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श.३: उ.४: सू.१६४-१७५
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भगवई नहीं है। दर्शन-युग में इस विषय को तार्किक रूप में प्रस्तुत किया शिविका-पालकी!" गया है-वायुकाय जीव है क्योंकि किसी दूसरे की प्रेरणा के बिना अपनी स्यन्दमानिका-पुरुषप्रमाण लम्बाई वाली शिविका। यह बड़े ही शक्ति से तिरछी गति करता है।'
व्यक्तियों के आवागमन के लिए काम में ली जाती थी। शब्द-विमर्श
भ.वृ. में युग्य से स्यन्दमानिका के अर्थ प्रायः ये ही दिए युग्य-गोल्ल देश में प्रसिद्ध दो हाथ लम्बी, चौड़ी, चतुष्कोण
उच्छ्रितोदय-गति का ऊपर की ओर होने वाला उदय-आयाम। वेदिका वाली शिविका। लाट देश में थिल्ल को युग्य कहा जाता है।
पतत्-उदय-गति का नीचे की ओर होने वाला उदय-आयाम।" इसके चार दण्डे लगे रहते हैं, जिन्हें चार आदमी उठाते हैं।'
एकतःपताक-जहां एक दिशा में पताका हो। डोली (गिल्ली)-दो व्यक्तियों द्वारा उठाई जाने वाली शिविका
द्विधापताक-जहां दोनों दिशाओं में पताका हो। अथवा अम्बावाड़ी सहित हाथी का हौदा। शीलांकाचार्य के अनुसार-दो
जयाचार्य ने द्विधापताक के विषय में एक मतान्तर का उल्लेख व्यक्ति कपड़े की झोली में किसी को उठाकर ले जाते हैं, वह झोली
किया है-उस मत के अनुसार एक ही दिशा में दोनों पताकाओं गिल्ली कहलाती है।
का होना द्विधापताक है। (देखें चित्र, पृष्ठ-५०२) वग्धी (थिल्लि)-दो खच्चरों की वग्धी। बलाहक-पदं
बलाहक-पदम्
बलाहक-पद १७२. पभू णं भंते! बलाहए एगं महं इत्थि- प्रभुः भदन्त! बलाहकः एक महत् स्त्रीरूपं १७२. भन्ते! क्या मेघ एक महान् स्त्रीरूप यावत्
रूव वा जाव संदमाणियरूवं वा परिणामेत्तए? वा यावत् स्यन्दमानिकारूपं वा परिणमयितुम्? स्यन्दमानिका-रूप में परिणत होने में समर्थ है? हंता पभू ॥ हन्त प्रभुः।
हां, समर्थ है।
१७३. पभू णं भंते! बलाहए एगं महं इत्थि- प्रभुः भदन्त! बलाहकः एकं महत् स्त्रीरूपं
रूवं परिणामेत्ता अणेगाई जोयणाई गमित्तए? परिणमय्य अनेकानि योजनानि गन्तुम्? हंता पभू ॥
हन्त प्रभुः।
१७३. भन्ते! क्या मेघ एक महान् स्त्रीरूप में परिणत होकर अनेक योजन तक जाने में समर्थ है? हां, समर्थ है।
१७४. से भंते! किं आइड्ढीए गच्छइ ? परि- स भदन्त! किम् आत्मद्धर्या गच्छति? परद्धर्या १७४. भन्ते! क्या मेघ अपनी ऋद्धि से जाता है ड्ढीए गच्छइ? गच्छति?
अथवा पर-ऋद्धि से जाता है? गोयमा! नो आइड्ढीए गच्छइ, परिड्डीए गौतम! नो आत्मर्या गच्छति, परर्या गौतम! वह अपनी ऋद्धि से नहीं जाता, पर-ऋद्धि गच्छइ ॥ गच्छति।
से जाता है।
१७५. से भंते! कि आयकम्मुणा गच्छइ ? पर- स भदन्त! किम् आत्मकर्मणा गच्छति? १७५. भन्ते! क्या मेघ अपनी क्रिया से जाता है ? कम्मुणा गच्छइ? परकर्मणा गच्छति?
परक्रिया से जाता है? गोयमा! नो आयकम्मुणा गच्छइ, पर- गौतम! नो आत्मकर्मणा गच्छति, परकर्मणा गौतम! वह अपनी क्रिया से नहीं जाता परक्रिया
१. दशवै. जि. चू. पृ. १३६-सात्मको वायुः अपरप्रेरित तिर्यगनियमितनिर्गमनाद् गोवत्। २. (क) अनु. चू. पृ. ५३-गोलविषये जंपाणं द्विहत्थमात्रं चतुरस्र सवेदिकमुपशोभित
जुग्गय, लाडाणं थिल्लि जुगये। (ख)-अनु. हा. वृ. पृ. ७६। (ग)-अनु. मल. वृ. प. १४६। ३. सूय. २/२/५८ का टिप्पण। ४. (क) अनु. वू. पृ. ५३-हस्तिन उपरि कोल्लरं गिलतीव मानुषं गिली। (ख) अनु. हा. वृ. पृ. ७६। (ग) अनु. मल. वृ. प. १४६। ५. सूत्र. वृ. प. ७३-पुरुषद्वयोत्क्षिप्ता झोल्लिका। ६. वही, प. ७३-वेगसरद्वयविनिर्मितो यानविशेषः । ७. (क) अनु. चू. पृ. ५४-उरि कूडागारछादिया सिबिया।
(ख) अनु. हा. वृ. पृ. ७६। (ग) अनु. मल. वृ. प. १४६ । ८. (क) अनु. चू. पृ. ५४-दीहो जम्पाण विसेसो पुरिसस्स स्वप्रमाणावगासदाणत्तणओ
स्यन्दमाणिं। (ख) अनु. हा. वृ. पृ. ७६ । (ग) अनु. मल. वृ. प. १४६ । ६, सूय. २/२/५८ का टिप्पण। १०. भ. वृ. ३/१६४-'जुग्गं'ति गोल्लविषयप्रसिद्ध जम्पानं द्विहस्तप्रमाणं वैदिकोपशोभित 'गिल्लि"त्ति हस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीव 'थिल्ली' ति लाटाना यदश्वपल्यानं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते 'सिय' ति शिबिका कुटाकाराच्छादिती जम्पानविशेषः 'संदमाणिय' ति पुरुषप्रमाणायामो जम्पानविशेषः । ११. वही ३/१६६-उच्छृत-ऊद्ध्वम् उदय-आयामो यत्र गमने तदुछितोदयम्,
ऊध्वपताकमित्यर्थः क्रियाविशेषणं चेदं 'पतोदय'ति पतदुदयं पतितपताकं गच्छति। १२. भ. जो. १/६५/७६
दुहओ पडाग देख, ते दंड में बिहू दिशि विषै। केइ करै इम लेख, केइ कहै इक दिशि बेहुं ॥
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