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भगवई
१७६. जीवेनं भंते । असुरकुमारे? असुरकुमारे जीवः भदन्त ! असुरकुमारः ? असुरकुमारः जीवे ?
जीव: ?
गोयमा ! असुरकुमारे ताव नियमा जीवे जीवे पुण सिय असुरकुमारे, सिय नोअसुरकुमारे ॥
गौतम! असुरकुमारः तावन् नियमाज् जीवः, जीवः पुनः स्याद् असुरकुमारः स्यान् नोअसुरकुमारः।
१७७. एवं दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणि- एवं दण्डकः भणितव्य: यावद् वैमानि - याणं ॥
कानाम्।
१७८. जीवति भंते ! जीवे? जीवे जीवति ?
गोयमा ! जीवति ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवति, सिय नो जीवति ॥
१७९. जीवति भंते! नेरइए ? नेरइए जीवति ?
गोयमा ! नेरइए ताब नियमा जीवति जीवति गौतम! नैरयिकस्तावन् नियमाज् जीवति, पुण सिय नेरइए, सिय अनेरइए || जीवति पुनः स्यान् नैरयिकः, स्याद् अनैरयिकः।
१८०. एवं दंडओ नेब्बो जाव बेमाणियाणं ।। एवं दण्डकः नेतव्य: यावद् वैमानिकानाम्
१८१. भवसिद्धिए णं भंते ! नेरइए ? नेरइए भवसिद्धिकः भदन्त ! नैरयिकः ? नैरयिकः भवसिद्धिए ? भवसिद्धिकः ?
गौतम । भवसिद्धिकः स्यान नैरयिकः स्या अनैरयिकः । नैरयिकोऽपि च स्याद् भवसिद्धिकः स्वाद् अभवसिद्धिकः ।
एवं दण्डकः यावद् वैमानिकानाम्।
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गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अइए। रइए विसिय भवसिद्धीए, सिय अभवसिद्धीए ॥
१८२. एवं दंडओ जाव वैमाणियाण
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जीवति भदन्त ! जीव: ? जीव: जीवति ?
गौतम ! जीवति तावन् नियमाज् जीवः, जीवः पुनः स्याज्जीवति, स्यान् नो जीवति ।
जीवति भदन्त ! नैरयिकः ? नैरयिकः जीवति?
भाष्य
१. सूत्र १७४-१८२
जीवद्रव्य है, गुणी है और चैतन्य उसका गुण है। गुणी गुण का आश्रय होता है। गुण और गुणी में अविनाभाव ( व्याप्ति) सम्बन्ध है । जीव द्रव्य है और चैतन्य उसका गुण है, इसलिए वे अभिन्न है। गुण गुणी से कभी भिन्न नहीं होता। द्रव्य में अनेक गुण होते हैं। चैतन्य जीव द्रव्य का एक गुण है। उसके आधार पर जीव का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित है। चैतन्य गुण केवल जीव में है, अन्य किसी द्रव्य में नहीं है, इसीलिए जीव द्रव्य अन्य
श. ६:३.९०: सू. १७४-१८२
१७६. भन्ते ! क्या जीव असुरकुमार है? क्या असुरकुमार जीव है?
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गौतम ! असुरकुमार नियमतः जीव है। जीव स्यात् असुरकुमार है, स्यात् असुरकुमार नहीं है।
१७७. इस प्रकार वैमानिक देवों तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं।
१७८. भन्ते ! क्या जो जीता है, वह जीव है? अथवा जो जीव है वह जीता है?
गौतम! जो जीता है, वह नियमतः जीव है और जीव स्वात् जीता है, स्यात् नहीं जीता।
१७९. भन्ते ! क्या जो जीता है, वह नैरयिक है? अथवा , वह जीता है?
गौतम! नैरयिक नियमतः जीता है और जो जीता है, वह स्यात् नैरयिक है, स्यात् नैरयिक नहीं है।
१८०. इस प्रकार वैमानिक तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं।
१८१. भन्ते ! क्या जो भवसिद्धिक है, वह नैरविक है? अथवा जो नैरयिक है, वह भवसिद्धिक है? गौतम ! जो भवसिद्धिक है, वह स्यात् नैरयिक है, स्यात् नैरविक नहीं है। नैरदिक भी स्यात् भवसिद्धिक है, स्यात् भवसिद्धिक नहीं है।
१८२. इसी प्रकार वैमानिक तक सभी दण्डक वक्तव्य है।
द्रव्यों से भिन्न है। गुण- गुणी-भाव की दृष्टि से जीव और चैतन्य भिन्न भी है। अनेकान्त की भाषा में कहा जा सकता है कि जीव और चैतन्य कथंचित् अभिन्न हैं और कथंचित् भिन्न हैं।
प्रस्तुत आलापक में जीव और चैतन्य के अविनाभाव-सम्बन्ध का निरूपण किया गया है—
जीव नियमतः चैतन्य है और चैतन्य नियमतः जीव है।
मनुष्य तिर्यञ्च देव और नारक
"
जीव के क्रमभावी पर्याय
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