हनेत्येवं योऽन्यं प्रति वक्ति, स्वयं हनननिवृत्तः सन्नसौ माहनः ब्रह्म वा ब्रह्मचर्यं कुशलानुष्ठानं वाऽस्यास्तीति ब्राह्मणोऽतस्तं वा शब्दौ समुच्चये 'अफासुएणं' ति न प्रगता असव:असुमन्तो यस्मात्तदप्रासुकं सजीवमित्यर्थः । 'अणेसणिज्जेणं' त्ति एष्यत इत्येषणीयं - कल्प्यं तन्निषेधादनेषणीयं तेन, अशनादिना प्रसिद्धेन 'पडिलाभेत्त' त्ति प्रतिलभ्य लाभवन्तं कृत्वा, अथ निगमयन्नाह - 'एव' मित्यादि 'एवम्, उक्तलक्षणेन क्रियात्रयेणेति, अयमत्र भावार्थ:-अध्यवसायविशेषादेतत्त्रयं जघन्यायुः फलं भवति । अथवेहापेक्षिकी अल्पायुष्कता ग्राह्या, यतः किल जिनागमाभिसंस्कृतमतयो मुनय: प्रथमवयसं भोगिनं कंचन मृतं दृष्ट्वा वक्तारो भवन्ति -नूनमनेन भवान्तरे किंचिदशुभं प्राणिघातादि चासेवितमकल्प्यं वा मुनिभ्यो दत्तं येनायं भोग्यप्यल्पायुः संवृत्त इति, अन्ये त्वाहुः - यो जीवो जिनसाधुगुणपक्षपातितया तत्पूजार्थं पृथिव्याद्यारम्भेण स्वभाण्डासत्योत्कर्षणादिनाऽऽधाकर्मादिकरणेन च प्राणातिपातादिषु वर्त्तते तस्य वधादिविरतिनिरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेयमल्पायुष्कताऽवसेया । अथ नैवं निर्विशेषणत्वात्सूत्रस्य अल्पायुष्कत्वस्य च क्षुल्लकभवग्रहणरूपस्यापि प्राणातिपातादिहेतुतो युज्यमानत्वाद् अतः कथमभिधीयते सविशेषणप्राणातिपातादिवर्त्ती जीव आपेक्षिकी Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श.५:उ.६:सू.१२४-१२७ चाल्पायुष्कता इति? उच्यते, अविशेषणत्वेऽपि सूत्रस्य प्राणातिपातादेर्विशेषणमवश्यं वाच्यं, यत इतस्तृतीयसूत्रे प्राणातिपातादित एवाशुभदीर्घायुष्कता वक्ष्यति, न हि सामान्यहेतौ कार्यवैषम्यं युज्यते, सर्वत्रानाश्वासप्रसंगात्, तथा 'समणोवासयस्स' णं भंते! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्ज असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ? गोयमा ! बहुतरिया निज्जरा कज्जइ अप्पतरे से पावे कम्मे कज्जइ' त्ति वक्ष्यमाणवचनादवसीयते-नैवेयं क्षुल्लकभवग्रहणरूपाऽल्पायुष्कता, न हि स्वल्पपापबहुनिर्जरानिबन्धनस्यानुष्ठानस्य क्षुल्लकभवग्रहणनिमित्तता संभाव्यते, जिनपूजाद्यनुष्ठानस्यापि तथाप्रसंगात्, नन्वेवं धर्मार्थ प्राणातिपातमृषावादापासुकदानं च कर्त्तव्यमापन्नमिति । अत्रोच्यते आपद्यतां नाम भूमिकापेक्षया को दोषः? यतो यतिधर्माशक्तस्य गृहस्थस्य द्रव्यस्तवद्वारेण प्राणातिपातादिकमक्तमेव प्रवचने दानाधिकारे श्रूयते-द्विविधाः श्रमणोपासका:-संविग्नभाविता लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्च भवन्ति। यथोक्तम्“संविग्गभावियाणं लोद्धयदिटुंतभावियाणं च । मोत्तूण खेत्तकाले भावं च कहिंति सुद्धछ ।" तत्र लुब्धकदृष्टान्तभाविता आगमानभिज्ञत्वाद्यथकथंचिद्ददति संविग्नभावितास्त्वागमज्ञत्वात्साधुसंयमबाधापरिहारित्वात्तदुपष्टंभकत्वाच्चौ-चित्येन, आगमश्चैवम्"संथरणंमि असुद्धं दोण्हवि गेण्हंतदितयाणऽहियं। आउरदिट्ठतेणं तं चेव हियं असंथरणे॥" तथा-"नायागयाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाईणं दव्वाण' मित्यादि, अथवेहाप्रासुकदानमल्पायुष्कतायां मुख्य कारणं, इतरे तु सहकारिकारणे इति व्याख्येयं, प्राणातिपातनमृषावादनयोर्दानविशेषणत्वात् , तथाहि-प्राणानतिपात्याधाकर्मादिकरणतो मृषोक्त्वा यथा भोः साधो! स्वार्थमिदं सिद्धं भक्तादि कल्पनीयं वातो नानेषणीयमिति शंका कायेंति, ततः प्रतिलभ्य तथा कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रम इति गंभीरार्थं चेदं सूत्रमतोऽन्यथाऽपि यथाऽऽगमं भावनीयमिति।। अथ दीर्घायुष्कताकारणान्याह५/१२५ 'कहण्ण' मित्यादि भवति हि जीवदयादिमतो दीर्घमायुर्यतोऽत्रापि तथैव भवन्ति दीर्घायुषं दृष्ट्वा वक्तारो-जीवदयादि पूर्व कृतमनेन तेनायं दीर्घायुः संवृतः, तथा सिद्धमेव वधादिविरतेर्दीर्घमायुस्तस्य देवगतिहेतुत्वात्, आह च"अणुव्वयमहव्वएहि य बालतवोऽकामनिज्जराए य। देवाउयं निबंधइ सम्मद्दिट्ठी य जो जीवो ।।" देवगतौ च विवक्षया दीर्घमेवायु: दानं चाश्रित्येहैव वक्ष्यति 'समणोवासयस्स णं भंते! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं एसणिज्जं असण-पाण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ? गोयमा! एगतंसो निज्जरा कज्जइ “त्ति यच्च निर्जराकारणं तद्विशिष्टदीर्घायुः कारणतया न विरुद्ध महाव्रतवदिति, व्याख्यानान्तरमपि पूर्ववदेवेति। अथायुष एव दीर्घस्य सूत्रद्वयेनाशुभशुभत्वकारणान्याह५/१२६ 'कहण्ण' मित्यादि प्राग्वत्रवरं श्रमणादिकं हीलनादिकरणत: प्रतिलभ्येत्यक्षरघटना, तत्र हीलनं-जात्याधुद्घट्टनत: कुत्सा निन्दनं-मनसा खिंसनं-जनसमक्षं गर्हणं-तत्समक्षम् अपमाननम्-अनभ्युत्थानादिकरणम् अन्यतरेण बहूनामेकतमेन, अमनोज्ञेन स्वरूपतोऽशोभनेन कदन्नादिना, अत एवाप्रीतिकारकेण, भक्तिमतस्त्वमनोज्ञमपि मनोज्ञमेव मनोज्ञफलत्वात्। इह च सूत्रेऽशनादि प्रासुकाप्रासुकादिना न विशेषितं, हीलनादिकर्तुः प्रासुकादिविशेषणस्य दानस्य फलविशेष प्रत्यकारणत्वेन मत्सरजनितहीलनादिविशेषणानामेव च प्रधानतया तत्कारणत्वेन विवक्षणात् । वाचनान्तरे तु 'अफासुएणं अणेसणिज्जेणं' ति दृश्यते तत्र च प्रासुकादानमपि हीलनादिविशेषितमशुभदीर्घायु:कारणम् अप्रासुकदानं तु विशेषत इत्युपदर्शयता 'अफासुएण' इत्याधुक्तमिति। प्राणातिपातमृषावादनयोर्दानविशेषणपक्षव्याख्यानमपि घटत एव अवज्ञादानेऽपि प्राणातिपातादेर्दृश्यमानत्वादिति, भवति च प्राणातिपातादेरशुभदीर्घायुः तेषां नरकगतिहेतुत्वात्, यदाह"मिच्छद्दिद्विमहारंभपरिग्गहो तिव्वलोभ निस्सीलो। निरयाउयं निबंधइ पावमई रोद्दपरिणामो।।" नरकगतौ च विवक्षया दीर्घमेवायुः। ५/१२७ विपर्ययसूत्रं प्रागिव, नवरं इहापि प्रासुकाप्रासुकतया दानं न विशेषितं, पूर्वसूत्रविपर्ययत्वाद् अस्य पूर्वसूत्रस्य चाविशेषणतया प्रवृत्तत्वात्, न च प्रासुकाप्रासुकदानयोः फलं प्रति न विशेषोऽस्ति। पूर्वसूत्रयोस्तस्य प्रतिपादितत्वात्, तस्मादिह प्रासुकैषणीयस्य दानस्य कल्प्याप्राप्ताविरतस्य ' चेदं फलमवसेयम्। वाचनान्तरे तु ‘फासुएण' मित्यादि दृश्यत एवेति, इह च प्रथममल्पायुःसूत्रं द्वितीयं तद्विपक्षस्तृतीयमशुभदीर्घायुः सूत्रं चतुर्थं तु तद्विपक्ष इति । अनन्तरं कर्मबन्धक्रियोक्ता, अथ क्रियान्तराणां विषयनिरूपणायाह १. अस. प्रतौ 'कल्प्यप्राप्ताविरतस्य' Jain Education Intenational For Private & Personal use only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५: उ. ६ : सू. १२८-१३४ ५/१२८ 'गाहावइस्से' त्यादि गृहपतिः - गृही 'मिच्छादंसणकिरिया सिय कज्जइ' इत्यादि, मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया स्यात्कदाचित् क्रियते भवति स्यान्नो क्रियते — कदाचिन्न भवति । यदा मिथ्यादृष्टिर्गृहपतिस्तदाऽसौ भवति यदा तु सम्यग्दृष्टिस्तदा न भवतीत्यर्थः । अथ क्रियास्वेव विशेषमाह-- 'अहे' त्यादि 'अथे' ति पक्षान्तरद्योतनार्थः 'से भंडे' त्ति तद्भाण्डं 'अभिसमण्णागए' त्ति गवेषयता लब्धं भवति 'तओ' त्ति समन्वागमनात् 'से' त्ति तस्य गृहपते: 'पश्चात् ' समन्वागमानन्तरमेव 'सव्वाओ' त्ति यासां संभवोऽस्ति ता आरंभिक्यादिक्रियाः 'पयणुई भवंति' त्ति प्रतनुकीभवन्ति ह्स्वीभवन्ति अपहृतभाण्डगवेषणकाले हि महत्यस्ता आसन् प्रयत्नविशेषपरत्वाद्गृहपतेस्तल्लाभकाले तु प्रयत्नविशेषस्योपरतत्वात्ता हस्वी भवन्तीति । ५२० ५/ १२९ 'कइए भंड साइज्जेज्ज' त्ति क्रयिको— ग्राहको भाण्डं स्वादयेत् सत्यंकारदानतः स्वीकुर्यात् 'अणुवणीए सिय' त्ति क्रयिकाय असमर्पित्वात् 'कइयस्स णं ताओ सव्वाओ पयणुई भवंति' त्ति अप्राप्तभाण्डत्वेन तद्गतक्रियाणामल्पत्वादिति, गृहपतेस्तु महत्यो, भाण्डस्य तदीयत्वात् । ५/१३० क्रयिकस्य भाण्डे समर्पिते महत्यास्ताः, गृहपतेस्तु प्रतनुकाः । इदं भाण्डस्यानुपनीतोपनीतभेदात् सूत्रद्वयमुक्तम् । एवं धनस्यापि वाच्यं तत्र प्रथमेवम् ५ / १३१ 'गाहावइस्स णं भंते! भंडं विक्किणमाणस्स कइए भंड साइज्जेज्जा ? धणे य से अणुवणीए सिया, कइयस्स णं भंते! ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया कज्जइ ? .... ? गाहावइस्स य ताओ धणाओ किं आरंभिया किरिया कज्जइ .....? गोयमा ! कइयस्स ताओ धणाओ हेट्ठिल्लाओ चत्तारि किरियाओ कज्जंति, मिच्छादंसणकिरिया भयणाए, गाहावतिस्स णं ताओ सव्वाओ पयणुई भवंति, धनेऽनुपनीते क्रयिकस्य महत्यस्ता भवन्ति, धनस्य तदीयत्वात्, गृहपतेस्तु तास्तनुकाः, धनस्य तदानीमतदीयत्वात्। एवं द्वितीयसूत्रसमानमिदं तृतीयमत एवाह - 'एयंपि जहा भंडे उवणीए तहा णेयव्वं' ति द्वितीयसूत्रसमतयेत्यर्थः। चतुर्थं त्वेवमध्येयम् ५ / १३२ 'गाहावइस्स णं भंते! भंडं विक्किणमाणस्स कइए भडं साइज्जेज्जा धणे य से उवणीए सिया, गाहावइस्स णं भंते! ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया कज्जइ ? कइयस्स वा ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया कज्जइ गोयमा ! गाहावइस्स ताओ धणाओ आरंभिया..... मिच्छादंसणवत्तिया किरिया सिय कज्जइ सिय नो कज्जइ, कइयस्स णं ताओ सव्वाओ पयणुई भवंति " धने उपनीते ? भगवती वृत्ति धनप्रत्ययत्वात्तासां गृहपतेर्महत्य:, क्रयिकस्य तु प्रतनुका: धनस्य तदानीमतदीयत्वात् एवं च प्रथमसूत्रसममिदं चतुर्थमित्येतदनुसारेण च सूत्रपुस्तकाक्षराण्यनुगन्तव्यानि। क्रियाऽधिकारादिदमाह - ५/१३३ ‘अगणी' त्यादि ‘अहुणोज्जलिए' त्ति अधुनोज्जवलितः सद्यः प्रदीप्त: 'महाकम्मतराए' त्ति विध्यायमानानलापेक्षयाऽतिशयेन महन्ति कर्माणि - ज्ञानावरणादीनि बन्धमाश्रित्य यस्यासौ महाकर्म्मतरः एवमन्यान्यपि, नवरं क्रिया — दाहरूपा आश्रवो— नवकर्मोपादनहेतुः वेदना – पीड़ा भाविनि तत्कर्मजन्या परस्परशरीरसंबाधदन्या वा 'वोक्कसिज्जमाणे' त्ति व्यवकृष्यमाण: अपकर्षं गच्छन् 'अप्पकम्मतराए' त्ति अंगाराद्यवस्थामाश्रित्य अल्पशब्दः स्तोकार्थः (क्षारावस्थायां त्वभावार्थः) । क्रियाऽधिकारादेवेदमाह- ५/१३४ 'पुरिसे ण' मित्यादि 'परामुसइ' त्ति परामृशति गृणाति 'आययकण्णाययं' ति आयतः - क्षेपाय प्रसारितः कर्णायत:कर्णं यावदाकृष्टस्ततः कर्मधारयाद् आयतकर्णायतः अतस्तं इषु॑ – बाणम् 'उड्डुं वेहासं' ति ऊर्ध्वमिति वृक्षशिखराद्यपेक्षयाऽपि स्यादत आह— विहायसि इत्याकाशे 'उव्विहइ' त्ति ऊर्ध्वं विजहाति ऊर्ध्वं क्षिपतीत्यर्थः, 'अभिहणइ' त्ति अभिमुखमागच्छतो हन्ति 'वत्तेइ' त्ति वर्तुलीकरोति शरीरसंकोचापादनात् 'लेसेइ' त्ति श्लेषयति आत्मनि श्लिष्टान् करोति । 'संघाएइ' त्ति अन्योऽन्यं गात्रैः संहतान् करोति 'संघट्टेइ' त्ति मनाक् स्पृशति 'परितावेइ' त्ति समन्ततः पीडयति 'किलामेइ' त्ति मारणान्तिकादिसमुद्घातं नयति । 'ठाणाओ ठाणं संकामेइ' स्वस्थानात्स्थानान्तरं नयति । 'जीवियाओ ववरोवेइ' त्ति च्युतजीवितान् करोतीति 'किरियाहिं पुट्ठे' त्ति क्रियाभिः स्पृष्टः क्रियाजन्येन कर्मणा बद्ध इत्यर्थः 'धणु' त्ति धनुः - दण्डगुणादिसमुदायः, ननु पुरुषस्य पंच क्रिया भवन्तु, कायादिव्यापाराणां तस्य दृश्यमानत्वात् धनुरादिनिर्वर्त्तकशरीराणां तु जीवानां कथं पञ्चक्रिया: ? कायमात्रस्यापि तदीयस्य तदानीमचेतनत्वात्, अचेतनकायमात्रादपि बन्धाभ्युपगमे सिद्धानामपि तत्प्रसंग: तदीयशरीराणामपि प्राणातिपातहेतुत्वेन लोके विपरिवर्त्तमानत्वात् । किंच यथा धनुरादीनि कायिक्यादिक्रियाहेतुत्वेन पापकर्मबन्धकारणानि भवन्ति तज्जीवानामेवं पात्रदण्डकादीनि जीवरक्षाहेतुत्वेन पुण्यकर्मनिबन्धनानि स्युः न्यायस्य समानत्वाद् इति। अत्रोच्यते अविरतिपरिणामाद् बन्धः, अविरतिपरिणामश्च यथा पुरुषस्यास्ति एवं धनुरादिनिर्वर्त्तकशरीरजीवानामपीति सिद्धानां तु नास्त्यसाविति Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति न बन्धः । पात्रादिजीवानां च न पुण्यबन्धहेतुत्वात्, तहेतोर्विवेकादेस्तेष्वभावादिति, किञ्च सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद्यथोक्तं तत्तथा श्रद्धेयमेवेति इषुरिति - शरपत्र फलादिसमुदायः । ५/१३५ 'अहे णं से उसू' इत्यादि, इह धनुष्मदादीनां यद्यपि सर्वक्रियासु कथंचिन्निमित्तभावोऽस्ति तथाऽपि विवक्षितबन्धं प्रत्यमुख्यप्रवृत्तिकतया विवक्षितवधक्रियायास्तैः कृतत्वेनाविवक्षणाच्छेषक्रियाणां च निमित्तभावमात्रेणापि तत्कृत्त्वेन विवक्षणाच्चतस्रस्ता उक्ताः । बाणादिजीवशरीराणां तु साक्षाद् वधक्रियायां प्रवृत्तत्वात्पंचेति। अथ सम्यक्प्ररूपणाधिकारान्मिथ्याप्ररूपणानिरासपूर्वकं सम्यक्प्ररूपणामेव दर्शयन्नाह ५/१३६ ‘अण्णउत्थिए' त्यादि 'बहुसमाइणे' त्ति अत्यन्तमाकीर्णं मिथ्यात्वं च तद्वचनस्य विभंगज्ञानपूर्वकत्वादवसेयमिति । 'नेरइएहिं' इत्युक्तमतो नारकवक्तव्यतासूत्रम् ५२१ ५/१३८ 'एगत्तं' ति एकत्वं प्रहरणानां 'पुहुत्तं' ति पृथक्त्वं बहुत्वं प्रहरणानामेव 'जहा जीवाभिगमे' इत्यादि, आलापकश्चैवम् — 'गोयमा ! एगत्तंपि पहू विउव्वित्तए पुहुत्तंपि पहू विउव्वित्तए एगत्तं विउव्वेमाणा एगं महं मोग्गररूवं वा मुसुंढिरूवं वा' इत्यादि । 'पुत्तं विव्वेमाणा मोग्गररूवाणि वा' इत्यादि, ताई संखेज्जाई नो असंखेज्जाई एवं संबद्धाइं नो असंबद्धाई सरिसाइं नो असरिसाई विउव्वंति विउव्वित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं फरुसं निठुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं, 'ति तत्र उज्जवलां विपक्षलेशेनाप्यकलंकितां विपुलां शरीरव्यापिकां, प्रगाढां, प्रकर्षवतीं, कर्कशां कर्कशद्रव्योपमामनिष्टामित्यर्थः एवं कटुकां परुषां निष्ठुरां चेति, चण्डां रौद्रां तीव्रां झगिति शरीरव्यापिकां दुःखां असुखरूपां दुर्गां दुःखाश्रयणीयाम्, अतएव दुरधिसह्यामिति । इयं च वेदना ज्ञानाद्याराधनाविराधनाविरहेण भवतीत्याराधनाऽभावं दर्शयितुमाह ५ / १३९ - १४० 'आहाकम्मे' त्यादि 'अणवज्जे' त्ति अनवद्यमिति 'निर्दोषमिति 'मणं पहारेत्त' त्ति मानसं 'प्रधारयिता' स्थापयिता भवति 'रइयं' ति मोदकचूर्णादि पुनर्मोदकादितया रचितमौद्देशिकभेदरूपम्। ‘कंतारभत्तं' ति कान्तारम् – अरण्यं तत्र भिक्षुकाणां निर्वाहार्थं यद्विहितं भक्तं तत्कान्तारभक्तम् एवमन्यान्यपि नवरं वार्दलिका - मेघदुर्दिनं, 'गिलाणभत्तं' ति ग्लानस्य नीरोगतार्थं भिक्षुकदानाय यत्कृतं भक्तं तद् ग्लानभक्तम् ५/१४१-१४६ आधाकर्मादीनां सदोषत्वेनागमेऽभिहितानां निर्दोषताकल्पनं, श. ५ : उ. ६ : सू. १३४- उ. ७: सू. १५२ तत एवं स्वयं भोजनमन्यसाधुभ्योऽनुप्रदानं सभायां निर्दोषताभणनं च विपरीत श्रद्धानादिरूपत्वान्मिथ्यात्वादि, ततश्च ज्ञानादीनां विराधना स्फुटैवेति। आधाकर्म्मादींश्च पदार्थानाचार्यादयः सभायां प्रायः प्रज्ञापयन्तीत्याचार्यादीन् फलतो दर्शयन्नाह ५/ १४७ 'आयरिये' त्यादि 'आयरियउवज्झाए णं' ति आचार्येण सहोपाध्याय आचार्योपाध्यायः ‘सविसयंसि' त्ति स्वविषये अर्थदानसूत्रदानलक्षणे 'गणं' ति शिष्यवर्गं 'अगिलाए' त्ति अखेदेन संगृह्णन् 'उपगृह्णन्' उपष्टम्भयन्, द्वितीयः तृतीयश्च भवो मनुष्यभवो देवभवान्तरितो दृश्यः । चारित्रवतोऽनन्तरो देवभव एव भवति न च तत्र सिद्धिरस्तीति । परानुग्रहस्यानन्तरफलमुक्तम् अथ परोपघातस्य तदाह५/१४८ 'जे ण' मित्यादि 'अलिएणं' ति अलीकेन भूतनिह्नवरूपेण पालितब्रह्मचर्यसाधुविषयेऽपि नानेन ब्रह्मचर्यमनुपालितमित्यादिरूपेण | 'असब्भूएणं' ति अभूतोद्भावनरूपेण अचौरेऽपि चौरोऽयमित्यादिना, अथवा अलीकेन असत्येन तच्च द्रव्यतोऽपि भवति लुब्धकादिना मृगादीन् पृष्टस्य जानतोऽपि नाहं जानामीत्यादि। अत एवाह 'असद्भूतेन दुष्टाभिसन्धित्वादशोभनरूपेण अचौरेऽपि चौरोऽयमित्यादिना 'अब्भक्खाणेणं' ति आभिमुख्येनाख्यानं -- दोषाविष्करणमभ्याख्यानं तेन 'अभ्याख्याति' ब्रूते 'कहप्पगार' त्ति कथं प्रकाराणि किं प्रकाराणीत्यर्थः 'तहप्पगार' त्ति अभ्याख्यानफलानीत्यर्थः ' जत्थेव ण' मित्यादि यत्रैव मानुषत्वादौ 'अभिसमागच्छति' उत्पद्यते तत्रैव प्रतिसंवेदयत्यभ्याख्यानफलं कर्म्म ततः पश्चाद् वेदयति — निर्जरयतीत्यर्थः ।। || पंचमशते षष्ठोद्देशकः ॥ सप्तम उद्देशकः षष्ठोद्देशकान्त्यसूत्रे कर्मपुद्गलनिर्जरोक्ता, निर्जरा च चलनमिति सप्तमे पुद्गलचलनमधिकृत्येदमाह– ५/१५० 'परमाणु' इत्यादि, 'सिय एयइ' त्ति कदाचिदेजते, कादाचित्कत्वात्सर्वपुद्गलेष्वेजनादिधर्माणाम् । ५/१५१ द्विप्रदेशिके त्रयो विकल्पाः स्यादेजनं स्यादनेजनं स्याद्देशेनैजनं देशेनानेजनं चेति, द्वयंशत्वात्तस्येति । ५/१५२ त्रिप्रदेशिके पञ्च - आद्यास्त्रयस्त एव यकस्यापि तदीयस्यैकस्याशंस्य तथाविधपरिणामेनैकदेशतया विवक्षितत्वात्, तथा देशस्यैजनं देशयोश्चानेजनमिति चतुर्थः तथा Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.७: सू.१५२-१७६ ५२२ भगवती वृत्ति देशयोरेजनं देशस्य चानेजनमिति पञ्चमः। ५/१५३ एवं चतुःप्रदेशिकेऽपि नवरं षट्, तत्र षष्ठो देशयोरेजनं देशयोरेव चानेजनमिति। पुद्गलाधिकारादेवेदं सूत्रवृन्दम्५/१५४,१५५ ‘परमाणु' इत्यादि 'ओगाहेज्ज' त्ति अवगाहेत आश्रयेत, छियेत द्विधाभावं यायात्, भिद्येत विदारणभावमात्र यायात् 'नो खलु तत्थ सत्यं कमइ' त्ति परमाणुत्वादन्यथा परमाणुत्वमेव न स्यादिति। ५/१५६ ‘अत्यंगइए छिज्जेज्ज' त्ति तथाविधबादरपरिणामत्वात् 'अत्थेगइए णो छिज्जेज्ज' त्ति सूक्ष्मपरिणामत्वात्। ५/१५७ 'उल्ले सिय' त्ति आद्रों भवेत् 'विणिहायमावज्जेज्ज' त्ति प्रतिस्खलनमापद्येत 'परियावज्जेज्ज' पर्यापद्येत विनश्येत्। ५/१६१ 'दुपएसिए' इत्यादि यस्य स्कन्धस्य समाः प्रदेशा: स: साढ़े यस्य तु विषमा: स समध्यः संख्येयप्रदेशिकादिस्तु स्कन्धः समप्रदेशिक: इतरश्च यत्र यः समप्रदेशिक: स सार्दोऽमध्य: इतरस्तु विपरीत इति। ५/१६५ 'परमाणुपोग्गले णं भंते! इत्यादि 'किं देसेणं देस' मित्यादयो नव विकल्पाः, तत्र देशेन स्वकीयेन देशं तदीयं स्पृशति देशेनेत्यनेन देशं देशान् सर्वमित्येवं शब्दत्रयपरेण त्रयः, एवं देशैरित्यनेन३ सर्वेणेत्यनेन च त्रय एवेति३ स्थापना विषयत्वात्, यदा तु द्विप्रदेशिक: परिणामसौक्ष्म्यादेकप्रदेशस्थो भवति तदा तं परमाणुः सर्वेण सर्व स्पृशतीत्युच्यते 'निपच्छिमएहिं तिहिं फुसई' त्ति त्रिप्रदेशिकमसौ स्पृशंस्विभिरन्त्यैः स्पृशति, तत्र यदा त्रिप्रदेशिक: प्रदेशत्रयस्थितो भवति तदा तस्य परमाणुः सर्वेण देशं स्पृशति, परमाणोस्तद्देशस्यैव विषयत्वात् , यदा तु तस्यैकत्र प्रदेशे द्वौ प्रदेशौ अन्यत्रैकोऽवस्थितः स्यात्तदा एकप्रदेशस्थितपरमाणुद्वयस्य परमाणो: स्पर्शविषयत्वेन सर्वेण देशौ स्पृशतीत्युच्यते। ननु द्विप्रदेशिकेऽपि युक्तोऽयं विकल्पस्तत्रापि प्रदेशद्वयस्य स्पृश्यमानत्वात्? नैवं यतस्तत्र द्विप्रदेशमात्र एवायववीति कस्य देशौ स्पृशति? त्रिप्रदेशिके तु त्यापेक्षया द्वयस्पर्शने एकाऽवशिष्यते ततश्च सर्वेण देशौ त्रिप्रदेशिकस्य स्पृशतीति व्यपदेश: साधुः स्यादिति, यदा त्वेकप्रदेशावगाढोऽसौ तदा सर्वेण सर्व स्पृशतीति स्यादिति। ५/१६७ ‘दुपएसिए ण' मित्यादि 'ततियनवमेहिं फसई' ति यदा द्विप्रदेशिको द्विप्रदेशस्थस्तदा परमाणुं देशेन सर्वं स्पृशतीति तृतीयः, यदा त्वेकप्रदेशावगाढोऽसौ तदा सर्वेण सर्वमिति नवमः। 'दुपएसिओ दुपएसिय' मित्यादि, यदा द्विप्रदेशिको प्रत्येकं द्विप्रदेशावगाढौ तदा देशेन देशमिति प्रथमः, यदा त्वेक एकत्रान्यस्तु द्वयोस्तदा देशेन सर्वमिति तृतीयः, तथा सर्वेण देशमिति सप्तमः, नवमस्तु प्रतीत एवेति। ५/१६८ अनया दिशाऽन्येऽपि व्याख्येया इति। पुद्गलाधिकारादेव पुद्गलानां द्रव्यक्षेत्रभावान् कालतश्चिन्तयति, तत्र५/१६९ ‘परमाणु' इत्यादि द्रव्यचिन्ता 'उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं' ति असंख्येयकालात्परः पुद्गलानामेकरूपेण स्थित्यभावात्। ५/१७० 'एगपएसोगाढे ण' मित्यादि क्षेत्रचिन्ता 'सेए' त्ति सैज: सकम्प: 'तम्मि ठाणे' त्ति अधिकृत एव 'अण्णम्मि व' त्ति अधिकृतादन्यत्र 'उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं' ति पुद्गलानामाकस्मिकत्वाच्चलनस्य न निरेजत्वादीनामिवासंख्येयकालत्वं 'असंखेज्जपएसोगाढे'। त्ति अनन्तप्रदेशा वगाढस्यासंभवादसंख्यातप्रदेशावगाढ इत्युक्तम्। ५/१७९ 'निरेए' त्ति निरेजः निष्पकम्पः। ५/१७५ 'परमाणुपोग्गलस्से' त्यादि परमाणोरपगते परमाणत्वे यदपरमाणुत्वेन वर्तनमापरमाणुत्वपरिणतेः तदन्तरं स्कन्धसम्बन्धकालः स चोत्कर्षतोऽसंख्यात इति। ___५/१७६ द्विप्रदेशिकस्य तु शेषस्कन्धसंबन्धकाल: परमाणुकाल श्चान्तरकालः, स च तेषामनन्तत्वात् प्रत्येकं चोत्कर्षतो देशेन देशैः देशं । देशं देशान् सर्वेण देशं देशान् सर्वं देशान् सर्वं सर्वं । अत्र च सर्वेण सर्वमित्येक एव घटते, परमाणोर्निरंशत्वेन शेषाणामसंभवात् , ननु यदि सर्वेण सर्वं स्पृशतीत्युच्यते तदा परमाण्वोरेकत्वापत्तेः कथमपरापरपरमाणुयोगेन घटादिस्कन्धनिष्पत्ति:? इति अत्रोच्यते, सर्वेण सर्वं स्पृशतीति कोऽर्थ:? स्वात्मना तावन्योऽन्यस्य लगतो, न पुनरांद्यंशेन, अर्द्धादिदेशस्य तयोरभावात् घटाद्यभावापत्तिस्तु तदैव प्रसज्येत यदा तयोरेकत्वापत्तिः, न च तयोः सा, स्वरूपभेदात्। ५/१६६ ‘सत्तमनवमेहिं फुसइ' त्ति सर्वेण देशं सर्वेण सर्वमित्येता भ्यामित्यर्थः तत्र यदा द्विप्रदेशिक: प्रदेशद्वयावस्थितो भवति तदा तस्य परमाणुः सर्वेण देशं स्पृशति, परमाणोस्तद्देशस्यैव Jain Education Intemational Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ऽसंख्येयस्थितिकत्वादनंतः । ५/१७७-१७८ तथा यो निरेजस्य कालः स सैजस्यान्तरमितिकृत्वोक्तं सैजस्यान्तरमुत्कर्षतोऽसंख्यातकाल इति यस्तु सैजस्य कालः स निरेजस्यान्तरमितिकृत्वोक्तं निरेजस्यान्तरमुत्कर्षत आवलिकाया असंख्यातो भाग इति। एकगुणकालकत्वादीनां चान्तरमेकगुणकालकत्वादिकालसमानमेव, न पुनर्द्विगुणकालत्वादीनामनन्तत्वेन तदन्तरस्यानन्तत्वं वचनप्रामाण्यात् । सूक्ष्मादिपरिणतानां त्ववस्थानतुल्यमेवान्तरं यतो यदेवैकस्यावस्थानं तदेवान्यस्यान्तरं तच्चासंख्येयकालमानमिति । ५/१७९,१८० 'सद्दे' त्यादि तु सूत्रसिद्धम् ५ / १८१ 'एयस्स णं भंते! दव्वद्वाणाउयस्स' त्ति द्रव्यं - पुद्गलद्रव्यं तस्य स्थानं—भेदः परमाणुद्विप्रदेशिकादि तस्यायुः स्थिति: अथवा द्रव्यस्याणुत्वादिभावेन यत्स्थानमवस्थानं तद्रूपमायुः द्रव्यस्थानायुस्तस्य 'खित्तट्ठाणाउयस्स' त्ति क्षेत्रस्य - आकाशस्य स्थानं - भेदः पुद्गलावगाहकृतस्तस्यायुः — स्थिति: अथवा क्षेत्रे एकप्रदेशादौ स्थानं यत्पुद्गलानामवस्थानं तद्रूपमायुः क्षेत्रस्थानायुः एवमवगाहनास्थानायुः भावस्थानायुश्च, नवरमवगाहना – नियतपरिमाणक्षेत्रावगाहित्वं पुद्गलानां भावस्तु कालत्वादिः, ननु क्षेत्रस्यावगाहनायाश्च को भेदः ? उच्यते क्षेत्रमवगाढमेव' अवगाहना तु विवक्षितक्षेत्रादन्यत्रापि पुद्गलानां तत्परिमाणावगाहित्वमिति । 'कयरे' इत्यादि कण्ठ्यं, एषां च परस्परेणाल्पबहुत्वव्याख्या गाथानुसारेण कार्या, ताश्चेमा:-- १. " खेत्तोगाहणदव्वे भावट्ठाणाउ अप्पबहुयत्ते । थोवा असंखगुणिया तिन्नि य सेसा कहं णेया ॥ २. खेत्तामुत्तत्ताओ तेण समं बन्धपच्चयाभावा । ५२३ तो पोग्गलाण थोवो खेत्तावद्वाणकालो उ ।। " क्षेत्रस्यामूर्त्तत्वेन क्षेत्रेण सह पुद्गलानां विशिष्टबन्धप्रत्ययस्य स्नेहादेरभावान्नैकत्र ते चिरं तिष्ठन्तीति शेषः, यस्मादेवं तत इत्यादि व्यक्तम्। अथावगाहनायुर्बहुत्वं भाव्यते ३. " अण्णक्खेत्तगयस्सवि तं चिय माणं चिरंपि संचर । ओगाहणनासे पुण खेत्तण्णत्तं फुडं होइ ॥ " इह पूर्वार्द्धन क्षेत्राद्धाया अधिका अवगाहनाद्धेत्युक्तम्, उत्तरार्द्धेन त्ववगाहनाद्धातो नाधिका क्षेत्राद्धेति । कथमेतदेवमित्युच्यते १. स प्रतौ क्षेत्रमवगाहमेव श. ५: उ. ७ : सू. १७६-१८१ ४. "ओगाहणावबद्धा खेतद्धा अक्कियावबद्धा य न उ ओगाहणकालो खेतद्धामेत्त संबद्धो ।। " अवगाहनायामगमनक्रियायां च नियता, क्षेत्राद्धा विवक्षितावगाहनासद्भावे एवाक्रियासद्भाव एव च तस्या भावादुक्तव्यतिरेके चाभावात् अवगाहनाद्धा तु न क्षेत्रमात्रे नियता, क्षेत्राद्धाया अभावेऽपि तस्या भावादिति । अथ निगमनम् ५. "जम्हा तत्थऽण्णत्थ य सच्चिय ओगाहणा भवे खेत्ते । तम्हा खेत्तद्धाओऽवगाहणद्धा असंखगुणा ॥ " अथ द्रव्यायुर्बहुत्वं भाव्यते— ६. "संकोयविकोएण व उवरमियाएऽवगाहणाएवि । तेत्तियमित्ताणं चिय चिरंपि दव्वाणऽवत्थाणं ॥ " संकोचेन विकोचेन चोपरतायामप्यवगाहनायां यावन्ति द्रव्याणि पूर्वमासंस्तावतामेव चिरमपि तेषामवस्थानं संभवति, अनेनावगाहनानिवृत्तावपि द्रव्यं न निवर्त्तत इत्युक्तम्, अथ द्रव्यनिवृत्तिविशेषेऽवगाहना निवर्त्तत एवेत्युच्यते- ७. "संघाय भेयओ वा दव्वोवरमे पुणाइ संखित्ते। नियमा तद्दव्वगाहणाए नासो न संदेहो ।। " संघातेन पुद्गलानां भेदेन वा तेषामेव यः संक्षिप्तः - स्तोकावगाहनः स्कन्धो न तु प्राक्तनावगाहनः तत्र यो द्रव्योपरमो – द्रव्यान्यथात्वं तत्र सति, न च संघातेन न संक्षिप्तः स्कन्धो भवति, तत्र सति सूक्ष्मतरत्वेनापि तत्परिणतेः श्रवणात् नियमात्तेषां - द्रव्याणामवगाहनाया नाशो भवति, कस्मादेवमित्यत उच्यते८. "ओगाहद्धा दव्वे संकोयविकोयओ य अवबद्धा । न उ दव्वं संकोयणविकोयमित्तम्मि संबद्धं ॥ " अवगाहनाद्धा द्रव्येऽवबद्धा - नियतत्वेन संबद्धा कथं ? संकोचाद् विकोचाच्च, संकोचादि परिहृत्येत्यर्थः, अवगाहना हि द्रव्ये संकोचविकोचयोरभावे सति भवति तत्सद्भावे च न भवतीत्येवं द्रव्येऽवगाहनाऽनियतत्वेन संबद्धेत्युच्यते, द्रुमत्वे खदिरत्वमिवेति । उक्तविपर्ययमाह-न पुनर्द्रव्यं संकोचविकाचनमात्रे सत्यप्यवगाहनायां नियतत्वेन संबद्धं, संकोचनविकोचाभ्यामवगाहनानिवृत्तावपि द्रव्यं न निवर्त्तत इत्यवगाहनायां तन्नियतत्वेनासंबद्धमित्युच्यते खदिरवे द्रुत्वेवदिति । अथ निगमनम् - Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ५: उ. ७ : सू. १८१-१९१ ९. " जम्हा तत्थऽण्णत्य व दव्वं ओगाहणाए तं चेव । दव्वद्धा संखगुणा तम्हा ओगाहणद्धाओ ।। " अथ भावायुर्बहुत्वं भाव्यते १०. "संघाय भेयओ वा दव्वोवरमेऽवि पज्जवा संति । तं कसिणगुणविरामे पुणाइ दव्वं न ओगाहो ।। " संघातादिना द्रव्योपरमेऽपि पर्यवाः सन्ति, यथा घृष्टपटे शुक्लादिगुणाः सकलगुणोपरमे तु न तद्द्रव्यं न चावगाहनाऽनुवर्त्तते, अनेन पर्यवाणां चिरं स्थानं द्रव्यस्य त्वचिरमित्युक्तम् । अथ कस्मादेवमिति ? उच्यते ११. "संघाय भेयबंधाणुवत्तिणी निच्चमेव दव्वद्धा । न उ गुणकालो संघाय भेयमित्तऽद्धसंबद्धो ॥ " संघातभेदलक्षणाभ्यां धर्माभ्यां यो बन्धः - सम्बन्धस्तदनुवर्तिनी - तदनुसारिणी, संघाताद्यभाव एव द्रव्याद्धायाः सद्भावात्तद्भावे चाभावात्, न पुनर्गुणकालः संघातभेदमात्रकालसम्बद्धः संघातादिभावेऽपि गुणानामनुवर्त्तनादिति । अथ निगमनम् — १२. 'जम्हा तत्थऽण्णत्थ य दव्वे खेत्तावगाहणासुं च । ते चैव पज्जवा संति तो तदद्धा असंखगुणा ।। १३. आह अणेगतोऽयं दव्वोवरमे गुणाणऽवत्थाणं । गुणविष्परिणामंमि यदव्यविसेसो यऽनेगंतो ॥ द्रव्यविशेष: द्रव्यपरिणाम: १४. विप्परिणयंमि दव्वे कम्मि गुणपरिणई भवे जुगवं । कम्मिवि पुण तदवत्थे होइ पुण गुणा परीणामी ॥ १५. भण्णति सच्चं किं पुण गुणबाहुल्ला न सव्वगुणनासो । दव्वस्स तदण्णत्तेऽवि बहुतराणं गुणाण ठिई ॥ " अनन्तरमायुरुक्तम्, अथायुष्मत आरंभादिना चतुर्विशितिदण्डकेन प्ररूपयन्नाह - ५/१८२ ‘नेरइए' त्यादि ५/१८५ ‘भंडमत्तोवगरण' त्ति इह भाण्डानि - मृन्मयभाजनानि मात्राणि - कांस्यभाजनानि, उपकरणानि – लोहीकडुच्छुकादीनि । ५/१८६ एकेन्द्रियाणां परिग्रहोऽप्रत्याख्यानादवसेयः । ५/१८७ ‘बाहिरया भंडमत्तोवगरण' त्ति उपकारसाधमर्याद्द्वीन्द्रियाणां शरीररक्षार्थं तत्कृतगृहकादीन्यवसेयानि । ५/१८९ ‘टंक' त्ति छिन्न टंका' 'कुड' त्ति कूटानि शिखराणि वा हस्त्यादिबन्धनस्थानानि वा, 'सेल' त्ति मुण्डपर्वताः 'सिहर' त्ति शिखरिणः शिखरवन्तो गिरयः 'पब्भार' त्ति ईषदवनता १. 'खिड़की' इति भाषायां ५२४ Jain Education Intemational भगवती वृत्ति गिरिदेशा: 'लेण' त्ति उत्कीर्णपर्वतगृहं 'उज्झर' त्ति अवझरः -- पर्वततटादुदकस्याधःपतनं 'निज्झर' त्ति निर्झर - उदकस्य श्रवणं 'चिल्लल' ति चिक्खलमिश्रोदको जलस्थानविशेषः 'पल्लल' त्ति प्रह्लादनशीलः स एव 'वप्पिण' त्ति केदारवान् तटवान् वा देशः केदार एवेत्यन्ये, 'अगड' त्ति कूपः 'वावि' त्ति वापी चतुरस्रो जलाशयविशेष: 'पुक्खरिणि' त्ति पुष्करिणी वृतः स एव पुष्करवान् वा, 'दीहिय' ति सारण्यो 'गुंजालिय' त्ति वक्रसारण्यः ‘सर' त्ति सरांसि स्वयंसंभूतजलाशयविशेषाः 'सरपंतियाओ' त्ति सरः पंक्तयः 'सरसरपंतियाओ' त्ति यासु सर:पंक्तिषु एकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन्नन्यस्मादन्यत्र एव संचारकपाटकेनोदकं संचरति ताः सरः सरः पंक्तयः, बिलपंक्तयः --- प्रतीताः 'आराम' त्ति आरमन्ति येषु माधवीलतादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः 'उज्जाण' त्ति उद्यानानि पुष्पादिमवृक्षसंकुलानि उत्सवादौ बहुजनभोग्यानि 'काणण' त्ति काननानि सामान्यवृक्षसंयुक्तानि नगरासन्नानि 'वण' त्ति वनानि नगरविप्रकृष्टानि 'वणसंडाई' ति वनषण्डाः - एकजातीयवृक्षसमूहात्मका: 'वणराइ' त्ति वनराजयोवृक्षपंक्तय: 'खाइय' त्ति खातिकाः उपरिविस्तीर्णाधः संकटखातरूपा: 'परिह' त्ति परिखाः अध- उपरि च समखातरूपा: 'अट्टालग' त्ति प्राकारोपर्याश्रयविशेषाः 'चरिय' त्ति चरिका गृहप्राकारान्तरो हस्यत्यादिप्रचारमार्गः 'दार' त्ति द्वारं 'खड़क्किका'' 'गोउर' त्ति गोपुरं नगरप्रतोली 'पासाय' त्ति प्रासादा देवानां राज्ञां च भवनानि, अथवा उत्सेधबहुलाः ---- प्रासादा: 'घर' त्ति गृहाणि सामान्यजनानां सामान्यानि वा 'सरण' त्ति शरणानि तृणमयावसरिकादीनि 'आवण' त्ति आपणा हट्टा: शृंगाटक स्थापना - त्रिक स्थापना - 1 चतुष्क स्थापना - + चत्वरं स्थापना * | चतुर्मुखं— चतुर्मुखदेवकुलकादि 'महापह' त्ति राजमार्ग: 'सगडे' त्यादि प्राग्वत्, 'लोहि' त्ति लौहि मण्डकादिपचनिका 'लोहकडाहि' त्ति कवेल्ली 'कुडुच्छुय' त्ति परिवेषणाद्यर्थो भाजनविशेष: 'भवण' त्ति भवनपतिनिवासः । एते च नारकादयश्छद्मस्थत्वेन हेतुव्यवहारिकत्वाद् हेतवः उच्यन्ते इति तद्भेदान्निरूपयन्नाह— ५/१९१ 'पंच हेऊ' इत्यादि इह हेतेषु वर्त्तमानः पुरुषो हेतुरेव तदुपयोगानन्यत्वात् पञ्चविधत्वं चास्य क्रियाभेदादित्यत आह - 'हे' जाणइ 'त्ति हेतुं साध्याविनाभूतं साध्यनिश्चयार्थं जानाति विशेषतः सम्यगवगच्छति सम्यग्दृष्टित्वात्, अयं पंचविधोऽपि सम्यक्दृष्टिर्मन्तव्यो मिथ्यादृष्टेः सूत्रद्वयात्परतो वक्ष्यमाणत्वादित्येकः एवं हेतुः पश्यति सामान्यत Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५२५ श.