________________
भगवई
२४३
श.६ : उ.३ : सू.२७-२९
गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए सादीए गौतम ! वस्त्रस्य पुद्गलोपचय: सादिकः सपज्जवसिए, नो सादीए अपज्जवसिए, नो सपर्यवसित:, नो सादिक: अपर्यवसित:, नो अणादीए सपज्जवसिए, नो अणादीए अपज- अनादिक: सपर्यवसित:, नो अनादिक: वसिए॥
अपर्यवसित:।
गौतम ! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय सादि-सपर्यवसित है, सादि-अपर्यवसित नहीं है, अनादि-सपर्यवसित नहीं है, अनादि-अपर्यवसित नहीं है।
२८.जहा णं भन्ते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए यथा भदन्त ! वस्त्रस्य पुद्गलोपचयः २८. भन्ते ! जैसे वस्त्र के पुद्गलों का उपचय सादिसादीए सपज्जवसिए, नो सादीए अपज्ज- सादिकः सपर्यवसितः, नो सादिक: अ- सपर्यवसित है, सादि-अपर्यवसित नहीं है, अनादिवसिए, नो अणादीए सपज्जवसिए, नो पर्यवसितः, नो अनादिक: सपर्यवसित:, नो सपर्यवसित नहीं है, अनादि-अपर्यवसित नहीं है, उसी अणादीए अपज्जवसिए, तहा ण जीवाणं अनादिक: अपर्यवसित:, तथा जीवानां प्रकार जीवों के कर्मोपचय के सम्बन्ध में प्रश्न है। कम्मोवचए पुच्छा।
कर्मोपचये पृच्छा। गोयमा! अत्थेगतियाणं जीवाणं कम्मोवचए गौतम ! अस्त्येककेषां जीवानां कर्मोपचयः गौतम ! कुछ जीवों के कर्मों का उपचय सादिसादीए सपज्जवसिए, अत्थेगतियाणं सादिकः सपर्यवसितः, अस्त्येककेषां अना- -सपर्यवसित है, कुछ जीवों के कर्मों का उपचय अणादीए सपज्जवसिए, अत्थेगतियाणं दिकः सपर्यवसित:, अस्त्येककेषां अनादि- अनादि-सपर्यवसित है, कुछ जीवों के कर्मों का अणादीए अपज्जवसिए, नो चेव णं जीवाणं क:अपर्यवसितः, नो चैव जीवानां कर्मो- उपचय अनादि-अपर्यवसित है, पर जीवों के कर्मों कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिए।। पचय: सादिक: अपर्यवसितः।
का उपचय सादि-अपर्यवसित नहीं होता।
२९. से केणटेणं?
तत् केनार्थेन? गोयमा ! इरियावहियबंधयस्स कम्मोवचए गौतम ! ईर्यापथिकबन्धकस्य कर्मोपचय: सादीए सपज्जवसिए, भवसिद्धियस्स कम्मो- सादिकः सपर्यवसित:, भवसिद्धिकस्य वचए अणादीए सपज्जवसिए, अभवसिद्धि- कर्मोपचय: अनादिकः सपर्यवसित:, यस्स कम्मोवचए अणादीए अपज्जवसिए। अभवसिद्धिकस्य कर्मोपचय: अनादिकः से तेणटेणं॥
अपर्यवसित:। तत् तेनार्थेन।
२९. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! ईर्यापथिक कर्म बांधने वाले के कर्मों का उपचय सादि-सपर्यवसित है, भवसिद्धिक जीवों के कर्मों का उपचय अनादि-सपर्यवसित है, अभवसिद्धिक जीवों के कर्मों का उपचय अनादिअपर्यवसित है। इस अपेक्षा से।
भाष्य
१.सूत्र २७-२९
कर्म के विषय में एक जिज्ञासा प्राचीन काल से होती रही है - पहले कौन, जीव अथवा कर्म ? इसका उत्तर है—जीव और कर्म में पौर्वापर्य नहीं है। कर्म के बिना जीव संसार में रहता नहीं और जीव के बिना कर्म का बन्ध होता नहीं। इसकी फलश्रुति है कि जीव और कर्म दोनों अनादि हैं। प्रस्तुत आलापक में कर्म के अनादित्व पर सापेक्ष दृष्टि से विमर्श किया गया है। अनादित्व और सादित्व को चार भंगों में विभक्त कर समझाया गया है
१. सादि सपर्यवसित वीतराग के ईर्यापथिक कर्म का बन्ध होता है। उसकी अवधि दो समय की है। पहले समय में कर्म बन्ध होता है, दूसरे समय में परिभुक्त होता है और तीसरे समय में निर्जीर्ण होता है। वीतराग अवस्था से पहले इसका बन्ध नहीं होता, इसलिए यह सादि है। अयोगी अवस्था में इसका बन्ध रुक जाता है, इसलिए यह सपर्यवसित है, सान्त है।'
२,३. अनादि-सपर्यवसित, अनादि-अपर्यवसित-अवीतराग अवस्था में सभी जीवों के कर्म का बन्ध अनादि होता है। अनादित्व की दृष्टि से दूसरा और तीसरा भंग समान है। भव्य जीव में मोक्ष-गमन की अर्हता होती है, उनमें से जो कर्म-बन्ध का अन्त कर देता है, इस आधार पर दूसरा भंग बनता है अनादि-सपर्यवसित । अभव्य जीव में मोक्ष-गमन की अर्हता नहीं होती; इसलिए उसके कर्म-बन्ध का कभी अन्त नहीं होता; इस आधार पर अनादि-अपर्यवसित भंग बनता है।
४. सादि-अपर्यवसित-यह चतुर्थ भंग शून्य है। कर्म-बन्ध का अनादित्व निरपेक्ष है और सादित्व सापेक्ष है। केवल ईर्यापथिकी क्रिया की अपेक्षा कर्मबन्ध का सादित्व है। ईर्यापथिकी क्रिया केवल वीतराग के ही होती है और वीतराग निश्चित रूप से कर्म-बन्ध का समापन कर मुक्त होता है। अत: सादि-अपर्यवसित भंग शून्य है।
१. (क) भ. १/२९१
(ख) आचार्य भिक्षु द्वारा रचित तेरह द्वार, द्वार - २
२. भ.वृ. ६/२९- ऐपिथिककर्मणो हि अबद्धपूर्वस्य बन्धनात् सादित्वम्, अयोग्यवस्थायां श्रेणिप्रतिपति वाऽबन्धनात् सपर्यवसितत्वम्।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org