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श.६:उ.१०:सू.१७४-१८५
भगवई
हैं, इसलिए इनके साथ जीव का अविनाभाव-सम्बन्ध नहीं होता। मनुष्य कर्म। अजीव के आयुष्य कर्म नहीं होता, इसलिए उसमें जीवन भी नहीं होता। जो नियमत: जीव होता है, किन्तु जीव नियमत: मनुष्य नहीं होता है। वह कभी जीव है, वह स्यात् जीता है, स्यात् नहीं भी जीता। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव मनुष्य होता है, कभी देव, कभी तिर्यञ्च और कभी नारका
-इन चार गति के जीव जीते हैं। सिद्ध नहीं जीते-उनके प्राण नहीं होते। मनुष्य दूसरे प्रश्न में जीव और जीवन का सम्बन्ध बतलाया गया है। जो जीता नियमत: जीता है। किन्तु जो जीता है वह केवल मनुष्य नहीं है, वह मनुष्य भी है है—प्राण धारण करता है वह नियमत: जीव है-जीवन का मूल आधार है आयष्य और अमनुष्य भी है-नरक तिर्यञ्च और देव भी है।' वेदणा-पदं
वेदना-पदम्
वेदना-पद १८३. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति अन्ययूथिका: भदन्त ! एवमाख्यान्ति यावत् १८३. 'भन्ते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते जाव परूवेंति—एवं खलु सव्वे पाणा भूया प्ररूपयन्ति—एवं खलु सर्वे प्राणा: भूताः हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं सब प्राण, भूत, जीव जीवा सत्ता एगतदुक्खं वेदणं वेदेति ।। जीवा: सत्त्वा: एकान्तदु:खां वेदनां वेदयन्ति। और सत्त्व एकान्त दु:खमय वेदना का वेदन करते
१८४. से कहमेयं भंते ! एवं?
तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम्? गोयमा! जणं ते अण्णउत्थिया जाव मिच्छं गौतम ! यत्ते अन्ययूथिका: यावन् मिथ्या ते ते एवमासु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइ- एवमाहुः, अहं पुन: गौतम ! एवमाख्यामि क्खामि जाव परूवेमि–अत्थेगइया पाणा यावत् प्ररूपयामि-अस्त्येकके प्राणा: भूताः भूया जीवा सत्ता एगंतदुक्खं वेदणं वेदेति, जीवा: सत्त्वा: एकान्तदु:खां वेदनां वेदयन्ति, आहच्च सायं। अत्थेगइया पाणा भूया जीवा आहत्य सातम्। अस्त्वेकके प्राणा: भूताः सत्ता एगंतसायं वेदणं वेदेति, आहच्च जीवा: सत्त्वा: एकान्तसातां वेदनां वेदयन्ति, अस्सायं। अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता आहत्य असातम्। अस्त्येकके प्राणा: भूता: वेमायाए वेदणं वेदेति—आहच्च साय- जीवाः सत्त्वाः विमात्रया वेदनां वेदयन्ति मसाय॥
आहत्य सातामसाताम्।
१८४. भन्ते! इस प्रकार का वक्तव्य कैसे है?
गौतम ! जो अन्ययूथिक ऐसा आख्यान करते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान करता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूं-कुछ प्राण, भूत, जीव, और सत्त्व एकान्त दु:खमय वेदना का वेदन करते हैं और कभी-कभी सुख का वेदन करते हैं। कुछ प्राण, भूत, जीव और सत्त्व एकान्त सुखमय वेदना का वेदन करते हैं और कभी-कभी दु:ख का वेदन करते हैं। कुछ प्राण, भूत, जीव और सत्त्व विमात्रा से वेदना का वेदन करते हैं-कभी सुख का वेदन करते हैं, कभी दु:ख का वेदन करते हैं।
१८५. से केणटेण?
तत् केनार्थेन? गोयमा ! नेरइया एगतदुक्खं वेदणं वेदेति, गौतम ! नैरयिका: एकान्तदुःखां वेदनां आहच्च सायं। भवणवइ-वाणमंतर-जोइस- वेदयन्ति, आहत्य साताम्। भवनपति- -वेमाणिया एगंतसायं वेदणं वेदेति, आहच्च वानमन्तर-ज्यौतिष-वैमानिका एकान्तसाता अस्सायं। पुढविक्काइया जाव मणुस्सा वेदनां वेदयन्ति, आहत्य असाताम्। पृथिवीवेमायाए वेदणं वेदेति-आहच्च साय- कायिका: यावत् मनुष्या: विमात्रया वेदनां मसायं। से तेणटेणं॥
वेदयन्ति--आहत्य सातामसाताम्। तत् तेनार्थेन।
१८५. यह किस अपक्षा से? गौतम ! नैरयिक एकान्त दुःखमय वेदना का वेदन करते हैं, कभी-कभी सुख का वेदन करते हैं। भवनपति, वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एकान्त सुख का वेदन करते हैं, कभी-कभी दु:ख का वेदन करते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर मनुष्य तक सभी जीव विमात्रा से वेदना का वेदन करते हैं
-कभी सुख का वेदन करते हैं, कभी दु:ख का वेदन करते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जाता है।
भाष्य
१. सूत्र १८३-१८५
करता है। बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्यों में दुःख पहला आर्यसत्य है। उसके भारतीय दर्शन के क्षेत्र में कुछ दार्शनिक दुःखवादी रहे हैं। 'दुःखमेव अनुसार पूरा संसार आग में झुलस रहा है, सुख का कोई अवसर ही नहीं है। सर्वं विवेकिनः।-पतञ्जलि का यह सूत्र सांख्य दर्शन का दृष्टिकोण प्रस्तुत सांख्य, जैन और बौद्ध—ये तीनों श्रमण-परम्परा के दर्शन हैं और तीनों ही १.भ.बृ. ६/१७८-जीवति प्राणान धारयति य स: जीव: उत यो जीव: स जीवति? इति प्रश्नः, सद्भावादिति। उत्तरं तु यो जीवति स तावनियमाज्जीव: अजीवस्यायुः काभावेन जीवनाभावात्, जीवस्तु २. पा. यो. द. २/१५ । स्याज्जीवति स्यान्न जीवति, सिद्धस्य जीवनाभावादिति; नारकादिस्तु नियमाज्जीवति, संसारिणः ३. धम्मपद, १४६ । सर्वस्य प्राणधारणात्मकत्वात्, जीवतीति पुन: स्यात्रारकादिः स्यादनारकादिति, प्राणधारणस्य सर्वेषां
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