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________________ भगवई २१ श.३ : उ.१ : सू.३३ हाय तामलित्तीए नयरीए उच्च-नीय-मज्झिमाइं उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता भिक्षार्चयया अटित्वा शुद्धोदनं प्रतिगृह्य तत् विहार करूंगा। बेले के पारणे में मैं आतापना-भूमि से सुद्धोदणं पडिग्गाहेत्ता तं तिसत्तक्खुत्तो उदएणं त्रिसप्तकृत्वः उदकेन प्रक्षाल्य ततः पश्चात् उतर कर स्वयं काष्ठमय पात्र ग्रहण कर ताम्रलिप्ति पक्खलेत्ता तओ पच्छा आहारं आहारित्तए आहारम् आहर्तुं इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य नगरी के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्प- कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् उत्थिते सूर्ये भिक्षाचरी के लिए पर्यटन कर केवल चावल ग्रहण भायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्स- सहमरश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति स्वयमेव कर उसे इक्कीस बार पानी से धो कर फिर आहार रस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते सयमेय दारुमयं प्रतिग्रहकं करोति, कृत्वा विपुलम् करूंगा। इस प्रकार सोच कर वह संप्रेक्षा करता है, दारुमयं पडिग्गहगं करेइ, करेत्ता विउलं अशन-पान-खाद्य स्वाद्यम् उपस्कारयति, संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर तेज से प्रज्वलित असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उपस्कार्य ततः पश्चात् स्नातः कृत-बलिकर्मा सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से उवक्खडावेत्ता ततो पच्छा ण्हाए कयबलिकम्मे कृतकौतुकमंगलप्रायश्चित्तः शुद्धप्रावेश्यानि देदीप्यमान होने पर स्वयमेव काष्टमय पात्रका निर्माण कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाइं मांगल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः अल्प- करता है, निर्माण कर विपुल भोजन, पेय, खाद्य और मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घा- महाभिरणालंकृतशरीरः भोजनवेलायां स्वाद्य पदार्थ पकवाता है, पकवाने के बाद वह स्नान, भरणालंकियसरीरे भोयणवेलाए भोयण- भोजनमण्डपे सुखासनवरगतः तेन मित्र-ज्ञाति- बलिकर्म (पूजा), कौतुक (तिलक आदि) इष्ट नमस्कार मंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्त-नाइ- निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनेन सार्द्ध तत् रूप मंगल और प्रायश्चित्त करके शुद्ध प्रवेश्य (सभा -नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं सद्धिं तं विपुलम् अशन-पान-खाद्य-स्वाधम् आस्वाद- में प्रवेशोचित) मांगलिक वस्त्र विधिवत् पहन कर, विउलं असण-पाण खाइम-साइमं आसादेमाणे मानः विस्वादमानः परिभाजयन् परिभुञ्जानः "अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को वीसादेमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ। विहरति। जेमितभुक्तोत्तरागतोऽपि च सन् सजा कर भोजन की बेला में भोजन-मंडप में सुखासन जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते आचान्तः चोक्षः परमशुचीभूतः तं मित्र- की मुद्रा में बैठा हुआ वह उन मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, चोक्ने परमसुइब्भूए तं मित्त-नाइ-नियग- -ज्ञाति-निजक-रवजन-संबंधि-परिजनं विपुलेन स्वजन, संबंधी और परिजनों के साथ उस विपुल सयण-संबंधि-परियणं विउलेणं असण- अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र-गन्ध- माल्या- भोजन, पेय, खाद्य और स्वाद्य का आस्वाद लेता हुआ पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालंका- लंकारेण च सत्कारयति सम्मानयति, तस्यैव विशिष्ट स्वाद लेता हुआ, बांटता हुआ और परिभोग रेणय सक्कारेइ सम्माणेइ, तस्सेव मित्त-नाइ- मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनस्य करता हुआ विहरण करता है। उसने भोजन कर नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पुरओ जेट्ठ- पुरतः ज्येष्ठपुत्र कुटुम्बे स्थापयति, स्थापयित्वा आचमन किया, आचमन कर वह स्वच्छ और परम पुत्तं कुटुंबे ठावेइ, ठावेत्ता तं मित्त-नाइ- तं मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबंधि-परिजनं शुचीभूत (सर्वथा साफ-सुथरा) हो गया। फिर वर अपने -नियग-सयण-संबंधि-परियणं जेट्टपुत्तं च ज्येष्ठपुत्रं च आपृच्छति, आपृच्छ्य मुण्डः भूत्वा बैठने के स्थान पर आया। वहां वह उन मित्रों, ज्ञातियों, आपुच्छइ, आपुच्छित्ता मुंडे भवित्ता पाणामाए प्राणामया प्रव्रज्यया प्रव्रजितः। प्रव्रजितोऽपि च कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों को पव्वज्जाए पब्वइए। पब्बइए वि य णं समाणे सन् एतमेतद्रूपम् अभिग्रहम् अभिगृह्णाति- विपुल भोजन, पेय, खाद्य, स्वाद्य पदार्थों से तथा वस्त्र, इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हिइ-कप्पइ कल्पते मे यावज्जीवं षष्ठषष्ठेन यावद् आहर्तुम् सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकारों से सत्कृतमे जावज्जीवाए छटुंछटेणं जाव आहारित्तए इति कृत्वा एतमेतद्रूपम् अभिग्रहम् अभिगृह्य -सम्मानित करता है। फिर उन्हीं मित्रों, ज्ञातियों, त्ति कटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता यावज्जीवं षष्टषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों के जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवो- ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखः आतापन- सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करता है, कम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय भूम्याम् आतापयन् विहरति। षष्ठस्यापि च स्थापित कर वह उन मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, सूराभिमुहे आयावणभमीए आयावेमाणे पारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्य- स्वजनों, संबंधियों, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र की विहरइ। छट्ठस्स वियणं पारणयंसि आयावण- वरुह्य स्वयमेव दारुमयं प्रतिग्रहकं गृहीत्वा ___ अनुमति लेता है। अनुमति ले कर मुण्ड हो कर प्राणामा भूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभित्ता सयमेव ताम्रलिप्त्यां नगर्याः उच्च-नीच-मध्यमानि प्रव्रज्या से प्रव्रजित हो जाता है। प्रव्रजित हो कर वह दारुमयं पडिग्गहगं गहाय तामलित्तीए नयरीए कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यया अटति, इस आकार वाला यह अभिग्रह स्वीकार करता है—मैं उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदाणस्स अटित्वा शुद्धौदनं प्रतिगृहाति, प्रतिगृह्य त्रि- जीवन भर बेले-बेले की तपः-साधना यावत् केवल भिक्खायरियाए अडइ, अडित्ता सुद्धोदणं सप्तकृत्वः उदकेन प्रक्षालयति, प्रक्षाल्य ततः चावल को इक्कीस बार पानी से धो कर फिर आहार पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेत्ता तिसत्तक्खुत्तो उदएणं पश्चाद् आहारम् आहरति। करूंगा। इस प्रकार सोच कर इस आकार वाला यह पक्खालेइ, पक्खालेत्ता तओ पच्छा आहार अभिग्रह ग्रहण कर वह जीवनभर निरन्तर बेले-बेले आहारेइ॥ की तपः-साधना करता है। वह आतापना-भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करता है। बेले के पारणे में आतापना-भूमि से उतरता है, उतर कर स्वयं काष्ठमय पात्र ग्रहणकर ताम्रलिप्ति नगरी के उच्च, नीच और मध्यम कुलों में Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003594
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size20 MB
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