५: उ.७: सू.१९१-उ.८: सू.२०५ एवावबोधादिति द्वितीयः, एवं बुध्यते सम्यक् श्रद्धत्त इति ५/१९७ ‘पंच अहेऊ' इत्यादि अहेतव: अहेतुव्यवहारिण: ते च पंच बोधेः सम्यक्श्रद्धानपर्यायत्वादिति तृतीयः। तथा हेतुं ज्ञानादिभेदात्, तद्यथा-'अहेउं न जाणइ' त्ति अहेतुं न 'अभिसमागच्छति साध्यसिद्धौ व्यापारणतः सम्यक् प्राप्नोतीति हेतुभावेन स्वस्यानुमानानुत्थापकतयेत्यर्थः- 'न जानाति' न चतुर्थः। तथा हेउं छउमत्थे' त्यादि, हेतुः-- अध्यवसाना सर्वथाऽवगच्छति कथञ्चिदेवावगच्छतीत्यर्थः नजो दिर्मरणकारणं तद्योगान्मरणमपि हेतुरतस्तं हेतुमदित्यर्थः देशप्रतिषेधार्थत्वात् ज्ञातुश्चावध्यादिज्ञानवत्त्वात् कथछद्मस्थमरणं, न केवलिमरणं, तस्याहेतुकत्वात्, नाप्यज्ञान ञ्चिज्ज्ञानमुक्तं, सर्वथा ज्ञानं तु केवलिन एव स्यादिति, मरणमेतस्य सम्यग्ज्ञानित्वात् अज्ञानमरणस्य च वक्ष्यमाणत्वात् एवमन्यान्यपि ....... तथा अहेउं छउमत्थमरणं मरइ' त्ति म्रियते-करोतीति पंचमः।। अहेतुरध्यवसानादेरुपक्रमकारणस्याभावात् छद्मस्थमरणप्रकारान्तरेण हेतूनेवाह मकेवलित्वात् न त्वज्ञानमरणमवध्यादिज्ञानित्वे ज्ञानित्वात्तस्येति। ५/१९२ 'पंचे' त्यादि हेतुना अनुमानोत्थापकेन जानाति-अनुमेयं अहेतूनेवान्यथाऽऽह सम्यगवगच्छति सम्यगदृष्टित्वादेकः एवं पश्यतीति द्वितीयः, ५/१९८ 'पंचे' त्यादि तथैव नवरं, अहेतना हेत्वभावेन न जानाति एवं बुध्यते श्रद्धत्त इति तृतीयः एवं 'अभिसमागच्छति कथंचिदेवाध्यवस्यतीति। प्राप्नोतीति चतुर्थः, तथाऽकेवलित्वात् हेतुना अध्यवसानादिना गमनिकामात्रमेवेदमष्टानामप्येषां सूत्राणां, भावार्थ तु बहुश्रुता छमस्थमरणं म्रियते इति पंचमः। विदन्तीति ।। अथ मिथ्यादृष्टिमाश्रित्य हेतूनाह ।। पञ्चमशते सप्तमोद्देशकः ।। ५/१९३ 'पंचे' त्यादि पंच क्रियाभेदात् हेतवो हेतुव्यवहारित्वात् तत्र हेतुं लिंगं न जानाति, नञः कुत्सार्थत्वादसम्यगवैति-१ मिथ्यादृष्टित्वात्, २एवं न पश्यति, ३एवं न बुध्यते, ४एवं अष्टम उद्देशकः नाभिसमागच्छति, तथा हेतुम् अध्यवसानादिहेतुयुक्तमज्ञानमरणं सप्तमे उद्देशके पुद्गलाः स्थितितो निरूपिताः, अष्टमे तु त 'म्रियते' करोति मिथ्यादृष्टित्वेनासम्यग्ज्ञानत्वादिति। एव प्रदेशतो निरूप्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं प्रस्तावनाहेतूनेव प्रकारान्तरेणाह सूत्रम्५/१९४ ‘पंचे' त्यादि हेतुना लिंगेन न जानाति----असम्यगवगच्छति, ५/२०० तेण' मित्यादि एवमन्येऽपि चत्वारः। ५/२०२ 'दव्वादेसेणं' ति द्रव्यप्रकारेण द्रव्यत इत्यर्थः परमाणुअथोक्तविपक्षभूतानहेतूनाह त्वाद्याश्रित्येति यावत् 'खेत्तादेसेणं' ति एक-प्रदेशावगाढत्वा५/१९५ 'पंचे' त्यादि प्रत्यक्षज्ञानित्वादिनाऽहेतुव्यवहारित्वादहेतवः दिनेत्यर्थः 'कालादेसेणं' ति एकादिसमयस्थितिकत्वेन केवलिन: ते पंच क्रियाभेदात् तद्यथा-'अहेतुं जाणइ' त्ति 'भावादेसेण' त्ति एकगुणकालकत्वादिना 'सव्वपोग्गला अहेतुं-न हेतुभावेन सर्वज्ञत्वेनानुमानानपेक्षत्वाळूमादिकं सपएसावी' त्यादि, इह च यत्सविपर्ययसार्दादिपुद्गलविचारे जानाति स्वस्याननुमानोत्थापकतयेत्यर्थः अतोऽसावहेतुरेव, प्रक्रान्ते सप्रदेशाप्रदेशा एव ते प्ररूपिता: तत्तेषां प्ररूपणे एवं पश्यतीत्यादि, तथा 'अहेतुं केवलिमरणं मरई' त्ति सार्द्धत्वादि प्ररूपितमेव भवतीतिकृत्वेत्यवसेयं, तथाहिअहेतु-निर्हेतुकं अनुपक्रमत्वात् केवलिमरणं म्रियते सप्रदेशा: सार्धाः सनध्या वा, इतरे त्वन‘ अमध्याश्चेति, करोतीत्यहेतुरसौपंचम इति । ५/२०५ 'अणंत' ति तत्परिमाणज्ञापनपरं तत्स्वरूपाभिधानम्। अथ प्रकारान्तरेणाहेतूनेवाह द्रव्यतोऽप्रदेशस्य क्षेत्राद्याश्रित्याप्रदेशादित्वं निरूपयन्नाह 'जे दव्वओ अपएसे' इत्यादि यो द्रव्यतोऽप्रदेश:-परमाणुः ५/१९६ 'पंचे' त्यादि तथैव नवरं अहेतुना–हेत्वभावेन केवलित्वाज्जानाति स च क्षेत्रतो नियमादप्रदेशो, यस्मादसौ क्षेत्रस्यैकत्रैव योऽसावहेतुरेव एवं पश्यतीत्यादयोऽपि ....... 'अहेउणा प्रदेशेऽवगाहते प्रदेशद्वयाद्यवगाहे त् तस्याप्रदेशत्वमेव न केवलिमरणं मरइ' त्ति अहेतुना उपक्रमाभावेन केवलिमरणं स्यात्, कालतस्तु यद्यसावेकासमयस्थितिकस्तदाऽप्रदेशोऽनेकम्रियते, केवलिनो निर्हेतुकस्यैव तस्य भावादिति। समयस्थितिकस्तु सप्रदेश इति। भावत: पुनर्योकगुणकालअहेतूनेव प्रकारान्तरेणाह कादिस्तदाऽप्रदेशोऽनेकगुणकालकादिस्तु सप्रदेश इति। Jain Education Intemational Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.८: सू.२०५-२०६ ५२६ भगवती वृत्ति निरूपितो द्रव्यतोऽप्रदेशोऽथ क्षेत्रतोऽप्रदेशं निरूपयन्नाह - 'जे खेत्तओ अप्पएसे' इत्यादि, य: क्षेत्रतोऽप्रदेशः स द्रव्यत: स्यात्सप्रदेशः, व्यणुकादेरप्येकप्रदेशावगाहित्वात् स्यादप्रदेश: परमाणोरप्येकप्रदेशावगाहित्वात्, ‘कालओ भयणाए' त्ति क्षेत्रतोऽप्रदेशो य: स कालतो भजनयाऽप्रदेशादिर्वाच्यः, तथाहि -एकप्रदेशावगाढ: एकसमयस्थितिकत्वादप्रदेशोऽपि स्यात् अनेकसमयस्थितिकत्वाच्च सप्रदेशोऽपि स्यादिति। ‘भावओ भयणाए' त्ति क्षेत्रतोऽप्रदेशो योऽसावेकगुणकालत्वादप्रदेशोऽपि स्यात् अनेकगुणकालकादित्वाच्च सप्रदेशोऽपि स्यादिति। अथ कालाप्रदेशं भावाप्रदेशं च निरूपयन्नाह—'जहा खेत्तओ एवं कालओ भावओ' त्ति यथा क्षेत्रतोऽप्रदेश उक्त एवं कालतो भावतश्चासौ वाच्यः तथाहि 'जे कालओ' अप्पएसे से दवओ सिय सप्पएसे सिय अप्पएसे'। एवं क्षेत्रतो भावतश्च तथा—'जे भावओ अप्पएसे से दव्वओ सिय सप्पएसे सिय अप्पएसे' एवं क्षेत्रतः कालतश्चेति। उक्तोऽप्रदेशोऽथ सप्रदेशमाह-'जे दव्वओ सप्पएसे' इत्यादि, अयमर्थ:-यो द्रव्यतो व्यणुकादित्वेन सप्रदेश: स क्षेत्रतः स्यात्प्रदेशो द्व्यादिप्रदेशावगाहित्वात् स्यादप्रदेश एकप्रदेशावगाहित्वात्, एवं कालतो भावतश्च, तथा य: क्षेत्रतः सप्रदेशो द्वयादिप्रदेशावगाहित्वात् स द्रव्यत: सप्रदेश एव, द्रव्यतोऽप्रदेशस्य व्यादिप्रदेशावगाहित्वाभावात् कालतो भावतश्चासौ द्विधाऽपि स्यादिति, तथा य: कालत: सप्रदेश: स द्रव्यतः क्षेत्रतो भावतश्च द्विधाऽपि स्यात्, तथा यो भावत: सप्रदेशः स द्रव्यक्षेत्रकालैर्द्विधाऽपि स्यादिति सप्रदेशसूत्राणां भावार्थ इति। अथैषामेव द्रव्यादित: सप्रदेशाप्रदेशानामल्पबहुत्वविभागमाह५/२०६ ‘एएसि ण' मित्यादि सूत्रसिद्धं नवरमस्यैव सूत्रोक्ताल्पबहुत्वस्य भावनार्थं गाथाप्रपंचो वृद्धोक्तोऽभिधीयते१. वोच्छं अप्पाबहुयं दव्यखेत्तद्धभावओ वावि। अपएससप्पएसाण पोग्गलाणं समासेणं॥ २. दवेणं परमाणू खेत्तेणेगप्पएस समोगाढा कालेणेगसमइया अपएसा पोग्गला होति।। ३. भावेणं अपएसा एगगुणा जे हवंति वण्णाई। वर्णादिभिरित्यर्थः ते च्चिय थोवा जं गुणबाहुल्लं पायसो दव्वे॥ द्रव्ये प्रायेण व्यादिगुणा अनन्तगुणान्ता: कालकत्वादयो भवन्ति एकगुणकालकादयस्त्वल्पा इति भाव: ४. "एत्तो कालाएसेण अप्पएसा भवे असंखगुणा। किं कारणं पुण भवे भण्णति परिणामबाहुल्ला ॥" अयमर्थः-यो हि यस्मिन् समये यद्वर्णगन्धरसस्पर्शसंघातभेदसूक्ष्मत्वबादरत्वादिपरिणामान्तरमापन्नः स तस्मिन् समये तदपेक्षया कालतोऽप्रदेश उच्यते, तत्र चैकसमयस्थितिरित्यन्ये, परिणामाश्च बहव इति प्रतिपरिणामं कालाप्रदेशसंभवात्तबहुलत्वमिति। एतदेव भाव्यते५. "भावेणं अपएसा जे ते कालेण हुंति दुविहावि। दुगुणादओवि एवं भावेणं जावऽणंतगुणा॥" भावतो येऽप्रदेशा एक गुणकालत्वादयो भवन्ति ते कालतो द्विविधा अपि भवन्ति–सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेत्यर्थः तथा भावेन द्विगुणादयोऽप्यनन्तगुणान्ताः एवमिति द्विविधा अपि भवन्ति, ततश्च६. "कालापएसयाणं एवं एक्केक्कओ हवति रासी। ___एक्केक्कगुणट्ठाणम्मि एगगुणकालयाईसु॥" एकगुणकालद्विगुणकालादिषु गुणस्थानकेषु मध्ये एकैकस्मिन् गुणस्थानके कालाप्रदेशानामेकैको राशिर्भवति ततश्चानन्तत्वाद् गुणस्थानकराशीनामनन्ता एव कालाप्रदेशराशयो भवन्ति। अथ प्रेरकः ७. "आहाणंतगुणत्तणमेवं कालापएसयाणंति। ___जमणंतगुणट्ठाणेसु होति रासीवि हु अणंता॥" एवमिति—यदि प्रतिगुणस्थानकं कालाप्रदेशराशयोऽभिधीयन्त इति। अत्रोत्तरम् ८. 'भण्णइ एगगुणाणवि अणंतभागंमि जं अर्णतगुणा। तेणासंखगुण च्चिय हवंति णाणंतगुणियत्तं।" अयमभिप्राय:---यद्यप्यनन्तगुणकालत्वादीनामनन्तराशयस्तथाऽप्येकगुणकालत्वादीनामनन्तभाग एव ते वर्तन्त इति न तद्वारेण कालाप्रदेशानामनन्तगुणत्वम् अपि त्वसंख्यात गुणत्वमेवेति। ९. "एवं ता भावमिणं पडुच्च कालापएसा सिद्धा। __परमाणुपोग्गलाइसु दव्वेवि हु एस चेव गमो॥" एवं तावत् भावं वर्णादिपरिणामं इमम् उक्तरूपमेकाद्यनन्तगुणस्थानवर्त्तिनमित्यर्थः प्रतीत्य कालाप्रदेशिका: पुद्गला: सिद्धाः, कालाप्रदेशता वा पुद्गलानां सिद्धा प्रतिष्ठिता द्रव्येऽपि द्रव्यपरिणाममप्यंगीकृत्य परमाण्वादिषु एष एव भावपरिणामोक्त एव गम:-व्याख्याः । १. अ प्रतौ एकैकस्थित Jain Education Intemational Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति १०. "एमेव होइ खेत्ते एगपएसावगाहणाईसु । ठाणंतरसंकंतिं पडुच्च कालेण मग्गणया ।। " एवमेव द्रव्यपरिणामवद् भवति क्षेत्रे क्षेत्रमधिकृत्य एकप्रदेशावगाढादिषु पुद्गलभेदेषु स्थानान्तरगमनं प्रतीत्य कालेन कालाप्रदेशानां मार्गणा । यथा क्षेत्रतः एवमवगाहनादितोऽपीत्येतदुच्यते— ११. “संकोयविकोयंपि हु पडुच्च ओगाहणाए एमेव । तह सुहुमबायरथिरेयरे य सद्दाइ परिणामं ।। " अवगाहनाया: संकोचं विकोचं च प्रतीत्य कालाप्रदेशाः स्युः तथा सूक्ष्मबादरस्थिरास्थिरशब्दमनः कर्मादिपरिणामं च प्रतीत्येति । १२. "एवं जो सव्वो च्चिय परिणामो पोग्गलाण इह समये । तं तं पडुच्च एसिं कालेणं अपएसत्तं ॥ " 'एसिं' त्ति पुद्गलानामित्यर्थः १३. "कालेण अप्पएसा एवं भावापएसएहिंतो । होति असंखिज्जगुणा सिद्धा परिणामबाहुल्ला | १४. एतो दव्वासेण अप्पएसा हवंतिऽसंखगुणा । पण ते परमाणू कहते बहुयत्ति तं सुणसु ॥ १५. अणु संखेज्जपएसिय असंख गुणऽणंतपएसिया चेव । चउरो च्विय रासी पोग्गलाण लोए अणंताणं ॥ ५२७ १६. तत्थाणंतेहिंतो सुत्तेऽ णंतप्पएसिएहिंतो जेण पएसडाए भणिया अणवो अनंतगुणा ।। " अनन्तेभ्यः अनन्तप्रदेशिकस्कन्धेभ्यः प्रदेशार्थतया परमाणवोऽनन्तगुणाः सूत्रे उक्ताः सूत्रं चेदं 'सव्वत्थोवा अणंतएसिया खंधा दव्वट्टयाए, ते चेव पएसट्टयाए अणंतगुणा, परमाणुपोग्गला दव्वपएसट्टयाए अनंतगुणा, संखेज्जपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा ते चेव पएसट्टयाए खंजेज्जगुणा असंखेज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा ते चेव पट्टयाए असंखगुण' त्ति ॥ भगवई २५ / १६३ १७. 'संखेज्जतिमे भागे संखेज्जपएसियाण वट्टेति । नवरमसंखेज्जपएसियाण भागे असंखइमे ॥ " संख्येयतमे भागे संख्यातप्रदेशिकानामसंख्याततमे चासंख्यातप्रदेशिकानामणवो वर्त्तन्ते, उक्तसूत्रप्रामाण्यादिति । १८. "सइवि असंखेज्जपएसियाणं तेसिं असंखभागत्ते । बाहुल्लं साहिज्जइ फुडमवसेसाहिं रासीहिं ।। " संख्यातप्रदेशिकानन्तप्रदेशकाभिधानाभ्यां, इह च संख्यातप्रदेशिकराशेः संख्यातभागवर्त्तित्वात्तेषां स्वरूपतो बहुत्वमवगम्यते, अन्यथा तस्याप्यसंख्येयभागेऽनन्तभागे वा तेऽभविष्यन्निति । १९. "जेणेक्करासिणो च्चिय असंखभागेण सेसरासीणं । तेणासंखेज्जगुणा अणवो कालापएसेहिं ।। " न शेषराश्योरिति, अस्यायमर्थः - अनन्तप्रदेशिकराशेरनन्त Jain Education Intemational श. ५ : उ. ८ : सू. २०६ गुणास्ते संख्यातप्रदेशिकराशेस्तू संख्यातभागे संख्यातभागस्य च विवक्षया नात्यन्तमल्पता, कालतः सप्रदेशष्वप्रदेशेषु च वृत्तिमतामणूनां बहुत्वात् कालाप्रदेशानां च सामयिकत्वे ' नात्यन्तमल्पत्वात् कालाप्रदेशेभ्योऽसंख्यातगुणत्वं द्रव्याप्रदेशानामिति । २०. "एत्तो असंखगुणिया हवंति खेत्तापएसियासमए जं ते ता सव्वे च्चिय अपएसा खेत्तओ अणवो ।। " एतद् भावना च वक्ष्यमाणस्थापनातोऽवसेया २१. "दुपएसियाइएसुवि पएसपरिवुड्डिएस ठाणेसु । लब्भइ इक्किक्को चिय रासी खित्तापएसाणं ॥ २२. एत्तो खित्ताएसेण, चेव सपएसया असंखगुणा । एगपएसोगाढे मोत्तुं सेसावगाहणया || २३. ते पुण दुपएसोगाहणाइया सव्वपोग्गला सेसा। तेय असंखेज्जगुणा अवगाहणठाणबाहुल्ला ।। २४. दव्वेण होंति एत्तो सपएसा पोग्गला विसेसहिया । कालेण य भावेण य एमेव भवे विसेसहिया ।। " मिश्राणामित्यप्रदेशसप्रदेशानां मीलितानां संक्रमं प्रति-अप्रदेशेभ्यः सप्रदेशेष्वल्पबहुत्वविचारे संक्रमे क्षेत्रतः सप्रदेशा असंख्येयगुणाः क्षेत्रतोऽप्रदेशेभ्यः सकाशात् स्वस्थाने पुनः केवलसप्रदेशचिन्तायां स्तोका एव ते क्षेत्रतः सप्रदेशा इति । २५. " भावाईया वट्टा असंखगुणिया जमऽप्पएसाणं । तो सप्पएसयाणं खेत्ताविसेसपरिवुड्डी ॥ " एतदेवोच्यते—अर्थत इति व्याख्यानापेक्षया २६. "मीसाण संकमं पड़ सपएसा खेत्तओ असंखगुणा । भणिया सट्टाणे पुण थोवच्चिय ते गहेयव्वा ॥ " एतदेवोच्यते - अर्थत इति व्याख्यानापेक्षया २७. खेत्तेण सप्पएसा थोवा दव्वट्टभावओ अहिया । सप सप्पाबहुयं सट्टा अत्थओ एवं ॥ २८. पढमं अपएसाणं बीयं पुण होइ सप्पएसाणं । तइयं पुण मीसाणं अप्पबहुं अत्थओ तिण्णि || अर्थतो- व्याख्यानद्वारेण त्रीण्यल्पबहुत्वानि भवन्ति, सूत्रे त्वेकमेव मिश्राल्पबहुत्वमुक्तमिति । २९. "ठाणे ठाणे वड्ड भावाईण जमप्पएसाणं । तं चिय भावाईण परिभस्सति सप्पएसाणं ।। " यथा किल कल्पनया लक्षं समस्तपुद्गलास्तेषु भावकाल द्रव्यक्षेत्रतोऽप्रदेशाः क्रमेण एकद्विपंचदशसहस्रसंख्या: सप्रदेशास्तु नवनवत्यष्टनवतिपंचनवतिनवतिसहस्रसंख्या: ततश्च भावाप्रदेशेभ्यः कालाप्रदेशेषु सहस्रं वर्द्धते तदेव भावसप्रदेशेभ्यः कालसप्रदेशेषु हीयत इत्येवमन्यत्रापीति स्थापना चेयम् Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.८: सू.२०६-उ.९: सू. २३५ ५२८ भगवती वृत्ति ३० "अहवा खेत्ताईणं जमप्पएसाणं हायए कमसो। तंचिय खेत्ताईणं परिवड्डइ सप्पएसाणं ॥" ३१. अवरोपरप्पसिद्धा वुड्डी हाणी य होई दोण्हंपि। अपएससप्पएसाणं पोग्गलाणं सलक्खणओ।। ३२. ते चिय विय ते चउहिं वि जमुवचरिज्जति पोग्गला दुविहा। तेण उ वुड्डी हाणी तेसिं अण्णोण्णसिद्धा॥ चतुर्भिरिति-भावकालादिभिरुपचर्यन्ता: इति विशेष्यन्ते ३३. एएसिं रासीणं निदरिसणमिणं भणामि पच्चक्खं। वुद्धीए सव्वपोग्गल जाव तावाण लक्खाओ। कल्पनया यावन्त: सर्वपुद्गलास्तावतां लक्षम् इति। ३४. एक्कं च दो य पंच य दस य सहस्साई अप्पएसाणं। भावाईण कमसो चउण्हवि जहोवइट्ठाण।। ३५. णउई पंचाणउई अट्ठाणउई तहेव नवनवई। एवइयाइं सहस्साई सप्पएसाण विवरीयं ।। ३६. एएसिं जहासंभवमत्थोवणयं करिज्ज रासीणं। सब्भावओ य जाणिज्जा ते अणंते जिणाभिहिए॥" अनन्तरं पुद्गला निरूपितास्ते च जीवोपग्राहिण इति जीवांश्चितयन्नाह५/२०८ 'जीवा ण' मित्यादि ५/२१५ 'नेरइया णं भंते! केवतियं कालं अवट्ठिया? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं चउवीसमहत्तं' ति, कथं? सप्तस्वपि पृथिवीषु द्वादश मुहुर्तान् यावन्न कोऽप्युत्पद्यते उद्वर्त्तते चोत्कृष्टतो विरहकालस्यैवंरूपत्वात् अन्येषु पुनादशमुहूर्तेषु यावन्त उत्पद्यन्ते तावन्त एवोद्वर्त्तन्त इत्येवं चतुर्विंशतिमुहूर्तान् यावन्नारकाणामेकपरिमाणत्वादवस्थितत्वं वृद्धिहान्योरभावम् इत्यर्थः एवं रत्नप्रभादिषु यो यत्रोत्पादोद्वर्त्तनाविकालश्चतुर्विंशतिमुहूर्त्तादिको व्युत्क्रान्तिपदेऽभिहितः स तत्र तेषु तत्तुल्यस्य समसंख्यानामुत्पादोद्वर्तना कालस्य मीलनाद् द्विगुणित: सन्नवस्थितकालोऽष्टचत्वारिंशन्मुहूर्तादिक: सूत्रोक्तो भवति। विरहकालश्च प्रतिपदमवस्थानकालार्द्धभूतः स्वयमभ्यूह्य समानानामुत्पादोवर्तनकाल इति। ५/२२३ 'आणयपाणयाणं संखेज्जा मासा आरणच्चुयाणं संखेज्जा वास' त्ति इह विरहकालस्य संख्यातमासवर्षरूपस्य द्विगुणितत्वेऽपि संख्यातत्वमेवेत्यत: संख्याता मासा इत्याधुक्तम् ‘एवं गेवेज्जदेवाणं' ति इह यद्यपि ग्रैवेयकाधस्तनत्रये संख्यातानि वर्षाणां शतानि मध्यमे सहस्राणि उपरिमेव लक्षाणि विरह उच्यते, तथापि द्विगुणितेऽपि च संख्यातवर्षत्वं न विरुध्यते, विजयादिषु त्वसंख्यातकालो विरहः स च द्विगुणितोऽपि स एव सर्वार्थसिद्धे पल्योपमसंख्येयभागः सोऽपि द्विगुणित: संख्येयभाग एव स्यादतएव उक्तं 'विजयवेजयंतजयंतापराजियाणं असंखेज्जाई वाससहस्साई' इत्यादीति। जीवादीनेव भंग्यन्तरेणाह५/२२५ ‘जीवा ण मित्यादि 'सोपचया:' सवृद्धयः प्राक्तनेष्वन्येषामुत्पादात् 'सापचयाः प्राक्तनेभ्य: केषांचिदुद्वर्तनात्सहानयः 'सोपचयसापचया:' उत्पादोद्वर्तनाभ्यां वृद्धिहान्योर्युगपद्भावात् निरुपचयनिरपचया: उत्पादोवर्तनयोरभावेन वृद्धिहान्योरभावात् ननूपचयो वृद्धिरपचयस्तु हानि: युगपवयमद्वयं वाऽवस्थितत्वम्, एवं च शब्दभेदव्यतिरेकेण कोऽनयो सत्रयोर्भेद:? उच्यते पूर्वत्र परिणाममभिप्रेतम्, इह तु तदनपेक्षमुत्पादोद्वर्तनामात्र', ततश्चेह तृतीयभंगके पूर्वोक्तवृद्ध्यादिविकल्पानां त्रयमपि स्यात्, तथाहि बहतरोत्पादे वृद्धिर्बहत्तरोदवर्तने च हानि:, समोत्पादोदवर्तनयोश्चावस्थितित्वमित्येवं भेद इति। 'एगिंदिया तइयपए' त्ति सोपचयसापचया इत्यर्थः युगपुदुत्पादोद्वर्त्तनाभ्यां वृद्धिहानिभावात, शेषभंगकेषु तु ते न संभवन्ति, प्रत्येकमुत्पादोद् वर्तनयोस्तविरहस्य चाभावादिति। ५/२३१ 'अवट्ठिएहि' ति निरुपचयनिरपचयेष 'वक्कंतिकालो' 'भाणियव्चो' त्ति विरहकालो वाच्यः।। ॥ पञ्चमशते अष्टमोद्देशकः॥ इति। ५/२१९ ‘एगिंदिया वढंति वि' त्ति तेषु विरहाभावेऽपि बहुतराणा मुत्पादादल्पतराणां चोद्वर्तनात् 'हायंति वि' त्ति बहुतराणामवर्तनादल्पतराणां चोत्पादात् 'अवट्ठिया वि' त्ति तुल्यानामुत्पादादुद्वर्तनाच्चेति, ‘एतेहिं तिहि वि' त्ति एतेषु त्रिष्वपि एकेन्द्रियवृद्धयादिष्वावलिकाया असंख्येयो भागस्ततः परं यथायोगं वृद्ध्यादेरभावात्। ५/२२० 'दो अंतोमुहत्त' त्ति एकमन्तर्मुहूर्त विरहकालो द्वितीयं तु नवम उद्देशकः इदं किलार्थजातं गौतमो राजगृहे प्राय: पृष्ठवान् बहुशो भगवतस्तत्र विहारादिति राजगृहादिस्वरूपनिर्णयपरसूत्रप्रपञ्चं नवमोद्देशक माह५/२३५ 'तेण' मित्यादि 'जहा एयणद्देसए' त्ति एजनोद्देशकोऽस्यैव पंचमशतस्य सप्तमः। तत्र पंचेन्द्रियतिर्यग्रवक्तव्यता 'टंका कूडा सेला सिहरी' त्यादिका योक्ता सा भणितव्येति। अत्रोत्तरं १. अ स प्रतौ तदनुपेक्षमुत्पादोद्वर्त्तनमात्रं Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति 'पुढवी वि नगर' मित्यादि पृथिव्यादिसमुदायो राजगृहं, न पृथिव्यादिसमुदायावृते राजगृहशब्दप्रवृत्तिः ५/२३६ 'पुढवी जीवाइय अजीवाइय नगरं रायगिहंति पवुच्चइ' त्ति जीवाजीवस्वभावं राजगृहमिति प्रतीतं, ततश्च विवक्षिता पृथिवी सचेतनाचेतनत्वेन जीवाश्चाजीवाश्चेति राजगृहमिति प्रोच्यत इति । पुद्गलाधिकारादिदमाह– ५/२३७ 'से णूण' मित्यादि ५/२३८ ‘दिवा सुभा पोग्गल' त्ति दिवा दिवसे शुभाः पुद्गला भवन्ति, किमुक्तं भवति ? शुभः पुद्गलपरिणामः स चार्ककरसम्पर्कात् 'रत्तिं' ति रात्रौ । ५/२४० 'नेरइयाणं असुभा पोग्गल' इति तत्क्षेत्रस्य पुद्गल - शुभतानिमित्तभूतरविकरादिप्रकाशकवस्तुवर्जितत्वात् ५/२४२ 'असुरकुमाराणं सुभा पोग्गल' त्ति तदाश्रयादीनां भास्वरत्वात् ५/२४३ 'पुढविकाइए' इत्यादि पृथिवीकायिकादयस्त्रीन्द्रियान्ता यथा नैरयिका उक्तास्तथा वाच्याः, एषां द्वि नास्त्युद्द्योतः अन्धकारं चास्ति, पुद्गलानामशुभत्वात् इह चेयं भावना एतत्क्षेत्रे रविकरादिसम्पर्के सत्यपि एषां चक्षुरिन्द्रियाभावेन दृश्यवस्तुनो दर्शनाभावाच्छुभपुद्गलकार्याकरणेनाशुभाः पुद्गला उच्यन्ते ततश्चैषामन्धकारमेवेति । ५२९ ५/२४५ ‘चउरिंदियाणं सुभासुभे पोग्गल' त्ति एषां हि चक्षुः सद्भावे रविकरादिसद्भावे दृश्यार्थावबोधहेतुत्वाच्छुभाः पुद्गलाः रविकराद्यभावे त्वर्थावबोधाजनकत्वादशुभा इति । पुद्गला द्रव्यमिति तच्चिन्ताऽनन्तरं कालद्रव्यचिन्तासूत्रम् — ५/२४८ ‘तत्थ गयाणं’ ति नरकैः स्थितैः षष्ठ्यास्तृतीयार्थत्वात्, 'एवं पण्णायति' त्ति एवं हि प्रज्ञायते, इदं विज्ञायते, 'समया इव' त्ति समया इति वा ५ / २४९ 'इह तेसिं' ति इह मनुष्यक्षेत्रे तेषां समयादीनां मानं परिमाणं, आदित्यगतिसमभिव्यंगित्वात्तस्य, आदित्यगतेश्च मनुष्यक्षेत्रे एव भावात् नरकादौ त्वभावादिति, 'इहं तेसिं पमाणं' ति इह मनुष्यक्षेत्रे तेषां - समयादीनां प्रमाणं - प्रकृष्टं मानं सूक्ष्ममानमित्यर्थः । तत्र महूर्त्तस्तावन्मानं तदपेक्षया लवः सूक्ष्मत्वात्प्रमाणं तदपेक्षया स्तोकः प्रमाणं लवस्तु मानमित्येवं यं यावत्समय इति । ततश्च इह तेसिमित्यादि, इह मर्त्यलोके मनुजैस्तेषां—समयादीनां सम्बन्धी एवं वक्ष्यमाणस्वरूपं समयस्वाद्येव ज्ञायते, तद्यथा - 'समया इति वे' त्यादि, इह च समयक्षेत्राद्बहिर्वर्त्तिनां सर्वेषामपि समयाद्यज्ञानमवसेयम् । Jain Education Intemational. श. ५: उ. ९ : सू. २३५-२५५ तत्र समयादिकालस्याभावेन तद्व्यवहाराभावात् । ५/२५० - २५३ तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्काश्च यद्यपि केचित् मनुष्यलोके सन्ति, तथापि तेऽल्पाः प्रायस्तद्व्यहारिणश्च इतरे तु बहव इति तदपेक्षया ते न जानन्तीत्युच्यत इति ॥ कालनिरूपणाधिकाराद्रात्रिन्दिवलक्षणविशेषकालनिरुपणार्थ मिदमाह ५ / २५४ 'तेणं कालेण' मित्यादि, तत्र असंखेज्ने लोए 'त्ति असंख्यातेऽसंख्यातप्रदेशात्मकत्वात् लोके – चतुर्दशरज्ज्वात्मके क्षेत्रलोके आधारभूते 'अणंता राईदिय' त्ति अनन्तपरिमाणानि रात्रिंदिवानि – अहोरात्राणि 'उप्पज्जिंसु वा' इत्यादि उत्पन्नानि वा उत्पद्यन्ते वा उत्पत्स्यन्ते वा, पृच्छतामयमभिप्रायः -- यदि नामासंख्यातो लोकस्तदा कथं तत्रानन्तानि तानि भवितुमर्हन्ति ? अल्पत्वादाधारस्य महत्त्वाच्चाधेयस्येति । तथा 'परित्ता राईदिय' त्ति परीत्तानिनियतपरिमाणानि नानन्तानि, इहायमभिप्राय : – यद्यनन्तानि तानि तदा कथं परीत्तानि ? इति विरोध:, अत्र हन्तेत्याद्युत्तरं, अत्र चायमभिप्रायः -- असंख्यातप्रदेशेऽपि लोकेऽनन्ता जीवा वर्तते, तथाविधस्वरूपत्वाद्, एकत्राश्रये सहस्रादिसंख्यप्रदीपप्रभा इव, ते चैकत्रैव समयादिके कालेऽनन्ता जीवा वर्त्तते, उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च स, च समयादिकालस्तेषु साधारणशरीरावस्थायामनन्तेषु प्रत्येकशरीरावस्थायां च परीत्तेषु प्रत्येकं वर्तते तत्स्थितिलक्षणपर्यायरूपत्त्वात्तस्य, तथा च कालोऽनन्तः परीत्तश्च भवतीति, एवं चासंख्येयेऽपि लोके रात्रिन्दिवान्यनन्तानि परीत्तानि च कालत्रयेऽपि युज्यन्त इति।। एतदेव प्रश्नपूर्वकं तत्संमतजिनमतेन दर्शयन्नाह— ५/२५५ से णूण 'मित्यादि' 'भे' त्ति भवतां सम्बन्धिना 'अज्जो' त्ति हे आर्या! 'पुरिसादाणीएणं' ति पुरुषाणां मध्ये आदानीयः - आदेय पुरुषादानीयस्तेन ‘सासए' त्ति प्रतिक्षणस्थायी स्थिर इत्यर्थः 'बुइए' ति उक्तः । स्थिरश्चोत्पत्तिक्षणादारम्य स्यादित्यत आह- 'आणाइए' ति अनादिकः स च सान्तोऽपि स्याद्भव्यत्ववदित्याह—‘अनवयग्गे' त्ति अनवदग्रः - अनन्तः 'परित्ते' त्ति परिमितः प्रदेशतः अनेन लोकस्यासंख्येयत्वं पार्श्वजिनस्यापि सम्मतमिति दर्शितम् । तथा 'परिवुडे' त्ति अलोकेन परिवृत: 'हेट्ठाविच्छिण्णे' त्ति सप्तरज्जुविस्तृतवात् । 'मज्झे संखित्ते' त्ति एकरज्जुविस्तारत्वात् । ' उप्पिं विसाले' त्ति ब्रह्मलोकदेशस्य पञ्चरज्जुविस्तारत्वात्। एतदेवोपमानतः प्राह- 'अहे पलियंकसंठिए' त्ति उपरिसंकीर्णत्वाधो Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.५: उ.८: सू.२५५-उ.१०: सू.२६० ५३० भगवती वृत्ति दशम उद्देशक : अनन्तरोद्देशकान्ते देवा उक्ता इति देवविशेषभूतं चन्द्रमसं समुद्दिश्य दशमोद्देशकमाह-तस्य चेदं सूत्रम् ५/२६० तेणं कालेण' मित्यादि एतच्च चन्द्राभिलापेन पञ्चमशते प्रथमोद्देशकवन्नेयमिति। ॥पञ्चमशते दशमोद्देशकः ।। श्री रोहणानेरिव पञ्चमस्य, शतस्य देशानिव साधुशब्दान्। विभिध कुश्येव बुधोपदिष्ट्या, प्रकाशिताः सन्मणिवन्मयाऽर्थाः ।। विस्तृतत्वाभ्याम्। 'मज्झे वरवइरविग्गहिए' त्ति वरवज्रवद्विग्रह:-शरीरमाकारो मध्यक्षामत्वेन यस्य स तथा स्वार्थिकश्चेकप्रत्ययः 'उप्पिं उद्धमुइंगागारसंठिए' त्ति उद्ध्वों न तु तिरश्चीनो यो मृदंगस्तस्याकारेण संस्थितो यः स तथा, मल्लकसंपुटाकार इत्यर्थः। 'अणंता जीव घण' त्ति अनन्ताः परिमाणत: सूक्ष्मादिसाधारणशरीराणां विवक्षितत्वात् सन्तत्यपेक्षया वाऽनन्ताः, जीवसन्ततीनामपर्यवसानत्वात्, जीवाश्च ते घनाश्चानन्तपर्यायसमूहरूपत्वादसंख्येयप्रदेशपिण्डरूपत्वाच्च जीवघनाः। किमित्याह–'उप्पज्जिते' ति उत्पद्योत्पद्य विलीयन्ते विनश्यन्ति, तथा 'परीत्ता' प्रत्येकशरीरा अनपेक्षितातीतानागतसन्तानतया व संक्षिप्ता: जीवघना इत्यादि तथैव, अनेन च प्रश्ने यदुक्तम्। 'अणंता राइंदिया' इत्यादि तस्योत्तरं सूचितं, यतोऽनन्तपरीत्तजीवसम्बन्धात्कालविशेषा अप्यनन्ताः परीत्ताश्च व्यपदिश्यन्तेऽतो विरोध: परिहतो भवतीति। अथ लोकमेव स्वरूपत आह-'से भूए' त्ति यत्र जीवघना उत्पद्य उत्पद्य विलीयन्ते स लोको भूत:-सद्भूतो भवनधर्मयोगात्, स चानुत्पत्तिकोऽपि स्याद् यथा नयमतेनाकाशमत आह—उत्पन्न: एवंविधश्चानश्वरोऽपि स्याद् यथा विवक्षितघटाभाव इत्यत आह-विगत: स चानन्वयोऽपि किल भवतीत्यत आह–परिणत:पर्यायान्तराणि आपन्नो न त निरन्वयनाशेन नष्टः। अथ कथमयमेवंविधो निश्चीयते? इत्याह-'अजीवेहिं' ति अजीवैः पुद्गलादिभिः सत्तां विभ्रदभिरुत्पद्यमानैर्विगच्छद्भिः परिणमद्भिश्च लोकानन्यभूतैः लोक्यते निश्चीयते, प्रलोक्यते प्रकर्षेण निश्चीयते भूतादिधर्मकोऽयमिति, अतएव यथार्थनामाऽसाविति दर्शयन्नाह-'जे लोक्कइ से लोए' त्ति यो लोक्यते-विलोक्यते प्रमाणेन स लोको-लोकशब्दवाच्यो भवतीति, एवं लोकस्वरूपाभिधायकपार्श्वजिनवचनसंस्मरणेन स्ववचनं भगवान् समर्थितवानिति। ५/२५६ 'सपडिक्कमणो' ति आदिमान्तिमजिनयोरेवावश्यकरणीयः प्रतिक्रमणो धर्मोऽन्येषां तु कादाचित्क प्रतिक्रमणं आह च"सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमण।।" ति अनन्तरं 'देवलोएसु उववन्ना' इत्युक्तमतो देवलोकप्ररूपणसूत्रम् ५/२५८ 'कतिविहा ण' मित्यादि ।। पञ्चमशते नवमोद्देशकः ।। Jain Education Intemational Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५३१ श.६: उ.१: सू.१- उ.२ : सू.१८ स्युस्तत: 'संपगाढ' मित्यादि ‘णो महापज्जवसाणा भवंति' त्ति अनेन महानिर्जराया अभावस्य निर्वाणाभावलक्षणं फलमुक्तमिति नाप्रस्तुतत्वमित्याशंकनीयमिति। तदेवं यो महावेदन: स महानिर्जर इति विशिष्ट जीवापेक्षमवगन्तव्यं न पुनर्नारकादिक्लिष्टकर्मजीवापेक्षं, यदपि यो महानिर्जर: स महावेदन इत्युक्तं तदपि प्रायिकं, यतो भवत्ययोगीमहानिर्जरो महावेदनस्तु भजनयेति। 'अहिगरणि' त्ति अधिकरणी यत्र लोहकारा अयोधनेन लोहानि कुट्टयन्ति। 'आउडेमाणे' त्ति आकुट्टयन् ‘सद्देणं' ति अयोधनघातप्रभवेण ध्वनिना पुरुषहुंकृतिरूपेण वा 'घोसेणं' ति तस्यैवानुनादेन 'परंपराघाएणं' ति परम्परा-निरन्तरता तत्प्रधानो घात:-ताडनं परम्पराघातस्तेन उपर्युपरिघातेनेत्यर्थः। 'अहाबायरे' त्ति स्थूलप्रकारान् ‘एवामेवे त्याद्युपनये 'गाढीकयाई' इत्यादिविशेषणचतुष्केण दुष्परिशाटनीयानि भवन्तीत्युक्तं भवति। 'सुद्धोयतराए' इत्यादि अनेन सुविशोध्यं भवतीत्युक्तं स्यात्, 'अहाबायराइं' ति स्थूलतरस्कन्धान्यसाराणीत्यर्थः। 'सिढिलीकयाई' ति श्लथीकृतानि मन्दविपाकीकृतानि 'निट्ठियाई कयाई' ति निस्सत्ताकानि विहितानि 'विपरिणामियाई' ति विपरिणामं नीतानि स्थितिघातरसघातादिभिः। तानि च क्षिप्रमेव विध्वस्तानि भवन्ति, एभिश्च विशेषणैः सूविशोध्यानि भवन्तीत्युक्तं स्यात्ततश्च ‘जावइय' मित्यादि। अनन्तरं वेदना उक्ता, सा च करणतो भवतीति करणसूत्रं तत्र 'कम्मकरणं' त्ति कर्मविषयं करणं-जीववीर्यं बन्धनसंक्रमादि निमित्तभूतं कर्मकरणं। ६/१३ 'वेमायाए' त्ति विविधमात्रया कदाचित्सातां कदाचिदसातामित्यर्थः। 'महावेयणे' इत्यादि। संग्रहगाथा गतार्था। ।। षष्ठे शते प्रथमोद्देशकः ।। ६/१ अथ षष्ठं शतकम् प्रथमः उद्देशकः व्याख्यातं विचित्रार्थ पञ्चमं शतम्, अथावसरायातं तथाविधमेव षष्ठमारभ्यते। तस्य चोद्देशकार्थसंग्रहणी गाथेयम्'वेयणे' त्यादि, तत्र 'वेयण' ति महावेदनो महानिर्जर 'इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरः प्रथमः, 'आहार' त्ति आहाराद्यर्थाभिधायको द्वितीयः, 'महस्सवे य' त्ति महाश्रवस्य पुद्गला बध्यन्ते इत्याद्यर्थाभिधानपरस्तृतीयः, 'सपएस' ति सप्रदेशो जीवोऽप्रदेशो वा इत्याद्यर्थाभिधायकश्चतुर्थः, ‘तमुए य' ति तमस्कायार्थनिरूपणार्थ: पञ्चमः, 'भविए' त्ति भव्योनारकत्वादिनोत्पादस्य योग्यस्तद् वक्तव्यताऽनुगत: षष्ठः, सालि' त्ति शाल्यादिधान्यवक्तव्यताऽऽश्रितः सप्तमः, 'पुढवि' त्ति रत्नप्रभादिपृथिवीवक्तव्यताऽर्थोऽष्टमः, 'कम्म' त्ति कर्मबन्धाभिधायको नवमः, 'अण्णउत्थि' ति अन्ययथिकवक्तव्यताओं दशम इति। 