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भगवई
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श.६ : उ.१० : सू.१८३-१८८
दु:खवादी है।
___जैन दर्शन सापेक्ष दु:खवादी है—दुःख को एकान्तत: स्वीकार नहीं करता। प्रस्तुत आलापक में दु:ख-वेदना का विभज्यवादी दृष्टिकोण से विमर्श किया गया है। नरक के जीव दु:ख का संवेदन करते हैं, किन्तु कभी-
कभी वे सुख का संवेदन करते हैं। देव सुख का संवेदन करते हैं, कभी-कभी दु:ख का संवेदन भी करते हैं। तिर्यञ्च और मनुष्य के जीव में सुख और दुःख का संवेदन विमात्रा से होता है-कभी वे दुःख का संवेदन करते हैं, कभी सुख का संवेदन करते हैं।
नेरइयादीणं आहार-पदं
नैरयिकादीनाम् आहार-पदम् नैरयिक आदि जीवों के आहार का पद १८६. नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले अत्तमायाए नैरयिका: भदन्त ! यान् पुद्गलान् आत्मना १८६. 'भन्ते ! नैरयिक जीव जिन पुद्गलों को आत्मा
आहारेंति तं किं आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्ग- आदाय आहरन्ति तत् किं आत्मशरीर- से ग्रहण कर आहार करते हैं, क्या अपने शरीर के ले अत्तमायाए आहारेति? अणंतरखेत्तोगाढे क्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आत्मना आदाय क्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों को आत्मा से ग्रहण कर पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति? परंपरखेत्तो- आहरन्ति? अनन्तरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आहार करते हैं? क्या अनन्तर क्षेत्र में अवगाढ़ गाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति? आत्मना आदाय आहरन्ति? परंपरक्षेत्रा- पुद्गलों को आत्मा से ग्रहण कर आहार करते हैं?
वगादान पुद्गलान् आत्मना आदाय आहार- क्या परम्पर क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों को आत्मा से न्ति?
ग्रहण कर आहार करते हैं? गोयमा! आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्त- गौतम ! आत्मशरीरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् गौतम ! वे अपने शरीर के क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों मायाए आहारेंति, नो अणंतरखेत्तोगाढे पो- आत्मना आदाय आहरन्ति, नो अनन्तर- को आत्मा से ग्रहण कर आहार करते हैं, अनन्तर ग्गले अत्तमायाए आहारेंति, नो परंपर- क्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आत्मना आहरन्ति, क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों को आत्मा से ग्रहण कर खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति। नो परम्परक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आत्म- आहार नहीं करते, परम्पर क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों ना आदाय आहरन्ति।
को आत्मा से ग्रहण कर आहार नहीं करते। जहा नेरइया तहा जाव वेमाणियाणं दंडओ॥ यथा नैरयिका: तथा यावद् वैमानिकानां नैरयिक जीवों की भांति वैमानिक तक सभी दण्डक दण्डकः।
वक्तव्य हैं।
भाष्य
१. सूत्र १८६
जीव प्रत्येक प्रवृत्ति के लिए पुद्गलों का आहरण करता है। इस विषय में जिज्ञासा है कि वह पुद्गलों का आहरण कहां से करता है? पुद्गलों की अवस्थिति के तीन क्षेत्र हैं-१. स्वशरीर-क्षेत्र २.अनन्तर क्षेत्र-स्वशरीर-
-क्षेत्र से अव्यवहित क्षेत्र ३.परम्पर क्षेत्र अनन्तर क्षेत्र से आगे का क्षेत्र। आहरण का नियम यह है कि जीव स्वशरीर-क्षेत्रावगाढ पुद्गलों का आहरण करता है, वह अनन्तर-क्षेत्रावगाढ़ और परम्पर-क्षेत्रावगाढ पुद्गलों का आहरण नहीं कर सकता।
केवलिस्स नाण-पदं १८७. केवली णं भंते ! आयाणेहिं जाणइपासइ? गोयमा! नो इणढे समहे ।।
केवलिनो ज्ञान-पदम्
केवली के ज्ञान का पद केवली भदन्त ! किम् आदानै: जानाति- १८७. 'भन्ते ! क्या केवली इन्द्रियों से जानता-देखता पश्यति? गौतम ! नायमर्थ: समर्थः।
गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है।
१८८. से केणटेणं?
तत्केनार्थेन? गोयमा ! केवली णं पुरत्थिमे णं मियं पि गौतम! केवली पौरस्त्येन मितमपि जानाति, जाणइ, अभियं पि जाणइ जाव निव्वुडे दंसणे अमितमपि जानाति यावत् निर्वतं दर्शनं केवलिस्स। से तेणटेणं ।।
केवलिनः। तत्तेनार्थेन।
१८८. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! केवली पूर्व दिशा में परिमित को भी जानता है, अपरिमित को भी जानता है, यावत् केवली का दर्शन निरावरण है इस अपेक्षा से।
भाष्य
१. सूत्र १८७, १८८
द्रष्टव्य भ. ५/१०८,१०९ का भाष्य।
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