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भगवई
७५ गोयमा! आइड्ढीए गच्छइ, नो परिड्डीए गौतम! आत्मद्धर्या गच्छति, नो परद्धर्या गच्छइ ॥
गच्छति।
श.३: उ.४:सू.१६४-१७१ गौतम! वह अपनी ऋद्धि से जाता है, पर-ऋद्धि से नहीं जाता।
१६७. से भंते! किं आयकम्मुणा गच्छइ? पर- स भदन्त! किम् आत्मकर्मणा गच्छति? १६७. भन्ते! क्या वायुकाय अपनी क्रिया से जाता कम्मुणा गच्छइ? परकर्मणा गच्छति?
है? परक्रिया से जाता है? गोयमा! आयकम्मुणा गच्छइ, नो परकम्मुणा गौतम! आत्मकर्मणा गच्छति, नो परकर्मणा गौतम! वह अपनी क्रिया से जाता है, परक्रिया गच्छइ॥ गच्छति।
से नहीं जाता।
१६८. से भंते! किं आयप्पयोगेण गच्छइ? स भदन्तः किम् आत्मप्रयोगेण गच्छति? १६८. भन्ते! क्या वायुकाय अपने प्रयोग से जाता परप्पयोगेण गच्छइ? परप्रयोगेण गच्छति?
है? परप्रयोग से जाता है? गोयमा! आयप्पयोगेण गच्छइ, नो पर- गौतम! आत्मप्रयोगेण गच्छति, नो परप्रयोगेण गौतम! वह अपने प्रयोग से जाता है, परप्रयोग प्पयोगेण गच्छइ॥ गच्छति।
से नहीं जाता।
१६६. से भंते! किं ऊसिओदयं गच्छइ? स भदन्त! किं उच्छ्रितोदयं गच्छति? पतदुदयं- १६६. भन्ते! क्या वायुकाय ऊपर उठी हुई पताका पतोदयं गच्छइ? गच्छति?
के रूप में जाता है अथवा नीचे गिरी हुई पताका
के रूप में जाता है? गोयमा! ऊसिओदयं पि गच्छइ, पतोदयं गौतम! उच्छ्रितोदयमपि गच्छति, पतदुदय- गौतम! वह ऊपर उठी हुई पताका के रूप में पि गच्छइ॥ मपि गच्छति।
भी जाता है और नीचे गिरी हुई पताका के रूप में भी जाता है।
१७०. से भंते! किं एगओपडागं गच्छइ? दुह- स भदन्त! किम् एकतःपताकं गच्छति? १७०. भन्ते! क्या वायुकाय एक दिशा में पताका ओपडागं गच्छइ? द्विधापताकं गच्छति?
के आकार में जाता है अथवा दो दिशाओं में
पताका के आकार में जाता है? गोयमा! एगओपडागं गच्छइ, नो दुहओपडागं गौतम! एकतःपताकं गच्छति, नो द्विधा-पताक गौतम! वह एक दिशा में पताका के आकार गच्छइ ॥ गच्छति।
में जाता है, दो दिशाओं में पताका के आकार में नहीं जाता।
१७१. से भंते! किं वाउकाए? पडागा?
स भदन्त! किं वायुकायः? पताका?
१७१. भन्ते! क्या वह वायुकाय है अथवा पताका
गौतम! वायुकायः सः, न खलु सा पताका।
गौतम! वह वायुकाय है, पताका नहीं है।
गोयमा! वाउकाए णं से, नो खलु सा पडागा ॥
भाष्य
१. सूत्र १६४-१७७
देव और नरक-इन दो गतियों में वैक्रियशरीर जन्मजात होता है। समनस्क मनुष्य और समनस्क तिर्यंच में वह लब्धिजन्य होता है' वायुकाय में अपर्याप्त अवस्था में वह नहीं होता, पर्याप्त अवस्था होते ही वैक्रिय शरीर की प्राप्ति हो जाती है। धवला में पर्याप्त तेजस्कायिक जीवों के भी वैक्रिय शरीर होने का उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा में पर्याप्त वायुकाय जीवों के ही वैक्रिय शरीर माना
गया है।
वायुकाय में वैक्रिय शरीर संप्राप्त है। पर उसकी रूप-निर्माण करने की शक्ति बहुत कम है। वह पताका के रूप का निर्माण कर सकता है। उसका संस्थान पताका के आकार का है। वह विक्रिया के द्वारा अपने पताका वाले आकार को बड़ा बना सकता है।
वायुकाय अपनी शक्ति, अपनी क्रिया और अपने प्रयोग से गति करता है। उसकी गति किसी के द्वारा ढेला के फेंके जाने जैसी
१. त. सू. भा. वृ. २/४७, ४६। २. पण्ण. २१/५०। ३. प. खं. धवला, पु.४, खं.१, भा. ४, सू. ६६, पृ. २४६-तेउक्काइयपज्जत्ता चैव
वेउब्बिय सरीरं उठावेंति अपज्जत्तेषु तदभावा (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३,
पृ. ६१० से उद्धृत) ४. (क) पण्ण. २१/२६, ५७। (ख) भ. वृ. ३/१६५-महत् पूर्वप्रमाणापेक्षया पताकासंस्थितं स्वरूपेणेव वायोः
पताकाकारशरीरत्वाद् वैक्रियावस्थायामपि तस्य तदाकारस्यैव भावादिति।
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