________________
भगवई
हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण- ये दो कर्म आवारक है — आत्मा की ज्ञान और दर्शन की शक्ति को आवृत्त करते हैं। मोहनीय कर्म विकारक है। वह आत्मा की दृष्टि और चारित्र में विकृति उत्पन्न करता है। अन्तराय कर्म प्रतिरोधक है। वह आत्मा के वीर्य का प्रतिघात करता है। आत्म-स्वरूप को प्रभावित करने वाले कर्म घातिक कर्म कहलाते हैं। चार कर्म पौद्गलिक व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। उसका मुख्य अंग है— अमूर्त का मूर्त रूप में बने रहना, शरीर धारण । इस कार्य का संपादन नाम कर्म करता है। जीवन की सीमा का निर्धारण आयुष्य कर्म से होता है। सुख-दुःख के संवेदन का हेतु है। — वेदनीय कर्म प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा का हेतु बनता है— गोत्र कर्म पौगलिक व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले चार कर्म अधातिक कर्म कहलाते है।
१
इन आठ मूल प्रकृतियों में जीवन के मौलिक पक्षों की व्याख्या हो जाती है। शेष पक्षों का संपादन उत्तरप्रकृतियों के द्वारा होता है। बंध का दूसरा प्रकार स्थितिबंध है। इसके द्वारा कर्म की स्थिति का निर्धारण होता है। प्रत्येक कर्म अपनी काल मर्यादा के अनुसार जीव के साथ बद्ध रहता है। उसके सम्पन्न होते ही वह उदय में आकर निर्जीर्ण हो जाता है।
कर्म बंध की अवस्था में आते ही अपना फल नहीं देता। वह विपक्व होकर ही फल देना प्रारम्भ करता है। बंध और उदय के मध्य अवेद्यमान अवस्था होती है। उसका नाम अबाधाकाल है। इस प्रकार कर्म के स्थितिबंध की दो अवस्थाएं फलित होती हैं—१. अबाधाकाल २.
बाधाकाल ।
संख्या
१
२
३
४
६
८
कर्म
ज्ञानावरणीय
दर्शनावरणीय
वेदनीय
मोहनीय
आयुष्य
नाम
गोत्र
अन्तराय
जघन्य स्थिति
अन्तर्मुहूर्त
अन्तर्मुहूर्त
२ समय
अन्तर्मुहूर्त
अन्तर्मुहूर्त
८ मुहूर्त
८ मुहूर्त
अन्तर्मुहूर्त
२४७
मोत्तूण सगमबाहं पढमाए ठिईए बहुतरं दव्वं । सेसे विसेसणही जा उक्कोसंति सव्वासिं।।
Jain Education International
१. त. रा. वा. ८ / २३ - ताः पुनः कर्म प्रकृतियो द्विविधाः घातिका अघातिकश्चेतिः । तत्र ज्ञान दर्शनावरण मोहान्तरायाख्या घातिकाः । इतरा अघातिकाः।
३. कर्म प्रकृति, बंधनकरण, गाथा ७४
उत्कृष्ट स्थिति
३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर
३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर
३० क्रोडाक्रोड सागर
७० क्रोक्रो
२. भ. वृ. ६ / ३४ - अबाधया उक्तलक्षणया ऊनिका अबाधोनिका कर्म्मस्थिति: कर्मा वस्थानकाल उक्तलक्षणः कर्म- निषेको भवति। तत्र कर्मनिषेको नाम कर्मदलिकस्यानुभवनार्थं रचनाविशेषः । तत्र च प्रथमसमये बहुकं निषिञ्चन्ति द्वितीयसमये विशेषहीणं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदुकृष्टस्थितिकं कर्मदलिकं तावद् विशेषहीनं निषिञ्चति । तथा चोक्तम्
श. ६ : उ. ३ सू. ३३,३४
अबाधाकाल में कर्म का वेदन नहीं होता । बाधाकाल में कर्म का वेदन प्रारंभ हो जाता है। इस प्रकार कर्म की स्थिति — कालावधि और उसका अनुभव काल समान नहीं होता।
अबाधाकाल के सम्पन्न होने पर कर्म निषेक की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। बद्धकर्म एक साथ ही उदय में नहीं आता। उनका उदय क्रमशः होता है। क्रम-अवस्था की दृष्टि से उनके अनेक वर्ग बन जाते हैं। वे कर्म-निषेक कहलाते हैं। प्रथम समय के कर्म निषेक में कर्म पुद्गलों का निषेचन अधिक होता है। दूसरे समय में वह निषेचन विशेष हीन हो जाता है। इस प्रकार कर्मफल देने की अवधि तक वह उत्तरोत्तर विशेष हीन होता चला जाता है।
-
२
३३ सागर १/३ पूर्वकोटि अधिक
२० क्रोड़ाक्रोड़ सागर
२० क्रोक्रो सागर
३० क्रोडाको सागर
प्रस्तुत आलापक में अन्य सात कर्म- प्रकृतियों के अबाधाकाल निर्दिष्ट हैं। आयुष्य के अबाधाकाल का निर्देश नहीं है। कर्म-प्रकृति में आयुष्य
४
अबाधाकाल का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार अपनी वर्तमान आयु का तीसरा भाग आयुष्य का अबाधाकाल होता है। पञ्चसंगह में आयुष्य का उत्कृष्ट अबाधाकाल पूर्वकोटि वर्ष का तीसरा भाग बतलाया गया है।" अभयदेवसूरि ने आयुष्य का अबाधाकाल पूर्वकोटि का तीसरा भाग बतलाया है। उसका निषेक-काल तेतीस सागर का होता है। भगवती के मूल पाठ में आयु के अबाधाकाल का उल्लेख नहीं है। पण्णवणा के मूल पाठ में भी नहीं है। आयुष्यकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर और पूर्वकोटि का तीसरा भाग बतलाई गई है। वह सापेक्ष है। बध्यमान आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है। पूर्वकोटि का तीसरा भाग भुज्यमान आयुष्य है। उसे बध्यमान आयुष्य के साथ मिलाने पर आयुष्य की स्थिति पूर्वकोटि त्रिभाग अधिक
अबाधाकाल
३ हजार वर्ष
३ हजार वर्ष
३ हजार वर्ष
७ हजार वर्ष
-
२ हजार वर्ष
२ हजार वर्ष
३ हजार वर्ष
४. पं. सं. पृ. २४४, गाथा ३९३
निषेककाल
३ हजार वर्ष न्यून
For Private & Personal Use Only
३ हजार वर्ष न्यून
आउकुक्कोल्
सेसाण पुब्वकोडि, साउतिभागो अवाहासिं।।
३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर
३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर
३ हजार वर्ष न्यून ३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर ७ हजार वर्ष न्यून ७० क्रोडाक्रोड सागर
३३ सागर
२ हजार वर्ष न्यून २० कोड़ाक्रोड़ सागर
२ हजार वर्ष न्यून २० कोड़ाक्रोड़ सागर ३ हजार वर्ष न्यून ३० क्रोड़ाक्रोड़ सागर
स्समयं अबाहाकोडाकोडी ठिदिस्स जलहीणं । सहं कम्म आउस दुपुव्वकोडित अंसो ||
५. भ.वृ. ६ / ४८ - नवग्मायुषि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि निषेक: पूर्वकोटी त्रिभागश्चबाधाकाल
इति ।
६. पण २३ / ७८-८० 1
www.jainelibrary.org