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श. ६ : उ.३ : सू.३०-३२
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भगवई
जीवाणं सादि-अनादित्त-पदं ३०. वत्थे णं भंते ! किं सादीए सपज्जवसिए
-चउभंगो?
जीवानां साधनादित्व-पदम् वस्त्रं भदन्त ! किं सादिकं सपर्यवसितम्- चतुर्भङ्गाः?
जीवों की सादि-अनादिता का पद ३०. भन्ते ! क्या वस्त्र सादि-सपर्यवसित है? सादि
अपर्यवसित है? अनादि-सपर्यवसित है? अथवा अनादि-अपर्यवसित है? गौतम ! वस्त्र सादि-सपर्यवसित है। शेष तीनों भंग (विकल्प) प्रतिषेधनीय है—सादि-अपर्यवसित नहीं है, अनादि-सपर्यवसित नहीं है और अनादि-अपर्यवसित नहीं है।
गोयमा! वत्थे सादीए सपज्जवसिए, अवसेसा तिण्णि वि पडिसेहेयव्वा ।
गौतम ! वस्त्रं सादिकं सपर्यवसितम्, अवशेषाः त्रयोऽपि प्रतिषेधयितव्याः।
३१. जहाणं भंते! वत्थे सादीए सपज्जवसिए, यथा भदन्त ! वस्त्रं सादिकं सपर्यवसितं, नो नो सादीए अपज्जवसिए, नो अणादीए सादिकम् अपर्यवसितं, नो अनादिकं स- सपज्जवसिए, नो अणादीए अपज्जवसिए, पर्यवसितं, नो अनादिकम् अपर्यवसितं, तथा तहा णं जीवा किं सादीया सपज्जवसिया? जीवा: किं सादिका: सपर्यवसिता:? चतुचउभंगो-पुच्छा।
भङ्गा:-पृच्छा।
३१. भंते ! जैसे वस्त्र सादि-सपर्यवसित है, सादि अपर्यवसित नहीं है, अनादि-सपर्यवसित नहीं है
और अनादि-अपर्यवसित नहीं है, वैसे ही क्या जीव भी सादि-सपर्यवसित है? सादि-अपर्यवसित है? अनादि-सपर्यवसित है? अथवा अनादि-अपर्यवसित है? गौतम ! कुछ जीव सादि-सपर्यवसित है। कुछ जीव सादि-अपर्यवसित है। कुछ जीव अनादि-सपर्यवसित है। कुछ जीव अनादि-अपर्यवसित हैं।
गोयमा ! अत्थेगतिया सादीया सपज्ज- गौतम ! अस्त्येकके सादिका: संपर्यवसिताः वसिया–चत्तारि वि भाणियव्वा।। -चत्वारोऽपि भणितव्याः।
३२. से केणटेणं?
तत् केनार्थेन? गोयमा! नेरतिय-तिरिक्खजोणिय-मणु- गौतम ! नैरयिक-तिर्यग्योनिक-मनुष्य- -स्स-देवा गतिरागतिं पडुच्च सादीया स- -देवा: गत्यागती प्रतीत्य सादिका: सपर्यपज्जवसिया, सिद्धा गतिं पडुच्च सादीया वसिताः, सिद्धा गतिं प्रतीत्य सादिका: अपज्ज्वसिया, भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अपर्यवसिता:, भवसिद्धिका: लब्धिं प्रतीत्य अणादीया सपज्जवसिया, अभवसिद्धिया अनादिकाः सपर्यवसिताः, अभवसिद्धिका: संसारं पडुच्च अणादीया अपज्जवसिया से संसारं प्रतीत्य अनादिका: अपर्यवसिताः। तत् तेणद्वेणं॥
तेनार्थेन।
३२. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव गति-आगति की अपेक्षा सादि-सपर्यवसित है। सिद्ध गति की अपेक्षा सादि अपर्यवसित है। भवसिद्धिक जीव भव्यत्व-लब्धि की अपेक्षा अनादि-सपर्यवसित है, अभवसिद्धिक जीव संसार (जन्म-मरण) की अपेक्षा अनादि-अपर्यवसित हैं। इस अपेक्षा से।
भाष्य १. सूत्र ३०-३२
से उसका सपर्यवसित्व है। सादित्व और अनादित्व का विमर्श अनेक अपेक्षाओं से किया जा २. सिद्ध जीव का शुद्ध स्वरूप है। वह स्वरूप पहले कभी उपलब्ध सकता है। प्रस्तुत आलापक में जीव-पर्याय आत्मा का स्वरूप स्वाभाविक नहीं हुआ, इसलिए सिद्धि-गति की अपेक्षा सिद्ध का सादित्व है। आत्मा का योग्यता और अयोग्यता-इन अपेक्षाओं से सादित्व और अनादित्व की स्वरूप उपलब्ध होने पर फिर कभी उसका विलोप नहीं होता, इसलिए वह संबोधि दी गई है।
अपर्यवसित है। १. नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव—ये चारों जीव के योगदर्शन में मुक्त और ईश्वर इन दो अवस्थाओं को भिन्न माना पर्याय हैं। प्रत्येक पर्याय की आदि होती है और उसका अन्त भी होता है। गया है। उसके अनुसार मुक्त जीव बन्धनों का छेदन कर कैवल्य को प्राप्त उदाहरण स्वरूप-मनुष्य-गति में उत्पन्न होना मनुष्य का आदि बिंदु है। होता है। ईश्वर सदा-सर्वदा बन्धनों से मुक्त होता है। फलत: मुक्त सादि होता मनुष्य-जीवन की आयु समाप्त कर देना उसका पर्यवसान है। अत: मनुष्यगति है और ईश्वर अनादि। जैन दर्शन में अनादिसिद्धत्व का सिद्धान्त स्वीकार्य में आने की अपेक्षा से मनुष्य का सादित्व और वहां से चले जाने की अपेक्षा नहीं है। सापेक्ष दृष्टि से सिद्धों को अनादि बतलाया गया है, किन्तु निरपेक्ष १. (क) पा.यो.द. व्यास-भाष्य, १/२४-कैवल्यं प्राप्तास्तर्हि संति च बहवः केवलिनः, ते हि नवमीश्वरस्य स तु सदैव मुक्तः सदैवेश्वर इति । त्रीणि बन्धनानि छित्वा कैवल्य प्राप्ताः, ईश्वरस्य च तत्सबंधो न भूतो न भावी। यथा मुक्तस्य पूर्वा (ख) देखें भ. १/२८८-३०७ का भाष्य । बन्धकोटिः प्रज्ञायते नैवमीश्वरस्य, यथा वा प्रकृतिलीनस्य उत्तरा बन्धकोटि: सम्भाव्यते
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