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________________ भगवई १४५ श.५ : उ.३ : सू.५७-६१ आयुष्य मत्स्य-जाल की गांठों की भांति परस्पर गूंथे हुए रहते हैं। इसलिए हो सकता है। एक जन्म में अनेक आयुष्यों का वेदन होता रहता है। व्यास-भाष्य में भी इस महावीर के अनुसार जाल-ग्रन्थिका एक शृंखला (सांकल) है। विषय की चर्चा है। भाष्य के अनुसार कर्माशय एकभविक–एक जन्म से उसकी सारी कड़ियां परस्पर प्रतिबद्ध हैं, वैसे ही आयुष्यों की एक श्रृंखला है। सम्बन्धित होता है। प्रस्तुत भाष्य में मत्स्य-जाल-ग्रन्थि का दृष्टान्त भी प्रत्येक जीव के वर्तमान आयुष्य से पूर्ववर्ती हजारों आयुष्य अतीत हो चुके मिलता है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि भगवती के पूर्व पक्ष । हैं। वर्तमान जन्म केवल वर्तमान आयुष्य से ही सम्पादित होता है। फलस्वरूप के रूप में योगदर्शन-सम्मत सिद्धान्त रहा है। एक जन्म में एक ही आयुष्य का प्रतिसंवेदन होता है।" भगवान् महावीर ने एक जन्म में दो आयुष्यों के प्रतिसंवेदन के सिद्धान्त को अमान्य किया। उनका सिद्धान्त है कि एक जन्म में एक आयुष्य शब्द-विमर्श का ही प्रतिसंवेदन होता है। यदि सब जीवों के सब आयुष्यों का संवेदन जालग्रन्थिका-जालिका, जाल। एक साथ हो तो एक जन्म में अनेक जन्मों के संवेदन का प्रसंग आ घटतया, घडत्ताए-घटा-समुदाय-रचना, घटतयाजाएगा। उन्होंने जालग्रन्थिका के दृष्टान्त की व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। समुदाय-रचना के रूप में। पूर्वपक्ष के अनुसार जैसे जाल की एक ग्रन्थि दूसरी ग्रन्थि से और दूसरी आजाति-जन्म। ग्रन्थि तीसरी ग्रन्थि से-इस प्रकार सब ग्रन्थियां परस्पर गूंथी हुई होती हैं, इहभविकायुष्क-वर्तमान जन्म की आयु । वैसे ही अनेक जीवों के अनेक जन्मों के साथ सम्बन्ध रखने वाले अनेक परभविकायुष्क-वर्तमान भव में निबद्ध परभवप्रायोग्य आयु, आयुष्य परस्पर गूंथे हुए हैं। फलस्वरूप एक जन्म में दो आयुष्यों का संवदेन जिसका वेदन परभव में किया जायेगा। साउयसंक्रमण-पदं ५९. जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उव वज्जित्तए, सेणं भंते ! किं साउए संकमइ? निराउए संकमइ? गोयमा ! साउए संकमइ, नो निराउए संकमइ॥ सायुष्कसंक्रमण-पदम् सायुष्यसंक्रमण-पद जीव: भदन्त ! यो भव्यो नैरयिकेषु उपपत्तुं, ५९. भंते! जो जीव नैरयिकों में उपपन होने वाला है, स भदन्त ! किं सायुष्क: संक्रामति? निरा- भन्ते! वह वहाँ आयुष्य-सहित संक्रमण करता है? युष्क: संक्रामति? आयुष्य-रहित संक्रमण करता है? गौतम ! सायुष्क : संक्रामति, नो निरायुष्कः । गौतम ! वह आयुष्य-सहित संक्रमण करता है, संक्रामति। आयुष्य-रहित संक्रमण नहीं करता। ६०.से णं भंते! आउए कहिं कडे? कहिं समा इण्णे? गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे॥ तद् भदन्त ! आयुष्कं कुत्र कृतम्? कुत्र समा- ६०. भंते ! उसने आयुष्य किस जन्म में अर्जित किया चीर्णम्? और किस जन्म में समाचीर्ण किया? गौतम ! पूर्वस्मिन् भवे कृतम् , पूर्वस्मिन् भवे गौतम ! पूर्व जन्म में अर्जित किया और पूर्व जन्म में समाचीर्णम्। समाचीर्ण किया। ६१. एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ। एवं यावद् वैमानिकानां दण्डकः। ६१. इस प्रकार यावत् वैमानिक देवों के दण्डक तक ज्ञातव्य है। वाता १. पा.यो.द. २/१३ (व्यास-भाष्य), पृ. १५१-तस्माज्जन्म-प्रायणान्तरे कृतः पुण्यापुण्यकर्माशयप्रचयो विचित्र: प्रधानोपसर्जनभावेनावस्थित: प्रायणाभिव्यक्त एक प्रघट्टकेन मिलित्वा मरणं प्रसाध्य संमूर्छित एकमेव जन्म करोति। तच्च जन्म तेनैव कर्मणा लब्धायुष्कं भवति, तस्मित्रायुषि तेनैव कर्मणा भोगः सम्पद्यत इति। असौ कर्माशयो जन्मायुर्भोगहेतुत्वात् त्रिविपाकोऽभिधीयत इति। अत: एकभविक: कर्माशय उक्त इति।। २. पा.यो.द. २/१३ (व्यास-भाष्य), पृ. १५१-- क्लेश कर्मविपाकानुभवनिमित्ताभिस्तु वासनाभिरनादिकालसम्मूर्छितमिदं चित्तं चित्रीकृतमिव सर्वतो मत्स्यजालं ग्रन्थिभिरिवाततमित्येता अनेकभवपूर्विका वासनाः। यस्त्वयं कर्माशय एष एवैकभविक उक्त इति। ३. भ.वृ. ५/५८-सर्वजीवानां सर्वायु: संवेदनेन सर्वभवभवनप्रसङ्ग इति। ४. वही, ५/५७ एकैकस्य जीवस्य न तु बहूनां बहुधा आजातिसहस्रेषु क्रमवृत्तिष्वतीतकालिकेषु तत्कालापेक्षया सत्सु बहून्यायुःसहस्राण्यतीतानि वर्तमानभवान्तानि। अन्यभविकमन्यभविकेन प्रतिबद्धमित्येवं सर्वाणि परस्परं प्रतिबद्धानि भविन्त न पुनरेकभव एव बहूति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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