'से गुणं भंते! जे महावेयणे' इत्यादि, 'महावेदन': उपसर्गादिसमुद्भूतविशिष्टपीड: 'महानिर्जर:' विशिष्टकर्मक्षयः, अनयोश्चान्योऽन्याविनाभूतत्वाविर्भावनाय 'जे महानिज्जरे' इत्यादि प्रत्यावर्त्तनमित्येकः प्रश्नः, तथा महावेदनस्य चाल्पवेदनस्य च मध्ये स श्रेयान् य: प्रशस्तनिर्जराक: कल्याणानुबन्धनिर्जर इत्येष च द्वितीयः प्रश्नः, प्रश्नता च काकुपाठादवगम्या, हन्तेप्याद्युत्तरं, इह च प्रथमप्रश्नस्योत्तरे महोपसर्गकाले भगवान् महावीरो ज्ञातं द्वितीयस्यापि स एवोपसर्गानुपसर्गावस्थायामिति। यो महावेदन: स महानिर्जर इति यदुक्तं तत्र व्यभिचारं शंकमान आह६/२ 'छट्ठी' त्यादि ६/४ 'दुद्धोयतराए' त्ति दुष्करतरधावनप्रक्रियं 'दुवामतराए' त्ति 'दुर्वाम्यतरकं' दुस्त्याज्यतरकलंक 'दुप्परिकम्मतराए' त्ति कष्टकर्त्तव्यतेजोजननभंगकरणादिप्रक्रिय, अनेन च विशेषणत्रयेणापि दुर्विशोध्यमित्युक्तं, 'गाढीकयाई' ति आत्मप्रदेशैः सह गाढबद्धानि सन् सूत्रगाढबद्धसूचीकलापवत् 'चिक्कणीकयाई' ति सूक्ष्मकर्मस्कन्धानां सरसतया परस्परं गाढसंबंधकरणतो दुर्भेदीकृतानि तथाविधमृत्पिण्डवत् 'सिलिट्ठीकयाई' ति निधत्तानि सूत्रबद्धाग्नितप्तलोहशलाकाकलापवत् 'खिलीभूतानि' अनुभूतिव्यतिरिक्तोपायान्तरेण क्षपयितुमशक्यानि निकाचितानीत्यर्थः। विशेषणचतुष्टयेनाप्येतेन दुर्विशोध्यानि भवन्तीत्युक्तं भवति, एवं च ‘एवामेवे' त्याधुपनयवाक्यं सुघटनं स्याद्, यतश्च तानि दुर्विशोध्यानि द्वितीय उद्देशकः अनन्तरोद्देशके य एते सवेदना जीवा उक्तास्ते आहारका अपि भवन्तीति ६/१८ आहारोद्देशक स च प्रज्ञापनायामिव दृश्यः, एवं चासौ-'नेरइयाणं भंते! किं सच्चित्ताहारा अच्चित्ताहारा मीसाहारा?' गोयमा! नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, नो मीसाहारा इत्यादि। ।। षष्टशते द्वितीयोद्देशकः ।। Jain Education Intemational Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६ : उ. ३ : सू.२०-३२ ५३२ भगवती वृत्ति तृतीय उद्देशकः अनन्तरोद्देशके पुद्गला आहारतश्चिन्तिता: इह तु बन्धादित: इत्येवंसम्बन्धस्य तृतीयोद्देशकस्यादावर्थसंग्रहगाथाद्वयम् १. "बहुकम्मवत्थपोग्गलपयोगसावीससा य सादीए। कम्मद्वितीत्थिसंजय सम्मट्ठिी य सन्नी य॥ २. भविए दंसण पज्जत्ते भासअपरित्त नाण जोगेय। उवओगाहारगसुहुमचरिमबंधी य अप्पबहुं॥" 'बहुकम्मे' त्यादि, 'बहुकम्म' त्ति महाकर्मणः सर्वत: पुद्गला बध्यन्ते इत्यादि वाच्यं, 'वत्थे पोग्गला पयोगसा वीससा य' त्ति यथा वस्त्रे पद्गलाः प्रयोगतो विश्रसातश्च चीयन्ते किमेवं जीवानामपीति वाच्यम्। 'साइए' त्ति वस्त्रस्य सादि: पुद्गलचयः एवं किं जीवानामप्यसौ? इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं च वाच्यम्—'कम्मट्ठिइ' ति कर्मस्थितिर्वाच्या, "थिइ' त्ति किं स्त्रीपुरुषादिर्वा कर्म बध्नाति? इति वाच्यम् , 'संजय' त्ति किं संयतादि:? 'सम्मदिट्ठि' ति किं सम्यग्दृष्ट्यादिः? एवं संज्ञी भव्यो दर्शनी पर्याप्तको भाषकः परीत्तो ज्ञानी योगी उपयोगी आहारकः सूक्ष्मः चरमः, 'बंधे य' त्ति एतानाश्रित्य बन्धो वाच्यः, 'अप्पबहु' ति एषामेव स्त्रीप्रभृतीनां कर्मबन्धकानां परस्परेणाल्पबहुता' वाच्येति। तत्र बहुकर्माद्वारे६/२० 'महाकम्मस्से' त्यादि महाकर्मणः स्थित्याद्यपेक्षया 'महाक्रियस्य' अलघुकायिक्यादिक्रियस्य, 'महाश्रवस्य' बृहन्मिथ्यात्वादिकर्मबन्धहेतुकस्य, 'महावेदनस्य' महापीडस्य ‘सर्वत:' सर्वासु दिक्षु सर्वान् वा जीवप्रदेशानाश्रित्य बध्यन्ते-आसंकलनत: चीयन्ते-बन्धनतः उपचीयन्ते-निषेकरचनतः, अथवा बध्यन्ते-बन्धनत: चीयन्ते-निधत्तत: उपचीयन्ते—निकाचनतः 'सया समियं' ति सदा सर्वदा' सदात्वं च व्यवहारतोऽसातत्येऽपि स्यादित्यत आह—'समितं सन्ततं 'तस्स आय' त्ति यस्य जीवस्य पुद्गला बध्यन्ते तस्यात्मा बाह्यात्मा शरीरमित्यर्थः। 'अणि?त्ताए' त्ति इच्छाया अविषयतया 'अकंतत्ताए' त्ति असुन्दरतया 'अप्पियत्ताए' त्ति अप्रेमहेतुतया 'असुभत्ताए' त्ति अमांगल्यतयेत्यर्थर: 'अमणुन्नताए त्ति न मनसा-भावतो ज्ञायते सुन्दरोऽयमित्य-मनोज्ञस्तद्भावस्तत्ता तया 'अमणामत्ताए' त्ति न मनसा-अम्यते-गम्यते संस्मरणतोऽमनोऽम्मस्तद्भावस्तत्ता तया 'अणिच्छियत्ताए' त्ति अनीप्सिततया प्राप्तुमनभिवांछितत्वेन, 'अभिज्झियत्ताए' ति भिध्या-लोभः सा संजाता यत्र सो भिध्यितो न भिध्यितोऽभिध्यितस्तद्भावस्तत्ता तया 'अहत्ताए' त्ति जघन्यतया 'नो उड्डत्ताए' त्ति न मुख्यतया । ६/२१ 'अहयस्स व' त्ति अपरिभुक्तस्य 'धोयस्स व' त्ति परिभुज्यापि प्रक्षालितस्य 'तंतुगयस्स व' त्ति तंत्रात्-तुरीवेमादेरपनीतमात्रस्य 'बझंती' त्यादिना पदत्रयेणेह वस्त्रस्य पुद्गलानां च यथोत्तरं सम्बन्धप्रकर्ष उक्तः। ६/२२ 'भिज्जति' त्ति प्राक्तनसम्बन्धविशेषत्यागात् 'विद्धंसंति' त्ति ततोऽधः पातात् 'परिविद्धंसंति' त्ति निःश्रेषतया पातात्, ६/२३ 'जल्लियस्स' त्ति जल्लितस्य यानलगतधर्मोपेतमलयुक्तस्य 'पंकियस्स' त्ति आर्द्रमलोपेतस्य 'मइल्लियस्स' त्ति कठिनमलयुक्तस्य 'रइल्लियस्स' ति रजोयुक्तस्य, 'परिकम्मिज्ज माणस्स' त्ति क्रियमाणशोधनार्थोपक्रमस्य।। ६/२४ वस्त्रेत्यादिद्वारे ‘पओगसा वीससा यत्ति छान्दसत्वात् 'प्रयोगेण पुरुषव्यापारेण 'विश्रसया' स्वभावेनेति। ‘जीवाणं कम्मोवचए पओगसा णो वीसस' त्ति प्रयोगेणैव अन्यथाऽप्रयोगस्यापि बन्धप्रसंगः। सादिद्वारे६/२९ 'ईरियावहियबंधयस्से' त्यादि, ईर्यापथो-गमनमार्गस्तत्र भवमैर्यापथिकं, केवलयोगप्रत्ययं कर्मेत्यर्थः तद्बन्धकस्योपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य सयोगिकेवलिनश्चेत्यर्थः, ऐर्यापथिककर्मणो हि अबद्धपूर्वस्य बन्धनात् सादित्वम्, अयोग्यवस्थायां श्रेणिप्रतिपाते वाऽबन्धनात् सपर्यवसितत्वम् ६/३२ 'गतिरागई पडुच्च' ति नारकादिगतौ गमनमाश्रित्य सादयः आगमनमाश्रित्य सपर्यवसिता इत्यर्थः 'सिद्धा गई पडुच्च साइया अपज्जवसिय' त्ति इहाक्षेपपरिहारावेवम्१. "साईअपज्जवसिया सिद्धा न य नाम तीयकालंमि। आसि कयाइवि सुण्णा सिद्धी सिद्धेहिं सिद्धते।। २. सव्वं साइ सरीरं, न य नामादि मय देहसब्भावो। कालाणाइत्तणओ जहा व राइंदियाइणं॥ ३. सव्वो साई सिद्धो न यादिमो विज्जइ तहा तं च। सिद्धि सिद्धा य सया निद्दिट्ठा रोहपुच्छाए।" 'तं च' ति तच्च सिद्धानादित्वमिष्यते, यत: “सिद्धी सिद्धा ये' त्यादीति। 'भवसिद्धिया लद्धि' मित्यादि भवसिद्धिकानां भव्यत्वलब्धिः सिद्धत्वेऽपैतीतिकृत्वाऽनादिः सपर्यवसिता चेति। कर्मस्थितिद्वारे १. स प्रतो बहुत्वता २. स प्रतौ अमंगल्यतयेत्यर्थः ३. अ प्रती विश्रसतया क्वचितमपि Jain Education Intemational Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ६ / ३४ 'तिणि य वाससहस्साइं अबाहा अबाहूणिया कम्मठिई कम्मनिगो 'ति' बाधृ लोडने बाधत इति बाधा - कर्मण उदयः न बाधा अबाधा --- कर्मणो बन्धस्योदयस्य चान्तरम् अबाधया— उक्तलक्षणया ऊनिका अबाधोनिका कर्म्मस्थिति: कर्मावस्थानकाल उक्तलक्षणः कर्मनिषेको भवति, तत्र कर्मनिषेको नाम कर्मदलिकस्यानुभवनार्थं रचनाविशेषः, तत्र च प्रथमसमये बहुकं निषिंचति द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदुत्कृष्टस्थितिकं कर्मदलिकं तावद्विशेषहीनं निषिंचति। तथा चोक्तम्— ५३३ १. "मोत्तूण सगमबाहं पढभाए ठिईए बहुतरं दव्वं । सेसे विसेसहीणं जा उक्कोसंति सव्वासिं ।। " इदमुक्तं भवति - बद्धमपि ज्ञानावरणं कर्म त्रीणि वर्ष सहस्राणि यावदवेद्यमानमास्ते, ततस्तन्न्यूनोऽनुभवनकालस्तस्य, सच वर्षसहस्त्रत्रयन्यूनस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीमान इति । 'अन्ये त्वाहुः—अबाधाकालो वर्षसहस्रत्रयमानो बाधा कालश्च सागरोपमकोटीकोटीत्रिंशल्लक्षणः तद्वितयमपि च कर्मस्थितिकाल:, स चाबाधाकालवर्जितः कर्मनिषेककालो भवति, एवमन्यकर्मस्वप्यबाधाकालो व्याख्येयो, नवरमायुषि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि निषेक:, पूर्वकोटीत्रिभागश्चाबाधाकाल इति । 'वेयणिज्जं जहणेणं दो समय त्ति केवलयोगप्रत्ययबन्धापेक्षया वेदनीयं द्विसमयस्थितिकं भवति, एकत्र बध्यते द्वितीये वेद्यते, यच्चोच्यते 'वेयणियस्स जहण्णा बारस नामगोयाण अट्ठ ( उ ) मुहुत्त 'त्ति तत्सकषायस्थितिबन्धमाश्रित्येति वेदितव्यमिति । स्त्रीद्वारे ६ / ३५ 'णाणावरणिज्जं णं भंते! कम्मं किं इत्थी बंधइ' इत्यादि प्रश्नः, तत्र न स्त्री न पुरुषो न नपुंसको वेदोदयरहितः, स चानिवृत्तिबादरसम्परायप्रभृतिगुणस्थानकवर्ती भवति, तत्र चानिवृत्तिबादरसम्परायसूक्ष्मसम्परायौ ज्ञानावरणीयस्य बन्धकौ सप्तविधषड्विधबन्धकत्वात् उपशान्तमोहादिष्वबंधक एकविधबन्धकत्वात्, अत उक्तं स्याद् बध्नाति स्यान्न बध्नातीति। ६ / ३६ 'आउगं णं भंते!' इत्यादिप्रश्नः, तत्र स्वयादित्रयमायुः स्याद् बध्नाति स्यान्न बध्नाति, बन्धकाले बध्नाति, अबन्धकाले तु नबध्नाति, आयुषः सकृदेवैकत्र भवे बन्धात्, निवृत्तस्त्र्यादिवेदस्तु न बध्नाति निवृत्तिबादरसम्परायादिगुणस्थानकेष्वायुर्बन्धस्य व्यवच्छिन्नत्वात्। संयतद्वारे ६/३७ 'णाणावरणिज्ज' मित्यादि, 'संयतः ' आद्यसंयमचतुष्टयवृत्तिर्ज्ञानावरणं बध्नाति यथाख्यातसंयतस्तूपशान्तमोहादिर्न Jain Education Intemational श. ६ : उ. ३ : सू. ३४-४० 'बध्नाति । अत उक्तं 'संजए सिये' त्यादि । असंयतो मिथ्यादृष्ट्यादिः संयतासंयतस्तु देशविरतस्तौ च बध्नीतः, निषिद्धसंयमादिभावस्तु सिद्धः । स च न बध्नाति हेत्वभावादित्यर्थः । 'आउगे हेल्ला तिन्नि भयणाएँ' त्ति संयतोऽसंयतः संयतासंयतचायुर्बन्धका बध्नाति अन्यदा तु नेति भजनयेत्युक्तम् 'उवरिल्ले ण बंधइ' त्ति संयतादिषूपरितनः सिद्धः स चायुर्न बध्नाति । सम्यग्दृष्टिद्वारे ६/३८ सम्मद्दिट्ठी सिय' त्ति सम्यग्दृष्टि: वीतरागस्तदितरश्च स्यात्तत्र वीतरागो ज्ञानावरणं न बध्नाति, एकविधबन्धकत्वात् इतरश्च नातीति स्यादित्युक्तं मिथ्यादृष्टिमिश्रदृष्टी तु बध्नीत एवेति, 'आउए हेट्ठिल्ला दो भयणाए' त्ति सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टि आयुः स्याद्बध्नीत स्याद् न बध्नीत इत्यर्थः तथाहिसम्यग्दृष्टिरपूर्वकरणादिरायुर्न बध्नाति इतरस्तु आयुर्बन्धकाले तद्बध्नाति अन्यदा तु न बध्नाति एवं मिथ्यादृष्टिरपि । मिश्र दृष्टिस्त्वायुर्न बध्नात्येव तद्बन्धाध्यवसायस्थानाभावादिति । संज्ञिद्वारे ६/३९ 'सण्णी सिय बंधइ' ति संज्ञी मनः पर्याप्तियुक्तः, स च यदि वीतरागस्तदा ज्ञानावरणं न बध्नाति यदि पुनरितरस्तदा बध्नाति ततः स्यादित्युक्तम् । 'असण्णी बंधइ' ति मनःपर्याप्तिविकलो बध्नात्येव 'नो सण्णी नो असण्णी' ति केवली सिद्धश्च न बध्नाति हेत्वभावात् । 'वेयणिज्जं हेट्ठिल्ला दो बंधंति' त्ति संज्ञी असंज्ञी च वेदनीयं बध्नीत अयोगीसिद्धवर्जानां तबन्धकत्वात्। 'उवरिल्ले भयणाए' त्ति उपरितनो नो संज्ञी नोअसंज्ञी, स च सयोगायोगकेवली सिद्धश्च । तत्र यदि सयोगकेवली तदा वेदनीयं बध्नाति । यदि पुनरयोगकेवली सिद्धो वा तदा न बध्नाति, अतो भजनयेत्युक्तम्। 'आउगं हेट्ठिल्ला दो भयणाए' त्ति संज्ञी असंज्ञी चायुः स्याद् बध्नीतः, अन्तर्मुहूर्त्तमेव तद्बन्धनात्। 'उवरिल्ले न बंधइ' त्ति केवली सिद्धश्चायुर्न बध्नातीति। भवसिद्धिकद्वारे— ६/४० ' भवसिद्धए भयणाए' त्ति भवसिद्धिको यो वीतरागः स न बध्नाति ज्ञानावरणं तदन्यस्तु भव्यो बध्नातीति भजनयेत्युक्तं । ‘नो भवसिद्धिए नोअभवसिद्धिए' त्ति सिद्धः । स च न बध्नाति । ‘आउयं दो हेट्ठिल्ला भयणाए’ त्ति भव्योऽभव्यश्चायुर्बन्धकाले बध्नीतोऽन्यदा तु न बध्नीत इत्यतो भजनयेत्युक्तम्। 'उवरिल्ले न बंधइ' त्ति सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः । दर्शनद्वारे Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. ३ : सू. ४१-५१ ६/४१ 'हेट्ठिल्ला तिणि भयणाए' त्ति चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनिनो यदि छद्मस्थवीतरागास्तदा न ज्ञानावरणं बध्नन्ति, वेदनीयस्यैव बन्धकत्वात्तेषां, सरागास्तु बध्नन्ति अतो भजनयेत्युक्तम् 'उवरिल्ले न बंधइ' त्ति केवलदर्शनी भवस्थः सिद्धो वा न बध्नाति, हेत्वभावादित्यर्थः ‘वेयणिज्जं हेट्ठिल्ला तिण्णि बंधंति' त्ति आद्यास्त्रयो दर्शनिनश्छद्मस्थवीतरागाः सरागाश्च वेदनीयं बध्नन्त्येव, 'केवलदंसणी भयणाए' त्ति केवलदर्शनी सयोगिकेवली बध्नाति अयोगिकेवली सिद्धश्च वेदनीयं न बध्नातीति भजनयेत्युक्तम्। पर्याप्तकद्वारे ६/४२ ‘पज्जत्तए भयणाए' त्ति पर्याप्तको वीतरागः सरागश्च स्यात्तत्र वीतरागो ज्ञानावरणं न बध्नाति, सरागस्तु बध्नाति ततो भजनयेत्युक्तम्। 'नोपज्जत्तए नोअपज्जत्तए न बंधइ' त्ति सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः । 'आउगं हेट्ठिल्ला दो भयणाए' त्ति पर्याप्तकापर्याप्तकौ आयुस्तद्बन्धकाले बध्नीतोऽन्यदा भजना । 'उवरिल्ले ने' त्ति सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः । भाषकद्वारे-नेति ६/४३ 'दो वि भयणाए' त्ति भाषको भाषालब्धिमांस्तद्न्यस्त्वभाषकः । तत्र भाषको वीतरागो ज्ञानावरणीयं न बध्नाति सरागस्तु बध्नाति, अभाषकस्त्वयोगी सिद्धश्च न बध्नाति । पृथिव्यादयो विग्रहगत्यापन्नाश्च बध्नन्तीति। 'दो वि भयणाए' इत्युक्तं 'वेयणिज्जं भासए बंधइ' त्ति सयोग्यवसानस्यापि भाषकस्य सवेदनीयबन्धकत्वात् 'अभासए भयणाए' त्ति अभाषकस्त्वयोगी सिद्धश्च न बध्नाति पृथिव्यादिकस्तु बध्नातीति भजना । परीत्तद्वारे -- ६/४४ 'परित भयणाए' त्ति 'परितः' प्रत्येकशरीरोऽल्पसंसारो वा स च वीतरागोऽपि स्यात् न चासौ ज्ञानावरणीयं बध्नाति सरागपरीतस्तु बध्नातीति भजना । 'अपरित्ते बंधइ' त्ति । 'अपरीत्त: ' साधारणकायोऽनन्तसंसारो वा, स च बध्नाति 'नोपरित्ते नो अपरित्ते न बंधइ' त्ति सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः 'आउयं परित्तोवि अपरित्तोवि भयणाए' त्ति प्रत्येकशरीरादिः आयुर्बन्ध काल एवायुर्बध्नातीति न तु सर्वदा ततो भजनेति । सिद्धस्तु न बध्नात्येवेत्यतः आह— 'णो परित्ते' इत्यादि । ज्ञानद्वारे ६/४५ 'हेट्ठिल्ला चत्तारि भयणाए' त्ति आभिनिबोधिकज्ञानिप्रभृतयश्चत्वारो ज्ञानिनो ज्ञानावरणं वीतरागावस्थायां न बध्नन्तीति सरागावस्थायां तु बध्नन्तीति भजना | 'वेयणिज्जं हेट्ठिल्ला चत्तारि बंधंति' त्ति वीतरागाणामपि छद्मस्थानां वेदनीयस्य ५३४ भगवती वृत्ति बन्धकत्वात् । 'केवलनाणी भयणाए' त्ति सयोगिकेवलिनां वेदनीयस्य बन्धनादयोगिनां सिद्धानां चाबंधनाद्भजनेति । योगद्वारे ६/४७ 'हेट्ठिल्ला तिण्णिभयणाए' त्ति मनोवाक्काययोगिनो ये उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनस्ते ज्ञानावरणं न बध्नन्ति, तदन्ये तु बध्नन्तीति भजना। 'अजोगी न बंधइ' त्ति अयोगी केवली सिद्धश्च न बध्नातीत्यर्थः । 'वेयणिज्जं हेट्ठिल्ला बंधंति' त्ति मनोयोग्यादयो बध्नन्ति सयोगानां वेदनीयस्य बन्धकत्वात् । 'अयोगी ण बंधइ' त्ति अयोगिनः सर्वकर्मणामबन्धकत्वादिति । उपयोगद्वारे ६/४८ 'अट्ठसुवि भयणाए' त्ति साकारानाकारेति भजनेति । आहारकद्वारे ६/४९ 'दोवि भयणाए' त्ति आहारको वीतरागोऽपि भवति न ज्ञानावरणं बध्नाति सरागस्तु बध्नातीति आहारको भजनया बध्नाति, तथाऽनाहारकः केवली विग्रहगत्यापन्नश्च स्यात्तत्र केवली न बध्नाति, इतरस्तु बध्नातीति, अनाहारकोऽपि भजनयेति । 'वेयणिज्जं आहारए बंधइ' त्ति अयोगिवर्जानां सर्वेषां वेदनीयस्य बन्धकत्वात् । 'अणाहारए भयणाए' त्ति अनाहारको विग्रहगत्यापन्नः समुद्घातगतकेवली च बध्नाति अयोगी सिद्धश्च न बध्नातीति भजना 'आउए आहारए भयणाए त्ति आयुर्बन्धकाल एवायुषो बन्धनात् अन्यदा त्वबंधनात् भजनेति । 'अणाहार ण बंधति' त्ति विग्रहगतिगतानामप्यायुष्कस्याबन्धकत्वादिति । सूक्ष्मद्वारे ६/५० 'बायरे भयणाए' त्ति वीतरागबादराणां ज्ञानावरणस्याबन्धकत्वात् सरागबादराणां च बन्धकत्वाद् भजनेति । सिद्धस्य पुनरबन्धकत्वादाह—‘नो सुहुमे' इत्यादि, 'आउ सुहुमे बायरे भयणाए' ति बन्धकाले बन्धनादन्यदा त्वबन्धनाद् भजनेति । चरमद्वारे ६/५१ 'अट्ठ वि भयणाए' त्ति इह यस्य चरमो भवो भविष्यति स चरमः। यस्य तु नासौ भविष्यति सोऽचरमः सिद्धश्चाचरमः, चरमभवाभावात्, तत्र चरमो यथायोगमष्टापि बघ्नाति अयोगित्वे तु नेत्येवं भजना। अचरमस्तु संसारी अष्टापि बध्नाति सिद्धस्तु, नेत्येवमत्रापि भजनेति । अथाल्पबहुत्त्वद्वारं, तत्र Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ६ / ५२ ' इत्थी वेयगा संखेज्जगुणे' त्ति यतो देवनरतिर्यक्पुरुषेभ्यः तस्त्रियः क्रमेण द्वात्रिंशत्सप्तविंशतित्रिगुणा द्वात्रिंशत्सप्तविंशतित्रिरूपाधिकाश्च भवन्तीति। 'अवेयगा अणंतगुण' त्ति अनिवृत्तिबादरसम्परायादयः सिद्धाश्चावेदा अत स्त्रीवेदेभ्योअनन्तगुणा भवन्ति । 'नपुंसगवेयगा अनंतगुण' त्ति अनन्तकायिकानां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानामिह गणनादिति । 'एएसिं सव्वेसि' मित्यादि 'एतेषां पूर्वोक्तानां संयतादीनां चरमान्तानां चतुर्दशानां द्वाराणां तद्गतभेदापेक्षया अल्पबहुत्त्वमुच्चारयितव्यम् । तद्यथा— एएसि णं भंते! संजयाणं असंजयाणं संजयासंजयाणं नोसंजयनोअसंजय नोसंजयासंजयाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा संजया संजयासंजया असंखेज्जगुणा नोसंजयनोअसंजयनोसंजयासंजया अनंतगुणा असंजया अनंतगुणा इत्यादि प्रज्ञापनानुसारेण वाच्यं यावच्चरमाद्यल्पबहुत्वं एतदेवाह—'जाव सव्वत्थोवा जीवा अचरिमें' त्यादि अत्राचरमा अभव्याः । चरमाश्च ये भव्याश्चरमं भवं प्राप्स्यन्ति— सेत्स्यस्यन्तीत्यर्थः ते चाचरमेभ्योऽनन्तगुणाः यस्माद् भव्येभ्यः सिद्धा अनन्तगुणा भणिताः, यावन्तश्च सिद्धास्तावन्त एव चरमाः यस्माद्यावन्तः सिद्धा अतीताद्धायां तावन्त एवं सेत्स्यन्त्यनागताद्धायामिति ।। ।। षष्ठशते तृतीयोद्देशकः ॥ ५३५ चतुर्थ उद्देशकः अनन्तरोद्देशके जीवो निरूपितोऽथ चतुर्थोद्देशकेऽपि तमेव भंग्यन्तरेण निरूपयन्नाह— ६/५४ 'जीवे ण' मित्यादि 'कालायसेणं' ति कालप्रकारेण कालमाश्रित्येत्यर्थः 'सपएसे' त्ति सविभागः 'नियमा सपएसे' त्ति अनादित्वेन जीवस्यानन्तसमयस्थितिकत्वात् सप्रदेशता, यो ह्येकसमयस्थितिः सोऽप्रदेशः, द्वयादिसमयस्थितिस्तु सप्रदेश: इह चानया गाथया भावना कार्या "जो जस्स पढमसमए वट्टति भावस्स सो उ अपदेसो । अणम्मि वट्टमाणो कालाएसेण सपएसो ॥' नारकस्तु यः प्रथमसमयोत्पन्नः सोऽप्रदेश: ट्र्यादिसमयोत्पन्नः पुनः सप्रदेशोऽत उक्तम् — ६/५५ 'सिय सप्पएसे सिय अप्पएसे' एष तावदेकत्वेन जीवादिः सिद्धावसानः षड्विंशतिदण्डकः कालतः सप्रदेशत्वादिना चिन्तितः, अथायमेव तथैव पृथक्त्वेन चिन्त्यते— श. ६ : उ. ३ : सू. ५२- उ. ४: सू. ६३ ६/५८ 'सव्वे वि ताव होज्ज सपदेस' त्ति उपपातविरहकालेऽसंख्यातानां पूर्वोत्पन्नानां भावात् सर्वेऽपि सप्रदेशा भवेयुः तथा पूर्वोत्पन्नेषु मध्ये यदैकोऽप्यन्यो नारक उत्पद्यते तदा तस्य प्रथमसमयोत्पन्नत्वेनाप्रदेशत्वात् शेषाणां च ट्र्यादिसमयोत्पन्नत्वेन सप्रदेशत्वाद् उच्यते - 'सपएसा य अपएसे य' त्ति एवं यदा बहव उत्पद्यमाना भवन्ति तदोच्यते 'सपएसा य अपएसा य' त्ति उत्पद्यन्ते चैकदैकादयो नारकाः, यदाह "एगो व दो व तिण व संखमसंखा व एगसमएणं । उववज्जन्तेवइया उव्वट्टंतावि एमेव ।। " ६/६० 'पुढविकाइया ण' मित्यादि एकेन्द्रियाणां पूर्वोत्पन्नानामुत्पद्यमानानां च बहूनां सम्भवात्, 'सपएसावि अपएसावी' त्युच्यते । ६ / ६२ 'सेसा जहा नेरइए' त्यादि यथा नारका अभिलापत्रयेणोक्तास्तथा शेषा द्वीन्द्रियादयः सिद्धावसाना वाच्याः सर्वेषामेषां विरहसंभवादेकाद्युत्पत्तेश्चेति । एवमाहारकानाहारकशब्दविशेषितावेतावेकत्वपृथक्त्वदण्डकावध्येयौ, अध्ययनक्रम श्चायम्- ६ / ६३ ' आहारए णं भंते! जीवे कालाएसेणं किं सपएसे अपएसे ? गोयमा ! सिय सपएसे सिय अपएसे' इत्यादि स्वधिया वाच्यः, तत्र यदा विग्रहे केवलिसमुद्घाते वाऽनाहारको भूत्वा पुनराहारकत्वं प्रतिपद्यते तदा तत्प्रथमसमयेऽप्रदेशो द्वितीयादिषु तु सप्रदेश इत्यत उच्यते ' सिय सपएसे सिय अपएसे' त्ति एवमेकत्वे सर्वेष्वपि सादिभावेषु, अनादिभावेषु तु नियमा सपएसे त्ति वाच्यम्। पृथक्त्वदण्डके त्वेवमभिलापो दृश्यः - आहारया णं भंते! जीवा काला सेणं किं सपएसा अपएसा ? गोयमा ! सपएसा वि अपएसावि 'त्ति तत्र बहूनामाहारकत्वेनावस्थितानां भावात्सप्रदेशत्वं, तथा बहूनां विग्रहगतेरनन्तरं प्रथमसमये आहारकत्वसंभवादप्रदेशत्वमप्याहारकाणां लभ्यत इति सप्रदेशा अपि अप्रदेशा अपीत्युक्तम्, एवं पृथिव्यादयोप्यध्येयाः । नरकादयः पुनर्विकल्पत्रयेण वाच्या:, तद्यथा - आहारयाणं भंते! नेरइया किं सपएसा अपएसा ? गोयमा! सव्वेऽवि ताव होज्ज सपएसा अहवा सपएसा य अपएसे य, अहवा सपएसा य अपएसा ये' त्ति। एतदेवाह - आहारगाणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो' जीवपदमेकेन्द्रियपदपंचकं च वर्जयित्वा त्रिकरूपो भंग: त्रिकभंगो-भंगत्रयं वाच्यमित्यर्थः, सिद्धपदं त्विह न वाच्यं तेषामनाहारकत्वात्, अनाहारकदण्डकद्वयमप्येवमनुसरणीयं तत्र अनाहारको विग्रहगत्यापन्नः समुद्घातगतकेवली अयोगी सिद्धो वा स्यात् स च अनाहारकत्वप्रथमसमयेऽप्रदेश: द्वितीयादिषु तु सप्रदेशस्तेन Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.४: सू.६३ ५३६ भगवती वृत्ति स्यात् सप्रदेश इत्याधुच्यते। पृथक्त्वदण्डके विशेषमाह'अणाहारगा ण' मित्यादि जीवानेकेन्द्रियांश्च वर्जयन्तीति जीवैकेन्द्रियवर्जा: तान् वर्जयित्वेत्यर्थः जीवपदे एकेन्द्रियपदे च 'सपएसा य अपएसाये' त्येवंरूप एक एव भंगको, बहूनां विग्रहगत्यापन्नानां सप्रदेशानामप्रदेशानां च लाभात्। नारकादीनां द्वीन्द्रियादीनां च स्तोकतराणामुत्पादः, तत्र चैकद्यादीनामनाहारकाणां भावात् षड्भंगिकासंभवः, तत्र द्वौ बहुवचनान्तौ अन्ये तु चत्वार एकवचनबहुवचनसंयोगात्, केवलैकवचनभंगकाविह न स्त:, पृथक्त्वस्याधिकृतत्वादिति। 'सिद्धेहिं तियभंगो' त्ति सप्रदेशपदस्य बहुवचनान्तस्यैव संभवात्, भवसिद्वी य अभवसिद्धी य जहा ओहिय' त्ति, अयमर्थःऔधिकदण्डकवदेषां प्रत्येकं दण्डकद्वयं, तत्र च भव्योऽभव्यो वा जीवो नियमात् सप्रदेश: नारकादिस्तु सप्रदेशोऽप्रदेशो वा, बहवस्तु जीवा: सप्रदेशा एव, नारकाद्यास्तु त्रिभंगवन्त: एकेन्द्रियाः पुनः सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येकभंगा एवेति, सिद्धपदं तु न वाच्यं, सिद्धानां भव्याभव्यविशेषणानुपत्तेरिति। तथा 'नो भवसिद्धि य नो अभवसिद्धि य', त्ति एतद्विशेषणं जीवादिदण्डकद्वयमध्येयम्। तत्र चाभिलाप:-'नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए णं भंते! जीवे सपएसे अपएसे इत्यादि, एवं पृथक्त्वदण्डकोऽपि केवलमिह जीवपदं सिद्धपदं चेति द्वयमेव नारकादिपदानां नोभव्यनोअभव्यविशेषणस्यानुपपत्तेरिति। इह च पृथक्त्वदण्डके पूर्वोक्तं भंगकत्रयमनुसतव्यमत एवाहजीवसिद्धेहिं तियभंगो त्ति। संज्ञिषु यौ दण्डको तयोर्द्वितीयदण्डके जीवादिपदेषु भंगत्रयं भवतीत्यत आह—'सण्णीहि' इत्यादि, तत्र संज्ञिनो जीवा: कालत: सप्रदेशा भवन्ति चिरोत्पन्नानपेक्ष्य उत्पादविरहानन्तरं चैकस्योत्पत्तौ तत्प्राथम्ये सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेति स्यात्। बहूनामुत्पत्तिप्राथम्ये तु सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेति स्यात्। तदेवं भंगकत्रयमिति। एवं सर्वपदेषु, केवलमेतयोर्दण्डकयोरेकेन्द्रियविकलेन्द्रियसिद्धपदानि न वाच्यानि, तेषु संज्ञिविशेषणस्यासंभवादिति। 'असन्नीहिं' इत्यादि, अयमर्थ:-असंज्ञिषु-असंज्ञिविषये द्वितीयदण्डके पृथिव्यादिपदानि वर्जयित्वा भंगकत्रयं प्राग्दर्शितमेव वाच्यम्। पृथिव्यादिपदेषु हि सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव, सदा बहूनामुत्पत्त्या तेषामप्रदेशबहुत्वस्यापि संभवात् , नैरयिकादीनां व व्यन्तरान्तानां संज्ञिनामप्यसंज्ञित्वमसंज्ञिभ्य उत्पादाद्भूतभावतयावसेयम्। तथा नैरयिकादिष्वसंज्ञित्वस्य कादाचित्कत्वेनैकत्वबहुत्वसंभवात् षड् भंगका भवन्ति, ते च दर्शिता एव, एतदेवाह-'नेरइयदेवमणुए' त्यादि, ज्योतिष्कवैमानिकसिद्धास्तु न वाच्यास्तेषामसंज्ञित्वस्यासंभवात्। तथा नोसंज्ञिनोअसंज्ञिविशेषणदण्डकयोर्द्वितीयदण्डके जीव मनुजसिद्धपदेषक्तरूपं भंगकत्रयं भवति, तेषु बहूनामवस्थितानां लाभादुत्पद्यमानानां चैकादीनि संभवादिति। एतयोश्च दण्डकयोर्जीवमनुजसिद्धपदान्येव भवन्ति। नारकादिपदानां नोसंज्ञीनोअसंज्ञीतिविशेषणस्याघटनादिति। सलेश्यदण्डकद्वये औघिकदण्डकवज्जीवनारकादयो वाच्याः। सलेश्यतायां जीवत्ववदनादित्वेन विशेषानुत्पादकत्वात् केवलं सिद्धपदं नाधीयते। सिद्धानामलेश्यलपति। कृष्णलेश्या नीललेश्या: कापोतलेश्याश्च जीवनारकादय. प्रत्येकं दण्डकद्वयेनाहारकजीवादिवदुपयुज्य वाच्याः, केवलं यस्य जीवनारकादेरेता: सन्ति स एव वाच्यः, एतदेवाह-'कण्हलेसे' त्यादि, एताश्च ज्योतिष्कवैमानिकानां न भवन्ति। सिद्धानां तु सर्वा न भवन्तीति तेजोलेश्याद्वितीयदण्डके जीवादिपदेषु त एव त्रयो भंगा: पृथिव्यब्वनस्पतिषु' पुन: षड् भंगाः। यत एतेषु तेजोलेश्या एकादयो देवा: पूर्वोत्पन्ना उत्पद्यमानाश्च लभ्यन्त इति। सप्रदेशानामप्रदेशानां चैकत्वबहुत्व संभव इति। 'एतदेवाहतेउलेसाए' इत्यादि इह नारकतेजोवायुविकलेन्द्रियसिद्धपदानि न वाच्यानि, तेजोलेश्याया अभावादिति। पद्मलेश्याशुक्ललेश्ययोर्द्वितीयदण्डके जीवादिषु पदेषु त एव त्रयो भंगकास्तदेवाह-'पम्हलेसे' इत्यादि, इह च पंचेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यवैमानिकपदान्येव वाच्यानि, अन्येष्वनयोरभावादिति, अलेश्यदण्डकयोर्जीवमनुष्य सिद्धपदान्येवोच्यन्ते। अन्येषामलेश्यत्वस्यासंभवात्। तत्र च जीवसिद्धयोभंगकत्रयं तदेवं, मनुष्येषु तु षड् भंगाः, अलेश्यतां प्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां मनुष्याणां संभवेन सप्रदेशत्वेऽप्रदेशत्वे चैकत्वबहुत्वसम्भवादिति, इदमेवाह-'अलेसीहिं' इत्यादि। सम्यग्दृष्टिदण्डकयो: सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिप्रथमसमयेऽप्रदेशत्वं द्वितीयादिषु तु सप्रदेशत्वम् तत्र द्वितीयदण्डके जीवादिपदेषु त्रयो भंगाः, तथैव विकलेन्द्रियेषु तु षड्यतस्तेषु सासादनसम्यग्दृष्टय एकादयः पूर्वोत्पन्ना उत्पद्यमानाश्च लभ्यन्तेऽत: सप्रदेशत्वाप्रदेशत्वयोरेकत्वबहत्वसम्भव इति। एतदेवाह - 'सम्मदिट्ठीही' त्यादि इहैकेन्द्रियपदानि न वाच्यानि, तेषु सम्यग्दर्शनाभावादिति। 'मिच्छद्दिट्ठीहिं' इत्यादि मिथ्यादृष्टिद्वितीयदण्डके जीवादिपदेषु तु त्रयो भंगा:-मिथ्यात्वं प्रतिपन्ना बहवः सम्यक्त्वभ्रंशे तत्प्रतिपद्यमानाश्चैकादय: सम्भवन्तीति कृत्वा, एकेन्द्रियपदेषु पुनः सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव, तेष्ववस्थितानामुत्पद्यमानानां च बहूनामेव भावादिति, इह च सिद्धा न वाच्याः, तेषां मिथ्यात्वाभावादिति। सम्यग्मिथ्यादृष्टिबहुत्वदण्डके 'सम्मामिच्छद्दिट्ठीहिं' छब्भंगा' अयमर्थः - सम्यमिथ्यादृष्टित्वं प्रतिपन्नका: प्रतिपद्यमानाश्चैकादयोऽपि लभ्यन्त इत्यतस्तेषु षड् भंगा भवन्तीति। इह चैकन्द्रिय १. अप्रतौ पृथिव्यंबुवनस्पतिषु Jain Education Intemational Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श.६ : उ.४ : सू.६३ विकलेन्द्रियसिद्धपदानि न वाच्यान्यसम्भावादिति। 'संजएहिं' इत्यादि संयतेषु संयतशब्दविशेषितेषु जीवादिपदेषु त्रिकभंगः', संयम प्रतिपन्नानां बहूनां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां भावात्, इह च जीवपदमनुष्यपदे एव वाच्ये, अन्यत्र संयतत्वाभावादिति, असंयतद्वितीयदण्डके 'असंजएहिं संजएहिं संजयासंजएहिं' इत्यादि इहासंयतत्वं प्रतिपन्नानां बहूनां संयतत्वादिप्रतिपातेन तत्प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां भावाद्भगकत्रयम् एकेन्द्रियाणां तु पूर्वोक्तयुक्त्या सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चैक एव भंग इति, इह सिद्धपदं नाध्येयमसंभवादिति। संयतासंयतबहुत्वदण्डकै 'संजयासंजएहिं' इत्यादि इह देशविरतिं प्रतिपन्नानां बहूनां संयमादसंयमाद् वा निवृत्य तां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां भावाद्भगकत्रयसम्भवः। इह जीवपंचेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यपदान्येवाध्येयानि, तदन्यत्र संयतासंयतत्वस्याभावादिति। नवरमिह जीवसिद्धपदे एव वाच्ये अत एवोक्तं 'जीवसिद्धेहिं तियभंगो' ति। 'सकसाईहिं जीवाइओ तिय भंगो' ति, अयमर्थ:-- सकषायाणां सदाऽवस्थितत्वात्ते सप्रदेशा इत्येको भंगः, तथोपशमश्रेणीत: प्रच्यवमानत्वे सकषायत्वं प्रतिपद्यमाना एकादयो लभ्यन्ते, ततश्च सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्च। तथा सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्यपरभंगकद्वयमिति, नारकादिषु तु प्रतीतमेव भंगकत्रयम्। ‘एगिदिएसु अभंगयं' ति भंगकानामभावोऽभंगकम्। सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव विकल्प इत्यर्थः, बहूनामवस्थितानामुत्पद्यमानानां च तेषु लाभादिति। इह च सिद्धपदं नाध्येयमकषायित्वात् एवं क्रोधादिदण्डकेष्वपि। 'कोहकसाईहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो' त्ति अयमर्थः क्रोधकषायिद्वितीयदण्डके जीवपदे प्रथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव भंगः शेषेषु त्रयः। ननु सकषायिजीवपदवत्कथमिह भंगत्रयं न लभ्यते? उच्यते इह मानमायालोभेभ्यो निवृत्ता: क्रोधं प्रतिपद्यमाना बहव एव लभ्यन्ते। प्रत्येकं तद्राशीनामनन्तत्वात्, न त्वेकादयो। यथोपशमश्रेणीत: प्रच्यवमाना: सकषायित्वं प्रतिपत्तार इति। 