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श.६: उ.३:सू.२४-२७
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भगवई
जहा–मणप्पयोगे, वइप्पयोगे, कायप्प- तद् यथा—मन:प्रयोग:, वाक्प्रयोगः, काययोगे। इच्चेएणं तिविहेणं पयोगेणं जीवाणं प्रयोग:। इत्येतेन त्रिविधेन प्रयोगेण जीवानां कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा। कर्मोपचय: प्रयोगेण, नो विस्रसा! एवं सर्वेषां । एवं सन्वेसिं पंचिंदियाणं तिविहे पयोगे पंचेन्द्रियाणां त्रिविधः प्रयोगः भणितव्यः। भाणियब्वे। पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पयोगेणं, एवं जाव पृथ्वीकायिकाना एकविधेन प्रयोगेण, एवं वणस्सइकाइयाणी
यावद् वनस्पतिकायिकानाम्।
जैसे मन-प्रयोग, वचन-प्रयोग और काय-प्रयोग। इस त्रिविध प्रयोग के आधार पर जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता है। इसी प्रकार सब पंचेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग वक्तव्य है। पृथ्वीकायिक जीवों के एक प्रकार के प्रयोग से कर्मों का उपचय होता है। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता। विकलेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार का प्रयोग वक्तव्य है
-वचन-प्रयोग और काय-प्रयोग। इस द्विविध प्रयोग के आधार पर विकलेन्द्रिय जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता। इस प्रकार यावत् वैमानिक, देवों तक जिसके जो प्रयोग है उससे कर्मों का उपचय वक्तव्य
विगलिंदियाणं दुविहे पयोगे पण्णत्ते, तं जहा विकलेन्द्रियाणां द्विविध: प्रयोग: प्रज्ञप्तः, तद् —वइपयोगे, कायपयोगे य।
यथा-वाक् प्रयोगः, काय प्रयोग: च। इच्चेएणं दुविहेणं पयोगेणं कम्मोवचए, इत्येतेन द्विविधन प्रयोगेण कर्मोपचयः प्र- पयोगसा, नो वीससा। से तेणद्वेणं गोयमा ! योगेण, नो विस्रसा। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवं वुच्चइ—जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, एवमुच्यते-जीवानां कर्मोपचयः प्रयोगेण, नो वीससा। एवं जस्स जो पयोगो जाव नो विस्रसा। एवं यस्य यः प्रयोग: यावद् वेमाणियाणं ।।
दैमानिकानाम्।
भाष्य १. सूत्र २४-२६
पुद्गल-ग्रहण का सामान्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार कर्म के __ कर्म आत्मकृत होता है, अकृत नहीं होता। यदि कर्म का बन्ध पुद्गलों का ग्रहण काययोग से होता है। शरीर नामकर्म के द्वारा कर्म-पुद्गलों अकृत हो तो कोई भी जीव कर्म से मुक्त हो नहीं सकता और कर्ममुक्त रह नहीं का जीव-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है। वह सम्बन्ध एक प्रकार सकता। कर्म-वर्गणा के पुद्गल पूरे लोक में फैले हुए हैं और वे आत्म प्रदेशों का नहीं होता। उसमें तारतम्य होता है। मन, वचन और काया का प्रयोग के अनन्तरावगाढ भी हैं, फिर भी जीव उनको ग्रहण करने के लिए अपना तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम तथा मन्द, मन्दतर और मन्दतम होता है। वैसा ही प्रयोग नहीं करता, तब तक उसका उपचय अथवा बन्ध नहीं होता। प्रस्तुत कर्म-बन्ध हो जाता है। आलापक में कर्म-वर्गणा के पुद्गलों के बन्ध की प्रक्रिया बतलाई गई है। शब्द-विमर्श जीव का प्रयोग तीन प्रकार का होता है-मानसिक प्रयोग, वाचिक प्रयोग
विस्रसा (वीससा)-स्वभाव, स्वाभाविक परिणमन, जो प्रयोग और कायिक प्रयोग।
अथवा प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रखता। सब प्रकार के पुद्गलों का ग्रहण काययोग के द्वारा होता है। यह ।
द्रष्टव्य भ.१/१३३-१३५ का भाष्य।
कम्मोवचयस्स सादि-अनादित्त-पदं कर्मोपचयस्य साधनादित्व-पदम् कर्मोपचय का सादि-अनादि-पद २७. वत्थस्सणं भंते! पोग्गलोवचए किं सादीए वस्त्रस्य भदन्त ! पुद्गलोपचय: किं सादिक: २७. 'भंते ! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय सादि
सपज्जवसिए? सादीए अपज्जवसिए? अणा- सपर्यवसित:? सादिक: अपर्यवसित:? सपर्यवसित है? सादि-अपर्यवसित है? अनादिदीए सपज्जवसिए? अणादीए अपज्जवसिए? अनादिक: सपर्यवसित:? अनादिक: अ- सपर्यवसित है? अनादि-अपर्यवसित है?
पर्यवसित:? १. ठाणं, ३/३३६-से णं भंते ! दुक्खे केण कडे? जीवेणं कडे पमादेण।
टीका--संज्ञानामन्वर्थ सर्वकर्मणामुक्त ज्ञानावरणाद्यन्तरायपर्यवसानं तस्य प्रत्ययाः २. त.सू.भा.वृ. ८/२५-नामकर्मण उत्तरप्रकृतिः शरीरनामान्तर्गता बन्धननाम तत्प्रत्ययाः किल -कारणानीति षष्ठी समासः। पुद्गला इति। तच्च गृहीतगृह्यमाणपुद्गलानामन्यशरीरपुद्गलैर्वा सम्बन्धो यस्य कर्मण उदयाद्
न हि तानन्तरेण तदाख्योदयादि सम्भवो मुक्तस्येवात्मनः संसारिणः प्रथमप्रश्नः। एवं भवति, काष्ठद्वयभेदैकध्यकरणे जतुवदिति।
द्वितीयविकल्प: किंप्रत्यया वेति द्वितीयभेदाश्रयणेन भाष्यम्-नाम प्रत्यय एषां ते इमे नाम प्रत्यया ३. वही, ८/२५-नाम प्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेष इति बहुव्रीहिः अन्यपदार्थश्च, गतिजात्यादिभेदं नामकर्म। औदारिकशरीरादयो योगाः कर्मणो अनन्तानन्तप्रदेशा:।
निमित्ततां प्रतिपद्यन्ते पारम्पर्येण गत्यादयोऽपीत्यतो नामकर्मकरणा: पुद्गला बध्यन्त इति। भाष्य-नामप्रत्ययाः पुद्गला: बध्यन्ते। नामप्रत्यथ एषां ते इमे नामप्रत्ययाः। नामनिमित्ता ४. वही, ५/१२४-विश्रसा-स्वभावः प्रयोगनिरपेक्षो विश्रसाबन्धः। नामहेतुका नामकारणा इत्यर्थः।
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