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श. ६: उ. १० सू. १७१-१७५
हंता फुडे । चक्किया णं गोयमा ! केइ तेसिं घाणपोग्गलाणं कोलड्डि मायमवि निष्फाव मायमवि, कलमायमवि, मासमायमवि, मुग्णमायमवि, ज्यामायमवि लिक्खा मायमवि अभिनिवट्टेत्ता उवदंसेत्तए? नो तिज समझे से तेलेनं गोयमा एवं वुच्चइनो चक्किया केइ सुहं वा जाव उत्तए ।
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जीव चेयना-पदं
१७४. जीवे णं भंते! जीवे ? जीवे जीवे ?
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१. सूत्र १७१-१७३
सुख और दुःख संवेदन है। उन्हें पौद्गलिक पदार्थ के समान प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। राजगृह में कुछ दार्शनिक इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहे थे—राजगृह में जितने जीव हैं, उनके सुख-दुःख को बेर की गुठली जितना रूप देकर भी दिखाया नहीं जा सकता।
हन्त स्पृष्टः । शक्नुयाद् गौतम ! कोऽपि तेषां घ्राणपुद्गलानां कोलास्थिमात्रमपि निष्पाव मात्रमपि कलायमात्रमपि माषमात्रमपि, मुद्गमात्रमपि, यूकामात्रमपि लिक्षामात्रमपि अभिनिर्वर्त्य उपदर्शयितुम्?
नायमर्थः समर्थः तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते नो शक्नुयात् कोऽपि सुखं वा यावत् उपदर्शयितुम् ।
गौतम ने इस प्रतिपादन के विषय में भगवान् महावीर से पूछा, तब भगवान् ने कहा- केवल राजगृह के जीवों का प्रश्न नहीं है, सब जीवों के सुख-दुःख को भी बेर की गुठली जितने आकार में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। इसका हेतु यह है कि संवेदन जीव को होता है, वह पदार्थ से भिन्न है। पदार्थ दृश्य हो सकता है; ज्ञान, संवेदन और अनुभव -- ये जीव के लक्षण हैं, इसलिए दृश्य नहीं बनते।
सुख-दुःख के संवेदन से शारीरिक प्रतिक्रियाओं को मनोविज्ञान, प्रत्यक्ष दर्शन, अनुमान और सूक्ष्म छायांकन (Photography) के द्वारा जाना जा सकता है, किन्तु उन्हें पदार्थ के आकार में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। इस सिद्धान्त को प्राण - पुद्गल - विकिरण के उदाहरण द्वारा
१. आप्टे कोलम् – A kind of berry
कोला - बदरी
भाष्य
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समझाया गया है। कोई देव एक लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाले जम्बूद्वीप में तीन चुटकी बजाए इतने (लगभग एक सेकण्ड) समय में इक्कीस बार चक्कर लगाता है। उस समय में वह एक डिबिया में रखे हुए सुगन्धी चूर्ण को पूरे जम्बूद्वीप में बिखेर देता है। उस सुगन्धी चूर्ण को आकार में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार सुख-दुःख को भी प्रदर्शित नहीं किया जा
सकता ।
शब्द-विमर्श
जीव-चेतना-पदम्
जीव: भदन्त ! जीवः ? जीव: जीवः ?
गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि गौतम ! जीवस्तावन् नियमाज् जीव:, जीवोनियमा जीवे ॥ ऽपि नियमाद् जीवः।
१७५. जीवे णं भंते । नेरइए? नेरइए जीवे?
जीव: भदन्त ! नैरयिकः ? नैरयिको जीवः ?
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गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवे जीवे पुन गौतम! नैरयिकः तावन् नियमाज् जीवः, सिय नेरइए, सिय अनेरइए | जीवः पुनः स्याद् नैरयिकः, स्याद् अनैरयिकः ।
भगवई
वह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप उन नासिकाग्राह्य पुद्गलों से स्पृष्ट हुआ? हां स्पृष्ट हुआ।
गौतम ! उन नासिकाग्राह्य पुद्गलों को बेर की गुठली जितना भी, सेम जितना भी, मटर जितना भी, उड़द जितना भी, मूंग जितना भी, जूं जितना भी और लीख जितना भी निष्पन्न कर क्या कोई दिखाने में समर्थ हैं ?
कोलस्थिग (कोलट्ठिग) — कोल + अस्थिग—बेर की गुठली । संस्कृत शब्दकोश में कोला का अर्थ 'बदरी' तथा कोल का अर्थ 'बदर' और 'बदरी' दोनों मिलते हैं । वृत्तिकार ने कोलडिंग का संस्कृत रूप कुवलात्थिक किया है । निष्फाव, मास आदि शब्दों के लिए देखें भ. ६/
१२६-१३१ का भाष्य ।
यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम इसीलिए यह कहा जा रहा है— जीव के सुख अथवा दुःख को यावत् दिखाने में कोई भी समर्थ नहीं है।
अच्छरानिवाएहिं – चुटकी ।
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जीव चेतना पद
१७४. भन्ते क्या जीव जीव (चैतन्य) है ? भन्ते! क्या जीव (चैतन्य) जीव है?
गौतम जीव नियमतः जीव चैतन्य है। जीव (चैतन्य) भी नियमतः जीव है।
१७५. भन्ते ! क्या जीव नैरयिक है ? क्या नैरयिक जीव 8?
गौतम ! नैरयिक नियमतः जीव है, जीव स्यात् नैरयिक है, स्यात् नैरविक नहीं है।
२. भ. बृ. ६/१७११ – तत्र कुवलास्थिक— बदरकुलका ३. जीवा. वृ. प. १०९ – अप्सरो निपातो नाम चप्पुटिका
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