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श.६ : उ.३: सू.२०-२३
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भगवई
धोयस्स वा, तंतुग्गयस्स वा आणुपुन्वीए धौतस्य वा, तन्त्रोद्गतस्य वा आनुपूर्व्या परिभुज्जमाणस्स सव्वओ पोग्गला बझंति, परिभुज्यमानस्य सर्वत: पुद्गला: बध्यन्ते, सव्वओ पोग्गला चिजंति जाव परिणमति। सर्वत: पुद्गला: चीयन्ते यावत् परिणमति। से तेणटेणं॥
तत् तेनार्थेन।
अथवा तन्त्र (करघा) से तत्काल निकला हुआ है। वह पहना जा रहा है तब कालक्रम से उसके सब
ओर से पुद्गलों का बन्ध होता है, सब ओर से पुद्गलों का चय होता है यावत् परिणमन होता है। यह इस अपेक्षा से।
अप्पकम्मादीण पोग्गलभेदादि-पदं अल्पकर्मादीनां पुद्गलभेदादि-पदम् अल्पकर्म वाले आदि के पुद्गल-भेद का पद २२. से नूर्ण भंते ! अप्पकम्मस्स, अप्पकिरि- तन् नूनं भदन्त ! अल्पकर्मणः, अल्पक्रिय- २२. भंते ! क्या अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पआश्रव यस्स, अप्पासवस्स, अप्पवेदणस्स सव्वओ स्य, अल्पास्रवस्य, अल्पवेदनस्य सर्वतः और अल्पवेदना वाले पुरुष के सब ओर से पुद्गलों पोग्गला भिज्जंति, सव्वओ पोग्गला छिज्ज- पुद्गला: भिद्यन्ते, सर्वत: पुद्गलाः का भेदन होता है? सब ओर से पुद्गलों का छेदन ति, सव्वओ पोग्गला विद्धंसंति, सव्वओ छिद्यन्ते, सर्वतः पुद्गलाः विध्वस्यन्ते, होता है? सब ओर से पुद्गलों का विध्वंस होता है? पोग्गला परिविद्धंसंति; सया समियं पोग्गला सर्वतः पुद्गला: परिविध्वस्यन्ते; सदा सब ओर से पुद्गलों का परिविध्वंस होता है? सदा भिज्जंति, सया समियं पोग्गला छिज्जंति, समितं पुद्गला: भिद्यन्ते, सदा समितं पुद्- प्रतिक्षण पुद्गलों का भेदन होता है? सदा प्रतिक्षण सया समियं पोग्गला विद्धस्संति, सया समियं गला: छिद्यन्ते, सदा समितं पुद्गला: विध्व- पुद्गलों का छेदन होता है? सदा प्रतिक्षण पुद्गलों पोग्गला परिविद्धंस्संति; सया समियं च णं स्यन्ते, सदा समितं पुद्गला: परि- का विध्वंस होता है? सदा प्रतिक्षण पुद्गलों का तस्स आया सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए सुगंधत्ताए विध्वस्यन्ते; सदा समितं च तस्य आत्मा परिविध्वंस होता है? उस पुरुष की आत्मा सदा सुरसत्ताए सुफासत्ताए इठ्ठत्ताए कंतताए पिय- सुरूपतया सुवर्णतया सुगन्धतया सुरसतया प्रतिक्षण सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध, सुरस, सुस्पर्श, इष्ट, ताए सुभत्ताए मणुण्णत्ताए मणामत्ताए इच्छि- सुस्पर्शतया इष्टतया कान्ततया प्रियतया कान्त,प्रिय, शुभ, मनोज्ञ, कमनीय, वांछनीय, यत्ताए अणभिज्झियत्ताए उड्ढत्ताए-नो सुभतया मनोज्ञतया ‘मणामत्ताए' ईप्सिततया । लोभनीय और ऊर्ध्वरूप में न जघन्य रूप में, अहत्ताए, सुहत्ताए–नो दुक्खत्ताए भुज्जो- अनभिध्यिततया ऊर्ध्वतया-नो अधस्त- सुखरूप में न दुःखरूप में बार-बार परिणत होती भुज्जो परिणमति?
या, सुखतया—नो दु:खतया भूयो-भूयः ।
परिणमति? हंता गोयमा ! जाव परिणमति। हन्त गौतम ! यावत् परिणमति।
हां, गौतम ! यावत् परिणत होती है।
२३. से केणटेणं?
तत् केनार्थेन?
२३. यह किस अपेक्षा से? गोयमा! से जहानामए वत्थस्स जल्लियस्स गौतम ! तद् यथानाम वस्त्रस्य ‘जल्लियस्स' गौतम ! जैसे कोई वस्त्र शरीर के मल, आर्द्रमल, वा, पंकियस्स वा, मइल्लियस्स वा, वा, पङ्कितस्य वा, मलिनितस्य वा, रजस्वतो कठिनमल और रजकणों से सना हुआ हो उसका रइल्लियस्स वा आणुपुवीए परिकम्मिज्ज- वा आनुपूर्व्या परिकर्नामाणस्य शुद्धेन वारिणा परिकर्म करने पर और शुद्ध जल से धोने पर कालक्रम माणस्स सुद्धेणं वारिणा धोब्वेमाणस्स धाव्यमानस्य सर्वत: पुद्गला: भिद्यन्ते यावत् । से उसके सब ओर से पुद्गलों का भेदन होता है, सव्वओ पोग्गला भिज्जति जाव परिणमति। परिणमति । तत् तेनार्थेन।
यावत् शुद्धरूप में परिणमन होता है। यह इस अपेक्षा से तेणटेणं॥
से।
भाष्य
१. सूत्र २०-२३
जाता है, इसलिए वह भी प्रचुर कर्म-पुद्गलों का बन्ध करता है। क्रिया और प्रस्तुत आलापक में कर्मबन्ध के हेतु और कर्मबन्ध के निमित्त का आश्रव ये दोनों कर्मबन्ध के हेतु हैं, साधन हैं। प्राणातिपात आदि क्रिया प्रतिपादन किया गया है। महाकर्म और महावेदन-ये दो कर्मबन्ध के निमित्त वास्तव में योग आश्रव के ही प्रकार हैं। तत्त्वार्थसूत्र में साम्परायिक आश्रव हैं। जिस प्राणी के ज्ञानावरण और मोहनीय कर्म प्रबल होता है, उसके कर्म- के ३९ भेद बतलाए गए हैं—पांच इन्द्रिय, चार कषाय, पांच अव्रत और पुद्गलों का अधिक बन्ध होता है। महावेदना वाले व्यक्ति का ध्यान आर्त बन पच्चीस क्रियाएं आश्रव के मौलिक भेद पांच हैं-मिथ्यात्व, अविरति,
१. त.रा.वा. ६/५-योगत्रयस्य एकोनचत्वारिंशत्प्रभेदाः सर्वात्मकार्यत्वात् संसारिणां सर्वेषां साधारणा:!
२. त.सू. ६/५-इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्च चतुः पञ्च पञ्चविंशति संख्या: पूर्वस्य भेदाः।
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