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श. ६ : उ. ९ : सू. १६८-१७०
अभयदेवसूरि के अनुसार छह भंगों को जानने वाला मिथ्यादृष्टि होता है, इसलिए वह नहीं जानता। विशुद्धलेश्या वाले दो भंगों में जानने वाला सम्यग्दृष्टि होता है फिर भी उपयोग शून्य होने के कारण नहीं जानता' । मलयगिरि के अनुसार विशुद्ध लेश्या वाला ज्ञाता यथावस्थित ज्ञानदर्शन के कारण जानता देखता है। समुद्घात जानने देखने में अवरोध उत्पन्न नहीं करता' ।
प्रस्तुत आगम में विशुद्ध लेश्या वाले दो भंगों में ज्ञान, दर्शन का
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१७०. सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति ॥
१. भ. वृ. ६ / १६८ - एतैरष्टभिर्विकल्पैर्न जानाति, तत्र षड्भिर्मिथ्यादृष्टित्वात् द्वाभ्यां त्वनुपयुक्तत्वादिति ।
२. जीवा. वृ. प. १४२ – विशुद्धलेश्याकतया यथाऽवस्थितज्ञानदर्शनभावात् आह च मूल
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भगवई
निषेध और जीवाजीवाभिगमे में ज्ञान, दर्शन का स्वीकार एक उल्लेखनीय वाचना-भेद है।
विशुद्ध श्या वाले प्रथम दो भंग नहीं जानते-देखते, शेष चार भंग वाले जानते देखते हैं। इसका कारण खोजना एक पहेली है। इस पहेली को बुझाने के लिए ही संभवतः अभवदेवसूरि ने असमवहत का अर्थ "अनुपयुक्त किया है।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
१७०. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है। टीकाकार:- “शोभनस्य शोभनं वा वस्तु यथावद्विशुद्धलेश्यो जानातीति, समुद्घातोऽपि च तस्याप्रतिबन्धक एव, न च तस्य समुद्घातोऽत्यन्तशोभनो भवति, उक्तं च मूलटीकायाम् — "समुद्घातोऽपि तस्याप्रतिबन्धक एवे" त्यादीति ।
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