'देवेहिं छब्बभंग' त्ति देवपदेषु त्रयोदशस्वपि षड् भंगाः। तेषु क्रोधोदयवतामल्पत्वेनैकत्वे बहुत्वे च सप्रदेशाप्रदेशत्वयोः संभवादिति। मानकषायमायाकषायिद्वितीयदण्डके 'नेरइयदेवेहिं छब्बभंग' ति नारकाणां देवानां च मध्येऽल्पा एव मानमायोदयवन्तो भवन्तीति पूर्वोक्तन्यायात् षड् भंगा भवन्तीति। 'लोहकसाईहिं जीवेगेंदियवज्जो तिययंगो' त्ति एतस्य क्रोधसूत्रवद्भावना, 'नेरइएहि छब्भंग' त्ति नारकाणां लोभोदयवतामल्पत्वात्पूर्वोक्ता: षड् भंगा भवन्तीति। आह च"कोहे माणे माया बोद्धव्वा सुरगणेहिं छब्भंगा। माणे माया लोभे नेरइएहि पि छन्भंगा।" देवा लोभप्रचुरा, नारका: क्रोधः प्रचुरा इति। अकषायिद्वितीयदण्डके जीवमनुष्यसिद्धपदेषु भंगत्रयमन्येषामसंभवात्, एतदेवाह —'अकसाई' इत्यादि। 'ओहियनाणे आभिनिबोहियणाणे सुयनाणे जीवाईओ तियभंगो' त्ति, औघिकज्ञानं—मत्यादिभिरविशेषितं तत्र मतिश्रुतज्ञानयोश्च बहुत्वदण्डके जीवादिपदेषु त्रयो भंगाः पूर्वोक्ता भवन्ति, तत्रौघिकज्ञानमतिश्रुतज्ञानिनां सदाऽवस्थितत्वेन सप्रदेशानां भावात्, सप्रदेशा इत्येकः तथा मिथ्याज्ञानान्मत्यादिज्ञानमात्रं मत्यज्ञानान्मतिज्ञानं श्रुताज्ञानाच्च श्रुतज्ञानं प्रतिपद्यमानानामेकादीनां लाभात्सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्च तथा सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्चेति द्वावित्येवं त्रयमिति। 'विगलेंदिएहिं छब्भंग' त्ति द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु सासादनसम्यक्त्वसंभवेनाभिनिबोधिकादिज्ञानिनामेकादीनां सम्भवात्त एव षड्भंगा:, इह च यथायोगं पृथिव्यादयः सिद्धाश्च न वाच्याः, असम्भवादिति, एवमवध्यादिष्वपि भंगत्रयभावना, केवलमवधिदण्डकयोरेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया: सिद्धाश्च न वाच्या:। मन:पर्यायदण्डकयोस्तु जीवा मनुष्याश्च वाच्या:, केवलदण्डकयोस्तु जीवमनुष्यसिद्धा वाच्याः। अतएव वाचनान्तरे दृश्यते 'विण्णेयं जस्स जं अत्थि' त्ति। 'ओहिए अन्नाणे' इत्यादि, सामान्येऽज्ञाने मत्यज्ञानादिभिरविशेषिते मत्यज्ञाने श्रुताज्ञाने च जीवादिषु त्रिभंगी भवति। एते हि सदाऽवस्थितत्वात्सप्रदेशा इत्येकः। यदा तु तदन्ये ज्ञानं विमुच्य मत्यज्ञानादितया परिणमन्ति तदैकादिसंभवेन सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्चेत्यादिभंगद्वयमित्येवं भंगत्रयमिति, पृथिव्यादिषु तु सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्चेत्येक एवेत्यत आह‘एगिंदयवज्जो तियभंगो' त्ति इह च त्रयेऽपि सिद्धा न वाच्याः, विभंगे तु जीवादिषु भंगत्रयं तद्भावना च मत्यज्ञानादिवत्, केवलमिहैकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः सिद्धाश्च न वाच्या इति। 'सजोई जहा ओहिओ' ति सयोगी जीवादिदण्डकद्वयेऽपि तथा वाच्यो यथौघिको जीवादिः, स चैवम्-सयोगी जीवो नियमात्सप्रदेशो नारकादिस्तु सप्रदेशोऽप्रदेशो वा। बहवस्तु जीवा: सप्रदेशा एव, नारकाद्यास्तु त्रिभंगवन्त:, एकेन्द्रिया: पुनस्तृतीयभंगा इति, इह सिद्धपदं नाध्येयम्। 'मणजोई' इत्यादि मनोयोगिनो योगत्रयवन्त: संज्ञिन इत्यर्थः। वाग्योगिन एकेन्द्रियवर्जा: काययोगिनस्तु सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयः एतेषु च जीवादिषु त्रिविधो भंगः। तद्भावना च मनोयोग्यादीनामवस्थितत्वे प्रथमः। अमनोयोगित्वादित्यागाच्च मनोयोगित्वाधुत्पादेनाप्रदेशत्वलाभेऽन्यद्भगकद्वयमिति नवरं काययोगिनो ये एकेन्द्रियास्तेष्वभंगकं, सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेत्येक एव भंगक इत्यर्थः, एतेषु च योगत्रयदण्डकेषु जीवादिपदानि यथासंभव १. अप्रतौ त्रिभंगा: Jain Education Intemational Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.४: सू. ६३ ५३८ भगवती वृत्ति मध्येयानि सिद्धपदं च न वाच्यमिति। 'अजोगी जहा अलेस' त्ति दण्डकद्वयेऽप्यलेश्यसमवक्तव्यत्वात्तेषां, ततो द्वितीयदण्डकेऽयोगिषु जीवसिद्धपदयो गकत्रयं मनुष्येषु च षड्भंगीति। 'सागारे' त्यादि साकारोपयुक्तेष्वनाकारोपयुक्तेषु च नारकादिषु त्रयो भंगाः, जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव। तत्र चान्यतरोपयोगादन्यतरगमने, प्रथमेतरसमयेष्वप्रदेशत्वसप्रदेशत्वे भावनीये, सिद्धानां त्वेकसमयोपयोगित्वेऽपि साकारस्येतरस्य चोपयोगस्यासकृत्प्राप्त्या सप्रदेशत्वं सकृत्प्राप्त्या चाप्रदेशत्वमवसेयम्, एवं चासकृदवाप्तसाकरोपयोगान् बहुनाश्रित्य सप्रदेशा इत्येको भंग: तानेव सकृदवाप्तसाकारोपयोगं चैकमाश्रित्य द्वितीय तथा तानेव सकृदवाप्तसाकारोपयोगांश्च बहूनधिकृत्य तृतीयः। अनाकारोपयोगे त्वसकृत्प्राप्तानाकारोपयोगानाश्रित्य प्रथमः। तानेव सकृत्प्राप्तानाकारोपयोगं चैकमाश्रित्य द्वितीयः। उभयेषामप्यनेकत्वे तृतीय इति। 'सवेयगा जहा सकसाइ' ति सवेदानामपि जीवादिपदेषु भंगकत्रयभावात्, एकेन्द्रियेषु चैकभंगसद्भावात् इह च वेदप्रतिपन्नान् बहून श्रेणिभ्रंशे च वेदं प्रतिपद्यमानकादीनपेक्ष्य भंगकत्रयं भावनीयम्। 'इत्थीवेयगे' त्यादि इह वेदाद्वेदान्तरसंक्रान्तौ प्रथमे समयेऽप्रदेशत्वमितरेषु च सप्रदेशत्वमवगम्य। भंगकत्रयं पूर्ववद्योज्यं नपुंसकवेददण्डकयोस्त्वेकेन्द्रियेष्वेको भंग: सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येवंरूप: प्रागुक्तयुक्तेरेवेति। स्त्रीदण्डकपुरुषदण्डकेषु देवपंचेन्द्रियरतियमनुष्यपदान्येव, नपुंसकदण्डकयोस्तु देववर्जानि वाच्यानि, सिद्धपदं च सर्वेष्वपि न वाच्यमिति। 'अवेयगा जहा अकसाइ' त्ति जीवमनुष्यसिद्धपदेषु भंगकत्रयमकषायिवद्वाच्यमित्यर्थः। 'ससरीरी जहा ओहिओ' त्ति औधिकदण्डकवत्सशरीरिदण्डकयोर्जीवपदे सप्रदेशतैव वाच्याऽनादित्वात्सशरीरत्वस्य नारकादिषु तु बहुत्वे भंगकत्रयमेकेन्द्रियेषु तृतीयभंग इति। 'ओरालियवेउव्वियसरीराणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो' त्ति औदारिकादिशरीरिसत्त्वेषु जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च बहुत्वे तृतीयभंग एव, बहूनां प्रतिपत्राना प्रतिपधमानानां चानुक्षणं लाभात् शेषेषु भंगकत्रयं बहूनां तेषु प्रतिपन्नानां तथौदारिकवैक्रियत्यागेनौदारिकं वैक्रियं च प्रतिपद्यमानानामेकादीनां लाभात् इहौदारिकदण्डकयो रका देवाश्च न वाच्याः। वैक्रियदण्डकयोस्तु पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिविकलेन्द्रिया न वाच्याः। यश्च वैक्रियदण्यके एकेन्द्रियपदे तृतीयभंगोऽभिधीयते स वायूनामसंख्यातानां प्रतिसमयं वैक्रियकरणमाश्रित्य, यद्यपि पंचेन्द्रियतिर्यंचो मनुष्याश्च वैक्रियलब्धिमन्तोऽल्पे, तथाऽपि भंगकत्रय वचनसामर्थ्याद् बहूनां वैक्रियावस्थानसंभवः, तथैकादीनां तत्प्रतिपद्यमानता चावसेया, 'आहारगे' त्यादि आहारकशरीरे जीवमनुष्ययोः षड् भंगका: पूर्वोक्ता एव, आहारकशरीरिणामल्पत्वात् , शेषजीवानां तु तन्न संभवतीति। 'तेयगे' त्यादि तेजसकामणशरीरे समाश्रित्य जीवादयस्तथा वाच्या यथौघिकास्त एव, तत्र च जीवाः सप्रदेशा एव वाच्याः, अनादित्वात्तैजसादिसंयोगस्य, नारकादयस्तु त्रिभंगा: एकेन्द्रियास्तु तृतीयभंगाः, एतेषु च शरीरादिदण्डकेषु सिद्धपदं नाध्येयमिति। 'असरीरे' त्यादि अशरीरेषु जीवादिषु सप्रदेशतादित्वेन वक्तव्येषु जीवसिद्धपदयो पूर्वोक्ता त्रिभंगी वाच्या। अन्यत्राशरीरत्वस्याभावादिति। 'आहारपज्जत्तीए' इत्यादि इह जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च बहूनामाहारादिपर्याप्तिः प्रतिपन्नानां तद्पर्याप्तित्यागेनाहारपर्याप्त्यादिभिः पर्याप्तिभावं गच्छतां च बहूनामेव लाभात्सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेत्येक एव भंग: शेषेष तु त्रयो भंगा इति। 'भासामणे' त्यादि इह भाषामनसोः पर्याप्तिर्भाषामन:पर्याप्तिः, भाषामन:पर्याप्त्योस्तु बहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वं विवक्षितं, ततश्च तथा पर्याप्तका यथा संज्ञिनस्तथा सप्रदेशादितया वाच्याः, सर्वपदेषु भंगकत्रयमित्यर्थः, पंचेन्द्रियपदान्येव चेह वाच्यानि। पर्याप्तीनां चेदं स्वरूपमाहुः-येन करणेन भुक्तमाहारं खलं रसं च कर्तुं समर्थो भवति तस्य करणस्य निष्पत्तिराहारपर्याप्ति: करणं शक्तिरिति पर्यायौ, तथा शरीरपर्याप्ति म येन करणेनौदारिकवैक्रियाहारकाणां शरीराणां योग्यानि द्रव्यणि गृहीत्वौदारिकादिभावेन परिणमयति तस्य करणस्य निर्वृत्ति: शरीरपर्याप्तिरिति, तथा येन करणेनैकादीनामिन्द्रियाणां प्रायोग्याणि द्रव्याणि गृहीत्वाऽऽत्मीयान् विषयान् ज्ञातुं समर्थो भवति तस्य करणस्य निर्वृत्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः, तथा येन करणेनानप्राणप्रायोग्याणि द्रव्याण्यवलम्ब्यावलम्ब्यानप्राणतया नि:स्रष्टुं समर्थों भवति तस्य करणस्य निर्वृत्तिरानप्राणपर्याप्तिरिति, तथा येन करणेन सत्यादिभाषाप्रायोग्याणि द्रव्याण्यवलम्ब्यावलम्ब्य चतुर्विधया भाषया परिणमय्य भाषानिसर्जनसमथों भवति तस्य करणस्य निष्पत्तिभाषापर्याप्तिरिति, तथा येन करणेन चतुर्विधमनोयोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा मननसमर्थो भवति तस्य करणस्य निष्पत्तिर्मन:पर्याप्तिरिति। 'आहार अप्पज्जत्तीए' इत्यादि इह जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेत्येक एव भंगकोऽनवरतं, विग्रहगतिमतामाहारपर्याप्तिमतां बहूनां लाभात्, शेषेषु च षड् भंगा: पूर्वोक्ता एवाहारपर्याप्तिमतामल्पत्वात्। 'सरीरअपज्जत्तीए' इत्यादि इह जीवष्वेकेन्द्रियेषु चैक एव भंगोऽन्यत्र तु त्रयम्। शरीराद्यपर्याप्तकानां कालत: सप्रदेशानां सदैव लाभात् अप्रदेशानां च कदाचिदेकादीनां लाभात्, नारकदेवमनुष्येषु च Jain Education Intemational Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५३९ श.६ : उ.४: सू.६३-उ.५: सू.७४ त्यादि जीवपदे जीवा: प्रत्याख्यानादित्रयनिबद्धायुष्का वाच्याः। वैमानिकपदे च वैमानिका अप्येवं प्रत्याख्यानादित्रयवतां तेषूत्पादात् ‘अवसेस' त्ति नारकादयोऽप्रत्याख्याननिर्वृत्तायुषो, यतस्तेषु तत्त्वेनाविरता एवोत्पद्यन्त इति। उक्तार्थसंग्रहगाथा--'पच्चक्खाण' मित्यादि, प्रत्याख्यानमित्येतदर्थ एको दण्डकः, एवमन्ये त्रयः।। ।। षष्ठे शते चतुर्थोद्देशकः ।। षडेवेति। 'भासे' त्यादि भाषामनोऽपर्याप्त्याऽपर्याप्तकास्ते येषां जातितो भाषामनोयोग्यत्वे सति तदसिद्धिः, ते च पंचेन्द्रिया एव। यदि पुनर्भाषामनसोरभावमात्रेण तदपर्याप्तका अभविष्यस्तदैकेन्द्रिया अपि तेऽभविष्यंस्ततश्च जीवपदे तृतीय एव भंग: स्यात्, उच्यते च-'जीवाइओ तियभंगो' त्ति तत्र जीवेषु पंचेन्द्रियतिर्यक्षु च बहूनां तदपर्याप्तिं प्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां लाभात् पूर्वोक्तमेव भंगत्रयं, नेरइयदेवमणुएसु छब्भंग 'त्ति नैरयिकादिषु मनोऽपर्याप्तिकानामल्पतरत्वेन सप्रदेशाप्रदेशानामेकादीनां लाभात्त एव षड् भंगाः, एषु च पर्याप्त्यपर्याप्तिदण्डकेषु सिद्धपदं नाध्येयमसंभवादिति। पूर्वोक्तद्वाराणां संग्रहगाथा 'सपएसे' त्यादि, 'सपएस' त्ति कालतो जीवा: सप्रदेशा: इतरे चैकत्वबहुत्वाभ्यामुक्ताः, 'आहारग' त्ति आहारका अनाहारकाश्च तथैव, 'भविय' त्ति भव्या अभव्या उभयनिषेधाश्च तथैव, 'सण्णि' त्ति संज्ञिनोऽसंज्ञिनो द्वयनिषेधवन्तश्च तथैव, 'लेस' त्ति सलेश्याः कृष्णादिलेश्या:६, अलेश्याश्च तथैव, 'दिद्वि' त्ति दृक् दृष्टिः सम्यग्दृष्ट्यादिका ३ तद्वन्तस्तथैव 'संजय' त्ति संयता असंयता मिश्रास्त्रय निषेधिनश्च तथैव, 'कसाय' त्ति कषायिण: क्रोधादिमन्तः४ अकषायाश्च तथैव 'नाणे त्ति ज्ञानिन: आभिनिबोधिकादिज्ञानिन: ५ अज्ञानिनो मत्यज्ञानादिमन्तश्च तथैव 'जोग' त्ति सयोगा:, मनआदियोगिन: अयोगिनश्च तथैव, 'उवओगे' ति साकारानाकारोपयोगास्तथैव, 'वेद' त्ति सवेदाः स्त्रीवेदादिमन्तः३ अवेदाश्च तथैव ‘ससरीर' त्ति सशरीरा औदारिकादिमन्त:५ अशरीराश्च तथैव ‘पज्जत्ति' त्ति आहारादिपर्याप्तिमन्तः५ तदपर्याप्तकाश्च५ तथैवोक्ता इति। जीवाधिकारादेवाह६/६४ 'जीवा ण' मित्यादि 'पच्चक्खाणि' त्ति सर्वविरता: 'अपच्चक्खाणि' त्ति अविरताः। 'पच्चक्खाणापच्चक्खाणि' त्ति देशविरता इति। ६/६५ 'सेसा दो पडिसेहेयव्व' त्ति प्रत्याख्यानदेशप्रत्याख्याने प्रतिषेधनीये, अविरतत्वान्नारकादीनामिति। प्रत्याख्यानं च तज्ज्ञाने सति स्यादिति ज्ञानसूत्रं, तत्र च ६/६६ 'जे पंचिंदिया ते तिण्णिवि' त्ति नारकादयो दण्डकोक्ता: पंचेन्द्रिया: समनस्कत्वात् सम्यग्दृष्टित्वे सति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानादित्रयं जानन्तीति। 'अवसेसे' त्यादि एकेन्द्रियविकलेन्द्रिया: प्रत्याख्यानादित्रयं न जानन्त्यमनस्कत्वादिति। ६/६७ कृतं च प्रत्याख्यानं भवतीति तत्करणसूत्रं, ६/६८ प्रत्याख्यानमायुर्बन्धहेतुरपि भवतीत्यायुः सूत्र, तत्र च 'जीवा ये' पञ्चम उद्देशकः अनन्तरोद्देशके सप्रदेशा जीवा उक्ताः, अथ सप्रदेशमेव तमस्कायादिकं प्रतिपादयितुं पंचमोद्देशकमाह६/७० किमिय' मित्यादि ‘तमुक्काए' त्ति तमसां-तमिश्रपुद्गलानां कायो-राशिस्तमस्कायः स च नियत एवेह स्कन्धः काश्चिद्विवक्षितः, स च तादृशः पृथ्वीरज: स्कन्धो वा स्यादुदकरज:स्कन्धो वा न त्वन्यस्तदन्यस्यातादृशत्वादिति, पृथिव्यविषयसन्देहादाह-'किं 'पुढवी' त्यादि, व्यक्तम् ६/७१ 'पुढविकाए ण' मित्यादि, पृथिवीकायोऽस्त्येककः कश्चिच्छुभो -भास्वर:, य: किंविधः? इत्याह-देशं विवक्षितक्षेत्रस्य प्रकाशयति भास्वरत्वान्मण्यादिवत् तथाऽस्त्येककः पृथवीकायो देश-पृथवीकायान्तरं प्रकाश्यमपि न प्रकाशयत्यभास्वरत्वादन्धोपलवत् नैवं पुनरप्कायस्तस्य सर्वस्याप्यप्रकाशत्वात्, ततश्च तमस्कायस्य सर्वथैवाप्रकाशकत्वादप्कायपरिणामतैव ‘एगपएसियाए' त्ति एक एव च न यादय औत्तराध्यं प्रति प्रदेशो यस्यां सा तथा तया, समभित्तितयेत्यर्थः, न च वाच्यमेकप्रदेशप्रमाणयेति, असंख्यातप्रदेशावगाहस्वभावत्वेन जीवानां तस्यां जीवावगाहाभावप्रसंगात्। तमस्कायस्य च स्तिबुकाकाराप्कायिकजीवात्मकत्वात् बाहल्यमानस्य च प्रतिपादयिष्यमाणत्वादिति ‘एत्थं णं' ति प्रज्ञापकालेख्य लिखितस्यारुणोदसमुद्रादेरधिकरणतोपदर्शनार्थमुक्तत्वान्, ६/७३ 'अहे' इत्यादि अध:-अधस्तान्मल्लकमूलसंस्थित: शरावबुध्नसंस्थानः, समजलान्तस्योपरि सप्तदश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि यावद्वलयसंस्थानत्वात् स्थापना ६/७२ ६/७४. 'केवइयं विक्खंभेणं' ति विस्तारेण क्वचिद् ‘आयामविक्खंभेणं' ति दृश्यते, तत्र चायाम-उच्चत्वमिति। 'संखेज्जवित्थडे' १. प्रकाशित अभयदेवीया वृत्ति के अनुसार कृष्णादिलेश्या: पद तक ग्रन्थ परिमाण ६००० (छह हजार) है। २. अप्रतौ प्रज्ञापकालेख्यलिखितस्यारुणादयसमुद्रा .. Jain Education Intemational Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.५:सू.७४-१०३ ५४० भगवती वृत्ति इत्यादि संख्यातयोजनविस्तृतः आदित आरभ्य ऊर्ध्वं संख्येययोजनानि यावत्ततोऽसंख्यातयोजनविस्तृत उपरि तस्य विस्तारगामित्वेनोक्तत्वात्। 'असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं' ति संख्यातयोजनविस्तृत्वेऽपि तमस्कायस्यासंख्याततमद्वीपपरिक्षेपतो बृहत्तरत्वात् परिक्षेपस्यासंख्यातयोजनसहस्रप्रमाणत्वम्। आन्तरबहिः परिक्षेपविभागस्तु नोक्तः, उभयस्याप्यसंख्याततया तुल्यत्वादिति। ६/७५ 'देवे ण' मित्यादि अथ किं पर्यन्तमिदं देवस्य महद्धर्यादिकं विशेषणम्? इत्याह----'जाव इणामेवे' त्यादि, इह यावच्छब्द ऐदम्पर्यार्थः। यतो देवस्य महादिविशेषणानि गमनसामर्थ्यप्रकर्षप्रतिपादनाभिप्रायेणैव प्रतिपादितानि। 'इणामेव इणामेवत्तिकट्ट' इदं गमनमेवम्-अतिशीघ्रत्वावेदक चप्पुटिकारूपहस्तव्यापारोपदर्शनपरम्, अनुस्वाराश्रवणं च प्राकृतत्वात्, द्विर्वचनं च शीघ्रत्वातिशयोपदर्शनपरमिति: उपदर्शनार्थ: कृत्वा विधायेति 'केवलकप' ति केवलज्ञानकल्पं परिपूर्णमित्यर्थः। वृद्धव्याख्या तु-केवल: संपूर्ण: कल्पत इति कल्पः-स्वकार्यकरणसमर्थो वस्तुरूप इति यावत्, केवलश्चासौ कल्पश्चेति केवलकल्पस्तम् 'तिहिं अच्छरानिवाएहिं' ति तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरित्यर्थः 'तिसत्तखुत्तो' त्ति त्रिगुणा: सप्त त्रिसप्त त्रिसप्तवारांस्त्रिसप्रकृत्व एकविंशतिवारानित्यर्थः 'हव्वं' त्ति शीघ्रम् 'अत्थेगइय' मित्यादि संख्यातयोजनमानं व्यतिव्रजेदितरं तु नेति । ६/७८ 'ओराला बलाहय' ति महान्तो मेघाः, 'संसेयंति' त्ति संस्विद्यन्ते तज्जनक पुद्गलस्नेहसम्पत्त्या संमूर्च्छन्ति तत्पुद्गलमीलनात्त दाकारतयोत्पत्तेः। ६/७९ 'तं भंते!' त्ति तत् संस्वेदनं समूर्च्छनं वर्षणं च। ६/८० 'बायरे विज्जुयारे' त्ति इह न बादरतेजस्कायिका मन्तव्याः, इहैव तेषां निषेत्स्यमाणत्वात्, किन्तु देवप्रभावजनिता भास्वरा: पुद्गलास्त इति, ६/८२ ‘णण्णत्थ विग्गहगईसमावण्णेणं' ति न इति योऽयं निषेधो बादरपृथिवीतेजसो: सोऽन्यत्र विग्रहगतिसमापन्नत्वाद्विग्रहगत्यैव बादरे ते भवतः, पृथिवी हि बादरा रत्नप्रभाद्यास्वष्टासु पृथिवीषु गिरिविमानेषु, तेजस्तु मनुजक्षेत्र एवेति, तृतीया चेह पञ्चम्यर्थे प्राकृत्वादिति। ६/८३ 'पलियस्सओ पुण अत्थि' त्ति परिपार्श्वत: पुन: सन्ति तमस्कायस्य चन्द्रादय इत्यर्थः। ६/८४ 'कादूसणिया पुण सा' इति ननु तत्पार्श्वतश्चन्द्रादीनां सद्भावात्तत्प्रभाऽपि तत्रास्ति? सत्यं, केवलं कम्- आत्मानं दूषयति तमस्कायपरिणामेन परिणमनात् कदूषणा सैव कदूषणिका, दीर्घता च प्राकृतत्वात् अत: सत्यप्यसावसतीति। ६/८५ 'काले ति कृष्ण: 'कालोभासे' त्ति कालोऽपि कश्चित् कृतोऽपि कालो नावभासत इत्यत आह—कालावभास: कालदीप्तिर्वा, 'गंभीरलोमहरिसजणणे' त्ति गंभीरश्चासौ भीषणत्वाद्रोमहर्षजननश्चेति गंभीररोमहर्षजनन: रोमहर्षजनकत्वे हेतुमाह-- 'भीमे' त्ति भीष्मः 'उत्तासणए' त्ति उत्कम्पहेतुः निगमयन्नाह‘परमे' त्यादि, यत एवमत एवाह--'देवेवि ण' मित्यादि, 'तप्पढमयाए' त्ति दर्शनप्रथमतायां 'खुभाएज्ज' त्ति 'स्कम्नीयात्' क्षुभ्येत्, 'अहे ण' मित्यादि अथैनं तमस्कायम् अभिसमागच्छेत् प्रविशेत्ततो भयात् 'सीहं सीहं' ति कायगतेरतिवेगेन 'तुरियं तुरियं' ति मनोगतेरतिवेगात्, किमुक्तं भवति? क्षिप्रमेव, 'वीइवएज्ज' त्ति व्यतिव्रजेदिति। ६/८६. 'तमे ति वे' त्यादि तम: अन्धकाररूपत्वात् इत्येतत् वा विकल्पार्थः तमस्काय इति वाऽन्धकारराशिरूपत्वात् अन्धकारमिति वा तमोरूपत्वात् महान्धकारमिति वा महातमोरूपत्वात् लोकान्धकारमिति वा लोकमध्ये तथाविधस्यान्यस्यान्धकारस्याभावात्, एवं लोकतमिश्रमिति वा, देवान्धकारमिति वा देवानामपि तत्रोद्योताभावेनान्धकारात्मकत्वात्, एवं देवतमिश्रमिति वा, देवारण्यमिति वा, बलवद्देवभयान्नश्यतां देवानां तथाविधारण्यमिव शरणभूतत्वात्, देवव्यूह इति वा देवानां दुर्भेदत्वादव्यूह इव चक्रादिव्यूह इव देवव्यूहः देवपरिघ इति वा देवानां भयोत्पादकत्वेन गमनविघातहेतुत्वात् देवप्रतिक्षोभ इति वा तत्क्षोभहेतुत्वात् अरुणोदक इति वा समुद्रः, अरुणोदक समुद्रजलविकारत्वादिति। पूर्व पृथिव्यादेस्तमस्कायशब्दवाच्यता पृष्टा, अथ पृथिव्यप्कायपर्यायतां पृथिव्यप्कायौ च जीवपुद्गलरूपाविति तत्पर्यायतां च प्रश्नयनाह६/८७ 'तमुक्काए ण' मित्यादि बादरवायुवनस्पतयस्त्रसाश्च तत्रोत्पद्यन्तेऽपकाये तदुत्पत्तिसंभवात्र त्वितरेऽस्वस्थानत्वात् अत उक्तं ६/८८ ‘णो चेव ण' मित्यादि। तमस्कायसादृश्यात्कृष्णराजिप्रकरणम्६/८९ 'कण्हराईओ' ति कृष्णवर्णपदगलरेखा: ६/९० 'हव्विं' ति समं किलेति वृत्तिकारः प्राह 'अक्खाडगे' त्यादि इह आखाटक:-प्रेक्षास्थाने आसनविशेषलक्षणस्तत्संस्थिताः स्थापना चेयम्६/९६ ‘णो असुरो' इत्यादि असुरनागकुमाराणां तत्र गमनासंभवादिति। ६/१०३ 'कण्हराईति व' त्ति पूर्ववत्, मेघराजीति वा कालमेघरे Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५४१ श.६ : उ.५ : सू.१०३- उ.७: सू.१२९ लोकान्तः प्रज्ञप्त इति। ॥ षष्ठशते पञ्चमोद्देशकः ।। खातुल्यत्वात्, मधेति वा तमिश्रतया षष्ठनारकपृथवीतुल्यत्वात् माघवतीति वा तमिश्रतयैव सप्तमनरकपृथिवीतुल्यत्वात् 'वायफलिहे इव' त्ति वातोऽत्र वात्या तद्वद्वातमिश्रत्वात् परिघश्च दुर्लंघ्यत्वात् सा वातपरिघ: 'वायपरिक्खोभे इ व' त्ति वातोऽत्रापि वात्या तद्वद्वातमिश्रत्वात् परिक्षोभश्च परिक्षोभहेतुत्वात् सा वातपरिक्षोभ इति, 'देवफलिहे इ व' त्ति क्षोभयति देवानां परिघ इव–अर्गलेव दुर्लध्यत्वाद्देवपरिघ इति 'देवपलिक्खोभे इव' त्ति देवानां परिक्षोभहेतुत्वादिति। ६/१०६ 'अट्ठसु उवासंतरेसु' त्ति द्वयोरन्तरमवकाशान्तरं तत्राभ्यन्त रोत्तरपूर्वयोरेकं पूर्वयोर्द्वितीयम् अभ्यन्तरपूर्वदक्षिणयोस्तृतीयं दक्षिणयोश्चतुर्थम् अभ्यन्तरदक्षिणपश्चिमयो: पंचमं पश्चिमयोः षष्ठम् अभ्यन्तरपश्चिमोत्तरयोः सप्तमं उत्तरयोरष्टमं, ६/११० 'लोगंतियविमाण' त्ति लोकस्य ब्रह्मलोकस्यान्ते—समीपे भवानि लोकान्तिकानि तानि च तानि विमानानि चेति समास:, लोकान्तिका वा देवास्तेषां विमानानीति समासः, इह चावकाशान्तरवर्त्तिष्वष्टासु अर्चि: प्रभृतिषु विमानेषु वाच्येषु यत् कृष्णराजिमध्यभागवर्ति रिष्ठं विमानं नवममुक्तं तद् विमानप्रस्तावादवसेयम्। ६/११४ 'सारस्सयमाइच्चाण' मित्यादि, इह सारस्वतादित्ययोः समुदितयो: सप्त देवा: सप्त च देवशतानि परिवार इत्यक्षरानुसारेणावसीयते, एवमुत्तरत्रापि, ‘अवसेसाणं' ति अव्याबाधाग्नेयरिष्ठानां ६/११५ ‘एवं णेयव्वं' ति पूर्वोक्तप्रश्नोत्तराभिलापेन लोकान्तिक विमानवक्तव्यताजातं नेतव्यं, तदेव पूर्वोक्तेन सह दर्शयति -'विमाणाण' मित्यादि गाथार्द्ध, तत्र विमानप्रतिष्ठानं दर्शितमेव, बाहल्यं तु विमानानां पृथिवीबाहल्यं तच्च पंचविंशतिर्योजनशतानि, उच्चत्वं तु सप्त योजनशतानि संस्थानं पुनरेषां नानाविधमनावलिकाप्रविष्टत्वात् आवलिकाप्रविष्टानि हि वृत्तव्यस्रचतुरस्रभेदात् त्रिसंस्थानान्येव भवन्तीति। 'बंभलोए' इत्यादि, ब्रह्मलोके या विमानानां देवानां च जीवाभिगमोक्ता वक्तव्यता सा तेषु नेतव्या अनुसतव्या, कियदूरं? इत्यत आह—'जावे' त्यादि, सा चेयं लेशत: -'लोयंतियविमाणा णं भंते! कतिवण्णा पण्णत्ता? गोयमा! तिवण्णा पण्णत्ता लोहिया हालिद्दा सुक्किल्ला, एवं पभाए निच्चालोया गंधेणं इट्ठगंधा एवं इट्ठफासा एवं सव्वरयणमया तेसु देवा समचउरंसा अल्लमहुगवण्णा पम्हलेसा। ६/११६ 'लोयंतियविमाणेसु णं भंते! सव्वे पाणा ..... ४ पुढविकाइयत्ताए ५ देवत्ताए उववण्णपुव्वा? 'हंते' त्यादि लिखितमेव, ६/११८ 'केवतियं' ति छान्दसत्वात् कियत्या अबाधया अन्तरेण षष्ठ उद्देशकः व्याख्यातो विमानादिवक्तव्यतानुगतः पञ्चमोद्देशकः, अथ षष्ठस्तथाविध एव व्याख्यायते, तत्र६/१२० 'कइ ण' मित्यादि सूत्रम्, इह पृथिव्यो नरकपृथिव्य ईषत्प्राग्भाराया अनधिकरिष्यमाणत्वात्, इह च पूर्वोक्तमपि यत् पृथिव्याधुक्तं तत्तदपेक्षमारणान्तिकसमुद्घातवक्तव्यताऽभिधानार्थमिति न पुनरुक्तता, ६/१२२ 'तत्थगए चेव' त्ति नारकावासप्राप्त एव ‘आहारेज्ज वा' पुद्गलानादद्यात् 'परिणामेज्ज व' त्ति तेषामेव खलरसभावं कुर्यात् 'सरीरं वा बंधेज्ज' त्ति तैरेव शरीरं निष्पादयेत्। 'अत्थेगइए' त्ति यस्तस्मिन्नेव समुद्घाते म्रियते 'ततो पडिनियत्तति' ततो नारकावासात् समुद्घाताद् वा 'इह समागच्छइ' त्ति स्वशरीरे ६/१२४ 'केवइयं गच्छेज्ज' त्ति कियदरं गच्छेद्? गमनमाश्रित्य 'केवइयं पाउणेज्ज' त्ति कियद्रं प्राप्नुयात्? अवस्थानमाश्रित्य ६/१२५ 'अंगुलस्स असंखेज्जइ भागमेत्तं वे' त्यादि इह द्वितीया सप्तम्यर्थे द्रष्टव्या, अंगुलम् इह यावत्करणादिदं दृश्यंविहत्थिं वा रयणिं वा कुच्छिं वा धणं वा कोसं वा जोयणं वा जोयणसयं वा जोयणसहस्सं वा जोयणसयसहस्सं वा इति 'लोगंते वे' त्यत्र गत्वेति शेषः, ततश्चायमर्थ:उत्पादस्थानानुसारेणांगुलासंख्येयभागमात्रादिके क्षेत्रे समुद्घाततो गत्वा, कथम्? इत्याह—“एगपएसियं सेढिं मोत्तूण' त्ति यद्यप्यसंख्येयप्रदेशावगाहस्वभावो जीवस्तथाऽपि नैकप्रदेशश्रेणीवर्त्यसंख्यप्रदेशावगाहनेन गच्छति तथास्वभावत्वादित्यतस्तां मुक्त्वेत्युक्तमिति। ॥ षष्ठशते षष्ठोद्देशकः।। सप्तम उद्देशकः षष्ठोद्देशके जीववक्तव्यतोक्ता सप्तमे तु जीवविशेष योनिवक्तव्यतादिरर्थ उच्यते, तत्र चेदम् सूत्रम्--- ६/१२९ 'अह भंते!' 'इत्यादि', 'सालीणं' ति कलमादीना 'वीहीण' Jain Education Intemational Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. ७ : सू.१२९-१३४ ति सामान्यतः 'जवजवाणं' ति यवविशेषाणां 'एतेसि, ण' मित्यादि, उक्तत्वेन प्रत्यक्षाणं 'कोट्ठाउत्ताण' त्ति कोष्ठेकुशूले आगुप्तानि — तत्प्रक्षेपणेन संरक्षितानि कोष्ठागुप्तानि तेषां 'पल्लाउत्ताणं' ति इह पल्यो - वंशादिमयो धान्याधारविशेष: 'मंचाउत्ताणं मालाडत्ताण' मित्यत्र मंचमालयोर्भेदः - 'अकुड्डो होइ मंचो मालो य घरोवरिं होति' 'ओलित्ताणं' त्ति द्वारदेशे पिघानेन सह गोमयादिनाऽवलिप्तानां 'लित्ताणं' ति सर्वतो गोमयादिनैव लिप्तानां 'पिहियाणं' ति स्थगितानां तथाविधाच्छादनेन, 'मुद्दियाणं' ति मृत्तिकादिमुद्रावतां 'लंछियाणं' ति रेखादिकृतलाञ्छनानां 'जोणि' त्ति अंकुरोत्पत्तिहेतुः 'तेण परं' ति ततः परं 'पमिलायइ' त्ति प्रम्लायति वर्णादिना हीयते 'पविद्धंसइ' ति क्षीयते, एवं च बीजमबीजं च भवतिउप्तमपि नांकुरमुत्पादयति, किमुक्तं भवति ? – 'तेण परं जोणीवोच्छे पण्णत्ते' ति । ६/१३० 'कल' त्ति कलया वृत्तचनका इत्यन्ये 'मसूर' त्ति भिलंगा:चनकिका इत्यन्ये 'निप्फाव' त्ति वल्लाः 'कुलत्थ' त्ति चवलिकाकाराः चिपिटिका भवन्ति 'आलिसंदग' त्ति चवलकप्रकारा: चवलका एवान्ये 'सईण' त्ति तुवरी 'पलिमंथग' त्ति वृत्तचनका: कालचनका इत्यन्ये ६ / १३१ 'अयसि' त्ति भंगी 'कुसुंभग' त्ति लट्टा 'वरग' त्ति वरट्टो, 'राग' त्ति कंगविशेष: 'कोदूसग' त्ति कोद्रवविशेष: । 'सण' त्ति त्वक्प्रधाननालो धान्य विशेष: 'सरिसव' त्ति सिद्धार्थका: 'मूलगबीय' त्ति मूलकबीजानि शाकविशेषबीजानीत्यर्थः । अनन्तरं स्थितिरुक्ताऽतः स्थितेरेव विशेषाणां मुहूर्त्तादीनां स्वरूपाभिधानार्थमाह- ६/१३२ 'ऊसासद्धा वियाहिय' त्ति उच्छ्वासाद्धा इति उच्छ्वासप्रमितकालविशेषाः व्याख्याताः उक्ता भगवद्भिरिति, अत्रोत्तरम् — 'असंखेज्जे' त्यादि असंख्यातानां समयानां सम्बन्धिनो ये समुदया - वृन्दानि तेषां या: समितयो मीलनानि तासां यः समागमः—संयोगः समुदयसमितिसमागमस्तेन यत्कालमानं भवतीति गम्यते सैकाऽऽवलिकेति प्रोच्यते । 'संखेज्जा आवलियंत्ति किल षट्पंचाशदधिकशतद्वयेनावलिकानां क्षुल्लकभवग्रहणं भवति, तानि च सप्तदश सातिरेकाणि उच्छ्वासनिःश्वासकाले, एवं च संख्याता आवलिका उच्छ्वासकालो भवति। 'हट्ठस्से' त्यादि 'हृष्टस्य' तुष्टस्य अनवकल्यस्य जरसाऽनभिभूतस्य निरुपक्लिष्टस्य व्याधिना प्राक् साम्प्रतं चानभिभूतस्य जन्तोः मनुष्यादेरेक उच्छ्वासेन सह निःश्वास उच्छवासनिःश्वासः य इति गम्यते एष प्राण इत्युच्यते । 'सत्ते' ५४२ भगवती वृत्ति त्यादि इति प्राकृतत्वात् सप्तप्राणा उच्छ्वासनिः श्वासा य इति गम्यते स स्तोक इत्युच्यत इति वर्त्तते, एवं सप्त स्तोका ये स लवः, लवानां सप्तसप्त्या एषः - अधिकृतो मुहूर्तो व्याख्यात इति । 'तिण्णि सहस्सा.....' गाहा अस्या भावार्थोऽयम् — सप्तभिरुच्छ्वासैः स्तोक: स्तोकाश्च लवे सप्त ततो लवः सप्तभिर्गुणितो जातैकोनपंचाशत्, मुहूर्ते च सप्तसप्ततिर्लवा इति सा एकोनपंचाशता गुणितेति जातं यथोक्तं मानमिति । 'एताव ताव गणियस्स विसए' त्ति एतावान् — शीर्षप्रहेलिकाप्रमेयराशिपरिणामः तावदिति क्रमार्थ: गणितविषयो — गणितगोचर: गणितप्रमेय इत्यर्थः । ६ / १३३ 'ओवमिय' त्ति उपमया निर्वृत्तमौपमिकं उपमामन्तरेण यत् कालप्रमाणमनतिशयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदौपमिकमिति भावः । अथ पल्योपमादिप्ररूपणाय परमाण्वादिस्वरूपमभिधित्सुराह६/१३४ 'सत्थेणे' त्यादि, छेत्तुमिति खड्गादिना द्विघा कर्तुं 'भेत्तुं ' सूच्यादिना सच्छिद्रं कर्तुं वा विकल्पे किलेति लक्षणमेवास्येदमभिधीयते न पुनस्तं कोऽपि छेत्तुं भेत्तुं वाऽऽरभत इत्यर्थः । 'सिद्ध' त्ति ज्ञानसिद्धाः केवलिन इत्यर्थः, न तु सिद्धा: - सिद्धिंगतास्तेषां वदनस्यासंभवादिति । आदिं प्रथमं प्रमाणानां वक्ष्यमाणोत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकादीनामिति, यद्यपि च नैश्चयिकपरमाणोरपीदमेव लक्षणं तथाऽपीह प्रमाणाधिकाराद् व्यावहारिकपरमाणुलक्षणमिदमवसेयम् । अथ प्रमाणान्तरलक्षणमाह- 'अणंताण' मित्यादि 'अनन्तानां ' व्यावहारिकपरमाणुपुद्गलानां समुदया: – ट्र्यादिसमुदयास्तेषां, समितयो — मीलनानि तासां समागमः - परिणामवशादेकीभवनं समुदयसमितिसमागमस्तेन या परिमाणमात्रेति गम्यते, सा एका अत्यन्तं श्लक्ष्णा श्लक्ष्णश्लक्ष्णा सैव श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका उत्- प्राबल्येन श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका इति उपदर्शने वा समुच्चये, एते च उतश्लक्ष्णश्लक्ष्णिकादयोऽगुंलान्ता दश प्रमाणभेदा यथोत्तरमष्टगुणाः सन्तोऽपि प्रत्येकमनन्तपरमाणुत्वं न व्यभिचरन्तीत्यत उक्तम्- 'उस्सण्हसहियाइ वे' त्यादि 'सहसहिय' त्ति प्राक्तनप्रमाणापेक्षयाऽष्टगुणत्वाद् ऊर्ध्वरेण्वपेक्षया त्वष्टमभागत्वात् श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका इत्युच्यते। 'उड्ढरेणु' ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्चलनधर्मोपलभ्यो रेणुः ऊर्ध्वरेणुः 'तसरेणु' त्ति त्र्यस्यति—पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणुः। 'रहरेणु' त्ति रथगमनोत्खातो रेणू रथरेणुः वालाग्रलिक्षादयः प्रतीता। 'रयणि' त्ति हस्तः । 'नालिय' त्ति यष्टिविशेष : 'अक्खे' त्ति शकटावयवविशेष: । 'तं तिउणं सविसेसं परिरएणं' त्ति Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति १. तद् योजनं त्रिगुणं सविशेषं, वृत्तपरिधेः किञ्चिन्न्यूनषड्भागादिकत्रिगुणत्वात्। 