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भगवई
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श.३ : उ.४ : सू.१७२-१८२
कम्मुणा गच्छइ ॥
गच्छति।
से जाता है।
१७६. से भंते! किं आयप्पयोगेणं गच्छइ? स भदन्त! किम् आत्मप्रयोगेण गच्छति? १७६. भन्ते! क्या मेघ अपने प्रयोग से जाता है? परप्पयोगेणं गच्छइ? परप्रयोगेण गच्छति?
पर-प्रयोग से जाता है? गोयमा! नो आयप्पयोगेणं गच्छइ, परप्प- गौतम! नो आत्मप्रयोगेण गच्छति, परप्रयोगेण गौतम! वह अपने प्रयोग से नहीं जाता, पर-प्रयोग योगेणं गच्छइ ॥ गच्छति।
से जाता है।
१७७. से भंते! कि ऊसिओदयं गच्छइ? स भदन्त! किम् उच्छ्रितोदयं गच्छति? पतदुदयं १७७. भन्ते! क्या मेघ ऊपर उठी हुई पताका के पतोदयं गच्छइ?
गच्छति?
___ रूप में जाता है अथवा नीचे गिरी हुई पताका
के रूप में जाता है? गोयमा! ऊसिओदयं पि गच्छइ, पतोदयं गौतम! उच्छ्रितोदयमपि गच्छति, पतदुदयमपि गौतम! वह ऊपर उठी हुई पताका के रूप में पि गच्छइ ॥ गच्छति।
भी जाता है और नीचे गिरी हुई पताका के रूप में भी जाता है।
१७८. से भन्ते! किं बलाहए? इत्थी? गोयमा! बलाहए णं से, नो खलु सा
स भदन्त! किं बलाहकः? स्त्री? गौतम! बलाहकः सः, न खलु सा स्त्री।
१७८. भन्ते! क्या वह मेघ है अथवा स्त्री है?
गौतम! वह मेघ है, स्त्री नहीं है।
इत्थी ॥
१७६. एवं पुरिसे, आसे, हत्थी ॥
एवं पुरुषः, अश्वः, हस्ती।
१७६. इसी प्रकार मेघ के साथ पुरुष, अश्व और हस्ती की वक्तव्यता।
१८०. भन्ते! क्या मेघ एक महान यानरूप में परिणत होकर अनेक योजन तक जाने में समर्थ है?
१८०. पभू णं भंते! बलाहए एगं महं प्रभुः भदन्त! बलाहकः एक महद् यानरूपं जाणरूवं परिणामेत्ता अणेगाइं जोयणाई परिणमय्य अनेकानि योजनानि गन्तुम्? गमित्तए? जहा इत्थिरूवं तहा भाणियव्वं ॥ यथा स्त्रीरूपं तथा भणितव्यम्।
जैसे स्त्री-रूप की वक्तव्यता है, वैसे ही यान के विषय में वक्तव्य है।
१८१. से भंते ! किं एगओचक्कवालं. गच्छइ? स भदन्त! किम् एकतश्चक्रवालं गच्छति? १८१. भन्ते! क्या मेघ एक ओर चक्राकार गति से दुहओचक्कवालं गच्छइ? द्विधाचक्रवालं गच्छति?
जाता है अथवा दोनों ओर चक्राकार गति से
जाता है? गोयमा! एगओचक्कवालं पि गच्छइ, गौतम! एकतश्चक्रवालमपि गच्छति, द्विधा- गौतम! वह एक ओर चक्राकार गति से भी जाता दुहओचक्कवालं पि गच्छइ ॥ चक्रवालमपि गच्छति।
है तथा दोनों ओर चक्राकार गति से भी जाता
१८२. जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीया-संदमाणिया युग्य-'गिल्लि'-'थिल्लि’-शिविका-स्यन्दमानिकाः १८२. इसी प्रकार युग्य, अम्बावाड़ी, बग्धी, शिबिका तहेव॥ तथैव।
और स्यन्दमानिका के सम्बन्ध में वक्तव्य है।
भाष्य
१. सूत्र १७२-१८२
वायुकाय के विषय में रूप-निर्माण अथवा वैक्रिय शक्ति के प्रयोग का प्रश्न पूछा गया है और बादलों के लिए रूपों के परिणमन का
प्रश्न पूछा गया है। इसका हेतु यह है कि बादल अचेतन होते हैं, इसलिए उनमें रूप-निर्माण करने की शक्ति नहीं होती। उनमें स्वाभाविक परिणमन होता है। वे अपनी ऋद्धि, क्रिया और प्रयोग से गति नहीं
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