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________________ श. ३ उ. ४ सू. १५४-१६६ से सम्पन्न होता है। ध्यानशतक में चार भावनाओं का उल्लेख है -ज्ञान भावना, दर्शन भावना, चारित्र भावना और वैराग्य भावना ठाणं में भावितात्मा को 'ऋद्धिमानू' कहा गया है। प्रस्तुत आगम में भावितात्मा की ऋद्धि का विस्तृत विवरण मिलता है। सूयगडो में 'श्रुतभावितात्मा' का प्रयोग मिलता है । प्रस्तुत आगम में वीतराग के लिए भी भावितात्मा का प्रयोग किया गया है। इन सारे संदर्भों से यह निष्कर्ष निकलता है कि आगम-युग में भावितात्मा शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। महाभारत" और योगवाशिष्ठ में भी भावितात्मा का प्रयोग मिलता है। अवधिज्ञान विचित्र प्रकार का होता है, इसलिए सूत्र में चार विकल्पों का निर्देश किया गया है कोईभावितात्मा देव को देखता है, यान को नहीं देखता । २. कोई यान को देखता है, देव को नहीं देखता । ३. कोई देव और यान दोनों को देखता है। ४. कोई दोनों को नहीं देखता । सूत्र १५७ से १६३ तक भावितात्मा अनगार द्वारा वृक्ष, मूल, कन्द आदि को देखने का वर्णन है। इनके दो-दो के संयोग से ४५ भंग निष्पन्न होते हैं : १. मूल कंद २. मूल स्कन्ध वाउकाय-पदं १६४. पभू णं भंते! वाउकाए एवं महं इत्थिरूवं वा पुरिसरूवं वा (आसरूवं वा ? ) हत्यिरूवं वा जाणरुवं वा जुम्गरूवं वा गिल्लिरूवं वा थिल्लिरूवं वा सीयरूवं वा संदमाणियरूवं वा विउव्वित्तए ? गोयमा ! नो इणट्टे समट्ठे । वाउकाए णं विकुव्वमाणे एवं महं पडागासंठियं रूवं विकुब्बइ ॥ १६५. पभू णं भंते! वाउकाए एवं महं पडागासठियं रूवं विठव्वित्ता जगाई जोयणाई गमितए? हंता पभू ॥ १६६. से भंते! कि आइड्ढीए गच्छइ ? परिड्ढीए गच्छइ ? २. ध्यानशतक, ३० पुव्वकयभासो भावणाहिं झाणस्स जोग्गयमुवेइ । ताओ य नाणदंसणचरित्तवेरग्गनियताओ ॥ ३. ठाणं, ५/१६८ । ४. भ. १८ / १६१-१६५। ५. सूय. १/१३/१३ । ६. भ. १८/१५६, १६० । ३. मूल त्वक् १. भ. बृ. १५४ - भावितात्मा संयमतपोभ्यामेवंविधानामनगाराणां हि प्रायोऽवधिज्ञानादिलब्धयो भवन्तीति कृत्वा भावितात्मेत्युक्तं ... । Jain Education International ७४ ४. मूल शाखा ५. मूल प्रवाल ६. मूल पत्र ७. मूर्त पुण्य ८. मूल फल ६. मूल बीज १०. कंद स्कंध ११. कंद त्वक् १२. कंद शाखा १३. कंद प्रवाल १४. कंद पत्र १५. कंद पुष्प १६. कंद फल १७. कंद बीज शब्द-विमर्श वायुकाय-पदम् प्रभुः भदन्त वायुकायः एकं महत् स्त्रीरूपं वा पुरुषरूपं वा (अश्वरूपं वा ? ) हस्तिरूपं वा यानरूपं वा युग्यरूपं वा 'गिल्लि 'रूपं वा 'थिल्लि' रूपं वा शिबिकारूपं वा स्यन्दमानिकारूपं या विकर्तुम्? गौतम! नायमर्थः समर्थः । वायुकायः विकुर्वाणः एकं महत् पताकासंस्थितं रूपं विकुरुते । प्रभुः भदन्त ! वायुकायः एकं महत् पताकासंस्थितं रूपं विकृत्य अनेकानि योजनानि गन्तुम् ? हन्त प्रभुः । १८. स्कंध त्वक् १६. स्कंध शाखा २०. स्कंध प्रवाल २१. स्कंध पत्र २२. स्कंध पुष्प २३. स्कंध फल २४. स्कंध बीज २५. त्वक् शाखा २६. त्वक् प्रवाल २७. त्वक् पत्र २८. त्वक् पुष्प २९. त्वक् फल ३०. त्वक् बीज ३१. शाखा प्रवाल समवहत- जो उत्तरवैक्रिय शरीर की रचना कर चुका है। For Private & Personal Use Only भगवई ७. महाभारत, स्वर्गारोहण पर्व, ५/३७ ३२. शाखा पत्र ३३. शाखा पुष्प ३४. शाखा फल ३५. शाखा बीज ३६. प्रवाल पत्र ३७. प्रवाल पुष्प ३८. प्रवाल फल ३६. प्रवाल बीज सर्वज्ञेन विधिज्ञेन धर्मज्ञानवता सता। अतीन्द्रियेण शुचिना, तपसा भावितात्मना ॥ ४०. पत्र पुष्प ' वायुकाय-पद १६४ भन्ते! क्या वायुकाय एक महान् स्त्रीरूप, पुरुषरूप, ( अश्वरूप), हस्तिरूप, यानरूप, युग्यरूप, अम्बाबाड़ी (हाथी का हौदा)-रूप, बधीरूप शिबिकारूप अथवा स्यन्दमानिकारूप का निर्माण करने में समर्थ है? ८. योगवाशिष्ठ, ४/११/५६, ६० ४१. पत्र फल ४२. पत्र बीज गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। वायुकाय विक्रिया करता हुआ एक महापताका के आकार वाले रूप की विक्रिया करता है। स भदन्तः किम् आत्मय गच्छति? परद्वर्या १६६. भन्ते क्या वायुकाय अपनी ऋद्धि से जाता गच्छति ? है अथवा पर ऋद्धि से जाता है ? यथैव भावयत्यात्मा सततं भविष्यति स्वयम् । तथैवापूर्यते शक्त्या शीघ्रमेव महानपि ॥ भाविता शक्तिरात्मानमात्मतां नयति क्षणात् । अनन्तमखिलं प्रावृट् मिहिका महती यथा ॥ ४३. पुष्प फल ४४. पुष्प बीज ४५. फल बीज १६५. भंते! क्या वायुकाय एक महापताका के आकार वाले रूप की विक्रिया कर अनेक योजन तक जाने में समर्थ है? हो, समर्थ है। www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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