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श. ५: उ. ३ सू.५९-६१
१. सूत्र ५९-६१
प्रस्तुत आलापक में आयुष्य की क्रमशृंखला का प्रतिपादन है। कोई भी संसारी जीव आयुष्य के बिना एक क्षण भी नहीं रहता। मृत्यु के पश्चात् दूसरे जन्म से पूर्व का मध्यवर्ती क्षण अन्तराल गति का क्षण होता है। उसमें औदारिक और वैक्रिय शरीर नहीं होते। इस अपेक्षा से अन्तराल गति में
१. निरुपक्रम आयुष्य वाला मनुष्य
२. सोपक्रम आयुष्य वाला मनुष्य
३. असंख्येय वर्ष आयुष्य वाला मनुष्य
४. असंख्येय वर्ष आयुष्य वाला पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च
७. पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय यदि निरुपक्रम-आयुष्क है।
,
८. पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, यदि सोपक्रम - आयुष्क है।
वर्तमान जन्म
५. संख्येय वर्ष आयुष्य वाला पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, यदि निरुपक्रम आयुष्क है। ६. संख्येय वर्ष आयुष्य वाला पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, यदि सोपक्रम - आयुष्क है।
९. नैयिक भवनपति वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक
१. भ. १ / ३४२, ३४३ ।
२. वही, १/३४०, ३४१
,
आयुष्य बन्ध के विषय में दो मतान्तर मिलते हैं
१. वर्तमान आयुष्य आवलिका के असंख्यातवें भाग जितना शेष रहता है, उस समय परभव-योग्य आयुष्य का बन्ध होता है।
उस
२. वर्तमान आयुष्य ' एक समयन्यून मुहूर्त्त ' जितना शेष रहता है,: समय परभव- योग्य आयुष्य का बन्ध होता है।
ये दोनों मतान्तर गोम्मटसार की व्याख्या में उपलब्ध हैं। वर्तमान जीवन में वर्तमान आयुष्य का वेदन होता है। उस की समाप्ति के अनन्तर प्रथम समय में ही अगले जन्म के आयुष्य का वेदन प्रारम्भ हो जाता है। आयुष्य वेदन के इस नियम के आधार पर इस सिद्धान्त की स्थापना की गई— अन्तरालगति में जीव आयुष्य सहित संक्रमण करता है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने निश्चय
३. (क) पण्ण. ६ / ११४-११६ ।
(ख) त.सू.भा.वृ. २/५१, पृ. २१९ ।
४. जै. सि.को. भाग १, पृ. २७१ ।
५. वि.भा.गा. ३१६०-३१६५ ।
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भाष्य
जहिं बोंदिच्चाओ तदेव सिद्धत्तणं च जं चेह । तस्साहणं ति तो पुव्वभावनयओ इदं सिद्धी ।। ३१६० ।। जेण उन बोंदिकाले सिद्धो चायसमए य जंगमणं । पच्चुप्पण्णनयमयं सिज्झइ गंतूण तेणे || ३१६१ ॥ अत्थीसीयज्झारोवलक्खियं मणुयलोगपरिमाण।
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भगवई
जीव को अशरीरी भी कहा गया है। ' शरीर के बिना पौद्गलिक इन्द्रियां भी नहीं होती, इस अपेक्षा से वह अनिन्द्रिय भी होता है। वह निरायु नहीं होता, अन्तराल गति में भी आयुष्य उसके साथ रहता है।
अगले जन्म का आयुष्य वर्तमान जन्म में ही निश्चित हो जाता है। आयुष्य-बन्ध का नियम यह है :
अग्रिम जन्म के आयुष्य का बंध-काल
वर्तमान
आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है।
वर्तमान आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है, अथवा नौवां भाग शेष
रहता अथवा सत्ताईसवां भाग शेष रहता है।
वर्तमान आयुष्य के छह मास शेष रहते हैं।
वर्तमान आयुष्य के छह मास शेष रहते हैं। वर्तमान आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है।
वर्तमान आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है अथवा नौवां भाग शेष रहता है अथवा सत्ताईसवां भाग शेष रहता है।
वर्तमान
'आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है।
वर्तमान आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहता है अथवा नौवां भाग शेष रहता है अथवा सत्ताईसवां भाग शेष रहता है।
वर्तमान आयुष्य के छह मास शेष रहते हैं।
और व्यवहार दोनों नयों से अन्तराल गति के आयुष्य की विस्तृत चर्चा की है। " सिद्धसेनगणी ने उसका निष्कर्ष संक्षेप में प्रस्तुत किया है— ऋजुगति में जन्मस्थान जाने तक पूर्व जन्म का आयुष्य होता है। वक्रगति के पहले समय में पूर्व जन्म का आयुष्य होता है, दूसरे समय में अगले जन्म का आयुष्य प्रारम्भ हो जाता है।' जाचार्य ने इसी सिद्धान्त के आधार पर यह लिखा
प्रथम समय नां सिद्ध च्यार कर्मीं नां अंश खपावै रै । चौथे ठाणे प्रथम उद्देशे, बुद्धिवंत न्याय मिलावे रे || 'इहं बोंदि चइता तत्व मंतॄण सिन्झई" उत्तरझवणाणि की इस गाथा में भी उक्त सिद्धान्त का समर्थन है।
लोगग्गनभोभागो सिद्धिक्खेत्तं जिणक्खायं । । ३१६२ ।। देहत्तिभागो सुसिरं तप्पूरणओ तिभागहीणो त्ति। सो जोगनिरोहे च्चिय जाओ सिद्धो वि तदवत्थो ॥ ३१६३ ॥ संहारसंभवाओ पएसमेत्तम्मि किं न संठाइ ? समत्थाभावाओ सकम्मयाओ सहावाओ ।। ३१६४ ।। सिद्धो वि देहरहिओ सपयत्ताभावओ न संहर । अपयत्तस्स किह गई. नणु भणियाऽसंगयाईहिं ।। ३१६५ ॥
६. त. सू. २/ २९ - जुगतौ पूर्वकमेवाऽऽयुर्भवति यावदुपपातदेशं प्राप्नोति, कुटिलगतौ याबद्
वक्रं तावत् पूर्वकम्, तत्परतो भविष्यज्जन्मविषयमायुरुदेति ।
७. झीणी चरचा, ढाल १७, गाथा १३ ।
८. उत्तर. ३६ / ५६ ।
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