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श.५: उ. ४: सू.८९-९३
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भगवई
गोयमा ! णो तिणढे समढे। निट्ठरवयणमेयं गौतम ! नायमर्थः समर्थ:। निष्ठरवचनमेतद्देदेवाण।।
वानाम्।
गौतम ! यह अर्थसंगत नहीं है। यह देवों के लिए निष्ठर वचन है।
९१. देवा णं भंते ! संजयासंजया ति वत्तव्वं देवा: भदन्त ! संयतासंयता: इति वक्तव्यं ९१. भन्ते ! देव संयतासंयत है, क्या ऐसा कहा जा सिया? स्यात्?
सकता है? गोयमा ! णो तिणढे समढे। असन्भूयमेयं गौतम! नायमर्थः समर्थः। असद्भूतमेतद् गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। यह देवों के लिए देवाण। देवानाम्।
असद्भूत वचन है—यथार्थ नहीं है।
९२. से किं खाइ णं भंते ! देवा ति वत्तव्वं तत् किं 'खाई' भदन्त ! देवा: इति वक्तव्यं ९२. भन्ते! फिर उन देवों को क्या कहा जा सकता है? सिया?
स्यात्? गोयमा! देवाणं नोसंजया ति वत्तव्वं सिया।। गौतम ! देवा: नोसंयता: इति वक्तव्यं स्यात्। गौतम ! देव नोसंयत हैं, ऐसा कहा जा सकता है।
भाष्य
१. सूत्र ८९-९२
प्रस्तुत आलापक में वाणी के विवेक का निदर्शन है। संयम और असंयम के आधार पर मनुष्यों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है
१. असंयत-संयम से रहित २. संयतासंयत—जिसमें असंयम के साथ आंशिक संयम हो। ३. संयत—पूर्ण संयमयुक्त।
देव संयम और आंशिक संयम की भी आराधना नहीं करते, इसलिए इन्हें संयत अथवा संयतासंयत कहना यथार्थ वचन नहीं है। असंयत कहना निष्ठुर वचन है। एक नए शब्द की रचना की गई—देव नोसंयत हैं। यह प्रयोग यथार्थ से परे भी नहीं है और निष्ठुर भी नहीं है।
देवभासा-पदं
देवभाषा-पदं
देवभाषा-पद ९३. देवा णं भंते ! कयराए भासाए भासंति? देवा: भदन्त ! कतरस्यां भाषायां भाषन्ते? ९३.'भन्ते ! देव किस भाषा में बोलते हैं? बोली जाती कयरा व भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति? कतरा च भाषा भाष्यमाणा विशिष्यते? हुई कौन-सी भाषा विशिष्ट होती है?
गोयमा ! देवा णं अद्धमागहाए भासाए गौतम ! देवा: अर्धमागध्यां भाषायां भाषन्ते। भासंति। सा वि य णं अद्धमागहा भासा सापि च अर्धमागधी भाषा भाष्यमाणा भासिज्जमाणी विसिस्सति।
विशिष्यते।
गौतम ! देव अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं और वह अर्धमागधी भाषा बोली जाती हुई विशिष्ट होती है।
भाष्य १. सूत्र ९३
हैं—प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश। वृत्तिकार भगवान महावीर अर्धमागधी भाषा में प्रवचन करते थे। तीर्थंकर के अनुसार जिस भाषा में प्राकत और मागधी दोनों के लक्षण मिलते हैं वह के चौतीस अतिशयों में कहा गया है-भगवान् अर्धमागधी भाषा में धर्म अर्धमागधी है। का आख्यान करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में देवों की भाषा को अर्धमागधी भाषा अर्धमागधी भाषा भाष्यमाण अवस्था में विशिष्ट होती है। वृत्ति में कहा है। वैदिक साहित्य में 'संस्कृत' को देवभाषा कहा गया है। इसका इसका स्पष्ट अर्थ उपलब्ध नहीं है। विशेषता का एक हेतु यह हो सकता है तात्पर्य यह होता है कि जिस परम्परा में जिस भाषा को महत्त्व दिया गया है, कि यह तीर्थंकर की भाषा है। तीर्थंकर की भाषा में अनेक भाषाओं में परिणमन उसी भाषा को देवभाषा कहा गया है। वृत्तिकार ने भाषा के छ: प्रकार बतलाए होने की क्षमता होती है। इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर की भाषा श्रोताओं
१. ओवा. सू.७१-अद्धमागहाए भासाए भासइ-अरिहा धम्म परिकहेड़ा २. सम. ३४/११ ३. भ.वृ. ५/९३----'अद्धमागह' त्ति भाषा किल षड्विधा भवति, यदाह
"प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषा च सौरेसेनी च।
षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः॥" ४. वही, ५/९३-तत्र मागधभाषालक्षणं किञ्चित्किञ्चिच्च प्राकृतभाषालक्षणं यस्यामस्ति सार्द्ध मागध्या इति व्युत्पत्त्याऽर्द्धमागधीति।
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