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________________ श.६: उ.३: सू.३३,३४ २४६ भगवई मोहणिज्जं जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं मोहनीयं जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ, सत्त य सप्तति सागरोपमकोटिकोटी:, सप्त च वाससहस्साणि अबाहा, अबाहूणिया कम्म- वर्षसहस्राणि अबाधा, अबाधोनिका कर्म- द्विती-कम्मनिसेओ। स्थिति:-कर्मनिषेक:। आउगं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं आयुष्कं जघन्येन अन्तर्मुहर्त्तम् उत्कर्षेण तेत्तीसं सागरोवमाणि पुन्वकोडितिभाग- त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि पूर्वकोटि-त्रिभा- मन्भहियाणि, कम्मट्टिती-कम्मनिसेओ। गाभ्यधिकानि कर्मस्थिति:-कर्मनिषेकः। मोहनीय कर्म की बंध-स्थिति जघन्यत: अन्तमुहूर्त, उत्कर्षतः सत्तर कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल सात हजार वर्ष का है। अबाधाकाल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक का काल है। आयुष्य-कर्म की बंध-स्थिति जघन्यत: अन्तमुहूर्त, उत्कर्षतः कोटिपूर्व का एक तिहाई भाग अधिक तेतीस सागरोपम है। कर्मस्थिति घटाव पूर्वकोटि का तीसरा भाग (यानि तेतीस सागर) कर्म-निषेक का काल है। नाम और गोत्र कर्म की बंध-स्थिति जघन्यत: आठ मुहूर्त, उत्कर्षत: बीस कोटाकोटि सागरोपम है। उनका अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है। अबाधाकाल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक का काल है। अन्तराय कर्म की बंध-स्थिति जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षत: तीस कोटाकोटि सागरोपम है। इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। अबाधाकाल जितनी न्यून कर्म-स्थिति कर्म-निषेक का काल है। नाम-गोयाणं जहण्णेणं अट्ठमुहत्ता, उक्को- नाम-गोत्रयोर्जघन्येन अष्ट मुहूर्त्तानि, उत्कर्षण सेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, दोण्णि विंशति: सागरोपमकोटिकोटी:, द्वे च वर्ष- य वाससहस्साणि अबाहा, अबाहूणिया सहस्र अबाधा, अबाधोनिका कर्मस्थिति: कम्मट्टिती-कम्मनिसेओ। -कर्मनिषेकः। अंतराइयं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अन्तरायिकं जघन्येन अन्तर्मुहर्त्तम्, उत्कर्षेण तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिण्णि य त्रिंशत् सागरोपमकोटिकोटी:, त्रीणि च वर्षवाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया कम्म- सहस्राणि अबाधा, अबाधोनिका कर्महिती-कम्मनिसेओ। स्थिति:-कर्मनिषकः। भाष्य १. सूत्र ३३,३४ इनमें पहला प्रकार प्रकृति-बंध है। सिद्धसेन गणी ने इसे कर्म के भेदों विश्व के परिवर्तन में वर्गणा का मुख्य स्थान है। वर्गणाएं आठ हैं- का मूल कारण माना है, जैसे—मिट्टी के घट आदि अनेक रूप बनते हैं, वैसे १. औदारिक शरीर वर्गणा २. वैक्रिय शरीर वर्गणा ३. आहारक शरीर वर्गणा ही एक रूप में ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गलों के प्रकृति द्वारा अनके रूप बन ४. तैजस शरीर वर्गणा५. भाषा वर्गणा ६. श्वासोच्छ्वास वर्गणा७. मनोवर्गणा जाते हैं। प्रकृति का दूसरा अर्थस्वभाव है। प्रकृति-बंध द्वारा