'एक्काहियबेहियतेहिय' त्ति षष्ठीवचनलोपाद् एकाहिकद्वयाहिकत्र्याहिकानाम् 'उक्कोस' त्ति उत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढानां भृतो वालाग्रकोटीनामिति सम्बन्धः, तत्रैकाहिक्यो मुण्डिते शिरसि एकेनाह्रा यावत्यो भवन्तीति, एवं शेषास्वपि भावना कार्या, कथम्भूतः ? इत्याह- 'संमृष्टः आकर्णभृतः संनिचित: प्रचयविशेषान्निविडः, किंबहुना? एवं भृताऽसौ येन ‘तेणं' त्ति तानि वालाग्राणि । 'नो कुत्थेज्ज' त्ति न कुथ्येयुः प्रचयविशेषाच्छुषिराभावाद्वायोरसंभवाच्च नासारतां गच्छेयुरित्यर्थः अत एव नो परिविद्धंसेज्ज त्ति न परिविध्वंसेरन् — कतिपयपरिशाटमप्यं-गीकृत्य न विध्वंसं गच्छेयुः, अत एव च 'नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्ज' त्ति न पूतितया - न पूतिभावं कदाचिदा गच्छेयुः । ५४३ 'तओ णं' ति तेभ्यो वालाग्रेभ्यः 'एगमेगं बालग्गं अवहाय' त्ति एकैकं वालाग्रगपनीय कालो मीयत इति शेषः । ततश्च 'जावइएण ' मित्यादि, यावता कालेन स पल्यः 'खीणे' त्ति वलाप्राकर्षणात्क्षयमुपगत आकृष्टधान्यकोष्ठागारवत् तथा 'नीरए' त्ति निर्गतरज: कल्पसूक्ष्म वालाग्रोऽपकृष्टधान्यरज:कोष्ठागारवत्, तथा 'निम्मले ' त्ति विगतमलकल्पसूक्ष्मतरबालाग्रः प्रमार्जनिका-प्रमृष्टकोष्ठागारवत् तथा 'निट्ठिय' त्ति अपनेयद्रव्यापनयमाश्रित्य निष्ठां गतः विशिष्टप्रयत्नप्रमार्जितकोष्ठागारवत्। तथा 'निल्लेव' त्ति अत्यन्तसंश्लेषातन्मयतां गतः वालाग्रापहारादपनीतभित्त्यादिगतधान्यलेपकोष्ठागारवत्। अथ कस्मान्निर्लेपः ? इत्यत आह- 'अवहडे' त्ति निःशेषवालाग्रलेपापहारात् अत एव 'विसुद्धे' ति रजोमलकल्पबालाग्रविगमकृतशुद्धत्वापेक्षया लेपकल्पवालाग्रापहरणेन विशेषतः शुद्धो विशुद्धः एकार्थश्चैते शब्दाः व्यावहारिकं चेदमद्धापल्योपमं इदमेव यदाऽसंख्येयखण्डीकृतैकैकवालाग्रभृतपल्याद्वर्षशते वर्षशते खण्डशोsपोद्धारः क्रियते तदा सूक्ष्ममुच्यते । समये समयेऽपोद्धारे तु द्विधैवोद्धारपल्योपमं भवति तथा तैरेव बालाग्रैर्ये स्पृष्टाः प्रदेशास्तेषां प्रतिसमयापोद्धारे यः कालस्तद्व्यावहारिकं क्षेत्रपल्योपमं पुनस्तैरेवासंख्येयखण्डीकृतैः स्पृष्टास्पृष्टानां तथैवापोद्धारे यः कालस्तत्सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् । एवं सागरोपममपि विज्ञेयमिति ॥ कालाधिकारादिदमाह २. अप्रतौ समयोऽपोद्धार स प्रतौ-समयाऽपोद्धार Jain Education Intemational श. ६ : उ. ७ : सू. १३४- उ. ८ : सू. १३७ ६/१३५ 'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि 'उत्तिमट्ठपत्ताए' त्ति उत्तमान् — तत्कालापेक्षयोत्कृष्टान् अर्थान् — आयुष्कादीन् प्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ता उत्तमकाष्ठां प्राप्ता वा प्रकृष्टावस्थां गता तस्याम् । ‘आगारभावपडोयारे' त्ति आकारस्य — आकृतेर्भावाः - पर्यायाः, अथवाऽऽकाराश्च भावाश्च आकारभावस्तेषां प्रत्यवतार:अवतरणमाविर्भाव आकारभावप्रत्यवतारः 'बहुसमरमणिज्जं ' त्ति बहुसम: - अत्यन्तसमोऽत एव रमणीयो यः स तथा 'आलिंगपुक्खरे' त्ति आलिंगपुष्करं मुरजमुखपुटं लाघवाय सूत्रमतिदिशन्नाह - एवमित्यादि, उत्तरकुरुवक्तव्यता च जीवाभिगमोक्तैवं दृश्या— 'मुइंगपुक्खरेइ वा सरतलेइ वा 'सरस्तलं सर एव, ‘करतलेइ वा' करतलं कर एवं इत्यादीत्येवं भूमिसमताया भूमिभागगततृणमणीनां वर्णपंचकस्य सुरभिगन्धस्य मृदुस्पर्शस्य शुभशब्दस्य वाप्यादीनां वाप्याद्यनुगतोत्पातपर्वतादीनामुत्पातपर्वताद्याश्रितानां हंसासनादीनां लतागृहादीनां शिलापट्टकादीनां च वर्णको वाच्यः, तदन्ते चैतद् दृश्यम् —'तत्थ णं बहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओ य आसयंति सयंति चिट्ठति निसीयंति तुयट्टंती' त्यादि । 'तत्य तत्थे' त्यादि तत्र तत्र भारतस्य खण्डे खण्डे 'देसे देसे' खण्डांशे खण्डांशे 'तहिं तहिं' ति देशस्यान्ते देशस्यान्ते उद्दालकादयो वृक्षविशेषाः यावत्करणात् 'कयमाला नट्टमाला' इत्यादि दृश्यम् । 'कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूल' त्ति कुशा: - दर्भाः विकुशा—बल्वजादयः तृणविशेषास्तैर्विशुद्धानि – तदपेतानि वृक्षमूलानि - तदधोभागा येषां ते तथा, यावत् करणात् 'मूलमंतो कंदमंतो' इत्यादि दृश्यम् । 'अणुसज्जित्य' त्ति अनुसक्तवन्तः पूर्वकालात् कालान्तरमनुवृत्तवन्तः ' 'पम्हगंध' त्ति पद्मसमगन्धयः, 'मियगंध' त्ति मृगमदगन्धयः 'अमम' त्ति ममकाररहिता: 'तेयतलि' त्ति तेजश्च तलं च रूपं येषामस्ति ते तेजस्तलिनः 'सह' त्ति सहिष्णवः समर्था: 'सणिचारे' त्ति शनै: - मन्दमुत्सुकत्वाभावाच्चरन्तीत्येवंशीलाः शनैश्चारिणः । ॥ षष्ठशते सप्तमोद्देशकः ॥ अणु. वृ. पत्र १६७ अनुयोगद्वारवृत्तौ किञ्चित् पाठभेदो दृश्यते – नो कुथ्येयुः प्रचयविशेषादेव शुषिराभावात् वायोरसंभवाच्च नासारतां गच्छेयुः । अष्टम उद्देशकः सप्तमोद्देशके भारतस्य स्वरूपमुक्तमष्टमे तु पृथिवीनां तदुच्यते । ६ / १३७ 'कइ ण' मित्यादि Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ६ : उ. ८ : सू. १४२-१५१ ६/१४२ ‘बादरे अगणिकाए' इत्यादि, ननु यथा बादराग्नेर्मनुष्यक्षेत्र एव सद्भावान्निषेध इहोच्यते। एवं बादरपृथिवीकायस्यापि निषेधो वाच्यः स्यात् पृथिव्यादिष्वेव स्वस्थानेषु तस्य भावादिति, सत्यं किन्तु नेह यद्यत्र नास्ति तत्तत्र सर्वं निषिध्यते मनुष्यादिवद् विचित्रत्वात् सूत्रगतेरतोऽसतोऽपीह पृथिवीकायस्य न निषेध उक्तः । अप्कायवायुवनस्पतीनां त्विह घनोदध्यादिभावेन भावान्निषेधाभावः सुगम एवेति । ५४४ ६ / १४४ 'नो नागो' त्ति नागकुमारस्य तृतीयायाः पृथिव्या अधोगमनं नास्तीत्यत एवानुमीयते, 'नो असुरो नो नागो' ति इहाप्यत एव वचनाच्च चतुर्थ्यादीनामधोऽसुरकुमारनागकुमारयोर्गमनं नास्तीत्यनुमीयते, सौधर्मेशानयोस्त्वधोऽसुरो गच्छति चमरवत् न नागकुमारः अशक्तत्वात् । अत एवाह - 'देवो पकरेइ' इत्यादि इह च बादरपृथिवीतेजसोर्निषेधः सुगम एवास्वस्थानत्वात्, तथाऽब्वायुवनस्पतीनामनिषेधोऽपि सुगम एव । तयोरुदधिप्रतिष्ठितत्वेनाब्वनस्पतिसंभवाद् वायोश्च सर्वत्र भावादिति । ६/१५० ‘एवं सणंकुमारमाहिंदेसु' त्ति इहातिदेशतो बादराब्वनस्पतीनां संभवोऽनुमीयते स च तमस्कायसद्भावतोऽवसेय इति। एवं 'बंभलोयस्स उवरिं सव्वेहिं' ति अच्युतं यावदित्यर्थः परतो देवस्यापि गमो नास्तीति न तत्कृतबलाहकादेर्भाव:, 'पुच्छियव्वो य' त्ति बादरोप्कायोऽग्निकायो वनस्पतिकायश्च प्रष्टव्यः । 'अण्णं तं चेव' त्ति वचनान्निषेध्यश्च यतोऽनेन विशेषोक्तादन्यत्सर्वं पूर्वोक्तमेव वाच्यमिति सूचितम् तथा ग्रैवेयकादीषत्प्राग्भारान्तेषु पूर्वोक्तं सर्वं गेहादिकमधिकृतवाचनायामनुक्तमपि निषेधतोऽध्येयमिति ।। अथ पृथिव्यादयो ये यत्राध्येतव्यास्तां सूत्रसंग्रहगाथयाऽऽह'तमुकाय' गाहा 'तमुकाए' त्ति तमस्कायप्रकरणे प्रागुक्ते 'कप्पपणए' त्ति अनन्तरोक्तसौधर्मादिदेवलोकपंचके चा 'अगणी पुढवी य' त्ति अग्निकायपृथिवीकायावध्येतव्यौ — अत्थि णं भंते! बादरे पुढविकाए बादरे अगणिकाए? णो इणट्ठे समट्ठे aण्णत्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं इत्यनेनाभिलापेन । तथा 'अगणि' त्ति अग्निकायोऽध्येतव्यः 'पुढवीसु' त्ति रत्नप्रभादिपृथिवीसूत्रेषु, 'अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे बादरे अगणिकाए इत्याद्यभिलापेनेति । तथा 'आउतेउवणस्सइ' त्ति अप्कायतेजोवनस्पतयोऽध्येतव्याः'अत्थि णं भंते! बादरे आउकाए बादरे तेउक्काए बादरे वणस्सइकाए? णो इणट्ठे समट्ठे' इत्यादिनाऽभिलापेन, केषु ? इत्याह- 'कप्पुवरिम' त्ति कल्पपंचकोपरितनस्थानानामधो योऽब्वनस्पतिनिषेधः स यान्यब्वायुप्रतिष्ठितानि तेषामध आनन्तर्येण वायोरेव भावादाकाशप्रतिष्ठितानामाकाशस्यैव Jain Education Intemational भगवती वृत्ति भादादवगन्तव्यः, अग्नेस्त्वस्वस्थानादिति ॥ अनन्तरं बादराप्कायादयोऽभिहितास्ते चायुर्बन्धे सति भवन्तीत्यायुर्बन्धसूत्रम् । ६ / १५१ तत्र 'जातिनामनिहत्ताएउए' त्ति जातिः एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चधा सैव नामेति – नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा तेन सह निधत्तं - निषिक्तं यदायुस्तज्जातिनामनिधत्तायुः, निषेकश्च कर्मपुद्गलानां प्रतिसमयमनुभवनार्थं रचनेति१, ‘गतिनामनिधत्ताउए' त्ति गतिः - नारकादिका चतुर्धा शेषं तथैव २, 'ठिइनामनिधत्ताउए' त्ति स्थितिरिति यत्स्थातव्यं क्वचिद्विवक्षितभवे जीवेनायुः कर्मणा वा सैव नाम - परिणामो धर्मः स्थितिनाम तेन विशिष्टं निधत्तं यदायुर्दलिकरूपं तत् स्थितिनामनिधत्तायुः ३, अथवेह सूत्रे जातिनामगतिनामअवगाहनानामग्रहणात् जातिगत्यवगाहनानां प्रकृतिमात्रमुक्तं, स्थितिप्रदेशानुभागनामग्रहणात्तु तासामेव स्थित्यादय उक्तास्ते च जात्यादिनामसम्बन्धित्वान्नामकर्मरूपा एवेति नामशब्द: सर्वत्र कर्मार्थो घटत इति स्थितिरूपं नाम – नामकर्म स्थितिनाम तेन सह निधत्तं यदायुस्तत्स्थितिनामनिधत्तायुरिति। ‘ओगाहणानामनिधत्ताउए' त्ति अवगाहते यस्यां जीव: साऽवगाहना – शरीरम् औदारिकादि तस्या नाम — औदारिकादिशरीरनामकर्मेत्यवगाहनानाम अवगाहनारूपो वा नामपरिणामोऽवगाहनानाम तेन सह यन्निधत्तमायुस्तदवगाहनानामनिधत्तायुः ‘पएसनामनिहत्ताउए' त्ति प्रदेशानाम् – आयुः कर्मद्रव्याणां नाम - तथाविधा परिणतिः प्रदेशनाम प्रदेशरूपं वा नाम - कर्मविशेष इत्यर्थः प्रदेशनाम तेन सह निधत्तमायुस्तत्प्रदेशनामनिधत्तायुरिति । 'अणुभागनामनिधत्ताउए' त्ति अनुभाग - आयुद्रव्याणामेव विपाकस्तल्लक्षण एव नामपरिणामोऽनुभागनाम। अनुभागरूपं वा नामकर्म अनुभागनाम तेन सह निधत्तं यदायुस्तदनुभागनामनिधत्तायुरिति । अथ किमर्थं जात्यादि नामकर्मणाऽऽयुर्विशेष्यते ? उच्यते, आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थम्। यस्मान्नारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति । नारकादिभवोपग्राहकं चायुरेव, यस्मादुक्तमिहैव — 'नेरइए णं भंते! नेरइएस उववज्जइ अनेरइसुनेरइएस उववज्जइ ? गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उववज्जइ, नो अनेरइए नेरइएस उववज्जइ' ति एतदुक्तं भवतिप्रथमसमयसंवेदन एव नारका उच्यन्ते, तत्सहचारिणां नारकायुः च पंचेन्द्रियजात्यदिनामकर्मणामप्युदय इति । इह चायुर्बन्धस्य षड्विधत्वे उपक्षिप्ते यदायुषः षड्विधत्वमुक्तं तदायुषो बन्धाव्यतिरेकाद् बद्धस्यैव चायुर्व्यपदेशविषयत्वादिति । 'दडंओ' त्ति 'नेरइयाणं भंते! कतिविहे आउयबंधे पण्णत्ते? इत्यादिर्वैमानिकान्तश्चतुर्विंशतिदण्डको वाच्योऽत एवाह – 'जाव Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति वेमाणियाणं' ति। अथ कर्मविशेषाधिकारात्तद्विशेषि-तानां जीवादिपदानां दण्डकानाह ५४५ ६ / १५२ 'जीवा णं भंते!' इत्यादि 'जातिनामनिहत्त' त्ति जातिनाम निधत्तं - निषिक्तं विशिष्टबन्धं वा कृतं यैस्ते जातिनामनिधत्ताः १, एवं गतिनामनिधत्ता: २, यावत्करणात् ठितिनामनिहत्ता ३, ओगाहणानामनिहत्ता ४, पएसनामनिहत्ता ५, अणुभागनामनिहत्ता ६ इति दृश्यं व्याख्या तथैव, नवरं जात्यादिनाम्ना या स्थितिर्ये च प्रदेशा यश्चानुभागस्तत्स्थित्यादिनाम अवगाहनानाम शरीरनामेति अयमेको दण्डको वैमानिकान्तः तथा ६/१५३ ‘जातिनामनिहत्ताउ' त्ति जातिनाम्ना सह निधत्तमायुर्यैस्ते जातिनामनिधत्तायुषः, एवमन्यान्यपि पदानि, अयमन्यो दण्डकः, एवमेते ६/१५४ 'दुवालस दंडग' त्ति अमुना प्रकारेण द्वादश दण्डका भवन्ति, तत्र द्वावाद्यौदर्शितावपि संख्यापूरणार्थं पुनर्दर्शयतिजातिनामनिधत्ता इत्यादिरेक: 'जाइनामनिहत्ताउया' इत्यादिद्वितीय: । 'जीवा णं भंते! कि जाइनामनिउत्ता' इत्यादिस्तृतीयः, तत्र जातिनाम नियुक्तं — नितरां युक्तं संबद्धं निकाचितं वेदने वा नियुक्तं यैस्ते जातिनामनियुक्ताः एवमन्यान्यपि ‘जाइनामनिउत्ताउया' इत्यादिश्चतुर्थः । तत्र जातिनाम्ना सह नियुक्तं - निकाचितं वेदयितुमारब्धं वाऽऽयुर्यैस्ते तथा एवमन्यान्यपि 'जाइगोयनिहत्ता' इत्यादि पंचमः । तत्र जाते: एकेन्द्रियादिकाया यदुचितं गोत्रं - नीचैर्गोत्रादि तज्जातिगोत्रं तन्निधत्तं यैस्ते जातिगोत्रनिधत्ता एवमन्यान्यपि 'जाइगोयनिहताउया इत्यादि पष्ठः तत्र जातिगोत्रेण सह निधत्तमायुर्यैस्ते जातिगोत्रनिधत्तायुष एवमन्यान्यपि 'जाइगोयनिउत्ता' इत्यादि सप्तमः, तत्र जातिगोत्रं नियुक्तं यैस्ते तथा, एवमन्यान्यपि 'जाइगोयनिउत्ताउया' इत्यादिरष्टमः तत्र जातिगोत्रेण सह नियुक्तमायुर्यैस्ते तथा, एवमन्यान्यपि 'जातिनामगोयनिहत्ता' इत्यादिर्नवमः । तत्र जातिनाम गोत्रं च निधत्तं यैस्ते तथा, एवमन्यान्यपि । 'जीवा णं भंते!' किं जानामगोयनिहत्ताउया? इत्यादिर्दशमः । तत्र जातिनाम्ना गोत्रेण च सह निधत्तमायुर्यैस्ते तथा एवमन्यान्यपि ....... 'जाइनामगोयनिउत्ता' इत्यादिरेकादशः । तत्र जातिनाम गोत्रं च नियुक्तं यैस्ते तथा एवामन्यान्यपि । 'जीवा णं भंते!' किं जाइनामगोयनिउत्ताउया 'इत्यादिर्द्वादशः । तत्र जातिनाम्ना गोत्रेण च सह नियुक्तमायुर्यैस्ते तथा एवमन्यान्यपि । इह च जात्यादिनामगोत्रयोरायुषश्च भवोपग्राहे प्राधान्यख्याप १. अवभासमानवीचयः समान्यवातस्य सर्वत्र भावात् पातालकलशानामन्यत्राभावेऽपि नासंगतिर्वीचानां श. ६ : उ. ८ : सू. १५१-१६० नार्थं यथायोगं जीवा विशेषिताः, वाचनान्तरे चाद्या एवाष्टौ दण्डका दृश्यन्त इति । पूर्वं जीवाः स्वधर्मतः प्ररूपिताः, अथ लवणसमुद्रं स्वधर्मतः एव प्ररूपयन्नाह - ६/१५५ ‘लवणे ण' मित्यादि 'उस्सिओदए' त्ति उच्छ्रितोदकः ऊर्ध्वं वृद्धिगतजल: 'पत्थडोदए' त्ति प्रस्तृतोदक समजल इत्यर्थः । 'खुभियजले' त्ति वेलावशात् वेला च महापातालकलशगतवायुक्षोभादिति । 'एत्तो आढत्त' मित्यादि, इतः सूत्रादारब्धं तथा जीवाभिगमे तथाऽध्येतव्यं, तच्चेदम् ६ / १५६ 'जहा णं भंते! लवणसमुद्दे उस्सिओदए नो पत्थडोदए खुभिजले नो अखुभिजले तहा णं बाहिरगा समुद्दा किं उस्सिओदगा ? गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो उस्सिओदगा पत्थsोदगा । नो खुभियजला, अखुभियजला पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति । ६/१५७ 'अत्थि णं भंते! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाहया संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति ? हंता अत्थि । ' ६/१५८ 'जहा णं भंते! लवणे समुद्दे बहवे ओराला.... तहा णं बाहिरेसुवि समुद्देसु ओराला...? नो इणट्ठे समट्ठे । ६/१५९ से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ – बाहिरगा णं समुद्दा पुन्ना जाव घडत्ताए चिट्ठति? गोयमा! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणीया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति विक्कति चयंति उववज्जंति। शेषं तु लिखितमेवास्ति । व्यक्तं चेदमिति । 'संठाणओ' इत्यादि, एकेन विधिना प्रकारेण चक्रवाललक्षणेन विधानं-स्वरूपस्य करणं येषां ते एकविधिविधानाः विस्तारतोऽनेकविधिविधानाः कुतः ? इत्याह । 'दुगुणे' त्यादि, इह यावत्करणादिदं दृश्यम् - 'पवित्थरमाणा बहुउप्पलपउमकुमुयनलिणसुभगसौगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवइया' उत्पलादीनां केशरैः फुल्लैश्चोपपात इत्यर्थः 'ओभासमाणवीइय" ति । ६/१६० 'सुभा नाम' त्ति स्वस्तिकश्रीवत्सादीनि 'सुभा रूव' त्ति शुक्लपीतादीनि देवादीनि वा । 'सुभा गंध' त्ति सुरभिगन्धभेदाः गन्धवन्तो वा कर्पूरादयः 'सुभा रस' त्ति मधुरादयः रसवन्तो वा शर्करादयः 'सुभा फास' त्ति मृदुप्रभृतयः स्पर्शवन्तो वा नवनीतादयः । एवं यव्वा सुभा नाम' त्ति एवमिति द्वीपसमुद्राभिधायकतया नेतव्यानि शुभनामानि पूर्वोक्तानि तथा 'उद्धारो' त्ति द्वीपसमुद्रेषूद्धारो नेतव्यः स चैवम्— 'दीवसमुद्दा Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.६: उ.८: सू.१६०-उ.९: सू.१६९ ५४६ भगवती वृत्ति णं भंते! केवइया उद्धारसमएणं पण्णत्ता? गोयमा! जावइया अड्डाइज्जाणं उद्धारसागरोवमाणं उद्धारसमया एवइवा दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पण्णत्ता। येनैकैकेन समयेन एकैकं वालाग्रमुध्रियतेऽसावुद्धारसमयोऽतस्तेन! तथा 'परिणामो' ति परिणामो नेतव्यो द्वीपसमुद्रेषु, स चैवम्-'दीवसमुद्दा णं भंते! किं पुढविपरिणामा आउपरिणामा जीवपरिणामा पोग्गलपरिणामा? गोयमा! पुढवीपरिणामावी' त्यादि। तथा 'सव्वजीवाणं' ति सर्वजीवानां द्वीपसमुद्रेषूपादो नेतव्यः, स चैवम्-दीवसमुद्देसु णं भंते! सव्वे पाणा.... पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववण्णपुव्वा? हंता गोयमा! असई अदुवा अणंतखुत्तो' त्ति। ।। षष्ठशते अष्टमोद्देशकः ।। नवम उद्देशकः द्वीपादिषु जीवाः पृथ्विव्यादित्वेनोत्पन्नपूर्वा इत्यष्टमोद्देशके उक्तम्। नवमे तूत्पादस्य कर्मबन्धपूर्वकत्वादसावेव प्ररूप्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् ६/१६२ 'जीवे ण' मित्यादि, 'सत्तविहबंधए' आयुरबन्धकाले 'अट्ठ विहबंधए' त्ति आयुर्बन्धकाले 'छब्बिहबंधए' त्ति सूक्ष्मसम्परायावस्थायां मोहायुषोरबन्धकत्वात्। 'बंधुद्देसो' इत्यादि बन्धोद्देशक: प्रज्ञापनाया: सम्बन्धी चतुर्विंशतितमपदात्मकोऽत्र स्थाने नेतव्य: अध्येतव्यः। स चायम-नेरइए णं भंते! णाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणे कइ कम्मपगडीओ बंधइ? गोयमा! अट्ठविहबंधगे वा सत्तविहबंधगे वा एवं जाव वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे 'इत्यादि जीवाधिकाराद्देव जीवमधिकृत्याह'६/१६३ 'देवे ण' मित्यादि “एगवण्णं' ति कालाद्येकवर्णम् ‘एकरूपम्' एकविधाकारं स्वशरीरादि, ६/१६५ 'इहगए' त्ति प्रज्ञापकापेक्षया इहगतान् प्रज्ञापकप्रत्यक्षासन्न क्षेत्रस्थितानित्यर्थः। 'तत्थगए' त्ति देव: किल प्रायो देवस्थान एव वर्तत इति, तत्रगतान्–देवलोकादिगतान् ‘अण्णत्थगए' त्ति प्रज्ञापकक्षेत्राद्देवस्थानाच्चापरत्रस्थितान्, तत्र च स्वस्थान एव प्रायो विकुव॑न्ते यत: कृत्तोत्तरवैक्रियरूप एव प्रायोऽन्यत्र गच्छतीति नो इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय इत्याधुक्तमिति। ६/१६६ 'कालयं पोग्गलं नील पोग्गलत्ताए' इत्यादौ कालनीललोहित हारिद्रशुक्ललक्षणानां पंचानां वर्णानां दश द्विकसंयोगसूत्राण्यध्येयानि। ६/१६७ ‘एवं एयाए परिवाडीए गंधरसफास' त्ति इह सुरभिदुरभि लक्षणगन्धद्वयस्य एकमेव तिक्तकटुकषायाम्लमधुररसलक्षणानां पंचानां रसानां दश द्विकसंयोगसूत्राण्यध्येयानि। अष्टानां च स्पर्शानां चत्वारि सूत्राणि, परस्परविरुद्धेन कर्कशमृद्वादिना द्वयेनैकैकसूत्रनिष्पादनादिति। देवाधिकारादिदमाह६/१६८ ‘अविसुद्धे' त्यादि 'अविसुद्धलेसे णं' ति अविशुद्धलेश्यो विभंगज्ञानो देवः 'असमोहएणं अप्पाणेणं' ति अनुपयुक्तेनात्मना, इहाविशुद्धलेश्यः। असमवहतात्मा देवः, अविशुद्धलेश्य देवादिकम् इत्यस्य पदत्रयस्य द्वादश विकल्पा भवन्ति। तद्यथा --अविसुद्धलेसे णं देवे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवीं अण्णयरं जाणइ पासइ? 'णो इणढे समढे' इत्येको विकल्पः। 'अविसुद्धलेसे 'असमोहएणं विसद्धलेसं देवं देवीं ...... णो इणढे समढे' इति द्वितीयः। 'अविसुद्धलेसे समोहएणं अविसुद्धलेसं देवं देवी...... णो इणढे समढे' इति तृतीयः। 'अविसुद्धलेसे समोहएणं अविसुद्धलेसं देवं देवीं ...... णो इणढे समढे' इति चतुर्थः। 'अविसुद्धलेसे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देवीं ..... णो इणढे समढे' इति पंचमः। 'अविशुद्धलेसे समोहयासमोहएणं विसुद्धलेसं देवं .....णो इणढे समढे' इति षष्ठः। 'विशुद्धलेसे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं.......णो इणढे समढे त्ति' सप्तमः। 'विशुद्धलेसे असमोहएणं विसुद्धलेसं देवं.....णो इणढे समढे त्ति' अष्टमः। एतैरष्टभिर्विकल्पैर्न जानाति, तत्र षड्भिमिथ्यादृष्टित्वात् द्वाभ्यां त्वनुपयुक्तत्वादिति। ६/१६९ 'विसुद्धलेसे समोहएणं अविसुद्धलेसं देवं ...... जाणइ? हंता जाणइ' इति नवमः। 'विसुद्धलेसे समोहएणं विशुद्धलेसं देवं..... जाणइ? हंता जाणइ इति दशमः। 'विशुद्धलेसे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ...... जाणइ? हंता जाणइ ति एकादश। 'विसुद्धलेसे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं..... जाणइ? हंता जाणइ ति द्वादश। एभि:पुनश्चतुर्भिर्विकल्पैः सम्यग्दृष्टित्वादुपयुक्तत्वानुपयुक्तत्वाच्च जानाति, उपयोगानुपयोगपक्षे उपयोगांशस्य सम्यग्ज्ञानहेतुत्वादिति। एतदेवाहएवं 'हेट्ठिल्लेहिं' इत्यादि, वाचनान्तरे तु सर्वमेवेदं साक्षात् दृश्यत इति। ॥ षष्ठशते नवमोद्देशकः।। Jain Education Intemational Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति दशम उद्देशक : प्रागविशुद्धलेश्यस्य ज्ञानाभाव उक्तः । अथ दशमोद्देशकेऽपितमेव दर्शयन्निदमाह ६/१७१ ‘अण्णउत्थी' त्यादि 'नो चक्किय' त्ति नो शक्नुयात् 'जाव कोलट्टियमायमवित्ति आस्तां बहुं बहुतरं वा यावत् कुवलास्थिकमात्रमपि, तत्र कुवलयास्थिकं - बदरकुलकः 'निप्फाव' त्ति वल्ल: 'कल' त्ति कलाय: 'जय' त्ति यूका। ६/१७३ ‘अयण्ण’ मित्यादिर्दृष्टान्तोपनयः, एवं यथा गन्धपुद्गलानामतिसूक्ष्मत्वेनामूर्त्तकल्पत्वात् कुवलयास्थिकमात्रादिकं न दर्शयितुं शक्यते । एवं सर्वजीवानां सुखस्य दुःखस्य चेति ।। जीवाधिकारादेवेदमाह ५४७ ६ / १७४ 'जीवे णं भंते! जीवे? जीवे जीवे? इह एकेन जीवशब्देन जीव एव गृह्यते, द्वितीयेन च चैतन्यमित्यतः प्रश्नः, उत्तरं जीवचैतन्ययोः परस्परेणाविनाभूतत्वाज्जीवश्चैतन्यमेव चैतन्यमपि जीव एवेत्येवमर्थमवगन्तव्यम् । नारकादिषु पदेषु पुनर्जीवत्वमव्यभिचारि जीवेषु तु नारकादित्वं व्यभिचारीत्यत आह ६/१७५ 'जीवे णं भंते! नेरइए' इत्यादि । जीवाधिकारादेवाह— ६/ १७८ 'जीवति भंते! जीवे जीवे जीवइ' त्ति जीवति - प्राणान् धारयति यः स जीवः उत यो जीवः स जीवति ? इति प्रश्न: उत्तरं तु यो जीवति स तावन्नियमाज्जीवः अजीवस्यायुः कर्माभावेन जीवनाभावात्। जीवस्तु स्याज्जीवति स्यान्न जीवति, सिद्धस्य जीवनाभावादिति, नारकादिस्तु नियमाज्जीवति, संसारिणः सर्वस्य प्राणधारणात्मकत्वात्, जीवतीति पुनः स्यान्नारकादिः स्यादनारकादिरिति, प्राणधारणस्य सर्वेषां सद्भावादिति । जीवाधिकारात्तदगतामेवान्यतीर्थिकवक्तव्यता माह ६ / १८३-१८५ 'अण्णउत्थिया' इत्यादि 'आहच्च सायं' ति कदाचित्सातां वेदनां कथमिति ? चेदुच्यते - 'उववाएण व सायं नेरइओ देवकम्मुणा वावि' 'आहच्च असायं' ति देवा आहननप्रियविप्रयोगादिष्वसातां वेदनां वेदयन्तीति । 'वेमाया' त्ति विविधया मात्रया कदाचित्सातां कदाचिदसातामित्यर्थः । जीवाधिकारादेवेदमाह– ६/१८६ 'नेरइया ण' मित्यादि 'अत्तमायाए' त्ति आत्मना आदाय श. ६ : उ. १० : सू. १७१-१८७ गृहीत्वेत्यर्थः 'आयसरीरखेत्तोगाढे' त्ति स्वशरीरक्षेत्रेऽवस्थितानित्यर्थः 'अणंतरखेत्तोगाढे' त्ति आत्म शरीरावगाह क्षेत्रापेक्षया यदनन्तरं क्षेत्रं तत्रावगाढानित्यर्थः ' परंपरखेत्तोगाढे' त्ति आत्मक्षेत्रानन्तरक्षेत्राद् यत्परं क्षेत्रं तत्रावगाढानित्यर्थः । 'अत्तमाया' इत्युक्तमत आदानसाधर्म्यात् 'केवली ण' मित्यादि सूत्रम् तत्र च ६/१८७ ‘आयाणेहिं' ति इन्द्रियैः । दशमोद्देशकार्थसंग्रहाय गाथा - 'जीवाण' मित्यादि गतार्थः । ॥ षष्ठशते दशमोद्देशकः ॥ प्रतीत्य भेदं किल नालिकेरं, षष्ठं शतं मन्मतिदन्तभंजि । तथाऽपि विद्वत्समसच्छिलायां, नियोज्य नीतं स्वपरोपयोगम् ॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.१ : सू.१-४ ५४८ भगवती वृत्ति ७/२ अथ सप्तमं शतं प्रथम उद्देशकः व्याख्यातं जीवाद्यर्थप्रतिपादनपरं षष्ठं शतम् अथ जीवाद्यर्थप्रतिपादनपरमेव सप्तमशतं व्याख्यायते, तत्र चादावेवोद्देशकार्थसंग्रहगाथा"आहार१ विरति २ थावर३ जीवा४ पक्खी५ य आउ६ अणगारे७ छउमस्थ८ असंवुड ९ अण्णउत्थि१० दस सत्तमंमि सए॥" 'आहारे' त्यादि, तत्र 'आहार' त्ति आहारकानाहारकवक्तव्यतार्थः प्रथमः, 'विरह' त्ति प्रत्याख्यानार्थों द्वितीयः, 'थावर' त्ति वनस्पतिवक्तव्यतार्थस्तृतीयः, 'जीव' त्ति संसारिजीवप्रज्ञापनार्थश्चतुर्थः, 'पक्खी य' ति खचरजीवयोनिवक्तव्यतार्थः पञ्चमः, 'आउ' त्ति आयुष्कवक्तव्यतार्थ: षष्ठः, 'अणगार' ति अनगारवक्तव्यतार्थः सप्तमः, 'छउमत्थ' त्ति छद्मस्थमनुष्यवक्तव्यता र्थोऽष्टमः, 'असंवुड त्ति असंवृतानगारवक्तव्यतार्थो नवमः, 'अण्णउत्थिय' त्ति कालोदायिप्रभृतिपरतीर्थिकवक्तव्यतार्थों दशमः इति। 'कं समयं अणाहारए' त्ति परभवं गच्छन् कस्मिन् समयेऽनाहारको भवति? इति प्रश्नः, उत्तरं तु यदा जीव ऋजुगत्योत्पादस्थानं गच्छति तदा परभवायुषः प्रथम एव समये आहारको भवति। यदा तु विग्रहगत्या गच्छति तदा प्रथमसमये वक्रेऽनाहारको भवति। उत्पत्तिस्थानानवाप्तौ तदाहारणीयपुद्गलानामभावाद्। अत आह-'पढमे समए सिय आहारए सिय अणाहारए' त्ति तथा यदा एकेन वक्रेण द्वाभ्यां समयाभ्यामुत्पद्यते तदा प्रथमेऽनाहारको द्वितीये त्वाहारकः, यदा तु वक्रद्वयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदा प्रथमे द्वितीये चानाहारक इत्यत आह'बीयसमये सिय आहारए सिय अणाहारए' त्ति तथा यदा वक्रयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदाऽऽधयोरनाहारकस्तृतीये त्वाहारकः। यदा तु वक्रत्रयेण चतुर्भिः समयैरुत्पद्यते तदाद्ये समयत्रयेऽनाहारकश्चतुर्थे तु नियमादाहारक इति कृत्वा 'तइए समए सिय' इत्याधुक्तं, वक्रत्रयं चेत्थं भवति–नाड्या बहिर्विदिग्व्यवस्थितस्य सतो यस्याधोलोकादूर्ध्वलोके उत्पादो नाड्या बहिरेव दिशि भवति सोऽवश्यमेकेन समयेन विश्रेणित: सनश्रेणी प्रतिपद्यते, द्वितीयेन नाडी प्रविशति तृतीयेनोवं लोकं गच्छति। चतुर्थेन लोकनाडीतो निर्गत्योत्पत्तिस्थाने उत्पद्यते। इह चाद्ये समयत्रये वक्रत्रयमवगन्तव्य, समश्रेण्यैव गमनात्। अन्ये त्वाहुः-वक्रचतुष्टयमपि संभवति, यदा हि विदिशो विदिश्येवोत्पद्यते तत्र समयत्रयं प्राग्वत् चतुर्थे समये तु नाडीतो निर्गत्य समश्रेणी प्रतिपद्यते पंचमेन तूत्पत्तिस्थानं प्राप्नोति, तत्र चाद्ये समयचतुष्टये वक्रचतुष्टयं स्यात्। तत्र चानाहारक इति। इदं च सूत्रे न दर्शितम्। प्रायेणेत्थमनुत्पत्तेरिति। ‘एवं दंडओ' त्ति अमुनाऽभिलापेन चतुर्विंशतिदण्डको वाच्यः, तत्र च जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च पूर्वोक्तभावनयैव चतुर्थे समये नियमादाहारक इति वाच्यम्। शेषेषु तु पदेषु तृतीयसमये नियमादाहारक इति। तत्र यो नारकादित्रसस्त्रसेष्वेवोत्पद्यते तस्य नाड्या बहिस्तादागमनं गमनं च नास्तीति तृतीयसमये नियमादाहारकत्वं तथाहि-यो मत्स्यादिर्भरतस्य पूर्वभागाद् ऐरवतपश्चिमभागस्याधो नरकेषूत्पद्यते स एकेन समयेन भरतस्य पूर्वभागात्पश्चिमं भागं याति। द्वितीयेन तु तत ऐरवतपश्चिम भागं, ततस्तृतीयेन नरकमिति। अत्र चाद्ययोरनाहारकस्तृतीये त्वाहारकः, एतदेव दर्शयति-'जीवा एगिंदिया य चउत्थे समये सेसा तइयसमये' त्ति 'कं समयं सव्वपाहारए' ति कस्मिन् समये सर्वाल्प:- सर्वथा स्तोको न यस्मादन्यः स्तोकतरोऽस्ति स आहारो यस्य स सर्वाल्पाहार: स एव सर्वाल्पाहारक: ‘पढमसमयोववण्णए' त्ति प्रथमसमय उत्पन्नस्य प्रथमो वा समयो यत्र तत् प्रथमसमय तदुत्पन्नम्उत्पत्तिर्यस्य स तथा, उत्पत्ते: प्रथमसमय इत्यर्थः। तदाहारग्रहणहेतोः शरीरस्याल्पत्वात्सर्वाल्पाहारता भवतीति। 'चरमसमयभवत्थे व' त्ति चरमसमये भवस्यजीवितस्य तिष्ठति यः स तथा, आयुषश्चरमसमय इत्यर्थः, तदानी प्रदेशानां संहतत्वेनाल्पेषु शरीरावयवेषु स्थितत्वात्सर्वाल्पाहारतेति।। अनाहारकत्वं च जीवानां विशेषतो लोकसंस्थानवशाद्भवतीति लोकप्ररूपणसूत्रम् “सुपइट्ठगसंठिए' त्ति सुप्रतिष्ठकं शरयंत्रकं तच्चेह उपरिस्थापितकलशादिकं ग्राह्यम्। तथाविधेनैव लोकसादृश्योपपत्तेरिति, एतस्यैव भावनार्थमाह-'हेट्ठा विच्छिण्णे' इत्यादि, यावत्करणात् 'मज्झे संखित्ते उप्पिं विसाले अहे पलियंकसंठाणसंठिए' मज्झे वरवइरविग्गहिए' त्ति दृश्यं व्याख्या चास्य प्राग्वदिति। अनन्तरं लोकस्वरूपमुक्तं, तत्र च यत् केवली करोती? तदर्शयन्नाह—'तंसी' त्यादि। 'अंतं करेइ' त्ति अत्र क्रियोक्ता। अथ तविशेषमेव श्रमणोपासकस्य दर्शयन्नाह'समणे' त्यादि 'सामाइयकडस्स' त्ति कृतसमायिकस्य, तथा श्रमणोपाश्रये साधुवसतावासीनस्य–तिष्ठत: 'तस्स ण' न्ति यो यथार्थस्तस्य श्रमणोपासकस्यैवेति, किलाकृतसामायिकस्य ७/३ ७/४ १. अपनी-बक्रोनाहारको...... Jain Education Intenational Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५४९ श.७ : उ.१: सू.