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________________ श.३ : उ.१ : सू.३३,३४ २२ भगवई सामुदानिक भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करता है। पर्यटन कर केवल चावल ग्रहण करता है, ग्रहण कर उसे इक्कीस बार पानी से धोता है, धो कर फिर आहार करता है। भाष्य १. सूत्र ३३ प्रस्तुत सूत्र में पूर्वकृत कल्याणकारी कर्म और हिरण्य, सुवर्ण, धन सन्त-सत्-श्रेष्ठ। आदि की वृद्धि में संबंध स्थापित किया गया है। यह अभिमत तापस-परम्परा सार-चन्दन आदि सुगन्धित वर्ग का द्रव्य । आयुर्वेद के ग्रन्थों में का है। इसमें भगवान महावीर का अभिमत उल्लिखित नहीं है। सर्वसाधारण में सार 'सुगन्धित वस्तुओं के वर्ग' का नाम है। वृत्तिकार ने सन्त का अर्थ यह धारणा प्रचलित है कि धन-धान्य आदि पुण्य कर्म से उपलब्ध होते हैं। _ 'विद्यमान' और सार का अर्थ 'प्रधान' किया है। केवल क्षय-अर्जित सम्पत्ति का व्यय होता है और नई संपत्ति कर्मशास्त्रीय दृष्टि से इसकी मीमांसा नहीं की गई। का अर्जन नहीं होता, तो वह क्षीण होती चली जाती है । मौर्यपुत्र तामलि ने इसी शब्द-विमर्श युक्ति के आधार पर चिन्तन किया-में पुराकृत शुभ कर्मों को भोग रहा हूं और नए सिरे से उनका उपार्जन नहीं कर रहा हूं। क्या यह मेरे लिए हितकर होगा? मध्यरात्रि (पुव्वरत्तावरत्त)--भ. २/६६का भाष्य द्रष्टव्य है। यह चिन्तन सदाचार का एक पुष्ट आधार बनता है। तामलि को इसी आधार कुटुम्ब जागरिका-कुटुम्ब के विषय में अनुचिन्तन । पर तपस्वी जीवन जीने की प्रेरणा मिली। आध्यात्मिक""संकल्प-देखें भ.२/३१ का भाष्य। ज्ञाति-सजातीय। धन-मूल्यवान वस्तु। उसके चार प्रकार हैं-१. गणिम-जिनका निजक-गोत्रज संबंधी, मातृपक्षीय अथवा पितृपक्षीय। विक्रय गिनती से किया जाए। २. धणिम-जिनका विक्रय तोलकर किया परिजन–कर्मकर आदि। जाए। ३. मापिज्ज–जिनका विक्रय माप कर किया जाए। ४. परिच्छिज्ज चित्ताहादक (चेइयं) के लिए भ. १/५ का भाष्य द्रष्टव्य है। जिनका विक्रय परीक्षा कर किया जाए। परिजानाति-प्रस्तुत संदर्भ में इसका अर्थ है 'स्वामी रूप में रन अपनी-अपनी जाति में जो उत्कृष्ट होता है, वह रत्न कहलाता स्वीकारना। है। श्रेष्ठ पाषाण मनुष्य के मन को मोह लेते हैं, इसलिए वे रत्न कहलाते हैं शुद्धोदन-सूप, शाक आदि से वर्जित चावल आदि अन्न। जातौ जातौ यदुत्कृष्टं, तद्धि रत्नं प्रचक्षते। बलिकर्म......... प्रायश्चित्त-देखें भ.७/१७६ का भाष्य। रत्नं च वरपाषाणं, रमन्ते यत्र मानवाः ॥ आस्वादमान, विस्वादमान-वृत्तिकार ने इनका संस्कृत रूप मणि-चन्द्रकान्त आदि। 'आस्वादयन् विस्वादयन्' किया है। जो कि दशम गण की स्वद् अथवा स्वाद् शिला-प्रवाल-वृत्तिकार ने शिला-प्रवाल का अर्थ मूंगा किया है। धात से निष्पन्न होते हैं। वैकल्पिक रूप में शिला का अर्थ-राजपट्ट (घटिया जाति का हीरा) आदि किया परिभाजयन्-इसका अर्थ 'देना या विभाग करना' है। है और प्रवाल का अर्थ-मूंगा। शिला 'मैनसिल' (red arsenic) का भी एक जिमियभुत्तुत्तरागए-वृत्तिकार ने यहां प्रथमा के एकवचन का सेल के पर्यायवाची नाम ये हैं-मनःशिला, मनोहवा, मनोगुप्ता, लोप माना है। 'भुक्तोत्तर आगत' को स्वतंत्र पद माना है। यदि दोनों को समस्त नागजिला, नेपाली, कुण्ट, शिला दिव्यौषधि आदि।' पद माना जाए तो एकपद भी हो सकता है। लाल रत्न–पद्मराग आदि। पद्मराग माणिक्य का पर्यायवाची नाम प्राणामा-द्रष्टव्य भ. ३/३४ का भाष्य। ३४. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पाणामा तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते--प्राणामा ३४. 'भन्ते ! इस प्रव्रज्या को प्राणामा प्रव्रज्या किस अपेक्षा पव्वज्जा? प्रव्रज्या? से कहा जाता है? गोयमा ! पाणामाए णं पव्वजाए पव्वइए समाणे गौतम ! प्राणामया प्रव्रज्जया प्रव्रजितः सन्! गौतम! प्राणामा प्रव्रज्या से प्रव्रजित होने वाला जहां जंजत्थ पासइ-इंदं वा खंदं वा रुई वा सिवं यः यत्र पश्यति- इन्द्रं वा स्कन्दं वा रुद्रं वा जिस इन्द्र, कार्तिकेय, रुद्र, शिव, वैश्रणव, आर्या कौट्टवा वेसमणं वा अज्जं वा कोट्टकिरियं वा रायं शिवं वा वैश्रवणं वा आर्यां वा कौट्टक्रियां वा क्रिया, राजा, युवराज, कोटवाल, मडम्बाधिपति, कौटुवा ईसरं वा तलवरं वा माडंबियं वा कोडुंबियं राजानं वा ईश्वरं वा तलवरं वा माडम्बिकं वा म्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, कौवा, कुत्ता १. अभि. चि. ४/१२५, १२६। २. भ. वृ. ३/३३-धनं गणिमादि रत्नानि-कर्केतनादीनि, मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः शिला- प्रवालानि विद्रुमाणि, अन्येत्याहुः-शिला-राजपट्टादिरूपाः प्रवालं-विद्रुम,रक्तरत्नानि । पद्मरागादीनि, एतद्रूपं यत् 'संत' ति विद्यमानं सारं-प्रधानं स्वापतेयं द्रव्यं तत्तथा। ३. वही, ३/३३-एकान्तेन अयं नवानां शुभकर्मणामनुपार्जनेन। ४. भ. वृ. ३/३३-ज्ञातयः-सजातीयाः निजका- गोत्रजाः सम्बन्धिनो-मातपक्षीयाः श्वसुर कुलीना वा परिजनो-दासादिः। ५. वही, ३/३३-सूपशाकादिवर्जितं कूरम् । ६. वही, ३/३३-'जिमिय' ति प्रथमैकवचनलोपात जेमितः- भक्तवान भत्तोत्तर' ति भुक्तोत्तरं-भोजनोत्तरकालम् 'आगए' त्ति आगतः उपवेशनस्थाने भुक्तोत्तरागतः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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