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भगवई
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श.६ : उ.३ : सू.२०-२६
प्रमाद, कषाय और योगा
महाकर्म, महाक्रिया, महाआश्रव और महावेदना वाला जीव अशुभ योग में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सब (छहों) दिशाओं से कर्म-पुद्गलों का बन्ध, चय और उपचय करता है। यह कर्म-पुद्गलों का बंध, चय और उपचय निरन्तर होता रहता है। कर्म-पुद्गलों के बंध से कार्मण (सूक्ष्मतर) शरीर पुष्ट होता है। उसका प्रभाव औदारिक (स्थूल) शरीर और आभामण्डल पर भी होता है। प्रचुर कर्म-बंध करने वाले व्यक्ति का शरीर अनिष्ट पुद्गलों से आक्रान्त होकर रुग्ण बन जाता है तथा आभामण्डल मलिन हो जाता है।
अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पआश्रव और अल्पवेदना वाला जीव शुभयोग में प्रवृत्त होता है, इसलिए उसके सर्वत: कर्म-पुद्गलों की निर्जरा होती है। निर्जरा से कार्मण शरीर का विशोधन होता है, साथ-साथ औदारिक शरीर और आभामण्डल का रंग-रूप भी सुन्दर हो जाता है। शरीर स्वस्थ और सुखद बन जाता है तथा आभामण्डल निर्मल हो जाता है।
आध्यात्मिक चिकित्सा की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण सूत्र है। भाव और आचरण की अशुद्धि शरीर को कान्तिहीन और रुग्ण बनाती है। भाव और आचरण की शुद्धि शरीर को कान्तियुक्त और स्वस्थ बनाती है। तेरापंथ के अष्टम आचार्य पूज्य कालूगणी इसके निदर्शन है। भाव और आचरण की विशुद्धि जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे उनका शरीर कान्ति-सम्पन्न और वर्ण सुन्दर होता गया।
महाकर्म और अल्पकर्म----इन दोनों अवस्थाओं को दो दृष्टान्तों से समझाया गया है—१. जैसे नया वस्त्र पहनने पर धीमे-धीमे मलिन होता
जाता है, वैसे ही महान् आश्रव वाला व्यक्ति अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा मलिन होता रहता है।
२. जैसे मलिन वस्त्र धोने पर उजला हो जाता है, वैसे ही अल्प आश्रव वाला व्यक्ति शुभ प्रवृत्ति के द्वारा निर्मल होता रहता है।
कर्म, क्रिया, आश्रव और वेदना-इन चारों पदों का प्रयोग कर सूत्रकार ने उनका आन्तरिक सम्बन्ध दिखलाया है। कर्म का संचय महान् है, इस अवस्था में क्रिया, आश्रव और वेदना—ये भी महान् होंगी। कर्म-बन्ध की अल्पता की अवस्था में क्रिया, आश्रव और वेदना—ये भी अल्प होंगी।
शब्द-विमर्श आत्मा (आया)-शरीर, आभामण्डल बंध-आत्मा के साथ शुभ, अशुभ कर्मों का सम्बन्ध, कर्म-ग्रहण। चय, उपचय-वृद्धि, अतिवृद्धि। देखें भ. १/१९-२४ का भाष्य।
सदा, प्रतिक्षण (सया समियं)–विस्तृत मीमांसा के लिए द्रष्टव्य भ.३/१४३-१४८ का भाष्य।
अलोभनीय रूप में (अभिज्झियत्ताए)—'भिध्या' का अर्थ है -लोभ । भिध्यित अर्थात् लोभनीय। अभिध्यित = अलोभनीय।
अपरिभुक्त (अहय)-जो अभी तक परिभुक्त नहीं है। तंतुग्णय-तंत्र से उद्गत, करघा से तत्काल निकाला हुआ। शरीर का मल (जल्लिय)-गाढ़े मैल से युक्त। आर्द्रमल (पंकिय)-गीले मैल से युक्त। कठिन मल (मइल्लिय)-मैला। रजकणों से सना हुआ (रइल्लिय)-रजयुक्त ।
कम्मोवचय-पदं
२४. वत्थस्सणं भते! पोग्गलोवचए किं पयोगसा? वीससा? गोयमा ! पयोगसा वि, वीससा वि।।
कर्मोपचय-पदम् वस्त्रस्य भदन्त ! पुद्गलोपचय: किं प्रयोगे- ण? विस्रसा? गौतम ! प्रयोगेणापि, विस्रसाऽपि।
कर्मोपचय-पद २४. ' भन्ते ! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय क्या प्रयोग से होता है? अथवा स्वभाव से होता है? गौतम ! प्रयोग से भी होता है और स्वभाव से भी होता है।
२५. जहा णं भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए यथा भदन्त ! वस्त्रस्य पुद्गलोपचयः २५. भंते ! जैसे वस्त्र के पुद्गलों का उपचय प्रयोग से पयोगसा वि, वीससा वि, तहा णं जीवाणं प्रयोगेणाऽपि, विस्रसाऽपि, तथा जीवानां भी होता है और स्वभाव से भी होता है, उसी प्रकार कम्मोवचए किं पयोगसा? वीससा? कर्मोपचय: किं प्रयोगेण? विस्रसा? जीवों के कर्मों का उपचय प्रयोग से होता है? अथवा
स्वभाव से होता है? गोयमा ! पयोगसा, नो वीससा। गौतम ! प्रयोगेण, नो विस्रसा।
गौतम ! प्रयोग से होता है, स्वभाव से नहीं होता।
२६. से केणटेणं?
तत् केनार्थेन? गोयमा! जीवाणं तिविहे पयोगे पण्णत्ते, तं गौतम ! जीवानां त्रिविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः,
२६. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग प्रज्ञप्त हैं
१. भ.व. ६/२०-आत्मा बाह्यात्मा शरीरमित्यर्थः २. वही, ६/२०-'सया समिय' त्ति सदा सर्वदा सदात्वं च व्यवहारतोऽसातत्येऽपि स्यादित्यत आह—'समित' सन्तत। ३. वही, ६/२०–'अज्झियत्ताए'त्ति भिध्या-लोभः सा संजाता यत्र सो भिध्यितो न
भिध्यितोऽभिध्यितस्तद्भावस्तत्ता तथा। ४. वही, ६/२०-'अहयस्सव' ति अपरिभुक्तस्य। ५. वही, ६/२०-तंत्रात् ---- तुरीवेमादेरपनीतमात्रस्य ।
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