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________________ भगवई श.६: उ.९: सू.१६८,१६९ नियत क्षेत्र को जानने वाला अवधिज्ञानी कदाचित् समुद्घात करके जानता अनुसार इसका अर्थ है जो वैक्रिय समुद्घात के द्वारा वैक्रिय शरीर का निर्माण है और कदाचित् समुद्घात किए बिना ही जान लेता है। समवहतासमवहत कर चुका है। का यह अर्थ मलयगिरि के अर्थ से भिन्न है। ठाणं में अविशुद्धलेश्य और प्रस्तुत आगम में ज्ञान, दर्शन के सन्दर्भ में अविशुद्धलेश्य के छह विशुद्धलेश्य का उल्लेख नहीं है। समवहत और असमवहत के साथ कर्ता के और विशुद्धलेश्य के छह-इस प्रकार बारह भंग बनते हैं। जीवाजीवाभिगमे रूप में अधोऽवधि आत्मा का उल्लेख है। प्रस्तुत प्रकरण में मलयगिरि का अर्थ में भी ये बारह भंग उपलब्ध हैं। प्रस्तुत आगम के अनुसार आठ भंग वाले अधिक उपयुक्त है। नहीं जानते-देखते। जीवाजीवाभिगमे के अनुसार शेष छह भंग वाले जानतेठाणं में समवहत के अनन्तर विउब्विय का आलापक है। वृत्ति के देखते हैं। देखे यंत्र भगवई १.अविशुद्धलेश्य असमवहत नहीं जानता-देखता " समवहत 63) समवहत-असमवहत अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को ७. विशुद्धलेश्य असमवहत समवहत जानता-देखता है समवहत-असमवहत अविशुद्धलेश्य असमवहत नहीं जानता-देखता समवहत समवहत-असमवहत जीवाजीवाभिगमे अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को अविशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य को विशुद्धलेश्य असमवहत जानता-देखता है १ समवहत समवहत-असमवहत १. स्था. व. प. ५७–'समवहतेन' वैक्रियसमुद्घातगतेनात्मना-स्वभावेन, समुद्घातान्तरगतेन वा, असमवहतेन त्वन्यथेति, एतदेव व्याख्याति-'आहोही' त्यादि यत्प्रकारोऽवधेरस्येति यथाविधिः, आदिदीर्घत्वं प्राकृतत्वात् परमावधेर्वाऽधोव_वधिर्यस्य सोऽधोऽवधिरात्मा -नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी स कदाचित् समवहतेन कदाचिदन्यथेति समवहतासमवहतेनेति। २. वही, वृ. प. ५७–'विउब्बिएणं' ति कृतवैक्रियशरीरेण । ३. भ. ६१६८,१६९। ४. जीवा. ३३१९८-२०९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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