प्रत्येक विभाग ८. कार्मण वर्गणा। का स्वभाव-निर्धारण होता है। ज्ञानावरण का स्वभाव है-ज्ञान को आवृत्त ___ कर्म-वर्गणा के पुद्गल जीव को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। करना, दर्शनावरण का स्वभाव है-दर्शन को आवृत्त करना। दर्शनावरण शरीर, भाषा, मन और श्वासोच्छ्वास-इन सबका कर्म के साथ सम्बन्ध के उदय से विषय का आलोचन अथवा दर्शन नहीं होता। ज्ञानावरण के उदय है। ये सब कर्म के उपजीवी हैं। जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध होने पर शरीर से अर्थ का अवगम नहीं होता। पहले आलोचन होता है और फिर अवगम। आदि होते हैं। जीव से कर्म का असम्बन्ध हो जाने पर ये नहीं होते। ज्ञानमीमांसा का यह क्रम है। वेदनीय कर्म का स्वभाव है-सुख-दु:ख का कर्मपारिभाषिक शब्द है। इसकी परिभाषा है—जीव अपनी आश्रव- संवेदन। मोह का स्वभाव है—तात्त्विक मूढ़ता और चारित्र-मूढ़ता।आयुष्य शक्ति से कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वे पुद्गल कर्मरूप में का स्वभाव है-जन्म का निर्धारण। नामकर्म का स्वभाव है-जीव का परिणत होकर जीव के प्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं। इस अवस्था में उन मूर्तीकरण-जीव को नाना आकृतियों में परिणत करना । गोत्रकर्म का कर्म-वर्गणा के पुद्गलों की संज्ञा 'कर्म' हो जाती है। कर्म-प्रायोग्य पुद्गल स्वभाव है-हीनता और उच्चता की स्थिति में प्रतिष्ठित करना। अन्तराय निर्विभाग होते हैं। उनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण—इस प्रकार विभाग नहीं कर्म का स्वभाव है—क्रियात्मक वीर्य अथवा शक्ति में बाधा डालना। होता। जीव जिस अध्यवसाय के द्वारा कर्म-पुद्गलों का ग्रहण करता है, उस कर्म की मौलिक प्रकृतियां आठ ही क्यों? इस प्रश्न का समाधान अध्यवसाय से सामान्य रूप से गृहीत कर्म-पुद्गलों का ज्ञानावरण, जीव के आत्मिक स्वरूप और पौद्गलिक व्यक्तित्व पर विचार करने से दर्शनावरण आदि विभाग के रूप में परिणमन होता है। बंध के चार प्रकार हैं प्राप्त होता है। ज्ञान, दर्शन आत्मरमण अथवा आनन्द और वीर्य—यह जीव -प्रकृति-बंध, स्थिति-बंध, अनुभाग-बंध, प्रदेश-बंध। का चतुर्गुणात्मक स्वरूप है। चार कर्म आत्मा के स्वरूप को प्रभावित करते १. त.सू.भा.वृ. ८/२५-ननु चैकाकारा एव पुद्गला: समादीयन्ते न तु ज्ञानावरणादिविशिष्टाः प्रक्रियन्तेऽस्य सकाशादिति अकर्तरीत्यनुवृत्तेरपादानसाधना प्रकृतिः। केचिद् बहिः सन्तीति उच्यते--सत्यमेतत्। वयं त्विदमभिध्महे-ज्ञानावरणादिकानां सर्वासां ३. वही, ८/४-स्वभाववचनो वा प्रकृतिशब्दः। दुष्टप्रकृतिर्दुष्टस्वभाव इति प्रसिद्धः। ज्ञानावरणं मूलप्रकृतीनां कर्म-भेदानां सामर्थेऽन्ये न योगानां कर्मवर्गणानां ग्रहणमाम्नायते। ततः सामान्य- ज्ञानाच्छादनस्वभावं मौलभेदतः, एवं दर्शनावरणादावपि योज्यम्। स्वभाववचनत्वे च भावगृहीतानामध्यवसायविशेषात् पृथक्-पृथक् ज्ञानावरणादिभेदत्वेन परिणमयत्यात्मेति ॥ साधनः प्रकृतिशब्दः। २. वही, ८/४-तत्र प्रकृतिौलं कारणं मृदिव घटादिभेदानामेकरूपपुद्गलग्रहणम्, अत: Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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