________________
श.५: उ.३: सू.५७-५८
१४४
भगवई
५८. से कहमेयं भंते ! एवं? तत्कथमेतद् भदन्त! एवम्?
५८. भन्ते! यह इस प्रकार कैसे है? गोयमा ! जण्णं तं अण्णउत्थिया तं चेव गौतम ! यत्तद् अन्ययूथिका: तच्चैव यावत् गौतम ! अन्ययूथिक जो कहते हैं यावत् एक जीव जाव परभवियाउयं चा जे ते एवमाहंसु तं परभविकायुष्कं चा येते एवमाहुः तन्मिथ्या, एक समय में दो आयुष्यों का प्रतिसंवेदन करता मिच्छा, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि अहं पुनर्गौतम ! एवमाख्यामि भाषे प्रज्ञा- है, जैसे—इस भव के आयुष्य का और परभव के भासामि पण्णवेमि परूवेमि–से जहा- पयामि प्ररूपयामि तद् यथानाम जाल- आयुष्य का। जो ऐसा कहते हैं, वह मिथ्या है। नामए जालगंठिया सिया आणुपुब्विगढिया ग्रन्थिका स्याद्-आनुपूर्वीग्रथिता अनन्तर- गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन अणंतरगढिया परंपरगढिया अण्णमण्ण- ग्रथिता परम्परग्रथिता अन्योन्यग्रथिता और प्ररूपण करता हूँ-जैसे कोई जालग्रन्थिका गढिया, अण्णमण्णगरुयत्ताए अण्णमण्ण- अन्योन्यगुरुकतया अन्योन्यभारिकतया है। उस जाल में क्रमपूर्वक गांठे दी हुई हैं, एक के भारियत्ताए अण्णमण्णगरुय-संभारियत्ताए अन्योन्यगुरुकसंभारिकतया अन्योन्यघट- बाद एक किसी अन्तर के बिना परम्पर ग्रन्थियों अण्णमण्णघडताए चिट्ठति, एवामेव एग- तया तिष्ठति, एवमेव एकैकस्य जीवस्य के साथ गूंथी हुई हैं। सब ग्रन्थियां परस्पर एकमेगस्स जीवस्स बहूहिं आजातिसहस्सेहिं बहुभिः आजातिसहस्रः बहूनि आयुष्क- दूसरी से गूंथी हुई हैं। वैसा जाल परस्पर विस्तीर्ण, बहूई आउयसहस्साई आणुपुब्विगढियाइं सहस्राणि आनुपूर्वीग्रथितानि यावत् तिष्ठन्ति। परस्पर भारी, परस्पर विस्तीर्ण और भारी होने के जाव चिट्ठति।
कारण परस्पर समुदाय रचना के रूप में अवस्थित है। इसी प्रकार एक-एक जीव के अनेक हजार जन्मों के अनेक हजार आयुष्य क्रम से गूंथे हुए
यावत् समुदाय-रचना के रूप में अवस्थित हैं। एगे वियणं जीवे एगेणं समएणं एगआउयं एकोऽपिच जीव: एकेन समयेन एकम् आयुष्कं । एक जीव एक समय में एक आयुष्य का प्रतिसंवेदन पडिसंवेदेइ, तं जहा--इहभवियाउयं वा, प्रतिसंवेदयति, तद् यथा—इहभविकायुष्कं करता है, जैसे—इस भव के आयुष्य का अथवा परभवियाउयं वा। वा, परभविकायुष्कं वा।
परभव के आयुष्य का। जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ, नो तं यं समयम् इहभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति, नो जिस समय वह इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ। तं समयं परभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति। करता है, उस समय परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन
नहीं करता। जं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, नो तं यं समयम् परभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति, नो जिस समय वह परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ। तं समयम् इहभविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति। करता है, उस समय इस भव के आयुष्य का
प्रतिसंवेदन नहीं करता। इहभवियाउयस्स पडिसंवेदणाए, नो इहभविकायुष्कस्य प्रतिसंवेदनायां, नो पर- इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करने से वह परभवियाउयं पडिसंवेदेइ। भविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति।
परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता। परभवियाउयस्स पडिसंवेदणाए, नो इह- परभविकायुष्कस्य प्रतिसंवेदनायां, नो इह- परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करने से वह इस भवियाउयं पडिसंवेदेइ। भविकायुष्कं प्रतिसंवेदयति।
भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता। एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं एवं खलु एको जीव: एकेन समयेन एकम् । इस प्रकार एक जीव एक समय में एक आयुष्य का आउयं पडिसंवेदेइ, तं जहा---इह- आयुष्कं प्रतिसंवेदयति, तद् यथा—इह- प्रतिसंवेदन करता है—इस लभव के आयुष्य का भवियाउयं वा, परभवियाउयं वा। भविकायुष्कं वा, परभविकायुष्कं वा। अथवा परभव के आयुष्य का।
भाष्य
१. सूत्र ५७, ५८
जैन दर्शन के अनुसार आठ कर्मों में एक कर्म का नाम आयुष्य प्रस्तुत आगम के प्रथम शतक (१/४२०-४२१) में एक साथ कम हा महाष पतञ्जालन कमाशय क तान विपाक बतलाए है—जाति, दो आयुष्य के बंध का और प्रस्तुत सूत्र में एक साथ दो आयुष्य के वेदनका . आयु और भोगा' सिद्धान्त प्रतिपादित है। आगम-युग में कर्म-सिद्धान्त बहुचर्चित विषय था।
एक आयुष्य-काल में अनेक आयुष्यों का विपाकया वेदन होता आयु का सम्बन्ध कर्म के साथ है।
है। यह आयुष्य-सम्बन्धी एक सिद्धान्त है। इसका हेतु है—जीवों के हजारों
१. पा.यो.द. २/१३ –सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org