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________________ भगवई २३ श.३ : उ.१ : सू.३३-३६ वा इब्मं वा सेटिं वा सेणावई वा सत्थवाहं वा कौटुम्बिकं वा इभ्यं वा श्रेष्ठिनं वा सेनापति काकं वा साणं वा पाणं वा-उच्चं पासइ वा सार्थवाह वा काकं वा श्वानं वा 'पाणं' वाउच्चं पणामं करेइ, नीयं पासइ नीयं पणामं उच्चं पश्यति उच्चं प्रणामं करोति, नीचं पश्यति करेइ, जं जहा पासइ तस्स तहा पणामं करेइ। नीचं प्रणामं करोति, यं यथा पश्यति तस्य तथा से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ पाणामा प्रणाम करोति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते । पव्वज्जा॥ प्राणामा प्रवज्या। अथवा चण्डाल को देखता है, वहीं उसको प्रणाम करता है। वह किसी उच्च (पूज्य) को देखता है तो अतिशाथी विनम्रता के साथ प्रणाम करता है, नीच (अपूज्य) को देखता है तो साधारण विनम्रता से प्रणाम करता है। जिसे जिस रूप में देखता है, उसे उसी रूप में प्रणाम करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से इस प्रव्रज्या को प्राणामा प्रव्रज्या कहा जाता है। भाष्य १. सूत्र ३४ आर्या--प्रशान्त रूपधर चण्डिका। प्रस्तुत सूत्र में 'पाणामा' प्रव्रज्या का स्वरूप निर्दिष्ट है वृत्तिकार ने कौट्टक्रिया-महिषासुर का मर्दन करती हुई चण्डरूपधर चण्डिका। इसका व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ किया है-'जिस विधि में प्रणाम विधेय होता है, पाण-चाण्डाल। उसका नाम है प्राणामा।" ईश्वर से सार्थवाह तक के शब्दों के लिए भ० २/३० का भाष्य द्रष्टव्य है। शब्द-विमर्श इन्द्र-देवों का अधिपति। उच्च (पूज्य) को प्रणाम करता है, नीच (अपूज्य) को प्रणाम करता है-ये दोनों वाक्य प्रणाम की प्रक्रिया में भेद की सूचना दे रहे हैं। प्रणाम का स्कन्द-कार्तिकेय, महादेव का पुत्र। स्वरूप एक नहीं था। उच्च या पूज्य व्यक्ति को प्रणाम विशेष विनम्रता के साथ रुद्र-महादेव। शिव-यह महादेव का पर्यायवाची नाम है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया जाता था। नीच या अपूज्य व्यक्ति को प्रणाम करने में साधारण विनम्रता बरती जाती। इस विधि में विनम्रता की प्रधानता परिलक्षित नहीं होती। किंतु 'एक व्यन्तर देव' किया है। वैकल्पिक रूप में रौद्र मुद्राधर को 'रुद्र' और शान्त मुद्राधर को 'शिव' कहा जा सकता है। 'मुंह देखकर टीका करने' की मनोवृत्ति परिलक्षित होती है। वैश्रवण-उत्तर दिशा का लोकपाल। ३५. तए णं से तामली मोरियपुत्ते तेणं ओरालेणं ततः सः तामलिः मौर्यपुत्रः तेन 'ओरालेणं' ३५.' वह मौर्यपुत्र तामलि उस प्रधान, विपुल, अनुज्ञात लतवोकम्मेणं विपुलेन प्रत्तेन प्रगृहीतेन बालतपःकर्मणा शुष्कः और प्रगृहीत बालतपःकर्म से सूखा, रूखा, मांस-रहित सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठि-चम्मावणद्धे रूक्षः निर्मासः अस्थि-चावनद्धः किटिकिटि- चर्म से वेष्टित अस्थि वाला, उठते-बैठते समय किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए यावि काभूतः कृशः धमनिसन्ततः जातश्चापि आ- किट-किट शब्द से युक्त, कश और धमनियों का होत्था। जालमात्र हो गया। सीत्। .३६. तए णं तस्स तामलिस्स बालतवस्सिस्स ततः तस्य तामलेः बालतपस्विनः अन्यदा ३६. किसी एक दिन मध्यरात्रि में अनित्य जागरिका अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये अनित्य- करते हुए उस बालतपस्वी तामलि के मन में यह इस अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयासवे जागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं इस विशिष्ट रूप समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरा- –एवं खलु अहं अनेन 'ओरालेणं' विपुलेन वाले प्रधान, विपुल, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, लेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं प्रत्तेन प्रगृहीतेन कल्याणेन शिवेन धन्येन धन्य, मंगलमय, श्रीसम्पन्न, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं मांगल्येन सश्रीकेण उदग्रेण उदात्तेन उत्तमेन उत्तम और महान् प्रभावी तपःकर्म से सूखा, रूखा, उदत्तेणं उत्तमेण महाणुभागेणं तवोकम्मेणं महानुभागेन तपःकर्मणा शुष्कः रूक्षः यावद् यावत् धमनियों का जालमात्र हो गया हूं। अतः जब सुक्के लुक्खे जाव धमणिसंतए जाए, तं अत्थि धमनिसन्ततः जातः, तद् अस्ति यावन् मे तक मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारजाव मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार- उत्थानं कर्म बलं वीर्यं पुरुषाकार-पराक्रमः पराक्रम है, तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल परक्कमे तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए तावन् मे श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर रयणीए जाव उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि यावद् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर दिणयरे तेयसा जलते तामलित्तीए नगरीए ज्वलति ताम्रलिप्त्याः नगर्याः दृष्टाभाषितान् च ताम्रलिप्ति नगरी में जिन्हें देखा है, जिनके साथ १. भ. वृ. ३/३३- 'पाणामाए' त्ति प्रणामोऽस्ति विधेयतया यस्यां सा प्राणामा। ३. वही, ३/३४----आर्यां प्रशान्तरूपां चण्डिका, 'कोट्टकिरियं व' त्ति चण्डिकामेव रौद्ररूपां, २. वही, ३/३४- 'रूद्द वा' महादेवं 'सिवं व' त्ति व्यन्तरविशेषम्, आकारविशेषो दृश्यः महिषकुट्टनक्रियावतीमित्यर्थः। आकारविशेषधर वा रुद्धमेव। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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