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________________ श.३ : उ.१ : सू.३५,३६ २४ भगवई दिट्ठाभट्टे य पासंडत्थे य गिहत्थे य पुब्ब- पाषण्डस्थान् च गृहस्थान् च पूर्वसांगतिकान् संगतिए य परियायसंगतिए य आपुच्छित्ता चपर्यायसांगतिकान्च आपृच्छ्य ताम्रलिप्त्याः तामलित्तीए नगरीए मज्झंमज्झेणं निग्गच्छित्ता नगर्याः मध्य-मध्येन निर्गम्य पादुका-कुण्डि- पादुग-कुंडिय-मादीयं उवगरणं दारुमयं च __ कादिकम् उपकरणं दारुमयं च प्रतिग्रहकम् पडिग्गहगं एगते एडित्ता तामलित्तीए नगरीए । एकान्ते एडयित्वा ताम्रलिप्त्याः नगर्याः उत्तरउत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए णियत्तणिय-मंडलं पोरस्त्ये दिग्भागे निवर्तनिक-मण्डलम् आआलिहित्ता संले हणा-झूसणा-झूसियस्स लिख्य संलेखना-जोषणा-जुषितस्य प्रत्याभत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स ख्यातभक्तपानस्य प्रायोपगतस्य कालम् अकालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु नवकांक्षतः विहर्तुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए संप्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वदिणयरे तेयसा जलंते तामलित्तीए नगरीए लति ताम्रलिप्त्याः नगर्याः दृष्टाभाषितान् च दिट्ठाभट्ठे य पासंडत्थे य गिहत्थे य पुब्ब- पाषण्डस्थान् पूर्वसांगतिकान् च पर्यायसंगतिए य परियायसंगतिए य आपुच्छइ, सांगतिकान् च आपृच्छति, आपृच्छ्य ताम्रआपुच्छित्ता तामलित्तीए नयरीए मज्झमज्झेणं लिप्याः नगर्याः मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पादुग-कुंडिय-मादीयं पादुकाकुण्डिकादिकम् उपकरणं दारुमयं च उवगरणं दारुमयं च पडिग्गहगं एगते एडेइ, प्रतिग्रहकम् एकान्ते एडयति, एडयित्वा ताम्रएडित्ता तामलित्तीए नगरीए उत्तरपुरत्थिमे लिप्त्याः नगर्याः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे निवदिसिभाए णियत्तणिय-मंडलं आलिहइ, आलि- तनिक-मण्डलम् आलिखति, आलिख्य संलेहित्ता संलेहणा-झूसणा-झूसिए भत्तपाण- खना-जोषणा-जुषितः प्रत्याख्यात-भक्तपानः पडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे ॥ प्रायोपगमनं निपन्नः'। बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों' (श्रमणों) और गृहस्थों, तापस जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों तथा तापस जीवन में परिचितों को पूछ कर ताम्रलिप्ति नगरी के मध्य भाग से गुजर कर पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण और काष्ठमय पात्र को एकान्त में छोड़ कर ताम्रलिप्ति नगरी के उत्तरपूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में निवर्तनिक मण्डल का आलेखन कर संलेखना की आराधना में लीन हो भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं-ऐसी संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर ताम्रलिप्ति नगरी में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों (श्रमणों) और गृहस्थों, तापस जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों और तापस जीवन में परिचितों को पूछता है, पूछकर ताम्रलिप्ति नगरी के मध्य भाग से निर्गमन करता है, निर्गमन कर वह पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण और काष्ठमय पात्र को एकान्त स्थान में छोड़ता है। छोड़ कर ताम्रलिप्ति नगरी के उत्तरपूर्व दिग्भाग में निवर्तनिक मण्डल का आलेखन करता है। आलेखन कर वह संलेखना-आराधना से युक्त हो कर भोजन-पानी का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन में उपस्थित हो गया। भाष्य १. सूत्र ३५,३६ द्रष्टव्य भ०२/६४ का भाष्य। २. बालतपःकर्म से, बालतपस्वी यहां 'बाल' शब्द का प्रयोग मिथ्यादर्शन और अविरति दोनों का सूचक है। जिस तपस्या के साथ सम्यग्दर्शन जुड़ा हुआ नहीं होता,उसे 'बालतप' । और उसके कर्ता को 'बालतपस्वी' कहा जाता है। देवलोक में उत्पन्न होने के चार कारण बतलाए गए हैं। उनमें तीसरा कारण बालतपः-कर्म है।' यद्यपि तामलि का तप निदान या आकांक्षा से मुक्त था, फिर भी सम्यग् दर्शन के अभाव में वह बालतप की भूमिका में ही रहा। ३. अनित्य-जागरिका पदार्थ का संयोग अनित्य है। इस अनित्यत्व का अनुचिन्तन। ५. पाषण्डस्थ श्रमण दीक्षा में दीक्षित। तामलि तपस्वी था। श्रमणों के पांच प्रकारों में एक प्रकार है तापस। इसलिए उनका पापण्डों-श्रमणों से सम्पर्क रहा। तामलि ने उन श्रमणों से पूछा जो दृष्टाभाषित थे। उन गृहस्थों से भी पूछा जो पूर्वसांगतिक यानी गृहस्थ-जीवन में परिचित थे तथा जो प्रव्रज्या-जीवन में परिचित थे यानी पर्यायसांगतिक थे। इससे एक निष्कर्ष निकलता है कि तामलि किसी गुरु के पास प्रव्रजित नहीं हुआ था। यदि कोई गुरु होता तो अनशन के लिए सबसे पहले उनकी स्वीकृति लेता। स्कन्दक ने अनशन किया, उससे पहले भगवान महावीर से स्वीकृति प्राप्त की। प्रस्तुत प्रकरण में किसी गुरु या आचार्य से स्वीकृति लेने का उल्लेख नहीं है। ४. प्रधान आदि ६. प्रायोपगमन अनशन में उपस्थित हो गया। द्रष्टव्य भ०२/४ का भाष्य। द्रष्टव्य भ. २/६४ का भाष्य। १.भ.८/४२८-देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएण? गोयमा! सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए देवाउयकम्मा- सरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। २. दसवे. हा. टी. प.६८। द्रष्टव्य दसवे. १/३ का टिप्पण, पृ. ११। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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