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________________ मूल सुह दुह उवदंसण-पदं 7 १७१. अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाइक्वंति जाव परूवेंति — जावतिया रायगिहे नयरे जीवा एवइवाणं जीवाणं नो चक्किया केंद्र सुहं वा दुहं वा जाव कोलट्ठिगमायमवि, निप्फावमायमवि, कलमायमवि, मासमायमवि, मुग्गमायमवि, जूयामायमवि, लिक्खामायमवि अभिनिवट्टेत्ता उवदंसेत्तए । १७२. से कहमेवं भंते । एवं? गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाक्खामि जाव परूवेमि सव्वलो वि य णं सव्वजीवाणं नो चक्किया सुहं वा दुहं वा जाव कोलट्ठिगमायमवि, निष्फा-वमायमवि, कलमायमवि, मासमा यमवि, मुग्गमायमवि, जूयामायमवि, लिकखामाय-मवि अभिनिवट्टेत्ता उवसेत्तए । १७३. से केणट्टेणं? गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते देवे नं महिड्ढी जाव महाणुभागे एगं महं सविलेवणं गंधा गहाय तं अवदालेति, अवदा जाव इणामेव कट्टु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसतखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छेज्जा । से नूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे ? Jain Education International दसमो उद्देसो : दशवां उद्देशक संस्कृत छाया सुख-दुःखोपदर्शन-पदम् अन्ययूथिकाः भदन्ते ! एवमाख्याति यावत् प्ररूपयन्ति यावन्तः राजगृहे नगरे जीवाः, एतावतां जीवानां नो शक्नुयात् कोऽपि सुखं वा दुःखं वा यावद कोलास्थिकमात्रमपि, निष्पावमात्रमपि, कलायमात्रमपि, माषमात्रमपि, मुद्गमात्रमपि, यूकामात्रमपि, लिक्षामात्रमपि अभिनिर्वृत्य उपदर्शयितुम् । तत् कथम् एतद् भदन्त ! एवम् ? गौतम ! यत् अन्ययूथिका: एवमाख्यान्ति यावन् मिथ्या ते एवमाहुः, अहं पुनर्गौतम ! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि सर्व लोकेऽपि च सर्वजीवानां नो शक्नुयात् कोऽपि सुखं वा दुःखं वा यावत् कोलास्थिकमात्रमपि, निष्पावमात्रमपि, कलायमात्रमपि, माषमात्रमपि, मुद्गमात्रमपि, यूकामात्रमपि लिक्षामात्रमपि अभिनिर्वृत्य उपदर्शयितुम् । केनार्थेन? गौतम! अयं जम्बूद्वीप द्वीप: यावद् विशेषाधिक: परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । देवः महर्द्धिकः यावन् महानुभाग: एकं महत् सविलेपनं गन्धसमुद्गकं गृहीत्वा तम् अवदारयति, अवदार्य यावद् इदमेव कृत्वा केवलकल्प जम्बूद्वीपं द्वीपं त्रिभि: ' अच्छरानिवाएहिं' त्रिसप्तकृत्वः अनुपर्यट्य 'हव्वं' आगच्छेत् । तनू नूनं गौतम ! स: केवलकल्प: जम्बूद्वीपः द्वीपः तैः प्राण- पुद्गलैः स्पृष्टः ? For Private & Personal Use Only हिन्दी अनुवाद सुख-दुःख- उपदर्शन-पद १७१ भन्ते । अन्ययूधिक इस प्रकार आख्यान करते ' ! है यावत् प्ररूपणा करते हैं-राजगृह नगर में जितने जीव हैं, इतने जीवों के सुख अथवा दुःख को यावत् बेर की गुठली जितना भी सेम जितना भी, मटर जितना भी उड़द जितना भी, मूंग जितना भी, जूं जितना भी और लीख जितना भी निष्पन्न करके दिखाने में कोई भी समर्थ नहीं है। १७२. भन्ते ! इस प्रकार का वक्तव्य कैसे है ? गौतम वे अन्ययूथिक जो ऐसा आख्यान करते हैं। यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान करता हूं यावत् प्ररूपणा करता सर्व लोक के सब जीवों के सुख अथवा दुःख को यावत् बेर की गुठली जितना भी सेम जितना भी, मटर जितना भी, मूंग जितना भी, जूं जितना भी और लीख जितना भी निष्पन्न करके दिखाने में कोई भी समर्थ नहीं है। १७३. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! यह जम्बूद्वीप द्वीप एक लाख योजन लम्बाचौड़ा यावत् उसका परिक्षेप तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढा तेरह अंगुल से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है। महान् ऋद्धि वाला यावत् कोई महान् सामर्थ्य वाला देव विलेपन सहित पिटक को ले कर उसे खोलता है, खोल कर यावत् यह रहा, यह रहा, इस प्रकार कह कर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप में तीन बार चुटकी बजाने जितने समय में इक्कीस बार घूम कर शीघ्र ही आ जाता है। गौतम ! क्या www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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