४-२२ तथा साध्वाश्रयेऽनवतिष्ठमानस्य भवति साम्परायिकी क्रिया विशेषणद्वययोगे पुनरैर्यापिथिकी युक्ता निरुद्धकषायत्वादित्या शंकातोऽयं प्रश्न:उत्तरं तु 'आयाहिकरणी भवति' त्ति आत्मा-जीव: अधिकरणानिहलशकटादीनि कषायाश्रयभूतानि यस्य सन्ति सोऽधिकरणी, ततश्च 'आयाहिकरणवत्तियं च णं' ति आत्मनोऽधिकरणानि आत्माधिकरणानि तान्येव प्रत्ययः-कारणं यत्र क्रियाकरणे तदात्माधिकरणप्रत्ययं साम्परायिकी क्रिया क्रियत इति योगः। श्रमणोपासकाधिकारादेव। ७/६ 'समणोवासगे' त्यादि प्रकरणं, तत्र च 'तसपाणसमारंभे' त्ति त्रसवधः 'नो खलु से तस्स अतिवायाए आउट्टइ' त्ति न खलु असौ तस्य त्रसप्राणस्य अतिपाताय वधाय आवर्त्तते प्रवर्तते इति न संकल्पवधोऽसौ, संकल्पवधादेव च निवृत्तोऽसौ, न चैष तस्य संपन्न इति नासावतिचरति व्रतम्। ७/९ 'किं चयइ?' ति किं ददातीत्यर्थ: 'जीवियं चयइ' त्ति जीवितमिव ददाति अन्नादि द्रव्यं यच्छन् जीवितस्यैव त्यागं करोतीत्यर्थः, जीवितस्येवान्नादिद्रव्यस्य दुस्त्यजत्वात्, एतदेवाह—'दुच्चयं चयइ' ति दुस्त्यजमेतत् त्यागस्य दुष्करत्वात्। एतदेवाहदुष्करं करोतीति, अथवा किं त्यजति–किं विरहयति? उच्यते, जीवितमिव जीवितं कर्मणो दीर्घा स्थितिं 'दुच्चयं' ति दुष्टं कर्मद्रव्यसंचयं 'दुक्करं' ति दुष्करमपूर्वकरणतो ग्रन्थिभेदं ततश्च 'दुल्लभं लभइ' त्ति अनिवृत्तिकरणं लभते, ततश्च 'बोहिं बुज्झइ' त्ति बोधिं सम्यग्दर्शनं बुध्यते अनुभवति। इह च श्रमणोपासक: साधूपासनामात्रकारी ग्राह्यः, तदपेक्षयैवास्य सूत्रार्थस्य घटमानत्वात् 'तओ पच्छ' त्ति तदन्तरं सिद्धयतीत्यादि प्राग्वत् अन्यत्राप्युक्तं दानविशेषस्य बोधिग्णत्वं, यदाह'अणुकंपऽकामणिज्जरबालतवे दाणविणए त्यादी। तद्यथा "केई तेणेव भवेण निव्वुया सव्वकम्मओ मुक्का। केई तइयभवेणं सिज्झिस्संति जिणसगासे॥" त्ति अनन्तरमकर्मत्वमुक्तमतोऽकर्मसूत्रम्७/१० गई पण्णायइ' त्ति गतिः प्रज्ञायते अभ्युपगम्यते इति यावत् ७/११ निस्संगयाए' ति नि:संगतया कर्ममलापगमेन निरंगणयाए' त्ति नीरागतया मोहापगमेन 'गतिपरिणामेणं' ति गतिस्वभावतयाऽलाबुद्रव्यस्येव 'बंधणच्छेयणयाए' त्ति कर्मबन्धनछेदनेन एरण्डफलस्यैव 'निरंधणताए' त्ति कमेंन्धनविमोचनेन धूमस्येव, 'पुल्वपओगेणं' ति सकर्मतायां गतिपरिणामवत्त्वेन बाणस्येवेति। एतदेव विवृण्वन्नाह - ७/१२ 'कहाण' मित्यादि 'निरुवहयं' ति वाताद्यनुपहतं 'दबभेहि य' त्ति दर्भे: समूलै: 'कुसेहि य' त्ति कुशैः दर्भेरिव छिन्नमूलै: 'भूइ भूई' ति भूयो भूय: 'अत्थाहे' त्यादि इह मकारौ प्राकृतप्रभवौ अत: अस्ताधे अतएव अतारे अत एव 'अपौरुषेये अपुरुषप्रमाणे ७/१३ 'कलसिंबलियाइ वा' कलायाभिधानधान्यफलिका 'सिबंलि' त्ति वृक्षविशेष: 'एरंडमिंजिया' एरण्डफलम् ‘एगंतमंतं गच्छई' त्ति एक इत्येवमन्तो-निश्चयो यत्रासावेकान्त एक इत्यर्थः अतस्तम् अन्तं भूभागं गच्छति, इह च बीजस्य गमनेऽपि यत् कलायसिंबलिकादेः तदुक्तं तत्तयोरभेदोपचारादिति। ७/१४ 'उड़े वीससाए' ति ऊर्ध्वं विस्रसया स्वभावेन 'निव्वाघाएणं' ति कटाद्याच्छादनाभावात्। अकर्मणो वक्तव्यतोक्ता, अथाकर्मविपर्ययभूतस्य कर्मणो वक्तव्यतामाह७/१६ ‘दुक्खी भंते! दुक्खेण फुडे त्ति दुःखनिमितत्त्वात्। दु:खं कर्म तद्वान् जीवो दुखी भदन्त! दुःखेन-दुःखहेतुत्वात् कर्मणो-स्पृष्टो बद्धः। 'नो अदुक्खी' त्यादि नो' नैव अदु:खी अकर्मा दुःखेन स्पृष्टः, सिद्धस्यापि तत्प्रसंगादिति ७/१९ ‘एवं पंच दंडका णेयव्य' त्ति एवं इत्यनन्तरोक्ताभिलापेन पंच दंडका नेतव्याः। तत्र दु:खी दुःखेन स्पृष्ट इत्येक उक्त एव। 'दुक्खी दुक्खं परियायई' त्ति द्वितीयः। तत्र दु:खी कर्मवान् दुःखं कर्म, पर्याददाति सामस्त्येनोपादत्ते, निधत्तादि करोतीत्यर्थः। 'उदीरेइ' त्ति तृतीयः। 'वेएइ' त्ति चतुर्थः। 'निज्जरेइ' त्ति पंचमः। उदीरणवेदननिर्जरणानि तु व्याख्यातानि प्रागिति। कर्मबन्धाधिकारात्कर्मबन्धचिन्तान्वितानगारसूत्रम् अनगाराधि काराच्च तत्पानकभोजनसूत्राणि-तत्र च ७/२१ 'वोच्छिण्णे' त्ति अनुदिताः ७/२२ 'सइंगालस्स' त्ति चारित्रेन्धनमंगारमिव य: करोति भोजन विषयरागाग्निः सोऽगार एवोच्यते, तेन सह यद्वर्तते पानकादि तत् सांगारं तस्य 'सधूमस्स' त्ति चारित्रेन्धनधूमहेतुत्वात् धूमो-द्वेषस्तेन सह यत्पानकादि तत् सधूमं तस्य 'संयोजणादोसदुट्ठस्स' ति संयोजना-द्रव्यस्य गुणविशेषार्थ द्रव्यान्तरेण योजनं सैव दोषस्तेन दुष्टं यत्तत्तथा तस्य, 'जे णं' ति विभक्तिपरिणामात् यमाहारमाहारयतीति सम्बन्धः 'मुच्छिए' त्ति मोहवान् दोषानभिज्ञत्वात् 'गिद्धे' त्ति १. अप्रतौ - अप्रतौ किं विरहायति...... Jain Education Intemational Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.१: सू.२२-२५ ५५० भगवती वृत्ति तद्विशेषाकांक्षावान् ‘गढिए' ति तद्गतस्नेहतन्तुभिः संदर्भित: 'अज्झोववण्णे' त्ति तदेकाग्रतां गतः ‘आहारमाहारेइ' त्ति भोजनं करोति ‘एस णं' त्ति एषः आहार: सांगारं पानभोजनं 'महया अप्पत्तियं' ति महदप्रीतिकम् अप्रेमं 'कोहकिलाम' ति क्रोधात्क्लमः-शरीरायास: क्रोधक्लमोऽतस्तं, 'गुणु प्पायणहेर्ड' ति रसविशेषोत्पादनायेत्यर्थः। ७/२३ 'वीइंगालस्स' त्ति वीतो गतोऽङ्गारो—रागो यस्मात्तद्वीतांगारम्। ७/२४ 'खेत्ताइक्कंतस्स' त्ति क्षेत्रं-सूर्यसम्बन्धि तापक्षेत्रं दिनमित्यर्थः तदतिक्रान्तं यत्तत् क्षेत्रातिक्रान्तं तस्य, 'कालाइक्कंतस्स' त्ति कालं-दिवसस्य प्रहरत्रयलक्षणमतिक्रान्तं कालातिक्रान्तं तस्य, 'मग्गाइक्कंतस्स' त्ति अर्द्धयोजनमतिक्रान्तस्य ‘पमाणाइक्कंतस्स' त्ति द्वात्रिंशत्कवललक्षणमतिक्रान्तस्य, 'उवाइणावित्त' त्ति उपादापय्य-प्रापय्येत्यर्थः परं 'अद्धजोयणमेराए' त्ति अर्द्धयोजनलक्षणमर्यादायाः परत इत्यर्थः 'वीतिक्कमावेत्त' त्ति व्यतिक्रमय्य-नीत्वेत्यर्थ: 'कुक्कडिअंडगपमाणमेत्ताणं' त्ति कुक्कुट्यण्डकस्य यत् प्रमाणं-मानं तत् परिमाणंमानं येषां ते तथा, अथवा कुकुटीव-कुटीरकमिव जीवस्याश्रयत्वात् कुटी-शरीरं कुत्सिता अशुचिप्रायत्वात् कुटी कुकुटी तस्या अण्डकमिवाण्डकं उदरपूरकत्वादाहारः कुकुट्यण्डकं तस्य प्रामाणतो मात्रा-द्वात्रिंशत्तमांशरूपा येषां ते कुक्कुट्यण्डकप्रामणमात्रा अतस्तेषामयमभिप्रायः-यावान् यस्य पुरुषस्याहारस्तस्याहारस्य द्वात्रिंशत्तमो भागस्तत् पुरुषापेक्षया कवलः, इदमेव कवलमानमाश्रित्य प्रसिद्धकवलचतु:षष्ट्यादिमानाहारस्यापि पुरुषस्य द्वात्रिंशता कवलैः प्रमाणप्राप्ततोपपन्ना स्यात् न हि स्वभोजनस्यार्द्धं भुक्तवतः प्रमाणप्राप्तत्वमुपपद्यते, प्रथमव्याख्यानं तु प्रायिकपक्षापेक्षया ऽवगन्तव्यमिति। 'अप्पाहारे' त्ति अल्पाहारः साधुर्भवतीति गम्यम्, अथवा अष्टौ कुक्कुट्यण्डकप्रमाणमात्रान् कवलानाहारं 'आहारयति कुर्वति साधौ अल्पाहारः स्तोकाहारः, चतुर्थांशरूपत्वात्तस्य, एवमुत्तरत्रापि 'आहारेमाणे' इत्येतत्पदं प्रथमैकवचनान्तं सप्तम्येकवचनान्तं, वा व्याख्येयं। 'अवड्डोमोयरिय' त्ति अवमस्य ऊनस्योदरस्य करणमवमोदरिका, अपकृष्टं-किञ्चिदूनमर्द्ध यस्यां साऽपार्द्धा द्वात्रिशंत्कवलापेक्षया द्वादशानामपार्द्धरूपत्वात् अपार्द्धा च सा अवमोदरिका चेति समासः सा भवतीत्येवं सप्तम्यन्तव्याख्यानं नेयं, प्रथमान्तव्याख्यानं तु धर्मधर्मिणोरभेदादपा वमौदरिकसाधुभवतीत्येवं नेतव्यं, 'दुभागप्पत्ते' त्ति द्विभाग:- अर्द्ध तत्प्राप्तो द्विभागप्राप्त आहारो भवतीति गम्यं, द्विभागो वा प्राप्तोऽनेनेति द्विभागप्राप्तः साधुर्भवतीति गम्यम्, 'ओमोयरिय' त्ति अवमोदरिका भवति धर्मधर्मिणोरभेदाद्वाऽवमौदरिक साधुर्भवतीति गम्यं, 'पकामरसभोइ' त्ति प्रकामम्-अत्यर्थं रसानां मधुरादिभेदानां भोगी-भोक्ता प्रकामरसभोगीति। ७/२५ ‘सत्थातीतस्स' त्ति शस्त्राद्-अग्न्यादेरतीतम्-उत्तीर्णं शस्त्रातीतं, एवंभूत च तथाविधपृथुकादिवदपरिणतमपि स्यादत आह'सत्थपरिणामियस्स' त्ति वर्णादीनामन्यथाकरणेनाचित्तीकृतस्येत्यर्थः, अनेन प्रासुकत्वमुक्तं ‘एसियस्स' त्ति एषणीयस्य गवेषणाविशुद्धया गवेषितस्य। 'वेसियस्स' त्ति विशेषेण विविधैर्वा प्रकारेषितं-व्येषितं ग्रहणैषणाग्रासैषणाविशोधितं तस्य, अथवा वेषो—मुनिनेपथ्यं स हेतुर्लाभे यस्य तद्वैषिकम् आकारमात्रदर्शनादवाप्तं न त्वावज॑नया, अनेन पुनरुत्पादनादोषापोहमाह, 'सामुदाणियस्स' त्ति ततस्ततो भिक्षारूपस्य, किंभूतो निर्ग्रन्थ:? इत्याह–'निक्खित्तसत्थमुसले' त्ति त्यक्तखड्गादिशस्वमुशल: 'ववगयमालावण्णगविलेवणे' त्ति व्यपगतपुष्पमालाचन्दनानुलेपन: स्वरूपविशेषणे चेमे न तु व्यवच्छेदार्थे निर्ग्रन्थानामेवंरूपत्वादेवेति ‘ववगयचुयचइयचत्तदेहं' ति व्यपगता:-स्वयं पृथग्भूता भोज्यवस्तुसंभवा आगन्तुका वा कृम्यादय: च्युता-मृताः स्वतः एव परतो वाऽभ्यवहार्यवस्त्वात्मकाः पृथिवीकायिकादयः 'चइय' त्ति त्याजिताभोज्यद्रव्यात् पृथक्कारिता दायकेन ‘चत्त' त्ति स्वयमेव दायकेन त्यक्ता-भक्ष्यद्रव्यात्पृथक्कृता देहा अभेदविवक्षया देहिनो यस्मात् स तथा तमाहारम्। वृद्धव्याख्या तु व्यपगत:ओघतश्चेतनापर्यायादपेतः च्युत: जीववत् क्रियातो भ्रष्ट: च्यावितः-स्वतः एवायुष्कक्षयेण भ्रंशितः त्यक्तदेहःपरित्यक्तजीवसंसर्गजनिताहारप्रभवोपचयः। तत एषां कर्मधारयोऽतस्तं किमुक्तं भवति? इत्याह—'जीवविप्पजढं' ति प्रासुकमित्यर्थः। 'अकयमकारियमसंकप्पियमणाहूयमकीयगडमणुद्दिट्ठ' अकृतं - साध्वर्थमनिर्वर्तितं दायकेन, एवमकारितं दायकेनैव। अनेन विशेषणद्वयेनानाधाकर्मिक उपात्तः 'असंकल्पितं स्वार्थं संस्कुर्वता साध्वर्थतया न संकल्पितम्, अनेनाप्यनाधाकर्मिक एव गृहीतः, स्वार्थमारब्धस्य साध्वर्थ निष्ठां गतस्याप्याधाकर्मिकत्वात्, न च विद्यते आहूतम्-आह्वानमामंत्रणं नित्यं मद्गृहे पोषमात्रमन्नं ग्राह्यमित्येवंरूपं कर्मकराद्याकारणं वा साध्वर्थं स्थानान्तरादन्नाद्यानयनाय यत्र सोऽनाहूत: अनित्यपिण्डोऽनभ्याहृतो वेत्यर्थः, स्पद्धा वाऽऽहूतं तन्निषेधादनाहूतो, दायकेनास्पर्द्धया दीयमानमित्यर्थः। अनेन भावतोऽपरिणताभिधानएषणादोषनिषेध उक्तोऽतस्तम् ‘अक्रीतकृतं क्रयेण साधुदेयं न कृतम्। अनुद्दिष्टम् अनौद्देशिकं 'नवकोडीपरिसुद्ध' ति इह कोटयो विभागास्ताश्चेमा:-बीजादिकं जीवं न हन्ति, न घातयति, घ्नन्तं नानुमन्यते एवं न पचति ..... न क्रीणाति....... इत्येवंरूपाः। Jain Education Intemational Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श.७: उ.१: सू.२५-उ.२: सू.३४ 'दसदोसविप्पमत्तं' ति दोषा:-शंकितम्रक्षितादयः 'उग्गमुपायणेसणासुपरिसुद्धं' ति उद्गमश्च-आधाकर्मादि षोडशविध: उत्पादना च–धात्रीदूत्यादिका षोडशविधैव, उद्गमोत्पादने एतद्विषया या एषणा-पिण्डविशुद्धिस्तया सुष्ठु परिशुद्धो यः स उद्गमोत्पादनैषणा-परिशुद्धोऽतस्तम्, अनेन चोक्तानुक्तसंग्रहः कृत: वीतांगारीदीनि क्रियाविशेषणान्यपि भवन्ति। प्रायोऽनेन च ग्रासैषणाविशुद्धिरुक्ता 'असुरसुरं' ति अनुकरणशब्दोऽयम् एवम् अचवचवमित्यपि ‘अदुयं' त्ति अशीघ्रम् ‘अविलंबियं' ति नातिमन्थरं 'अपरिसाडिं' ति अनवयवोज्झनम्। 'अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयं' ति अक्षोपाञ्जनं च शकटधूम्रक्षणं व्रणानुलेपनं च-क्षतस्यौषधेन विलेपनम् अक्षोपाञ्जनव्रणानुलेपने ते इव विवक्षितार्थसिद्धिरसादिनिरभिष्वंगतासाधाद्य: सोऽक्षोपा नव्रणानुलेपनभूतोऽतस्तं क्रियाविशेषणं वा। 'संजमजायामायावत्तियं' ति संयमयात्रा-संयमानुपालनं सैव मात्रा-आलम्बनसमूहांश: संयमयात्रामात्रा तदर्थं वृत्तिः- प्रवृत्तिर्यत्राहारे स संयमयात्रामात्रावृत्तिकोऽतस्तं संयमयात्रा-मात्रावृत्तिकं वा यथा भवति संयमयात्रामात्रा वा प्रत्ययो यत्र स तथाऽतस्तं संयमयात्रामात्राप्रत्ययं वा यथा भवति। एतदेव वाक्यान्तरेणाह'संयमभारवहणट्ठयाए' त्ति संयम एव भारस्तस्य वहनंपालनं स एवार्थः संयमभारवहनार्थ स्तद्भावस्तत्ता तस्यै 'बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं' ति बिले इव रन्ध्रे इव पन्नगभूतेन सर्पकल्पेन आत्मना करणभूतेनाहारमुक्तविशेषणम् 'आहारयति' शरीरकोष्ठके प्रक्षिपति, यथा किल बिले सर्प आत्मानं प्रवेशयति पार्खानसंस्पृशन् एवं साधुर्वदनकन्दरपानिसंस्पृशन्नाहारेण तदसंचारणतो जठरबिले आहार प्रवेशयतीति। 'एस णं' त्ति एषः अनन्तरोक्तविशेषण आहार: शस्त्रातीतादिविशेषणस्य पानभोजनस्य अर्थ:-अभिधेयः प्रज्ञप्त इति। ॥ सप्तमशते प्रथमोद्देशकः ॥ 'नो सुपच्चखायं भवति' त्ति ज्ञानाभावेन यथावदपरिपालनात् सुप्रत्याख्यानत्वाभावः 'सव्वपाणेहिं' ति सर्वप्राणेषु .... 'तिविह' ति त्रिविधं कृतकारितानमतिभेदभिन्नं योगमाश्रित्य 'तिविहेणं' ति त्रिविधेन मनोवाक्कायलक्षणेन करणेन 'असंजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे' त्ति संयतो वधादिपरिहारे प्रयत: विरतोवधादेर्निवृत्तः प्रतिहतानिअतीतकालसम्बन्धीनि निन्दात: प्रत्याख्यातानि चानागतप्रत्याख्यानेन पापानि कर्माणि येन स तथा, ततः संयतादिपदानां कर्मधारयस्ततस्तन्निषेधाद् असंयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, अत एव 'सकिरिए' त्ति कायिक्यादिक्रियायुक्त: सकर्मबन्धनो वा। अतएव 'असंवडे' त्ति असंवृताश्रवद्वारः अत एव 'एगंतदंडे' त्ति एकान्तेन–सर्वथैव परान् दण्डयतीत्येकान्तदण्ड: अतएव एकांतबाल: सर्वथा बालिशोऽज्ञः इत्यर्थः।। प्रत्याख्यानाधिकारादेव तद्भेदानाह७/२९ 'कतिविहे ण' मित्यादि 'मूलगुणपच्चक्खाणे य' त्ति चारित्र कल्पवृक्षस्य मूलकल्पा गुणा: प्राणातिपातविरमणादयो मूलगुणास्तद्रूपं प्रत्याख्यानं–निवृत्तिर्मूलगुणविषयं वा प्रत्याख्यानम्-अभ्युपगमो मूलगुणप्रत्याख्यानं 'उत्तरगुणपच्चक्खाणे य' त्ति मूलगुणापेक्षयोत्तरभूता गुणा वृक्षस्य शाखा इवोत्तरगुणास्तेषु प्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानम्। ७/३० 'सव्वमूलगुणे' त्यादि सर्वथा मूलगुणप्रत्याख्यानं सर्वमूलगुण प्रत्याख्यानं देशतो मूलगुणप्रत्याख्यानं देशमूलगुणप्रत्याख्यानं, तत्र सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं सर्वविरतानां देशमूलगुणप्रत्याख्यानं तु देशविरतानाम्। ७/३४ 'अणागय' गाहा, अनागतकरणादनागतं पर्यषणादावाचार्यादिवैयावृत्यकरणेनान्तरायसद्भावादारत एव तत्तप: करणमित्यर्थः। आह च"होही पज्जोसवणा मम य, तथा अंतराइयं होज्जा। गुरुवेयावच्चेणं तवस्सि गेलण्णयाए वा ॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जइ तं अणागए काले। एवं पच्चक्खाणं अणागय होइ नायव्वं ॥"इति, एवमतिक्रान्तकरणादतिक्रान्तं, भावना तु प्राग्वत्। उक्तं द्वितीय उद्देशकः प्रथमोद्देशके प्रत्याख्यानिनो वक्तव्यतोक्ता द्वितीये तु प्रत्या ख्यानं निरूपयन्नाह७/२६ 'से नूण' मित्यादि 'सिय सुपच्चक्खायं सिय दुपच्चक्खायं' इति प्रतिपाद्य यत् प्रथमं दुःप्रत्याख्यानत्ववर्णनं कृतं तद्यथासंख्यन्यायत्यागेन यथाऽऽसन्नतान्यायमंगीकृत्येति द्रष्ट व्यम् "पज्जोसवणाइ तवं जो खलु न करेइ कारणज्जाए। गुरुवेयावच्चेणं तवस्सि गेलण्णयाए वा ।। सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जइ तं अइच्छिए काले। एयं पच्चक्खाणं अतिक्कंतं होइ नायव्वं ॥" ति ७/२८ 'नो एवं अभिसमन्नागयं भवति 'त्ति' 'नो' नैव एवम् इति वक्ष्यमाणप्रकारमभिसमन्वागतम् अवगतं स्यात्। Jain Education Intemational Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.२ : सू.३४-४० ५५२ भगवती वृत्ति कोटीसहितमिति–मीलितप्रत्याख्यानद्वयकोटिचर्थादि कृत्वाऽनन्तरमेव चतुर्थादेः करणमित्यर्थः। अवाचि च - "पट्ठवणओ उ दिवसो पच्चक्खाणस्स निट्ठवणओ य। जहियं समेति दोन्नि उ तं भन्नइ कोडिसहियं तु ॥" 'नियंटितं' चेव नितरां यंत्रितं नियंत्रितं प्रतिज्ञातदिनादौ। ग्लानत्वाद्यन्तरायभावेऽपि नियमात्कर्त्तव्यमिति हृदयम्। यदाह"मासे मासे य तवो अमुगो अमुगे दिणंमि एवइयो' हटेण गिलाणेण व कायव्वो जाव ऊसासो॥ एवं पच्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपनत्तं। जं गेण्हंतऽणगारा अणिस्सियप्या अपडिबद्धा ॥" 'साकार मिति आक्रियन्त इत्याकारा:-प्रत्याख्यातापवादहेतवो महत्तराकारादयः सहाकारैर्वर्त्तत इति साकारम्। अविद्यमानाकारमनाकारं-यविशिष्टप्रयोजनसम्भवाभावे कान्तारदुर्भिक्षादौ महत्तराद्याकारमनुच्चारयद्भिर्विधीयते तदनाकारमिति भावः केवलमनाकारेऽपि अनाभोगसहसाकारावुच्चारयितव्यावेव, काष्ठांगुल्यादेर्मुखे प्रक्षेपणतो भंगो मा भूदिति, अतोऽनाभोगसहसाकारापेक्षया सर्वदा साकारमेवेति। 'परिमाणकृतमिति दत्त्यादिभिः कृतपरिमाणम्, अभाणि च"दत्तीहिं व कवलेहि व घरेहिं भिक्खाहिं अहव दव्वेहि। जो भत्तपरिच्चायं करेति परिमाणकडमेयं ।।" निरवशेषं समग्राशनादिविषयं भणितं च "सव्वं असणं सव्वं च पाणगं सव्वखज्जपेज्जविहिं। परिहरइ सव्वभावेणेयं भणियं निरवसेसं ॥" 'साएयं चेव' त्ति केत:- चिह्न सह केतेन वर्त्तते सकेतं, दीर्घता च प्राकृतत्वात्। संकेतयुक्तत्वाद्वा संकेतम्-अंगुष्ठसहितादि। यदाह"अंगुट्ठमुट्ठिगंठीघरसेऊसासथिबुगजोइक्खे। भणियं संकेयमेवं धीरेहिं अणतणाणीहिं॥" 'अद्धाए' त्ति अद्धा-कालस्तस्याः प्रत्याख्यानंपौरुष्यादिकालस्य नियमनम्। आह च "अद्धापच्चक्खाणं जं तं कालप्पमाणछेएणं। पुरिमड्डपोरुसीहिं मुहुत्तमासद्धमासेहिं॥" ७/३५ 'उवभोगपरिभोगपरिमाणं' ति उपभोगः-सकृद्भोग: स चाशनपानानुलेपनादीनां, परिभोगस्तु पुनः पुनर्भोग: स चासनशयनवसनवनितादीनां 'अपच्छिममारणंतियसंलेहणझूसणाराहणय' त्ति पश्चिमैवामंगलपरिहारार्थमपश्चिमा मरणंप्राणं त्यागलक्षणम्। इह यद्यपि प्रतिक्षणमावीचीमरणमस्ति तथापि न तद्गृह्यते। किं तर्हि? विवक्षितसर्वायुष्कक्षयलक्षणमिति। मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी, संलिख्यते—कृशीक्रियतेऽनया शरीरकषायादिति संलेखनातयोर्विशेषलक्षणा तत: कर्मधारयाद् अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना तस्या जोषणं-सेवनं तस्याराधनम्-अखण्डकालकरणं तद्भावः-अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषणाराधनता। इह च सप्त दिग्वतादयो देशोत्तरगणा एव, संलेखना तु भजनया तथाहि-सा देशोत्तरगुणवतो देशोत्तरगुण: आवश्यके तथाऽभिधानात्, इतरस्य तु सर्वोत्तरगुण: साकारानाकारादिप्रत्याख्यानरूपत्वादिति संलेखनामविगणय्य सप्त देशोत्तरगुणा इत्युक्तम्। अस्याश्चैतेषु पाठो देशोत्तरगुणधारिणाऽपीयमन्ते विधातव्य इत्यस्यार्थस्य ख्यापनार्थ इति। अथोक्तभेदेन प्रत्याख्यानेन तविपर्ययेण च जीवादिपदानि विशेषयन्नाह७/३६ ‘जीवाण' मित्यादि ७/३९ 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जीव' ति मूलगुणप्रत्याख्यानिन उत्तरगुणप्रत्याख्यानिनोऽप्रत्याख्यानिनश्च नवरं पञ्चेन्द्रियतिर्यंचो देशत एव मूलगुणप्रत्याख्यानिनः सर्वविरतेस्तेषामभावत्। इह चोक्तं गाथया"तिरियाणं चारित्तं निवारियं अह य तो पुणो तेसिं। सुव्वइ बहुयाणं चिय महव्वयारोवणं समए ।" परिहारोऽपि गाथयैव"न महव्वयसब्भावेऽवि चरणपरिणामसंभवो तेसिं। न बहुगुणाणंपि जहा केवलसंभूइपरिणामो॥" अथ मूलगुणप्रत्याख्यानादिमतामेवाल्पत्वादि चिन्तयति७/४० 'एएसि ण' मित्यादि 'सव्वथोवा जीवा मूलगुणपच्चक्खा णी' त्ति देशतः सर्वतो वा ये मूलगुणवन्तस्ते स्तोका: देशसर्वाभ्यामुत्तरगुणवतामसंख्येयगुणत्वात्, इह च सर्वविरतेषु ये उत्तरगुणवन्तस्तेऽवश्यं मूलगुणवन्तः, मूलगुणवन्तस्तु स्यादुत्तरगुणवन्त: स्यात्तद्विकला:, य एव च तद्विकलास्त एवेह मूलगुणवन्तो ग्राह्याः, ते चेतरेभ्य स्तोका एवं। बहुतरयतीनां दशविधप्रत्याख्यानयुक्तत्वात्। तेऽपि च मूलगुणेभ्यः संख्यातगुणा एव नासंख्यातगुणाः, सर्वयतीनामपि संख्यातत्वात्। देशविरतेषु पुनर्मूलगुणवद्भ्यो भिन्ना अपि उत्तरगुणिनो Jain Education Intemational Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५५३ श.७: उ.२: सू.४०-उ.३:सू.६६ ७/५९ ‘दव्वट्ठयाए' त्ति जीवद्रव्यत्वेनेत्यर्थः। 'भावट्ठयाए' त्ति नारकादिपर्यायात्वेनेत्यर्थः। ॥ सप्तमशते द्वितीयोद्देशकः ॥ लभ्यन्ते। ते च मधुमांसादिविचित्राभिग्रहवशाबहुतरा भवन्तीति कृत्वा देशविरतोत्तरगुणवतोऽधिकृत्योत्तरगुणवतां मूलगुणवद्भ्योऽसंख्यातगुणत्वं भवति, अतएवाह---'उत्तरगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगुण' त्ति 'अपच्चक्खाणी अणंतगुण' त्ति मनुष्यपंचेन्द्रियतिर्यंच एव प्रत्याख्यानिनोऽन्ये त्वप्रत्याख्यानिन एव वनस्पति-प्रभृतिकत्वात्तेषामनन्तगुणत्वमिति। मनुष्यसूत्रे७/४२ 'अपच्चक्खाणी असंखेज्ज गुणे' त्ति यदुक्तं तत्संमूर्छिम मनुष्यग्रहणेनावसेयमितरेषां संख्यातत्वादिति। ७/५०,५१ ‘एवं अप्पाबहुगाणि तिण्णिवि जहा पढमिल्लए दंडए' त्ति तत्रैकं जीवानामिदमेव द्वितीयं पंचेन्द्रियतिरश्चा, तृतीयं तु मनुष्याणाम्, एतानि च यथा निर्विशेषणगुणादिप्रतिबद्ध दण्डके उक्तानि एवमिह त्रीण्यपि वाच्यानि। विशेषमाह'नवर' मित्यादि ‘पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा व एवं चेव' त्ति यथा जीवा: सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानादय उक्ता एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च वाच्याः, इह च पंचेन्द्रियतिर्यञ्चोऽपि सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानिनो भवन्तीत्यवसेयम्, देशविरतानां देशतः सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानस्याभिमतत्वादिति। मूलगुणप्रत्याख्यानिप्रभृतयश्च संयतादयो भवन्तीति संयता दिसूत्रम्७/५४ 'तिष्णिवि' त्ति जीवास्त्रिविधा अपीत्यर्थः ‘एवं जहेवे' त्यादि एवं अनेनाभिलापेन यथैव प्रज्ञापनायां तथैव सूत्रमिदमध्येयम्।, तच्चैवं-'नेरइया णं भंते!' किं संजया असंजया संजयासंजया? गोयमा! नो संजया असंजया नो संजयासंजये त्यादि। 'अप्पा' इत्यादि, अल्पबहुत्वं संयतादीना तथैव यथा प्रज्ञापनायामुक्तं 'तिण्हवि' त्ति जीवानां पंचेद्रियतिरश्चां मनुष्याणां च, तत्र सर्वस्तोका: संयता जीवाः, संयतासंयता असंख्येयगुणाः, असंयतास्त्वनन्तगुणाः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चस्तु सर्वस्तोका: संयतासंयता: असंयता: असंख्येयगुणाः, मनुष्यास्तु सर्वस्तोका: संयता: संयतासंयता: संख्येयगुणा: असंयता असंख्येयगुणा इति। संयतादयश्च प्रत्याख्यानादित्वे सति भवन्तीति प्रत्याख्यान्यादिसूत्रम्-ननु षष्ठशते चतुर्थोद्देशके प्रत्याख्यान्यादयः प्ररूपिता इति किं पुनस्तत्प्ररूपणेन? सत्यमेतत् किन्त्वल्पबहुत्वचिन्तारहितास्तत्र प्ररूपिता, इह तु तद्युक्ताः सम्बन्धान्तरद्वारायाताश्चेति। जीवाधिकारात्तच्छाश्वतत्वसूत्राणि-तत्र च तृतीय उद्देशकः जीवाधिकारप्रतिबद्ध एव तृतीयोद्देशकस्तत्सूत्रम् च७/६२ 'वणस्सइकाइया णं भंते! इत्यादि, 'कं कालं' ति कस्मिन् काले ‘पाउसे' त्यादि प्रावृडादौ बहुत्वाज्जलस्नेहस्य महाहारतोक्ता, प्रावृट् श्रावणादिवर्षारात्रोऽश्वयुजादिः, 'सरदे' त्ति शरद् मार्गशीर्षादिस्तत्र चाल्पाहारा भवन्तीति ज्ञेयम्।, ग्रीष्मे सर्वाल्पाहारतोक्ताऽत एव च शेषेष्वप्यल्पाहारता क्रमेण द्रष्टव्येति, ७/६३ 'हरियगरेरिज्जमाणे' त्ति हरितकाश्च ते नीलका रेरिज्जमानाश्च -देदीप्यमाना हरितकरेरिज्यमानाः ‘सिरिए' त्ति वनलक्ष्म्या 'उसिणजोणिय' त्ति उष्णमेव योनिर्येषां ते उष्णयोनिकाः, ७/६४ 'मूला मूलजीवफुड' त्ति मूलानि-मूलजीवैः स्पृष्टानि व्याप्ता नीत्यर्थः, यावत्करणात् 'खंधा खंधजीवफुडा एवं तया साला पवाला पत्ता पुष्फा फल 'त्ति दृश्यम्। ७/६५ 'जइ ण' मित्यादि, यदि भदन्त! मूलादीन्येव मूलादिजीवैः स्पृष्टानि तदा ‘कम्ह' त्ति कस्मात् केन हेतुना कथमित्यर्थः वनस्पतय: आहारयन्ति?, आहारस्य भूमिगतत्वात् मूलादिजीवानां च मूलादिव्याप्त्यैवावस्थित्वात् केषाञ्चिच्च् परस्परव्यवधानेन भूमेर्दूरवर्तित्वादिति, अत्रोत्तरं, मूलानि मूलजीवस्पृष्टानि केवलं पृथिवीजीवप्रतिबद्धानि 'तम्ह' त्ति तस्मात् तत्प्रतिबन्धाद्धेतोः पृथिवीरसं मूलजीवा आहारयन्तीति, कन्दा: कन्दजीवस्पृष्टाः केवलं मूलजीवप्रतिबद्धाः तस्मात् तत्प्रतिबन्धात् मूलजीवोपात्तं पृथिवीरसमाहार वन्तीत्येवं स्कन्धादिष्वपि वाच्यम्। ७/६६ 'आलुए' इत्यादि, एते चानन्तकायभेदा लोकरुढिगम्याः। 'तहप्पगार' त्ति तथाप्रकारा: आलुकादिसदृशाः 'अणंतजीव' त्ति अनन्ता जीवा येषु ते तथा 'विविहसत्त' त्ति विविधा-बहुप्रकारा वर्णादिभेदात् सत्त्वा येषामनन्तकायिकवनस्पतिभेदानां ते तथा, अथवैकस्वरूपैरपि जीवैरेषामनन्त जीविता स्यादित्याशंकायामाह विविधा-विचित्रकर्मतयाऽनेकविधाः सत्त्वा येषु ते तथा, 'विवित्तविहिसत्ते२ त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्र विचित्रा विधयो १. अप्रतौ अथचैकस्वरूपैरपि २. विचिताविहिसत्ते त्ति क्वचित् Jain Education Intemational Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.३ : सू.६६-उ.५: सू.९९ ५५४ भगवती वृत्ति भेदा येषां ते तथा ते सत्वा येषु ते तथा। जीवाधिकारादेवेदमाह७/६७ 'सिय भंते! कण्हलेसे नेरइए' इत्यादि, ७/६८ 'ठिति पडुच्च' त्ति अत्रेयं भावना-सप्तमपृथिवीनारकः कृष्णलेश्यस्तस्य च स्वस्थितौ बहक्षपितायां तच्छेषे वर्तमाने पञ्चमपृथिव्यां सप्तदशसागरोपमस्थिति रको नीललेश्य: समुत्पन्नः। तमपेक्ष्य स कृष्णलेश्योऽल्पकर्मा व्यपदिश्यते, एवमुत्तरसूत्राण्यपि भावनीयानि। ७/७१ 'जोइसियस्स न भण्णई' त्ति एकस्या एव तेजोलेश्यायास्तस्य सद्भावात् संयोगो नास्तीति। सलेश्या जीवाश्च वेदनावन्तो भवन्तीति वेदनासूत्राणि७/७५ 'कम्मं वेयण' त्ति उदयं प्राप्तं कर्म वेदना धर्मधर्मिणोर भेदविवक्षणात, 'नो कम्मं निज्जरे' त्ति काभावो निर्जरा तस्या एवंस्वरूपत्वादिति। 'नो कम्मं निज्जरेंसु' त्ति वेदितरसं कर्म नोकर्म तन्निजरितवन्तः, कर्मभूतस्य कर्मणो निर्जरणासंभवादिति। पूर्वकृतकर्मणश्च वेदना तद्वतां च कथञ्चिच्छाश्वतत्वे सति युज्जते इति। तच्छाश्वतत्वसूत्राणि, तत्र च ७/९४ 'अव्वोच्छित्तिणयट्ठयाए' त्ति अव्यवच्छित्तिप्रधानो नयोऽव्यव च्छित्तिनयस्तस्याथों-द्रव्यमव्यवच्छित्तिनयार्थस्तद्भावस्तत्ता तयाऽव्यवच्छित्तिनयार्थतया-द्रव्यमाश्रित्य शाश्वता इत्यर्थः 'वोच्छित्तिणयट्ठयाए' त्ति व्यवच्छित्तिप्रधानो यो नयस्तस्य योऽर्थः पर्यायलक्षणस्तस्य यो भावः सा व्यवच्छित्तिनयार्थता तथा पर्यायानाश्रित्य अशाश्वता नारका इति। ॥ सप्तमशते तृतीयोद्देशक : ॥ तंजहा–समत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा' अत एवोक्तं 'जाव सम्मत्ते' त्यादि। वाचनान्तरे त्विदं दृश्यते "जीवा छव्विह पुढवी जीवाण ठिती भवट्ठिती काए। निल्लेवण अणगारे किरिया सम्मत्त मिच्छते त्ति ।" तत्र च षड्विधा जीवा दर्शिता एव, ‘पुढवि' त्ति षड्विधा बादरपृथ्वी श्लक्ष्णा, शुद्धा, वालुका मनःशिला शर्करा खरपृथिवीभेदात्। तथैषामेव प्रथिवीभेदजीवानां स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तादिका यथायोगं द्वाविंशतिवर्षसहस्रान्ता वाच्या। तथा नारकादिषु भवस्थितिर्वाच्या, सा च सामान्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तादिका त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमान्ता। तथा कायस्थितिर्वाच्या, सा च जीवस्य जीवकाये सर्वाद्धमित्येवमादिका। तथा निर्लेपना वाच्या, सा चैवं--प्रत्युत्पन्नपृथिवीकायिका: समयापहारेण जघन्यपदेऽसंख्याताभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते। एवमुत्कृष्टपदेऽपि, किन्तु जघन्यपदादुत्कृष्टपदमसंख्येयगुणमित्यादि। 'अणगारे' ति अनगारवक्तव्यता वाच्या, सा चेयम्अविशुद्धलेश्याऽनगारोऽसमवहतेनात्मनाऽविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारं जानाति? नायमर्थ? इत्यादि। 'किरियासम्मत्त मिच्छत्ते' त्ति एवं दृश्यम्। अन्ययूथिका एवमाख्यान्तिएको जीव एकेन समयेन द्वे क्रिये प्रकरोति, सम्यक्त्वक्रियां मिथ्यात्वक्रियां चेति, मिथ्या चैतद्विरोधादिति। ।। सप्तमशते चतुर्थोद्देशक :।। चतुर्थ उद्देशकः तृतीयोद्देशके संसारिण: शाश्वतादिस्वरूपतो निरूपिताश्च तुर्थोद्देशके तु तानेव भेदतो निरूपयन्नाह७/९७ 'कतिविहा ण' मित्यादि ‘एवं जहा जीवाभिगमे' ति एवं च तत्रैतत्सूत्रम्'-पुढविकाइया जाव तसकाइया, से किं तं पुढविकाइया? पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहासुहमपुढविकाइया बायरपुढवीकाइया' इत्यादि, अन्त: पुनरस्य–'एगे जीवे एगेणं समएणं एक्कं किरियं पकरेइ, पंचम उद्देशकः चतुर्थे संसारिणो भेदत उक्ताः, पञ्चमे त तविशेषाणामेव योनिसंग्रहं भेदत आह७/९९ ‘खहयरे' त्यादि ‘जोणीसंगहे' त्ति योनिः- उत्पत्तिजीवस्य तया संग्रहः-अनेकेषामेक शब्दाभिलाप्यत्वं योनिसंग्रह: 'अंडय' त्ति अण्डाज्जायन्ते अण्डजा:--हंसादय: 'पोयय' त्ति पोतबद्वस्त्रवज्जरायुवर्जिततया शुद्धदेहा योनिविशेषाज्जाता: पोतादिव वा उपस्थाज्जाता: पोता इव वा वस्त्रसंमार्जिता इव जाता: पोतजाः वल्गुल्यादयः 'समुच्छिम' त्ति संमूच्छेनयोनिविशेषधर्मेण निर्वृत्ताः संमूर्च्छिमा:-वहिकादयः ‘एवं जहा जीवाभिगमे' त्ति एवं च तत्रेतत्सूत्रम्-'अंडया तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसया, एवं पोययावि, तत्थ णं जे ते संमूच्छिमा ते सव्वे नपुंसगा' इत्यादि, १. क्वचित उत्पत्तिहेतुर्जीवस्य २. अप्रतौ योनिस्थानाज्जाता:। क्वचितमपि - बोहित्थाज्जाता: Jain Education Intemational Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५५५ श.७: उ.५:सू.९९-उ.६:सू.११७ एतदन्तसूत्रं त्वेवम्-'अत्थि णं भंते! विमाणाई विजयाई वेजयंताई जयंताई अपराजियाइं? हंता अत्थि, ते णं भंते! विमाणा केमहालया पण्णत्ता? गोयमा! जावइयं च णं सूरिए उदेइ जावइयं च णं सूरिए अस्थमेइ यावताऽन्तरेणेत्यर्थः एवंरूवाइं नव उवासंतराइं अत्थेगइयस्स देवस्स एगे विक्कमे सिया से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाव दिव्वाए देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे जाव एगाहं वा दुयाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे वीईवएज्ज, त्ति, शेषं तु लिखितमेवास्ते एतदेव च पर्यन्तसूत्रतया यावत्करणेन दर्शितमिति। वाचनान्तरेत्विदं दृश्यते"जोणिसंगहलेसा दिट्ठी णाणे य जोग उवओगे। उववायठिइसमुग्घायचवणजाईकुलविहीओ।" तत्र योनिसंग्रहो दर्शित एव, लेश्यादीनि त्वर्थतो दर्श्यन्तेएषां लेश्या: षड् दृष्टयस्तिस्र: ज्ञानानि त्रीणि आद्यानि भजनया अज्ञानानि तु त्रीणि भजनयैव योगास्त्रयः। उपयोगौ द्वौ उपपात: सामान्यतश्चतसृभ्योऽपि गतिभ्यः स्थितिरन्तर्मुहूर्तादिका पल्योपमासंख्येयभागपर्यवसाना समुद्घाता: केवल्याहारकवर्जा: पंच तथा च्युत्वा ते गतिचतुष्टयेऽपि यान्ति तथैषां जातौ द्वादश कुलकोटीलक्षा भवन्ति। ।। सप्तमशते पञ्चमोद्देशकः ॥ ७/११४ 'अदुक्खणयाए' त्ति दु:खस्य करणं दु:खनं तदविद्यमानं यस्यासावदुःखनस्तद्भावस्तत्ता तया अदु:खनतया अदु:खकरणेनेत्यर्थः, एतदेव प्रपञ्च्यते-'असोयणयाए' त्ति दैन्यानुत्पादेन। 'अजूरणयाए' त्ति शरीरापचयकारिशोकानुत्पादनेन। 'अतिप्पणयाए' त्ति अश्रुलालादिक्षरणकारणशोकानुत्पादनेन 'अपिट्टणयाए' त्ति यष्ट्यादिताडनपरिहारेण। 