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भगवई
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श.३ : उ.४ : सू.१५४-१६३
गोयमा! १. अत्थेगइए रुक्खस्स अंतो गौतम! १. अस्त्येककः रूक्षस्य अन्तः पश्यति, पासइ, नो बाहिं पासइ। २. अत्थेगइए नो बहिः पश्यति। २. अस्त्येककः रूक्षस्य रुक्खस्स बाहिं पासइ, नो अंतो पासइ। बहिः पश्यति, नो अन्तः पश्यति। ३. ३. अत्थेगइए रुक्खस्स अंतो पि पासइ, अस्त्येककः रूक्षस्य अन्तोऽपि पश्यति, बहिरपि बाहिं पि पासइ। ४. अत्थेगइए रुक्खस्स पश्यति। ४. अस्त्येककः रूक्षस्य नो अन्तः नो अंतो पासइ, नो बाहिं पासइ ॥ पश्यति, नो बहिः पश्यति।
गौतम! कोई अनगार वृक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को देखता है, बहिर्वर्ती भाग को नहीं देखता है। २. कोई अनगार वृक्ष के बहिर्वर्ती भाग को देखता है, अन्तर्वर्ती भाग को नहीं देखता। ३. कोई अनगार वृक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को भी देखता है, बहिर्वर्ती भाग को भी देखता है। ४. कोई अनगार न वृक्ष के अन्तर्वर्ती भाग को देखता है और न ही बहिर्वर्ती भाग को देखता है।
१५८ . अणगारे णं भंते! भाविअप्पा रुक्खस्स अनगारो भदन्त! भावितात्मा रूक्षस्य किं १५८. भन्ते! भावितात्मा अनगार क्या वृक्ष के मूल किं मूलं पासइ? कंदं पासइ? मूलं पश्यति? कन्दं पश्यति?
को देखता है? कन्द को देखता है? गोयमा! १. अत्थेगइए रुक्खस्स मूलं गौतम! १. अस्त्येककः रूक्षस्य मूलं पश्यति, गौतम! १. कोई अनगार वृक्ष के मूल को देखता पासइ, नो कंदं पासइ। २. अत्थेगइए नो कन्दं पश्यति। २. अस्त्येककः रूक्षस्य । है, कन्द को नहीं देखता है। २. कोई अनगार रुक्खस्स कंदं पासइ, नो मूलं पासइ। ३. कन्दं पश्यति, नो मूलं पश्यति। ३. अस्त्येककः वृक्ष के कन्द को देखता है, मूल को नहीं देखता। अत्थेगइए रुक्खस्स मूलं पि पासइ, कंदं रूक्षस्य मूलमपि पश्यति, कन्दमपि पश्यति। ३. कोई अनगार वृक्ष के मूल को भी देखता पि पासइ। ४. अत्थेगइए रुक्खस्स नो मूलं ४. अस्त्येककः रूक्षस्य नो मूलं पश्यति, नो है, कन्द को भी देखता है। ४. कोई अनगार पासइ, नो कंदं पासइ ॥ कन्दं पश्यति?
न वृक्ष के मूल को देखता है और न कन्द को देखता है।
१५६. मूलं पासइ? खंधं पासइ? चउभंगो॥ मूलं पश्यति? स्कन्धं पश्यति? चतुर्भगः। १५६. क्या मूल को देखता है? स्कन्ध को देखता
है? यहां भी चार भंग वक्तव्य हैं।
१६०. एवं मूलेणं (जाव?) बीजं संजोएयव्वं॥
एवं मूलेन (यावद्?) बीजं संयोजयितव्यम्। १६०. इसी प्रकार मूल के साथ (यावत्) बीज का
संयोग करने पर प्रत्येक के चार-चार भंग होते
१६१. एवं कंदेण वि समं संजोएयव्वं जाव एवं कन्देनापि समं संयोजयितव्यम् यावद् १६१. इसी प्रकार कन्द के साथ भी यावत् बीज बीयं ॥ बीजम्।
का संयोग करने पर प्रत्येक के चार-चार भंग होते हैं।
१६२. एवं जाव पुप्फेण समं बीयं संजोए- यव्वं ।
एवं यावत् पुष्पेण समं बीजं संयोजयितव्यम्। १६२. इसी प्रकार यावत् पुष्प के साथ बीज का
संयोग करने पर प्रत्येक के चार-चार भंग होते
१६३. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा रुक्खस्स अनगारो भदन्त! भावितात्मा रूक्षस्य किं किं फलं पासइ? बीयं पासइ? चउभंगो॥ फलं पश्यति? बीजं पश्यति? चतुर्भगः।
१६३. भन्ते! भावितात्मा अनगार क्या वृक्ष के फल
को देखता है? बीज को देखता है? यहां भी चार भंग वक्तव्य हैं।
भाष्य
१. सूत्र १५४-१६३
द्वारा रूपान्तरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। उसका पहला बिन्दु है-एजन अध्यात्म और योग का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-भावना। इसका और अंतिम बिंदु है-तं तं भावं परिणमइ।' वृत्तिकार ने भावितात्मा अर्थ है-कुछ होने का निश्चय करना, फिर अभ्यास के द्वारा वैसा का अर्थ संयम और तप इन दो भावनाओं से भावित आत्मा वाला हो जाना। वासना, संस्कार-ये इसके पर्यायवाची शब्द हैं। भावना के किया है। उनके अनुसार भावितात्मा प्रायः अवधिज्ञान आदि लब्धियों १. भ.३/१४३
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