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भगवई
श. ६ : उ. ३ : सू. ३० - ३४
दृष्टि से उनका अनादित्व नहीं है।
उत्तरायणाणि में प्रतिपादित है— प्रत्येक की अपेक्षा से सिद्ध सादि और अनंत है, बहुत्व ( सन्तति - प्रवाह) की अपेक्षा वे अनादि और अनंत है। यहां अनादित्य योगदर्शन के प्रतिपाद्य से भिन्न है। जैनदर्शन के अनुसार जो भी मुक्त हुआ है वह कर्मबंधन का छेदन कर मुक्त हुआ है। प्रत्येक सिद्ध प्रथम है, कोई भी अप्रधम नहीं है। सिद्ध को 'अनादि-अनन्त' काल की अपेक्षा से कहा गया है।
जाएगा। सिद्ध अपर्यवसित हैं—यह वाक्य इस सिद्धान्त की ओर संकेत करता है कि जीव मुक्त होने के पश्चात् फिर कभी संसार में जन्म नहीं लेगा। ३. भवसिद्धिक जीवों में भव्यत्व नाम की लब्धि अनादिकाल से है। इस लब्धि की अपेक्षा से वे अनादि है। मुक्त होने के समय वह लब्धि परिसम्पन्न हो जाती है। इस अपेक्षा से भवसिद्धिक जीव सपर्यवसित है। भवसिद्धिक जीव ही सिद्ध होते हैं। किन्तु जिनके काललब्धि का परिधाक हो जाता है, वे ही भवसिद्धिक जीव सिद्ध होते हैं, सब नहीं होते। इसलिए भगवान् महावीर जयन्ती के प्रश्न के उत्तर में बतलाया—यह लोक कभी भी भवसिद्धिक जीवों से शून्य नहीं होगा।
सिद्ध अपर्यवसित होते हैं। कुछ दार्शनिक मुक्त जीव का पुनरवतार मानते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने परिमित जीववाद के सिद्धान्त में दो त्रुटियां बतलाई हैं। यदि जीव परिमित हैं तो सभी जीव मुक्त हो जाऐंगे, इस अवस्था मुक्त
४. अभवसिद्धिक जीवों में मुक्त होने की अर्हता नहीं होती, इसलिए 'जीव का पुनरवतार होगा अथवा किसी दिन संसार जीव-शून्य हो वे संसार जन्म-मरण की अपेक्षा से अनादि और अपर्यवसित होते हैं।
में
कम्मपगडी-बंध - विवेयण-पदं
३३. कति णं भंते! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा १. नाणावर णिज्वं २. दरिसणावणिज्जं ३. वेदणिज्वं ४. मोहणिज्जं ५. आउगं ६. नाम ७. गोयं ८. अंतराइयं ।।
३४. नाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं बंधती पण्णत्ता?
गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेषं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिष्णिय वाससहस्साई अवाहा, अबाहूनिया कम्म द्विती- कम्मनिसेओ ।
दरिसणावरणिज्जं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य वाससहस्साई अवाहा, अवाहूणिया कम्महिती— कम्मनिसेओ ।
वेदणिज्जं जहणणेणं दो समया, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिष्णि य वाससहस्साई अवाहा, अवाहूणिया कम्मद्विती- कम्मनिसेओ ।
१. उत्तराः ३६ / ६५
एगतेण साईया, अपज्जवसिया विय। पुहतेण अणाईया, अपज्जवसिया वि य ।।
२. भ. १८ / २ - सिद्धे णं भंते! सिद्ध भावेणं किं पढमे? अपढमे?
गोयमा ! पढमे, नो अपढमे ।
३. अन्ययोगव्यवच्छेदिका. २९
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कर्मप्रकृति-बंध - विवेचन-पदम्
कति भदन्त ! कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! अष्ट कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
१. ज्ञानावरणीयं २. दर्शनावरणीयं ३. वेदनीयं ४. मोहनीयम् ५. आयुष्कं ६. नाम ७. गोत्रम् ८. अन्तरायिकम्।
ज्ञानावरणीयस्य भदन्त ! कर्मणः कियन्तं कालं बन्धस्थिति: प्रज्ञप्ता?
गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण त्रिंशत् सागरोपमकोटिकोटी, त्रीणि च वर्षसहस्राणि अबाधा, अवाधोनिका कर्मस्थि तिः - कर्मनिषेकः ।
दर्शनावरणीयं जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटी:, त्रीणि च वर्षसहस्राणि अवामा अवाधोनिका कर्मस्थितिः कर्मनिषेकः ।
वेदनीयं जघन्येन द्वौ समयौ, उत्कर्षेण त्रिंशत् सागरोपमकोटिकोटी:, त्रीणि च वर्षसहस्राणि अबाधा, अबाधोनिका कर्मस्थितिः — कर्मनिषेकः ॥
कर्म-प्रकृति-बंध - विवेचन - पद
३२. १ भन्ते ! कर्म-प्रकृतियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम! आठ कर्म प्रकृतियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अन्तराय ।
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३४. भन्ते ! ज्ञानावरणीय कर्म की बंध स्थिति कितने काल की प्रज्ञप्त है ?
गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः तीस कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अबाधा-काल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक ( कर्म- दलिकों के अनुभव के लिए होने वाली विशिष्ट प्रकार की रचना) का काल है। दर्शनवरणीय कर्म की बंध- स्थिति जघन्यतः अन्तमुहूर्त, उत्कर्षतः तीस कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अवाधाकाल जितनी न्यून कर्म स्थिति कर्मनिषेक का काल है।
वेदनीय कर्म की बन्ध-स्थिति जघन्यतः दो समय, उत्कर्षत: तीस कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अबाधाकाल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक का काल है।
मुक्तोपि वाभ्येतु भवं भवो वा भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे । षड्जीवकार्य त्वमनन्तसंख्यमाख्यस्तथा नाथ ! यथा न दोष: ॥
४. भ. वृ. ६ / २९ - भवसिद्धिकानां भव्यत्वलब्धि: सिद्धत्वेऽपेतीति कृत्वाऽनादिः सपर्यवसिता चेति ।
५. भ. १२/५०-५२ ।
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