'अपरियावणयाए' त्ति शरीरपरितापानुत्पादनेन। दुःखप्रस्तावादिदमाह७/११७ 'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि 'उत्तमकट्ठपत्ताए' त्ति परमकाष्ठाप्राप्तायां, उत्तमावस्थायां गतायामित्यर्थः। परमकष्टप्राप्तायां वा। 'आगारभावपडोयारे' त्ति आकारभावस्य-आकृतिलक्षणपर्यायस्य प्रत्यवतारोऽवतरणम् आकारभावप्रत्यवतार: 'हाहाभूए' त्ति हाहाइत्येतस्य शब्दस्य दुःखार्तलोकेन करणं हाहोच्यते तद्भूतः-प्राप्तो यः कालः स हाहाभूतः। 'भंभाभूए' त्ति भां भा इत्यस्य शब्दस्य दुःखार्तगवादिभि: करणं भंभोच्यते तद्भूतो यः स भंभाभूत। भम्भा वा-भेरी सा चान्तः शून्या ततो भम्भेव य: कालो जनक्षयाच्छ्न्यः स भम्भाभूत उच्यते। 'कोलाहलभूए' त्ति कोलाहल इहार्तशकुनिसमूहध्वनिस्तं भूत: -प्राप्त: कोलाहलभूतः। 'समयसमाणुभावेण य णं' ति कालविशेषसामर्थ्येन च णमित्यलंकारे 'खरफरुसधूलिमइल' त्ति खरपरुषा:-अत्यन्तकठोरा धूल्या च मलिना ये वातास्ते तथा 'दुविसह' ति दुःसहा 'वाउल' त्ति व्याकुला असमंजसा इत्यर्थः 'संवट्टय' त्ति तृणकाष्ठादीनां संवर्तकाः ‘इह' त्ति अस्मिन् काले 'अभिक्खं' त्ति अभीक्ष्णं 'धूमाहिति य दिसं' ति धूमायिष्यन्ते च–धूममुद्वमिष्यन्ति दिश: पुन: किंभूतास्ता:? इत्याह-'समंता रउस्सल' त्ति समन्तात्-सर्वतो रजस्वलारजोयुक्ता अत एव 'रेणुकलुसतमपडलनिरालोगा' रेणुनाधूल्या कलुषा–मलिना रेणुकलुषा: तमपटलेन-अन्धकारवन्देन निरालोका:-निरस्तप्रकाशो निरस्तदृष्टिप्रसरा वा तम:पटलनिरालोका: ततः कर्मधारयः ‘समयलुक्खयाए णं' कालरूक्षतया चेत्यर्थ: ‘अहिय' न्ति अधिकम् 'अहितं वा' अपथ्यं। 'मोच्छंति' त्ति मोक्ष्यन्ति स्रक्ष्यन्ति 'अदुत्तरं च' त्ति अथापरं च 'अरसमेह' त्ति अरसा-अमनोज्ञा मनोज्ञरसवर्जितजला ये मेघास्ते तथा 'विरसमेह' त्ति विरुद्धरसा मेघाः एतदेवाभिव्यज्यते-'खारमेह' त्ति सर्जादिक्षारसमानरसजलोपेतमेघा: 'खत्तमेह' त्ति करीषसमानरसजलोपेतमेघाः, 'खट्टमेह' ति क्वचिदृश्यते तत्राम्लजला इत्यर्थः। 'अग्गिमेह' त्ति अग्निवद्दाहकारिजला इत्यर्थः। 'विज्जमेह' त्ति विद्युत्प्रधाना एव जलवर्जिता इत्यर्थः। विद्युन्निपातवन्तो वा विद्युन्निपातकार्यकारिजलनिपातवन्तो वा, "विसमेह' ति जनमरणहेतु षष्ठ उद्देशकः अनन्तरं योनिसंग्रहादिरर्थ उक्तः, स चायुष्मतां भवतीत्या युष्कादिनिरूपणार्थ: षष्ठ७/१०३ तत्र च 'एगंतदुक्खं वेयणं' ति सर्वथा दुःखरूपां वेदनीय कर्मानुभूतिम् 'आहच्च सायं' ति कदाचित्सुखरूपां नरक पालादीनामसंयोगकाले, ७/१०४ ‘एगंत सायं' ति भवप्रत्ययात् 'आहच्च असायं' ति प्रहाराद्युपनिपातात्। ७/१०७ 'कक्कसवेयणिज्जाकम्म' त्ति कर्कशैः-रौद्रदुःखैवेद्यते यानि तानि कर्कशवेदनीयानि स्कन्दकाचार्यसाधूनामिवेति।। ७/११० 'अक्ककसवेयणिज्जे' त्ति अकर्कशेन–सुखेन वेद्यन्ते यानि तान्यकर्कशवेदनीयानि भरतादीनामिव। ७/१११ 'पाणाइवायवेरमणेण' ति संयमेनेत्यर्थः। नारकादीनां तु संयमाभावात्तदभावोऽवसेयः। Jain Education Intemational Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७ : उ.६: सू.११७-११९ ५५६ भगवती वृत्ति जला इत्यर्थ: 'असणिमेह' त्ति करकादिनिपातवन्तः। पर्वतादिदारणसमर्थजलत्वेन वा वज्रमेघाः। 'अपिवणिज्जोदग' त्ति अपातव्यजला: अजवणिज्जोदए' त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्रायापनीयं—न यापनाप्रयोजनमुदकं येषां ते अयापनीयोदकाः। 'बाहिरोगवेदणोदीरणापरिणामसलिल' त्ति व्याधय:-स्थिरा: कृष्ठादयो रोगा:-सद्योघातिन: शूलादयस्तज्जन्याया वेदनाया योदीरणा सैव परिणामो यस्य सलिलस्य तत्तथा। तदेवंविधं सलिलं येषां ते तथाऽत एवामनोज्ञापनीयकाः। 'चंडानिलपहयतिक्खधारानिवायपउरं' ति चण्डानिलेन प्रहतानां तीक्ष्णानां वेगवतीनां धाराणां यो निपातः स प्रचुरो यत्र वर्षे स तथाऽतस्तं 'जेणं' ति येन वर्षेण करणभूतेन पूर्वोक्तविशेषणा मेघा विध्वंसयिष्यन्तीति सम्बन्धः 'जणवयं' ति मनुष्यलोकं 'चउप्पयगवेलए' त्ति इह चतुष्पदशब्देन महिष्यादयो गृह्यन्ते गोशब्देन गाव: एलकशब्देन तु उरभ्राः। 'खहयरे' त्ति खेचरांश्च कान्? इत्याह-'पक्खिसंघे' त्ति पक्षिसंघातान् तथा 'गामारण्णपयारनिरए' त्ति ग्रामारण्ययोर्यः प्रचारस्तत्र निरता ये ते तथा तान्, कान्? इत्याह-'तसे पाणे बहुप्पयारे' त्ति द्वीन्द्रियादीनित्यर्थः। ‘रुक्खे' त्यादि, तत्र वृक्षा:-चूतादय: गुच्छा-वृन्ताकीप्रभृतयः गुल्मा-नवमालिकाप्रभृतयः, लता -अशोकलतादयः, वल्ल्यो:-वालुंकीप्रभृतयः तृणानिवीरणादीनि, पर्वगा- इक्षुप्रभृतयः, हरितानि-दूर्वादीनि, औषध्य:--- शाल्यादय: प्रवाला:-पल्लवांकुराः, अंकुरा:शाल्यादिबीजसूचयः। ततो वृक्षादीनां द्वन्द्वस्ततस्ते आदिर्येषां ते तथा तांश्च, आदिशब्दात् कदल्यादिवलयानि पद्मादयश्च जलजविशेषा ग्राह्याः। कानेवंविधान्? इत्याह—'तणवणस्सइकाइए' त्ति बादरवनस्पतीनित्यर्थः 'पव्वए' त्यादि, यद्यपि पर्वतादयोऽन्यत्रैकार्थतया रूढास्तथापीह विशेषो दृश्य:। तथाहि पर्वतननात्-उत्सवविस्तारणात्पर्वता:-क्रीडापर्वता उज्जयन्तवैभारादयः। गृणन्ति-शब्दायंते जननिवासभूतत्वेनेति गिरय:--गोपालगिरिचित्रकूटप्रभृतयः, डुंगानां-शिलावृन्दानां चौरवृन्दानां चास्तित्वात्, डुंगरा:-शिलोच्चयमात्ररूपाः ‘उत्थल' त्ति उत्-उन्नतानि स्थलानि धूल्युच्छ्रयरूपाण्युत्स्थलानि, क्वचिदुच्छब्दो न दृश्यते ‘भट्ठि' त्ति पादिवर्जिता भूमयस्तत एषां द्वन्द्वस्ते आदिर्येषां ते तथा तान्, आदिशब्दात् प्रासादशिखरादिपरिग्रहः 'विरावेहिति' ति विद्रावयिष्यन्ति, 'सलिले' त्यादि सलिलबिलानि च भूमिनिर्झरा गर्ताश्चश्वभ्राणि दुर्गाणि च-खातवलयप्राकारादिदुर्गमाणि, विषमाणि च विषमभूमिप्रतिष्ठितानि निम्नोन्नतानि च प्रतीतानि द्वन्द्वोऽतस्तानि। ७/११८ 'तत्तसमजोइभूय' त्ति तप्तेन-तापेन समा:-तल्या: ज्योतिषा वह्निना भूता-जाता या सा तथा 'धूलीबहुले' त्यादौ धूली:पांशुः रेणुः–वालुका पंक:- कर्दमः पनक:--प्रत्तल: कर्दमविशेष:। चलनप्रमाण: कर्दमश्चलनीत्युच्यते, 'दुन्निक्कम' त्ति दुःखेन नितरां क्रम:-क्रमणं यस्यां सा दुर्निक्रमा। ७/११९ 'दुरूव' ति दुःस्वभावा 'अणाएज्जवयणपच्चायाए' त्ति अनादेयवचनप्रत्याजाते येषां ते तथा, प्रत्याजातं तु जन्म, 'कूडे' त्यादौ कूटं- भ्रान्तिजनकद्रव्यं, कपट-वञ्चनाय वेषान्तरादिकरणम् 'गुरुनिओगविणयरहिया य' त्ति गुरुषुमात्रादिषु नियोगेन–अवश्यंतया यो विनयस्तेन रहिता ये ते तथा, च समुच्चये 'विकलरूव' त्ति असम्पूर्णरूपाः। 'खरफरुसज्झामवण्ण' त्ति खरपरुषा: स्पर्शतोऽतीवकठोरा:, ध्यामवर्णा-अनुज्ज्वलवर्णास्तत: कर्मधारय: ‘फुट्टसिर' त्ति विकीर्णशिरोजा इत्यर्थः ‘कविलपलियकेस' त्ति कपिला: पलिताश्च-शुक्ला: केशा येषां ते तथा 'बहुण्हारुसंपिणद्धदुईसणिज्जरूव' त्ति बहुस्नायुभिः संपिनद्धं-बद्धं अत एव दुःखेन दर्शनीयं रूपं येषां ते तथा, 'संकुडियवलीतरंगपरिवेढियंगमंगा' संकुटितं वलीलक्षणतरंगैः परिवेष्टितं चांगं येषां ते तथा क इव? इत्यत आह-'जरापरिणयव्व थेरयणर' त्ति जरापरिगतस्थविरनरा इवेत्यर्थः, स्थविराश्चान्यथाऽपि व्यपदिश्यन्त इति जरापरिणतग्रहणं, तथा 'पविरलपरिसडियदंतसेढी' प्रविरला दन्तविरलत्वेन परिशटिता च दन्तानां केषांचित्पतितत्वेन भग्नत्वेन वा दन्तश्रेणिर्येषां ते तथा, 'उब्भडघडमुह' त्ति उद्भटं-विकरालं घटकमुखमिव मुखं तुच्छदशनच्छदत्वाद्येषां ते तथा 'उन्भडघाडामुह' त्ति क्वचित् तत्र उद्भटे स्पष्टे घाटामुखे-शिरोदेशविषयौ येषां ते तथा 'वंकवलीविगयभेसणमुह' त्ति वंकं-वक्रं पाठान्तरेण व्यङ्ग-सलाञ्छनं वलिभिर्विकृतं च बीभत्सं भेषणं-भयजनक मुखं येषां ते तथा 'कच्छूकसराभिभूया' कच्छू:- पामा तया कशरैश्च-खशरैरभिभूता-व्याप्ता ये ते तथा, अत एव 'खरतिक्खनखकंडुइयविक्खयतण' त्ति खरतीक्ष्णनखानां कण्डूयितेन विकृता-कृतव्रणा तनु:-शरीरं येषां ते तथा, 'दकिडिभसिंझफुडियफरुसच्छवि' त्ति दद्रुकिडिभसिध्मानि क्षुद्रकुष्ठविशेषास्तत्प्रधाना स्फुटिता परुषा च छवि:शरीरत्वग् येषां ते तथा, अतएव 'चित्तलंग' त्ति कर्बुरावयवाः टोले त्यादि, टोलगतयः-उष्ट्रादिसमप्रचारा: पाठान्तरेण टोलाकृतयः-अप्रशस्ताकाराः। विषमाणि ह्रस्वदीर्घत्वादिना सन्धिरूपाणि बन्धनानि येषां ते विषमसन्धिबन्धना: उत्कुटुकानि-यथास्थानमनिविष्टानि अस्थिकानि-कीकसानि विभक्तानीव च-दृश्यमानान्तरालानीव येषां ते उत्कुटुकास्थिकविभक्ताः अथवोत्कुटुकास्थितास्तथास्व Jain Education Intemational Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५५७ श.७: उ.६: सू.११७-उ.७: सू.१३३ त्ति मधुभोजिन: भूक्षोदेन वाऽऽहारो येषां ते क्षोदाहारा:। 'कुणिमाहारे' ति कुणपः-शवस्तद्रसोऽपि वसादिः कणपस्तदाहाराः। ते णं' ति ये तदानी क्षीणावशेषाश्चतुष्पदाः केचन भविष्यन्ति। ७/१२२ 'अच्छ' त्ति ऋक्षा: 'तरच्छ' त्ति व्याघ्रविशेषाः। 'परस्सर' त्ति शरभा:, ७/१२३ 'ढंक' त्ति काका: 'मद्दुग' त्ति मद्गवो-जलवायसा: 'सिहि' त्ति मयूराः। ॥ सप्तमशते षष्ठोद्देशकः ॥ भावत्वादविभक्ताश्च-भोजनविशेषरहिता ये ते तथा, दुर्बलाबलहीनाः, कुसंहनना–सेवार्तसंहनना: कुप्रमाणा:-प्रमाणहीना: कुसंस्थिता:-दुसंस्थाना: तत एषां 'टोलगे' त्यादिपदानां कर्मधारयः, अतएव 'कुरूव' त्ति कुरूपाः 'कुट्ठाणासणकुसेज्जकुभोइणो' त्ति कुत्सिताश्रयविष्टरदुःशयनदुभोंजना: 'असुइणो' ति अशुचयः स्नानब्रह्मचर्यादिवर्जितत्वात्। अश्रुतयो वा शास्त्रवर्जिताः, 'खलंतविब्भलगति' त्ति खलन्ती-स्खलन्ती विह्वला च -अर्दवितर्दा गतिर्येषां ते तथा अनेकव्याधिरोगपीडितत्वात् 'विगयचेट्ठानट्ठतेय' त्ति विकृतचेष्टानष्टतेजसश्चेत्यर्थ: 'सीए' त्यादि शीतेनोष्णेन खरपरुषवातेन 'च विज्झडिय' 'त्ति मिश्रितं व्याप्तमित्यर्थ: मलिनं च पांशुरूपेण रजसा द्रव्यरसजेत्यर्थः 'उग्गुंडियं' ति उद्धलित च अंगं अंगं येषां ते तथा 'असुह-दुक्खभागि' त्ति दु:खानुबन्धिदुःखभागिन इत्यर्थः 'ओसणं' ति बाहुल्येन। 'धम्मसण्ण' त्ति धर्मश्रद्धाऽवसन्ना गलिता सम्यक्त्वभ्रष्टा रयणिपमाणमेत्तं' त्ति रत्ने:-हस्तस्य यत्प्रमाणम्-अंगुलचतुर्विंशतिलक्षणं तेन मात्रा---परिमाणं येषां ते रत्निप्रमाणमात्रा: 'सोलसवीसइवासपरमाउसो' त्ति इह कदाचित् षोडश वर्षाणि, कदाचिच्च विंशतिर्वर्षाणि परमायुर्वेषां ते तथा 'पुत्तनतुपरियालपणयबहुल' त्ति पुत्रा:-सुता: नप्तार:-पौत्रा दौहित्राश्च एतल्लक्षणो य: परिवारस्तत्र यः प्रणयः-स्नेह : स बहुलो-बहुर्येषां ते, तथा पाठान्तरे ‘पुत्तनत्तुपरिपालणबहुल' त्ति तत्र च पुत्रादीनां परिपालनं बहुलं बाहुल्येन येषां ते, तथा अनेन अल्पायुष्कत्वेऽपि बह्वपत्यता तेषामुक्ताऽल्पेनापि कालेन यौवनसद्भावादिति। 'निस्साए' ति निश्राय—निश्रां कृत्वेत्यर्थः 'निओय' त्ति निगोदा:-कुटुम्बानीत्यर्थः। 'बीयं' ति बीजमिव बीजं भविष्यतां जनसमूहानां हेतुत्वात् 'बीयमेत्त' ति बीजस्येव मात्रा-परिमाणं येषां ते बीजमात्रा: स्वल्पा: स्वरूपत इत्यर्थः।। ७/१२० 'रहपह' त्ति रथपथ:-शकटचक्रद्वयप्रमितो मार्गः 'अक्खसोयप्पमाणमेत्त' ति अक्षश्रोत:-चक्रधुरः प्रवेशरन्ध्र तदेव प्रमाणमक्षश्रोत:प्रमाणं तेन मात्रा-परिमाणमवगाहतो यस्य तत्तथा 'वोज्झिहिंति' वक्ष्यतः। 'आउबहुले' त्ति बहप्कायमित्यर्थः 'निद्धाहिति' त्ति निर्धाविष्यन्ति निर्गमिष्यन्ति: 'गाहेहिंति' ति 'ग्राहयिष्यन्ति' प्रापयिष्यन्ति स्थलेषु स्थापयिष्यन्तीत्यर्थ 'वित्तिं कप्पेमाणे' ति जीविकां कुर्वन्तः। ७/१२१ निस्सील' त्ति महाव्रताणुव्रतविकला: 'निग्गुण' त्ति उत्तरगुणविकला: 'निम्मेर' त्ति अविद्यमानकुलादिमर्यादा: 'निपच्चक्खाणपोसहोववास' त्ति असत्पौरुष्यादिनियमा अविद्यमानाष्टम्यादिपर्वोपवासाश्चेत्यर्थः 'ओसन्नं' ति प्रायो मांसाहारा:, कथम्? इत्याह-मत्स्याहारा यतः, तथा 'खोद्दाहार' सप्तम उद्देशकः अनन्तरोद्देशके नरकादावुत्पत्तिरुक्ता, स चासंवृतानां, अथैतविपर्ययभूतस्य संवृतस्य यद्भवति तत्सप्तमोद्देशके आह७/१२५ 'संवुडे' त्यादि। संवृतश्च कामभोगानाश्रित्य भवतीति कामभोगप्ररूपणाय। ७/१२७ 'रूवी' त्यादि सूत्रवृन्दमाह-तत्र रूपं—मूर्तता तदस्ति येषां ते रूपिणः तविपरीतास्त्वरूपिण काम्यन्ते—अभिलष्यन्ते एव न तु विशिष्टशरीरसंस्पर्शद्वारेणोपयुज्यंते ये ते कामा:मनोज्ञाः शब्दा: संस्थानानि वर्णाश्च, अत्रोत्तरं-रूपिणः कामा नो अरूपिणः, पुद्गल- धर्मत्वेन तेषां मूर्तत्वादिति, ७/१२८ 'सचित्ते' त्यादि सचित्ता अपि कामाः समनस्कप्राणिरूपापेक्षया। अचित्ता अपि कामा भवंति शब्दद्रव्यापेक्षयाऽसंज्ञि जीवशरीररूपापेक्षया चेति ७/१२९ 'जीवे' त्यादि, जीवा अपि कामा भवन्ति, जीवशरीररूपापेक्षया, अजीवा अपि कामा भवन्ति शब्दापेक्षया चित्रपुत्रिकादिरूपा पेक्षया चेति। ७/१३० 'जीवाण' मित्यादि, जीवानामेव कामा भवन्ति, कामहेतुत्वात्, अजीवानां न कामा भवन्ति तेषां कामासंभवादिति। ७/१३२ 'रूवि' मित्यादि, भुज्यन्ते—शरीरेण उपभुज्यन्ते इति भोगा: विशिष्टगंधरसस्पर्शद्रव्याणि। 'रूवि भोग' त्ति रूपिणो भोगा नो अरूपिण: पुद्गलधर्मत्वेन तेषां मूर्त्तत्वादिति। ७/१३३ 'सचित्ते' त्यादि, सचित्ता अपि भोगा भवन्ति गन्धादि प्रधानजीवशरीराणां केषांचित्समनस्कत्वात्, तथा अचित्ता अपि भोगा भवन्ति केषांचिद्गन्धादिविशिष्टजीवशरीराणाममनस्कत्वात्। Jain Education Intemational Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.७ : सू.१३३-१५४ ५५८ भगवती वृत्ति ७/१३४ ‘जीवावि भोग' त्ति जीवशरीराणां विशिष्टगन्धादिगुणयुक्त त्वात् , 'अजीवावि भोग' त्ति अजीवद्रव्याणां विशिष्टगन्धादि गुणोपेतत्वादिति। ७/१४५ ‘सव्वत्थोवा कामभोगि' त्ति ते हि चतुरिन्द्रिया: पञ्चेन्द्रियाश्च स्युस्ते च स्तोका एव, 'नो कामी नो भोगि' त्ति सिद्धास्ते च तेभ्योऽनन्तगुणा एव, 'भोगि' त्ति एकद्वित्रीन्द्रियास्ते च तेभ्योऽनन्तगुणा वनस्पतीनामनन्तगणत्वादिति। भोगाधिकारा दिदमाह७/२४६ 'छउमत्थे ण' मित्यादि सूत्रचतुष्टयम्। तत्र च 'से नूणं भंते! से खीणभोगि' त्ति 'से' ति असौ मनुष्य: नूनं निश्चितं भदन्त! 'से' 'ति अर्थार्थः। अथ शब्दश्च परिप्रश्नार्थः ‘खीणभोगि' त्ति भोगो जीवस्य यत्रास्ति तद्भोगि—शरीरं तत्क्षीणं तपोरोगादिभिर्यस्य सः क्षीणभोगी क्षीणतनुर्दुर्बल इति यावत् । ‘णो पभु' त्ति न समर्थ: ‘उट्ठाणेणं' ति ऊर्वीभवनेन 'कम्मेणं' ति गमनादिना ‘बलेणं' ति देहप्राणेन 'वीरिएणं' ति जीवबलेन 'पुरिसक्कारपरक्कमेणं' ति पुरुषाभिमानेन तेनैव च साधितस्वप्रयोजनेनेत्यर्थ: 'भोगभोगाई' ति मनोज्ञशब्दादीन् 'से नूणं भंते! एयमटुं एवं वयह' अथ निश्चितं भदन्त! एतम्-अनन्तरोक्तमर्थमेवम्-अमुनैव प्रकारेण वदथ यूयं? इति प्रश्न: पृच्छतोऽयमभिप्राय:-यद्यसौ न प्रभुस्तदासौ भोगभोजनासमर्थत्वान्न भोगी अत एव न भोगत्यागीत्यत: कथं निर्जरावान्? कथं वा देवलोकगमनपर्यवसानोऽस्तु? उत्तरं तु 'नो इणढे समढे' त्ति, कस्माद्? यत: 'पभू णं से' त्ति स क्षीणभोगी मनुष्य: 'अण्णतराई' ति एकतरान् कांश्चित्क्षीणशरीरसाधूचितानैवं उचितभोगमुक्तिसमर्थत्वाद्भोगित्वं तत्प्रत्याख्याच्च तत्त्यागित्वं ततो निर्जरा ततोऽपि च देवलोकगतिरिति। ७/१४७ 'आहोहिए 'ण' ति आधोऽवधिक: नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी। ७/१४८ ‘परमाहोहिए णं' ति परमाधोऽवधिज्ञानी, अयं च चरमशरीर एव भवतीत्यत आह७/१४८ 'तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए' इत्यादि। अनन्तरं छट्मस्थादिज्ञानवक्तव्यतोक्ता, अथ पृथिव्याद्यज्ञानि वक्तव्यतोच्यते७/१५० 'जे इमे' इत्यादि ‘एगइया तस' त्ति एके केचन न सर्वे संमूर्छिमा इत्यर्थः। अंध चित्त अन्धा इवान्धा-अज्ञाना: 'मूढ' त्ति मूढाः तत्त्वश्रद्धानं प्रति एत एवोपमयोच्यते 'तमं पविट्ठ' त्ति तमः प्रविष्टा इव तम:प्रविष्टाः, 'तमपडलमोहजालपडिच्छन्न' ति तम:पटलमिव तम:पटलं— ज्ञानावरणं मोहोमोहनीयं । तदेव जालं मोहजालं ताभ्यां प्रतिच्छन्ना आच्छादिता येते तथा 'अकामनिकरणं' ति अकामो-वेदनानुभवेऽनिच्छाऽमनस्कत्वात् स एव निकरणं-कारणं यत्र तदकामनिकरणं अज्ञानप्रत्ययमिति भावस्तद्यथा भवतीत्येवं वेदनां सुख:दुखरूपां वेदनं वा-संवेदनं वेदयन्ति अनुभवन्तीति । अथासंज्ञिविपक्षमाश्रित्याह७/१५१ 'अत्थी' त्यादि, अस्त्ययं पक्षो यदुत ‘पभूवि' त्ति प्रभुरपि संज्ञित्वेन यथावद्रूपादिज्ञाने समर्थोऽप्यास्तामसंज्ञित्वेनाप्रभुरित्यपिशब्दार्थ: 'अकामनिकरणं' अनिच्छाप्रत्ययमनाभोगात्। अन्ये त्वाह:- अकामेन अनिच्छया निकरणं क्रियाया -इष्टार्थप्राप्तिलक्षणाया अभावो यत्र वेदने तत्तथा तद्यथा भवतीत्येवं वेदनां वेदयन्तीति प्रश्नः, उत्तरं तु७/१५२ 'जे णं' ति यः प्राणी संज्ञित्वेनोपायसदभावेन च हेयादीनां हानादौ समर्थोऽपि 'नो पहु' त्ति न समर्थो विना प्रदीपेनान्धकारे रूपाणि ‘पासित्तए' त्ति द्रष्टुं, एषोऽकामप्रत्ययं वेदनां वेदयतीति सम्बन्धः। 'पुरओ त्ति अग्रत: 'अणिज्झाएत्ता णं' ति अनिद्ध्याय चक्षुरव्यापार्य 'मग्गओ' त्ति पृष्ठत: 'अणवयक्खित्ता णं' ति अनवेक्ष्य पश्चाद् भागमनवलोक्येति। अकामनिकरणं वेदना वेदयतीत्युक्तम्। अथ तद्विपयर्यमाह७/१५३ 'अत्थि ण' मित्यादि प्रभुरपि संज्ञित्वेन रूपदर्शनसमर्थोऽपि। 'पकामनिकरणं' ति प्रकाम:-ईप्सितार्थाप्राप्तित: प्रवर्द्धमानतया प्रकृष्टोऽभिलाषः। स एव निकरणं-कारणं यत्र वेदने तत्तथा। अन्ये त्वाहुः- प्रकामे—तीव्राभिलाषे सति प्रकामं वा अत्यर्थं निकरणम्-इष्टार्थसाधकक्रियाणामभावो यत्र तत् प्रकामनिकरणं तद्यथा भवतीत्येवं वेदनां वेदयतीति प्रश्नः। उत्तरं त् ७/१५४ 'जे ण' मित्यादि, यो न प्रभुः समुद्रस्य पारं गन्तुं तद्गतद्रव्यप्राप्त्यर्थे सत्यपि तथाविधशक्तिवैकल्यात्, अत एव च यो न प्रभुः समुद्रस्य पारगतानि रूपाणि द्रष्टुं, स तद्गताभिलाषातिरेकात् प्रकामनिकरणं वेदनां वेदयतीति। ।। सप्तमशते सप्तमोद्देशकः ।। १. सातौ अयमथार्थ: क्वचितमपि २. अप्रतौ साधूत्तितानैव चोचित ३. अ. स. प्रतौ तमः पटलं मोहो मोहनीय ... ४. सप्रतौ-अनिाय ........ क्वचितमपि Jain Education Intemational Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५५९ श.७ : उ.८: सू.१५६-१६१ अष्टम उद्देशकः सप्तमोद्देशकस्यान्ते छामस्थिकं वेदनमुक्तमष्टमे त्वादावेव छद्मस्थवक्तव्यतोच्यते, ७/१५६ 'छउमत्थे ण' मित्यादि, एतच्च यथा प्राग् व्याख्यातं तथा द्रष्टव्यम् अथ जीवाधिकारादिदमाह७/१५८ 'से गुण' मित्यादि एवं जहा रायप्पसेणइज्जे ति, तत्र चैतत्सूत्रमेवं - समे चेव जीवे, से णूणं भंते! हत्थीओ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव अप्पकिरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव कुंथुओ हत्थी महाकम्मतराए चेव ........ हंता गोयमा! ७/१५९ 'कम्हा णं भंते! हत्थिस्स य कुंथुस्स स समे चेव जीवे? गोयमा! से जहानामए-कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा निवाया निवायगंभीरा अहे णं केइ पुरिसे पईव च जोइं च गहाय तं कूडागारसालं अन्तो अन्तो अणुपविसेइ अणुपविसेइ तीसे कूडागारसालाए सव्वओ समंता घणनिचियनिरन्तरनिच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेति तीसे य बहुमज्झदेसभाए तं पईव पलीवेज्जा, से य पईवे कूडागारसालं अंतो अंतो ओभासति उज्जोएइ तवइ पभासेइ नो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं, तए णं से पुरिसे तं पईव इड्डरेणं पिहेई, तए णं से पईवे इड्डरस्स अंतो अंतो ओभासेइ नो चेव णं इइरस्स बाहिं, एवं गोकिलंजएणं गंडवाणियाए पच्छिपिडएणं आढएणं अद्धाढएणं पत्थएणं अद्धपत्थएणं कुलवणं अद्धकुलवेणं चउब्भाइयाए अट्ठभाइयाए सोलसियाए बत्तीसियाए चउसट्ठियाए, तए णं से परिसे तं पइवं दीवगचंपएणं पिहेइ, तए णं से पईवे तं दीवगचंपणयं अंतो अंतो ओभासइ नो चेव णं दीवगचंपणयस्स बाहिं नो चेव णं चउसट्ठियाए बाहिं जाव नो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं, एवामेव गोयमा! जीवेवि जारिसियं पुवकम्मनिबद्धं बोदिं निव्वत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपएसेहिं सचित्तीकरेइ शेषं तु लिखितमेवास्ति। अस्य चायमर्थ:--कूटाकारेण–शिखराकृत्या युक्ताशाला कूटाकारशाला, 'दुहओ लित्ता' बहिरन्तश्च गोमयादिना लिप्ता 'गुप्ता' प्राकाराद्यावृता 'गुत्तदुवारा' कपाटादियुक्तद्वारा 'निवाया' वायुप्रवेशरहिता, किल महद्गृहं प्रायो निवातं न भवतीत्यत आह—'निवायगंभीरा' निवातविशालेत्यर्थ: 'पईवं' तैलदशाभाजनं 'जोइं' ति अग्नि 'घणनिचयनिरन्तरनिच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेति' द्वाराण्येव वदनानि-मुखानि द्वारवदनानि पिधत्ते, कीदृशानि कृत्वा? इत्याह-घननिचितानि कपाटादिद्वारपिधानानां द्वारशाखादिषु गाढनियोजनेन तानि च तानि निरन्तरं कपाटादीनामन्तराभावेन निश्छिद्राणि च नीरन्ध्राणि घननिचितनिरन्तरनिश्छिद्राणि 'इड्डेरेणं' ति गन्त्रीढञ्चनकेन 'गोकिलंजएणं' ति गोचरणार्थं महावंशभयभाजनविशेषेण डल्लयेत्यर्थ: 'गंडवाणियाए' त्ति ‘गण्डपाणिका' वंशमयभाजनविशेष एव यो गण्डेन-हस्तेन गृह्यते हल्लातो लघुतर: 'पच्छिपिडएणं' ति पच्छिकालक्षणपिटकेन आढकादीनि प्रतीतानि नवरं 'चउब्भाइय' त्ति घटकस्यरसमानविशेषस्य चतुर्थभागमात्रो मानविशेष: 'अट्ठभाइया' तस्यैवाष्टमभागमात्रो मानविशेषः एव सोलसिया' षोडशभागमाना 'बत्तीसिया' तस्यैव द्वात्रिंशद्भागमात्रा 'चतुष्पष्टिका' तस्यैव चतुःषष्टितमांशस्वभावा पलमिति तात्पर्य 'दीवगचंपएणं' ति दीपकचंपकेन दीपाच्छादनेन कोशिकेनेत्यर्थः। एतच्च सर्वमपि वाचनान्तरे साक्षाल्लिखितमेव दृश्यते इति। जीवाधिकारादिदमाह७/१६० "नेरइयाण' मित्यादि 'सव्वे से दुक्खें' ति दुःखहेतुसंसारनिबन्ध त्वाद् दु:खं 'जे निज्जिण्णे से सुहे' त्ति सुखस्वरूपमोक्षहेतुत्वाद्यनिर्जीर्णं कर्म तत्सुखमुच्यते। नारकादयश्च संज्ञिन इति संज्ञा आह७/१६१ कति ण' मित्यादि, तत्र संज्ञानं संज्ञा-आभोग इत्यर्थः मनोविज्ञानमित्यन्ये संज्ञायते वाऽनयेति संज्ञा वेदनीयमोहनीयोदयाश्रया ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया च विचित्राहारादिप्राप्तये क्रियैवेत्यर्थः, सा चोपाधिभेदाद्भिद्यमाना दशप्रकारा भवति, तद्यथा-'आहारसन्ने' त्यादि, तत्र क्षुवेदनीयोदयात् कावलिकाद्याहारार्थं पुद्गलोपादानक्रियैव संज्ञायतेऽनया इत्याहारसंज्ञा', तथा भयमोहनीयोदयाद् भयोद्भ्रान्तदृष्टिवचनविकाररोमाञ्चो दादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति भयसंज्ञा, तथा पुंवेदाधुदयान्मैथुनाय स्त्र्याधंगालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरूवेपथुप्रभृतिलक्षणा क्रियैव संज्ञायतेऽनयेति मैथुनसंज्ञा, तथा लोभोदयात्प्रधानभव-कारणाभिष्वंगपूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादनक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति परिग्रहसंज्ञा, तथा क्रोधोदयादावेशगर्भा प्ररूक्षनयनदन्तच्छदस्फुरणादिचेष्टैव संज्ञायतेऽनयेति क्रोधसंज्ञा, तथा मानोदयादहंकारात्मिकोत्सेकक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति मानसंज्ञा, तथा मायोदयेनाशुभसंक्लेशादनृतसंभाषणादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति मायासंज्ञा, तथा लोभोदयाल्लोगसमन्विता सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थनैव संज्ञायतेऽनयेति लोभसंज्ञा, तथा मतिज्ञानावरणक्षयोपशमाच्छब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायते वस्त्वनयेति ओघसंज्ञा, एवं शब्दाद्यर्थगोचराविशेषावबोध १. सप्रतौ तद्वम्नित्याहारसंज्ञा ........ Jain Education Intemational Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.८: सू.१६१-उ.९: सू.१७३ ५६० भगवती वृत्ति क्रियैव संज्ञायतेऽनयेति लोकसंज्ञा, ततश्चौघसंज्ञा दर्शनोपयोगो लोकसंज्ञा तु ज्ञानोपयोग इति। व्यत्ययं त्वन्ये। अन्ये पुनरित्थमभिदधति—सामान्यप्रवृत्तिरोघसंज्ञा, लोकदृष्टिस्तु लोकसंज्ञा। एताश्च सुखप्रतिपत्तये स्पष्टरूपाः पंचेन्द्रियानधिकृत्योक्ता एकेन्द्रियादीनां तु प्रायो यथोक्तक्रियानिबन्ध नकोदयादिरूपा एवावगंतव्या इति। जीवाधिकारात्७/१६२ 'नेरइये' त्यादि 'परज्झ' त्ति पारवश्यम्। प्राग् वेदनोक्ता सा च कर्मवशात् तच्च क्रियाविशेषात्। सा च महतामितरेषां च समैवेति दर्शयितुमाह७/१६३ ‘से नूणं भंते! हत्थिस्से' त्यादि, अनन्तरविरतिरुक्ता सा च संयतानामप्याधाकर्मभोजिनां कथंचिदस्तीत्यत: पृच्छति ७/१६५ 'अहे' त्यादि, 'सासए पंडिए पंडियत्तं असासयं' ति अयमर्थः जीवः शाश्वत: पण्डितत्वमशाश्वतं चारित्रस्य भ्रंशादिति।। ।। सप्तमशते अष्टमोद्देशकः ।। नवम उद्देशकः पूर्वमाधाकर्मभोक्तृत्वेनासंवृतवक्तव्यतोक्ता, नवमोद्देशकेऽपि तद्वक्तव्यतोच्यते, तत्र चादिसूत्रम्७/१६७ 'असंवुडे ण' मित्यादि, 'असंवृतः' प्रमत्तः। ७/१६९-१७२ ‘इहगए' त्ति इह प्रच्छको गौतमस्तदपेक्षया इहशब्द वाच्यो मनुष्यलोकस्ततश्च ‘इहगतान्' नरलोकव्यवस्थितान् 'तत्थगए' त्ति वैक्रियं कृत्वा यत्र यास्यति तत्र व्यवस्थितानित्यर्थः 'अण्णत्थगए' त्ति उक्तस्थानद्वयव्यतिरिक्तस्थानाश्रितानित्यर्थः 'नवरं' ति अयं विशेष:-'इहगए' इति इहगत: अनगार इति इहगतान् पुद्गलानिति च वाच्यं, तत्र तु देव इति तत्रगतानिति चोक्तमिति। अनन्तरं पुद्गलपरिणामविशेष उक्तः, स संग्रामे सविशेषो भवतीति संग्रामविशेष वक्तव्यता-भणनाय प्रस्तावयन्नाह७/१७३ ‘णायमेय' मित्यादि ज्ञातं सामान्यतः 'एतत्' वक्ष्यमाणं वस्तु 'अर्हता' भगवता महावीरेण सर्वज्ञत्वात् तथा 'सुयं' त्ति स्मृतमिव स्मृतं स्पष्टप्रतिभासभावात्। विज्ञातं विशेषतः, किं तत्? इत्याह—'महासिलाकंटए संगामे' त्ति महाशिलैव कण्टको जीवितभेदकत्वात् महाशिलाकण्टकस्ततश्च यत्र 'तृणशूकादिनाऽप्यभिहतस्याश्वहस्त्यादेर्महाशिलाकण्टकेनेवाभ्याहतस्य वेदना जायते स संग्रामो महाशिलाकण्टक एवोच्यते। द्विवचनं चोल्लेखस्यानुकरणे। एवं च किलायं संग्राम: संजात:-चम्पायां कूणिको राजा बभूव, तस्य चानुजौ हल्लविहल्लाभिधानौ भ्रातरौ सेचनकाभिधानगन्धहस्तिनि समारूढौ दिव्यकुण्डलदिव्यवसनदिव्यहारविभूषितौ विलसन्तौ दृष्ट्वा पद्मावत्यभिधाना कूणिकराजस्य भार्या मत्सराद्दन्तिनोऽपहाराय तं प्रेरितवती, तेन तौ तं याचितौ, तौ च तद्भयाद्वैशाल्यां नगर्यां स्वकीयमातामहस्य चेटकाभिधानस्य राज्ञोऽन्तिकं सहस्तिकौ सान्त:पुरपरिवारौ गतवन्तौ, कूणिकेन च दूतप्रेषणतो मार्गितौ, न च तेन प्रेषितौ, तत: कूणिकेन भाणितं-यदि न प्रेषयसि तौ तदा युद्धसज्जो भव, तेनापि भाणितम्-एष सज्जोऽस्मि, तत: कूणिकेन कालादयो दश स्वकीया भिन्नमातृता भ्रातरो राजानश्चेटकेन सह संग्रामायाहूता: तत्रैकैकस्य त्रीणि त्रीणि हस्तिनां सहस्राणि, एवं रथानामश्वानां च, मनुष्याणां तु प्रत्येकं तिस्र: तिस्र: कोटयः कणिकस्याप्येवमेव, एनं च व्यतिकरं ज्ञात्वा चेटकेनाप्यष्टादश गणराजा मीलिताः, तेषां चेटकस्य च प्रत्येकमेवमेव हस्त्यादिपरिमाणं, ततो युद्धं संप्रलग्नं, चेटकराजश्च प्रतिपन्नव्रतत्वेन दिनमध्ये एकमेव शरं मुञ्चति, अमोघबाणश्च सः। तत्र च कणिकसैन्ये गरुड़व्यूह':, चेटकसैन्ये च सागरव्यूहो विरचितः, ततश्च कृणिकस्य कालो दण्डनायको युद्ध्यमानस्तावद्गतो यावच्चेटकः, ततस्तेनैकशरनिपातेनासौ निपातितो, भग्नं च कूणिकबलं, गते च द्वे अपि बले निजं निजमावासस्थानम् , एवं च दशसु दिवसेषु चेटकेन विनाशिता दशापि कालादयः, एकादशे तु दिवसे चेटकजयार्थं देवताराधनाय कूणिकोऽष्टमभक्तं प्रजग्राह, ततः शक्रचमरावागतौ, ततः शक्रो बभाण-चेटक: श्रावक इत्यहं न तं प्रति प्रहरामि नवरं भवन्तं संरक्षामि, ततोऽसौ तद्रक्षार्थं वज्रप्रतिरूपकमभेद्यकवचं कृतवान्, चमरस्तु द्वौ संग्रामौ विकुर्वितवान्महाशिलाकण्टकं रथमुशलं चेति। 'जइत्थ' त्ति जितवान् 'पराजइत्थ' त्ति पराजितवान् हारितवानित्यर्थ: 'वज्जि' त्ति 'वज्री' इन्द्रः 'विदेहपुत्ते' त्ति कोणिकः। एतावेव तत्र जेतारौ नान्यः कश्चिदिति 'नव मल्लइ' त्ति मल्लकिनामानो राजविशेषाः 'नव लेच्छई' ति लेच्छकिनामानो राजाविशेषा एव 'कासीकोसलग' त्ति काशी-वाणारसी तज्जनपदोऽपि काशी तत्सम्बन्धिन आद्या नव कोशला-अयोध्या तज्जनपदोपि कोशला तत्सम्बन्धिनो नव द्वितीया:। 'गणरायाणो' त्ति समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजा: सामन्ता इत्यर्थः। ते च तदानीं १. क्वचित् तृणशलाकादिना शूका-अग्रभागः । २.ग्रन्थान ७०००। Jain Education Intemational Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श.७: उ.९: सू.१७३-१७६ चेटकराजस्य वैशालीनगरनायकस्य साहाय्याय गणं कृतवन्त इति। अथ महाशिलाकण्टके संग्रामे चमरेण विकुर्विते सति कूणिको। यदकरोत्तद्दर्शनार्थमिदमाह७/१७४ 'तए ण' मित्यादि, ततो महाशिलाकण्टकसंग्रामविकद्ध णानन्तरम् उदाइंति उदायिनामानं 'हत्थिरायं' ति हस्तिप्रधानं 'पडिकप्पेह' त्ति सन्नद्धं कुरुत ‘पच्चप्पिणह' त्ति प्रत्यर्थयत निवेदयतेत्यर्थः। ७/१७५ 'हट्ठट्ठ' इह यावत्करणादेवं दृश्यम्-'हट्ठतट्ठचित्त माणंदिया नंदिया पीइमणा' इत्यादि। तत्र हृष्टतुष्टम्अत्यर्थं तुष्टं हृष्टं वा–विस्मितं तुष्टं च-तोषवच्चित्तंमनो यत्र तत्तथा तद् हृष्टतुष्टचित्तं यथा भवति इत्येवमानन्दिता-ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमु-पगता:, ततश्च नन्दिता:-समृद्धितरतामुपगता: प्रीति:-प्रीणनम् आप्यायनं मनसि येषां ते प्रीतिमनस: 'अंजलिं कट्ट' त्ति, इदं त्वेवं दृश्यं—'करयलपरिगहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट' तत्र शिरसा अप्राप्तम्-असंस्पृष्टं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वेत्यर्थः। ‘एवं सामी! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति' त्ति एवं स्वामिन्! तथेति आज्ञया इत्येवंविधशब्दभणनरूपो यो विनयः स तथा, तेन वचनं राज्ञः संबंधि 'प्रतिशृण्वन्ति' अभ्युपगच्छन्ति। 'छेयायरिओवएसमइकप्पणाविगप्पेहिं त्ति छेको-निपुणो य आचार्य:-शिल्पोपदेशदाता तस्योपदेशाद् या मति:--- बुद्धिस्तस्या ये कल्पना-विकल्पा:-कृतिभेदास्ते तथा तैः प्रतिकल्पयन्तीति योग: 'सुनिउणेहिं' ति कल्पनाविकल्पानां विशेषणं नरैर्वा सुनिपुणैः ‘एवं जहा उववाइए' त्ति तत्र चेदं सूत्रमेवम्-'उज्जलनेवत्थहव्वपरिवच्छियं' उज्ज्वलनेपथ्येन -निर्मलवेषेण 'हवं' ति शीघ्रं परिपक्षित:-परिगृहीत: -परिवृतो यः स तथा तं, सुसज्जम् ७/१७६ 'वम्मियसन्नद्धबद्धकवइयउप्पीलियवच्छकच्छगेवेज्जग बद्धगलगवरभूसणविराइयं' वर्मणि नियुक्ता वार्मिकास्तै: सन्नद्धः-कृतसन्नाह वार्मिकसंनद्धः बद्धा कवचिका-- सन्नाहविशेषो यस्य स बद्धकवचिकः उत्पीड़ितागाढीकृता वक्षसि कक्षा-हृदयरज्जुर्यस्य स तथा ग्रैवेयकं बद्धं गलके यस्य स तथा वरभूषणैर्विराजितो यः स तथा तत: कर्मधारयोऽतस्तम् 'अहियतेयजुत्तं विरइयवरकण्णपूरस ललियपलंबावचूलचामरोयरकयंधयारं' विरचिते वरकर्णरेप्रधानकर्णाभरण विशेषो यस्य स तथा सललितानि प्रलम्बानि अवचूलानि---यस्य स तथा चामरोत्करेण कृतमन्धकारं यत्र स तथा तत: कर्मधारयोऽतस्तं 'चित्त१. सातौ स्फुरककण्टकादीनां......... क्वचितमपि परिच्छोयपच्छयं' चित्तपरिच्छोको लघुः प्रच्छदो-वस्त्रविशेषो यस्य स तथाऽतस्तं 'कणगघडियसुत्तगसुबद्धकच्छं' कनकघटितसूत्रकेण सुष्ठु बद्धा कक्षा-उरोबन्धनं यस्य स तथा तं 'बहुपहरणावरणभरियजुज्झसज्झ' बहूनां प्रहरणानामा-वरणानां च-स्फुरकककण्टकादीनां भृतो युद्धसज्जश्च य: स तथाऽतस्तं 'सछत्तं सज्झयं सघंट 'पंचामेलियपरिमंडियाभिराम' पंचभिरापीडिकाभि:-चूडाभिः परिमण्डितोऽभिरामश्च-रम्यो यः स तथाऽतस्तं 'ओसारियजमलज्यलघंट' अवसारितअवलम्बितं यमलयुगलंद्वयं घण्टयोर्यत्र स तथाऽतस्तं 'विज्जुपिणद्धं व कालमेहं' भास्वरप्रहरणाभरणादीनां विद्युत्कल्पना कालत्वाच्च गजस्य मेघसमतेति 'उप्पाइयपव्वयं व सक्खं' औत्पातिकपर्वतमिव साक्षादित्यर्थ: 'मत्तं मेहमिव गलगुलंतं' मणपवणजइणवेगं मन:पवनजयी वेगो यस्य स तथाऽतस्तं, शेषं तु लिखितमेवास्ति, वाचनान्तरे त्विदं साक्षाल्लिखितमेव दृश्यत इति। 'कयबलिकम्मे' त्ति देवतानां कृतबलिका 'कयकोउयमंगलपायच्छित्ते' त्ति कृतानि कौतुकमंगलान्येव प्रायश्चित्तानीव दुःस्वप्ना दिव्यपोहायावश्यं कर्त्तव्यत्वात् प्रायश्चित्तानि येन स तथा। तत्र कौतुकानि-~-मषीपुण्ड्रादीनि मंगलानि-सिद्धार्थकादीनि । 'सन्नद्धबद्धवम्मियकवए' त्ति सन्नद्धः संहननिकया तथा बद्धः कशाबन्धनतो, वर्मितो वर्मतया कृतोऽगे निवेशनात् कवच:--कंकटो येन स तथा ततः कर्मधारयः। 'उप्पीलियसरासणपट्टिए' त्ति उत्पीडिता- गुणसारेण कृतावपीडा शरासनपट्टिका-धनुर्दण्डो येन स तथा, उत्पीडिता वा-बाहौ बद्धा शरासनपट्टिका - बाहुपट्टिका येन स तथा, पिणद्धगेवेज्जविमलवरबद्धचिंधपट्टे 'त्ति पिनद्धं'-परिहितं ग्रैवेयकं-ग्रीवाभरणं येन स तथा विमलवरो बद्धश्चिह्नपट्टो–योधचिह्नपट्टो येन स तथा, ततः कर्मधारयः। 'गाहियाउहपहरणे' त्ति गृहीतानि आयुधानि-शस्त्राणि प्रहरणाय-परेषां प्रहारकरणाय येन स तथा, अथवाऽऽयुधानि-अक्षेप्यशस्त्राणि खड्गादीनि, प्रहरणानि तु-क्षेप्यशस्त्राणि नाराचादीनि। ततो गृहीतान्यायुधप्रहरणानि येन स तथा 'सकोरेंटमल्लदामेणं' ति सह कोरेंटप्रधानै:--कोरिण्टकाभिधानकुसुमगुच्छर्माल्यदामभि:--पुष्पमालाभिर्यत्तत्तथा तेन, 'चउचामरवालवीइयंगे' त्ति चतुर्णां चामराणां वालैवींजितमंगं यस्य स तथा, 'मंगलजयसद्दकयालोए' त्ति मंगलो-मांगल्यो जयशब्द: कृतो-जनैविहित आलोके-दर्शने यस्य स तथा। ‘एवं जहा उववाइए जाव' इत्यनेनेदं सूचितम्-'अणेगगणनाय Jain Education Intemational Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.७: उ.९:सू.१७६-१९५ ५६२ भगवती वृत्ति गदंडनाय-गराईसरतलवरमाडंबियकोडुंबियमंतिमहामंतिगणग-दोवारियअमच्चचेडपीढमद्दणगरनिगमसेट्ठिसेणावइसत्थवाहदूयसंधिपालसद्धिं संपरिवुडे धवलमहामेहनिग्गएविव गहगणदिप्पंतरिक्थतारागणाण मज्झे ससिव्व पियदसणे नरवई मज्जणधराओ पडिनिक्खमइ जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणामेव उदाई हत्थिराया तेणामेव उवागच्छइ, ति तत्रानेके ये गणनायका:-प्रकृतिमहत्तरा: दण्डनायका:-तंत्रपाला: राजानो-माण्डलिका: ईश्वराः -युवराजा: तलवरा:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीया माण्डम्बिका:-छिन्नमडम्बाधिपाः कौटम्बिका:-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगका: मंत्रिण:-प्रतीता: महामंत्रिणो-मंत्रिमंडलप्रधानाः गणका:-ज्योतिषिका: भाण्डागारिका इत्यन्ये दौवारिका:-प्रतीहारा: अमात्या---राज्याधिष्ठायका: चेटा:-पादमूलिका पीठमर्दा:-आस्थाने आसनासीनसेवका: वयस्या इत्यर्थः नगरमिह सैन्यनिवासिप्रकृतयः निगमा:-कारणिका वणिजो वा श्रेष्ठिन:-श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमांगा: सेनापतयो-नृपतिनिरूपितचतुरंगसैन्यनायकाः सार्थवाहा: प्रतीताः दूता—अन्येषां राजादेशनिवेदका: सन्धिपाला:राज्यसन्धिरक्षकाः एतेषां द्वन्द्वस्ततस्तैः इह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्य: ‘सद्धिं' ति सार्द्ध सहेत्यर्थः न केवलं तत्सहितत्वमेव अपि तु तैः समितिसमन्तात् परिवृत: परिकरित इति। ७/१७७ 'हारोत्थयसुकयरइयवच्छे' हारावस्तृतेन–हारावच्छादनेन सुष्ठु कृतरतिकं वक्ष:-उरो यस्य स तथा 'जहा उववाइए' त्ति तत्र चैवमिदं सूत्रम्-पालंबपलंबमाणपडसुकयउत्तरिज्जे' इत्यादि तत्र प्रालम्बेन-दीर्घेण प्रलम्बमानेनझुम्बमानेन पटेन सुष्ठु कृतमुत्तरियं-उत्तरासंगो येन स तथा 'महया भडचडगरवंदपरिक्खित्ते' त्ति महाभटानां विस्तारवत्संघेन परिकरित इत्यर्थः। 'ओयाए' त्ति उपयात: उपागतः 'अभेज्जकवयं' ति परप्रहरणाभेद्यावरणं 'वइरपडिरूवर्ग' त्ति वज्रसदृशं “एगहत्थिणावि' ति एकेनापि गजेनेत्यर्थः 'पराजिणित्तए' त्ति परानभिभवितुमित्यर्थः। ७/१७८ 'हयमहियपवरवीरघाइयविवडियचिंघद्धयपडागे' त्ति हता: प्रहारदानतो मथिता--माननिर्मथनत: प्रवरवीरा:-प्रधानभटा घातिताश्च येषां ते तथा, विपतिताश्चिह्नध्वजा:चक्रादिचिह्नप्रधानध्वजा: पताकाश्च तदन्या येषां ते तथा, तत: कर्मधारयोऽतस्तान् ‘किच्छपाणगए' त्ति कृच्छ्रगतप्राणान्-कष्टपतितप्राणानित्यर्थ: दिसो दिसिं ति दिश: सकाशादन्यस्यां दिशि अभिमतदिक्त्यागाद्दिगन्तराभि मुखेनेत्यर्थः अथवा दिगेवापदिग् नाशनाभिप्रायेण यत्र प्रतिषेधने तद्दिगपदिक् तद्यथा भवत्येवं, 'पडिसेहित्थ' त्ति प्रतिषेधितवान् युद्धान्निवर्तितवानित्यर्थः। ७/१७१ 'सारु?' ति संरुष्टाः मनसा 'परिकविय' त्ति शरीरे समन्ताद्दर्शितकोपविकाराः 'समरवहिय' त्ति संग्रामे हताः। ७/१८२ 'रहमुसले' ति यत्र रथो मुशलेन युक्तः-परिधावन् महाजनक्षयं कृतवान् असौ रथमुशलः ७/१८६ 'मग्गओ' त्ति पृष्ठतः 'आयसं' ति लोहमयं 'किढिण पडिरूवगं' ति किठिनं वंशमयस्तापससम्बन्धी भाजन विशेषस्तत्प्रतिरूपकं तदाकारं वस्तु। ७/१८८ 'अणासए' त्ति अश्वरहित: 'असारहिए' त्ति असारथिक: 'अणारोहए' त्ति अनारोहक: योधवर्जित: ‘महताजणक्खयं' ति महाजनविनाशं 'जणवहं' ति जनवधं जनव्यथां वा 'जणपमई' ति लोकचूर्णनं 'जणसंवट्टकप्पं ति जनसंवत इव-लोकसंहार इव जनसंवर्तकल्पोऽतस्तम्। ७/१९० 'एगे देवलोगेसु उववण्णे एगे सुकुलपच्चायाए' त्ति एतत्स्वभावत एव वक्ष्यति। ७/१९१ 'पूव्वसंगइए' त्ति कार्तिकश्रेष्ठ्यवस्थायां शक्रस्य कूणि कजीवो मित्रमभवत् परियायसंगइए' त्ति पूरणता पसावस्थायां चमरस्यासौ तापसपर्यायवर्ती मित्रमासीदिति। ७/१९२ 'जण्णं से बहुजणो अपणमण्णस्स एवमाइक्खइर' इत्यत्रैकवचनप्रक्रमे जे ते एवमांहसु 'इत्यत्र यो बहुवचननिर्देश: स व्यक्त्यपेक्षोऽवसेयः 'अहिगयजीवाजीवे' इत्यत्र यावत्करणात् 'उवलद्धपुण्णपावा' इत्यादि दृश्यम् 'पडिलाभेमाणे' त्ति इदं च 'समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलरओहरणेणं पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ' इत्येवं दृश्यम्। ७/१९४ 'चाउग्घंट' ति घण्टाचतुष्टयोपेतम् 'आसरहं' त्ति अश्व वहनीयं रथं 'जुत्तामेव' त्ति युक्तमेव रथसामग्र्येति गम्यम्। ७/१९५ 'सज्झय' मित्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं----सघंट सपडागं सतोरणवरं सणंदिघोसं सकिंकिणीहेमजालपेरंतपरिक्खित्तं' सकिंकिणीकेन–क्षुद्रघण्टिकायुक्तेन हेमजालेन पर्यन्तेषु परिक्षिप्तो यः स तथा तं 'हेमवयचित्ततेणिसकणगनिउत्तदारुयागं' हैमवतानिहिमवगिरिजातानि चित्राणि--विचित्राणि तैनिशानि-तिनिशाभिधानवृक्षसम्बन्धीनि स हि दृढो भवतीति तद्ग्रहणं कनकनियुक्तानि–नियुक्तकनकानि Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति दारूणि यत्र स तथा तं सुसंविद्धचक्कमंडलधुरागं सुष्ठु संविद्धे चक्रे यत्र मण्डला च वृत्ता धूर्यत्र स तथा तं 'कालायससुकयनेमिजंतकम्मं' कालायसेन लोहविशेषेण सुष्ठु कृतं मे - चक्रमण्डलमालाया यंत्रकर्म - बंधनक्रिया यत्र स तथा तं 'आइण्णवरतुरयसुसंपउत्तं' जात्यप्रधानाश्वैः सुष्ठु संप्रयुक्तमित्यर्थः ' कुसलनरच्छेयसारहिसुसंपग्गहियं ' कुशलनररूपो यश्छेकसारथिः - दक्षप्राजिता तेन सुष्ठु संप्रगृहीतो यः स तथा तम्। 'सरसयबत्तीसयतोणपरिमंडियं' शराणां शतं प्रत्येकं येषु ते शरशतास्तैर्द्वात्रिंशता तोणैःशरधिभिः परिमण्डितो यः स तथा तं, सकंकडवडेंसगं सह कंकटैः – कवचैरवतंसैश्च - शेखरकैः शिरस्त्राणभूतैर्य: स तथा तं, सचावसरपहरणावरणभरियजोहजुद्धसज्जं' सह चापशरैर्यानि प्रहरणानि – खड्गादीनि आवरणानि चस्फुरकादीनि तेषां भृतोऽत एव योधानां युद्धसज्जश्च — युद्धप्रगुणो यः स तथा तं, 'चाउग्घंटं' 'आसरहं जुत्तामेव' त्ति वाचनान्तरे तु साक्षादेवेदं दृश्यत इति । 'अयमेयारूवं' ति प्राकृतत्वादिदं एतद्रूपं वक्ष्यमाणरूपम् ॥ ७ / १९८ 'सरिसए' त्ति सदृशक: - समान: 'सरित्तए' त्ति सदृशत्वक् 'सरिव्वए' त्ति सदृग्वयाः 'सरिसभंडमतोवगरणे' त्ति सदृशी भाण्डमात्रा — प्रहरणकोशादिरूपा उपकरणं च-कंकटादिकं यस्य स तथा 'पडिरहं' ति रथं प्रति। ७ / २०१ 'आसुरुत्ते ' त्ति आशु शीघ्रं रुप्तः - कोपोदयादिविमूढः 'रूप लुप विमोहने' इति वचनात् स्फुरितकोपलिंगो वा, यावत्करणादिदं दृश्यं 'रुट्ठे कुविए चंडिक्किए' त्ति तत्र रुष्टः उदितक्रोधः कुपित: प्रवृद्धकोपोदयः चाण्डिकितः सञ्जातचाण्डिक्यः प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः 'मिसिमिसीमाणे' त्ति क्रोधाग्निना दीप्यमान इव एकार्थिका चैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थमुक्ताः 'ठाणं' ति पादन्यासविशेषलक्षणं 'ठाति' त्ति करोति 'आययकण्णाययं' ति आयत: - आकृष्टः सामान्येन स एव कर्णायतः - आकर्णमाकृष्ट आयत कर्णायतस्तम्। ७ / २०२ 'एगाहच्च' ति एका हत्या- हननं प्रहारो यत्र जीवितव्यपरोपणे तदेकाहत्यं तद्यथा भवति । 'कूडाहच्च' ति कूटे इव तथाविधपाषाणसंपुटादौ कालविलम्बाभावसाधर्म्यादाहत्या — हननं यत्र तत् कूटाहत्यम् ७/२०३ 'अत्थामे' त्ति अस्थामा सामान्यतः शक्तिविकलः 'अबले' त्ति शरीरशक्तिवर्जितः 'अवीरिए' त्ति मानसशक्तिवर्जितः 'अपुरिसक्कारपरक्कमे' त्ति व्यक्तं नवरं पुरुषकार: पुरुषाभिमानः स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमः ५६३ Jain Education Intemational श. ७ : उ. ९ : सू. १९५-उ.१०: सू. २१३ ‘अधारणिज्जं' त्ति आत्मनो धरणं कर्तुमशक्यं 'इतिकट्टु' त्ति इतिकृत्वा इतिहेतोरित्यर्थ: 'तुरए णिगिण्हइ' त्ति अश्वान् गच्छतो निरुणद्धीत्यर्थः 'एगंतमंतं' ति एकान्तं विजनं अन्तं भूमिभागं । ७/२०४ 'सीलाई' ति फलानपेक्षाः प्रवृत्तयः ताश्च प्रक्रमाच्छुभाः 'वयाई' ति अहिंसादीनि 'गुणाई' ति गुणव्रतानि 'वेरमणाई' ति सामान्येन रागादिविरतय: 'पच्चक्खाणपोसहोववासाई' ति प्रत्याख्यानं – पौरुष्यादिविषयं पौषधोपवासः - पर्वदिनोपवासः ७/२०५ 'गीयगंधव्वनिनाए' त्ति गीतं गानमात्रं गन्धर्वं-तदेव मुरजादिध्वनिसनाथं तल्लक्षणो निनादः - शब्दो गीत - गन्धर्वनिनादः । ७/२०६ ‘कालमासे’ त्ति मरणमासे मासस्योपलक्षणत्वात् कालदिवसे इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् । ७ / २०६ 'कहिं गए कहिं उववण्णे' त्ति प्रश्नद्वये 'सोहम्मे' त्याद्येकमेवोत्तरं गमनपूर्वकत्वादुत्पादस्योत्पादाभिधानेन गमनं सामर्थ्यादवगतमेवेत्यभिप्रायादिति । ७/२०८ 'आउक्खणं' आयुः कर्मदलिकनिर्जरणेन 'भवक्खएणं' ति देवभवनिबंधनदेवगत्यादिकर्मनिर्जरणेन 'ठिइक्खएणं' ति आयुष्कादिकर्म्मणां स्थितिनिर्जरणेनेति । ॥ सप्तमशते नवमोद्देशकः ॥ दशम उद्देशक : अनन्तरोद्देशके परमतनिरास उक्तो, दशमेऽपि स एवोच्यते, इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम् - ७/२१२ 'ते' मित्यादि ७ / २१३ ' एगयओ समुवागयाणं' ति स्थानान्तरेभ्य एकत्र स्थाने समागतानामागत्य च सन्निविद्वाणं' ति उपविष्टानां उपवेशनं चोत्कुटुकत्वादिनाऽपि स्यादत आह— 'सन्निसन्नाणं' ति संगततया निषण्णानां सुखासीनानामिति । यावत् 'अत्थिकाए' त्ति प्रदेशराशीन् 'अजीवकाए' त्ति अजीवाश्च — ते अचेतना: कायाश्च राशयोऽजीवकायास्तान् 'जीवत्थिकाय' मित्येतस्य स्वरूपविशेषणायाह— 'अरूविकाय' ति अमूर्तमित्यर्थः 'जीवकायं' ति जीवनं जीवोज्ञानाद्युपयोगस्तत्प्रधानः कायो जीवकायोऽतस्तम् कैश्चिज्जीवास्तिकायो जडतयाऽभ्युपगम्यतेऽतस्तन्मतव्युदा Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. ७: उ.१० : सू. २१३-२२७ सायेदमुक्तमिति । से कहमेयं मण्णे एवं?' ति अथ कथमेतदस्तिकायवस्तु मन्ये इति वितर्कार्थः 'एवम् अमुना चेतनादिविभागेन भवतीति । एषां समुल्लापः ७ / २१६ 'इमा कहा अविप्पकड' त्ति इयं कथा — एषास्तिकायवक्तव्यताऽप्यानुकूल्येन प्रकृता – प्रक्रान्ता अथवा न विशेषण प्रकटा अविप्रकटा 'अविउप्पकड' त्ति पाठान्तरं तत्र अविद्वत्प्रकृताः अविज्ञप्रकृता अथवा न विशेषत उत्प्राबल्यतश्च प्रकटा अव्युत्प्रकटा 'अयं च' त्ति अयं पुन: 'तं चेयसा' इति यस्माद्वयं सर्वमस्तिभावमेवास्तीति वदामः तथाविधसंवाददर्शनेन भवतामपि प्रसिद्धमिदं तत्तस्मात् चेतसा मनसा 'वेदस' त्ति पाठान्तरे ज्ञानेन प्रमाणाबाधितत्वलक्षणे । ७ / २१७ 'एयमट्ठ' ति अमुमस्तिकायस्वरूपलक्षणमर्थं स्वयमेव ‘प्रत्युपेक्षध्वं पर्यालोचयतेति।’ ७/२१८ 'महाकहापडिवण्णे' त्ति महाकथाप्रबन्धेन महाजनस्य तत्त्वदेशनेन । ७ / २१९ 'एयंसि णं' त्ति एतस्मिन् उक्तस्वरूपे ' चक्किया के ' त्ति शक्नुयात् कश्चित् । ७/२२० एयंसि णं भंते! पोग्गलत्थिकायंसि' इत्यादि अयमस्य भावार्थ:- जीवसम्बंधीनि पापकर्म्माण्यऽशुभस्वरूपफललक्षणविपाकदायिनिपुद्गलास्तिकाये न भवन्ति । अचेतनत्वेनानुभववर्जितत्वात्तस्य। जीवास्तिकाय एव च तानि तथा भवन्ति अनुभवयुक्तत्वात्तस्येति । प्राक्कालोदायिप्रश्नद्वारेण कर्म्मवक्तव्यतोक्ता, अधुना तु तत्प्रश्नद्वारेणैव तान्येव यथा पापफलविपाकादीनि भवन्ति तथोपदिदर्शयिषुः 'एत्थ णं से' इत्यादि संविधानकशेषभणनपूर्वकमिदमाह ७/२२३ ‘अत्थि ण' मित्यादि अस्तीदं वस्तु यदुत जीवानां पाप कर्माणि पापो यः फलरूपो विपाकस्तत्संयुक्तानि भवन्तीत्यर्थः । ५६४ ७/२२४ 'थालीपागसुद्धं' ति स्थाल्यां - उखायां पाको यस्य तत् स्थालीपाकम् अन्यत्र हि पक्वमपक्वं वा न तथाविधं स्यादितीदं विशेषणं, शुद्धं - भक्तदोषवर्जितं ततः कर्मधारयः स्थालीपाकेन वा शुद्धमिति विग्रह: 'अठारसर्वजणाउलं' ति अष्टादशभिर्लोकप्रतीतैर्व्यजनैः शालन - कैस्तक्रादिभिर्वा आकुलं संकीर्णं यत्तत्तथा अथवाऽष्टादशभेदं च तद्व्यंजनाकुलं चेति । अत्र भेदपदलोपेन समासः, अष्टादश भेदाश्चैते १. २. भगवती वृत्ति "सूओ१ दणो २ जवणं ३ तिण्णि य मंसाइं६ गोरसो७ जूसो ८ । भक्खा ९ गुललवणिया १० मूलफला ११ हरियगं१२ डागो१३ ।। होइ रसालू१४ य तहा पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं१७ चेव । अट्ठारसमो सागो१८ निरुवहओ लोइओ पिंडो ॥ " तत्र मांसत्रयं— जलजादिसत्कं 'जूषो' मुद्गतन्दुलजीरककटुआण्डादिरसः ‘भक्ष्याणि' खण्डखाद्यादीनि 'गुललावणिया' गुडर्प्पटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा। मूलफलान्येकमेवपदं 'हरितकं' जीरकादि 'डाको' वास्तुलकादिभर्जिका 'रसालू: ' मज्जिका, तल्लक्षणं चेदम्— "दो घयपला महुपलं दहियस्सद्धाढयं मिरियवीसा। दस खण्डगुलपलाई एस रसालू निवइजोगो ।” 'पानं' सुरादि 'पानीयं' जलं 'पानकं' द्राक्षापानकादि शाकः - तक्रसिद्ध इति । 'आवाय' त्ति आपातस्तत्प्रथमतया संसर्ग: 'भद्दए' त्ति मधुरत्वान्मनोहर: 'दुरूवत्ताए' त्ति दूरूपतया हेतुभूतया 'जहा महासवए' त्ति षष्ठशतस्य तृतीयोदेशको महाश्रवकस्तत्र यथेदं सूत्रं तथेहाप्यध्येयम् । 'एवामेव' त्ति विषमिश्रभोजनवत्। 'जीवा णं भंते! पाणाइ-वाए' इत्यादौ भवतीति शेष: 'तस्स णं' ति तस्य प्राणातिपातादेः 'तओ पच्छा विपरिणममाणे त्ति ततः पश्चात् ' आपातानन्तरं 'विपरिणमत्' परिणामान्तराणि गच्छत् प्राणातिपातादि कार्ये कारणोपचारात् प्राणातिपातादिहेतुकं कर्मेति 'दुरुवत्ताए' त्ति दुरूपताहेतुतया परिणमति दुरूपतां करोतीत्यर्थः । 'ओसहमिस्सं' ति औषधं - महातिक्तकघृतादि 'एवामेव' त्ति औषधमिश्रभोजनवत् 'तस्स णं' ति प्राणातिपातविरमणादेः 'आवाए नो भद्दए भवति' त्ति इन्द्रियप्रतिकूलत्वात्। 'परिणममाणे' त्ति प्राणातिपातविरमणादिप्रभवं पुण्यकर्म्म परिणामान्तराणि गच्छत्। अनन्तरं कर्माणि फलतो निरूपितानि, अथ क्रियाविशेषमाश्रित्य तत्कर्तृपुरुषद्वयद्वारेण कर्मादीनामल्पबहुत्वे निरूपयति ७/२२७ 'दो भंते!' इत्यादि अगणिकायं समारंभंति त्ति तेज: कायं समारभेते उपद्रवयतः तत्रैक उज्ज्वालनेनान्यस्तु विध्यापनेन, तत्रोज्ज्वालने बहुतरतेजसामुत्पादेऽप्यल्पतराणां विनाशोऽप्यस्ति तथैव दर्शनात् अत उक्तं 'तत्थ णं एगे' इत्यादि । 'महाकम्मतराए चेव' त्ति अतिशयेन महत्कर्मज्ञानावरणादिकं यस्य स तथा चैवशब्दः समुच्चये, एवं 'महाकिरियतराए चेव' त्ति नवरं क्रिया - दाहरूपा 'महासवतराए चेव' त्ति बृहत्कर्म्मबन्धहेतुकः 'महावेयणतराए चेव' त्ति महती वेदना जीवानां यस्मात्स तथा । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ५६५ श.७: उ.१०: सू. २२७-२३० अनन्तरमग्निवक्तव्यतोक्ता, अग्निश्च सचेतन: सन्नवभासते एवमचित्ता अपि पुद्गला: किमवभासन्ते? इति प्रश्न यन्नाह७/२२९ 'अस्थि ण' मित्यादि 'अचित्तावि' ति सचेतनास्ते जस्कायिकादयस्तावदवभासन्त एवेत्यपिशब्दार्थ 'ओभासंति' त्ति सप्रकाशा भवन्ति ‘उज्जोइंति' त्ति वस्तूद्योतयन्ति 'तवंति' त्ति तापं कुर्वन्ति 'पभासंति' त्ति तथाविधवस्तु दाहकत्वेन प्रभावं लभन्ते। ७/२३० 'कुद्धस्स' त्ति विभक्तिपरिणामात्क्रुध्देन 'दूरं गन्ता दूरं निवयइ' त्ति दूरगामिनीति दूरे निपततीत्यर्थः अथवा दूरे गत्वा दूरे निपततीत्यर्थः। 'देसं गंता देसं निवयइ' त्ति अभिप्रेतस्य गन्तव्यस्य क्रमशतादेर्देशे–त दौ गमनस्वभावेऽपि देशे तदर्भादौ निपततीत्यर्थ: क्त्वाप्रत्ययपक्षेऽप्यमेव 'जहिं जहिं च' त्ति यत्र यत्र दूरे वा तद्देशे वा सा तेजोलेश्या निपतति। 'तहिं तहिं तत्र तत्र दूरे तद्देशे वा 'ते' त्ति तेजोलेश्यासम्बन्धिनः। ।। सप्तमशते दशमोद्देशकः ।। शिष्टोपदिष्टयष्ट्या पदविन्यासं शनैरहं कुर्वन् । सप्तमशतविवृत्तिपथं लंधितवान् वृद्धपुरुष इव। समाप्तं च सप्तमं शतं वृत्तितः Jain Education Intemational Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट -६ १. सूर्य का उदयास्त-विधि चित्र' २. तापक्षेत्र का चित्र ३. तमस्काय का चित्र ४. कृष्णराजि का चित्र ५. गणना कालबोधक यन्त्र Jain Education Intemational Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य का उदयास्त-विधि चित्र ईशाण कणे ऊग / अग्नि इशाण ईशाण अग्नि कृणे आथम भरत आधी ए नाल पवत । पूर्व दिशि आथम पूर्व अग्नि कृणे कंग उनर दिशि दक्षिण दिश बावळ्य नेच कणे आथम पश्चिम महाविदेह वायव्य नकृत्त आश्री कणे आथर्मकर्ण ऊगे एरवत आश्री३ वायव्य इति प्रथम यंत्र IGEL hedia पनिषद पवत नेत Jain Education Intemational Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तापक्षेत्र का चित्र LITREEC ४५००० आयतर मेरुतः सूयंताप क्षेत्र लवण समुद्र समुद्र ६४.६८८१० duo मेरु लवण नवण समुद्र सूर्यताप क्षेत्र जंबू द्वीप मेरु जंबू द्वीप लवण मेरुत. समुद्र ETEEG00058 ताप क्षेत्रनी बाहाऽभयंतर बाहा ६४८६१६११० बाहिरली बाहा ६४८६७।४।१० ताप क्षेत्र वाहाऽभ्यन्तर वाहा १३२४ योजन: भाग बाहिरली बाना ६३०४, योजन- भाग अंधकार क्षेत्रनी बाहाडीयंतर ६३२४ा:-बाहा ६३२४५१ अंधकार क्षेत्र वाहाऽभ्यन्तर बाहा ४८६ योजन भाग बाहयबाहा४८६८ योजन भाग Jain Education Intemational Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमस्काय का चित्र १अर्चि नामक विमान के सारस्वतदेव उत्तर अव्यावाध देव १ शुक्राभि () अग्नेय देव सुनिष्टाभ विमान ००० देव परिवार विमान अबिपाली विमान २ आदित्यदेवर, प्रथम युगल ७०० देवतो परिवार अरिष्टाभदेव अरिष्टाभ विभान के दासी ९०० देव का परिवार --- वहिन देव वेरोचन बिमान: अरिष्टाविमान दक्षिण वायव्य वरुणेन्द्र देव २) प्रभकर विमान : द्वितीय युगल १४००० و عادخله (غ). Susha000 Sunasassistant नैऋत्य छह प्रत्तर ब्रह्मकल्प पश्चिम द्वितीय प्रत्तर २ प्रथम प्रत्तर १ माहेन्द्र' सनतकुमार ३ | ईशाण२ सोधर्म १ : पार रुपहा .असं वह महाअंधकार माणविस्तार होकर नध करबादम अरुणका तासर पतर असंख्यात योन साधम देवलों क कंती २०० या जन जाने देश बढ़न पर प.धमदेव 16bab" RAI HRELE12 Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णराजि का चित्र त्रिकोण कृष्णराजी ८. सुप्रतिष्ठाभ चतुष्कोण कृष्णराजी ६. सूराभ चतुष्कोण कृष्णराजी ७. शुक्राम १. अर्चि ६. रिष्ट पश्चिमा षट्कोण कृष्णराजी षट्कोण कृष्णराजी ५. चंद्राभ चतुष्कोण कृष्णराजी ३. वैरोचन चतुष्कोण कृष्णराजी ४. प्रभंकर २. अर्चिमाली त्रिकोण कृष्णराजी للملا Jain Education Intemational Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणना कालबोधक यन्त्र » 9 4222222 Mornr अंका: ४ बिंदवः १० " समय प्रमाण सर्वेभ्य: सूक्ष्मतर: समयः असंख्यातः समयैरावलिका संख्यातावलिकाभिरुच्छ्वास: ४ त एव संख्येया निःश्वासः द्वयोरपि कालः प्राणः सप्तभिः प्राणुभिः स्तोक: सप्तभि: स्तोकलवः सप्तसप्तत्या लवानां मुहूर्तः त्रिंशता मुहूर्तेरहोरात्रः तैः पंचदशभिः पक्षः द्वाभ्यां पक्षाभ्यां मास: मासद्वयेन ऋतु ऋतुत्रयेण अयनम् अयनद्वयेन संवत्सरः तै: पंचभिर्युगम् विशत्या युगै वर्षशतम् तैर्दशभिर्वर्षसहस्रम् तेषां शतेन वर्षलक्षम् तेषां चतुरशीत्या पूर्वांगम् पूर्वम् त्रुटितांगम् त्रुटितम् अडडांगम् अडडम् अववांगम् अववम् हूहूकांगम् हूहूकम् उत्पलांगम् उत्पलम् पद्मांगम् पद्मम् नलिनांगम् नलिनम् अर्थनिपुरांगम् अर्थनिपुरम् अयुतांगम् अयुतम नयुतांगम् नयुतम् प्रयुतांगम् प्रयुतम् चूलिकांगम् चूलिका शीर्षप्रहेलिकांगम् शीर्षप्रहेलिका ८ १० , , २० २५ ८४००००० अत्रांकद्वयं बिंदव: पंच ७०५६०००००००००० ५६२७०४००००००००००००००० ४६७८७१३६०००००००००००००००००००० ४१८२११६४२४ ३५१२६८०३१६१६ २६५०६०३४६५५७४४ २४७८७५८६११०८२४६६ २०८२१५७४८५३०६२६६६४ १७४६०१२२८७६५९८०६१७७६ १४६६१७०३२१६३४२३६७०६१८४ १२३४१०३०७०१७२७६१३५५७१४५६ १८३६६४६५७८६४५११६५३८८००२३०४ ८७०७८३१२६३१३६००४१२५६२१६३५३६ ७३१४५७८२६१०३६७६३४६५७७४४२५७०२४ ६१४४२४५७३६०७०८८१३११२५०५१७५६००१६ ५१६११६६४२०६८७५४०३०१४५०४३४७७५६१३४४ ४३३५३७६३६२६५३३८५३२१८३६५२११५१५२०६६ ३६४१७१६०२६६४८८०८४३६७०३४२६७७७६७२०४३२६ ३०५६०४३६८२३८४६९९०८६८३०८७८४९३२४५१८८३४१७६ २५६६५६६६४५२०३३६६२३२६३७६३७६३४३२५६५८२०७०७८४ २१५८४६१४३३९७०८५५३५५६६७८६७८६४८३३८०४८६३६४५८५६ १८१३१०७६०४५३५५१८४९८७६१००६००६४६०३६६११०६१४५१६०४ १५२३०१०३८७८०६८३५५.३०६५६२४७५६५४२६७३२७३३१६८१६५६६३६ १२७६३२८७२५७६०२६१८५२७२५७६७६५४६५८४५५४६५८६१२८४६३४६२४ १०७४६३६१२६६३८६१६६५६२८६६४५०८२१६५१०२६१६५२३४७६०६३०८४१६ १०२६६४३४८८९६४४०७६३२८३३०१८६६०१८६८६१६७८७६७२२४३८१९०६६४४ ७५८२६३२५०७३०१०२४११५७६७३५६६६७५६६६४०६२१८६६६८४८०८०१८३२६६ ,५१ " ५२ "५४ १३० , १३५ ॥१४० Jain Education Intemational Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना-प्रमुखः आचार्य तुलसी संपादक : भाष्यकार : आचार्य महाप्रज्ञ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी (१९१४-१९९७) के वाचना-प्रमुखत्व में सन् १९५५ में आगम-वाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ, जो सन् ४५३ में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के सानिध्य में हुई संगति के पश्चात् होनेवाली प्रथम वाचना थी। सन् १९९९ तक ३२ आगमों के अनुसंधानपूर्ण मूलपाठ संस्करण और ७ आगम संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पण सहित प्रकाशित हो चुके हैं। आयारो (आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध) मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी-संस्कृत भाष्य एवं भाष्य के हिन्दी अनुवाद से युक्त प्रकाशित हो चुका है। आचार-भाष्य का अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित हो रहा है। इस वाचना के मुख्य सम्पादक एवं विवेचक (भाष्यकार) हैं-आचार्य श्री महाप्रज्ञ (मुनि नथमल/युवाचार्य महाप्रज्ञ) (जन्म १९२०) जिन्होंने अपने सम्पादन-कौशल से जैन आगम-वाङ्मय को आधुनिक भाषा में समीक्षात्मक भाष्य के साथ प्रस्तुति देने का गुरुतर कार्य किया है। भाष्य में वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्य, आयुर्वेद, पाश्चात्य दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर समीक्षात्मक टिप्पण लिखे गए हैं। आचार्य श्री तुलसी ११ वर्ष की आयु में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी के पास दीक्षित होकर २२ वर्ष की आयु में नवमाचार्य बने। आपकी औदार्यपूर्ण वृत्ति एवं असाम्प्रदायिक चिन्तनशैली ने धर्म के सम्प्रदाय से पृथक् अस्तित्व को प्रकट किया। नैतिक क्रान्ति, मानसिक शांति और शिक्षा- पद्वति में परिष्कार के लिए आपने क्रमशः अणुव्रत आन्दोलन, प्रेक्षाध्यान और जीवन-विज्ञान का त्रि-आयामी कार्यक्रम प्रस्तुत किया था। युगप्रधान आचार्य, भारत-ज्योति, वाक्पति जैसे गरिमापूर्ण अलंकरण, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार (१९९३) जैसे सम्मान आपको प्राप्त हुए थे। साधु और श्रावक के बीच की कड़ी के रूप में आपने सन १९८० में समणश्रेणी का प्रारंभ किया, जिसके माध्यम से देश-विदेश में अनाबाध-रूपेण धर्मप्रसार किया जा रहा है। आपने ६० हजार कि.मी. की भारत की पदयात्रा कर जन-जन में नैतिकता का भाव जगाने का प्रयास किया था। हिन्दी, संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा में अनेक विषयों पर ६० से अधिक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। १८ फरवरी १९९४ को आपने आचार्यपद का विसर्जन कर उसे अपने उत्तराधिकारी युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ में प्रतिष्ठित कर दिया था। २३ जून सन् १९९७ को आपका महाप्रयाण हुआ। सन् १९९८ में भारत सरकार ने आपकी स्मृति में डाकटिकट जारी किया। दशमाचार्य श्री महाप्रज्ञ दस वर्ष की अवस्था में मुनि बने, सूक्ष्म चिन्तन, मौलिक लेखन एवं प्रखर वक्तृत्व आपके व्यक्तित्व के आकर्षक आयाम हैं। जैन दर्शन, योग, ध्यान, काव्य आदि विषयों पर आपके १०० से अधिक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत आगम-वाचना के आप कुशल | संपादक एवं भाष्यकार रहे हैं। JHEditination international For Private & ParmaratUse only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित आगम साहित्य वाचना प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक-विवेचक : आचार्य महाप्रज्ञ ग्रंथ का नाम मूल्य अंगसुत्ताणि (मूलपाठ, पाठान्तर-सहित) भाग-१-(आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ) 700.00 भाग-२-(भगवई-विआहपण्णत्ती) 2500 700.00 भाग-३-(नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाई, विवागसुर्य) 925500.00 आगम शब्दकोष अंगसुत्ताणि तीनों भागों की समग्र शब्द-सूची 823 300.00 उवंगसुत्ताणि (मूलपाठ, पाठान्तर-सहित, शब्द-सूची) खण्ड-१-(ओवाइयं, राइपसेणइय, जीवाजीवाभिगमे) 800 400.00 खण्ड-२-(पण्णवणा, जंबुद्दीवपण्णत्ती, चंदपण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, निरयावलियाओ, __कप्पवडिंसियाओ, पुफ्फियाओ, पुफ्फचूलियाओ, वहिदसाओ) 1170 नवसुक्मणि (मूलपाठ, पाठान्तर-सहित, शब्द-सूची) (चार मूल, चार छेद, आवश्यक—आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, नंदी, अणुओगदाराई, दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीहज्झयणं) 1300 695.00 नियुक्तिपंचक 854 500.00 भाग 1 2 3 4 5 6 7 / भगवती जोड़ पिष्ठ सं. 472 475 480 476 420 356 477 , -प्रत्येक 400.00 मूल, छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पण-सहित ग्रंथ का नाम पृष्ठ मूल्य | ग्रंथ का नाम पृष्ठ मूल्य दसवेआलियं 650 500.00 अणुओगदाराई 430 400.00 उत्तरज्झयणाणि 768 600.00 आचारांगभाष्यम् 600 500.00 ठाणं 1090 700.00 आयारो 359 200.00 समवाओ 468 500.00 दसवेआलियं (गुटका) 107 7.00 भगवई (विआहपण्णत्ती) खण्ड-१ 412 595.00 उत्तरज्झयणाणि (गुटका) 441 25.00 भगवई (विआहपण्णत्ती) खण्ड-२ 590 695.00 255 300.00 भगवई (विआहपण्णत्ती) खण्ड-३ सूयगडो (कोश) देशी शब्दकोश 570 100.00 | जैनागम : वनस्पति कोश 363 300.00 निरुक्त कोश 37060.00 जैनागम : प्राणी कोश 131 250.00 एकार्थक कोश 396 70.00 | श्री भिक्षु आगम विषय कोश 757 500.00 नन्दी |